त्रयोदश तरङ्ग
जय़ जय़ श्रीकृष्णचैतन्य सर्वाश्रय़ ॥
जय़ जय़ नित्यानन्द प्रभु दय़ामय़ ॥१॥
जय़ श्रीअद्वैतदेव गुणेर सागर ।
जय़ जय़ श्रीवास पण्डित गदाधर ॥२॥
जय़ गदाधरदास, श्रीगुप्त मुरारि ।
जय़ वक्रेश्वर, श्रीमुकुन्द, नरहरि ॥३॥
जय़ श्रीपण्डित गौरीदास, दामोदर ।
जय़ श्रीस्वरूप, हरिदास, शुक्लाम्भर ॥४॥
जय़ जय़ प्रभुर यतेक भक्तगण ।
अनुग्रह करो सभे—लञिनु शरण ॥५॥
जय़ जय़ श्रोतागण गुणेर आलय़ ।
एबे ये कहिय़े शुन हईय़ा सदय़ ॥६॥
श्रीनिवासाचार्य प्रभृतिर श्रीनवद्वीप हईते विदाय़—
श्रीनिवासाचार्य, नरोत्तम, रामचन्द्र ।
नवद्वीप भ्रमणे पाइला महानन्द ॥७॥
स्रीईशान ठाकुरेर चरण बन्दिय़ा ।
हईते विदाय़ विदरिय़ा याय़ हिय़ा ॥८॥
स्रीईशान ठाकुर करिय़ा आलिङ्गन ।
हईला अधैर्य, अश्रु नहे निवारण ॥९॥
स्नेहावेशे अत्यन्त अवश कलेवर ।
के बुझिते पारे ताꣳर गभीर अन्तर ॥१०॥
कहिते चाहय़े किछु—ना पारे कहिते ।
हातसाने जानाइल—देखा एइ हैते ॥११॥
तथाय़ छिलेन ये, प्रभुर परिकर ।
हैल ताꣳ सभार महा व्याकुल अन्तर ॥१२॥
अति अनुग्रह करि दिलेन विदाय़ ।
श्रीआचार्य प्रणमिल ताꣳसभार पाय़ ॥१३॥
नवद्वीपधामे वार वार प्रणमिय़ा ।
काꣳदिते काꣳदिते चले विदाय़ हईय़ा ॥१४॥
पथे चलितेइ यथा यथा भक्तालय़ ।
तथा तथा गमने हईल हर्षोदय़ ॥१५॥
श्रीखण्डे आसिय़ा कैल ‘गौराङ्ग’ दर्शन ।
श्रीरघुनन्दनसह हईल मिलन ॥१६॥
श्रीरघुनन्दन अतिशय़ स्नेहावेशे ।
नवद्वीप-प्रसङ्ग जिज्ञासे मृदुभाषे ॥१७॥
श्रीनिवास नदीय़ा-भ्रमण निवेदिय़ा ।
कहय़े भक्तेर कथा काꣳदिय़ा काꣳदिय़ा ॥१८॥
‘पूर्वे बहु भक्त सङ्गोपन नदीय़ाय़ ।
एबे ये आछेन सेहो मौनमुद्रा प्राय़ ॥१९॥
प्रभुर भवने एक ईशानेर स्थिति ।
ताꣳहार अनन्त गुण कहि कि शकति ॥२०॥
पथे आसि लोकमुखे करिनु श्रवण ।
श्रीईशान ठाकुर हईला सङ्गोपन ॥२१॥
दिने दिने नदीय़ा हईछे अन्धकार ।
कि बलिब—ना जानि, कि हईबेक आर’ ॥२२॥
शुनि प्रेम उथले, धैरय नाइ बाꣳधे ।
श्रीनिवास गला धरि फुकारिय़ा काꣳदे ॥२३॥
प्रभुर इच्छाय़ स्थिर हैल कतक्षणे ।
श्रीरघुनन्दन-चेष्टा कहिते के जाने ॥२४॥
श्रीनिवास प्रबोधिय़ा विविध प्रकारे ।
दिलेन विदाय़ याजिग्रामे याइबारे ॥२५॥
श्रीरघुनन्दने प्रणमिय़ा तिन जन ।
याजिग्रामे गेला करि धैर्यावलम्बन ॥२६॥
श्रीगोकुलानन्द-आदि महाहर्ष मने ।
आगुसरि आसि लैय़ा गेलेन भवने ॥२७॥
याजिग्रामवासी लोक उल्लास हृदय़े ।
करिल दर्शन आसि आचार्य-आलय़े ॥२८॥
श्रीनिवास आचार्य ठाकुर से सभाय़ ।
मिलिलेन यथायोग्य उल्लास हिय़ाय़ ॥२९॥
श्रीनिवास आचार्येर अद्भुत चरित ।
कैल सर्वप्रकारे सबार मनोहित ॥३०॥
बाड़ीर बाहिरे एक स्थान सुनिर्जन ।
तथाइ बसिला सङ्गे लैय़ सर्वजन ॥३१॥
नवद्वीप प्रसङ्गेते हईय़ा विह्वल ।
जिज्ञासिल क्रमे शिष्यवर्गेर मङ्गल ॥३२॥
प्रिय़ नरोत्तमे अति धीरे धीरे कय़ ।
‘अद्य वीरहाम्बीर आसिबे—मने लय़’ ॥३३॥
हेनकाले राजार प्रेषित एकजन ।
‘अद्य आसिबेन राजा’—कैल निवेदन ॥३४॥
राजा बीरहाम्बीरेर याजिग्रामे आगमन—
एथा राजा श्रीवीरहाम्बीर हर्षमने ।
वनविष्णुपुर हैते आइसे शुभक्षणे ॥३५॥
याजिग्राम दर्शने उल्लास अतिशय़ ।
दूरे रहि राजा याजिग्रामे प्रणमय़ ॥३६॥
याजिग्राम-निकटे देखिय़ा दिव्य स्थान ।
तथाइ हईल स्थिर करिते विश्राम ॥३७॥
अश्व-गज-पदातिक-आदि तथा थुइय़ा ।
ग्रामे प्रवेशय़े सङ्गे कथोजन लैय़ा ॥३८॥
ये सब सामग्री आनिलेन गृह हईते ।
प्रथमेइ पाठाइला प्रभुर बाड़ीते ॥३९॥
श्रीआचार्यप्रभु-पद करिय़ा स्मरण ।
धीरे धीरे चले यथा आचार्यभवन ॥४०॥
आचार्यप्रभुर पादपद्म निरखिय़ा ।
वार वार प्रणमÿए भूमिते पड़िय़ा ॥४१॥
नरोत्तम तेज देखि मने विचारिय़ ।
‘एइ प्रभु अवश्य ठाकुर महाशय़ ॥४२॥
हईनु कृतार्थ्ə’—बलि हर्ष अनिवार ।
नरोत्तमपदे प्रणमÿए वार वार ॥४३॥
श्रीआचार्यठाकुर ठाकुर नरोत्तम ।
अति अनुग्रह करि कैल आलिङ्गन ॥४४॥
रामचन्द्र कविराज पदे प्रणमिय़ा ।
निवेदय़े प्रभुगणे—‘देह चिनाइय़ा’ ॥४५॥
हैय़ा हर्ष रामचन्द्र गुणेर आलय़ ।
जानाइला प्रभु परिकर परिचय़ ॥४६॥
राजा महाहर्ष, भूमे पड़े प्रणमिते ।
आलिङ्गन कैला सबे विह्वल प्रेमेते ॥४७॥
राजा वीरहाम्बीरेर मने ये उल्लास ।
कहिते कि जानि यैछे भक्तिर प्रकाश ॥४८॥
याजिग्रामवासी लोक उल्लास हिय़ाय़ ।
देखिय़ा राजार भक्ति प्रशꣳसे राजाय़ ॥४९॥
यत परिकर वीरहाम्बीर राजार ।
सबार निर्मल भक्तिपथे अधिकार ॥५०॥
गणसह राजार सौभाग्य सीमा नाइ ।
परस्पर सबे प्रशꣳसय़े ठाꣳइ ठाꣳइ ॥५१॥
श्रीआचार्य ठाकुर, ठाकुर महाशय़ ।
देखिय़ा राजार चेष्टा हर्ष अतिशय़ ॥५२॥
आचार्य-ठाकुर रामचन्द्रे निरखिय़ा ।
श्रीवीरहाम्बीरे ताꣳरे दिल समर्पिय़ा ॥५३॥
वीर हाम्बीरेर मने उपजय़े याहा ।
रामचन्द्र कविराजे जिज्ञासेन ताहा ॥५४॥
यैछे इष्टगोष्ठी दोꣳहे—सर्वत्र प्रचार ।
अन्य ग्रन्थे विस्तारि वर्णिल ग्रन्थकार ॥५५॥
राजा निज प्रभु-प्रिय़गणेर दर्शने ।
के कहिते पारे ये आनन्द याजिग्रामे ॥५६॥
याजिग्रामे रहे—ए राजार मनोवृत्ति ।
तिले तिले याजिग्रामे बार्ह्̤ए महा आर्ति ॥५७॥
विष्णुपुर याइते राजार मन नाइ ।
जानाइला रामचन्द्र आचार्येर टाꣳइ ॥५८॥
आचार्य ठाकुर, श्रीठाकुर महाशय़ ।
स्नेहावेशे श्रीवीरहाम्बीरे प्रबोधय़ ॥५९॥
प्रबोधिय़ा लोक सङ्गे दिय़ा सेइक्षणे ।
पाठाइला सर्वाराध्य स्थान सन्दर्शने ॥६०॥
राजा अति दीनप्राय़ सर्वत्र भ्रमिला ।
सर्व महान्तेर अनुग्रहे हर्ष हैला ॥६१॥
याजि ग्रामे आसिय़ा विचारे मने मने ।
‘प्रभु विना विष्णुपुर याइब केमने’ ॥६२॥
राजार अन्तर जानि आचार्य ठाकुर ।
कहय़े राजार प्रति वचन मधुर ॥६३॥
‘खेतरिग्रामेते गिय़ा किछुदिन परे ।
तथा हैते एथा आसि याब विष्णुपुरे’ ॥६४॥
खड़दह हैते श्रीजाह्नवी ईश्वरी ।
पाठाबेन सꣳवाद—आछिय़े पथ हेरि ॥६५॥
खड़दह हईते श्रीजाह्नवी देवी कर्तृक श्रीवृन्दावने श्रीराधिकाविग्रह प्रेरण—
एत कहितेइ केꣳछो मनेर उल्लासे ।
खड़दह हैते आइला आचार्येर पाशे ॥६६॥
ताꣳरे देखि आचार्येर उल्लास हृदय़ ।
सुमधुर वाकेयेते मङ्गल जिज्ञासय़ ॥६७॥
तेꣳहो अति विनय़पूर्वक मृदुभाषे ।
निवेदय़े सꣳक्षेपे श्रीआचार्येर पाशे ॥६८॥
‘सकल मङ्गल खड़दहे श्रीईश्वरी ।
वितरय़े प्रेमभक्ति जीवे कृपा करि ॥६९॥
राधिकार श्रीमूर्ति निर्माण कराइय़ा ।
हैला महाविह्वल से शोभा निरखिय़ा ॥७०॥
श्रीपरमेश्वरीदास-आदि विज्ञगणे ।
आज्ञा कैला लईय़ा याइते वृदावने ॥७१॥
सप्त शत मुद्रा, वस्त्रालङ्कारादि दिला ।
रत्नपूर्वक अपूर्व नौकाय़ चड़ाइला ॥७२॥
कहय़े श्रीगोपीनाथे करिय़ा स्मरण ।
‘शीघ्र निज प्रिय़ाय़ करह आकर्षण’ ॥७३॥
श्रीईश्वरी चेष्टा के बुझिब अन्य जने ।
करिलेन विदाय़ परम शुभक्षणे ॥७४॥
विदाय़ हईते नौका आइल त्वराय़ ।
एकदिन स्थिति मात्र हैल नदीय़ाय़ ॥७५॥
अद्य नौका आसिबेकः कण्टकनगरे ।
पत्री लैय़ा मुइ एथा आइल सत्वरे’ ॥७६॥
एत कहि पत्री दिला आचार्येर हाते ।
आचार्य लईय़ा पत्री धरिलेन माथे ॥७७॥
पत्रीपाठमात्रे महा उल्लास अन्तरे ।
सबा सह चलेन श्रीकण्टकनगरे ॥७८॥
वस्त्र अलङ्कार आदि ये प्रस्तुत छिल ।
दिवेन—एहेतु ताहा सङ्गे करि निल ॥७९॥
सहस्रेक मुद्रा वीरहाम्बीर गोपने ।
दिलेन श्रीरामचन्द्र कविराज स्थाने ॥८०॥
रामचन्द्र आचार्य प्रभुरे जानाइल ।
हासिय़ा आचार्य ताहा सङ्गे करि निल ॥८१॥
काटोय़ाय़ श्रीभारतीघाटे श्रीविग्रहेर नौका, वैष्णवगणेर मिलन सꣳकीर्तनानन्द—
कण्टकनगरे शीघ्र उपनीत हईला ।
श्रीकेशवभारती गोꣳसाइर घाटे आइला ॥८२॥
देखेन—से घाटे नौका आइल सेइक्षणे ।
हैल महानन्द परस्पर सन्मिलने ॥८३॥
श्रीपरमेश्वरीदास, नृसिꣳहचैतन्य ।
ठाकुर कानाइ आदि सर्वाꣳशे नैपुण्य ॥८४॥
के बुझिते पारे एइ सबार अन्तर ।
श्रीआचार्ये मिलि सुख बार्ह्̤इल विस्तर ॥८५॥
श्रीनवद्वीपेर कथा आचार्य कहिते ।
हईला व्याकुल—केहो नारे स्थिर हैते ॥८६॥
श्रीनिवास आचार्यादि अधैर्य हृदय़ ।
कतक्षणे स्थिर हैल सबे प्रेममय़ ॥८७॥
श्रीपरमेश्वरी दास आदि सर्वजने ।
प्रणामिला राजा पड़ि सबार चरणे ॥८८॥
सकलेइ पाइय़ा राजार परिचय़ ।
कैला गाढ़ालिङ्गानुग्रह अतिशय़ ॥८९॥
देखि से सबार तेज श्रीवीरहाम्बीर ।
प्रेमानन्दे अधैर्य—हईते नारे स्थिर ॥९०॥
कण्टकनगरवासी देखि प्रेमोदय़ ।
राजार सौभाग्य सकलेइ प्रशꣳसय़ ॥९१॥
शुनिते राजार दैन्य केबा नाहि झरे ।
नृसिꣳहचैतन्य ‘धन्य’ कहय़े राजारे ॥९२॥
केहो कछे—‘आचार्येर कृपा बलवान् ।
से सम्बन्धे राजा येन प्राणेर समान’ ॥९३॥
राजाय़ अद्भुत स्नेह बार्ह्̤इल सबार ।
कहिते कि जानि—जन्मे ये चेष्टा राजार ॥९४॥
श्रीपरामेश्वरीदास ठाकुर उल्लासे ।
लैय़ा गेला नौकाय़ ठाकुर श्रीनिवासे ॥९५॥
आचार्येर प्रति कहे मधुर वचन ।
‘श्रीईश्वरी पुनः याइबेन वृन्दावन ॥९६॥
श्रीराधिका श्रीगोपीनाथेरे समर्पिय़ा ।
आमरा आसिब शीघ्र नौकाय़ चापिय़ा’ ॥९७॥
एत कहि घुचाइय़ा वस्त्र आवरण ।
कराइल राधिकार श्रीमूर्ति दर्शन ॥९८॥
सर्वाङ्ग सुन्दर—दिते उपमा ना हय़ ।
देखिय़ा आचार्य प्रेमे विह्वलातिशय़ ॥९९॥
पुनः श्रीपरमेश्वरीदास आचार्येरे ।
देखान सामग्री सब आनन्द अन्तरे ॥१००॥
‘गोपीनाथ, श्रीगोपीनाथेर प्रिय़ाद्वय़ ।
ए तिनेर वस्त्र अलङ्कारादि ए हय़ ॥१०१॥
श्रीगोविन्द मदनमोहन प्रभुगणे ।
समर्पिब ए वस्त्रालङ्कार स्थाने स्थाने’ ॥१०२॥
पृथक् पृथक् ऐछे सब देखाइल ।
देखि आचार्येर महा आनन्द बाड़्हिल ॥१०३॥
वस्त्र-अलङ्कार किछु, मुद्रा सहस्रेक ।
दिलेन आचार्य करि विनय़ अनेक ॥१०४॥
श्रीपरमेश्वरीदास परम स्नेहेते ।
करान दर्शन सबे आनिय़ा नौकाते ॥१०५॥
नरोत्तम, रामचन्द्र, गोविन्द, श्रीदास ।
गोकुलानन्दादि सबे दर्शने उल्लास ॥१०६॥
गङ्गातीरे लोकेर सꣳघट्ट अतिशय़ ।
देखिय़ा वैष्णवशोभा हर्षे कत कय़ ॥१०७।
कतक्षण गङ्गातीरे रहि सर्वजन ।
चलिलेन ‘गौराङ्गेर’ करिते दर्शन ॥१०८॥
श्रीयदुनन्दन आदि महाहर्ष मने ।
सबे लैय़ा गेलेन ‘श्रीगौराङ्ग’-प्राङ्गणे ॥१०९॥
‘गौराङ्गेर’ दर्शन करिय़ा सर्वजन ।
हईला अधैर्य—अश्रु नहे निवारण ॥११०॥
उथलिल प्रेमसिन्धु ‘गौराङ्ग’ प्राङ्गणे ।
सकले हईला मत्त श्रीनामसङ्कीर्तने ॥१११॥
श्रीनामकीर्तन-ध्वनि भेदय़े गगन ।
नृसिꣳहचैतन्य करे अद्भुत नर्तन ॥११२॥
प्रेमावेशे कहय़े परमेश्वरी दास ।
‘गाओ गाओ ओहे नरोत्तम श्रीनिवास ॥११३॥
ठाकुर कानाइ स्थिर हईते ना पारे ।
रामचन्द्रे आलिङ्गन करे वारे वारे ॥११४॥
श्रीदास गोकुलानन्द गोविन्दादि यत ।
श्रीनाम-कीर्तने सबे हैला उन्मत ॥११५॥
प्रभु-प्रिय़गणेर सर्वस्व सङ्कीर्तन ।
सङ्कीर्तने कारे वा ना करे आकर्षण ॥११६॥
नाम-सङ्कीर्तन-सुधा पिय़ा कतक्षणे ।
हईलेन स्थिर सबे ‘गौराङ्ग’ प्राङ्गणे ॥११७॥
यथा प्रभु करिलेन सन्न्यास ग्रहण ।
तथा धूलिधूसर हईला सर्वजन ॥११८॥
कहिते कि जानि प्रभुगणेर ये रीति ।
से दिवस कण्टकनगरे कैला स्थिति ॥११९॥
रजनी प्रभात हईतेइ परस्पर ।
हईला विदाय़ महा व्याकुल अन्तर ॥१२०॥
श्रीपरमेश्वरीदास आदि कत कैय़ा ।
कण्टकनगर हैते गेला नौका लैय़ा ॥१२१॥
राजा वीरहाम्बीरके विष्णुपुरे प्रेरण—
श्रीनिवास आचार्य लईय़ा प्रिय़गणे ।
कण्टकनगर हैते आइला याजिग्रामे ॥१२२॥
निरुपम स्नेइ आचार्येर शिष्य प्रति ।
राजारे विदाय़ दिव—इथे खेद अति ॥१२३॥
विष्णुपुर याइबेन श्रीवीरहाम्बीर
विदाय़ हईते चित्ते ना बाꣳधय़े थिर ॥१२४॥
आचार्य प्रभुर पादपद्म धरि शिरे ।
अश्रुयुक्त हईय़ा कहय़े धीरे धीरे ॥१२५॥
‘वनविष्णुपुर शीघ्र गमन करिय़ा ।
करिबे सनाथ कृपादृष्टे निरखिय़ा’ ॥१२६॥
आलिङ्गन करि कहे, आचार्य ठाकुर ।
‘ना हईबे विलम्ब याइते विष्णुपुर’ ॥१२७॥
इहा शुनि पड़े नरोत्तम पदतले ।
सिञ्चय़े दुखानि पादपद्म नेत्रजले ॥१२८॥
‘करो अनुग्रह’—कहे गद्गद वचने ।
‘मोर सम आपराधी नाइ त्रिभुवने ॥१२९॥
मोर कुक्रिय़ा दुःख पाइला अन्तरे ।
से सब भाविते हिय़ा कि जानि कि करे’ ॥१३०॥
इहा शुनि कहेन ठाकुर महाशय़ ।
‘से कुक्रिय़ा हैते हैल सर्वत्र विजय़ ॥१३१॥
एबे आर से सकल ना करिह मने ।
सावधान हओ भक्तिरत्न उपार्जने’ ॥१३२॥
ऐछे कत कहि कैल गाढ़ आलिङ्गन ।
हईल राजार महा उल्लासित मन ॥१३३॥
रामचन्द्र गोविन्दचरणे प्रणमिय़ा ।
करय़े ये दैन्य ता शुनिते द्रवे हिया ॥१३४॥
श्रीदास, गोकुलानन्द दोꣳहार चरणे ।
प्रणमय़े राजा, अश्रु झरय़े नय़ने ॥१३५॥
श्रीआचार्य प्रभुर यतेक शिष्यगण ।
क्रमे क्रमे बन्दिलेन सबार चरण ॥१३६॥
याजिग्रामवासी लोकगणे प्रणमिय़ा ।
विदाय़ हईला राजा व्याकुल हईय़ा ॥१३७॥
राजार महिषी महा उल्लास अन्तरे ।
छिलेन श्रीआचार्येर भवन-भितरे ॥१३८॥
आचार्येर भार्या—नाम ‘द्रौपदी’ ईश्वरी ।
सर्वगुणे परिपूर्णा, अद्भुत माधुरी ॥१३९॥
आनिय़ाछिलेन राणी वस्त्र-अलङ्कार ।
ताहा पराइय़ा देखे शोभा चमत्कार ॥१४०॥
से-दुइ चरण राणी मस्तके धरिला ।
विदाय़ हईते महाव्याकुल हईला ॥१४१॥
याजिग्राम-भूमे वार वार प्रणमिय़ा ।
चलिलेन राणी चतुर्दलेते चापिय़ा ॥१४२॥
याजिग्राम हईते राजा गिय़ा कथोदूरे ।
दिव्य याने चड़्हि गेला वनविष्णुपुरे ॥१४३॥
श्र्रीनिवासाचार्य प्रभुर खेतरीते गमन—
श्रीआचार्यठाकुर ताहार पर दिने ।
खण्डे गेला नरोत्तम रामचन्द्र सने ॥१४४॥
श्रीरघुनन्दने प्रणमिय़ा निवेदय़ ।
‘कालि प्राते खेतरि याइब-आज्ञा हय़’ ॥१४५॥
श्रीरघुनन्दन कहे—‘याइबा खेतरि ।
किछुदिन रहिय़ा आसिबा शीघ्र करि’ ॥१४६॥
एत कहि विदाय़ दिलेन आचार्येरे ।
याजिग्रामे आसि सबे चिन्तय़े अन्तरे ॥१४७॥
आचार्य ठाकुर नरोत्तम प्रति कय़ ।
‘ठाकुरेर ऐछे आज्ञा कभु नाहि हय़ ॥१४८॥
चैतन्यगणेर चेष्टा बुझे साध्य कार ।
ना जानि कुखन वा करेन अन्धकार’ ॥१४९॥
एत कहितेइ अश्रु झरय़े नय़ने ।
हईय़ा अधैर्य स्थिर हैला कतक्षणे ॥१५०॥
आचार्य ठाकुर शीघ्र सबारे लईय़ा ।
याजिग्राम हईते आइला काञ्चन गड़िय़ा ॥१५१॥
तथा दुइ दिवस करिला अवस्थिति ।
सङ्कीर्तन-आनन्दे निमग्न दिवाराति ॥१५२॥
चलिलेन काञ्चनगाड़िय़ा ग्राम हैते ।
आइलेन बुधरि ग्रामेर प्रदेशेते ॥१५३॥
बुधरिनिवासी लोक महाहर्ष मने ।
आगुसरि आनिलेन अपूर्व भवने ॥१५४॥
श्रीआचार्यठाकुर, ठाकुर महाशय़ ।
रामचन्द्र आदि हैला उल्लासातिशय़ ॥१५५॥
श्रीआचार्यठाकुर परमानन्द मने ।
दिवानिशि उन्मत्त हईला सङ्कीर्तने ॥१५६॥
बुधरि ग्रामेते दुइ दिन स्थिति करि ।
पद्मावती पार हैय़ा गेलेन खेतरि ॥१५७॥
श्रीखेतरिवासी लोक महाहर्ष चिते ।
लईय़ा गेलेन पद्मावतीतीर हैते ॥१५८॥
खेतरि ग्रामेते प्रवेशिय़ा सर्वजन ।
मनेर आनन्दे कैल प्रभुर दर्शन ॥१५९॥
कतक्षण रहि सबे प्रभुर प्राङ्गणे ।
निज निज वासाय़ गेलेन सर्वजने ॥१६०॥
भाग्यवन्त लोक यत खेतरिनिवासी ।
दर्शन आनन्दे ना जानय़े दिवानिशि ॥१६१॥
श्रीआचार्यठाकुर, ठाकुर महाशय़ ।
दिवारात्रि सङ्कीर्तनानन्दे विलसय़ ॥१६२॥
भक्तिरससाय़रे ब्वा कारे ना डुबाय़ ।
दोꣳहार अधुते दय़ा केबा नाहि गाय़ ॥१६३॥
श्रीनिवास नरोत्तम-दोꣳहार चरित ।
दिने दिने सर्वत्रई हय़ेन विदित ॥१६४॥
एकदिन एक महा पाषण्ड दुर्जय़ ।
सङ्कीर्तने दोꣳहे देखि हईला विस्मय़ ॥१६५॥
बङ्गदेशी सेइ विप्र भासि नेत्रजले ।
लोटाइÿआ पड़िला दोꣳहार पदतले ॥१६६॥
तार्किक विषय़ी विप्र हैल भक्तिमय़ ।
करिला श्रीआचार्येर पादपद्माश्रय़ ॥१६७॥
आचार्य सोꣳपिला प्राण नरोत्तमे तारे ।
सबे हर्ष हैला तार भक्ति अधिकारे ॥१६८॥
ऐछे रङ्ग प्रकाशे आचार्य नरोत्तम ।
क्ले बुझिते पारे दोꣳहा चरित्र दुर्गम ॥१६९॥
एकदिन आचार्य श्रीनरोत्तमे लईय़ा ।
हईलेन व्याकुल निर्जने किबा कैय़ा ॥१७०॥
अति अल्प दिन रहि हईय़ा विदार ।
गणसह याजिग्रामे आइला त्वराय़ ॥१७१॥
चलिला ठाकुर रघुनन्दनेर पाशे ।
तेꣳहो स्नेहावेशे कोले कैला श्रीनिवासे ॥१७२॥
जिज्ञासि कुशल श्रीनिवास-करे धरि ।
निर्जने बसिय़ा किछु कहे धीरि धीरि ॥१७३॥
‘आइसे समय़—इथे विषम हईब ।
सबाकार मने नाना सन्देह जन्मिब ॥१७४॥
तथाहि श्रीभजनामृते—
कृष्णचैतन्यचन्द्रेण नित्यानन्देन सꣳहृते ।
अवतारे कलावस्मिन् वैष्णवः सर्व एव हि ॥१७५॥
भविष्यन्ति सदोद्विग्नाः काले काले दिने दिने ।
प्राय़ः सन्दिग्धहृदय़ा उत्तमेतरमध्यमाः ॥१७६॥
नहिबे चिन्तित इथे—प्रभु गोरराय़ ।
साधिब अनेक कार्य तोमार द्वाराय़ ॥१७७॥
चिरजीवी हईय़ा रहिते पृथिवीते ।
राखिबे प्रभुर धर्म स्वगण-सहिते ॥१७८॥
तोमार प्रभावे कृष्णबहिर्मुखगण ।
हईब उन्मुख लैय़ा तोमार शरण’ ॥१७९॥
श्रीरघुनन्दन प्रभुर तिरोभाव—
ऐछे कत कहि श्रीनिवासे प्रबोधिला ।
‘मदनगोपाल-गौराङ्गेर’ आगे गेला ॥१८०॥
पुत्रे समर्पिय़ा गौर-गोपालचरणे ।
तिनदिन महामत्त हैला सङ्कीर्तने ॥१८१॥
नरहरि-पादपद्म करिय़ा स्मरण ।
गोपाल-गौराङ्गरूपे अर्पिला नय़न ॥१८२॥
श्रीकृष्चैतन्यनाम लैय़ा वार वार ।
हैला सङ्गोपन—देखि लोके चमत्कार ॥१८३॥
धन्य से श्रावण शुक्ला चतुर्थी दिवस ।
के वा नाहि गाय़ रघुनन्दनेर यश ॥१८४॥
श्रीरघुनन्दन पुत्र ठाकुर कानाइ ।
कैला महोत्सव—आय़ोजन अन्त नाइ ॥१८५॥
श्रीनिवासाचार्य खण्डे रहिला तावत् ।
महामहोत्सव साङ्ग नहिल यावत् ।१८६॥
हैले महोत्सव यैछे ना हय़ वर्णन ।
सकल महान्त खण्डे करिला गमन ॥१८७॥
आचार्य ठाकुर प्राज्ञ सर्व समाधाने ।
कहिते कि जानि—ये आनन्द सङ्कीर्तने ॥१८८॥
श्रीठाकुर कानाइर पुत्र श्रीमदन ।
तेꣳहो सङ्कीर्तने कैला अद्भुत नर्तन ॥१८९॥
मदनेर गुणगण के कहिते पारे ।
प्रसङ्ग पाइय़ा किछु कहि स्वल्पाक्षारे ॥१९०॥
कैशोरे कानाइर क्रमे हैल पुत्रद्वय़ ।
श्रीमदन आर वꣳशी—भक्तिरसमय़ ॥१९१॥
मदन पौगण्डे भक्तिरत्न प्रकाशिला ।
प्रभु-नरहरिपदे आत्म समर्पिला ॥१९२॥
यारे देखि महानन्द पाय़ सर्वाजने ।
ये नृत्य कीर्तने, ता वर्णिते केबा जाने ॥१९३॥
कि बलिब—श्रीखण्डे ये प्रेमेर प्रकाश ।
हईल सम्पूर्ण याꣳर येह अभिलाष ॥१९४॥
श्रीनिवासाचार्यप्रभुर वनविष्णुपुरे गमन एवꣳ द्वितीय़ दार-परिग्रह—
सकल महान्त निज निजालाय़े गेला ।
श्रीनिवासाचार्य यत्ने विदाय़ हईला ॥१९५॥
ठाकुर कानाइ ये कहिल गन्तुकाले ।
शुनि श्रीनिवास भासे नय़नेर जले ॥१९६॥
श्रीरघुनन्दन-गुणगण सोङरिय़ा ।
आइलेन याजिग्रामे काꣳदिय़ा काꣳदिय़ा ॥१९७॥
याजिग्रामे आचार्य रहिय़ा दिन चारि ।
वनविष्णुपुरे गेला अति शीघ्र करि ॥१९८॥
गोष्ठीसह राजा महा उल्लास अन्तरे ।
आगुसरि लैय़ा गेला आचार्य ठाकुरे ॥१९९॥
विष्णुपुरे आचार्येर अपूर्व आलय़ ।
गणसह कैल तथा आचार्य विजय़ ॥२००॥
महाभाग्यवन्त यत विष्णुपुरवासी ।
आचार्येर दर्शने विह्वल दिवानिशि ॥२०१॥
एकदिन श्रीआचार्य ठाकुर स्वप्नेते ।
करय़े विवाह गौरचन्द्रेर आज्ञाते ॥२०२॥
ए अति कौतुक—जानाइय़े सꣳक्षेपे ।
आचार्येर द्वितीय़ विवाह येन मते ॥२०३॥
गोपालपुर नामेते ग्राम राढ़देशे ।
ब्राह्मणसमाज तथा अशेष विशेषे ॥२०४॥
सेइ ग्रामे रघुनाथ विप्रेर आलय़ ।
श्रीराघव चक्रवर्ती नाम-केहो कय़ ॥२०५॥
श्रीमाधवी नामे हय़ विप्रेर वनिता ।
ताꣳर कन्या श्रीगौराङ्गप्रिय़ा सुचरिता ॥२०६॥
कन्यार सम्बन्ध कथु स्थिर नाहि हय़ ।
ब्राह्मण-ब्राह्मणी-चित्ते चिन्ता अतिशय़ ॥२०७॥
एकदिन रजनीप्रभाते ठाकुराणी ।
कहय़े भर्तार प्रति सुमधुर वाणी ॥२०८॥
‘स्वप्ने मोरे कहे एक विप्र महा आर्य ।
तोमार कन्यार भर्ता श्रीनिवासाचार्य ॥२०९॥
यत्ने मुइ ताꣳहार आगमन जिज्ञासिते ।
तेꣳहो कहे—आइलाम शान्तिपुर हैते ॥२१०॥
पुनः किछु जिज्ञासिते निद्रा भङ्ग हैल ।
ये तेज देखिनु ताहा हृदय़े व्यापिल’ ॥२११॥
विप्र कहे—‘प्रभाते मुइ देखिनु स्वपन ।
श्रीनिवासाचार्ये कैनु कन्या समर्पण’ ॥२१२॥
शुनिय़ा ब्राह्मणी कहे—विलम्बे कि आर ।
याइ तथा अवश्य करिब अङ्गीकार’ ॥२१३॥
ब्राह्मणीर वाक्ये विप्र उल्लास अन्तरे ।
शीघ्र गिय़ा निवेदन कैल आचार्येरे ॥२१४॥
शुनिय़ा आचार्य स्तब्ध हईय़ा रहिला ।
सर्व-मनोहित लागि विवाह करिला ॥२१५।
सर्वलोक ‘धन्य धन्य’ कहे वार वार ।
‘यैछे कन्या तैछे पात्र—शोभा चमत्कार’ ॥२१६॥
गोष्ठीसह राजार उल्लास अतिशय़ ।
आचार्य विवाहे बहु अर्थ कैल व्यय़ ॥२१७॥
किछुदिन आचार्य रहिय़ा विष्णुपुरे ।
आइलेन याजिग्रामे प्रबोधि सबारे ॥२१८॥
सबा सह आचार्य गमन निज घरे ।
ग्रामवासी लोक देखे उल्लास अन्तरे ॥२१९॥
आचार्येर भार्या दुꣳहु दोꣳहे निरखिय़ा ।
स्वाभाविक प्रेमानन्दे उथलय़े हिय़ा ॥२२०॥
दोꣳहार ये प्रेमचेष्टा कहि साध्य नाइ ।
आचार्येर सेवासुखे विह्वल सदाइ ॥२२१॥
आचार्य श्रीकृष्णप्रेमानन्दे विलसय़ ।
शिष्यगणे भक्तिग्रन्थरत्न वितरय़ ॥२२२॥
वृन्दावने श्रीश्रीगोपीनाथेर श्रीराधिकासह मिलन वृत्तान्त—
एकदिन आचार्य कहय़े शिष्यगणे ।
‘अकस्मात् आनन्द जन्मिछे मोर मने ॥२२३॥
श्रीपरमेश्वरीदास आदि प्रभुगण ।
अद्य वा सभार एथा हय़ आगमन’ ॥२२४॥
एत कहितेइ श्रीपरमेश्वरीदास ।
आइसेन दूरे—देखिलेन श्रीनिवास ॥२२५॥
सबासह आगुसरि आचार्य ठाकुर ।
कैल ये सन्मान ताहा वचनेर दूर ॥२२६॥
श्रीपरमेश्वरीदास आदि सर्वजने ।
जिज्ञासे कुशल बसाइय़ा दिव्यासने ॥२२७॥
श्रीपरमेश्वरीदास कहे धीरि धीरि ।
‘निर्विघ्ने गेलाम वृन्दावने शीघ्र करि’ ॥२२८॥
सेवाधिकारीरे गोपीनाथ आज्ञा कैला ।
लैय़ा गेनु याꣳरे, ताꣳरे वामे बसाइला ॥२२९॥
पूर्व ठाकुराणी हर्षे बसिला दक्षिणे ।
हईले अद्भुत शोभा—देखिनु नय़ने ॥२३०॥
ओहे श्रीनिवास ! केहो नारे स्थिर हैते ।
प्रिय़ासह सिꣳहासने देखि गोपीनाथे ॥२३१॥
परस्पर कहे—देख कि अपूर्व वेशे ।
जाह्नवा-प्रेषित राधिका वाम पाशे ॥२३२॥
ऐछे कहि जाह्नवा-ईश्वरी-गुण गाय़ ।
प्रकाशे महिमा—शुनि केबा ना जुड़ाय़ ॥२३३॥
पुनः सबे ईश्वरीर दर्शन लागिय़ा ।
करय़े प्रार्थना गोपीनाथ मुख चाय़ा ॥२३४॥
लोकेर ये आर्ति ताहा कहिल ना हय़ ।
एकदृष्ट्ये श्रीराधिका-पाने निरीखय़ ॥२३५॥
‘श्रीजाह्नवा-स्थापित राधिका—एइ कैय़ा ।
इतस्ततः फिरे लोक उल्लसित हैय़ा ॥२३६॥
तथा महामहोत्सव करिय़ा दर्शन ।
एथा अति निर्विघ्ने आइनु सर्वजन ॥२३७॥
कण्टकनगरे अद्य नौकाय़ चड़िब ।
खड़्अदहे शीघ्र ए सꣳवाद जानाइब ॥२३८॥
श्रीईश्वरी पुनः शीघ्र याइबेन तथा ।
तोमारेओ कहिय़ाछि—आछे पूर्वकथा ॥२३९॥
शुनि श्रीआचार्य महा उल्लास हईला ।
सबासह श्रीकण्टकनगरे आइला ॥२४०॥
श्रीपरमेश्वरी आदि चड़्हिला नौकाय़ ।
शीनिवास कहि कत हईला विदाय़ ॥२४१॥
श्रीपरमेश्वरी आदि खड़दहे गेला ।
श्रीवसु-जाह्नवा-श्रीचरणे प्रणमिला ॥२४२॥
कहिल सकल—शुनि जाह्नवा ईश्वरी ।
हैला प्रेमाविष्ट यैछे कहिते ना पारि ॥२४३॥
ईश्वरीर मनोवृत्ति के बुझिते पारे ।
श्रीपरमेश्वरीदासे कहे धीरे धीरे ॥२४४॥
‘तड़ा आठपुर ग्रामे शीघ्र करि याह ।
तथा राधागोपीनाथ-सेवा प्रकाशह’ ॥२४५॥
ईश्वरी-आज्ञाय़ श्रीपरमेश्वरीदास ।
राधा-गोपीनाथ सेवा करिल प्रकाश ॥२४६॥
श्रीईश्वरी गमन करिला सेइखाने ।
हैल ये उत्सव ता देखिल भाग्यवाने ॥२४७॥
ये ये ग्रामे ईश्वरीर हईल गमन ।
से सब ग्रामेर भाग्य ना हय़ वर्णन ॥२४८॥
श्रीवीरचन्द्र प्रभुर विवाहलीला—
राजबल हाटेर निकट झामटपुरे ।
गेलेन ईश्वरी एक भृत्येर मन्दिरे ॥२४९॥
तथा विप्र यदुनन्दनाचार्य बैसय़ ।
ईश्वरी-कृपाय़ तेꣳहो हैला भक्तिमय़ ॥२५०॥
यदुनन्दनेर भार्या—लक्ष्मी नाम ताꣳर ।
कहिते कि—अति पतिव्रताधर्म याꣳर ॥२५१॥
ताꣳर दुइ दुहिता—श्रीमती, नाराय़णी ।
सौन्दर्येर सीमाद्भुत अङ्गेर बलनी ॥२५२॥
श्रीईश्वरी-इच्छाय़ से विप्र भाग्यवान् ।
प्रभु वीरचन्द्रे दुइ कन्या कैल दान ॥२५३॥
विवाह-समय़े महा कौतुक हईल ।
यदुनन्दनेरे वीरचन्द्र शिष्य कैल ॥२५४॥
जाह्नवा ईश्वरी अति उल्लसित हैय़ा ।
श्रीमती, नाराय़णी—दोꣳहे शिष्य कैला ॥२५५॥
वीरचन्द्र विवाह देखिल भाग्यवाने ।
विवाहे ये शोभा ता वर्णिते केबा जाने ॥२५६॥
महातेजोमय़ नित्यानन्देर नन्दन ।
चैतन्य-अभिन्नदेह भुवनमोहन ॥२५७॥
तथाहि श्रीगौरगणोद्देशदीपिकाय़ाꣳ—
सङ्कर्षणस्य यो व्युहः पय़ोधिशाय़िनामकः ।
स एव वीरचन्द्रो’भूच्चैतन्याभिन्नविग्रहः ॥२५८॥
विवाह करिय़ा गृहे आइला वीरचन्द्र ।
पुत्रवधु देखि वसु हैला महानन्द ॥२५९॥
खड़दह ग्रामे हैल उल्लास सबार ।
दिलेने यौतुक यत लेखा नाइ तारे ॥२६०॥
भ्रातार विवाहे गण्गादेवी हर्ष अति ।
श्रीगङ्गादेवीर गुण कहि कि शकति ॥२६१॥
ताꣳर शुभविवाहे कौतुक हैल यत ।
सर्वत्र विदित ताहा के कहिते कत ॥२६२॥
गङ्गादेवी विष्णुपादोद्भवा गङ्गा हय़ ।
ताꣳर भर्ता आचार्य माधव भक्तिमय़ ॥२६३॥
तथाहि श्रीगौरगणोद्देशदीपिकायाꣳ—
विष्णुपादोद्भवा गङ्गा यासाꣳ सा निजनामतः ।
नित्यानन्दात्मजा जाता माधवः शातनुर्नृपः ॥२६४॥
श्रीवैष्णवन्दनाय़ाम्—
प्रेमानन्दमय़ वन्द आचार्य माधव ।
भक्तिबले हैला गङ्गादेवीर वल्लभ ॥२६५॥
श्रीजाह्नवादेवीर श्रीगोपीनाथ-सेवा—
खड़दहे मे आनन्द कहने ना य़ाय़ ।
वीरचन्द्रचरित्र केबा नाहि गाय़ ॥२६६॥
पुत्रेर विवाह दिला जाह्नवा ईश्वरी ।
दीनहीन जने कैला भक्ति अधिकारी ॥२६७॥
पुनः गणसह शीघ्र गेला वृन्दावन ।
राधासह गोपीनाथे करिला दर्शन ॥२६८॥
मध्ये गोपीनाथ, राधा दक्षिण वामेते ।
महाद्भुत शोभा वर्णे नानामते ॥२६९॥
तथाहि स्रीविश्वनाथचक्रवर्तिकृतस्तवामृतलहर्याम्—
तापिञ्छः किꣳ प्रेमवल्लीमुपान्तः
पार्श्वद्वन्द्वद्योतिविद्युद् घनः किम् ।
किꣳवा मध्ये राधय़ोः श्यामलेन्दुर्-
गोपीनाथः पीनवक्षा गतिर्नः ॥२७०॥
श्रीगोपीनाथेर भङ्गि कहि कि शकति ।
श्रीजाह्नवा-प्रेमाधीन से प्रेममूरति ॥२७१॥
तथाहि तत्रैव—
श्रीजाह्नवा मूर्तिमान् प्रेमपुञ्जो
दीनानाथान् दर्शय़न् स्वꣳ प्रसीदन् ।
पुष्णन् देवालभ्यफेलः सुधाभिर्
गोपीनाथ पीनवक्षा गतिर्नः ॥२७२॥
ईस्वरी गौड़ हईते ये द्रव्य आनिल ।
ताहा राधा-गोपीनाथे समर्पण कैल ॥२७३॥
अन्न-व्यञ्जनादि नाना सामग्री करिला ।
श्रीराधिका सह गोपीनाथे भुञ्जाइला ॥२७४॥
राधा-गोपीनाथे कैल अशेष प्रार्थना ।
ईश्वरीर चेष्टा वा बुझिब कुन जना ॥२७५॥
श्रीगोविन्द-मदनमोहन-स्थाने गेला ।
श्रीराधिका-सह देखि नेत्र जुड़ाइला ॥२७६॥
श्रीराधिका-सह तिन प्रभु दय़ामय़ ।
गौड़ीय़गणेर प्राण जीवन निश्चय़ ॥२७७॥
तथाहि श्रीचैतन्यचरितामृते अन्त्यखण्डे—
श्रीराधिका-सह श्रीश्रीमदनमोहन ।
श्रीराधिका-सह श्रीश्रीगोविन्दचरण ॥२७८॥
श्रीराधिका सहित श्रील गोपीनाथ ।
एइ तिन गौड़ीय़ा-जीब्वन प्राणनाथ’ ॥२७९॥
(चै. च. अ. २०.१४२-१४३)
श्रीईश्वरी यैछे वृन्दावने विलसय़ ।
ताहा एकमुखे कहिबार साध्य नय़ ॥२८०॥
श्रीज्ञाह्नवा ईश्वरीर गमनागमन ।
विस्तारिय़ा ए सब वर्णिब विज्ञगण ॥२८१॥
ईश्वरीर व्रजे पुनः गमनप्रकार ।
अनुरागवल्ली आदि ग्रन्थेते प्रचार ॥२८२॥
जननीर अनुमति ग्रहणपूर्वक श्रील वीरचन्द्र प्रभुर वृन्दावनयात्रा—
किछुदिने प्रभु वीरचन्द्र माता स्थाने ।
अनुमति लईल याइते वृन्दावने ॥२८३॥
शुभक्षणे खड़्अदह हैते यात्रा कैला ।
स्वगण सहित सप्तग्रामेते आइला ॥२८४॥
परम सुकृतिमन्त वर्णिक् भवने ।
दिन दुइ रहे हैय़ा विह्वल कीर्तने ॥२८५॥
पतित-दुःखिते भक्तिरत्न दान दिय़ा ।
आइलेन शान्तिपुरे उल्लसित हैय़ा ॥२८६॥
प्रभु अद्वैतेर पुत्र कृष्णमिश्र सने ।
हईलेन परम विह्वल सङ्कीर्तने ॥२८७॥
कृष्णमिश्रे ना जानि कि निर्जने कहिय़ा ।
आइला अम्बिका प्रिय़गण सङ्गे लैय़ा ॥२८८॥
तथा ये आनन्द ताहा कहि कि शकति ।
नवद्वीपे आसि दिन दुइ कैल स्थिति ॥२८९॥
नदीय़ाय़ ये प्रेम प्रकाश कैला प्रभु ।
ताहा एक मुखे ना वर्णिते पारि कभु ॥२९०॥
नवद्वीप हैते शीघ्र श्रीखण्डे चलिला ।
ठाकुर कानाइ आगुसरि लैय़ा गेला ॥२९१॥
श्रीरघुनन्दनपुत्र ठाकुर कानाइ ।
ताꣳर प्रेमचेष्टा यैछे कहि साध्य नाइ ॥२९२॥
सङ्कीर्तनावेशे प्रभु ताꣳरे सन्तोषिय़ा ।
याजिग्रामे चलिलेन निभृते कि कैय़ा ॥२९३॥
गणसह आचार्यठाकुर आगुसरि ।
लईय़ा गेलेन घरे महाय़त्न करि ॥२९४॥
तथा कृष्णकथारसे विह्वल हईला ।
ना जानि निभृते किबा आचार्ये कहिला ॥२९५॥
कण्टकनगर चले याजिग्राम हईते ।
आचार्य चलय़े सङ्गे स्वगण सहिते ॥२९६॥
कन्टकनगरे एकदिन कैल स्थिति ।
तथा हैला प्रेमाय़ विह्वल दिवाराति ॥२९७॥
श्रीनिवासाचार्ये प्रभु विदाय़ करिय़ा ।
श्रीखेतरि ग्रामे गेला बुधरि हईय़ा ॥२९८॥
श्रीठाकुर महाशय़ कत ना आनन्दे ।
आगुसरि लैय़ा गेला प्रभु वीरचन्द्रे ॥२९९॥
सङ्कीर्तने नृत्य कैला गौराङ्ग-प्राङ्गणे ।
आइल असꣳख्य लोक प्रभुर दर्शने ॥३००॥
श्रीठाकुर महाशय़े निर्जने कि कैय़ा ।
चलिलेन व्रजे गणसह हर्ष हैय़ा ॥३०१॥
पथे एक दरिद्र ब्राह्मणे कृपा कैला ।
से ब्राह्मण भक्तिरत्नधने धनी हैला ॥३०२॥
एक विप्र विद्यागर्वे काहु ना गणय़ ।
तार गर्व चूर्ण करि कैल भक्तिमय़ ॥३०३॥
पथे नाना कौतुक प्रकाशि गणसने ।
मथुराय़ प्रवेश करिला कतदिने ॥३०४॥
प्रभु वीरचन्द्रेर सौन्दर्य अतिशय़ ।
देखिते धाइल लोक स्थिर नाहि हय़ ॥३०५॥
परस्पर कहे लोक चाहि प्रभु पाने ।
‘देख नित्यानन्द बलदेवेर सन्ताने’ ॥३०६॥
केहो कहे—‘मनुष्ये कि एत शोभा हय़’ ।
केहो कहे—‘ए येन मानुष कभु नय़’ ॥३०७॥
केहो कहे—‘देख कि अपूर्व सङ्गिगण ।
देखिते सबार तेज जुड़ाय़ नय़न’ ॥३०८॥
ऐछे कत कहि चाहि रहे सर्वजन ।
सर्वत्र व्यापिल वीरचन्द्रेर गमन ॥३०९॥
शुनि वीरचन्द्रेर गमन वृन्दावने ।
आगुसरि आइसे लईते सर्वजने ॥३१०॥
श्रीजीवगोसाञि श्रीचैतन्यप्रेममय़ ।
कृष्णदास कविराज गुणेर आलय़ ॥३११॥
गदाधर पण्डित गोसाञि शिष्यवर्य ।
‘गोविन्देर’ अधिकारी श्रीअनन्ताचार्य ॥३१२॥
ताꣳर शिष्य हरिदास पण्डित गोसाञि ।
‘गोविन्दाधिकारि-गुण’ कहि—अन्त नाइ ॥३१३॥
‘श्रीगोविन्द’ यार प्रेमाधीन जानाइला ।
याꣳर ठाꣳइ दुग्ध अन्न मागिय़ा खाइला ॥३१४॥
तथाहि साधनदीपिकय़ाम्—
प्रभोराज्ञावलेनापि श्रीरूपेर कृपान्धिना ।
गुरौ मे हरिदासाख्ये श्रीश्रीसेवा समर्पिता ॥३१५॥
यत्सेवय़ा वशः श्रीमद्गोविन्दो नन्दनन्दनः ।
पय़सा सꣳयुतꣳ भक्तꣳ याचते करुणाम्बुधिः ॥३१६॥
श्रीमदनगोपालेर सेवा अधिकारी ।
गदाधरशिष्य कृष्णदास ब्रह्मचारी ॥३१७॥
गदाधर पण्डित गोसाञिर शिष्य आर ।
गोसाञि गोपालदासाधिक अधिकार ॥३१८॥
श्रीगोपीनाथाधिकारी श्रीमधुपण्डित ।
गदाधर पण्डितेर शिष्य ए विदित ॥३१९॥
श्रीमधुपण्डितेर सतीर्थ भवानन्द ।
गोपीनाथ-सेवाय़ याꣳहार महानन्द ॥३२०॥
हरिदास गोपाल श्रीभवानन्दादय़ ।
गोविन्दाधिकारी सबे आनन्दे चलय ॥३२१॥
काशीश्वर गोसाञि ये सर्वत्र विदित ।
श्रीकृष्णपण्डितसह याꣳर अति प्रीत ॥३२२॥
काशीश्वर गोसाञिर शिष्य महा आर्ष ।
गोविन्द गोसाञि आर श्रीयादवाचार्य ॥३२३॥
गोविन्द यादवाचार्य आदि मत जलन ।
परम आनन्दे हैल सबार गमन ॥३२४॥
प्रभु वीरचन्द्रे लैय़ा आइला सर्वजने ।
व्रजवासिगण हर्ष प्रभुर दर्शने ॥३२५॥
प्रभु-प्रेमभक्तिरीते केबा ना विह्वल ।
गाय़ गुण व्रजवासी वैष्णव सकल ॥३२६॥
श्रीगोविन्द, गोपीनाथ, मदनमोहन ।
सबा-सह वीरचन्द्र करिला दर्शन ॥३२७॥
श्रीराधाविनोद राधारमणे देखिला ।
राधादामोदरे देखि नेत्र जुड़ाइला ॥३२८॥
श्रील वीरचन्द्र प्रभुर वनभ्रमण—
श्रीभूगर्भ श्रीजीवगोस्वामी आदि स्थाने ।
अनुमति लैय़ा चले श्रीवनभ्रमणे ॥३२९॥
यादव आचार्य आदि सङ्गेते चलिला ।
मधु-ताल-कुमुद-बहुला-वने गेला ॥३३०॥
सबा-सह राधाकुण्डे गमन करिते ।
श्रीजीवगोस्वामी आदि मिले सेइ पथे ॥३३१॥
अनेकक् वैष्णवे प्रभु वेष्टित हईय़ा ।
देखय़े अद्भुत शोभा कुण्डतीरे गिÿआ ॥३३२॥
प्रभु गौरचन्द्र वनभ्रमणेर काले ।
बसिय़ाछिलेन कुण्डे तमालेर तले ॥३३३॥
तथाय़ याइय़ा वीरचन्द्र प्रेममय़ ।
हईलेन यैछे देखि सबार विस्मय़ ॥३३४॥
कृतक्षणे स्थिर हैय़ा प्रभु वीरचन्द्र ।
कुण्डद्वय़ दर्शने पाइला महानन्द ॥३३५॥
राधाकुण्ड, श्यामकुण्ड, गिरि गोवर्धने ।
हैला महाविह्वल, नाचिला सङ्कीर्तने ॥३३६॥
व्रजवासिगणे नाना द्रव्य भुञ्जाइल ॥
सबा-सह दिन पाꣳच छय़ स्थिति कैल ॥३३७॥
श्रीजीव, श्रीभूगर्भादि भागवतगणे ।
करिलेन विदाय़ याइते वृन्दावने ॥३३८॥
यद्यपि याइते केहो ना पारे छाड़िया ।
तथापि याय़ेन ताꣳर सन्तोष लागिय़ा ॥३३९॥
गोवर्धन हईते गेलेन धीरे धीरे ।
श्रीकृष्णदास कविराजेर कुटीरे ॥३४०॥
तथा हईते वृन्दावन दुइ दिने गेला ।
कृष्णदास कविराज सङ्गेइ चलिला ॥३४१॥
वासुदेव, उद्धव, यादव कथो जन ।
प्रभु वीरचन्द्रसङ्गे करिला गमन ॥३४२॥
गोवर्धन हईते देखि कृष्णलीला-स्थान ।
सबा सह काम्यवने करिला पय़ान ॥३४३॥
विमलादि कुण्डे स्नान करि काम्यवने ।
वृषभानुपुरे गेला महाहर्षमने ॥३४४॥
वासुदेव प्रभु वीरचन्द्र प्रति कय़ ।
‘एइखाने वृषभानु राजार आलय़ ॥३४५॥
नानाछले कृष्ण एथा आगमन करि ।
अलक्षिते देखे राधा अङ्गेर माधुरी ॥३४६॥
एकदिन कृष्ण वसि भावे मने मने ।
किरूपे याइब वृषभानुर भवने ॥३४७॥
वृषभानुकन्या जन्मतिथि उत्सवेते ।
श्रीदामे पाठान नन्दालय़े निमन्त्रिते ॥३४८॥
श्रीदाम याइय़ा सबे कैल निमन्त्रण ।
वृषभानुभवने आइला सर्वजन ॥३४९॥
कृष्ण महानन्दे एथा आसि दाꣳड़ाइला ।
सखीर इङ्गिते राइ निर्जने रहिला ॥३५०॥
राधाकुण्ड दोꣳहे दोꣳहा देखि अलखित ।
फिराइते नारे नेत्र हैय़ा विमोहित’ ॥३५१॥
गीते—यथा तोड़ी—
राधिकार जन्मतिथि दिन जानि,
व्रजे केहो धृति धरिते नारे ।
नन्द यशोदादि अधिक उल्लासे,
आइसेन वृषभानुर घरे ॥३५२॥
बृषधदभानु लन्दे आगुलरि घरे
आने, यशोदाय़ कृत्तिका लैय़ा ।
दधि-हरिद्रादि छड़ाय़ा अङ्गने
नाचे गोपगण हरष हैय़ा ॥३५३॥
बाजे कत भाति—याद्य कोलाहले,
केहो कारु कथा ना शुने काणे ।
पाइय़ा समय़ काल अलखित
चाहि रहे राइमुखेर पाने ॥३५४॥
राधा विधुमुखी श्याममुख-शोभा
हेरि रहे, नारे फिराते आꣳखि ।
नरहरि भने—ना जानि कि रस
प्रकाशय़े दुꣳहु दोꣳहारे देखि ॥३५५॥
प्रभु वीरचन्द्र वृषभानुपुर हैते ।
प्रवेशिला नन्दग्रामे सबार सहिते ॥३५६॥
वासुदेव कहे चाहि प्रभुमुखपाने ।
‘एथा महारङ्ग कृष्णजन्मतिथिदिने’ ॥३५७॥
गीते—यथा कामोद—
राणी यशोमती कहे नन्द प्रति
‘कृष्णजन्मतिथि इथ ।
करि निमन्त्रण आन बन्धुगण
ए साध उपजे चिते’ ॥३५८॥
शुनि नन्दघोष हईय़ा सन्तोष
उपनन्द सुते आनि ।
वृषभानुघरे पाठाय़ेन तारे
कहिय़ा विनय़वाणी ॥३५९॥
शुनि सेइक्षणे भानुर भवने
कैला निमन्त्रण गिय़ा ।
वृषभानुगण सहित गमन
करे नानाद्रव्य लैय़ा ॥३६०॥
आनन्दे कीर्तिदा राणी प्रेमाधिका
राधिका लईय़ा साथे ।
यशोमती पाशे याइते उल्लासे
यशोदा मिलिला पथे ॥३६१॥
कत ना आदरे लैय़ा गेला घरे
आसने बसाला राणी ।
वृषभानु नन्दे मिलिला आनन्दे
हईल मङ्गलध्वनि ॥३६२॥
वरज-नगरे प्रति घरे घरे
रटय़े उत्सव-कथा ।
गोपीगण नेहे चले नन्दगेहे
गाइय़ा मङ्गलगाथा ॥३६३॥
नाना आभरण, परि गोपगण,
हरषे सरस हिय़ा ।
हरिद्रासहित, दधि दुग्ध घृत,
ढाले नन्दालाय़े गिय़ा ॥३६४॥
नन्दादिक सङ्गे सबे नाचे रङ्गे
विविध तरङ्ग ताय़ ।
बाजे यन्त्रगण, घन श्याम घन
नन्दमहोत्सव गाय़ ॥३६५॥
पुनः—धानशी—
कृष्णेर जनम-तिथि दिने ।
ताहा मरि ! कि आनन्द नन्देर भवने ॥३६६॥
राखिका-वदन दूरे देखि ।
अनिमिख कृष्णेर झरय़े दुटि आꣳखि ॥३६७॥
राधिका धैरय नाइ बाꣳधे ।
अलखित चाहिय़ा श्यामेर मुखचाꣳदे ॥३६८॥
आꣳखिकोणे सखीरे जानाय़ ।
‘गुरुजन माझे एबे कि हबे उपाय़’ ॥३६९॥
भाविते भाविते विनोदिनी ।
हईला विरस, घारे तिते अनुखानि ॥३७०॥
ललिता राइरे सेइक्षणे ।
विरचिय़ा छले लैय़ा गेला निरजने ॥३७१॥
नय़न इङ्गिते कुन्दलता ।
पाठाइला कानुरे आछय़े राइ यथा ॥३७२॥
दोहार मिलने महारङ्ग ।
नरहरि देखे दूरे रहि सखी सङ्ग ॥३७३॥
कृष्णजन्मतिथि-रङ्ग शुनि हर्षमने ।
देखे कृष्णविलासेर स्थान गणसने ॥३७४॥
श्रीपावन सरोवरे प्रभु स्नान कैला ।
देखिय़ा खदिर वन यावट्टे आइला ॥३७५॥
कृष्णलीलास्थान बहु दर्शल्ने उल्लास ।
रामघाटे गोला यथा कैला राम रास ॥३७६॥
बलदेव-चरित्र गाइय़ा नृत्य कैला ।
देखिय़ा भाण्डीर-वट-स्थान हर्ष हैला ॥३७७॥
वासुदेव कहे—‘ए भाण्डीर-वट स्थान ।
श्रीभाण्डीरवट हईलेन अन्तर्धान’ ॥३७८॥
शुनि प्रभु वीरचन्द्र बसिय़ा निर्जने ।
भाण्डीरे ये क्रीड़ा ताहा चिन्ते मने मने ॥३७९॥
अकस्मात् देखे—राम कृष्ण दुइ भाइ ।
गोपाल-सहित विलसय़े सेइ ठाꣳइ ॥३८०॥
श्रीभाण्डीरवट-शोभा अति मनोहर ।
देखि वीरचन्द्र प्रभु अधैर्य अन्तर ॥३८१॥
नन्दघाट, चीरघाट, गेला भद्रवन ।
भाण्डीर, श्रीलोहवने करिला भ्रमण ॥३८२॥
गणसह श्रीगोकुल महावने गिय़ा ।
देखिलेन कृष्णजन्मस्थान हर्ष हैय़ा ॥३८३॥
राओले देखिय़ा श्रीराधिकाजन्म-स्थान ।
मथुराय़ श्रीविश्रान्ति-घाटे कैला स्नान ॥३८४॥
देखि गोकर्णाख्य शिव गेलेन अक्रूरे ।
वृन्दावने प्रवेशिला गोविन्दमन्दिरे ॥३८५॥
सेइदिन भाद्र कृष्णाष्टमी-तिथि हय़ ।
श्रीगोविन्द-जन्म-अभिषेक शोभामय़ ॥३८६॥
देखि ए सकल लोक मनेर उल्लासे ।
केहो कत कहय़े मधुर मृदुभाषे ॥३८७॥
गीते—यथा मङ्गल—
आजु शुभक्षणे जन्म-अभिषेक
सिꣳहासने शोभे गोविन्द-इन्दु ।
अङ्गभङ्गि भूरि भुवन मोहय़े
निरुपम रूप अमिय़ा सिन्धु ॥३८८॥
मनमथ-मद भरहर मुख
हेरि केहो नाहि धैरय बाꣳधे ।
दधि-हरिद्रादि छड़ाय़ा अङ्गने
नाचे सबे महामधुर छाꣳदे ॥३८९॥
अभिषेक-गीति गाय़ नाना भाꣳति
धरे ताल ताहे उथले हिय़ा ।
वाय़ मृदङ्गादि-वाद्य दृमि दृमि
ता दृमिकि दृमि ताधिक् दिय़ा ॥३९०॥
सुरपाति-गति अति अलक्षित
वरिषे कुसुम स्वगण-सङ्गे ।
जय़ जय़-ध्वनि घन घन भण
घनश्याम-मन मुदित रङ्गे ॥३९१॥
पुनः—कामोद—
देख अभिषेक शुभक्षणे ।
गोकुलवल्लभ विलसय़े सिꣳहासने ॥३९२॥
आहा मरि ! कि रूप-माधुरी !
कुलवती सतीर पराण करे चरि ॥३९३॥
कि नव सुगन्धि-द्रव्य दिय़ा ।
के माजिले ए तनु—केमने धरि हिय़ा ॥३९४॥
के साधे पराइले पीतवास ।
मेघेर उपरे कि बिजुरी परकाश ॥३९५॥
गोरोचना-चन्दन सहिते ।
के दिले तिलक भाले भुवन मोहित ॥३९६॥
के बान्धिले फुले केश-झुटा ।
जगतेर धैरय धरम-धन छुटा ॥३९७॥
के दिले कुण्डल श्रुतिमूले ।
दोले कि मधुर !–इथे केबा नाहि भुले ॥३९८॥
के दिले गलाय़ मणिमाला ।
बाढ़ाइले अवलाकुलेर कामज्वाला ॥३९९॥
के दिले नूपुर राङ्गा-पाय़ ।
झुनु नुनु नुनु रबे रमणी माताय़ ॥४००॥
आपना निछय़े घनश्याम ।
त्रिभङ्ग भङ्गिते मूरुछय़े कत काम ॥४०१॥
प्रभु वीरचन्द्रेर आनन्द खेने खेने ।
मदनमोहन गोपीनाथेर दर्शने ॥४०२॥
भाद्र-शुक्ला अष्टमीते राधिका-जनम ।
देखे ताꣳर अभिय्षेक-शोभा निरुपम ॥४०३॥
गीते—यथा कामोद—
आजु कि मङ्गल-अभिषेक शोभामय़ ।
राधिका रतन-सिꣳहासने विलसय़ ॥४०४॥
जिनि काꣳचासोनारूप झलमल करे ।
मुखचाꣳदे कत ना चाꣳदेर मद हरे ॥४०५॥
निरुपम नय़न-चाहनि-चारुशोभा ।
प्रति अङ्ग-बलनी भुवनमनलोभा ॥४०६॥
केबा ना आइसे ए ना शोभा निरखिते ।
फिराइते नारे आꣳखि वारेक चाहिते ॥४०७॥
जय़ जय़-ध्वनि सबे करे चारि पाशे ।
विय़ापे वाद्येर ध्वनि ए भूमि आकाशे ॥४०८॥
नाचे कत साधे लोक—लेखा नाइ तार ।
दधि दुध हलदी छड़ाय़ भारे भार ॥४०९॥
उपजय़े परम कौतुक तिले तिले ।
ए हेन आनन्दे करि हिय़ा ना उथले ॥४१०॥
आइल फाचक यत तोषय़े सभाय़ ।
भुवन भरिल यशे—नरहरि गाय़ ॥४११॥
पुनः—कामोद—
आजु कि मङ्गल-अभिषेक शुभक्षणे ।
विलसय़े राधिका रतन-सिꣳहासने ॥४१२॥
देख देख ओ ना रूप नय़न भरिय़ा ।
कुन् विधि निरमिल कि माधुरी दिय़ा ॥४१३॥
कनक-कामिनीदाम रूपे कि उपमा ।
चाꣳदेर परब हरे ओ-मुखचन्द्रमा ॥४१४॥
कि मधुर मधुर मधुर मृदु हासि ।
वरिषय़े सदाइ अमिय़ा राशि राशि ॥४१५॥
भुवनमोहन-मन-मोहन चाहनि ।
नय़न निछनि मीन, खञ्जन, हरिणी ॥४१६॥
जगत् आꣳधार करे कालकेशे-छटा ।
बिजुरी-शिखरे येन जलदेर घटा ॥४१७॥
अधर-परशे नासा वेशर सुभाꣳति ।
भरु भुजङ्गिनी, कि ए भ्रमरेर पाꣳति ॥४१८॥
मदन मुरुछे हेरि चिकुरेर आभा ।
कनकमृणाल जिनि भुजयुग-शोभा ॥४१९॥
झालके अङ्गुरीगुलि चाꣳपार कालिका ।
राङ्गा करतल नखे फुटिल मल्लिका ॥४२०॥
कि मधुर श्रीवार भङ्गिमा, वक्ष पीन ।
मृगपाति निन्दि माजाखानि अति क्षीण ॥४२१॥
निरुपम ललित नितम्ब परिसर ।
उलट कदली उरु परम सुन्दर ॥४२२॥
चरणकमलतले अरुण-उदय़ ।
नरहरि-हिय़ार माझारे विलसय़ ॥४२३॥
राधिकार जन्म-अभिषेक निरखिय़ा ।
प्रभु वीरचन्द्र ना धरिते पारे हिय़ा ॥४२४॥
किछुदिन रहि, महानन्दे वृन्दावने ।
गौड़देश गमन करय़े गणसने ॥४२५॥
सर्वत्र विदाय़ हईलेन येन मते ।
ताहा एक मुखे किछु नारि निवेदिते ॥४२६॥
गमनेर काले सङ्गे चले सर्वजन ।
कथोदूरे गिय़ा सबे करय़े क्रन्दन ॥४२७॥
प्रभु वीरचन्द्र नेत्रजले सिक्त हैय़ा ।
करिलेन विदाय़ सकले कत कैय़ा ॥४२८॥
प्रभु वीरचन्द्र करि धैर्याब्वलम्बन ।
मथुरा हईय़ा गौड़े करिला गमन ॥४२९॥
गौड़्ए आसि पूर्वमत सर्वत्र भ्रमिला ।
वृन्दावन-प्रसङ्गे सबारे जानाइला ॥४३०॥
निरन्तर सꣳकीर्तनानन्दे मग्न हैया ।
खड़दहे जननीरे प्रणमिला गिय़ा ॥४३१॥
प्रभुर श्रीवृन्दावने गमनागमन ।
कहिलुꣳ सꣳक्षेपे—विस्तारिब विज्ञगण ॥४३२॥
गङ्गा-वीरचन्द्रेर चरित्र सुधामय़ ।
विस्तारिते नारि—ग्रन्थबाहुल्येर भय़ ॥४३३॥
श्रद्धा करि ए सब गुनय़े येइ जन ।
अनाय़ासे घुचे तार ए भवबन्धन ॥४३४॥
दन्त तृण धरिय़ा कहिय़े वारे वार ।
भक्तिरत्नाकर-मध्ये डुब अनिवार ॥४३५॥
श्रीनिवास-आचार्य-चरण चिन्ता करि ।
भक्तिरत्नाकर कहे दास नरहरि ॥४३६॥
इति श्रीभक्तिरत्नाकरे श्रीनिवासाचार्यस्य विवाहादि-वर्णनꣳ नाम त्रय़ोदशस्तरङ्गः ॥१३॥
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