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तच्च विधाविर्भावयुक्तमेव तत्त्वं भवत्यैव साक्षादपि क्रियत इत्याह (भा० ११२।१२ ) -

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" तच्छ्रद्दधाना मुनयो ज्ञानवैराग्ययुक्तया ।

पश्यन्त्यात्मनि चात्मानं भक्तया श्रुतगृहीतया ॥ १७॥

भक्तया तत्कथारुचेरेव परावस्थारूपया प्रेमलक्षणया, तत् पूर्व्वमेवोक्तं तत्त्वम्, आत्मनि शुद्धे चेतसि पश्यन्ति च — ज्ञानमात्रस्य का वार्ता, साक्षादपि कुर्व्वन्तीत्यर्थः । कीदृशं तत् ?

प्रसिद्ध वस्तु में त्रिविध भेद दृष्ट होते हैं, स्व जातीय, विजातीय, एव स्वगत । मनुष्य– मनुष्य में जो भेद - अथवा चेतन-चेतनमें जो भेद-उसका नाम स्वजातीय भेद, मनुष्य पशु में जो भेद, अथवा जड़-चेतन में जो भेद, वह विजातीय भेद है । कर चरण में जो भेद- वह स्वगत भेद है । जो वस्तु - उक्त त्रिविध भेद शून्य है—वह ‘अद्वय’ नाम से अभिहित है। यह अद्वय वस्तु–ज्ञान स्वरूप है, अर्थात् जड़ प्रतियोगी स्व प्रकाश है, वह जिस प्रकार स्व प्रकाश है, उस प्रकार अपर स्व प्रकाश वस्तु नहीं है–इस को ही स्वजातीय रहित कहते हैं । द्वितीय — वह तत्त्व वस्तु जिस प्रकार स्व प्रकाश है, उस का विरोधी पर प्रकाश कोई भी जड़ वस्तु उस से पृथक् नहीं है- इसका नाम ही विजातीय भेद रहित है । एकही वस्तु होने के कारण– सर्वत्र स्वगत भेद विवर्जितात्मा है ।

उक्त तत्व वस्तु का आविर्भाव तीन प्रकार से होता है– ज्ञानी के हृदय में ब्रह्म रूप में, योगि गण के हृदय में परमात्म रूप में, भक्त वृन्द के हृदय में एवं बाहर में भगवान् रूप में एक अद्वय तत्त्व का आविर्भाव होता है ॥

उक्त त्रिविध आविर्भाव के मध्य में उक्त तत्व वस्तु शक्ति समूह रूप जो धर्म है– उक्त समस्त धर्मातिरिक्त केवल ज्ञान ब्रह्म शब्द से अभिहित होता है, अन्तर्य्यामित्वमय माया शक्ति प्रचुर चिच्छक्ति का अंश विशिष्ट ज्ञान का नाम परमात्मा है । अर्थात् जो स्वरूप, माया शक्ति एवं माया शक्ति का कार्य्य एवं चिच्छक्ति के अंश समूह का नियामक है, उसका नाम परमात्मा है, परिपूर्ण सर्वशक्ति विशिष्ट ज्ञान का नाम भगवान् है । तत्त्व, भगवत्, एवं परमात्म सन्दर्भ नामक सन्दर्भ वय में उक्त विषय समूह का विशेष विचार किया गया है, तज्जन्य उसका यहाँपर विशेष विस्तार नहीं हुआ । (६)

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ब्रह्म, परमात्म, एवं भगवान् नामक त्रिविध आविर्भावयुक्त तत्त्व का साक्षात् कार भक्ति से हो होता है। इसका विवरण भा० १।२।१२ में इस प्रकार है–

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(७) “तच्छ्रद्दधाना मुनयो ज्ञान वैराग्य युक्तया ।

पश्यन्त्यात्मनि चात्मानं भक्तया श्रुतगृहीतया” (१७)

टीका – तच्च तत्त्वं, – स परिकरया भक्तया एव प्राप्यत इत्याह । तच्चेत्यन्वयः । ज्ञान वैराग्य युक्तयेत्यत्र ज्ञानं परोक्षम् । तच्च तत्त्वं आत्मनि क्षेत्रे पश्यन्ति । किं तत् ? आत्मानं परमात्मानम् । श्रुतेन वेदान्त श्रवणेन गृहीतया प्राप्तया इति भक्तेर्दाढ्यमुक्तम् । श्रद्धालु मुनिवृन्द, ज्ञान वैराग्य निषेवित श्रवण

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आत्मानं स्वरूपाख्य-जीवाख्य- मायाख्य-शक्तीनामाश्रयम्, ज्ञानवैराग्ययुक्तया स्वात्मजाभ्यां ताभ्यां सेवितया, अतएव च ते मुनयः पृथक् च विशिष्टश्च स्वेच्छ्या पश्यन्तीत्यायाति । तदेवं ‘श्रुतगृहीतया’, ‘मुनयः’, ‘श्रद्दधानाः’ इति पद-त्रयेण तस्या एव भक्तेर्दोर्लभ्यं दर्शितम् । सद्- गुरोः सकाशाद्वेदान्ताद्य खिलशास्त्रार्थविचारश्रवणद्वारा यदि सा (भक्तिः) आवश्यकपरम- कर्तव्यत्वेन ज्ञायते, पुनश्च भा० २।२।३४ ) -

“भगवान् ब्रह्म कार्त्स्न्येन विरन्वीक्ष्य मनीषया ।

तदध्यवस्यत् कूटस्थो रतिरात्मन् यतो भवेत् ॥ "

इतिवदद्यदि विपरीतभावनात्याजको मननयोग्यता- मननाभिनिवेशौ स्याताम्, ततः

कीर्तनादि रूप साधन लब्ध प्रीति लक्षण भक्ति योग के द्वारा उक्त त्रिविध आविर्भाव युक्त तत्त्व का साक्षात् कार शुद्ध हृदय में करते हैं

भगवत् कथा रुचिकी ही परावस्था रूपा प्रेम लक्षणा भक्तिके द्वारा पूर्वोक्त तत्त्व वस्तुका साक्षात्कार मुनिवृन्द, शुद्ध चित्त में करते रहते हैं । उक्त परतत्त्व विषयक ज्ञान की वार्ता क्या कहें, साक्षात् कार पर्यन्त भी करते रहते हैं। श्लोक में ‘पश्यन्ति’ क्रिया पद प्रदान का यह ही तात्पर्थ्य है । उक्त तत्त्व वस्तु किस प्रकार है—उस का परिचय प्रदान करते हैं। ‘आत्मानं’ अर्थात् स्वरूपाख्य, जीवाख्य, मायाख्य, शक्ति समूह का एकमात्र आश्रम है । यहाँ आत्मा शब्द का आश्रय अर्थ ही है । “ज्ञान वैराग्य युक्तच।” अर्थात् निज गर्भजात पुत्र द्वय जिस प्रकार जननी की सेवा करते रहते हैं, उस प्रकार ही भक्ति से आविर्भूत ज्ञान एवं वैराग्य कर्त्तृक श्रीभक्ति देवी सर्वदा निषेविता हैं, प्रीति लक्षणा भक्ति योग का आविर्भाव जिस परिमाण में होता है, उस परिमाण में ही श्रीभगवदनुभव एवं विषय वैराग्य स्वतः ही आविर्भूत होते हैं, उस के निमित्त स्वतन्त्र प्रयास करना नहीं पड़ता है । अतएव मुनिगण निज निज रुचि के अनुसार उक्त अद्वय तत्त्व का आक्षात् कार शक्ति शून्य केवल चिन्मात्र सत्तारूप में एवं शक्ति विशिष्ट रूप में करते रहते हैं । अतएव श्लोकस्य ‘श्रुत गृहीतया” “मुनयः” “श्रद्दधानाः " पदत्रय से भक्ति की दुल्लभता प्रदर्शित हुई है।

सद् गुरु की चरणाश्रय करके उनके समीप से वेदान्तादि निखिल शास्त्रार्थ विचार श्रवण द्वारा यदि श्रीभगवान् में भक्ति करना ही एकान्त कर्त्तव्य है, इस प्रकार बोध होता है, तो, एवं द्वितीय स्कन्ध के द्वितीय के चौतीस श्लोक ।

“भगवान् ब्रह्म कात्र्त्स्न्येन त्रिरन्वीक्ष्य मनीषया ।

तदध्यवस्यत् कूटस्थो रतिरात्मन् यतो भवेत् ॥” १८ ॥

क्रमसन्दर्भ - सहि भक्तियोगः सर्व वेद सिद्ध इत्याह-भगवानिति ।

टीका च- ‘भगवान् ब्रह्मा, कूटस्थो निर्विकार एकाग्रचित्तः सन् इत्यर्थः । स्त्रीन् वारान् कार्त्स्न्येन साकल्येन ब्रह्म, वेदमन्वीक्ष्य विचार्य्य, यत सात्मनि हरौ रति भवेत् । तदेव भक्ति योगाख्यं वस्तु मनीषया अध्यवस्यनिश्चितवान्’ इत्येषा । त्रिरन्वीक्ष्येति कर्म-ज्ञान भक्ति प्रतिपादकतयाथि प्रेत्येति ज्ञेयम् । अत्राप्युप संहारानुरोधेनात्म-शब्दस्य हरिवाचकता, निरुक्तञ्च ‘आततत्वाच्च मातृत्वायात्मा हि परमो हरिः’ इति । अथवा, परमवेदविदा स एव मत इत्याह, भगवान् स्व प्रकाश सार्वज्ञयादि गुणः परमेश्वरोऽपि सर्व वेदाभिधेय साराकषण लोलार्थं त्रिरन्वीक्ष तत्र शास्त्रविदन्तराणामोक्षण मनुकृत्य, अनन्त वैकुण्ठ वैभवादि मयानामनन्त विरिञ्चि पाठ्यभेदानां वेदानां तथेक्षणञ्च तेनैव सम्भवतीत्याह, कूटस्थ एक रूप तयैव

२४ ] श्रद्दधानं सा भक्तिरूपासनद्वारा लभ्यते इति । अतः श्रुतिरपि तदर्थ मागृह्णाति ( वृ० ४।५।६ ) “आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः” इत्यत्र निदिध्यासनमुपासनम्, दर्शनं साक्षात्कार उच्यते ॥