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मङ्गलाचरणादि
श्रीश्रीराधागोविन्द देवो जयति
तौ सन्तोषयता सन्तौ श्रील-रूप- सनातनौ । दाक्षिणात्येन भट्टेन पुनरेतद्विविच्यते ॥१॥
तस्याद्यं ग्रन्थनालेखं क्रान्त व्युत्क्रान्त खण्डितम् ।
पर्यालोच्याथ पय्र्यायं कृत्वा लिखति जीवकः ॥२॥
“हरिता”
अमल प्रमाणात्मक श्रीमद्भागवत ग्रन्थस्थ सम्बन्धाभिधेय प्रयोजन तत्त्व प्रतिपादक षट्सन्दर्भ नामक भागवतसन्दर्भ ग्रन्थ में तत्त्व, भगवत्, परमात्म, श्रीकृष्ण, भक्ति, एवं प्रीति सन्दर्भ हैं, तन्मध्य में भक्ति सन्दर्भ, पञ्चम सन्दर्भ है।
ग्रन्थाविर्भाव का कारण वर्णन करते हैं- श्रीवृन्दावन में नित्य विराजमान, ज्ञान वैराग्य तपस्या सम्पत्ति युक्त श्रीरूप सनातन गोस्वामिद्वय को सन्तुष्ट करने के निमित्त दक्षिणदेशोद्भव श्रीगोपाल भट्ट गोस्वामि चरण पुनर्वार ग्रन्थ का पर्य्यालोचन किये थे । इस प्रकार पूर्व संगृहीत ग्रन्थ, पर्य्याय युक्त, पर्याय विपर्य्यस्त, पर्यायांश बिहीन रूप में अवस्थित रहा, उक्त विषय समूह की पर्यालोचना करतः जीवनामक व्यक्ति पर्य्याय क्रम से उक्त ग्रन्थ का प्रणयनकर रहा है ।
ग्रन्थ प्रणयन की प्रयोजनीयता प्रदर्शन निबन्धन प्रथम श्लोक की अवतारणा करते हैं। “तौ सन्तोषयता " रूप में। इससे ग्रन्थ की सुप्राचीन प्रामाणिकता स्थापन पूर्वक स्वकपोल कल्पितत्व का निरास हुआ है । उक्त श्लोक में ‘सन्तों” पद का प्रयोग हुआ है । श्रीरूप सनातन, श्रीकृष्णाविर्भाव विशेष रूप श्रीगौराङ्ग महाप्रभु के एवं श्रीकृष्ण के व्रजपरिकर रूप में सतत विद्यमान हैं। श्रीभगवान् सपरिकर निज धाम में लीलारत हैं, लोक शिक्षार्थ लोक लोचन गोचरीभूत होने पर उसको प्रकट विहार कहते हैं, एवं लोक लोचन के अगोचर में विद्यमान होने पर अप्रकट लीला कहते हैं, उभय लीलामें धाम, परिकर, लीला आवेश, अभिमान एकरूप हैं । अतः अभिन्न श्रीगौरगोविन्द विग्रह होने के कारण श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के परिकर रूप में
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