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तस्य च परमानन्दैकरूपत्वेन स्वतः फलरूपस्य साक्षात्काररयानुषङ्गिकं फलमाह

( भा० ११२१२१) -

(१६) “भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्व्वसंशयाः ।

क्षीयन्ते चास्य कर्माणि दृष्ट एवात्मनीश्वरे ॥ १७॥XP हृदयग्रन्थिरुपाध्यहङ्कारः सर्व्वसंशयाश्छिद्यन्त इति श्रवण-मननादि - प्रधानानामपि तस्मिन् दृष्ट एव सर्व्वे संशयाः समाध्यन्त इत्यर्थः । तत्र श्रवणेन तावज्ज्ञ यगतासम्भावनाश्छिद्यन्ते,

(१५) " एवं प्रसन्न मनसो भगवद्भक्तियोगतः ।

भगवत्तत्त्व विज्ञानं मुक्त सङ्गस्य जायते ॥” (२६)

टीका - भगवद् भक्ति योगतः, प्रसन्नमनसः, अतएव मुक्तसङ्गस्य ।

भगवत्तत्त्व विज्ञान का आविर्भाव प्रसङ्ग को कहते हैं । उक्त रीति से प्रसन्न चित्त मुक्त सङ्ग भक्त

के हृदय में भगवद् भक्ति योग के प्रभाव से भगवत्तत्त्व का अनुभव प्रकाशित होता है ।

“एवं पूर्वोक्त प्रकार प्रसन्न चित्त, अतएव मुक्त सङ्ग अर्थात् कामादि वासना रहित भक्त, पुनर्वार अनुष्ठित भक्ति योग से भावना व्यतीत ही मन में भगवत्तत्व का साक्षात्कार अर्थात् अनुभव करने में सक्षम हैं ॥ १५॥

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उक्त भगवत् साक्षात् कार - परमानन्द स्वरूप है, अतएव उक्त साक्षात् कार भगवत् भक्ति का फल स्वरूप है। भा० १।२।२१ में कथित हैं-

(१६) ’ भिद्यते हृदय ग्रन्थिच्छिद्यन्ते सर्व संशयाः ।

शह

क्षीयन्ते चास्य कर्माणि दृष्ट एवात्मनीश्वरे ॥” २७॥

टीका - ज्ञानफलमाह, भिद्यत इति । हृदयमेव ग्रन्थिः चिज्जड़ ग्रन्थनरूपोऽहङ्कारः, अतएव सर्वे संशया असम्भावनादि रूषाः कर्माण्यनारब्ध फलानि । आत्मनि स्वरूपभूते ईश्वरे दृष्ट साक्षात् कृते सति SATT TONE CIPIER एव कारेण ज्ञानानन्तरमेवेति दर्शयति ।

पर–कर्म

ईश्वर परमात्मा का साक्षात् कार करने पर देहादि के प्रति हृदय की अहङ्कार रूप ग्रन्थी विनष्ट हो जाती है। संशय समूह विनष्ट होने पर – कर्म क्षय होता है। ये तीन - भगवत् साक्षात् कारके मुख्य फल नहीं हैं, किन्तु आनुसङ्गिक फल है, जिस प्रकार पाक कार्य हेतु अग्नि प्रज्वालित करने पर उसक आनुसङ्गिक कार्य्य अन्धकार नाश, वस्तुका प्रकाश, एवं शीत भयादि की निवृत्ति है, उसप्रकार ही भगवत् साक्षात् कार से पूर्वोक्त अहङ्कार ग्रन्थिभेदन, संशय निवारण, कर्मक्षय आनुषङ्गिक रूप से होते हैं ।

शरीर प्रभृति में अहङ्कार को ही हृदय ग्रन्थी कहते हैं । “सर्व संशयाश्छिद्यन्त इति” जो मानव अनवरत ज्ञान साधन के अङ्ग रूप श्रवण मननादि का अनुष्ठान प्रधान रूप से करते रहते हैं, उनके समस्त

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मननेन तद्गत विपरीतभावना, साक्षात्कारेण त्वात्मयोग्यतागता सम्भावना विपरीतभावने इति ज्ञ ेयम्, क्षोयन्ते तदिच्छा-मात्रेणेव तदाभासो न किश्चिदेव तेष्वव शिष्यत इत्यर्थः ॥