०३० १८
अतएव काम्य कर्म, ज्ञान, वैराग्य प्रभृति के प्रति यत्न परित्याग पूर्वक श्रीभगवान् में भक्ति करना ही कर्त्तव्य है - इस प्रकरण का यही तात् पर्थ्य है । कर्म विशेष रूप देवतान्तर का भजन करना भी
श्रीभक्ति सन्दर्भः ३२ ] विशेषरूपं देवतान्तरभजनमपि न कर्त्तव्यमित्याह सप्तभिः । तत्रान्येषां का वार्त्ता, सत्यपि
हाय
श्रीभगवत एव गुणावतारत्वे श्रीविष्णुवत् साक्षात्परमब्रह्मत्वाभावात् सत्वमात्रोपकारकत्वा- भावाच्च, प्रत्युत रजस्तमोवृ हणत्वाच्च, ब्रह्म शिवावपि श्रेयोऽथिभिर्नोपारयावित्यत्र द्वौ श्लोकौ परमात्मसन्दर्भ एवोदाहृतौ ( भा० १२ २३-२४)
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“सत्त्वं रजस्तमो इति प्रकृतेर्गुणास्तै-
(UP)
र्युक्तः परः पुरुष एक इहास्य धत्ते ।
स्थित्यादये हरि विरिञ्चि- हरेति संज्ञाःTERSTIS
तिन खलु सत्त्वतनोनृ णाँ स्युः ॥२६॥
॥ पार्थिवाद्दारुणो धूमस्तस्मादग्निस्त्रयीमयः ।
तमसस्तु रजस्तमात् सत्त्वं यद्ब्रह्मदर्शनम् ॥३०॥
क
phe
सत्त्वतनोः सत्वशक्तेः, त्रयीमयस्त्रय्युक्त कर्म्मप्रचुरः, दारुस्थानीयं तमः, धूमस्थानीयं रजः, अग्नि स्थानीयं सत्त्वम्, त्रय्युक्त-कर्मस्थानीयं ब्रह्म । पार्थिवादिति यथा धुमोऽशेनाग्नीयो भवति, दारु तु तथा नेति, अत्र स्वल्पं त्रयीमयत्वं भवति एवं यथा रजसः सत्त्वसन्निहितत्वं कर्त्तव्य नहीं है - इस को सात श्लोकों के द्वारा कहते हैं । देवतान्तर उपासना के मध्य में इन्द्रादि देववृन्द की बात तो दूर है, श्रीभगवान् के गुणावतार होने पर भी श्रीविष्णु के समान सात् पर ब्रह्मत्व के अभाव हेतु एवं सान्निध्य मात्र से सत्त्व गुण का उपकारकत्व न होने के कारण, वस्तुतः रजस्तमो
के द्वारा गुण आवत होने के कारण श्रेयस्कामी व्यक्ति वृन्द के पक्ष में ब्रह्मा, शिव भी उपास्य नहीं होते हैं। इस सम्बन्ध में इलोकद्वय का उल्लेख परमात्मसन्दर्भ में किया गया है । भा० १।२।२३।२४
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सत्वं रजस्तम इति प्रकृतेगुणास्तैर्युक्तः परः पुरुष एक इहाम्य धत्ते । स्थित्यादये हरि–विरिद्धि-हरेति संज्ञाः श्रेयांसि तत्र खलु सतनो नृणां स्युः ॥२६
पार्थिवाद्दारुणो धूमस्तस्मादग्निस्त्रयीमयः ।
तमसस्तु रजस्तस्मात् सत्त्वं यद्ब्रह्म दर्शनम् ॥३०॥ यद्ब्रह्म दर्शनम् ॥३०॥
टीका-तदेवोपपादयितुं ब्रह्मादीनां गयाणामेकात्मकत्वेऽपि वासुदेवस्याधिध्यम है, सत्वमिति । इह यद्यपि एक एव परः पुमान् अस्य विश्वस्य स्थित्यादये, सृष्टिस्थितिलयायं हरिविरिञ्चि हरेति संज्ञाः केवला भिन्नाधत्ते । हरि विरिञ्चि हरा इति वक्तव्ये सन्धिराषः । तत्र तेषां ‘मध्ये श्रेयांसि शुभफलानि सत्त्वतनो वसुदेवादेव स्युः । २३। उपाधि वैशिह्य ेन फलवैशिष्ट्य ं स दृष्टान्तमाह । पार्थिवात्- स्वतः प्रवृत्ति प्रकाश रहितात् दारुणः काष्ठात् सकाशात् धूमः प्रवृत्ति सभावः त्रयीमयः वेदोक्त कर्म प्रचुरः ईसत् कर्म प्रत्यासत्तेः । तस्मादपि अग्निस्त्रयीमयः, साक्षात् कर्म साधनत्वात् । एवं तमसः सकाशात् रजो ब्रह्मदर्शनं ब्रह्म प्रकाशक्रम् । तु शब्देन लय. त्मकात् तमसः सकाशाद्रजसः सोपाधिक ज्ञान हेतुत्वेन कथञ्चिद्ब्रह्म दर्शन प्रत्यासत्तिमात्रमुक्तं नतु सर्वथा तत् प्रकाशकत्वं विक्षेपकत्वात् । यत् सत्त्वं तत् साक्षात् ब्रह्मदर्शनम् अतस्तत्तदुपाधीनां हर ब्रह्मादीनामपि यथोत्तरं वैशिष्टमिति भावः । (२४)
क
सत्त्व, रजः एवं तमः यह तीन गुण प्रकृति के हैं। एक परमपुरुष, उक्त तीन गुण युक्त होकर इस विश्वके सृष्टि स्थिति एवं संहार हेतु सत्त्व गुणसे हरि, रजं गुणसे ब्रह्मा, एवं तमो गुणसे हरसंज्ञा प्राप्त होते हैं ।
P
तथा तमसो नेति । बह्मसन्निहितत्वं स्वल्पं ज्ञेयम् । ततश्च
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वय्युक्तकर्म यथाग्नावेव साक्षात्
प्रवर्त्तते, नान्ययोस्तद्वत् परब्रह्मभूतो भगवानपि सत्त्व एवेत्यर्थः । देवतान्तरपरित्यागेनापि
भगवद्भक्तौ सदाचारं प्रमाणयति, (भा० ११२१२५ ) -
भा० ११२२२५) -
(१८) " भेजिरे मुनयोऽथाग्र े भगवन्तमधोक्षजम् ।
सत्त्वं विशुद्धं क्षेमाय कल्पन्ते येऽनु तानिह ॥ " ३१॥
अथ अतो हेतोः, अग्रे पुरा, सत्त्वं विशुद्धं विशुद्धसत्त्वात्मकमूत्ति भगवन्तम्, प्राकृत– तन्मध्य में सत्त्व मूर्ति श्रीविष्णु से ही मानव वृन्द को कल्याण लाभ होता है । जिस प्रकार पृथिवी का विकार स्वरूप काष्ठ से घूम होता है, उस से उत्थित अग्नि है, उस अग्नि से यज्ञ कर्म निष्पत्ति होती है, उस प्रकार काष्ठ स्थानीय तमं गुण धूमस्थानीय रजो गुण, एवं अग्निस्थानीय सत्त्वगुण है । वेदोक्त कर्मस्थानीय ब्रह्म हैं, काष्ठ अवस्था में एवं धूम अवस्था में जिस प्रकार यज्ञ कयं सम्पन्न नहीं हो सकता है, किन्तु प्रकाश बहुल अग्नि में साक्षात् यज्ञ कार्य्य सम्पन्न होता है, उस प्रकार काष्ठ स्थानीय तमोगुण से आवृत शिव से एवं धूमस्थानीय रजोगुणावृत ब्रह्मा से मानवों का परतत्त्व साक्षात् कार रूप मङ्गल साधित नहीं हो सकता है। किन्तु प्रकाश बहुल सान्निध्यमात्र से सत्त्व गुणोपकारक श्रीविष्णु से ही ब्रह्म साक्षात् कार रूप वल्याण साधत हो सकता है । देवतान्तर परित्याग पूर्वक भी श्रीभगवान् में भक्ति व रावर्त्तव्य है, ( भा० १।१।२५ )
(१८)
“भेजिरे मुनयोऽथाग्र े भगवन्तमधोक्षजम् ।
सत्त्वं विशुद्ध क्षेमाय कल्पन्ते येऽनु तानिह ॥ ३१ ॥
टीका - वासुदेवभक्तौ पूर्वाचारं प्रमाणमति भेजिरे इति । अथ अतो हेतोः अग्र े पुरा, विशुद्धं सत्त्वं सत्त्व मूर्ति भगवन्तमधोक्षजम् । अतो ये ताननुवर्त्तन्ते तेऽपि इह संसारे मोक्षाय कल्पन्ते ॥२५॥
उक्त विषय में सदाचार का प्रदर्शन करते हैं । अतएत, पूर्वतन मुनिवृन्द विशुद्ध सत्त्वमूत्ति अधोज्ञज श्रीभगवान् का भजन किये थे । जो मानव, उक्त मुनिवृन्द के आनुगत्य से देवतान्तर की उपासना को परित्याग कर श्रीभगवान् में भक्ति करते हैं, वे सब परम कल्याण अर्थात् भगवत् साक्षात् कार रूप मङ्गल प्राप्त करते हैं । " अथ - इस हेतु, अर्थात् सत्त्व मूर्ति श्रीविष्णु से ही परतत्त्व साक्षात् कार रूप परम मङ्गल लाभ होता है, एतज्जन्य अग्रे - पुराकाल में “सत्त्वं विशुद्ध” विशुद्धसत्वाकार मूत्ति श्रीभगवान् का भजन करते हैं । यह विशुद्ध सत्त्व - प्राकृत सत्त्व गुणातीत है, श्रीभगवत् सन्दर्भ में इस की विस्तृत आलोचना की गई है। प्राकृत सत्त्व, विशुद्ध सत्त्व नहीं हो सकता है, कारण, जिस सत्त्व गुण में रजोगुण एवं तमोगुण मिश्रित नहीं है, वह ही विशुद्ध सत्त्व है । प्राकृत सत्त्व सतत रजोगुण, तमोगुण मिश्रित ही है, गुणत्रय की स्थिति–अन्योन्य मिलित रूप में होती है । अमिश्रित सत्त्व ही विशुद्ध सत्त्व है । सन्धिनी, सग्वित् एवं ह्लादिनी नामक शक्तित्रय की अन्य निरपेक्ष रूप से स्वयं प्रकाश क्षमता का नाम विशुद्ध सत्त्व है । उक्त विशुद्ध सत्र की मूर्ति श्रीविष्णु हैं, अर्थात् निज शक्ति से स्वयं प्रकाश मान हैं ।
नारायणाध्यात्म में लिखित है- " नित्याव्यक्तोऽपि भगवानीक्षते निज शक्तितः । तामृते परमात्मानं कः पश्येत् परमं प्रभुम् "
यद्यपि श्रीभगवान् नित्य अव्यक्त हैं, अर्थात् कोई भी साधन उनको प्रकाश करने में सक्षम नहीं हैं, तथापि श्रीभगवान् निज शक्ति से नित्य अभिव्यक्त होते हैं । उनकी निज शक्ति के विना उन अनन्त स्वरूप प्रभु को देखने में कौन सक्षम होगा ? अतएव जो लोक मुनिवृन्द के आनुगत्य से भजन करते हैं, अर्थात्
श्री भक्तिसन्दर्भः
[[३४]] सत्त्वातीतत्वञ्च तस्य विवृतं ( १०० अनु०) भगवत् सन्दर्भे । अतो ये ताननु वर्त्तन्ते, ते इह संसारे क्षेमाय कल्पन्ते ॥
०३१ १८
नन्वन्यान् भैरवादीन् देवानपि केचिद्भजन्तो दृश्यन्ते यतस्ते सकामाः; किन्तु मुमुक्षवोऽप्यन्यान्न भजन्ते, किमुत तद्भक्त्येक पुरुषार्था इत्याह (भा० ११२/२६) -
(१६) “मुमुक्षवो घोररूपात् हित्वा भूतपतीनथ
॥”
नारायणकलाः शान्ता भजन्ति ह्यनसूयवः ॥ ३२॥
भूतपतीनिति पितृप्रजेशादीनामुपलक्षणम् । अनसूयवो देवतान्तरानिन्दकाः सन्तः ॥ २० । ननु कामलाभोऽपि लक्ष्मीपतिभजने भवत्येव, तहि कथमन्यांस्ते भजते ? तत्राह
(भा० १।२।२७) -
(२०) “रजस्तमः प्रकृतयः समशीला भजन्ति वै पितृभूत-प्रजेशादीन् श्रियंश्वर्य्यम जेप्सवः ॥
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