२३

०४० २३

श्रीभागवताविर्भाव कारणे श्रीनारद-व्यास-संवादेऽपि (भा० ११५।१२) -

“नैष्कम्र्यमप्यच्युतभाववर्जितं, न शोभते ज्ञानमलं निरञ्जनम् ।

कुतः पुनः शश्वदभद्रमीश्वरे, न चापितं कर्म यदप्यकारणम् ॥” ३८ ॥

FR

इत्युदाहृतम् । टीका च - “निष्क ब्रह्म तदेकाकारत्वान्निष्कतारूपं नैष्कर्म्यम्, अज्यते अनेनेत्यञ्जन-मुपाधिस्तन्निवर्त्तकं निरञ्जनम्, एवम्भूतमपि ज्ञानमच्युते भावो समस्त सृष्टि काय्यं करने पर भी आप माय। गुण से लिप्त नहीं हैं । कारण, आप विभु अर्थात् व्यापक हैं । तज्जन्य परिच्छिन्न वस्तु माया अपरिच्छिन्न वस्तु वासुदेव को आवृत नहीं कर सकती है ।

जो, जगत् के सृष्टि स्थितिलयात्मक कार्य्यं समन्वित है, उस में समस्त शास्त्र समन्वय दृष्ट होता है, ऐसा होने पर ‘वासुदेव परावेदाः” अर्थात् समस्त शास्त्र वासुदेव वर्णन पर है, इस प्रकार कथन कंसे सम्भव होगा ? उत्तर में कहते है । सर्व प्रथम वासुदेव ने ही परिदृश्य मान विश्व का सृजन किया है। उक्त विवरण को चार श्लोक के द्वारा कहते हैं। इस प्रकार स्वामिपाद कृत टीका का अर्थ है । “इदं” शब्द का अर्थ महत्तत्त्व से आरम्भ कर विरिति पर्यन्त समस्त वस्तु हैं । जिस प्रकार श्रीवासुदेव के द्वारा ही विश्व की सृष्टि होती है, उस प्रकार परवत्ति श्लोकत्रय के द्वारा प्रवेश एवं संहारादि लीला का वर्णन भी हुआ है, यह द्रष्टव्य है ।

श्रीसूत - शौनक को कहे थे -

०४१ २३

श्रीमद् भागवत के आविर्भाव कारण श्रीनारद व्यास संवाद में भी भक्ति का अभिधेयत्व कथित है ।

भा० १५/१२ “नैष्कर्म्यमध्यच्युतभाववजितं

न शोभते ज्ञानमलं निरञ्जनम् ।

कुतः पुनः शश्वदभद्रमीश्वरे,

न चापितं कर्म यदप्यकारणम् ॥” ३८॥

टीका - भक्ति होनं कर्म तावत् शून्यमेवेति कैमुत्यिकन्यायेन दर्शयति नैकमिति । निष्व मं ब्रह्म, तदेका कारत्वानिष्कर्मता रूपं नैष्कर्म्यम् । अज्यते अनेन इत्यजनमुपाधि स्तशिवर्त्तकं निरञ्जनम् । एवम्भूतमपि ज्ञानम् अच्युते भावो भक्तिस्तद्वज्जितं चेत् अलमत्यर्थं न शोभते, सम्यक् परोक्षाय न कल्पते इत्यर्थः । तदा शश्वत् साधन काले फल काले च अभद्र दुःखरूपं यत् काम्यं कर्म यक्ष्य्यकारणमकाम्यं तच्चेति चकारस्यान्वयः । तदपि कर्म ईश्वरे नापितं चेत् कुतः पुनः शोभते ? व हम्मुखत्वेन सत्त्व शोधकत्वाभावात् ॥”१२॥

हे मुनिवर ! नैष्कर्म्य एवं निरञ्जन ज्ञान भी यदि भगवान् में भक्ति शून्य होता है, तो वह ज्ञान अतिशय शोभित नहीं होता है । ऐसा होने पर निरन्तर अमङ्गल रूप निष्काम कर्म भी यदि श्रीभगवान् में अर्पित नहीं होता है तो वह जो अतिशय रूप से शोभित नहीं होता है, यह कथन बाहुल्य मात्र है

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श्लोकस्थ ज्ञान शब्द - नैष्कर्म्य एवं निरञ्जन शब्द से विशेषित है । नैष्कर्म्य शब्द का अर्थ निष्कर्म - ब्रह्म, ब्रह्म के सहित एकाकारता प्राप्त । अञ्जित - अर्थात् लिप्त होता है । इस से अञ्जन शब्द

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भक्तिस्तद्वज्जितं चेदलमत्यर्थं न शोभते, सम्यगपरोक्षाय न कल्पत इत्यर्थः । तदा शश्वत् साधनकाले फलकाले च अभद्रं दुःखरूपं यत् काम्यं कर्म्म, यदप्यकारणमकाम्यं तच्चेति चकारस्यान्वयः, तदपि कर्म ईश्वरे नापितञ्चेत् कुतः पुनः शोभते ?– वहिर्मुखत्वेन सत्त्व- शोधकत्वाभावात्" इत्येषा । तदेवं ज्ञानस्य भक्तिसंसर्ग विना कर्मणश्च तदुपपादकत्वं विना व्यर्थत्वं व्यक्तम् । किञ्च, (भा० १२५।१५) “जुगुप्सितं धर्मकृतेऽनुशासतः, स्वभावरक्तस्य महान का अर्थ ‘उपाधि’ होता है । उक्त उपाधिशून्य ज्ञान का नाम-निरञ्जन है । ज्ञाता, ज्ञेय, एवं ज्ञान भेद से ज्ञान की तीन उपाधि हैं, उक्त उपाधित्रय शून्य एवं ब्रह्म स्वरूप के सहित एकाकारता प्रप्त ज्ञान भी यदि भगवद् भक्ति

शून्य होता है तो, अतिशय शोभित नहीं होता है । अर्थात् सम्यक् रूप से अपरोक्ष साक्षात् कार का योग्य नहीं होता है, अभिप्राय यह है कि -ज्ञान साधक अहं ब्रह्मास्मि” इस प्रकार स्वरूप के सहित जीवाभेद भावना करते करते जिस समय पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश, एवं अहङ्कार प्रभृति तत्त्वरूप आवरण समूह को अतिक्रम करता है, उस समय साधक को अहं तत्त्वोपाधि अहमिका विलुप्ता हो जाती है, अतः ज्ञाता का अभाव होने पर ज्ञेय एवं ज्ञान भी विलुप्त होते हैं । यहाँ ‘ज्ञान’ शब्द का अर्थ बोध होता है । अतएव यहाँ ज्ञान शब्द का अर्थ बोध ही जानना होगा । अहङ्कार तत्व जनित अहमिका विलुप्त होने पर ज्ञान साधक की साधन करने की क्षमता नहीं रहती है, अर्थात् ‘अहं’ पद के सहित ब्रह्मपद की अभेद भावना करने की क्षमता नहीं रहती है। कारण, उसकी मायामय अहमिकाविलुप्त हो गई है । अतएव “अहं ब्रह्मास्मि” भावना कैसे हो सकती है ? अथच अहमिका विनष्ट होने पर भी महत्तत्त्व एवं प्रकृति रूप आवरण द्वय सम्मुख में विद्यमान रह जाते हैं । उक्त आवरण द्वय को अतिक्रम न करने से अव्यवधान ब्रह्ममाक्षात्कार नहीं होता है । तज्जन्य हो अर्थात् अव्यवहित ब्रह्म साक्षात् कार के निमित्त पहले अनुष्ठित भक्ति योग के द्वारा आराधित श्रीभगवान् के अनुग्रह से ही साधन सम्पत्ति शून्य साधक के पक्ष में महत्तत्त्व एवं प्रकृति तत्त्व रूप आवरण द्वय अपसारित होकर अव्यवहित ब्रह्म साक्षात् कार होता है।

अतएव जो ज्ञान साधक, श्रीहरि में भक्ति वज्जित होकर ज्ञान साधन करता है, उसके प्रति भगवत् कृपा नहीं होती है, उस से वह अव्यवहित ब्रह्म साक्षात् कार नहीं कर सकता है। भक्ति होन ज्ञान की जब ऐसी दुरवस्था है, तब जो काम्य कर्म-साधन काल में एवं साध्य काल में अर्थात् फल काल में दुःखमय है, वह कर्म यदि श्रीभगवान् में अर्पित नहीं होता है तो वह कर्म कैसे शोभित होगा ? कारण, काम्य एवं निष्काम - उभय बिध कर्म ही श्रीभगवद् वहिर्मुखता दोष से दुष्ट हैं, अतः उस से चित्त शुद्धि नहीं होती है । अर्थात् ऐहिक - पार लौकिक सुख भोग में वितृष्णा उत्पन्न करने में कर्मद्वय असमर्थ है ।

भा० एकादश स्कन्ध के चतुर्दश अध्याय में श्रीभगवान् उद्धव को कहे हैं ।

“कथं विना रोमहर्ष दुवता चेतसा विना ।

दिनानन्दाक्षुकलया शुध्येत् भक्तया विनाशयः ॥

हे उद्धव ! भक्ति के विना चित्त शुद्धि कैसे हो सकती है ? भगवत् प्रसङ्गादि में चित्त विगलित न होने से भक्ति का अस्तित्व की उपलब्धि कैसे होगी ? पुलक एवं अश्रुधार व्यतीत चित्त विगलित हुआ, इसका अनुमान कैसे होगा ? पूर्व वर्णित प्रसङ्ग से बोध होता है कि भक्ति संसर्ग के विना, ज्ञान साधन का वैफल्य एवं श्रीभगवदर्पण के बिना कर्म साधन का वैफल्य सुस्पष्ट है । भा० १।५।१५ में वर्णित है ।

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(२३) जुगुप्सितं धर्मकृतेऽनुशासतः स्वभावरक्तस्य महान् व्यतिक्रमः ।

यद्वाक्यतो धर्मइतीतरः स्थितो न मन्यते तस्य निवारणं जनः ॥ ३६ ॥

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व्यतिक्रमः” इत्यादिकमुक्त्वाह (भा० ११५१७) -

(२३) " त्यक्त्वा स्वधर्मं चरणाम्बुजं हरे, -भंजन्नपक्वोऽथ पत्तो यदि ।

यत्र क्व वाभद्रमभूदमुष्य किं, को वार्थ आप्तोऽभजतां स्वधर्मतः ॥" ३६॥ टीका च - " इदानीस्तु नित्यनैमित्तिक-स्वधर्मनिष्ठामप्यनादृत्य केवलं हरिभक्ति- रेवोपदेष्टव्येत्याशयेनाह - त्यक्त्वेति । ननु स्वधर्मत्यागेन भजन् भत्ति परिपाकेन यदि वृतार्थो भवेत्तदा न काचिञ्चिन्ता, यदि पुनरपवव एव म्रियते, ततो भ्रश्येद्वा, तदा तु स्वधम्मंत्याग-

टीका - तदेवं हरियशो बिना भारतादिषु कृत धर्मादि वर्णनम् अकिञ्चित्करमित्युक्त, प्रत्युत विरुद्धमेव जातमित्याह - जुगुप्सितमिति । जुगुप्सतं निन्दय काम्यकर्मादि। स्वभावत एव रक्तस्य तत्र रागिणः पुरुषस्य धर्मकृते - धर्मार्थम् अनुशासतस्तव महानयं व्यतिक्रमः, अन्यायः । कुतः ? इत्यत आह, यस्य वाक्यतोऽयमेव मुख्योधर्म इतिस्थित इतरः प्राकृती जतः, तस्य काम्य कर्मादे, अन्येन तत्त्वज्ञेन, क्रियमाणं निवारणं, यथार्थमेतदिति न मन्यते किन्तु प्रवृत्ति मार्गानधिकृत विषयं तदिति कल्पयति । तदुक्तं, मतान्तरोप- न्यासेन भट्ट :- " तथैवं शक्यते वक्तुं येऽन्धपङ्गवादयो नराः । गृहस्यत्वं न शक्यन्ते कर्त्तुं तेषामयं विधिः, नै’ठुक ब्रह्मचर्य्यं वा परिव्राजकतापि वा । तैरवश्यं ग्रहीतव्या तेन दावेन दुच्यते इत्यादि ॥१५॥

श्रीनारद श्रीकृष्णद्वैपायन को कहे थे - हे मुनिवर ! श्रीहरि गुण वर्णन व्यतीत आपने महाभारतादि ग्रन्थ में जिस धर्मादि का वर्णन किया है, वह सब अकिञ्चित् कर हैं । प्रत्युत वह सब अत्यन्त विरुद्ध ही हुये हैं । कारण, स्वभावतः काम्यकर्म में अनुरक्त जनगण के सम्बन्ध में काम्य कर्मादि उपदेश करना धर्मोपदेष्टा आपके पक्ष में अयन्त अन्याय कार्य्यं हुआ है । कारण, आप साधारण मनुष्य नहीं हैं । आप के उपदेश से साधारण जन गण समझेंगे, कि यह ही मुख्य धर्म है । अपर कोई तत्त्वज्ञ व्यक्ति, काम्य कर्मानुष्ठान को दोषावह कहने पर अथवा आप के द्वारा काम्य कर्म का दोषावहत्व प्रतिपादित होने पर भी, लोक नही मानेगे । अथवा, तस्वज्ञ व्यक्ति “न कर्मणा, न प्रजया, न धनेन, त्यागेन केन अमृत बमाहुः ।” श्रुति उल्लेख पूर्वक निषेध करने पर भी वे सब कहेंगे, – जो लोक, प्रवृत्तिमार्ग में अनधिकारी हैं, उनके पक्ष में ही यह श्रुति है । इस रीति से तत्त्वज्ञ का उपदेश वे लोक नहीं मानेगे । यह सब कहकर भा० १।५।१७ में कहते हैं,

(२३) “त्यक्त्वा स्वधर्मं चरण. म्बुजं हरेर्भजन्नपक्कोऽय पतेत्ततो यदि ।

यत्र क्व वाभद्रमभुदमुष्य कि को वार्थ आप्तोऽभजतां स्वधर्मतः ॥” ३६॥

टीका- एवं तावत् काम्य कर्मादेरनर्थ हेतुत्वात् तं विहाय हरेर्लीलेव वर्णनीयेत्युक्तम् । इदानीन्तु नित्य नैमित्तिक स्वधर्मनिष्ठामपि अनादृत्य केवलं हरिभक्तिरेव उपदेष्टध्ये त्याशयेनाह त्यक्त्वा एवेति । ननु स्वधम त्यागेन भजन् भक्ति परिपाकेण यदि कृतार्थोभवेत् तदा न कदाचिच्चिन्ता, यदि पुनरपक्व एव भ्रियेत ततो भ्रश्येद्वा तदा च स्वधर्म त्याग निमित्तोऽनर्थः स्यादित्याशङ्कयाह ततो भजनात् पतेत् कथञ्चित् भ्रश्येत् भ्रियेत वा यदि तथापि भक्ति रसिकस्य कर्मानधिकारात् नानर्थशङ्का । अङ्गीकृत्याप्याह । वा शब्दः कटाक्षे यत्र क्ववा नीचयोनावपि अमुष्य भक्तिरसिकस्य अभद्रमभूत् किं ? नाभूदेवेत्यर्थ । भक्ति वासनासद् - भावादिति भावः । अभजद्भिस्तु केवलं स्वधर्मतः को वा अर्थः आप्तः प्राप्तः । अभजतामिति षष्ठी तु सम्बन्ध मात्र विवक्षया ॥ १७ ॥ ਸੰਤ ਕਰਮ ਹੀ ਹੈ ਪਰ

वर्ण एवं आश्रम धर्म रूप स्वधर्म को परित्याग कर श्रीहरि के चरण कमल का भजन करते करते अपक्वावस्था में ही यदि मानव उक्त भजन से पतित पोता है तो उक्त भजन विज्ञ जन का जन्म यदि किसी

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निमित्तोऽनर्थः स्यादित्याशङ्कयाह–ततो भजनात् पतेत् कथञ्चिद्भ्रश्येत् त्रियत वा यदि, तदादि भक्तिरसिकस्य कर्मानधिकारात् नानर्थशङ्का, अङ्गीकृत्याप्याह, वा-शब्दः कटाक्षे यत्र क्व वा नीचयोनावपि अमुष्य भक्तिरसिकस्य अभद्रमभूत् किम् ? नाभूदेवेत्यर्थः, भक्ति- वासनासद्भावादिति भावः । अभजद्भिस्तु केवलं स्वधर्मतः को वार्थ आप्तः प्राप्तः अभजतामिति षष्ठी तु सम्बन्धमात्रविवक्षया" इत्येषा ॥ श्रीनारदः श्रीव्यासम् ॥

नीच योनि में ही जाय; तथापि क्या उसका किसी प्रकार अमङ्गल होगा ? किन्तु भगवद् भजन कारी व्यक्ति स्वधर्मानुष्ठान द्वाराफललाभ क्या करेगा ॥२३॥

(gc)

सम्प्रति नित्य नैमित्तिक स्वधर्म निष्ठा का अनादर कर एकमात्र श्रीहरिभक्ति का उपदेश करना आप को चाहिये । इस अभिप्राय से कहते हैं, “त्यक्त्वा स्वधम्र्मं” कह सकते कि स्वधर्म्म त्यागपूर्वक भजन करते करते भक्ति की परिपाक अवस्था में यदि प्रेमभक्ति ल भ होता है, तो साधक कृतार्थ होता है, उस से साधक की कोई चिन्ता नहीं हो सकती है, किन्तु यदि स्वधर्म त्याग पूर्वक भक्ति का अनुष्ठान करते करते अपक्वदशा में अर्थात् प्रेमलाभ करने के पहले ही मृत्यु हो जाती है, अथवा अन्य आवेश से भक्तिमात्र से भ्रष्ट होता तो, स्वधर्म परित्याग जनित दोष अवश्यम्भावी होगा। इस प्रकार आशङ्का के उत्तर में कहते हैं–भजन से यदि पतित होता है, अर्थात् भ्रष्ट अथवा मरण हो जाता है, तथापि भक्तघनुष्ठान कारी को स्वधर्म परित्याग जनित प्रत्यवाय भागी नहीं होना पड़ेगा ।

  • Figis

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तात्पर्य यह है कि भक्ति में दृढ़ विश्वास उत्पन्न जवतक नहीं होता है, तब तक ही काम्य कर्मानुष्ठान करने का अधिकार होता है, किन्तु भक्ति साधन में दृढ़ श्रद्धा उत्पन्न होने पर काम्य कर्मानुष्ठान करने का अधिकार नहीं रहता है । अतएव काम्य कर्म में अनधिकारी श्रद्धालु भक्त के पक्ष में स्वधर्म त्याग जनित अनर्थ उत्पत्ति की आशङ्का नहीं हो सकती है । अपक्वावस्था में पतन को अङ्कीकार कर कटाक्ष भङ्गी से कहते हैं, - भक्ति साधक पतित होकर यदि नीच योनि में जन्म ग्रहण करता है, तथापि उसका अमङ्गल नहीं होता है । काकूक्ति से यह सूचित हुआ है । कारण - भक्ति साधक नीच योनि में प्रविष्ट होने पर भी उस की भक्ति वासना रह जाती है। भक्ति साधक के पक्ष में नीच योनि एवं उच्चयोनि में जन्म का महत्त्व समान है । कारण, भक्तिमार्ग में उत्तम अधम देहादि की किसी प्रकार अपेक्षा नहीं है । भगवान् भक्तिमान् को आदर प्रदान करते हैं, शरीर विशेष को नहीं। इस विषय में मनःशिक्षाग्रन्थ प्रणेता प्रेमानन्द का कथन यह है-

“बल, कि करे बरण कुल !

ये कुले से कुले

जनम हउक

केवल भकति मूल”

(CF)

कपि कुले देख

वीर हनुमान्

श्रीराम भकत राज ।

राक्षस कुलेते

विभीषण वैसे

ईश्वर सभार माझ ।"

श्रीहरि चरणों में भजन विहीन व्यक्ति, केवल स्वधर्मानुष्ठान कर किस फल को प्राप्त करेगा ? श्लोकस्थ “अभजतां” पद में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग हुआ है, उस से सम्बन्ध सामान्य बोध होता है, एवं कर्त्ता में षष्ठी है । श्रीधर स्वामि पाद का कथनाभिप्राय यह ही है ।

श्रीव्यासदेव के प्रति श्रीनारद कहे थे ॥२३॥

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