०३५ २१
ततो वासुदेव एव भजनीय इत्युक्तम् । सर्व्वशास्त्रतात्पर्य्यं च तत्र वेत्याह द्वाभ्याम् ( भा० १।२।२८– २६ ) -
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(२१) “वासुदेवपरा वेदा वासुदेवपरा मखाः ।
वासुदेवपरा योगा वासुदेवपराः क्रियाः ॥ ३४॥
वासुदेवपरं ज्ञानं वासुदेवपरं तपः ।
वासुदेवपरो धर्मो वासुदेवपरा गतिः ॥ ” ३५॥
टीका च- ‘वासुदेवः परस्तात्पर्य्यगोचरो येषां ते । ननु वेदा मखपरा दृश्यन्ते ? इत्याशङ्कय तेऽपि तदाराधनार्थत्वात्तत्परा एवेत्युक्तम् । योगा योगशास्त्राणि, तेषामप्यासन- प्राणायामादि क्रिया-परत्वमाशङ्कय तासामपि तत्प्राप्त्युपायत्वात्तत्परत्वमुत्तम् । ज्ञानं ज्ञान-
जो लोक, सकाम होते हैं, वे प्रायशः राजस तामस प्रकृति के होते हैं । तज्जन्य रजः तमः प्रकृति के मैरव प्रभृति पितृ प्रजापति प्रभृति के स्वभाव के सहित उन के स्वभाव की समता है, अतः सम्पत्ति. ऐश्वर्य्य, एवं पुत्रादि कामना से पितृपुरुष भूतपति एवं प्रजापति प्रभृति का भजन करते हैं । रज स्तमः स्वभाव होने के कारण, पितृभूत प्रजेशादि के सहित सकाममानवों का ऐक्य है, एतज्जन्य उनका भजन में प्रवृत्ति उन सब की होती है ॥२०॥
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अतएव वासुदेव ही भजनीय है, कारण, श्रीवासदेव का भजन करने से मानवों के यावतीय मङ्गल निष्पन्न होते हैं । अतः वासुदेव का भजन करना ही कर्त्तव्य है । समस्त शास्त्र का तात्पर्य्यं वासुदेव का भजन में है, श्लोकद्वय के द्वारा उसका प्रतिपादन करते हैं ११२२८-२६
(२१)
“वासुदेवः परा वेदा वासुदेवपरा मखाः ।
वासुदेव परायोगा वासुदेव पराः क्रियाः ॥३४॥
वासुदेव परं ज्ञानं वासुदेव परं तपः ।
वासुदेवपरो धर्मो वासुदेव परा गतिः ॥ ३५ ॥ ।
टीका-अतो मोक्ष प्रदत्वात् वासुदेव एव भजनीय इत्युक्त, सर्व शास्त्र तात्पर्य्यं गोचरत्वादपीत्याह । द्वाभ्याम् । वासुदेवः पर स्तात्पर्य्यं गोचरो येषां ते । ननु वेदा मलपरा दृश्यन्ते, इत्याशङ्कया तेऽपि तदा राधनार्थत्वात् तत्परत्वमुक्तम् ।२८। ज्ञानं-ज्ञानशास्त्रम् । ननु तज् ज्ञानम् परमेवेत्याशङ्कय ज्ञानस्यापि तत् परमत्वमुक्तम् । तपोऽत्र ज्ञानम् । धर्मोधर्मशास्त्रम् दान व्रतादिविषयम् । ननु तत् स्वर्गादि परमित्याशङ्कय तस्यापि तदधीनत्वात् तत् परत्वम् । गम्यते इति गतिः, स्वर्गादि फलं, सापि तदानन्दांश प्रकाशरूपत्वात् तत् परैवेत्युक्तम् । यद्वा, वेदा इत्यनेनैव तन्मूलत्वात् सर्वाणि शास्त्राणि वासुदेव पराणीत्युक्तम् तत्र ननु
तेषां मखयोग क्रियादिनानार्थपरत्वान्न तदेकपरत्व मित्याशङ्कय मखादीनामपि तत् परत्वमुक्त मिति द्रष्टव्यम् ॥२६॥
वेदसमूह - श्रीवासुदेव प्रतिपादक हैं, यज्ञ समूह, - वासुदेव आराधन पर हैं। प्राणायामादि योगाङ्ग क्रिया । समूह-वासुदेव प्राप्ति के उपाय हैं । क्रिया समूह भी वासुदेव प्राप्ति के उपाय स्वरूप हैं, ज्ञान शास्त्र का तात्पर्य्य भी श्रीवासुदेव में ही है। ज्ञान साधन का उद्देश्य भी श्री वासुदेव का साक्षात् कार ही है । धर्म शास्त्र भी वासुदेव पर है । श्री वासुदेव ही एकमात्र परमाश्रय अर्थात् परम प्राप्य है ।
पूर्वोक्त श्लोकद्वय की श्रीधरस्वामीकृत टीका की व्याख्या इस प्रकार है, “वासुदेव परा वेदाः "
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शास्त्रम् । ननु तज्ज्ञानपर मेवेत्याशङ्कय ज्ञानस्यापि तत्परत्वमुक्तम् । तपोऽत्र ज्ञानम् । धम्र्मो धर्मशास्त्र’ दानव्रतादिविषयम् । ननु तत् स्वर्गादि-परमित्याशङ्कच तस्यापि तदधीनत्वात्- परत्वम् । गम्यत इति गतिः स्वर्गादिफलम्, सापि तदानन्दांशप्रकाश रूपत्वात् तत्परैवेत्युक्तम् । यद्वा, वेदा इत्यनेनैव तन्मूलत्वात् सव्र्व्वाण्यपि वासुदेवपराणीत्युक्तम् । ननु वेदानां तेषां ख- योगक्रियादि- नानार्थपरत्वान्न तदेकपरत्वमित्याशङ्कय मखादीनामपि तत्परत्वमुक्तमिति
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वेद समूह का तात्पर्य्य गोचर श्री वासुदेव हैं, अर्थात् मुख्य एवं गौणी वृत्ति से अ वयमुख से एवं व्यतिरेक मुख से वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण को ही प्रतिपादन करते हैं। गीता में उक्त है- “वेदश्च सर्वैरहमेव वेद्योवेदान्तकृद् वेदविदेव चाह इस में संशय हो सकता है कि, - निखिल वेद यज्ञकर्म प्रतिप दनार्थ प्रवृत्त हैं, ‘वासुदेव पर’ वेद है, यह कथन सङ्गत कैसे होगा ? उत्तर में कहते हैं “वासुदेवपरामखा. " समस्त यज्ञ भी वासुदेव की आराधना के उद्देश्य से ही अनुष्ठत होते हैं । कारण, “सर्वयज्ञश्वरो हरिः” अतएव यज्ञ समूह भी वासुदेव पर ही हैं। " वासुदेव परो योगः " योगशास्त्र समूह भी वासुदेव पर हैं, कारण, “ईश्वर प्रणिधानाद्वा” पातञ्जल सूत्रोक्त ईश्वर - श्रीवासुदेव प्रणिधान में ही तात्पर्थ्य दृष्ट होता है । इस में सन्देह हो सकता है कि - योगशस्त्र का त त्पर्थ्य आसन प्राणायाम प्रभृति ‘क्रया में ही है, योग शास्त्र का तात्पर्य वासुदेव मैं है, कैसे कहा जा सकता है ? उत्तर में कहते हैं, “वासुदेव परा क्रिया.” आसन प्राणायामादि क्रिया में ईश्वर वासुदेव प्राप्ति हेतुत्व विद्यमान होने के कारण; निखिल योगशास्त्र का लक्ष्य- वासुदेव ही हैं। “वासुदेव परं ज्ञानं” ज्ञान शास्त्र भो व सुदेव प्रतिपादक है। कहा जा सकता है कि-जीव एवं ईश्वर का चित् स्वरूप साम्य अभेदानुसन्धान में ही ज्ञान शास्त्र का त त्पर्य है, ज्ञान शास्त्र का तात् पर्थ्य वासुदेव हैं, कथन कैसे सङ्गत होगा ? उत्तर, ज्ञान स धन का भी तात्पर्य, सुदेवानुभव में है । कारण, गीता में उक्त है - “बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान् मां प्रपद्यते, वासुदेवः सर्वमिति समहात्मा दुर्लभः ।” इस श्लोक में ज्ञान का मुख्य तात्पथ्यं वासुदेव स्वरूप की अनुभूति में वर्णित है । " वासुदेव- परं तपः " यहाँ तपः शब्द का अर्थ ज्ञान है, पूर्व में “वासुदेवपरं ज्ञानं” यहाँ ज्ञान शब्द का अर्थ ज्ञान- अध्यात्मशास्त्र किया गया है। यहाँ ज्ञान शब्द का अर्थ-ज्ञान साधन रूप है । श्रीभगवद् गीता में उस प्रकार उल्लेख दृष्ट होता है। त्रयोदश अध्याय के “अमानित्वमदग्भित्वम्” से अ रम्भ कर ‘मयि चानन्य- योगेन भक्तिरव्यभिचारिणी एतज् ज्ञानमिति प्रोत्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा’ पर्य्यन्त श्रीवासुदेव में अव्यभि– चारिणी भक्ति का उल्लेख ज्ञान रूप में हुआ है । एवं वासुदेव में भक्तिविरोधि ज्ञान को अज्ञान शब्द से कहा गया है। " वासुदेव परोधर्मः” दान व्रतादि प्रतिपादक सकाम धर्म शास्त्र भी व सुदेव पर है। इस में संशय यह है कि- दान व्रतादि सकाम धर्मका फल स्वरूप पुरुषार्थ रूप में स्वर्गादि का उल्लेख दृष्ट होता है ? उत्तर में कहते हैं- “वासुदेव परागतिः” प्राप्ति योग्यवस्तु को गति कहते हैं, कारण–गमधातु का प्रयोग प्राप्तिअर्थ में भी है, सर्वे गत्यर्थाः प्राप्तयर्था ज्ञानर्थाश्चेति ’ अतएव सकाम धर्म का फल स्वर्गादि हैं ? उत्तर - स्वर्गादि सुख भी, अखण्ड आनन्द स्वरूप श्री वासुदेव के आनन्द का अंश होने के कारण, स्वर्गीय सुख को पुरुषार्थ कहा गया है, कारण, परमानन्द वस्तु ही मुख्य पुरुषार्थं है । उक्त आनन्द, विम्ब प्रतिविम्ब रूप में प्रतिष्ठित है, विपाद विभूति में विम्ब रूप में, एक पाद विभूति में प्रतिच्छाया सांसारिक आनन्द रूप में वह अवस्थित है । जिस प्रकार चन्द्र न होने से प्रतिविम्ब नहीं होता है, प्रतिविम्व, किन्तु चन्द्र नहीं है, उस प्रकार विशुद्ध आनन्द स्वरूप वासुदेव की आनन्द सत्ता से ही मायिक आनन्द स्वरूप में प्रतिभात होता है, विम्व के अवलम्बन से ही प्रतिविम्व रहता है । प्रतिविम्व की स्वतन्त्रसत्ता नहीं है ।
उक्त अभिप्राय को श्रुति प्रकाश कहती है- “एतस्यैवानन्दस्यान्यानि भूतानि मात्रामुपजीवन्ति "
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द्रष्टव्यम्” इत्येषा । अत्र योगादीनां कथञ्चिद्भक्तिसचिवत्वेनैव तत्परत्वं मुख्यं द्रष्टव्यम् । वेदाश्च कर्मकाण्डपरा एव ज्ञेयाः केषाञ्चित् साक्षाद्भक्तिपरत्वमपि दृश्यत इति, (वे० ६।२३) यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ ।