०१

प्रथम तरङ्ग

गुर्वादि-वन्दना

श्रीमत् कीर्तन-मङ्गलालय़ महा-माधुर्य-वाराꣳ निधे
शश्वद् भक्ति-रस-प्रद प्रविलसत्-श्री-प्रेम-हेमाचल ।
सर्वानर्थ-निवर्तके प्रिय़तनो लीला-विलासास्पद
श्रीमद् गौरहरे प्रमीद जगताꣳ भक्तैक नाथ प्रभो ॥१॥

श्रीमद् गौर-पदारविन्द-मधुप श्री-भट्ट-गोपाल हे
माय़ावाद-तमः-प्रभाकर कृपा-सिन्धो द्विजेन्द्र प्रभो ।
श्रीमद् व्येङ्कट-भट्ट-नन्दन महासद्-भक्ति-भूषाढ्य हे
सꣳसारा-मय़मर्दन प्रणत-हृन् मोदप्रद त्राहि माम् ॥२॥

श्री-भट्ट-गोपाल-पदाब्ज-भृङ्ग श्री-भक्ति-रत्न-प्रवारैक-दक्ष ।
श्रीमच् छची-नन्दन-हेम-रूप पाहि प्रभो श्री-निलय़ द्विजेन्द्र ॥३॥

श्री-कृष्ण-चैतन्यचन्द्र-प्रेम-कल्पद्रुमस्य हि ।
श्रीनिवास-प्रभोर् नित्यꣳ शाखा-वर्गान् अहꣳ भजे ॥४॥

श्रीमद् वैष्नव-सर्वस्वꣳ सर्वान्-अर्था-निवर्तकः ।
भक्ति-रत्नाकर-ग्रन्थः श्रूय़ताꣳ श्रूय़ताꣳ मुदा ॥५॥

सपार्षद श्री-गौरसुन्दर-वन्दना ओ जय़गान—

जाय़ जय़ श्री-कृष्ण-चैतन्य सर्वेश्वर ।
भक्ति-प्रिय़ भुवन-मोहन कलेवर ॥६॥

लक्ष्मी-नाथ शची-जगन्नाथेर नन्दन ।
नित्यानन्दाद्वैत गदाधर-प्राणधन ॥७॥

ओहे प्रभो वेदादि तोमार यशो गाय़ ।
केबा ना मोहित एइ तोमार लीलाय़ ॥८॥

श्री-गुरु श्री-भक्ति-शक्ति प्रकाशावतार ।
ए सकल-रूपे प्रभु विलास तोमार ॥९॥

तोमार विलास ऐछे वन्दे विज्ञ-गण ।
अन्ये उपदेशे महा-शुभेर कारण ॥१०॥

वन्दे गुरून् ईश-भक्तान् ईशम् ईशावतारकान् ।
तत्प्रकाशाꣳश् च तच् छक्तीः कृष्ण-चैतन्य-सꣳज्ञकम् ॥११॥

गुरु, कृष्ण, भक्त, शक्ति, अवतार, प्रकाश ।
एइ छय़-रूपे कृष्ण करेन विलास ॥१२॥

कृपा विना ए तत्त्व जानिते शक्ति कार ।
अन्य अगोचर एइ तोमार विहार ॥१३॥

स्वय़ꣳ भगवान् तुमि सबार आश्रय़ ।
कर ये उचित निवेदिते पाइ भय़ ॥१४॥

जय़ जय़ श्री-गुरु करुणा-रत्नखनि ।
श्री-कृष्ण-चैतन्य प्रेमदाता-शिरोमणि ॥१५॥

जय़ नित्यानन्द-राम करुणार सिन्धु ।
भुवन-पावन दीन दुःखितेर बन्धु ॥१६॥

प्रभु कृष्ण-चैतन्येर स्वरूप-प्रकाश ।
तुमि पूर्ण कर से सबार अभिलाष ॥ १७॥

जय़ जय़ श्री-आद्वैत-देव दय़ामय़ ।
करिला ए जीवेर दारुण दुःख-क्षय़ ॥१८॥

तुमि कृष्ण-चैतन्येर अꣳश-आतार ।
के वर्णिते पारे प्रभु महिमा तोमार ॥१९॥

जय़ जय़ गदाधर पण्डित गोसाञि ।
प्रभु-शक्ति-श्रेष्ठ तुय़ा शुण अन्त नाइ ॥२०॥

जय़ प्रभु भक्त-श्रेष्ठ श्रीवास-पण्डित ।
देवेर दुर्लभ तुय़ा चरित्र विदित ॥२१॥

जय़ श्री-स्वरूप पूर्ण कर मोर आश ।
जय़ वक्रेश्वर, श्री-मुरारि, हरिदास ॥ २२॥

जय़ नरहरि, गौरदास, शुक्लाम्बर ।
जय़ श्री-मुकुन्द, वासु, माधव, शङ्कर ॥२३॥

जय़ विद्यानिधि पुण्डरीक महा-आर्य ।
जय़ वासुदेव सार्वभौम-भट्टाचार्य ॥२४॥

जय़ गदाधर दास पण्डित श्रीमान् ।
जय़ जगदीश, काशीश्वर भगवान् ॥२५॥

जय़ जय़ श्री-परमानन्द-भट्टाचार्य ।
जय़ कृष्णदास ब्रह्माचारी चेष्टाश्चर्य ॥२६॥

जय़ द्विज हरिदास आचार्य-नन्दन ।
जय़ जय़-रामानन्द कमल-नय़न ॥२७॥

जय़ लोकनाथ श्री-भूगर्भ प्रेम-मय़ ।
जय़ सनातन, रूप-रसेर आलय़ ॥२८॥

जय़ काशीमिश्र गोपीकान्त षष्ठीधर ।
जय़ अभिराम, वꣳशी, सारङ्ग-सुन्दर ॥२९॥

जय़ जय़ श्री-प्रबोधानन्द-सरस्वती ।
जय़ श्री-गोपाल-भट्ट व्येङ्कट-सन्तति ॥३०॥

जय़ रघुनाथ-भट्ट, रघुनाथ-दास ।
जय़ श्री-राघव गोवर्धनारण्ये वास ॥३१॥

जय़ श्री-हृदय़ानन्द आचार्य-रतन ।
जय़ चिरञ्जीव सेन श्री-रघुनन्दन ॥३२॥

जय़ कानु, धनञ्जय़, विजय़, रामाइ ।
जय़ श्री-सुबुद्धि-मिश्र, श्री-जीव-गोसाञि ॥३३॥

जय़ भागवताचार्य, माधव, श्रीधर ।
जय़ दास-वृन्दावन गुणेर सागर ॥३४॥

जय़ कृष्णदास-कविराज महाशय़ ।
जय़ श्रीनिवासाचार्य गौर-प्रेममय़ ॥३५॥

जय़ श्री-ठाकुर महाशय़ नरोत्तम ।
जय़ श्यामानन्द भक्ति-मूर्ति मनोरम ॥३६॥

जय़ जय़ श्री-चैतन्यचन्द्रेर भक्त यत ।
परम-मङ्गल नाम के कहिबे कत ॥३७॥

अनन्त चैतन्य-भक्त चरित्र अपार ।
श्री-कृष्ण-चैतन्य एक जीवन सबार ॥३८॥

कहिते बाड़य़े साध भक्तेर चरित ।
प्रेम-भक्ति-मय़ भक्त-इच्छा मनोहित ॥३९॥

भक्त-इच्छामते गौरचन्द्र अवतार ।
भक्त-सङ्गे निरन्तर अद्भुत विहार ॥४०॥

ब्रह्मा, शिव, शेष यार अन्त नाहि पाय़ ।
कलि-युगे हेन लीला करे गौरराय़ ॥४१॥

त्रिविध चैतन्य-लीला आनन्देर धाम ।
आदि-खण्ड, मध्य-खण्ड, शेष-खण्ड नाम ॥४२॥

आदि-खण्डे प्रधानातिविद्यार विलास ।
मध्य-खण्डे चैतन्येर कीर्तन-प्रकाश ॥४३॥

शेष-खण्डे न्यासि-रूपे नीलाचले स्थिति ।
नित्यानन्द-स्थाने समर्पिय़ा गौड़-क्षिति ॥४४॥

सन्न्यासीर शिरोमणि श्री-कृष्ण-चैतन्य ।
नित्यानन्दाद्वैत-सह कैल कलि धन्य ॥४५॥

प्रभु श्री-अद्वैत नित्यानन्द हलधर ।
श्री-गौरचन्द्रेर ए अभिन्न कलेवर ॥४६॥

नित्यानन्दाद्वैत-चेष्टा बुझिते के पारे ।
सदा श्री-चैतन्य-प्रेम-समुद्रे साꣳतारे ॥४७॥

परस्पर कथामृत कन्दलेर प्राय़ ।
से कथा शुनिते कार हिय़ा ना युड़ाय़ ॥४८॥

मरि मरि ए दोꣳहार बालाइ लईय़ा ।
देशे देशे फिरि येन दोꣳहा शुण गाइय़ा ॥४९॥

प्रभु गौरचन्द्र नित्यानन्दाद्वैत-सङ्गे ।
विहरय़े श्री-नवद्वीपे नाना रङ्गे ॥५०॥

प्रभुर ए लीला यत अनृतेर धार ।
महानन्दे भक्त-गण पिय़े अनिवार ॥५१॥

भुवन पवित्र हय़ गौराङ्ग-लीलाय़ ।
प्रभु-भक्त-द्रोही स्पर्श कभु नाहि पाय़ ॥५२॥

प्रभु-परिकर अनुग्रह करे याबे ।
सेइ, से डुबय़े एइ लीलार पाथारे ॥५३॥

प्रकटापकट, लीला दुइ त प्रकार ।
कभु अप्रकट कभु प्रकट विहार ॥५४॥

प्रकटे येरूप अप्रकटे सेइ मत ।
भक्त-सह प्रभु विहरय़े अविरत ॥५५॥

नदीय़ा विहरे सदा शचीर तनय़ ।
एसब प्रसङ्ग सर्व-शास्त्रे व्यक्त कय़ ॥५६॥

चथाहि श्री-चैतन्य-भागवते—
अद्यापिह सेइ लीला करे गौरराय़ ।
कोन कोन भाग्यवान् देखिबारे पाय़ ॥५७॥

प्रभुर श्री-धाम-भक्ति नित्य परिकर ।
इथे अन्यमत यार सेइ त पामर ॥५८॥

तथाहि—
नित्यानन्दाद्वैत-चैतन्यम् एकꣳ
तत्त्वꣳ नित्यालङ्कृता ब्रह्मा-सूत्रम् ।
नित्यैर् भक्तैर् नित्याय़ा भक्ति-देव्या
भातꣳ नित्ये धाम्नि नित्यꣳ भजामः ॥५९॥

सर्व अवतारेर सकल भक्त लईय़ा ।
वृन्दावन-चन्द्र गौर विहरे नदीय़ा ॥६०॥

नवद्वीप-वृन्दावन दुइ एक हय़ ।
गौर-श्याम-रूपे प्रभु सदा विलसय़ ॥६१॥

गौर-कृष्णेः भेद-बुद्धि करय़े ये छार ।
नवद्वीप-वृन्दावने भेद-बुद्धि तार ॥६२॥

गौर-कृष्ण याꣳहार जीवन-प्राणधन ।
ताꣳहार सर्वस्व नवद्वीप-वृन्दावन ॥६३॥

य़े सुख-विलास नवद्वीप-वृन्दावने ।
भक्त-कृपा हईले से सब मर्म जाने ॥६४॥

ऐछे प्रभु-भक्तेर बालाइ लईय़ा मरि ।
एबे ये कहिय़े ताहा शुन यत्न करि ॥६५॥

पूर्वे कैनु श्री-भट्टेर मङ्गलाचरण ।
सेइ भ्रममते किछु करि निवेदन ॥६६॥

श्री-गोपाल भट्ट प्रभु प्रेमानन्द-कन्द ।
सर्वभावे यार प्राणधन गौरचन्द्र ॥६७॥

श्रीनिवासाचार्य से भक्ति-रस-भुप ।
श्री-भट्टेर कृपा-पात्र प्रेमेर स्वरूप ॥६८॥

श्रीनिवासाचार्य ठाकुरेर शाखा-गण ।
भक्ति-रस-मय़ सबे विदित भुवन ॥६९॥

ए सबार नामामृत हईब विस्तार ।
गण-सह गौराङ्ग सर्वस्व ए सबार ॥७०॥

पुनः-पुनः निवेदिय़े शुन बन्धु-गण ।
करह सर्वस्व कृष्ण-चैतन्य-चरण ॥७१॥

प्रभुते अनन्य येꣳहो, प्रभु तार वश ।
जगत् व्यापिल एइ प्रभुर सुय़श ॥७२॥

श्री-कृष्ण-चैतन्य-प्रभु भक्तेर जीवन ।
भक्त विना प्रभुर अन्यत्र नाहि मन ॥७३॥

प्रभुर इच्छाय़ भक्त जन्मे स्थाने स्थाने ।
समय़ पाइय़ा प्रभु मिले भक्त-सने ॥७४॥

प्रभु भक्त-मिलन-विलास दोꣳहाकार ।
विविध प्रकारे वर्णिलेन विज्ञवर ॥७५॥

ये ये रूपे वर्णिल से सब सत्य हय़ ।
ऐथे ये कुतर्क करे सेइ याय़ क्षय़ ॥७६॥

यदि कह एक वाक्य देखि भिन्न रीति ।
से होक कल्पान्तर-भेद जान सुसङ्गति ॥७७॥

प्रभु-इच्छा हैते भक्त-इच्छा बलवान् ।
प्रभु से करिते जाने भक्तेर सम्मान ॥७८॥

कोन भक्त आसिय़ा मिलय़े प्रभुसने ।
कोन भक्ते प्रभु गिय़ा मिले भक्त-स्थाने ॥७९॥

श्री-गोपाल-भट्टेर पूर्व-पूरुष-गणेर परिचय़—

श्री-गोपाल-भट्टे प्रभु दक्षिणे मिलिला ।
महा-अनुग्रहे आपनाके जानाइला ॥८०॥

सꣳक्षेपे कहिय़े एथा भट्ट-विवरण ।
श्री-गोपाल-भट्ट हन व्यङ्कट-नन्दन ॥८१॥

श्री-व्यङ्कट-भट्टेर निवास दक्षिणेते ।
विशिष्ट ब्राह्मण विज्ञ सकल शास्त्रेते ॥८२॥

त्रिमल्ल, व्यङ्कट आर श्री-प्रबोधानन्द ।
ए तिन भ्रातार प्राण-धन गौरचन्द्र ॥८३॥

लक्ष्मी-नाराय़ण-उपासक ए पूर्वेते ।
राधा-कृष्ण-रसे मत्त प्रभुर कृपाते ॥८४॥

दक्षिण-भ्रमण-काले प्रभु गौरराय़ ।
भट्ट-गृहे चारिमास आनन्दे गोङाय़ ॥८५॥

चैतन्यचन्द्रेर चारु दक्षिण-भ्रमण ।
चैतन्य-चरितामृते विशेष वर्णन ॥८६॥

गोपाल भट्टेर नाम अव्यक्त तथाय़ ।
व्यङ्कट-भट्टेर वꣳश ऐछे उक्त ताय़ ॥८७॥

श्री-वैष्णव एक श्री-व्यङ्कट-भट्ट नाम ।
प्रभुर निमन्त्रण कैल करिय़ा सम्मान ॥८८॥

निजे घरे लैय़ा कैल पाद-प्रक्षालन ।
सेइ जल लय़े कैल सवꣳशे भक्षण ॥८९॥

अन्यत्र व्यक्त गोपाल व्यङ्कट-तनय़ ।
प्रभु पादोदकपाने हैल प्रेमोदय़ ॥९०॥

करय़े यतन कत स्थिर हईते नारे ।
विपुल पूलक अङ्गे झल-मल करे ॥९१॥

किबा गोपालेर शोभा सर्वाङ्ग सुन्दर ।
जिनिय़ा चम्पक चारु वर्ण मनोहर ॥९२॥

किबा मुख-पद्म दीर्घ नय़न-युगल ।
किबा भुरु भाल नासा तिलक उज्ज्वल ॥९३॥

श्रुति-युग गण्ड किबा ग्रीवार बलनी ।
किबा बाछ वक्षः पीन क्षीण माजाखानि ॥९४॥

किबा जानु-जङघा-युग चरण ललाम ।
परिधेय़ वसन भूषण अनुपम ॥९५॥

तिले तिले गोपालेर बाड़य़े सौन्दर्य ।
देखिय़ा अद्भुत तेजः केबा धरे धैर्य ॥९६॥

निज-गृहे श्री-गोपाल प्राण-नाथे पाइय़ा ।
पितार आज्ञाय़ सेबे महा-हृष्ट हईय़ा ॥९७॥

तथाहि प्राचीनैर् उक्तꣳ—
वन्दे श्री-भट्ट-गोपालꣳ द्विजेन्द्रꣳ व्यङ्कटात्मजम् ।
श्री-चैतन्य-प्रभोः सेवा-नियुक्तञ् च निजालय़े ॥९८॥

श्री-गोपाल-भट्ट प्रभु ये कृपा करिल ।
ताहा विस्तारिय़ा एथा वर्णिते नारिल ॥९९॥

श्री-गोपाल-भट्टेर चरित्र—

तथापि कहिय़े किछु गोपाल-चरित ।
प्रभुर सेवाय़ सदा स्वाभाविक प्रीत ॥१००॥

प्रभुर सन्न्यास गोपालेरे नाहि भाय़ ।
निर्जने याइय़ा खेद करय़े सदाय़ ॥१०१॥

विधातार प्रति कहे गद गद भाषे ।
ओरे विधि केन जन्माइलि दूर देशे ॥१०२॥

नदीय़ा-विहार-सुखे करिय़ा वञ्छित ।
देखाइलि प्रभुर ए-वेश विपरीत ॥१०३॥

व्रजेन्द्र-नन्दन प्राण-नाथ राधिकार ।
कराइला ताꣳहारे सन्न्यास-अङ्गीकार ॥१०४॥

एत कहि भासे दुइ नेत्रेर धाराय़ ।
त्यजय़े निःश्वास दीर्घ अग्नि-शिखा-प्राय़ ॥१०५॥

पुनः कहे विधिरे करिब किबा रोष ।
जानिनु केवल ए आपन कर्म-दोष ॥१०६॥

ऐछे कत कहिय़ा रहिला मौन धरि ।
गोपालेर अन्तर जानिला गौर-हरि ॥१०७॥

अकस्मात् गोपालेर निद्रा आकर्षिल ।
स्वप्नच्छले नवद्वीप प्रत्यक्ष हईल ॥१०८॥

देखय़े प्रभुर तथा अद्भूत विहार ।
प्रभु-सङ्गे विलसे सुखेर नाहि पार ॥१०९॥

नित्यानन्दाद्वैत प्रेमावेशे कोले कैल ।
ना जानि कि कहितेइ निद्राभङ्ग हैल ॥११०॥

गोपाल व्याकुल हैय़ा चाय़ चारि भिते ।
चलय़े प्रभुर आगे नारे स्थिर हैते ॥१११॥

गोपाल आइल जानि उल्लास आशेष ।
प्रभु हैला श्यामल सुन्दर गोपवेश ॥११२॥

देखय़े गोपाल शोभा रहिय़ा निर्जने ।
सुवर्ण-वरण अङ्ग हैल सेइ क्षणे ॥११३॥

भुवन मोहय़े से ना रूपेर छटाय़ ।
चाꣳचर केशेर झुꣳटा पिठिते लोटाय़ ॥११४॥

चन्दन-तिलक भाले भुरु कामफणि ।
सती-धर्म हरे दीर्घ नय़न चाहनि ॥११५॥

कत शत शरत्-चान्देर मद नाशे ।
कि नव भङ्गिते हासि अमिय़ा वरिषे ॥११६॥

परिधेय़ त्रिकच्छ वसन अनुपम ।
भूषणे भूषित अङ्ग-भङ्गी मनोरम ॥११७॥

मालतीर माला गले दोले अनिवार ।
देखि गोपालेर मने हैल चमत्कार ॥११८॥

चरणे पड़िय़ा पुनः चाहे प्रभुपाने ।
सन्न्यासीर शिरोमणि देखे सेइ क्षणे ॥११९॥

प्रभु गौरचन्द्र गोपालेरे स्थिर करि ।
उपदेश कैल यैछे कहिते ना पारि ॥१२०॥

पुनः कहे अचिरे याइबा वृन्दावन ।
मिलित दुर्लभ रत्न रूप-सनातन ॥१२१॥

मोर मनोवृत्ति दोꣳहे प्रकाश करिबे ।
तोमार शिष्येर द्वारे जगत् व्यापिरे ॥१२२॥

एत कहि गोपालेरे करि प्रभु कोले ।
गोपालेर अङ्ग सिक्त कैल नेत्रजले ॥१२३॥

कहिल ए सब कथा राखिह गोपने ।
हईल परमानन्द गोपालेर मने ॥१२४॥

गोपालेर गौराङ्ग-सेवाय़ देखि प्रीत ।
श्री-व्यङ्कट-भट्ट हैला महा-उल्लासित ॥१२५॥

गोपाले सꣳपिल गौरचन्द्रेर चरणे ।
दिवारात्रि आनन्दे गोङाय़ प्रभुसने ॥१२६॥

चारिमास परे प्रभु करिब गमन ।
इहा मने करिते अधैर्य तिनजन ॥१२७॥

त्रिमल्ल, व्यङ्कट, श्री-प्रबोधानन्द तिने ।
विचरय़े प्रभु विना रहिल केमने ॥१२८॥

मो-सबार सङ्गे परिहास के करिबे ।
कावेरी-स्नानेते सङ्गे केबा लैय़ा याबे ॥१२९॥

रङ्ग-नाथे केबा वा करिने सङ्कीर्तन ।
के दिवे अधमे से दुर्लभ भक्ति-धन ॥१३०॥

आसिबे असꣳख्य लोक काहार दर्शने ।
ए सब भवन शून्य हबे प्रभु विने ॥१३१॥

ऐछे कत कहे नेत्रे बहे अश्रुधार ।
मनेर उद्वेग यत ना करे प्रचार ॥१३२॥

चारिमास परे प्रभु हईला विदाय़ ।
तिनभाइ क्रन्दन करेय़े उभराय़ ॥१३३॥

श्री-चैतन्य भट्टेर मन्दिर हैते चले ।
भट्ट लोटाइय़ा पड़े प्रभु-पदतले ॥१३४॥

प्रभु तिन भ्राताय़ करिय़ा आलिङ्गन ।
कहिल अनेक रूप प्रबोध-वचन ॥१३५॥

गोपाले प्रबोधि प्रभु दक्षिण भ्रमिय़ा ।
नीलाचले भक्त-सङ्गे मिलिला आसिय़ा ॥१३६॥

गौड़, वृन्दावन पुनः गमनागमन ।
हईल अनेक प्रिय़ भक्तेर मिलन ॥१३७॥

सन्न्यासीर शिरोमणि श्री-कृष्ण-चैतन्य ।
भक्तेर द्वाराय़ कलि-जीवे कैल धन्य ॥१३८॥

नीलाचले कैल वास भक्तेर इच्छाय़ ।
निज-मनोवृत्ति प्रभु भक्ते से जानाय़ ॥१३९॥

एथा श्री-व्यङ्कट-भट्ट तिन सहोदर ।
प्रभुर विच्छेदे हैला अत्यन्त कातर ॥१४०॥

गोपाल हईला यैछे प्राण-नाथ विने ।
के वर्णिते पारे ये नेखिल सेइ जाने ॥१४१॥

विदाय़ेर काले प्रभु करि आलिङ्गन ।
आज्ञा कैल शीघ्र हबे वाञ्छित पूरण ॥१४२॥

सेइ कथा सदाइ विचार करे मने ।
कत दिने प्रभु लैय़ा याबे वृन्दावने ॥१४३॥

गोपाल गौराङ्ग-प्रेमे मत्त अनिवार ।
भक्ति-तत्त्व व्याख्याते सर्वत्र जय़ यार ॥१४४॥

गौर-गुण-महिमा ये सर्वत्र प्रकाशे ।
माय़ावाद-खण्डन करय़े अनाय़ासे ॥१४५॥

गोपाल-भट्टेर श्लाघा करे शिष्ट-गण ।
किरूपे करिल ऐछे, विद्या-उपार्जन ॥१४६॥

केह कहे श्री-प्रबोधानन्द यत्न कैल ।
अल्पकाल हैते अध्यय़न कराइल ॥१४७॥

पितृव्या-कृपाय़ सर्व-शास्त्रे हैल ज्ञान ।
गोपालेर सम एथा नाइ विद्यावान् ॥१४८॥

केह कहे प्रबोधानन्देर गुण अति ।
सर्वत्र हईल यार ख्याति सरस्वती ॥१४९॥

पूर्ण-ब्रह्म श्री-कृष्ण-चैतन्य भगवान् ।
ताꣳर प्रिय़ता विना स्वपने नाहि आन ॥१५०॥

श्री-हरि-भक्ति-विलास (१म बि २ श्लोक)—
भक्तेर् विलासाꣳश् चिनुते प्रबोधानन्दसा शिष्यो भगवत् प्रिय़स्य ।
गोपाल-भट्टो रघुनाथ-दासꣳ सन्तोषय़न् रूप-सनातनौ च ॥१५१॥

परम वैराग्य स्नेह-मूर्ति मनोरम ।
महा-कवि गीत-वाद्य नृत्ये अनुपम ॥१५२॥

यार काव्य शुनि सुख बाड़य़े सबार ।
प्रबोधानन्देर महा-महिमा अपार ॥१५३॥

ऐछे परस्पर महा आनन्द-हृदय़ ।
श्री-प्रबोधानन्द गोपालेर गुण कय़ ॥१५४॥

प्रबोधानन्देर भ्रातुष्-पुत्र श्री-गोपाल ।
सर्वमते सुशीक्षित परम दय़ाल ॥१५५॥

पिता माता यारे देखि महा-सुख पाय़ ।
सतत निमग्न माता-पितार सेवाय़ ॥१५६॥

व्यङ्कट-भट्टेरे कहे एक विप्रवर ।
सर्व-प्रकारेते योग्य तोमार कुङ्तर ॥१५७॥

ऐछे भक्ति-प्रथा एथा ना पाइ देखिते ।
कि अपुर्व प्रीति तोमा दोहार सेवाते ॥१५८॥

शुनिय़ा व्यङ्कट-भट्ट उल्लास-हृदय़ ।
बाल्यावस्था हैते गोपालेर चेष्टा कय़ ॥१५९॥

यैछे नीलाचले जगन्नाथेर दर्शने ।
यैछे स्फूर्ति व्याकरण-आदि आध्यय़ने ॥१६०॥

यैछे पूर्ण-ब्रह्म कृष्ण-चैतन्ये सेबिल ।
क्रमे क्रमे सब सेइ विप्रे निवेदिल ॥१६१॥

शुनि वृद्ध विप्र अति आनन्द अन्तर ।
व्यङ्कटेरे प्रशꣳसि गेलेन निज घर ॥१६२॥

गोपालेर माता-पिता महा-भाग्यवान् ॥
श्री-चैतन्य-पदे ये सौꣳपिल मनः-प्राण ॥१६३॥

वृन्दावन याइते पुत्रेरे आज्ञा दिय़ा ।
दोꣳहे सङ्गोपन हैला प्रभु सोङरिय़ा ॥१६४॥

कतदिने गोपाल गेलेन वृन्दावन ।
रूप-सनातन-सङ्गे हईल मिलन ॥१६५॥

अन्तर्यामी प्रभु नीलाचले सेइक्षणे ।
जानिलेन गोपाल आइल वृन्दावने ॥१६६॥

एकदिन मिश्र-गृह हईते उल्लासे ।
चलिलेन गोपीनाथ-गदाधर-पाशे ॥१६७॥

गदाधरेर प्रति गोराचाꣳदेर ये भाव ।
अनेक सुकृति-फले ताहा हय़ लाभ ॥१६८॥

नित्यानन्द-गदाधर दोꣳहार ये रीति ।
कहिते ताहार लेश काहार शक्ति ॥१६९॥

अद्वैतेर सह गदाधरेर ये क्रिय़ा ।
से-सब शुनिते कार ना जुड़ाय़ हिय़ा ॥१७०॥

श्रीवास पण्डित श्री-पण्डित गदाधरे ।
प्राणेर अधिक जाने गुणे सदा झुरे ॥१७१॥

प्रभु-हरिदास प्रभु-गदाधर सने ।
ये आनन्द हय़ ताहा बले कोन् जने ॥१७२॥

पण्डित श्री-गदाधर दास-गदाधरे ।
कि अद्भुत प्रेम, ताहा के बुझिते पारे ॥१७३॥

श्री-गौरसुन्दर गदाधरेर जीवन ।
गदाधर-सङ्गे रङ्ग ना हय़ वर्णन ॥१७४॥

हेन गदाधरेर आलय़े प्रभु गिय़ा ।
बसिलेन भक्त-गणे वेष्टित हईय़ा ॥१७५॥

ये अपूर्व शोभा ताहा के पारे वर्णिते ।
ताग्यवन्त लोक-गण देखे चारिभिते ॥१७६॥

सन्न्यासीर शिरोमणि प्रभु गौरराय़ ।
भक्त-गण-प्रति कहे मधुर भाषाय़ ॥१७७॥

बहुदिन व्रजेर सꣳवाद ना पाइय़ा ।
ना जानिय़े आमार केमन करे हिय़ा ॥१७८॥

अवश्य चाहिय़े तथा पत्री पाठाइते ।
एत कहितेइ पत्री आइल व्रज हैते ॥१७९॥

लिखिलेन पत्रीते श्री-रूप सनातन ।
गोपाल भट्टेर वृन्दावन-आगमन ॥१८०॥

शुनि महाप्रभुर आनन्द हईल अति ।
गोपालेर कथा किछु कहे सबा-प्रति ॥१८१॥

दक्षिण-भ्रमणे अति आनन्द अन्तरे ।
चारिमास रहिनु वेङ्कट-भट्ट घरे ॥१८२॥

गोपाल-भट्ट वेङ्कट-भट्टेर नन्दन ।
ताल्पकाले सकल शास्त्रेते विचक्षण ॥१८३॥

पाइय़ा पितार आज्ञा गोपाल उल्लासे ।
करिल आमार सेवा अशेष विशेषे ॥१८४॥

परम दय़ालु कृष्ण तारे कृपा कैला ।
सेइ ए गोपाल-भट्ट ‘वृन्दावने’ आइला ॥१८५॥

प्राणेर समान मोर रूप सनातन ।
ताहार गमन-मात्रे लिखिला लिखन ॥१८६॥

शुनिय़ा प्रभुर अति मधुर वचन ।
परम आनन्दे पूर्ण हैला भक्त-गण ॥१८७॥

रूप सनातन गुणे प्रभु मग्न हैय़ा ।
वृन्दावने पत्री पाठाय़ेन यत्न पाइय़ा ॥१८८॥

लिखय़े पत्रीते प्रिय़ रूप-सनातने ।
पाइल आनन्द गोपालेर आगमने ॥ १८९॥

निज-भ्राता-सम भट्ट गोपाले जानिबे ।
मध्ये मध्ये शुभ समाचार पाठाइबे ॥१९०॥

ये ये ग्रन्थ वर्णिला वर्णिबा यत आर ।
अचिरे से सब हबे सर्वत्र प्रचार ॥१९१॥

ग्रन्थ-रत्न वितरण करिबेन येꣳह ।
बुझि कृष्ण-इच्छाय़ प्रकट हईला तेꣳह ॥१९२॥

ऐछे पत्री परिधेय़ वस्त्रादिक दिय़ा ।
शीघ्र से मनुष्य पाठाइला हृष्ट हईय़ा ॥१९३॥

तिꣳह वृन्दावने गोस्वामीर पाश गेला ।
श्री-डोर कौपीन बहिर्वास पत्री दिला ॥१९४॥

वृन्दावने ये आनन्द हईल सबार ।
से-सकल विस्तारि ना पारि वर्णिवार ॥१९५॥

श्री-रूप सनातन दुꣳहु प्रेम-मय़ ।
श्री-गोपाल-भट्ट-सह अद्भुत प्रणय़ ॥१९६॥

करिते वैष्णव-स्मृति हैल भट्ट-मने ।
सनातन गोस्वामी जानिला सेइ क्षणे ॥१९७॥

गोपालेर नामे श्री-गोस्वामी-सनातन ।
करिल श्री-हरि-भक्ति-विलास वर्णन ॥१९८॥

श्री-विग्रहेर सेवा गोपालेर इच्छा हैल ।
श्री-गोविन्द श्री-रूपेरे स्वप्ने आदेशिल ॥१९९॥

श्री-रूप गोस्वामी भट्टे प्राण-सम जाने ।
श्री-राधा-रमण सेवा कराइला ताने ॥२००॥

ए-सब प्रसङ्ग आगे हईबे विस्तार ।
गोपाल-भट्टेर चेष्टा अति चमत्कार ॥२०१॥

लोकनाथ, भूगर्भ, पण्डित काशीश्वर ।
श्री-परमानन्द, कृष्णदास विज्ञवर ॥२०२॥

ए-सबार यैछे प्रेम-आचरण ।
ताहा एक-मुखे किछु ना हय़ वर्णन ॥२०३॥

वृन्दावने सदा सनातन-रूप सङ्गे ।
विलसय़े श्री-कृष्ण-चैतन्य-कथा-रङ्गे ॥२०४॥

सनातन-प्रेमे परिपूरित अन्तर ।
अपूर्व श्री-रूप-सख्ये सुख निरन्तर ॥२०५॥

भट्टेर जीवन एक श्री-राधारमण ।
सेवा-रसे अत्यन्त मग्न अनुक्षण ॥२०६॥

सर्वाभीष्ट पूर्ण करे आपनार गुणे ।
याꣳरे देखे सबार आनन्द वृन्दावने ॥२०७॥

तथाहि प्राचीनैर् अप्य् उक्तम्—
सनातन-प्रेम-परिप्लुतान्तरꣳ
श्री-रूप-सख्येन विलक्षिताखिलम् ।
नमामि राधारमणैक-जीवनꣳ
गोपाल-भट्टः भजतामतीष्टदम् ॥२०८॥

श्री-गोपाल-भट्टेर ए-सब विवरण ।
केह किछु वर्णे, केह ना करे वर्णन ॥२०९॥

ना बुझिय़ा मर्म इथे कुतर्क ये करे ।
अपराध-बीज तार हृदय़े सञ्चारे ॥२१०॥

परम रसिक पूर्व पूर्व करिगण ।
वर्णिते समर्थ हैय़ा ना करे वर्णन ॥२११॥

पश्चाते वर्णिब करि मने विचारिय़ा ।
राखय़े से सकलेर सुखेर लागिय़ा ॥२१२॥

प्रभु-लीला वर्णिल ठाकुर वृन्दावन ।
दक्षिण भ्रमण आदि ना कैल वर्णन ॥२१३॥

व्यास-रूप तिꣳहो ताꣳर के बुझे आशय़ ।
पश्चात् वर्णिबे वेदव्यास ऐछे कय़ ॥२१४॥

कृष्णदास कविराज ताꣳरे दैन्य करि ।
दक्षिण-भ्रमण आदि वर्णिल विस्तारि ॥२१५॥

राखिलेन मध्ये मध्ये वर्णन करिते ।
वर्णिबे ये कवि-गण ताꣳहार निमित्ते ॥२१६॥

यैछे इष्टदेव सुखे अन्नादि भुञ्जिय़ा ।
पात्रे अवशेष राखे शिस्येर लागिय़ा ॥२१७॥

कवि-रीत ए किन्तु वर्णित नाहि अन्त ।
कुतर्क छाड़िय़ा आस्वादह भाग्यवन्त ॥२१८॥

प्रभु आर प्रभु-भक्त-गणेर चरित ।
विविध प्रकारे वर्णे हैय़ा सावहित ॥२१९॥

भक्त इच्छा प्रबल जानिय़ा करिगण ।
प्रभु भक्ते सम्बोधिय़ा करेन वर्णन ॥२२०॥

कृष्णदास कविराज महा-हृष्ट हैय़ा ।
वर्णिलेन ग्रन्थ अनेकेर आज्ञा लैय़ा ॥२२१॥

श्री-गोपाल भट्ट हृष्ट हैय़ा आज्ञा दिल ।
ग्रन्थे निज-प्रसङ्ग वर्णिते निषेधिल ॥२२२॥

केने निषेधिल इहा के बुझिते पारे ।
निरन्तर अति दीन माने आपनारे ॥२२३॥

कविराज ताꣳर आज्ञा नारे लङ्घिबारे ।
नाम-मात्र लिखे अन्य ना करे प्रचारे ॥२२४॥

लोकनाथ गोस्वामीह ऐछे आज्ञा कैल ।
प्राचीन वैष्णव-मुख एसब गुनिल ॥२२५॥

अन्ये असाक्षाते किछु करिल वर्णन ।
अति अलौकिक ए भट्टेर शुण-गण ॥२२६॥

वृन्दावने भट्टेर ये विद्यार विलास ।
ग्रन्थेर बाहुल्ये एथा ना कैनु प्रकाश ॥२२७॥

करिलेन कृष्ण-कर्णामृतेर टिप्पनी ।
वैष्णवेर परम आनन्द याहा शुनि ॥२२८॥

श्री-गोपाल भट्ट शुद्ध-भक्ति-पथे आर्य ।
तिले तिले करे अलौकिक सब कार्य ॥२२९॥

कतदिने तथाइ मिलिला श्रीनिवास ।
अनुग्रह करि भट्ट पुराइल आश ॥२३०॥

श्रीनिवास शिष्य हैय़ा प्रभुर आदेशे ।
भक्ति-ग्रन्थ प्रकाशिला आसि गौड़देशे ॥२३१॥

श्री-रूपादि-द्वारा प्रभु शास्त्र प्रकाशिला ।
ग्रन्थ प्रकाशिते श्रीनिवासे शक्ति दिला ॥२३२॥

आचार्य अभिन्न श्री-ठाकुर महाशय़ ।
निज-कृत श्लोके व्यक्त कैल शक्ति-द्वय़ ॥२३३॥

तथापि—श्री-ठाकुर-महाशय़-कृतः श्लोकः—
श्री-रूप-प्रमुखैक-शक्ति कतमेनाविष्करोति प्रभुर्
ग्रन्थो’य़ꣳ वितनोति शक्ति-परय़ा श्री-श्री-निवासाख्यय़ा ।
द्वे शक्ती प्रकटी-कृते करुणाय़ा क्षौणीतले येन स
श्री-चैतन्य-दय़ा-निधिर् मम कदा दृग् गोचरꣳ यास्यति ॥ २३४॥

श्रीनिवास आचार्य शास्त्र-ज्ञ शिरोमणि ।
भक्ति-शास्त्र प्रचारि अवनि कैल धनी ॥२३५॥

करिल अनेक शिष्य प्रभु-इच्छामते ।
रामचन्द्र-गोकुलादि विदित जगते ॥२३६॥

रामचन्द्र श्री-गोकुलानन्द प्रेमालय़ ।
प्रसङ्गे जानाइ एथा किछु परिचय़ ॥२३७॥

रामचन्द्र गोविन्द एइ दुइ सहोदर ।
पिता चिरञ्जीव मातामह दामोदर ॥२३८॥

दामोदर सेनेर निवास श्री-खण्डेते ।
येꣳह महा-कवि नाम विदित जगते ॥२३९॥

तथाहि—श्री-गोविन्द-कविराज-कृत-श्री-सङ्गीत-माधव-णाटके—
पाताले वासुकिर् वक्ता स्वर्गे वक्ता बृहस्पतिः ।
गौड़े गोवर्धनो दाता खण्डे दामोदरः कविः ॥२४०॥

दामोदर कवि महा-युक्ति-पराय़ण ।
कोनन् रूपे लङ्घिते नारय़े कोन जन ॥२४१॥

एक दिग्-विजय़ी अल्पे पराभव हैय़ा ।
‘अपुत्रक हओ’ शाप दिले दुःख पाञ ॥२४२॥

दामोदर प्रसन्न करिल नाना मते ।
तेꣳह कहे हबे कन्या धन्या से जगते ॥२४३॥

जन्मिबे ताहार गर्भे पुत्र-रत्न-द्वय़ ।
से-दुꣳहा-प्रभावे हबे अमङ्गल-क्षय़ ॥२४४॥

विप्रकरे सुनन्दा नामेते हैल कन्या ।
दिने दिने बाड़े महा-रूपे गुणे धन्या ॥२४५॥

खण्ड-वासी नारी-गण सबे प्रशꣳसय़ ।
हईले विवाह-योग्या पात्र अन्वेषय़ ॥२४६॥

दामोदर कविराज महा-भाग्यवान् ।
चिरञ्जीव सेने कैल कन्या-सम्प्रदान ॥२४७॥

ग्रन्थेर बाहुल्य-भय़ उपजय़े चित्ते ।
विवाह-कौतुक तेञि नारि विस्तारिते ॥२४८॥

भागीरथी-तीरे ग्राम कुमार-नगर ।
अनेक वैष्णव तथा वसति सुन्दर ॥२४९॥

सेइ ग्रामे चिरञ्जीव-सेनेर वसति ।
विवाह करिय़ा खण्डे करिलेन स्थिति ॥२५०॥

कि कहिब चिरञ्जीव सेनेर आख्यान ।
खण्ड-वासी सबे जाने प्राणेर समान ॥२५१॥

श्री-चैतन्य-प्रभुर पार्षद विज्ञवर ।
निरन्तर सङ्कीर्तने उन्मत अन्तर ॥२५२॥

खण्ड-वासी चिरञ्जीव विदित सर्वत्र ।
दीनहीने कैल येꣳह भक्ति-रस-पात्र ॥२५३॥

श्री-चैतन्य-चरितामृते प्रभुर मिलने ।
वर्णिलेन खण्ड-वासी चिरञ्जीवसेने ॥२५४॥

तथाहि श्री-चैतन्य-चरितामृते (मध्य ११.९२)
‘मुकुन्द-दास, नरहरि, श्री-रघुनन्दन ।
खण्ड-वासी चिरञ्जीव, आर सुलोचन’ ॥२५५॥

चिरञ्जीवसेन महा-विज्ञ सर्वमते ।
खण्डे विलसय़े निज-पत्नीर सहिते ॥२५६॥

अरुन्धती-सम पतिव्रता पत्नी ताꣳर ।
परम-सुशीला अलौकिक-चेष्टा याꣳर ॥२५७॥

श्री-रामचन्द्र कविराज—

यैछे पिता-माता तैछे, पुत्र रामचन्द्र ।
रामचन्द्र जम्मि जन्माइल महानन्द ॥२५८॥

शिशुकाल हैते चेष्टा अति मनोहर ।
स्त्री-पुरुष सबे देखे प्राणेर सोसर ॥२५९॥

महा-तेजो-मय़ मूर्ति सौन्दर्ये मदन ।
अल्पकाले बहु-विद्या कैल उपार्जन ॥२६०॥

रामचन्द्रे देखि विज्ञालोके विचारय़ ।
देवतार अꣳश ए अन्यथा कभु नय़ ॥२६१॥

वैद्य-कुले प्रकट हईल इच्छामते ।
मनुष्येर भ्रमे केह ना पारे चिनिते ॥२६२॥

वैष्णवेर गण बहु करे अनुभव ।
ए वैष्णव हैले हबे अनेक वैष्णव ॥२६३॥

एइरूप नाना कथा नाना जने कय़ ।
रामचन्द्र सेन सर्व-चित्त आकर्षय़ ॥२६४॥

श्रीनिवासाचार्य तारे यैछे शिष्य कैल ।
से अति विस्तार एथा वर्णिते नारिल ॥२६५॥

कविराज ख्याति हईल श्री-वृन्दावनेते ।
इहा विस्तारिय़ा कहिय़े एथाते ॥२६६॥

श्री-परमानन्द भट्टाचार्य प्रेम-राशि ।
श्री-जीव-गोस्वामी आदि वृन्दावन-वासी ॥२६७॥

सबे ताꣳर कृत काव्य शुनि ताꣳर मुखे ।
कविराज ख्याति सबे दिल महा-सुखे ॥२६८॥

रामचन्द्र कविराज सर्व-गुण-मय़ ।
याꣳर अभिन्नात्मा नरोत्तम महाशय़ ॥२६९॥

तथाहि श्री-सङ्गीत-माधव-नाटके—
स्वर्धुन्यास्तीर-भूमौ सरजनि-नगरे गौड़-भूपाधि-पात्राद्
ब्रह्मण्याद् विष्णु-भक्ताद् अपि सुपरिचितात् श्री-चिरञ्जीवसेनात् ।
यः श्री-रामेन्दु-नामा समजनि परमः श्री-सुनन्दाभिधाय़ाꣳ
सो’य़ꣳ श्रीमान् नराख्ये स हि कवि-नृपतिः सम्यगासीद् अभिन्नः ॥२७०॥

रामचन्द्र नरोत्तम दोꣳहार ये रीत ।
आगे जानाइव एथा कहि ये किञ्चित् ॥२७१॥

तनु-मनः-प्राण-नाम एकई दोꣳहार ।
कविराज नरोत्तम नाम ए प्रचार ॥२७२॥

नरोत्तम-कविराज कहे सर्व-जन ।
कथाद्वय़ मात्र यैछे नर-नाराय़ण ॥२७३॥

रामचन्द्र नरोत्तम विदित जगते ।
हैल युगल-नाम सबे सुख दिते ॥२७४॥

दोꣳहे सर्व शास्त्रेते परम-विचक्षण ।
अनाय़ासे कैल महा-पाषण्ड-खण्डन ॥२७५॥

शुद्ध-भक्ति-प्रदाने निपुण निरन्तर ।
अनन्य रसिक सर्वमते विज्ञवर ॥२७६॥

तथाहि तत्रैव—
यौ शश्वद् भगवत् पराय़ण-परौ सꣳसार-पाराय़णौ
सम्यक् सात्वत-तन्त्र-वाद-परमौ निःशेष सिद्धान्तगौ ।
शश्वद् भक्ति-रस-प्रदान-रसिकौ पाषण्ड-हृण् मण्डला-
वन्योन्य-प्रिय़ताभरेण युगली-भूताविमौ तौ नुमः ॥२७७॥

श्री-नरोत्तम—

श्री-नरोत्तमेर क्रिय़ा कहिते कि पारि ।
सर्व-तीर्थ-दर्शी आकुमार ब्रह्मचारी ॥२७८॥

तत्रैव—
आकुमार ब्रह्मचारी सर्व-तीर्थ-दर्शी ।
परम-भागवतोत्तमः श्रील-नरोत्तम-दासः ॥२७९॥

यैछे से प्रभाव ताहा केबा नाहि जाने ।
याꣳर जन्म कृष्ण-चैतन्येर आकर्षणे ॥२८०॥

माघी पूर्णि-माय़ जम्मिलेन नरोत्तम ।
दिने दिने वृद्धि हईलेन चन्द्र-सम ॥२८१॥

सर्व-प्रकारेते गृहे हैला प्रवीण ।
श्री-कृष्ण-चैतन्य गुणे मग्न रात्रि-दिन ॥२८२॥

प्रेम-भक्ति-मय़-मूर्ति प्रभुर इच्छाते ।
महाराज विषय़ ना भाय़ किछु चिते ॥२८३॥

अल्पकाले एइ चिन्ता करे रात्रि-दिन ।
किरूपे छाड़िब गृह हब उदासीन ॥२८४॥

श्री-कृष्ण-चैतन्य नित्यानन्दाद्वैत-गणे ।
करय़े विज्ञप्ति-अश्रु झरे दुनय़ने ॥२८५॥

स्वप्नच्छले प्रभु गण-सह देखा दिय़ा ।
प्रिय़ नरोत्तमे स्थिर करिल प्रबोधिय़ा ॥२८६॥

अकस्मात् गौड़-राज मनुष्य आइल ।
गौड़े राजस्थाने पिता पितृव्य चलिल ॥२८७॥

एइ अवसरे रक्षकेरे प्रतारिला ।
प्रकारे माय़ेर स्थाने विदाय़ हैला ॥२८८॥

अति सुचरिता माता नाम नाराय़णी ।
पुत्रगत-प्राण, चेष्टा कहिते कि जानि ॥२८९॥

स्वाच्छन्दे आछेन माता पुत्रेर पालने ।
पुत्र ये छाड़िबे घर इहा नाहि जाने ॥२९०॥

एथा नरोत्तम अति सङ्गोपन हैय़ा ।
करिलेन यात्रा प्रभु-चरण चिन्तिय़ा ॥२९१॥

किबा नव्य यौवन से परम सुन्दर ।
कार्तिक-पुर्णिमा दिने छाड़िलेन घर ॥२९२॥

भ्रमिय़ा अनेक तीर्थ वृन्दावने गेला ।
लोकनाथ गोस्वामीर स्थाने शिष्य हैला ॥२९३॥

श्रावण मासेर पौर्णमासी शुभक्षणे ।
करिलेन शिष्य लोकनाथ नरोत्तमे ॥२९४॥

श्री-लोकनाथ—

श्री-लोकनाथेर अति अद्भुत चरित ।
प्रसङ्ग पाइय़ा एथा कहिय़े किञ्चित् ॥२९५॥

यशोर-देशेते तालखैड़ा-ग्रामे स्थिति ।
माता सीता, पिता पद्मनाभ चक्रवर्ती ॥२९६॥

तथाहि प्राचीनैर् उक्तम्—
श्रीमद् राधा-विनोदैक सेवा-सम्पत्-समन्वितम् ।
पद्मनाभात्मजꣳ श्रीमल् लोकनाथ-प्रभुꣳ भजे ॥२९७॥

पद्मनाभ प्रभु अद्वैतेर प्रिय़ अति ।
लोकनाथ हेल वृद्ध विप्रेर सम्भति ॥२९८॥

लोकनाथ-गृहे सदा रहय़े उदास ।
सर्व त्यागी नवद्वीपे आइला प्रभु-पाश ॥२९९॥

प्रभु-गौरचन्द्र अति अनुग्रह कैल ।
वृन्दावने याइते त्वराय़ आज्ञा दिल ॥३००॥

ऐछे आज्ञा हैल इथे आछे प्रय़ोजन ।
प्रभु करिबेन शीघ्र सन्न्यास ग्रहण ॥३०१॥

सन्न्यासी हईय़ा याइबेन वृन्दावने ।
एइ हेतु आगे पाठाइते इच्छा मने ॥३०२॥

लोकनाथ बुझिलेन एसब आभास ।
दुइ एक दिने प्रभु करिबे सन्न्यास ॥३०३॥

श्री-चाꣳचर केशेर हईबे अदर्शन ।
इथे प्राण किरूपे धरिबे प्रिय़-गण ॥३०४॥

ऐछे बहु चिन्ता-मात्रे व्याकुल हैल ।
काꣳदिते काꣳदिते प्रभु-पदे प्रणमिल ॥३०५॥

अन्तर्यामी प्रभु लोकनाथे आलिङ्गिय़ा ।
करिलेन विदाय़ गोपने प्रबोधिय़ा ॥३०६॥

लोकनाथ प्रभु-पदे आत्म समर्पिल ।
प्रभु-गणे प्रणमिय़ा गमन करिल ॥३०७॥

दुःखी हैय़ा कैल बहु तीर्थ पर्यटन ।
कतदिन परेते गेलेन वृन्दावन ॥३०८॥

एथा भक्ताधीन प्रभु सन्न्यास करिय़ा ।
नीलाचल-चलन्द्रे देखे नीलाचल गिय़ा ॥३०९॥

अथा हैते गेला प्रभु दक्षिण-भ्रमणे ।
ताहा शुनि, लोकनाथ चलिला दक्षिणे ॥३१०॥

दक्षिण हैय़ा प्रभु आइला वृन्दावन ।
लोकनाथ शुनि व्रजे कारिला गमन ॥३११॥

प्रभु वृन्दावन हैय़ा प्रय़ागे चलिला ।
लोकनाथ व्रजे आसि व्याकुल हैला ॥३१२॥

प्रभाते प्रय़ाग-यात्रा करिब ए मने ।
स्वप्ने प्रभु प्रबोधि राखिला वृन्दावने ॥३१३॥

लोकनाथ प्रभु आज्ञा लङ्घिते नारिल ।
अज्ञात-रूपेते व्रज वने वास कैल ॥३१४॥

कतदिने परे रूप-सनातन-सने ।
हईल मिलन कि आनन्द वृन्दावने ॥३१५॥

श्री-गोपाल-भट्ट आदि प्रभु-गण यत ।
सबा सह यैछे स्नेह के कहिबे कत ॥३१६॥

भुगर्भेते स्नेह यैछे जगते प्रचार ।
लोकनाथ-सह देह भिन्न-मात्र ताꣳर ॥३१७॥

प्रभु लोकनाथ सर्व-प्रकारे प्रवीण ।
श्रीमद् गोविन्दादि-सेवा कैल कतदिन ॥३१८॥

प्रेमेते विह्वल सदा वैराग्येर सीमा ।
भुवने प्रचार याꣳर अद्भुत महिमा ॥३१९॥

हरि-भक्ति-विलासे गोसाञि सनातन ।
मङ्गला-चरणे कैल ये नाम-ग्रहण ॥३२०॥

तथाहि—
काशीश्वरः कृष्ण-वने चकास्तु ।
श्री-कृष्णदासश् च स-लोकनाथः ॥३२१॥

श्री-वैष्णव-तोषणी ग्रन्थेर प्रथमेते ।
ये नाम ग्रहण कैल मङ्गल-निमित्ते ॥३२२॥

तथाहि—
वृन्दावन-प्रिय़ान् वन्दे श्री-गोविन्द-पदाश्रितान् ।
श्रीमत् काशीश्वरꣳ लोकनाथम् श्री-कृष्णदासकम् ॥३२३॥

लोकनाथ व्रजे सदा भ्रमण करिय़ा ।
कृष्ण-लीला-स्थान देखि आनन्दित हैय़ा ॥३२४॥

छत्र-वन-पार्श्वे उमराओ नामे प्राम ।
तथा श्री-किशोरी-कुण्ड-शोभा अनुपम ॥३२५॥

सेइ स्थाने कतदिन रहेन निर्जने ।
करिब विग्रह-सेवा एइ चेष्टामने ॥३२६॥

जानिलेन प्रभु लोकनाथ उत्काण्ठित ।
अन्य-रूपे विग्रह लईय़ा उपस्थित ॥३२७॥

राधाविनोद नाम कहि समर्पिला ।
सेइक्षणे तेꣳह तथा अदर्शन हैला ॥३२८॥

लोकनाथ गोसाञि चिन्तय़े मने मने ।
के हेन विग्रह दिय़ा गेल कोन् खाने ॥३२९॥

चिन्ताय़ व्याकुल लोकनाथे निरखिय़ा ।
श्री-राधाविनोद तथा कहेन हासिय़ा ॥३३०॥

एइ उमराओ-ग्रामे विपने वसति ।
एइ ये किशोरी-कुण्ड एथा मोर स्थिति ॥३३१॥

तोमार उत्कण्ठा देखि, व्याकुल हैल ।
के मोरे आनिवे मुञि आपनि आइल ॥३३२॥

शीघ्र करि मोरे किछु बराओ भक्षण ।
शुनि प्रेम-धारा नेत्रे बहे अनुक्षण ॥३३३॥

महा-सुखे शीघ्र पाक करि तुञ्जाइल ।
पुष्प-शय्या रचिय़ा शय़न कराइल ॥३३४॥

पल्लवे वातास करिलेन कतक्षण ।
मनेर आनन्दे कैल पाद-सम्वाहन ॥३३५॥

तनु-मनः-प्राण प्रभु-पदे समर्पिला ।
से रूप-माधुर्यामृत-पाने मग्न हैला ॥३३६॥

शीघ्र करि एक झोला निर्माण करिल ।
राधाविनोदेर येन मन्दिर हैल ॥३३७॥

परम अद्भुत-रूपे झोला हैल आला ।
अनुक्षण वक्षे राखे येन कण्ठ-माला ॥३३८॥

ग्राम-वासी कुटीर करिय़ा दिते चाय़ ।
वृक्ष-मूल विना लोकनाथेर नाहि भाय़ ॥३३९॥

परम विरक्त स्व-निर्वाह याते हय़ ।
ताहा से ग्रहण-क्रिय़ा अन्ये कि बुझय़ ॥३४०॥

कतदिन रहि कुण्डे आइला वृन्दावन ।
राखिला गोस्वामी सबे करिय़ा यतन ॥३४१॥

कतदिन परम आनन्दे गोङाइल ।
तारपर विच्छेदाग्नि-ज्वालाय़ व्यापिल ॥३४२॥

सनातन रूप आदि हैला अदर्शन ।
ताहाते ये दशा ताहा ना हय़ वर्णन ॥३४३॥

सनातन रूपे-गुणे कान्दे दिवाराति ।
प्रभुर इच्छाते देहे जीवनेर स्थिति ॥३४४॥

नरोत्तमेर प्रति लोकनाथेर कृपा—

हेनई समय़े नरोत्तम तथा गिय़ा ।
गुरु-सेवा यथोचित कैला हर्ष हैय़ा ॥३४५॥

सेवाय़ प्रसन्न हैय़ा दीक्षा-मन्त्र दिल ।
नरोत्तमे कृपार अवधि प्रकाशिल ॥३४६॥

श्री-गोपाल-भट्ट आदि यत विज्ञवर ।
नरोत्तमे जाले सबे प्राणेर सोसर ॥३४७॥

तथा ‘श्री-ठाकुर महाशय़’ नाम हैल ।
जीवेर स्नेह यत वर्णिते नारिल ॥३४८॥

श्रीनिवास आचार्य मिलिला सेइ ठाꣳइ ।
तेꣳह यत सुख पाइल तार अन्त नाइ ॥३४९॥

श्यामानन्द-सह तथा हैल मिलन ।
कहिय़े किञ्चित् एथा ताꣳर विवरण ॥३५०॥

श्री-श्यामानन्द—

दण्डेश्वर-ग्रामे वास सर्वाꣳशे प्रबल ।
माता श्रीदुरिका, पिता श्री-कृष्ण-मण्डल ॥३५१॥

सद्गोप-कूलेते श्रेष्ठ अति सुचरित ।
कृष्ण से सर्वस्व ताꣳर भक्ते अति प्रीत ॥३५२॥

श्री-कृष्ण-मण्डल-दुरिकार गुण-गण ।
ग्रन्थेर बाहुल्य-भय़े ना हय़ वर्णन ॥३५३॥

धारेन्दा-बाहादुर-पुरेते पुर्वस्थिति ।
शिष्टलोक कहे श्यामानन्द-जन्म तथि ॥३५४॥

कोन मते मण्डलेर नाहि प्रतिबन्ध ।
पुत्र कन्या गत हैले, हैल श्यामानन्द ॥३५५॥

जन्मिलेन श्यामानन्द अति शुभक्षणे ।
ये देखे वारेक ताꣳर महानन्द-मने ॥३५६॥

पुत्र-तेज देखि कृष्ण कहय़े पत्नीरे ।
करह यतन यदि कृष्ण रक्षा करे ॥३५७॥

ग्राम-वासी स्त्री-गण कहय़े वारवार ।
एखन दुःखिय़ा नाम रहुक इहार ॥३५८॥

माता पिता दुःखमह पालन करिल ।
एइ हेतु दुःखी नाम प्रथमे हैल ॥३५९॥

श्री-आन्न-प्राशन-चूड़ाकरण-समय़ ।
ये सुख हैल ताहा कहिले ना हय़ ॥३६०॥

कथन ना याय़ अन्य बालकेर मेले ।
व्याकरण-आदि पाठ हैल अल्पकाले ॥३६१॥

दिने दिने बाड़े देखि सबार उल्लास ।
परम अद्भुत चेष्टा हैल प्रकाश ॥३६२॥

गौर-नित्यानन्द-गणेर चरित ।
वैष्णवेर मुखे शुने हैय़ा साबिहिति ॥३६३॥

निरन्तर सेइगुण करय़े कीर्तन ।
नदीर प्रवाह प्राय़ झरे दुनय़न ॥३६४॥

सदा राधा-कृष्ण-लीलामृत करे पान ।
पिता-माता-सेवाय़ अत्यन्त सावधान ॥३६५॥

पिता-माता पुत्र योग्य देखिय़ा कहय़ ।
कृष्ण-मन्त्रे दीक्षा लह यथा मने लय़ ॥३६६॥

शुनिय़ा दोꣳहार वाक्य कहे योड़हाते ।
मोर प्रभु हृदय़-चैतन्य अस्विकाते ॥३६७॥

प्रभु गौरी-दास पण्डितेर शाथा तेꣳह ।
कृष्ण-चैतन्य-नित्यानन्द प्रिय़ येꣳह ॥३६८॥

ताꣳर गृहे साक्षात् विहरे दुइ भाइ ।
तथा शिष्य हई गिय़ा यदि आज्ञा पाइ ॥३६९॥

यदि कह दूर-देशे याइबे केमने ।
ताते एक युक्ति मुइ विचारिनु मने ॥३७०॥

देश-वासी लोक बहु गङ्गा-स्नाने चले ।
कोनई सन्देह नाइ एइ सङ्गे गेले ॥३७१॥

मोरे आच्छा देह दोꣳहे हईय़ा सदय़ ।
मोर यत अभिलाष येन सिद्धि हय़ ॥३७२॥

शुनिय़ा पुत्रेर वाक्य आनन्द पाइल ।
प्रभु इच्छामते पुत्रे अनुमति दिल ॥३७३॥

विदाय़ हईय़ा आइला अस्विका-नगरे ।
श्री-हृदय़-चैतन्य देखिय़ा हृष्ट तारे ॥३७४॥

जिज्ञासिला कि नाम आइला कि कारणे ।
शुनि निवेदिल सब प्रभुर चरणे ॥३७५॥

श्री-हृदय़-चैतन्येर दय़ा उपजिल ।
दुःखी नाम पूर्वे कृष्णदास नाम थुइल ॥३७६॥

श्यामानन्द नाम व्यक्त हबे वृन्दावने ।
जानाइल भङ्गिते, जानिल विज्ञ-गणे ॥३७७॥

दुःखी कृष्णदास नाम हैल विदित ।
निज-इष्ट सेवाय़ हैल निय़ोजित ॥३७८॥

श्री-हृदय़-चैतन्य ठाकुर प्रेम-मय़ ।
सेवाय़ हैला महा-प्रसन्न-हृदय़ ॥३७९॥

शिष्या करि प्रभु-पदे कैल समर्पण ।
स्री-श्यामानन्देर हैल वाञ्छित पूरण ॥३८०॥

तथाहि श्री-श्यामानन्द-शतके—
यꣳ लोका भुवि कीर्तय़न्ति हृदय़ानन्दस्य शिष्यꣳ प्रिय़ꣳ
सख्ये श्री-सुबलस्य यꣳ भगवतः प्रेष्ठानुशिष्यꣳ तथा ।
स श्रीमान् रसिकेन्द्रमस्तकमणिस्चित्ते ममाहर्निशꣳ
श्री-राधा-प्रिय़-नर्म-मर्मसु रुचिꣳ सम्पादय़न् भासताम् ॥३८१॥

श्यामानन्दे अनुग्रह करि किछु दिने ।
आज्ञा दिल शीघ्र करि याह वृन्दावने ॥३८२॥

शुनि वाक्य व्याकुल हईय़ा निवेदय़ ।
निकटे थाकिय़े प्रभु एइ आज्ञा हय़ ॥३८३॥

हृदय़-चैतन्य पुनः करि आलिङ्गन ।
प्रेमारिष्ट हञा कहे याह वृन्दावन ॥३८४॥

दुःखी कृष्णदास बहु क्रन्दन करिय़ा ।
हईला विदाय़ प्रभु पदे प्रणमिय़ा ॥३८५॥

प्रभु नित्यानन्द चैतन्येर दरशने ।
उथलिल प्रेम-अश्रु धारा दुनय़ने ॥३८६॥

करिय़ा विलाप बहु भूमे प्रणमिल ।
प्रभु परिकर स्थाने विदाय़ हैल ॥३८७॥

नवद्वीप-आदि स्थान करिला दर्शन ।
सर्वत्र मागिल प्रेम-भक्ति महा-धन ॥३८८॥

श्री-गौड़-मण्डल बलि करय़े फुत्कार ।
मुख बुक बहिय़ा पड़य़े अश्रुधार ॥३८९॥

नित्यानन्दाद्वैत चैतन्येर परिकर ।
लईते से-सब नाम कान्दे निरन्तर ॥३९०॥

प्रभुके प्रार्थना पुनः करे वारे वारे ।
श्री-गौड़-मण्डल कृपा करुन आमारे ॥३९१॥

महान्तेर मनोवृत्ति बुझे कोन् जान ।
प्रसङ्गे कहिय़े गौड़-प्रार्थना-कारण ॥३९२॥

श्री-गौड़-मण्डल चिन्तामणि सबे कय़ ।
श्री-गौड़-कृपा हैते सर्व-वाञ्छा-सिद्धि हय़ ॥३९३॥

तथाहि गीते (ठाकुर महाशय़ेर प्रार्थना)—
गौराङ्गेर दुटि पद, यार धन-सम्पद, से जाने भक्ति रस सार ।
गौराङ्ग-मधुर लीला, यार कर्णे प्रवेशिला, हृदय़ निर्मल भेल ताꣳर ॥३९४॥

ये गौराङ्गेर नाम लय़, ताꣳर हय़ प्रेमोदय़ ताꣳरे मुञि याङ बलिहारि ।
गौराङ्ग-गुणेते झुरे नित्य-लीला ताꣳरे स्फूरे से जन भक्ति-अधिकारी ॥३९५॥

गौराङ्गेर सङ्गि-गणे नित्य-सिद्ध करि जाने, से याय़ व्रजेन्द्र-सूत-पाश ।
श्री-गौड़-मण्डल-भूमि, येबा जाने चिन्तामणि, ताꣳर हय़ व्रज-भूमे वास ॥३९६॥

गौर-प्रेम-रसार्णवे, से तरङ्गे येबा डुबे से राधा-माधव-अन्तरङ्ग ।
गृहे वा वनेते थाके, हा गौराङ्ग बलि डाके नरोत्तम मागे ताꣳर सङ्ग ॥३९७॥

ऐछे बहु महान्त गौड़ेर गुण गाय़ ।
श्यामानन्द गौड़-भूमि सतत धेय़ाय़ ॥३९८॥

प्रभु आज्ञामते अति उत्कण्ठित मन ।
बहु-तीर्थ देखि शीघ्र गेला वृन्दावन ॥३९९॥

वृन्दावने गिय़ा करे अपूर्व साधन ।
देखितेइ सबार जुड़ाय़ नेत्र मन ॥४००॥

श्यामसुन्दरेर महानन्द जन्माइल ।
‘श्यामानन्द’—नाम पुनः वृन्दावने हैल ॥४०१॥

श्री-जीव गोस्वामी चारु चेष्टा निरखिय़ा ।
पड़ाइल भक्ति-ग्रन्थ निकटे राखिय़ा ॥४०२॥

वृन्दावने बैसे यत प्रभु-परिकर ।
श्यामानन्दे देखि सबे आनन्द अन्तर ॥४०३॥

वृन्दावने श्यामानन्द ये ये कार्य करे ।
से केवल श्री-गुरुदेव-आज्ञा-अनुसारे ॥४०४॥

श्री-श्यामानन्देर चारु चरित शुनिय़ा ।
एथा श्री-हृदय़-चैतन्येर हर्ष हिय़ा ॥४०५॥

श्री-जीव गोस्वामीरे लिखय़े पत्रीद्वारे ।
दुःखी कृष्णदास शिष्ये सꣳपिल तोमारे ॥४०६॥

इहार ये मनो’भीष्ट पूरिबे सर्वथा ।
कतदिन परे पुनः पाठाइबे एथा ॥४०७॥

श्यामानन्दे कहिय़ा पाठान निरन्तर ।
श्री-जीव जानिबे तुमि आमार सोꣳसर ॥४०८॥

सावधान हबे भक्ति-रत्न उपार्जने ।
अपराध नहे येन वैष्णवेर स्थाने ॥४०९॥

एइरूप शिष्ये सदा करे सावधान ।
गुरु अनुग्रहे श्यामानन्द भाग्यवान् ॥४१०॥

कतदिने गौड़्‌ए आसि प्रभु इच्छामते ।
श्री-मुरारिर आदि शिष्य कैल उत्कलेते ॥४११॥

श्री-श्यामानन्द प्रभुर अभिन्न विग्रह श्री-नरोत्तम—

एसब प्रसङ्ग एथा ना कैल विस्तार ।
श्री-नरोत्तमेर सह प्रणय़ अपार ॥४१२॥

वृन्दावने नरोत्तम प्रेमानन्दे भासे ।
प्रभुर इच्छाय़ पुनः आइला गौड़देशे ॥४१३॥

ये प्रकारे गौड़देशे हैल आगमन ।
से सकल विस्तारिय़ा हईब वर्णन ॥४१४॥

नरोत्तमेर शिष्य नाम श्री-वसन्त ।
विप्र-कुलोद्भव महा-कवि विद्यावन्त ॥४१५॥

श्री-नरोत्तमेर गौड़ व्रज-उत्कलेते ।
गमनागमन किछु वर्णिलेन गीते ॥४१६॥

तथाहि गीतम् । यथा रागꣳ—
प्रभु नरोत्तम गुण-निधि ।
‘कनक-कमल जिनि’ सुकोमल तनुखानि
ना जानि गाड़िल कोन् विधि ॥४१७॥

गौरा-प्रेमे मत्त हईय़ा, राज्य-भोग तेय़ागिय़ा
परम आनन्द वृन्दावने ।
पाइय़ा अमूल्य धन, कैला आत्म-समर्पण
प्रभु लोकनाथेर चरणे ॥४१८॥

कृपा करि लोकनाथ, करिलेन आत्मसात्,
हईल गमन गौड़देशे ।
श्री-गौड़ भ्रमण करि, गिय़ा नीलाचल-पुरी
पुनः गौड़े करिला प्रवेश ॥४१९॥

प्रभु-परिकर यत, अनुग्रह कैल कत
कि अद्भुत गीत प्रकाशिला ।
ए दास वसन्त भणे पाषण्डी असुर-गणे
करुणा करिय़ा उद्धारिला ॥४२०॥

ऐछे नानामते सबे करिला वर्णन ।
एबे ये कहिय़े ताहा करह, श्रवण ॥४२१॥

नरोत्तम ये समय़े गौड़देशे आइला ।
प्रभु लोकनाथ से समय़ आज्ञा कैला ॥४२२॥

श्री-गौराङ्ग कृष्णेर श्री-विग्रह सेवन ।
श्री-वैष्णव सेवा स्री-प्रभुर सङ्कीर्तन ॥४२३॥

यैछे आज्ञा कैल, तैछे हईला तत्पर ।
कैल छय़ सेवा श्री-विग्रह मनोहर ॥४२४॥

अति से तात्पर्य सदा निमग्न सेवाय़ ।
शुनिते से सब नाम पराण जुड़ाय़ ॥४२५॥

तथाहि तत्कृत-पद्ये—
गौराङ्ग, वल्लभी-कान्त, श्री-कृष्ण, व्रज-मोहन ।
राधारमण, हे राधे, रामाकान्त, नमो’स्तु ते ॥४२६॥

कहिते के पारे ताꣳर यैछे शुद्धाचार ।
काय़मनोवाक्ये श्री-वैष्णव सेवा याꣳर ॥४२७॥

परम आश्चर्य सदा सङ्कीर्तन-उत्सव ।
ये सुख-समुद्रे भासे आपामर सब ॥४२८॥

गौड़देशे गौराङ्गेर प्रिय़ परिकर ।
नरोत्तमे देखि सबे आनन्द अन्तर ॥४२९॥

श्री-जाह्नवी देवी सूर्य-पण्डित-दुहिता ।
नित्यानन्द-प्रेय़सी ये जगते पूजिता ॥४३०॥

प्रेम-भक्ति-रत्न-प्रदाने प्रवीणा येह ।
श्री-ठाकुर महाशय़ नामे हृष्ट तेꣳह ॥४३१॥

देखि अलौकिक-प्रेम वैराग्य प्रबल ।
श्री-जाह्नवी देवी महा-आनन्दे विह्वल ॥४३२॥

कृपा करि श्री-खेतुरी प्रामेते आसिय़ा ।
करय़े सबारे तृप्त सन्दर्शन दिय़ा ॥४३३॥

श्रीमती जाह्नवी देवीर अनुग्रह यत ।
मो छार पामर ताहा वर्णिब वा कत ॥४३४॥

श्री-ठाकुर महाशय़ परम उदार ।
याꣳरे कृपा कैल, सर्व-सिद्धि हैल ताꣳर ॥४३५॥

प्रभु-इच्छामते शिष्य कैल कत जन ।
रामकृष्ण चक्रवर्ती, गङ्गा-नाराय़ण ॥४३६॥

सन्तोषादि सबे हैला भक्ति-पथे आर्य ।
श्री-नरोत्तमेर सब अलौकिक कार्य ॥४३७॥

श्री-गोविन्द कविराज हैय़ा आनन्दित ।
वर्णिलेन गीते किछु याꣳहार चरित ॥४३८॥

तथाहि गीतꣳ—
‘जय़रे जय़रे जय़, ठाकुर नरोत्तम,
प्रेम-भक्ति महाराज ।
या कर मन्त्री, अभिन्न कलेवर
रामचन्द्र कविराज ॥४३९॥

प्रेम-मुकुटमणि, भूषण भावावली,
अङ्गहि अङ्ग विराजा ।
नृप-आसन, खेतुरी माह बैठल,
सङ्गहि भक्त-समाज ॥४४०॥

सनातन-रूप-कृत, ग्रन्थ श्री-भागवत,
अनुदिन करत विचार ।
राधा-माधव, युगल उज्ज्वल रस,
परमानन्द सुख-सार ॥४४१॥

श्री-सङ्कीर्तन, विषय़-रसोन्मत्त,
धर्माधर्म नाहि जान ।
योग-दान-व्रत आदि भय़े भागत,
रोय़त करम गेय़ान ॥४४२॥

भागवत-शास्त्र-गण, यो देइ भकति-धन,
ताक गौरव करु आप ।
साꣳख्य, मीमाꣳसक, तर्कादिक यत,
कम्पित देखि परताप ॥४४३॥

अभकत चौर, सुदूरहि भागि रहु,
निय़ड़े नाइ परकाश ।
दीनहीन जने, देय़ल भक्ति-धने
वञ्छित गोविन्द दास ॥४४४॥

गोविन्द-दासेर परिचय़—

गोविन्द श्री-रामचन्द्रानुज भक्ति-मय़ ।
सर्व-शास्त्रे विद्या कवि सबे प्रशꣳसय़ ॥४४५॥

श्री-जीव श्री-लोकनाथ आदि वृन्दावने ।
परमानन्दित यार पीतामृत-पाने ॥४४६॥

कविराज ख्याति सबे दिलेन तथाइ ।
कत श्लाघा कैल श्लोके व्रजस्थ गोसाञि ॥४४७॥

तथाहि—
श्री-गोविन्द-करीन्द्र-चन्दन-गिरेश् चञ्चद् वसन्त-निलेना
नीतः कवितावली परिमलः कृष्णेन्दु-सम्बन्ध-भाक् ।
श्रीमज्-जीव-सुराङ्घ्रि पाश्रय़-जुषो भृङ्गान् समून्मादय़न्
सर्वास्यापि च मत्कृतिꣳ व्रज-वने चक्रे किमन्यत् परम् ॥४४८॥

श्री-जीव-गोस्वामी पत्रीद्वारे व्रज हैते ।
पुनः-पुनः लेखे गीतामृत पाठाइते ॥४४९॥

श्री-गोविन्द कविराज शीतामृत-गणे ।
गोस्वामीर आदेशे पाठान वृन्दावने ॥४५०॥

एसब प्रसङ्ग आगे हबेन विस्तार ।
श्री-गोविन्द-कविराज प्राण सवाकार ॥४५१॥

यबे ये वर्णय़े ताहा परामृत हय़ ।
नरोत्तम-कविराज आदि आस्वादय़ ॥४५२॥

यथन या वर्णित कहय़े विज्ञ-गणे ।
तखन ता वर्णय़े परानन्द-मने ॥४५३॥

हरि-नाराय़ण राजा वैष्णव-प्रधान ।
रामचन्द्र कला तिꣳह ना जानय़े आन ॥४५४॥

तिꣳह यैछे शिष्य हईला, ये शिष्य करिल ।
से सब प्रसङ्ग एथा वर्णिते नारिल ॥४५५॥

हरि-नाराय़ण कविराजे निवेदिला ।
श्री-राम-चरित्र-गीत तारे वर्णि दिला ॥४५६॥

तथाहि गीतꣳ, यथा रागꣳ—
‘जय़ जय़ राम, राम रघुनन्दन,
जनक-सुता निज-कान्त ।
सुर, नर, वानर खचर, निशाचर,
यछु गुण गाओय़े अनन्त ॥४५७॥

जय़ जय़ दुर्बादल, नव जलधर,
कञ्ज-नय़न रणधीर ।
डाहिने निहित शर, वामे धनुर्धर ।
जलनिधि कोटि गभीर ॥४५८॥

पादुका धरत, भरत भरतानुज,
छत्र चामर नाहि छोड़ि ।
शिव, चतुरानन, सनक, सनातन,
सम्मुखे रहे कर योड़ि ॥४५९॥

हृदय़े आनन्दित, मारुत-नन्दन,
भरत-चरण करु सेवा ।
गोविन्द-दास, हृदय़े अवधारल,
हरि-नाराय़ण अधिदेवा ॥४६०॥

ऐछे श्री-सन्तोष दत्त अनुमति दिल ।
‘सङ्गीत-माधव’-नाम नाटक वर्णिल ॥४६१॥

राधा-कृष्ण पूर्व-राग अपूर्व ताहाते ।
शुनिय़ा सन्तोष दत्त परमानन्द चिते ॥४६२॥

सन्तोषदत्तेर चरित—

प्रसङ्गे कहिय़े किछु सन्तोष-आख्यान ।
याहार श्रवणे तृप्त कर्ण, मनः, प्राण ॥४६३॥

राजधानी स्थान पद्मवती-तीरवर्ती ।
गोपाल-पुर-नगर सुन्दर वसति ॥४६४॥

तथा विलसय़े राजा कृष्णानन्द दत्त ।
श्री-पुरूषोत्तम दत्त परम महत्त्व ॥४६५॥

ज्येष्ठ पुरुषोत्तम कनिष्ठ कृष्णानन्द ।
एइ दुइ भ्रतार प्रीते लोकेर आनन्द ॥४६६॥

श्री-कृष्णानन्देर पुत्र श्रील नरोत्तम ।
पूर्वे जानाइल यार चरित्रानुपम ॥४६७॥

श्री-पुरुषोत्तमेर तनय़ सन्तोषाख्य ।
श्री-कृष्णानन्देर भ्रातुष्पुत्र कार्ये दक्ष ॥४६८॥

गौड़-राजामात्य प्रजापालने प्रवीण ।
अत्यन्त प्रभाव, अन्य याꣳहार अधीन ॥४६९॥

सर्व-प्रकारे सवार आनन्द-बाड़्‌हय़ ।
अति विद्यावान् शास्त्र प्रसङ्ग सदाय़ ॥४७०॥

श्रीमन् नरोत्तमेर भ्राता ओ शिष्य ताꣳर ।
गुरु-कृष्ण-वैष्णव-सेवाय़ शुद्धाचार ॥४७१॥

तथाहि श्री-सङ्गीत-माधव-नाटके—
पद्मावती-तीरवर्ति गोपालपुर नगर-वासी गौड़ाधि-
राज-महामात्य-श्री-पुरुषोत्तम-दत्त-सत्तम-तनुजः श्री-सन्तोष-दत्तः
सहि श्री-नरोत्तम-दत्त-सत्तम-महाशय़ानाꣳ कलीय़ान् यः पितृव्य
भ्रातृ-शिष्यः, तेन च श्री-राधा-माधवय़ोः प्रकट-लीलानुसारेण
लौकिकरीत्या पूर्व-रागादि-विलासार्हꣳ-सङ्गीत-माधवꣳ नाटकꣳ
विरचय नाना-रत्नादि-दानेन नाम्ना-पुरस्कृता समर्पितम् अस्ति ॥४७२॥

पुनः—
यो’न्तः प्रेम-गुणैर् निबध्य युगवत् श्री-राधिका-माधवौ
हृत् पद्मेन बहिर् निधाय़ जगताꣳ भद्रोदय़ाय़ स्फुटम् ।
साक्षाद् एव निजालय़े च विदधे सेवाꣳ समस्तार्पणैस्-
तस्माद् अप्य् अपरो’स्ति को’त्र सुकृति-सन्तोष-दत्तादलम् ॥४७३॥

पुनः—
अहो श्री-गौरङ्गो व्रज-दय़ित-राधारमणतः
सदा राधा-कान्त प्रकट हरि-देह-व्यतिकराः ।
सभा किꣳ शोभा किꣳ किमुत गुरु-सेवा समभवन् न
सन्तोषादन्यः परमहह सन्तोष-भवनम् ॥४७४॥

सन्तोष-दत्तेर माहा-आश्चर्य क्रियाय़ ।
परस्पर लोके सन्तोषेर गुण गाय़ ॥४७५॥

केह केह बुझि केह सहाय़ आछय़ ।
नहिले ए-भक्ति-धन-प्राप्ति नाहि हय़ ॥४७६॥

केह केह बुझि कविराज नरोत्तम ।
इहार सहाय़ तेञि बुद्धि अनुपम ॥४७७॥

तथाहि श्री-सङ्गीत-माधव-नाटके—
यत् सहाय़ौ सदा श्रीमत्-कविराज-नरोत्तमौ ।
तस्यैवम् ईदृशी बुद्धिः किम् आश्चर्याय़ कल्पते ॥४७८॥

श्री-सन्तोष-दत्तेर आश्चर्य भक्ति-प्रथा ।
ग्रन्थ-बाहुल्यार्थे विस्तारिते नारि एथा ॥४७९॥

श्री-गोविन्द कविराज-सह अति स्नेह ।
सकल अभिन्न दृष्टे भिन्न मात्र देह ॥४८०॥

स्री-खेतरी-ग्रामे ए सकल प्रिय़-सङ्गे ।
श्री-कविराज नरोत्तम विलसय़े रङ्गे ॥४८१॥

अल्पे जानाइल एइ दोꣳहार ये रीत ।
ए प्रसङ्ग-श्रवणे उपजे कृष्णे प्रीत ॥४८२॥

श्री-रामचन्द्रेर इष्ट-सेवा ये-प्रकार ।
आगे जानाइब इहा करिय़ा विस्तार ॥४८३॥

एबे कहि पूर्वे ये करिल निवेदन ।
श्री-गोकुलानन्द चक्रवर्ती विवरण ॥४८४॥

श्री-कृष्ण-चैतन्य महाप्रभुर पार्षद ।
द्विज हरिदासाचार्य ये खण्डे विपद ॥४८५॥

प्रेम-भक्ति-महारत्न-प्रदाने प्रवीण ।
सङ्कीर्तन-रसेते उन्मत्त रात्रिदिन ॥४८६॥

ताꣳर पुत्र गोकुलानन्द श्री-दास-द्वय़ ।
शिशुकाल हैते सर्व-चित्त आकर्षय़ ॥४८७॥

अनाय़ासे हैला सर्व-शास्त्रे विचक्षण ।
सङ्कीर्तनानन्दे उन्मत्त अनुक्षण ॥४८८॥

कि काहिर श्री-गोकुलानन्देर महिमा ।
श्रीनिवास आचार्येर अनुग्रह-सीमा ॥४८९॥

यैछे आज्ञा कैल पिता गोकुलेर प्रति ।
तैछे शिष्य हैय़ा गुरु-पदे हैल रति ॥४९०॥

महा-विज्ञ श्री-दासेर तैछे भक्ति प्रथा ।
विशेष जानिबे आगे ए अद्भुत कथा ॥४९१॥

श्रीनिवास आचार्य परम दय़ामय़ ।
ए-सकल शिष्य-सङ्गे सुखे विलसय़ ॥४९२॥

भक्ति-तत्त्व उपदेश करय़े सदाय़ ।
श्री-कृष्ण-चैतन्य-गुणे जगत् माताय़ ॥४९३॥

श्रीनिवास आचार्य प्रभुर प्रिय़ दास ।
व्यापिल याहार यशे ए भूमि-आकाश ॥४९४॥

श्रीनिवास-जन्मादि चरित्र मनोहर ।
वैष्णवेर साध ए शुनिते निरन्तर ॥४९५॥

वैष्णवेर चैष्टा किछु बुझिते नारिल ।
मो-हेन मूर्खेरे वर्णिवारे आज्ञा दिल ॥४९६॥

ताꣳ सबार आज्ञावह हृदय़े धरिय़ा ।
ये किछु कहिब ताꣳ शुनिबे हृष्ट हईय़ा ॥४८७॥

श्रीनिवास-चरित्र शुनिते याꣳर मन ।
ताꣳरे सुप्रसन्न गौर व्रजेन्द्र-नन्दन ॥४९८॥

इहा शुनईते याꣳर उल्लास अन्तरे ।
प्रभु नित्यानन्द श्री-अद्वैत कृपा ताꣳरे ॥४९९॥

प्रभु गदाधर श्री-वसादि भक्त-गण ।
इथे रति याꣳर ताꣳरे देन भक्ति-धन ॥५००॥

इहार चरित्रे याꣳर नाहिक विश्वास ।
एइ सब ताहार करय़े सर्वनाश ॥५०१॥

श्रीनिवास-चरित शुनह सर्व-जन ।
अनाय़ासे हबे सब वाञ्छित पूरण ॥५०२॥

प्रसङ्ग पाइय़ा इथे आर ये वर्णिब ।
से सब शुनिते महा-आनन्द वार्ह्̤‌इब ॥५०३॥

अति सुमधुर एइ श्रवण-परशे ।
बहिर्-मुख सम्मुख ना हब अनाय़ासे ॥५०४॥

पुनः पुनः निवेदय़े अहे श्रोतागण ।
निरन्तर कर एइ ग्रन्थ-आस्वादन ॥५०५॥

ग्रन्थ-नाम थुइल विज्ञे भक्ति-रत्नाकर ।
विविध तरङ्ग इथे अति मनोहर ॥५०६॥

श्री-भक्त-गोष्ठीर पाद-पद्म धरि शिरे ।
सतत डुबह एइ भक्ति-रत्नाकरे ॥५०७॥

भक्तेर सम्पत्ति भक्ति कहे सर्व-जन ।
भक्ति दिले मिले एइ भकति-रतन ॥५०८॥

जय़ जय़ भक्ति-देवी ! कृपा कर दीने ।
अभिलाष पुर्ण नहे भक्ति-स्पर्श विने ॥५०९॥

बहु जन्म करे यदि विविध साधन ।
तथापि दुर्लभ कृष्ण-पदे भक्ति-धन ॥५१०॥

प्रभु-पादे से धन पाइते यार साध ।
से करुक निरन्तर भक्ति-रसास्वाद ॥५११॥

भक्ति-रत्न यत्न करि राखह हिय़ाय़ ।
सवार प्रधान भक्ति सर्व-शास्त्रे गाय़ ॥५१२॥

तथाहि पाद्मे—
ज्ञानतः सुलभा मुक्तिर् भुक्तिर् यज्ञादि-पुण्यतः ।
सेय़ꣳ साधन-साहस्रैर् हरि-भक्तिः सुदुर्लभा ॥५१३॥

श्री-भक्तिर महिमा कहिते साध्य कार ।
भक्ति-रसास्वादिते चैतन्य अवतार ॥५१४॥

हेन अवतारेर बालाइ लैय़ा मरि ।
महानीचे कैल श्री-कृष्ण-भक्ति-अधिकारी ॥५१५॥

नहिले ए भक्ति-रत्न राखे लुकाइय़ा ।
कखनओ ना देय़, छुटे भुक्ति-मुक्ति दिय़ा ॥५१६॥

तथाहि श्री-भागवते (५.६.१८)—
राजन् पतिर् गुरुर् अलꣳ भवताꣳ यदूनाꣳ
दैवꣳ प्रिय़ः कुलपतिः क्व च किङ्करो वः ।
अस्त्व् एवम् अङ्ग भगवान् भजताꣳ मुकुन्दो
मुक्तिꣳ ददाति कर्हिचित् स्म न भक्ति-योगम् ॥५१७॥

ब्रह्मार दुर्लभ भक्ति केबा इहा पाय़ ।
हईल सुलभ कृष्ण-चैतन्य-कृपाय़ ॥५१८॥

प्रभु नित्यानन्द अभिन्न बलराम ।
महा-विष्णु-अवतार श्री-अद्वैत-नाम ॥५१९॥

मरि मरि कि अद्भुत करुणा दोꣳहार ।
जगत भरिय़ा कैल भक्तिर पाथार ॥५२०॥

श्री-पन्डित-गदाधर आदि प्रभुर शक्ति ।
कृपा करि कारे वा ना दिल कृष्ण-भक्ति ॥५२१॥

श्री-वासादि यतेक प्रभुर भक्त-गण ।
महानन्दे भक्ति-धन कैल वितरण ॥५२२॥

भक्ति-दाता गोरागुण के वर्णिते पारे ।
आपनि करय़े दान कराय़े सबारे ॥५२३॥

स्थाने स्थाने भक्त-गणे कारि निय़ोजित ।
परल दुर्लभ-भक्ति करिल विदित ॥५२४॥

गोस्वामी-गणेर भक्ति-शास्त्र-प्रचार—

दिलेन पश्चिम-देशे रूप-सनातने ।
तथा प्रकाशिला भक्ति-शास्त्रेर प्रमाणे ॥५२५॥

वर्णिलेन ग्रन्थ श्री-हरि-भक्ति-विलास ।
लक्ष लक्ष भक्ति-अङ्ग ताहाते प्रकाश ॥५२६॥

भक्ति-रसामृत सिन्धु ग्रन्थ महाशूर ।
याहा शुनि भक्त-चित्ते आनन्द प्रचुर ॥५२७॥

दुइ महा-रथी प्रभु-भक्त प्रिय़-पात्र ।
कृष्ण-भक्ति लभे ए-दोꣳहार स्मृति-मात्र ॥५२८॥

श्री-जीव गोस्वामी आदि यत महाशय़ ।
भक्ति-शास्त्र प्रकाशि भुवन कैल जय़ ॥५२९॥

श्री-जीव गोसाञिर गुण के वर्णिते पारे ।
सनातन गोस्वामीर पूर्ण-कृपा याꣳरे ॥५३०॥

श्री-सनातन गोस्वामी—

श्री-सनातनेर अति अद्भुत चरित ।
श्रीमद् भागवते याꣳर अतिशय़ प्रीत ॥५३१॥

प्रथम वय़से स्वप्ने एक विप्रवर ।
श्रीमद् भागवत देइ आनन्द अन्तर ॥५३२॥

स्वप्न-भङ्गे सनातन व्याकुल हईला ।
प्राते सेइ विप्र श्रीमद् भागवत दिला ॥५३३॥

पाइय़ा श्री-भागवत महाहर्ष-चिते ।
मग्न हैला प्रभु प्रेमामृत-समुद्रेते ॥५३४॥

स्रीमद् भागवत-अर्थ यैछे आस्वादिल ।
ताहा श्री-वैष्णव-तोषणीते प्रकाशिल ॥५३५॥

श्री-सनातनेर पूर्व कहि सꣳक्षेपेते ।
श्री-जीव गोस्वामी विस्तारिला तोषणीते ॥५३६॥

तथाहि श्री-लघु-तोषण्याꣳ—
ये श्री-भागवतꣳ प्राप्य स्वप्ने प्रातश् च जागरे ।
स्वप्न-दृष्टादेव विप्रात् प्रथमे वय़सि स्थिताः ॥५३७॥

ममज्जुः श्री-भगवतः प्रेमामृत-महाम्बुधौ ।
तेषाम् एव हि लेखो’य़ꣳ श्री-सनातन-नामिनाꣳ ॥५३८॥

तद् एतद् विनिवेद्योपि किञ्चिद् अन्यद् विवक्षय़ा ।
अथो तद् अङ्घ्रि जीवेन जीवेनेदꣳ निवेद्यते ॥५३९॥

श्री-जीवेर ऊर्ध्वतन सप्त-पुरुषेर परिचय़—
श्री-जीव-गोस्वामी सप्त-पुरुषेर प्रचार ।
प्रथम हैते नाम कहि ताꣳ सबार ॥५४०॥

श्री-सर्व-ज्ञ जगद्गुरु नाम विप्र-राज ।
महा-पूज्य यदुर् वेदी गोत्र-भरद्वाज ॥५४१॥

सर्व-वेदे अध्यापक महा-पराक्रम ।
कर्णट-देशेर राजा नाहि याꣳर सम ॥५४२॥

सर्व-महीपति सदा पूजय़े याꣳहारे ।
यैछे लक्ष्मी-वन्त ताहा के कहिते पारे ॥५४३॥

ताꣳर पुत्र अनिरुद्ध-देव इन्द्र-सम ।
चन्द्रेओ करय़े स्पर्धा यशः सर्वोत्तम ॥५४४॥

महीपति-पूजित वेदज्ञ लक्ष्मीवान् ।
पृथिवीते विख्यात महिषी-द्वय़ तान ॥५४५॥

रूपेश्वर हरि-हर नामे पुत्र-द्वय़ ।
बहु-गुण सर्वत्र विदित अतिशय़ ॥५४६॥

शास्त्रे विचक्षण ज्येष्ठ-पुत्र रूपेश्वर ।
शस्त्रे महा-प्रवीण कनिष्ठ हरि-हर ॥५४७॥

विराह करिय़ा दोꣳहे दिय़ा राज्याभार ।
श्री-कृष्णेर धामप्राप्ति हैल पितार ॥५४८॥

कतदिन परे लोक-सङ्घट करिय़ा ।
लईल ज्येष्ठेर राज्य कनिष्ठ हईय़ा ॥५४९॥

राज्य गेले रूपेश्वर पत्नीर सहिते ।
अष्ट अश्वे युक्त आइला पौलस्त्य देशेते ॥५५०॥

श्री-शिखरेश्वर-सख्य ताते सुख पाइ ।
रूपेश्वर देव वास करिल तथाइ ॥५५१॥

श्री-रूपेश्वरेर पुत्र पद्मानाभ-नाम ।
परम सुन्दर सर्व-शुणे अनुपम ॥५५२॥

अङ्ग-सह चतुर्वेदादिक-अध्यय़ने ।
परम अपूर्व यशः विदित भुवने ॥५५३॥

कि अपूर्व पद्मनाभ-देवेर चरित ।
श्री-जगन्नाथेर प्रेमे सदा उल्लासित ॥५५४॥

पद्मनाभ नृप से शिखर-भूमि हैते ।
आइलेन गङ्गा-तीरे वास-स्पृहा चिते ॥५५५॥

नव-हट्ट-ग्रामे वास कैल महाशय़ ।
नैहाटि-नाम यार सर्व-लोके कय़ ॥५५६॥

तथा पद्मनाभ-देव महाहर्ष-चिते ।
श्री-पुरुषोत्तम मूर्ति पूजय़े यत्नेते ॥५५७॥

करि यज्ञे उत्सव परमानन्द हैल ।
अष्टादश कन्या पञ्च-पुत्र जन्मईल ॥५५८॥

श्री-पुरुषोत्तम, जगन्नाथ, नाराय़ण ।
मुरारि, मुकुन्द एइ पुत्र पञ्च-जन ॥५५९॥

पूरुषोत्तम ज्येष्ठ, सर्व-कनिष्ठ मुकुन्द ।
सर्वाꣳशे प्रवीण, सर्वोत्तम गुण-वृन्द ॥५६०॥

श्री-मुकुन्द-देवेर नन्दन श्री-कुमार ।
विप्र-कुल-प्रदीप, परम शुधाचार ॥५६१॥

सदा यज्ञादिक क्रिय़ा निभृते करय़ ।
कदाचार-जन-स्पर्शे अतिभीत हय़ ॥५६२॥

यदि अकस्मात् कभु देखय़े यवन ।
करे प्राय़श्चित्त, अन्न ना करे ग्रहण ॥५६३॥

ज्ञातिवर्ग हईते उद्वेग हैल मने ।
छाड़िलेन नव-हट्ट-ग्राम सेइ क्षणे ॥५६४॥

निज-गण-सह बङ्ग-देशे शीघ्र गेला ।
‘बाक्ला-चन्द्रद्वीप’-ग्रामेते वास कैला ॥५६५॥

यशोरे फातेय़ावाद नामे ग्राम हय़ ।
गताय़ात हेतु तथा करिल आलय़ ॥५६६॥

कुमार-देवेर हैल अनेक सनतान ।
तार मध्ये तिन पुत्र वैष्णवेर प्राण ॥५६७॥

सनातन, रूप, श्री-वल्लभ एइ त्रय़ ।
स्वगोत्र अन्यत्र ये अर्चित अतिशय़ ॥५६८॥

तथाहि तात्रैव—
उद्यच् चारु-पद-क्रमाश्रित-वती यस्या मृतस्राविणी
जिह्वा कल्पलता-त्रय़ी-मधुकरी भूय़ो नरी-नृत्यते ।
रेजे राजसतभासभाजित-पदः कर्णाट-भूमि-पतिः
श्री-सर्वज्ञ-जगद्गुरुर् भुवि भरद्वाजान्वय़-प्रामणीः ॥५६९॥

पुत्रस्तस्य नृपस्य कश्यप-तुलामारोहतो रोहिणी-
कान्त-स्पर्धि-यशोभरः सुरपतेस् तुल्य-प्रभावो’भवत् ।
सर्वक्षमा-पति-पूजितो’खिल-यजुर्वेदैक विश्रामभू-
लक्ष्मीवान् अनिरुद्ध-देव इति यः ख्यातिꣳ क्षितौ जग्मिवान् ॥५७०॥

महिष्योर् भुपस्य प्रथित-यशसस् तस्य तनय़ौ
प्रजज्ञाते रूपेश्वर-हरि-हराख्यौ गुणनिधी ।
तय़ोराद्यः शास्त्रे प्रबल-तरभावꣳ बहुविधे
जगामान्यः शस्त्रे निज-निज गुण प्रेरित-तय़ा ॥५७१॥

विभज्य स्वꣳ राज्यꣳ मधुरिपु-पुर-प्रस्थिति-दिने
पिता ताभ्याꣳ रूपेश्वर-हरि-हराभ्याꣳ किल ददौ ।
निज-ज्येष्ठꣳ रूपेश्वरम् अथ कनिष्ठो हरि-हरः
स्वराज्यादार्याणाꣳ कुल-तिलकम् अभ्रꣳशय़द् असौ ॥५७२॥

श्री-रूपेश्वर-देव एवम् अरिभिर् निधुत-राज्यः क्रमा-
दट्टाभिस् तुरगैः समꣳ दय़ितय़ा पौरस्त्य-देशꣳ ययौ ।
तत्रासौ शिखरेश्वरस्य विषय़े सख्युः सुखꣳ सꣳवसन्
धन्यः पुत्रमजीजनद् गुण-निधिꣳ श्री-पद्मनाभाभिधम् ॥५७३॥

यजुर्वेदः साङ्गो विततिर् अपि सर्वोपनिषदाꣳ
रस-ज्ञाय़ाꣳ यस्य स्फुटम् अघटय़त्तागुवकलाम् ।
जगन्नाथ-प्रेमोल्लसित हृदय़ः कर्ण-पदवीꣳ
न यातः केषाꣳ वा स किल नृप-रूपेश्वर-सुतः ॥५७४॥

विहाय़ गुण-शेखरः शिरर-भूमि-वास स्पृहाꣳ
स्फुरत् सुर-तरङ्गिणी-तट-निवास-पर्युत्सुकः ।
ततो दनुजमर्दनक्षिति-पपूज्य-पादः क्रमा-
दूवास नव-हट्टके स किल पद्मनाभः कृती ॥५७५॥

मूर्तिꣳ श्री-पुरुषोत्तमस्य फजतस् तत्रैव सत्रोत्सवैः
कन्याष्टादशकेन सार्द्धम् अभवन्न् एतस्य पञ्चात्मजाः ।
तत्राद्यः पुरुषोत्तमः खलु जगन्नाथश् च नाराय़णो ।
धीरः श्रील-मुरारिर् उत्तम-गुणः श्रीमान् मुकुन्दः कृती ॥५७६॥

जातस् तत्र मुकुन्दतो द्विज-वरः श्रीमान् कुमाराभिधः
कञ्चिद्रोहम् अवाप्य सत्कुलज-निर्वङ्गालय़ꣳ सङ्गतः ।
तत्पूत्रेषु महिष्ठ-वैष्णव-गण-प्रेष्ठास्त्रय़ो जज्ञिरे
ये स्वꣳ गोत्रम् अमुत्र चेह च पुनश् चक्रूस्तराम् अर्चितम् ॥५७७॥

सनातन, रूप ओ वल्लभ-चरित—
सनातन, रूप, श्री-वल्लभ भक्त-भूप ।
सर्व-ज्येष्ठ सनातन अनुज श्री-रूप ॥५७८॥

सबार अनुज श्री-वल्लभ प्रेम-मय़ ।
श्री-जीव गोस्वामी हन ताꣳहार तनय़ ॥५७९॥

ए तिन भ्रातार यैछे गृहे व्यवहार ।
ग्रन्थेर बाहुल्य-भय़े नारि वर्णिवार ॥५८०॥

सनातन-रूप महा-मन्त्री सर्वाꣳशेते ।
शुनिलेन राजा शिष्ट लोकेर मुखेते ॥५८१॥

गौड़ेर राजा यवन अनेक अधिकार ।
सनातन-रूपे आनि दिल राज्यभार ॥५८२॥

म्लेच्छ-भय़े विषय़ करिल अङ्गीकार ।
ए-दुइ प्रभावे राज्य-वृद्धि हैल ताꣳर ॥५८३॥

राजा हर्षे दिल राज्य पृथक् करिय़ा ।
राज्या-भोग करय़े किञ्चित् कर दिय़ा ॥५८४॥

गौड़े रामकेलि-ग्रामे करिलेन वास ।
ऐश्वर्येर सीमा अति अद्भुत विलास ॥५८५॥

इन्द्र-सम सनातन-रूपेर सभाते ।
अईसे शास्त्रज्ञ-गण नाना दश हैते ॥५८६॥

गाय़क-वादक नर्तकादि करिगण ।
सर्व-देशी सकले नियुक्त सर्वक्षण ॥५८७॥

निरन्तर करेन अनेक अर्थव्यय़ ।
कोनरूपे कारु असम्मान नाहि हय़ ॥५८८॥

सदा सर्व-शास्त्रे चर्चा करे दुइजन ।
अनाय़ासे करे दोꣳहे खण्डन-स्थापन ॥५८९॥

न्याय़-सूत्र व्याख्या निज-कृत ये करय़ ।
सनातन-रूप शुनिले से दृढ़ हय़ ॥५९०॥

ऐछे सबे सर्व प्रकारेते दृढ़ हञा ।
सनातन-रूप-गुण गाय़ सुख पाञा ॥५९१॥

सर्वत्र व्यापिल ए दोꣳहार गुण-गण ।
कर्णाट देशादि हैते आइल विप्र-गण ॥५९२॥

सनातन-रूप निज-देशस्थ ब्राह्मणे ।
वासस्थान दिला सबे गङ्गा-सन्निधाने ॥५९३॥

भट्ट-गोष्ठी-वासे भट्ट-वाटी नामे ग्राम ।
सकले शास्त्र-ज्ञ सर्वमते अनुपम ॥५९४॥

रामकेलि-ग्रामे से सकल विप्र लैय़ा ।
व्यवहार-कार्य सब साधे हर्ष हैय़ा ॥५९५॥

वैष्णव-सम्प्रदाय़-गणे रूप-सनातन ।
येरूप आदरेर ताहा ना हय़ वर्णन ॥५९६॥

नवद्वीप हैते आइसे विप्र-गण यत ।
कहिते ना पारि ता सबारे भक्ति कत ॥५९७॥

श्री-सनातनेर गुरु विद्या-वाचस्पति ।
मध्ये मध्ये रामकेलि ग्रामे ताꣳर स्थिति ॥५९८॥

सर्व-शास्त्राध्यय़न करिला यार ठाञि ।
यैछे गुरु-भक्ति कहि ऐछे साध्य नाञि ॥५९९॥

सनातन-कृत श्री-दशम-टिप्पनीते ।
लिखिला गुरुर नाम मङ्गल-निमित्ते ॥६००॥

तथाहि दशम-टिप्पन्याꣳ—
भ्लट्टाचार्यꣳ सार्वभौमꣳ विद्यावाचस्पतीन् गुरून् ।
वन्दे विद्या-भूषणञ् च गौड़देश-विभूषणम् ॥६०१॥

वन्दे श्री-परमानन्द-भट्टाचार्यꣳ रस-प्रिय़ꣳ ।
राम-भद्रꣳ तथा वाणी-विलासꣳ चोपदेशकम् ॥६०२॥

सनातन-रूपेर साधन ये-प्रकार ।
ये सकल विस्तारि कहिते साध्य कार ॥६०३॥

वाड़ीर निकटे अतिनिभृत स्थानेते ।
कदम्ब-कानन, राधाश्याम-कुण्ड ताते ॥६०४॥

वृन्दावन-लीला तथा करय़े चिन्तन ।
ना धरे धैरय, नेत्रे धारा अनुक्षण ॥६०५॥

श्री-विग्रह मदन-मोहन सेवाय़ रत ।
सदा खेद उक्ति, ताहा कहिब वा कत ॥६०६॥

श्री-कृष्ण-चैतन्यचन्द्र विहरे नदीय़ा ।
सदा उत्कान्ठित ताꣳर दर्शन लागिय़ा ॥६०७॥

पिता-पितामहादिर यैछे शुद्धाचार ।
ताहा विचारिते मने मानय़े धिक्कार ॥६०८॥

यवन देखिले पिता प्राय़श्चित्त करय़ ।
हेन यवनेर सङ्ग निरन्तर हय़ ॥६०९॥

करि मुखापेक्षा यवनेर गृहे यान ।
ए हेतु आपना माने म्लेच्छेर समान ॥६१०॥

यैछे मनोवृत्ति ताहा किछु नाहि हय़ ।
इथे अति दीनहीन आपना मानय़ ॥६११॥

यबे मग्न हन दैन्य-समुद्र-माझारे ।
म्लेच्छादिक हैते नीच माने आपनारे ॥६१२॥

नीचजाती-सङ्गे सदा नीच व्यवहार ।
एइ हेतु नीचजात्यादिक उक्ति ताꣳर ॥६१३॥

विप्र-राज हैय़ा महाखेदयुक्तान्तरे ।
आपनाके विप्र-ज्ञान कभु नाहि करे ॥६१४॥

श्री-चैतन्य-कृपा याꣳरे ताꣳर ऐछे रीत ।
आपना उत्तम-बुद्धि नहे कदाचित् ॥६१५॥

सदा एक रस आपनाके नीच माने ।
श्री-कृष्ण-चैतन्य से भक्तेर तत्त्व जाने ॥६१६॥

पूर्ण-ब्रह्म सनातन श्री-कृष्ण-चैतन्य ।
यैछे दैन्य करे तैछे ना करय़े अन्य ॥६१७॥

ताꣳर भक्त दैन्य-रसे निमग्न सदाय़ ।
दैन्ये ये आनन्द ताहा जाने गौरराय़ ॥६१८॥

सनातन-रूपेर अन्तरे हैल याहा ।
श्री-कृष्ण-चैतन्यचन्द्र जानिलेन ताहा ॥६१९॥

रामकेलिते श्री-गौरसुन्दर—

भक्तेरे मिलिते प्रभु कत भङ्गी जाने ।
रामकेलि आइला याइते वृन्दावने ॥६२०॥

प्रभुरे देखिते लक्ष लक्ष लोक धाय़ ।
यवनेह आनन्दे प्रभुर गुण गाय़ ॥६२१॥

सनातन-रूप हिय़ा आनन्दे उथले ।
सङ्गोपने गिय़ा पड़े प्रभुपद-तले ॥६२२॥

दन्ते तृण धरि दैन्य कैल ये-प्रकार ।
से सब शुनिते प्राण विदरे सवार ॥६२३॥

श्री-भक्त-वत्सल प्रभु धैर्य नाहि बान्धे ।
सनातन-रूपेर दैन्येते प्राण कान्दे ॥६२४॥

चैतन्य-चरितामृत-ग्रन्थे ए लिखन ।
दैन्य छाड़, तोमार दैन्ये फाटे मोर मन ॥६२५॥

यैछे दैन्य कैल, ताहा किछु व्यक्त तथा ।
ग्रन्थेर बाहुल्य-भय़े ना लिखिनु एथा ॥६२६॥

सर्वाꣳशे उत्तम हैय़ा ऐछे दैन्य करे ।
नीच म्लेच्छ पापी बलि आपना धिक्कारे ॥६२७॥

विप्र-गणे विस्मय़ ए-मर्म ना बुझिल ।
प्रभु भक्त-द्वारे लोके शिक्षा कराइल ॥६२८॥

अहे भाइ ! के बूझिते पारे प्रभु-हिय़ा ।
भक्ताधीन हन भक्त-गण प्रकाशिय़ा ॥६२९॥

महाप्रभुर भक्त-द्वारे शिक्षादान—
रामानन्द-द्वारे कन्दर्पेर दर्पनाशे ।
दामोदर-द्वारे निरपेक्ष परकाशे ॥६३०॥

हरिदास-द्वारे सहिष्णुता जानाइल ।
सनातन-रूप-द्वारे दैन्य प्रकाशिल ॥६३१॥

जितेन्द्रिय़, निरपेक्ष, सहिष्णुता, दैन्य ।
ए चारि अवधि व्यक्त कैला श्री-चैतन्य ॥६३२॥

सनातन-रूप-दैन्य ना पारि बुझिते ।
मूर्ख-गण इथे तर्क करे नाना मते ॥६३३॥

महा-घोर नरक याइते यार साध ।
से करुक ऐछे कुतर्कादि अपराध ॥६३४॥

गण-सह सनातन-रूपे कृपा करि ।
रामकेलि हैते यात्रा कैला गौरहरि ॥६३५॥

सनातन, रूप, श्री-वल्लभ तिन भाइ ।
से सुखे भासिल ता कहिते साध्य नाइ ॥६३६॥

केशव छत्रीर आदि यत विज्ञ-गण ।
हईल कृतार्थ पाइ प्रभुर दर्शन ॥६३७॥

श्री-जीवादि सङ्गोपने प्रभुरे देखिल ।
अति प्राचीनेर मुखे ए सब शुनिल ॥६३८॥

अल्पकाले श्री-जीवेर बुद्धि चमत्कार ।
व्याकरण-आदि शास्त्रे अति अधिकार ॥६३९॥

सनातन-रूप भ्रातुष्पुत्रे निरखिय़ा ।
करे अति अनुग्रह स्नेहे प्रकाशिय़ा ॥६४०॥

श्री-जीव चरित्र केबा बुझिवारे पारे ।
प्रभु-रूप-माधुरी सदाइ चिन्ता करे ॥६४१॥

अध्यापक-स्थाने शास्त्र पड़े निरन्तर ।
देखिय़ा सबार अति प्रसन्न अन्तर ॥६४२॥

सबे कहे—देव-अꣳशे जनम इहार ।
नहिले कि अल्पकाले एत अधिकार ॥६४३॥

यैछे सनातन, रूप, वल्लभ सुन्दर ।
तैछे श्री-जीवेर कि सौन्दर्य मनोहर ॥६४४॥

ऐछे कत कहे, ताहा वर्णिते ना पारि ।
एहेन श्री-जीवेर बालाइ लैय़ा मरि ॥६४५॥

सनातन-रूप महा-मन्त्री सर्वमते ।
उपाय़ सृजिल महा-विषय़ छाड़िते ॥६४६॥

प्रभुरे मिलिते पूरश्चरण करिल ।
प्रभुर सम्वाद-हेतु लोक निय़ोजिल ॥६४७॥

पूर्वे परिजने पाठाइला सावहिते ।
कत चन्द्र-द्वीपे कत फतेय़ावादेते ॥६४८॥

श्री-रूप वल्लभ-सह नौकाय़ चड़िय़ा ।
बहु धन लेय़ा गृहे गेला हर्ष हैय़ा ॥६४९॥

विप्र-वैष्णवादि सबे धन बाꣳटि दिल ।
प्रभु व्रजे गेलेन शुनिय़ा यात्रा कैल ॥६५०॥

वृन्दावन हैते प्रभु प्रय़ागे आइला ।
प्रय़ागे याइय़ा रूप वल्लभ शिलिला ॥६५१॥

परम आनन्दे कृपा करि गौरहरि ।
यत्ने वृन्दावने पाठाइला शीघ्र करि ॥६५२॥

सनातनेर भागवतालोचना—

सनातन राज-कार्य कले लोक-द्वारे ।
आपनि ना याय़ शास्त्र विचारय़े घरे ॥६५३॥

विश, त्रिश भट्टाचार्य पण्डिते लईय़ा ।
भागवत विचारय़े सभाते वसिय़ा ॥६५४॥

चैतन्य-चरितामृते ए सब वर्णिल ।
सनातन काशी गिय़ा प्रभुरे मिलिल ॥६५५॥

सनातने यैछे कृपा के वर्णिते पारे ।
याꣳर अङ्गमला छाड़ाय़ेन निज-करे ॥६५६॥

प्रभु-प्रिय़ कवि-कर्णपुर ग्रन्थ कैल ।
सनातने ये प्रसाद ताहा जानाइल ॥६५७॥

तथाहि—
गौड़ेन्द्रस्य सभाविभूषण-मणिस्त्यक्त्वा य ऋद्धाꣳ श्रिय़ꣳ
रूपस्याग्रज एक एव तरुणीꣳ वैराग्य-लक्ष्मीꣳ दधे ।
अन्तर्भक्ति-रसेन पूर्ण-सरसो बाह्यावधूताकृतिः
शैबालैः पिहितꣳ महासर इव प्रीति-प्रदस्तद्विदाम् इति ॥६५८॥

तꣳ सनातनम् उपागतम् अक्ष्नोर् दृष्ट-पूर्वम् अतिमात्रदय़ाद्रः ।
आलिलिङ्ग परिघाय़तदोर्भ्याꣳ सानूकम्पम् अथ चम्पक-गौरः ॥६५९॥

कालेन वृन्दावन-केलिवार्ता लुप्तेति ताꣳ ख्यापय़ितुꣳ विशिष्य ।
कृपामृतेनाभिषिषेच नाथस् तत्रैव रूपञ् च सनातनञ् च ॥६६०॥

सनातने प्रभुर अनुग्रह निरखिय़ा ।
काशीरासी भक्तेर हईल हर्ष हिय़ा ॥६६१॥

प्रभु-आज्ञामते व्रजे गेला सनातन ।
व्रज हैते आइला रूप ना हैल मिलन ॥६६२॥

एथा प्रभु नीलाचले आसि किछु दिने ।
रूप-सनातन लागि उत्कण्ठित मने ॥६६३॥

श्री-रूप वल्लभ-सह उल्लासित हिय़ा ।
नीलाचल चले शीघ्र गौड़देश दिय़ा ॥६६४॥

श्री-रूपेर अनुज वल्लभ विज्ञवर ।
‘अनुपम’—नाम थुइल श्री-गौरसुन्दर ॥६६५॥

रघुनाथ विना येꣳह अन्य नाहि जाने ।
सदा मत्त रघुनाथ विग्रह-सेवने ॥६६६॥

साक्षात् श्री-रघुनाथ चैतन्य गोसाञि ।
‘आपना’ मानय़े धन्य ऐछे प्रभु पाइ ॥६६७॥

कि बलिव बलभेर महिमा अशेष ।
श्री-रूप वल्लभे लैय़ा आइला गौड़देश ॥६६८॥

श्री-वल्लभ अप्रकट हैला गङ्गा-तीरे ।
नीलाचले गेला रूप किछुदिन परे ॥६६९॥

नीलाचले प्रभु-भक्त-गणेर दर्शने ।
ये आनन्द हईल, ता वर्णिबे कोन जने ॥६७०॥

सगण महाप्रभुर श्री-रूपे कृपा—

गण-सह श्री-चैतन्य अद्वैत निताइ ।
य़े कृपा करिल रूपे काहि साध्य नाइ ॥६७१॥

कतदिन रहि प्रभु भक्त-आज्ञामते ।
वृन्दावने चलिलेन गौड़देश-पथे ॥६७२॥

गौड़े ये आछिल अर्थ ताहा आनाइला ।
कुटुम्ब, ब्राह्मण, देवालय़े बाꣳटि दिला ॥६७३॥

निश्चिन्त हईय़ा व्रजे करिल गमन ।
चैतन्य-चरितामृत-ग्रन्थे ए लिखन ॥६७४॥

सनातनेर वृन्दावन हईते नीलाद्रि-गमन—

वृन्दावन हैते श्री-गोस्वामी सनातन ।
झारिखण्ड पथे कैला नीलाद्रि गमन ॥६७५॥

किछु दिने आसि नीलाचले प्रवेशिला ।
सनातने देखि प्रभु महाहर्ष हैला ॥६७६॥

कि अद्भुत स्नेहे सर्व-भक्त मिलाइल ।
किछुदिन राखि पुनः व्रजे पाठाइल ॥६७७॥

वृन्दावने सनातन श्री-रूपे मिलिला ।
चैतन्य-चरितामृते इहा विस्तारिला ॥६७८॥

ए दोꣳहार कृपालेश हय़ याꣳर प्रति ।
ताꣳर हय़ श्री-कृष्ण-चैतन्य-पदे रति ॥६७९॥

गोस्वामीर पुरोहित विप्रेर कुमार ।
वृन्दावने गेला कृपा हईल दोꣳहार ॥६८०॥

अर्थ-वाञ्छा छिल छाड़ि उल्लासित मने ।
शिष्य हईला सनातन गोस्वामीर स्थाने ॥६८१॥

अद्यापिह खाड़-ग्रामे ताꣳहार सनतान ।
प्रभु सनातन विना ना जानय़े आन ॥६८२॥

सनातन रूप करुणाय़ आर्द्र हैला ।
मथुरा-मण्डले लुप्त-तीर्थ व्यक्त कैला ॥६८३॥

श्री-जीव-चरित—

वृन्दावन हईते श्री-जीवेरे आकर्षिल ।
श्री-जीव गोस्वामी गौड़े उद्विग्न हईल ॥६८४॥

श्री-जीव गोस्वामी यैछे, गेला वृन्दावन ।
से अति आश्चर्य किछु करि निवेदन ॥६८५॥

ये हईते गोस्वामी गेलेन वृन्दावने ।
सेइ हैते श्री-जीवेर किबा हैल मने ॥६८६॥

नाना रत्न-भूषा परिधेय़ सूक्ष्म-वास ।
अपूर्व शय़न-शय्या भोजन-विलास ॥६८७॥

ए सब छाड़िल किछु नाहि भाय़ चिते ।
राज्यादि विषय़-वार्ता ना पारे शुनिते ॥६८८॥

श्री-जीवेर चेष्टा देखि शिष्ट लोकगणे ।
केह कारु प्रति कहे सस्नेह वचने ॥६८९॥

ओहे भाइ ! कुमार-देवेर पुत्र-गण ।
तार मध्ये वैष्णव-शास्त्र-ज्ञ तिनजन ॥६९०॥

सनातन, श्री-रूप, वल्लभ एइ तिन ।
सर्व-त्याग करिय़ा हईला उदासीन ॥६९१॥

क्ति अद्भुत वैराग्य ममतामात्र नाइ ।
ऐछे निरपेक्ष ना देखिय़े कोन ठाꣳइ ॥६९२॥

गङ्गा-तीरे वल्लभेर हैल परलोक ।
अल्पकाले श्री-जीव पाइला महा-शोक ॥६९३॥

श्री-जीवेर एहेन ऐश्वर्ये नाइ मन ।
कहिते विदरे हिया हैल येमन ॥६९४॥

एकदिन ताꣳरे मुञि देखिनु विरले ।
निरन्तर भासे दुइ नय़नेर जले ॥६९५॥

केह कहे—हे भाइ ! एइ सत्य हय़ ।
जानिह श्री-जीवे कृष्ण-कृपा सुनिस्चय़ ॥६९६॥

अल्प वय़से अति गम्भीर अन्तर ।
श्रीमद् भागवते जाने प्राणेर सोसर ॥६९७॥

सदा कृष्ण-कथा-सुख-समूद्रे साꣳतारे ।
अन्य-कथा केह भय़े कहिते ना पारे ॥६९८॥

एकदिन देखिल हईय़ा अलक्षित ।
श्री-कृष्ण-चैतन्य बलि हईला मूर्छित ॥६९९॥

धरणी लोटाय़, धैर्य धरण ना याय़ ।
मुख, वक्ष भासे दुइ नेत्रेर धाराय़ ॥७००॥

करय़े कतेक खेद काꣳदिय़ा काꣳदिय़ा ।
देखिते से दशा कार ना विदरे हिय़ा ॥७०१॥

केह कहे—‘अहे भाइ ! विचारिनु मने ।
श्री-जीव छाड़िबे घर अत्ति अल्प दिने ॥७०२॥

केह कहे—‘केछे ए भ्रमिर सुकुमार’ ।
केह कहे—‘अनुराग प्रबल इहार’ ॥७०३॥

केह कहे—‘विश्रकुल-प्रदीप ए हय़’ ।
एइ गेले हबे सब अन्धकार-मय़ ॥७०४॥

ऐछे कत कहे सबे व्याकुल अन्तरे ।
श्री-जीवे छाड़िय़ा केह नाहि याय़ घरे ॥७०५॥

निरन्तर श्री-जीवेर एइ चिन्ता मने ।
घर हैते बाहिर हईब कतक्षणे ॥७०६॥

एकदिन एकाकी वसिय़ा सन्ध्याकाले ।
श्री-नाम-कीर्तने सिक्त हय़ नेत्रजले ॥७०७॥

करय़े यतन धैर्य धरिते ना पारे ।
दुइ बाहु ऊर्ध्वे तुलि कहे वारे वारे ॥७०८॥

अहे प्रभु श्री-कृष्ण-चैतन्य नित्यानन्द ।
अहे करुणा-सिन्धु श्री-अद्वैत-चन्द्र ॥७०९॥

अहे कृपा-मय़ प्रभुर श्री-प्रिय़-गण ।
मो-हेन पतिते कर कृपार भाजन ॥७१०॥

ऐछे कत कहे कण्ठ-रुद्ध क्षणे क्षणे ।
निशि शेष हैल निद्रा लाहिक नय़ने ॥७११॥

श्री-भक्त-वत्सल प्रभु, प्रभुर इच्छाय़ ।
श्री-जीव देखय़े स्वप्न किञ्चित् निद्राय़ ॥७१२॥

रामकेलि-ग्रामे यैछे, देखिल स्वपने ।
सेइरूप देखे गौरचन्द्र गण-सने ॥७१३॥

सङ्कीर्तन-मध्ये नृत्य करे गौरराय़ ।
ब्रह्मार दूर्लभ प्रेमे जगत् माताय़ ॥७१४॥

लक्ष लक्ष लोक धाइय़ा आइसे चारिपाशे ।
हरि-हरि-ध्वनि हय़ ए भूमि आकाशे ॥७१५॥

ऐछे देखा दिय़ा प्रभु हैला अन्तर्धान ।
स्वप्न-भङ्गे जीवेर व्याकुल हैल प्राण ॥७१६॥

पुनः श्री-जीवेर निद्रा कैल आकर्षण ।
श्री-जीव देखय़े किबा अपूर्व स्वपन ॥७१७॥

कहिब से स्वप्न पूर्व कहिब किञ्चित् ।
परम अद्भुत एइ श्री-जीव-चरित ॥७१८॥

श्री-जीव बालक-काले बालकेर सने ।
श्री-कृष्णे सम्बन्ध विना खेला नाहि जाने ॥७१९॥

कृष्ण-बलराम-मूर्ति निर्माण करिय़ा ।
करितेन पूजा पुष्प-चन्दनादि दिय़ा ॥७२०॥

विविध भूषण वस्त्रे शोभा अतिशय़ ।
अनिमेष-नेत्रे देखि उल्लास-हृदय़ ॥७२१॥

कनक-पुतलि-प्राय़ पड़ि क्षितितले ।
करिते प्रणाम सिक्त हैला नेत्रजले ॥७२२॥

विविध मिष्टान्न अति यत्ने भोग दिय़ा ।
भुञ्जितेन प्रसाद बालक-गणे लईय़ा ॥७२३॥

कृष्ण-बलराम विना किछुइ ना भाय़ ।
एकाकीओ दोꣳहे लईय़ा निर्जने खेलाय़ ॥७२४॥

शय़न समय़े दोꣳहे राखय़े वक्षेते ।
माता पिता कौतुकेओ ना पारे लईते ॥७२५॥

कृष्ण-बलराम प्रति अतिशय़ प्रीत ।
देखिय़ा बालक-चेष्टा सबे उल्लासित ॥७२६॥

चैतन्य निताइ ताꣳर बाल्यकाल हैते ।
यैछे प्रेमाधीन व्यक्त करय़े स्वप्नेते ॥७२७॥

हईला प्रत्यक्ष प्रभु कृष्ण-बलराम ।
श्याम-शुक्ल रूप दोꣳहे आनन्देर धाम ॥७२८॥

दोꣳहार अद्भुत वेश कन्दर्प-मोहन ।
अङ्गेर भङ्गीते मत्त करे त्रिभुवन ॥७२९॥

ऐछे, दोꣳहे देखि पुनः देखे गौर-वर्ण ।
झलमल करय़े जिनिय़ा शुद्ध स्वर्ण ॥७३०॥

दुꣳहु-अङ्ग-सौरभे व्यापिल त्रिभुवन ।
आहे धैर्य धरे ऐछे नाहि कोन जन ॥७३१॥

श्री-जीवेर मने महा हैल चमत्कार ।
अनिमिष-नेत्रे शोभा देखय़े दोꣳहार ॥७३२॥

भासय़े दीघल दुटि नय़नेर जले ।
लुटाइय़ा पड़े दुइ प्रभु-पदतले ॥७३३॥

करुणा-समुद्र गौर-नित्यानन्द राय़ ।
पाद-पद्म दिलेन जीवेर माथाय़ ॥७३४॥

परम वात्सलो पुनः करे आलिङ्गन ।
कहिल अमृत-मय़ प्रबोध-वचन ॥७३५॥

श्री-गौरसुन्दर महा-प्रेमाविष्ट हैय़ा ।
प्रभु नित्यानन्द-पदे दिल समर्पिय़ा ॥७३६॥

नित्यानन्द श्री-जीवे कहय़े वार वार ।
एइ मोर प्रभु होक सर्वस्व तोमार ॥७३७॥

ऐछे प्रभु-अनुग्रहे पुनः प्रणमिते ।
दोꣳहे अदर्शन देखि नारे स्थिर हैते ॥७३८॥

निद्राभङ्ग हैते देखे निशि पोहाइल ।
अध्यय़न-छले नवद्वीपे यात्रा कैल ॥७३९॥

नवद्वीप-वासी लोक विचारिल मने ।
अवश्य श्री-जीव याइबेन वृन्दावने ॥७४०॥

श्री-जीव सङ्गेर लोके विदाय़ करिय़ा ।
फतेय़ा हैते चले एक वृत्य लैय़ा ॥७४१॥

प्रेमाविष्ट हैय़ा पथे कि अद्भुत गति ।
श्री-जीवे देखिय़ा केह कहे कारो प्रति ॥७४२॥

देख देख एइ कोन् राजार कुमार ।
कनक-चम्पक-वर्ण तनु मनोहर ॥७४३॥

कि अपूर्व वदन-माधुरी प्राण हरे ।
किबा दीर्घ-नय़न, नासिका शोभा करे ॥७४४॥

किबा भुरु, ललाट, श्रवण, चारु केश ।
किबा गण्ड, ग्रीवा, कि अद्भुत वक्षः-देश ॥७४५॥

किबा हस्त-पद्म-नखावली विलसय़ ।
किबा क्षीण मध्य जङ्घ, जानु, पद-द्वय़ ॥७४६॥

अपूर्व तुलसी-माला कण्ठे सूकोमले ।
किबा शुभ्र सूक्ष्म चारु यज्ञ-सूत्र गले ॥७४७॥

अहे भाइ ! इहार बालाइ लैय़ा मरि ।
मने हय़ निरन्तर राखि नेत्र भरि ॥७४८॥

केह कहे—‘भाइ सब ! इहारे देखिय़ा ।
ना जानिय़े आमार केमन करे हिय़ा’ ॥७४९॥

केह कहे—‘अहे ! ऐछे हय़ मोर मन ।
करिब अवश्य इहꣳ सन्न्यास ग्रहण’ ॥७५०॥

एइरूप कहे कत व्याकुल हिय़ाय़ ।
श्री-जीव परम-प्रेमावेशे चलि याय़ ॥७५१॥

नवद्वीप प्रवेशिते एइ ध्वनि इहैल ।
सनातन-श्री-रूपेर भ्रातुष्पुत्र आइल ॥७५२॥

श्री-जीवेर चेष्टा देखि ब्राह्मण-पण्डित ।
किबा जिज्ञासिल सबे हईला विस्मित ॥७५३॥

श्री-जीव नवद्वीप-मध्ये प्रवेशिल ।
देखि नवद्वीप-शोभा विस्मय़ हईल ॥७५४॥

षोलक्रोश नवद्वीप वसति सुन्दर ।
स्थाने स्थाने व्यापी, पुष्पवाटी, सरोवर ॥७५५॥

सुरधुनी-तीर, वन, पुलिन देखिय़ा ।
के आछे एमन यार ना जुड़ाय़ हिय़ा ॥७५६॥

श्री-जीव विह्वल हैय़ा करय़े गमन ।
सेइ पथे आइलसे वैष्णव कत जन ॥७५७॥

श्री-जीवे देखिय़ा सबे मनेर उल्लासे ।
शीघ्र गेला श्री-पण्डित श्री-वास-आवासे ॥७५८॥

नित्यानन्द-प्रभु तथा प्रिय़-गण-सङ्गे ।
वसिय़ा आछेन महा-प्रेमानन्द-रङ्गे ॥७५९॥

श्री-वास-पण्डिते प्रभु हासिय़ा कहय़ ।
श्री-जीव आसिबे मोर मने हेन लय़ ॥७६०॥

प्रभु-आगे से वैष्णव कहे धीरे धीरे ।
श्री-जीव आइला प्रभु भवन-बाहिरे ॥७६१॥

शुनि नित्यानन्द-प्रभु आनन्दित हैला ।
श्री-जीवेरे शीघ्र लोक-द्वारे आनाइला ॥७६२॥

श्री-जीव अधैर्य हैला प्रभुर दर्शने ।
निवारिते नारे अश्रुधारा दुनय़ने ॥७६३॥

करय़े यतेक दैन्य कहने ना याय़ ।
लोटाइय़ा पड़े प्रभु नित्यानन्द-पाय़ ॥७६४॥

नित्यानन्द प्रभु महा-वात्सल्यो विह्वल ।
धरिल श्री-जीव-माथे चरण-युगल ॥७६५॥

श्री-जीवेरे अनुग्रह-सीमा प्रकाशिला ।
भूमि हैते तुलि दृढ़ आलिङ्गन कैला ॥७६६॥

प्रभु प्रेमावेशे कहे—‘तोमार निमित्ते ।
आइलाम शीघ्र एथा खड़दह हैते’ ॥७६७॥

ऐछे कत कहि श्री-जीवेरे स्थिर कैला ।
श्री-वासादि भक्त अनुग्रह कराइला ॥७६८॥

निकटे राखिय़ा अति आनन्द-हिय़ाय़ ।
श्री-जीवे पश्चिम-देशे करय़े विदाय़ ॥७६९॥

विदाय़ेर काले महा-व्याकुल हईला ।
श्री-जीव नित्यानन्द-पदे प्रणमिला ॥७७०॥

श्री-जीव मस्तके प्रभु अर्पिय़ा चरण ।
करिय़ा यतेक स्नेह कैल आलिङ्गन ॥७७१॥

प्रभु कहे—शीघ्र व्रजे करह प्रय़ाण ।
तोमार वꣳशे प्रभु दिय़ाछेन सेइ स्थान ॥७७२॥

श्री-जीव करिला यात्रा प्रभु-आज्ञा पाञा ।
सर्व-भक्त-गणेर श्री-चरण बन्दिय़ा ॥७७३॥

श्री-वास-पण्डित आदि भागवत-गण ।
श्री-जीवे ये स्नेह कैल ना हय़ वर्णन ॥७७४॥

नवद्वीप हईते परमानन्द-मने ।
श्री-जीव गोस्वामी काशी गेला कतदिने ॥७७५॥

ताहा रहे श्री-मधुसूदन-वाचस्पति ।
सर्व-शास्त्रे अध्यापक येन बृहस्पति ॥७७६॥

तेꣳह श्री-जीवेरे देखि अति स्नेह कैला ।
कतदिने राखि वेदास्तादि पड़ाइला ॥७७७॥

श्री-जीवेर विद्याबल देखि वाचस्पति ।
ये आनन्द हैल ताहा कहि कि शकति ॥७७८॥

काशीते श्री-जीवेरे प्रशꣳसे सर्व ठाꣳइ ।
न्याय़-वेदास्तादि शास्त्रे ऐछे केह नाइ ॥७७९॥

काशी हैते श्री-जीव गेलेन वृन्दावन ।
तथा अनुग्रह कैला रूप-सनातन ॥७८०॥

सनातन, रूप, श्री-वल्लभ तिन भाइ ।
एइ तिनेर चरित्र वर्णिते अन्त नाइ ॥७८१॥

रघुनाथ दास—

रघुनाथ दास श्री-पुरुषोत्तम हैते ।
वृन्दावन गेला यैछे ना पारि कहिते ॥७८२॥

सनातन, रूप, रघुनाथ एइ तिने ।
रघुनाथ-चेष्टादिक विदित भुवने ॥७८३॥

तथाहि श्री-लघु-तोषण्याम्—
आदिः श्रील-सनातनस् तद् अनुजः श्री-रूप-नामा ततः
श्रीमद् वल्लभ-नामधेय़बलितो निर्वेद्य ये राज्यतः ।
आसाद्यातिकृपाꣳ ततो भगवतः श्री-कृष्ण-चैतन्यतः
साम्राजाꣳ खलु भेजिरे मुरहरप्रेमाख्य-भक्ति-श्रिय़े ॥७८४॥

यः सर्वावरजः पिता मम स तु श्री-राममासेदिवान्
गङ्गाय़ाꣳ द्रुतम् अग्रजौ पुनरमू वृन्दावनꣳ सङ्गतौ ।
याभ्याꣳ माथुर-गुप्त-तीर्थ-निवहो व्यक्तीकृतो भक्तिर
प्युच्चैः श्री-व्रज-राज-नन्दनगता सर्वत्र सम्वर्धिता ॥७८५॥

यन् मित्रꣳ रघुनाथ-दास इति विख्यातः क्षितौ राधिका-
कृष्ण-प्रेम-महार्णवोर्मिनिवहे घूर्णन् सदा दीव्यति ।
दृष्टान्त-प्रकर-प्रभाभरम् अतीत्यैवानयोर्भ्राजतोस्
तल्यस् तत्त्व-पदꣳ मतस् त्रिभुवने साश्चर्यमार्योत्तमैः ॥७८६॥

श्री-रूप-सनातनेर चरित्र—

सनातन-रूप विलसय़े वृन्दावने ।
दुꣳहु मनोवृत्टि कृष्ण विना केबा जाने ॥७८७॥

सनातन-रूप महा-अनुग्रह कैला ।
गोपाल बालक-छले साक्षात् हईला ॥७८८॥

दिलेन अपूर्व क्षीर कहिते कि आर ।
सनातन-रूपेर सुखेर नाहि पार ॥७८९॥

हेन सनातन रूप प्रभुर आज्ञाते ।
वर्णिल यतेक ताहा व्यापिल जगते ॥७९०॥

श्री-रूप श्री-हꣳसदूत आदि ग्रन्थ कैला ।
सनातन भागवतामृतादि वर्णिला ॥७९१॥

श्री-वैष्णव-तोषणी करिय़ा सनातन ।
स्री-जीवेरे आज्ञा दिला करिते शोधन ॥७९२॥

आज्ञा पाञा जीव लघु-तोषणी करिला ।
यैछे करिलेन ताहा तथाइ लिखिला ॥७९३॥

चौद्दशत सप्त छय़े सम्पूर्ण बृहत् ।
पनरशत चारि शके लघु समाप्त ॥७९४॥

तथाहि तत्रैव—
गोपाल-बालकव्याजादघय़ोः साक्षाद् बभूव ह ।
साक्षाच् छ्रीयुत-गोपालः क्षीराहरण-लीलय़ा ॥७९५॥

श्री-रूप-कृत ग्रन्थ-समूह—

तय़ोर् अनुज-सृष्टेषु काव्यꣳ श्री-हꣳसदूतकम् ।
श्रीमद् उद्धव-सन्देशश् छन्दो’ष्टादशकꣳ तथा ॥७९६॥

स्तवस्योत्कलिकावल्ली गोविन्द-विरुदावली ।
प्रेमेन्दु-सागराद्याश् च बहवः सुप्रतिष्ठिताः ॥७९७॥

विदग्ध-ललिताग्राख्य-माध्वꣳ नाटक-द्वय़म् ।
भाणिका-दानकेलाख्या रसामृत-युगꣳ पुनः ॥७९८॥

मथुरा-महिमा पद्यावली नाटक-चन्द्रिका ।
सꣳक्षिप्त-श्री-भागवतामृतमेते च सꣳग्रहाः ॥७९९॥

श्री-सनातन कृत ग्रन्थ-समूह—

तथाग्रज-कृष्णेग्र्यꣳ श्रील-भागवतामृतम् ।
हरि-भक्ति-विलासश् च तट्टीका दिक्प्रदर्शिनी ॥८००॥

लीलास्तवट् टिप्पनी च सेय़ꣳ वैष्णव-तोषणी ।
या सꣳक्षिप्ता मय़ा क्षुद्र-जीवेनापि तदाज्ञय़ा ॥८०१॥

अबुद्ध्या बुद्ध्या बा यद् इह मय़कालेखि सहसा ।
तथा यद्वाच्छेदि द्वय़म् अपि सहेरन् परमामी ।
अहो किम्वा यद्यन् मनसि मम विस्फोरित-
मभुदमीभिस्तन् मात्रꣳ यदि बलमलꣳ शङ्कित-कुलैः ॥८०२॥

शके षट्सप्ततिमनौ पूर्णेय़ꣳ टिप्पनी शुभा ।
सꣳक्षिप्ता युग-शून्याग्र-पञ्चैक-गणिते तथा ॥८०३॥

एइत कहिल गोस्वामीर ग्रन्थ-गण ।
पुनः विवरिय़ा कहि करह श्रवण ॥८०४॥

श्री-जीवेर शिष्य कृष्णदास-आधिकारी ।
तिꣳह निज-ग्रन्थे इहा कहिल विस्तारि ॥८०५॥

श्री-सनातनेर ग्रन्थ-चतुष्टय़े—

सनातन गोस्वामीर ग्रन्थ-चतुष्टय़ ।
टीका-सह भागवतामृत-खण्ड-द्वय़ ॥८०६॥

हरि-भक्ति-विलास-टीका दिक्प्रदर्शिनी ।
वैष्णव-तोषणी नाम दशम-टिप्पनी ॥८०७॥

लीला-स्तव दशम-चरित याहे कय़ ।
सनातन गोस्वामीर एइ चतुष्टय़ ॥८०८॥

तथाहि—
तय़ोर् ज्येष्ठस्य कृतिषु श्री-सनातन-नामिनः ।
सिद्धान्त-ग्रन्थ-सन्दोहाल् लेखो लेखो विधीय़ते ॥८०९॥

प्रथमादि-द्वय़ꣳ खण्ड-युग्मꣳ भागवतामृतम् ।
हरि-भक्ति-विलासश् च तट्-टीका दिक्प्रदर्शिनी ।
लीला-स्तव-टिप्पनी च नाम्ना वैष्णव-तोषणी ॥८१०॥

श्री-रूपेर षोड़श ग्रन्थ—

श्री-रूप गोस्वामी ग्रन्थ षोड़श करिल ।
लीला-सह सिद्धान्तेर सीमा प्रकाशिल ॥८११॥

काव्य हꣳसदूत आर उद्धव-सन्देश ।
कृष्ण-जन्म-तिथि-विधि विधान अशेष ॥८१२॥

गणोद्देश-दीपिका बृहत्-लघु-द्वय़ ।
स्तव-माला विदग्ध-माधव-रस-मय़ ॥८१३॥

ललित-माधव विप्र-लद्भेर अवधि ।
दान-लीला-कौमुदी आनन्द-महोदधि ॥८१४॥

दानकेलि-कौमुदी विदित एइ नाम ।
भक्ति-रसामृत-सिन्धु एइ अनुपम ॥८१५॥

श्री-उज्ज्वल-नीलमणि-ग्रन्थ रस-पुर ।
प्रयुक्ताख्यात-चन्द्रिका-ग्रन्थ सुमधुर ॥८१६॥

मधुरा-महिमा पद्यावली ए विदित ।
नाटक-चन्द्रिका लघु-भागवतामृत ॥८१७॥

वैष्णव-इच्छाय़ एकादश श्लोक कैल ।
कृष्णदास कविराजे विस्तारिते दिल ॥८१८॥

अष्टकाल-लीला ताते अति रसाय़न ।
भाग्यवन्त जन से करय़े आस्वादन ॥८१९॥

सꣳक्षेपे करिल आर विरुद् लक्षण ।
ग्रन्थेर गण-नामध्ये ना कैल गणन ॥८२०॥

गोविन्द-विरुदावली लक्षण ताहार ।
दोꣳहे एक ए हेतु लक्षणे ए प्रचार ॥८२१॥

तथाहि—श्री-रूप-कृत षोड़श-ग्रन्थ—

तय़ोर् अनुज-सृष्टेषु काव्यꣳ श्री-हꣳसदूतकम् ।
श्रीमद् उद्धव-सन्देशः कृष्ण-जन्म-तिथेर् विधिः ॥८२२॥

बृहल् लघुतय़ा ख्याता श्री-गणोद्देश-दीपिका ।
श्री-कृष्णस्य प्रिय़ाणाञ् च स्तव-माला मनोहरा ॥८२३॥

विदग्ध-माधवः ख्यातस् तथा ललित-माधवः ।
दान-लीला-कौमुदी च तथा भक्ति-रसामृतम् ॥८२४॥

उज्ज्वलाख्यो नीलमणिः प्रयुक्ताख्यात-चन्द्रिका ।
मथुरा-महिमा पद्यावली नाटक-चन्द्रिका ॥८२५॥

सꣳक्षिप्त-श्री-भागवतामृतमेते च सꣳग्रहाः
गोपाल-बाल-कव्याजादयय़ोः साक्षाद् बभुव ह ।
नन्दात्मजः स गोपालः क्षीराहरण-लीलय़ा ॥८२६॥

एइ त मध्यम गोस्वामीर ग्रन्थ-गण ।
तार मध्ये कहि स्तव-माला-विवरण ॥८२७॥

पृथक् पृथक् स्तव गोस्वामी वर्णिल ।
श्री-जीव-सꣳग्रहे स्तव-माला नाम हैल ॥८२८॥

तथाहि तत्कृत-पद्यम्—
श्रीमद् ईश्वर-रूपेण रसामृत-कृता कृता ।
स्तव-मालानुजीवेन जीवेन समगृह्यत ॥८२९॥

श्री-दास-गोस्वामि-रचित ग्रन्थ-त्रय़—

रघुनाथ दास-गोस्वामीर ग्रन्थ-त्रय़ ।
स्तव-माला नाम स्तवावली यारे कय़ ॥८३०॥

श्री-नाम-चरित, मुक्ता-चरित मधुर ।
याहार श्रवणे महा-दुःख हय़ दूर ॥८३१॥

तथाहि—
रघुनाथाभिधेय़स्य तय़ोमित्रत्वमीय़ुषः ।
स्तव-माला दान-मुक्ता-चरितꣳ कृतिषु दितम् ॥८३२॥

श्री-जीव-रचित पञ्च-विꣳशति-ग्रन्थ—

श्री-जीवेर ग्रन्थ पञ्च-विꣳशति विदित ।
हरि-नामामृत-व्याकरण दिव्य रीत ॥८३३॥

सूत्र-मालिका धातु-सꣳग्रह सुप्रकार ।
कृष्णार्चन-दीपिका-ग्रन्थ अति चमत्कार ॥८३४॥

गोपाल-विरुदावली रसामृत-शेष ।
श्री-माधव-महोत्सव सर्वाꣳशे विशेष ॥८३५॥

श्री-सङ्कल्प-कल्पवृक्ष-ग्रन्थ ए प्रचार ।
भावार्थ-सूचक-चम्पू अति चमत्कार ॥८३६॥

गोपाल-तापनी-टीका ब्रह्म-सꣳहितार ।
रसामृत-टीका श्री-उज्ज्वल-टीका आर ॥८३७॥

योगासार-स्तवेर टीकाते सुसङ्गति ।
अग्नि-पुराणस्थ श्री-गाय़त्री-भाष्य तथि ॥८३८॥

पद्म-पुराणोक्त श्री-कृष्णेर पद-चिह्न ।
श्री-राधिका-कर-पदस्थित चिह्न भिन्न ॥८३९॥

गोपाल-चम्पू पूर्व उत्तर विभागेते ।
वर्णिलेन कि अद्भुत विदित जगते ॥८४०॥

सप्त सन्दर्भ विख्यात भागवत-रीति ।
तत्त्व भगवत्-परमात्म-कृष्ण-भक्ति-प्रीति ॥८४१॥

एइ छय़ क्रम-सन्दर्भ सप्त हय़ ।
प्रय़ोजनाभिधेय़-सम्बन्ध इथे त्रय़ ॥८४२॥

श्री-जीव-गोस्वामि कृत-पञ्च-विꣳशति-ग्रन्थ—

तथाहि—
श्रीमद् वल्लभ-पुत्र श्री-जीवस्य कृतिषूद्यते ।
शब्दानुशासनꣳ नान्ना हरि-नामामृतꣳ तथा ॥८४३॥

तत्सूत्र-मालिका तत्र प्रयुक्तो धातु-सꣳग्रहः ।
कृष्णार्चा-दीपिका सूक्ष्मा गोपाल-विरुदावली ॥८४४॥

रसामृतश् च शेषश् च श्री-माधव-महोत्सवः ।
सङ्कल्प कल्पवृक्षो यश् चम्पूर् भावार्थ-सूचकः ॥८४५॥

टीका गोपाल-तापन्याः सꣳहिताय़ाश् च ब्रह्मणः ।
रसामृतस्योज्ज्वलस्य योगसार-स्तवस्य च ॥८४६॥

तथा चाग्नि-पुराणस्थ-गाय़त्री-विवृतिर् अपि ।
श्री-कृष्ण-पद-चिह्नानाꣳ पाद्मोक्तानामथापि च ॥८४७॥

लक्ष्मी-विशेष-रूपा या श्रीमद् वृन्दावनेश्वरी ।
तस्याः कर-पदस्थानाꣳ चिह्ननाञ् च समाहृतिः ॥८४८॥

पुर्वोत्तरतय़ा चम्पू-द्वय़ी या च त्रय़ी त्रय़ी ।
सन्दर्भाः सप्त विख्याताः श्रीमद् भागवतस्य वै ॥८४९॥

तत्त्वाख्यो भगवत् सꣳज्ञः परमात्माख्य एव च ।
कृष्ण-भक्ति-प्रीति-सꣳज्ञाः क्रमाख्यः सप्तमः स्मृतः ॥८५०॥

सम्बन्धश् च विधेय़श् च प्रय़ोजनम् इति त्रय़म् ।
हस्तामलकवदेयषु सद्भिराद्यैः प्रकाशितम् । इत्यादय़ः ॥८५१॥

एइत कहिल चारि गोस्वामीर वर्णन ।
ऐछे बहु वर्णिला असꣳख्य भक्त-गण ॥८५२॥

एसब ग्रन्थेर मर्म से बुझिते पारे ।
श्री-भक्ति-देवीर अनुग्रह हैल यारे ॥८५३॥

वेद-पुराणेते गाय़ भक्तिर बड़ाइ ।
भक्ति-बले भक्तेर असाध्य किछु नाइ ॥८५४॥

भक्तिर महिमा वेद पुराणे बाखाने ।
भक्तिर महिमा से जानय़े भक्त-जने ॥८५५॥

अहे बन्धु-गण मुञि एइ भिक्षा चाङ ।
सदा भक्ति-भक्तेर महिमा येन गाङ ॥८५६॥

भक्त-भक्ति-द्वेषी महा पाषण्डीर गण ।
एसबार स्पर्श येन ना हय़ कखन ॥८५७॥

जय़ वाञ्छा-कल्पतरु गौर-भक्त-गण ।
कृपा कर श्रीनिवास-पदे रहुꣳ मन ॥८५८॥

श्रीनिवासाचार्य चरित्र—

श्रीनिवासाचार्य ठाकुर गुण-मणि ।
याꣳर भक्ति-दाने धन्य मानय़े धरणी ॥८५९॥

गौड़-नीलाचल वृन्दावने श्रीनिवास ।
आपनार मनोवृत्ति करिला प्रकाश ॥८६०॥

यदि मोर भाग्य थाके हईबे विस्तार ।
एबे सूत्र-रूपे कहि जन्मादिक ताꣳर ॥८६१॥

श्री-चाखन्दि-नामे ग्राम सुरधुनीर तीरे ।
तथाहि जन्मिला विप्र-चैतन्येर घरे ॥८६२॥

श्री-चूड़ाकरण आदि तथाइ हईल ।
अल्पे व्याकरण आदि अध्यय़न कैल ॥८६३॥

श्री-चैतन्यचन्द्र-गुण शुनि प्रेमावेशे ।
श्री-खण्ड हईय़ा क्षेत्रे चलय़े उल्लासे ॥८६४॥

नीलाचले श्री-चैतन्यचन्द्र-गण सने ।
करिब दर्शन एइ अभिलाष मने ॥८६५॥

कतदूरे शुनि चैतन्य-सङ्गोपन ।
ऐछे हईल देहे येन ना रहे जीवन ॥८६६॥

श्री-भक्त-वत्सल प्रभु भक्त-प्राण-नाथ ।
अति शीघ्र स्वप्नच्छले हईला साक्षात् ॥८६७॥

करिल प्रबोध से प्रभुर आज्ञा पाञा ।
देखे प्रभु-प्रिय़-गणे नीलाचले याञा ॥८६८॥

तथा प्रभु-पार्षद परम कृपा कैला ।
ताꣳसबार आज्ञामते गौड़देशे आइला ॥८६९॥

सतत व्याकुल हिय़ा नारे प्रबोधिते ।
पुनः नीलाचल चले श्री-खण्ड हईते ॥८७०॥

पण्डित-गोस्वामीर अप्रकट-वार्ताश्रवण—

याजपुर आगे गिय़ा करिल श्रवण ।
गदाधर पण्डित गोस्वामि-सङ्गोपन ॥८७१॥

मूर्च्छित हञा भूमे पड़ि गड़ि याय़ ।
करय़े क्रन्दन शुनि पाषाण मिलाय़ ॥८७२॥

स्वप्नच्छले पण्डित गोसाञि प्रबोधिला ।
तथा हईते पुनः गौड़देशेते चलिला ॥८७३॥

क्षिप्तप्राय़ येखाने सेखाने वसि राय़ ।
मनेर उद्वेग कारे किछुइ ना कय़ ॥८७४॥

एकदिन गौड़-पथे करिते गमन ।
शुनलेन नित्यानन्दाद्वैत-सङ्गोपन ॥८७५॥

हईलेन यैछे ताहा के पारे कहिते ।
त्यजिव जीवन एइ दर्ह्̤‌आइल चिते ॥८७६॥

स्वप्नच्छले दुइ प्रभु दिय़ा दरशन ।
प्रबोधिल स्नेह कहि मधुर वचन ॥८७७॥

प्रभाते उठिय़ा गौड़े गमन करिला ।
नवद्वीप आदि यत सर्वत्र भ्रमिला ॥८७८॥

श्री-खण्ड हईय़ा शीघ्र वृन्दावन गेला ।
श्री-गोपाल-भट्ट-पदे आत्म-समर्पिला ॥८७९॥

नरोत्तम-सङ्गे तथा हईल मिलन ।
गोस्वामि-गणेर ग्रन्थ कैल अध्यय़न ॥८८०॥

से-सकल ग्रन्थ-रत्न प्रदान करिते ।
आइलेन गौड़े सब गोस्वामि-आज्ञाते ॥८८१॥

वन-विष्णुपुरे राजा ग्रन्थ चुरि कैल ।
ग्रन्थ दिय़ा पाद-पद्मे आत्म-समर्पिल ॥८८२॥

श्री-सरकार ठाकुर विवाह कराइला ।
किछुदिन परे पुनः वृन्दावने गेला ॥८८३॥

पुनः वृन्दावन हैते आइला गौड़देश ।
नरोत्तम सह सुख बाड़िल अशेष ॥८८४॥

प्रभु वीरचन्द्र महा अनुकूल कैला ।
दिवा निशि सङ्कीर्तन-रसे मग्न हैला ॥८८५॥

भक्ति-ग्रन्थ-रत्न दान करिला सर्वत्र ।
पाषण्ड पामर यत हैला पवित्र ॥८८६॥

करिला यतेक शिष्य से-सब सहिते ।
हईला उल्लास भक्ति-रस आस्वादिते ॥८८७॥

गौड़देशे अशेष आनन्द प्रकाशिला ।
पुनः कतदिन परे वृन्दावने गेला ॥८८८॥

गौड़ वृन्दावन-भूमि गमनागमन ।
एसब श्रवणे हय़ वाञ्छित पूरण ॥८८९॥

कहिलाम सूत्र किछु हईबे विस्तार ।
कृपा करि श्रोतागण ! कर अङ्गीकार ॥८९०॥

मुञि अति अज्ञ काव्य-कौशल ना जानि ।
येन तेन मते भक्त-चरित्र बाखानि ॥८९१॥

कुतर्कि-तस्कर-गणे परिहरि दूरे ।
निरन्तर डुब एइ भक्ति-रत्नाकरे ॥८९२॥

श्रीनिवास आचार्या-चरण चिन्ता करि ।
भक्ति-रत्नाकर कहे दास नरहरि ॥८९३॥

इति श्री-भक्ति-रत्नाकरे मङ्गलाचरणे नाना-प्रसङ्गानुकथने
श्रीनिवासाचार्य-जन्मासिसूत्र-वर्णनꣳ नाम
प्रथमस् तरङ्गः समाप्तः ॥१॥