०१ विज्ञप्तिः

श्री-चैतन्य-मतानुगा बहुविधैस् तत्त्वैः समुद्भासिता
सद्भक्ति-प्रतिपालनी सुवचसा प्रेमार्थ-संस्थापिका ।
जीवातुर् हरिभक्त-जीव-निचये चित्त-श्रुति-प्रीतिदा
श्रीजीव-प्रतिभा जगद्-विजयिनी सर्वैर् धिया धार्थताम् ॥

प्रस्तुत ग्रन्थ बीजीवकृत भागवत् सन्दर्भ ( षट्सन्दर्भ) के अन्तर्गत पञ्चम सन्दर्भ है ।
ग्रन्थोपसंहार में लिखित है-

इति श्री-कलि-युग-पावन–स्व-भजन-विभाजन-प्रयोजनावतार–
श्री-श्री-भगवत्-कृष्ण-चैतन्य-देव–चरणानुचर–
विश्व-वैष्णव–राज-सभा-जन-श्री–रूप-सनातनानुशासन-भारती-गर्भे
श्री-भागवत-सन्दर्भे श्री-भक्ति-सन्दर्भो नाम पञ्चमः सन्दर्भः ॥

अर्थात्
कलियुग के उपायस्वरूप जो निज भजन (भगवद्- भजन ) वह भजन वितरण ही
जिनके अवतार का प्रयोजन है,
उन श्रीभगवान् श्रीकृष्ण चैतन्यदेव के श्री-चरणानुचर
एवं विश्व-वैष्णव राजसभा के सम्माननीयपात्र जो श्रीरूप सनातन हैं, उनके उपदेश वाक्य जिसके मध्य में है, इस प्रकार भागवत-सन्दर्भ के अन्तर्भुक्त भक्ति-सन्दर्भ नामक यह पञ्चम सन्दर्भ है । ग्रन्थारम्भ में लिखित है-

तौ सन्तोषयता सन्तौ श्रीलरूप सनातनौ । दाक्षिणात्येन भट्ट ेन पुनरेतद् विचार्य्यते ॥

तस्याच्द्यं ग्रन्थनालेखं क्रान्तव्युत्कान्त खण्डितम् । पर्यालोच्याथ पय्यायं कृत्वा लिखति जीवकः ॥

अर्थात् श्रीवृन्दावन में सतत विराजमान तपस्यादि सम्पत्तियुक्त श्रीरूपसनातन गोस्वामिद्वय के सन्तोषार्थ दाक्षिणात्य विप्र कुलोद्भव श्रीमन्महाप्रभु के प्रिय पार्षद भट्टवंश सम्भूत श्रीगोपालभट्ट गोस्वामी प्राक्तन दाक्षिणात्य आचार्यवृन्द के संग्रह ग्रन्थ से विचार पूर्वक एक सारसंग्रह ग्रन्थ किये थे । किन्तु उक्त सङ्कलन ग्रन्थ में श्रीभगवत सिद्धान्त समूह क्रम पूर्वक, विपरीत क्रम से, एवं खण्डित क्रम से विन्यस्त थे । तत् समुदय की समालोचना करके क्रम निबन्धन पूर्वक श्रीजीवगोस्वामी यह ग्रन्थ लिख रहे हैं। किसी प्रयोजक कर्त्ता के अधीन होकर यह ग्रन्थलिखन कार्य करते हैं, इस प्रकार स्वीय निरभिमानिता को प्रकट करने के निमित्त हो ‘लिखामि’ के स्थल में ‘लिखति’ का प्रयोग हुआ है ।

श्रीमद्भागवत ग्रन्थ के भाष्यस्वरूप प्रस्तुत सन्दर्भ ग्रन्थ का प्रतिपाद्य विषय स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण हैं, ग्रन्थ एवं श्रीकृष्ण का वाच्य वाचकतारूप ‘सम्बन्ध’ है। श्रवण कीर्तनादि नवधा भक्ति-अभिधेय हैं, एवं ‘प्रेम’ प्रयोजन है । समग्र ग्रन्थ में मूल श्लोक एवं लेख्य संख्या का क्रम इस प्रकार है :-

(१) श्रीतवसन्दर्भ - २५ - ४७५, (२) श्रीभगवत् सन्दर्भ - १०२ - २७४० (३) श्रीपरमात्म सन्दर्भ- १०६, २७५८ (४) श्रीकृष्णसन्दर्भ १८६-३१०५ (५) श्रीभक्तिसन्दर्भ ३४०, ४६२६ (६) श्रीप्रीतिसन्दर्भ ४२६

-४३०० ।

(

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तत्त्वसन्दर्भ का प्रधान आलोच्य विषय है, श्रीमद्भागवत का सर्व प्रमाण श्रेष्ठत्व, सामान्यतः तत्त्व निरूपण एवं सर्ग विसर्गादि की व्याख्या । भगवत् सन्दर्भ नामक द्वितीय सन्दर्भ में ब्रह्म परमात्मादि भेद से तत्व निरूपण, ब्रह्मादि की आविर्भाव योग्यता, एवं विभेद, वैकुण्ठ निरूपण, मायाशक्ति, स्वरूप शक्ति प्रभृति की आलोचना, श्रीविग्रह का नित्यत्व एवं पूर्णत्व, ब्रह्म एवं भगवान् के स्वरूप प्रभृति विचारित हैं । तृतीय सन्दर्भीत्मक श्रीपरमात्म सन्दर्भ में आलोच्य विषय यह है-परमात्मा, जीव, माया, जगत्, निर्गुण- सगुण विचार, भगवल्लीला का प्रयोजन प्रभृति । श्रीकृष्णसन्दर्भ नामक चतुर्थ सन्दर्भ में वर्णित विषयसमूह इस प्रकार हैं- श्रीकृष्ण की हो स्वयं भगवत्ता, अंशादि का भीकृष्ण में प्रवेश एवं नित्यस्थिति गोलोक निरूपण, श्रीवृन्दावनादि का नित्य कृष्णधामत्व, गोलोक वृन्दावन का एकत्व, यदु गोप प्रभृति का नित्य- परिकरत्व, प्रकट एवं अप्रकट लीलवस्था, महिषीबृन्द का स्वरूप शक्तित्व, गोपीवृन्द का उत्कर्ष, एवं श्रीराधिका का सर्वोत्कर्ष प्रभृति ।

पञ्चम सन्दर्भात्मक भक्तिसन्दर्भ का आलोच्य विषय यह है-भक्ति किसको करनी चाहिये ? भक्ति क्यों करेंगे ? भक्ति करने का अधिकारी कौन है ? भक्ति किसको कहते हैं ? भक्ति का स्वरूप वर्णन प्रसङ्ग में प्रथमतः आरोप सिद्धा, सङ्गसिद्धा, एवं स्वरूपसिद्धा-त्रिविध विभाग करके स्वरूपसिद्धा शुद्धाभक्ति भक्ति के वैधी एवं रागानुगा - यह द्विविध प्रकार वर्णित है । अर्थात् भक्ति का अभिधेयत्व, कर्म, योग, ज्ञान का आपेक्षिक अपकर्ष, सकाम एवं निष्काम भक्ति, भक्ति का लक्षण, बंधी भक्ति, शरणापत्ति, श्रवण कीर्त्तनादि का विवरण, सेवापराध, रागानुगाभक्ति, श्रीकृष्ण भजन का वैशिष्टच, सिद्धक्रम प्रभृति । श्रीभगवत् प्रीति का परमपुरुषार्थं निरूपण, प्रीति एवं मुक्ति का तारतम्य, मुक्ति का प्रकार भेद, प्रीति के स्वरूप एवं तटस्थ लक्षण, श्रीकृष्ण प्रीति की श्रेष्ठता, गोपीप्रेम, शान्त दास्या. द लक्षणाभक्ति, विभाव अनुभाव प्रभृति का विचार, धीरोदात्तादि का निर्णय, सम्भोग विप्रलम्भाद भेद, श्रीराधा की महिमा प्रभृति प्रीति सन्दर्भ के आलोच्य विषय हैं ।

भक्तिसन्दर्भ के अनुच्छेद समूह में सन्निविष्ट विषयों का विवरण निम्नोक्त प्रकार है-

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अनु० १-६८ । अन्वय मुख से भक्ति महिमा, संक्षेप से सम्बन्ध, अभिधेय एवं प्रयोजन । जीव द्विविध पूर्वसंस्कारवान् एवं वर्तमान में लब्ध कृपावान् । (१) भक्ति का सुखात्मकत्व । (२) भजनीय स्वरूप एवं आत्म प्रसन्नता । भक्ति का परम धर्मत्व, ज्ञान कमादि भक्तिमुख. पेक्षी हेतु भक्ति द्वारा ही भगवान् भजनीय । गुरुशिष्यभाव से प्रवृत्त उपदेश वाक्य श्री द्भागवत (१।२।११) का तात्पय्यं भक्ति ही है। श्रीशौनक के प्रति श्रीसूत के उपदेश का सारार्थ (१८) कर्म, ज्ञान, एवं वैराग्य के प्रति यत्न परित्याग पूर्वक भक्ति करना ही कर्तव्य है । (१६) त्रिविध कारणों से मङ्गलकामी के पक्ष में श्रीविष्णुवत् ब्रह्मा एवं शिव उपास्य नहीं हैं । (२०) विष्णु उपासक के पक्ष में देवतान्तर की निन्दा सर्वथा वर्जनीय है । (२१) रजः तमः प्रकृति के व्यक्ति, विष्णु भिन्न अन्य देवता का उपासक होता है । (२३) श्रीनारद व्यास संवाद का सारार्थ भी भक्ति ही है । भा० प्रथमस्कन्ध (२४-३२) श्रीशुक परीक्षित संवाद का सार भी भक्ति ही है । भा० द्वितीय स्कन्ध । (२७) भक्तियोग में रुचि के पूर्व पर्य्यन्त ही काम्यकमचरण विहित है । भा० २ स्कन्ध १ अध्याय में विराट धारणा का उपदेश प्रदान के पश्चात् अपवाद न्याय से भक्ति ही कर्त्तव्य रूप में उपदिष्ट है । (२८) सद्योमुक्ति एवं क्रममुक्ति की अपेक्षा भगवत्प्रीति श्रेष्ठ है । (२६) भक्तियोग सर्व वेद सिद्ध है । (३१) अकाम, सर्वकाम, वा मोक्षकाम व्यक्ति के पक्ष में भक्ति ही विहित है । (३२) तीव्राभक्ति हो शुद्धाभक्ति में परिणता होती है। किन्तु याच्छिक भक्ति के द्वारा ही कामना पूर्ति होती है । यज्ञादि कार्य में खादिर खूप संयोग- वत् भागवत सङ्ग होने से प्रेम लाभ होता है । (३३) व्यतिरेक मृख से श्रीशौनक ने भी भक्ति का ही अभिधेयत्व स्थापन किया है । भा० (२।३।१७) । भा० २।३ मैं वर्णित सर्वदेवता उपासना से श्रेष्ठत्व स्थापन

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भक्ति का ही हुआ है । (३४) श्रीहरि-गुणानुवादक की आयुः ही सफल है । ( ३५-४० ) श्रीहरिकथा विमुख व्यक्ति, महापशु है, उसके अङ्ग प्रत्यङ्ग समूह निष्फल हैं। (४१-४२)

श्रीब्रह्म नारद संवाद का सार भी भीविष्णु भक्ति है । समस्त वेदों का तात्पर्य रूप में श्रीनारायण ही एकमात्र उपास्य हैं। परब्रह्म-श्रीभगवान् की महिमा है । (४३-४५) श्रीविदुर मैत्रेय संवद में भी उक्त है - भक्तिमार्ग ही सुख रूप वर्त्म है । (४६-४७) भोकपिल देवहूति संवाद में भी उक्त है-परतत्त्व ज्ञानहेतु भक्ति हो मङ्गलमय पन्था है । (४८-४६) श्रीपृथुराज के प्रति श्रीकुमार के उपदेश में भक्ति का ही मुख्य अभिधेयत्व विहित है । (५०) श्रीरुद्रगीत में भी भक्ति हो करणीय है । काम्य कर्मीद्याग्रह से भक्तचङ्ग अनुष्ठान का विच्छेद करना अकर्तव्य है । (५१) श्रीनारद प्रचेता संवाद में उक्त है - व्यतिरेक मुख से विष्णु सेवा भिन्न समस्त इन्द्रियादि विफल हैं (५२) अन्वयमुख से उक्त है- श्रीहरि सेवा के द्वारा ही सकल देवता तृप्त होते हैं । (५३) श्रीऋषभदेव कर्तृ के स्वपुत्र शिक्षण में उक्त है - (५म स्कन्ध) अकिञ्चन के पक्ष में प्रीति भक्ति का आचरण ही कर्त्तव्य है । श्रीब्राह्मण एवं रहूगण संवाद में उक्त है- श्रीहरिसेवोत्थ ज्ञानाग्नि द्वारा संसार विनष्ट होता है। महत् सङ्ग के द्वारा ही हरिभक्ति होती है। (५४) श्रीचित्रकेतु के प्रति श्रीसङ्कर्षण के उपदेशान्त में (६ स्कन्ध) उक्त है-पुरुष अवशेष में भक्त होता है - (५४-५७) श्रीप्रह्लाद द्वारा असुर- बालकानुशासन में उक्त है (भा० ७।७) कौमार में ही प्रिय सुहृद् श्रीहरि का भजन करना चाहिये । (५८) श्रीनारद-युधिष्ठिर संवाद में (७।११ ६) उक्त है-भक्ति के द्वारा ही मन सुप्रसन्न होता है । भक्ति ही सर्व- पुरुषार्थ हेतु है । भक्ति ही पराविद्या एवं परमाश्रय है (५६-६०) (५६-६१) श्रीजायन्तेयोपाख्यान- श्रीकवि वाक्य में उक्त है-ज्ञानाद्यमिश्र भक्ति का अनुष्ठान श्रवणादि द्वारा करने से साधक क्रमशः अभय होता है एवं अनायास मन निरुद्ध होता है । (६२)

आविर्होत्र वाक्य में उक्त है— कमीदि त्याग करके भक्ति हो कर्त्तव्य है (६३) कर्म मोक्ष हेतु वेद में कर्म विहित हुआ है। श्रद्धा एवं विरक्ति का अनुदय पर्य्यन्त वेदोक्त कर्म ही अनासक्त भाव से ईश्वरार्पण पूर्वक आचरणीय है। शीघ्र देहात्मबुद्धि त्यागेच्छु के पक्ष में वेदोक्त एवं तन्त्रोक्त विधिपूर्वक श्रीकेशव की अर्चना कर्तव्य है । (६५) श्रीचमस वाक्य में लिखित है- श्रीहरिसेवक श्रीहरि के द्वारा रहित होकर विघ्न को सोपान करके उन्नति की ओर अग्रसर होता है। श्रोकरमाजन वाक्य में उक्त है - श्रीहरि, - विभिन्न युगों में विभिन्न मार्गों के द्वारा पूजित होते हैं। (६६)

श्रीभगवदुद्धव-संवाद में लिखित है- श्रीहरि के निम्मीत्यादि की सेवा करके एवं श्रीहरिलीला का स्मरण कीर्त्तन करके भक्त, अनायास माया जय करके श्रीहरि को प्राप्त कर सकता है। (६८) श्रीहरि-लीला रहित वेद वाक्य का भी अभ्यास न करे । (७०) भक्ति के द्वारा ही ज्ञान सिद्ध होता है । (८०) श्रवणादि भक्ति अनुष्ठान के द्वारा यावत् परिमाण में चित्त शुद्ध होता है, तावत् परिमाण में श्रीभगवत् स्वरूप, गुण, लीला, एवं माधुर्य अनुभूत होते हैं । (८४) सर्व फलराज प्रेम-भक्ति मार्ग में ज्ञान वैराग्याभ्यास की आवश्यकता नहीं है । भक्तिअनुष्ठान के द्वारा ही ज्ञानादि लभ्य समस्त वस्तु की प्राप्ति अनायास से होती है ।

स्वर्गवाञ्छा, चित्रकेतु की मोक्षवाञ्छा, श्रीशुकदेव की, पार्षदेच्छु भक्तवृन्द की वैकुण्ठेच्छा, की पूर्ति प्रेम सेवा के द्वारा ही होती है। (८५) वर्तमान मनुष्य शरीर के द्वारा श्रीहरि को प्राप्त करना ही बुद्धिमत्ता एवं चातुर्य का परिचायक है । जैसे श्रीहरिश्चन्द्रदि । (८६) श्रीशुकदेव के द्वारा उपसंहार वाक्य में भी लिखित है- श्रवणादि भक्ति ही कर्त्तव्य है, नानाङ्गपूर्ण शुद्धाभक्ति के मध्य में भी लीला कथा श्रवण ही परम श्रेयः साधक है । (८७-९१) श्रीसूतोपदेश के अवशेष में भी उक्त है (१२।१२) श्रीभगवत् कीर्त्तनादि के प्रति आदर करना कर्त्तव्य है- श्रीकृष्ण-स्मरण के द्वारा ही सत्त्वशुद्धि, ज्ञान, वैराग्य एवं प्रेमभक्ति का लाभ होता है । श्रीहरिभजन के द्वारा ही तपः आदि सम्पत्ति सफल होती है। (६३-६८)

ज्ञान,

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श्रीमद्भागवत के सर्व इतिहास वाक्य का भी तात्पर्य भक्तिमात्र में ही है। निज भृत्य के प्रति यम- वाक्य में उक्त है-नामादि कीर्तन द्वारा श्री हरि-भक्ति ही जीवमात्र का परम धर्म है, भक्त गुणादि श्रवण द्वारा वेदादि श्रवणफल सिद्ध होता है । सर्वदा श्राहरिस्मृति ही परम कर्त्तव्य है- वेदार्पण मन्त्र में भी श्री- जनाद्दन प्रीति ही उद्दिष्ट है (६५) श्रीव्रजदेवी के प्रति श्रीउद्धव वाषय में भी उक्त है- समस्त वर्णाश्रमाचार विहित कर्म का उद्देश्य, श्रीकृष्णभक्ति ही है । (६६) श्रीभगवान् के प्रति ब्रह्मा के वाक्य में उक्त है - भक्ति के ही अन्तर्गत है । श्रीमद्भगवद्गीता के दशम अध्याय में शुद्धाभक्ति उपदिष्टा है। (६७) श्रीदाम विप्र वाक्य में भी प्रकाशित है - अन्यान्य पुरुषार्थ साधन भी भति मूलक हैं, भक्ति हो समस्त सिद्धि का जीवन है, किन्तु वह सब सिद्धि के बिना भी भक्ति का साधकत्व है । समस्त शास्त्रों में भक्ति का अभिधेयत्व वर्णित है । अज्ञव्यक्तिवृन्द भी काम्य कर्मादि के अङ्ग रूप में श्रीविष्णु की उपासना करते देवतावृन्द के पारस्परिक वाक्य में उक्त है-भक्ति ही उपासक को स्वकामनादानानन्तर परमफल ‘प्रेम’ प्रदान करती है । व्यतिरेक मुख से (६६) प्रतिपादित है - काम्यक मीनादर के द्वारा भक्ति का विश्वसनीयत्व एवं नित्यसुख रूपत्व, स्वल्पायास एवं वित्तादि द्वारा सध्या भक्ति परम फलदा (१००) भक्ति के विना अपर कुछ श्रीहरि सन्तोषकारक नहीं है, श्रीहरि में अर्पित प्राण श्वपच भी भक्तिहीन द्वादशगुण युक्त विप्र की अपेक्षा श्रेष्ठ है, कारण, भक्तिहीन व्यक्ति के उक्त समस्त गुण गर्वित करते हैं, चित्तशुद्धि नहीं करते हैं । (१०२) श्रीभगवदपित कर्म को अनादर के द्वारा जैसे चोलदेशराज एवं शुद्ध भक्त के उपाख्यान में प्रकाश है - श्रीगीता के द्वादश अध्य य में, भक्ति की असामर्थ्य में ही कमीपण विहित है (१०३) योग के अनादर द्वारा, भक्तिमार्ग में श्रम नहीं होता है, अथच तद्वशीकारता रूप अपूर्व फल होता है । (१०५) भक्ति के बिना ज्ञानोत्पन्न होता ही नहीं । (१०६) स्वतन्त्र अन्याश्रय को अनादर करके भी भक्ति प्रतिपादित है । यथा- देवगण, श्रीआदिपुरुष का ब्रह्मा एवं शिव को भी वैष्णव मानकर भजन करें । सत्वैष्णव के पक्ष में विष्णु को अन्य देवता के समकक्ष रूप देखने से भक्ति का लाभ नहीं होता है, प्रत्युत - प्रत्यवाय होता है । अभेद दृष्टि (देवत्रय में) वचन - शान्त भक्त पर एवं ज्ञानीभक्त पर है। श्रीशिव एवं मार्कण्डेय प्रभृति भी शुद्ध वैष्णवों का भजन करते हैं। स्वयं श्रीशिव भी श्रीहरि का ईश्वरत्व को कहे हैं - अतएव वैष्णव बुद्धि से ही श्रीशिव का भजन युक्तियुक्त है, शुद्ध वैष्णववृन्द श्रीशिव को वैष्णव मानते हैं, कतिपय व्यक्ति, भगवद्- अधिष्ठान मानते हैं, श्रीशिव का भजन स्वतन्त्र ईश्वर बुद्धि से करने पर भृगुशाप लगता है । अन्यान्य देव वृन्द को भगवान् की विभूति जानन चाहिये । देवतान्तर की स्वतन्त्र उपासना के द्वारा श्रीहरि को प्राप्त नहीं किया जा सकता है । अन्य देवता की अवज्ञा, अनादर, निन्दा करना अत्यन्त दोषावह है, कारण, उक्ताचरण से पूर्वचरित धर्म भी विनष्ट होता है । श्रीशिव निन्दक एकान्ती वैष्णव का भी नरक गमन होता है, जैसे चित्रकेतु ।

श्रीकपिलदेव के मत में- जब साधारण प्राणी को अवज्ञा निषिद्ध है, तब श्रीशिवनिन्दा का प्रसङ्ग तो हो ही नहीं सकता है। कनिष्ठ भागवत ही श्रीविग्रहादि में शिलादि बुद्धि करके नारकी होता है। जो व्यक्ति, पिता जिस प्रकार निजपुत्र के प्रति प्रीतिशील होता है, उस प्रकार प्राणीमात्र के प्रति प्रीतिशील होता है, उसके प्रति श्रीभगवान् आशु सन्तुष्ट होते हैं । भक्ति में अजात श्रद्ध व्यक्ति के पक्ष में ही अधिकारोचित कर्मानुष्ठान के सहित अर्चन करना आवश्यक है । उससे ज्ञान लाभ होता है । किन्तु जात श्रद्ध के पक्ष में यावज्जीवन शुद्धाचर्च्चन करना ही कर्त्तव्य है । भूत दया के बिना अर्चन सिद्ध नहीं होता है । यथायोग्य यथा शक्ति दान के द्वारा उसका अभाव होने पर सम्मान प्रदान द्वारा दया करना कर्त्तव्य है । समस्त जीवों के मध्य में एकान्ती भक्त ही श्रेष्ठ है । भक्त के प्रति विशेष आदर एवं अन्य के प्रति यथाशक्ति आदर करना कर्त्तव्य है ।

[ ५ ]

प्रथम उपासक के पक्ष में सर्व भूतादर विहित है । सश्रद्ध साधक के पक्ष में वह स्वाभाविक है । जात रति के पक्ष में सर्वभूत में अहिंसा एवं उपरति स्वीय स्वभाव है । परमसिद्ध के पक्ष में सर्वभूत में प्रेम स्वाभाविक है । अन्यत्र रागद्व ेष आशु परित्याग हेतु श्रीभगवत् सम्बन्ध में अन्य देवता एवं भूतादर करना कर्त्तव्य है । केवल भूतादर अनर्थ हेतु है- जैसे भरत का । श्रीभगवदर्चन हेतु पत्र पुष्प चयनरूप किञ्चित् हिंसा भी विहित है ।

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(१०७) पण्डित व्यक्ति, कृतज्ञ, सुहृद् एवं आत्मद हरि व्यतीत अन्य की शरण ग्रहण नहीं करते हैं। (१०८) श्रीहरि के अभक्त के प्रति अनादर करने से (१०६) श्रीहरि के निष्किश्वन भक्त को देवतागण गुणों के द्वारा आश्रय करते हैं । (११०) कर्मादि मार्गसिद्ध मुनिगण आदरणीय नहीं हैं, भागवत धर्म के द्वादश विध महाजन (१११) श्रीभगवद् भक्ति का ही सर्वोर्ध्व अभिधेयत्व है। श्रवण कीर्त्तनादि भक्ति, सर्व वर्ण एवं सर्वाश्रमी के पक्ष में नित्य स्वधर्म है । श्रीहरि की अवज्ञा करने से जीवन्मुक्त व्यक्ति का भी पतन होता है ।

भक्ति नित्या है। तात्पर्य निर्णायक षड़ विध लिंग (११५) चतुःश्लोकी में भक्ति का ही अभिधेयत्व सर्व शास्त्र में, सर्व कतृत्व में, सर्व देश में, सर्व

(११२-१३) वर्त्तमान शरीर में एवं देहान्तर में द्वारा भी भक्ति का ही अभिधेयत्व स्थापित होता है कथिन है । भक्ति की सवशास्त्रादि में सार्वत्रिकता है । करण में, सर्व द्रव्य में, सर्व कार्य में, सर्व फल में, सर्व कारक में भक्ति की अबाध स्थिति है । भक्ति का सदातनत्व स्वर्गादि में, सर्वयुग में, सर्वावस्था में है । रहस्याङ्ग भक्ति होने के कारण ही ज्ञानरूप अर्थान्तर के द्वारा ही वह वर्णित है ।

FI

( ११५-२७) ब्रह्मा नारद को एवं नारद व्यास को हरिभक्ति संकल्प करके ही श्रीमद्भागवत लिखने के निमित्त कहे थे । श्रीभगवान् भी कहे हैं-उत्तम हरिभक्ति ही ‘लाभ’ शब्द से अभिहित है ।

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(११६-२०) भागवद् धर्म ही परमहंसवृन्द के एवं श्रीभगवान् का प्रिय है । तदुपदेष्टा ही सर्वोत्कृष्ट (१२१) शुद्धा भक्ति में लोकसमूह को प्रवृत्त कराने के निमित्त ही कम्मीदि मिश्र भक्ति उपदिष्ट है । अतएव भक्त के पक्ष में एकमात्र भक्ति ही कर्त्तव्य है । (१२२) भक्तिका ही परमधर्मत्व, सर्वकाम प्रदत्व, सर्वान्तराय निवारकत्व है। भक्ति मार्ग में ज्ञान मार्ग के समान असहायता निमित्त भय नहीं है । कर्म मार्गवत् मत्तरादि युक्त

से भय नहीं है । भक्त, साधनमार्ग से भ्रष्ट नहीं होता है । यथा - वृत्र, गजेन्द्र, भरतादि । (१२३-२४) भक्ति का दुष्ट जीवादिकृत भयनिवारकत्व (१२५) भक्ति का पापघनत्व, अप्रारब्ध पाप हारित्व है । (१२६) केवलाभक्ति ही सूर्य्यं निहारवत् सर्व पाप को विदूरित करती है । ( १२७) भक्ति ही सर्वोत्तम प्रायश्चित्त है । यथा - वृत्रासुर बधजन्य पाप से इन्द्र की निष्कृति । महंदपराध भोग के द्वारा किंवा महत् सन्तोष के द्वारा नाश होता है । ( १२८) प्रारब्ध पाप हारित्व, जातिदोष, एवं व्याधिप्रभृति विनाशकत्व, (१२९) भक्ति का दुर्वासना हारित्व । (१३०) भक्ति का अविद्याहारित्व, (१३१) भक्ति का सर्वप्रीणन हेतुत्व, हरिभक्त को स्थावर जङ्गमादि प्रीति करते हैं ।

(१३२) भक्ति का ज्ञानवैराग्यादि सर्व सद्गुण हेतुत्व, भक्ति का स्वर्गापवर्ग भगवद्धामादि में सर्वानन्द हेतुत्व, भक्ति का स्वतः परमसुखदत्व के कारण, अन्य साधन एवं साध्य वस्तु विषय में हेयत्वकारिता भक्ति ही है । (१३३-३४) भक्ति का निर्गुणत्व, भक्ति ही निर्गुण है, अर्पित कम्मदि समस्त ही सगुण हैं । (१३५) भक्ति में सत्वगुण की अपेक्षा नहीं है । यथा-चित्रकेतु, महत्सङ्ग ही परमनिर्गुण भगवज्ज्ञान वा भक्ति का कारण है । महत्-निर्गुण हैं, उनका सङ्ग भी निर्गुण है । महत् सेवैकनिदानत्व हेतु भक्ति भी निर्गुण है, ब्रह्मज्ञान द्विविध हैं, आनुसङ्गिक रूप से भक्त का एवं स्वतन्त्र रूप से ब्रह्मोपासक का ज्ञानोदय होता है । शान्त भक्त का ब्रह्म, श्रीभगवान् की पराभक्ति का परिकर होता है । जैसे, श्रीगीता के १८०५४

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में उक्त है, एवं श्रीभागवतोक्त ब्रह्मज्ञानी का जीवाभेद में ब्रह्मज्ञान होता है। साधक की मति के द्वारा कल्पितत्व हेतु प्रसादाभासोत्य ब्रह्मज्ञान भी सगुण है। ज्ञानशक्ति एवं क्रियाशक्ति, परमात्म चेतन्य की ही हैं, अतएव निर्गुणा ज्ञान क्रियात्मिका श्रीहरिभक्ति भी निर्गुण है । श्रीकपिलदेवोक्त भक्ति की सगुणावस्था साधक की अन्तःकरणानुगारूपा है । श्रीभगवन् निकेतन में वास निर्गुण है ।

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(१३६) श्रीभगवदाश्रयकारक निर्गुण है, कारण, क्रिया में ही उसका तात्पर्य है । तदाश्रय द्रव्य में नहीं है । (१३७) भगवत् सेवा श्रद्धा निर्गुण है, (१३८) भगवत्धर्म निर्गुण है, (१३९) भक्ति का स्वयं प्रकाशत्व है (१४०) नित्य परमसुख रूपत्व, साधक दशा में एवं सिद्ध दशा में भगवद्विषयक रति प्रदत्व भक्ति का है ।

(१४१) भक्ति योगाख्य रति ही पुरुषार्थ है, इस विषय में श्रद्धा का शैथिल्य होने पर भी भगवान् भक्ति प्रदान ही करते हैं, मुक्तिदान नहीं करते । कारण, केवल भक्ति के द्वारा ही भगवान् तुष्ट होते हैं । (१४२) वह भक्ति श्रीभगवाद की ही ह्लादिनी शक्ति की परम वृत्ति है । अतएव प्रीतिस्वरूप श्रीभगवान् भक्ति द्वारा ही प्रीणनीय हैं। (१४३) आत्माराम, पूर्णकाम, श्रीभगवान् क्षुद्र वस्तु के द्वारा भी परितुष्ट होते हैं। सहज भगवत् प्रीति प्रार्थना करके जो लोक भगवत् सेवा करता है, उसको श्रीकृष्ण कल्पतरुवत् निज प्रीति प्रदान करते हैं । (१४४) कृपा प्रावल्य हेतु श्रीभगवान् निजभक्ति शक्ति को जीव में प्रकाशित करके स्वदत्त भक्ति के द्वारा ही स्वयं जीव का बन्धु होते हैं । जीव उपकारकता, आभासमात्र ही है । (१४५) श्रीभगवदनुभव विषय में भक्ति का अनन्य हेतुत्व है । (१९४६) श्रीभगवत् प्रापकत्व, (१४७) मन का अगोचर फल दातृत्व भी भक्ति का है । यथा-श्रीध्र व । श्रीभगवद् वशीकारित्व- श्रीमद्भागवत के ११।१४ अध्यायस्थ साध्य एवं साधन भक्ति का समाधान । साधनावस्था में श्रवण कीर्तनकारी भक्त का हृदय, अनर्थ निवृत्ति के द्वारा क्रमशः जितना परिमार्जित होता है, उतना ही वह श्रीकृष्णमाधुर्य्यनुभव करता है, विषय द्वारा बाध्यमान होने पर भी वह अभिभूत नहीं होता है । साध्य भक्ति का संस्कार हारित्व हेतु उससे विषयसमूह बाध्यमान होते हैं । (१४८) साक्षात् भक्ति का तो परम धर्मत्व है हो, भगवदपित अलौकिक कर्म का भी परम धर्मत्व है । हरिभक्ति व्यतीत अपर के ऊपर हो यमराज का शासन होता है ।

सकृत् भजन के द्वारा ही आयु सफल होती है. भक्ति, सर्व विध कर्मध्वंस पूर्वक - अनाया परम- गति प्राप्ति का कारण होती है, श्रीकृष्ण मन्त्र दीक्षा ग्रहणमात्र से ही लोक जब मुक्त होता है तब जो लोक भक्तिपूर्वक सर्वदा सेवा करता है, वह सुतरां ही कृतकृत्य होगा । (१५०) ‘मैं शरणागत हूँ’ कहने से ही श्रीहरि जीव को अभय प्रदान करते हैं। (१५१) गर्भस्थ किसी जीव भगवान् की स्तुति करता है, किसी जीव नहीं भी करता है। श्री हरिभक्त, सर्वावस्था में ही भक्ति समर्थ है, श्रीविष्णुभक्त-अतीत एवं भविष्यत के शतकुल को उद्धार करता है। (१५२) भक्तयाभास का भी सर्व पाप क्षयपूर्वक विष्णुपद प्रापकत्व है यथा दण्डहस्त से नृत्यकारी उन्मत्त को ध्वजारोहण फल लाभ, व्याधहत एवं कुक्कुर मुखानीत पक्षी को परिक्रमा का फल लाभ, पूर्वजन्म में प्रह्लाद के द्वारा अज्ञानतः अनुष्ठित श्रीनृसिंह चतुर्दशी व्रत का फल लाभ

(१५३) अपराध रूप में दृश्यमान भक्तयाभास का भी महा प्रभाव है । यथा – श्रीविष्णुमन्त्र रक्षित विप्र के स्पर्श से राक्षस को निर्वेद प्राप्ति, दीपवत्तका चौर मुषिक को राज्ञीत्व एवं परमपद प्राप्ति, कृत जन्माष्टमीव्रतरत दासी के साहचर्य से एकव्यक्ति की तद्व्रत फलप्राप्ति, दुष्टकाय्यार्थ मन्दिर लेपन द्वारा उत्तम गति प्राप्ति – ब्रह्मज्ञान के द्वारा भी ईदृश फललाभ की सम्भावना नहीं है । श्रीभगवद्वशीकारिता के सम्बन्ध में भी भक्ति ही कारण है । भक्ति के माहात्म्यवृन्द केवल प्रशंसावाद ही नहीं है । जैसे—अजामिलादि में प्रसिद्ध है । केवल श्रीहरिनाम में ही नहीं अपितु - भक्तचङ्गमात्र में अर्थवाद की कल्पना करने से जो दोष होता है । भजन में क्रमशः उन्नति न होने पर नामार्थवाद कल्पना एवं वैष्णव अनादरादि दुरन्त अपराध

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को प्रतिबन्ध कारण रूप से जानना होगा। भक्ति में अर्थवाद कल्पना करने से ही नृग राजा का दान कमी ग्रह हुआ था । एवं यमलोक गमन भी हुआ था । इस प्रकार अपराध से भक्तिस्तम्भ भी होता है ।

शरीर, धन, जनता एवं लोभहेतु जो पाषण्डी श्रीगुरु अवज्ञादि दशापराध करता है, उसके सम्बन्ध में नाम आशु फल दान नहीं करता है । वैष्णव अपराधी के प्रति श्रीविष्णु सन्तुष्ट नहीं होते हैं । अविश्रान्त श्रीहरिनाम कीर्तन के द्वारा ही नामापराध विनष्ट होता है । नामापराध नाश के सहित अपराधावलम्बन पाप वासना भी विनष्ट होती है । नामावृत्ति, सिद्धि के पक्ष में प्रतिपद में सुखोदय हेतु होती है । असिद्ध के पक्ष में फल प्राप्ति पर्य्यन्त होती है। फल प्राप्ति में बिलम्ब होने पर जानना चाहिये कि - अपराध विद्यमान है । महत्सङ्गादि लक्षण भक्ति के द्वारा भी दुर्निवार्य्यं कौटिलादि- प्राचीन अपराध के हो चिह्न हैं ।

(१) कौटिल्य - गुरु- कृष्ण - वैष्णव के प्रति भीतर में अन बर- एवं बाहर पूजादि - यथा-दुर्योधन प्रभृति का आचरण, (१५४) भक्तवृन्द समस्त अज्ञ को कृपा करते हैं । किन्तु कुटिल विज्ञ को कृपा नहीं करते हैं। ज्ञानलव दुविदग्धलोक - अचिकित्स्य होने के कारण उपेक्षणीय है । (१५५) (२) अश्रद्धा-भक्ति की महिमा को जानकर भी विपरीत भावना के द्वारा विश्वास का अभावरूप है । यथा-दुर्योधन के विश्व- रूप दर्शन होने पर भी वह विपरीत भावना ग्रस्त था । भगवन्महिमा प्रकाशेच्छु भक्त की विपद से रक्षा रूप आनुषङ्गिक भक्ति का फल भी कथित है, किन्तु यह निज रक्षा वा महिमा प्रकाश निबन्ध नहीं है । जिस प्रकार - प्रह्लाद - शौनक-परी क्षत् में दृष्ट होता है । इनमें उसकी इच्छा भी नहीं थी ।

(१५६) महानुभाव लक्षण आधुनिक भक्त में भी महिमा दृष्ट होने पर भी अविश्वास अकर्तव्य है । विशेष उपासना के द्वारा भी उस प्रकार आनुषङ्गिक फलोदय होता है । यथा-ध्रुव । (१५७) (३) भगवन्निष्ठ। च्यावक वस्त्वन्तराभि निवेश - यथा-भरत का। इसमें प्राचीन अपराधात्मक चार कर्म ही कारण है । (१५८) कतिपय व्यक्ति मानते हैं कि- तादृश भक्त में साधारण प्रारब्ध का ही प्रावल्य- श्रीभगवान् स्वय ही उस भक्त की उत्कण्ठावृद्धि के निमित्त करते हैं-यथा-भरत एवं नारद में हुआ । अपराध निबन्धन उस प्रकार अभिनिवेश होता है, जिस प्रकार - गजेन्द्र में भक्ति शैथिल्य - जिससे आध्यात्मिकादि सुखदुःख निष्ठा ही प्रका शत होती हैं । भक्ति निष्ठाशील व्यक्ति के हुआ । (८/४१११- २) (४) पक्ष में उप प्रकार सुख अनाहत होता है । उपासना वृद्धिहेतु देह रक्षा के निमित्त सत्साधक की इच्छा होती । भक्ति के निकट अपराधावलम्बन से भक्ति का शैथिल्य होता है, मध्य मध्य में रुच्यमान भक्ति के द्वारा भी वह विदूरित नहीं होता है । निरपराध मूढ़ असमर्थ लोक की सिद्धि स्वल्प से ही होती है । तत्प्रति भगवत्कृपा अत्यधिक होती है । किन्तु अत्यन्त दौरात्म्य हेत हा विवेकी का अपराध होता है । विद्वान् एवं समर्थ शतधनु का अपराध हेतु पतन, एवं मूढ़ मूषिकादि का अपर ध विद्यमान होने पर भी सिद्धि युक्तियुक्त ही है। दौरात्म्य विद्यमान न होने से अपराध को अतिक्रम करके भक्ति का प्रभाव उदित होता है ।

(५) स्व भक्तयादि कृताभिमानत्व - अपराध हेतु ही होता है। उससे वैष्णवावमाननादि लक्षण अन्य अपराध उत्पन्न होता है । यथा-दक्षकृतापराध । प्राचीन एवं अर्वाचीन अपराध के अभाव से ही सकृत भजन से फलोदय होता है । पूर्व वा इहजन्म में श्रीभगवदाराधनादि सिद्ध व्यक्ति का ही मरण समय में एक बार भी भगवन्नाम ग्रहणादि होते हैं। एवं उससे भगवत् साक्षात्कार चिन्तित होकर श्रीभगवत् प्रामि होती है । जिस प्रकार गीता में उक्त है— अपराधाभाव हेतु पुनवीर कर्मक्षय निमित्त जन्म ग्रहण करना नहीं पड़ता है । जैसे अजामिल का हुआ । किन्तु यमदूत के पक्ष में नामादि कीर्त्तन श्रवण करके भी वंसा नहीं हुआ । हुआ।

(१६०-६२) श्री भरत एवं श्रीअजामिल के हृदय में सर्वदा श्रीभगवदाविर्भाव था, तज्जन्य मृत्यु समय में सकृत् भजन के द्वारा भगवत् प्राप्ति हुई । (१६१) अन्त में श्रीहरि स्मृति ही परम लाभ है। (१६२)

[ = ]

अतिशय भगवत् कृपा के द्वारा ही मरण समय में दैन्योदय होता है, (१६३) अधिकारी विशेष में ही भगवत् कृपा का फलोदय दृष्ट होता है । जात रुचि में अन्य स्पृह त्याग होता है, यथा उद्धव के द्वारा क्रोध, लोभ, मात्सर्य एवं अशुभ भक्ति का परित्याग । (१६४) जात प्रेम में क्षुधा तृष्णा द्वारा अबाधत्व- यथा-परीक्षित् का हुआ।

(१६५) अनन्या भक्ति ही अनन्यत्व है। भक्ति का महादुर्लभत्व एवं दुर्बोधत्व है, अन्य कामना द्वारा भक्ति का अभिधेयत्व नहीं होता है । अकिञ्चनत्व एवं अकामत्व- तन्मात्र कामना के द्वारा ही सिद्ध होता

। एकान्तित्व का दृष्टान्त - श्रीप्रह्लादादि का भगवान् भिन्न साध्य साधन विवजितत्व ।

(१६६) राजा एवं सेवक के समान प्रभु एवं भृत्य उभय की ही कामना नहीं है । (१६७) भगवत् सुख में एवं मान में भक्त का सुख एवं मान । (१६८) सकाम भक्ति- स्वार्थ साधन तातयं द्वारा भक्तचनु- करणमात्र ही है । सकामत्व द्विविध हैं- ऐहिक एवं पारलौकिक । ह्लाद का मुख्य एकान्तित्व, एवं मुमुक्षु पृषद का गौण एकान्तित्व- एकान्त भक्त अम्बरीष के यज्ञादि अनुष्ठान - लोक संग्रहार्थ । भक्ति के द्वारा जीविका प्रतिष्ठादि का न करना ही ऐहिक निष्कामत्व है । (१६६) नवधा निष्काम भक्ति का ही सर्वशास्त्र सारत्व है । समस्त भक्तयङ्ग के अन्तर्भुक्त नव प्रकार भक्ति के एक अङ्ग द्वारा ही साध्य प्राप्ति होती है । तथापि कहीं पर अन्याङ्ग मिश्रण भिन्न रुचिवशतः ही श्रद्धा होती है ।

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(१७०) अकिञ्चन भक्तयधिकारि विशेष निर्णयः । परतत्त्व साम्मुख्य त्रिधा - ज्ञान, भक्ति एवं कर्मार्पण, (१) निविशेष परतत्त्व साम्मुख्य ज्ञान, (२) सःवशेष परतत्त्व सम्मुख्य भक्ति, (३) तदुभय का द्वार स्वरूप कर्मीर्पण (१७१) निर्दिष्ण का ज्ञान में, सकामी का कम्म में, एवं श्रद्धालु का भक्ति में अधिकार । (१७२) किसी प्रकार परम स्वतन्त्र भगवत् भक्त कृपा द्वारा सञ्जात श्रद्धामात्र ही भक्तयधिकार हेतु है । यही केवलमात्र परम मङ्गलकर है । इस प्रकार विश्वास का भद्धा है। श्रद्धा भिन्न अनन्य भक्ति प्रवत्तित नहीं होती है। कदाचित् किञ्चित् प्रवृत्ता होने पर भी नष्ट हो जाती है । अतएव निर्दिष्ण, नातिसक्त होने के अनन्तर भी भगवत् कथादि में श्रद्धा उत्पन्न होने से ही कर्म परित्याग विहित है। हेला से अर्थात् श्रद्धा के बिना भी भक्तिमात्र सिद्ध होती है । यथा-अजामिल में । दाहादि कर्म में अग्न्यादिवत् फलोदय विषय में भक्ति को विधि की अपेक्षा नहीं है। दौरात्म्य के अभाव से अबुद्धि पूर्वक कृता अपराधरूपा हेला भी भक्ति द्वारा बाधिता होती है, किन्तु दौरात्म्य विद्यमान होने पर ज्ञानलव दुर्विदग्धादि में आद्रेन्धन में वह्नि शक्तिवत् भक्ति के द्वारा भी हेला बाधिता नहीं होती है । यथा वेण में दृष्ट है। श्रद्धा एवं भक्ति शब्द का अर्थ यहाँ आदर भाव है। श्रद्धा भक्ति का अङ्ग नहीं है, अनन्या भक्तघधिकारी का विशेषण मात्र है । पर- पत्नी, परद्रव्य एवं परहिंसा में जिसकी मति नहीं है, उसके प्रति श्रीभगवान् तुष्ट होते हैं ।

(१७२) लब्धभक्ति व्यक्ति की पाप में स्वाभाविक अरुचि है, भक्ति के बल से पाप में प्रवृत्ति होने से अपराध ही होता है, श्रीगीतोक्त- “अपिचेत् सुदुराचारः " श्लोक - अनन्य भक्त का अनादर दोषपर है, दुराचारता विधान पर नहीं है ।

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(१७३) जात निर्वेद वा जात श्रद्ध व्यक्ति के पक्ष में नित्य नैमित्तिक कर्म करने से ही आज्ञाभङ्ग दोष होता है। (१७४) शरणापन्न भक्त का तबनुस्मरण के द्वारा ही विकर्म का प्रायश्चित होता है । अनन्य शक्त का श्रीभगवान् भिन्न अन्य देवता में तद्रूप भक्ति नहीं होती है । जात श्रद्ध व्यक्ति का शरणापत्ति हो चिह्न है, कारण, भगवच्छरण को ही अभय कहते हैं । देवादि तर्पण भी पृथक् आराधन रूप से विहित नहीं है । श्रीभगवदाराधना से हो मूल सेवकवत् सब तृप्त होते हैं, कर्मत्यागी की शक्ति, विघ्न द्वारा स्थगित होने पर भी कर्मत्यागजन्य अनुताप करना निषिद्ध है । यथा गीता (१८६६) एवं भय (१।५।१७) में उक्त है-[ 8 ]

भक्तचारम्भ में ही स्वरूपतः कर्म्म त्याग विहित है । व्यवहारिक कार्पण्याद्यभाव भी श्रद्धा का चिह्न है । श्रद्वावान् व्यक्ति का भगवत् सम्बन्धी किसी भी वस्तु में अविश्वास नहीं होता है । श्रीहरिस्मरण द्वारा बाह्य एवं अभ्यन्तर शुद्ध होने पर भी स्नानादि आचरण - सत्परम्पराचार गौरव हेतु ही होता है । उस प्रकार न करने से अपराध होता है, कारण, कदर्य वृत्ति निरोध हेतु महत्वृन्द मर्यादा स्थापन किये हैं, श्रद्धा उत्पन्न होने से ही सिद्ध असिद्ध-उभय अवस्था में ही स्वर्ण सिद्धि लिप्सु व्यक्ति के समान सदा भक्तयनुवृत्ति चेष्टा ही विहित है। सिद्ध की श्रीहरि स्फूर्ति हेतु दम्भ प्रतिष्ठामय चेष्टा का लेशमात्र भी नहीं होता है, अतः ज्ञानकृत महदपराधादि नहीं होता है । अतएव श्रीमहादेव के निकट चित्रकेतु का जो अपराध हुआ था वह भागवत तत्त्व में अज्ञान के कारण हुआ था । श्रद्धावान् भक्त का प्रारब्ध के द्वारा विषय सम्बन्धाभास उपस्थित होने से उससे दैन्यात्मिका भक्ति उच्छलिता होती है । अनन्य भक्त रूप से प्रतीत व्यक्ति की श्रद्धा लोक परम्परा प्राप्ता है, किन्तु शास्त्रावधारणजाता नहीं हैं। विष्णुतोषण शास्त्र का विरोध होता है । अतः शास्त्रीय श्रद्धालु में सुदुराचारत्व का योग होना असम्भव है । सुदुराचारत्व दोष- लोक परम्पराप्राप्त श्रद्धा में ही सम्भव है । लोक परम्पराप्राप्ता श्रद्धा भी- सात्विकी, राजसिको, तामसी भेद से त्रिविध हैं ।

जिसके उदय से

गीता १७३१ में उक्त है, उक्त श्रद्धा की पूर्णावस्था में सत्यासत्य विचारानन्तर असत्य त्याग होता है, उक्त अवस्थाप्राप्त सत् के प्रति ही ‘यदृच्छया मत्कथादौ’ इत्यादि श्लोक का विधान है, ‘न बुद्धिभेदं जनयेद्’ यह कथन - लोक परम्पराप्राप्त श्रद्धालु के सम्बन्ध में है, स्वयं निःश्रेयसं विद्वान्’ श्लोक – शास्त्रार्थ वधारण जात श्रद्धालु के सम्बन्ध में है । अज्ञजन में उक्त श्रद्धा असम्भव होने पर भी प्राचीन संस्कारानन्तर उपदेश कर्तव्य है, अश्रदधान, विमुख एवं अशुश्रूषु व्यक्ति को उपदेश प्रदान करने से अपराध होता है ।

में

(१७५) रुच्यादि श्रीगुर्व्वाश्रयान्त उपासना का पूर्वाङ्गरूप साम्मुख्यभेद है, कर्म - भगवत् साम्मुख्य द्वारभूत है, अफलकामी वर्णाश्रम कर्मकारी अनघ शुचि लोक ज्ञानी के सङ्ग में ज्ञानी किंवा भक्तसङ्ग भक्त होता है । (१७६) ज्ञान एवं भक्ति-साक्षात् साम्मुख्य है ज्ञान, निर्विशेष साम्मुख्य, भक्ति-सविशेष साम्मुख्य है । वह द्विविध, भगवन्निष्ठत्व, परमात्मनिष्ठत्व - गीता एवं भागवत में उक्त है। भक्ति का आनुषङ्गिक सर्व फलत्व हेतु ज्ञान भी न्यक् कृत होता है। एवं विष्णु की उपासना, परमात्मा की उपासना, अहं ग्रहोपासना, सालोक्य, साष्टि, सारूप्यादि व्यवकृत होते हैं । निष्किञ्चना भक्ति ही सर्वोर्ध्व है ।

(१७७) तन्माधुर्य्यानुभव से भक्त का विधिनिषेध कृत दोष नहीं होता है । (१७८) अंशजीव, भगवदाश्रयक तदेक जीवन है, अतएव अकिञ्चना भक्ति ही उसका स्वभावतः उचित है । प्रणव ही वैष्णवों का महावाक्य है । (१७६) सत्सङ्ग से ही अश्विना साक्षात् भक्तिरूप साम्मुख्य होता है । (१८०) श्री- से जीव का संसार बन्धनकाल का शेष काल उपस्थित होने पर सत्सङ्ग होता है, एवं सत्सङ्ग- भगवदनुग्रह मात्र से ही भगवान् में भक्ति होती है, जैसे पिङ्गला को हुई । साक्षात् सत्सङ्ग उपलब्ध न होने पर भी आधुनिक प्राक्तन वा पारस्परिक सत्सङ्ग अनुमेय है । निरपराध व्यक्ति का ही सत्सङ्ग मात्र के द्वारा भगवत् सान्मुख्य वा सम्मति होती है, किन्तु अपराधी के प्रति सत् की विशेष कृपादृष्टि के सहित सत्सङ्ग होने से ही वह साम्मुख्य का कारण होता है । जिस प्रकार श्रीनारद के सहित नल कुवर मणिग्रीव का हुआ था। किन्तु अन्य देवता का नहीं हुई। अपराध की विद्यमानता में भी जिसके प्रति महत् की कृपा स्वतन्त्र रूप से होती है, उसकी ही भगवन्मति होती है। जिस प्रकार उपरिचर वसु की विशेष कृपा के द्वारा तद्विद्वेषी दैत्यगण भी दैत्य हुए थे । प्रह्लाद की विशेष कृपा के द्वारा तच्चेता रूढ़ दैत्य बालक वृन्द को मुक्ति हुई थी।

[ १० ]

अनादिसिद्ध तदज्ञानमय तद्वैमुख्यवान् जीव का सत्सङ्ग भिन्न अपर किसी भी प्रकार से तत्साम्मुख्य असम्भव होने के कारण सत्सङ्ग हो भगवद्भक्ति का निदान सिद्ध होता है। तद्विमुख जीव में स्वतन्त्र भाव से प्रवर्तित न होने के कारण तत्साम्मुख्य के प्रति भगवत् कृपा भी गौण कारण है । तेजोमाली के सहित तिमिर योगवत् सदा परमानन्दैक रस भगवच्चित्त में तमोमय जोवदुःख स्पर्श होना असम्भव हेतु उस प्रकार कृपा का उद्भव होना असम्भव है । लब्ध जागरण के दुःख स्वप्नवत् साधुचित्त में सांसारिक के प्रति कृपोदय होता है । जिस प्रकार नलकूबर के प्रति श्रीनारद की कृपा हुई । शरणागत की दैन्यात्मिका भक्ति के सम्बन्ध में ही भगवत् कृपा होती है । जिस प्रकार गजेन्द्र प्रभृति के प्रति हुई है । अतएव सत्सङ्ग वाहना वा सत्कृपा वाहना होकर ही भगवत्कृपा अन्य जीव में संक्रमिता होती है - स्वतन्त्र रूप से प्रवत्तिता नहीं होती है-भगवदनुग्रह सत के आकार से ही जग में विचरण करता है ।

(१८१) सतों को स्वैरचारिता ही सत्सङ्ग हेतु है, अपर हेतु नहीं है । (१८२) सत् में परमेश्वर प्रयोक्तृत्व भो सत् की इच्छा के अनुसार हो होती है

हो होती है - (१८३) स्वोपासनादि की अपेक्षा न करके ही दुरवस्था दर्शनमात्र से ही सत् की कृपा होती है- जिस प्रकार श्रीनारद की कृपा नल कूवरादि के प्रति हुई । (१८४) सत्सङ्गम हो परम संस्कार हेतु - कारण - साधुवण दर्शनमात्र से ही पवित्र करते हैं

[[1]]

(१८५) महत् सेवा के बिना भगवत् प्राप्ति नहीं होती है । अतएव सःसङ्ग ही भगवत् साम्मुख्य का द्वार है । (१८६) ‘सन्त’ शब्द का अर्थ भगवत् साम्मुख्य का द्वार है । वैदिकाचार पर नहीं है । जिस प्रकार सत्सङ्ग होता है, उस प्रकार ही साम्मुख्य लाभ होता है । ज्ञान-मार्ग में ब्रह्मानुभवी ही महत् है, भगवद्- भक्ति-मार्ग में लब्ध भगवत् प्रेम ही महत् है ।

(१८७) सिद्धभक्त त्रिविध हैं । (१) प्राप्त भगवत् पार्षव देह-यथा- श्रीनारदादि (२) निर्धूतकषाय- यथा - श्रीशुकदेवादि, (३) मूच्छित व षाय-यथा- प्राग्जन्मगत श्रीनारदादि । उक्त त्रिविध भक्त प्रेमवान् होने पर भी पूर्व पूर्व का आधिक्य है, भजनीय के अंशांशित्व भेद से एवं भक्त के दास सख्यादि भेव से प्रेम तारतम्य होता है, पुरुष प्रयोजन साक्षात्कार में भी जितने परिमाण में भगवान् का प्रियत्व धर्मानुभव होता है, उतने परिमाण में उत्कर्ष होता है। दुष्ट जिह्वा में खण्डास्वादवत् माधुर्य्यानुभव के बिना भगवत् साक्षात्कार निष्फल है, भगवत्साक्षात्कार एवं कषायादि रराहित्यादि के एक एक अङ्ग-वैकल्य से भक्तमहत्ता की क्रमशः न्यूनता है । (१८८-२०१) भक्तश्रेष्ठता का क्रम -कायिक, वाचिक, एवं मानसिक लिङ्ग द्वारा होता है । (१८६)

(१६०) अपने के प्रति द्वेषादिकारी के द्वेषादि द्वारा अक्षुब्ध चित्तहेतु औद सीन्य यथा - प्रह्लाद का निज जनक हिरण्यकशिपु के प्रति । भगवान् वा भक्त-द्वेषकारी के प्रति चित क्षोभ होने पर भी तत्रानभि- निवेश, उत्तम भक्त का भगवद्विद्वेषो में भी निजाभीष्ट देव की स्फूति होने के कारण तन्नमस्कारादि - जैसे उद्धवादि का दुर्योधन को नमस्कार । किञ्चिन्मानस लिङ्ग के सहित भगवद् धर्माचरण रूप कायिक लिङ्ग द्वारा कनिष्ठ भागवत द्विविध हैं, - पारम्परिक श्रद्धायुक्त प्रारब्ध भक्ति साधक गौण है, अजात प्रेम, शास्त्रीय श्रद्धायुक्त साधक मुख्य कनिष्ठ है ।

( १६१-६८) उत्तम भागवत का लक्षण - ( १११२-४८-५२) मूच्छितकषाय, इनमें संस्कार है, किन्तु उससे मोह नहीं होता है। (५३) निर्धूत कषाय - निरूढ़ प्रेमाकुर है, इनमें नैष्ठिका भक्ति ध्यानाख्या ध्रुवानुस्मृति है । इनमें प्रेमाङ्कुर अनाच्छाद्य रूप में ही ज्ञात है (५४ - ५ ) साक्षात् प्रेमजन्महेतु प्रेमिका अर्चन मार्ग में तापादि पञ्चसंस्कारो, नवेज्या कर्मकारक एवं अर्थ पञ्चकविद् विप्र ही महाभागवत हैं ।

(१६) ईश्वर बुद्धि के द्वारा विधि-मार्ग के भक्त द्विविध हैं । (१) अपर मिश्र भक्ति साधक, (२००)

[ ११ ]

(२) मध्यम मिश्र साक्षात् भक्ति साधक है । (२०१) सदाचारी भगवद्भक्त के मध्य में हो सत्-सत्तर, सत्तम है, दुराचार, भगवद्भक्त के मध्य में सत्त्वान्य पय्यीय साधुत्व है, तादृश सङ्ग की भक्त्युन्मुख होने में उपयुक्तता नहीं है। अच्चन मार्ग में त्रिविध भक्त हैं, - महत्, मध्यम, एवं कनिष्ठ हैं। शुद्ध दास्य सख्यादि भाव मात्र के द्वारा सर्वोत्तम अनन्य भक्त द्विविध हैं- (१) ऐश्वय्यनिष्ठ एवं (२) माधुर्य्यनिष्ठ ।

(२०२) महत् एवं सन्मात्र द्वारा निद्दिष्ट वैष्णव साधु भित्र भी निज गोष्ठी के मध्य में अपेक्षाकृत उत्तम वैष्णव हैं, जैसे कमि के मध्य में वैष्णव है । स्कन्दपुराण में इसका वर्णन है, बृहन्नारदीय में शैव के मध्य में भी भागवतोत्तम का वर्णन है । वैष्णवों के मध्य में अनेक भेद विद्यमान होने पर भी उसके प्रभाव- तारतम्य, कृपा तारतम्य, एवं भक्ति तारतम्य द्वारा सत्सङ्ग से कालशीघ्रता एवं वैशिष्ट के द्वारा भक्ति का उदय होता है ।

मार्ग भेद विचार । अजात रुचि के मध्य में विचार प्रधान मार्ग वा साधन क्रम हो श्रेय है । प्रीति लक्षण भक्तिच्छुहृदय के पक्ष में रुचि प्रधान मार्ग ही श्रेयस्कर है

(२०३-२१३) गुरुकरण - विचार - उभय मार्ग में ही प्राक्तन श्रवणगुरु ही तत्तत् भजन विधि शिक्षा- गुरु होते हैं, अनेक के मध्य में अन्यतर ही गृहीत होता है। शास्त्र में बहु मन्त्रगुरु निषिद्ध होने के कारण, मन्त्रगुरु एक व्यक्ति ही विहित है, उनकी कृपा से ही भगवद् आविर्भाव विशेष में एवं भजन विशेष में रुचि होती है। श्रवण गुरु- वेदज्ञ, अपरोक्ष भगवदनुभवी, क्रोधाद्यवशीभूत होने से आश्रयणीय है । (२०४) रुचिप्रधान साधकवृन्द के पक्ष में श्रवणादि, विचार प्रधान साधकवृन्द के पक्ष में श्रवण मनन से उत्पन्न श्रद्धा । (२०५) भजन श्रद्धा. (२०६) प्र.यशः श्रवणगुरु एवं भजन शिक्षा गुरु एक ही होते हैं, (२०७) मन्त्र- गुरु एक व्यक्ति ही विहित है, एक व्यक्ति से शिक्षा दीक्षादि सम्पन्न न होने से अन्य गुरु वरण विहित है । अनेक गुरु करण से पूर्व पूर्व गुरु परित्याग सिद्ध होता है ।

(२०८) बवणगुरु के संसर्ग से ही शास्त्रीय भजनोत्पत्ति होती है । अन्य प्रकार से नहीं होती है । शिक्षा

गुरु की भी आवश्यकता - श्रीगुरु कर्त्तृक उपदिष्ट श्रीभगवद्भजन प्रकार द्वारा भगवद्धर्म ज्ञानोत्पन्न उनको कृपा के द्वारा हो व्यसनानभिभूत होकर सत्वर मन निश्चल होता है। श्रुति का संवाद भी यह- ‘देवता एवं गुरु में भक्तिमान् व्यक्ति को ही महात्मावृन्द उपदेश करते हैं ।’ (२१०) श्रीमन्त्रगुरु की भी आवश्यकता सुतरां है । व्यवहारिक गुरु को परित्याग करके भी परमार्थ गुर्वीश्रय कर्त्तव्य है-अतएव जब तक मृत्युमोचक श्रोगुरु के चरणाश्रय नहीं करता है, तब तक ही गुर्वादि व्यवहार होता है । (२११) स्वगुरु में काम्यकमिवृन्द को भगवद्दृष्टि करनी चाहिये । (२१२) सुतरां पारमार्थिक पथरत व्यक्ति के पक्ष में भो श्रीगुरु में भगवद्दृष्टि करना कर्त्तव्य है । श्रीगुरु में प्राकृतदृष्टि - भगवत्तत्त्व ग्रहण में अनुपयुक्त है ।

(२१३) कतिपय शुद्धभक्त, श्रीभगवान् के सहित श्रीगुरुदेव को अभेद दृष्टि से देखते हैं, एवं भगवान् के प्रियतम रूप में श्रीगुरुदेव को मानते हैं । जिस प्रकार प्रचेतागण - निज गुरु श्रीशिव को भगवद् एवं भगवत् प्रियतम रूप में माने थे । (२१४-१६) साक्षात् उपासना-लक्षण भेद - ( २१४ ) साम्मुख्य- द्विविध, निविशेषम्य एवं सविशेषमय, द्वितीय पुनद्वविध - अहंग्रहोपासना रूप एवं भक्ति रूप ।

(२१५) ज्ञान का लक्षण - अभेदोपासना ही ज्ञान, उसका साधन प्रकार, महत् की विशेष कृपादृष्टि के द्वारा दिव्यदृष्टि लाभ करने से ही चिन्मात्र वस्तु में भगवत्तादिरूपा विशेषोपलब्धि अभेदोपासक की होती है । अन्यथा निर्विशेष चिन्मात्र ब्रह्मानुभव के द्वारा उसमें साधक लीन होता है । (२१६) अहं ग्रहोपासना - " तच्छक्ति विशिष्ट ईश्वर हो मैं हूँ” इस प्रकार चिन्ता करना, इसका फल - अपने में तच्चक्तयादि का आविर्भाव । इसका अन्तिम फल सारूप्य साष्टर्यादि ।

[ १२ ]

भक्ति का अर्थ है सेवा- कायिक, वाचिक, एवं मानसात्मका विविध अनुगति, अतएव भक्ति में भय द्व ेषादि का एवं अहंप्रहोपासना का निराकरण होता है, तदनुगति मात्र ही श्रीभगवन्नाम का उपाय है।

(२१७) भक्ति त्रिविधा (१) आरोप सिद्धा, (२) सङ्गसिद्धा (३) स्वरूपसिद्धा, उक्त विविध भक्ति भी पुनवीर अकतव सकैतव भेद से द्विविधा है । (१) स्वयं भक्ति न होने पर भी भगवदर्पण द्वारा भक्तित्व प्राप्ता । कर्मादि रूप. (क) लौकिक कर्मार्पण - किसी प्रकार से तद्धर्मसिद्धि हेतु काय वाक्य-मन के द्वारा कृत लौकिक कर्म का भगवान् को अर्पण करे – दुष्कर्म की गति द्विविधा हैं, ज्ञानेच्छु के पक्ष में अविशेष द्वारा एवं भक्तीच्छु के पक्ष में दुष्कर्म्म।दि अर्पण द्वारा, दुर्वासनोत्य दुखदर्शन हेतु वरुणामय से करुण प्रार्थना करना । सुकर्म में वा दुष्कर्म में जो राग सामान्य है वह सर्वतोभावेन भगवद्विषयक हो, इस प्रकार प्रार्थना होती है ।

कामीवृन्द के पक्ष में सर्वदा दुष्कर्म्मार्पण होता है । (१२) (ख) वैदिक कर्मीर्पण - अवलेश से जिस किसी प्रकार से भगवान में कर्म अर्पित होने पर कामना प्राधार संर नाश होता है-यथा नः भि- ऋषभ भगवान् को पुत्र रूप में प्राप्त किये थे । (२१) भगवान् में कमर्पण ही त्रिताप की चिकित्सा (२२०-१) संसार बन्धन हेतु कर्म श्रीभगवान् में अर्पित होने पर रोगौषधवत् संसारबन्धनाशक होता है । (२२२) भगवदाय हो वास्तविक कर्मफल- यथा-भरत - सर्व देवतांशी । भगवान् वासुदेव को सर्वकम्मार्पण हेतु सर्व कामशून्य हुये थे । (२२३) अन्तर्यामी वासुदेव का प्रवर्त्तकत्व हेतु मुख्य कर्तृव, अतएव कर्मफल भी तदाश्रय अङ्गी विष्णु का है । यज्ञाङ्ग रूप में विष्णु का भजन दोषावह है । वैष्णव मार्ग में भ्रष्टत्व ही पाषण्डित्व है, सर्व वेदमार्ग ही भगवान् में पर्य्यवसित हैं। विशुद्धान्तःकरण भरत में सश्रद्ध कीर्त्तनादिलक्षणा वृद्धिशीला भक्ति का ही उदय हुआ। कर्मार्पण द्विविध-भगवत् प्रीणन रूप एवं उसमें तत्त्य गरूप ।

(२२४) कर्म के कारण - त्रिविध हैं - कामना, नेकर्म्य, एवं भक्तिमात्र कामना प्राप्ति-यथा- की, नैष्कर्म्य यथा-निमि के प्रति, भक्ति प्राप्ति-यथा-भरत की । (२२५) (२) सङ्गसिद्धा- अङ्गराजा मिश्रा भक्ति-स्वयं भक्ति न होने पर भी भक्ति के परिकर रूप में संस्थापन द्वारा तदन्तःपाती होकर ज्ञान कर्मदि का भी भक्तित्व (क) कर्म मिश्रा- त्रिविधा (अ) सकामा, (आ) कैवल्यकामा, (इ) भक्तिमात्रकामा सकामा- प्रायशः कर्म मिश्रा ही होती है-कम-अर्थ-धर्म- भगवदर्पण द्वारा भक्ति का परिकरत्व प्राप्त कर्म को हो धर्म कहते हैं ।

(२२६-२७) (अ) मिश्रा सकामा । यथा-श्रीकद्दमऋषि की (३।२१) (आ) कैवल्यकामा - कभी कर्म- ज्ञानमिश्रा, कभी तो ज्ञानमिश्रा, (२२८) (इ) भक्तिमात्रकामा-कर्म मिश्रा, (२२९) (ख) कर्मज्ञान मिश्रा, (२३०) (ग) ज्ञानमिश्रा । (२३१) (३) स्वरूपसिद्धा-अज्ञानादि द्वारा भी भक्ति का प्रादुर्भाव होने पर साक्षात् तदनुगत्यात्मा भक्तित्वाव्यभिचारिणी तदीय श्रवण कीर्त्तनादि रूपा (अ) केवल्प (सगुण) स्वरूपा- सिद्धा-उपासक के सङ्कल्प हेतु तत्तद्गुण द्वारा उपचारित, (क) सकामा-तामसी (भा० ३।२६८) (२३२) (ख) सकामा राजसी (३०२६ ६) (२३३) (ग) कैवल्यकामा सात्विकी ( ३ २६११०) (२३४) बंधी एवं राग नुगा । (आ) अकिञ्चना भक्तिमात्रकामा, निष्कामा, निर्गुणा वा केवला स्वरूपसिद्धा-श्रवणादि-मार्ग भेद, दास्यादि भावभेद, एवं सत्त्वादि गुणभेद द्वारा भक्तियोग विभक्त होता है । (२३५) वैधी (क)शास्त्रोक्त विधि द्वारा प्रवत्तिता-प्रवृत्ति हेतु एवं कर्त्तव्याकर्त्तव्य ज्ञान हेतु, (ख) अर्चन व्रतादिगत श्रीभगवान् उद्धव को (भा० ११।२७।५३) में कहे थे।

(२३६) बंधी भक्तिभेद - (१) शरणापत्ति - अनन्यगतित्व- द्विविध। आश्रय मर का अभाव कथन के द्वारा एवं नातिप्रज्ञा द्वारा कथञ्चिदाश्रित अन्य का त्याग के द्वारा - षड़ विधा शरणागति के मध्य में भी

[ १३ ]

“गोप्तृत्वे वरणम्” ही अङ्गी है, अन्यान्य अङ्गसमूह उसके परिकर हैं । सर्वाङ्ग सम्पन्ना शरणापत्ति विशिष्ट भक्त को आशु फल लाभ होता है, तद्भिन्न व्यक्ति को फल लाभ यथा सम्पत्ति एवं यथा क्रम से जानना होगा ।

(२३७) शरणापत्ति के द्वारा सिद्ध होने पर भी वैशिष्टयलिप्सु व्यक्ति के पक्ष में सामर्थ्यानुसार गुरु- सेवा नित्य विशेष रूप से करनी चाहिये । (२) श्रवणगुरु वा मन्त्रगुरु की सेवा - अनर्थ निवृत्ति विषय में एवं श्रीभगवान् की परमसिद्धि हेतु श्रीगुरु की प्रसन्नता हो मूल कारण है ।

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श्रीगुरुभक्ति के द्वारा ही सर्वानर्थ नाश होता है । श्रीगुरुभक्ति - अन्य भगवद्भजन की अपेक्षा नहीं रखती है । ज्ञानप्रद गुरु की अपेक्षा अधिक सेव्य अपर नहीं है । श्रीगुरु सेवा से अधिक धर्म भी नहीं है । यथा श्रीभगवान् श्रीदाम को कहे थे - (२३८) श्रीगुरु की आज्ञा से उनकी सेवा के अवरोध से अन्य वैष्णव- सेवा मङ्गलप्रद है । अन्यथा दोष होता है । वेदज्ञ एवं भगवदनुभवी गुरु मत्सराविशून्य होते हैं, अतएव गुरुदेव - महाभागवत की सेवा करने में अनुमति प्रदान करते हैं, अतः शिष्य को उभय सङ्कटग्रस्त नहीं होना पड़ता है । महत्-सेवा के विरोधी गुरु को दूर से आराधना करनी चाहिये । वैष्णव विद्वेषी गुरु सर्वथा परित्याज्य है । यथोक्त लक्षण गुरु के अविद्यमान में गुरुवत् समवासन कृपालुचित्त एक महाभागवत की नित्यसेवा मणिसङ्गवत् परम मङ्गलप्रद है । अनन्तर समस्त भागवत चिह्नधारी मात्र का ही यथायोग्य सेवा विधान आवश्यक है । महाभागवत सेवा द्विविधा - (क) प्रसङ्गरूपा, (ख) परिचर्य्यरूपा (२३६) (क) प्रसङ्गरूपा – सत्प्रसङ्ग द्वारा सद्भभक्ति रूप अन्तरङ्ग भक्तिनिष्ठा लाभ होती है । सत्सङ्ग जिस प्रकार भगवान् को वशीभूत करती है, योगादि अनुष्ठान उस प्रकार करने में सक्षम नहीं है । वैष्णव व्रत - अवश्य कर्त्तव्य है । वशोकरण द्विविध हैं, मुख्य-गोप्यादि में, तत्फल प्रेम है । गौण-वाणादि में, तत्फल फलोन्मुखी

करणता ।

(२४०) श्रीभगवान् एवं भगवदीय जन सङ्गव्यतीत अन्य साधना भाव होने पर भी पशु से आरम्भ कर आगन्तुक गोपगण पर्य्यन्त अनेक व्यक्ति श्रीभगवान् को प्राप्त किये हैं । (२४१) सत्सङ्ग मात्र द्वारा श्री- गोप्यादि का मुख्य वशीकरण - अन्यसङ्ग द्वारा अलभ्य है । केवलमात्र प्रीति हेतु व्रज में गोप्यादि के सत्सङ्ग मात्र जन्म के द्वारा ही योगादि में यत्नवान् योंगि प्रभृति अलभ्य श्रीभगवान् सुलभ हैं।

(२४३) अज्ञातकृत सत्सङ्ग भी अर्थद है । (२४४) (ख) परिचर्य्यीरूप - महत् प्रसङ्ग की अपेक्षा महाभागवत की परिचय के द्वारा विशिष्ट फल प्रेमोत्सव होता है, कारण, निज पूजा की अपेक्षा भक्त की पूजा भगवान् की सर्वतोभावेन अधिक प्रीतिकरी है । (२४५) व्यतिरेक मुख से - जड़ शरीरादि में आत्मादि बुद्धिकारी एवं तत्त्ववित् व्यक्ति में पूजाबुद्धिहीन व्यक्ति अति निकृष्ट है । (२४६) महाभागवत की सेवा- सिद्ध का लक्षण है, वे अतिप्रिय देह एवं देहसम्बन्धीय स्त्री पुत्रादि का स्मरणहीन होते हैं । (२४७) यथा योग्य वैष्णवाराधन करना चाहिये । श्रीविष्णु प्रसन्नता हेतु वैष्णव का परितोषण करना कर्त्तव्य है । ब्राह्मण एवं अच्युत गोत्र मात्र ही उत्तम जाति होने के कारण, पृथु महाराज के शासनाधीन वे नहीं थे

‘अवैष्णव विप्र को श्वपचवत् दर्शन न करे’ यह वाक्य आसक्तिपूर्वक दर्शन निषेध पर है । श्रीयुधिष्ठिर द्रौपदी का अश्वत्थामा के प्रति उस प्रकार व्यवहार दृष्ट होता है । भक्तिवैशिष्ठ्य हेतु आराधना का वैशिष्ट्य भी दृष्ट होता है । अष्टविध भक्तियुक्त म्लेच्छ भी विप्रेन्द्र, मुनिश्रेष्ठ, ज्ञानी एवं पण्डित होने के कारण, श्रीहरिवत् पूज्य हैं । वैष्णव के पक्ष में ब्राह्मण मात्र की वन्दना, श्रीभगवान् एवं उद्धवादि भक्तवत् अनश्य अवश्य कर्त्तव्य है । इस प्रकार आचरण न करने से भगवदादेश लङ्घन होता है । वैष्णव पूजक के द्वारा वैष्णवों का आचरण विचारणीय नहीं है । दुर्जातित्व एवं दुराचारित्व हेतु भगवद्भक्तजन अमाननीय नहीं है। सुतरां निज अपमानकारी जन को भी अपमान करना कर्त्तव्य नहीं है । श्रवणादि के पूर्व में ही महाजन

[ १४ ]

वृन्द की सेवा करनी चाहिये । अग्नि सेवावत् साधुसेवा के द्वारा कमीदि जाड्य, आगामि संसार भय एवं तन्मूलक अज्ञान विनष्ट होता है

(२४८) (३) श्रवण - नाम रूप गुण लीलामय शब्दों का श्रोत्र स्पर्श, – (क) नाम श्रवण, ( २४६ ) (ख) रूप श्रवण, (२५०) (ग) अन्वय मुख से गुण श्रवण, भगवान् के समान महाभागवतवृन्द के गुण श्रवण विहित है । (२५१-५२) व्यतिरेकमुख से - निन्दक, व्याधवत् इहलोक परलोक के सुख से वञ्चित (२५३) (घ) लोला श्रवण-लीला वर्णन निबन्धन श्रीमद्भागवत का आविभीव । (२५४) लीला-द्विविधा - (अ) सृष्ट्यादि रूपा, (आ) लीलावतार विनोदरूपा लीला, तदितर श्रवण रागनाशक एवं परम मनोहर, उक्त लीला श्रवण से मर्त्य शरीर जितमृत्यु होकर पार्षद देह लाभोपयोगी होता है । यथा - ध्रुव । तत्परिकर

श्रवण ।

(२५६) साधन क्रम - प्रथमतः अन्तःकरण शुद्धि हेतु नामश्रवण, तत्पश्चात् गुणस्फुरण, एवं परिकर स्फुरण, अनन्तर लोलास्फुरण सुष्टु होता है । कीर्तन स्मरण में भी उक्त क्रम है । महन्मुखरित होने से भगवत् कथा श्रवण महामाहात्म्यजनक होता है, जात रुचि भक्त के पक्ष में परम सुखद होता है । (क) महदाविर्भावित श्रीमद्भागवत एवं श्रीकृष्णकर्णामृतादि ग्रन्थ हैं । (२५८) (ख) महत् कीर्त्यमान- श्री पृथु- वाक्य, श्रीनारद वाक्य हैं

(7)

(२५६-६१) श्रीभागवत - श्रवण-ताडश प्रभावमय शब्दात्मक हेतु एवं परम रसमयत्व हेतु परम श्रेष्ठ है । (२६२) सवासन महानुभव के मुख से निजाभीष्ट नामादि श्रवण वारम्बार कर्त्तव्य है । श्रीकृष्ण के परम भगवत्व हेतु श्रीकृष्णनामादि श्रवण परम भाग्य से ही होता है । श्र शुकदेवादि महत् कीर्तन नामादि ही कीर्तनीय हैं । श्रवणभिन्न कीर्त्तनादि का ज्ञान नहीं होता है । अतः श्रवण करना पहले सबके पक्ष में परम कर्त्तव्य है । महत्कृत कीर्त्तन का श्रवण भाग्योदय सबके पक्ष में न होने से स्वयं ही पृथक् कीर्तन करे । वक्ता उपस्थित होने से श्रवण करे, श्रोता उपस्थित होने पर कीर्तन करे । तद्भिन्न समय में स्वयं गान करे। (४) कीर्तन - (क) नामकीर्तन - समस्त पापों का प्रायश्चित्त है । श्रीभगवान् की मति नामोच्चारण कारी के प्रति होती है । स्वाभाविक भगवदावेश हेतु तदीय स्वरूप भूतत्व हेतु नाम का एक देश भी परम भागवत के पक्ष अतीव प्रीतिकर है।

(२६३) नामकीर्तन फल- निज प्रिय नामकीर्त्तन द्वारा अनुराग उत्पन्न होता है, एवं चित्त द्रवता हेतु भाव वैचित्री होती है, अतएव नामकीर्त्तन का ही साधकतमत्व है । नामकीर्तन के द्वारा ही एक जन्म में अरूढ़ योगिवृन्द को बहुजन्म दुर्लभा गति लाभ होती है, भगवान् में मन आसक्त न होने से दिन-रात निर्भय से तद्रतिकर नामसमूह का कीर्त्तन निर्लज्ज भाव से करे - सर्वदा ही गोविन्द नाम ग्रहणीय है । (२६४) श्रीहरिनाम कीर्तन - पाप क्षय करने के पश्चात् भगवदैश्वर्य्यं सौन्दर्य्यादि का अनुभव कराता है ।

ि

(२६५) साधक एवं सिद्ध- सबके पक्ष में ही श्रीहरिनाम कीर्तन परम श्रेयःस्कर है। अर्थात् उच्च नाम सङ्कीर्त्तन सबके पक्ष में प्रशस्त है । दशनामापराध परित्याज्य- (१) सत् की निन्दा - वाचिक हिंसा - षट् वैष्णवापराध परित्याज्य हैं- हन्ति निन्दति वे द्वेष्टि वैष्णवान् नाभिनन्दति । क्रुध्यते याति नो हर्ष दर्शने पतनानि षट् ॥” विष्णु वैष्णव निन्दक की जिह्वा को छेदन करना कर्त्तव्य है, असमर्थ होने पर अन्यत्र गमन वा स्वप्राण त्याग कर्त्तव्य है । (२) श्रीविष्णु का सर्वात्मकत्व हेतु उनसे शिव के गुण नामादि शक्तयन्तरसिद्ध जो मानता है, वह नामापराधी है । (३) श्रीगुरु की अवज्ञा, (४) श्रुतिशास्त्र निन्दन, (५) अर्थवाद, ‘यह स्तुति मात्र है’ इस प्रकार मानना । (६) कल्पन - नाम माहात्म्य को गौण करने के निमित्त अन्य प्रकार चिन्ता करना, (७) नाम के बल से पाप कार्य में प्रवृत्ति, भगवच्चरण प्राप्ति साधन नाम को परम घृणास्पद पाप नाश हेतु विनियोग करने से नाम को अपमानित किया जाता है- अतः महा अपराध

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होता है। जो निरन्तर नामसङ्कीर्तन द्वारा हो विदूरित होता है । अश्वमेध यज्ञ रूप भगवद्भजन के बल से

। वृत्र हत्या में प्रवृत्त इन्द्र का दोष नहीं हुआ । (८) धर्म व्रतत्यागादि के सहित नाम को समान मानना अपराध है । (६) अश्रद्धालु विमुख एवं सुनने में अनिच्छुक व्यक्ति को नामोपदेष्टा अपराधी है । (१०) श्री- हरिनाम माहात्म्य श्रवण करके भी अहङ्कार हेतु नाम को अनादर करना अपराध है। इन दशनामापराधी व्यक्ति ही पाषण्डी नाम से अभिहित होता है । महदपराध भोग का महत् के अनुग्रह के द्वारारा महदपराध की निवृत्ति होती है ।

(२६६) (ख) श्रीरूपकीर्तन-यथा-भीपरीक्षित एवं चतु सन वाक्य में वर्णित है । (२६७) (ग) गुणकीर्तन - श्रीव्यास के प्रति श्रीनारद वाक्य (२६८) श्रीभगवद् गुणकीर्तन - नित्य नूतनोल्लास हेतु साधक एवं सिद्धवृन्द का फल स्वरूप है । (घ) लीला कीर्तन -सश्रद्ध लीला श्रवण के लिए भगवान् शीघ्र हृदय में प्रवेश करते हैं । (२६६) भगवत् लीलामय-गान तदीय रतिप्रद है, सुकण्ठ होने पर नाम लीलादि का गान ही प्रशस्त है -गान शक्तभाव से श्रवण, तदाशक्तय भाव से तदनुमोदन करना कर्त्तव्य है । गायकवृन्द- प्राणिमात्र के परम उपकारी हैं, सुतरां भक्तवृन्द के भी उपकारी हैं । बहुजन मिलित कीर्तन को सङ्कीर्तन कहते हैं। वह चमत्कार विशेष पोषक हेतु गानापेक्षा अधिक माह हययुक्त है। तृणादपि सुनीच, तरु के समान सहिष्णु, अमानी एवं मानद होकर नाम सङ्कीर्तन करे ।

(२७१) कलिकाल में कीर्तन के द्वारा ही अनुयुगीय साधना का फल लाभ होता है। (२७२) कलि- काल में साधनान्तर निरपेक्ष सङ्कीर्त्तन के द्वारा ही सर्व स्वार्थ लाभ होते हैं । (२७३) कीर्त्तन द्वारा ही भगवन्निष्ठारूप परमा शान्ति लाभ होती है । एवं संसार नाश होता है, -भक्तिमात्र ही काल देशादि नियम निरपेक्ष है । अतएव कलिसङ्ग द्वारा कीर्त्तन का उत्कर्ष नहीं है । समाधिपर्य्यन्त स्मरण से कीर्तन गरीयान् है । विष्णुपुराण में उक्त है-समस्त युगों में कीर्तन की सामर्थ्य समान होने पर भी कलि में भगवान् कृपा पूर्वक उसको ग्रहण करते हैं, अतः उसकी प्रशंसा है । अतएव कलियुग में अन्यान्य भक्तघनुष्ठान भी कीर्तन के सहित ही करना कर्त्तव्य है । स्वतन्त्र नाम कीर्त्तन अत्यन्त प्रशस्त है ।

(२७४) कलि में नाम कीर्तन प्रचार प्रभाव के द्वारा ही परम भगवत् पर यणत्व सिद्ध होता है । कलि में पाखण्ड प्रवेश द्वारा नामापराधीगण भगवद्बहिर्मुख होते हैं । (२७५) निजर्दन्य, अभीष्ट विज्ञप्ति एवं स्तवपाठ भी कीर्त्तनान्तर्भूत हैं । अन्य नामापेक्षा श्रीभगवतस्थित नामादि कीर्त्तन अधिकतर प्रशस्त है । शरणापत्त्यादि द्वारा शुद्धान्तःकरण होने से नामकीर्तन के अपरित्याग द्वारा हो स्मरण कर्त्तव्य है ।

(५) स्मरण - मन के द्वारा अनुसन्धान स्मरण सामान्य है, (भा० ११।१३। १४) (२७६ क) नामस्मरण - इसमें शुद्धान्तःकरण की अपेक्षा है । (२७७ ख) रूपस्मरण, श्रीकृष्ण में प्रेमभक्ति ही इसका मुख्य है । अन्य सब आनुषङ्गिक फल हैं । (२७८) (ग) गुणस्मरण, (घ) परिकर स्मरण, (ङ) सेवास्मरण, (च) लीला स्मरण । स्मरण पञ्चविध-स्मरण, धारणा, ध्यान, ध्रुवानुस्मृति एवं समाधि । समाधि - भगवदाविष्ट- चित्तता प्रायशः शान्त भक्त की होती है. यथा श्रीमार्कण्डेय की । यह ‘असंप्रज्ञात’ नामक ब्रह्मसमाधि से पृथक् है । (२७६) लीला भिन्न अन्य विषय की अस्पूति की समाधि है । यथा दास्यादि भक्तवृन्द की ।

(२८०-८२) (छ) पादसेवा - रुचि एवं शक्ति की विद्यमानता होने पर स्मरण को परित्याग न करके ही पादसेवा कर्त्तव्य है । कोई कोई व्यक्ति, सेवास्मरण सिद्धि हेतु पादसेवा करते हैं । सेवा - कालदेशादि के उपयोगी परिचर्थ्यादि पर्यायी शब्द है । (२८३) भगवत् परिकरत्व प्राप्ति हेतु पादमेवा के मध्य में श्रीमूर्ति- दर्शनादि एवं तदीय तीर्थ गमनादि अन्तर्भूत हैं । श्रीगङ्गा प्रभृति भक्ति का निदानत्व हेतु गङ्गादि एवं गङ्गास्थित प्राण्यादि परम भागवत होने के कारण भगवत् पाद सेवा में ही उनकी सेवा पर्य्यवसित होती है

[[ १६ ]

निजोपासना स्थान हो अधिक सेव्य है । श्रीकृष्ण की पूर्ण भगवत्ता हेतु उक्त स्थान ही पूर्ण पुरुषार्थद होता है । परम भगवत् प्रियत्व हेतु तुलसी सेवा सत् सेवा में अन्तर्भुक्त है ।

(७) अच्र्च्चन - आगमोक्त आवाहनादि क्रमयुक्त है । यदि अर्चन मार्ग में श्रद्धा हो तो शिष्य, मन्त्र- गुरु के निकट विशेष रूप से जिज्ञासा करे। अचन के बिना मी शरणापत्त्यादि का एक अङ्ग के द्वारा ही पुरुषार्थ सिद्ध होता है । अतएव यद्यपि श्रीभागवत मत में पश्चशादिवत् अच्चन मार्ग की आवश्यकता नहीं है, तथापि, जो लोक - श्रीनारदादि के वर्त्यानुसरण करके वीक्षाविधान के द्वारा श्रीभगवान् के इच्छुक हैं, उनके पक्ष में दीक्षा ग्रहणानन्तर अच्चन अवश्य कर्त्तव्य है । दीक्षा द्वारा पापक्षय, श्रीमन्त्र में भगवत्स्वरूप ज्ञान एवं तद्द्द्वारा श्रीभगवान् के सहित सम्बन्ध विशेष ज्ञान होता है । सम्पत्तिमान् गृहस्थवृन्द के पक्ष में अर्चन मार्ग ही मुख्य है, वैसा न करके निष्किश्चिनवत् केवल स्मरणनिष्ठ होने से वित्तशाठय दोष होता । अपर के द्वारा अर्चन कार्य्यं निष्पन्न कराने से व्यवहारनिष्ठ एवं अलसत्व प्रतिपादक एवं अश्रद्धामयत्व हेतु दोष होता है ।

अत्यन्त विधिसापेक्ष हेतु एवं द्रव्य साध्यता के कारण गृहस्थ के पक्ष में अर्चन वा परिचय मार्ग का प्राधान्य है । दीक्षाग्रहणान्तर गृहस्थवृन्द को भूलसेव्यरूप श्रीभगवदर्चन करना चाहिये वैसा न करने से नरकपान अवश्यम्भावी है। अशक्त वा अयोग्य पक्ष में पूजादर्शन एवं मानसपूजा कर्त्तव्य है । अर्चन मार्ग में किन्तु विधि अवश्य अपेक्षणीय है । अच्चन कार्य करने के पूर्व में दीक्षाग्रहण कर्त्तव्य है, एवं शास्त्रीय विधान शिक्षणीय है । वैष्णव सम्प्रदाय के अनुसार ही दीक्षाग्रहण कर्त्तव्य है । अर्च्चन मार्ग में स्वभावतः कदर्यशील विक्षिप्तचित्त लोक का स्वभाव सङ्कोचकरण निबन्धन दीक्षाग्रहणादि की मय्यादा का स्थापन ऋषिवृन्द ने किया है । दीक्षा एवं नाममय मन्त्र उभय हो फलादि प्रदान करने में एक अपर की अपेक्षा नहीं करता है । ग्रहण मात्र से ही शक्तिद, एवं अभिवाञ्छित फलद है । श्रीगोपाल मन्त्र, स्वप्रकाश होने के कारण साध्यादि व अपेक्षा इसमें नहीं है । शास्त्रविधि के अनुसार अर्चन करके नीच व्यक्ति भी शीघ्र फल लाभ करता है । स्वप्न में भी उसका विघ्न उपस्थित नहीं होता है, किन्तु विधि को अनादर करके विद्वान लोक भी सिद्ध नहीं हो सकता है, यथा- पृथु के प्रति पृथिवी का वाक्य है ।

अर्चन द्विविध - (क) केवल - निरपेक्ष श्रद्धावान् का । यथा- आविर्होत्र एवं श्रीनारद वाक्य है । कर्ममित्र-व्यवहार चेष्टातिशयवान्, श्रद्धालु, प्रतिष्ठित एवं लोक संग्रह पर गृहस्थ के पक्ष में है ।

(२८६) भगवद्-अवतार-देवता +++(→“भगवद्-अंश-स्वरूपा”)+++ न होने के कारण,
भूतादि की पूजा भगवत्-पूजाङ्ग रूप में विहित होने पर भी
नहीं करनी चाहिये ।
अवश्य पूज्य सङ्घर्षणादि की पूजा भी
तत्स्वीकृत मद्यादि के द्वारा न करे।

[ १७ ]

पीठ पूजा में
भगवद्धाम में श्रीगुरुपादुका का पूजन सङ्गत है ।
कारण, जो भगवान् यहाँ व्यष्टि भक्तावतार गुरु रूप में वर्तमान है,
वही भगवद्धाम में
भगवद् के वामभाग में
समष्टि साक्षात् अवतार श्रीगुरुदेव रूप में विद्यमान् हैं ।

श्रीरामादि उपासना में, श्रीकृष्ण की गोकुलोपासना में
शङ्खचक्रादि श्रीकृष्ण के चरणचिह्न -
गङ्गा- मानस गङ्गा, श्वेतद्वीप-गोलोक,
जिस प्रकार ब्रह्मसंहिता में उक्त है,
तत्रत्य अप्राकृत सोम-सूर्य्याग्नि मण्डल
अतिशैत्य ताप गुण परित्याग पूर्वक विद्यमान हैं।

जिस प्रकार नृसिंहतापनी में लिखित है -
कर्ममिश्रत्वादि निरसन हेतु
भगवत् परिकरों का वर्णन हुआ।

शुद्ध भक्तों की भूतशुद्धि, - निजाभिलषित भगवत् सेवोपयोगि तत् पार्षददेह भावना ही विहित है । भगवत् सेवैक पुरुषार्थी व्यक्तिसमूह के पक्ष में निज आनुकूल्य हेतु उक्ताचरण श्रेयस्कर है। केशवादि न्यास- अधमाङ्ग विषय में तन्मूर्त्तिध्यान, एवं तत्तन्मन्त्र जप करके तत्तवङ्ग स्पर्श ही करे। मुख्य ध्यान श्रीभगवद्- धामगत ही है । कामगायत्रो ध्यान एवं मानस पूजा धाम में ही करनी चाहिये । कारण, सूर्य्यमण्डल में श्रीवृन्दावननाथ - तेजोमय प्रतिमा रूप में ही विद्यमान हैं। साक्षात् भाव से नहीं रहते हैं, वहिरूपचार के द्वारा मानसिक पूजा में वेण्वादि की पूजा भगवन्मुखादि में करनी चाहिये । निज मुखादि में नहीं करनी चाहिये । भूतपूर्व भगवत्परिकर लीला संवलितत्व भी कल्पनामय नहीं है । अर्थात् यथार्थ ही है ।

मानसपूजा माहात्म्य - यह मानसयोग- जराव्याधि भय बिनाशक है । अष्टविधा प्रतिमा के मध्य में मनोमयी मूर्ति का विधान स्वतन्त्र रूप से होने के कारण, कहीं पर मानसपूजा स्वतन्त्र से भी होती है। पूजास्थान विविध हैं— शालग्राम शिलाद में - मथुरादि क्षेत्र श्रीकृष्णादि का महाधिष्ठान है, प्रतिमा- द्विविध होते हैं-चला एवं अचला । परमोपासकवृन्द प्रतिमा को साक्षात् परमेश्वर जानते हैं, अतएव उनकी पूजा में आवाहनादि विशेष विवरण, शूद्रादि पूजित अच्ची विग्रह पूजा में जो निषेध वचन है-बह अवैष्णव शूद्र पर है। भक्त के द्वारा उपास्य अच्छी विग्रह की सर्वोत्कर्षता है । श्रीकृष्ण ही एकमात्र पूजा के पात्र हैं यथा - राजसूय यज्ञ में विहित हुआ है ।

त्रेतादि

(२८७-८६) ज्ञानादि परिमाण एवं भागवत् वर्त्तनातिशय्य हेतु पुरुष में पात्रोत्कर्षता (२६०-६१ ) युग में ही पृथक् प्रतिमा विहित है। (१६२-२) पुरुषों के मध्य में ब्राह्मण ही श्रेष्ठपात्र हैं। मुमुक्षु के द्वारा ज्ञानि पूजा ही मुख्या है

(२६४) प्रेमभक्ति अभिलाषी व्यक्ति के पक्ष में प्रेमभक्त की पूजा ही श्रेष्ठ है, श्रीभगवान् के विलक्षण प्रकाश स्थान होने के कारण, अच्चीविग्रह का ही आधिक्य स्थापित हुआ है । श्रीभगवन्निवास क्षेत्रादि महातीर्थस्थ कीटादि भी कृतार्थ हैं।

(२६५) एकादश पूजाधिष्ठान भेद से पूजा साधनभेद अपासना द्विविधा हैं। (क) अधिष्ठान की परिचय्या के द्वारा अधिष्ठाता की उपासना होती है। (ख) साक्षात् अधिष्ठाता की उपासना निज प्रेम सेव्य स्वाभीष्टरूप विशेष परम सुकुमारत्वादि बुद्धिजनित प्रीति के द्वारा ही सर्वथा सेवनीया है । अभ्यादि में तदन्तयामी रूप में चिन्ता करनी चाहिये । भक्त की भक्ति रीति के द्वारा हो परमेश्वर में विशेष भावोदय होता है। परिचय विधि में तद् देश काल सुखद द्रव्य विहित हैं। इष्टमन्त्र ध्यान - ध्यान स्थल समस्त ऋतु में सुखमय मनोहर रूप रस गन्धादि मय में होने चाहिये । अन्यथा समस्त आग्रह व्यर्थ होते हैं ।

(२६६) श्रीकृष्णैकान्तिक भक्तवृन्द - तन्मूलमन्त्र के द्वारा ही नैवेद्यार्पण करें। श्रीकृष्ण के नरलीलत्व हेतु भोजन भी लोक प्रसिद्धवत् ही है। जप में मन्त्रार्थ विधि प्रकार होने पर भी निज पुरुषार्थ के अनुकूल ही चिन्तनीय है । श्रीमदष्टादशाक्षरादि मन्त्र में आत्मसमर्पणात्मक चतुर्थ्यन्त पद योजनीय है। शुद्धभक्ति सिद्धि हेतु समस्त भक्तघङ्ग के शुद्धाशुद्धत्व द्विविध भेद सम्मत हैं ।

[ १८ ]

(२६७) निरुपाधि प्रेम के द्वारा पूजा करने से ही श्रीभगवान् को प्राप्त कर सकते हैं । (२६८) अर्चनाधिकारी निर्णय, श्रीविष्णु आराधना में स्त्री, शूद्र, एवं सर्व वर्ण सर्व आश्रमों का अधिकार है । नृमात्र का ही दीक्षाविधान द्वारा द्विजत्व विहित है । समस्त युगों में समस्त लोकों के द्वारा समस्त आविर्भाव यथेच्छ पूज्य हैं । (२६६) श्रीएकादशी जन्माट्टम्यादि व्रत, अर्चनान्तर्भूत हैं। दीक्षित वैष्णव, शैव एवं सौर के पक्ष में एकादश । व्रतपालन अवश्य कर्त्तव्य है । द्वादशी में दिवानिद्रा, तुलसी चयन एवं श्रीविष्णु का दिवास्नान निषिद्ध है । अष्ट महाद्वादशी श्रीविष्णु प्रीतिद हैं। वैष्णवों के पक्ष में अनिवेदित द्रव्य भोजन नित्य निषिद्ध हेतु महाप्रसादान्न परित्याग ही एकादश्यादि में निराहारत्व है । श्रीहरिवासर में जागरण न करने से श्री केशव पूजा में अधिकार नहीं होता है । परमभक्ति परायण श्रीमदम्बरीषादि के चरित्र में एकादशी का अनुष्ठान प्रदर्शित हुआ है । अतएव उक्त एकादशी व्रत अन्तरङ्ग वैष्णव धर्म एवं भागवत सम्मत है । कत्तिक व्रत एवं एकादशी व्रतानुष्ठान के प्रभाव से एक ब्राह्मण कन्या सत्यभामा हुई थी ।

माघस्नान - सदाचार कथन के द्वारा श्रीरामनवमी एवं वैशाख वैतादि भी विहित हैं (३००) तादृश व्रत के मध्य में भी निजेष्टदेव का व्रत सुष्ठु विधेय है। वैष्णवों के द्वारा यत्नपूर्वक सेवापराध वर्जनीय है । प्रभुत्वाभिमान से उत्पन्न होने के कारण अपराधसमूह अनादरात्मक हैं । अतएव अपराध का निदानस्वरूप अनादर सर्वथा परित्याज्य है ।

(३०१-२) महदनादर ही सर्वनाशक है । (३०३) प्रमादवशतः भगवदपराध होने से पुनवीर भगवत् सन्तोषण करना चाहिये । श्रीभगवान्, - गीताध्याय, सहस्रनाम माहात्म्य एवं तुलसी स्तववाद पाठ द्वारा सेवापराध क्षमा करते हैं। मथुरादि सेवा द्वारा सापराधलोक पवित्र होता है । एवं सहस्रजन्मार्जित अपराध विनष्ट होता है । महत् की प्रसन्नता व्यतीत महत् अपराध विनष्ट नहीं होता है । अतएव चाटुकारादि द्वारा किंवा महत् की प्रीति निमित्त दीर्घकाल निरन्तर भगवन्नाम कीर्तन द्वारा श्रीभगवान् को सन्तुष्ट कर के तदपराधक्षमापणीय है ।

(८) (वन्दन) -

श्रीभगवान् के अनन्त ऐश्वर्य्य गुणसमूह के श्रवणानन्तर तद्गुणानुसन्धान- पादसेवादि में विधृत दैन्य एवं नमस्कार । नरसिंह पुराण में एवं श्रीमद्भागवत में उक्त है— श्रीकृष्ण के प्रति ब्रह्मा का कथन है- एक बार मात्र नमस्कार के द्वारा ही मोक्ष लाभ होता है। एक हस्त से, वस्त्रावृत देह से, भगवदग्र, पृष्ठ, वाम भाग में वा अतिनिकट में, गर्भ मन्दिर में नमस्कार करने पर अपराध होता है ।

(३०४-१) दास्य - श्रीविष्णु का दासाभिमान । केवलमात्र दासाभिम न के द्वारा ही ‘सद्धि होती है । तादृश भजन प्रयास की आवश्यकता नहीं है । ( ३०५) दास्य सम्बन्ध के द्वारा समस्त भजन महत्तर होता है । तदधिक अपर कुछ भी नहीं हैं । दुर्वासा अम्बरीष को कहे थे ।

(३०६-८) (१०) सख्य-हिताशंसनमय बन्धुभाव लक्षण प्रेम । विश्रम्भ विशिष्ट भावनामय होने के कारण दास्य की अपेक्षा सख्य उत्तम है । एवं परमसेवानुकूल होने के कारण, उपादेय है । अदेव होकर देवता की अर्चना न करे । इस प्रकार विध न विद्यमान होने पर भी शुद्ध भक्तवृन्द उक्त भाव को सेवा विरुद्ध होने के कारण - उपेक्षा करते हैं । साध्यत्व हेतु प्रेम नव भक्ति का अन्तर्भूत नहीं है । भगवान् के सहित जीव का नित्य सहवास के कारण, भगवत्कृत हिताशंसन नित्य है । अतएव भजन विशेष के द्वारा तद्विषयक हिताशंसनमय संख्य विशिष्ट रूप से सम्पादन करना अ तदुष्कर नहीं है। जिस प्रकार असुर बा-कों के प्रति प्रह्लाद का उपदेश है । भगवान् मायिक अमायिक सम्पत्ति दान के द्वारा हिताशंसी हैं । अतएव आरोपित नश्वर विषय के सम्बन्ध में जायापत्यादि के निमित्त उपार्जन में रत होने का प्रयोजन ही क्या है ? सन् स्त्री के द्वारा सत्पतिवत् भक्ति द्वारा भगवान् वशीभूत होते हैं।

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(३०९) (११) आत्मनिवेदन – देहादि शुद्ध आत्म पय्र्यन्त गोविक्रयवत् सर्वतोभावेन श्रीभगवान् को अर्पण। उसका कार्य तीन प्रकार है, (क) निजदेह दैहिक चेष्टा राहित्य, (ख) निज साधन साध्यसमूह का अर्पण, (ग) उनके उद्देश्य से ही केवल चेष्टा, कोई कोई देहार्पण, कोई कोई शुद्ध क्षेत्रज्ञार्पण, कतिपय व्यक्ति केवल दक्षिण हस्तार्पण करते हैं। अम्बरीष सर्वात्म निवेदन किये थे। स्नान परिधानादि तत्सेवा योग्यता हेतु करते हैं । अतः उससे अ स्मार्पण भक्ति की हानि नहीं होती है । आत्मनिवेदन द्विविध हैं- (क) भाव के बिना-यथा- ’ मर्यो यदात्यक्त समस्त कर्मा, (भा० ११।२६।३४) (क) भाववैशिष्ट के सहित-यथा- ‘दास्यादि में ’ (११।११।३५) (३१०) अधिकारिभेद से ओषधिवत् भक्तघङ्ग निष्ठा होती है - इति वैधीभक्ति ।

रागानुगाभक्ति-विषयी लोकों की विषयासक्ति के अतिशय्यवत् भक्त का भगवत् कृपादि विषय में स्वाभाविक संसर्गेच्छातिशयस्य प्रेम ही राग है । विशेषण भेद वा दास्य सख्यादि भेद से राग विविध होते हैं। मायामोहित शिव का मोहिनी मूर्ति में जो भाव है, वह भागवत सम्मत नहीं है । दास्यादि राग प्रयुक्त श्रवण-कीर्त्तन-स्मरण-पादसेवन-वन्दन-आत्मनिवेदन प्राया भक्ति ही रागात्मिका । जिनकी दास्यादि राग विशेष में रुचि हुई है, किन्तु रागविशेषोत्पन्न नहीं हुआ है, उनकी हृदयमणि- तादृश रागसुधाकर के किरणाभास से समुल्लसित होने से तादृश रागात्मिका भक्ति की शास्त्रादि श्रुता परिपाटी में रुचि होती है, अतएव तादृश रुचि के द्वारा तदीय रागानुगमनकारी रागानुगाभक्ति उनमें प्रवत्तित होती है ।

यह विधि के प्रयुक्त नहीं है, किन्तु रुचि के द्वारा प्रवर्तित है । अतएव ऐसा कहना समीचीन नहीं होगा कि -विधि के अधीन न होने से भक्ति ही नहीं होगी । जिस प्रकार श्रीपरीक्षित के प्रति श्रीशुकदेव ने कहा है। बंधोभक्ति सापेक्षा होने के कारण, दुर्बला है, रागानुगाभक्ति-स्वतन्त्र प्रवत्तित होती है, अतः वह प्रबला है । अतएव भक्ति भिन्न अन्य विषय में अर्थात् धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में अनभिरुचित्वादि ही रागा- नुगाभक्ति जन्म का लक्षण है । विधिनिरपेक्षता हेतु पूर्वोक्त दास्य सख्यादि से विभेद को जानना होगा । अतएव रागानुगाभक्ति में विधियुक्त क्रम भी अत्याहन नहीं है किन्तु रागात्मिका श्रुत क्रम ही अत्याहृत है ।

(३११) रागात्मिका रुचि - (भा० ११।८।३५) में उक्त है- रुचि प्रधान इस मार्ग में मन का प्राधान्य हेतु एवं तत् प्रेयसी रूप में असिद्धा पिङ्गला का तादृश भजन में प्रायशः मन के द्वारा हो युक्तत्वहेतु पिङ्गला ने भी मन के द्वारा ही विहार कामना की थी। इस दृष्टान्त के द्वारा तादृश मधुरभावाकाङ्क्षी भक्ति का भी श्रीमत् प्रतिमादि में औद्धत्य परिहृत हुआ । इस प्रकार पितृत्वादि भाव में भी अनुसन्धान कर लेना चाहिये ।

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(३१२) ब्रह्मवैवर्त्त में वर्णित कामकला में भी प्रेयसीत्याभिमानमयी भक्ति है । सेवकत्वाद्यभिमानमयी गात्मिका भक्ति में रुचि भी रागानुगा है । दास्य-यथा- प्रह्लाद का, वात्सल्य - यथा - स्कान्दोक्त प्रभाकर राजा का । मातृवत्’ प्रभृति में ‘वति’ प्रत्ययान्त शब्द के द्वारा प्रसिद्ध तन्मातृ प्रभृति की अनुगत भावना ही अङ्गीकृत है । अभेद भावना अङ्गीकृत नहीं हुई है। अभेद भावना करने से अहङ्ग्रहोपासनावत् मातृ प्रभृति में अहङ्ग्रह पासना से दोष होता है, पूर्वमीमांसा एवं श्रुतिस्मृति में कथित विधिलङ्घन से दोष जब होता है, तब विधिनिरपेक्षा रागानुगा भक्ति के द्वारा सिद्धि कैसे हो सकती है ? श्रीभगवन्नाम गुणादि में वस्तुशक्ति की विद्यमानता हेतु धर्मवत् भक्ति में विधिसापेक्षता नहीं है । अतएव ज्ञानादि के बिना भी फल लाभ का वर्णन अनेक स्थानों में उपलब्ध है । जिसकी निजी प्रवृत्ति नहीं है, उसके पक्ष में ही विधि की अपेक्षा एवं क्रमविधि है । यद्यपि ‘चक्षुनिमीलन पूर्वक धावित होने पर भी’ इत्यादि नियम के द्वारा भागवत धर्म का आचरण जिप किसी प्रकार से होने पर भी सिद्धि सुनिश्चित है, तथापि रुचि के अभाव से, रागात्मिका भक्ति कौशल अनभिज्ञ विभिन्न विषयों में विक्षेपवान् लोक को सुस्थिर व प्रवेश कराने के निमित्त एवं क्रमशः चित्ताभिनिवेश हेतु मयादा रूप में क्रम विधि निति हुई है । अन्यथा सन्ततः तद्भक्तय न्मुखत्व-

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जनक तादृश रुचि न होने के कारण, एवं मय्यादा रूप क्रमविधि को अस्वीकार करने पर वह साधक आध्यात्मिकादि उत्पात के द्वारा निहत होता है । रुचि के द्वारा ही भगवन्मनोरम रागात्मिका में क्रमशः अभिनिवेश हेतु स्वयं प्रवृत्तिमान् भक्त के निमित्त मय्यादा निर्माण नहीं हुआ है । जिस प्रकार श्रीभगवान् उद्धव को कहे हैं - ( भा० ११।११।१३) दुर्लभ सन्धहेतु रामात्मिका भक्ति का अनुकरण करके जब पूतना भी छात्रो गति प्राप्त की है, तब तदीय रुचिमान् सहसा भक्तवृन्द, निश्चय हो निरन्तर सम्यक् भक्तचनुष्ठान के द्वारा स्वस्व भावोचित प्रेम सेवा प्राप्त करेंगे। भक्ति निष्ठा रुचि के द्वारा वा शास्त्रनिष्ठा में आदर के द्वारा एकान्तित्व होता है, तदुभय के अभाव में एकाक्तित्व - दम्भमात्र ही है। श्रुति, स्मृति, पुराणादि वाक्य द्वारा एकान्तित्वाभिमानी को लक्ष्य करके निन्दा की गई है । ‘भगवत्प्रीति वा रुचि के बिना वेदोक्त कर्म न करके स्वतन्त्र भाव से कर्म करने से ही पाषण्डी होता है । इस प्रकार पाद्मोत्तरखण्ड में वर्णित है । उसका अभिप्राय - अज्ञान की निन्दा करना नहीं है, किन्तु शास्त्रानादर का हो निन्दा करना है। मतविशेष के आदरमात्र के द्वारा आता रागानुगामी, अजात तादृश रुचिशील भक्त के द्वारा एवं ज्ञात तादृश रुचिशील प्रतिष्ठित भक्त के द्वारा भी लोकशिक्षार्थ वैधी संवलिता हो अनुष्ठेया है। मिश्र भक्ति में रागानुगा के सहित यथायोग्य रूप में एकीकरण करके ही वैधीभक्ति आचरणीया है । यथा भीअष्ट दशाक्षर मन्त्र ध्यान सम्बन्ध मैं उक्त है।

विधि एवं निषेध - धर्मशास्त्रोक्त एवं भक्ति शास्त्रोक्त भेद से द्विविध हैं । भगवद्भक्ति में विश्वास हेतु अथवा दुःशीलता हेतु धर्मशास्त्रोक्त विधि एवं निषेध पालन न करने से अथवा करने से वैष्णव भाव से भ्रष्ट नहीं होना पड़ता है। वैष्णव शास्त्रोक्त आवश्यक कृत्य का अनुष्ठान एवं निषिद्ध कृत्य का परिहार- श्रीविष्णुसन्तोषार्थ ही होता है । सुतरां रुचिमान् व्यक्ति में स्वतः ही उक्त उभय विषय में प्रवृत्ति एवं अप्रवृत्ति होती है, कारण, तदीय सन्तोष ही प्रीति का एकमात्र जीवन है ।

अतएव तादृश प्रीति विषय में जो व्यक्ति स्वयं ही जिस राग का अनुगमन कर रहा है, तादृश रागात्मक सिद्धभक्त कर्त्तृक कृतश्व वा अकृतत्व का अनुसन्धान भी अपेक्षणीय नहीं है। पक्षान्तर में उक्त सिद्ध भक्त कर्तृक अनुष्ठित होने से साधारण जनगण का उत्तानुष्ठान में विशेष आग्रह होता है । यही प्रभेद है ।

यहाँ पर किसी किसी स्थल में राग रुचि के द्वारा ही शास्त्रोक्त क्रमविधि का निर्वाह होने पर भी वह किन्तु रागानुगा के हो अन्तर्गत होता है। जो गोकुलादि में विराजित रागात्मिका के अनुगत हैं, एवं तत्पर भी हैं, वे श्रीकृष्ण के मङ्गल एवं तदीय संसर्ग विषयक विघ्नावि विनाश कामना से वैणव धर्म एवं लौकिक धर्मसमूह का अनुष्ठान करते हैं। रागानुगा में रुचि ही सद्धमं प्रवर्तक होने के कारण- ‘श्रुति स्मृति ममैवाज्ञे’ श्रुतिस्मृति मेरी आज्ञा हैं - यह वाक्य रागानुगःभक्ति विषयात्मक नहीं है, ‘अपिचेत् सुदुराचार’ इत्यादि वाक्यविरोध हेतु विधिवर्त्म-भक्ति विषयक नहीं है, विधि के द्वारा अप्रवत्तिता रागानुगा-वेद वाह्या नहीं है। अतएव रागानुगा, वंधी की अपेक्षा भी अतिशय बलीयसी एवं समीचीना है किन्तु रुचि की विद्यमानता से वेद वैदिक प्रसिद्धा ही रागानुगा है । किन्तु बुद्धयादि का व्यतिरेक मुख से वेद का वर्णन - वेद प्रति प्रतिपाद्य विषय विरुद्ध होने के कारण वेदवाह्य है । अतएव रागानुगा– बंधी अपेक्षा भी अतिशयवता एवं समीचीना है, कारण, मयादा वचन आवेश निबन्धन ही हुआ है । रुचि विशेष लक्षण - मानस भाव के द्वारा जिस प्रकार आवेश होता है, विधि प्रेरणा द्वारा उस प्रकार आवेश नहीं होता है। आवेश का स्वारसिकमनोधर्मत्व हेतु अनुकूल भावसमूह के द्वारा आवेश तो होता ही है, परम निषिद्ध प्रतिकूल भाव के द्वारा भी अशु आवेश सामर्थ्य द्वारा ही प्रतिकूल दोष हानि एवं सर्वानर्थ निवृत्ति होती है ।

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(३१३) भावमार्ग की ही बलवत्ता प्रदर्शन हेतु युधिष्ठिर नारद को प्रश्न किये थे ‘भगवन्निन्दा से वेग का नरक गमन हुआ, अथच चिरदोषी शिशुपाल को एकान्ति ज्ञानिजन दुर्लभ भगवत् सायुज्य लाभ क्यों हुआ ? (३१४) अनेक नरक भोग के पश्चात् पृथु जन्म प्रभावोदय वशतः वेण की सद्गति हुई थी, यह सुनने में आती है । भगवत् पीड़ाकर होने के कारण, किंवा सुरापानादिवत् निषिद्ध हेतु निन्दा श्रवण वशतः ही क्या नरकपात होता है ? (३१५-३१६) मूढ़ पुरुष के द्वारा निन्दादि प्राकृततम आदि गुण को उद्देश्य करके ही प्रवर्तित होते हैं । किन्तु जीववत् प्रकृति पर्यन्त वस्तु समूह में भगवान् का अभिमान न होने के कारण निन्दन के द्वारा भगवान् को पीड़ा नहीं होती है ।

(३१७) शुद्ध सच्चिदानन्द विग्रहत्वादि हेतु भगवान् उस प्रकार निन्दा के अतीत हैं, जिनकी प्रतिमा में अथवा आभास में एक बार मात्र यथाकथञ्चित् आवेश होने से पाप नाश होता है । उन श्रीभगवान् में निन्दादि कृत वषम्य न होने के कारण, शत्रुभाव से भी उनका ध्यान करने से तदावेश द्वारा निन्दादि पाप नाश होता है, अतएव सायुज्य प्राप्ति युक्तियुक्त है । वैरानुबन्ध, निबेर, भय, स्नेह एवं काम हेतु भगवदावेश होता है। (३१८) निन्दित वैरभाव के द्वारा जिस प्रकार आशु तदावेश होता है, उस प्रकार कर्त्तव्य बुद्धि से क्रियमाण वैधीभक्ति के द्वारा तदावेश नहीं होता है । (३१६) प्राकृत पेषस्कृत कीटवत् वैरभाव द्वारा निरन्तर तच्चिन्ता करके पापशून्य होकर शिशुपालादि नराकृति परब्रह्म को प्राप्त किये थे ।

(३२०) शास्त्रविहित भगवद्धर्म वा भक्ति द्वारा भगवान् में मन को आविष्ट करके जिस प्रकार भगवान् को प्राप्त किया जा सकता है, उस प्रकार अनेक व्यक्तियों ने तदविहित कर्म के द्वारा भी उनको प्राप्त किये हैं । ( ३२१) द्वेष एवं भय के द्वारा अघ होने पर भी निरन्तर आवेश के द्वारा वह विनष्ट होता है। कतिपय व्यक्ति - काम को भी अघ मानते हैं, भगवान् में काम त्रिविध होते हैं, (१) केवल (२) पति-पत्नि- भावयुक्त (३) उपपति भावयुक्त, (१) कुब्जा का केवल । स्नेहवत् काम का प्रीत्यात्मकत्व हेतु द्व ेषवत् दोष नहीं होता है, उनका काम ही प्रेमैक रूप है । गोपियों की तुलना से ही कुब्जा का भाव की निन्दा होती है, स्वरूपत वह निन्दनाय नहीं है । कारण, कार्य्य द्वारा उसकी स्तुति की गई है। ‘हे प्रिय ! मेरे पास कुछ दिन रहो’ इस वाक्य से प्रीति प्रकाशित हुई । जो व्यक्ति, मनोग्राह्य प्राकृत विषय की कामना करता है, वह कुमनीषी है । कुब्जा ने तो भगवान् की कामना की थी, अतः वह परम सुमनीषिणी है। अतएव उसका काम, -द्व ेषादिगण में अन्तर्भुक्त नहीं हुआ एवं पापावह भी नहीं हुआ। कामुकत्वाद्यारोपण एवं अधरामृत पानादि व्यवहार के द्वारा भी मय्यादा का अतिक्रम नहीं हुआ है । कारण, लोकवत् लीला कैवल्य ही है । इत्यादि न्याय से लीलास्वभावतः ही सुनिष्पादित हुई है । श्रीवैकुण्ठादि में श्री, भू, लीलादिशक्ति के द्वारा तादृशी लीला नित्यसिद्धा है । अत स्वतन्त्र लीलाविनोद भगवान् की तादृश लीला में अभिरुचि ही ज्ञात होती है । अतएव भगवत्ताद्यनुसन्धान एवं कामुकत्वादि मनन भी स्वाभाविक लीलारस मोहजनित तदभिरुचि वशत ही जानना होगा । परम शुद्ध रूप, तत्स्वरूपशक्ति विग्रह, तदन्यून तत्प्रेयसीजन द्वारा तदधरामृत पानादि सङ्गत ही है, एवं तदभिरुचि वशत ही होते हैं ।

(२) पतिभावयुक्त - पतिभावयुक्त काम में दोष नहीं होता है, वास्तविक पक्ष में स्तुति सुनने में आती है । यथा - महिषीवृन्द का । महानुभाब मुनिवृन्द में वह भाव श्रुत होता है । कूर्म्मपुराण में इसका विशद वर्णन है। (३) उपरति भावयुक्त- यथा - गोपाङ्गनावृन्द का । उपपतिभाव जो दोषावह नहीं है, वह गोवी के उत्तरों के द्वारा, श्रीशुकदेव के द्वारा, एवं श्रीकृष्ण वाक्य के द्वारा ही प्रमाणित हुआ है । अन्यत्र भी उपपति भाव दृष्ट होता है । यथा- पद्मपुराण में दण्डकारण्यवासी मुनिवृन्द के सम्बन्ध में उक्त हैं आगम प्रभृति में श्रीनन्दनन्दन की उपासना काम रूप में विहित होने के कारण एवं ‘साक्षान्मन्मथमन्मथ’ नाम के कारण गोपियों का काम एवं पुरुषदेहधारी मुनिवृन्द के अन्तर में स्त्रीभाव से भगवान् को उपभोग

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करने का जो काम है, वह भगवान् कर्तृ के उद्भाबित अप्राकृत काम ही है। प्राकृत कामदेवोद्भावित प्राकृत काम नहीं है । उद्धवादि परमभत वृन्द ने भी गोपी-प्रेम की प्रशंसा की है। वृहद वामनपुराण में प्रसिद्ध है, श्रुतिगण भी नित्यसिद्ध गोपीभावाभिलाषिणी होकर गोपीरूप में हो तदन्तः पा. तनी हुई हैं। इसमें श्रुति- वाक्य दृष्टान्त है । श्रीमद्भागवत में भी उक्त है- ‘शत्रुगण भी स्मरण प्रभाव से भगवान् को प्राप्त किये हैं । इस वाक्य के द्वारा भावमार्ग का आशु अर्थ साधवत्व प्रदर्शित हुआ है । ‘समहरा’ शब्द के द्वारा रागानुगा का साधकतनत्व प्रकाशित हुआ है । अन्यथा सर्व साधन साध्य विदुषी श्रुतिगण - अन्य भावावलम्बन से साधन में प्रवृत्त होते। बृद्धामनपुराण में प्रसिद्ध वर्णन है— श्रीकृष्ण के नित्यधाम में नित्यसिद्धा गोपीवृन्द को श्रुतिवृन्द देखी थीं, अतः ‘स्त्रियः’ शब्द से उन सबका बोध होता है । काम से साधकचरी श्रुतिगण, भय से कंस, द्व ेष से शिशुपालादि, सम्बन्ध से वृष्णिगण, स्नेह से पाण्डवगण एवं भक्ति से श्रीनारदादि श्रीकृष्ण को प्राप्त किये हैं ।

(३२२) श्रीनारद - पूर्व जन्म में दासी पुत्र रूप में भक्ति के द्वारा ही पार्षद देह को प्राप्त किये थे । अधुना लब्धराग नारद में विधि की अनधीना रागात्मिका भक्ति विराजित है । आधुनिक व्यक्तिगण भी गोपियों के समान तद्गुणादि श्रवण के द्वारा गोपीभाव प्राप्त होते हैं। राग का ही विशेषत्व प्रदर्शन हेतु सम्बन्ध ग्रहण हुआ है । पूर्वावस्था को अवलम्बन करके गोपीवत् साधकचर वृष्णि विशेषगण - साधकत्व में ही निद्दिष्ट हुए हैं । अतएव सम्बन्धजन्य स्नेह को भी तदरुचिमात्र ही जानना होगा ।

(३२३) वेण का भाव - उक्त पञ्च प्रकार भाव के मध्य में एक भाव भी भगवान् में नहीं था. केवल प्रासङ्गिक निन्दा मात्र वंरभाव था । वैरानुबन्ध नहीं था । अतएव तीव्र ध्यानाभाव हेतु हो उसका पाप- वशतः नरक ही हुआ । देवतुल्य स्वभावाक्रान्त व्यक्ति के पक्ष में निज मोक्ष लाभ हेतु भगवान् में वैरभावा- नुष्ठान का साहस करना अनुचित है । अतएव जिस किसी उपायों से श्रीकृष्ण में मनोनिवेश करे । इस प्रकार नारदोक्ति का तात्पर्य यह है कि तादृश बहु प्रयत्न साध्य वैधभक्तिमार्ग द्वारा दीर्घकाल में जिनको प्राप्त किया जा सकता है, रागानुगा मार्ग में भाव विशेष मात्र द्वारा आशु उनको प्राप्त किया जा सकता है, अतएव रागानुगा ही युक्ततम उपाय है ।

(: २४) श्रीनारद - वसुदेव-संवाद का तात्पर्य यह है - भावमार्ग मात्र की बलवत्ता के मध्य में कैमुत्य द्वारा रागानुगा का ही अभिधेयत्व है। अनुरक्तधी भक्तगण, अवश्य ही भगवान् को प्राप्त करते हैं । वैरानुबन्ध द्वारा जिस प्रकार - इस वाक्य के द्वारा वैरानुबन्ध को सर्वापेक्षा आधिक्य है- इस प्रकार अर्थ करना समीचीन नहीं है, जय-विजय की भगवत्प्राप्ति, स्वाभाविक सिद्धत्व हेतु, युद्ध लीला प्रपञ्चन निबन्धन ब्रह्महेलन रूप तदपराध भास भोग के छल से सरम्भयोगाभास विहित हुआ है । कतिपय व्यक्ति द्व ेष दि भाव को भी भक्ति मानते हैं । किन्तु भक्ति से वादि शब्द आनुकूल्य में ही प्रसिद्ध है । वैरभाव में आनुकूल्यात्मक सेव भक्ति का सर्वथा विर धत्व हेतु भक्ति सिद्ध नहीं होता है । अतएव यह मत असत है ।

पद्मपुराण में उक्त है- भक्ति एवं द्व ेषादि का भेद सुस्पष्ट है, भक्ति के द्वारा भगवान् दृष्ट होते हैं । शेष व मात्सय्यं द्वारा भगवान् दृष्ट नहीं होते हैं। तब जो, “असुरवृन्द को भागवत मानता हूँ” इस प्रकार जो उद्धव का उत्कण्ठामय वाक्य है, वह तच्छकोत्कण्ठावशतः केवल दर्शन भाग्यांश में उत्प्रेक्षा होने के कारण युक्तियुक्त है । असुरों में स्वयं भागवतत्व नहीं है । दृष्टान्त यह है- हमारे अन्तिम समय में भगवन्- मुखचन्द्र दर्शन सौभाग्य नहीं है, किन्तु हतभाग्य हम सबकी अपेक्षा भगवन्मुखचन्द्र दर्शनकारी वह भगवद्दर्शन सौभाग्य है, अतः असुरगण भी भ गवत है । अतएव द्वेषादि में कथञ्चित् भी भक्ति नहीं है । असुरवृन्द में

(३२५) मुख्य रागः नुगाभक्ति - श्रीकृष्ण में ही है किसी अंशी वा अंश में नहीं है। कारण गोपीगण

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काम हेतु - एवं दैत्यगण द्वेष हेतु’ प्रथमतः श्रीकृष्ण में ही आविष्ट होते हैं, एवं अवशेष में सिद्धि को प्राप्त करते हैं, अतएव श्रीनारद ने भी कहा है-‘जिस किसी उपायों से श्रीकृष्ण में मनोनिवेश करो’ तादृश आवेश हेतु आशु उपासना होती है, अतः श्रीकृष्ण ने भी एकादश स्कन्ध में स्वयं कहा है- ‘चतुर्भुजाकार में हो वैधीभक्ति करनी चाहिये, मुझ में नहीं’ श्रीगोकुल में शुद्ध राग दर्शन हेतु मुख्यतमा रागानुगा है, गोकुल में श्रीभगवान् स्वयं गोकुलवासियों के पुत्रादि भाव में विलास करते हैं। एक ही स्वेच्छामय भगवान् लोकों के भावानुसार भिन्न भिन्न रूप में एक ही समय में भिन्न भिन्न लोक के द्वारा दुष्ट होते हैं। भक्त कर्तृक निज भोजन-पान - स्नान-वीजनादि लक्षण लाल नेच्छा भी उनमें अकृत्रिम होती है । साधारण भक्ति

साधारण भक्ति सद्भाव को लक्ष्य करके ही ‘पत्र-पुष्प-फल-तोय’ कहा गया है । सखावृन्द के द्वारा श्रीकृष्ण के पादसम्वाहनादि श्रीकृष्ण की आकाङ्क्षा से ही हुए हैं । अतः इस कार्य की प्रशंसा श्रीशुक ने की है । अपर के द्वारा सेवा ग्रहण रूप में वा माधुर्य प्रकाशावस्था में भी ऐश्वय्यं स्फुरण हेतु, उस प्रकार व्यवहार से ऐश्वर्य की हानि नहीं है । कारण, ईश्वर में तद्वारा भक्तेच्छा विधानरूप प्रशंसनीय स्वभाव ही प्रकाशित होता है । जैसे श्रीव्रजेश्वरी कर्तृक ब धनावस्था में भी यमलार्जुन मोचन श्रीकृष्ण किये हैं। तादृश ऐश्वर्य में भी श्रीवजेश्वरी की चश्यता ही श्रीशुक द्वारा प्रशंसित हुई है । अतएव जो लोक आज भी तदीय रागानुगापर हैं, उनके पक्ष में भी श्रीव्रजेन्द्रनन्दनत्वादि मात्र धर्म द्वारा ही उपासना समीचीन है।

श्रीविष्णुपुराण में लिखित है-श्रीगोवर्द्धन धारणोपलक्ष्य में विस्मयान्वित व्रजवासीवृन्द को श्रीकृष्ण निज बन्धुसदृश बुद्धि करने के निमित्त कहे थे । श्रीवसुदेवादि का ज्ञान-ऐश्वर्य्य प्रधान है, अतएव ऐश्वर्य माधुर्य्यद्वय विशिष्टा भक्ति हो भगवदनुमति है । पूर्वजन्म में भी उनकी तपादि प्रधान भक्ति वर्णित है । श्री नन्दयशोदा के समान माधुर्य्यनिष्ठ पुत्र पालन रूप सौभाग्य श्रीवसुदेव देवकी का नहीं है । सुस्पष्ट रूप से इसको कहते हुये श्रीशुकदेव एवं परीक्षित उभय ने ही श्रीनन्दयशोदा का भाव की प्रशंसा की है ।

दर्शनालिङ्गनालापैः’ इत्यादि द्वारा श्रीनारद भी श्रीवसुदेव देवकी को उपलक्ष्य करके साधक के प्रति उसका उपदेश किये हैं। श्रीभगवान् को पुत्र रूप में प्राप्त करके भी एवं भगवान् तादृश भावनावश होने पर भी स्वाभाविक पारमैश्वर्य का आधिक्य हो होता है । अतएव ‘ज्ञात्वाज्ञात्वा’ जानकर वा न जान- कर’ इत्यादि उद्धव के प्रति श्रीभगब्द वाक्य द्वारा ज्ञानाज्ञान का अनादर करके ‘केवल रागानुगा भक्ति का ही अनुष्ठान प्रशस्त है ।’ तज्जन्य श्रीगोकुल में ही रागात्मिका का शुद्धत्व हेतु श्रीगोकुलानुगा रागानुगा भक्ति हो मुख्यतमा

। अन्यत्र असम्भव हेतु रागानुगा का माहात्म्य सुनकर एवं पूर्णभगवत्ता देखकर श्रीकृष्ण भजन का ही महामहा माहात्म्य सिद्ध हुआ । उसमें भी गोकुल लीलात्मक श्रीकृष्ण-भजन ही सर्वोपरि है ।

(३६) श्रीमद्भागवत ग्रन्थ के प्रारम्भ से हो श्रीकृष्ण भजन का माहात्म्य प्रदर्शित हुआ है । अन्यान्य अवतार कथानुशीलन का फल श्रीकृष्ण में अभिनिवेश ही है । भक्ति सुलभा एवं निश्चितफला है, अतएव श्रीकृष्ण स्वरूप में ही भक्ति करना कर्तव्य है ।

(३२७) शुद्ध भक्तगण अभिमानी नहीं होते हैं । कारण, शुद्ध भक्तगण – पुरुषार्थ साधन विषय में श्रीभगवाद के निरुपाधि दीनजन की कृपा को ही साधकतमत्व मानते हैं, किन्तु योगि प्रभृतिवत् स्वप्रयत्न को साधकतमत्व नहीं मानते हैं । (३२८) जो श्रीकृष्ण, ज्ञान योगादि को, परम फलरूप मुक्ति निज द्वेषी दत्यवृन्द को प्रदान करते हैं, एवं जो स्वयं को अनन्य शरण दास का अधीन करते हैं, उन श्रीकृष्ण के प्रति ही भक्ति ही मुख्यभक्ति है ।

(३२९) समस्त जगत् के प्राण कोटि प्रेष्ठ एवं उपकारक श्रीकृष्ण-सेवापरायण भक्त का कुछ भी अभाव नहीं रहता है । श्रीकृष्ण-बाहर गुरु रूप में एवं भीतर में चित्त स्फुरित ध्येयाकार रूप में भक्ति

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विरोधी वासना नाश करके निजानुभव एवं प्रेमसेवा प्रदान करते हैं ।

(३३०) निज भक्ति का अतिशयत्व का वर्णन श्रीकृष्ण स्वयं श्रीउद्धव के निकट किये हैं । कृपा पूर्वक भक्त के स्पर्द्धादि आश विदूरित करने के निमित्त एवं अपने के प्रति अन्तर्मुखी कराने के निमित्त अन्तय्यामी रूप में स्वांश को भजन के परिवर्त में स्वभजन का उपदेश किये हैं । (३३१) अमलाशय व्यक्तिगण - मेरा श्रीकृष्ण रूप को ही समस्त भूतों के भीतर बाहर में असङ्गत्व एवं विभुत्व हेतु आवशवत् पूर्ण रूप में दर्शन करते हैं । सर्वभूत में मेरा अस्तित्व दर्शनकारी व्यक्ति हो पण्डित है ।

(३३२) सर्वभूत में श्रीकृष्णरूप भावनाकारी व्यक्ति का साहङ्कार स्पर्द्धी, असूया एवं तिरस्कार शीघ्र विनष्ट होते हैं । भगवद् दृष्टि साधन में सर्वत्र नमस्कार हो एवं सर्वत्र प्रतिपद में स्वाभाविक नव्यनव्य श्रीकृष्ण स्फूति ही साधनावधि है । श्रीगोपालतापनी में प्रसिद्ध - नराकृति परब्रह्म रूप की सर्वत्र नव्य नव्य श्रीकृष्ण स्फूति ही सर्वोर्ध्व उपासना है । श्रीमद्भागवत में वर्णित है - काय वाक्य मन के द्वारा सर्व भूत में श्रीकृष्ण रूप का अस्तित्व दर्शन करना ही सर्वश्रेष्ठ उपाय वा उपासना है।

(३३३) श्रीगीता में उक्त है- ‘तत्त्वज्ञान गुह्य है, अन्तथ्यमी ज्ञान गुह्यतर है, श्रीकृष्ण मनस्त्वादि लक्षण एवं तदेक शरणत्व लक्षण श्रीकृष्णोपासना ही सर्वगुह्यतम है । श्रीकृष्ण भजन सर्वापेक्षा उत्तम होने के कारण, उनके अवतार का भजन की अपेक्षा भी सुतरां उत्तम है । (३३४) भय से भी श्रीकृष्ण भजन करने से उससे मोक्ष होता है, अतः व्यर्थत्व की सम्भा ना नहीं है । जिस प्रकार कंसादि का । अतएव श्रीमदुद्धववत् श्रीकृष्ण कानुगत व्यक्तियों का साध्यत्व एवं साधनत्व में श्रीकृष्ण रूप ही परमापादेय है । जसे उद्धव के प्रति श्रीकृष्ण वाक्य है- ‘मेरी प्राप्ति हो तुम्हारे पक्ष में चतुर्वर्ग फल लाभ है ।

(३३५) श्रीउद्धव ने भी श्रीभगवच्चरणों में नित्य अञ्चला भावभक्ति की प्राथना की है। (३३६) श्रीकृष्णदास्य ही पुरुषार्थ है । (३३७) श्रीगोकुल लीलात्मक श्रीकृष्ण भजन का माहात्म्यातिशय है । कारण पूतनादि शत्रु को भी धात्पुचित गतिवान रूप परम शुभ स्वभाव अन्यत्र अबतार समूह में अप्रकटित है ।

(३२८) श्रीगोकुल में भी श्रीमद् व्रजबधु के सहित रासादि लोलात्मक श्रीकृष्ण का परमवेशिष्टच वर्णन श्रीशुकदेव ने “विक्रीड़ितं” इत्यादि श्लोकों में किया है। परमप्रेष्ठ श्रीराध सम्बलित लीलामय तद्- भजन ही परमतमरूप में स्वतः सिद्ध है । श्रीराधाकृष्ण रहस्य लोला भजन में अधिकारी निणय - पौरुष विकारवत् इन्द्रिययुक्त व्यक्ति के द्वारा एवं पितृ पुत्र दास भावापन्न व्यक्ति के द्वारा स्वीयभाव विरोध हेतु रहस्य लीला उपास्या नहीं है । लीला का रहस्यत्व कहीं अल्पांश में कहीं सर्वंश में है ।

(३३६) निजानुभूत रहस्य का प्रकाश करना निषिद्ध है। रागानुगा मार्ग में भी श्रीगुरु के प्रसादलब्ध अथवा श्रीभगवान् के प्रसादलब्ध साध्यसाधन गत स्वीय सर्वस्वभूत जो कुछ रहस्य अनुभूत होता है, उसका प्रकाश किसी के निकट करना नहीं चाहिये ।

(३४०) सिद्धिक्रम - प्रत्येक ग्रास में तुष्टि, पुष्टि, क्षुदपायवत् प्रत्येकवार का भजन में किञ्चित् प्रेम, भगवद्रूप की स्फूर्ति एवं कालान्तर में वितृष्ण होती है । अनुवृत्ति द्वारा भजन में बहुग्रास भोजी के परम तुष्टयादिवत् परम प्रेमादि उत्पन्न होते हैं । अभिधेय भक्ति के विषय में अन्य विशेष विशेष शास्त्र एवं महाजन रीति भी अनुसन्धेय है ।

परिशिष्ट (१) परतत्त्व वैमुख्य विरोधी तत्साम्मुख्य ही अभिधेय है । अर्थात् परतत्र विषयक ज्ञानोत्पादक भगवदुपासना ही अभिधेय है । प्रयोजन भगवदनुभव है ।

(२) ज्ञान साधन एवं योगादि द्वारा आंशिक परतत्त्व साम्मुख्य होने पर भी श्रवण कीर्त्तनादि लक्षण साक्षात् भक्ति ही अभिधेय है ।

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(३) साक्षाद् भगवत् साम्मुख्य ही मुख्य अभिधेय होने पर भी प्रायशः सर्वत्र ही प्रथम साधकवृन्द की भगवत् कथा में ही रुचि का उदय होता है । भगवद् भजनान्तर में रुचि की अपेक्षा भगवत् कथा में रुचि ही श्रेष्ठा है । भगवत् कथा में रुचि उत्पन्न होने से क्रमशः स्वतः ही भगवत् स्मरण एवं साम्मुख्य सिद्ध हो सकता है ।

(४) मन्द भाग्ययुक्त मानव को कृष्ण कथा में रुचि लाभ हेतु सुगम उपाय- पुण्यतीर्थ निषेवण द्वारा पाप विदूरित होता है, एवं तीर्थ स्थान में भ्रमण वा अवस्थान हेतु महात्मावृन्द की दर्शन सम्भाषणादि लक्षण सेवा लाभ होती है। उससे तद्धर्म में श्रद्धा, अनन्तर उनसे भगवत् कथा श्रवणेच्छा, फलतः भगवत् कथा में रुचि का उदय होता है। महत् मुख से भगवत् कथा श्रुत होने से सहसा कार्यकरी होती है।

श्री श्रीकृष्णचैतन्यदेव प्रवत्तित भागवतीय भक्तितत्वरस पिपासु व्यक्तिवृन्द के पक्ष में अवश्य अवलोकनीय यह ‘भक्ति सन्दर्भ’ ग्रन्थ है ।

श्रीजीव की वंशवल्ली

श्री सर्वज्ञ (जगद्गुरु कर्णाटक नृपति, १२०३ शक )

अनिरुद्ध (नृपति, १२३८ शक)

हरिहर

पुरुषोत्तम,

जगन्नाथ,

रूपेश्वर

पद्मनाभ (जन्म १३०८ शक

नारायण, मुरारि, मुकुन्ददेव

कुमारदेव

(४) श्रीरूप

(३) श्रीसनातन (१३८६ - १४७६)

( १३६२ - १४७६)

(३) श्रीवल्लभ ( अनुपम )

(१३ε५- १४३७)

श्रीजीव (१४३३ - १५१८ )

  • श्रीहरिदास शास्त्री

नरेन्द्र सरोवर में सपरिकर श्रीमद् भागवती कथा श्रवणरत श्रीश्रीचैतन्य महाप्रभु

प्रवक्ता श्रीलगदाधर पण्डित गोस्वामी ।

(D)

* श्री श्रीगदाधर गौराङ्गौ जयतः *

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