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तत्रैवान्तिम भूमिकापर्य्यन्तां सुगमां शैलीं वक्तु धर्मादिकष्टनिरपेक्षेण युत्ति मात्रेण तत् प्रथमभूमिकां श्रीहरिकथारुचिमुत्पादयंस्तस्य गुणं स्मारयति (भा० १।२।१५) -

(१०) “यदनुध्यासिना युक्ताः कर्म्म ग्रन्थिनिबन्धनम् । युक्ताः कर्म्म ग्रन्थिनिबन्धनम् ।

छिन्दन्ति को विदास्तस्य को न कुर्य्यात् कथारतिम् ॥ २१॥

को विदा विवेकिनः, युक्ताः संयतचित्ता यस्य हरेः ‘अनुध्या’ अनुध्यानं चिन्तनमात्र स एवासिः खड् गस्तेन ग्रन्थि नानादेहेष्वहङ्कारं निबध्नाति यत्तत् कर्म छिन्दन्ति, तस्यैवम्भूतस्य रूप में ज्ञान वैद गुण समूह उदित होते हैं । पूर्वोक्त श्लोक समूह से इस अर्थ का बोध हुआ । ऐसा होने पर साक्षात् श्रीहरि कथा श्रवण कीर्त्तनादि रूपा भक्ति का अनुष्ठान करना ही कर्त्तव्य है । व्यर्थ कर्मादि अनुष्ठानाग्रह की आवश्यकता ही क्या है ? उक्त अभिप्राय से ही श्रीसूतने भा० १।२।१४ में कहा है-

(६) “तस्मादेकेन मनसा भगवान् सात्वतां पतिः ।

श्रोतव्यः कीर्त्तितव्यश्च ध्येयः पूज्यश्च नित्यदा ।“२०॥

टीका - यस्माच्च भक्ति होनो धर्मः केवलं श्रमएव, तस्माद् भक्ति प्रधान एव धर्मोऽनुष्ठेय इत्याह- तस्मादिति । एकेन एकाग्रेण मनसा ॥ (२४)

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" एकेन” काम्यकर्मादि अनुष्ठान का आग्रह शून्य मन के द्वारा । भक्ति का अनुष्ठान करना चाहिये । यहाँ श्रवण शब्द से श्रीभगवान् के नाम, रूप, गुण, लीला परिकर का विवरण श्रवण को जानना चाहिये, किन्तु ज्ञानाङ्ग साधन श्रवण मननादि को समझना नहीं चाहिये । कीर्त्तन एवं स्मरण का एकरूप अर्थ को जानना होगा ॥ (६)

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उक्त भक्ति अनुष्ठान प्रसङ्ग में- भक्ति की अन्तिम भूमिका प्रीति लक्षणा भक्ति, का सुख साध्यत्व एवं सुख भावत्व कथन हेतु, धर्मादि अनुष्ठान कष्ट निरपेक्ष युक्ति के द्वारा भक्ति की प्रथम भूमिका श्रीहरि कथा में रुचि उत्पादन हेतु भक्ति योग का गुण वर्णन भा० १।२०१५ के द्वारा करते हैं ।

(१०) यदनुध्यासिना युक्ताः कर्म ग्रन्थिनिबन्धनम् । UP F

छिन्दन्ति कोविदास्तस्य को न कुर्य्यात् कथारतिम् ॥” २१॥

टीका - भक्ति विहीनो धर्मः केवलं श्रम एवेत्युक्तम्, इदानीन्तु भक्त मुक्तिफलत्वं प्रवञ्चयन्ति यदिति । यस्य अनुध्यानं, सैव असि, खड़गः, तेन युक्ता विवेकिनः, ग्रन्थि अहङ्कारं – निबध्नाति, यत् कर्म तछिद्यन्ति, तस्य कथायां रति को न कुर्य्यात् ॥” (१५)

संयतचित्त विवेकिगण, अनवरत श्रीभगवत् ध्यारूप खड़ग के द्वारा देह समूह में स्थित अहङ्कार रूप कर्म ग्रन्थि को छेदन करते रहते हैं, कौन व्यक्ति — उक्त श्रीहरि कथा में रुचि न करके रह सकेंगे ।

॥ सत् असत् विचार सम्पन्न व्यक्ति को कोविद कहते हैं । “युक्ताः " शब्द का अर्थ - भक्तयङ्ग अनुष्ठान में संयतचित्त है, अर्थात् लय विक्षेपादि रहित है । “अनुध्यानासिना” अनवरत भगवच्चिन्ता रूप

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परमदुःखादुद्धर्त्तः कथायां रति रुचि को न कुर्य्यात् ॥