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अत्र प्रकरणार्थे सदाचारं दर्शयन्नुपसंहरति, (भा० ११२१२२) -
(१७) “अतो वे कवयो नित्यं भक्ति परमया मुदा ।
वासुदेवे भगवति कुर्व्वन्त्यात्मप्रसादनीम् ॥” २८ ॥
आत्मप्रसादनीं मनसः शोधनीम्, न केवलमेतावद्गुणत्वं तस्याः, किश्च परमया मुदेति कर्मानुष्ठानवत् न साधन काले साध्यकाले वा भक्तचनुष्ठानं दुःखरूपम्; प्रत्युत सुखरूपमेवेत्यर्थः । अतएव नित्यं साधकदशायां सिद्धदशायाञ्चैव तावत् कुर्व्वन्तीत्युक्तम् ॥ श्रीसूतः ॥
१८ तदेवं कर्म्म-ज्ञान-वैराग्ययत्न- परित्यागेन भगवद्भक्तिरेव कर्त्तव्येति मतम् । कर्म
संशय– परमात्म साक्षात्कार से विरित होते हैं, उस के मध्य में श्रवण के द्वारा ज्ञेये परतत्त्वगत असम्भावना की निवृत्ति होती है । मनन के द्वारा, ज्ञेोयगत विपरीत भावना निवृत्ता होती है, आत्मतत्त्व साक्षात् कार के द्वारा - निज योग्यतागत असम्भावना एवं विपरीत भावना की निवृत्ति होती है। संशय निवृत्ति के क्रम को उक्त प्रकार से ही जानना होगा ।
“क्षीयन्ते” भगवदिच्छा मात्र से ही निखिल कर्मक्षय होते हैं । अर्थात् कृत, क्रियमाण, एवं करिष्यमाण कर्म का कुछ भ अवशेष नहीं रहता है, आभास भी विनष्ट हो जाता है । कारण, भक्ति अनुष्ठ न के सहित ही कर्मक्षय ह ना प्रारम्भ होता है । किन्तु सम्पूर्ण कर्मक्षय, - भगवत् साक्षात् कार से ही होता है । प्रकरण का अभिप्राय यह हो है ॥ १६ ॥
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इस प्रकारण में वर्णित विषय का सदाचार को दर्शाकर प्रकरण का उपसंहार करते हैं ।
भा० १।२।२२
१७ " अतो वे कवयो नित्यं भक्ति परमयामुदा ।
वासुदेवे भगवति कुर्व्वन्त्यात्मप्रसादनीम् ॥
टीका-तत्र सद चारं दर्शयन् उपसंहरति अत इति आत्म प्रसादनों-मनः शोधनों वासुदेवे भक्त कुर्वन्तीति भजनीय विशेषो दर्शितः ॥
अतएव मनः षिवृन्द, परम आनन्द के सहित भगवान् वासुदेव के प्रति नित्य चित्त शोधन कारिणी भक्ति करते रहते हैं ।
“आत्म प्रसादनी” अर्थात् मनः शोधन कारिणी । भक्ति का केवल मात्र यह ही गुण नहीं है, किन्तु “वरमया मुदा” अर्थात् कर्मानुष्ठान, जिस प्रकार साधन एवं साध्य काले दुःखद है, भक्ति अनुष्ठान उस प्रकार नहीं है । भक्ति-अनुष्ठान साधन काल में भी सुखरूप है, साध्य काल में भी सुख रूप है । अतः “परमया मुदा” का उल्लेख हुआ है
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अतएव साधन काल में भी आनन्द रूप है, एवं साध्य काल में भी आनन्द रूप है । तज्जन्य " नित्यं पद का उल्लेख हुआ है अर्थात् साधक दशा में एवं सिद्ध दशामें भी भगवान् में भक्ति करते रहते हैं । भा० १।२। ३ से १७ श्लोक पर्य्यन्त, श्रीसूतने भक्ति प्रकरण को कहा है ॥ १७॥