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तदेवाह ( भा० २।३।१७) -

(३३) “आयुर्हरति वै पुंसामुद्यन्नस्तञ्च यन्नसौ ।

तस्यर्त्ते यत् क्षणोनीत उत्तम श्लोक वार्त्तया ॥ ५२॥

टीका - किञ्च वृथैव क्षीणमायुः, हरि कथया सफलं कुव्वित्याशयेनाह त्रिभिः, आयुरिति । असौ सूर्य्यः, उद्य-उदगच्छन्, अस्तमदर्शनञ्च यत्–गच्छन्, यत् येन, क्षणो नीतः, तस्य आयु ऋते–वर्जयित्वा वृथैव हरति ॥ "

सूर्य्य एवं अस्तमित होकर पुरुषसमूह की अर्थात् जीव मात्र की आयुः का हरण करते रहते हैं, केवल मात्र जो उत्तम श्लोक श्रीकृष्ण की कथा द्वारा क्षण काल भी अति वाहित करते हैं, उनकी आयुः का हरण नहीं करते हैं ।

यह दृश्यमान् सूर्य्य, उदित होकर एवं अस्तमित होकर देहाभिमानी जीव समूह की आयुः हरण करते रहते हैं, कारण, उनके वह समय अतिब हित हो रहा है, अतः बल पूर्वक अपहरण करते रहते हैं । जो मानव, क्षणकाल भी उत्तम श्लोक कृष्ण के प्रसङ्ग में समय अति वाहित करते हैं, उनकी आयुः को छोड़कर सब की अ युः को अपहरण करते हैं । कारण, उक्त श्रीहरि कथा प्रसङ्ग के द्वारा उस के समस्त

साफल्य विहित होते हैं ॥३३॥

०६३ ३४

कह सकते हैं कि–जीवित रहना ही उन सब को आयुः प्राप्त करने का एकमात्र फल क्यों नहीं होगा ? उत्तर में कहते हैं । भा० २।३।१८ ।

(३४)

“तरवः किं न जीवन्ति भस्त्राः किं न श्वसन्तुयत ।

न खादन्ति न मेहन्ति किं ग्रामे पशवोऽपरे ॥ " ५३॥

तत्राह-तरव

टीका- ननु जीवनमेव तेषामायुषः फलमस्तु ? तत्राह -तरव इति । ननु तेषां श्वासो नास्ति ? तह भस्त्राश्वर्म्म कोषाः । ननु तेषां आहारादिकं नास्ति ? तत्राह - नखादन्ति नाश्नन्ति, न मेहन्ति रेतः सेकं न कुर्वन्ति किम् ? उत अपि नराकारं पशु मत्वाह–अपर इति ॥”

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वृक्ष समूह क्या जीवित नहीं हैं ? कह सकते कि जीवित हैं, किन्तु श्वास प्रश्वास त्याग करने में सक्षम नहीं है। उत्तर में कहते हैं- ‘कर्म्मकार के भस्त्रादि वायु ग्रहण एवं त्याग क्या नहीं करते रहते हैं ? यदि कोई कहै कि वे सब वायु ग्रहण एवं त्याग करते रहते हैं, ठीक है, किन्तु भोजन एवं मैथुन कर्म तो नहीं करते हैं, उत्तर में कहते हैं-ग्राम्य अपर पशु समूह क्या भोजन एवं मैथुन नहीं करते हैं ?

“न मेहन्ति” क्या मैथुन नहीं करते हैं ? अतएव भगवद् भक्ति हीन जन को नराकृति पशुमानकर अपर श्लोक की अवतारणा करते हैं ॥३४॥

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(३५) “श्वविड़ वराहोष्ट्रखरैः संस्तुतः पुरुषः पशुः ।

न यत्-कर्णपथोपेतो जातु नाम गदाग्रजः ॥ ” ५४॥

श्वादितुल्यैस्तत्परिकरैः सम्यक्स्तुतोऽप्यसौ पुरुषः पशुः । तेषामेव मध्ये श्रेष्ठश्चेतहि महापशुरेवेत्यर्थः ॥