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एतदनन्तरं विराड़ धारणामुक्त्वा तदपवादेनापि तां भक्तिमेवाह (भा० २/१/३६) -

(२६) “स सर्व्वधीवृत्त्यनुभूतसर्व्व, आत्मा यथा स्वप्नजनेक्षितैकः ।

तं सत्यमानन्दनिधि भजेत, नान्यत्र सज्जेयत आत्मपातः ॥ ४२ ॥

टीका च - “सर्व्वेषां धीवृत्तिभिरनुभूतं सव्वं येन स एक एव सर्व्वान्तरात्मा, तमेव सत्यं भजेत, अन्यत्रोपलक्षणे न सज्जेत; यत आसङ्गादात्मनः, पातः संसारो भवति । एकस्य तत्तदिन्द्रियैः सर्व्वानुभूतौ दृष्टान्तः स्वप्नजनानामीक्षिता यथेति । स्वप्नेऽपि कदाचिद्वहून देहान् प्रकल्प्य जीवस्तत्तदिन्द्रियैः सव्र्व्वं पश्यति तद्वत् । ईश्वरस्य तु विद्याशक्तित्वान्न बन्धः” इत्येषा । पादित हुआ है, ‘भगवान्’ पद परम सौन्दर्य का बोधक है, ‘ईश्वर” पद के द्वारा भजन की कर्त्तव्यता निरूपित हुई है । ‘हरि’ पद के द्वारा भयहारित्वसूचित हुआ है । “अभय’ पद का अर्थ - मुक्ति है, अर्थात् जो लोक, काल, कर्म, मायापारतन्त्र्य से अपने को मुक्त करना चाहते हैं, उनके पक्ष में स्वाभाविक प्रियतम, परमसुन्दर, सर्वबन्धन हारी परमेश्वर की कथा का श्रवण, कीर्त्तन एवं स्मरण करना एकान्त कर्त्तव्य है । मोक्ष शब्द का अर्थ- सर्व क्लेश निवृत्ति पूर्वक भगवत् प्राप्ति ही है । यह जानना चाहिये ॥ (२५)

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उस प्रकार उपदेश करने के पश्चात् विराड़ धारणा का वर्णन उन्होंने किया है, किन्तु विराड़ धारणा में चित्त का आवेश अत्यन्त दोषावह है, अतः उस को निरास कर भक्ति का वर्णन करते हैं। भा० २।११३६ में उक्त है-

(२६) “स सर्वधीवृत्त्यनुभूतसर्व, आत्मा यथा स्वप्नजनेक्षितैकः ।

तं सत्यमानन्दनिधि भजेत, नान्यत्र सज्जेयत आत्मपातः ॥४२॥

टीका - “तदेवं चित्तस्थैय्यर्थं विराड़ देह जीवेश्वराणामभेदेनोपासनमुक्तम् । तत्र तु देह जीवौ ईश्वरे प्रविलाप्य स एवध्येय इति निर्द्धारयति, स इति । सर्वेषां धीवृत्तिभिरनुभूतं सर्वं येन स एक एव सर्वान्तरात्मा, तमेवसत्यं भजेत । अन्यत्र उपलक्षणे न सज्जेत । अतः आसङ्गात् आत्मनोपातः संसारो भवति । एकस्य तत्तदिन्द्रियैः । सर्वानुभूतः दृष्टान्तः स्वप्नाजनानामीक्षिता यथेति । स्वप्नेहि कदाचित् बहून् देहान् प्रकल्प्य जीवस्तत्तदिन्द्रियैः सर्वं पश्यति, तद्वत् । ईश्वरस्य तु विद्याशक्तिवान बन्धः ॥” (३६)

स्वप्नद्रष्टा जीव, जिस प्रकार स्वप्न में उपस्थित व्याघ्र, सर्प मानव, प्रभृति का दर्शन अकेला करता है, उस प्रकार पूर्व वर्णित विराड़ धारणा में सिद्ध योगी पुरुष, विराट् गत काल की बुद्धि वृत्ति समूह के द्वारा विराट्गत समस्त वस्तु का अनुभव करके सत्यस्वरूप आनन्दनिधि विराट के अन्तर्य्यामि श्रीनारायण का भजन करे । अन्यत्र विराट् गत किसी वस्तु में आसक्त होना ठीक नहीं है। कारण, विराट् गत किसी वस्तु में आसक्त होने से आत्मा का अधः पात होगा, अर्थात् संसार होगा।

सब की बुद्धि वृत्ति के द्वारा भी समस्त वस्तु का अनुभव करते हैं, एक सर्वान्तरात्मा अर्थात् सर्वान्तर्यामी है, उन सत्य श्रीभगवान् का भजन करे । अन्यत्र उपाधि में आसक्ति स्थापन न करे । कारण, आत्माभिन्न जड़ीय किसी वस्तु में आसक्त होने पर आत्मा का अधः पात होता है, अर्थात् संसार होता है । एक परमात्मा कैसे सब के ज्ञानेन्द्रिय समूह के द्वारा सब के समस्त विषयों का अनुभव करते हैं, उस को दृष्टान्त के द्वारा समझाते हैं। जीव, जिस प्रकार स्वप्न में अनेक देह की कल्पना करके उन उन देहेन्द्रिय

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अत्र स्वधीवृत्तिभिः पश्यन्नेव सर्वेषां धीवृत्तिभिरपि सर्व्वं पश्यतीत्येव, तथोत्तम् (दृ० १२१५)

“स ऐक्षत” इत्यत्र सर्व्वधी वृत्तिसृष्टेः पूर्व्वमपि तच्छ्रवणात् । तथा स्वप्नदेहानामीश्वर- कर्त्तृकत्वेऽपि जीवक क– प्रकल्पनकथनं तत्सङ्कल्पद्वारेवेश्वरः करोतीत्यपेक्षायामुक्तम् । यः सर्व्वधीत्यनुक्तत्वात् ‘सत्यं भजेत’ इति योजयितव्यस्य कर्त्तुं विद्यमानत्वादयमेवार्थः, -स तथाभूतविराड़ धारणा सिद्धो योगी विराड् गताभिः सर्व्वाभिर्धीवृत्तिभि ज्ञनिन्द्रियंरनुभूतं सर्व्वं

समूह के द्वारा सब कुछ देखते हैं, उस प्रकार ईश्वर भी सब की बुद्धि वृत्ति के द्वारा सब कुछ देखते हैं । उस से संशय उपस्थित होता है । कि स्वप्नद्रष्टा जीव जिस प्रकाह मायाबद्ध है, उस प्रकार ईश्वर को माया बद्ध होना चाहिये ? उत्तर में कहते हैं—जीव का ज्ञान, अज्ञान के द्वारा आवृत होने के कारण, उसका बन्धन होता है, एवं ईश्वर का ज्ञान विद्यामय होने के कारण - ईश्वर मुक्त हैं। यह है केवलाद्वैतवादिवृन्द द्वारा स्वीकृत सिद्धान्त की अवतारणा, श्रीधरस्वामि चरण, अद्वैत वादी को भक्ति बाद में आकृष्ट करने के निमित्त समय समयपर लोभनीय अद्वैत वाद की अवतारणा करते हैं । अज्ञान के द्वारा जीव का ज्ञान आवृत है, एवं उस से जीवका संसार होता है, इसका वर्णन गीता के ५।१५ में इस प्रकार है–अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्तिजन्तव.” स्वामिपाद कृत टीका का तात्पर्य यह है- श्रीभगवान्, विराड्गत सब की बुद्धि वृत्ति के द्वारा सब के सब विषय देखते हैं । ईश्वर निज बुद्धि के द्वारा सबको देखने पर भी सब की बुद्धि वृत्ति के द्वारा सब के विषय समूह को देखते हैं। यहाँ पर सन्देह नहीं हो सकता कि - सर्वान्तर्यामी पुरुष में निज बुद्धि वृत्ति की सत्ता कैसे हो सकती है ? कारण, वृहदारण्यक ११२५ में उक्त है - “स ऐक्षत " अर्थात् उन्होंने देखा था। इस श्रुति में परमात्मा में समस्त विषय दर्शन करने की क्षमता का वर्णन है । ईश्वर ही स्वप्न रचित देह समूह के सृष्टि कर्त्ता होने पर भी जीव कर्तृक उक्त देह समूह की कल्पना की जो कथा कही गई है, उस का उद्देश्य है— जीव के सङ्कल्प के द्वारा ही ईश्वर उक्त देह समूह की सृष्टि करते हैं । इस अभिप्राय से हो स्वाप्निक देह रचना प्रसङ्ग में जीव कत्तत्व का उल्लेख नहीं हुआ है, कारण, श्लोक में वर्णित है - “जो सब की बुद्धि वृत्ति के द्वारा सब कुछ देखते हैं ।” इस प्रकार उल्लेख है । श्लोक में ‘सत्यं भजेत’ प्रयोग है, अर्थात् सत्य स्वरूप श्रीभगवान् का भजन करे । कौन भजन करेगा ? इस प्रकार कत्त ‘पद की योजना करना आवश्यक है । अतएव उक्त श्लोक का इस प्रकार अर्थ सुसङ्गत है । ‘सः’ अर्थात् पूर्वोक्त योग धारणा सिद्ध योगी पुरुष, विराड़ गत सब की बुद्धि वृत्ति अर्थात् ज्ञानेन्द्रिय समूह के द्वारा विराड् गत समस्तका अनुभव करके भी उन विराट् अन्तर्य्यामी आनन्दनिधि सत्य स्वरूप श्रीनारायण का ही भजन करे । विराड्गत अन्यत्र किसी वस्तु में आसक्ति स्थापन न करे। उक्त आसक्ति से आत्मा का अधः पात होता है, अर्थात् संसार होता है । समस्त विषयों का अनुभव नारायण करते हैं- इस में दृष्टान्त

है। यह है - ‘आत्मा’ स्वप्न दृष्टा जीव, जिस प्रकार स्वप्नगत समस्त विषय का एवं तदुपलक्षित समस्त वस्तु का द्रष्टा है, श्रीनारायण को भी उस प्रकार द्रष्टा जानना होगा । श्लोक में ‘तं’ अर्थात् उनको, इस प्रकार उल्लेख के द्वारा ‘स एक्षेत’ अर्थात् उक्त परम पुरुष प्रकृति के प्रति ईक्षण किये हैं, एवं ‘परास्य शक्ति विविधैव श्रूयते, स्वाभाविकी ज्ञान बल क्रिया च’ अर्थात् उक्त परम पुरुष की अन्यनिरपेक्षा शक्ति है, वह शक्ति-विविध प्रकार हैं, वह शक्ति, स्वाभाविक स्वरूप से अभिन्ना है, आगन्तुकी नहीं है । एवं उक्त शक्ति, प्रधानतः ज्ञान, बल, क्रिया भेद से विविध हैं ।

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कहान

कि उक्त श्रुतिद्वय में परमेश्वर की अन्य निरपेक्ष ज्ञानादि शक्ति का विवरण लिखित होने के कारण ही ब्रह्मसूत्र के ३।२।१ में “सन्ध्ये सृष्टि राह हि” कहा गया है।

[[४५]]विराड़ गतं येन तथाभूतोऽपि सन् तं सत्यमानन्दनिधि विराड़न्तर्यामिनं श्रीनारायणमेव भजेत । अन्यत्र विराड़ गते तद्धारणावान्तरफले च कुत्रापि न सज्जेत् यतः सज्जनादात्मपातः संसार एव स्यात् । तस्य सर्व्वानुभूतौ दृष्टान्तः - आत्मा स्वप्नद्रष्टा जीवो यथा स्वप्नगतानां सर्वेषां जनानां तदुपलक्षितानां वस्तूनाश्च य एक एव ईक्षिता भवतीति तद्वत् । अत्र तमित्यनेन ( वृ० ११२५ ) - “स ऐक्षत” इति, (इवे० ६८) “स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च” इति श्रुतिप्रसिद्धपरानपेक्ष– ज्ञानादिसिद्धेस्तथा (ब्र० सू० ३।२।१) “सन्ध्ये सृष्टि राह हि” (व्र० सू० ३।२३

स्वाप्निक पदार्थ समूह का निर्माता श्रीभगवान् हैं। जीव, स्वाप्निक पदार्थ समूह का निर्माता नहीं है । जागरण एवं सुषुप्ति अवस्थाद्वय के मध्यवर्ती होने के कारण “सन्धिभव इति सन्धय” इस प्रकार व्युत्पत्ति के द्वारा सन्ध्य शब्द स्वप्नवाचक होता है । उक्त स्वप्नावस्था में जिस रथादि की सृष्टि होती है, उसका कर्त्ता परमेश्वर हैं । कारण, ‘स्वप्नरथादि सृष्टि का कारण परमेश्वर हैं, " इस प्रकार घोषणा श्रुति करती है । है।

सूत्रस्थ गोविन्दभाष्य - " वृहदारण्यके श्रूयते ‘न तत्र रथा न रथयोगा, न पन्थानो भवन्त्यथ रथान् रथयोगात् पथः सृजते न तत्र आनन्दान्मुदः प्रभुदो भवन्त्यथानन्दान्मुदः प्रमुदः सृजते । न तत्र बेशन्नाः पुष्करिण्यः स्रवन्त्यो भवन्त्यथ वेशन्तान् पुष्करिण्य स्त्रवन्त्यः सृजते स हि कर्त्ता ।” इति । तत्रेयं स्त्रानिकी रथादि सृष्टि जव कर्तृक परमात्मा कत्त का वेति संशये जीवकत्त का स्यात् । तस्यापि प्रजाप्रति वाक्ये सत्य सङ्कल्पत्व श्रवणादिति प्राप्ते-

“सन्ध्ये सृष्टि राह हि ॥। ३।२।१

सन्ध्यं - स्वप्नः “सन्ध्यं तृतीयं स्वप्नस्थानं” इति तत्रैव श्रवणात्, जागरण सुषुप्ति मध्य भवत्वाच्च । तत्र या रथादि सृष्टिः सा परमात्मकृतैव । कुतः ? हि यतः “सहि कर्त्तति” श्रुतिरेव स्वप्ने रथादि सृष्टि तत् कृतामाह । अयम्भावः । अल्पाल्पकर्मानुसारि फल भोगाय स्वप्न द्रष्ट्र पुमात्रानुभाव्यांस्तावन्मात्र समयान् रथादीन् परमात्मा सृजति । तस्मात् स हि कत्तं ति सत्य सङ्कल्पता तु मोक्षे स्यादतो न तथा स्वप्न सृष्टिः ॥ १॥

ब्र० सू० ३।२। ३ में कहा है- “माया मात्रं तु कार्त्स्न्येनानभिव्यत्त. स्वरूपत्वात् ॥”

गी० भा०- “स्वाप्तिकपदार्थ निर्मातु भगवतः कारणमाह-

स्वप्न सृष्टावतर्क्या मायव करणम् । न तु पञ्चीकृतानि भूतानि चतुम्मुखादयश्च । कुतः ? कत्त्यें नेत्यादेः सर्वानुभाव्यतयानभिव्यक्ते रित्यर्थः । तस्मात् परमात्म कृता स्वप्नसृष्टिरिति सिद्धम् ।”

स्वाप्निक पदार्थ समूह के निर्माण कर्त्ता श्रीभगवान् हैं । श्रीभगवान् ही अतर्क्या मायाशक्ति के प्रभाव से जीव के स्वल्प स्वल्प कर्मानुयायी फल भोग के निमित्त, स्वप्न द्रष्टा पुरुष मात्र का भोग सम्पादन स्वल्प समय के निमित्त रथादि सृष्टि करते हैं । इस विषय में जीव का कोई कर्तृत्व नहीं है। सत्य सङ्कल्प अचिन्त्य शक्ति श्रीभगवान् में स्वाप्निक पदार्थ सृष्टि का कर्तृत्व असम्भव नहीं है, कठोपनिषद् प्रभृति श्रुति वाक्य में स्वाप्निक पदार्थ की सृष्टि कर्त्ता रूप में भगवान् का वर्णन है । उक्त स्वप्न दृष्ट रथादि पदार्थ के सृष्टि कर्त्ता जिस प्रकार भगवान् हैं, उस प्रकार उनका करण अतर्क्स शक्ति माया है, अर्थात् केवलमात्र अतर्क्स शक्ति माया के द्वारा ही श्रीभगवान् स्वप्न दृष्ट रथादि पदार्थ की सृष्टि करते रहते हैं । पञ्चीकृत भूत के द्वारा ब्रह्मा प्रभृति उक्त स्वाप्निक पदार्थ के सृष्टि कर्त्ता नहीं हैं । कारण, स्वाप्निक पदार्थ समूह के स्वप्न द्रष्टा जीव, केवलमात्र स्वप्नदर्शन के समय हो उक्त पदार्थ समूह का अनुभव करता है,

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“मायामात्रं तु कार्त्स्न्येनानभिव्यक्तस्वरूपत्वात्” इति न्यायप्राप्तेन स्वप्नस्यापि कर्तृत्वेन जाग्रदादिमय-

-जगत् कर्तृत्वस्य पूर्णत्व प्राप्ते वैलक्षण्यं दर्शितम् । सत्यादिद्वयेन परम- पुरुषार्थत्वञ्चेति विज्ञेयम् ॥ श्रीशुकः ॥