गायत्रीव्याख्याविवृत्तिः

[[गायत्रीव्याख्याविवृत्तिः Source: EB]]

[

[TABLE]

[TABLE]

[TABLE]

❋श्रीश्रीगौरगदाधरौ विजयेताम्❋

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1722446676Screenshot2024-07-31225409.png"/>

श्रीश्रीजीवगोस्वामि प्रणीत विवृति समन्वित “अग्निपुराणान्तर्गता गायत्री व्याख्या" नामक ग्रन्थ प्रकाशित हुआ । इसमें अग्निपुराणीय २१६ अध्यास से उद्धृत केवलमात्र १७ श्लोक की व्याख्या है।

प्रथम श्लोक—

“गायत्युक्थानि शास्त्राणि भर्गं प्राणांस्तथैव च।
ततः स्मृतेयं गायत्री सावित्री यत एव च।
प्रकाशिनी सा सवितु र्वाग्रूपत्वात् सरस्वती”॥१॥

की विवृति में श्रीजीवगोस्वामिचरण उक्थ, भर्ग, प्राण, गायत्री एवं सरस्वती प्रभृति शब्द की निरुक्ति प्रदान किए हैं। इसमें गायत्री के प्रत्येक पद का अर्थ सरल रूप से प्रदर्शित हुआ है।

गायत्रीस्थ ‘भर्ग’ शब्द से स्वप्रकाश ‘ज्योतिः’ विशेष ही वाच्य है।वह ही ‘तत्’ पदवाच्य प्रसिद्ध परमब्रह्म हैं। ‘वरेण्य’ शब्द से सर्वश्रेष्ठ सर्वाश्रय रूप वस्तु है। वह क्या है? सूर्य चन्द्र प्रभृति का भी प्रकाशक अथच स्वयं प्रकाश वस्तु है। जो स्वर्गापवर्ग कामना में सर्वदा वाञ्छित है।

सर्वदा करणीय क्या है? जाग्रत् स्वप्न विवर्जित, तुरीयावस्था व से भी परम वस्तु है। मैं उन वरेण्य भर्गाख्य ज्योतिः का ध्यान करता हूँ।

‘भर्ग’ वस्तु को अवगत कराने के लिए कहते हैं—वह नित्य अर्थात् सर्वथा शुद्ध, जीववत् संसारित्व विहीन है। सर्वदा बोधयुक्त है। एक, किन्तु जीववत् अनेक नहीं ह। ‘अधीश्वर’ सर्वशक्ति युक्त है। ‘अहं’ शब्द ब्रह्म का विशेषण होने से उसका बोध कैसा होता है? देवता अर्थात् “देवभावापन्न न होकर देवाचना न करे” इस नीति के अनुसरण से कहते हैं। मैं परमज्योति ‘ब्रह्म’ हूँ, इससे तादात्म्य—तन्मयत्व भावना प्रदर्शित हुई है।

‘‘ध्यायेमहि" शब्द में बहुवचन प्रयोग का तात्पर्य क्या है? मैं ही केवल स्वप्रकाश ब्रह्म वस्तु का ध्यान करता हूँ, यह नहीं, किन्तु हम सब जीववर्ग उनका ध्यान करते हैं। ध्यान की आवश्यकताक्या है? संसार से मुक्त होकर उनको प्राप्त करना ही एकमात्र तात्पर्य है।

मन्त्रस्थ ‘तत्’ पद की विशेष व्याख्या करते हैं।—‘भर्ग’ पदवाच्य ज्योतिः ही उक्त ब्रह्मवस्तु हैं, वह ही भगवान् विष्णु हैं, जो जगत् के जन्म, स्थिति, लय का कारण हैं।

मन्त्रस्थ ‘प्रणव’ से आरम्भ कर ‘तत्’ पद पर्यन्त ‘धीमहि’ शब्द के सहित अन्वय करना होगा। कारण कार्य्यसे अनन्य होने के कारण स्वयं प्रणवार्थ रूप एवं भू, भुव एवं स्वरादि रूप वह तत्त्व सविता देवता का ‘वरेण्य भर्ग’ है, उनका ध्यान करता हूँ। इस विषय में जिन की विप्रतिपत्ति है, उनको भी निज मत में आकृष्ट कर रहे हैं। उक्त तत्त्व को शिव, शक्ति, सूर्य, अग्नि प्रभृति आख्या से अभिहित करने पर भी वेदादि में किन्तु अग्न्यादि सर्वदेवमय रूप में श्रीविष्णु ही कीर्त्तित हुए हैं। सुतरां विष्णु एवं सविता—कारण एवं कार्य्य होने पर भी तादात्म्य भाव से उभय का अभेद प्रदर्शित हुआ है। वह ‘भर्ग’ वस्तु ‘विष्णु’ विश्वात्मक देवता, सविता का परम-पद—आश्रय हैं। ‘धीमहि’ शब्द का अर्थ धारणा करता हूँ, पोषण करता हूँ।

हमारे अर्थात् निखिल प्राणि समूह के बुद्धि वृत्ति समूह को प्रेरण करें, अर्थात् सूर्य्याग्नि रूपी वह भर्गाख्य विष्णु तेज,—निखिल भोक्ताओं को दृष्टादृष्ट समस्त कर्मफल भोग करने के निमित्त प्रेरणा प्रदान करे।

प्रेरणा प्रदान का हेतु क्या है?—पूर्वोक्त विष्णुरूप ईश्वर के द्वारा प्रेरित होकर ही जीवनिचय स्वर्ग एवं नरक गमन करते हैं। उक्त वार्त्ता का समर्थन अपर श्रुति के द्वारा करते हैं,— महत्तत्त्व से आरम्भ कर परिदृश्यमान समस्त जगत् उक्त ईश्वर स्वरूप विष्णु कर्त्तृके व्याप्त हैं। वह ही श्रीहरि हैं। ‘हरि’ शब्द से किसका बोध होता है? कारण—आप स्वर्ग, महः, जन, तप प्रभृति लोक में नित्य देव (विहार परायण) हैं। आप ही हंस-परमात्मा, आप ही पुरुष-पद वाच्य हैं।

उन देवता की वरेण्यत्वपराकाष्ठा दर्शाने कें निमित्त कहते हैं. “ध्येयः सदा सवितृमण्डलवर्ती नारायणः”, प्रभृति में उद्दिष्ट ध्यान से उक्त पुरुष ही सूर्य-मण्डल में द्रष्टव्य है।

आशङ्का हो सकती हैं कि—ईशितव्य—ऐश्वर्य्यस्थान स्वरूप सूर्यमण्डल का नाश होने से पुरुष का भी ऐश्वर्य नाश अनिवार्य होगा? उत्तर में कहते हैं— विष्णु का जो महावैकुण्ठ लक्षण परमपद (धाम), वह सत्य है।कालत्रय में ध्वंस रहित है। सदाशिव—‘अर्थात् तापत्रय विहीन है,एवं वृहत्त्व—वृंहणत्व वर्द्धिष्णुता भी है, तज्जन्य जिनको ब्रह्म कहते हैं। तद्रूप ही है—अर्थात् धामतत्त्व,—विष्णुतत्त्व समत्रिकाल सत्य एवं सदानन्दमय है।

पुनर्बार आशङ्का हो सकती है कि—सविता के अन्तर्य्यामी पुरुष से महावैकुण्ठस्थित नारायण पृथक् है, आप नित्य हैं, सवितृ मण्डलवर्त्ती अन्तर्यामी पुरुष कैसे नित्य होगा? उत्तर में कहते हैं—द्योतमान, सविता के मध्यवर्ती जो देवता ‘ध्येयः सदा सवितृमण्डलवर्त्ती’ इत्यादि ध्यान में निर्दिष्ट है, आप भी वरेण्य हैं। तुरीय, समष्टिगत, जाग्रत, स्वप्नातीत, समाधिगम्य जो ‘भर्ग’ संज्ञक सर्वाश्रय वस्तु, तद्रूप ही हैं, अर्थात् वैकुण्ठ तथा नारायण से अभिन्न स्वरूप हैं।किन्तु महा–प्रलय में महावैकुण्ठ में ही महा-नारायण के सहित एकीभूत (मिलित) होकर अवस्थित होते हैं।

जो जनमण्डली को शुभकर्मादि में नित्य सर्वकर्मादि में नित्य सर्वोत्कर्ष के सहित प्रवर्तित करते हैं। वह आदित्य पुरुष ही मैं हूँ। यह उक्ति ब्रह्मसाम्य में ‘अहं ग्रहोपासनारूप’ त्रिपद गायत्री की अजपा नामक ध्येय वस्तु के सम्बन्ध में ही हुई है। सारार्थ यह है—हमसब सवितृमण्डल मध्यवर्ती उन प्रसिद्ध वरणीय भगख्यि देवता का ध्यान करते हैं–आप हमारी बुद्धिवृत्ति को परिचालन प्रकृष्ट रूप से करें।

स्मार्त्त भट्टाचार्य्यं श्रीरघुनन्दन के मत में—‘भर्ग’ शब्द का तात्पर्य यह है–आदित्यान्तर्गत तेजोविशेष, मुमुक्षुगण–जन्ममृत्यु, आध्यात्मिकादि तापत्रय विनाश के निमित्त ध्यान योग से उपासना करके सूर्य्यमण्डल में उक्त पुरुष को देखते हैं।

सम्प्रति विचार्य्ययह है कि,—सूर्य्यमण्डल मध्यवर्ती पुरुष कौन है? उत्तर में कहते हैं,—सूर्य्यार्घदान मन्त्र में—‘विष्णु तेजसे’, गीता में—‘आदित्य मण्डल में मेरा तेज विद्यमान है’, एवं पञ्चरात्र में—‘ज्योति के मध्य में—द्विभुज श्यामसुन्दररूप’ इत्यादि प्रमाण के अनुसार एवं नारायण के ध्यान में —‘पद्मासने आसीन, अथवा पद्मगदायुक्त’, सवितृमण्डल मध्यवर्त्ती नारायण का ध्यान करना पड़ता है। आप कनककुण्डल, केयूर किरीट, हारयुक्त हैं, शङ्खचक्रधारी होने पर भी यह शरीर हिरण्यमय वर्णं का है।

यहाँ पर स्पष्टतः ही प्रतिपन्न होता है कि—‘भर्ग’ शब्द से सूर्य्यमण्डलवासी नारायण का बोध होता है, किन्तु नारायण का वपु, हिरण्यमय कब से हुआ? मुण्डकोपनिषद् में उक्त है—‘यदा पश्यःपश्यते रुक्मवर्णं’, इस प्रमाण से ही कहते हैं—जो रुक्मवर्णधारी, जन्म-स्थिति-लय का एकमात्र कर्त्ता हैं, सर्वपुरुषार्थदाता, नरवेश से ब्राह्मण वंश में उत्पन्न हैं। उक्त महापुरुष के मन्त्र में दीक्षित होनेसे ही लोक संसार मुक्त होते हैं, एवं आध्यात्मिकादि तापत्रय उन्मूलित होते हैं, उस समय वे लोक साधन क्रम से परमाशान्तिरूप भक्ति लाभ कर कृतार्थ हेते हैं।

अतएव गायत्री मन्त्र के द्वारा जो व्यक्ति उपासना करते हैं, वे सब ही अज्ञातसार से श्रीगौराङ्ग की ही उपासना करते हैं। तज्जन्य ही उक्त है—

गायत्री दीक्षितो यो हि स एव विष्णुदीक्षितः।
इतर पापकृद् विप्रो भ्रष्टाचारः स उच्यते॥

याज्ञवल्क्य ने भी कहते हैं—

सन्ध्या उपासिता येन तेन विष्णुरुपासितः।
दीर्घमायुः स लभते भक्तिं मुक्तिञ्च विन्दति॥

देवीपुराणोक्त देवीनिरुक्ति में वर्णित है—

गायनाद् गमनाद्वापि गायत्री त्रिदशार्चिता।
साधना सिद्धिरित्युक्ता साधका वाथ ईश्वरी॥

सातु त्रिपादाक्षरच्छन्दोयुक्तमन्त्रात्मिका वेदमाताद्विजैरुपास्या। तस्या नाम व्युत्पतिर्यथा—गायन्तं त्रायते यस्मात् गायत्री त्वं ततः स्मृता, इति स्मृतिः ।

**सन्ध्या विधि—**सन्ध्या की उपासना करने से श्रीविष्णु की उपासना होती है, गायत्री एवं सन्ध्या एक वस्तु है। दशवार करने से एकदिन कृत पाप विनष्ट होता है। गायत्री जप अष्टोत्तरशत जप से दिवारात्र कृत पाप, सहस्र जप से अज्ञानकृत पाप विनष्ट होता है। दिवस एवं रजनी के सन्धिक्षण में अर्थात् सूर्य्य उदित एवं अस्त होने के पहले सन्ध्यानुष्ठान करे। आत्मविद्द्विज प्रतिदिन तीनवार सन्ध्यानुष्ठान करें।

आकाश में नक्षत्रावस्थान के समय प्रातः सन्ध्यानुष्ठान विहित है। सूर्य्यमस्तकोपरि अवस्थित होने से मध्याह्न सन्ध्या, एवं सूर्य्य अस्त गमनोन्मुख होने से सायं सन्ध्यानुति होती है।

**स्नान निर्णय—**गङ्गातीर, जलाशय के तटदेश सन्ध्यानुमान का प्रशस्त स्थान है। असम्भव पक्ष में मन्दिर, वासगृह के उन्मुक्त स्थान, पुण्यतीर्थ, गोष्ठ अथवा शुद्ध क्षेत्र में सन्ध्यानुष्ठान करें।

**निषिद्ध दिवस प्रभृति—**संक्रान्ति पूर्णिमा, अमावस्या द्वादशी, श्राद्धवासर में सायं सन्ध्या निषिद्ध है. केवल दशवार गायत्री जप से सन्ध्या अनुष्ठित होती है, जनना-शौच, मरणा-शौच में सन्ध्या निषिद्ध है। उक्त दिवस में साध्यानुरूप गायत्री जप करे। तान्त्रिकी सन्ध्या निषिद्ध नहीं है। सन्ध्या समय उत्तीर्ण होनेसे द्विजाति दशवार गायत्री पाठ पूर्वक प्रायश्चित्त करें।

सन्ध्यानुष्टान के समय मौन–धारण आवश्यक है,—दैवात् वाक्योच्चारणादि निषिद्धाचरण होने से श्रीविष्णु स्मरण पूर्वक निज दक्षिण कर्ण स्पर्श करें।

दैवात् एकदिन सन्ध्या अनुष्ठित न होनेसे प्रायश्चित्त स्वरूप उपवास, यथाशक्ति गायत्री जप एवं ब्राह्मण भोजन करावे।

प्रातः सन्ध्या पूर्वमुख में, मध्याह्न सन्ध्या पूर्व अथवा उत्तर मुख में, एवं वायुकोणाभिमुख में उपवेशन करके सायं सन्ध्या करें।

साम–वेदीय सन्ध्या प्रयोग—उपनीत सामवेदी ब्राह्मण शुद्धासन में उपवेशन पूर्वक दो बार आचमन एवं श्रीविष्णु स्मरण, जलशुद्धि, आसनशुद्धि करके आपो मार्जन करें।

विष्णु-स्मरण—ॐ विष्णुः ॐ विष्णुः ॐ विष्णुः ॐ तद्विष्णुः परमं पदं सदापश्यन्ति सूरयः दिवीव चक्षुराततम्।

आपोमर्जिन—निम्नोक्त मन्त्र पाठपूर्वक निज मस्तक में जलार्पण करें। ॐ शन्न आपो धन्वन्याः शमनः सन्तु नूप्याः। शन्नः समुद्रिया आपः शन्नः सन्तु कूप्याः।

** ॐ द्रूपदादिव मुमुचानः स्विन्नः स्नातो मलादिव। पूतं पवित्रेणेवाज्यमापशुद्धन्तु मैनसः।**

** ॐ आपो हि ष्ठा मयो भुवस्ता न ऊर्ज्जेदधातनः। महेरणाय चक्षसे।**

** ॐ यो बः कतमे रसस्तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः।**

** ॐ तस्मा अरङ्गमाम वो, यस्य क्षयाय जिन्वथ। आपो जनयथा च नः॥**

** ॐ ऋतश्च सत्यञ्चाभीद्धात्तपसो अध्यजायत। ततो रात्र्यजायत, ततः समुद्रो अर्णवः, समुदार्णवादधिसंवत्सरो अजायत। अहो रात्राणि विदधद् विश्वस्य मिषतो वशी। सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथा पूर्वमकल्पयत् दिवञ्च पृथिवीञ्चान्तरीक्षमथो स्वः॥**

[केवल प्रातः सन्ध्या के समय निम्नोक्त मन्त्र पाठ करे।]

ॐ नत्वातु पुण्डरीकाक्षमुपात्ताघप्रशान्तये।
ब्रह्म वर्चस कामार्थं प्रातःसन्ध्यामुपास्महे॥

प्राणायाम—“पुरक, कुम्भक, रेचक” तीन प्रकार प्रक्रिया को प्राणायाम कहते हैं। दक्षिण हस्त कीवृद्धाङ्गुष्ठके द्वारा दक्षिण नासा बन्ध करके वाम नासा के द्वारा धीरे धीरे श्वास ग्रहण करने कानाम पूरक है।

दक्षिण नासा बन्ध करके अनामिका कनिष्ठा के द्वारा वाम नासिका बन्ध करने का नाम कुम्भक है।

दक्षिण नासिका से अङ्गुष्ठ उठाकर धीरे धीरे श्वास त्याग करने का नाम रेचक है।

अपने को चारों ओर से जल के द्वारा वेष्टन करके—ॐकारस्य ब्रह्म ऋषि गायत्री च्छन्दोऽग्निर्देवता सर्वकर्म्मारम्भे विनियोगः। सप्त व्याहृतीनां प्रजापति र्ऋषि गयित्र्युष्णिगनुष्टुव बृहती पङ्क्ति त्रिष्टुव् जगत्यश्छन्दांसि अग्नि–वायु-सूर्य-वरण,–बृहस्पतीन्द्र-विश्वदेवा-देवताः प्राणायामे विनियोगः। ॐ गायत्र्या विश्वामित्र ऋषिर्गायत्री-च्छन्दः सविता देवता प्राणायामे विनियोगः। ॐ गायत्री शिरसः प्रजापति र्ऋषि गायत्रीछन्दो ब्रह्म वाय्वग्नि—सूर्य्याचितस्रो देवताः प्राणायामे विनियोगः।

[अनन्तर पूरक करते करते मन ही मन में इस मन्त्र का पाठ करे।]

यथा—नाभौ ॐ रक्तवर्णं चतुर्मुखं द्विभुजं अक्षसूत्र कमण्डलुकरं हंसासन समारूढं ब्रह्माणं ध्यायन्। ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः, ॐ महः ॐ जनः ॐ तपः, ॐ सत्यम् ॐ तत् सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि, धियो यो नः प्रचोदयात् ॐ। ॐ आपोज्योति रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरोम्।

अनन्तर दक्षिण नासिका बन्द करके ही कनिष्ठा अनामिका के द्वारा वाम नासिका बन्द कर कुम्भक करते करते मन ही मन निम्नोक्त मन्त्र पाठ करे ।

यथा (हृदि)— ॐ नीलोत्पलदलप्रभं चतुर्भुजं शङ्खचक्रगदापद्महस्तं गरुड़ारुढं केशवं ध्यायत्। ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः, ॐ महः ॐ जनः ॐ तपः, ॐ सत्यम् ॐ तत् सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। ॐ आपो ज्योतीरसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरोम्।

[अनन्तर धीरे धीरे वायुनिःसारण पूर्वक रेचन करते करते मनसा निम्नोक्त मन्त्र पाठ करे ]

यथा (ललाटे)—ॐ श्वेतं द्विभुजं त्रिशूलडमरुकरं अर्द्धचन्द्र विभूषितं त्रिनेत्रं वृषभारूढं शम्भुं ध्यायन्। ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः, ॐ महः ॐ जनः ॐ तपः, ॐ सत्यम् ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भगोदेवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ॐ। ॐ आपो ज्योतीरसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरोम्॥

**आचमन—**दक्षिण हस्त को गोकर्णाकृति करके भाषमग्न जल ग्रहण पूर्वक निम्नलिखित मन्त्र पाठ करके ३ वार जल पान करे। आचमन के पश्चात् ओष्ठमार्जन भी पूर्वोक्त विधि के अनुसार करे।

प्रातः सन्ध्या का आचमन मन्त्र—सूर्य्यश्चमेति मन्त्रस्य ब्रह्मऋषिः प्रकृतिश्छन्द आपो देवता, आचमने विनियोगः। ॐ सूर्य्यश्च मा मन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्यः पापेभ्यो रक्षान्तां।यद्रात्रा पापमकार्षं मनसा वाचा हस्ताभ्यां पद्भ्यामुदरेण शिश्ना अहस्तदवलुग्पतु, यत् किञ्चिद् दुरितं मयि। इदमाहमापो अमृतयोमौसूर्य्येज्योतिषि परमात्मनि जुहोमि स्वाहा।

** मध्याह्न सन्ध्या का आचमन मन्त्र—आपः पुनन्त्विति मन्त्रस्य विष्णु र्ऋषिरनुष्टुप्च्छन्द आपो देवता आचमने विनियोगः। ओं आप पुनन्तु पृथिवीं, पृथ्वी पूता पुनातु माम्। पुनन्तु ब्रह्मणस्पति र्ब्रह्म पूता पुनातु माम्। यदुच्छिष्टमभोज्यञ्च यद् वा दुश्चरितं मम। सर्वं पुनन्तु मामापो असताञ्च प्रतिग्रहं स्वाहा।**

** सायं सन्ध्या का आचमन मन्त्र—अग्निश्चमेति मन्त्रस्य रुद्रऋशिःप्रकृतिश्छन्दआपो देवता आचमने विनियोगः। ॐ अग्निश्च मा मन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्यः पापेभ्यो रक्षन्ताम्। यदह्ना पापसकार्षं मनसा वाचा हस्ताभ्यां पद्भ्यामुदरेण शिश्ना रात्रिस्तदबलुम्पतु, यत् किञ्चिद् दुरितं मयि इदमहमायो अमृतयोनौ सत्येज्योतिषि परमात्मनि जुहोमि स्वाहा।**

पुनर्मार्जन जल में गायत्री जप करके ऋष्यादि सहित निम्नोक्त मन्त्र से पुनमर्जिन करे, अर्थात् मस्तक में तीन बार छींटा दें।

ॐ भूर्भुवः स्वः तत् सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ॐ। आपो हि ष्ठेति ऋक् त्रयस्य सिन्धुद्वीप ऋषि गायत्रीच्छन्द आपो देवता मार्जने विनियोगः।

ॐ आपो हि ष्टा मयो भुवस्ता न ऊर्ज्जेदधातन। महे रणाय चक्षसे। ॐ यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः। ॐ तस्मा अरङ्गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ आपो जनयथा च नः।

अघमर्षण—अनन्तर एकगण्डूष जल ग्रहण करके नासिकाग्र में धर कर तीनबार असमर्थ पक्ष में एकबार आघ्राण कर श्वास-रोधपूर्वक निम्नोक्त मन्त्र पाठ करे। पूरक श्वास के द्वारा देह मध्य में प्रविष्ट होकर रेचक श्वास के द्वारा देहाभ्यन्तरस्थ पाप समूह भस्मीभूत हुए हैं. इस प्रकार चिन्ता करके उक्त भस्म के सहित जल का निक्षेप वामभागस्थ भूमि में करे। मन्त्र यथा—ऋतमित्यस्याघमर्षण ऋषिरनुष्टुप् छन्दो भाववृत्तोदेवता अश्वमेधावभूते विनियोगः।

ॐ ऋतञ्च सत्यञ्चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत ततो रात्र्यजायत, ततः समुद्रो अर्णवः। समुद्रादर्णवादधिसंवत्सरो अजायता अहोरात्राणि विदधद् विश्वस्य मिषतोवशी। सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथा पूर्वमकल्पयद्दिवञ्च पृथिवीञ्चान्तरीक्षमतो स्वः।

**जलाञ्जलि—**पश्चात् हाथ धोकर सूर्य्याभिमुख में तीनबार गायत्री पाठ करके तीन अञ्जलि जल प्रदान करे। मध्याह्न में एकबार गायत्री पाठ करके एक अञ्जलिमात्र जल प्रदान करे।

सूर्य्योपस्थान—पश्चात् उभय पद से अथवा एकपद से खड़ा होकर सूर्य्य के ओर मुख करके निम्नोक्त मन्त्र पाठ करे। प्रातः सन्ध्या एवं सायं सन्ध्या में कृताञ्जलि होकर मध्याह्न सन्ध्या में ऊर्ध्व बाहु होकर उक्त मन्त्र पाठ करे।

उद्युत्यमित्यस्य प्रस्कन्नऋषि र्गायत्रीच्छन्दः सूर्य्योदेवता सूर्य्योपस्थानेविनियोगः। ॐ उद्युतां जात वेधसं, देवं वहन्ति केतवः। दृशे विश्वाय सूर्य्यम्।

चित्रमित्यस्य कौत्स ऋषिस्त्रिष्टुप्च्छन्दः सूर्य्यो देवता सूर्य्योपस्थाने विनियोगः। ॐ चित्रं देवानामुदगादनीकं, चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः आप्राद्यावा पृथिवी अन्तरिक्षं सूर्य्य आत्मा जगतस्तस्थूषश्च।

पश्चात् निम्नोक्त मन्त्रपाठ करके एक एक अञ्जलि जल प्रदान करे।

ॐ नमो ब्रह्मणे, ॐ नमो ब्राह्मणेभ्यः, ॐ नमो आचार्य्येभ्यः, ॐ नमः ऋषिभ्यः, ॐ नमो देवेभ्यः, ॐ नमो बेदेभ्यः, ॐ नमो वायवे, ॐ नमो मृत्यवे, ॐ नमो विष्णवे, ॐ नमो वैश्रवणाय, ॐ नमो उपजाय।

**अङ्गन्यास—**दक्षिण हस्त की तर्जनी, मध्यमा, अनामिका के अग्रभाग के द्वारा ‘ॐ हृदयाय नमः’ उच्चारण करके हृदय स्पर्श करे। मध्यमा तर्जनी के अग्रभाग के द्वारा ‘ॐ भूः शिरसि स्वाहा’, मन्त्र पाठ पूर्वक मस्तक स्पर्श करे। वृद्धाङ्गुष्ठ के अग्रभाग के द्वारा ‘ॐ भुवः शिखायै वषट्’ मन्त्र से शिखास्पर्श करे। दक्षिण एवं वाम कर की पञ्चाङ्गुलि के अग्रभाग के द्वारा ‘ॐ स्वः कवचाय हुँ’ मन्त्र से यथाक्रम से बाहुद्वय का स्पर्श करे। ॐ भूर्भुवः स्वः नेत्रद्वयाय वौषट्’ मन्त्र से तर्जनी अनामिका के अग्रभाग के द्वारा चक्षु स्पर्श करे। ‘ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ॐ करतल पृष्ठाभ्यां अस्त्राय फट्’ पाठ करके वाँया तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, एकत्र करके वाम करतल में ताली देवे। उक्त आचरण तीन बार असमर्थ पक्ष में एकवार करे। पश्चात्—

गायत्री का आवाहन—कृताञ्जलि पूर्वक आवाहन मन्त्र पाठ करे। विश्वामित्र ऋषिर्गायत्री छन्दः, सविता देवता जपोपनयने विनियोगः। ॐ आयाहि वरदे देवि! त्र्यक्षरे! ब्रह्मवादिनि! गायत्रीच्छन्दसां मात र्ब्रह्मयोनि नमोऽस्तुते।

गायत्री का ध्यान— प्रातः सन्ध्या में—

ॐ कुमारीं ऋग्वेदतां ब्रह्मरूपां विचिन्तयेत्।
हंसस्थितां कुशहस्तां सूर्य्यमण्डल संस्थितान्॥

मध्याह्न में—

ॐ मध्याह्ने विष्णुरूपाञ्च तार्क्ष्यस्थां पीठवाससीम्।
युवतीञ्च यजुर्वेदां सूर्य्यमण्डल संस्थितान्॥

सायाह्न में—

ॐ सायाह्ने विश्वरूपाञ्च वृद्धां वृषभवाहिनीम्।
सूर्यमण्डलमध्यस्थां सामवेदसमायुताम्॥

गायत्री जप एवं नियम—

गायत्री जप के प्रारम्भ में गायत्री हृदय पाठ करना होता है।

ॐ भूर्भुवः स्वः तत् सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ॐ। दश बार मन्त्र जप करे। प्रातः सन्ध्या के समय हृदय के सन्धिस्थल में वाम हस्त स्थापन करके उसके अपर दक्षिण हस्त स्थापन करे। जप के बाद एवं पूर्व में गायत्री कवच एवं गायत्री का शापोद्धार पाठ करे।

गायत्री विसर्जन—जप करने के पश्चात् निम्नोक्त मन्त्र पाठ करके एक अञ्जलि जल प्रदान कर विसर्जन करे।

ॐ महेशवदनोत्पन्ना विष्णो र्हृदय सम्भवा।
ब्रह्मणा समनुज्ञाता गच्छ देवि! यथेच्छ्या॥

अनन्तर अनेन जपेन भगवन्तावादित्यशुक्रौ प्रीयेताम्। ॐ आदित्यशुक्राभ्यां नमः" इस मन्त्र से एक अञ्जलि जल प्रदान करे।

**आत्मरक्षा—**दक्षिण कर्ण स्पर्श करके पाठ करे।

जातवेदस इत्यस्य काश्यप ऋषिस्त्रिष्टुप छन्दोऽग्निर्देवता आत्मरक्षायां जपे विनियोगः। ॐ जातवेदसे सुनवाम सोममरातीयतो निदहाति वेदः, स नः परिषदति दुर्गानि विश्वा, नावेव सिन्धुं दुरितात्यग्निः। पाठ के पश्चात् चारों ओर दक्षिणावर्त्तं क्रम से जल के द्वारा अपने को वेष्टन करे।

**रुद्रोपस्थान—**कृताञ्जलि होकर निम्नोक्त विरूपाक्ष मन्त्र जप एवं प्रणाम करे। ऋतमित्यस्य कालाग्निरुद्र ऋषिरनुष्टुप्छन्दो रुद्रो देवता रुद्रोपस्थाने विनियोगः।

** ॐ ऋतं सत्यं परं ब्रह्म पुरुषं कृष्णपिङ्गलम्। ऊर्ध्वलिङ्ग विरूपाक्षं विश्वरूपं नमो नमः।**

निम्नलिखित मन्त्र पाठ पूर्वक प्रत्येक को जल प्रदान करे।

ॐ ब्रह्मणे नमः, ॐ विष्णवे नमः, ॐ रद्राय नमः, ॐ वरुणाय नमः।

** सूर्यार्घ्यदान एवं प्रणाम मन्त्र—ॐ नमो विवस्वते ब्रह्मन् भास्वते विष्णुतेजसे जगत् सवित्रे शुचये सवित्रे कर्मदायिने।**

इदमर्ध्यं ॐ श्री सूर्य्याय नमः।
ॐ जवाकुसुम सङ्काशं काश्यपेयं महाद्युतिम्।

ध्वान्तारिं सर्वपापघ्नं प्रणतोऽस्मि दिवाकरम्।
ॐ नमो भगवते श्रीसूर्य्याय नमः।

ॐ नमः सवित्रे जगदेक चक्षुषे जगत् प्रसूति स्थिति नाश हेतवे।
त्रयीमयायत्रिगुणात्मधारिणे विरिञ्चिनारायणशङ्करात्मने॥

पश्चात् सन्ध्यादि कार्य्य की न्यूनता परिहार हेतु एक गण्डूष जल ग्रहणपूर्वक निम्नोक्त मन्त्र पाठपूर्वक गायत्रीदेवी को प्रदान करे।

ॐ यदक्षरं परिभ्रष्टं मात्राहीनञ्च यद्भवेत्।
पूर्णं भवतु तत्सर्वं तत्प्रसादात् सुरेश्वरी॥

आचमन के पश्चात् ब्रह्म-यज्ञानुकल्पवेद चतुष्टय के आदि मन्त्र चतुष्टय का उच्चारण करे। किन्तु प्रातःसन्ध्या एवं सायं–सन्ध्या में पाठ न करे। कतिपय व्यक्ति तीन सन्ध्या में ही पाठ करते हैं।

गायत्री पाठ के बाद,—

मधु छन्द ऋषि र्गायत्री छन्द अग्निर्देवता ब्रह्मयज्ञ जपे विनियोगः। ॐ अग्निमीलेपुरोहितंयज्ञस्यदेवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्।

** (१) याज्ञवल्कयऋषि र्वायु र्देवता ब्रह्म यज्ञजपे विनियोगः। ॐ इषे त्वा त्वोर्जेत्वा वायवस्थ। देवो वः सविता प्रार्पयतु।श्रेष्ठतमाय कर्मणे।**

** (२) गौतमऋषि र्गायत्री छन्दोऽग्निर्देवता ब्रह्मयज्ञजपे विनियोगः। ॐ अग्न आयाहि वीतये गुणानो हव्यदातये। निहोता सत्सि वर्हिषि।**

** (३) पिप्पलादऋषिर्गायत्री छन्दो वरुणो देवता ब्रह्मयज्ञजपे विनियोगः। ॐ शन्नोदेवीरभीष्टये शन्नोभवन्तु पीतये शं योरभि त्रवन्तु नः।**

इति सामवेदीयसन्ध्याविधि समाप्त ।

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1722517754Screenshot2024-08-01183749.png"/>

यजुर्वेदीयसन्ध्याविधि

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1722517818Screenshot2024-08-01183916.png"/>

आचमन—ॐ विष्णुः ॐ विष्णुः ॐ विष्णुः ॐ तद् विष्णोः… इत्यादि मन्त्र पाठपूर्वक दो बार आचमन करके विष्णु स्मरण करे

पश्चात्—

ॐ गङ्गे! च यमुने! चैव गोदावरि! सरस्वति!
नर्मदे! सिन्धु! कावेरि! जलेऽस्मिन सन्निधि कुरु॥

मन्त्र से जलशुद्धि करके निज मस्तक में जल का छींटा प्रदान करे।

**मार्जन—**निम्नोक्त मन्त्र पाठ पूर्वक एकबार मस्तक में जल का छीँटा दें।

शन्न आपो धन्वन्याः शमनः सन्तु नूप्याः
शन्नः समुद्रिया आपः शमनः सन्तु कूप्यां।

ॐ द्रुपदादिव मुमुचानः खिन्नः स्नातो मलादिव
पूतं पवित्रेणेवाज्यमापः शुद्धन्तु मैनसः।

ॐ आपो हि ष्ठा मयो भुवस्ता न ऊर्ज्जेदधातन।

महेरणाय चक्षसे।

ॐ यो वः शिवतमोरसस्तस्य भाजयतेऽह नः।

उशतीरिबमातरः।

ॐ तस्मा अरङ्ग माम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ।

आपो जनयथा च नः।

ॐ ऋर्तञ्च सत्यञ्च अभिद्धात्तपसोऽध्य जायत।
ततो रात्र्यजायत, ततः समुद्रो अर्णवः।

समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत।
अहोरात्राणि विदधद् विश्वस्य मिशतो वशी।

ॐ सूर्य्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्।
दिवञ्च पृथिवीञ्चान्तरिक्षमथो स्वः॥

इसके बाद प्रातः सन्ध्या में कृताञ्जलि होकर निम्नोक्त मन्त्र पाठ करे।

ॐ नत्वा तु पुण्डरीकाक्षमुपात्ताघ प्रशान्तये
ब्रह्मवर्च्चसकामार्थं प्रातः सन्ध्यामुपास्महे।

प्राणायाम—ॐकारस्य ब्रह्मऋषिर्गायत्रीच्छन्दोऽग्निर्देवता सर्वाकर्मारम्भे बिनिरोगः। ॐ सप्तव्याहुतीनां प्रजापति ऋषिगायत्र्युष्णिगनुष्टुव् वृहतीपङ्क्ति त्रिष्टुव् जगत्यश्छन्दांसिरग्नि-वायु-सूर्य-वरुण-वृहस्पतीन्द्रविश्वदेवा देवताः प्राणायामे विनियोगः।

पाठ करके निजमस्तक के चतुर्दिक को दक्षिणावर्त्त रूप से जल द्वारा वेष्टन करे। अनन्तर वाम नासिका के द्वारा वायु आकर्षण

पूर्वक मनसा—ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः, ॐ महः ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यं। ॐ तत् सवितु र्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। ॐ आपो ज्योतीरसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरोम्।

** नाभौ रक्तवर्णं चतुर्मुखं द्विभुजम् अक्षसूत्रकमण्डलुधरं हंसारूढं ब्रह्माणं ध्यायन्।** कुम्भक करके पाठ करे।

ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः, महः ॐ जनः ॐ तपः, ॐ सत्यं ॐ तत् सवितु र्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। ॐ आपो ज्योतिरसोऽमृतं ब्रह्म भू र्भुवः स्वरोम्। हृदि नीलोत्पलदलप्रभं चतुर्भुजं शङ्खचक्रगदापद्मधरं गरुडारूढं विष्णुं ध्यायन्। तत् पश्चात् पूर्वकी भाँति रेचक करे एवं पाठ करे—ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः, ॐ महः ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यं। ॐ तत्सवितु र्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो नः प्रचोदयात्। ललाट में—श्वेतं द्विभुजं त्रिशूलडमरुकरं अर्द्धचन्द्रविभूषितं त्रिनेत्रं वृषभारूढं शम्भुं ध्यायन्। जप करे ।

**आचमन—**गोकर्णाकृति दक्षिण हस्त में माषमग्न परिमित जल ग्रहण पूर्वक निम्नोक्त मन्त्र पाठ कर आचमन करे, अर्थात् तीन बार मन्त्र पढ़ कर तीन बार जल पान करे।

** प्रातः सन्ध्या का आचमन मन्त्र—ॐ सूर्य्यश्च मा मन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्यः पापेभ्यो रक्षन्ताम्। यद्रात्रा पापकार्षं मनसा वाचा हस्ताभ्यां पद्भ्यां उदरेण शिश्ना।रात्रिस्तदवलुम्पतु यत्किञ्चित् दुरितं मयि। इदमहमापोऽमृतयोनौ सूर्य्ये ज्योतिषि परमात्मनि जुहोमि स्वाहा।**

** मध्याह्न सन्ध्या का आचमन मन्त्र—**

** ॐ आपः पुनन्तु पृथिवीं पृथ्वी पूता पुनातु माम्, पुनन्तु ब्रह्मणस्पति र्ब्रह्मपूता पुनातु माम्, यदुच्छिष्टमभोज्यञ्च यद् वा दुश्चरितं मम। सर्वं पुनन्तु मामापोऽसताञ्च प्रतिग्रहं स्वाहा।**

** सायं सन्ध्या का आचमन मन्त्र—**

** ॐ अग्निश्च मा मन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्यः पापेभ्योरक्षन्तान्, यदाह्ना पापमकार्षं मनसा वाचा हस्ताभ्यां पद्म्यामुदरेण शिश्ना अहस्तादवलुम्प यत्किञ्चिद् दुरितं मयि इदमहमापो हममृतयोनौसत्ये ज्योतिषि परमात्मनि जुहोमि स्वाहा।** पश्चात् आचमन विहित स्थान का स्पर्श करना होता है।

**पुनर्मार्जन—**निम्नोक्त मन्त्र पाठ पूर्वक निज मस्तक में भूमि में ऊर्ध्व में एक एक बार जल का छीँटा दें।

ॐ आपो हि ष्ठा मयोभुवस्तान ऊर्जे दधातन। महेरणाय चक्षसे, ॐ यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयते ह नः। उशतीरिव मातरः। ॐ तस्मा अरङ्गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ। आपो जनयथा च नः।

**अघमर्षण—**दक्षिण हस्त गोकर्णाकृति करके जल गण्डूष ग्रहण के पश्चात् नासिका के अग्रभाग में धरकर देह के समस्त पाप निःश्वास के सहित निर्गत होकर जल में मिले हैं, इस प्रकार चिन्ता करके स्वीय वाम भागस्थ भूमि में निक्षेप करे, उक्ताचरण तीन बार करे। मन्त्र— ॐ ऋतञ्च सत्यञ्चाभीद्धात्तपसो अध्यजायत, ततो रात्र्यजायत, ततः समुदो अर्णवः। ॐ समुद्रार्णवादधि संवत्सरो अजायत। अहोरात्राणि विदधद् विश्वस्यमिषतो वशी। ॐ सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयेद्दिवञ्च पृथिवीञ्चान्तरिक्षमथो स्वः।

**जलाञ्जलिदान—**अनन्तर सूर्य्याभिमुख में निम्नलिखित मन्त्रपाठ करके तीन अञ्जलि जल प्रदान करे। ॐ भू र्भुवः स्वः तत् सवितु र्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। प्रातः सन्ध्या, मध्याह्न सन्ध्या एवं सायं सन्ध्या में ही बार त्रय पठनीय हैं।

तत् पश्चात् सूर्य्योपस्थान—

प्रातःसन्ध्या एवं सायं सन्ध्या में एक पैर पर खड़े होकर अथवा उपवेशन करके ही कृताञ्जलि होकर एवं मध्याह्न वेला में ऊर्ध्वबाहु होकर सूर्य्योपस्थान करे।

ॐ उदुत्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः। दृशेविश्वाय सूर्य्यम्। ॐ चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः।आप्राद्यावापृथिवी अन्तरिक्षं सूर्य्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च। ॐ तच्चक्षु र्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत् पश्येम शरदः शतं जीवेमशरदः शतम्, शृणुयामशरदः शतं। ॐ तेजोऽसि शुक्रमस्यमृतमसि धामनामासि प्रियन्देवानमनधृष्टं देवयजनमसि। पश्चात् कृताञ्जलि होकर गायत्री का आवाहन करे।

गायत्री का आवाहन—ॐ आयाहि वरदे देवि, त्र्यक्षरे ब्रह्मवादिनि। गायत्री छन्दसां मात ब्रह्मयोनि नमोऽस्तुते।

अङ्गन्यास—‘ॐ हृदयाय नमः’ कह कर दक्षिण हस्त की तर्जनी मध्यमा अनामिका के द्वारा हृदय को स्पर्श करे। ‘भूः शिरसि स्वाहा’ तर्जनी मध्यमा के द्वारा मस्तक स्पर्श करे। ‘भुवः शिखायै वषट्’ अङ्गुष्ठ द्वारा शिखा स्पर्श करे। ‘स्वः कवचाय हुँ’ वाम हस्त से दक्षिण बाहु दक्षिण हस्त से वाम बाहु का स्पर्श करें। ‘ॐ भू र्भवः स्वःनेत्रत्रयाय वौषट्’ दक्षिण, वाम ललाट का स्पर्श तर्ज्जनी मध्यमा अनामिका के द्वारा करे। ‘ॐ भू र्भुवः स्वः करतल पृष्ठाभ्यां अस्त्राय फट्’ कह कर उभय हस्त के करतल द्वय में आघात करे। पश्चात् वाम हस्ततल में त्रिकोणमण्डल अङ्कन करके कूर्ममुद्रा के सहित ध्यान करे।

प्रातः सन्ध्या का ध्यान— ॐ प्रातर्गायत्री रविमण्डल मध्यस्थां रक्तवर्णां अक्षसूत्र कमण्डलुधरां कुमारींहंसारूढां ब्रह्माणो ब्रह्मदैवत्यां ऋग्वेदादाहृता ध्येया।

मध्याह्न सन्ध्या का ध्यान—ॐ मध्याह्ने सावित्रीरविमण्डल मध्यस्थां कृष्णवर्णां चतुर्भुजां शङ्खचक्रगदापद्मधरां वैष्णवीविष्णु दैवत्यां यजुर्वेदोदाहृता ध्येया।

सायाह्न सन्ध्या का ध्यान—ॐ सायाह्ने सरस्वती रविमण्डल मध्यस्थां, शुक्लवर्णां द्विभुजां त्रिशूल डमरुकरां वृषभारूढां रुद्राणी रुद्रदैवत्यां सामवेदोदाहृता ध्येया। इस प्रकार ध्यान करके वाम हस्त से मस्तक स्पर्श करके पश्चात् गायत्री जप करे।

गायत्री जप का विधान सामवेदीय सन्ध्या में द्रष्टव्य।

** गायत्री विसर्जन—**

ॐ उत्तरे शिखरे देवी भूम्यं पर्वत वासिनी।
ब्रह्मणा समनुज्ञाता गच्छदेवि यथासुखम्॥

कहकर एक गण्डूष जल फेंके। पश्चात् निम्नोक्त मन्त्र पाठ करके सूर्य्यार्घ्य प्रदान करे।

सूर्य्यार्घ्य—

ॐ नमो विवस्वते ब्रह्मन् भास्वते विष्णु तेजसे।
जगत् सवित्रे शुचये सवित्रे कर्मदायिने॥

‘एषोऽर्घ्यःॐ श्रीसूर्य्याय नमः’ कहकर सूर्य्य को उद्देश्य करके अर्घ्य प्रदान करे।

सूर्य्य प्रणाम—

ॐ जवाकुसुम शङ्काशं काश्यपेयं महाद्युतिम्।
ध्वान्तारिं सर्वपापघ्नं प्रणतोऽस्मि दिवाकरम्॥

ॐ नमः सवित्रे जगदेक चक्षुसे,
जगत् प्रसूतिस्थितिनाशहेतवे।

त्रयोमयाय त्रिगुणात्मधारिणे—
विरिञ्चिनारायण शङ्करात्मने॥

मन्त्र पाठ करने के बाद सूर्य को प्रणाम करे एवं वेदादि मन्त्र चतुष्टय का पाठ करे। यथा—ॐ आकृष्णेन रजसा वर्षभानो निवेशयन्नमृतं मर्त्त्यञ्च हिरण्मयेन सविता रथेनादेवो याति भुवनानि पश्यन्।ॐ इषेत्वोर्जेत्वा वायवः स्थदेवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठ तमायकर्मणे। ॐ अग्निमीड़े पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् होतारं रत्नधातमम्। ॐ अग्न आयर्हिवीतये गुणानो हव्यदातये निहोता सत्सि वर्हिषि। ॐ शन्नो देवीरभीष्टये आपो भवन्तु पीतये शं योरभिश्रवन्तु नः।

बाद में वैगुण्य का समाधान करे।

इति यजुर्बेदीयसन्ध्याविधि समाप्त।

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1722517977Screenshot2024-08-01184147.png"/>

ऋग्वेदीयसन्ध्याविधि

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1722518225Screenshot2024-08-01184513.png"/>

श्रीविष्णु स्मरण पूर्वक आचमन प्रणालीके अनुसार दो–बार आचमन करके निम्नोक्त मन्त्र पाठ करे। एवं प्रत्येक बार निज मस्तक में जल का छिँटा दें।

** आपोमार्जन—**

ॐ शन्नआपो धन्वन्याः शमनः सन्त्वनूप्याः।
शन्नः समुद्रिया आपः शमनः सन्तु कूप्यां॥

ॐ द्रुपदादिव सुमुचानः खिन्नः स्नातो मलादिव,
पूतं पवित्रेणेवाज्यमापः शुद्धन्तु मैनसः।

ॐ आयो हि ष्टा मयो भुवस्ता न ऊर्ज्जेदधातन।

महेरणाय चक्षसे।

ॐ योः वः शिवतमोरसस्तस्य भाजयतेऽह नः।

उशतीरिव मातरः।

ॐ तस्मा अरङ्ग माम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ।

आपो जनयथा च नः।

ॐ ऋतञ्च सत्यञ्चाभीद्धात्तपसोऽध्य जायत।
ततो रात्र्यजायत, ततः समुद्रो अर्णवः।

ॐ समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत।
अहोरात्राणि विदधद् विश्वस्य मिशतो वशी।

ॐ सूर्य्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्।
दिवञ्च पृथिवीञ्चान्तरिक्षमथो स्वः॥

**प्राणायाम—**स्वीय मस्तक के चतुर्दिक को दक्षिणावर्त्त क्रमसे जल द्वारा न करके करबद्ध होकर निम्नलिखित मन्त्र पाठ करे।

ॐकारस्य ब्रह्मऋषिरग्निर्देवता गायत्रीच्छन्दः सर्वकर्मारम्भे विनियोगः। सप्तव्याहृतीनां विश्वामित्रजमदग्नि भरद्वाज गौतमात्रि वशिषु कश्यपा ऋषयः अग्निवाय्वादित्य बृहस्पति वरुणेन्द्र विश्वदेवादेवताः। गायत्र्युष्णिगनुष्टुव बृहती पङ्क्ति त्रिष्टुव् जगत्यय़श्छन्दांसि प्राणायामे विनियोगः। गायत्र्या विश्वामित्रऋषिः, सविता देवता, गायत्रीच्छन्दः प्राणायामे विनियोगः। गायत्रीशिरसः प्रजापतिर्ऋषि र्ब्रह्मवाय्वग्निसूर्य्याश्चतस्रो देवता गायत्रीच्छन्दः प्राणायामे विनियोगः।

अनन्तर वृद्धाङ्गुष्ठ के द्वारा दक्षिण नासा बन्ध करके वाम नासिका से श्वास ग्रहण करे, एवं निम्नोक्त मन्त्र पाठ पूर्वक नाभिदेश में ब्रह्मा का ध्यान करते करते पूरक करे।

ॐ हंसरूपं द्विभुजं रक्तं साक्षसूत्र कमण्डलुम्। चतुर्म्मुखमहं वन्दे ब्रह्माणं नाभिमण्डले।

** ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः, ॐ महः ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यं। ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। ॐ आपोज्योतीरसोमृतं ब्रह्म भू र्भुवः स्वरोम्।**

पश्चात् अनामिका कनिष्ठा अङ्गुलि के द्वारा वाम नासिका बन्ध करके निम्नोक्त मन्त्र से श्रीविष्णु ध्यान के सहित कुम्भक करे।

ॐ शङ्खचक्रगदापद्मधरं गरुड़ वाहनम्।
हृदि नीलोत्पलश्यामं विष्णुं वन्दे चतुर्भुजम्॥

ॐ भूः र्भुवः ॐ स्वः ॐ महः ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यं।ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। ॐ आपो ज्योतिरसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरोम्।

पश्चात् दक्षिण नासिका से वृद्धाङ्गुष्ठ अपसारित करके पूर्व गृहीत श्वास परित्याग करे, श्वास त्याग धीरे धीरे करे एवं निम्नोक्त मन्त्र से मस्तक में शिव का ध्यान करके रेचक करे।

ॐ श्वेतं त्रिशूल डमरुकरं अर्द्धचन्द्रविभूषितम्।
त्रिलोचनं व्याघ्रचर्म्म परिधानं वृषवाहनम्।
ललाटे चिन्तयेत् शम्भुं देवं भुजग भूषणम्॥

** भूः ॐ भुवः ॐ स्वः, ॐ महः ॐ जनः ॐ तपः, ॐ सत्यं।ॐ तत् सवितु र्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। ॐ आपो ज्योतीरसोऽमृतं ब्रह्म भू र्भुवः स्वरोम्।**

** प्रातः सन्ध्या का आचमन मन्त्र—**दक्षिण हस्त को गो-कर्णाकृति करके आचमन विहित जल ग्रहण पूर्वक मन्त्र पाठ के सहित तीनबार जलपान करे।

सूर्य्यश्चेत्यनुवाक्यस्य याज्ञिक उपनिषदृषिः सूर्य्यमन्यु मन्युपति रात्रयोर्देवताः सूर्य्यश्चेत्यारभ्यरक्षन्तामित्यन्तस्य चतुर्विंशत्यक्षरा गायत्री,यद्रात्र्येत्यारभ्य मयीत्यन्तस्य पञ्चपदा पङ्क्ति, इदमाहमित्यारभ्य स्वाहेत्यन्तस्य दशाक्षरपादाभ्यामुदेता विराट् छन्दो मन्त्राचमने विनियोगः। ॐ सूर्य्यश्च मा मन्युश्च मन्युपतयश्च, मन्युकृतेभ्यः पापेभ्यो रक्षन्ताम् यद्रात्र्यापापमकार्षम् मनसा वाचा हस्ताभ्यां पद्भ्यामुदरेण शिश्नारात्रिस्तदवलुम्पतु यत् किञ्चिद्दुरितं मयि इदमहमापोऽमृतयोनौ सूर्य्येज्योतिषि परमात्मनि जुहोमि स्वाहा।

** मध्याह्न सन्ध्या का आचमन मन्त्र—**

** आपः पुनन्त्वित्यनुवाक्यस्य नारायणऋषिरापो देवताI अष्टिश्छन्दो मन्त्राचमने विनियोगः। ॐ आपः पुनन्तु पृथिवींपृथ्वी पूता पुनातु माम्। पुनन्तु ब्रह्मणस्पति र्ब्रह्म पूता पुनातु माम्। यदुच्छिष्टमभोज्यञ्च यद्वा दुश्चरितं मम। सर्वं पुनन्तु मामापोऽसताञ्चप्रतिग्रहं स्वाहा।**

** सायाह्न आचमन मन्त्र—**

** अग्निश्चेत्यनुवाक्यस्य याज्ञिक उपनिषदृषि रग्निमन्यु मन्युपत्यहानि देवताअग्निश्चेत्यारम्य रक्षन्तामित्यन्तस्य चतुर्विंशत्यक्षरा गायत्री, यदह्नेत्यारभ्य मयीत्यन्तस्य पञ्चपदा पङ्क्तिः, इदमहमित्यारभ्य स्वाहेत्यन्तस्य दशाक्षरपादाभ्यामुपेता विराट्छन्दो मन्त्राचमने विनियोगः।**

** ॐ अग्निश्च मामन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्यः रक्षन्ताम् यदह्ना पापमकार्षं मनसावाचा हस्ताभ्यां पद्मचामुदरेण शिश्ना अहस्तदवलुम्पतु यत्किञ्चिद्दुरितं मयि इदमहमापोऽमृतयोनौ सत्ये ज्योतिषिपरमात्मनि जुहोमि स्वाहा।**कहकर तीनवार जल पान करके आचमन विहित स्थान को स्पर्श कर मार्जन करे।

पुनर्मार्जन—निम्नोक्त मन्त्र समूह का पाठ करके मस्तक में जल का छिँटा दें।

ॐ भू र्भुवः स्वः तत् सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ॐ। आपो हि ष्ठेति नवर्च्चस्य सूक्तस्याम्बरीषः सिन्धुद्वीप ऋषिरापो देवता आद्यानां चतसृणां गायत्री पञ्चम्या बर्द्धमाना सप्तम्याः प्रतिष्ठा अन्ययोरनुष्टुप्च्छन्दो मार्जने विनियोगः।

** ॐ आपो हि ष्ठा मयो भुवस्ता न ऊर्ज्जेदधातन। महे रणाय चक्षसे। ॐ यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः। ॐ तस्मा अरङ्गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ आपो जनयथा च नः।**

** ॐ शन्नोदेवीरभीष्टय आपो भवन्तु पीतये।शं यो रभिस्रवन्तु नः। ॐ ईशाना वार्य्यानां क्षयन्तीश्चर्षणीनाम् आपो याचामिभेषजम्। ॐ आप्सु में सोमऽब्रीबीदन्त र्विश्वानि भेषजा अग्निञ्च विश्वशम्भुवं। ॐ आपः पृणीत भेषजं वरूथं तन्वे मम। ज्योक् च सूर्य्यं दृशे। ॐ इदमापः प्रवह, यत्किञ्चित् दुरितं मयि। यद्वाहमभिदुद्रोह यद् वा शेष उतानृतम्। ॐ आपो अद्यान्वचारिषं रसेन समगन्महि पयस्वानग्न आहि तस्मा संसृज वर्चसा।**

उक्त मन्त्र समूह का पाठ एक एक बार करे।

**अघमर्षण—**दक्षिण हस्त गोकर्णाकृति करके एक गण्डूष जल ग्रहण पूर्वक नासाग्र में धारण कर चिन्ता करे। शरीर के मध्य में जो पाप पुरुष व्याप्त होकर है,— इस मन्त्र के प्रभाव से वह पापपुरुष देह से निर्गत होकर हस्तस्थित जल में निपतित हुआ। पश्चात् निम्नोक्त मन्त्र उच्चारण पूर्वक कल्पित शिला के ऊपर जल निक्षेप करे। इस प्रकार प्रत्येक सन्ध्या में ही मन्त्रोच्चारण पूर्वक तीन बार अघमर्षण करना पड़ता है।मन्त्र—

ऋत़ञ्चेति त्रक्त्रयस्य माधुच्छन्दसाघमर्षण ऋषि भविवृत्तोदेवता, अनुष्टुप्च्छन्दोऽश्वमेधावभृथे विनियोगः।

ॐ ऋतञ्चसत्यञ्चाभीद्धात्तपसो अध्यजायत,
ततो रात्र्यजायत, ततः समुद्रो अर्णवः।

ॐ समुद्रार्णवादधि संवत्सरो अजायत।
अहोरात्राणि विदधद् विश्वस्यमिषतो वशी।

ॐ सूर्य्याचन्द्रमसौ धाता, यथापूर्वमकल्पयद्
दिवञ्च पृथिवीञ्चान्तरिक्षमथो स्वः।

**द्रुपदेत्यस्य प्रजापतिर्ऋषिरापोदेवता अनुष्टुप्च्छन्दःसौत्रामण्यवमृथे विनियोगः। ॐ द्रुपदादिव मुमुचानः स्विन्नः स्नातो मलादिव। पूतं पवित्रेणेवाज्यमापः शुन्धन्तु मैनसः।**बाद में हाथ धोकर आचमन करे।

प्रातः सन्ध्या में जलाञ्जलिदान—

**ॐकारस्य ब्रह्म ऋषिरग्निर्देवता गायत्रीच्छदोमहाव्याहृतीनां परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः प्रजापतिर्देवता वृहतीच्छन्दः। गायत्र्या विश्वामित्रऋषिः सविता देवता गायत्रीच्छन्दःसूर्य्यजलाञ्जलिदाने विनियोगः। ॐ भू र्भुवः स्वः तत्सवितु र्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।**गायत्री मन्त्र तीन बार पाठ करके बाद में तीन बार सूर्य्याभिमुख में जलाञ्जलि निक्षेप करे।

मध्याह्न सन्ध्या में जलाञ्जलिदान—

आकृष्णेनेत्यस्य हिरण्यऋषिः सवितादेवता त्रिष्टुप्च्छन्दः सूर्य्यजलाञ्जलिदाने विनियोगः। ॐ आकृष्णेन रजसा वर्त्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्त्यञ्च। हिरण्मयेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्। तीन बार अथवा एकवार पाठ कर सूर्य्याभिमुख में तीन अथवा एकबार जलाञ्जलि निक्षेप करे।

प्रातः सन्ध्या में सूर्योपस्थान—

‘ॐ असावादित्य ब्रह्म’ कहकर प्रदक्षिण के सहित एक अञ्जलि जल निक्षेप करे

** प्रातःकाल में सूर्य्योपस्थान—**एक पैर से खड़े होकर अथवा बैठ कर हाथ को चित् करके सूर्य्योपस्थान करे। यथा—

ॐ चित्रं देवानामिति षड़ ऋचस्य सूक्तस्य कुत्स ऋषिः सूर्य्योदेवता त्रिष्टुप्च्छन्दः सूर्य्योपस्थाने विनियोगः। ॐ चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः। आप्राद्यावा पृथिवी अन्तरिक्षं सूर्य्य आत्मा जगतस्तस्थूषश्च।

** ॐ सूर्य्यो देवी मूषसं रोचमानां मर्य्योन योषामभ्येति पश्चात्। यत्रा नरो देवयन्तो युगानि, वितन्वते प्रतिभद्राय भद्रम्।ॐ भद्रा अश्वा हरितः सूर्य्यस्य, चित्रा एतग्वा अनुमाद्यासः। नमस्यन्तोदिव पृष्ठस् स्थूः परिद्यावा पृथिवी यन्ति सद्यः।**

** ॐ तत् सूर्य्यस्य देवत्वं तन्महित्वं मध्या कर्तोर्विततं सञ्जभार। यदेतद् युक्त हरितः सधस्थादाद्रात्रीवासस्तनुते सिमस्मै।ॐ तन्मित्रस्य वरणस्याभिचक्षे, सूर्य्योरूपं कृणुते दोरुपस्थे।**

** अनन्तमन्यद्रुशदस्य पाजः कृष्णमन्यद्धरितः संभवन्ति। ॐ अद्या देवा उदिता सूर्य्यस्य, निरंहसः पितृता निरवद्यात्। तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत दौः॥**

** मध्याह्न में सूर्य्योपस्थान—**

** उदुत्यमिति त्रयोदशर्च्चस्य सूक्तस्यकाण्व प्रस्कण्ण ऋषिः सूर्य्योदेवता आद्यानं नवानां गायत्री अन्त्यानां चतसृणां अनुष्टुप्च्छन्दःसूर्य्योपस्थाने विनियोगः।**

** ॐ उदुत्यं जात वेधसं, देवं वहन्ति केतवः। दृशे विश्वाय सूर्य्यम्। ॐ अपत्ये तायवो यथा, नक्षत्रा यन्त्यक्तभिः, सुराय विश्वचक्षसे॥**

** ॐ अदृश्रमस्य केतवो, विरश्मयो जना अनुभ्राजन्तो अग्नयो यथा। ॐ तरणि र्विश्वदर्शता, ज्योतिष्कृदसि सूर्य्य, विश्वमा भासि रोचनम्। ॐ प्रत्यङ् देवानां विशः, प्रत्यङ्ङ्देषिमानुषान्, प्रत्यङ् विश्वं स्वदृशे।**

ॐ येना पावक चक्षुषाभूरण्यन्तं जना अणु, त्वं वरुण पश्यसि। ॐ विद्यामेषि रजस्पृथ्यहामिमानो अक्तुभिः, पश्यन्जन्मभिः सूर्य्य।

** ॐ सप्तत्वा हरितो रथे, वहन्ति देवसूर्य्य, शोचिष्केशं विचक्षण॥ॐ अयुक्त सप्तशुन्ध्युर्कः सुरोरथस्य ताभिर्याति स्वयुक्तिभिः।**

** ॐ उद्वयं तमसस्परि ज्योतिष्यपश्यन्त उत्तरं देवं देवत्रा सूर्य्यमगन्त ज्योतिरुत्तमम्। ॐ उद्यन्नद्य मित्रमह, आरोहन्नुत्तरांदिवं, हृद्रोगं मम सूर्य्यहरिमाणञ्च नाशय॥**

** ॐ शुकेषु मे हरिमाणं रोपणाकासु दध्मसि, अथो हारिद्रवेषु मे, हरिमाणं निदध्मसि॥**

** ॐ उदगादयमादित्यो, विश्वेन सहसा सह, द्विषन्तं मह्यं रन्धयन्, अहं द्विक्षते रधम्॥**

** सायाह्न में सूर्य्योपस्थान—**

** मोषु वरुणेति पञ्चर्च्चस्य वशिष्ठ ऋषि र्वरुणो देवता गायत्रीच्छन्दःसूर्य्योपस्थाने विनियोगः।**

** ॐ मोषुबरुण मृण्मयं, गृहं राजन्नहं गमंमृड़ा सुक्षत्रमृड़य। ॐ यदेमि प्रस्फुरन्निव दृति र्न ध्मातो अद्रिवः मृड़ा सुक्षत्र मृडय।**

** ॐ क्रत्वः समहदीनता, प्रतींजगमा शुचे, मृड़ा सुक्षत्र मृड़य।**

** ॐक्रत्वःसमहदीनता, प्रतींजगमा शुचे, मृड़ा सुक्षत्र मृड़य।**

ॐ अपां मध्ये तस्थिवांस, वृक्षाविद ज्जरितारं, मृड़ा सुक्षत्र मृड़य।

** ॐ यत्किञ्चेदं वरुण दैव्ये जनेऽभिद्रोहं मनुष्याश्चरामसि, अचित्तीयत्तव धर्म्मायुरोपिस मा न स्तस्मादेनसो देवरीरिषः।**

**अङ्गन्यास—**निम्नलिखित रीति से तीन बार अथवा एकबार अङ्गन्यास करे। ‘ॐ हृदयाय नमः’ मन्त्र से अङ्गुली द्वारा हृदय, ‘ॐ भूः शिरसे स्वाहा’ मन्त्र से मस्तक, ‘ॐ भुवः शिखायै वषट्’ मन्त्र से शिखा, ‘ॐ स्वः कवचाय हुँ’ मन्त्र से बाहु, ‘ॐ भूर्भुवः स्वः नेत्रत्रयाय वौषट्’ मन्त्र से नेत्र, ‘ॐ भूर्भुवः स्वः अस्त्राय फट्’ मन्त्र से करतल एवं ‘ॐ तत् सवितु र्हृदयाय नमः’ मन्त्र से पुनः हृदय, इस प्रकार ‘वरेण्यं शिरसे स्वाहा, भर्गो देवस्य शिखायै वषट्, धीमहिकवचाय हुँ, धियो यो नः नेत्रत्रयाय वौषट्, प्रचोदयात् ॐ अस्त्राय फट्’ मन्त्र से करतल स्पर्श करे। पश्चात् गायत्री ध्यान करे।

** गायत्री प्रातर्ध्यान—**

** ॐ बालां बालादित्य मण्डलस्थां रक्तवर्णां रक्ताम्बरानुलेपन स्रगाभरणां चतुर्मुखीं दण्डकमण्डल्वक्षसूत्राभयाङ्कचतुर्भुज हंसारूढां ब्रह्मदैवत्यां ऋग्वेदमुदाहरन्तीं भूर्लोकाधिष्ठात्रीं गायत्रीं नाम तां ध्यायेत्॥**

** मध्याह्नध्यान—**

** ॐ युवतीं युवादित्य मण्डलस्थां श्वेतवर्णां श्वेताम्बरानुलेपन स्रगाभरणां सत्रिनेत्र पञ्चवक्त्रां चन्द्रशेखरां त्रिशूलखड्ग स्वट्वाङ्ग डमरुकरां चतुर्भुजां वृषारूढां रुद्रदैवत्यां यजुर्वेद मुदाहरन्तीं भुवर्लोकाधिष्ठात्रीं सावित्रीं नाम तां ध्यायेत्।**

** सायाह्न ध्यान—**

ॐ वृद्धां वृद्धादित्यमण्डलस्थां श्यामवर्णांश्यामाम्बरानुलेपन स्रागाभरणां एक वक्त्रां शङ्खचक्रगदापद्माङ्कचतुर्भुजां गरुडारुढां विष्णुदैवत्यां सामवेदमुदाहरन्तीं स्वर्लोकाधिष्टात्रींसरस्वतीं नाम तां ध्यायेत्।

** गायत्री का आवाहन**—कृताञ्जलि पूर्वक मन्त्र पाठ करके आवाहन करना होता है।

ॐ आयातु वरदा देवी अक्षरं ब्रह्मसम्मितम्।
गायत्री छन्दसां माता इदं ब्रह्म जुषस्व नः॥

ॐ अजोऽसि, सहोऽसि, बलमसि, भ्राजोऽसि, देवानां धामनामासि, विश्वमसि, विश्वमायु, सर्वमसि सर्वयुः अभिभूरोम्। गायत्रीमावाहयामि। ॐ आगच्छ वरदे देवि! जप्ये मे सन्निधा भव। गायन्तं त्रायते यस्माद्गायत्री त्वमतः स्मृता।

** ऋष्यादि स्मरण एवं गायत्री जप—**

निम्नोक्त मन्त्रसे गायत्री स्मरण पूर्वक गायत्री जप करे।गायत्री मन्त्र का उल्लेख सामवेदीय सन्ध्या प्रकरण में है ।

ॐकारस्य ब्रह्मऋषिः प्रजापतिर्देवता गायत्रीच्छन्दो महाव्याहृतीनां परमेष्ठी प्रजापति र्ऋषिः प्रजापतिर्देवता वृहतीच्छन्दो गायत्र्या विश्वामित्रऋषिः सविता देवता गायत्रीच्छन्दः, श्वेतवर्णः अग्निर्मुखं, ब्रह्मा शिरोविष्णु र्हृदयं, रुद्रो ललाटं, पृथिवी कुक्षि स्त्रैलोक्यं चरणाः साख्यायनो गोत्रं, अशेषपापक्षयाय जपे विनियोगः।

उक्त मन्त्र पाठ करने के अनन्तर गायत्री जप करे।

उपस्थान अथवा आत्मरक्षा—

करबद्ध होकर निम्नोक्त मन्त्र पाठ करे। यथा—

ॐ जातवेदस इत्यस्य काश्यपऋषिजीतवेदोऽग्निदेवता त्रिष्टुप्छन्दोःशान्त्यर्थं जपे विनियोगः। ॐ जातवेदसे सुनवाम सोममरातीयती निदहातिवेदः, स नः परिषदति दुर्गाणि विश्वा, नावेव सिन्धुं दुरितात्यग्निः, तच्छं योरित्यस्य शंयु र्ऋषि र्विश्वेदेवा देवताशर्करच्छन्दः शान्त्यर्थं जपे विनियोगः। ॐ तच्छं योरावृणीमहे। जगतीच्छन्दः शान्त्यर्थं जपे विनियोगः। ब्रह्मणे इत्यस्य प्रजापतिर्ऋषि र्विश्वेदेवा देवता जगतीच्छन्दः शान्त्यर्थं जपे विनियोगः। ॐ नमो ब्रह्मणे, ॐ नमो अस्त्वग्नये नमः।

अनन्तर दिक् समूह को नमस्कार करे। यथा—

ॐ पूर्वादिदिग्भ्यो नमः, ॐ दिगीशेभ्यो नमः, ॐ सन्ध्यायै नमः, ॐ गायत्र्यै नमः, ॐ सावित्र्यै नमः, ॐ सरस्वत्यै नमः, ॐ सर्वेदेवेभ्यो नमः, ॐ सर्वाभ्यो देवोभ्यो नमः,—मन्त्र से प्रणाम करके एक गण्डूष जल लेकर गायत्री विसर्जन करे।

गायत्री विसर्जन—

ॐ उत्तरे शिखरे देवि! भूम्यां पर्वत मूर्द्धनि।
ब्राह्मणेभ्योभ्यनुज्ञाता गच्छदेवि यथा सुखम्।

**ब्रह्मयज्ञ—**अनन्तर सामवेदीय सन्ध्योक्त रीति से ब्रह्मयज्ञ करे। केवल चतुर्थ मन्त्र के ‘शन्नोभवन्तु’ के स्थल में ‘आपभवन्तु’ उच्चारण करे।

**सूर्य्यार्घ्य—**अनन्तर ‘ॐ नमो ब्रह्मणे’ कह कर प्रदक्षिण कस्के एक अर्घ्य हाथ में लेकर अथवा सामान्य जल लेकर निम्नोक्त मन्त्र पाठ पूर्वक सूर्योद्देश्य में अर्पण करे।

इदमर्घ्यॐ नमो विवस्वते ब्रह्मन् भास्वते विष्णु तेजसे जगत् सवित्रे कर्मदायिने ॐ श्रीसूर्य्याय नमः। ॐ एहि सूर्य्य सहस्रांशो तेजोराशे जगत्पते। अनुकम्पय मां भक्तं गृहाणार्थं दिवाकर।ॐ श्रीसूर्य्यायनमः।

ॐ जवाकुसुम शङ्काशं काश्यपेयं महाद्युतिम्।
ध्वान्तारि सर्वपापघ्नं प्रणतोऽस्मि दिवाकरम्॥

पश्चात् निम्नलिखित मन्त्र से देवता एवं ब्राह्मणवृन्द को प्रणाम करे।

ॐ आ सत्यलोकादपातालादालोकपर्वतात्।
ये सन्ति ब्राह्मणा देवास्तेभ्यो नित्यं नमो नमः॥

पश्चात् आचमन करे। श्रीशिवपूजन आवश्यक होने पर प्रातः सन्ध्या समापन पूर्वक पूजन करे, उक्त रूप में मध्याह्न सन्ध्या एवं सायं सन्ध्या का अनुष्ठान यथासमय में करे।

इति ऋग्वेदीय सन्ध्याविधि समाप्त।

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1722446853Screenshot2024-07-31225715.png"/>

ज्ञातव्य-

जातवेदस इत्येतज्जपेत् स्वस्त्ययनं पथि।
भयं विमुच्यते सर्वैः स्वस्तिमान् प्राप्नुयात् गृहम्।

व्युष्टायाञ्चतथा रात्र्यांप्रातर्दुःस्वप्रदर्शने।
चित्रमित्युपतिष्ठेत त्रिसन्ध्यं भास्करं तथा।

समित्पाणि नरो धनायुषी।
उद्युत्यमिति वादित्यमुपतिष्ठेद्दिने दिने।

क्षिपेञ्जलाञ्जलीन् सप्त मनोदुःखविनाशने।

‘जात वेदसे’ मन्त्र जप कर यात्रा करने से पथ में भय उपस्थित नहीं होता है। रात में दुःस्वप्न दर्शन होने पर प्रत्यूष में ‘चित्रंदेवानां’

पाठ करे। जो व्यक्ति समिध्ग्रहण पूर्वक त्रिसन्ध्या में उक्त मन्त्र उच्चारण करता है, उसकी धन, आयुः वृद्धि होती है।

** ‘उद्युत्यं जातवेदसं’** इत्यादि मन्त्र का पाठ सात बार करके प्रतिदिन सप्त अञ्जलि जल सूर्य्योद्देश्य में प्रदान करने से मनोदुःख विनष्ट होता है।

**ब्रह्मयज्ञ—**वेदचतुष्टय के आदि मन्त्र पाठ करे। सम्भवस्थल में गायत्री जप के पूर्व गायत्री शापोद्धार पाठ करना एवं गायत्री जप के पश्चात् गायत्री कवच पाठ करना कर्त्तव्य है।

ऋग्वेदी एवं यजुर्वेदी ब्राह्मणगण यदि नित्य तर्पण करते हैं, तब प्रथम ब्रह्मयज्ञ करके पश्चात् तर्पण एवं सूर्य्यार्घ्य प्रदान करें।

गायत्री कवच—(गायत्री जप के बाद पाठ्य है।)

अस्य गायत्री कवचस्य ब्रह्मविष्णुमहेश्वरा ऋषयः ऋग्यजुः सामाथर्वाणि छन्दांसि परब्रह्मरूपिणी श्रीगायत्रीदेवता प्रणवो वीजं भर्गः शक्तिः धियः कीलकं मम नित्यानन्वैश्वर्य्य सौख्य द्वारा ब्रह्मभावनासिद्ध्यर्थेपाठे विनियोगः।

ॐ तत्कारः पातु मुर्द्धानं सकारः पातुभालकम्।
चक्षुषो में विकारस्तु श्रोत्रे रक्षेत्तुकारकः।

नासापुटेवकारस्तु रेकारश्च कपोलकौ।
निकार ओष्ठदेशे तु अधरे यं प्रकल्पयेत्।

आस्य मध्ये भकारस्तु गोकारश्चिवुकं तथा।
देकारः कष्ठदेशे तु व-कारः स्कन्धदेशतः।

स्यकारो दक्षिणं हस्तं धीकारो बामहस्तकम्।
मकारोहृदयं रक्षेद् हिकारो जठरं तथा।

धिकारी नाभिदेशे तु योकारस्तु कटिं मम।
गुह्यं रक्षतु योकार ऊरू रक्षेन्नकारकः।

प्रकारो जानुनी रक्षेज्जङ्घेचोकारकस्तथा।
गुल्फौ रक्षेद्दकारस्तु यात्कारः पातु पादकौ।

इत्येतत् कथितं गुह्यं बाधाशतनिवारणम्।
जपारम्भे च हृदयं जपान्ते कवचं पठेत्।

स्त्री-गो-ब्रह्मवधेयस्य पठित्वा क्षीण पातकः।
मुच्यते सर्वपापेभ्यो ब्रह्मलोके महीयते।

इति गायत्री कवचं समाप्तम्। ॐ तत् सत् ॐ॥

मतान्तर में—

ॐ गायत्री पूर्वतः पातु सावित्री पातु दक्षिणे।
ब्रह्मसन्ध्या तु मे पश्चादुत्तरे तु सरस्वती।

पावकी ने दिशं पातु पावकी जलशायिनी।
यातुधानी दिशं रक्षेत् यातुधानी भयङ्करी।

पायमानी दिशं रक्षेत् पापानाञ्च विनाशिनी।
दिशं रौद्री सदापातु रुद्राणी रुद्ररूपिणी।

ऊर्ध्व ब्रह्माणी मे रक्षेत् अधस्ताद् वैष्णवी तथा।
एवं दशदिशो रक्षेत् सर्वाङ्गे भुवनेश्वरी।

तत् पदं पातु मे पादौ जङ्घेमे सवितुः पदम्।
वरेण्यं कटिदेशन्तु नाभिं भर्गस्तथैव च।

देवस्य हृदयं पातु धीमहीतिगलन्तथा।
धियो यो इति मे नेत्रे नः पदन्तु ललाटकम्।

एवं पादादि मूर्द्धान्तं मूर्द्धानं मे प्रचोदयात्।
इदन्तु कवचं पुण्यं हत्या कोटि विनाशनम्।

चतुःषष्टि कला विद्या सर्वपापप्रणाशिनी।
जपारम्भे च गायत्री जपान्ते कबचं पठेत्।

गो-स्त्री-ब्रह्मबधादीनि मित्रद्रोहादि पातकैः।
सुच्यते सर्वपापेभ्यः परं ब्रह्माधिगच्छति।

ॐ इति ब्रह्म नारदसंवादे गायत्री कवचं समाप्तम् ॥

॥ॐ तत् सत् ॐ॥

गायत्री शापोद्धार—(गायत्री जप के पूर्व पाठ्य।)

ॐ अस्य गायत्री शापविमोचन मन्त्रस्य ब्रह्मऋषि र्गायत्रीच्छन्दो वरुणो देवता ब्रह्मशापविमोचने विनियोगः। ॐ यद् ब्रह्मेति ब्रह्मविदो विदुस्त्वाम् पश्यन्ति धीराः। सुमनसो वा गायत्रि त्वं ब्रह्मशापाद् विमुक्ता भव।

** गायत्र्यावशिष्ठापत्रिमोचन मन्त्रस्य वशिष्ठ ऋषिरनुष्टुप्छन्दो ब्रह्मविष्णु रद्रादेवता वशिष्ठशापविमोचने विनियोगः।**

** ॐ अर्क ज्योतिरहं ब्रह्मा ब्रह्मज्योतिरहं शिवः। शिवज्योतिरहं विष्णु र्विष्णुज्योतिरहं शिवः। गायत्रि त्वं वशिष्ठ शापाद् विमुक्ता भव। गायत्र्या विश्वामित्र शापविमोचन मन्त्रस्य विश्वामित्रऋषि रनुष्टुपच्छन्दो गायत्री देवता विश्वामित्रशापविमोचने विनियोगः। ॐ अहो देवि! महादेव! विद्ये! सन्ध्ये! सरस्वति! अजरे! अमरे! चैव ब्रह्मयोनि नमोस्तुते।गायत्रि त्वं विश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव।**

इति गायत्री शापोद्धारः समाप्तः।

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1722447055Screenshot2024-07-31230040.png"/>

सन्ध्याविधि—
(सानुवाद)

प्रातः सन्ध्या एवं मध्याह्न सन्ध्या के समय पूर्व की ओर के सायंसन्ध्या के समय पश्चिम की ओर मुख करके शुद्ध आसन पर बैठ अपनी सम्प्रदाय मर्य्यादा के अनुसार मन्त्र पाठ पूर्वक तिलक करे। निम्नोक्त मन्त्र पढ़ कर निज शरीर पर जल छिड़के।

ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा
यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स वाह्याभ्यन्तरः शुचिः।

अपवित्र हो, अथवा पवित्र हो, किसी भी अवस्था में स्थित हो, जो व्यक्ति कमलनयन भगवान् विष्णु का स्मरण करता है, वह बाहर और भीतर सब ओर से शुद्ध होता ही जाता है।पश्चात् नीचे लिखे मन्त्र से आसन पर जल छिड़क कर दायें हाथ से उसका स्पर्श करे—

ॐ पृथ्वित्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता।
त्वं च धारय मां देवि ! पवित्रं कुरु चासनम्॥

हे पृथिवी देवि! तुमने समस्त लोकों को धारण किया है। और भगवान् विष्णु ने तुमको धारण किया है। हे देवि! तुम मुझे धारण करो। मेरे आसन को पवित्र कर दो। अनन्तर ॐ केशवाय नमः, ॐ नारायणाय नमः, ॐ माधवाय नमः पढ़ कर कुलतीनबार पवित्र जल से आचमन करे। पूर्व, उत्तर, ईशान दिशा की ओर मुख कर आचमन करे। ब्राह्मतीर्थ से तीन बार आचमन करने के पश्चात्—‘ॐ गोविन्दाय नमः’ मन्त्र पढ़ कर हाथ धो ले।अँगूठे का मूलदेश ब्राह्मतीर्थ है। बाद में हाथ में जल लेकर निम्नोक्त सङ्कल्प पढ़ कर वह जल भूमि पर गिरा दे। शिखा बन्धन भी करे।

श्री हरिः ॐ तत्सदद्यैतस्य श्रीब्रह्मणो द्वितीय परार्धे श्रीश्वेत वाराहकल्पे जम्बुद्वीपे भरतखण्डे आर्य्यावर्तैक देशान्तर्गते पुण्यक्षेत्रे कलियुगे कलिप्रथमचरणे अमुक संवत्सरे (संवत्सर मास आदि का नाम जोड़ लेना चाहिए), अमुक मासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुक वासरे अमुक गोत्रोत्पन्नः अमुक शर्मा (वर्मा, गुप्त आदि शब्द का प्रयोग करे ), अहं ममोपास दुरितक्षयपूर्वकं श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं प्रातः (सायं अथवा मध्याह्न) सन्ध्योपासनं करिष्ये।

पश्चात् निम्नाङ्कित विनियोग पढ़े।—

ऋतं चेति तृचस्य माधुच्छन्दसोऽघमर्षण ऋषिरनुष्टुप्च्छन्दो भाववृत्तं दैवतमामुपस्पर्शने विनियोगः।

निम्नोक्त मन्त्र को पढ़ कर एकबार आचमन करे।

ॐ ऋतञ्च सत्यञ्चाभौद्धात्तपसोऽध्यजायत।
ततो रात्र्यजायत, ततः समुद्रो अर्णवः।

ॐ समुद्रार्णवादधि संवत्सरो अजायत।
अहोरात्राणि विदधद् विश्वस्यमिषतो वशी।

ॐ सूर्य्याचन्द्रमसौ धाता, यथापूर्वमकल्पयत्।
दिवञ्च पृथिवीञ्चान्तरिक्षमथो स्वः।

(ऋ०अ०८ अ० ८ व०४८)

महाकल्प के आरम्भ में सब ओर से प्रकाशमान तपरूप परमात्मा से ऋत (सत् संकल्प), और सत्य (यथार्थ भाषण), की उत्पत्ति हुई। उसी परमात्मा से रात्रि-दिन प्रकट हुए, एवं उसी से जलमय समुद्र का आविर्भाव हुआ।

जलमय समुद्र की उत्पत्ति के पश्चात् दिनों और रात्रियों को धारण करने वाला काल स्वरूप संवत्सर प्रकट हुआ, जो कि पलक मारने वाले जङ्गम प्राणियों और स्थावरों से युक्त समस्त संसार को अपने अधीन रखने वाला है। इसके बाद सबको धारण करने वाले परमेश्वर ने सूर्य, चन्द्रमा, दिव् (स्वर्गलोक), पृथिवी, अन्तरीक्ष तथा महर्लोक आदि लोकों की सृष्टि पूर्वकल्पके अनुसार की।

अनन्तर प्रणव पूर्वक गायत्री मन्त्र पढ़ कर रक्षा के लिए अपने चारों ओर जल छिड़के। फिर नीचे लिखे विनियोग को पढ़े एवं पृथ्वीपर जल छोड़ता जाय। अर्थात् चारों विनियोग के लिए चार बार जल छोड़े।

ॐकारस्य ब्रह्मऋषिर्दैवो गायत्रीच्छन्दः परमात्मा देवता, सप्तव्याहृतीनां प्रजापतिर्ऋषिर्गायत्र्युष्णिगनुष्टुव् बृहती पङ्क्ति त्रिष्टुव्जगत्यश्छन्दांस्यग्निवायुसूर्य्यवृहस्पतिवरुणेन्द्रविश्वदेवा देवताः, तत्सवितुरिति विश्वामित्र-ऋषिर्गायत्रीच्छन्दः सविता देवता, आपो ज्योतिरिति शिरसः प्रजापतिर्ऋषिर्यजुश्छन्दो ब्रह्माग्निवायु सूर्यादेवताः प्राणायामे विनियोगः।

यह मन्त्र प्राणायाम का है।

ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः, ॐ महः ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यं।

** ॐ तत् सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्यधीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। ॐ आपो ज्योतीरसोऽमृतं ब्रह्म भू र्भुवः स्वरोम्।**

(तै०आ०प्र० १० अ० २७)

प्रातः काल का विनियोग और मन्त्र।

सूर्य्यश्चमेति नारायण ऋषिः प्रकृतिश्छन्दः सूर्य्योदेवता अपामुपस्पर्शने विनियोगः।

नीचे लिखे मन्त्र को पढ़ कर आचमन करे।

ॐ सूर्य्यश्चमा मन्युश्च मन्युपतयश्च, मन्युकृतेभ्यः पापेभ्यो रक्षन्ताम् यद्रात्र्यापापमकार्षम् मनसा वाचा हस्ताभ्यां पद्भ्यामुदरेण शिश्नारात्रिस्तवलुम्पतु यत्किञ्चिद्दुरितं मयि इदमहं माममृतयोनौ सूर्य्येज्योतिषि जुहोमि स्वाहा।

(तै० आ० प्र० १० अ० २५)

सूर्य, क्रोध के अभिमानी देवता और क्रोध के स्वामी—ये सभी क्रोधवश किए हुए पापों से मेरी रक्षा करें, अर्थात् कृतपापों को नष्ट करके होने वाले पापों से बचावें। रात में मैंने मन, वाणी, हाथ, पैर, उदर और शिश्न (उपस्थ), इन्द्रिय से जो पाप किया है, उन सब को रात्रीकालाभिमानी देवता नष्ट करे। जो कुछ भी पाप मुझ में वर्तमान है, इसको और इसके कर्तत्व का अभिमान रखने वाले अपने को मैं मोक्षके कारणभूत प्रकाशमय सूर्यरूप परमेश्वर में हवन करता हूँ। अर्थात् हवन के द्वारा अपने समस्त पाप और अहंकार को भस्म करता हूँ। इसका हवन भलीभाँति हो जाय।

मध्याह्न का विनियोग और मन्त्र इस प्रकार है,—नीचे लिखा हुआ विनियोग को पढ़ कर पृथ्वी पर जल छोड़ दे।

आपः पुनन्त्विति विष्णुर्ऋषिरनुष्टुप्छन्द आपो देवता अपामुपस्पर्शने विनियोगः।

अथवा—

आपः पुनन्त्विति नारायणऋषिरनुष्टुप्छन्द आपः पृथिवी ब्रह्मणस्पतिर्ब्रह्म च देवता अपामुपस्पर्शने विनियोगः।

निम्नोक्त मन्त्र पढ़ कर आचमन करे।

ॐ आपः पुनन्तु पृथिवीं पृथ्वी पूता पुनातु माम्। पुनन्तु ब्रह्मणस्पति र्ब्रह्म पूता पुनातु माम्। यदुच्छिष्टमभोज्यञ्च यद्वा दुश्चरितं मम। सर्वं पुनन्तु मामापोऽसताञ्च प्रतिग्रहं स्वाहा।

(तै० आ०प्र० अ० २३)

जल पृथिवी को प्रोक्षण आदि के द्वारा पवित्र करे। पवित्र हुई पृथिवी मुझे पवित्र करे। ‘वेदपति परमात्मा’ मुझे शुद्ध करें। मैं जो कभी किसी भी प्रकार का उच्छिष्ट, अभक्ष्य भक्षण किया हो, अथवा जो पाप मेरे हों, उन सब को दूर करके जल मुझे शुद्ध कर दे। तथा नीच पुरुषों से लिए हुए दानरूप दोष को भी दूर करके जल मुझे पवित्र करे। पूर्वोक्त दोषों का हवन हो जाय।

सायंकाल के आचमन का विनियोग एवं मन्त्र इस प्रकार है—

अग्निश्च मेति नारायणऋषिः प्रकृतिश्छन्दोऽग्निमन्यु मन्युपतयोऽहश्च देवता अपामुपस्पर्शने विनियोगः।

इस विनियोग को पढ़े। फिर नीचे लिखे मन्त्र को पढ़ कर एकबार आचमन करे।

ॐ अग्निश्च मा मन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्यः पापेभ्यो रक्षन्ताम्।यहह्ना पापमकार्षंमनसा वाचा हस्ताभ्यां पद्भ्यामुदरेण शिश्ना अहस्तदवलुम्पतु। यत् किञ्च दुरितं मयि इदमहं माममृतयोनौ सत्ये ज्योतिषि जुहोमि स्वाहा।

(तै० आ०प्र० १० अ० २४)

अग्नि,—क्रोध के अभिमानी देवता और क्रोध के स्वामी—ये सभी क्रोधवश किए हुए पापों से मेरी रक्षा करे। अर्थात् कृत पापों को नष्ट करके होने वाले पापों से बचावें। मैंने दिन में– मन, वाणी, हाथ, पैर, उदर और शिश्न (उपस्थ) इन्द्रिय से जो पाप किए हों, उन सब को दिन के अभिमानी देवता नष्ट करें। जो कुछ भी पाप मुझ में वर्त्तमान है, इसको तथा इसके कर्त्तृत्व का अभिमान रहने वाले अपने को मैं मोक्षके कारण भूत सत्यस्वरूप प्रकाशमय परमेश्वर में हवन करता हूँ। अर्थात् हवन के द्वारा अपने सारे पाप और अहंकार को भस्म करता हूँ। इसका भलीभाँति हवन हो जाय। फिर निम्नाङ्कित वाक्य से विनियोग करे—

आपो हि ष्ठेति त्रृचस्य सिन्धुद्वीप ऋषिर्गायत्रीछन्द आपो देवता मार्जने विनियोगः।

इसके पश्चात् निम्नाङ्कित तीन ऋचाओं के नवचरणों में से सात चरणों को पढ़ते हुए सिर पर जल सींचे, आठवें से पृथ्वी पर जल डाले और फिर नवें चरणों को पढ़ कर सिर पर ही जल सींचे। यह मार्जन तीन कुशों अथवा तीन अङ्गुलियों से करना चाहिए।

मार्जन मन्त्र ये हैं—

ॐ आपो हि ष्ठा मयोभुवः। ॐ ता न ऊर्जे दधातन॥
ॐ महेरणाय चक्षसे।ॐ यो वः शिवतमोरसः॥
ॐ तस्य भाजयतेह नः।ॐ उशतीरिव मातरः॥
ॐ तस्मा अरङ्गमाम वः।ॐ यस्य क्षयाय जिन्वथ॥

ॐ आयो जनयथा च नः॥

(यजु अ० ११/५०, ५१५२)

हे जल ! तुम निश्चय प्राणीमात्र के मङ्गलकारी हो. अतः रसों के द्वारा बल की वृद्धि के निमित्त तथा अतीव रमणीय परमात्म दर्शन हेतु तुम हमारा पालन करो। जिस प्रकार पुत्रों की पुष्टि चाहने वाली माताएँ उन्हें अपने स्तनों का दुग्ध पान कराती हैं, उसी प्रकार तुम्हारा जो परम कल्याणमय रस है इस लोक में उसके भागी हमसब को बनाओ। हे जल! जगत् के जीवनाधारभूत जिस रस के एक अंश से तुम समस्त विश्व को तृप्त करते हो, उस रस की पूर्णता को हम प्राप्त हों—अर्थात् उस रस से हम पूर्णतया तृप्ति लाभ करें। हे जल! तुम हमें उस रस के भोक्ता बनाओ, अर्थात् उसे भोगने की क्षमता हो।

अनन्तर निम्नोक्त विनियोग मन्त्र पढ़ कर पृथ्वी पर जल छोड़ दे।

द्रुपदादिवेत्यस्य कोकिलो राजपुत्रऋषिरनुष्टुप्च्छन्दः आपो देवता सौत्राण्यवभृथे विनियोगः॥

दाहिने हाथ में जल लेकर नीचे लिखे मन्त्र को तीनबार पढ़े, फिर उस जल को शिर पर छिड़क दे।

ॐ द्रुपदादिव मुमुवानः खिन्नः स्नातो मलादिव,
पूतं पवित्रेणेवाज्यमापःशुन्धन्तु मैनसः।

(यजु०अ० २० मं २०)

जिस प्रकार पादुका से अलग होता हुआ मनुष्य पादुका के मलादि दोषों से मुक्त हो जाता है। जिस प्रकार पसीने से भीगा हुआ पुरुष स्नान करने के पश्चात् मैल से रहित होता है, जैसे पवित्रक आदि से घृत शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार जल मुझे पापों से शुद्ध करे। अर्थात् मुझे सर्वथा निष्पाप कर दे।

पुनः निम्नाङ्कित वाक्य पढ़ कर विनियोग करे।

** ऋतञ्चेति ऋचस्य माधुच्छन्दसोऽघमर्षणऋषिरनुष्टुप्च्छन्दो भाववृत्तं दैवतमघमर्षणे विनियोगः।**

फिर दाहिने हाथ में जल लेकर नासिका में लगावें, यदि सम्भव हो तो श्वास रोक कर नीचे लिखे मन्त्रो को तीनबार अथवा एकबार पढ़ कर मन ही मन यह भावना करे कि,— यह जल नासिका के दायें छिद्र से भीतर घुस कर अन्तःकरण के पाप को बायें छिद्र से निकल रहा है, फिर उस जल की ओर दृष्टि न डाल कर अपनी बायींओर फेंक दे। अथवा बाम भाग में शिला की भावना करके उसके उपर उस पाप को पटक कर नष्ट कर देने की भावना करे। अघमर्षण मन्त्र इस प्रकार है—

ॐ ऋतञ्च सत्यञ्चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत।
ततो रात्र्यजायत,ततः समुद्रो अर्णवः।

ॐ समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत।
अहं रात्राणि विदधद् विश्वस्य मिशतो वशी।

ॐ सूर्यचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्।
दिवञ्च पृथिवीञ्चान्तरिक्षमथो स्वः॥

(ऋ०अ० ८ अ० ८ व० ४८)

नीचे लिखा विनियोग पढ़ कर पृथ्वी पर जल छोड़ दे।

अन्तश्चरसीति तिरश्चिन ऋषिरनुष्टुप्च्छन्दः आपो देवता अपामुपस्पर्शने विनियोगः।

इस मन्त्र को पढ़ कर आचमन करे।

ॐ अन्तश्चरसि भूतेषु गुहायां विश्वतोमुखः
त्वं यज्ञस्त्वं वषट्कार आपो ज्योतीरसोऽमृतम्।

(कात्यायन परिशिष्ट सूत्र)

हे जलरूप परमात्मन्! तुम समस्त प्राणियों के भीतर उनकी हृदयगत गुहा में विचरते हो, तुम्हारा सब ओर सुख है, तुम्हीं यज्ञ हो, तुम्हीं वषट्कार हो, और तुम्हीं जल प्रकाश रस एवं अमृत हो।

अनन्तर नीचे लिखे वाक्य से विनियोग करे,—

ॐकारस्य ब्रह्म ऋषिर्दैवी गायत्री छन्दः परमात्मा देवता, तिसृणां महाव्याहृतीनां प्रजापतिर्ऋषिः गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छन्दांस्यग्निवायु सूर्य्यादेवताः, तत् सवितुरिति विश्वामित्रऋषिः गायत्रीछन्दः सविता देवता सूर्य्यार्घ्यदाने विनियोगः।

फिर सूर्य के सामने एक पैरकी एँड़ी उठाये हुए अथवा एक पैर से खड़ा होकर ॐकार और व्याहृतियों के सहित गायत्री मन्त्र को तीन चारबार पढ़ कर पुष्पोदक से तीनबार सूर्य को अर्घ्य दे। प्रातः काल और मध्याह्न का अर्घ्य जल में देना चाहिए, यदि जल न हो तो स्थल को भलीभाँति जल से धोकर उसी पर अर्घ्य का जल गिरावे।किन्तु सायंकाल का अर्घ्य कदापि जल में न दे। खड़ा होकर अर्घ्य देने का नियम केवल प्रातः और मध्याह्न सन्ध्या में है। सायंकाल में बैठकर भूमि पर ही अर्घ्य जल गिराना चाहिए। प्रातः एवं सायं सन्ध्या में तीन तीनबार एवं मध्याह्न सन्ध्या में एकबार ही अर्घ्यदेना चाहिए।

सूर्य्यार्घ्य देने का मन्त्र—

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि, धियो यो नः प्रचोदयात्।

मन्त्र पढ़कर ‘ब्रह्मस्वरूपिणे’, मध्याह्न काल में ‘रुद्र स्वरूपिणे’, सायंकाल में विष्णुस्वरूपिणे सूर्य्यनारायणाय इदमर्घ्यं दत्तं नमः॥ अर्घ्य समर्पण करे।

अनन्तर निम्नोक्त मन्त्र से विनियोग करे।

उद्वय मत्यस्य प्रस्कण्वऋषिरनुष्टुप्च्छन्दः सूर्य्योदेवता सूर्य्योपस्थाने विनियोगः। चित्रमित्यस्य कौत्सऋषि स्त्रिष्टुप्छन्दः सूर्य्योदेवता सूर्य्योपस्थाने विनियोगः। तच्चक्षुरिति दव्यङ्ङाथर्वण ऋषिरक्षरातीतपुर उष्णिक् छन्दः सूर्य्योदेवता सूर्योपस्थाने विनियोगः॥

नीचे लिखे मन्त्रों को पढ़ कर सूर्य्य का उपस्थान करे। उपस्थान के समय प्रातःकाल और सायंकाल अञ्जलि बाँधकर और मध्याह्न में दोनों बाँहों को ऊपर उठाकर खड़ा रहे।

ॐ उद्वयं तमसस्परि स्वः पश्यन्त उत्तरं देवं देवत्रा सूर्य्यमगन्म ज्जोतिरुत्तमम्॥

(यजु०अ० २० मं० २१)

ॐ उदुत्यं जात वेदसं देवं वहन्ति केतवः दृशे विश्वाय सूर्य्यम्।

(यजु०अ० ७ मं० ४१)

उत्पन्न हुए समस्त प्राणियों के ज्ञाता, उन सूर्य्यदेव को छन्दोमय अश्व सम्पूर्ण जगत् को दर्शन देनेके लिए अथवा दृष्टि प्रदान करने के लिए, ऊपर ही ऊपर शीघ्रगति से लिये जा रहे हैं।

ॐ चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः। आप्राद्यावा पृथिवी अन्तरिक्षं सूर्य्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च।

(यजु०अ० ७ मं०४२)

जो तेजोमयी किरणों के पुञ्ज हैं, मित्र, वरुण, तथा अग्नि आदि देवता एवं विश्व के नेत्र हैं, और स्थावर तथा जङ्गम- सबके अन्तर्यामी आत्मा हैं, वे भगवान् सूर्य्य, आकाश, पृथ्वी और अन्तरिक्ष लोक को अपने प्रकाश से पूर्ण करते करते आश्चर्य रूप से उदित हुए हैं।

ॐ तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरद शतं, जीवेम शरदः शतं, शृणुयाम शरदः शतं, प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात्॥

(यजु० अ० ३६ मं० २४)

देवता आदि सम्पूर्ण जगत् का हित करने वाले सबके नेत्ररूप वे तेजोमय भगवान् सूर्य्य पूर्वदिशा से उदित हो रहे हैं. उनकी अनुकम्पा से हम सौ वर्षों तक देखते रहें, सौ वर्षों तक जीते रहें, सौ वर्षों तक सुनते रहें, सौ वर्षों तक बोलने की शक्ति रहे, सौ वर्षों तक हम कभी दीनदशा न प्राप्त हों।इतना ही नहीं, सौ वर्षों से अधिक काल तक भी हम देखें, जीवें, सुनें, बोलें एवं कभी दीन न हों। इसके बाद बैठ कर अथवा खड़े खड़े दो अङ्गन्यास करे। एक एक को पढ़ता जाय और जिस न्यास में अंग का नाम हो उस अंग पर हाथ लगाता जाय तथा अन्तिम में एक ताली बजाकर चारों ओर चुटकियाँ बजा दे।

यो तीनबार करे।

ॐ हृदयाय नमः। ॐ शिरसे स्वाहा। ॐ भुवः शिखायै वषट्। ॐ कवचाय हुम्। ॐ भू र्भुवः नेत्राभ्यां वौषट्। ॐ भू र्भुवः स्वः अस्त्राय फट्।

इसके बाद—तेजोऽसीति धामनामासीत्यस्य च परमेष्ठी प्रजापति र्ऋषि र्यजुस्त्रिष्टुबृगुष्णिहौ छन्दसी सविता देवता गायत्र्यावाहने विनियोगः।

इससे विनियोग करके निम्नाङ्कित मन्त्र से विनय पूर्वक गायत्री देवीका आवाहन करें—

ॐ तेजोऽसि शुक्रमस्यमृतमसि, धामनामासि प्रियं देवानामनाधृष्टं देवयजनमसि।

(यजु० अ० १२ मं० ३१)

हे सूर्यरूपा गायत्रिदेवि! तुम देदीप्यमान तेजोमयी हो, शुद्ध हो, और अमृत नित्य ब्रह्मरूपा हो। तुम्हीं परमधाम और नाम रूपा हो। तुम्हारा किसी से पराभव नहीं होता। तुम देवताओं की प्रिय एवं उनके यजन की साधनभूत हो, मैं तुम्हारा आवाहन करता हुँ।

फिर नीचे लिखे वाक्य से विनियोग करे—

गायत्र्यसीति विवस्वान्ऋषिः स्वराण्प्रहापङ्क्तिश्छन्दः परमात्मा देवता गायत्र्युपस्थाने विनियोगः।

अनन्तर निम्नोक्त मन्त्र से गायत्री को प्रणाम करे—

ॐ गायत्र्यस्येकपदी द्विपदी त्रिपदी चतुष्पद्यपदसि न हि पद्यसे नमस्ते तुरीयाय दर्शताय पदाय परोरजसेऽसावदो मा प्रापत्॥

(वृहदारण्यक० ५।१४।७)

हे गायत्रि ! तुम त्रिभुवनरूप प्रथम चरण से एक पदी हो। ऋक्, यजुः एवं सामरूप द्वितीय चरण से द्विपदी हो।प्राण, अपान तथा व्यान रूप तृतीय चरण से त्रिपदी हो। और तुरीय ब्रह्मरूप चतुर्थ चरण से चतुष्पदी हो। निर्गुण स्वरूप से अचिन्त्य होने के कारण तुम ‘अपद’ हो। अतः ‘नेति नेति’ कहकर तुम्हारे स्वरूप का वर्णन करते हैं। अतएव मन बुद्धि के अगोचर होने से तुम सबके लिए प्राप्य नहीं हो। तुम्हारे दर्शनीय—‘अनुभव करने योग्य’ चतुर्थ पद को न प्रपश्च से परे वर्त्तमान शुद्ध परब्रह्म स्वरूप है, नमस्कार है। तुम्हारी प्राप्ति में विघ्न डालने वाले वे रागद्वेष, काम, क्रोध आदिरूप पाप मेरे पास न पहुँच सकें। अर्थात् परब्रह्म स्वरूपिणी तुम को मैं निर्विघ्न प्राप्त करूँ।

अथवा—हे गायत्री देवि! तुम समग्र ब्रह्मरूपा होनेके कारण एकपद वाली हो, अर्थात् जो कुछ है वह ब्रह्मरूप ही है, इस न्याय से तुम एकपद वाली हो। सगुण निर्गुणरूपा होनेसे तुम दो पदों वाली हो। ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप से तीन पदों वाली हो। विराट्, हिरण्यगर्भ, ईश्वर और परब्रह्मरूपा होनेके कारण तुम चार पदों वाली हो। अचिन्त्य होने से तुम ‘अपद’ हो। अतएव सबके लिए तुम प्राप्य नहीं हो। तुम्हारे दर्शनीय—अनुभव करने योग्य चतुर्थ पद को, जो प्रपञ्चसे परे वर्त नमस्कार है। तुम्हारी प्राप्ति में विघ्न डालने वाले वे रागद्वेष, काम, क्रोध आदिरूप पाप मेरे पास न पहुँच सकें। अर्थात् परब्रह्मस्वरूपिणी तुम को मैं निर्विघ्न प्राप्त करूँ।

पश्चात् निम्नोक्त वाक्य को पढ़ कर विनियोग करे—

ॐकारस्य ब्रह्मऋषिर्दैवी गायत्रीछन्दः परमात्मा देवता, तिसृणां महाव्याहृतीनां प्रजापतिर्ऋषिः गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छन्दांस्यग्निवायु सूर्य्यादेवताः, तत् सवितुरिति विश्वामित्रऋषिः गायत्री छन्दः सविता देवता जपे विनियोगः।

अनन्तर गायत्री मन्त्र का जप अष्टोत्तर शतबार करे।

** ॐ भू र्भुवः स्वः तत् सवितु र्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।**

(यजु० अ० ३६ मं० ३)

हम स्थावर जङ्गमरूप सम्पूर्ण विश्व को जगत् उत्पन्न करने वाले उन निरतिशय प्रकाशमय परमेश्वर के भजन योग्य तेज का ध्यान करते हैं। जो हमारी बुद्धियों को सत्कर्मों की ओर प्रेरित करते हैं, तथा जो भूर्लोक, भुवर्लोक और स्वर्लोकरूप सच्चिदानन्दमय परब्रह्म हैं।

अनन्तर नीचे लिखे वाक्य से विनियोग करे—

विश्वतश्चक्षुरिति भौवन ऋषिस्त्रिष्टुप्छन्दो विश्वकर्मादेवता सूर्य्यप्रदक्षिणायां विनियोगः।

फिर नीचे लिखे मन्त्र से अपने स्थान पर खड़े होकर सूर्यदेव की एकबार प्रदक्षिणा करे—

ॐ विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुतविश्वतस्पात्। सम्बाहुभ्यां धमति सम्यतत्रैद्यीवाभूमी जनयन् देवएकः।

(यजु० अ० १७ मं० १६)

वे एकमात्र परमात्मा पृथ्वी और आकाश की रचना करते समय धर्माधर्म रूप भुजाओं और पतनशील पश्ञ्चमहाभूतों से संगत होते हैं, अर्थात् कामलेते हैं। तात्पर्य यह है कि—धर्माधर्मरूप निमित्त और पञ्चमहाभूतरूप उपादान कारणों से अन्य साधन की सहायता लिए विना ही सबकी सृष्टि करते हैं। उनके नेत्र सब ओर हैं, सब ओर मुख हैं, सब ओर भुजाएँ हैं, और सब ओर चरण हैं।

इसके पश्चात् बैठ कर निम्नोक्त वचन पढ़ कर विनियोग करे।

देवा गातुविद इति मनसस्पति र्ऋषिर्विरानुडष्टुप्छन्दो वातो देवता जप निवेदने विनियोगः।

फिर— ॐ देवा गातुविदो गातुं वित्त्वा गातुमिव मनसस्पत इमं देव यज्ञ स्वाँहा वातेधाः।

(यजु०अ० २ मं० २१)

हे यज्ञवेत्ता देवताओ ! आप लोक हमारे इस जपरूपी यज्ञ कीपूर्ण हुआ जान कर अपने. गन्तव्य मार्ग को पधारें। हे चित्त के प्रवर्तक परमेश्वर! मैं इस जप यज्ञ को आपके हाथ में अर्पण करता हूँ। आप इसे वायुदेवता में स्थापित करें।

“श्रुतिः! वाते हि यज्ञोऽवतिष्ठते। वायुरेवाग्निस्तस्माद्यदैवाध्वर्युरुत्तमं कर्म करोत्यथैनमेवाप्येति॥”

इस मन्त्र को पढ़ कर नमस्कार करने के पश्चात्—

अनेन यथाशक्ति कृतेन गायत्री जपाख्येन कर्मणा भगवान् सूर्यनारायणः प्रीयतां नो मम। यह वाक्य पढ़े। इसके बाद—

उत्तमे शिखरे इति वामदेव ऋृषिरनुष्टुप्छन्दः गायत्री देवता गायत्री विसर्जने विनियोगः।

इससे विनियोग करके—

ॐ उत्तमे शिखरे देवी भूम्यां पर्वतमूर्द्धनि। ब्राह्मणेभ्योऽभ्यनुज्ञाता गच्छदेवि यथासुखम्।

(तै० आ०प्र० १० अ० ३०)

हे गायत्री देवि ! अब तुम अपने उपासक ब्राह्मणों के पास से उनकी अनुमति लेकर भूमि पर स्थित जो मेरु नामक पर्वत हैं, उसके ऊपर विद्यमान सुरम्य शिखर पर अपने मन्दिर में निवास करने के लिए सुख पूर्वक जाओ।

इस मन्त्र को पढ़ कर गायत्री देवी का विसर्जन करे। फिर निम्नाङ्कित वाक्य पढ़ कर यह सन्ध्योपासना कर्म परमेश्वर को समर्पित करे।

अनेन सन्ध्योप सनाख्येन कर्मणा श्रीपरमेश्वरः प्रीयतां नो मम। ॐ तत् सद्ब्रह्मार्पणमस्तु।

अवशेष में श्रीभगवान् का स्मरण करे।

यस्य स्मृत्या च नाप्तोक्त्यातपोयज्ञक्रियादिषु न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्।

श्रीविष्णवे नमः, श्रीविष्णवे नमः॥
श्रीविष्णुस्मरणात् परिपूर्णतास्तु॥

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1722447232Screenshot2024-07-31230339.png"/>

सन्ध्या काल निर्णय—

उत्तमा तारकोपेता मध्यमा लुप्त तारका कनिष्ठा सूर्य्यसहिता प्रातः सन्ध्याविधा स्मृता। मध्या मध्याह्ने। उत्तमा सूर्य्यसहिता मध्यमा लुप्तभास्करा कनिष्ठा तारकोपेता सायंसन्ध्यात्रिधा स्मृता॥

प्रदक्षिणा मन्त्र—

यानि कानि च पापानि जन्मान्तरकृतानि च।
तानि तानि प्रणश्यन्ति प्रदक्षिणपदे पदे॥

श्रीहरिदासशास्त्री

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1722447309Screenshot2024-07-31230455.png"/>

]