नवम तरङ्ग
जय़ जय़ श्रीशचीनन्दन गौरचन्द्र ।
जय़पद्मावतीर नन्दन नित्यानन्द ॥१॥
जय़ श्री अद्वैत नाभादेवीर कोङर ।
जय़ रत्नावतीर तनय़ गदाधर ॥२॥
जय़ श्रीवासादि प्रभुप्रिय़ भक्तगण ।
मो-हेन मुर्खेर कर वाञ्छित पूरण ॥३॥
जय़ जाय़ श्रोतागण गुणेर आलय़ ।
एबे ये कहिय़े शुन हईय़ा सदय़ ॥४॥
राजा वीरहाम्बीरेर अनुताप ओ ताꣳहाके सान्त्वना—
श्रीवीरहाम्बीर राजा वन विष्णुपुरे ।
आचार्य-दर्शन लागि उद्विग्न अन्तरे ॥५॥
राजा एइ चिन्ता सदा करे मने मने ।
‘विष्णुपुरे प्रभु वा आसिब कत दिने ॥६॥
मो अति अनाथ, मोर केहु नाहि आर ।
प्रभु विना तिले तिले देखि अन्धकार ॥७॥
केबा ना पाइल दुःख मोर आचरणे ।
गोस्वामि-सबारे पीड़ा दिनु वृन्दावने ॥८॥
कैलु अपराध ऐछे केह नाहि करे ।
से सबे कि अनुग्रह करिब आमारे ? ॥९॥
ऐछे कत करि मने रहे मौन धरि ।
सम्बरे नेत्रेर धारा कत यत्न करि ॥१०॥
राजारे उद्विग्न देखि पात्र-मित्रगणे ।
करय़े साम्त्वना अति मधुर वचने ॥११॥
‘एइ अल्प दिन हैल गेला एथा हैते ।
बुझिय़े—विलम्ब किछु हईबे आसिते ॥१२॥
नहिबे भावित—तेꣳहो तुय़ा-भक्तिवश ।
सर्वत्र व्यापिल एइ तोमार सुयश ॥१३॥
ताꣳर अनुग्रहे सकलेर अनुग्रह ।
इथे महाराज किछु ना कर सन्देह ॥१४॥
यदि कह—‘व्रजस्थ प्रभुर प्रिय़गणे ।
करिब निग्रह—इहा ना करिह मने’ ॥१५॥
एत कहितेइ ब्रज हैते दुइ जन ।
आइलेन गोस्वामीर लईय़ा लिखन ॥१६॥
दोꣳहे देखि राजा महा अस्तव्यस्त हैला ।
भूमितले पड़िय़ा दोꣳहारे प्रणमिला ॥१७॥
ऐछे रीत देखि दोꣳहे हैय़ा स्तब्धप्राय़ ।
राजा प्रति कहे किछु मधुर भाषाय़ ॥१८॥
‘वृन्दावने यैछे सबे प्रशꣳसे तोमारे
साक्षाते ता देखि सुख बार्ह्̤इल अन्तरे ॥१९॥
पत्रिका लईय़ा आइनु गोस्वामी सबार ।
एइ पत्री आचार्येर, ए पत्री तोमार’ ॥२०॥
एत कहि राजारे दिलेन पत्रीद्वय़ ।
पत्री लैय़ राजा नेत्र-मस्तक्के धरय़ ॥२१॥
हर्षे निज भाग्य प्रशꣳशिय़ा वार वार ।
पड़े निज पत्री—नेत्रे बहे अश्रुधार ॥२२॥
श्री-जीव गोसाञीर महामधुर अक्षर ।
ये शुने ताहार हय़ अधैर्य अन्तर ॥२३॥
पत्री पड़ि राजा महा उल्लासे कहय़ ।
‘मो हेन अधमे सबे हईला सदय़ ॥२४॥
अदोषदरशी से प्रभुर भक्तगण’ ।
ऐछे कत कहे अश्रु नहे निवारण ॥२५॥
राजार अद्भुत चेष्टा देखे भाग्यवान् ।
राजा से दोꣳहार कैल परम सम्मान ॥२६॥
याजिग्रामे गोस्वामीर पत्री पाठाइते ।
निज समाचार पत्री लिखिल तुरिते ॥२७॥
दुइ पत्री निज दुइ लोके समर्पिल ।
दोꣳहे याजिग्रामे आसि आचार्येरे दिल ॥२८॥
गोस्वामीर पत्री माथे बन्दिला यतने ।
पड़िते आनन्दधारा बहे दुनय़ने ॥२९॥
आचार्यठाकुर कतक्षणे स्थिर हैला ।
तबे से मनुष्य राजार पत्री दिला ॥३०॥
पत्री पड़ि आचार्ययेर प्रसन्न हृदय़ ।
पत्रे व्यक्त दर्शन-आकाङ्खा अतिशय़ ॥३१॥
आचार्य राजाय़ शीघ्र पत्रिका लिखिल ।
याइते विलम्ब किछु—पत्रे जानाइल ॥३२॥
आर ये ये समाचार लिखिल ताहाते ।
पत्रिका दिलेन सेइ मनुष्येर हाते ॥३३॥
पत्री लैय़ा लोक वनविष्णुपुरे गेला ।
पत्रीपाठे राजा महा आनन्द पाइला ॥३४॥
एथा श्रीआचार्य शिष्यगणेरे पड़ाय़ ।
‘सर्वश्रेष्ठ भक्ति—कहि गर्जे सिꣳहप्राय़’ ॥३५॥
आचार्येर एइ एक चिन्ता निरन्तर ।
‘प्राय़ अदर्शन हैला प्रभु-परिकर ॥३६॥
ये केउ आछेन से सबार स्थिर नय़’ ।
ऐछे विचारिते अति व्याकुल हृदय़ ॥३७॥
चित्तास्थिर मात्र भक्तिशास्त्रेर विचारे ।
आचार्येर विद्याबल व्यापय़े सꣳसारे ॥३८॥
नानादेश हैते ये आइसे विद्यावान् ।
से सबे पड़ान भक्तिरत्न दिय़ा दान ॥३९॥
गोस्वामीर ग्रन्थ-अध्यय़नेर कारण ।
एकदिन आइला दुइ क्षेत्रस्थ ब्राह्मण ॥४०॥
पूर्वे ये आइला मिलि ताꣳ सबार सने ।
चलिलेन आचार्यठाकुर सन्निधाने ॥४१॥
भक्तिपूर्वक दोꣳहे आचार्येरे प्रणमिला ।
आचार्य प्रणमि दोꣳहे आलिङ्गन कैला ॥४२॥
दोꣳहे जिज्ञासय़े श्रीक्षेत्रेर समाचार ।
दोꣳहे कहे—‘कहिते दुःखेर नाहि पार ॥४३॥
प्रभु-परिकर ये छिलेन नीलाचले ।
नेत्र अगोचर प्राय़ हईछे सकले ॥४४॥
तथा गिय़ाछिला श्यामानन्द प्रेममय़ ।
ये देखिल ताꣳर दशा कहिल ना हय़ ॥४५॥
कुन कुन महान्तेर दर्शन पाइला ।
से सबार सङ्गोपने मृतप्राय़ हैला ॥४६॥
विदरे पाषाण, दारु शुनि से क्रन्दन ।
प्रभुर इच्छाय़ मात्र रहिल जीवन ॥४७॥
कुन कुन भागवत ताꣳरे प्रबोधिला ।
विच्छेदे व्याकुल तेꣳहो वृन्दावने गेला’ ॥४८॥
शुनि आचार्येर दुइ नेत्रे धारा बय़ ।
से दशा देखिते कार हिय़ा ना द्रवय़ ॥४९॥
आचार्य आपना प्रबोधिय़ा सेइ क्षणे ।
गोस्वामीर ग्रन्थ पड़ाय़ेन दुइजने ॥५०॥
नवद्वीप हईते एक वैष्णव आसिय़ा ।
मिलिल आचार्ये अति व्याकुल हईय़ा ॥५१॥
श्रीआचार्य अधैर्य हईय़ा जिज्ञासय़ ।
‘कह नवद्वीपेर सꣳवाद कैछे हय़’ ॥५२॥
तेꣳहो कहे—‘शुक्लाम्बर आदि भक्तगण ।
एइ अल्प दिने हईलेन अदर्शन’ ॥५३॥
एत कहितेइ केह आसिय़ा कहिला ।
‘दास-गदाधर अद्य सङ्गोपन हैला’ ॥५४॥
शुनि श्रीनिवासाचार्य नारे स्थिर हैते ।
मूर्च्छित हईय़ा पड़िलेन पृथिवीते ॥५५॥
से दशा देखिय़ा चिन्ता करे सर्वजन ।
प्रभु-इच्छा हैते हैल किञ्चित् चेतन ॥५६॥
करि कत विलाप कान्दय़े उच्चस्वरे ।
उठिल क्रन्दन-रोल आचार्येर घरे ॥५७॥
से कान्दन शुनिते कान्दय़े पशु-पाखी ।
ये देखिल से समय़े सेइ तार साथी ॥५८॥
स्थिर हैय़ा आचार्ये कहेन सर्वजने ।
‘आमारे याइते शीघ्र हबे वृन्दावने ॥५९॥
करिबे तोमरा सबे ग्रन्थानुशीलन ।
अर्थ स्फुरावेन प्रभु रूप-सनातन’ ॥६०॥
एत कहि ग्रन्थ पड़ाय़ेन शिष्यगणे ।
प्रकारे आचार्य वर दिला सर्वजने ॥६१॥
श्रीनिवासाचार्य प्रभुर वृन्दावने गमन—
एकदिन श्रीआचार्य चिन्तय़े अन्तरे ।
‘प्राय़ सबे छाड़ि गेला मु हेन दुःखीरे’ ॥६२॥
एत चिन्तितेइ केहो कहे उच्च करि ।
‘अदर्शन हैला श्रीठाकुर नरहरि’ ॥६३॥
ऐछे वाक्य-वज्राघाते स्थिर नाहि बान्धे ।
भूमिते लोटाय़—‘एकि हैल बलि कान्दे ॥६४॥
करिते क्रन्दन रजनीर शेष हैल ।
छाड़िब जीवन—एइ मने दढ़ाइल ॥६५॥
प्रभुर इच्छाय़ निद्रा हैल अकस्मात् ।
स्वप्नच्छले दोꣳहे शीघ्र हईला साक्षात् ॥६६॥
प्रभु दास-गदाधर, प्रभु नरहरि ।
करय़े प्रबोध आचार्येरे करे धरि ॥६७॥
ए नहे उचित तुमि ये करिला मने ।
सदा आछि आमरा तोमार सन्निधाने’ ॥६८॥
एत कहि श्रीनिवासे करि आलिङ्गन ।
स्नेहावेशे दोꣳहे हईलेन अदर्शन ॥६९॥
दुꣳहु-अदर्शने दुःख हईल अशेष ।
श्रीनिवास जागिय़ा देखय़े रात्रिशेष ॥७०॥
ना जानि कि रामचन्द्र कहिय़ा निभृते ।
वृन्दावने यात्रा कैला रजनीप्रभाते ॥७१॥
अतिशीघ्र मथुरा-नगरे प्रवेशिला ।
श्रीविश्रामघाटेते यमुना-स्नान कैला ॥७२॥
तथा एक माथुर ब्राह्मण दूर हैते ।
श्रीनिवासे देखि महाविह्वल स्नेहेते ॥७३॥
‘गौड़े गिय़ा शीघ्र केने आगमन हैल’ ।
ऐछे विचारिते मने उद्वेगा जन्मिल ॥७४॥
निकटे आसिय़ा जिज्ञासिल समाचार ।
श्रीनिवास निवेदिल करि नमस्कार ॥७५॥
व्रजेर मङ्गल जिज्ञासिते श्रीनिवास ।
कहय़े माथुर विप्र छाड़ि दीर्घश्वास ॥७६॥
‘माघमासे हैल एथा तोमार गमन ।
दिन दश आगे आगे आइले पाइता दरशन ॥७७॥
माघ कृष्णा एकादशी-दिने कि आश्चर्य ! ।
सङ्गोपन हैला द्विज हरिदासाचार्य’ ॥७८॥
शुनि श्रीनिवास भासे नेत्रेर धाराय़ ।
‘नहिल दर्शन’ बलि भूमिते लोटाय़ ॥७९॥
श्रीनिवास-दशा देखि विप्र महाधीर ।
अनेक प्रकारे श्रीनिवासे कैला स्थिर ॥८०॥
तथा हईते श्रीनिवास गिय़ा वृन्दावन ।
गोस्वामी सबार कैल चरण-दर्शन ॥८१॥
से-दिवस वसन्त-पञ्चमी तिथि हय़ ।
श्रीगोविन्द-मन्दिरे सकल विलसय़ ॥८२॥
श्रीगोपाल भट्ट, श्रीभूगर्भ लोकनाथ ।
श्री-जीव गोस्वामी-आदि प्रिय़वर्ग साथ ॥८३॥
अकस्मात् श्रीनिवासे देखिय़ा सकले ।
स्नेहावेशे धरि करिलेन सबे कोले ॥८४॥
भूमिते पड़िय़ा प्रणमय़े श्रीनिवास ।
देखि से अद्भुत-चेष्टा सबार उल्लास ॥८५॥
श्रीनिवासे कुशल सकले जिज्ञासिल ।
आद्योपान्त श्रीनिवास सब निल्वेदिल ॥८६॥
शुनि गौरचन्द्र-प्रिय़भक्त-सङ्गोपन ।
व्याकुल हईय़ा सबे करेन क्रन्दन ॥८७॥
केह कहे—‘श्रीनिवासे देखि’ कैलु मने ।
एत शीघ्र इहार गमन हैल केने ॥८८॥
पाइला दारुण दुःख—‘ए हेतु गमन’ ।
ऐछे कत कहि प्रबोधय़े सर्वजन ॥८९॥
हरिदासाचार्य अदर्शन जानाइते ।
सबे यैछे हैला ताहा के पारे कहिते ॥९०॥
श्रीनिवासे स्थिर करि सबे स्थिर हैला ।
गोविन्देर राजभोग-आरति देखिला ॥९१॥
श्रीनिवास करि राधागोविन्द-दर्शन ।
प्रेमेते विह्वल यैछे ना हय़ वर्णन ॥९२॥
गोस्वामि-सकल प्रिय़ श्रीनिवासे लैय़ा ।
भुञ्जिलेन श्रीमहाप्रसाद यत्न पाय़ा ॥९३॥
निज निज वासा सबे गमन करिला ।
श्री-जीवगोस्वामी श्रीनिवासे लैय़ा गेला ॥९४॥
श्रीश्यामानन्द प्रभुर वृन्दावने आगमन—
हेनकाले श्यामानन्द आइला क्षेत्र हैते ।
गोस्वामिरे प्रणमये पड़िय़ा भूमिते ॥९५॥
स्नेहावेशे गोस्वामी करिय़ा आलिङ्गन ।
कहिलेन सुधामय़ मधुर वचन ॥९६॥
श्यामानन्दे यैछे स्नेह के कहिते पारे ।
ऐछे कैल मन स्थिर हय़ ये प्रकारे ॥९७॥
श्रीनिवासाचार्येर गमन जानाइय़ा ।
रहिलेन किछुकाल निभृते बसिय़ा ॥९८॥
श्यामानन्द देखिय़ा आचार्य श्रीनिवासे ।
भूमे पड़ि प्रणमिल मनेर उल्लासे ॥९९॥
श्रीनिवास यथायोग्य आचरण करि ।
बसाइला पाशे श्यामानन्देर करे धरि ॥१००॥
परस्पर कहिय़ा सकल समाचार ।
निवारिते नारे—नेत्रे बहे अश्रुधार ॥१०१॥
मने करि गोस्वामीर प्रबोध-वचन ।
कतक्षणे स्थिर हईलेन दुइजन ॥१०२॥
श्यामानन्दे आचार्य राखिय़ा सेइखाने ।
शीघ्र करि गेलेन श्रीयमुना-सिनाने ॥१०३॥
स्नान करि जीवगोस्वामीरे निवेदिय़ा ।
श्रीभट्टगोस्वामी पदे प्रणमिल गिय़ा ॥१०४॥
एइरूप सर्वत्रई करिय़ा भ्रमण ।
श्री-जीव निकटे करे ग्रन्थानुशीलन ॥१०५॥
श्री-जीवगोस्वामी अति प्रसन्न-हृदय़ ।
देखि आचार्ये विद्या प्रभावातिशय ॥१०६॥
श्रीगोपालचम्पू-ग्रन्थारम्भ शुनाइला ।
आर ये ये ग्रन्थ कैल ताहा देखाइला ॥१०७॥
आचार्येर हईल अति आनन्द अन्तर ।
गोस्वामीर ग्रन्थ-चर्चा करे निरन्तर ॥१०८॥
श्रीरामचन्द्र कविराजेरर् वृन्दावन-यात्रा—
ऐछे श्रीनिवासाचार्य बैसे वृन्दावने ।
गौड़ेते व्याकुल सबे आचार्य-बिहने ॥१०९॥
एकदिन श्रीखण्डेते श्रीरघुनन्दन ।
रामचन्द्रे कहे अति मधुर वचन ॥११०॥
‘हईल सकल शून्य, कहिते कि आर ।
वृन्दावन याह शीघ्र—ए कार्य तोमार’ ॥१११॥
एत कहि पथेर सन्धान जानाइला ।
सेइक्षणे रामचन्द्र याजिग्रामे आइला ॥११२॥
तथा रामचन्द्र सबे कहे वार वार ।
‘श्रीआचार्य विना सब हईल अन्धकार ॥११३॥
ना कर विलम्ब, शीघ्र याह वृन्दावन ।
आचार्ये आनिय़ा राख सबार जीवन’ ॥११४॥
रामचन्द्रे सकलेर पाय़ा अनुमति ।
आइलेन निज-गृहे हैय़ा हर्य अति ॥११५॥
रामचन्द्र एइ चिन्ता करे मने मने ।
‘श्रीनरोत्तमेर सङ्ग हबे कत दिने ॥११६॥
हईले ताꣳहार सङ्ग याबे सब दुःख ।
दरशन विना मने ना जन्मिबे सुख ॥११७॥
प्रभुगृहे रहिते नारिब ताꣳहा विने ।
तथा गताय़ात करिबेन गणसने ॥११८॥
ऐछे स्थाने रहि याते सुख सर्वमते’ ।
स्थान स्थिर हैल मने ऐछे विचारिते ॥११९॥
महान्त-अन्तर बुझे हेन कार शक्ति ।
काहुके ना प्रकाशिल निज-मनोवृत्ति ॥१२०॥
निजानुज भ्राता श्रीगोविन्द विद्यावान् ।
कार्येते चातुर्य चारु, सर्वाꣳशे प्रधान ॥१२१॥
अति स्नेहावेशे तारे कहय़े निभृते ।
‘याइब श्रीवृन्दावन रजनीप्रभाते ॥१२२॥
एबे एथा वासेर सङ्गति भाल नय़ ।
सदा मने आशङ्का उपजे अतिशय़ ॥१२३॥
आछय़े किञ्चित् भौम बहुदिन हैते ।
ताहे ये उत्पात एबे देखह साक्षाते ॥१२४॥
शीघ्र एइ वासादिक परित्याग करि ।
निर्विघ्ने अन्यत्र वास हय़ सर्वोपरि ॥१२५॥
ताहे एइ गङ्गा-पद्मावती-मध्य स्थान ।
पुण्यक्षेत्र तेलिय़ा-बुधरि-नामे ग्राम ॥१२६॥
अति गण्डग्राम शिष्टलोकेर वसति ।
यदि मने हय़ तबे उपयुक्त स्थिति ॥१२७॥
श्रीमातामहेर पूर्वे छिल गताय़ात ।
सकले जानेन, तेꣳहो सर्वत्र विख्यात ॥१२८॥
तथा वास हैले अनेकेर सुख हय़’ ।
गोविन्द कहय़े—‘एइ कर्तव्य निश्चय़’ ॥१२९॥
गोविन्देर वाक्ये रामचन्द्र हर्ष हैला ।
परमार्थ-रीत बहु उपदेश कैला ॥१३०॥
रामचन्द्र रजनीप्रभाते भ्राता-स्थाने ।
विदाय़ हईय़ा यात्रा कैला वृन्दावने ॥१३१॥
आचार्य गेलेन मार्गशीर्षमास-शेषे ।
रामचन्द्र गमन करिला पौषशेषे ॥१३२॥
श्रीरामचन्द्रेर भ्राता गोविन्देर पूर्व इतिवृत्त—
श्रीगोविन्द दुइ चारि दिवस रहिय़ा ।
कुमारनगर हैते गेलेन तेलिय़ा ॥१३३॥
तेलिय़ा-बुधरि-आदि ग्रामवासी यत ।
सबार आनन्द यैछे के कहिबे कत ॥१३४॥
आसिय़ा मिलिला भद्रलोक भाग्यवान् ।
सबे करि दिलेन अपूर्व वासस्थान ॥१३५॥
सबे महासुखी गोविन्देर सद्गुणेते ।
गोविन्द पाइला सुख सबार स्नेहेते ॥१३६॥
ऐछे विलसय़े—एक चिन्तामात्र सबे ।
‘आचार्य-चरण-किङ्कर हब कबे ॥१३७॥
कबे श्रीआचार्य प्रभु दीक्षा-मन्त्र दिव ।
उद्धारिय़ा अधमे आपन करि निव’ ॥१३८॥
ऐछे खेद गोविन्द करय़े अनुक्षण ।
इथे कहि गोविन्देर पूर्व विवरण ॥१३९॥
कुमारनगरे बैसे अति शुद्धाचार ।
भगवती विना किछु ना जानय़े आर ॥१४०॥
गीत-पद्मे करे भगवतीर वर्णन ।
शुनि हर्ष शक्ति-उपासक सङ्गिगण ॥१४१॥
भगवती-प्रति ऐछे हैल येन मते ।
ताहार कारण एबे कहि सꣳक्षेपेते ॥१४२॥
शक्ति-उपासक मातामह दामोदर ।
भगवती याꣳर वशीभूत निरन्तर ॥१४३॥
दामोदर कविराज सर्वत्र प्रचार ।
ताꣳर कन्या सुनन्दा—गोविन्द पुत्र याꣳर ॥१४४॥
मातृगर्भे गोविन्द—भूमिष्ठ नाहि हय़ ।
ताहाते मातार कष्ट हैल अतिशय़ ॥१४५॥
दासी शीघ्र कहिलेन कविराज-प्रति ।
से-समय़े कविराज पूजे भगवती ॥१४६॥
कथा ना कहिब नेत्र हस्त-भङ्गिद्वारे ।
श्रीदुर्गादेवीर यन्त्र देखाय़ दासीरे ॥१४७॥
‘लैय़ा याह इहा, शीघ्र कराह दर्शन ।
हईह प्रसव—दुःख हबे निवारण’ ॥१४८॥
कहिब भङ्गिते याह ताहा ना बुझिल ।
शीघ्र यन्त्र धौत करि जल पिय़ाइल ॥१४९॥
हईल प्रसव पुत्र परम सुन्दर ।
दिने दिने बुद्धि हैला यैछे शशधर ॥१५०॥
जन्म हैल भगवती-यन्त्रोदक-पाने ।
एइ एक हेतु—इहा जाने सर्वजने ॥१५१॥
अल्पकाले पिता सङ्गोपन—सङ्गहीन ।
ना बुझिल कुन कर्म—कहय़े प्राचीन ॥१५२॥
आजन्म रहिला मातामहेर आलय़ ।
ताꣳर सङ्गाधीन—आर एइ एक हय़ ॥१५३॥
उत्तम मध्यमाधम-सङ्ग—शास्ट्रे कय़ ।
ये यैछे करय़े सङ्ग, सेहो तैछे हय़ ॥१५४॥
भगवती-प्रति आर्ति एइ दुइ प्रकारे ।
सबे उपदेशे भगवती पूजिबारे ॥१५५॥
‘भगवती विना कोन कार्य-सिद्धि नय़’ ।
एइ मत उपदेश गोविन्द करय़ ॥१५६॥
रामचन्द्र श्रीआचार्य-स्थाने शिष्य हैते ।
गोविन्द एकान्ते वसि विचारय़े चिते ॥१५७॥
भगवती-पादपद्म कैले आराधन ।
नहिबे कि ए भवबन्धादि-विमोचन ? ॥१५८॥
हेन काले अलक्ष्ये कहय़े भगवती ।
‘कृष्ण ना भजिले कारु ना घुचे दुर्गति’ ॥१५९॥
शुनि एइ वाक्य मने बहु खेद हैल ।
भजिब श्रीकृष्णपादपद्म—दड़ाइल ॥१६०॥
‘श्रीआचार्यप्रभुर शिष्य हईब सर्वथा ।
तबे से घुचिबे मोर अन्तरेर व्यथा’ ॥१६१॥
ऐछे विचारिय़ा चलितेइ याजिग्रामे ।
शुनिलेन—श्रीआचार्य गेला वृन्दावने ॥१६२॥
गोविन्देर चित्ते खेद हैल अतिशय़ ।
हईय़ा व्याकुल मने मने विचारय़ ॥१६३॥
‘वैष्णवगणेओ मोर हितचिन्ता कैल ।
कहिल पितार वार्ता—ताहा ना शुनिल ॥१६४॥
मोर पिता चिरञ्जीव सेन विद्यावान् ।
चैतन्यचन्द्रेर भक्त—गुणेर निधान ॥१६५॥
ए हेन सन्तान हैय़ा गेलु छारे खारे ।
ए केवल कर्मदोष—कि बलिब कारे ॥१६६॥
मोर सम जगते अधम नाइ आर ।
मने ये करिनु ताहा नहिल आमार ॥१६७॥
यदि आचार्येर कभु करितु दर्शन ।
तबे कि ना फिरित आमार दुष्ट मन ॥१६८॥
मोर ज्येष्ठ आचार्यप्रभुर दरशने ।
फिरिल से मन—निष्ठा हैल से चरणे ॥१६९॥
ताꣳरे श्रीआचारयप्रभु अनुग्रह कैल ।
मोर कर्मदोषे ताꣳर दर्शन ना हैल ॥१७०॥
कि करिब ? कोथा याब ? कि हबे आमार?’ ।
एत कहिकान्दे—नेत्रे बहे अश्रुधार ॥१७१॥
हेन काले दैववाणी हईल आकाशे ।
अभिलाष पूर्ण हबे अलप दिवसे ॥१७२॥
सेइ दिन हैते कृष्णे हैल रति-मति ।
देखि ऐछे चेष्टा रामचन्द्र हर्ष अति ॥१७३॥
एइ त कहिल गोविन्देर पूर्व रीत ।
ए सब श्रवणे कृष्णचन्द्रे हय़ प्रीत ॥१७४॥
तेलिय़ा-बुधारि-ग्रामे गोविन्देर स्थिति ।
तेलिय़ाय़ निजनि स्थानेते प्रीत अति ॥१७५॥
बुधरि-पश्चिमे श्रीपश्चिमपाड़ा-नाम ।
तथा सर्वारम्भे बास—सेह रम्यस्थान ॥१७६॥
बुधरि प्रसिद्ध वास व्यक्त सर्व ठाꣳइ ।
ज्येष्ठ भ्राता विना गोविन्देर धैर्य नाइ ॥१७७॥
वृन्दावने कविराज श्रीरामचन्द्र—
कहिते कि—एथा उत्कण्ठित हैय़ा अति ।
रामचन्द्र वृन्दावने गेला शीघ्रगति ॥१७८॥
रामचन्द्र देखि लोक करे धाओय़ा धाइ ।
सबे कहे—‘एमन कथनो देखि नाइ ॥१७९॥
गौड़देश हैते हैल इहार गमन ।
ना जानिय़े—एꣳहो कोन् राजार नन्दन’ ॥१८०॥
केह कहे—‘अहे, ए मनुष्य कभु नय़ ।
इꣳहो कोन देवता—मनेते एइ हय़’ ॥१८१॥
केह गिय़ा कहे जीव गोसाञीर अग्रेते ।
‘अपूर्व पुरुष एक आइला गौड़ हैते ॥१८२॥
सर्वाङ्ग सुन्दर कान्ति कनक जिनिय़ा ।
तारे देखि ना जानि केमन करे हिय़ा ॥१८३॥
मन्द मन्द चले, चारु चतुर्दिके चाय़ ।
विपुल पुलकावली शोहे सर्वगाय़ ॥१८४॥
वृन्दावन-शोभा देखि कि भाव अन्तरे ।
दीर्घ दुइ नय़ने अद्भुत अश्रु झरे’ ॥१८५॥
इहा शुनि श्री-जीव आचार्ये जिज्ञासिला ।
आचार्य कहेन—‘बुझि रामचन्द्र आइला’ ॥१८६॥
पूर्वे श्रीआचार्य रामचन्द्र-विवरण ।
करिय़ाछिलेन गोस्वामीरे निवेदन ॥१८७॥
श्री-जीव गोस्वामी कहे—‘रामचन्द्र कोथा’ ।
लोके निदेशय़े—‘शीघ्र ताꣳरे आन एथा’ ॥१८८॥
एत कहितेइ रामचन्द्र तथा आइला ।
श्रीआचार्य-गोस्वामीर पदे प्रणमिला ॥१८९॥
दोꣳहे रामचन्द्रे आलिङ्गिय़ा वार वार ।
बसाइय़ा निकटे जिज्ञासे समाचार ॥१९०॥
रामचन्द्र प्रथमेइ कैल निवेदन ।
ये कहिल खण्डवासी श्रीरघुनन्दन ॥१९१॥
आर ये ये वैष्णव ये कहिते लागिल ।
ताहा कहि ताꣳ-सबार चेष्टा जानाइल ॥१९२॥
ग्रन्थ-अध्यय़न-आदि यैछे ता कहिते ।
हईल अधैर्य—धैर्य धरिल यत्नेते ॥१९३॥
गाय़ा, काशी, अयोध्या, प्रय़ाग-तीर्थ हैय़ा ।
यैछे व्रजे आइला ता कहिल विवरिय़ा ॥१९४॥
श्री-जीवगोस्वामी रामचन्द्रेर कथाय़ ।
जानिलेन—महादुःख व्यापिल तथाय़ ॥१९५॥
‘गौड़े श्रीनिवासे शीघ्र चाहि पाठाइते ।
ऐछे विचारिय़ा हैला विह्वल स्नेहेते ॥१९६॥
रामचन्द्रे कहि कत मधुर वचने ।
लैय़ा गेला राधा-दामोदरेर दर्शने ॥१९७॥
रामचन्द्र राधा-दामोदरे निरखिय़ा ।
नेत्रजले भासे भूमे पड़ि प्रणमिय़ा ॥१९८॥
श्रीरूप-गोसाञिर देखि समाधि तथाय़ ।
ना रहे धैरय-लेश, धरणी लोटाय़ ॥१९९॥
‘हा ! हा ! प्रभु रूप !’—बलि क्रन्दन करय़ ।
श्री-जीव करिय़ा कोले कत प्रबोधय़ ॥२००॥
रामचन्द्र स्थिर हईलेन कतक्षणे ।
ऐछे प्रेमावेश हय़ सर्वत्र दर्शने ॥२०१॥
श्रीगोविन्द, गोपीनाथ, मदनमोहन ।
राधा-दामोदर आर श्रीराधारमण ॥२०२॥
ए सब दर्शने सुख अशेष हईल ।
सनातन गोस्वामीर समाधि देखिल ॥२०३॥
समाधि-दर्शने महाव्याकुल हईला ।
काशीश्वर पण्डितेर समाधि देखिला ॥२०४॥
रघुनाथ भट्टेर समाधि निरखिय़ा ।
कि बलिब—येरूप विदीर्ण हैल हिय़ा ॥२०५॥
श्रीगोपालभट्ट, लोकनाथ कृपामय़ ।
स्रीभूगर्भ आदि कृपा कैल अतिशय़ ॥२०६॥
रामचन्द्र आइला इहा सर्वत्र व्यापिल ।
देखिते काहार मने साध ना जन्मिल ॥२०७॥
श्रीराधाकुण्डे श्रीरामचन्द्र—
रामचन्द्र आरिट-ग्रामेते शीघ्र गेला ।
राधाकुण्ड श्यामकुण्ड देखि स्नान कैला ॥२०८॥
प्रणमिला रघुनाथदास गोस्वामीरे ।
तेꣳहो स्नेहे आलिङ्गिय़ा सिञ्चे नेत्रनीरे ॥२०९॥
श्रीरामचन्द्रेर शुनि कवित्व मधुर ।
ये कृपा करिल—ताहा वचनेर दूर ॥२१०॥
कृष्णदास कविराज आदि यत जन ।
ता सबा सहित हैल अपूर्व मिलन ॥२११॥
गोबर्धन-पर्वतेर दर्शन करिला ।
भ्रमिय़ा द्वादश वने महाहर्ष हैला ॥२१२॥
वृन्दावने श्रीभट्टगोस्वामी आदि यत ।
सबे रामचन्द्रे शुशꣳसय़े अविरत ॥२१३॥
शुलि रामचन्द्रेर कबित्व चमत्कार ।
‘कविराज’-ख्याति हैल सम्मत सबार ॥२१४॥
कहिते कि श्रीरामचन्द्रेर गुणगण ।
याꣳर इष्टनिष्ठा यश गाय़ सर्व जन ॥२१५॥
रामचन्द्र निज-इष्ट आचार्य-सङ्गेते ।
भट्टगोस्वामीर सेबा करे नानामते ॥२१६॥
वृन्दावने यैछे बिलसय़े दुइ जन ।
बाहुल्य-भाय़ेते ताहा ना हय़ वर्णन ॥२१७॥
श्री-जीवगोसाञीर सुख बाड़े निरन्तर ।
देखि गुरु-शिष्येर चरित्र मनोहर ॥२१८॥
श्रीनिवास आचार्यप्रभुर गौड़े प्रत्यागमन—
श्रीगौड़-गमन आचार्येरे जानाइला ।
आचार्य सर्वत्र शीघ्र बिदाय़ हईला ॥२१९॥
वैशाखेर पूर्णिमा-दिवस शुभ तिथि ।
राधारमणेर सिꣳहासन-यात्रा तथि ॥२२०॥
महा-महोत्सव भट्टगोस्वामि-वासाय़ ।
देखिलेन श्रीनिवास उल्लास-हिय़ाय़ ॥२२१॥
सेइ दिन श्री-जीवगोस्वामी स्नेहावेशे ।
यात्रा कराइला गौड़े प्रिय़ श्रीनिवासे ॥२२२॥
पूर्णिमार पर दिन श्री-जीवगोसाञी ।
श्यामानन्दे समर्पिला आचार्येर ठाꣳइ ॥२२३॥
ये ये ग्रन्थ पूर्वे परिशोधन करिल ।
ताहा लोक-सङ्गति करिय़ा सङ्गे दिल ॥२२४॥
गोस्वामिसकल गोविन्देर मन्दिरेते ।
हईला व्याकुल सबे विदाय़ करिते ॥२२५॥
श्रीनिवास सबार चरणे प्रणमिय़ा ।
चले गोविन्देर मुखचन्द्र निरखिय़ा ॥२२६॥
रामचन्द्र, श्यामानन्द व्याकुल-अन्तरे ।
पुनः पुनः प्रणमय़े गोस्वामी सबारे ॥२२७॥
श्री-जीव व्याकुल हैय़ा चले कथोदूर ।
पुनः-पुनः निषेधय़े आचार्य ठाकुर ॥२२८॥
वासाय़ चलिला सबे विदाय़ करिय़ा ।
आचार्य चलिला शीघ्र मथुरा हईय़ा ॥२२९॥
कथो दिने वनविष्णुपुरे प्रवेशिते ।
आगुसरि आइला राजा महाहर्ष चिते ॥२३०॥
आचार्यप्रभुर पादपद्म निरखिय़ा ।
करय़े प्रणाम भूमि-तले लोटाइय़ा ॥२३१॥
आचार्य राजार शिरे अर्पिय़ा चरण ।
धरि बाहुमूले तुलि कैल आलिङ्गन ॥२३२॥
रामचन्द्र, श्यामानन्द गुणेर आलय़ ।
आचार्य दिलेन ए दोꣳहार परिचय़ ॥२३३॥
राजा वीरहाम्बीर पड़िय़ा भूमितले ।
दुꣳहु पदे प्रणमि भासय़े नेत्रजले ॥२३४॥
उल्लासे कहय़े राजा—‘कि भाग्य आमार ।
प्रभुर कृपाय़ पाइलु चरण दोꣳहार’ ॥२३५॥
दोꣳहे वीरहाम्बीरे करिय़ा आलिङ्गन ।
पाइलेन ये आनन्द ना हय़ वर्णन ॥२३६॥
राजपात्रादिक ये राजार सङ्गे आइला ।
से सकले आनन्द-समुद्रे मग्न हैला ॥२३७॥
प्रभुरे लईय़ा राजा गेला वासस्थान ।
नेत्र भरि देखे ग्रामवासी भाग्यवान् ॥२३८॥
‘आचार्य ठाकुर आइला वनविष्णुपुरे’ ।
सर्वत्र व्यापिल परस्पर लोकद्वारे ॥२३९॥
वनविष्णुपुरे श्रीआचार्य गणसने ।
विलसय़े दिवस रजनी सङ्कीर्तने ॥२४०॥
श्रीआचार्य ठाकुरेर अलौकिक रीत ।
के बुझिते पारे ताꣳर अन्तरेर प्रीत ॥२४१॥
श्रीश्यामानन्दप्रभुर उत्कले गमन—
दिन दश श्यामानन्दे राखि विष्णुपुरे ।
उत्कले विदाय़ करे व्याकुल अन्तरे ॥२४२॥
श्यामानन्द याइबेन उत्कल-देशेते ।
इथे राजा अधैर्य हईय़ा चिन्ते चिते ॥२४३॥
‘महान्तेर चेष्टा बुझे—ऐछे शक्ति कार ? ।
सर्वत्र भ्रमिय़ा करे जीवेर उद्धार ॥२४४॥
एथा कथो दिवस नहिल अवस्थिति ।
पुनः ये देखिब ऐछे ना कैलु सुकृति ॥२४५॥
एतेक चिन्तिय़ा बहु द्रव्य यत्नमते ।
लैय़ा आइला श्रीआचार्यप्रभुर अग्रेते ॥२४६॥
आचार्य देखिय़ा सुख पाइलेन मने ।
अग्रे लैय़ा सामग्री चलिला भारिगणे ॥२४७॥
श्यामानन्द राजार करिल मनोहित ।
अन्ये कि बुझिब श्यामानन्देर ये रीत ॥२४८॥
आचार्य ठाकुर धैर्य धरिते ना पारि ।
श्यामानन्दे कहे कत आलिङ्गन करि ॥२४९॥
श्यामानन्द सिक्त आचार्येर नेत्रजले ।
आचार्येरे प्रणमय़े पड़ि महीतले ॥२५०॥
श्यामानन्द-करे धरि आचार्य ठाकुर ।
स्नेहावेशे सङ्गेते चलय़े कथो दूर ॥२५१॥
श्यामानन्द कहि कत आचार्य ठाकुरे ।
फिराइला—आचार्य गेलेन वासाघरे ॥२५२॥
रामचन्द्र कविराज आदि सबास्थाने ।
हईला विदाय़ यैछे वर्णिते के जाने ॥२५३॥
विदाय़ेर काले राजा याहा निवेदिल ।
ग्रन्थेर बाहुल्यभय़े ताहा ना वर्णिल ॥२५४॥
श्यामानन्द चले महा-व्याकुल हईय़ा ।
कान्दय़े सकल लोक से पथ चाहिय़ा ॥२५५॥
वनविष्णुपुर हैते बहु जनसने ।
श्यामानन्द उत्कले गेलेन अल्प दिने ॥२५६॥
सर्वत्रई विदित हईल आगमन ।
चतुर्दिके धाय़ लोक करिते दर्शन ॥२५७॥
श्रीरसिकानन्द-आदि महाहर्ष हैला ।
श्यामानन्द नृसिꣳहपुरेते स्थिति कैला ॥२५८॥
समाचार-पत्री पाठाइला विष्णुपुर ।
पत्रीपाठे हर्ष हैला आचार्य ठाकुर ॥२५९॥
श्रीनिवास आचार्य प्रभुर वनविष्णुपुरे अवस्थान ओ वीरहाम्बीरके दीक्षादान—
विष्णुपुरे आचार्य रहिला दुइमास ।
अनेक जनेर पूर्ण कैल अभिलाष ॥२६०॥
देखिय़ा राजार भक्तिग्रन्थे अधिकार ।
आचार्येर मनेते हईल चमत्कार ॥२६१॥
पूर्वे कहिलेन याहा ताहा सूचाइय़ा ।
राधाकृष्ण-मन्त्र-दीक्षा दिला हर्ष हैय़ा ॥२६२॥
श्रीकामगाय़त्री-अर्थ यत्ने शुनाइला ।
हरिनाम-जपेर निर्बन्ध कराइला ॥२६३॥
प्रिय़ रामचन्द्र कविराजे समर्पिला ।
‘जानिबे विशेष इहा-स्थाने’—जानाइला ॥२६४॥
देखिय़ा राजार चेष्टा कहे वारे वारे ।
‘श्री-जीवगोस्वामी हैला प्रसन्न तोमारे ॥२६५॥
श्रीचैतन्यदास-नाम थुइल तोमार’ ।
शुनिय़ा राजार नेत्रे बहे अश्रुधार ॥२६६॥
सर्वाङ्गे पुलक, धैर्य धरणे ना याय़ ।
भूमिते पड़िय़ा प्रणमय़े प्रभु पाय़ ॥२६७॥
करयोड़्अ करिय़ा कहय़े वार वार ।
‘तुय़ा अनुग्रहे सब सफल आमार’ ॥२६८॥
ऐछे कत कहे दाꣳड़ाइय़ा प्रभुपाशे ।
से सब कहिते मोर मुखे ना आइसे ॥२६९॥
राजा वीरहाम्बीरेर राणी सुलक्षणा ।
आचार्य प्रभुरे कत करिल प्रार्थना ॥२७०॥
आचार्य प्रसन्न हैय़ा दीक्षामन्त्र दिला ।
पाइय़ा युगलमन्त्र राणी हर्ष हैला ॥२७१॥
श्रीधाड़िहाम्बीर योग्य राजार तनय़ ।
ताꣳरे शिष्य कैला श्रीआचार्य दय़ामय़ ॥२७२॥
हैल वीरहाम्बीरेर परम उल्लास ।
श्रीकालाचाꣳदेर सेबा करिला प्रकाश ॥२७३॥
श्रीआचार्यप्रभु ताꣳर करे अभिषेक ।
देखे भाग्यवन्त लोक कौतुक अनेक ॥२७४॥
केह कहे—‘कालाचाꣳद किबा मनोहर ।
साक्षात् हईल एकि व्रजेन्द्रकुमार ?’ ॥२७५॥
केह कहे—‘राजार भाग्येर सीमा नाइ ।
हेन श्रीविग्रह ना देखिय़े कोन ठाꣳइ ॥२७६॥
राजार येमन मनोवृत्ति तैछे हैला ।
देखि कालाचाꣳद-शोभा केबा ना भुलिला’ ॥२७७॥
ऐछे कत कहे चाहि कालाचाꣳद-पाने ।
अभिषेक-उत्सव वर्णिब किबा आने ॥२७८॥
श्रीआचायप्रभु कृपा करिय़ा राजाय़ ।
समर्पिल श्रीकालाचाꣳदेर दुटी पाय़ ॥२७९॥
आचार्य विहने राजा ना जानय़े आर ।
आचार्येर पादपद्म सर्वस्व राजार ॥२८०॥
आचार्येर गुणे हिय़ा उमड़े सदाय़ ।
स्वप्नेओ राजा आचार्येर गुण गाय़ ॥२८१॥
एकदिन स्वप्ने गीत करिल वर्णन ।
महानन्दे राणी किछु करिल श्रवण ॥२८२॥
जागिय़ा वसिते राजा राणी निवेदय़ ।
‘स्वप्नेते वर्णिला कि अपूर्व गीतद्वय़ ॥२८३॥
कहितेओ भय़, ना कहिले प्राण झुरे ।
अनुग्रह करिय़ा शुनाओ ए दासीरे’ ॥२८४॥
राजा कत दैन्य प्रकाशिय़ा मृदुभाषे ।
सुमधुर गीत पाठ करे प्रेमावेशे ॥२८५॥
कामोद—१
प्रभु मोर श्रीनिवास, पुराइल मनेर आश
तुय़ा बिनु गति नाहि आर ।
आछिलु विषय़-कीट, बड़ई लागित मिट,
घुचाइला राज-अहङ्कार ॥२८६॥
करितु गरल पान, से भेल डाहिन वाम,
देखाइल अमिय़ार धार ।
पिब पिब करे मन, सब भेल उचाटन,
ए सब तोमार व्यावहार ॥२८७॥
राधापद-सुधाराशि, से-पदे करिला दासी,
गोरापदे बाꣳधि दिला चित ।
श्रीराधिका-गणसह, देखाइला कुञ्जगेह,
जानाइला दुꣳहु प्रेमरीत ॥२८८॥
यमुनार कूले याइ, तीरे सखी धाओय़ा-धाइ,
राधाकानु विलय़े सुखे ।
ए वीरहाम्बीर-हिय़ा, व्रजपुर सदा धिय़ा,
याꣳहा अलि उड़े लाखे लाखे ॥२८९॥
कामोद—२
शुन गो मरमसखि, कालिय़ा कमल-आꣳखि,
किबा कैल किछुइ ना जानि ।
केमन करय़े मन, सब लागे उचाटन,
प्रेम करि खोय़ानु पराणि ॥२९०॥
शुनिय़ा देखिनु काला, देखिय़ा पाइनु ज्वाला,
निराइते नाहि पाइ पानि ।
अगुरुचन्दन आनि, देहेते लेपिनु छानि,
ना निवाय़ हिय़ार आगुनि ॥२९१॥
वसिय़ा थाकिय़े यबे, आसिय़ा उठाय़ तबे,
लैय़ा याय़ यमुनार तीर ।
कि करिते कि ना करि, सदाइ झुरिय़ा मरि,
तिलेक नाहि रहि थिर ॥२९२॥
शाशुड़ी ननदी मोर, सदाय़ वासय़ो चोर,
गृहपति फिरिय़ा ना चाय़ ।
ए वीरहाम्बीर-चित, श्रीनिवास अनुगत,
मजि गेला कालाचाꣳदेर पाय़ ॥२९३॥
गीत शुनि राणीर कत ना उठे मने ।
ना धरे धैरय, धारा बहे दुनय़ने ॥२९४॥
राजार चरणे कत करय़े प्रार्थना ।
हईय़ा विह्वल राणी ना जाने आपना ॥२९५॥
राजा निज-नेत्रजले सिञ्चित हईला ।
स्थिर हैय़ा आपनि राणीरे स्थिर कैला ॥२९६॥
मध्ये मध्ये उठे कृत तरङ्ग दोꣳहार ।
से प्रेम वर्णिते हेन शक्ति कि आमार ॥२९७॥
श्रीचैतन्यदास-नामे ये गीत वर्णिल ।
विस्तारेर डरे ताहा नाइ जानाइल ॥२९८॥
गोष्ठीसह राजार अपूर्व रीत देखि ।
गणसह आचार्यठाकुर महासुखी ॥२९९ ।
वनविष्णुपुरे ऐछे आचार्यठाकुर ।
बहु शिष्य करि भक्ति वितरे प्रचुर ॥३००॥
से सब शिष्येर अति अद्भुत चरित ।
शाखागणनाते किछु हईबा विदित ॥३०१॥
कथोजन शिष्य हैते महा-चेष्टा पाइला ।
आपने ना करि अन्यस्थाने कराइला ॥३०२॥
राजा हरिनाराय़णके आचार्य प्रभुर कृपा—
शिखरभूमिर राजा हरिनाराय़ण ।
आचार्येर स्थाने शिष्य हैते ताꣳर मन ॥३०३॥
तेꣳहो शिष्य हईबेन स्रीराम-मन्त्रेते ।
स्वाभाविक प्रीत ताꣳर श्रीरामचन्द्रेते ॥३०४॥
हरिनाराय़णेर अपूर्व चेष्टा देखि ।
श्रीनिवासाचार्य हईलेन महासुखी ॥३०५॥
ताꣳर मनोरथ पूर्ण करिते आपने ।
हईला सचेष्ट, अनुग्रह के वा जाने ॥३०६॥
रङ्गक्षेत्रे त्रिमल्लाभट्टेर पुत्र छिला ।
पत्रीद्वारे अति शीघ्र ताꣳरे आनाइला ॥३०७॥
तेꣳहो पञ्चकुटे आसि स्नेहाविष्ट मने ।
राममन्त्रे शिष्य कैल हरिनाराय़णे ॥३०८॥
हरिनाराय़णे अनुग्रह प्रकाशिय़ा ।
श्रीनिवास आचार्ये दिलेन समर्पिय़ा ॥३०९॥
सर्व तत्त्व जानाइला आचार्यठाकुर ।
कहिते कि राजार चरित्र सुमधुर ॥३१०॥
एकदिन आचार्यठाकुर सबा-सने ।
बसिय़ा आछेन कृष्णकथा-आलापने ॥३११॥
हेन काले आइला लोक याजिग्राम हैते ।
समाचारपत्री दिय़ा प्रणमे भूमिते ॥३१२॥
से मनुष्यो जिज्ञासि कुशल तार पर ।
पत्रीपाठे आचार्येर अधैर्य अन्तर ॥३१३॥
पत्रे व्यक्त लिखिल—गमन शीघ्र हय़ ।
खण्डवासी आदि अति उद्विग्नहृदय़ ॥३१४॥
ऐछे पत्री सकलेइ करिला श्रवण ।
हईल व्याकुल वीरहाम्बीरेर मन ॥३१५॥
आचार्य कहेन नृपे व्याकुल देखिय़ा ।
‘खेतुरी याइब (श्री)-खण्ड-याजिग्राम हैय़ा ॥३१६॥
अति अल्प विलम्बे आसिब विष्णुपुरे’ ।
राजा कहे—‘कृपा करि सङ्गे लह मोरे’ ॥३१७॥
श्रीआचार्य जानिय़ा राजार मनोवृत्ति ।
अति सुमधुर वाक्ये कहे राजा-प्रति ॥३१८॥
‘नहिब उद्विग्न, एबे स्थिर कर मन ।
श्रीनरोत्तमेर शीघ्र पाइबे दर्शन ॥३१९॥
पत्री पाठाइब तेꣳहो याजिग्राम आइले ।
एक योगे बहु कार्य हबे तथा गेले’ ॥३२०॥
शुनि हर्ष हैला राजा गोष्ठीर सहिते ।
सकले जानिला—यात्रा रजनी-प्रभाते ॥३२१॥
आचार्य प्रभुर विष्णुपुर हईते विदाय़—
गणसह श्रीआचार्य रजनी विहाने ।
विष्णुपुर हईते चलय़े याजिग्रामे ॥३२२॥
आसिय़ा असꣳख्य लोक दर्शन करिल ।
राजा यत्ने अनेक सामग्री सङ्गे दिल ॥३२३॥
श्रीआचार्य-प्रभु-सङ्गे कथोदूर गिय़ा ।
आइलेन विष्णुपुरे विदाय़ हईय़ा ॥३२४॥
गोष्ठीसह राजा एइ चिन्ते मने मने ।
‘पुनः प्रभु दर्शन पाइब कत दिने’ ॥३२५॥
आचार्यठाकुर करि राजारे विदाय़ ।
गणसह याजिग्रामे आइला त्वराय़ ॥३२६॥
ग्रामवासी लोक देखि आचार्यठाकुरे ।
पाइला परमानन्द दुःख गेल दूरे ॥३२७॥
य़ाजिग्रामे आचार्येर गमन हईल ।
ए कथा लोकेर मुखे सर्वत्र व्यापिल ॥३२८॥
श्रीखण्डे श्रीआचार्यठाकुर—
याजिग्राम हईते आचार्य विज्ञवर ।
श्रीखण्ड गेलेन शीघ्र—के बुझे अन्तर ॥३२९॥
गौराङ्गप्राङ्गणे गौरचन्द्रे प्रणमिते ।
दीर्घ दुइ नेत्रे बारि नारे निवारिते ॥३३०॥
श्रीरघुनन्दन श्रीनिवासे निरखिय़ा ।
ना धरे धैरय, स्नेहे उमड़य़े हिय़ा ॥३३१॥
दुइ बाहु पसारि करिय़ा आलिङ्गन ।
छाड़िते नारय़े, वक्षे राखे कतक्षण ॥३३२॥
श्रीनिवास चाहे भूमे पड़ि प्रणमिते ।
ताहा ना हईल—बद्ध हैलालिङ्गनेते ॥३३३॥
आने कि बुझिब मर्म—ना हईबे हेन ।
श्रीरघुनन्दन प्राण पाइलेन येन ॥३३४ ॥
व्रजस्थित भक्तेर कुशल जिज्ञासय़ ।
श्रीनिवास व्याकुल हईय़ा निवेदय़ ॥३३५॥
‘प्रभुर विय़ोगे से प्रभुर प्रिय़गण ।
दिने दिने हईतेछेन अदर्शन ॥३३६॥
एबे ये आछेन चेष्टा ना आइसे कहिते ।
ताꣳसबार स्थितिमात्र प्रभुर इच्छाते ॥३३७॥
व्रज हैते आसि मुइ अल्प दिने गेलु ।
इथे हैल सन्देह—ता जानि निवेदिलु ॥३३८॥
शुनिय़ा सकल मह्यान्तेर अदर्शन ।
हईला मूर्छित, नेत्रे धारा नदीसम ॥३३९॥
शुनि रघुनन्दन कहय़े वार वार ।
‘दिने दिने अबनी हईछे अन्धकार ॥३४०॥
प्रभु नरहरि प्रिय़गणेर सहिते ।
छाड़िय़ा गेलेन मोरे दुःख भुञ्जाइते ॥३४१॥
कि सुख खाइय़े, देहे आछय़े जीवन’ ।
ऐछे कत कहि कान्दे श्रीरघुनन्दन ॥३४२॥
प्रभु नरहरिर करुणा सोङरिय़ा ।
कान्दे श्रीनिवास भूमितले लोटाइय़ा ॥३४३॥
के धरे धैरय ए दोꣳहार कान्दनाते ।
उठिल क्रन्दनरोल श्रीत्खण्ड-ग्रामेते ॥३४४॥
से कान्दने कान्दय़े वनेर पशुपाखी ।
ये देखिलु से समय़ सेइ तार साखी ॥३४५॥
श्रीरघुनन्दन स्थिर हैय़ा श्रीनिवासे ।
स्थिर करि अनेक कहिल मृदुभाषे ॥३४६॥
राखि कतक्षण याजिग्रामे पाठाइला ।
श्रीकण्टकनगर याइते आज्ञा कैला ॥३४७॥
श्रीनिवास आचार्यप्रभुर काटोय़ाय़ गमन—
श्रीआचार्य याजिग्रामे आसिय़ा त्वराय़ ।
कण्टकनगरे गेला व्याकुल हिय़ाय़ ॥३४८॥
यथा गौरचन्द्र कैल सन्न्यासग्रहण ।
तथा यैछे हैला ताहा ना हय़ वर्णन ॥३४९॥
श्रीगौराङ्गदर्शने भासय़े नेत्रजले ।
वार वार प्रणमय़े पड़ि भूमितले ॥३५०॥
तथा ये छिलेन भक्तगण स्नेहावेशे ।
हईय़ा विह्वल मिलिलेन श्रीनिवासे ॥३५१॥
श्रीयदुनन्दन चक्रवर्ती विज्ञवर ।
याꣳर इष्टदेव प्रभु दास गदाधर ॥३५२॥
निज्ज-इष्ट-सङ्गोपन-दुःखे दग्ध हिय़ा ।
हईला अधैर्य तेꣳहो आचार्ये देखिय़ा ॥३५३॥
श्रीनिवासाचार्य चेष्टा देखिय़ा ताꣳहार ।
स्थिर हैते नारे, नेत्रे बहे अश्रुधार ॥३५४॥
प्रभु गदाधर गुण करिय़ा कीर्तन ।
दोꣳहे कान्दे फुकारि, कान्दय़े सर्वजन ॥३५५॥
से कान्दन शुनिते पाषाण गलि याय़ ।
दुःखेर तरङ्ग कत उमड़े हिय़ाय़ ॥३५६॥
श्रीगौरचन्द्रेर इच्छामते कतक्षणे ।
सबे स्थिर हैय़ा गौराङ्ग-प्राङ्गणे ॥३५७॥
वृन्दावन-गमनादि आचार्ये जिज्ञासे ।
ताहा सब निवेदिला सुमधुर भाषे ॥३५८॥
आचार्येर प्रति कहे श्रीयदुनन्दन ।
‘एक वर्ष हैल व्रजे गमनागमन’ ॥३५९॥
दारुण विच्छेद-दुःखे वृन्दावन गिय़ा ।
शीघ्र ये आइला—इथे जुड़ाइल हिय़ा ॥३६०॥
एइ देख प्रभु गदाधरेर आसन ।
ए निर्जने कैला तुमि ताꣳहार दर्शन ॥३६१॥
कि वर्णिब—कार्तिकेर कृष्णाष्टमी-दिने ।
मोर प्रभु अदर्शन हैला एइखाने ॥३६२॥
सेइ तिथि आराधना करिबार तरे ।
करिलु सामग्री—एइ देखह भाण्डारे ॥३६३॥
सर्वत्रई निमन्त्रणपत्री पाठाइल ।
महान्तगणेर एइ वासस्थान कैल ॥३६४॥
याजिग्राम गिय़ा शीघ्र एथाय़ आसिबे ।
रहिय़ा दिवस दश सब समाधिबे’ ॥३६५॥
ऐछे आचार्येरे कत कहिते कहिते ।
झरय़े नय़न, बारि नारे निवारिते ॥३६६॥
आचार्य ठाकुर ऐछे चेष्टा निरखिय़ा ।
याजिग्रामे चले नेत्रजले सिक्स हैय़ा ॥३६७॥
ग्रामे गिय़ा विष्णुपुरवासि-लोक-द्वारे ।
समाचार-पत्री पाठाइलेन राजारे ॥३६८॥
श्रीखण्डे याइय़ा शीघ्र श्रीरघुनन्दने ।
श्रीमहोत्सवेर कथा कहिल निर्जने ॥३६९॥
शुनिय़ा ठाकुर अतिव्याकुल अन्तरे ।
प्रिय़ श्रीनिवासे किछु कहे धीरे धीरे ॥३७०॥
‘कार्तिके श्रीदासगदाधर-सङ्गोपने ।
प्रभु नरहरि शीर्ण हैला क्षणे क्षणे ॥३७१॥
के बुझिते पारे ताꣳर अन्तरेर व्यथा ।
से दिवस हैते कारु सने नाइ कथा ॥३७२॥
निरन्तर शिक्त दुइ नेत्रेर धाराते ।
ताहा कि बलिब?—तुमि देखिला साक्षाते ॥३७३॥
मार्गशीर्षमासे कृष्णा एकादशी-दिने ।
अकस्मात् अदर्शन हैला एइखाने ॥३७४॥
सेइ तिथि आराधना करिबार तरे ।
हईल सामग्री सब-—देखह भाण्डारे ॥३७५॥
प्रभु नित्यानन्दाद्वैत-चैतन्येर गणे ।
निमन्त्रणपत्री पाठाइलु स्थाने स्थाने ॥३७६॥
आसिबेन प्रभु नित्यानन्देर नन्दन ।
प्रभु अद्वैतेर पुत्र करिले गमन ॥३७७॥
रजनी-प्रभाते कालि याजिग्रामे गिय़ा ।
कण्टकञगरे याब एकत्र हईय़ा ॥३७८॥
तथा आसिबेन श्रीप्रभुर प्रिय़गण ।
ताꣳ सबार दर्शने जुड़ाबे नेत्रमन ॥३७९॥
महामहोत्सव साङ्ग हैले सबे लईय़ा ।
आसिबे श्रीखण्डे याजिग्रामेते रहिय़ा’ ॥३८०॥
इहा शुनि श्रीनिवास महाहर्ष हैला ॥
विदाय़ हईय़ा शीघ्र याजिग्रामे आइला ॥३८१॥
रामचन्द्र-कविराज-आदि प्रिय़गणे ।
कहिल सकल कथा बसिय़ा निर्जने ॥३८२॥
शुनि सबे सेइक्षणे वासा स्थिर कैला ।
करिते सामग्री-आय़ोजन-युक्त हैला ॥३८३॥
श्रीचैतन्यगणेर गमन हबे एथा ।
याजिग्रामवासी सबे शुनिल ए कथा ॥३८४॥
हईल सबार महा आनन्द अन्तर ।
यार ये उचित कार्य करे परस्पर ॥३८५॥
आचार्य ठाकुर हृष्ट हैय़ा परदिने ।
कण्टकञगर याइबेन—एइ मने ॥३८६॥
बाड़ीर बाहिरे आसि लैय़ा निज-गण ।
श्रीखण्डेर पथपाने करे निरीक्षण ॥३८७॥
श्रीरघुनन्दन प्रभु प्रभृति सकलेर काटोय़ाय़ गमन—
श्रीरघुनन्दन गणसह खण्ड हैते ।
याजिग्रामे आइलेन रजनी-प्रभाते ॥३८८॥
कतक्षण रहिय़ा श्रीआचार्येर घरे ।
आचार्यादि-सह गेला कण्टकनगरे ॥३८९॥
कण्टकनगरे सर्व महान्तेर गति ।
देखिते धाय़ेन लोक हैय़ा हर्ष अति ॥३९०॥
ये ये महान्तेर आगमन यथा हैते ।
ग्रन्थ-बाहुल्यार्थे ताहा नारि विस्तारिते ॥३९१॥
नाममात्र कहि अति उल्लास-हिय़ाय़ ।
ये नाम श्रवणे भक्तिरत्न लभ्य हय़ ॥३९२॥
प्रभुप्रिय़ श्रीपति, श्रीनिधि, विद्यानन्द ।
वाणीनाथ वसु, रामदास, कविचन्द्र ॥३९३॥
पुरुषोत्तम, सञ्जय़, श्रीचन्द्रशेखर ।
श्रीमाधवाचार्य, कीर्तनीय़ा षष्ठीधर ॥३९४॥
श्रीकमलाकान्त, वाणीनाथ विप्रवर ।
विष्णुदास, नन्दनपण्डित, पुरन्दर ॥३९५॥
श्रीचैतन्यदास कर्णपुर प्रेममय़ ।
श्रीजानकीनाथ विप्र गुणेर आलय़ ॥३९६॥
श्रीगोपाल आचार्य, गोपालदास आर ।
मुरारि चैतन्यदास परम उदार ॥३९७॥
रघुनाथ वैद्य, उपाध्याय़ नाराय़ण ।
बलराम दास आर दास सनातन ॥३९८॥
विप्र कृष्णदास, श्रीनकड़ि, मनोहर ।
हरिहरानन्द, श्रीमाधव, महीधर ॥३९९॥
रामचन्द्र कविराज, वसन्त लवनि ।
श्रीकानु ठाकुर, श्रीगोकुल गुणमणि ॥४००॥
श्रीमाधवाचार्य, रामसेन, दामोदर ।
ज्ञानदास, नर्तक गोपाल, पीताम्बर ॥४०१॥
कुमुद, गौराङ्गदास दुःखीर जीवन ।
नृसिꣳह, चैतन्यदास, दास वृन्दावन ॥४०२॥
वनमाली दास, भोलानाथ, श्रीविजय़ ।
श्रीहृदय़ानन्द सेन गुणेर आलय़ ॥४०३॥
लोकनाथ पण्डित, श्रीपण्डित मुरारि ।
श्रीकानुपण्डित, हरिदास ब्रह्मचारी ॥४०४॥
श्रीअनन्तदास, कृष्णदास, जनार्दन ।
श्रीभक्तिरतनदाता दास नाराय़ण ॥४०५॥
भागवताचार्य, वाणीनाथ ब्रह्माचारी ।
चैतन्यवल्लभदास भक्ति-अधिकारी ॥४०६॥
पुष्पगोपाल, श्रीगोपालदास आर ।
श्रीहर्ष, श्रीलक्ष्मीनाथ पण्डित उदार ॥४०७॥
कहिते कि महान्तगणेर नाहि अन्त ।
नेत्र भरि देखय़े सकल भाग्यवन्त ॥४०८॥
किबा से अद्भुत गति ! तेज सूर्यप्राय़ ।
देखिते से शोभा कार नेत्र ना जुड़ाय़ ॥४०९॥
किबा प्रभु अद्वैतचन्द्रेर पुत्रद्वय़ ।
कृष्णमिश्र, गोपाल परमानन्दमय़ ॥४१०॥
सर्वाङ्गसुन्दर, सर्वशास्त्रे विचक्षण ।
श्रीकृष्णचैतन्य से दोꣳहार प्राणधन ॥४११
पतित दुर्गते ये विलाय़ प्रेमभक्ति ।
एकमुखे वर्णे से चरित्र—कार शक्ति ॥४१२॥
श्रीनित्यानन्दतनय़ श्रीवीरभद्र प्रभु—
प्रभु नित्यानन्देर नन्दन वीरभद्र ।
भुवनपावन येहो गुणेर समुद्र ॥४१३॥
वर्णिबेक केबा ?–से यशेर नाहि पार ।
नित्यानन्द प्रभुर शाखाय़ ख्याति यार ॥४१४॥
तथाहि श्रीचैतन्यचरितामृते—
श्रीवीरभद्र गोसाञी स्कन्धसम-शाखा ।
ताꣳर उपशाखा यत असꣳख्य तार लेखा ॥४१५॥
ईश्वर हईय़ा कहाय़ महाभागवत ।
वेदधर्मातीत हैय़ा वेदधर्मे रत ॥४१६॥
अन्तरे ईश्वर-चेष्टा, बाहिरे निर्दम्भ ।
चैतन्यभक्ति-मण्डपेर तेꣳहो मूलस्तम्भ ॥४१७॥
अद्यापि याꣳहार कृपाप्रभाब हईते ।
चैतन्य-नित्यानन्द गाय़ सकल जगते ॥४१८॥
ऐछे गुण, चरित्र वर्णय़े भक्तगण ।
सर्वप्रकारेते प्रभु सबार जीवन ॥४१९॥
प्रभु वीरभद्र महा आनन्देर कन्द ।
केह वीरभद्र कहे, केह ‘वीरचन्द्र’ ॥४२०॥
हेन वीरचन्द्रे ये देखय़े एकबार ।
सब छाड़ि सेइ से चरण करे सार ॥४२१॥
देखि वीरचन्द्रेर गमन मनोहर ।
कण्टक-नगरवासी कहे परस्पर ॥४२२॥
‘देख देख निताइञन्दन वीरचान्दे ।
देखिते ए शोभा कि मन्द धैर्य बान्धे ॥४२३॥
आहा मरि ! किबा सुकोमल तनुखानि ।
कनक विद्युते ना रूपेर निछनि ॥४२४॥
किबा चारु चिकण चाꣳचरकेश माथे ।
किबा भाले तिलक भुवन भुले याते ॥४२५॥
भुरु भृङ्गपाꣳति, दीर्घलोचन पुष्कर ।
कि मधुर गण्ड, श्रुति, नासिका सुन्दर ॥४२६॥
वदनचन्द्रमा निन्दि चन्द्रेर मण्डल ।
कुन्दवृन्द दूरे—दन्तद्यूति सुनिर्मल ॥४२७॥
परिसर वक्ष, किबा ग्रीवार बलनि ।
किबा भुज भुजङ्ग-कुञ्जर कर जिनि ॥४२८॥
कि अद्भुत उदर क्रशिमा मध्यदेश ।
किबा जानु-चरणेर माधुर्य अशेष ॥४२९॥
परिधेय़ वस्त्रादि करय़े झलमल ।
ये देखे वारेक तार जीवन सफल ॥४३०॥
हेन अपरूप रूप नय़ने देखिलु ।
जनमेर मत एइ पदे बिकाइलु’ ॥४३१॥
ऐछे परस्पर कत कहि स्थाने स्थाने ।
हईला विह्वल ए सबार सन्दर्शने ॥४३२॥
एथा रघुनन्दन गौराङ्ग-प्राङ्गणेते ।
महान्तगणेर आगमन चिन्ते चिते ॥४३३॥
हेन समय़े यदु कहे धीरे धीरे ।
‘सबे आसि प्रवेशिला कण्टक-नगरे’ ॥४३४॥
यदुनन्दनेर मुखे एकथा शुनिय़ा ।
सबा-सह कथोदूरे चले हर्ष हैय़ा ॥४३५॥
प्रभु भक्तगणेर गमन गङ्गातीरे ।
देखिते अधैर्य यैछे—के कहिते पारे ॥४३६॥
परस्पर कि अद्भुत मिलन हईल ।
प्रेमभक्तिरसेर समुद्र उथलिल ॥४३७॥
यथा प्रभु करिलेन सन्न्यास ग्रहण ।
तथा उपनीत हईलेन सर्वजन ॥४३८॥
देखिते से स्थान हिय़ा विदरिय़ा याय़ ।
छाड़े अतिदीर्घ श्वास अग्निशिखा-प्राय़ ॥४३९॥
श्रीचैतन्यचन्द्रेर सन्न्यास सोङरिय़ा ।
करय़े क्रन्दन सबे भूमे लोटाइय़ा ॥४४०॥
उठिल क्रन्दनरोल नहे निवारण ।
कारु स्मृति नाहि देहे, धैर्य वा केमन ॥४४१॥
से दशा ये देखिल सेइ से तार साखी ।
आनेर कि कथा ?—देखि कान्दे पशुपाखी ॥४४२॥
परस्पर सबार गलाय़ सबे धरि ।
करय़े विलाप यैछे कहिते ना पारि ॥४४३॥
सम्वरिते नारे नेत्रे धारा अनिवार ।
धूलाय़ धूसर अङ्ग हईल सबार ॥४४४॥
सबल महान्त गिय़ा गौराङ्ग-प्राङ्गणे ।
देखि गौरचन्द्रे स्थिर हैला कतक्षाणे ॥४४५॥
श्रीगौरचन्द्रेर इच्छा बुझने ना याय़ ।
अकस्मात् बार्ह्̤ए सुख सबार हिय़ाय़ ॥४४६॥
कतक्षण सबे प्रभु-प्राङ्गणे रहिय़ा ।
अपूर्व वासाय़ हर्षे उत्तरिला गिय़ा ॥४४७॥
दासगदाधरप्रभुर तिरोधान-तिथि-महामहोत्सव—
गणसह श्रीनिवासाचार्य भक्तिमय़ ।
सर्वत्र नियुक्त सब कार्य समाधय़ ॥४४८॥
प्रतिदिन ये उत्सब तार नाइ अन्त ।
देखय़े सकल ग्रामवासी भाग्यवन्त ॥४४९॥
किबा कार्तिकेर कृष्णाष्टमी तिथि ताय़ ।
महामहोत्सव यैछे केबा अन्त पाय़ ॥४५०॥
यैछे सङ्कीर्तनारम्भ गौराङ्ग-प्राङ्गणे ।
ताहार उपमा-स्थान नाहि त्रिभुबने ॥४५१॥
महान्तगणेर यैछे शोभा सङ्कीर्तने ।
यैछे प्रेम कृष्णमिश्र-गोपाल-नर्तने ॥४५२॥
प्रभु वीरभद्रेर ये अद्भुत नर्तन ।
से सब वर्णिब सुखे भाग्यवस्तगण ॥४५३॥
सङ्कीर्तन-स्थानेते लोकेर सꣳख्या नाइ ।
विलसय़े देवगण मनुष्ये मिशाइ ॥४५४॥
अश्रु-कम्प-पुलकादि सबार शरीरे ।
यैछे प्रेमवन्या ताह के वर्णिते पारे ॥४५५॥
सप्तमी, अष्टमी, नवमी—ए दिवसत्रय़ ।
कैछे, दिवा-रात्रि याय़ केह ना जानय़ ॥४५६॥
महामहोत्सव हैले सबे तार परे ।
किछुदिन रहिलेन कण्टक-नगरे ॥४५७॥
महान्तगणेर श्रीशखण्डे गमन—
कण्टक-नगर हैते श्रीरघुनन्दन ।
सबा लैय़ा श्रीखण्डेते करय़े गमन ॥४५८॥
गमन-समय़े ये व्याकुल सर्वजन ।
ताहा एकमुखे कभु ना हय़ वर्णन ॥४५९॥
श्रीयदुनन्दन आदि कान्दिय़ा कान्दिय़ा ।
कहिल ये ताहा शुनि विदरÿए हिय़ा ॥४६०॥
यैछे समादर कैल श्रीयदुनन्दन ।
ताहा के वर्णिबे ?—देखे भाग्यवन्तगण ॥४६१॥
श्रीरघुनन्दन यदुनन्दने कहय़ ।
‘शीघ्र खण्डे याबे येन विलम्ब ना हय़’ ॥४६२॥
ऐछे कत कहि सुखे सस्नेहवचन ।
प्रथमेइ याजिग्रामे गति विलक्षण ॥४६३॥
एथा यदुनन्दनादि साधे सर्वकार्य ।
यदुनन्दनेर चेष्टा परम आश्चर्य ॥४६४॥
दीनप्रति दय़ा यैछे कहिल ना हय़ ।
वैष्णवमण्डले याꣳर प्रशꣳसातिशय़ ॥४६५॥
ये रचिल गौराङ्गेर अद्भुत चरित ।
द्रवे दारु-पाषाणादि शुनि याꣳर गीत ॥४६६॥
येꣳह मुख्य दास-गदाधरेर शाखाय़ ।
सदा मग्न येꣳह गौरविग्रह-सेवाय़ ॥४६७॥
दास गदाधर श्रीपण्डित गदाधरे ।
भिन्नज्ञान नाहि याꣳर—विदित सꣳसारे ॥४६८॥
प्रसङ्ग पाइय़ा तथा सꣳक्षेपे जानाइ ।
चैतन्यावतारे ‘राधा’ पण्डितगोसाञी ॥४६९॥
‘राधिका-विभूति’-रूप—दास गदाधर ।
जानाइला कवि कर्णपुर विज्ञवर ॥४७०॥
तथाहि श्रीगौरगणोद्देशदीपिकाय़ाम्—-
श्रीराधा प्रेमरूपा या पुरा वृन्दावनेश्वरी ।
सा श्रीगदाधरो गौरवल्लभः पण्डिताख्यकः ॥४७१॥
निर्णीतः श्रीस्वरूपैर्यो व्रजलक्ष्मीतय़ा यथा ।
पुरा वृन्दावने लक्ष्मीः श्यामसुन्दरवल्लभा ॥४७२॥
साद्य गौरप्रेमलक्ष्मीः श्रीगदाधरपण्डितः ।
राधामनुगता यताल्ललिताप्यनुराधिका ।
अतः प्राविशदेषा तꣳ गौरचन्द्रोदय़े यथा ॥४७३॥
अमयापि ललितैव राधिकाली
न खलु गदाधर एष भूसुरेन्द्रः ।
हरिरय़मथवा स्वय़ैव शक्त्या
क्रितय़मभूत् स सखी च राधिका च ॥४७४॥
ध्रुवानन्दब्रह्मचारी ललितेत्यपरे जगुः ।
स्वप्रकाशविभेदेन समीचीनꣳ मत्तन्तु तत् ॥४७५॥
अथवा भगवान् गौरः स्वेच्छय़ागात् त्रिरूपताम् ।
अतः श्रीराधिकारूपः श्रीगदाधरपण्डितः ॥४७६॥
राधाविभूतिरूपा या चन्द्रकान्तिः पुरा स्थिता ।
साद्य गौराङ्ग-निकटे दासवꣳशो गदाधरः ॥४७७॥
पूर्णानन्दा व्रजे यासीद्बलदेवप्रिय़ाग्रणीः ।
सापि कार्यवशादेव प्राविशत्तꣳ गदाधरम् ॥४७८॥
सर्व प्रकारेते श्रेष्ठ गदाइ पण्डित ।
श्रीगौरचन्द्रेर शाखा जगते विदित ॥४७९॥
तथाहि श्रीचैतन्यचरितामृते—
बड़ शाखा गदाधर पण्डित गोसाञी ।
तेꣳहो लक्ष्मीरूपा ताꣳर सम अन्य नाइ ॥४८०॥
दास गदाधरेर प्रभाव अतिशय़ ।
चैतन्येर शाखाओ निताइर शाखा हय़ ॥४८१॥
तथाहि तत्रैव—
श्रीदास-गदाधर-शाखा सर्वोपरि ।
काजिगणमुखे बोलाइला हरि हरि ॥४८२॥
श्रीनित्यानन्देर शाखा दास गदाधर ।
जानाइल कृष्णदास कि विज्ञवर ॥४८३॥
तत्रैव—
श्रीरामदास आर गदाधर दास ।
चैतन्यगोसाञीर भक्त रहे ताꣳर पाश ॥४८४॥
नित्यानन्दे आज्ञा यबे गौड़देश याइते ।
महाप्रभु एइ दोꣳहे दिला ताꣳर साथे ॥४८५॥
अतएव दुइ गणे दोꣳहार गणन ।
ऐछे बहु व्यक्त करि कहे विज्ञगण ॥४८६॥
गदाधर दास सदा मत्त भावावेशे ।
नित्यानन्द प्रभु तैछे ताꣳसह विलसे ॥४८७॥
तथाहि तत्रैव—
गदाधर दास गोपीभावे पूर्णानन्द ।
याꣳर घरे दानलीला करे नित्यानन्द ॥४८८॥
ऐछे गदाधर प्रभु नित्यानन्द-सने ।
निरन्तर हर्ष प्रेमभक्ति रत्नदाने ॥४८९॥
अल्पे जानाइलु दास-गदाधर-क्रिय़ा ।
जानाइ अन्यत्रेओ प्रसङ्ग पाइय़ा ॥४९०॥
श्रीयदुनन्दन दास-गदाधर विने ।
येरूपे गोङाय़ ता वर्णिब कोन् जने ॥४९१॥
निरन्तर ताꣳर गुण करय़े कीर्तन ।
भक्तिरसाविष्ट सदा श्रीयदुनन्दन ॥४९२॥
निज-प्रभु महोत्सव यैछे समाधिल ।
ताहा देखि लोक सब विस्मत हईल ॥४९३॥
कहिते कि महाभाग्यवन्त लोकगण ।
नेत्र भरि कैल सर्व महान्त दर्शन ॥४९४॥
महान्तगणेर याजिग्रामे गमन ओ तथाय़ महोत्सव—
सकल महान्त गेला याजिग्राम-पथे ।
हईल गमनध्वनि श्रीयाजिग्रामेते ॥४९५॥
याजिग्रामवासी लोक महाहर्ष-मने ।
आगुसरि सबे लैय़ा गेला वासा-स्थाने ॥४९६॥
श्रीनिवास आचार्येर महानन्द हैल ।
ताहा एक मुखे किछु वर्णिते नारिल ॥४९७॥
आने कि जानिब श्रीनिवासेर हृदय़ ।
निरखय़े पथपाने उत्कण्ठातिशय़ ॥४९८॥
हेनकाले यदुनन्दनादि गणसने ।
कण्टकनगर हैते आइला हर्षमने ॥४९९॥
आर ये ये ग्रामे भागवतगण छिला ।
आचार्यभवने सबे एकत्र हईला ॥५००॥
महामहोत्सव हैल आचार्यभवने ।
सबे महामत्त हईलेन सङ्कीर्तने ॥५०१॥
ऐछे चारि पाꣳच दिन श्रीनिवास-घरे ।
करिलेन स्थिति सबे उल्लास-अन्तरे ॥५०२॥
सर्व समादरे श्रीनिवास विचक्षण ।
श्रीनिवासे प्रशꣳसय़े भाग्यवन्तगण ॥५०३॥
श्रीरघुनन्दन महाहर्ष स्नेहावेशे ।
ना जानि कि निभृते कहिला श्रीनिवासे ॥५०४॥
सकलेर श्रीखण्डे गमन—
महायत्ने लैय़ा प्रभु परिकरगणे ।
चलिलेन श्रीखण्डे परमानन्दमने ॥५०५॥
खण्डवासी लोक अति उल्लसित चित्ते ।
आगुसरि आसि लैय़ा गेलेन खण्डेते ॥५०६॥
सेवाय़ नियुक्त यैछे हैला सर्वजन ।
से सब विस्तारि एथा ना हय़ वर्णन ॥५०७॥
अन्यग्रामी लोकगण धाय़ चारि भिते ।
प्रभु-भक्त-सन्दर्शने नारे स्थिर हैते ॥५०८॥
मनेर आनन्दे केहो कारु प्रति कय़ ।
‘देख प्रभुगणेर कि शोभा प्रेममय़ ॥५०९॥
परम दुर्लभ ए दर्शन एकत्रेते ।
मो-सबार भाग्ये सबे आइला श्रीखण्डेते ॥५१०॥
अल्पकाल दर्शनेते तृप्त नहे हिय़ा ।
बुझि अकस्मात् बा याय़ेन दुःख दिय़ा’ ॥५११॥
केहो कहे—‘ओहे भाइ ! शीघ्र ना याइब ।
श्रीखण्डेते प्रेमेर समुद्र उथलिब ॥५१२॥
अग्रहाय़णे कृष्णा एकादशी सर्वोपरि ।
याते अदर्शन श्रीठाकुर नरहरि ॥५१३॥
सेइ एकादशीके आछय़े दिन चारि ।
हबे ये उत्सव ता देखिबा नेत्र भरि ॥५१४॥
कहिते कि—अतुल दुर्लभ सङ्कीर्तने ।
मनुष्येर कथा कि—मातिव देवगणे’ ॥५१५॥
ऐछे परस्पर कत कहे ठाꣳइ ठाꣳइ ।
श्रीखण्ड-नगरेते लोकेर सꣳख्या नाइ ॥५१६॥
प्रतिदिन ये उत्सव श्रीखण्डनगरे ।
ताहा ना वर्णिय़े ग्रन्थबाहुल्येर डरे ॥५१७॥
एकादशी-दिने ये उत्सव अन्त नाइ ।
ये शुनिल ताहा किछु सꣳक्षेपे जानाइ ॥५१८॥
ठाकुर नरहरिर तिरोभाव-तिथिते महामहोत्सव—
एकादशी प्रातःकाले श्रीरघुनन्दन ।
प्रभु-परिकरे कैल आत्मनिवेदन ॥५१९॥
गौराङ्ग प्राङ्गणे आसि मनेर उल्लासे ।
कराइल सज्जा चारु अशेष-विशेषे ॥५२०॥
किबा प्राङ्गणेर शोभा कहने ना याय़ ।
ये देखे वारेक तार नय़न जुड़ाय़ ॥५२१॥
सर्व महान्तेर तथा हैल आगमन ।
शोभाय़ सबार चित्त करे आकर्षण ॥५२२॥
चन्दनतिलक भाले अति सुललित ।
परम उज्ज्वल बाहु, वक्ष नामाङ्कित ॥५२३॥
श्रीसरकार ठाकुरेर जीवन गौराङ्गे ।
देखितेइ विपुल पुलक भरे अङ्गे ॥५२४॥
श्रीरघुनन्दन यारे लाडु खाओय़ाइल ।
ताꣳरे देखि मने महाकौतुक बार्ह्̤इल ॥५२५॥
कतक्षण कैल दुइ श्रीमूर्ति-दर्शन ।
हईल ये प्रेमचेष्टा ना हय़ वर्णन ॥५२६॥
विप्र वाणीनाथ अति मधुर वचने ।
सर्ब मनोवृत्ति कहे श्रीरघुनन्दन ॥५२७॥
महोत्सवे श्रीनिवास आचार्यप्रभुर श्रीभागवत-कीर्तन—
‘श्रीमद्भागवत अन्य दिवसे श्रवण ।
रात्रिय़ोगे सङ्कीर्तनानन्द-आस्वादन ॥५२८॥
स्रीमद्भागवत पड़िवेन श्रीनिवास’ ।
शुनि रघुनन्दनेर अधिक उल्लास ॥५२९॥
सेइक्षणे अपूर्व आसन कराइला ।
वसिते सकल महान्तेरे निवेदिला ॥५३०॥
श्रीपति, श्रीनिधि आदि यतेक महान्त ।
बसिलेन आसने—शोभार नाइ अन्त ॥५३१॥
कृष्णमिश्र, गोपाल परमानन्द-मने ।
प्रभु वीरभद्र बसिलेन दिव्यासने ॥५३२॥
श्रीरघुनन्दन अतिशय़ स्नेहावेशे ।
सर्व महान्तेर आगे निल श्रीनिवासे ॥५३३॥
सकल महान्त श्रीनिवास-प्रति कय़ ।
‘शुनिते तोमार मुखे बड़ साध हय़ ॥५३४॥
श्रीमद्भागवत पड़ वसि ए आसने ।
ना कर सङ्कोच आमा सबार बचने’ ॥५३५॥
शुनि श्रीनिवास भूमे पड़ि प्रणमिय़ा ।
करय़े ये दैन्य धैर्य धरे के शुनिय़ा ॥५३६॥
पुनः-पुनः अनुमति पाइय़ा सबार ।
बसिला आसने—शोभा हैल चमत्कार ॥५३७॥
पुस्तके अर्पिय़ा पुष्प तुलसी चन्दन ।
करय़े आरम्भ चारु मङ्गलाचरण ॥५३८॥
कोकिल जिनिय़ा अति समुधुर-स्वरे ।
उच्चारय़े श्लोक—येन सुधावृष्टि करे ॥५३९॥
श्रीरास-विलास -कथा रसेर पाथार ।
कहिते अधैर्य नेत्रे बहे अश्रुधार ॥५४०॥
विविध प्रकारे प्रति पद्य व्याख्या करे ।
नाना रागप्रभेद प्रकाशे पद्यद्वारे ॥५४१॥
कि अद्भुत कथार माधुर्य ! धैर्य नाशे ।
उपमार स्थान नाइ से मधुर भाषे ॥५४२॥
महावर्षा-प्राय़ प्रेम वर्षे से कथाय़ ।
सकले विह्वल—हर्ष उथले हिय़ाय़ ॥५४३॥
अनिमिथ नेत्रे चाहे श्रीनिवास-पाने ।
निवारिते नारे अश्रु झरय़े नय़ने ॥५४४॥
पाठ-श्रवणे श्रीनिवासेर अभिनन्दन—
महान्तगणेर हय़ ये भावविकार ।
ताहा एक मुखे कि वर्णिबे मुइ छार ॥५४५॥
आत्मविस्मरित केह मने मने कय़ ।
‘श्रीशुक अर्पिल शक्ति, तेञि ऐछे हय़’ ॥५४६॥
केह कहे—‘शक्ति सञ्चारिल वेद-व्यास ।
तेञि ए अद्भुत अर्थ करय़े प्रकाश’ ॥५४७॥
केह कहे—‘गदाधर पण्डित गोसाञी ।
बुझि कृपा-शक्ति पूर्ण प्रकाशे एथाइ’ ॥५४८॥
केह् कहे—‘पण्डित श्रीवासादि-कृपाय़ ।
ऐछे पाठ-लालित्य—कि तुलना इहार’ ॥५४९॥
केह कहे—‘गौरप्रेमस्वरूप ए हन ।
ए मुखे से वक्ता—तेञि ऐछे आकर्षण’ ॥५५०॥
ऐछे स्नेहावेश मने ये हय़ सबार ।
ताहा केह वर्णिबेन करिय़ा विस्तार ॥५५१॥
प्रभु-परिकरेर कि अद्भुत चरित ।
करय़े श्रवण यैछे उपमा-रहित ॥५५२॥
श्रीमद्भागवत-कथामृत-आस्वादने ।
कैछे दिन याय़ ताहा किछुइ ना जाने ॥५५३॥
श्रीनिवास देखे—दिबा-अवसान हैल ।
प्रार्थनापूर्वक कथामृत साङ्ग कैल ॥५५४॥
ग्रन्थे प्रणमिय़ा अति दीनता अन्तरे ।
भूमे पड़्इ प्रणमिला प्रभुपरिकरे ॥५५५॥
प्रभुपरिकरगण हईय़ा उल्लास ।
श्रीनिवासे ऐछे स्नेह करय़े प्रकाश ॥५५६॥
केह श्रीनिवास-शिरे श्रीहस्त धरय़ ।
‘जुड़ाइलु’ बलि—नेत्रजले सिक्त हय़ ॥५५७॥
‘हüक तोमार सब मनोरथ-सिद्धि ।
तोमाते वञ्चित ये वञ्चुक तारे विधि ॥५५८॥
ये लईबे तोमार शरण सेइ धन्य ।
अवश्य मिलिब तारे श्रीकृष्णचैतन्य’ ॥५५९॥
केह हस्ते स्पर्शि मुखे कहे वार वार ।
‘ए मुख सदाइ मने रहुक आमार’ ॥५६०॥
अधैर्य हईय़ा पुनः धीरे धीरे कय़ ।
‘तोमा हैते जीवेर हईबे दुःख-क्षय़’ ॥५६१॥
केह कहे—‘तोमार बालाइ लईय़ा मरि ।
आइसह तोमारे वारेक कोले करि’ ॥५६२॥
कोले लईय़ा तिलेक छाड़िते नाहि पारे ।
मने हय़—राखे सदा हिय़ार भितरे ॥५६३॥
केह केह कत ला करिय़ा आशीर्वाद ।
धरिय़ा हिय़ाय़ कहे—‘पूर्ण हैल साध ॥५६४॥
हैय़ाछे सकल शून्य—ताते दग्ध हिय़ा ।
करिला शीतल कथामृत पिय़ाइय़ा’ ॥५६५॥
केह आलिङ्गन करि नारे स्थिर हैते ।
समर्पय़े श्रीमूर्तिद्वय़ेर चरणेते ॥५६६॥
नरहरि रघुनन्दनेर प्रेमाधीन ।
ए दोꣳहार गुणे मत्त हय़ रात्रिदिन ॥५६७॥
‘भक्तिरस-साय़रे डुबाओ हीनजने’ ।
ऐछे कृत कहे, अश्रु झरय़े नय़ने ॥५६८॥
केह प्रणमिय़ा कहे—कृतार्थ कारिला ।
श्रीमद्भागवत-कथारसे डुबाइला’ ॥५६९॥
केह महा उल्लासे रहय़े मौन धरि ।
ऐछे ये अपूर्व चेष्टा वर्णिते ना पारि ॥५७०॥
श्रीनिवास-प्रति ए प्रकार आचरण ।
देखे महानन्दे भाग्यवन्त लोकगण ॥५७१॥
सर्ब महान्तेर महा आनन्द जन्मिल ।
श्रीरघुनन्दन-गुणे विह्वल हईल ॥५७२॥
रघुनन्दनेरे प्रशꣳसय़े वार वार ।
से सब सुयश वर्णिबारे शक्ति कार ॥५७३॥
रघुनन्दनेर चित्ते लज्जा अतिशय़ ।
आपना मानय़े दीन, दैन्य प्रकाशय़ ॥५७४॥
ए सकल रीत कि बुझिब अन्य जन ।
श्रीचैतन्य-कथाय़ गोङाय़ कतक्षण ॥५७५॥
रात्रिते सङ्कीर्तनोत्सव—
प्रभुद्वय़-उत्थापन आरति-दर्शने ।
उठिलेन सबे शीघ्र प्रणमि प्राङ्गणे ॥५७६॥
श्रीमूर्तिद्वय़ेर दर्शनेते हर्ष हैला ।
सङ्कीर्तनारम्भे उद्योग कराइला ॥५७७॥
श्रीरघुनन्दन निजगणे निदेशिला ।
सबे शीघ्र गौराङ्गेर प्राङ्गणे आइला ॥५७८॥
अवशेषे या छिल ता सुसज्ज करिला ।
अतियत्ने खोल-करतालादि राखिला ॥५७९॥
‘हईल प्रस्तुत’-रघुनन्दने कहिल ।
श्रीरघुनन्दन प्रभुगणे जानाइल ॥५८०॥
करिय़ा प्रभुर सन्ध्या-आरति दर्शन ।
देखे सङ्कीर्तन आरम्भेर आय़ोजन ॥५८१॥
खोल-करतालादि अनेक निरखिय़ा ।
प्रशꣳसय़े सकले परम हर्ष हईय़ा ॥५८२॥
देखय़े—अनेक पात्रे सुगन्धि चन्दन ।
पृथक् पृथक् पात्रे पुष्पहारगण ॥५८३॥
नाना पुष्पमाला—से सौगन्धा अतिशय़
अपूर्व रचना सर्वचित्त आकर्षय़ ॥५८४॥
ऐछे बहु देखिय़ा प्रभुर प्रिय़गण ।
परस्पर कहे—‘कि अपूर्व आय़ोजन’ ॥५८५॥
श्रीघुनन्दन कहे करि परिहार ।
‘प्रसादी चन्दन, माला कर अङ्गीकार’ ॥५८६॥
शुनि सर्ब महान्तेर बार्ह्̤इल कौतुक ।
परस्पर पराइब—इथे महासुख ॥५८७॥
पृथक् पृथक् पात्रे श्रीरघुनन्दन ।
श्रीचन्दन, माला सबे कैला समर्पण ॥५८८॥
श्रीप्रभुर सम्पत्ति श्रीखोल-करताल ।
ताहे केह अर्पय़े चन्दन, पुष्पमाल ॥५८९॥
श्रीचन्दन-माला शोभे सर्व मर्दलेते ।
निरन्तर ब्रह्मादि देवता बैसे याते ॥५९०॥
श्रीयदुनन्दन, श्रीलोचन—दुइ जन ।
लईलेन पुष्पमाला, सुगन्धिचन्दन ॥५९१॥
दोꣳहे कृष्णमिश्र, गोपालेरे पराइय़ा ।
देखय़े अद्भुत शोभा नय़न भरिय़ा ॥५९२॥
परम आनन्द-मने श्रीरघुनन्दन ।
श्रीवीरभद्रेर अङ्गे चर्चय़े चन्दन ॥५९३॥
नाना पुष्पमालाय़ विचित्र वेश कैल ।
देखिते से शोभा सुख-समुद्रे डुबिल ॥५९४॥
प्रभु बीरचन्द्रेर इङ्गिते श्रीनिवास ।
श्रीमाला-चन्दन लैय़ा गेला प्रभुपाश ॥५९५॥
प्रभु वीरचन्द्र माला-चन्दन आपने ।
पराइला महाहर्षे श्रीरघुनन्दने ॥५९६॥
श्रीरघुनन्दन स्नेहे विह्वल हईला ।
श्रीमाला-चन्दन श्रीनिवासे पराइला ॥५९७॥
परस्पर हैल माला-चन्दन-ग्रहण ।
विस्तारि वर्णिब इहा भाग्यवन्तगण ॥५९८॥
सबे दाꣳड़ाइला चारु चन्द्रातप-तले ।
परम अद्भुत शोभा-समुद्र उथले ॥५९९॥
प्रभु-परिकरगण गुणेर आलय़ ।
गीत, नृत्य, वाद्ये विशारद अतिशय़ ॥६००॥
उठिल मङ्गलध्वनि सꣳकीर्तास्थले ।
चतुर्दिके वेड़्हि कत शत दीप ज्वले ॥६०१॥
पाषण्डमर्दन मर्दलेर शब्दमात्रे ।
पुलक व्यापिल सब वैष्णवेर गात्रे ॥६०२॥
किबा से मधुर झाꣳज्-वाद्येर चातुरी ।
राजाय़ सुछन्दे चारु, खमक, खञ्जरी ॥६०३॥
वादकसकल पाठाक्षर उच्चारय़ ।
शब्देर घटाय़ येन सुधावृष्टि हय़ ॥६०४॥
गाय़कगण से आलाप-वर्णन-रीते ।
आलापय़े नाना भाꣳति—उपमा कि दिते? ॥६०५॥
करिय़ा आलाप राग प्रकट करय़ ।
कहिते कि—रागेर सौभाग्य अतिशय़ ॥६०६॥
श्रुति, स्वर, ग्राम, मूर्च्छना, तालादि आर ।
गमकप्रभेद प्रकाशय़े चमत्कार ॥६०७॥
विविध प्रबन्धे तालप्रभेद प्रचारे ।
आनेर का कथा—गन्धर्वेर गर्व हरे ॥६०८॥
बाढ़य़े सबार बल करिते कीर्तन ।
षोड़शवर्षेर प्राय़ हैला वृद्धगण ॥६०९॥
सङ्कीर्तन-सुखेर समुद्र उथलिल ।
पशु-पक्षी मनुष्य-देवादि मुग्ध हैल ॥६१०॥
सङ्कीर्तनस्थलेते लोकेर नाइ पार ।
सबाकार नेत्रे अश्रुधारा अनिवार ॥६११॥
देवगण मिशाइय़ा मनुष्येर मेले ।
भासे सङ्कीर्तन-सुखसमुद्र-हिल्लोले ॥६१२॥
सकल महान्त हैय़ा आत्म-विस्मरित ।
करय़े ये नृत्य ताहे जगत् मोहित ॥६१३॥
कृष्णमिश्र, श्रीगोपाल दोꣳहार नर्तने ।
ये आनन्द ताहा कि वर्णिब करिगणे ॥६१४॥
सङ्कीर्तने श्रीवीरभद्र प्रभुर अपूर्व नृत्य—
नाचय़े श्रीवीरभद्र—भङ्गि सुमधुर ।
ये देखे वारेक तार ताप याय़ दूर ॥६१५॥
देखिय़ा अद्भुत नृत्य कहे लोकगण ।
‘ना हैल अनेक नेत्र, हैल दुनय़न ॥६१६॥
इथे ना पूरय़े आर्ति’—कहिय़ा कहिय़ा ।
अनिमिथ नेत्रे सबे रहय़े चाहिय़ा ॥६१७॥
चतुर्दिके फिरे अन्ध व्याकुल-हृदय़ ।
शुनिलेल—नाचे नित्यानन्देर तनय़ ॥६१८॥
केह काहु प्रति पुछे—‘कि नाम इहार ?’ ।
तेꣳहो कहे—‘वीरभद्र जगते प्रचार’ ॥६१९॥
शुनि अन्ध उल्लसित अन्तरे विचारे ।
‘ये नाम इहार इथे अमङ्गल हरे’ ॥६२०॥
ऐछे विचारिय़ा स्तुति करय़े मने मने ।
‘वीर-पाद हैल दुष्ट-सꣳहार-कारणे ॥६२१॥
करिते जीवेर महा अमङ्गल क्षय़ ।
भद्र-पद हैल तेञि, ओहे दय़ामय़ ॥६२२॥
विधाता करिल अन्ध ना पाइ देखिते ।
ये उचित हय़ प्रभु विचारह चिते’ ॥६२३॥
ऐछे कत कान्दिते कान्दिते अन्ध कय़ ।
जानिलेन प्रभु नित्यानन्देर तनय़ ॥६२४॥
सकरुण हैय़ा चाहे अन्धगण-प्रति ।
अन्ध नेत्र पाइल—किबा अन्धेर सुकृति ॥६२५॥
स्वच्छन्दे देखय़े वीरभद्रेर नर्तन ।
‘जय़ जय़ जय़’—ध्वनि व्यापिल भुवन ॥६२६॥
सङ्कीर्तने रजनी हईल अवसान ।
गोरागुण सोङरिते विदरे पराण ॥६२७॥
प्रभु-परिकर धैर्य धरिते ना पारे ।
ऊर्ध्व बाहु करिय़ा डाकय़े उच्चस्वरे ॥६२८॥
‘कोथा गौरचन्द्रे प्रभु शचीर नन्दन ।
कोथा नित्यानन्द राम दुःखीर जीवन ॥६२९॥
कोथा श्रीअद्वैताचार्य गुणेर आलय़ ।
कोथा श्रीपण्डित गदाधर प्रेममय़ ॥६३०॥
हरिदास, श्रीरास, स्वरूप, रामानन्द ।
कोथा श्रीमाधव, वासु, मुरारि, मुकुन्द ॥६३१॥
कोथा मोर गदाधर दास, नरहरि’ ।
लईय़ा ए सब नाम कान्दय़े फुकारि ॥६३२॥
‘गणसह, देखा देह गोरा विनोदिय़ा’ ।
एत कहि भूमितले पड़े लोटाइय़ा ॥६३३॥
अग्निशिखा-सम से निःश्वास निरन्तर ।
हईल सबार अङ्ग धुलाय़ धूसर ॥६३४॥
दारुण विय़ोग-व्याथा बार्ह्̤इल प्रचुर ।
उठिल क्रन्दनरोल धैर्य गेल दूर ॥६३५॥
भक्तेर व्याबुले प्रभु स्थिर हैते नारे ।
ना जानि किरूपे सन्तोषिलेन सबारे ॥६३६॥
श्रीमहाप्रभुर एइ अलौकिक-लीला ।
दुःख हैते आनन्दसमुद्रे डुबाइला ॥६३७॥
किबा से आनन्दावेश हईल सबार ।
केह कारु चरणे धरय़े वार-वार ॥६३८॥
केह कारे आलिङ्गय़े, प्रफुल्ल वदन ।
आनन्दाश्रुजले पूर्ण सबार नय़न ॥६३९॥
परस्पर विविध प्रकारे सम्बोधय़ ।
देखय़े—हईल निशि-प्रभात-समय़ ॥६४०॥
मङ्गल-आरति देखि उल्लसित मने ।
करय़े प्रणाम सबे प्रभुर प्राङ्गणे ॥६४१॥
सङ्कीर्तनान्ते प्रभुगणेर दर्शने लोकेर अभिमत—
से समय़े करि प्रभुगणेर दर्शन ।
चतुर्दिके ‘हरि’-बोल बोले लोकगण ॥६४२॥
लोकेर सꣳघट्ट यत कहिल ना हय़ ।
परस्पर लोकगण नाना कथा कय़ ॥६४३॥
केह कहे—‘अद्य निशि शीघ्र पोहाइल ।
निकरुण विधि निशि वृद्धि ना करिल ॥६४४॥
ए-हेन श्रीएकादशी बहु भाग्य मिले ।
याते प्रेमवृष्टि कैला महान्त सकले’ ॥६४५॥
केह कहे—‘किबा महान्तेर आचरण ।
देख, उपवास यैछे तैछे जागरण’ ॥६४६॥
केह कहे—‘चैतन्येर परिकर विने ।
श्रीएकादशीते ये कर्तव्य ता के जाने ?’ ॥६४७॥
केह कहे—श्रीएकादशीते एइ रीत ।
अन्नादि ग्रहण ना करिबे कदाचित ॥६४८॥
एबे कुन कुन पापी श्रीएकादशीते ।
अन्ये अल्प भुञ्जाय़, भुञ्जय़े हर्ष-चिते ॥६४९॥
ना मानय़े शास्त्र, करे स्वमत-कल्पना ।
ए-हेन पापीरे देखि पाइय़े वेदना’ ॥६५०॥
केह कहे—‘प्रभुपरिकर-कृपा याꣳरे ।
एकादशी-व्रतेर निय़म प्राप्त ताꣳरे’ ॥६५१॥
केह कहे—‘मो-पापीर हईब कि गति ।
श्रीएकादशीते कि जन्मिब दृढ़ रति’ ॥६५२॥
केह कहे—‘पापे मग्न हैनु निरन्तर ।
ना बुझिनु किछु मुइ बड़ई पामर’ ॥६५३॥
केह कहे—‘वैष्णव परम कृपावान् ।
करिबेन सर्व प्रकारेते परित्राण’ ॥६५४॥
केह कहे—‘बड़ दुःख रहिल हिय़ाय़ ।
लोटाइय़ा ना पड़िनु वैष्णवेर पाय़’ ॥६५५॥
केह कहे—‘कुन चिन्ता ना करिह आर ।
एबे अभिलाष पूर्ण हबे मो-सबार’ ॥६५६॥
ऐछे कत कहि गिय़ा सङ्कीर्तन-स्थले ।
लोटाइय़ा पड़े सिक्त हईय़ा नेत्रजले ॥६५७॥
देखिय़ा लोकेर चेष्टा प्रभुप्रिय़गण ।
ये कृपा करिल ताहा ना हय़ वर्णन ॥६५८॥
महान्तगण कतृक श्रीरघुनन्दनेर प्रशꣳसा—
कहिते कि महान्तगणेर प्रेमावेश ।
श्रीरघुनन्दने श्लाघा करय़े अशेष ॥६५९॥
केह कहे—‘श्रीरघुनन्दने प्रीत यार ।
जन्मे जन्मे श्रीकृष्णचैतन्य वश तार’ ॥६६०॥
केह कहे—‘कि दय़ालु श्रीरघुनन्दन ।
अति दीन-हीन दुःखिजनेर जीवन’ ॥६६१॥
क्ष कहे—‘कि दैन्य ! विनय़ नाइ हेन’ ।
केह कहे—‘कन्दर्पेय़ प्राय़ शोभा येन’ ॥६६२॥
केह कहे—‘गीत-वाद्य-नृत्ये महाधीर’ ॥६६३॥
केह कहे—‘रघुनन्दनेर महाप्रीते ।
हैल ये कीर्तनानन्द—उपमा क्षिदिते’ ॥६६४॥
ऐछे कत काहे रघुनन्दनेर कथा ।
हेनकाले श्रीरघुनन्दन आइला तथा ॥६६५॥
शुनि निज-श्लाघा चित्ते लज्जा अतिशय़ ।
हईलेन यैछे ताहा कहिल ना हय़ ॥६६६॥
आपना मानय़े दीन, प्रशꣳसा ना सहे ।
करय़े ये दैन्य शुनि केबा स्थिर रहे ॥६६७॥
रघुनन्दनेर दैन्य शुनि सर्वजने ।
हईला विह्वल—-अश्रु झराय़े नय़ने ॥६६८॥
श्रीरघुनन्दने करि दृढ़ आलिङ्गन ।
कतक्षणे स्थिर हैला प्रभु प्रिय़गण ॥६६९॥
श्रीरघुनन्दन सबा-प्रति निवेदय़ ।
‘श्रीद्वादशी-पारणेते कैछे आज्ञा हय़’ ॥६७०॥
सबे कहे—‘एकत्रे बसिय़ा सर्वजन ।
करिब श्रीगौराङ्गेर प्रासाद-सेवन’ ॥६७१॥
शुनि रघुनन्दनेर हैल हर्ष-हिय़ा ।
शीघ्र नाना सामग्री करान यत्न पाय़ा ॥६७२॥
महान्तसकल निज-निज-वासा गेला ।
गणसह सबे प्रातःक्रिय़ादि करिला ॥६७३॥
एथा नाना पक्वान्नादि प्रस्तुत हईल ।
पूजारी प्रभुके शीघ्र भोग समर्पिल ॥६७४॥
कतक्षण परे प्रभु-समय़ जानिय़ा ।
भोग सराइलेन पूजारी हर्ष हैय़ा ॥६७५॥
सर्व महान्तेरे आनि श्रीरघुनन्दन ।
कराइल प्रभुर श्रीभोगेर दर्शन ॥६७६॥
प्रभुर भोगेर शोभा कहने ना याय़ ।
देखि सर्वमहान्तेर उल्लास-हिय़ाय़ ॥६७७॥
महान्तगणेर श्रीमहाप्रसाद-सेवा—
प्रभुर श्रीआरात्रिक करिय़ा दर्शन ।
बसिलेन गिय़ा यथा करिब भोजन ॥६७८॥
बसिलेन सबे किबा अपूर्व बन्धाने ।
हईले श्रीअद्भुत शोभा भोजनेर स्थाने ॥६७९॥
कदलीर पत्र, पात्रे सुबासित बारि ।
परिवेशे कत जन महा यत्न करि ॥६८०॥
एथा प्रेमभक्तिमय़ पूजारी यतने ।
प्रभुके शय़न कराइला हर्ष-मने ॥६८१॥
प्रभुर चरणे पुनः-पुनः प्रणमिला ।
करिते परिवेषण प्रस्तुत हईला ॥६८२॥
गोधूमचूर्णेरि पूपादिक बहु हय़ ।
दुग्धेर विकार नाना-फलमूलोदय़ ॥६८३॥
यत्नपूर्व पात्रे लैय़ा चले बहुजने ।
क्रमे-परिवेशन करय़े हर्ष-मने ॥६८४॥
सर्वत्रई सर्व द्रव्य दिय़ा थरे थरे ।
परिवेशे श्रीचरणामृत महान्तेरे ॥६८५॥
श्रीरघुनन्दने सर्व महान्त कहय़ ।
‘तुमि ना बैसह इथे सुख ना जन्मय़’ ॥६८६॥
शुनि दैन्य करि कहे श्रीरघुनन्दन ।
‘करुन भोजन देखि जुड़ाक नय़न’ ॥६८७॥
हरि-ध्वनि करि सबे भुञ्जेन कौतुके ।
दाꣳड़ाइय़ा श्रीरघुनन्दन देखे सुखे ॥६८८॥
श्रीरघुनन्दनके श्रीनरहरि ठाकुरेर दर्शन-दान—
तथा हैते श्रीभोगमन्दिरे शीघ्र गिय़ा ।
एक भोग लईलेन पृथक करिय़ा ॥६८९॥
श्रीठाकुर नरहरि छिला ये निर्जने ।
तथा श्रीप्रसाद लैय़ा गेलेन आपने ॥६९०॥
तेꣳहो ये आसने वसितेन ताहा लैय़ा ।
ताते बसाइला ध्याने दैन्ये मग्न हैय़ा ॥६९१॥
आसन-सन्मुखे नाना द्रव्य साजाइला ।
जलपात्रे प्रसादी वासित जल दिला ॥६९२॥
एकपात्रे प्रसादी ताम्बूल दिला आर ।
अन्य पात्रे दिला गौराङ्गेर पुष्पहार ॥६९३॥
ध्याने भक्ष्य द्रव्य-आदि समर्पण कैला ।
करिय़ा प्रार्थना घर-द्वार आच्छादिला ॥६९४॥
बाहिरे आसिय़ा रहिलेन कतक्षण ।
समय़ जानिय़ा चले दिते आचमन ॥६९५॥
द्बार घुचाइय़ा देखे—प्रभु नरहरि ।
आसने बसिय़ा आछे दिव्यरूप धरि ॥६९६॥
देखितेइ मात्र आत्मविस्मरित हैला ।
अदर्शन हैते दुःखसमुद्रे भुविला ॥६९७॥
कतक्षणे स्थिर हैय़ा दिला आचमन ।
भूमे पड़ि प्रणमिला सजल-नय़न ॥६९८॥
आसन लईय़ा माथे राखि पूर्वस्थाने ।
गेला शीघ्र महान्तगणेर सन्निधाने ॥६९९॥
देखय़े—भोजन किबा कौतुक सबार ।
भुञ्जे सबे सामग्री प्रशꣳसि वार-वार ॥७००॥
श्रीरघुनन्दन कत करिय़ा विनय़ ।
भुञ्जिते विशेष पुनः-पुनः निवेदय़ ॥७०१॥
परम आनन्दे सबे करिय़ा भोजन ।
परस्पर कहि कैल आचमन ॥७०२॥
स्नेहावेशे कहे सबे श्रीरघुनन्दने ।
‘लईय़ा सकले शीघ्र बैसह भोजने’ ॥७०३॥
श्रीनिवास-आदि सबे श्रीरघुनन्दन ।
भुञ्जाइय़ा यत्ने कैल आपनि भोजन ॥७०४॥
भुञ्जय़े आनन्दे बहु लोक ठाꣳइ ठाꣳइ ।
सबे कहे—‘एहेन उत्सव देखि नाइ’ ॥७०५॥
हैल महामहोत्सव द्वादशी-दिवसे ।
ए-सकल प्रसङ्ग व्यापिल सर्वदेशे ॥७०६॥
श्रीरघुनन्दन सर्वकार्य समाधिय़ा ।
गौराङ्ग-प्राङ्गणे आइलेन हर्ष हैय़ा ॥७०७॥
गौराङ्गेर-उत्थापन आरति-दर्शने ।
प्रभुप्रिय़गण आइला गौराङ्ग-प्राङ्गणे ॥७०८॥
करि श्रीप्रभुर चारु आरति-दर्शन ।
गौराङ्गेर प्राङ्गणे बसिला सर्वजन ॥७०९॥
कतक्षण कृष्णलीला-आलापन कैला ।
सन्ध्या-आरात्रिक दर्शनेते हर्ष हैला ॥७१०॥
सबे प्रणमिय़ा प्रभु गौराङ्ग-प्राङ्गणे ।
हईलेन महामत्त श्रीनामकीर्तने ॥७११॥
द्वितीय़ प्रहर रात्रि अतीत हईल ।
किछुकाल वासा गिय़ा शय़न करिल ॥७१२॥
निशान्त-समय़े शीघ्र शय़न त्यजिय़ा ।
करिलेन सबे दन्तधावनादि-क्रिय़ा ॥७१३॥
रजनीप्रभाते रघुनन्दन आपने ।
आइलेन सब महान्तेर वासास्थाने ॥७१४॥
परस्पर हैल किबा प्रेम-आचरण ।
देखिते से सब कार ना जुड़ाय़ मन ॥७१५॥
श्रीपति, श्रीनिधि रघुनन्दने कहय़ ।
‘अद्य यात्रा करिते सबार मन हय़’ ॥७१६॥
श्रीरघुनन्दन कहे—‘ऐछे भाग्य नाइ ।
किछुदिन सकले देखिय़े एक ठाꣳइ ॥७१७॥
यदि मोर भाग्ये एथा हैल आगमन ।
दुइ चारि दिवस छाड़िय़े—नहे मन’ ॥७१८॥
विप्र वाणीनाथ कहे श्रीरघुनन्दने ।
‘कालिप्राते अनुमति दिवेन आपने’ ॥७१९॥
शुनि रघुनन्दन हासिय़ा मन्द मन्द ।
कहे—‘कालि ये हईबे इथे कि निर्बन्ध ॥७२०॥
पारणेते कैला कालि पुपादि-भक्षण ।
पुनः आर जलबिन्दु नहिल ग्रहण ॥७२१॥
अद्य प्रति वासाय़ रन्धन शीघ्र हबे ।
स्नानादि करिले शीघ्र सुख पाइ तबे’ ॥७२२॥
शुनि, रघुन्दनेर मधुर वचन ।
स्नानादिक करिला प्रभुर प्रिय़गण ॥७२३॥
प्रसादि-मिष्टान्न नानाविध पात्रे करि ।
लईय़ा आइला गौरचन्द्रेर पूजारी ॥७२४॥
श्रीचरणामृत-सह सर्वत्रेतेइ दिला ।
परम कौतुके सबे से सब भुञ्जिला ॥७२५॥
हईल सर्वत्र नाना विधाने रन्धन ।
कृष्णे समर्पिय़ा सबे करिला भोजन ॥७२६॥
कृष्णकथा विने केह कहिते ना पारे ।
दिवारात्रि भासे प्रेमसमुद्र-पाथारे ॥७२७॥
श्रीरघुनन्दनेर आनन्द अतिशय़ ।
दिवारात्रि कैछे याय़ किछु ना जानय़ ॥७२८॥
महान्तगणेर विदाय़—
ऐछे सबे दुइचारि दिवस राखिला ।
विदाय़ हईब—इथे व्याकुल हईला ॥७२९॥
करिते विदाय़ कत करि समादर ।
सकलेर सङ्गे द्रव्य दिलेन विस्तर ॥७३०॥
श्रीवीरभद्रेर दुटी करेते धरिय़ा ।
कहिलेन कत नेत्रजले सिक्त हैय़ा ॥७३१॥
कृष्णमिश्र, गोपालेर मुख निरखिय़ा ।
ना जानि कि कहिते उमड़े उठे हिय़ा ॥७३२॥
प्रत्येक महान्तगणे ये सब कहय़ ।
ताहा वर्णिबेन कुन कुन महाशय़ ॥७३३॥
परस्पर ये कथा ता शुनिते दुष्कर ।
ये शुनिल तार हईल विदीर्ण अन्तर ॥७३४॥
प्रातःकाले विदाय़ हईय़ा सर्वजने ।
चलिते अधैर्य—अश्रु झरय़े नय़ने ॥७३५॥
गौराङ्ग-प्राङ्गणे आसि सबे प्रणमिला ।
पूजारी प्रसाद-माला यत्ने आनि दिला ॥७३६॥
श्रीखण्ड हईते सबे करिला गमन ।
ना धरे धैरय खण्डवासी लोकगण ॥७३७॥
दारुण विच्छेद-दुःखे कत उठे चिते ।
प्रभुगण-सङ्गे चले, नारे स्थिर हैते ॥७३८॥
कथोदूर याइय़ा श्रीपति-आदि यत ।
श्रीरघुनन्दने स्थिर कैल कहि कत ॥७३९॥
श्रीनिवासे अति अनुग्रह प्रकाशिला ।
श्रीयदुनन्दन-आदि सबे प्रबोधिला ॥७४०॥
परस्पर हैल यैछे प्रेम-आचरण ।
देखिते से सब कार ना द्रवय़े मन ॥७४१॥
हईय़ा व्याकुल चलिलेन सर्वजने ।
श्रीरघुनन्दन चाहि रहे पथपाने ॥७४२॥
श्रीरघुनन्दन श्रीनिवासादि-सहिते ।
आइल निजालय़े गुण कहिते कहिते ॥७४३॥
से दिवस श्रीखण्डे लईय़ा सर्वजने ।
हईलेन महामग्न श्रीकथा-कीर्तने ॥७४४॥
तार पर दिन अति व्याकुल हिय़ाय़ ।
ये यहा याबेन ताꣳरे दिलेन विदाय़ ॥७४५॥
याजिग्रामे श्रीनिवास करिला गमन ।
कण्टकनगरे गेला श्रीयदुनन्दन ॥७४६॥
आर ये ये वैष्णव आइला यथा हैते ।
से सकले गेला निज-निज-आलय़ेते ॥७४७॥
दूरदेशी लोक हर्षे करिला गमन ।
सोङरिय़ा रघुनन्दनेर गुणगण ॥७४८॥
श्रीखण्ड-नगरे महामहोत्सब-कथा ।
यारे तारे ये से लोक कहे यथा-तथा ॥७४९॥
श्रीमहोत्सवेर कथा शुने येइ जन ।
अनाय़ासे हय़ तार ताप-विमोचन ॥७५०॥
ए सब प्रसङ्गे याꣳर हय़ दृढ़-रति ।
ताꣳहारे मिलय़े देवदुर्लभ भकति ॥७५१॥
ओहे भाइ इथे मन देह-निरन्तर ।
ना कर अलस—सुख पाइबे विस्तर ॥७५२॥
श्रीनिवास आचार्य चरण चिन्ता करि ।
भक्तिरत्नाकर कहे दास नरहरि ॥७५३॥
इति श्रीभक्तिरत्नाकरे पुनः श्रीनिवासाचार्यस्य श्रीवृन्दावनगमनागमनादि—श्रीकाटोय़ा-याजिग्राम-श्रीखण्ड-महोत्सव वर्णनꣳ नाम नवमस्तरङ्गः ॥९॥
…