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किञ्च, (भा० १२२६ )-
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“एवं स्वचित्त स्वत एव सिद्ध, आत्मा प्रियोऽर्थो भगवाननन्तः । तं निर्वृतो नियतार्थो भजेत, संसारहेतूपरमश्च यत्र ॥ " ६ ॥
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टीका च-“तदा तेन किं कर्त्तव्यम् ? हरिस्तु सेव्य इत्याह- एवं विरक्तः सन् तं भजेत । भजनोयत्वे हेतवः - स्वचित्त े स्वत एव सिद्धः, यत आत्मा, अतएव प्रियः, प्रियस्य त्र सेवा सुखरूपैव; अर्थः सत्यः, न त्वनात्मवन्मिथ्या, भगवान् भजनीयगुणश्च, अनन्तश्च नित्यः । यः एवम्भूतस्तं भजेत । नियतार्थश्च निश्चितस्वरूपः; तदनुभवानन्देन निर्वृतः सन्निति भक्तेः स्वतः सुखात्मकत्वं दर्शितम् । किञ्च यत्र यरिमन् भजने सति संसारहेतोरविद्याया उपरमों नाशो भवति” इत्येषा अत्र च कारात् तत्प्राहिज्ञया ॥ श्रीशुकः ॥
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श्रीगुरुदेव ही हैं, वह ही श्रीकृष्णचरणों में भक्ति प्राप्त करने का अधिकारी है ।
श्रीकवि, विदेह की कहे थे । १।
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श्रीमद् भागवत के २२६ में उक्त है—
“एवं स्वचित्ते स्वत एव सिद्ध, आत्मा प्रियोऽर्थो भगवाननन्तः ।
तं निर्वृतो नियतार्थो भजेत, संसारहेतुपरमश्च यत्र ॥ ॥
क्रम सन्दमं - एवं तत्र तत्र भगवत्येव तात्पर्य्ये सति स्वचित्ते स्वत एव सिद्धः श्रीभगवानेव परम पुरुषार्थतया सेव्यः, किं तदाग्रहेणेत्याह, एवं स्वचित्त इति । भा० २।१५
“तस्माद् भारत सर्वात्मा” इत्यादिना यदुक्तम्, तदेवात्र पुन निर्णीयत इति भावः । च–शब्देनानुषङ्गिकमेवाविद्या निवृत्तिः फलमिति बोधितम् ॥
श्रीशुकदेव कहते हैं–जागतिक समस्त विषयों में वितृष्ण होकर श्रीहरि की सेवा करना ही एकमात्र कर्त्तव्य है, कारण, श्रीहरि ही एकमात्र भजनीय गुण सम्पन्न हैं । तन्मध्य में एक गुण यह है कि श्रीहरि- साधक के चित्त में सतत विद्यमान हैं, उनको बाहर अन्वेषण करना नहीं पड़ता है, कारण, आप आत्मा हैं, अतएव प्रिय हैं, आत्मा के समान प्रिय निज देहेन्द्रिय भी नहीं है, प्रिय व्यक्ति की सेवा, सुख रूपा होती है, सामयिक रूप में जीव जिस के प्रति प्रीति करता है, समयान्तर में उसका विरह अवश्य होता है, अतः विरह व्यथा का भोग होता है। किन्तु श्रीहरि कालत्रय में एक रूप में सतत विद्यमान हैं, उस में भी आप भगवान् हैं–भवत वात्सल्य, कृपालुता सामर्थ्य, कृतज्ञता एवं वदान्यता प्रभृति गुणगण के द्वारा महीयान् हैं, एवं अनन्त भी हैं, उनका विनाश नहीं है, जो मानव उनका भजन करते हैं, उनका भी विनाश नहीं होता है। जो एवम्भूत गुण सम्पन्न हैं, उनका भजन अवश्य ही करना चाहिये। उस से भजन कारी व्यक्ति निश्चल स्वरूप होगा, अर्थात् भजनीय में निष्ठायुक्त एवं भगवदनुभवानन्द से पूर्ण मानस होगा । कारण, श्री हरि, स्वतः सिद्ध–आनन्द स्वरूप हैं ।
एवं उनका भजन भी स्वतः सुख रूप है । जिनका भजन करने से संसार की मूल हेतु भूता अविद्या का उपरम अर्थात् नाश होता है, अर्थात् अविद्या की निवृत्ति स्वतः ही हो जाती है। यह है श्रीधर स्वामि पाद का अभिप्राय । उक्त श्लोक “संसार हेतूपरमश्च” में ‘च’ कार का प्रयोग हुआ है, उसका अर्थ– भगवत् प्राप्ति है, अर्थात् संस र हेतु अविद्या की निवृत्ति के अनन्तर श्रीभगवत् साक्षात् कार होता है ।
प्रवक्ता श्रीशुक हैं। (२)
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