तृतीय़ तरङ्ग
सपार्षद श्री-गौर-सुन्दरेर जन्म—
जय़ नवद्वीप-चन्द्र श्री-गौरसुन्दर ।
जय़ नित्यानन्द अवधूत हलधर ॥१॥
जय़ शान्तिपुर-नाथ अद्वैत-ईश्वर ।
जय़ गौरहरि श्री-पण्डित-गदाधर ॥२॥
जय़ जय़ पण्डित ठाकुर श्रीनिवास ।
जय़ हरि-नामामृत-मग्न हरिदास ॥३॥
जय़ प्रेम-मय़ श्री-स्वरूप-दामोदर ।
जय़ श्री-मुरारि-गुप्त गुणेर सागर ॥४॥
जय़ वासुदेव सार्वभौम महाशय़ ।
जाय़ जय़-रामानन्द रसेर आलय़ ॥५॥
जन्म गौरीदास, श्री-पण्डित-व्रक्रेश्वर ।
जय़ नरहरि, श्री-मुकुन्द, काशीश्वर ॥६॥
जय़ जगदीश, गौरीदास, धनञ्जय़ ।
जय़ सनातन-रूप गुणेर आलय़ ॥७॥
जय़ जीव, गोपाल, भूगर्भ, लोकनाथ ।
जय़ रघुनाथ-भट्ट भुवने विख्यात ॥८॥
जय़ रघुनाथ-दास श्री-कुण्ड-निवासी ।
जय़ जन्म श्री-राघव गोवर्धन-वासी ॥९॥
जय़ श्रीनिवास, नरोत्तम, रामचन्द्र ।
जय़ दीन-दुःखीर जीवन श्यामानन्द ॥१०॥
जय़ श्री-ठाकुर मोर वैष्णव-गोसाञि ।
जगत् परित्र हय़ यार गुण गाइ ॥११॥
जय़ जय़ श्रोतागण गुणेर आलय़ ।
एबे ये कहिय़े शुन हईय़ा सदय़ ॥१२॥
श्रीनिवास-चरित्र—
गौर-गुणे मग्न श्रीनिवासेर अन्तर ।
श्री-पिता-मातार सेवा करे निरन्तर ॥१३॥
पिता-माता दोꣳहार ये स्नेह पुत्र-प्रति ।
से सब कहिते नाइ आमार शकति ॥१४॥
कि आनन्द चाखन्दि-ग्रामते प्रतिघरे ।
तिलार्धेक श्रीनिवासे छाड़िते ना पारे ॥१५॥
श्रीनिवास सबारे तोषय़े नाना मते ।
श्रीनिवासे सबे प्रशꣳसय़े हर्षचिते ॥१६॥
चाखन्दिते यैछे श्रीनिवास विलसय़ ।
ताहा एकमुखे कि कहिते साध्य हय़ ॥१७॥
कतदिने पितार हईल परलोक ।
पुत्र-मुख देखि माता पासरिल शोक ॥१८॥
श्रीनिवासेर याजि-ग्रामे वास—
किछुदिन परे श्रीनिवास महाशय़ ।
याजि-ग्रामे गेला मातामहेर आलय़ ॥१९॥
युक्ति स्थिर करिलेन मातार सहिति ।
याजि-ग्रामे वास एबे हय़त उचित ॥२०॥
ग्राम-वासी लोक सब एकथा शुनिल ।
परम आनन्दे वास-योग्य स्थान कैल ॥२१॥
याजि-ग्राम-समीपादि सबार उल्लास ।
सर्व-प्राणाधिक हईलेन श्रीनिवास ॥२२॥
भक्ति-रसे मग्न श्रीनिवास अनुक्षण ।
देखि महा-हर्ष चैतन्येर प्रिय़-गण ॥२३॥
निरन्तर श्रीनिवास भक्त-गोष्ठी-पाशे ।
शुनय़े चैतन्य-लीला अशेष विशेषे ॥२४॥
प्रभु-गण-सह विलसय़े नीलाचले ।
शुनिते से सब कथा हृदय़ उथले ॥२५॥
श्रीनिवासेर नीलाचल-गमनेच्छा—
हईला उद्विग्न श्रीनिवास महाधीर ।
नीलाचले चलिते करिला मन स्थिर ॥२६॥
कत अभिलाष चित्ते हय़ क्षणे क्षणे ।
मो पामरे प्रभु कि दिवेन दरशने ? ॥२७॥
प्रभु-भक्त-गण कृपा करिबे कि मोरे ? ।
तासबार पदधूलि धरिब कि शिरे ? ॥२८॥
मोहेन अयोग्य श्री-पण्डित गदाधर ।
चरण-निकटे कि राखिबे निरन्तर ? ॥२९॥
श्रीमद् भागवत प्रभु शुनिबेन यबे ।
से श्री-मुख-वाक्य कर्णे प्रविष्ट कि हबे ? ॥३०॥
देखिब कि नीलाचल-चन्द्र जगन्नाथ ।
श्री-सुभद्रा-देवी प्रभु बलराम-साथ ? ॥३१॥
श्रीनिवासेर श्री-खण्डे गमन—
ऐछे, बहु कहे, धारा बहे दुनय़ने ।
चलिलेल खण्डे स्थिर हैय़ा कतक्षणे ॥३२॥
देखि श्री-विग्रह कैल प्रणाति अपार ।
निरन्तर दुइ नेत्रे बहे अश्रुधार ॥३३॥
श्री-गौरचन्द्रेर प्रिय़ पार्षद-गणेरे ।
भूमिते पड़िय़ा प्रणमय़ वारे वारे ॥३४॥
ठाकुर श्री-नरहरि प्रेमेर आवेशे ।
श्री-भुज पसारि कोले कैल श्रीनिवासे ॥३५॥
स्नेहे श्रीनिवास-अङ्ग सिञ्चे नेत्रजले ।
जिञासे कुशल—येन कत सुधा ढाले ॥३६॥
श्रीनिवास कहय़े—याइब नीलाचल ।
आज्ञा देह देखि गिय़ा श्री-पद-कमल ॥३७॥
शुनिते ए-वाक्य अति उद्विग्न हृदय़ ।
आज्ञा दिल—याह शीघ्र विलम्ब ना सय़ ॥३८॥।
पुनः श्रीनिवासे कहे, गद्गद वचन ।
प्रभु करिबेन एइ लीला-सङ्गोपन ॥३९॥
श्री-अद्वैताचार्येर तर्जा—
अद्वैत आचार्य तर्जा करि पाठाइल ।
तर्जा-प्रहेलीते मनोवृत्ति प्रकाशिल ॥४०॥
तथाहि चैतन्य-चरितामृते अन्य-लीलार ऊनविꣳशे
परिच्छेदे (२०-२१ श्लोक)—
‘बाउलके कहिओ—लोक हईल आउल ।
बाउलके कहिओ—हाटे ना विकाय़ चाउल ॥४१॥
बाउलके काहिओ—काजे नाहिक आउल ।
बाउलाके कहिओ—इहा काहिय़ाछे बाउल’ ॥४२॥
तर्जा-अर्थ प्रभु अन्य छले व्यक्त कैल ।
सेइ हैते सकल भक्तेर चिन्ता हैल ॥४३॥
स्वतन्त्र ईश्वर—केबा जाने मर्म ताꣳर ? ।
ना जानि ये कखन करिबे अन्धकार ॥४४॥
एत कहितेइ नेत्रजले सिक्त हैल ।
श्रीनिवासे व्याकुल देखिय़ा प्रबोधिल ॥४५॥
पथेर सङ्गति करि दिल सेइक्षणे ।
ठाकुरेर ये स्नेह वर्णिबे कोन जने ? ॥४६॥
खण्ड-वासी भक्त-गण-सह श्रीनिवासेर मिलन—
श्री-रघुनन्दन आसि तथाय़ मिलिल ।
श्रीनिवासे आलिङ्गिय़ा प्रेमाविष्ट हैल ॥४७॥
खण्ड-वासी प्रभुर यतेक भक्त-गण ।
यथायोग्य सबा-सह हईल मिलन ॥४८॥
सवाकार स्थाने शीघ्र हईय़ा विदाय़ ।
याजि-ग्राम गिय़ा सब निवेदिल माय़ ॥४९॥
श्रीनिवासेर नीलाचल यात्रा—
यत्न-पूर्वक विदाय़ हईय़ा माता-स्थाने ।
चलिलेन नीलाचले प्रभुर दरशने ॥५०॥
माघ शुक्ला-पञ्चमी-दिवस शुभक्षण ।
मनेर उल्लासे श्रीनिवासेर गमन ॥५१॥
कैशोर वय़स, अति सुन्दर शरीर ।
ये देखे वारेक से हईते नारे स्थिर ॥५२॥
केह कहे—इह कोन राजार तनय़ ।
पद-व्रजे चले, अनुराग अतिशय़ ॥५३॥
केह कहे—इह हन गौर-परिकर ।
नहिले केने नेत्रे एत धारा निरन्तर ? ॥५४॥
केह कहे—‘इहाते सन्देह किछु नाञि’ ।
सकल करिते पारे गौराङ्ग-गोसाञि ॥५५॥
केह कहे—‘अहे से देखिय़ा गोराचाꣳदे ।
कि नारी, पुरुष—केह स्थिर नाहि बाꣳधे ॥५६॥
केह कहे—‘गौरचन्द्र व्रजेन्द्र-कुमार ।
नीलाचले देखिलाम अद्भुत विहार’ ॥५७॥
केह कहे—उत्कलेर भाग्येर सीमा नाइ ।
सचल अचल दुइ प्रभु एक ठाꣳइ ॥५८॥
केह कहे—‘गौर-जगन्नाथ एक हय़ ।
इथे याꣳर भेद-बुद्धि सेइ याय़ क्षय़’ ॥५९॥
एइरूप कहे कत पथिक-सकले ।
श्रीनिवास-चेष्टा देखि भासे नेत्रजले ॥६०॥
आनन्द-आवेशे श्रीनिवास चलि याय़ ।
क्षेत्र हैते ये आइसे प्रणमे ताꣳहाय़ ॥६१॥
प्रभु भक्त-गणे पुछेन समाचार ।
शुनिते से सब कथा आनन्द अपार ॥६२॥
उड़िय़ा याइते पाखा प्रभुरे प्रार्थय़ ।
दिवानिशि चले पथे, श्रम ना जानय़ ॥६३॥
पथे महाप्रभुर अप्रकट-वार्ता-श्रवणे श्रीनिवासेर विलाश ओ खेद—
मनेर आनन्दे श्रीनिवासेर गमन ।
कतदूरे शुनिल चैतन्य-सङ्गोपन ॥६४॥
महाप्रभु-अदर्शनि—ए वाक्य शुनिते ।
ये दशा हईल, ताहा के पारे वर्णिते ? ॥६५॥
कत शत कराघात करे निज-शिरे ।
छिड़िय़ा फेलेन केश, नखे वक्षः चिरे ॥६६॥
आपना धिक्कार करे कान्दिय़ा कान्दिय़ा ।
से विलाप शुनि याय़ पाषाण गलिय़ा ॥६७॥
मूर्च्छित हईय़ा भूमे पड़े वार वार ।
नेत्रधारा देखि प्राण विदरे सबार ॥६८॥
अति कदर्थने हईल दिवा-अवसान ।
निश्चय़ कारिल—देहे ना राखिब प्राण ॥६९॥
अग्नि-कुण्ड करि ताहे करिब प्रवेश ।
तबे से घुचिबे मोर ए दारुण क्लेश ॥७०॥
ऐछे विचारिते रात्रि हैल दण्ड चारि ।
लईय़ा प्रभुर नाम कान्दे उच्च करि ॥७१॥
स्वप्ने महाप्रभुर दर्शन-लाभ ओ महाप्रभु-कर्तृक सान्त्वना—
प्रभु-इच्छामते हैल निद्रा-आकर्षण ।
स्वप्नाच्छले गौरचन्द्र दिलेन दर्शन ॥७२॥
विद्युतेर पुञ्ज जिनि श्री-अङ्ग सुन्दर ।
श्री-मुख-मण्डल जिनि केटि सुधाकर ॥७३॥
आकर्ण-पश्यन्त दुइ लोचन विशाल ।
आजानुलम्बित भुज, पले वनमाल ॥७४॥
वरिषे अमृतधारा मधुर हासिते ।
के धरे धैर्य शोभा वारेक देखिते ? ॥७५॥
भक्त-वत्सल प्रभु भुवन-मोहन ।
स्वप्नच्छले देखा दिय़ा राखिल जीवन ॥७६॥
श्रीनिवास-मस्तके श्री-चरण अर्पिल ।
प्रेमावेशे प्रभु अतिशय़ आश्वासिल ॥७७॥
तथाहि श्री-नृसिंह-कविराज-कृत-नव-पद्ये—
गन्तुꣳ श्री-पुरुषोत्तमꣳ कृतमतिः श्री-श्रीनिवासः प्रभोश्
चैतन्यस्य कृपाम्बुधेर् जनमुखाच् छ्रुत्वा तिरोधानताम् ।
दुःखौघैः स मुहुर्मुमुर्च्छ भगवान् दृष्ट्वाथ भक्त-व्यथा-
माश्वासातिशय़ं दय़ाम् अभिवदन् स्वप्ने समादिष्टवान् ॥७८॥
श्रीनिवासे वात्सल्य प्रकाशि भगवान् ।
क्षणेक थाकिय़ा स्वप्ने हैल अन्तर्धान ॥७९॥
प्रभु अदर्शन हैले हैल निद्राभङ्ग ।
बाड़िल विच्छेद-दुःख-समुद्र तरङ्ग ॥८०॥
श्रीनिवासे महा-दुःखी देखि गौरहरि ।
पुनः स्वप्नच्छले किछु कहे धीरि धीरि ॥८१॥
‘गदाधर आदि मोर प्रिय़-परिकर ।
निरीखे तोमार पथ व्याकुल अन्तर ॥८२॥
विलम्ब ना कर, शीघ्र याह नीलाचल’ ।
एत कहि निज हस्ते पोꣳछे, नेत्रजल ॥८३॥
अतिस्नेहे आलिङ्गन करि वार वार ।
अन्तर्द्धान हैला प्रभु शरीर कुमार ॥८४॥
निद्राभङ्ग हैल निशि प्रभात देखिय़ा ।
चले श्रीनिवास प्रभु-चरण चिन्तिय़ा ॥८५॥
नीलाचले श्रीनिवास गेला कत दिने ।
श्री-नरेन्द्र-शौच देखि धारा दुनय़ने ॥८६॥
श्री-नरेन्द्र राजा, शौच महापात्र तार ।
ए दुय़ेर नामे सरोवर ए प्रचार ॥८७॥
महाप्रभु जल-क्रीड़ा कैल नरेन्द्रेते ।
ए सकल कथा पूर्वे शुनिल गौड़्एते ॥८८॥
से-सकल भाविते अधैर्य हैल मन ।
कतक्षण तीरे वसि करिला क्रन्दन ॥८९॥
उथलिल प्रेम-सिन्धु नारे स्थिर हैते ॥
धरणी लोटाय़, चेष्टा के पारे बुझीते ? ॥९०॥
बाह्य प्रकाशिय़ा सिक्त हैय़ा नेत्रनीरे ।
नरेन्द्र प्रणमि चलिलेन धीरे धीरे ॥९१॥
श्रीनिवासेर शिꣳह-द्वारे नाम-सङ्कीर्तन स्वप्ने जगन्नाथ दर्शन—
हईले अनेक रात्रि विचारिय़ा मने ।
सिꣳह-द्वार-समीपे रहिल एक स्थाने ॥९२॥
प्रेमाविष्ट, हैय़ा करे नाम-सङ्कीर्तन ।
नदीर प्रवाह तुल्य झरे दुनय़न ॥९३॥
धरिते ना पारे अङ्ग, लोटाय़ भूमिते ।
निद्रा-आकर्षण हैल प्रभुर इच्छाते ॥९४॥
बलराम-सुभद्रा-सहित जगन्नाथ ।
कृपा करि स्वप्नच्छले हईल साक्षात् ॥९५॥
कि अद्भुत वात्सल्य ! के बुझे हेन रङ्ग ? ।
नेत्र भारि देखिल, हईल निद्राभङ्ग ॥९६॥
श्रीनिवास अतिशय़ व्यावक्युल हईल ।
हेन काले एक विप्र तथाय़ आइल ॥९७॥
तिꣳह कहे—‘अहे बापु ब्राह्मण-कुमार ।
दुःखे दग्ध हैला, नाहि भक्षण तोमार ॥९८॥
श्री-महाप्रसाद लह करह, भोजन’ ।
प्रसाद समर्पि तिꣳह हैल अदर्शनि ॥९९॥
श्रीनिवास व्यग्र हैय़ा विचारिच्छे मने ।
मोर ऐछे दुःख—इह जानिह केमने ? ॥१००॥
श्री-महाप्रसाद मोरे करि समर्पण ।
देखिते देखिते हईलेन अदर्शन ॥१०१॥
ऐछे विचारिते चित्ते चिन्तायुक्त हैल ।
हईय़ा साक्षात् प्राय़ प्रभु प्रबोधिल ॥१०२॥
प्रभु जगन्नाथ अनुग्रहे, हर्षमने ।
श्री-महाप्रसाद भुञ्जीलेन सेइ क्षाणे ॥१०३॥
नरेन्द्र-शौचेर जल जलपात्रे छिल ।
यत्ने हस्त प्रक्षालन कारि पान कैल ॥१०४॥
प्रभु-नाम-सङ्कीर्तन करे धीरे धीरे ।
किछु निद्रा आकर्षिल कतक्षण परे ॥१०५॥
स्वप्ने श्रीनिवासेर श्री-गौराङ्ग-दर्शन—
स्वप्ने देखे श्री-गौर वेष्टित-परिकर ।
देव-गण मध्ये येन शोभे पुरन्दर ॥१०६॥
गदाधर पण्डित प्रभुर आगे वसि ।
पड़े भागवत—सुधा ढाले राशि राशि ॥१०७॥
अश्रु-कम्प-भावादि-भूषित सर्व-जन ।
हेन शोभा श्रीनिवास करेन दर्शन ॥१०८॥
मनेर वाञ्छित सब सफल हईल ।
कतक्षणे निद्राभङ्गे अति दुःख पाइले ॥१०९॥
पुनराय़ दर्शन—
पुनः नाम-सङ्कीर्तन करे महाशय़ ।
पुनः अकस्मात् किछु निद्रा आकर्षय़ ॥११०॥
पुनः स्वप्ने देखे सेइ सिꣳह-द्वार-पथे ।
आसिछेन गौरचन्द्र परिकर साथे ॥१११॥
श्री-गौर-कलेवरेर शोभा—
कुनक-पर्वत जिनि गौर-कलेवर ।
आजानुलम्बित भुज, भङ्गी मनोहर ॥११२॥
श्री-मुख-मण्डले कत चाꣳदेर उदय़ ।
हासे मन्द मन्द—सदा सुधावृष्टि हय़ ॥११३॥
आकर्ण-पर्यन्त दुइ नय़न-कमल ।
परिपूर्ण प्रेम-जले करे टलमल ॥११४॥
भुवन-मोहन कण्ठे तुलसीर दाम ।
परिधेय़ अरुण वसन अनुपम ॥११५॥
झलमल करे दिक् अङ्गेर शोभाय़ ।
निज-प्रेमे महामत्त चले सिꣳह-प्राय़ ॥११६॥
हेन शोभा दोखितेइ हईल विह्वल ।
धरिते ना पारे अङ्ग, करे टलमल ॥११७॥
धरणी लोटाय़े पड़्ए प्रभुर चरणे ।
करुण नय़ने प्रभु चाय़ भृत्य पाने ॥११८॥
हासि प्रभु कहे—‘दुख ना भाविह आर ।
तोमार हृदय़े सदा विश्राम आमार’ ॥११९॥
एत कहि अन्तर्धान हैला दय़ामय़ ।
निद्राभङ्ग हैल, देखे प्रभात समय़ ॥१२०॥
श्रीनिवासेर श्री-गोपीनाथ-दर्शन—
अनेक यतने स्थिर हैय़ा सेइक्षणे ।
मार्कण्डे चलेन जिज्ञासिय़ा कोन जने ॥१२१॥
प्रातः-कृत्य करि कैल मार्कण्डे स्नान ।
श्रीनिवासे देखि सबे जुड़ाय़ नय़न ॥१२२॥
श्रीनिवास चलय़े मार्कण्डे प्रणमिय़ा ।
तथा कोन वृद्धे पुच्छे अति व्यघ्र हैय़ा ॥१२३॥
गदाधर पण्डित गोस्वामी आछे कोथा ?
तिꣳह कहे—लईय़ा याइब, तिꣳह यथा ॥१२४॥
एत कहि श्रीनिवास सङ्गे आगे याय़ ।
उलटि उलटि श्रीनिवास पाने चाय़ ॥१२५॥
श्री-गोपीनाथेर पुष्प-वाटी मनोहर ।
देखाइल—एखाने रहेन गदाधर ॥१२६॥
याह बापु ! ताꣳर दशा कि कब तोमारे ? ।
प्रभुर विच्छेदे प्राण धरिते ना पारे ॥१२७॥
क्षेत्र शून्य हैल, भाग्य मन्द मो सबार ।
एत कहि गेला वृद्ध ब्राह्मण उदार ॥१२८॥
श्रीनिवास देखि ताꣳर कातर अन्तर ।
प्रणमिय़ा ताꣳरे कैल मिनति विस्तर ॥१२९॥
अति शीघ्र श्री-गोपीनाथेर आगे गिय़ा ।
पुनः पुनः प्रणमय़े भूमे लोटाइय़ा ॥१३०॥
अनिमिख नेत्रे देखे श्री-मुख-सुन्दर ।
अश्रु-कम्पे परिपूर्ण हैल कलेवर ॥१३१॥
श्रीनिवासे देखि सबे पुच्छे व्यग्र-चित्ते ।
कार पुत्र, कि नाम, आइला कोथा हैते ? ॥१३२॥
शुनि कहे—गौड़देश हईते आगमन ।
श्रीनिवास नाम, विप्र-चैतन्य-नन्दन ॥१३३॥
शुनियाइ एइ वाक्य भासे प्रेम-जले ।
सबाइ धाइय़ा श्रीनिवासे करे कोले ॥१३४॥
श्री-गौरारङ्ग-विरहे श्री-गदाधर-पण्डित गोस्वामीर अवस्था—
कहे गेला श्री-पण्डित-गोस्वामीर स्थाने ।
तिꣳह एका वसिय़ाछेन परम निर्जने ॥१३५॥
ये अद्भुत दशा, ताहा कहने ना याय़ ।
सेइ जाने, से समय़े ये देखिल ताꣳय़ ॥१३६॥
हेम-पुञ्ज जिनि अङ्ग-बलनि सुन्दर ।
हईल मलिन येन दिवा शशधर ॥१३७॥
देखिते चाꣳदेर साध ये मुख-मण्डल ।
शुखाइल येन वारि-विहीन कमल ॥१३८॥
अरुण कमल-नेत्रे धारा निरन्तर ।
भिजय़े से सकले कोमल कलेवर ॥१३९॥
सम्मुखे श्री-भागवत, ताहा भिजि याय़ ।
किछु स्मृति नाइ—अग्नि ज्वलय़े हिय़ाय ॥१४०॥
अत्यन्त गदगद-कुण्ठ श्लोक उच्चारिते ।
महाधीर श्री-पण्डित नारे स्थिर हैते ॥१४१॥
श्री-गौरसुन्दर बलि मुदय़े नय़न ।
छाड़्अय़े निःश्वास दीर्घ अनल समान ॥१४२॥
गौराङ्ग-विच्छेदे श्री-पण्डित-गदाधर ।
येरूप हईल ताहा प्रभु-आगोचर ॥१४३॥
श्रीनिवासे अनुग्रह करिबार तरे ।
आछेय़े जीवन मात्र निश्चल शरीरे ॥१४४॥
किछु बाह्य-स्फूर्ति हैल प्रभु-इच्छामते ।
हेनई समय़े केह कहे योड़हाते ॥१४५॥
श्री-गौर हईते आइलेन श्रीनिवास ।
यार पिता नाम—विप्र श्री-चैतन्य दास ॥१४६॥
श्री गदाधर-समीपे श्रीनिवास—
शुनि कहे—आन, देखि जुड़ाइ नय़न ।
श्रीनिवासे लईया गेलेन सेइक्षण ॥१४७॥
श्रीनिवास चाहि प्रभु गदाधर-पाने ।
भूमे पड़ि प्रणमय़े, धारा दुनय़ने ॥१४८॥
पण्डित गोस्वामी श्रीनिवासे निरखिय़ा ।
उठिलेन शीघ्र दुइ बाहु प्रसारिय़ा ॥१४९॥
आइसे बापु बलि—तुलि लईलेन कोले ।
श्रीनिवासे स्नान कराइल नेत्रजले ॥१५०॥
परम-वात्सल्ये वसाइय़ा निज पाशे ।
सुमधुर वाक्ये स्थिर करिल श्रीनिवासे ॥१५१॥
यद्य् अपि श्री-प्रभुर विय़ोगे महा-दुःख ।
तथापिह श्रीनिवासे देखि पाय़ सुख ॥१५२॥
यत्न करि कहे निज लोक सङ्गे दिय़ा ।
‘श्रीनिवासे आनह सर्वत्र मिलाइय़ा’ ॥१५३॥
तथा परस्पर शुनिलेन भक्त-गण ।
पण्डितेर पाशे श्रीनिवासेर गमन ॥१५४॥
राय़-रामानन्द ओ सार्वभौम-समीपे—
सबे उत्कण्ठित श्रीनिवासे देखिते ।
श्रीनिवास गेला सार्वभौमेर वाटीते ॥१५५॥
तथाय़ श्री-राय़-रामानन्देर गमन ।
दोꣳहे वसि गाय़ गौरचन्द्र गुण-गण ॥१५६॥
श्रीनिवास गिय़ा दोꣳहे दर्शन करिल ।
भूमिते पड़िय़ा दुइ चरण बन्दिल ॥१५७॥
महा-शोक-समुद्रे भासय़े दुइ जने ।
श्रीनिवासे देखि सुख उपजिल मने ॥१५८॥
दोꣳहे उठि श्रीनिवासे कैल आलिङ्गन ।
प्रेम-जले कैल श्रीनिवासेरे सिञ्चन ॥१५९॥
पुनः पुनः श्रीनिवास पड़े पदतले ।
निरन्तर भासे दुइ नय़नेर जले ॥१६०॥
देखि श्रीनिवास-दशा कान्दे दुइ जन ।
पुनः पुनः श्रीनिवासे करे आलिङ्गन ॥१६१॥
दोꣳहार वात्सल्य किछु कहने ना याय़ ।
करे धरि दोꣳहे निज निकटे वसाय़ ॥१६२॥
दोꣳहे महाधीर महा-मधुर वचन ।
श्रीनिवासे स्थिर करिलेन कतक्षणे ॥१६३॥
सङ्गे ये आछिल तारे कहे मृदुभाषे ।
सर्वत्र मिलाओ प्राण-सम श्रीनिवासे ॥१६४॥
वक्रेश्वर पण्डितेर समीपे—
चलिलेन श्रीनिवास विह्वल अन्तर ।
यथा वसिय़ा आछेन पण्डित वक्रेश्वर ॥१६५॥
भूमे पड़ि ताꣳर पाद-पद्मे प्रणमिला ।
श्रीनिवासे देखि श्री-पण्डित सुखी हैला ॥१६६॥
आइस बाप बलि—तुलि लईलेन कोले ।
श्रीनिवास-अङ्ग सिञ्चिलेन नेत्रजले ॥१६७॥
वसाइल निकटे, वात्सल्य अतिशय़ ।
अङ्गे हस्त दिय़ा कथा कहे सुधामय़ ॥१६८॥
भाल हैल आइला शीघ्र देखिनु तोमारे ।
बहु-कार्य प्रभु साधिबेन तोमा द्वारे ॥१६९॥
एत कहि अधैर्य हईला महाशय़ ।
परम-वात्सल्ये पुनः पुनः आलिङ्गय़ ॥१७०॥
यद्यापिह श्रीनिवासे नारय़े छाड़िते ।
तथापिह आज्ञा दिल सबारे मिलिते ॥१७१॥
श्रीनिवास पुनः प्रणमिय़ा श्री-चरणे ।
चलिलेन, अश्रुधारा बहे दु-नय़ने ॥१७२॥
श्री-परमानन्द-पुरी-समीपे—
श्री-परमानन्द-आदि सन्न्यासि-सकल ।
प्रभुर विय़ोगे सबे अत्यान्त विकुल ॥१७३॥
वसिय़ा उठिते शक्ति नाहिक काहार ।
प्रभुर इच्छाते देह आछय़े सबार ॥१७४॥
मृतप्राय़ हईय़ा आछय़े निरजने ।
दिवस-रजनी-स्मृति नाहि कारु मने ॥१७५॥
श्रीनिवास याइय़ा करिल दरशन ।
महा-यत्ने बन्दिलेन सबार चरण ॥१७६॥
श्रीनिवासे देखिते सबार हर्षोदय़ ।
भूमि हैते तुलि पुनः पुनः आलिङ्गय़ ॥१७७॥
श्रीनिवासे पाइय़ा पाइल येन प्राण ।
प्रेम-जले श्रीनिवासे कराइला स्नान ॥१७८॥
श्रीनिवास हैले महा-प्रेमेते विह्वल ।
मुख बुक बहिय़ा पड़य़े नेत्रजल ॥१७९॥
श्रीनिवासे स्थिर करि कतक्षण परे ।
आज्ञ दिल—‘याह् बापु ! मिलह सबारे’ ॥१८०॥
शिखि माहितिर भवने—
श्रीनिवास गेला शिखि माहिति-भवन ।
बहु-जन-सङ्गे तथा हईल मिलन ॥१८१॥
श्रीनिवास प्रणमिते कैला सबे कोले ।
श्रीनिवास भिजे ताꣳ-सबार नेत्रजले ॥१८२॥
श्रीनिवास कहे किछु कान्दिते कान्दिते ।
शुनिय़ा से-सब वाक्य नारे स्थिर हैते ॥१८३॥
कानाइ-खुटिय़ा कहे—‘शुन श्रीनिवास ।
आजि तुमि कैला अन्ध-नय़न प्रकाश’ ॥१८४॥
भग्नीर सहित शिखि-माहिति कहय़े ।
‘तोमारे देखिब, ताइ जीवन आछय़े’ ॥१८५॥
वाणिनाथ-समीपे—
श्री-पट्टनाय़क-वाणीनाथ आदि यत ।
श्रीनिवासे कोले करि कहे एइ मत ॥१८६॥
आज्ञा दिल श्रीनिवासे राखि कतक्षण ।
‘मिलह सर्वत्र देखि जुड़ाक नय़न’ ॥१८७॥
गोविन्द ओ शङ्कर-सह मिलन—
आज्ञा पाञा श्रीनिवास सजल-नय़ने ।
चलिलेन गोविन्द शङ्कर-दरशने ॥१८८॥
देखे गिय़ा दुइजन निर्जने बैसय़े ।
गौराङ्ग-विरहे शुष्क वातासे हालय़े ॥१८९॥
श्रीनिवास दुꣳहु आगे पड़े भूमितले ।
दोꣳहे, श्रीनिवासे तुलि करिलेन कोले ॥१९०॥
कहिलेन कत कथा व्याकुल हिय़ाय़ ।
शुनिते से-सब दुःख पाषाण मिलाय़ ॥१९१॥
श्रीनिवास उच्चिःस्वरे करय़े क्रन्दन ।
भूमिते पड़्इय़ा हईलन अचेतन ॥१९२॥
श्रीनिवास-दशा देखि दोहे स्थिर करे ।
यत्ने आज्ञा दिल—याइ मिलह सबारे ॥१९३॥
गोपीनाथ आचार्य समीपे—
चलिलेन श्रीनिवास, स्थिर नाहे मन ।
गोपीनाथ आचार्येर कैल दरशन ॥१९४॥
भूमितले पड़ि प्रणमिल ताꣳर पाय़ ।
तिꣳह कोले कैल अति व्याकुल हिय़ाय़ ॥१९५॥
श्री-कृष्ण-चैतन्य बलि प्रेम-जले भासे ।
कोले करि छाड़िते ना पारे श्रीनिवासे ॥१९६॥
श्रीनिवास कान्दे ताꣳर चरण धरिय़ा ।
से दशा देखिते के धरिते पारे हिय़ा ? ॥१९७॥
कतक्षण गोपीनाथ आपना सम्वरि ।
श्रीनिवासे पाशे बसाइले स्थिर करि ॥१९८॥
धीरे धीरे कहे कथा अमृतेर धार ।
‘तोमारे देखिते साध छिल सवाकार ॥१९९॥
एइ कतदिन प्रभु हैल अदर्शन ।
ताद् इच्छाय़ नहिल तोमार आगमन ॥२००॥
दुःख ना भाविह आरे बाप स्री-निवास ।
तोमार हृदय़े सदा प्रभुर विलास’ ॥२०१॥
ऐछे कत कहि आज्ञा दिल—मिल सबे ।
चलिलेन श्रीनिवास से दर्शन-लोभे ॥२०२॥
एइरूप सर्वत्र मिलिला प्रेमावेशे ।
सबेइ करिल कृपा प्रिय़ श्रीनिवासे ॥२०३॥
महाप्रभुर विरहे भक्त-गणेर निश्चल दशा—
प्रभुर विय़ोगे दशा येरूप सबार ।
लक्ष लक्ष मुखे केबा पारे वर्णिवार ॥२०४॥
श्री-विग्रह मौनमुद्रारूपे रहे यैछे ।
श्रीनिवास सर्वत्र देखिल सबे तैछे ॥२०५॥
प्रिय़ श्रीनिवासे कृपा करिबार तरे ।
ए हेन विय़ोगे प्राण रहिल शरीरे ॥२०६॥
स्वरूपेर रघुनाथके ना देखिय़ा श्रीनिवासेर अधैर्य—
स्वरूपेर रघुनाथे दर्शन ना पाञा ।
कान्दे श्रीनिवास अति व्याकुल हईञा ॥२०७॥
प्रभुर विय़ोग, स्वरूपेर अदर्शन ।
महा-दुःखे रघुनाथ गेला वृन्दावन ॥२०८॥
एइ हेतु देखा ना हईल तीꣳर साने ।
करिल विलाप बहु स्वरूप सदने ॥२०९॥
रघुनाथ छिला यथा, से स्थान देखिय़ा ।
छाड़े दीर्घ-निश्वास से गण सोङरिय़ा ॥२१०॥
श्री-रघुनाथेर गुण बलिवेक के ? ।
श्री-यदुनन्दन आचार्येर शिष्य ये ॥२११॥
तथाहि श्री-चैतन्य-चन्द्रोदय़-नाटके दशमाङ्के यिषासून
प्रति शिवानन्द वाक्यम्—
आचार्यो यदुनन्दनः सुमधुरः श्री-वासुदेव-प्रिय़-
स्तच्छिय्यो रघुनाथ इत्य् अधिगुणः प्राणाधिको मादृशाम् ।
श्री-चैतन्य-कृपातिर् एक-सतत-स्निग्धः स्वरूपानुगो
वैराग्यस्य निधिर्न कस्य विदितो नीलाचले तिष्ठताम् ॥२१२॥
महाप्रभुर विरहे, महाराज प्रतापरुद्रेर दशा—
शुनिलेन प्रतापरुद्रेर समाचार ।
यैछे ताꣳर चेस्टा, ताहा कहे साध्य कार ? ॥२१३॥
प्रभु कृष्ण-चैतन्यचन्द्रेर विद्यमाने ।
पुत्रे राज्य समर्पिला मङ्गल-विधाने ॥२१४॥
वासुदेव-सार्वभौम रामानन्द सने ।
निरन्तर मग्न प्रभु-चरित्र-कीर्तने ॥२१५॥
परम आनन्दे निवारात्रि गोङाइते ।
अकस्मात् उद्वेगे नारय़े स्थिर हैते ॥२१६॥
हेनकाले प्रभु-अदर्शन कथा शुनि ।
अङ्ग आछाड़िय़ा राजा लोटाय़ धरणी ॥२१७॥
शिरे कराघात करि हैला अचेतन ।
राय़-रामानन्द मात्र राखिल जीवन ॥२१८॥
प्रभुर विय़ोग राजा सहित ना पारे ।
नीलाचल हईते राहिल कत दूरे ॥२१९॥
इहा शुनि श्रीनिवास भासे नेत्रजले ।
ना हईल राजार दर्शन नीलाचले ॥२२०॥
ऐछे, कतजन सङ्गे ना हईल देखा ।
माने निज दुर्दैव—दुःखेर नाइ लेखा ॥२२१॥
ठाकुर हरिदासेर समाधि दर्शन ओ विलाप—
श्रीनिवास शीघ्र समुद्रेर कूले गेला ।
हरिदास ठाकुरेर समाधि देखिला ॥२२२॥
भूमिते पड़िय़ा कैल प्रणति विस्तर ।
निज-नेत्रजले सिक्त हैल कलेवर ॥२२३॥
श्री-हरिदासेर चेष्टा पूर्वे ये शुनिल ।
से-सब चिन्तिते चित्त व्याकुल हईल ॥२२४॥
‘हा हा प्रभु हारिदास’ बलिते बलिते ।
मूर्च्छित हईय़ा पड़िलेन पृथिवीते ॥२२५॥
अलौकिक प्रेम-चेष्टा ना हय़ वर्णन ।
प्रभु-इच्छामते मात्र हईल चेतन ॥२२६॥
भागवत-गण श्री-समाधि-सन्निधाने ।
श्रीनिवासे स्थिर कैल सस्नेह-वचने ॥२२७॥
पूनः श्रीनिवास श्री-समाधि प्रणमिय़ा ।
ये विलाप कैल, ता शुनिते द्रवे हिय़ा ॥२२८॥
सङ्गे ये छिलेन, तिꣳह यत्ने श्रीनिवासे ।
लईय़ा गेलेन शीघ्र पण्डितेर पाशे ॥२२९॥
पण्डित-गोसाञि पुनः कहिलेन ताꣳरे ।
इहोꣳ लैय़ा याह जगन्नाथ देखिवारे ॥२३०॥
श्री-जगन्नाथ-दर्शने श्रीनिवास—
सिꣳह-द्वार-पथे चलिल्लेन श्रीनिवास ।
अत्यद्भुत तेजः—येन सूर्येर प्रकाश ॥२३१॥
धूलाय़ धूसर से कोमल कलेवर ।
अरुण-नय़न जले भासे निरन्तर ॥२३२॥
ये वारेक निरिखय़े श्रीनिवास-पाने ।
से अति अधैर्य, धारा बहय़े नय़ने ॥२३३॥
केह श्रीनिवास-आगे छलय़े धाइय़ा ।
गमनेर शोभा देखे सम्मुखे रहिय़ा ॥२३४॥
केह कहे—‘अहे भाइ देख श्रीनिवासे ।
इहार हृदय़े कृष्ण-चैतन्य विलासे’ ॥२३५॥
केह कहे—‘ये कहिल एइत सम्भव ।
नहिले कि एत स्नेह करे भक्त-सब ? ॥२३६॥
प्रभुर विय़ोगे भक्त रहे मृतप्राय़ ।
तथापिह श्रीनिवासे देखि सुख पाय़’ ॥२३७॥
केह कहे—‘मो-सबार घुचाइते व्यथा ।
श्रीनिवासे जगन्नाथ आनिलेन एथा’ ॥२३८॥
केह कहे—‘पूर्वे प्रभु ये आज्ञा करिल ।
ताहा मो-सबार नेत्रे प्रत्यक्ष हईल’ ॥२३९॥
केह कहे—‘अल्प वय़स सुकुमार ।
देखिते एदशा प्राण विदरे आमार’ ॥२४०॥
एइरूप कृत कथा कहे परम्परे ।
श्रीनिवास आसि प्रणमिला सिꣳह-द्वारे ॥२४१॥
प्रथमेइ पतित-पावने निरखिय़ा ।
चलिलेन किछु आगे प्रेमाविष्ट हैय़ा ॥२४२॥
आपनाके दीनहीन माने निरन्तर ।
नृसिꣳह-देवेर स्तुति करेन विस्तर ॥२४३॥
अति यत्ने प्रणमिय़ा नृसिꣳह-देवेरे ।
सावधान-पूर्वक प्रवेशिल श्री-मन्दिरे ॥२४४॥
सर्व-चित्ताकर्ष रहे दूरे दाꣳड़ाइय़ा ।
नीलाचल-चन्द्रे देखे नय़न भरिय़ा ॥२४५॥
श्री-जगन्नाथ ओ ओ श्री-बलदेवेर रूप-माधुरी—
नीलाचल-चन्द्रेर माधुर्य मनोहर ।
सजल जलद घटा जिनि कलेवर ॥२४६॥
श्री-पद्म-लोचन-द्वय़ त्रिभुवन-लोभा ।
कोटि कोटि चन्द्र जिनि श्री-मुखेर शोभा ॥२४७॥
परम अद्भुत बाहु-भङ्गिर सुषमा ।
नाना-रत्न-भूषणे भूषित मनोरमा ॥२४८॥
विविध पुष्पेर माला चरण पर्य़न्त ।
क्रमे विलसय़े शोभा के करिबे अन्त ? ॥२४१॥
नाना पुष्पचूड़ा चारु शिरे सूशोभय़ ।
झलके ललाटे कोटि कन्दर्प विजय़ ॥२५०॥
श्रीनिवासेर श्री-बलराम ओ श्री-सुभद्रा दर्शन—
ऐछे जगन्नाथ-देवे करि सन्दर्शन ।
बलदेव-चन्द्रे देखि जुड़ाय़ नय़न ॥२५१॥
इन्दु-कुन्द-चन्दन-रजत गिरि जिनि ।
झलमल करे अङ्ग अद्भुत लावणी ॥२५२॥
श्री-मुख-चन्द्रेर शोभा भुवन भुलाय़ ।
नेत्र-पद्म-भङ्गिते कन्दर्प मुर्च्छा पाय़ ॥२५३॥
निरुपम भुज, चारु ललाट शोभित ।
नाना-रत्न-पुष्पे भूषणे विभूषित ॥२५४॥
हेन बलराम-शोभा देखे श्रीनिवास ।
धरिते ना पारे अङ्ग बार्ह्̤अय़े उल्लास ॥२५५॥
श्री-सुभद्रा-मुख-पद्म करिय़ा दर्शन ।
नेत्र भरि देखिलेन चक्र-सुदर्शन ॥२५६॥
श्री-जगन्नाथेर प्रिय़ सेवक उल्लासे ।
श्री-माला-प्रसाद, वस्त्र दिल श्रीनिवासे ॥२५७॥
चरूवेड़्अ मध्येते यतेक देवालय़ ।
महा-यत्ने सकल देखि महाशय़ा ॥२५८॥
श्रीनिवासे येइ कराइलेन दर्शन ।
तिꣳह लैय़ा आइला गोपीनाथेर भवन ॥२५९॥
पुनः गोपीनाथ पाद-पद्म निरखिल ।
अति से सौन्दर्य-सुधा-समुद्रे-भुविल ॥२६०॥
पुनराय़ श्री-गदाधर समीपे श्रीनिवास—
श्री-पण्डित गोस्वामीर निक्षटे पुनः गेला ।
तिꣳह महाप्रसाद सेवने आज्ञा दिला ॥२६१॥
श्रीनिवास बैसे महाप्रसाद-सेवने ।
नेत्रे अश्रुधारा बहे प्रसाद-दर्शने ॥२६२॥
आश्चर्या सौरभ पाइ हृदय़ उथले ।
महायत्ने भुञ्जय़े प्रणमि भूमितले ॥२६३॥
कत लैब नाम ?―से प्रसाद नाना भाꣳति ।
भुञ्जिलेन श्रीनिवास भक्ति-रसे माति ॥२६४॥
श्री-महाप्रसाद-सेवा करि कतक्षणे ।
चलिलेन श्री-पण्डित-गोस्वामीर स्थाने ॥२६५॥
पण्डित-गोसाञि महा-विरहे जर्जर ।
दुनय़ने प्रेम-धारा बहे निरन्तर ॥२६६॥
प्रसाद-सेवने जिज्ञासिय़ा श्रीनिवासे ।
परम वात्सल्ये बसाइला निज-पाशे ॥२६७॥
कि अपूर्व स्नेहे पुनः कहे आध आध ।
भागवत पड़िते तोमार छिल साध ॥२६८॥
पड़ाइते तोमारे आमारो छिल साधा ।
कारे कि करिब, हैल विपरीत राधा ॥२६९॥
एत कहि किछुकाल रहे मौन धरि ।
चाहे श्रीनिवास-पाने आपना सम्वरि ॥२७०॥
मध्ये मध्ये श्रीमद् भागवतार्थ कहे ।
याꣳहार श्रवणे कोन सन्देह ना रहे ॥२७१॥
श्रीनिवासे देख एइ कृपार अवधि ।
एहेन समय़े शुनाय़ेन यथाविधि ॥२७२॥
पुनः श्रीनिवासे कहे—‘वृन्दावने याबे ।
तथा एसकल मनोरथ पूर्ण हबे ॥२७३॥
एथा ये आछेन ग्रन्थ, ताहा जीर्ण हैल ।
एत कहि श्रीनिवासे ग्रन्थ आनि दिल ॥२७४॥
श्रीनिवास श्री-ग्रन्थे करिय़ा नमस्कार ।
अक्षर देखिते नेत्रे बहे अशुधार ॥२७५॥
श्री-चैतन्य-प्रभु-गदाधर-नेत्रजले ।
मध्ये मध्ये वर्ण लोप, पाठ नाहि चलो ॥२७६॥
देखीते देखिते यैछे, हैला श्रीनिवास ।
ताहा देखि गोसाञिर चित्ते हैल त्रास ॥२७७॥
कि अपूर्व स्नेह ! स्थित करि श्रीनिवासे ।
करिलेन अनुग्रह अशेष-विशेषे ॥२७८॥
श्री-पण्डित-गोस्वामीर वात्सल्य चमत्कार ।
ग्रन्थेर बाहुल्य-भय़े नारि वर्णिवार ॥२७९॥
श्रीनिवासेर नीलाचल हईते गौड़ा-देशे यात्रा—
श्रीनिवासे गौड़देशे याइते आज्ञा दिल ।
सर्वत्र विदाय़ शीघ्र हईते कहिल ॥२८०॥
पण्डितेर प्राणसम दास-गदाधर ।
ताꣳर लागि करिलेन आक्षेप विस्तर ॥२८१॥
खण्ड-वासी नरहरि आदि यत जने ।
कहिते कहिल या, ता दुष्कर श्रवणे ॥२८२॥
गोस्वामीर ऐहे आज्ञा शुनि श्रीनिवास ।
माथाय़ भाङ्गिय़ा येन पड़िल आकाश ॥२८३॥
लङ्घिते ना पारे आज्ञा, व्याकुल हईय़ा ।
ये कैल विलाप, ता शुनिते फाटे हिय़ा ॥२८४॥
काय़मनो-वाक्ये कैल चरण वन्दन ।
प्रदक्षिण करि कैल अनेक रोदन ॥२८५॥
श्री-गोपीनाथेर पाद-पद्मे प्रणमिय़ा ।
चलिलेन श्रीनिवास आत्म-समर्पिय़ा ॥२८६॥
श्री-जगन्नाथेरे गिय़ा करिल दर्शन ।
अनेक प्रार्थना कैल करिय़ा रोदन ॥२८७॥
क्षेत्र-वासी सकल भक्तेर स्थाने गिय़ा ।
करय़े प्रणाम बहु भूमे लोटाइय़ा ॥२८८॥
दुइ नेत्रे अश्रुधारा बहे अनिवार ।
से दशा देखिते प्राण विदरे सबार ॥२८९॥
प्रेमावेशे करे सबे दृढ़ आलिङ्गन ।
श्रीनिवासे छाड़िते ना पारे कोन जन ॥२९०॥
व्याकुल हईय़ा सबे विदाय़ करिल ।
कहिल ये सब, ताहा वर्णिते नारिल ॥२९१॥
मरि मरि स्नेहेर बालाइ लैय़ा मरि ।
रहिलेन सबे से गमन-पथ हरि ॥२९२॥
केह कहे सङ्गेते चलिय़ा कत दूरे ।
सुसङ्ग करिय़ा दिल गौड़े याइबारे ॥२९३॥
श्रीनिवास गौड़देशे गमन करिल ।
पण्डित-गोस्वामीर स्थाने सबे जानाइल ॥२९४॥
श्रीनिवासे पाठाइय़ा हैल ये प्रकार ।
ताहा कि कहिब ? चित्ते सꣳशय़ सबार ॥२९५॥
एथा श्रीनिवास चिन्ता करे अनुक्षण ।
पुनः कि पाइब श्री-गोसाञिर दर्शन? ॥२९६॥
ऐछे बहु आशङ्का से चरण भारिय़ा ।
निर्विघ्ने आइला खण्डे व्याकुल हईय़ा ॥२९७॥
श्री-खण्डे भक्त-गणेर सहिति मिलन—
श्रीनिवासे देखिय़ा ठाकुर नरहरि ।
करिला क्रन्दन श्रीनिवास-गला धरि ॥२९८॥
श्रीनिवासे यत्ने जिज्ञासेन समाचार ।
श्रीनिवास कहे—नेत्रे बहे अश्रुधार ॥२९९॥
प्रभुर वियोगे यैछे प्रभु-परिकर ।
विस्तारि कहिते नारे व्याकुल अन्तर ॥३००॥
पण्डित गोसाञिर कथा कहिते कहिते ।
मूर्च्छित हईय़ा पड़िलेन पृथिवीते ॥३०१॥
श्रीनिवास-दशा देखि प्रभु नरहरि ।
अनेक यतने स्थिर कैला वक्षे धरि ॥३०२॥
श्री-रघुनन्दन आदि यत प्रभु-गण ।
श्रीनिवासे देखि स्थिर नहे कोन जन ॥३०३॥
ये प्रकार हैल, ताहा कहिते कि पारि ? ।
सबे स्थिर कैल श्री-ठाकुर नरहरि ॥३०४॥
श्रीनिवासेर श्री-क्षेत्रे पुनर्यात्रा—
श्रीनिवास सेइ रात्रि रहिय़ा खण्डेते ।
प्रातःकाले पुनः चलिलेन क्षेत्र-पथे ॥३०५॥
मने विचारय़े—गोसाञिर स्थाने गिय़ा ।
रहिब एबार आज्ञा लङ्घन करिय़ा ॥३०६॥
एइरूपे नाना कथा उपजे अन्तरे ।
देखिलेन—कतजन आइसे कत दूरे ॥३०७॥
पथे पण्डित-गोस्वामीर अप्रकट-सꣳवादे मूर्च्छा—
व्यग्र हैय़ा ता सबारे पुछे समाचार ।
केबा कि कहिबे ?—हिय़ा विदीर्ण सबार ॥३०८॥
कतक्षणे कहिलेन करिय़ा क्रन्दन ।
श्री-पण्डित गोस्वामी हईला अदर्शन ॥३०९॥
श्रीनिवास व्याकुल ए वाक्य-वज्राघाते ।
मूर्छित हईय़ा पड़िलेन पृथिवीते ॥३१०॥
श्रीनिवासे देखि सबे करे हाय़ हाय़ ! ।
केने वा कहिनु मोरा ए कथा इहाय़ ? ॥३११॥
केह कहे—जिज्ञासिले कहितेइ हय़ा ।
एब ऐछे करह जीवन यैच्छे रय़ ॥३१२॥
श्रीनिवासे लईय़ा व्याकुल सर्व-जन ।
विविध प्रकारे कराइलेन चेतन ॥३१३॥
श्रीनिवास ता सबार पाने निरखिय़ा ।
करे कराघाते शिरे, उमड़य़े हिय़ा ॥३१४॥
हा हा प्रभु-गदाधर—कहे वार वार ।
तेजय़े निःश्वास दीर्घ, नेत्र अश्रुधार ॥३१५॥
क्षण कहे—अछे प्रभु निर्दय़ हईय़ा ।
एइ हेतु मो अज्ञेरे दिला पाठाइय़ा ॥३१६॥
एइरूप अनेक कहय़े आर्तनादे ।
शुनिते से-सब वाक्य पशु-पक्षी काꣳदे ॥३१७॥
स्वप्ने श्री-गौर-गदाधरेर दर्शन ओ आदेश प्राप्ति—
कत रात्रे निद्राय़ निश्चल कलेवर ।
स्वप्ने देखा दिय़ा प्रबोधिला गदाधर ॥३१८॥
तथापिह श्रीनिवास धैर्य नाहि बान्धे ।
हा हा प्रभु-गौर गदाधर बलि कान्दे ॥३१९॥
क्षिप्त-प्राय़ याजपुर-ग्राम-सन्निधाने ।
भ्रमे कत दूरे—किछु स्मृति नाइ मने ॥३२०॥
एकदिन स्वप्ने गौर गदाधर-सने ।
स्नेहे श्रीनिवासे स्थिर करिला यतने ॥३२१॥
नवद्वीप हईय़ा शीघ्र याह वृन्दावन ।
एत कहि दोꣳहे हईलेन अदर्शन ॥३२२॥
श्रीनिवासेर गौड़देश यात्रा—
स्वप्न-भङ्गे श्रीनिवास नारे स्थिर हैते ।
गौड़देशे यात्रा कैल रजनी-प्रभाते ॥३२३॥
प्रेमावेशे निरन्तर झरय़े नय़ान ।
ये वारेक देखे, से धरिते नारे प्राण ॥३२४॥
किबा से गमन—एका चले राजपथे ।
सेइ पथे कतजन आइसे गौड़ हैते ॥३२५॥
श्रीनिवासे देखिय़ाइ केह केह कय़ ।
शुनिय़ाछि—श्रीनिवास सेइ एइ हय़ ॥३२६॥
नीलाचल हैते इहा आइसे अल्पदिने ।
गौड़ेर वृत्तान्त बुझि किछु नाहि जाने ॥३२७॥
ऐछे कत कहि सबे निकटे आइसे ।
श्रीनिवास ता सबारे यतने जिज्ञासे ॥३२८॥
कोथा हैते आइला, क्षने क्षीण कलेवर ।
पुनः पुनः पुच्छे किछु ना पाय़ उत्तर ॥३२९॥
पथे श्री-नित्यानन्दाद्वैत-सप्रकट-वार्ता-श्रवणे श्रीनिवासेर अजस्र विलाप—
केह अधोमुखे कहे करिय़ा क्रन्दन ।
नित्यानन्दाद्वैत दोꣳहे हैला अदर्शन ॥३३०॥
शुनितेइ अङ्ग आछाड़िय़ा भूमे पड़े ।
निश्चय़ करिल—प्राण ना राखिब धड़े ॥३३१॥
केश छिड़ि हस्ताघात करय़े माथाय़ ।
काꣳदे उच्चैःस्वरे शुनि पाषाण मिलाय़ ॥३३२॥
कि हैल, कि हैल बलि नखे वक्षः चिरे ।
ऊर्ध्व-बाहु करिय़ा कहय़े वारे वारे ॥३३३॥
हा हा गौर-नित्यानन्दाद्वैत-गदाधर ।
हा हा स्वरूप प्रभु-प्राणेर सोसर ॥३३४॥
मो हेन अधमे दुःख भुञ्जाइते ।
असमय़े जन्माइ राखिला पृथिवीते ॥३३५॥
करिब उचित, प्राण यैछे बाहिराय़ ।
प्रभाते ज्वालिय़ा अग्नि प्रवेशिव ताय़ ॥३३६॥
ऐछे महा-दुःखे दग्धि रात्रि-शेष कैल ।
प्रभु-इच्छामते किछु-निद्रा आकर्षिल ॥३३७॥
स्वप्ने श्री-नित्यानन्दाद्वैतेर अपरूप रूप दर्शन ओ सान्त्वना-लाभ—
स्वप्नच्छाले नित्यानन्दाद्वैत दय़ामय़ ।
श्रीनिवास आगे आसि हईला उदय़ ॥३३८॥
कनक-अरुण किबा निताइर तनु ।
झलमल करे जिनि प्रभातेर भानु ॥३३९॥
पिरीति अमिय़ा-माखा मधुर लावणी ।
से नव भङ्गीते कोटी मदन निछनि ॥३४०॥
वदन-सौन्दर्य किबा ताहे मृदु हास ।
येन सुनिर्मल कोटि-चाꣳदेर प्रकाश ॥३४१॥
शिरे सुकुन्तल चारु तिलक कपाले ।
श्रवणे कुण्डल गण्डतटे झलमले ॥३४२॥
भूरु-भृङ्ग-पाꣳति, नेत्र-कमल विशाल ।
शुकचञ्चु नासा, कुन्ददशन रसाल ॥३४३॥
परिसर वक्षः, कि मधुर महिमा ।
आजानुलम्बित बाहु सुषमार सीमा ॥३४४॥
त्रिबलि-बलित नाभि गभीर मधुर ।
क्षीण कटि सिꣳहेर गरव करे दूर ॥३४५॥
उलट कदली-जानु जगत् मोहय़ ।
चरणे नूपुर-वीणा चलिते वाजय़ ॥३४६॥
करे चारु लगुड़्अ कनक-माणिमय़ ।
वारेक देखिते द्रवे पाषाण-हृदय़ ॥३४७॥
अद्वैत-गोसाञि-शोभा परम सुन्दर ।
कनक-पर्वति जिनि तनु मनोहर ॥३४८॥
ललालटे तिलक, गले तुलसीर दाम ।
सुदीर्घ लोचन देखि मुरुछय़े काम ॥३४९॥
चान्देर गरव नाशे हासिमाखा मुख ।
दशन-छटाय़ येन वरिषय़े सुख ॥३५०॥
आजानुलम्बित बाहु करिशुण्ड जिनि ।
परिसर बुक, किबा क्षीण माजाखानि ॥३५१॥
उरु निरुपम, चारु चरण माधुरी ।
देखिले माताय़े जगतेर नरनारी ॥३५२॥
हेन दुइ प्रभुरे देखिय़ा श्रीनिवास ।
भासय़े नय़न-जले बाढ़य़े उल्लास ॥३५३॥
लोटाइय़ा पड़िल दोꣳहार पदतले ।
दुꣳहु पाद-पद्म सिक्त कैल नेत्रजले ॥२५४॥
निताइ अद्वैत दोꣳहे देखि श्रीनिवासे ।
भासाइल पेम-जले मनेर उल्लासे ॥२५५॥
पसारिय़ा बाहु अतिवात्सल्य हृदय़ ।
श्रीनिवासे कोले करि यत्ने प्रबोधय़ ॥२५६॥
तुमि ये करिला मने से उचित नहे ।
साधिब अनेक कार्य तोमार ए देहे ॥३५७॥
गौड़े तोमा देखिते उद्विग्न बहु जन ।
ता सबारे देखि शीघ्र याह वृन्दावन ॥३५८॥
ऐछे बहु कहि श्रीनिवासे स्थिर कैल ।
पुनः श्रीनिवास प्रभु-पदे प्रणमिल ॥३५९॥
श्रीनिवास-माथे दोꣳहे धरिल चरण ।
परम वात्सल्ये कैल पुनः आलिङ्गन ॥३६०॥
श्रीनिवासे विदाय़ करिय़ा दुइजने ।
दोꣳहे अदर्शन हईलेन सेइक्षणे ॥३६१॥
श्रीनिवासेर गौड़े आगमन ओ नवद्वीप दर्शने यात्रा—
निद्राभङ्गे श्रीनिवास व्याकुल हईल ।
रजनी प्रभाते तथा हैते यात्रा कैल ॥३६२॥
किछुदिने उत्कलेर सीमा छाड़ाइला ।
मध्यदेश हैय़ा गौड़देशे प्रवेशिला ॥३६३॥
खण्डे गिय़ा प्रभु-प्रिय़-गण-दर्शनेते ।
ये हईल परस्पर—ना पारि वर्णिते ॥३६४॥
श्री-प्रभुर स्वप्नादेश करिय़ा स्मरण ।
नवद्वीप-पथ-पाने करय़े गमन ॥३६५॥
लोक-मुखे शुने नदीय़ार समाचार ।
ना धरे धैर्य, नेत्रे बहे अश्रुधार ॥३६६॥
नवद्वीप याइते उद्वेग बार्ह्̤ए मने ।
दुइ दिवसेर पथ चले एकदिने ॥३६७॥
पथेते याइते चित्ते उपजय़े याहा ।
एकमुखे केबा वा वर्णिते पारे ताहा ? ॥३६८॥
श्री-श्रीनिवासेर एइ नदीय़ा-गमन ।
ये करे श्रवण, तारे मिले भक्ति-धन ॥३६९॥
श्रीनिवास-आचार्य-चरण चिन्ता करि ।
भक्ति-रत्नाकर कहे दास नरहरि ॥३७०॥
इति श्री-श्री-भक्ति-रत्नाकरे श्री-श्रीनिवासाचार्य-चरित वर्णने
तन् नीलाचल-गमनꣳ पुन-गौड़ागमनꣳ नाम
तृतीय़स् तरङ्गः समाप्त ॥३॥
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