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सा चैवं दुर्लभा भक्तिः श्रीहरितोषणे प्रयुक्तात् स्वाभाविकधर्म्मादपि लभ्यते । तस्मात् हरितोषणमेव तस्य परमफलमित्याह (भा० १/२/१३)–
(८) “अतः पु भिद्विजश्रेष्ठा वर्णाश्रमविभागशः ।
स्वनुष्ठितस्य धर्मस्य संसिद्धिर्हरितोषणम् ॥” १६॥
स्वनुष्ठितस्य बहुप्रयत्नेनाच्छिद्रमुपः ज्जितस्येति तुच्छे स्वर्गादिफले सत्प्रयोगोऽसायुक्त इति भावः ॥
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यद्य वं श्रीहरिसन्तोषकस्यापि धर्मस्य फलं श्रवणादिरुचिलक्षणा भत्ति रेव, तदनु- गतास्त - प्रवत्तिताश्च ज्ञानवैराग्यादिगुणा इत्यायातम्, तदा साक्षाच्छ्रवणादिरूपा भक्तिरेव काल व्यापीति । अतएवोक्तं स्वयमेव भा० ११०२१।२४ कि विधत्ते किमाचष्ट, किमनूद्य विकल्पयेत् । इत्यस्या हृदयं लोके नान्यो मवेद कश्चन । इति । श्रीशुकेन च भा० ११।२६।४६ " निगम वृदुपज ह भृङ्गवद्व ेदसारम् । इति ।
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भगवान् ब्रह्म निज प्रज्ञाके द्वारा निखिल वेद का तात् पर्थ्य की समालोचना तीन वार करके यह ही निश्चय किये थे- जिस धर्म का अनुष्ठान करने से श्रीहरि में प्रीति लक्षणा भक्ति होती है, वह ही निखिल वेदों का एकमात्र सार उपदेश है। इस प्रकार अथ विचार में यदि विपरीत भावनात्याजक मन्नयोग्यता होती है एवं मननाभिनिवेश भी होता है, तब दृढ़ विश्वासयुक्त भक्तवृन्द, उक्त प्रीतिलक्षणा भक्ति प्राप्त कर सकते हैं। अतएव श्रुति श्रवणमननादि अनुष्ठान हेतु आग्रह करती है । आत्मा का दर्शन करना चाहिये, श्रवण करना चाहिये, मनन करना चाहिये, एवं निदिध्यासन भी करना चाहिये ।
यहाँ दर्शन शब्द का अर्थ - साक्षात् कार है, निदिध्यासन शब्द का अर्थ-उपासना है ॥७॥
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उक्त पूर्वोक्त लक्षणाक्रान्त भक्ति, श्रीहरि सन्तोषार्थ अनुष्ठित स्वाभाविक धर्मसे भी उदित होती है, अतएव उक्त धर्म का भीसन्तोष ही परम फल है, उसको भा० १।१।१३ के द्वारा कहते हैं-
(८) अतः पुंम्भिद्वजश्रेष्ठा वर्णाश्रम विभागशः ।
स्वनुष्ठितस्य धर्मस्य संसिद्धि र्हरितोषणम् ॥१६॥
टीका - “श्रवणादि गृहीत धर्मस्य फलं भक्तिः, नार्थकामादिकमितीममर्थ मुपपाद्योपसंहरति- अत इति । हे द्विज श्रेष्टाः ! हरि तोषणं हरेराराधनं संसिद्धिः फलम् ॥”
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हे द्विज श्रेष्ठ गण ! अतएव वर्ण एवं आश्रय के विभागानुसार पुरुष गण कर्तृक निर्दिष्ट रूप से अनुष्ठित धर्म का फल हरि सन्तोष है । ‘स्वनुष्ठितस्य’ अर्थात् अतिशय प्रयत्न द्वारा निर्दिष्टभाव से उपार्जित का प्रयोग, तुच्छ स्वर्गादि फलोद्देश्य में करना अतीव अयुक्त है। यह ही ‘स्वनुष्ठित’ पद प्रयोग का तात्पर्य है । (८)