०४३ २५
निगमयति ( भा० २१११५)
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(२५) " तस्माद्भारत सर्व्वात्मा भगवानीश्वरो हरिः ।
श्रोतव्यः कीर्त्तितव्यश्च स्मर्त्तव्यश्चेच्छताभयम् ॥
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टोका च - “सर्वात्मेति प्रेष्ठत्वमाहः भगवानिति सौन्दर्य्यम्, ईश्वर इत्यावश्यकत्वम्,
०४४ २४
पूर्व वर्णित प्रकार से प्रतिपन्न हुआ कि -भक्ति ही एकमात्र अभिधेय वस्तु है, अर्थात् आचरण करना ही एकमात्र कर्त्तव्य है । जिस प्रकार व्यास नारद संवाद भक्ति का एकमात्र अभिधेयत्व अर्थात् कर्त्तव्यत्व विहित हुआ है, उस प्रकार श्रीशुक परीक्षित संवाद के प्रारम्भ में भी भक्ति का अभिधेयत्व प्रकाशित हुआ है । भा० २०१२
(२४) “श्रोतव्यादीनि राजेन्द्र ! नृणां सन्ति सहस्रशः ।
अपश्यतामात्मतत्त्वं गृहेषु गृहमेधिनाम् ॥” ४०॥
टोका-तत्र तावत् स्वाभाविक क्रियाणामनर्थ हेतुत्वं वदन् ‘ब्रूहि यद्वा विपर्य्ययम्’ इत्यस्योत्तरमाह श्रोतव्यादीनीति दिभिः । गृहेषु सक्तानाम् अतएव गृहमेधिनाम्, तद् गत पश्वसूनापराणाम् । मेधति हिंसार्थः ॥ (२)
हे राजेन्द्र ! आत्मतत्व में दृष्टि शून्य गृहासक्त मानव के पक्ष में सहस्र सहस्र श्रोतव्य प्रभृति बहुल कर्तव्यता हैं । श्लोकस्थ “गृहेषु” पद समूह उपलक्षण है, अर्थात् वहिर्मुख जीव मात्र के ग्राहक हैं । अर्थात् जब तक भगवद् वहिर्मुखता दोष रहता है, तब तक श्रवणीय, कथनीय, करणीय, एवं चिन्तनीय अनेक विषय विद्यमान होते हैं । श्लोकस्थ आत्मतत्त्व का अर्थ भगवत्तत्व है, कारण आत्मतत्त्व की प्रतिष्ठा भगवत्तत्व में ही है, दशम स्कन्ध के चतुर्दश अध्याय में इस का प्रदर्शन हुआ हैं ॥२४॥
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०४५ २५
भगवच्चरणों में उन्मुखता प्राप्त कराना ही शास्त्र व्याख्या का एक मात्र उद्देश्य है । उस का प्रदर्शन भा० २।१।५ में करते हैं-
(२५) " तस्माद् भारतः सर्वात्मा भगवानीश्वरो हरिः ।
श्रोतव्यः कीत्तितव्यश्च स्मर्त्तव्यश्चेच्छताभयम् ॥ "
टीका - एवं विपर्य्यय प्रश्नस्योत्तरमुक्त्वा श्रोतव्यादि प्रश्नस्योत्तरमाह तस्मादिति । हे भारत ! भारत वंश्य । सर्वात्मेति प्रेष्ठत्वमाह, भगवानिति, सौन्दर्य्यम्, ईश्वर इत्यावश्यकत्वम्, हरिरिति–बन्ध– हारित्वम् । अभयं मोक्षमिच्छता ॥५॥
श्रीभगवद् भक्ति की अवश्य कर्त्तव्यता का प्रतिपादन करते हैं, हे भारत ! अतएव सर्वात्मा भगवान् ईश्वर श्रीहरि की कथा का श्रवण, कीर्त्तन, एवं स्मरण करना अभयप्रार्थी जन के पक्ष में अवश्य कर्त्तव्य है ।
श्लोक में “सर्वात्मा” पद का उल्लेख हुआ है, उस से श्रीभगवान् का प्रेष्ठत्व अर्थात् प्रियतमत्व प्रति
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हरिरितिबन्धहारित्वम् अभयं मोक्षमिच्छता” इत्येषा । मोक्षस्तु सर्व्व क्लेश शान्तिपूर्व्वक- भगवत्प्राप्तिरेवेति ज्ञेयम् ॥