३७

०६५ ३७

( भा० २।३।२१) –

(३७) “भारः परं पट्टकिरीटजुष्ट, मप्युत्तमाङ्गं न नमेन्मुकुन्दम् ।

(३५) (भा० २।३।१८)

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श्वविड् वराहोष्ट्रखरः संस्तुतः पुरुषः पशुः ।

न यत्-कर्णपथोपेतो जातु नाम गदाग्रजः ॥ ५४ ॥

टोका - तदेवाह । श्वादिभिः संस्तुतः सदृशत्वेन निरूपितः । यस्य कर्ण पथं कदाचिदपि नागतः सः । अवज्ञास्पदत्वात् श्वभिः, कश्मल विषया सत्तत्वात् विवराहै ग्रमि शूष. रैः, षटक्वद् दुःखद विषया- सतत्वादुष्ट्र, भारवाहित्वात् खरैस्तुल्य इत्यर्थः ।

वे सब नराकृति पशु ही हैं, जिनके कर्ण पथ में कभी भी गदाग्रज श्रीभगवान् नाम प्रविष्ट नहीं हुआ है, वे सब पुरुष कुक्कुर, विष्ठाभोजी वराह एवं कण्टक भोगी उष्ट तुल्य पुरुष गण कर्त्तृक संस्तुत होने पर भी पशु तुल्य ही होते हैं

कुकुरादि तुल्य उनके परिकर कर्तृक सम्यक् स्तुत होने पर भी जो लोक भगवद् वहिर्मुख जन का स्तव करते हैं, वे सब तो पशु हैं हो, किन्तु जिस की स्तुति करते हैं, वह तो महापशु है । उस विषय में में कोई सन्देह नहीं हैं।

०६६ ३६

उक्त भगवद् वहिर्मुख व्यक्ति के समस्त अङ्ग प्रत्यङ्गः निष्फल हैं, उसका वर्णन पाँच इलोक के द्वारा करते हैं । ( भा० २।३।२०)

(३६) " विलेवतोरुक्रमविक्रमान् ये, न शृण्वतः कर्णपुटे नरस्य ।

जिह्वासती दादुरिकेव सूत, न चोपगायत्युरुगाय गाथाः ॥५५॥

टोका - " तस्याङ्गानि च निष्फलानीत्याह- ‘विले’ इति पञ्चभिः । ‘वत’ इति खेदे । न श्रृण्वतः- अशृण्वतः, नरस्य ये कर्णपुटे ते बिले वृथा रन्ध्र े । न चेदुपगायति, तस्य जिह्वा असतो दुष्टा, दर्दुरी भेकः, तदोया जिह्वदेव ॥

जिस मानव के कर्णरूप पात्र, उरुक्रम श्रीभगवान् की गुणगाथा का श्रवण नहीं करता है, उस के उस कर्ण द्वय को वृथागर्त्त समझना होगा । हे सूत ! जो जिह्वा, श्रीभगवान् की गुणगाथा का कीर्तन नहीं करती है, उस जिह्वा को दुष्टा भेक जिह्वा मानना चाहिये । ए

“न शृण्वतः " अश्रवण कारी मानव के जो कर्णपात्र है, वह विल स्वरूप है, अर्थात् वृषारन्ध्र है, असती-दुष्टा अर्थात् व्यभिचारिणी ॥३६॥

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०६७ ३७

(भा० २०३।२१) “भारः परं पट्टकिरीटजुष्टमप्युत्तमाङ्गं न नमेन्मुकुन्दम् ।

श्री भक्तिसन्दर्भः

॥५६॥

शावौ करौ नो कुरुतः सपर्धां हरेर्लसत्काञ्चनकङ्कणौ वा ॥ ५६ ॥ पट्टवस्त्रोष्णीषेण किरीटेन वा जुष्टमपि, अप्यर्थे वा शब्दः ॥