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भक्तिसन्दर्भ

१ अत्र पूर्व्वं सन्दर्भचतुष्टयेन सम्बन्धो व्याख्यातः । तत्र पूर्ण सनातन परमानन्द लक्षण- परतत्त्वरूपं सम्बन्धि च ब्रह्म परमात्मा भगवानिति विधाविर्भावतया शब्दितमिति निरूपितम् । श्रीरूप सनातन गोस्वामी, एवं श्रीकृष्ण परिकर रूप में श्रीरूप मञ्जरी एवं श्रीलवङ्ग मञ्जरी रूप में विद्यमान हैं । प्रकट लीला में प्रकट रूप में, एवं अप्रकट लीला में अप्रकट रूप में विराजित हैं । उक्त ‘सन्तौ’ पद से इस प्रकार अर्थ बोध होता है । ‘श्रील’ श्री ल श्रीयुक्त अर्थ में प्रयुक्त है, ‘श्री’ का अर्थ लक्ष्मी, सम्पत्ति वेश विन्यास, शोभा, सरस्वती, त्रिवर्ग प्रकार, उपकरण विभूति, बुद्धि, कीर्ति, वृद्धि, एवं सिद्धि है । असाधारण प्रेमवान् परिकर होने के कारण उक्त ‘श्रील’ पद श्रीरूपसन तन की असाधारण ज्ञान, वैराग्य एवं तपस्या रूप सम्पत्ति का प्रकाशक है ।

श्रीपाद मध्वाचार्य चरण श्रीमद्भागवततात्पर्य्यादि ग्रन्थ प्रणयन किये थे । श्रीमद् भागवत प्रमाणानुसरण से श्रीकृष्ण तत्त्व एवं श्रीव्रज भक्ति प्रतिपादन करने के निमित्त श्रीगौराङ्ग महाप्रभु से श्रीरूपसनातन आदेश प्राप्त किये थे । अतः उक्त अभीप्सित कार्य्यानुष्ठान के द्वारा श्रीरूप सनातन के सन्तोष विधान निबन्धन श्रीश्रीगीराङ्ग महाप्रभु के प्रिय पार्षद दाक्षिणात्य निवासी विप्रभट्ट वंश समुद्भूत श्रीगोपाल भट्ट गोस्वामी चरण, उक्त ग्रन्थ समूह से विचार पूर्वक सार सङ्कलन किये थे ।

भागवत के एकादशस्कन्ध में श्रीकृष्ण- उद्धव को कहे थे – ‘मद् भक्त पूजाभ्यधिका’ श्रीभगवदर्चना से भी भगवद् भक्त की पूजा श्रेष्ठ है, तज्जन्य ही श्रीगोप लभट्ट गोस्वामी चरण श्रीरूप सनातन के सन्तोष विधान करने के निमित्त व्रती हुये थे । कारण, भक्ति, भक्त एवं श्रीभगवान् की महिमा वर्णन करने से ही वैष्णव सन्तुष्ट होते हैं, प्रस्तुत ग्रन्थ में उक्त तत्त्वत्रय की महिमावली का प्रकाशक सिद्धा तावलीका संग्रह है ।

यहाँ जिज्ञासा हो सकती है कि- पिष्टपेषणन्यायानुरुरण यहाँ क्यों हुआ है ? अर्थात् श्रीगोपालभट्ट गोस्वामि पाद विरचित ग्रन्थ का पुनविरचन की आवश्यकता क्या रही ? समाधानार्थ कहते हैं- श्रीगोपाल भट्ट गोस्वामि चरण कर्त्तृक सङ्कलित आद्य ग्रन्थ में भागवतीय सिद्धान्त समूह, स्थलविशेष में निबद्ध थे, किन्तु कहीं पर विपरीत क्रम से, कहीं पर असम्पूर्ण रूप से संगृहीत थे, अतः श्रीजीव गोस्वामि चरण उक्त सिद्धान्त समूह की सम्यक् आलोचना करतः क्रम पूर्वक लिख रखे हैं । श्रीजीव गोस्वामि चरण दैन्य से निज परिचय प्रदान ‘जीवक’ शब्द द्वारा किये हैं ।

‘जीव’ शब्द के उत्तर होनाथ में ‘कन्’ प्रत्यय से ‘जीवक’ शब्द निष्पन्न होता है, उक्त शब्द श्रीजीव- गोस्वामि चरण का लघुत्व व्यञ्जक होने से भी अर्थान्तर द्वारा उक्त शब्द से महत्त्व का बोध भी होता है, अर्थाद ‘जीवयति सर्व जीवान् भागवत सिद्धान्त दानेनेति जीवकः " जो भाग त सिद्धान्त प्रदान कर सर्वजीव को जीवित करते रहते हैं, वह ‘जीवक’ है । यहाँ उत्तम पुरुष “लिखा ‘म” का प्रयोग होना आवश्यक है, किन्तु प्रथम पुरुष ‘लिखति’ का प्रयोग होने से ग्रन्थकार की निरभिमानिता सूचित हुई है, कारण श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की प्रेरणा से ही ग्रन्थ लिखन कार्य्यं हो रहा है, इस को सूचित करने के निमित्त “लिखति” क्रिया का प्रयोग हुआ है । द्वितीय श्लोक में पर्यालोच्याथ’ का प्रयोग है, उक्त ‘अथ’ शब्द का मङ्गल एवं आनन्तर्य अर्थ है, यद्यपि अथ शब्द स्वयं मङ्गल वाचक नहीं है, तथापि श्रवण कीर्त्तन से मङ्गल विहित होता है। जिस प्रकार यात्रा कालीन पूर्णकुम्भ स्वयं मङ्गल स्वरूप न होने पर भी आनुषङ्गिक रूप से मङ्गल विहित होता है, तद्रूप “अथ” शब्द सम्बन्ध में भी जानता होगा । आनन्तर्य अर्थ विशिष्ट ‘अथ’ शब्द का श्रवण कीर्तन द्वारा मङ्गल विधानार्थ प्रस्तुत स्थल में प्रयोग हुआ । वस्तुतः सम्बन्ध तत्त्व प्रतिपादन के अनन्तर क्रम प्राप्त रूप में अभिधेय तत्त्व का प्रतिपादन अवश्य कर्त्तव्य है, तज्जन्य ‘अथ’ शब्द का प्रयोग हुआ है ॥१-२॥

अभिधेय तत्त्व प्रतिपादक भक्ति सन्दर्भ नामक पञ्चमसन्दर्भ के पूर्व में तत्त्व, भगवत्, परमात्म, एवं

श्रीभक्तिसन्दर्भ

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तत्र च भगवत्त्वेनैवाविर्भावस्य परमोत्कर्षः प्रतिपादितः । प्रसङ्गेन विवाद्याश्चतुःसन द्याश्व तदवतारा दर्शिताः । स च भगवान् स्वयं श्रीकृष्ण एवेति निर्द्धारितम् । परमात्मवैभवगणने तत्तटस्यशक्तिरूपाणां चिदेकरसानामप्यनादि-परतत्त्व-ज्ञानसंसर्ग भावमय-तद्वैमुख्य- श्रीकृष्ण सन्दर्भ में सम्बन्ध तत्त्व का वर्णन हुआ है । शस्त्र एवं शास्त्र प्रतिपाद्य वस्तु के सहित प्रतिपाद्य प्रतिपादक भावरूप सम्बन्ध को ही मूलस्थ ‘सम्बन्ध’ शब्द से व्यक्त किया गया है । समस्त शास्त्र जिस वस्तु का प्रतिपादन करने के निमित्त प्रवृत्त हुये हैं, वह वस्तु हो शास्त्र प्रतिपाद्य है, उसका प्रतिपादन करने के निमित्त शास्त्र समूह को प्रतिपादक कहते हैं।

किस वस्तु का सुनिश्चित विचार के द्वारा स्थापन करने के निमित्त निखिल शास्त्रों की प्रवृति है, इसकी समीक्षा करने से बोध होता है कि-निखिल शास्त्र का एकमात्र उद्देश्य ही है, मानव को देहातिरिक्त परमात्म वस्तुका संवाद प्रदान करना । निखिल शास्त्र प्रतिपाद्य वस्तुमें वाच्यगत भेद विद्यमान होने पर भी उद्देश्यगत भेद नहीं है, उक्तपूर्ण सनातन परमानन्द स्वरूप वस्तु ही मूर्त्त एवं अमूत्तं भेद से द्विधा आविर्भूत होते हैं तन्मध्य में अमूर्त आनन्द ब्रह्म संज्ञा से अभिहित होते हैं, एवं मूर्त्त आनन्द - पूर्ण अभिव्यक्ति विशेष से ‘भगवान्’ शब्द से, एवं किञ्चित् अभिव्यक्ति विशेष से ‘परमात्मा’ संज्ञा से अभिहित होते हैं, इस का विशेष विचार, तत्त्व, भगवत् परमात्म, एवं कृष्ण सन्दर्भात्मक सन्दर्भ चतुट्टय में हुआ है, उक्त सम्बन्ध तत्त्व निर्णय प्रसङ्ग में कहा गया है—एक ही पूर्ण सनातन परमानन्द स्वरूप परतत्त्व, साधक की साधन शक्ति के तारतम्य से ब्रह्म, परमात्मा, भगवान्, तीन प्रकारसे आभिर्भूत होते हैं । निखिल शास्त्र का मुख्य प्रतिपाद्य सम्बन्ध, अद्वय परमानन्द वस्तुमें होने के कारण, उक्त परतत्त्व ही सम्बन्धी हैं, एवं ब्रह्म, परमात्मा भगवान्, प्रकारत्रय, उक्त अद्वयज्ञान लक्षण परतत्त्व का आविर्भाव विशेष हैं ।

उक्त परतत्व लक्षण ब्रह्म, परमात्मा, भगवान् -त्रिविध आविर्भाव के मध्य में भी भगवद् रूप में आविर्भाव का ही परमोत्कर्ष प्रतिपादित हुआ है, उक्त भगवान् की स्वयं भगवत्ता साक्षात् श्रीकृष्ण में ही निर्धारित हुई है । प्रसङ्ग क्रम से स्वांश विष्णु प्रभृति नैमित्तिक अवतार, तदेकात्म तत्व एवं चतुः सनादि आवेशावतार का प्रदर्शन भी हुआ है ।

परमात्मा की विभूति के गणन प्रसङ्ग में जीव समूह की गणना तटस्थ शक्तिके मध्य में दुई है। कारण जीव स्वरूपतः चेतन होने पर भी अभिमान ग्रस्त होकर अपने को त्रिगुणमय मान लेता है, उक्त जीव समूह, जड़ांश रहित शुद्ध चैतन्य स्वरूप होने से भी उस को संसार दुःख की वार्त्ता सूचित की गई है ।

उक्त संसार दुःख का मूल कारण ही माया द्वारा स्वरूप ज्ञानावृत होना है, एवं उक्त माया के द्वारा ही सत्व, रजः तमोगुणमय मायाकार्य देहादि में ‘मैं’ यह भावना उपस्थित होती है । अर्थात् चैतन्य स्वरूप विस्मृत होने से ही जड़ीय देहादि में जीवका आत्माभिमान होता है, तज्जन्य ही संसरण दुःख भोग होता है ।

जड़ीय वस्तु में मानस सम्बन्ध स्थापन को ही संसार कहते हैं । एवं उक्त जड़ीय सम्बन्ध ही निखिल दुःख का कारण है ।

परम करुण ईश्वर की शक्ति माया, क्रूरा नहीं है, अतः अकारण दुःख प्रदान हेतु माया जीव का स्वरूपावरण नहीं करती है। किन्तु जीव निज स्वरिता के कारण परम प्रिय श्रीप्रभु को मूल जाता है, उक्त दोष से माया शिक्षा प्रदानार्थ जीव स्वरूप को आवृत करती है ।

यहाँ संशय हो सकता कि, विस्मृति के पहले श्रीभगवत् स्मृति की अपेक्षा है, अन्यथा विस्मृति नहीं होती है, पुनर्वार विस्मृति की निवृत्ति होनेपर स्मृति अवस्था में पुनर्वार विस्मृति की आशङ्का होगी, इससे

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श्रीभक्तिसन्दर्भ

लब्धच्छिद्रया तन्माययावृतस्वस्वरूपज्ञानानां तथैव सत्त्वरजस्तमोमये जड़ो प्रधाने रचितात्म- भावानां जीवानां संसारदुःखश्च ज्ञापितम् यथोक्तमेकादशे श्रीभगवला ( भा० ११।२२।३४ )

अनवस्था दोष तो होगा ही, अपरन्तु उपदेश की प्रयोजनीयता भी नहीं रहेगी ।

इस प्रकार संशय अपनोदन करने के निमित्त कहते हैं—जीव स्वभावतः ही द्विविध हैं, अनादि काल से ही कतिपय जीव ईश्वरेच्छा से भगवत् तत्त्व विस्मृत होकर रहते हैं, उक्त स्वभावाकान्त जीव समूह को नित्यबद्ध कहा जाता है । एवं कतिपय जीव अनादि काल से ही श्रीभगवद्वन्मुख होकर रहते हैं, अर्थात् कभी भौ भगवद् विस्मृति उन सब की नहीं होती है, उक्त समुदाय को नित्य मुक्त कहते हैं।

उक्त प्रकार द्वय की वार्त्ता भा० ३।७।३७ के श्रीविदुर मैत्रेय संवाद में हैं-

" तत्त्वानां भगवंस्तेषां कतिधा प्रति संक्रमः ।

तत्रेमं क उपासीरन् क उ स्विदनुशेरते ॥ "

टीका - प्रति संक्रमः - प्रलयः । तत्र प्रलये, इमं परमेश्वरं शयानं राजानमिव चामर ग्राहिणः केवा तमनुशेरते शयानमनुस्वपन्ति भगवन् ! तत्त्व समूह का प्रलय में विलय किस प्रकार होता है, एवं परमेश्वर की उपासना में रत कौन रहता है, एवं परमेश्वर विश्राम करने पर कौन शयन करता है ?

टीका- प्रति संक्रम का अर्थ प्रलय है, उस प्रलय के समय, स्रष्टा परमेश्वर शयन करने पर राजा के समान व्यजन हस्त में लेकर कौन उनकी सेवा करता है, एवं शयन के पश्चात् कौन शयन करता है ?

क्रमसन्दर्भ - तत्त्वानामिति । तत्र तेषु प्राकृत पर्य्यन्तेषु प्रलयेषु, अनेन पार्षदानां नित्यत्वमभिप्रेतम्, तदुक्त’ काशीखण्डे-

‘न च्यवन्तेहि यद् भक्ता महत्यां प्रलयापदि । अतोऽच्युतोऽखिले लोके स एकः सर्वगोऽव्ययः ॥ "

इति - अनुशेरते - लोनास्तिष्ठति ॥ प्राकृत पर्यन्त प्रलयों में सेवानिष्ठ होकर कौन रहता है, एवं कौन लीन होकर रहता है ? इस संवाद से प्रतीत होता है कि श्रीहरि के पार्षद वर्ग नित्य शरीर धारी हैं, काशी खण्ड में लिखित है- महत् विपत्ति रूप प्रलय में जिनके भक्तगण की विच्यति नहीं होती है, अतः वह अखिल लोक में अच्युत, व्यापक, एवं अव्यय नाम से अभिहित हैं । अनुशेरते शब्द का अर्थ लीन होकर अवस्थान करना है ।

उक्त प्रश्न के द्वारा जीव के द्विविध संस्थान की वार्त्ता सुव्यक्त हुई है। उक्त भगवत् विस्मृति का स्वरूप को कहते हैं- “परतत्त्व ज्ञान- संसर्गाभावमय" परतत्त्व ज्ञान का अर्थात् अनुभव का संसर्गाभावरूप वैमुख्य है । अभाव प्रथमतः द्विविध है । प्रथम - अन्योऽन्याभाव, द्वितीय संसर्गाभाव, तन्मध्ये संसर्गाभाव- प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव अत्यन्ताभाव भेद से त्रिविध हैं, अर्थात् वस्तु उत्पन्न होने के पूर्व में जिस का अभाव परि लक्षित होता है, वह प्रागभाव है, वस्तु उत्पन्न के पश्चात् मुद्गर प्रहारादि से जो अभाव अनुभूत होता है, वह ध्वंसाभाव है, एवं सर्वत्र जिसका अभाव परिलक्षित होता है, वह अत्यन्ताभाव है ।

जीव में भगवदनुभवाभाव, प्रागभाव के मध्य में परिगणित है, अर्थात् जो अभाव प्रथम था, पश्चात् विनष्ट होने की सम्भावना है, उसको प्रागभाव कहते हैं। अर्थात् जीव का प्रथम भगवदनुभव का अभाव था, सत्सङ्गः

से उक्त भगवदनुभवाभाव विदूरित होने पर जीव के हृदय में भगवदनुभव का उद्बोधन हो सकता है । इससे ही शास्त्रारम्भ सफल होता है ।

श्रीभक्तिसन्दर्भ

“आत्मापरिज्ञानमयो विवादो, ह्यस्तीति नास्तीति भिदार्थनिष्ठः ।

व्यर्थोऽपि नैवोपरमेत पुंसां, मत्तः परावृत्तधियां स्वलोकात् ॥” ३ ॥ इति ।

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ततस्तदर्थं परमकारुणिकं शास्त्रमुपदिशति । तत्र च ये केचित् जीवा जन्मान्तरावृत्त- तदर्थानुभव-संस्कारवन्तः, ये च तदैव वा लब्धमहत् कृपातिशय दृष्टिप्रभृतयस्तेषां तादृशपरतत्त्व- लक्षण- सिद्ध-वस्तूपदेश - श्रवणारम्भमात्रेणैव तत्कालमेव युगपदेव तत्साम्मुख्यं तदनुभवोऽपि जायते, यथोक्तम् (भा० १११२ ) - “किंवा परैरीश्वरः, सद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः शुश्रूषुभि- स्तत्क्षणात् " इति । तत स्तेषां नोपदेशान्तरापेक्षा, यादृच्छिक सुपदेशान्तरवणं तु तत्लीलादि श्रवणवत्तदीयर सस्यैवोद्दीपकम्, यथा श्रीप्रह्लादादीनाम् । अथान्येषां तच्छ्रवणमात्रेण तादृशत्वं जीवायमानमपि कामादि-वैगुण्येन वीजमपि दोषेण प्रतिहतं तिष्ठति, (भा० ७।६।३) -

" नैतन्मनस्तव कथासु विकुण्ठनाथ, संप्रीयते दुरितदुष्टमसाधु तीव्रम् । कामातुरं हरषशोकभयैषणात्तं तस्मिन् कथं तव गत विमृशामि दीनः ॥ ४ ॥

“आत्मापरिज्ञानमयो विवादो, ह्यस्तीति नास्तीति भिदार्थनिष्ठः । व्यर्थोऽपि नंवोपरमेत पुंसां, मत्तः परावृत्तधियां स्वलोकात् ॥३॥

भा० ११।२२।३४ की टीका- ‘न कुतो निवर्त्तते, आत्माज्ञान विलसितत्वात् तज् ज्ञानेनेत्याशयेनाह - आत्मापरिज्ञानमय इति ! ननु कथं मोहमयत्वं विकल्पस्य अहङ्कारस्य वा कैश्चित् सत्यत्वाङ्गीकारात्, तत्राह विवाद इति । अथ भिदार्थ निष्ठाविवादोऽपि आत्मापरिज्ञानमय इत्यन्वयः । यद्वा विवादः सर्वोऽपि भिदार्थ निष्ठ एव नतु वस्तुमात्रनिष्ठः, अतः परस्परं युक्तिभिरेव भेदस्य निराकृतत्वान्मोहमयत्वं सिद्ध मिति । ननु यद्यहङ्कारो विकल्पश्च नास्ति अलं तहि तन्निवृत्तिप्रयासेन तत्राह व्यर्थोऽपि अर्थरहितोऽपि स्वरूप भूतात् मत्तो वहिर्मुखानां नैवोपरमेत् प्रत्युत तत् कृतैः कर्मभिरुच्चनीच देहेषु ते संसरन्तीति ॥

क्रमसन्दर्भ - " एवं यथा मण्डलात्मार्कः स्वतः सिध्यति, तथात्मापीत्याह- यद्यतः, पूर्वोत- दृष्टान्त हेतोरात्मैषा मध्यात्मादीनां योऽपर आद्यस्तेषामाश्रयः, सोऽपि स्वतः सिध्यति, किन्तु स्वयानुभूत्येति चिद् रूपत्वाद् विशेषः न केवलमेतावदपि त्वखिलानां परस्पर प्रकाशसिद्धानां सिद्धि र्यस्मात्तथाभूतः सन्निति ॥

श्रीमद् भागवत के १११२२।३४ श्लोक में श्रीभगवान् उद्धव को कहे हैं, हे उद्धव ! जब तक भगवद् विस्मृति की निवृत्ति नहीं होती है, तब तक सात्त्विक, राजसिक एवं तामसिक अहङ्कार निवृत्ति की सम्भावना नहीं है, कारण, जीव मात्र का परमाश्रय मैं हूँ, मुझ से जीवों में मत् सम्बन्धि विमुखता दोष होता है, उस से जीव का सच्चिदानन्द रूप निज स्वरूप की स्फूर्ति नहीं होती है । अतः देहातिरिक्त आत्मा है, निज मत में एवं देहातिरिक्त आत्मा का अस्तित्व नहीं है, परमत में, भेद थे निष्ठ विवाद - यद्यपि अर्थ शून्य है, अर्थात् वह परमार्थ रहित है, तथापि जब तक मुझ ईश्वर में वहिर्मुखता रहेगी, तब तक उसकी निवृत्ति किसी प्रकार से नहीं होगी, उससे पारमार्थिक ज्ञान का उदय भी नहीं होगा, किन्तु जिस समय जीव मेरी प्रेरणा को अनुभव कर मेरे स्वरूप के और उन्मुखभाव को प्राप्त करेगा, उस समय आनुसङ्गिक रूप में पारमार्थिक ज्ञान का भी उदय होगा । कारण- परमपुरुषार्थ स्वरूप मुझ को प्राप्त करना ही परम नित्य है । इस से निर्णीत हुआ कि-जीव स्वरूप का माया कर्त्तृक आवरण का मुख्य कारण ही भगवद् वैमुख्य है । अतएव भगवदुन्मुखता हो, तज्जन्य परमकारुणिक शास्त्र भूयोभूयः उपदेश प्रदान करते रहते हैं।

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६]

श्रीभक्तिसन्दर्भ

इति दीनन्मन्य- श्रीमत्प्रह्लादवचनानुसारेणान्येषामेव तत्प्राप्तेः । एवमेवोक्तं ब्रह्मवैवर्त्ते-

उक्त शास्त्रीय उपदेश प्राप्त करके भी जो सब जीव जन्मान्तरीय निखिल शास्त्र प्रतिपाद्य श्रीभगवदनुभव

संस्कार विशिष्ट हैं, एवं जो सब जीव, इस जन्म में ही महापुरुष के स्ङ्ग से अतिशय कृपा- दृष्टि प्रभृति प्राप्त किये हैं, इन दोनों प्रकार जीव के हृदय में शास्त्र उपदेश श्रवणारम्भ मात्र से श्रवण समकाल में ही परमानन्द लक्षण परतत्व वस्तु, भगवत् सम्मुरथ एवं भगर बनुभव प्रकाशित होते हैं। जैसा कि श्रीमद् भागवत के १११ में उक्त है-

“धर्मः प्रोज्झित कैतवोऽत्र परमोनिसराणां सतां

वेद्य’ वास्तवमन्त्रवस्तु शिवदं तापत्रयोन्मूलनम् । श्रीमद् भागवते महामुनि कृते किवा परैरीश्वरः,

सद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः शुश्रूषुभिस्तत्क्षणात् ॥”

टीका- ‘इदानीं श्रोतृप्रवर्त्तनाय श्रीभागवस्य काण्डत्र्य विषयेभ्यः सर्वश स्वेभ्यः श्रेष्ठ्य ं दर्शयति-धर्म इति अत्र - श्रीमति सुन्दरे भागवते परमो धर्मो निरूप्यते इति । परमत्वे हेतुः, - प्रदषण उज्झतं तवं फलाभिसन्धि लक्षणं कपटं यस्मिन् सः । प्र-शब्देन, मोक्षाभिसन्धिरपि निरस्तः । केवलमीश्वरः धनलक्षणो धर्मोनिरूप्यते इति। अधिकारितोऽपि धर्मस्य परमत्वमाह, निर्मत्सराणां परोत्कर्षासहनं मत्सरः, तद्रहितानां, सतां-भूतानुकम्पिनाम् । एकं कर्मकाण्ड विषयेभ्यः शास्त्रेभ्यः श्रेष्ठयमुक्तम् । ज्ञानकाण्ड विषयेभ्योऽपि श्रैष्ठयमाह-वेद्यमिति । वास्तवं परमार्थभूतं वस्तु वैद्य, नतु वैशेषिकानामिव द्रव्यगुणादिकम् यद्वा- वास्तवशब्देन, वस्तुनोंऽशो जीवः, वस्तुनः शक्ति माया च वस्तुनः कार्य्यं जगच्च तत् सर्वं वस्त्वेव, न ततो पृथगिति वेद्यम् - अयत्नेनैव ज्ञातु शक्यमित्यर्थः, ततः किमतः आह- शिवद - परम सुखबम् । विश्व- आध्यात्मिकादि तापत्रयोन्मूलनञ्च । अनेन ज्ञानकाण्डविषयेभ्यः श्रेष्ठ्य दर्शितम् । कर्त्तृतोऽपि श्रेष्ठयमाह महामुनिः श्रीनारायणः, तेन प्रथमं संक्षेपतः कृते । देवताकाण्ड विषयेभ्योऽपि श्रेष्ठधमाह- कि बेति । परैः शास्त्रः, तदुक्त साधने व ईश्वरो हृदि किं वा द्य एव अवस्ध्यते स्थिरीक्रियते । वा शब्दः- षटाक्षे । किन्तु विलम्बेन कथञ्चिदेव, अत्रतु शुश्रूषुभिः - श्रोतुमिच्छद्भिरेव तत् क्षणादेवावरुध्यते । ननु इदमेव तहि किमिति सर्वे न शृण्वन्ति ? तदाह–कृतिभिरिति श्रवणेच्छा तु पुण्यविना नोत्पद्यत इत्यर्थः । तस्मादत्र काण्ड त्र्यार्थस्यापि यथावत् प्रतिपादनादिदमेव सर्वशास्त्रेभ्यः श्रेष्ठ । अतो नित्यमेव श्रोतव्यमिति भावः ।

ज्ञानयोग निष्कामकर्म प्रभृति अन्यसाधन-एवं अन्य शास्त्र के द्वारा क्या श्रीहरि, सद्यः–साधन समकाल में अथवा शास्त्र श्रवण समकालमें ही परमेश्वर साधक हृदय में अवरुद्ध होते हैं ? अर्थात् अनुभूति गोचर में अवरुद्ध होते हैं ? किन्तु श्रीमद्भागवत में ऐसी अचिन्त्य शक्ति विशेष है कि–प्राप्त सत्सङ्ग अथवा प्राप्त महत् कृपातिशय दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति की यदि श्रीमद्भागवत श्रवणेच्छा होती है तो, श्रवण करने के साथ ही श्रीभगवान् हृदय में आविर्भूत होते हैं, इस श्लोक में कृतिभिः पद का प्रयोग है, इससे जन्मान्तरीय अथवा वर्त्तमान जन्म में प्राप्त सत्सङ्ग एवं प्राप्त महत् कृपातिशय रूप भाग्यवान् जीव को सूचित किया गया है । ‘सद्यः’ पद प्रयोग के द्वारा–श्रवण समकाल, सूचित हुआ है । “अवरुध्यते” पद के द्वारा भगवद् अनुभूति लक्षित हुई है । अतः निज सिद्धान्त का पोषक रूप में ही प्रस्तुत श्लोक का उल्लेख हुआ है । अतएव जिन्होंने सत् सङ्गलाभ किया है, उनको अन्योपदेश की अपेक्षा नहीं है । यदृच्छाक्रम से उपदेशान्तर श्रवण - अर्थात् ‘भगवदुन्मुख हो जाओ, भगवान को मत भूलो’ इस प्रकार उपदेश भी उनके पक्ष में भगवत् लीला कथा श्रवण के समान ही है। उस से श्रीभगवत् स्वरूपास्वादन ही उद्दीप्त होता है, अर्थात् जिस प्रकार भक्तगण के हृदय में निरन्तर भगवत् नाम गुण लीला प्रभृति की अनवरत स्फूति होने पर भी जिस

श्रीभक्तिसन्दर्भ

“यावत् पापैस्तु मलिनं हृदयं तावदेव हि । न शास्त्रे सत्यबुद्धिः स्यात् सद्बुद्धिः सद्गुरौ तथा ॥५॥ अनेकजन्मजनित- पुण्य राशिफलं महत् । सत्सङ्ग-शास्त्रश्रवणादेव प्रेमादि जायते ॥” ६ ॥ इति ।

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ततो मुख्येन तात्पर्येण परतत्त्वे पर्यवसितेऽपि तेषां परतत्त्वाद्य पदेशस्य किमभिधेयं प्रयोजनञ्चेत्यपेक्षायां तदवान्तरतात्पर्येण तद्द्वयमुपदेष्टव्यम् । तत्राभिधेयं तद्वैमुस्य- समय श्रीभगवान् की लीला कथा का श्रवण भक्त गण करते हैं, उस समय आस्वादन का अभिनवत्त्व का प्रकाश भक्त हृदय में होता रहता है ।

श्रीप्रह्लाद प्रभृति भक्त वृन्द के सम्बन्ध में श्रीमद् भागवत के सप्तम स्कन्ध में उक्त आस्वादन का अभिनवत्व वर्णित है । अर्थात् वे सब दत्तात्रेय अवधूत महाशय के मुख से अनेक उपदेश श्रवण कर परस्पर एक अभिनव आनन्दास्वादन रस में निमज्जित हुये थे । अनन्तर जिन्होंने तादृश सत्सङ्ग अथवा महत् कृपा प्राप्त नहीं किया है, एवम्भूत जीवगण के पक्ष में श्रीमद् भागवतादि शास्त्र श्रवणमात्र से तादृशत्व’ - अर्थात् श्रीभगवत् साम्मुख्य की एवं भगवदनुभव की उपयोगिता ‘वीजायमान’ होने पर भी अर्थात् अङ्क रोत्पादन सामर्थ्य युक्त होने पर भी ‘कामादि वैगुण्यवशतः’ अथवा कालादि दोष वशतः अर्थात् काल, कर्म मायादि दोष विद्यमान निबन्धन, बहिर्मुखता के समान ही प्रतिहत होकर रहती है, अर्थात् श्रीभगवद् गुणानुवाद श्रवण समकाल में भगवत् साम्मुख्य एवं भगवदनुभवोद्गम नहीं होता है

है-

उक्त अभिप्राय को सुव्यक्त करने के निमित्त श्रीप्रह्लाद महाशय ने भा० ७ ६३६ में इस प्रकार कहा

“नैतन्मनस्तव कथासु विकुण्ठनाथ, संप्रीयते दुरितदुष्टमसाधु तीव्रम् ।

कामातुरं हरषशोकभयेषण तं तस्मिन् कथं तव गति विमृशामि दोनः ॥” (४)

,

टीका- ‘तदेवं भगवत्तत्त्वं निरूप्य स्वस्य च तद्विचारायोग्यतां निवेदयन् प्रार्थयते नैतदिति त्रिभिः । असाधु- वहिर्मुखम्, तीव्र - दुर्द्धर्षम्, हर्षशोक भयैरेषणात्रयेण चातं- दुःखितमपि त्वत् कथासु न

सम्प्रीयते, तस्मिन्नेवम्भूते मनसि सति कथं तव तत्त्वं विचारयामि ।’

चार्त्त

क्रमसन्दर्भ - तदेवं तत् कथामनुद्य पूर्व पूर्व जन्मस्वभाव मनुस्मृत्य तच्च दैन्येनास्मिन् जन्मन्यारोप्य तस्यामप्यति तृष्णया तामसेवमानमिव मत्वा स्व- मनस्तिरस्करोति नैतन्मन इति ॥ "

बे भगवन् ! तुम्हारा तत्व अति दुर्गम है, मेरा यह मनः तुम्हारे तत्त्व निरूपण करने में सर्वथा अक्षम है । कारण, मेरा मनः असाधु है अर्थात् तुम्हारे अनुभव में बहिर्मुख है । अथच तीव्र - दुर्द्धर्ष है, किसी प्रकार उस को संयत कर नहीं सकता हूँ । एवं हर्ष, शोक, एवं वासना के द्वारा अभिभूत होकर अतिशय दुःख भोग रहा है, एतादृश अपराध दुष्ट मन के द्वारा मैं कैसे तुम्हारे तत्त्व विचार कर सकूँगा ? कारण, मैं अति दीन हूँ, एवं सर्व साधन-सम्पत्ति शू य भी हूँ ।

श्रीप्रह्लाद की उक्ति यद्यपि दैन्य सञ्चारी भावोत्थित है तथापि अन्य भगवद् बहिर्मुख जीवके पक्ष में यह अतिसत्य विवरण है ।

उस प्रकार वर्णन ही ब्रह्मवैवर्त पुराण में है-

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यावत् पापस्तु मलिनं हृदयं तावदेव हि ।

न शास्त्रे सत्यबुद्धिः स्यात् सद्बुद्धिः सद्गुरौ तथा ॥५॥

अनेक जन्मजनित- पुण्यराशिफलं महत् ।

सत्सङ्ग- शास्त्रश्रवणादेव प्रेमादि जायते ॥” ६ ॥ इति ।

जब तक भूरि भूरि पापों से हृदय मलिन रहता है, तब तक शास्त्र में सत्य बुद्धि नहीं होती है, एवं

T

८]

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श्रीभक्तिसन्दर्भ विरोधित्वात्तत्-साम्मुख्यमेव, तच्च तदुपासनलक्षणम्, यत एव तज् ज्ञानमाविर्भवति । प्रयोजनश्च तदनुभवः, स चान्तर्वहिः - साक्षात्कारलक्षणः, यत एव स्वयं कृत्स्न दुःखनिवृत्तिर्भवति । तदेतदुभयं यद्यपि पूर्व्वत्र सिद्धोपदेश एवाभिप्रेतमस्ति, यथा तव गृहे निधिरस्तीति श्रुत्वा सद् गुरु में भी सद् बुद्धि का उदय नहीं होता है । अनेक जग्म जनित राशि राशि सञ्चित पुण्य फल से, महत् फलस्वरूप, भगवत प्रेम, भगवदनुभव, एवं विषय वैराग्य का उदय, - सत्सङ्ग जनित शस्त्र श्रवण से होता है ।

अतएव निखिल शास्त्रों का अभिधेय, अर्थात् कर्त्तव्यता एवं प्रयोजन क्या है ? इस प्रकार प्रश्न की अपेक्षा में शास्त्रीय उपदेश के अवान्तर तात्पर्य में ‘अभिधेय’ एवं ‘प्रयोजन’ रूप तत्त्वद्वय का उपदेश करना अवश्य कर्त्तव्य है । अर्थात् शास्त्र समूह में जो कुछ उपदेश लिखित है, उक्त उपदेशसमूह का मुख्य तात्पर्य है - परमानन्द स्वरूप - श्रीभगवान् का परिचय प्रदान करना । किन्तु केवल मात्र परमानन्दस्वरूप श्रीभगवान् का परिचय प्रदान करने से ही जीव कृतार्थ हो नहीं सकता है, किन्तु उनको प्राप्त करने का साधनोपदेश करना परम आवश्यक है ।

जिस प्रकार उत्तराधिकारी सूत्र से प्राप्त धन का संवाद प्राप्त करने से ही धन की प्राप्ति नहीं होती किन्तु प्राप्त करने के निमित्त साधन विषयिणी बलवती आकाक्षा जगती है । अतएव संवाद दाता कृपालु व्यक्ति के पक्ष में अवश्य कर्त्तव्य उपस्थित होता है कि - यह प्रयोजन एवं उपाय का उपदेश प्रदान करे । उस से वह व्यक्ति धन प्राप्त कर सुखी होगा। उस प्रकार ही परम कारुणिक शास्त्र, परम आनन्द मय श्रीभगवान् का संवाद करते रहते हैं, अतएव उसके साथ ही भगवत् प्राप्तिका प्रयोजन एवं साधन का संवाद प्रदान करना भी परम आवश्यक है ।

तन्मध्य में भगवत् साम्मुख्य हो अभिधेय है- अर्थात् कर्त्तव्य है, कारण, भगवद् वैमुख्य निबन्धन ही जीवों का अनन्त संसार दुःख उपस्थित हुआ है। अतएव भगवत् साम्मुख्य के बिना, भगवत् शक्ति रूपा वहिरङ्गामाया के द्वारा जीव स्वरूपावरण जनित संसार दुःख निवृत्ति का अपर कोई उपाय नहीं है, भगवदनुभव ही सुख्य प्रयोजन तत्त्व है, उक्त अनुभव भी अन्तर एवं बाहर में श्रीभगवान् का साक्षात् कार करना है, अर्थात् नयन मुद्रित करके हृदय में परमानन्दमय श्रीभगवान् को देखना, एवं नयन उन्मीलित करके स्थावर जङ्गम में, चेतन, अचेतन में श्रीभगवान् को देखना है । अन्तर में एवं बाहर में श्रीभगवत् साक्षात् कार होने से ही स्वतः ही सर्व प्रकार दुःख की निवृत्ति होती है ।

में

उक्त अभिधेय एवं प्रयोजन वस्तु का परिगणन यद्यपि सिद्ध वस्तु के उपदेश के मध्य में हुआ है, सन्दर्भ

चतुष्टय इसका विशेष विश्लेषण हुआ है, तथापि “तुम्हारे भवन में निधि है” इस प्रकार उपदेश श्रवणानन्तर जिस प्रकार दरिद्र व्यक्ति उक्त निधि प्राप्त करने के निमित्त यत्नवान् होता है, एवं निधि को प्राप्त कर लेता है । इस स्थल में भी उस प्रकार ही समझना होगा। उक्त कथन का तात्पर्य्य यह है कि- अभिधेय एवं प्रयोजन - एतद् उभय ही नित्य वस्तु है, कारण, यदि वे यदि वे नित्यसिद्ध वस्तु नहीं होते तो, भक्ति एवं भगवदनुभव में जन्यत्व दौष की प्रसक्ति होगी। जिस प्रकार किसी के कण्ठ देश में हार है, किन्तु हार धारण व्यक्ति की उस विषय में अनवधान वशतः विस्मृति हो गई है, किन्तु किसी के उपदेश से स्मृति होने पर कण्ठ देशमें ही वह व्यक्ति हार को प्राप्त करता है, यहाँपर भी उसप्रकार ही जानना होगा ।

देहावेशजनित शास्त्रोपदिष्ट विषय में शैथिल्य निवृत्ति करना ही शास्त्रोपदेश का एक मात्र उद्देश्य है । अतएव शास्त्र उक्त प्रकार से श्रीभगवद्विमुख जीवगण के प्रति अनादि सिद्ध भगवदनुभवात्मक ज्ञान का संसर्गाभाव स्वरूप, (प्रागभाव स्वरूप) भगवद् वैमुख्य मूलक दुःख के हेतु को कहते कहते व्याधि की

[ S

कश्चिद्दरिद्रस्तदर्थं प्रयतते लभते च तमिति, तद्वत्, तथापि तच्छैथिल्यनिरासाय पुनरतशः तदेवं तान् प्रत्यन। दिसिद्धतज्ज्ञानसंसर्गः भावमय-तद्वौ मुख्यादिकं दुःखहेतु ं वदन् व्याधिनिदान- वैपरीत्यमय चिकित्सा निभं तत्साम्मुख्यमुपदिशति, (भा० १११२१३७ ) -

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( १ ) " भयं द्वितीयाभिनिवेशतः स्या, दीशादपेतस्य विपय्ययोऽस्मृतिः ।

तन्माययातो बुध आभजेत्तं, भक्त्यं कयेशं गुरुदेवतात्मा ॥“७”

टीका च - “यतो भयं तन्मायया भवेदतो बुधो बुद्धिमान् तमेवाभजेदुपासीत । ननु भयं देह द्यभिनिवेशतो भवति, स च देहाद्यहङ्कारतः स च स्वरूपारफुरणात, किमत्र तस्य माया निदानवैपरीत्यमय चिकित्सा के समान, भगवत् साम्मुख्य प्रभृति का उपदेश करते हैं, अर्थात् अभिज्ञ दयालु चिकित्सक के समान परम कारुणिक शास्त्र भी निखिल दुःख का निवान रूप भगवद्वैमुख्य का संवाद को सूचित कर अर्थात् “तुम भगवान् को भूल गये हो, अतः इतनी दुःख राशि उपस्थित हुई हैं, भगवद् वैमुख्य का विपरीत भगवत् साम्मुख्य के विना इस दुःख राशिनिवृत्ति होने का अपर कोई उपाय नहीं हैं, इस प्रकार उपदेश करते रहते हैं । भा० ११।२।३७ में वर्णित है-

है।

“भयं द्वितोयाभिनिवेशतः स्था-, दीशादपेतस्य विपर्य्ययोऽस्मृतिः । तन्माययातो बुध आभजेत्तं, भक्तंचकयेशं गुरुदेवतात्मा ॥ ७॥

क्रम सन्दर्भ - मन्येऽकुतश्चित् इत्येव स्थापयन् क्रमेण तत्वंव निष्ठापयति- भयमिति । यतो भयं तन्मायया भवेदतो बुधो बुद्धिमान् तमेवाभजेत् । प्रथमतः ‘कायेन’ इत्य युक्त प्रकारेणेषदपि भजेत्, प्रथमतः ‘कायेन’ इत्याद्युत प्रकारेणेषदपि भजेत्, ततो गुरुदेवात्मा सत् भक्तचा साक्षात् भगवद् धर्म रूपया, ततः एकया - अनन्याव्यभिचारिण्या, नित्यं पादम्बुजोपासन रूपयेति विशेषतोऽर्थः ॥

ईश्वर की मायाके द्वारा ही जब भय शरीर में अध्यास जनित पुनः पुनः शरीर ग्रहण, होता है, अतः बुद्धिमान्

व्यक्ति के पक्ष में ईश्वर का भाजन करना आवश्यक है । प्रथम-कर्म समर्पण द्वारा ईषत् भजन, अनन्तर गुरु देवतात्मा होकर साक्षात् भगवद् धर्म रूपा भक्त के द्वारा भजन करना चाहिये, अनतर अनन्य, अव्यभिचारिणी भक्ति के द्वारा श्रीकृष्ण की परिचर्या करना विधेय है।

स्वामिपाद कृत टीका का अभिप्राय वह है—

[[1]]

निमि महाराज को प्रथम योगोन्द्र कवि ने वहा- राजन् ! जब्तक जीव की, भगवद् भक्ति में दृढ़ श्रद्धा का उदय नहीं होता है, तब तक काय, वाक्य मन के द्वारा कृत एवं क्रियमाण, लौकिक वैदिक समस्त कर्म श्र भगवान् को समर्पण करे। इस में संशय हो सकता है कि–जीव का निज स्वरूप अस्फति के कारण द्वैतप्रपञ्च उपस्थित हुआ है। तज्जन्य भय, शोक, दुःख प्रभृति विविध अनर्थ होते रहते हैं । जिस प्रकार रज्जु स्वरूप की अस्फति हेतु सर्प भ्रान्ति होती है, रज्जु स्वरूप ज्ञानोदय होने पर सर्प भ्रान्ति विदूरित होकर भय की निवृत्ति होती है, उस प्रकार ही जीव की निज स्वरूप ज्ञान विस्मृति होने के कारण शरीर में आत्म बुद्धि होती है, एवं आत्मा में देह बुद्धि होती है। उससे देहादि में अभिनिवेश उत्पन्न हुआ है, उक्त अभिनिवेशजन्य भयदि उत्पन्न हो रहे हैं। अतएव ईश्वर की माया का कर्तृत्व इस में क्या है, जिस से ईश्वर भक्ति करनी पड़ेगी ? उत्तर में कहते हैं- जीव स्वरूप ज्ञान को अस्पूत्ति स्वतः हुई है, अथवा माया द्वारा हुई है ? स्वतः हुई है - कहने पर स्फत्ति होने के बाद पुनर्वार अ फूर्ति अवश्य ही होगी, कारण— वह जीव का स्वभाव हो जाता है ।

&

[[१०]] करोति ? अत आह— ईशादपेतस्येति । ईश-विमुखस्य तन्माययाऽस्मृतिः स्वरूपास्फूत्तिः, ततो विपर्य्ययो देहोऽस्मीति, ततो द्वितीयाभिनिवेशाद्भयं भवति । एवं हि प्रसिद्ध लोकिकीष्वपि मायासु, उक्तञ्च भगवता ( गी० ७।१४ ) -

“दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥ " ८ ॥ इति ।

एकयाऽव्यभिचारिण्या भक्तचा भजेत । किञ्च, गुरुदेवतात्मा गुरुरेव देवता ईश्वर

जिस का जो स्वभाव है, वह उसका अपरिहाय्य होता है, अत भूलक्कड़ होना भी जीव के पक्ष में स्वाभाविक होगा । माया द्वारा विस्मृति हुई है— कहने पर असम्भव दोष होता है । कारण, म या जड़ा प्रकृति है एवं जीव चित् प्रकृति है, ज्ञान, अज्ञान का उपमर्दक होता है, किन्तु अज्ञान ज्ञान का उपमर्दक नहीं हो सकता है । अतः माया द्वारा जीव स्वरूपावरणात्मक कार्य असम्भव है, विशेषतः माया– ईश्वर की शक्ति है, जिसका अपर नाम वहिरङ्गा शक्ति है, शक्ति, शक्तिमानका आश्रिता ही होती है, कभी भी स्वतन्त्र रूप में अवस्थित नहीं होती है, अतएच माया का आश्रय को मानना परमावश्यक है । वह आध्य तत्व ही श्रीभगवान् हैं, कारण- श्रीभगवान् गीता में ७ १४ में स्वयं ही कहे हैं-

“दैवी ह्यषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥ ८ ॥ इति ।

टीका - ननु तह त्रिगुणमय मोहात् कथमुर्तीर्णा भवन्ति तवाह देवी । विषय नन्देन दीव्यक्तीति देवा जीवा, तदीया तेषां मोहयित्रीत्यर्थः । गुणमयी - श्लेषेण दिवेष्टन महापाशरूपा, मम परमेश्वरस्य मात्रा, वहिरङ्गाशक्ति दुरत्यया-दुरतिक्रमा । पाश पक्षे छेत्तु

ं उद् ग्रन्थयितुं वा केनाऽप्यशक्येत्यर्थः । किन्तु, मद् वाचि विश्वसिहि इति स्ववक्षः स्पृष्ट्वाह, मां श्यामसुन्दराकारमेव ।

भगवान् की वहिरङ्गा शक्ति का नाम मायाहै, जिस शक्ति के द्वारा जीव सत्य वस्तु को असत्य, सुख को दुःख, पर को निज, जड़ को निज समझ लेता है । माया - जड़ा प्रकृति है ने पर भी चित् प्रकृति स्वरूप जीव को आवृत करने की सामर्थ्य उस में नहीं है । तथापि परमेश्वर की आज्ञा शक्ति से ही वह समर्थ है । माया, क्रूरा नहीं है, अतः अकारण ही जीव का स्वरूपावरण नहीं करती है, जो जीव ईश्वर व हिमख है, उसके प्रति ही माया निज प्रभाव प्रकट करती है, अतएव, जब तक ईश्वर वहिर्मुखता की निवृत्ति नहीं होती है, तब तक मायाकृत आवरण निवृत्ति की सम्भवना ही नहीं है, ईश्वर की माया के द्वारा ही जब जीव के स्वरूपावरण निबन्धन भयादि उपस्थित हुई हैं, तब बुद्धिमान् जन को चाहिये कि वह ईश्वर में भक्ति करे, ईश्वर भक्ति से ईश्वर की अनुकम्पा होगी, उनके अनुग्रह से उनकी शक्ति रूपा माया का तिरोधान होगा। उक्त अभिप्राय से ही श्रीमद् भगवद् गीता में उक्त है - “मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते” हे अर्जुन ! जो मानव मेरी शरण ग्रहण करते हैं, वे मेरी दुर्लङ्घय माया से उत्तीर्ण होते हैं ।

लौकिक इन्द्रजाल विद्या में भी उस प्रकार रीति है, यादुकर का आश्रित होने पर यादु विद्या में मुग्ध होना नहीं पड़ता है । कारण, यादुकर स्वयं मुग्ध न होकर अपर को मुग्ध करता है, किन्तु शरणागतन न होकर स्वतन्त्ररूप से मायिक रहस्य भेद करना असम्भव है । उस प्रकार ही परमेश्वर की शरणागत होने पर ज्ञान वग्यादि साधन सम्पत्ति से मायिक आवरण भेद करना असम्भव है । अव्यभिचारिणी भक्ति श्रीपरमेश्वर के प्रति होना आवश्यक है । श्रीकृष्ण सन्तोष व्यतीत अपर वस्तु विषयक सङ्कल्प होन होने से ही अव्यभिचारिणी भक्ति होती है । इस को ही एकनिष्ठ भक्ति कहते हैं । उक्त भक्ति प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है- श्रीगुरुचरण का कैङ्कर्थ्य । अर्थात् जिस व्यक्ति का परमाराध्य, परमप्रिय ईश्वर,

श्रीभत्ति सन्दर्भः

आत्मा प्रेष्ठश्च यस्य तथादृष्टिः सन्नित्यर्थः " इत्येषा ॥ श्रीकविविदेहम् ॥ (१)