एकलन कि
–***–
विषय
श्रीरूपसनातन प्रशास्ति - ग्रन्थ प्राकट्य विवरण-
श्रीभक्ति सन्दर्भ की अवतरणिका-
मायावृत जीव का संसार दुःख-
परतत्त्व का अनुभव-
पापमलिन चित्त में, शास्त्र एवं सद् गुरु में सद्बुद्धि हीनता-
अनादि संसार - दुःखरूप व्याधि की चिकित्सा-
ggi
[[१]]
[[19]]
३-४
-TME
माया द्वारा जीव का भय एवं उद्धार का उपाय-
ज्ञान कर्म निरपेक्ष श्रवण कीर्त्तनादि भक्ति द्वारा श्रीभगवद् भजन –
ऐकान्तिक मङ्गल एवं भक्ति का स्वरूप गुण -
भक्ति योग से श्रीभगवत् स्वरूपादि ज्ञान एवं अन्यत्र वैराग्य-
श्रीभगवत् कथा में प्रीति न होने से श्रममात्र लाभ-
तत्त्व जिज्ञासा ही जीव का प्रयोजन-
श्रीभगवद् भक्ति ही मुक्ति-
तत्त्व त्रिविध - ब्रह्म, परमात्मा, – भगवान्,-
ब्रह्म का लक्षण -
परमात्मा का लक्षण-
श्रीभगवान् का लक्षण ।
एक मात्र भक्ति से ही त्रिविध तत्त्व का साक्षात् कार - श्रीहरि तोषण ही वर्णाश्रमादि का फल -
श्रीहरि के कथा श्रवण कीर्तनादि करना जीव का कर्तव्य- मन्द भाग्य के पक्ष में भगवत् कथा में रुचि का उपाय- श्रीकृष्णकथा श्रवण से कामादि वासना निवृत्ति- श्रीभगवत् साक्षात् कार हेतु जीव की योग्यता- उस विसय में सदाचार प्रमाण-
श्रीभगवद् भक्ति में सदाचार प्रमाण-
अन्य देवता का भजन -
सर्व शास्त्र तात्पर्य्यं एवं समन्वय-
श्रीभागवत आविर्भाव हेतु भक्ति का अभिधेयत्व निर्णय- भक्ति संसर्गी व्यतीत ज्ञानकर्म की व्यर्थता -
[[१०]]
[[११]]
[[१२]]
[[१२]]
१३–१८
[[१]]
[[२०]]
[[२१]]
[[२२]]
"
[[२३]]
[[२३]]
[[२४]]
[[२५]]
ESPE
२६-२७
२८ २८
२६-३० ३१
३२-३४ ३५–३६
[[३७]]
३८-३६
विषय
कर्मादि अनादर पूर्वक श्रीहरि भक्ति का उपदेश-
भक्ति ही अभिधेय वस्तु -
सामान्य भक्ति स्थापन-
भक्ति योग ही सर्व वेद सिद्ध-
(ख)
पृष्ठा
[[४०]]
४१-४२-४७
"
T9
स्थूल धारणामार्ग का परिहार-
श्रीभगवद् भक्ति योग का अभिधेयत्व-
अन्य देवता अर्चन कारी को भगवद् भक्त सङ्ग से भक्तिलाभ-
भक्ति योग का अभिधेयत्व दृढीकरण-
श्रीभगवत् कथा विमुख व्यक्ति का परिचय -
भक्ति का अभिधेयत्व में प्रमाण-
भक्ति की सफलता सम्पादन हेतु ज्ञानोपदेश-
श्रीरुद्र गीत में भी भक्ति का अभिधेयत्व- श्रीनारद कर्त्तृक अन्वय व्यतिरेक द्वारा भक्ति का अभिधेयत्व निर्णय - श्री अच्युत आराधना से समस्त देवता की आराधना-
-क
श्री ऋषभ देवकृत पुत्र शिक्षण में भी श्रीअच्युत आराधन की श्रेष्ठता चित्र केतु के प्रति श्रीसङ्कर्षण देव का उपदेश वाक्य
श्रीप्रह्लाद कर्तृक उपदेश में श्रीभगवद् भजन की श्रेष्ठता -
[[15]]
आत्म विद्यादि की सफलता-
श्रीभगवत् प्रीति से आनुषङ्गिक कर्म वीजनाश-
श्रीभगवद् भक्ति प्राप्ति का उपाय-
[[71]]
[[४८]]
[[17]]
[[99]]
"
४६-६६
"
[[६७]]
"
६८–७२
[[७२]]
[[७३]]
[[७५]]
ि
[[७६]]
[[७७]]
[[७८]]
[[८२]]
श्रीभगवद् भक्ति ही समस्त पुरुषार्थ के हेतु -
वीजयन्ती नन्दन उपाख्यान में भी भगवद् भजन ही आत्यन्तिक मङ्गल -
अवण कीर्त्तनादि मात्र ही भक्ति-
योगाभ्यासादि व्यतीत केवल भक्ति द्वारा ही मनोनिरोध-
कर्मादि त्याग पूर्वक साक्षाद् भक्ति का विधान -
काम्य कर्म की आवश्यकता–
व्यतिरेक मुख से श्रीभगवद् भजन को कर्त्तव्यता का निर्धारण-
चतुर्युग में श्रीभगवद् भजन -
श्रीउद्धव को लक्ष्य करके अन्य के प्रति उपदेश-
भक्ति योग का ज्ञान जनकत्व –
श्रीभगवल्लीलाशून्य वैदिक वाक्य का अनावर –
अक्ति के द्वारा ही स्वरूपावबोधक ज्ञान सिद्ध होता
श्रद्धा भक्ति का उपदेश -::
18 P
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भक्ति मार्ग में प्रवृत्ति के हेतु —
श्रीभगवान् का स्वरूप विज्ञान—
भक्ति का मुख्यत्व -..
30-3
[[८७]]
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हन
६ १
[[६२]]
[[६५]]
६-८
६८-१००
[[१०१]]
[[१०२]]
[[१०३]]
१०४विषय
(ग)
माया मोहित जन गण के पक्ष में विविध प्रकार पुरुषार्थ साधन- भक्ति का ही अवान्तर व्यापार ज्ञान-
ज्ञान कर्म का अनादर द्वारा भक्ति का अभिधेयत्व-
भक्ति योग की श्रेष्ठता—
भक्ति योग के द्वारा ज्ञान वैराग्यादि का फल लाभ-
बुद्धिमान् व्यक्ति के चातुर्थ का फल -
पृष्ठी
अनित्यदेह के द्वारा नित्य लोक प्राप्ति विषय में दृष्टान्त हरिश्चन्द्रादि-
११२-११३
११४ ११४
अन्यान्य भक्ति साधन में भी श्रवण पूर्विका प्रवृत्ति-
१११५-११८
भक्ति निष्ठा की स्थिरता हेतु ज्ञानोपदेश-
ब्रह्म ज्ञान के पश्चात् श्रीहरिनाम सङ्कीर्तनादि में—
परीक्षित की अनुज्ञाप्रार्थना -
२१६–१३०
ज्ञान एवं विज्ञान सिद्धि–श्रीभगवत्पादारविन्द दर्शन के अन्तर्भू
ज्ञान कर्मादि की अपेक्षा श्रीभगवत् कीर्तनादि का आदर-
कोत्ति के निमित्त हो वर्णाश्रमादि आचार-
श्रीमद् भागवत में गुरु शिष्य भाव से शिक्षा वाक्य में भक्ति का ही अभिधयेत्व–
कर्म से अधिक फललाभ हेतु नाम ग्रहण से अपराध -
श्रीमद् भागवत में विधि मुख से भक्ति का ही अभिधेयत्व- शास्त्र निद्दिष्ट वर्णाश्रमादि आचरण का फल भक्ति-
अन्यान्य पुरुषार्थ साधनों का भक्ति मूलकत्व : समस्त साधनों का जीवन, भक्ति-
भक्ति प्रभाव से कामना त्याग -
क
[[१३१]]
व्यतिरेक मुख से कर्म का अनादर-
[[१३२]]
भक्ति में ही शास्त्र का तात्पर्य-
भगवच्चरणारविन्द विमुख ब्राह्मण से हरिभक्त चण्डाल श्रेष्ठ-
[[१४५]]
श्रीभगवान् में अर्पित कर्म के अनादर द्वारा भक्ति का अभिधेयत्व
[[१४५]]
भक्तियोग व्यतीत ज्ञान असिद्ध-
[[१५०]]
अन्य देवताश्रय का अनादर-
*१५६
वैष्णव रूप में श्रीशिव का पूजन -
[[१६१]]
स्वतन्त्ररूप में श्रीशिव की आराधना से दोष-
[[१६५]]
प्रतिमादि में शिलाबुद्धि -
[[१७६]]
सर्वभूतों में समादर ही वैष्णव लक्षण-
कनिष्ठाधिकारी की श्रीविग्रह सेवा-
प्रतिमा अचर्च्चन विषय में श्रीकपिल देव का उपदेश-
अवज्ञा मात्र ही दोषावह-
अद्वेष्टा के प्रति भगवत् प्रसन्नता
ईश्वर ज्ञानाभाव हेतु सर्वभूतों में अनादर–
[[१८१]]
१८२-१९१
1"
.99
विषय
(घ.)
BP986
शास्त्र में श्रद्धा–कर्म सापेक्ष, प्रतिमा पूजन की नित्यता-
प्रतिमा पूजन का प्राण-सर्वभूतों में दया-
प्राणो विवेचना में सम्मानातिशय-
जीव के प्रति दया मुख्या भक्ति नहीं - भगवच्चन ही मुख्या भक्ति–
अतिहिंसा निषिद्ध, सेवा हेतु पुष्पादि वचन का विधान
देवगण वाञ्छित मनुष्यजन्म-
"
"
ナダ
कृष्ण विमुख सिद्ध मुनिः का अधःपतन
भागवत् धर्म गोपनीय, विशुद्ध एवं दुर्बोध्य-
श्रीभगवद् भक्ति की सर्वोर्द्धता -
सर्व वर्णाश्रमों का श्रीकृष्णोपासना कर्त्तव्य-
भक्ति विहीन की अविशुद्धभक्ति-
श्रीभगवदनादर से जीवन मुक्त की अधोमति -
कर्माशय निःशेष रूप से नाश होने पर ही भक्ति का अनुष्ठान-
बड़ विध लिङ्ग द्वारा भक्ति का अभिधेयत्व-
भक्ति का परम धर्मत्व— विधि एवं निषेधमुख से-
सर्वाधिकारी के पक्ष में भक्ति हो अभिधेय-
साचार में एवं दुराचार में- ज्ञानी एवं अज्ञानी में-
विरक्त में एवं विषयासक्त में -
मुमुक्षु एवं मुक्त में-
सिद्ध एवं असिद्ध में–
श्रीभगवत् पार्षदत्व प्राप्ति में
नित्य पार्षद में
समस्त इन्द्रिय मैं-
सर्व द्रव्य में-
सर्व काय्यं में
सर्व फल में-
सृष्टि के आदि में
सर्वावस्था में-
[[१६२]]
[[१६२]]
[[१६७]]
[[२०३]]
[[२०४]]
[[२०५]]
Roy Fle
[[२०७]]
[[२०८]]
२१६ २२०
[[19]]
[[२२१]]
(3)
क
[[11]]
भक्ति हेतुः श्रीभागवत पुराणाविर्भाव -
श्रीव्यास देव की समाधि में भक्ति का ही परम मङ्गल—
श्रीव्यास देव का स्वगत विचार-
भक्ति उपदेश हेतु श्रीभगवान् का उत्कर्षवर्णन-
शुद्धा भक्ति लाभ हेतु मिश्रा भक्ति का उपदेश -
भक्ति का अशुभ हारित्व –
भक्ति का सर्व विघ्न निवारकत्व-
"
[[२२५]]
[[२२६]]
[[२३२]]
[[२३४]]
कई
[[२३५]]
[[२३७]]
(ङ)
विषय
दुष्ट जीवादि भयनिवारकत्व - तापत्रय जनित बाधा को अप्राप्ति
भक्ति का पाप विनाशित्व- अप्रारब्ध हारित्व- प्रारब्ध पाप हारित्व-
वासना हारित्व-
अविद्या हरत्व-
सव प्रीणन हेतुत्व-
भक्ति का निर्गुणत्व प्रतिपादन हेतु समस्त कम्मों का सगुणत्व-
NFE
भगवज् ज्ञान का निर्गुणत्व-
ब्रह्म ज्ञान का सगुणत्व-
पृष्ठा
[[२२४१]]
[[२४२]]
[[२४३]]
"
[[२४७]]
[[२५०]]
[[२५१]]
[[२५२]]
[[२५४]]
PO
की
२५५– २६५
ज्ञान रूपा भक्ति का निर्गुणत्व -
क्रिया रूपा भक्ति का निर्गुणत्व-
समस्त भगवत् कार्थ्य का निर्गुणत्व-
भक्ति की प्रवृत्ति हेतु मृता श्रद्धा का निर्गुणत्व भक्ति का स्वप्रकाशत्व -
परमसुख रूपत्व-
भगवद् विषयक रति प्रदत्व-
नित्य सुख स्वरूप श्रीभगवान् में भक्ति सुख-
पूर्णकाम श्रीभगवान् का तोषण-
जीव में स्वरूप शक्ति भक्ति की अभिव्यक्ति- भक्ति में ही भगवान् की अनुभूति—
भगवत् प्रापकत्व -
मन का अगोचर फल दातृत्व -
भक्ति योग साध्य एवं साधन-
भगवदपित लौकिक कार्य का भी परम धर्मत्व–
भक्तयाभास का पाप हारित्व–
क
२६६–२६७
[[21]]
[[२६८]]
[[२६६]]
[[२७१]]
[[२७२]]
[[२७४]]
[[२७५]]
[[२७६]]
[[२७७]]
[[२८०]]
[[२८०]]
[[२८१]]
[[२८४]]
[[२८४]]
भाग्यवान् जीव कर्त्तृक मातृगर्भ में भगवतस्तुति–
–२६१
भक्तयाभास का विष्णु पद प्रापकत्व–
[[२६६]]
नाम में अर्थवाद कल्पना से दोष–
[[२8८]]
अपराध स्थल में नाम ग्रहण से विलम्ब में फल प्राप्ति-
[[२९६]]
नामापराधी का पुनः पुनः नाम ग्रहण कर्त्तव्य —
[[३०२]]
सरल व्यक्ति के प्रति भक्त का अनुग्रह –
कुटिल विज्ञ व्यक्ति के प्रति अननुग्रह–
अश्रद्धा–
आधुनिक भक्त में विश्वास न करना–
[[३०५]]
[[३०६]]
[[३०६]]
[[३०८]]
(च)
विषय
अन्य वस्तु में अभिनिवेश हेतु निष्ठाच्युति-
उत्कण्ठा बुद्धि हेतु भक्त का प्रारब्धकर्म प्राबल्य -
भक्ति शिथिलता-
जन्मान्तरीय पुण्यबल से अजामिल कर्त्तृक नाम ग्रहण–
प्रथम नाम ग्रहण से ही अजामिल का पापक्षय—
अधिकारानुसार फल प्राप्ति-
सञ्जात प्रेम का फलोदय–
पृष्ठा
[[३०६]]
[[३०६]]
[[३११]]
-३१३
-३१४
३१४TRY
-३१७
-३१७
भक्ति व्यतीत अन्य साधन तुच्छ—
"
ऐकान्तिकी भक्ति-
श्रीकृष्ण एवं भक्त एतदुभय का कामना शून्यत्व bipe by ३२१
निष्काम भक्ति में श्रीहरि की प्रीति-
[[३२५]]
अकिञ्चना भक्ति का सर्वशास्त्रसारत्व -
[[३२६]]
-क
[[३३२]]
[[३३३]]
क
३३४ श्री
अकिञ्चना भक्ति का सर्व श्रेष्ठत्व -
ज्ञान कर्म एवं भक्ति में अधिकार हेतु भङ्ग सङ्ग से मायानिवृत्ति-
विषय भोग के मध्य में भी कोर्त्तनादि में आसक्ति-
श्रद्धा ही भक्ति का कारण–
अज्ञान कृत पाप नाश हेतु श्रीकृष्ण कृपा-
श्रद्धोत्पन्न के पूर्व पर्य्यन्त काम्य कर्मानुष्ठान-
स्नानादि को आवश्यकता–
कर्म का भी भगवत् साम्मुख्य–
स्वीय अधिकारानुसार अवस्थिति-
ज्ञान एवं भक्त्युदय होने के पूर्व पर्यन्त काम्य कर्मानुष्ठान–
ज्ञान से ब्रह्मानुभव–
भक्ति विशेष से परमात्मा का अनुभव–
भक्ति द्वारा भगवान् का अनुभव–
भक्त प्रशंसा द्वारा भक्ति की सर्वोर्ध्वता—
एकान्ति भक्त की श्रेष्ठता—
अकिञ्चना भक्ति का अनुष्ठान–
प्रणव ही महावाक्य -
संसार नाश-सत्सङ्ग-
सत्सङ्ग का हेतु-
सिद्ध ज्ञानी, भक्त- भक्त सिद्ध त्रिविध- उत्तम भक्त-
मध्यम भक्त-
कनिष्ठ भक्त-
उत्तम भक्त का विशेषलक्षण-
क
[[३३५]]
३३६–३४१
"
[[19]]
[[71]]
३४२-३६२
[[11]]
- BAR
"
IREF
[[11]]
ii
w
[[३६२]]
[[17]]
[[३६६]]
[[३६७]]
३७१-३८७
[[३८८]]
– ३६३-४०८
"
विषय
तापादि संस्कार -
नवेज्या कर्म-
अर्थ पञ्चकवित्व -
साधन तारतम्य से भक्त तारतम्य -
कनिष्ठ मिश्र भक्त -
अमिश्र मध्यम भक्त
चष्णव वृन्द, सत् एवं महत् नाम से अभिहित
(छ)
क
श्रीभगवदाज्ञापालन हेतु वैष्णव वन्द के द्वारा वर्णाश्रमादि धर्मानुष्ठान-
c
विचार प्रधान एवं रुचि प्रधान वैष्णव वन्द का भजन पथ-
शिक्षागुरु अनेक होने पर भी भजन शिक्षा गुरु एक व्यक्ति-
रागादि दोष शून्य श्रवण गुरु-
तादृश श्रवण गुरु के अभाव से बहु श्रवण गुरु का आश्रय-
रुचि प्रधान व ेष्णव वृन्द के श्रवणादि-
विचार प्रधान वैष्णव व न्द का श्रवण-
मनन-
मनन हेतु श्रद्धा-
जड़कर्म एवं देवता समूह फल दाता नहीं’ परमेश्वर ही फल दाता-
श्रीविष्णु हो परमेश्वर-
भजन श्रद्धा-
श्रवण गुरु एवं भजन शिक्षा गुरु का एकत्व-
मन्त्र गुरु एक व्यक्ति
अवष्णव गरु त्याग-
श्रवण गुरु के सङ्ग से शास्त्रीय विज्ञानोत्पत्ति-
शिक्षा गुरु
की आवश्यकता-
मन्त्र गुरु की आवश्यकता-
कम्मिवन्द की गुरु में भगवद् दृष्टि-
“पृष्ठा
के लिए कि
[[99]]
[[४१०]]
‘४१३- ४१४
"
-४१५-४२३
४२४-४२६
क
-कोर
४३०-४३२
- 18
[[३३]]
स
[[४३४]]
२४३५-४३७
[[17]]
ही एक
[[४३८]]
पारमार्थिक व्यक्ति की गुरु में भगवद् बुद्धि–
कतिपय शुद्ध भक्त की, गुरु में शिव में एवं श्रीभगवान् में अभेद बुद्धि-
निविशेष एवं सविशेषमय भेद से साम्मुख्य द्विविध-
ज्ञान का लक्षण -
ज्ञान मार्ग के साधक वृन्द का निर्विशेष ब्रह्मानुभव -
अहं ग्रहोपासना -
भक्ति का स्वरूपलक्षण एवं तटस्थलक्षण-
आरोप सिद्धा, सङ्गसिद्धा, स्वरूपसिद्धा भेद से भक्ति त्रिविध-
अकैतव एवं सकैतव भेद से उक्त भक्ति त्रिविध-
विधि द्वारा कृत–एवं स्वभाव वशतः अनुष्ठित कर्मार्पण भक्ति- वैदिक कर्मार्पण की प्रशंसा-
[[17]]
४३६ ४४०-४४२
त
४४३ ४४६
[[४४७]]
[[४४८]]
४५०-४५१
विषय
(ज)
भागवत धर्म में समग्र अङ्ग का क्रमशः अनुष्ठान न होने से भी फल प्राप्ति- श्रीभगवान् में कर्मार्पण ही तापत्रय का औषध-
संसार हेतु कर्म एवं सामग्री भेद से ऋितापनाश
पृष्ठ
[[४५३]]
[[19]]
४५४ ४५६
"
[[४६१]]
श्रीवासुदेव में प्रोति निमित्त भरत का कर्मानुष्ठान-
श्रीभगवत प्रीणन रूप एवं उस में त्याग रूप भेद से कम्र्मार्पण द्विविध-
परम भक्त वृन्द कर्मार्पण द्वारा भगवत् प्रोति को प्रार्थना
कर्म ज्ञानादि मिश्रा सङ्गसिद्धा भक्ति-
कैवल्य काम भक्ति-
ज्ञानमिश्रा सङ्गसिद्धा भक्ति-
भक्ति कामना से कर्म मिश्रा भक्ति-
[[४६३]]
FREE D -४६४-४६८
ज्ञानमिश्रा भक्ति-
केवल स्वरूपसिद्धा भक्ति-
सकामा तामसी भक्ति-
भक्ति राजसी वा तामसी नहीं, गुणवान् व्यक्ति हो राजसिक तामलिक
सकामा राजसी भक्ति -
कैवल्य कामा साविको भक्ति–
बंधी एवं रामानुगा भेद से भक्तिद्विविध-
वैधी -
अहैतुक भक्ति योग प्राप्ति का उपाय–
४६६-४७४ ४७५-४७६
वधी भक्ति का भेद-
शरणापत्ति-
शरणापत्ति षडू विधा -
शरणा पत्ति की प्रशंसा-
श्रीगुरु एवं वैष्णव वृन्द को प्रसन्नता से अनर्थ निवल-
श्रीगुरु सेवा से श्रीभगवान् की सन्तुष्टि-
श्रीगुरु की आज्ञा से अन्य वैष्णव की सेवा-
वैष्णव विद्वेषी गुरु परित्याज्या-
तिलकादि चिह्न धारी वैष्णव वृन्द की सेवः–
प्रसङ्ग रूपा भक्त सेवा-
श्रीभगवद् वश करण मन्त्र -
वशी करण में दृष्टान्त-
मुख्य वशी करण-
अज्ञान से भी सत्सङ्ग से कृतार्थता — परिचर्या रूपा भक्त सेवा–
मह भागवत में सेवा का सिद्ध लक्षण- वैष्णव मात्र को आराधना-
श्रवण-
ச
ग
-४७७०
[[४७८]]
[[४७६]]
[[37]]
[[४८५]]
४८६-४६१
४६१ ४६२–४६५
४६६ ४६
[[17]]
५००- ५१०
[[५१०]]
विषय THIS
नाम श्रवण-
रूप श्रवण-
(झ)
गुण श्रवण-
लीला श्रवण-
पृष्ठा
[[11]]
"
[[५१६]]
भगवान् की लीला द्विविधा, सृष्टयादि रूपा एवं लीलावतार रूपा- ५१६-५१६
महत् मुखोच्चारित श्रवण परम सुखद-
भगवान् के चरित्र वर्णन हेतु श्रीभागवत पुराण का आविभाव-
भक्त वृन्द के नामादि श्रवण–
श्रवण कीर्तनादि का क्रम-
श्रीभागवत श्रवण - परम श्रेष्ठ -
नाम कीर्त्तन का क्रम-
नाम सङ्कीर्तन हो-साध्य एवं साधन-
उच्चैः स्वर से नाम सङ्कीर्तन ही प्रशस्त-
नामापराध दशविध-
रूप कीर्तन-
"
[[५२०]]
RE
[[५२३]]
[[५२५]]
५२४–५३३
५३४- ५४४
गुण कीर्तन-
लीला कीर्तन-
कीर्तन ही ध्यान यज्ञादि का फल-
कीर्तन की महिमा -
५४५– ५४८
-५४६
सत्यादि युग के प्रजावृन्द की कलि में जन्म प्रार्थना - समस्त युगों में ही कीर्तन की समान सामर्थ्य- कलि में कीर्तन के सहित अन्य साधन का अनुष्ठान -
नाम कीर्तन प्रचार में भगवत् परायणत्व- स्मरण-
नाम स्मरण-रूप स्मरण-
स्मरण पश्चविध-
- ५५१
PEEPR
[[५५५]]
५५७-५५८
५५६ -५६१-५६४
[[५६५]]
पाद सेवा-
तुलसी सेवा
अच्चन -
[[५६६]]
[[५६६]]
दीक्षा का प्रयोजन-
-५६७
दरिद्र के समान सम्पत्ति शाली गृहस्थ स्मरणनिष्ठु
-कि
होने से विस शाठ्य दोष-
[[५६८]]
लोक संग्रह पर गृहस्थवृन्द की सन्ध्योपासनादि के सहित भगवत् पूजा-
मन्त्र से नाम में अधिक सामर्थ्य होने पर भी मन्त्र की आवश्यकता-५७१
[[५७१]]
—५७४
[[५७४]]
सिद्ध व्यक्ति को भी लोकाचार पालनीय-
श्रीभगवान् की पीठावरण पूजा में श्रीभगवान् के स्वरूपशक्तधात्मक गणेश दुर्गादि-
[[५७६]]
(ञ)
विषय
भूतादि की पूजा अकर्त्तव्य
श्रीभगवान् के वाम प्रदेश में समष्टि रूप में श्रीगुरु पूजन-
आवरण पूजा में श्री राधादि के नामान्तर श्रीरुक्मिण्यादि की पूजा-
द्वारदेश में जो गङ्गा वह मानसगङ्गा-
शुद्ध भक्त वृन्द के पक्ष में भूतशुद्धि-
भगवद् धाम गत ध्यान ही मुख्य-
ए
पृष्ठा
५७६-५६२
-10
DE
हृदय कमल में योगि गण के पक्ष में ध्यान,
उस में तेजोमय प्रतिमा स्वरूप में भगवान् में स्थिति- शूद्रादि पूजित प्रतिमा पूजन निषेध वचन– अवैष्णवपर-
प्रतिमा
पूजन की आवश्यकता -
एकादश प्रकार पूजास्थान-
ऋतुचर्य्या-
फल द्वारा अच्चन की प्रयोजनीयता-
अर्चन में अधिकारि निर्णय-
अचर्च्चन के अङ्ग समूह –
जन्माष्टमी-
एकादशी-
अनाहार शब्द से वैष्णव वृन्द के पक्ष में महाप्रसादान्न परित्याग -
माघमास-
वर्जनीय अपराध समूह-
महत् का अनादर, – सर्वनाशकर-
महाप्रसादान्नपरित्याग
नम
प्रमाद वशतः अपराध उपस्थित होने पर श्रीभगवत् प्रसादन कर्त्तव्य
वन्दन-
al-aset
क
५६३ -६०१-३
[[६०४]]
[[६०५]]
ि
के ६०८-६१०
दास्य-
दास्य के सम्बन्ध में समस्त भजन महत्तर -
सख्य
सख्यात्मिका भक्ति-
आत्मनिवेदन-
रागानुगा में भक्ति-
[[६११]]
[[६१२]]
-६१४-६१६
FIP
६१७-६२० ६२१–६३२
रागानुगा में मानसावेश का प्राधान्य-
आवेश की सामर्थ्य-
काम का पाप राहित्य -
भावमार्ग प्रसङ्ग में कथित वैर एवं द्वेषभाव निषिद्धमें
६३३–६६६
रागानुगा का विषय—
६६७-६७१
श्रीकृष्ण भजन माहात्म्य -
भजन सिद्धि का क्रम -
[[६८१]]
奋
क]
市
* श्रीश्रीगदाधरगौराङ्गौ जयतः *
[[१]]
[[13]]
श्री श्रीभक्तिसन्दर्भ- धृत- प्रमाणग्रन्थानां