०३२ १९
रजस्तमः प्रकृतित्वेनैव पित्रादिभिः समं शीलं येषाम्, समशीलत्वादेव रुद्भजने प्रवृत्तिरित्यर्थः ।
देवतान्तर की उपासना परित्याग पूर्वक श्रीभगवान् में भक्ति करते हैं, वे सब इस जगत् में भगवद् मङ्गल प्राप्त के अधिकारी होते हैं ॥ १८ ॥
दर्शनरूप
०३३ १९
यहाँ प्रश्न हो सकता कि श्रीविष्णु व्यतीत भैरव प्रभृति देववृन्द का भजन भी कतिपय व्यक्ति करते रहते हैं ? यह क्यों ? उत्तर में कहते हैं, सत्य है, कारण, वे सब सकाम भक्त हैं, किन्तु जो लोक निष्काम हैं, अर्थात् मुमुक्षु हैं, वे सब भैरव प्रभृति देवतान्तर का भजन नहीं करते हैं, एवं जो लोक,
भगवद्
भक्ति को परम पुरुषार्थ मानते हैं, वे सब भी देवतान्तर का भजन नहीं करते हैं । इस के विषय में अधिक कहना ही क्या है ।
भाग ११२।२६ में उसका कथन है-
(१६) " मुमुक्षवो घोररूपान् हित्वा भूतपतीनथ ।
नारायणकलाः शान्ता भजन्ति ह्यनसूयवः ॥ " ३२॥
टीका - ननु अन्यानपि केचिद् भजन्तो दृश्यन्ते, सत्यम्, मुमुक्षवस्तु अन्यात् न भजन्ति, किन्तु सकामा एवेत्याह– मुमुक्षव इति द्वाभ्याम् । भूतपतीनिति, पितृ प्रजेशादीनामुपलक्षणम् । अनसूयवः, देवतान्तरा- निन्दकाः सन्तः ।
मुमुक्षगण, घोरमूत्ति भूतपति भैरव प्रभृति को परित्याग पूर्वक एवं देवतान्तर के प्रति अनिन्दुक होकर प्रशान्तचित्त से श्रीनारायण के मूर्ति समूह का भजन करते रहते हैं। इलोकोक्त “भूत पतीन्” भैरव प्रभृति पद - पितृ पुरुष एवं प्रजापति प्रभृति का उपलक्षण है, अर्थात् ग्राहक है, “अनसूयवः " शब्द का अर्थ- देवतान्तर का अनिन्दुक है ॥१६॥