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(भा० १।२।२० ) -
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तीन प्रकार है । उस प्रकार सेवा करते करते भगवान् में अनवरत ध्यान रूपा नैष्ठिकी भक्ति, जाग्रत, स्वप्न, एवं सुषुप्ति—यह तीन अवस्था में ही अविच्छेद रूप से प्रवृत्त होती है ॥१३॥
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उस समय में ही “भा० ११।२ ५३ "
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त्रिभुवन विभव हेतवे ऽप्यकुण्ठ स्मृतिरजितात्म सुरादिभि विमृग्यात् ।
न चलति भगवत् पदारविन्दात् लव निमिषार्द्धमपि स वैष्णवाग्यः ॥”
टीका - “किञ्च त्रिभुवन विभव हेतवेऽपि त्रैलोक्य राज्य र्थ मपि, लवार्थ मपि निमेषार्द्धमपि, भगवत् पदारविन्द भजनात् यो न चलति स वैष्णवाग्रय । ननु लवार्थ मात्र भजनोपरमे चेत् तावाद लाभो भवेत् तत् कुतो न चलेत् — तत्राह - अकुण्ठ स्मृति, भगवत् पदतोऽन्यत् सारं नास्तीत्येवं रूपा अनपगता स्मृतिर्यर य सः। भगवत् पदारविन्दात् अन्यत् सारं नास्तीति - कुतः ? अत आह । अजिते हरावेव आत्मयेषां तथाभूतैः सुरादिभिरपि दुर्लभात् किन्तु केवलं विमृग्यात् । तदपेक्षया सर्वस्य तुच्छत्वंस्मरन् यो न चलतीत्यर्थः ॥”
त्रिभुवन की विभव प्राप्ति का हेतु उपस्थित होने पर भी भगवत् चरणारविन्द से जिस की मति लवनिमेषार्द्ध काल के निमित्त भी विचलिता नहीं होती है, वह हो वैष्णवाग्रणी है । इस रीति से समस्त वासना विनष्ट हो जाती हैं, उस समव चित्त, विशुद्ध सत्त्व में निमग्न होकर भगवत्तत्त्व साक्षात् वा योग्य होता है । भा० १।२६ में कहा है-
(१४) “तदा रजस्तमोभावाः कामलोभादयश्च ये ।
चेत एतैरनाविद्धं स्थितं सत्त्वे प्रसीदति ॥ " २५ ॥
टोका - रजस्तमश्च ये च तत् प्रभावाः, भावाः, कामादयः, एतैरनाविद्धमनभिभूतं प्रसीदति उपशाम्यति ॥ १६ ॥
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उस समय रजः, तमः गुण से उत्पन्न लय एवं दिक्षेप, एवं कामलोभ प्रभृति भगवच्चिन्ता के बाधक कषाय रसास्वाद एवं अप्रतिपत्ति प्रभृति, चित्त को स्पर्श नहीं कर सकते हैं । अर्थाद् लय, विक्षेप, कषाय रसास्वाद एवं अप्रति पत्ति भगवच्चिन्तन में बाधा उत्पन्न करने में असमर्थ होते हैं । कारण, वह चित्त, विशुद्ध सत्त्व में अवस्थित होने के कारण, सतत प्रसन्न रहता है । उक्त श्लोक का अन्वय इस प्रकार है । रजः, तमः, एवं रजः तमः से उत्पन्न कामलोभ प्रभृति जो भाव ममूह हैं। इनके द्वारा चित्त आकृष्ट नहीं होता है ॥ १४ ।
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भा१।२।२० में उक्त है-
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(१५) एवं प्रसन्नमनसो भगवद्भक्तियोगतः ।
भगवत्तत्त्व-विज्ञानः मुक्तसङ्गस्य जायते ॥“२५॥
EVICIAL
एवं पूर्वोक्तप्रकारेण प्रसन्नमनसस्ततो मुक्तसङ्गस्य त्यक्तकामादि-वासनस्य भक्ति योगतः पुनरपि क्रियमाणात्तस्माद्विज्ञान साक्षात्कारो मनसि वहिर्वा भावनां विनैवानुभवो यः, स जायते ॥