२७

०४८ २७

एतदनन्तराध्यायेऽपि तथैवाह (भा० २।२।१४ ) -

(२७) “यावन्न जायेत परावरेऽस्मिन्, विश्वेश्वरे द्रष्टरि भक्तियोगः ।

तावत् स्थवीयः पुरुषस्य रूपं, क्रियावसाने प्रयतः स्मरेत ॥" ४३ ॥

परे ब्रह्मादयोऽवरे यस्मात् । कुतः ? विश्वेश्वरे द्रष्टरि, न तु दृश्ये, चैतन्य घनत्वात् । अन्य समय नहीं । एवं अपर कोई व्यक्ति, अन्य किसी समय में स्वाप्निक पदार्थ का दर्शन नहीं कर सकते हैं। यदि पञ्चीकृत भूत के द्वारा श्रीब्रह्मा प्रभृति उक्त स्वाप्निक पदार्थ की सृष्टि करते तो, स्वप्न द्रष्टाजीव, स्वप्नभिन्न समय में भी उक्त पदार्थ का दर्शन कर सकते, एवं साधारण जन भी देख पाते । वेदान्त सूत्र में भी जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति नामक अवस्थात्रय में जगत् कर्तृत्व का उल्लेख परमशक्ति मय पूर्ण पुरुष में ही हैं। इस विषय में जीव का कोई कर्तृत्व नहीं है । यदि स्वप्नसृष्टि कर्तृत्व जीव का होता तो, जगत् सृष्टि पूर्ण कर्तृत्व परमेश्वर में नहीं रहेगा। कारण, जगत् जाग्रत स्वप्न एवं सुषुप्ति नामक अवस्थात्रय युक्त है, अतएव उक्त अवस्थात्रय युक्त जगत् सृष्टि के मध्य में स्वप्न सृष्टि का कर्तृत्व प्रदान यदि जीव को किया जाय तो, अवशेष जाग्रत् एवं सुषुप्ति का सृजन कर्त्ता ईश्वर होंगे। इस से परमेश्वर की परि पूर्ण परमेश्वरता की हानि होगी। उक्त सृष्टि कार्य्यं द्वारा ही जीव एवं ईश्वर में वैलक्षण्य प्रदर्शित हुआ है । अर्थात् जीव को क्षमता, किसी विषय में स्वतन्त्ररूप से करने की नहीं है। किन्तु परमेश्वर सर्वथा अपर की अपेक्षा न करके ही निज स्वाभाविक अचिन्त्य शक्तिसे विश्व सृष्टादि करने की क्षमता युक्त हैं। इस प्रकार असाधारण धर्म के द्वारा ही जीव एवं ईश्वर में सामर्थ्यगत वैलक्षण्य प्रदर्शित हुआ है । श्लोकस्थ “तं सत्यमानन्दनिधि " वाक्य में सत्य एवं आनन्दनिधि विशेषण द्वय के द्वारा श्रीनारायण की परम पुरुषार्थता अर्थात् परम प्रयोजनीयता प्रदर्शित हुई है। कारण, जीव मात्रका मुख्य प्रयोजन है- अविनाशी परम आनन्द ।

प्रवक्ता श्रीशुक है । २४-२५-३६ ॥

०४९ २७

इस प्रकार कथन के अनन्तर द्वितीय अध्याय में भी पूर्व वर्णित रीति कहते हैं-भा१२/२०१४

(२७) “यावन्न जायेत परावरेऽस्सिन्, विश्वेश्वरे द्रष्टरि भक्तियोगः ।

तावत् स्थवीयः पुरुषस्य रूपं, क्रियावसाने प्रयतः स्मरेत ॥ १४३ ॥

तावत् पर्य्यन्त ( ब्रह्मादि जिनके अधीन हैं, उन विश्वेश्वर सर्व द्रष्टा श्रीभगवान् के प्रति भक्ति योग का आविर्भाव नहीं होता है, तावत् पर्य्यन्त आवश्यक कर्मानुष्ठान के पश्चात् संयत चित्त से श्रीभगवान् के विराट् रूप का स्मरण करे ।

F

टीका-पूर्वोक्त वैराज धारणया एतद्धारणाङ्गत्वमाह-यावदिति । परे ब्रह्मादयोऽवरे कनिष्ठा यस्मात् । कुतः ? विश्वेश्वरे, द्रष्टरि, न तु दृश्ये, चैतन्य घनत्वात् भक्ति योगः - प्रेमलक्षणः । क्रियावसाने आवश्यक कर्मानुष्ठानानन्तरम् । अनेन कर्मापि भक्ति योग पर्य्यन्तमेवेत्युक्तम् । प्रयतो नित्य तत् परः ॥१४॥

श्लोकस्थ ‘परावरे’ शब्द का अर्थ - ब्रह्मा प्रभृति अवर, कनिष्ठ हैं जिनसे वह परावर हैं । ‘विश्वेश्वर’ जो सब के आराध्य हैं, द्रष्टरि-वह चैतन्य धन है, अत सब के द्रष्टा है, वह दृश्य नहीं हैं । एवम्भूत श्रीभगवान् में जब तक भक्ति योग नहीं होता है । उक्त भक्ति योग किसी किसी के मत में-भा० २२८

[[४७]]

भक्तियोगः (भा० २२८) “केचित् स्वदेहान्तर्ह दयावकाशे, प्रादेशमात्रं पुरुषं वसन्तम् । चतुर्भुजं” इत्यादिनोक्तसाधनलक्षणाभिनिवेशः, क्रियावसाने आवश्यक कर्मानुष्ठानानन्तरम्, अनेन कर्मापि भक्तियोग पर्य्यन्तमित्युक्तम् ॥