एकादश तरङ्ग
जय़ गौरचन्द्रे प्रभु भक्तप्राणपति ।
जय़ जय़ नित्यानन्द अगतिर गति ॥१॥
जय़ श्रीअद्वैताचार्य जगते पूजित ।
जय़ गदाधर, जय़ श्रीवास पण्डित ॥२॥
जय़ सनातन, रूप रसेर आलय़ ।
जय़ लोकनाथ, श्रीगोपाल प्रेममय़ ॥३॥
जय़ श्रीनिवास, नरोत्तम रामचन्द्रे ।
जय़ जय़ श्रीगौरचन्द्रेर भक्तवृन्द ॥४॥
जय़ जय़ स्रोभागण गुणेर आलय़ ।
एबे ये कहिय़े शुन हईय़ा सदय़ ॥५॥
श्रीखेतरी-ग्रामे महा-महोत्सब हैल ।
ए सकल कथा सर्व वेदेते व्यापिल ॥६॥
महोत्सव-आन्ते अन्यदेशी लोकगण ।
निज-निजालय़े सत्वे करिला गमन ॥७॥
श्रीखेतरी-ग्रामेते लोकेर नाइ अन्त ।
भक्तिरसे मग्न से सकल भाग्यवन्त ॥८॥
गौराङ्ग वल्लवीकान्त आदि प्रभुगणे ।
देखि लोक उल्लासे आपना नाहि जाने ॥९॥
नाना द्रव्य आने सब सुकृति मानिय़ा ।
प्रभुगणे अर्पय़े पूजक हर्ष हैय़ा ॥१०॥
श्रीप्रभुगणेर सेवा-निय़म-विध्वान ।
कहिते कि जानि ?—ताय़ जुड़ाय़ पराण ॥११॥
आइसे यतेक लोक करिते दर्शन ।
छाड़िय़ा याइते नारे प्रभुर प्राङ्गण ॥१२॥
प्रेममय़ प्रभुर प्राङ्गण मनोरम ।
प्राङ्गण-महिमा व्यक्त कैल नरोत्तम ॥१३॥
के बुझिते पारे नरोत्तमेर अन्तर ? ।
प्रभुर प्राङ्गण धूले सदाइ धूसर ॥१४॥
निजसृष्ट गान-नृत्य-वाद्य-प्रभेदेते ।
गद्धर्व विश्मय़, ताहे उपमा कि दिते ॥१५॥
तथाहि श्रीस्तवामृतलहर्याम्—
आनन्दमूर्छावनिपातभातधूलीभरालङ्कृतविग्रहाय़ ।
यद्दर्शनꣳ भाग्यभरेण तस्मै नमो नमः श्रील-नरोत्तमाय़ ॥१६॥
गन्धर्वृगर्वृक्षपणस्वलास्य-विस्मापिताशेषकृतिव्रजाय़ ।
स्वसृष्टगान-प्रथिताय़ तस्मै नमो नमः श्रील नरोत्तमाय़ ॥१७॥
पूर्णिमा रजनीते श्रील नरोत्तमेर कीर्तने श्रीश्रीराधाकृष्णेर अलौकिक-लीला—
प्रिय़ रामचन्द्र आर गोकुलादि-सने ।
सदा नाना रस आस्वादय़े सङ्कीर्तने ॥१८॥
पूर्णिमा-रजनी पूर्णचन्द्रेर उदय़ ।
कहि-से दिवस यैछे रस आस्वादय़ ॥१९॥
प्रथमे अद्भुत वाद्यामृत प्रकाशिय़ा ।
गाय़ रासलीलारसे निमग्न हईय़ा ॥२०॥
देवादि मोहित गीतवाद्य-प्रभेदेते ।
गीतज्ञेर शिरोमणि नारे स्थिर हैते ॥२१॥
अकस्मात् चतुर्दिक हईल उज्ज्वल ।
मेघे विद्युत्-प्राय़ तेज प्रकाशे निर्मल ॥२२॥
तिले तिले व्यापय़े सौगन्धि चमत्कार ।
नूपुर किङ्किणी-ध्वनि हय़ अनिवार ॥२३॥
सङ्कीर्तन-स्थले ऐछे हैल अलक्षित ।
अन्तर्धन हैते सबे हईला मूर्छित ॥२४॥
रामचन्द्र, नरोत्तम भासे नेत्रजले ।
देविदास, गोकुलादि लोटाय़ भूतले ॥२५॥
प्रिय़ासह कृष्णेर ए अलौकिक-लीला ।
जानि सबे कृष्णेर इच्छाय़ स्थिर हैला ॥२६॥
श्रीवृन्दावन-गमन पथे स्थाने स्थाने श्रीजाह्नवादेवीर जीव-प्रति दय़ा-प्रकाशलीला—
नरोत्तम, रामचन्द्र गुणेर आलय़ ।
निर्जने बसिय़ा कृष्णचरित्रास्वादय़ ॥२७॥
श्रीजाह्नवा ईश्वरी गमन चिन्ता करे ।
बाह्ये धैर्य प्रकाशाय़े अधैर्य अन्तरे ॥२८॥
वृन्दावन याइते ये ईश्वरीर क्रिय़ा ।
से सकल वर्णिते नारिय़े विस्तारिय़ा ॥२९॥
तथापि ये कहि किछु साधुमुखे शुनि ।
ईश्वरीर भक्तिदाने धन्य ए धरणी ॥३०॥
एकदिन एक बृहत् ग्राम-मध्ये याइ ।
ईश्वरीर इच्छा हैल रहिते तथाइ ॥३१॥
सेइ ग्रामे से दिवस करिलेन स्थिति ।
चिन्तय़े लोकेर हित देखि लोकरीति ॥३२॥
से ग्रामेर लोक महापाषण्ड दुर्जय़ ।
वैष्वचरणे करे विद्रूपातिशय़ ॥३३॥
सन्ध्या-समय़ेते महा-भागवतगण ।
करेन श्रीईश्वरीर चरण वन्दन ॥३४॥
आहा देखि हासिय़ा पाषण्डिगण कय़ ।
इꣳहो विप्रपत्नी—मोर मने लय़ ॥३५॥
केह कहे—‘ए गुलार नाहि कुन ज्ञान ।
मनुष्यो प्रणमे, देवे ना करे प्रणाम’ ॥३६॥
केह कहे—‘चन्दीकृपा करिले से हय़’ ।
केह कहे—‘चन्दीकृपा अज्ञे कि बुझय़ ॥३७॥
विप्रपत्नी, विप्र कि ना प्रणमे चण्डीरे ? ।
ए-गुलार अपराध हैल चन्दीद्वारे’ ॥३८॥
एत कहि हासि हासि पाषण्डीर गण ।
चण्डीर मन्दिरे गिय़ा करे आस्फालन ॥३९॥
प्रणमिय़ा चण्डिरे कहय़े वार वार ।
‘अद्य रात्रे ए-गुलार करिबे सꣳहार ॥४०॥
यदि काय़मनोव्याक्ये पुजय़े चरण ।
तबे रक्षा करि दिवे चरणे शरण’ ॥४१॥
एत कहि पाषण्डि-सकल घरे गेला ।
करिते शय़न सबे निद्रागत हैला ॥४२॥
पाषण्डीर वाक्ये चण्डी हैला क्रोधमय़ ।
काꣳपे ओष्ठाधर, रक्तवर्ण नेत्रद्वय़ ॥४३॥
स्वप्नच्छले महा-तीक्ष्म खड़ग हस्ते लैय़ा ।
पाषण्डिगणेर प्रति कहेन गर्जिय़ा ॥४४॥
‘ओरे रे पाषण्ड ! दुःख नहे सम्वरण ।
अद्य तो-सबार मुण्ड करिब छेदन ॥४५॥
अहङ्कारे मत्त हैय़ा आपना खाइलि ।
सर्वाराध्य भागवतगाणे निन्दा कैलि ॥४६॥
विप्रपत्नी कहि याꣳरे कैलि हेय़ ज्ञान ।
ओरे दुष्ट पाषण्ड ! ना जान तत्त्व तान ॥४७॥
मोर शिरोधार्या एइ, सबार पूजिता ।
नित्यानन्द-बलरामचन्द्रेर वनिता ॥४८॥
‘जाह्नवा ईश्वरी’—नाम अति सूमधुर ।
एञाम-ग्रहणे भवभय़ हय़ दूर ॥४९॥
प्रभु नित्यानन्दप्रिय़ा करुणार मूर्ति ।
निज-गुणे जीवे वितरय़े प्रेमभक्ति ॥५०॥
केबा ना वन्दय़े सदा पादपद्मद्वय़ ।
सबे गाय़ सुय़श, निवारे तापत्रय़ ॥५१॥
तथाहि—
नित्यानन्दप्रिय़ाꣳ प्रेमभक्तिरत्नप्रदाय़िनीम् ।
श्रीजाह्नवेश्वरी वन्दे तापत्रय़निवारिणीम् ॥५२॥
यदि अनुग्रह करे तो-सबार प्रति ।
तबे से कल्याण, नहे हईब दुर्गति ॥५३॥
ताꣳ सबार शरण लईले रक्षा पाबे ।
नहिले आमार हाते केह ना एड़ाबे ॥५४॥
एत कहि अदर्शन हैते से सबार ।
हैल निद्राभङ्ग, भय़े काꣳपे अनिवार ॥५५॥
आपना धिक्कारे प्राते कातर हईय़ा ।
महान्तगणेर पाय़ पड़े लोटाइय़ा ॥५६॥
नेत्रजले सिक्त हैय़ा कहे वारे वारे ।
‘कैलु अपराध, रक्षा कर मो सबारे ॥५७॥
पाषण्ड-उद्धारहेतु ए-पथे गमन ।
घुचाह दुर्दैव, मोरा लईनु शरण ॥५८॥
ईश्वरी प्रसन्न तोमादेर प्रसन्नेते ।
तोमरा से-पदे भक्ति पार दिते निते ॥५९॥
ताꣳर तत्त्व जानिते कि शक्ति मो-सबार ? ।
एत ये कहिय़े से केवल कृपा ताꣳर ॥६०॥
नहिले कि मो-सबार ऐछे बुद्धि हय़ ? ।
से-चरणे आत्म समर्पिलु सुनिस्चय़ ॥६१॥
पाषण्डी असुर मोरा जाने सर्वजने ।
घुषिबे सुयश उद्धारिले दुष्टगणे’ ॥६२॥
एत कहि भूमे प्रणमय़े वारे वारे ।
देखि प्रभुगण कृपा कैल ता सबारे ॥६३॥
श्रीश्वरी अनुग्रह कैला अतिशय़ ।
पाषण्डीगणेर हैल उल्लास हृदय़ ॥६४॥
दुइ चारि दिन सेइ ग्रामेते रहिय़ा ।
यात्रा कैला पाषण्डीरे कृतार्थ करिय़ा ॥६५॥
पाषण्डि-सकल भक्तिरसे मग्न हैला ।
हैल भक्तिमय़ ये ए-सब सङ्ग कैला ॥६६॥
ऐछे एक दिन एक ग्राम-सन्निधाने ।
राहिलेन नदीर तीरेते दिव्य-स्थाने ॥६७॥
सेइ ग्रामे दस्यु दुइ यवन दुर्जय़ ।
निर्जने बसिय़ा निजगण प्रति कय़ ॥६८॥
‘नाना रत्न आछे एइ गौड़ीय़ार स्थाने ।
हरिब से सब, सज्ज हओ सावधाने’ ॥६९॥
नाना शस्त्र लैय़्̈आ सबे शीघ्र सज्ज हैला ।
प्रथमे जानिते तत्त्व दूत पाठाइला ॥७०॥
दूत आसि कहे—‘करि नाम-सङ्कीर्तन ।
गौड़ीय़-सकल एबे करिला शय़न ॥७१॥
द्वितीय़ प्रहर प्राय़ हईल रजनी ।
एबे गेले कार्यसिद्धि हाबे—हेल जानि’ ॥७२॥
शुनि दस्युराज महातभय़ङ्कर वेशे ।
निजगण लैय़ा चले मनेर उल्लासे ॥७३॥
महावेगगति तथा करिते पय़ान ।
अति अल्पदूर पाथ हय़ अफुराणा ॥७४॥
कुबुद्धि-प्रयुक्तकिछु बुझिते नारिल ।
चलिते चलिते निशा प्रभात हईल ॥७५॥
राजनी-प्रभाते देखि भय़ पाय़ा मने ।
दस्युराज कहे निज-परिकरगणे ॥७६॥
‘देखह सकलेइ कि असम्भव हैला ।
तथाह आइय़े यथा हैते यात्रा कैल ॥७७॥
हैल दृष्टि येन गौड़ीय़ार पाशे गेलु ।
से केवल भ्रम—रात्रि साꣳटिय़ा मरिलु ॥७८॥
तिले तिले मोर चित्ते बाड़्हे एइ त्रास ।
गौड़्ईय़ा गोसाञीआर केपे हबे सर्वनाश ॥७९॥
ताहाते मानह सबे आमार वचन ।
आज हैते दस्युवृत्ति छाड़ सर्वजन ॥८०॥
कैलु पाप अनेक—नाहिक अन्त तार ।
यमेर यातना हैते नाहिक निस्तार ।८१॥
चल, चल गौड़ीय़ गोसाञीर वरावरे ।
करिब अवश्य अनुग्रह मो-सबारे’ ।८२॥
एत कहि दस्युवेश परित्याग करि ।
चलिला कातबे यथा आछेन ईश्वरी ॥८३॥
महान्तगणेर करितेइ सन्दर्शन ।
हैल दस्यगणेर परम शुद्ध मन ॥८४॥
भूमिते पड़िय़ा सबे करिय़ा क्रन्द्रन ।
अत्यन्त कातरे करे आत्मनिवेदन ॥८५॥
‘ए-देशे प्रसिद्ध मोरा दस्यु दुराचार ।
अनुग्रह कर, यश घुषुक सꣳसार’ ॥८६॥
एत कहि आर किछु कहिते ना पारे ।
नेत्रे वारिधारा बहे, व्याकुल अन्तरे ।८७॥
श्रीईश्वरी देखि दय़ा उपजिल मने ।
गणसह अनुग्रह कैल दस्युगणे ॥८८॥
सर्वत्र व्यापिल दस्युगणेर उद्धार ।
तथा हैते चले यैछे नारि वर्णिवार ॥८९॥
श्रीईश्वरीर मथुराय़ आगमन—
कथो दिने मथुरा य़ करिला प्रवेश ।
देखि मधुरापुरी उल्ऴास अशेष ॥९०॥
माथुर ब्राह्मणगणे करिय़ा सन्मान ।
करिला विश्रामघाटे यमुना सिनान ॥९१॥
अकस्मात् शुनि ईश्वरीर आगमन ।
आइला शीघ्र मथुरार भागवतगण ॥९२॥
ईश्वरीदर्शने सिक्त नेत्रे धाराय़ ।
महान्तगणेरे देखि विह्वल हिय़ाय़ ॥९३॥
परस्पर हैल यैछे प्रेम-आचरण ।
नेत्र भरि देखिलेन भाग्यवन्तगण ॥९४॥
माथुर ब्राह्मण महाहर्षे सेइ क्षणे ।
गमन-सꣳवाद पाठाइला वृन्दावने ॥९५॥
तथा हैते लैय़ा गेला अपूर्व वासाय़ ।
से दिवस सकले रहिला मथुराय़ ॥९६॥
मथुरा हईते वैष्णवगण-सङ्गे श्रीईस्वरीर वृन्दावने गमन—
वराह, केशवदेवे करिय़ा दर्शन ।
प्रातःकाले कैल वृन्दावनेते गमन ॥९७॥
मथुरार सकल वैष्णव सङ्गे चले ।
ये देखे से शोभा तार आनन्द उथले ॥९८॥
गोस्वामि-सकल शीघ्र वृन्दावन हैते ।
आइसेन महाहर्षे आगुसरि निते ॥९९॥
अक्रूर-स्थानेते आसि देखे सर्वजन ।
अति अल्पदूरे ईश्वरीर आगमन ॥१००॥
गोस्वामिगणेर आगमन दूरे हेरि ।
श्रीपरमेश्वरीदासे कहेन ईश्वरी ॥१०१॥
‘एइ आइसेन यत भागवतगण ।
कि नाम काꣳहार मोरे कराह श्रवण’ ॥१०२॥
श्रीपरमेश्वरीदास ईश्वरी-आदेशे ।
जानाय़ेन अङ्गुलि-भङ्गिते मृदुभाषे ॥१०३॥
‘इह श्रीगोपाल भट्ट गौरप्रेममय़ ।
एइ श्रीभुगर्भ, लोकनाथ गुणालय़ ॥१०४॥
कृष्णदास ब्रह्मचारी, ए कृष्ण पण्डित ।
श्रीमधुपण्डित, इह श्रीजीव विदित’ ॥१०५॥
ऐछे सकलेर नाम, क्रिय़ा जानाइल ।
शुनि ईश्वरीर महा आनन्द बार्ह्̤इल ॥१०६॥
ईश्वरी-निकटे आसि गोस्वामी सकले ।
परम आनन्दे प्रणमिल महीतले ॥१०७॥
जाह्नवा ईश्वरी प्रेमभक्ति-मूर्तिमती ।
आपना मानय़े लघु—के बुझे से रीति ॥१०८॥
गोस्वामिगणेर प्रेमचेष्टा निरखिय़ा ।
कैल ये मनेते अति अधैर्य हईय़ा ॥१०९॥
गोस्वामि-सकल हईलेन सशङ्कित ।
श्रीभक्तिदेवीर एइ अलौलिक रीत ॥११०॥
कृष्णदास सरखेल माधव आचार्य ।
श्रीपरमेश्वरीदास आदि महा आर्य ॥१११॥
ए सकल-सह यैछे गोस्वामी सबार ।
हईल मिलन—कि वर्णिब मुइ छार ? ॥११२॥
प्रेमाविष्ट-हैय़ा ये कहिल परस्परे ।
से सकल शुनिते केबा वा धैर्य धरे ॥११३॥
श्रीपरमेश्वरी आचार्येर शिष्यगणे ।
गोस्वामि-सकले मिलाय़ेन हर्षमने ॥११४॥
अतिस्नेहे कहे—‘नाम गोविन्द इहान् ।
भक्तिरसपात्र, सर्व वैष्णवेर प्राण ॥११५॥
खण्डवासी चिरञ्जीव सेनेर नन्दन ।
प्रिय़ रामचन्द्रेर कनिष्ठ भ्राता हन’ ॥११६॥
शुनि श्रीगोपालभट्ट आदि हर्ष हैय़ा ।
कैल आलिङ्गन अति स्नेह प्रकाशिय़ा ॥११७॥
भगवान् कविराजादिर परिचय़े ।
कैल ये स्नेहानुग्रह—कहिल ना हय़े ॥११८॥
सकले अक्रूर-स्थाने करिय़ा गमन ।
श्रीविग्रह गोपीनाथे करिला दर्शन ॥११९॥
श्रीईस्वरी-अग्रेते श्रीजीव निवेदय़ ।
‘अक्रूरेर स्थान ए निर्जन अतिशय़ ॥१२०॥
लोक भिड़े प्रभु ना रहिय़ा वृन्दावने ।
करितेन भिक्षा एथा आसि एइखाने’ ॥१२१॥
शुनि श्रीईश्वरी सिक्त हैय़ा नेत्रजले ।
त्यजि दीर्घश्वास प्रणमय़े सेइ स्थले ॥१२२॥
प्रणमे अधैर्य हैय़ा भागवतगण ।
प्रभु-अलौकिक-लीला करिय़ा स्मरण ॥१२३॥
चलय़े सकले श्रीईश्वरी अग्रे लैय़ा ।
हैल महानन्द वृन्दावने प्रवेशिय़ा ॥१२४॥
वृन्दावनशोभा देखि जाह्नवा ईश्वरी ।
हईलेन यैछे ताहा वर्णिते ना पारि ॥१२५॥
पूर्वेइ श्रीजीव वासा स्थिर कैल यथा ।
सबा-सह जाह्नवा ईश्वरी गेला तथा ॥१२६॥
वासाय़ सबार स्थिति हैल येन मते ।
ये सुख व्यापिल ताहा नारि विस्तारिते ॥१२७॥
श्रीगोविन्द, गोपीनाथ, मदनमोहने ।
सेवाय़ुक्ध वैष्णवेर चेष्टा केबा जाने ? ॥१२८॥
सकलेइ श्रीप्रभुर सेवा समाधिय़ा ।
इश्वरी दर्शन कैला वासाय़ आसिय़ा ॥१२९॥
कृष्णदास सरखेल-आदि सबा-सने ।
हईल मिलन—किबा प्रेमानन्द-मने ॥१३०॥
किबा स्त्री पुरुष व्रजवासी शत शत ।
आइसे दर्शने—आर्ति के कहिबे कत ? ॥१३१॥
श्रीगोपालभट्ट-आदि विदाय़ हईय़ा ।
गेलेन वासाय़ सबे श्रीजीवे राखिय़ा ॥१३२॥
रहिलेन श्रीजीव ईश्वरी-सन्निधाने ।
परम प्रवीण येꣳहो सर्व समाधाने ॥१३३॥
श्रीगोपालभट्ट, लोकनाथ-आदि करि ।
कतक्षण परे आइला यथा श्रीईश्वरी ॥१३४॥
गोस्वामिगणेरे देखि ईश्वरी उल्लासे ।
‘याइब दर्शने’—जानाइला मृदु भाषे ॥१३५॥
शुनि ईश्वरीर वाक्य महा-हर्ष मने ।
ईश्वरीर सङ्गे सबे चलिला दर्शने ॥१३६॥
श्रीगोविन्द, गोपीनाथ, मदनमोहन ।
श्रीराधाविनोद, आर श्रीराधारमण ॥१३७॥
राधादामोदर—ए सकल सन्दर्शने ।
ये प्रेम-आवेश ता वर्णिब कुन जने ॥१३८॥
सङ्गे ये आइल नाना वस्त्र-आभरण ।
सर्वत्रई सकल करिला समर्पण ॥१३९॥
आपना मानिय़ा लघु प्रकाशे ये भक्ति ।
विस्तारिय़ा से सब वर्णिते नाइ शक्ति ॥१४०॥
वृन्दावनेर श्रीगोस्वामिगणेर निकट श्रीगोविन्देर ‘कविराज’-उपाधि-लाभ—
सबा-सह श्रीईश्वरी वासाय़ आसिय़ा ।
बसिलेन निभृते सकले बसाइय़ा ॥१४१॥
श्रीखेतुरी-ग्रामे यैछे महामहोत्सव ।
माधवाचार्यादि-द्वारे जानाइला सब ॥१४२॥
शुनि लोकनाथ-आदि गोस्वामि-सकले ।
पाइय़ा परमानन्द भासे प्रेमजले ॥१४३॥
आर ये सकल कथा हैल परस्परे ।
ताहा ना वर्णिब ग्रन्थ-बाहुल्येर डरे ॥१४४॥
गोविन्देर काव्यामृत करिते श्रवण ।
श्रीपरमेश्वरी दास कैल निवेदन ॥१४५॥
शुनि गोविन्देर काव्य अति मनोहर ।
हईल सबार अति उल्लास अन्तर ॥१४६॥
सबे कहे—‘कविराज’ —ख्याति युक्त हय़ ।
‘श्रीगोविन्द कविराज’ बलि प्रशꣳसय़ ॥१४७॥
इथे श्रीईस्वरी महा उल्लसित मने ।
कि बलिब—निति ये आनन्द वृन्दावाने ॥१४८॥
सर्वत्र व्यापिल ईश्वरीर आगमन ।
परम आनन्दे मग्न हैला विज्ञगण ॥१४९॥
श्रीजाह्नवादेवीर श्रीराधाकुण्डे आगमन ओ श्रीदासगोस्वामीर सहित साक्षात्—
श्रीराधिका-कुण्डवासी श्रीदास गोसाञी ।
शुनि हर्ष हैला—चलिबारे साध्य नाइ ॥१५०॥
श्रीरूप-विच्छेदे सदा अधैर्य हृदय़ ।
अन्नापि-विहने देह क्षीण अतिशय़ ॥१५१॥
निय़मनिर्वाह यैछे, ये चेष्टा अन्तरे ।
से सब देखिते कार हिय़ा ना विदरे ॥१५२॥
कृष्णदास कविराज-आदि बहु जन ।
प्रणमि याइते कैल आत्मनिवेदन ॥१५३॥
गोपाल, राघव पण्डितादि एक साथे ।
चले नन्दीश्वर गोवर्धनादि हईते ॥१५४॥
सबे वृन्दावने करि ईश्वरी दर्शन ।
जानाइला दास गोस्वामीर निवेदन ॥१५५॥
श्रीजाह्नवा ईश्वरीर ये हैल अन्तरे ।
ताहा विवरिय़ा के कहिते शक्ति धरे ? ॥१५६॥
श्रीगोपालभट्ट आदि गोस्वामि-सकले ।
जानाइला—श्रीकुण्ड याइब प्रात्रःकाले’ ॥१५७॥
सबे कहे—‘श्रीकुण्डादि करिय़ा दर्शन ।
शीघ्र करि एथा करिबेन आगमन ॥१५८॥
श्रम उपशम हईबेक भालमते ।
तबे याइबेन वन भ्रमण करिते’ ॥१५९॥
इहा शुन श्रीईश्वरी उल्लसित मने ।
चलिल्लेन श्रीकुण्डे वेष्टित बिज्ञगणे ॥१६०॥
श्रीकुण्डेते गेलेन बह्लाब्वन दिय़ा ।
कुण्डशोभा देखि प्रेमे उमड़य़े हिय़ा ॥१६१॥
रघुनाथ दास गोस्वामीर स्थिति यथा ।
मने एइ—ताꣳरे गिय़ा देखिबेन तथा ॥१६२॥
श्रीदास गोस्वामी से निर्जन कुण्डतीरे ।
करेन श्रीनाम-ग्रहणादि धीरे धीरे ॥१६३॥
कृष्णदास कविराज अग्रेते आसिय़ा ।
दास गोस्वामीर आगे छिल दाꣳड़ाइय़ा ॥१६४॥
अवसर पाइय़ा करय़े निवेदन ।
‘श्रीजाह्नवा ईश्वरीर हैल आगमन’ ॥१६५॥
शुनि कि अद्भुत प्रेम व्यापिल हृदय़े ।
आगुसरि चले अश्रुयुक्त नेत्रद्वय़े ॥१६६॥
श्रीईस्वरी देखे दासगोस्वामी-गमन ।
अतिशय़ क्षीण तनु, तेज सूर्यसम ॥१६७॥
श्रीईस्वरी-अन्तर बुझिते केबा पारे ? ।
झबे दुइ नेत्रे बारि—निवारिते नारे ॥१६८॥
श्रीदासगोस्वामी प्रणमिते धैर्य धरि ।
कैल ये उचित प्रेममय़ी श्रीईश्वरी ॥१६९॥
श्रीईस्वरी-आगे दासगोसाञी ये कय़ ।
ताहा शुनि कार वा ना विदरे हृदय़ ? ॥१७०॥
माधव आचार्य-आदि सबार सहिते ।
मिलने अद्भुत प्रेमे उथलय़े चिते ॥१७१॥
कि अद्भुत अश्रुधारा सबार नय़ने ।
सकलेइ स्थिर हईलेन कतक्षणे ॥१७२॥
आरिट-ग्रामेर व्रज्रवासी लोकगण ।
सबे हर्ष ईश्वरीर करिय़ा दर्शन ॥१७३॥
दिन तिन चारि रहि श्रीराधाकुण्डेते ।
करिलेन पाकक्रिय़ा परम यत्नेते ॥१७४॥
कृष्णे भोग समर्पिय़ा उल्लास-अन्तरे ।
भुञ्जाइला व्रजवासी वैष्णव सबारे ॥१७५॥
प्रसाद-सेवने ये आनन्द प्रेमोदय़ ।
केबा देखिते साध करे से समय़ ॥१७६॥
श्रीजाह्नवा ईश्वरीर अलौकिक-रीति ।
कि बुझिब ? मो छरेर नाहि बुद्धिगति ॥१७७॥
श्रीराधाकुण्डे श्रीईस्वरीर अपूर्व दर्शन-लाभ—
एकदिन मध्याह्न-समय़े कुण्डतीरे ।
शुनि से वꣳशीर ध्वनि स्थिर हैते नारे ॥१७८॥
कौतुक देखिल से अन्य-अगोचर ।
विज्ञ विस्तारिब ए प्रसङ्ग मनोहर ॥१७९॥
तथापि कहिय़े किछु—ईश्वरी उल्लासे ।
वꣳशिध्वनि शुनिय़ा चाहाय़े चारि पाशे ॥१८०॥
कदम्बेर तले देखे श्याम चिकनिय़ा ।
त्रिभङ्ग-भङ्गिमा कोटि कन्दर्प जिनिय़ा ॥१८१॥
मन्द मन्द हासि से मधुर बꣳशी वाय़ ।
के धरे धैरय़ याते जगत् माताय़ ॥१८२॥
श्रीराधिका ललितादि सखीगण-सङ्गे ।
बेड़्हिय़ाछे श्यामलसुन्दरे महारङ्गे ॥१८३॥
से अद्भुत शोभा देखि जाह्नवा ईश्वरी ।
हईला मूर्छित यैछे कहिते ना पारि ॥१८४॥
कतक्षणे चेतन पाइय़ा स्थिर हैला ।
निर्जने ए रङ्ग—अन्य प्रकाश ना कैला ॥१८५॥
श्रीगोवर्धनादि-दर्शनान्ते श्रीश्वरीर वृन्दावने प्रतावर्तन ओ श्रीविग्रहगणेर सेवा—
याइबेन श्रीगोवर्धनादि-दर्शनेते ।
ताहा जानाइला दास गोस्वामी अग्रेते ॥१८६॥
श्रीदासगोस्वामी भूमे पाड़ि प्रणमिय़ा ।
दिला अनुमति दैन्ये निमग्न हईय़ा ॥१८७॥
शुनिते से दैन्य कार हिय़ा ना विदरे ? ।
कि कहिल ईश्वरीर ये हैल अन्तरे ॥१८८॥
परिचारिकादि-मध्ये जाह्नवा ईश्वरी ।
कुण्ड हैते गोवर्धने गेला धीरि धीरि ॥१८९॥
गोवर्धन, मानस-गङ्गादि-दर्शनेते ।
ये प्रेम-आवेश तार उपमा कि दिते ॥१९०॥
माधव आचार्य-आदि अधैर्य हईला ।
श्रीजीवगोस्वामी-आदि सबे स्थिर कैला ॥१९१॥
ऐछे नन्दग्रामादि देखि ये प्रेमावेश ।
एकमुखे वर्णिते ना पारि तार लेश ॥१९२॥
श्रीईश्वरी-वेष्टित श्रीभाशगवतगणे ।
अति अल्प दिने आइलेन वृन्दावने ॥१९३॥
श्रीगोविन्द, गोपीनाथ, मदनमोहन ।
महानन्दे ए तिनेर करिला दर्शन ॥१९४॥
श्रीराधाविनोद आर श्रीराधारमणे ।
करिय़ा दर्शन वासा आइला हर्ष-मने ॥१९५॥
कभु अल्प-व्यञ्जनादि यत्ने पाक करि ।
भुञ्जाय़ेन श्रीगोविन्ददेवे श्रीईश्वरी ॥१९६॥
कभु पाक करि अन्न विविध व्यञ्जन ।
महानन्दे गोपीनाथे करान भोजन ॥१९७॥
कभु शीघ्र करि पाक विविध विधाने ।
भुञ्जाय़ेन कत साधे मदनमोहने ॥१९८॥
राधादामोदर, आर श्रीराधारमण ।
राधाविनोदेरे कराइलेन भोजन ॥१९९॥
यैछे, श्रीप्रसाद भुञ्जाइला वैष्णवेरे ।
हैल य़े आनन्द ताहा के वर्णिते पारे? ॥२००॥
श्रीईश्वरीर वनभ्रमण-वृत्तान्त—
शुनिते गोसाञीर ग्रन्थ उत्काण्ठित मन ।
श्रीजीव गोस्वामी कराइलेन श्रवण ॥२०१॥
बृहद्भागवतामृतादिक श्रवणेते ।
हईला विह्वल—प्रेमे नारे स्थिर हैते ॥२०२॥
परम दुर्लभ भक्ति-अङ्गे सावधान ।
देखिते से क्रिय़ा-कार ना जुड़ाय़ प्राण ? ॥२०३॥
कथेक दिवस परे वृन्दावन हैते ।
सबा-सह चलिलेन वन-भ्रमणेते ॥२०४॥
मधु, ताल, कुमुद, बहुला, काम्यवन ।
खदिर, भद्र, भाण्डीर, श्री, लौह-कानन ॥२०५॥
महावन, वृन्दावन—ए द्वादश वने ।
ये प्रेम प्रकाश ता देखिल भाग्यवाने ॥२०६॥
तथापि कहिय़े किछु मनेर उल्लासे ।
ईश्वरी गमन कैला गोवर्धन-पाशे ॥२०७॥
गोवर्धन-पर्वत-समीप सुनिर्जने ।
श्रीजाह्नवा ईश्वरी चिन्तय़े मने मने ॥२०८॥
‘दुइ भाइ एथा निज निज प्रिय़ासङ्गे ।
वसन्तसमय़े विहरय़े महारङ्गे ॥२०९॥
एत चिन्त श्रीईस्वरी स्थिर हैते नारे ।
वसन्त्तविहार-स्थान देखे वारे वारे ॥२१०॥
अकस्मात् हैल दृष्टि श्रीवसन्तरास ।
निज-निज प्रिय़ासह दोꣳहार विलास ॥२११॥
रोहिणीनन्दन निज प्रिय़ागण-सङ्गे ।
फागुखेलादिक क्रिय़ा करे नाना रङ्गे ॥२१२॥
यशोदान्ददन कृष्ण वसेर आलय ।
निज-प्रिय़ागण-सङ्गे रङ्गे विलसय़ ॥२१३॥
फागुखेलादिक यैछे के पारे कहिते ? ।
से अद्भुत शोभार उपमा नाहि दिते ॥२१४॥
भुवन मोहय़े ऐछे लीला निरखिय़ ।
पड़य़े धरणीतले मूर्छित हईय़ा ॥२१५॥
कतकक्षणे स्थिर हैला—काहु ना कहिल ।
मनेर आनन्दे तथा हईते चलिल ॥२१६॥
रामघाते ये आनन्द कहिते ना पारि ।
निज-प्राणनाथे ऐछे देखिला ईश्वरी ॥२१७॥
प्रेमावेशे आत्म-विस्मरित से निर्जने ।
श्रीरामेर रासक्रीड़ा चिन्ते मने मने ॥२१८॥
हईल अवश अङ्ग, छाड़े दीर्घश्वास ।
अकस्मात् हैल दृष्टि श्रीरासविलास ॥२१९॥
परम प्रवीणा निज-प्रिय़ागण सङ्गे ।
विलसे बलाइ नृत्यगीतादिक रङ्गे ॥२२०॥
शोभा देखि हईलेन आनन्दे मूर्छित ।
कतक्षणे स्थिर हैय़ा चाहे चारि भित ॥२२१॥
ये भाव अन्तरे ताहा अन्ये ना जानिल ।
सबा-सह रामघाट हईते चलिल ॥२२२॥
यमुनार तीरे एक ग्रामेते प्रवेशे ।
जीवे दुःखी देखि तथा करुणा प्रकाशे ॥२२३॥
सेइ ग्रामे बैसे एक निरीह ब्राह्मण ।
वृद्धकाले हैल तार अपूर्व नन्दन ॥२२४॥
पौगण्ड-वय़से से पुत्रेर मृत्यु हैल ।
भूमे लोटाइय़ा ब्विप्र कान्दिते लागिल ॥२२५॥
मृत पुत्र कोले करि कान्दे तार माय़ ।
दोꣳहार कान्दने दारु पाषाण मिलाय़ ॥२२६॥
श्रीजाह्नवा ईश्वरी दोꣳहार कान्दनाते ।
करुणाय़ आर्द्रचित्त नारे स्थिर हैते ॥२२७॥
ब्राह्मणेर मृतपुत्रे परशिते चाय़ ।
‘ना स्पर्शिह मृत पुत्रे’—कहे तार माय़ ॥२२८॥
ईश्वरी कहेन—‘तुमि हओ व्रजवासी ।
हईब पवित्र तुय़ा तनय़े परशि’ ॥२२९॥
एत कहि मृतपुत्र-माथे हात दिते ।
पाइय़ा चेतन शिशु चाहे चारिभिते ॥२३०॥
श्रीजाह्नवा-पादपद्मे करि नमस्कार ।
उठिल बालक—हैल उल्लास सबार ॥२३१॥
ब्राह्मण ब्रह्मणी कहे पड़िय़ा चरणे ।
‘मृतपुत्रे जिय़ाइला कृपावलोकने ? ॥२३२॥
ईश्वरी कहेन—‘दुःख देखिय़ा दोꣳहार ।
कृष्ण जिय़ाइल पुत्र—इथे कि आमार’ ॥२३३॥
ऐछे कत करुणा प्रकाशि स्थाने स्थाने ।
सबा-सह आसि प्रब्वेशिला वृन्दावने ॥२३४॥
श्रीईश्वरीर प्रति श्रीश्रीराधाप्गोपीनाथेर आदेश—
खड़दहे प्रभु आज्ञा करिय़ा स्मरण ।
मने कैल शीघ्र गौड़े करिते गमन ॥२३५॥
एक दिन गोपीनाथेर आगे गिय़ा ।
राधागोपीनाथे देखि रहे दाꣳड़ाइय़ा ॥२३६॥
परम कौतुक मने मने विचारय़ ।
‘श्रीराधिका किछु उच्च हैल भाल हय़’ ॥२३७॥
इहा मने करि कारे किछु ना कहिला ।
शय़न-आरति देखि वासाय़ आइला ॥२३८॥
स्वप्नच्छले गोपीनाथ दिय़ा दरशन ।
श्रीजाह्नवा-प्रति कहे मधुर वचन ॥२३९॥
‘आमि यैछे उच्च तैछे नहे मोर प्रिय़ा ।
हईय़ाछे कौतुक असदृश निरखिय़ा ॥२४०॥
गौड़े गिय़ा शीघ्र प्रिय़ा प्रकाशि पाठाबे ।
वामे वसिबेन तेꣳह—इहाओ देखिबे’ ॥२४१॥
श्रीराधिका हासिय़ा जाह्नवा-प्रति कय़ ।
‘ना कर सङ्कोच, ए इच्छाओ मोर हय़’ ॥२४२॥
ऐछे कत कहि दोꣳहे अदर्शन हैते ।
निद्राभङ्ग हैले हर्षे चाहे चारिभिते ॥२४३॥
देखिय़ा प्रभात निशि उल्लास अन्तरे ।
अनुग्रह करि कहे, नय़न-भास्करे ॥२४४॥
‘निरन्तर गोपीनाथे करिबे धिय़ान ।
करिते हईबे एक प्रेय़सी निर्माण’ ॥२४५॥
ईश्वरीर मनोवृत्ति नय़न जानिला ।
यैछे निर्माणिव ताहा चित्ते स्थिर कैला ॥२४६॥
ईश्वरी ए सब कथा गोपने राखिल ।
गोपीनाथ इहा अन्यद्वारे प्रकाशिल ॥२४७॥
श्रीगोपीनाथेर भङ्गि बुझा नाहि याय़ ।
स्वप्नच्छले पुष्पमाला दिला जाह्नवाय़ ॥२४८॥
ये कौतुक श्रीगोविन्द मदनमोहने ।
ताहा विस्तारिब कुन भाग्यवन्त जने ॥२४९॥
श्रीईस्वरीर गौड़मण्डले प्रत्यागमनार्थ वृन्दावने सर्वत्र विदाय़-ग्रहण—
श्रीईस्वरी याइबेन श्रीगौड़मण्डले ।
यात्रा स्थिर करिलेन गोस्वामि-सकले ॥२५०॥
हईल सर्वत्र ध्वनि-जाह्नवा ईश्वरी ।
याइबेन श्रीगौड़मण्डले शीघ्र करि ॥२५१॥
यथा ये वैष्णवगण छिलेन निर्जने ।
सकलेइ शीघ्र आइलेन वृन्दावने ॥२५२॥
श्रीईस्वरी हईलेन सर्वत्र विदाय़ ।
इहा विचारिते अति व्याकुल हिय़ाय़ ॥२५३॥
श्रीगोविन्द, गोपीनाथ, मदनमोहने ।
देखिते अद्भुत अश्रु झरय़े नय़ने ॥२५४॥
श्रीराधाविनोद, राधादामोदर आर ।
देखि राधारमणे अधैर्य अनिवार ॥२५५॥
गोपीश्वरे देखि कि कहिल मने मने ।
वृन्दादेवी-आदि सबे देखे स्थाने स्थाने ॥२५६॥
रघुनाथभट्ट, श्रीपण्डित काशीश्वर ।
गोस्वामी श्रीसनातन, रूप विज्ञवर ॥२५७॥
एइ चतुष्टय़ेर समाधि निरखिय़ा ।
करय़े क्रन्दन दुःखे विदरय़े हिय़ा ॥२५८॥
गौरीदास पण्डितेर समाधि देखिते ।
बहे वारिधारा नेत्रे नारे निवारिते ॥२५९॥
ना जानिय़े तथा कि देखिय़ा चमत्कार ।
बड़ु गङ्गादासे कि कहिल वार वार ॥२६०॥
स्थिर हैला बड़्उ गङ्गादासेर कथाय़ ।
ताꣳर परिचय़ किछु निवेदि एथाय़ ॥२६१॥
बड़ु गङ्गादासेर परिचय़—
भद्रावती नाम श्रीजाह्नवार जननी ।
अति पतिव्रता सूर्यदासेर घरणी ॥२६२॥
याꣳर भक्तिरीत देखि सबार विस्मय़ ।
गाङ्गादास ताꣳर ज्येष्ठ-भग्नीर तनय़ ॥२६३॥
गौरीदास पण्डितेर शिष्य प्रेममय़ ।
पण्डितेर अदर्शल्ने जीवन-सꣳशय़ ॥२६४॥
स्वप्नच्छले यैछे आज्ञा करिला पण्डित ।
तैछे शीघ्र वृन्दावने हैल उपनीत ॥२६५॥
श्रीरसमीरे निजा-प्रभु-सन्निधाने ।
करय़े प्रभुर सेन्वा रहय़े निर्जने ॥२६६॥
गओवर्धन-आदि स्थान भ्रमण करिते ।
शुनिल श्रीजाह्नवा-गमन आचन्विते ॥२६७॥
वृन्दावने आसि कैल ईश्वरी-दर्शन ।
सꣳक्षेपे कहिल गङ्गादासेर विवरण ॥२६८॥
श्रीईश्वरी सर्वत्रई विदाय़ हईते ।
केह श्रीविग्रह दिला प्रिय़ार सहिते ॥२६९॥
पाइय़ा अपूर्व मूर्ति मनेर उल्लासे ।
सेवाय़ नियुक्त कैला बड़ु गङ्गादासे ॥२७०॥
बड़ु गङ्गादासे अति अनुग्रह कैला ।
‘सङ्गे लैय़ा याइबेन’—ताहा जानाइला ॥२७१॥
रजनी-प्रभाते गौड़े करिब गमन ।
हईलेन अत्यन्त व्याकुल सर्वजन ॥२७२॥
श्रीगोविन्द कविराज सतीर्थ सहित ।
गोस्वामिगणेर आगे गेला सावहिते ॥२७३॥
सबार चरणे प्रणमिय़ा वार वार ।
हईते विदाय़ नेत्रे बहे, अश्रुधार ॥२७४॥
श्रीगोपालभट्ट आलिङ्गिय़ा गोविन्देरे ।
कहिल ये ताहा शुनि केबा धैर्य धरे ? ॥२७५॥
लोकनाथ गोस्वामी गोविन्देरे स्नेह करि ।
नरोत्तमे कहिते कहय़े धीरि धीरि ॥२७६॥
‘श्रीविग्रहसेवाय़ हईबे सावधान ।
काय़मनोवाक्ये करि वैष्णव-सन्मान ॥२७७॥
विष्णु-वैष्णवेर तिथि यत्ने आराधिबे ।
रामचन्द्रे-सह भक्तिरस आस्वादिबे ॥२७८॥
श्रीनिवास-प्रति ए कहिब समाचार’ ।
एत कहि किछु ना कहिते पारे आर ॥२७९॥
भूर्गभ गोस्वामी नरोत्तम, श्रीनिवासे ।
कहिते ये कहिल ता कहिते ना आसे ॥२८०॥
श्रीजीव कहे स्नेहे—‘कहिते कि आर ।
कहिओ सबारे प्रेमालिङ्गन आमार ॥२८१॥
श्रीनिवासाचार्ये येन देखिबारे पाइ ।
मध्ये मध्ये पत्री पाठाइल ताꣳर ठाꣳइ ॥२८२॥
वर्णिला ये गीतामृत ताहा पाठाइव्बा ।
पाठाइय़ा दिवा पुनः आर ये वर्णिबा’ ॥२८३॥
एत कहि गोपाल विरुदावली दिला ।
श्रीरूपेर स्वप्नादेशे ये ग्रन्थ वर्णिला ॥२८४॥
कृष्णदास कविराज-आदि विज्ञगण ।
कहि कत गोविन्दे करिला आलिङ्गन ॥२८५॥
भगवान् कविराज-आदि सर्वजने ।
प्रकाशिला स्नेह अति गाढ़ आलिङ्गने ॥२८६॥
विदाय़ हईय़ा सबे गेलेन वासाय़ ।
पोहाइल निशि आति व्याकुल हिय़ाय़ ॥२८७॥
गोस्वामि-सकल अति यत्ने धैर्य धरि ।
आइला त्वराय़ यथा जाह्नवा ईस्वरी ॥२८८॥
कि नारी, पुरुष यत व्रजवासिगण ।
सबे आइलेन, कारु स्थिर नहे मन ॥२८९॥
कृष्णदास, माधवादि-सह श्रीईश्वरी ।
हे ब्व्याकुल हैला ताहा कहिते ना पारि ॥२९०॥
वृन्दावन हैते गौड़्ए चले शुभक्षणे ।
हईय़ा ब्वेष्टित महाभागवतगणे ॥२९१॥
अक्रूर-स्थानेते गिय़ा जाह्नवा ईश्वरी ।
हईला विह्वल ब्वृन्दावनशोभा हेरि ॥२९२॥
सेइखाने श्रीईश्वरी गोस्वामि-सक्षाले ।
करय़े विदाय़ सिक्त हैय़ा नेत्रजले ॥२९३॥
म्लाश्रीभट्टगोस्ब्वामि-आदि नारे स्थिर हैते ।
हईला विदाय़ यैछे, ना पारि वर्णिते ॥२९४॥
विदाय़-समय़े यत व्रजवासिगण ।
श्रीजाह्नवा-गुण कहि करय़े क्रन्दन ॥२९५॥
ईश्वरी-सङ्गे ये-सकल महाशय़ ।
परस्पर विदाय़े व्याकुल अतिशय़ ॥२९६॥
श्रीजीव गोस्वामि-आदि अधैर्य हिय़ाय़ ।
श्रीईश्ब्वरी-सङ्गेइ आइलेन मथुराय़ ॥२९७॥
ल्से दिवस मथुराय़ करिय़ा विश्राम ।
माथुर विप्रेर कैला परम सन्मान ॥२९८॥
गौड़मण्डले पौछिय़ा श्रीजाह्नवा ईश्वरीर प्रथमे खेतरीग्रामे गमन—
श्रीजीवादि सबे याते विदाय़ करिय़ा ।
तथा हैते चलिते विदीर्ण हैल हिय़ा ॥२९९॥
श्रीगौडमण्डले प्रब्वेशिय़ा कथोदिने ।
आइला स्श्रीखेतरिप्ग्रामेर सन्निधाने ॥३००॥
ईश्ब्वरी-गमन-ध्वनि सर्वत्र व्यापिल ।
चतुर्दिके लोक सब देखिते धाइले ॥३०१॥
रामचन्द्र, नरोत्तम गणेर सहिते ।
आइला उल्लासे सबे आगुसारि निते ॥३०२॥
श्रीजाह्नवा ईश्वरीर दर्शन करिय़ा ।
प्रणमय़े वार वार भूमे लोटाइय़ा ॥३०३॥
नरोत्तम, रामचन्द्रे देखि गणसह ।
श्रीईश्वरी केला अतिशय़ अनुग्रह ॥३०४॥
नरोत्तम, रामचन्द्र भक्तिरसमय़ ।
सर्वमहान्तेरे महानन्दे प्रणमय़ ॥३०५॥
सबे रामचन्द्रे, नरोत्तमे निरखिय़ा ।
कैल य़े उचित प्रेमे विह्वल हईय़ा ॥३०६॥
श्रीसन्तोषदन्त्त-आदि भासि प्रेमजले ।
करिल प्रणाम लोटाइय़ा भूमितले ॥३०७॥
श्रीगोविन्द कविराज-आदि सर्व जन ।
वन्दे रामचन्द्र-नरोत्तमेर चरण ॥३०८॥
परस्पर ये आनन्द हैल से समय़ ।
ताहा एक मुखे कि कहिते साध्य हय़ ॥३०९॥
वैष्णवे वेष्टित हैय़ा जाह्नवा ईश्वरी ।
श्रीखेतरिग्रामे प्रवेशिला शीघ्र करि ॥३१०॥
अतिलघुप्राय़ गिय़ा प्रभुर प्राङ्गणे ।
प्रणमि जुड़ाय़ हिय़ा प्रभुर दर्शने ॥३११॥
सबासह कतक्षण प्राङ्गणे रहिय़ा ।
करिल विश्राम पूर्व वासाय़ याइय़ा ॥३१२॥
पृथक् पृथक् वासा महान्त सबार ।
सकल प्रस्तुत तथा ये प्रय़ास यार ॥३१३॥
पूर्वेइ परमानन्दे श्रीसन्तोष राय़ ।
राखिय़ाछिलेन नाना सामग्री वासाय़ ॥३१४॥
पुनः आर नाना द्रव्य यत्नेते आनिल ।
परिचर्याहेतु बहु लोक निय़ोजिल ॥३१५॥
व्यालिल परमानन्द खेतरीग्रामेते ।
हईले विपथ पथ लोक-गताय़ाते ॥३१६॥
ईश्वरी दर्शन, महान्तेर सन्दर्शने ।
केबा कि करय़े कारु स्मृति नाइ मने ॥३१७॥
रामचन्द्र सह श्रीठाकुर महाशय़ ।
महान्तगाअणेर आगे यत्ने निवेदय़ ॥३१८॥
‘सन्तोषेर मने अभिलाष हैल याहा ।
शीघ्र स्नान करि पूर्ण करिबेन ताहा’ ॥३१९॥
शीघ्र श्रीईश्वरी आगे गिय़ा निवेदिला ।
सकलेइ शीघ्र स्नान करि स्निग्ध हैला ॥३२०॥
अति शुष्क शुष्क धौत नवीन वसन ।
सन्तोष सन्तोषे कैल सर्वत्र अर्पण ॥३२१॥
सन्तोषेरे अनुग्रह करि सर्वजने ।
परिलेन वसन परमानन्द-मने ॥३२२॥
तिलकादि क्रिय़ा यैछे हईल सबार ।
से सब देखिते प्राण ना जुड़ाय़ कार ? ॥३२३॥
श्रीजाह्नवा ईश्वरी परमहर्ष-मने ।
स्नानादिक क्रिय़ा समाधिला सङ्गोपने ॥३२४॥
ईश्वरीर परिचारिकादि ये ब्राह्मणी ।
सबारे दिलेन वस्त्र परिते आपनि ॥३२५॥
श्रीसन्तोष दत्तेर भाग्य कहिते कि आर ।
सबा-सह ईश्वरी परिला वस्त्र यार ॥३२६॥
ईश्वरी याबेन श्यामराय़ेर दर्शने ।
नरोत्तम, रामचन्द्र आइला सेइक्सणे ॥३२७॥
आनिल ये श्राबीविग्रह वृन्दावन हैते ।
नाम—श्यामराय़, शोभा—उपमा कि दिते ? ॥३२८॥
बड़ु गाङ्गादास ताꣳर सेवा समाधिय़ा ।
निवेदिल जाह्नवा ईश्वरी आगे गिय़ा ॥३२९॥
रामचन्द्र, नरोत्तमे लईय़ा ईश्वरी ।
प्रणामिय़ा से शोभा देखिल नेत्र भरि ॥३३०॥
नरोत्तम, रामचन्द्रे वारेक चाहिते ।
हईला विह्वल प्रेमे नारे स्थिर हैते ॥३३१॥
कतक्षण श्यामराय़े निरीक्षण करि ।
दोꣳहे लैय़ा निज स्थाने आइला ईश्वरी ॥३३२॥
पुनः सबा-सह गिय़ा गौराङ्ग प्राङ्गणे ।
आइला वासाय़ प्रणमिय़ा प्रभुगणे ॥३३३॥
प्रभुर पूजकगण उल्लास हिय़ाय़ ।
प्रसाद-सामग्री बहु आनिल त्वराय़ ॥३३४॥
फल-मूल-मिष्टान्नादि प्रसाद यतने ।
भुञ्जाइला श्राईईस्वरी भागवतगणे ॥३३५॥
सबे भुञ्जाइय़ा किछु भुञ्जिला ईश्वरी ।
ऐछे अन्नादिक भुञ्जाइला यत्न करि ॥३३६॥
महाप्रसाद-सेवार पर विश्रामान्ते श्रीईश्वरीर नरोत्तमप्रभुर सहित कथोपकथन—
कतक्षण विश्राम करिय़ा सबा-सने ।
बसिलेन ईश्वरी परमानन्द-मने ॥३३७॥
नरोत्तम-रामचन्द्र-पाने जिज्ञासिय़ा ।
कहिते व्रजेर कथा उमड़य़े हिय़ा ॥३३८॥
आद्योपान्त सकल कहिल धैर्य धरि ।
गौड़ेर सꣳवाद जिज्ञासय़ेन ईश्वरी ॥३३९॥
शुनि नरोत्तम किछु कहिते ना पारे ।
बहे दुइ नेत्रे धारा—निब्वारिते नारे ॥३४०॥
रामचन्द्र कहय़े—‘प्रभुर प्रिय़गण ।
एइ अल्प दिने प्राय़ हैला सङ्गोपन ॥३४१॥
ये केह आछेन सेह अदर्शनप्राय़’ ।
एत कहि रामचन्द्र व्याकुल हिय़ाय़ ॥३४२॥
ईश्वरी कहेन—‘यैछे हईय़ाछे एथा ।
ना जानि इहार मध्ये किबा हय़ तथा ॥३४३॥
सर्वत्रेइ प्रभु करिबेन अन्धकार’ ।
एत कहितेइ ल्नेत्रे बहे अश्रुधार ॥३४४॥
कहिते कि—कारु ना रहिल धैर्यलेश ।
विदरे पराण—निवारिते नारे वेश ॥३४५॥
कतक्षणे स्थिर हैय़ा प्रभुर इच्छाय़ ।
हईलेन मग्न सबे प्रभुर लीलाय़ ॥३४६॥
सन्ध्या-समय़ेते गिय़ा प्रभुर प्राङ्गणे ।
सन्ध्या-आरात्रिक देखे महाहर्ष-मने ॥३४७॥
आरम्भय़े श्रीनामकीर्तन मनोहर ।
शुनि ईश्वरीर अति अधैर्य अन्तर ॥३४८॥
ये प्रेम प्रकाश ताहा ना पारि कहिते ।
हैल दण्ड छय़ रात्रि नाम-कीर्तनेते ॥३४९॥
वासाय़ आसिय़ा सबे आसल्ने बसिला ।
रामचन्द्र प्रसाद-सामग्री लैय़ा आइला ॥३५०॥
यद्यपि नाहिकुअ क्षुधा तथापि सकले ।
भुञ्जिलेन प्रसाद-सामग्री कुतुहले ॥३५१॥
श्रीईश्वरी करिल किञ्चित् दुग्ध पान ।
परिचारिकादि भुञ्जे ये इच्छा याहान ॥३५२॥
पथश्रम हैते सबे शय़न करिला ।
रामचन्द्र, नरोत्तम निज स्थाने आइला ॥३५३॥
श्रीगोविन्द कविराज पाइय़ा निर्जन ।
गोस्वामि-सबार वाक्य कैल निवेदन ॥३५४॥
गोपालविरुदावली ग्रन्थ यत्ने दिला ।
नरोत्तम लैय़ा रामचन्द्र समर्पिला ॥३५५॥
नरोत्तम हैला महाव्याकुल अन्तरे ।
स्वप्नच्छले श्रीगोस्वामी प्रबोधिल ताꣳरे ॥३५६॥
महाहर्षे महाशय़ रजनी-विहाने ।
पाठाइला पत्री खड़दह, याजिग्रामे ॥३५७॥
श्रीखेतरिग्रामेते श्रीजाह्नवा ईश्वरी ।
रहेन परमानन्दे दिन तिन चारि ॥३५८॥
श्रीगोविन्द कविराज आदि कथोजन ।
अग्रेइ बुधरिग्रामे करिला गमन ॥३५९॥
श्रीईश्वरी यात्रा करिबेन प्रातःकाले ।
‘हैल एइ ध्वनि, इथे व्याकुल सकले ॥३६०॥
ईश्वरी-सङ्गे रामचन्द्र, नरोत्तम ।
याइबेन—इहाओ शुनिल सर्वजन ॥३६१॥
श्रीईस्वरीर खेतरि हईते विदाय़ ग्रहण—
रजनी प्रभाते सबासह श्रीईश्वरी ।
प्रभुर प्राङ्गणे गेला प्रातःकृत्य करि ॥३६२॥
गौराङ्ग-वल्लवीकान्त-आदि प्रभुगणे ।
देखिते विह्वल, अश्रु झरय़े नय़ने ॥३६३॥
प्रभुगण आगे कि कहिय़ धीरे धीरे ।
हईला विदाय़—प्रेम उथले अन्तरे ॥३६४॥
सकल महान्त महाव्याकुल हिय़ाय़ ।
कहिते कि जानि यैछे हईला विदाय़ ॥३६५॥
नरोत्तम, रामचन्द्र विदाय़ हईला ।
प्रभुर सेवाय़ सबे सावधान कैला ॥३६६॥
श्रीसन्तोष दिवेन ईश्वरी-सङ्गे याहा ।
श्रीपरमेश्वरी दासे समर्पिल ताहा ॥३६७॥
खेतरि हईते हैल सबार गमन ।
चतुर्दिके धाय़ लोक करिते दर्शन ॥३६८॥
पद्मावती तीरे श्रीईश्वरी सबा-सह ।
देखि लोक-आर्ति—लोके कैला अनुग्रह ॥३६९॥
श्रीईश्वरीर बुधरिग्रामे आगमन ओ तथाय़ श्रीहेमलतादेवीर शुभविवाह—
पद्मावती पार हईलेन शीघ्र करि ।
सकले वेष्टित हैय़ा गेलेन बुधरि ॥३७०॥
हईल गमन-ध्वनि, धाय़ लोकगण ।
परम अद्भुत आर्ति करिते दर्शन ॥३७१॥
श्रीईस्वरी सबासह शुभ दृष्टिपाते ।
कैला लोकगणे मग्न श्रीभर्क्तिरसेते ॥३७२॥
पूर्ववत् ईश्वरी वासाय़ प्रवेशिला ।
वꣳशीदास-आदि सर्व कार्ये युक्त हैला ॥३७३॥
श्रीवꣳशीर भ्राता श्यामदास चक्रवर्ती ।
हासिय़ा ईश्वरी किछु कहे ताꣳर प्रति ॥३७४॥
‘तोमारे मागिब याहा ताहा हबे दिते ।
से अति सुलभ, चिन्ता ना करह चिते’ ॥३७५॥
शुनि श्यामदास किछु उत्तर ना दिला ।
हईल अनेक रात्रि, निज गृहे गेला ॥३७६॥
मने मने विचारे—‘मो-हेन अयोग्येतेरे ।
मागिबेन ऐछे किबा आछे, मोर घरे’ ॥३७७॥
एत विचारिते निद्रा कैल आकर्षण ।
साक्षातेर प्राय़ विप्र देखय़े स्वपन ॥३७८॥
ईश्वरी-आज्ञाय़ महा मनेर उल्लासे ।
कन्या दान करय़े श्रीबड़्उ गङ्गादासे ॥३७९॥
सकल वैष्णव महाहर्षे प्रशꣳसिते ।
हैल निद्रा भङ्ग—विप्र नारे स्थिर हैते ॥३८०॥
विप्र श्यामदास स्थिर हैय़ा कतक्षणे ।
श्रीईश्वरी-आगे गेला रजनी-विहाने ॥३८१॥
ईश्वरीर भङ्गि जानि सुमधुर भाषे ।
निवेदिल स्वप्न कथा ईस्वरीर पाशे ॥३८२॥
विवाहेर उद्योग करिला शीघ्र करि ।
हईलेन आनन्दित जाह्नवा ईश्वरी ॥३८३॥
श्रीईस्वरी गङ्गादासे कहे धीरे धीरे ।
‘श्यामदास कन्या दान करिब तोमारे ॥३८४॥
हईल उद्योग—अद्य विवाह हईबे ।
करिबे विवाह—इथे चिन्ता ना करिबे’ ॥३८५॥
हईब विवाह अद्य ए कथा शुनिय़ा ।
मौनाबलम्बन कैला किछु ना कहिय़ा ॥३८६॥
परम विरुक्त—कुन स्पृहा नाइ चित्ते ।
तथापि ईश्वरी-आज्ञा नारिल लङ्घिते ॥३८७॥
हईल विवाहकाले अति सुमङ्गल ।
श्यामदास चक्रत्वर्ती आनन्दे विह्वल ॥३८८॥
श्रीश्यामदासेर कन्या, नाम—हेमलता ।
अल्प वय़स, हेमवर्णा, सुचरिता ॥३८९॥
ये देखे वारेक तार जुड़ाय़ नय़न ।
हेन कन्या बड़ु गङ्गादासे कैला दान ॥३९०॥
बड़ु गङ्गदासेर सौन्दर्य अतिशय़ ।
सूर्यमय़ तेज, प्रेमभक्तिरसमय़ ॥३९१॥
हेन गङ्गादासेर विवाह कराइय़ा ।
श्रीईस्वरी ‘श्यामराय़’ दिल समर्पिय़ा ॥३९२॥
गङ्गादास विचार करय़े मने मने ।
‘भोगेर निर्बन्ध किबा हईब एखने ? ॥३९३॥
गङ्गादासे स्वप्नच्छले कहे श्यामराय़ ।
‘यत ये मिलिबे ताहा भुञ्जाबे आमाय़’ ॥३९४॥
ईश्वरीर आगे स्वप्नकथा निवेदिल ।
शुनि महायत्ने भोग निर्बन्ध करिल ॥३९५॥
सेवाय़ निमग्न हैल बड़ु गङ्गादास ।
हईल सबार इथे परम उल्लास ॥३९६॥
बुधारि हईते श्रीईश्वरीर एकचक्रा ग्रामे गमन, पथे एक वृद्ध विप्रेर सहित साक्षात् एवꣳ ताꣳहार मुखे एकचक्रार इतिवृत्त श्रवण—
गोविन्दादि-सह रामचन्द्र, नरोत्तम ।
श्रीईश्वरीचरित्रे विह्वल अनुक्षण ॥३९७॥
सबा-सह ईश्वरी बुधारिग्राम हैते ।
चलिलेन एकचक्रा श्रीराढ़देशेते ॥३९८॥
दूर हैते एकचक्रा-ग्राम निरखिय़ा ।
श्रीजाह्नवा ईश्वरी धरिते नारे हिय़ा ॥३९९॥
कृष्णदास सरखेल, गौराङ्गसुन्दर ।
माध्व आचार्य, बलराम, महीधर ॥४००॥
मुरारी, चैतन्य, कृष्णदास विप्रवर ।
नृसिꣳहचैतन्य, श्रीकानाइ, दामोदर ॥४०१॥
रघुपति वैद्य उपाध्याय़ मनोहर ।
श्रीपरमेश्वरीदास गुणेर सागर ॥४०२॥
श्रीनकड़िदास, श्रीमुकुन्दादि सकले ।
एकचक्रा देखिय़ा भाषय़े नेत्रजले ॥४०३॥
नरोत्तम, रामचन्द्र, श्रीगोविन्दादय़ ।
हईलेन यैछे ताहा कहिले ना हय़ ॥४०४॥
एकचक्रा-पथपाने करय़े गमन ।
पथप्रान्ते शोभे अश्वत्थादि वृक्षगण ॥४०५॥
अत्यन्त निविड़्अ छाय़ा, स्थान सुनिर्मल ।
सदा मन्द वाय़ु बहे सुगन्धि शीतल ॥४०६॥
सबा-सह श्रीईश्वरी से स्थाने याइते ।
अकस्मात् महानन्दोदय़ हैल चिते ॥४०७॥
केह किछु कहे, कारु स्थिर नहे मन ।
एकचक्रापथे देखे विप्र एकजन ॥४०८॥
पूर्व सोङरिय़ा तेꣳह व्याकुल हिय़ाय़ ।
निताइर विलास-स्थान देखिय़ा बेड़ाय़ ॥४०९॥
अतिवृद्ध, करेते लगुड़, मन्दगति ।
वृक्षतले आसिय़ा चाहेन सबा प्रति ॥४१०॥
देखिय़ा वैष्णवगणे मने विचारय़ ।
‘कोथा हैते अकस्मात् हईल बिजद्ञाविजय़ ? ॥४११॥
जुड़ाइल नेत्र ए सबारे निरखिय़ा’ ।
ऐछे मने करि देखे किछु ना कहिय़ा ॥४१२॥
देखि वृद्ध विप्रे प्रणमिय़ा विज्ञगण ।
यत्नपूर्व दिला शीघ्र वसिते आसन ॥४१३॥
देखिय़ा विप्रेर अति अलौकिक रीति ।
सुमधुर वाक्ये जिज्ञासेन विप्र प्रति ॥४१४॥
शुनिलाम एकचक्राग्राम सुविस्तार ।
इथे ये देखिय़े भग्न, कि हेतु इहार ?’ ॥४१५॥
शुनि विप्रराज सुमधुर वाक्ये कय़ ।
‘शुनिय़ाछ याहा ताहा कभु मिथ्या नय़ ॥४१६॥
एकचक्राग्राम—नाम बहुकाल हैते ।
वनवासे पाण्डवादि छिलेन एथाते ॥४१७॥
ए प्रदेशे छिल दुष्ट राक्षस असुर ।
से सभे पाण्डव पाठाइल यमपुर ॥४१८॥
कहय़े प्राचीन—ए परम पुण्य स्थान ।
ए ग्रामेते अनेक देवेर अधिष्ठान ॥४१९॥
एकचाक्रेश्वर शिब्व पार्वती-सहित ।
नदीतीरस्थ, प्रल्भावाति, देवादिपूजित ॥४२०॥
शेष-गणेशादि मूर्ति छिला नदीकुले ।
कालिप्रभावेते गोप्य हैला से सकले ॥४२१॥
एइ नदीधारा पूर्वे छिल विस्तारित ।
दुइ पार्श्वे नाना लता, वृक्ष सुशोभित ॥४२२॥
नाना पुष्पे भ्रमर गुज्ञरे अनिवार ।
भ्रमे नाना पक्षी ताहे—ध्वनि चमत्कार ॥४२३॥
अहिꣳसक नाना पशु वनेते भ्रमर ।
देखि बलशोभा कार उल्लास ना हय़ ? ॥४२४॥
केबा बसाइल ग्राम, आश्चर्य वसति ।
पृथक् पृथक् चतुर्वर्णगणस्थिति ॥४२५॥
एकचक्रा-ग्रामेते लोकेर सꣳख्या नाइ ।
प्रतिदिन परम उत्सव ठाꣳइ ठाꣳइ ॥४२६॥
सकले धनाढ्य, पुण्यकर्मे महा प्रीत ।
विप्रेर का कथा ? अन्य वर्णेओ पण्डित ॥४२७॥
स्थाने स्थाने नाना शास्त्रर्चा अनुक्षण ।
से सब शुनिते कार ना जुड़ाय़ मन ? ॥४२८॥
ये ये स्थाने ये ये रूपे प्रकटे ईश्वर ।
से सब प्रसङ्गे उल्लसित परस्पर ॥४२९॥
सबामध्ये एक ज्योतिषज्ञ-शिरोमणि ।
कहय़े सबार प्रति सुमधुर वाणी ॥४३०॥
‘अयोध्या-मथुरा आदि धामेते इश्वर ।
बिलसय़े—एबे नहे प्रपञ्चगोचर ॥४३१॥
एइ एकचक्रा हय़ा ईश्वरेर धाम ।
एथा शीघ्र प्रकाटिव प्रभु बलराम ॥४३२॥
देखिबेक सबे—हबे विदित जगते ।
मोर अल्प आय़ु, मुइ ना पाब देखिते ॥४३३।
एकचक्रा-महिमा कहिते साध्य कार ? ।
एत कहि किछु ना कहिल पुनर्वार ॥४३४॥
ओहे बापु ! सब ताꣳर सुसत्य वचन ।
करिल परीक्षा महा महा विज्ञगण ॥४३५॥
जन्मिव ईश्वर शीघ्र ए वाक्ये सबार ।
निरुपम आनन्द बाड़य़े अनिवार ॥४३६॥
कहिते ना पारि आर शुनिलाम याहा ।
यैछे ग्राम भग्न—ये देखिनु कहि ताहा ॥४३७॥
सेइ बुद्धविप्रेर मुखे श्रील नित्यानन्दप्रभुर पितृपितामहेर विवरण—
एइ ग्रामे छिला एक विप्र पुण्यवान् ।
‘ओझा’ ख्याति जानि, मने नाइ ताꣳर नाम ॥४३८॥
अति अर्थवन्त ओझा, प्रवीण सर्वाꣳशे ।
यजमाने स्नेह ताꣳर अशेष विशेषे ॥४३९॥
पूर्वऋषि-प्राय़ से सकल क्रिय़ा ताꣳर ।
विप्रेर लक्षण यत ताꣳहाते प्रचार ॥४४०॥
यद्यपि सुन्दरामल बान्दिघꣳटि गाꣳइ ।
तथापि वेष्टित श्रेष्ठ, पूज्य सर्व ठाꣳइ ॥४४१॥
अति अल्प वय़से मु देखिनु ताꣳहारे ।
शुनिनु चरित्र ताꣳर विज्ञलोकद्वारे ॥४४२॥
परम सुशीला सेइ ओझार वनिता ।
पुत्रवती हईय़ाओ हईला दुःखिता ॥४४३॥
जन्मिल ये पुत्र ताहे केह ना रहिल ।
शेषे एक पुत्र शुभक्षणेते जन्मिल ॥४४४॥
देखि पुत्रे ओझा हर्ष-विषाद अन्तरे ।
पुत्रे समर्पण कैल पार्वतीशङ्करे ॥४४५॥
ओझा निज पत्नीसह विचार करिय़ा ।
पुत्रञाम थुइल ‘हाड़्ओ’ खेदयुक्त हईय़ा ॥४४६॥
अन्ये अन्य नाम राखिलेन हर्षचिते ।
केबा ना आइसे हेन बालक देखिते ॥४४७॥
दिने दिने बाड़े पुत्र अति रूपवान् ।
देखि पत्नीसह ओझा जुड़ाय़ नय़ान ॥४४८॥
अन्न-प्राशनादि क्रमे कैल यथोचित ।
पुत्रेर चेष्टाय़ ओझा सदा उल्लसित ॥४४९॥
हईल विवाहयोग्य देखिय़ा पुत्रेरे ।
दिलेन विवाह एइ ग्रामे अल्पदूरे ॥४५०॥
यैछे पुत्र तैछे पुत्रवधू पद्मावती ।
विवाहसमय़े हैल सर्वत्र सुख्याति ॥४५१॥
ओझा भार्षासह हर्षे पुण्य उपार्जने ।
हईल दोꣳहार परलोक किछुदिने ॥४५२॥
पितामाता विना हाड़ो व्याकुल हिय़ाय़ ।
कैल अर्थव्याय़ बहु दोꣳहार क्रिय़ाय़ ॥४५३॥
सर्व शास्त्रे हाड़ो ओझा हईल पण्डित ।
हाड़्आइ पण्डित नाम हईल विदित ॥४५४॥
अनन्य वैष्णव विष्णुभक्ष्तितत्त्व-ज्ञाता ।
परम वैष्णवी ताꣳर पत्नी पतिव्रता ॥४५५॥
से दोꣳहार चरित्र कहिते साध्य नय़ ।
जगतेर माता पिता हेन ज्ञान हय़ ॥४५६॥
प्रशꣳसे सकले देखि अति शुद्धाचार ।
अति प्रीत विष्णु आराधनाय़ दोꣳहार ॥४५७॥
विप्रमुखे श्रील नित्यानन्दप्रभुर जन्मादि लीला श्रवण—
विष्णु-अनुग्रहे हैल अपूर्व सन्तान ।
सर्व ज्येष्ठ येꣳह्ɒ, जन्मादिक कहि तान् ॥४५८॥
श्रीपद्मावतीर गर्भ-सञ्चार हईते ।
हैल महानन्दलाभ हाड़्आइ पण्डिते ॥४५९॥
धन्य धन्य हाड़्आइ पण्डित विप्रवर ।
धन्य पद्मावती, धन्य ताꣳहार उदर ॥४६०॥
महाशुभक्षणे पद्मावतीगर्भ हैते ।
जन्मिल बालक—ताꣳर तुलना कि दिते ? ॥४६१॥
पुण्यवतीगण से बालक निरखिय़ा ।
करे आशिर्वाद अति विह्वल हईया ॥४६२॥
केह कहे—‘ए येन बालक कभु नय़ ।
हेम-नवनीतेर पुतली बुझि हय़ ॥४६३॥
केह कहे—‘एमन बालक नाहि देखि ।
देखिते घुचिल ताप, जुड़्आइल अꣳखि ॥४६४॥
एइरूप नाना कथा कहे परस्परे ।
लोक-गताय़ात बहु पण्डितेर घरे ॥४६५॥
पुत्रेर कल्याणे विज्ञ हाड़्आइपण्डित ।
कैल अर्थदान बहु उल्लसित ॥४६६॥
पद्मवती-हाड़्आइर पुत्रगत प्राण ।
दिने दिने बाड़्हे पुत्र चन्द्रेर समान ॥४६७॥
मातार अत्यन्त स्नेह, प्रशꣳसे सकले ।
क्रोड़्अ हैते पुत्रे ना नामाय़ भूमितले ॥४६८॥
नामकरणादि-काले हैल महानन्द ।
केह कहे—‘राम’, केह कहे—‘नित्यानन्द’ ॥४६९॥
केह कुन नाम कहे उल्लासआन्तरे ।
अन्नप्राशनेर सुख के कहिते पारे ? ॥४७०॥
हामागुद्̤इ अङ्गने बेड़्आन येइ काले ।
‘आइस निताइ !’—बलि सबे करे कोले ॥४७१॥
कोले चड़्हि हासे—मुखशोभा मनोहर ।
दुग्धबिन्दुप्राय़ दुइ दशन सुन्दर ॥४७२॥
कोले हैते छाड़िते नारय़े कुन जन ।
नित्यानन्द हैला येन सबार जीवन ॥४७३॥
जननी यतने यबे आसने वसाय़ ।
ना बैसे आसने, धूला विनु नाहि भाय़ ॥४७४॥
एकदिन गृहे मुइ महादुःख पाइ ।
पण्डितेर बाड़्ई गेलु देखिते निताइ ॥४७५॥
धूलाय़ धूसर अङ्ग शोभा सुमधुर ।
वारेक देखिते सब दुःख गेल दूर ॥४७६॥
‘आइस बापु !’—बलितेइ कोले सामाइला ।
ना जानि कि आनन्द-समुद्रे डुबाइला ॥४७७॥
हासिय़ा पितार कोले गेलेन निताइ ।
पितार ये स्नेह ता कहिते साध्य नाइ ॥४७८॥
यदि कोन कार्ये यान, याइते ना पारे ।
उलाटिय़ा पुत्रमुख देखे वारे वारे ॥४७९॥
कभु यजमानगृछे गिय़ा आसि घरे ।
‘कोथा नित्यानन्द’—बलि चौदिके नेहारे ॥४८०॥
धाइय़ा पितार कोले चड़्हय़े निताइ ।
हारा-हेन प्राण येन पाय़ेन हाड़ाइ ॥४८१॥
तिलार्ध नेत्रेर आड़ ना पारे करिते ।
ततोधिक माता-स्नेह के पारे कहिते ? ॥४८२॥
पुत्रेर सौन्दर्य लागि हरिद्रा माखाय़ ।
हरिद्रा मलिन हय़ से अङ्गच्छटाय़ ॥४८३॥
माखाय़ेन स्निग्ध-हेतु तैल सुगन्धित ।
सह्जे सुगन्ध स्निग्ध देह सुललित ॥४८४॥
कराइते स्नान स्नेहे हय़ेन विह्वला ।
लघु लघु पोꣳछे अङ्ग लैय़ा पानितोला ॥४८५॥
रक्तप्रान्त नील पट्टधड़ा पराइय़ा ।
पुत्र प्रति कहे—‘खेल गृहेते बसिय़ा’ ॥४८६॥
हासिय़ा माय़ेर प्रति कहेन निताइ ।
‘खेलावार सङ्गी विना किरूपे खेलाइ’ ॥४८७॥
बाल्यक्रीड्राच्छले अवतारी श्रील नित्यानन्दप्रभुर व्रजलीला ओ अपरापर अवतारलीला प्रदर्शन—
सेइ दिन हैते समवय़ शिशुगण ।
आइसे यतेक ताहा के करु गणन ॥४८८॥
से सकले देखिय़ा परम उल्लसित ।
हैल हेन येन कत कालेर पीरित ॥४८९॥
करिलेन खेलार आरम्भ नित्यानन्द ।
परम सुबुद्धि चाञ्चल्येर नाहि गन्धः ॥४९०॥
कौमार वय़से हैल पौगण्ड प्रवेश ।
दिने दिने बार्ह्̤ए खेला अशेष विशेष ॥४९१॥
शताधिक वर्ष हैल वय़स आमार ।
ना देखि ना शुनि ऐछे खेला चमत्कार ॥४९२॥
ये ये अवतारे श्रीकृष्णेर ये ये लीला ।
ताहा विना निताइचान्देर नाइ खेला ॥४९३॥
ये खेला खेलिब तार पूर्बे शिशुगणे ।
तदानुकरण शिखाय़ेन जने जने ॥४९४॥
एइ नदीतीरे देख स्थान मनोहर ।
एखाने खेलेन पद्मावतीर कुङर ॥४९५॥
यैछे देवतार आराधनाय़ सत्वरे ।
जन्मिलेन वासुदेव वसुदेव-घरे ॥४९६॥
वासुदेव लैय़ा वसुदेव-कꣳसभय़े ।
नन्दालय़े गेला यैछे—ए खेला खेलय़े ॥४९७॥
कृष्णजन्म उत्सव येरूप नन्दघरे ।
यशोदा येरूप स्नेहे आपना पासरे ॥४९८॥
यैछे कृष्ण दुग्धपाने पूतना वधिला ।
शÿअने थाकिय़ा यैछे शकट भाङ्गिला ॥४९९॥
तृणावर्त बध यैछे कैला भगवान् ।
खेलाय़ से खेला—देखि जुड़ाय़ पराण ॥५००॥
धान्य दिय़ा फल कृष्ण किने कुतूहले ।
यशोदा बन्धन यैछे करे उदुखले ॥५०१।
यैछे भाङ्गे यमल-अर्जुन वृक्षद्वय़ ।
से खेला देखिते कार ना जन्मे विस्मय़ ॥५०२॥
नाना वेश धरिय़ा प्रबल शिशु-मेले ।
खेलय़े कृष्णेर यत चाञ्चल्य गोकुले ॥५०३॥
बक, अघ हय़ शिशु—कृष्णरूप धरि ।
से सकले वधेन कौतुके युद्ध करि ॥५०४॥
गड़ि भय़ङ्कर सर्प लैय़ा याय़ जले ।
से अद्भुत कालीय़दमन खेला खेले ॥५०५॥
कभु खेले—कृष्ण यैछे, धेनुक वधिला ।
कभु गोष्ठे खेलय़े प्रलम्बवध-लीला ॥५०६॥
वृषासूरे वध कृष्ण करे ये प्रकाते ।
यैछे तीर्थ आकर्षण करि स्नान करे ॥५०७॥
यैछे कृष्ण सखा-सह करे गोचारण ।
धेनुगण लैय़ा यैछे गृहेते गमन ॥५०८॥
यैछे गोवर्धन धरि व्रज रक्षा करे ।
यैछे गोपिकार परिधेय़ वस्त्र हाअरे ॥५०९॥
यैछे यज्ञपत्नीगणादिर व्यवहार ।
से सकल खेले पद्मावतीर कुमार ॥५१०॥
यैछे कꣳसादेशे व्रजे अक्रूर आसिय़ा ।
मथुराय़ रामकृष्णे यैछे याय़ लैय़ा ॥५११॥
शकट चापिय़ा यैछे याय़ गोपगण ।
से खेला देखिते धैर्य धरे के एमन ? ॥५१२॥
कृष्णेर विच्छेदे यैछे कान्दे गोपीगण ।
कहिते कि—तैछे नित्यानन्देर क्रन्दन ॥५१३॥
मथुराभ्रमण खेला खेले शिशुसङ्गे ।
मालाक्षारस्थाने माला परे महारङ्गे ॥५१४॥
कुब्जावेशे गन्ध केह परान परिय़ा ।
धनुकाभञ्जन-खेला खेलय़े गर्जिय़ा ॥५१५॥
कुवलय़, चानूर, मुष्टिक वध करि ।
मञ्च हैते कꣳसे भूमे पाड़े चुले धरि ॥५१६॥
कृष्ण कꣳस-मातुले वधिला येन मते !
खेले सेइ खेला—लोक विस्मय़ देखिते ॥५१७॥
यथा ये ये लीला से से स्थाने विचरय़े ।
खेलाय़ से लीला-स्थान प्रत्यक्ष करय़े ॥५१८॥
जन्म हैते श्रीरामचन्द्रेर ये ये लीला ।
शिशुगणे साजाइय़ा खेले सेइ खेला ॥५१९॥
वान्ल्मीकि रचिला येइ ग्रन्थ रामाय़ण ।
से सब प्रत्यक्ष करे पद्मार नन्दन ॥५२०॥
धरिय़ा वामनवेश बलिरे छलय़ ।
नृसिꣳहावेशेते हिरण्यकशिपु बधय़ ॥५२१॥
प्रह्लादेर प्राय़ स्तुति करे कुन जन ।
नृसिꣳहेर वात्सल्ये खेलाय़ मनोरम ॥५२२॥
भक्ते सुख दिते ईश्वरेर ये विहार ।
से सकल खेले पद्मावतीर कुमार ॥५२३॥
यखन ये दिके नित्यानन्द चलि याय़ ।
सेइ दिगे से सङ्गे सकल शिशु धाय़ ॥५२४॥
एकचक्रवासी लोक आनन्द अन्तरे ।
निज निज शिशुगणे वारण ना करे ॥५२५॥
विविध भूषणे शिशुगणे साजाइय़ा ।
सबे कहे—‘नित्यानन्दसङ्गे खेल गिय़ा’ ॥५२६॥
शिशुसह खेलारसे विह्वल निताइ ।
ये अद्भुत खेला ता कहिते अन्त नाइ ॥५२७॥
कि आनन्द ताꣳर यज्ञोपवीत समय़ ।
ये शोभा देखिनु ता कहिले ना हय़ ॥५२८॥
पौगण्डवय़से किबा कैशोर प्रवेशे ।
देखि से शोभा ना कारु रहे धैर्यलेश ॥५२९॥
अल्प दिवसेइ कैल विद्या उपार्जन ।
व्याकरण आदि शास्त्रे हैला विचक्षण ॥५३०॥
निताइर वय़स हैल द्वादश वत्सर ।
षोड़्अश वर्षेर प्राय़ देखिते सुन्दर ॥५३१॥
बन्धुगणे जानाइय़ा हाड़ाइ पण्डित ।
पुत्रेर विवाह दिते हैल उत्द्कण्ठित ॥५३२॥
एकचक्रावासी यत ब्रह्मण सज्जन ।
विराह-प्रसङ्गे हर्ष हैला सर्ब जन ॥५३३॥
कल्न्या स्थिर कैल कुन कुन विप्रघरे ।
मनकला खाय़ केह स्पष्ट नाहि करे ॥५३४॥
हैल एइ आनन्दप्रसङ्ग स्थाने स्थाने ।
बिधि ये दिवेक दुःख केबा ताहा जाने ? ॥५३५॥
अभ्यागत सन्न्यासीर सङ्गे नित्यानन्दप्रभुर गृहत्याग ओ ताहाते लोकेर विपुल शोक—
कोथा हैते आइला एक सन्न्यासी गोसाञी ।
सर्वाꣳशे सुन्दर, ताꣳर दय़ामात्र नाइ ॥५३६॥
हाड़ाइ पण्डित ताꣳरे भिक्षा कराइला ।
कृष्णकथा-रसे तेꣳह रात्रि गोङाइला ॥५३७॥
गन्तुकाले नित्यानन्दे निलेन मागिय़ा ।
दिलेन हाड़ाइ पुत्रे पूर्व विचारिय़ा ॥५३८॥
नित्यानन्दे लैय़ा न्यासी चलिला तुरिते ।
हाड़ाइ मूर्छित हैय़ा पड़िला भूमिते ॥५३९॥
प्राणहीन प्राय़ भूमे पड़े पद्मावती ।
हैल ये दोꣳहार दशा काहि कि शकति ॥५४०॥
कि नारी, पुरुष यत ए एकचक्राय़ ।
ए कथा श्रवण-मात्रे हैल मृतप्राय़ ॥५४१॥
सङ्गी शिशुगण कहे—मो सबे छाड़िय़ा ।
कोथा गेला—बलि कान्दे अङ्ग आछाड़िय़ा ॥५४२॥
एइ एकचक्राग्राम हैल शून्यप्राय़ ।
येखाने सेखाने लोक करे हाय़ हाय़ ॥५४३॥
हैले लोकभिड़ हाड़ो पण्डितेर घरे ।
कराय़ चेतन दोꣳहे अनेक प्रकारे ॥५४४॥
हाड़ाइ पण्डित, पद्मावती दुइजन ।
‘कोथा नित्यानन्द?–बलि करय़े क्रन्दन ॥५४५॥
दोꣳहार विलाप ये शुनिल सेइ जाने ।
गलय़े पाषाण, कान्दे पशु-पश्षिगणे ॥५४६॥
निताइर कनिष्ठ भ्राता कहेन काꣳदिय़ा ।
‘मोरे केने सन्न्यासी ना गेलेन लईय़ा’ ॥५४७॥
एत कहि अङ्ग आछाड़्इय़ा भूमे पड़े ।
ईश्वर इच्छाय़ प्राण रहिल से धड़े ॥५४८॥
कुन विप्र कान्दिय़ा कहय़े—‘ओहे भाइ ।
कह—कुन् पथे गेला सन्न्यासी गोसाञी ॥५४९॥
नित्यानन्द रन्धनादि-क्रिय़ा किबा जाने ? ।
मोर पुत्र पटु सर्वकार्य समाधाने ॥५५०॥
धरि ताꣳर पाय़ नित्यानन्दे मागि निब ।
करिय़ा प्रसन्न मोर पुत्रे ताꣳरे दिव ॥५५१॥
एत कहि सन्न्यासीर करे अन्वेषण ।
कोथाओ ना पाय़ खोꣳज—भावे मने मन ॥५५२॥
एकचक्राग्रामवासी शास्त्रज्ञ सकले ।
परस्पर कहे कत वसिय़ा विरले ॥५५३॥
केह कहे—‘ज्योतिषञ्च पुर्वे ये कहिल ।
ताहार वचन सब प्रत्यक्ष हईल ॥५५४॥
दुर्दैव-दोषेते मोरा नारिनु चिनिते ।
जन्मिलेन बलराम हाड़ाइर गृहेते’ ॥५५५॥
केह कहे—‘सत्य एइ, कभु मिथा नय़ ।
जन्मकाले हैल महामङ्गल उदय़ ॥५५६॥
घुचिल दुर्भिक्ष, लोकपीड़ा गेल दूर ।
कैल मेघ वृष्टि, हैल आनन्द प्रचुर’ ॥५५७॥
केह कहे—‘जन्मकाले देखिनु नय़ने ।
देवे स्तुति कैल, पुष्प वर्णिल भवने ॥५५८॥
देवस्त्रीगणेर भिड़ हय़ अनिवार ।
एबे से जानिनु, पूर्वे ना कैलु विचार’ ॥५५९॥
केह कहे—बलराम विना कि ए हय़ ? ।
जन्ममात्रे सकलेर चित्त आकर्षय़ ॥५६०॥
मनुष्ये सम्भव कि एरूप सौन्दर्यता ? ।
शिशु-समय़ेते कि अद्भुत सौजन्यता’ ॥५६१॥
केह कहे—‘शिशुकाले ए आश्चर्य-खेला ।
ईश्वर से जाने ईश्वरेर यत लीला ॥५६२॥
एक दिवसेर खेला देखिनु नय़ने ।
धरिला सन्न्यासिवेष निताइ आपने ॥५६३॥
किबा दण्ड कमण्डलु करे सुशोभय़ ।
परिधेय़ अरुण वसन तेजोमय़ ॥५६४॥
शिशुगण अपूर्व वैष्णव-वेष धरे ।
तिलक, मालाय़ अङ्ग झलमल करे ॥५६५॥
सन्न्यासीरे मध्ये करि करय़े कीर्तन ।
नाचय़े सन्न्यासी भङ्गि भुवन-मोहन ॥५६६॥
बुझि—प्रभु सन्न्यास करिब ए कलिते ।
ताहा व्यक्त कैल एइ खेला-कौतुकेते ॥५६७॥
पूर्णब्रह्म सनातन प्रभु भगवान् ।
हबेन सन्न्यासी—आछे शास्त्रेते प्रमाण ॥५६८॥
खेला देखि मने कैल—प्रकृत ए नय़ ।
व्यक्त ना कहिल—लोक उपहास-भय़’ ॥५६९॥
केह कहे—‘कृष्णाभिन्न रोहिणीकुमार ।
सेइ एइ नित्यानन्द—इथे कि विचार ? ॥५७०॥
कृपा करि से यदि जानाय़ तबे जानि ।
नहिले ताꣳहार माय़ावश एइ प्राणी’ ॥५७१॥
केह कहे—‘पाहय़ाओ ना पाइल मोरा ।
हईय़ा माय़ार वश हैनु रत्नहारा ॥५७२॥
ताꣳर रूप-गुणेते वञ्चिय़ा मो-सबारे ।
अकस्मात् सन्न्यासी लईय़ा गेला ताꣳरे ॥५७३॥
केह कहे—‘सन्न्यासी केवल छल ताꣳर ।
ईश्वरेर इच्छा बुझे ऐछे शक्ति कार ॥५७४॥
बलराम कैला पूर्वे तीर्थ-पर्यटन ।
ताहाइ करिब एबे—लय़ मोर मन’ ॥५७५॥
केह कहे—‘ऐछे पितामाताय़ छाड़िय़ा ।
कैल अनुचित, कैछे गेला बाहिर हैय़ा’ ॥५७६॥
केह कहे—ईश्वरेर के बुझे मरम ? ।
पूर्वापर बुझि ऐछे आछय़े निय़म’ ॥५७७॥
एइरूप कत कथा कहिय़ा कहिय़ा ।
करय़े क्रन्दन नित्यानन्दे सोङरिय़ा ॥५७८॥
नित्यानन्द-विरहे हाड़ाइ पण्डितेर विलाप—
हाड़ाइ पण्डिते सबे यान प्रबोधिते ।
उठय़े क्रन्दनरोल गृहे प्रवेशिते ॥५७९॥
पद्मावती, हाड़ाइ पण्डित दुइजने ।
ना करे आहार, देह ना याय़ धारणे ॥५८०॥
यदि कभु किछु भुञ्जाइते चाय़ केउ ।
भुञ्जिब कि ?–उठे दुःख-समुद्रेर ढेउ ॥५८१॥
ऐछे तिन मास नाइ अन्नेर ग्रहण ।
विधिरे निन्दय़े—केने आछय़े जीवन ॥५८२॥
‘कोथा नित्यानन्द बलि धूलाय़ लोटाय़ ।
कि कहिते किबा कहे पागलेर प्राय़ ॥५८३॥
तिलार्धेक हाड़ाइ पण्डित स्थिर नहे ।
मने ये उपजे ताहा व्यक्त करि कहे ॥५८४॥
क्षणे कहे—‘नित्यानन्द ! हैल अनेक क्षण ।
आइस, कोले करि मोर जुड़ाउक जीवन’ ॥५८५॥
क्षणे कहे—‘ओहे बाप, चर्ह्̤अ गिय़ा कोले ।
घाटे गिय़ा स्नान करि सरोबर-जले’ ॥५८६॥
क्षणे कहे—‘मोर आगे चलह हाꣳटिय़ा ।
पाकिय़ाछे धान्यक्षेत्र माठे देखि गिय़ा’ ॥५८७॥
क्षणे कहे—‘चल बाप, हाटे शीघ्र याइ ।
ये इच्छा तोमार ताहा किनिब तथाइ’ ॥५८८॥
क्षणे कहे—‘जननी डाकय़े, याओ घरे ।
बुझि—विष्णु-प्रसादान्न भुञ्जिवार तरे’ ॥५८९॥
क्षणे कहे—‘मोर शिष्यवर्गेर सहिते ।
करो शास्त्रचर्चा देखि केबा हारे जिते’ ॥५९०॥
क्षणे निज-भार्याप्रति कहे डाक दिय़ा ।
‘आइलेन नित्यानन्द, एइ देख सिय़ा ॥५९१॥
सन्न्यासी गोसाञी बड़ दय़ार सागर ।
कृपा कारि नित्यानन्दे पाठाइला घर’ ॥५९२॥
क्षणे कहे—‘इकि वाय़ु हईल आमार ।
ना देखिय़े नित्यानन्द, देखि अन्धकार’ ॥५९३॥
ऐछे कत कहे, नहे धैर्यावलम्बन ।
पद्मावती-चेष्टा यैछे कहे कुन् जन ॥५९४॥
ओहे बाप ! सब कि बलिब तो-सबाय़ ? ।
हैल महा अमङ्गल ए-एकचक्राय़ ॥५९५॥
केह स्थिर हैते नारे नित्यानन्द विने ।
पितामाता-आदि अप्रकट दिने दिने ॥५९६॥
हईय़ा व्याकुल नित्यानन्द-सङ्गिगण ।
सर्व त्याग गेलेन करिते तीर्थाटन ॥५९७॥
केन कुनरूपे स्थिर हईते ना पारे ।
केबा कोथा याय़—केह ना कहे काहारे ॥५९८॥
‘एइ नदीपारे एक यवन आछिला ।
निज नामे तेꣳह ए ग्राम वसाइला ॥५९९॥
एथा हैते तथा कोथा जन वास कैल ।
कहिते कि—ऐछे एकचक्रा भग्न हैल ॥६००॥
मुइ विप्राधम एइ कतो जने लैय़ा ।
आछि एकचक्रा-ग्रामे पूर्व सोङरिय़ा ॥६०१॥
मनेर उद्वेगे घरे नारि स्थिर हैते ।
हईल अथर्व अति ना पारि चलिते ॥६०२॥
तथापिह धाय़ मन दोएखिवारे स्थान ।
यथा यथा खेला कैला नित्यानन्द-राम ॥६०३॥
एइ ये अश्वत्थवट-छाय़ा अतिशय़ ।
एथा शिशुसह नित्यानन्द विलसय़ ॥६०४॥
भक्ष्यद्रव्य लैय़ा वसि मण्डलीबन्धने ।
करित भक्षण—मुइ देखिलु नय़ने ॥६०५॥
से सब भाविते हिय़ा विदरिय़ा याय़ ।
दुःख भुञ्जाइते विधि राखिल आमाय़ ॥६०६॥
मने छिल—यदि विधि राखिल आमारे ।
अवश्य दिवेन सुख किछु दिन परे ॥६०७॥
जन्मभूमि सङरिय़ा निताइ आमार ।
एकचक्रा आसिबे, देखिते पुनर्वार ॥६०८॥
मोर दूर्दैवेते तेꣳह निर्दय़ हैल ।
हेन एकचक्रा-ग्रामे पुनः ना आइल ॥६०९॥
हईलु निराश एबे—आशा नाइ आर ।
विधातार प्रति ए-प्रार्थना वार वार ॥६१०॥
ए-जन्मे वञ्चित, यदि पुनर्जन्म पाइ ।
तबे नित्यानन्दे येन देखिय़े एथाइ ॥६११॥
मरि येन नित्ताइचान्देर नाम लैय़ा’ ।
एत बाकहि विप्रेर विदरि याय़ हिया ॥६१२॥
पुनः कहे—‘कोथा प्राण निताइ आमार ? ।
देखि मोर दशा देखा देह एकवार’ ॥६१३॥
एत कहिय़ाइ विप्र कान्दे उच्चैःस्वरे ।
शुनि से कान्दना दारु पाषाण विदरे ॥६१४॥
कि अद्भुत दशाप्राप्त हईल सबाय़ ।
जाह्नवा ईश्वरी नेत्रजले भासि याय़ ॥६१५॥
कृष्णदास पण्डितादि विह्वल सकले ।
हैल मही पङ्क से सब्रार नेत्रजले ॥६१६॥
केह कुनरूप स्थिर हईते ना पारे ।
विप्रेर चरणधूलि लय़ वारे वारे ॥६१७॥
वृद्धविप्रके अग्रणी करिय़ा सकलेर एक्रचक्रा-ग्रामे प्रवेश—
प्रभु-इच्छामते सकलेइ स्थिर हैला ।
विप्रे आगे करि एकचक्रा प्रवेशिला ॥६१८॥
विप्र कहे—‘पण्डितेर बाड़ी ओ हय़ा’ ।
एत कहि पुनः किछु कहिते नारय़ ॥६१९॥
वाटी देखाइय़ा अति कातर अन्तरे ।
कान्दिते कान्दिते विप्र गेला निज-घरे ॥६२०॥
विप्रदशा देखि सबे व्याकुल हईला ।
हाड़ाइपण्डित-गृहे गमन करिला ॥६२१॥
यद्यपि भवन शून्य भग्न अस्तिशाय ।
तथापिह कार ना चित्त आकर्षय़ ॥६२२॥
नित्यानन्द-लीलास्थली करिय़ा दर्शन ।
हैला प्रेमाविष्ट यैछे ना हय़ वर्णन ॥६२३॥
से दिवस भग्न भवनेते वास कैला ।
श्रीनामकीर्तने कथो रात्रि गोङाइला ॥६२४॥
श्रीजाह्नवादेवीर खेद ओ स्वप्नदर्शन—
जाह्नवा-ईश्वरी-नेत्रे निद्रा ना स्पर्शय़ ।
विरले वसिय़ा मने मने विचारय़ ॥६२५॥
‘ना हैल श्वशुर-शाशुड़्ईर सन्दर्शन ।
ना स्पर्शिल श्वशुरालय़ेर सुखकण’ ॥६२६॥
एक विचारिय़ा आर किछु विचारिते ।
अकस्मात् हेऐल निद्रा प्रभुर इच्छामते ॥६२७॥
स्वप्नच्छले देखे एकचक्रार वसति ।
दिते नाइ, उपमा—सर्वाꣳअशे शोभा अति ॥६२८॥
किबा स्वर्णपुरी विश्वकर्मार निमाण ।
इन्द्रालय़ नहे पण्डितालय़ा-समान ॥६२९॥
दास-दासी असꣳख्य, ईश्वर्य अतिशय़ ।
निरन्तर परममङ्गल शोभामय़ ॥६३०॥
देवपूज्य हाड़ाइ पण्डित, पद्मावती ।
प्राणाधिका नित्यानन्द पुत्रे स्नेह अति ॥६३१॥
श्रीवसु, जाह्नवा—पुत्रवधु दुइ जने ।
नय़नसम्पुटे सदा राखे एइ मने ॥६३२॥
कत साधे करे पुत्रवधूर पालन ।
देखि पूत्रवधू-रीत जुड़ाय़ नय़न ॥६३३॥
जगतेर पूज्य सूर्यदासेर दुहिता ।
श्वशुर-शाशुड़ी-स्नेहे सदा उल्लसिता ॥६३४॥
श्रीजाह्नवा ए-कौतुक मने विचारिते ।
हैल निद्राभङ्ग, पुनः आकर्षे निद्राते ॥६३५॥
पुनः स्वप्न देखे—एकचक्रा नदीतीरे ।
नाना पुष्पकानन अपूर्व शोभा करे ॥६३६॥
पुञ्ज पुञ्ज भ्रमरे गुञ्जरे अनिवार ।
नाना पक्षी शब्द करे अति चमत्कार ॥६३७॥
मन्द मन्द बहे सदा मलय़पवन ।
वनशोभा मुनीन्द्रगणेर हरे मन ॥६३८॥
तथा एक वृक्ष उच्च प्रफुल्लातिशय़ ।
तार तले दिव्य सिꣳहासन रत्ममय़ ॥६३९॥
सिꣳहासन बेड़िय़ा शोभय़े दासीगण ।
झलमल करे नाना वसन-भूषण ॥६४०॥
तालवृत्त, चामर, चन्दन, चुय़ा आर ।
सुबालित वारि, नानापुष्प-उपहार ॥६४१॥
ताम्बूल-सम्पुट-आदि लैय़ा सर्वजने ।
देखे नित्यानन्द-शोभा रत्नसिꣳहासने ॥६४२॥
नित्यानन्द-शोभा कोटि कन्दर्प-मोहन ।
रूपेर निछनि—चम्पा, केशर, काञ्चन ॥६४३॥
सदा चन्द्रवदने मधुर मृदु हासि ।
उगारय़े कि नव अमिय़ा राशि राशि ॥६४४॥
नेत्रेर भङ्गिते तरुणीर धैर्य हरे ।
सर्वाङ्ग-उपमा नाइ भुवन-भितरे ॥६४५॥
श्रीनित्यानन्देर वाम दक्षिण दिकेते ।
श्रीवसु, जाह्नवा शोभे—उपमा कि दिते ॥६४६॥
रूपेर छटाय़ से कानन आलो करे ।
अङ्गेर सोष्ठबे कोटि रति-मद हरे ॥६४७॥
श्रीपद्मवदने किबा हासि मन्द मन्द ।
निरन्तर झुरे अद्भुत मकरन्द ॥६४८॥
कि मधुर भङ्गि दीर्घ चकोर-नय़ान ।
नित्यानन्द-मुखचन्द्रामृत करे पान ॥६४९॥
देखि प्रेमरीत दासी ताम्बूल लईय़ा ।
श्रीवसु-जाह्नवा-करे देन हृष्ट हैय़ा ॥६५०॥
नित्यानन्दमुखे दोꣳहे ताम्बूल योगाय़ ।
चर्वित ताम्बूल प्रभु दोꣳहारे भुञ्जाय़ ॥६५१॥
चुय़ा-चन्दनादि दोꣳहे दासी योगाइते ।
दोꣳहार कौतुक प्राणनाथे समर्पिते ॥६५२॥
कुन दासी योगाय़ेन नाना पुष्पहार ।
प्रिय़गणे दिते बाड़े कौतुक दोꣳहार ॥६५३॥
निजाङ्ग-चन्दन-चुय़ा प्रिय़ा-अङ्गे दिते ।
नित्यानन्द दोꣳहे आलिङ्गय़े कौतुकेते ॥६५४॥
आपन गलार माला दुह गले दिय़ा ।
रहे सुभङ्गिते अङ्गे अङ्ग मिशाइय़ा ॥६५५॥
देखितेइ परम अद्भुत ए ना रङ्ग ।
श्रीजाह्नवा ईश्वरीर हैल निद्राभङ्ग ॥६५६॥
स्वप्नभङ्गे दुःखी हैय़ा भावे मने मने ।
‘एमन कौतुक कभु ना देखि स्वपने ॥६५७॥
हईल प्रभात निशि, उल्लासे ईश्वरी ।
कहे किछु काहुके, ना कहे स्पष्ट करि ॥६५८॥
एकचक्रा छाड़िय़ा याइते प्राण कान्दे ।
करय़े यतन, चिते स्थिर नाहि बाꣳधे ॥६५९॥
खड़दहे याइबार जन्य श्रीईश्वरीर प्रति दैवादेश एवꣳ खड़दह-पथे श्रीईश्वरीर नाना स्थान-दर्शन—
अकस्मात् कहे केह—‘सदा आछ एथा ।
खड़दहे गिय़ा शीघ्र साध मनःकथा’ ॥६६०॥
शुनि सबा-सह चले एकचक्रा हैते ।
करिते दर्शन लोक धाय़ चारि भिते ॥६६१॥
सेइ पथे एक महा-मद्यप ब्रामण ।
मदिरा-पानेते मत्त करय़े नर्तन ॥६६२॥
क्षणे हासे क्षणे कान्दे भासे नेत्रजले ।
क्षने कम्प, लम्फ क्षणे, पड़े महीतले ॥६६३॥
देखिय़ा ताꣳहार चेष्टा जाह्नवा ईश्वरी ।
निज-सङ्गीगणे जिज्ञासय़े धीरि धीरि ॥६६४॥
‘कह, कह इꣳहो केने हैल एमन ?’ ।
सबे कह—‘एइ महा-मद्यप ब्राह्मण ॥६६५॥
शुनि अनुग्रह करि कहय़े ईश्वरी ।
‘ऐछे प्रेमे मत्त करु प्रभु गौरहरि’ ॥६६६॥
इहा शुनि हरिबोल बोले सर्वजन ।
‘धन्य धन्य धन्य एइ मद्यप ब्राह्मण’ ॥६६७॥
ब्राह्मणेर सौभाग्य कहिते नाहि पारि ।
ईश्वरी-कृपाय़ हैल भक्ति-अधिकारी ॥६६८॥
ऐछे जीवे करिय़ा अशेष अनुग्रह ।
मौड़्एश्वर-पथे चलिलेन सबा-सह ॥६६९॥
मौड़ेश्वरे कैल गिय़ा शिवेर दर्शन ।
याꣳरे पूजिलेन पद्मावतीर नन्दन ॥६७०॥
कुण्डलीदमन यथा कैल नित्यानन्द ।
देखिय़ा से-स्थान हैल सबार आनन्द ॥६७१॥
नित्यानन्द ये पथे गेलेन वक्रेश्वरे ।
लोके सेइ पथ देखाइला सकलेरे ॥६७२॥
स्रीईश्वरी राढ़देश भ्रमिय़ा तुरिते ।
कण्टकनगरे आइला सबार सहिते ॥६७३॥
श्रीयदुनन्दन महा उल्लसित हैय़ा ।
याजिग्रामे समाचार दिल पाठाइय़ा ॥६७४॥
शुनि गणसह श्रीनिवास सेइचक्षणे ।
कण्टक-नगरे आइला महाहर्ष मने ॥६७५॥
श्रीईश्वरी-चरण-दर्शने ये उल्लास ।
भागवतगणे देखि ये सुख-प्रकाश ॥६७६॥
ये सकल प्रसङ्ग हईल परस्परे ।
से सब कहिते नारि बाहुल्येर डरे ॥६७७॥
श्रीनिवास नरोत्तम-निकटे आसिय़ा ।
कहिल, शुनिल सब निर्जने वसिय़ा ॥६७८॥
गोस्वामिगणेर कथा गोविन्द कहिला ।
से सब शुनिय़ा अति व्याकुल हईला ॥६७९॥
रामचन्द्र ‘गोपालविरुदावली’ दिल ।
श्रीनिवासाचार्य लैय़ा मस्तके धरिल ॥६८०॥
हईल अनेक रात्रि, शय़न करिला ।
स्वप्नच्छले गोस्वामी आचार्य प्रबोधिला ॥६८१॥
याजिग्रामे श्रीईश्वरीर सम्वर्धना—
श्रीईस्वरी-आगे निशि प्रभात-समय़े ।
निजालय़े लईते प्रणमि निवेदय़े ॥६८२॥
श्रीनिवासाचार्ये अति अनुग्रह करि ।
सबा सह याजिग्रामे गेलेन ईश्वरी ॥६८३॥
श्रीयाजिग्रामेर लोक आनन्द-हिय़ाय़ ।
करिते दर्शन सबे चतुर्दिगे धाय़ ॥६८४॥
श्रीनिवासाचार्य अति उल्लसित चिते ।
शीघ्र समाचार पाठाइला श्रीखण्डेते ॥६८५॥
नरोत्तम, रामचन्द्र-आदि प्रिय़गणे ।
करिला नियुक्त सर्वकार्य-समाधाने ॥६८६॥
देखि चेष्टा सकल महान्ते मोदभरे ।
ना जानय़े भिन्न, येन आइला निज-घरे ॥६८७॥
सर्व महान्तेर वासा हैल रम्य स्थाने ।
ईश्वरीर वासा श्रीनिवासेर भवने ॥६८८॥
श्रीजाह्नवा ईश्वरी भवने प्रवेशिते ।
आचार्येर भार्या आइसे आगुसरि निते ॥६८९॥
महालज्जावती, गति अति सुललित ।
हेन-नवनीत अङ्ग वसने आवृत ॥६९०॥
मृदुहासि-मिशा मुखपद्म सुनिर्मल ।
अति से सुचारु दीर्घ नय़नय़ुगल ॥६९१॥
झरय़े आनन्दआश्रु ईश्वरी-दर्शने ।
पुलक व्यापय़े प्रममिते श्रीचरणे ॥६९२॥
श्रीईश्वरी कहि किबा सुमधुर भाषे ।
तुलि लैल कोले कि अद्भुत स्नेहावेशे ॥६९३॥
आचार्येर भार्या बहु दैन प्रकाशिय़ा ।
वसाइला दिव्यासने मन्दिरे लईय़ा ॥६९४॥
सुबासित जले पाद-प्रक्षालन कैल ।
वर्णिते ना जानि ये आनन्द उथलिल ॥६९५॥
देखि श्रीनिवासाचार्य भार्यार सुरीत ।
तिले तिले ईश्वरीर बार्ह्̤ए महाप्रीत ॥६९६॥
याजिग्रामे ये आनन्द हईल रन्धने ।
ये आनन्द हैल महाप्रसाद-सेवने ॥६९७॥
प्रत्येक महान्त-मने हैल ये आनन्द ।
ताहा विस्तारिय़ा कि वर्णिब मुइ मन्द ? ॥६९८॥
परस्पर ये कौतुक कहिते ना पारि ।
याजिग्रामवासी लोके देखे नेत्र भरि ॥६९९॥
सकल महान्त कृष्णकथा-आलापने ।
वसिय़ा आछेन अतिशय़ रम्य स्थाने ॥७००॥
हेनकाले (श्री)खण्ड हैते श्रीरघुनन्दन ।
आइलेन—सङ्गे महाभागवतगण ॥७०१॥
कि अपूर्व मिलन हईल परस्परे ।
देखिते से प्रेमावेश केबा धैर्य धरे ? ॥७०२॥
परस्पर गौड-व्रज-सꣳवाद कहिते ।
हईल व्याकुल, केह नारे स्थिर हैते ॥७०३॥
धैर्यावलम्बन करि श्रीरघुनन्दन ।
ज्लिज्ञासिला ईश्वरीर गमनागमन ॥७०४॥
श्रीपरमेश्वरीदास धैर्यावलम्बिल ।
आद्योपान्त श्रीरघुनन्दने निल्वेदिल ॥७०५॥
श्रीरघुनन्दन हर्षे महान्तगणेरे ।
निवेदिल—प्रभाते श्रीखण्ड याइबारे ॥७०६॥
श्रीजाह्नवा ईश्वरी आगे निवेदिय़ा ।
शीघ्र (श्री)खण्डे गेला श्रीनिवासे कत कैय़ा ॥७०७॥
एथा सन्ध्या-समय़ेते भागवतगण ।
करिलेन कतक्षण नाम-सङ्कीर्तन ॥७०८॥
ईश्वरी-आज्ञाय़ श्रीनिवास हैय़ा हृष्ट ।
श्रीमद्भागवत-पाठे कैल सुधा वृष्ट ॥७०९॥
हईलेन प्रेमानन्दे निमग्न सकले ।
सबार तितिल तनु नय़नेर जले ॥७१०॥
श्रीमद्भागवत-पाठ हैल समापन ।
कतक्षणे स्थिर हईलेन सर्वजन ॥७११॥
जाह्नवा ईश्वरी अति मनेर उल्लासे ।
श्रीनिवास-प्रति कहे सुमधुर भाषे १ ॥७१२॥
‘रजनी-प्रभाते श्रीखण्डे गमन करिब ।
श्रीखण्ड हईते खड़दहे स्वराय़ याइब ॥७१३॥
अति अल्पकाल एथा हैल मोर स्थिति ।
हिय़ा कि करय़े, ना बुझिय़े बुद्धिगति’ ॥७१४॥
श्रीनिवास कहे—‘एबे विलम्ब ना सहे ।
प्रकाशिते मूर्ति शीघ्र गिय़ा खड़दहे ॥७१५॥
श्रीमती राधिकामूर्ति-निर्माण हईले ।
हईबे सुस्थिर वृन्दावन पाठाइले ॥७१६॥
श्रीगोपीनाथेर इथे आग्रहातिशय़ ।
हईब निर्माण अति शीघ्र—मने लय़’ ॥७१७॥
श्रीनिवासवाक्ये हर्ष हईय़ा ईश्वरी ।
पुनः श्रीनिवास-प्रति कहे धीरि धीरि ॥७१८॥
‘खड़दहे गिय़ा पाठाइब समाचार ।
एबे कोथा कोथा स्थिति हईबे तोमार ?’ ॥७१९॥
श्रीनिवास कहे—‘एथा रहि दिन चारि ।
नवद्वीपे गमन करिब शीघ्र करि’ ॥७२०॥
प्राय़ नवद्वीपे गुप्त हईल सकले ।
प्रभुर ईशान मात्र आछेन एकले ॥७२१॥
तार समिभ्यारी ये आछेन कत जन ।
हईय़ाछे ताꣳ सभार सꣳशय़-जीवन ॥७२२॥
करिला ईशान आज्ञा आमारे याइते ।
तथा गिय़ा आसि याब खेतुरी ग्रामेते ॥७२३॥
कथो दिन रहि तथा विष्णुपुर गिय़ा ।
रहिब एथाइ तथा हईते आसिय़ा’ ॥७२४॥
श्रीईस्वरीर श्रीखण्डे आगमन—
ऐछे कत कहिते अनेक रात्रि हैल ।
प्रसाद भुञ्जिय़ा सबे शय़न करिल ॥७२५॥
रजनी-प्रभाते (श्री) खण्डे चलिते ईश्वरी ।
आचार्येर भार्याय़ प्रबोधे यत्न करि ॥७२६॥
देखिय़ा ताꣳहार दशा व्याकुल हईय़ा ।
करि बहु अनुग्रह श्रीखण्डे चलिला ॥७२७॥
श्रीखण्डनिवासी लोक धाय़ चारिभिते ।
श्रीरघुनन्दन आइसे आगुसरि निते ॥७२८॥
गणसह गति अतिशय़ चमत्कार ।
दूरे देखि एक विप्र कहे वार वार ॥७२९॥
‘भाग्यवन्त नाराय़णदासेर नन्दन ।
मुकुन्द, माधव, नरहरि तिन जन ॥७३०॥
मुकुन्देर पुत्र रघुनन्दन ठाकुर ।
इꣳहार दर्शने सब ताप याय़ दूर ॥७३१॥
किबा भक्तिरसेते निमग्न निरन्तर’ ।
ऐछे कत कहे, सङ्गे चले विप्रवर ॥७३२॥
रघुनन्दनेर पुत्र नाम श्रीकानाइ ।
कल्प वय़से सौन्दर्येर सीमा नाइ ॥७३३॥
श्रीगौरचन्द्रेर गुणे सदाइ विह्वल ।
धरिते नारय़े अङ्ग, करे टलमल ॥७३४॥
महान्तगणेरे देखि मनेर उल्लासे ।
कि नाम काꣳहार—ताहा पिताय़ जिज्ञासे ॥७३५॥
श्रीरघुनन्दन पुत्रे सबे जानाइय़ा ।
मिलला सबार आगे अति हृष्ट हैय़ा ॥७३६॥
ठाकुर कानाइर नेत्र पूर्ण अश्रुजले ।
प्रणमिते सबे तुलि लईलेन कोले ॥७३७॥
सर्व महान्तेर अति आनन्द-हृदय़ ।
श्रीईश्वरी करिलेन वात्सल्यातिशय़ ॥७३८॥
सबा-सह ईश्वरी परमान्दन-मने ।
हईलेन उपनीत गौराङ्ग-प्राङ्गणे ॥७३९॥
गौराङ्ग दर्शने ये हईल प्रेमावेश ।
एक मुखे कवि कि वर्णिबे तार लेश ? ॥७४०॥
श्रीमदनगोपालेर करिला दर्शन ।
यारे लाड़्उ खाओय़ाइला श्रीरघुनन्दन ॥७४१॥
कतक्षण रहि सबे प्रभुर प्राङ्गणे ।
गेला प्रभु-मन्दिर-निकट वासा-स्थाने ॥७४२॥
यैछे स्नान भोजनादि हईल सबार ।
विस्तारेर भवने ताहा नारि वर्णिवार ॥७४३॥
रात्रिय़ोग श्रीसङ्कीर्तनादि येन मते ।
किछु विस्तारिब नरोत्तम-विलासेते ॥७४४॥
श्रीखण्ड हईते श्रीईश्वरीर खड़दाहे गमन—
श्रीस्वरी खड़दह करिते गमन ।
हईला व्याकुल अति श्रीरघुनन्दन ॥७४५॥
विदाय़-समाय़े से कहिला परस्परे ।
से सब शुनिते काङ्ठ पाषाण विदरे ॥७४६।
श्रीपरमेश्वश्रीदासे श्रीरघुनन्दन ।
करिलेन अनेक सामग्री समर्पण ॥७४७॥
श्रीईसश्वरी श्रीरघुनन्दनादि सकले ।
कहिल अनेक सिक्त हैय़ा नेत्रजले ॥७४८॥
कृष्णदास सरखेल-आदि सबा-सह ।
श्रीईश्वरी गमन करिला खड़दह ॥७४९॥
श्रीनिवास आचार्यादि श्रीखण्डे रहिय़ा ।
गृहे आइला श्रीईश्वरी-गुण सोङरिया ॥७५०॥
खड़दहेर पथे श्रीनवद्वीपधाम-दर्शन—
(श्री)खण्ड हैते श्रीईश्वरी गिय़ा नदीय़ाय़ ।
देखे—प्रभुपरिकरगण शून्यप्राय़ ॥७५१॥
श्रीईशान-आदि ये छिलेन कथोजल ।
आगुसरि आइला शुनि ईश्वरी-गमन ॥७५२॥
सबापह ईश्वरीर दर्शन करिय़ा ।
पाइलेन प्राण येन, जुडाइल हिय़ा ॥७५३॥
कृष्णदासादि-सह ईश्ब्वरी ए-सबाय़ ।
देखि कि अद्भुत प्रेम उथले हिय़ाय़ ॥७५४॥
श्रीवास पण्डितेर भवन प्रवेशिते ।
हईलेन यैछे सबे—के पारे कहिते ॥७५५॥
से दिवस श्रीवासभवने करि स्थिति ।
मनेर उद्वेगेते गोङाय़ दिवारात्रि ॥७५६॥
हैल किछु निद्रा निशि अवशेष काले ।
गणसह प्रभु देखा दिला स्वप्नच्छले ॥७५७॥
श्रीगौरचन्द्रेर किबा सुमधुर वेश ।
शिरे शोभे चिकुन चाꣳचर चारु केश ॥७५८॥
वामे गदाधर, नित्यानन्द दक्षिणेते ।
सम्मुखे अद्वैत श्रीनिवासादि-सहिते ॥७५९॥
सङ्कीर्तनारम्भे श्रीगौरसुन्दर ।
नाचे नित्याननद, श्रीअद्वैत, गदाधर ॥७६०॥
श्रीवास, मुरारि, वक्रेश्वर, हरिदास ।
नृत्ये कि अद्भुत भङ्गि करय़े प्रकाश ॥७६१॥
गोविन्द, माधव, वासु, मुकुन्दादि यत ।
गीत-वाद्ये सकले हईय़ा उनमत ॥७६२॥
नवद्वीपपुरी महा आनन्दे उतले ।
नाचे ब्रह्मा, शिव, शेष मनुष्येर मेले ॥७६३॥
करि जय़ध्वनि लोक चतुर्दिके धाय़ ।
सङ्कीर्तने नानापुष्प वर्षे देवताय़ ॥७६४॥
देखितेइ नवद्वीप ए हेन मङ्गल ।
जाह्नवा ईश्वरी दुःख भुलिय़ा सकल ॥७६५॥
निद्राभङ्ग हईतेइ व्याकुल हईला ।
प्रभु-इच्छामते धैर्यावलम्बन कैला ॥७६६॥
नवद्वीपधामे प्रणमिल वार वार ।
स्वप्ने ये देखिल ताहा ना कैल प्रचार ॥७६७॥
श्रीईशानादि सबे यत्ने प्रबोधिला ।
‘श्रीनिवास शीघ्र आसिबेन’—जानाइला ॥७६८॥
श्रीनवद्वीप हईते अम्बिका हईय़ा खड़दहे गमन—
ऐछे दुइ दिवस रहिय़ा नदीय़ाय़ ।
सबा-सह ईश्वरी गेलेन अम्बिकाय़ ॥७६९॥
नित्यानन्द, श्रीचैतन्येर करिला दर्शन ।
हईला विह्वल, अश्रु नहे निवारण ॥७७०॥
एकदिन अम्बिकाय़ रहि प्रेमावेशे ।
यात्रा कैला नित्यानन्द-चैतन्य-आदेशे ॥७७१॥
खड़दह-ग्रामे शीघ्र लोक पाठाइल ।
ईश्वरीगमन-ध्वनि सर्वत्र हईल ॥७७२॥
गङ्गातीरवर्ती यत वैष्णवेर गण ।
आगुसारि लईते आइला सर्वजन ॥७७३॥
भाग्यवन्त वणिकेर बाल, वृद्ध यत ।
ता-सरार ये आर्ति ता के कहिबे कत ? ॥७७४॥
ईश्वरीदर्शने सबे आपना पासरे ।
ईश्वरी गेलेन शीघ्र उद्धारण-घरे ॥७७५॥
उद्धारण दत्तेर वाटीते स्थिति कैल ।
ईश्वरी-दर्शने बहु लोक-भीड़ हैल ॥७७६॥
उद्धारण-दत्तेर चरित्र सोङरिय़ा ।
श्रीजाह्नवा ईश्वरी धरिते नारे हिय़ा ॥७७७॥
नित्यानन्द-प्रिय़ उद्धारणेर कथाय़ ।
यैछे, प्रभुगण-चेष्टा—कहने ना याय़ ॥७७८॥
उद्धारण-घरे रहि नौकाय़ चर्ह्̤इला ।
सबे अनुग्रह करि खड़दहे गेला ॥७७९॥
खड़दह-आदि ग्रामवासी लोकगण ।
पाइला परमानन्द करिय़ा दर्शन ॥७८०॥
अति शुभक्षणेइ भवने प्रवेशिय़ा ।
श्रीजाह्नवा ईश्वरीर उल्लसित हिय़ा ॥७८१॥
गङ्गा, वीरचन्द्र्, अति उल्लसित मने ।
प्रणमिला श्रीजाह्नवा-ईश्वरी-चरणे ॥७८२॥
गङ्गा-वीरचन्द्र-मुख करि निरीक्षण ।
स्नेहावेशे ईश्वरीर सजल नय़न ॥७८३॥
ईश्वरीर ये वात्सल्य ना जानि कहिते ।
ना देखिय़े कोथाओ उपमा ऐछे दिते ॥७८४॥
श्रीवसुदेवीरे श्रीजाह्नवा प्रणमिते ।
ये प्रेम-प्रकाश हैल—के पारे कहिते ? ॥७८५॥
स्नेहावेशे श्रीवसु मङ्गल जिज्ञासिला ।
श्रीजाह्नवा सꣳक्षेपे सकल निवेदिला ॥७८६॥
ईश्वरीर सङ्गे ये ये महान्तेर गति ।
ता सबार ये आनन्द कहि कि शकति ॥७८७॥
नय़न-भास्करे श्रीजाह्नवा आज्ञा कैला ।
तेꣳह श्रीराधिकामूर्ति निर्माणारम्भिला ॥७८८॥
ए-सब प्रसङ्ग जनाइलु सꣳक्षेपेते ।
कुन् भाग्यवान् विस्तारिब भाल मते ॥७८९॥
ए-सब शुनिते यार बाड़्हे दृढ़ रति ।
अनाय़ासे मिले तारे निर्मल भकति ॥७९०॥
श्रीनिवासाचार्य-चरण चिन्ता करि ।
भक्तिरत्नाकर कहे दास नरहरि ॥७९१॥
इति श्रीश्रीभक्तिरत्नाकरे ईश्वरी-श्रीजाह्नवाय़ाः श्रीवृन्दावन-गमनागमनादिवर्णनꣳ नाम एकादशस्तरङ्गः ॥११॥
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