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अनन्तरं श्रीशौनकेनापि व्यतिरेकोक्त्या तस्यैवाभिधेयत्वं दृढ़ीकृतम्, यथाह

(भा० २।३।१७) -

(३३) “आयुर्हरति वै पुंसामुद्यन्नस्तञ्च यह सौ ।

तस्यर्ते यत्क्षणो नीत उत्तमश्लोकवार्त्तया । " ५२ ॥

से वञ्चित है - समझना होगा। स्वामिकृत टीका का तात्पर्य यह है-

(FF)

पूर्व वर्णित नानादेवता उपासना का भी ‘संयोग पृथकत्व ’ न्याय से भक्ति योग प्राप्ति ही परम फल है उसका वर्णन “एतावान्” श्लोक के द्वारा करते हैं, देवतागण भगवद् भक्त होते हैं, अतः इन्द्रादि देवता गण की उपासना जो लोक करते हैं, उपास्य देवतागण भगवद् भक्त होने के कारण, उनके सङ्ग से उपासक में भगवान् के चरणारविन्द में अचला भक्ति का उदय होता है। यह ही निः श्रेयस् है, अर्थात् परम पुरुषार्थ की प्राप्ति है, एतद्वयतीत अन्य फल समूह तुच्छ फल में परिणत होते हैं ।

। ।

स्वामिपाद कृत टीका में उक्त फल बोधन हेतु ‘संयोग पृथकत्व’ न्याय का उल्लेख हुआ है, उस की अवतारणा इस प्रकार होती है “एकस्य कर्मणो नित्यत्व काम्यत्वाभ्यां द्वैरूप्याङ्गीकारे नित्यानित्य संयोग विरोधः । मैवं संयोग पृथकत्व न्यायात् । यथा-खादिरे पशु बध्नाति, खादिरं वीर्य्यं कामस्य यूपं कुर्वीत इति श्रूयते । अत्र संशयः । किं काम्यस्यैव ख. दिरता नित्येऽपि स्यादुत नेति । तत्र फलार्थत्वेनानित्यतया नित्य प्रयोगाङ्गता न युक्ता । यत्तु नित्येऽपि खादिरत्व श्रवणं तत् काम्यस्यैव पशुबन्धनाय यूपाश्रयज्ञापनार्थं अतो न नित्यखादिरता इति प्राप्ते वदति । एकस्य तुभयत्वे संयोग पृथक्त्वमिति । अत्र संयोगः सम्बन्धमात्रं पृथक् त्वं भेदः । एकस्य खादिरस्य क्रत्वर्थत्व पुरुषार्थत्व रूपोभयात्मकत्वे वाक्य द्वयेन च क्रतुशेषत्व फल शेषत्व लक्षण संयोग भेदावगमान्न नित्यानित्यसंयोग विरोधः न चाश्रय ज्ञानार्थं नित्य वाक्यं सन्निधाना– देवाश्रयलाभात् । अत उभयार्था खादिरतेति एवं दध्नाजुहोति दध्नेन्द्रियकामस्य इत्यादावुभयार्थतैव, दधित्वस्य द्वेधा श्रवणात् ॥

“इन्द्रमिन्द्रिय कामस्तु” इत्याद्य क्तमिन्द्रियपाटवादिकं ।

पृथक्त्वेन फलम् भागवतेन संयोगे तु भावः फलम् ॥” खादिरयूप संयोगे यागस्य फलवैशिष्टयवदितिज्ञेयम् ॥

इन्द्रिय लाभेच्छ व्यक्ति, इन्द्र की उपासना करे । इस प्रकार कहा गया है । पृथक बुद्धि से उपासनह करने पर इन्द्रिय पटुतारूप फल लाभ होगा । भगवद् भक्त सङ्ग से किन्तु श्रीभगवान् में भक्ति का लाभ होगा, जिस प्रकार अन्य काष्ठ द्वारा यूप निर्माण से जो फललाभ होगा । खदिर काष्ठ द्वारा यूप निर्माण पूर्वक यज्ञ करने से विशेष फल होता है, यहाँपर भी उस प्रकार ही जानना होगा।

श्रीप्रवक्ता - श्रीशुक हैं ॥३२॥

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अनन्तर श्रीशौनक ने भी व्यतिरेक मुख से उक्त भक्ति योग का ही अभिधेयत्व अर्थात् अवश्य

कर्त्तव्यत्व का वर्णन दृढ़ रूप से किया है । (भा० २।३।७)

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असौ सूर्य्यः, उद्यन् उद्गच्छन् अस्तञ्च यन् गच्छन् हरति वृथागामित्वाद्बलादाच्छिनत्तीव । यद् येन क्षणोऽपि नीत उत्तमश्लोकवार्त्तया, तस्य आयुॠ ते वर्ज्जयित्वा - तावतैव सर्व्व- साफल्यादिति भावः ॥