१२

द्वादश तरङ्ग

जय़ लक्ष्मी-विष्णुप्रिय़ा-पति गौरचन्द्र ।
जय़ वसु-जाह्नवार जीवन नित्यानन्द ॥१॥

जय़ श्रीसीतार नाथ अद्वैत ईश्वर ।
जय़ जय़ श्रीवास, पण्डित गदाधर ॥२॥

जय़ जय़ दास गदाधर, नरहपि ।
जय़ वक्रेश्वर, जय़ सीगुप्त मुरारि ॥३॥

जय़ जगदीश, श्रीस्वरूप-दामोदर ।
जय़ हरिदास, ब्रह्मचारी शुक्लाम्बर ॥४॥

जय़ पुण्डरीक विद्यानिधि प्रेममय़ ।
जय़ वासुदेव दोष, मुकुन्द, सञ्जय़ ॥५॥

जय़ राय़-रामानन्द सर्व गुणे आर्य ।
जय़ वासुदेव सार्वभौम भट्टाचार्य ॥६॥

जय़ जगन्नाथामिश्र विद्यावाचस्पति ।
जय़ श्रीविजय़ वनमाली विज्ञ अति ॥७॥

जय़ काशी मिश्र, श्रीआचार्य गोपीनाथ ।
जय़ श्रीमुकुन्द रघुनन्दनेर तात ॥८॥

जय़ श्रीपण्डित गादाधर, धनञ्जय़ ।
जय़ जय़ श्रीवꣳशीवदन दय़ामय़ ॥९॥

जय़ सानातन, रूप रसिकशेखर ।
जय़ श्रीगोपाल भट्ट गुणेर सागर ॥१०॥

जय़ श्रीभूगर्भ लोकनाथ दीनबन्धु ।
जय़ा रघुनाथ, रघुनाथ कृपासिन्धु ॥११॥

जय़ जय़ श्रीराघव प्रिय़ श्रीप्रभुर ।
जय़ जय़ श्रीहृदय़चैतन्यठाकुर ॥१२॥

जय़ जय़ श्रीजीव श्रीदास वृन्दावन ।
जय़ कृष्णदास, श्रीगोपाल नाराय़ण ॥१३॥

जय़ जय़ प्रभुगणप्रिय़ श्रीनिवास ।
जय़ जय़ प्रभु प्रेममय़ नरोत्तम दास ॥१४॥

जय़ जय़ प्रभु-प्रेमदाता रामचन्द्र ।
जय़ सर्व वैष्णवेर प्राण श्यामानन्द ॥१५॥

जय़ जय़ श्रोतागण गुणेर आलय़ ।
एबे ये कहिय़े शुन हईय़ा सदय़ ॥१६॥

श्रीजाह्नवा ईश्वरी श्रीखड़्‌अह गेले ।
कहिते कि जानि यैछे व्याकुल सकले ॥१७॥

याजिग्रामे श्रीनिवास आचार्यठाकुर ।
ए-सब सꣳवाद पाठाइला विष्णुपुर ॥१८॥

श्रीदास गोकुलानन्द आदि शिष्यगणे ।
शास्त्रानुशीलन हेतु खुइला याजिग्रामे ॥१९॥

सकलेर प्रति कहे सुमधुर कथा ।
नवद्वीप हईते आसिब शीघ्र एथा ॥२०॥

नृपति हान्विर वनविष्णुपुर हैते ।
आसिब एथाय़ शीघ्र लिखिनु पत्रीते ॥२१॥

श्रीआचार्य ऐछे कत कहि शिष्यगणे ।
याजिग्राम हईते यात्रा कैल शुभक्षणे ॥२२॥

श्रीखण्डेते श्रीरघुनन्दन आगे गेला ।
नवद्वीप-गमनप्रसङ्ग जानाइला ॥२३॥

तेꣳहो स्नेहे श्रीनिवासे लईला विरले ।
ल्ना जानि कि कहि सिक्त हैला नेत्रजले ॥२४॥

विदाय़ करिते अति अधैर्य हिय़ाय़ ।
श्रीनिवास प्रणमिय़ा हईल विदाय़ ॥२५॥

नरोत्तम, रामचन्द्र दोꣳहे सङ्गे लैय़ा ।
नवद्वीपे चले महा-प्रेमाविष्ट हैय़ा ॥२६॥

नवद्वीप-सन्निधाने करिय़ा गमन ।
नवद्वीप-पाने चाहे सजल नय़न ॥२७॥

बहु नेत्र वाञ्छे नवद्वीप निराखिते ।
आउलाइय़ा पड़े अङ्ग ना पारे धरिते ॥२८॥

नवद्वीप-भूमे प्रणमय़ वार वार ।
निवारिते नारे, नेत्रे बहे अश्रुधार ॥२९॥

नवद्वीपे गङ्गाशोभा करिय़ा दर्शन ।
करय़े भारतवर्ष-सौभाग्य वर्णन ॥३०॥

गङ्गा आदि महानदी भारवर्षेते ।
भारतवाषेओ प्रशꣳसय़े भागवते ॥३१॥

भारतवर्ष-भेदे श्रीनवद्वीप हय़ ॥
विस्तारिय़ा श्रीविष्णुपुराणे निरूपय़ ॥३२॥

तथाहि श्रीविष्णुपुराणे (२.३.६-७)—
भारतस्यास्य वर्षस्य नवभेदान्निशामय़ ।
इन्द्रद्वीपः कसेरुश्च तास्रपर्णो गभस्तिमान् ॥३३॥

नवद्वीपस्तथा सौम्यो गान्धर्वस्त्वथ वारुणः ।
अय़ꣳ तु नवमस्तेषाꣳ द्वीपः सागरसम्बृतः ॥३४॥

योजनानाꣳ सहस्रन्तु द्वीपो’य़ꣳ दक्षिणोत्तरात् ॥३५॥

सागरसम्भृत इति समुद्रप्रान्तवर्तीति श्रीधरस्वामि-व्याख्या ।
नवमस्यास्य पृथङ् नामाकथनात् नान्नापि नवद्वीपो’य़मिति ।
गम्यते ॥३६॥

इथे ये विशेष विष्णुपुराणे प्रचार ।
सर्वधाममय़ ए महिमा नदीय़ार ॥३७॥

तथाहि श्रीगौरगणोद्देशदीपिकाय़ाम्—
रसज्ञाः श्रीवृन्दावनमिति यमाहुर्बहुविदो
यमेतःꣳ गोलोकꣳ कतिपय़जन्यः प्राहुरपरे ।
सितद्वीपꣳ चान्ये परमपि परव्योम जगदुर्
नवद्वीपः सो’य़ꣳ जगति परमाश्चर्यमहिमा ॥३८॥

नवद्वीप नाम ऐछे विख्यात जगते ।
श्रवणादि नवविधा भक्ति दीप्त याते ॥३९॥

श्रवण-कीर्तन-आदि नवविधा भक्ति ।
देखह श्रीभागवते सप्तमस्कन्धे प्रह्लादेर उक्ति ॥४०॥

तथाहि श्रीमद्भागवते सप्तमस्कन्धे (५.२३-२४) प्रह्लादवाक्यम्—
श्रवणꣳ कीर्तनꣳ विष्णोः स्मरणꣳ पादसेवनम् ।
अर्चनꣳ वन्दनꣳ दास्यꣳ सख्यमात्मनिवेदनम् ॥४१॥

इति पुꣳसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा ।
क्रिय़ेत भगवत्यद्धा तन्मन्ये’दीतमुत्तमम् ॥४२॥

अथवा श्रीनवद्वीपे नवद्वीप नाम ।
पृथक् पृथक् किन्तु हय़ एक ग्राम ॥४३॥

सत्य, त्रेता, द्वापर, कलिर आरम्भेते ।
नहिल से नामेर व्यत्यय़ कुन मते ॥४४॥

यैछे कलि वृद्ध तैछे नामेर व्यत्यय़ ।
त्रथापि से सब नाम अनुभव हय़ ॥४५॥

व्रजे वज्रनाभ तैछे कृष्णेर इच्छाते ।
वसाइला ग्राम कृष्ण-लीलानुसारेते ॥४६॥

कथोकाल परे कथो ग्राम लुप्त हैला ।
कथो ग्राम नाम लोके अस्त व्यस्त कैल ॥४७॥

तैछे नवद्वीप-अन्तर्भूत यत प्राम ।
प्रभुभक्त-लीला-मते व्यक्त हैल नाम ॥४८॥

कथो अस्त-व्यस्त कथो लुप्त सेइ मते ।
किन्तु नवद्वीप नाम जानाइ क्रमेते ॥४९॥

द्वीप-नाम-श्रवणे सकल दुःखक्षय़ ।
गङ्गा पूर्व-पश्चिम तीरेते द्वीप नय़ ॥५०॥

पूर्वे अन्तर्द्वीप, श्रीसीमन्त-द्वीप हय़ ।
गोद्रुमद्वीप, श्रीआमध्यद्वीप चतुष्टय़ ॥५१॥

कोलद्वीप, ऋतु, जह्नु, मोदद्रुम आर ।
रुद्रद्वीप एइ पञ्च पश्चिमे प्रचार ॥५२॥

एइ नवद्वीपे नवद्वीपाख्या एथाय़ ।
प्रभुप्रिय़ शिवशक्त्यादि शोभे सदाय़ ॥५३॥

तथाहि प्राचीनैरुक्तम्—
ध्येय़ꣳ महर्षय़ः प्राहुः श्रीनवद्वीप-धामकम् ।
वृन्दावनमिदꣳ नित्याꣳ बिभ्राजनाह्नवीतटे ॥५४॥

शिवपञ्चस्थितꣳ शक्तिसहितꣳ भक्तिभूषितम् ।
अन्तर्मध्यादि-नवधा-द्वीपदिव्यन्मनोहरम् ॥५५॥

तत् पञ्चयोजनꣳ केचिद्वदन्ति क्रोशाषोड़शम् ।
माय़ापुरञ्च तन्मध्ये यत्र श्रीभगवद्गृहम् ॥५६॥

शोभमय़ सुन्दर वसति नदीय़ार ।
नवद्वीपे लोक यत सꣳख्या नाइ तार ॥५७॥

तथाहि श्रीचैतन्यभागवते—
मधुपुरी प्राय़ येन नवद्वीपपुरी ।
एक जाति लक्ष लक्ष कहिते ना पारि ॥५८॥

प्रभुर विहार लागि पूरेइ विधाता ।
सकल सम्पूर्ण करि थुइय़ाछे तथा ॥५९॥

तथाहि श्रीकृष्णचैतन्यचरिते प्रथम प्रक्रमे—
नवद्वीप इति ख्याते क्षेत्रे परम-वैष्णवे ।
ब्राह्मणाः साधवः शान्ता वैष्णवाः सत्कुलोद्भवाः ॥६०॥

महान्तः कर्मनिपुणाः सर्वशास्त्रार्थपारगाः ।
अन्ये च सन्ति बहुशो भिषक्शूद्रवणिग जनाः ॥६१॥

स्वाचारनिरताः शुद्धाः सर्व विद्योपजीविनः ।
तत्र देवरुचः सर्वे वैकुण्ठभवनोपमे ॥६२॥

तथाहि गीते—
जय़ जय़ श्रीनदीय़ा सुखधाम ।
अद्भुत वसति वसत चतुराश्रम,
यहि निति निति उत्सव अनुपाम ॥ध्रु॥

अष्टसिद्धि नवनाधि, आदि प्रति
मन्दिरे निरत फिरत जनु दास ।
धर्म अर्थ अरु काममोक्षगणे,
गणतन कोउ करत उपहास ॥६४॥

प्रबल प्रताप तापत्रय़ भञ्जन,
नवधा भक्ति द्वीप अनिवार ।
निर्मल प्रेमपूर्ण अहनिशि,
यहि थिरचर सतत रहत मातोय़ार ॥६५॥

विविध भाꣳति गृह, लसत स्वच्छपुरी,
वेष्टित सुरधुनी धवल सुपानि ।
जनु नव कुन्दकुसुम मुकुतास्रज,
जनु शशिखण्ड उदय़ अनुमानि ॥६६॥

शोभा नव नव, वृन्दावन-सम,
षड़्, ऋतु-सेवित सरस दिगन्त ।
मञ्जु महा-महिमा महि-विस्तृत,
गाय़त फणिप ना पाय़त अन्त ॥६७॥

सुरसह सुरवर हर चतुरानन,
ध्यान धरत उर हरष अपार ।
भन घनश्याम सो, पꣳहु परिकर सञे
निरखव कब उह भूमि माझार ॥६८॥

नवद्वीपे गौराङ्गेर अद्भुत विहार ।
नाना मते वर्णे कवि शोभा नदीय़ार ॥६९॥

तथाहि श्रीचैतन्यचन्द्रामृते (७.६२)—
स्वय़ꣳ देवो यत्र द्रुतकनकगौरः करुणय़ा
महाप्रेमानन्दोज्ज्वलरसवपुः प्रादुरभवत् ।
नवद्वीपे तस्मिन् प्रतिभवनभक्त्युत्सवमय़े
मनो मे वैकुण्ठादपि च मधुरे धान्नि रमताम् ॥७०॥

यद्यपि ए धाम व्यक्ताच्छन्न हय़ कभु ।
यैछे कलियुगेते छन्नावतार प्रभु ॥७१॥

तथाहि श्रीमद्भागवते सप्तमस्कान्से (९.३८)—
इत्थꣳ नृतिर्यगृषिदेवऋषावतारैर्
लोक्यान् विभावय़सि हꣳसि भगत्प्रतीपान् ।
धर्मꣳ महापुरुष पासि युगानूवृत्तꣳ
छन्नः कलौ यदभवस्त्रियुगो’थ स त्वम् ॥७२॥

पूर्व पूर्वावतारे ये-धामे ये ये-लीला ।
गुप्ते नवद्वीपे ताहा सब प्रकाशिला ॥७३॥

पूर्व पूर्व नवाद्वीपधामे ये विहार ।
सेरूप विहरे सदा शचीर कुमार ॥७४॥

ब्रह्मादिर अगोचर नवद्वीप-लीला ।
याबे जानाइला प्रभु सेइ से जानिला ॥७५॥

एकदिन ये लीला करेन नदीय़ाय़ ।
सहस्रवदने तार अन्त नाहि पाय़ ॥७६॥

ये द्वापरे कृष्ण विहरय़े व्रजपुरे ।
सेइ कलियुगे प्रभु नदीय़ा विहरे ॥७७॥

नदीय़ा वसति अष्ट क्रोश केहो कय़ ।
अचिन्त्यधामेर शक्ति सब सत्य हय़ ॥७८॥

नवद्वीपधाम पद्म-पुष्प-प्राय़ रीत ।
क्षणेके सङ्कोच क्षणे हय़ विस्तारित ॥७९॥

प्रभुर आलय हैते ये रहय़े दूरे ।
सेइ आइसे शीघ्र तारे दूर नाहि स्फुरे ॥८०॥

आमाय़ असꣳख्य लोक सङ्कीर्तन-स्थाने ।
अल्प स्थान विस्तार ता केहो नाइ जाने ॥८१॥

सर्वप्रकारेते नवद्वीप श्रेष्ठ हय़ ।
असꣳख्य प्रभुर भक्त यथा विलसय़ ॥८२॥

नवद्वीप-मध्ये माय़ापुरञामे स्थान ।
यथा जन्मिलेन गौरचन्द्र भगवान् ॥८३॥

यैछे वृन्दावने योगपीठ सुमधुर ।
तैछे, नवद्वीपे योगपीठ माय़ापुर ॥८४॥

माय़ापुर-शोभा सदा ब्रह्मादि धिय़ाय़ ।
माय़ापुर-महिमा केबा सा नाहि गाय़ ॥८५॥

ये देखे वारेक तार ताप याय़ दूर ।
हेन माय़ापुरे चले आचार्य ठाकुर ॥८६॥

नरोत्तम, रामचन्द्र दोꣳहे सङ्गे लैय़ ।
प्रवेशय़े माय़ापुरे अधैर्य हईय़ा ॥८७॥

ये पथे चलय़े सेइ पथे किछु दूरे ।
आइसेन एक वृद्ध विप्र धीरे धीरे ॥८८॥

ताꣳरे प्रणमिय़ा अति सुमधुर भाषे ।
श्रीईशान ठाकुरेर सम्वाद जिज्ञासे ॥८९॥

विप्र कहे—‘एइ देखि आइलु ईशाने ।
कि बलिब, के वा ना झुरय़े तीꣳर गुणे’ ॥९०॥

सर्वतत्त्व-ज्ञाता तेꣳहो सर्वत्र विदित ।
श्रीशचीदेवीरे ये सेविला यथोचित ॥९१॥

तथाहि श्रीचैतन्यभागवते—
सेविलेन सर्वकाले आइरे ईशान ।
चतुर्दश लोकमध्ये महाभाग्यवान् ॥९२॥

शचीदेवी ईशाने यतेक स्नेह कैल ।
कहिते कि जानि ताहा साक्षाते देखिल ॥९३॥

तथाहि वैष्णव-वन्दनाय़ाम्—
‘वन्दिव ईशानदास करयोड़ करि ।
शची-ठाकुराणी याꣳरे स्नेह कैल बड़ि’ ॥९४॥

ओहे बापु कहिते कि जानि क्रिय़ा तान ।
निमाइचान्देर अति प्रिय़ से ईशान ॥९५॥

ईशानेर प्राण शचीञन्दन निमाइ ।
ईशान-विहने ना याय़ेन कुन ठाꣳइ ॥९६॥

बाल्यकाले निमाइ चञ्चल अतिशय़ ।
ये आखुटी करे ता ईशान समाधय़ ॥९७॥

देखिलाम ये ताहा ना आइसे कहिते ? ।
नित्रन्तर दग्धे हिय़ा से सब भाविते ॥९८॥

नदीय़ाय़ सुखेर अवधि के ना जाने ।
हेन नवद्वीप शून्य हैल दिने दिने ॥९९॥

ये दिके देखिय़े सेइ दिक् अन्धकार ।
स्वप्न-अगोचर सुख कहिते कि आर ॥१००॥

तो सबे देखिते हय़ उल्लास अन्तर ।
तोमरा कि निमाइचाꣳदेर परिकर ॥१०१॥

देह परिचय़ बाप, देह परिचय़ ।
शुनि श्रीनिवास विप्र आगे निवेदय़ ॥१०२॥

श्रीनिवासदास नाम हय़ त आमार ।
नरोत्तम, रामचन्द्र नाम ए दोꣳहार ॥१०३॥

शुनि विप्रराज दुइ बाहु पसारिय़ा ।
कैल आलिङ्गन नेत्र-जले सिक्त हैय़ा? ॥१०४॥

क्रोड़ हैते श्रीनिवासे छाड़िते ना पारे ।
चाहि मुखापाने पुनः कहे वारे वारे ॥१०५॥

ओहे बाप, तोमादेर प्रसङ्ग शुनिल ।
देखि मने साध, अकस्मात् देखा हैल ॥१०६॥

अद्य गिय़ाछिनु ईशानेते देखेवारे ।
तोमरा आसिबा ताहा कहिल आमारे ॥१०७॥

ईशान श्रीजगन्नाथ-मिश्रेर भवने ।
चाहिय़ा आछेन तोमादेर पथपाने ॥१०८॥

‘याह तथा आमिह आसिब शीघ्र करि’ ।
एत कहि विप्र गृहे गेला धीरि धीरि ॥१०९॥

श्रीनिवास वृधविप्र-पदे प्रणमिय़ा ।
पभुर आलय़े गेला व्याकुल हईया ॥११०॥

प्रभुर अङ्गन धूले हईय़ा धूसर ।
नय़नेर जले सिक्त सर्व कलेवर ॥१११॥

चतुर्दिके चाहे धैर्य नारे धरिवार ।
देखेन ईशाल्ने शूर्यसम तेज ताꣳर ॥११२॥

वसिÿआ आछेन एका परम निर्जने ।
कि अद्भुत चेष्टा अश्रु मुद्रित नय़ने ॥११३॥

नय़नेर जले मुख, वक्ष भासि याय़ ।
छाड़े दीर्घश्वास से अग्निर शिखाप्राय़ ॥११४॥

क्षणे विश्वम्भर बलि लोटाय़ भूमिते ।
क्षणे कहे थुइला प्रभु कि सुख खाइते ॥११५॥

एत कहि कातरे चाहय़े चारि पाशे ।
देखय़े सम्मुखे प्रेममय़ श्रीनिवासे ॥११६॥

‘आइस बाप बलि दुइ बहु पसारिय़ा ।
हईलेन हर्ष श्रीनिवासे आलिङ्गिय़ा ॥११७॥

नरोत्तम-रामचन्द्रे करि आलिङ्गन ।
ये अद्भुत स्नेहावेश ना हय़ वर्णन ॥११८॥

श्रीनिवास, नरोत्तम, रामचन्द्र तिने ।
निवारिते नारे अश्रु प्रणमि ईशाने ॥११९॥

श्रीईशान ठाकुर यत्नेते प्रबोधिय़ा ।
जिज्ञासय़े कुशल निकटे वसाइय़ा ॥१२०॥

श्रीनिवास सकल सꣳवाद निवेदिय़ा ।
निज-अभिलाष कहे सङ्कुचित हईय़ा ॥१२१॥

‘श्रीराघव सङ्गे व्रजे भ्रमण करिते ।
मने तैल नदीय़ा भ्रमिर एइ माते’ ॥१२२॥

शुनि श्रीशान कहे—‘मने कैल याहा ।
श्रीगौरसुन्दर पूर्ण करिबेन ताहा ॥१२३॥

एइ नवद्वीप-धाम अतिशय़ गुढ़ ।
यारे कृपा जाने से, ना जाने तत्त्व सुड़्‌ह ॥१२४॥

नवद्वीपलीला-स्थान अति मनोहर ।
आनेर का कथा, ब्रह्मादिर आगोचर ॥१२५॥

देखिनु ये शुनिनु प्राचीन लोक-स्थाने ।
ए हेन दुःखेओ ताहा आछे मोर मने ॥१२६॥

तोमारे जानावो अकस्मात् हैल चिते ।
तेञि नरोत्तम-द्वारे कहिनु आसिते ॥१२७॥

भाल हैल शीघ्र आइला कि आर कहिते ।
नदीय़ा भ्रमणे कालि याइब प्रभाते’ ॥१२८॥

इहा शुनि श्रीनिवास पड़े पदतले ।
क्रोड़्‌ए लईय़ा ईशान भासाय़े नेत्रजले ॥१२९॥

ईशान कहय़े—‘बाप, तोमारे देखिय़ा ।
जुड़्‌आइल आमार दारुण दग्ध हिय़ा ॥१३०॥

हईलाम वृद्ध, हीन हैनु सामर्थ्येते ।
एबे अक्स्मात् हैल सामर्थ्य देहेत्ɛए’ ॥१३१॥

ऐछे कत कहि श्रीनिब्वासे सेइक्षणे ।
मिलाइला ये आछेन प्रभुर प्रिय़गणे ॥१३२॥

से दिवस प्रभुर आलय़े सर्वजन ।
राहिलेन यैछे ताहा ना हय़ वर्णन ॥१३३॥

स्रीईशानेर सङ्गे श्रीनिवास प्रभुर नदीय़ा-भ्रमणे बहिर्गमन—

रजनी प्रभाते श्रीईशान महाशय़ ।
नदीय़ा-भ्रमणे चले उल्लास-हृदय़ ॥१३४॥

श्रीनिवासाचार्य, नरोत्तम, रामचन्द्र ।
ईशानेर सङ्गे चले उथले आनन्द ॥१३५॥

प्रणमिय़ा वार-वार प्रभुर मन्दिरे ।
माय़ापुर हैते यात्रा कैला आतोपुरे ॥१३६॥

प्रथमेइ आतोस्पुर-स्थान निरखिय़ा ।
कहय़े ईशान श्रीनिवास-पाने चाय़ा ॥१३७॥

अन्तद्वीप वा आतोपुरेर इतिवृत्त—

ओहे श्रीनिवास, एइ आतोपुर-स्थान ।
बहु कालावधि लुप्त हैल एइ ग्राम ॥१३८॥

पूर्वे अन्तद्वीप-नाम आछिल इहार ।
अन्तद्वीप-नाम यैछे कहि से प्रकार ॥१३९॥

द्वापर-युगेते कृष्ण व्रजे विहरय़ ।
ताꣳर माय़ा-वशे केबा मोहित ना हय़ ॥१४०॥

आनेर का कथा, ब्रह्मा मोहित हईला ।
सखा-सह श्रीकृष्ण गोवत्स हरिला ॥१४१॥

करिते ब्रह्मार दर्प चूर्ण सेइ क्षणे ।
सकल गोवत्स, सखा हईला आपने ॥१४२॥

कृष्णेर ए लीला ब्रह्मा बुझिते ना पारे ।
पड़िय़ा फाꣳपरे ब्रह्मा स्थिर हैते नारे ॥१४३॥

सापराध हैय़ा कृष्ण बहु स्तुति कैल ।
स्तुति-वशे श्रीकृष्णेर अनुग्रह हैल ॥१४४॥

तथापि ब्रह्मार नहे स्वच्छन्द अन्तर ।
कैलु अपराध चित्ते चिन्ते निरन्तर ॥१४५॥

मने मने विचरय़े वसिय़ा निर्जने ।
‘ना देखि उपाय़, चैतन्यावतार विने ॥१४६॥

कलिर प्रथमे प्रभु श्रीकृष्णचैतन्य ।
अवतीर्ण हईय़ा करिब कलि धन्य ॥१४७॥

नवद्वीपे करिले प्रभुर आराधना ।
करिबेन पूर्ण प्रभु मानेर वासना’ ॥१४८॥

ऐछे विचारिय़ा ब्रह्मा एइ आतोपुरे ।
प्रभुर आराधे अति उल्लासआन्तरे ॥१४९॥

भक्त-वत्सल गौरचन्द्रे दय़ामय़ ।
हईला साक्षात् शोभा भुवन मोहय़ ॥१५०॥

अङ्गेर छटाय़ दशदिक् आलो करे ।
कि छार कनक—कन्दर्पेर दर्प हरे ॥१५१॥

आजानुलम्बित बाहु वक्ष परिसर ।
नाना मणि-भूषणे भूषित कलेवर ॥१५२॥

आकर्ण विस्तृत नेत्र, अद्भुत चाहनि ।
कोटी कोटी चन्द्र जिनि मुखेर लावणी ॥१५३॥

सदा मन्द मन्द हासि सुधावृष्टि करे ।
के आछे एमन से भङ्गिते धैर्य धरे ॥१५४॥

देखि प्राणनाथे ब्रह्मा हईला विह्वल ।
धरिते ना पारे अङ्ग, करे टलमल ॥१५५॥

करि बहु स्तुति सिक्त हैय़ा नेत्रजले ।
लोटाइय़ा पड़्‌अय़े प्रभुर पदतले ॥१५६॥

देखिय़ा ब्रह्मार चेष्टा शचीर नन्दन ।
कहे सुमधुर वाक्य करि आलिङ्गन ॥१५७॥

‘तुमि प्रिय़, सदा आमि प्रसन्न तोमाय़ ।
एबे येइ इच्छा—वर मागह आमाय़’ ॥१५८॥

भ्रमा कहे—‘एइ कलियुगे नदीय़ाते ।
करिबे प्रकट-लीला स्वगण-सहिते ॥१५९॥

से समय़ प्रभु ! मोरे करि अङ्गीकार ।
जन्माइबा नीचकुले—इच्छा आमार ॥१६०॥

ओहे प्रभु ! मोर अभिमान अतिशय़ ।
लोके घृणा करे येन—ऐछे दत्त हय़ ॥१६१॥

घुचाइबा आमार दारुण दुष्ट-मति ।
कराइबा तोमार श्रीनामे गार्ह्̤‌अ-रति ॥१६२॥

पूर्वे यैछे, माय़ाय़ मोहित कैला मोरे ।
ताहा ना करिला प्रभु ! एइ अवतारे ॥१६३॥

अनुक्षण तोमार भक्तेर सङ्ग चाइ ।
जीवने मरणे येन तोमारे धिय़ाइ’ ॥१६४॥

शुनिय़ा ब्रह्मार वाक्य प्रभुर उल्लास ।
प्रभु कहे—‘पूर्ण हबे सब अभिलाष’ ॥१६५॥

पाइय़ा प्रभुर वर उल्लास अन्तरे ।
प्रणमिय़ा ब्रह्मा पुनः कहे धीरे धीरे ॥१६६॥

‘स्वतन्त्र ईश्वर तुमि सकलेर पर ।
के बुझिते पारे प्रभु ! तोमार अन्तर ॥१६७॥

नाना लीला कैला पूर्व पूर्व अवतारे ।
ना जानि—कि लीला एइ नदीय़ा-नगरे ॥१६८॥

जीव निस्तारिते प्रभु ! ए अल्प विषय़ ।
इथे ये विशेष किछु, शुनि साध हय़’ ॥१६९॥

शुनिय़ा ब्रह्मार वाक्य चाहि ब्रह्मा-पाने ।
अन्तरेर कथा किछु कहय़े ताहाने ॥१७०॥

‘भक्त-भाव लैय़ा भक्ति-रस आस्वादिब ।
परम दुर्लभ सङ्कीर्तन प्रकाशिब ॥१७१॥

नानावतारेर नाना भावे भक्त ये ते ।
कराब व्रजानुगत मधुर रसेते’ ॥१७२॥

ऐछे वाक्ये राधा-प्रेम हृदय़े उथले ।
वाञ्छात्रय़ कहितेइ भासे नेत्रजले ॥१७३॥

अनुग्रह करिय़ा ब्रह्मारे जानाइला ।
प्रभुर ये वञ्छात्रय़ विज्ञे व्यक्त कैला ॥१७४॥

तथाहि श्रीचैतन्यचारितामृते, आदि १.६—
श्रीराधाय़ाः प्रणय़महिमा कीदृशो वानय़ैवा-
स्वाद्यो येनाद्भुतमधुरिमा कीदृशो वा मदीय़ः ।
सौख्यञ्चास्या मदनुभवतः कीदृशꣳ वेति लोभा-
त्तदभावाढ्यः समजनि शचीगर्भसिन्धौ हरीन्दुः ॥१७५॥

पुनः प्रभु सꣳक्षेपेइ ब्रह्मारे कहिला ।
‘देखिबा साक्षाते मोर नवद्वीप-लीला’ ॥१७६॥

कहि अन्तरेर कथा हैल अन्तर्धान ।
एइ हेतु लोके व्यक्त अन्तर्द्वीप-नाम ॥१७७॥

प्रभुर कृपाते ब्रह्मा हेला हर्ष अति ।
नवद्वीपे प्रभुर प्रकट चिन्ते निति ॥१७८॥

एइ अन्तर्द्वीप-भूमे गौरगणसने ।
करे ये विलास ता वर्णिबे कुन जने ॥१७९॥

ओहे श्रीनिवास, अन्तर्द्वीप शोभामय़ ।
ए स्थान-दर्शने अभिलाष-सिद्धि हय़ ॥१८०॥

ईशान प्रभु-कतृक श्रीनिवास प्रभुके सुवर्णविहार-प्रदर्शन—

सुवर्णविहार ओइ देख श्रीईनिवास ।
कहि पश्चात् एइ ग्रामे ये विलास ॥१८१॥

ऐछे कत कहि सङ्गे लैय़ा तिन जने ।
सिमलिय़ा-ग्रामे प्रवेशिला कत क्षणे ॥१८२॥

नीमन्तद्वीप वा सिमलिय़ा—

ईशान ठाकुर श्रीनिवास-प्रति कय़ ।
देख एइ सिमलिय़ा-ग्राम शोभामय़ ॥१८३॥

पूर्वे ए-सीमन्तद्वीप विख्यात जगते ।
सीमन्त-द्वीपाख्या यैछे कहि सꣳक्षेपेते ॥१८४॥

एकदिन कैलास-पर्वते महेश्वर ।
भक्तनामामृत-पाने अधैर्य अन्तर ॥१८५॥

सर्वावतारेर सर्वभक्त नदीय़ाय़ ।
सेइ सब नाम व्यक्त करि उच्चराय़ ॥१८६॥

गाय़ प्रभु-भक्तेर महिमा पञ्चमुखे ।
सर्वाङ्गे पुलक, हिय़ा उथलय़े सुखे ॥१८७॥

परम अद्भुत नृत्य करे दिगाम्बर ।
पदभवे कम्पय़े कैलास-गिरिवर ॥१८८॥

वाय़ निज-यन्त्र—ध्वनि भेदय़े गगन ।
महामत्त हैया करे हुङ्कार गर्जन ॥१८९॥

प्रभु-शङ्करेर चेष्टा देखिय़ा पार्वती ।
हईला विह्वल, किछु नाहि, बुद्धिगति ॥१९०॥

नृत्यावेशे स्थिर हैला देव-त्रिलोचन ।
झरय़े आनन्द-अश्रु, ल्नहे निवारण ॥१९१॥

रजत-पर्वतप्राय़ वसि चर्मासने ।
प्रशꣳसय़े कलिर सौभाग्ये श्रीवदने ॥१९२॥

प्रभु-महेश्वरेर कि अद्भुत चरित ।
मन्द मन्द हासिय़ा चाहय़े चारि भित ॥१९३॥

देखि पार्वतीर चेष्टा प्रसन्न अन्तरे ।
स्थिर करि पार्श्वे वसाइला पार्वतीरे ॥१९४॥

पार्वती परमानन्दे कहे—‘ओहे प्रभु ! ।
अद्य ये करिला कृपा ऐछे नहे कभु ॥१९५॥

ये सकल नाम उच्चारिला श्रीवदने ।
एसकल नाम कभु ना शुनि श्रवणे ॥१९६॥

कलिर सौभाग्य प्रशꣳसह वार वार ।
इथे बुझि—कलिते प्रकट ए सबार’ ॥१९७॥

शुनि पार्वतीर कथा मनेर उल्लासे ।
कहेन पार्वती-प्राति सुमधुर भाषे ॥१९८॥

‘एइ कलियुगे कृष्णचन्द्र नदीय़ाते ।
हईब प्रकट शचीदेवीर गर्भेते ॥१९९॥

श्रीराधिका-अङ्गकान्ति करिब धारण ।
त्रैलोक्य-विजय़रूप अति रसाय़न ॥२००॥

से रूपेर उपमा नारिब केह दिते ।
मातिब जगत् रूप वारेक चाहिते ॥२०१॥

से अङ्ग-शोभाय़ कन्दर्पेर दर्प-नाश ।
नवद्वीपे करिबेन अद्भुत विलास ॥२०२॥

सर्व अवतारेर सकल भक्त-सङ्गे ।
आस्वादिव व्रजेर दूर्लभ प्रेम रङ्गे ॥२०३॥

प्रकाशिव सङ्कीर्तन-सुखेर पाथार ।
निज-गुणे करिबेन जगत् उद्धार ॥२०४॥

एइ अवतारे दुःखी केह ना रहिब ।
यार येइ मनोरथ सब सिद्ध हब ॥२०५॥

पूर्वे पूर्वे ये केहे करिल कुन दोष ।
ताहा क्षमाइय़ा तार करिब सन्तोष ॥२०६॥

जानाइब भक्तेर महिमा अतिशय़ ।
कहिल तोमारे—ऐछे नाइ दय़ामय़’ ॥२०७॥

ए सब शुनिय़ा पार्वतीर मने याहा ।
एक मुखे केबा वा वर्णिते पारे ताहा ॥२०८॥

नवद्वीपे पार्वती आसिय़ा एखाने ।
आराधय़े श्रीगौरसुन्दर भगवाने ॥२०९॥

देवी आराधय़े जानि प्रसन्न अन्तर ।
साक्षात् हईला नवद्वीप-सुधाकर ॥२१०॥

भुवनमोहन प्रति अङ्गेर लावणी ।
श्रीमुखचन्द्रेते कोटिचन्द्रमा-निछनि ॥२११॥

दीर्घ दुइ नय़ने वा केबा धैर्य धरे ।
गण्डछटा कनक-दर्पण-दर्प हरे ॥२१२॥

आजानूलम्बित बाहु, वक्ष परिसर ।
नाना रत्न-भूषणे भूषित कलेवर ॥२१३॥

परिधेय़ वसने मदन-मद नाशे ।
गमन-भङ्गिते कत आनन्द प्रकाशे ॥२१४॥

देखिय़ा पार्वती धैर्य नारे धरिवार ।
निवारिते नारे नेत्र आनन्दाह्न्श्रुधार ॥२१५॥

पार्वतीर चेष्टा देखि प्रभु-विशम्भर ।
आइल निकटे अति उल्लास-अन्तर ॥२१६॥

सुमधुर वाक्ये पार्वतीर प्रति कय़ ।
‘कैला आराधना, स्थिर नहिल हृदय़ ॥२१७॥

मोर आगे तुमि ये कहिबे मनःकथा ।
ताहाइ करिब आमि—कहिल सर्वथा’ ॥२१८॥

इहा शुनि पार्वतीर आनन्दातिशय़ ।
सर्वाङ्गे पुलक-शोभा-उपमा ना हय़ ॥२१९॥

दुइ कर युड़ि कहे प्रभु विश्वम्भरे ।
‘करिबा ए कलि धन्य प्रकट विहारे ॥२२०॥

जगतेर तापत्रय़ हेलाय़ हरिबा ।
सकल जीवेर महानन्द बाड़ाइबा ॥२२१॥

सर्व अन्तर्यामी प्रभु जानह सकल ।
निरन्तर मोर हिय़ा हैय़ाछे विकल ॥२२२॥

भक्तस्थाने अपराध करिनु प्रचुर ।
शाप दिनु चित्रकेतु हैल वृत्रासुर ॥२२३॥

तोमार भक्तेर गुण कहने ना याय़ ।
दोष कैनु—तबु स्तुति करिल आमाय़ ॥२२४॥

से-सकल सह विलसिबा नदीय़ाते ।
एइ करो—से-सबे प्रसन्न हन याते ॥२२५॥

कहिते ना आइसे प्रभु ! ये करे अन्तर ।
देखि येन नदीय़ा-विहार निरन्तर’ ॥२२६॥

प्रभु कहे—‘हबे पूर्ण ये करिला मने ।
मोर यत कार्य ताहा नहे तोमा विने’ ॥२२७॥

एच्त कहि प्रभु हईतेइ अन्तर्दान ।
पार्वति पड़िय़ा पदे करिल प्रणाम ॥२२८॥

प्रभुर चरण-धूला सीमन्ते धरिल ।
ए हेतु सीमन्तद्वीप-नाम व्यक्त हैल ॥२२९॥

पार्वती व्याकुल हैला प्रभु-अदर्शने ।
कबे हबे प्रकट-विहार चिन्ते मने ॥२३०॥

ओहे श्रीनिवास ! एइ सीमन्तद्वीप-स्थान ।
ये देखे वारेक तार सफल नय़ान ॥२३१॥

अनाय़ासे घुचय़े दारुण भवभय़ ।
परम दूर्लभ-प्रेमभक्ति लभ्य हय़ ॥२३२॥

अद्यापिह एथा देवी पूजे सर्वलोक ।
देवीर कृपाय़ ना जानय़े दुःख-शोक ॥२३३॥

एइ सिमलिय़ा-ग्रामे श्रीगौरसुन्दर ।
विहरय़े सङ्गेते असꣳख्य परिकर ॥२३४॥

नगरकीर्तन-काले य़े आनन्द एथा ।
एक मुखे कहिब कि से-सकल कथा ॥२३५॥

भाग्यवन्तगण महा-शोभा निरखिल ।
प्रेम-कोलाहल सर्व जगत् व्यापिल ॥२३६॥

एत कहि सिमलिय़ा-ग्राम हैते चले ।
प्रभुलीला सङरि भासय़े नेत्रजले ॥२३७॥

गोद्रुम वा गादिगाछा—

कहिते-कहिते प्रभु भक्तेर चरित ।
गादिगाछा-ग्रामेते हईला उपनीत ॥२३८॥

ईशान कहय़े—एइ गादिगाछा-ग्राम ।
विज्ञे कहे पूर्वे ए गोद्रुमद्वीप-नाम ॥२३९॥

गोद्रुम-द्वीपाख्या यैछे कहि सꣳक्षेपेते ।
शुनिनु ये पूर्वविज्ञगणेर मुखेते ॥२४०॥

एकदिन इन्द्र अति व्याकुल हृदय़ ।
सुरभि-गाभीर प्रति धीरे धीरे कय़ ॥२४१॥

‘प्रभ्हुर माय़ाय़ स्थिर हईते नारिनु ।
अहङ्कारे मत्त हैय़ा अपराध कैनु ॥२४२॥

यद्यपि प्रसन्न प्रभु हईला आमारे ।
तथापिह चित्त स्थिर नारि करिबारे ॥२४३॥

नहिल उचित दत्त, दत्त दिय़ा प्रभु ।
निज सेवायोग्य कि करिब मोरे कभु ?’ ॥२४४॥

शुनिय़ा इन्द्रेर कथा सुरभि सन्तोषे ।
इन्द्र-प्रति कहे अति सुमधुर भाषे ॥२४५॥

‘जानिनु अन्तर किछु चिन्ता ना करिबे ।
एइ अवतारे मनोरथ-सिद्धि हबे ॥२४६॥

अवततीर्ण हैते अल्प दिवस आछय़ ।
एइ कलियुगेर सौभाग्य अतिशय़ ॥२४७॥

व्रजेन्द्रनन्दन कृष्ण गौराङ्गसुन्दर ।
विहरिब नवद्वीपे अति गूड़्‌हतर ॥२४८॥

यारे जानाइबे प्रभु सेइ से जानिबे ।
अखिल लोकेर सर्वदुःख विनाशिबे’ ॥२४९॥

एत कहि इन्द्रसह सुरभि एथाय़ ।
देखे नवद्वीप-शोभा उल्लास-हिय़ाय़ ॥२५०॥

आराधिते सुरभि श्रीप्रभुर चरण ।
हईला साक्षात् पूर्णब्रह्म सनातन ॥२५१॥

भुवनमोहन गौरमूर्ति निरखिय़ा ।
महानन्दे सुरभि धरिते नारे हिय़ा ॥२५२॥

मन्द मन्द हासि नवद्वीप-सुधाकर ।
कहय़े सुरभि-प्रति—बुझिनु अन्तर ॥२५३॥

देखिबे प्रकट मोर नदीय़ा-विहार ।
सर्वमनोरथ पूर्ण हईबे तोमार’ ॥२५४॥

एत कहितेइ इन्द्र आसि हेन काले ।
अति दीनप्राय़ पड़े प्रभु-पादतले ॥२५५॥

देखिय़ा इन्द्रेर अति कातर अन्तर ।
अति सुमधुर वाक्ये कहे विश्वम्भर ॥२५६॥

‘कुनई सङ्कोच चित्ते ना करिह आर ।
सर्वमनोरथ-सिद्धि हईबे तोमार’ ॥२५७॥

शुनिय़ा प्रभुर वाक्य इन्द्र निवेदय़ ।
‘तोमार माय़ाते केबा मोहित ना हय़? ॥२५८॥

व्रज-विहारेते चित्त भ्रमाइला यैछे ।
नवद्वीप-विहारे वा करो प्रभु ! तैछे’ ॥२५९॥

शुनि मन्द मन्द हासि प्रभु गौरराय़ ।
इन्द्र ये करिल कृपा—कहने ना याय़ ॥२६०॥

इन्द्रसह सुरभि अनेक स्तव कैल ।
प्रभु अन्तर्धान हैते व्याकुल हईल ॥२६१॥

श्रीसुरभि-गाभी इन्द्रदेवेर सहिते ।
कतक्षणे स्थिर हैला प्रभु इच्छाते ॥२६२॥

इन्द्रसह सुरभि परमानन्द-मने ।
देखि नवद्वीपशोभा कत उठे मने ॥२६३॥

कहिते कि जानि चेष्टा, ओहे श्रीनिवास ! ।
एइखाने हैल महाप्रेमेर प्रकाश ॥२६४॥

एथा छिल अश्वत्थवृक्ष अति उच्चतर ।
अति विस्तारित वृक्ष-शोभा मनोहर ॥२६५॥

श्रीसुरभि गाभी द्रुमतले विलसय़ ।
ए-हेतु गोद्रुमद्वीप पूर्वविज्ञ कय़ ॥२६६॥

एबे गादिगाछा नाम, ए-ग्राम-दर्शने ।
उपजे निर्मल-भक्ति प्रभुर चरणे ॥२६७॥

ए-ग्राम-वासेते पूर्ण हय़ अभिलाष ।
ए-ग्राम-महिमा झि कहिब श्रीनिवास ॥२६८॥

ए ग्रामे श्रीगौराङ्गेर अद्भुत विहार ।
नेत्र भरि देखे यत लोक नदीय़ार ॥२६९॥

मध्यद्वीप वा माजिता—

एत कहि ईशान ठाकुर हर्ष हैय़ा ।
देखे शोभा माजिता-ग्रामेर प्रान्ते गिय़ा ॥२७०॥

श्रीनिवास-प्रति कहे ए माजिता-ग्राम ।
कहय़े प्राचीन पूर्वे मध्यद्वीप-नाम ॥२७१॥

प्रभुर परमाद्भुत लीला मध्यद्वीपे ।
मध्यद्वीप-नाम हैछे कहिय़े सꣳक्षेपे ॥२७२॥

एथा सप्तऋषि प्रभुगुणे मग्न हैय़ा ।
नाना कथा कहे नवद्वीप निरखिय़ा ॥२७३॥

केहो कहे, देख नवद्वीप शोभामय़ ।
प्रभुर विलासस्थान सुखेर आलय़ ॥२७४॥

आछय़े यतेक तीर्थ जगत-भितरे ।
से-सब तीत्र्थेर स्थिति नदीय़ा-नगरे ॥२७५॥

केहो कहे, नवद्वीप-महिमा अपार ।
प्रकटाप्रकटे एथा अद्भुत विहार ॥२७६॥

प्रकटे प्रभुर सबे करय़े दर्शन ।
अप्रकटे देखे मात्र भाग्यवन्त जन ॥२७७॥

केहो कहे, एइ कलि धन्य करिबारे ।
हईब प्रकट जगन्नाथमिश्र-घरे ॥२७८॥

एइ अवतारे गौरवर्ण निरुपमा ।
जगत् मातिब देखि सर्वाङ्ग-सुषमा ॥२७९॥

केहो कहे, कृष्णेर ए नदीय़ा-विहार ।
ब्रह्मादिर अगोचर ऐछे चमत्कार ॥२८०॥

केहो कहे, शचीर नन्दन स्वेच्छामय़ ।
यबे से करय़े कार्य कहिल ना हय़ ॥२८१॥

कलिययुगे जीवेरे करिय़ा महायत्न ।
वितरिब परमदुर्लभ प्रेमरत्न ॥२८२॥

केहो कहे, दय़ार समुद्र महाप्रभु ।
ये कृपा करिबे जीवे ऐछे नहे कभु ॥२८३॥

सर्वावतारेर सर्वभक्त सङ्गे लैय़ा ।
सङ्कीर्तने मातिब जगत माताइय़ा ॥२८४॥

केहो कहे भक्तेर जीवन गौरहरि ।
करिय़ा सन्न्यास हईबेन देशान्तरी ॥२८५॥

असꣳख्य तीर्थेर पूर्ण करि अभिलाष ।
जगन्नाथ-प्रीते करिबेन क्षेत्रे वास ॥२८६॥

ऐछे महानन्द कत कहि परस्पर ।
प्रभुपादपद्म-चिन्ता करे निरन्तेर ॥२८७॥

अति अनुरागे ऋषिगण आराधय़ ।
भक्तवत्सल प्रभु अधैर्यातिशय़ ॥२८८॥

मध्याह्नेर सूर्यसम मध्याह्न-कालेते ।
हईला साक्षात् शोभा के पारे वर्णिते ॥२८९॥

भुवनमोहन भङ्गि करिते दर्शन ।
हैल अनिमिष ऋषिगणेर नय़न ॥२९०॥

व्यापिल पुलक अङ्गे, नेत्रे अश्रुधार ।
भूमे पड़्‌इ प्रभुरे प्रणमे वार-वार ॥२९१॥

करिल अनेक स्तुति कहिल ना हय़ ।
करि प्रदक्षिण पुनः प्रभुरे कहय़ ॥२९२॥

‘ओहे प्रभु, बहु अभिलाष मो-सबार ।
नेत्र भरि देखि एइ नदीय़ा-विहार ॥२९३॥

नवद्वीप-ध्यान येन करिय़े सदाइ ।
निरन्तर तोमार भक्तेर गुण गाइ’ ॥२९४॥

ऐछे कत प्रभु-आगे कहि ऋषिगण ।
प्रभुके देखिते वाञ्छे सहस्र लोचन ॥२९५॥

ऋषिस्तुति वशे प्रभु कहे ऋषिगणे ।
‘हईबेक पूर्ण सबे ये करिला मने ॥२९६॥

नवद्वीप-लीला मोर अति गोप्य हय़ ।
राखिबे गोपने इथे मोर सुखोदय़ ॥२९७॥

शुनि ऋषिगण कहे—‘कि बलिब प्रभु ! ।
करतले सूर्य कि आच्छन्न हय़ कभु ?’ ॥२९८॥

ऐछे ऋषिगण कत कहय़े उल्लासे ।
शुनि गौरचन्द्र प्रभु मने मने हासे ॥२९९॥

ऋषिगणे मनेर आनन्दे कृपा करि ।
हईलेन अन्तर्धान प्रभु गौरहरि ॥३००॥

प्रभु-अदर्शनेते व्याकुल ऋषिगण ।
एथा हैते मधाह्नेइ करिला गमन ॥३०१॥

गङ्गातीरे कुमारहट्टेर सन्निधाने ।
देखिय़ा अपूर्वस्थान रहे सेइखाने ॥३०२॥

यथा स्थिति कैला ताहा प्रसिद्ध आछय़ ।
सप्तऋषि-घाट अद्यापिह लोके कय़ ॥३०३॥

ओहे श्रीनिवास, मध्यद्वीपेर प्रसङ्ग ।
आल्पे जानाइलु एथा हईल महारङ्ग ॥३०४॥

मध्याह्नेर सूर्यसम मध्याह्न-समय़ ।
देखा दिला प्रभु तेञि मध्यद्वीप कय़ ॥३०५॥

अन्य ऋषि एथा कथोदिन तप कैल ।
तेꣳहो हर्षे मध्यद्वीप-नाम प्रचारिल ॥३०६॥

ए-स्थान दर्शने हय़ अमङ्गल-नाश ।
मिलय़े निर्मल-भक्ति एथा कैले वास ॥३०७॥

गौराङ्गेर अद्भुत विलास एइखाने ।
माताइला जीवेरे दुर्लभ प्रेमदाने ॥३०८॥

ऐछे कत कहि श्रीईशान हर्ष अति ।
वामनपौत्थेरा-ग्रामे चले मन्द गति ॥३०९॥

चतुर्दिके चाहि नेत्रे झरे प्रेम-जल ।
श्रीनिवास-प्रति कहे हईय़ा विह्वल ॥३१०॥

देख रमणीय़ भूमि ओहे श्रीनिवास ।
एइ सब स्थाने प्रभुर अद्भुत विलास ॥३११॥

वामनपौत्थेरा एइ ग्राम-नाम हय़ ।
पूर्व-नाम ब्राह्मण-पुष्कर विज्ञे कय़ ॥३१२॥

ब्राह्मणपुष्कर-नाम येरूपे हईल ।
ताहा कहि पूर्वविज्ञमूखे ये शुनिल ॥३१३॥

एइखाने छिल पूज्य प्राचीन ब्राह्मण ।
परम तपस्वी सर्वशास्त्रे विचक्षण ॥३१४॥

श्रीपुष्करतीर्थे ताꣳर अतिशय़ भक्ति ।
तथा यान ए-इच्छा चलिते नाहि शक्ति ॥३१५॥

हईय़ा व्याकुल विप्र कहे वार-वार ।
‘श्रीपुष्करतीर्थ-सेवा नहिल आमार ॥३१६॥

श्रीपुष्कर-स्थिति दूर पश्चिम-देशेते ।
गोञाइलु काल वृथा, नारिलु याइते ॥३१७॥

नहिल दर्शन, खेद रहिल हिय़ाय़ ।
मोरे कि करिब अनुग्रह तीर्थराय़’ ॥३१८॥

ऐछे कत कहि श्रीपुष्कर-नाम लैय़ा ।
करय़े क्रन्दन विप्र विरले वसिय़ा ॥३१९॥

देखि विप्र-दशा श्रीपुष्कर-तीर्थवर्ष ।
दिलेन दर्शन इथे हईला अधैर्य ॥३२०॥

अकस्मात् कुण्ड एक एथा प्रकटिल ।
निर्मल-सलिल-शोभा अधिक हईल ॥३२१॥

ब्राह्मण-अग्रेते शीघ्र करि वारि-व्याज ।
हईला साक्षात् श्रीपुष्करतीर्थराज ॥३२२॥

विप्रे कृपा करि कहे मधुर वचन ।
‘ना करिह खेद, कर कुण्डावगाहन’ ॥३२३॥

शुनि विप्र परम आनन्दे कैल स्नान ।
स्नान-मात्र विप्रेर हईल दिव्यज्ञान ॥३२४॥

श्रीपुष्करतीर्थे विप्र करि बहु स्तुति ।
भूमे पड़ि करिलेन अशेष प्रणति ॥३२५॥

करयुग युड़्‌इ पुनः कहे वार-वार ।
‘मोर लागि दूर हैते गमन तोमार’ ॥३२६॥

पुष्कर कहेन—‘दूर हैते ना आसिय़े ।
नवद्वीपे रहि सदा नदीय़ा सेविय़े ॥३२७॥

असꣳख्य तीर्थेर स्थिति नवद्वीप-धामे ।
नवद्वीप-महिमा ब्रह्मादि नाइ जाने ॥३२८॥

प्रेमभक्तिमय़ नवद्वीप-धाम नित्य ।
नदीय़ा कृपाय़ जाने नवद्वीप-तत्त्व ॥३२९॥

नवद्वीपे सदा गौरचन्द्रेर निवास ।
येꣳहो वृन्दावने कैल रासादि-विलास ॥३३०॥

वृन्दावने श्याम, गौरवर्ण नवद्वीपे ।
नवद्वीपे प्रभुर विहार गोप्यरूपे ॥३३१॥

कभु अप्रकट, कभु प्रकट-विहार ।
एइ कलियुगे हबे सुखेर पाथार ॥३३२॥

प्रकटिबे प्रभु एइ कलिर प्रथमे ।
विलसिब सर्वावतारेर भक्तसने ॥३३३॥

ब्रह्मार दुर्लभ प्रेम जीवे वितरिब ।
सङ्कीर्तने सकल जगत् माताइब ॥३३४॥

उद्धारिब दीन हीन पाषण्डिगणेरे ।
नहिब वञ्चित केह एइ अवतारे ॥३३५॥

करिबेन नवद्वीपे अषेश विहार ।
देखिबेन भाग्यवन्त लोक नदीय़ार’ ॥३३६॥

ए सब शुनिय़ा विप्र कान्दे उच्चराय़ ।
कहे पुनः—‘जन्म कि हईब नदीय़ाय़ ॥३३७॥

देखिब कि गौरचन्द्रेर चारुलीला ?’ ।
एत कहि विप्र महाव्याकुल हईला ॥३३८॥

विप्रे प्रबोधिय़ा श्रीपुष्कर-तीर्थराज ।
हईलेन अन्तर्धान करि कुन व्याज ॥३३९॥

विप्र महा-कातर पुष्कर-अदर्शने ।
हईल आकाशवाणी विप्रे सेइ क्षणे ॥३४०॥

‘निरन्तर चिन्त गौरचन्द्रेर चरण ।
हबे मनोरथ पूर्ण स्थिर कर मन’ ॥३४१॥

शुनि हेन वाक्य विप्र उल्लास-अन्तरे ।
निरन्तर चिन्ते नवद्वीप-सुखाकरे ॥३४२॥

करय़े नर्तन प्रभुचरित्र गाइय़ा ।
आन्यान्ये विस्मय़ विप्रचेष्टा निरखिय़ा ॥३४३॥

कहिते कि जानि ये शुनिनु ताꣳर रीत ।
पुष्कर तीर्थेर कथा हईल विदित ॥३४४॥

ब्राह्मणे पुष्कर कृपा कैल अतिशय़ ।
ए हेतु ब्राह्मणपुष्कर-नाम कय़ ॥३४५॥

प्रभु आराधिल एथा विप्र भाग्यवान् ।
देख एइ पुष्कर-तीर्थेर चिह्न-स्थान ॥३४६॥

से करे दर्शन ये करते एथा वास ।
प्रभुपदे हय़ तार सुदृढ़ विश्वास ॥३४७॥

ना जानय़े यमेर यातना सेइ जन ।
ये करय़े ए अद्भुत स्थानेर कीर्तन ॥३४८॥

एथा गौरसुन्दरेर अद्भुत विलास ।
ये देखिनु ताहा कि बलिब श्रीनिवास ॥३४९॥

एत कहि नेत्रजले भासिय़ा ईशान ।
वामनपौखेरा हैते करिला पय़ान ॥३५०॥

हाटभाङा-ग्रामेर निकट दाꣳड़ाइय़ा ।
श्रीनिवास-प्रति कहे, हातसान दिय़ा ॥३५१॥

देख श्रीनिवास, एइ हाटभाङा-ग्राम ।
पूर्वाविज्ञगण कहे उच्चहट्ट-नाम ॥३५२॥

उच्चहट्ट-ग्राम-नाम हैल मे प्रकारे ।
ताहा किछु कहिय़े शुनिनु साधुद्वारे ॥३५३॥

इन्द्रादि यतेक देव एथाइ रहिय़ा ।
परस्पर कहे कत विह्वल हईय़ा ॥३५४॥

केहो कहे एइ कलियुग धन्य धन्य ।
हईब प्रकट प्रभु श्रीकृष्णचैतन्य ॥३५५॥

अद्वैत-ईश्वर नित्यानन्द-बलरामे ।
करिब प्रकट पूर्व निय़मित धामे ॥३५६॥

केहो कहे, नवद्वीपे सकलेर स्थिति ।
असꣳख्य प्रभुर गण कहि कि शकति ॥३५७॥

प्रभुपरिकर यत करुणार सिन्धु ।
दीन-हीन अधम जनेर प्राणबन्धु ॥३५८॥

केहो कहे, प्रभुपरिकरगण लैय़ा ।
सङ्कीर्तल्ने मातिब जगत् माताइय़ा ॥३५९॥

बहिब आनन्द-नदी एइ नदीय़ाय़ ।
जीवेर कलन्मय-नाश हईब हेलाय़ ॥३६०॥

केहो कहे, हबे ये मङ्गल नाइ अन्त ।
देखिबे अद्भुत लीला लोक भाग्यवन्ते ॥३६१॥

मो-सबार जन्म यदि हय़ नदीय़ाय़ ।
तबे से मनेर महा-दुःख दूरे याय़ ॥३६२॥

केह कहे एथा जन्म अवश्य हईब ।
प्रभुर विहाय नेत्र भरि निरखिब ॥३६३॥

नवद्वीपवासी भक्त लैय़ा मो सबाय़ ।
करिब नियुक्त गौरचन्द्रेर सेवाय़ ॥३६४॥

ऐछे कत कहे, येन हाट वसाइल ।
एइ उच्च स्थाने उच्च कीर्तनारम्भिल ॥३६५॥

सकले तुलिय़ा बाहु कहे आर्त-चिते ।
विलम्ब ना कर प्रभु, अवतीर्ण हैते ॥३६६॥

ऐछे कहि परम उल्लासे देवगण ।
विविध भङ्गिमा करि करय़े नर्तन ॥३६७॥

प्रभुर श्रीनामावलि सबे करे गान ।
एइ दुइ हेतु हैते उच्चहट्ट-नाम ॥३६८॥

ए-स्थान-दर्शने हय़ सर्वत्र मङ्गल ।
प्रभुर कीर्तने श्प्रेम बार्ह्̤‌ए अनर्गल ॥३६९॥

एथा भक्तसङ्गे प्रभु शचीर कुमार ।
विहरय़े देवमुनीन्द्रादि-अगोचर ॥३७०॥

एत कहि ईशान हईते नारे स्थिर ।
सोङरे श्रीगौरलीला नेत्र बहे नीर ॥३७१॥

कोलद्वीप वा कुलिय़ा पाहाड़पूर—

कतक्षणे स्थिर हैया लैया श्रीनिवासे ।
कुलिय़ा पाहाड़पुर-ग्रामेते प्रवेशे ॥३७२॥

श्रीनिवास-प्रति कहे सुमधुर भाष ।
कुलिय़ा पाहाड़पुर देख श्रीनिवास ॥३७३॥

पूर्वे कोलद्वीप पर्वताख्य ए प्रचार ।
ए नाम हईल यैछे कहि से प्रकार ॥३७४॥

श्रीकोलदेवेर भक्त विप्र एकजन ।
एथा आराधय़े कोलदेवेर चरण ॥३७५॥

प्रभु-कोलदेवेर चरित्र मनोहर ।
गाय़ विप्र, नेत्रे वारिधारा निरन्तर ॥३७६॥

अतिशय़ व्याक्युल हईय़ा विप्र कय़ ।
एकवार देह देखा प्रभु दय़ामय़ ॥३७७॥

ऐछे आर्तनादे कत कहे विप्रवर ।
देखिते से चेष्टा धैर्य धारे के अन्तर ॥३७८॥

भक्ताधीन प्रभु अवतारी गौरहरि ।
हईलेन कोलरूप अद्भुत माधुरी ॥३७९॥

नाना रत्नभूषणे भूषित कलेवर ।
हस्त, पद, नासा, मुख, चक्षु मनोहर ॥३८०॥

पर्वत-प्रमाण उच्च शोभा से आश्चर्य ।
देखिते वराहदेवे केबा धरे धैर्य ॥३८१॥

एइश्खाने विप्रे कोलदेवे देखा दिते ।
विप्रेर आनन्द ये ता के पारे वर्णिते ॥३८२॥

भूमे पड़ि विप्र प्रणमिय़ा प्रभु-पाय़ ।
कैल यत स्तुति ताहा कहने ना याय़ ॥३८३॥

भकतवत्सल कोलदेवे विप्र-प्राति ।
कहय़े मधुर वाक्य हैय़ा हर्ष अति ॥३८४॥

‘हईबेक पूर्ण, मने ये आछे तोमार ।
देखिबा ए नवद्वीपे अद्भुत विहार’ ॥३८५॥

ऐछे, कहि अनुग्रह करिय़ा ब्राह्मणे ।
अन्तर्धान हैला कोलदेवे कतक्षणे ॥३८६॥

प्रभु-अदर्शने विप्र व्याकुल हृदय़ ।
स्थिर हैय़ा प्रभु-आज्ञा मने विचारय़ ॥३८७॥

आज्ञा हैल नवद्वीपे दोखिबे विहार ।
नवद्वीपे प्रभुर किरूप अवतार ॥३८८॥

चिन्ते विप्र लईय़ा वेदादि-शास्त्रगणे ।
वेदादि-शास्त्रार्थ प्रकाशय़े मने मने ॥३८९॥

‘एइ कलि प्रथमे धरिय़ा गौरवर्ण ।
नवद्वीपे विप्रवꣳशे हब अवतीर्ण ॥३९०॥

प्रकाशिब ब्रह्मादि-दुर्लभ सङ्कीर्तन ।
करिब प्रदान दीन हीने भक्ति-धन ॥३९१॥

आस्वादिव व्रजप्रेम-रसेर पाथार ।
भक्तभावे करिब सन्न्यास अङ्गीकार’ ॥३९२॥

ऐछे विचारिय़ा विप्र चाहे, चारि पाने ।
देखि अप्राकृत भूमि कहे खेद-मने ॥३९३॥

‘प्रभुर परम प्रिय़ नवद्वीपधाम ।
शास्त्रे व्यक्त तथापि नहिल मर्म-ज्ञान ॥३९४॥

नवद्वीप मोरे अनुग्रह कि करिब ।
प्रभु-अवतीर्णकाले एथा कि जन्मिब’ ॥३९५॥

एत कहि विप्र भासे नय़नेर जले ।
हईल आकाश-वाणी—‘जन्मिबे से काले’ ॥३९६॥

शुनिय़ा विप्रेर अति आनन्द-अन्तर ।
प्रभु-गुणे मग्न हईलेन निरन्तर ॥३९७॥

ओहे श्रीनिवास, इहा सर्वत्र विदित ।
शुनिलु प्राचीनमुखे कहिलु किञ्चित् ॥३९८॥

पर्वतप्रमाण कोल, विप्रे देखा दिल ।
एइ हेतु कोलद्वीप पर्वताख्या हैल ॥३९९॥

एस्थान-दर्शने नाशे स्बर्व अमङ्गल ।
मिलय़े दुर्लभ प्रेम-भक्ति सुनिर्मल ॥४००॥

एथा वास कैले पूर्ण हय़ अभिलाष ।
नवद्वीपे देखे गौरचन्द्रेर विलास ॥४०१॥

ऐछ कत कहि चले कोलद्वीप हैते ।
प्रभुर विलासस्थान देखिते देखिते ॥४०२॥

ऋतुद्वीप वा रातुपुर—

‘समुद्रगाड़ि’-ग्रामेर निकटे गिय़ा कय़ ।
देख श्रीनिवास ! ए समुद्रगड़ि हय़ ॥४०३॥

विज्ञगणे ‘श्रीसमुद्रगति’-नाम कय़ ।
एथा गङ्गा-समुद्र-प्रसङ्ग सुखमय़ ॥४०४॥

गङ्गाश्रय़ करिय़ा समुद्र-गति एथा ।
लोके ये प्रसिद्ध शुन कहिय़े से कथा ॥४०५॥

एकदिन समुद्र कहेन गङ्गा-प्रति ।
‘जगते तोमार सम नाइ भाग्यवती ॥४०६॥

पूर्णब्रह्म श्रीगौरसुन्दर नदीय़ाय़ ।
करिबेन प्रकट-विहार सबे गाय़ ॥४०७॥

तोमार तीरेते हबे अशेष आनन्द ।
गणसह सदा विलसिब गौरचन्द्र ॥४०८॥

व्रजे जलक्रीडा यैछे करे यमुनाय़ ।
तैछे क्रीड़ा करिबेन प्रभु गौरराय़’ ॥४०९॥

शुनिय़ा जाह्नवी निज-अन्तर प्रकाशे ।
समुद्रेर प्रति कहे सुमधुर भाषे ॥४१०॥

‘मोर य़े दुर्भाग्य ता कहिब कार काछे ।
मुख गिय़ा प्रभु महादुःख दिव पाछे ॥४११॥

करिब सन्न्यास प्रभु, छाड़िब नदीय़ा ।
तोमार तीरेते वास करिबेन गिय़ा ॥४१२॥

परम अद्भुत लीला तथा प्रकाशिब ।
निरन्तर तोमार आनन्द बाड़ाइब ॥४१३॥

तोमार सौभाग्य गाइबेक सर्वजन ।
ताहा ना कहिय़ा करो मोरे विड़्‌अम्बन’ ॥४१४॥

समुद्र कहेन—तथा ये कहिला बटे ।
देखिब सन्न्यासि-वेष याते प्राण फाटे ॥४१५॥

सोङरिते से वेष कि करे जानि हिय़ा ।
तोमार आश्रय़ तेञि लईनु आसिय़ा ॥४१६॥

तुमि देखाइबा एइ नदीय़ा-नगरे ।
भुवमोहन गौरचन्द्र नटवरे ॥४१७॥

तिले तिले प्रिय़गणे रचिब सुवेश ।
किबा ना भुलिब देखि से चाꣳचर केश ॥४१८॥

यैछे प्रभु तैछे ताꣳर प्रिय़सङ्गिगण ।
तोमा हैते हबे ताꣳ-सबार सन्दर्शन’ ॥४१९॥

ऐछे, दोꣳहे कि कत चिन्ते मने मने ।
प्रभु अवतीर्ण वा हईब कत दिने ॥४२०॥

ओहे श्रीनिवास, गङ्गा सिन्धु एइ खाने ।
सदाइ, अधैर्य गौरचन्द्रेर धिय़ाने ॥४२१॥

सुरधुनी समुद्रेर उत्कण्ठातिशय़ ।
जानिल प्रभुर हैल प्रकट-समय़ ॥४२२॥

प्रकट-समय़ सर्वमते सुलक्षण ।
चन्द्र-ग्रहणेर छले श्रीनाम-कीर्तन ॥४२३॥

नवद्वीप-भूमि हैल महातेजोमय़ ।
शोभावधि जगन्नाथ मिश्रेर आलय़ ॥४२४॥

अतिशय़ मङ्गलामङ्गल गेल दूरे ।
भासय़े सकल लोक आनन्द-साय़रे ॥४२५॥

विविध प्रकारे स्तुति करे ऋषिगण ।
ब्रह्मादि-देवओ करे पुष्प वरिषण ॥४२६॥

हईते प्रकट प्रभु शचीर तनय़ ।
प्रभुर प्रकट-ध्वनि भुवने व्यापय़ ॥४२७॥

प्रभु-प्रकटादि-लीला देखिर तरे ।
चित्तोद्वेगे सिन्धु कत कहिल गङ्गारे ॥४२८॥

गङ्गाश्रय़ करिय़ा आइसे निति निति ।
देखे गौरचन्द्रेर विहार रङ्गे माति ॥४२९॥

एकादिन समुद्र निर्मल गङ्गा-कूले ।
गणसह गौरचन्द्रे देखि वृक्षमूले ॥४३०॥

दिव्य-सिꣳहासने विलसय़े गौरहरि ।
रूपे कोटि कन्दर्पेर दर्प चूर्ण करि ॥४३१॥

कुङ्कुम कनक नहे रूपेर उपमा ।
भुवन भुलय़े देखि केशेर सुषमा ॥४३२॥

वदनचन्द्रमा कोटिचन्द्र-मद नाशे ।
झरय़े अमिय़ सदा मन्द मन्द हासे ॥४३३॥

आकर्ण विस्त्वत नेत्र, भङ्गि मनोहर ।
आजानुलाम्बित भुज, वक्षः परिसर ॥४३४॥

अति सुमधुर नाभिमध्ये, जानुद्वय़ ।
सुचारु चरणतले अरुण-उदय़ ॥४३५॥

परिधेय़ रक्तप्रान्ते श्वेत पट्टाम्बर ।
श्रीमलय़चन्दने चर्चित कलेवर ॥४३६॥

नानापुष्प-भूषणे भूषित शोभामय़ ।
अद्भुत भङ्गीते प्रिय़वर्गे निरीखय़ ॥४३७॥

यैछे गौरचन्द्रे तैछे प्रभु प्रिय़गण ।
चतुर्दिके वेष्टित परम-सुशोभन ॥४३८॥

दक्षिणे श्रीनित्यानन्द, वामे गदाधर ।
सम्मुखे अद्वैत, श्रीवासादि परिकर ॥४३९॥

ए सबे हईय़ा महाविह्वल प्रेमाय़ ।
अनिमिख-नेत्रे गौरचन्द्र पाने चाय़ ॥४४०॥

नाना सेवा करे प्रभु-भृत्य चारि पाशे ।
देखिय़ा समुद्र हैल अधैर्य उल्लासे ॥४४१॥

समुद्रेर मने बहु अभिलाष हैल ।
अन्तर्यामी प्रभु अभिलाष पूर्ण कैल ॥४४२॥

हईय़ा समुद्र महाविह्वल आनन्दे ।
गणसह प्रभु-लीला देखय़े स्वच्छन्दे ॥४४३॥

गङ्गार सौभाग्य प्रशꣳसय़े वार वार ।
निति गतागति—मात्र आश्रय़ गङ्गार ॥४४४॥

गङ्गासह गतिते समुद्रगति-नाम ।
एबे लोके कहय़े समुद्रगड़ि-ग्राम ॥४४५॥

ए समुद्रगड़ि-ग्राम-वास दर्शनेते ।
उपजे निर्मल-भक्ति श्रीगौरचन्द्रेते ॥४४६॥

एथा भक्तालय़े गौराङ्गेर ये विलास ।
ताहा एक मुखे कि कहिब श्रीनिवास ॥४४७॥

एत कहि ईशान समुद्रगड़ि हैते ।
परम आनन्दे चले ‘चम्पकहट्टेते’ ॥४४८॥

श्रीनिवासे कहे ए ‘चम्पकहट्ट’-ग्राम ।
‘चाꣳपाहाटि’-नाम ए दिव्य रम्य स्थान ॥४४९॥

एइखाने आछिल चम्पक-वृक्ष-वन ।
पुष्प आहरण सदा करे मालिगण ॥४५०॥

मालिगण चम्पक कुसुम सज्ज करि ।
एथाइ वैसय़े हाट पाति सारि सारि ॥४५१॥

महासुखे कत शत ब्राह्मण सज्जन ।
किनिय़ा चम्पक पुष्प करे देवार्चन ॥४५२॥

चाꣳपापुष्प-हाटे चाꣳपाहाटि-नाम हय़ ।
इथे से विशेष कहि विज्ञे ये कहय़ ॥४५३॥

एथा छिला वृद्ध एक विप्र विद्यावान् ।
श्रीकृष्णे आनन्यभक्ति, सर्वाꣳशे प्रधान ॥४५४॥

एकदिन अल्नेक चम्पकपुष्प लैय़ा ।
कृष्णपादपद्म पूजे महाहर्ष हैय़ा ॥४५५॥

श्यामल-सुन्दर रूप धिय़ाय़ अन्तरे ।
देखे गौररूप से श्यामल कालेवरे ॥४५६॥

गौर-कान्ति चाꣳपापुष्प-पुञ्जेर समान ।
देखिते देखिते रूप हैल अन्तर्धान ॥४५७॥

गौररूप-अन्तर्धाने व्याकुल हिय़ाय़ ।
एक दृष्टे, चम्पक पुष्पेर पाने चाय़ ॥४५८ ॥

चम्पकपुष्प-पुञ्जेर रुचि निरखिय़ा ।
वेदादि-प्रमाण-पाठे उमरय़े हिय़ा ॥४५९॥

कतक्षणे स्थिर हैय़ा शास्त्रमते कय़ ।
‘युगमध्ये एइ कलियुग धन्य हय़ ॥४६०॥

एइ कलियुगे कृष्ण हब् अवतीर्ण ।
धरिबेन भुवनमोहन पीतवर्ण ॥४६१॥

सङ्कीर्तन-यज्ञे यजिवेक विज्ञ ताꣳरे ।
जगत् भासिब प्रभु-लीलार पाथारे’ ॥४६२॥

शास्त्र विचारिय़ा पुनः करिल निर्धार ।
‘नवद्वीपे हबे ए ना प्रभु-अवतार ॥४६३॥

अवतीर्ण हैते बहु दिन आछे जानि ।
ना देखिब से गौरसुन्दर-तनुखानि’ ॥४६४॥

एत कहि ५७५७ अति दीर्घ निःश्वास छाड़य़ ।
मुख, बुक भासे दुइ नेत्रे धारा वय़ ॥४६५॥

अत्यन्त व्याकुल, धैर्य धरिते ना पारे ।
प्रभुर इच्छाय़ निद्रा आकर्षिल तारे ॥४६६॥

स्वप्नच्छले देखा दिला प्रभु गौरहरि ।
चम्पक-कुसुम-सम रूपेर माधुरी ॥४६७॥

कोटि कोटि चन्द्रमा जिनिय़ा मुख-चाꣳद ।
शिरे चारु चाꣳचर चिकुर काम-फाꣳद ॥४६८॥

नेत्र, बाहु, वक्षेर उपमा नाइ दिते ।
जगत् मोहित करे सर्वाङ्ग भङ्गिते ॥४६९॥

शोभा देखि विप्र महा-उल्लसित मने ।
करिल अनेक स्तुति पड़िय़ा चरणे ॥४७०॥

विप्रे कृपा करि प्रभु अदर्शन हैते ।
मूर्छित हईय़ा विप्र पड़िला भूमिते ॥४७१॥

कतक्षणे चेतन पाइय़ा विप्रराय़ ।
अनुरागे हईलेन उन्मादेर प्राय़ ॥४७२॥

चम्पक-कुसुम-प्रति कहे बेरि बेरि ।
‘तुमि स्फुराइला मोरे गौर-अवतारि’ ॥४७३॥

चम्पक-प्रशꣳसावाक्य-घटा हट्ट-मते ।
चम्पक-हट्टाख्या हैल प्रसिद्ध लोकेते ॥४७४॥

प्रभुर इच्छाय़ विप्र सुस्थिर हईला ।
आज्ञा हैल—‘हबे पूर्ण मने ये करिला’ ॥४७५॥

शुनि महानन्दे विप्र प्रभुगुण गाय़ ।
सदा चिन्ते—प्रभुरे देखिब नदीय़ाय़ ॥४७६॥

प्रभुप्रिय़ विप्रेर शुननु ये ये क्रिय़ा ।
से सकल कहिते नारिनु विस्तारिय़ा ॥४७७॥

एइ चम्पकहट्टे गौरचन्द्र गणसने ।
विहरय़े यैछे ता वर्णिब कुन जने ॥४७८॥

एइ देख विप्र वाणीनाथेर आलय़ ।
येꣳहो गौराङ्गेर अतिप्रिय़ प्रेममय़ ॥४७९॥

तथाहि श्रीगौरगणोद्देशदीपिकाय़ाम्—
‘वाणीनाथ-द्विजश्चम्पाहट्टवासी प्रभोः प्रिय़ः’ ॥४८०॥

ऐछे देखाइय़ा प्रभुप्रिय़गण-स्थान ।
चम्पाहट्टग्राम हैते चलय़े ईशान ॥४८१॥

‘रातुपुर’-ग्रामेर निकट गिय़ा कय़ ।
देख ‘ऋतुद्वीप’ ए परम शोभामय़ ॥४८२॥

पूर्वे बृहद्ग्राम एबे ग्राम नाम-मात्र ।
एथा छिल कृष्णेर अनेक भक्ति-पात्र ॥४८३॥

रातुपुर प्रदेश परम चमत्कार ।
एथा गौराङ्गेर अति अद्भुत विहार ॥४८४॥

ओहे श्रीनिवास ऋतुद्वीपाख्या ये-मते ।
ताहा कहि ये कहय़े प्राचीन लोकेते ॥४८५॥

एथा छय़ ऋतु—वर्षा, शरत्, हेमन्त ।
शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म सबे मूर्तिमन्त ॥४८६॥

केहो कारु प्रति कहे मधुर भाषाय़ ।
‘हईबे प्रकट कृष्णचन्द्र नदीय़ाय़’ ॥४८७॥

केह कहे—‘करिबेन अद्भुत विहार ।
तिले तिले मोद बार्ह्̤‌आबेन मे-सबार’ ॥४८८॥

केह कहे—व्रजेन्द्रनन्दन गौरहरि ।
कतदिने मोद जन्माइब अवतरि’ ॥४८९॥

केह कहे—‘कलिर प्रथमे अवतार ।
श्रीनारद मुनि कैल सर्वत्र प्रचार’ ॥४९०॥

केह कहे—‘कह अवतारेर समय़’ ।
केह कहे—‘वसन्तेर भाग्य अतिशय़’ ॥४९१॥

हईला वसन्त-ऋतु हर्ष अनिवार ।
आपनेइ प्रशꣳसय़े भाग्य आपनार ॥४९२॥

ऋतुराज वसन्त-सहित ऋतुगण ।
प्रभु अवतीर्ण-चिन्ता करे अनुक्षण ॥४९३॥

ऋतुगण बहु अभिलाषे आराधय़ ।
ए हेतु ए ऋतुद्वीप-नाम पूर्वे कय़ ॥४९४॥

वसन्तादि ऋतु छय़े प्रभुर विलास ।
एबे कि कहिब, आगे हईब प्रकाश ॥४९५॥

ए स्थान-दर्शने सब ताप दूरे याय़ ।
देखय़े प्रभुर लीला जन्मि नदीय़ाय़ ॥४९६॥

एत कहि श्रीईशान ऋतुद्वीप हैते ।
करिला विजय़ विद्यानगरेर पथे ॥४९७॥

श्रीनिवास, नरोत्तम, श्रीरामचन्द्रेरे ।
कहे सुमधुर कथा उल्लास अन्तरे ॥४९८॥

जन्हुद्वीप—

देख ‘विद्यानगर’ परम सुशोभित ।
विद्यानगर-व्याख्या यैछे कहिय़े किञ्चित् ॥४९९॥

देव-सभामध्ये बृहस्पति एकदिन ।
हईला उद्विग्न इहा कहय़े प्राचीन ॥५००॥

बृहस्पति उद्विग्न देखिय़ा देवगण ।
जिज्ञासय़े—‘उद्विग्न हईला कि कारण ?’ ॥५०१॥

बृहस्पति अतिशय़ मनेर उल्लासे ।
देवगण-प्रति कहे सुमधुर भाषे ॥५०२॥

‘एइ कलियुगे प्रभु नदीय़ाञगरे ।
जन्मिबेन विप्र जगन्नाथ मिश्र-घरे ॥५०३॥

प्रभु गौरचन्द्र जगन्नाथेर तनय़ ।
नाना अवतारे नाना रङ्ग प्रकाशय़ ॥५०४॥

श्रीरामावतारे अस्त्रशिक्षा-सुनैपुण्य ।
श्रीकृष्णावतारे गोचारणे अग्रगण्य ॥५०५॥

श्रीगौरावतारे श्रेष्ठ विद्या-अध्यय़ने ।
इथे ये कौतुक ता बुझे अन्य जने ॥५०६॥

सर्वमेनोरथ पूर्ण करिबेन प्रभु ।
विलसिब यैछे ना विलसे ऐछे कभु ॥५०७॥

रहिते नारिय़े शीघ्र नवद्वीपे गिय़ा ।
प्रभु आराधिब प्रभु-प्रकट लागिय़ा’ ॥५०८॥

ऐछे कत कहि यात्रा कैला बृहस्पति ।
प्रभुर श्रीविद्या-क्रीड़ा चिन्ते निति निति ॥५०९॥

करिबेन प्रभु विद्या-क्रीड़्‌आ नदीय़ाय ॥
एइ हेतु बृहृअपति आइला एथाय़ ॥५१०॥

तथाहि श्रीचैतन्यभागवते—
एइ क्रीड़ा लागि सर्वाराध्य बृहस्पति ।
शिस्यसङ्गे नवद्वीपे हईला उत्पत्ति ॥५११॥

ओहे श्रीनिवास, एइ श्रीविद्यानगरे ।
बृहस्पति आराधये श्रीगौरसुन्दरे ॥५१२॥

हईले प्रभुर आज्ञा बृहस्पति-प्रति ।
‘हईब प्रकट शीघ्र स्वगण-सꣳहति ॥५१३॥

अशेष प्रकारे विद्या करह प्रचार’ ।
शुनि बृहस्पति-चित्ते हर्ष अनिवार ॥५१४॥

कैला विद्यारम्भ यैछे कहने ना य़ाय़ ।
हईला तत्पर सबे विद्याव्यवसाय़ ॥५१५॥

प्रभु क्रीड़ा लागि एथा प्रचारिल ।
एइ हेतु ‘श्रीविद्यानगर’-नाम हैल ॥५१६॥

सर्वसिद्ध एइ विद्यानगर-दर्शने ।
घुचय़े आविद्या विद्यानगर श्रवणे ॥५१७॥

एइ विद्यानगरे गौराङ्ग गणसङ्गे ।
विहरय़े भक्तेर आलय़े महारङ्गे ॥५१८॥

एत कहि ईशान ठाकुर धीरे धीरे ।
मनेर उल्लासे प्रवेशय़े ‘जान्नगरे’ ॥५१९॥

श्रीनिवासे कहे लेख ग्राम जान्नगर ।
पूर्वे ‘जान्नद्वीप’-नाम कहे विज्ञवर ॥५२०॥

यैछे जान्नद्वीपञाम व्यक्त महीतले ।
ताहा कहि ये कहय़े प्राचीन सकले ॥५२१॥

जह्नुमुनि परम आनन्दे एइखाने ।
देखि नवद्वीप-शोभा विचारय़े मने ॥५२२॥

‘अन्य कलि हैते एइ, कलियुग धन्य ।
याते अवतीर्ण प्रभु श्रीकृष्णचैतन्य ॥५२३॥

सर्ववावतारेर सर्वप्रिय़गण-मने ।
नवद्वीपे अवतीर्ण कलिर प्रथमे ॥५२४॥

धरिब से गौरवर्ण उपमार पार ।
हईब श्रीअङ्गेर भङ्गिमा चमत्कार ॥५२५॥

नवद्वीपे करिबेन अद्भुत विलास ।
ताहा देखि कि पूर्ण हईबे अभिलास’ ॥५२६॥

ऐछे, विचारिय़ा मुनि मनेर आनन्दे ।
आराधय़े भुवनमोहन गौरचन्द्रे ॥५२७॥

मुद्रित नय़ने मुनि करिते धिय़ान ।
हृदय़े उदय़ हैला प्रभु दय़ावान् ॥५२८॥

श्यामल सुन्दर मूर्ति त्रिभुवन मोहे ।
त्रिभङ्ग-भङ्गिमा शिरे शिखिपिञ्छ शोहे ॥५२९॥

करावलम्बन-वꣳशी वाय़ मन्द मन्द ।
झमल करे सुचारु मुखचन्द्र ॥५३०॥

ऐछे देखि देखे तारे सन्न्यासी नवीन ।
दण्ड-कमण्डलु करे शिरे शिखाहीन ॥५३१॥

परिधेय़ अरुण कौपीन-बहिर्वास ।
अङ्गतेज जिनि कोटि सूर्येर प्रकाश ॥५३२॥

ऐछे निरखिय़ा मुनि नारे स्थिर हैते ।
नेत्र मेलितेइ तेꣳहो उदय़ साक्षाते ॥५३३॥

सुचारु चाꣳचर केशे माताय़ भुवन ।
झलमल करे नाना अङ्गेर भूषण ॥५३४॥

जगत् करय़े आलो रूपेर छटाय़ ।
स्वर्णादि मलिन, से उपमा नहे ताय़ ॥५३५॥

अङ्गभङ्गि कोटि-कन्दर्पेर दर्प नाशे ।
देखि मुनि हईलेन विह्वल उल्लासे ॥५३६॥

देखिय़ा मुनिर चेष्टा प्रभु गौरहरि ।
करिल मुनिरे स्थिर अनुग्रह करि ॥५३७॥

मुनि महानन्दे पड़ि प्रभुपदतले ।
करिलेन सिक्त पादपद्म नेत्रजले ॥५३८॥

करिय़ा अनेक स्तुति रहिय़ा सम्मुखे ।
समर्पिल नेत्रद्वय़ प्रभुर श्रीमुखे ॥५३९॥

प्रभु आलिङ्गन करि कहे वार वार ।
‘सर्वमनोरथ-सिद्धि हईबे तोमार’ ॥५४०॥

ऐछे कत कहि प्रभु अन्तर्धान हैला ।
प्रभुर इच्छाय़ मुनि धैर्यावलम्बिला ॥५४१॥

आपनार सौभाग्य प्रशꣳसे मने मने ।
‘हैल मोर तपस्या सफल एतदिने’ ॥५४२॥

ऐछे विचारिय़ा मुनि चाहे चारि भिते ।
कत साध नदीय़ार महिमा कहिते ॥५४३॥

निरन्तर नदीय़ा-चान्देर गुण गाय़ ।
धूलाय़ धूसर, सिक्त नेत्रेर धाराय़ ॥५४४॥

जह्नुमुनि महानन्दे रहे एइखाने ।
एइ हेतु ‘जह्नुद्वीप’ कहे विज्ञगणे ॥५४५॥

जह्नुद्वीपे श्रीगौरचन्द्रेर ये विहार ।
से सब भाविते हिय़ा विदरे आमार ॥५४६॥

एथा छिल पुष्पमय़ अपूर्व कानन ।
लोके कहे—‘श्रीजह्नुमुनिर तपोवन ॥५४७॥

ए स्थान-दर्शने सब ताप दूरे याय़ ।
बार्ह्̤‌अय़े निर्मल-भक्ति प्रभुर श्रीपाय़’ ॥५४८॥

मोदद्रुमद्वीप—

एत कहि जान्नगर हईते ईशान ।
चलिलेन ‘माउगाछि’-ग्राम-सन्निधान ॥५४९॥

माउगाछि-प्रदेशेर शोभा निरखिय़ा ।
श्रीनिवास प्रति कहे ईषत् हासिय़ा ॥५५०॥

एइ ‘माउगाछि’-ग्राम लोकेते प्रचार ।
‘मोदद्रुमद्वीप-नाम पूर्वे से इहार ॥५५१॥

‘मोदद्रुमद्वीप’-नाम यैछे व्यक्त हैल ।
ताहा कहि प्राचीनेर मुखे ये शुनिल ॥५५२॥

पालिते पितार सत्य कौशल्या-तनय़ ।
अयोध्या छाड़िय़ा वने कारिला विजय़ ॥५५३॥

छाड़ि राजवेश प्रभु महानन्द-मने ।
जानकी-लक्षणसह भ्रमे वने वने ॥५५४॥

अति सुकोमल पदे से पथे चलय़े ।
से पथ कोमल हय़ किछु ना राजय़े ॥५५५॥

वात, वर्षा, सूर्यातप सदा अनुकुल ।
अद्भुत भ्रमण लीला, भुवने अतुल ॥५५६॥

नानादेशवासी स्त्री-पुरुष आदि यत ।
देखि रामचन्द्र-शोभा सबेइ उन्मत ॥५५७॥

ये ये वन-पर्वतादि-स्थाने कैल स्थिति ।
हैल महातीर्थ से से स्थाने व्यक्त कीर्ति ॥५५८॥

एथा हैते उत्तर दिशाय़ कथोदूरे ।
छिलेन श्रीरामचन्द्र पर्वतगह्वरे ॥५५९॥

अद्यापिह लोकयात्रा सेइखाने हय़ ।
सेइस्थान-दर्शनमात्रे सर्व दुःख-क्षय़ ॥५६०॥

ओहे श्रीनिवास, ऐछे भ्रमिते भ्रमिते ।
आइसेन एथा यैछे उपमा कि दिते ॥५६१॥

अग्रे राम राजा दशरथेर नन्दन ।
मध्ये श्रीजानकी, पाछे ठाकुर लक्षण ॥५६२॥

श्रीराम, जानकी, लक्ष्मणेर शोभा देखि ।
आनेर का कथा महामुग्ध पशुपाखी ॥५६३॥

ब्रह्मादिर वन्द्य राम राजीवलोचन ।
चतुर्दिके चाहि चले गजेन्द्रगाअमन ॥५६४॥

कथोदूर हैते नवद्वीप-पाने चाय़ ।
मन्द मन्द हासे अति कौतुक हिय़ाय़ ॥५६५॥

श्रीरामचन्द्रेर देखि सहास्यवदन ।
जिज्ञासे जानकी—‘कह हास्येर कारण’ ॥५६६॥

शुनि श्रीसीतार प्रौड़्‌ह वाक्य रसावेशे ।
कहय़े जानकी-प्रति सुमधुर भाषे ॥५६७॥

‘द्वापरेर परे कलियुगेर प्रथमे ।
हबे महाकौतुक ए नवद्वीप-ग्रामे ॥५६८॥

नवद्वीपे करि अति अद्भुत विहार ।
तदुपरि करिब सन्न्यास-अङ्गीकार ॥५६९॥

एबे यैछे भ्रमि ऐछे करिब भ्रमण ।
करिते भ्रमण मने हासिलु एथन’ ॥५७०॥

शुनिय़ा जानकी निवेदय़े योड़्‌अ-करे ।
‘कैछे, विलसिबा प्रभु नदीय़ा-नगरे ?’ ॥५७१॥

शुनि प्रभु कहे—विप्र-वꣳशेते जन्मिब ।
बाल्यकाले विविध चाञ्चल्य प्रकाशिब ॥५७२॥

धरिब अद्भुत पीतवर्ण निरुपम ।
आमा पाने चाहिय़ा मातिब त्रिभुवन ॥५७३॥

हब विद्यावन्त, कीर्ति व्यापिब भुवने ।
करिब विवाहद्वय़ पिता-अदर्शने ॥५७४॥

एबे यैछे कैलु पिण्डप्रसाद गयाते ।
ऐछे पिण्डप्रदान करिब लोक-रीते ॥५७५॥

नवद्वीपे भक्तेर उल्लास बाड़्‌हाइब ।
ब्रह्मादि-दुर्लभ सङ्कीर्तन प्रचारिब ॥५७६॥

निजगणे विविध प्रकारे प्रबोधिय़ा ।
हैबाङ् देशान्तरी सन्न्यासी हईय़ा’ ॥५७७॥

शुनि श्रीजानकी कहे सहास्यवदने ।
‘सन्न्यास करिला तबे विवाह वा केने ? ॥५७८॥

इथे अनुचित एइ मोर मने लय़ ।
परम दय़ालु हैय़ा हईबा निर्दय़’ ॥५७९॥

शुनि लज्जायुक्त राम कहे सीता-प्रति ।
‘ना जानह सदा मोर नवद्वीपे स्थिति’ ॥५८०॥

कहिते कहिते ऐछे मधुर गमने ।
जानकी-लक्षणसह आइला एखाने ॥५८१॥

एक बृहद्वटद्रुम आछिल एथाय़ ।
तार तले दाꣳड़ाइला अपूर्व छाय़ाय़ ॥५८२॥

पुनः श्रीजानकी कहे निज प्राणनाथे ।
‘सङ्कीर्तनानन्द प्रभु कैछे नदीय़ाते ?’ ॥५८३॥

जानाकीवल्लभ राम राजीवलोचन ।
प्रिय़ा-प्रति कहे—‘करो मुद्रित नय़न’ ॥५८४॥

शुनिय़ा जानकी दुइ नय़न मुदय़े ।
नवद्वीपे अद्भुत विलास निरिखाय़े ॥५८५॥

गीते, नृत्य, वाद्येर अवधि नदीय़ाय़ ।
प्रभुभक्त असꣳख्य उपमा नाइ ताय़ ॥५८६॥

परिकर-मध्ये गौर-ब्विग्राह सुन्दर ।
कैशोर वय़स, महारसेर सागर ॥५८७॥

भुवनमोहय़े से ना अङ्ग-भङ्गिमाते ।
से शोभा देखिय़ा सीता नारे स्थिर हैते ॥५८८॥

नय़न मेलिया चाहे प्राणनाथ-पाने ।
हासिय़ा श्रीरामचन्द्र स्थिर कैल ताने ॥५८९॥

सर्वतत्त्व जानेन श्रीसुमित्रा-नन्दन ।
हईला अधैर्य लीला करिय़ा स्मरण ॥५९०॥

एथा सकलेर मोद-वृद्धि अतिशय़ ।
एइ हेतु ‘मोदद्रुमद्वीप’ पूर्वे कय़ ॥५९१॥

एइ मोदद्रुमद्वीप ये करे दर्शन ।
तारे सुप्रसन्न राम जानकी, लक्ष्मण ॥५९२॥

ओहे श्रीनिवास एइ रामवट-स्थान ।
कलि प्रवेशिते वट तैल अन्तर्धान ॥५९३॥

एथा हैते रामचन्द्र महाहर्ष-चिते ।
श्रीसीता-लक्ष्मण-सह चले उत्कलेते ॥५९४॥

प्रवेशि उत्कले देखि स्थान मनोरम ।
रामेश्वर-नामे शिव करिला स्थापन ॥५९५॥

सुवर्णरेखा नदीर निकटे सेइ स्थान ।
मनेर आनन्दे ता देखय़े भाग्यवान् ॥५९६॥

तथा हैते रामचन्द्र भ्रमे वने वने ।
करय़े परमाद्भुत कीर्ति स्थाने स्थाने ॥५९७॥

एइ ‘माउगाछि’-ग्रामे श्रीगौरसुन्दर ।
करिल अद्भुत लीला अन्य-आगोचर ॥५९८॥

राम-उपासक एक विप्र छिल एथा ।
ओहे श्रीनिवास, किछु कहि ताꣳर कथा ॥५९९॥

ये दिवस विश्वम्भर प्रकट हईला ।
से दिवस सेइ विप्र मिश्रगृहे छिला ॥६००॥

प्रकट-समय़ देवे जय़ध्वनि करे ।
देखि देवगणे विप्र पड़िला फाꣳपरे ॥६०१॥

परम आनन्दे मने मने विचारय़ ।
हईल प्रकट मोर प्रभु सुनिश्चय़ ॥६०२॥

दशरथ राजा एइ मिश्र जगन्नाथ ।
जगत-जननी शची—कौशल्या साक्षात् ॥६०३॥

काहुके ना कहि किछु ।देखि विश्वम्भरे ।
मिश्रगृह हईते आइलेन निज-घरे ॥६०४॥

दुर्वादलश्याम रामे करिते धिय़ान ।
देखि मिश्रपुत्रे गौरमूर्ति अनुपम ॥६०५॥

इथे चिन्तायुक्त हैते निद्रा आकर्षिल ।
स्वप्नच्छले गौरचन्द्र साक्षात् हईल ॥६०६॥

कनकदर्पण यिनि श्रीअङ्गेर छटा ।
निन्दय़े श्रीमुखचन्द्रे चन्द्रमार घटा ॥६०७॥

आजानुलम्बित बाहु, वक्षः परिसर ।
आकर्ण-विस्तृत नेत्र, भङ्गि मनोहर ॥६०८॥

शिरे चारु चिकण चाꣳचर केशभार ।
ताहे सुविचित्र बेड़ा नाना पुष्पहार ॥६०९॥

गले यज्ञसूत्र अति अद्भुत सुषमा ।
सर्वाङ्गसुन्दर, नाइ जगते उपमा ॥६१०॥

विलसय़े अपूर्व रतन-शिꣳहासने ।
स्तुति करे सन्मुखे ब्रह्मादि देवगणे ॥६११॥

देखिते देखिते विप्र मनेर आनन्दे ।
दुर्वादल-श्यामरूप देखे गौरचान्दे ॥६१२॥

भुवनमोहन प्रभु कौशल्यातनय़ ।
परम अद्भुत राजवेशे विलसय़ ॥६१३॥

महास्यवदन, धनुर्वाण धरे करे ।
वामे सीता, दक्षिणे लक्षण छत्र धरे ॥६१४॥

सन्मुखे पवननन्दन हनुमान् ।
करयोड़्‌ए रहे से अद्भुत भङ्गि तान ॥६१५॥

ऐछे रामचन्द्र-शोभा देखि विप्रवर ।
भूमिते पड़िय़ा करे प्रणति विस्तर ॥६१६॥

भक्तवत्सल प्रभु गुणेर आलय़ ।
विप्रे अनुग्रह करिलेन अतिशय़ ॥६१७॥

प्रभु-अदर्शन हैते हैल निद्राभङ्ग ।
विप्र महा-व्याकुल धरिते नारे अङ्ग ॥६१८॥

देखि दशा, पुनः प्रभु स्वप्ने प्रबोधिला ।
ए सकल व्यक्त करितेओ निषेधिला ॥६१९॥

स्थिर हैय़ा विप्र महा-मनेर आनन्दे ।
काहुके ना कहे किछु देखि गौरचन्द्रे ॥६२०॥

अत्यन्त प्राचीन विप्र अप्रकटकाले ।
करि अनुग्रह किछु कहिल विरले ॥६२१॥

मोर अतिशय़ अनुग्रह हय़ तार ।
कि बलिब विप्रेर महिमा चमत्कार ॥६२२॥

देख से विप्रेर एइ वासस्थान हय़ ।
ए स्थान-दर्शमात्रे घुच भवभय़ ॥६२३॥

एथा गौरचन्द्रे निजगणेर सहिते ।
प्रकाशय़े रामलीला देखिनु साक्षाते ॥६२४॥

एत कहि श्रीईशान से प्रेमावेशेते ।
गेलेन ‘वैकुण्ठपुर’ माउगाछि हैते ॥६२५॥

श्रीनिवास नरोत्तमे कहे धीरे धीरे ।
देख ए वैकुण्ठपुर विदित सꣳसारे ॥६२६॥

वैकुण्ठपुराख्या यैछे हईल प्रचार ।
ताहा किछु कहि लोके कहे ये प्रकार ॥६२७॥

एकदिन नारद श्रीवैकुण्ठ हईते ।
आइसे शिबिरे पाशे कैलास-पर्वते ॥६२८॥

निजगण-सह शिव वसि चर्मासने ।
श्रीकृष्णचरित कहे श्रीपञ्चवदने ॥६२९॥

दूर हईते नारद श्रीमहेशे देखिय़ा ।
हईला विह्वल, भूमे पड़ि प्रणमिय़ा ॥६३०॥

नारदे करिय़ा कोले देव त्रिलोचन ।
जिज्ञासेन—‘कोथा हैते हईल आगमन ?’ ॥६३१॥

नारद कहेन अति उल्लसित मने ।
‘गिय़ाछिनु श्रीनाराय़णेर सन्दर्शने ॥६३२॥

श्रीवैकुण्ठनाथ लैय़ा निज-प्रिय़गण ।
नवद्वीप-प्रसङ्गे निमग्न अनुक्षण ॥६३३॥

भारतवर्षेते नवद्वीप रम्य स्थान ।
गणसह हर्ष तथा करिते पय़ान ॥६३४॥

देखि महारङ्ग मुइ आइनु त्वराय़ ।
ना जानि कि आनन्द हईबे नदीय़ाय़’ ॥६३५॥

शुनि नारदेर वाक्य देव महेश्वर ।
मन्द मन्द हासे प्रेमे पूर्ण कलेवर ॥६३६॥

नारदेर पाने चाहि मस्तक ढुलाय़ ।
करय़े गर्जन कि अद्भुत भङ्गि ताय़ ॥६३७॥

हईल विह्वल श्रीकैलास-गिरीस्वर ।
नय़नेर जले सिक्त श्वेत कलेवर ॥६३८॥

नवद्वीप-लीलागत महेशे देखिय़ा ।
चलिला नारदमुनि विदाय़ हईय़ा ॥६३९॥

ओहे श्रीनिवास, श्रीनारद एइखाने ।
नवद्वीप-शोभा देखि विचारय़े मने ॥६४०॥

एइ नवद्वीपधाम सर्वधाममय़ ।
सर्वधामनाथ एथा सदा विलसय़ ॥६४१॥

देखि आइनु श्रीवैकुण्ठनाथ नाराय़णे ।
एथा कि वैकुण्ठनाथे देखिब नय़ने ? ॥६४२॥

मुनि मनोरथमात्रे देखय़े साक्षाते ।
गणसह श्रीवैकुण्ठ, वैकुण्ठेर नाथे ॥६४३॥

हईला नारदमुनि प्रेमाय़ विह्वल ।
निवारिते नारे दुइ नय़नेर जल ॥६४६॥

नवद्वीपधामे कत प्रार्थना करिय़ा ।
कृष्ण-सन्दर्शन कैल द्वारकाय़ गिय़ा ॥६४५॥

नारदेर आगमने रुक्मिणीर नाथ ।
प्रेमाय़ विह्वल हैय़ा कैल दृष्टिपात ॥६४६।

नारदेरे सन्तोष करिय़ा नाना मते ।
जिज्ञासय़े—‘आगमन हैल कोथा हैते ?’ ॥६४७॥

मुनि कहे—‘नवद्वीप हैते आगमन’ ।
एत कहि करिलेन मौनावलम्बन ॥६४८॥

मुनि मनोवृत्ति जानि कृष्ण कृपामय़ ।
हईलेन गौरमूर्ति, भुवनमोहय़ ॥६४९॥

देखिय़ा नारद मुनि नदीय़ार चान्दे ।
नेत्रे बहे वारिधारा धैर्य नाहि वान्धे ॥६५०॥

हईलेन यैछे किछु ना याय़ कहने ।
श्यामल सुन्दर कृष्ण देखे सेइक्षणे ॥६५१॥

गौर कृष्णरूप अति अमूल्य रतन ।
हृदय़-सम्पुटे मुनि कैल सङ्गोपन ॥६५२॥

फिराइते नारे नेत्र रहय़े चाहिय़ा ।
प्रभु हर्ष नारदेर चेष्टा निरखिय़ा ॥६५३॥

नारदे करिय़ा स्थिर कहे मृदुभाषे ।
‘शिवेर निकट शीघ्र याइबे कैलासे ॥६५४॥

नवद्वीप-गमन जानाबे सब ठाꣳइ ।
हईल समय़ विलम्बेर कार्य नाइ’ ॥६५५॥

शुनिय़ा कृष्णेर महा-मधुर-वचन ।
विदाय़ हईय़ा मुनि करिल गमन ॥६५६॥

गाय़ वीणायन्त्रे गौर-कृष्णेर चरित ।
कैलास-पर्वते शीघ्र हैला उपनीत ॥६५७॥

शिवे प्रणमिय़ा मुनि सब निवेदिल ।
शुनि महादेव महा-विह्वल हईल ॥६५८॥

नारदे करिय़ा, क्रोड़े करय़े नर्तन ।
ये आनन्द कैलासे ता ना हय़ वर्णन ॥६५९॥

ओहे श्रीनिवास, मुनि सर्वत्र जानाइ ।
पुनः श्रीनारदमुनि आइल एइ ठाꣳइ ॥६६०॥

मने मने मुनि विचारय़े मनःकथा ।
द्वारकाय़ ये देखिनु देखिब कि एथा ॥६६१॥

ऐछे विचारिय़ा मुनि चारिदिके चाय़ ।
द्वारकार ईश्वर्य देखय़े नदीय़ाय़ ॥६६२॥

रत्नसिꣳहासने गौरचन्द्र विलसय़े ।
रूपेर छटाय़ कोटि कन्दर्प मोहय़े ॥६६३॥

देखिय़ा प्रभुर शोभा नारद गोसाञि ।
हईलेन यैछे ता कहिते साध्य नाइ ॥६६४॥

नारदे कहय़े प्रभु मधुर वचने ।
‘देखिबे प्रकट लीला एथा अल्प दिने ॥६६५॥

द्तुमि ये करिले मने हबे सर्वथाय़ ।
जीवेर दारुण दुःख खण्डिब हेलाय़’ ॥६६६॥

ऐछे किछु कहि नारदेरे कृपा करि ।
हईलेन अदर्शन प्रभु गौरहरि ॥६६७॥

ओहे श्रीनिवास, श्रीप्रभुर अदर्शने ।
हईला व्याकुल मुनि कत उठे मने ॥६६८॥

एइ नाराय़णपीठ-स्थाने मुनिवर ।
किछुदिन राहि हैला भ्रमणे तत्पर ॥६६९॥

नाराय़णे नारद दर्शन एथा कैल ।
एइ हेतु नाराय़णपीठ-नाम हैल ॥६७०॥

वैकुण्ठेर ऐश्वर्य-प्रकाश एइखाने ।
तेञि वैकुण्ठपुर विश्खात भुवने ॥६७१॥

एदेशेर राजा योग्य से समय़े छिला ।
श्रीनाराय़णेर सेवा एथा प्रकाशिला ॥६७२॥

कथोदिन परे ग्राम हैल लुप्तप्राय़ ।
पुनः हैल अतिशय़ वसति एथाय़ ॥६७३॥

एथा छिल वृद्ध एक विप्र विद्यावान् ।
लक्ष्मी नाराय़ण-मन्त्रे उपासना तान ॥६७४॥

लक्ष्मी-नाराय़णे ताꣳर अनन्य पीरिति ।
कहिते कि जानि ये देखिलु शुद्धरीति ॥६७५॥

मध्ये मध्ये वल्लभमिश्रेर घरे गिय़ा ।
लक्ष्मी-नाराय़णे सेबे निभृते पाइय़ा ॥६७६॥

वल्लभ मिश्रेरे ताꣳर स्नेह अतिशय़ ।
विप्रे गुरुभक्ति करे मिश्र महाशय़ ॥६७७॥

ये दिवस लक्ष्मीर विवाह प्रभु-सने ।
से-दिवस सेइ विप्र छिल एइखाने ॥६७८॥

विवाह-समय़े देखि लक्ष्मी-विश्वम्भरे ।
लक्ष्मी-नाराय़ण बलि विप्र नृत्य करे ॥६७९॥

विप्रेर नय़ने आनन्दाश्रु अनिवार ।
सर्वाङ्गे पुलक नारे धैर्य धरिवार ॥६८०॥

प्रभुर इच्छाय़ विप्र किछु स्थिर हैला ।
से रात्रि तथाइ, रहि निज-वासा आइला ॥६८१॥

अति जीर्ण वासा प्राय़ स्थिति वृक्षतले ।
कुटीर प्रब्वेशि विप्र भासे नेत्रजले ॥६८२॥

मिश्रगृहे लक्ष्मी-गौरचन्द्रे सोङरिय़ा ।
निरन्तर प्रेमानन्दे उमड़ाय़े हिय़ा ॥६८३॥

मने मने करे विप्र सुदृढ़ विचार ।
‘गौररूपे नाराय़ण शचीर कुमार ॥६८४॥

वल्लभमिश्रेर कन्या साक्षात् लछिमी ।
लक्ष्मी-नाराय़ण दोꣳहे श्प्रकट अवनी ॥६८५॥

लक्ष्मी-प्राणनाथ मोर प्रभु गौरचन्द्र ।
करिब कि कृपा मोरे देखि दीन मन्द’ ॥६८६॥

विविध प्रकारे स्तुति करय़े प्रभुरे ।
हईला साक्षात् प्रभु विप्रेर कुटीरे ॥६८७॥

परम अद्भुत रङ्ग करिय़ा प्रकाश ।
विप्रेर कुटीरे हैल वैकुण्ठ-विलास ॥६८८॥

भुवनमोहन प्रभु श्रीगौरविग्रह ।
विलसय़े रत्नसिꣳहासने लक्ष्मी-सह ॥६८९॥

श्रीअङ्ग भूषित नाना रत्न-विभूषणे ।
दुꣳहु-रूपमाधुर्येर उपमा कि आने ॥६९०॥

सेइक्षणे प्रभु गौरचन्द्र दय़ामय़ ।
हैल चतुर्भुज देखि विप्रेर विस्मय़ ॥६९१॥

प्रभुपदे पड़ि विप्र कैला बहु स्तुति ।
भक्ताधीन प्रभु हासि कहे विप्र-प्रति ॥६९२॥

‘जन्मे जन्मे तुमि मोर हओ प्रिय़ दास ।
तुमि से देखिते योग्य आमार विलास ॥६९३॥

एबे ये देखिले इहा काहु ना कहिबे ।
यबे ये करिबे मनोरथ-सिद्धि हबे’ ॥६९४॥

एत कहि विप्र-माथे धरिय़ा चरण ।
अचिन्त्य प्रभुर लीला हैल अदर्शन ॥६९५॥

विप्र यैछे हैला ताहा के वर्णिते पारे ।
सदा नवद्वीपलीला-समुद्रे साꣳतार ॥६९६॥

ओहे श्रीनिवास, कत कहिब से कथा ।
एइ देख, विप्रेर कुटीर छिल एथा ॥६९७॥

भक्तगोष्ठी-सह प्रभु शचीर कुमार ।
श्रीवैकुण्ठपुरे कैल अशेष विहार ॥६९८॥

वैकुण्ठपुर-दर्शनेते आर्ति यार ।
अनाय़ासे सर्वमनोरथ-सिद्धि तार ॥६९९॥

एत करि श्रीवैकुण्ठपुरे प्रणमिय़ा ।
मातापुरे चले चतुर्दिक निरखिय़ा ॥७००॥

श्रीनिवासे कहेन श्रीईशान ठाकुर ।
एइ आगे देख ग्राम, नाम मातापुर ॥७०१॥

पूर्वे श्रीमहत्पुर-ग्राम नाम हय़ ।
महत्प्रसङ्ग-पुर करि ये लोके कय़ ॥७०२॥

श्रीकृष्ण इच्छाय़ पाण्डवेर वनवास ।
वनवासे हैल महा-कौतुक-प्रकाश ॥७०३॥

नाना देशे भ्रमय़े पाण्डव पञ्च भाइ ।
पाण्डवेर चरित्र कहिते अन्त नाइ ॥७०४॥

ये ये देशे पाण्डवेर नहिल गमन ।
से से देश पाण्डव-वर्जित विज्ञे कन ॥७०५॥

पाण्डवेर कीर्ति यत विदित पुराणे ।
असुर-राक्षस नाश कैल स्थाने स्थाने ॥७०६॥

भ्रमिते भ्रमिते गौड़देशे प्रवेशिल ।
राढ़े एकचक्रा-नाम ग्रामे स्थिति कैल ॥७०७॥

एकचक्रा-प्रदेशे ये असुर-राक्षस ।
से-सबे विधिला भीम व्यापिल सुयश ॥७०८॥

द्रौपदी-सहिति श्रीपाण्डव पञ्च भाइ ।
लोकहिते रत यैछे कहि साधाय नाइ ॥७०९॥

एकचक्रा निर्जने रहय़े महानन्दे ।
सदा सोङरय़े बलदेव-कृष्णचन्द्रे ॥७१०॥

देखि एकचत्रा-भूमि-शोभा मनोहर ।
मने विचारय़े युधिष्ठिर विज्ञवर ॥७११॥

देखिलु अनेक देश ऐछे ना देखिल ।
ऐछे चित्त आकर्षण कोथाओ नहिल ॥७१२॥

इथे बुझि कृष्णलीलास्थली एइ स्थान ।
कृष्ण जानाइले जानि महिमा इहान ॥७१३॥

ऐछे विचारिते प्राय़ रात्रि शेष हैल ।
कृष्णेर इच्छाते किछु निद्रा आकर्षिल ॥७१४॥

स्वप्नच्छले रोहिणीनन्दन बलराम ।
हईल साक्षात्, शोभा अति अनुपाम ॥७१५॥

मन्द मन्द हासिय़ा अद्भुत स्नेहावेशे ।
राजा युधिष्ठिरे किछु कहे मृदुभाषे ॥७१६॥

‘एइ कथोदूरे नवद्वीप-नामे ग्राम ।
सुरधुनी-वेष्टित परम रम्य स्थान ॥७१७॥

कलिर प्रथमे कृष्ण तथा विप्रकुले ।
जन्मिब आच्छन्नरूपे महा-कुतूहले ॥७१८॥

नाना देशे जन्मिबेन प्रिय़गण ताꣳर ।
ताꣳर इच्छामते जन्म एथाइ आमार ॥७१९॥

एइ एकचक्रा मोर विलासेर स्थान’ ।
एत कहि बलदेव हैला अन्तर्धान ॥७२०॥

हईय़ा विस्मय़ राजा चिन्ते मने मने ।
श्वेतद्वीप हेन देखे एकचक्रा-ग्रामे ॥७२१॥

देखितेइ भूमि-शोभा निद्राभङ्ग हैल ।
स्वप्नकथा प्राते भ्रातागणे जानाइल ॥७२२॥

एकचक्रा हईते पाण्डव पञ्च भाइ ।
नवद्वीपे आसि उत्तरिला एक ठाꣳइ ॥७२३॥

देखि नवद्वीप-शोभा हर्ष क्षणे क्षणे ।
महाराज युदिष्ठिर विचारय़े मने ॥७२४॥

एकचक्रा-ग्रामे यैछे देखिनु स्वप्नेते ।
एथा कि देखिब बलि नारे स्थिर हैते ॥७२५॥

राजार ये मनोवृत्ति बुझने ना याय़ ।
हईल किञ्चित् निद्रा कृष्णेर इच्छाय़ ॥७२६॥

स्वप्नच्छले कृष्ण-बलदेव भ्राताद्वय़ ।
हईला साक्षात्, शोभा भुवन मोहय़ ॥७२७॥

राजा युधिष्ठिरे कृष्ण कहेन हासिय़ा ।
‘मोर जन्मभूमि एइ नगर नदीय़ा ॥७२८।

कलियुगे प्रकट हईय़ा गणसने ।
माताइब जगत्, मातिब सꣳकीर्तने ॥७२९॥

तोमा सबासह सिन्धुतीरे विलसिब ।
व्रजेर दुर्लभ प्रेमसुधा पिय़ाइब’ ॥७३०॥

एत कहि राजार जानिय़ा मनोवृत्ति ।
हईलेन परमसुन्दर गौरमूर्ति ॥७३१॥

कृष्ण-बलदेवेर देखिय़ा हेन रूप ।
आत्मविस्मरित युधिष्ठिर भक्तभुप ॥७३२॥

परम आनन्दे सिक्त हैय़ा नेत्रजले ।
लोटाइय़ा पड़े दुइ प्रभु-पदतले ॥७३३॥

दुइ प्रभु राजाय़ करिय़ा आलिङ्गन ।
करिय़ा प्रबोध-वाक्य हैल अदर्शन ॥७३४॥

प्रभु-अदर्शने हैल व्याकुल हृदय़ ।
जागिय़ा देखय़े रात्रि प्रभात-समय़ ॥७३५॥

ए अद्भुत कथा जानाइय़ा भ्रातागणे ।
कथोदिन आनन्दे रहिला एइखाने ॥७३६॥

महतेर श्रेष्ठ युधिष्ठिर महाशय़ ।
ताꣳर वासस्थान-हेतु महत्पुर कय़ ॥७३७॥

एथा छिल पञ्चवट वृक्ष विस्तारित ।
अति सुशीतल छाय़ाय़ सर्वमनोहित ॥७३८॥

द्रौपदी-सहित श्रीपाण्डव पञ्चभाइ ।
देखि नवद्वीप-शोभा अधैर्य एथाइ ॥७३९॥

युधिष्ठिर-वेदी-नाम उच्च टीला छिल ।
प्रभुर इच्छाते से सकल लुप्त हैल ॥७४०॥

ओहे श्रीनिवास, कत कहिब से कथा ।
अज्ञात-रूपेते पाण्डवेर वास एथा ॥७४१॥

पाण्डव श्रीनवद्वीपचन्द्रेर आदेशे ।
एथा हैते यात्रा करिलेन ओढ्रदेशे ॥७४२॥

उत्कले पुरुषोत्तम पुरी सन्निधाने ।
रहिलेन किछुदिन अपूर्व कानने ॥७४३॥

तथा श्रीविग्रह श्रीमाधन्व ताꣳर नाम ।
छिलेन राक्षस-स्थाने पाइल सन्धान ॥७४४॥

गदाघाते भीम से राक्षसे नष्ट कैला ।
श्रीमाधव-सेवा सर्वलोके प्रचारिला ॥७४५॥

अद्यापिह भाग्यवन्त लोक सेवे ताꣳरे ।
पाण्डवेर क्रिय़ा यत के कहिते पारे ॥७४६॥

एइ महत्पुरे गौरचन्द्र महारङ्गे ।
प्रकाशे अद्भुत लीला परिकर-सङ्गे ॥७४७॥

ये वारेक महत्पुर करय़े दर्शन ।
अनाय़ासे पाय़ से अमुल्य भक्तिधन ॥७४८॥

स्रीमत्पुर-प्रसङ्गेते याꣳर रति ।
ताꣳर दृष्टिमात्रे घुचे अन्येर दुर्मति ॥७४९॥

एत कहि श्रीरामहत्पुर हैते चले ।
सोङरि गौराङ्ग-लीला-भासे नेत्रजले ॥७५०॥

रुद्रद्वीप—

गङ्गा-पूर्वधारे रादुपुर-ग्राम हय़ ।
केहो केहो रादुपुरे रुद्रपुर कय़ ॥७५१॥

श्रीशानठाकुर से रादुपुरे गिय़ा ।
श्रीनिवास-प्रति कहे ईषत् हासिय़ा ॥७५२॥

एइ रादुपुर पूर्व रुद्रद्वीपञाम ।
ग्राम लुप्त हैल एबे आछे मात्र स्थान ॥७५३॥

रुद्रद्वीप-नाम यैछे प्रचार हईल ।
ताहा किछु कहि विज्ञमुखे ये शुनिल ॥७५४॥

गौरचन्द्र प्रकट हईब नदीय़ाय़ ।
इथे श्रीरुद्रेर महा-उल्लास हिय़ाय़ ॥७५५॥

निजगण-सने रुद्रदेव एइखाने ।
हईला उन्मत्त गौरचरित्र-कीर्तने ॥७५६॥

चतुर्दिके नाना वाद्यध्वनि मनोहर ।
अद्भुत भङ्गिते नृत्य करे महेश्वर ॥७५७॥

मेदिनी कम्पय़े श्रीरुद्रेर पदभरे ।
देखिते से नृत्य-शोभा केबा धैर्य धरे ॥७५८॥

रुद्रेर नर्तने केबा ना करे नर्तन ।
स्वर्गे नानापुष्प वरिषय़े देवगण ॥७५९॥

देवेर अन्तरे मोद बाड़्‌हे अनिवार ।
सबे कहे खण्डिल जीवेर दुःखभार ॥७६०॥

प्रभु ना जन्मिते, रुद्र प्रभु-जन्म गाय़ ।
‘एबे प्रभु अवश्य जन्मिब नदीय़ाय़ ॥७६१॥

देखि प्रभु-जन्मलीला जुड़ाब नय़न’ ।
एत कहि स्वर्गे ओ नाचय़े देवगण ॥७६२॥

प्रभुगुण-गाने रुद्र आत्म-विस्मरित ।
हईला अधैर्य प्रभु देखि रुद्ररीत ॥७६३॥

अन्य अलक्षित रुद्रदेवे देखा दिय़ा ।
रुद्रदेवे करे स्थिर ऐछे प्रबोधिय़ा ॥७६४॥

तोमार ये मनोवृत्ति सफल करिब ।
अति अविलम्बे गणसह प्रकटिब ॥७६५॥

प्रभुवाक्ये रुद्र स्थिर हैय़ा महानन्दे ।
विविध प्रकारे स्तुति करे गौरचन्द्रे ॥७६६॥

श्रीगौरसुन्दर रुद्रदेवे आलिङ्गिय़ा ।
हईलेन अदर्शन प्रेमाविष्ट, हईय़ा ॥७६७॥

प्रभु-अदर्शने रुद्र व्याकुल हिय़ाय़ ।
कतक्षणे स्थिर हैला प्रभुर इच्छाय़ ॥७६८॥

निज-गणसह रुद्र वसि एइश्खाने ।
करे सुधावृष्टि गौरचरित्र कथने ॥७६९॥

ओहे श्रीनिवास, ए परम पुण्यस्थान ।
श्रीरुद्र विलासे तेञि रुद्रद्वीप-नाम ॥७७०॥

ए-स्थान दर्शनमात्र घुचय़े दुर्मति ।
गौरपादपद्मे रुद्र जन्माय़ेन रति ॥७७१॥

ऐछे श्रीईशान स्थान-माहिमा कहिय़ा ।
चले वेलपौखेरा-ग्रामेते हृष्ट हईय़ा ॥७७२॥

श्रीनिवासे कहे, वेलपौखेरा ए-ग्राम ।
कहय़े प्राचीने बिल्वपक्ष पूर्व-नाम ॥७७३॥

बिल्वपक्ष-नाम ए-स्थानेर यैछे हय़ ।
ताहा किछु कहिय़े प्राचीन लोके कय़ ॥७७४॥

पञ्चवक्त्र शिवमूर्ति छिलेन एखाने ।
ताꣳर ये महिमा ताहा के कहिते जाने ॥७७५॥

श्रीकृष्ण-विषय़े येबा ये कार्य प्रार्थय़ ।
ताहा पूर्ण करे पञ्चवक्त्र दय़ामय़ ॥७७६॥

एक समय़ेते कत तपस्वी ब्राह्मण ।
मनोरथ-सिद्धि-हेतु करे शिवार्चन ॥७७७॥

एकपक्ष बिल्वदले पूजिते शिवेरे ।
हईलेन शिव महा-प्रसन्न अन्तरे ॥७७८॥

कृपादृष्ट्ये चाहि पञ्चवक्त्र महेश्वर ।
विप्रगणे कहे—‘लेह निजाभीष्ट-वर’ ॥७७९॥

विप्रगण कहे—‘सर्वश्रेष्ठ कार्य याहा ।
अनुग्रह करि मो-सबारे देह ताहा’ ॥७८०॥

विप्रगणे कहे शिव—‘कहिला आश्चर्य ।
कृष्णपरिचर्या विनु नाइ श्रेष्ठ कार्य’ ॥७८१॥

विप्रगण कहे—‘परिचर्या श्रेष्ठ हय़ ।
किरूपे हईब लाभ्य कह कृपामय़’ ॥७८२॥

पञ्चवक्त्र कहे—‘किछु चिन्ता ना करिबे ।
अनाय़ासे कृष्णपरिचर्या लभ्य हबे ॥७८३॥

एइ कथोदिने एइ नदीय़ा नगरे ।
कृष्ण अवतीर्ण हईबेन विप्र-घरे ॥७८४॥

तोमराओ सेइ सङ्गे प्रकट हईबा ।
ताꣳर बाल्यावेशे महासुख जन्माइबा ॥७८५॥

करिय़ा ताꣳहार स्थाने विद्या अध्यय़न ।
जानिबा ताꣳहारे पूर्णब्रह्मसनातन ॥७८६॥

ताꣳर प्रिय़ भक्तसह सदा कुतूहले ।
ताꣳर परिचर्यारत हईबा सकल’ ॥७८७॥

शुनि पञ्चवक्त्र महादेवेर वचन ।
भूमे पड़ि प्रणमिला सकल ब्राम्मण ॥७८८॥

करिय़ा अनेक स्तुति विदाय़ हईय़ा ।
कृष्णपादपद्म चिन्ते निभृते रहिय़ा ॥७८९॥

ओहे श्रीनिवास, गौर-कृष्णेर इच्छाय़ ।
कथोदिन पञ्चवक्त्र हैला गुप्तप्राय़ ॥७९०॥

एकपक्ष बिल्वदले पूजिल ब्राह्मण ।
एइ हेतु बिल्वपक्ष-नाम विज्ञे कन ॥७९१॥

ए स्थान-दर्शने पञ्चवक्त्र महानन्दे ।
मिलाय़ेन परम दुर्लभ गौरचन्द्रे ॥७९२॥

एथा विश्वम्भर प्रिय़भक्तेर सहित ।
यैछे विलसय़े ताहा के पारे वर्णिते ॥७९३॥

ऐछे कत कहिय़ा श्रीठाकुर ईशान ।
चलय़े भारईडाङ्गा महापुण्यस्थान ॥७९४॥

मनेर उल्लासे कहे श्रीनिवास-प्रति ।
ए-भारईडाङ्गा देख अपूर्व वसति ॥७९५॥

पूर्वे भारद्वाजाटीला नाम व्यक्त यैछे ।
प्राचीन लोकेते ये कहय़े, कहि तैछे ॥७९६॥

भारद्वाजमुनि समुद्रादि-तीर्थ हैते ।
आइलेन चक्रदह गङ्गा-समीपेते ॥७९७॥

एबे चक्रदहे लोक चाकल्दा कहय़ ।
एथा हैय्ते नवद्वीपे करिला विजय़ ॥७९८॥

ओहे श्रीनिवास, मुनि आसि एइखाने ।
हईला विह्वल नवद्वीप निरीक्षणे ॥७९९॥

एइ उच्चटीलारण्ये रहि कथोदिन ।
आराधय़े गौरचन्द्रे हैय़ा दीन-हीन ॥८००॥

भारद्ब्वाज-प्रेमे वश हैय़ा गौरहरि ।
हईला साक्षात् महा अद्भुत माधुरी ॥८०१॥

भारद्वाज नति स्तुति करिला विस्तर ।
प्रभु आज्ञा कैल नेह निजाभिष्ट वर ॥८०२॥

मुनि कहे—‘प्रभु, एइ प्रार्थना आमार ।
नवद्वीपे देखि येन तोमार विहार’ ॥८०३॥

प्रभु कहे—‘हबे ये तोमार मने हय़’ ।
एत कहि अदर्शन हैल दय़ामय़ ॥८०४॥

प्रभु-अदर्शने मुनि नारे स्थिर हईते ।
मुनिर ये चेष्टा ताहा के पारे बुझिते ॥८०५॥

नवद्वीपे प्रणमिय़ा भारद्वाज-मुनि ।
चलिला भ्रमिते धन्य करिते धरणी ॥८०६॥

एइ उच्च स्थाने भारद्वाज विलसिल ।
एइ हेतु भारद्वाजटीला-नाम हैल ॥८०७॥

एथा गौराङ्गेर अति अद्भुत विलास ।
ए-स्थान-दर्शने पूर्ण हय़ अभिलाष ॥८०८॥

एत कहि ईशान ठाकुर प्रेमावेशे ।
चलिलेन सुवर्ण विहार-ग्राम-पाशे ॥८०९॥

श्रीनिवास-प्रति कहे, देख एइ ग्राम ।
पूर्वापर सुवर्णविहार हय़ नाम ॥८१०॥

सुवर्णविहारञाम येरूपे हईल ।
ताहा किछु कहि विज्ञगणे ये कहिल ॥८११॥

एइ देशे छिल एक राजा भाग्यवान् ।
कृष्णेते अनन्यभक्ति सर्वाꣳशे प्रधान ॥८१२॥

नारदेर शिष्य-प्रशिष्यादि महाशय़ ।
तार मध्ये आइल केह राजार आलय़ ॥८१३॥

राजा ताꣳरे अतिशय़ सन्मान करिय़ा ।
वसाइला आसने भूमिते प्रणमिय़ा ॥८१४॥

प्रभु-अवतार कत ताꣳहारे जिज्ञासे ।
तेꣳह सब जानाइला सुमधुर भाषे ॥८१५॥

राजारे प्रसन्न हईय़ा सेइ महाशय़ ।
पुनः राजा-प्रति सुमधुर वाक्ये कय़ ॥८१६॥

‘कलिते हईय़ा पीत वर्ण अवतार ।
नवद्वीपे करिबेन अद्भुत विहार ॥८१७॥

ब्रह्मादिर परम दुर्लभ सꣳकीर्तन ।
सꣳकीर्तने मत्त हईय़ा माताबे भुवन ॥८१८॥

यैछे महा-रासे नृत्य कैला वृन्दावने ।
तैछे नृत्ये दिव सुख प्रिय़ भक्तगणे ॥८१९॥

नवद्वीप-हईबेक सुखेर अवधि ।
एइ हेतु ऐछे ग्राम वसाइल विधि ॥८२०॥

नवदवीप-धामतत्त्व अन्य-अगोचर ।
जानिब से जानाइले प्रभु परिकर’ ॥८२१॥

ऐछे कत कहि से वैष्णव महाशय़ ।
करिय़ा राजाय़ कृपा करिला विजय़ ॥८२२॥

ए सब शुनिय़ा राजा विचारय़े मने ।
‘धिक् ए मनुष्य-जन्म धिक् ए-जीवने ॥८२३॥

राज विषय़ेते मन्त हईलु अनिवार ।
ना हईल साधुसङ्ग दुर्दैव आमार ॥८२४॥

विना साधुसङ्ग कोन कार्य शिद्ध नय़ ।
एतदिने कृपा कैल साधु कृपामय़ ॥८२५॥

एबे से जानिनु प्रभुधाम ए-नदीय़ा’ ।
एत विचारिते प्रेमे उथलय़े हिय़ा ॥८२६॥

नवद्वीप पाने चाहि बहे, अश्रुधार ।
नवद्वीपभूमे प्रणमÿए वार वार ॥८२७॥

नवद्वीप-धामे राजा प्रार्थना करय़ ।
‘एइ कर से समय़े येन जन्म हय़’ ॥८२८॥

ए-वाक्ये आकाशवाणी हईल राजाय़ ।
‘अवतीर्णकाले जन्म हबे नदीय़ाय़’ ॥८२९॥

यद्यपि राजार हर्ष ए-कथा-श्रवने ।
तथापि ना धरे धैर्य कत उठे मने ॥८३०॥

भक्त-वत्सल प्रभु विश्वम्भर राय़ ।
स्वप्नच्छले लीलाश्चर्य देखान राजाय़ ॥८३१॥

चतुर्दिके सहस्र सहस्र भक्तगण ।
वाय़ नाना वाद्य, गाने मोहय़े भुवन ॥८३२॥

से सभार मध्ये नाचे नदीय़ार शशी ।
श्यामल सुन्दररूप येन सुधाराशि ॥८३३॥

देखि कृष्णचन्द्रे राजा जुड़ाय़ नय़न ।
सेइक्षणे देखे ताꣳरे सुवर्ण-वरण ॥८३४॥

हईय़ा अधैर्य राजा विचारय़े मने ।
सुवर्ण-विग्रह के विहारे सꣳकीर्तने ॥८३५॥

ऐछे विचारिते निद्रा भाङ्गिल-राजार ।
स्थिर हईय़ा प्रशꣳसे सौभाग्य आपनार ॥८३६॥

सुवर्ण-विप्रहेर विहार हईल ध्यान ।
एइ हेतु सुवर्णविहार-नाम स्थान ॥८३७॥

ओहे श्रीनिवास, आर कहिय़े तोमारे ।
प्रभुर अद्भुत रङ्ग प्रकट-विहारे ॥८३८॥

एइखाने भक्तगोष्ठी-सह गौरहरि ।
करय़े नर्तन, लोक देखे नेत्रभरि ॥८३९॥

हईय़ा विह्वल परस्पर लोके कय़ ।
सुवर्ण विग्रह कि कीर्तने विहरय़ ? ॥८४०॥

केह कहे—‘एमन सुन्दर वर्ण नाइ ।
ना देखि जगते कभु उपमार ठाꣳइ ॥८४१॥

कि अद्भुत विहार मोहय़े त्रिभुवन’ ।
एत कहि स्थिर हैते नारे कोन जन ॥८४२॥

ऐछे ए प्रशस्त नाम सुवर्णविहार ।
सꣳक्षेपे कहिनु, नारि करिते विस्तार ॥८४३॥

सुवर्णविहार-ग्राम ये करे दर्शन ।
श्रीगौराङ्ग-विहारे डुबय़े तार मन ॥८४४॥

एत कहि सुवर्णविहार-ग्राम हईते ।
माय़ापुरे चलय़े मिश्रेर आलय़ेते ॥८४५॥

माय़ापुर परम अपूर्व रम्य स्थान ।
ये देखे वारेक तार जुड़ाय़ नय़न ॥८४६॥

माय़ापुर-महिमा केबा वा अन्त पाय़ ।
माय़ापुर-स्थान सदा ब्रह्मादि धिय़ाय़ ॥८४७॥

श्रीनिवास, रामचन्द्र, नरोत्तम-सने ।
हेन माय़ापुरे आइला मिश्रेर भवने ॥८४८॥

भवन-भितरे श्रीईशान प्रवेशिय़ा ।
हैला प्रेमे विह्वल पुरुष सोङरिय़ा ॥८४९॥

कतक्षणे स्थिर हैय़ा सबे स्थिर करि ।
एक भिते रहि देखे भवन-माधुरी ॥८५०॥

श्रीनिवास-प्रति अति धीरे धीरे कय़ ।
महायोगपीत्ठ एइ मिश्रेर आलय़ ॥८५१॥

ए-आलय़ प्रभुलीला-माधुर्य बार्ह्̤‌आय़ ।
अन्येर दुर्ज्ञेय़ श्रीआलय़ पद्मप्राय़ ॥८५२॥

शचीसह उपेन्द्रनन्दन मिश्रवर ।
ए-विष्णुमण्डपे विष्णु पूजे निरन्तर ॥८५३॥

जगन्नाथमिश्र यैछे प्रवीण सर्वाꣳशे ।
तैछे ताꣳर भार्या शची, केबा ना प्रशꣳसे ॥८५४॥

शची-जगन्नाथेर विवाहे महासुख ।
ये देखिल ताहार खण्डिल सब दुःख ॥८५५॥

नीलाम्बर चक्रवर्ती महाविद्यावान् ।
ताꣳर कन्या शची, तेꣳह मिश्रे कैल दान ॥८५६॥

श्रीशचीर हईल अष्ट कन्या, एक पुत्र ।
पुत्रनाम विश्वरूप विदित सर्वत्र ॥८५७॥

विश्वरूप-चरित्र कहिते नाइ अन्त ।
विविध प्रकारे शुण वर्णे भाग्यवन्त ॥८५८॥

तथाहि श्रीकृष्णचैतन्यचरिते प्रथम-प्रक्रमे—
अथ तस्य गुरुश्चक्रे सर्वशास्त्रार्थवेदिनः ।
पदवीमिति तत्त्वज्ञः श्रीमन्मिश्रपुरन्दरः ॥८५९॥

तमेकदा सत्स्कुलीनꣳ पण्डितꣳ धर्मिणाꣳ वरम् ।
शीमन्नीलाम्बरो नाम चक्रवर्ती महामनाः ॥८६०॥

समाहुय़ाददात् कन्याꣳ शचीꣳ स कुलसत्कृतः ।
ताꣳ प्राप्य सो’पि ववृधे शचीꣳ मिश्रपुरन्दरः ॥८६१॥

ततो गेहे निवसतस्तस्य धार्मो व्यवर्धत ।
आतिध्यैः शास्तिकैः शोचैर्नित्यकाम्यक्रिय़ाफलैः ॥८६२॥

तत्र कालेन किय़ता तस्यष्टौ कन्यकाः शुभाः ।
बभुवुः क्रमशो दैवात्ताः पञ्चत्वत् गताः शची ॥८६३॥

वात्सल्य-दुःखतप्तेन जगाम मनसा हरिम् ।
पुत्रार्थꣳ शरणꣳ श्रीमान् पितृयज्ञꣳ चकार सः ॥८६४॥

कालेन किय़ता लेभे पुत्रꣳ सुर-सुतोपमम् ।
मुदमाप जगन्नाथो निधिꣳ प्राप्य यथाधनः ॥८६५॥

नाम तस्य पिता चक्रे श्रीमतो विश्वरूपकम् ।
पठता तेन कालेन स्वल्पेनैव महात्मना ॥८६६॥

वेदश्च न्याय़शास्त्रꣳ च ज्ञातः सदेयाग उत्तमः ।
स सर्वज्ञः सुधीः शान्तः सर्वेषामुपकारकः ॥८६७॥

हरेध्यानपरो नित्यꣳ विषय़े नाकरोन्मनः ।
श्रीमद्भागवत-रस-स्वादमत्तो निरन्तरम् ॥८६८॥

ओहे श्रीनिवास, विश्वरूपेर अन्तर ।
के बुझिते पारे किबा चिन्ते निरन्तर ॥८६९॥

श्रीअद्वैत आचार्य सकल तत्त्व जाने ।
प्रभुके आनिव इथे हर्ष क्षणे क्षणे ॥८७०॥

गङ्गाजल, तुलसी, चन्दन-पुष्प दिय़ा ।
प्रभुके आराधे महा हुङ्कार करिय़ा ॥८७१॥

श्रीअद्वैत-हुङ्कारे पाइय़ा महानन्द ।
कैला शचीगर्भावलम्बन गौरचन्द्र ॥८७२॥

शूची-जगन्नाथ-शोभा-वृद्धि अतिशय़ ।
शचीगर्भे सुखे गौरचन्द्र विलसय़ ॥८७३॥

एक दुइ गणने हईले छय़ मास ।
सर्वचित्ताकर्षे प्रभु करि गर्भे वास ॥८७४॥

अकस्मात् श्रीअद्वैत एथाइ आसिय़ा ।
शचीगर्भ वन्दिल चन्दन, गन्ध दिय़ा ॥८७५॥

करि प्रदक्षिण हर्षे गेला निजालय़ ।
शची-जगन्नाथ एथा हईला विस्मय़ ॥८७६॥

एथा शची-आगे ब्रह्मादिक स्तुति करे ।
गर्भे रहि प्रभु नाना कौतुक विस्तारे ॥८७७॥

त्रय़ोदश मास शचीगर्भेते रहिला ।
के बुझिते पारे एइ अलौकिक-लीला ॥८७८॥

तथाहि श्रीकृषचैतन्यचरितामृत-महाकाव्ये द्वितीय़ सर्गे २४तम श्लोकः—
क्रमेण मासा दश ते त्रय़ो’धिकाः
समीय़ुरासन्नतय़ा समाप्तताम् ।
तपस्यमासश्चरमः समङ्गलो
बभुव तेषाꣳ जगतः सुखैकभुः ॥८७९॥

चौद्दशत सात शके फाल्गुन-पूर्णिमा ।
फाल्गुनी-नक्षत्र सर्वमङ्गलेर सीमा ॥८८०॥

हैल चन्द्रग्रहण-समय़े विश्वम्भर ।
अवतीर्ण हैला एइ देख जन्म-घर ॥८८१॥

जगान्नाथमिश्रे पुत्ररत्न लभ्य हईल ।
सर्वाङ्गसुन्दर रूपे सबे मग्न कैल ॥८८२॥

तथाहि श्रीकृष्णचैतन्यचरिते प्रथम-प्रक्रमे—
तꣳ विकाशि-कमलेक्षणꣳ, लसत्-पूर्णचन्द्रवदनꣳ कलकाभम् ।
तेजसा वितिमिरꣳ दिशः स्वय़ꣳ, कारय़न्तमुपलभ्य सुतꣳ स्वम् ॥८८३॥

ओहे श्रीनिवास, चन्द्रग्रहणेर छले ।
कराइला निजनाम-ग्रहण सकले ॥८८४॥

स्थाने स्थाने लोकेर सꣳघट्ट अतिशय़ ।
करय़े कीर्तन, सर्वचित्ते हर्षोदय़ ॥८८५॥

यार मुखे कभु ना शुनिनु कृष्णनाम ।
सोहो नाम लईय़ा करय़े गङ्गास्नान ॥८८६॥

आनेर का कथा, यबनेओ कृष्ण कय़ ।
ऐछे उद्धारय़े जीवे शचीर तनय़ ॥८८७॥

सꣳकीर्तनप्रिय़ प्रभु जन्म सꣳकीर्तने ।
सꣳकीर्तन-माहिमा विदित त्रिभुवने ॥८८८॥

तथाहि श्रीपद्यावलीधृत-प्रभासखण्ड-वचनम्—
चेतोदपणमार्जनꣳ भवमहादावाग्नि-निर्वापणꣳ
श्रेय़ः कैरव-चन्द्रिकावितरणꣳ विद्याबधूजीवनम् ।
आनन्दाम्बुधिवर्धनꣳ प्रतिपदꣳ पूर्णामृतास्वादनꣳ
सर्वात्मस्नपनꣳ परꣳ विजय़ते श्रीकृष्णसꣳकीर्तनम् ॥८८९॥

ये शुनिल श्रीनामकीर्तन धन्य सेहो ।
श्रवणमहिमा कि कहिते पारे केहो ॥८९०॥

तथाहि श्रीचैतन्यचरिते प्रथम-प्रक्रमे—
कीर्तनꣳ श्रीहरेः श्रुत्वा निमिषार्धेन या भवेत् ॥
प्रीतिरस्मादृशाꣳ सा तु कोटिय़ाज्ञेर्भवेन्न हि ॥८९१॥

प्रभुर जनम-कथा सर्वत्र व्यापल ।
प्रभु-आकर्षणे सबे अधैर्य हईल ॥८९२॥

धाइल असꣳख्य लोक मिश्रेर गृहेते ।
देवता मनुष्य केह ना पारे चिनिते ॥८९३॥

मिश्र गृहे आनन्द-समुद्र उथलय़े ।
प्रभु-जन्मलीला विज्ञे विस्तारि वर्णय़े ॥८९४॥

तथाहि गीते—वसस्त—
जय़ जय़ कलरव नदीय़ा नगरे ।
जनमिला गोराचाꣳद शचीर उदरे ॥८९५॥

फाल्गुन-पूर्णिमा-तिथि नक्षत्र फाल्गुनी ।
शुभक्षणे जनमिला गोरा द्विजमणि ॥८९६॥

पूर्णिमार चान्द यिनि करिला प्रकाश ।
दूरे गेल अन्धकार पाइल नैराश ॥८९७॥

द्वापर-युगेते भेल कृष्ण अवतार ।
आपने करिल सेइ असुर सꣳहार ॥८९८॥

शचीर उदरे भेल गोरा अवतार ।
कलियुगे जीव गोरा करिला उद्धार ॥८९९॥

वासुदेव घोषे गाय़ मने करि आशा ।
गोरा पꣳहु पद दुइ करिय़ा भरसा ॥९००॥

पुनर्वसन्त—

प्रकाश हईला गौरचन्द्र ।
दश दिके उठिल आनन्द ॥ ध्रु ॥९०१॥

रूप कोटी मदन जिनिय़ा ।
हासे निज-कीर्तन शुनिय़ा ॥९०२॥

अति सुमधुर मुख आꣳखि ।
महाराज-चिह्न सब देखि ॥९०३॥

श्रीचरणे ध्वज-वज्र शोभे ।
सब अङ्ग जग-मन लोभे ॥९०४॥

दूरे गेल सकल आपद ।
व्यक्त हैल सकल सम्पद ॥९०५॥

श्रीचैतन्य-नित्यानन्द जान ।
वृन्दावन दास गुण गान ॥९०६॥

पुनर्वसन्त—

फाल्गुन-पूर्णिमा शुभक्षणे ।
पुत्र प्रसबिय़ा शची चाहे पुत्रपाने ॥९०७॥

तिले तिले कत उठे चिते ।
कनक-नवनीभ्रमे नारे परशिते ॥९०८॥

कत ना यतने कोले करे ।
पुत्रेर जनम जानाइय़ा मिश्रवरे ॥९०९॥

जगन्नाथ विप्रशिरोमणि ।
भासे सुखसमुद्रे पुत्रेर जन्म शुनि ॥९१०॥

कत साधे चलय़े धाइय़ा ।
ना धरे धैरय चान्दनमुख निरखिय़ा ॥९११॥

लईय़ा आपन प्रिय़गणे ।
करय़े मङ्गलकर्म पुत्रेर कल्याणे ॥९१२॥

चतुर्दिगे जय़ जय़-ध्वनि ।
सबे र्कहे धन्य धन्य जनक-जननी ॥९१३॥

सबार अन्तरे बार्ह्̤‌ए सुख ।
सुरधुनी धरणी विसरे सब दुःख ॥९१४॥

दश दिश हईल उज्ज्वल ।
पशु, पक्षी, वृष्क, लता प्रफुल्ल सकल ॥९१५॥

नरहरि कहिते कि आर ।
गौरचन्द्रोदय़े गेल ताप अन्धकार ॥९१६॥

पुनर्धानशी—

फाल्गुन पूर्णिमा, मङ्गलेर सीमा,
प्रकट गोकुल-इन्दु ।
नदीय़ाञगरे, प्रति घरे घरे,
उथले आनन्द-सिन्धु ॥९१७॥

किबा कौतुक परस्परे ।
शचीदेवी भाले पुत्र लैय़ा कोले,
विलसे सूतिका-घरे ॥ ध्रु ॥९१८॥

बालके देखिते, धाय़ चारि भिते,
केह ना धरय़े धृति ।
ग्रहणान्धकारे, के चिने काहारे,
असꣳख्य लोकेर गति ॥९१९॥

बालक माधुरी, देखि आꣳखि भरि,
पासरे आपन देहा ।
नरहरि कय़, शचीर तनय़
प्रकाशे कि नव लेहा ॥९२०॥

पुनः कामोद—
परम शुभ शचीगर्भे विलसित गौर गोकुल नाह ।
करई स्तुति-नति देवगण घन भवने भरई उछाह ॥९२१॥

सुभग फाल्गुन-पूर्णिमा निशि शशि-उदय़े राहु गरासि ।
ऐछे समय़े प्रकाश पꣳहु निज नाम पहिले प्रकाशि ॥९२२॥

होत जय़ जय़ कर जग भरि धिरज धरत न कोइ ।
मिश्रभवने प्रवेशि शिशु अवलोकि उमनत होइ ॥९२३॥

विविध मङ्गल रचई नव नव सब मनोरथ पूर ।
भणत-नरहरि विपुलवली कलि गरवभर भेल चूर ॥९२४॥

पुनर्वसन्त—

जय़ जय़ जय़ मङ्गलरव, फाल्गुन-पूर्णिमा निशि नव शोभित,
शची-गर्भे प्रकट गौर वरज रञ्जना ।
झलकत वर बालक-तनु, कुङ्कुम थिर दामिनी जनु,
चमकत मुखचन्द मधुर धैरज भर भञ्जना ॥९२५॥

पहु प्रकाश निरखत, घन गणसह गगने सुरगण वरषत,
कुसुमालि विपुल पुलक भरल अङ्गही ।
करत कत मनोरथ चित, चञ्चल भनि चारु चरित,
लोचन जलछल कत छबि पाय़त बहु रङ्गही ॥९२६॥

गाय़त किन्नर सुधङ्ग, वाय़त मृदुतर मृदङ्ग,
धा धिकि धिकिता धिक् धिक् धिक्कट तक धिन्नाना ।
नृत्यत सुर नर्तकीचय़, विविध भाꣳति करु अभिनय़,
उघट तत क थै थै थै, ति अई अई अ तेन्नाना ॥९२७॥

निर्मल दश दिश उजोर,
मलय़ानिल बहत थोर,
पिककुल कुहु कत वसन्त, ऋतुपति सरसाय़त्र ।
उछलत सुर सरितवारि,
नदीय़ा महि मुद विथारि,
मिश्रभवन कौतुके नरहरि हिय़ उमता अत्र ॥९२८॥

पुनर्वसन्त—

आजु पूर्णिमा, साꣳझ समय़े, राहु शशी गरासि ।
गौरचन्द्र-उदय़े तबहि, ताप तम विनाशि ॥९२९॥

प्रफुल्लित सब, भक्त-हृदय़, धिरय़ न धरु कोइ ।
सीतापति निय़ते, चलत अति उनमत होइ ॥९३०॥

घन घन हुङ्कारत, अद्वैत परम धीर ।
विलसत प्रिय़गण-सह ग्रहणे सुरधुनी-तीर ॥९३१॥

मङ्गल कलरव सब नदीय़ा पुर भरि भेल ।
कौतुके कोइ, जानत नाहि, कैछे रजनी गेल ॥९३२॥

मिश्रभवन-शोभा शुभ, सम्पद सुख बार्ह्̤‌इ ।
आय़त बहु लोक कोन, यात भवन छाड़ि ॥९३३॥

वाय़त मृदु वाद्य सब सबादक मुद माति ।
गाय़कगण गाननिपुण, गाय़त कत भाꣳति ॥९३४॥

नर्तक कृत नृत्य तात्ता, थै ताथै उचारि ।
निर्मल यश भनत भाꣳट, भङ्गि भर विथारि ॥९३५॥

याचक मन तोषि मिश्र, देत उदित दान ।
निरुपम नवनी तरङ्ग, निरखत घनश्याम ॥९३६॥

पुनर्वसन्त-तोड़ी—

भुवन मनचोरा, गोकुलपति गोरा
चाꣳदेर जनम कि शुभक्षणे ।
देखिय़ा पुत्रमुख, शचीर यत सुख,
ताहा कि कहिबारे पारे आने ॥९३७॥

नदीय़ा-पुरनारी, आइसे सारि सारि,
लईय़ा थारि भरि द्रव्य बहु ।
सुसज्जे सुरप्रिय़ा, मानुषे मिशाइय़ा,
बालके निरखिय़ा थिर नहु ॥९३८॥

श्रीसीतादेवी आसि, सूतिका-गृहे पशि,
देखिय़े शिशु उललसित हिय़ा ।
मालिनी आदि सङ्गे, भासय़े नाना रङ्गे,
करय़े कत ना मङ्गल क्रिय़ा ॥९३९॥

गोय़ालिनीर वा कत गोय़ाला शत शत,
लईय़ा दधि आसे चारु साजे ।
सबे विह्वल-चिते, पूरब सभाबेते
छड़ाय़ दधि आङ्गिनार माझे ॥९४०॥

रचिय़ा करतालि, हासिय़ा नाचे भालि,
ता देखि देवे गोप-वेश धरि ।
नाचय़े आङ्गिनाते, केबा ना नाचे ताते,
सघने जय़ जय़-ध्वनि करि ॥९४१॥

बाजय़े वाद्य हेन कौतुक नाहि येन,
मिश्रालय़े से नन्दालय़-रीति ।
नरहरि कि कब, प्रभु जनमोत्सव,
उत्साहे कारु किछु नाहि स्मृति ॥९४२॥

ओहे श्रीनिवास, कि बलिब जन्मकथा ।
नालाम्बर चक्रवर्ती लग्न गणे एथा ॥९४३॥

एथा अष्टदिने कष्ट, कलाइ विलाय़ ।
व्यापिल असꣳख्य शिशु एइ आङ्गिनाय़ ॥९४४॥

एथा देवगणे देखे प्रभुर विलास ।
विविध कौतुके पूर्ण हैल एकमास ॥९४५॥

एथा बिश्वम्भरेर श्रीउत्थान-शय़ने ।
माता-पिता नाना चिह्न देखे श्रीचरणे ॥९४६॥

बालक उत्थान-पर्वे नारीगण एथा ।
करे ये मङ्गल कर्म से अद्भुत कथा ॥९४७॥

एइखाने विश्वम्भर क्रन्दनेर छले ।
अकस्मात् हरिबोल बोलाय़ सकले ॥९४८॥

कि बलिब बाल्यावेशे अद्भुत प्रकाश ।
विश्वम्भर वय़स हईल चारिमास ॥९४९॥

एइ घरे आइ विश्वम्भरे शोय़ाइय़ा ।
गेलेन कोथाओ एका बालके राखिय़ा ॥९५०॥

अद्भुत बालक क्रिय़ा स्बेहो ना बुझाय़ ।
घरे नाना सामग्रीर करे अपचय़ ॥९५१॥

आसिय़ा देखय़े पुत्र आछय़े शय़ने ।
के कैल ए कर्म बालि चिन्ते मने मने ॥९५२॥

छय़ मासे एथा अन्नप्राशन-समय़ ।
हैल नामकरण कौतुक अतिशय़ ॥९५३॥

श्रीनिमाइ विश्वम्भर नाम लोकरीते ।
पुन नाम हैल बहु विदित जगते ॥९५४॥

अन्नप्राशनेर ये विधान लोके गाय़ ।
हईल से सब महानन्द नदीय़ाय़ ॥९५५॥

गीते—कामोद—

नदीय़ार नारीपुरुष, सुकृति मानि,
मने महानन्दित हैय़ा ।
निमाइर अन्नप्राशाने सकले आइसेन
नाना सामग्री लैय़ा ॥९५६॥

शचीसूत-शोभा, देखे आꣳखि भरि,
नीलाम्बर भाग्यवन्तेर कोले ।
नव नव आभरणमय़, कटितटे पट्ट धटि,
अञ्चल दोले ॥९५७॥

हेम सरसिज जिनि, तनुखानि मुखे ।
कि उपमा चान्देर घटा ।
मिष्ट अन्न कणिका, ग्रहणे किबा अद्भुत
मृदु हासिर छटा ॥९५८॥

ए हेन उत्साहे, केबा धरे धृति,
कहिते कौतुक ना आइसे मुखे ।
सबे शाची-जगन्नथे, प्रशꣳसय़े
नरहरि-हिय़ा उथले सुखे ॥९५९॥

कि बलिब शचीदेवी रहि एइखाने ।
पाइला आनन्द सर्वज्जनेर सम्माने ॥९६०॥

एथा आइ पुत्रे शोय़ाइय़ा महासुखे ।
पाड़िय़ा काजल स्निग्ध हेतु देन आꣳखे ॥९६१॥

एथा बैसे आइ चतुर्दिके नारीगण ।
निमाइरे करि कोले पिय़ाÿएन स्तन ॥९६२॥

एथा आइ निमाइचान्देरे निन्दाइते ।
गाय़ सुमधुर स्वरे येबा लय़ चिते ॥९६३॥

ओहे श्रीनिवास, एथा शची ठाकुराणी ।
बालके लालय़ यत कहिते ना जानि ॥९६४॥

जानु-चꣳक्रमण प्रभु करे ए अङ्गने ।
से अद्भुत शोभा सुखे वर्णे विज्ञगणे ॥९६५॥

गीते यथा—

एक मुखे कि कहिब गोराचाꣳदेर लीला ।
हामागुड़्‌इ याय़ नाना रङ्गे शचीबाला ॥९६६॥

लाले झर झर मुख देखिते सुन्दर ।
पाका विश्वफल जिनि सुरङ्ग अधर ॥९६७॥

अङ्गद बलय़ साजे सुबाहु युगले ।
चरणे मगरा खाड़ु वाघनख गले ॥९६८॥

सोनार शिकलि शिरे पाटेर थोपना ।
वासुदेव घोषे कहे निछनि आपना ॥९६९॥

पुनः राग-तुड़्‌ई—

जगन्नाथ मिश्र महासुखे ।
पुत्रे कोले करि चुम्ब देइ चान्द-मुखे ॥९७०॥

शिरे वेश भूषण साजाय़ ।
आगुलि चालिते स्नेहे उथले हिय़ाय़ ॥९७१॥

निमाइ बापेर कोल हैते ।
भङ्गि करि नामय़े अङ्गने बेड़ाइते ॥९७२॥

हामागुड़ि बेड़ाय़ अङ्गने ।
सोनार नूपुर बाजे सुचारु चरणे ॥९७३॥

चलिते हेरई उलाटिय़ा ।
चलन माधुरी मिश्र देखे दाꣳड़ाइय़ा ॥९७४॥

सम्मुखे आसिय़ा कहे माय़ ।
कोले चड़सिय़ा बाप, धूला लागे गाय़ ॥९७५॥

जननीर हाते हात दिय़ा ।
कोले उठे लहु लहु हासिय़ा हासिय़ा ॥९७६॥

दुग्धबिन्दु-सम दन्तद्युति ।
हासिते प्रकाश ताय़ केबा धरे धृति ॥९७७॥

दुटि आꣳखे यार पाने चाय़ ।
तारे निरन्तर सुखसमुद्रे भासाय़ ॥९७८॥

जननीर कोले भाल शोहे ।
नरहरि निछनि भुवन मन मोहे ॥९७९॥

एथा पुत्रे लैय़ा कोले जिज्ञासय़े आइ ।
नेत्र नासा मुख के बलह निमाइ ॥९८०॥

शुनिय़ा माय़ेर कथा बार्ह्̤‌ए महा सुख ।
देखान अङ्गुलि दिय़ा नेत्र नासा सुख ॥९८१॥

जानु-चꣳक्रमणे एथा सर्पे सुख दिला ।
सर्पेर कुण्डली परि शय़न करिला ॥९८२॥

ताहा देखि भय़े सबे करे हाय़ हाय़ ।
ए हेतु अनन्तदेव एइ पथे याय़ ॥९८३॥

एथा विश्वरूप विश्वम्भरे कोले लैय़ा ।
झाड़य़े अङ्गेर धूला ना जानि कि कैय़ा ॥९८४॥

जानु-चꣳक्रमणे नाना रङ्ग प्रकाशय़ ।
हरय़े सबार दुःख, शोभा अतिशय़ ॥९८५॥

ओहे श्रीनिवास, श्रीचरण-चꣳक्रमणे ।
परम कौतुक एइ अपूर्व अङ्गने ॥९८६॥

सुचारु चरण स्पर्शे महीताप क्षय़ ।
अङ्गेर किरणे सर्वचित्त आकर्षय़ ॥९८७॥

तथाहि श्रीकृष्णचैतन्यचरिते प्रथम-प्रक्रमे—
ततः कालेन शोणाभ्याꣳ पादातभ्याममितद्युतिः ।
अटन् विरहजꣳ तापꣳ मेदिन्याः, सꣳजहार सः ॥९८८॥

ए अङ्गन-प्रदेशेर मर्म केबा जाने ।
पाद-चꣳक्रमणेर आरम्भ एइखाने ॥९८९॥

गीते—राग-तोड़्‌ई—

शचीठाकुराणी चारु छान्दे ।
हाꣳटन शिखाय़ गोराचाꣳदे ॥९९०॥

मृदु मृदु कहेन हासिय़ा ।
धरो मोर अङ्गुलि आसिय़ा ॥९९१॥

शुनि सुखे नदीय़ार शशी ।
माय़ेर अङ्गुलि धरे हाशि ॥९९२॥

धीरे धीरे उठिय़ा दाꣳड़ाय़ ।
दुइ चारिपद चलि याय़ ॥९९३॥

छाड़िय़ा अङ्गुलि पड़े भूमे ।
शची कोले लैय़ा मुख चुमे ॥९९४॥

कोले चड़ि चरण दोलाय़ ।
राजाय़े नूपुर राङ्गा पाय़ ॥९९५॥

आङ्गुले कचालि स्तन पिय़े ।
नाहि ये उपमा ताय़ दिय़े ॥९९६॥

चारि दिगे चाय़ भङ्गि करि ।
ताहाते निछनि नरहरि ॥९९७॥

स्व-इच्छाय़ विश्वम्भर ब्राढ़े दिने दिने ।
परम कौतुके एका भ्रमे ए अङ्गने ॥९९८॥

नवद्वीप-निवासी स्त्रीगण महानन्दे ।
प्रभाते आसिय़ा एथा देखे गौरचन्द्रे ॥९९९॥

गीते—विभाष-राग—

नदीय़ार अति, पुण्यवती पति-
व्रतागणेर कि ननेर गति ।
निज-पुत्रे मन, नाहि अनुखन,
भणे शचीशसुत-चरित-रीति ॥१०००॥

निशि शेष देखि शय़न उपेखि
तिल आध नाहि धैरय बाꣳद्ḧए ।
नाना द्रव्य थारि, भरि सारि सारि,
लैय़ा चले दिते नदीय़ा-चाꣳदे ॥१००१॥

शचीर गृहेते, प्रवेशिते चिते,
उथलय़े कत कौतुक सिन्धु ।
देखय़े सकले, जननीर कोले,
खेले वसि गोरा गोकुल-इन्दु ॥१००२॥

जुड़ाय़ नय़न, नारीगण-प्राण,
पाय़ा कोले करि पासरे देहा ।
कहे नरहरि, आहा मरि मरि,
केबा सिरजिल एहेन लेहा ॥१००३॥

एइ खाने निमाइर अद्भुत नर्तन ।
करतालि दिय़ा नाचाय़ेन नारीगण ॥१००४॥

गीते—तोड़ी-राग—

नाचो आरे बाप विश्वम्भर ।
कर भरि खाते दिव क्षीर, ननी, सर ॥१००५॥

पातिव्रतागण चारिपाशे ।
कहे कत निमाइ-चाꣳदेरे मृदूभाषे ॥१००६॥

हरि हरि बोल बोल बुलि ।
सबे मिल सघने रचय़े करतालि ॥१००७॥

चाहि गोरा जननीर पाने ।
हरि बोल बुलि नाचे विविध बन्धाने ॥१००८॥

किबा चाꣳदमुखे मृदु हासि ।
भुलाय़े भुवन ढाले सुधा राशि राशि ॥१००९॥

नय़न-चाहनि चारु छान्दे ।
भुजेर भङ्गिमा देखि केबा थिर बाꣳधे ॥१०१०॥

कि मधुर मधुर किरणे ।
झलके अङ्गन हेम-अङ्गेर किरणे ॥१०११॥

किङ्किणी नूपुर बाजे भाले ।
नरहरि निछनि चरणतल-ताले ॥१०१२॥

एथाइ जननी-स्नेहे विह्वल हईय़ा ।
कहे कत निमाइचान्देर मुख चाय़ा ॥१०१३॥

गीते-धानशी—

आरे मोर सोनार निमाइ ।
आपनार घर छाड़ि, ना याबे परेर बाड़ी,
बसिय़ा खेलाबे एइ ठाꣳइ । ध्रु ॥१०१४॥

शिशुगण खेलाइते, आसिबे तोमार साथे
एथाइ राखिबे ता सबारे ।
यखन ये चाओ तुमि, ताहा आनि, दिव आमि
किसेर अभाव मोर घरे ॥१०१५॥

यदि केह किछु कय़, तारे देखाइह भय़
बापेर निषेध जानाइय़ा ।
चञ्चल बालक मेले, बाड़ीर बाहिरे गेले
माय़े कि धरिते पारे हिय़ा ॥१०१६॥

तिलेक आꣳखेर आड़्‌ए, पराण ना रहे धड़े
नरहरि जाने मोर दुःख ।
माय़ेर वचन धर, घरे वसि खेला कर
सदा येन देखि चान्दमुख ॥१०१७॥

एइखाने विश्वम्भर धूला माथे गाय़ ।
ता देखि जननी हासि करे हाय़ हाय़ ॥१०१८॥

एखा माय़े किछु कहिबेन एकारण ।
सन्देशादि त्यागि कैल मृत्तिका भक्षण ॥१०१९॥

एकदिन एइ घरे शची जगन्माता ।
पुत्रे निदाइते कहे पौराणिक कथा ॥१०२०॥

प्रति वाक्ये विश्वम्भर रचय़े हुङ्कार ।
परम आनन्दे माता कहे अनिवार ॥१०२१॥

‘ओहे बाप विश्वम्भर ! कृष्ण मथुराय़ ।
कꣳसे बधिबारे गेला कꣳसेर सभाय़ ॥१०२२॥

कतक्षणे मल्लयुद्ध करि कꣳसासुरे ।
मञ्च हैते भूमे पाड़ि बधिला कꣳसेरे’ ॥१०२३॥

शुनि प्रभु क्रोधावेशे कहे वार वार ।
‘आर ये आछय़े ताꣳरे करिमु सꣳहार’ ॥१०२४॥

आर एकदिन प्रभु शुतिय़ा ए घरे ।
स्वप्ने सम्बोधय़े शिव-ब्रह्मादि देवेरे ॥१०२५॥

‘ओहे शिव ! ब्रह्मा ! चिन्ता ना करिह मने ।
जीव उद्धारिय़ा माताइब सꣳकीर्ताने’ ॥१०२६॥

ऐछे नाना स्वप्न कथा कहे विश्वम्भर ।
शुनि थुथुत्कारे माता शङ्कित अन्तर ॥१०२७॥

ओहे श्रीनिवास, विश्वम्भर बाल्यावेशे ।
कहिते ना जानि किछु ये रङ्ग प्रकाशे ॥१०२८॥

विश्वम्भरे लैय़ा एइ घरे छिला आइ ।
अकस्मात् महाभिड़ हैल एइ ठाꣳइ ॥१०२९॥

चतुर्मुख पञ्चमुख आदि देवगणे ।
देखि शचीमाय़ेर हईल भय़ मने ॥१०३०॥

एइ घरे जगन्नाथ मिश्र छिला शुय़ा ।
पितार निकट पुत्रे दिल पाठाइय़ा ॥१०३१॥

अकस्मात् शुने नूपुरेर शब्द हय़ ।
विस्मित हईय़ा पितामाता कत कय़ ॥१०३२॥

रजनी-प्रभाते पितामाता सशङ्कित ।
करिल मङ्गल कर्म ये हय़ विहित ॥१०३३॥

एथा शिशुगण-मध्ये नाचे विश्वम्भर ।
से शोभा देखिय़ा कत कहे परस्पर ॥१०३४॥

गीते—कामोद-राग—

कि ए हाम पेखलु कनक-पूतलिय़ा ।
शचीर अङ्गने नाचे धूलि धूसरिय़ा ॥१०३५॥

चौदिगे दिगम्बर बालक बेड़्‌हिय़ा ।
तार माझे नाचे गोरा हरि हरि बलिय़ा ॥१०३६॥

उज्ज्वल कमल-पद धाय़ द्विजमणिय़ा ।
जननी शुनय़े भाल नूपुरेर धनिय़ा ॥१०३७॥

कहे वासुदेव घोष शिशुरस जानिय़ा ।
धन्य नदीर्य़ार लोक नवद्वीप धनिय़ा ॥१०३८॥

ओहे श्रीनिवास, ए अङ्गने विश्वम्भर ।
नाचे नाना रङ्गे से कौतुक मनोहर ॥१०३९॥

गीते—विभाष—

शचीर अङ्गने नाचे विश्वम्भर राय़ ।
हासि हासि फिरि फिरि माय़ेरे लुकाय़ ॥१०४०॥

वय़ाने वसन दिय़ा बले—‘लुकाइलु’ ।
शची बले—‘ विश्वम्भर ! आमि ना देखिलु’ ॥१०४१॥

माय़ेर अञ्चल धरि चञ्चलरणे ।
नाचिय़ा नाचिय़ा याय़ खञ्जन-गमने ॥१०४२॥

वासुदेव घोष कहे अपरूप शोभा ।
शिशुरूप देखि हय़ जगमन लोभा ॥१०४३॥

पुनः राग—भाट्यालि—

नाचे गोरा शचीर दोलालिय़ा ।
चौदिगे बालक मेलि, देइ तारा करतालि,
हरिबोल हरिबोल बलिय़ा ॥ ध्रु ॥१०४४॥

सुरङ्ग चतुना माथे, गलाय़ सोनार काꣳटी ।
साध करे पराय़ाछे माय़ धड़ा गाछि आꣳटि ॥१०४५॥

सुन्दर चाꣳचर केश सुबलित तनु ।
भुवनमोहन वेश, भुरु कामधनु ॥१०४६॥

रज्तत-काञ्चन नाना आभरण, अङ्गे मनोहर साजे ।
राता उतपल चरण-युगल तुलिते नूपुर बाजे ॥१०४७॥

शचीर अङ्गने नाचय़े सघने,
बोल आध आध वाणी ।
वासुदेव घोषे बोले, धर धर कर कोले
गोरा येन पराणेर पराणि ॥१०४८॥

पुनः कामोद—

रङ्गे नाचय़े शचीर बाला ।
रूपे करय़े भुवन आला ॥१०४९॥

जिनि हेम सरसजि तनु ।
धूलि धूसर पराग जनु ॥१०५०॥

वेश-भूषण शोभय़े भाली ।
हरि बलि देइ करताली ॥१०५१॥

मृदु हासय़े मधुर छाꣳदे ।
ताहे केबा वा धैरय बाꣳधे ॥१०५२॥

चारिदिगे कि कौतुके चाय़ ।
कर भरि सर देइ माय़ ॥१०५३॥

भङ्गि करि घन घन घुमे ।
धटि-अञ्चल लोटाय़ भूमे ॥१०५४॥

कटि-किङ्किणी सुचारु छटा ।
ताय़ झिनिनि शबद-घटा ॥१०५५॥

बाजे झनुनु नूपुर पाय़ ।
नरहरि से निछनि ताय़ ॥१०५६॥

कि बलिब एइखाने शचीर नन्दन ।
माय़ेर अञ्चल धरि करय़े भ्रमण ॥१०५७॥

बाड़ीर बाहिरे प्रभु खेलाइते याय़ ।
कि शुचि अशुचि स्थान सर्वत्र बेड़ाय़ ॥१०५८॥

एइखाने दाꣳड़ाइय़ा कहे शची आइ ।
ना याह अशुचि-स्थाने अबुध निमाइ ॥१०५९॥

माय़ेर कथाय़ ये कहिल विश्वम्भर ।
ताहा शुनितेइ हैल विस्मय़ अन्तर ॥१०६०॥

खेलोय़ मर्कट-खेला ए गङ्गातीरे ।
डाकय़े जननी एथा रहि उच्चैःस्वारे ॥१०६१॥

अलक्षित आसि एइ घरे सामाइय़ा ।
क्रोधावेशे नाना द्रव्य फेले छड़ाइय़ा ॥१०६२॥

निमाइरे कोले करि शचीदेवी एथा ।
कहे कत, निमाइ ना माने ताꣳर कथा ॥१०६३॥

कोले हैते नामि प्रभु पलाइय़ा याय़ ।
हाते छड़ि करि आइ पाछे ल्पाछे धाय़ ॥१०६४॥

चतुर्दिके देखे लोक कहे वार वार ।
यशोदार प्राय़ श्रीशचीर ब्व्यवहार ॥१०६५॥

एथा वर्ज्य मृत्तिका हाड़ीर आसनेते ।
बैसे विश्वम्भर मसिचिह्न सर्वाङ्गेते ॥१०६६॥

जननी कहय़े—‘शुचि आशुचि ना जान ।
स्नान कर गिय़ा शीघ्र मोर कथा मान’ ॥१०६७॥

शुनि कत-कहे क्रोधे उल्लास अन्तरे ।
इष्टका लईय़ा त्रास देखान माय़ेरे ॥१०६८॥

एथा नारीगण-मध्ये मूर्छापन्न आइ ।
ताहे नारिकेल फल आनिल निमाइ ॥१०६९॥

कुक्कुरशाबक लैय़ा एथाइ खेलाय़ ।
ताहारे राखय़े एइ घरेर पिड़ाय़ ॥१०७०॥

से शाबके आइ छले दिलेन छाड़िय़ा ।
एथा गालि पाड़े माय़ निमाइ कान्दिय़ा ॥१०७१॥

जगतजननी शचीदेवी एइखाने ।
प्रबोधे बालके यैछे केबा ताहा जाने ॥१०७२॥

एथा आइ साजाइय़ा नाना उपहार ।
बटवृक्षतले चले षष्ठी पूजिवार ॥१०७३॥

एथा विश्वम्भर मम्ग्न छिलेन खेलाय़ ।
ना मानि निषेध षष्ठी-पूजाद्रव्य खाय़ ॥१०७४॥

एथा आइ धरि वृद्ध नारीर चरणे ।
निमाइर मङ्गल प्रार्थय़े जने जने ॥१०७५॥

एथा नारीगण निमाइय़ेब्रे कोले करि ।
शिखाय़ेन यत ताहा कहिते ना पारि ॥१०७६॥

ओहे श्रीनिवास, विश्वम्भर इच्छामय़ ।
दुइ चोरे यत कृपा कहिल ना हय़ ॥१०७७॥

विश्वम्भर-अङ्गे देखि नाना आभ्ररण ।
लईते करय़े युक्ति एथा दुइ जन ॥१०७८॥

जगत् भुलाय़ ये ताहारे भुलाइय़ा ।
लईय़ा गेला चोर भ्रमे, भ्रमिय़ा नदीय़ा ॥१०७९॥

एथा स्कन्ध हैते नामाइय़ा साबहित ।
पलाइय़ा चोर ए कौतुक अलक्षित ॥१०८०॥

निमाइसुन्दर चञ्चलेर शिरोमणि ।
यबे से करय़े ताहा कहिते कि जानि ॥१०८१॥

यार सार घरे गिय़ा बालके कान्दाय़ ।
दधिदुग्ध-भागु सब भाङ्गिय़ा फेलाय़ ॥१०८२॥

एथा हर्षे आसि ताꣳरा देन ओलाहन ।
व्रजे यैछे यशोदाय़ कहे गोपीगण ॥१०८३॥

ओहे श्रीनिवास ! एइ नदीय़ा-नगरे ।
अतिथेर सेवा अतिशय़ मिश्रघरे ॥१०८४॥

किबा विप्र, कि सन्न्यासी केहो केने नय़ ।
सबारे आदरे महा उल्लास हृदय़ ॥१०८५॥

मिश्रगृहे तैर्थिक विप्रेर आतिथ्य ओ श्रीगौरसुन्दरेर अष्टभुजमूर्ति-प्रदर्शन—

एकदिन आइला एक तैर्थिक ब्राह्मण ।
अति दिव्य तेज शुद्धाचार सर्वोत्तम ॥१०८६॥

सर्व-शास्त्रे विद्या केहो लखिते ना पारे ।
उपासना श्रीगोपाल मन्त्र षड़क्षरे ॥१०८७॥

कण्ठभूषा श्रीबालगोपाल शालग्राम ।
निरन्तर वदने जपय़े कृष्णनाम ॥१०८८॥

ताꣳरे देखि मिश्र महा आनन्द अन्तरे ।
विहित विधाने वासा दिला एइ घरे ॥१०८९॥

एथा अकस्मात् विप्र विश्वम्भरे देखि ।
काहार बालक बलि ना फिराय़ आꣳखि ॥१०९०॥

‘एहेन बालक ना देखिनु कुन खाने’ ।
हईय़ा अधैर्य विप्र कहे मने मने ॥१०९१॥

विप्र-पाने चाहि प्रभु ईषत् हासिय़ा ।
शिशु-सह बाड़ीर बाहिरे खेले गिय़ा ॥१०९२॥

विप्र महाधीर किछु ना कहे कारे ।
देखिला मिश्रेर चेष्टा उल्लास अन्तरे ॥१०९३॥

मिश्र महायात्ने विप्रे पाक कराइल ।
प्राय़ सन्ध्या उत्तीर्णेइ पाक साङ्ग हैल ॥१०९४॥

कृष्ण भोग दिते ध्याने बैसे विप्रवर ।
आइला शोभामय़ अन्तर्यामी विश्वम्भर ॥१०९५॥

महाहर्षे आसि एकग्रास अन्न खाय़ ।
देखि भाग्यवन्तु विप्र करे हाय़ हाय़ ॥१०९६॥

मिश्र महाक्रोद्धे पुत्रे चाहय़े मारिते ।
कहि कत विप्र धरिलेन मिश्रहाते ॥१०९७॥

मिश्रेर रथाय़ पुनः करिला रन्धन ।
पुनः ऐछे विश्वम्भर करिला भक्षण ॥१०९८॥

पुनः विश्वरूपेर विनय़े विप्रवर ।
पाक कैल पुनः ऐछे दुञ्जे विश्वम्भर ॥१०९९॥

भक्त-वत्सल प्रभु भुञ्जि वारत्रय़ ।
शेषे अनुग्रह म्यैछे कहि साध्य नय़ ॥११००॥

हईल अनेक रात्रि प्रभुर इच्छाते ।
सबे निद्रागत ये ये छिलेन एथाते ॥११०१॥

भुवनमोहन विश्वम्भर दय़ामय़ ।
सुमधुर वाक्ये विप्र-प्रति कय़ ॥११०२॥

भक्ताधीन प्रभु एइ रन्धनेर घरे ।
देखि विप्र आश्चर्य देखान विश्वम्भरे ॥११०३॥

अष्टभुज, शङ्खचक्रादिक चतुष्टय़े ।
द्वय़े भुञ्जे नवनी, वाय़य़े वꣳशीद्वय़े ॥११०४॥

सर्वाङ्ग सुन्दर, रत्नभूषणे भूषित ।
नेत्रेर भङ्गिते करे जन्गत् मोहित ॥११०५॥

देखि विप्र यमुनापुलिन, वृन्दावन ।
चतुर्दिके शोभय़े गो, गोप, स्गोपीगण ॥११०६॥

देखि विप्र आनन्दे पड़िय़ा महीतले ।
दुइलेन प्रभुपादपद्म नेत्रजले ॥११०७॥

करुणा-समुद्र प्रभु शचीर नन्दन ।
जानाइ नदीय़ा-क्रीड़ा कैल आलिङ्गन ॥११०८॥

अन्ये एसकल प्रकाशिते निषेधिल ।
प्रभु व्यक्त हैले ए सब व्यक्त हैल ॥११०९॥

आच्छन्न रूपेते विप्र रहि नदीय़ाय़ ।
देखे प्रभुलीला याहा ब्रह्मादि धिय़ाय़ ॥१११०॥

एइखाने एकदिन मिश्रेर तनय़ ।
करय़े क्रन्दन ताहे विदरे हृदय़ ॥११११॥

एकादशी-दिने जगदीश ओ हिरण्य गोवर्धन विप्रेर निकट अन्नग्रहणच्छले ताꣳहादेर प्रति कृपा-प्रदर्शन—

जगदीश, हिरण्य श्री एकादशी-दिने ।
विष्णु लागि कैल नाना सामग्री यतने ॥१११७॥

ताहाइ खाइते आगे चाय़ विश्वम्भर ।
शुनिलेन जगदीश हिरण्य विप्रवर ॥१११३॥

विष्णुर नैवेद्य ना हईते आनि दिल ।
ताहा एथा भुञ्जिय़ा क्रन्दन सम्वरिल ॥१११४॥

जगदीश हिरण्येर ओइ बाड़ी हय़ ।
जगन्नाथमिश्र-सङ्गे अत्यन्त प्रणय़ ॥१११५॥

निमाइय़ेर विविध बाल्य-चेष्टा—

क्ति कब निमाइर बाल्यचेष्टा-निरुपम ।
यखन ये चाय़ ताहा ना दिले विषम ॥१११६॥

एथा रहि निमाइ आकाश-पाने चाय़ ।
च्ꣳद धरि देह मोरे कहे शची-माय़ ॥१११७॥

उड़े पक्षी देखि एथा शचीर नन्दन ।
धरि देह मोरे कहि करय़े क्रन्दन ॥१११८॥

बालिका सकल मिलि आसिय़ा एथाय़ ।
निमाइ उपद्रव कहे शची-माय़ ॥१११९॥

एथाइ आसिय़ा पुण्यवन्त विप्र सब ।
मिश्रे कहे निमाइचान्देर उपद्रव ॥११२०॥

एथा रहि विश्वम्भर-प्रति कहि आइ ।
विश्वरूपे डाकिय़ा आनह शीघ्र याइ ॥११२१॥

विश्वरूप आछेन श्रीअद्वैत-सभाय़ ।
ताꣳरे कहे, भोजने चलह डाके माय़ ॥११२२॥

अग्रजेर वस्त्राञ्चल धरि विश्वम्भर ।
मोहिय़ा सबार चित्त आइलेन घर ॥११२३॥

स्थान सꣳस्कारि मुइ दिनु सेइ क्षणे ।
एइखाने दुइ भाइ वसिला भोजने ॥११२४॥

ओहे बाप श्रीनिवास, कहिते कि आर ।
से सब भाविते हिय़ा विदरे आमार ॥११२५॥

एइखाने शची-मिश्र पुत्रेरे बुझाय़ ।
ये कार्य करिला बाप इहा ना जुय़ाय़ ॥११२६॥

ऋषिसम श्रीमुरारि गुप्त नदीय़ाते ।
सभेइ समीहा तारे करे सर्वमते ॥११२७॥

भोजनेर काले तार भोजन-थालिते ।
लघ्री कैला इथे केबा ना निन्दे जगते ॥११२८॥

तेꣳहो विज्ञ तेञि दोष ना निल तोमार ।
कोथाओ एमन कार्य ना करिह आर ॥११२९॥

निमाइय़ेर विद्यारम्भ—

विद्यारम्भ-समय़े श्रीमिश्र एइखाने ।
पुत्र-हाते खड़ि दिला आति शुभक्षणे ॥११३०॥

क, ख, ग, घ लोखिय़ा कहय़े—लेख बाप ।
हाꣳटु पाड़ि लेखे ता देखिले घुचे ताप ॥११३१॥

लेखिय़ा निमाइ चान्द क, ख, गा, घ बोले ।
ताहा शुनि मिश्र-हिय़ा आनन्दे उथले ॥११३२॥

विद्यारसे मग्न प्रभु पौगण्ड-वय़से ।
लेखिते ना पाइलेइ चाञ्चल्य प्रकाशे ॥११३३॥

यबे ये लिखय़े ताहा बाड़े दिने दिने ।
विश्वम्भरे सबे प्रशꣳसय़े एइ खाने ॥११३४॥

एथा जगन्नाथमिश्र महाहर्ष-चिते ।
हईला वेष्टित विश्वम्भरे पड़ाइते ॥११३५॥

खुलिय़ा पुस्तक पाठ दिला एइखाने ।
विश्वम्भर मग्न हईलेन अध्यय़ने ॥११३६॥

एइखाने दाꣳड़ाइय़ा विश्वम्भर-राय़ ।
एकादशी करिते कहेन शची-माय़ ॥११३७॥

पुत्रेर वचने हर्ष हैय़ा यत्न करि ।
करेन श्रीएकादशीव्रत सर्वोपरि ॥११३८॥

एथा जगनन्नाथमिश्र हर्ष अतिशय़ ।
विश्वरूपे विवाह दिवेन विचारय़ ॥११३९॥

विश्वरूप सकल अनित्य विचारिय़ा ।
सन्न्यास-ग्रहण कैल कृष्णेर लागिय़ा ॥११४०॥

‘श्राईशङ्करारण्य’-नाम हईल विदित ।
तीर्थापर्यटने चले यैछे पूर्वरीत ॥११४१॥

विश्वरूप श्रीबलदेवेर अꣳश हय़ ।
वय़स षोड़श वर्ष सौन्दर्यातिशय़ ॥११४२॥

तथाहि श्रीकृष्णचैतन्यचरिते प्रथम-प्रक्रमे—
इत्युक्ता वक्त्रमारेभे वैद्यो हृद्याꣳ कथाꣳ शुभाम् ।
बलदेवाꣳशकस्यापि विस्वरूपस्य पावनीꣳ ॥११४३॥

श्रीमच्छ्रीविश्वरूपः सकलगुणनिधिः षोड़शाब्दो’तिशुद्धः
प्रापाचार्यत्वमात्मश्रवणमननतासक्तधीः प्रेमभक्तः ।
सर्वज्ञः सर्वदासौ नरहरिचरणासक्तचित्तो’तिहृष्टः
शान्तः सन्तोषयुक्तो जगति न रतिमान् वेदवेत्ता रसज्ञः ॥११४४॥

एथा विश्वम्भर कान्दे धूलाय़ लोटाय़ ।
अग्रजविच्छेदे अति व्याकुल हिय़ाय़ ॥११४५॥

एथा शची, जागन्नाथमिश्र दोꣳहे कान्दे ।
दोꣳहार क्रन्दने केहो स्थिर नाहि बान्धे ॥११४६॥

कोथा विश्वरूप बलि डाके वार वार ।
केबा ना झुरय़े गुणे लोक नदीय़ार ॥११४७॥

हईल क्रन्दनमय़ मिश्रेर भवन ।
से सब भाविते दुःखे दग्धय़े जीवन ॥११४८॥

शची-जगन्नथे सबे प्रबोधे एथाय़ ।
हईलेन स्थिर विश्वम्भरेर इच्छाय़ ॥११४९॥

एकदिन एथा पितामाता-प्रति कय़ ।
विश्वरूप-सन्न्यासे मङ्गल अतिशय़ ॥११५०॥

पितृकुल मातृकुल तेꣳहो उद्धारिब ।
आमि तोमा दोꣳहाकार सेवन करिब ॥११५१॥

शुनि पुत्रवाक्य दोꣳहे अति हर्ष हैला ।
कोलेते लईय़ा मुखचन्द्रमा चुम्बिला ॥११५२॥

ओहे श्रीनिवास विश्वरूपेर सन्न्यासे ।
घुचय़े चाञ्चला किछु दिवसे दिवसे ॥११५३॥

निमाइय़ेर चूड़ाकर्म ओ यज्ञसूत्रधारण—

एथा शची-प्रति कहे मिश्र पुरन्दर ।
चूड़ाकर्म-योग्य हईलेन विश्वम्भर ।१ ११५४॥

एक कहि दोꣳहे वेदविहित विधाने ।
करिल पुत्रेर चूड़ाकम एइखाने ॥११५५॥

गीते-धानशी—

आजु कि आनन्दमय़, लोकगति अतिशय़,
शोभामय़, शचीर भवने ।
सबार पराण जुड़ा निमाइचान्देर चूड़ा
कर्मादि अपूर्व शुभक्षणे ॥११५६॥

दिव्य-वस्त्र अलङ्कारे, साजाइय़ा विश्वम्भरे
बसाइय़ा दिव्यासन परि ।
ये वेदविहित आर, लोकरीति ये-प्रकार
ताहा मिश्र करे यत्न करि ॥११५७॥

आसिय़ा नापित आर्य, साधय़े से निज-कार्य,
कर्णमूले पीत-सूत्र दिते ।
नारीगण जय़कारे, के ना जय़ध्वनि करे,
व्यापिल मङ्गल पृथिवीते ॥११५८॥

विप्र करे वेद-पाठ, वर्णय़े कवित्व भाट,
वादक विविध वाद्य वाय़ ।
नाचय़ो नर्तक यत, नरहरि कहे कत,
गाय़के निर्मल यश गाय़ ॥११५९॥

चिदानन्दमय़ प्रभु लोकवत् लीला ।
कर्णवेध ना करिते छिद्र से देखिला ॥११६०॥

नापित देखिय़ा मने पाइल विस्मय़ ।
प्रभु-इच्छामते कारे किछु नाहि कय़ ॥११६१॥

श्रीजीव सन्दर्भे येइ सब विचारिल ।
नरहरि आज्ञा पाय़ा आनन्द करिल ॥११६२॥

पुनश्च राग—वेलावली—

आजु निरुपम गौरचन्द्र-चूड़ा वेदविहित
मङ्गल लोक भीड़ भवने ।
श्रीनवद्वीप-बधुवृन्द-रीति अतुल उलु लु लु लु लु लु
देत कि उल्लास श्रवणे ॥११६३॥

भूसुर-समाज भ्राजत भूरि भङ्गि वेदध्वनि ।
सुमधुर हृदि मोद भरई ।
सुत मागध वन्दी रचई नव चरितचय़
श्रवणपथ-गत जगत-चित्त हरई ॥११६४॥

वादक मृदङ्गादि-वाद्य प्रभेद भश्णि धा धा दिलङ्ग
धिकि तक धिन्निना ।
गाय़त सुछन्द गुणिगण नटत नट्ट उदघट
तत्त थै थै ति अई तिन्नना ॥११६५॥

पुलककुल-बलित उत्साहमय़ मिश्रवर वितरि
बहु द्रव्य याचसकले तोषई ।
नरहरि कि भणव शोभा भूरि निराखि
सुरगण मगन गगने जय़ जय़ सघने घोषई ॥११६६॥

देख श्रीनिवास-बाड़ी बाहिरे एथाइ ।
वय़स्य-वेष्टित हैय़ा खेलय़े निमाइ ॥११६७॥

ओइ पथे नारीगण विह्वल हईय़ा ।
निमाइचान्देर शोभा देखे दाꣳड़ाइय़ा ॥११६८॥

एकदिन एइखाने मिश्र महाशय़ ।
विश्वम्भरे वात्सल्य प्रकाशे अतिशय़ ॥११६९॥

किछुदिन जगन्नाथमिश्र एइखाने ।
पुत्रे यज्ञसूत्र दिव विचारय़े मने ॥११७०॥

करिल दिवस स्थिर आनि बन्धुगण ।
महानन्दे पूर्ण हैल मिश्रेर भवन ॥११७१॥

यज्ञसूत्र-समय़े कौतुक नाइ अन्त ।
विविध प्रकारे ता वर्णय़े भाग्यवन्त ॥११७२॥

गीते यथा—कामोद—

कि आनन्द नदीय़ा-नगरे ।
श्रीशचीदेवीर पुत्र, धरिवेन यज्ञसूत्र,
एइ कथा प्रति घरे घरे ॥११७३॥

स्नेहेते हिह्वल हैय़ा, केबा ना चलय़े धाय़ा
नानाद्रव्य लैय़ा मिश्रालय़े ।
निरुपम मिश्रालय़, लोकभीड़्‌अ अति शय़,
से शोभाय़ केबा ना भुलय़े ॥११७४॥

मिश्र महा-हर्ष हैय़ा, करे वेदमत क्रिय़ा,
यज्ञसूत्र देइ गोराचान्दे ।
गौरमूर्ति मनोहर, परिधेय़ रक्ताम्बर,
हाते दिव्य दगु, झुलि कान्धे ॥१०७५॥

प्रभु भिक्षा करे रङ्गे, देखि देवनारी-सङ्गे,
मानुषे मिशाय़ भिक्षा दिते ।
प्रभु प्रिय़गण यारा, कत ना कौतुके तारा
भिक्षा देइ प्रभुर झुलिते ॥११७६॥

मङ्गल विधान यत, के ताहा काइबे कत,
किबा स्त्रीगणेर जय़कार ।
विप्रे वेदध्वनि करे, शुनि के धैरय धरे ?
भाटगणे पड़े राय़वार ॥११७७॥

जय़ जय़ कलरव, व्यापिल से दिशा सब,
नृत्यशगीत-वाद्य नाना भाꣳति ।
दास नरहरि, भागे, याचक उचित दाने,
भणय़े सुयश सुखे माति ॥११७८॥

पुनर्धानशी—

जगन्नाथ मिश्रेर भवने ।
बाजे वाद्य मङ्गल-विधाने ॥११७९॥

नारीगाणे देइ जय़कार ।
भाटगणे पड़े राय़वार ॥११८०॥

शुभक्षणे शूचीर नन्दन ।
यज्ञसूत्र करय़े धारण ॥ ध्रु ॥११८१॥

यज्ञसूत्र-उपमा कि आने ।
सुक्ष्मरूपे अनन्त आपने ॥११८२॥

केशहीन मस्तक माधुरी ।
कार वा ना करे चित चुरि ॥११८३॥

रक्तवास परिधेय़ भालो ।
रूपे दशदिशा करे आलो ॥११८४॥

चतुर्दिके ब्राह्मणसमाज ।
तार माझे गोरा द्विजराज ॥११८५॥

हाते दिव्य दगु, झुलि कन्धे ।
ता देखि धैरय केबा बान्धे ॥११८६॥

वामन-आवेश-वेश शोहे ।
भङ्गिते भुवनमन मोहे ॥११८७॥

हासि मृदु सुमधुर भाषे ।
भिक्षा मागे भक्तेर पाशे ॥११८८॥

सबे चाहे प्राण भिक्षा दिते ।
ये देइ ताहा ना भाय़ चिते ॥११८९॥

देवनारी मानुषे मशाइ ।
भिक्षा देन चान्दमुख चाइ ॥११९०॥

केबा वा ना निछय़े जीवन ।
जय़ध्वनि करे सर्वजन ॥११९१॥

भणे घनश्याम मिश्रालय़े ।
सुखेर समुद्र उथलय़े ॥११९२॥

पुनः सुहई—

गौरसुन्दर परम शुभक्षणे धरल यज्ञोपवीत ।
वेदविहित क्रिय़ा-निपुण शची-मिश्र निरुपम रीत ॥११९३॥

विविध मङ्गल होत कुलबधू उलु लु लु लु लु लु देत ।
ताटगण भण सुय़श शुभ शोभा भुदिठि भरि लेत ॥११९४॥

गान करु नवताल गुणी मुरजादि वाय़त सुरङ्ग ।
नृत्यकृत नर्तक उघटि घन धा धि धिक ध धिलङ्ग ॥११९५॥

देवगण-मन मगन अतिशय़ निरखि ललित विलास ।
भुवन भरि जय़ जय़ जय़ ध्वनि, निछनि नरहरि दास ॥११९६॥

ओहे श्रीनिवास एथा विश्वम्भर-राय़ ।
पड़िवार लागि अति उद्विग्न हिय़ाय़ ॥११९७॥

बुझिय़ा पुत्रेर चेष्टा मिश्र पुरन्दर ।
लैय़ा गेला गङ्गादास पण्डितेर घर ॥११९८॥

गङ्गादासे करिलेन पुत्र समर्पण ।
गङ्गादास यत्ने पड़ाय़ेन व्याकरण ॥११९९॥

दिने दिने व्याकरणे हैला चमत्कार ।
ताहा देखि केवला ना प्रशꣳसय़े नदीय़ार ॥१२००॥

एकदिन एइखाने प्रभु गौरचन्द्र ।
ताम्बूल भक्षण करि हासे मन्द मन्द ॥१२०१॥

अकस्मात् मूर्छापन्न एथाइ हईला ।
मातापिता यत्नेते चेतन कराइला ॥१२०२॥

स्थिर हैय़ा प्रभु मातापिता सन्तोषिल ।
विश्वरूप-प्रसङ्गादि अनेक करिल ॥१२०३॥

एइ घरे जगन्नाथ मिश्र पुरन्दर ।
स्वप्ने देखे सन्न्यास करिला विश्वम्भर ॥१२०४॥

निद्राभङ्ग हैले प्राते व्याकुल हईय़ा ।
करय़े प्रार्थना कत देवे सम्बोधिय़ा ॥१२०५॥

रजनी-प्रभाते कहे श्रीशचीदेवीरे ।
बुझि वा निमाइ मोर ना थाकय़े घरे ॥१२०६॥

जगन्नाथमिश्र एथा कहे शची आइ ।
निमाइ, रहिब घरे कुन चिन्ता नाइ ॥१२०७॥

पड़ा विना निमाइरे किछु नाइ भाय़ ।
हईबेन योग्य मातापितार सेवाय़ ॥१२०८॥

अनेक प्रकारे कहिलेन शचीमाता ।
तथापि ना भुलय़े दारुण स्वप्न कथा ॥१२०९॥

एकदिन एथा वसि मिश्रपुरन्दर ।
मने मने कहे पुत्र छाड़िबेन घर ॥१२१०॥

जगन्नाथमिश्रेर अप्रकटलीला—

एत कहि अधैर्य छाड़य़े दीर्घश्वास ।
अकस्मात् देहे ज्वर हईल प्रकाश ॥१२११॥

कि कहिब मिश्र-अदर्शन येन मते ।
विदरय़े हृदय से सब सोङरिते ॥१२१२॥

एथा भूमे पड़ि शची, शचीर तनय़ ।
करय़े क्रन्दन याते जगत् काꣳदय़ ॥१२१३॥

प्रभुर इच्छाय़ नवद्वीपवासिगण ।
दोꣳहे स्थिर करि स्थिर हैला सर्वजन ॥१२१४॥

ओहे बाप श्रीनिवास, विश्वम्भर एथा ।
माय़े प्रबोधिल कहि सुमधुर-कथा ॥१२१५॥

कि बलिब जननीर स्नेह ये प्रकार ।
विश्वम्भर विने किछु ना जानय़े आर ॥१२१६॥

के बुझिते पारे गौरचन्द्रेर अन्तर ।
करय़े ये लीला ब्रह्मादिर अगोचर ॥१२१७॥

एकदिन निमाइ याइते गङ्गास्नाने ।
मागिलेन पुष्पमालादिक मातास्थाने ॥१२१८॥

किञ्चित् विलम्ब हैते महा-क्रोध हैल ।
ये किछु आछिल घरे सब नष्ट कैल ॥१२१९॥

सर्वशेषे ए अङ्गने करिल शय़न ।
हैला निद्रागत प्रभु शचीर नन्दन ॥१२२०॥

कतक्षणे निद्राभङ्ग हईल जानिला ।
झाड़िय़ा अङ्गेर धूला पुत्रे उठाइला ॥१२२१॥

पुष्पमालादिक पुत्रे दिला सज्ज करि ।
गङ्गास्नान करि हर्षे आइला गौरहरि ॥१२२२॥

एकदिन एथा शची कहय़े पुत्रेरे ।
भक्षण-सामग्री किछु नाइ अद्य घरे ॥१२२३॥

शुनिय़ा माय़ेर कथा प्रभु हर्षचित ।
तोला दुइ स्वर्ण आनि दिला ए निभृते ॥१२२४॥

स्वर्ण देखि शचीमाता चिन्तित अन्तरे ।
पुत्रेर ए रङ्ग किछु बुझिते ना पारे ॥१२२५॥

निमाइय़ेर विवाहेर मङ्गलाचरण—

एकदिन शचीमाता वसि एइखाने ।
पुत्रेर विवाह दिते विचारय़े मने ॥१२२६॥

पौगण्डवय़स-शेषे कैशोर-प्रवेश ।
तिले तिले बाढ़े शोभा अशेष विशेष ॥१२२७॥

देखिय़ा निमाइचान्दे केबा स्थिर हय़ ।
ये अद्भुत चेष्टा ताहा अन्य ना जानय़ ॥१२२८॥

जननीर परम आनन्द बाढ़ाइते ।
हईले प्रभुर इच्छा विवाह करिते ॥१२२९॥

एथा शास्त्रचिन्ता करि शचीर नन्दन ।
गङ्गातीरे ओइ पथे करिला गमन ॥१२३०॥

प्रभुप्रिय़ लक्ष्मीदेवी आइला गङ्गास्नाने ।
परस्पर देखा यैच्छे वर्णे विज्ञगणे ॥१२३१॥

गीते यथा—कामोद ।

वल्लभ-दुहिता, लक्ष्मी सुचरिता
सखीते वेष्तित हैय़ा ।
स्नान करिबारे, चले गङ्गातीरे,
चकिते चौदिके चाय़ा ॥१२३२॥

गौराङ्ग-चान्देरे, देखि किछु दूरे
उथले निगूड़्‌ह लेहा ।
से रूपमाधुरी- सुधा पान करि,
धरिते नारय़े थेहा ॥१२३३॥

गोरा गुणमाणि, निज प्रिय़ा चिनि,
चाहय़े लक्ष्मीर पाने ।
जिनि काꣳचा सोना, लक्ष्मीतनु जेना,
प्रवेशे मरम-खाने ॥१२३४॥

दोꣳहे दिठि-कोणे, मिले सुसन्धाने,
आने ना जानिते पारे ।
नरहरि पꣳहु, हासि लꣳहु लꣳहु,
आनन्दे चलिल घरे ॥१२३५॥

एइखाने बशिय़ा श्रीशचीर कुमार ।
मोरे कहे हईबेक मने ये तोमार ॥१२३६॥

एकदिन वनमाली आचार्य एखाय़ ।
विवाह-प्रसङ्ग किछु कहे शचीमाय़ ॥१२३७॥

वल्लभ-आचार्यकन्या लक्ष्मी, ताꣳर सने ।
हईल विवाह स्थिर आर एकदिने ॥१२३८॥

एथा माता-पुत्रेर विवाहकथा कय़ ।
शुनि कार्ये तत्पर श्रीशचीर तनय़ ॥१२३९॥

विवाहसामग्री शीघ्र कैल आय़ोजने ।
स्थिर कैल विवाह-दिवस शुभक्षणे ॥१२४०॥

विवाहप्रसङ्ग नवद्वीप-घरे घरे ।
प्रभु-आकर्षणे केहो स्थिर हैते नारे ॥१२४१॥

सर्वावतारेर सर्वभक्त नदीय़ाय़ ।
विलसय़े स्त्रीपुरुषरूपे से इच्छाय़ ॥१२४२॥

आपना ना जाने केहो ताꣳर इच्छामते ।
करय़े ये सब कार्य पूर्व स्वभावेते ॥१२४३॥

एथा यैछे स्त्रीपुरुषगणेर गमन ।
यैछे ए विवाह ता वर्णय़े विज्ञगण ॥१२४४॥

गीते यथा—धानशी—

की आनन्द नदीय़ा-नगरे ।
निमाइर विवाह-कथा प्रति घरे घरे ॥१२४५॥

कि नारी पुरुष नदीय़ार ।
विवाह देखिते हिय़ा उथले सबार ॥१२४६॥

भाटगण चलय़े धाइय़ा ।
पाइब अनेक धन मने विचारिय़ा ॥१२४७॥

नर्तक वादक आदि यत ।
करे धाओय़ा धाइ कत करि मनोरथ ॥१२४८॥

चलय़े गणकगण धाया ।
कराइब विवाह अपूर्व लग्न पाय़ा ॥१२४९॥

मालिगण चलय़े उल्लासे ।
नाना पुष्पहार लैय़ा श्रीशची-आवासे ॥१२५०॥

एक मुखे कहिबे के कत ।
दरिद्र याचक तारा चले शत शत ॥१२५१॥

नरहरि-मने एइ आश ।
देखिब कि आꣳखि भरि विवाह-विलास ॥१२५२॥

निमाइय़ेर विवाहेर अधिवास—

पुनर्धानशी—

नदीय़ार नव, नवबधु सब,
विरलेते कहे मधुर हासि ।
धन्य मोर येन, देखिब एहेन
विवाह से सुख-साय़रे भासि ॥१२५३॥

केहो कहे आर्य, वल्लभ आचार्य
भार्या तार पतिव्रता सुरीति ।
हेन लय़ चिते, पूरव पुण्येते
पाबे ए जामाता दुर्लभ अति ॥१२५४॥

केहो कहे धन्या, वल्लभेर कन्या
लक्ष्मी रूपवती लखिमि येनो ।
हेन भाग्यवती, के आछे एमति
पाबे पति यिनि मदन मेनो ॥१२५५॥

केहो कहे भालि, कैले घटकालि
वनमाली कत आनन्द पाय़ा ।
अधिल्वास आजि, चल चल साजि
नरहरि आसि गेलेन कैय़ा ॥१२५६॥

पुनर्धानशी—

श्रीशचीआअलय़, अति शोभामय़
उथलिब ताहे आनन्दसिन्धु ।
अधिवास आजि, विलसिब साजि
सुखमय़ गोरा गोकुल-इन्दु ॥१२५७॥

एत कहि चिते, नारे थिर हैते
चाहि चारिभिते कुलेर बाला ।
उपमा कि मेन, घर हैते येन
वार हैल चारु चान्देर माला ॥१२५८॥

विचित्र वसन, शोहे आभरण
प्रति अङ्गे वेश-विन्यास भालो ।
नाना भङ्गि करि, चले सारि सारि
नदीय़ार पथ करिय़ा आलो ॥१२५९॥

कत अभिलाषे, गिय़ा आइ-पाशे
प्रणमिते कत आदरे आइ ।
नरहरि नाथे, पाय़ा आङ्गिनाते
जुड़ाइल हिय़ा से मुख चाइ ॥१२६०॥

पुनः-कामोद—

शोभामय़ शचीर अङ्गने ।
चतुर्दिके वेदध्वनि करे विप्रगणे ॥१२६१॥

आजु कि आनन्द-परकाश ।
शुभक्षणे निमाइचान्देर आधिवास ॥ ध्रु ॥१२६२॥

गन्धमाला देइ आप्तगणे ।
दिशा आलो करे गोरा अङ्गेर किरणे ॥१२६३॥

सभामध्ये गोरा द्विजमणि ।
विलसय़े कत ना अर्बुद काम जिनि ॥१२६४॥

वारेक ये चाय़ गोरा-पाने ।
ना धरे धैरय से आपन नाइ जाने ॥१२६५॥

ये जन आइल अधिवासे ।
गन्ध-चन्दनादि दिय़ा सभे परितोषे ॥१२६६॥

विधिमत करि अधिवास ।
वल्लभ आचार्य गेला आपन-आवास ॥१२६७॥

कहिते सुखेर अन्त नाइ ।
आइहो शुइहो लैय़ा शुभकर्म करे आइ ॥१२६८॥

नारीगणे देइ जय़कार ।
भाटगणे पड़य़े मङ्गल राय़वार ॥१२६९॥

नृत्यगीत, वाद्य, नाना भाति ।
उपमा दिवार नाइ काहारु शकति ॥१२७०॥

केबा ना बलय़े भाल भाल ।
जगभरि जय़ जय़ शब्द रसाल ॥१२७१॥

मानुषे मिशाय़ा देवगणे ।
देखे अधिवासरङ्ग नरहरि भणे ॥१२७२॥

पुनर्धानशी—

आजु स्नेहेते विह्वल हैय़ा ।
वल्लभ आचार्य, आधिवास-कार्य
करे आप्त विप्रवर्गेरे लैय़ा ॥ ध्रु ॥१२७३॥

कत साधे माय़, लखिमि कन्याय़
पराइय़े वास-भूषण भालि ।
सुचारु अङ्गने, दिव्य सिꣳहासने
बसाइय़ा सुखे भासय़े आलि ॥१२७४॥

शुभक्षणे दिते, गन्धमाला चिते
उलसित बाड़्‌हे अङ्गेर छटा ।
थिर नहे चित, देखे अलखित
चारिभिते देवरमणी-घटा ॥१२७५॥

शङ्ख घन्टा आदि, वाद्य नाना विधि
नृत्यगीत शुभ भाटेते भणे ।
नारी जय़कात्रे, धृति धरिवारे
नारे नरहरि निछनि मेने ॥१२७६॥

पुनः—कामोद—

अधिवास निशि पोहाइले ।
विवाहेर कार्य यत करय़े सकले ॥१२७७॥

विप्रगणे हईय़ा वेष्टित ।
निमाइ करेन क्रिय़ा ये वेदविहित ॥१२७८॥

लोकभिडु कहिल ना हय़ ।
लेह देह वाक्य-कोलाहल अतिशय़ ॥१२७९॥

बाजे नाना वाद्य निरन्तर ।
गाय़कगणेते गान करे मनोहर ॥१२८०॥

भाटगण पड़े राय़वार ।
नारीगणे देइ सुमधुर जय़कार ॥१२८१॥

सबार उल्लास स्त्री-आचारे ।
नरहरि भासे से ना सुखेर पाथारे ॥१२८२॥

पुनः—कामोद—

कुलबधूगण, उलसित मन,
पानि साइबारे साजय़े रङ्गे ।
गोरा-मुखशशी, हेरि हेरि हासि,
उलु उलु देइ पुलक अङ्गे ॥१२८३॥

चले घर हैते, कत उठे चिते,
गौरविधु-अङ्ग सौरभे माति ।
अथिर अन्तरे, भावे गर गर,
आꣳखि कोणे भङ्गि कत ना भाꣳति ॥१२८४॥

परस्पर कत, कहे अवेकत,
के ना निछे तनु रङ्गिणी-रीते ।
वास, भूषा, वेशे, धैरष विनाशे,
के पारे से शोभा उपमा दिते ॥१२८५॥

नूपुर-किङ्किणी, नाना व्याद्यध्वनि,
कि मधुर कहि ना आसे मुखे ।
पानि साय़ि शेषे, भवने प्रवेशे,
नरहरि-हिय़ा उथले सुखे ॥१२८६॥

पुनः—कामोद—

किबा, श्रीशची-भवन माझे ।
विविध मङ्गल, कुलरवे सभे,
भ्रमय़े विवाह-काजे ॥१२८७॥

सेजे गोरा गोकुलेर इन्दु ।
विवाह-विहित, स्नाने अतिशय़,
उथले आनन्द-सिन्धु ॥१२८८॥

कुलवधू सुमधुर चान्दे ।
सुचारु कुन्तले, तैल दिव बले,
वारे वारे आउलाइय़ा बान्धे ॥१२८९॥

केहो हलदी माखाय़ गाय़ ।
हलदी-मलिन हरि हासे सबे,
पराण निछय़े ताय़ ॥१२९०॥

केह गन्धद्रव्य देइ अङ्गे ।
से ना अङ्गगन्धे, ए गन्धमद हरे,
के दिवे उपमा अङ्गे ॥१२९१॥

अभिषेक कैल गङ्गाजले ।
नरहरि पानि- तोला लईय़ा तनु,
पोछय़े कौतुक-छले ॥१२९२॥

पुनः—कामोद—

आजु कत ना आनन्द-मने ।
बसिय़ा आसने, विश्वम्भर-वेश
रचय़े वय़स्यगणे ॥१२९३॥

गन्ध-चन्दन चरचे गाय़ ।
विरचय़ चारु ललाटे तिलक
केबा ना भुलय़े ताय़ ॥१२९४॥

बान्धि चाꣳचर चिकुर भाले ।
मनेर उल्लासे, मधुर छान्दे,
बेड़य़े मालती माले ॥१२९५॥

काणे कुण्डल अर्पण करे ।
झलकय़े गण्ड- ते गण्ड-युग
दर्पण-दरप हरे ॥१२९६॥

गले देइ मणिमय़ हार ।
परिसर बुके, दोले सुललित,
के दिवे उपमा तार ॥१२९७॥

बाहु अङ्गद, बलय़ा करे ।
अङ्गुले अङ्गुरी, सोपि मुखपाने,
चाहि ना दैरय़ धरे ॥१२९८॥

सिꣳह-जिनि माजाखानि क्षीण ।
सोनार शिकलि, साजाइते आꣳखि,
हईल निमिष-हीन ॥१२९९॥

वेश-विन्यास भुवन-लोभा ।
रक्तप्रान्त वास पराइय़ा नर-
हरि निरसखय़े शोभा ॥१३००॥

पुनः—कामोद—

वेश बनाइय़ा सहचरे ।
शाशिसम सुवर्ण-दर्पण देइ करे ॥१३०१॥

निमाइचान्देर वेश देखि ।
आनेर कि, देवेओ फिराइते नारे आꣳखि ॥१३०२॥

निज सखीसह शची आइ ।
करय़े मङ्गल कत पुत्रमुख चाइ ॥१३०३॥

नववधूगण दूरे रैय़ा ।
ना धरे धैरय गोराचान्द-पाने चाय़ा ॥१३०४॥

उलु उलु देय़ नारीगण ।
विवाह-विनोदकथा भरिल भुवन ॥१३०५॥

प्रणमिय़ा जननीर पाय़ ।
विवाह करिते यात्रा करे गौरराय़ ॥१३०६॥

वेदध्वनि करे विप्रगण ।
बाजे नाना वाद्य, शब्द भेदय़े गगन ॥१३०७॥

कौतुक कहिते केबा पारे ।
नरहरि साꣳतारय़े से सुखपाथारे ॥१३०८॥

श्रीनिमाइर विवाह—

पुनः—भुपाली—

आजु, गोधूलिसम शुभक्षण, गौरगुणमणि भुवनमोहन,
वेश विचरित विवाह-विहित, सुमृदुल तनुच्छवि छलकय़े ।
कोटि-मनमथ-गरव-भञ्जन, कञ्जदिठि जनहृदय़रञ्जन,
चाहि चहुदिश हासि लहु लहु, चड़्‌हत चौदल झलकय़े ॥१३०९॥

चलत वल्लभ-भवन भूसुर, बेड़्‌हि गति अति मन्द सुमधुर,
वन्दिगण भण भुरि मङ्गल, भुवन भरु जय़ जय़ ध्वनि ।
नटत नटगण, उघटि थै तत, थोङ्ग थोङ्गिन गानरत कत,
विरचि रुचिर-चरित्र सुर-सञे, सरस रस वरषत गुणी ॥१३१०॥

वाद्य कत कत भाꣳति वाय़त, वाद्य पाट अभङ्ग भाय़त,
सुघर बादकवृन्द वाद्य-समुद्र-मधि यनु सन्तरे ।
गगने सुरगण मगन अतिशय़, सघने अनिमिख नय़ने निरिखय़,
विपुल पुलक अलक्ष खिति उतरत, कि कौतुक अन्तरे ॥१३११॥

नारी पुरुष असꣳख्य धाय़त, प्रसर पथ निपुपम सुहाय़त,
दीप शत शत उजर यामिनी-नाथ कर परकाशई ।
धरणी अधिक उछाहे प्रफुल्लित, जाह्नवी-जल भेलüछलित,
दास नरहरि कहब किय़े, पशु-पाखी सब सुखे भासई ॥१३१२॥

पुनः—भूपाली—

गोराचान्देर विवाह देखिबारे ।
कत ना मनेर साधे, धाय़ नदीय़ार नववधूगण,
धैरय़ धरिते केउ नारे ॥१३१३॥

निरुपम वेश वाद, भूषाणे भूषित तनु,
झलमल करे से भङ्गिमा शोहे भालो ।
चलिते बाजय़े काटि- किङ्किणी-नूपुर पदे,
सुमधुर गमन, करय़े पथ आलो ॥१३१४॥

से रस आवेशे, परस्पर कत,
कय़ किबा सुललित वेसर दोलय़े नासामूले ।
घुङटे आवृत मञ्जु- मुखे मृदु मृदु हासि,
हासि-छटा घटाय़ केबा वा नाइ भुले ॥१३१५॥

अञ्जने रञ्जित मनो- रञ्जन खञ्ज्न पाखी,
यिनि मञ्जन नय़न-चाहनि चारिभिते ।
नरहरि पराण-नाखेरे, निरखिय़ा हिय़ा उथलय़े
वल्लभ भवन प्रवेशिते ॥१३१६॥

पुनः—कामोद—

वल्लभभवने गोराराय़ ।
वल्लभमिश्रेर महा आनन्द बार्ह्̤‌आय़ ॥१३१७॥

वल्लभ हईय़ा उल्लसित ।
करय़े मङ्गल-कार्य विवाह-विहित ॥१३१८॥

विश्वम्भर हरष हिय़ाय़ ।
दाꣳड़ाइला शिड़िर उपरे छोड़लाय़ ॥१३१९॥

अङ्गेर भङ्गिते प्राण हरे ।
रूपेर छटाय़ दशदिक आलो करे ॥१३२०॥

चान्दमुखे उपमा कि दिते ।
आमिय़ा-गरव नाशे ईषत् हासिते ॥१३२१॥

नय़न चाहनि चारु छन्दे ।
यार पाने चाय़ से धैरय नाइ बाꣳधे ॥१३२२॥

मकर-कुण्डल श्रुतिमूले ।
चाꣳचर केशेर वेशे केबा नाहि भुले ॥१३२३॥

अङ्गद-बलय़ा भाल साजे ।
शोभा देखिकत ना मदन मरे लाजे ॥१३२४॥

एहेन वरेरे उरुथिते ।
कन्यार जननी चले आइगण साथे ॥१३२५॥

से शोभा कहिते केबा पारे ।
सप्तदीप हाते सप्त प्रदक्षिण करे ॥१३२६॥

परम अद्भुत स्त्री-आचार ।
वर उरुथिय़ा घरे गमन सबार ॥१३२७॥

वल्लभ आचार्य भाग्यवान् ।
आनाइला कन्याय़ करिते कन्यादान ॥१३२८॥

बसाइला दिव्य सिꣳहासने ।
हईल उज्ज्वल महा अङ्गेर किरणे ॥१३२९॥

अति सुकोमल तनुखानि ।
हासिमाखा वदन पूर्णिमा चान्द जिनि ॥१३३०॥

परिधेय़ विचित्र वसन ।
झलमल करे नाना रत्न-आभरण ॥१३३१॥

हेन कन्या विविध विधाने ।
करिल प्रदान मिश्र शचीर नन्दने ॥१३३२॥

विप्रगणे करे वेदध्वनि ।
उलु लु लु देइ यत कुलेर रमणी ॥१३३३॥

बाजे वाद्य विविध प्रकार ।
नाचय़े नर्तक, भाट पड़े राय़वार ॥१३३४॥

देवगण विमाने चड़िय़ा ।
वरिषे कुसुम अलक्षिते जय़ दिय़ा ॥१३३५॥

भुवन व्यापिल महासुखे ।
नरहरि कत ना कहिब एकमुखे ॥१३३६॥

पुनः—भूपाली—

गोरा गुणमणि, प्राणप्रिय़ा-सह,
विलसय़े से य़े वासरघरे ।
कुलवधूगण, घन घन कुरु,
गतागति कत कौतुकभरे ॥१३३७॥

कहे नाना छल, करि परिहास,
करे हासि हासि मनेर सुखे ।
केहो गोरा कर- कमले ताम्बूल,
दिय़ा कहे देह लक्ष्मीर मुखे ॥१३३८॥

केहो गोरा बिधु- वदने ताम्बूल,
दिते चिते बहु बाढ़य़े प्रीति ।
केहो परशेर साधे बाꣳधे केश,
आउलाइय़ा, नारे धरिते धृति ॥१३३९॥

केहो विश्वम्भर- कोले लाखिमीरे,
बसाइय़ा चारु भङ्गिते चाहे ।
भणे नरहरि, वासरे ये रस,
उथलय़े नाहि उपमा ताहे ॥१३४०॥

पुनः—तोड़ी—

गोराचाꣳदेर विवाह पर दिने ।
कत आनन्द उथले ताय़ रजनी विहाने ॥१३४१॥

कुल-वधूगण चारिदिगे धाय़ ।
देखि वर कन्या शोभा सबे नय़ान जुड़ाय़ ॥१३४२॥

किबा, वल्लभ-घरणी भाग्यवती ।
पाय़ा जामाता-रतन ना जानय़े आछे कति ॥१३४३॥

मिश्र वल्लभ उदार अतिशय़ ।
निज जामाता मङ्गल-हेतु किबा ना करय़ ॥१३४४॥

भाले वल्लभ-जामाता गौरहरि ।
हर्ष हईलेन विवाह-विहित कर्म करि ॥१३४५॥

कैल कार्य समाधान सुविधाने ।
नरहरि कहे वल्लभे प्रशꣳसे देवगणे ॥१३४६॥

पुनः-तोड़ी—

गौर गोकुल- चन्द्र चलु निज,
गेहे निशि परभात ।
विरले वल्लभ, स्नेहे कहि कत,
कहल लखिमिक वात ॥१३४७॥

हेरि पथ यत, नारी धैरय ना,
धरई झरई, नय़ान ।
लखिमि-सहचरी, जाने लखिमिक,
नाथ कय़ल पय़ान ॥१३४८॥

शङ्ख दुन्दुभि, भेरी राजत,
वाद्य विविध प्रकार ।
नटत नर्तक- वृन्द गाय़त,
गीत गुणी अनिवार ॥१३४९॥

वेद उचरत, विप्रगण गुण,
वन्दि करु परकाश ।
भुवन भरि जय़, जय़ कि नरहरि-
भवन पꣳहुकु विलास ॥१३५०॥

पुनः—कामोद—

विवाह करिया विश्वम्भर ।
श्वशुरालय़ हते आइला निज घर ॥१३५१॥

ये आनन्द कहिते ना पारि ।
करय़े मङ्गल यत पतिव्रता नारी ॥१३५२॥

शची पुत्रवधू कोले लैय़ा ।
कैल आशीर्वाद बहु धान्य-दूर्वा दिय़ा ॥१३५३॥

श्रीशची-स्नेहेर नाइ पार ।
पुत्रमुख वधूमुख चुम्बे कत वार ॥१३५४॥

लक्ष्मी-विश्वम्भर-शोभा देखि ।
केहो फिराइते नारे अनिमिख आꣳखि ॥१३५५॥

भुवनमोहन गोराराय़ ।
सुमधुर भाषे परितोयषय़े सबाय़ ॥१३५६॥

भाट, नट, वादकादि यत ।
करिलेन पूर्ण सकलेर मनोरथ ॥१३५७॥

नरहरि कहे उभराय़ ।
देखि येन एहेन कौतुक नदीय़ाय़ ॥१३५८॥

ओहे श्रीनिवास, मु देखिनु नेत्र भारि ।
विवाह-कौतुक यत कहिते ना पारि ॥१३५९॥

एइ घरे लक्ष्मीर सहित विश्वम्भर ।
विलसय़े सदा अति उल्लास अन्तर ॥१३६०॥

श्रीलक्ष्मीर चरित्र कहिते अन्त नाइ ।
याꣳर सेवा-सुखे मग्न हईलेन आइ ॥१३६१॥

श्रीलक्ष्मीर नाथ गौरचन्द्र नाराय़ण ।
विद्यारसे निमग्न लईय़ा शिष्यगण ॥१३६२॥

यत विद्यावन्त बैसे नदीय़ा-नगरे ।
सकलेइ समीहा करेन विश्वम्भरे ॥१३६३॥

नदीय़ाय़ केबा ना प्रशꣳसे देखि रीत ।
प्रभु सर्व सम्मान करय़े यथोचित ॥१३६४॥

निजभृत्य ईश्वरपुरीरे प्रणमिया ।
एइ घरे दिल भिक्षा यत्नेते आनिय़ा ॥१३६५॥

एकदिन प्रभु वाय़ु-छले एइखाने ।
प्रकाशय़े प्रेमभक्ति अन्ये नाहि जाने ॥१३६६॥

शिष्टलोक आसि नाना उपाय़ सृजिला ।
निज इच्छामते प्रभु भाव सम्वरिला ॥१३६७॥

सुस्थ हैते सकलेर आनन्द जन्मिल ।
वाक्यव्यय़े वाय़ुवृद्धि सभे विचारिल ॥१३६८॥

एइ विष्णुमण्डपेर द्वारे गोराराय़ ।
देखि पूर्णिमार चन्द्र से भावे वꣳशी वाय़ ॥१३६९॥

आइ मात्र शुने, अन्य ना पाय़ शुनिते ।
ऐछे नानारङ्ग प्रकाशय़े इच्छामते ॥१३७०॥

कि बलिब श्रीनिवास गौराङ्ग-चरित ।
बङ्ग धन्य करिते हईला उत्कण्ठित ॥१३७१॥

श्रीमन्महाप्रभुर पूर्वबङ्गविजय़ ओ लम्ष्मीदेवीर अस्तर्धान—

एथा यत्ने प्रणमिय़ा माय़ेर चरणे ।
चलिलेन बङ्गदेशे लैय़ा शिष्यगणे ॥१३७२॥

प्रभु सोङरिय़ा लक्ष्मी छिलेन एथाय़ ।
प्रभुर विच्छेद-सर्प दꣳशे लक्ष्मी-पाय़ ॥१३७३॥

गङ्गातीरे लक्ष्मीदेवी हैल अदर्शन ।
एथा महादुःखे आइ करय़े क्रन्दन ॥१३७४॥

एथाइ आसिय़ा सभे प्रबोधे शचीरे ।
पुत्रेर गमन शची चिन्तय़े अन्तरे ॥१३७५॥

प्रभु अन्तर्यामी जानि लक्ष्मी-अदर्शन ।
शीघ्र बङ्गदेश हैते करिल गमन ॥१३७६॥

एथा आसि प्रणमिला माय़ेर चरणे ।
माय़े प्रबोधिला कत कहि एइखाने ॥१३७७॥

प्रभुर अद्भुत रङ्ग बुझे कोन जन ।
विद्यारसे विह्वल लईय़ा शिष्यगण ॥१३७८॥

पुत्रेर पुनः विवाहेर आय़ोजन—

एथा माता, पुत्रेर विवाह चिन्ते चिते ।
पुत्रेर सदृश कन्या ना पाय़ चाहिते ॥१३७९॥

सनातनमिश्रेर दुहिता विष्णुप्रिय़ा ।
ताꣳरे स्थिर कैल गङ्गाघाटे स्नाने गिय़ा ॥१३८०॥

काशीनाथ पण्डित श्रीशचीर आज्ञाते ।
विवाह-घटना ये कैल ताꣳर साथे ॥१३८१॥

विष्णुप्रिय़ा-सने विश्वम्भरेर सम्बन्ध ।
शुनि सकलेर हैल परम आनन्द ॥१३८२॥

बुद्धिमन्तखान आर मुकुन्दसञ्जय़ ।
विवाहेर भार लैय़ा परस्पर कय़ ॥१३८३॥

ए विवाह हबे राजपुत्रेर समान ।
देखिब सबलोके येन जुड़ाय़ नय़न ॥१३८४॥

भक्त-इच्छाधीन गौर व्रजेन्द्रतनय़ ।
शुनिय़ा भक्तेर वाक्य ईषत् हासय़ ॥१३८५॥

बुद्धिमन्तखान आदि महाहर्ष मने ।
हईला तत्पर विवाहेर आय़ोजने ॥१३८६॥

बड़ बड़ चन्द्रताप ए टानाइला ।
आनिय़ा कन्दलीवृक्ष एखाने रोपिला ॥१३८७॥

पूणर्घट आदि यत मङ्गल प्रकार ।
करे ये नियुक्त लोक, लेखा नाइ तार ॥१३८८॥

पुऋष्पमालाचन्दनादि सुसज्ज-कारणे ।
करिल नियुक्त लोक ए निर्जन स्थाने ॥१३८९॥

कैले ये सम्भार ताहा कहिल ना हय़ ।
अर्थव्यय़ करिते उल्लास अतिशय़ ॥१३९०॥

गाय़क, वादक, नर्तकादि यत आर ।
ए सकल स्थाने स्थिति हैल से सभार ॥१३९१॥

अधिवास पूर्वदिने महा आय़ोजन ।
नवद्वीपे सर्वत्रई हैल निमन्त्रण ॥१३९२॥

लोकेर सꣳघट्ट यत अधिवास-दिने ।
यैछे कोलाहल ता वर्णिबे कोन जने ॥१३९३॥

आइ महा आनन्द-निमग्न अनिवार ।
सखीगणे दिलेन मङ्गल कार्यभार ॥१३९४॥

पातिव्रतागण यैछे आइला ए भवने ।
यैछे, जल साइलेन आधिवास-दिने ॥१३९५॥

अधिवास-विवाहे ये कौतुक हईल ।
ताहा कविगण नाना प्रकारे वर्णिल ॥१३८६॥

गीते यथा कामोद—

नदीय़ानगरे हैल ध्वनि ।
करिब विवाह पुन गोरा गुणमणि ॥१३९७॥

सनातनमिश्र भाग्यवान् ।
करिबेन निमाइचाꣳदेरे कन्यादान ॥१३९८॥

विष्णुप्रिय़ा नाम से कन्यार ।
रूपे गुणे भुवने तुलना नाइ ताꣳर ॥१३९९॥

कालि हबे शुभ अधिवास ।
देखिब नय़न भरि विवाह-विलास ॥१४००॥

कतक्षणे निशि पोहाइब ।
श्रीशची-भवने पानि-साइते याइब ॥१४०१॥

नरहरि कहे हेन वासि ।
तो-सभार अनुरागे पोहाइल निशि ॥१४०२॥

पुनश्च—तोड़ी—

निशि परभाते, निभृत निकेते,
कुलवधूकुल विलसे रङ्गे ।
केह कारु प्रति कहे इकि अति,
सौरभ भरल अलस अङ्गे ॥१४०३॥

शुनि रसावेशे, भणे निशिशेषे,
स्वपने से सब नदीय़ा-विधु ।
तेꣳरछ नय़ने, चाहि आमा-पाने,
हासि-मिषे येन वरिषे मधु ॥१४०४॥

धीरे धीरे कहे, मोर ए विवाहे,
जलसाइबारे आइबे प्राते ।
एत कहि करे, धरि वारे वारे,
आलिङ्गय़े कृत, कौतुक ताते ॥१४०५॥

से तनु-सौरभ, परशे ए सब,
तो-सभे कहि ये निलजि हैय़ा ।
अधिवास आजि, वेगे चल साजि,
नरहरिनाथे मिलह गिय़ा ॥१४०६॥

पुनश्च—तोड़ी—

गौर बरज- किशोर वर,
अनुरागे नव नव नारी ।
विपुल पुलकित, गात गर गर,
धिरज धरई नाइ पारि ॥१४०७॥

वेगि विरचि, सुवेश काजरे,
आꣳजि कञ्ज-नय़ान ।
मुकुर करगहि, पेखि कुङ्कममे,
माजि मञ्जु वय़ान ॥१४०८॥

गमन-समय़, विचारि गुरुजन-
चरण-वन्दन कैल ।
श्रीशची-गृह, गमने सो सब,
उलसे अनुमति देल ॥१४०९॥

परश पररस, वरषे घन घन,
भवन तेजि तुरन्त ।
भणत नरहरि, पन्थगत कत,
युथगणई न अन्त ॥१४१०॥

पुनश्च—वेलावली—

रजनी-प्रभात- समय़े सब सुन्दरी,
चलत ललित गति अति रुचिकारी ।
अपरूप वेश, सरस रसना-मणि,
नूपुररव मुनिजन-मनोहारी ॥१४११॥

अनुभव न हई, कौने सिरजल,
प्रतिअङ्ग-किरणे करु भुवन उजोर ।
मनमथ शत शत, मुरुछे हेरि तनु,
गौरभे मधुप धाय़त चहु तोर ॥१४१२॥

हरय परश पर, परम-रङ्ग उर,
तुरितहि रुचिर गेह-मधि गेल ।
अङ्गन सुखवर, सरसी ताꣳहि नव,
कमलवृन्द जनु प्रफुलित भेल ॥१४१३॥

आइक निय़रे, या बꣳहु यतनहि,
यूथ यूथ सबई करु परणाम ।
चम्पक कलि, अञ्जलि भरि भरि (बिहि),
पूजत पद बुझि भण घनश्याम ॥१४१४॥

पुनः—वेलावली—

युवतियुथमति- गति अति अद्भुत,
करत प्रणाम भङ्गि रुचिकारी ।
नय़त सुतनु जनु, कनकलता नव,
कुसुमसमूह भार गत भारी ॥१४१५॥

सुरुचिर चरण- उपान्त धरत शिर,
शिथिल सरोरुह अमित सुकाꣳति ।
भूमि पतित यनु, बिजरिपुञ्ज सह,
सजल-जाअलद थिर-चर तछु भाꣳति ॥१४१६॥

लघु लघु कर, पल्लब करु प्रेरण,
दुर्लभ रेणु-ग्रहणे चित चाह ।
झलक्त नख, मरिजाद-हेतु जनु,
भोटत मणिगण अनुप उच्छाह ॥१४१७॥

अम्बुज-वदने, झाꣳपि वसनाञ्चल,
हासत मृदु मृदु किरण प्रकाश ।
नव मकरन्द, छानि यनु यतनहि,
सिञ्चत घन भण नरहरि दास ॥१४१८॥

पुनः—तुड़िराग—

शची जगत-जननी, जन-नीतविद,
विदित सुचारु चरित-रीति ।
निज प्राणेर अधिक, वधु सम मान,
सबाकारे करे परम प्रीति ॥१४१९॥

प्रति जने जने पुछि, मङ्गल शिरेते,
कर धरि करे आशीष बहु ।
सदा बाढ़ुक सम्पद्, पति आदि सब,
चिरञ्जीवी हैय़ा कुशले रहु ॥१४२०॥

इहा शुनि वधुगण, मने मने हासि,
सुखे भासि कहे मधुर कथा ।
ओगो, ए शुभ चरण, दरशने बोलो,
कि लागि अशुभ रहिब एथा ॥१४२१॥

अति सङ्कुचित चिते, किञ्चित कहि,
करयुड़ि सदा दाꣳड़ाय़ा रहे ।
नरहरि प्राणपति, माता ता देखिय़ा,
आꣳखि छल छल विवश स्नेहे ॥१४२२॥

यथा—राग—

नव नदीय़ा-नागरी, गोरि भोरि वय़ थोरि,
कि चरित बुझिब आने ।
अति अलक्षित पिय़ा- पाने चाहि हिय़ा,
थरहरि काꣳपे मदन-वाणे ॥१४२३॥

केहो, भावि मने मने, भणे आजु बुझि,
निलज हईनु सबार पाशे ।
केहु, कारु प्रति ठारि, नारे सम्वरिते,
अमुनि ईषत् ईषत् हासे ॥१४२४॥

केहु, कारु करे धरि, धीरे धीरे साधे,
अधिक आनन्दे उमड़े हिय़ा ।
केहु, कारु प्रति कहे, पीरिति-काहिनी,
अल्प घुङटे घुणटे दिय़ा ॥१४२५॥

केहु कारु प्रति करे, करेते सङ्केते,
कत कत कथा उपजे मने ।
केहु, कारु मति थिर, करे कत भय़,
देखाइय़ा चारु नय़ान-कोणे ॥१४२६॥

केहु, निज धैर्य जाना- इते कारु मुख,
मोछे, पटाञ्चल यतने लैय़ा ।
केहो करि काणाकाणि, जानि विपरीते,
एकभित थाके गुप्त हैय़ा ॥१४२७॥

एइरूपे यत, कुलवती सती,
गौरप्रेम-रसार्णवे सबे मगन हैला ।
(नर) हरि कि कहिब, प्राणनाथे प्राण-
जीवन यौवन सोꣳपिय़ा दिला ॥१४२८॥

यथा—राग—

गोरारसे भासि, हासि लहु, लहु,
कलवती कुल उलसित बहु,
पानि साइबारे, साजे शचीदेवी-
आदेशेते किबा कौतुक चिते ।
नव्य मध्य पूर्ण यौवना सुन्दरी,
यूथे यूथे गति अति सुमाधुरी,
चञ्चल चारु दृगञ्चल चाहनि,
भङ्गि नाना नाहि उपमा दिते ॥१४२९॥

परिधेय़ कत भाꣳति सुरसन,
प्रति अङ्गे हेम-मणि-आभरण,
झलकय़े मुखे घुङट अतुल,
सुललित वणी पीठेते दोले ।
कारु कारु करे शुभमय़ द्रव्य,
कारु कारु करे सरसिज नव्य,
कारु शिरे डाला आला करे पट्ट-
वासे से आवृत शोद्भय़े भाले ॥१४३०॥

चलितेइ बाजे कटिते किङ्किणी,
रिनि झिनि रिनि झिनिनि नि नि नि,
चरणे नूपुर रुणु झुनु रुणु,
झुनु नुनु रबे रञ्जय़े श्रुति ।
आगे आगे चले वादक आनन्दे,
बाजाय़य़े वाद्य सुमधुर छन्दे,
धाधा, धिꣳ निꣳ निꣳ निꣳ धो धिकि,
धिकि ता धेन्ना नाना वाद्ये हरय़े धृति ॥१४३१॥

अलखित सुरनारीगण रङ्गे,
मिशाइय़ा नदीय़ार वधूसङ्गे,
पानि साइ सबे प्रवेशे भवने,
धनि धनि धनि केबा ना कहे ।
तैल हरिद्रादि बिलाइय़ा यत
स्त्री-आचार ताहा के कहिबे कत,
से सुखपाथारे के ना साꣳतारय़े,
नरहरि बहु निछनि ताहे ॥१४३२॥

पुनः यथा—राग-

शचीदेवी उलसित हैय़ा ।
गङ्गा पूजिवारे, याय़ गङ्गातीरे,
आइह-सुइहगण सङ्गेते लैय़ा ॥१४३३॥

नाना पुष्प-गन्ध- चन्दनादि दिय़ा,
पूजे जाह्नवीर यतन करि ।
उछलय़े सुर- धुनी अनिवार,
शचीसुतपद हृदय़े धरि ॥१४३४॥

बाजे वाद्य भाले, सष्ठी-थले चले,
पूजे षष्ठी कत सामग्री दिय़ा ।
षष्ठी सुखे भासि प्रशꣳसे आपना,
गोराचान्द गुणे उथले हिय़ा ॥१४३५॥

कत साधे बन्धुगण गृहे गति,
अति उल्लास से सबार चिते ।
आसि निज घरे करे शुभक्रिय़ा,
नरहरि नारे तुलना दिते ॥१४३६॥

पुनः यथा—राग—

गोरा-विधु-अधि- वास-सुखे के ना,
बैसे प्रवेशिय़ा भवन-माझे ।
गोरा-प्रिय़गण, नित नव नव,
निपुणता अधिवासेर काये ॥१४३७॥

माला-चन्दनादि, देइ जने जने,
से अति कौतुक के कत करे ।
सभामध्ये विल- सय़े शचीसूत,
ये पुरन्दर-वेस्टित देवे ॥१४३८॥

मिश्र सनातन, गणसह शुभ-
क्षणे आसि नाना सामग्री लैय़ा ।
छोय़ाइय़ा गन्ध्ɒ, गोरामुख-पाने ।
अनिमिख आꣳखे रहय़े चाइय़ा ॥१४३९॥

विप्र वेदध्वनि करे, नारी जय़कार,
चारु रङ्ग भाटेते भणे ।
गाय़ नरहरि, अधिवास-रस,
वाय़ नाना वाद्य वादकगणे ॥१४४०॥

पुनः यथा—राग—

होत शुभ अधिवास शुभक्षणे,
गगने सुरगण मगन गणसने,
परस्पर पꣳहु चरति भणि अनि-
वार मुदमति-गति नय़ी ।
गोर रसमय़ रसिकशेखर,
सरस आसने विलसे रुचिर,
कर कुनकदरपण दरपभर-हर,
मृदुल तनु मनमथजय़ी ॥१४४१॥

वदन-विधु विधुगरव-भञ्जन,
हास मृदु मृदु हृदय़रञ्जन,
मञ्जुदिठि-युग कुञ्ज झलकत,
भाल तिलक सुशोहय़े ।
भुजगभुजवर वक्ष परिसर,
क्षीण कटि, प्रति अङ्ग सुरुचिर,
चिकण चाचरचिकुर निरुपम,
भुवन-जन-मन मोहय़े ॥१४४२॥

ऐछे माधुरी हेरि गुणिगण,
मानि सुकृति उछाहे घन घन,
विविध राग आलापि गाय़त,
वीणगहि श्रुति सरसय़े ।
सुघर वादकवृन्द भाय़त,
मधुर मुरज मृदङ्ग वाय़त,
थोङ्ग थोङ्कण झिकि कु झाङ्किट,
ठिठ्ठि टुन न न न नाय़े ॥१४४३।

नटत नर्तक हस्त अभिनय़ ।
ललित भङ्गि विथारि अतिशय़,
वादक तक तक थै त थै तत,
धा धिलि लि लि लि ल ल लई ।
निरत जय़ जय़, शब्द भुरि भरु,
भूरि भूसुर वेदध्वनि करु,
देत उलु लु लु नारीगण,
घनश्याम हिय़ा सुखे उथलई ॥१४४४॥

पुनः यथा—राग—

मिश्र सनातन हर्ष मने ।
करय़े कन्यार अधिवास शुभक्षणे ॥१४४५॥

विप्रगण आइगृह हैते ।
अधिवास-सज्ज लैया आइला तुरिते ॥१४४६॥

नदीय़ार ब्राह्मण सज्जन ।
राजपण्डितेर घरे सभार गमन ॥१४४७॥

मिश्र महा आदर करिय़ा ।
वसान सभारे मालाचन्दनादि दिय़ा ॥१४४८॥

कि अपूर्व सुषमा अङ्गने ।
बैसय़े सकले चारु मण्डल-बन्धाने ॥१४४९॥

सखीसह मिश्रेर घरणी ।
करय़े मङ्गल यत कहिते ना जानि ॥१४५०॥

चकिअ चाहिय़ा चारिभिते ।
विष्णुप्रिय़ा बाहिर हईला घरे हैते ॥१४५१॥

सभामध्ये बैसे सिꣳहासने ।
अनिमिष आꣳखे शोभा देखे सर्वजने ॥१४५२॥

वसन भूषण साजे भालो ।
प्रति अङ्गछटाय़ भुवन करे आलो ॥१४५३॥

उपमा कि कनक-विजुरि ।
चान्देर गरव हरे सुखेर माधुरी ॥१४५४॥

यत शोभा के कहिते पारे ।
छोय़ाइय़ा गन्ध से आशीर्वाद करे ॥१४५५॥

नारीगणे देइ जय़कार ।
विप्रगणे वेदध्वनि करे अनिवार ॥१४५६॥

भाटगणे भणे सुचरित ।
बाजे नानावद्य गुणिगणे गाय़ गीत ॥१४५७॥

कत ना कौतुक मिश्र-घरे ।
नरहरि भासे से ना सुखेर साय़रे ॥१४५८॥

श्रीनिमाइर विवाह—

पुनः यथा—राग—

अधिवास दिवसेर परे ।
बाढ़य़े आनन्द नव नदीय़ानगरे ॥१४५९॥

चारिदिके फिरे लोक धाय़ा ।
निमाइर विवाह आजि एइ कथा कैय़ा ॥१४६०॥

भुवन भरिय़ा जय़ जय़ ।
विवाह देखिते साध कार वा ना हय़ ॥१४६१॥

शिव सुखे पार्वती-सहिते ।
छाड़िय़ा कैलास, आसे विवाह, देखिते ॥१४६२॥

अन्तरे आपनगण लैय़ा ।
विवाह देखिते रहे अलक्षित हैय़ा ॥१४६३॥

वैकुण्ठेर यत परिकर ।
विवाह देखिब बलि अधैर्य अन्तर ॥१४६४॥

चतुर्मुख निज प्रिय़ा सने ।
देखिते विवाह कत साध क्षणे क्षणे ॥१४६५॥

सूरपति शची सङ्गे लैय़ा ।
विवाह देखिते साजे महाहर्ष हैय़ा ॥१४६६॥

उत्साय़े भणय़े देवगणे ।
देखिब विवाह रहि प्रभुर भवने ॥१४६७॥

देवनारी विचारिल चिते ।
मातिब विवाहे नदीय़ार वधूसाथे ॥१४६८॥

गन्धर्व किन्नर करे मने ।
गीत वाद्ये मिशाब विवाहे गुणि-सने ॥१४६९॥

इन्द्रेर नर्तकीगण कहे ।
नदीय़ा -नर्तकीसह नाचिब विवाहे ॥१४७०॥

देवऋषि उल्लसित चिते ।
कत अभिलाष करे विवाह देखिते ॥१४७१॥

उथलय़े यमुना जाह्नवी ।
विवाह-कौतुकरसे प्रफुल्ल पृथिवी ॥१४७२॥

ब्रह्मणी, सज्जन नदीय़ार ।
विवाह निमाइर गृहे गमन सभार ॥१४७३॥

शचीर नन्दन गौरहरि ।
बैसे सुखे विवाह-विहित कर्म करि ॥१४७४॥

प्रभुमुखचन्द्र निरखिय़ा ।
कहे कत कü ना धरिते पारे हिय़ा ॥१४७५॥

उपजे मङ्गल यत यत ।
एकमुखे नरहरि कहिब वा कत ॥१४७६॥

गोरा रसमय़, सुखेर आलय़ा,
विलसय़े विवाह-विहित स्नाने ।
कुलवधू-कुल, उलु लु लु दिय़ा,
चाहे चारु चान्दमुखेर पाने ॥१४७७॥

केह केह से ना, अङ्गेर वातासे,
काꣳपे घन घन, विजुरि जिति ।
केह परशेर साधे गन्ध-हरि-
द्रादि माखाइते ना ध्ăए धृति ॥१४७८॥

केह सुललित, कुन्तलेते तैल,
दिते कत रङ्ग उपजे चिते ।
केह अभिषेक, करे गाङ्गाजले,
भङ्गि नाना नाहि उपमा दिते ॥१४७९॥

केह आध हासि, भासे रसे तनु
पोछे पानितोला लईय़ा हाते ।
रक्षप्रान्त शुष्क पास पिꣳधा-अए,
नरहरि अति कौतुक ताते ॥१४८०॥

पुनः यथा—राग—

क्ति आनन्द शचीर भवने ।
करय़े मङ्गलकर्म आइह-सुइहगणे ॥१४८१॥

विवाह-विहित स्नान करि ।
बैसेन अपूर्व सिꣳहासने गौरहरि ॥१४८२॥

रूपेर छटाय़ मन मोहे ।
चाꣳचर चिकण केश पिठे भाल शोहे ॥१४८३॥

गोरा-पाशे आसे प्रिय़गण ।
वारेक चाहिय़ा नारे फिराइते नय़न ॥१४८४॥

कत ना आनन्दे सभे माति ।
विवाह-विहित वेश राचे नाना भाꣳति ॥१४८५॥

कहिते कि जाने नरहरि ।
निरुपम वेशेर बालाइ लईय़ा मरि ॥१४८६॥

पुनः यथा—राग—

नदीय़ार शशी, रसिक-शेखर,
शोभे भालो शुभविवाह-वेशे ।
चार्चिताङ्गे चारु, चन्दन-तिलक
अर्धचन्द्राकृति-ललाट-देशे ॥१४८७॥

नाना पुष्पमय़, विचित्र मुकुट,
शिरे से ना छान्दे के नाहि भुले ।
आꣳखे काजरेर रेखा नल्व कुल-
वती सतीगणे ना राखे कुले ॥१४८८॥

श्रुतिमूले मणि, मकर-कुण्डल,
झलकय़े किबा गण्डेर छटा ।
सुमधुर हासि- माखा मुखखानि,
निछनि पूर्णिमा चान्देर घटा ॥१४८९॥

सूत्रे बाꣳधा धान्य, दुर्वादि सुन्दर,
हेम-दरपण दक्षिण करे ।
नरहरि भणे, भूषणे भूषित,
प्रति अङ्ग हेरि के धृति धरे ॥१४९०॥

पुनः यथा—राग—

गौर विधुवर, बरज-नागर, जननी-पदधूलि धरत शिरपर,
करत विजय़, विवाहे भूसुर-वृन्द बलित सुशोहय़े ।
चर्ह्̤‌अत चौदल, माहि झलकत, अङ्ग-किरण-समुद्र उछलत,
मदनमदभर, भरण सरस, सिꣳगार जनमन मोहये ॥१४९१॥

विपुल कलरव, कहि ना आय़त, नारी पुरुष असꣳख्य धाय़त,
पन्थ विपथ, न मानि काहुक, गेह-गमन न रहु स्मृति ।
तेजि अलखित, देवगण दिवि, व्यापि सब नदीय़ानगर-भुवि,
भ्रमई पहुक विवाहे गति, अवलोकि को उन धर धृति ॥१४९२॥

वाद्य दुन्दुभि भेरि तित्तिरि, शृङ्गिकाक विलास कꣳसारि,
ढोल ढोलक डमनु डिण्डिम, मञ्जु कुण्डली वारुणा ।
वीण पणव पिनाक काहल, मुरज चङ्ग उपङ्ग मादल,
बाजतहि तक थोङ्ग थोङ्गिन, तक थबिकु तक तक थुना ॥१४९३॥

मधुरसुर गुणी गाने निमगन, नटत नर्तक नर्तकीगण,
उघटि धि धि कट धा धिनि, नि नि नि दृङ्कुता दृमित कथई ।
भाट भण नव चरित रसमय़, विविध मङ्गल नित अतिशय़,
होत जय़ जय़-कार घन घनश्याम हिय़ उमता अई ॥१४९४॥

पुनः यथा—राग—

गोर-रसिक-शेखर-वर, वेष्टित प्रिय़-विप्र-निकर,
हरषित सुविवाह करव, इथे चलु चाड़ि चौदले ।
तत घन आनन्ध शुषिर, वाद्य चतुर्विध सुरुचिर,
बाजत बहु भाꣳति शब्द, भरल गगण-मण्डले ॥१४९५॥

सर्ववाद्य शोभन नव, मर्दल मुदवर्धन रव,
धो धो धिगि तग दिलङ्ग, धा धा निनि निधिय़ा ।
अलखित सुरनर्तकीगण, नर्तकी-सह लास्य सघन,
भण तक तक थै थै थै, आइ अति नि नि नि तिय़ा ॥१४९६॥

गाय़कगणे मिलि उलसित, गाय़त गन्धर्व ललित,
श्रुति-सुमधुर ग्रामादि विविधे, कौतुक परकाशय़े ।
दशशत मुख विहि माहेश, गण-सह, सुरपति गणेश,
गिरिजादिक धृति कि धरन, सुख-साय़रे भासय़े ॥१४९७॥

हय़ गज बहु अस्त्रधारी, प्रकटत गुण हास्यकारी,
लसत शत पताकादिक, भीड़े पथ रोकई ? ।
नदीय़ापुर भरमि भरमि, सुरधूनी-तीरे विरमि विरमि,
मिश्र-गृह-समीप नर-हरि शोभा अवलोकई ॥१४९८॥

पुनः यथा—राग—

गोराचान्देर विवाह देखिवारे ।
कत ना मनेर साधे, साजय़े कुलेर वधू,
धैरय़ धरिते केउ नारे ॥ ध्र्रु ॥१४९९॥

रसेर आवेशे आꣳखे, अञ्जन रञ्जय़े किबा,
बङ्किमा चाहनि बङ्कु भुरु ।
चिकण चिकुर वेणी, पीठेते लोटाय़ किबा,
कनक-निर्मीत झाꣳपा चारु ॥१५००॥

कपाले सिन्दूर-बिन्दु, चन्दन शोभाये किबा
गन्धराज चाꣳपा देइ काणे ।
मणि-मुकुतार माला गलाय़ दोलाय़े किबा,
झलमल करे आभरणे ॥१५०१॥

परिय़ा पाटेर शाड़ी, छाड़िय़ा भवन किबा
चलि याय़ गजेन्द्र-गमने ।
नरहरि नाथे निर- खिय़ा हिय़ा उथलय़े,
केउ किछु कहे कारु काणे ॥१५०२॥

पुनः यथा—राग—

सई ! ओइ देख नदीय़ार चान्दे ।
भुवन-मोहन ओ ना, रूपेर निछनि लैय़ा,
कत शत मदन-चरणे पड़ि कान्दे ॥ ध्रु ॥१५०३॥

रसे डुबु डुबु दुटि, नय़ान-चाहनि विधि,
सिरजिल युवती वधिते हेन वासि ।
वदन-चाꣳदेर शोभा, चान्देर गरव हरे,
हासि मिशे अमिय़ा वरिषे राशि राशि ॥१५०४॥

आहा मरि मरि येन, कत ना मनेर साधे,
केबा बनाइले ए ना विवाहेर वेश ।
परम उज्ज्वल अति, विचित्र मुकुट माथे,
झाꣳपिय़ाछे चिकण चाꣳचर चारु केश ॥१५०५॥

मङ्गल-विहित पीत- सुता दुर्वादल करे
निरुपम कणक-दर्पण भाल शोहे ।
परिधेय़ वसन भू- षण सुमधुर प्रति
अङ्गेर भङ्गिते नरहरि-मन मोहे ॥१५०६॥

पुनः यथा—राग—

आहा मरि कि मधुर रीति !
नदीय़ा-नागरी, गोराचन्दे हेरि,
धरिते नारय़े धृति ॥ ध्रु ॥१५०७॥

केहो धीरि धीरि, कहे भङ्गि करि,
कि काज कुलेर लाजे ।
निशि दिशि गोरा- सह विलसिब,
राखि बुकेर माझे ॥१५०८॥

केहो कहे एबे, से रसे मातिय़ा,
देखिब विवाह-रङ्ग ।
सामाय़ा ब्वासर- घरे छल करि,
छुइब सोनार अङ्ग ॥१५०९॥

एइ मत कत, मनोरथ ताहा,
कहिते ना आसे मुखे ।
नरहरि सह, सनातन-मिश्र
भवने प्रवेश सुखे ॥१५१०॥

पुनः यथा—राग—

सनातन-मिश्रेर भवने ।
ये मङ्गल क्रिय़ा ता कहिते केबा जाने ॥१५११॥

बाजे नाना वाद्य शोभामय़ ।
उथले आनन्द कोलाहल अतिशय़ ॥१५१२॥

बन्धुगण-सने सनातन ।
आगुसरि आसे निते जामाता-रतन ॥१५१३॥

जामाता कि मनोहर साज्ये ।
झलमल करे दिव्य चतुर्दल-माझे ॥१५१४॥

चदुर्दिके ब्राह्मण-सज्जन ।
असꣳख्य लोकेर भिड़ ना याय़ गणन ॥१५१५॥

कारु हाते हात दिय़ा अन्ध ।
दाꣳड़ाइय़ा रहय़े ये दिके गौरचन्द्र ॥१५१६॥

पङ्गुगण राजपथे आसि ।
देखय़े मनेर साधे गोरा-रूपराशि ॥१५१७॥

येबा केउ चलिते ना पारे ।
धरिय़ा लगुड़ पथे आइसे धीरे धीरे ॥१५१८॥

केबा नाहि गोरा-श्गुण गाय़ ।
ना जानय़े कत सुख बाढ़य़े हिय़ाय़ ॥१५१९॥

नाना वाद्य बाजे नाना छान्दे ।
नाचे बालवृद्ध केउ थिर नाहि बाꣳधे ॥१५२०॥

कत शत महा-दीप ज्वले ।
धरणी छाइल आलो गगन-मण्डले ॥१५२१॥

केहो कुन रङ्ग प्रकाशय़ ।
व्यापय़े सकल महीतले याहा हय़ ॥१५२२॥

मिश्र महा उल्लसित मने ।
जामाता लईय़ा कोले प्रवेशे भवने ॥१५२३॥

अपूर्व आसने बसाइय़ा ।
करे पुष्पवृष्टि चाꣳदमुख-पाने चाय़ा ॥१५२४॥

जय़ जय़-ध्वनि अनिल्वार ।
वादावादि वाय़ वाद्यवादक दोꣳहार ॥१५२५॥

मिश्र करे जामाता वरण ।
नरहरि ताहा देखि जुड़ाय़ नय़न ॥१५२६॥

पुनः यथा—राग—

नदीय़ार शशी, विलसय़े चारु,
छोडलाते किबा मधुर छान्दे ।
कनक नवनी, जिति तनु नव,
भङ्गिमाते के वा धैरय़ बान्धे ॥१५२७॥

वारे वारे विष्णु- प्रिय़ार जननी,
अनिमिख आꣳखे निरखे छले ।
कत ना आनन्दे, उथलय़े हिय़ा,
ना परशे पद धरणीतले ॥१५२८॥

आइह-सुइह सह, सुवोशे आइसे,
मङ्गल विधाने निपुणा अति ।
धान्य-दुर्ब्वादन, सुललित माथे,
देइ आशीर्वाद अतुल रीति ॥१५२९॥

हाते दीप सप्त प्रदक्षिण करे,
बरे उरुथिय़ा याइते घरे ।
नरहरि नाण्थे, चाहे पालटिय़ा,
चले पद आध स्नेहेर भरे ॥१५३०॥

पुनः यथा—राग—

सनातन मिश्रेर घरणी ।
करे लोकाचार यत कहिते ना जानि ॥१५३१॥

साꣳतारय़े सुखेर पाथारे ।
कन्याय़ भूषित करे नाना अलङ्कारे ॥१५३२॥

देखि विष्णुप्रिय़ार सुवेश ।
बाढ़य़े सबार मने उल्लास अशेय ॥१५३३॥

मिश्र महाशय़ शुभक्षणे ।
कन्याय़ आनिते निर्देशिला प्रिय़गणे ॥१५३४॥

मिश्रेर भवन मनोहर ।
झलमल करये अङ्गन परिसर ॥१५३५॥

छोड़ला शोभय़े सेइखाने ।
आनिलेन कन्या बसईय़ा सिꣳहासने ॥१५३६॥

ये किछु आछय़े लोकचार ।
ताहाओ करेन ताहे कौतुक अपार ॥१५३७॥

प्रथमेइ देवी विष्णुप्रिय़ा ।
आत्म-समर्पिला प्रभुपदे माला दिय़ा ॥१५३८॥

ईषत् हासिय़ा गोराराय़ ।
दिल पुष्पमाला विष्णुप्रिय़ार गलाय़ ॥१५३९॥

पुष्प-फेलाखेलि दुइजने ।
दोꣳहार मनेर कथा दोꣳहे भाल जाने ॥१५४०॥

तिले तिले बार्ह्̤‌अय़े आनन्द ।
विष्णुप्रिय़ा-सह विलसहे गौरचन्द्र ॥१५४१॥

कि नव शोभार नाइ पार ।
चारिदिगे नारीगण देइ जय़कार ॥१५४२॥

करे कोलाहल सर्वजन ।
बाजे नाना वाद्य, ध्वनि भेदय़े गगन ॥१५४३॥

सनातनमिश्र भाग्यवान् ।
बसिलेन उल्लासे करिते कन्यादान ॥१५४४॥

वेदादि-विहित क्रिय़ा करि ।
समर्पिल कन्या विश्वम्भर-करे धरि ॥१५४५॥

दिलेन यौतुक सुखे भासि ।
दिव्यधेनु, धन, भूमि, शय्या, दास, दासी ॥१५४६॥

सर्वशेषे होम-कर्म करे ।
विश्वम्भर-वामे बसाइय़ा दुहितारे ॥१५४७॥

कि अद्भुत दोहार माधुरी ।
कहिते कि दोहार निछनि नरहरि ॥१५४८॥

पुनः यथा—राग—

देखि पꣳहुक, विवाह-माधुरी,
कौङ धरई न थेह ।
शेष शिव विहि, इन्द्र गणपति
आदि पुलकित देह ॥१५४९॥

भीड़ अतिशय़, गगनपथ बहु,
रोकि देव-विमान ।
होत जय़ जय़- शब्द सुमधुर,
भङ्गि भणई न जान ॥१५५०॥

भूरि कौतुक, परस्पर वर,
सरस चरित उचारि ।
करत कुसुम सुवृष्टि अलक्षित,
ललित रङ्ग विथारि ॥१५५१॥

द्विज सन्नतन, भग भर पर-
शꣳसि परम विथोर ।
दास नरहरि, आश इह सुखे,
मातब कि मति घोर ॥१५५२॥

पुनः यथा—राग—

देवरमणी- वृन्द विरचि,
वेश विविध भाꣳति ।
बाजत थर, माहि अतुल,
झलके कनुक काꣳति ॥१५५३॥

भ्रमत गगन- पथ अगणित
यूथ हिय़ उत्साह ।
मानत दिठि सफल निरखि
गौरवर-विवाह ॥१५५४॥

मिश्रभवन, रीत रुचिर,
उचरि पुलक गात ।
नव नव अभि- लाष करह,
धृति धरई न जात ॥१५५५॥

निरुपम पहु, प्रेय़सी छबि,
लोचन भरि नेत ।
नरहरि कत, भाखव सभे,
प्राण निछनि देत ॥१५५६॥

पुनः यथा—राग—

आहा मरि मरि, सुर-नारीगण,
नदीय़ा-चान्देर विवाह देखि ।
से शोभा-साय़रे, साꣳतारिय़ा सभे,
तिरपित करे तृषित आꣳखि ॥१५५७॥

केहो कारु प्रति, कहे देख मिश्र
सनातन सुखे ना धरे हिय़ा ।
कृष्णे कन्या दान करि-कत साधे,
कहे कत नाना यौतुक दिय़ा ॥१५५८॥

केहो कहे जामा- तार वामे कन्या,
बसाइय़ा धन्य आपना माने ।
करे होम-क्रिय़ा, ताहे नाहि मन,
चाहि रहे चान्दमुखेर पाने ॥१५५९॥

केहो कहे, देख, मिश्रेर घरणी,
उनमत पारा, विवाह-धूमे ।
नरहरि नाथे, देखे कत छले,
उलसित पद ना पड़्‌ए भूमे ॥१५६०॥

पुनः यथा—राग—

देव देव-रमणी उल्लासे ।
विवाह-प्रसङ्ग सभे कहे मृदु भाषे ॥१५६१॥

भाग्यवन्त लोक ल्नदीय़ार ।
हईले विवाह, देखि उल्लास सभार ॥१५६२॥

रूपवती कन्या यार घरे ।
से-सकल विप्र मने महा-खेद करे ॥१५६३॥

ए हेन वरेरे कन्या दिते ।
ना पारिलु हेन सुख नाहिक भाग्येते ॥१५६४॥

एइ मत केह कत कय़ ।
सकलेइ सनातन मिश्रे प्रशꣳसय़ ॥१५६५॥

सनातन मिश्र भाग्यवान् ।
होमकर्म आदि सब कैल समाधान ॥१५६६॥

कन्या जामाताय़ निरखिय़ा ।
तिले तिले बाड़्‌हे सुख उथलय़े हिय़ा ॥१५६७॥

कहिते के जाने लोकाचार ।
घन घन नारीगणे देइ जय़कार ॥१५६८॥

विष्णुप्रिय़ादेवी-गोराचाꣳदे ।
लईते वासर-घरे केबा थिर बान्धे ॥१५६९॥

नरहरि-पꣳहु गोराराय़ ।
चले वास-घरे कत कौतुक हिय़ाय़ ॥१५७०॥

पुनः याथा—राग—

नदीय़ा-विनोद गोरा ।
प्रवेशे वासर- घरे नव नव,
तरुणीगणेर पराण-चोरा ॥ ध्रु ॥१५७१॥

कुलवधूगण, मनेर उल्लासे,
विश्वम्भर-विष्णुप्रिय़ाय़ लईय़ा ।
सुमधुर छान्दे, वसाय़ वासरे,
अनिमिष आꣳखे ओ मुख चाय़ा ॥१५७२॥

केह परशेर, साधे हासि हासि,
सुगन्धि चन्दन माखाय़ अङ्गे ।
केह साजाइय़ा ताम्बूल वीटीका-
सम्पुट सम्मुखे राखय़े रङ्गे ॥१५७३॥

केह करे कत, कौतुक-छलेते,
टलि पड़े गाय़, पुलक हिय़ा ।
नरहरिञाथ- आगे रहे केह,
भङ्गिते कुसुम-अञ्जलि दिय़ा ॥१५७४॥

पुनः यथा—राग—

वासर-घरेते गोराराय़ ।
रूपे कोटि मदन माताय़ ॥१५७५॥

कुलवधूगण मन-सुखे ।
सोपय़े नय़न चान्दमुखे ॥१५७६॥

घुङटे घुङट केउ दिय़ा ।
कहे किबा ईषत् हासिय़ा ॥१५७७॥

पुलके भरय़े सब गा ।
झाꣳपय़े वसन दिय़ा ता ॥१५७८॥

केउ दाꣳड़ाइय़ा कारु पाशे ।
काꣳपे से ना रसेर आवेशे ॥१५७९॥

केहो अति अथिर हिय़ाय ।
निछय़े जीवन राङ्गा पाय़ ॥१५८०॥

वासर-घरेते रङ्ग यत ।
ताहा केबा कहिबे कत ॥१५८१॥

नरहरि-मने एइ आश ।
देखिब कि ए सब विलास ॥१५८२॥

पुनः यथा—राग—

वासर-घरेते गोराराय़ ।
विष्णुप्रिय़ासह सुखे रजनी गोङाय़ ॥१५८३॥

कहिते कौतुक नाइ ओर ।
गोष्ठीसह सनातन आनन्दे विभोर ॥१५८४॥

रजनी-प्रभाते गौरहरि ।
हैला हर्ष कुशाण्डिका आदि कर्म करि ॥१५८५॥

गमन करिब निजालय़े ।
सनातनमिश्र महाशय़े निवेदय़े ॥१५८६॥

सनातन जामाता-रतने ।
करिते विदाय़ धैर्य धरय़े यतने ॥१५८७॥

कन्याय़ कत ना प्रबोधिय़ा ।
दिल विश्वम्भर-कर धरि समर्पिय़ा ॥१५८८॥

गौरहरि गमन-समय़े ।
मान्यगणे परम उल्लासे प्रणमय़े ॥१५८९॥

कहिते कि से सभार साध ।
धान्य दुर्वा दिय़ा शिरे करे आशीर्वाद ॥१५९०॥

मिश्र प्रिय़ा कन्या-जामातारे ।
विदाय़ करिते धैर्य धरिते ना पारे ॥१५९१॥

गोरा गृहे गमन करिते ।
विप्रगण वेदध्वनि करे चारिभिते ॥१५९२॥

नारीगण देइ जय़कार ।
नाना वाद्य बाजे, भाटे पड़े राय़वार ॥१५९३॥

नरहरि-नाथे निरखिय़ा ।
गमन-उचित सभे करे शुभक्रिय़ा ॥१५९४॥

पुनः यथा—राग—

बरज-भूषण गौर-विधुवर, करि विवाह विनोद-गतिपर,
प्रेय़सी-सह चलई, निज-घर, परम अद्भुत शोहय़े ।
चड़्‌हल चौदल माहि झलकत, रूप अमिय़-प्रवाह उचलत,
बलित नय़न सिꣳगार निरुपम, निखिल-जन-मन मोहय़े ॥१५९५॥

होत जय़-जय़-शब्द अविरत, नारीपुरुष असꣳख्य निरखत,
परस्पर भण, लखिमि लखिमिकनाथ दुहु विलसत यनु ।
बन्दिगण मन, मोद अतिशय़, उचरि नव नव-चरित रसमय़,
भूरि भूसुर करत घन, घन वेदध्वनि पुलकित तनु ॥१५९६॥

वाद्य बहुविध, मुरज मरदल, त्रिसरि कुण्डली पटह पुष्कल,
कुकु नुनु, नुनु, नुधा विविध वाय़त मधुर वादक-घटा ।
नटत नर्तकी, नर्तकावली, उद्घटि ता धिक धिकिता दिनि,
निनि धेन्न धिकि, तक तल धरु, पग भङ्गि चमकत तनु-छटा ।११५९७॥

जाति श्रुति स्वरग्राम मुरुछन, तान नव नव नव आलापन,
शुनत कानन तेजि मृग, शुणिवृन्द निकट हि धाय़ ए ।
भवन चहुदिश विपुल कल कल, दास नरहरि हृदय़ उथलल,
समय़ गोधूलि, ललित सुरधुनी, तीरे विरमि घरे आय़ ए ॥१५९८॥

पुनः यथा—राग—

गोराचान्द विवाह करिय़ा ।
आइसेन घरे अति उल्लसित हैय़ा ॥१५९९॥

अलक्षित हैय़ा देवगण ।
करय़े सकल पथ पुष्प वरिषण ॥१६००॥

सुखेर पाथार नदीय़ाय़ ।
विवाह-प्रसङ्ग केउ कहे शाचीमाय़ ॥१६०१॥

शुनि महा-वाद्य-कोलाहल ।
शचीदेवी हईलेन आनन्दे विह्वल ॥१६०२॥

बाड़ीर बाहिरे शची आइ ।
पतिव्रतागण-सह रहे पथ चाइ ॥१६०३॥

सभासह गोरा धीरे धीरे ।
आसिय़ा चौदल हैते नामिला दुय़ारे ॥१६०९४॥

पुत्र-पुत्रवधु देखि आइ ।
निछिय़ा फेलय़े यत द्रव्य लेखा नाइ ॥१६०५॥

स्नेहे चान्दवदन चुम्बिय़ा ।
प्रवेशे भवने पुत्रवधू पुत्रे लैय़ा ॥१६०६॥

विष्णुप्रिय़ा-सह विश्वम्भर ।
बैसे सिꣳहासने देखे यत परिकर ॥१६०७॥

उलु लु लु देइ नारीगण ।
हैल मङ्गलमय़ सकल भुवन ॥१६०८॥

भाटगणे पड़े राय़वार ।
विप्रगणे वेदध्वनि करे अनिवार ॥१६०९॥

नाना वाद्य वाय़ सबे सुखे ।
नरहरि कत वा कहिब एवꣳ मुखे ॥१६१०॥

पुनः यथा—राग—

गोरा गुणमणि, सुघर-शेखर,
परम मुदित हिय़ाय़ ।
लोक बहुत, विवाहे आकुल
ताहे देय़ई विदाय़ ॥१६११॥

भाट, नट, गीतज्ञ, वादक,
भिक्षु भूसुर भूरि ।
देत सबे बहु वस्त्र, भूषण, धन,
मनोरथ पुरि ॥१६१२॥

अति हि सुमधुर वचने सुनिपुण,
परितोष करई सभाय़ ।
चलल निज-निज, गेहे सबे मिलि,
गौरहरि-यश गाय़ ॥१६१३॥

श्रीशची सब, नारी जने जने,
करल कत सम्मान ।
भणत नरहरि, सो सकल सुखे,
गेहे कय़ल पय़ान ॥१६१४॥

ओहे श्रीनिवास, विश्वम्भरेर विहाय़ ।
हैल ये आनन्द ताहा जागय़े हिय़ाय़ ॥१६१५॥

एइखाने विष्णुप्रिय़ा-सह गौरहरि ।
बैसय़े जननी ताहा देखे नेत्र भरि ॥१६१६॥

विष्णुप्रिय़ा-प्रति यत स्नेह करे आइ ।
एक मुखे से सब कहिते साध्य नाइ ॥१६१७॥

विष्णुप्र्य़ादेवी-चेष्टा कहिब वा कत ।
विष्णुसेवा श्रीशची-सेवाय़ हैला रत ॥१६१८॥

कि बलिब विष्णुप्रिय़ादेवीर सेवाय़ ।
दिवानिशि आइ महा आनन्दे गोङाय़ ॥१६१९॥

विलसय़े परम आनन्दे विश्वम्भर ।
यौवन-प्रवेशे अङ्ग-शोभा मनोहर ॥१६२०॥

दिव्य माला-चन्दने सुवेश निरन्तर ।
सूक्ष्मवास-भूषणे भूषित कलेवर ॥१६२१॥

भुवनमोहन गोरा शचीर नन्दन ।
विद्यारसे मग्न शिष्यसङ्गे अनुक्षण ॥१६२२॥

देखिय़ा पाषड-वृद्धि सहिते ना पारे ।
हईल प्रभुर इच्छा गय़ा याइबारे ॥१६२३॥

एइखाने माय़ेर चरणे प्रणमिय़ा ।
गय़ा चलिलेन प्रभु माय़े प्रबोधिय़ा ॥१६२४॥

लोक-रीते गय़ाकार्य सारि गौरहरि ।
गृहे आसे ईश्वरपुरीरे कृपा करि ॥१६२५॥

नवद्वीपे प्रभु आइलेन किछुदिने ।
आनन्दे विह्वल हईलेन सर्वजने ॥१६२६॥

विविध मङ्गल-कर्म करे शचीमाय़ ।
बाड़ीर बाहिरे गिय़ा पथपाने चाय़ ॥१६२७॥

लोके जिज्ञासय़े विश्वम्भर कत दूरे ।
हेन काले प्रभु आइलेन निज-घरे ॥१६२८॥

ओहे श्रीनिवास, विश्वम्भर एइखाने ।
महाहर्षे प्रणमिला माय़ेर चरणे ॥१६२९॥

जननीर ये आनन्द कहिते के पारे ।
सजल नय़ने मुख चाहे वारे वारे ॥१६३०॥

विष्णुप्रिय़ादेवी प्राणनाथे निरखिय़ा ।
आनन्दे विह्वल, ना धरिते पारे हिय़ा ॥१६३१॥

विष्णुप्रिय़ा-पिता-कुले हैल महानन्द ।
कि बलिब सरार जीवन गौरचन्द्र ॥१६३२॥

प्रभुरे देखिते आइलेन यत जन ।
ता सबारे कैल यथायोग्य आचरण ॥१६३३॥

सङ्गिगण विदाय़ करिला विश्वम्भर ।
से-सबे आनन्दे गेला निज-निज-घर ॥१६३४॥

श्रीमान्-पण्डित आदि चारि पाꣳच जने ।
श्रीगय़ा-प्रसङ्ग कहे वसि ए निर्जने ॥१६३५॥

विष्णुपादपद्म-तीर्थ-नाम उच्चारिते ।
भासय़े नेत्रेर जले नारे स्थिर हैते ॥१६६३६॥

छाड़े दीर्घश्वास कृष्ण बालि वारे वारे ।
भरय़े पुलक कम्प प्रभुर शरीरे ॥१६३७॥

कतक्षणे स्थिर हैय़ा शचीर नन्दन ।
श्रीमान् पण्डिते कहे मधुर वचन ॥१६३८॥

ओहे बन्धुसब, सबे आजि गृहे याह ।
कालि सुक्लाम्भर-घरे आसिबारे चाह ॥१६३९॥

शुनि सुमधुर वाक्य उल्लास सभार ।
हईला विदाय़ देखि प्रेम चमत्कार ॥१६४०॥

अन्यान्ये शुनिय़ा सब वैष्णव-आनन्दे ।
आइसेन एथाइ मिलय़े गौरचन्द्रे ॥१६४१॥

लोक-गताय़ात यत कहने ना याय़ ।
सकले विह्वल गौरचन्द्रेर चेष्टाय़ ॥१६४२॥

नदीय़ाय़ परस्पर कहे लोक सब ।
निमाञि पण्डित हैला परम वैष्णव ॥१६४३॥

बाढ़य़े प्रभुल्न प्रेमावेश क्षणे क्षणे ।
ना भाय़ भोजने मन ना हय़ शय़ने ॥१६४४॥

शय़न करिब किये घरे गोराराय़ ।
कृष्ण कृष्ण बलि, निशि जागिय़ा पोहाय़ ॥१६४५॥

नय़ने बहय़े वारिधारा निरन्तर ।
सघने सोनार अङ्ग धूलाय़ धूसर ॥१६४६॥

एथा कपिलेर भावे विश्वम्भरराय़ ।
मनेर आनन्दे कत माय़ेरे शिखाय़ ॥१६४७॥

प्रेमभक्ति-स्वरूपिणी आइ जगन्माता ॥
ताꣳरे प्रभु प्रेम-वितरण कैल एथा ॥१६४८॥

एकदिन एइखाने बैसे विश्वम्भर ।
चतुर्दिके शिष्यवर्ग शोभा मनोहर ॥१६४९॥

शिष्यगण पूर्वसत चाहे पड़िवार ।
शिष्यगण कहे एक, प्रभु कहे आर ॥१६५०॥

शिष्यगण कहे मने मने विचारिय़ा ।
एइ मत हैल गय़ा हईते आसिय़ा ॥१६५१॥

ऐछे विचारिते गौरचन्द्रेर इच्छाय़ ।
प्रेमभक्ति उपजिल सभार हिय़ाय़ ॥१६५२॥

पड़िब कि शब्द-शास्त्र फिरिलेन मन ।
प्रभुर कान्दनेते कान्दय़े सर्वजन ॥१६५३॥

सकल पड़ुय़ा श्रीप्रभुर नित्यदास ।
सर्वचित्ते हैल प्रेम-भक्तिर प्रकाश ॥१६५४॥

ओहे श्रीनिवास, कि बलिब एइखाने ।
करय़े नर्तन प्रभु आपन कीर्तने ॥१६५५॥

चतुर्दिके प्रभुरे बेड़्‌हिय़ा शिष्यगण ।
गोपाल, गोविन्द बलि करय़े कीर्तन ॥१६५६॥

प्रभु-प्रेमावेशे सभे बोल बोल बोले ।
भासय़े सकले प्रेम-आनन्द-हिल्लोले ॥१६५७॥

अकस्मात् शुनि प्रेममय़ सङ्कीर्तन ।
धाइय़ा आहिला निकटेर भक्तगण ॥१६५८॥

आर यत लोक आइसे कहे परस्परे ।
इकि गण्डगोल शुनि नदीय़ा-नगरे ॥१६५९॥

ऐछे कहि प्रभुर ए भवने आशिय़ा ।
हय़ेन मोहित प्रभुपाने निरखिय़ा ॥१६६०॥

अद्भुत प्रभुर नृत्य, कीर्तन, प्रचार ।
इथे कोन जन धैर्य नारे, धरिवार ॥१६६१॥

प्रभु-प्रेमावेश देखि चिन्ते सर्वजन ।
प्रभुके करिला स्थिर प्रभु-भक्तगण ॥१६६२॥

ओहे बाप श्रीनिवास, विश्वम्भर एथा ।
आपनारे प्रकाशय़े ए अद्भुत कथा ॥१६६३॥

भक्ताधीन प्रभु, भक्त-दुःख-नाश हय़ ।
पाषण्डीर प्रति क्रोध हैल अतिशय़ ॥१६६४॥

मुइ सेइ, मुइ सेइ बलिय़ा बलिय़ा ।
हासे, कान्दे, महा-घोर हुङ्कार करिय़ा ॥१६६५॥

देखिय़ा पाषण्डिगण खेदाड़िय़ा याय़ ।
दर्प करि, कहे सꣳहारिमु तो सभाय़ ॥१६६६॥

क्षणे भूमे लोटाइय़ा थिर हैय़ा रहे ।
ऐछे देखि केह केह आइ-प्रति कहे ॥१६६७॥

पूर्ववायुबल एबे करिल इꣳहारे ।
करह शैत्यक सेवा अशेष प्रकारे ॥१६६८॥

लोकद्वारे आइ जानाइल श्रीनिवासे ।
तेꣳह प्रबोधिल अति मनेर उल्लासे ॥१६६९॥

सकलेइ कहे ए मनुष्य कभु नय़ ।
हईलेन व्यक्त एथा शाचीर तनय़ ॥१६७०॥

शुन श्रीनिवास, एक दिवसेर कथा ।
प्रेमावेशे अत्यन्त विह्वल प्रभु एथा ॥१६७१॥

यारे देखे तारे पुछे कृष्ण कोन् खाले ? ।
निवारिते नारे वारिधारा दुनय़ने ॥१६७२॥

गदाधर ताम्बूल लईय़ा आइला एथा ।
ताꣳरे पुछे श्यामल सुन्दर कृष्ण कोथा ॥१६७३॥

तेꣳहो कहे, सदा कृष्ण हृदय़े तोमार ।
शुनि नखे हृदय़ चिरय़े आपनार ॥१६७४॥

प्रभु दुइकरे शीघ्र धरे गदाधर ।
कत प्रबोधिल स्थिर हैल विश्वम्भर ॥१६७५॥

गदाधरे महातुष्ट हैय़ा कहे आइ ।
निमाइर सङ्गे बाप राहिबे सदाइ ॥१६७६॥

एथा सन्ध्याकाले आसि मिले भक्तगण ।
मुकुन्द पड़य़े श्लोक अति रसाय़न ॥१६७७॥

भक्तिरसमय़ श्लोक शुनि गौरराय़ ।
ये प्रेम-आवेश ताहा कहा नाइ याय़ ॥१६७८॥

वैष्णव-वेष्टित प्रभु मत्त सꣳकीर्तने ।
हैल क्षणप्राय़ निशि प्रभात ना जाने ॥१६७९॥

प्रेमानन्दे हुङ्कार-गर्जन अतिशय़ ।
शुनि पाषण्डीर रात्रे निद्रा नाइ हय़ ॥१६८०॥

करय़े विद्रूप क्रोधे पाषण्डीर गण ।
केह कहे आजि ए सभार विड़म्बन ॥१६८१॥

नदीय़ाय़ कीर्तन, ए अमङ्गल इथे ।
आइसे राजार लोक वैष्णवे धरिते ॥१६८२॥

ए सभे पालाबे जानि हओ सावधान ।
श्रीवासे बाꣳधिय़ा दिले सभार कल्याण ॥१६८३॥

श्रीवास उदार शुनि करिल प्रत्यय़ ।
दुष्ट, राजा यवन असाध्य किछु नय़ ॥१६८४॥

एत विचारिय़ा श्रीवासेर भय़ हैल ।
अन्तर्यामी विश्वम्भर सकल जानिल ॥१६८५॥

हुङ्कार करिय़ा प्रभु कहे वार वार ।
भक्तभय़ विनाशिते मोर अवतार ॥१६८६॥

प्रभु अवतीर्ण इहा भक्ते नाइ जाने ।
आपनारे प्रकाशिते इच्छा हैल मने ॥१६८७॥

करिय़ा सुवेश प्रभु उलसित चिते ।
नदीय़ा-भ्रमणे रङ्गे चले एथा हैते ॥१६८८॥

से रूप-लावणी देखि केबा थिर हय़ ।
मनेर उल्लासे केउ कारे कत कय़ ॥१६८९॥

तथाहि—गीते
देख भुवनमोहन गोरा नदीय़ानगरे ।
रूपेर छटाय़ दशदिशा आलो करे ॥ ध्रु ॥१६९०॥

कुनकभूषर गरवभञ्जन, मञ्जु मूरति रसाल रे ।
कुटिल कुन्तल विमल मलय़ज, तिलक झलकत भालि रे ॥१६९१॥

अतनु-धनु दूरे, दरप भुरुदिठि, भङ्गि कि मधुर भाꣳतिय़ा ।
हासमिलित मय़ङ्क मुखलस, दशन मोतिम पाꣳतिय़ला ॥१६९२॥

चारु श्रुति अवतꣳस सुन्दर, गण्डमण्डल शोहय़े ।
नासिका शुष्क-चञ्चु जिति, सती युवतीगण-मन मोहय़े ॥१६९३॥

जानु लम्बित, ललित भुजयुग, गञ्जि भुजग मृणाल रे ।
वक्ष परिसर परम सुगठन, कण्ठे मालती-माल रे ॥१६९४॥

त्रिन्वलि-बलित, सुनाभि सरसिज, भ्रमर तनुरुह राजय़े ।
सिꣳह जिनि कटि-देश कृश घन, अꣳशु अꣳशुक भ्राजय़े ॥१६९५॥

मदन-मद दलि, कदलि उरु उरु, पर्व अति अनुपाम रे ।
चरणतल खल-कमल-नखमणि-निछनि घन घनश्याम रे ॥१६९६॥

केबा ना भुलय़े गोराचान्दे निरखिय़ा ।
एइ पथे चलिलेन भ्रमिते नदीय़ा ॥१६९७॥

नदीय़ा-भ्रमणे प्रभु श्रीवासेर घरे ।
हैला चतुर्भुज कृपा करि श्रीवासेरे ॥१६९८॥

आसि विप्रसङ्गे बसिला एथाइ ।
से अद्भुत शोभार उपमा दिते नाइ ॥१६९९॥

एइखाने प्रभुर अद्भुत भावावेश ।
कृष्ण बलि कान्दय़े धैर्येर नाहि लेश ॥१७००॥

एक्कदिन वराहभावेते मत्त हैला ।
एथा हैते मुरारिगुप्तेर घर गेला ॥१७०१॥

हईय़ा वराहमूर्ति ताꣳरे कृपा करि ।
एथाइ आसिय़ा बसिलेन गौरहरि ॥१७०२॥

लईय़ा सकल भक्ते प्रभु विलसय़ ।
एक नित्यानन्द विनु व्याकुल हृदय़ ॥१७०३॥

ओहे श्रीनिवास, नित्यानन्द हलधर ।
हाड़ाइ पण्डित पद्मावतीर कुमार ॥१७०४॥

सर्वपूज्य हाड़ाइ पण्डित, पद्मावती ।
राढ़देशे एकचक्रा ग्रामेते वसति ॥१७०५॥

परम उदार दुइ ब्राह्मण-ब्राह्मणी ।
अपार महिमा गुण कहिते ना जानि ॥१७०६॥

प्रभु नित्यानन्द सुख दिते सर्वजने ।
ताꣳर घरे अवतीर्ण हैला शुभक्षणे ॥१७०७॥

नित्यानन्दप्रभु-जन्मतिथि विलक्षण ।
के वा ना आराधे के ना करय़े वन्दन ॥१७०८॥

तथाहि—
सर्वमङ्गलरूपाः ताꣳ माघशुक्लत्रय़ोदशीम् ।
नित्यानन्दप्रभोर्जन्मतिथिꣳ वन्दे मुदानिशम् ॥१७०९॥

प्रभु-जन्मकाले ये आनन्द उपजिल ।
ताहा विज्ञगण नानाप्रकारे वर्णिल ॥१७१०॥

गीते यथा—कामोद—

आहा मरि आजु कि आनन्द ।
किबा एकचक्रापुरे, हाड़ाइ पण्डितेर घरे,
अवतीर्ण हैला नित्यानन्द ॥ ध्र्रु ॥१७११॥

अति सुकोमल तनु, हेम नवलीत जनु,
शोभाय़ भुवन विमोहित ।
पुत्रमुख निरखिय़ा, उलासे ना धरे हिय़ा,
पद्मावती हाड़ाइ पण्डित ॥१७१२॥

श्रीअद्वैत शान्तिपुरे, गर्जय़े आनन्दभरे,
तिलेक हईते नारे थिर ।
नाचे प्रभु ऊर्ध्वबाहे, काꣳखताली दिय़ा कहे,
‘आनिलु आनिलु बलवीर’ ॥१७१३॥

ब्रह्मा आदि देवगण, करे पुष्प-वरिषण,
अय़ जय़-ध्वनि अनिवार ।
गन्धर्व किन्नर यत, वाय़ वाद्य कत शत,
गाय़ गुण सुखेर पाथार ॥१७१४॥

ओझा महाभाग्यवान्, पुत्रेर कल्याणे दान,
करे यत लेखा नाइ दिते ।
कत ना यौतुक लैय़ा, लोक सब आसे धाय़ा,
महाभिड़ गृहे प्रवेशिते ॥१७१५॥

धन्य राढ़, मही आर, धन्य से नक्षत्र वार,
धन्य माघ-शुक्ल त्रय़ोदशी ।
नर हरि कहे भाल, धन्य धन्य कलिकाल,
प्रकटे खण्टिल दुःखराशि ॥१७१६॥

पुनः—सुहई—

प्रभु नित्यानन्द, आनन्देर कन्द,
पूरबे रोहिणीतनय़ येꣳहो ।
धन्य कलि कैला, शुभक्षणे हैला,
पद्मावतीगर्भे प्रकट तेꣳहो ॥१७१७॥

जय़ जय़ जय़, ध्वनि अतिशय़,
मङ्गल हाड़ाइ पण्डित-घरे ।
एकचक्रावासी, लोक सुखे भासि
धाय़ा आसे धृति धरिते नारे ॥१७१८॥

सुतिका-मान्दिरे, झलमल करे,
निताइर सुखचन्द्रमा चारु ।
से शोभा देखिते, कत साध चिते,
देखे, आꣳखि नाइ निमिख कारु ॥१७१९॥

हर्षे देवगण, वर्षे पुष्प घन,
अलखित नृत्य-भङ्गिमा भाले ।
घनश्याम गाय़, नाना वाद्य वाय़,
धा धा धिकि धिकि, धेन्ना ना ताले ॥१७२०॥

नित्यानन्द-जन्म बाल्य-लीला मनोहर ।
गृहे वास कैला प्रभु द्वादश वत्सर ॥१७२१॥

सन्न्यासीर छले गृह हईते चलिला ।
तीर्थपर्यटन करे ए अद्भुत लीला ॥१७२२॥

सर्वमनोरथ-सिद्धि करि पर्यटने ।
प्रभुर प्रकाश लागि रहे ब्वृन्दावने ॥१७२३॥

गुप्तरूपे नदीय़ा विहारे गौरचन्द्र ।
हईला प्रकाश ता जानिला नित्यानन्द ॥१७ २४॥

महा-प्रेमानन्दे मत्त हैय़ा निरन्तर ।
आइलेन नवद्वीपे देव हलधर ॥१७२५॥

नन्दन आचार्य-गृहे गमन कारिला ।
तेꣳहो महातेज देखि अधैर्य हईला ॥१७२६॥

महायत्ने नित्यानन्द चन्द्रे राखि घरे ।
कराइल भिक्षा अति उल्लास अन्तर ॥१७२७॥

नित्यानन्द-गमन जानिय़ा गौरराय़ ।
मन्द मन्द हासे महा उल्लास हिय़ाय़ ॥१७२८॥

ए विष्णु-मन्दिरे विष्णु पूजे विश्वम्भर ।
एथाइ वैष्णव सब मिलिला सत्वर ॥१७२९॥

से शोभा देखिय़ा प्रभु उल्लसित मने ।
रजनी-स्वपन-कथा कहे एइखाने ॥१७३०॥

गीते यथा—कामोद—

प्रभु विश्वम्भर, प्रिय़ परिकर
प्रति कहे शुन स्वपन-कथा ।
किबा से निर्मित, अति सुशोभित,
आलध्वज रथ आइल एथा ॥१७३१॥

देखिनु सुन्दर, दीर्घ कलेवर,
पुरुष एक कि उपमा ताहे ।
एक कर्णे किबा, कुण्डल से ग्रीबा,
किबा मुखशशी भुब्वन मोहे ॥१७३२॥

काल कुम्भ हाते, लील वस्त्र माथे,
नील वास परिधान सुछान्दे ।
चौदिगे नेहाले, हेलि दुलि चले,
से भङ्गिते केबा धैरय बान्धे ॥१७३३॥

मोर नाम धरि पुछे बेरि बेरि,
बुझि हलधर गमन कैला ।
एत काहि नर- हरि प्रभुवर,
बलराम-भावे विह्वल हैला ॥१७३४॥

श्रीवासादि प्रभु स्वप्नावेशे निरखिय़ा ।
करिलेन स्तुति सबे सुस्थिर हईय़ा ॥१७३५॥

विश्वम्भर-चेष्टा किछु कहिल ना हय़ ।
देखिते निताइचान्दे उत्क्षण्ठातिशय़ ॥१७३६॥

हरिदास श्रीआवासपण्डिते किछु कैय़ा ।
नित्यानन्द अण्वेषणे दिल पाठाइय़ा ॥१७३७॥

हरिदास, श्रीवास सर्वाꣳशे विचक्षण ।
नवद्वीपे प्रति घरे कैल अन्वेषण ॥१७३८॥

कोथाओ ना पाइय़ा कहय़े प्रभुपाशे ।
शुनि प्रभु कहि कत मन्द मन्द हासे ॥१७३९॥

प्रभुर ए भङ्गि किछु अन्ये ना जानिल ।
नित्यानन्द परम दुर्ज्ञेय़ जानाइल ॥१७४०॥

शोभामय़ अपूर्व सुवेशे गौरचन्द्र ।
प्रिय़गण-सङ्गे चले यथा नित्यानन्द ॥१७४१॥

मिलि नित्यानन्दे राखि श्रीब्वासेर घरे ।
एथा आसि बैसे प्रभु उल्लास अन्तरे ॥१७४२॥

श्रीवासेर गृह हेऐते रामाइ आसिय़ा ।
नित्यानन्द-चेष्टा कहे एथाय़ बसिय़ा ॥१७४३॥

पुनः पुनः पुछे प्रभु कह ताꣳर रीत ।
प्रभु-आगे कहे किछु रामाइ पण्डित ॥१७४४॥

कथो रात्रे नित्यानन्द करिय़ा हुङ्कार ।
भाङ्गि फेले दण्ड कमण्डलु आपनार ॥१७४५॥

शुनि प्रभु विश्वम्भर ईषत् हासिय़ा ।
श्रीवासेर गृहे गेला एइ पथ दिय़ा ॥१७४६॥

ओहे श्रीनिब्वास निज-गृहे ये कौतुक ।
ताहा कि बलिब सबे मोर एक मुख ॥१७४७॥

एकदिन एइखाने प्रभु गौरराय़ ।
भक्तगण मध्ये बैसे विह्वल प्रेमाय़ ॥१७४८॥

कहि कत श्रीअद्वैत आचार्य आनिते ।
पाठाइला शान्तिपुरे श्रीरामपण्डिते ॥१७४९॥

शास्न्तिपुरे अद्वैतेर ब्वास ये प्रकारे ।
शुन श्रीनिवास ताहा कहिय़े तोमारे ॥१७५०॥

अद्वैतेर पिता पितामहादि विख्यात ।
बङ्गे वास पूर्वे शान्तिपुरे गताय़ात ॥१७५१॥

बङ्गदेशे श्रीहट्ट-निकट नवग्राम ।
सर्वाराधाय अद्वैतचन्द्रेर प्रिय़धाम ॥१७५२॥

तथा रहे विप्र श्रीकुबेर महाशय़ ।
मिश्र पण्डिताचार्य ए स्ख्याति ताꣳर हय़ ॥१७५३॥

तेꣳहो अद्वैतेर पिता ताꣳर शुद्ध रीत ।
सर्वप्रकारेते योग्य सर्वत्र विदित ॥१७५४॥

तथाहि श्रीगौरगणोद्देशदीपिकाय़ाम्—
महादेब्वस्य मित्रꣳ यः कुबेरो गुह्यकेश्वरः ।
कुबेरपण्डितः सो’द्य जनको’स्य विदाम्बरः ॥१७५५॥

नाभानामे श्रीकुबेर-मिश्रेर घरणी ।
अति पतित्व्रता येꣳहो अद्वैत-जननी ॥१७५६॥

पुत्रेर कामना पूर्वे दोꣳहार आछिल ।
ताहा वृद्धकाले नवग्रामे पूर्ण हैल ॥१७५७॥

नवग्रामे जन्मिलेन श्रीअद्ब्वैतचन्द्र ।
जन्मकाले भुवने व्यापिल महानन्द ॥१७५८॥

श्रीअद्वैत-जन्म-वृत्तान्त—

गीते—माउर—

माघे शुक्लातिथि, सप्तमीते अति,
उथलय़े महा आनन्द-सिन्धु ।
नाभागर्भ धन्य करि अब्वतीर्ण,
हैल शुभक्षणे, अद्वैत-इन्दु ॥१७५९॥

कुबेर पण्डित हैय़ा हरषित,
नाना दान द्विज-दरिद्रे दिय़ा ।
सूतिका-मन्दिरे, गिय़ा धीरे धीरे,
देखि पुत्रमुख जुड़ाय़ हिय़ा ॥१७६०॥

नवग्रामवासी, लोक धाय़ा आसि
परस्पर कहे ना देखि हेन ।
किबा पुण्यफले, मिश्र वृद्धकाले
पाइलेन पुत्ररतन येन ॥१७६१॥

पुष्प-वरिषण, करे सुरगण,
अलक्षित रीति उपमा नहु ।
जय़ जय़-ध्वनि, भरल अवनी,
भने घनश्याम मङ्गल बहु ॥१७६२॥

पुनः—भूपाली—

माघ-सप्तमी शुक्लपक्ष,
शुभक्षण क्षण भूरि ।
प्रकटि प्रभु, अद्वैत सुन्दर,
करल कुलिमद दूरि ॥१७६३॥

धाइ चलु सब, लोक पौठि,
कुरेर-भवन-माझार ।
विपुल पुलक, विलोकि बालक,
देत जय़ा जय़कार ॥१७६४॥

भाटगण घन, भणत यश,
गाय़त गुणी मुद माति ।
सुघर वादक वृन्द वाय़त,
वाद्य कत कत भाꣳति ॥१७६५॥

करत नर्तक, नृत्य उघटते,
थैता तक तक थोन ।
दास नरहरि पहुꣳक जनम,
विलास वरणब कोन ॥१७६६॥

ओहे श्रीनिवास अद्वैतेर जन्मकाले ।
श्रीकृष्ण गोविन्दनाम उच्चैःस्वरे बले ॥१७६७॥

अद्वैतेर बाल्यलीला अति रसाय़ण ।
जन्माय़ेन सभार सन्तोष अनुक्षण ॥१७६८॥

श्रीकुरेर नाभा गङ्गारासेर निमित्ते ।
आइलेन शान्तिपुरे नवग्राम हैते ॥१७६९॥

कुरेर पण्डित नाभादेवी पुत्र लैय़ा ।
शान्तिपुरे रहे महा उल्लसित हैय़ा ॥१७७०॥

पुत्रे नाना शास्त्र कराय़ा अध्यय़न ।
कथोदिने दोꣳहे हईलेन अदर्शन ॥१७७१॥

अद्वैत-ईश्वर माता-पिता अदर्शने ।
गय़ाछले गेला सर्वतीर्थ-पर्यटने ॥१७७२॥

वृन्दावने कथोदिन कृष्णे आराधय़ ।
जानिलेन नवद्वीपे प्रकट समय़ ॥१७७३॥

वृन्दावन हैते प्रभु करिय़ा गमन ।
गौड़े आसि कैल गौड़ बङ्गेते भ्रमण ॥१७७४॥

नवद्वीप हईय़ा आइला शान्तिपुरे ।
देखि शान्तिपुरवासी उल्लास अन्तरे ॥१७७५॥

पूर्व हैते अपूर्व आलय़ करि दिल ।
अद्वैत-सेवाय़ सभे नियुक्त हईल ॥१७७६॥

सर्वशास्त्रे अध्यापक आद्वैत आचार्य ।
के बुझिते पारे ताꣳर अलौकिक काय़्र्य ॥१७७७॥

श्रीअद्वैत-आचार्य-विवाह कराइते ।
विशिष्ट लोकेर चेष्टा हैल भालमते ॥१७७८॥

सकलेइ कैला विवाहेर आय़ोजल्न ।
ताहा जानिलेन प्रभु कुरेर-नन्दन ॥१७७९॥

करिते विवाह अद्ब्वैतेर इच्छा हैल ।
मन्द मन्द हासि सभे अनुमति दिल ॥१७८०॥

सभे महाहर्ष हैय़ गिय़ा निज-घरे ।
जानाइल नृसिꣳह-भादुड़्‌इ विप्रवरे ॥१७८१॥

भाग्यवन्त नृसिꣳह विप्रेर दुइ कन्या ।
विवाहेर योग्य, रूपे गुणे महा धन्या ॥१७८२॥

श्रीअद्वैतप्रभुर विवाह—

नृसिꣳह भादुड़्‌इ अति उल्लास अन्तरे ।
दुइ कन्या सम्प्रदान कैला अद्वैतेरे ॥१७८३॥

अद्वैतेर विवाहेर सुखेर नाइ अन्ते ।
बहु अर्थ व्यय़ कैल यत भाग्यवन्त ॥१७८४॥

आचार्येर भार्या दुइ जगत् पूजिता ।
सर्वत्र विदित नाम ‘श्री’ आर ‘सीता’ ॥१७८५॥

तथाहि श्रीगौरप्गणोद्देशदीपिकाय़ाम्—
योगमाय़ा भगवती गृहिणी तस्य साम्प्रतम् ।
सीतारूपेणावतीर्णा श्रीनाम्नी तत्प्रकाशतः ॥१७८६॥

सर्वतत्त्वज्ञाता दुइ अद्वैतघरणी ।
दोꣳहार य़े चेष्टा ताहा कहिते कि जानि ॥१७८७॥

ऐछे रहे शान्तिपुरे श्री अद्वैत राय़ ।
करिलेन एक वासस्थान नदीय़ाय़ ॥१७८८॥

प्राय़ श्रीवासेर गृहे अद्वैत स्थिति ।
कृष्णरसास्वादे ना जानय़े दिवाराति ॥१७८९॥

कभु शान्तिपुरे, कभु रहे नदीय़ाय़ ।
कृष्णविना कथोदिन उद्वेगे गोङाय़ ॥१७९०॥

कृष्णे आराधय़े सदा अशेष प्रकारे ।
हईला प्रकट कृष्ण अद्वैत-हुङ्कारे ॥१७९१॥

प्रभुर अद्भुत लीला देखे नदीय़ाय़ ।
ना करय़े व्यक्त सभे, प्रकारे जानाय़ ॥१७९२॥

प्रभु प्रकाशिय़ा पूजि उल्लास अन्तरे ।
कत मनोरथ करि गेला शान्तिपुरे ॥१७९३॥

श्रीरामपण्डित गिय़ा प्रभुर आज्ञाय़ ।
प्रभु ये कहिल ताहा कहिल ताꣳहाय़ ॥१७९८४॥

हईय़ा विह्वल श्रीअद्वैत प्रेमावेशे ।
ये ये कथा कहय़े ता कहिते ना आइसे ॥१७९५॥

अद्वैत भवने महानन्द उथलिल ।
प्रभु-पूजा-द्रव्य सीतादेवी सज्ज कैल ॥१७९६॥

अद्वैतेर ये कौतुक कहने ना याय़ ।
गोष्ठीसह अद्वैत आइसे नदीय़ाय़ ॥१७९७॥

अद्वैत आइसे जानि प्रभु गौरहरि ।
ए पथे श्रीवास-गृहे गेला शीघ्र करि ॥१७९८॥

भक्तगोष्ठी-सहिते श्रीगौराङ्गसुन्दर ।
निज-गृहे सꣳकीर्तने मग्न निरन्तर ॥१७९९॥

एखा सङ्कीर्तनानन्दे स्थिर नाहि बान्धे ।
पुण्डरीक विद्यानिधि बलि प्रभु कान्दे ॥१८००॥

क्षणे बाप, क्षणे बन्धु बलिय़ा कान्दय़ ।
पुण्डरीक विद्यानिधि प्रिय़ अतिशय़ ॥१८०१॥

सर्वमते श्रेष्ठ ताꣳर वास बङ्गदेशे ।
चक्रशाला-नामे ग्राम चाटिग्राम-पाशे ॥१८०२॥

मध्ये मध्ये श्रीनवद्वीपेओ स्थिति हय़ा ।
नवद्वीपे आछे ताꣳर अपूर्व आरम्लय़ ॥१८०३॥

तेꣳह महावैष्णव चिनिते साध्य कार ।
देखिले विषय़ी ज्ञान हय़त सभार १॥१८०४॥

ओहे श्रीनिवास, गौरचन्द्र निजमुखे ।
कहिते चरित्र ताꣳर भासे महासुखे ॥१८०५॥

प्रभु-आकर्षणे तेꣳहो आइला नदीय़ाय़ ।
रात्रियोगे आशि मिले प्रभुरे एथाय़ ॥१८०६॥

आनन्दे मूर्छित हैला प्रभुरे देखिय़ा ।
भासय़े नेत्रेर जले चेतन पाइय़ा ॥१८०७॥

करय़े यतेक खेत ये दैन्य प्रकाशे ।
देखिते से दशा सभे नेत्रजले भासे ॥१८०८॥

विद्यानिधि गोसाञिरे प्रभु वक्षे धरि ।
हईलेन यैछे ताहा कहिते ना पारि ॥१८०९॥

सभारे कहय़े प्रभु उल्लास हईया ।
देखिलाम प्रेमनिधि नय़न भरिय़ा ॥१८१०॥

ऐछे कत कहि प्रभु श्रीगौरसुन्दर ।
नेत्रजले सिञ्चे विद्यानिधि-कलेवर ॥१८११॥

विद्यानिधि प्रेमाय़ विह्वल अनिवार ।
प्रभुर इच्छाय़ बाह्यज्ञान हैल ताꣳर ॥१८१२॥

तखन प्रणमे प्रभु चिनि आपनार ।
श्रीअद्वैत आचार्ये करिल नमस्कार ॥१८१३॥

यथायोग्य मिलन हईल भक्तसने ।
पाइलेन परम आनन्द भक्तगणे ॥१८१४॥

क्षणेकेइ प्रेमभक्ति आविर्भाव हईते ।
हैल ये प्रकार ताहा ना आइसे कहिते ॥१८१५॥

विद्यानिधि महानन्दे हईय़ा विदाय़ ।
एइ पथे गेला तेꣳह आपन-वासाय़ ॥१८१६॥

ओहे श्रीनिवास, एकदिन शचीमाता ।
देखिल ये स्वप्न ताहा करय़े पुत्रे एथा ॥१८१७॥

पुत्रपाने चाहि आइ कहे स्नेहावेशे ।
शुन बाप, स्वप्ने या देखिलु निशिशेषे ॥१८१८॥

तुमि आर नित्यानन्द कलह करिय़ा ।
विष्णु-घरे गेला पञ्चवर्षेर हईय़ा ॥१८१९॥

घरेर भितरे देखिलाम चारिजन ।
तुमि, नित्यानन्द, कृष्ण, रोहिणीनन्दन ॥१८२०॥

तथा नित्यानन्द कृष्ण-हस्ते हस्त दिला ।
बलराम-हस्ते तुमि हस्त आरोपिला ॥१८२१॥

ऐछे घर हैते बाहिर हैय़ा चारिजने ।
कैला कत कलह आमार विद्यमाने ॥१८२२॥

नाना द्रव्य काड़ाकाड़ि करिय़ा खाइला ।
नित्यानन्द मा बलिय़ा मोर आगे आइला ॥१८२३॥

मोरे कहे क्षुधा हैल अन्न देह माता ।
निद्राभङ्ग हैल मोर शुनि एइ कथा ॥१८२४॥

जागिय़ा देखिलु निशिप्रभात-समय़ ।
किछु ना बुझिय़े मोर मने कत हय़ ॥१८२५॥

शुनि महानन्दे प्रभु मन्द मन्द हासे ।
कहि कत माय़े पुन कहे मृदुभाषे ॥१८२६॥

‘अद्य नित्यानन्दे एथा कराह भोजन’ ।
शुनि जननीर अति उल्लसित मन ॥१८२७॥

भिक्षार सामग्री शची शीघ्र सज्ज कैला ।
नित्यानन्दे प्रभु महानन्दे लैय़ा आइला ॥१८२८॥

एइखाने आसिय़ा बसिला दुइजन ।
एथा बैसे गदाधर आदि आप्तगण ॥१८२९॥

ओहे श्रीनिवास, से अपूर्व शोभा हेरि ।
चरण दुइते जल दिलु शीघ्र करि ॥१८३०॥

करय़े भोजन दोꣳहे बसिय़ा एथाइ ।
श्याम शुक्लरूप निरिखाय़े शची आइ ॥१८३१॥

दोꣳहार अद्भुत शोभा वारेक चाहिते ।
प्रेमाय़ विह्वल आइ नारे स्थिर हैते ॥१८३२॥

श्रीशचीदेवीर यैछे प्रेमेर विकार ।
कहिते ना जानि यैछे भोजन दोꣳहार ॥१८३३॥

भोजन करिय़ा दोꣳहे बसिला एथाय़ ।
स्थान परिस्कार मुइ करिल त्वराय़ ॥१८३४॥

पात्र अवशेषे हर्षे लईलु सकल ।
से सब भाविते हिय़ा हईछे विकल ॥१८३५॥

नित्यानन्दे लैय़ा गौरचन्द्र गणसने ।
एथा हैला परम विह्वल सङ्कीर्तने ॥१८३६॥

एथा विश्वम्भर आपनारे प्रकाशय़ ।
मत्स, कूर्म, वराह, वामन आदि हय़ ॥१८३७॥

यखन ये भावे प्रभु आपना प्रकाशे ।
तखन ता देखे मात्र प्रभुप्रिय़ दासे ॥१८३८॥

शिवेर गाय़क एक आसिय़ा एथाय़ ।
गाय़ शिव-गीत, नाचे, डमरु वाजाय़ ॥१८३९॥

महेशेर भावे प्रभु धैर्य नाइ बान्धे ।
मुइ से महेश बलि चर्ह्̤‌ए तार कान्धे ॥१८४०॥

गीते यथा—मालवस्त्री—

आजु शङ्करचरित शुनि
शचीतनय़ शङ्कर भेल ।
रजत-गिरि जिति, ज्योति डगमग,
जगत-धृति हरि नेल ॥१८४१॥

भसम-भूषित, अङ्ग-भङ्गिम,
अनङ्ग-मदभरहारि ।
रुचिर कर गहि, शृङ्ग वाय़त,
डमरु-रब रुचिकारी ॥१८४२॥

लोल ललित, त्रिलोचनाञ्चल,
लसत वय़न मय़ङ्क ।
गण्ड-मण्डल, विमल मृदुतर,
भाल भुरुयुग बङ्क ॥१८४३॥

विपुल पल्लग, भूषणाम्बर,
चरम परम उजोर ।
शिरसि मञ्जु, जटाल पटभर,
पेखि नरहरि भोर ॥१८४४॥

महेश-आवेश प्रभु सम्वरण कैला ।
से भाग्यवन्तेर स्कन्ध हईते नामिला ॥१८४५॥

ऐछे भिक्षा दिला तारे प्रभु दय़ामय़ ।
पुन आर भिक्षा येन करिते ना हय़ ॥१८४६॥

एथा प्रभु आनन्दे लईय़ा प्रिय़गण ।
करिल निर्बन्ध रात्रियोगे सङ्कीर्तन ॥१८४७॥

कभु कुन स्थाने करे कीर्तन-विहार ।
सङ्गे पारिषद यत लेखा नाइ तार ॥१८४८॥

तथाहि श्रीचैतन्यभागवते—
श्रीवास-मन्दिरे प्रति निशाय़ कीर्तन ।
कुन दिन हय़ चन्द्रशेखर-भवन ॥१८४९॥

नित्यानन्द, गदाधर, अद्वैत, श्रीवास ।
विद्यानिधि, मूरारि, हिरण्य, हरिदास ॥१८५०॥

गङ्गादास, वनमाली, विजय़, नन्दन ।
जगदानन्द, बुद्धिमन्त खान्, नाराय़ण ॥१८५१॥

काशीश्वर, वासुदेव, राम गरुड़ाइ ।
गोविन्द, गोविन्दानन्द सकल तथाइ ॥१८५२॥

गोपीनाथ, जगदीश, श्रीमान, श्रीधर ।
सदाशिव, वाक्रेश्वर, भूगर्भ, शुक्लाम्भर ॥१८५३॥

ब्रह्मानन्द, पुरुषोद्त्तम-सञ्जय़ादि यत ।
अनन्त चैतन्यभृत्य नाम निव कत ॥१८५४॥

से-सब सहित एकदिन ए अङ्गने ।
दिवा-निशि विह्वल लईय़ा सङ्कीर्तने ॥१८५५॥

देवेर दुर्लभ नृत्य करे गौरहरि ।
से सुवेश-शोभा सबे देखे नेत्र भरि ॥१८५६॥

गीते यथा—श्रीराग—

चम्पक-कुसूम, कनक नव कुङ्कुम,
तड़ितपुञ्ज जिनि वरण उजोर ।
झलमल मनमथ, फान्द चान्दमुख,
मधुरिम अधरे हास अति थोर ॥१८५७॥

जय़ जय़ गौर, नटन जनरञ्जन,
बलि कलिकाल-गरव भर भञ्जन ॥ ध्रु ॥१८५८॥

मञ्जु, पुलककुल, बलित कलेवर,
गरगर निरत तरल, नहु थिर ।
गद गद भाष, अवश निशि-वासर ।
झर झर कञ्ज नय़ने झर नीर ॥१८५९॥

निरुपम चारु चरित्र करुणामय़,
पतितबन्धु यश ब्विशद विथार ।
भण घनश्याम, भाग भुय़शः रस,
ब्वितरण लागि ललित अवतार ॥१८६०॥

पुनः—कर्णाट—

नाचत भुवन-मनमोहन,
चम्पक कनक कञ्ज जिनि वरणा ।
सुबलनि तनु मृदु, मलय़ज रञ्जित,
पहिरण चीन वसन घन किरणा ॥१८६१॥

हिमकर-निकर निन्दि मधुरानन,
हासत मधुर सुधा यनु झरई ।
भुरुयुग भृङ्ग- पाꣳति लस लोचन,
भगमग अरुण किरण भर हरई ॥१८६२॥

दोलत मणिमय़- हार हरत धृति,
टलमल कुण्डल झलकत श्रवणे ।
चाꣳचर चिकुर, भङ्गिभार-भरे,
विलुलित हालत, तिमिर तार यनु पवने ॥१८६३॥

अभिनय़ ललित, कलित कर किशलय़े,
कत शत ताल धरत पग धरणे ।
नरहरि परम उलस यश गाय़त,
शोभा विपुल कौनक विवरणे ॥१८६४॥

पुन—सोमराग—

नाचत गौर पुरुव रसे भोर ।
कनक धराधर- गरव विभञ्जन,
झलकत अङ्ग अतनु-चित-चोर ॥ ध्र्रु ॥१८६५॥

हासत मृदु मृदु, वदनचान्द छवि,
नाशत घोर कुलुष आꣳधय़ार ।
धरईते ताल, तरल पदपङ्कज,
कम्पई धरणी सहई नाहि भार ॥१८६६॥

तरुण अरुण युग, लोचन भगमग,
अविरल विपुल, पूलककुल साजि ।
गरजत सघन, सिꣳह जिनि विक्रम
बलि कलिकाल विपुल भय़े भाजि ॥१८६७॥

भेदत गगन, गाने प्रिय़ परिकर,
वाय़त खोल ललित करताल ।
मातल आखिल लोक भण नरहरि,
भुवन भरल यश विशद विशाल ॥१८६८॥

पुनः—आस्रपञ्चक—

निरुपम हेमज्योति जिति वरणा ।
सङ्गीत-रङ्गित रङ्गित चरणा ॥१८६९॥

नाचत गौरचन्द्र गुणमणिय़ा ।
चौदिगे हरि हरि धनि धनि धनिय़ा ॥ ध्रु ॥१८७०॥

शरदचन्द्र जिनि सुन्दर वय़ना ।
अहनिशि प्रेमनिझरे झरु नय़ना ॥१८७१॥

विपुल पुलक-परिपूरित देहा ।
निज-रसे भासि ना पाय़त थेहा ॥१८७२॥

जग भरि पूरल ए हेन आनन्दा ।
महिमाहा वञ्चित दास गोविन्दा ॥१८७३॥

ओहे श्रीनिवास, प्रभु आपन-भवने ।
ये भाव प्रकाशे ता वर्णिब कुन जने ॥१८७४॥

आइ महाविह्वल हईय़ा एइखाने ।
नेत्रजले सिक्त हईलेन सङ्कीर्तने ॥१८७५॥

प्रिय़गण-सह प्रभु बाह्य प्रकाशिय़ा ।
श्रीवास-आलय़े गेला एइ पथ दिय़ा ॥१८७६॥

सङ्कीर्तनावेशे रहि श्रीवास-भवने ।
एथा आसि बैसे प्रभु रजनी-विहाने ॥१८७७॥

परम अद्भुत शोभा देखि नेत्र भरि ।
ये आज्ञा करिल ता करिलु शीघ्र करि ॥१८७८॥

के बुझिते पारे गौर-चरित्र गभीर ।
सङ्कीर्तन विना तिलार्धेक नहे थिर ॥१८७९॥

अपराह्न-काले प्रभु सङ्कीर्तन-रङ्गे ।
एइ पथे गङ्गातीरे गेला गण-सङ्गे ॥१८८०॥

गङ्गातीरे सङ्कीर्तनानन्दे मग्न हैय़ा ।
गण-सह आइला गृहे एइ पथ दिय़ा ॥१८८१॥

ये भाव-आवेशे सङ्कीर्तन एइखाने ।
ताहा देखिलेन एथा रहि भाग्यवाने ॥१८८२॥

श्रीगौरचन्द्रेर शोभा भुवनमोहन ।
परम अद्भुत रङ्गे करय़े नर्तन ॥१८८३॥

गीते यथा—धानशी—

भाल रङ्गे नाचे मोर शचीर दुलाल ।
सब अङ्गे चन्दन, दोलय़े वनमाल ॥१८८४॥

विशाल हृदय़े गजमुकुतार हार ।
पदतले ताल उठे नूपुर-झङ्कार ॥१८८५॥

छन्द-विछन्दे कत जाने अङ्गभङ्गि ।
नदीय़ानगरे नाइ एत बड़ रङ्गी ॥१८८६॥

किन्नर करय़े शिक्षा शुनि मृदु गान ।
गन्धर्व ताण्डव हेरि धरय़े धिय़ान ॥१८८७॥

पङ्कजा सङ्कोच पाय़ देखिय़ा नय़ने ।
हासिते विजुरि-छटा पड़य़े दशने ॥१८८८॥

बाꣳधुलि जिनिय़ा राङा ओटखानि हास ।
ओ-रूप हेरिय़ा कान्दे बलरामदास ॥१८८९॥

ओहे श्रीनिवास, प्रभु कीर्तन-आवेशे ।
कहिते ना जानि किछु ये-भाव प्रकाशे ॥१८९०॥

एकदिन कि आनन्द उपजिल मने ।
एइ पथे गेला एका श्रीवास-भवने ॥१८९१॥

सात-प्रहरिय़ा-भावे विलसि तथाय़ ।
एइ पथे आइला निजालय़े गौरराय़ ॥१८९२॥

एइ पुष्पवाटी-मध्ये प्रिय़गण-सने ।
हईला विह्वल कृष्णकथा-आलापने ॥१८९३॥

कि बलिब श्रीनिवास देखिलु ये सुख ।
से सब भाविते एबे विदरिछे बुक ॥१८९४॥

एकदिन एइ घरे प्रभु विश्वम्भर ।
अपूर्व आसने बैसे उल्लास अन्तर ॥१८९५॥

निज प्राणनाथ-पाशे देवी विष्णुप्रिय़ा ।
ताम्बूल योगान, प्रभु खाय़ेन हासिय़ा ॥१८९६॥

हेनई समय़े नित्यानन्द भावावेशे ।
चलिते ढलिते आइला प्रभुर आवासे ॥१८९७॥

देखि प्रेमे विह्वल निताइ दिगम्बर ।
ताꣳरे वस्त्र आपने परान विश्वम्भर ॥१८९८॥

देखि ए चरित्र आइ हासे मने मने ।
नित्यानन्दे विश्वरूप-पुत्रसम जाने ॥१८९९॥

नित्यानन्दे दिल चारि सन्देश खाइते ।
खाइल सन्देश महा-कौतुक ताहाते ॥१९००॥

नित्यानन्द-भारावेश बुझने ना याय़ ।
प्रभु-सह कत कथा रहिय़ा एथाय़ ॥१९०१॥

श्रीनित्यानन्देर श्रीकौपीन एकखानि ।
चाहिय़ा निलेन गौरचन्द्र गुणमणि ॥१९०२॥

से कौपीन खण्ड खण्ड करि गौरराय़ ।
दिलेन सभारे, सभे धरिल माथाय़ ॥१९०३॥

श्रीगौरसुन्दर प्रेमे विह्वल हईय़ा ।
नित्यानन्द-पादोदक सभे खाओय़ाइला ॥१९०४॥

कौपीन-धारण आर पादोदक-पाने ।
ये प्रेमविह्वल ता कहिते केबा जाने ॥१९०५॥

सङ्कीर्तन-सुखेर समुद्र उथलिल ।
गणसह प्रभु नृत्ये विह्वल हईल ॥१९०६॥

गीते यथा—देशपाल—

नृत्यत गौरचन्द्र जनरञ्जन, नित्यानन्द विपदभय़-भञ्जन,
कञ्जनय़न जिति नव नव खञ्जन, चाहनि मनमथ-परव हरे ।
झलकत दुꣳहु तनु, कनक धराधर, नटन घटन पग, धरत धरणीपर, हास मिलित मुख लसत सुधाकर, उचरि वचन अनु अमिय़ झरे ॥१९०७॥

शोभा निरुपम, भनतन आय़त, वेष्टितपरिकरगण गुणगणगाय़त,
मधुर मधुर मृदु मर्दन वाय़त, धाधा धिगि धिगि धिकट धिलङ्ग ।
गणसह सुरगण गगन-पन्थगत, घन घन सरस, कुसुमवर वरयत, जय़ जय़ जय़ ध्वनि भुवन विय़ापत, नरहरि कहब कि प्रेमतरङ्ग ॥१९०८॥

पुनः—कामोद—

आजु कि आनन्द सङ्कीर्तने ।
नाचे गौर-नित्यानन्द, परम आनन्द-कन्द
प्रिय़ परिषदवृन्द सने ॥१९०९॥

नाचे बोले भाल भाल, बाजे खोल करताल,
सभे महा विह्वल प्रेमाय़ ।
नदीर प्रवाह पारा, सभार नय़ने धारा,
केह केह पड़े कारु गाय़ ॥१९१०॥

केह वा पुलकभरे, हुङ्कार गर्जन करे,
काꣳपे केह थिर हैते नारे ।
केहो कारु पाने चाय़ा, दुइ बाहु पसारिय़ा,
कोले करि छाड़िते ना पारे ॥१९११॥

केह कारु पाय़ धरे, पदधूलि लय़ शिरे,
केह भूमे गड़ागड़ि याय़ ।
प्रभु-भृत्य एक रीति, देखि नरहरि अति,
आनन्दे प्रभुर गुण गाय़ ॥१९१२॥

यखन ये प्रभुर आवेश भक्त-मेले ।
तखन सेरूप क्रीड़ा करे कुतूहले ॥१९१३॥

महाप्रभु नित्यानन्द-हरिदास प्रति श्रीकृष्णभजन-प्रचारे आज्ञा—

एकदिन प्रभु एका वसि दिव्यासने ।
सकरुण-नेत्रे निरिखय़े चारिपाने ॥१९१४॥

प्रिय़ नित्यानन्द हरिदासे कहे याह ।
‘श्रीकृष्ण भजिते आज्ञा सर्वत्र यानाह’ ॥१९१५॥

प्रभु-आज्ञा लैय़ा दोꣳहे गेला एइ पथे ।
दोꣳहार आनन्द यत के पारे कहिते ॥१९१६॥

सर्वत्र कहिय़ा ता प्रभुरे जानाइला ।
सभासह प्रभुदास्ये उद्धारिय़ा निला ॥१९१७॥

प्रभुर जगाइ माधाइ-उद्धार—

स्वगणे वेष्टित प्रभु बसिला एथाइ ।
स्तुति कैल दस्यु दुइ—जगाइ-माधाइ ॥१९१८॥

जगाइ-माधाइ दुइ जने देखिबारे ।
विष्णुप्रिय़ा सह आइ बैसे एइ घरे ॥१९१९॥

कहे श्रीनिवास, गौरचन्द्र एइखाने ।
सभासह विह्वल नाचय़े सङ्कीर्तने ॥१९२०॥

गीते यथा—धानशी—

नाचे शचीर दुलाल रङ्गे ।
अद्वैत निताइ, गदाधर श्रीवासादि परिकर सङ्गे ॥१९२१॥
अङ्गभङ्गि कि मधुर छाꣳदे ।
पदभरे मही, करे टलमल,
के ताहे धैरय बान्धे ॥१९२२॥

नाना ताले दिय़ा करतालि ।
गोविन्द माधव, वसु यश गाय़,
चौदिगे शोभय़े भालि ॥१९२३॥

गोराचाꣳद मुखे हरिबोले ।
जगाइ-माधाइ, दोहे हेरि बाहु
पसारि करय़े कोले ॥१९२४॥

गोराचान्देर परश पाय़ा ।
जगाइ-माधाइ, नाचे भुज तुलि
भावेते विह्वल हैय़ा ॥१९२५॥

दोहे लोटाय धरणीतले ।
काꣳपे तनु अनु- पम पुलकित,
तितय़े आखेर जले ॥१९२६॥

गोरा-करुणा-प्रकाश देखि ।
नाचे सुरगण गगनेते रहि,
सघने जुड़ाय़ आꣳखि ॥१९२७॥

के ना धाय़ से करुणा-आशे ।
जय़ जय़ ध्वनि अवनि भरल,
भणे घनश्याम दासे ॥१९२८॥

प्रभु नृत्य देखि सबे हैला विमोहित ।
वधू-सह आइ देखि हैला उल्लसित ॥१९२९॥

कृष्णप्रेमविह्वल महाप्रभुर विभिन्न लीला—

सङ्कीर्तनावेशे प्रभु लैय़्̈आ परिकरे ।
गङ्गाय़ करिय़ा जल-क्रीड़ा आइला घरे ॥१९३०॥

चरण पाखालि तुलसीरे प्रणमिय़ा ।
भुञ्जे विष्णु-प्रसादान्न ए घरे बसिय़ा ॥१९३१॥

भक्षणादि सारि एथा करिला शय़न ।
अलक्षित आसिय़ा सेविल देवगण ॥१९३२॥

प्रभुर ए लीला वा बुझिब कोन जने ।
देखिलु ये सब ता सदाइ जागे मने ॥१९३३॥

एकदिन प्रभु श्रीवासेर बाड़ी गेला ।
ताꣳर शाशुड़ीरे कृपा करि घरे आइला ॥१९३४॥

एकदिन प्रभु एइ पथे गणसने ।
सङ्कीर्तनावेशे चाले नगर-भ्रमणे ॥१९३५॥

नगर भ्रमिय़ा प्रभु उल्लास हिय़ाय़ ।
गणसह गृहे आसि बैसय़े एथाय़ ॥१९३६॥

के बुझे चरित्र, प्रभु कहे सर्वजने ।
प्रेमशून्य देहत्याग करिब एखाने ॥१९३७॥

इहा बलि गङ्गाय़ पड़ाय़े झाꣳप दिय़ा ।
नित्यानन्द-हरिदास आनय़े तुलिय़ा ॥१९३८॥

इथे ये कौतुक ताहा के कहिते पारे ।
सङ्कीर्तन सुखे प्रभु सदाइ विहरे ॥१९३९॥

एइ देख, बाड़ीर निकट रम्य स्थाने ।
हईलेन परम विह्वल सङ्कीर्तने ॥१९४०॥

गीते यथा—बङ्गाल—

नाचत गौरचह्न्द्र गुणधाम ।
झलकत अङ्ग- किराणे मन रञ्जन,
कनक मेरु दूरे दामिनी-दाम ॥ ध्रु ॥१९४१॥

बन्धुर वदन, मदन-मद-मरदन,
मधुरिम-हास युवति-धृतिहारि ।
श्रुतिजिति तरुण, अरुण मणिकुण्डल,
टलमल नय़नयुगल छबि भारि ॥१९४२॥

चाꣳचर चिकन, के कुसुमाञ्चित,
चपल चारु उरे मण्डित माल ।
अभिनव बाहु, भङ्गिभर निरुपम,
धरत चरणतले सुललित ताल ॥१९४३॥

पꣳहु चलु पाश, लसत प्रिय़परिकर,
गाय़त मधुर राग रस माति ।
उलसित सकल, भुवन भण नरहरि,
वाय़त खोल खमक बहु भाꣳति ॥१९४४॥

पुनर्वेलावली—

नाचत गौरचन्द्र नटभूप ।
मनमथ लाख, गरव भर भञ्जन,
अखिल भुवन-जनरञ्जन रूप ॥ ध्रु ॥१९४५॥

अविरत अतुल, भावभरे गरगर,
गरजत अति अद्भुत रुचिकारी ।
मङ्गलमय़पद, धरत धरणी पर,
करत भङ्गि भुजयुगल पसारि ॥१९४६॥

हासत मधुर, अधर मृदु लावणि,
शरद-चान्द जिनि वदन विलास ।
टलमल अरुण, कमलदल लोचन,
कौने करय़ कत रस परकाश ॥१९४७॥

गाय़त मधुर, भक्तगण नव नव,
किन्नर-निकर दरप करु चूर ।
उथलल प्रेम- सिन्धु मही भासल,
नरहरि कुमति परश रहु दूर ॥१९४८॥

चन्द्रशेखराचार्यगृहे महाप्रभुर लक्ष्मीवेशे नृत्य—

सङ्कीर्तनावेशे एथा शचीर तनय़ ।
सदाशिव बुद्धिमन्त खाꣳने डाकि कय़ ॥१९४९॥

आजि चन्द्रशेखराचार्येर गृहे गिय़ा ।
लक्ष्मी आदि वेशेते नाचिब सबे लैय़ा ॥१९५०॥

शङ्ख, शाड़ी, काꣳचुली, स्वर्णादि अलङ्कार ।
योग्य योग्य वेश सज्ज करह सभार ॥१९५१॥

एत कहि गौरचन्द्र प्रिय़गण सने ।
एइ पथे गेला चन्द्रशेखर-भवने ॥१९५२॥

तथा नाना वेशे नृत्य करि विश्वम्भर ।
एथा आसि बसिला वेष्टित परिकर ॥१९५३॥

श्रीगौरचन्द्रेर रङ्ग के बुझिते पारे ।
भक्तसङ्गे विहरय़े विविध प्रकारे ॥१९५४॥

अद्वैतार्येर प्रभु कृपाप्राप्ति आशाय़ ज्ञान-योगा-व्याख्या—

अद्वैतेरे गुरुभक्ति करे गौरराय़ ।
ताहाते अद्वैताचार्य महादुःख पाय़ ॥१९५५॥

अद्वैतेर मने हैल ऐछे कार्य करि ।
याते मोर शास्ति प्रभु करे चुले धारि ॥१९५६॥

एत विचारिय़ा हरिदासे लैय़ा सङ्गे ।
कोन छले विदाय़ हईय़ा चले रङ्गे ॥१९५७॥

प्रभु-क्रोध जन्माइते उपाय़ सृजिल ।
‘भक्ति छाड़ि ज्ञान श्रेष्ठ’ व्याख्या आरम्भिल ॥१९५८॥

निज गृहे वसि दिब्व्य पीड़ार उपरे ।
महादर्पे ‘ज्ञान श्रेष्ठ’ बुझाय़ सबारे ॥१९५९॥

अद्वैताचार्येर व्याख्या शुनिय़ा सकले ।
परस्पर कहे कत रहिय़ा विरले ॥१९६०॥

सीतादेवी श्रीठाकुराणीर प्रति कय़ ।
ना बुझिय़ा एवा कोन रङ्ग प्रकाशय़ ॥१९६१॥

अवश्य हईब एथा प्रभुर गमन ।
एत कहि करय़े सामग्री आय़ोजन ॥१९६२॥

सकल जानय़े अन्तर्यामी गौरचन्द्र ।
एइखाने बसिय़ा हासय़े मन्द मन्द ॥१९६३॥

अद्वैतसङ्कल्पसिद्धि करिबार तरे ।
नगरभ्रमण-छले चले शान्तिपुरे ॥१९६४॥

सङ्गे नित्यानन्द, गति अद्भुत दोꣳहार ।
देखि से माधुर्या धैर्य धरे शक्ति कार ॥१९६५॥

ललितपुरेते कृपा करि सन्न्यासीरे ।
गङ्गापथे दोꣳहे शीघ्र गेला शान्तिपुरे ॥१९६६॥

अद्वैत आचार्य प्रभु गमन जानिय़ा ।
‘ज्ञान श्रेष्ठ’ बाखाने अधिक मत्त हैय़ा ॥१९६७॥

अद्वैत-आलय़े प्रभु करिला गमन ।
अच्युतानन्दादि वन्दे प्रभुर चरण ॥१९६८॥

सबा प्रति शुभदृष्टि करि गोरचन्द्र ।
अद्वैत सम्मुखे गेला सङ्गे नित्यानन्द ॥१९६९॥

प्रभु क्रोधे अद्वैत आचार्ये जिज्ञासय़ ।
‘ज्ञान, भक्ति हैते श्रेष्ठ कह केबा हय़ ?’ ॥१९७०॥

‘सर्वश्रेष्ठ ज्ञान हय़’ अद्वैत कहिला ।
शुनि महाक्रोधे प्रभु बाह्य पासरिला ॥१९७१॥

महाबलवान् प्रभु श्रीगौरसुन्दर ।
लाफ दिय़ा उठे शीघ्र पीड़ार उपर ॥१९७२॥

अद्वैतेर चुले धरि पाड़े उठानेते ।
अद्वैते किलाय़ सुकोमल दुइ हाते ॥१९७३॥

सर्वतत्त्व-ज्ञाता सीता जगत-जननी ।
व्यग्रता करय़े कत कहे मृदु वाणी ॥१९७४॥

हरिदास त्रासेते रहय़े एकपाशे ।
नित्यानन्द रङ्गे अति मन्द मन्द हासे ॥१९७५॥

प्रभु क्रोधे गर्जिय़ा ईश्वर्य प्रकाशिल ।
शास्ति पाइ अद्वैतेर आनन्द बार्ह्̤‌इल ॥१९७६॥

हाते तालि दिय़ा नाचे श्रीअद्वैत राय़ ।
प्रभुर चरण-धूलि करय़े माथाय़ ॥१९७७॥

अद्वैत कहिल कत—शुनि गौरहरि ।
करय़े क्रन्दन अद्वैतेरे कोले करि ॥१९७८॥

नित्यानन्द-हरिदास करय़े क्रन्दन ।
कान्दय़े अद्वैत सीता आदि प्रिय़गण ॥१९७९॥

अद्वैत-तनय़ श्रीअच्युतानन्द कान्दे ।
अद्वैत-भवने केहो थिर नाहि बान्धे ॥१९८०॥

अद्वैत करिला स्तुति, प्रभु वर दिल ।
महा जय़ जय़-ध्वनि भुवन भरिल ॥१९८१॥

अद्वैतेर गृहे हैल प्रभुर भोजन ।
छड़ाइला अन्न पद्माब्वतीर नन्दन ॥१९८२॥

किछुदिन रहि प्रभु अद्वैत-भवने ।
नवद्वीपे आसे महा उल्लसित मने ॥१९८३॥

ज्ञानयोग प्रसङ्गे कहिय़े किछु आर ।
अद्वैत अन्तर बुझे ऐछे शक्ति कार ॥१९८४॥

अद्वैताचार्येर शाखा—शङ्कर नामेते ।
ज्ञान-पक्षे ताꣳर निष्ठा हैल भालमते ॥१९८५॥

अद्वैत शङ्कर प्रति कहे वारे वारे ।
‘मनोरथसिद्धि मुइ कैलु ए प्रकारे ॥१९८६॥

छाड़ छाड़ ओरे रे पागल ! नष्ट हैला’ ।
तेꣳहो ना छाड़े तारे अद्वैत त्याग कैला ॥१९८७॥

महाबहिर्मुख बीज करिल रोपण ।
क्रमे वृद्धि हईब जानिल विज्ञगण ॥१९८८॥

नित्यानन्दाद्वैत, हरिदास प्रभुसङ्गे ।
शान्तिपुर हैते नदीय़ाय़ आइला रङ्गे ॥१९८९॥

निज गृहे आसि, प्रभु बसिला एथाय़ ।
प्रभुके देखिते लोक चतुर्दिके धाय़ ॥१९९०॥

श्रीवास, मुकुन्द, वक्रेश्वर आदि यत ।
हईलेन सबे सङ्कीर्तने उनमत ॥१९९१॥

सङ्कीर्तन-सुखेर समुद्रे प्रभु भासे ।
एइ पथ दिय़ा गेला श्रीवास-आवासे ॥१९९२॥

श्रीवासेर घरे सुख प्रकाशि आसिय़ा ।
मुरारिर घरे गेला एइ पथ दिय़ा ॥१९९३॥

तथा हैते आसि एथा बैसे विश्वम्भर ।
चतुर्दिके शोभय़े सकल परिकर ॥१९९४॥

शचीदेवीर अद्वैतपदधूलि ग्रहण द्वारा वैष्णवापराध-सोचन-शिक्षा—

अद्भुत भङ्गिते प्रभु कहे प्रिय़गणे ।
अपराध कैला माता अद्वैतेर स्थाने ॥१९९५॥

‘यदि ताꣳर पदधूलि धरेन माथाय़ ।
तबे ताꣳर स्थाने ताꣳर अपराध याय़’ ॥१९९६।

एत्त कहि भक्तियोग करय़े प्रकाश ।
आइर ये अपराध शुन श्रीनिवास ॥१९९७॥

‘विश्वरूप बैसे सदा अद्वैत-सभाय़ ।
करिला सन्न्यास तेꣳहो आपन इच्छाय़ ॥१९९८॥

पुत्रेर विच्छेदे आइ व्याकुल हईय़ा ।
मने विचारय़े एथा कान्दिय़ा कान्दिय़ा ॥१९९९॥

अद्वैत गोसाञिर दय़ मात्र नाइ चिते ।
विश्वरूपे बाहिर करिल घर हैते ॥२०००॥

ए पूत्रेओ स्थिर हैते ना देन आचार्या ।
महाविज्ञ हईय़ा केन हेन कार्य ॥२००१॥

आचार्य गोसाञि मोर दुइ पुत्र निल’ ।
एत मने करितेइ भय़ उपजिल ॥२००२॥

एइ अपराध मात्र करिलेन आइ ।
इहा शुनि अद्वैत आइला एइ ठाꣳइ ॥२००३॥

श्रीशचीमाय़ेर कहि महिमा अपार ।
हईला मूर्च्छित प्रेमे कुबेर-कुमार ॥२००४॥

समय़ बुझिय़ा आइ एथाय़ आइला ।
अद्वैत-चरण-धूलि मस्तके धरिला ॥२००५॥

हईलेन हर्ष गौरचन्द्र भगवान् ।
जननीर लक्ष्म्ये अन्ये कैल सावधान ॥२००६॥

प्रेमभक्तिरत्न दाता शचीर तनय़ ।
निरन्तर सङ्कीर्तनानन्दे विलसय़ ॥२००७॥

सङ्कीर्तनावेशे प्रभु आपना ना जाने ।
एइ पथे चलिलेन नगर-भ्रमणे ॥२००८॥

नगर-भ्रमणे महारङ्ग प्रकाशिय़ा ।
गणसह एथा प्रभु बैसे हर्ष हैय़ा ॥२००९॥

व्रजेर विलास सदा उथले हिय़ाय़ ।
सुमधुरस्वरे मुकुन्दादि ताहा गाय़ ॥२०१०॥

निजशुण शुनिते प्रभुर बड़ साध ।
के बुझिते पारे चारु चरित अगाध ॥२०११॥

प्रभुर इङ्गिते गदाधर एइखाने ।
रचय़े प्रभुर वेश पुष्पेर भूषणे ॥२०१२॥

दास गदाधर प्रभुप्रिय़ नरहरि ।
वेशेर सामग्री सब देन सज्ज करि ॥२०१३॥

भुवनमोहन वेश रचिल प्रभुर ।
ये वारेक देखे ताꣳर धैर्य याय़ दूर ॥२०१४॥

वेशेर सुषमा ये उपमा नाइ ताय़ ।
मुरुछय़े कामकोटि अङ्गेर छटाय़ ॥२०१५॥

प्रभुप्रिय़गण चाहि चान्दमुख-पाने ।
येरूप हईल ता कहिते केबा जाने ॥२०१६॥

आपनि निछय़े भाव आवेश सबार ।
करे आरात्रिक, सुख शोभा नाइ पार ॥२०१७॥

गीते यथा—गौरी—

जय़ जय़ आरति गौरकिशोर ।
लसत सिꣳहासने जनु कनकाचल,
डगमग जगत-युवती-चित-चोर ॥ ध्रु ॥२०१८॥

श्रीअद्वैत प्रेमभरे, गरगर आरति,
करु निज नाथे नेहारि ।
मणिगण जटित सु- कनक थारि पर,
दमकत दीप दुरित तमहारि ॥२०१९॥

दक्षिण भागे, भाति रीति अद्भुत,
नित्यानन्दचन्द्र रसभोर ।
वामे गदाधर, सरस भङ्गि तहि
कोउ धरत नल्व छत्र उजोर ॥२०२०॥

श्रीनिवास वर- यत कुसुमावली,
चामर करु नरहणि अनिवार ।
शुक्लाम्बर वर, चरचत चन्दन,
गुप्तमुरारि करत जय़कार ॥२०२१॥

माधव, वासु- घोष , पुरुषोत्तम
विजय़, मुकुन्द आदि गुणि-भूप ।
गाय़त मधुर, राग श्रुति मूरुछन,
ग्राम सप्त स्वर भेद अनुप ॥२०२२॥

बाजत मुरज, मृदङ्ग चङ्गड़्‌अक,
वीण, विषाण, वेणु चलु ओर ।
घन घन घण्ट, झमकत झाꣳझरी,
झन न न झाꣳज गरजे घन घोर ॥२०२३॥

नाचत परम- हरष वक्रेश्वर,
सरस भाꣳति गति नाटक सुढार ।
उघटत धिकट, धिकट धिधि कट,
तक थै थै थै ति विविध परकार ॥२०२४॥

विवश पुरुर रसे, रसिक गदाधर,
श्रीधर, गौरीदास, हरिदास ।
के विरचब सब, भकत मत्त अति,
निरखि गौरमुख-मधुरिम हास ॥२०२५॥

सुरगण गगने, मगन गणसह,
सुरपति कत यतने करत परिहार ।
पार्वतीपति चतु- रानन पुलकित
झर झर नय़ने झरत जलधार ॥२०२६॥

त्रिभुवन उलस, शेष यश वरणत,
स्तुति करु मुनि नव नाम उचारि ।
नरहरि पहु व्रज- भूषण रसमय़,
नदीय़ापुर परमानन्दकारी ॥२०२७॥

परम मङ्गल आरात्रिक सन्दर्शने ।
हैल सबे विह्वल आपना नाहि जाने ॥२०२८॥

नाना भक्ष द्रव्य लैय़ा प्रभुरे भुञ्जाय़ ।
भुञ्जय़े कौतुक सबे प्रभुर आज्ञाय़ ॥२०२९॥

हईल अनेक रात्रि देखि सर्वजन ।
निज निज स्थाने सबे करिला शय़न ॥२०३०॥

शुइबेन गौरचन्द्र जानि गदाधर ।
रचिलेन शय्या सुकोमल मनोहर ॥२०३१॥

शुइते चलेन प्रभु हैय़ा उल्लसित ।
गादाइ-रचित माल्य-चन्दने भूषित ॥२०३२॥

एइ घरे शय़न करिला विश्वम्भर ।
शुइलेन निकटे पण्डित गदाधर ॥२०३३॥

दुꣳहु वाक्यामृत-पाने दोꣳहे मग्न हैला ।
के बुझिते पारे गौर-गदाधर-लीला ॥२०३४॥

प्रभाते जागिय़ा गदाधर हर्षमने ।
करय़े ये कार्य ता वर्णय़े विज्ञगणे ॥२०३५॥

तथाहि श्रीचैतन्यचरिते द्वितीय़ प्रक्रमे—
गदाधरो महाप्राज्ञो ब्राह्मणः सत्कुलोद्भवः ।
प्रेमभक्तश्च तत्पादसन्निकर्षे’भितिष्ठति ॥२०३६॥

तेन सार्द्धꣳ रजन्याꣳ स तिष्ठन्नूचे शुभाक्षरम् ।
दातव्यꣳ भवता प्रातर्वैष्णवेभ्यः प्रसादकम् ॥२०३७॥

इत्युक्त्वा गात्रमाल्यानि ददौ तस्य करे हरिः ।
ततः प्रभाते विमले ते सर्वे समुपागताः ॥२०३८॥

यस्मै यस्मै च यद्दत्तꣳ तत्तस्मै सम्प्रदत्तवान् ।
ततस्ते हृष्टमनसः स्नात्वा सुरनदीजले ॥२०३९॥

पूजय़ित्वा जगन्नथꣳ नैवेद्यꣳ विनियुज्य च ।
पुनस्तꣳ देवदेवेशमाजग्मुर्मुदिताशय़ः ॥२०४०॥

गदाधर प्रत्येहꣳ तꣳ चन्दनेनानुलेपनम् ।
कृत्वा माल्यादि गात्रेषु ददाति सततꣳ मुदा ॥२०४१॥

शय़नीय़े गृहे शय्याꣳ कृत्वा तत्सन्निधौ सुखम् ।
स्वपिति श्रद्धय़ा युक्तः शृण्वꣳस्यामृतꣳ वचः ॥२०४२॥

स तु गदाधरपण्डितः सत्तमः
सततमस्य समीपसुसङ्गतः ।
अनुदिलꣳ भजते निजजीवित
प्रिय़तमꣳ तमतिस्पृहय़ा युतः ॥२०४३॥

निशि तदीय़समीपगतः स्थिरः
शय़नमुत्सुक एव करोति सः ।
विहरणाम्तमस्य निरन्तरꣳ
तदुपभुक्तमनेन निरन्तरम् ॥२०४४॥

ओहे श्रीनिवास प्रभु रजनी-विहाने ।
विलसे परमानन्दे भक्तगोष्ठी-सने ॥२०४५॥

एथा दिव्यासने बैसे प्रभु गौरराय़ ।
करिते दर्शन न्गरिय़ा लोक धाय़ ॥२०४६॥

श्रीमन्महाप्रभुर भक्तवृन्देर प्रति करुणा प्रकाश ओ निर्बन्धसहकारे श्रीहरिनामोपदेश प्रदान—

प्रभु-पाशे आसि प्रणमय़े वारवार ।
प्रभु कहे—‘कृष्ण भक्ति हüक सभार’ ॥२०४७॥

सभा प्रति करि प्रभु करुणा अशेष ।
हरिनाम महामन्त्र करे उपदेश ॥२०४८॥

‘हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे’ ॥२०४९॥

पुनः प्रभु कहे भाइ निर्बन्ध करिय़ा ।
‘हरिनाम जप सभे कर घरे गिय़ा ॥२०५०॥

हईब सकल सिद्धि मन्त्रेर प्रतापे ।
पाइबा परमानन्द एइ मन्त्रजपे’ ॥२०५१॥

पुनः दन्त तृण धरि कहे सबा प्रति ।
‘करिते श्रीकृष्ण कीर्तन दिवाराति’ ॥२०५२॥

ऐछे श्रीमुखेर उपदेश सभे पाइ ।
प्रणमिय़ा मन्त्र जप करे घरे याइ ॥२०५३॥

प्रभुर आज्ञाय़ सबे उल्लास अन्तरे ।
सꣳकीर्तन आरम्भ करिला घरे घरे ॥२०५४॥

कादि दुष्ट कीर्तन सहिते नारे कभु ।
करिल कीर्तन-वाद शुनिलेन प्रभु ॥२०५५॥

शुनि महाक्रोधयुक्त हैय़ा गौरहरि ।
आपनार तत्त्व प्रकाशये दर्प करि ॥२०५६॥

घन घन हुङ्कार करय़े महारङ्गे ।
नगरकीर्तने प्रभु साजे गणसङ्गे ॥२०५७॥

हईल सर्वत्र ध्वनि—‘शचीर नन्दन ।
नगरे नगरे आजि करिब कीर्तन’ ॥२०५८॥

नगरिय़ा लोके आज्ञा कैल गौरराय़ ।
‘गोधूलि-समय़े सबे आसिबे एथाय़’ ॥२०५९॥

नगरिय़ा लोक महाप्रफुल्ल हृदय़ ।
साजिय़ा आइला एथा शोभा अतिशय़ ॥२०६०॥

लोकेर नाहिक अन्त ओहे श्रीनिवास ।
जय़ जय़ शब्द व्यापि ए भूमि आकाश ॥२०६१॥

श्रीगौरसुन्दर महा उल्लसित-मने ।
आगे सङ्कीर्तनारम्भ कैल एइखाने ॥२०६२॥

भुवनमोहन-वेशे नाचे गौरचन्द्र ।
वामे गदाधर से दक्षिणे नित्यानन्द ॥२०६३॥

अद्वैत, श्रीवास, हरिदास, वक्रेश्वर ।
नरहरि दास, गदाधर, दामोदर ॥२०६४॥

मुरारि, मुकुन्द, वासु, गोविन्दादि यत ।
सब नाचे गाय़ शोभा के कहिल कत ॥२०६५॥

एथा महाविह्वल हईय़ा सङ्कीर्तने ।
करिला सम्प्रदाबद्ध गौराङ्ग आपने ॥२०६६॥

प्रभुर आदेशे हर्ष श्रीअद्वैतराय़ ।
एथा हैते चले आगे एक सम्प्रदाय़ ॥२०६७॥

ताꣳर नृत्य गीते केउ स्थिर नाहि बान्धे ।
किबा स्त्री-बालक सबे फुकारिय़ा कान्दे ॥२०६८॥

एथा हैते पृथक पृथक सम्प्रदाय़ ।
श्रीवासादि चले महारङ्गे नाचे गाय़ ॥२०६९॥

एक सम्प्रदाय़ प्रभु शरीर नन्दन ।
एइ पथे चले शोभा भुवन मोहन ॥२०७०॥

एइखाने आइ पुत्रवधुर सहिते ।
प्रेमाय़ विह्वल हैला से शोभा देखिते ॥२०७१॥

प्रकाशे अद्भुत लीला प्रभु गौरराय़ ।
सबे सꣳकीर्तनानन्द-समुद्रे डुबाय़ ॥२०७२॥

एक मुखे कि बलिब से अद्भुत कथा ।
नगर-कीर्तन करि प्रभु आइल एथा ॥२०७३॥

एइखाने बैसय़े वेष्टित सर्वजने ।
हैल निशि भोर कृष्ण-चरित्र कथने ॥२०७४॥

एकदिन गौरचन्द्र नदीय़ा नगरे ।
चलय़े भ्रमणे वैष्णवेर घरे घरे ॥२०७५॥

प्रथमेइ एइ पथे करिला गमन ।
चतुर्दिके वेष्टित परम प्रिय़गण ॥२०७६॥

सर्वत्र भ्रमण प्रभु करि महारङ्गे ।
गृहे आसि एथाइ बैसय़े गण सङ्गे ॥२०७७॥

ओहे श्रीनिवास एकदिन एइखाने ।
भुवनमोहन-वेशे नाचे सङ्कीर्तने ॥२०७८॥

प्रभुर चरित्र केबा बुझिबारे पारे ।
सङ्कीर्तने अनुग्रह करे यारे तारे ॥२०७९॥

पुत्र सह बङ्गदेशी विप्र शुद्धाचार ।
भिक्षुक ब्राह्मण, वनमाली नाम तार ॥२०८०॥

तेꣳहो गौरचन्द्रे देखे श्यामल सुन्दर ।
शिरे शिखिपुच्छ, परिधेय़ पीताम्बर ॥२०८१॥

अधरे स्पर्शय़े वꣳशी देखिय़ा विह्वल ।
‘एइ कृष्ण कृष्ण’ बलि करे कोलाहल ॥२०८२॥

कि बलिब वनमाली-विप्र भाग्यवाने ।
दिलेन अमूल्य प्रेमरत्न एइखाने ॥२०८३॥

एथा प्रभु भक्ते नाम-महिमा कहिल ।
पड़ुय़ा अधम अर्थवादे दुःख दिल ॥२०८४॥

गणसह सचेल करिला गङ्गास्नान ।
दुलिय़ाओ कभु ना देखिल मुख तान ॥२०८५॥

एकदिन सङ्कीर्तनानन्दे गौरराय़ ।
एक आस्रबीज रङ्गे रोपिल एथाय़ ॥२०८६॥

सेइ क्षणे जन्मि वृक्ष फलिते लागिल ।
पाड़ि पक्व आस्र बहु कृष्णे समर्पिल ॥२०८७॥

नाहिक वल्कल अष्टि अमृत सोसर ।
एकफले पूर्ण हय़ एकेर उदर ॥२०८८॥

भुञ्जिल से फल प्रभु भक्ते भुञ्जाइला ।
निति वार मास फले, ए अद्भुत लीला ॥२०८९॥

एकदिन एइखाने कीर्तनसमय़ ।
हैल महा मेघघटा देखि लागे भय़ ॥२०९०॥

मन्दिरा लईय़ा प्रभु एथा दाꣳड़ाइते ।
मेघ उड़ि गेल सबे हईला हर्ष चिते ॥२०९१॥

लोकशिक्षा लागि प्रभु स्वतन्त्र ईश्वर ।
गणसह मार्जना करय़े विष्णुघर ॥२०९२॥

तथाहि श्रीकृष्णचैतन्यचरिते द्वितीय़-प्रक्रमे—
अथापरदिने देवो भक्तिꣳ सꣳशिक्षय़न् स्वकान् ।
देवालय़ान् ययौ विप्रैः सार्द्धꣳ सन्मार्जनीकरः ॥२०९३॥

कुद्दालꣳ चाꣳशभागोषु धटीꣳ कटिवरे वहन् ।
नेतवस्त्रकृतोष्णीषो बालसूर्यसमप्रभः ॥२०९४॥

आचार्याद्या महात्मनः कुद्दालमार्जनीकराः ।
कृष्णस्य हडिपा भूत्वा द्वारꣳ देवालय़स्य ते ॥२०९५॥

भित्तिꣳ च मार्जय़ामासुः सह कृष्णेन सद्गुणाः ।
एवस्प्रकारꣳ नृहरेः शिक्षाꣳ शतसहस्रशः ।
भगवान् स्वात्मतन्त्रे’पि कारुण्येनाभ्यशिक्षय़त् ॥२०९६॥

एकदिन गोपी गोपी बोलय़े एथाइ ।
केह कहे कृष्ण केन ना बोले निमाइ ॥२०९७॥

ना बुझि आशय़ सेइ पड़ुय़ा अधम ।
ऐछे कत कहे शुनि हैला रुद्रसम ॥२०९८॥

ठेङ्गा हाते धाय़ प्रभु ताहारे मारिते ।
पलाय़ ब्राह्मण महा-भय़ पाय़ चिते ॥२०९९॥

ए-पड़ुय़ा मिलि आर पड़ुय़ार सने ।
निन्दय़े प्रभुरे याय़ ये वा लय़ मने ॥२१००॥

प्रभुर निन्दाय़ पड़ुय़ार बुद्धिनाश ।
सुपठित विद्या कारु ना हय़ प्रकाश ॥२१०१॥

प्रभुर ये मने ताहा प्रकाश ना करे ।
गणसह कीर्तने विलसे निज-घरे ॥२१०२॥

एकदिन केशवभारती एथा आइला ।
ताꣳरे नमस्करि निमन्त्रिय़ा भिक्षा दिला ॥२१०३॥

ना जानिय़े कि कथा हईल परस्परे ।
भारती गेलेन शीघ्र कण्टकनगरे ॥२१०४॥

श्रीवासेर गृहे गिय़ा आसि विश्वम्भर ।
एथाइ बैसय़े सङ्गे प्रिय़ गदाधर ॥२१०५॥

स्नान करि विष्णुपूजा करिबारे चले ।
मुख वक्ष वस्त्र भिजे नय़नेर जले ॥२१०६॥

नेत्रधारा निवारिते नारे गौरराय़ ।
गदाधर विष्णु पूजे प्रभुर आज्ञाय़ ॥२१०७॥

व्रजेर विलासे प्रभु मग्न अतिशय़ ।
निरन्तर सेइ कथा गदाधर कय़ ॥२१०८॥

के बुझिते पारे गौरचन्द्रेर विलास ।
करय़े सम्पूर्ण सकलेर अभिलाष ॥२१०९॥

विष्णुप्रिय़ादेवीर जन्माय़ परितोष ।
ऐछे कार्य करे याते माय़ेर सन्तोष ॥२११०॥

ओहे श्रीनिवास, एइ प्रभुर भवने ।
देखाइल ये ये लीला कैल ये ये स्थाने ॥२१११॥

ए सकल स्थान-सन्दर्शने दुःख-क्षय़ ।
देवेर दुर्लभ प्रेमभक्ति लभ्य हय़ ॥२११२॥

एबे बाटी-बहिर्भूत स्थान देखाइब ।
यथा ये विलास ताहा किछु जानाइब ॥२११३॥

बाल्यकालवधि बाटी-बहिर्भूत स्थाने ।
कैला प्रभु अद्भुत विलास गणसने ॥२११४॥

से सकल स्थान सन्दर्शन कराइय़ा ।
पुनः ए बाटीते स्थान देखाब आसिय़ा ॥२११५॥

स्थाने ये प्रकार ताहाओ जानाइब ।
एखने से सब कथा कहिते नारिब ॥२११६॥

ऐछे कत कहि प्रभु-भवन हईते ।
चलय़े ईशान श्रीनिवासादि-सहिते ॥२११७॥

श्रीनिवास प्रति कहे मधुर वचने ।
एथा बाल्यकाले प्रभु खेले शिशु-सने ॥२११८॥

ओहे श्रीनिवास, एइ कदम्बेर तले ।
खेले दिगम्बर प्रभु बालकेर मेले ॥२११९॥

प्रभुर अपूर्व शोभा देखि शिष्यगण ।
प्रभु ऊर्ध्वमुखे करे वृक्ष निरीक्षण ॥२१२०॥

कदम्बेर फुल मागे यार ताꣳर ठाꣳइ ।
सभे कहे—‘एबे फुल ना हय़ निमाइ’ ॥२१२१॥

शुनि अर्ध कान्दने अद्भुत शोद्भा येन ।
दुइ नेत्रे अश्रुबिन्दु-युक्त मुक्ता येन ॥२१२२॥

सभा-प्रति कहे प्रभु श्रीचन्द्रवदने ।
पाइबे अवश्य पुष्प देखह एस्थाने ॥२१२३॥

कोन भाग्यवन्त वृक्षपाने निराखिते ।
देखे एक पुष्प तेꣳह पाड़िल तुरिते ॥२१२४॥

निमाइर हाते पुष्प दिय़ा कोले कैल ।
सकलेर मने महा-विस्मय़ जन्मिल ॥२१२५॥

एइ बटवृक्षतले पुत्रे कोले लैय़ा ।
षष्ठी पूजे याइ नाना उपहार दिय़ा ॥२१२६॥

एथा छिल एक निम्ब-वृक्ष पुरातन ।
फलहीन पुष्पेर सौगन्ध विलक्षण ॥२१२७॥

अत्यन्त निबिड़ छाय़ा शोभा अतिशय़ ।
वृक्षोपरि कभु कोन पक्षी ना बैसय़ ॥२१२८॥

यतदिन गृह रहिलेन विश्वम्भर ।
वृक्षतले कैल क्रीड़ा अति मनोहर ॥२१२९॥

गौरीदास पण्डितेरे प्रभु आज्ञा कैला ।
तेꣳहो सेइ वृक्षे दुइ मूर्ति प्रकाशिला ॥२१३०।

हईलेन यैछे दुइ प्रभुर प्रकाश ।
ये अति अद्भुत कथा अद्बुत विलास ॥२१३१॥

गौरीदास पण्डित परम प्रेममय़ ।
नित्यानन्द-चैतन्येर प्रिय़ अतिशय़ ॥२१३२॥

कि बलिब निमाइचाꣳदेर क्रीड़ाकथा ।
आपनार इच्छाय़ फिरय़े यथा तथा ॥२१३३॥

यत उपद्रव करे बन्धुवर्ग-घरे ।
से सब कहिते से अनन्त शक्ति धरे ॥२१३४॥

एइ विप्रगृहे एकदिन विश्वम्भर ।
दुग्ध चुरि करि पिय़े निर्भय़ अन्तर ॥२१३५॥

शिकाय़ दधिर भाण्ड देखि बार्ह्̤‌ए सुख ।
भाण्ड छिद्र करि तार तले पाते मुख ॥२१३६॥

करि दधि भक्षण चलय़े धीरे धीरे ।
विप्र आसि धरिल निमाइर वाम करे ॥२१३७॥

बिप्रपदे धरि प्रभु कहे वारवार ।
आर ना करिब इहा दोहाइ तोमार ॥२१३८॥

शुनि विप्र दधिबिन्दुयुक्त मुख देखि ।
हईला विह्वल पालटिते नारे आꣳखि ॥२१३९॥

निमाइचान्देरे विप्र कहे वारवार ।
प्रतिदिन दधि-दुग्ध खाइबे आमार ॥२१४०॥

ऐछे नाना उपद्रव करे घरे घरे ।
बाह्ये से सभार क्रोधे, उल्लास अन्तरे ॥२१४१॥

एइ पथे भाग्यवन्त चोर दुइजन ।
विश्वम्भरे घरे राखि कैल पलाय़न ॥२१४२॥

एइखाने धूला लैय़ा खेले गौरहरि ।
ताहे ये अद्भुत शोभा कहिते ना पारि ॥२१४३॥

ओहे श्रीनिवास, देख स्थान ए निर्जन ।
एथा छिला गुप्ते सेइ तैर्थिक ब्राह्मण ॥२१४४॥

जगदीश हिरण्य विप्रेर ए आलय़ ।
याहार नैवेद्य एकादशीते भुञ्जय़ ॥२१४५॥

एथा वसि विप्रगण सुमधुर भाषे ।
निमाइर चाञ्चल्यकला कहय़े उल्लासे ॥२१४६॥

एइ देख जाह्नवीर पुलिन सुन्दर ।
शिशु सङ्गे खेले एथा शचीर कुमार ॥२१४७॥

से सकल खेला केहु ना देखे ना शुने ।
से सकल खेला खेले महाहर्ष-मने ॥२१४८॥

एइ पथे मुरारिगुप्तेर आगमन ।
ज्ञान-व्याख्याकाले करे हस्तेर चालन ॥२१४९॥

प्रभु सेइरूपे तारे विद्रूप करय़ ।
ताꣳर गृहे गेला ताꣳर भोजन-समय़ ॥२१५०॥

मुतिलेक तार थाले कहि तत्त्वज्ञान ।
एइ देख मुरारिगुप्तेर वासस्थान ॥२१५१॥

गङ्गातीरे देख ए अपूर्व देवताय़ ।
सर्वसनोरथ-सिद्धि इहार कृपाय़ ॥२१५२॥

गङ्गास्नान करि देवे पूजे कल्यागण ।
अकस्मात् आइलेन शचीर नन्दन ॥२१५३॥

कल्यागण-मध्ये वसि करे नाना रङ्ग ।
से सब देखिते बार्ह्̤‌ए सुखेर तरङ्ग ॥२१५४॥

वल्लभ-दुहिता एथा आइला आर दिने ।
कि बलिब ये कौतुक हईल ताꣳर सने ॥।२१५५॥

एइ पथे शिशुगण-सङ्गे विश्वम्भर ।
प्रतिदिन थेलिय़ा याय़ेन निज-घर ॥२१५६॥

एथाइ कलह करे अन्य शिशुसने ।
से सभारे जिनय़े निमाइर सङ्गिगणे ॥२१५७॥

चञ्चलेर शिरोमणि निमाइ सुन्दर ।
चञ्चल बालकगण सङ्गे निरन्तर ॥२१५८॥

जाह्नवीर एइ घाटे शचीर कुमार ।
करे उपद्रव यत लेखा नाइ तार ॥२१५९॥

ब्राह्मण-सज्जन बाह्ये क्रोधयुक्त हईय़ा ।
स्नानकाले से चाञ्चल्य मिश्रे कहे गिय़ा ॥२१६०॥

बालिका सकल निमाइर चञ्चलता ।
कहे शचीमाये गिय़ा से अद्भुत कथा ॥२१६१॥

एइ वृक्षतले विश्वरूप महाशय़ ।
‘निमाइ मनुष्य नहे’ मने विचारय़ ॥२१६२॥

एथा श्रीअद्वैत आदि प्रभु-प्रिय़गण ।
जीवेर कुमति देखि करय़े क्रन्दन ॥२१६३॥

विश्वरूप व्याख्या करे कृष्णभक्ति सार ।
शुनिय़ा अद्वैतदेव करय़े हुङ्कार ॥२१६४॥

विश्वरूपे कोले लईय़ा अद्वैत नाचय़ ।
एथा सर्वभक्तिर आनन्द अतिशय़ ॥२१६५॥

एथा वसि कृष्णेर चरित्र सभे कय़ ।
शुनि निज-कथा आइला शचीर तनय़ ॥२१६६॥

दिगम्बर धूलाय़ धुसर सभे देखि ।
हईला मुग्ध केह फिराइते नारे आꣳखि ॥२१६७॥

एथा दाꣳड़ाइय़ा विश्वम्भर हर्षचिते ।
विश्वरूपे के चल भोजन करिते ॥२१६८॥

एइ पथे धरि विश्वरूपेर वसन ।
घरे चले से अद्भुत भङ्गिते गमन ॥२१६९॥

विश्वम्भर-सङ्गे विश्वरूप चलि याय़ ।
वारवार निमाइचान्देर मुख चाय़ ॥२१७०॥

विश्वरूप कथा कि बलिब श्रीनिवास ।
किछुदिने विश्वरूप करिला सन्न्यास ॥२१७१॥

विश्वरूप लागि भक्तगण एइखाने ।
कहि कत व्याकुल चलिते चाहे वने ॥२१७२॥

पाषण्डेर वाक्य-वज्राघाते भक्तगण ।
एइखाने वसि महादुःखे निमगन ॥२१७३॥

एथा श्रीअद्वैतदेव गुणेर आलय़ ।
महादर्प करि भक्तगणे प्रबोधय़ ॥२१७४॥

एइ गृहे भक्तगण करे हरिध्वनि ।
धाइÿआ आइसे विश्वम्भर ताहा शुनि ॥२१७५॥

सबे कहे केने बाप आइला हेथाय़ ।
शुनि कहे किबा कार्ये डाकिला आमाय़ ॥२१७६॥

एत कहि शिशु-सङ्गे याय़ खेलाइते ।
चिनिते नारय़े केह ताꣳर इच्छामते ॥२१७७॥

ओहे श्रीनिवास, कि बलिब एइखाने ।
निमाइ पड़ेन ता प्रशꣳसे सर्वजने ॥२१७८॥

विश्वरूप-सन्न्यास-आशङ्का करि चिते ।
विश्वम्भरे पिता निष्बेधिलेन पड़िते ॥२१७९॥

पड़िते ना पाइय़ा निमाइर दुःख मने ।
पुनः आरम्भिलेन उद्धत्य शिशुसने ॥२१८०॥

ए सकल गृहे नाना उपद्रव करे ।
क्रोध करे, केह किछु कहिते ना पारे ॥२१८१॥

जगन्नाथ मिश्र शिष्टगणेर कथाय़ ।
पड़िते कहेन पुत्रे उल्लास हिय़ाय़ ॥२१८२॥

पड़य़े निमाइ प्रिय़ शिशुगण-सने ।
करे नाना विद्याचर्चा वसि एइखाने ॥२१८३॥

जगन्नाथ मिश्र प्रिय़तमेर ए-घर ।
निमाइर यज्ञसूत्र-कार्ये से तत्पर ॥२१८४॥

एइ गङ्गादास पण्डितेर बाड़ी हय़ ।
व्याकरण पड़े एथा शचीर तनय़ ॥२१८५॥

दिने दिने व्याकरणे हैय़ा चमत्कार ।
व्याकरणे करय़े टिप्पनी आपनार ॥२१८६॥

कृष्णानन्द श्रीकमलकान्त मुरारिगुप्ते ।
एथा रहि फाꣳकि जिज्ञासय़े हर्षचिते ॥२१८७॥

विद्यारसे मग्न हैय़ा श्रीगौरसुन्दर ।
करय़े ये क्रिय़ा ब्रह्मादिर अगोचर ॥२१८८॥

जाह्नवीर एइ घाटे शिष्यगण सङ्गे ।
कलक्रीदा करि गृहे चले महारङ्गे ॥२१८९॥

विष्णुपूजा करि तुलसीरे जल दिय़ा ।
भुञ्जिय़ा प्रसाद रहे एथाइ आसिय़ा ॥२१९०॥

शास्त्रेर प्रसङ्ग विना किछुइ ना भाय़ ।
परम पण्डित हैय़ा फिरे नदीय़ाय़ ॥२१९१॥

एकदिन मुरारिगुप्तेर एइखाने ।
कहे कत ताहे ताꣳर क्रोध नाहि मने ॥२१९२॥

करे शास्त्रचर्चा प्रभु भृत्य दुइजन ।
अन्येर का कथा शुनिय़ा हर्ष देवगण ॥२१९३॥

रुद्र-अꣳश मुरारि आपना नाइ जाने ।
प्रभुर व्याख्याय़ महानन्द बार्ह्̤‌ए मने ॥२१९४॥

एइ देख, श्रीवल्लभ-आचार्येर घर ।
याꣳर कन्या लक्ष्मी, येꣳहो सर्वाꣳशे सुन्दर ॥२१९५॥

कहिते कि वल्लभ-आचार्य भाग्यवान् ।
एइखाने कैल विश्वम्भरे कन्यादान ॥२१९६॥

विवाहेर पूर्वे गङ्गातीरे एइ पथे ।
हैल श्रीलक्ष्मीर देखा विश्वम्भर साथे ॥२१९७॥

वनमाली आचार्येर एइ बाड़ी हय़ ।
लक्ष्मीर विवाहे याय़ उद्योगातिशय़ ॥२१९८।

श्रीलक्ष्मीरे विवाह करिय़ा विश्वम्भर ।
एइ पथे महारङ्गे यान निज घर ॥२१९९॥

एथा बहु लोक विश्वम्भरे प्रशꣳसय़ ।
प्रशꣳसे शचीरे यार एहेन तनय़ ॥२२००॥

एइखाने रहिय़ा प्रभुर भक्त यत ।
ना चिनिय़ा निज-प्रभु शिक्षा देन कत ॥२२०१॥

श्रीमुकुन्द पण्डित रहिय़ा एइखाने ।
पक्ष-प्रतिपक्ष बहु करे प्रभु-सने ॥२२०२॥

एथा पाषण्डीर वाक्ये क्रोधयुक्त हैय़ा ।
कहेन अद्वैत सबे हुङ्कार करिय़ा ॥२२०३॥

किछुदिन परे एइ नदीय़ा-भितर ।
देखिबा कृष्णेरे शुनि उल्लास अन्तर ॥२२०४॥

एइ देख गोपीनाथ आचार्येर घर ।
मध्ये मध्ये एथा आइसेन विश्वम्भर ॥२२०५॥

श्रीईश्वरपुरी किछु दिन एथा छिला ।
‘कृष्णलीलामृत ग्रन्थ’ एथाइ रचिला ॥२२०६॥

गदाधर पण्डिते परम स्नेह करे ।
ताꣳर प्रेम-चेष्टा देखि पड़ाइला ताꣳरे ॥२२०७॥

विश्वम्भर-प्रति श्रीपुरीर प्रीति अति ।
ग्रन्थ परिशोधन करिते कहे निति ॥२२०८॥

विश्वम्भर समीहा करेन अतिशय़ ।
याहाते ताꣳहार प्रीति से कार्य करय़ ॥२२०९॥

एइखाने गदाधर पण्डित-सहिते ।
हैल शास्त्रचर्चा अति कौतुक ताहाते ॥२२१०॥

एथा सबे शास्त्रचर्चा शुनि विश्वम्भरे ।
‘कृष्ण भक्ति हौक’ बलि आशीर्वाद करे ॥२२११॥

एइखाने श्रीवासादि वैष्णव सबारे ।
प्रणमिते कत शिक्षा देन विश्वम्भरे ॥२२१२॥

एइ देख श्रीमुकुन्द सञ्जय़ भवन ।
एथा शास्त्रचर्चा प्रभु करे अनुक्षण ॥२२१३॥

एथाइ वासय़ा विप्रगण सबे कहे ।
वाय़ु अधिकार कैल विश्वम्भर-देहे ॥२२१४॥

प्रेमभक्ति-विकार ताहा केहो नाइ जाने ।
वाय़ु-शान्ति हैल शुनि सबे हर्ष मने ॥२२१५॥

नवद्वीपे गौराङ्गेर अद्भुत विलास ।
सबा सह करे सदा हासिय़ा सम्भाष ॥२२१६॥

केबा ना मोहित देखि शचीर नन्दने ।
एइ पथे चले प्रभु नगर भ्रमणे ॥२२१७॥

एइ तन्तुवाय़-गृहे प्रभु विश्वम्भर ।
वस्त्र लैय़ा परिलेन शोभा मनोहर ॥२२१८॥

एइ गोपगण-गृहे परम कौतुके ।
दधि दुग्ध नवनीत भुञ्जे महासुखे ॥२२१९॥

एइ गन्धवणिकेर घरे गौरहरि ।
परिलेन दिव्य गन्ध अनुग्रह करि ॥२२२०॥

एइ मालाकार-घरे पड़ुय़ार सङ्गे ।
परे दिव्यमाला झलमल करे अङ्गे ॥२२२१॥

एइ ताम्बूलीर घरे आसि गौरराय़ ।
ताम्बूल भक्षण करे उल्लास हिय़ाय़ ।२२२२॥

ओहे श्रीनिवास, गौरचन्द्र गणसङ्गे ।
नवद्वीपे भ्रमण करय़े महारङ्गे ॥२२२३॥

पूर्वे मधुपुरे प्रभु करिय़ा भ्रमण ।
करिलेन तृप्त ऐछे सकलेर मन ॥२२२४॥

शङ्खवणिकेर एइ भवने आसिय़ा ।
लईलेन शङ्ख अति कौतुक करिय़ा ॥२२२५॥

नवद्वीप-मध्ये एइ सर्वत्र घर ।
एथा आइलेन प्रभु शचीर कुमार ॥२२२६॥

सुमधुर वाक्ये प्रभु कहे सर्वज्ञेरे ।
अन्य जन्मे के छिलाम कह देखि मोरे ॥२२२७॥

शुनि जपे सर्वज्ञ गोपाल-मन्त्रबरे ।
मन्त्रबले देखे वासुदेवेर कुमारे ॥२२२८॥

शङ्ख-चक्र-गदा पद्म चतुर्भुज देखि ।
चाहि विश्वम्भर पाने पुनः मुदे आꣳखि ॥२२२९॥

पुनः देखे नन्देर नन्दन वꣳशीधर ।
त्रिभङ्ग-भङ्गिमा दिव्य श्यामल सुन्दर ॥२२३०॥

श्रीराम-वराह-नृसिꣳहादि-अवतार ।
देखिय़ा सर्वज्ञ चिन्ते चित्रे अनिवार ॥२२३१॥

प्रभु कहे—‘कह शुन, सर्वज्ञ कहय़ ।
कहिल पश्चात् एबे करह विजय़’ ॥२२३२॥

शुनि मन्द मन्द हासि श्रीगौरसुन्दर ।
आइल एथाय़ एइ श्रीधरेर घर ॥२२३३॥

श्रीधरेर सङ्गे प्रभु यत रङ्ग करे ।
एक मुखे ताहा केहो कहिते ना पारे ॥२२३४॥

नवद्वीप भ्रमण करिय़ा विश्वम्भर ।
सबा सह एइ पथे गोला निज-घर ॥२२३५॥

युद्धकाम-लीला आदि वचनेर दूर ।
से सब करेन सबे ये इच्छा प्रभुर ॥२२३६॥

एइ राजपथे प्रभु शचीर नन्दन ।
भुवनमोहन वेशे करय़े भ्रमण ॥२२३७॥

अकस्मात् श्रीवास पण्डित-सने देखा ।
ताꣳर सने यत कथा नाहि तार लेखा ॥२२३८॥

ओहे श्रीनिवास, एथा बलि गौरचन्द्र ।
देखय़े गङ्गार शोभा हईय़ा आनन्द ॥२२३९॥

चतुर्दिके शिष्यवर्ग, शोभा अतिशय़ ।
करे शास्त्रचर्चा प्रभु सभारे मोहय़ ॥२२४०॥

शिष्यगण-मध्ये केहो प्रभु विश्वम्भरे ।
द्विग्विजय़ी-प्रसङ्ग कहय़ धीरे धीरे ॥२२४१॥

सरस्वती देवी वक्ता ताहार जिह्वाय़ ।
सर्वत्र करिय़ा जय़ आइला नदीय़ाय़ ॥२२४२॥

विद्याबले दिग्विजय़ी काहुके ना गणे ।
हस्ती अश्व दोला बहु लोक ताꣳर सने ॥२२४३॥

नवद्वीपे बड़ बड़ अध्यापकगण ।
हईल सभार अति चिन्तयुक्त मन ॥२२४४॥

शुनि मन्द मन्द हासि कहे विश्वम्भर ।
अहङ्कार कारु नाहि राखेन ईश्वर ॥२२४५॥

दूरे रहि दिग्विजय़ी शोभा निरखिय़ा ।
आइला निकटे अति विस्मित हईय़ा ॥२२४६॥

विश्वम्भर अत्यन्त गौरव करि परे ।
कहिलेन गङ्गार माहात्म्य वर्णिवारे ॥२२४७॥

दिग्विजय़ी महादर्पे बहु श्लोक कैल ।
विश्वम्भर तारे व्याख्या करिते बलिल ॥२२४८॥

अति से कठिन श्लोक कारु गम्य नहे ।
हासि दिग्विजय़ी निज-श्लोक-अर्थ कहे ॥२२४९॥

श्लोक अर्थ करि विप्र हैला अवसर ।
श्लोक-आदि-मध्ये-अन्ते दोषे विश्वम्भर ॥२२५०॥

दिग्विजय़ी पराभव हईय़ा चिन्तय़ ।
तथापि गौरव राखे शचीर तनय़ ॥२२५१॥

पूर्णब्रह्म सनातन प्रभु गौरराय़ ।
हेन ज्ञान हैल सरस्वतीर कृपाय़ ॥२२५२॥

दिग्विजय़ी प्रभुपदे लईल शरण ।
ये कृपा करिल प्रभु ना हय़ वर्णन ॥२२५३॥

द्वग्विजय़ी वैष्णव-सम्प्रदाय़-मध्ये हय़ ।
केशव-काश्मीर नाम दिय़े परिचय़ ॥२२५४॥

श्रीनाराय़णेर शिष्य हꣳस ए प्रचार ।
सनकादि चतुःसन हन शिष्य ताꣳर ॥२२५५॥

सनकेर शिष्य श्रीनारद महाशय़ ।
ताꣳर शिष्य निम्बादिता गुणेर आलय़ ॥२२५६॥

श्रीनिम्बादित्येर शिष्याचार्य श्रीनिवास ।
हईल सर्वत्र याꣳर महिमा प्रकाश ॥२२५७॥

ताꣳर शिष्य विश्वाचार्य सर्वाꣳशे प्रधान ।
ताꣳर श्रीपुरुषोत्तमाचार्य विद्यावान् ॥२२५८॥

श्रीविलासाचार्य ताꣳर शिष्य महाधीर ।
ताꣳर शिष्य श्रीस्वरूप आचार्य गभीर ॥२२५९॥

ताꣳर प्रिय़ शिष्य श्रीमाधवाचार्यवर्य ।
ताꣳर प्रिय़ शिष्य श्रीमद्वल्लभद्राचार्य ॥२२६०॥

ताꣳर शिष्य पद्माचार्य सर्वत्र विदित ।
ताꣳर शिष्य श्रीश्याम आचार्य चारु रीत ॥२२६१॥

ताꣳर प्रिय़शिष्य हन आचार्य गोपाल ।
ताꣳर शिष्य कृपाचार्य परम दय़ाल ॥२२६२॥

ताꣳर शिष्य देवाचार्य गुणेर आलय़ ।
ताꣳर शिष्य श्रीसुन्दर भट्ट दय़ामय़ ॥२२६३॥

श्रीमत् पद्मनाभ भट्ट शिष्य हन ताꣳर ।
ताꣳर शिष्य उपेन्द्र भट्ट ख्याति याꣳर ॥२२६४॥

ताꣳर प्रिय़ शिष्य रामचन्द्र भट्ट हन ।
ताꣳर शिष्य सर्वप्रिय़ श्रीभट्ट वामन ॥२२६५॥

ताꣳर शिष्य कृष्णभट्ट परम सुशान्त ।
ताꣳर शिष्य पद्माकर भट्ट विद्यावन्त ॥२२६६॥

श्रीपद्माकरेर शिष्य भट्ट श्रीश्रवण ।
ताꣳर शिष्य भूरिभट्ट चेष्टा विलक्षण ॥२२६७॥

ताꣳर अति प्रिय़ शिष्य भट्ट श्रीमाधव ।
ताꣳर शिष्य श्यामभट्ट महा अनुभव ॥२२६८॥

ताꣳर शिष्य श्रीगोपाल भट्ट सुचरित ।
ताꣳर शिष्य बलभद्र भट्ट शुद्धरीत ॥२२६९॥

ताꣳर शिष्य गोपीनाथ भट्ट सर्वपूज्य ।
ताꣳर शिष्य श्रीकेशव भट्ट चेष्टाश्चर्य ॥२२७०॥

ताꣳर शिष्य श्रीगोकुल भट्ट महाधीर ।
ताꣳर अति प्रिय़ शिष्य केशव काश्मीर ॥२२७१॥

सरस्वतीदेवीर करिय़ा मन्त्र-जप ।
हैल सर्वविद्या-स्फूऋति बाड़िल प्रताप ॥२२७२॥

सर्व दिग्विजय़ करि ‘दिग्विजय़ी’ ख्याति ।
काश्मीर देशस्थ अति शिष्ट विप्रजाति ॥२२७३॥

अति शुभक्षणे नवद्वीपेते आइला ।
सब त्याग करि प्रभु-आज्ञाय़ चलिला ॥२२७४॥

केशव-काश्मीर दिग्विजय़ी लज्जा इथे ।
वर्णि लीलाभोग ‘लघुकेशव’ नामेते ॥२२७५॥

दिग्विजय़ी केशव काश्मीर भाग्यवन्त ।
डुबिलेन ये सुखे कहिते नाइ अन्त ॥२२७६॥

निमाइ स्थाने दिग्विजय़ी पराजय़ ।
सर्वत्र विदित लोके ए यश घोषय़ ॥२२७७॥

येखाने सेखाने मात्र एइ कथा शुनि ।
निमाइ पण्डित अध्यापक-शिरोमणि ॥२२७८॥

एइ मत नाना रङ्ग करे गङ्गातीरे ।
स्वेच्छामय़ प्रभु एइ पथे यान घरे ॥२२७९॥

एकदिन एइ पथे करिते गमन ।
देखय़े सन्न्यासी आइसेन विशजन ॥२२८०॥

परम आदरे से सकल सन्न्यासीरे ।
विविध सामग्री भुञ्जाय़ेन लैय़ा घरे ॥२२८१।

ऐछे सदा सन्न्यासीरे करान भोजन ।
सबे महा-विस्मित ना देखे उपार्जन ॥२२८२॥

बङ्गदेशे याइते प्रभुर इच्छा हैल ।
यात्रा करि एइ विप्रगृहे स्थिति कैल ॥२२८३॥

शिष्यगण-सङ्गे प्रभु बङ्गदेशे गिय़ा ।
श्रीतपन मिश्रे दिल काशी पाठाइय़ा ॥२२८४॥

बङ्ग धन्य करि आइलेन कथे दिने ।
आगुलरि विप्रगण एइ पथे आने ॥२२८५॥

शिष्यवर्ग वेष्टित श्रीगौराङ्गसुन्दर ।
सर्वचित्त मोहिय़ा चलेन निज-घर ॥२२८६॥

एथा वसि विप्रगण अधैर्य अन्तरे ।
लक्ष्मीर विय़ोग-कथा कहे धीरे धीरे ॥२२८७॥

विश्वम्भर आइलेन बङ्गदेश हईते ।
गृह शून्य देखि महा-दुःख पाबे चिते ॥२२८८॥

निमाइ पण्डित महापुरुष रतन ।
एत कहि प्रबोधिते गेला सर्वजन ॥२२८९॥

एकदिन एथा केहो स्नान करि आइला ।
ना देखि तिलक, करिबारे शिक्षा दिला ॥२२९०॥

ओहे श्रीनिवास, एथा निमाइ रङ्गेते ।
बङ्गदेशी लोके कदर्थेन नाना मते ॥२२९१॥

एथा विश्वम्भर ये ये रङ्ग परकाशे ।
कहिते से सब कथा मुखे ना आइसे ॥२२९२॥

एइ देख सनातन मिश्रेर भवन ।
येꣳह राजपण्डित सर्वाꣳशे विलक्षण ॥२२९३॥

सनातनमिश्रेर दुहिता विष्णुप्रिय़ा ।
एक मुखे कहिते ना पारि ताꣳर क्रिय़ा ॥२२९४॥

सनातन मिश्र महा आनन्दित मने ।
विश्वम्भरे कन्या दान कैल एइखाने ॥२२९५॥

देख काशीनाथ पण्डितेर वासस्थान ।
विष्णुप्रिय़ा-विवाहे उद्योग अति तान ॥२२९६॥

एथा भक्तगण महा-दुःखित हईय़ा ।
करेन आक्षेप भक्तसङ्ग ना पाइय़ा ॥२२९७॥

‘हा कृष्ण, हा कृष्ण’ बलि छाड़े दीर्घ-श्वास ।
हेन काले आइला ठाकुर हरिदास ॥२२९८॥

हरिदास ठाकुरेर अद्भुत चरित ।
कहिब कतेक ताहा सर्वत्र विदित ॥२२९९॥

एथा गौरचन्द्र वसि विचारय़े चिते ।
मोर अवतार प्रेमभक्ति प्रकाशिते ॥२३००॥

गय़ा हैते आसि भक्त-दुःख विनाशिब ।
परम दुर्लभ प्रेमभक्ति प्रकाशिब ॥२३०१॥

एत विचारिय़ा प्रभु उल्लास अन्तरे ।
माय़े प्रबोधिय़ा चले गय़ा करिबारे ॥२३०२।

एइ विप्र-घरे यात्रा करिय़ा रहिला ।
प्रातःकाले शिय्यसङ्गे ए पथे चलिला ॥२३०३॥

गय़ा करि विश्वम्भर ईश्वरपुरीरे ।
यत अनुग्रह ताहा के कहिते पारे ॥२३०४॥

तथा प्रेमभक्ति प्रकाशारन्त हईल ।
शिष्यगण-सङ्गे नवद्वीपे यात्रा कैल ॥२९३०५॥

नवद्वीपे आइलेन श्रीशचीकुमार ।
नवद्वीपे हैल महा आनन्द सभार ॥२३०६॥

आगुसरि आनिते गेलेन सर्वजन ।
एइ पथे प्रभु गृहे करिला गमन ॥२३०७॥

प्रेमभक्ति-रसे साꣳतारय़े गौरराय़ ।
देखि सर्व वैष्णवेर उल्लास हिय़ाय़ ॥२३०८॥

श्रीवास रामई गोपीनाथ गदाधरे ।
एथा हर्षे श्रीमान् कहय़े से सभारे ॥२३०९॥

गय़ा हैते आइलेन पण्डित निमाइ ।
से सकल औद्धत्येर लेशमात्र नाइ ॥२३१०॥

गय़ातीर्थ-प्रसङ्ग कहिय़ा मो सभारे ।
विष्णुपादपद्म-कथा कहिते ना पारे ॥२३११॥

नदीर प्रवाह प्राय़ झरे दुनय़न ।
कृष्ण बलि भूमे पड़े हैय़ा अचेतन ॥२३१२॥

देखिनु अद्भुत ताꣳर प्रेमेर विकार ।
शुनि कत कहे महा उल्लास सभार ॥२३१३॥

एथा श्रीवासादि प्रशꣳसिय़ा विश्वम्भरे ।
गङ्गातीरे बैसे गिय़ा शुक्लाम्बर-घरे ॥२३१४॥

एइ शुक्लाम्बर ब्रह्मचारीर भवन ।
गय़ा हैते आसि एथा प्रभुर गमन ॥२३१५॥

श्रीमान् पण्डित आदि एथाय़ देखिय़ा ।
कहिते कृष्णेर कथा उथलय़े हिय़ा ॥२३१६॥

आपना मानिय़ा दीन शचीर नन्दन ।
धरिय़ा सभार गला करय़े क्रन्दन ॥२३१७॥

गोप्यरूपे ये ये भक्त छिलेन यथाय़ा ।
काꣳदय़े सकले, गौरचन्द्रेर प्रेमाय़ ॥२३१८॥

प्रभु कहे—‘के काꣳदय़े घरेर भितर’ ।
शुक्लाम्बर कहय़े—‘तोमार गदाधर’ ॥२३१९॥

हैल प्रेमारम्भ यैछे कहिते ना पारि ।
डुबिलेन आनन्द-समुद्रे ब्रह्मचारी ॥२३२०॥

रत्नगर्भ आचार्य ए-वृक्ष-सन्निधाने ।
पड़े भागवत-पद्य महानन्द-मने ॥२३२१॥

शुनि गौरचन्द्र निज-भक्तिर बड़ाइ ।
मूर्छित हईय़ा प्रामे पड़य़े एथाइ ॥२३२२॥

श्रीरत्नगर्भेर भाग्य कहिते नारिल ।
चेतन पाइय़ा प्रभु तारे आलिङ्गिल ॥२३२३॥

ओहे श्रीनिवास, कि बलिब एइखाने ।
आपना प्रकाशे प्रभु आपन-कीर्तने ॥२३२४॥

देखि विश्वम्भर-प्रेमावेश भक्तगण ।
एथा श्रीअद्वैते सब कैल निवेदन ॥२३२५॥

सर्वतत्त्वज्ञाता प्रभु अद्वैत-ईश्वर ।
शुनि अति उल्लासे पुलक कलेवर ॥२३२६॥

भक्तगणे अनेक प्रकारे जानाइला ।
देखिलेन स्बप्ने याहा ताहाओ कहिला ॥२३२७॥

अद्वैतचन्द्रेर चेष्टा बुझे कोन् जन ।
क्षणे प्रकाशय़े क्षणे करय़े गोपन ॥२३२८॥

शुनिय़ा अपूर्व कथा अद्वैतेर स्थाने ।
चलिलेन भक्तगण प्रणमि ताहाने ॥२३२९॥

ओहे श्रीनिवास, गौरचन्द्रेर चरित ।
दिने दिने नदीय़ाय़ हईल विदित ॥२३३०॥

गङ्गार ए घाटे प्रभु माति भक्तिरसे ।
करय़े भक्तेर सेवा अशेष-विशेषे ॥२३३१॥

प्रकाशे ये दैन्य ताहा कहिते ना पारि ।
भक्तसेवा मुख्य जानाय़ेन गौरहरि ॥२३३२॥

कि बलिब प्रभुर ए मने बड़ साध ।
निरन्तर लईते भक्तेर आशीर्वाद ॥२३३३॥

गुढ़रूपे प्रभु विलसय़े नदीय़ाय़ ।
के जानिते पारे प्रभु यदि ना जानाय़ ॥२३३४॥

सर्वपूज्य हईय़ाओ पण्डित निमाइ ।
वैष्णवेर साजि धुति बहे लज्जा नाइ ॥२३३५॥

एथा भक्तगण गौरचन्द्र-मुख हेरि ।
करे आशीर्वाद कत उपदेश करि ॥२३३६॥

भक्तपदधूलि विश्वम्भर लैय़ा शिरे ।
कहेन यतेक ताहा के कहिते पारे ॥२३३७॥

एकदिन एइ पथे प्रभु विश्वम्भर ।
अद्वैत-वासाय़ गेला सङ्गे गदाधर ॥२३३८॥

देखिय़ा अद्वैत एथा प्रेमाय़ विह्वल ।
सघने सोनार अङ्ग करे टलमल ॥२३३९॥

अद्वैत आचार्य महा उल्लास अन्तरे ।
कहि कत प्रभुर पूजार सज्ज करे ॥२३४०॥

गन्धपुष्प दिय़ा पूजे प्रभुर चरण ।
वारवार प्रणमिय़ा करय़े स्तवन ॥२३४१॥

अद्वैतेर क्रिय़ा देखि गदाधर हासे ।
दन्ते जिह्वा दꣳशिय़ा कहय़े मृदु भाषे ॥२३४२॥

अनुग्रह करिबे मङ्गल याते हय़ ।
बालके कह ऐछे ए उचित नय़ ॥२३४३॥

हासिय़ा अद्वैत कहे ना जान एखने ।
ए बालक ये हेन जानिबे किछु दिने ॥२३४४॥

शुनि गदाधर-चित्ते हईल विस्मय़ ।
मने मने गुणे ए ईश्वर सुनिश्चय़ ॥२३४५॥

कतक्षण बाह्य प्रकाशिय़ा गौरराय़ ।
अद्वैतेरे कहि कत आपना लुकाय़ ॥२३४६॥

अद्वैतेर प्रेमाधीन प्रभु गौरहरि ।
हैल ये कौतुक एथा कहिते ना पारि ॥२३४७॥

कत अभिलाष करि उल्लास अन्तरे ।
एथा हैते अद्वैत गेलेन शान्तिपुरे ।२३४८॥

एथा सꣳकीईर्तनावेशे प्रभुर ये सुख ।
से आवेश वर्णिते ना जाने चतुर्मुख ॥२३४९॥

वैष्णवसकल प्रेमे स्थिर हैते नारे ।
घुचिल मनुष्यज्ञान प्रभु विश्वम्भरे ॥२३५०॥

एथा प्रेमावेशे प्रभु वैष्णवे कहिल ।
कानाइर नाट्यशाला-ग्रामे ये देखिल ॥२३५१॥

एथा सꣳकीर्तने करे हुङ्कार-गर्जन ।
बल्पिय़ा मरय़े शुनि पाषण्डीर गण ॥२३५२॥

पाषण्डेर वाक्ये वैष्णवेर दुःख हय़ ।
प्रभु अवतीर्ण ताहा केहो ना जानय़ ॥२३५३॥

दुःख विनाशिते ज्ञानाइते आपनाय़ ।
परम सुन्दरवेशे भ्रमे नदीय़ाय़ ॥२३५४॥

घरे हैते एइ पथे आइसे साजिय़ा ।
देखिय़ा पाषण्डिगण मरय़े बल्पिय़ा ॥२३५५॥

श्रीगौरसुन्दरेर नदीय़ा भ्रमणलीला—
देखि गौरचन्द्र-शोभा भुवनमोहन ।
सुकृतिगणेर महा उल्लसित मन ॥२३५६॥

कि नारी पुरुष सभे अधैर्य अन्तर ।
देखि गौरचन्द्र कत कहे परस्पर ॥२३५७॥

गीते यथा—कामोद—

गौर-विधुवर, वरजमोहन,
भ्रमण करु नदीय़ाय़ ।
वृद्ध पुरुष, असꣳख्य पथ गत ।
निरिखे हरष हिय़ाय़ ॥२३५८॥

केउ कहे किय़े, अनङ्ग सुगठन,
कोने सिरजल केल ।
ऐछे अपरूप, रूपक बहुल,
नय़नगोचर भेल ॥२३५९॥

कोउ कह किय़े, नेह घटई कि,
कहब कहई ना याय़ ।
हृदय़-सम्पुटे, धरव अनुक्षण,
कह कि करब उपाय़ ? ॥२३६०॥

कोउ कत कत, भाति भाल अनि-
वार आशीष देत ।
दास नरहरि, पाहुङ्क माधुरी,
निरत दिठि भरि लेत ॥२३६१॥

कामोद—

आजु कि आनन्द नदीय़ाय़ ।
पथे यत वृद्ध नारी, दाꣳड़ाइय़ा सारि सारि,
शचीर दुलाल पाने चाय़ ॥ ध्र्रु ॥२३६२॥

केहो कारु प्रति कय़, ए कभु मानुष नय़,
बुझिलाम चिते विचारिय़ा ।
एमन बालक येन, ना देखि ना शुनि हेन,
भारत भूमेते जनमिय़ा ॥२३६३॥

केह पुनः पुनः भणे, कि बलिब एतदिने,
हईल सकल दुःख-नाश ।
केहो कहे मने याहा कहिते नारिय़े ताहा,
धन्य एइ नदीय़ार वास ॥२३६४॥

केह कहे शची धन्य, करिल कतेक पुण्य,
कहिते ना जानि श्नेह ताꣳर ।
ए चाꣳद-वदने याके, सदा मा बलिय़ा डाके,
हेन भाग्य आछे आर कार ॥२३६५॥

केहो कहे एइ मते, बेड़्‌आउक नदीय़ाते,
सकल सुकृति-सङ्गे लैय़ा ।
केहो कहे मने हेन, सोनार निमाइ येन,
कखन ना छाड़य़े नदीय़ा ॥२३६६॥

केहो कहे नदीय़ाते, सदा रहु कुशलेते,
विधिरे प्रार्थना एइ करि ।
नरहरि-प्राण गोरा, केवल आꣳखेर तारा,
इहार बालाइ लैय़ा मरि ॥२३६७॥

भूपाली—

गौराङ्ग-गमन, शुनि अन्धगण,
बाहिरे बार्ह्̤‌आय़ पा ।
चाहे घन घन, पाइय़ा नय़न,
उलसे भरय़े गा ॥२३६८॥

केहो कारु करे, धरि कहे धीरे,
आजु से सफल हैल ।
दिते महानन्द, विधि कैले अन्ध,
आने ना देखिते दिल ॥२३६९॥

ए रूप अमिय़ा, पिय़ा एना हिय़ा,
कि करे ना याय़ जाना ।
हेन रूप येह, ना देखिल सेह,
नय़न थाकिते काणा ॥२३७०॥

सदा देखिबारे, धाय़ वारे वारे
आꣳखि ना धैरय बाꣳधे ।
नरहरि साखि, सौꣳपिलु ए आꣳखि,
सोनार निमाइचान्दे ॥२३७१॥

तोड़ी—

नदीय़ा भ्रमय़े, गोरा गुणमणि,
शुनि पङ्गु पथे गिय़ा ।
अनिमिष आꣳखि से मुख निरखि,
आनन्दे उथले हिय़ा ॥२३७२॥

केहो कहे शुन, विधि सकरुण,
एबे से बुझिलु मने ।
ये लागिय़ा पङ्गु करिले से फल,
फलाले एतेक दिने ॥२३७३॥

पङ्गु ना हईले, गृह-काज-छले,
याइताम दूर देश ।
ना जानिय़े तथा, मरण हईले,
दुःखेर नहित शेष ॥२३७४॥

पङ्गु हैय़ा येन, थाकि मेन हेन,
विधिरे प्रार्थना करि ।
नरहरि नाथे, सदा नदीय़ाते,
देखि ए नय़न भरि ॥२३७५॥

कामोद—

भुवनमोहन, गोरागुणमणि,
राजपथे कत भङ्गिते चले ।
कत कत शत, मदन मुरछि,
लोटाय़ चरण-कमल-तले ॥२३७६॥

चारिदिके लोक, करे धाय़ा धाइ,
अतुल शोभाय़ मोहित हैय़ा ।
तनु मन प्राण, केबा नाहि निछय़े,
परस्पर चारु-चरित कैय़ा ॥२३७७॥

नदीय़ा-नगरे, नागरालि-वेशे,
फिरय़े नवीन नागर यत ।
गोरचान्द-पाने, चाहि ता सभार,
नागर-गरब हैल हत ॥२३७८॥

जगतेर माझे, प्रवीणता अति,
रसिकता-मदे विभोर फारा ।
नरहरि भणे, खद्योत येमन,
विधु आगे हैल तेमनि तारा ॥२३७९॥

धानशी—

नदीय़ार शशी, रङ्गे राजपथे,
हिलि दुलि चले पुलक हिय़ा ।
अलखित यत, युवती अथिर,
साथे आध दिठि से अङ्गे दिय़ा ॥२३८०॥

केहो कहे देख, देख सखी एइ,
गोरारूप किय़े अमिय़ाराशि ।
ताम्बूलेर रागे, अधर उज्ज्वल,
ताहे किबा मन्द मधुर हासि ॥२३८१॥

रङ्गण फुलेर, माला दोले किबा,
आꣳखेर भङ्गिते भुवन मोहे ।
चाꣳचर चिकुर- चय़ चारु किबा,
कपाले चन्दन-तिलक शोहे ॥२३८२॥

किबा जानु भुज- युगेर बलनि,
परिसर बुके केबा ना भुले ।
नरहरि पꣳहु, रसे सुमजिलु,
दिलु तिलाञ्जलि ए लाज कुले ॥२३८३॥

ओहे श्रीनिवास, प्रभु नदीय़ा-भमणे ।
आपना प्रकाशे सुख दिते भक्तगणे ॥२३८४॥

गमन भङ्गिते चतुर्दिक निरिखय़ ।
देखाय़े गोगण गङ्गा-पुलिने शोभय़ ॥२३८५॥

हाम्बा-रब करि युथे युथे धेनु याय़ ।
पिय़े बारि ऊर्ध्व पुच्छे चतुर्दिके चाय़ ॥२३८६॥

परस्पर करे युद्ध प्रभु ता देखिय़ा ।
‘मुइ सेइ, मुइ सेइ’ बलय़े गर्जिय़ा ॥२३८७॥

अद्भुत आवेशे एइ पथे विश्वम्भर ।
धाइय़ा गेलेन हर्षे श्रीवासेर घर ॥२३८८॥

श्रीवास-भवने एइ घरे द्वार दिय़ा ।
पूजय़े नृसिꣳहदेवे निमग्न हईय़ा ॥२३८९॥

करे पदाघात गौरचन्द्रे एइ द्वारे ।
श्रीवासेर ध्यान-भङ्ग हैल से हुङ्कारे ॥२३९०॥

ध्यन-भङ्ग क्रोधे विप्र चाहे चारि पाने ।
देखे तेजोमय़ विश्वम्भरे वीरासने ॥२३९१॥

शङ्ख-चत्र-गदा-पद चारि हाते लैय़ा ।
करय़े गर्जन कत श्रीवासेरे कैय़ ॥२३९२॥

श्रीवास त्रासेते स्तब्ध किछुइ ना स्फुरे ।
प्रभुर आज्ञाय़ हर्ष हैय़ा स्तुति करे ॥२३९३॥

श्रीमन्महाप्रभुर ईश्वर्यदर्शने श्रीवासेर स्तुति—

प्रभुर अद्भुत क्रिय़ा ये ये अवतारे ।
ताहा प्रकाशय़े से आवेशे स्तुति-द्वारे ॥२३९४॥

सर्वशास्त्रे पण्डित श्रीवास महाशय़ ।
प्रभु आगे करे स्तुति उथले हृदय़ ॥२३९५॥

शुनिय़ा अद्भुत स्तुति-भङ्गि गौरहरि ।
दिलेन स्वाभीष्ट, वर अनुग्रह करि ॥२३९६॥

गोष्ठीसह श्रीवास-भाग्येरा सीमा नाइ ।
प्रभुर चरण पूजे श्रीवास एथाइ ॥२३९७॥

से अद्भुत पूजार तुलना नाइ दिते ।
पूजाय़ प्रसन्न यत के पारे कहिते ॥२३९८॥

सद्भार मस्तके चारु चरण अर्पय़े ।
परम आनन्दे भक्तभय़ विनाशय़े ॥२३९९॥

नाराय़णी नामे एक बालिका एथाय़ ।
कृष्ण बलि कान्दे तेꣳहो प्रभुर आज्ञाय़ ॥२४००॥

से बालिका श्रीवासेर भ्रातृसुता हय़ ।
चारि वत्सरेर कन्या सौभाग्यातिशय़ ॥२४०१॥

प्रभु भावावेश यत अन्य-अगोचर ।
बाह्य पाइ लज्जायुक्त हन विश्वम्भर ॥२४०२॥

‘काहु ना कहिब’ इहा कहि श्रीवासेरे ।
एथा हैते ए-पथे गेलेन निज-घरे ॥२४०३॥

वराहभावे प्रभुर मुरारि-गृहे गमन—

एकदिन प्रभु श्रीवराह-भावावेशे ।
गर्जिय़ा ए पथे चले मुरारि-आवासे ।२४०४॥

एइ विष्णुमन्दिरे प्रवेशि विश्वम्भर ।
वराह-आकार हैला परम सुन्दर ॥२४०५॥

जलपात्र गाड़ु एथा सम्मुखे देखिय़ा ।
धरिलेन दन्ते स्वानुभावे मग्न हैय़ा ॥२४०६॥

मुरारिर प्रति प्रभु कहे वारवार ।
‘एतदिन ना जानह मोर अवतार’ ॥२४०७॥

हईला मुरारि स्तब्ध प्रभुर दर्शने ।
कि बलिब किछुइ ना स्फुरय़े वय़ने ॥२४०८॥

बोल बोल बले प्रभु किछु नाइ भय़ ।
मुरारि करय़े स्तुति नेत्रे धारा वय़ ॥२४०९।

मुरारिर स्तुति शुनि प्रभु गौरहरि ।
भावावेशे कहे यत कहिते ना पारि ॥२४१०॥

यत अनुग्रह प्रभु कैला मुरारिरे ।
मुरारिर ये आनन्द कहिते के पारे ॥२४११॥

एइ मत प्रभु सर्व भक्तेर वासाय़ ।
महा अनुग्रह करि आपना जानाय़ ॥२४१२॥

आपनार प्रभु भक्त चिनि हर्षमने ।
करे सꣳकीर्तन पाषण्डीरे नाइ गणे ॥२४१३॥

एकदिन श्रीवास-मुरारि आसि हेथा ।
परस्पर कहे गौरचन्द्रेर गुणगाथा ॥२४१४॥

श्रीवास पण्डित खेदे कहे वारवार ।
‘एतदिन ना चिनिलु प्रभु आपनार’ ॥२४१५॥

सदाइ विदरे हिय़ा कहिते कि आर ।
हेन प्रभु साजि धुति बहिल आमार ॥२४१६॥

‘कृष्ण भक्ति हौक बलि आशीर्वाद कैनु ।
कृष्णे कृष्ण भजिबारे कत शिक्षा दिनु’ ॥२४१७॥

ऐछे श्रीमुरारि आदि प्रभुप्रिय़गण ।
करि कत खेद सभे करय़े क्रन्दन ॥२४१८॥

श्रीनित्यानन्द प्रभुर नदीय़ाय़ आगमन—

एथा प्रभु श्रीवासादि सकल भक्तेरे ।
नित्यानन्द-गमन जानान ठारे ठारे ॥२४१९॥

अकस्मात् नित्यानन्द आसि नदीय़ाय़ ।
रहिलेन गुप्ते ता जानिला गौरराय़ ॥२४२०॥

नित्यानन्द अन्य अगोचर जानाइय़ा ।
ताꣳरे मिलिबारे चले एइ पथ दिय़ा ॥२४२१॥

श्रीनन्दन-आचार्य परम भाग्यवान् ।
देख श्रीनिवास, एइ भवन ताꣳहान ॥२४२२॥

भक्तगोष्ठी सह प्रभु गिय़ा ए-भवने ।
देखे नित्यानन्द वसि आछय़े धेय़ाने ॥२४२३॥

निरुपम नित्यानन्द-अङ्गेर माधुरी ।
दाꣳड़ाइय़ा भक्तगण देखे नेत्र भरि ॥२४२४॥

नित्यानन्द-सम्मुखे विलसे विश्वम्भर ।
नित्यानन्द देखे प्रभु शोभा मनोहर ॥२४२५।

तथाहि श्रीचैतन्यभागवते—
विश्वम्भर-मूर्ति येन मदन-समान ।
दिव्य गन्धमाल्य दिव्य वास-परिधान ॥२४२६॥

कि हय़ कनक-द्युति से देहेर आगे ।
से वदन चाहिते चान्देर साध लागे ॥२४२७॥

से दन्त देखिते हरे मुकुतार मान ।
से वेश-बन्धन देखे ना रहे गेय़ान ॥२४२८॥

देखिते आरक्त सेइ अरुण-नय़न ।
आर कि कमल आछे हेन लय़ ज्ञान ॥२४२९॥

से आजानु भुज दुइ हृदय़ सुपीन ।
तथि शोभे शुक्ल यज्ञसूत्र अति क्षीण ॥२४३०॥

ललाटे विचित्र ऊर्ध्वतिलक सुन्दर ।
आभरण विने सर्व अङ्ग मनोहर ॥२४३१॥

किबा हय़ कोटि मणि से नथ चाहिते ।
से हास देखिते किबा करिबे अमृते ॥२४३२॥

विश्वम्भर-शोभा देखि नित्यानन्द राय़ ।
कहिते कि जानि यैछे उल्लास-हिय़ाय़ ॥२४३३॥

नित्यानन्दचन्द्रेर अन्तर प्रकाशिते ।
श्रीवास पड़िल श्लोक प्रभुर इङ्गिते ॥२४३४॥

तथाहि श्रीमद्भागवते दशम स्कन्धे (२१.५)—
बर्हापीड़ꣳ नटवरवपुः कर्णय़ोः कर्णिकारꣳ
विभ्रद्वासः कनककपिशꣳ वैजय़स्तीञ्च मालाम् ।
रन्ध्रान् वेणोरधरसुधया पुरय़न् गोपवृन्दैर्-
वृन्दारण्यꣳ स्वपदरमणꣳ प्राविशद्गीतकीर्तिः ॥२४३५॥

कृष्णध्यान-श्लोक शुनि नित्यानन्द राय़ ।
से भाव-आवेश ताहा केबा नाइ गाय़ ॥२४३६॥

गीते यथा—माय़ूर—

भावे गर गर, निताइ सुन्दर,
हेरि गोरा-मुखचान्देर छटा ।
कत उठे चिते, नारे थिर हैते,
प्रति अङ्ग नव पुलक-घटा ॥२४३७॥

किबा उनमाद, खेन सिꣳहनाद,
खेने लोटायय़े धरणीतले ।
खेने दीर्घश्वास, खेने महा-हास,
खसे वास भासे आꣳखेर जले ॥२४३८॥

खेने योड़ लम्फ, खेने देहे कम्प,
खेने धाय़ केउ धरिते नारे ।
खेने किबा कैय़ा, रहे थिर हैय़ा,
सामाइय़ा विश्वम्भर कोरे ॥२४३९॥

नित्यानन्दे कोले, लैय़ा नेत्र-जले,
भासे किबा पꣳहु प्रेमेर रीति ।
कहे नरहरि, श्रीवासादि चारि-
पाशे कान्दे केउ ना धरे धृति ॥२४४०॥

ओहे श्रीनिवास, एथा आनन्द अशेष ।
भुवने विदित नित्यानन्द-भावावेश ॥२४४१॥

एथा विश्वम्भर-कोले रहे नित्यानन्द ।
ताहा देखि गदाधर हासे मन्द मन्द ॥२४४२॥

प्रभु विश्वम्भर नित्यानन्द रहि एथा ।
कहिते ना जानि दोꣳहे कहिल ये कथा ॥२४४३॥

श्रीवासादि भक्त एथा भासिल ये सुखे ।
से सब कहिते ना आइसे एक मुखे ॥२४४४॥

एथा नित्यानन्दे कहे शचीर कुमार ।
‘कालि पौर्णमासी व्यासपूजन तोमार’ ॥२४४५॥

कोथा पूजा हबे शुनि उल्लास अन्तरे ।
हासि कहे—‘ए श्रीवास वामनार घरे’ ॥२४४६॥

नित्यानन्द-वाक्ये एथा हर्ष विश्वम्भर ।
श्रीवास-सहिते कथा हईल विस्तर ॥२४४७॥

सकलेइ नन्दनाचार्येर गृह हैते ।
श्रीवासपण्डित-घरे गेला एइ पथे ॥२४४८॥

श्रीवास गृहे श्रीमन्महाप्रभुर विविध लीला—

ओहे श्रीनिवास, एइ श्रीवास-अङ्गने ।
नाचे गौरचन्द्र नित्यानन्द-सङ्कीर्तने ॥२४४९॥

दुइ प्रभु नाचे चतुर्दिके भक्तगण ।
ये प्रेम-आवेश ताहा ना हय़ वर्णन ॥२४५०॥

बलराम-आवेशे एथाइ गौरहरि ।
नित्यानन्दचन्द्रे प्रकाशय़े भक्ति करि ॥२४५१॥

लाफ दिय़ा उठे प्रभु खट्टार उपर ।
‘वारुणी वारुणी’ बलि डाके निरन्तर ॥२४५२॥

केहो पात्र भरि गङ्गाजल दिल आनि ।
सभे देखे प्रभु येन पिय़े कादम्बिनी ॥२४५३॥

श्रीहल मुषल मागे नित्यानन्द-स्थाने ।
दिल नित्यानन्द ता देखिल भाग्यवाने ॥२४५४॥

एथा हर्षे प्रभु पद्मावतीर नन्दन ।
श्रीगौरचन्द्रेर कैल यड़भुज-दर्शन ॥२४५५॥

एथा प्रभु ‘नाड़ा नाड़ा’ बलि डाक दिल ।
नाड़ा-शब्दे अद्वैत आचार्ये जानाइल ॥२४५६॥

प्रेमानन्द मग्न हैय़ा कत कथा कय़ ।
शुनि भक्तगणेर उल्लास अतिशय़ ॥२४५७॥

एथा नित्यानन्द प्रेमे हईला विह्वल ।
कोथा वा रहिल ताꣳर दण्ड-कमण्डल ॥२४५८॥

बाल्यावेशे सदाइ चञ्चल नित्यानन्द ।
करय़े सुस्थिर ताꣳरे धरि गौरचन्द्र ॥२४५९॥

एथा रात्रे नित्यानन्द कहि किबा कथा ।
दण्ड-कमण्डलु भाङ्गि फेलाइला एथा ॥२४६०॥

प्रभु विश्वम्भर दण्ड-कमण्डलु लैय़ा ।
समर्पिल गङ्गाय़ ना जानि किबा कैय़ा ॥२४६१॥

नित्यानन्दे लैय़ा स्नान करिला गङ्गाय़ ।
तथा ये कौतुक ताहा कहा नाहि याय़ ॥२४६२॥

श्रीव्यास पूजा—

गन्ध-चन्दनादि लैय़ा विविध विधाने ।
व्यासपूजारम्भ प्रभु कैला एइखाने ॥२४६३॥

यैछे व्यासपूजा ताहा कहिते ना पारि ।
व्यासपूजा-कौतुक देखिनु नेत्र भरि ॥२४६४॥

एइखाने जगत्-जननी शची आइ ।
सम स्नेहाविष्ट देखि निमाइ निताइ ॥२४६५॥

व्यासपूजा-सङ्कीर्तने ये भावविकार ।
से सब भाविते हिय़ा विदर् आमार ॥२४६६॥

व्यासपूजा-नैवेद्य-भक्षण एइखाने ।
ताहे ये कौतुक ता कहिते केबा जाने ॥२४६७॥

एथा छिल कुन्द पुष्पवृक्ष शोभामय़ ।
पुष्प-चय़नेते वैष्णवानन्दातिशय़ा ॥२४६८॥

ओहे श्रीनिवास, एकदिन गौराराय़ ।
निजगृह हैते शीघ्र आइला हेथाय़ ॥२४६९॥

श्रीवासेर प्रति प्रभु कहेन हासिय़ा ।
अद्वैत आइसे मोर पूजासज्ज लैय़ा ॥२४७०॥

मोर ठाकुरालि देखिबारे इच्छा तार ।
एत कहि प्रेमावेशे करय़े हुङ्कार ॥२४७१॥

ओहे श्रीनिवास, एथा हैते गौरराय़ ।
ए विष्णु-मण्डपे बैसे विष्णुर खट्टाय़ ॥२४७२॥

चतुर्दिके वेष्टित हईय़ा भक्तगण ।
प्रभुर श्रीमुखचन्द्र करे निरीक्षण ॥२४७३॥

नित्यानन्द छत्र धरे मस्तक-उपर ।
श्रीवदने ताम्बूल योगाय़ गदाधर ॥२४७४॥

विविध प्रकारे सेबारत सर्वजन ।
हेनकाले हैल अद्वैतेर आगमन ॥२४७५॥

भूमे प्रणमिय़ा आइसे अद्वैत गोसाञि ।
उपजिल से सुख कहिते अन्त नाइ ॥२४७६॥

प्रभुर अद्भुत शोभा करे निरीक्षण ।
कोटि सूर्यसम तेज भुवनमोहन ॥२४७७॥

नाना रत्नभूषणे भूषित गौर-अङ्ग ।
हासि हासि वꣳशी वाय़ हईय़ा त्रिभङ्ग ॥२४७८॥

ब्रह्मा शिव शेष आदि देवऋषिगण ।
प्रभुर सम्मुखे सबे करय़े स्तवन ॥२४७९॥

प्रभुर अद्भुत ठाकुरानि निरखिय़ा ।
अद्वैताचार्येर महा उल्लसित हिय़ा ॥२४८०॥

अद्वैतेर प्रति प्रभु कहे वारवार ।
तोमार सङ्कल्प लागि मोर अवतार ॥२४८१॥

ऐछे कत प्रेमावेशे कहे अद्वैतेरे ।
शुनि सर्व भक्त महा उल्लास अन्तरे ॥२४८२॥

करयोडे अद्वैत रहय़े दाꣳड़ाइय़ा ।
प्रभु कहे—‘पूज मोरे सस्त्रीक हईय़ा’ ॥२४८३॥

प्रभुर आदेशे सस्त्रीक श्रीअद्वैताचार्येर प्रभुपादपद्म-पूजा—

शुनि अद्वैतेर हिय़ा आनन्दे उथले ।
प्रभुपद धौत कैल सुबासित जले ॥२४८४॥

चन्दने करिय़ा सिक्त तुलसी-मञ्जारी ।
कत साधे तेइ प्रभु चरण-उपरि ॥२४८५॥

महायत्ने करि पूजा षोड़शोपचारे ।
प्रभुरे करय़े स्तुति अशेष प्रकारे ॥२४८६॥

हईय़ा विह्वल भासे नय़नेर जले ।
लोटाइय़ा पड़य़े प्रभुर पदतले ॥२४८७॥

अद्वैतेर मनोरथ जानि गौरराय़ ।
दिलेन चरण तुलि अद्वैत-माथाय़ ॥२४८८॥

अद्वैत-मस्तके पद धरिला यखन ।
महा-जय़-जय़ ध्वनि हईल तखन ॥२४८९॥

ओहे श्रीनिवास, श्रीअद्वैत एइखाने ।
नाचे प्रभु आज्ञाय़ प्रभुर सङ्कीर्तने ॥२४९०॥

से प्रेम-आवेश देखि केबा धैर्य धरे ।
से अङ्ग-शोभाय़ सकलेर चित्त हरे ॥२४९१॥

श्रीगौरचन्द्रेर मुखपद्मे नेत्र दिय़ा ।
ना जानि क्रि आनन्दे धरिते नारि हिय़ा ॥२४९२॥

ना धरे धैरय लोटाय़ महीतले ।
नित्यानन्द-पाने चाहि भासे नेत्रजले ॥२४९३॥

अद्वैत आचार्य-चेष्टा के पारे बुझिते ।
कतक्षणे स्थिर हैला प्रभुर इच्छाते ॥२४९४॥

गौराङ्ग गलार माला दिय़ा अद्वैतेरे ।
‘वर माग वर माग’ बोले धीरे धीरे ॥२४९५॥

अद्वैत कहय़े—‘मोर सर्वसिद्धि हैल’ ।
‘जीवे कृपा कर’ बलि एइ वर निल ॥२४९६॥

यत कथा हैल श्रीअद्वैत विश्वम्भरे ।
से सब कथार मर्म के बुझिते पारे ॥२४९७॥

सबे महानन्दे मग्न हईलेन एथा ।
शुनि नित्यानन्द-अद्वैतेर प्रेमकथा ॥२४९८॥

ए-पथे गेलेन गृहे प्रभु गौरचन्द्र ।
श्रीवास-भवने रहिलेन नित्यानन्द ॥२४९९॥

गोष्ठीसह अद्वैत गेलेन निजालय़ ।
एइ देख अद्वैत-आलय़ शोभामय़ ॥२५००॥

निज-निज-गृहे भक्तगण गेला सुखे ।
ये देखिलु ताहा कि कहिब एक मुखे ॥२५०१॥

ओहे श्रीनिवास, गौरचन्द्रेर इच्छाय़ ।
दूर हैते भक्त आसि मिले नदीय़ाय़ ॥२५०२॥

पुण्डरीक विद्यानिधि प्रभु-आकर्षणे ।
प्रभुके देखिते अति उत्कण्ठित मने ॥२५०३।

बहु लोक सङ्गे विद्यानिधि बङ्ग हैते ।
नदीय़ाय़ आसि गृहे गेला एइ पथे ॥२५०४॥

एक ग्रामवासी श्रीमुकुन्द हर्ष हैय़ा ।
श्रीविद्यानिधिरे एथा मिलिला आसिय़ा ॥२५०५॥

एइ पुण्डरीक विद्यानिधिर आलय़ ।
याꣳर लागि काꣳदिला श्रीशचीर तनय़ ॥२५०६॥

श्रीपुण्डरीक विद्यानिधिर अद्भुत प्रेमविकार—

परम वैष्णव तेꣳहो कि बुझिब आने ।
श्रीमुकुन्द वासुदेव दत्त मात्र जाने ॥२५०७॥

बाह्य वृत्ति ताꣳर यैछे कि कब से कथा ।
राजपुत्र-प्राय़ सज्जा करि बैसे एथा ॥२५०८॥

परम वैष्णव शुनि पण्डित गोसाञि ।
मुकुन्देर सङ्गे आइला देखिते एथाइ ॥२५०९॥

श्रीविद्यानिधिर अन्तर्वृत्ति ना जानिल ।
दृष्टिमात्रे ‘विषय़ी वैष्णव’—ज्ञान हैल ॥२५१०॥

गदाधर-चित्त बुझि मुकुन्द प्रकारे ।
विद्यानिधि-अन्तर प्रकाशे पद्य-द्वारे ॥२५११॥

तथाहि श्रीमद्भागवतस्य तृतीय़े (२.२३)—
अहो वकी यꣳ स्तनकालकुटꣳ
जिघाꣳसय़ापाय़य़दप्यसाध्वी ।
लेभे गतिꣳ धाक्र्यचिताꣳ ततो’न्यꣳ
कꣳ वा दय़ालुꣳ शरणꣳ व्रजेम ॥२५१२॥

तत्रैव दशामे च (६.३५)—
पूतना लोकबालग्नी राक्षसी रुधिराशना ।
जिघाꣳसय़ापि हरय़े स्तनꣳ दत्त्वाप सद्गतिम् ॥२५१३॥

श्लोक शुनि विद्यानिधि अधैर्य अन्तरे ।
‘बल बल, मुकुन्द’ बलय़े वारे वारे ॥२५१४॥

कम्प स्वेद पुलक हुङ्कार अतिशय़ ।
करय़े क्रन्दन दुइ नेत्रे धारा वय़ ॥२३१५॥

अङ्ग आछाड़िय़ा पड़े पृथिवी-उपरे ।
पदाघाते शय्यादि सकल गेल दूरे ॥२५१६॥

यतेक सुवेश तार लेख ना रहिल ।
सुन्दर शरीर धूलि-धूसर हईल ॥२५१७॥

गड़ागड़ि याय़ भूमे कत खेद करे ।
देखिते से भावाबेश केबा धैर्य धरे ॥२५१८॥

मूर्छापन्न हईय़ाछिलेन एइखाने ।
पाइय़ा चेतन स्थिर हैला कतक्षणे ॥२५१९॥

देखि महाविस्मित पण्डित गदाधर ।
निज-नेत्रजले सिक्त हैल कलेवर ॥२५२०॥

मुकुन्देरे कहे—‘मुइ अपराध कैल ।
तुमि रक्षा कैला’ बलि कत प्रशꣳसिल ॥२५२१॥

अपराध याबे शिष्य हईले इꣳहार ।
जानाइय़ा प्रभुके हईला शिष्य ताꣳर ॥२३२२॥

तथाहि श्रीचैतन्यभागवते मध्यखण्डे—
गदाधर-वाक्ये प्रभु सन्तोष पाइला ।
‘शीघ्र कर, शीघ्र कर’ बलिते लागिला ॥२५२३॥

तबे त श्रीगदाधर प्रेमनिधि-स्थाने ।
मन्त्रदीक्षा करिलेन सन्तोष आपने ॥२५२४॥

क्चि कहिब आर पुण्डरीकेर महिमा ।
गदाधर शिष्य याꣳर भक्तिर ए-सीमा ॥२५२५॥

योग्य गुरु पुण्डरीक शिष्य गदाधर ।
दुइजन श्रीकृष्णचैतन्य-कलेवर ॥२५२६॥

ओहे बाप, श्रीनिवास कि कथ से कथा ।
गदाधर पण्डित हईला शिष्य एथा ॥२५२७॥

शिष्यकाले मुकुन्दादि वैष्णवसकल ।
हईलेन सभे महाप्रेमाय़ विह्वल ॥२५२८॥

ए-प्रसङ्ग शुनि लित्यानन्द-हुलधर ।
मन्द मन्द हासे महा उल्लास-अन्तर ॥२५२९॥

नित्यानन्द चरित्र बुझिते केबा पारे ।
सदा बाल्यावेशे रहे श्रीवासेर घरे ॥२५३०॥

श्रीवासेर पत्नी शीमालिनी पातिव्रता ।
नित्यानन्दे सेवे सदा यैछे पुत्रे माता ॥२५३१॥

तेꣳहो निज-हाते अन्न ना खाय़ तुलिय़ा ।
पुत्रस्नेहे मालिनी भुञ्जाय़ हर्ष हैय़ा ॥२५३२॥

श्रीवासेर स्नेहे यैछे नित्यानद्द-प्रति ।
ताहा कहिल्बारे नाइ अन्येर शकति ॥२५३३॥

श्रीवास-अन्तर प्रभु परीक्षा करिला ।
गाड़्‌ह रति जानि वर दिय़ा समर्पिला ॥२५३४॥

नित्यानन्द बाल्यावेशे भ्रमे नदीय़ाय़ ।
गङ्गादास मुरारि गुप्तेर घरे याय़ ॥२५३५॥

गङ्गाय़ साꣳतारे महारङ्गे तथा हैते ।
धाइय़ा आइसे हर्षे आइरे देखिते ।२५३६॥

नित्यानन्दे यैछे आइ पुत्रस्नेह करे ।
से सब भाविते एइ हृदय़ विदरे ॥२५३७॥

ओहे श्रीनिवास, कत कहिब तोमाय़ ।
प्रभुर अद्भुत गति देखिनु एथाय़ ॥२५३८॥

नित्यानन्दाद्वैत गदाधर आदि सङ्गे ।
निज-गृह हैते चलि आइसे महारङ्गे ॥२५३९॥

गणसह प्रभुर शोभार सीमा नाइ ।
प्रवेशि श्रीवास-गृहे बैसे एक ठाꣳइ ॥२५४०॥

देख श्रीवासेर ए-अङ्गन मनोहर ।
एथा सङ्कीर्तनारम्भ कैला विश्वम्भर ॥२५४१॥

श्रीवास मुकुन्द आर श्रीगोविन्द दत्त ।
ए सब सम्प्रदा-सङ्कीर्तने हैला मत्त ॥२५४२॥

नित्यानन्दाद्वैत गदाधर प्रेममय़ ।
ए सभे विह्वल प्रभु नृत्य निरिखय़ ॥२५४३॥

सङ्कीर्तने नृत्य करे शचीर कुमार ।
पदाघाते धरणी कम्पय़े अनिवार ॥२५४४॥

प्रभुर सुवेश-शोभा यैछे भावावेश ।
वर्णे विज्ञगण चित्ते उल्लास अशेष ॥२५४५॥

गीते यथा—गौरी—

चम्पक शोन- कुसुम कनकाचल,
जितल गौरतनु-लावणि रे ।
उल्लत गीम- सीम नहु अनुभव,
जग-मन-मोहन भाङ्गनि रे ॥२५४६॥

जय़ शचीनन्दन, त्रिभुवन-वन्दन ।
कलिय़ुग-कालभुजग-भय़-खण्डन ॥ ध्रु ॥२५४७॥

विपुल पुलक कुल आकुल कलेवर,
गर गर अन्तर प्रेमभवे ।
लहु लहु हासनि, गद गद भासनि ।
कत मन्दाकिनी नय़न झरे ॥२५४८॥

निज-गुणे नाचत, नय़न टुलाय़त,
गाय़त कत शत भकत हि मेलि ।
यो रसे भासि, अवश महीमण्डल,
गोविन्ददास तहि परश ना भोलि ॥२५४९॥

पुन—तोड़ी—

नाचत गौर भावभरे गर गर ।
विपुल पुलककुल बलित कलेवर ॥२५५०॥

हास मिलित लस वदन-सुधाकर ।
वरषत निरत अमिय़ रस झर झर ॥२५५१॥

तरुण अरुण जिनि लोचन चर चर ।
करत भङ्गि कत निन्दि कुसुमशर ॥२५५२॥

कर किसलय़ अभिनय़ अति सुन्दर ।
कत हि रङ्गे पग धरय़े धरणि पर ॥२५५३॥

उनमत अनुखन यनु मदकुञ्जर ।
झलमल कुरु किय़े कनक धराधर ॥२५०५४॥

निरुपम वेश केश दृशि धृति हर ।
चौदिके विलसे उलस प्रिय़ परिकर ॥२५५५॥

गाय़त नव नव गीत मधुरतर ।
शुनईते धाय़त अखिल नारी नर ॥२५५६॥

वाय़त खमक मृदङ्ग रङ्गकर ।
उघटत धा धा धिगि ति निरन्तर ॥२५५७॥

जय़ जय़ भन सुर सहित पुरन्दर ।
धानि कलिकाल भाग लहु पटतर ॥२५५८॥

भासल सुख-साय़रे यत पामर ।
इथे वञ्चित ए कुमति घन श्यामर ॥२५५९॥

पुन—नाट—

नाचत द्विज-कुल-चन्द्र गौरहरि ।
मङ्गलमय़ भय़- हरण चरणयुग,
धरत धरणि पर, परम भङ्गि करि ॥२५६०॥

अविरत पूरुब, भावभरे गर गर
अविरल पुलक कदम्ब बलित तनु ।
चाꣳचर चिकुर, भाव रुचि सुचिकण,
कनक धराधर शिखरे मेघ यनु ॥२५६१॥

मालती कुसुम- माल आलिमण्डित,
चपल चारु उरे लम्बित झलमल ।
मन मथ फाꣳद, वदन-मन-रञ्जन,
अरुण कञ्जयुग-लोचन टलमल ॥२५६२॥

निरुपम नटल, निरखि प्रिय़ परिकर,
गाय़त मधुर मधुर रस वरषत ।
अखिल लोक सुख- साय़रे निमगन,
नरहरि कुमति दूरे नाहि परशत ॥२५६३॥

पुनः—घण्टारवा—

नाचत गौर, निखिल नट-पण्डित,
निरुपम भङ्गि, मदनमद हरई ।
प्रचुर चण्डकर दर परिभञ्जन,
अङ्गकिरणे दिगविदिक् उजरई ॥२५६४॥

उनमत अतुल, सिꣳह जिनि गरजन,
शुनईते बलि कलि वारण डरई ।
घन घन लम्फ, ललित गति चञ्चल,
चरणघाते क्षिति टलमल करई ॥२५६५॥

किन्नर-गरव, खरव करु परिकर,
गाय़त उलसे अमिय़ रस झरई ।
वाय़त बहुविध खोल खमक धुनि ।
परशत गगन, कौन धृति धरई ॥२५६६॥

अतुल प्रताप, काꣳरि दुरजनगण,
लेय़ई शरण, चरणतले पड़ई ।
नरहरि पहुꣳक, फिरिति रहु जगभरि,
परम दुलह धन निरत वितरई ॥२५६७॥

पुनः—माय़ूर—

आजु शुभ आरम्भ कीर्तने, गौरसुन्दर मुदित नर्तने,
सुघर परिकर, मध्यमधूर श्रीवास-अङ्गने शोहय़े ।
कनक केशर-गरव-गञ्जन, मञ्जु तनु-रुचि अतनु राञ्जन,
कञ्ज-लोचन चपल चहु दिश, चाहि जन मन मोहय़े ॥२५६८॥

नटन गति अति तरुण पद्तल, ताल धरईते धरणी टलमल,
करई हस्तक, त्रस्त कलित, सुललित कर-किशलय़-छटा ।
दशन मोतिम-पाꣳति निरसत, हास लहु लहु, अमिय़ वरयत ।
सरस लसत, सुवदन-माधुरी, जितई शारद-शशिघटा ॥२५६९॥

चिकण चꣳचर, चिकुर बन्धन, चारु रचित सु-तिलक चन्दन,
भूरि भूषण, झलके अङ्ग,
विभङ्गी-भणत ना आय़ ए ।
वामे पꣳहु पण्डित, गदाधर दक्षिणेते,
निताइसुन्दर सम्मुखे श्रीअद्वैत,
उनमत पेखि सुरगणा धाय़ ए ॥२५७०॥

वासुदेव, श्रीवास, नन्दन्ɒ, विजय़,
वक्रेश्वर, नाराय़ण गोपीनाथ,
मुकुन्द माधव गाय़त ए अद्भुत गुणी ।
राम वामे गरुड़्‌अ, गोविन्द आदि वाय़े,
मर्दल धिकि ता ता धिक्,
दिनि नि नि नि नि नि भणत नरहरि
भुवन भरु जय़ जय़ धुनी ॥२५७१॥

पुनर्धानशी—

श्रीवास-अङ्गाने, विनोद बन्धाने,
नाचत चैतन्य-राय़ ।
मनुज दैवत, पुरुष योषित,
सभाइ देखिते धाय़ ॥२५७२॥

भकत-मण्डल, गाय़त मङ्गल,
बाजत खोल करताल ।
माझे उनमत, नित्याइ नाचत,
भाय़ार भावे मातोय़ाल ॥२५७३॥

हेमस्तम्भ जिनि बाहु सुबलनि,
सिꣳह-जिनि कटिदेश ।
चन्द्र-वदने, मदन-आलय़,
भुवनमोहन वेश ॥२५७४॥

ना जानि नर-नारी, भवन दश चारि,
रूप हेरि हेरि काꣳदई ।
गरजे घन घन, लम्फ पुनः पुनः,
मल्लावेश धरि नाचई ॥२५७५॥

अरुण लोचने, प्रेम वरिषणे,
अवनीमण्डल सिञ्चय़े ।
धरणीमण्डले, प्रेम-वादर,
करल अवधुत-चन्दय़े ॥२५७६॥

शान्तिपुर-नाथ, गरजे अविरत,
देखिय़ा प्रेमेर विकार ।
धरिय़ा श्रीचरण, करय़े रोदन,
पण्डित श्रीवास उदार ॥२५७७॥

मुकुन्द कुतूहली, कान्दय़े फुलि फुलि,
धरिय़ा गदाधर-कोल ।
नय़ने बहे प्रेम, ठाकुर अभिराम,
सघने हरि हरि बोल ॥२५७८॥

ना जाने दिवानिशि, प्रेमरसे भासि,
सकल सहचरवृन्द ।
वृदावनदास, प्रेम-परकाश,
निताइ चरणारविन्द ॥२५७९॥

ओहे श्रीनिवास ! एइ श्रीवास-अङ्गने ।
ये नृत्य-कीर्तन ता वर्णिब कुल जने ॥२५८०॥

सामाइल यत लोक लेखा नाइ तार ।
कहिते कि अङ्गन-प्रभाव चमत्कार ॥२५८१॥

द्वार बद्ध कीर्तने ना याइते पारिय़ा ।
कत शत लोक एथा मरय़े बल्पिय़ा ॥२५८२॥

सङ्कीर्तने गेलो रात्रि तृतीय़ प्रहर ।
ना हईल कारु श्रमयुक्त कलेवर ॥२५८३॥

तृतीय़ प्रहर रात्रि सभे अनुमाने ।
इथे कत युग गेलो ताहा नाइ जाने ॥२५८८४॥

तथाहि श्रीचैतन्यभागवते मध्यखण्डे—
वत्सरेक नाम मात्र कत युग गेल ।
चैतन्य आवेशानन्दे किछु ना जानिल ॥२५८५॥

तथाहि श्रीकृष्णणचैतन्यचरिते द्वितीय़-प्रक्रमे ७म सर्गे—
इति सकलनिशाꣳ निनाय़ देवो
निजजनमनसाꣳ मुदे मुरारिः ।
क्षणमिव महद्वत्सरेण मेने’-
नवरतꣳ सुखमापुरार्यवर्याः ॥२५८६॥

प्रभुर अद्भुत भावावेशे सङ्कीर्तने ।
पूर्व नाम लईय़ा डाकिला भक्तगणे ॥२५८७॥

तथाहि श्रीचैतन्यभागवते मध्यखण्डे—
सकल वैष्णवे प्रभु देखि एके एके ।
भावावेशे पूर्व नाम धरि धरि भाके ॥२५८८॥

ये भाव-आवेशे प्रभु याहा प्रकाशिला ।
आनेर का कथा, ताहे द्रवे दारु-शिला ॥२५८९॥

नित्यानन्दाद्वैत-गदाधर आदि यत ।
कि बलिब से सकले हईला ये मत ॥२५९०॥

ओहे श्रीनिवास गौरचन्द्रेर आज्ञाते ।
हईल कीर्तन स्थिर रजनी-शेषेते ॥२५९१॥

प्रभु भावावेशे पुनः चतुर्दिके चाय़ ।
शालग्रामशिला-कोले वसिला खट्टाय़ ॥२५९२॥

भक्तगणे कहि कत गौर-गुणनिदि ।
भुञ्जिलेन दधि दुग्ध नवनीत आदि ॥२५९३॥

दास्यभावे भक्तसङ्गे यैछे आचरण ।
यैछे से आवेश ताहा ना हय़ वर्णन ॥२५९४॥

श्रीमुरारिगुप्त महा उल्लास-हिय़ाय़ ।
देखय़े प्रभुर शोभा रहिय़ा एथाय़ ॥२५९५॥

मूरारिरे कहे गोरा जानकीजीवन ।
निजकृत पद्य मोरे कराह श्रवण ॥२५९६॥

श्रीमुरारिगुप्त रामाष्टक पाठ करे ।
शुनि राम-आवेशे प्रसम्न मुरारिरे ॥२५९७॥

मन्द मन्द हासि महानन्दे प्रशꣳसय़ ।
‘रामदास’ नाम तार ललाटे लिखय़ ॥२५९८॥

रघुनाथाष्टक से प्रसङ्ग सुमधुर ।
ताहार श्रवणे सब ताप याय़ दूर ॥२५९९॥

तथाहि श्रीकृष्णचैतन्यचरिते द्वितीय़-प्रक्रमे ७म सर्गे—
तत प्रोवाच करुणो मुरारिꣳ त्वꣳ पठ स्वय़म् ।
कवित्वꣳ भवतः, श्रुत्वा स पपाठ शुभाक्षरम् ॥२६००॥

श्रीमन्महाप्रभुर आदेश मुरारिगुप्तेर स्वरचित श्रीरामाष्टक पाठ—

राजत्किरीटमणिदीधितिदीपिताश-
मुद्यद्बृहस्पति-कविप्रतीमे वहन्तम् ।
द्वे कुण्डले’ज्ङ्करहितेन्दुसमानवक्त्रꣳ
राम जगत्त्रय़गुरुꣳ, सततꣳ भजामि ॥२६०१॥

उद्याद्विभाझरमरीचिविबोधिताज-
नेत्रꣳ सुबिम्बदशनच्छदचारुनासम् ।
शुभ्राꣳशुरश्मि-परिनिर्जित-चारुहासꣳ
राम जगत्त्रय़गुरुꣳ सततꣳ भजामि ॥२६०२॥

तꣳ कम्बुकण्ठमम्बुजतुल्यरूपꣳ
मुक्तावलीकनकहारधृतꣳ विभान्तम् ।
विद्युद्बलाकगणसꣳयुतमम्बुदꣳ वा
राम जगत्त्रय़गुरुꣳ सततꣳ भजामि ॥२६०३॥

उत्तानहस्ततलसꣳस्थसहस्रपत्रꣳ
पञ्चच्छदाधिकशतꣳ प्रवराङ्गुलीभिः ।
कुर्वन्त्यसितकनकद्युतिर्यस्य सीता
पार्श्वे’स्ति तꣳ रघुवरꣳ सततꣳ भजामि ॥२६०४॥

अग्रे धनुर्धरवरः कनकोज्ज्वलाङ्गो
ज्येष्ठानुसेवनरतो वरभूषणाढ्यः ।
शेषाख्यधामवरलक्ष्मणनामा यस्य
रामꣳ जगत्त्रय़गुरुꣳ सततः भजामि ॥२६०५॥

यो राघवेन्द्रकुललिसिन्धुशुधाꣳशुरूपो
मारीच-राक्षस-सुबाहु-मुखान्निहत्य ।
यज्ञꣳ ररक्ष कुशिकाम्बय़पुण्यराशिꣳ
रामꣳ जगत्त्रय़गुरुꣳ सततꣳ भजामि ॥२६०६॥

हत्वा खरत्रिशिरसौ सगणौ कबन्धम्
श्रीदण्डकाननमदूषणमेव कृत्वा ।
सुग्रीवमैत्रमकरोद्विनिहत्य शत्रुम्
तꣳ राघवꣳ दशमुखान्तकरꣳ भजामि ॥२६०७॥

भꣳक्त्वा पिनाकमकरोज्जनकात्मजाय़ा
वैबाहिकोत्सवविधिꣳ पाथि भार्गवेन्द्रम् ।
जित्वा पितुर्मुदमुवाह पथि ककुत्स्थवर्यꣳ
रामꣳ जगत्त्रय़गुरुꣳ सततꣳ भजामि ॥२६०८॥

इत्थꣳ निशम्य रघुनन्दनराजसिꣳह-
श्लोकाष्टकꣳ स भगवान् चरणꣳ मुरारेः ।
वैदस्य मूर्ध्नि विनिधाय़ लिलेख भाले
त्वाꣳ ‘रामदास’ इति भो भव मत्प्रसादात् ॥२६०९॥

कि बलिब ? गुप्ते देखि कृपा अतिशय़ ।
हईल भक्तेर महा उल्लास हृदय़ ॥२६१०॥

प्रातःकाले निज-गृहे प्रभुर गमन ।
निज निज-गृहेते गेलेन भक्तगण ॥२६११॥

कि बलिब ?–भक्त-सङ्गे सदाइ विहरे ।
निरन्तर भावावेशे स्थिर हैते नारे ॥२६१२॥

प्रभुर श्रीभावावेश अन्य-अगोचर ।
दिवानिशि सिक्त नेत्रजले कलेवर ॥२६१३॥

गङ्गतीरे महाप्रभुर भावावेशे कीर्तन—

एकदिन एइ पथे भक्तगोष्ठि-सङ्गे ।
गृह हैते चले गङ्गातीरे महारङ्गे ॥२६१४॥

प्रभुर आदेशे एथा प्रिय़ भक्तगण ।
आरम्भिला देवेर दुर्लभ सङ्कीर्तन ।२६१५॥

भावावेशे भक्तगण मध्ये नाचि याय़ ।
प्रभुर अद्भुत चेस्टा केबा नाहि गाय़ ? ॥२६१६॥

गीते यथा—श्रीराग—

चित्ताचोर गौर-अङ्ग, रङ्गे फिरत भकत-सङ्ग,
मदनमोहन छान्दुय़ा ।
हेमवरण-हरण-देह पूरल तरुण करुण-मेह
तपत जगत-बन्धुय़ा ॥२६१७॥

सघने रोदन, सघने हास, आन हि वरण, विरय़ भाषे
नय़ने सलिल-सिन्दुह्य़ा ।
भावे विवश दिवस-राति, नीप-कुसुम पुलक पाꣳति,
वदन शरद-इन्दुय़ा ॥२६१८॥

अमिय़ जितल मधुर बोल, अरुण-चरणे मञ्जीररोल,
चलत मन्द मन्दुय़ा ।
अखिल भुवन आनन्दे भास, आश करत गोविन्ददास,
प्रेमसिन्धु बिन्दुय़ा ॥२६१९॥

पुनः-तोड़ी—

देखत वेकत गौरचन्द्र, बेत्̤‌हल भकत नखवृन्द
अखिल भुवन उजोरकारी कुन्द-कनक काꣳतिय़ा ।
अगति पतित कुमुदबन्धु, हेरि उछले रसेर सिन्धु,
हृदय़कुहर-तिमिरहारी, उदित दिनहु रातिय़ा ॥२६२०॥

सहजे सुन्दर मधुर देह, आनन्दे आनन्दे ना बाꣳधे थेह,
ढुलि ढुलि ढुलि चलत खेलत, मत्त करिवर भातिय़ा ।
नटन घटन भैपेल भोर, मुकुन्द-माधव गोविन्द-बोल,
रोय़त हसत धरणी खसत, शोहते पुलक पाꣳतिय़ा ॥२६२१॥

महिम-महिमा को कहुतुर, निज पर धरि करत कोर,
प्रेम अमिय़ हरखि वरखि, तरखि त मही मातिय़ा ।२६२२॥

ओ रसे उत्तम अधम भास, एकले वञ्चित गोविन्द दास,
कि जानि कि खेले कोन गढ़ल, काठ कठिन छातिय़ा ॥२६२३॥

पुनः—आशावरी—

नाचत शचीतनय़ गौरसुन्दर मनमोहना ।
बाजत कत कत, मृदङ्ग उघटत,
धि धि कट धिलङ्ग, गाय़त सुर मधुर अङ्ग,
भङ्गि परम शोहना ॥ ध्रु ॥२६२४॥

निरुपम रस उलस आज, विलसात प्रिय़ा भकत-माझ,
झलकत अति ललित साज, युवति-धिरय-मोचना ।
कुसुमाञ्चित चारु चिकुर, कुण्डल-अति गण्ड-मुकुर,
भाल-तिलक, मञ्जुल भुरु, भृङ्ग कमललोचना ॥२६२५॥
नासापुट मोदसदन, इन्दुनिकरनिन्दि वदन,
मन्द मन्द हसनि कुन्द-दशन मधुर बोलेना ।
कण्ठ मदन-मदभर-हर भुजयुग जिनि-कुञ्जरकर,
कक्ष मृदु, विशाल वक्ष, माल अतुल दोलना ॥२६२६॥

नाभि त्रिबलि बलित भाति, लोमाबलि भुजङ्गपाति,
रसनायुत कृश कटि नव, केशरि-मद-भञ्जना ।
पाइरे वर वसनवेश, उरु वरणि ना शकत शेष,
नरहरि पहु पदतले करु, तरुणारणे गञ्जना ॥२६२७॥

ओहे श्रीनिवास ! प्रभु सुरधुनी-तीरे ।
सङ्कीर्तनानन्दे मग्न चले धीरे धीरे ॥२६२८॥

गङ्गार सौभाग्य प्रकाशय़े अतिशय़ ।
परिकर-सङ्गे गङ्गातीरे विहरय़ ॥२६२९॥

गीते यथा—नट्ट—

विहरत सुरसरित तीर, गौर तरुण वय़स थिर,
तड़्‌इत-कनक-कुङ्कुम-मद-मर्दन तनु काꣳति ।
मदन कदन वदनचन्द्र, निखिल तरुणी नय़नकन्द,
हसत लसत दशनवृन्द कुन्द-कुसुमपाꣳति ॥२६३०॥

अञ्जन घन-पुञ्ज वरण, कुञ्चित कच धैर्यहरण,
वेश विमल अलकाकुल राजत अनुपाम ।
भाल तिलक झलकत अति, भाण्ड-भुजग-मञ्जल गति,
चञ्चल दिठे अञ्चल रस-रञ्जित छवि धाम ॥२६३१॥

कुण्डल श्रुति गण्ड-कलित, कण्ठ हि वनमालबलित,
बाहु विपुल, बलय़ा कर, कोमल बलिहारि ।
परिसर वर वक्ष अतुल, नाशत कत कुलवतीकुल,
ललित कटि सुकृश केशरी-गरव-खरवकारी ॥२६३२॥

भगमग भुज, जानु तरुण, अरुणाबलि किरण चरण,
कमल मधुर सौरभभवे, भक्त भ्रमर भोर ।
करुणाघन तुबनविदित, प्रेम अमिय़ा वरषत नित,
नरहरि-मति मन्दक बहु, परशत नाहि घोर ॥२६३३॥

पुनः—वेरगुप्त—

सुरधुनी-तीर, परम निर्मल थल,
तहि उलसित सब भक्त उदार ।
गाय़त कत कत, गीत अमिय़मय़,
वाय़त वाद्य विविध परकार ॥२६३४॥

नाचत गुणमणि गौरकिशोर ।
चन्दन-चरचित, रुचिर अङ्ग अति,
अपरूप रूप रमणी-मन-चोर ॥ ध्रु ॥२६३५॥

अमल कमलदल लोचन डगमग,
भाङ भङ्गि नव अलकविलास ।
शारद निशाकर निकर-निन्दि मुख,
कोटि मदन-मद-मरदन हास ॥२६३६॥

चञ्चल ललित विशाल वक्षः परि,
झलकत जिनि दामिनी मणिहार ।
नरहरि पꣳहु पद धरत ताल यब,
तब कि मधुर रब नूपुर झलकार ॥२६३७॥

पुनः—वसन्त—

सुरधुनी-तीरे तरुण तरु-वल्लरी,
पल्लव नव नव कुसुम विमुकाश ।
परिमले मुगध मधुपकुल कुजत,
कोकिल कीर किरत चहु पाश ॥२६३८॥

नाचत तꣳहि नट गौरकिशोर ।
केशर मृगमद चन्दन-चरचित,
फागु अरुण अनु अधिक उजोर ॥ ध्रु ॥२६३९॥

निरुपम वेश वसन मणिभूषण,
झलकत चारु चपल वनमाल ।
अभिनवा भङ्गि भुवन-मनमोहन,
घन घन धरत चरणतले ताल ॥२६४०॥

गाय़त परम मधुर परिकरगण,
निरखि वदन-पशि उलस अभङ्ग ।
सुरगण गगने मगन भण जय़ जय़,
वाय़त नरहरि मधुर मृदङ्ग ॥२६४१॥

पुनः—वसन्त—

आजु सुरधुनीतीरे सुन्दर गौर नृत्य-विभोर ।
फागुबिन्दु सुगन्धि चन्दनचर्चित अङ्ग उजोर ॥२६४२॥

भाल झलकत तिलक अतुलित ललित कुन्तलभार ।
श्रवण-कुन्तल गण्ड मण्डित, भाङ भङ्गि अपार ॥२६४३॥

लोल लोचन कञ्ज मञ्जु, मय़ङ्क जिति मुखज्ज्योति ।
अरुण अधर सुहास मृदु मृदु, दन्त निन्दई मोति ॥२६४४॥

बहु कनक, मृणाल मनमथदमन वक्ष विशाल ।
चारु रचित विचित्र चञ्चल, कण्ठे मालतीमाल ॥२६४५॥

क्षीण कटितट जटित किङ्किणी, पहिबे वसन सुचारु ।
चरणञूपुर रणित निरुपम, सब मद सकल शिङ्गारु ॥२६४६॥

हेरि अपरूप रूपरिकर, मगन गुण नहु अन्त ।
झाꣳज मुरज मृदङ्ग बाय़ई, गाय़े राग वसन्त ॥२६४७॥

शुनत सुरगण गगनमण्डले, धिरष धरई ना पारि ।
धाइ धाइ चलु चहु ओर नव, नदीय़ाल्नगर-नरनारी ॥२६४८॥

होत जय़जय़-कार जग भरि उमड़ि प्रेम-प्रवाह ।
भणत नरहरि धन्य कलियुगे विलसे गोकुलनाह ॥२६४९॥

सुरधुनीतीरे प्रभु विलसिय़ा रङ्गे ।
एइ पथे निज-गृहे गेला भक्तसङ्गे ॥२६५०॥

एकदिन प्रभु महा उल्लसित हैय़ा ।
आइला श्रीवास गृहे एइ पथ दिय़ा ॥२६५१॥

देख श्रीनिवास एइ श्रीवासभवने ।
एथा बैसे प्रभु प्रिय़ परिकर-सने ॥२६५२॥

श्रीकीर्तन विना किछु प्रभुरे ना भाय़ ।
श्रीकीर्तने सबे प्रभु उल्लास जन्माय़ ॥२६५३॥

प्रभुर अन्तर अन्ये ना पारे जानिते ।
प्रसन्न नय़ने प्रभु चाहे चारि भिते ॥२६५४॥

श्रीवासगृहे महाप्रभुर अभिषेक—

प्रभुर इङ्गिते बुझि प्रभु-प्रिय़गण ।
श्रीअभिषेकेर शीघ्र करे आय़ोजन ॥२६५५॥

गङ्गाजल आने सब उल्लास हिय़ाय़
प्रभुर अभिषेक-गीत मुकुन्दादि गाय़ ॥२६५६॥

एथा गौरचन्द्रे बसाइय़ा सिꣳहासने ।
करे अभिषेक अति अपूर्व विधाने ॥२६५७॥

गीते यथा—सुहई—

शङ्ख दुन्दुभि-नाद बाजय़े सुस्वरे ।
गोराचाꣳदेर अभिषेक करे सहचरे ॥२६५८॥

गन्ध, चन्दन, शिला, धूप, दीप ज्वालि ।
नगरेर नारी सब करे अर्ध्य थालि ॥२६५९॥

नदीय़ार लोक सब देखि आनन्दित ।
जय़ जय़ जय़ दिय़ा केह गाय़ गीत ॥२६६०॥

गौराङ्गचाꣳदेर मुख करे निरीक्षणे ।
गोरा अभिषेक-रस वासुघोष गाने ॥२६६१॥

पुनः—माय़ूर—

आजु अभिषेक सुखेर अवधि, बैसे सिꣳहासनेगोरागुणनिधि,
निरुपम शोभा-भङ्गिमाते केउ धैरय ना धरे धरणीतले ।
चिकण चाꣳचर केश शोहे, लोटाय़े पिठे छटा मन मोहे,
हेम धराधर शिखरेते येन यदुनाप्रवाह बहय़े भाले ॥२६६२॥

निरमल अङ्ग झलमल करे, कत शत मनमथ-मद हरे
केह ना विभल हय़ हासिमाखा मुखशशीपाने वारेक चाय़ा ।
अभिषेक-मन्त्र पड़्‌इ वारेवारे, नित्यानन्दाद्वैत उल्लसे अन्तरे,
श्रीवासादि पꣳहु शिरे सुवासित जल ढाले करे कलस लैय़ा ॥२६६३॥

जगदीश वासुदेव नाराय़ण, मुकुन्द माधव गाले विचक्षण,
श्रुति जाति-स्वर भेद नाना ताले गाय़ अभिषेक अमिय़ापारा
गोविन्द गोविन्दानन्दे खोल वाय़, धाधा धिक् धिक् धेन्ना ना ना ताय़,
नाचे वक्रेश्वर सुमधुर छान्दे कारु नेत्रे बहे आनन्दधारा ॥२६६४॥

सुरगण गणसह अलखित, अभिषेक सुखे हैय़ा विमोहित,
वरिषे कुसुम थरे थरे करे जय़ जय़ ध्वनि पुलक अङ्गे ।
पतिव्रता नारीगण घन घन देइ जय़कार अति रसाय़न,
मङ्गलरीति कि नव नव नरहरि हेरि हिय़ा उथले रङ्गे ॥२६६५॥

पुनः—धानशी—

कि आनन्द श्रीवास भवने ।
करय़े प्रभुर अभिषेक प्रिय़गणे ॥२६६६॥

स्वर्ण-सिꣳहासने बसाइय़ा ।
आने सुवासित जल उलस्त हैय़ा ॥२६६७॥

अभिषेक-मन्त्र पाठ करि ।
प्रभुर मस्तके जल ढाले घट भरि ॥२६६८॥

उलु लु लु देइ नारीगण ।
बाजे नाना वाद्यध्वनि भेदय़े गगन ॥२६६९॥

अभिषेक-गीत सब गाय़ ।
भासय़े निय़त नेत्र आनन्दधाराय़ ॥२६७०॥

देवगण जय़ जय़ दिय़ा ।
नाचे कत साधे अभिषेक निरखिय़ा ॥२६७१॥

अभिषेक-शोभा मनोहर ।
झलमल करय़े कोमल कलेवर ॥२६७२॥

नरहरि आपना निछय़े ।
सुधामय़ वदने मदन मुरुछय़े ॥२६७३॥

ओहे श्रीनिवास ! कि बलिब एक मुखे ? ।
केबा ना मातिल प्रभु-अभिषेक-सुखे ? ॥२६७४।

केह कत घाट जल आने लेखा नाइ ।
मन्द मन्द हासे प्रभु सबा पाने चाइ ॥२६७५॥

जल आने श्रीवासेर दासी—नाम ‘दुःखी’ ।
देखि तार भक्ति प्रभु नाम थुइल—‘सुखी ॥२६७६॥

अभिषेक शोभार उपमा नाइ दिते ।
देखे भक्तगण दाꣳड़ाइय़ा चारिभिते ॥२६७७॥

मनेर उल्लासे केह पानि तोला लैया ।
मोछय़े प्रभुर अङ्ग स्नान समाधिय़ा ॥२६७८॥

केह लैय़ा सुसूक्ष्म नूतन शुष्क वास ।
पराय़ प्रभुरे कत बाढ़य़े उल्लास ॥२६७९॥

केह अति सुगन्धि-चन्दन दिय़ा गाय़ ।
भूषणे भूषित करि चान्दमुख चाय़ ॥२६८०॥

एखाइ पातय़े विष्णुखट्टा सज्ज करि ।
ताहार उपरे बैसे प्रभु गौरहरि ॥२६८१॥

प्रभुशिरे छत्र धरे नित्यानन्द राय़ ।
परम आनन्दे केह चामर चुलाय़ ॥२६८२॥

केह केह पुष्प वर्षे मनेर उल्लासे ।
देखे शोभा सबाइ रहिय़ा चारिपाशे ॥२६८३॥

विविध प्रकारे सभे प्रभुरे पूजिय़ा ।
सभेइ करय़े स्तुति भूमे प्रणमिय़ा ॥२६८४॥

विविध सामग्री सभे प्रभुरे भुञ्जाय़ ।
भक्तद्रव्य मागिय़ा भुञ्जय़े गौरराय़ ॥२६८५॥

के बुझिबे श्रीगौरचन्द्रेर भावमर्म ? ।
भावावेशे कहय़े सभार जन्म-कर्म ॥२६८६॥

श्रीवास, अद्वैत, गङ्गादास, हरिदासे ।
पूर्व कथा कहे प्रभु सुमधुर भाषे ॥२६८७॥

शुनिय़ा से सब सभे भासे नेत्रजले ।
करे कत स्तुति पड़ि प्रभु-पदतले ॥२६८८॥

ऐछे ये ये भक्तेर जन्मादि-कथा कय़ ।
शुनि से सबार महा उल्लास हृदय़ ॥२६८९॥

खोलावेचा श्रीधरेरे प्रभु दिला वर ।
परम कौतुके स्तुति करिला श्रीधर ॥२६९०॥

प्रभुर आज्ञाय़ वर मागे यत जन ।
दिलेन सबारे वर शचीर नन्दन ॥२६९१॥

ये ये अवतारे ये ये भक्ते कृपा कैल ।
तैछे से से भक्ते प्रभु प्रत्यक्ष हईल ॥२६९२॥

श्रीमुरारिगुप्ते प्रभु दिलेन दर्शन ।
दुर्वादलश्याम राम जानकी-जीवन ॥२६९३॥

श्रीराम, लक्ष्मण, सीता मुरारि देखिय़ा ।
आपनारे देखे ‘हनुमान’ हर्ष हैय़ा ॥२६९४॥

मुरारिर स्तुति शुनि प्रभुर उल्लास ।
‘मुरारीवलभ’-नाम हईल प्रकाश ॥२६९५॥

मुकुन्देरे प्रभु दण्ड-अनुग्रह कैल ।
‘मुकुन्द प्रभुर प्रिय़ा’—विदित हईल ॥२६९६।

सात-प्रहारिय़ा-भावे अद्भुत विलास ।
नेत्र भरि देखे यत प्रभुप्रिय़दास ॥२६९७॥

चतुर्मुख, पञ्चमुख-आदि देवगण ।
अलक्षित हैय़ा सभे करय़े दर्शन ॥२६९८॥

कि बलिब एक मुखे ओहे श्रीनिवास ।
एथा रहि देखिनु मुइ प्रभुर विलास ॥२६९९॥

श्रीवासभवनेते सुखेर सीमा नाइ ।
भाव शान्ति हैले प्रभु बैसे एइ ठाꣳइ ॥२७००॥

गौराङ्गेर वाक्ये नित्यानन्देर ये रीत ।
गदाधर आदि ताहे हैल उल्लसित ।२७०१॥

नित्यानन्दे राखि प्रभु श्रीवास भवने ।
एइ पथे निज-गृहे गेला गणसने ॥२७०२॥

श्रीनिवासेर निकट श्रीनित्यानन्दप्रसङ्ग-वर्णनाक्रमे जगाइ-माधाइर उद्धार-वृत्तान्त-कथन—

नित्यानन्द-चरित्र बुझिते, केबा पारे ? ।
श्रीमालिनी ‘दुःखी’ देखि जिज्ञासिल ताꣳरे ॥२७०३॥

‘पित्ततलेर धृतपात्र काक लैय़ा गेल’ ।
श्रीमालिनीदेवी नित्यानन्दे निवेदिल ॥२७०४॥

हासि नित्यानन्द आज्ञा कैल काक-पक्षे ।
बाटी आनि दिल काक मालिनी-सम्मुखे ॥२७०५॥

न्त्यानन्द-प्रभाव देखिय़ा पुण्यवती ।
चाहि नित्यानन्द-पाने कैल बहु स्तुति ॥२७०६॥

एकदिन एइ पथे नित्यानन्द-राय़ ।
आइके देखिते चले उल्लास हिय़ाय़ ॥२७०७॥

एकदिन नित्यानन्द हरिदास-साथे ।
श्रीशची-आलय़ हैते आइसे एइ पथे ॥२७०८॥

प्रभुर आज्ञाय़ नदीय़ाय़ घरे घरे ।
‘कृष्ण भज’ एइ भिक्षा मागय़े सबारे ॥२७०९॥

शिष्ट लोक एइ वाक्ये आनन्द पाय़ चिते ।
पाषण्ड असुर हासि करे नाना मते ॥२७१०॥

एइ पथे चले यथा जगाइ-माधाइ ।
तारे उपदेश—‘कृषण भज दुइ भाइ’ ॥२७११॥

शुनिय़ा मद्यप दुइ महा-दुराचार ।
पड़िय़ाछिलेन, उठि कहे—‘मार मार’ ॥२७१२॥

ब्रह्मादि देवता याꣳरे ध्याने नाइ पाय़ ।
हेन नित्यानन्दे दोꣳहे धरिवारे धाय़ ॥२७१३॥

जगाइ-माधाइर क्रिय़ा कहिब वा कत ?
चित्रगुप्त लिखिते ना पारे पाप यत ॥२७१४॥

ब्राह्मण हैय़ा सङ्गदोषे हैला नष्ट ।
नवद्वीप आदि भय़े काꣳपे—ऐछे दुष्ट ॥२७१५॥

महाक्रोधे कहि कटुवाक्य, वज्राघात ।
नित्यानन्द-माथे एथा कैल रक्तपात ॥२७१६॥

आच्छेद्य अभेद्य नित्यानन्देर शरीर ।
इथे रक्तपात—इहा बुझि कुन धीर ॥२७१७॥

गणसह प्रभु एथा आसि गृह हैते ।
चक्रे आकर्षिल महादस्ये सꣳहारिते ॥२७१८॥

नित्यानन्द परम दय़ालु व्यक्त हैल ।
सुदर्शन-चक्र हैते तारे रक्षा कैल ॥२७१९॥

पितकी-तारण नित्यानन्द कृपा कैला ।
जगाइ-माधाइ दुइ भाइ उद्धारिला ॥२७२०॥

देवेर दुर्लभ भक्ति दिय़ा दुइ जने ।
दोꣳहार ये पाप प्रभु लईला आपने ॥२७२१॥

निजगण-मध्ये दोꣳहे गणना करिल ।
सꣳकीर्तन-सुखेर समुद्रे डुबाइल ॥२७२२॥

स्वर्ग-मर्त्य-पाताले हईल एइ ध्वनि ।
‘दुइ दैत्य उद्धारिला गौरगुणमाणि’ ॥२७२३॥

घुचिल सभार भय़, उल्लास-हिय़ाय़ ।
जगाइ माधाइरे देखिते के ना धाय़ ? ॥२७२४॥

गीते यथा—गुर्जरी—

आजु कि आनन्द नदीय़ा-नगरे,
जगाइ-माधाइ दोꣳहे देखिबारे,
धाय़ चारिदिके कि नारी-पुरुष,
परस्पर कहे कत ना कथा ।
केह केह अति विरलेते रैय़ा,
ओहे देख देख दुꣳहु पाने चाय़ा,
सुरुजेर सम तेज एबे भेल,
से पाप-शरीर गेल वा कोथा ? ॥२७२५॥

केह कहे—‘आहा मरि ! मरि !
भावे गरगर बैसे बेरि बेरि
कान्दि उठे, छुटे आꣳखे बारिधारा,
निवारिते नारे, ना धरे धृति’ ।
केह कहे—‘हेर देख निरुपम,
पुलकित तनु काꣳपे घन घन,
धूलाय़ धूसर धरणीते पड़ि,
गड़ि याय़ किछु नाहिक स्मृति’ ॥२७२६॥

केह कते—‘किबा गोरा-मुखशशी-
पाने चाहि जानि कत सुखे भासि,
हासि-सुधा-पाने उनमत हैय़ा,
लोटाइय़ा पड़े चरणतले’ ।
केह कहे—‘देख निताइचान्देरे,
चाहि हिय़ा-माझे कत खेद करे,
दुखानि चरण परशिय़ा करे,
करे अभिषेक आꣳखेर जले’ ॥२७२७॥

केह कहे—‘देख अद्वैत तपसी,
गदाधर श्रीवासादि-पाशे पाशि,
अतुल उलसे फुलि फुलि फिरे,
लैय़ा सभार चरण-धूलि’ ।
केह कहे—‘कत कातर अन्तरे,
एक भिते रहि, दन्ते तृण धरे,
नरहरि—पꣳहु ! परिकर-सह,
कर कृपा—कहे दुबाहु भुलि’ ॥२७२८॥

ये कौतुक जगाइ-माधाइ उद्धारिते ।
हईले सहस्र मुख ना पारि कहिते ॥२७२९॥

जय़ जय़ जय़-ध्वनि भरिल भुवन ।
स्वर्गे महा आनन्दे नाचय़े देवगण ।२७३०॥

अलक्षित पुष्पवृष्टि करे अनिवार ।
नारदादि गाय़ प्रभु-करुणा अपार ॥२७३१॥

करुणामय़ अवतार श्रीगौरराय़ ।
परम दुःखीरे सुखसमुद्रे डुबाय़ ॥२७३२॥

सभा-सह सङ्कीर्तनावेशे गौरहरि ।
निज-गेहे गेला—लोक देखे नेत्र भरि ॥२७३३॥

कि बलिब ?–जगाइ-माधाइ दुइजन ।
भक्तिरत्न उपार्जने महा-विचक्षण ॥२७३४॥

रजनी-प्रभाते दोꣳहे करि गङ्गास्नान ।
निर्जने लय़ेन दुइ लक्ष हरिनाम ॥२७३५॥

परम धार्मिक दुइ विप्र महाशय़ ।
नवद्वीपे दोꣳहारे केबा ना प्रशꣳसय़ ? ॥२७३६॥

एइ देख जगाइ-माधाइरे वासस्थान ।
ए स्थान-दर्शने पापी पाय़ परित्राण ॥२७३७॥

श्रीमाधाइ प्रभु नित्यानन्देर आज्ञाय़ ।
गङ्गाघाट सज्ज करे हैय़ा दीनप्राय़ ॥२७३८॥

गङ्गास्नाने याय़ ये तारे प्रणमिय़ा ।
करय़े प्रार्थना दैन्य कान्दिय़ा कान्दिय़ा ॥२७३९॥

शुनि माधाइर दैन्य केबा ना कान्दय़ ? ।
माधाइर हित-चिन्ता सकले करय़ ॥२७४०॥

एइ माधाइर घाट ये करे दर्शन ।
भक्ति लभ्य हय़, घुचे सꣳसार-बन्धन ॥२७४१॥

ये तपस्या माधवेर—कहने ना याय़ ।
‘श्रीमाधव ब्रह्मचारी’—ख्याति नदीय़ाय़ ॥२७४२॥

श्रीवास-गृहे महाप्रभुर सङ्कीर्तन-प्रसङ्ग—

एकदिन निज-गृह हैते प्रभु रङ्गे ।
ए-पथे श्रीवास-गृहे गेला भक्तसङ्गे ॥२७४३॥

श्रीवास उल्लासे धैर्य धरिते नारिल ।
प्रभुर अद्भुत कृपासमुद्रे भुविल ॥२७४४॥

एथा गौरचन्द्र नृत्य करे सꣳकीर्तने ।
सभा-प्रति कहे—‘सुख ना जन्मय़े केने ?’ ॥२७४५॥

शुनिय़ा प्रभुर वाक्य श्रीवासपण्डित ।
चिन्तायुक्त हईय़ा चाहय़े चारिभित ॥२७४६॥

श्रीवासेर शाशुड़्‌ई माथाय़ डोल दिय़ा ।
ए-घरेर कोणेते आछिला लुकाइय़ा ॥२७४७॥

बाह्यहीन श्रीवास उन्मत्त कृष्णवेश ।
घर हैते बाहिर कैल धरि तार केशे ॥२७४८॥

प्रभु कहे—‘एबे सुख उपजय़े मने ।
हईलेन सभे महामत्त सङ्कीर्तने ॥२७४९॥

एकदिन प्रभु प्रेमे मूर्छित एथाय़ ।
पदधूलि लईय़ा अद्वैत माथे गाय़ ॥२७५०॥

बाह्य पाइ प्रभु नृत्य करे सꣳकीर्तने ।
सभा-प्रति कहे—‘सुख ना जन्मय़े केने ? ॥२७५१॥

ना जानिय़े अपराध कोथा वा हईल ।
अद्वैतेर पाने चाहि सकल जानिल ॥२७५२॥

महा-बलवान् प्रभु धरि अद्वैतेरे ।
अद्वैत-चरण लैय़ा घषे निज-शिरे ॥२७५३॥

सꣳकीर्तनावेशे प्रभु बैसे ए खट्टाय़ ।
भिक्षा करि शुक्लाम्बर आइला एथाय़ ।२७५४॥

महाप्रीते प्रभु से झुलिते हात दिय़ा ।
खाय़ेन तण्डुल तारे ‘सुदामा’ बलिय़ा ॥२७५५॥

कत दैन्य करि ब्रह्मचारी शुक्लाम्बर ।
झुलि काꣳधे कीर्तने नाचय़े मनोहर ॥२७५६॥

श्रीशुक्लाम्बरेर प्रेमेचेष्टा निरखिते ।
गणसह प्रभुर आनन्द बार्ह्̤‌ए चिते ॥२७५७॥

श्रीवास-आलय़े प्रभु ऐछे विलसिय़ा ।
नगर-भ्रमणे चले निज-गृहे गिय़ा ॥२७५८॥

एइखाने विश्वम्भर प्रिय़गण-सङ्गे ।
भासे सꣳकीर्तन-सुख-समुद्र-तरङ्गे ॥२७५९॥

परम अद्भुत नृत्य करे गौरराय़ ।
चतुर्दिके परिषदवृन्द सभे गाय़ ॥२७६०॥

गीते यथा—देवकिरी—

बलि-कलि-मत्त-मतङ्गज-मरदन
गौरसिꣳहे नाचत नदीय़ाय़ ।
जय़ जय़ रब सब भुवन विय़ापित,
निखिल लोक मिलि चौदिके धाय़ ॥२७६१॥

गाय़त परम प्रबल प्रिय़ परिकर,
किन्नर-दुरगम ताल-तरङ्ग ।
बाजत मुरज मृदङ्ग दृमिकि दृमि,
दाꣳ दाꣳ दृमि कट धिकट धिलङ्ग ॥२७६२।

कम्पई धरणी धरत पद-पङ्कज,
भगमणि अङ्गभङ्गि अनुपाम ।
लोचन तरुण अरुण-रुचि गञ्जई,
चाहनि चारु चमके कत काम ॥२७६३॥

शशधर-निकर निन्दि मुख मधुरिम,
हासत लहु-लहु अमिय़ गोरि ।
प्रेम वितरि नरहरि-प्रभु पामरे,
करई कोरे भुजयुग पसारि ॥२७६४॥

पुनः-मेघराग—

नाचत गौर नटन पणडितवर ।
कुम्कुम-दामिनी- दाम-दमन तनु
मण्डित निरुपम विपुल पुलकभर ॥ ध्रु ॥२७६५॥

अरुण अधर मृदु, चान्द वदन लस
दशन कुन्द लहु, हास अमिय़ झर ।
नय़न-कञ्ज जन- रञ्जन रसमय़,
चाहनि कत शत मदन-गरव-हर ॥२७६६॥

कनक-मृणाल- निन्दि भुजयुग तुलि,
बोलत हरि हरि, अन्तर गर गर ।
मङ्गलमय़ को- मल सुललित पद,
विविध भङ्गि सञे, धरई धरणीपर ॥२७६७॥

बाजत झाꣳज सु- खमक खोल कत ।
गाय़त मधुर मधुर सुर परिकर ।
वितरत प्रेम- रतन धन जग भरि,
वञ्चित कुमति ए नरहरि पामर ॥२७६८॥

पुनः—भूपति—

नाचत गौर, नटन जनरञ्जन,
निखेल मदन-मद-भुञ्जन अङ्ग ।
पुलकित ललित, कम्प घन उनमत,
शुनईते पूरुष पीरित-परसङ्ग ॥२७६९॥

लोचन अरुण, कमलदल छल छल,
जल झलकत जनु मोतिमदाम ।
हसईते दशन, बिजुरि-सम चमकत,
ढर ढर मधुर अधर अनुपाम ॥२७७०॥

कुञ्जर-करवर- गरव-विमोचन,
मञ्जु विपुल भुजयुगल पसारि ।
निरखि गदाधरे, करई कोरे पुनः,
भणई मरमधृति धरई ना पारि ॥२७७१॥

उथलई प्रेम- पय़ोनिधि निरुपम,
प्रबल तरङ्ग-रङ्ग उपजाय़ ।
पामर, पतित, दुःखित सुरे भासय़े,
नरहरि पापी, परशु नहु ताय़ ॥।२७७२॥

पुनः—नट्टनाराय़ण—

नाचत गौर परम सुखसदना ।
अबिरल विपुल, पुलककुल झलमल,
सुललित अङ्ग मदनमद-कदना ॥ ध्रु ॥२७७३॥

टलमल अमल, कमलदल लोचन,
चाहनि करुण अरुणरुचि रुचिरे ।
निरखि शारदशशी, हसित लपनलस,
दशन-सुकिरण हरत चित अचिरे ॥२७७४॥

गजवर-गरव- हरण गति नव नव,
धरतेइ चरण धरणी अति मुदिता ।
गद गद हृदय़, वदत घन हरि हरि,
निरुपम भाव-विभव-भर उदिता ॥२७७५॥

उनमत अतुल, रतन धन वितरणे,
हरल विपद, यश भरल ए भुवने ।
पूरल सकल मनो- रथ इथे वञ्चित
नरहरि विफल जनम, धिक् जीवने ॥२७७६॥

ओहे श्रीनिवास! सङ्कीर्तने मग्न हैय़ा ।
मन्द मन्द चले प्रभु एइ पथ दिय़ा ॥२७७७॥

देख प्रभुप्रिय़ सञ्जय़ेर एइ घर ।
अद्भुत भङ्गिते एथा नाचे विश्वम्भर ॥२७७८॥

गीते यथा—नाट—

नाचत शचीतनय़ गौर, माधुरी मन मोहे ।
कनकाचलदलन देहे पुलकाबलि शोहे ॥२७७९॥

झलमल विधुवदन अमिय़ वरषत मृदु हासे ।
चञ्चल नय़ानाञ्चले कत कत रस परकाशे ॥२७८०॥

पादतले धरु ताल झनन, नूपुर घन बाजे ।
अभिनव बहु भङ्गि निरखि मनमथ मरु लाजे ॥२७८१॥

गाय़त गुण जगजन निमगन सुख-परबाहे ।
वञ्चित नरहरि दीनहीन दहे भवबदाहे ॥२७८२॥

पुनः–नटि—

किबा खोल करताल बाजे ।
चारिपाशे परिकर साजे ॥२७८३॥

आज गाÿअत मधुर लीला ।
शुनि दरवय़े दारुशिला ॥२७८४॥

रङ्गे नाचय़े सुन्दर गोरा ।
केबा जाने कि भावे भोरा ॥२७८५॥

नव पुलक-बलित तनु ।
शोहे कुनकपनस जनु ॥२७८६॥

सुर-सरित-प्रवाह पारा ।
दुटी नय़ने बहय़े धारा ॥२७८७॥

घन घन तुजयुग तुलि ।
गरजय़े हरि हरि बुलि ॥२७८८॥

अति पतित पामरे हेरि ।
धरि कोरे करे बेरि बेरि ॥२७८९॥

प्रेमधन दुइ जने जने ।
छाड़ि एका नरहरि दीने ॥२७९०॥

पुनः—मालवश्री—

नाचय़े शचीसुत, विपुल पुलकित,
सरस वेश सुसहय़े ।
कनक जिनि यनु, मदनमय़ तनु,
जगत-जन-मन मोहय़े ॥२७९१॥

ललित्त भुज तुलि गरजे हरि बुलि
पुरुष प्रेमरसे भासय़े ।
कत ना वारेवारे, निरखि गदाधरे
मधुर मृदु मृदु हासय़े ॥२७९२॥

श्रीवास आदि यत, अधिक उनमत,
अतुल गुणगण गाय़य़े ।
मृदङ्ग करताल, खमक सुरसाल,
ता दृमि दृमि वाय़य़े ॥२७९३॥

गगने सुरगण, मगन घन घन,
वरिषे कुसुम सुभाꣳतिय़ा ।
सघने जय़ जय़, भणत अतिशय़,
श्याम घन मृद मातिय़ा ॥२७९४॥

पुनः—वराटि—

भुवनमोहन गोराचाꣳद ।
अखिल लोकेर मन-फाꣳद ॥२७९५॥

नाचे पꣳहु प्रेमेर आवेशे ।
अरुण-नय़न जे भासे ॥२७९६॥

भुज तुलि हरि हरि बोले ।
पतिते धरिय़ा करे कोले॥२७९७॥

निज-रसे सबारे भासाय़ ।
चारिपाशे परिषद गाय़ ॥२७९८॥

सुकोमल अङ्ग आछाड़िय़ा ।
गड़ि याय़ धूलाय़ पड़्‌इय़ा ॥२७९९॥

देखिय़ा सकल जीव काꣳदे ।
नरहरि हिय़ा नाइ बान्धे ॥२८००॥

एइ वृक्षतले प्रभु दण्डेक रहिय़ा ।
गङ्गातीर-पथे चले उल्लसित हैय़ा ॥२८०१॥

एथा अनुरागवती अङ्गना उल्लासे ।
परस्पर कत कथा कहे मृदुभाषे ॥२८०२॥

तत्रादौ श्रीदासगदाधर-ठकुरस्य शिष्यः श्रीयदुनन्दन-
चक्रवर्तीकृत-गीते यथा—

धानशी—

गौराङ्गचरित आजु कि पेखलु माइ ।
राधा राधा बलि कान्दे धरिय़ा गदाइ ।२८०३॥

धरिते ना पारे हिय़ा धरणी लोटाय़ ।
धूला लागिय़ाछे कत ओ ना हेम गाय़ ॥२८०४॥

से मुख चाहिते हिय़ा कि ना जानि करे ।
कत सुरधूनी-धारा आꣳखि बहि पड़े ॥२८०५॥

मैलु मैलु केन गेलु से पथ बाहिय़ा ।
धैरय ना धरे चिते फाटि याय़ हिय़ा ॥२८०६॥

देखि दास गदाधर लहु-लहु हासे ।
ए यदुनन्दन कहे—एइ रसे भासे ॥२८०७॥

पुनः-कामोद—

दास गदाधर वदन हेरि ।
आꣳखि कोणे कहे इङ्गित करि ॥२८०८॥

के जाने कि लागि पुलके तनु ।
हासिते अमिय़ा वरिषे यनु ॥२८०९॥

सुरनदी-तीरे देखिलु गोरा ।
अखिल तरुणी नय़नचोरा ॥२८१०॥

सहज भाङर भङ्गिमा काजे ।
पराणे आजुलि—कि आर लाजे ॥२८११॥

ग्रीवार भङ्गिमा कहिल नय़ ।
आꣳखि-पाखी पाखा पसारि रय़ ॥२८१२॥

आजानुलाम्बित बाहुर शोभा ।
युवति-मरम या हेरि लोभा ॥२८१३॥

अरुण कमल-चरणतले ।
यदु-मन रहु मधुपछले ॥२८१४॥

पुनः—धानशी—

अरुणी-पराणचोरा गोरारूप-माधुरी अमिय़ाधारा ।
धनि धनि धनि वारेक नय़नकोणेते पिय़य़े यारा ॥२८१५॥

सई ! ए कथा कहिब काथे ।
पण्डित गदाइ पाने घण चाइ राधिका बलिय़ा डाके ॥ ध्रु ॥२८१६॥

दास गदाधर करे दिय़ा कर उलसे पुलक गा ।
मृदु मृदु हासे, किबा रसे भासे किछु ना पाइलु था ॥२८१७॥

नागरालि ठाटे नदीय़ार बाटे हिलिते दुलिते याय़ ।
नरहरि-मनमोहन भङ्गिमा, मदन मुरछे ताय़ ॥२८१८॥

पुनः—कर्णाटिका—

सजनि सई ! शुन गोरारूप-गाथा ।
बरज-वधूर सङ्गे, विलास गोपन-रङ्गे
भुवन भासिल सेइ कथा ॥ ध्रु ॥२८१९॥

अङ्गेर सौरभे कत मनमथ उनमत,
मधुकर-छले उड़्‌इ याय़ ।
रङ्गन फुलेर माला, हिय़ार उपरे खेला,
कुलवती-मति सुरछाय़ ॥२८२०॥

गौरवरण देखि, आर सब सेइ सखि !
बलन गमन अङ्कछटा ।
गोकुलचाꣳदेर छाꣳद, परतेक भुरुफाꣳद,
कुलवती दुइ कुल काटा ॥२८२१॥

के आछे एमन नारी, नय़नसन्धान हेरि,
मुखचान्दे हासिर माधुरी ।
देखिय़ा धैरय धरे, तबे सेइ याइबे घरे,
मनमथे ना करि बाउरी ॥२८२२॥

खेने ‘राधा’ बलि डाके, नय़न मुदिय़ा थाके,
खेने हासे भावेर आवेशे ।
खेन काꣳदे उभराय़, पुलकित सर्व गाय़,
ए यदुनन्दन भालोवासे ॥२८२३॥

पुनः—कश्चित् कामोद—

नदीय़ार माझे ओ ना रूप ।
सोनार गौराङ्ग नाचे अति अपरूप ॥२८२४॥

अलकातिलक चान्द मुखेर परिपाटी ।
रसे डुबु डुबु करे राङ्गा आꣳखि दुटी ॥२८२५॥

अधरे ईषत् हासि, मधुर कथा कय़ ।
ग्रीवार भङ्गिमा देखि प्राण कोथा रय़ ॥२८२६॥

हिय़ार दोलने दोले रङ्गण फुलेर माला ।
कत रस-लीला जाने, कत रस-कला ॥२८२७॥

चन्दने चर्चित अङ्ग विनोदिय़ा कोꣳचा ।
चाꣳचर चिकुरे शोभे गन्धराज चाꣳपा ॥२८२८॥

देवकीनन्दने बोले—शुन लो आजुलि ।
तुमि कि ना जानो—गोरा नगर वनमाली ॥२८२९॥

कश्चित्—कामोद—

नदीय़ार माझारे नाचय़े गोराचाꣳद ।
अखिल जनार मन बाꣳधिबारे फाꣳद ॥२८३०॥

कनक केशर तनु अनुपम छटा ।
देखिते मोहित नव युवतीर घटा ॥२८३१॥

शरतेर चाꣳद कि मधुर मुखखानि ।
अमिय़ार धारा वाणी तापिय़ा जुड़ानि ॥२८३२॥

ईषत् मिशाल हासि अधर उज्ज्वल ।
दशन मुकुतापाꣳति करे झलमल ॥२८३३॥

नय़नयुगल अनुरागेर आलय़ ।
चाहनिते भुवन पराण हरि लय़ ॥२८३४॥

कामेर धनुक-मद भाङ्गिबार तरे ।
केबा गढ़ाइल भुरु कत रङ्ग धरे ॥२८३५॥

चाꣳचर केशेर झुटा चमकिय़ा बाꣳके ।
मालति-बलित अलि फिरे झाꣳके झाꣳके ॥२८३६॥

के धरे धैरय हेरि सुचारु कपाल ।
चन्दनेर किछु इन्दुगरवेर काल ॥२८३७॥

भुवनविजय़ी माला दोलय़े हिय़ाय़ ।
वारेक निरखि आꣳखि सदाइ धिय़ाय़ ॥२८३८॥

किबा से दीघल भुजयुगेर बलनी ।
कत भाति भङ्गि सतीकुलेर दलनी ॥२८३९॥

सरुÿआ काꣳकालि किबा मुठेते लुकाय़ ।
विनि मूले किने मन नय़न जुड़ाय़ ॥२८४०॥

चरण-कमलतल अति अनुपाम ।
नखरनिकरे कत मुरुछय़े काम ॥२८४१॥

कहे नरहरि कि ना जानो रङ्ग तार ।
गोकुलनागर ओ ना रसेर पाथार ॥२८४२॥

काचित्—मल्लारिका—

सई गो ! नदीय़ा जाह्नवीकुले ।
को बिहि केमने, गढ़ल ओ तनु
कनय़ा सिरिष-फुले ॥२८४३॥

के ना परतीत याय़ ?
वदन-कमल, बाꣳधुली अधर,
दशनकुन्द कि ताय़ ॥२८४४॥

काहारे कहिब कथा ।
किꣳशुक कोरक, नासिका सुभगा,
आꣳखि उतपल राता ॥२८४५॥

कहिते ना जानि मुखे ।
बाहु हेमलता उपरे पदम,
मल्लिका फुटल नखे ॥२८४६॥

निज पर काहु ना जान ।
प्रेमरतन करु दान ॥२८९१॥

निरुपम भावे विभोर ।
अरुण नय़ाने झरु लोर ॥२८९२॥

कहि कत गद गद वाणी ।
धरई गदाधर-पाणि ॥२८९३॥

घन घन काꣳपय़े अङ्ग ।
नरहरि कि बुझब रङ्ग ॥२८९४॥

पुनश्च—गौरडी—

गौड़ सुरधुनी-तीरे नाचत सुघर परिकर-सङ्ग ।
हेम भुधर-गरव-भर हर परम मधुरिम रङ्ग ॥२८९५॥

अतुल कुन्तल बलित केतकी कुन्द कुसुम सुरङ्ग ।
बाहु बलनि विशाल वक्ष विलोकि विलोल अनङ्ग ॥२८९६॥।

भावे गरगर गमन गजपति गञ्जि परजे अभङ्ग ।
कञ्ज-लोचने लोर ढर कत प्रकट यनु युगगङ्ग ॥२८९७॥

तरल पदतले ताल धरईते धरणी अधिक उमङ्ग ।
दास नरहरि करत जय़ जय़-कार कि कहब रङ्ग ॥२८९८॥

गङ्गार सौभाग्य विस्तारिय़ा प्रभु रङ्गे ॥
एइ पथे निज-गृहे गेला गणसङ्गे ॥२८९९॥

निरन्तर सङ्कीर्तनानन्द विस्तारय़ ।
नृत्यावेशे सदाइ चञ्चल पदद्वय़ ॥२९००॥

श्रीचन्द्रशेखर आचार्येर गृहे श्रीमन्महाप्रभुर शक्तिवेशे नृत्य—

नाचिबेन चन्द्रशेखराचार्य-भवने ।
ए हेतु ए पथे तथा चले गणसने ॥२९०१॥

एइ देश चन्द्रशेखराचार्य-भवन ।
एथा उपनीत प्रभु-सङ्गे प्रिय़गण ॥२९०२॥

सदाशिव, बुद्धिमन्त खान् दुइजने ।
नाना वेश-द्रव्य सज्ज कैल एइखाने ॥२९०३॥

लक्ष्मी आदि काचे नाचिबेन गौरराय़ ।
हईबे कीर्तन—याते जगत माताय़ ॥२९०४॥

नित्यानन्दाद्वैतादि सुनट शिरोमणि ।
नाना काचे नाचिबेन—हेल एइ ध्वनि ॥२९०५॥

सङ्कीर्तने से नृत्य देखिते साध मने ।
वधु-सह आइ आसि बैसे एइखाने ॥२९०६॥

श्रीवासादि प्रभुप्रिय़गण-परिवार ।
एथा आसि बैसे सभे नृत्य देखिवार ॥२९०७॥

एइखाने नाना काच काचे सर्वजन ।
ये काचय़े ये काच, से सेइ मत हन ॥२९०८॥

मुकुन्दादि कैल कीर्तनारम्भ एथाय़ ।
मृदङ्ग-मन्दिरा नाना यन्त्र सभे वाय़ ॥२९०९॥

अद्वैतादि ए नृत्य देखिते वासे डर ।
प्रभुर इच्छाय़ सभे हैला योगेश्वर ॥२९१०॥

जय़ जय़-ध्वनितेइ भरिल भुवन ।
रुक्मिणीर काचे नाचे शचीर नन्दन ॥२९११॥

प्रभु हैला रुक्मिणी—चिनिते केह नारे ।
अद्भुत शोभाय़ दश दिक् आलो करे ॥२९१२॥

गीते यथा—राग शङ्कराभरण—

भुवनमोहने गौर नटवर, बरजभूषण रसिक शेखर ।
आजु रुक्मिणी-वेशे करु नव नृत्य निरुपम भ्राजय़े ॥२९१३॥

असङ्गरुचि जिनि कनक दरपण करत झलमल ललित सुचिकण ।
रुचिर परम विचित्र पहिरण विविध अꣳशुक साजय़े ।
चिकुरचय़ कमनीय़ बन्दन घोरि मृगमद चित्र चन्दन
सरस लसत ललाट अटमाणि बन्धनी मन मोहय़े ।
कर्णभूषण तरल मृदुतर गण्डयुग यनु भ्रमर भुरुवर
कुञ्जलोचन मञ्जु अञ्जन रञ्जिताधिक शोहय़े ॥२९१४॥

बिम्ब-फलमिव बन्धुराधर नासिका शुकचञ्चु वेसर-
बलित, वय़न मय़ङ्क, दशन सुकुन्द मदभव भञ्जना ।
कञ्चु अङ्कित वक्ष मृदुतर हार-रतन अनङ्ग धृतिहर
शङ्ख सरु कर, कनकाङ्गुलि अङ्गुरी जन-रञ्जना ॥२९१५॥

अतुल उदर सुठाम रस झरु नवीन केशरि-गरव दूर करु
क्षीण मध्य सुमधुर माधुरी कनक किञ्चणी बाजय़े
भङ्गि सङ्गे पद धरणी धरु यब अति हि कोमल होत खिति तब
निछई नरहरि-जीवन-घन मञ्जुरी झनन बाजय़े ॥२९१६॥

ओहे श्रीनिवास सर्वशक्तिरूप प्रभु ॥
करय़े नर्तन ऐछे ये ना देखे कभु ॥२९१७॥

खेने पार्वतीर काचे नाचे विश्वम्भर ।
खेने लक्ष्मवेशे नाचे शचीर कुमार ॥२९१८॥

सर्वशक्ति आवेश प्रकाशे क्रिय़ाद्वारे ।
महालक्ष्मीभावे बैसे खट्टार उपरे ॥२९१९॥

प्रभुर आज्ञाय़ स्तुति करे परिकर ।
श्रीलक्ष्मी पार्वती आदि स्तुति मनोहर ॥२९२०॥

जननी-आवेशे विश्वम्भर गौरहरि ।
पिय़ाइल स्तन सभे पुत्रस्नेह करि ॥२९२१॥

करिल सबार परितोष गौरराय़ ।
केबा ना डुबिल एइ अद्भुत लीलाय़ ॥२९२२॥

गदाधर पण्डितादि यैछे नृत्य कैल ।
यैछे नित्यानन्द प्रेमे विह्वल हईल ॥२९२३॥

यैछे, श्रीअद्वैत श्रीवासादिर उल्लास ।
ताहा एक मुखे कि कहिब श्रीनिवास ॥२९२४॥

अद्भुत विलास चन्द्रशेखरेर घरे ।
ब्रह्मादि देवेओ अन्त करिबारे नारे ॥२९२५॥

रजनी-प्रभाते स्थिर हईय़ा प्रभुगण ।
निज निज-गृहे सभे करिला गमन ॥२९२६॥

नृत्य देखि आइ महाविह्वल हईय़ा ।
वधूसह गेला गृहे एइ पथ दिय़ा ॥२९२७॥

वैष्णवगृहिणीगण उल्लसित मने ।
गृहे गेला विदाय़ हईया आइ-स्थाने ॥२९२८॥।

आचार्येर गृहे सप्त दिवस पर्यन्त ।
रहिल से महातेज हैय़ा मूर्तिमन्त ॥२९२९॥

ओहे श्रीनिवास ये देखिलु रङ्ग एथा ।
सोङरिते से सब हिय़ाय़ बार्ह्̤‌ए व्यथा ॥२९३०॥

ए पथे प्रभुर गृहे हईल गमन ।
ये देखे वारेक तार जुड़ाय़ नय़न ॥२९३१॥

श्रीमन्महाप्रभुर शान्तिपुरे गमन—

शान्तिपुरे प्रभु महा-रङ्ग प्रकाशिय़ा ।
किछुदिन रहि आइला एइ पथ दिय़ा ॥२९३२॥

गौर-नित्यानन्दाद्वैत शोभा मनोहर ।
ये देखे वारेक तार उल्लास अन्तर ॥२९३३॥

तिन प्रभु गृहे गिय़ा हरिदास-साथे ।
श्रीवास-आलये आइलेन एइ पथे ॥२९३४॥

श्रीवास-भवने आसि एथाइ वसिला ।
मुरारि प्रथमे गौरपदे प्रणमिला ॥२९३५॥

शेषे नित्यानन्दे प्रणमिय़ा दाड़ाइला ।
मुरारिरे कहे प्रभु—‘व्यतिक्रम कैला’ ॥२९३६॥

आगे नित्यानन्दे ना करिला नमस्कार ।
व्यवहार-वेत्ता तुमि—कि कहिब आर ॥२९३७॥

मुरारि कहय़े—‘प्रभु जानिब केमते’ ।
प्रभु कहे—‘कालि सब पारिबा जानिते’ ॥२९३८॥

अद्य गृहे याह—कहि उल्लास अन्तरे ।
सꣳकीर्तनावेशे रहे श्रीवासेर घरे ॥२९३९॥

निज-गृहे गिय़ा गुप्त करिला शय़न ।
निशावसानेते देखे अपूर्व स्वपन ॥२९४०॥

महातेजोमय़ नित्यानन्द बलराम ।
हस्ते शोभे श्रीहल मुषल अनुपाम ॥२९४१॥

जिनि चन्द्र चन्दन रजत रूपराशि ।
वारुणी पानेते मत्त चले हासि हासि ॥२९४२॥

तार पाछे पाछे याय़ प्रभु विश्वम्भर ।
शिरे शिखीपिञ्छ, श्याम अङ्ग मनोहर ॥२९४३॥

ऐछे स्वप्न देखि गुप्त हर्ष अतिशय़ ।
स्वप्ने हासि आपने कनिष्ठ प्रभु कय़ ॥२९४४॥

ऐछे दोꣳहे देखा दिय़ा हैल अदर्शन ।
हईला विह्वल गुप्त पाइय़ा चेतन ॥२९४५॥

बड़ भाइ नित्यानन्द—मुरारि जानिला ।
उल्लासे श्रीवासगृहे आसिय़ा मिलिला ॥२९४६॥

प्रभु गौरचन्द्र ब्वसि आछे दिव्यासने ।
नित्यानन्द प्रभु शोभे प्रभुर दक्षिणे ॥२९४७॥

आगे नित्यानन्द-पादपद्मे प्रणमिला ।
पाछे गौरचन्द्रेर श्रीचरण बन्दिला ॥२९४८॥

हासि प्रभु कहे—‘गुप्त कर ए केमन ?’ ।
मुरारि कहय़े—जानाइलेन येमन ॥२९४९॥

प्रभु महाहर्षे कत कहे मुरारिरे ।
हैल ये कौतुक ताहा के कहिते पारे ? ॥२९५०॥

चर्वित ताम्बूल प्रभु मुरारिरे दिला ।
खाइय़ा मुरारि हस्त मस्तके पुछिला ॥२९५१॥

गुप्ते कत कहिते ईश्वरावेश बाड़े ।
काशीब्वासी प्रकाशानन्देरे गालि पाड़े ॥२९५२॥

श्रीगौरचन्द्रेर चेष्टा के बुझिते पारे ? ।
श्रीवास-भवने सुख-समुद्रे साꣳतारे ॥२९५३॥

सꣳकीर्तनानन्दे प्र्रभु विह्वल हईय़ा ।
निज-गृहे चलिलेन एइ पथ दिय़ा ॥२९५४॥

श्रीमुरारिगुप्तेर गृहे श्रीमन्महाप्रभु—

श्रीमुरारि गुप्त गृहे करिय़ा गमन ।
पत्नी-प्रति कहे हर्षे—करिब भोजन ॥२९५५॥

पतिव्रता आनि अन्न गुप्त आगे दिल ।
घृतसिक्त अन्न गुप्त कृष्ण समर्पिल ॥२९५६॥

तार परदिन प्रभु रजनी-विहाने ।
आइलेन श्रीमुरारिगुप्तेर भवने ॥२९५७॥

प्रभुपदे प्रणमिय़ा गुप्त निवेदय़ ।
‘कि लागि’ हईल प्रभु प्रभाते विजय़ ? ॥२९५८॥

प्रभु कहे—‘अजीर्णेर चिकित्सा कारण’ ।
गुप्त कहे—‘कालि किबा हईल भोजन ?’ ॥२९५९॥

प्रभु कहे—‘ना जानह सब पासरिल्ला’ ।
‘खाओ, खाओ’ बलि बहु अन्न खाओय़ाइला ॥२९६०॥

तुमि दिला अन्न, ताहा ना खाबो केमने ? ।
हईल अजीर्ण कालि गरिष्ठ भोजने ॥२९६१॥

‘जलपाने अजीर्ण दमन’—एत कैया ।
पिय़े जल मुरारिर जलपात्र लैय़ा ॥२९६२॥

प्रभु अनुग्रहे गुप्त धैर्य नाहि बान्धे ।
मुरारिगुप्तेर गोष्ठी महाप्रेमे कान्दे ॥२९६३॥

मुरारिरे करि प्रभु दृढ़ आलिङ्गन ।
एइ पथे निज-गृहे करिला गमन ॥२९६४॥

मुरारि गुप्तेर कथा कहिते कि जानि ।
मुरारिर प्राणधन गोरा-गुणमाणी ॥२९६५॥

एकदिन गौरचन्द्र श्रीवास-गृहेते ।
शङ्ख-चक्र-गदा-पद्म धरे चारि हाते ॥२९६६॥

तथा श्रीमुरारि गुप्त हैला खगेशर ।
पसारिला पाखा सर्वजन-मनोहर ॥२९६७॥

तार पृष्ठे प्रभु करिलेन आरोहण ।
तेꣳह कैला अङ्गने भ्रमण कतक्षण ॥२९६८॥

दोहे पुनः पूर्वमत हैला सेइक्षणे ।
देखिलेन नेत्र भरि प्रभु प्रिय़गणे ॥२९६९॥

एकदिन गुप्त मने मने विचारय़ ।
प्रभुर अचिन्त्यलीला कबे कि करय़ ॥२९७०॥

प्रभु-आगे शरीर छाड़िब—मने करि
अति खरशान अस्त्र आनिल मुरारि ॥२९७१॥

निशाय़ करिब देहत्याग—कैल मने ।
ताहा जानि प्रभु आइला मुरारि-भवने ॥२९७२॥

मुरारिर मनोवृत्ति सब प्रकाशिल ।
ए घरे सामाइ अस्त्र बाहिर करिल ॥२९७३॥

मुरारिर प्रेमाधीन प्रभु गौरराय़ ।
मुरारिरे कहे यत कता नाहि याय़ ॥२९७४॥

ओहे श्रीनिवास ! गौरचन्द्र दय़ामय़ ।
एकदिन एइ पथे करिला विजय़ ॥२९७५॥

एइ विशारदेर जाङ्गाल—एइखाने ।
देखा हैल देवानन्द पण्डितेर सने ॥२९७६॥

येꣳह श्रीवासेर स्थाने अपराध कैला ।
प्रभु-वाक्यदण्डे तेꣳह दुःखित हईला ॥२९७७॥

एइ देख ग्राम-अन्ते मद्यपेर वास ।
ए पथे याइते निषेधिलेन श्रीवास ॥२९७८॥

प्रभुरे देखिय़ा दूरे मद्यप सकल ।
नाचिय़ा कराय़े हरिध्वनि-कोलाहल ॥२९७९॥

प्रभु से सकले करि शुभदृष्टिपात ।
एइ पथे चलिलेन नदीय़ार नाथ ॥२९८०॥

एइ माहेश्वर विशारदेर आलय़ ।
वासुदेव सार्वभौम ताꣳहार तनय़ ॥२९८१॥

प्रभुर इच्छाय़ ताꣳर नीलाचले स्थिति ।
गोपीनाथाचार्य याꣳर हन भग्नीपति ॥२९८२॥

गोपीनाथ प्रभु लीला देखे नदीय़ाय़ ।
नीलाचले गेला अग्रे प्रभुर इच्छाय़ ॥२९८३॥

तेꣳह गेले ये ये भक्त प्रभुरे मिलिल ।
से सभे ना देखे ताꣳर मने खेद हैल ॥२९८४॥

ओहे बाप ! ए सब कहिते नाहि पार ।
नवद्वीपे गौराङ्गेर अद्भुत विहार ॥२९८५॥

के बुझिते पारे गौरचन्द्रेर हृदय़ ।
एथा दाꣳड़ाइय़ा चतुर्दिक निरीखय़ ॥२९८६॥

भावातवेशे गौरचन्द्र चले एइ पथे ।
गदाधर-नरहरि-आदि सब साथे ॥२९८७॥

एथा सꣳकीर्तने महानन्द उथलय़ ।
क्षणे क्षणे प्रभु कत भाव प्रकाशय़ ॥२९८८॥

गीते—यथा—

पुलके पुरिल तनु निज-गुण शुनि ।
प्रेमे अङ्ग गरगर लोटाय़ धरणी ॥२९८९॥

खेने मालसाट मारे खेने बोले हरि ।
‘राधा राधा’ बलि काꣳदे फुकरि फुकरि ॥२९९०॥

खेने नरहरि-अङ्गे अङ्ग हेलाइय़ा ।
गदाधर-मुख हेरि पड़े मुरुछिय़ा ॥२९९१॥

‘ललिता-विशाखा’ बलि छाड़य़े निःश्वास ।
धैरय धरिते नारे ए गोविन्ददास ॥२९९२॥

पुनः—कामोद—

गदाधर-नरहरि- करे धरि गौरहरि
प्रेमावेशे धरणी लोटाय़ ।
कहिले ना हय़ यत फुकरि फुकरि कत
वृन्दाविपिन-गुण गाय़ ॥२९९३॥

निज-लीला निधुवन सोङरिय़ा उचाटन
काꣳदे पꣳहु ‘यमुना’ बलिय़ा ।
नय़ने बहिछे कत सुरधुनीधारा-मत
दरदर श्रीबुक बाइय़ा ॥२९९४॥

सुबलेर शुद्ध सख्य वृन्दादेवीर प्रिय़ वाक्य
ललितार ललित सुलेह ।
विशाखार प्रेमकथा सोङौरि मरम-वेथा-
कहि कहि ना धराय़े देह ॥२९९५॥

काꣳहा मोर प्राणेश्वरी, काꣳहा गोवर्धन-गिरि,
काꣳहा मोर वꣳशी पीतवास ।
प्रेमसिन्धु उथलिल जगत् भरिय़ा गेल
ना बुझिल यदुनाथ दास ॥२९९६॥

पुनः—धानशी—

श्रीदाम सुबल-सङ्गे ये रस करिलु रङ्गे-
बलि पꣳहु करे उतरोल ।
‘मूरली मूरली’ करि मुरुछिते गौरहरि
पड़े पꣳहु गदाधर-कोल ॥२९९७॥

रस-रस वृन्दावन प्रिय़ सखा-सखीगण
उपजय़े प्रेमेर तरङ्ग ।
वासुघोष रामानन्द श्रीवास जगदानन्द
नाचे पꣳहु नरहरि-सन्ग ॥२९९८॥

राधार भावेते भोरा वरण हईल गोरा
राधानाम जपे अनुक्षण ।
‘ललिता विशाखा’ बलि पाꣳहु यान गड़ागड़ि
काꣳहा मोर गिरि-गोवर्धन ॥२९९९॥

काꣳहा यमुनार तट काꣳहा मोर वꣳशीवट
बलि पुनः हरय़े चेतन ।
ए दीन गोविन्दघोषे ना पाय़ल लवलेशे
धिक् रहु ए छार जीवन ॥३०००॥

पुनः–सुहई—

पꣳहु मोर श्रीगौराङ्गराय़ ।
शिव शुक विरिञ्चि महिमा याꣳर गाय़ ॥३००१॥

कमला याꣳहार भावे सदाइ आकुली ।
से पꣳहु काꣳदय़े ‘हरि’ बलि बाहु तुलि ॥३००२॥

ये अङ्ग हेरि हेरि अनङ्ग भेल काम ।
कीर्तनधूलाय़ से धूसर अविराम ॥३००३॥

क्षणे ‘राधा राधा’ बलि उठे चमकिय़ा ।
रहे नरहरि-गदाधर-मुख चाय़ा ॥३००४॥

पूरुव नाविड़ प्रेमे पुलकित अङ्ग ।
रामचन्द्र कहे—‘के ना बुझे ओ ना रङ्ग ॥३००५॥

ओहे श्रीनिवास ! के ना देखिबारे धाय़ ।
एइ पथे नाचिते नाचिते गोरा याय़’ ॥३००६।

गीते यथा—धानशी—

नाचत रसमय़ गौरकिशोर ।
पुरुवक प्रेम-रभस-रसे भोर ॥३००७॥

नरहरि गदाधर शोते दुइ पाश ।
‘हरि’ बलि चौदिके फिरे हरिदास ॥३००८॥

गाय़त मुकुन्द, माधव, वासुघोष ।
कोरे करई पꣳहु हई परितोष ॥३००९॥

किबा से वरणखानि काञ्चन जिनिय़ा ।
चाꣳचर चिकुर चूड़ा भाले से बलिय़ा ॥३०१०॥

जानु-लाम्बित भुज खेने खेने तुलिय़ा ।
नाचत पꣳहु मोर ‘हरि हरि’ बुलिय़ा ॥३०११॥

अरुण नूपुर चरण रणझनिय़ा ।
शेखर राय़ कहृअत ध्वनि ध्वनिय़ा ॥३०१२॥

पुनः-धानशी—

गौराचाꣳद नाचे मोर गोराचाꣳद नाचे ।
भागवतगण सब धाय़ पाछे पाछे ॥३०१३॥

कनकमुकुर जिनि गोरा-अङ्गछटा ।
झलमल करे मुख चन्दनेर फोटा ॥३०१४॥

वासु रामानन्द श्रीनिवास आदि साङ्ग ।
गदाधर, नरहरि, गोराचाꣳद माझे ॥३०१५॥

भकतमण्डल माझे नाचे गोराराय़ ।
अनन्त नददीय़ालोक देखिबारे धाय़ ॥३०१६॥

एइखाने गौरचन्द्रे मनेर उल्लासे ।
सङ्कीर्तने नाचे कि अद्भुत भावावेशे ॥३०१७॥

गीते यथा—वेलावली—

बली कलि दमन शमन-भञ्जन
निखिल भुवन-जन-रञ्जनकारी ।
दुलह प्रेमधन- वितरण-पण्डित
सुरतरुनिकर-गरवभरहारी ॥३०१८॥

नाचत शचीसूत कीर्तन-माझ ।
कनक धराधर नन्दि रुचिर तनु विलसत
जनु नव मनमथराज ॥ ध्रु ॥३०१९॥

पदतल-ताले तरुणी करु टलमल
ललित भङ्गि भुज रहई पसारि ।
हासत मृदु मृदु अधर कम्प अति
अखिर गदाधर-वदन नेहारि ॥३०२०॥

भगमग नय़न क- मल घन घुरत
निरुपम पूरुव रङ्ग परकाश ॥
उलसित परम चतुर परिकरगण
इह रसे वञ्चित नरहरि दास ॥३०२१॥

पुनः-सुहई—

भावे गरगर चित ।
खेने उठे खेने वसे ना पाय़ सन्वित ॥३०२२॥

अति रसे नाहि बाꣳधे थेह ।
सोङरि सोङरि काꣳदे पूरुव सेनेह ॥३०२३॥

नाचे पꣳहु गोरा नटराज ।
कि लागि गोलोकपति सङ्कीर्तन-माझ ॥३०२४॥

निज पर किछु नाहि जाने ।
दीनहीन अधम उत्तम नाहि माने ॥३०२५॥

प्रिय़ गदाधर-कर धरि ।
मरम कथाटि कहे फुकरि फुकरि ॥३०२६॥

डगमग आनन्द-हिल्लोले ।
लुलिय़ा लुलिय़ा पड़े भकतेर कोले ॥३०२७॥

गोरारसे सब रसमय़ ।
ना दरबे बल पाषाण-हृदय़ ॥३०२८॥

पुनः—धानशी—

गोविन्द माधव श्रीनिवास रामानन्दे ।
मुरारि मुकुन्द मिलि गाय़ निज-वृन्दे ॥३०२९॥

शुनिय़ा पूरुव गुण उनमत हैय़ा ।
कीर्तन-आनन्दे पꣳहु पड़े मुरुछिय़ा ॥३०३०॥

कि ए अपरूप कथा कहने ना याय़ ।
गोलोकेर नाथ हैय़ा धूलाय़ लोटाय़ ॥ ध्रु ॥३०३१॥

भावे गरगर चित गादाधरे देखि ।
कान्दिय़ा आकुल पꣳहु, छल छल आꣳखि ॥३०३२॥

‘श्रीपाद’ बलिय़ा प्रभु भूमे पड़ि कान्दे ।
बुझिय़ा मरमकथा कान्दे नित्यानन्दे ।३०३३॥

देखिय़ा त्रिविध लोक कान्दे गोरा-रसे ।
ए सुखे वाञ्चित भेल बलराम-दासे ॥३०३४॥

पुनः—कामोद—

गदाधर-अङ्गे पꣳहु अङ्ग हेलाइय़ा ।
वृन्दावन-गुण गान विभोर हईय़ा ॥३०३५॥

क्षणे काꣳदे क्षणे हासे बाह्य नाहि जाने ।
राधाभावे आकुल सदा गोकुल पड़े मने ॥३०३६॥

अनन्त अनङ्ग जिनि देहेर बलनि ।
कत कोटी चाꣳद कान्दे हेरि मुखखानि ॥३०३७॥

त्रिभुवन दरपित ए दोꣳहार रसे ।
ना जानि मुरारि गुप्त वञ्चित कि दोषे ॥३०३८॥

पुनः—कामोद—

छल छल चारु नय़न-युगल
कत नदी बहे धारे ।
पुलक पूरल गोरा-कलेवर
धरणी धरिते नारे ॥३०३९॥

पꣳहु करुणासागर गोरा ।
भावेर भवेते अङ्ग चलमल
गमने भुवन भोरा ॥३०४०॥

खेने खेने कत करुणा करय़े
गरजे गभीर नादे ।
अधम देखिय़ा आकुल हृदय़
धरिय़ा धरिय़ा काꣳदे ॥३०४१॥

चरण-कमल अति सुचञ्चल
अखिर ताहार रीत ।
वदन-कमले गदगद सुर
गाय़ रासकेलि गीत ॥३०४२॥

आहा आहा करि भुजयुग तुलि
बोले हरि हरि बोल ।
‘राधा राधा’ बलि डाके उच्च करि
देइ गदाधर-कोले ॥३०४३॥

‘मुरली मुरली’ खेने खेने बुलि
स्वरूप मुख ल्नेहारे ।
‘शिखिपुच्छ’ बुलि उठे फुलि फुलि
यदु कि बुझिते पारे ॥३०४४॥

एइ पथे गोराचाꣳद चले धीरे द्र्हीरे ।
अङ्गेर छटाय़ दशदिक आलो करे ॥३०४५॥

कि बलिब—कीर्तने नाचय़े नाना छान्दे ।
से भाव-आवेशे केह थिर नाहि बान्धे ॥३०४६॥

गीते यथा—आभीरी—

कीर्तन-लम्पट घन घन नाट ।
चलईते आꣳखिजले ना हेरई बाट ॥३०४७॥

सुन्दर गौरकिशोर ।
पूरुव पीरिति-रसे भै गेल भोर ॥ ध्रु ॥३०४८।

बलिते ना पारे मुखे आधेक वाणी ।
चलिते धरत्य़े दास-गदाधर-पाणि ॥३०४९।

अरुण चरणतल ना बाꣳधाय़े थेह ।
किबा जल, किबा थल, किबा वन गेह ।३०५०॥

जपे ‘हरि हरि’-नाम आलापे आभीरी ।
सुमाधुरी करयुगे किबा भङ्गि करि ॥३०५१॥

किबा लागि किबा करे—केबा जाने ओर ।
पतित दुर्गति देखि धरि करे कोर ॥३०५२॥

अज-भव-आदि देव-पदे करे नति ।
म्यदु कहे—कृपा विने के जानिबे मति ॥३०५३॥

पुनः–धानशी—

दास-गदाधर-प्राण गोरा ।
पूरुव चरिते भेल भोरा ॥३०५४॥

बिजुरीवरण तनु चोरा ।
कमल-नय़ने बहे लोरा ॥३०५५॥

कनक कमल मुख-काꣳति ।
हासिते खसय़े मणि मोति ॥३०५६॥

विपुल पुलकभरे कम्प ।
‘हरि हरि’ बुलि देइ झम्प ॥३०५७॥

ना जाने अहर्निशि निजा-रसे ।
सघने चिकुर चिर खसे ॥३०५८॥

घन घन मही गड़ि याय़ ।
हेमागिरि धरणी लोटाय़ ॥३०५९॥

भासल भुवन प्रेमरसे ।
यदु एड़्‌आइल दीन दाये ॥३०६०॥

एइ पथे गोरा सुरधुनी-तीरे याय़ ।
देखि लोक-आनन्द उथले नदीय़ाय़ ॥३०६१॥

ये भाव-आवेश ताहा कहिते ना जानि ।
‘राधा राधा’ बलि भाके गोरा गुणमणि ॥३०६२॥

गीते यथा—आशावरी—

गौराङ्ग ठेकिला पाके ।
भावेर आवेशे ‘राधा राधा’ बलि डाके ॥३०६३॥

सुरधुनी देखि पꣳहु यमुनार भाणे ।
फुलवन देखि वृन्दावन पड़े मने ॥३०६४॥

पूरुब आवेशे त्रिभङ्ग हैय़ा रहे ।
पीत वसन आर मुरली से चाहे ॥३०६५॥

प्रिय़ गदाधरेरे धरिय़ा निज-कोले ।
‘कोथा छिला कोथा छिला’—गदगद बोल ॥३०६६॥

भाव बुझि पण्डित रहय़े वामपाशे ।
ना बुझय़े एइ रङ्ग नरहरि दासे ॥३०६७॥
(श्रीनरहरि सरकार-ठकुरस्य गीतमिदम्)

पुनः—कामोद—

दुꣳहु दुꣳहु पीरिति आरति नाहि टुटे ।
परशे परम सुख जानि कत उठे ॥३०६८॥

नाचय़े गौराङ्ग मोर गदाधर रसे ।
गदाधर नाचे पुनः गौराङ्ग-विलासे ॥३०६९॥

पुरुष-प्रकृति किबा जानकी श्रीराम ।
राधा-कानु-केलि किबा रति-देवकाम ॥३०७०॥

अनन्त अनङ्ग जिनि अङ्गेर बलनि ।
उपमा महिमा सीमा कि बलिते जानि ॥३०७१॥

मुखे कि तुलना चाꣳद ?–निति जीय़े मरे ।
कर-पद-पद्म कि से ?–हिमे सब झरे ॥३०७२॥

प्रेम-सङ्कीर्तनसुख नदीय़ानगरे ।
प्रेमेर गृहिणी—से पण्डित गदाधरे ॥३०७३॥

प्रेम-परशमणि शरीर नन्दन ।
उद्धारिला जगजने दिय़ा प्रेमधन ॥३०७४॥

कहये नय़नानन्द आनन्द-विहार ।
शुनिते हरय़े मन—इथे कि विचार ॥३०७५॥

ओहे श्रीनिवास ! किछु कहिल ना हय़ ।
सुरधुनी-तारे गोरा रङ्गे विलसय़ ॥३०७६॥

गीते यथा—कामोद—

गोरा मोर बड़ई रङ्गिय़ा ।
सुरधुनी-तीरे नाचे रङ्गिय़ा रङ्गिय़ा ॥३०७७॥

गाय़ सहचरगण मनमोहनिय़ा ।
तार माझे नाचत गोरा द्विजमणिय़ा ॥३०७८॥

गदाधर नरहरि डाइन वाम ।
श्रीनिवास हरिदास गाय़ हरिनाम ॥३०७९॥

मुकुन्द मुरारि वासु रामाइ सꣳहति ।
गाय़ दामोदर जन्गदीश महामति ॥३०८०॥

चौदिके शुनिय़ा ये ‘हरि हरि’ बोल ।
उथलिल प्रेमसिन्धु अमिय़ा-हिल्लोल ॥३०८१॥

देखिय़ा वदन-चाꣳद सब ताप हरे ।
यदु कहे—केबा हेन ए रूप पासरे ॥३०८२॥

कामोद—

काꣳचा काञ्चनमणि गोरारूप ताहे जिनि
डगमगि प्रेमतरङ्ग ।
ओ नव कुसुमदाम गले दोले अनुपाम
हेलन नरहरि-अङ्ग ॥३०८३॥

गोरा विहरई परम आनन्दे ।
नित्यानन्द करि सङ्गे गङ्गा-पुलिने रङ्गे
‘हरि हरि’ बोले प्रिय़वृन्दे ॥ ध्रु ॥३०८४॥

भावे अवश तनु पुलक कदम्ब यनु
गरजई यैछन सिꣳहे ।
प्रिय़ गदाधर धरि वाम कर
निज-गुण गाय़ई गोविन्दे ॥३०८५॥

अरुण-नय़न-कोणे खेने खेने हासत
बोलत किबा अभिलाषे ।
सोङरि से सब खेला वृन्दावन-रसलीला
कि बलिब वासुदेव घोषे ॥३०८६॥

श्रीनिवास प्रभुर निकट श्रीमन्महाप्रभुर काजी-दमन-लीला-वर्णन—

सुरधुनी-तीरे विलसिय़ा गणसने ।
एइ पथे गेला प्रभु आपन—भवने ॥३०८७॥

नगरिय़ा लोके बहु अनुग्रह कैल ।
सङ्कीर्तन करिते सकले निर्देशिल ॥३०८८॥

नगरिय़ा लोक सुखे करय़े कीर्तन ।
काजीरे कहिल गिय़ पाषन्डीर गण ॥३०८९॥

काजी सꣳकीर्तने द्वेष कैल अतिशय़ ।
शुनि क्रोधयुक्त हैल शचीर तनय़ ॥३०९०।

महादर्पे गणसह शचीर नन्दन ।
साजिलेन काजी दुष्टे करिते दमन ॥३०९१॥

सꣳकीर्तनानन्दे एइ पथे चलि याय़ ।
अद्वैत आचार्य नाचे एक सम्प्रदाय़ ॥३०९२॥

आर एक सम्प्रदाय़ नाचे हरिदास ।
एक सम्प्रदाय़ नाचे पण्डित श्रीवास ॥३०९३॥

आर सम्प्रदाय़ नाचे प्रभु विश्वम्भर ।
सङ्गे नित्यानन्द श्रीपण्डित गदाधर ॥३०९४॥

वक्रेश्वर आदि आर सम्प्रदाय़ नाचे ।
केह दूरे याय़, केह रहे प्रभु-काछे ॥३०९५॥

नाचय़े असꣳख्य लोक लेखा नाहि तार ।
नवद्वीपे हैल महा आनन्द-पाथार ॥३०९६॥

नारदादि ऋषि आर देवतासकल ।
मानुषे मिशाइ नाचे हईय़ा विह्वल ॥३०९७॥

नगरिय़ा लोक महामत्त सꣳकीर्तने ।
करे धाओय़ा-धाइ, पथ-विपथ ना माने ॥३०९८॥

लक्ष कोटी दीप ज्वले—उज्ज्वल आकश ।
रात्रिकाले हैल येन सूर्येर प्रकाश ॥३०९९॥

कि अपूर्व रजनी ! चन्द्रमा शोभा करे ।
विहरे कीर्तने प्रभु नगरे नगरे ॥३१००॥

अद्भुत भङ्गिते नाचे शचीर नन्दन ।
घरे वसि देखे स्त्री-बालक-वृद्धगण ॥३१०१॥

हैल शोभा अवधि नदीय़ा घरे घरे ।
मङ्गलविधान यत के कहिते पारे ? ॥३१०२॥

चतुर्दिके ‘जय़ जय़’ ध्वनि कोलाहल ।
गणिल प्रमाद मूढ़ पाषण्डसकल ॥३१०३॥

गीते यथा—कामोद—

आजु गोरा नगर-कीर्तने ।
साजिय़ा चलय़े प्रिय़ परिकर-सने ॥३१०४॥

अङ्गेर सुवेश भाल शोहे ।
नाचे नाना भङ्गिते भुवन-मन मोहे ॥३१०५॥

प्रेम वरिषय़े अनिवार ।
बहय़े आनन्द-नदी नदीय़ा-माझार ॥३१०६॥

देवगण मिशाइ मानुषे ।
वारिषे कुसुम कत मनेर हरिषे ॥३१०७॥

नगरिय़ा लोक सब धाय़ ।
मनेर मानसे गोराचाꣳद-गुण गाय़ ॥३१०८॥

मूड़्‌हगण शुनि सिꣳहनाद ।
हईय़ा विरस मने गणय़े प्रमाद ॥३१०९॥

लाखे लाखे दीप ज्वले भालो ।
उपमा कि ?–अवनी गगन करे आलो ॥३११०॥

नरहरि कहिते कि जाने ? ।
मातिल जगत्—केउ धैरय ना माने ॥३१११॥

पुनः—कामोद—

ठाकुर गौराङ्ग नाचे नदीय़ा-नगरे ।
शुनिय़ा विविध लोक ना रहिल घरे ॥ ध्रु ॥३११२॥

हेममणि-आभरण श्रीअङ्गेते साजे ।
चन्दने लोपित अङ्ग फागु बिन्दु माझे ॥३११३॥

चाꣳद-चन्दने किबा सुमेरु-भूषित ।
मालतीर माला किबा सुमेरु-वेष्टित ॥३११४॥

कुञ्चित कुन्तल चारु बेर्ह्̤‌इल नाना फुले ।
सफुल करवी डाल मल्लिकार दले ॥३११५॥

नाटुय़ा-ठमके किबा पꣳहु मोर नाचे ।
रामाइ सुन्दरानन्द मुकुन्द गाय़ पाछे ॥३११६॥

आगे नाचे अद्वैत या लागि अवतार ।
बाहिरे गौराङ्ग नाचे—आनन्द सबार ॥३११७॥

नाचिते नाचिते गोरा ये ना दिके याय़ ।
लाखे लाखे दीप ज्वले लोके ‘हरि’ गाय़ ॥३११८॥

कुलवती सकल छाड़िय़ा ‘हरि’ बोले ।
प्रेमनदी बहे सबार नय़नेर जले ॥३११९॥

कि करिब जप, तप, किबा वेद-विधि ।
हरिनामे उद्धारिल आचण्डलावधि ॥३१२०॥

कुलवधू आदि करि छड़े गृहवास ।
तपस्वी छड़य़े तप, सन्न्यासी सन्न्यास ॥३१२१॥

यवनेह नाचे गाय़ लय़ हरिनाम ।
ए रसे वञ्चित हैल दास बलराम ॥३१२२॥

ओहे श्रीनिवास ! प्रभु नाचिय़ा नाचिय़ा ।
गङ्गातीरे याय़ ताꣳर सौभाग्य लागिय़ा ॥३१२३॥

एइ निज-घाटे कतक्षण नृत्य करि ।
माधाइर घाट दिय़ा चले धीरि धीरि ॥३१२४॥

एइ बारकोणा-घाट देख श्रीनिवास ।
एथा नृत्य-गीते कैला अद्भुत विलास ॥३१२५॥

एइ नगरिय़ा-घाटे रहि कतक्षण ।
गङ्गातीर हैते करे ए पथे गमन ॥३१२६॥

महाप्रभुर नृत्ये क्षेत्रपाल-शिवेर नृत्य—

एइ नवद्वीपे क्षेत्रपाल-शिव हय़ ।
आपार महिमा—लिङ्गरूपे विलसय़ ॥३१२७॥

नाचिलेन प्रभुर कीर्तने मूर्ति धरि ।
ताꣳर अभिलाष पूर्ण कैल गौरहरि ॥३१२८॥

एथा गणेशेर मनोरथ पूर्ण कैला ।
प्रभुर सन्न्यासे तेꣳहो अदर्शन हैला ।३१२९॥

कि बालिब—गणेशेर मूर्ति मनोहर ।
सबे दुःखी हैला हैते नेत्र-अगोचर ॥३१३०॥

एइ सिमुलिय़ा-ग्रामे अद्भुत विलास ।
करिलेन पूर्ण पार्वतीर अभिलाष ॥३१३१॥

सिमूलिय़ा देवीर आनन्द अतिशय़ ।
सङ्कीर्तन-सुखेर समुद्रे साꣳतारय़ ॥३१३२॥

एइ पथे गेला काजी यवनेर घर ।
देखि महा अधैर्य—काजीर हेऐल डर ॥३१३३॥

काजी दुष्टे दमन करिय़ा अनुग्रह ।
एइ पाथे महारङ्गे चले गणसह ॥३१३४॥

काजीर दमने पाषन्डीर गण क्षय़ ।
हेꣳट माथे रहे—कारे किछुइ ना कय़ ॥३१३५॥

श्रीधरेर गृहे महाप्रभुर गमन ओ विलास—

ओइ श्रीधरेर भाङ्गा घर देखि दूरे ।
मन्द मन्द हासे एथा उल्लास अन्तरे ॥३१३६॥

ए पथे श्रीधर-घरे गिय़ा गणसने ।
देखे—फुटा लौह पात्र आछय़े अङ्गने ॥३१३७॥

बाहिरेर जल ताथे आछय़े किञ्च्त् ।
ताहा पिय़े गौरचन्द्र हैय़ा उल्लसित ॥३१३८॥

भक्तवत्सल प्रभु प्रेमाय़ विह्वल ।
सुरधुनीधारा प्राय़ नेत्रे बहे जल ॥३१३९॥

श्रीधर-अङ्गने हैल अद्भुत कीर्तन ।
काꣳदे नित्यानन्दाद्वैत आदि यत जन ॥३१४०॥

ये सुख हईल एइ श्रीधरेर घरे ।
ताहा मने करितेइ अन्तर विदरे ॥३१४१॥

गादिगाछा, पाराडाला आदि ग्राम दिय़ा ।
चले प्रभु सꣳकीर्तने महा-मत्त हैय़ा ॥३१४२॥

कि बलिब—नगरकीर्तने हैल याहा ।
अद्यापिह भाग्यवन्तगण देखे ताहा ॥३१४३॥

तथाहि श्रीचैतन्यभागवते मध्यखण्डे (२३.५१३)—
‘अद्यापिह चैतन्य ए सब लीला करे ।
यार भाग्य थाके, से देखय़े निरन्तरे’ ।३१४४॥

नगरकीर्तने ये कौतुक ठाꣳइ ठाꣳइ ।
गाय़ शेष सहस्र वदने—अन्त नाइ ॥३१४५॥

ब्रह्मादि दुर्लभ प्रेमभक्ति दान करि ।
एइ पथे निज-गृहे गेला गौरहरि ॥३१४६॥

कि बलिब श्रीनिवास ! प्रिय़गण-सङ्गे ।
निरन्तर भासे प्रेमसमुद्र-तरङ्गे ॥३१४७॥

श्रीवासगृहे श्रीकृष्ण-जन्मोत्सवे महाप्रभुर नृत्य—

एकदिन श्रीवास-भवने एथा वसि ।
‘कालि कृष्णजन्मतिथि’—कहे प्रभु हासि ॥३१४८॥

श्रीवासादि बुझिलेन प्रभुर अन्तर ।
कालि नाचिबेन गोपवेशे विश्वम्भर ॥३१४९॥

परम उल्लासे श्रीवासादि प्रिय़गण ।
करिलेन सकल सामग्री-आय़ोजन ॥३१५०॥

से दिवस महानन्दे श्रीवासेर घरे ।
कृष्णेर जनम-अभिषेक-कर्म करे ॥३१५१॥

करि अभिषेक किबा आवेश हिय़ाय़ ।
सꣳकीर्तन-सुखे सब रजनी गोङाय़ ॥३१५२॥

निशि गोहाइले गौरचन्द्र गणसने ।
धरे गोपवेश सबे रहिय़े निर्जने ॥३१५३॥

गोपवेश-निर्माणे निताइ परवीण ।
हईला आपनि येन गोय़ाला नवीन ॥३१५४॥

धरिलेन श्रीगौरसुन्दर गोपवेश ।
से शोभा देखिते ना रहय़े धैर्यलेश ॥३१५५॥

रामाइ सुन्दरानन्द गौरीदास आदि ।
गोपवेश धरे सबे—शोभार अवधि ॥३१५६॥

दधि-नवनीत भाण्ड-भार लैय़ा काꣳधे ।
प्रवेशय़े श्रीवास अङ्गने चारु छान्दे ॥३१५७॥

श्रीवास अद्वैत गोपवेशे मत्त हैय़ा ।
देन दधि-हलदी अङ्गने छड़ाइय़ा ॥३१५८॥

नृत्यगीतवाद्ये महा कौतुक बाड़्‌हय़ ।
श्रीवास-भवन येन नन्देर आलय़ ॥३१५९॥

गीते यथा—कामोद—

गोरा मोर गोकुलेर शशी ।
कृष्णेर जनम आजि कहे हासि हासि ॥३१६०॥

से आवेशे थिर हैते नारे ।
धरि गोपवेश नाचे उल्लास अन्तरे ॥३१६१॥

निताइ गोपेर वेश धरि ।
हाते लैय़ा लण्डड़्‌उ नाचय़े भङ्गि करि ॥३१६२॥

गौरीदास रामाइ सुन्दर ।
नाचे गोपवेशे—काꣳधे भार मनोहर ॥३१६३॥

श्रीवास अद्वैत गोपवेशे ।
छड़ाय़ हलदी दधि मनेर उल्लासे ॥३१६४॥

केह केह नाना वाद्य वाय़ ।
मुकुन्द माधव से जनम-लीला गाय़ ॥३१६५॥

करे सुमङ्गल नारीगण ।
श्रीवास-आलय़ येन नन्देर भवन ॥३१६६॥

जय़ध्वनि करि वारे वारे ।
धाय़ लोक—धैरय धरिते केउ नारे ॥३१६७॥

कत साधे देखे आꣳखि भरि ।
शोभाय़ भुवन भुले भागे नरहरि ॥३१६८॥

पुनः-धानशी—

गोकुलेर शशी गोरा-गुणराशि
पूरुव जनम दिने ।
कत ना उलास नाचे गोपवेश
से भाव-आवेश मने ॥३१६९॥

निताइ आनन्दे नाचे गोपछन्दे
रामाइ सुन्दर साथे ।
अद्वैत धाइय़ा दधिभाण्ड लैय़ा
चालय़े निताइ-माथे ॥३१७०॥

श्रीवासादि रङ्गे अद्वैतेर अङ्गे
हरिद्रा सिञ्चिय़ा हासे ।
शङ्कर मुरारि काꣳधे भार करि
नाचय़े गोपेर वेशे ॥३१७१॥

मुकुन्दादि गाय़ नाना वाद्य वाय़
हेरि गोरामुख-इन्दु ।
नरहरि भाले भणे तिले तिले
उथले आनन्द-सिन्धु ॥३१७२॥

पुनः—माय़ूर—

गौर ज्गुणमणि बरज शशधर,
पूरुव प्रकट सु अट मिभादर,
आदरई, प्रिय़वृन्द-सह,
शिरीवास (श्रीवास)-भवने विराजय़े ।
बान्धि नटपटी पाप मृदुभर,
कुसुम-पल्लव धरत शिरोपर,
बलय़कर कटी-वसन नव,
व्रजगोप-सम सब साजय़ ॥३१७३॥

भाण्ड दधियुत चित्र बꣳहुक,
काꣳथे करु, करे लण्डड़ काहुको,
भङ्गि सङ्गे चलि हलदी-दधि-घृत,
पङ्क-अङ्गने शोहय़े ।
हि हि शब्द उचारि घन घन,
विपुल पुलकित तरल तनु-मन,
करत सुललित्त नृत्य निरुपम
निखिल भुवन विमोहय़े ॥३१७४॥

हासि हरषे निताइ कहि कत,
हलदी दधि पहु अङ्गे छिरकत,
तुरिते तहि अद्वैत नवनी,
निताइ वदने विलेपाय़े ।
धरल प्रवल निताइ कौतुके,
भारि कर्दमे यति गड़ि सुखे,
लपटि झट अद्वैत नट तहि,
गगने भुज विक्षेपय़े ॥३१७५॥

वासुदेव मुकुन्द माधव आदि गाय़त,
जनम-उत्सव धा धि धि धि कि तक,
धि नि नि नि बहु वाद्य बादक बाय़ई ।
देवगण घन कुसुम वरषत,
दास नरहरि नाथे निरखत,
कोउ धरई न धिरज भर
नरनारी चहुदिश धाय़ई ॥३१७६॥

महाप्रभुर आदेशे श्रीपुण्डरीक विद्यानिधि-गृहे श्रीराधिका-जन्मोत्सवेर आय़ोजन—

कहिते कि जानि—ऐछे शचीर तनय़ ।
परिकर सङ्गे महारङ्गे विलसय़ ॥३१७७॥

एक दिन एथा प्रभु शाचीर तनय़ ।
पुण्डरीक विद्यानिधि-प्रति हासि कय़ ॥३१७८॥

‘कालि श्रीरादिका-जान्मोत्सव सेइखाने’ ।
शुनि विद्यानिधि महा उल्लसित मने ॥३१७९॥

गृहे गिय़ा सकल सामग्री सज्ज करे ।
प्रभु परदिन चले विद्यानिधि-घरे ॥३१८०॥

गणसह ताꣳर घरे एइ पथे गिय़ा ।
एथा बैसे प्रिय़गणे वेष्टित हईय़ा ॥३१८१॥

श्रीराधिका-जन्म-अभिषेक एथा हैल ।
कि बलिब—प्रभु भावावेशे याहा कैल ॥३१८२॥

गीते यथा—कामोद—

आजु गोराचाꣳद गणसह गोपवेशे ।
तिले तिले अधिक विभोल से ना रसे ॥३१८३॥

हासे लहु लहु चाहे गदाधर-पाने ।
बहय़े आनदन्दबारि धारा दुनय़ने ॥३१८४॥

मुकुन्द माधव वासु उल्लास-हिय़ाय़ ।
राधिका-जनम-चरित सभे गाय़ ॥३१८५॥

बाजे खोल करताल भुवनमङ्गल ।
नाचे पꣳहु, धरणी करय़े टलमल ॥३१८६॥

गौरीदास आदि नाचे भार कारि खाꣳधे ।
देखिते से गोपवेशे केबा थिर बाꣳधे ॥३१८७॥

कत साथे नाचे पुण्डरीक विद्यानिधि ।
छड़ाइय़ा नवनी हलदी दुध दधि ॥३१८८॥

निताइ अद्वैत श्रीवासादि रङ्ग देखि ।
भासे सुखे-समुद्रे, फिराते नारे आꣳखि ॥३१८९॥

कि नारी पुरुष धाय़ ए रङ्ग देखिते ।
दाꣳड़ाइय़ा अङ्गने चाहाय़े चारिभिते ॥३१९०॥

देखि गोपरूपेर माधुरी अनुपम ।
केह कहे—‘नाचे इकि कनकेर काम’ ॥३१९१॥

देवगण नाचय़े कुसुम वृष्टि करि ।
जय़ जय़ दिय़ा रङ्गे नाचे नरहरि ॥३१९२॥

पुनः—धानशी—

आजु कि आनन्द विद्यानिधि-घरे
राधिका जनम चरित-गाने ।
नाचे से आवेशे शचीसुत गोरा-
से नव भङ्गि कि उपमा आने ॥३१९३॥

चारिपाशे गोपवेशे परिकर ।
काꣳधे भार फिरे अङ्गने रङ्गे ।
नवनीत दधि हरिद्रादि देइ,
हासि हासि सभे सभार अङ्गे ॥३१९४॥

मृदङ्ग मन्दिरा शङ्ख करताल
नाना वाद्य वाय़ वादक भाले ।
सुमधुर ध्वनि भेदय़े गगन
के ना नाचे धिग् धिग् धेन्ना ना ताले ॥३१९५॥

विविध मङ्गल करे नारीकुल
पुलकित चित उ-लु-लु दिय़ा ।
वृषानुपुर-सम शोभा भणे
घनश्याम सुखे उथले हिय़ा ॥३१९६॥

विद्यानिधि-गृहे प्रभु विलासे ये सुखे ।
ताहा विवरिय़ा कि कहिब एक मुखे ॥३१९७॥

एकदिन एइ पथे प्रभु विश्वम्भर ।
चले—कि मधुर गोरारूप मनोहर ॥३१९८॥

गीते यथा—सुहई—

गोरारूपे कि दिब तुलना ।
तुलना ना नहिल रे कषित वानसोना ॥३१९९॥

मेघेर बिजुरी नहे रूपेर समान ।
तुलना नहिल रूपे चम्पकेर दाम ॥३२००॥

तुलना नहिले रूपे केतकीर दल ।
तुलना नहिल गोरचना निरमल ॥३२०१॥

कुमकुम जिनिय़ा रूप अति मनोहरा ।
कहे वासु—कि दिय़ा गड़िला विधि गोरा ॥३२०२॥

नटवर-वेशे एइ कदम्बतलाय़ ।
त्रिभङ्ग हईय़ा गोरा मुरली बाजाय़ ॥३२०३॥

गीते यथा—कामोद—

चाꣳचर चिकुर चूड़ा चारु भाले ।
बेड़िय़ाछे मालतीर माले ॥३२०४॥

ताहे दिय़ा मय़ूरेर पाखा ।
सपत्र-सहित फुलशाखा ॥३२०५॥

कषित काञ्चन जिनि अङ्ग ।
कटीमाझे वसन सुरङ्ग ॥३२०६॥

चन्दन-तिलक शोभे ताले ।
आजानुलम्बित वनमाले ॥३२०७॥

नटवरवेश गोराचाꣳद ।
रमणीगणेर किबा फाꣳद ॥३२०८॥

ता देखिय़ा वासुदेव काꣳदे ।
प्राण मोर थिर नाहि बाꣳधे ॥३२०९॥

पुनः—धानशी—

सोङरि पुरुष लीला त्रिभङ्ग हईला ।
मोहन मुरली गोरा अधरे धरिला ॥३२१०॥

मुरलीर रान्ध्रे फुक दिय़ा गोराचाꣳद ।
अङ्गुलि चालाय़ा करे सुललित गान ॥३२११॥

नगरेर लोक यत शुनिय़ा मोहित्त ।
सुरधुनीतीरे तरुलता पुलकित ॥३२१२॥

वासुदेव घोष ताहा कि बलिते जाने ।
भुवन मोहिल गोरा मुरलीर गाने ॥३२१३॥

महाप्रभुर गोष्ठलीला-पकाश—

ओहे श्रीनिवास ! कि अद्भुत भावावेशे ।
पूर्व गोचारण-लीला एखाइ प्रकाशे ॥३२१४॥

गीते यथा—तोडी—

पूर्व लीला गोराचाꣳदेर मनेते पड़िल ।
शाङलि ध्वलि बलि सघने डाकिल ॥३२१५॥

शिङा वेणु मुरली करिय़ा जय़ध्वनि ।
है है करिय़ा घन फिराय़ पाꣳचनी ॥३२१६॥

रामाइ सुन्दर आर सङ्गे नित्यानन्द ।
गौरीदास आदि सभे हईला आनन्द ॥३२१७॥

वासुदेव घोष कहे मनेर हरिषे ।
गोष्ठलीला गोराचाꣳद करिला प्रकाशे ॥३२१८॥

महाप्रभुर दानलीला-प्रकाश—

एकदिन भावावेशे प्रभु गौराराय़ ।
पूर्व दानलीलारङ्ग प्रकाशे एथाय़ ॥३२१९॥

गीते यथा—कामोद—

आजु गौराङ्गेर मने कि भाव उठिल ।
नदीय़ार पथे गोरा दाने सिरजिल ॥३२२०॥

कि रसेर दान चाहे गोरा द्विजमणि ।
वेत्र दिय़ा आशुलिय़ा राखय़े तरुणी ॥३२२१॥

‘दान देह दान देह’ बलि घन डाके ।
नगर-नागरी यत पाड़िल विपाके ॥३२२२॥

‘कृष्ण-अवतारे आमि सादिय़ाछि दान’ ।
से भाव पड़िल मने—वासुदेव गाने ॥३२२३॥

श्रीगौरसुन्दरेर पुष्पक्रीड़ा—

एकदिन एइ पुष्पवाटी निरखिय़ा ।
‘पुष्पेर समर भाल’—बोलय़े हासिय़ा ॥३२२४॥

पुष्पगुच्छ लईय़ा परम प्रिय़गण ।
करे पुष्प समर—देखय़े सर्वजन ॥३२२५॥

गीते यथा—कामोद—

फुल-बल गोराचाꣳद देखिय़ा नय़ने ।
फुलेर समर गोरा बलिल वचने ॥३२२६॥

घन घन जय़ दिय़ा पारिषदगणे ।
गोरा-गाय़े फुल फेलि मारे जने जने ।३२२७॥

गदाधर आदि आर सङ्गे नित्यानन्द ।
फुलेर समरे गोरा हईला आनन्द ॥३२२८॥

गदाधर सङ्गे गोरा करय़े विलास ।
वासुदेव घोष कहे रस-परकाश ॥३२२९॥

महाप्रभुर पाशाखेला-प्रकाश—

एकदिन गदाधर-सङ्गे गौरहरि ।
ए पुष्पवाटीते वसि खेले पाशा-सारि ॥३२३०॥

गीते यथा—कामोद—

गौराङ्गचाꣳदेर मने कि भाव पड़िल ।
पाशासारि लईय़ा गोरा खेला सिरजिल ॥३२३१॥

गदाधर-सङ्गे गोरा खेले पाशासारि ।
फेलिते लागिला पाशा ‘हारि जिनि’ बलि ॥३२३२॥

‘दुय़ा चारि’ बलि दान फेले गदाधर ।
पञ्च तिन करि डाके गौराङ्गसुन्दर ॥३२३३॥

दुइ जन मग्न हैला पाशाखेला-रसे ।
जय़ जय़ दिय़ा गाय़ वासुदेव घोषे ॥३२३४॥

महाप्रभुर जलकेलि प्रकाश—

एकदिन एइ घाटे निजगण-सङ्गे ।
करे जलक्रीड़ा प्रभु पुरुष प्रसङ्गे ॥३२३५॥

गीते यथा—माय़ूर—

जलक्रीड़ा गोराचाꣳदेर मनेते पड़िल ।
पारिषद-सङ्गे जलखेला आरम्भिल ॥३२३६॥

कारु अङ्गे केह जल फेलि फेलि मारे ।
गोरा-अङ्गे जल फेलि मारे गदाधरे ॥३२३७॥

जलक्रीड़ा करे गोरा हरषित मने ।
जल फेलाफेलि सब करे जने जने ॥३२३८॥

गौराङ्गचाꣳदेर लीला कहने ना याय़ ।
वासुदेव घोष एइ गोरागुण गाय़ ॥३२३९॥

श्रीगौरसुन्दरेर वनभोजन-लीला-प्रकाश—

ओहे श्रीनिवास ! एइ गङ्गार पुलिने ।
प्रभु वनभोजन करय़े गणसने ॥३२४०॥

गीते यथा—सारङ्ग—

सुरधुनीतीरे कत रङ्गे ।
विहरय़े गौरप्रिय़ पारिषद-सङ्गे ॥३२४१॥

हईल प्रहर दुइ दिवा ।
से समय़ ना जानि प्रभुर मने किबा ॥३२४२॥

श्रीवास मुरारि सेइ बेले ।
आनाइल विविध सामग्री भरि थाले ॥३२४३॥

उलसित नदीय़ार शशी ।
चाहे सीतानाथ पाने लहु लहु हासि ॥३२४४॥

अद्वैत परमानन्द-मने ।
बसाइला सबे किबा मण्डलीबन्धाने ॥३२४५॥

पातिय़ा पलाश-पात ताय़ ।
विविध सामग्री परिवेषय़े सभाय़ ॥३२४६॥

अनुमति पाइय़ा भोजने ।
सभे एक दिठे चाय़ गोरामुख-पाने ॥३२४७॥

निताइ धरिते नारे थेहा ।
उमड़य़े हिय़ाय़ के जाने किबा नेहा ॥३२४८॥

क्षीर सर नवनीत छेना ।
गोरार वदने दिय़ा पासरे आपना ॥३२४९॥

अद्वैत लैय़ा निज-करे ।
पिय़ाइल छेना पाना निताइचान्देरे ॥३२५०॥

निताइसुन्दर महाबली ।
मोदकादि अद्वैतवदने दिल तुलि ॥३२५१॥

ओ ना तनु पुलके भरिल ।
परिकर माझे कि कौतुक उपजिल ॥३२५२॥

केह खाय़ कारु मुखे दिय़ा ।
केह लेन कारु पत्र हईते काड़िय़ा ॥३२५३॥

मिठाइ, अनेक परकार ।
खाइते सबार सुख बार्ह्̤‌इल अपार ॥३२५४॥

अञ्जलि अञ्जलि भरि भरि ।
पिय़े सबे सुशीतल सुरधुनी वारि ॥३२५५॥

पत्रशेष ये किछु रहिल ।
दास नरहरि ता यतन करि निल ॥३२५६॥

पुनः-सारङ्ग—

आजु गोरा परिकर सङ्गे ।
भोजन कौतुकसारि सुरधुनी-तीरेते भ्रमय़े रङ्गे ॥३२५७॥

रहि अति उच्च तरुछाय़ ।
कहि कि मधुर वाणी घन घन, सुरधुनी पाने चाय़ ॥३२५८॥

धीरे धरिय़ा गदाधर-करे ।
लहु लहु हासे, कि सुधा वरिषे ताहे के धैरय़ धरे ॥३२५९॥

आहा मरि कि मधुर रीत ।
नरहरि भणे—मने अभिलाष, ए रसे मजुक चित ॥३२६०॥

श्रीगौरसुन्दरेर झलनलीला-प्रकाश—

ओहे श्रीनिवास ! गौरचन्द्रेर इच्छाय़ ।
छय़ ऋतु सदा मूर्तिमन्त नदीय़ाय़ ॥३२६१॥

वर्ष-ऋतु मनोहित करिबार तरे ।
एथाइ बुलय़े प्रभु हिड़ोला उपरे ॥३२६२॥

गीते यथा—मल्लार—

झलत रसमय़ गौरकिशोर ।
सुरधुनी-तीर तुङ्ग तरुवर
तहि विरचित निरुपम ललित हि डोर ॥ ध्रु ॥३२६३॥

परिकर सुघन झलाय़ात लहु लहु
गाय़त सरस तान रसे माति ।
उचरत रुचिर वचन धिक् धिक् धनि
वाय़त मधुर यन्त्र कत भाꣳति ॥३२६४॥

नदीय़ापुर नरनारी निकर
घर तेजि चलत धृति धरई ना पारि ।
लोचन चपल, निमिख नाहि सञ्चरु
हासमिलित विधुवदन नेहारि ॥३२६५॥

सुरगण गगने मगन गणसह
वर वरषत कुसुम करत जय़कारि ।
नरहरि प्राणनाथ गुणे उनमत
भणई निरत गुण गणई ना पारि ॥३२६६॥

पुनः—मल्लार—

आजु सुरधुनीतीरे गोराराय़ ।
झुले कत ना भङ्गिते झुलनाय़ा ॥३२६७॥

प्रिय़ गदाधर-मुख पाने चाया ।
रङ्गे रहिते नारय़े थिर हैय़ा ॥३२६८॥

सबे पूरुब झलनलीला गाय़ ।
शोभा देखिते केह वा नाइ धाय़ ॥३२६९॥

नरहरि प्राणनाथे आꣳखि दिय़ा ।
केह कहे कत सखा-घरे गिय़ा ॥३२७०॥

पुनः—मल्लार—

झुलत सुन्दर रसमय़ गोरा
अपरूप रङ्गे मातिय़ा गो ।
हेरि हेरि गदा- धर-मुख अꣳखि
भङ्गि करे कत भातिय़ा गो ॥३२७१॥

निरुपन सब सङ्गिगण तारा
मृदु मृदु हासि हासिय़ा गो ।
सुरचित चारु हिड़ोला झुलाय़
ना जानि कि सुखे भासिय़ा गो ॥३२७२॥

मधुर सुस्वरे गाय़ केह केह
के धरे धैरय शुनिय़ा गो ।
से शोभा निरखि आꣳखि के फिराबे
मनु मनु मने गुणिय़ा गो ॥३२७३॥

एत दिने कुल लाज याबे सब
बलिय़ा शपथ खाइय़ा गो ।
नरहरि नाथे नेहारि वारेक
सुरधुनी-तीरे याइय़ा गो ॥३२७४॥

पुनः—मल्लार—

आजु गोरा सुरधुनीतीरे ।
झुले किबा ललित हिड़ोरे ॥३२७५॥

किबा से वरषा ऋतु ताय़ ।
अन्धकार मेघेर घटाय़ा ॥३२७६॥

गोरारूप मेघेर बिजुरी ।
जगतेर प्राण करे चुरि ॥३२७७॥

पारिषद सुमधुर गाय़ ।
येन कत सुधा ब्वरषाय़ ॥३२७८॥

बाजय़े मृदङ्ग गाअरजनि ।
नाचे शिखिकुलेर रमणी ॥३२७९॥

नदीय़ानगरे उलसित ।
लता-तरुकुल पुलकित ॥३२८०॥

सब लोक धाय़ देखिबारे ।
केह कत मनोरथ करे ॥३२८१॥

नरहरि पꣳछहु मुख हेरि ।
झुलाय़ झुलना धीरि धीरि ॥३२८२॥

पुनः—कामोद—

गोरा पꣳहु झले हिड़ोलाते ।
कत सुख से भाव भाविते ॥३२८३॥

गदाधर-मुख पाने चाय़ ।
पुलक भरय़े हेम गाय़ ॥३२८४॥

पारिषद उलसित चिते ।
नामाइय़ा हिड़ोला हईते ॥३२८५॥

वसाइते नीप-तरुमूले ।
निताइ भासय़े प्रेमजले ॥३२८६॥

अद्वैत करय़े हुहुङ्कार ।
बाड़्‌हे महासुखेर पाथार ॥३२८७॥

श्रीवासादि यतन करिय़ा ।
दिल नाना द्रब्व्ये साजाइय़ा ॥३२८८॥

सभार पराण गोराराय़ ।
भुञ्जिब कि—सभारे भुञ्जाय़ ॥३२८९॥

ये कौतुक कहिते कि पारि ? ।
अब्वशेष भुञ्जे नरहरि ॥३२९०।

श्रीगौरसुन्दरेर रासरस विलास—

एथा गौरचन्द्र महानन्द प्रकाशिला ।
पूर्व रासरसे अति विह्वल हईला ॥३२९१॥

गीते यथा—कामोद—

वृन्दावन-लीला गोरार मनेते पड़िल ।
यमुनार भाण सुरधुनीरे करिल ॥३२९२॥

फुलवन देखे वृन्दावनेर समान ।
सखागणे करे गोपीगण अनुमान ॥३२९३॥

खोल करताल गोरा सुमेलि करिय़ा ।
तार माझे नाचे गोरा जय़ जय़ दिय़ा ॥३२९४॥

ढल ढल गोरातनु काञ्चन जिनिय़ा ।
आजानुलाम्बित भुज नब्व कमनिय़ा ॥३२९५॥

वासुदेव घोष ताहे करय़े विलास ।
रासरस गोरा पहु करय़े प्रकाश ॥३२९६॥

पुनः—श्रीराग—

सरस सुरधुनी-पुलिनवन अवलोकि गौरकिशोर ।
पूरुब रासविलास सोङरि उलसे भै गेल भोर ॥३२९७॥

मदन-मदभर-हरण तनु यनु दमके दामिनीदाम ।
वदनविधु विधुकदन, माधुरी-अमिय़ा झरे अविराम ॥३२९८॥

आजु निरुपम नटन घटईते होत ललित त्रिभङ्ग ।
दृमिकि दृमि दृमि दृङ्कु बाजत मधुर मधुर मृदङ्ग ॥३२९९॥

सुघर परिकरवृन्द गाय़त रासरस मुद माति ।
देव दुलह से विपुल कौतुके उथले नरहरि छाति ॥३३००॥

ओहे श्रीनिवास ! गोरचन्द्र गणसङ्गे ।
विहरय़े ब्वसन्त सृतुते महारङ्गे ॥३३०१॥

नदीय़ाय़ ये शोभा कि कहिब से कथा ।
परम अद्भुत फागुखैलारम्भ एथा ॥३३०२॥

गीते यथा—वसन्त—

वसन्त-समय़ सुशोभित ।
नदीय़ार किबा तरु-लता प्रफुल्लित ॥३३०३॥

कुहरे कोकिल अनिवार ।
भ्रमरे भ्रमरपुञ्ज करय़े गुञ्जार ॥३३०४॥

बहे मन्द मलय़ समीर ।
उथलय़े हिय़ा केह हईते नारे थिर ॥३३०५॥

गोकुल नागर गोरा रङ्गे ।
सुरधुनीतीरे विहरय़े गणसङ्गे ॥३३०६॥

मुकुन्द-माधव आदि गाय़ ।
मृदङ्ग मन्दिरा नाना यन्त्र सभे वाय़ ॥३३०७॥

पुष्पेर पराग फागु लैय़ा ।
हासे मन्द मन्द केहु गोरागाय़े दिय़ा ॥३३०८॥

केह केह नाचे नाना छाꣳदे ।
सभार उपरे फागु फेले गोराचाꣳदे ॥३३०९॥

निताइ अद्वैत गदाधर ।
श्रीवासादि फागुखेला खेले परस्पर ॥३३१०॥

देखि ए ना अद्भुत विहार ।
देवगण नारय़े धैरय धरिवार ॥३३११॥

केबा ना करय़े जय़ध्वनि ।
नरहरि भणे—सुखे भरल अवनी ॥३३१२॥

पुनः—वसत—

फागु खेलते गौरकिशोर ।
वनि वेश विशेष उजोर ॥३३१३॥

तनुरुचि जिनि दामिनीदाम ।
तहि मुरुच्छत कत शत काम ॥३३१४॥

गाहि करे काञ्चल पिचकारी ।
वर वरषत केशर वारि ॥३३१५॥

घन उद्̈आय़त आविर गुलाल ।
सुरपुर परशत मही लाल ॥३३१६॥

लाखि पहु कर वय़न मय़ाङ्क ।
परिकरगण नटत निहशङ्क ॥३३१७॥

मिलि गाय़त बरजविहार ।
धरु धैरय धरई ना पार ॥३३१८॥

बहु वाय़त यन्त्र रसाल ।
उघटत धिकि धिकि तक ताल ॥३३१९॥

कहि हो हो हरि विभोर ।
नरहरि कि भणव—मति थोर ॥३३२०॥

पुनः—वसन्त—

फागु खेले गोराचाꣳद नदीय़ा नगरे ।
हरय़े युवतिचित नय़नेर शरे ॥३३२१॥

सहचर मेलि फागु मारे गोराराय़ ।
चन्दन-पिचका लैय़ा केह केहु धाय़ ॥३३२२॥

नाना यन्त्र सुमेलि करिय़ा श्रीनिवास ।
गदाधर-आदि सङ्गे करय़े विलास ॥३३२३॥

हरि बलि बाहु तुलि नाचे हरिदास ।
वासुदेव घोष रस करिल प्रकाश ॥३३२४॥

पुनः—वसन्त—

फागुय़ा खेलत गौरकिशोर ।
विलसत परिकर पहु चहु ओर ॥३३२५॥

नित्यानन्द प्रेमे मातोय़ार ।
निरखई पहुक सरस शिङार ॥३३२६॥

श्रीअद्वैत मधुर मृदु हासि ।
पहु मुख अमिय़ा पिय़ई, रसे भासि ॥३३२७॥

चतुर गदाधर स्वरूप सुलेह ।
भारत फागु निरखि पꣳहु देह ॥३३२८॥

नरहरि हरि शिरिवास मुरारि ।
वरिषे रङ्ग कर गहि पिचकारि ॥३३२९॥

केशर, मृगमद, मलय़ज पङ्क ।
दास गदाधर लपटे निशङ्क ॥३३३०॥

हो हो हरि कहे—कि उलास ।
नाचत ब्वत्क्रेश्वर चहु पाश ॥३३३१॥

गौरीदास अति पुलक शरीर ।
उचरत जय़ा जय़ शब्द गभीर ॥३३३२॥

माधब्व वान्सु मुकुन्द उदार ।
गाय़त सुमधुर वरज विहार ॥३३३३॥

सञ्जय़ विजय़ बाजाय़त खोल ।
द्विज हरिदास करत उतरोल ॥३३३४॥

नन्दन घन झनकाय़त झाꣳज ।
श्रीहरिदास हरष हियामाझ ॥३३३५॥

शङ्कर यदु आदिक सुखी भेलि ।
करल हि विविध यन्त्र एक मेलि ॥३३३६॥

धाइ चलल नदीय़ा-नरनारी ।
सुरधुनीतीरे रङ्ग भेल भारी ॥३३३७॥

धैरय धरत न देवसमाज ।
भण घनश्याम—सफल ऋतुराज ॥३३३८॥

पुनः—वसन्त—

गौर गोकुल-नाह नटवर,
वेश विरचि अशेष परिकर,
सङ्गे सुरधुनीतीरे विहरे,
वसन्त-ऋतु-मुद-वर्धना ।
कनक-पर्वत खर्वकृत तनु-
किरण मञ्जु मनोजमय़ यनु,
झरत अमिय़, सहास झलकत,
वदन विधु-मद-मर्दना ॥३३३९॥

कञ्जलोचनमयुगल सुललित,
बङ्क चाहनि चपल अतुलित,
भङ्गि सङ्गे पिचकारी गाहि फगु ।
फेट भरत उड़ाय़ई ।
लसत चहु दिश सुघड़ प्रिय़गण,
साजि अतिशय़ मगन घन घन,
हेरि काहि काहि पेखि पꣳहु मुख
को ना नय़न ह्जुड़ाय़ई ॥३३४०॥

परश-परवश माति खेलत,
गगन पन्थ हि गुलाल मेलत,।
झापि दिनकर-किरण अम्बर,
अरुण अतिशय़ शोहय़े ।
दलित मृगमद पङ्क केशर,
डारि हरषे निताइ शिरपर ।
भ्रुकुटि करि कर तालिका रचि
अद्वैत जनमन मोहय़े ॥३३४१॥

नटन पटु नट उघटि थुङ्कुटि थै ता तक तक थो दि दृमि कट,
दाꣳ दृमि कि दृमि दृमि कि मुरज मृदङ्ग वादक वाय़ई ।
भणत नरहरि—बलित श्रुति सुर गालन करु, गतिब्वृन्द सुमधुर,
धिरय़ परिहरि निखिल सुर-नरनारी कौतुक धाय़ई ॥३३४२॥

पुनः—कामोद—

होलि खेलत गौरकिशोर ।
रसवती नारी—गदाधर कोर ॥३३४३॥

स्वेदबिन्दु मुख पुलक-शरीर ।
भार भरे गलतहि लोचने नीर ॥३३४४॥

व्रजरस गाय़त नरहरि सङ्गे ।
मुकुन्द मुरारि वासु नाचत रङ्गे ॥३३४५॥

खेने खेने मुरुछई पण्डित कोर ।
हेरईते सहचर सुखे भेल भोर ॥३३४६॥

निकुञ्ज-मन्दिर पꣳहु करल विथार ।
भूमे पड़ि कहे—काꣳहा मुरली हामार ॥३३४७॥

काꣳहा गोवर्धन, यमुनाको कुल ।
काꣳहा मालती युथी चम्पक-फुल ॥३३४८॥

शिवानन्द कहे शुनि पꣳहु रसवाणी ।
याहा पꣳहु गदाधर ताहा रसखानि ॥३३४९॥

एकदिन एथा नित्यानन्द-हलधर ।
पूर्व रासलीला रसे उल्लास अन्तर ॥३३५०॥

गीते यथा—केदार—

क्ति मधुर मधुनिशा, चाꣳदे आलो कैल दिशा,
बहे मन्द मलय़ समीर ।
जाह्नवी यमुनाप्राय़, निर्मल पुलिल ताय़,
कुहरे कोकिल शिखी कीर ॥३३५१॥

आजु कि कौतुक नदीयाते ।
सोङरि पूरव रङ्ग, निताइ पुलक अङ्ग,
तिलेक नारय़े थिर हैते ॥ ध्रु ॥३३५२॥

देखिय़ा निताइर रीति, श्रीगौरसुन्दर अति,
प्रेमावेशे अवश हईला ।
केह ना धैरय बाꣳधे, गाय़ सभे नाना छꣳदे,
बलाइ चाꣳदेर रासलीला ॥३३५३॥

देवता मानुषे मिलि, नाचे बाहु तुलि तुलि,
नाना वाद्य वाय़ अनिवार ।
दास नरहरि कय़- जग भरि जय़ जय़,
नित्यानन्द रोहिणीकुमार ॥३३५४॥

श्रीगौरसुन्दरेर वस्त्रहरण-लीला-प्रकाश—

एथा गौरचन्द्रे पूर्वलीला प्रकाशिला ।
श्रीभक्तगणेर चीर हरण करिला ॥३३५५॥

तथाहि श्रीचैतन्यचरिते द्वितीय़-प्रमने पञ्चम-सर्गे-
ततः कदाचिद्रजनीमुखे सोह-
वस्त्रान्, समाकृष्य विलग्नभावान् ।
चक्रे कराम्भोरुहकेण चक्री
भृत्यान् रसज्ञो रसदो नराणाम् ॥३३५६॥

एवꣳ प्रभुः क्रीड़नकꣳ स कृत्वा
क्षणाद्ददौ वस्त्रगणान् समस्तान् ।
तेभ्यः पुनस्ते परिधाय़ हृष्टा
वासाꣳसि साकꣳ जह्नयुमुरघ्ना ॥३३५७॥

गीते यथा—श्रीराग—

गोरचाꣳदेर किबा ए लीला ।
पूरुवे गोपीका- चीर हरे,
एबे ल्से भावे विह्वल हैला ॥३३५८॥

चाहि प्रिय़परिकर-पाने ।
भङ्गि करि चीर हरे से सबार,
केबा ए मरम जाने ॥३३५९॥

येन हईल सकलि सेइ ।
सुखेर अवधि साधि निज-काज
सबारे वसन देइ ॥३३६०॥

देखि दास नरहरि भणे ।
भुवनेर माझे के ना उनमत
ए चारु-चरित-गाने ॥३३६१॥

गणसह एथा प्रभु शचीर तनय़ ।
गोवर्धन-धारणादि-लीला प्रकाशय़ ॥३३६२॥

ओहे, स्रीनिवास ! गौरलीला मनोहर ।
मनेर आनन्दे के ना चिन्ते निरन्तर ॥३३६३॥

तथाहि श्रीचैतन्यचरितामृते मध्यखण्डे श्रीमद्रूपस्य शिक्षा-
परिच्छेदे—

कभु भक्तिरसशास्त्र करय़े लिखन ।
चैतन्य-कथा शुने, करे चैतन्य-चिन्तन ॥३३६४॥
(चै. च. म. १९.१३१)

श्रीमन्महाप्रभुर अष्टकालील लीला-स्मरण—

चैतन्यचन्द्रेर नित्यलीला-रसाय़न ।
निशान्त-निशा पर्यन्त चिन्ते विज्ञगण ॥३३६५॥

तथाहि प्राचीनैरुक्तम्—
निशान्ते गौरचन्द्रस्य शय़नञ्च निजालय़े ।
प्रातःकाले कृतोत्थानꣳ पर्यङ्कात् स्वगणान्वितम् ॥३३६६॥

सुखप्रक्षालनष्णैव वासितैवारिभिर्मुदा ।
तैलाभिमर्दनꣳ तत्र स्नानꣳ तद्भोजनादिकम् ॥३३६७॥

पूर्वाह्नसमय़े भक्तमन्दिरेपरमोत्सुकम् ।
मध्याह्ने परमाश्चर्यꣳ केलिꣳ सुरसरित्तटे ॥३३६८॥

अपराह्ने नवद्वीपभ्रमणꣳ भूरिकौतुकम् ।
साय़ाह्ने गमनꣳ चारु शोभनꣳ निज-मन्दिरे ॥३३६९॥

प्रदोषे प्रिय़वर्गाढ्यꣳ श्रीवासभवने तथा ।
निशाय़ाꣳ स्वरसानन्दꣳ श्रीमत्सꣳकीर्तनोत्सवम् ॥३३७०॥

गीते यथा—श्रीराग—

निशि-अवशेषे लसत नदीय़ा-शशी
शय़न सेजे निज-मन्दिर माहि ।
झलमल अङ्ग-किरण मनोरञ्जन
मनमथ-मथन-भङ्गि सम नाहि ॥३३७१॥

प्रातः-समÿए सुक्रिय़ारत
सुरधुनी अवन्गाहन करु परम उल्लास ।
गणसह विविध भाꣳति करि भोजन
पलछन शय़न सेवई सब दास ॥३३७२॥

पूर्वाह्ने परितोष करई सबे
धरि नवरेश निकसे चितचोर ।
परिकरसह परिकर-गृहे विलसत
बुझब कि—प्रेमक गति नहु ओर ॥३३७३॥

धन्य समय़ मध्याह्ने सरसि वनराजि
सुशीतल सुरधुनी-तीर ।
विविध केलि तहि को कवि वरणव-
निरखत सुरगण होत अथिर ॥३३७४॥

अति अपरूप अपराह्न-समाय़े
नदीय़ा-मधि भ्रमण करय़े गणसङ्ग ।
शोभा भुवन-विजय़ी रस-वादर
निरखि नगर-नरनारी उमङ्ग ॥३३७५॥

साꣳज-समय़े निज-भवने गमन करु
श्रीशचीदेवी मुदित मुख हेरि ।
अद्भुत रङ्ग प्रकट पꣳहु दरशने
कत शत लोक आरत कत बेरि ॥३३७६॥

प्रदोष-समय़ हि तोषि जननी-मन
प्रिय़ श्रीवास-मन्दिरे उपनीत ।
अधिक उछाह भक्तगण तहि
पꣳहु राइ सुवेश मधुरतर रीत ॥३३७७॥

विमल निशार समय़े सꣳकीर्तने
माति मुदित हिय़ा कौतुक जोर ।
गणसह पुनः निजभवने सुतई
नरहरि पꣳहु रसमय़ गौरकिशोर ॥३३७८॥

नवद्वीपे यैछे विहरय़े गोराराय़ ।
ब्रह्मादि देवेओ तार अन्त नाहि पाय़ ॥३३७९॥

ये नृत्य-कीर्तन-भावावेश एइखाने ।
ये कृपा प्रकाश ता देखय़े भाग्यावाने ॥३३८०॥

गीते यथा—कामोद—

शचीर दुलाल गोरा नाचे ।
देवेर दुर्लभ धन यारे तारे याचे ॥ ध्रु ॥३३८१॥

पतितेरे हेरिय़ा धरिते नारे अङ्ग ।
क्षणे क्षणे उठे कत भावेर तरङ्ग ॥३३८२॥

झलमल करे कनक जिनि आभा ।
विपुल पुलकाबलि-बलित कि शोभा ॥३३८३॥

भासय़े श्रीमुख बुक नय़नेर जले ।
दुटि बाहु तुलिय़ा सघने ‘हरि’ बोले ॥३३८४॥

उनमत भक्त फिरय़े चारिपाशे ।
जय़ जय़-कलरब ए भूमि आब्वाशे ॥३३८५॥

पꣳहु पाने हेरि केह धैरय ना बाꣳधे ।
नरहरि ओ-राङ्गा चरणे पड़ि काꣳदे ॥३३८६॥

पुनः—कामोद—

नाचे गोरा गुणमणि केवल प्रेमेर खनि,
प्रिय़ परिकर चारिपाश ।
शोभा अपरूप मेन, उडुगण माझे येन,
कनक-चन्द्रमा परकाश ॥३३८७॥

शिरीष कुसुम जिनि, सुकोमल तनुखानि
पुलकबलित मनोहर ।
प्रफुल्ल कमल दूरे, वदने मदन झुरे,
हासिमाखा अरुण अधर ॥३३८८॥

कत ना भङ्गिमा करि भुज तुलि बले ‘हरि’,
वरिषे अमिय़ा अनिवार ।
अति सकरुण हिय़ा, पतितेरे निरखिय़ा
आꣳखि बहे सुरधुनी-धार ॥३३८९॥

बाजे खोल करताल, चरण-चालनि भाल,
देखि केबा नाहय़ मोहित ।
ना रहिल दुःख-शोक, मातिल सकल लोक,
नरहरि ए-सुखे वाञ्चित ॥३३९०॥

पुनः—मेघराग—

गोरा बड़ दय़ार ठाकुर ।
सꣳकीर्तन-मेघे प्रेम वरिषे प्रचुर ॥३३९१॥

परिकर-माझे साजे भाल ।
अपरूप रूपेते भुवन करे आलो ॥३३९२॥

नाचय़े कत ना भङ्गि करि ।
केबा वा धरिबे हिय़ा से माधुरी हेरि ॥३३९३॥

करताल बाजÿए मृदङ्ग ।
गाय़य़े मधुर गीति अमिय़ा-तरङ्ग ॥३३९४॥

केह हासे केह केह काꣳदे ।
भूमे गड़ि याय़, केह थिर नाहि बाꣳधे ॥३३९५॥

जय़ध्वनि ए भूमि आकाश ।
मातिल पामर हीन नरहरि दास ॥३३९६॥

पुनः—धानशी—

भुवनपावन गोराचाꣳद ।
अखिल जीवेर मन फाꣳद ॥३३९७॥

नाचे प्रभु प्रेमेर आवेशे ।
अरुण-नय़न जले भासे ॥३३९८॥

भुज तुलि ‘हरि हरि’ बोले ।
पतिते धरिय़ा करे कोले ॥३३९९॥

निज-रसे सबारे भासाय़ ।
चारिपाशे पारिषद गाय़ ॥३४००॥

सुकोमल अङ्ग आछड़िय़ा ।
गड़ि याय़ धूलाय़ पड़िय़ा ॥३४०१॥

देखिय़ा सकल जीव काꣳदे ।
नरहरि थिर नाहि बाꣳधे ॥३४०२॥

श्रीवास पण्डितेर चरणे अपराधी गोपाल-चापालेर दण्ड—

कि बलिब-सꣳकीर्तन-सुखे मग्न हैय़ा ।
श्रीवास-भवने चले निजालय़ गिय़ा ॥३४०३॥

एक्ददिन रात्रे प्रभु श्रीवास-अङ्गने ।
द्वारे दिय़ा कपाट विह्वल सꣳकीर्तने ॥३४०४॥

गोपालचापाल नामे पाषण्ड प्रधान ।
श्रीवासेर दुःख याते एइ कर्म तान् ॥३४०५॥

मद्यभाण्ड-सिन्दूरादि राखि एइ द्वारे ।
मनेर आनन्दे तेꣳह गेला निज-घरे ॥३४०६॥

प्रभाते श्रीवास ता, देखाय़ शीष्टगणे ।
से स्थान सꣳस्कार सुराइला सेइक्षणे ॥३४०७॥

श्रीवासेर स्थाने तेꣳह अपराध कैल ।
दिन दुइ तिन-मध्ये कुण्ठव्याधि हैल ॥३४०८॥

गोपालचापाल कुन्ठे महादुःख पाय़ ।
कथोदिने भाल हैल श्रीवास-कृपाय़ ॥३४०९॥

एकदिन प्रभु एथा नृत्ये मग्न छिला ।
द्वारे एक विप्र ताꣳरे आसिते ना दिला ॥३४१०॥

ताꣳर इच्छा छिल सꣳकीर्तन देखिबारे ।
देखिते ना पाइ दुःखे गेला निज-घरे ॥३४११॥

एकदिन गौरचन्द्रे गङ्गातीरे पाय़ा ।
शापय़े प्रभुरे महाक्रोधयुक्त हैय़ा ॥३४१२॥

यज्ञज्सूत्र छिड़िय़ कहय़े वारवार ।
सꣳसारेर सुखनाश हüक तोमार ॥३४१३॥

विप्रशाप शुनि महाहर्षे गौरहरि ।
आइलेन गङ्गातीर हैते स्नाल करि ॥३४१४॥

श्रद्धा करि प्रभु-ब्रह्मशाप येइ शुने ।
ब्रह्मशाप हैते मुक्त हय़ सेइ जने ॥३४१५॥

तथाहि श्रीचैतन्यचरिते द्वितीय़-प्रक्रामे—
इति श्रुत्वा हरेः शापꣳ श्रद्धय़ा परय़ा सकृत् ।
ब्रह्मशापात् विमुच्यत नरः सुखमवाप्नुय़ात् ॥३४१६॥

श्रीमहाप्रभुर नृत्य-सꣳकीर्तन विलास—

ओहे श्रीनिवास, गणसह एइखाने ।
प्रभु महामत्त हैय़ा नाचे सꣳकीर्तने ॥३४१७॥

गीते—सुहई—

महाभुज नाचे चैतन्य राय़ ।
के जाने कत कत, भाव शत शत,
सोणार वरण गाय़ ॥ ध्रु ॥३४१८॥

शुनिय़ा निज-शुण, नाम-सꣳकीर्तन,
विहरे नटवर रङ्गे ।
नदीय़ापुर-लोक, खण्डिल दुःख-शोक,
डुबिल प्रेमतरङ्गे ॥३४१९॥

प्रेमे ढल ढल, अङ्ग निरमला,
पुलक-अङ्कुर शोभा ।
आर कि कहिब, अशेष अनुभव,
हेरि जगामन-लोभा ॥३४२०॥

करुणा निरिखने, अमिय़ा वरिषणे,
अखिल भुवन सिञ्चित ।
चैतन्यदास गाने, अतुल प्रेमदाने,
मुइ से हईनु वञ्चित ॥३४२१॥

पुनः—सुहई—

गोरा नाचे प्रेमविनोदिय़ा ।
अखिल भुवनपति विहरे नदीय़ा ॥३४२२॥

दिक् दिक् ना जाने गोरा नाचिते नाचिते ।
चाꣳदमुखे ‘हरि’ बोले काꣳदिते काꣳदिते ॥३४२३॥

गोलोकेर प्रेमधन जीवे बिलाइय़ा ।
साꣳकीर्तने नाचे गोरा ‘हरिबोल’ बलिय़ा ॥३४२४॥

ए भूमि-आकाश भरि जय़ जय़-ध्वनि ।
गाय़य़े अनन्त-गुण दिवस-रजनी ॥।३४२५॥

पुनः—धानशी—

चौदिगे गोविन्द-ध्वनि शुनि पꣳहु हासे ।
कम्पित अधरे गोरा गदगद भाषे ॥३४२६॥

नाचय़े गौराङ्ग यार सङ्गे नित्यानन्द ।
अवनी भासल प्रेमे बार्ह्̤‌अल आनन्द ॥३४२७॥

गोविन्द, माधव, वासु गाय़ेन मुकुन्द ।
भुलिल कीर्तनरसे पाय़ा निजवृन्द ॥३४२८॥

रङ्गिय़ा सङ्गिय़ा से अमिय़ा-रसे भोर ।
वसु रामानन्द ताहे लुबध चकोर ॥३४२९॥

पुनः—सुहई—

नाचत नटवर गौरकिशोर ।
अभिनव भङ्गि भुवन करु भोर ॥३४३०॥

झलमल अङ्गकिरण अनुपाम ।
हेरईते मुरुछत कत कत काम ॥३४३१॥

टलमल लोचनयुगल विशाल ।
दोलत कण्ठे बलित वनमाल ॥३४३२॥

झरत अमिय़ विधुवन उजोर ।
पिबई नय़न भरि भकत-चकोर ॥३४३३॥

घन घन भणय़े मधुर हरिनाम ।
शुनईते को न रोय़ई अविराम ॥३४३४॥

पामर पतित प्रेमरसे माति ।
न दरबे कठिन ए नरहरि-छाति ॥३४३५॥

श्रीवासगृहे श्रीअद्वैतप्रभुर गोपपीभावे नृत्य श्रीअद्वैतके विश्वरूप-प्रदर्शन—

एकदिन हरिध्वनि शुनि गौरराय़ ।
मूर्छित हईया भूमे पड़िल एथाय़ ॥३४३६॥

भक्तगण चेतन कराय़ सꣳकीर्तने ।
भावावेशे प्रभु कत कहे खेने खेने ॥३४३७॥

के बुझिते पारे सेइ भावेर विकार ।
शुन शुन श्रीनिवास ! कहि किछु आर ॥३४३८॥

एकदिन श्रीवासेर गृहे एइखाने ।
गोपीभावे अद्वैत नाचय़े सꣳकीर्तने ॥३४३९॥

तथाहि श्रीचैतन्यभागवते मध्यखण्डे—
एकदिन अद्वैत नाचेन गोपीभावे ।
कीर्तन करेन सबे महा-अनुरागे ॥३४४०॥
(चै. भा. म. २८.३२)

गीते यथा—आशावरी—

आजु सीतापति अद्वैत नाचय़े
गोपीभावे अति मधुर छꣳदे ।
विपुल पुलक- मय़ हेम-तनु
शोभा हेरि केबा धैरय बाꣳधे ॥३४४१॥

वारिज नय़ने बहे वारिधारा
नाते निवारिते ना रहे धृति ।
लहु लहु हासि- माखा मुखखानि
झलमल करे चन्द्रमा जिति ॥३४४२॥

भुज भङ्गि करु धरु पदतल
ताले टलमल करय़े मही ।
मन्द मन्द किबा मृदङ्ग मन्दिरा
वाय़ केह केह चौदिके रहि ॥३४४३॥

मनेर उल्लासे प्रिय़गण गाय़
से चारु चरित अमिय़ा झरु ।
भणे घनश्याम गुणे के ना झुरे
‘जय़ जय़’ रबे भुवन भरु ॥३४४४॥

गोपीभावे अद्वैतेर महानन्द मने ।
नीलाचले ए वर मागिला प्रभु-स्थाने ॥३४४५॥

तथाहि श्रीचैतन्य चन्द्रोदय़ नाटके—
दास्ये केचन केचन प्रणय़िनः सख्ये त एवोभाय़े
राधामाधवनिष्टय़ा कतिपय़े श्रीद्वारकाधीशितुः ।
सख्यादाबुभय़त्र ये च क्षन ये वावतारान्तरे
मय्याबद्धृदोहखिलान् वितनवै वृन्दावनासङ्गिनः ॥३४४६॥

परम दुर्लभ गोपीभावे मत्त हैय़ा ।
नाचय़े आअद्वैत नाना भङ्गि प्रकाशिय़ा ॥३४४७॥

नृत्येर विराम तिलर्धक नाहि हय़ ।
दन्ते तृण धरि भूमे पड़ि यत कय़ ॥३४४८॥

तिले तिले बार्ह्̤‌ए प्रेम अधैर्य अन्तर ।
अद्वैतेर आर्ति जानि आइला विश्वम्भर ॥३४४९॥

अद्वैते करिय़ा स्थिर प्रभु गौरराय़ ।
द्वार दिय़ा एइ घरे बलिला एथाय़ ॥३४५०॥

कि बलिब ?–एइ घरे हैल महारङ्ग ।
अद्वैतेरे प्रभु देखाइल विश्व-अङ्ग ॥३४५१॥

अकस्मात् नित्यानन्द आसिय़ा देखिल ।
नित्यानन्दाद्वैत दोꣳहे विह्वल हईल ॥३४५२॥

ए दोꣳहार चरित्र बुझिते शक्ति तार ।
नित्यानन्दाद्वैते भेदबुद्धि नाइ यार ॥३४५३॥

प्रेमावेशे प्रिय़गण-सङ्गे गोराराय़ ।
निज-गृहे गिय़ा पुनः आइला एथाय़ ॥३४५४॥

गणसह प्रभु एइ श्रीवास-अङ्गने ।
हईलेन परम विह्वल सꣳकीर्तने ॥३४५५॥

व्याधियुक्त छिलेन श्रीवासेर नन्दन ।
हेनकाले हैल तर वैकुण्ठे गमन ॥३४५६॥

प्रभु-सुख-भङ्ग हबे—एइ हेतु श्रीवास ।
सबे माना कैला—केह ना कैल प्रकाश ॥३४५७॥

अन्तर्यामी प्रभु गौरचन्द्र भगवान् ।
मृतपुत्र-मुखे कहाइला दिव्यज्ञान ॥३४५८॥

श्रीवास-गोष्ठीर पुत्रशोक गेल दूरे ।
प्रभु-पाय़े धरि कत कहिल प्रभुरे ॥३४५९॥

प्रभु आर्द्र हैय़ा कहे मधुर वचन ।
‘नित्यानन्द आमि दुइ तोमार नन्दन’ ॥३४६०॥

प्रभुर कारुण्य वाक्य शुनि प्रेमानन्दे ।
चतुर्दिके जय़ध्वनि करे भक्तवृन्दे ॥३४६१॥

प्रभु कतक्षण रहि कार्य समाधिय़ा ।
निज-गृहे गेला गदाधर सङ्गे लैय़ा ॥३४६२॥

एकदिन आसि एइ श्रीवास-अङ्गने ।
गणसह हैला महा-विह्वल कीर्तने ॥३४६३॥

श्रीवास-भवन-पाशे दरजी एकजन ।
श्रीवासेर वस्त्र सिञे-जाति से यवन ॥३४६४॥

एथा चतुर्भुज प्रभु देखाइल तारे ।
‘देखिलु देखिलु’ बलिय़ा से नृत्य करे ॥३४६५॥

प्रेमावेशे उन्मत्त हईला से यवन ।
ऐछे लीला प्रकाशय़े शचीर नन्दन ॥३४६६॥

श्रीशुक्लाम्भरगृहे महाप्रभुर लीला—

एकदिन प्रभु अन्न मागि शुक्लाम्भरे ।
एइ पथे गणसह गेला तार घरे ॥३४६७॥

कि बलिब—एथा-महा-कौतुक बार्ह्̤‌इल ।
भुञ्जिलेन प्रभु शुक्लाम्बर पाक कैल ॥३४६८।

खाइला ताम्बूल वसि करिय़ा भोजन ।
गणसह प्रभु एथा करिला शय़न ॥३४६९॥

प्रभुर लेखक श्रीविजय़ सेइखाने ।
प्रभु-हस्त-स्पर्शे कि देखिल—केबा जाने ॥३४७०॥

कारे किछु ना कहिला प्रभुर आज्ञाय़ ।
बाह्यहीन भ्रमे सप्त दिन नदीय़ाय़ ॥३४७१॥

कि बलिब—शुक्लाम्बर-घरे नाना रङ्ग ।
ऐएछे सर्वत्रेइ विलसय़े गणसङ्ग ॥३४७२॥

एकदिन एइखाने प्रभु गौरहरि ।
‘मधु आन, मधु आन’—डाके उच्च करि ॥३४७३॥

हलधरभावे प्रभु हईला विह्वल ।
नित्यानन्द घट भरि दिल गङ्गाजल ॥३४७४॥

नानाभावे नृत्य प्रभु करे एइखाने ।
ना धरे धैरय़ वृन्दावनलीलागाने ॥३४७५॥

एथा प्रेमावेशे वꣳशी श्रीवासे मागय़ ।
‘गोपी हरि निल वꣳशी’—श्रीवास कहय़ ॥३४७६॥

शुनि प्रभु ‘बोल बोल’ बोले हर्ष हैय़ा ।
श्रीवास कहिले व्रजलीला विस्तारिय़ा ॥३४७७॥

श्रीवासेर मुखे शुनि वृन्दावनलीला ।
पेमावेशे तारे दृढ़ आलिङ्गन कैला ॥३४७८॥

एकदिन नृसिꣳह-आवेशे गौरराय़ ।
पाषण्डी मारिते हाते गदा लैय़ा धाय़ ॥३४७९॥

नृसिꣳह-आकार देखि लोक भय़े भागे ।
बाह्य पाइ गदा फेले श्रीवासेर आगे ॥३४८०॥

एथा वसि प्रभु किछु कहि श्रीवासेरे ।
श्रीवासेर वाक्ये हर्षे गेला निज-घरे ॥३४८१॥

ओहे बाप श्रीनिवास, कहि ये तोमारे ।
जगत् मोहित एइ नदीय़ा-विहारे ॥३४८२॥

एकदिन एथा बैसे विशिष्ट सकल ।
परस्पर कहे हैय़ा प्रेमाय़ विह्वल ॥३४८३॥

‘गोरा बड़ दय़ालु—उपमा नाइ दिते ।
गोरा रूपगुणे केबा ना झुरे जगते’ ॥३४८४॥

गीते यथा—सुहई—

नाहि नाहिरे गौराङ्ग विनु दय़ार ठाकुर नाहि आर ।
कृपामय़ गुणनिधि सबे मनोरथ सिधि
पूर्ण पूर्ण पूर्ण अवतार ॥३४८५॥

कलि-कबलित यत जीव सब मुरुछित
नाहि आर महौषधि-तन्त्र ।
गतिहीन क्षीण प्राणी देखि मृतसङ्जीवनी
प्रकाशिला हरिनाम-मन्त्र ॥३४८६॥

राम आदि अवतारे क्रोधे युद्धे अस्त्र धरे
असुरेर करिल सꣳहार ।
एबे अस्त्र ना धरिल कारु प्राणे ना मरिल
मन शुद्ध करिल सबार ॥३४८७॥

ए हेन महिमा ताꣳर पाषाण-हृदय़ यार
से हईल मुनिकर सोसर ।
देवकीनन्दने भागे हेन प्रभु ये ना माने
से भाड़िय़ा गꣳड़िय़ा शूकर ॥३४८८॥

पुनः—धानशी—

बड़ अवतार भाइ बड़ अवतार ।
पतितेरे विलाय़ल प्रेमेर भाण्डार ॥३४८९॥

बड़ अपरूप येन गोराचाꣳदेर लीला ।
राजा हैय़ा काꣳधे करे वैष्णवेर झोला ॥३४९०॥

हेन अवतारेर उपमा दिते नारि ।
सꣳकीर्तन-माझे नाचे कुलेर बौहारि ॥ ४९१॥

सब लोक छाड़े यारे अपरस बलि ।
देवगण मागे एबे तार पदधूलि ॥३४९२॥

यवनेह नाचे गाय़ा लय़ हरिनाम ।
हेन अवतारे से वञ्चित बलराम ॥३४९३॥

पुनः—कामोद—

जलेर जीव काꣳदे देखिय़ा प्रतिबिम्ब
कानने काꣳदे पशु-पाखी ।
तरुय़ा पुलकित पाषाण दरवित
शुनिय़ अन्ध काꣳदे डकि ॥३४९४॥

अपरूप गोराचाꣳदेर देह ।
असीम अनुभव एक मुखे कि कब
मन ये मुखे ना आसे सेह ॥३४९५॥

कुलेर कुलबधु फुकरि सेह काꣳदे
बधिर जड़ काꣳदे धाꣳदे ।
माय़ेर स्तन छाड़ि दुधेर बालक
ना जानि किबा लागि काꣳदे ॥३४९६॥

एमन अवतार हबेक नाहि आर
केवल करुणार सिन्धु ।
पतित मुढ़ जड़ अजड़ उद्धारल
केवल वञ्चित यदु ॥३४९७॥

श्रीश्रीमहाप्रभुर सन्न्यासलीला—
ओहे श्रीनिवास ! प्रभु स्वतन्त्र ईश्वर ।
भक्ते से जानिते पारे प्रभुर अन्तर ॥३४९८॥

कुन कुन भक्त एइ निर्जने वसिय़ा ।
केह कारु पाने चाय़ व्याकुल हईय़ा ॥३४९९॥

केह कहे—‘एइ कथो दिवस हईते ।
ना जानि कि करे हिय़ा प्रभुरे देखिते’ ॥३५००॥

केह कहे—‘ये दिवस ठेङा लैय़ा हाते ।
क्रोध करि गेला प्रभु पढुय़ा मारिते’ ॥३५०१॥

सेइदिन हैते प्रभु हईला केमन ।
बुझिबा करेन शीघ्र सन्न्यास ग्रहण ॥३५०२॥

केह कहे—‘ए कथा हईल स्पष्टप्राय़ ।
विशेष जानिनु नित्यानन्देर चेष्टाय़’ ॥३५०३॥

ऐछे कत कहि गेला मुकुन्द-आलय़े ।
तेꣳह वसि आछे महा-व्याकुल हृदय़े ॥३५०४॥

गदाधर पण्डितेर घरे सबे गिय़ा ।
हईला अधैर्य अति ताꣳरे निरखिय़ा ॥३५०५॥

चैल्लेन सकले श्रीवासेर आलय़ ॥
निवारिते नारे वारिधारा नेत्रे वय़ ॥३५०६॥

हेनकाले आइला प्रभु श्रीवासेर घरे ।
देखिय़ा भक्तेर चेष्टा स्थिर हैते नारे ॥३५०७॥

भक्तसह प्रभुर हईल बहु कथा ।
घुचाइते नारे भक्तहृदय़ेर व्याथा ॥३५०८॥

प्रभु भक्ते कहे पुनः मधुर वचन ।
‘लोकरक्षा लागि’ मोर सन्न्यास ग्रहण ॥३५०९॥

ना कर आशङ्का, तोमा सबा ना छाड़िब ।
जन्मजन्म तोमा सबा-सह विलसिब ॥३५१०॥

तथाहि श्रीचैतन्यभागवते मध्यखण्डे—
एइ मत आरो आछे दुइ अवतार ।
‘कीर्तन’-‘आनन्द’-रूप हईले आमार ॥३५११॥

ताहातेओ तुमि सब एइमत रङ्गे ।
कीर्तन करिबा महासुखे आमा सङ्गे ॥३५१२॥
(चै. भा. म. ३७.१३-१४)

प्रभुर ए वाक्ये शबे किछु स्थिर हैला ।
सबे आलिङ्गिय़ा प्रभु निज-गृहे गेला ॥३५१३॥

परस्पर शुनि आइ सन्न्यासेर कथा ।
महादुःखे मूर्छित हईय़ा पड़े एथा ॥३५१४॥

एथा पुत्र-प्रति कत कहिला जननी ।
विदरे पाषाण से सकल कथा शुनि ॥३५१५॥

देखि प्रभु जननीर जीवन-सꣳशय़ ।
एइ गोप्यस्थाने माता-प्रति कत कय़ ॥३५१६॥

ये ये अवतारे माता हैला शची आइ ।
ताहा कहि पुनः किछु कहेन निमाइ ॥३५१७॥

एबे माता कीर्तनास्वादिला यत्न पाय़ा ।
ऐछे कीर्तनारम्भिब पुनर्जन्म लैय़ा ॥३५१८॥

तथाहि श्रीचैतन्यभागवते मध्यखण्डे—
आर दुइबार एइ सङ्कीर्तनारम्भे ।
हईब तोमार पुत्र अति अविलम्बे ॥३५१९॥

एइ मत तुमि मोर माता जन्मे जन्मे ।
तोमाय़ आमाय़ कभु त्याग नाहि मर्मे ॥३५२०॥

इहा शुनि आइ किछु हईलेन स्थिर ।
तथापिह निवारिते नारे नेत्रनीर ॥३५२१॥

श्रीविष्णुप्रिय़ाय़ प्रभु यत्ने प्रबोधय़ ।
ताꣳर प्रेम चेष्टाय़ केबा वा स्थिर हय़ ॥३५२२॥

सभे प्रबोधिय़ा प्रभु श्रीगौरसुन्दर ।
सङ्कीर्तन-आनन्दे विहरे निरन्तर ॥३५२३॥

ऐछे सभे निमग्न हईला सङ्कीर्तने ।
प्रभु ये यावेन कारु स्मृति नाइ मने ॥३५२४॥

करिब सन्न्यास प्रभु इथे नदीय़ाय़ ।
यार याते शोभा ताहा हैल हीनप्राय़ ॥३५२५॥

गीते यथा—देशपाल—

गोराचाꣳद छाड़ि याबे नैदा एथे,
तरङ्गरहित जाह्नवी-धारा ।
शम्भु भगवती, गणपति मूर्ति,
यत छिल हैल मलिनपारा ॥३५२६॥

तरुलता-कुल, पल्लवित नहे,
नाविक से पुष्प सुगन्धहीना ।
ताहे ना बैसे, ना पिय़े पुष्परस,
ना गुञ्ज भ्रमर-भ्रमरी दीना ॥३५२७॥

पिककुल-कल- रब विरहित-
ना नाचे मय़ूर-मय़ूरी सने ।
शारी-शुक नाना पाखी आꣳखि झुरे,
नारे उड़िबारे व्याकुल वने ॥३५२८॥

धेनुगण हाम्बा- रबे ना धाय़ाय़े,
मृगादि पशु ना धराय़े धृति ।
भणे नरहरि, शोभा दूरे दुख,
सम्बरिते नारे नदीय़ा खिति ॥३५२९॥

ओहे श्रीनिवास, गोरचन्द्र इच्छामय़ ।
कखन छाड़िब घर केहो ना जानय़ ॥३५३०॥

गृह छाड़िवेन प्रभु, तर पूर्वादिने ।
हईलेन एथा महामत्त सङ्कीर्तने ॥३५३१॥

एथा सिꣳहासने बैसे प्रभु विश्वम्भर ।
दिव्य माल्य-चन्दने भूषित कलेवर ॥३५३२॥

परमसुन्दर शोभा उपमा कि दिते ।
देवता मानुषे मिलि आइसे देखिते ॥३५३३॥

सबे प्रणमिय़ा करे प्रभुर दर्शन ।
श्रीचाꣳचर केश देखि झुड़ाय़ नय़न ॥३५३४॥

मन्द-मन्द हास प्रभु उल्लास अन्तरे ।
आपन गलार माला देन सबाकारे ॥३५३५॥

पाइय़ा प्रसाद प्रभुगण हर्ष हैय़ा ।
करि हरिध्वनि रहे मुखपाने चाय़ा ॥३५३६॥

प्रभु सबा प्रति कहे यदि मोरे चाओ ।
तबे सबे निरन्तर कृष्णगुण पाओ ॥३५३७॥

ऐछे सबे उपदेशे प्रभु विश्वम्भर ।
हेन काले लाउ लैय़ा आइला श्रीधर ॥३५३८॥

हैल रात्रि कालि-याबो प्रभु भावे मने ।
भक्तेर सामग्री उपेक्षिब वा केमने ॥३५३९॥

हेनकाले दुग्ध लैय़ा आइला एकजन ।
माय़े कहे दुग्ध लाउ करिते रन्धन ॥३५४०॥

आइ यत्ने दुग्ध लाटे रन्धन करिला ।
कृष्णे समर्पिय़ा एथा पुत्रे भुञ्जाइला ॥३५४१॥

हैल बहु रात्रि प्रभु ए घरे शुइल ।
प्रभुर इच्छाय़ सभे निद्रा आकर्षिल ॥३५४२॥

प्रभुर नाहिक निद्रा चारिदिके चाय़ ।
हैल रात्रिशेष शीघ्र प्रभुर इच्छाय़ ॥३५४३॥

ऊषःकाले आइ-पद-धूलि लैय़ा माथे ।
करिते सन्न्यास प्रभु गेला एइ पथे ॥३५४४॥

गन्तुकाले केवल क्रन्दन, नाइ कथा ।
हईला पृथिवी सम आइ जगन्माता ॥३५४५॥

जड़्‌अप्राय़ वसिय़ाछे बाहिर दुय़ारे ।
ये पथे गेलेन प्रभु से पथ नेहारे ॥३५४६॥

भक्तगण ना जानेन ए सकल कथा ।
प्रभुके देखिते प्राते उपनीत एथा ॥३५४७॥

देखि शचीमाय़ेर रोदन अतिशय़ ।
सभे जानिलेन आजि हईल विजय़ ॥३५४८॥

अकस्मात् गेला प्रभु मो सभे छाड़िय़ा ।
एत बलि काꣳदे सभे एथाइ पड़िय़ा ॥३५४९॥

अद्वैत आचार्य एथा करय़े क्रन्दन ।
शुनि ये विलाप धैर्य धरे कुन जन ॥३५५०॥

तथाहि श्रीचैतन्यचन्द्रोदय़-नाटके—
हे विश्वम्भरदेव हे गुणनिधे हे प्रेमवाराꣳनिधे,
हे दीनोद्धारणावतार भगवन् हे भक्तच्न्तमणे ।
अन्धीकृत्य दिशो दशान्धतमसीकृत्याखिलप्राणिनाꣳ
शून्याकृत्य मनाꣳसि मुञ्चति भवान् केनापराधेन नः ॥३५५१॥

श्रीवास मुरारिगुप्त आदि भक्तगण ।
भूमे लोटाइय़ा एथा करय़े क्रन्दन ॥३५५२॥

काꣳदय़े असꣳख्य लोक व्याकुल हृदय़ ।
अश्रुजले हैल मही पङ्क अतिशय़ ॥३५५३॥

परम निन्दुक पाषण्डीर गण काꣳदे ।
ना चिनिनु प्रभु बलि थिर नाहि बाꣳधे ॥३५५४॥

कि नारी-पुरुष बाल-वृद्ध नदीय़ार ।
काꣳदिय़ा विकल, नारे धैर्य धरिवार ॥३५५५॥

कहिते ना पारे केहो प्रबोध-वचन ।
दुःखेर समुद्रे मग्न हैला सर्वजन ॥३५५६॥

देखिनु ये सब ताहा कहा नाहि याय़ ।
अद्यापिह से अनल ज्वलिछे हिय़ाय़ ॥३५५७॥

ओते श्रीनिवास, कि बलिब विश्वम्भर ।
गृह हैते चले एका कण्टकनगर ॥३५५८॥

नित्यानन्ददेव श्रीपण्डित गदाधर ।
श्रीमुकुन्द दत्त आर श्रीचन्द्रशेखर ॥३५५९॥

ए सभे पश्चात् गिय़ा प्रभुरे मिलिल ।
प्रभुर सन्न्यास कथा सर्वत्र व्यापिल ॥३५६०॥

कृपा करि केशव भारती भाग्यवाने ।
सन्न्यासग्रहण प्रभु करे ताꣳर स्थाने ॥३५६१॥

सन्न्यास-समय़े केहो स्थिर हैते पारे ।
डुबय़े असꣳख्य लोक दुःखेर साय़रे ॥३५६२॥

माघ मास शुक्लपक्ष समय़ सुन्दर ।
करिलेन सन्न्यास ग्रहण विश्वम्भर ॥३५६३॥

तथाहि श्रीचैतन्यचरितामृते मध्यखण्डे—
चवृइश वत्सर शेषे येइ माघ मास ।
ताꣳर शुक्लपक्षे प्रभु करिला सन्न्यास ॥३५६४॥

सन्न्यास करिय़ा प्रभु प्रेमाय़ अथिर ।
कण्टकनगर हैते हईला बाहिर ॥३५६५॥

श्रीचन्द्रशेखराचार्य आसि नदीय़ाय ।
देखे प्रभु विच्छेदाग्नि दग्धय़े सभाय़ ॥३५६६॥

श्रीचन्द्रशेखर जिज्ञासिते सबे धाय़ ।
प्रभुर सꣳवाद एथा कहे शची माय़ ॥३५६७॥

अद्वैतादि शुनि सभे प्रभुर सन्न्यास ।
हईलेन यैछे ता कि कब श्रीनिवास ॥३५६८॥

प्रभु राढ़े भ्रमि राढ़भाग्य जन्माइला ।
गङ्गातीरे आसि गङ्गा-स्नाने हर्ष हैला ॥३५६९॥

कुलिय़ा ग्रामेर सन्निधाने प्रभु गिय़ा ।
नित्यानन्दे दिल नदीय़ाय़ पाठाइय़ा ॥३५७०॥

नदीय़ाय़ आसि पद्मावतीर तनय़ ।
प्रथमेइ प्रभुर भवने प्रवेशय़ ॥३५७१॥

एखाइ वसिय़ाछिला शची ठाकुराणी ।
द्वादश उपासे अति क्षीण तनुखानि ॥३५७२॥

आइर चरणे प्रणमिलेन निताइ ।
आइसेह बाप बलि मूर्छपन्न आइ ॥३५७३॥

नित्यानन्दे देखि महाभागवतगण ।
कहिते कि जानि यैछे करय़े क्रन्दन ॥३५७४॥

सभाप्रति निताइ कहय़े मृदुभावे ।
लईते आइनु सबे चल प्रभु-पाशे ॥३५७५॥

कुलिय़ा गेलेन प्रभु मोरे पाठाइय़ा ।
शान्तिपुर याइबेन कुलिय़ा हईय़ा ॥३५७६॥

नित्यानन्द-व्याक्य सबे आनन्दे विह्वल ।
हईय़ाछिलेन क्षीण हैल महाबल ॥३५७७॥

नित्यानन्द श्रीशची आइरे कत कैय़ा ।
कराइला रन्धन करिल यत्न पाइय़ा ॥३५७८॥

अन्न-व्यञ्जनादि आइ कृष्णे समर्पिल ।
आगे आइ नित्यानन्दे प्रसादान्न दिल ॥३५७९॥

तबे सर्व वैष्णवे करिय़ा परिवेशन ।
सभा सन्तोषिय़ा आइ करिला भोजन ॥३५८०॥

विष्णुप्रिय़ादेवी एथा प्रसाद भुञ्जिल ॥
सर्व वैष्णवेर महा-आनन्द जन्मिल ॥३५८१॥

तबे नित्यानन्द-सङ्गे प्रभु प्रिय़गण ।
साजिलेन गौरचन्द्रे करिते दर्शन ॥३५८२॥

नदीय़ार-स्त्री-पुरुष-बाल-वृद्ध यत ।
चलय़े दर्शने शोभा के कहिते कत ॥३५८३॥

पूर्वे निन्दा कैल यत पाषण्डीर गण ।
तारा चले प्रभुपदे लईते शरण ॥३५८४॥

नवद्वीप फुलिया नगर शान्तिपुरे ।
लोक-गताय़ात-सꣳख्या के करिते पारे ॥३५८५॥

नवद्वीपवासी यत प्रभु प्रिय़गण ।
श्रीशचीमातार लैय़ा करिल गमन ॥३५८६॥

हेनकालो केहो आसि कहे लहु लहु ।
अद्य अद्वैतेर गृहे आइलेन प्रभु ॥३५८७॥

शुनि चतुर्दिके लोक करे धाओय़ा धाइ ।
एइ पथे शान्तिपुरे चलिलेन आइ ॥३५८८॥

अद्वैतेर गृहे गिय़ा देखि विश्वम्भरे ।
कहिते कि जानि याहा हईल अन्तरे ॥३५८९॥

पुत्र कोले करि आइ दुःख पासरिल ।
करिय़ा रन्धन पुत्रे भिक्षा कराइल ॥३५९०॥

श्रीवास मुरारि गुप्त आदि भक्तगण ।
प्रभु बेर्ह्̤‌इ करिला अद्भुत सङ्कीर्तन ॥३५९१॥

नृत्य करि तिन प्रभु वैसय़े उल्लासे ।
शोभा देखि लोक कत कहे मृदुभासे ॥३५९२॥

गीते यथा—कामोद—

आहा मरि महि, देख आꣳखि भरि,
भुवनमोहन रूप ।
अद्वैत आनन्द कन्द नित्यानन्द,
चैतन्यरसेर भूप ॥३५९३॥

जिनि विधुघटा, वदनेर छटा,
मदनगरब हरे ।
लहु लहु हासि, सुधा राशि राशि,
वरिषे रसेर भरे ॥३५९४॥

करे झलमल, तिलक उज्ज्वल
ललित लोचन भुरु ।
किबा बहु शोभा, मुनि-मनो-लोभा,
वक्ष परिसर चारु ॥३५९५॥

गाले शोभे भाल, नाना फुल माल,
सुवेश वसन साजे ।
अरुण चरण, विलसय़े घन,
श्यामेर हृदय़-माझे ॥३५९६॥

ओहे श्रीनिवास, गौरचन्द्रेर कृपाय़ ।
स्त्री-बालक-वृद्ध-युबा सबे नाचे गाय़ ॥३५९७॥

प्रेमभक्तिरत्न प्रभु सबे करे दान ।
अद्वैत-भवन हैल वैकुण्ठ-समान ॥३५९८॥

श्रीवास मुरारिगुप्त-आदि भक्तगणे ।
दिलेन परमानन्द प्रबोध-वचने ॥३५९९॥

प्रभु जननीर परितोष जन्माइला ।
एइ पथे आइ निज-भवने आइला ॥३६००॥

ये आनन्द हईल श्रीअद्वैत-भवने ।
ताहा वर्णिवारे नारे सहस्र वदने ॥३६०१॥

सबे प्रबोधिय़ा प्रभु करय़े गमन ।
नित्यानन्द-आदि सङ्गे चले कथोजन ॥३६०२॥

तथाहि श्रीचैतन्य-भागवते अन्त्यथकण्डे—
नित्यानन्द गदाधर मुकुन्द गोविन्द ।
सꣳहति जगदानन्द आर ब्रह्मानन्द ॥३६०३॥

परम कौतुके प्रभु नीलाचले गेला ।
सर्वत्र भ्रमिय़ा नीलाचले वास कैला ॥३६०४॥

गीते—कामोद—

शचीसुत गौरहरि नवद्वीपे अवतरि
करिलेन विविध विलास ।
सङ्गे लैय़ा प्रिय़गण प्रकाशिय़ा सङ्कीर्तन
बाढ़ाइला सबार उल्लास ॥३६०५॥

किबा से सन्न्यास-वेशे भर्मि पहु देशे देशे
नीलाचले आसिय़ा रहिला ।
राधिकार प्रेमे माति ना मानि दिवाराति
से प्रेमे जगत् माताइला ॥३६०६॥

नित्यानन्द बलराम अद्वैत-गुणेर धाम
गदाधर श्रीवासादि यत ।
देखि से अद्भुत राति केह ना धरय़े धृति
प्रेमाय़ विह्वल अविरत ॥३६०७॥

देवेर दुर्लभ रत्न विलाइला करि यत्न
कृपार बालाइ लैय़ा मरि ।
कैला कलिय़ुग धन्य प्रभु कृष्णचैतन्य,
यश गाय़ दास नरहरि ॥३६०८॥

ओहे श्रीनिवास ! प्रभु रहि नीलाचले ।
नित्यानन्दे पाठाय़ेन श्रीगौड़्‌अमण्डले ॥३६०९॥

निभृते निताइ चाꣳदे कहिल ये कथा ।
प्रभुर इच्छाय़ व्यक्त ना हईल तथा ॥३६१०॥

गौड़े आइसे नित्यानन्द करुणार निधि ।
सङ्गे अभिराम, दास गदाधर आदि ॥३६११।

तथाहि श्रीचैतन्यभागवते अन्त्यखण्डे—
रामदास, गदाधर दास महाशय़ ।
रघुनाथ वैद्य ओझा भक्तिरसमय़ ॥३६१२॥

कृष्णदास पङ्डित, परमेश्वरी दास ।
पुरन्दर पण्डितेर परम उल्लास ॥३६१३॥

नित्यानन्द-स्वरूपेर यत आप्तगण ।
नित्यानन्द-सङ्गे सबे करिला गमन ॥३६१४॥
(श्रीचै. भा. अ. ५.२३१-२३३)

गमनेर काले ये कहिला गौरचन्द्रे ।
ताहाइ करेन स्थिर हैय़ा नित्यानन्द ॥३६१५॥

भ्रमिय़ा उत्कल देश-गौड़देशे गति ।
प्रेमावेशे पतित दुःकीते दय़ा अति ॥३६१६॥

गीते—यथा आभीरी—

जय़ जय़ नित्यानन्द रोहिणीकुमार ।
पतित-उद्धार लागि दु बाहु प्रसार ॥३६१७॥

गद गद मधुर मधुर आध बोल ।
यारे देखे तारे प्रेमे धरि देय़ कोल ॥३६१८॥

डगमग नय़न घुरय़े निरन्तर ।
सोङार कमले येन फिरय़े भ्रमर ॥३६१९॥

दय़ार ठाकुर निताइ पर दुःख जाने ।
हरिनामेर माला गाꣳथि दिल जगजने ॥३६२०॥

पाप पाषण्डी यत करिला दमन ।
दीनहीन जने कैल प्रेम-वितरण ॥३६२१॥

‘आहा श्रीगौराङ्ग’—बलि पड़ि भूमितले ॥
शरीर भिज्न निताइर नय़नेर जले ॥३६२२॥

वृन्दावनदास एइ मने विचारिल ।
धरणी-उपरे किबा बिजुरी पड़िल ॥३६२३॥

पुनः—मङ्गल—

गजेन्द्र-गमने याय़ सकरुण दिठे चाय़
पदभरे मही टलमल ।
महामत्त सिꣳह जिनि कम्पवती मेदिनी
पाषण्डिगण शुनिय़ा विकल ॥३६२४॥

आय़त अवधूत करुणार सिन्धु ।
प्रेमे गर गर मन करे हरि-सङ्कीर्तन
पतितपावन दीनबन्धु ॥३६२५॥

हुङ्कार करिय़ा चले अचल सचल नड़े
प्रेम भासे अमर-समाज ।
सहचरगण-सङ्गे विविध खेलन-रङ्गे
अलखित करे सब काज ॥३६२६॥

शेष शाय़ी, अवतारी नाराय़ण
याꣳर अꣳश-कलाय़ गणन ।
कृपासिन्धु भक्तिदाता जगतेर हितकर्ता
सेइ राम रोहिनीनन्दन ॥३६२७॥

याꣳर लीला-लावण्यधाम आगम-निगमे गान
याꣳर रूप मदनमोहन ।
एबे अकिञ्चन वेशे फिरे पहु देशे देशे
उद्धार करय़े त्रिभुवन ॥३६२८॥

व्रजेर वैदग्धीसार यत यत लीला आर
पाइबारे यदि थाके मन ।
बलराम दासे कय़ मनोरथ-सिद्धि हय़
भज भाइ श्रीपाद-चरण ॥३६२९॥

सर्वत्र हईल ध्वनि—नित्यानन्द राय़ ।
आइलेन गौड़देशे विह्वल परेमाय़ ॥३६३०॥

चतुर्दिके धाय़ लोक प्रभुरे देखिते ।
प्रभुर अद्भुत दय़ा दुःखित-पतिते ॥३६३१॥

गीते—यथा धानशी—

गोराप्रेमे गरगर निताइ आमार ।
अरुण नय़ने बहे सुरधुनीधार ॥३६३२॥

विपुल पुलकाबली शोभे हेमगाय़ ।
गजेन्द्रगमने हिलि दुलि चलि याय़ ॥३६३३॥

पतितेर निरखिÿआ दुबाहु पसारि ।
क्रोड़े करि सघने बोलाय़ ‘हरि हरि’ ॥३६३४॥

एमन दय़ार निधि के हईबे आर ।
नरहरि अधम तारिते अवतार ॥३६३५॥

पुनः—पठमञ्जरी—

निताइचाꣳद दय़ामय़, निताइचाꣳद दय़ामय़ ।
कलिजीवे एत दय़ा कभु नाइ हय़ ॥३६३६॥

खेने काला खेने गोरा अङ्ग हय़ स्फीत ।
खेने काꣳदे खेने हासे ना पाय़ सम्वित ॥३६३७॥

खेने गौꣳ गौꣳ करे, ‘गोरा’ बलिते ना पारे ।
गोरा-रागे राङ्गा आꣳखि अलेइ साꣳतारे ॥३६३८॥

आपनि भासिय़ा रसे भासाइल क्षिति ।
ए भव-आचले यहु रहल अवधि ॥३६३९॥

पुनः—श्रीराग—

निताइ गुणमणि आमार निताइ गुणमणि ।
आनिय़ा प्रेमेर वन्या भासाल अवनी ॥३६४०॥

प्रेमेर वन्या लैय़ा निताइ आइल गौड़देशे ।
भुबिल भकतगण, दीनहीन भासे ॥३६४१॥

दीनहीन पतित पामर नाहि बाछे ।
ब्रह्मार दुर्लभ प्रेम सबाकारे याचे ॥३६४२॥

आबद्ध करुणासिन्धु काटिय़ा मोहान ।
घरे घरे बुले प्रेम—करुणार वान ॥३६४३॥

लोचन बले—मोर निताइ येबा ना भजिल ।
जानिय़ा शुनिय़ा सेइ आत्मघाती हैल ॥३६४४॥

श्रीनित्यानन्दप्रभुर पानिहाटीते आगमन ओ लीला—

प्रथमेइ नित्यानन्द प्रिय़गण-सङ्गे ।
पानिहाटी-ग्रामेते आइला महारङ्गे ॥३६४५॥

राघव पण्डित श्रीमकरध्वज कर ।
सबार हईल महा उल्लास अन्तर ॥३६४६॥

राघवपण्डित-गृहे ये नृत्य-कीर्तन ।
ताहा वर्णिवार शक्ति धरे कुन् जन ॥३६४७॥

सङ्कीर्तने निताइचाꣳदेर चारु शोभा ।
से नृत्य-भङ्गिमा मुनिजन-मनोलोभा ॥३६४८॥

गीते—यथा गान्धार—

आहा मरि कि निताइर शोभा ।
कत ना भङ्गिते नाचे भुज तुलि
अखिल भुवन-लोभा ॥३६४९॥

घन घन ‘गोरा’ बले ।
हेम धराधर तनु अनुक्षण
भासाय़े आनन्द जले ॥३६५०॥

करुणाय़ उमडय़े हिय़ा ।
दीनहीन जने करे महाधनी
प्रेमचिन्तामाणि दिय़ा ॥३६५१॥

कि भावे मन्द मन्द हासे ।
नरहरि कहे कुलवती सती
धैरय-धरम नाशे ॥३६५२॥

पुनः—धानशी—

किबा नाचय़े निताइचाꣳद ।
झलमल तनु अनुपम-शोभा
अखिल लोचन-फाꣳद ॥ ध्रु ॥३६५३॥

कि नव भङ्गिते चाहे चारि भिते
ना जानि कि रङ्गे भोरा ।
आजानुलम्बित भुजयुग तुलि
सङ्कने बोलय़े ‘गोरा’ ॥३६५४॥

कीर्तन-विलास- रसे भासे सदा
प्रिय़ पारिषद लैय़ा ।
दीनहीन जन धाय़ चारि पाशे
करुणावातास पाय़ा ॥३६५५॥

मातिल सकले भासे प्रेमजले
कलिर दरप दूरे ।
नरहरि पहु गुण गुणि गुणि
केबा ना जगते झारे ॥३६५६॥

श्रीश्रीनित्यानन्देर अभिषेक हैल तथा ।
अभिषेके ये रङ्ग—कि कहिब से कथा ॥३६५७॥

गीते—यथा आशावरी—

आजु आनन्दे निताइचाꣳदे ।
शोभामय़ सिꣳहासने वसाइय़ा
केहो ना धैरय बाꣳधे ॥३६५८॥

सुरासित गङ्गाजल लैय़ा ।
पड़्‌हि मन्त्र माथे ढाले जल
दामोदर हरषित हैय़ा ॥३६५९॥

जय़ जय़ ध्वनि करि ।
मानुषे मिशाय़ा सुरगण शोभा
निरखे नय़न भरि ॥३६६०॥

केहो गाय़ अभिषेक-रङ्गे ।
पराइय़ा शुष्क वास नरहरि
चन्दन देइ से रङ्गे ॥३६६१॥

वसिते खट्टाय़ वनमाला पराइय़ा ।
श्रीराघवानन्द छत्र धरे हर्ष हैय़ा ॥३६६२॥

‘परिब कदम्बमाला’—राघवेरे कय़ ।
राघव कहय़े—‘एबे फुल नाइ हय़’ ॥३६६३॥

प्रभु कहे—‘देखह अवश्य फुल आछे’ ।
देखय़े कदम्बफुल जम्बीरेर गाछे ॥३६६४॥

फुल आनि राघव गाꣳथिय़ा दिव्य-माला ।
पराइला प्रभुगले—ए अद्भुत खेला ॥३६६५॥

नित्यानन्द-प्रभाव कहिते शक्ति कार ।
सबे उपदेशे कृष्णचन्द्र भजिवरे ॥३६६६॥

करुणासमुद्र प्रभु नित्यानन्द राय़ ।
परम-दुर्लभ-भक्ति दिलेन सबाय़ ॥३६६७॥

तथाहि श्रीचैतन्यभागवते अन्त्यखण्डे—
ये भक्ति गोपिकागणेर कहे भागवते ।
नित्यानन्द हईते ताहा पाइल जगते ॥३६६८॥
(चै. भा. अ. ५.३०३)

किछुदिने भूषण परिते इच्छा करे ।
हईला भूषित बहुमूल्य अलङ्कारे ॥३६६९॥

हईल भूषणशोभा अति चमत्कार ।
प्रभु ये भूषण परे—आछे हेतु तार ॥३६७०॥

अवधूत वेशे प्रभु व्रजेर भ्रमणे ।
करिलेन कृपा एक भक्ते गोवर्धने ॥३६७१॥

अलङ्कार पड़ाइते तेꣳहो इच्छा करे ।
प्रभु ताहा जानि कहे—‘किछुदिन परे’ ॥३६७२॥

भक्तप्रीति लागि गोवर्धनशिला दिला ।
स्वर्णे बद्ध कराइय़ा कण्ठेते राखिला ॥३६७३॥

भक्त-इच्छा-मते एबे परय़े भूषण ।
प्रभुर ए लीला ना बुझय़े अन्य जन ॥३६७४॥

गौरप्रेमानन्दे मत्त नित्यानन्द राय़ ।
से दुर्लभ भावे भृत्येरे माताय़ ॥३६७५॥

तथाहि श्रीचैतन्यभागवते अन्त्यखण्डे—
ब्रह्मादिर अभीष्ट ये सब कृष्णभाव ।
गोपीगणे व्यक्त ये सकल अनुराग ॥३६७६॥

इङ्गिते से सब भाव नित्यानन्दराय़
दिलेन सकल विप्रगणेरे कृपाय़ ॥३६७७॥
(चै. भा. अ. ५.४१८-४१९)

दासगदाधरगृहे, श्रीमन्नित्यानन्द प्रभु—

पानिहाटीग्रामे रहि महानन्दमने ।
नवद्वीपे यात्रा कैल आइर दर्शने ॥३६७८॥

भुवनपावन प्रभु लैय़ा परिकरे ।
भावावेशे चले दास गदाधर-घरे ॥३६७९॥

गीते—यथा धानशी—

भुवनपावन निताइ मोर ।
ना जानि कि भावे सदाइ भोर ॥३६८०॥

‘गोरा गोरा’ बुलि दुबाहु तुलि ।
मत्तगज येन चलय़े ढुलि ॥३६८१॥

कण्ठे झलमल मालतीमाला ।
परिसर बुके करय़े खेला ॥३६८२॥

सुललित मुखे मधुर हासि ।
चाꣳदे चाले येन अमिय़-राशि ॥३६८३॥

टलमल जलजारुण आꣳखि ।
से चाहनि चारु करुणा माखि ॥३६८४॥

वारेक से आꣳखे देखय़े यारे ।
प्रेमेर पाथारे भासाय़ तारे ॥३६८५॥

दीनहीन दुःखी किछु ना बाछे ।
हेन प्रेमदाता के आर आछे ॥३६८६॥

नरहरि हेन पहु ना भजि ।
विषय़-विषेते रहिल मजि ॥३६८७॥

दासगदाधर-गृहे प्रभुर गमन ।
तथा ये आनन्द ताहा ना हय़ वर्णन ॥३६८८॥

दास गदाधरेर कृपाय़ नाइ पार ।
से ग्रामेर काजी दुष्टे ये कैल उद्धार ॥३६८९॥

दास गदाधर आदि प्रिय़गण सने ।
नित्यानन्द-प्रेम प्रकाशय़े स्थाने स्थाने ॥३६९०॥

खड़दहे श्रीनित्यानन्देर लीला—

खड़दहे आइसेन प्रभु नित्यानन्द ।
चारिधारे शोभा करे पारिषदवृन्द ॥३६९१॥

मध्ये नित्यानन्द शोभे कन्दर्पमोहन ।
से प्रेम-आवेश वेश वन्दे सर्वजन ॥३६९२॥

गीते—यथा कामोद—

वन्दो प्रभु नित्यानन्द केवल आनन्द-कन्द
झलमल आभरण साजे ।
दुइ दिके श्रुतिमूले मकर कुण्डल दोले
गले एक कौस्तुभ विराजे ॥३६९३॥

सुबलित भुजदण्ड जिनि करिबर-शुण्ड
ताहाते शोभाय़े हेमदण्ड ।
अरुण अम्बर गाय़ सिꣳहेर गमने धाय़
देखि काꣳपे असुर पाषण्ड ॥३६९४॥

अङ्ग देखि शुद्ध स्वर्ण दुइ आꣳखि रक्तवर्ण
ताहाते झरय़े मकरन्द ।
सुमेरु बाहिय़ा येन गङ्गाधारा बहे हेन
देखि सुरलोकेर आनन्द ॥३६९५॥

सर्वाङ्गे पुलकछटा येन कदम्बेर घटा
लम्फेते कम्पय़े वसुमती ।
वीरदर्प माललसाटे शबदे ब्रह्माण्ड फाटे ।
देखि ब्रह्मलोक करे स्तुति ॥३६९६॥

चैतन्येर प्रेमरत्न जीवेरे करिय़ा यत्न
दिल पहु परम आनन्दे ।
कहे वृन्दावन दासे आपनार कर्मदोषे
ना भजिनु निताइ-पदद्वन्द्वे ॥३६९७॥

पुनः—धानशी—

निताइ गुणनिधि शोभार अवधि,
कि सुधाये विधि गड़्‌हिल साधे ।
प्रभातेर भानु जिनि तनुछटा
हेरिय़ा केमन धैरय बाꣳधे ॥३६९८॥

आजानुलम्बित भुज भुजङ्गम
भङ्गि निरुपम रङ्गेते भासि
वदन शारद विधुघटा घन
वरिषय़े सुधा ईषत् हासि ॥३६९९॥

‘गोरा गोरा’ बालि गरगर हिय़ा
हिलि दुलि चले कुञ्जरपारा ।
टलमल जलजारुण लोचने
झाल झर झरे आनन्दधारा ॥३७००॥

सुर-नरगण धाय़ चारि पाशे
सेइ दुलह पद परश आसे ।
दास नरहरि पुहु परतापे
बली कलिकाल काꣳपय़े त्रासे ॥३७०१॥

खडदहे आसि प्रभु निजगण सञे ।
पुरन्दर पण्डितेर देवालय़े रहे ॥३७०२॥

प्रभु नित्यानन्द पुरन्दर पण्डितेरे ।
डुबाइला सङ्कीर्तनसुखेर साय़रे ॥३७०३॥

श्रीचैतन्यदास, मुरारि पण्डित यत ।
सबेइ हईल सङ्कीर्तने उनमत ॥३७०४॥

खड़दहे नित्यानन्द नाचिय़ा नाचिÿआ ।
विलाय़ दुर्लभ धन याचिय़ा याचिय़ा ॥३७०५॥

गीते—यथा कामोद—

निताइ करुणानिधि ।
आनि विलाय़ल विधि ॥३७०६॥

दीनहीन दुःखी जने ।
धनी कैल प्रेमधने ॥३७०७॥

प्रिय़ परिकर-सङ्गे ।
नाचिय़े बुलय़े रङ्गे ॥३७०८॥

ना जानि कि प्रेमे माति ।
ना जाने दिवसराति ॥३७०९॥

धूलि-धूसरित देहा ।
ता हेरि के धरे थेहा ॥३७१०॥

गुणे केबा नाहि झुरे ।
एका नरहरि दूरे ॥३७११॥

पुनः—धानशी—

गोराप्रेमे मातिय़ा निताइ ।
जगत् माताय़ सकरुण दिठे चाइ ॥३७१२॥

नाचय़े आजानु-बाहु तुलि ।
पतितेर कोलेते पड़य़े ढुलि ढुलि ॥३७१३॥

कत सुखे हिय़ा ना उथले ।
मुख बुक भासि याय़ नय़नेर जले ॥३७१४॥

प्रति अङ्गे पुलकेर घटा ।
मदन मुरुछि पड़े देखि रूपछटा ॥३७१५॥

सुचाꣳद वदने मृदु हासि ।
कहिते मधुर कथा ढाले सुधाराशि ॥३७१६॥

कि नव भङ्गिमा राङ्गा पाय़ ।
नरहरिपराण मजिल येन ताय़ ॥३७१७॥

पुनः—गुर्जरी—

भुवने जय़जय़ा निताइ दय़ामय़
हरय़े भवभय़ निजगुणे ।
अधम दुरगत ताहारे उनमत
करई अविरत प्रेमदाने ॥३७१८॥

गौरहरि बुलि नाचय़े बाहु तुलि
पड़य़े ढुलि ढुलि क्षितितले ।
कोमल कलेवर कि हेम धराधर
से धूलिधूसर शोभे भाले ॥३७१९॥

जिनि कमलदल नय़न टलमल
सघने छल छल जलधारा ।
वदने मृदु हासि ढालय़े सुधाराशि
कलुष तब नाशि शशी-पारा ॥३७२०॥

किभावे गरगर काꣳपय़े थर थर
रङ्ग कि कब नरहरिदासे ।
अखिल चराचर निरखि पहुबर
भुलल दुःखभर, सुखे भासे ॥३७२१॥

श्रीनित्यानन्देर सप्तग्रामे आगमन ओ लीला—

किछुदिन खड़दहे-ग्रामेते रहिला ।
खड़दह-स्थान देखि वास इच्छा कैला ॥३७२२॥

खड़दह हैते प्रभु करिला गमन ।
सप्तग्रामे चले यथा दत्त उद्धारण ॥३७२३॥

प्रिय़गण-सङ्गे कि अद्भुत भावावेश ।
केबा ना भुलय़े देखि से सुन्दर वेश ॥३७२४॥

गीते—यथा सुहई—

निताइ रङ्गिय़ा मोर निताइ रङ्गिय़ा ।
पूरुब विलासी रङ्गी सङ्गेर सङ्गिय़ा ॥३७२५॥

कञ्जनय़ने बहे सुरधुनीधारा ।
नाहि जाने दिवानिशि प्रेमे मातोय़ारा ॥३७२६॥

चन्दने चार्चित सब अङ्ग उजोर ।
रूप निराखिते जग जन-मन भोर ॥३७२७॥

आजानुलम्बितत्भुज करिबर-शुण्ड ।
कनकथचित दण्ड दलन पाषण्ड ॥३७२८॥

शिर पर पागड़ी बाꣳधे लट-पटिय़ा ।
कटि आꣳटि परिपाटी करे नील धटिय़ा ॥३७२९॥

दय़ार ठाकुर निताइ जगते प्रकाश ।
शुनिय़ा आनन्दे नाचे परसाद दास ॥३७३०॥

पुनः—गान्धार—

जय़ जय़ पाद्मावती-सुत सुन्दर
नित्यानन्दचन्द्र गुणभूप ।
जगजन-नय़न-तापभर-भञ्जन
जिनि कनकारुण अपरूप रूप ॥३७३१॥

शशधर-निकर दरपहर आनन ।
झलकत, अमिय़ झरत मृदुहास ।
गौरप्रेमभरे गरगर अन्तर
निरुपम नव नव वचन-विलास ॥३७३२॥

टलमल अमल कमललोचन जल
गिरत निरत यनु सुरधुनीधार ।
पुलक कदम्बबलित सुललित
अति परिसर वक्षे सुललित हार ॥३७३३॥

कुञ्जरदमन गमन मलोअनोरञ्जन
बाहु पसारि अथिर अविराम ।
पतित कोरे करि वितर सोधन
वञ्चित जगते दुःखित घनश्याम ॥३७३४॥

उद्धारण दत्ते कृपा करि गणसने ।
आइलेन दत्त उद्धारणेर भवने ॥३७३५॥

सप्तग्रामवासी शुनि प्रभुर गमन ।
चतुर्दिक धाय़ लोक करिते दर्शन ॥३७३६॥

उद्धारण-आदि-गृहे बाड़्‌हे महानन्द ।
सबा नृत्यकीर्तने विह्वल नित्यानन्द ॥३७३७॥

गीते—यथा धानशी—

अनुक्षण अरुण-नय़न घन घुरत
ढरकत लोर विथार ।
किय़े घन अरुण वरुणालय़ सञ्चर
अमिय़ा वरिषे अनिवार ॥३७३८॥

नाचेरे निताइ वरचाꣳद ।
सिञई प्रेमसुधारस जगजने
अद्भुत नटन सुछाꣳद ॥ ध्रु ॥३७३९॥

पदतल तले बलित मणिमञ्जरी,
चलत ही टलमल अङ्ग ।
मेरुशिखर किय़े तनु अनुपाम रे
झलमल भावतरङ्ग ॥३७४०॥

रोय़त, हसत, चलत, गति मन्थर,
‘हरि’ बुलि मुरुछि विभोर ।
खेने खेने ‘गौर गौर’ बलि धाय़ई
आनन्दे गरजत घोर ॥३७४१॥

पामर पङ्गु अधम जड़ आतुर
दीन अवधि नाहि मान ।
अविरत दुर्लभ प्रेमरतन धन
याचि जगते करु दान ॥३७४२॥

अविचल दुलह प्रेमधन वितरणे
निखिल ताप दूरे गेल ।
दीन हीन सबहि मनोरथ पूरल
अवलाउ उनमत भेल ॥३७४३॥

ऐछन करुण-नय़न अवलोकने
काहु ना रहु दुरदिन ।
बलरामदास ताहे भेल वञ्चित
दारुण हृदय़ कठिन ॥३७४४॥

पुनः–धानशी—

आरे मोर आरे मोर नित्यानन्द राय़ ।
आपे नाचे, आपे गाय़, गौराङ्ग बोलाय़ ॥३७४५॥

लम्फे लम्फे याय़ निताइ गौराङ्ग-आवेशे ।
पापिय़ा पाषण्डी आर ना राखिल देशे ॥३७४६॥

पट्टवास-परिधान, मुकुता श्रवणे ।
झल्मल् झल्मल् करे नाना आभरणे ॥३७४७॥

सङ्गे रङ्गे याय़ निताइ रामाइ सुन्दर ।
गौरीदास आदि करि यत सहचर ॥३७४८॥

चौदिके निताइ मोर ‘हरिबोल’ बोलाय़ ।
ज्ञानदास निशि दिशि निताइर गुण गाय़ ॥३७४९॥

सप्तग्रामे लोकेर कि अद्भुत उन्ल्लास ।
नित्यानन्द पदे अति सुदृड़्‌ह विश्वास ॥३७५०॥

उद्धारण-सम्बन्धे निताइ दय़ामय़ ।
वाणिके ये कृपा कैल कहिल ना हय़ ॥३७५१॥

शान्तिपूरे आसिबेन अद्वैत-भवने ।
ताहा जानाइला प्रभु दत्त उद्धारणे ॥३७५२॥

श्रील अद्वैताचार्यप्रभुर महिमा ओ लीला—

अद्वैत आचार्य शान्तिपुरे विलसय़ ।
श्रीचैतन्याभिन्न देह रसेर आलय़ ॥३७५३॥

ये आनिल श्रीकृष्णचैतन्य अवनीते ।
याꣳहार निर्मल यश व्यापिल जगते ॥३७५४॥

गीते—यथा धानशी—

श्रीगौर-अभिन्न तनु अद्वैत आमार ।
जगतजननी सीता घरणी याꣳहार ॥३७५५॥

ये आनिल गोराचाꣳदे हुङ्कार करिय़ा ।
गाओय़ाय़ गौराङ्गगुण भुवन भरिय़ा ॥३७५६॥

हईय़ा ‘ईश्वर’ आपनाके माने दास ।
तिले तिले हृदय़े कत ना अभिलाष ॥३७५७॥

देवेर दुर्लभ प्रेमभक्ति-विलासे ।
बली कलि दमन करय़े अनाय़ासे ॥३७५८॥

सङ्कीर्तनानन्ददाता दय़ार अवधि ।
ना जानि कतेक गुणे गड़्‌हाइल विधि ॥३७५९॥

अधम दुःखिते से ना सुखे माताइल ।
नरहरि पहु यशे जगत् भरिल ॥३७६०॥

पुनः—भूपाली—

जय़ जय़ अद्वैत आचार्य दय़ामय़ ।
याꣳर हुहुङकारे गौर अवतार हय़ ॥३७६१॥

प्रेमदाता सीतानाथ करुणासागर ।
याꣳर प्रेमरसे आइला गौराङ्ग-नागर ॥३७६२॥

याहारे करुणा करि कृपा-दिठे चाय़ ।
प्रेमावेशे से जन चैतन्यगुण गाय़ ॥३७६३॥
ताꣳहार चरणे येबा लईल शरण ।
से जन पाइल गौराप्रेम-महाधन ॥३७६४॥

एमन दय़ार निधि केने ना भजिनु ।
लोचन बले निज माथे बजर पड़िनु ॥३७६५॥

श्रीअद्वैतचन्द्र निजगण लैय़ा सङ्गे ।
भासे सदा गोराप्रेमसमुद्र-तरङ्गे ॥३७६६॥

गीते—यथा वेलावली—

श्रीअद्वैतचन्द्र पहु मोर ।
गोरप्रेमभरे गरगर अन्तर
अविरत अरुण-नय़ने झरु लोर ॥ ध्रु ॥३७६७॥

पूलकित ललित- अङ्ग झलमल कत
दिनकर-निकर निन्दि वर ज्योति ।
कुञ्जरदमन गमन मनोरञ्जन
हसत सुलसत, दशन यनु मोति ॥३७६८॥

सिꣳहे-गरब-हर गरजत घन घन
कम्पित कलि दूरे दुरजन गेल ।
प्रबल प्रतापे तापत्रय़ कुण्ठित
जगजन परम हरष हिय़ा भेल ॥३७६९॥

करुनाजलधि उमड़ि चलु चहु दिश
पामर परित भकति-रसे भासि ।
नरहरि कुमति कि बुझब रङ्ग
नवगौरचरित-गुण भुवने प्रकाशि ॥३७७०॥

पुनः—कामोद—

शान्तिपुर-पति परम सुन्दर
चरित बरलीला यति ।
भावभरे अति मत्त अनुखन
विपुल पुलकित गति ॥३७७१॥

प्रबल कलिमद दमन घन घन
घोर गरजि विभोर ।
‘गौरहरि हरि’ भणत कम्पई
गिरत सहचर कोर ॥३७७२॥

अवनी घन गड़ि यात निरुपम,
धूलिधूसर देह ।
कञ्जलोचन झरई झर झर
यनु सुशाङन-मेह ॥३७७३॥

दीन दुःखित नेहारि करु
करुणा भुवने परचार ।
दास नरहरि पहुक बलिहारि
परम उदार ॥३७७४॥

पुनः—कर्णाट—

श्रीमद् अद्वैत मुद सदन गुणभूप ।
कनक-भूधर-गरबहारि वर-रूप ॥३७७५॥

झलकत सुललित अविरल पुलकपाति ।
सघन गरजत गौरप्रेमरसे माति ॥३७७६॥

विदित ब्रह्माण्डावधि विक्रम अपार ।
प्रबल पाषण्डकुल दलई अनिवार ॥३७७७॥

भवभय़विभञ्जन महाकरुणाधाम ।
पतितपावन पहुको निछनि घनश्याम ॥३७७८॥

पुनः—भूपाली—

जय़ जय़ सीतापति पहु मोर ।
कनकाचल जिनि मूरति उजोर ॥ ध्रु ॥३७७९॥

अविरत गौरप्रेमरसे माति ।
झलमल अविरल पुलकपाꣳति ॥३७८०॥

गरगर अङ्ग आथर अनिवार ।
झरई नय़न यनु सुरधुनीधार ॥३७८१॥

पुनः—गुर्जरी—

कि भावे विभोर मोर अद्वैत गोꣳसाइरे
ओ दुटि नय़ने बहे नोरा ।
मधुर मधुर हासि ओ-चाꣳदवदने रे
सघने बोलय़े ‘गोरा गोरा’ ॥३७८२॥

शिरीष कुसुम जिनि तनु अनुपाम रे
विपुल पुलक ताहे शोहे ।
कि छर, कुञ्जरगति, अतिशय़ शोभा रे
भाङ्गिते भुवनमन मोहे ॥३७८३॥

शिरेते सुन्दर शिखा पवने उड़्‌आय़ रे
मालतीर माला गले दोले ।
आजानुलम्बित दुटि बाहु पसारिय़ा रे
पतित धरिय़ा करे कोले ॥३७८४॥

ब्रह्मार दुर्लभ प्रेमभकति-रतन रे
जने जने याचे कतरूपे ।
नरहरि हेन कृपामय़ पहु पाय़ा रे ।
ना भङ्गि मजिनु भवकुपे ॥३७८५॥

श्रीसीतार प्राणपति अद्वैत गोꣳसाइ ।
ये नृत्यकीर्तने मत्त कहि साध्य नाइ ॥३७८६॥

निज-गृहे कभु, निज-परिकर-घरे ।
कभु सुरधुनीतीरे, कभु स्थानान्तरे ॥३७८७॥

सङ्कीर्तन विनु अन्य किछुइ ना भाय़ ।
निरन्तर मग्न गोराचाꣳदेर लीलाय़ ॥३७८८॥

से भय़े आवेशनृत्ये केबा स्थिर हय़ ।
करि कत करुणा अधमे उद्धारय़ ॥३७८९॥

गीते—यथा धानशी—

नाचय़े अद्वैत प्रेमराशि ।
गोरागुण गरबे ना जाने दिवानिशि ॥३७९०॥

‘गोरा गोरा’—बलिते कि सुख ।
बिहिरे मागय़े कत लाख लाख मुख ॥३७९१॥

‘गोरा गोरा’—बलि मारे मालसाट ।
भय़े कꣳपे कलि—पलाइते नाहि बाट ॥३७९२॥

गोरा-नामे कि भाव हिय़ाय़ ।
पुलकबलित तनु सघने दोलाय़ ॥३७९३॥

परिकर-सेना रसे माति ।
गाय़ गोराचाꣳदेर चरित कत भाꣳति ॥३७९४।

किबा खेल-करतालध्वनि ।
कुलेर बोहारि काꣳदे से शब्द शुनि ॥३७९५॥

भुवन भरिल ओ ना यशे ।
दीन हीन पतित पामर प्रेमे भासे ॥३७९६॥

नरहरि जीवने कि सुख ।
हेन दय़ामय़ पहुचरणे विमुख ॥३७९७॥

पुनः—कामोद—

देख मोर अद्वैत गुणनिधि ।
ना जानि ए कत साधे सुधा दिय़े
ए देह गठल विधि ॥ ध्रु ॥३७९८॥

कनक, केतकी, कुम्कुम् जिनि
सुचारु रूपेर छटा ।
गरगर गोराप्रेमे अतिशय़
शोभय़े पुलकघटा ॥३७९९॥

निरुपम विधुवदन झलके
घन ‘गोरा गोरा’ बुलि ।
दुनय़न धारा बहे अविरत,
नाचय़े दुबाहु तुलि ॥३८००॥

पतितपामरे धरि करे कोरे ।
अमूल्य रतन याचे ।
नरहरि पहु विने कि एमन
दय़ालु भुवने आछे ॥३८०१॥

पुनः—आशावरी—

देख अद्वैत गुणेर मणि ।
भकति-रतन करि वितरण
जगत् करय़े धनी ॥ ध्रु ॥३८०२॥

किबा भावे पुलकित हिय़ा ।
‘गोरा गोरा’—बुलि नाचे भुज तुलि
घन खाꣳखतालि दिय़ा ॥३८०३॥

दुटि नय़ने आनन्दधारा ।
पुलक बलित तनु सुबलित
झलके कनकपारा ॥३८०४॥

मुखे झरय़े अमिय़ाराशि ।
कि नव भङ्गिते चाहे चारिभिते
मधुर मधुर हासि ॥३८०५॥

पहु बेड़्‌हि परिकर साजे ।
मधुर सुस्वरे गाय़े धीरे धीरे ।
खोल-करताल बाजे ॥३८०६॥

ताहा शुनि कि धैरय़ बाꣳधे ।
दीन हीन यत तारा उनमत
नरहरि पड़ फाꣳदे ॥३८०७॥

पुनः—सुहई—

किभावे अद्वैतचाꣳद अद्भुत
लम्फ देइ, वीरदापे ।
हुङ्कार गर्जन करे घन घन
भय़ेते पषण्ड काꣳपे ॥३८०८॥

अट्ट अट्ट हासे कि रस प्रकाशे
केहो ना पाय़य़े आ ।
तरुण-नय़ने चाय़ चारि पाने
पुलके भरय़े गा ॥३८०९॥

भुवनमोहन गोरा-गुणगण
शुनय़े बाहार मुखे ।
दुबाहु पसारि तारे कोरे करि
नाचय़े परम-सुखे ॥३८१०॥

पदतले ताले महीतल हाले
भङ्गी के उपमा ताय़ ।
निज-बाहुबले बली कलि-दले,
घनश्याम-यश गय़ ॥३८११॥

पुनः-तोड़ी—

अद्वैत-गुणमणि अवनी करु धनी
भकतिधन घन वितरणे ।
सङ्गेते प्रिय़गण आनन्द निमगन
नाचय़े गोरागुण-किरितने ॥३८१२॥

कि नव भङ्गीभरे मदनमद हरे
झलके निरुपम रुचिछटा ।
शिरीषफुल जिनि मृदुल तनुखानि
ताहे विपुल पुलकेर घटा ॥३८१३॥

तिलक शोभे भाले मालतीमाला गले
दोलय़े यज्ञसूत्र नेत्रलोभा ।
अतुल भुज भुलि फिरय़े हिलि दुलि
चरण-चारुचालनी कि शोभा ॥३८१४॥

सघने ‘गौरहरि’ बोलय़े उच्च करि
झरय़े सुधा यनु मुखचाꣳदे ।
करुण चाहनिते के पारे थिर हैते
पतित-नरहरि हेरि काꣳदे ॥३८१५॥

भावावेशे अद्वैत-आचार्य दय़ामय़ ।
प्रिय़गण-सङ्गे निज-गृहे विलसय़ ॥३८१६॥

पुलक-बलित सुकोमल कलेवर ।
लोटाय़ धरणीतले धूलाय़ धूसर ॥३८१७॥

अतिशय़ प्रेमाय़ विह्वल ढुलि ढुलि ।
‘निताइ निताइ’ बलि नाचे बाहु तुलि ॥३८१८॥

हेनई समय़े नित्यानन्द-हलधर ।
सप्तग्राम हैते आइला अद्वैतेर घर ॥३८१९॥

नित्यानन्दाद्वैत दोꣳहे देखिय़ा दोꣳहारे ।
प्रेमाय़ विह्वल दोꣳहे स्थिर हैते नारे ॥३८२०॥

परस्पर-प्रसङ्गे हईल सुख यत ।
ताहा एक मुखे केबा कहिबेक कत ॥३८२१॥

नित्यानन्देर श्रीअद्वैत-गृह हईते नवद्वीपे आगमन—

दिन तिन चारि अद्वैतेर घरे रैय़ा ।
नवद्वीपे चले अद्वैतानुमति लैय़ा ॥३८२२॥

ना जानि कि अद्वैत कहिला गन्तुकाले ।
नित्यानन्द मन्द मन्द हासि हर्षे चले ॥३८२३॥

नवद्वीप-शोभा देखि उल्लास अन्तर ।
नदीय़ा-प्रवेशे नित्यानन्द-हलधर ॥३८२४॥

कि अद्भुत गति ! सङ्गे लैय़ा प्रिय़गण ।
प्रथमे आइसे प्रभु आइर भवन ॥३८२५॥

आइ निज-गृहे एइ निर्जने वसिय़ा ।
निशि दिशि गोङाय़ निमाञिर कथा कैय़ा ॥३८२६॥

पूर्व-रात्रे निमाञिरे स्वपने देखिय़ा ।
मालिनीरे कहे एथा निर्जाले पाइय़ा ॥३८२७॥

गीते—यथा कामोद—

आजुकार स्वपन-कथा शुन लो मालिनी सई !
निमाइ, आसिय़ाछिल घरे ।
आङ्गिनाते दाꣳड़ाइय़ा गृह पाने चाय़ा चाय़ा
‘मा’ बैला डाकिय़ाछिला मोरे ॥३८२८॥

गृहेते शय़ने छिनु अचेतने बाहिर हनु
निमाइर गलार साड़ा पाय़ा ।
माय़ेर चरणधूलि निल निमाइ शिर तुलि
‘मा’ बोले काꣳदिय़ा काꣳदिय़ा ॥३८२९॥

‘तोर प्रेमे बन्दी हैय़ बेड़्‌आइनु भरमिय़ा
रहिते नारिनु नीलाचले ।
तोरे देखिबार आइनु नदीय़ापुरे’
काꣳदिते काꣳदिते इहा बोले ॥३८३०॥

आइस मोर बाछा बुलि हिय़ार उपरे तुलि,
हेन बोले निद दूरे गेल ।
पुनः ना देखिय़ा तारे पराण केमन करे
काꣳदिय़ा रजनी पोहाइल ॥३८३१॥

काꣳदिते काꣳदिते शची मुरुछि पड़ल क्षिति,
मालिनी काꣳदय़े उभराय़ ।
कि बलिब—हाय़ हाय़ ! ए दुःख ना सहे गाय़
सेह केने मरिय़ा ना याय़ ॥३८३२॥

मालिनीर प्रेमचेष्टा बुझिते के पारे ।
हईय़ा विदाय़ तेꣳहो गेला निज-घरे ॥३८३३॥

ना धरय़े धैरय़, कातर शची आइ ।
विष्णुप्रिय़ा कोले लैय़ा काꣳदय़े एथाइ ॥३८३४॥

कतक्षणे स्थिर हैय़ा भावे मने मने ।
‘आसिब निताइ एथाय़, विलम्ब वा केने ॥३८३५॥

निताइ आइले एथाय़ याइते ना दिव ।
देखिय़ा निताइचाꣳदे प्राण जुड़ाइब’ ॥३८३६॥

हेनकाले नित्यानन्द हैल उपनीत ।
नित्यानन्दे देखि आइ महा उल्लसित ॥३८३७॥

आइसे बाप !–बलि आइ एथाइ आइला ।
नित्यानन्द जननीर पदे प्रणमिला ॥३८३८॥

आइ-सह निताइर हैल ये ये कथा ।
से सब शुनिते घुचे अन्तरेर व्याथा ॥३८३९॥

निताइ आइर महानन्द जन्माइला ।
आइर आज्ञाय़ नवद्वीपे स्थिति कैला ॥३८४०॥

आइर चरणधुलि मस्तके लईय़ा ।
श्रीवास-भवने गेला प्रेमाविष्ट हैय़ा ॥३८४१॥

मालिनी-श्रीवासे सन्तोषिय़ा प्रति घरे ।
गणसह नित्यानन्द कीर्तने विहरे ॥३८४२॥

नित्यानन्द अङ्गे नाना रत्न-अलङ्कार ।
हरिबेक—दस्युगण करिल विचार ॥३८४३॥

पाइय़ा अनेक दुःख महादस्युगण ।
नित्यानन्द-पादपद्मे लईल शरण ॥३८४४॥

करुणासमुद्र पद्मावतीर कुमार ।
भकित्रत्न दिय़ा दस्ये करिल उद्धार ॥३८४५॥

ऐछे नित्यानन्द प्रिय़ परिकर-सङ्गे ।
नवद्वीप-प्रदेशे विहरे महारङ्गे ॥३८४६॥

तथाहि श्रीचैतन्यभागवते अन्त्यखण्डे—
तबे नित्यानन्द सर्व पारिषद-सङ्गे ।
प्रति-ग्रामे ग्रामे भ्रमे सङ्कीर्तन-रङ्गे ॥३८४७॥

खानचौड़ा, बड़गाछि आर दोगाछिय़ा ।
गङ्गार ओपार कभु याय़ेन कुलिय़ा ॥३८४८॥

विशेष सुकृति अति बड़गाछि-ग्राम ।
नित्यानन्द-स्वरूपेर विहारेर स्थान ॥३८४९॥

बड़गाछि-ग्रामेर यतेक भाग्योदय़ ।
ताहार करिते नारि पारि समुच्चय़ ॥३८५०॥
(श्रीचै. भा. अन्त्य खण्ड)

नदीय़ाय़ नित्यानन्द पारिषद सङ्गे ।
विलसय़े निरन्तर सꣳकीर्तन-रङ्गे ॥३८५१॥

शान्तिपुर हैते आसि अद्वैत गोꣳसाइ ।
नित्यानन्द-सह सुखे विह्वल सदाइ ॥३८५२॥

गीते—यथा धानशी—

सीतानाथ मोर अद्वैतचाꣳद ।
प्रेममय़ महामोहन फाꣳद ॥३८५३॥

याꣳहार हुङ्कार प्रकट गोरा ।
नित्यानन्द-सह आनन्दे भोरा ॥३८५४॥

अनुपम गुण, करुणासिन्धु ।
पतित अधम जनेर बन्धु ॥३८५५॥

त्रिजगत माझे द्वितीय़ धाता ।
सꣳकीर्तन-धन दुलह दाता ॥३८५६॥

व्रजलीला रसे भासिले ये ।
अच्युतजनके भजुक से ॥३८५७॥

नरहरि पहु ये नाहि भुजे ।
सेइ अभागिय़ा भुवन माझे ॥३८५८॥

नित्यानन्दाद्वैत दोꣳहे सङ्कीर्तन-रङ्गे ।
विलसय़े श्रीवास-मुरारि आदि सङ्गे ॥३८५९॥

एकदिन श्रीवास-अङ्गने सर्वजन ।
आरम्भिला श्रीकृष्णचैतन्य-सङ्कीर्तन ॥३८६०॥

गाय़ वासु-गोविन्दादि मनेर हरषे ।
मृदङ्ग-मन्दिरा-ध्वनि गगन परशे ॥३८६१॥

नाचे नित्यानन्द महा मधुर भङ्गिते ।
ना धरे धैरय केहो से शोभा देखिते ॥३८६२॥

नाचय़े अद्वैत महामत्त अनिवार ।
सर्वाङ्गे पुलक, बहे नेत्रे अश्रुधार ॥३८६३॥

श्रीवास, मुरारि, गङ्गादास, गदाधर ।
अभिराम, सारङ्ग, सुन्दर, मनोहर ॥३८६४॥

श्रीविशारदेर पुत्र विद्यावाचस्पति ।
याꣳर ज्येष्ठ सार्वभौम्य नीलाचले स्थिति ॥३८६५॥

विद्यावाचस्पति आदि नाचे प्रेमावेशे ।
केबा ना नाचय़े—लोक धाय़ चारि पाशे ॥३८६६॥

नित्यानन्दाद्वैत दुइ दिके दुइ जन ।
मध्ये नृत्य करे प्रभु शचीर नन्दन ॥३८६७॥

कोन कोन भाग्यवन्त देखे नेत्र भरि ।
नाचे देवगण ‘जय़ जय़’-ध्वनि करि ॥३८६८॥

उथलय़ो प्रेमेर समुद्र सङ्कीर्तने ।
मध्ये मध्ये ऐछे रङ्ग श्रीवास-अङ्गने ॥३८६९॥

नित्यानन्दप्रभुर विवाहलीला-प्रकाश—

अद्वैत-श्रीवास आदि गुणेर आलय़ ।
नित्यानन्द-सङ्गे महानन्दे विलसय़ ॥३८७०॥

नित्यानन्द-चन्द्रेर विवाह कराइते ।
हईल सभार इच्छा ताꣳर इच्छामते ॥३८७१॥

बड़गाछि-ग्रामे हरिहोड़ेर सन्तान ।
‘कृष्णदास’—नाम ताꣳर, तेꣳहो भाग्यवान् ॥३८७२॥

नित्यानन्दपदे ताꣳर सुदृढ़ भकति ।
कराइते विवाह ताꣳहार आर्ति अति ॥३८७३॥

नित्यानन्दचन्द्रेर विवाह येन मते ।
शुन श्रीनिवास ! ताहा कहि सꣳक्षेपेते ॥३८७४॥

नवद्वीप हैते अल्प दूर—सालिग्राम ।
तथा बैसे पण्डित श्रीसूर्यदास नाम ॥३८७५॥

गौड़े राजा यवनेर कार्ये सुसमर्थ ।
‘सरखेल’—ख्याति उपार्जि बहु अर्थ ॥३८७६॥

सुर्यदास चारिभ्राता अति शुद्धाचार ।
सर्वत्र विदित—ताहा कहिब कि आर ॥३८७७॥

श्रीसूर्यदासेर गुण कहिल ना हय़ ।
वसुधा, जाह्नवा—नामे ताꣳर कन्याद्वय़ ॥३८७८॥

रूपे गुणे दोꣳहार उपमा नाइ दिते ।
दोꣳहार विवाह लागि सदा चिन्ते चिते ॥३८७९॥

विप्रगणे देन भार विवाह-विषय़ ।
आइसे सम्बन्ध कथु—स्थिर नाहि हय़ ॥३८८०॥

सर्ववꣳशे प्रवीण एक प्राचीन ब्राह्मण ।
तेꣳह सूर्यदासे के मधुर वचन ॥३८८१॥

‘चिन्तायुक्त हईय़ा चाहिलु सब ठाꣳइ ।
तोमार कन्यार योग्य पात्र कथु नाइ ॥३८८२॥

अकस्मात् मने एक हईल आमार ।
ताहा कहि—यदि मने आइसे तोमार ॥३८८३॥

राढ़देश-मध्ये ग्राम एकचक्रा-नामे ।
ब्राह्मण-सज्जन बहु बैसे सेइ ग्रामे ॥३८८४॥

तथा विप्र हाड़ाइ पण्डित विद्यवान् ।
दितीय़ मुकुन्द नाम—सर्वाꣳशे प्रधान ॥३८८५॥

तथाहि श्रीदेवकीनन्दनकृत-श्रीमद्वैष्णवाभिधाने—
तथा पद्मावती-श्रीमन्मुकुन्दौ द्विजसत्तमौ ।
नित्यानन्दस्वरूपस्य पिताराबतुलश्रिय़ौ ॥३८८६॥

तथाच श्रीगौरगणोद्देशदीपिकाय़ाम्—
रोहिणीवसुदेवौ द्वौ पितरौ रामकृष्णय़ोः ।
पद्मावतीमुकुन्दौ ते सन्तौ जातौ द्विजोतमौ ॥३८८७॥

विदित सुन्दरामल वन्दिघाटी गाꣳइ ।
यैछे तार करन—निन्दित किछु नाइ ॥३८८८॥

श्रीहाडाइ पण्डितेर विवाह येखाने ।
ताहाराओ कुलीने वेष्टित—सबे जाने ॥३८८९॥

ताꣳर पुत्र नित्यानन्द महातेजोमय़ ।
अल्पकाले तीर्थाटने करिला विजय़ ॥३८९०॥

तीत्र्थाटन, तपस्या—विप्रेर एइ कर्म ।
तेꣳहो महाविद्वान्-जानय़े सब मर्म ॥३८९१॥

अवधूत हईला लईय़ा दण्ड हाते ।
सर्वतीर्थ भ्रमिय़ा आइला नदीय़ाते ॥३८९२॥

बुझि—ताꣳर सर्व मनोरथ पूर्ण हैल ।
तेञि नदीय़ाते दण्ड परित्याग कैल ॥३८९३॥

कृष्णचैतन्येर तोꣳहा अति प्रिय़तम ।
कि दिब उपमा—केहो नाहि ताꣳर सम ॥३८९४॥

कृष्णचैतन्येर सङ्गे नीलाचले गिय़ा ।
एइ कखोदिन हैल—आइल नदीय़ा ॥३८९५॥

तोमार कन्यार योग्य पात्र तेꣳह हय़ ।
ताꣳर योग्य तोमार दुहिता सुनिश्चय़ ॥३८९६॥

तेꣳहो यदि अनुग्रह करय़े तोमारे ।
तबे ए मङ्गल कार्य हईबारे पारे ॥३८९७॥

ए हेन जामाता मिले बहु पुण्यफले ।
ए कार्ये परमानन्द पाइबा सकले’ ॥३८९८॥

शुनि मौन धरिय़ा रहिला सूर्यदास ।
हैल बहु रात्रि, विप्र गेला निज-वास ॥३८९९।

सूर्यदास पण्डित चिन्तिय़ा मने मने ।
करिते शय़न निद्रा हईल सेइक्षणे ॥३९००॥

स्वप्नछले देखे महामनेर आनन्दे ।
दुइ कन्या सम्प्रदान करे नित्यानन्दे ॥३९०१॥

ब्राह्मण-सज्जनगण सभार सन्मत ।
कैल शास्त्रविहित विवाहकार्य यत ॥३९०२॥

नित्यानन्दे कन्या दान करिल यखन ।
से समय़े पुष्पवृष्टि करे देवगण ॥३९०३॥

निज -कन्यासहित देखय़े जामाताय़ ।
ना जानते कत सुख उथले हिय़ाय़ ॥३९०४॥

आꣳखि पालटिते नारे—बार्ह्̤‌ए महा आर्ति ।
देखिते निताइ देखे बलराम-मूर्ति ॥३९०५॥

रजत-पर्वत गर्व हरे अङ्गछटा ।
वदनचन्द्रमा जिनि चन्द्रसार घटा ॥३९०६॥

नाना रत्नभूषणे भूषित कलेवर ।
भुवन मोहय़े—ऐछे सर्वाङ्गसुन्दर ॥३९०७॥

वसु-जाह्नवारे देखे वारुणी रेवती ।
अङ्गछटा कनक कुङ्कुमपुञ्ज जिति ॥३९०८॥

बलदेव बामे दक्षिणेते विलसय़ ।
विचित्र वसन भूषणादि शोभामय़ ॥३९०९॥

भक्ते सुख दिते महा ऐश्वर्य प्रकाश ।
देखि आत्माविस्मरित हैला सूर्यदास ॥३९१०॥

नेत्रे अश्रधारा ना धरिते पारे अङ्ग ।
करितेइ नति-स्तुति हैल निद्राभङ्ग ॥३९११॥

कतक्षणे स्थिर हैय़ा प्रभात-समय़े ।
आपनि गेलेन सेइ विप्रेर आलय़े ॥३९१२॥

विप्र-प्रति कहे यत्ने करि नमस्कार ।
‘ये कहिले कर्तव्य विलम्ब नाहि आर’ ॥३९१३॥

शुनि विप्र हर्षे, सङ्गे लैय़ा जना चारि ।
करिलेन यात्रा दुर्गा गणेश सोङरि ॥३९१४॥

सर्वत्र विदित तेꣳहो आसि नदीय़ाय़ ।
मनेर उल्लासे श्रीवासेर गृहे याय़ ॥३९१५॥

श्रीवास पण्डित-गृहे प्रिय़गण-सने ।
देखे नित्यानन्द वसि आछे दिव्यासने ॥३९१६॥

कन्दर्पमोहन शोभा करि निरीक्षण ।
आपना मानय़े धन्य, सजल नय़न ॥३९१७॥

विप्रे करि सन्मान श्रीवास महाशय़ ।
बसाइय़ा आसने कुशल जिज्ञासय़ ॥३९१८॥

विप्र कहे—‘कुशल, आइनु बाटी हैते ।
मने ये आछय़े ताहा कहिब निभृते ॥३९१९॥

श्रीवास गेलेन विप्रे निर्जने लईय़ा ।
श्रीवासेर प्रति विप्र कहे हर्ष हैय़ा ॥३९२०॥

‘विवाह-मङ्गल-कथा शुनि परस्पर ।
कन्या स्थिर करिय़ा आइनु एथा त्वर ॥३९२१॥

सूर्यदास पण्डितेर कन्या लक्ष्मी-समा ।
देखिनु सर्वत्र—दिते नाहिक उपमा ॥३९२२॥

यैछे नित्यानन्ददेव तैछे पत्नी ताꣳर ।
साक्षाते देखिते, आमि कि कहिब आर ॥३९२३॥

सूर्यदास सरखेल सर्वाꣳशे प्रधान ।
नित्यानन्द-चन्द्रेर विवाहयोग्य स्थान ॥३९२४॥

विलम्बेर कार्य नाइ—कहिल तोमाय़ ।
परमार्श करि मोरे करह विदाय़ ॥३९२५॥

श्रीवास पण्डित कहे—‘सुमधुर कथा ।
आपनि ये करिय़ाछ हईब सर्वथा ॥३९२६॥

अद्य कृष्णदासे बड़गाछि पाठाइब ।
एथा हैते कालि सभे तथाइ याइब ॥३९२७॥

पण्डिते लईय़ा तथा याबे—नाइ व्याज ।
करिते कि—आपनि साधिबे सब काज’ ॥३९२८॥

श्रीवासेर वाक्ये विप्र हईय़ा विदाय़ ।
सालिग्रामे जानाइल पण्डिते त्वराय़ ॥३९२९॥

श्रीवास पण्डित महा उल्लसित हैय़ा ।
जानाइल सभारे अद्वैताचार्य कैय़ा ॥३९३०॥

मन्द मन्द हासे नित्यानन्द-हलधर ।
अन्येर दुर्गम नित्यानन्देर अन्तर ॥३९३१॥

विवाह-विषय़े हैल परम उल्लास ।
बड़गाछि-ग्रामे शीघ्र गेला कृष्णदास ॥३९३२॥

कृष्णदास राजा हरिहोड़्‌एर नन्दन ।
महाबुद्धिमन्त शीघ्र कैला आय़ोजन ॥३९३३॥

सर्वत्र व्यापिल शुभ विवाहेर कथा ।
‘अपूर्व सम्बन्ध’—सभे कहे यथातथा ॥३९३४॥

नवद्वीप हैते नित्यानन्द सभे लैय़ा ।
चलिलेन बड़गाछि-ग्रामे हर्ष हैय़ा ॥३९३५॥

बड़गाछि ग्रामेर निकटे प्रवेशिते ।
ग्रामवासी लोक आसे आगुसरि निते ॥३९३६॥

ब्रामण-सज्जन यत लेखा नाइ तार ।
देखि नित्यानन्दचन्द्रे उल्लास सबार ॥३९३७॥

कृष्णदास लैय़ा गेला आपनार घर ।
हईल सबार वासा-स्थान मनोहर ॥३९३८॥

बड़गाछि हैते सालिग्राम अल्प दूरे ।
पाइय़े सꣳवाद सबे उल्लास अन्तरे ॥३९३९॥

सूर्यदास पण्डित अनुज कृष्णदासे ।
कहय़े निभृते अति सुमधुर भाषे ।३९४०॥

‘लैय़ा ए सामग्री विप्रगणेर सहिते ।
पश्चात् आइस, आमि याइब अग्रेते ॥३९४१॥

एत कि बड़गाछि आसिय़ा भूरित ।
नित्यानन्द प्रभु आगे हैला उपनीत ॥३९४२॥

लोटाइय़ा पड़े नित्यानन्द-पदतले ।
सूर्यदास भासे दुइ नय़नेर जले ॥३९४३॥

दुइ हाते धरि चरण दुखानि ।
कहिते चाहय़े किछु ना स्फुरय़े वाणी ॥३९४४॥

मन्द मन्द हासि नित्यानन्द प्रेमावेशे ।
कृपा करि कैला आलिङ्गन सूर्यदासे ॥३९४५॥

सूर्यदास आनन्दे विह्वल निरन्तर ।
के बुझिते पारे सूर्यदासेर अन्तर ॥३९४६॥

देखिय़ा भ्रातार प्रेमचेष्टा गौरीदास ।
ना धरे धैरय़, अति अन्तरे उल्लास ॥३९४७॥

कृष्णदासेर गृहे, श्रीनित्यानन्देर शुभविवाहेर अधिवास—

हैल सूर्यदासेर मिलन सबा सने ।
प्रभु आधिवास स्थिर कैल शुभक्षणे ॥३९४८॥

नाना द्रव्य लईय़ा विप्रगणेर सहिते ।
कृष्णदास पण्डित आइला बाटी हैते ॥३९४९॥

बड़गाछि-ग्रामवासी ब्राह्मण-सज्जन ।
गोधूलि-समय़े हैल सबार गमन ॥३९५०॥

ब्राह्मण-सज्जनगण बैसे चारिपाशे ।
मध्ये नित्यानन्द शोभे शुभ आधिवासे ॥३९५१॥

नेत्र भरि देखे नारी-पुरुष सकल ।
हईल मङ्गलमय़ा वाद्य-कोलाहल ॥३९५२॥

गीते—यथा मङ्गल—

आज शुभक्षणे निमाइचाꣳदेर
आधिवासे किबा शोभार घटा ।
निरुपम वेशे विलसय़े भाले
झलमल करे अङ्गेर छटा ॥३९५३॥

कत शत मनमथ-मद हरे
हासि निशा मुखचन्द्रमा चारु ।
कञ्जदल दलि ललित लोचन,
चाहनि ना राखे धैरय कारु ॥३९५४॥

चारि पाशे विप्र वेद उच्चारय़े
चारु भङ्गि हेरि सरस हिय़ा ।
नारीगण-मन उथले उलासे
घन घन उलु-लुलुलु दिय़ा ॥३९५५।

नाना वाद्यध्वनि भेदय़े गगन
नाचे नर्तक कि मधुर गति ।
जय़ जय़ रबे भरय़े भुवन
भणे घनश्याम—कौतुक अति ॥३९५६॥

अधिवासे आइला यत ब्राह्मण-सज्जन ।
निजगृहे कैला सबे सन्तोष गमन ॥३९५७॥

ब्बड़गाछि-सालिग्राम आदि ग्राम यत ।
दिवारात्रि लोक गताय़ात कत शत ॥३९५८॥

नित्यानन्दचन्द्रेर हईले अधिवास ।
याने चटि शीघ्र गृहे गेला सूर्यदास ॥३९५९॥

वसुधा जाह्नवार शुभ-अधिवास—

मने महा आनन्द, लईय़ा विप्रगणे ।
करय़े कन्यार अधिवास शुभक्षणे ॥३९६०॥

यद्यपि स्वप्नेते कन्याप्रभाव देखिला ।
तथापि वात्सल्ये महा-विह्वल हैला ॥३९६१॥

हईल मङ्गलमय़ पण्डित-भवन ।
चतुर्दिके गताय़ात करे लोकगण ॥३९६२॥

बड़गाछि हैते अधिवास-द्रव्य लैय़ा ।
सूर्यदासालय़े विप्र गेला हर्ष हैय़ा ॥३९६३॥

कहिते के जाने—ये कौतुक अधिवासे ।
देव-स्त्रीगणादि देखे से शोभा उल्लासे ॥३९६४॥

गीते—यथा भूपाली—

वसुधा-जाह्नवादेवी शोभावधि
अधिवासभूषा-भूषित तनु ।
झलमल करे चारु रुचिछटा ।
तड़ित-कुङ्कुम केतकी यनु ॥३१६५॥

चारिपाशे विप्रगण धन्य माने,
चाहि कन्यापाने हरस हिय़ा ।
वेदध्वनि करि करे आशीर्वाद
धान्य दूर्वा दुहु-मस्तके दिय़ा ॥३९६६॥

पण्डित-घरणी धरणीते पद
ना धरय़े, हिय़ा धैरय भाꣳधे ।
विविध मङ्गल करु सखीकुल,
उलु लुलु देइ कत ना साधे ॥३९६७॥

शङ्ख-घन्टा-आदि वाद्य बाजे, बहु
कोलाहल, नाहि तुलना दिते ।
भणे नरहरि—सुरनारी अलक्षिते देखे,
कत कौतुक चिते ॥३९६८॥

अधिवासाक्रिय़ा साङ्ग हैले विप्रगण ।
निज-निज-गृहे हर्षे करिला गमन ॥३९६९॥

पात्र-कन्याआधिवासे सुख सर्वोपरि ।
देखिलेन भाग्यवन्त लोक नेत्र भरि ॥३९७०॥

गोधूलि-समय़े प्रभु बड़गाछि हैते ।
चलिलेन सालिग्रामे विवाह करिते ॥३९७१॥

बाजे नानावाद्य—से सुखेर नाइ पार ।
देखि से समृद्धि लोके हैल चमत्कार ॥३९७२॥

गीते—यथा देशपाल—

कोटी मनमथ-गरबहर परम सुबर निताइ-हलधर,
करत गमन चर्ह्̤‌इ नव चौदले, छबि छलकय़े ।
वेश विरचि विवाह-मत कत भाꣳति भूषण अङ्गे विलसत,
ललितलोचन, कुञ्ज-मुख मृदुहास मञ्जुल झलकय़े ॥३९७३॥

रूप पिबईते मत्त अतिशय़ करत भुसुरवृन्द जय़ जय़
बान्दिगण-मन मुदित, घन घन विमल यश परकाशय़े ।
तेजि निज-निज गेह धाय़त, नारी पुरुष न थेह पाय़त,
निरखि रहु चहुओर निमिखन दरशरससुखे भासय़े ॥३९७४॥

गान करु गुणी तान श्रुति-सुर, राग मुरुछन ग्राम सुमधुर,
नटत नर्तक उघटि तकतक थै ता थै थै थै नि नि ना ।
वाद्यवादक बाओय़े बहुतर, ताल प्रकट ना होत पटुतर,
थोङ्क ना ना ना थोङ्ग थुङ्कट धो धिलङ्ग धि कि धि नि नि ना ॥३९७५॥

दीपदमके असꣳख्य क्षिति पर, दिवस सम भेल रजनी उजोर
विपुल कलकल-ध्वनि निरत, सप्तलोकगति पथ शोहय़े ।
गगनाअत लखि देव अलखित, सरस वरषत कुसुम पुलकित,
दास नरहरि-पहुक अतुल विलास जनमन मोहय़े ॥३९७६॥

सालिग्रामे नित्यानन्द प्रभुर शुभविवाह—

सालिग्रामे प्रवेशिय़ा नित्यानन्द राय़ ।
सूर्यदासालय़े चले उल्लास-हिय़ाय़ ॥३९७७॥

नित्यानन्दप्रभु पादपद्म-स्पर्शमात्र ।
सालिग्रामवासी लोक हैला भक्तिपात्र ॥३९७८॥

श्रीवसु-जाह्नवा दोꣳहे हईय़ा अलक्षित ।
प्राणनाथे देखे हैला महा उल्लसित ॥३९७९॥

पण्डितेर पत्नी निज-सखीर सहिते ।
हईय़ा महाविह्वल देखिला अलक्षिते ॥३९८०॥

सखागण लैय़ा कैला कन्यार सुवेश ।
दिते कि उपमा—शोभा हईल अशेष ॥३९८१॥

सूर्यदासालय़े लोक-भिड़ अतिशय़ ।
ब्राह्मण-समाजे यैछे कहिल ना हय़ ॥३९८२॥

लोक-शास्त्रमते सूर्यदास भाग्यावान् ।
नित्यानन्दचन्द्रे दुइ कन्या कैल दान ॥३९८३॥

देखि पात्र-कन्या विप्रगणे प्रशꣳसय़ ।
स्वर्ण-मर्त्य-पाताले हईल जय़ जय़ ॥३९८४॥

सालिग्राम-निकटस्थ ग्रामवासी यत ।
देखिय़ा विवाह प्रशꣳसय़े केबा कत ॥३९८५॥

विवाहेर परदिन हैल महानन्द ।
सर्व-मनोरथशिद्धि कैला नित्यानन्द ॥३९८६॥

विदाय़-समय़े सूर्यदास दैन्य करि ।
कहिल यतेक ताहा कहिते ना पारि ॥३९८७॥

श्रीवसु-जाह्नवा-सह प्रभु नित्यानन्द ।
आइलेन बड़गाछि—हैल महानन्द ॥३९८८॥

श्रीवासेर भार्या-आदि प्रवीणा सकल ।
कैल ये विहित हैय़ा आनन्दे विह्वल ॥३९८९॥

श्रीवसु-जाह्नवा-शोभा देखि चमत्कार ।
हैल साध पूर्ण मने ये छिल सबार ॥३९९०॥

श्रीवसु-जाह्नवा नित्यानन्देर प्रेय़सी ।
श्रीवारुणी-रेवती—सकल गुणराशि ॥३९९१॥

तथाहि श्रीगौरगणोद्देशदीपिकाय़ाम्—
श्रीवारुणीरेबत्योरꣳशसम्भवे
तस्य प्रिय़े श्रीवसुधा च जाह्नवा ।
श्रीसूर्यदासाख्यमहात्मनः सुते
ककुद्मिरूपस्य च सूर्यतेजसः ॥३९९२॥

केचित् श्रीवसुधादेवी कलावाणीꣳ विवृण्वति ।
अनङ्गमञ्जारीꣳ केचिज्जाह्नवाꣳ च प्रचक्षते ।
उभतय़ञ्च समीचीनꣳ पूर्वन्याय़ात् सताꣳ मतम् ॥३९९३॥

बड़गाछि-ग्रामे नित्यानन्द दय़ामय़ ।
रहि किछु दिन नाना रङ्गे विलसय़ ॥३९९४॥

भक्तिदाता श्रीवसू-जाह्नवा-प्राणपति ।
अगणित गुण, गोराप्रेमे मत्त अति ॥३९९५॥

पतितपावन नित्यानन्देर चरित ।
वर्णय़े कवीन्द्रगण-जगते विदित ॥३९९६॥

गीते—कामोद—

कृष्णेर अग्रज राम रोहिणीनन्दन ।
वारुणी, रेवती दुइ पिरिय़ा-प्राणधन ॥३९७७॥

धन्य कलियुगे सेइ निताइसुन्दर ।
चैतन्य अग्रज, पद्मावतीर कुमार ॥३९९८॥

वसुधा जाह्नवा प्राणपति प्रेममय़ ।
निज-गुणे प्रभु जीवे हईला सदय़ ॥३९९९॥

गोराप्रेमे मत्त—दिवानिशि नाइ जाने ।
पवित्र करिल मही प्रेमामृत-दाने ॥४०००॥

गोरा-अनुरागे से अरुण तनुखानि ।
झलमल करय़े तपत हेम जिनि ॥४००१॥

श्रवणे कुण्डल दोले मुनिमनोलोभा ।
आजानुलम्बित भुज, निरुपम शोभा ॥४००२॥

परिसर बुक देखि केबा नाइ भुले ।
सती कुलवती तिलाञ्जलि देइ कुले ॥४००३॥

ओ चाꣳदवदने सदा बोले ‘गोरा गोरा’ ।
मुख बुक बाहिय़ा नय़ने बहे नोरा ॥४००४॥

प्रिय़ परिकरगण-सह से आवेशे ।
सङ्कीर्तन-सुखेर साय़रे सदा भासे ॥४००५॥

भुवनमोहन छाꣳदे नाचे गुणनिधि ।
देवेर दुर्लभ सब शोभार अवधि ॥४००६॥

चाहिते निताइचाꣳदे केबा स्थिर पाय़ ।
पाषाण समान हिय़ा—सेहो गलि याय़ ॥४००७॥

पातकी-पतिते करुणार नाइ पार ।
हेन पꣳहु ना भजिल नरहरि छार ॥४००८॥

किछुदिने सभा-सह नित्यानन्द राय़ ।
बड़गाछि हईते आइला नदीय़ाय़ ॥४००९॥

श्रीवसु, जाह्नवा दोꣳहे देखि एथा आइ ।
करिल यतेक स्नेह—कहि साध्य नाइ ॥४०१०॥

प्रभुप्रिय़ भक्तगण-गृहिणी सकल ।
वसु-जाह्नवारे देखि आनन्द विह्वल ॥४०११॥

आइ अनुमति लैय़ा नित्यानन्द-राम ।
शान्तिपुर हईय़ा गेलेन सप्तग्राम ॥४०१२॥

भक्तेर इच्छाय़ प्रभु खड़दहे गिय़ा ।
राखिलेन अपूर्व आलय़े निज-प्रिय़ा ॥४०१३॥

किछुदिन तथा विलसय़े नित्यानन्द ।
प्र्य़ परिकरेर हईल महानन्द ॥४०१४॥

बड़दह-प्रदेशे विलसि सङ्कीर्तने ।
आइलेन नदीय़ाय़ आइर दर्शने ॥४०१५॥

कहिल प्रसङ्ग सब सङ्क्षेप करिय़ा ।
भाग्यवन्तगण वर्णिबेन विस्तारिय़ा ॥४०१६॥

परम दय़ालु पद्मावतीर नन्दन ।
विविध प्रकारे गुण वर्णे कविगण ॥४०१७॥

गीते—यथा कामोद—

प्रभु नित्यानन्दराम रूपे गुणे अनुपाम
पद्मावती-गर्भे जनमिला ।
निजगण लैय़ा सङ्गे द्वादश वत्सर रङ्गे
श्रीएक्चक्राय़ विलसिला ॥४०१८॥

गोरा अवतीर्ण हैले सन्न्यासीर सङ्गछले
बाहिर हईला घर हैते ।
तीर्थ-पर्यटन करे विꣳशति वत्सर परे
आनन्दे आइला नदीय़ाते ॥४०१९॥

पाय़ा प्राण गोराचाꣳदे पड़ि से प्रेमेर फाꣳदे
दण्ड-कमण्डलु फेले दूरे ।
सदा माति सङ्कीर्तने क्षेत्रे चले प्रभुसने
प्रभु-दण्ड तिन खण्ड करे ॥४०२०॥

प्रभुर आदेश-मते गौड़े आसि क्षेत्रे हैते
प्रभु मनोहित कर्म कैला ।
दास नरहरि गति वसु-जाह्नवार पति
यारे तारे प्रेम बिलाइला ॥४०२१॥

ओहे श्रीनिवास ! श्रीअद्वैत गणसने ।
निरन्तर मत्त गौर-चरित्र-कीर्तने ॥४०२२॥

कभु शान्तिपुरे, कभु रहे नदीय़ाय़ ।
श्रीनाभानन्दन-गुण केबा नाइ गाय़ ॥४०२३॥

गीते—यथा कामोद—

श्रीअद्वैत गुणमणि सकल रसेर खनि
नाभा-गर्भे जनम लभिला ।
जन्म नवग्राम बङ्गे, तथा विलसिय़ा रङ्गे
किछुदिने शान्तिपुरे आइला ॥४०२४॥

पिता-माता-अदर्शने गिय़ा तीर्थ-पर्यटने
आसिय़ा रहिला शान्तिपुरे ।
हैय़ा श्रीसीतार पति कत तप करि निति
आनिलेल कृष्ण हलधरे ॥४०२५॥

नदीय़ा विहार देखि सदा जुड़ाइल आꣳखि
नाचिल कीर्तने नाना छाꣳदे ।
आपनार घरे पाय़ा सेबिला आनन्द हैय़ा
न्यासि-शिरोमणि गोराचाꣳदे ॥४०२६॥

नीलाचले प्रभुस्थिति तथा कैल गतागति
सबे माताइला गोरागुणे ।
दास नरहरि कय़ श्रीअद्वैत दय़ामय़
ए यश घोषय़े त्रिभुवने ॥४०२७॥

श्रीवास-मुरारिगुप्त आदि भक्तगण ।
निरन्तर करे गौर-चरित्र कीर्तन ॥४०२८॥

कहिते कि जानि—सबे महादय़ावान् ।
विविध प्रकारे करे जीवेर कल्याण ॥४०२९॥

देखिलु ये सब ताहा कहिते ना पारि ।
से सब भारिते बुक विदरिय़ा मरि ॥४०३०॥

ऐछे कत कहिते ईशान महाशय़ ।
हईलेन प्रेमावेशे अधैर्यातिशय़ ॥४०३१॥

कतक्षणे स्थिर हैय़ा लैय़ा तिन जने ।
करिला शय़न रात्रे प्रभुर प्राङ्गणे ॥४०३२॥

हैल बहु रात्रि—निद्रा नाइ श्रीनिवासे ।
निरखय़े प्रभुर भवन चारि पाशे ॥४०३३॥

ना जानि—कौतुके कहय़े मने मने ।
‘तृणादि निर्मिति ए प्रभुर घर केने ? ॥४०३४॥

करिय़ा वञ्चित एइ नदीय़ा-विहारे ।
दूरदेशी केने प्रभु कैला परिकरे ॥४०३५॥

परम अद्भुत एइ नदीय़ा-विहार ।
देखिते ना पाइल से सब परिवार’ ॥४०३६॥

स्वप्ने श्रीनिवासेर श्रीनवद्वीपेर स्वरूप एवꣳ महाप्रभुर विविध लीलाविलास दर्शन—

ऐछे कत कहितेइ निद्रा आकर्षय़ ।
स्वप्ने प्रभु गृहे शोभाविलास देखय़ ॥४०३७॥

नवद्वीप-स्वरूप—

आगे देखे स्वर्णमय़ नदीय़ानगर ।
सुरधुनी घाट रत्ने बाꣳधा मनोहर ॥४०३८॥

तारपर देखे गौरचान्द्रेर आलय़ ।
इन्द्रादिर स्थान से शोभार योग्य नय़ ॥४०३९॥

कैछे कुन विश्वकर्मा निर्मिल भवन ।
चतुर्दिके स्वर्णेर प्राचीर-आवरण ॥४०४०॥

पृथक् पृथक् खण्ड—सꣳख्या नाइ तार ।
यबे यथा इच्छा तथा प्रभुर विहार ॥४०४१॥

(२) अन्तःपुरविलास—

अन्तपुर-मध्ये पुष्पüद्यान शोभय़ ।
तथा एवꣳ विचित्र मन्दिर रत्नमय़ ॥४०४२॥

मन्दिरेर मध्ये चन्द्रातप विलक्षण ।
तार तले शोभामय़ रत्नसिꣳहासन ॥४०४३॥

सिꣳहासनोपरि गौरचन्द्र विलसय़ ।
लक्ष्मी, विष्णुप्रिय़ा वाम-दक्षिणे शोभय़ ॥४०४४॥

नाना रत्नालङ्कारे भूषित कलेवर ।
परिधेय़ विचित्र वसन मनोहर ॥४०४५॥

भुवनमोहन शोभा करि निरीक्षण ।
लक्ष लक्ष दासी करे चामर व्यञ्जन ॥४०४६॥

योगाय़ ताम्बूल, माला, चन्दन सकले ।
प्रिय़ासह प्रभु विलसय़े सखीमेले ॥४०४७॥

(३) सगोष्ठी कीर्तनविलास—

ऐछे रङ्ग निराखिते निद्रा भङ्ग हैल ।
सेइक्षणे पुनः निद्रा आकर्षण कैल ॥४०४८॥

स्वप्ने देखे आर एक खण्डे रत्नमय़ ।
विचित्र मन्दिरशोभा सुखेर आलय़ा ॥४०४९॥

तथा रत्ननिर्मित विचित्र सिꣳहासन ।
ताहार उपरे साजे शचीर नन्दन ॥४०५०॥

कोटि कोटि कन्दर्पे मोहय़े अङ्ग छटा ।
वदनचन्द्रमा चारु यिनि चन्द्रघटा ॥४०५१॥

नित्यानन्दचन्द्र शोभे परम सुन्दर ।
श्रीअद्वैतदेव, श्रीपण्डित गदाधर ॥४०५२॥

विद्यानिधि, गङ्गादासपण्डित, श्रीवास ।
श्रीचन्द्रशेखराचार्य, मुरारि, हरिदास ॥४०५३॥

दामोदर पण्डित मुकुन्द, वक्रेश्वर ।
गौरीदास, सूर्यदास, दास गदाधर ॥४०५४॥

श्रीमुकुन्द, नरहरि, श्रीरघुनन्दन ।
चिरञ्जीव सेन, आर सेन सुलोचन ॥४०५५॥

द्विज हरिदास, ब्रह्मचारी सुक्लाम्भर ।
श्रीवास पण्डित, नन्दनाचार्य, श्रीधर ॥४०५६॥

विजय़, श्रीचन्द्रशेखराचार्य रतन ।
श्रीस्वरूप, काशीश्वर, यदुनाराय़ण ॥४०५७॥

श्रीलक्ष्मीपति, माधवेन्द्रपुरीश्वर ।
वासुदेव सार्वभौम, केशव, शङ्कर ॥४०५८॥

श्रीप्रतापरुद्र राजा, राय़ रामानन्द ।
त्रिमल्ल, वेङ्कटभट्ट, श्रीप्रबोधानन्द ॥४०५९॥

श्रीगोपालभट्ट, श्रीरघुनाथभट्ट आर ।
सनातन, रूप, जीव वल्लभकुमार ॥४०६०॥

भूगर्भ, श्रीलोकनाथ, रघुनाथ दास ।
राघव पण्डित, श्रीगोवर्धने याꣳर वास ॥४०६१॥

उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम देशेते ।
असꣳख्य प्रभुर भक्त—के पारे जानिते ॥४०६२॥

सर्वभक्ते वेष्टित विलसे गौरराय़ ।
देखिय़ा से शोभा अति उल्लास हिय़ाय़ ॥४०६३॥

भक्तगोष्ठि-सह प्रभु-पदे प्रणमिते ।
हैल निद्राभङ्ग—जागि चाहे चारिभिते ॥४०६४॥

(४-७) ऐश्वर्याविलास—

हईते व्याकुल पुनः निद्रा आकर्षय़ ।
स्वप्न्गे देखे आर एक खण्ड शोभामय़ ॥४०६५॥

तथा शोहे रत्नशिꣳहासने विश्वम्भर ।
चतुर्दिके दासगण सेवाय़ तत्पर ॥४०६६॥

ब्रह्मा-शिव-इन्द्रादि अनन्त देवगणे ।
करय़े प्रभुरे स्तुति पड़िय़ा चरणे ॥४०६७॥

देखिय़ा प्रभुर महा ऐश्वर्य्प्रकाश ।
पुलकित अङ्ग, अति अन्तरे उल्लास ॥४०६८॥

(५) वैकुण्ठ-विलास आर खण्डे निरखिय़ा ।
धरिते नारय़े अङ्ग, उल्लसित हिय़ा ॥४०६९॥

(६) अयोध्याविलास आर खण्डे निरीखय़ ।
उपजे आनन्द, कत मने मने कय़ ॥४०७०॥

द्वारकाविलास आर खण्डे निरखिय़ा ।
आनन्दे अधैर्य, ना धरिते पारे हिय़ा ॥४०७१॥

आर एक खण्डे देखे मथुराविलास ।
उपजे कौतुक, मुखे मन्द मन्द हास ॥४०७२॥

आर एक खण्डे व्रजविहार नेहारे ।
गोपिकागणेर युथे देखे आपनारे ॥४०७३॥

श्रीरासमण्डले नृत्यशोभा निरखिते ।
महानन्दे विह्वल, कत ना उठे चिते ॥४०७४॥

देखितेइ निकुञ्जविलास शोभामय़ ।
हैल निद्राभङ्ग, देखे—प्रभात समय़ ॥४०७५॥

कतक्षणे स्थिर हैय़ा आचार्य ठाकुर ।
मने मने विचारय़े करुणा प्रचुर ॥४०७६॥

एसब प्रसङ्ग ये शुनय़े श्रद्धा करि ।
ताꣳर अभिलाष पूर्ण करे गौरहरि ॥४०७७॥

नवद्वीपभ्रमण परमानन्दमय़ ।
प्रभु-कृपा यारे, तार इथे रति हय़ ॥४०७८॥

श्रीनिवास आचार्य चरण चिन्ता करि ।
‘भक्तिरत्नाकर’ कहे दास नरहरि ॥४०७९॥

इति श्रीभक्तिरत्नाकरे श्रीनवद्वीपभ्रमणादि-वर्णनꣳ नाम
द्वादशस्तरङ्गः ॥१२॥