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०५२ २६

स हि भक्तियोगः सर्व्ववेदसिद्ध इत्याह (भा० २१२१३४)-

(२८) “भगवान् ब्रह्म का स्न्येन त्रिरन्वीक्ष्य मनीषया ।

तदध्यवस्यत् कूटग्थो रतिरात्मन् यतो भवेत् ॥ " ४५॥

भगवान् ब्रह्मा, कूटस्थो निव्विकार एकाग्रचित्तः सन्नित्यर्थः । त्रिस्त्रीन् वारान् कार्त्स्न्येन साकल्येन, ब्रह्म वेदमन्वीक्ष्य विचार्य्यं । यत आत्मनि हरौ रतिर्भवेत्, तदेव भक्तियोगाख्यं वस्तु मनीषया अध्यवस्यत् निश्चितवान् । (विरन्वीक्ष्येति कर्म्म-ज्ञान- भक्ति प्रतिपादकतयाभि प्रेत्येति ज्ञेयम् ) । अत्राप्युपसंहारानुरोधेनात्म-शब्दस्य हरिवाचकता, निरुक्तश्च (तन्त्रे) -

उक्त श्लोकस्थ “भक्तियोगी यतो भवेत्” स्थित ‘यत्’ शब्द से भववत् सन्तोषार्थ कर्म गृहीत हुआ हैं, कारण, पहले “सबै पुंसां परोधर्मः” श्लोक में कहा गया है कि-भगवदपित कर्म से ही श्रीभगवद् भक्ति में रुचि का आविर्भाव होता है । इस प्रकार व्याख्या की गई है ॥ २८ ॥

०५३ २६

वह भक्ति योग सर्ववेद सिद्ध है । उसको कहते हैं । भा० २२३४

(६) “भगवान् ब्रह्म का स्त्येन त्रिरन्वीक्ष्य मनीषया ।

सदध्यवस्यत् कूटस्थो रतिरात्मन् यतो भवेत् ॥४५॥

टीका- कुतएतत् ? अत आह । भगवान् ब्रह्मा, कूटस्थः - निर्विकारः एकाग्रचित्तः सन्नित्यर्थः, त्रिः- त्रीन् वारान्, कात्स्न्र्त्स्न्येन साकल्येन, ब्रह्म - वेदम्, अन्वीक्ष्य- विचार्य्य, यतः आत्मनि हरौ, रतिर्भवेत्, तदेव मनीषया -अध्यवस्यत्, निश्चितवान् ॥”

भगवान् ब्रह्मा । कूटस्थ निर्विकार - अर्थात् एकाग्रचित्त होकर । त्रिः– तीनवार, कार्त्स्न्येन साकल्येन- अर्थात् समस्त वेद । ब्रह्म–वेद, अन्वीक्ष्य–विचार कर, जिस से आत्मा प्रिय स्वरूप- श्रीहरि में प्रीति का आविर्भाव होता है, उस भक्ति योग नामक वस्तु का निर्णय - स्वीय प्रज्ञाबल से किये थे । ‘त्रिरन्वीक्ष्य’ तीन वार पुङ्खानुपुङ्खरूप से विचार कर कहने का अभिप्राय यह है कि-कर्म-ज्ञान अथवा भक्ति प्रतिपादक वेद समूह हैं, इस प्रकार दृष्टि भङ्गी से विचार कर निश्चय किये थे–कि– वेद समूह–भक्तियोग प्रति पादक ही हैं । काम्यकर्म एवं स्वरूपानुसन्धानात्मक ज्ञान प्रति पादक नहीं है । इस प्रकार समझना होगा। भा० २।३।३५।३६ में उक्त ‘स्वात्मना हरिः’ हरिः सर्वत्र सर्वदा” १२४१३।२३ ‘नाम सङ्कीर्त्तनं यस्य सर्वपाप प्रणासनम् । प्रणामो दुःख शमनं तं नमानि हरि परम्” ।

उपसंहार वाक्य के अनुरोध से उक्त श्लोकस्थ ‘आत्मा’ शब्द का अर्थ- श्रीहरि हैं । निरुक्त के अनुसार, अर्थात् अक्षर साम्य से अर्थ करना होता है, इस नियम से ‘आत्मा’ शब्द से " आततत्वात् " अर्थात् व्यापक हेतु, मातृत्वात् अर्थात् धारण पोषण हेतु, श्रीहरि ही परमात्मा हैं । अथवा - भगवान्, – स्व प्रकाश एवं सर्वज्ञाता प्रभृति गुण सम्पन्न परमेश्वर भी, सर्व वेद का अभिधेय अर्थात् कर्त्तव्योपदेश का सारार्थ संग्रह लीलाहेतु उक्त वेद में अपरापर शास्त्रज्ञ मुनिवृन्द की शस्त्रार्थ विचार दृष्टि का अनुकरण कर निश्चय किये थे कि - जिस भक्ति योग से ‘आत्मनि’ श्रीहरि में प्रीति का उदय होता है, वह भक्ति योग ही सर्व वेद का मुख्य अभिधेय है–अर्थात् श्रेष्ठ कर्त्तव्य है । यहाँपर ‘भगवान्’ पद का अर्थ ‘परमेश्वर’ क्यों किया गया है ? उस का उद्देश्य को कहते हैं। अनन्त वैकुण्ठ के अनन्त वैभवादि मय अनन्त ब्रह्मा के पाठ्य भेद स्वरूप वेदों की समालोचना करना उक्त परमेश्वर के पक्ष में ही सम्भव है । इस अभिप्राय से ही श्लोकस्थ ‘भगवान्’ पद का अर्थ ‘परमेश्वर’ किया गया है। कारण,

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आततत्वाच्च मातृत्वादात्मा हि परमो हरिः" इति । अथवा भगवान् स्वप्रकाशसर्व्वज्ञचादिगुणः परमेश्वरोऽपि सर्व्ववेदाभिध यसाराकर्षणलीलार्थं त्रिरन्वीक्ष्य तंत्र शास्त्रविदन्तराणामीक्षण- मनुकृत्य । अनन्त वैकुण्ठ - वैभवादिमयानामनन्तविरिञ्च पाठ्यभेदानां वेदानां तथेक्षणश्च तेनैव सम्भवतीत्याह–‘कूटस्थः’ एकरूपतयैव कालव्यापीति । अतएवोक्तं स्वयमेब (भा० ११।२११४२) “कि विधत्ते किमाचष्टे किमनुद्य विकल्पयेत् ।

इत्यस्था हृदयं लोके नान्यो मट्टेद कश्चन ॥" ४६ ॥

श्रीशुकेन च (भा० ११।२६।४६) “निगमकृदुपजह्र े भृङ्गवद्वेदसारम् " इति ॥