चतुर्थ तरङ्ग
सपार्षद श्री-गौरसुन्दरेर जय़—
जय़ नवद्वीप-चन्द्र शचीर नन्दन ।
अनाथेर नाथ, भक्ति-जनेर जीवन ॥१॥
जय़ नित्यानन्द पद्मावतीर तनय़ ।
भुवन-पावन प्रभु अति दय़ामय़ ॥२॥
जाय़ जय़ गदाधर माधवञन्दन ।
जय़ जय़ श्री-वासादि प्रभु-भक्त-गण ॥३॥
जय़ जय़ श्रोतागण गणेर आलय़ ।
एब ये कहिय़े शुन हईय़ा सदय़ ॥४॥
श्रीनिवासेर नवद्वीप-दर्शन—
नवद्वीप-प्रान्ते श्रीनिवास व्यग्र हञा ।
कराय़े क्रन्दन नवद्वीप-पाने चाञा ॥५॥
वृक्षमूले वसिय़ा रहिला कतक्षण ।
अनेक यत्ने कैल धैर्यावलम्बन ॥६॥
नवद्वीपे गौराङ्गेर विलास आश्चर्य ।
से सब भाविते पुनः हईल अधैर्य ॥७॥
नवद्वीप प्रवेशिते देखे चमत्कार ।
भक्त-गोष्ठी-सह प्रभुर प्रकट-विहार ॥८॥
परम अद्भुत गौराङ्गेर गुण गाइ ।
नवद्वीपाङ्गना सब करे धाओय़ा धाइ ॥९॥
भुवन-मङ्गल सङ्कीर्तन घरे घरे ।
आनन्देर नदी बहे नदीय़ा-नगरे ॥१०॥
देखि आत्म-विस्मरित हैल श्रीनिवास ।
के कहिते पारे यैछे बाड़िल उल्लास ॥११॥
ऐछे कतक्षण देखि देखे तारपर ।
दुःखेर समुद्रे सबे भासे निरन्तर ॥१२॥
श्रीनिवास विस्मित हईय़ा आगे याय़ ।
प्रभुर आलय़ कोथा सबारे शुधाय़ ॥१३॥
केह किछु नाहि कय़—भासे नेत्रजले ।
श्रीनिवास व्याकुल हईय़ा पथे चले ॥१४॥
श्री-गौर-नित्यानन्दाद्वैत-विरहे विलाप—
‘हा हा गौर गदाधर-प्राणनाथ’ बलि ।
करय़े फुत्कार ऊर्ध्वे दुइ बाहु तुलि ॥१५॥
हा हा प्रभु नित्यानन्दाद्वैत दय़ामय़ ।
एत कहि हैला महा-अधैर्य-हृदय़ ॥१६॥
पाषाण-विदरे—ऐछे करय़े क्रन्दन ।
तथा अकस्मात् आइलेन एकजन ॥१७॥
अपूर्व बालक देखि विस्मित हईय़ा ।
प्रभुर बाड़ीर पथ दिल देखाइय़ा ॥१८॥
बाड़ीर निकटे गिय़ा चाहि चारि पाने ।
काण्ठेर पुतलिप्राय़ रहे एकस्थाने ॥१९॥
श्री-वꣳशीवदनेर सहित साक्षात्—
श्री-वꣳशीवदन देखे विना परिचय़ ।
मने विचारय़े श्रीनिवास ए निश्चय़ ॥२०॥
निकटे आसिय़ा परिचय़ जिज्ञासिल ।
श्रीनिवास आद्योपान्त सब निवेदिल ॥२१॥
श्री-वꣳशीवदन धरि करिलेन कोले ।
श्रीनिवासे सिक्त कैल निजञेत्र-जले ॥२२॥
श्रीनिवास भुमे पड़ि चाहे प्रणमिते ।
श्री-ठाकुर वꣳशी ना छाड़य़े कोल हैते ॥२३॥
श्री-ईश्वरी विष्णुप्रिय़ा-माय़े जानाइते ।
चलिलेन श्री-वꣳशीवदन साबहिते ॥२४॥
श्री-विष्णुप्रिय़ा देवीर स्वप्न—
एथा विष्णुप्रिय़ा प्रिय़-दासी प्रति कय़ ।
देखिनु स्वप्न, कहि मने ये आछय़ ॥२५॥
भुवन-मोहन प्रभु मोर प्राण-पति ।
आइल आमार आगे, कि मधुर गति ॥२६॥
कामेर गरव-नाशे से रूपेर छटा ।
ताहे कि उपमा छार विजुवीर घटा ॥२७॥
किबा चारु-चन्दन-चार्चित सब तनु ।
शरदेर चाꣳद-वाटि लोपिय़ाछे यनु ॥२८॥
भूषणे भूषित से वसन परिधाने ।
लोभाय़ युवति-लाज, भय़ नाहि मने ॥२९॥
आहा मरि ! चाꣳचर चिकल चारु चूले ।
किबा से सौरभ, ताय़ केबा नाइ भुले ॥३०॥
दुटि आꣳखि दीघल कमल-दल जिनि ।
ना धरे धैरय केह देखि से चाहनि ॥३१॥
आजानुलम्बित बाहु, भङ्गी मनोहर ।
जगत् माताय़ किबा वक्षः परिसर ॥३२॥
से चाꣳदवदने अति मन्द मन्द हासि ।
ना जानि कि अनिय़ा वरिषे राशि राशि ॥३३॥
कत ना आदरे मोरे वसाय़े आसने ।
धीरे धीरे कहे मोरे मधुर वचने ॥३४॥
श्रीनिवास-नामे एक ब्राह्मण-कुमार ।
पाइल यतेक दुःख—लेखा नाहि तार ॥३५॥
अद्य आसिबेन तिꣳह तोमार दर्शने ।
आपना जानिय़ा कृपा करिबा ताहाने ॥३६॥
ऐछे कत कहि कि आनन्द प्रकाशिय़ा ।
हैल अदर्शन, दुःखे वसिनु जागिय़ा ॥३७॥
बुझिनु से मोर प्राण-नाथ-प्रिय़ अति ।
मने हेन हय़—ताꣳर हबे शीघ्र गति ॥३८॥
विष्णुप्रिय़ा देवीर समीपे श्रीनिवास—
हेनकाले श्री-वꣳशीवदन जानाइला ।
नीलाचल हैते श्रीनिवास एथा आइला ॥३९॥
शुनि ईश्वरीर इच्छा हईल देखिते ।
श्रीनिवास गेलेन श्री-ईश्वरी साक्षाते ॥४०॥
प्रेम-धारा नेत्रेते बहय़े निरन्तर ।
धरणी-लोटाञा कैल प्रणति विस्तर ॥४१॥
श्रीनिवास प्रणमय़े शुनिय़ा ईश्वरी ।
दाꣳडाइल सङ्गोपने गौराङ्ग स्मङरि ॥४२॥
प्रभुर विच्छेद-दावानले ज्वले हिय़ा ।
तथापि उल्लास श्रीनिवासे निरखिय़ा ॥४३॥
वात्सल्यानुग्रहे कहि मधुर वचन ।
श्रीनिवास-मस्तके दिलेन श्री-चरण ॥४४॥
महाप्रसाद भुञ्जाइते आज्ञा दिय़ा ।
हईलेन स्तब्ध, नेत्रजले भासे हिय़ा ॥४५॥
श्रीनिवासे दिल केह प्रसाद विलसे ।
पाइल प्रसाद, सिक्त हैय़ा नेत्रजले ॥४६॥
श्री-विष्णुप्रिय़ा-देवीर कठोर वैराग्य—
प्रतिदिन श्रीनिवास करय़े दर्शन ।
ईश्वरीर क्रिय़ा—यैछे ना हय़ वर्णन ॥४७॥
प्रभुर विच्छेदे निद्रा त्यजिल नेत्रेते ।
कदाचित् निद्रा हैल शय़न-भूमिते ॥४८॥
कनक जिनिय़ा अङ्ग से अति मलिन ।
कृष्ण-चतुर्दशीर शशीर प्राय़ क्षीण ॥४९॥
हरिनाम-सꣳख्या पूर्ण तण्डुले करय़ ।
से तण्डुल पाक करि प्रभुरे अर्पय़ ॥५०॥
ताहारई किञ्चिन् मात्र करय़े भक्षण ।
केह ना जानय़े क्षने राखय़े जीवन ॥५१॥
श्रीनिवासेर प्रति कृपा—
श्रीनिवासे सन्दर्शन दिय़ा दिने दिने ।
ये दशा हईल, ता वर्णिबे कोन् जने ॥५२॥
तखनई से अनुभव कैल सर्व-जन ।
श्रीनिवासे कृपा-हेतु ए देह-धारण ॥५३॥
श्रीनिवास-भाग्य प्रशꣳसय़े सर्व-जन ।
श्रीनिवास-सम नाइ, कृपार भाजन ॥५४॥
स्वप्नच्छाले शचीमाता श्रीनिवास-प्रति ।
ये कृपा करिल, ता वर्णिते कि शकति ? ॥५५॥
नवद्वीप-वासी भक्त-गणेर कृपा—
नवद्वीप-ग्रामे हैल ए वाक्य-प्रकाश ।
आइलेन गौर प्रेम-पात्र श्रीनिवास ॥५६॥
श्री-मुरारि, श्रीवास-पण्डित, दामोदर ।
सञ्जय़, विजय़, ब्रह्मचारी शुक्लाम्भर ॥५७॥
दास गदाधर आदि प्रभु-प्रिय़-गण ।
श्रीनिवासे अनुग्रह कैल सर्व-जन ॥५८॥
यद्यपि प्रभु-विच्छेदे सबे मृतप्राय़ ।
तथापिह पाइला सुख प्रभुर इच्छाय़ ॥५९॥
श्रीनिवासे अनुग्रह करिबार तरे ।
ए हेतु प्रकट राखिलेन परिकरे ॥६०॥
श्रीवास-गृहिणी आदि पतिव्रता-गण ।
श्रीनिवासे ये वात्सल्य ना याय़ लिखन ॥६१॥
श्रीनिवासे राखि सबे किछुदिन परे ।
आज्ञा दिल शीघ्र वृन्दावन याइबार ॥६२॥
श्रीनिवासेर शान्तिपुरे गमन—
सर्वत्र विदाय़ हैय़ा व्याकुल-हृदय़े ।
शान्तिपुर चले प्रभु अद्वैत-आलय़े ॥६३॥
शान्तिपुर प्रवेशिते महा-दुःखी हैला ।
प्रभु हा श्री-अद्वैत देखा दिय़ा प्रबोधिला ॥६४॥
श्रीनिवास स्थिर नाहे मने मने गणि ।
कि आश्चर्य देखिनु, ए भ्रम अमुमानि ॥६५॥
ऐछे, विचारिते पुनः हईल आदेश ।
घुचिल मनेर भ्रम उल्लास-विशेष ॥६६॥
भासय़े नेत्रेर जले से-रूप भाविय़ा ।
प्रभुर मन्दिरे शीघ्र उत्तरिला गिय़ा ॥६७॥
श्रीनिवास-गमन शुनिय़ा सर्व-जन ।
देखिते सबार हईल उत्कण्ठित मन ॥६८॥
प्रभुर विय़ोगे सबे व्याकुल अन्तर ।
हईय़ाछे सबार दुर्बल कलेवर ॥६९॥
श्री-सीता-देवीर आशीर्वाद—
प्राण-मात्र आछे सीता मातार शरीरे ।
श्रीनिवासे बोलाइय़ा लैल अन्तःपुरे ॥७०॥
श्रीनिवास कैल गिय़ा चरण वन्दन ।
श्री-अनुग्रह करि माथे दिला श्री-चरण ॥७१॥
दुइ नेत्रे अश्रुधारा निरन्तर बहे ।
गदगद-वाक्ये किछु श्रीनिवासे कहे ॥७२॥
अहे बापु श्रीनिवास ! आछि पथ चाहिय़ा ।
भाल कैले आइला, सुख पाइनु देखिय़ा ॥७३॥
चिरजीवी हईय़ा थाकह पृथिवीते ।
जीवेर मङ्गल हबे तोमार द्वाराते ॥७४॥
ए हेन दुर्लभ प्रेम-भक्ति बिलाइबा ।
भक्तेर सर्वस्व भक्ति-शास्त्र प्रचारिवा ॥७५॥
केह केह तोमारे मिलिबे कतदिने ।
ए सकल दुःखे स्थिर हबे ताहा सने ॥७६॥
हईबेक तोमार अनेक अनुचर ।
सङ्कीर्तन-सुखेते भासिवा निरन्तर ॥७७॥
शीघ्र करि याइते हईबे वृन्दावन ।
तथा शिष्य हबे, हबे वाञ्छित पूरण ॥७८॥
कत कहि मदन गोपाले समर्पिल ।
निज-पुत्र-भृत्य-गणे सबे मिलाइल ॥७९॥
श्रीनिवासे ये वात्सल्य नारि वर्णिवार ।
विदाय़ करिला कहि अनेक प्रकार ॥८०॥
श्रीनिवासेर खड़दहे-गमन—
सबारे बन्दिय़ा श्रीनिवास महाशय़ ।
खड़दह गेला प्रभु नित्यानन्दालय़ ॥८१॥
श्रीनिवासे देखि श्री-परमेश्वरी दास ।
महा-दुःखी तथापिह पाइल उल्लास ॥८२॥
मने दढ़ाइल—एइ श्रीनिवास हय़ ।
निकटे आसिय़ा पाइलेन परिचय़ ॥८३॥
खड़दह-ग्रामेते व्यापिल एइ कथा ।
आइलेन चाखन्दिर श्रीनिवास एथा ॥८४॥
श्रीनिवासे देखिते उद्विग्न सर्व-जन ।
यथा श्रीनिवास तथा करिल गमन ॥८५॥
एथा परमेश्वरी-दास श्रीनिवासे ।
लईय़ा गेलेन शीघ्र प्रभुर आवासे ॥८६॥
श्रीनिवास भासय़े सदाइ नेत्रजले ।
प्रणमि पड़िला ईश्वरीर पदतले ॥८७॥
श्री-वसु-जाह्नवा-वीरभद्रादिर कृपा-लाभ—
श्री-वसु-जाह्नवी वीरभद्रेर सहित ।
श्रीनिवासे देखिय़ा पाइल महा-प्रीत ॥८८॥
यद्यपि दारुण दुःख सहने ना याय़ ।
तथापि जन्मिल सुख सबार हिय़ाय़ ॥८९॥
दिन चारि पाꣳच रहिलेन सेइखाने ।
श्रीनिवासे छाड़िते ना पारे कोन जने ॥९०॥
सूर्य-दास, गौरी-दास, पण्डित महेश ।
तथा बहु भक्त कृपा करिल अशेष ॥९१॥
श्री-जाह्नवी, प्रभु आदि व्याकुल अन्तरे ।
आज्ञा करिलेन वृन्दावन याइबारे ॥९२॥
श्री-वसु-जाह्नवी पुनः स्नेहावेशे कय़ ।
शीघ्र याबे अभिराम-गोपाल-आलय़ ॥९३॥
श्रीनिवास प्रणमिय़ा हईला विदाय़ ।
निरन्तर भासे दुइ नेत्रेर धाराय़ ॥९४॥
नित्यानन्द-शुणे महा-व्याकुल हईला ।
तार इच्छामते नाना रहस्य देखिला ॥९५॥
श्रीनिवासेर खानाकुले गमन—
श्रीनिवास से आनन्द समुद्रे भासिल ।
अभिराम-निकटे याइते यात्रा कैल ॥९६॥
अति अनुरागे पथे करय़े गमन ।
‘वीर-लोक’ याइते सङ्गी हैल एकजन ॥९७॥
प्राचीन ब्राह्मण, खानाकुले ताꣳर घर ।
श्रीनिवासे जिज्ञासय़े प्रसन्न अन्तर ॥९८॥
‘कि नाम तोमार बापु याइबा कोथाय़ ?’ ।
श्रीनिवास निवेदिल प्रणमिय़ा ताय़ ॥९९॥
शुनि विप्र कहय़े विह्वल हैय़ा प्रेमे ।
शुनिनु तोमार कथा खड़दह-ग्रामे ॥१००॥
आइसे बापु श्रीनिवास ! तोमा कालि कोले ।
एत कहि कोले लैय़ा भासे नेत्रजले ॥१०१॥
ठाकुर अभिरामेर चरित्र—
श्री-ठाकुर अभिराम गुणेर आलय़ ।
तोमारे करिबे अनुग्रह अतिशय़ ॥१०२॥
अभिराम गोस्वामीर प्रताप प्रचण्ड ।
याꣳरे देखि काꣳपे सदा दुर्जय़ पाषण्ड ॥१०३॥
नित्यानन्द-आवेशे उन्मत्त निरन्तर ।
जगते विदित याꣳर कृपा मनोहर ॥१०४॥
अहे श्रीनिवास ! कत कहिब तोमारे ? ।
जीव उद्धारिते अवतीर्ण विप्रघरे ॥१०५॥
सर्व-शास्त्रे पण्डित परम मनोरम ।
नृत्य-गीत-वाद्ये विशारद निरुपम ॥१०६॥
प्रभु नित्यानन्द-बलरामेर इच्छाते ।
करिल विवाह विज्ञ विप्रेर गृहेते ॥१०७॥
श्री-अभिरामेर पत्नी-नाम श्री-मालिनी ।
ताꣳहार प्रभाव यत कहिते ना जानि ॥१०८॥
अहे श्रीनिवास ! श्री-ठाकुर अभिराम ।
कृष्ण-लीला-काले एꣳह प्रसिद्ध श्रीदाम ॥१०९॥
एबे सेइ पूर्वाक्रिय़ाद्वारे व्यक्त हैला ।
कोन भृत्ये श्रीदाम-रूपेते देखा दिला ॥११०॥
श्री-ठाकुर अभिराम प्रेम-मूर्ति-मय़ ।
सर्व-लोके पूज्य, यशः केबा ना घुषय़ ? ॥१११॥
तथाहि तच्छाखा-श्री-वेद-गर्भाचार्य-कृत-पद्ये—
श्रीदामाख्यꣳ पुरा प्रेम-मूर्तिꣳ विप्र-शिरोमणिम् ।
श्री-मालिनी-पतिꣳ पूज्यम् अभिरामम् अहꣳ भजे ॥११२॥
ठाकुर अभिरामे गोपीनाथ सेवा—
अहे श्रीनिवास ! कि अपूर्व ताꣳर रीत ।
श्री-विग्रह-सेवा लागि हैला उत्कण्ठीत ॥११३॥
गोपीनाथ स्वप्नच्छले साक्षात् हईला ।
‘एथा मोर स्थिति’—कहि स्थान देखाइला ॥११४॥
सेइ स्थान खनन करिय़ा अभिराम ।
पाइलेन गोपीनाथ-मूर्ति अनुपाम ॥११५॥
सर्वत्र हईल ध्वनि, धाय़ सर्व-लोक ।
करितेइ दर्शन पासरे दुःख-शोक ॥११६॥
गोपीनाथ-प्रकट कुण्डेर दिव्य-जल ।
स्नान पाने हैला सबे आनन्दे विह्वल ॥११७॥
‘रामकुण्ड’ बलि ख्याति हईल ताहार ।
लोक गताय़ात यत सीमा नाइ तार ॥११८॥
मालिनी श्री-अभिराम निजगण लैय़ा ।
श्री-गोपीनाथेर सेवा करे हर्ष हैय़ा ॥११९॥
मध्ये मध्ये प्रभु नित्यानन्द गण-सने ।
आइसेन प्रिय़ अभिरामेर भवने ॥१२०॥
श्री-अभिराम ठाकुरेर वꣳशीवादन लीला—
एकदिन प्रेमानन्दे मत्त अभिराम ।
करय़े नर्तन, से भङ्गिमा अनुपम ॥१२१॥
सख्य-रसावेशे वꣳशी बाजाइते चाय़ ।
इति-उति फिरे, निज-वꣳशी नाहि पाय़ ॥१२२॥
शताधिक लोके यारे नारे चालाइते ।
हेन काण्ठे वशी करि धरिलेन हाते ॥१२३॥
ताहा देखि सबे महा विस्मित हईला ।
मध्ये मध्ये ऐछे ताꣳर अलौकिक-लीला ॥१२४॥
एबे नित्यानन्द-बलराम-आदर्शने ।
सदा दीर्घ-श्वास, कथा नाहि कार सने ॥१२५॥
से अति दुर्गम चेष्टा बुझे भाग्यवान् ।
देखिबा साक्षाते बापु हबा सावधान ॥१२६॥
एत कहि विप्र अति स्नेह-युक्त हैय़ा ।
श्री-अभिरामेर बाड़ि दिल देखाइय़ा ॥१२७॥
श्रीनिवास करि विप्र-चरण-वन्दन ।
करिलेन नित्यानन्द-चन्द्रेर स्मरण ॥१२८॥
खानाकुले अभिराम-गृहे श्रीनिवास—
ईश्वरीर आज्ञाबल हृदय़े धरिय़ा ।
श्री-अभिरामेर गृहे उत्तरिला गिय़ा ॥१२९॥
प्रणति करिय़ा बहिर्द्वारेते रहिल ।
वीर-लोके श्रीनिवास गमन देखिल ॥१३०॥
अभिराम ठाकुर श्री-प्रभुर विरहे ।
सदा प्रेमावेशे कारे किछुइ ना कहे ॥१३१॥
ठाकुर अभिरामेर परीक्षा ओ कृपा—
श्रीनिवास आइला जानि हासे मन्द मन्द ।
‘परीक्षा कारिब’—मने कैल अनुबद्ध ॥१३२॥
दशकड़ा कड़ि दिल निर्वाह करिते ।
इह यथायोग्य द्रव्य किनिल ताहाते ॥१३३॥
तथा दारुकेश्वर-नदीर तीरे गेला ।
रान्धन करिय़ा कृष्णे भोग समर्पिला ॥१३४॥
हेनकाले ठाकुर पाठाइल चारिजन ।
ताꣳरे देखि श्रीनिवास उल्लसित मन ॥१३५॥
प्रणमिय़ा चारि जने ताहा भूञ्जाइला ।
आपनिओ सेइ महाप्रसाद पाइला ॥१३६॥
श्रीनिवास-चरित्रे सबार हर्ष हिय़ा ।
ठाकुरे कहय़े—आइलाम तृप्त हैय़ा ॥१३७॥
ए सब परीक्षा अन्ये शिक्षा कराइते ।
श्रीनिवासे सनाइला आपन साक्षाते ॥१३८॥
श्री-जय़-मङ्गल नामे चाबुक ताꣳहार ।
श्रीनिवास-अङ्गे स्पर्शाइला तिनवार ॥१३९॥
मनेर उल्लासे से चाबुक स्पर्शाइय़ा ।
खल खल हासे श्रीनिवासे किछु कैय़ा ॥१४०॥
प्रेमावेशे पुनः से चाबुक स्पर्शाइते ।
श्री-मालिनी-देवी आसि धरिलेन हाते ॥१४१॥
मालिनी कहय़े—‘धैर्य धरह गोसाञि ।
कैला अनुग्रह ये, ताहार सीमा नाइ ॥१४२॥
श्रीनिवास बालक नारिबे स्थिर हैते ।
प्रेमे मत्त हईले कार्य साधित कि मते ?’ ॥१४३॥
ऐछे परस्पर कहि प्रसन्न हिय़ाय़ ।
दोꣳहे हस्त धरे श्रीनिवासेर माथाय़ ॥१४४॥
श्रीनिवास पाड़िला दोꣳहार पदतले ।
दोꣳहे तोलाइय़ा शिक्त कैल नेत्रजले ॥१४५॥
दोꣳहे यत स्नेह कैला श्रीनिवास-प्रति ।
से-सकल कहिते कि आमार शकति ? ॥१४६॥
समार्पिय़ा राधा-गोपीनाथेर चरणे ।
दोꣳहे, आज्ञा दिलेन याइते वृन्दावने ॥१४७॥
कृष्ण-नगर-खानाकुल-वासी यत ।
श्रीनिवासे देखि स्नेह बाड़े अविरत ॥१४८॥
श्रीनिवासेर श्री-खण्डे पुनर् आगमन—
सर्व वैष्णवेर स्थाने हईय़ा विदाय़ ।
श्री-खण्डे आइला पुनः व्याकुल हिय़ाय़ ॥१४९॥
श्री-ठाकुर नरहरि, श्री-रघुनन्दन ।
श्रीनिवासे देखि कैल गार्ह्̤अ आलिङ्गन ॥१५०॥
पुछिलेन सकल वृत्तान्त धीरे धीरे ।
निवेदिल श्रीनिवास भासि नेत्रनीरे ॥१५१॥
ठाकुर श्री-नरहरि, श्री-रघुनन्दन ।
अनुमति दिलेन याइते वृन्दावन ॥१५२॥
श्रीनिवासे ठाकुर लईय़ा पुनः कोले ।
छाड़िते ना पारय़े, भासय़े नेत्रजले ॥१५३॥
पथेर सन्धान सब दिलेन कहिय़ा ।
विदाय़ कालेते विदीर्ण हैल हिय़ा ॥१५४॥
श्री-ठाकुर नरहरि, श्री-रघुनन्दने ।
दोꣳहे प्रणमिय़ा यात्रा कैल शुभक्षणे ॥१५५॥
याजि-ग्राम हईते वृन्दावन-यात्रा—
यैच्छ पथे चले, ताहा ना हय़ वर्णन ।
याजि-ग्रामे गिय़ा कैल मातार दर्शन ॥१५६॥
सकल वृत्तान्त निवेदिय़ा ताꣳर आगे ।
शीघ्र वृन्दावन याइबारे आज्ञा मागे ॥१५७॥
शुनिय़ा मातार चित्त व्याकुल हईल ।
श्रीनिवासे निषेध करिते ना पारिल ॥१५८॥
दिन पाꣳच सात पुत्रे यत्नेते राखिला ।
श्रीनिवास आश्वासिय़ा विदाय़ हईला ॥१५९॥
पुनः-पुनः प्रणमिय़ा माय़ेर चरणे ।
चलिलेन मिलि प्रेम-वासी सर्व-जने ॥१६०॥
अग्रहाय़ण-शुरु-द्वितीय़ाय़ गृह हैते ।
रहिलेन कत दूरे कार चेष्टामते ॥१६१॥
पथे कण्टक-नगर, गौड़ेश्वर कुण्डली-दमन ओ एकचक्रादि स्थाने—
अग्रद्वीप आदि ग्रामे भक्त घरे घरे ।
विदाय़ हईय़ा आइला कण्टक-नगरे ॥१६२॥
महाप्रभु कैल यथा सन्न्यास-ग्रहण ।
तथा प्रेमावेशे कैल अनेक क्रन्दन ॥१६३॥
तथा हैते त्वराय़ याइय़ा गौड़्एश्वर ।
शिवेर दर्शने हैल प्रसन्न अन्तर ॥१६४॥
तथा जन-गण श्रीनिवासे निलवेदिला ।
यैछे सर्प-भय़, प्रभु परित्राण कैला ॥१६५॥
कुण्डली-दमन स्थान देखि श्रीनिवास ।
प्रभु नित्यानन्द बलि छाड़े दीर्घ-श्वास ॥१६६॥
सर्व-चित्त आकर्षि श्रीनिवास विज्ञवर ।
एकचक्रा गेला यथा हाड़ो ओझा-घर ॥१६७॥
तथा प्रवेशिते श्वेतद्वीप हईल ज्ञान ।
नेत्र भरि देखे नित्यानन्द जन्मस्थान ॥१६८॥
नित्यानन्द-प्रभु यथा कैल रामलीला ।
से सकल स्थान देखि व्याकुल हईला ॥१६९॥
ऊर्द्ध्व-बाहु करि नित्यानन्द-गुण गाय़ ।
निरन्तर भासे दुइ नेत्रेर धाराय़ ॥१७०॥
धूलाय़ धूसर अङ्ग भूमिते लोटाय़ा ।
प्रभु-इच्छा-मते निद्रा करिल सहाय़ ॥१७१॥
श्रीनिवासेर स्वप्ने गण-सह श्री-नित्यानन्देर दर्शन—
स्वप्नच्छले साक्षात् देखय़े महारङ्ग ।
विहरय़े नित्यानद्द सङ्गिगण-सङ्ग ॥१७२॥
प्रभु-गण-सह शोभा करिय़ा दर्शन ।
बार्ह्̤इल आनन्द, जुड़ाइल नेत्रमन ॥१७३॥
निद्राभङ्ग हईले दुःख हईल अशेष ।
प्रभु कैल वृन्दावन-गमने आदेश ॥१७४॥
श्रीनिवास एकचक्रा ग्रामे नमस्करि ।
चलिलेन नित्यानन्द-चरण सङ्रि ॥१७५॥
ये ये ग्राम दिय़ा श्रीनिवास चलि याय़ ।
से-सकल ग्राम-वासी देखिबारे धाय़ ॥१७६॥
नाना यत्न करे सबे किछु भुञ्जाइते ।
श्रीनिवास करेन सबार सुख याते ॥१७७॥
गय़ा, काशी, अयोध्या, प्रय़ाग ओ मथुराय़ श्रीनिवास—
कतदिने गय़ाक्षेत्रे उत्तरिल गिय़ा ।
विष्णु-पाद-पद्म देखे प्रेमाविष्ट हैय़ा ॥१७८॥
तथा महाप्रभु-पुरीश्वरेर मिलन ।
से सब सङ्रि नेत्रे धारा अनुक्षण ॥१७९॥
किबा स्त्री पुरुष—येबा देखे श्रीनिवासे ।
से हय़ अधैर्य, सदा नेत्रजले भासे ॥१८०॥
किबा मध्य-यौवन परमानन्द-मय़ ।
देखिले वारेक सङ्ग छाड़िते नारय़ ॥१८१॥
एइरूप सर्व-चित्त करि आकर्षण ।
काशी गिय़ा देखे चन्द्रशेखर-भवन ॥१८२॥
तथा चन्द्रशेखरेर शिष्य-महाशय़ ।
श्रीनिवासे देखि हैल आनन्द-हृदय़ ॥१८३॥
परिचय़ पाइय़ा प्रेमे अधैर्य हईला ।
श्रीनिवासे कोले करि कान्दिते लागिला ॥१८४॥
प्रभुर येखाने स्थिति, ताहा देखाइय़ा ।
दुइ चारि दिवस राखिल यत्न पाञा ॥१८५॥
काशीते ये छिला प्रभु अनुगत जन ।
ताꣳ सबार सह तथा हईल मिलन ॥१८६॥
विदाय़ हईय़ा अति द्वराय़ चलिला ।
अयोगध्या, प्रय़ाग देखि प्रेमाविष्ट हैला ॥१८७॥
तथा हैते व्रजे चलिलेन श्रीनिवास ।
उपजय़े अन्तरे अनेक अभिलाष ॥१८८॥
रूप-सनातन-पाद-पद्म हृदे धरि ।
मथुरा-नगरे प्रवेशिला ताड़ाताड़ि ॥१८९॥
कꣳस मारि विश्राम करिला कृष्ण यथा ।
सेइ श्री-विश्राम-घाट, उत्तरिला तथा ॥१९०॥
दुइ चारि विप्र आइसेन सेइ पथे ।
श्री-वृन्दावनेर कथा कहिते कहिते ॥१९१॥
केह कहे—सहे कि एतेक विड़म्बन ? ।
कि सुख पाइते आछे ए छार जीवन ? ॥१९२॥
ईश्वरेर इच्छा किछु बुझा नाहि याय़ ।
क्रमे क्रमे रत्न-शून्य हईल एथाय़ ॥१९३॥
महाप्रभुर ओ तदीय़ पार्षद-गणेर अप्रकट-वार्ताश्रवण—
नीलाचले श्री-कृष्ण-चैतन्य सर्वेश्वर ।
हईलेन सकलेर नेत्र अगोचर ॥१९४॥
से अति दुःसह वाक्य करिय़ा श्रवण ।
काशीश्वर-गोस्वामी हईला सङ्गोपन ॥१९५॥
रघुनाथ-भट्ट भागवत-वक्ता येꣳह ।
प्रभुर विय़ोगे अदर्शन हैल तिꣳह ॥१९६॥
एइ कथोदिने श्री-गोसाञि सनातन ।
मो-सबार नेत्र हैते हईला अदर्शन ॥१९७॥
एबे अप्रकट हैला श्री-रूप-गोसाञि ।
देखिय़ा आइनु—से दुःखेर सीमा नाञि ॥१९८॥
श्री-गोपाल-भट्ट-रघुणाथ-आदि यत ।
विच्छेदाग्नि-ज्वालाय़ ज्वलिछे अविरत ॥१९९॥
मो-सबार भाग्य मन्द बुझिनु एखने ।
नहिले ए सुखे दुःख देखि कि नय़ने ? ॥२००॥
एइरूप अनेक आक्षेप करि याय़ ।
श्रीनिवास व्यग्र हैय़ा जिज्ञासिल ताꣳय़ ॥२०१॥
सनातन-रूप-अप्रकट-विवरण ।
तिꣳह श्रीनिवासे कहे करिय़ा क्रन्दन ॥२०२॥
शुनि श्रीनिवास भासिलेन नेत्रजले ।
मूर्च्छित हईय़ा पड़िलेन भूमितले ॥२०३॥
हाय़ ! हाय़ ! कि शुनिनु—बलि पुनः उठे ।
धूलाय़ धूसर अङ्ग पुनः मही लुठे ॥२०४॥
पुनः कहे—हा हा प्रभु रूप-सनातन ।
मो-अधम प्रति केने हईले एमन ? ॥२०५॥
ना देखिनु श्री-चरण ना पूरिल आश ।
एत कहि नखे वक्षः चिरे श्रीनिवास ॥२०६॥
जनैक माथुर ब्राह्मणेर श्रीनिवासके सान्त्वना-दान—
देखिय़ा धरिल हस्त माथुर ब्राह्मण ।
कैल बहु यत्न प्राण-रक्षार कारण ॥२०७॥
मधुरानि-वासी सबे हईल विस्मित ।
करिल प्रबोध बहु, ना हैल सम्मत ॥२०८॥
श्रीनिवास प्रणमिय़ा माथुर ब्राह्मणे ।
उलटि चलिल पुनः पूर्वव-देश-पाने ॥२०९॥
मने विचारय़े—गौड़-क्षेत्रे प्रभु-गण ।
सबे आज्ञा कैल शीघ्र याह वृन्दावन ॥२१०॥
एइ हेतु कैल आज्ञा, ताहा ना बुझिनु ।
भाग्यहीन तेꣳञि शीघ्र आसिते नारिनु ॥२११॥
दारुण विधाता कैल एत विड़म्बन ।
तथापिह पाप-देहे आछय़े जीवन ॥२१२॥
ऐछे विचारिते दुइ नेत्रे धारा वय़ ।
निःशब्द हईय़ा पुनः आर्तनादे कय़ ॥२१३॥
आहे सनातन ! रूप ! शुणेर सागर ।
रघुनाथ-भट्ट, श्री-पण्डित-काशीश्वर ॥२१४॥
शुनिलाम तोमरा परम कृपामय़ ।
मो-हेन दुःखीरे केने हईले निर्दय़ ? ॥२१५॥
ऐछे कत कहय़े छाड़िते चाहे प्राण ।
पड़े अङ्ग आछाड़ि, ना जाने स्थानास्थान ॥२१६॥
एइरूप कतदूर याइते रात्रि हैल ।
पथे एक वृक्ष देखि तथाइ रहिल ॥२१७॥
करय़े विलाप अति व्याकुल अन्तरे ।
से-सब शुनिते दारु-पाषाण विदरे ॥२१८॥
निकटस्थ ग्राम-वासी सबे ताहा शुनि ।
येरूप हईला ताहा कहिते ना जानि ॥२१९॥
श्रीनिवास जागे रात्रि करिय़ा क्रन्दन ।
प्रभु-इच्छामते हैल निद्रा आकर्षण ॥२२०॥
स्वप्ने रूप-सनातनादि गोस्वामि-गणेर दर्शन लाभ—
सनातन रूप-आदि अति कृपावान् ।
स्वप्नच्छले हैला श्रीनिवासे विद्यमान ॥२२१॥
परम अपूर्व शोभा गोस्वामी सबार ।
देखि श्रीनिवास-चित्ते आनन्द अपार ॥२२२॥
पुलके व्यापिल अङ्ग भासे नेत्रजले ।
भूमे लोटाइय़ा पड़िलेन पदतले ॥२२३॥
श्रीनिवास-माथे सबे चरण अर्पिला ।
आलिङ्गिय़ा विविध प्रकारे प्रबोधिला ॥२२४॥
श्रीनिवास-तनु क्षीण देखे वार-वार ।
श्री-हस्त बुलान अङ्गे, नेत्रे अश्रुधार ॥२२५॥
पुनः श्री-गोस्वामी श्रीनिवास मुख चाञा ।
कहय़े मधुर कथा प्रेमाविष्ट हञा ॥२२६॥
अहे बाप श्रीनिवास ! कहिते कि हय़ ।
एबे नहे तोमार ए विषाद-समय़ ॥२२७॥
मो-सह अभिन्न श्री-गोपाल-भट्ट हन ।
ताꣳर स्थाने कर गिय़ा श्री-मन्त्र-ग्रहण ॥२२८॥
करिनु ये ग्रन्थ-गण से सब लईय़ा ।
अति अविलम्बे गौड़ प्रचारिवे गिय़ा ॥२२९॥
तथाहि नवपद्ये—
स्वप्ने श्रील-सनातनेन सह ते श्री-रूप-नामादय़ः
प्रोचुस्तꣳ नहि ते विषादसमय़ो गोपाल-भट्टो’पि यत् ।
तस्मान् मन्त्र-वरꣳ गृहाण सकलान् ग्रन्थाꣳस् तथास्मत् कृतान्
गत्व गौड़मलꣳ प्रचारय़ मतꣳ तꣳ वैष्णवान् शिक्षय़ ॥२३०॥
ऐछे बहु कहि श्रीनिवासे कृपा करि ।
हईलेन अन्तर्धान गौराङ्ग सोङ्रि ॥२३१॥
श्रीनिवास से दर्शन-वाक्यामृत पिय़ा ।
हईला विह्वल, प्राते चले उलटिय़ा ॥२३२॥
श्री-रूप श्री-सनातन दुहुꣳ एक मेले ।
सेइ रात्रि श्री-जीवे कहुय़े स्वप्नच्छले ॥२३३॥
श्री-रूप-सनातनेर श्री-जीव ओ श्री-गोपाल-भट्टेर प्रति स्वप्नादेश—
वैशाख-मासेर एइ विꣳशति दिनेते ।
हईबे अपूर्व सङ्ग—कहिल पूर्वेते ॥२३४॥
तिꣳह आजि आसि प्रवेशिवे वृन्दावने ।
पाइबे परमानन्द ताꣳहार मिलने ॥२३५॥
स्री-गोविन्द-देवेर आरति सन्ध्याकाले ।
अन्वेषिबे तारे लोक-भिड़ अल्प हैले ॥२३६॥
कनक चम्पक-कान्ति, क्षीण कलेवर ।
अल्प वय़स, नेत्रे धारा निरन्तर ॥२३७॥
गौड़ हैते महा-दुःखे करिल गमन ।
एथाइ शुनिल मो सबार अदर्शन ॥२३८॥
देहत्याग करिबे निश्चय़ कैल चिते ।
देखा दिय़ा तारे प्रबोधिनु नाना मते ॥२३९॥
कहिते ना अईसे यैछे व्याकुल हृदय़ ।
ताꣳरे देखिलेइ ताꣳर पाबे परिचय़ ॥२४०॥
श्री-गोपाल-भट्ट स्थाने दीक्षा कराइबा ।
अध्यय़न हैले सब ग्रन्थ समर्पिवा ॥२४१॥
श्री-गौड़-मण्डले शीघ्र कराबे गमन ।
तिꣳह वितरिबे लोके ग्रन्थ-रत्न-गण ॥२४२॥
आर कि बलिब—श्रीनिवासेर स्वाराय़ ।
साधिवे अनेक कार्य प्रभु गौरराय़ ॥२४३॥
श्री-जीवेर प्रति ऐछे अनेक कहिय़ा ।
श्री-गोपाल-भट्ट गोस्वामीरे कहे गिय़ा ॥२४४॥
आइल तोमार श्रीनिवास गौड़ हैते ।
पाइल अनेक दुःख, ना पारि कहिते ॥२४५॥
तारे शिष्य करि, तार जुड़ाइबे प्राण ।
ऐछे बहु कहि हईल्लेन अन्तर्धान ॥२४६॥
प्रभात समय़े ऐछे आदेश पाइय़ा ।
रूप-सनातन बलि उठय़े कान्दिय़ा ॥२४७॥
हेनई समय़े श्री-जीवेर आगमन ।
ताꣳरे देखि कैल किछु धैर्यावलम्बन ॥२४८॥
प्रणमय़े श्री-जीव, भासय़े नेत्रजले ।
श्री-भट्ट गोस्वामी श्री-जीवेरे लैल कोले ॥२४९॥
नय़नेर जले सिक्त कैल ताꣳर देह ।
शुमड़्अय़े हिय़ा, ना धरिते पारे थेह ॥२५०॥
परस्पर स्वप्नादेश कहिते कहिते ।
ये दशा हईल, ताहा नारि विवरिते ॥२५१॥
कतक्षणे श्री-भट्ट-गोस्वामी स्थिर हैय़ा ।
श्री-जीवे करिला स्थिर अनेक कहिय़ा ॥२५२॥
राधारमणेर सिꣳहासन-यात्रा हन ।
ए हेतु हईय़ा व्यक्त करे आय़ोजन ॥२५३॥
श्री-जीव प्रणमि पुनः भट्ट-गोस्वामीरे ।
चलिलेन शीघ्र करि आपन कुटीरे ॥२५४॥
श्रीनिवास लागि अति उत्कण्ठा बाड़िल ।
श्रीनिवास-गमन सर्वत्र जानाइल ॥२५५॥
कतक्षणे आसिबेन एइ मने हय़ ।
क्षणे क्षने गिय़ा पथ पाने निरीखय़ ॥२५६॥
श्रीनिवासेर श्री-वृन्दावन-शोभा-दर्शन—
एथा श्रीनिवास अति उद्विग्न हईय़ा ।
निरीखय़े शोभा वृन्दावने प्रावेशिय़ा ॥२५७॥
नाना पुष्प-पुञ्जे मञ्जु भ्रमर गुञ्जरे ।
स्थाने स्थाने मय़ूर-मय़ूरी नृत्य करे ॥२५८॥
कोकिलादि पक्षी शब्द करे रसाय़न ।
चारिदिके फिरे मृग-आदि पशु-गण ॥२५९॥
नाना वृक्ष-लताय़ चेष्टित मनोहर ।
देखिते एसब नेत्रे अश्रु निरन्तर ॥२६०॥
व्रजवासि-वैष्णवेर आलय़ देखिला ।
श्री-गोविन्द-देवेर मन्दिर-पाशे गेला ॥२६१॥
गोविन्दे दर्शन करिय़ा सन्ध्याकाले ।
आनन्दे उमड़े हिय़ा, भासे नेत्रजले ॥२६२॥
प्रेमाविष्ट हैय़ा भूमे पड़्इ गड़्इ याय़ ।
रहिलेन एक भिते प्रभुर इच्छाय़ ॥२६३॥
श्री-जीवेर श्रीनिवास सह मिलन ओ आनन्द—
महालोक्यभिड़्अ सन्ध्या-आरति समय़ ।
श्रीनिवासे श्री-जीव-गोस्वामी अन्वेषय़ ॥२६४॥
श्रीनिवास एक भिते आछेन पड़िय़ा ।
अकस्मात् सेइ स्थाने प्रवेशिल गिय़ा ॥२६५॥
भावेर विकार देखि श्री-जीव-गोसाञि ।
एइ श्रीनिवास—जानि रहे सेइ ठाञि ॥२६६॥
भाव सम्वरण हईलेन कतक्षणे ।
भूमि हैते भुलिलेन श्री-जीव आपने ॥२६७॥
श्रीनिवास निज-नेत्रजले सिक्त हैय़ा ।
श्री-जीव गोसाञि-पदे पड़े प्रणमिय़ा ॥२६८॥
श्री-जीव व्याकुल हैय़ा सुमधुर भाषे ।
दुइ बाहु पसारि धरिला श्रीनिवासे ॥२६९॥
दृढ़ आलिङ्गिय़ा बन्धु बलि सम्बोधय़ ।
विना जिज्ञासाय़ पाइलेन परिचय़ ॥२७०॥
परस्पर मिलनेते ये आनन्द हैल ।
ताहा विस्तारिय़ा एथा वर्णिते नारिल ॥२७१॥
श्रीनिवासेर प्रति श्री-कृष्ण-पण्डितेर स्नेह—
श्री-कृष्ण-पण्डित श्री-चैतन्य-परिकर ।
श्रीनिवास देखि ताꣳर आनन्द अन्तर ॥२७२॥
एकमुखे ताꣳर शुण कहन ना हय़ ।
तिꣳह गोविन्देर अधिकारी से समय़ ॥२७३॥
श्रीनिवासे श्री-महाप्रसाद भुञ्जाइय़ा ।
प्रसादी ताम्बुल-माला दिल यत्न पाञा ॥२७४॥
के वर्णिते पारे तिꣳह यत स्नेह कैल ।
श्रीनिवास-गमन सर्वत्र व्यक्त हैल ॥२७५॥
श्री-जीव-गोस्वामी प्रिय़ श्रीनिवासे लैय़ा ।
निज वासस्थाने गेला महा-हृष्ट हैय़ा ॥२७६॥
एथा राधा-दामोदर करिला शय़न ।
एइ हेतु रात्रि-योगे नहिल दर्शन ॥२७७॥
श्रीनिवासेर श्री-राधा-दामोदर-दर्शन—
श्री-जीव निभृते वासा दिल श्रीनिवासे ।
श्रीनिवास रहे तथा मनेर उल्लासे ॥२७८॥
वैशाखी पूर्णिमा-निशि शोभा चमत्कार ।
प्रफुलित नाना पुष्प, सौगन्ध्य विस्तार ॥२७९॥
नाना वृक्षलतार माधुर्य निरीखय़ ।
नेत्रे निद्रा नाहि—हैल प्रभात समय़ ॥२८०॥
प्राते प्रातःक्रिय़ा सारि स्नानादि करिय़ा ।
श्री-जीव-गोस्वामी-पदे प्रणमिल गिय़ा ॥२८१॥
श्री-जीव-गोस्वामी बन्धु-प्राय़ आचरिला ।
राधा-दामोदरेर दर्शन कराइला ॥२८२॥
श्रीनिवास-हृदय़ेते आनन्द उथले ।
पुनः पुनः प्रणमय़े पड़ि भूमितले ॥२८३॥
अति खर्व अपूर्व विग्रह मनोहर ।
निरखीते नेत्रे धारा बहे निरन्तर ॥२८४॥
नेत्र भरि दर्शन करिला कतक्षण ।
राधा-दामोदर श्री-जीवेर प्राण-धन ॥२८५॥
स्वप्नादेशे श्री-रूप श्री-राधा-दामोदरे ।
स्वहस्ते निर्माण करि दिल श्री-जीवेरे ॥२८६॥
श्री-जीवेर चरित वर्णिते नाहि पार ।
श्री-रूपेर पाद-पद्म सर्वस्व याꣳहार ॥२८७॥
ए सब प्रसङ्ग नाना भाषा सꣳस्कृते ।
वर्णिलेन पूर्ण कवि विख्यात जगते ॥२८८॥
तथाहि साधन-दीपिकाय़ाम्—
श्री-रूप-चरण-द्वन्द्व-रागिणꣳ व्रजवासिनम् ।
श्री-जीवꣳ सततꣳ वन्दे मन्देष्वानन्ददाय़िनम् ॥२८९॥
राधा-दामोदरो देवः श्री-रूपेण प्रतिष्ठितः ।
जीव-गोस्वामिने दत्तः श्री-रूपेण कृपान्धिना ॥२९०॥
जानाइनु सꣳक्षेपे प्रकट-विवरण ।
राधा-दामोदर एक जीवेर जीवन ॥२९१॥
श्री-जीवेर श्री-राधा-दामोदर-विलास-दर्शन—
निरन्तर श्री-जीवेर परम उल्लास ।
देखिय़ा श्री-राधा-दामोदरेर विलास ॥२९२॥
मध्ये मध्ये भक्ष्यद्रव्य मागे श्री-जीवेरे ।
श्री-जीव देखय़े प्रभु भुञ्जे ये प्रकारे ॥२९३॥
एकदिन राजाय़ वाꣳशी हासिय़ा हासिय़ा ।
श्री-जीवे कहय़े—‘मोरे देखह आसिय़ा’ ॥२९४॥
कैशोर वय़स, वेश भुवन-मोहन ।
देखितेइ श्री-जीव हईल अचेतन ॥२९५॥
चेतन पाइय़ा हिय़ा आनन्दे उत्थले।
भासय़े दीघल दुटी नय़नेर जले ॥२९६॥
प्रसङ्गे कहिनु किछु—ऐछे बहु हय़ ।
राधा-दामोदर सर्व-चित्त आकर्षय़ ॥२९७॥
श्रीनिवासेर श्री-राधा-दामोदरेर सेवालाभ ओ श्री-रूप-गोस्वामीर समाधि-दर्शन—
श्री-जीव-गोस्वामी श्रीनिवासे कृपा कैल ।
राधा-दामोदरेर चरणे समर्पिल ॥२९८॥
श्री-रूप-गोस्वामीर समाधि सेइखाने ।
तथा श्रीनिवासे लैय़ा गेलेन आपने ॥२९९॥
श्रीनिवास समाधि दर्शन करिय़ा ।
नेत्रजले भासे, भुमे पड़े प्रणामिय़ा ॥३००॥
श्री-गोपाल-भट्ट गोस्वामीर सहित श्रीनिवासेर मिलन—
श्री-जीव प्रबोधि शीघ्र लैय़ा श्रीनिवासे ।
गेला श्री-गोपाल-भट्ट-गोस्वामीर पाशे ॥३०१॥
श्री-भट्ट-गोस्वामी वसि आछेन निर्जने ।
निरन्तर अशुधारा बहे दुनय़ने ॥३०२॥
श्रीनिवास भट्ट-गोस्वामिर पाने चाञा ।
हईला अधैर्य, भुमे पड़े लोटाइञा ॥३०३॥
पुनः पुनः प्रणमय़े नेत्रे धारा बय़ ।
श्री-जीव दिलेन श्रीनिवास-परिचय़ ॥३०४॥
यद्यापि दग्धय़े भट्ट विच्छेद-अग्निते ।
तथापि आनन्द श्रीनिवास-निरखिते ॥३०५॥
स्नेहे श्रीनिवास-माथे धरि श्री-चरण ।
वसिते कहिल कहि सस्नेहे वचन ॥३०६॥
पुनः श्रीनिवासे समाचार जिज्ञासिल ।
श्रीनिवास आद्योपान्त सब निवेदिल ॥३०७॥
शुनिय़ा गोस्वामी अति व्याकुल-अन्तेरे ।
महा-दुःख पाइला, कहय़े वारे वारे ॥३०८॥
पुनः श्रीनिवासेर सौभाग्य प्रशꣳसिल ।
सनातन-रूप स्वप्नावेशे जानाइल ॥३०९॥
श्री-जीव-गोस्वामी गोस्वामीर कथा शुनि ।
अवसरमते कहे, सुमधुर वाणी ॥३१०॥
श्रीनिवास दीक्षा-हेतु व्याकुल हिय़ाय़ ।
गोस्वामीर अनुमति हैल द्वितीय़ाय़ ॥३११॥
श्री-राधारमण विग्रहेर प्रकट-प्रसङ्ग—
श्री-जीव-गोस्वामी महा मनेर उल्लासे ।
श्री-राधारमणे देखाइला श्रीनिवासे ॥३१२॥
श्री-राधारमण-मूर्ति अति मनोहर ।
भाग्यवन्त-जनेर से नय़न-गोचर ॥३१३॥
अति सुमधुर भङ्गी विदित भुवने ।
प्रकट-समय़े महानन्द वृन्दावने ॥३१४॥
प्रकट-प्रसङ्ग शुन कहिय़े किञ्चित् ।
श्री-राधारमण भट्ट-गोस्वामि-विदित ॥३१५॥
श्री-गौरङ्ग-देव आज्ञा दिल गोस्वामीर ।
शालग्राम हैते तुमि देखिबे हरिरे ॥३१६॥
गौराङ्ग-आदेश भट्ट श्री-रूपे प्रकाशे ।
रूप-गोस्वामीह तबे कहे प्रेमावेशे ॥३१७॥
श्री-गोविन्द-देव हन सर्वस्व तोमार ।
तथापि पृथक सेवा कर—इच्छा तार ॥३१८॥
तबे कतदिल पर शालग्राम हैते ।
आपने प्रकट हैला लोकेर विदिते ॥३१९॥
के बुझिते पारे श्री-गोस्वामीर आशय़ ।
हैला कि अपूर्व भङ्गी भुवन विजय़ ॥३२०॥
श्री-गोविन्द, गोपीनाथ, मदन-मोहन ।
क्रमे ए तिनेर मुख, वक्ष, श्री-चरण ॥३२१॥
तिन प्रभु एकत्र दर्शन एक ठाञि ।
ऐछे, परिपाटी पूर्वे चिन्तिल गोसाञि ॥३२२॥
सनातन-गोस्वामी भूगर्भ-आदि यत ।
श्री-राधारमण-सेवा देखि उल्लसित ॥३२३॥
श्री-वैशाख-मासे श्री-पूर्णिमा-शुभक्षणे ।
श्री-राधारमण वसिलेन सिꣳहासने ॥३२४॥
महामहोत्सव सिꣳहासन विजय़ेते ।
‘भट्ट-प्रेमाधीन प्रभु’—विख्यात जगते ॥३२५॥
एमत प्रकट राधारमण-सुन्दर ।
वर्णिलेन भाषा सꣳस्कृते विज्ञवर ॥३२६॥
तथाहि साधन-दीपिकाय़ाम्—
गोविन्द-पाद-सर्वस्वꣳ वन्दे गोपाल-भट्टकम् ।
श्रीमद् रूपाज्ञय़ा येन पृथक् सेवा प्रकाशिता ॥३२७॥
श्री-राधारमणो देवः सेवाय़ा विषय़ो मतः ।
कृतिना श्रील-रूपेन सो’यꣳ यो’सौ विभावितः ।
आज्ञाय़ाः कारणꣳ तत्र प्रामाणिक-मुखाछ्रुतम् ॥३२८॥
तत्र प्रसिद्धाम् एव—
श्रीमत् प्रबोधानन्दस्य भ्रातुष्पुत्र-कृपालय़म् ।
श्रीमद् गोपाल-भट्टꣳ तꣳ नौमि श्री-व्रजवासिनम् ॥३२९॥
तथाहि श्री-श्रीनिवासाचार्य-ठकुरस्यानुशाखा श्री-मनोहरराय़-कृत-श्रीमदनरागवल्ल्याम्—
श्री-राधिका-सहित श्री-मदन-गोपाल ।
वृन्दावनेश्वरी-सह श्री-गोविन्द-लाल ॥३३०॥
वृषभानु-कुमारी सह श्री-गोपीनाथ ।
दर्शन-सेवाय़ जन्म मानिल कृतार्थ ॥३३१॥
निज सेवा करितेइ उत्कण्ठा बार्ह्̤इल ।
बुझि—गोसाञिर द्वारे प्रभुर इच्छा हैल ॥३३२॥
एकदिन रूपमात्र उपलक्ष्य करि ।
मनेर आकृति, मने विचार आचारि ॥३३३॥
श्री-गोपाल-भट्ट गोसाञिर जनि अभिलाष ।
स्वय़ꣳ रूप श्री-गोपाले करिला प्रकाश ॥३३४॥
सगण उत्सव करि अभिषेक कैल ।
श्री-राधारमण-सेवा प्रकट हईल ॥३३५॥
मन्दिर करिय़ा निज-सेवा करि दिल ।
अति विलक्षण—ताहा कहिल, नहिल ॥३३६॥
श्री-राधारण-प्राण श्री-गोपाल-भट्ट गोस्वामी साक्षात् श्री-अनङ्ग-मञ्जरी—
ऐछे राधारामणेर प्रकट-विषय़ ।
अल्पे जानाइनु—इथे सर्व-सुखोदय़ ॥३३७॥
श्री-राधारामण भट्ट-गोपालेर प्राण ।
ताꣳहा विना शयने स्वपने नाहि आन ॥३३८॥
श्री-राधारमण-शोभा पिय़े देह भरि ।
श्री-गोपाल-भट्ट गुण—अनङ्ग-मञ्जरी ॥३३९॥
तथाहि श्री-गौर-गणोद्देश-दीपिकाय़ाम् (१८४-श्लोकः)—
अनङ्ग-मञ्जरी यासीत् साद्य गोपाल-भाट्टकः ।
भट्ट-गोस्वामिनꣳ कोचिदाहुः श्री-गुण-मञ्जरीम् ॥३४०॥
राधारमणेर रूपे गुणे मत्त हैय़ा ।
नाना पुष्प-वेश करे अनुमति पाइय़ा ॥३४१॥
सेवाय़ परमानन्द बाड़्हे क्षणे क्षणे ।
श्री-गौरचन्द्रेर सेवा सदा पड़े मने ॥३४२॥
निज-गृहे पितार आज्ञाय़ गोराचान्दे ।
सेविलेलन—सोङ्रि धैरय लाहि बान्धे ॥३४३॥
हईय़ा विह्वल भासे नेत्रेर धाराय़ ।
घन घन श्री-राधारमण-पाने चाय़ ॥३४४ ॥
श्री-राधारमण-विग्रहेर श्री-गौर-मूर्तिते प्रकाश—
गोपालेर प्रेमाधीन श्री-राधारमण ।
श्री-गौरसुन्दर मूर्ति हैला सेइक्षण ॥३४५॥
नवीन वय़स, वेश भुवन माताय़ ।
मूरछे मदन-कोटि रूपेर छटाय़ ॥३४६॥
शोभा निरखिते हिय़ा आनन्द उथले ।
कि देखिनु—बलिय़ा पड़य़े महीतले ॥३४७॥
विपुल पुलक, आꣳखि जले भासि याय़ ।
श्री-राधारमण-गोराचाꣳद-गुण गाय़ ॥३४८॥
श्री-गोपाल-भट्टेर ये अभिलाष मने ।
श्री-राधारमण पूर्ण करे क्षणे क्षणे ॥३४९॥
जगते विदित अति निरुपम रीति ।
श्री-राधारमण गोपालेर प्राण-पति ॥३५०॥
श्री-राधारमणेर श्री-चरणे श्रीनिवासेर आत्म-निवेदन—
हेन राधारमणेर दर्शन करिय़ा ।
श्रीनिवास भूमितले पड़े प्रणमिय़ा ॥३५१॥
भासय़े नय़न-जले नारे स्थिर हैते ।
कहिते मनेर कथा कत उठे चिते ॥३५२॥
श्री-राधारमणे आत्म-निवेदन करि ।
करिला दर्शन कतक्षण धैर्य धरि ॥३५३॥
श्री-लोकनाथ ओ श्री-भूगर्भ गोस्वामीर सहित मिलन—
श्री-जीव-गोस्वामी प्रिय़ श्रीनिवासे लैय़ा ।
चलिलेन श्री-राधारमणे प्रणमिय़ा ॥३५४॥
लोकनाथ-भूगर्भ-गोस्वामि-पाशे गेला ।
तथा श्रीनिवासेर गमन जानाइला ॥३५५॥
यद्यपि दोꣳहार अति व्याकुल हृदय़ ।
श्रीनिवास आइला शुनि हैला हर्षोदय़ ॥३५६॥
श्रीनिवास बन्दिलेन दोꣳहार चरण ।
दोꣳहे अति वात्सल्ये कैल आलिङ्गन ॥३५७॥
कोल हैते छाड़िते नारय़े प्रेमावेशे ।
नेत्रजले सिक्त करिलेन श्रीनिवासे ॥३५८॥
श्री-राधाविनोद-पादपद्मो समर्पिल ।
दोꣳहे श्रीनिवासे अति अनुग्रह कैल ॥३५९॥
श्रीनिवास श्री-राधाविनोद दरशाने ।
यैछे प्रेमावेश—ता वर्णिबे कोन् जाने ? ॥३६०॥
श्रीनिवासेर श्री-गोपीनाथ-विग्रह दर्शन—
श्रीनिवासे लईय़ा श्री-जीव सेइक्षण ।
करिलेन गिय़ा गोपीनाथेर दर्शन ॥३६१॥
श्रीनिवास श्री-गोपीनाथेर दरशने ।
हईला आधैर्य, धारा बहे दुनय़ने ॥३६२॥
परमानन्द-पुरी ओ मधुपण्डितेर सहित मिलन—
तथा श्री-परमानन्द श्री-मधुपण्डित ।
श्रीनिवासे देखि सबे हैला उल्लसित ॥३६३॥
करिला यतेक स्नेह—ना हय़ वर्णन ।
तथा हैते देखे गिय़ा मदन-मोहन ॥३६४॥
श्री-मदन-मोहन विग्रह-दर्शन—
श्रीनिवास मदन-मोहने निरखिय़ा ।
ना धरे धैरय, प्रेमे उथलय़े हिय़ा ॥३६५॥
मदन-गोपाले प्रणमय़े वार वार ।
मुख बुक बहिय़ा पड़य़े अश्रुधार ॥३६६॥
श्रीनिवास स्थिर हईलेन कतक्षणे ।
श्री-जीव-गोस्वामी मिलाइल सबा सने ॥३६७॥
कृष्णदास ब्रह्मचारी आदि यत जन ।
सबे प्रेमावेशे कैल दृढ़ आलिङ्गन ॥३६८॥
श्रीनिवास सबार चरणे प्रणमिल ।
सबे श्रीनिवासे महा अनुग्रह कैल ॥३६९॥
श्री-सनातन गोस्वामीर समाधि दर्शन—
सनातन गोस्वामीर समाधि-दर्शने ।
श्रीनिवासे लईय़ा चलिला सर्व-जने ॥३७०॥
सनातन-गोस्वामीर समाधि देखिय़ा ।
श्रीनिवास पड़िलेन भूमे लोटाइय़ा ॥३७१॥
श्रीनिवास हैला यैछे—ना हय़ वर्णन ।
श्रीनिवास-कान्दने कान्दय़े सर्व-जन ॥३७२॥
सबे अतिशय़ स्नेह करि श्रीनिवासे ।
करिल प्रबोध कत सुमधुर भाषे ॥३७३॥
श्री-गोपाल-भट्ट गोस्वामीर निकट श्रीनिवासेर दीक्षा-ग्रहण—
श्री-जीव गोस्वामी श्रीनिवासेरे लईय़ा ।
आइला आपन बासा अतिहृष्ट हैय़ा ॥३७४॥
कल्य प्रातःकाले श्रीनिवासे श्री-गोसाञि ।
करिबेन शिष्य—जानाइला सर्वठाञि ॥३७५॥
श्रीनिवास आपनार भाग्य प्रशꣳसिल ।
से दिवस विविध प्रसङ्गे गोङाइल ॥३७६॥
तार परदिन स्नान करि श्रीनिवास ।
श्री-जीवेर सङ्गे गेला गोस्वामीर पाश ॥३७७॥
एथा भट्ट-गोस्वामी परम प्रेममय़ ।
राधारमणेर परिचर्यादि करय़ ॥३७८॥
श्री-जीव गोस्वामी गोस्वामीरे प्रणमिय़ा ।
श्रीनिवास-प्रसङ्ग कहिला हर्ष हैय़ा ॥३७९॥
श्रीनिवास गोस्वामि-चरणे प्रणमय़ ।
देखि गोस्वामीर हैल प्रसन्न हृदय़ ॥३८०॥
श्रीनिवासे श्री-राधारमण-सन्निधाने ।
करिलेन शिष्य अति अपूर्व विधाने ॥३८१॥
साधन-प्रक्रिय़ा अति यत्ने जानाइल ।
श्री-राधारमण-गौरचन्द्रे समर्पिल ॥३८२॥
श्रीनिवास पड़िय़ा गोसाञि पदतले ।
करिल अनेक दैन्य भासि नेत्रजले ॥३८३॥
गोसाञिर नेत्रधारा नहे निवारण ।
सर्वासिद्धि हौक—बलि कैल आलिङ्गन ॥३८४॥
श्री-जीवेरे स्नेहे श्रीनिवासे समर्पिल ।
श्रीनिवास प्रणमिते तिꣳह प्रणमिल ॥३८५॥
श्री-जीव-गोस्वामी आलिङ्गय़े श्रीनिवासे ।
हईला अधैर्य—दोꣳहे नेत्रजले भासे ॥३८६॥
श्रीनिवास-शिष्य-कथा व्यापिल सर्वत्र ।
श्रीनिवास सबार परम स्नेह-पात्र ॥३८७॥
आइलेन सबे राधारमण-दर्शने ।
श्रीनिवास-दर्शन करिला सर्व-जने ॥३८८॥
हैल ये उत्सव, ताहा के पारे वर्णिते ? ।
सबे महाहर्ष श्रीनिवासेर चरिते ॥३८९॥
श्रीदास गोस्वामी, श्री-राघव ओ श्री-कृष्णदास कविराजेर सहित श्रीनिवासेर साक्षात्—
तार परदिवस श्री-जीव श्रीनिवासे ।
पाठाइला श्री-कुण्डेते गोस्वामीर पाशे ॥३९०॥
श्रीनिवासे देखि सुखे श्रीदास गोसाञि ।
अनुग्रह हैल यत तार अन्त नाइ ॥३९१॥
श्री-राघव-कृष्णदास कविराज आदि ।
श्रीनिवासे कैल सबे कृपार अवधि ॥३९२॥
तिन दिन रहि राधाकुण्ड-गोवर्धने ।
सबा अनुमति लैय़ा आइला वृन्दावने ॥३९३॥
पाइय़ा सबार आज्ञा परम सन्तोषे ।
पाठारम्भ कैल शीघ्र अपूर्व दिवसे ॥३९४॥
श्रीमद् भागवत, गोस्वामीर ग्रन्थ-गण ।
अनाय़ासे स्फुरे देखि हर्ष सर्व-जन ॥३९५॥
श्री-जीव-कर्तृक श्रीनिवासके ‘आचार्य’-पदवी प्रदान-वृत्तान्त—
एकदिन श्री-जीव उज्ज्वल विलोकय़ ।
उद्दीपन-विभावेर पद्य विचारय़ ॥३९६॥
तथाहि श्री-उज्ज्वल-नीलमणौ उद्दीपन-विभावे—
सखि रोपितो द्विपत्रः शतपत्राक्षेण यो व्रजद्वारि ।
सो’य़ꣳ कदम्बडिम्भः फुल्लो बालभवधूस्तदति ॥३९७॥
ए-श्लोकेर भाव-व्याख्या स्फूर्ति ना हईल ।
श्री-जीव-गोस्वामी श्रीनिवासे जिज्ञासिल ॥३९८॥
श्रीनिवासे श्री-रूप गोस्वामी स्फुराइला ।
कैल भाव-व्याख्या, शुनि सबे हर्ष हैला ॥३९९॥
गे-श्लोकेर भाव-व्याख्या अति चमत्कार ।
विस्तारिला श्री-उज्ज्वल-ग्रन्थे टीकाकार ॥४००॥
सबे श्रीनिवास-शक्ति देखिय़ा विस्मय़ ।
परस्पर विविध प्रकारे प्रशꣳसय़ ॥४०१॥
सर्वात्रानुमति लैय़ा श्री-जीव उल्लासे ।
‘श्री-आचार्य’-पदवी दिलेन श्रीनिवासे ॥४०२॥
इथे श्रीनिवास अति लज्जायुक्त हैला ।
श्री-जीव जानिय़ा स्नेहावेशे सम्बोधिला ॥४०३॥
श्री-जीव-गोस्वामि-आज्ञाय़ ‘आचार्य’ अनुक्षण ।
व्रजवासी वैष्णव करान अध्यय़न ॥४०४॥
एकदिन श्रीनिवास वसिय़ा निर्जने ।
हईय़ा व्याकुल, कथा कहे मने मने ॥४०५॥
‘नररोत्तम’ नाम-मात्र श्रवणे शुनिल ।
श्रवण-मात्रेते महा आनन्द पाइल ॥४०६॥
तिꣳह कृष्ण-चैतन्यचन्द्रेर कृपा-पात्र ।
ताꣳहारे देखिले ना छाड़िब तिलमात्र ॥४०७॥
ना जानि ताꣳहार देखा पाब कृत दिने ।
ऐछे विचारिते अश्रु झरे दुनय़ने ॥४०८॥
प्रभु इच्छामते किछु निद्रा आकर्षिल ।
स्वप्नच्छले श्री-रूप-गोसाञि देखा दिल ॥४०९॥
तिꣳह कहे—कालि देखा हबे ताꣳर सने ।
एत कहि अन्तर्धान हैल सेइक्षणे ॥४१०॥
श्रीनिवास-आचार्य परम हर्ष हैला ।
तार परदिन नरोत्तमेरे मिलिला ॥४११॥
दोꣳहे दोꣳहा देखि नेत्रे बहे अश्रुधार ।
स्वाभाविक प्रेमोदय़ हईल दोꣳहार ॥४१२॥
श्रीनिवास कहे—विधि सदय़ हईल ।
नरोत्तम हेन रत्न आनि मिलाइल ॥४१३॥
ऐछे कत कहे स्नेह-विवश हईय़ा ।
से-सब शुनिते कार ना जुड़ाय़ हिय़ा ॥४१४॥
नरोत्तमे आलिङ्गन करे वारे वारे ।
श्रीनिवास कोल हैते छाड़िते ना पात्रे ॥४१५॥
श्री-सीता मातार वाक्य करिय़ा स्मरण ।
कतक्षणे कैल आचार्य़ धैर्यावलम्बन ॥४१६॥
नरोत्तम श्रीनिवासाचार्ये प्रणमिय़ा ।
करिल अनेक दैन्य अश्रुयुक्त हैय़ा ॥४१७॥
श्रीनिवासाचार्य, नरोत्तम—प्रेममय़ ।
सर्वत्र व्यापिल ए-दोꣳहार प्रणय़ ॥४१८॥
श्री-लोकनाथ गोस्वामीर निकट दीक्षा ग्रहण—
नरोत्तम महानन्दे निमग्न हईल ।
प्रभु-लोकनाथ-पदे आत्म समर्पिल ॥४१९॥
नरोत्तम-चेष्टा देखि प्रभु लोकनाथ ।
दीक्षा-मन्त्र दिय़ा सुखे कैल आत्मसात् ॥४२०॥
श्री-जीव-कर्तृक नरोत्तमके ‘ठाकुर महाशय़’-उपाधि प्रदान—
श्री-गोपाल-भट्ट आदि सबे कृपा कैल ।
श्री-जीव गोस्वामी पाठारन्त कराइल ॥४२१॥
अल्प दिने बहु शास्त्र हैल अध्यय़न ।
देखि हेन शक्ति प्रशꣳसय़े सर्व-जन ॥४२२॥
अन्येर दुर्गमि ऐछे प्रकाशे आशय़ ।
श्री-जीव गोस्वामी सदा हर्ष अतिशय़ ॥४२३॥
सर्ववत्रई सबार लईय़ा अनुमति ।
नरोत्तमे दिलेन ‘श्री-महाशय़’ ख्याति ॥४२४॥
श्री-जीव गोस्वामीर अति स्नेह-भाजन श्रीनिवासाचार्य ओ ठाकुर नरोत्तम—
वृन्दावने आनन्द हईल सबाकार ।
श्री-जीवेर स्नेह यत नारि वर्णिवार ॥४२५॥
श्रीनिवास-नरोत्तम प्रेमेर भाजन ।
श्री-जीवेर येन दुइ बाहु दुइ जन ॥४२६॥
श्री-रूप-सनातन-गुणे मगन हईय़ा ।
सदा भक्ति-रस आस्वादय़े दोꣳहा लैय़ा ॥४२७॥
ए-सब शुनिते याꣳर प्रसन्न-अन्तर ।
तꣳरे भक्ति-रत्न देन प्रभु-विश्वम्बर ॥४२८॥
श्रीनिवास आचार्य-चरण चिन्ता करि ।
भक्ति-रत्नाकर कहे दास नरहरि ॥४२९॥
इति श्रीमद् भक्ति-रत्नाकरे श्री-श्रीनिवासाचार्यस्य गौड़-भ्रमण-
वृन्दावन-गमनादि-वर्णनꣳ नाम
चतुर्थस् तरङ्गः ॥४॥
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