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एवं प्राक्तनाध्यायाभ्यां कर्म्म-योग-ज्ञानेभ्यः श्रेष्ठत्वमुक्त्वा तदुत्तराध्यायेऽपि सर्व्व-

“यच्छ्रोतव्यमथो जप्यं यत् कर्त्तव्यं नृभिः प्रभोः ।

स्मर्त्तव्यं भजनीयं वा ब्रूहि यद्वा विपर्य्ययम् ॥

टीका - यच्छ्रोतव्यं, यज्जप्यं यत् कर्त्तव्यं, यत् स्मर्त्तव्यं, यदाराध्यं तद् ब्रूहि, - विपर्ययम् - अश्रोतव्यादि । श्रोतव्य, जप्य, कर्त्तव्य, स्मरणीय, आराधनीय वस्तु का वर्णन करें। मनुष्य मात्र के पक्ष में जो हित कर हो ? परीक्षित महाराज के इस प्रकार प्रश्न के उत्तर प्रदान छल से उपसंहार करते हुये शुकदेव कहते हैं-

(३०) “तस्मात् सर्वात्मना राजन् हरिः सर्वत्र सर्वदा ।

श्रोतव्यः कीर्त्तितव्यश्च स्मर्त्तव्यो भगवान् नृणाम् ॥” ५७॥

टीका–‘यच्छ्रोतव्यमित्यादि प्रश्नस्य उत्तरमुपसंहरति । तस्मादिति ।’

हे राजन् ! जब श्रीभगवच्चरणारविन्दों में भक्ति ही एकमात्र निखिल कर्त्तव्यों का सार है, तब समस्त इन्द्रियों के द्वारा सर्वदा एवं सर्वत्र भगवान् श्रीहरि, मानव मात्रके पक्ष में अवश्य श्रोतव्य, कीर्तितव्य एवं स्मर्त्तव्य हैं । श्लोकोक्त ‘कीर्तितव्यश्च’ ‘च’ कार के द्वारा पाद सेवन, अर्चन, प्रभृति भक्तचङ्ग का कथन हुआ है । अनन्तर श्रवणादि का कल रूप में उन्होंने भा० २२१३७ में जो कहा है वह यह है- “पिवन्ति यं भगवत आत्मनः सतां कथामृतं श्रवण पुटेषु संभृतम् ।

पुनन्ति ते विषयविदूषिताशयं व्रजन्ति तच्चरण सरोरुहान्तिकम् ॥ ४८ ॥

टीका-श्रवणादि फलमभिनयेनाह– पिबन्तीति । सतम्म्, आत्मनः, आत्मत्वेन प्रकाशमानस्य । कथैव अमृतम् । विषयै विदूषितं - मलिनो कृतंमाशयं पुनन्ति शोधयन्ति । तस्य चरणपद्मान्तिकं श्रीविष्णुपदं व्रजन्ति ॥३७॥

साधुवृन्द के मुख से क्षरित, श्रवण रूप पात्र में धृत, साधुवृन्द के अतिशय अन्तरङ्ग आत्मीयरूप में प्रकाशमान श्रीभगवान् के कथामृत का पान जो लोक करते रहते हैं। वे सब निज चित्त को शोधित करते हैं, एवं श्रीभगवान् के सामीप्य को प्राप्त करते हैं, अर्थात् विष्णु पद गमन करते हैं । उक्त श्लोक में ‘पुनन्ति’ पद का प्रयोग है, उसका अर्थ है– विषय वासना से मलिन चित्त का शोधन करते हैं । इस प्रकार उल्लेख होने के कारण, - पूर्व वर्णित विराट् धारणा मार्ग का परिहार हुआ। कारण, भक्तियोग स्वाभाविक ही परम पवित्र कारी है, अतएव चित्त शुद्धि के निमित्त स्वतन्त्र किसी अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं है ।

प्रवक्ता श्रीशुक हैं ॥३०॥

[[५२]] देवतोपासनेभ्यः श्रेष्ठत्वप्रवचनेन भगवद्भक्तियोगस्यैवाभिधेयत्वमाह (भा० २३ २) - ब्रह्मवर्चस- कामस्तु यजेत ब्रह्मणः पतिम्” इत्याद्यनन्तरम् (भा० २।३।१० ) -

(३१) “अकामः सर्व्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः ।

तीव्र ेण भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम् ॥ ४८ ॥

टोका च - " अकाम एकान्तभक्तः, उक्तानुक्त- सर्वकामो वा, पुरुषं पूर्णं परं निरुपाधिम् " इत्येषा । तीव्रेण दृढ़ ेन स्वभावत एवानुपघात्येन, इति विघ्नानवकाशतोक्ता । कामना तु यादृच्छिकेनापि स्यात्, यथोक्तं भारते-

“भक्तक्षणः क्षणो विष्णोः स्मृतिः सेवा स्ववेश्मनि । स्वभोज्यस्यार्पणं दानं फलमिन्द्रादि- दुर्लभम् ॥५०॥ इति

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उक्त रोति से पूर्वोक्त अध्यायद्वय के द्वारा कर्म, योग, ज्ञान से भक्ति योग का श्रेषुत्व वर्णन करके तत् परवर्ती अध्याय में अर्थात् तृतीय अध्याय में सर्वदेवतोपासना से भक्ति योग का श्रेष्ठत्व वर्णन द्वारा भक्ति योग का ही अभिधेयत्व अर्थात् अवश्य कर्त्तव्यत्व प्रतिपादित हुआ है । भा० २।३।२ में उक्त है–

" ब्रह्मवच्चसकामस्तु यजेत ब्रह्मणः पतिम् । इन्द्रमिन्द्रिय कामस्तु प्रजाकामः प्रजापतीन् ॥”

टीका —ब्रह्मणः पति, वेदपति, ब्रह्माणम् । इन्द्रियपाटव कामस्तु इन्द्रम् । प्रजाकामः –प्रजापतीन्, दक्षादीन् ॥”

जो ब्राह्मणोचित तेज लाभेच्छु हैं, उनको वेद पति ब्रह्मा की उपासना करनी चाहिये । इन्द्रिय कामना के निमित्त इन्द्र की उपासना करे । प्रजा की कामना हो, ती दक्षाद प्रजापति की उपासना करे । इस प्रक. र विभिन्न वासना पूर्ति के निमित्त विभिन्न देवता की उपासना का वर्णन करके भा० २।३।१० में श्रीभगवद् भक्ति की ही अवश्य कर्त्तव्यता का निर्णय करते हैं -

(३१) “अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः ।

तीव्र ेण भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम् ॥४६॥

टीका - अकामः– एकान्त भक्तः । उक्तानुक्त सर्वकामो वा पुरुषं पूर्णं परं निरुपाधिम् ॥”

अकाम, सर्वक्राम, अथवा मोक्षकाम व्यक्ति, यदि उदार बुद्धि, अर्थात् सुबुद्धि युक्त हो, तो तीव्र भक्ति योग के द्वारा परम पुरुष श्रीहरि का ही उपासना करे ।

अकाम शब्द का अर्थ - एकान्त भक्त है । सर्वकाम शब्द का अर्थ- जो सब कामना की बात कही गई हैं, एवं जिस कामना का उल्लेख नहीं हुआ है, उक्त समस्त कामना विशिष्ट मानव भी निरुपाधि पुरुष श्रीभगवान् की उपासना करे । श्लोक में ‘तीव्र’ण’ शब्द का प्रयोग है, उसका अर्थ– अति दृढ़ भक्ति योग है, अर्थात् जो भक्ति योग, विघ्न के द्वारा अभिभूत नहीं होता है, इस प्रकार भक्ति योग के द्वारा परम पुरुष की उपासना करे। उक्त भक्ति योग, विघ्न के द्वारा प्रतिहत न होने का कारण-भक्ति योग में, स्वभावतः ही विघ्न के द्वारा अभिभूत होने का अवसर है ही नहीं । कारण, श्रीभगवद् भक्ति आचरण के समान अपर सुख नहीं है, भक्ति–आचरण न करने के समान दुःख भी अपर नहीं है तज्जन्य, सुख एवं दुःख के द्वारा भक्ति बाधित नहीं होती है। कामना की पूति किन्तु अनायास एवं अननुसन्धान से ही होती है । महाभारत में कथित है ।

ந்

“भक्त क्षणः क्षणो विष्णोः स्मृतिः सेवा स्ववेश्मनि । स्व भोज्यस्यार्पणं दानं फलमिन्द्रादि दुर्लभम् ॥” ५०॥

[[५३]]

तदुक्तं श्रीकर्दमं प्रति (भा० ३।२१११४) – “न वै जातु मृषैव स्यात् प्रजाध्यक्ष मदर्हणम्” इति । यथा वा, यत्तत्कामस्तोत्रेणैव यजेत । ततश्च शुद्धभक्तिसम्पादनायैवान्ते पर्यवसिष्यत्य- सावित्यभिप्रायेण सविशेषणमुपदिष्टम् । तदनेनैकान्त-भक्तेषु मुमुक्षौ वा तद्भियोगस्यैवाभिधेयत्वं किं वक्तव्यम् अपि तु सव्र्व्वकामेष्वपीति तदेव सर्व्वथापि निर्णीतम् ॥

___३२ । किञ्च, (भा० २।३।११) –

(091519 )

(३२) “एतावानेव यजतामिह निःश्रेयसोदयः ।

भगवत्यचलो भावो यद्भागवत-सङ्गतः ॥ ५१ ॥ )

॥ " ॥

टीका च - " पूर्वोक्त-नानादेवतायजनस्यापि संयोशपृथक्त्वेन भक्तियोग फलत्वमाह– एतावानिति । इन्द्रादीनपि यजतामिह तत्तद्यजने भागवतानां सङ्गतौ भगवत्यचलो भावो

जो समय भक्त का है, वही समय श्रीकृष्ण का है, निज गृह में श्रीविष्णु का स्मरण ही सेवा है । निज भोग्य वस्तु का अर्पण विष्णु को करना ही दान है । अथच उस प्रकार आचरण के द्वारा इन्द्रादि दुर्लभ फल लाभ स्वतः ही होता है । भा० ३।२१।२४ में श्रीकर्दम के प्रति श्रीभगवान् बोले थे–

“न वै जातु मृषैत्र स्यात् प्रजाध्यक्ष मदर्हणम् । भवद्विधैष्वति तरां मयि संगृभितात्मनाम् ॥”

टीका - मयि संगृभीतः— संगृहीत, एकाग्रीकृतः आत्मा चित्तं यैः, तेषां यन्मदर्हणं तादृशेषु अतितरां सर्वथा मृषा निष्फलं न स्यात् ॥

प्रजाधक्ष ! जो लोक एकाग्रचित्त से मेरी पूजा करते हैं, उन के द्वारा अनुष्ठित पूजन कार्य्यं सर्वथा निष्फलं नहीं होता है । अथवा श्लोकोक्त अकामः सर्वकामो वा” का अर्थ है- निखिल कामना विशिष्ट हो तो भी तीव्र भक्तियोग के द्वारा परम पुरुष श्रीभगवान् की हो उपासना करे । अतएव कामना संक्रान्त चित्त से श्रीहरि भक्ति करने पर उक्त कामना, फल भोग के अनन्तर विशुद्ध भक्ति में पर्य्यवसित होती है । इस अभिप्राय से ही श्लोक में भक्ति योग का विशेषण रूप में ‘तीव्र’ शब्द का प्रयोग हुआ है । इस से निर्णीत हुआ कि – एकान्त भक्त, एवं मुमुक्ष में उक्त भक्ति योग का ही एकान्त अभिधेयत्व है, अर्थात् एकान्त कर्त्तव्यत्व है, इस विषय में अधिक कहना हो क्या है ? कारण, सर्व कामनायुक्त व्यक्ति के पक्ष में भी तीव्र भाव से

भगवद् भक्ति की सर्वथा कर्त्तव्यता निर्णीत हुई है ॥ ३१ ॥