३८

०६८ ३८

(भा० २।३।२२)–

(३८) “वर्हायिते ते नयने नराणां, लिङ्गानि विष्णोर्न निरीक्षतो ये

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पादौ नृणां तौ द्रुमजन्मभाजो, क्षेत्राणि नानुव्रजतो हरे यौं ।” ५७॥

द्रुमवज्जन्म भजेते इति तथा वृक्षमूलतुल्यावित्यर्थः ॥

०६९ ३८

(भा० २।३।२३) - 311901-

10 (३६) " जीवञ्छवो भागवता‌ङ्घ्रिरेणु, न जातु मर्योऽभिलभेत यस्तु ।

श्रीविष्णुपद्या मनुजस्तुलस्याः, श्वसञ्छवो यस्तु न वेद गन्धम् ॥ “५८ ॥ श्रीविष्णुपद्यास्तत्पदलग्नायाः ॥

[[५७]]

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शावौ करौ नो कुरुतः सपर्थ्यां, हरेर्लसत्काञ्चनकङ्कणौ वा । ५६ । टीका-पट्ट वस्त्रोष्णोषेण किरीटेन च जुष्टमपि शिरो यदि न नमेत् तर्हि केवलं भार एव 1 शबो मृत स्तत् कर तुल्यौ, लसन्ति काञ्चन कङ्कणानि ययौस्तौ । अध्यर्थे वा शब्दः ॥२१॥

जिस मनुष्य के मस्तक श्रीमुकुन्द को प्रणाम नहीं करता है । वह यदि पट्टवस्त्र एवं स्वर्ण खचित मणि माणिक्य जटित किरीट द्वारा शोभित भी होता है, तथापि वह केवल भार मात्र ही होता है, मानव के जो हस्तद्वय, श्रीहरि के सेवाकार्य नहीं करते हैं, वे समुज्ज्वल काञ्चन निर्मित कङ्कण शोभित होने से भी

मृत व्यक्ति के हस्त के सदृश ही हैं। पट्टवस्त्रोष्णीषेण - पट्ट वस्त्र रचित उष्णीष द्वारा विभूषित होने पर

अथवा किरीट द्वारा सुशोभित होने पर भी वह भार स्वरूप ही है । इलोकस्य लसत् ‘काञ्चन कङ्कणौ वा’ यहाँ का ‘वा’ शब्द का प्रयोग अपि’ अर्थ में हुआ है ॥३७॥

०७० ३८

(भा० २।३।२३) (३८) “व्हयिते ते नयने नराणां, लिङ्गानि विष्णो र्न निरीक्षतो ये ।

पादौ नृणां तौ द्र मजन्म भाजौ, क्षेत्राणि नानुव्रजतो हरेयौ ॥५७॥ टीका- ये नयने विष्णो मूतिर्न निरीक्षेते, ते वर्णाचिते, मयूर पुच्छ नेत्र तुल्ये । द्रुमवज्जन्म भजेते इति तथा, वृक्षमूलतुल्यावित्यर्थः ॥२२॥

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जिस मानव के नयन युगल बोविष्णु विग्रह का दर्शन नहीं करते हैं, वे नेत्रद्वय मयूर पुच्छस्थित नेत्र तुल्य हैं। वृथा हैं । अर्थात् मयूर पुच्छ में नेत्र की अकृति है, किन्तु उस में दर्शन योग्यता नहीं है । जो नेत्र दशनीयतम श्रीविग्रह का दर्शन नहीं करता है, उस को वैसा ही जानना होगा । एवं जिस मानव के चरणद्वय श्रीहरिक्षेत्र में गमन नहीं करते हैं, उन दोनों को वृक्षमूल तुल्य जानना होगा । वृक्ष के समान जन्म लाभ किये हैं, अर्थात् वृक्ष मूल जिस प्रकार कहीं पर नहीं जाता है, उस प्रकार ही चरण द्वय को जानना होगा ॥३८॥