०२

द्वितीय़ तरङ्ग

सपार्षद श्री-गौरसुन्दरेर जय़

जय़ जय़ गौर कृष्ण भुवन-मोहन ।
नदीय़ार नाथ भक्त-जनेर जीवन ॥१॥

जय़ जय़ नित्यानन्द देव हलधर ।
जय़ जय़ श्री-अद्वैत आचार्य ईश्वर ॥२॥

जय़ जाय़ गदाधर पण्डित, श्री-वास ।
जय़ श्री-स्वरूप, वक्रेश्वर, हरिदास ॥३॥

जय़ वासुदेव सार्वभौम बृहस्पति ।
जय़ जय़ रामानन्द रसेर मूरति ॥४॥

जय़ पुण्डरीक विद्यानिधि महाशय़ ।
जय़ श्री-जगदानन्द-पण्डित सङ्जय़ ॥५॥

जय़ विद्यावाचस्पति जगते प्रचार ।
जय़ जय़ चक्रवर्ती श्री-नाथ उदार ॥६॥

जय़ गदाधर-दास, दास नरहरि ।
जय़ श्री-मुकुन्द प्रेम-भक्ति-अधिकारी ॥७॥

जय़ वासुघोष, गौरीदास, धनञ्जय़ ।
जय़ वनमाली, श्री-गरुड़ महाशय़ ॥८॥

जय़ जय़ वल्लभ आचार्य, सनातन ।
जय़ हरिदास द्विज, आचार्य-नन्दन ॥९॥

जय़ जय़ रूप-सनातन दय़ामय़ ।
जय़ श्री-गोपाल-भट्ट प्रेमेर आलय़ ॥१०॥

जय़ रघुनाथ भट्ट, रघुनाथ दास ।
जय़ श्री-मज्जीव याꣳर अद्भुत विलास ॥११॥

जय़ श्री-भूगर्भ, लोकनाथ, षष्ठीधर ।
जय़ श्री-सुबुद्धिमिश्र, श्री-चन्द्रशेखर ॥१२॥

जय़ काशीमिश्र, गोपीकान्त, भगवान् ।
जय़ श्री-हृदय़ानन्द कमल-नय़न ॥१३॥

जय़ जगन्नाथ सेन, श्री-मधुसूदन ।
जय़ सेन चिरञ्जीव, श्री-रघुनन्दन ॥१४॥

जय़ श्री-सारङ्ग, अभिराम गुण-मणि ।
जय़ श्री-ठाकुर वृन्दावन प्रेमखनि ॥१५॥

जय़ कृष्णदास कविराज महाशय़ ।
जय़ श्री-आचार्य श्रीनिवास प्रेम-मय़ ॥१६॥

जर श्री-ठाकुर-महाशय़ नरोत्तम ।
जय़ श्यामानन्द भक्ति-मूर्ति मनोरम ॥१७॥

जय़ जय़ श्री-गौरचन्द्रेर भक्त-गण ।
सबे प्रेम-भक्ति-दाता पतित-पावन ॥१८॥

अनन्त-चैतन्य-भक्त-चरित्र अपार ।
श्री-कृष्ण-चैतन्यचन्द्र सर्वस्व सबार ॥१९॥

जय़ जय़ श्रोतागण गुणेर आलय़ ।
एबे या कहिब शुन हईय़ा सदय़ ॥२०॥

श्री-चैतन्य-दासेर वृत्तान्त—

भागीरथी-तीरवर्ती श्री-चाखन्दि ग्राम ।
तथा बैसे विप्र श्री-चैतन्य-दास नाम ॥२१॥

पूर्वे गङ्गाधर भट्टाचार्याख्या इꣳहार ।
ए नाम हईल हैछे, शुन से प्रकार ॥२२॥

केशव-भारतीय़ निकट श्री-गौरसुन्दरेर सन्न्यास-ग्रहण वृत्तान्त—

नवद्वीप-चन्द्र गौर गुणेर सागर ।
गण-सह नदीय़ा विहरे निरन्तर ॥२३॥

प्रकारे सकले जानाइय़ा मनःकथा ।
कन्टक-नगरे आइला श्री-भारती यथा ॥२४॥

सन्न्यास ग्रहण करिबेन गौरराय़ ।
हईल सर्वत्र ध्वनि शुनि लोके धाय़ ॥२५॥

कि बालक, युवा-वृद्ध, स्त्री-पुरुष-गण ।
हईल मोहित, करि गौराङ्ग दर्शन ॥२६॥

श्री-चारु चाꣳचरकेश पाने सबे चाञा ।
चित्रेर पुत्तलिप्राय़ रहे दाण्डाइय़ा ॥२७॥

स्त्री पुरुष-गणेर मनेते हय़ भीत ।
ताहा एकमूखे बा कहिबे केबा कत ॥२८॥

अन्तर्यामी गौरचन्द्र कहे सबा प्रति ।
आशीर्वाद कर—कृष्ण हौक भकति ॥२९॥

ऐछे कहि रहे प्रभु भारतीर ठाꣳइ ।
भारतीरे कहे—विलम्बेर कार्य नाइ ॥३०॥

भारती व्याकुल, किछु ना पारे कहिते ।
नापित आइल तथा प्रभुर आज्ञाते ॥३१॥

आज्ञा ना लाङ्घय़ा प्रणमिय़ा पदतले ।
श्री-मस्तके हस्त दिय़ा भासे नेत्रजले ॥३२॥

श्री-शिखा मुण्डन करि प्रभुर इच्छाय़ ।
कि कैनु, कि कैनु बलि भूमिते लोटाय़ ॥३३॥

श्री-मस्तके देखि श्री-शीखार अदर्शन ।
चतुर्दिके लोक सब करय़े क्रन्दन ॥३४॥

क्षिति सिक्त असꣳख्य लोकेर नेत्रजले ।
केह किछु ना शुने क्रन्दन-कोलाहले ॥३५॥

किबा स्त्री पुरुष धैर्य धरिते ना पारे ।
शिरे कराघात करि निन्दे विधातारे ॥३६॥

महाप्रभुर सन्न्यास दर्शने गङ्गाधर भट्टाचार्येर अवस्था—

गङ्गाधर भट्टाचार्य छिलेन तथाय़ ।
प्रभुर सन्न्यास देख कान्दे उभराय़ ॥३७॥

सिक्त हईला विप्र दुइ नय़नेर जले ।
मूर्च्छापन्न हईय़ा पड़िला भूमितले ॥३८॥

प्रभुर इच्छाय़ मात्र रहिल जीवन ।
कतक्षण परे किछु पाइल चेतन ॥३९॥

श्री-कृष्ण-चैतन्य-नाम प्रभुर हईल ।
श्री-चैतन्य-नाम विप्र-कर्णे प्रवेशिल ॥४०॥

श्री-चैतन्य-नाम विप्र लय़ वार वार ।
निरन्तर दुइ नेत्रे बहे अश्रुधार ॥४१॥

कण्टक-नगरे स्थिर हईते ना पारे ।
चलिलेन क्षिप्त-प्राय गङ्गा-तीरे तीरे ॥४२॥

‘चैतन्य’ ‘चैतन्य’ बलि डाकय़े सदाय़ ।
स्नान भोजनादि क्रिय़ा किछु नाहि भाय़ ॥४३॥

एइरूपे चाखन्दि ग्रामेते प्रवेशिला ।
गङ्गाधरे देखि सबे विस्मय़ हईला ॥४४॥

किछुदूरे थाकि अति सात्त्विक ब्राह्माण ।
गङ्गाधर भट्टाचार्ये करि निरीक्षण ॥४५॥

केह कारो प्रति कहे—एवा कि आश्चर्य ।
हईलेन क्षिप्त गङ्गाधर भट्टाचार्य ॥४६॥

केह कहे—इहꣳ क्षिप्त हईला ये निमित्ते ।
ताहा किछु जानि आमि, शुन एकचित्ते ॥४७॥

ईश्वराꣳश निमाइ पण्डित नदीय़ार ।
परम-सुन्दर, सूर्य-सम तेजः याꣳर ॥४८॥

ताꣳहार प्रभाव अति विदित सꣳसारे ।
‘गृह छाड़ि’ आइला तिꣳह कण्टक-नगरे ॥४९॥

परम अपूर्व वेश कन्दर्प-मोहन ।
ताहा त्याग करि कैल सन्न्यास ग्रहण ॥५०॥

श्री-केशव-भारती सन्न्यास कराइला ।
श्री-कृष्ण-चैतन्य नाम पण्डितेर थुइला ॥५१॥

देखिय़ा सन्न्यास केह धैर्य नाहि बान्धे ।
चतुर्दिके व्याकुल हईय़ा लोक कान्दे ॥५२॥

रहिय़ा गगन-पथे कान्दे देव-गण ।
विना मेघे वृष्टि—लोक तर्किल कथन ॥५३॥

गङ्गाधर अधैर्य से केश अदर्शने ।
‘हा चैतन्य’ बलि क्षिप्त हैला सेइक्षणे ॥५४॥

सर्व-क्रिय़ारहित, सदाइ झरे आꣳखि ।
किरूपे हईब भाल—उपाय़ ना देखि ॥५५॥

गदाधर भट्टाचार्येर ‘चैतन्य-दास’ नामे ख्याति—

केह कहे—इह चैतन्येर दास हय़ ।
चैतन्य करिबे भाल, एइ मने लय़ ॥५६॥

ऐछे कत कहि गङ्गाधर विप्रवरे ।
‘श्री-चैतन्य-दास’ बलि डाके वारे वारे ॥५७॥

‘श्री-चैतन्य-दास’ नाम शुनि आपनार ।
करय़े उत्तर, चित्ते हर्ष अनिवार ॥५८॥

गङ्गाधर पूर्व नाम केह नाहि कय़ ।
‘श्री-चैतन्य-दास’ बलि सकले डाकय़ ॥५९॥

एइरूपे हैल नाम ‘श्री-चैतन्य-दास’ ।
कतदिने स्थिर हैय़ा कैल ग्रामे वास ॥६०॥

चाखन्दि-ग्रामेर अति प्राचीन ब्राह्मण ।
ताꣳर मुखे एसकल करिल श्रवण ॥६१॥

श्री-चैतन्य-दासेर पुत्रकामना—

चैतन्य-दासेर अलौकिक भक्ति-क्रिय़ा ।
तैछे ताꣳर पत्नी पतिव्रता लक्ष्मीप्रिय़ा ॥६२॥

अपूत्रक, किन्तु नाइ कोनई वासना ।
प्रभुर इच्छाते हैल पुत्रेर कामना ॥६३॥

श्री-चैतन्य-दास-विप्र कहे पत्नी-स्थाने ।
अकस्मात् पुत्रेर कामना हैल केने ॥६४॥

हय़ेछे उद्विग्न-चित्त पुत्रेर लागिय़ा ।
किरूपे हईब स्थिर कह विचारिय़ा ॥६५॥

सस्त्रीक श्री-चैतन्य-दासेर नीलाचल-यात्रा—

लक्ष्मीप्रिय़ा कहे—शीघ्र चल नीलाचल ।
प्रभुर दर्शने पूर्ण हईबे सफल ॥६६॥

इहा शुनि चैतन्य-दासेर हर्ष हिय़ा ।
चलिलेन शीघ्र दोꣳहे याजि-ग्राम दिय़ा ॥६७॥

याजि-ग्रामे बलराम विप्रेर वसति ।
श्री-लक्मीप्रिय़ार पिता, अति शुद्ध रीति ॥६८॥

दुइ चारि दिवस रहिला सेइखाने ।
तथा हैते यात्रा कैला अति शुभक्षणे ॥६९॥

कन्या-जामातारे विर करिला विदाय़ ।
कहिला कातरे प्रणमिते प्रभुपाय़ ॥७०॥

श्री-चैतन्य-दास विप्र आनन्दे विह्वल ।
विदाय़-समय़े देथे परम मङ्गल ॥७१॥

नीलाचले याइते बहु-लोक गतागति ।
चलिलेन दोꣳहे, हैल अपूर्व सङ्गति ॥७२॥

एकदिन रात्रे स्त्री पुरुष दुइ जन ।
करय़े अनेक खेद करिय़ा क्रन्दन ॥७३॥

ए हेन मनुष्य-जन्म हेले हाराइनु ।
प्रभुपाद-पद्म कभु स्मरण ना कैनु ॥७४॥

हेन भाग्य हबे कि, देखिब नेत्र भरि ।
श्री-चैतन्य-जगन्नाथेर माधुरी ॥७५॥

चैतन्य-दासेर स्वप्न-वृत्तान्त—

ऐछे बहु कहि विप्र करिला शय़न ।
निद्राछिले देखे सूखे अपूर्व स्वपन ॥७६॥

किशोर वय़स, श्यामसुन्दर स्वरूप ।
त्रिभङ्ग भङ्गिमा, कोटि-कन्दर्पेर भूप ॥७७॥

शिरे शिखिपाखा, परिधेय़ पीताम्बर ।
श्री-मुखेर शोभा जिनि कोटि सुधाकर ॥७८॥

भूषणे भूषित अङ्ग चन्दने चर्चित ।
वाजाय़ मुरली याते जगत् मोहित ॥७९॥

ऐछे देखि पुनः ताꣳरे देखे गौर-वर्ण ।
झलमल करय़े जिनिय़ा शुद्ध-वर्ण ॥८०॥

रक्तप्रान्त मेघ-वर्ण वस्त्र परिधान ।
आर सब पूर्वमत रसेर निधान ॥८१॥

पुनः गौर-विग्रह निरीखे अन्य वेश ।
दण्ड-कमण्डलु-धारी शिरे शून्यकेश ॥८२॥

पुनः ताꣳरे देखे श्याम-मूर्ति मनोहर ।
पद्म-पत्र-प्राय़ नेत्र परम सुन्दर ॥८३॥

बलभद्र-सुभद्रा-सहित विलसय़ ।
ब्रह्मादि करय़े स्तव आनन्द-हृदय़ ॥८४॥

ऐछे बहु रहस्य देखय़े विप्रवर ।
अकस्मात् निद्राभङ्गे व्याकुल अन्तर ॥८५॥

लक्ष्मीप्रिय़ा प्रबोध करिय़ा नानामते ।
मनेर आनन्दे विप्र चलिला प्रभाते ॥८६॥

चैतन्य-दासेर नीलाचले आगमन ओ महाप्रभुर दर्शन लाभ—

कतदिने नीलाचले उत्तरिला गिय़ा ।
प्रभुर दर्शन लागि उत्काण्ठित हिय़ा ॥८७॥

अन्तर्यामी प्रभु सेइ सिꣳह-द्वार पथे ।
आइसेन निज प्रिय़ परिकर साथे ॥८८॥

कि अपूर्व गमन गजेन्द्र-गति जिनि ।
चरण-चालने धन्य मानय़े धरणी ॥८९॥

कनक-पार्वते जिनि गौर-कलेवर ।
जिनिय़ा से तेजः प्रभातेर प्रभाकर ॥९०॥

श्री-मुख-मण्डले कत चाꣳदेर उदय़ ।
मधुर हासिते सदा सुधा-वृष्टि हय़ ॥९१॥

दर्शन छटाय़ कन्दर्पेर दर्प हरे ।
नासिका-सौन्दर्य देखि केरा धैर्य धरे ॥९२॥

आकर्ण-पर्यन्त दुइ नय़न कमल ।
ललाटे चन्दन-टीका करे झलमल ॥९३॥

भुवन-मोहन कण्ठे तुलसीर दाम ।
हेरि परिसर वक्ष मुरछय़े काम ॥९४॥

परिधेय़ अरुण वसन मनोहर ।
आजानुलम्बित-भुज जिनि करिकर ॥९५॥

अपूर्व उदरशोभा करय़े त्रिवलि ।
नाभि-पद्मे विलसे भ्रमर-लोमावली ॥९६॥

सिꣳहेर गरव हरे क्षीण माजाखानि ।
मधुर नितम्ब, उरु रामरम्भा जिनि ॥९७॥

लखिमीललित चारु चरण-युगल ।
नखेर किरणे करे धरणी उज्ज्वल ॥९८॥

हेन गौरचन्द्र विप्र-पत्नीर सहिते ।
अनिमिष नेत्रे हेरे रहि एक भिते ॥९९॥

ये अङ्गे पड़य़े दिठि सेइ अङ्गे रहे ।
अविरत नय़ने आनन्द-धारा बहे ॥१००॥

से केशविहीन श्री-मस्तक निरखिते ।
ये दशा हईल ताहा करे पारे कहिते ॥१०१॥

श्री-कृष्ण-चैतन्य-प्रभु चाहि नेत्रकोणे ।
कृपा-सुधा-वृष्टि केल विप्र भाग्यवाने ॥१०२॥

चैतन्य-दासेर प्रति प्रभुर मधुर वचन ओ कृपा—

मधुर वचने विप्रे कहे प्रबोधिय़ा ।
जगन्नाथ तोमा आनाइला हृष्ट हैय़ा ॥१०३॥

चल चल जगन्नाथ करह दर्शन ।
करिबे कामना पूर्ण श्री-पद्मलोचन ॥१०४॥

श्री-मुख-चन्द्रेर वाक्य शुनि विप्रवर ।
भूमिते पड़िय़ा कैल प्रणति विस्तर ॥१०५॥

तनु-मनः-प्राण प्रभु-पदे समर्पिल ।
अन्तर्यामी प्रभु विप्रे आत्मसात् कैल ॥१०६॥

गोविन्देर आनुगत्ये चैतन्य-दासेर जगन्नाथ दर्शन—

प्रभु कहे गोविन्दे—ए निरीह ब्राह्मण ।
निर्विघ्ने कराह जगन्नाथ दरशन ॥१०७॥

एत कहि गौरचन्द्र भक्त-गोष्ठी सने ।
चलिलेन नीलाचल-चन्द्र-दरशने ॥१०८॥

श्री-चैतन्य-दास प्रभु-गणे नमस्करि ।
करिलेन दैन्य यत कहिते ना पारि ॥१०९॥

चैतन्य-दासेर चेष्टा देखि सर्व-जन ।
कैल ये उचित, हैल सर्वत्र मिलन ॥११०॥

प्रभुर आदेशे प्रभु-परिकर सने ।
चलिलेन विप्र जगन्नाथ-दरशने ॥१११॥

सचल अचल ब्रह्मा दोꣳहे एकठाञि ।
देखि विप्रमने ये आनन्द अन्त नाइ ॥११२॥

करिल अनेक स्तुति सꣳगोपन करि ।
हासिय़ा विप्रेर पाने चाहे गौरहरि ॥११३॥

महाप्रभुर चैतन्य-दासके गौड़े याइते आदेश—

जगन्नाथ-चरणे विप्रेरे समर्पिल ।
भङ्गि करि गौड़देश याइते आज्ञा दिल ॥११४॥

जगन्नाथ देखि प्रभु भक्त-गोष्ठी सने ।
आइलेन प्रिय़ काशीमिश्रेर भवने ॥११५॥

श्री-चैतन्य-दास-विप्र प्रभु-आज्ञा पाञा ।
गेलेन आपन वासा महा हृष्ट हैय़ा ॥११६॥

निज निज वासाय़ चलिला भक्त-गण ।
परस्पर कहे सबे विप्रेर कखन ॥११७॥

आर दिल सबे गोविन्देरे जानाइल ।
‘ना बुझिनु एइ विप्र कि कामना कैल’ ॥११८॥

गोविन्द कहे—इथे आछय़े रहस्य ।
प्रभु-इच्छामते व्यक्त हईबे अवश्य ॥११९॥

स्वय़ꣳ महाप्रभुर रहस्य उदघाटन—

हेनई समय़े प्रभु गोविन्दे डाकिय़ा ।
कहय़े गभीरनादे भावाविष्ट हैय़ा ॥१२०॥

‘पुत्रेर कामना करि’ आइल ब्राह्मण ।
श्रीनिवास-नामे ताꣳर हईबे नन्दन ॥१२१॥

श्री-रूपादि द्वारे भक्ति-शास्त्र प्रकाशिव ।
श्रीनिवास-द्वारे ग्रन्थ-रत्न वितरिव ॥१२२॥

प्रभु-प्रिय़ श्रीनिवास—

मोर शुद्ध-प्रेमेर स्वरूप श्रीनिवास ।
ताꣳरे देखि सर्व-चित्ते बाड़िल उल्लास ॥१२३॥

‘शीघ्र गौड़देशे विप्र करह गमन’ ।
ऐछे बहु कहि कैल भाव सम्वरण ॥१२४॥

स्वप्ने जगन्नाथ-देवेर चैतन्य-दासके गौड़े याइते आदेश—

एथा स्वप्नच्छले हैल जगन्नाथादेश ।
‘ना कर विलम्ब विप्र, याह गौड़देश ॥१२५॥

जन्मिव तोमार एक पुत्र प्रेम-मय़ ।
अल्पकाले सर्व-शास्त्रे हईब विजय़’ ॥१२६॥

ऐछे स्वप्न देखि, विप्र भावे मने मने ।
एसुख छाड़िय़ा आमि याइब केमने ॥१२७॥

व्रजेन्द्र-नन्दनाभिन्न गौरसुन्दरेर कृपालाभ—

व्रजेन्द्र-नन्दन गौरचन्द्र जगन्नाथ ।
मो हेन पामरे करिलेन आत्मसात् ॥१२८॥

कहिते प्रभुर चारु चरित्र मङ्गल ।
पत्नीर सहित विप्र कान्दिय़ा विह्वल ॥१२९॥

हेन काले गोविन्द आइला सेइखाने ।
यत्न करि विप्रे लैय़ा गेला प्रभु-स्थाने ॥१३०॥

प्रभु प्रिय़ विप्रे निज भृत्य सङ्गे दिय़ा ।
आनिलेन नीलाचल-चन्द्रे देखाइय़ा ॥१३१॥

महाप्रभुर चैतन्य-दासके गौड़े गमन ओ नाम-प्रेम-प्रचारे आदेश—

हासि कहे—‘जगन्नाथ प्रसन्न तोमारे ।
तुय़ा मनोरथ सिद्धि हईब अचिरे ॥१३२॥

शीघ्र गौड़देश तुमि करह गमन ।
निरन्तर करिबे श्री-नाम-सङ्कीर्तन’ ॥१३३॥

एत कहि विप्रे प्रभु करिला विदाय़ ।
चले विप्र कातरे प्रणमि प्रभुपाय़ ॥१३४॥

विदाय़ेर काले प्रभु-भृत्येर ये रीति ।
ताहा वर्णिवारे नाहि आमार शकति ॥१३५॥

प्रभु-परिकरेर चरणे प्रणमिल ।
करिय़ा विनय़ दैन्य विदाय़ हईल ॥१३६॥

श्री-चैतन्य-दास-विप्रे विदाय़ समय़ ।
हईल व्याकुल भक्त-गणेर हृदय़ ॥१३७॥

पत्नी-सह विप्रेर गौड़े यात्रा—

यात्रा कैल विप्र पत्नी-सहित सत्वरे ।
पतित-पावने प्रणमिय़ा सिꣳह-द्वारे ॥१३८॥

कान्दिते कान्दिते विप्र पथे चलि याय़ ।
ये ताꣳरे देखय़े तार नय़न जुड़ाय़ ॥१३९॥

गौड़देशे आइला विप्र प्रभुर आदेशे ।
ए सकल कथा व्यक्त हैल सर्व-देशे ॥१४०॥

मनेर उल्लासे याजि-ग्राम उत्तरिल ।
बलराम-शर्मा प्रति सकल कहिल ॥१४१॥

दुइ चारि दिवस थाकिय़ा सेइखाने ।
बलराम सह आइला निज वासस्थाने ॥१४२॥

ग्राम-वासि-गणेर चैतन्य-दासेर सह मिलन—

ग्राम-वासी सुहृद्-गण गमन शुनिय़ा ।
श्री-चैतन्य-दास विप्रे मिलिला आसिय़ा ॥१४३॥

पाꣳच सात दिवस रहिय़ा बलराम ।
मनेर आनन्दे आइलेन याजि-ग्राम ॥१४४॥

श्री-चाखन्दि ग्रामेर भाग्येर सीमा नाइ ।
श्री-चैतन्य-दास विप्र रहे येइ टाꣳइ ॥१४५॥

श्री-चैतन्य-दासेर अविश्रान्त नाम-प्रेम-प्रचार—

श्री-चैतन्य-दासेर कि प्रेम अनर्गल ।
कृष्ण-कथा-रसे सदा हय़ेन विह्वल ॥१४६॥

श्री-गौरचन्द्रेर पदे समर्पिय़ा मन ।
निभृते करय़े नित्य-नाम-सङ्कीर्तन ॥१४७॥

श्री-चैतन्य-दासेर अपूर्व गौर-प्रीति—

श्री-चैतन्य-दासेर अपूर्व भक्ति-रीत ।
ग्राम-वासी केह केह देखि पाय़ प्रीत ॥१४८॥

केह केह कहे—ए सकल अनर्थक ।
एइ हेतु धनहीन हैला अपुत्रक ॥१४९॥

शुनिय़ा ए सब वाक्य ब्राह्मणी-ब्राह्माणे ।
कारे किछु ना कहे, हासय़े मने मने ॥१५०॥

खण्डाइते एइ सब लोकेर दुर्माति ।
कतदिने लक्ष्मीप्रिय़ा हैल गर्भवती ॥१५१॥

ये हईते हैल शुभ गर्भेर आधान ।
सेइ हैते दुष्ट लोके करय़े सम्मान ॥१५२॥

स्त्री-गणेर साध लक्ष्मीप्रिय़ारे देखिते ।
देखिले बाढ़य़े प्रीत, ना पारे याइते ॥१५३॥

कोथा हैते नाना द्रव्य उपनीत हय़ ।
गर्भेर सञ्चारे सर्व-चित्त आकर्षय़ ॥१५४॥

प्रसव-समय़ आसि हैल उपनीत ।
बन्धु-गण सहित विप्रेर हर्ष चित ॥१५५॥

वैशाखी पूर्णिमाय़ श्रीनिवासेर जन्म—

वैशाखी पूर्णिमा दिवा रोहिणी-मुहूर्त ।
शुभक्षणे लक्ष्मीप्रिय़ा प्रसविल पुत्र ॥१५६॥

श्रीनिवास-जन्मकाले ये मङ्गल हैल ।
ग्रन्थेर बाहुल्ये ताहा वर्णिते नारिल ॥१५७॥

श्री-चैतन्य-दास-विप्र पुत्र-जन्म-काले ।
देखिलेन विविध रहस्य स्वप्नच्छले ॥१५८॥

अपूर्व पुत्रेर शोभा सर्व सुलक्षण ।
कनक-चम्पकपारा अङ्गेर किरण ॥१५९॥

महाप्रेमे पुत्रके गौरपदे समर्पण—

महानन्दे ब्राह्मण-ब्राह्मणी दुइजने ।
समर्पिल पुत्रे गौरचन्द्रेर चरणे ॥ १६०॥

पुत्र-जन्म शुनिय़ा यतेक आप्तगण ।
सबे आइला श्री-चैतन्य-दासेर भवन ॥१६१॥

पुत्रे आशीर्वाद करि मनेर उल्लासे ।
कहिल अनेक अति सुमधुर भाषे ॥१६२॥

स्त्री-गण बालके देखि जुड़ाय़ नय़न ।
धान्य दुर्वा दिय़ा सबे करय़े कल्याण ॥१६३॥

श्री-चैतन्य-दासेर सौभाग्य श्लाघा करे ।
केह छाड़ि याइते नारय़े निज-घरे ॥१६४॥

दिने दिने बार्ह्̤‌ए पुत्र चन्द्रेर समान ।
नेत्र भरि देखय़े यतेक भाग्यवान ॥१६५॥

श्रीनिवासेर अन्न-प्राशन ओ नाम-करण—

कतदिन परे विप्र परम उल्लासे ।
पुत्र-मुखे अन्न दिल अपूर्व दिवसे ॥१६६॥

प्रथमे करिल यैछे श्री-नाम-करण ।
विस्तारेर भय़े ताहा ना कैल वर्णन ॥१६७॥

सबे कहे—श्रीनिवास नाम से इहार ।
इहा ना जानय़े पूर्वे ए-नाम-प्रचार ॥१६८॥

ऐछे कत कहे सबे हईय़ा उल्लास ।
सर्व-चित्ताकर्षण करय़े श्रीनिवास ॥१६९॥

श्रीनिवासेर बाल्य लीला—

कत दिने हामागुड़ि बेड़ाय़ अङ्गने ।
से कौतुब देखि उल्लसित सर्व-जने ॥१७०॥

धरिय़ा माय़ेर कराङ्गुलि चले पाय़ ।
चलिते स्खलित हईय़ा चारिपाने चाय़ ॥१७१॥

जननी-अङ्गुलि छाड़ि पड़े महीतले ।
हासिय़ा जननी शीघ्र तुलि लय़ कोले ॥१७२॥

अन्य विप्र-पत्नी कहि सस्नेह वचन ।
कोले लैय़ा करे चारु वदन-चुम्बन ॥१७३॥

ऐछे परस्पर श्रीनिवासे कोले करि ।
ये आनन्द मने ताहा कहिते ना पारि ॥१७४॥

लक्ष्मीप्रिय़ा-देवीर पुत्रके नाम-सङ्कीर्तन-शिक्षा—

एकदिन लक्ष्मीप्रिय़ा मनेर उल्लासे ।
श्रीनिवास-प्रति कहे सुमधुर भाषे ॥१७५॥

अरे बाप ! बल देखि—गौर विश्वम्भर ।
लक्ष्मी-विष्णुप्रिय़ा-पति शचीर कुमार ॥१७६॥

गदाधर प्राण-नाथ श्री-श्रीवासेश्वर ।
श्री-कृष्ण-चैतन्य-नित्यानन्द हलधर ॥१७७॥

बल देखि—श्री-अद्वैत-प्रभु दय़ामय़ ।
बल देखि—राधा-कृष्ण श्री-नन्द-तनय़ ॥१७८॥

श्री-गोविन्द, गोपीनाथ, मदन-मोहन ।
ऐछे कहे प्रभु-परिकर-नाम-गण ॥१७९॥

शुनि श्रीनिवास अति उल्लास अन्तरे ।
किछु उच्चारय़े किछु उच्चारिते नारे ॥१८०॥

शुनि ये अमृत-वाक्य जुड़ाय़ श्रवण ।
परम आनन्दे करे पुत्रेर पालन ॥१८१॥

पञ्च वत्सरेर हईलेन श्रीनिवास ।
पड़िते चाहेन शुनि सबार उल्लास ॥१८२॥

विद्या आरम्भ कराइला कतदिन परे ।
पड़ा नाममात्र, अनाय़ासे सब स्फुरे ॥१८३॥

श्रीनिवासेर चूड़ाकरण ओ उपनय़ल-सꣳस्कार—

कतदिन परे चूड़ाकरण हईल ।
श्री-यज्ञोपवीत स्कन्धे अद्भुत शोभिल ॥१८४॥

अल्पदिने व्याकरण, कोष, अलङ्कार ।
तर्कादि पड़िल—लोके हैल चमत्कार ॥१८५॥

धनञ्जय़ विद्यावाचस्पति भाग्यवान् ।
निज साध्यमते करिलेन विद्यादान ॥१८६॥

चाखन्दिते बैसे विद्यावन्त बहु जन ।
श्रीनिवासे देखि सबे सङ्कुचित हन ॥१८७॥

अल्पवय़से श्रीनिवासेर सर्व-शास्त्रे अधिकार—

विष्णु-पराय़ण ये प्राचीन विप्रवर्य ।
तारा सबर परस्पर कहे—‘कि आश्चर्य ॥१८८॥

अल्पकाले सकल शास्त्रेते हैल ज्ञान ।
सदा सुनिर्मल, भक्ति-पथे सावधान ॥१८९॥

बहुदिन हैते वास हईल एथाइ ।
एमन बालक मोरा कभु देखि नाइ ॥१९०॥

किबा काꣳचा सोनार वरण तनुखानि ।
किबा से मुखेर शोभा, कि मधुर वाणी ॥१९१॥

हासिते खसय़े सुधा, दशन सुन्दर ।
किबा दुटी दीघल नय़न मनोहर ॥१९२॥

किबा नासा, श्रुति, गण्ड, तुरु, भालदेश ।
किबा माथे चिक्कन चाꣳचर चारु केश ॥१९३॥

किबा बाहु-बलनी, ललित वक्षः पीन ।
निरुपम उदर-माधुर्य, कटि क्षीण ॥१९४॥

किबा जानु, जङ्खा, सुकोमल पदद्वय़ ।
देव-अꣳश विना कि मनुष्ये ऐछे हय़ ॥१९५॥

श्री-चैतन्य-दास यैछे अपुत्रक छिल ।
तैछे प्रभु आनन्देर मूर्ति पुत्र दिल’ ॥१९६॥

केह कहे—इहार बालाइ लैय़ा मरि ।
ना देखि कि करे हिय़ा, पासरिते नारि ॥१९७॥

केह कहे—सꣳशारे पाइय़े महा-दुःख ।
इहारे देखिले मने उपजय़े सुख ॥१९८॥

श्रीनिवासेर प्रति ग्राम-वासीर स्नेह—

केह कहे—मोर पुत्र-कन्या बहु हय़ ।
ताहा हैते श्रीनिवासे स्नेह अतिशय़ ॥१९९॥

श्री-चैतन्य-दासेरे कहिल कोन छले ।
इहार विवाह येन देन अल्पकाले ॥२००॥

ऐछे परस्पर कहि करे आशीर्वाद ।
नेत्रे भरि राखे सदा—मने एइ साध ॥२०१॥

चाखान्दिते जन्म, श्रीनिवासेर ये रीत ।
सकल-ए कथा हैल सर्वत्र विदित ॥२०२॥

चाखन्दि-निकट ये ये भक्तेर आलय़ ।
तथा श्रीनिवासेर गमन सदा हय़ ॥२०३॥

श्रीनिवास-प्रति श्री-गोविन्द-घोषेर कृपा—

श्री-गोविन्द-घोष आदि आधैर्य अन्तरे ।
श्री-गौरचन्द्रेर लीलामृते सिक्त करे ॥२०४॥

कहिते कि जानि, सबे ये आनन्द पाय़ ।
सवाकार इच्छा—भरि राखय़े हिय़ाय़ ॥२०५॥

तिले तिले कि अद्भुत स्नेहेर प्रकाश ।
सबे कहे गौर-प्रेम-मूर्ति श्रीनिवास ॥२०६॥

श्रीनिवास-प्रसङ्ग सर्वत्र सबे कय़ ।
श्रीनिवासे देखिते सवार साध हय़ ॥२०७॥

श्री-खण्डेर भक्त-गणेर श्रीनिवास-प्रति स्नेह—

श्री-खण्डेर श्री-नरहरि, श्री-रघुनन्दन ।
श्रीनिवासे देखिते उद्विग्न अनुक्षण ॥२०८॥

श्रीनिवास ताꣳ सबार दर्शन-निमित्ते ।
सदा उत्कण्ठित, एका नारय़े याइते ॥२०९॥

अकस्मात् याजि-ग्राम हैते केह आइला ।
श्रीनिवास ताꣳर सह याजि-ग्राम गेला ॥२१०॥

याजि-ग्रामे गोष्ठी-सह नरहरिर आगमन—

ठाकुर श्री-नरहरि गोष्ठीर सहिते ।
गङ्गा-स्नाने आइलेन याजि-ग्राम-पथे ॥२११॥

तथा श्रीनिवासे देखि ये आनन्द मने ।
ताहा एकमुखे वा वर्णिबे कोन् जने ? ॥२१२॥

श्रीनिवास श्री-सरकार-ठाकुरे देखिय़ा ।
हईला अधैर्य, सुखे उत्थलय़े हिय़ा ॥२१३॥

अति दीन-प्राय़ हैय़ा प्रणाम करिते ।
ठाकुर करिला कोले विह्वल स्नेहेते ॥२१४॥

श्रीनिवास-प्रति ठाकुर नरहरिर कृपा ओ स्नेह—

श्रीनिवास-प्रति कहे मधुर वचन ।
‘तोमारे देखिय़ा जुड़ाइल नेत्र-मन ॥२१५॥

बड़ साध छिल वापु तोमारे देखिते’ ।
एत कहि हस्त-पद्म बुलाय़ अङ्गेते ॥२१६॥

श्रीनिवास करयोड़ करि निवेदय़ ।
‘एइ कर येन मनोरथ पूर्ण हय़ ॥२१७॥

मुञि अति अज्ञ किछु कहिते ना जानि ।
सर्व-प्रकारेते रक्षा करिबा आपनि’ ॥२१८॥

ऐछे कत कहि नेत्रे धारा निरन्तर ।
ठाकुर प्रबोधि आज्ञा कैल—याह घर ॥२१९॥

श्री-सरकार ठाकुरेर परिचय़—

श्री-सरकार ठाकुरेर अद्भुत माहिमा ।
व्रजेर मधुमती ये—शुणेर नाइ सीमा ॥२२०॥

यथा—(१) श्री-गौर-गणोद्देशे (१०७ सꣳख्या)—
पुरा मधुमती प्राण-सखी वृन्दावने स्थिता ।
अधुना नरहर्यासख्य-सरकारः प्रभोः प्रिय़ः ॥२२१॥

यथा—(२) श्रीमद् रूपकवि-कृत-पद्यम्—
श्री-वृन्दावन-वासिनो रसवती राधाघनश्यामय़ो
रसोल्लास-रसात्मिका मधूमती सिद्धानुगा या पुरा ।
सेय़ꣳ श्री-सरकार-ठकुर इह प्रेमार्थिनः प्रेमदः
प्रेमानन्द-महोदधिर् विजय़ते श्री-खण्ड-भूखण्डके ॥२२२॥

यथा—(३) श्री-कर्णपूर-कृत-पद्यम्—
श्री-चैतन्य-महाप्रभोर् अतिकृपामाध्वीक-सम्भाजनꣳ
सान्द्र-प्रेम-परम्परा कवलितꣳ वाचा प्रफुल्लꣳ मुदा ।
श्री-खण्डे रचित-स्थितिꣳ निरवधि श्री-खण्ड-चर्चार्चितꣳ
वन्दे श्री-मधुमत्य् उपाधि-बलितꣳ कञ्चिन् महा-प्रेमदम् ॥२२३॥

ऐछे बहु चरित्र वर्णय़े विज्ञ-गण ।
श्रीनिवासे यैछे स्नेह ना हय़ वर्णन ॥२२४॥

श्री-सरकार ठाकुरेर आज्ञामृत-पाने ।
ये आनन्द हैल ताहा के वर्णिते जाने ॥२२५॥

चाखन्दि-ग्रामेते शीघ्र गेला श्रीनिवास ।
निरन्तर शुने गौरचन्द्रेर विलास ॥२२६॥

श्रीनिवासेर पितृ-मुखे श्री-चैतन्य-चरित-श्रवण—

एकदिन गौराङ्गेर सुचारु चरित ।
जिज्ञासे पितार स्थाने हैय़ा उल्लसित ॥२२७॥

विप्र कहे—ब्रह्मादि ना पाय़ अन्त याꣳर ।
ताꣳर लीला कहिब कि मुञि जीव छार ॥ २२८॥

शुन शुन श्रीनिवास कहिय़े तोमाय़ ।
वृन्दावन-चन्द्र कृष्ण विश्वम्भरराय़ ॥२२९॥

नवद्वीपे बाल्यावेशे विहरे यखन ।
से समय़े आमरा करिय़े अध्यय़न ॥२३०॥

भक्ति-मर्म ना बुझिय़ा तर्कादि पड़िय़े ।
बहिर्मुख-गण-सङ्गे सदाइ रहिय़े ॥२३१॥

दिने दिने प्रभु-लीला शुनि चमत्कार ।
सदा मने करिय़े याइब देखिबार ॥२३२॥

दुष्ट-सङ्ग-मते तथा याइते ना पारि ।
ता सवार अहङ्कार सहितेओ नारि ॥२३३॥

विद्यामदे से सबे काहुके नाहि गणे ।
प्रभुर प्रसङ्गे हास्य करे सर्व-जने ॥२३४॥

महा-दुःख पाइ मने, नहे सम्वरण ।
विधि-प्रति प्रार्थना करिय़े अनुक्षण ॥२३५॥

स्वरिते हौक ए-सबार दर्प चूर्ण ।
शुन से प्रसङ्ग विधि यैछे कैल पूर्ण ॥२३६॥

दिग्विजय़िर नवद्वीप-आगमन—

अकस्मात् दिग्विजय़ी नवद्वीपे आइला ।
ताꣳहार प्रभावे सबे कम्पित हईला ॥२३७॥

सरस्वती-देवी ताꣳर भक्तिते अधीन ।
ए-हेतु से महा-कवि शास्त्रेते प्रवीण ॥२३८॥

ताꣳरे पराजय़ करे हेन केह नाइ ।
चिन्तित सकल अध्यापक एक ठाꣳइ ॥२३९॥

चाखन्दि-निवासी आदि यत विद्यावान् ।
शुनि से-प्रसङ्ग स्थिर नहे कारु प्राण ॥२४०॥

से समय़े सरस्वती-पति नाराय़ण ।
निमाइ-पण्डित नाम, पाठ व्याकरण ॥२४१॥

व्याकरणे अध्यापक बहु शिष्य सङ्गे ।
श्री-जाह्नवी-तीरे विलसय़े महारङ्गे ॥२४२॥

निमाइ पण्डितेर स्थाने दिग्विजय़ीर पराजय़—

दिग्विजय़ी अपूर्व बालक निरखिय़ा ।
चलिलेन विद्यामदे हासिय़ा हासिय़ा ॥२४३॥

निकटे याइते प्रभु करि पुरस्कार ।
कहिलेन गङ्गार महिमा वर्णिवार ॥२४४॥

बहु श्लोक कैल तिꣳह क्षणेके वर्णन ।
अति से आश्चर्य सर्वमते निर्दूषण ॥२४५॥

तार मध्ये प्रभु एक श्लोकार्थ पुछिल ।
करिते श्लोकार्थ तिन स्थाने दोष दिल ॥२४६॥

करिते नारिय़ा निज-श्लोकार्थ-सङ्गति ।
पभु-आगे दिग्विजय़ी लज्जा पाइल अति ॥२४७॥

तथापिह प्रभु ताꣳर करिला सम्मान ।
प्रभु-गुणे मग्न दिग्विजय़ी भाग्यवान् ॥२४८॥

सरस्वती ताꣳरे प्रभु-परिचय़ दिल ।
दिग्विजय़ी प्रभु-पदे आत्म समर्पिल ॥२४९॥

निमाइर स्थाने दिग्विजय़ी पराभव ।
शुनि महाहर्ष हैला भट्टाचार्य सब ॥२५०॥

निमाइ-पण्डित कैला दिग्विजय़ी-जय़ ।
एइ कथा सर्वत्र सकल लोके कय़ ॥२५१॥

मोर अध्यापक-आदि यत विद्यावान् ।
छाड़िल मनुष्य-बुद्धि, हईल दिव्य-ज्ञान ॥२५२॥

कि कहिब बाप ! अलौकिक-लीला ताꣳर ।
देखे महा-भाग्यवन्त लोक नदीय़ार ॥२५३॥

महाप्रभुर गय़ा-गामन—

कतदिन विद्या-विलासादि कारि रङ्गे ।
गय़ा करिबारे गेला बहु लोक-सङ्गे ॥२५४॥

लोक-शिक्षा-हेतु ए प्रभुर व्यवहार ।
गय़ा हैते आसि कैला से प्रेम-प्रचार ॥२५५॥

अलौकिक-प्रेम-चेष्टा देखि शिष्य-गणे ।
परस्पर प्रसꣳशय़े महानन्द-मने ॥२५६॥

भक्त-गण-सह महाप्रभुर नवद्वीपे विहार—

पूर्वे प्रभु-इच्छामते केह ना चिनिल ।
श्री-वासादि भक्तसबे आशीर्वाद कैल ॥२५७॥

भक्त-अनुग्रह जानाइय़ा सर्वोपरि ।
लुकाइते नारे भक्त-प्रिय़ गौरहरि ॥२५८॥

हईलेन व्यक्त प्रभु भुवन-मोहन ।
चिनिलेन परम कौतुके भक्त-गण ॥२५९॥

श्री-वास पण्डित, श्री-पण्डित-गदाधर ।
श्री-मुरारि-गुप्त, हरिदास विज्ञवर ॥२६०॥

शुक्लाम्बर ब्रह्मचारी आदि परिकर ।
प्रभु-गुणे मग्न हईलेन निरन्तर ॥२६१॥

मिलिलेन महारङ्गे अद्वैत गोसाञि ।
कि कहिब ताꣳहार गुणेर अन्त नाञि ॥२६२॥

प्रभु बलदेव नित्यानन्द अवधूत ।
गौरचन्द्र-सङ्गे ताꣳर मिलन अद्भुत ॥२६३॥

नित्यानन्दाद्वैत श्री-वासादि लैय़ा सङ्गे ।
विहरय़े प्रभु नवद्वीपे महारङ्गे ॥२६४॥

जगाइ-माधाइर उद्धार—

अहे बापु श्रीनिवास ! कहि तोर ठाꣳइ ।
एइ अवतारे करुणार सीमा नाइ ॥२६५॥

ना धरय़े अस्त्र, ना मारय़े कारु प्राणे ।
उद्धार करय़े से दुर्लभ प्रेमदाने ॥२६६॥

प्रभुर उत्साह बाप पाषण्डी तारिते ।
ए-हेतु दुर्जय़ दुष्ट-प्रभाव कलिते ॥२६७॥

जगाइ, माधाइ नामे दुइ दस्यु-राज ।
याꣳर भय़े काꣳपे सब नदीय़ा-समाज ॥२६८॥

मद्यमाꣳस विना तार भक्षण ना हय़ ।
तारे देखि केह स्थिर हईते नारय़ ॥२६९॥

करय़े कुक्रिय़ा यत तार अन्त नाइ ।
आमराह तार भय़े आवित सदाइ ॥२७०॥

देखिय़ा दौरात्म्य विज्ञ-गणे विचारय़ ।
ईश्वर विहने इहार शास्ता केह नय़ ॥२७१॥

रावण-कꣳसादि से इहार सम नहे ।
एइ मत कत कथा परस्पर कहे ॥२७२॥

से दुइ पापीरे प्रभु उद्धार करिला ।
नित्यानन्द दय़ाल जगते जानाइला ॥२७३॥

एकदिन गौरचन्द्र कहे हर्ष हैय़ा ।
‘उद्धारह जीवे कृष्ण उपदेश दिय़ा’ ॥२७४॥

शुनि प्रभु नित्यानन्द हरिदास-सङ्गे ।
कृष्ण-नाम उपदेश करि फिरे रङ्गे ॥२७५॥

पड़ुय़ा-अधम मिलि निन्दय़े सदाइ ।
याइते कहिल यथा जगाइ माधाइ ॥२७६॥

कृष्ण-नाम शुनि दोꣳहे क्रोध-युक्त हञा ।
ए-दोꣳहारे मारिते आइल दोꣳहे धाञा ॥२७७॥

मदे मत्त माधाइ कहि वाक्य वज्राघात ।
नित्यानन्द-देवेर करिल रक्तपात ॥२७८॥

तथापिह नित्यानन्द करूणा-सागर ।
चिन्तय़े दोꣳहार हिते आनन्द-अन्तर ॥२७९॥

शुनि गौरचन्द्र महा-क्रोध-युक्त हैल ।
नित्यानन्द-अनुग्रहे अनुग्रह कैल ॥२८०॥

नित्यानन्द गौरचन्द्र एक-देह हय़ ।
लीला-कारणेते भिन्न सर्व-लोके कय़ ॥२८१॥

जगाइ-माधाइ दुइ प्रभुपदे धरि ।
कहिल यतेक ताहा कहिते ना पारि ॥२८२॥

यद्यपि सकल दोष क्षमा करि प्रभु ।
करिलेन आत्मसात्, शान्ति नहे तबु ॥२८३॥

जगाइ-माधाइ कहे कान्दिय़ा कान्दिय़ा ।
ऐछे आज्ञा कर येन स्थिर हय़ हिय़ा ॥२८४॥

शुनि सेइ प्रभु हृष्ट हैय़ा दुइजने ।
आज्ञा दिल गङ्गा-स्नान-घाट सम्मार्जने ॥२८५॥

तबे दोꣳहे आपना मानिय़ा दीन अति ।
गङ्गा-घाट मार्जन करय़े निति निति ॥२८६॥

हईलेन दुइ भाइ प्रभु-परिकर ।
यार नाम लैले घुचे पाषण्ड अन्तर ॥२८७॥

एइ कथा सर्व-लोके हईल विदित ।
उद्धारिला महा-दुष्टे निमाइ पण्डित ॥२८८॥

पड़ुय़ा अधम-गणेर निमाइ पण्डितेर शुण-कीर्तन—

पड़ुय़ा अधम अति विस्मित हईय़ा ।
केह कारु प्रति कहे हासिय़ा हासिय़ा ॥२८९॥

अहे भाइ निमाइ पण्डित केबा जाने ।
जगाइ-माधाइरे आनिल निज-गणे ॥२९०॥

कोथाओ ना देखि य़े इहार पराभव ।
ऐछे पाछे हय़ नदीय़ार लोक सब ॥२९१॥

केह काहे—आपनाके सावधान हबे ।
दुइ चारिदिने सब देखिते पाइबे ॥२९२॥

ऐछे कहि पड़ुय़ा आपना धन्य माने ।
फिरय़े सकले सदा छिद्र-अन्वेषणे ॥२९३॥

अहे बापु श्रीनिवास ! से दुइ उद्धारे ।
हईनु आमरा सब निर्भर अन्तरे ॥२९४॥

नवद्वीपे सदा महा आनन्द-पाथार ।
सबे सꣳकीर्तनेइ उन्मत्त अनिवार ॥२९५॥

पाषण्डि-सकल तथा कतक प्रकारे ।
यवनेर भय़ जानाइय़ा हास्य करे ॥२९६॥

महाप्रभुर काजीदलन ओ काजीर आत्म-समर्पण—

काजी नामे यवन, प्रताप अतिशय़ ।
नवद्वीप-आदि तार अधिकार हय़ ॥२९७॥

गौड़ेते यवनराजा तार प्रिय़ अति ।
काजीरे लङ्घिते नाहि काहार शकति ॥२९८॥

ए-देशेर लोक सब काꣳपे तार डरे ।
देव-पुजा स्वच्छन्दे करिते केह नारे ॥२९९॥

तिꣳह हेन दुर्लभ कीर्तन-द्वेष कैल ।
ए-हेतु प्रभुर महा-क्रोध उपजिल ॥३००॥

एकदिन रात्रे प्रभु-भक्त-गण-सङ्गे ।
विहरय़े नवद्वीपे सꣳकीर्तन-रङ्गे ॥३०१॥

ये अपूर्व शोभा हईल नदीय़ा-नगरे ।
लक्ष-मुखे ताहा केह वर्णिते ना पारे ॥३०२॥

प्रभु-इच्छामते नदीय़ार लोक सब ।
घरे घरे करे महा-मङ्गल-उत्सव ॥३०३॥

लक्ष लक्ष दीप ज्वले कौतुक अपार ।
रात्रिके दिवस ज्ञान हईल सबार ॥३०४॥

आत्म-विस्मरित लोक भ्रमे चारिडिते ।
देवता मनुष्य केह ना पारे चिनिते ॥३०५॥

लक्ष लक्ष लोक मिलि करय़े कीर्तन ।
खोल-करताल-शब्दे भेदय़े गगन ॥३०६॥

नृत्य-पदाघाते क्षिति करे टलमल ।
हईल अद्भुत जय़-ध्वनि कोलाहल ॥३०७॥

सिꣳह-पराक्रम जिनि सबे बलवान् ।
‘काजी मार, काजी मार’ बलि करिला पय़ान ॥३०८॥

से गर्जन शुनिते पाषण्डी मरे फाटि ।
भाङ्गिल काजीर घर-द्वार पुष्पवाटी ॥३०९॥

काजी-वक्षः विदारिते प्रभु पूर्वदिने ।
हईल नृसिꣳह, काजी देखिल नय़ने ॥३१०।

जानिलेल—निमाइ मनुष्य कभु नय़ ।
ए-कथा सबार प्रति व्यक्त करि कय़ ॥३११॥

शुनि सबे नाना-कथा कहे परम्परे ।
हेनकाले महा-ध्वनि हईल नगरे ॥३१२॥

लोके गिय़ा कहे—‘सेइ पण्डित निमाइ ।
करय़े कीर्तन से लोकेर सꣳख्या नाइ ॥३१३॥

मार मार करि’ सबे आइसे एथाय़ ।
भाङ्गे घर-द्वार-वृक्ष, ना देखि उपाय़ ॥३१४॥

ए-वाक्य श्रवणे काजी महा-भय़ पाञा ।
चलिलेन प्रभु आगे अश्रु-युक्त हञा ॥३१५॥

प्रभुरे देखिय़ा कैल आत्म-समर्पण ।
कहिते ना आइसे यैछे करिल स्तवन ॥३१६॥

पतित-पावन गौरसुन्दर-विग्रह ।
भाग्यवन्त काजीरे करिला अनुग्रह ॥३१७॥

ए-सब आश्चर्य-कथा शुनि शिष्ट-गण ।
निश्चय़ जानिला गौरचन्द्र नाराय़ण ॥३१८॥

ऐछे नवद्वीपे प्रभु रङ्गे विलसय़ ।
शुनिते से सब कथा चित्ते क्षोभ हय़ ॥३१९॥

चैतन्य-दासेर गौर-दर्शन ओ ताꣳहार रूप-वर्णन—

मने कैनु याजि-ग्राम हईते आसिय़ा ।
देखिब श्री-गौरचन्द्रे नवद्वीपे गिय़ा ॥३२०॥

शीघ्र याजि-ग्राम गिय़ा कार्य समाधिनु ।
कन्टक-नगरे अति उल्लासे आइनु ॥३२१॥

तथा श्री-भारती-स्वामी महा-तेजो-मय़ ।
मोर प्रति ताꣳर अनुग्रह अतिशय़ ॥३२२॥

याजि-ग्राम कण्टक-नगरे यबे याइ ।
ताꣳरे देखि, कखन वा रहि ताꣳर ठाꣳइ ॥३२३॥

मने कैनु ताꣳर स्थाने विदाय़ हईय़ा ।
नवद्वीपे याꣳब गौर-दर्शन लागिय़ा ॥३२४॥

एइ कथा चित्ते विचारिय़ा तथा याइ ।
हेनकाले देखिय़े लोकेर धाओय़ा धाइ ॥३२५॥

बाल-वृद्ध-युवा-स्त्री-पुरुष कत शत ।
महाभिड हईल, चलिते नाइ पथ ॥३२६॥

जिज्ञासिले कहे—याब भारतीर घर ।
नदीय़ा हैते आइला श्री-गौरसुन्दर ॥३२७॥

शुनिते ए वाक्य येन हाते चाꣳद पाइनु ।
श्री-केशव-भारती स्वामीर स्थाने गेनु ॥३२८॥

देखिलाम श्री-गौरसुन्दरे नेत्र भरि ।
भुवन-मोहन प्रति अङ्गेर माधुरी ॥३२९॥

कि छार कनक-चाꣳपा, विद्युत्, केशर ।
से रूपे तुलना नाइ भुवन-भितर ॥३३०॥

सुचारु चाꣳचर केशे जगात् माताय़ ।
केबा ना भुलय़े गण्ड-ललाट-छटाय़ ॥३३१॥

श्रवण-युगल भुरु परम सुन्दर ।
आकर्ण विस्तृत नेत्र, नासा मनोहर ॥३३२॥

कोटी कोटी चन्द्रमा जिनिय़ा चन्द्र-मुख ।
देखितेइ घुचे कोटि जनमेर दुःख ॥३३३॥

आजानुलम्बित दुइ बाहु, वक्षः पीन ।
सिꣳहेर शावक जिनि काटिदेश क्षीण ॥३३४॥

नितम्ब मधुर, ऊरु-चरण-भङ्गिते
कोटि कोटि कन्दर्प नारय़े स्थिर हैते ॥३३५॥

राङा पदतल देखि मने विचारिल ।
कत शत अरुण शरण बुद्धि लैल ॥३३६॥

आरे बापु श्रीनिवास, कि बलिव तोरे ।
भुविनु से गोरारूप-अमिय़ा-पाथारे ॥३३७॥

तथा केह कारु प्रति यत्ने जिज्ञासय़ ।
एथा केने हईल गौरचन्द्रेर विजय़ ॥३३८॥

तिꣳह कहेन—करिबेन सन्न्यास-ग्रहण ।
भुवन-मोहन केश हबे अदर्शन ॥३३९॥

ए-वाक्य शुनिते मोर उड़िल पराण ।
हेलकाले नापित देखिल विद्यमान ॥३४०॥

नापिते नापित-क्रिय़ा कैल ये-प्रकारे ।
ताहा देखि केबा धैर्य धरिवारे पारे ॥३४१॥

श्री-मस्तके हैल श्री-केशेर अदर्शन ।
उठिल क्रन्दन-ध्वनि व्यापिल भुवन ॥३४२॥

एइ कथा कहिते कहिते विप्रकर ।
हईला मूर्च्छित, नेत्रे धारा निरन्तर ॥३४३॥

पितार मुखेते एइ प्रसङ्ग शुनिय़ा ।
श्रीनिवास कान्दे अति व्याकूल हईय़ा ॥३४४॥

कतक्षण परे विप्र श्री-चैतन्य-दास ।
श्री-चाꣳचर केश बलि छाड़य़े निःश्वास ॥३४५॥

अनेक यत्नेते स्थिर हैय़ा नेत्र मेले ।
देखे—पुत्र कान्दय़े पड़िय़ा भुमितले ॥३४६॥

विह्वल हईय़ा विप्र पुत्र कोले करि ।
आशीर्वाद करे—कृपा कर गौरहरि ॥३४७॥

झाड़िय़ा अङ्गेर धूलि पौछे नेत्रधारा ।
स्थिर करि के कत अमृतेर पारा ॥३४८॥

नीलाचले कैल यैछे प्रभुर दर्शन ।
प्रेमावेशे कहिल से सब विवरण ॥३४९॥

यैछे प्रभु नीलाचले करय़े विहार ।
से सब कहिते नेत्रे बहे अश्रुधार ॥३५०॥

नित्यानन्द अद्वैतेर चरित्र कहिल ।
प्रभु परिकरेर चरित्र जानाइल ॥३५१॥

कहिल प्रभुर यैछे व्रजेते विहार ।
नवद्वीपे ये लागि हईला अवतार ॥३५२॥

शुनिय़ा पितार मुखे ए-सब प्रसङ्ग ।
श्रीनिवास अधैर्य धरिते नारे अङ्ग ॥३५३॥

शुनिते गौराङ्ग-लीला बड़ साध मने ।
लक्ष लक्ष श्रुति वाञ्छे विधातार स्थाने ॥३५४॥

अनुरागे रक्त-वर्ण नेत्रे धारा वय़ ।
पुनः-पुनः पितार चरणे प्रणमय़ ॥३५५॥

आत्म-विस्मरित श्रीनिवास प्रेमावेशे ।
निति निति ऐछे जिज्ञासय़े पिता-पाशे ॥३५६॥

एकदिन श्री-चैतन्य-दास विप्रवर ।
पुत्र-प्रति कहे अति सस्नेह अन्तर ॥३५७॥

अहे बापु, मातार पालने योग्य हईला ।
माता-सह तोमारे सकल समर्पिला ॥३५८॥

एबे माता-सह तोमा राखि याजि-ग्रामे ।
मने हय़ शीघ्र याइ वृन्दावन-धामे ॥३५९॥

चैतन्य-दास कर्तृक रूप-सनातनेर चरित वर्णन—

वृन्दावने रूप-सनातनादि-द्वाराय़ ।
कैल अलौकिक कार्य प्रभु गौरराय़ ॥३६०॥

अहे बापु, से दोꣳहार अद्भुत चरित ।
देखिले मनुष्य-ज्ञान नहे कदाचित ॥३६१॥

से समय़ दर्शन करिनु से दोꣳहार ।
से समय़ ऐछे बुद्धि ना छिल आमार ॥३६२॥

एबे आपनाके धन्य करिय़ा मानिनु ।
सꣳक्षेपे कहिय़े यैछे दर्शन करिनु ॥३६३॥

नवद्वीप-आदिस्थित अध्यापक-गण ।
प्राय़ रामकेलि-ग्रामे सबार गमन ॥३६४॥

मोर अध्यापक अग्रगण्य चाखन्दिते ।
रामकेलि हैते लोक आइल ताꣳरे लैते ॥३६५॥

चलिलेन अध्यापक, मोरा सङ्गे गेनु ।
शुभक्षणे रामकेलि-ग्रामे प्रवेशिनु ॥३६६॥

सनातन रूपेर भवन-सन्निधाने ।
हईल सबार वासा परम सम्माने ॥३६७॥

अध्यापक-गण महा उल्लास हिय़ाय़ ।
चलिलेन सनातन-रूपेर सभाय़ ॥३६८॥

ब्राह्माण-पण्डित-गणे वेष्टित हईय़ा ।
इन्द्र-सम सभा-मध्ये आछेन वसिय़ा ॥३६९॥

कनक-सुन्दर तनु अति तेजोमय़ ।
देखिते दोꣳहार शोभा केबा धैर्य हय़ ॥३७०॥

किबा मन्दहास्य मुखे, सुखेर अवधि ।
किबा दीर्घ नय़न निर्मिल कोन् विधि ? ॥३७१॥

किबा बाहु वक्षः कटिदेश मनोहर ।
भुलना दिवार नाइ सराङ्ग-सुन्दर ॥३७२॥

अध्यापक-सङ्गे गिय़ा देखिनु साक्षाते ।
करिलेन सबार मन्मान नाना मते ॥३७३॥

ऐश्वर्येर सीमा अहङ्कार-मात्र नाइ ।
कृष्ण-पाद-पद्मे भक्ति मागे सर्व ठाꣳइ ॥३७४॥

दुइ भाइ सर्व-शास्त्रे परम पण्डित ।
ज्येष्ठ सनातन, रूप कनिष्ठ विदित ॥३७५॥

नाना-देशी पण्डितेर शास्त्र-व्याख्या गुणे ।
बहु अर्थ दिय़ा परितोषे सर्व-जने ॥३७६॥

से दोꣳहार शास्त्र व्याख्या अध्यापक शुनि ।
ये श्लाघा करय़े ताहा कहिते ना जानि ॥३७७॥

महामन्त्री दोꣳहे राज-विषय़े प्रधान ।
कोनमते कारु ना करय़े असम्मान ॥३७८॥

गौड़े वादशार भाग्य कहिले ना हय़ ।
सनातन-रूपे प्रीति करे अतिशय़ ॥३७९॥

शुनिओ लोकेर मुखे से सत्य सकल ।
से चेष्टा देखिय़ा केबा ना हय़ विह्वल ॥३८०॥

कतदिन रहि तथा हईय़ा विदाय़ ।
चलिलेन अध्यापक उल्लास हिय़ाय़ ॥३८१॥

सनातन-रूप आनन्दित सर्वमते ।
किबा से वैष्णव-क्रिय़ा विख्यात जगते ॥३८२॥

रामकेलि हैते मोरा शीघ्र आइनु घरे ।
प्रभुर सन्न्यास तार किछुदिन परे ॥३८३॥

सन्न्यास करिय़ा प्रभु गेला नीलाचले ।
तिलेक ना छाड़े सङ्गे वैष्णव-सकले ॥३८४॥

सन्न्यासीर शिरोमणि शचीर नन्दन ।
नीलाचल हैते यात्रा कैला वृन्दावन ॥३८५॥

रामकेलि-ग्रामेते आसिला गण-सह ।
सनातन-रूपे कैल महा अनुग्रह ॥३८६॥

नहिल गमन व्रजो, क्षेत्रे फिरि गेला ।
पुनः प्रभु वृन्दावने गमन करिला ॥३८७॥

एथा रामकेलि-ग्रामे रूप-सनातन ।
शुनिलेन—महाप्रभु गेला वृन्दावन ॥३८८॥

कि बलिब दोꣳहार प्रबल अनुराग ।
अनाय़ासे दोꣳहे करिलेन सर्व-त्याग ॥३८९॥

श्री-रूपेर भ्राता श्री-वल्लभ ताꣳर नाम ।
परम वैष्णव, पूर्वे नाम अनुपम ॥३९०॥

ताꣳ सह प्रथमे रूप व्रजे यात्रा कैला ।
श्री-कृष्ण-चैतन्यचन्द्रे प्रय़ागे मिलिला ॥३९१॥

श्री-रूपेरे देखि प्रभु ये आनन्द मने ।
ये कृपा करिल ता देखिल भाग्यवाने ॥३९२॥

एथा रामकेलिते गोस्वामी सनातन ।
हईय़ा अस्पष्ट, व्रजे करिला गमन ॥३९३॥

काशी गिय़ा प्रभुर श्री-चरण देखिल ।
ना जानि कि सुखेर समुद्र उथलिल ॥३९४॥

महाप्रभु श्री-कृष्ण-चैतन्य सर्वेश्वर ।
सनातने देखि स्नेहे विह्वल अन्तर ॥३९५॥

मनेर आनन्दे बहु उपदेश कैल ।
सनातन अनुग्रह-सीमा जानाइल ॥३९६॥

सनातन-रूपेर श्री-व्रजेते गमन ।
ए-सब देशेते शुनिलेन सर्व-जन ॥३९७॥

केह कोनरूपे धैर्य नारे धरिवार ।
हईल सबार मने महा-चमत्कार ॥३९८॥

गमन ईश्वर्य त्याग करिल केमने ।
दिवारात्रि एइ कथा कहे सर्व-जने ॥३९९॥

किबा स्त्री, पुरुष, बाल, वृद्ध, युवागण ।
सबे गाय़—व्रजे गेला रूप-सनातन ॥४००॥

अध्यापक-गण रूप-सनातन विने ।
रामकेलि हते दुःखे गेला अन्यस्थाने ॥४०१॥

सनातन रूपेर वैराग्ये सबे दुःखी ।
एक कृष्ण-भक्त-गण हैला महा-सुखी ॥४०२॥

वृन्दावने आचार्य श्री-रूप-सनातन ।
प्रभु-मनोवृत्ति प्रकाशिला दुइजन ॥४०३॥

श्री-वृन्दावने श्री-रूप-कर्तृक श्री-राधा-गोविन्द-विग्रह-सेवा-प्रतिष्ठा—

लुप्त तीर्थ व्यक्त करि शास्त्र-प्रमाणेते ।
श्री-रूप-गोसाञिर एक चिन्ता हैल चिते ॥४०४॥

श्री-विग्रह श्री-गोविन्द व्रजेन्द्र-कुमार ।
सदा योग-पीठे स्थिति, शास्त्रे ए-प्रचार ॥४०५॥

हेन श्री-गोविन्द-देवेर ना पाइ दर्शन ।
ग्रामे ग्रामे वने वने करय़े भ्रमण ॥४०६॥

व्रजवासी घरे घरे अस्नेषण करि ।
यमुनार तीरे रहे धैर्य परिहरि ॥४०७॥

एकदिन एक व्रजवासी अकस्मात् ।
श्री-रूप-गोस्वामी आगे हईला साक्षात् ॥४०८॥

परम सुन्दर तिꣳह, मधुर वचने ।
श्री-रूपे कहय़े—स्वामि, दुःखी देखि केने ॥४०९॥

ताꣳहार मधुर वाक्ये चित्त आकर्षिल ।
श्री-रूप-गोस्वामी क्रमे सब निवेदिल ॥४१०॥

व्रजवासी कहे—चिन्ता ना करिह मने ।
‘गोमाटिला’-ख्याति योग-पीठ वृन्दावने ॥४११॥

तथा कोन गाभी-श्रेष्ठ पूर्वाह्न-समय़ ।
दुग्ध देन प्रतिदिन उल्लास-हृदय़ ॥४१२॥

श्री-गोविन्द-देव तथा आछेन गोपने ।
एत कहि रूपे लैय़ा गेला सेइखाने ॥४१३॥

स्थान जानाइय़ा तिꣳह अदर्शन हैते ।
मूर्छित हईय़ा रूप पड़िला भूमिते ॥४१४॥

कतक्षण परे रूप पाइय़ा चेतन ।
निवाइते नारे नेत्रे धारा अनुक्षण ॥४१५॥

श्री-रूप-गोस्वामी कोटि समुद्र-गभीर ।
प्रभुर रहस्य जानि हईलेन स्थिर ॥४१६॥

मनेर उल्लासे कहे व्रजवासि-गणे ।
श्री-गोविन्द-देव प्रभु आछेन एखाने ॥४१७॥

शुनि व्रजवासी प्रेमे विह्वल हईला ।
बाल-वृद्ध आदि सबे ‘गोमाटिला’ आइला ॥४१८॥

केह कारु प्रति कहे सहास्य-वदने ।
‘गोमाटिला’ योग-पीठ जानिनु एखाने ॥४१९॥

यत्ने योग-पीठ-भूमि खननेर काले ।
कैल बलराम आज्ञा—देख मध्य-स्थले ॥४२०॥

योग-पीठ मध्ये प्रभु व्रजेन्द्र-नन्दन ।
हईला साक्षात् कोटि-कन्दर्प-मोहन ॥४२१॥

तथाहि व्रजस्थ-श्री-हरिदास-पण्डित-गोस्वामिनः शिष्यः
श्री-राधाकृष्ण-गोस्वामि-कृत-श्री-साधन-दीपिकाय़ाम्—

प्रभोर् आज्ञापालनार्थꣳ गात्वा वृन्दावनास्तरे ।
न दृष्ट्वा श्री-वपुस् तत्र चिन्तितः स्वान्तरे सुधीः ॥४२२॥

व्रजवासि-जनानान्तु गृहेषु ढ वने वने ।
ग्रामे ग्रामे न दृष्ट्वा तु रुदितश् चिन्तितो बुधः ॥४२३॥

एकदा वसतस् तस्य यमुनाय़ास्तटे शुचौ ।
व्रजवासि-जनाकारः सुन्दरः कश्चिद् आगतः ॥४२४॥

तꣳ दृष्ट्वा कथितꣳ तेन—हे पते ! दुःखितो नु किम् ? ।
तच् छ्रुत्वा वचनꣳ तस्य स्नेहाकर्षित-मानसः ॥४२५॥

प्रेम-गम्भीरय़ा वाचा दूरीकृत-मनः-क्लमः ।
कथय़ामास तꣳ सर्वꣳ तꣳ निदेशꣳ महाप्रभोः ॥४२६॥

स श्रुत्वा सर्व-वृत्तान्तमाग्यच्छेति ब्रुवन्नमुम् ।
गुमाट्टिला इति ख्याते तत्र नीत्वाब्रवीत् पुनः ॥४२७॥

अत्र काचिद् गवाꣳ श्रेष्ठाः पूर्वाह्ने समुपागता ।
दुग्ध-स्रावꣳ विकुर्वाणाप्य् अहन्य् अहनि याति भोः
स्वामिꣳश् चित्ते विमृश्यैतद् उचितꣳ कुरु याम्यहम् ॥४२८॥

श्री-रूपस्तद् वचः श्रुत्वा रूपꣳ दृष्ट्वा च मूर्छितः ।
पुनः क्षणान्तरे धीरो धैर्यꣳ धृत्वोपचिन्तय़न् ॥४२९॥

ज्ञात-सर्व-रहस्यो’पि लोकनुकृत-चेष्टितः ।
व्रजवासि-जनानाह श्री-गोविन्दो’त्र विद्यते ॥४३०॥

एतच् छ्रुत्वा तु ते सर्वे प्रेम-सꣳभिन्न-चेतसः ।
मिलित्वा बाल-वृद्धैश् च ताꣳ भूमिꣳ समशोधय़न् ॥४३१॥

योग-पीठस्य मध्य-स्थꣳ पश्यत कृष्णम् ईश्वरम् ।
साक्षाद् व्रजेन्द्र-तनय़ꣳ कोटि मन्मथ-मोहनम् ।
रुरुधुस्ताꣳ धराꣳ यत्नाद्रामस्याज्ञानुसारतः ॥४३२॥

श्री-गोविन्द-देवेर प्रकट-ध्वनि हैते ।
उल्लासे असꣳख्य लोक धाय़ चारि भिते ॥४३३॥

मिशाइय़ा मनुष्य ब्रह्मादि देव-गण ।
परम उल्लासे करे गोविन्द-दर्शन ॥४३४॥

तिलार्धेम्क लोकभिड निवृत्त ना हय़ ।
कोथा हैते आइसे केह लखिते नारय़ ॥४३५॥

गोविन्द प्रकट-मात्रे श्री-रूप-गोसाञि ।
क्षेत्रे पत्री पाठाइला महाप्रभु-ठाञि ॥४३६॥

श्री-कृष्ण-चैतन्य-प्रभु पार्षद सहिते ।
पत्री पड़ि आनन्दे ना पारे स्थिर हैते ॥४३७॥

काशीश्वरेर श्री-गौर-गोविन्द-विग्रह-सह श्री-वृन्दावने गमन—

काशीश्वर-प्रति प्रभु कहय़े निर्जने ।
तोमारेइ याइते हईले वृन्दावने ॥४३८॥

काशीश्वर कहे—‘प्रभु तोमारे छाड़िते ।
विदरे हृदय़, ये उचित कर इथे’ ॥४३९॥

काशीश्वर-अन्तर बुझिय़ा गौरहरि ।
दिलेन निज-स्वरूप-विग्रह यत्न करि ॥४४०॥

प्रभु से विग्रह-सह अन्नादि भुञ्जिल ।
देखि काशीश्वरेर परमानन्द हैल ॥४४१॥

श्री-गौर-गोविन्द-नाम प्रभु जानाइला ।
तारे लैय़ा काशीश्वर वृन्दावने आइला ॥४४२॥

श्री-गोविन्द-दक्षिने प्रभुरे वसाइय़ा ।
करय़े अद्भुत सेवा प्रेमाविष्ट हैय़ा ॥४४३॥

तथाहि श्री-साधन-दीपिक्यय़ाꣳ महाप्रभु-पार्षद-श्री-मुखश्रुत-कथा—

एकदा श्री-महाप्रभुः श्री-काशीश्वरꣳ कथितवान्—भवान्
श्री-वृन्दावनꣳ गत्वा श्री-रूप-सनातनय़ोर् अन्तिकः निवसत्व् इति स तु
अच्छ्रुत्वा हर्षविस्मितो’भुत् । सर्वज्ञ-शिरोमणिस् तद् धृदय़ꣳ ज्ञात्वा
गौरः पुनः कथितवान् श्री-जगन्नाथ-पर्श्व-वर्तिनꣳ श्री-कृष्ण-विग्रह-
मानीय़—स्वय़ꣳ-भगवतान् अनेन ममाभेदꣳ जानीहि, एवम् एनꣳ
सेवस्व (इति) । तच् छ्रुत्वा स तुष्णीꣳ बभुव । ततो विग्रह वपुषा
श्री-कृष्णेन महाप्रभुणा च एकत्र भोजनꣳ कृतम् । ततः
श्री-काशीश्वरो दण्डवत् प्रणम्य गौर-गोविन्द-विग्रहꣳ वृन्दावनꣳ
प्रापय़ामास । सो’य़ꣳ श्री-गोविन्द-पार्श्व-वर्ती महाप्रभुरः ॥४४४॥

पदकान्त्या जितमदनो मुख-कान्त्या खण्डित-कमल-मणि-गर्वः ।
श्री-रूपाश्रित-चरणः कृपय़तु मय़ि गौर-गोविन्दः ॥४४५॥

गोविन्देर लीला अति अद्भुत अपार ।
के बुझिते पारे कृपा ना हईले ताꣳर ॥४४६॥

प्रकटाप्रकट-लीला दुइ मत हय़ ।
अप्रकटे मौनमुद्रारूपे विलसय़ ॥४४७॥

अहे श्रीनिवास ! कत कहिब तोमारे ।
श्री-गोविन्द प्रकट हईला रूप-द्वारे ॥४४८॥

श्री-रूप-कर्तृक श्री-वृन्दा-देवीर प्रकाश—

श्री-रूपे श्री-वृन्दा स्वप्नच्छले जानाइला ।
ब्रह्म-कुण्ड-तट हैते तारे प्रकाशिला ॥४४९॥

श्री-वृन्दा-देवीर शोभा महिमा अपार ।
सर्व-कार्य सिद्धि हय़, हैले कृपा ताꣳर ॥४५०॥

तथाहि श्री-साधन-दीपिकाय़ाम्—
ब्रह्म-कुण्ड-गुतटोपान्ते वृन्दा-देवी प्रकाशिता ।
प्रभोर् आज्ञावलेनापि श्री-रूपेण कृपान्धिना ॥४५१॥

चूड़ाय़ाꣳ चारुरत्नास्वर-मणि-मुकुटꣳ विभ्रतीꣳ मूर्ध्नि देवीꣳ
कर्ण-द्वन्द्वे च दीप्त पुरट-विरचिते कुण्डले हारिहारान् ।
निष्कꣳ काञ्चीꣳ सुहासाꣳ भुजक्टकतुलाकोटीकादीꣳश् च वन्दे
वृन्दाꣳ वृन्दावनान्तः सुरुचिर-वसनाꣳ श्री-गोविन्द पार्श्वे ॥४५२॥

श्री-वृन्दाय़ाः पदाजꣳ सुरुमुनि-सकलैश् चापि भक्त्यानुबन्दꣳ
प्रेम्ना सꣳसेव्यमानꣳ कलिकलुषहरꣳ सर्व-वाञ्छाप्रदञ् च ।
वक्तव्यꣳ चात्र किम्वा नु यदनु भजतो दुर्लभे देव-लोकैः ।
श्रीमद् वृन्दावने’स्मिन् निवसति मनुजः सर्व-दुःखैर् विमुक्तः ॥४५३॥

श्री-रूप सनातनेर अद्भुत विलास—

अहे श्रीनिवास, श्री-रूपेर कर्म यत ।
ताहा आमि एक मुखे कहिब वा कत ॥४५४॥

सनातन गोस्वामीर अद्भुत विलास ।
मध्ये मध्ये करेन श्री-महावने वास ॥४५५॥

श्री-सनातन-कर्तृक श्री-मदन-गोपालेर सेवा प्रकट—

मदन-गोपाल तथा बालक-सहिते ।
यमुना-पुलिने खेले देखय़े साक्षाते ॥४५६॥

मदन-गोपाल सनातन-प्रेमाधीन ।
स्वप्नच्छले सनातने कहे एकदिन ॥४५७॥

सनातन तोमार कुटीर मोरे भाय़ ।
महावन हैते आमि आसिव एथाय़ ॥४५८॥

एत कहि प्रभु हईलेन अदर्शन ।
प्रेमावेशे विह्वल हैला सनातन ॥४५९॥

प्रभुर भङ्गिमा जाने भालमते ।
मदन-गोपाल आइला रजनी-प्रभाते ॥४६०॥

सनातन-मने हैल आनन्द प्रचुर ।
पत्र-कुटीरेते सेवा करेन प्रभुर ॥४६१॥

महाराज-कुमार श्री-मदन-मोहन ।
तिꣳह शुष्क रुटि भुञ्जे—दुःखी सनातन ॥४६२॥

सनातन-मनः जानि मदन-गोपाल ।
निज-सेवा-वृद्धि-इच्छा हईल तत्काल ॥४६३॥

श्री-कृष्णदास कपूर-द्वारा मदन-मोहनेर श्री-मन्दिर निर्माणादि—

हेन काले मूलतानदेशीय़ एकजन ।
अतिशय़ धनाढ्य सर्वाꣳशे विचक्षण ॥४६४॥

कपूर क्षत्रिय़-श्रेष्ठ नाम कृष्णदास ।
लौका हैते नामि आइला गोस्वामीर पाश ॥४६५॥

गोस्वामीर चरणे पड़िल लोटाइय़ा ।
कैल कृत दैन्य नेत्रजले सिक्त हैय़ा ॥४६६॥

सनातन ताबे बहु अनुग्रह कैला ।
श्री-मदन-मोहन-चरणे समर्पिला ॥४६७॥

सेइदिन मन्दिरेर आरम्भ करिल ।
नाना रत्न-भूषणे भूषित कराइल ॥४६८॥

परिधेय़ वस्त्रादि से विविध प्रकार ।
राखाइला यत्न करि पृथक भाण्डार ॥४६९॥

भोगेर सामग्री नाना-प्रकार करिला ।
भुञ्जिवेन प्रभु, इथे महाहर्ष हैला ॥४७०॥

मदन-गोपाले देखि केबा धैर्य धरे ।
व्रजवासि-गण भासे सूखेर सागरे ॥४७१॥

सङ्क्षेपे कहिल ए प्रसङ्ग रसाय़न ।
मदन-मोहन सनातनेर जीवन ॥४७२॥

श्री-परमानन्द भट्टाचार्य ओ श्री-मधुपण्डित-कर्तृक श्री-गोपीनाथेर सेवा-प्रतिष्ठा—

अहे बापु श्रीनिवास ! कहिते कि आर ।
प्रभु भक्त-द्वारे कैल आपना प्रचार ॥४७३॥

परमानन्द भट्टाचार्य महाशय़ ।
श्री-मधुपन्डित अति गुणेर आलय़ ॥४७४॥

दोꣳहा प्रेमाधीन कृष्ण व्रजेन्द्र-कुमार ।
परम-दुर्गम चेष्टा, कहि साध्य कार ॥४७५॥

वꣳशीवट-निकाट परम रम्य हय़ ।
तथा गोपीनाथ महारङ्गे विलसय़ ॥४७६॥

तथाहि श्री-साधन-दीपिकाय़ाम्—
यस् तेन सुप्रकटितो गोपीनाथो दय़ाम्बुदिः ।
वꣳशीवट-तटे श्रीमद् यमुनोपतटे शुभे ॥४७७॥

श्री-मदन-मोहने देखिय़ा कृष्णदास ।
भूमे पड़ि प्रणमय़े छाड़ि दीर्घ-श्वास ॥४७८॥

अकस्मात् दर्शन दिलेन कृपा करि ।
श्री-मधुपण्डित हैला सेवा-अधिकारी ॥४७९॥

श्री-परमानन्द भट्टाचार्य महाशय़ ।
मधुपण्डिते ताꣳर स्नेह अतिशय़ ॥४८०॥

अहे श्रीनिवास ! गोपीनाथेर दर्शने ।
कहिते के जाने य़े आनन्द वृन्दावने ॥४८१॥

हराय़े सबार मनः अङ्गेर छटाय़ ।
करिते दर्शन लक्ष लक्ष लोक धाय़ ॥४८२॥

श्री-गोपीनाथेर चारु चरित्र मधुर ।
ये शुने वारेक तार ताप याय़ दूर ॥४८३॥

श्री-व्रजेर कथा भक्त-मुखे ये शुनिनु ।
से अति विस्तार, तार किछु शुनाइनु ॥४८४॥

आहे श्रीनिवास ! प्राण करय़े केमन ।
हेन दिन हबे कि, याइब वृन्दावन ॥४८५॥

वृन्दावन-लीला आलोचना करिते करिते पिता-पुत्रेर प्रेमाश्रु-वर्षण—

श्री-चैतन्य-दास ऐछे कहिते कहिते ।
नय़ने बहय़े धारा, नारे निवारिते ॥४८६॥

पितार चरण धरि काꣳदे श्रीनिवास ।
मने मने कहे—कि पूरिरे मोर आश ॥४८७॥

पिता-पुत्रे स्थिर हईलेन कतक्षणे ।
कि अद्भुत प्रेमेर प्रताप केबा जाने ॥४८८॥

कृष्ण-कथा विना किछु नाहि भाय़ चिते ।
हेन पिता-पुत्रेर उपमा नाहि दिते ॥४८९॥

पिता पुत्र-सꣳवाद शुनय़े येइ जन ।
अनाय़ासे पाय़ से दुर्लभ भक्ति-धन ॥४९०॥

श्रीनिवास-आचार्य चरण चिन्ता करि ।
भक्ति-रत्नाकर कहे दास नरहरि ॥४९१॥

इति श्री-भक्ति-रत्नाकरे श्रीनिवास-जन्मादि-प्रसङ्गानुकथने
वृन्दावने श्री-गोविन्दादि-प्रकट-वर्णनꣳ नाम
द्वितीय़स् तरङ्गः ॥२॥