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अग्र े च सर्व्वशास्त्रसमन्वयेन (भा० २।५।१५–१६) -
(४२) “नारायणपरा वेदाः” इत्यादि ।
पावन कारिणी श्रीहरि कथा का श्रवण करता है। वही मस्तक धन्य है, जो मस्तक श्रीभगवद् विग्रह एवं श्रीभगवद् भक्त को प्रणाम करता है, वही नयन धन्य है, जो श्रीभगवद् विग्रह एवं श्रीभगवद् भक्त का दर्शन करता है, नाभि के उद्धर्ध्वस्थित अङ्ग समूह धन्य हैं, जिस अङ्गो के द्वारा श्रीविष्णु एवं भक्त वृन्द के पादोदक नित्य धारण होता है । श्रीशौनक ने व्यतिरेक मुख से जिस का प्रतिपादन किया है, परीक्षित् महाराज ने उसका स्थापन अन्वयमुख से करेंगे ॥
इस हेतु श्रीशुकदेव की कथा के प्रारम्भ के अध्याय त्रय में अभिधेय रूप में भक्ति का वर्णन ही हुआ है ।
भावार्थ दीपिका नामक श्री स्वामि कृत टीका के २।१।१, २ २ १, २।३।१ में वर्णित हैं- प्रथम अध्याय में श्रवण कीर्त्तनादि के द्वारा श्रीभगवान् के विराट् रूप की धारणा की रीति वर्णित है । द्वितीय अध्याय में विराट धारणा से संयत मन को सर्व साक्षी सर्वेश्वर श्रीविष्णु में स्थापन करने की प्रक्रिया उक्त है । तृतीय अध्याय में - विष्णु भक्ति का वैशिष्ट्य श्रवणकारी श्रीशौनक का भगवद् भक्ति का उद्रेक वशतः श्रीहरि लीला श्रवण में अतिशय अदर वर्णित है ।
PS
श्रीसूत को श्री शौनक कहे थे ॥४०॥
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भा० २।५।६ के श्रीब्रह्म नारद संवाद में भी भक्ति का अभिधेयत्व प्रति पादित हुआ है-
(४१) “सम्यक् कारुणिकस्येदं वत्स ते विचिकित्सितम् ।
यदहं चोदितः सौम्य भगवद्वीर्य्य दर्शने ॥ ६३ ॥
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टीका - “प्रश्नमभिनन्दति । हे वत्स ! हे पुत्र ! तवेदं विचिकित्सितं सन्देहः, तत् पूर्वक प्रश्नोऽयं सम्यगित्यर्थः । यतः कारुणिकस्य तवायं प्रश्नः । अत्र हेतुः । यद् यतः, परम धर्म प्रदर्शने - भगवद्वीर्य प्रकाशेन प्रवत्तितोऽस्मि । अतस्त्वं जिज्ञासुरपि मयि कृपामेव कृतवानित्यर्थः ॥
हे वत्स ! तुम्हारा यह सन्देह - अर्थात् सन्देह पूर्वक यह प्रश्न सम्यक् है, अर्थात् अति सुन्दर है । मेरे प्रति करुणा करके ही तुमने यह प्रश्न किया । कारण, तुम्हारे प्रश्न से ही मैं श्रीभगवान् के प्रभावमय चरित्र वर्णन में प्रवृत्त हुआ हूँ । अतएव जिज्ञासु होकर भी तुमने मेरे प्रति कृपा की है, यदि तुम इस प्रकार प्रश्न न करते तो मैं श्रीहरि कथा का वर्णन करने में प्रवृत्त नहीं होता, श्रीहरि कथा वर्णन से ही आत्मा कृतार्थ होता है ॥४१॥
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अग्रिमग्रन्थ भा० २।५।१५-१६ में सर्वशास्त्र समन्वय के द्वारा भक्ति का अभिधेयत्व प्रकाशित
हुआ है-
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६० ] श्रीनारायण एवोपास्यत्वेन परस्तात्पर्य्य विषयो येषां ते वेदाः । नन्वन्येऽपि देवास्तत्रोपास्यत्वेना भिधीयन्ते ? सत्यम्, तेऽपि नारायणाङ्ग-प्रभवत्वेनैव तथा वर्ण्यन्त इत्यर्थः । येऽपि तदाश्रया लोकास्तेऽपि तत्पदप्रातिहेतवः, मखाश्च तत्परा एव तदानन्दांशाभासरूपत्वात्तत्- साधनत्वाच्चेति भावः । तथा योगोऽष्टाङ्गः सांख्यञ्च तत्साध्यं तप श्वित्तैकाग्रयम्, तत्साध्यं ब्रह्मज्ञानञ्च तत्परम्, तदीय-सामान्याकारप्रकाशकत्वात्तज्ज्ञानस्य योगतपसोस्तत्साधन- त्वाच्चेति भावः । किं बहुना, गतिस्तत्प्राप्यं ब्रह्मापि तत्परा, – तत्सामान्याकारप्रकाशत्वेन
" नारायण परा वेदा देवा नारायणाङ्गजाः । नारायण परा लोका नारायण परामखाः ॥ नारायण परो योगो नारायण परं तपः ॥
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नारायण परं ज्ञानं नारायणपरा गतिः ॥”
टीका- “तत् प्रपञ्चयति द्वाभ्याम् । नारायणं परं कारणं येषां ते । अनेन शास्त्रयोनित्व प्रतिपादनेनेश्वरे प्रमाणं सर्वज्ञत्वादिकञ्चोक्तम्, देवाश्च तदङ्गाज्जाताः, अतो न तद्व्यतिरिक्तः, लोकाः- स्वर्गादयाः, तदानन्दांशा मखा स्तत् साधनभूताः । योगः, प्राणायामादिः, तपः, तत् साध्यं चित्तैकाग्रंथ । ज्ञानं तत् साध्यं । गतिः, तत् फलम्, अनेनैतत् सर्वं तदधीनमित्युक्तम् ॥”
THE निखिल वेदों का उपास्यरूप में श्रेष्ठ तात्पर्य का विषय श्रीनारायण हैं । अर्थात् निखिल वेद की प्रवृत्ति, श्रीनारायण को परम उपास्य रूप में प्रतिपादन करने के निमित्त हुई है। इस में संशय हो सकता ‘देवाः है कि - वेद में अन्यान्य देवता भी उपास्य रूप में वर्णित हुए हैं ? सत्य है, तथापि उक्त देवता समूह नारायणाङ्गजाः ’ श्रीनारायण के अङ्ग से समुत्पन्न हुए हैं, अतएव वेद में उन सब का वर्णन उपास्य रूप
में
हुआ है । “नारायण परालोकाः” स्वर्गादि लोक भी श्रीनारायण के आनन्दांश के आभास रूप हैं, अतः स्वर्गादि लोक का वर्णन फल रूप में वेद में हुआ है । वस्तुतः सत्य आनन्द वस्तु श्रीनारायण हैं, उस आनन्द की प्रतिच्छाया विश्व में है। श्रीनारायण विभु हैं, अर्थात् व्यापक आनन्द स्वरूप हैं, मायामय विश्व परिच्छिन्न है, अर्थात् ससीम दर्पण स्वरूप है । सुतरां उस में सम्पूर्ण असीम आनन्द का प्रतिविम्व पड़ना असम्भव है, इस अभिप्राय से हो असीम आनन्द का अंश का आभास स्वरूप होने के कारण, स्वर्ग को साध्य रूप में उल्लेख किया गया है। यज्ञ समूह श्रीनारायण पर हैं, कारण, यज्ञ द्वारा यज्ञेश्वर श्रीनारायण उपासित होते हैं. इस अभिप्राय से ही यज्ञ समूह को श्रीनारायण पर कहा गया है । अष्टाङ्ग योग भी श्री- नारायण पर है, कारण, अष्टाङ्ग योग का फल सांख्य, अर्थात् आत्म-अनात्म विवेक भी श्रीनारायण को लक्ष्य कर प्रवृत्त हुआ है। तपः एवं उस का साध्य - चित्त की एकाग्रता भी भगवदुद्देश्य में प्रवृत्त है । ब्रह्म ज्ञान भो श्रीनारायण पर है, कारण, ब्रह्माण्ड - श्रीनारायण की सामान्याकार अभिव्यक्ति है । अर्थात् चिन्मात्र सत्तारूप में अभिव्यक्ति है । ज्ञान, योग एवं तपस्या में भगवत् साधन का कुछ सहायकारित्व होने के कारण, ज्ञान, योग, तपस्या को श्रीनारायण पर कहा गया है। अधिक कहने की आवश्यकता ही क्या है ? पूर्वोक्त साधन समूह की गति अर्थात् उक्त साधन समूह का प्राप्य ब्रह्म भी श्रीनारायण पर हैं । कारण श्रीनारायण का ही सामान्याकार प्रकाश को ही ब्रह्म कहते हैं, अतः नारायण का अधीन ही ब्रह्म प्रकाश है, अर्थात् निर्विशेष ब्रह्म स्वरूप का आविर्भाव भी श्रीभगवत् कृपाधीन है। श्रीनारायण की कृपा व्यतीत स्वतन्त्ररूप से निर्विशेष ब्रह्म स्वरूपाविर्भाव की क्षमता नहीं है । कारण, परतत्त्व वस्तु, अन्य निरपेक्ष स्वप्रकाश है, किसी प्रकार साधनादि द्वारा साध्य अथवा वेद्य नहीं है ।
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श्री भक्ति सन्दर्भः
तदधीनाविर्भावत्वात् । तदुक्तं श्रीमत्स्यदेवेन सत्यव्रतं प्रति (भा० ८।२४१३८) -
“मदीयं महिमानञ्च परब्रह्म ेति शब्दितम् ।
वेत्स्यस्यनुगृहीतं मे संप्रश्नविवृतं हृदि ॥” ६४ ॥ इति ।
श्रीब्रह्मा श्रीनारदम् ॥