००६ ६

तत्र यदन्ये मन्यन्ते, - धर्म्मस्यार्थः फलम्, तस्य कामस्तस्य चेन्द्रियप्रीतिस्तत्प्रीतेश्च पुनरपि धर्मादि-परम्परेति, तच्चान्यथैवेत्याह द्वाभ्याम् ( भा० १ २६-१० ) -

(६) “धर्मस्य ह्यापवर्गयस्य नार्थोऽर्थायोपकल्पते

नार्थस्य धर्मैकान्तस्य कामो लाभाय हि स्मृतः ॥१३॥

कामस्य नेन्द्रियप्रीतिर्लाभो जीवेत यावता ।

हे नाथ ! तुम्हारी निखिल मङ्गल प्रसविनी भक्ति का अनादर कर जो मानव, केबल ज्ञान प्राप्त करने के निमित्त शास्त्राभ्यास, तपस्या एवं वराग्य प्राप्त करने के निमित्त प्रयत्न करते हैं, उनका केवल क्ल ेश ही अवशिष्ट रहता है, इस प्रकार ही भा० १०।२।३२ में कथित है-

येऽन्येरविन्दाख्य विमुक्तमानिन स्त्वय्यस्त भावादविशुद्ध बुद्धयः ।

आरुह्य कृच्छ्र ेण परं पदं ततः पतन्त्यधोऽनादृत युष्मदङ्घ्रयः ॥

टीका- “ननु

विवेकिनां किं मद्भजनेन ? मुक्ता एव ते, तत्राहुः, येऽन्ये इति । विमुक्तमानिनो विमुक्त वयमिति मन्यमानाः । त्वयि अस्तो निरस्तोत एवासन् यो भावस्तस्मात् भक्तेरभावादित्यर्थः । न विशुद्धा बुद्धियषां ते तथा । यद्वा त्वयि अस्तभाः इतिच्छेदः, अस्तमतयो बादेव विशुद्ध बुद्धयः । कृच्छ्र ेण बहु जन्म तपस्या परं पदं मोक्ष सन्निहितं सत् कुल तपः श्रुतादि । पतन्ति - विघ्नैरभिभूयन्ते । न आदृतौ युस्मदङ् घ्री यैस्ते ॥”

हे भगवन् ! जो लोक तुम्हारे एवं तुम्हारे भक्तवृन्द के चरणार विन्दों का आदर न कर मुक्ति प्रात्यर्थ ज्ञान साधन का अनुष्ठान करते हैं, वे सब प्रभूत परिश्रम से शास्त्रादि ज्ञान सम्पन्न ब्राह्मणादि कुल में जन्म ग्रहण करके भी पुनर्वार अधः पतित होते हैं । “श्रमएव ‘हि’ अव्यय शब्द प्रयोग के द्वारा पूर्वोल्लिखित वचन समूह को सप्रमाणित किया गया है । ‘वासुदेवे’ भगवति’ एवं ‘धर्मस्यनुष्ठितः पुंसां’ श्लोक द्वय के तात्पर्य से बोध होता है कि-भक्ति, कर्म, ज्ञान योगादि की अपेक्षा नहीं रखती है, किन्तु ज्ञान वैराग्यादि भक्ति योग की सम्पूर्ण अपेक्षा करते हैं, अतएव जो अन्यनिरपेक्षा है, वह सबला है, किन्तु जो दूसरे की अपेक्षा कर चलता है, वह दुबला है, विद्वज्जन मात्र को चाहिये कि वे सब भक्ति का आश्रय ग्रहण करें। अतएव धर्म समूह का भक्ति लाभ में ही साफल्य है, - यह प्रति पादित

हुआ (५)

(६) कतिपय व्यक्ति मानते हैं- कि-धर्म का फल अर्थ है, अर्थ का फल सांसरिक विषय भोग, विषय भोग का फल - इन्द्रिय प्रीति, एवं इन्द्रिय प्रीति का फल - धर्मानुष्ठानादि हैं। इस प्रकार धारणा, भ्रान्ति पूर्ण है, कारण, धर्म का फल - कभी अर्थ - हो नहीं सकता है, कारण जिस धर्माचरण के द्वारा ‘पुनरपि जन्म, पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम्” की निवृत्ति नहीं होती है, उसको धर्म नहीं कहा जा सकता है। अतएव श्रीसूतने धर्मानुष्ठान का फल का कथन इलोकद्वय के द्वारा भिन्न प्रकार ही किया है - ( भा० १२६-१० )

(६) धर्मस्य ह्यापवर्ग्यस्य नाथोऽर्थायोंपकल्पते ।

नार्थस्य धम्मैकान्तस्य कामोलाभाय हि स्मृतः (१३) कामस्य नेन्द्रिय प्रीतिर्लाभो जीवेत यावता

[[२०]]

जीवस्य तत्त्वजिज्ञासा नार्थो यश्चेह कर्मभिः ॥ १४॥

आपवर्ग्यस्य (भा० ५ १६।१८-१९ ) - “यथावर्ण विधानमपवर्गश्च भवति, योऽसौ भगवति सर्व्वात्मन्यनात्म्येऽनिरुक्तेऽनिलयने परमात्मनि वासुदेवेऽनन्यनिमित्तभक्तियोगलक्षणो नानागति- निमित्ताविद्याग्रन्थिरन्धनद्वारेण यदा हि महापुरुषपुरुष-प्रसङ्गः” इति पञ्चमस्कन्धगद्यानु- सारेणापवर्गो भक्तिस्तथा च स्कान्दे रेवाखण्डे -

" निश्चला त्वयि भक्तिर्या सैव मुक्तिर्जनार्द्दन । मुक्ता एव हि भक्तास्ते तव विष्णो यतो हरे ॥ १५॥ इति । तत उक्तरीत्या भक्तिसम्पादकस्येत्यर्थः । टीका च - " अर्थाय फलत्वाय, अर्थो नोपकल्पते

जीवस्य तत्त्व जिज्ञासा नार्थो यश्चेह कर्नभिः ॥ (१४)

I

ठोका - तदेवं हरिभक्ति द्वारा तदितर वैराग्यात्म ज्ञान पर्यन्तः परो धर्म इत्युक्तम् । अन्ये तु मन्यन्ते धर्मस्य अर्थः फलं, तस्य चेन्द्रिय प्रीतिः, तत् प्रीतेश्च पुनरपि धर्मार्थादि परम्परेति । यथाहुः - धर्मादर्थश्च कामश्च सकिमर्थं न सेव्यत इत्यादि । तन्निराकरोति धर्मस्येति द्वाभ्याम् । आवर्ग्यस्य उक्तन्यायेनापवर्ग पर्यन्तस्य धर्मस्य अर्थाय फलत्वाय अर्थो नोपकल्पते योग्यो न भवति, तथा अर्थस्याप्येवम्भूतधर्माव्यभिचारिणः कामो लाभाय फलत्वाय नहि स्मृतो मुनिभिः (१) कामस्य - विषयभोगस्य, इन्द्रियप्रीति लभिः फलं न भवति, किन्तु यावता जीवेत, तावानेव कामस्यलाभः, जीवन पर्यन्त एव कामः सेव्य इत्यर्थः । जीवस्य – जीवनस्य च पुनः कर्मभि धर्मानुष्ठानद्वारा य इह प्रसिद्धः स्वर्गादिः, सोऽर्थो न भवति, किन्तु तत्त्वजिज्ञासेव ॥ १० ॥

अपवर्ग प्रतिपादक धर्मका फल — अर्थ नहीं हो सकता है । उक्त अपवर्ग प्रति पादक धर्म प्राण- अर्थ का फल कभी भी विषय भोग नहीं हो सकता है । विषय भोग का फल - इन्द्रिय प्रीति नहीं है, किन्तु जितना विषय ग्रहण न करने पर जीवन रक्षा नहीं होती है, उतना ही विषय भोग करे । कारण, अनेक सौभाग्य के फल स्वरूप मानव शरीर मिला है, मनुष्य जीवन ही सर्वेन्द्रिय शक्ति समन्वित हैं, उसकी रक्षा करना अवश्य कर्त्तव्य है, जीवित रहने का एकमात्र उद्देश्य है, तत्त्व - यथार्थ वस्तु को जानना । अन्यथा केवल मात्र जीवित रहने से कोई साफल्य नहीं होता है। इस जगत् में धर्मादि अनुष्ठान के द्वारा अर्थादि साफल्य उपार्जन करना भी मनुष्य जीवन का साफल्य नहीं है

उक्त श्लोकस्थ आपवर्ग्य शब्द का अर्थ है-भक्ति, कारण । पञ्चम स्कन्धके ऊर्जावशा ध्यायमें भारतवर्ष वर्णन प्रसङ्ग में श्रीशुक देव ने कहा है, भारतवर्ष में जो व्यक्ति जिस वर्ण में अवस्थित है, उक्त वर्ण विहित धर्मानुष्ठान से अपवर्ग निष्पन्न होता है, वह अपवर्ग क्या है ? उसका परिचय देते हैं, मनोभाव राग- द्वेषादि अभिनिवेश शून्य अवाङ्मनसोगोचर सर्वाश्रय, सर्व भूतात्मा परमात्मा भगवान् श्रीवासुदेव में जो अहैतुकी भक्ति योग है, उस का नाम ही भक्तियोग है। उक्त भक्ति योग को अपवर्ग कयो कहेंगे ? उसके प्रति हेतु बिन्यास करते हैं- “अपवृज्यते अनेन इति अपवर्गः” इस प्रकार व्युत्पत्ति से छेदनार्थ वृज ध. तु के उत्तर करण वाच्य में अल् प्रत्यय द्वारा अपवर्गपद निष्पन्न हुआ है। जीव का विभिन्न देह में भ्रमण का कारण है—जड़ एवं चेतन में अविद्या जनित ग्रन्थी । भक्ति योग के द्वारा ही उक्त ग्रन्थो छिन्न होती है । एतज्जन्य अहैतुकी भक्ति योग का नाम - अपवर्ग है । किन्तु यथावर्ण विहित धर्मानुष्ठान के द्वारा अहैतुकी भक्ति योग का आविर्भाव नहीं हो सकता है, किन्तु उक्त धर्मानुष्ठान करते करते जब महापुरुष श्रीकृष्ण के भक्त जनका सान्निध्य लाभ होगा, उससमय ही अहैतुकी भक्ति योगाविर्भाव की सम्भावना की जा सकती है । पवित्र धर्मानुष्ठान में रत रहने से महापुरुष प्रसङ्ग होने की सम्भावना है, तज्जन्य ही उस प्रकार कथन हुआ

[[२१]]

योग्यो न भवति, तथा अर्थस्याप्येवम्भूतधर्म्माव्यभिचारिणः कामो लाभाय फलत्वाय न हि स्मृतस्तत्त्वविद्भिः । कामस्य विषयभोगस्येन्द्रियप्रीतिर्लाभः फलं न भवति, किन्तु यावता जीवेत, तावानेव कामस्य लाभस्तादृश- जीवनपर्य्याप्त एव कामः सेव्य इत्यर्थः । जीवस्य जीवनस्य च पुनर्धर्मानुष्ठानद्वारा कर्म्मभिर्य इह प्रसिद्धः स्वर्गादिः, सोऽर्थो न भवति, किन्तु तत्त्वजिज्ञासेव” इति । तदेवं तत्त्वज्ञानं यस्था भक्तेरवान्तरफलमुक्तम्, सैव परमफलमिति भावः । किन्तत्तत्त्वमित्यपेक्षायां पद्यमेकं तुदाहृतम् (भा० ११२ ११) -

“वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम् ।

ब्रह्म ेति परमात्मेति भगवानिति शब्दयते ॥” १६ ॥ इति ।

है । श्रीभगवान् में अहैतुकी भक्ति हो जो मुक्ति है, उसका वर्णन स्कन्द पुराणीयरेवाखण्ड में है-

“निश्चलात्वयि भक्तिर्या सैव मुक्ति जनार्दन मुक्ता एवहि भक्तास्तेतव विष्णो यतोहरे ॥ "

हे जनार्दन ! तुम्हारे प्रति जो विश्वला भक्ति, उसको हो मुक्ति कहते हैं । हे विष्णो ! कारण, तुम्हारे भक्त गण ही यथार्थतः मुक्त हैं । अतएव उक्त प्रमाणानुसार आपवर्ग पद का अर्थ भक्ति सम्पादक है, अर्थात् धर्मानुष्ठान का मुख्य अर्थ है - भक्ति सम्पादक, अर्थात् धर्मानुष्ठान का मुख्य फल श्रीभगवान् में अहैतुकी भक्ति लाभ है । इस प्रकार धर्म का फल, - कभी भी अर्थ नहीं हो सकता है, अर्थात् अर्थ प्राप्ति हेतु तादृश धर्मानुष्ठान करना उचित नहीं है ।

इस प्रकार धर्म का अव्यभिचारी अर्थ का फल कभी भी विषय भोग नहीं हो सकता है । यह अभिमत तत्त्वज्ञ व्यक्ति वृन्द का है । विषय भोग का फल - इन्द्रिय प्रीति भी नहीं है, किन्तु यावत् परिमाण विषयभोग से जीवन रक्षा होती है, तावत् परिमाण ही विषय भोग करना कर्तव्य है । जीवन धारण एवं भक्ति व्यतीत अपर धर्मानुष्ठान के द्वारा प्रभूत कर्मलभ्य इह लोक प्रसिद्ध स्वर्गादि प्राप्ति नहीं हो सकती है। किन्तु तत्त्व जिज्ञासा ही मानव जीवन धारण का मुख्य उद्देश्य है । ऐसा होने पर जिस भक्ति का अवान्तर फल तत्त्व- ज्ञान है, उस भक्ति साधन ही सर्व साधन का मुख्य फल है। वह तत्त्व वस्तु क्या है ? इस प्रकार जिज्ञासा के उत्तर में कहते हैं–" वदन्ति तत्तत्त्वविदस्त्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम् । ब्रह्म ेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते । " भा० १।२।११

टीका - ननुतत्त्व जिज्ञासा नाम धर्मजिज्ञासेव, धर्म एवहितत्त्वमिति केचित् । तत्राह वदन्तीति । तत्त्वविदस्तु तदेव तत्त्वं वदन्ति । किं तत् ? यज् ज्ञानं नाम । अद्वयमिति- क्षणिक ज्ञान पक्षं व्यावर्त्तयति । ननु तत्त्वविदोऽपि विगीत वचना एव ? मैवं, तस्यैव तत्त्वस्य नामान्तरे रेवाभिधानादित्याह । औपनिषदं ब्रह्म ेति, हैरण्य गर्भैः परमात्मेति, सात्वतं भगवानिति, शब्द्यते–अभिधीयते ॥ "

तत्त्वज्ञ मानववृन्द- अद्वय ज्ञान को ही तत्व कहते हैं, जो एक अद्वय ज्ञान तत्व वस्तु उपासना भेद से ब्रह्म, परमात्मा, एवं भगवान् शब्द से अभिहित होते हैं । यहाँपर अद्वय शब्द प्रयोग के द्वारा तत्त्व का अखण्डत्व निर्देश हुआ है, अन्य वस्तु समूह - उन से पृथक नहीं है, इसको सूचित करने के निमित्त उक्त तत्त्व वस्तु को निखिल शक्ति समन्वित मानते हैं, अतः वहशब्द प्रतिपाद्य है । अर्थात् वह ही तत्त्व वस्तु है. जिस को जानने से सब कुछ परिज्ञात होते हैं । कारण, जिस के भीतर में सब कुछ हैं, जिस को छोड़कर अपर कुछ भी नहीं है, उसका नाम ही अद्वय है । असम्पूर्ण अथवा खण्डित वस्तु को जानने के निमित्त सर्व शक्ति समन्वित यह मनुष्य जन्म नहीं हुआ है ।

[[२२]]

अद्वयमिति तस्याखण्डत्वं निद्दिश्यान्यस्य तदनन्यत्व विवक्षया तच्छक्तित्वमेवाङ्गीकरोति । तत्र शक्तिवर्ग-लक्षणतद्धर्म्मातिरिक्तं केवलं ज्ञानं ब्रह्म ेति शब्द्यते, अन्तर्यामित्वमय- मायाशक्ति प्रचुर चिच्छक्तंघशविशिष्ट परमात्मेति, परिपूर्णसर्व्वशत्ति. विशिष्ट भगवानिति । विवृतचैत् प्राक्तन - सन्दर्भत्रयेण ॥