१२

०१९ १३

ततश्च ( भा० १।२1१८ ) -

०२० १३

" नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया ।

भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी ॥” २४॥

नष्टप्रायेषु, न तु ज्ञानमिव सम्यङ्नष्टेष्विति भक्तनिरर्गल स्वभावत्वमुत्तम् । भागवतानां

भक्तनिरर्गलस्वभावत्वमुत्तम्

०२१ १२

साधुसङ्ग से श्रीहरि कथा श्रवण में रुचि होने के पश्चात् - जिनके कथा श्रवण एवं कीर्तन जीव मात्र के हृदय शोधक है, उन श्रीकृष्ण भी, निज कथा श्रवण कारी भक्त वृन्द के हृदय में विद्यमान होकर अशुभ वासना समूह को विदूरित करते रहते हैं, कारण, श्रीकृष्ण, साधुवृन्द के परम सुहृत् हैं।

( भा० १।२।१७ )

(१२)

Fig B

“शृण्वतां स्वकथाः कृष्णः पुण्य श्रवण कीर्तनः

हृद्यन्तःस्थो ह्यभद्राणि विधुनोति सुहृत् सताम् ॥” (२३)

टीका - ततश्च शृण्वतामिति । पुप्ये श्रवण कीर्त्तने यस्य सः । सतां सुहृत् हितकारी । हृदि यानि अभद्राणि कामादि वासनाः, तानि । अन्तःस्थः - हृदयस्थः सन् । (१७)

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एण् " अन्तस्थः " हरिकथा श्रवण के द्वारा चिन्तापथ के पथिक होकर श्रीहरि “अभद्राणि” विविध दुर्वासनाको विदूरित करते रहते हैं, अर्थात् यावत् परिमाण में हृदय में श्री हरिचिता का उदय होता रहता है, तावत् परिमाण में हृदय से दुर्वासना विदूरित होती रहती है । (१२)

(१३) अनन्तर भा० १।२1१८ में कहते हैं-

निक

(१३) नष्ट प्रायेष्व भद्रेषु नित्यं भागवत सेवया ।

भगवत्युत्तम श्लोके भक्ति भवति नैष्टिकी ॥ २४॥

टीका - ततश्व नष्ट प्रायेष्विति । सर्वाभद्रानाशस्य ज्ञानोत्तरकालत्वात् प्राय ग्रहणम् । भागवतानां भागवत शास्त्रस्य वा सेवया नैष्ठिको -निश्चला, विक्षेपाभावात् (१८)

समस्त दुर्वासना विनष्ट प्राय होने पर, भगवद् भक्त एवं भागवत शास्त्र की नित्य सेवा द्वारा उत्तम श्लोक श्रीभगवान् में नैष्ठिकी भक्ति का आविर्भाव होता है। “नष्ट प्रायेषु’ जिस प्रकार ज्ञानि वृन्द की ज्ञान साधन में अशुभ वासना सम्यक् विनष्ट न होने पर ध्रुवानुस्मृति का उदय नहीं होता है, अर्थात् लय विक्षेपादि द्वारा अभेद चिन्ता की बाधा अपसारित नहीं होती है, भक्ति मार्ग में उस प्रकार सम्यक् वासना निवृत्ति की अपेक्षा नहीं है। सूक्ष्मरूप में विषय वासना विद्यमान होने पर भी भक्ति अनुष्टान में अथवा समान श्री हरि चरण सिन्धु के प्रति अविच्छिन्ना

अनवरत भगवद् ध्यान में अप्रतिहत गति गङ्गा स्रोत के मननगति प्रवृत्ति होती है। लय, विक्षेप, कषाय, रसास्वाद, एवं अप्रति पति के द्वारा मनोगति, भगवच्चरण सिन्धु से विचलित नहीं होती है। इस अवस्था का नाम निष्ठाभक्ति अथवा ध्रुवानुस्मृति है । “भागवत सेवया” भगवद् भक्त अथवा भागवत शास्त्र की सेवा द्वारा ध्रुवानुस्मृति होती है । प्रसङ्ग एवं परिचर्या- भेद से भगवद् भक्तगण की सेवा द्विविध हैं । श्रीमद् भागवत ग्रन्थ की सेवा श्रवण, कीर्त्तन, स्मरण भेद से

भागवत-शास्त्रस्य च सेवया भक्तिरनुध्यानरूपा नैष्ठिको सन्ततैव भवति ॥ P

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