षष्ठ तरङ्ग
जय़ जय़ श्रीगौरगोविन्द गुणमणि ।
जय़ नित्यानन्दराम प्रेमरत्नखनि ॥१॥
जय़ अद्वैतचन्द्र करुणार सिन्धु ।
जय़ गदाधर पण्डितेर प्राणबन्धु ॥२॥
जय़ जय़ दय़ामय़ पण्डित श्रीवास ।
जय़ वक्रेश्वर, श्रीमुरारि, हरिदास ॥३॥
जय़ जय़ श्रीस्वरूप, रूप, सनातन ।
जय़ जय़ श्रीगौरचन्द्रेर भक्तगण ॥४॥
जय़ जय़ श्रोतागण गुणेर आलय़ ।
एब ये कहिय़े शुन हईया सदय़ ॥५॥
श्रीनिवासाचार्य नरोत्तम—दुइ जने ।
विलसय़े परम आनन्दे वृन्दावने ॥६॥
एकदिन श्रीनिवास-आचार्य ठाकुर ।
नरोत्तम-प्रति कहे वचन मधुर ॥७॥
‘आजि नाना मङ्गल देखिय़े क्षणे क्षण ।
स्पन्दन करय़े बाहु, दक्षिण नय़न ॥८॥
अकस्मात् महासुखे उपजय़े चिते ।
अवश्य मिलिब कोन वैष्णव-सहिते’ ॥९॥
नरोत्तम कहय़े—‘शुनिनु याꣳर कथा ।
सेइ दुःखी कृष्णदास मिलिबेन एथा’ ॥१०॥
ऐछे कत कहे विचारिय़ा हर्षमने ।
चलिलेन जीवगोस्वामीर दरशन ॥११॥
एथा श्यामानन्द आइला गोसाञिर वासाय़ ।
गोसाञि पाइला प्रीत ताꣳहार चेष्टाय़ ॥१२॥
पूर्वे जानाइल एइ श्यामानन्द-रीत ।
एबे किछु कहि—याते हय़ महा-हिते ॥१३॥
श्रील श्यामानन्द प्रभुर वृन्दावन-वृत्तान्त—
चैत्र-पूर्णिमाते जन्मिलेन श्यामानन्द ।
दिने दिने बार्ह्̤इलेन यैछे बाड़े चन्द्र ॥१४॥
बाला-पौगण्डादि गृहे करिला विलास ।
नव्य यौवनेते गृहे हईलो उदास ॥१५॥
फाल्गुनमासेते श्यामानन्द महाधीर ।
गृह छाड़्इवन—मने करिलेन स्थिर ॥१६॥
दण्डेश्वर-ग्रामे मातापितार साक्षाते ।
विदाय़ हईय़ा आइला अम्बिकाग्रामेते ॥१७॥
हृदय़चैतन्य-ठाकुरेर शिष्य हैला ।
ताꣳर पादपद्मे निज आत्मा समर्पिला ॥१८॥
फाल्गुन-पूर्णिमा—शुभक्षणे शिष्य हैय़ा ।
चलिलेन वृन्दावने इष्ट अज्ञा पाइआ ॥१९॥
कथोदिन करि नाना तीर्थ पर्यटन ।
महासुखे कैला व्रजमण्डल भ्रमण ॥२०॥
गोवर्धन हैते अति आनन्दान्तरे ।
आइलेना श्यामानन्द राधाकुण्ड-तीरे ॥२१॥
राधाकुण्ड-श्यामकुण्ड-शोभा निरखिय़ा ।
नेत्रजले भासे महाविह्वल हईय़ा ॥२२॥
श्यामानन्दचेष्टा देखि दास व्रजवासी ।
जिज्ञासिल सकल परमानन्दे भासि ॥२३॥
श्रीदासगोस्वामीर निकटे लैय़ा गेला ।
श्यामानन्द-गामनवृत्तान्त जानाइला ॥२४॥
श्यामानन्द भूमिते पड़्इय़ा बार बार ।
करय़े प्रणाम, नेत्रे बहे अश्रुधार ॥२५॥
श्रीदासगोस्वामी अति अनुग्राह कैल ।
बसाइय़ा निकटे कुशल जिज्ञासिल ॥२६॥
श्यामानन्द क्रमे सब कैल निवेदन ।
शुनि गोस्वामीर अति हर्ष हैल मन ॥२२७॥
से दिवस आपनार निकटे राखिय़ा ।
वृन्दावने पाठाइला लोक सङ्गे दिय़ा ॥२८॥
तेꣳह जीवगोस्वामीर स्थाने लैय़ा गेला ।
श्यामानन्द-वृत्तान्त सकल जानाइला ॥२९॥
श्यामानन्द पड़्इय़ा गोस्वामि-पदतले ।
आपना मानय़े दीन, भासे नेत्रजले ॥३०॥
श्री-जीवगोस्वामी अति वात्सल्य-स्नेहेते ।
आलिङ्गन करि आज्ञा करिला वसिते ॥३१॥
जिज्ञासिय़ा श्रीगौर-भक्तेर समाचार ।
जिज्ञासय़े दुइ प्रभु-सेवार प्रकार ॥३२॥
श्रीहृदय़चैतन्येर चेष्टा जिज्ञासिल ।
क्रमे क्रमे श्यामनन्द सब निवेदिल ॥३३॥
आपन-वृत्तान्त कहे करि परिहार ।
‘भक्तिग्रन्थास्वाद कैछे हईबे आमार’ ॥३४॥
गोस्वामी कहेन—‘किछु चिन्ता ना करिबे ।
श्रीनिवास नरोत्तम-सह आस्वादिबे’ ॥३५॥
श्रीनिवास-नरोत्तम-नाम श्रवणेते ।
पुलके व्यापिल अङ्ग, उल्लास मनेते ॥३६॥
गोस्वामीर प्रति पुनः करे निवेदन ।
‘आज्ञा हैले करि गिय़ा दोꣳहार दर्शन’ ॥३७॥
एत कहितेइ नरोत्तम-श्रीनिवास ।
हृष्ट हईय़ा आइलेन गोस्वामीर पाश ॥३८॥
श्रीनिवासे गोस्वामी कहेन हर्ष चिते ।
‘दुःखी कृष्णदास एइ आइला गौड़ हैते ॥३९॥
हृदय़चैतन्य-ठाकुरेर शिष्य हन ।
कहिते कि—ताꣳर अलौकिक गुणगण ॥४०॥
ताꣳ सबार मङ्गल-सꣳवाद शुनाइला ।
एइ कथोक्षण राधाकुण्ड हैते आइला ॥४१॥
तोमा दोꣳहा देखिते उद्विग्न अतिशय़ ।
एत कहि श्यामानन्दे दिल परिचय़ ॥४२॥
श्यमानन्द भूमितले पड़ि प्रणमिते ।
श्रीनिवास कोले लैय़ा ना पारे छाड़िते ॥४३॥
नरोत्तमे प्रणमिते तेꣳहो प्रणमिय़ा ।
आलिङ्गन कैल अति स्नेहाविष्ट हैय़ा ॥४४॥
स्वाभाविक प्रेमचेष्टा कहिल ना हय़े ।
श्यामानन्दमिलने आनन्द अतिशय़ ॥४५॥
श्रीनिवास नरोत्तम, श्यामानन्द तिने ।
ये अद्भुत रीत ता कहिते केबा जाने ॥४६ ॥
श्री-जीवगोस्वामी अति प्रसन्न हईला ।
श्यामानन्दे भक्ति ग्रस्थारम्भ कराइला ॥४७॥
श्रीनिवासाचार्ये श्यामानन्दे समर्पिल ।
कथोदिने श्यामानन्द अध्यापक हैल ॥४८॥
श्रीश्यामानन्देर भक्तिरीत चमत्कार ।
मध्ये मध्ये अम्बिका(य़) पाठान समाचार ॥४९॥
श्रील श्यामानन्दप्रभुर ‘श्यामानन्द’-नामकरणेर हेतु—
राधिकार दासी भाव—एइ इच्छा मने ।
श्रीगुरु-आज्ञाय़ लभ्य हैल जीव-स्थाने ॥५०॥
श्री-जीवगोस्वामी श्यामानन्दे कृपा करि ।
करिलेन मानस-सेवार अधिकारी ॥५१॥
राधा-श्यामसुन्दरेर सुख जन्माइल ।
जानिय़ा श्री-जीव श्यामानन्द-नाम थुइल ॥५२॥
दिने दिने बाड़े श्यामानन्द-भक्तिरीत ।
वृन्दावनवासी सबे हैला उल्लसित ॥५३॥
श्री-जीवगोस्वामी-पदे निर्मल भकाति ।
श्रीनिवास-नरोत्तम-सङ्गे सदा स्थिति ॥५४॥
गाणसह निताइ-चैतन्य-गुण-गाने ।
निरन्तर महामत्त—आपना ना जाने ॥५५॥
‘श्रीगुरु श्रीहृदय़चैतन्य प्रभु’—बलि ॥
यमुनार तीरे सदा नाचे बाहु तुलि ॥५॥
सिद्ध-भक्त-क्रिय़ा ना बुझिय़ा जीव मूर्ख ।
करय़े कुतर्क-इथे पाय़ महादुःख ॥५७॥
श्यामानन्द सदा भक्तिरसे मातोय़ार ।
सर्वत्र दर्शने सुख बार्ह्̤अय़े अपार ॥५८॥
श्रीराधागोविन्द, राधामदनमोहन ।
राधागोपीनाथे देखि निछय़े जीवन ॥५९॥
क्ति अद्भुत ए तिनेर सौन्दर्य देखिते ।
के आछे एमन ये धैर्य धरे चिते ॥६०॥
सदा नहे ए तिनेर युगल दर्शन ।
एकादशी-पूर्णिमामावस्याय़ निय़म ॥६१॥
ये समय़े सिꣳहासने बैसे एकत्रेते ।
से समय़ से शोभार उपमा नाइ दिते ॥६२॥
श्रीगोविन्द ओ श्रीमदनमोहनेर युगलरूपे प्रकाशेर वृत्तान्त—
श्रीगोविन्द ये समय़े प्रकट हईला ।
से समय़ श्रीमती राधिका नाहि छिला ॥६३॥
छिलेन श्रीमदनमोहन प्रभु ऐछे ।
सꣳक्षेपे कहिय़े श्रीयुगल हैला यैछे ॥६४॥
महाराज श्रीप्रतापरुद्रेर कुमार ।
‘पुरुषोत्तम जाना’ नाम, सर्वꣳशे सुन्दर ॥६५॥
तेꣳहो दुइ प्रभुर ए सꣳवाद शुनिय़ा ।
यत्ने दुइ ठाकुराणी छिल पाठाइय़ा ॥६६॥
वृन्दावन-निकट आइला कथो दिने ।
शुनि सबे परमानन्दित वृन्दावने ॥६७॥
सेबा-आधिकारी प्रति मदनमोहन ।
स्वप्नच्छले भङ्गिते कहय़े हर्ष-मन ॥६८॥
‘पाठाइला दुइ मूर्ति श्रीराधिका भाणे ।
राषिका, ललिता दोꣳहे—इहा नाहि जाने ॥६९॥
आगुसरि शीघ्र तुमि दोꣳहारे आनह ।
छोट-श्रीराधिका, मोर वामेते राखह ॥७०॥
बड़-लालिताय़ राखो आमार दक्षिणे ।
इहा शुनि अधिकारी चले सेइक्षणे ॥७१॥
दोꣳहारे आनिय़ा अति आनन्दान्तरे ।
आज्ञा अनुरूप कार्य करिला सत्वरे ॥७२॥
तथाहि श्रीविश्वनाथचक्रवर्तिकृतस्तवामृतलहर्याꣳ—
तरणिजातीरभुवि तराणकरवारक-
प्रिय़कषङ्गुस्थमणिसदनमहितस्थिते ।
ललितय़ा सार्द्धमनुपदरमितराधय़ा
मदनगोपाल निजसदनमनु रक्ष माम् ॥७३॥
श्रीमदनगोपाल-विलास व्यक्त हैल ।
वैष्णवसमाजे महाकौतुक बाड़्इल ॥७४॥
ए अद्भुत कथा क्षेत्रे शुनि बड़ जाना ।
आनन्दे विह्वल अति, ना जान आपना ॥७५॥
श्रीगोविन्दे ठाकुराणी पाठाइते चाय़ ।
करय़े यतन कत—ना देखे उपाय़ ॥७६॥
एकदिन चिन्तायुक्त हैय़ा निद्रा गेला ।
स्वप्नच्छले श्रीराधिका साक्षात् हईल ॥७७॥
पुरुषोत्तम जानारे कहय़े धीरे धीरे ।
‘श्रीगोविन्द निकट पाठाह शीघ्र मोरे ॥७८॥
श्रीजगन्नथेर चक्रवेड़ भ्रमणेते ।
मोरे देखि राधिका कल्पना कैल चिते ॥७९॥
बहुकाल चक्रवेड़ मध्ये आछि आमि ।
सकले कहेन मोरे—लक्ष्मी ठाकुराणी ॥८०॥
आमि ये राधिका—इह नाहि जाने’ ।
एत कहि अन्तर्द्धान हैला सेइ क्षणे ॥८१॥
निद्राभङ्गे बड़ जाना अति त्रस्त हैला ।
चक्रवेड़्अमध्ये गिय़ा साक्षात् देखिला ॥८२॥
चक्रवेड़े राधिकार यैछे हैल स्थिति ।
पसङ्ग पाइय़ा कहि सꣳक्षेपे सम्प्रति ॥८३॥
यैछे श्रीगोपाल गोविन्देर स्थान हैते ।
आइला दक्षिणे पदव्रजे साक्ष्य दिते ॥८४॥
तथाहि साधनदीपिकाय़ाꣳ—
शीगोविन्दस्थानवासी श्रीगोपालो दय़ाम्बुधिः ।
साक्षाꣳ दातुꣳ ब्राह्मणस्य स्वपदाभ्याꣳ यतो गतः ॥८५॥
अद्यापि राजते ओढ्रदेशे’सौ भक्तवत्सलः ।
कर्तुꣳ न-कर्तुꣳ तत्कर्तुꣳ समर्थो हरिरीश्वरः ॥८६॥
श्रीगोपाल-गमन अन्यत्र विस्तारित ।
तैछे कहि श्रीराधिका-गमन किञ्चित् ॥८७॥
श्रीराधिकार उत्कलदेशे चक्रवेड़े आगमन वृत्तान्त—
कोन एक समय़े राधा वृन्दावन हैते ।
आइला उत्कुलदेशे भक्ताधीनमते ॥८८॥
उत्कलदेशेते ग्राम—श्रीराधानगर ।
तथा बैसे एक दाक्षिणात्य विप्रवर ॥८९॥
परम वैष्णव—‘बृहद्भानु’ नाम ताꣳर ।
सर्वशास्ट्रे पण्डित से—सर्वत्र प्रचार ॥९०॥
श्रीराधिका से बृहद्भानुर कन्याप्राय़ ।
ताꣳर गृहे विलसय़े उल्लास-हिय़ाय़ ॥९१॥
तथाहि साधनदीपिकाय़ाꣳ—
अत्रापि श्रूय़ते काचित् कथा पुरातनी शुभा ।
विप्रो बृहद्भानुनामा दाक्षिणात्यः सुवैष्णवः ॥९२॥
ओढ्रदेशनिवासी स राधानगरग्रामके ।
पुत्रीभावेन तेनेय़ꣳ कति वर्षाणि सेविता ॥९३॥
यादिय़ꣳ करुणा तस्यास्तत्र किञ्चिन्न दुर्घटम् ॥९४॥
बृहद्भानु विप्रेर वात्सल्य ये प्रकार ।
ताहा एक मुखे कि वर्णिब मुइ छार ॥९५॥
तिलार्द्धेक ना देखिले युग हेन माने ।
राधा से सर्वस्व—राधा विना नाहि जाने ॥९६॥
कथोनिन परे विप्र हैला सङ्गोपन ।
लोकमुखे राजा ताहा करिला श्रवण ॥९७॥
क्षेत्रस्थ से राजा जगन्नाथप्रिय़ अति ।
श्रीराधानगरे आसि देखे दिव्य मूर्ति ॥९८॥
महाविज्ञ राजा चिन्ते मने मने ।
श्रीराधिका ताꣳरे आज्ञा करय़े स्वपने ॥९९॥
‘जगन्नाथालय़े मोरे राख शीघ्र लैय़ा’ ।
राजा महाहर्ष हैला ऐछे आज्ञा पाइय़ा ॥१००॥
श्रीजगन्नाथेर चक्रवेड रम्य स्थाने ।
राखिल श्रीराधिकारे परम यतने ॥१०१॥
चक्रवेडे बहुदिन अतीत हईल ।
‘इह लक्ष्मी’—एइ कथा सर्वत्र व्यापिल ॥१०२॥
लक्ष्मी बलि सकलेइ करय़े पूजन ।
सेइ सत्य श्रीराधिका पूर्णलक्ष्मी हन ॥१०३॥
एइरूपे चक्रवेड़े करिलेन स्थिति ।
के बुझिते पारे लीला—काहार शकति ॥१०४॥
वृन्दावन गमनेर समय़ हईल ।
तेञि पुरुषोत्तम जानाय़ जानाइल ॥१०५॥
स्वप्नादेशे राजपुत्र परम यतने ।
बहुलोकसङ्गे पाठाइला वृन्दावने ॥१०६॥
श्रीराधिका क्षेत्र हैते वृन्दावन गेला ।
गौड़-उत्कलादि देशे सकले जानिला ॥१०७॥
ये दिवस वृन्दावने प्रवेश करिल ।
से दिवस सुखेर समुद्र उथलिल ॥१०८॥
गोविन्देर वामे बसाइला सिꣳहासने ।
हईले अद्भुत रङ्ग दोꣳहार मिलने । ॥१०९॥
श्रीराधिकासह गोविन्देर शोभा यैछे ।
एकमुखे ताहा वा वर्णिब केबा कैछे ॥११०॥
ऐछे ठाकुराणीर हईल आगमन ।
एइ सकल वर्णिलेन पूर्व कविगण ॥१११॥
साधनदीपिकादिक ग्रन्थे ए विस्तार ।
ए सब ये शुने प्रेमभक्ति लभ्य ताꣳर ॥११२॥
श्रीराधिका-सह गोपीनाथेर प्रकट ।
पूर्वे जानाइल बꣳशीवटेर निकट ॥११३॥
श्रीगोविन्द, गोपीनाथ, मदनमोहन ।
एइ तिन ठाकुर गौड़ीय़ार प्राण-धन ॥११४॥
ए तिन गौड़िय़ार सर्वस्व—सबे जाने ।
गौड़्ईय़ाके आत्मसात् कैला—एइ तिने ॥११५॥
तथाहि श्रीचैतन्यचरितामृते—
‘एइ तिन ठाकुर गौड़्ईय़ाके कैला आत्मसात् ।
एइ तिन ठाकुर बन्दो—तिने मोर नाथ’ ॥११६॥
श्यामानन्द ए-तिनेर आश्चर्य दर्शने ।
तिलार्द्धेक दैरय़ धरिते नारे मने ॥११७॥
श्रीराधाविनोद, आर श्रीराधारमण ।
राधादामोदरे देखि शुफुल्लनय़न ॥११८॥
लोकनाथ, भूर्गव, गोपालभट्ट-आदि ।
सबे श्यामानन्दे करे कृपार अवधि ॥११९॥
श्रीगोस्वामिगणेर समाधि ये ये ठाꣳइ ।
ताहा देखि यैछे ता कहिते साध्य नाइ ॥१२०॥
मध्ये मध्ये स्रीराधिका-श्यामकुण्डे गिय़ा ।
आइलसे दास गोस्वामीर दर्शन करिय़ा ॥१२१॥
श्रीश्यामानन्देर वृन्दावने यैच्छे क्रिय़ा ।
वर्णिलेन, केह ता वर्णिबे विस्तारिय़ा ॥१२२॥
श्रीआचार्या ठाकुर, ठाकुर महाशय़ ।
ए दोꣳहार सङ्गे सदा सुखे विलसय़ ॥१२३॥
श्रीश्यामानन्देर अलौकिक चेष्टा देखि ।
श्रीनिवास आचर्य हय़ेन महासुखी ॥१२४॥
श्रीनिवास आचार्येर कि आश्चर्य रीति ॥
एक दुखे कहे—हेन काहार शकति ॥१२५॥
नवद्वीप, वृन्दावने प्रभुर विहार ।
मानसे ताबय़े ताहा यथा ये प्रकार ॥१२६॥
नवद्वीपलीला यैछे करय़े भावना ।
ताहा बिस्तारिय़ा वा वर्णिब कोन् जना ? ॥१२७॥
श्रीनिवास आचार्या प्रभुर नवद्वीपलीला स्मरणपराय़णता—
एकदिन परम निर्जने श्रीनिवास ।
चिन्तय़े श्रीनवद्वीपचन्द्रेर विलास ॥१२८॥
ब्रह्मादि-वन्दित नवद्वीप रम्यस्थान ।
वसन्तादि छय़ ऋतु सदा मूर्तिमान् ॥१२९॥
शोभन विविध वृक्षलता पुष्पमय़ ।
कोकिलादि-शब्दे सर्वचित्त आकर्षय़ ॥१३०॥
नवद्वीप-मध्ये कि आश्चर्या ‘माय़ापुर’ ।
से-स्थान-दर्शने सर्व ताप याय़ दूर ॥१३१॥
तथा गौरसुन्दर विचित्र सिꣳहासने ।
विलसय़े उल्लासे वेष्टित प्रिय़गणे ॥१३२॥
से अपूर्व शोभा निरखिय़ा श्रीनिवास ।
प्रभुर आदेशे सब रहि प्रभु-पाश ॥१३३॥
सुगन्धि चन्दन लैय़ा परम यतने ।
प्रभुर श्रीअङ्गे दिला विचित्र बन्धाने ॥१३४॥
नाना पुष्पहार दिय़ा प्रभुर गलाय़ ।
चामरे बाजन करे कौतुक-हिय़ाय़ ॥१३५॥
श्रीगौरचन्द्रेर मुखचन्द्र-सुधा-पाने ।
श्रीनिवास विह्वल—आपना नाहि जाने ॥१३६॥
धरिते नारय़े अङ्ग—करे टलमल ।
सुदीर्घ लोचने बहे प्रेमानन्द जल ॥१३७॥
भावेर विकार बहु—देहे नाइ स्मृति ।
श्रीनिवास-चेष्टा देखि प्रभु हर्ष अति ॥१३८॥
आपन गलार माला दिला भक्तद्वारे ।
पाइय़ा से माला-स्पर्श आनन्दे साꣳतारे ॥१३९॥
आचार्येर बाह्यज्ञान हैल हेनकाले ।
प्रभु दत्त माला देखे आपनार गले ॥१४०॥
श्रीमालार शोभा-सौगन्धेर सीमा नाइ ।
प्रतिदिके भ्रमर करय़े धाओय़ा धाइ ॥१४१॥
आचार्य करिला शीघ्र माला सङ्गोपन ।
अलक्षिते ताहा देखिलेन कोन जन ॥१४२॥
आचार्येर कार्ष्य सङ्गोपने निति निति ।
नवद्वीप-विहारे निमग्न दिवाराति ॥१४३॥
ऐछे वृन्दावन-लीला-समुद्र-तरङ्गे ।
निरवधि भासय़े परम प्रेमरङ्गे ॥१४४॥
एकदिन श्रीनिवास वसन्त-समय़े ।
श्रीकृष्णेर होली-क्रीड़ा मानसे भावय़े ॥१४५॥
‘फाल्गुनस्थ-लीला’ नामे स्थान एक हय़ ।
एबे ‘फागुतला’ तारे सकले कहय़ ॥१४६॥
परम निर्जन स्थान शोभा मनोहर ।
मन्द मन्द स्निग्ध वाय़ बहे निरन्तर ॥१४ ७॥
चतुर्दिके किबा नव कदम्बेर वन ।
शारी-शुक-पिक-आदि-शब्द रसाय़न ॥१४८॥
प्रफुल्लित नाना पुष्पे भ्रमन गुञ्जरे ।
लक्ष लक्ष मय़ूर मय़ूरी नृत्य करे ॥१४९॥
कुरङ्ग-कुरङ्गीगण फिरे मत्त हैय़ा ।
सखीसह राइ कानु देखे दाꣳड़ाइय़ा ॥१५०॥
तथा वृन्दा लक्ष लक्ष दासीगण-सङ्गे ।
होलीखेला-द्रव्य सम्ज्ञ करे नाना रङ्गे ॥१५१॥
विविध प्रकार फल्गु आदि साजाइला ।
वीणादिक नाना यन्त्र सुमेलि करिला ॥१५२॥
सखीसह राइ-कानु उल्लास-अन्तरे ।
होलीखेला आरम्भ करिला कुञ्जागारे ॥१५३॥
सखीगण-वेष्टित राधिका महारङ्गे ।
डारय़े अपूर्व फागु श्रीकृष्णेर अङ्गे ॥१५४॥
सखीर इङ्गिते श्रीनिवास दासीरूपे ।
फल्गुन योगान रहि राधिका-समीपे ॥१५५॥
कि अद्भुत बन्धाने खेलय़े राइ-श्याम ।
शोभा देखि मूर्च्छिते हय़ेन कोटि काम ॥१५६॥
उड़्अय़े फल्गुन, हैल अरुण आच्छन्न ।
नाना यन्त्र-वाद्य-कोलाहले रुद्ध-कर्ण ॥१५७॥
रसिकशेखर कृष्ण कौतुकी अपार ।
सबार उपरे फागु हर्ष अनिवार ॥१५८॥
सिक्त करि मृगमद-कुङ्कुमादि जले ।
आलिङ्गन चुम्बनादि करे नाना छले ॥१५९॥
निरुपम होलीखेला खेले दुइ जन ।
पुलके पूर्णित ललितादि सखीगण ॥१६०॥
सकलेइ सुस्थिर हईय़ा कथोक्षणे ।
राइ-कानु दोꣳहे बसाइला सिꣳहासने ॥१६१॥
श्रम दूर करि कैल चामरे वातास ।
श्रीनिवास-दासीर पूरिल अभिलाष ॥१६२॥
हैल सेवा-समाधान, बाह्यज्ञान हैते ।
देखे फागुमय़ अङ्ग—नारे लुकाइते ॥१६३॥
झलमल करे फागु, सौगन्ध अपार ।
स्थिर हैते नारे नासा स्पर्शमय़े याहार ॥१६४॥
निति निति ऐछे नाना मानसे विह्वल ।
के वर्णिते पारे यैच्छे प्रेम अनर्गल ॥१६५॥
ठाकुर श्रील नरोत्तमेर मानसे युगल-सेवा
श्रीनिवास आचार्येर देखि प्रेमक्रिय़ा ।
नरोत्तम आनन्दे धारिते नारे हिय़ा ॥१६६॥
श्रीनरोत्तमेर यैच्छे मानसे सेवन ।
ताहा एक मुखे बा वर्णिब कोन् जन ? ॥१६७॥
एकदिन राधा-कृष्ण सखीगण-सङ्गे ।
विलसय़े निकुञ्जे परम प्रेमरङ्गे ॥१६८॥
श्रीराधिका कौतुके कहय़े सखी प्रति ।
‘एथा भक्ष्यद्रव्य शीघ्र करो सुसङ्गति’ ॥१६९॥
ललितादि सखी महा उल्लसित हैय़ा ।
लक्षण-सामग्री सबे करे यत्न पाइय़ा ॥१७०॥
नरोत्तम दासीरूपे अति यत्न-मते ।
दुग्ध आवर्तन करे सखीर इङ्गिते ॥१७१॥
उथलि पड़य़े दुग्ध देखि व्यस्त हैला ।
चुल्ली हैते दुग्धपात्र हस्ते नामाइला ॥१७२॥
हस्त दग्ध हैल—ताहा किछु स्मृति नाइ ।
दुग्ध आवर्तन करि दिला सखी ताꣳइ ॥१७३॥
मनेर आनन्दे राधा-कृष्णे तुञ्जाइल ।
अवशेष लभ्यमात्रे स्वाह्यज्ञान हैल ॥१७४॥
दग्ध हस्त दृष्टि मात्रे कैला सङ्गोपन ।
जानिलेन मर्म अन्तरङ्ग कोन् जन ॥१७५॥
श्रीनरोत्तमेर यैछे मानस-भावना ।
ताहा विस्तारिय़ा वा कहिबे कोन् जना ? ॥१७६॥
सदा मन भ्रमे नवद्वीप-वृन्दावने ।
आनन्दे विह्वल श्रीनिवासाचार्य-सने ॥१७७॥
मध्ये मध्ये श्रीनिवास ओ श्रीनरोत्तमेर गोवर्धनवास—
श्रीनिवास आचार्य श्रीनरोत्तमे लैय़ा ।
मध्ये मध्ये रहेन श्रीगोवर्धाने गिय़ा ॥१७८॥
एकदिन श्रीगोवर्धनेर कन्दराते ।
शुने वꣳशीध्वनि—त्रिजगत् मुग्ध याते ॥१७९॥
वाꣳशीध्वनि श्रवणेते हईला विह्वल ।
धरिते नारय़े अङ्ग—करे टलमल ॥१८०॥
प्रवेशिते श्रीगोवर्धनेर कन्दराय़ ।
कृष्णाङ्ग-सौगङ्ध आसि प्रवेशे नासाय़ ॥१८१॥
से सौगन्ध पाइय़ा सुखेर सीमा नाइ ।
मूर्च्छित हईय़ा दोꣳहे पड़िला तथाइ ॥१८२॥
कतक्षणे बाह्यज्ञान हईला दोꣳहार ।
सम्मुखे देखय़े एक गोपेर कुमार ॥१८३॥
अपूर्व उष्णिष माथे, सुन्दर शरीर ।
करे एक याष्ट मात्र, अत्यन्त सुधीर ॥१८४॥
हेन गोपपुत्रे देखि करिय़ा आदर ।
जिज्ञासय़े श्रीनिवास उल्लास-अन्तर ॥१८५॥
‘कह कह, गोपपुत्र, कि-हेतु एखाने ?’
तेꣳहो कहे—‘तोमा दोꣳहा रक्षार कारणे ॥१८६॥
एथा नाना भय़, ताहा ना जानो तोमरा ।
गोचारणे एथा सब जानि ये आमरा ॥१८७॥
दूर हैते देखिनु—तोमरा दुइ जन ।
भूमे पड़िय़ाछ कारो नाहिक चेतन ॥१८८॥
सङ्गिगण छाड़्इ, आइनु अति व्यस्त हैय़ा ।
बहुक्षण हैल—एथा आछि दाꣳड़ाइय़ा ॥१८९॥
एबे निरुद्वेगचित्ते गोचारणे याइ’ ।
एक कहि अदर्शन हईला तथाइ ॥१९०॥
श्रीनिवास आचार्या चिन्तय़े मने मने ।
‘कोथा गेला गोपेर कुमार एइखाने ॥१९१॥
अदर्शन हैला शिक्त करि वाक्यामृते ।
आपन दुर्दैव-दोषे नारिनु चिनिते’ ॥१९२॥
ऐछे कत कहे दोꣳहे वसि वृक्षतले ।
छाड़्ए दीर्घश्वास, भासे नय़नेर जले ॥१९३॥
मनेर दुःखेते दोꣳहे दिवा गोङाइल ।
कथोरात्रे कृष्णोच्छाय़ निद्रा आकर्षिल ॥१९४॥
स्वप्नच्छले देखा दिला व्रजेन्द्रनन्दन ।
श्यामलसुन्दर मूर्ति भुवनमोहन ॥१९५॥
नटबर वेश, वꣳशी करे सुशोभय़ ।
मुखचन्द्र-छटाय़ मदन मुरुछय़ ॥१९६॥
मधुर मधुर हासि कहे धीरे धीरे ।
‘मोहित हईला मोर मुरलीर स्वरे ॥१९७॥
मूर्छित हईला अङ्ग-सौगन्ध पाइय़ा ।
तोमा दोꣳहा आगे मुइ आइनु धाइय़ा ॥१९८॥
गोपबालकेर छले दिनु दरशल ।
चेतन पाइले छले करिनु गमन ॥१९९॥
हईय़ा व्याकुल दोꣳहे आमार लागिय़ा ।
देखा दिनु, देख मोरे प्रसन्न हईय़ा’ ॥२००॥
एत कि कथोक्षाणे हैला अदर्शन ।
स्वप्नभङ्गे नहे नेत्रधारा निवारण ॥२०१॥
कतक्षणे दोꣳहे अति सुस्थिर हईय़ा ।
हैला प्रातःकाल, पाते कैल प्रातःक्रिय़ा ॥२०२॥
गोवर्धने कृष्णेर विलास अतिशय़ ।
से-सब प्रसङ्गे सदा उल्लास-हृदय़ ॥२०३॥
उहाꣳदेर मध्ये मध्ये श्रीराधाकुण्डे वास—
ऐछे मध्ये मध्ये राधाकुण्डे करे वास ।
दोꣳहे दासगोस्वामीर दर्शने उल्लास ॥२०४॥
यैछे दासगोस्वामीर कृपा दोꣳहा प्रति ।
ताहा वर्णिवारे मोर नाहिक शकति ॥२०५॥
कृष्णदास कविराज-आदि प्रेममय़ ।
ताꣳ सबार यैछे स्नेह कहिल ना हय़ ॥२०६॥
ए-सबार स्नेहानन्दे विह्वल हईय़ा ।
कृतार्थ मानय़े कुण्डशोभा निरखिय़ा ॥२०७॥
एकदिन श्रीनिवास मध्याह्न-समय़ ।
नरोत्तम-सङ्गे नाना निकुञ्जे भ्रमय़ ॥२०८॥
नरोत्तम प्रति कहे—‘एइ पथ दिय़ा ।
सूर्ये पूजे श्रीराधिका सूर्यालय़े गिय़ा ॥२०९॥
एत कहितेइ अकस्मात् सेइ स्थाने ।
नूपुरेर शब्द आसि सामाइला काने ॥२१०॥
ये आनन्दे उन्मत्त हईला दुइ जन ।
से सब विस्तारि एथा ना हय़ वर्णन ॥२११॥
नन्दग्राम, यावट, वर्षाण—आदि स्थाने ।
ये कौतुके विह्वल ता कहिते के जाने ? ॥२१२॥
वृन्दावने सुखेर समुद्रे मग्न हैला ।
कहिते ना जानि ये ये रहस्य देखिला ॥२१३॥
गोस्वामिसकल यैछे अनुग्रह कैल ।
ग्रन्थविस्तारेर डरे वर्णिते नारिल ॥२१४॥
भक्तिशास्त्र-ग्रन्थ लईय़ा श्रीनिवासाचार्य प्रभुर गौड़देशे गमनाविवरण—
सकल गोस्वामी मिलि दढ़ाइला चित ।
श्रीनिवासे शीघ्र गौड़्अदेशे पाठाइते ॥२१५॥
एइ कथा सर्वत्रई हईल प्रकाश ।
‘ग्रन्थ लैय़ा गौडे याइबेन श्रीनिवाश’ ॥२१६॥
ग्रहरत्न प्रदान करिब स्थाने स्थाने ।
गमन हईब शुक्लपक्षे अघ्राय़णे ॥२१७॥
श्रीनिवास एथा हईते करिले गमन ।
किरूपे धरिबे धैर्य प्रभु-प्रिय़गण ॥२१८॥
मो-सबार अन्तर किरूपे हबे खिर ।
एत कहितेइ नेत्र बहे प्रेमनीर ॥२१९॥
ना धरे धैरय़ विज्ञ व्रजवासिगण ।
श्रीनिवासाचार्य येन सबार जीवन ॥२२०॥
श्रीनिवास-चेष्टाय़े केबा ना सुख पाय़ ।
अति दीन हीन येꣳहो माने आपनाय़ ॥२२१॥
याꣳर भक्तिप्रथा देखि श्री-जीवगोसाञि । ॥
निरन्तर अन्तरे सुखेर सीमा नाइ ॥२२२॥
एकदिन श्रीजीवादि गोविन्द-मन्दिरे ।
हईला एकत्र सबे उल्लास अन्तरे ॥२२३॥
श्रीगोविन्ददेवे कहे सुमधुर भाषे ।
‘ग्रन्थवितरण-शक्ति देह श्रीनिवासे’ ॥२२४॥
एत कहितेइ गोविन्देर कण्ठ हैते ।
छिड़िय़ा पड़्इल माला श्रीनिवासे दिते ॥२२५॥
आस्ते व्यस्ते पूजारी श्रीमाला यत्ने लैय़ा ।
श्रीनिवासे दिलेन प्रेमाश्रुयुक्त हैय़ा ॥२२६॥
श्रीनिवास श्रीमाला लईय़ा यत्न करि ।
हईला अधैर्य श्रीगोविन्दमुख हेरि ॥२२७॥
पुनः पुनः प्रणमय़े पड़िय़ा भूमिते ।
नय़ने बहय़े धारा नारे निवारिते ॥२२८॥
गोविन्देर अनुग्रह देखिय़ा श्रीनिवासे ।
सबे प्रसꣳशय़े महा मनेर उल्लासे ॥२२९॥
श्री-जीवगोस्वामी आदि सबे सेइक्षणे ।
करिल दिवस स्थिर श्रीगौड़्अ-गमने ॥२३०॥
अग्रहाय़ण शुक्लपक्षे पञ्चमी प्रशस्त ।
सबार सम्मत यात्रा कराइते त्रस्त ॥२३१॥
श्रील दासगोस्वामीर निकट श्रीनिवासेर विदाय़ग्रहण—
श्री-जीवगोस्वामी दासगोस्वामीर पाशे ।
विदाय़ हईते पाठाइला श्रीनिवासे ॥२३२॥
श्रीदासगोसाञीर कथा कहने ना याय़ ।
निरन्तर दघ हिय़ा विरह-व्यथाय़ ॥२३३॥
‘कोथा श्रीस्वरूप-रूप, सनातन’—बलि ।
भासय़े नेत्रेर जले, बिलुठय़े धूलि ॥२३४॥
अति क्षीण शरीर दुर्बल क्षणे क्षणे ।
करय़े भक्षण किछु दुइ चारि दिने ॥२३५॥
यद्यपिह शुष्क देह वातासे हालय़ ।
तथापि निर्बन्ध क्रिय़ा सब समाधय़ ॥२३६॥
भूमे पड़ि, श्रणमि उठिते नाहि पारे ।
इथे ये निषेधे, किछु, ना कहय़े तारे ॥२३७॥
अनुकूल कैले प्रसꣳशय़े वारे वार ।
देखि सादनाग्रह देबेओ चमत्कार ॥२३८॥
प्रभुदत्त गोवर्धनशिला गुञ्जाहारे ।
सेबे कि अद्भुत सूखे, आपना पासरे ॥२३९॥
दिवानिशि ना जानय़े श्रीनाम-ग्रहणे ।
नेत्रे निद्रा नाइ, अश्रुधारा दुनय़ने ॥२४०॥
दासगोस्वामीर चेष्टा बुझिते के पारे ? ।
सदा मग्न राधाकृष्ण-चैतन्य-विहारे ॥२४१॥
निर्जने बसिय़ा करे ग्रन्थासुशीलन ।
हेन काले श्रीनिवासाचार्येर गमन ॥२४२॥
श्रीनिवास दासगोस्वामीर सन्दर्शने ।
आपना मानय़े धन्य पड़िय़ा चरणे ॥२४३॥
श्रीदासगोस्वामी श्रीनिवासे आलिङ्गिला ।
जिज्ञासिय़ा कुशल निकटे बसाइला ॥२४४॥
नरोत्तम, श्यामानन्द आइल सेइक्षणे ।
प्रणमिला दासगोस्वामिर श्रीचरणे ॥२४५॥
अति अनुग्रहे दासगोस्वामी-दोꣳहाय़ ।
जिज्ञासि कुशल श्रीनिवास-पाने चाय़ ॥२४६॥
श्रीनिवास श्रीगौड़-गमन निवेदिल ।
शुनि श्रीगोस्वामी सुखे अनुमति दिल ॥२४७॥
सर्वमते सावधान करि श्रीनिवासे ।
आलिङ्गन करि दुइ नेत्र-जले भासे ॥२४८॥
नरोत्तम-श्यामानन्दे कैल आलिङ्गन ।
सबे बन्दिलेन यत्ने गोस्वामिचरण ॥२४९॥
विदाय़ हईला, गोस्वामीर स्नेह यैछे ।
वर्णिते करिय़े साध—शक्ति नाहि तैछे ॥२५०॥
ए-सबे हईला यैछे विदाय़ेर काले ।
ताहा देखि केबा ना भासय़े नेत्र-जले ॥२५१॥
कृष्णदास कविराज आदि विज्ञगण ।
ए-तिने लईय़ा शीघ्र आइला वृन्दावन ॥२५२॥
आर ये ये स्थाने ये ये वैष्णव आछिला ।
शुनिय़ा सꣳवाद सभे वृन्दावने आइला ॥२५३॥
श्री-जीवगोस्वामी व्रजवासी वैष्णवेरे ।
करि समादर वासा दिलेन सभारे ॥२५४॥
मथुरार कोन भाग्यवन्त महाजने ।
अनुग्रह करि आज्ञा करय़े ताहाने ॥२५५॥
‘श्रीनिवास आचार्य लईय़ा ग्रन्थगण ।
दुइ चारि दिने गौड़े करिब गमन ॥२५६॥
येरूपे याय़ेन शीघ्र करह उपाय़’ ।
शुनि महाजन धन्य माने आपनाय़ ॥२५७॥
शीघ्र राजपुत्र, पदातिक, गाड़्ई कैलु ।
सङ्गे दिते प्रवीण मनुष्य निय़ोजिलु ॥२५८॥
पथेर निर्वाह—हेतु मुद्रा दिय़ा ताꣳरे ।
हईल प्रस्तुत—जानाइला गोस्वामीरे ॥२५९॥
गोस्वामीह देखि ग्रन्थभार-चतुष्टय़ ।
राखे काण्ठसम्पुटे निवारि वर्षाभय़ ॥२६०॥
हईल सम्पुट पूर्ण ग्रन्थरत्नगाणे ।
दूरे याय़ ताप से ग्रन्थेर सन्दर्शने ॥२६१॥
ये सकल ग्रन्थ सम्पुटेते सम्पुटेते सज्ज कैल ।
से सब ग्रन्थेर नाम पूर्वे जानाइल ॥२६२॥
निजकृत सिद्धान्तादि ग्रन्थ कथो दिय़ा ।
मृदु मृदु कहे श्रीनिवास-मुखः चाय़ा ॥२६३॥
‘रहिल ये ग्रन्थ परिशोधन करिब ।
वर्णिब ये सब ताहा क्रमे पाठाइब’ ॥२६४॥
श्रीनिवासेर श्रीमदनगोपालेर निकट विदाय़ ग्रहण—
एत कहि श्रीनिवासे लैय़ा सेइक्षणे ।
चलिलेन श्रीमदनगोपाल दर्शने ॥२६५॥
श्रीनिवास श्रीमदनगोपाले देखिय़ा ।
ना धरे धैरय़, प्रेमे उमड़य़े हिय़ा ॥२६६॥
हईते विदाय़-अश्रु नहे निवारण ।
भङ्गिते विदाय़ कैल मदनमोहन ॥२६७॥
श्रीमाला-प्रसाद दिला पूजारी गोसाञी ।
सबे ये प्रबोदे ता कहिते अन्त नाइ ॥२६८॥
श्रील सनातन गोस्वामी प्रभुर प्रसङ्ग—
सनातन गोबामीर समाधि-दर्शने ।
येरूप हईल ता वर्णिते केबा जाने ॥२६९॥
‘पर दुःखे दुःखी प्रभु सनातन’—बलि ।
धरिते नारय़े अङ्ग विलुठय़े धूलि ॥२७०॥
सनातन-चरिते निमग्न अतिशय़ ।
अन्येर दुर्गम सनातनेर हृदय़ ॥२७१॥
श्रीकृष्णचैतन्य प्रभु परम आनन्दे ।
नीलाचले याꣳर कथा कहे रामानन्दे ॥२७२॥
तथाहि श्रीचैतन्यचरितामृते (अ १.२००-२०१)—
इहार ये ज्येष्ठभ्राता नाम—सनातन ।
पृथिवीते विज्ञवर नाहि ताꣳर सम ॥२७३॥
तोमार यैछे विषय़ त्याग—तैछे ताꣳर रीति ।
दैन्य-वैराग्य-पाण्डित्येर ताꣳहातेइ स्थिति ॥२७४॥
ऐछे प्रभु स्थाने स्थाने कहे भक्तगण ।
प्रभु-प्रिय़पात्र श्रीगोस्वामी सनातन ॥२७५॥
ऐछे परदुःखे दुःखी केह नाहि आर ।
कृपार समुद्र किबा जगते अपार ॥२७६॥
तथाहि विलापे—
वैराग्ययुग्भक्तिरसꣳ प्रयत्नै-
रूपाय़य़न्मामनभीप्सुमन्धम् ।
कृपाम्बुधिर्यः परदुःखदुःखी
सनातनꣳ तꣳ प्रभुमाश्रय़ामि ॥२७७॥
श्रील रूपगोस्वामीर प्रसङ्ग—
ताꣳर शाखा श्रीरूपगोस्वामी सर्वोपरि ।
श्रीराजेन्द्रगोस्वामी, कृष्णाख्य ब्रह्मचारी ॥२७८॥
कृष्णमिश्र गोस्वामी—अद्भुत क्रिय़ा याꣳर ।
गोस्वामी श्रीभगवन्तदासादि प्रचार ॥२७९॥
सनातनगुणे मग्न श्रीनिवासाचार्य ।
निवारिते नारे नेत्रधारा, कि आश्चर्य ॥२८०॥
श्री-जीव गोस्वामी स्थिर करि नाना मते ।
श्रीनिवासे लैय़ा गेला आपन-वासाते ॥२८१॥
तथा श्रीनिवास करि धैर्यावलस्वन ।
कैल रूपगोस्वामीर समाधि-दर्शन ॥२८२॥
भूमे पड़ि प्रणमिय़ा विदाय़ हईते ।
नय़ने बहय़े धारा नारे स्थिर हैते ॥२८३॥
श्रीरूपगोस्वामी-चारुचरित्र चिन्तिय़ा ।
श्रीनिवास आचार्येर उमड़य़े हिय़ा ॥२८४॥
आहा मरि ! श्रीरूपेर महिमा अपार ।
ये यैछे वर्णये ताहा सर्वत्र प्रचार ॥२८५॥
यथा श्रीकविकर्णपूरकृत-श्रीचैतन्यचन्द्रोदय़-नाटकस्थꣳ नवमे अङ्के ४३शात-पद्यम्—
प्रिय़स्वरूपे दय़ितस्वरूपे प्रेमस्वरूपे सहजभिरूपे ।
निजानुरूपे प्रभुरेकरूपे ततान रूपे स्थविलास रूपे ॥२८६॥
श्री साधनदीपिकाय़ाम्—
मताद्बाहिष्कृता ये च श्रीरूपस्य कृपाम्बुधेः ।
तेषाꣳ सङ्गो न कर्तव्यो रागान्ध्वपास्थिकैः खलु ॥२८७॥
पुनः—
श्रीमद्रूपपदाम्भोजद्बन्द्बꣳ बन्दे मुहुर्मुहुः ।
यस्य प्रसादादञ्जे’पि तन्मतज्ञानभाग् भवेत् ॥२८८॥
पुनः श्रीप्रेमभक्तिचन्द्रिकायाम्—
श्रीचैतन्यमनो’भीष्टꣳ स्थापितꣳ येन भूतले ।
सो’य़ꣳ रूपः कदा मह्यꣳ ददाति स्वपदान्तिकम् ॥२८९॥
पुनः श्रीसाधनदीपिकाय़म्—
रुपेति नाम वद भो रसने ! सदा त्वꣳ
रुपञ्च सꣳस्मर मनः करुणास्वरूपम् ।
रूपꣳ नमस्कुरु शिरः सदय़ावलोकꣳ
तस्याद्वितीय़सुतनुꣳ रघुनाथदासम् ॥२९०॥
श्रीरूपगोसाञिर कि अद्भुत गुणगण ।
ऐछे नानाप्रकारे वर्णिला विज्ञगण ॥२९१॥
तथाहि गीते-विभाष—
यौ कलि रूप शरीर ना धरत ।
तौ भूतल व्रजप्रेममहानिधि कौन कपाट उघारत ॥
को सब त्यजि भङ्गि वृन्दावन, को सब ग्रन्थ विचारत ।
मिश्रित क्षीर नीर बिनु हꣳसन कौन पृथक करि पाय़त ॥
को जानत मथुरा-वृन्दावन, को जानत व्रजरीत ।
को जानत राधा-माधव-रति, को जानत सब नीत ॥
याषे चरण-प्रसाद सकल जन गाइ गाइ सुख पाओत ।
कि रति विमल, शुनत जन, माधो-हृदे आनन्द बाढ़ाय़त ॥
आनेर का कथा-कृषणचैतन्य आपने ।
हय़ेन अधैर्य श्रीरूपेर गुणगणे ॥२९६॥
सर्वत्र विदित ए—कहिते अन्त नाइ ।
प्रभु-प्रिय़गण-प्राण श्रीरूपगोसाञी ॥२९७॥
ओहे भाइ ! सनातन-रूपेर महिमा ।
कतरूपे गाय़—केह नाहि पाय़ सीमा ॥२९८॥
तथाहि गीते-विभाष—
जय़ मेरे प्राण सनातन-रूप ।
अगतिन्के गति दोउ भाय़ा, योग-यज्ञके यूप ॥२९९॥
वृन्दावनके सहज माधुरी-प्रेमासुधाके कूप ।
करुणासिन्धु अनाथन बन्धु, भक्तसभाके भूप ॥३००॥
भक्ति-भागवत मतहि अचरण-कुशल सुचतुर-चमूप ।
भुवन-चतुर्दश-विदित विमल यश, रसनाके रस-भूप ॥३०१॥
चरणकमल-कोमलरजः छाय़ा मिटत कलि-वरि-धूप ।
व्यास उपासक सदा उपासे राधाचरण अनुप ॥३०२॥
पुनः-विभाष—
जय़ मेरे साधु-शिरोमणि रूप-सनातन ।
जिन्के भक्ति एक रसनिवही, प्रीत कृष्ण-राधातन ॥३०३॥
वृन्दावनकी सहज माधुरी रौम रौम सुख गातन ।
सब तेजि कुञ्जकेलि भजि अहनिशि अति अनुराग राधातन ॥३०४॥
करुणाशिन्धु कृस्णचैतन्यके कृपाफली दौ भ्रातन ।
तिन विनु व्यास अनाथन ये से सुखे तरुवर पात्न ॥३०५॥
रूप-सनातन-क्रिय़ा के वर्णिते पारे ।
सꣳक्षेपे कहिनु किछु प्रसङ्गानुसारे ॥३०६॥
श्रीनिवास श्रीरूपेर समाधि-सम्मुखे ।
कैल ये प्रार्थना ता के करे एक मुखे ॥३०७॥
श्रीनिवास श्रीरूपेर अनुग्रह-मते ।
विदाय़ हईय़ा चले समाधि हईते ॥३०८॥
श्रीश्रीराधादामोदरेर निकट विदाय़-ग्रहण—
श्रीजीवेर प्राणधन राधादामोदरे ।
करय़े दर्शन गिय़ा अधैर्य अन्तेरे ॥३०९॥
राधादामोदर प्रभु रसेर आलय़ ।
श्रीनिवास-प्रति अनुग्रह अतिशय़ ॥३१०॥
कैल यैछे विदाय़ कहिते साध्य नाइ ।
श्रीमालाप्रसाद दिला श्री-जीवगोसाञी ॥३११॥
श्रीदामोदरेर कृपा देखि श्रीनिवासे ।
हईला अधैर्य अति मनेर उल्लासे ॥३१२॥
श्रीनिवासे निकटे राखिय़ा कथोक्षण ।
श्रीनिवास-प्रति कहे सस्नेह वचन ॥३१३॥
‘नरोत्तम श्यामानन्द दोꣳहे सङ्गे लैय़ा ।
गोस्वामीर पाशे याहा धैर्यावलाम्बिय़ा ॥३१४॥
आमि एथा हैते याइ गोविन्द-मन्दिरे ।
तथा ये आछय़े कार्य साधिब सत्वरे ॥३१५॥
कथोक्षण परे तथा आमिह याइब ।
सर्वत्र तोमार आजि बिदाय हईब ॥३१६॥
एत कहि श्रीगोविन्दमन्दिरे चलिला ।
ग्रन्थारोहणेर गाड़ी तथा आनाइला ॥३१७॥
आर ये ये कार्य शीघ्र करि समाधान ।
श्रीभट्टगोस्वामि-पाशे करय़े पय़ान ॥३१८॥
द्विज हरिदासाचार्येर प्रसङ्ग—
एथा श्रीनिवास दोꣳहे लईय़ा सङ्गेते ।
गोस्वामीर पाशे चले विदाय़ हईते ॥३१९॥
सेइ पथे निर्जन कुञ्जेते वृक्षतले ।
द्विज हरिदासाचार्य भासे नेत्रजले ॥३२०॥
‘श्रीकृष्णचैतन्य’—बलि छाड़े दीर्घ श्वास ।
अति क्षीण देह—नाइ जीवनेर आश ॥३२१॥
श्रीनिवास गिय़ा ताꣳर करिल दर्शन ।
प्रणमिते कैल तेꣳहो दृढ़ आलिङ्गन ॥३२२॥
द्विज हरिदासाचार्य अति स्नेहावेशे ।
श्रीनिवास-प्रति कहे सुमधुर भाषे ॥३२३॥
‘रजनी-प्रभाते कालि गौड़्ए यात्रा हबे ।
आमि ये कहिय़े ताहा अवश्य करिबे ॥३२४॥
श्रीदास, गोकुलानन्द आमार तनय़ ।
जन्मे जन्मे सेइ दुइ तोमार शिष्य हय़ ॥३२५॥
गौड़्ए गिय़ा से दोꣳहारे दीक्षामन्त्र दिवा ।
परम दुर्लभ भक्तिशास्त्र पड़्आइबा’ ॥३२६॥
शुनि श्रीनिवास हईलेन स्तब्धप्राय़ ।
द्विज हरिदासाचार्य प्रबोधे ताꣳहाय़ ॥३२७॥
‘आपन-प्रभाव यैछे ना जान् आपने ।
इथे किछु चिन्तामात्र ना करिह मने ॥३२८॥
पालिबे वचन मोर-इथे नाहि दोष’ ।
ऐछे कहि श्रीनिवासे करिल सन्तोष ॥३२९॥
हरिदासाचार्येर अद्भुत गुणगण ।
कहिय़े ताꣳहार यैच्छे व्रजेते गमन ॥३३०॥
प्रभु विद्यमाने प्रभु-आज्ञाय़ सकले ।
करे याताय़ात गौड़-व्रज-नीलाचले ॥३३१॥
पण्डित जगदानन्द आसि पुनःवृन्दावने ।
गौड़ हैय़ा गेल प्रभु-सन्निधाने ॥३३२॥
ऐछे भक्तगोष्ठी गौड़, क्षेत्र, व्रजपुरे ।
निरन्तर भासे सुखसमुद्र-पाथारे ॥३३३॥
अद्वैत-इच्छाय़ प्रभु लीला सम्वरिल ।
दुःखेर समुद्रे सब जगत् डुबिल ॥३३४॥
द्विज हरिदासाचार्य प्रभु-अदर्शने ।
देहत्याग करिबेन—करिलेन मने ॥३३५॥
तिलार्धेक धैरय़ धरिते नाहि पारे ।
निरन्तर नय़नेर जलेइ साꣳतारे ॥३३६॥
किछुइ ना भाय़—हिय़ा जले अग्निप्राय़ ।
‘कोथा गेला प्रभु’—बलि अबनी लोटाय़ ॥३३७॥
‘अग्निकुण्डे प्रवेशिव रजनी विहाने ।
ना राखिब प्राण प्रभु गौरचन्द्र विने’ ॥३३८॥
ऐछे विचारिते किछु निद्रा आकर्षिल ।
स्वप्नच्छले श्रीगौरसुन्दर देखा दिल ॥३३९॥
किबा से अद्भुत शोभा भुवनमोहन ।
जगत् करय़े आलो अङ्गेर किरण ॥३४०॥
कनक, विद्युत कि उपमा तार आगे ।
कोटि कोटि कन्दर्पेर दर्प भय़े भागे ॥३४१॥
वदनचन्द्रमा जिनि पूर्णिमार शशी ।
वरिषय़े सुधा कि मधुर मृदु हासि ॥३४२॥
किबा वा बाहु, वक्षः पीन, नेत्र मनोहर ।
कि नव भङ्गिते गति गञ्जिय़ा कुञ्जर ॥३४३॥
द्विज हरिदास देखि विह्वल हिय़ाय़ ।
धरि से चरण माथे धूलय़ लोटाय़ ॥३४४॥
भक्तेर जीवन प्रभु श्रीभुजयुगले ।
द्विज हरिदासे तुलि लईलेन कोले ॥३४५॥
भक्तदीने प्रभु धैर्य धरिते ना पारे ।
नेत्रजले सिञ्चिय़ा कहय़े धीरे धीरे ॥३४६॥
‘शुनिते तोमार खेद विदरे हृदय़ ।
तुमि ये करिला मने, ए उचित नय़ ॥३४७॥
प्रेमेर स्वरूप मोर प्रिय़ श्रीनिवास ।
तेꣳहो गौड़े ग्रन्थरत्न करिब प्रकाश ॥३४८॥
कहिते कि—ए सकल पूर्वेइ जानह ।
ताꣳरे मिलि ताꣳहारे करिबा अनुग्रह ॥३४९॥
आर एइ तोमार नन्दन दुइजने ।
कराइबा श्रीमन्त्रग्रहण ताꣳर स्थाने ॥३५०॥
सर्वसिद्धि हबे श्रीनिवास-कृपा हैते ।
ए-दोꣳहार भक्तिबल व्यापिब जगते ॥३५१॥
तोमा-सह साक्षात् हईब वृन्दावने ।
विलम्ब ना करो, शीघ्र याह सेइखाने ॥३५२॥
निरन्तर तोमार निकटे आछि आमि ।
मध्ये मध्ये आमारे देखिते पाबे तुमि’ ॥३५३॥
ऐछे कत कहि करि दृढ़ आलिङ्गन ।
भकतवत्सल प्रभु हैला अदर्शन ॥३५४॥
निद्रा भङ्ग हैते अति व्याकुल हैल ।
देखि प्रातःकाल प्राते प्रात्रःक्रिय़ा कैला ॥३५५॥
पुत्रे बोलाइय़ा कहे मधुर वचने ।
‘अद्य आमि गमन करिब वृन्दावने ॥३५६॥
तोमा दोꣳहाकार भाग्य कहिल ना हय़ ।
श्रीचैतन्यप्रभु अनुग्रह अतिशय़ ॥३५७॥
ओहे बापु ! प्रभुप्रिय़ श्रीनिवास-स्थाने ।
दीक्षामन्त्र ग्रहण करिबा कथो दिने ॥३५८॥
तेꣳह व्रजे गिय़ा पुनः आसिब गौड़्एते ।
परम अमूल्य भक्तिग्रन्थ प्रचारिते ॥३५९॥
ताꣳरे देखितेइ ताꣳर प्रभाव जानिबे ।
देवेर दुर्लभ भक्तिरत्न लभ्य हबे’ ॥३६०॥
ऐछे कत कहि पुत्रे हईय़ा विदाय़ ।
गृह हैते चले कृष्णचैतन्य-इच्छाय़ ॥३६१॥
कथो दिने वृन्दावने प्रवेश करिला ।
किछुदिन परम आनन्दे गोङाइला ॥३६२॥
दुःखेर समुद्रे मग्न हैला तार पर ।
कहिते से सब कथा विदरे अन्तर ॥३६३॥
रूप-सनातन-गुण सोङरिय़ा कान्दे ।
से दशा देखिते केउ स्थिर नाहि बान्धे ॥३६४॥
क्रि कहिब-हरिदासाचार्येर ये रीति ।
याꣳहार स्मरणे मिले निर्मल भकति ॥३६५॥
एइरूपे वृन्दावने गमन ताꣳहार ।
ग्रन्थेर बाहुल्यभय़े ना कैलु विस्तार ॥३६६॥
श्रीनिवासाचार्ये अनुग्रह प्रकाशिय़ा ।
पुनः पुनः आलिङ्गय़े अनेक कहिय़ा ॥३६७॥
हईय़ा अधैर्य अति स्नेहे श्रीनिवासे ।
करिते विदाय़—से नेत्रेर जले भासे ॥३६८॥
श्रीनरोत्तमेरे क्र्रि दृढ़ आलिङ्गन ।
कहिल यतेक ताहा ना हय़ वर्णन ॥३६९॥
श्यामानन्दे आलिङ्गन करि कृपामय़ ।
हईय़ा व्याकुल महामङ्गल चिन्तय़ ॥३७०॥
व्रजवासी कानाइर सहित श्रीनिवासाचार्य-प्रभुर साक्षात्—
श्रीनिवासाचार्य आदि हईय़ा विदाय़ ।
नेत्रजले भासे अति अधैर्य हिय़ाय़ ॥३७१॥
यमुनार तीरे एक वृक्ष मनोहर ।
परम निर्जन स्थान—अन्य अगोचर ॥३७२॥
कानाय़ा नामेते एक विप्र व्रजवासी ।
कृष्णे आराधय़े सेइ वृक्षतले वसि ॥३७३॥
तथा श्रीनिवास गिय़ा प्रणमिते ताꣳरे ।
तेꣳह आलिङ्गन करि छाड़्इते ना पारे ॥३७४॥
अश्रुजले सिञ्चिय़ा कहय़े वार वार ।
‘एइ ये हईले देखा, ना हईब आर ॥३७५॥
तुमि प्रेममय़—गौड़े ग्रन्थ प्रचारिबा ।
अनाय़ासे जीवेर कल्मष नाशाइबा ॥३७६॥
रूप-सनातनेर करुणापात्र तुमि ।
तोमार सौभाग्य ता कहिब कत आमि ? ॥३७७॥
एते कहि रूप-सनातनेर चरिते ।
हैला महाविह्वल, नारय़े स्थिर हैते ॥३७८॥
रूप-सनातन-प्रति यैछे प्रीत ताꣳर ।
कहि किछु—विस्तारि नारय़े वर्णिवार ॥३७९॥
कानाइरे माता अति स्नेहेर आलय़ ।
रूप-सनातने ताꣳर वात्सल्यातिशय़ ॥३८०॥
के बुझिते पारे कानाइर यैछे रीति ? ।
रूप-सनातनेर निकटे सदा स्थिति ॥३८१॥
श्रीरूप-सनातने परम आदरे ।
मध्ये मध्ये भिक्षा कराय़ेन लैय़ा घरे ॥३८२॥
फल, मूल, शाकादि मिलय़े यबे याहा ।
दोꣳहार वसाय़ अति यत्ने देन ताहा ॥३८३॥
एकदिन श्रीकृष्ण कानाइरूप धरि ।
सनातन गोस्वामीरे दिला माधुकरी ॥३८४॥
कानाइय़ छले ऐछे कृष्णेर विलास ।
हईल कानाय़ा—गुण सर्वत्र प्रकाश ॥३८५॥
कानाइरे केह ना छाड़े तिलमात्र ।
सनातन-रूपेर परम प्रिय़पात्र ॥३८६॥
सनातन-रूप गोस्वामीर अदर्शने ।
छाड़िब जीवन—एइ दड़्हाइल मने ॥३८७॥
से दोꣳहार इच्छामते रहिल जीवन ।
गृह त्याग करि कैल व्रजेते भ्रमण ॥३८८॥
यमुनार तीरे वास कैल वृक्षतले ।
धूलाय़ लोटाय़ सदा, भासे नेत्रजले ॥३८९॥
रूप-सनातन बलि छाड़े दीर्घश्वास ।
से दुꣳहु विहने नाइ जीवनेर आश ॥३९०॥
से दशा देखिय़ा श्रीनिवास नहे स्थिर ।
विदाय़ हईला नेत्रे बहे प्रेमनीर ॥३९१॥
श्रीभूगर्भगोस्वामीर निकट श्रीनिवासेर विदाय़-ग्रहण—
श्रीभूगर्भ गोस्वामीर निकटे याइय़ा ।
प्रणमिल ताꣳरे सबे भूमे लोटाइय़ा ॥३९२॥
तेꣳह स्नेहावेशे करिलेन आलिङ्गन ।
श्रीनिवास क्रमे सब कैल निवेदन ॥३९३॥
गोस्वामी करिल आज्ञा प्रबोधि सबारे ।
‘य़ात्राकाले याबो कालि गोविन्दमन्दिरे ॥३९४॥
विदाय़ करिते प्राण विदरे आमार ।
एते कहितेइ नेत्रे बहे अश्रुधार ॥३९५॥
किबा गोस्वामीर स्नेह ! कहिते के पारे ? ।
श्रीकृष्णचैतन्य समर्पिलेन सबारे ॥३९६॥
सबे गोस्वामीर पदे पुनः प्रणमिय़ा ।
चलिलेन अतिशय़ व्याकुल हईय़ा ॥३९७॥
श्रीनिवास प्रभृतिर श्रील गोपालभट्ट गोस्वामीर निकट गमन—
श्रीभट्टगोस्वामि-पाशे करिते गमन ।
पथे आर वैष्णवेर पाइला दर्शन ॥३९८॥
ताꣳ सबारे प्रात्थना करिय़ा कत मते ।
अनुमति पाइय़ा चलिला-कुञ्ज-पथे ॥३९९॥
सेइ पथे आइसेन श्री-जीवगोसाञी ।
तेꣳह लैय़ा चले भट्टगोसाञीर ठाञि ॥४००॥
श्रीगोपालभट्ट वसि आच्छय़े निर्जने ।
समर्पिय़ा नेत्र, मन श्रीराधारमणे ॥४०१॥
क्षणे निजकृत पद्य पड़य़े सुस्वरे ।
शुनिते से नामाबली केबा धैर्य धरे ? ॥४०२॥
तथाहि—
भण्डीरेश शिखण्डमण्डनवर श्रीखण्डलिप्ताङ्ग हे ।
वृन्दारण्यपुरन्दर स्फूरदमन्देन्दीवरश्यामल ।
कालिन्दीप्रिय़ नन्दनन्दन परानन्दारविन्देक्षण ।
श्रीगोविन्द मुकुन्द सुन्दरतनो माꣳ दीनमानन्दय़ ॥४०३॥
श्रीभट्टगोस्वामि-चेष्टा कहने ना याय़ ।
श्री-जीव गमन शुनि पथपाने चाय़ ॥४०४॥
श्री-जीवगोस्वामी श्रीनिवासादि-सहित ।
श्रीभट्टगोस्वामि-पाशे हैला उपनीत ॥४०५॥
प्रणमिय़ा गोस्वामीरे कहे वार वार ।
‘श्रीनिवासे करो पूर्ण शक्तिर सञ्चार ॥४०६॥
श्रीनिवास-माथे धरो चरणयुगल ।
निर्विघ्ने षय़ेन येन श्रीगौड़्अमण्डल ॥४०७॥
पाषण्डिगणेर दर्प करिय़ा खण्डन ।
स्वच्छन्दे करेन येन ग्रन्थ वितरण’ ॥४०८॥
ऐछ कत शुनि कहे श्रीभट्टगोसाञी ।
करिल प्रार्थना राधारमणेर ठाञि ॥४०९॥
श्रीराधारमण श्रीनिवासे कृपा करि ।
करिल विदाय़ यैछे कहिते ना पारि ॥४१०॥
श्रीभट्टगोसाञी देखि कृपा श्रीनिवासे ।
श्रीप्रसादी माला आनि दिल स्नेहावेशे ॥४११॥
श्रीनिवास भूमिते पाड़िय़ा वार वार ।
करय़े प्रणाम, नेत्रे बहे अश्रुधार ॥४१२॥
श्रीगोपालभट्ट स्थिर करि मृदुभाषे ।
श्रीराधारमणे समर्पिला श्रीनिवासे ॥४१३॥
श्रीनिवासे करि अनुग्रहेर अवाधि ।
आज्ञा कैला—‘आचिरे हüक सब शिद्धि’ ॥४१४॥
नरोत्तम-प्रति कहे मधुर वचन ।
‘मनोरथ सिद्धि कुरु श्रीराधारमण’ ॥४१५॥
श्यामानन्द-प्रति स्नेहे कहे वार वार ।
‘श्रीराधारमण कृपा करुन तोमार’ ॥४१६॥
एत कहि सबारे करेन आलिङ्गन ।
ए-सकले कैल यत्ने चरण वन्दन ॥४१७॥
श्रीभट्टगोस्वामी कहे जीवगोस्वामीरे ।
‘काल प्राते याइब श्रीगोविन्द-मन्दिरे’ ॥४१८॥
श्री-जीवगोस्वामी प्रणामिय़ा सबा सने ।
चलिलेन लोकनाथ गोस्वामीर स्थाने ॥४१९॥
श्रीलोकलनाथ गोस्वामीर निकट विदाय़-ग्रहण—
गोस्वामी आछेन एका निभृते बसिय़ा ।
श्रीराधाविनोद-मुखचन्द्रे नेत्र दिय़ा ॥४२०॥
देखि लोकनाथ-श्रीजीवेर आगमन ।
स्नेहावेशे हैला यैछे ना हय़ वर्णन ॥४२१॥
प्रणमिय़ा श्री-जीव कहय़े मृदु भाषे ।
‘कालि प्राते यात्रा करिबेन गौड़देशे’ ॥४२२॥
लोकनाथ श्रीराधाविनोदे जानाइला ।
ताꣳर अनुग्रह-माला श्रीनिवासे दिला ॥४२३॥
श्रीनिवास आदि सबा प्रति स्नेहावेशे ।
कहिल यतेक ता कहिते ना आइसे ॥४२४॥
श्रीनिवास, नरोत्तम, श्यामानन्द तिने ।
भूमे पड़्इ, प्रणमय़े गोसाञीर चरणे ॥४२५॥
लोकनाथ गोस्वामी धरिते नारे हिय़ा ।
नेत्रजले सिञ्चिल सबारे आलिङ्गिय़ा ॥४२६॥
धैर्यावलम्बिय़ा कहे श्रीजीवेर आगे ।
‘ए सबार भार ये तोमारे सब लागे’ ॥४२७॥
श्री-जीवगोस्वामी नाना दैन्य प्रकाश्य़ा ।
सबा-सह चले गोस्वामीरे प्रणमिय़ा ॥४२८॥
श्रीश्रीगोपीनाथ-मन्दिरे मघुपण्डित प्रभृतिर निकट विदाय़-ग्रहण—
गिय़ा गोपीनाथेर करिला सन्दर्शन ।
किबा से अद्भुत भङ्गि भुवनमोहन ॥४२९॥
देखिते से शोभा याहा हईल अन्तरे ।
एकमुखे ताहा के वर्णिते शक्ति धरे ॥४३०॥
श्री-जीव श्रीमधुपण्डितादि-प्रति कय़ ।
‘श्रीनिवास-गमन निर्विघ्ने येन हय़’ ॥४३१॥
श्रीमधुपण्डित गोपीनाथे जानाइल ।
श्रीनिवासे प्रभु आज्ञा-माला आनि दिल ॥४३२॥
श्रीनिवास भूमे प्रणमय़े वार वार ।
विदाय़ हईते नेत्रे बहे अश्रुधार ॥४३३॥
श्रीनिवासे सुस्थिर करिय़ा सर्वजने ।
आज्ञा कैल—‘पुनश्च आसिबा वृन्दावने’ ॥४३४॥
नरोत्तम श्यामानन्दे अनुग्रह करि ।
कहिल यतेक ताहा कहिते ना पारि ॥४३५॥
प्रेमावेशे सबे ए-सबार आलिङ्गिला ।
सबे भूमे पड़्इ से सकले प्रणमिला ॥४३६॥
श्री-जीव गोस्वामी प्रति कहय़े सकले ।
‘एकत्र हईबे कालि प्राते यात्राकाले’ ॥४३७॥
शुनिय़ा श्री-जीव निदेशय़े श्रीनिवासे ।
‘एबे याह सब गोपीश्वरेर आवासे’ ॥४३८॥
श्रीश्रीगोपीश्वरेर निकट सकलेर विदाय़-ग्रहण—
श्रीनिवासाचार्यादि गेलेन गोपीश्वरे ।
श्री-जीवगोस्वामी गेला श्रीगोविन्द-मन्दिरे ॥४३९॥
श्रीनिवास करि गोपीश्वरेर दर्शन ।
करिल प्रार्थना यत ना हय़ वर्णन ॥४४०॥
गोपीश्वर परम प्रसन्न श्रीनिवासे ।
अलक्षिते विदाय़ करिला विप्रवेशे ॥४४१॥
नरोत्तम, श्यामानन्द व्याकुल हईय़ा ।
गोपीश्वरे ये कहे ता शुनि द्रवे हिय़ा ॥४४२॥
प्रणमिय़ा यत्ने श्रीशङ्कर-गोपीश्वरे ।
श्रीनिवास आचार्यादि चले धीरे धीरे ॥४४३॥
श्रील काशीश्वरगोस्वामीर प्रसङ्ग—
काशीश्वरगोस्वामीर समाधि देखिय़ा ।
करिलेन प्रणाम धूलाय़ लोटाइय़ा ॥४४४॥
काशीस्वर-महिमा कहिते केबा जाने ।
श्रीगौरगोविन्दे ये आनिला वृन्दावने ॥४४५॥
गोविन्देर दक्षिणेते ताꣳरे बसाइय़ा ।
देखि दुꣳहु-शोभा उमड़य़े हिय़ा ॥४४६॥
श्रीचैतन्य श्रीकाशीश्वरेर प्रेमवशे ।
श्रीविग्रहरूपे आइला पाश्चिम प्रदेशे ॥४४७॥
तथाहि श्रीसाधनदीपिकायाम्—
श्रीमत्काशीश्वरꣳ वन्दे यत्प्रीतिवशतः स्वय़म् ।
चैतन्यदेवः कृपय़ा पश्चिमꣳ देशमागतः ॥४४८॥
प्रभुप्रिय़ काशीश्वर विदित भुवने ।
श्रीरूप, श्रीसनातन मग्न याꣳर गुणे ॥४४९॥
श्रीनिवास आचार्य से सब सोङरिय़ा ।
हईलेन आधैर्य, धरिते नारे हिय़ा ॥४५०॥
वार वार प्रणमय़े पड़िय़ा भूमिते ।
ना जाने कि हबे हिय़ा विदाय़ हईते ॥४५१॥
श्रील रघुनाथभट्ट गोस्वामीर प्रसङ्ग—
रघुनाथ भट्टेर समाधि निरखिय़ा ।
भासय़े नेत्रेर जले विदरय़े हिय़ा ॥४५२॥
रघुनाथभट्ट-गोस्वामीर गुणगण ।
श्रवणमात्रेते कार ना जुड़ाय़ मन ? ॥४५३॥
सर्वशास्त्रे अध्यापक, चर्चा श्रवणेते ।
बृहस्पति साधुवाद करे हर्षचिते ॥४५४॥
भागवत-पाठेर उपमा दिते नाइ ।
व्यासादि शुनिते साध करे सुख पाइ ॥४५५॥
याꣳर भक्तिरीति देखि देवेर विस्मय़ ।
भट्टेर महिमा श्रीनिवास ऐछे कय़ ॥४५६॥
श्रीनिवासादिक भूमे पड़्इ प्रणामिय़ा ।
गोविन्द-मन्दिरे गेला विदाय़ हईय़ा ॥४५७॥
श्रीगोविन्द-मन्दिरे श्रीगोविन्द-दर्शने अनुराग—
गोविन्द-दर्शने महाविह्वल हईला ।
श्री-जीवगोस्वामी सङ्गे वासाय़ चलिला ॥४५८॥
अनुराग प्रबल बाढ़य़े क्षणे क्षणे ।
निजकृत गीत गाय़—आपना ना जाने ॥४५९॥
श्रीराधिका सखी-प्रति कहे वार वार ।
‘देखिल गोविन्द-रूप अमिय़ा-पाथार’ ॥४६०॥।
सुहई राग—
वदन-चान्द कुन् कुन्दारे कुन्दिल गो,
के ना कुन्दिल दुटि आꣳखि ।
देखिते देखिते मोर पराण येमन करे गो,
सेइ से पराण तार साक्षी ॥४६१॥
रतन काटिय़ा केबा यतन करिय़ा गो
केना गर्ह्̤आइय़ा दिल काणे ।
मनेर सहित मोर ए पाꣳच पराणे गो
योगी हैल उहारि धिय़ाने ॥४६२॥
नासिका-उपरे शोभे ए गाजमुकुता गो
सोनाय़ मण्डित तार पाशे ।
बिजुरि-जड़ित किबा चान्देर कलिका गो
मेघेर आड़ाले थाकि हासे ॥४६३॥
सुन्दर कपाले शोहे सुन्दर तिलक गो,
ताहे शोभे अलकार पाꣳति ।
हिय़ार माझारे मोर झलमल करे गो,
चान्दे येन भमरार पाꣳति ॥४६४॥
मदन-फाꣳदुय़ाओना चुड़ार टालनि गो,
उहा ना शिखिय़ाछिल कोथा ।
ए बुकु भरिय़ा सुख देखिते ना पानु गो
ए बड़ि मरमे मोर व्यथा ॥४६५॥
केमन मधुर से ना बोलखानि खानि गो,
हातेर उपरे लागि पाङ ।
तेमन करिय़ा यदि विधाता गाड़ित गो,
भाङ्गिय़ा भाङ्गिय़ा ताहा खाङ ॥४६६॥
करिवर-कर जिनि बाहुर बलनी गो,
हिङ्गुले मण्डित तार आगे ।
यौवनवनेर पाखी पिय़ासे मरय़े गो,
ताहारि परश—रस मागे ॥४६७॥
ठमकि ठमकि याय़ तेरच नय़ने चाय़,
येनमत गजराज माता ।
श्रीनिवास दासे कय़ ओरूप लखिल नय़,
रूपसिन्धु गर्ह्̤इल विधाता ॥४६८॥
अनुरागे श्रीनिवास धैर्य नाहि बाꣳधे ।
‘कि मधुर माधुरी देखिलु’—कान्दे ॥४६९॥
श्री-जीवगोस्वामी कत यत्ने करि स्थिर ।
स्नेहेर आवेशे गेला आपन कुटीर ॥४७०॥
श्रीनिवास आपनार वासाय़ राहिला ।
नरोत्तम, श्यामानन्द निज वासाय़ गेला ॥४७१॥
सर्वत्र दर्शनावेशे दिवस गोङाइ ।
रात्रे ये करय़े खेद तार अन्त नाइ ॥४७२॥
दुटि बाहु तुलिय़ा कहय़े वारे वारे ।
‘ए सुखे वञ्चित विधि करिल आमारे ॥४७३॥
श्रीगोविन्द, गोपीनाथ, मदनमोहन ।
मो अधमे पुनः कि दिवेन दरशन ॥४७४॥
श्रीराधाविनोद, राधारमण प्रभुरे ।
पुनः कि देखिब प्रभु राधादामोदरे ॥४७५॥
श्रीगोपालभट्ट प्रभु आनि व्रजपुरे ।
पुनः कि दिवेन पादपद्म-सेवा मोरे ॥४७६॥
गोस्वामी श्रीलोकनाथ करुणाविग्रह ।
मो अधमे पुनः कि करिब अनुग्रह ॥४७७॥
कृपामय़ भूगर्भ गोस्वामी कृपा करि ।
पुनः कि आनिब मो पापीर केश धरि ॥४७८॥
गोस्वामी श्रीरघुनाथदास दय़ानिधि ।
पुनः कि करिब मोर मनोरथसिधि ॥४७९॥
श्री-जीवगोस्वामी दीन दुःखीर जीवन ।
पुनः कि देखिब आमि ताꣳर श्रीचरण ॥४८०॥
हा हा प्रभुप्रिय़गाण ! मो हेन दुर्जने ।
पुनः व्रजे आनि कि राखिबा सन्निधाने ॥४८१॥
ऐछे कत कहिते कहिते नाहि पारे ।
कण्ठ रुद्ध हय़, नेत्रजलेइ साꣳतारे ॥४८२॥
श्रीनरोत्तमेर खेद कहा नाहि याय़ ।
याहार श्रवणे दारु पाषाण मिलय़ ॥४८३॥
श्यामानन्द आतिशय़ व्याकुल अन्तरे ।
करय़े यतेक खेद, कहिते के पारे ॥४८४॥
करिते ना पारे केहो धैर्यावलम्बन ।
विच्छेद चिन्ताय़ निशि करे जागरण ॥४८५॥
श्रीनिवास चित्ते ये उद्वेगा उपजय़ ।
ताहा से जानेन श्रीगोविन्द दय़ामय़ ॥४८६॥
श्रीनिवासेर प्राति श्रीगोविन्ददेवेर स्वप्नादेश ओ विदाय़दान—
श्रीगोविन्ददेवेर इच्छाय़ रात्रिशेषे ।
हई किञ्च्त् निद्रावेश श्रीनिवासे ॥४८७॥
स्वप्नच्छले श्रीगोविन्द मन्दिर हईते ।
गजेन्द्रगमने आइला आचार्य अग्रेते ॥४८८॥
जिनि पुञ्ज अञ्जन, जलज नीलमणि ।
रूपेर छटाय़ कोटि मदन निछनि ॥४८९॥
नाना रत्नभूषणे भूषित कलेवर ।
शिरे शिखिपिञ्छ-चूड़्आ परम सुन्दर ॥४९०॥
प्रत्यङ्ग अद्भुत शोभा—उपमा कि ताय़ ।
सुदीर्घ लोचनभङ्गि भुवन माताय़ ॥४९१॥
लक्ष लक्ष चन्द्रमा जिनिय़ा चान्दमुखे ।
हासिय़ा कहय़े श्रीनिवासे महासुखे ॥४९२॥
‘अहे श्रीनिवास ! खेद कर सम्वरण ।
शुनिते ना जानि प्राण करय़े केमन ॥४९३॥
तुमि मोर प्रेममूर्ति, ना जान ता तुमि ।
निरन्तर तोमार निकटे आछि आमि ॥४९४॥
मोर मनो’भीष्ट ये ता अनेक प्रकारे ।
करिलु प्रकाश रूपसनातन-द्वारे ॥४९५॥
तोमाद्वारे ग्रन्थरत्न करि वितरण ।
हरिब जीवेर दुःख दिय़ा प्रेमधन ॥४९६॥
ये जन लईबे आसि शरण तोमार ।
तारे आमि अवश्य करिब अङ्गीकार ॥४९७॥
हईब तोमार शिष्य भाग्यवन्तगण ।
ता सबा लईय़ा आस्वादिवा सङ्कीर्तन ॥४९८॥
कोनमते किछु चिन्ता ना करिह चिते ।
मध्ये मध्ये ऐछे मोरे पाइबा देखिते ॥४९९॥
एत कहि श्रीनिवासे करि अनुग्रह ।
हईलेन कि अद्भुत श्रीगौर-विग्रह ॥५००॥
देखि श्रीनिवास नारे धैर्य धारिवारे ।
लक्ष लक्ष लोचन मागय़े विधातारे’ ॥५०१॥
भूमे पड़ि करय़े श्रीचरण वृन्दन ।
प्रभु श्रीनिवास-माथे धरय़े चरण ॥५०२॥
आलिङ्गन करि गौड़े विदाय़ करिय़ा ।
मन्दिरे प्रवेशे गौरमूर्ति सम्वरिय़ा ॥५०३॥
श्रीगोविन्द अदर्शने व्याकुल हृदय़ ।
जागिय़ा देखय़े—निशि प्रभात-समय़ ॥५०४॥
परम गभीर श्रीनिवास धैर्य धरि ।
बसिल निभृते प्रातःक्रियादिक करि ॥५०५॥
श्रीनरोत्तमेर तथा हैल आगमन ।
सङ्गे श्यामानन्द सर्वमते विचक्षण ॥५०६॥
श्रीनिवास आचार्य ए दोहे सङ्गे लैय़ा ।
श्री-जीवगोस्वामि-पाशे मिलिलेन गिय़ा ॥५०७॥
तेꣳह श्रीनिवासादि-सबारे सङ्गे करि ।
श्रीगोविन्द-मन्दिरे आइला शीघ्र करि ॥५०८॥
तथा सब महान्तेर हैल आगमन ।
ता सबार नाम कहि शुभेर कारण ॥५०९॥
श्रीनिवासेर विदाय़काले समवेत महान्त वैष्णववृन्द—
गोस्वामी गोपालभट्ट अति दय़ामय़ ।
भूगर्भ, श्रीलोकनाथ गुणेर आलय़ ॥५१०॥
श्रीमाधव, श्रीपरमानन्द भट्टाचार्य ।
श्रीमधुपण्डित—याꣳर चरित्र आश्चर्य ॥५११॥
प्रेमी कृष्णदास, कृष्णदास ब्रह्मचारी ।
राघवपण्डित प्रेमभक्ति—अधिकारी ॥५१२॥
यादव आचार्य, नाराय़ण कृपावान् ।
श्रीपुण्डरीकाक्ष गोसाञी, गोविन्द, ईशान ॥५१३॥
श्रीगोविन्द, वाणी कृष्णदास अत्युदार ।
श्रीउद्धव—मध्ये मध्ये गौड़्ए गति याꣳर ॥५१४॥
द्विज हरिदास, कृष्णदास कविराज ।
श्रीगोपालदास—याꣳर अलौकिक काज ॥५१५॥
आइला वैष्णव यत कत निब नाम ।
व्रजवासिगण आइला आनन्देर धाम ॥५१६॥
श्री-जीवगोस्वामी कृष्णपण्डितादि सुखे ।
आनाइला ग्रन्थरत्न सबार सम्मुखे ॥५१७॥
सवाकार अनुमति पाय़ा सेइक्षण ।
कराइला गाड़ीते ग्रन्थेर आरोहण ॥५१८॥
ग्रन्थेर सम्पुट राखाइला सावधाने ।
गाड़्ई चालाइते आज्ञा कैल सर्वजने ॥५१९॥
शुभक्षणे गाड़्ई चालाइला गाड़ोय़ान ।
आगे पाछे चले पदातिक भाग्यवान् ॥५२०॥
आर एक लोक योग्य सर्वप्रकारेते ।
अति सावधाने चले गाड़्ईर सङ्गेते ॥५२१॥
एइरूपे गाड़्ई चले मथुरार पथे ।
कथोदूर सकल गोस्वामी चले साथे ॥५२२॥
कहि कत अतिशय़ व्याकुल हिय़ाय़ ।
श्रीनिवास आचार्येरे करिला विदाय़ ॥५२३॥
श्रीनिवासादि अति व्याकुल हईय़ा ।
चलिलेन सबार चरणे प्रणमिय़ा ॥५२४॥
श्री-जीवगोस्वामी आदि विज्ञ कथोजन ।
करिलेन श्रीमधुरा पर्यन्त गमन ॥५२५॥
आर सबे निज निज वासाय़ चलिला ।
के वर्णिब—विच्छेद येरूप सबे हैला ॥५२६॥
एथा मथुराय़ सबे हैला उपनीत ।
मथुरानिवासी लोक अति उल्लसित ॥५२७॥
से दिवस ये कौतुक मथुरा नगरे ।
ग्रन्थेर बाहुलाभय़े नारि वर्णिवारे ॥५२८॥
कृष्णकथारसे दिवारात्रि गोङाइय़ा ।
मथुरा हईते चले प्रभाते उठिय़ा ॥५२९॥
श्री-जीवगोस्वामी कथोदूर गेला सङ्गे ।
विदाय़समय़े भासे दुःखेर तरङ्गे ॥५३०॥
श्रीनिवास आचार्य ठाकुरे करि कोले ।
करिलेन सिक्त दुटि नय़नेर जले ॥५३१॥
नरोत्तम, श्यामानन्द दोꣳहे समर्पिय़ा ।
विदाय़ करिला अति व्याकुल हईय़ा ॥५३२॥
श्रीनरोत्तमेरे करि दृढ़ आलिङ्गन ।
कहिलेन यैछे ताहा ना हय़ वर्णन ॥५३३॥
श्यामानन्दे समर्पण करिय़ा स्नेहेते ।
आलिङ्गन करि तारे नारे स्थिर हैते ॥५३४॥
कृष्णदास कविराज पण्डित राघव ।
श्रीगोपाल माधवादि यतेक वैष्णव ॥५३५॥
सकले अधैर्य हैला विदाय़ेर काले ।
श्रीनिवास-आदि सिक्त हैला नेत्रजले ॥५३६॥
परस्पर आलिङ्गन प्रणामादि यैछे ।
से अति आश्चर्य, ता वर्णिव केबा कैछे ॥५३७॥
मथुरार गृहस्थ वैष्णव, शिष्टगण ।
से सकले करिलेन अनेक क्रन्दन ॥५३८॥
श्रीनिवास आचार्यादि से सब-सहिते ।
यथायोगा मिलिलेन कान्दिते कान्दिते ॥५३९॥
विदाय़ हईला श्रीलाचार्य विज्ञवर ।
सबे बाहुड़िय़ा गेला निज निज घर ॥५४०॥
श्री-जीवगोस्वामी-आदि गेला वृन्दावन ।
सकले करेन शुभ चिन्ता अनुक्षण ॥५४१॥
एथा श्रीनिवास आचार्यादि सावधाने ।
चलिलेन गौड़े लैय़ा ग्रन्थरत्नगाणे ॥५४२॥
श्रीनिवास आचार्येर श्रीगौड़-गमन ।
ये शुने ताहारे मिले भकतिरतन ॥५४३॥
श्रीनिवास-आचार्यचरण चिन्ता करि ।
भक्तिरत्नाकर कहे दास नरहरि ॥५४४॥
इति श्रीमद्भक्तिरत्नाकरे श्रीनिवासाचार्यस्य वृन्दावनादेगौड़्अ
गमनवर्णनꣳ नाम षष्ठस्तरङ्गः ॥
…