अष्टम तरङ्ग
जय़ जय़ गौरचन्द्र शचीर तनय़ ।
जय़ जय़ नित्यानन्दाद्वैत प्रेममय़ ॥१॥
जय़ जय़ गदाधर, पण्डित श्रीवास ।
जय़ वक्रेशर, श्रीमुरारि, हरिदास ॥२॥
जय़ गौरीदास, श्रीस्वरूप-दामोदर ।
जय़ गौरीचन्द्रेर यतेक परिकर ॥३॥
जय़ जय़ श्रोतागण गुणेर आलय़ ।
एबे ये कहिय़े शुन हईय़ा सदय़ ॥४॥
भक्तिशास्त्रे अध्यापक आचार्यठाकुर ।
माय़ावादिगणेर करय़े दर्प चूर ॥५॥
शिष्यगणसङ्गे याजिग्रामे विलसय़ ।
नरोत्तम-पथ सर्वक्षण निरीक्षय़ ॥६॥
श्रीनरोत्तमेर सङ्ग हबे कत दिने ।
आचार्येर सदा एइ चिन्ता मने मने ॥७॥
श्रील नरोत्तमठाकुर महाशय़ेर आगमन—
एथा श्रीठाकुर नरोत्तम हृष्ट हैय़ा ।
नवद्वीप चले गौर-चरित्र चिन्तिय़ा ॥८॥
नवद्वीप-समीपे याइय़ा महाशय़ ।
हईय़ा व्याकुला मने मने कथा कय़ ॥९॥
‘नवद्वीपे गौराङ्गेर अद्भुत विहार ।
निरन्तर सङ्कीर्तन-सुखेर पाथार ॥१०॥
घरे घरे परम उत्सव निति निति ।
केह ना आनय़े कैछे याय़ निवाराति ॥११॥
नबद्वीपे निरानन्द नहे कुन जन ।
निरन्तर करि गौरचन्द्रेर दर्शन ॥१२॥
एमन समय़े मोर जनम नहिल ।
हेन सुख-सम्पत्ति ना देखिते पाइल’ ॥१३॥
ऐछे कत काहि नेत्रजले भासि याय़ ।
कथोदूर गिय़ा नवद्वीप पाने चाय़ ॥१४॥
देखय़े अद्भुत शोभा नदीय़ाञगरे ।
आनन्देर नदी बहे प्रति घरे घरे ॥१५॥
चतुर्दिके फिरे लोक हरिध्वनि करि ।
परस्पर कहे गौराचाꣳदेर माधुरी ॥१६॥
परिकर-मध्ये गोरा भुवनमोहन ।
सꣳकीर्तने करे अति अद्भुत नर्तन ॥१७॥
‘जय़ जय़’ कोलाहल हय़े अनिवार ।
परम मङ्गलमय़ शोभा नदीय़ार ॥१८॥
देखिते देखिते हैला आनन्दे विह्वल ।
आपना ना जाने—नेत्रे झरे प्रेमजल ॥१९॥
कतक्षणे पुनः नेहारय़े स्थिर हैय़ा ।
दुःखेर समुद्रे येन भासय़े नदीय़ा ॥२०॥
हईय़ा व्याकुल श्रीठाकुर महाशय़ ।
कि देखिलु स्वप्नप्राय़—मने मने कय़ ॥२१॥
चलिते ना पारे सिक्त हैय़ा नेत्रजले ।
बैसे एक अपूर्व अश्वत्थवृक्ष-तले ॥२२॥
कि बलिब वृक्षेर प्रभाव अतिशय़ ।
छाय़ा-स्पर्शमात्र हैले धैर्यादि उदय़ ॥२३॥
नरोत्तम पुनः मने मने विचारिय़ा ।
चतुर्दिके चाय़ आपनाके प्रबोधिय़ा ॥२४॥
सेइ पथे देखे एक प्राचीन विप्रेरे ।
जिज्ञासिते चाहे किछु—जिज्ञासिते नारे ॥२५॥
ठाकुर महाशय़ेर एक वृद्ध विप्रेर सहित—साक्षात् ओ कथोपकथन—
से विप्रेर प्रतिदिन आछय़े निय़म ।
वृक्षतले आसिय़ा रहय़े कतक्षण ॥२६॥
निमाइर क्रीड़ास्थन—इथे प्रीत अति ।
चाहिय़ा वृक्षेर तले चले मन्दगति ॥२७॥
नरोत्तमे देखि विप्र मने विचारय़ ।
‘निमाइ-चान्देर कृपापात्र ए निश्चय़ ॥२८॥
नहिले ए दारुण तापेते दग्ध हिय़ा ।
ताहातेओ बार्ह्̤ए सुख इहारे देखिय़ा ॥२९॥
कि अपूर्व मूर्ति ! किबा रूपेर माधुरी ।
किबा दीर्घ नेत्रेते झरय़े प्रेमवारि ॥३०॥
अकस्मात् इहो एथा आइला कोथा हैते’ ।
ऐछे मने विचारि चाहय़े जिज्ञासिते ॥३१॥
निकटे आसिय़ा जिज्ञासय़े नरोत्तमे ।
‘कि नाम तोमार बाप ! आइला कोथा हने’ ॥३२॥
नरोत्तम विप्रे निज-परिचय़ दिय़ा ।
करिल प्रणाम अति विनीत हईय़ा ॥३३॥
विप्र नरोत्तमेर पाइय़ा परिचय़ ।
करितेइ कोले नेत्रजले सिक्त हय़ ॥३४॥
परम वात्सल्ये दृढ़ आलिङ्गन करि ।
वृक्षतले वसि किछु कहे धीरि धीरि ॥३५॥
‘अहे बाप ! नदीय़ाते हैल येइ सुख ।
ताहा कि कहिब चतुमुख पञ्चमुख ? ॥३६॥
ये दिन हईते गेला निमाञी छाड़िय़ा ।
से दिवस हते शून्य हईल नदीय़ा ॥३७॥
अकस्मात् ना जानि कि हैल ताꣳर मने ।
सन्न्यास ग्रहण कैला भारतीर स्थाने ॥३८॥
कहिते ना आइसे मुखे सन्न्यासेर कथा ।
सोङरिते से केश हिय़ाय़ बार्ह्̤ए व्यथा ॥३९॥
भुवनमोहन वेश देखिनु नय़ने ।
से परे कौपीन—इहा सहे कि पराणे ? ॥४०॥
कि बलिब !—केवल वञ्छिला मो सबाय़ ।
नहिले कि निमाइ नदीय़ा छाड़ि याय़ ? ॥४१॥
सर्व तीर्थ भ्रमि कैल नीलाचले वास ।
तथा निज-गणसङ्गे अद्भुत विलास ॥४२॥
लोक-गताय़ाते शुभ सꣳवाद पाइय़ा ।
नवद्वीपवासीर हईत हर्ष-हिय़ा ॥४३॥
नीलाचले ताꣳर अदर्शन अकस्मात् ।
शुनि नदीय़ाय़ येन हैल वज्राघात ॥४४॥
नदीय़ाय़ निमाइर असꣳख्य परिकर ।
प्राय़ बहुजन हैला नेत्र-अगोचर ॥४५॥
नदीय़ार ये दशा—कहिते नाहि पार ।
दिने दिने नदीय़ा हईछे अन्धकार ॥४६॥
श्रीवास पण्डित-आदि अदर्शन हैते ।
नदीय़ाय़ ये हैल—ता के पारे वर्णिते ? ॥४७॥
निमाञीर पत्नी पतिव्रता विष्णुप्रिय़ा ।
ताꣳर कथा कहिते विदीर्ण हय़ हिय़ा ॥४८॥
साक्षात् श्रीलक्ष्मी—अलौकिक गुणगण ।
एइ कथो दिने तेꣳह हैल अदर्शन ॥४९॥
निमाञीर विच्छेदाग्नि दग्धय़े सबाय़ ।
ये केह आछेन जिय़ा सेहो मृत्युप्राय़ ॥५०॥
नवद्वीपवासीर तिलेक धैर्य नाइ ।
शय़ने स्वपने कहे—कोथा हे निमाइ ॥५१॥
परस्पर कहे लोके निमाइ-चरित ।
निरन्तर क्रन्दन करय़े विपरीत ॥५२॥
नदीय़ार ये दिके ये पथे येबा याय़ ।
शुनिते क्रन्दन से क्रान्दय़े उभराय़ ॥५३॥
नदीय़ाय़ ये केउ छिलेन दुष्टाचार ।
कि बलिब एबे यैछे खेद से सबार ॥५४॥
आनेर का कथा ?—मुइ तर्कनिष्ठ छिनु ।
मनुष्य-बालक भ्रमे चिनिते नारिनु ॥५५॥
निमाइ साक्षात् नाराय़ण—शास्त्रमते ।
अलौकिक क्रिय़ा ताꣳर व्यापिल जगते ॥५६॥
बाल्यकालावधि चेष्टा देखिनु ताꣳहार ।
ताहा सोङारिते हिय़ा विदरे आमार ॥५७॥
कि बलिब—-एइ ये अश्वत्थवृक्षतले ।
करितेन शास्त्रर्चा महाकुतूहले ॥५८॥
यैछे उड़ुगणेते वेष्टित शशधर ।
तैछे शिष्यवर्ग-मध्ये निमाइ सुन्दर ॥५९॥
दूरे हैते से शोभा देखिनु नेत्र भरि ।
अद्यापिह तिलार्धेक पासरिते नारि ॥६०॥
अहे बाप नरोत्तम ! कहि तोर ठाञि ।
एक दिन एथा देखा दिलेन निमाञी ॥६१॥
चतुर्दिके सहस्र सहस्र शिष्यगण ।
तार मध्ये विलसय़े शचीर नन्दन ॥६२॥
देखि से अद्भुत शोभा मूर्च्छित हईनु ।
चेतन पाइय़ा देखि—पुनः ना देखिनु ॥६३॥
कतक्षणे स्थिर हईय़ा विचारिनु मने ।
नदीय़ाय़ सदा विहरय़े शिष्यसने ॥६४॥
सेइ हैते प्रतिदिन आसिय़े एथाय़ ।
ताꣳर इच्छामते आछि देखिनु तोमाय़ ॥६५॥
निमाइचान्देर कृपापात्र हओ तुमि ।
तेञि गोपनीय़ कथा कहिलाम आमि ॥६६॥
ठाकुर महाशय़के विप्र-कर्तृक माय़ापुरेर पथ-प्रदर्शन एवꣳ ठाकुर महाशय़ेर तथाय़ गमन—
शुनिय़ा विप्रेर अति सस्नेह वचन ।
विप्रपद-धूलि माथे लैला नरोत्तम ॥६७॥
अश्रुयुक्त हईय़ा विप्रेर प्रति कय़ ।
‘मु अज्ञेरे अनुग्रह कर महाशय़’ ॥६८॥
विप्र नरोत्तमे कहे करि आलिङ्गन ।
‘चिरकाल कर बाप भक्ति उपार्जन’ ॥६९॥
ऐछे कहि कतक्षण राखिलेन कोले ।
नरोत्तम-अङ्ग सिक्त कैला नेत्रजले ॥७०॥
नरोल्तम-प्रति पुनः धीरे धीरे कय़ ।
‘नवद्वीप-वसति विस्तार अतिशय़ ॥७१॥
सर्वत्रई दर्शन करिबे परिकरे ।
एइ पथे प्रथमे याइबे माय़ापुरे ॥७२॥
तथा शची-जगन्नाथ मिश्रेर भवन ।
यथा अवतीर्ण हईलेल नाराय़ण’ ॥७३॥
एत कहितेइ विप्र अधैर्य हईला ।
नरोत्तम सेइ पथे गमन करिला ॥७४॥
नवद्वीप-मध्ये ग्राम-नाम बहु हय़ ।
लोके जिज्ञासिय़ा माय़ापुरे प्रवेशय़ ॥७५॥
तथा अति कातरे जिज्ञासे कारु स्थाने
जगन्नाथ मिश्रेर भवन कुन खाले ॥७६॥
तेꣳह केह—‘एइ पथे करह गमन ।
ए देख जगन्नाथ मिश्रेर भवन’ ॥७७॥
एत कहि सिक्त हैय़ा नेत्रेर धाराय़ ।
छाड़ि दीर्घश्वास नरोत्तम-पाने चाय़ ॥७८॥
नरोत्तम नेत्रधारा नारे निवारिते ।
धीरे धीरे प्रवेशे मिश्रेर भवनेते ॥७९॥
तथा शुक्लम्बर ब्रह्मचारी कृपामय़ ।
नरोत्तमे देखि मने मने विचारय़ ॥८०॥
‘यद्यपिह दारुण दुःखेते दग्धे हिय़ा ।
तथापिह पाइ सुख इहारे देखिय़ा ॥८१॥
व्रज हैते ग्रन्थ लैय़ा आइल श्रीनिवास ।
बुझि—ताꣳर प्रिय़ एइ नरोत्तम दास ॥८२॥
रामकेलि-ग्रामे प्रभु याꣳरे आकार्षिला ।
सेइ नरोत्तम—ऐछे मने विचारिला ॥८३॥
नरोत्तम-प्रति कहे—कि नाम तोमार ? ।
नरोत्तम परिचय़ दिल आपनार ॥८४॥
शुक्लाम्बर निज-परिचय़ जानाइय़ा ।
नेत्रजले भासे नरोत्तमे आलिङ्गिय़ा ॥८५॥
नरोत्तम लोटाइय़ा पड़्इला चरणे ।
निवारिते नारे अश्रु झरय़े नय़ने ॥८६॥
कत कत खेद प्रभु-प्राङ्गणे पड़िय़ा ।
ब्रह्मचारी स्थिर कैल कत प्रबोधिय़ा ॥८७॥
तथा नरोत्तम प्रभु-प्रिय़ ईशानेरे ।
करिते प्रणाम धैर्य धरिते ना पारे ॥८८॥
श्रीईशान नरोत्तमे करि आलिङ्गन ।
अति स्नेहावेशे मुख करे निरीक्षण ॥८९॥
नरोत्तम-प्रति कहे अश्रुयुक्त हैय़ा ।
‘भाल कैला बाप ! ए समय़े देखा दिय़ा ॥९०॥
वैष्णवेर गताय़ाते तोमा सबाकार ।
आद्योपान्त शुनिलु सकल समाचार’ ॥९१॥
एत कहि पुनः किछु कहिते ना पारे ।
ब्रह्मचारी नरोत्तमे निल निज-घरे ॥९२॥
तथा दामोदरपण्डितेर दरशने ।
हईय़ा अधैर्य प्रणमिला से चरणे ॥९३॥
ब्रह्मचारी दिला श्रीपण्डिते परिचय़ ।
पण्डित श्रीनरोत्तमे दृढ़ आलिङ्गय़ ॥९४॥
अति स्नेहे नरोत्तमे कहे वार वार ।
‘तोमारे देखिते साध छिल मो-सबार ॥९५॥
प्रभुर इच्छाय़े प्राण आछाय़े शरीरे ।
भाल हैल आइला शीघ्र देखिनु तोमारे ॥९६॥
ए हेन दारुण दुःख ना पारि सहिते ।
बुझि—श्रीनिवासे पुनः ना पार देखिते’ ॥९७॥
ऐछे कत कहि नरोत्तमे स्थिर कैल ।
श्रीपति श्रीनिधि-आदि सबे मिलाइल ॥९८॥
सङ्गोपन हैला ये ये प्रभु-प्रिय़गण ।
से सकल स्वप्नच्छले दिलेन दर्शन ॥९९॥
प्रभु-परिकरे अनुग्रह कैल यत ।
ताहा एकमुखे वर्णिब आमि कत ॥१००॥
नवद्वीप हईते विदाय़ ग्रहणपूर्वक नरोत्तम-प्रभुर नीलाचले यात्रा—
नरोत्तमे अल्पदिन राखि नदीय़ाय़ ।
सबे शीघ्र नीलाचले करिला विदाय़ ॥१०१॥
नरोत्तम सर्वत्रई विदाय़ हईय़ा ।
भासे नेत्रधाराय़ धरिते नावे हिय़ा ॥१०२॥
प्रभुर भवने आसि ईशान-ठाकुरे ।
आज्ञा मागिलेन नीलाचल याइबारे ॥१०३॥
प्रभुप्रिय़ ईशानठाकुर अति स्नेहे ।
व्याकुल हईय़ा नरोत्तम-प्रति कहे ॥१०४॥
‘अहे नरोत्तम ! शीघ्र याइबे श्रीक्षेत्रे ।
दिने दिने अन्धकार हय़ेछे सर्वत्रे ॥१०५॥
एइ कत दिवस हैल—तथाकार ।
लोकद्वारे पाइनु सकल समाचार ॥१०६॥
गोपीनाथ आचार्यादि प्रभुर इच्छाय़ ।
येरूप आछेन—ताहा कहा नाहि याय़ ॥१०७॥
तथा गिय़ा ता सबार दर्शन करिबे ।
श्रीखण्ड, कण्टक-नगरेते शीघ्र याबे ॥१०८॥
श्रीनिवास-सह पुनः आसिबे एथाय़ ॥
पुनः देखि—मने एइ—कहिल तोमाय़ ॥१०९॥
ना जानि—इहार मध्ये कखन कि हबे ।
शान्तिपुर, खड़्अदह हईय़ा याइबे ॥११०॥
एत कहि करिलेन मौनावलम्बन ।
के बुझे अन्तर—अश्रु नहे निवारण ॥१११॥
नीलाचलपथे शान्तिपुरे श्रील नरोत्तम—
नरोत्तम अतिशय़ व्याकुल अन्तरे ।
नवद्वीप हईते चलिला शान्तिपुरे ॥११२॥
हईय़ा निमग्न सीतानाथेर लीलाय़ ।
करे कत खेद—ताहा कहने ना याय़ ॥११३॥
शान्तिपुर-ग्राम पाने करि निरीक्षण ।
हैनु वञ्चित—बलि करय़े क्रन्दन ॥११४॥
प्रभु श्रीअद्वैत शान्तिपुर-पुरन्दर ।
शान्तिपुरे विहरे प्रपञ्च अगोचर ॥११५॥
नरोत्तमे कृपार अवधि प्रकाशिल ।
पूर्वदिन श्रीअच्युतानन्दे जानाइल ॥११६॥
श्रीअच्युतानन्द पथ-पाने निरीखय़ ।
एथा नरोत्तम शान्तिपुरे प्रवेशय़ ॥११७॥
शान्तिपुरवासी लोक प्रभु-सङ्गोपने ।
येरूपे आछेन—ता वर्णिब कुनजने ? ॥११८॥
नरोत्तम आचार्यभवन जिज्ञासिते ।
कान्दिय़ा कहय़े केउ—याह ए पथे ॥११९॥
नरोत्तम-नय़ने अनेक धारा बय़ ।
चले सेइ पथे अति व्याकुल हृदय़ ॥१२०॥
प्रभु सीतानाथ करि अति अनुग्रह ।
अन्य-अलक्षित देखा दिल गणसह ॥१२१॥
नरोत्तम प्रेमावेशे मूर्छित हईला ।
प्रभुर इच्छाय़ शीघ्र चेतन पाइला ॥१२२॥
प्रभुर मन्दिरे प्रवेशय़े स्थिर हैय़ा ।
देखेन—अच्युतानन्द आछेन बसिय़ा ॥१२३॥
विना परिचय़े परिचय़ व्यक्त हैल ।
नरोत्तम श्रीअच्युतानन्दे प्रणमिल ॥१२४॥
श्रीअच्युतानन्द प्रभुविच्छेदे कातर ।
हईल मिलन, क्षीण हेम-कलेवर ॥१२५॥
नरोत्तम-पाने चाहि अधैर्य-हृदय़ ।
बाहु पसारिय़ा प्रेमावेशे आलिङ्गय़ ॥१२६॥
सिञ्चय़े श्रीनय़नेर जले कलेवर ।
के बुझिते पारे यैछे अधैर्य अन्तर ॥१२७॥
नरोत्तम-प्रति कहे सुमधुर कथा ।
‘बहुदिन तोमारे राखिते नारि एथा ॥१२८॥
ए समय़े विलम्बेर नाहि प्रय़ोजन ।
शीघ्र नीलाचल-चन्द्रे करह दर्शन ॥१२९॥
तथा प्रभुर गण शीघ्र करिब विदाय़ ।
साधिब अनेक कार्य तोमार द्वाराय़’ ॥१३०॥
ऐछे कत कहि श्री अच्युत नरोत्तमे ।
मिलाइला प्रभु अद्वैतेर प्रिय़गणे ॥१३१॥
सकलेइ नरोत्तमे अति स्नेह करि ।
राखिलेन शान्तिपुरे दिन तिन चारि ॥१३२॥
नीलाचल याइते शीघ्र करिला विदाय़ ।
नरोत्तम-यात्रा यैछे कहन ना याय़ ॥१३३॥
अम्बिका कालनाय़ श्रील नरोत्तम—
शीघ्र हरिनदी-ग्रामे गङ्गार पार हैय़ा ।
निताइ-चैतन्य देखे अम्बिकाय़ गिय़ ॥१३४॥
निताइ-चैतन्य गौरीदासेर जीवन ।
किबाद्भुत सेबा-शोभा भुवनमोहन ॥१३५॥
नरोत्तम प्रभुर प्राङ्गणे लोटाइय़ा ।
करिल प्रणाम नेत्रजले सिक्त हैय़ा ॥१३६॥
हृदय़चैतन्य-आदि प्रभुप्रिय़गण ।
सबा-सह हैल अति अद्भुत मिलन ॥१३७॥
हईल ये सब कथा ता सबार सने ।
विस्तारिते नारि ग्रन्थबाहुल्य-कारणे ॥१३८॥
नरोत्तमे अति स्नेह करिय़ा सकले ।
करिलेन विदाय़ याइते नीलाचले ॥१३९॥
सकलेर नय़ने बहय़े अश्रुधार ।
नरोत्तम-नेत्रे अश्रु बहे अनिवार ॥१४०॥
निताइ-चैतन्य-पदे आत्म समर्पिय़ा ।
अम्बिका हईते चले व्याकुल हईय़ा ॥१४१॥
श्रीश्रीनित्यानन्दप्रभुर विहारक्षेत्र सप्तग्रामे शील नरोत्तम—
ये सकल ग्रामे बैसे प्रभु-प्रिय़गण ।
से सकल ग्राम हैय़ा करिला गमन ॥१४२॥
कि अपूर्व गमन ! चाहय़े चारिभिते ।
सप्तग्राम देखि प्रणमय़े दूर हैते ॥१४३॥
सप्तऋषि-तपस्यार स्थान शोभामय़ ।
श्रीगङ्गा, यमुना, सरस्वती-धारात्रय़ ॥१४४॥
सप्तग्राम-दर्शने सकल दुःख हरे ।
यथा प्रभु नित्यानन्द आनन्दे विहरे ॥१४५॥
यैछे सप्तग्रामे नित्यानन्देर गमन ।
सꣳक्षेपे कहिय़े एथा इथे देह मन ॥१४६॥
नीलाचले श्रीचैतन्यचन्द्रेर आदेशे ।
यात्रा कैला नित्यानन्ददेव गौड़देशे ॥१४७॥
उत्कल हईते गौड़देश प्रवेशिय़ा ।
गौड़पृथ्वी प्रशꣳसय़े प्रेमे मत्त हैय़ा ॥१४८॥
गौड़भूमि यैछे ताहा ना हय़ वर्णन ।
बहु पुण्यतीर्थेर ये मस्तकभूषण ॥१४९॥
तथाहि श्रीचैतन्यचन्द्रोदय़नाटके द्वितीय़ाङ्के १४श श्लोके—
गौड़क्षौणी जय़ति कतमा पुण्यतीर्थावतꣳस-
प्राय़ा यासौ बहति नगरीꣳ श्रीनवद्वीपनाम्नीम्
यस्याꣳ चमीकरवररुचेरीश्वरास्यावतारो
यस्मिन् मूर्ता पुरि पुरि परिस्पन्दते भक्तिदेवी ॥१५०॥
तीर्थमय़ गौड़पृथ्वी—महिमा के जाने ? ।
प्रभु-इच्छा हैल कतदिन पर्यटने ॥१५१॥
तथाहि श्रीचैतन्यभागवते (आ २.१७५)—
शेषखण्डे नित्यानन्द कतेक दिवस ।
करिलेन पृथिवीते पर्यटन-रस ॥१५२॥
पर्यटन करिते निताइर अति प्रीत ।
याते हय़ सकल जीवेर महा-हित ॥१५३॥
सर्वतीर्थमय़ गङ्गा—ताꣳर दुइ पार्श्वे ।
करय़े भ्रमण नित्यानन्द महाहर्षे ॥१५४॥
नदीय़ाय़ श्रीशचीमाय़ेर दरशने ।
याइबेन शीघ्र—एइ हईय़ाछे मने ॥१५५॥
रामदास, गदाधर दासादि सहित ।
पाणिहाटीग्रामे प्रभु हैला उपनीत ॥१५६॥
प्रथमे राघवपण्डितेर आलय़ेते ।
सङ्कीर्तनारम्भ—सुख व्यापिल जगते ॥१५७॥
महाभक्त राघबेर जनम तथाइ ।
भक्तजन्म-स्थानेर महिमा अन्त नाइ ॥१५८॥
तथाहि तत्रैव (श्रीचै. भा. आ २.५०)—
‘ये कूले ये देशे भागवत अवतरे ।
ताहार प्रभावे लक्ष योजन निस्तरे’ ॥१५९॥
पाणिहाटी-ग्रामे शुनि प्रभुर गमन ।
चतुर्दिक हईते आइसे भक्तगण ॥१६०॥
ये स्थान हईय़ा भक्त करय़े पय़ान ।
पुण्य तीर्थमय़ हय़ से सकल स्थान ॥१६१॥
तथाहि तत्रैव—(श्रीचै. भा. आ २.५१)—
‘ये स्थान वैष्णव-जन करेन बिजय़ ।
सेइ स्थान हय़ अति पुण्य तीर्थमय़’ ॥१६२॥
भक्तसङ्गे कि अद्भुत प्रभुर विलास ।
पाणिहाटी-ग्रामे नाना भावेर प्रकाश ॥१६३॥
ये विलास दास गदाधरेर मन्दिरे ।
ताहा एकमुखे के कहिते शक्ति धरे ? ॥१६४॥
खड़दहे प्रभु पद्मावतीर तनय़ ।
निरन्तर सङ्कीर्तने मत्त अतिशय़ ॥१६५॥
पुरन्दर पण्डितेर देवालय़ यथा ।
ब्रह्मार दूर्लभ प्रेम प्रकाशिला तथा ॥१६६॥
नाना ग्रामे लोकेर करिय़ा दुःख दूर ।
सप्तग्रामे हैल शुभ गमन प्रभुर ॥१६७॥
उद्धारणदत्ते प्रभु कैल आत्मसात् ।
तथा ये विलास ताहा जगते विख्यात ॥१६८॥
तथाहि तत्रैव—(श्रीचै. भा. अन्त ५.४४९)—
‘उद्धारणदत्त भाग्यवन्तेर मन्दिरे
रहिलेन महाप्रभु त्रिवेणीर तीरे ॥१६९॥
काय़-मनो-वाक्ये नित्यानन्देर चरण ।
भजिलेन अकैतव दत्त उद्धारण ॥१७०॥
नित्यानन्द-स्वरूपेर सेवा अधिकार ।
पाइलेन उद्धारण—किबा भाग्य आर ? ॥१७१॥
जन्म जन्म नित्यानन्द-स्वरूप ईश्वर ।
जन्म जन्म उद्धारण ताꣳहार किङ्कर ॥१७२॥
यतेक वणिक्कुल उद्धारण हैते ।
पबित्र—हईल—द्विधा नाहिक इहाते ॥१७३॥
वाणिक् तारिते नित्यानन्द-अवतार ।
वणिकेरे दिला प्रेमभक्ति-अधिकार ॥१७४॥
सप्तग्रामे प्रति वणिकेर घरे घरे ।
आपने श्रीनित्यानन्द कीर्तने विहरे ॥१७५॥
वणिक्सकल नित्यानन्देर चरण ।
सर्वभावे भजिलेन लईय़ा शरण ॥१७६॥
वणिक् सबार कृष्ण-भजन देखिते ।
मने चमत्कार पाय़ सकल जगते ॥१७७॥
नित्यानन्द-महाप्रभुर महिमा अपार ।
वणिक अधम मुर्खे ये कैल उद्धार ॥१७८॥
सप्तग्रामे नित्यानन्द महामल्ल राय़ ।
गणसङ्गे सङ्कीर्तन करेन लीलाय़ ॥१७९॥
सप्तग्रामे यत हैल कीर्तन-विहार ।
शत वत्सरेओ ताहा नारि वर्णिवार ॥१८०॥
पूर्वे येन सुख हैल नदीय़ा-नगरे ।
सेइ मत सुख हैल सप्तग्राम-पुरे’ ॥१८१॥
वणिकेर सौभाग्य जानिबे कुन जन ।
ऐछे बहु वर्णिल ठाकुर वृन्दावन ॥१८२॥
उद्धारण दत्त प्रेमे मत्त निरन्तर ।
करेन प्रभुर सेवा आनन्द अन्तर ॥१८३॥
सप्तग्रामे महातीर्थ त्रिवेणीर घाटे ।
देखे नाना रङ्ग रहि प्रभुर निकटे ॥१८४॥
ये ये स्थाने प्रभु नित्यानन्देर विजय़ ।
ये सकल स्थान हन सर्वतीर्थमय़ ॥१८५॥
गौड़भूमे यत तीर्थ के करु गणन ? ।
प्रभुसङ्गे सर्व तीर्थ भ्रमे उद्धारण ॥१८६॥
शान्तिपुरे प्रभु नित्यानन्द महारङ्गे ।
मिलिलेन श्रीअद्वैत ईश्वरेर सङ्गे ॥१८७॥
तथा हैते नवद्वीपे करिला गमन ।
नित्यानन्द-अङ्गे शोभे नाना आभरण ॥१८८॥
श्रीचरणे नूपुरेर ध्वनि मनोहर ।
उपमार स्थान नाहि ब्रह्माण्ड—भितर ॥१८९॥
शेषखण्ड-सूत्रे नाराय़णीर तनय़ ।
वर्णिलेन नित्यानन्द-चन्द्रेर विजय़ ॥१९०॥
तथाहि तत्रैव (श्रीचै. भा. आ २.१७६)—
‘अनन्त चरित्र के बा बुझिबारे पारे ? ।
चरणे नूपुर, सर्व मथुरा विहरे’ ॥१९१॥
मथुरा-श्रीनवद्वीप-भेद कभु नय़ ।
ये मथुरा सेइ नवद्वीप सुनिश्चय़ ॥१९२॥
नदीय़ा विहरे पद्मावतीर कुमार ।
नाना रत्नभूषणे भूषित कलेवर ॥१९३॥
श्रीचैतन्यभागवते (अन्त्य-पञ्चमे)—
रजत नूपुर-मल्ल शोभे श्रीचरणे ।
परम मधुर-ध्वनि, गजेन्द्र-गमने ॥१९४॥
प्रति घरे घरे सब पारिषद-सङ्गे ।
निरवधि विहरेन सङ्कीर्तन-रङ्गे ॥१९५॥
नवद्वीप ये हेन मथुरा-राजधानी ।
ऐछे कत कहेन ता कहिते ना जानि ॥१९६॥
नवद्वीपे नित्यानन्द श्रीशचीमाताय़ ।
ये आनन्द देन ताहा कहने ना याय़ ॥१९७॥
गणसह नदीय़ा-प्रदेश पर्यटने ।
ये अद्भुत लीला तावर्णिब कुन जने ॥१९८॥
नित्यानन्द-गुणे मग्न दत्त उद्धारण ।
निरन्तर सेवे नित्यानेन्देर चरण ॥१९९।
हेन उद्धारण ठाकुरेर सप्तग्रामे ।
नरोत्तम प्रवेशे विह्वल हैय़ा प्रेमे ॥२००॥
लोके जिज्ञासय़े उद्धारणेर आलय़ ।
करिय़ा क्रन्दन केह कहे—‘एइ हय़ ॥२०१॥
प्रभुर विच्छेद-दुःखे दग्धि अनुक्षण ।
एइ कतदिन हैल—हैला सङ्गोपन ॥२०२॥
ताꣳर अप्रकटे सप्तग्राम अन्धकार’ ।
शुनि, नरोत्तमनेत्रे बहे अश्रुधार ॥२०३॥
हईला व्याकुल यैछे कहने ना याय़ ।
प्रभुप्रिय़ ये छिलेन मिलिला ताꣳहाय़ ॥२०४॥
खड़दहे श्रीवसुधा-जाह्नवी ठाकुराणी प्रभृतिर नरोत्तमेर प्रति कृपा—
सप्तग्राम हैते चले गङ्गातीरे तीरे ।
यथा ये भक्तेर स्थिति मिले से सबारे ॥२०५॥
खड़दह ग्रामे प्रवेशिते महाशय़ ।
देखे ये रहस्य ताहा कहिल ना हय़ ॥२०६॥
प्रभु नित्यानन्द-मनोरथ पूर्ण कैला ।
प्रभुर इच्छाय़ नरोत्तम स्थिर हैला ॥२०७॥
प्रभुर भवन-पाने करिते गमन ।
प्रभुपरिकर सह हईल मिलन ॥२०८॥
सबे शीघ्र प्रभुर भवने लैय़ा गेला ।
श्रीईश्वरी-प्रति ए सम्वाद जानाइला ॥२०९॥
श्रीवसु, जाह्नवी दोꣳहे वीरभद्र-सने ।
बसिय़ाछिलेन प्रभुचरित्र-कथने ॥२१०॥
शुनि अकस्मात् नरोत्तमेर गमन ।
यद्यपि व्याकुल, तबु हर्ष हैल मन ॥२११॥
शीघ्र अस्तःपुरे नरोत्तमे बोलाइला ।
नरोत्तम गिय़ा पादपद्मे प्रणमिला ॥२१२॥
सर्वतत्त्वज्ञाता वसु-जाह्नवी ईश्वरी ।
अनुग्रह कैल यत कहिते ना पारि ॥२१३॥
नरोत्तमे दुइ चारि दिवस राखिला ।
कृष्णकथा-रसे दिवानिशि गोङाइला ॥२१४॥
प्रेमेर आवेशे नरोत्तमे प्रशꣳसय़ ।
‘महाशय़-ख्याति से इहार योग्य हय़’ ॥२१५॥
ऐछे परस्पर कत कहिय़ा विरले ।
नरोत्तमे विदाय़ करय़े नीलाचले ॥२१६॥
गमनेर काले श्रीजाह्नवी धीरे धीरे ।
ना जानि कि कहिला से नय़नेर नीरे ॥२१७॥
प्रभु वीरभद्र अति मधुर भाषाय़ ।
नरोत्तमे ये कहिल, कहा नाहि याय़ ॥२१८॥
श्रीपरमेश्वरीदास व्याकुल हईय़ा ।
पथेर सन्धान सब दिलेन कहिय़ा ॥२१९॥
महेशपन्डित आदि अतिशय़ स्नेहे ।
नरोत्तमे विदाय़ करिय़ा स्थिर नहे ॥२२०॥
नरोत्तम भूमे पड़ि प्रणमि सबाय़ ।
खड़दह हैते चले व्याकुल हिय़ाय़ ॥२२१॥
खानाकुल कृष्णनगरे ठाकुर श्रील अभिरामेर सहित नरोत्तमेर मिलन—
नीलाचल-पथेर पथिक नरोत्तम ।
यथा भक्तालय़ तथा करय़े गमन ॥२२२॥
खानाकुल-कृष्णनगरेते शीघ्र गेला ।
श्रीठाकुर अभिराम-पदे प्रणमिला ॥२२३॥
नित्यानन्द-विच्छेदे ताꣳहार बाह्य नाइ ।
तैछे श्रीमालिनी—उपमार नाइ ठाꣳइ ॥२२४॥
मालिनी-सहित तेꣳह बहु कृपा कैला ।
नीलाचल याइते त्वराय़ आज्ञा दिला ॥२२५॥
श्रीअभिरामेर चेष्टा देखि, नरोत्तम ।
अत्यन्त व्याकुल—नेत्रे धारा नदीसम ॥२२६॥
गोपीनाथ-सेबा देखि उथले हृदय़ ।
विदाय़ हईला यैछे कहिल ना हय़ ॥२२७॥
श्रील नरोत्तमेर नीलाचले आगमन ओ गोपीनाथाचार्य प्रभृतिर सहित मिलन—
ये देशे छिलेन यत प्रभुप्रिय़गण ।
से सब भक्तेर सङ्गे हईल मिलन ॥२२८॥
सोङरि भक्तेर गुण भासि नेत्रजले ।
अति अल्पदिनेइ गेलेन नीलाचले ॥२२९॥
तथा गोपीनाथ आचार्यादि प्रभुगण ।
नरोत्तम-पथपाने करे निरीक्षण ॥२३०॥
प्रभुर आदेश पूर्वे आछे ए सकले ।
नरोत्तमे प्रबोध करिते नीलाचले ॥२३१॥
प्रभु-प्रिय़गणेर अन्तरवृत्ति याहा ।
के आछे एमन ये वर्णिते पारे ताहा ॥२३२॥
कानाइ-खुटिय़ा-प्रति गोपीनाथ कय़ ।
नरोत्तमे देखे शीघ्र—‘एइ मने हय़ ॥२३३॥
एतदिन आछे देह प्रभुर इच्छाते ।
आर कतदिन बा थाकिब एइ मते’ ॥२३४॥
तेꣳह कहे—‘लोकमुखे शुनिलु सकल ।
नवद्वीप हईय़ा आसिबेन नीलाचल ॥२३५॥
बुझि—एथा आसिते विलम्ब नाहि आर’ ।
ऐछे कत कहे—चेष्टा बुझे शक्ति कार ? ॥२३६॥
श्रीशिखि माहाति आदि गोपीनाथे कय़ ।
‘श्रीजगन्नाथेर हैल दर्शन-समय़’ ॥२३७॥
शुनि गोपीनाथाचार्य प्रिय़गण-सने ।
चलिलेन जगन्नाथदेवेर दर्शने ॥२३८॥
परस्पर श्रीनरोत्तमेर कथा कय़ ।
यैछे रामकेलि-ग्रामे प्रभु आकर्षय़ ॥२३९॥
प्रभु-अनुग्रह यैछे कहिते कहिते ।
जगन्नाथालय़े यान सिꣳहद्वार-पथे ॥२४०॥
प्रभुर विच्छेदे देह अतिशय़ क्षीण ।
तथापिह सूर्यप्राय़, यद्यपि मलिन ॥२४१॥
कहिते कि—करुणार मूर्ति ए सकले ।
ये देखे वारेक से भासय़े नेत्रजले ॥२४२॥
दूरे रहि नरोत्तम देखि ए सबाय़ ।
नय़ने बहय़े धारा, अधैर्य हिय़ाय़ ॥२४३॥
‘प्रभुप्रिय़गण’—हेन मनेते विचारे ।
परिचय़ पाइल कुन ब्राह्मणेर द्वारे ॥२४४॥
एथा सिꣳहद्वारे केह कारु प्रति कय़ ।
‘अद्य नरोत्तम आसिबेन—मने लय़’ ॥२४५॥
एत कहितेइ शुभ-सꣳवाद पाइय़ा ।
नरोत्तमपाने सबे रहय़े चाहिय़ा ॥२४६॥
श्रीनरोत्तमेर भक्तिमय़ कलेवर ।
दीर्घ दुइ नेत्रे अश्रुधारा निरन्तर ॥२४७॥
अद्भुत प्रेमेर गति !-आधैर्य अन्तरे ।
भूमि पड़ि प्रणमय़े प्रभु परिकरे ॥२४८॥
सबे प्रेमावेशे नरोत्तमे आलिङ्गिल ।
नरोत्तम-अङ्ग नेत्रजले सिक्त कैल ॥२४९॥
यद्यपि दारुण दुःखे दग्ध अनिवार ।
तथापिह आनन्द से जन्मिल सबार ॥२५०॥
सबे अति अनुग्रह करि कत कैय़ा ।
जगन्नाथ-आगे गेला नरोत्तमे लैय़ा ॥२५१॥
नरोत्तम प्रेमावेशे अधैर्य हृदय़ ।
जगन्नाथ-बलदेव-शोभा निरीखय़ ॥२५२॥
मेघपुञ्ज, अञ्जन, रजत, कुन्द जिनि ।
रूपेर छटाय़ कोटि कन्दर्प निछनि ॥२५३॥
वदनचन्द्रमा आलो करे त्रिभुवन ।
जगत् मोहय़े किबा श्रीपद्मलोचन ॥२५४॥
किबा बाहु विशाल, भङ्गिमा मनोहर ।
झलमल करे नानाभूषण सुन्दर ॥२५५॥
दुइ दिके दुइ प्रभु—सुभद्रा मध्येते ।
विलसय़े सुदर्शनचक्रेर सहिते ॥२५६॥
अनिमिख नेत्रे नरोत्तम निरखिय़ा ।
भावावेशे अधैर्य—धरिते नारे हिय़ा ॥२५७॥
देखि से अद्भुत चेष्टा प्रभु प्रिय़गण ।
हईला विह्वल—अश्रु नहे निवारण ॥२५८॥
गोपीनाथाचार्य नरोत्तमे स्थिर कैल ।
प्रभुर सेवक माला-प्रसाद आनि दिल ॥२५९॥
नरोत्तमे लईय़ा आचार्य धीरे धीरे ।
जगन्नाथालय़ हैते आइला निजघरे ॥२६०॥
ठाकुर नरोत्तमेर टोटा गोपीनाथ-दर्शन एवꣳ तथाय़ गदाधरगोस्वामी प्रभुर महिमा-श्रवण—
नीलाचले ये छिलेन प्रभु-प्रिय़गण ।
से सबे शुनिला नरोत्तमेर गमन ॥२६१॥
यद्यपि दारुण दुःखे दग्ध अनुक्षण ।
तथापि सबार हैल उल्लसित मन ॥२६२॥
गोपीनाथाचार्य से सबारे मिलाइते ।
नरोत्तम-सङ्गे दिला विप्र जगन्नाथे ॥२६३॥
नरोत्तम ताꣳसह चलय़े सब ठाꣳइ ।
प्रभुगणे मिले यैछे कहि साध्य नाइ ॥२६४॥
हरिदासठाकुरेर समाधि-दर्शने ।
कैल ये विलाप ता वर्णिते के बा जाने ? ॥२६५॥
गदाधरपण्डित गोस्वामी छिला यथा ।
अतिशय़ व्याकुल हईय़ा गेला तथा ॥२६६॥
गोपीनाथे प्रणमिला पड़िय़ा भूमेते ।
गदाधरगुणे कान्दे से शोभा देखिते ॥२६७॥
तथा ये आछेन पण्डितेर प्रिय़गण ।
ताꣳ सबार चेष्टा देखि झरे दुनय़न ॥२६८॥
श्रीमामुगोस्वामी नरोत्तमे निरखिय़ा ।
आलिङ्गन कैल अति अधैर्य हईय़ा ॥२६९॥
नेत्रजले सिञ्चिय़ा कहय़े वार वार ।
‘प्रभुर इच्छाय़ देखा हईल तोमार ॥२७०॥
वैष्णवेर गताय़ाते सकल शुनिलु ।
साध छिल तोमारे देखिते—देखा पानु’ ॥२७१॥
ऐछे कत कहि नरोत्तम-कर धरि ।
लईय़ा निर्जले पुनः कहे धीरि धीरि ॥२७२॥
ओहे नरोत्तम ! एइ टोटा निरखिते ।
निरन्तर कान्दे प्राण, नारि निवारिते ॥२७३॥
देख ये आराम-मध्ये अति रम्यस्थान ।
एथा ये कौतुक ता देखिल भाग्यवान् ॥२७४॥
मोर प्रभु गदाधर बसिय़ा एथाय़ ।
पड़ितो श्रीभागवत विह्वल हिय़ाय़ ॥२७५॥
श्रीमुख तुलिय़ा ये सकल अर्थ कहे ।
ताहे कत कत प्रेमानन्द-नदी बहे ॥२७६॥
से कथा शुनिते साध के बा नाहि करे ? ।
ये शुने वारेक कभु से नाहि पासरे ॥२७७॥
गदाधर-प्राणनाथ प्रभु गौरहरि ।
एथा वसि शुनित से व्याख्यार माधुरी ॥२७८॥
एइखाने बैसे प्रभु नित्यानन्द राय़ ।
श्रीअद्वैताचार्य प्रभु वसितो एथाय़ ॥२७९॥
एथा-श्रीस्वरूप-दामोदर, वक्रेश्वर ।
श्रीमूरारिगुप्त, एथा दास गदाधर ॥२८०॥
श्रीमुकुन्द, नरहरि वसि एइ खाने ।
एक दृष्ट्ये चाहे गोस्वामीर मुखपाने ॥२८१॥
राय़ रामानन्द-आदि प्रभु-प्रिय़गण ।
एइ सब स्थाने बैसे—तेज सूर्यसम ॥२८२॥
प्रभु-परिकर-शोभा के पारे कहिते ? ।
देवेर समाज लज्जा पाय़ निरखिते ॥२८३॥
रथयात्राकाले ऐछे विलसे एथाय़ ।
से सब भाविते हिय़ा विदरिय़ा याय़ ॥२८४॥
अहे नरोत्तम ! दास गदाधर-सने ।
करितेन कतेक आलाप ए निर्जने ॥२८५॥
खण्डवासी नरहरि-प्रति स्नेह करि ।
एथा ये कहिल ताहा कहिते ना पारि ॥२८६॥
दामोदरे लईय़ा श्रीगोस्वामीर एथाय़ ।
कहिलेन यत ताहा रहिल हिय़ाय़ ॥२८७॥
प्रभु गौरचन्द्र सेवा-समय़ जानिय़ा ।
गोपीनाथ आगे एथा रहे दाꣳड़ाइय़ा ॥२८८॥
देखि से शिङार प्रशꣳसय़े वारे वारे ।
से सब सोङरि हिय़ा ना जाने कि करे ॥२८९॥
गोस्वामीर गोपीनाथ सेवा, क्षेत्रे स्थिति ।
एइ दुइ निय़म, नाइ अन्यत्रेते गति ॥२९०॥
नीलाचले रहिबेन श्रीगौरसुन्दर ।
ए हेतु निय़म, सङ्ग छाड़िते दुष्कर ॥२९१॥
क्षेत्र हैते गौराङ्गेर अन्यत्र गमने ।
गोस्वामी निय़म छाड़ि चले ताꣳर सने ॥२९२॥
कतरूपे निषेधाय़े श्रीगौरसुन्दर ।
तथापि व्याकुल रत्नावतीर कोङर ॥२९३॥
अहे नरोत्तम ! कत कब से चरित ? ।
प्रभु-सङ्गे चले यैछे—सर्वत्र विदित ॥२९४॥
तथाहि श्रीचैतन्यचरितामृते (म १६.१३०-१४३)—
गदाधरपण्डित यबे सङ्गेते चलिला ।
‘क्षेत्र सन्न्यास ना छाड़िह’—प्रभु निषेधिला ॥२९५॥
पण्डित कहे—’याहा तुमि, सेइ नीलाचल ।
क्षेत्र-सन्न्यास मोर याउक रसातल’ ॥२९६॥
प्रभु कहे—‘इꣳहा कर गोपीनाथ-सेवन’ ।
पण्डित कहे—‘कोटि सेवा त्वत्पाद-दर्शन’ ॥२९७॥
प्रभु कहे—‘सेवा छाड़िबे, आमाय़ लागे दोष ।
इहा रहि सेवा कर—आमार सन्तोष’ ॥२९८॥
पण्डित कहे—‘सब दोष आमार उपर ।
तोमा-सङ्गे ना याइब, याइब एकेश्वर ॥२९९॥
आइ के देखिते याइब, ना याइब तोमा-लागि ।
‘प्रतिज्ञा’-‘सेवा’-त्याग-दोष तार आमि भागी’ ॥३००॥
एत बलि पण्डितगोसाञि पृथकृ चलिला ।
कटक आसि प्रभु ताꣳरे सङ्गे आनाइला ॥३०१॥
पण्डितेर गौराङ्ग-प्रेम बुझन ना याय़ ।
‘प्रतिज्ञा’ ‘श्रीकृष्णसेवा’ छाड़िल तृणप्राय़ ॥३०२॥
ताꣳहार चरित्रे प्रभु अन्तरे सन्तोष ।
ताꣳर हाते धरि कहे करि प्रणय़रोष ॥३०३॥
‘प्रतिज्ञा’, ‘सेवा’ छाड़्इबे—ए तोमार ‘उद्देश’ ।
से सिद्ध हईल—छाड़ि आइला दूरदेश ॥३०४॥
आमार सङ्गे रहिते चाह, वाञ्छ निज-सुख ।
तोमार दुइ धर्म याय़—आमार हय़ दुःख ॥३०५॥
मोर सुख चाह यदि—नीलाचले चल ।
आमार शपथ—यदि आर किछु बल ॥३०६॥
एत बलि महाप्रभु नौकाते चड़िला ।
मूर्छित हञा पण्डित तथाइ पड़िला ॥३०७॥
पण्डिते लञा याइते सार्वभौमे आज्ञा दिला ।
भट्टाचार्य कहे—‘उठ, ऐछे प्रभुर लीला’ ॥३०८॥
देखि ए अद्भुत चेष्टा प्रभुप्रिय़गण ।
हईला विस्मय़—सबे बुझिला कारण ॥३०९॥
प्रभुर आज्ञाय़ सार्वभौम-आदि यत ।
गोस्वामीरे आनिलेन प्रबोधिय़ा कत ॥३१०॥
यावत् श्रीगौरचन्द्र क्षेत्रे ना आइला ।
तावत् एथाय़ महाकष्टे गोङाइला ॥३११॥
सर्वत्रेइ व्यक्त—येहेतु ए अधिकार ।
विप्रभुप पण्डित यतीन्द्र-अत्युदार ॥३१२॥
तथाहि श्रीस्वरूपगोस्वामिकृत-कड़चाय़ाꣳ—
अवनिसुरवरः श्रीपण्डिताख्यो यतीन्द्रः
स खलु भवति राधा श्रीगौरावतारे ।
नरहरिसरकारस्यापि दामोदरस्य
प्रभु-निजदय़ितानाꣳ तच्च सारꣳ मतꣳ मे ॥३१३।
अते नरोत्तम ! कि बलिब ताꣳर रीत ? ।
याꣳर प्राणनाथ गौर—सर्वत्र विदित ॥३१४॥
गौराङ्ग-विच्छेद कभु सहिते ना पारे ।
सदा से दर्शनानन्द-समुद्रे साꣳतारे ॥३१५॥
वृन्दावन हैते यबे श्रीगौरसुन्दर ।
आइलेन एथा सङ्गे प्रिय़ परिकर ॥३१६॥
पण्डित गोस्वामी निरखिय़ा प्रभु-पाने ।
प्रेमानन्दे मूर्छित हईला एइखाने ॥३१७॥
एथा महारङ्ग देखिलेन भाग्यवन्त ।
अहे नरोत्तम ! ता कहिते नाइ अन्त ॥३१८॥
प्रभु नित्यानन्द गौड़ हईते आसिय़ा ।
देखिल श्रीगोपीनाथे एथा दाꣳड़ाइय़ा ॥३१९॥
पण्डित गोसाञीसह ये सुख-मिलने ।
सर्वत्र विदित—ता देखिल भाग्यवाने ॥३२०॥
तथाहि श्रीचैतन्यभागवते (अ ७.११६-१२५)—
देखि श्रीमुरलीमुख, अङ्गेर भङ्गिमा ।
नित्यानन्द-आनन्द-अश्रुर नाइ सीमा ॥३२१॥
नित्यानन्द-विजय़ जानिञ गदाधर ।
भागवत-पाठ छाड़ि आइला सत्वर ॥३२२॥
दुꣳहे मात्र देखिय़ा दुꣳहार श्रीवदन ।
गला धरि लागिलेन करिते क्रन्दन ॥३२३॥
अन्यो’न्ये दुइ प्रभु करे नमस्कार ।
अन्यो’न्ये दोꣳहे बले महिमा दुꣳहार ॥३२४॥
दोꣳहे बले—‘आजि हईल लोचन निर्मल’ ।
दोꣳहे बले—‘आजि हईल जीवन सफल’ ॥३२५॥
बाह्यज्ञान नाहि दुइ प्रभुर शरीरे ।
दुइ प्रभु भासे भक्ति-आनन्द-सागरे ॥३२६॥
हेन से हईल प्रेमभक्तिर प्रकाश ।
देखि चतुर्दिके पड़ि कान्दे सर्व दास ॥३२७॥
कि अद्भुत प्रीति नित्यानन्द-गदाधरे ।
एकेर अप्रिय़ आरे सम्भाषा ना करे ॥३२८॥
गदाधरदेवेर सङ्कल्प एइरूप ।
नित्यानन्द-निन्दकेर ना देखेन मुख ॥३२९॥
नित्यानन्द-स्वरूपेरे प्रीति यार नाञि ।
देखाओ ना देन ताꣳरे पण्डितगोसाञि ॥३३०॥
अहे नरोत्तम ! प्राण कान्दे ता स्मरणे ।
हईल दुइ प्रभुर मिलन एइखाने ॥३३१॥
एथा दोꣳहे स्थिर हैय़ा वसि कतक्षण ।
करिलेन श्रीचैतन्यचरित्र-कीर्तन ॥३३२॥
पण्डित गोसाञी पद्मावतीर नन्दने ।
निमन्त्रण कैल—अद्य भिक्षा एइखाने ॥३३३॥
नित्यानन्दप्रभु गदाधरेर निमित्ते ।
एकमण तण्डुल आनिला गौड़ हैते ॥३३४॥
मने एइ साध—अन्ये ना बुझे एइ रीत ।
‘गोपीनाथे समर्पिय़ा भुञ्जिब पण्डित’ ॥३३५॥
दिलेन से तण्डुल श्रीपण्डिते एथाय़े ।
पण्डित गोसाञी देखि कत प्रशꣳसय़े ॥३३६॥
एथा से तण्डुल श्रीपण्डिते कैल पाक ।
करिल व्यञ्जन टोटा हईते तुलि शाक ॥३३७॥
कोमल-तिन्तिड़्ई-पत्राम्बल शीघ्र कैल ।
अन्नेर सौगन्धि सब टोटाय़ व्यापिल ॥३३८॥
गोपीनाथे भोग दिय़ा राखिला एथाय़ ।
अकस्मात् आइला अन्तर्यामी गौरराय़ ॥३३९॥
हासि कहे—‘ऐछे कार्य गोपने दोꣳहार ।
ना जानहु—इथे भाग आछय़े आमार ॥३४०॥
कभु भिन्न नहि आमि तोमा दोꣳहा हैते ।
अनुचित कैले किछु चाहिय़े कहिते’ ॥३४१॥
शुनि महानन्दे श्रीपण्डित गदाधर ।
थुइल प्रसाद-अन्न प्रभुर गोचर ॥३४२॥
प्रभु कहे—‘तिन भाग समान करिय़ा ।
भुञ्जिब ए अन्न तिने एकत्र बसिय़ा’ ॥३४३॥
एत कहि अन्न-भागत्रय़ शीघ्र करि ।
एइखाने भुञ्जिते बसिला गौरहरि ॥३४४॥
दक्षिणे श्रीनित्यानन्द, वामे श्रीपण्डित ।
से शोभा भाविते हिय़ा ना हय़ सम्वित् ॥३४५॥
भुञ्जेन श्रीगौरचन्द्र ईषत् हासिय़ा ।
श्रीशाक, तिन्तिड़्ईपत्राम्बले प्रशꣳसिय़ा ॥३४६॥
भुञ्जय़े श्रीनित्यानन्द उल्लास-हिय़ाय़ ।
मन्द मन्द हासि गोस्वामीर पाने चाय़ ॥३४७॥
परम आनन्दे भुञ्जे पण्डित गोसाञि ।
उपजय़े कौतुक—कहिते अन्त नाइ ॥३४८॥
आचमन करि तिने बसिला एथाय़ ।
से सब भाविते हिय़ा विदरिय़ा याय़ ॥३४९॥
अहे नरोत्तम ! हेर, देखह निर्जने ।
वसितेन श्रीगोस्वामी एइ जीर्णासने ॥३५०॥
एइखाने गोस्वामीर जीवन गौरहरि ।
एका आसि वसितेन ए आसनोपरि ॥३५१॥
भावगत-पद्यास्वादे हैत अश्रुपात ।
ताहे ग्रन्थ सिक्त—एइ देखह साक्षात् ॥३५२॥
एइ टोटामध्ये यत विलास दोꣳहार ।
ताहा कहिबार शक्ति ना हय़ आमार ॥३५३॥
गोपीनाथ-मन्दिर मध्ये श्रीमन्माहाप्रभुर अन्तर्धान—
अहे नरोत्तम ! एइखाने गौरहरि ।
ना जानि—कि पण्डिते कहिल धीरि धीरि ॥३५४॥
दोꣳहार नय़ने धारा बहे अतिशय़ ।
ताहा निरखिते द्रवे पाषाण-हृदय़ ॥३५५॥
न्यासिशिरोमणि-चेष्टा बुझे साध्य कार ? ।
अकस्मात् पृथिवी करिला अन्धकार ॥३५६॥
प्रवेशिला एइ गोपीनाथेर मन्दिरे ।
हैला अदर्शन—पुनः ना आइला बाहिरे ॥३५७॥
प्रभु-सङ्गोपन-समय़ेते हैल याहा ।
लक्षमुख हईलेओ कहिते नारि ताहा ॥३५८॥
एइखाने गोस्वामी हईला अचेतन ।
एथा सब महान्तेर उठिल क्रन्दन ॥३५९॥
…