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ततश्च ( भा० ५ १८/११) - “यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्य किञ्चना, सर्वेर्गुणैस्तत्र समासते सुराः” इत्यनुसारेण भगवद स्वरूपादिज्ञानं ततोऽन्यत्र बैराग्यञ्च तदनुगाम्येव स्यादित्याह
( भा० १४२१७) -
ग्रन्थ १।२।१३ में व हेंगे-
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अतः पुम्भिद्विजश्रेष्ठावर्णाश्रमविभागशः ।
स्वनुष्ठितस्य धर्मस्य संसिद्धि हरितोषणम् ॥
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टीका - श्रवणादि गृहीत धर्मस्य फलं भक्तिः, नाथ कामादिकमितीममर्थमुपपाद्योपसंहरति, अत इति । है द्विज श्रेष्ठा ! हरितोषणं हरेराराधनं संसिद्धिः फलम् ॥१३॥
檬饼 श्रीविष्णु सन्तोष ही धर्मानुष्ठान का एकमात्र फल है, इस श्लोक में व हेंगे। तज्जम्य श्रीहरि की कथा में रुचि ऐकान्तिक श्रेयः है । धर्मानुष्ठान का फल - श्रीहरि कथा में रुचि होने के कारण - भगवदर्पित धर्म से हरि भक्ति का पार्थकय प्रदर्शित हुआ । उस भक्ति के स्वरूप मूत गुण का वर्णन करते हैं, अहैतुकी - अर्थात् फलन्तर अनुसन्धान रहिता । कारण, भक्ति, स्वयं ही सुखरूपा है, अतएव उस फलान्तरानुसन्धान की अपेक्षा नहीं है । अप्रतिहता - किसी प्रकार की बाधा भक्ति को बाधित करने में सक्षम नहीं हैं । बाधक पदार्थ द्विविध हैं- सुख एवं दुःख, जिसको अवलम्बन कर रहा जाता है, उस से अधिक सुखद वस्तुका अनुसन्धान होने पर निज आश्रय के प्रति शैथिल्य होता है, अथवा आश्रय जातीय वस्तु का अभाव होने पर जो दुःख होता है, तदपेक्षा अधिक दुःखद पदार्थ का अनुसन्धान से निजावलम्बन के प्रति शैथिल्य आ सकता है । किन्तु भक्ति अनुष्ठान में उक्त उभयविध बाधा का अभाव है । कारण, भक्ति आचरण के समान सुख और अपर नहीं है, भक्ति आचरण न करने के समान अपर दुःख भी नहीं है ।
उक्त रुचि लक्ष्णा भक्ति का आविर्भाव होने पर रुचि के द्वारा हो श्रवणकीर्त्तनादि लक्ष्णा भक्ति अनुष्ठान के प्रति प्रवृत्ति होती है । ३॥
(४) अनन्तर २१० ५।१८।१२ में लिखित है-
’ यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्यकिश्चना, सर्वैर्गुणैस्तत्र समासते सुराः ।
हरावभक्तस्य कुतो महद् गुणा मनोरथेनासति धावतो वहिः ॥'
टीका - मानसमलापगम फलमाह यस्येति । अकिञ्चना, निष्कामा । मनः शुद्धौ हरेर्भक्ति भवति, ततश्च तत् प्रसादे सति सर्वे देवाः सर्वे गुणश्च धर्म ज्ञानादिभिः सह तत्र सम्यमासते, नित्यं वसन्ति । गृहाद्यास तस्य तु हरिभक्तयसम्मवात् कुतो महतां गुणा, ज्ञान वैराग्यादयो भवन्ति ? असति विषय सुखे मनोरथेन व हे धवितः ॥१२॥
जिस की अकिञ्चना भक्ति, भगवान् के प्रति है, समस्त गुणों के सहित गरुड़ प्रभृति पार्षदवृन्द उक्त भक्त में वशीभूत होकर अवस्थित होते हैं, मनः शुद्धि होने पर हरि के प्रति भक्ति होती है, भक्ति होने पर धर्म ज्ञानादि गुणों के सहित भगवत् पार्षद गण उक्त भक्त देह में अवस्थित होते हैं । इस रीति के अनुसार भगवत् स्वरूप ऐश्वर्य माधुर्य ज्ञान एवं विषय वैराग्य, भक्ति के अनुगत होकर स्वतः ही उपस्थित होते
। भा० १।२/७ में लिखित है-
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(४) “वासुदेवे भगवति भक्तियोगः प्रयोजितः ।
जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानञ्च यदहेतुकम् ॥” ११॥
अहैतुकं शुष्कतर्काद्यगोचरमौपनिषदं ज्ञानमाशु ईषच्छ्रवणमात्रेण जनयतीत्यर्थः ॥ ५। व्यतिरेकेणाह ( भा० १२८) -
(५) “धर्म्मः स्वनुष्ठितः पुंसां वासुदेवकथासु यः ।
नोत्पादयेद्यदि रतिं श्रम एव हि केवलम् ॥” १२॥
वासुदेवतोषणाभावेन यदि तत्कथासु तत्तल्लीलावर्णनेषु रति रुचि नोत्पादयेत्, तदा श्रमः स्याश तु फलम, कथारुचेः सर्व्वत्रैवाद्यत्वात श्रेतृत्वाच्च सवोक्ता । तदुपलक्षणत्वेन भजनान्तर-
(४) वासुदेवे भगवति भक्तियोगः प्रयोजितः
जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानञ्च यदहैतुकम् ॥११॥
टीका - ननु तमेतमात्मानं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञ ेन दानेन तपसानाशकेनेत्यादि श्रुतिभ्यो धर्मस्य ज्ञानाङ्गत्वं प्रसिद्धं तत् कुतो भक्ति हेतुत्वमुच्यते ? सत्यम् । तत् तु भक्ति द्वारेणेत्याह वासुदेव इति । अहैतुकं शुष्क तर्काद्यगोचरम, औपनिषदमित्यर्थः ।
भगवान् वासुदेव में प्रयोजित भक्तियोग, ईषत् श्रवण मात्र से ही अतिसत्वर विषय वैराग्य एवं शुष्क तर्कादि का अगोचर उपनिषत् प्रतिपाद्य ज्ञान उत्पन्न करता है (४)
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(५) व्यतिरेक मुख से भी दर्शाते हैं - अर्थात् भगवान् में रुचिलक्ष्णा भतयोग आविभूत न होने से समस्त साधन ही विफल होते हैं ।
भा० ११२८ श्लोक के द्वारा उसका वर्णन करते हैं।
(५) “धर्मः स्वनुष्ठितः पुंसां वासुदेव कथासु यः ।
नोत्पादयेद् यदि रतिं श्रम एव हि केवलम् ॥ १२॥
टीका - व्यतिरेक माह धर्म इति । यो धर्म इति प्रसिद्धः स यदि विष्वक्सेनस्य कथासु रति नोत्पादयेत् तर्हि स्वनुष्ठितोऽपि सन्मयं श्रमोज्ञयः, ननु मोक्षार्थस्यापि धर्मस्य श्रमत्वमस्त्येव, अत आह— केवलं विफल श्रम इत्यर्थः । नन्वस्ति तत्रापि स्वर्गादि फलमित्याशङ्कय एव कारेण निराकरोति क्षविष्णुत्वमित्याशङ्कय हि शब्देन साधयति । तद् यथेह कर्मजितो लोकः क्षीयते, एवमेवामुत्र पुण्यजितो लोकः क्षीयते इति तर्कानुगृहीतया श्रुत्या प्रति पादनात् । (८)
श्रीसूत - शौनकादि ऋषिवृन्द को कहे थे - हे शौनक ! पुरुष मात्र के द्वारा सुनिर्दिष्ट रूप से अनुष्ठित धर्म, - यदि वासुदेव की कथा में रुचि उत्पन्न नहीं करता है, तो वह धर्मानुष्ठान - केवल वृथा श्रम में हो परिणत होता है, सुन्दर रूप से अनुष्ठित धर्म, के द्वारा वासुदेव की कथा में अर्थात् उनकी लीला वर्णनादि में रति उत्पन्न न होने का कारण यह है कि - उक्त धम में भगवदाश्रयता नहीं है, अर्थात् श्रीभगवान् में अर्पण अथवा श्रवणकीर्त्तनादि के द्वारा वह धर्म अनुष्ठित नहीं हुआ है। ऐसा होने पर उक्त धर्माचरण से परिश्रम ही फललाभ होगा, किन्तु धर्मोक्त मुख्य फल लाभ नहीं होगा । कारण, कथा रुचि ही सर्व साधन का प्रथम फल है, इस अभिप्राय से ही ‘रुचि’ की बात कही गई है । यद्यपि मूल श्लोक में कथारुचि का ही स्पष्टतः उल्लेख है, तथापि उपलक्षण से स्मरण, पाद सेवन, अर्चन प्रभृति के सहित कथा रुचिका उपदेश हुआ है, यह जानना होगा । श्लोकस्थ ‘श्रम एव’ शब्द के द्वारा प्रवृत्ति लक्षण धर्म का फल स्वर्गादि का क्षयिष्णुत्व
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श्रीभक्तिसन्दर्भ रुचिरप्युपदिष्टा । एव-शब्देन प्रवृत्तिलक्षणकर्मफलस्य स्वर्गादेः क्षयिष्णुत्वम्, हि-शब्देन तत्र व च ( छा० ८।११६) – “तद्यथेह कर्म्मजितो लोकः क्षीयते” इति सोपपत्तिक-श्रुतिप्रमाणत्वम्, " निर्णीते केवलम्" इत्यमरकोषात् केवलमित्यव्ययेन निवृत्तिमात्रलक्षण-धर्मफलस्य च ज्ञानस्यासाध्यत्वं सिद्धस्यापि नश्वरत्वम्, तत्रापि तेनैव हि–शब्देन (वे० ६।२३) “यस्य देवे परा भक्तिः" इत्यादि-श्रुतिप्रमाणत्वम्, (भा० ११५।१२) “नैष्कर्मंघमप्यच्युतभाववज्जितम् " इत्यादि, ( भा० १०।१४/४) “श्र ेयःसृति भक्तिमुदस्य ते विभो, क्लिश्यन्ति ये केवलबोध लब्धये” इत्यादि, (भा० १०।२।३२) “आरुह्य कृच्छ्रेण परं पदं ततः पतन्त्यधोऽनादृत युध्मदङ्घ्रयः” इत्यादि – वचन प्रमाणत्वञ्च सूचितम् ।
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दर्शाया गया है, अर्थात् सकाम कर्म का फल, स्वर्गादि, समय पर विनष्ट होते हैं । श्लोकस्थ ‘‘ह’ शब्द प्रयोग द्वारा सूचित हुआ है कि — कृषि कार्य्यादि के द्वारा उत्पन्न शस्यादि की प्रथम क्षण में उत्पत्ति, द्वितीय क्षण में स्थिति, एवं तृतीय क्षण में विनष्ट होते हैं, उस प्रकार शास्त्रीय यज्ञादि कर्मफल द्वारा उत्पन्न स्वर्गादि लोक भी विनष्ट होते हैं। इस प्रकार युक्ति पूर्ण श्रुति का प्रामाण्य भी प्रदर्शित हुआ है । श्लोकस्थ ‘केवल’ शब्द के द्वारा निवृत्ति मात्र लक्षण धर्म का फल स्वरूप ज्ञान का असाध्यत्व प्रदर्शित हुआ है । निष्काम धर्म भी यदि भगवत् भक्ति शून्य होता है तो, उस निष्काम धर्माचरण से ब्रह्म ज्ञान लाभ नहीं होता है, यदि कदापि ज्ञान लाभ हो भी जाय, तथापि वह स्थायी नहीं होता है । इलोकस्थ ‘हि’ शब्द के द्वारा यह भी प्रदर्शित हुआ है कि-जिस के हृदय में परमेश्वर विषयक पराभक्ति है, उस के हृदय में ही यथा कथित लक्षण वस्तु तत्त्व का अनुभव प्रकाशित होता है । एवं भा० १।५।१२ में उक्त श्रीव्यास के प्रति श्रीनारदोपदेश से प्रकाश हुआ है कि- निरुपाधि ज्ञान भी अपरोक्षानुभव को प्रकाश करने में सक्षम नहीं है ॥
“नैष्कर्म्यमप्यच्युत भाव वर्जितं न शोभते ज्ञानमलं निरञ्जनम् ।
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कुतः पुनः शश्वदभद्रमीश्वरे न चापितं कर्म यदप्यकारणम् ॥” भा० १।५।१२ टीका - भक्ति होने कर्म तावत् शून्यमेवेति कैमुत्यिकन्यायेन दर्शयति-नष्कर्म्यमिति । निष्कर्म ब्रह्म, तदेकाकारत्वान्निष्कर्म्मारूपं नैष्कर्म्य । अज्यते अनेन इत्यञ्जनमुपाधि, स्तग्निवर्त्तकं निरञ्जनम् । एवम्भूतमपि ज्ञानं, अच्युते भावो भक्तिस्तद् वर्जितं चेत् अलमत्यथं - न शोभते, सम्यक् परोक्षाय न कल्प्ते- इत्यर्थः । तदा शश्वत् साधन काले फल काले च अभद्रं दुःख रूपं यत् काम्यं कर्म्म यदप्यकारणमकाम्यं तच्चेति च कारस्थान्वयः । तदपि कर्म ईश्वरे नापितं चेत् कुतः पुनः शं भते ? वहिर्मुखत्वेन सत्व शोधकत्वाभावात् ॥
भा० १०।१०।४ में ब्रह्माकृत श्रीकृष्ण स्तुति प्रसङ्ग में उक्त है-
“श्रेयः सृति भक्ति मुदस्य ते विभो क्लिश्यन्ति ये केवल बोधलब्धते । तेषामसौ क्लेशल एव शिष्यते नान्यद् यथा स्थूल तुषावधातिनाम् ॥
टीका—भक्त विना ज्ञानन्तु नैव सिध्येदित्याह श्रेयः सृतिमिति । श्रेय सामभ्युदयापवर्गलक्षणानां सृतिः सरणं यस्याः सरस इव निर्झराणाम्, तां ते तव भक्तिमुदस्य त्यक्त्वा श्रेयसां मार्गभूतमिति वा । तेषां क्लरेशलः क्ल ेश एवावशिष्यते । अयं भावः - यथा अल्प प्रमाणं धान्यं परित्यज्य अन्तःकरण होनान् स्थूल धान्या भासांस्तुषानेव अवघ्नन्ति तेषां न किञ्चित् फलम्, एवं भक्ति तुच्छी कृत्य ये केवल बोधाय प्रयतन्ते तेषामपीति (४)श्रीभक्ति सन्दर्भः
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श्लोकद्वयेन भक्तिनिरपेक्षा, ज्ञान-वैराग्ये तु तत्सापेक्षे इति लभ्यते । तदेवं भक्तिफलत्वेनैव धर्मस्य साफल्यमुक्तम् ॥