१०

दशम तरङ्ग

जय़ नवद्वीपनाथ श्रीगौरसुन्दर ।
जय़ नित्यानन्द एकचक्रार ईश्वर ॥१॥

जय़ श्रीअद्वैत शान्तिपुरेर भूषण ।
जय़ जय़ प्रभुर यतेक भक्तगण ॥२॥

जय़ जय़ श्रोतागण गुणेर आलय़ ।
एबे ये कहिय़े शुन हईय़ा सदय़ ॥३॥

द्विज हरिदासाचार्येर अप्रकट-तिथि-महामहोत्सवेर आय़ोजनार्थ श्रीगोकुलानन्दके श्रीनिवास आचार्यप्रभुर आदेश—

श्रीनिवास आचार्य ठाकुर श्रीखण्ड हैते ।
याजिग्रामे आइला निजगणेर सहिते ॥४॥

परम सुकृतिमन्त जने करि यत्न ।
करय़े प्रदान गोस्वामीर ग्रन्थरत्न ॥५॥

सर्वश्रेष्ठ भक्ति—कहे गर्जिय़ा गर्जिय़ा ।
शुनि भक्तिविरोधी पलाय़ नम्र हईय़ा ॥६॥

परम आनन्दे आचार्येर शिष्यगण ।
निरन्तर भक्तिग्रन्थ करे अध्यय़न ॥७॥

सबे सर्वशास्त्रे विचक्षण गुणालय़ ।
देखि आचार्येर मने हर्ष अतिशय़ ॥८॥

श्रीगोकुलानन्द, श्रीदासादि प्रिय़गणे ।
दीक्षामन्त्र देन शीघ्र—एइ हैल मने ॥९॥

सभामध्ये श्रीगोकुलानन्दे सम्बोधिय़ा ।
कहे सुमधुर बाक्य व्याकुल हईय़ा ॥१०॥

‘श्रीसरकार ठाकुर, श्रीदास गदाधर ।
ए-दुꣳहो-विरहे दग्ध हईल अन्तर ॥११॥

रहिते नारिलु, शीघ्र वृन्दावने गेलु ।
तथाओ दारुण दुःखसमुद्रे डुबिलु ॥१२॥

गत माघमासे कृष्णा एकादशीदिने ।
हरिदासाचार्य सङ्गोपन वृन्दावने ॥१३॥

आचार्येर अप्रकटे गोस्वामी सकल ।
कहिते ना पारि यैछे हईला विकल ॥१४॥

किछुदिन राखि मोरे सबे प्रबोधिला ।
अति शीघ्र गौड़देशे यात्रा कराइला ॥१५॥

ताꣳ सबार इच्छामते आइलु तुरित ।
एबे तोमा-सबार हईबे मनोहित ॥१६॥

कहिते कि—सकल प्रभुर इच्छा हय़ ।
सर्ब प्रकारेते स्थिर हबे भ्राताद्वय़ ॥१७॥

आचार्येर तिरोभाव-तिथि आराधिते ।
आछे अल्प दिवस—उद्योग चाहि इथे ॥१८॥

शीघ्र गिय़ा कर सामग्रीर आय़ोजन ।
दुइ चारि दिने हबे आमार गमन ॥१९॥

कुन विषय़ेते चिन्ता ना करिह चिते ।
सर्व समाधान हबे आचार्य-कृपाते’ ॥२०॥

इहा शुनि श्रीगोकुलानन्द भ्राता-सने ।
प्रणमिय़ा विदाय़ हईल सेइक्षणे ॥२१॥

रामचन्द्र कविराज आदि सर्वजन ।
सबे कथोदूर सङ्गे करिला गमन ॥२२॥

कहि कत सुमधुर कथा दुइजने ।
निज निज-वासाय़ आइला कतक्षणे ॥२३॥

श्रीदास, गोकुलानन्द सबे सम्बोधिय़ा ।
आइलेन शीघ्र करि काञ्चनगड़िय़ा ॥२४॥

काञ्चनगड़िय़ा ग्रामवासी लोकगण ।
आइला गोकुलानन्दचार्येर भवन ॥२५॥

श्रीदास, गोकुलानन्द स्नेहेर मूरति ।
विवरिय़ा सकल कहिल सभा-पति ॥२६॥

शुनिय़ा विशिष्ट लोकगण टाꣳइ ठाꣳइ ।
करिल सामग्री यत ताꣳर लेखा नाइ ॥२७॥

पृथक् पृथक् बहु वासा निर्माणय़े ।
करि सब प्रस्तुत कहिल भ्राताद्वय़े ॥२८॥

शुनि श्रीगोकुलानन्द आचार्य, श्रीदास ।
हईल दोꣳहार मने परम उल्लास ॥२९॥

उत्सवाय़ोजनार्थ आदेशेर हेतु विवरण—

देखिय़ा अनेक सामग्रीर आय़ोजन ।
केह कारु प्रति कहे, करि सङ्गोपन ॥३०॥

‘कि कार्ये ए आय़ोजन’—बुझिते ना पारि ।
इहा शुनि केह ताꣳरे कहे धीरि धीरि ॥३१॥

‘श्रीमहाप्रभुर शाखा हरिदासाचार्य ।
सर्वत्र विदित—सर्वमते महा आर्य ॥३२॥

महाप्रभु नीलाचले हईला अदर्शन ।
ताꣳर अदर्शने शून्य हैल त्रिभुवन ॥३३॥

प्रभुर विच्छेदे द्विज हरिदासाचार्य ।
मृत्युप्राय़ हईलेन—ना रहिल धैर्य ॥३४॥

देहत्याग करिबेन—ए निश्चय़ कैला ।
ना जानि—कि प्रभुर आदेशे स्थिर हैला ॥३५॥

ज्येष्ठ श्रीगोकुलानन्द कनिष्ठ श्रीदासे ।
कहे सुमधुर वाक्य रसाइला पाशे ॥३६॥

श्रीनिवास आचार्येर चरित्र शुनाइला ।
ताꣳर स्थाने दीक्षामन्त्र निते आज्ञा दिला ॥३७॥

वृन्दावने यात्रा कैला रजनी-प्रभाते ।
एकाकी चलिला केह—नाहि ताꣳर साथे ॥३८॥

वृन्दावने गिय़ा अति निर्जने रहिला ।
श्रीनिवासाचार्य तथा याइय़ा मिलिला ॥३९॥

श्रीदास, गोकुलानन्दे शिष्य करिबारे ।
तेꣳह पुनः, पुनः आज्ञा कैल आचार्येरे ॥४०॥

वृन्दावन हैते श्रीनिवासाचार्य आइला ।
पुनः गौड़ हैते तेꣳह वृन्दावन गेला ॥४१॥

गत माघमासे श्रीआचार्य हरिदास ।
हैला सङ्गोपन—पथे शुने श्रीनिवास ॥४२॥

श्रीनिवासाचार्य अति व्याकुल हईला ।
स्वप्नच्छले द्विज हरिदास प्रबोधिला ॥४३॥

वृन्दावन गिय़ा पुनः आइला श्रीनिवास ।
शुनि आगमन सबे गेला ताꣳर पाश ॥४४॥

श्रीदास, गोकुलानन्दे तेꣳह अति स्नेहे ।
जिज्ञासि कुशल सब कहिलेन दोꣳहे ॥४५॥

दोꣳहे पाठाइय़ा शीघ्र काञ्चनगड़िय़ा ।
तेꣳह आइसेन सङ्गे अनेके लईय़ा ॥४६॥

एइ माघी कृष्णा एकादशी शुभदिने ।
दीक्षा दिब हरिदासाचार्येर नन्दने ॥४७॥

आचार्येर तिरोभाव-तिथि एइ हन ।
हबे महा उत्सव—ए हेतु आय़ोजन ॥४८॥

महाभागवतगण एथाय़ आसिब ।
सङ्कीर्तन-सुखेर समुद्र उथलिब ॥४९॥

आइनु कुटुम्बवाड़ी कार्यानुरोधेते ।
तेञि ए सकल कथा पाइनु शुनिते ॥५०॥

यतदिन ए आनन्द हईब एथाय़ ।
ततदिन एथाइ रहिब सर्वथाय़’ ॥५१॥

ऐछे कत कहि दोꣳहे चले कार्यान्तरे ।
हेनकाल हरिध्वनि व्यापिल नगरे ॥५२॥

चतुर्दिके धाय़ लोक अधैर्य हिय़ाय़ ।
ताहा देखि केह जिज्ञासय़े ता सबाय़ ॥५३॥

‘कि कार्ये याइछ कोथा ऐछे त्रस्त हैय़ा’ ।
इहा शुनि कहे केह महामोद पाइय़ा ॥५४॥

‘आचार्यठाकुर आइला याजिग्राम हैते ।
लोकमुखे शुनि याइ ताꣳर दर्शनेते’ ॥५५॥

इहा शुनि चलय़े पुलकावृत देहे ।
देखे महाभिड़्‌उ श्रीगोकुलानन्द गेहे ॥५६॥

श्रीआचार्यठाकुरेर करिय़ा दर्शन ।
आपना मानय़े धन्य ऐछे सर्वजन ॥५७॥

श्रीदास, गोकुलानन्दे सबे प्रशꣳसय़ ।
दोꣳहार चरित्र कहन ना याय़ ॥५८॥

श्रीदास, गोकुलानन्द आगुसरि गिय़ा ।
आनन्दे विह्वल गृहे आचार्ये आनिय़ा ॥५९॥

रामचन्द्र कबिराज आदि सर्वजने ।
यैछे समादरे—ता वर्णिते केबा जाने ॥६०॥

यथा यथा करिय़ाछिलेन निमन्त्रण ।
तथा तथा हैते आइला भागवतग ॥६१॥

यथा यथा हैते ये ये वैष्णवागमन ।
ताहा ना वर्णिनु, ताहा वर्णिब कुन जन ॥६२॥

वैष्णवसमूह देखि गोकुल, श्रीदास ।
ना धरे धैर्य चित्ते—अद्भुत उल्लास ॥६३॥

करय़े सम्मान यैछे कहने ना याय़ ।
देखिते से चेष्टा सबे महानन्द पाय़ ॥६४॥

काञ्चनगड़िय़ा ग्रामवासी शिष्यगण ।
सबे सर्वप्रकारे नियुक्त सर्वक्षण ॥६५॥

अन्य-अन्य-ग्रामी लोक नाना द्रव्य लैय़ा ।
चतुर्दिके आइसे महा उल्लसित हईय़ा ॥६६॥

महान्तगणेर दर्शने ग्रामवासीदेर आलोचना—

श्रीमहान्तगणेरे करिय़ा सन्दर्शन ।
केह कारु प्रति कहे मधुर वचन ॥६७॥

‘जनमिय़ा ऐछे शोभा ना देखिनु कभु ।
शुनितु, देखिनु एबे—ए आचार्य-प्रभु ॥६८॥

आहा मरि ! कि अपूर्व वैष्णव-सुषमा ।
बुझि—नाइ जगते ए सभार उपमा ॥६९॥

मने एइ दुःख—कालि रहि ए सकले ।
कार्य समाधिय़ा याइबेन प्रातःकाले ॥७०॥

परश्व दिवस ना रहिब कोन जन’ ।
इहा शुनि केह कहे सहास्य वदन ॥७१॥

‘कालि माघ-कृष्णा-एकादशी तिथि हय़ ।
ए-हेतु ए अनुभव कैला—मने लय़ ॥७२॥

श्रीएकादशीते अवैष्णव याहा करे ।
ताहा ए-वैष्णवगण करिते ना पारे ॥७३॥

श्रीएकादशीर तत्त्व वैष्णव से जाने ।
द्वादशीते कार्य समाधिव सावधाने ॥७४॥

श्रीएकादशीर रीत कत जानाइब ।
अद्य एकबार सबे अन्नादि भुञ्जिब ॥७५॥

श्रीएकादशीते एइ वैष्णवसकल ।
केह ना ग्रहण करिबेन अन्न जल ॥७६॥

द्वादशी-दिवसे भुञ्ज्वेन एकबार ।
श्रीएकादशीर ऐछे निय़म-प्रचार ॥७७॥

तोमाय़ मनेर कथा कहिय़े विरले ।
अन्य क्रिय़ा नाइ एइ वैष्णव-मण्डले ॥७८॥

द्वादशी-दिवसे करि परम यतन ।
विविध सामग्री कृष्ण करिब अर्पण ॥७९॥

कृष्णेर प्रसादी द्रव्य दिव्य पात्रे भरि ।
हरिदासाचार्ये समर्पिब यत्न करि ॥८०॥

ऐछे वैष्णवेर बहु क्रिय़ा मु शुनिलु ।
तुमि ना जानह, तेञि किछु जानाइलु’ ॥८१॥

एइ कथा शुनिय़ा कहे—‘एइ हय़ हय़ ।
भक्तिहीन व्याक्ति कि बुझिब ए आशय़’ ॥८२॥

ऐछे कहि चित्त आर्द्र हईल ताहार ।
ताहा निरखिय़ा तेꣳह कहे आर बार ॥८३॥

‘तुमि मने कैला सबे पर्श्व याइब ।
पर्श्व दिवस महा-उत्सव हईब ॥८४॥

अद्य विना रहिबेन सबे दिन चारि ।
परम आनन्दे निरखह नेत्र भरि ॥८५॥

देवेर दुर्लभ सङ्कीर्तन-सुखराशि ।
करह श्रवण महानन्दे दिवानिशि’ ॥८६॥

ऐछे कत निभृते कहिय़ा परस्परे ।
भासय़े सकले भक्तिरसेर साय़रे ॥८७॥

आपना मानिय़ा धन्य उल्लास-हिय़ाय़ ।
लोटाइय़ा पड़ेन श्रीवैष्णवेर पाय़ ॥८८॥

श्रीगोकुलानन्द ओ श्रीदासके श्रील आचार्य-प्रभुर दीक्षादान ओ तिरोभाव-तिथि-महामहोत्सव—

श्रीगोकुलानन्द, श्रीदासेरे पशꣳसय़े ।
दोꣳहार ये क्रिय़ा ता कहिल ना हय़े ॥८९॥

दशमीदिवस दोꣳहे निज-गण-सने ।
करिलेन प्रेमसुधा-वृष्टि सङ्कीर्तने ॥९०॥

एकासदशी-दिने कि अद्भुत दुꣳहु रीत ।
करिबेन मन्त्रदीक्षा—इथे उल्लसित ॥९१॥

श्रीनिवास आचार्य श्रीएकादशी-दिने ।
राधाकृष्ण-मन्त्रदीक्षा दिला दुइ जने ॥९२॥

अपूर्व विधाने शिष्य करि हर्ष हैला ।
राधाकृष्ण-चैतन्यचरणे समर्पिला ॥९३॥

दोꣳहे पड़्‌ए श्रीनिवासाचार्य-पदतले ।
प्रेमाय़ विह्वल, सिक्त आनन्दाश्रुजले ॥९४॥

आचार्यठाकुर दोꣳहे दिते आलिङ्गन ।
चतुर्दिके हरिध्वनि करे सर्वजन ॥९५॥

सकल वैष्णव दुइ भ्रातार चरिते ।
पाइलेन ये आनन्द ताहा कि काहिते ॥९६॥

श्रीएकादशीते यैछे श्रीकथा-कीर्तन ।
ताहा वर्णिबेन भाग्यबहु कविगण ॥९७॥

श्रीदास, गोकुलानन्दाचार्य द्वादशीते ।
नाना भक्ष्य-सामग्री करेन यत्न-मते ॥९८॥

हईल प्रस्तुत—आचार्ये जानाइला ।
आचार्य-ठाकुर कृष्णे भोग समर्पिला ॥९९॥

जानिय़ा श्रीप्रभुर भोजन-अवसर ।
भोग सराइते प्रेमपूर्ण कलेवर ॥१००॥

ताम्बूल अर्पण कैला आचमन दिय़ा ।
देखि नैवेद्येर शोभा जुड़ाइल हिय़ा ॥१०१॥

अन्य पात्रे प्रसादान्न अनेक यतने ।
हरिदासाचार्ये समर्पिलेन निर्जने ॥१०२॥

भोग समर्पिते ये हईल चमत्कार ।
से प्रेम-आवेश किछु नारि वर्णिबार ॥१०३॥

अक्षणावसर जानि आचमन दिला ।
प्रसादी ताम्बूल-आदि यत्ने समर्पिला ॥१०४॥

से समय़े वैष्णवेर ये आनन्द मने ।
ये अद्भुत क्रिय़ ता वर्णिब कुन जने ॥१०५॥

श्रीदास श्रीआचार्य-ठाकुरे निवेदय़ ।
‘स्थान-सꣳस्कार हैल, कैछे, आज्ञा हय़’ ॥१०६॥

शुनि श्रीआचार्य यत्ने वैष्णवसकले ।
बसाइला अपूर्व बन्धाने रम्यस्थले ॥१०७॥

क्रमे परिवेष्टा परिवेशन करय़ ।
अन्नादि-सौगन्ध सर्वचित्त आकर्षय़ ॥१०८॥

‘हरि हरि’-ध्वनि करि वैष्णवसकल ।
भुञ्जेन प्रसाद—महा आनन्दे विह्वल ॥१०९॥

भोजनावसरे सबे कैला आचमन ।
देखिते से रीत कार ना जुड़ाय़ मन ॥११०॥

स्थाने स्थाने लोकेर सꣳघट्ट अतिशय़ ।
विविध प्रकार महाप्रसाद भुञ्जय़ ॥१११॥

भुञ्जिल यतेक लोक लेखा नाइ तार ।
काञ्चनगड़िय़ा-ग्रामे आनन्द अपार ॥११२॥

श्रीनिवास आचार्य-ठाकुर हर्ष हैय़ा ।
भुञ्जिल प्रसाद सर्व लोके भुञ्जाइय़ा ॥११३॥

श्रीगोकुलानद्द, श्रीदासादि हर्षावेशे ।
भुञ्जिलेन प्रभुपात्रे अवशेष शेषे ॥११४॥

भोजनादि क्रिय़ा साङ्ग हईले सकले ।
आइलेन महासुखे सङ्कीर्तन-स्थले ॥११५॥

भक्तिमूर्तिमय़ सबे सुखेर आलय़ ।
देखिते से शोभा सर्वलोकेर विस्मय़ ॥११६॥

चदुर्दिके हरिध्वनि करय़े सकले ।
सङ्कीर्तनारम्भे प्रेमसमुद्र उथले ॥११७॥

नृत्य-गीत-वाद्येर तुलना नाइ दिते ।
सङ्कीर्तने ये सुख ता के पारे वर्णिते ॥११८॥

ऐछे सङ्कीर्तनानन्दे हईय़ा विह्वल ।
ना जाने रजनी दिन वैष्णवसकल ॥११९॥

प्रेममय़ श्रीनिवास-आचार्यठाकुरे ।
तिलेक छाड़िते प्राण ना जानि कि करे ॥१२०॥

दिन चारि पाꣳच महा आनन्दे रहिला ।
हईते विदाय़ अति अधैर्य हईला ॥१२१॥

श्रीदास, गोकुलानन्दे प्रबोधि यतने ।
काञ्चनगड़िय़ा हैते चलय़े विहाने ॥१२२॥

कहिय़े दोꣳहार चारु चेष्टा परस्परे ।
गेलेन वैष्णवगण निज-निज घरे ॥१२३॥

वैष्णवविच्छेदे यैछे हैला दुइ भाइ ।
से सब कहिते हिय़ा विदरे सदाइ ॥१२४॥

श्रीनिवासाचार्य यत्ने दोꣳहे स्थिर कैला ।
गणसह दुइ चारि दिवस रहिला ॥१२५॥

श्रीगोकुलानन्द, श्रीदासेर गुरुभक्ति ।
एकमुखे ताहा कि कहिते मोर शक्ति ॥१२६॥

काञ्चनगड़िय़ा आदि ग्रामे ये ये हैल ।
ताहा विस्तारिय़ा एथा वर्णिते नारिल ॥१२७॥

काञ्चनगड़िय़ाय़ यतेक भाग्यवान् ।
सबे तृप्त कैल नेत्र-कर्ण-मन-प्राण ॥१२८॥

महा-महोत्सव-कथा सर्वत्र व्यापिल ।
गणसह आचार्याति-आनन्द हईल ॥१२९॥

काञ्चनगड़िय़ा हईते गणसह श्रीनिवासाचार्यप्रभुर खेतरी-यात्रा—

यद्यपि आचार्यवर्ष धैर्यावलम्बने ।
तथापि अधैर्य प्रिय़ नरोत्तम विने ॥१३०॥

सङ्गे लैय़ा परम प्रवीण शिष्यगण ।
श्रीखेतरी-ग्रामे शीघ्र करय़े गमन ॥१३१॥

शिष्यगण-नाम किछु कहिय़े एथाय़ ।
ये नाम-श्रवणे सर्व दुःख दूरे याय़ ॥१३२॥

रामचन्द्र कविराज गुणेर निधान ।
श्रीदास, गोकुलानन्दाचार्य दय़ावान् ॥१३३॥

श्रीकृष्णवल्लभ देउलि-ग्रामनिवासी ।
चक्रवर्ती व्यासाचार्य—ख्याति भक्तिराशि ॥१३४॥

भक्तिमूर्ति श्रीवल्लबीकान्त कविराज ।
याꣳरे देखि काꣳपे महापाषण्ड-समाज ॥१३५॥

श्रीनृसिꣳह कविराज महाकवि येꣳहो ।
याꣳर भ्राता नाराय़ण—कविश्रेष्ठ तेꣳहो ॥१३६॥

कणपूर कविराज परम सुधीर ।
शुनि ताꣳर काव्य केहो हैते नारे स्थिर ॥१३७॥

भगवान् कविराज गुणेर आलय़ ।
याꣳर भ्राता रूप निमुबीर भौमालय़ ॥१३८॥

पञ्चकुटे सेरगड़वासी श्रीगोकुल ।
पूर्व-वास कढ़ई—कवीन्द्र भक्त्यतुल ॥१३९॥

द्विजश्रेष्ठ रामकृष्ण, कुमुद—ए द्वय़ ।
ए दुइ भ्रातार गुण कहिल ना हय़ ॥१४०॥

चक्रवर्ती श्यामदाश, शीरामचरण ।
व्यवहारे आचार्य-श्यालक दुइ जन ॥१४१॥

श्रीरूप घटक-—याजिग्रामे याꣳर वास ।
काञ्चनगड़िय़ावासी श्रीगोपालदास ॥१४२॥

ए सकल शिष्य-सङ्गे आचार्यय्ठाकुर ।
काञ्चनगड़िय़ा हैते आइला कथोदूर ॥१४३॥

रामचन्द्र-प्रति कहे ईषत् हासिय़ा ।
‘याइबे खेतरी-ग्रामे बुधरि हईय़ा ॥१४४॥

तेलिय़ा-बुधरि-ग्रामे कनिष्ठ तोमार ।
तारे जानाइबे के गमन-समाचार ?’ ॥१४५॥

रामचन्द्र कहे—‘जानाइते हबे नाइ ।
प्रभुर गमन-ध्बनि हैल सर्व ठाꣳइ ॥१४६॥

हेन काले बुधरि हईते एक जन ।
अति शीघ्र आसि कैल आचार्ये दर्शन ॥१४७॥

भूमिते पड़िय़ा प्रणमय़े वार वार ।
जिज्ञासिते कुशल कहय़े समाचार ॥१४८॥

सकल मङ्गल प्रभु ! तोमार दर्शने ।
श्रीगोविन्द-आदि चाहि आछे पथ-पाने ॥१४९॥

प्रभु वृन्दावने गेले गेला रामचन्द्र ।
तेलिय़ा-बुधरि-ग्रामे आइला गोविन्द ॥१५०॥

तेꣳहो आत्मा समर्पिल प्रभुर चरणे ।
सदा चिन्ते—दर्शन पाइब कत दिने ॥१५१॥

प्रभु वृन्दावन हैते गमन करिला ।
रामचन्द्र लईय़ा वनविष्णुपुरे आइला ॥१५२॥

याजिग्रामे आसि विनाशिला सर्व दुःख ।
कण्टकनगर, खण्डे हैला महासुख ॥१५३॥

काञ्चगड़िय़ा-ग्रामे आसि गणसने ।
महा-महोत्सवे मग्न कैला सर्व जने ॥१५४॥

काञ्चनगड़िय़ा हैते गमन हईल ।
प्रभुर ए सब कथा सर्वत्र व्यापिल ॥१५५॥

हईनु कृतार्थ करि प्रभुर दर्शन ।
धन्य एइ देश याते हैल आगमन’ ॥१५६॥

ऐछे कत कहि प्रणमिय़ा श्रीचरणे ।
प्रणमिल रामचन्द्रादिक सर्व जने ॥१५७॥

विदाय़ हईय़ा शीघ्र बुधरि आइला ।
श्रीआचार्यप्रभुर गमन जानाइला ॥१५८॥

श्रील आचार्य प्रभुर आगमन-सꣳवादे बुधरि-ग्रामे आनन्दोल्लास—

शुनि श्रीनिवास आचार्येर आगमन ।
चतुर्दिके धाय़ लोक करिते दर्शन ॥१५९॥

श्रीगोविन्द-आदि महा आनन्द अन्तरे ।
करय़े सङ्गलकार्य विविध प्रकारे ॥१६०॥

शीघ्र वासस्थानेर सꣳस्कार कराइला ।
आगुसरि गिय़ा सबे आचार्ये आनिला ॥१६१॥

यैछे श्रीआचार्य लैय़ा आइला वासाय़ ।
यैछे सबे मग्न हैला श्रीआचार्य-शोभाय़ ॥१६२॥

यैछे आचार्येर शिष्यगणे समादरे ।
यैछे सुख तेलिय़ा-बुधरि घरे घरे ॥१६३॥

यैछे नानाप्रकार सामग्री आय़ोजन ।
यैछे मनुष्येर याताय़ात सर्वक्षण ॥१६४॥

यैछे सर्व जनेर जन्मिला प्रेमभक्ति ।
से सकल विस्तारि वर्णिते नाइ शक्ति ॥१६५॥

तिले तिले गोविन्देर आनन्दातिशय़ ।
ज्येष्ठ रामचन्द्र-प्रति किछु नित्वेदय़ ॥१६६॥

‘मो अज्ञेर परित्राण करह आपने ।
समर्पह श्रीआचार्य-प्रभुर चरणे’ ॥१६७॥

ऐछे कत कहि सिक्त हैय़ा नेत्रजले ।
प्रणमय़े श्रीज्येष्ठ भ्रातार पदतले ॥१६८॥

देखि गोविन्देर अति व्याकुल अन्तर ।
स्नेहावेशे मग्न रामचन्द्र विज्ञवर ॥१६९॥

गोविन्दे प्रबोधि श्रीआचार्य-आगे गिय़ा ।
कहिल गोविन्द-मनोवृत्ति विवरिय़ा ॥१७०॥

शुनि श्रीआचार्य अति मनेर आनन्दे ।
राधाकृष्ण-मन्त्रदीक्षा दिलेन गोविन्दे ॥१७१॥

ये अपूर्व विधाने गोविन्दे शिष्य कैल ।
शिष्यकाले सकलेर ये आनन्द हैल ॥१७२॥

गोविन्देर ये प्रेम-आवेश शिष्य हैय़ा ।
वर्णिब से सब भाग्यवन्त रिस्तारिय़ा ॥१७३॥

रामचन्द्र, गोविन्द उल्लास क्षणे क्षणे ।
गणसह श्रीआचायप्रभुर सेवने ॥१७४॥

रामचन्द्र, गोविन्द—ए भ्रातृद्वय़-प्रति ।
आचार्येर यैछे कृपा—कहि कि शकति ॥१७५॥

आचार्येर मने एइ—‘रामचन्द्र-सने ।
श्रीनरोत्तमेर देखा हबे कतक्षणे’ ॥१७६॥

एतेक चिन्तिय़ा पुनः रामचन्द्रे कय़ ।
‘नरोत्तम एथा आसिबेन—मने लय़ ॥१७७॥

बहु दिन हैल ताꣳर सꣳवाद ना पाइनु ।
मोर ए सꣳवाद-पत्री पूर्वे पाठाइनु ॥१७८॥

एथा ये आइनु—तेꣳह जानिब केमने ।
कुन ए लोक शीघ्र याय़ ताꣳर स्थाने’ ॥१७९॥

एत कहितेइ एक विप्र तथा हैते ।
आसि उपनीत हैला आचार्य-साक्षाते ॥१८०॥

कि अपूर्व चेष्टा ताꣳर, कत उठे मने ।
महाहर्ष हैय़ा चाय़ आचार्येर पाने ॥१८१॥

शिष्यवर्गे वेष्टित आचार्य-शोभा देखि ।
भूमे प्रणमय़े—प्रेमजले पूर्ण आꣳखि ॥१८२॥

श्रीआचार्य विप्रे देखि सन्तोषातिशय़ ।
सुमधुर वाक्ये कहे—‘देह परिचय़’ ॥१८३॥

विप्र कहे—‘खेतरी-ग्रामेते मोर वास ।
मुञि विप्राधम—मोर नाम दुर्गादास ॥१८४॥

श्रीठाकुर नरोत्तम देखि मो-पतिते ।
तुलिलेन विषय़-विष्ठार गर्त हैते ॥१८५॥

प्रभुर गमन एथा हैल—शुनि ताहा ।
कहिते ना जानि—मने उपजिल याहा ॥१८६॥

काहाके ना कहि प्राते करिनु गमन ।
हईनु कृतार्थ देखि प्रभुर चरण’ ॥१८७॥

खेतरी हईते आगत विप्रेर मुखे ठाकुर नरोत्तमेर सꣳवाद—

विप्रेर वचन शुनि आचार्य सन्तोषे ।
श्रीनरोत्तमेर शुभ सꣳवाद जिज्ञासे ॥१८८॥

विप्र कहे—‘नीलाचल हईते आसिय़ा ।
खण्डिल पाषण्डमत भक्ति प्रकाशिय़ा ॥१८९॥

श्रीकृष्णचैतन्य-नित्यानन्दाद्वैत-गुणे ।
करिलेन महामत्त अधम दुर्जने ॥१९०॥

श्रीकृष्णविग्रह पञ्च कैल प्रिय़ासह ।
प्राप्त हैल प्रिय़ासह श्रीगौरविग्रह ॥१९१॥

प्राप्त कथा गोपय़िते नहिल गोपन ।
यैछे प्राप्त ताहा किछु करि निवेदन ॥१९२॥

गोपालपुरेर सन्निधाने क्षुद्र ग्राम ।
तथा बैसे भाग्यवन्त विप्रदास नाम ॥१९३॥

धान्य-सर्षपादि-गोला ताꣳर गृहान्तरे ।
तथा सर्पभय़े केह याइते ना पारे ॥१९४॥

सर्पाधिकारेर केह ना बुझे कारण ।
मन्त्रौषाधि कैले सर्प गर्जे अनुक्षण ॥१९५॥

ना जानि—स्रीठाकुरेर किबा हैल मने ।
रजनी-प्रभाते शीघ्र गेला सेइखाने ॥१९६॥

विप्रदास आसि कैल चरण-वन्दन ।
अति दीन हैय़ा कहे—कि कार्यागमन ॥१९७॥

विप्रदास-प्रति कहे—‘ए धान्यगोलाय़ ।
आछे प्रय़ोजन, तेञि आइनु एथाय़’ ॥१९८॥

विप्रदास कातर हईय़ा निवेदय़ ।
‘ना याबेन गोलापार्श्वे, तथा सर्पभय़’ ॥१९९॥

शुनि महाशय़ कहे ईषत् हासिय़ा ।
‘चिन्ता ना करिह, सर्प याबे पलाइय़ा’ ॥२००॥

एत कहि बृहत् गोला-द्वार उदघाटिते ।
सर्प-अन्तर्धान सबे—देखिल साक्षाते ॥२०१॥

गोला हैते प्रिय़ासह श्रीगौरसुन्दर ।
क्रोड़्‌ए आइला—हैल सर्वनय़न-गोचर ॥२०२॥

प्रिय़ासह क्रोड़े लईय़ा श्रीगौरसुन्दरे ।
श्रीठाकुर महाशय़ आइला वासाघरे ॥२०३॥

से समय़ सꣳकीर्तनारम्भ ये प्रकार ।
ये प्रेम-प्रकाश—ता कहिते नाहि पार ॥२०४॥

श्रीमहाशय़ेर शिष्य श्रीसन्तोष दत्त ।
सर्व कार्य साधे तेꣳह—परम महत्त्व ॥२०५॥

करिल निर्माण श्रीमन्दिर, सिꣳहासन ।
महा महोत्सवेर करिला आय़ोजन ॥२०६॥

श्रीमहाशय़ेर मनोवृत्ति केबा जाने ।
सदा चाहि रहे प्रभु तुय़ा पथपाने ॥२०७॥

प्रभु-आगमन एथा—ए कथा शुनिल ।
ना जानिय़े—कत सुखसमुद्रे डुबिल ॥२०८॥

‘अद्य पद्मावती पार हईय़ा रहिब ।
रजनी-प्रभाते कालि एखाय़ आसिब’ ॥२०९॥

शुनि श्रीआचार्य नरोत्तमेर चरित ।
निजगण-सह हैला महा उल्लसित ॥२१०॥

दुर्गादास विप्रे अति अनुग्रह कैल ।
नरोत्तम-प्रभाव सबार जानाइल ॥२११॥

सबे मग्न हैला नरोत्तमेर शुणेते ।
हैल एइ ध्वनि—‘कालि आसिब एथाते’ ॥२१२॥

ग्रामवासी लोकेर आनन्द अतिशय़ ।
परस्पर सकले सौभाग्य प्रशꣳसय़ ॥२१३॥

कतक्षणे निशि पोहाइब—एइ मने ।
याइब दर्शने रामचन्द्रेर भवने ॥२१४॥

रामचन्द्र-भवन छाड़िते केउ नारे ।
महाकष्टे रजनी वञ्चय़े निज-घरे ॥२१५॥

रामचन्द्र-भवन परमानन्दमय़ ।
श्रीआचार्य गणसह यथा विलसय़ ॥२१६॥

आचार्येर कत स्नेह रामचन्द्र-प्रति ।
मुइ महा अज्ञ ताहा कहि—कि शकति ॥२१७॥

गुणेर समुद्र रामचन्द्र कविराज ।
सर्वत्र विदित ताꣳर अलौकिक काय ॥२१८॥

विप्रमुखे नरोत्तम-गमन-श्रवणे ।
ना कैल प्रकाश याहा उपजिल मने ॥२१९॥

सर्व कार्य समाधाय़ हईय़ा तत्पर ।
गोङाइला दिवात्रात्रि द्वितीय़ प्रहर ॥२२०॥

श्रीआचार्य गणसह करिले शय़न ।
निर्जने चिन्तय़े नरोत्तम-गुणगण ॥२२१॥

‘नरोत्तम’ नाममात्रे नारे स्थिर हैते ।
पुलक झाꣳपय़े अङ्ग—कत उठे चिते ॥२२२॥

केन हेन हैल—इहा विचारिते मने ।
ना भाय़ शय़न निद्रा ना स्पर्शे नय़ने ॥२२३॥

स्वप्ने श्रीरामचन्द्रके श्रीमहाप्रभुर दर्शनदान—

प्रभु-इच्छा-मते किछु निद्रा आकर्षिल ।
स्वप्नच्छले श्रीगौरसुन्दर देखा दिल ॥२२४॥

जिनिय़ा कन्दर्प-कोटि श्रीअङ्ग सुन्दर ।
ताहे कि उपमा हेम, विद्युत् केशर ॥२२५॥

शिरे चारु चिकन कुञ्चित केशजाल ।
भुवनमोहन गले दोले वनमाल ॥२२६॥

शरतेर चाꣳद जिनि वदनचन्द्रमा ।
किबा दीर्घ लोचन, चाहनि अनुपमा ॥२२७॥

आजानुलम्बित बाहुद्वय़ दोलाइय़ा ।
गजेन्द्रगमने आसि रहे दाꣳड़ाइय़ा ॥२२८॥

गौरचन्द्रे देखि रामचन्द्र कविराज ।
ना जानि कि आनन्द उथले हिय़ा-माझ ॥२२९॥

लोटाइय़ा पड़िल प्रभुर पदतले ।
प्रभु कोले लैय़ा सिक्त करे प्रेमजले ॥२३०॥

ईषत् हासिय़ा कहे सुमधुर भाषे ।
‘आपना ना जान तुमि मोर इच्छावशे ॥२३१॥

तुमि मोर प्रिय़, मोर प्रिय़ नरोत्तम ।
दोꣳहे दोꣳहा देखि पूर्व हईब स्मरण ॥२३२॥

दोꣳहे मोर प्रेमभक्ति प्रदान करिबा ।
जीवेर दारुण तापत्रय़ निवारिबा’ ॥२३३॥

ऐछे कत कहि अति अनुग्रह करि ।
हईलेन अन्तर्धान प्रभु गौरहरि ॥२३४॥

प्रभु-अदर्शने रामचन्द्र स्थिर नहे ।
नदीर प्रवाह-प्राय़ नेत्रे धारा बहे ॥२३५॥

देखिय़ा व्याकुल प्रभु पुनः प्रबोधिला ।
स्वप्नच्छले श्रीनिवासाचार्ये जानाइला ॥२३६॥

प्रभुर अद्भुत लीला के पारे बुझिते ? ।
भक्तप्रेमाधीन प्रभु विदित जगते ॥२३७॥

बुधरिते ठाकुर नरोत्तमेर आगमन ओ अभ्यर्थना—

रामचन्द्र प्रभुगुणे मग्न अतिशय़ ।
निद्राभङ्गे देखे—हैल प्रभात-समय़ ॥२३८॥

प्रातः-क्रिय़ादिक करि चिन्ते मने मने ।
महाशय़-सह देखा हबे कतक्षणे ॥२३९॥

हेनकाले अति शीघ्र आसि एकजन ।
श्रीआचार्ये प्रणमिय़ा करे निवेदन ॥२४०॥

‘पद्मावतीपार ग्राम खेतरी हईते ।
श्रीठाकुर महाशय़ आइसेन एथाते ॥२४१॥

कि अपूर्व गाति ! सुर्यमय़ तेज ताꣳर ।
सङ्गे ये आइसे किबा शोभा से सबार ॥२४२॥

एइ अल्पदूरे मुइ आइनु देखिय़ा ।
ताꣳरे देखि ना जानि कि करे मोर हिय़ा’ ॥२४३॥

आचार्य शुनिय़ा नरोत्तमेर गमन ।
गणसह आगुसरि चले सेइक्षण ॥२४४॥

नरोत्तमे देखे बाड़ीर बाहिर हईय़ा ।
देखितेइ कत सुखे उमड़य़े हिय़ा ॥२४५॥

नरोत्तम आचार्य-ठाकुरे प्रणमिते ।
आचार्य लईय़ा क्रोड़े ना पारे छाड़िते ॥२४६॥

कि अद्भुत प्रेमानन्द बाढ़य़े दोꣳहार ।
देखि सकलेर हैल महा-चमत्कार ॥२४७॥

श्रीआचार्य-ठाकुर ठाकुर नरोत्तमे ।
मिलाइल श्रीआसाचार्यादि प्रिय़गणे ॥२४८॥

ये अपूर्व मिलन हईल परस्परे ।
ताहा एकमुखे के वर्णिते श्क्ति धरे ? ॥२४९॥

रामचन्द्र नरोत्तमे करि निरीक्षण ।
हईल अधैर्य पूर्व हईते स्मरण ॥२५०॥

नहिल विशेष व्यक्त, हईल किञ्चित् ।
केहो केहो जानिय़ाओ-ना कैल विदित ॥२५१॥

श्रीआचार्य नरोत्तमे करावलमम्बिय़ा ।
जिज्ञासय़े कुशल निर्जने बसाइय़ा ॥२५२॥

महाशय़ कहे महामधुर वचने ।
‘सकल मङ्गल एबे हईल दर्शने ॥२५३॥

प्रभु आज्ञा कैल गौड़े करिते गमन ।
श्रीविग्रह-वैष्णव-सेवा, श्रीसङ्कीर्तन ॥२५४॥

ताहे श्रीविग्रह अनुग्रह कैल, आर ।
हैल श्रीमन्दिर-आदि सकल सम्भार ॥२५५॥

श्रीफाल्गुन-पूर्णिमाय़ श्रीविग्रहगणे ।
मने एइ—आपनि वसाबे सिꣳहासने ॥२५६॥

आसिबेन शीघ्र एथा—एइ मने छिल ।
ताहाते अनेक दिन विलम्ब हईल’ ॥२५७॥

इहा शुनि आचार्य कहेन धीरे धीरे ।
‘प्रभुर ये इच्छा ताहा के कहिते पारे’ ॥२५८॥

एत कहि विवाह-प्रसङ्ग जानाइल ।
वृन्दावन-गमनादि बिस्तारि कहिल ॥२५९॥

शुनि महाशय़ेर ये हईल अन्तरे ।
ताहा अन्यजन के बुझिते शक्ति धरे ? ॥२६०॥

परस्पर अनेक प्रसङ्गे हर्ष हैला ।
द्वितीय़ प्रहर रात्रि ऐछे गोङाइला ॥२६१॥

श्रीठाकुर महाशय़-आदि सर्वजन ।
पृथक् पृथक् स्थाने करिला शय़न ॥२६२॥

श्रीनिवासप्रभुके खेतरी-महोत्सव-सम्बन्धे स्रीमहाप्रभुर उपदेश-प्रदान—

श्रीआचार्य-ठाकुरे शय़न नाहि भाय़ ।
कैछे कार्य समाधान हबे—ए चिन्ताय़ ॥२६३॥

मने मने कहे—‘महाप्रभु-प्रिय़गण ॥
खेतरी-ग्रामे कि करिबेन आगमन ॥२६४॥

अभिलाष पूर्ण कि करिब गौरराय़’ ।
एत कहि भासे दुइ नेत्रेर धाराय़ ॥२६५॥

भक्तेर उद्वेग प्रभु ना पारे सहिते ।
स्वप्नच्छले देखा दिला निद्रा आकर्षिते ॥२६६॥

श्रीनिवास आगे कि मधुर भङ्गि करि ।
मन्द मन्द हासिय़ा कहय़े धीरि धीरि ॥२६७॥

‘ओहे श्रीनिवास ! किछु चिन्ता ना करिबे ।
निमन्त्रण-पत्री शीघ्र सर्वत्र पाठाबे ॥२६८॥

यद्यपि से सकलेर व्याकुल हृदय़ ।
एथा आसितेइ हबे महा-हर्षोदय़ ॥२६९॥

देखिबे साक्षाते मोर अद्भुत विलास ।
पाबे महानन्द, पूर्ण हबे अभिलाष ॥२७०॥

अनाय़ासे सर्वकार्य हबे समाधान’ ।
एत कहि महाप्रभु हैला अन्तर्धान ॥२७१॥

प्रभु-अदर्शने अति व्याकुल आचार्य ।
प्रभुर इच्छाय़ किछु धरिलेन धैर्य ॥२७२॥

रजनी-प्रभाते सबे एकत्र हईला ।
सर्वत्र लिखिते पत्री शीघ्र यत्न पाइला ॥२७३॥

रामचन्द्रादिके बहु आनन्द व्यापिल ।
बहु निमन्त्रण-पत्री प्रस्तुत करिल ॥२७४॥

पत्रीते ये लिखिबेन पद्य सुमधुर ।
शुनिते वा काहार ना हय़ धैर्य दूर ॥२७५॥

पत्री दिय़ा अतियोग्य पञ्च-दश जने ।
पाठाइला नवद्वीप-आदि स्थाने स्थाने ॥२७६॥

उत्कल-देशेते श्यामानन्द राहे यथा ।
पत्री दिय़ा दूते शीघ्र पाठाइला तथा ॥२७७॥

हैल ध्वनि सर्वत्र—‘फाल्गुन-पूर्णिमाते ।
हबे महा-महोत्सव खेतरी-ग्रामेते ॥२७८॥

तेलिय़ा, बुधरि, बाहादुर-पुर, आदि ।
ग्रामे ग्रामे उथले आनन्द-वारिनिधि ॥२७९॥

श्री-कृष्ण-चैतन्य-गुण गाय़ सर्व जन ।
देखिते से क्रिय़ा कार ना जुड़ाय़ मन ॥२८०॥

श्री-आचार्य-ठाकुर, ठाकुर महाशय़ ।
गण-सह सकलेर मङ्गल चिन्ताय़ ॥२८१॥

रामचन्द्रालय़े अति अद्भुत विलास ।
देवेर दुर्लभ चारु कीर्तन-प्रकाश ॥२८२॥

कैछे दिवारात्रि याय़ केहो ना जानिल ।
सङ्कीर्तनानन्दे सबे विह्वल हईल ॥२८३॥

श्री-महाशयेर प्रिय़ शिष्य श्री-गोकुल ।
श्री-देविदासादि सर्व-गुणेते अतुल ॥२८४॥

श्री-गोकुल-देविदासादिर वाद्य-गाने ।
आचार्येर ये भाव ता वर्णिते के जाने ॥२८५॥

एकदिन आचार्याति अधैर्य हृदय़े ।
ना जानि कि निर्जने कहिला महाशय़े ॥२८६॥

प्रिय़ रामचन्द्र नरोत्तमे समर्पिला ।
नरोत्तम येन सुख-समुद्रे डुबिला ॥२८७॥

के बुझिते पारे ए आचार्येर रीति ।
समार्पिय़ा रामचन्द्रे हैला हर्ष अति ॥२८८॥

रामचन्द्रादिक कथोजन सङ्गे दिय़ा ।
पाठाइला खेतरी ‘आसिब शीघ्र’ कैय़ा ॥२८९॥

नरोत्तम विदाय़ हईय़ा शीघ्र करि ।
पद्मावती पार हैय़ा गेलेन खेतरी ॥२९०॥

महाशय़े विदाय़ करिय़ा श्री-आचार्य ।
रहेन बुधरि-ग्रामे हईय़ा अधैर्य ॥२९१॥

श्रीनिवास प्रभुर आदेशे गोविन्देर महाप्रभुर लीला-वर्णन—

रामचन्द्रानुज श्री-गोविन्द भक्तिराशि ।
आचार्येर सेवा-रसे मग्न दिवानिशि ॥२९२॥

देखि गोविन्देर चेष्टा आचार्य-ठाकुर ।
कैल अनुग्रह-सीमा वचनेर दूर ॥२९३॥

श्री-कृष्ण-चैतन्य-लीला वर्णिते गोविन्दे ।
आज्ञा करिलेन महा-मनेर आनन्दे ॥२९४॥

प्रभुर आज्ञाय़ बर्णे गद्य-पद्य-गीत ।
से सब शुनिते कार ना द्रवय़े चित ॥२९५॥

गोविन्देर काव्ये श्री-आचार्य हर्ष हैला ।
गोविन्दे प्रशꣳसि ‘कविराज’-ख्याति दिला ॥२९६॥

श्री-दासादि प्रिय़-गणे गाओय़ाइल गीत ।
गीतामृत-वृष्टि हैल सर्व-मनोहित ॥२९७॥

बाहादुरपुर-निवासी द्विज-वꣳशी-दासे श्रील आचार्य-प्रभुर कृपा-सञ्चार—

यथा रहे अज्ञात-रूपे ये प्रिय़-गण ।
ताꣳ सबारे कृपा करि करे आकर्षण ॥२९८॥

बुधरि-निकट बाहादुरपुर-ग्राम ।
तथा बैसे विप्र-श्रेष्ठ श्यामादास नाम ॥२९९॥

ताꣳहार अनुज वꣳशीदास चक्रवर्ती ।
विधाता निर्मिल ताꣳरे येन स्नेह-मूर्ति ॥३००॥

अल्पकाल हैते आर्ति विद्या-अध्यय़ने ।
देखिय़ा से-चेष्टा सुख पाय़ सर्व-जने ॥३०१॥

श्री-कृष्ण-चैतन्य-अनुराग अतिशय़ ।
निरन्तर राधा-कृष्ण लीला आस्वादय़ ॥३०२॥

अदीक्षित-मते अति उद्विग्न अन्तरे ।
हईब दीक्षित कोथा किछुइ ना स्फुरे ॥३०३॥

बुधरि-ग्रामेते आचार्येर आगमन ।
शुनि अति उत्कण्ठित करिते दर्शन ॥३०४॥

शीघ्र गिय़ा देखेन श्री-गोविन्द-भवने ।
आचार्य आछेन कृष्ण-कथा-आलापने ॥३०५॥

चतुर्दिके वेष्टित सकल प्रिय़-गण ।
आचार्येर शोभा सब करे निरीक्षण ॥३०६॥

दूर हैते वꣳशीदास आचार्ये देखिय़ा ।
भूमे पड़ि प्रणमय़े अति दीन हैय़ा ॥३०७॥

तिले तिले आनन्द बाढ़य़े अतिशय़ ।
मने ये उपजे ताहा व्यक्त ना करय़ ॥३०८॥

कतक्षण श्री-आचार्ये दर्शन करिय़ा ।
गृहे चलिलेन नेत्रजले सिक्त हैय़ा ॥३०९॥

देखि वꣳशी-चेष्टा शिष्ट-गणे विचारय़ ।
‘इह आचार्येर कृपापात्र सुनिश्चय़ ॥३१०॥

श्री-आचार्य दृष्टिपाते शक्ति सञ्चारिला ।
आचार्येर मनोवृत्ति केह ना जानिला ॥३११॥

आचार्येर प्रिय़ वꣳशीदास महाधीर ।
बुझिते ना पारि ताꣳर चरित्र गभीर’ ॥३१२॥

निर्जने बलिय़ा मने मने विचारय़ ।
श्री-आचार्य-प्रभु कि दिवेन पदाश्रय़ ?’ ॥३१३॥

ऐछे कत बिचारिते उद्विग्न अन्तर ।
गोङाइला दिवा, रात्रि तृतीय़ प्रहर ॥३१४॥

अकस्मात् निद्रा आकर्षिते रात्रिशेषे ।
स्वप्नच्छले आचार्य आइसे वꣳशी पाशे ॥३१५॥

कि अपूर्व भङ्गिते गमन मनोहर ।
टलमल करे प्रेममय़ कलेवर ॥३१६॥

दीर्घ दुइ लोचन, चाहनि अनुपमा ।
केह धरे धैरय देखि मुखेर सुषमा ॥३१७॥

मन्द मन्द हासिय़ा चाहय़े वꣳशी-पाने ।
निज-प्रभु जानि वꣳशी पड़े श्री-चरणे ॥३१८।

स्नेहावेशे आचार्य-ठाकुर वꣳशीदासे ।
आलिङ्गन करि कहे सुमधुर भाषे ॥३१९॥

‘महा-महोत्सव हबे खेतरी-ग्रामेते ।
ए-हेतु श्री-नरोत्तम आइलेन निते ॥३२०॥

ताꣳ-सबारे अतिशीघ्र विदाय़ करिय़ा ।
रहिलाम आमि तोमा सबार लागिय़ा ॥३२१॥

ना भाविह—रजनी-प्रभाते शिष्य कारि ।
तोमा सबा सङ्गे लैय़ा याइब खेतरी’ ॥३२२॥

एत कहि वꣳशी-शिरे आर्पिय़ा चरण ।
अति अनुग्रह करि हैल अदर्शन ॥३२३॥

प्रभु-अदर्शने अति व्याकुल हृदय़ ।
जागिय़ा देखेन—निशि-प्रभात-समय़ ॥३२४॥

प्रातःकृता करि गेला उल्लसित मने ।
यथा श्री-आचार्य विलसय़े गण-सने ॥३२५॥

आचार्य चरणे पड़ि यैछे, दैन्य करे ।
से सब शुनिते कार हिय़ा ना विदरे ॥३२६॥

गण-सह श्री-आचार्य-प्रभुरे लईय़ा ।
आइलेन निजगृहे महाहर्ष हैय़ा ॥३२७॥

श्री-आचार्य प्रभु महा आनन्द-आवेशे ।
राधा कृष्ण-मन्त्र दीक्षा दिला वꣳशीदासे ॥३२८॥

परम अपूर्व विधानेते शिष्य कैल ।
ग्रन्थ-बाहुल्येर भय़े ताहा ना वर्णिल ॥३२९॥

बुधरि हईते श्रीनिबासाचार्य-प्रभुर खेतुरी-गमन—

ऐछे आर कोथोजने अनुग्रह करि ।
गण-सह महाहर्षे चलय़े खेतुरी ॥३३०॥

अतिशीघ्र हईय़ा श्री-पद्मावती पार ।
खेतुरी ग्रामेते पाठाइला समाचार ॥३३१॥

शुनि श्री-आचार्य ठाकुरेर आगमन ।
आनन्दे विह्वल श्री-ठाकुर नरोत्तम ॥३३२॥

रामचन्द्र-आदि प्रिय़-वर्गेर सहिते ।
अति शीघ्र चलिलेन आगुसरि निते ॥३३३॥

श्री-सन्तोष दत्त निज-गण सङ्गे लैय़ा ।
दिला परिचय़—आचार्येर आगे गिय़ा ॥३३४॥

ऐछे आर निज-शिष्य-गणे जानाइला ।
सबे आचार्येर पाद-पद्मे प्रणमिला ॥३३५॥

श्री-आचार्य यैछे कृपा कैल सर्व-जने ।
ताहा विस्तारिय़ा वर्णिबेन भाग्यवाने ॥३३६॥

परस्पर यैछे प्रिय़-गणेर मिलन ।
ताहा बाहुल्येर भय़े ना हय़ वर्णन ॥३३७॥

श्री-ठाकुर महाशय़ आचार्य ठाकुरे ।
परम आनन्द लैय़ा चले वासाघरे ॥३३८॥

सर्वत्र हईल ध्वनि-आचार्य-गमन ।
चतुर्दिके धाय़ लोक करिते दर्शन ॥३३९॥

गण-सह आचार्येर दर्शन करिय़ा ।
निज निज भाग्य-प्रशꣳसय़े हर्ष हैय़ा ॥३४०॥

आचार्येर दृष्टिपात हैल ये प्रकार ।
ताहा एथा विस्तारि नारय़े वर्णिवार ॥३४१॥

गण-सह आचार्ये लईय़ा महाशय़ ।
महानन्दे निर्जन आलय़े प्रवेशय़ ॥३४२॥

देखि स्थान आचार्य प्रशꣳसि प्रिय़-गणे ।
पृथक् पृथक् वासा दिला सन्निधाने ॥३४३॥

श्री-सन्तोष दत्त महा आनन्द हिय़ाय़ ।
पूर्वेइ करिल लोक नियुक्त वासाय़ ॥३४४॥

सर्व-प्रकारेते समाधय़े सर्व कार्य ।
देखि सन्तोषेर चेष्टा सन्तोष आचार्य ॥३४५॥

श्री-आचार्य वासा हईते शीघ्र गण-सने ।
चले महाहर्षे श्री-विग्रह-सन्दर्शने ॥३४६॥

प्रिय़ा-सह श्री-गौर-विग्रहे थुइल यथा ।
श्री-ठाकुर-महाशय़ लैय़ा गेला तथा ॥३४७॥

श्री-आचार्य करि महाप्रभुर दर्शन ।
हईलेन यैछे ताहा ना हय़ वर्णन ॥३४८॥

आर पञ्च-विग्रह दर्शन करिय़ा ।
हईला अधैर्य सुखे उमड़य़े हिय़ा ॥३४९॥

देखि महोत्सवेर सामग्री-आय़ोजन ।
देखि वासास्थानादि परम हर्ष-मन ॥३५०॥

श्यामानन्द आसिबेन उत्कुल हईते ।
ताꣳहार विलम्ब देखि चिन्ताय़ुक्त चिते ॥३५१॥

कहितेइ श्री-श्यामानन्देर गुण-गण ।
शुनिलेन लोक-मुखे ताꣳर आगमन ॥३५२॥

श्री-ठाकुर महाशय़ मनेर उल्लासे ।
आगुसरि देखे—आइला आचार्य-आवासे ॥३५३॥

परस्पर हैल यैछे प्रेम-आचरण ।
ताहा देखिलेन महा-भाग्यवन्त-गण ॥३५४॥

श्री-आचार्य, नरोत्तम, श्यामानन्द—तिने ।
प्रभु-गण-गमन चिन्तय़े मने मने ॥३५५॥

से सबार गति एथा कहि सꣳक्षेपेते ।
विस्तारिव ‘नरोत्तम-विलास’-ग्रन्थेते ॥३५६॥

खड़दह हईते श्री-जाह्नवा-देवीर सगणे खेतुरी-उत्सवे आगमन—

खड़दह-ग्रामेते श्री-जाह्नवा ईश्वरी ।
करय़े दिवस स्थिर आसिते खेतुरी ॥३५७॥

हेनकाले प्रभु अलक्षित निर्देशय़ ।
‘याइते खेतुरी-ग्रामे विलम्ब ना सय़ ॥३५८॥

तथा श्रीनिवास, नरोत्तम गण-सने ।
चाहि आछे तोमा सबाकार पथपाने ॥३५९॥

श्रीनिवास, नरोत्तम मोर प्रिय़दास ।
करिब सकल ये करिब अभिलाष ॥३६०॥

प्रकटाप्रकट निज प्रिय़-गण-सने ।
नाचिब गाइब से अद्भुत सङ्कीर्तने ॥३६१॥

देखिब सकले एइ आश्चर्य-विलास ।
हईबा विह्वल ऐछे हईब उल्लास ॥३६२॥

महा-महोत्सव महानन्दे समाधिय़ा ।
आसिब एथाय़ शीघ्र वृन्दावने गिय़ा’ ॥३६३॥

एत कहि देखा दिय़ा अन्तर्धान हैते ।
ईस्वरी विह्वल हैय़ा चाहे चारिभिते ॥३६४॥

नय़ने आनन्दधारा नहे निवारण ।
खेतुरी-ग्रामे यात्रा कैला सेइक्षण ॥३६५॥

ए सकल कथा हैल सर्वत्र प्रचार ।
जन्मिल ये आनन्द कहिते साध्य कार ॥३६६॥

श्री-जाह्नवा इश्वरीर अलौकिक-रीति ।
गमन-उद्योग यैछे कहि कि शकति ॥३६७॥

खड़दह-आदि ग्रामवासी लोक-गण ।
आइलेन सबे शीघ्र करिते दर्शन ॥३६८॥

श्री-जाह्नवा-देवी से सबारे सन्तोषिला ।
लोक-रीते प्राय़ सर्वमते भार दिला ॥३६९॥

श्री-वसूदेवीरे किबा कहि सङ्गोपने ।
हईला विदाय़ यैछे के वर्णिते जाने ॥३७०॥

अति यत्ने गङ्गा वीरभद्रे प्रबोधिय़ा ।
खड़दह हैते चले प्रभु सोङरिय़ा ॥३७१॥

सङ्गेते चलिला महाभागवत-गण ।
याꣳ-सबार दर्शने पवित्र त्रिभुवन ॥३७२॥

कृष्णदास सरखेल, माधव आचार्य ।
रघुपत्ति वैद्य उपाध्याय़ महा आर्य ॥३७३॥

श्री-मीनकेतन रामदास मनोहर ।
सुरारि चैतन्य, ज्ञानदास, महीधर ॥३७४॥

श्री-शङ्कर, श्री-कमलाकर पिप्पलाइ ।
नृसिꣳह, चैतन्य, जीव, पण्डित कानाइ ॥३७५॥

गौराङ्ग, नकड़्‌इ, कृष्णदास, दामोदर ।
श्री-परमेश्वरी, बलराम विज्ञवर ॥३७६॥

श्री-मुकुन्द, दास-वृन्दावन आदि करि ।
ए-सबार सह सुखे चलय़े ईश्वरी ॥३७७॥

आर यत परिचारिकादि चारि पाशे ।
से अपूर्व शोभाय़ सबार धैर्य नाशे ॥३७८॥

विना याने श्री-जाह्नवा कथोदूर गिय़ा ।
मनुष्येर याने चड़े सङ्कुचित हैय़ा ॥३७९॥

श्री-जाह्नवा ईश्वरीर गमन-दर्शने ।
ग्रामे ग्रामे लोकेर सꣳघट्ट स्थाने स्थाने ॥३८०॥

नय़न-भास्कर हालिशहर-ग्रामे छिला ।
परम आनन्दे तेꣳहो शीघ्र यात्रा कैला ॥३८१॥

खञ्ज भगवानात्मज रघुनाथाचार्य ।
आसिय़ा मिलिला तेꣳहो सर्व-गुणे आर्य ॥३८२॥

से देशे ये छिलेल परम विज्ञ-गण ।
श्री-ईश्वरी-सङ्गे हैल सबार गमन ॥३८३॥

नित्यानन्द-किङ्कर वाणिक् भाग्यवन्त ।
प्रभु-सङ्गे चले—से सुखेर नाइ अन्त ॥३८४॥

हईल सꣳघट्ट बहु—आइला अम्बिकाय़ ।
श्री-चैतन्यदास आसि मिलिला तथाय़ ॥३८५॥

सर्वत्र विदित सर्वमते योग्य येꣳहो ।
गौर-प्रिय़ श्री-वꣳशीदासेर पुत्र तेꣳहो ॥३८६॥

श्री-ईश्वरी-सङ्गे यात्रा कैला सेइक्षण ।
श्री-हृदय़-चैतन्येर हईल गमन ॥३८७॥

श्री-हृदय़ानन्द भक्ति-प्रदाने प्रवीण ।
श्री-चैतन्य-नित्यानन्द याꣳर प्रेमाधीन ॥३८८॥

श्री-चैतन्य-नित्यानन्दे जाह्नवा ईश्वरी ।
अन्नादि भुञ्जाइल यैछे वर्णिते ना पारि ॥३८९॥

अम्बिकाप्रदेशे ये ये भक्त प्रेममय़ ।
सबे यात्रा कैल—हैल चित्ते हर्षोदय़ ॥३९०॥

खेतुरीर पथे श्री-जाह्नवा-देवीर सगणे श्रीधाम-नवद्वीपे श्रीवास-गृहे आगमन—

नवद्वीप-निकट आसिय़ा सर्व-जने ।
अनिमिष नेत्रे चाहे नवद्वीप-पाने ॥३९१॥

प्रभु-लीला सोङरिते अधैर्य हृदय़ ।
अग्नि-शिखाप्राय़ दीर्घ निःश्वास छाड़य़ ॥३९२॥

उठिल क्रन्दनरोल, भासे नेत्रजले ।
मूर्छित हईय़ा सबे पड़े महीतले ॥३९३॥

ये अद्भुत चेष्टा ता वर्णिब कुन जने ।
प्रभुर इच्छाय़ स्थिर हैला कतक्षणे ॥३९४॥

श्रीपति श्रीनिधि आदि नवद्वीप हैते ।
प्रेमावेशे आइला सबे आगुसरि निते ॥३९५॥

परस्पर हैल यैछे सबार मिलन ।
यैछे, गङ्गा-स्नानादि—ता ना हय़ वर्णन ॥३९६॥

श्रीपति श्रीनिधि श्रीवासेर भ्राताद्वय़ ।
सबा लैय़ा नवद्वीप-ग्रामे प्रवेशय़ ॥३९७॥

नवद्वीप-प्रवेश-समय़े ये प्रकार ।
मु अज्ञेर शक्ति कि वर्र्णिते लेश तार ॥३९८॥

श्रीपति श्रीनिधि लैय़ा गेलेन भवने ।
महानन्द हैल गिय़ा श्रीवास-अङ्गने ॥३९९॥

स्री-जाह्नवा कहय़े—‘कि लागि एतक्षण ।
शान्तिपुर हैते कारु ना हईल गमन’ ॥४००॥

एत कहितेइ आइला अद्वैत तनय़ ।
श्री-अच्युतानन्द, श्री-गोपाल प्रेममय़ ॥४०१॥

अच्युतेर सङ्गे आइला भागवत यत ।
ताꣳ-सबार नाम-गुण के कहिबे कत ॥४०२॥

श्री-कानु पण्डित, आर दास नाराय़ण ।
विष्णुदासाचार्य, कामदेव, जनार्दन ॥४०३॥

वनमाली, पुरुषोत्तम आदि दय़ामय़ ।
सबे आसि प्रवेशये श्रीवास-आलय़ ॥४०४॥

आगुसरि श्रीपति आनाय़े सर्व-जने ।
हैले महानन्द परस्पर-सन्मिलने ॥४०५॥

श्री-जाह्नवा ईश्वरी हईय़ा हर्ष अति ।
दिन दुइ तिन नवद्वीपे कैल स्थिति ॥४०६॥

नवद्वीपे श्रीपति, श्रीनिधि-आदि करि ।
सबे उल्लसित हैला याइते खेतुरी ॥४०७॥

श्री-जाह्नवा-देवीर नवद्वीप हईते कण्टक-नगरे गमन—

प्रभु-गण-सꣳघट्ट-शोभाय़ धैर्य हरे ।
रजनी-प्रभाते चले कण्टक-नगरे ॥४०८॥

आकाइहाटेर कृष्णदासादि सहित ।
कण्टक-नगरे सबे हैला उपनीत ॥४०९॥

यदुनन्दनादि महा-मनेर उल्लासे ।
आगुसरि लैय़ा आइसे गौराङ्ग-आवासे ॥४१०॥

हेनकाले श्री-खण्डेर श्री-रघुनन्दन ।
गण-सह आइला येन साक्षात् मदन ॥४११॥

परम अद्भुत शोभा—उपमा कि दिते ।
मनेते उल्लास शीघ्र खेतुरी याइते ॥४१२॥

आर ये सकल महान्तेर आगमन ।
ताहा के काइबे ?–किछु करिय़े गणन ॥४१३॥

शिवानन्द-सह विप्र वाणीनाथ-वर्य ।
वल्लभ, चैतन्यदास, श्रीहरि आचार्य ॥४१४॥

भागवताचार्य, आर नर्तक-गोपाल ।
जितामिश्र, रघुमिश्र परम दय़ाल ॥४१५॥

काशीनाथ पण्डित, नय़न-मिश्र आर ।
काण्ठकाट जगन्नाथ, उद्धव उदार ॥४१६॥

श्री-पुष्प-गोपाल, रघुनाथ दय़ामय़ ।
लक्ष्मीनाथ पण्डितादि गुणेर आलय़ ॥४१७॥

ए सबा सहित से सबार सन्मिलने ।
तैल ये आनन्द ता देखिल भाग्यवाने ॥४१८॥

प्रभुर सन्न्यास-स्थाने आसि सर्व जन ।
हईला अधैर्य—अश्रु नाहे निवारण ॥४१९॥

सबार ये चेष्टा ताहा कहने ना याय़ा ।
कतक्षणे स्थिर हैला प्रभुर इच्छाय़ ॥४२०॥

दास गदाधरेर गौराङ्ग-दरशने ।
कहिते कि जानि ये आनन्द हैल मने ॥४२१॥

श्री-जाह्नवा ईश्वरी से दिवस तथाई ।
करिला रन्धन यैछे—कहि साध्य नाइ ॥४२२॥

विविध सामग्री भुञ्जाइया गौरचन्द्रे ।
भुञ्जाइला सकल महान्ते महानन्दे ॥४२३॥

अन्नादि भक्षणे यैछे उल्लास सबार ।
के वर्णिबे ये शोभा भोजने वसिवार ॥४२४॥

श्री-यदुनन्दन आदि आनन्द-आवेशे ।
श्री-ईश्वरी भुञ्जिलेइ भुञ्जिलेन शेषे ॥४२५॥

उथलिल प्रेम-सिन्धु कण्टक-नगरे ।
गौराङ्ग-प्राङ्गणे सबे कीर्तने विहरे ॥४२६॥

श्री-यदुनन्दन-आदि उल्लसित चिते ।
हईल प्रस्तुत सबे खेतुरी याइते ॥४२७॥

हईलेन वैष्णव-सꣳघट्ट अतिशय़ ।
कण्टक-नगर हैते करिला विजाय़ ॥४२८॥

ये ये ग्रामे हेय़ा चले महान्त-सकल ।
से से ग्रामवासी हय़ आनन्दे विह्वल ॥४२९॥

कण्टक-नगर हईते तेलिय़ाबुधरी हईय़ा सकलेर खेतुरी-ग्रामे प्रवेश—

तेलिय़ा-बुधरी-आदि ग्राम पुण्य-स्थान ।
से सकल ग्रामे लोक महाभाग्यवान् ॥४३०॥

आइसे प्रभु-गण शुनि धाय़ चारिपाशे ।
करिय़ा दर्शन सबे महानन्दे भासे ॥४३१॥

देखि लोक-आर्ति प्रभु-गण हर्ष हैला ।
जानिल—ए भक्ति श्रीनिवास प्रकाशिला ॥४३२॥

से दिवस कैला स्थिति बुधरी-ग्रामेते ।
तथा ये व्यापिल सुख ताहा कि कहिते ॥४३३॥

से देश-निवासी लोक स्थिर हैते नारे ।
प्रीते सङ्गे चलिलेन पद्मावती-तीरे ॥४३४॥

पूर्वे श्री-सन्तोष नौका नियुक्त राखिला ।
गमनमात्रेते पद्मावती पार हैला ॥४३५॥

हईल गमन-ध्वनि खेतुरी-ग्रामेते ।
आनन्द उथले—लोक नारे स्थिर हैते ॥४३६॥

खेतुरी-ग्रामेते लोक अर्बुद अपार ।
खेतुरी-प्रदेशे यत सꣳख्या नाइ तार ॥४३७॥

बाल-वृद्ध-आदि सबे चतुर्दिके धाय़ ।
बुझिते ना पारे केह कि हैल हिय़ाय़ ॥४३८॥

एथा श्रीनिवास नरोत्तमादि-सहिते ।
परम उल्लासे चले ‘आगुसरि’ निते ॥४३९॥

यैछे लैय़ा आइसेन—से प्रेम-आवेश ।
यैछे शोभा वर्णिते से पारे तार लेश ॥४४०॥

चतुर्दिके देखि लोक भासे नेत्रजले ।
प्रभु-गणे प्रणमय़े पड़ि भूमितले ॥४४१॥

देखिय़ा लोकेर आर्ति कुन महाशय़ ।
अति सुमधुर-वाक्ये कारु प्रति कय़ ॥४४२॥

‘ए देशे ना छिल ए दुर्लभ भक्तिलेश ।
नरोत्तम-गुणे धन्य हैल हेन देश ॥४४३॥

ऐछे कहि लोकेर सौभाग्य प्रशꣳसय़ ।
महानन्दे खेतुरी-ग्रामेते प्रवेशय़ ॥४४४॥

करुणार मूर्ति यत प्रभु-प्रिय़-गण ।
ग्राम-मध्ये उदय़ हईला चन्द्रसम ॥४४५॥

श्रीनिबास, नरोत्तमादि महा-यत्नेते ।
सबे लैल पृथक् पृथक् आलय़ेते ॥४४६॥

देखि से से स्थान हर्ष सबार अन्तरे ।
आइलेन सबे येन आपनार घरे ॥४४७॥

हैल यत वासा, आर यतेक भाण्डार ।
ताते ये नियुक्त लोक-सꣳख्या नाइ तार ॥४४८॥

श्री-सन्तोष दत्त निज-गणेर सहिते ।
करे ये मङ्गलकार्य—लेखा नाइ दिते ॥४४९॥

ए सब प्रसङ्ग अति सुखेर पाथार ।
‘नरोत्तम-विलासे’ ते हईब विस्तार ॥४५०॥

प्रभु-परिकर-दर्शने लोकेर आनन्दोल्लास—

प्रभु-परिकरेर दर्शने सर्व-लोक ।
दिवानिशि विह्वल, ना जाने दुःख-शोक ॥४५१॥

स्वप्नेह नाहिक कारु अन्य व्यवहार ।
ए सकल कथा विने कथा नाइ आर ॥४५२॥

स्थाने स्थाने लोक-गण मनेर उल्लासे ।
परस्पर कहे कत सुमधुर भाषे ॥४५३॥

केह कहे—‘प्रतिदिन ये उत्सव एथा ।
देखिब कि कभु—ना शुनिय़े ऐछे कथा ॥४५४॥

देखिल मङ्गलमय़ श्री-खेतुरी-ग्राम ।
श्री-महान्त-गणेर भवन अनुपम ॥४५५॥

अहे भाइ ! प्रभुर मन्दिर मनोलोभा ।
प्रभु ना वसिते सिꣳहासने एत शोभा’ ॥४५६॥

केह कहे—‘फाल्गुन-पूर्णिमा कालि हय़ ।
वसिबेन सिꣳहासने श्री-विग्रह छय़ ॥४५७॥

श्री-विग्रह-अभिषेक करिय़ा दर्शन ।
आनेर का कथा—मत्त हबे देव-गण ॥४५८॥

कहिते कि जानि—मोर मने एइ हय़ ।
हरिब दारुण दुःख श्री-विग्रह छय़ ॥४५९॥

सङ्कीर्तन-सुखेर समुद्र उथलिब ।
प्रभु-गण-सने सङ्कीर्तने विलसिब’ ॥४६०॥

कहे कहे—‘श्री-राजा सन्तोष भाग्यवान् ।
किबा सङ्कीर्तन स्थली करिल निर्माण ॥४६१॥

कि अपूर्व चन्द्रातपे अङ्गन आवृत ।
कत शत कदली-वृक्षादि सुशोभित’ ॥४६२॥

केह कहे—‘पुष्प-माला प्रस्तुत-कारणे ।
कैल बहु लोक युक्त चन्दन-घर्यणे’ ॥४६३॥

केह कहे—‘नानावाद्य-वादक, नर्तक ।
बहु-देश हैते आइला अनेक गाय़क ॥४६४॥

बिन्दि-गण-आदि यत तार अन्त नाइ ।
कि अद्भुत लोक-कोलाहल ठाꣳइ, ठाꣳइ’ ॥४६५॥

केह कहे—‘अहे भाइ ! कहिते कि आर ।
निशि पोहाइले प्राण जुड़ाय़ आमार ॥४६६॥

प्राते गिय़ा प्रभु-गणे करिब दर्शन ।
तथाय़ रहिब—घरे नाहि प्रय़ोजन ॥४६७॥

कि सुखे खाइते अद्य आइलाम घरे ।
ऐछे कात कहि दुःखे आपना धिक्कारे ॥४६८॥

केह कहे—‘प्रभु ! ए ना दुःख घुचाइब ।
ए विषम निशा अन्य शीघ्र पोहाइब’ ॥४६९॥

केह कहे—‘बुझि रात्रि आछे, दण्ड छय़ ।
नहिले कि ऐछे वाद्य कोलाहल हय़’ ॥४७०॥

केह कहे—‘देख सुप्रभात हैल निशि ।
सर्व-चित्ताकर्षे श्री-फाल्गुनी पौर्णमासी’ ॥४७१॥

फाल्गुनी पूर्णिमा दिवसे श्रीनिबास-प्रभु-कतृक श्री-विग्रह-गणेर अभिषेक, पूजा ओ प्रकाश—

ऐछे काहि धाय़ लोक श्री-मन्दिर यथा ।
परम अद्भुत शोभा देखे गिय़ा तथा ॥४७२॥

निज निज-वासा हैते महान्त-सकल ।
आइसेन श्री-मन्दिरे प्रेमाय़ विह्वल ॥४७३॥

जिनिय़ा गजेन्द्र-गति, तेज सूर्य-सम ।
प्रति अङ्ग पुलके पूर्णित मनोरम ॥४७४॥

परिधेय़ नवीन वसन सुशोभित ।
कपाले तिलक, बाहु वक्ष नामाङ्कित ॥४७५॥

मन्द मन्द हासि चतुर्दिक निरीक्षय़ ।
प्रभुर श्री-मन्दिर-प्राङ्गणे प्रवेशय़ ॥४७६॥

मनेर उल्लासे सबे बैसे दिव्यासने ।
श्री-जाह्नवा ईश्बरी बैसय़े सङ्गोपने ॥४७७॥

श्रीनिबासाचार्य, नरोत्तम महाशय़ ।
देखि शोभा सुखेर समुद्रे साꣳतारय़ ॥४७८॥

प्रभु-परिकर सबे श्रीनिबास प्रति ।
अभिषेकादि-क्रिय़ाय़ दिला अनुमति ॥४७९॥

श्रीनिबास दीनप्राय़ भूमे प्रणमिय़ा ।
करय़े श्री-विग्रहाभिषेकादिक क्रिय़ा ॥४८०॥

ये अद्भुत परिपाटी कहिल ना हय़ ।
वसाइला सिꣳहासने श्री-विग्रह छय़ ॥४८१॥

स्वप्नच्छले प्रभु ये ये नाम जानाइल ।
विग्रह-गणेर से से नाम व्यक्त कैल ॥४८२॥

‘गौराङ्ग, वल्लवीकान्त, श्री-व्रजमोहन ।
श्री-कृष्ण, श्री-राधाकान्त, श्री-राधारमण’ ॥४८३॥

ए छय़ेर अभिषेक-शोभा अतिशय ।
ना धारे धैरय ये वारेक निरीक्षय़ ॥४८४॥

सर्व महान्तेर मने हैल चमत्कार ।
निवारिते नारे नेत्रे आनन्दाश्रुधार ॥४८५॥

अलक्षित देखि देव पुस्प-वृष्टि करे ।
पाइय़ा परमानन्द आपना पासरे ॥४८६॥

जय़ जय़-शब्द-कोलाहल अनिवार ।
नाना वाद्य-ध्वनि धैर्य हरय़े सबार ॥४८७॥

विप्र वेद उच्चारय़े सुमधुर-स्वरे ।
भाटगण वर्णे शोभा विविध प्रकारे ॥४८८॥

निरुपम शोभावादि श्री-विग्रह-गण ।
से वेश रचिते धैर्य धरे के एमन ॥४८९॥

श्रीनिवासाचर्य महायत्ने धैर्य धरि ।
विरचि विचित्र वेश देखे नेत्र भरि ॥४९०॥

सुगन्धि चन्दन आर यत पुष्प-माला ।
बहु-पात्रे लैय़ा प्रभु-आगे समर्पिला ॥४९१॥

अपूर्व विधाने पूजा करि महासुखे ।
करे आरात्रिक सबे देखेन कौतुके ॥४९२॥

जय़ जय़-ध्वनि हैल, वाद्य-कोलाहल ।
शुनिते से शब्द दूरे याय़ अमङ्गल ॥४९३॥

आरात्रिक समाधाय़ महान्त-सकले ।
परम आनन्दे प्रणमय़े महीतले ॥४९४॥

नरोत्तम सुखेर समुद्रे मग्न हैय़ा ।
प्रणमय़े श्री-प्रभु-गणेर नाम लैय़ा ॥४९५॥

तथाहि तत्कृत-पद्यꣳ—
गौराङ्ग ! वल्लवीकान्त ! श्री-कृष्ण ! व्रज-मोहन ! ।
राधा-रमण ! हे राधे ! राधा-कान्त ! नमो’स्तु ते ॥४९६॥

कत शत लोक प्रवेशिय़ा श्री-अङ्गने ।
प्रणमे विह्वल हैय़ा आरति दर्शने ॥४९७॥

श्री-मन्दिर-प्राङ्गणातिपरिसर नहे ।
तथापि असꣳख्य लोक एक भिते रहे ॥४९८॥

प्रभु इच्छा—अङ्गन-प्रभाव ऐछे हय़े ।
अन्ये कि जानिब—ए दुर्लक्ष्य अतिशय़ ॥४९९॥

ए प्रसङ्ग शुनिते विस्मय़ हय़ आने ।
आरति-समय़ ये देखिल सेइ जाने ॥५००॥

आह मारि ! अपूर्व आरति समाधिय़ा ।
भोग समर्पिते आचार्येर हर्ष हिय़ा ॥५०१॥

पृथक् पृथक् पात्रे सुचारु बन्धाने ।
विविध सामग्री-भोग दिला सङ्गोपने ॥५०२॥

भक्षणावसर जानि दिय़ा आचमन ।
यत्न करि कराइला ताम्बूल-भक्षण ॥५०३॥

सुगन्ध चन्दन-सह पुष्प-माला दिल ।
सुचारु चामरवाय़े अति स्निग्ध कैल ॥५०४॥

श्री-मन्दिर-द्वार आवरण घुचाइते ।
प्रभु-अङ्ग-सौगन्धि व्यापल चारि भिते ॥५०५॥

श्री-प्रभु-गणेर प्रति अङ्गेर छटाय़ ।
हरिल सबार धैर्य उपमा कि ताय़ ॥५०६॥

श्रीनिबासाचार्य अति अधैर्य हईय़ा ।
भूमे पड़्‌इ प्रणमय़े अङ्गने आसिय़ा ॥५०७॥

आपना मानय़े हीन अपराध-भय़े ।
करय़े ये दैन्य ताहा कहिल ना हय़े ॥५०८॥

प्रभु-परिकरे प्रणमिते वार वार ।
सबे आलिङ्गय़े, नेत्रे आनन्दाश्रुधार ॥५०९॥

श्र्-ईजाह्नवा ईश्वरी चरणे प्रणमय़ ।
तेꣳह अतिशय़ अनुग्रह प्रकाशय़ ॥५१०॥

परम आनन्दे कहे मधुर-वचन ।
‘सबे देह पुष्प-माला प्रसादि चन्दन’ ॥५११॥

शुनि श्रीनिवास हर्षे ईश्वरी साक्षाते ।
श्री-माला-चन्दन निल अनेक पात्रेते ॥५१२॥

पृथक् पृथक् पात्रे श्री-माला-चन्दन ।
प्रभु-परिकर आगे करिला अर्पण ॥५१३॥

देखि से अपूर्व सबे हैय़ा उल्लसित ।
हईलेन श्री-माला-चन्दने विभूषित ॥५१४॥

किबा माला चन्दनेर शोभा चमत्कार ।
देखिते ना हय़ नेत्रे निमिष सञ्चार ॥५१५॥

देवेओ मनुष्य-रूप धरि सेइखाने ।
श्री-माला चन्दन परे, अन्ये नाहि जाने ॥५१६॥

माला-चन्दनेते युक्त हैला शिष्टलोक ।
ये माला-चन्दन-स्पर्शे नाशे दुःख-शोक ॥५१७॥

परिल असꣳख्य लोक श्री-माला-चन्दन ।
ए कौतुक देखे महाभाग्यवन्त-गण ॥५१८॥

श्री-ईश्वरी नृसꣳह-चैतन्ये निर्देशिल ।
तेꣳह श्रीनिवासादि सबारे पराइल ॥५१९॥

श्री-ईस्वरी कैल माला-चन्दन-ग्रहण ।
हईल सबार अति उल्लसित मन ॥५२०॥

श्री-माला-चन्दन-स्पर्शे जाह्नवा ईश्वरी ।
हईलेन यैछे ताहा कहिते ना पारि ॥५२१॥

निज-गण-सहित ठाकुर नरोत्तमेर सङ्कीर्तनारम्भ—

नरोत्तम-पाने कृपादृष्ट्ये निरखिय़ा ।
ना जानि कि शक्ति सञ्चारिला हृष्ट हैय़ा ॥५२२॥

श्री-अच्युतानन्द प्रभु अद्वैत-तनय़ ।
नरोत्तमे अति अनुग्रह विस्तारय़ ॥५२३॥

सकल महान्त प्रिय़ नरोत्तम-प्रति ।
सङ्कीर्तन-आरम्भे दिलेन अनुमति ॥५२४॥

नरोत्तम सबे प्रणमय़े महीतले ।
सङ्कीर्तनारम्भे हिय़ा आनन्दे उथले ॥५२५॥

दीनप्राय़ दाꣳड़ाइय़ा प्रभुर प्राङ्गणे ।
कृपादृष्ट्ये चाहे निज-परिकर-पाने ॥५२६॥

श्री-नरोत्तमेर प्रिय़ परिकर-गण ।
सकलेइ गीत-नृत्य-वाद्ये विचक्षण ॥५२७॥

प्रथमेइ देवी-दास मर्दल-वामेते ।
करे हस्ताघात—प्रेममय़ शब्द ताते ॥५२८॥

अमृत-अक्षर-प्राय़ वाद्य सञ्चारय़े ।
श्री-वल्लवदासादि-सहित विस्तारय़े ॥५२९॥

श्री-गौराङ्ग-दासादिक मनेर उल्लासे ।
वाय़ काꣳस्य-तालादि—प्रभेद परकाशे ॥५३०॥

निबन्ध, निबन्ध—गीतेर भेद-द्वय़ ।
निबन्ध गीत गोकुलादि आलापय़ ॥५३१॥

अनिबन्ध गीते वर्णन्यास स्वरालाप ।
आलापे गोकुल—कण्ठध्वनि नाशे ताप ॥५३२॥

आलापे गमक मन्द्र मध्य-तार-स्वरे ।
से आलाप शुनिते केबा वा धैर्य धरे ॥५३३॥

गाय़क वादक यैछे करे अभिनय़ ।
यैछे से सबार शोभा कहिल ना हय़ ॥५३४॥

नरोत्तम-वेष्टित एसब परिकरे ।
तारागण-मध्ये येन चन्द्र शोभा करे ॥५३५॥

सर्वाङ्ग-सुन्दर, माधुर्येर नाइ सीमा ।
सङ्कीर्तन-आवेशे कि मधुर-भङ्गिमा ॥५३६॥

श्री-कृष्ण-चैतन्य-नित्यानन्दाद्वैत-चन्द्रे ।
गण-सह चिन्तय़े मानसे महानन्दे ॥५३७॥

वार वार प्रणमिय़ा सबार चरणे ।
आलापे अद्भुत राग प्रकट कारणे ॥५३८॥

रागिणी-सहित राग मूर्तिमन्त कैला ।
श्रुति, स्वर, ग्राम, मूर्छनादि प्रकाशिला ॥५३९॥

सुमधुर कण्ठ-ध्वनि भेदय़े गगन ।
परम मादक—सुधा नहे तार सम ॥५४०॥

ताल, पाठाक्षर चारु छान्दे उच्चारय़ ।
वादक-गणेर याते मोदवृद्धि हय़ ॥५४१॥

क्रमे क्रमे गीत-वाद्य-वृद्धि हय़ यैछे ।
श्री-प्रभु-गणेर प्रेमानन्द बाढ़े तैछे ॥५४२॥

खण्ड-वासी श्री-रघुनन्दन प्रेममय़ ।
सङ्कीर्तन-सुखेर समुद्रे साꣳतारय़ ॥५४३॥

श्री-प्रभुर सम्पत्ति श्री-खोल, करताल ।
ताहे स्पर्शाइला चन्दन, पुष्प-माल ॥५४४॥

गण-सह नरोत्तमे करि आलिङ्गन ।
निज हस्ते पराइला श्री-माला-चन्दन ॥५४५॥

नरोत्तम गण-सह ताꣳरे प्रणमय़ ।
निबद्ध गीतेर परिपाटी प्रचारय़ ॥५४६॥

श्री-राधिका-भावे मग्न नदीय़ार चान्द ।
सेइ भावमय़ गीत-रचना सुछान्द ॥५४७॥

आकर्षण मन्त्र कि उपमा तार दिते ? ।
हईला विह्वल ताहा प्रथमे गाइते ॥५४८॥

तदुपरि श्री-राधिका-कृष्णेर विलास ।
गाइबेन—मने एइ कैल अभिलाष ॥५४९॥

गौर-गुण-गीतारम्भे अधैर्य सकले ।
श्री-जाह्नवा ईश्वरी भासय़े प्रेमजले ॥५५०॥

श्री-अच्युतानन्द प्रभु अद्वैत-तनय़ ।
ना जाने कि हैल चित्ते आनन्द उदय़ ॥५५१॥

श्रीपति, श्रीनिधि-आदि महान्त सकल ।
धरिते नारय़ अङ्ग करे टलमल ॥५५२॥

श्रील नरोत्तमेर कीर्तन-सम्बन्धे लोकेर नाना आलोचना—

सबे एकदृष्ट्ये नरोत्तमे निरीक्षय़ ।
केह केह श्री-नरोत्तमेर कथा कय़ ॥५५३॥

केह कहे—‘कि अद्भुत गीतादि-प्रकाशे ।
आहा मरि ! इथे वा ना कर दुःख नाशे’ ॥५५४॥

केह कहे—‘ऐछे गीत-वाद्यादि ना हय़ ।
ना जानिये नरोत्तम कैछे प्रकाशय़’ ॥५५५॥

केह केह—‘महाप्रभु स्वरूपेर स्थाने ।
शुनितेन उच्च गीत महाहर्ष-माने ॥५५६॥

गीत-प्रथा-रक्षा क्षोभ-निवृत्त-निमित्ते ।
प्रचारिते सम्यक् विचार कैल चिते ॥५५७॥

से समय़े ताहा प्रेम-सम्पुटे राखिल ।
नरोत्तम-द्वारे प्रभु एबे उघाड़िल’ ॥५५८॥

केह-कहे—‘हैल व्यक्त प्रभु-अदर्शने ।
हईब प्रभुर क्षोभ निवृत्त केमने’ ॥५५९॥

केह कहे—‘गीत प्रिय़ प्रभु इच्छामय़ ।
बुझि अद्य साक्षाद्-रूपे विलसय़ ॥५६०॥

ए अपूर्व गीत करिलेन आस्वादन ।
मने एइ हय़—मुइ कैलु निवेदन’ ॥५६१॥

केह कहे—‘इहाते सन्देहमात्र नाइ ।
गण-सह प्रभुके देखिब एइ ठाꣳइ ॥५६२॥

ऐछे कत कहे—‘कारु स्थिर नहे मन ।
गीतामृत-पाने महामग्न सर्व-जन ॥५६३॥

गीत-प्रभेदादि यैछे—के वर्णिते पारे ? ।
गन्धर्व किन्नर इथे आपना दिक्कारे ॥५६४॥

पुष्प-वृष्टि गगने करय़े देव-गण ।
मनुष्ये मिशाइ साधे निज-प्रय़ोजन ॥५६५॥

नारदादि ऋषि-गण अलक्ष्य रूपेते ।
मग्न हैला सङ्कीर्तनानन्द-समुद्रेते ॥५६६॥

शिव-ब्रह्मादिक गाने मग्न अतिशय़ ।
करे अभिलाष यत कहिल ना हय़ ॥५६७॥

तथा तथा पशु, पक्षी, सर्पादि सकल ।
हईलेक गानानन्दे परम विह्वल ॥५६८॥

सङ्कीर्तन-समुद्र उथले तिले तिले ।
चतुर्दिके भासे लोक नय़नेर जले ॥५६९॥

सकलेइ आत्म-विस्मरित अतिशय़ ।
उन्मत्तेर प्राय़ चतुर्दिके निरीक्षय़ ॥५७०॥

ठाकुर नरोत्तमेर सङ्कीर्तने महाप्रभुर सगणे प्रकटाप्रकट-विलास—

कहिते कि—सङ्कीर्तन-सुखेर घटाय़ ।
गण-सह अधैर्य हईला गोराराय़ ॥५७१॥

मेघेते उदय़ विद्युतेर पुञ्ज यैछे ।
सङ्कीर्तन-मेघे प्रभु प्रकटय़ तैछे ॥५७२॥

कि अद्भुत प्रकट-प्रकार सुशोभित ।
नित्यानन्दाद्वैत गण-सह सुवेष्टित ॥५७३॥

सब् हैला सङ्कीर्तन स्थलेर भूषण ।
प्रभु-गण-माधुर्य व्यापिल त्रिभुवन ॥५७४॥

प्रकटाप्रकट एकत्र चमत्कार ।
सबे जाने—प्रभुर ए प्रकट-विहार ॥५७५॥

प्रभुर ए लीला ब्रह्मादिर गम्य नय़ ।
गण-सह प्रभु सङ्कीर्तने विलसय़ ॥५७६॥

परम विचित्र वेश, विचित्र भङ्गिमा ।
शोभाय़ भुवन भुले—दिते कि उपमा ॥५७७॥

मण्डली-बन्धाने चारु नृत्य आरम्भिते ।
गीत-वाद्य-वृद्धि यैच्छे के पारे वर्णिते ॥५७८॥

नाचे गौरचन्द्र—कि अद्भुत गान-सृष्टि ।
भुवन माताय़ प्रेमे, करे प्रेम-वृष्टि ॥५७९॥

मन्द मन्द हासि चाहे नरोत्तम-पाने ।
प्रभु नित्यानन्द से प्रभुर भङ्गि जाने ॥५८०॥

नाचे नित्यानन्द पद्मावतीर कुमार ।
पदभरे धरणी कम्पय़े अनिवार ॥५८१॥

अद्वैत आचार्य नाचे उल्लास हिय़ाय़ ।
करय़े गर्जन महामत्त सिꣳहप्राय़ ॥५८२॥

नाचय़े पण्डित गदाधर धैर्य नाशे ।
गौरचन्द्र-समीपे लईय़ा श्रीनिवासे ॥५८३॥

श्रीवास पण्डित नाचे हईय़ा विह्वल ।
मुरारि गुप्तेर नृत्ये नाशे अमङ्गल ॥५८४॥

नाचे वक्रेश्वर—से उपमा नाइ दिते ।
हैल अभिलाष पूर्ण ए गीत-वाद्येते ॥५८५॥

हारिदास-ठाकुरेर नृत्य कि मधुर ।
स्वरूप गोसाञीर नृत्ये ताप याय़ दूर ॥५८६॥

दास गदाधरेर नर्तन मनोहर ।
नाचे राय़ रामानन्द रसेर सागर ॥५८७॥

वासुदेव सार्वभौम, विद्यावाचस्पति ।
देखि ए दोꣳहार नृत्य केबा धरे धृति ॥५८८॥

नाचय़े अच्युतानन्द अद्वैत-तनय़ ।
निरन्तर नय़ने आनन्दधारा वय़ ॥५८९॥

मुकुन्द, श्री-नरहरि, श्री-रघुनन्दन ।
नाचे ये भङ्गिते ताहा ना हय़ वर्णन ॥५९०॥

गौरीदास पण्डितेर किबा नृत्यावेश ।
श्रीपति श्रीनिधि नाचे आनन्द अशेष ॥५९१॥

गोविन्द, माधव, वासुघोषेर नर्तने ।
के आछे एमन धैर्य धरिवेक मने ॥५९२॥

नाचय़े मुकुन्द, श्री-आचार्य पुरन्दर ।
वासुदेव दत्त, ब्रह्मचारी शुक्लाम्बर ॥५९३॥

श्रीमान् पण्डित, यदु आचार्य-नन्दन ।
श्री-मुकुन्द दत्त नाचे, श्री-मधुसूदन ॥५९४॥

श्रीनाथ, महेश नाचे, श्रीधर, शङ्कर ।
जगदीश, श्री-यदुनन्दन, काशीश्वर ॥५९५॥

श्री-रघुनाथ-भट्ट नाचे, रूप-सनातन ।
ये नृत्य दर्शन-मात्रे जुड़ाय़ नय़न ॥५९६॥

नाचे श्री-नकुल ब्रह्मचारी, धनञ्जय़ ।
विप्र वाणीनाथ, शिखी, कानाइ, विजय़ ॥५९७॥

नाचे सूर्यदास, श्री-नृसिꣳह नाना छान्दे ।
हृदय़-चैतन्य नाचे लैय़ा श्यामानन्दे ॥५९८॥

श्रीनिवास श्री-नरोत्तमेर प्रिय़-गण ।
नाचय़े असꣳख्य लोक के कुरु गणन ॥५९९॥

देवता गन्धर्व-आदि मिशाइ मानुषे ।
नाचय़े कत ना साधे, मनेर उल्लासे ॥६००॥

चतुर्दिके असꣳख्य लोकेर नाइ अन्त ।
नाचे महारङ्गे से सकल भाग्यवन्त ॥६०१॥

हैल नृत्यावेश कि अद्भुत नृत्यस्थले ।
सबार हृदय़े महा-आनन्द उथले ॥६०२॥

नृत्य-गीत-वाद्ये हय़ ये काल व्यतीत ।
से काल अलक्ष्य—सबे सामान्य प्रतीत ॥६०३॥

आहा मरि ! किबा गीत-वाद्य मनोहर ।
किबा नृत्य नृतन ब्रह्मादि अगोचर ॥६०४॥

किबानन्दे विह्वल अद्वैत नित्यानन्द ।
किवा भक्तमण्डली-मध्येते गौरचन्द्र ॥६०५॥

प्रकाशिला प्रभु किबा अद्भुत करुणा ।
किबा ए विलास ! इहा बुझे कुन जना ॥६०६॥

श्रीनिवास नरोत्तमे किबा अनुग्रह ।
दुꣳह अभिलाष पूर्ण कैला गणसह ॥६०७॥

किबा गणसह नरोत्तम श्रीनिवासे ।
आलिङ्गन करि कहय़े कि मृदुभाषे ॥६०८॥

कहिते कि ?–भक्तवत्सल गोराराय़ ।
अदर्शन हैते धैर्य ना धरे हिय़ाय़ ॥६०९॥

सङ्कीर्तन-स्थल हईते सगणे महाप्रभुर आकस्मिक अदर्शने सकलेर महा-व्याकुलता—

गणसह सङ्कीर्तने प्रकटिला यैछे ।
अकस्मात् प्रभु-अदर्शन हैला तैछे ॥६१०॥

अप्रकट गणसह अदर्शन हैले ।
रहिला प्रकटगण सङ्कीर्तन-स्थले ॥६११॥

प्रभु-अन्तर्धानमात्रे प्राप्त बाह्यज्ञान ।
से आवेश सबार हईल अन्तर्धान ॥६१२॥

उठिल क्रन्दनरोल सङ्कीर्तनस्थले ।
सबे महा-व्याकुल, भासय़े नेत्रजले ॥६१३॥

केह कहे—‘कोथा गेल प्रभु गौरचन्द्र ?’ ।
केह कहे—‘कोथा श्रीअद्वैत नित्यानन्द?’ ॥६१४॥

केह कहे—‘कोथा श्रीपण्डित गदाधर?’ ।
केह कहे—‘कोथा हरिदास, वक्रेश्वर ?’ ॥६१५॥

केह कहे—‘कोथा गेला श्रीवास, मुरारि ?’ ।
केह कहे—‘कोथा श्रीमुकुन्द, नरहरि ?’ ॥६१६॥

केह कहे—‘कोथा गौरीदास, गदाधर ?’ ।
केह कहे—‘कोथा श्रीस्वरूप-दामोदर ?’ ॥६१७॥

केह कहे—‘गणसह प्रभु देखा दिय़ा ।
कोथा गेला’—बलि कान्दे भूमे लोटाइय़ा ॥६१८॥

चतुर्दिके असꣳख्य लोकेर आर्तध्वनि ।
से सबार नेत्रजले कर्दम धरणी ॥६१९॥

हास्य-हेतु आइला यत पाषण्डीर गण ।
से सबेओ कान्दे—धैर्य ना याय़ धरण ॥६२०॥

करय़े विलाप सबे ऊर्ध्वबाहु करि ।
‘मो सबार रक्षा कर प्रभु गौरहरि’ ॥६२१॥

पुनः-पुनः निवेदय़े प्रभुर चरणे ।
‘अपराध नहे येन वैष्णवेर स्थाने ॥६२२॥

सङ्कीर्तन-सुधा पान करि निरन्तर’ ।
ऐछे कत कहि हय़ धूलाय़ धूसर ॥६२३॥

कहिते कि जानि ?–कारु धैर्यमात्र नाइ ।
भक्तचेष्टा-उपमा दिवार नाइ ठाꣳइ ॥६२४॥

श्रीपति, श्रीनिधि-आदि प्रिय़भक्तगण ।
परस्पर कहे—‘इकि देखिलु स्वपन’ ॥६२५॥

केह कहे—‘भ्रम बा जन्मिल मो सबार’ ।
केह कहे—‘प्रभु इच्छा नारि बुझिबार’ ॥६२६॥

ऐछे कत कहि किछु धैर्यावलम्बिला ।
श्रीनिवास, नरोत्तमे सबे स्थिर कैला ॥६२७॥

श्रीजाह्नवा ईश्वरी कहय़े मृदुभाषे ।
‘पूर्ण अनुग्रह नरोत्तम श्रीनिवासे ॥६२८॥

ये आज्ञा करिल प्रभु ताहा सत्य हैल ।
गणसह ए हेन कीर्तने नृत्य कैल ॥६२९॥

आचण्डाल प्रभृति मातिल प्रभुगणे ।
खण्डिल सबार ताप प्रेम-वरिषणे ॥६३०॥

प्रभुर ए लीला अलौकिक प्रेममय़’ ।
ऐछे कत कहिते हईल हर्षोदय़ ॥६३१॥

सर्ब महान्तेर मोद व्यापिल हृदय़े ।
हैल पूर्वप्राय़ चेष्टा प्रभुर इच्छाय़ ॥६३२॥

श्रीजाह्नवादेवीर आदेशे सङ्कीर्तन-शेषे फाण्ड खेला आरम्भ—

देखि से सबार रीत जाह्नवा ईश्वरी ।
श्रीनिवासाचार्य-प्रति कहे धीरि धीरि ॥६३३॥

‘फागुखेलारम्भेर करह आय़ोजन ।
शुनि फागु आदि आनाइला सेइक्षण ॥६३४॥

पृथक् पृथक् बहु पात्रे सुशोभय़ ।
देखि श्रीईश्वरी अति प्रसन्न हृदय़ ॥६३५॥

श्रीनिवास-नरोत्तम ईश्वरी-आदेशे ।
प्रणमि महान्तगणे कहे मृदुभाषे ॥६३६॥

‘फागु खेलाइते इच्छा करुन एखन’ ।
शुनि हर्षे अनुमति दिला सर्वजन ॥६३७॥

श्रीनिवास पृथक् पृथक् पात्र लैय़ा ।
सबा आगे फल्गु-आदि दिला हर्ष हैय़ा ॥६३८॥

पुष्पेर पराण फागु-आदि यत्नमते ।
दिलेन पृथक् पात्रे ईश्वरी-अग्रेते ॥६३९॥

श्रीजाह्नवा ईश्वरी मन्दिरे प्रवेशिय़ा ।
प्रेमानन्दे मग्न प्रभु-अङ्गे फागु दिय़ा ॥६४०॥

मन्दिर हईते आसि वसि निजासने ।
देखे—यैछे फागु-क्रीड़ा करे प्रभुगणे ॥६४१॥

श्रीअच्युतानन्द, श्रीगोपाल प्रेममय़ ।
श्रीपति, श्रीनिधि, यदु गुणेर आलय़ ॥६४२॥

श्रीरघुनन्दन-आदि प्रभुप्रिय़गण ।
फागु-खेलारम्भे प्रेमाविष्ट सर्वजन ॥६४३॥

केह महारङ्गे गोरा-अङ्गे फागु दिय़ा ।
फिराइते नारे आꣳखि मुख निरखिय़ा ॥६४४॥

केह चारु चरित्र वर्णिय़ा पद्यछन्दे ।
श्रीवल्लवीकान्ते फागु देन महानन्दे ॥६४५॥

केह कहे श्रीव्रजमोहने फागु दिते ।
उथले आनन्दसिन्धु नारे स्थिर हैते ॥६४६॥

केह श्रीराधिकासह कृष्णे फागु दिय़ा ।
देखय़े से शोभा नानाभङ्गि प्रकाशिय़ा ॥६४७॥

केह केह प्रकाशि कौतुक अतिशय़ ।
श्रीराधाकान्तेर अङ्गे फागु समर्पय़ ॥६४८॥

केह केह फागु दिय़ा श्रीराधारमणे ।
मन्द मन्द हासे अति उल्लसित मने ॥६४९॥

फागु खेलाइते ये अद्भुत भावावेश ।
एकमुखे वर्णिते ना पारि तार लेश ॥६५०॥

किबा परस्पर फागु-खेलाय़ विह्वल ।
किबा फागुमय़ अङ्ग करे झलमल ॥६५१॥

किबा फागुक्रीड़ा-गीत गाय़ेन प्रभुर ।
नाना वाद्य वाय़—किबा शब्द सुमधुर ॥६५२॥

कहिते कि जानि से अद्भुत सब रीत ।
गीतवाद्य-श्रवणे ब्रह्मादि विमोहित ॥६५३॥

श्रीनिवाशाचार्य, नरोत्तम, श्यामानन्द ।
गणसह विह्वल पाइय़ा महानन्द ॥६५४॥

देखि से अद्भुत शोभा मधुर भाङ्गिते ।
फल्गुते भूषित तनु उपमा कि दिते ॥६५५॥

फागुमय़ हईल गगन, महीतल ।
चतुर्दिके असꣳख्य लोकेर कोलाहल ॥६५६॥

प्रभुर इच्छाय़ से अद्भुत फागुखेला ।
अलक्षित देवता-मनुष्ये एक मेला ॥६५७॥

सन्ध्याय़ फागुखेला-शेषे सन्ध्यारात्रिक-दर्शन एवꣳ तदनन्तर श्रीनामकीर्तन ओ महाप्रभुर जन्माभिषेक—

फागुखेला-सुखे मग्न हईय़ा सकले ।
प्रभुर इच्छाय़ स्थिर हैला सन्ध्याकाले ॥६५८॥

सबे सन्ध्या आरात्रिक करिय़ा दर्शन ।
करिलेन श्रीनामकीर्तन कतक्षण ॥६५९॥

प्रतुप्रिय़गण महा-गुणेर सागर ।
बैसे प्रभु-प्राङ्गणे—से शोभा मनोहर ॥६६०॥

गौराङ्गेर जन्म-अभिषेक करिबारे ।
अनुमति सकले दिलेन आचार्येरे ॥६६१॥

श्रीनिवासाचार्य सबे भूमे प्रणमिय़ा ।
प्रवेशे मन्दिरे महा आनन्दित हैय़ा ॥६६२॥

पूजारी सकल महा उल्लसित मने ।
अभिषेक-द्रव्य सज्ज कैल सेइ क्षणे ॥६६३॥

विविध औषधि-द्रव्य अनेक प्रकार ।
आचार्येर आगे दिला शकल सम्भार ॥६६४॥

आचार्य ठाकुर गौराङ्गेरे यत्न करि ।
खसाइला पूर्ववेश सिꣳहासनोपरि ॥६६५॥

शुक्ल वास पराइय़ा परम यतने ।
वसाइला गौरचन्द्रे अन्य सिꣳहासने ॥६६६॥

कृष्णजन्म-तिथिर विधान यैछे हय़ ।
तैछे गौरचन्द्र-जन्माभिषेक करय़ ॥६६७॥

गौरकृष्ण एक—इथे भेदबुद्धि यार ।
यम-यन्त्रणाय़ तार ना हय़ निस्तार ॥६६८॥

आहा मरि ! कि अपूर्व अभिषेक-रङ्ग ।
देखे सबे उल्लासे—धारिते नारे अङ्ग ॥६६९॥

विप्र वेदध्वनि करे सुमधुर छन्दे ।
भाटगण वर्णे प्रभुचरित्र आनन्दे ॥६७०॥

नानादेशी गाय़क गाय़ेन नाना गीत ।
नदीय़ाविहार—याते ब्रह्मादि मोहित ॥६७१॥

चतुर्दिक नाना वाद्य वाय़ेन वादक ।
नाना देश-रीते नाचे यतेक नर्तक ॥६७२॥

कहिते कि जानि—सुखसिन्धु उथलय़े ।
ये जाने ये विद्या ताकौतुके प्रकाशय़े ॥६७३॥

गौराङ्गेर जन्म-अभिषेकेर विधान ।
नेत्र भरि देखे यत लोक भाग्यवान् ॥६७४॥

केह कहे—‘धन्य फाल्गुन-पौर्णमासी ।
ए तिथि सेबिले मिले नदीय़ार शशी’ ॥६७५॥

केह कहे—‘फाल्गुन-पूर्णिमा ऐछे हय़ ।
पूर्णिमा-रजनी कि अद्भुत शोभामय़ ॥६७६॥

देख—चन्द्रकिरणे सर्वत्र सुनिर्मल ।
ना बुझिय़े—एथा केने आधिक उज्ज्वल’ ॥६७७॥

केह कहे—‘प्रभु-जन्माभिषेक दर्शने ।
आसि अलक्षित चन्द्र आछेन एथाने’ ॥६७८॥

केह कहे—‘ये कहिले एहो सत्य हय़ ।
एथा प्रभु-भक्तचन्द्रगणेर उदय़’ ॥६७९॥

ऐछे कत कहि लोक मग्न भक्तिरसे ।
प्रभुपरिकर-शोभा देखि सुखे भासे ॥६८०॥

कि अद्भुत प्रभु-परिकरेर चरित ।
गाय़ेन प्रभुर जन्म-अभिषेक-गीत ॥६८१॥

हईल प्रभुर अभिषेक-समाधान ।
क्रमे गान बाड़े—नहे गानेर विराम ॥६८२॥

गानानन्दे निमग्न हईला अतिशय़ ।
पोहाइल निशि कैछे किछु ना जानय़ ॥६८३॥

सर्वरात्रव्यापी कीर्तनान्ते सकलेर मङ्गलारात्रिक-दर्शन एवꣳ प्रातःक्रिय़ादिर पर जाह्नवादेवी-कर्तृक भोगरन्धन ओ समर्पण—

प्रभुर इच्छाय़ स्थिर हैय़ा सर्वजन ।
श्रीमङ्गल-आरात्रिक करिला दर्शन ॥६८४॥

प्रभुगणे प्रणमिय़ा महानन्द-मने ।
प्रातः-क्रिय़ा कैल गिय़ा निज-निज-स्थाने ॥६८५॥

स्रीजाह्नवा ईश्वरी परम हर्ष हैय़ा ।
प्रातःकाले करिलेन स्नानाह्निक क्रिय़ा ॥६८६॥

परम उत्साहे कैला अपूर्व रन्धन ।
अन्न-व्यञ्जनादि यत्त ना हय़ वर्णन ॥६८७॥

गौराङ्ग, वल्लवीकान्त आदि प्रभुगणे ।
भोग समर्पण कैला अपूर्व विधाने ॥६८८॥

समय़ जानिय़ा यत्ने भोग सराइला ।
देखि प्रभुगणेर कौतुक हर्ष हैला ॥६८९॥

श्रीनिवासाचार्य सर्व महान्तगणेरे ।
निवेदिला आरति दर्शन करिबारे ॥६९०॥

सकल महान्त महा-उल्लसित मने ।
आइसेन एकयोगे प्रभुर प्राङ्गणे ॥६९१॥

कि अपूर्व भङ्गि ! भाले तिलक सुन्दर ।
श्रीनाम-अङ्कित बाहु वक्ष मनोहर ॥६९२॥

परिधेय़ नवीन वसन शोभा करे ।
देखिते महान्तगण केबा धैर्य धरे ॥६९३॥

प्रभुर प्राङ्गणे सबे करिय़ा गमन ।
प्रभु-आरात्रिक देखि जुड़ाय़ नय़न ॥६९४॥

आरात्रिक समाधिय़ा पूजारी यतने ।
प्रसादी तुलसीमाला दिला सर्वजने ॥६९५॥

श्रीमन्दिरे प्रभु परिचर्या समाधिल ।
प्रभुगणे अपूर्व शयाय़ शोय़ाइल ॥६९६॥

चामर-व्यजन-आदि करि हर्ष हैला ।
मन्दिर-बाहिरे आसि द्वार बद्ध कैला ॥६९७॥

भूमे पड़ि प्रभुपरिकरे प्रणमय़े ।
सकल महान्त अनुग्रहे प्रशꣳसय़े ॥६९८॥

श्रीनिवास नरोत्तमे कहे वार वार ।
‘प्रभु-परिचर्या-परिपाटी चमत्कार’ ॥६९९॥

एत कहितेइ कत उपजय़े चिते ।
केबा ना आनन्दे भासे से चेष्टा देखिते ॥७००॥

महान्तगणके स्वय़ꣳ श्रीजाह्नवादेवीर महाप्रसाद-परिवेशन—

एथा श्रीईस्वरी श्रीमाधवे निदेशिल ।
तेꣳह सबे प्रसाद भुञ्जिते निवेदिल ॥७०१॥

माधवाचार्येर शुनि मधुर वचन ।
श्रीअच्युत श्रीपति आदिर हृष्ट मन ॥७०२॥

अपूर्व बन्धाने स्वच्छ स्थले सबे बैसे ।
श्रीजाह्नवा ईश्वरी आनन्दे परिवेशे ॥७०३॥

अन्न-व्य्ञ्जनादि स्वादु अमृत जिनिय़ा ।
भुञ्जय़े प्रशꣳसि प्रेमानन्दाविष्ट हैय़ा ॥७०४॥

स्वादे स्वादे सबे भुञ्जिलेन अतिशय़ ।
भक्षण-समय़-शोभा कहिल ना हय़ ॥७०५॥

परम कौतुके सबे करि आचमन ।
करिलेन निज-निज-वासाय़ गमन ॥७०६॥

श्रीनिवास आदि आज्ञा लाङ्घिते नारिल ।
भुञ्जिलेन—श्रीईश्वरी यत्ने भुञ्जाइले ॥७०७॥

मनेर उल्लासे शेषे जाह्नवा ईश्वरी
भुञ्जिलेन श्रीमहाप्रसाद यत्न करि ॥७०८॥

हईल सबार महा-आनन्द-हृदय़ ।
स्थाने स्थाने भोजन-कौतुक अतिशय़ ॥७०९॥

भुञ्जय़े यतेक लोक सꣳख्या नाइ तार ।
खेतरी-ग्रामे भोजन-आनन्द-पाथार ॥७१०॥

प्रभु-परिकरगण देखि ए कौतुक ।
तिले तिले सबार बाढ़य़े महासुख ॥७११॥

प्रतिपद-दिवानिशि ऐछे गोङाइल ।
द्वितीय़ाय़ यात्रा करिबेन—स्थिर कैल ॥७१२॥

द्वितीय़ा-दिवस श्रीनिवास हृष्टमने ।
निवेदय़े प्रभु-प्रिय़ परिकरगणे ॥७१३॥

‘अद्य निज-निज-वासाघरे शीघ्र करि ।
हबे पाकक्रिय़ादि देखिब नेत्र भरि ॥७१४॥

सन्तोष दत्तेर मने अभिलाष याहा ।
अनुग्रह करि पूर्ण करिबेन ताहा’ ॥७१५॥

श्रीनिवास-चेष्टा देखि सबे हृष्ट हैय़ा ।
विविध प्रकारे कराइला पाक-क्रिय़ा ॥७१६॥

कृष्णे भोग दिय़ा सबे प्रसाद भुञ्जिल ।
श्रीनिवासादिक से कौतुक निरखिल ॥७१७॥

सन्तोष दत्तेर भाग्य ना हय़ वर्णन ।
ये ये द्रव्य दिला सबे करिला ग्रहण ॥७१८॥

नानादेशी सहस्र सहस्र विप्रगणे ।
करिला सन्मान नाना वाक्य-द्रव्य-दाने ॥७१९॥

गाय़क वादक नर्तकादि लोकगणे ।
सन्तोषिला सन्तोष विविध द्रव्य-दाने ॥७२०॥

सकल महान्त देखि सन्तोषेर रीत ।
स्नेहावेशे अनुग्रह कैला यथोचित ॥७२१॥

कहिलु ए प्रसङ्गातिशय़ सꣳक्षेपेते ।
विस्तारिव इहा नरोत्तम-विलासेते ॥७२२॥

उत्सवान्ते महान्तगणेर विदाय़—

महा-महोत्सव-अन्ते प्रभु-प्रिय़गण ।
निज-निज-देशे करिबेन आगमन ॥७२३॥

श्रीजाह्नवा ईश्वरी याबेन वृन्दावने ।
विदाय़ हईते तेञि गेला ताꣳर स्थाने ॥७२४॥

विदाय़ समय़े ये कहय़े परस्परे ।
से सब शुनिते दारु पाषाण विदरे ॥७२५॥

श्रीजाह्नवा ईश्वरी अधैर्य अतिशय़ ।
निवारिते नारे—दुइ नेत्रे धारा बय़ ॥७२६॥

प्रभु-प्रिय़गण महा-व्याकुल हिय़ाय़ ।
नेत्रजले सिक्त हैय़ा हईल विदाय़ ॥७२७॥

गौराङ्ग, वल्लवीकान्त-आदि प्रभुगणे ।
नेत्र भरि निरखिय़ा प्रणमे प्राङ्गणे ॥७२८॥

विदाय़ हईय़ा चले खेतरी हईते ।
खेतरी-ग्रामेर लोक धाय़ चारिभिते ॥७२९॥

परस्पर कहे कत करिय़ा क्रन्दन ।
देखि से सबारे स्थिर नहे कुन जन ॥७३०॥

श्रीनिवासाचार्य धैर्य धरिते ना पारे ।
नरोत्तम, रामचन्द्र स्थिर हैते नारे ॥७३१॥

श्यामानन्दादिर चित्ते खेद अतिशय़ ।
गणसह सन्तोषेर व्याकुल हृदय़ ॥७३२॥

कहिते कि—श्रीमहान्तगणेर गमने ।
व्यापिल दारुण दुःख पशु-पक्षिगणे ॥७३३॥

पद्मावती-तीरे महा-लोकभीड़ हैल ।
श्रीमहान्तगण शीघ्र नौकाय़ चर्ह्̤‌इल ॥७३४॥

हईय़ा व्याकुल पद्मवती पार हैला ।
बुधरि-ग्रामेते रहि प्राते यात्रा कैला ॥७३५॥

खेतरी हईते श्रीजाह्नवादेवीर श्रीवृन्दावन-यात्रा—

आचार्यादि सबे पद्मावती-तीर हैते ।
आइलेन श्रीजाह्नवा ईश्वरी ग्रामेते ॥७३६॥

यद्यपि ईश्वरी अति अधैर्य अन्तरे ।
तथापि प्रबोधि स्थिर करिला सबारे ॥७३७॥

करिबेन वृन्दावन-गमन त्वराय़ ।
ताहा जानाइते सबे व्याकुल हिय़ाय़ ॥७३८॥

पुनः कत यत्ने प्रबोधिला सर्व जने ।
यात्रा स्थिर कैला वृन्दावनेर गमने ॥७३९॥

श्रीसन्तोष दत्त यत्ने नाना द्रव्य दिला ।
तारे अनुग्रह करि ग्रहण करिला ॥७४०॥

गौराङ्ग-वल्लवीकान्त-आदि प्रभुगणे ।
ना जानि प्रणमि कि कहिला सङ्गोपने ॥७४१॥

प्रभु-आगे विदाय़ हईय़ा यात्रा करे ।
सङ्गे भागवतगण अधैर्य अन्तरे ॥७४२॥

कृष्णदास सरखेल, माधव आचार्य ।
मुरारि, चैतन्य, कृष्णदास विप्रवर्य ॥७४३॥

नृसिꣳहचैतन्य बलराम, महीधर ।
कानाइ, नकड़्‌इदास, गौराङ्गसुन्दर ॥७४४॥

श्रीपरमेश्वरीदास, दास दामोदर ।
रघुपति वैद्य, उपाध्याय़ मनोहर ॥७४५॥

ज्ञानदास, मुकुन्दादि भागवत यत ।
ए सबार प्रभाव वर्णिबे केबा कत ॥७४६॥

श्रीनिवासाचार्य नरोत्तमादि विच्छेदे ।
धरिते ना पारे हिय़ा, विदरय़े खेदे ॥७४७॥

के बुझिते पारे प्रेमचेष्टा ये प्रकार ।
विदाय़ हईला यैछे नारि वर्णिबार ॥७४८॥

गणसह ईश्वरीर गमन-समय़े ।
गोविन्दादि सङ्गे चले आचार्य-आज्ञाय़े ॥७४९॥

खेतुरी हईत चलिलेन धैर्य धरि ।
‘शीघ्र आसिबेन’—जानाइलेन ईश्वरी ॥७५०॥

श्रीनिवास आचार्यादि प्रभुर इच्छाय़ ।
धैर्यावलम्बन करि आइला वासाय़ ॥७५१॥

खेतुरी-ग्रामेर लोक चाहे पथ-पाने ।
ना धरे धैरय—अश्रु झरय़े नय़ने ॥७५२॥

श्रीईश्वरीचरण चिन्तिया सर्वजन ।
परस्पर कहे कत प्रबोध-वचन ॥७५३॥

एसब प्रसङ्ग नरोत्तम-विलासेते ।
विस्तारिब प्रेमभक्ति पाबे आस्वादिते ॥७५४॥

श्रीनिवासाचार्य नरोत्तमादि-सहित ।
हईलेन प्रभुर प्राङ्गणे उपनीत ॥७५५॥

अकस्मात् हईल चित्ते आनन्द-उदय़ ।
अङ्गन-प्रभाव यैछे कहिला ना हय़ ॥७५६॥

ये अङ्गने गौर नित्यानन्दाद्वैत तिने ।
नृत्य कैला प्रकटाप्रकट गणसने ॥७५७॥

ये अङ्गन-ध्याने सर्व विघ्न विनाशय़े ।
दर्शने परम प्रेमानन्द प्राप्त हय़े ॥७५८॥

जय़ा श्रीअङ्गन सर्वाचित्त आकर्षय़ ।
जय़ जय़ श्रीखेतरी-ग्राम भक्तिमय़ ॥७५९॥

आचार्यठाकुर नरोत्तम गणसने ।
प्रतिदिन कीर्तने विह्वल श्रीअङ्गने ॥७६०॥

श्रीनिवास आचार्य प्रभुर विदाय़-ग्रहण—

एकदिन श्रीनिवासाचार्य मृदुभाषे ।
श्रीनरोत्तमेर प्रति कहे स्नेहावेशे ॥७६१॥

‘श्यामानन्द-सह कालि प्राते शीघ्र करि’ ।
पद्मावती पार हैय़ा याइब बुधरि ॥७६२॥

याजिग्रामे श्यामानन्दे विदाय़ करिब ।
विष्णुपुर गिय़ा याजिग्रामेते आसिब ॥७६३॥

पाठाब सꣳवादपत्री, तुमिह त्वराय़ ।
ईश्वरीगमन-पत्री पाठाबे आमाय़ ॥७६४॥

श्रीईश्वरी याइबेन येइ पथ दिय़ा ।
तोमरा याइबा सङ्गे से पथे लईय़ा’ ॥७६५॥

ऐछे कत कहि प्राते अधैर्य-हिय़ाय़ ॥
मङ्गल आरात्रिक देखि हईला विदाय़ ॥७६६॥

गमन-कालेते ये हईल परस्परे ।
ताहा कहितेइ हिय़ा ना जानि कि करे ॥७६७॥

नरोत्तम-विलासे ए वर्णिब विस्तारि ।
पद्मावती पात्र हईय़ा गेलेन सुधरि ॥७६८॥

एथा रामचन्द्र श्रीठाकुर महाशय़ ।
विच्छेदे व्याकुल हईलेन अतिशय़ ॥७६९॥

निजगण-सह सदा प्रभुर प्राङ्गणे ।
सङ्कीर्तने मत्त—दिवानिशि नाहि जाने ॥७७०॥

कत शत पाषन्डीरे अनुग्रह करि ।
करय़े प्रभुर प्रेमभक्ति अधिकारी ॥७७१॥

एसब प्रसङ्गे यार हय़ गाढ़ रति ।
प्रभुपदे जन्मे तार निर्मल भकति ॥७७२॥

श्रीनिवास-आचार्यचरण चिन्ता करि ।
भक्तिरत्नाकर कहे दास नरहरि ॥७७३॥

इति श्रीश्रीमद्भक्तिरत्नाकरे श्रीनरोत्तमालय़े महामहोत्सव श्रीजाह्नवा-वृन्दावनयात्रादि-वर्णनꣳ नाम
दशमस्तरङ्गः ॥१०॥