२२

०३७ २२

तदेवं

स्थापयति, (भा०

तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ॥ ३६ ॥ इत्यादेः ॥

तद्भजनस्यैवाभिधेयत्वं दर्शयित्वा पूर्वोक्त सर्व्वशास्त्रसमन्वयमेव

०३८ १२

३०)-

(२२) “स एवेदं ससर्जा भगवानात्ममायया ।

सदसद्रूपया चासौ गुणमय्याऽगुणो विभुः ।” ३७॥ इत्यादि ।

टोका च– " ननु जगत्सर्ग-प्रवेश-नियमनादि-लीलायुक्ते वस्तुनि सर्व्वशास्त्रसमन्वयो अन्य भूतोपाधि जीव समूह उक्त आनन्द का कण प्राप्त कर जीवित रहते हैं । अतएव उक्त सकाम धर्मानुष्ठान का तात्पर्य्यं भी श्री वासुदेव में ही है । अथवा “वासुदेव परा वेदाः” भृ’त वादय का ऊपर अर्थ भी होता है, निखिल वेद का तात्पर्य जब वासुदेव में ही है, तब वेद को अबलम्बन कर ही प्रवृत्त निखिल शास्त्र, निखिल साधन. - अवश्य हो वासुदेव पर होगे । ऐसा न होने पर निखिल शास्त्र एवं साधन समूह अवैदिक अर्थात् वेद वाह्य हो जायेंगे ।

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प्रश्न हो सकता है कि- शास्त्र एवं साधन समूह के लक्ष्य, मख, योग, क्रियादि विभिन्न प्रकार हैं । अतएव शास्त्र एवं साधन समूह व सुदेव पर हैं— कैसे कहा जा सकता है ? उत्तर में कहते हैं पृथक् मख योग क्रिय दि का एकमात्र तात्पर्य्यं वासुदेव ही हैं, इस को दर्शाने के निमित्त पुनर्वार पृथक् उल्लेख उन सब का हुआ है, यह ही विशेष द्रष्टव्य है । स्वानिकृत टीका का अभिप्राय यह ही है । “वासुदेवपरावेदाः श्लोकोक्त योग दि साधन समूह का भगवद् भक्ति साधन में किसी प्रकार साहाय्यकारित्व विद्यमान है, अतः शास्त्र समूह एवं साधन समूह का मुख्य तात्पर्य वासुदेव में ही है, समझना होगा । वेद समूह कर्मकाण्ड प्रतिपादक हैं, कुछ अंश साक्षात् भक्ति प्रति पादक भी दृष्ट होते हैं, श्वेताश्वतर में उक्त है—

“यस्य देवे पराभक्ति र्यथादेवे तथा गुरौ ।

तस्यते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ॥३६॥

जिस मानव की भक्ति देवता में जिस प्रकार है, उसप्रकार भक्ति यदि गुरुदेव में होती है, तो शास्त्रोक्त अर्थ समूह उस मानव के हृदय में अनुभूत होते । हैं इस प्रकार भक्ति पर श्रुति दृष्ट होती है ।

०३९ २२

श्रीसूत - भा० १।२ २२ श्लोक में श्रीभगवद् भजन का अभिधेयत्व अर्थात् अवश्य कर्त्तव्यता प्रदर्शन पूर्वक पूर्व वर्णित सर्व शास्त्र समन्वय, श्रीवः सुदेव में स्थापन करने के निमित्त भा० १ २ ३० श्लोक कहते हैं-

(२२) " स एवेदं ससर्जा

सदसद्र पया चासौ

भगवानात्ममायया । गुणमय्यागुणो विभुः " ॥३७॥

टीका - “ननु जगत् प्रवेश नियमनादि विलास युक्ते वस्तुनि सर्वशास्त्र समन्वयो दृश्यते, कथं वासुदेव परत्वं सर्वस्य ? तत्राह - स एवेति चतुभिः । एतैरेव श्लोकैस्तस्य ‘कर्माण्युदाराणि ब्रूहि’ इति प्रश्नस्योत्तर- मुक्तम् । सदसद्रूपया - काय्र्य कारणात्मिकया । अगुणश्चेत्यः वयः, स्वतो निर्गुणोऽपि सन्नित्यर्थः । " ३० ॥

सर्व प्रथम भगवान् वासुदेव ही निज अधोना कार्य्यं कारण रूपा गुणमयी माया द्वारा महत् तत्त्व से आरम्भ कर विरिश्चि पर्यन्त समस्त वस्तु का सृजन किये हैं । किन्तु मायानाम्नी निज शक्ति के द्वारा

३८. ]

दृश्यते, कथं वासुदेव- परत्वं सर्व्वस्य ? तत्राह - ‘स एव’ इति चतुभिः” इत्येषा । इदं महदादि विरिञ्चिपर्यन्तम् । एवं प्रवेशादिकापि उत्तरश्लोकेषु द्रष्टव्या ॥ श्रीसूतः श्रीशौनकम् ॥