प्रेम-विवर्त
राधा कृष्ण-प्रणय-विकृतिर् ह्लादिनी शक्तिर् अस्माद्
एकात्मानाव् अपि भुवि पुरा देह-भेदं गतौ तौ
चैतन्याख्यं प्रकंअम् अधुना तद्-द्वयं चैक्यम् आप्तं
राधा-भाव-द्युति-सुवलितं नौमि कृष्ण-स्वरूपम्
–ओ)०(ओ–
श्री-राधा-कृष्ण-तत्त्व
*अखण्ड अद्वय ज्ञान सर्व तत्त्व सार ।*
*सेइ तत्त्वे दण्ड परणाम बार बार ॥१॥*
*सेइ तत्त्व कभु दुइ राधा कृष्ण रूपे ।*
*कभु एक परात्पर चैतन्य स्वरूपे ॥२॥*
*तत्त्व वस्तु एक सदा अद्वितीय भाय ।*
*वस्तु वस्तु शक्ति माझे किछु भेद नाइ ॥३॥*
*भेद नाइ बटे किन्तु सदा भेद ताय ।*
*भेदाभेद अविचिन्त्य सर्व वेदे गाय ॥४॥*
*वस्तु शक्ति चित् स्वरूप भावेते सन्धिनी ।*
*क्रियाते ह्लादिनी ताइ त्रिभाव धारिणी ॥५॥*
*वस्तु शक्ति द्वारे वस्तु देय परिचय ।*
*वस्तु शक्ति क्रिया योगे सर्व सिद्ध हय ॥६॥*
*अखण्ड वस्तुते भाव क्रिया नित्य हय ।*
*शक्ति शक्तिमान् वस्तु तबु पृथक् नय ॥७॥*
*ह्लादिनी वस्तुके दिया दुइटी स्वरूप ।*
*व्रजे राधा कृष्ण लीला कराय अपरूप ॥८॥*
*राधा कृष्ण प्रणयेर विकृति ह्लादिनी ।*
*अविचिन्त्य शक्ति राधा कृष्ण उन्मादिनी ॥९॥*
*अघटन घटाइते धरे महा शक्ति ।*
*निर्विकारे करियाछे विकार अनुरक्ति ॥१०॥*
तत्त्व वस्तु तार्किकेर अगोचर; कृष्ण कृपा सापेक्ष
*एबे एक उठिल अपूर्व पूर्व पक्ष ।*
*तार्किक ना बुझे यदि चिन्ते वर्ष लक्ष ॥११॥*
*कृष्ण यारे कृपा करे सेइ मात्र जाने ।*
*लक्ष वर्ष चिन्ति ताहा ना बुझिबे आने ॥१२॥*
*राधा कृष्ण प्रणयेर विकार ह्लादिनी ।*
*प्रणयेर परे जन्मे चित्त-उन्मादिनी ॥१३॥*
*राधा कृष्ण दुइ हले हय त प्रणय ।*
*प्रणय हैले तबे विकार घटय ॥१४॥*
*दुइ देह हबार आगे विकार ना छिल ।*
*तबे एक रूप दुइ केमने हैल ॥१५॥*
*ह्लादिनी हैते हय दुइ देह भेद ।*
*कोथा वा ह्लादिनी छिल हैल प्रभेद ॥१६॥*
*एइ प्रश्नेर एक मात्र आछे त उत्तर ।*
*देश-कालातीत कृष्ण तत्त्व निरन्तर ॥१७॥*
अप्राकृत-तत्त्वे देश-कालादिर विचार नाइ
*प्रकृतिर मध्ये देख कालेर प्रभाव ।*
*भूत भविष्यतेर बुद्धि ताहार स्वभाव ॥१८॥*
*अप्राकृत तत्त्वे भूत भविष्यत् नाइ ।*
*नित्य-वर्तमान तथा बलिहारि याइ ॥१९॥*
*वाङ्-मनेर अगोचर अप्राकृत तत्त्व ।*
*वर्णिते आइसे दोष एइ मात्र सत्य ॥२०॥*
*अप्राकृत तत्त्वे कभु दोष नाहि पाइ ।*
*अचिन्त्य शक्तिते सब समाधान भाइ ॥२१॥*
*पूर्वापर हेन कथा कभु नाहि ताय ।*
*सर्वदा नूतन सब आनन्दे माताय ॥२२॥*
*अत एव तत्त्वे ये अखण्ड खण्ड भाव ।*
*सम-काले देखि से-ओ तत्त्वेर स्वभाव ॥२३॥*
*विरुद्ध धर्माश्रय तत्त्व आश्चर्य तार गुण ।*
*जन्मे नाइ ह्लादिनी तबु क्रियाते निपुण ॥२४॥*
*जन्मिबार पूर्वे राधा-कृष्णे दुइ करे ।*
*दुण्हे प्रेमेर विकार हये निजे जन्म धरे ॥२५॥*
*नित्य वर्तमान तत्त्व काल-दोष-हीन ।*
*काल-दोष-विचार प्राकृत समीचीन ॥२६॥*
*श्री-अद्वय-तत्त्व आर राधा-कृष्ण-तत्त्व ।*
*सम काल सत्य नित्य आर शुद्ध सत्त्व ॥२७॥*
श्री-राधा-कृष्ण-इ श्री-चैतन्य
*अत एव राधा कृष्ण दुइ एक हञा ।*
*अधुना प्रकट मोर चैतन्य गोसाञा ॥२८॥*
*अधुना कलिते काल-भेद नाहि कर ।*
*अप्राकृते काल-भेद नाहि ताहा स्मर ॥२९॥*
*राधा कृष्ण छिल भेल चैतन्य गोसाञि ।*
*ए बलिले काल-दोष सत्य वस्तु हाराइ ॥३०॥*
*एकात्मा शब्देते यदि श्री-चैतन्य मान ।*
*राधा-कृष्णे हबे भाइ आधुनिक ज्ञान ॥३१॥*
*अग्रे राधा-कृष्ण किबा शचीर नन्दन ।*
*ए विचारे वृथा काल ण कर कर्त्तन ॥३२॥*
*बलियाछि अप्राकृते सब वर्तमान ।*
*चैतन्य कृष्णेते तर्के हओ सावधान ॥३३॥*
*प्रणय विकार शक्ति सेइ आह्लादिनी ।*
*सम-काल नित्य-काल राखे एइ जानि ॥३४॥*
*सेइ त चैतन्य एबे प्रपञ्च प्रकटे ।*
*सङ्कीर्तन करि बुले गङ्गा सिन्धु तटे ॥३५॥ *
*कृष्ण लीलार अधिक एइ श्री-चैतन्य-लीला ।*
*प्रणय-विकार याते उत्कट हैला ॥३६॥*
*उत्कट हैया कृष्णे राधा-भाव-द्युति ।*
*माखाइल प्रेम-भरे आह्लादिनी सती ॥३७॥*
*व्रजेर अधिक सुख नवद्वीप धामे ।*
*पाइल पुरट कृष्ण आसि निज कामे ॥३८॥*
श्री-चैतन्येर स्वरूप
*चैतन्य-मूरति कृष्णेर अपूर्व स्वरूप ।*
*कृष्ण मूर्ति चैतन्येर स्वरूप अपरूप ॥३९॥*
*ह्लादिनीर दुइ साज परम मधुर ।*
*मधु हैते मधु ताहा हैते सुमधुर ॥४०॥*
*सुमधुर स्वरूप कृष्णेर चैतन्य मूरति ।*
*निरन्तर करि ताङ्ते दण्डवन्-नति ॥४१॥*
*यदि बल एकात्मा शब्दे ब्रह्म निर्विकार ।*
*याहा हैते राधा-कृष्ण स्वरूप साकार ॥४२॥*
*ए सिद्धान्त हैते नारे श्लोकेर आभासे ।*
*सेइ दुइ एक आत्मा चैतन्य प्रकाशे ॥४२॥*
ब्रह्म श्री-चैतन्येर अङ्ग-कान्ति
*चैतन्य नहेन कभु ब्रह्म निर्विकार ।*
*आनन्द-विकार-पूर्ण विशुद्ध साकार ॥४३॥*
*ब्रह्म ताङ्र श्री-अङ्गेर ज्योति निर्विशेष ।*
*ब्रह्मेर प्रतिष्ठा कृष्ण चैतन्य विशेष ॥४४॥*
*अत एव एकात्मा शब्देते श्री चैतन्य ।*
*बुझेन पण्डित गण स्वरूपादि धन्य ॥४५॥*
*सेइ त एकात्म तत्त्वे कर परणाम ।*
*राधा कृष्ण सेवा पाबे सिद्ध हबे काम ॥४६॥*
परमात्मा श्री-चैतन्येर अंश
*यदि बल एकात्मा शब्दे हय परमात्मा ।*
*याहा हैते राधा कृष्ण हय दुइ आत्मा ॥*
*श्लोकेर आभासे ताहा कभु नहे सिद्ध ।*
*चैतन्याख्य शब्दे हय बड-इ विरुद्ध ॥*
*मूल-तत्त्व श्री-चैतन्य-स्वरूप जानिबा ।*
*ताङ्हार अंश परमात्मा सर्वदा बुझिबा ॥*
*राधा कृष्ण ऐक्य सेइ एकात्म स्वरूप ।*
*श्री-चैतन्य मोर प्राण नाथ अपरूप ॥*
*राध-पद दासी आमि राध-पद दासी ।*
*राधा द्युति सुवलित रूप भालवासि ॥५४॥*
*परात्पर शचीसुत ताङ्हार चरणे ।*
*दण्ड परणाम मोर अनन्य शरणे ॥५५॥*
* --ओ)०(ओ—*
(२)
ग्रन्थ रचना
*चैतन्य रूप गुण सदा पडे मने ।*
*पराण काङ्दाय देह फाङ्पाय सघने ॥१॥*
*काङ्दिते काङ्दिते मने हैल उदय ।*
*लेखनी धरिया लिखि छाडि लाज भय ॥२॥*
*नामेते पण्डित मात्रे घटे किछु नाइ ।*
*चैतन्येर लीला तबु लिखिबारे चाइ ॥३॥*
स्वरूप गोसाञि ओ पण्डित जगदानन्द
*गोसाञि स्वरूप बले कि लिख पण्डित ।*
*आमि बलि लिखि ताइ याहते पीरित ॥४॥*
*चैतन्येर लीला कथा याहा पडे मने ।*
*लिखिया राखिब आमि अति सङ्गोपने ॥५॥*
*स्वरूप बलेन तबे लिख प्रभुर चरित ।*
*याहा पडि जगतेर हबे बड हित ॥६॥*
*आमि बलि जगतेर हित नाहि जानि ।*
*याहा याहा भाल लागे ताइ लिखे आनि ॥७॥*
*स्वरूप छाडिल मोरे बातुल बलिया ।*
*एका बसि लिखि आमि प्रभु धेयाइया ॥८॥*
*देखिछि अनेक लीला थाकि प्रभु सङ्गे ।*
*किछु किछु लिखि ताइ निज मनो रङ्गे ॥९॥*
*मन कान्दे प्राण काङ्दे काङ्दे दुटी आग्खि ।*
*यखन याहा मने पडे तखन ताहा लिखि ॥१०॥*
महाप्रभु ओ ग्रन्थकार
*प्रभु मोरे हास्य करि कैल एक दिन ।*
*द्वारकार पाटेश्वरी तुमि त प्रवीन ॥११॥*
*आमि त भिखारी अति मोरे सेव केन ।*
*कत शत सन्न्यासी पाइबे आमा हेन ॥१२॥*
*मुञि बलि रेखे दाओ तोमार छलना ।*
*राधा पद दासी आमि ओ कथा बोलो ना ।१३॥।*
*आमार राधार वर्ण करियाछो चुरि ।*
*व्रजे लये याब आमि तोमाय चोर धरि ॥१४॥*
*आमि चाइ राधा पद तुमि फेल ठेलि ।*
*द्वारका पाठाओ मोरे एइ तोमार केलि ॥१५॥*
*तोमार सन्न्यासि गिरि आमि भाल जानि ।*
*मोदेर बञ्चिया राधा सेविबे आपनि ॥१६॥*
बाल्य-घटना-स्मरणे ग्रन्थकारेर आक्षेपोक्ति
*आहा से चैतन्य पद भजनेर सम्पद*
*कोथा एबे गेल आमा छाडि*
*आमाके फेलिया गेल मृत्यु मोर ना हैल*
*शोके आमि याइ गडागडि ॥१७॥*
*एक दिन शिशु काले दुजनेते पाठ शाले*
*कोन्दले करिनु हाताहाति ।*
*मायापुरे गङ्गा तीरे पडिया दुःखेर भारे*
*कान्दिलाम् एक दिन रीति ॥१८॥*
*सदय हैया नाथ ना हैते परभात *
*गदाधरेर सङ्गेते आसिया ।*
*डकेन जगदानन्द अभिमान बड मन्द*
*कथा बलो वक्रता छाडिया ॥१९॥*
*प्रभुर वदन हेरि अभिमान दूर करि *
*जिज्ञासिलाम् एत रात्र केन ?*
*नदीयार कडा भूमि चलि कष्ट पाइले तुमि*
*मो लागि तोमार कष्ट हेन ॥२०॥*
*प्रभु बले चल चल निशि अवसान भेल*
*गृहे गिया करह भोजन ।*
*तव दुःख जानि मने छिलाम् आमि अनशने*
*शय्या छाडि भूमिते शयान ॥२१॥*
*हेन काले गदाधर आइल आमार घर*
*दुङ्हे आइनु तोमार तल्लासे ।*
*भाल हैल मान गेल एबे निज गृहे चल *
*कालि खेला करिब उल्लासे ॥२२॥*
*गदाइ चरण धरि उठिलाम् धीरि धीरि*
*प्रभु आज्ञा ठेलिते ना पारि ।*
*प्रभुर गृहेते गिया किछु खाइ जल पिया*
*शुइलाम् दण्ड दुइ चारि ॥२३॥*
*प्राते शची-जगन्नाथ मोरे दिला दुध भात*
*प्रभु सङ्गे पडिते पाठाय ।*
*पडिया शुनिया तबे आइलाम् गृहे यबे*
*प्रभु मोरे गृहे आसि खाय ॥२४॥*
*कोन्दलेर परे प्रेम हय येन शुद्ध हेम*
*कत सुख मनेते हैल ।*
*प्रभु बले एइ लागि तुमि रागो आमि रागि*
*परस्पर प्रेम वृद्धि भेल ॥२५॥*
ग्रन्थकारेर श्री-चैतन्य प्रीति
*ए हेन गौराङ्ग चान्द ना भजिले परमाद*
*भजिले परम सुख हय ।*
*दयार ठाकुर तेण्हो ताङ्के कि भुलिबे केह *
*एत दया दासे वितरय ॥२६॥*
*चैतन्य आमार प्रभु चैतन्ये ना छाडि कभु*
*सेइ मोर प्राणेर ईश्वर ।*
*ये चैतन्य बलि डाके उठे कोल दिइ ताके *
*सेइ मोर प्राणेर सोदर ॥२७॥*
*हा चैतन्य प्राण धन ना बलिले येइ जन*
*मुख तार ना देखि नयने ।*
*चैतन्य भुलिल येबा यदि ओ से देवी देवा*
*कुप्रभात तार दरशने ॥२८॥*
*चैतन्ये छाडिया अन्य सन्न्यासीर करे मान्य*
*तारे यष्टि करिब प्रहार ।*
*छाडिया चैतन्य कथा अन्य इतिहास वृथा*
*बले येइ मुखे आगुन तार ॥२९॥*
*चैतन्येर याहे सुख ताहे यदि घटे दुःख*
*चिर दुःख भोग हौ मोर ।*
*से यदि स्व-सुख त्यजे यति धर्म कभु भजे*
*आमि ताहे दुःखेते विभोर ॥३०॥*
श्री-गौर-गदाधर तत्त्व
*एक दिन प्रभु मोर खेलिते खेलिते ।*
*चलिल अलका-तीरे निविड वनेते ॥३१॥*
*आमि आर गदाधर आछिलाम् सङ्गे ।*
*बकुलेर गाछे शुक पक्षी धरे रङ्गे ॥३२॥*
*शुके धरि बले तुइ व्यासेर नन्दन ।*
*राधा कृष्ण बलि कर आनन्द वर्धन ॥३३॥*
*शुक ताहा नाहि बले बले गौर हरि ।*
*प्रभु तारे दूरे फेले कोप छल करि ॥३४॥*
*तबु शुक गौर गौर बलिया नाचय ।*
*शुकेर कीर्तने हय प्रेमेर उदय ॥३५॥*
*प्रभु बले ओरे शुक ए ये वृन्दावन ।*
*राधा-कृष्ण बल हेथा शुनुक सर्व जन ॥३६॥*
*शुक बले वृन्दावन नवद्वीप हैल ।*
*राधा कृष्ण गौर हरि रूपे देखा दिल ॥३७॥*
*आमि शुक एइ वने गौर नाम गाइ ।*
*तुमि मोर कृष्ण राधा एइ ये गदाइ ॥३८॥*
*गदाइ गौराङ्ग मोर प्राणेर ईश्वर ।*
*आन किछु मुखे ना आइसे अतः पर ॥३९॥*
*प्रभु बले आमि राधा कृष्ण उपासक ।*
*अन्य नाम शुनिले आमार हय शोक ॥४०॥*
*एत बलि गदाइयेर हात-टी धरिया ।*
*मायापुरे फिरे आइल शुकेरे छाडिया ॥४१॥*
*शुके बले गाओ तुमि याहा लागे भाल ।*
*आमार भजन आमि करि चिर-काल ॥४२॥*
*मधुर चैतन्य-लीला जागे यार मने ।*
*मोर दण्डवत् भाइ ताङ्हार चरणे ॥४३॥*
श्री-नवद्वीप ओ वृन्दावन
*गदाइ गौराङ्ग मुञि राधा श्याम जानि ।*
*षोल-क्रोश नवद्वीपे वृन्दावन मानि ॥४४॥*
*यशोदा-नन्दने आर शचीर नन्दने ।*
*ये जन पृथक् देखे से ना मरे केने ॥४५॥*
*नवद्वीपे ना पाइल येइ वृन्दावन ।*
*वृथा से तार्किक केन धरय जीवन ॥४६॥*
गौर भजन विना राधा-कृष्ण भजन वृथा
*गौर नाम गौर धाम गौराङ्ग चरित ।*
*ये भजे ताते मोर अकैतव प्रीत ॥४७॥*
*गौर रूप गौर नाम गौर लीला गौर धाम*
*ये ना भजे गौडेते जन्मिया ।*
*राधा कृष्ण नाम रूप धाम लीला अपरूप*
*कभु नाहि स्पर्शे तार हिया ॥४८॥*
(३)
प्रथम प्रणाम
*याङ्र अंशे सत्यभामा द्वारकाय धाम ।*
*से राधा चरणे मोर असंख्य प्रणाम ॥१॥*
*श्री-नन्दनन्दन एबे श्री-कृष्ण-चैतन्य ।*
*गदाधरे सङ्गे आनि नदीया कैल धन्य ॥२॥*
*गदाधर लञा श्री-पुरुषोत्तम आइल ।*
*गदाइ गौराङ्ग रूपे गूढ लीला कैल ।*
*टोटा गोपीनाथ सेवा गदाधरे दिल ॥३॥*
*मोरे दिल गिरिधारी सेवा सिन्धु-तटे ।*
*गौडीय भकत सब आमार निकटे ॥४॥*
*दामोदर स्वरूप आमार प्राणेर समान ।*
*श्री-कृष्ण-चैतन्य यार देह मन प्राण ॥५॥*
*नमि प्राण गौर पदे साष्टाङ्ग पडिया ।*
*ए प्रेम-विवर्त लिखि भक्त आज्ञा पाया ॥६॥*
(४)
गौरस्य गुरुता
*भाइरे भज मोर प्राणेर गौराङ्ग ।*
*गौर विना वृथा सब जीवनेर रङ्ग ॥१॥*
*नवद्वीप मायापुरे शचीर अङ्गने ।*
*गौर नाचे नित्य निताइ अद्वैतेर सने ॥२॥*
*श्रीवास-अङ्गने नाचे गाय रस-भरे । *
*ना देखिल एक बार आर ना पाशरे ॥३॥*
*आमार हृदये नाट अङ्कित हैया ।*
*निरन्तर आछे मोर प्राण काङ्दाइया ॥४॥*
*जगन्नाथ मन्दिरेते नृत्य देखि यबे ।*
*अनन्त भावेर ढेउ मने उठे तबे ॥५॥*
*आर कि देखिब प्रभुर जाह्नवी पुलिने ।*
*सुनृत्य कीर्तन लीला ए छार जीवने ॥६॥*
सर्व देव देवी श्री गौराङ्गेर दास
*निष्ठा करि भज भाइ गौराङ्ग चरण ।*
*अन्य देव देवी कभु ना कर भजन ॥७॥*
*गौराङ्गेर दास बलि सर्व देवे जान ।*
*कृष्ण हैते गौरके कभु ना जानिबे आन ॥८॥*
*निज गुरुदेव जान गौर कृष्ण पात्र ।*
*गौराङ्ग पार्षदे जान गौर-देह पात्र ॥९॥*
*गौर वैरी रस पोष्टा एइ मात्र जान ।*
*सकले गौराङ्ग दास ए कथा-टी मान ॥१०॥*
गौर भजन निष्ठा
*पर-निन्दा पर-चर्चा ना कर कखन ।*
*दृढ भावे एकान्ते भज श्री-गौर-चरण ॥११॥*
*गौर ये शिखाल नाम सेइ नाम गाओ ।*
*अन्य सब नाम माहात्म्य सेइ नामे पाओ ॥१२॥*
*गौर विना गुरु नाइ ए भव-संसारे ।*
*सरल गौराङ्ग भक्ति शिखाओ सबारे ॥१३॥*
*कुटी-नाटी छाड मन करह सरल ।*
*गौर भजा लोक-रक्षा एकत्रे निष्फल ॥१४॥*
*हय गोरा भज नय लोक भज भाइ ।*
*एक पात्रे दुइ कभु ना रहे एक ठाञि ॥१५॥*
*जगाइ बले यदि एक निष्ठ ना हैबे ।*
*दुइ नाये नदी पारेर दुर्दशा लभिबे ॥१६॥*
(५)
विवर्त विलास सेवा
*प्रेमेर विचित्त्य गत प्रेमेर विवर्त यत*
*मोर मने नाचे निरन्तर ।*
*कलह गौरेर सने करि आमि दिने दिने*
*कुन्दले जगाइ नाम मोर ॥१॥*
*गेलाम् व्रजे देखिबारे रहि सनातनेर घरे *
*कलह करिनु तार सने ।*
*रक्त वस्त्र सन्न्यासीरे शिरे बाङ्धि आइला धीर *
*भातेर हाङ्डि मारिते कैनु मने ॥२॥*
*सनातनेर विनय देखे छाडि तारे एक पाके *
*लज्जाय बसिनु एक धारे ।*
*गौर मोर यत जाने आमाय पाठाय वृन्दावने*
*मजा देखे थाकि निजे दूरे ॥३॥*
*भाल तार हौक सुख मोर हौक चिर दुःख*
*तार सुखे हबे मोर सुख ।*
*आमि काङ्दि रात्र दिने गौर विच्छेद भावि मने*
*गौर हासे देखि काङ्दा मुख ॥४॥*
*सेइ त कपट न्यासी तार लीला भालवासि *
*मधु माखा कथा गुलि तार ।*
*ये भाव व्रजेते भेवे पुनः सेइ भाव एबे *
*बुझे-ओ न बुझि आर बार ॥५॥*
*चन्दनादि तैल आनि बाङ्का बाङ्का कथा शुनि*
*तैल भाण्ड भाङ्गिलाम बले ।*
*मान करि निजासने शुञा रैनु अनशने *
*से मान भाङ्गिल नाना छले ॥६॥*
*आमारे कराय पाक अन्न व्यञ्जन आबोना शाक*
*बले क्रोधेर पाक बड मिष्ट ।*
*बाडाय आमार रोष ताते तार सन्तोष *
*तार प्रसन्नता मोर इष्ट ॥७॥*
*जिज्ञासिल सनातन याइते कैनु वृन्दावन*
*ताते मोरे राखे बोका करि ।*
*बाल्य बुद्धि देखि तार चित्ते हय चमत्कार *
*आमि तार पाद-पद्म धरि ॥८॥*
*वृन्दावन याइते चाइ ताते आज्ञा नाहि पाइ *
*नाना छल करे मोर सने ।*
*यखन कोन्दल हय नवद्वीपे येते कय*
*सेइ तार कृपा जानि मने ॥९॥*
*मातृ आज्ञा छल करि आछेन वैकुण्ठ पुरी*
*निज धाम छाडिया एखन ।*
*ताते पाठाय निज पुरे याहाके से कृपा करे*
*येन गोपेर गोलोक दर्शन ॥१०॥*
*एइ भावे गौर सेवा करि आमि रात्र दिवा*
*गौर गणेर एइ त स्वभाव ।*
*गौर गदाधर पद आमार त सम्पद*
*दामोदर ज्ञाने एइ भाव ॥११॥*
(६)
जीव गति
जीव ओ कृष्ण
*चित कण जीव कृष्ण चिन्मय भास्कर ।*
*नित्य कृष्ण देखि कृष्णे करेन आदर ॥१॥*
माया ग्रस्त जीव
*कृष्ण बहिर्मुख हञा भोग वाञ्छा करे ।*
*निकट-स्थ माया तारे जापटिया धरे ॥२॥*
*पिशाची पाइले येन मति च्छन्न हय ।*
*माया ग्रस्त जीवेर हय से भाव उदय ॥३॥*
*आमि सिद्ध कृष्ण दास एइ कथा भुले*
*मायार नफर हञा चिर दिन बुले ॥४॥*
*कभु राजा कभु प्रजा कभु विप्र शूद्र ।*
*कभु दुःखी कभु सुखी कभु कीट क्षुद्र ॥५॥*
*कभु स्वर्गे कभु मर्त्ये नरके वा कभु ।*
*कभु देव कभु दैत्य कभु दास प्रभु ॥६॥*
साधु सङ्गे निस्तार
*एइ रूपे संसार भ्रमिते कोन जन ।*
*साधु सङ्गे निज तत्त्व अवगत हन ॥७॥ *
*निज तत्त्व जानि आर संसार ना चाय*
*केन वा भजिनु माया करे हाय हाय ॥८॥*
*केङ्दे बले ओहे कृष्ण आमि तव दास ।*
*तोमार चरण छाडि हैल सर्व नाश ॥९॥*
*कृपा करि कृष्ण तारे छाडान संसार ।*
*काकुति करिया कृष्णे यदि डाके एक बार ॥१०॥*
*मायाके पिछने राखि कृष्ण पाने चाय ।*
*भजिते भजिते कृष्ण पाद-पद्म पाइ ॥११॥*
*कृष्ण तारे देन निज चिच्-छक्तिर बल ।*
*माया आकर्षण छाऋए हैया दुर्बल ॥१२॥*
*साधु सङ्ग कृष्ण नामे एइ मात्र चाइ ।*
*संसार जिनिते आर कोनो वस्तु नाइ ॥१३॥*
*सकल भरसा छाडि गोरा पदे आश ।*
*करिया बसिया आछे जगाइ गोरार दास ॥१४॥*
–ओ)०(ओ–
(७)
सकलेर पक्षे नाम
असाधु सङ्गे नाम हय ना
*असाधु-सङ्गेते भाइ नाम नाहि हय ।*
*नामाक्षर बाहिराय बटे नाम कभु नय ॥१॥*
*कभु नामाभास सदा हय नाम अपराध ।*
*ए सब जानिबे भाइ कृष्ण-भक्तिर् बाध ॥२॥*
नाम-भजन-प्रणाली
*जदि करिबे कृष्ण-नाम साधु-सङ्ग कर ।*
*भुक्ति-मुक्ति-सिद्धि-वाञ्छा दूरे परिहर ॥३॥*
*दश-अपराध त्यज मान-अपमान ।*
*अनासक्त्ये विषय भुञ्ज आर लह कृष्ण-नाम ॥४॥*
*कृष्ण-भक्तिर अनुकूल सब करह स्वीकार ।*
*कृष्ण-भक्तिर प्रतिकूल सब कर परिहार ॥५॥*
*ज्ञान-योग-चेष्टा छाऋअ आर कर्म-सङ्ग ।*
*मर्कट-वैराग्य त्यज जाते देह-रङ्ग ॥६॥*
*कृष्ण आमार पाले राखे जान सर्व-काल ।*
*आत्म-निवेदन दैन्ये घुचाओ जञ्जाल ॥७॥*
*साधु पाओआ कष्ठ बऋअ जीवेर जानिया ।*
*साधु-गुरु-रूपे कृष्ण आइल नदीया ॥८॥*
*गोरा पद आश्रय करह बुद्धिमान् ।*
*गोरा बै साधु-गुरु आछे केबा आन *॥९॥
वैरागीर कर्तव्य
*वैरागी भाइ ग्राम्य कथा ना शुनिबे काने ।*
*ग्राम्य वार्ता ना कहिबे यबे मिलिबे आने ॥१०॥*
*स्वपने-ओ ना कर भाइ स्त्री-सम्भाषण ।*
*गृहे स्त्री छाडिया भाइ आसियाछ वन ॥११॥*
*यदि चाह प्रणय राखिते गौराङ्गेर सने ।*
*छोट हरिदासेर कथा थाके येन मने ॥१२॥*
*भाल ना खाइबे आर भाल ना परिबे ।*
*हृदयेते राधा कृष्ण सर्वदा सेविबे ॥१३॥*
*बड हरिदासेर न्याय कृष्ण नाम बलिबे वदने ।*
*अष्ट-काल राधा कृष्ण सेविबे कुञ्ज वने ॥१४॥*
गृहस्थ ओ वैरागीर प्रति आदेश
*गृहस्थ वैरागी दुङ्हे बले गोरा राय ।*
*देख भाइ नाम विना येन दिन नाहि याय ॥१५॥*
*बहु अङ्ग साधने भाइ नाहि प्रयोजन ।*
*कृष्ण नामाश्रये शुद्ध करह जीवन ॥१६॥*
*बद्ध जीवे कृपा करि’ कृष्ण हैल नाम ।*
*कलि जीवे दया करि कृष्ण हैल गौर धाम ॥१७॥*
*एकान्त सरल भावे भज गौर जन ।*
*तबे त पाइबे भाइ श्री कृष्ण चरण ॥१८॥*
*गौर जन सङ्ग कर गौराङ्ग बलिया ।*
*हरे कृष्ण नाम बल नाचिया नाचिया ॥१९॥*
*अचिरे पाइबे भाइ नाम प्रेम धन ।*
*याहा बिलाइते प्रभुर नदे आगमन ॥२०॥*
*प्रभुर कुन्दले जगा केङ्दे केङ्दे बले ।*
*नाम भज नाम गाओ भकत सकल ॥२१॥*
--ओ)०(ओ--
(८)
कुटीनाटि छाड
सरल मने गोरा भजन
*गोरा भज गोराभज गोरा भज भाइ ।*
*गोरा विना ए जगते गुरु आर नाइ ॥१॥*
*यदि भजिबे गोरा सरल कर निज मन ।*
*कुटीनाटिइ छाडि भज गोरार चरण ॥२॥*
*मनेर कथा गोरा जाने फाङ्कि केमने दिबे ।*
*सरल हले गोरार शिक्षा बुझिया लैबे ॥३॥*
*आनेर मन राखिते गिया आपनाके दिबे फाङ्कि ।*
*मनेर कथा जाने गोराकेमने हृदय ढाकि ॥४॥*
*गोरा बले आमार मत करह चरित ।*
*आमार आज्ञा पालन कर चाह यदि हित ॥५॥*
कपट भजन
*गोरार आमि गोरार आमि मुखे बलिले ना चले ।*
*गोरार आचार गोरार प्रचार लैले फल फले ॥६॥*
*लोक देखानो गोरा भजा तिलक मात्र धरि ।*
*गोपनेते अत्याचार गोरा धरे चुरि ॥७॥*
*अधः पतन हबे भाइ कैले कुटीनाटि ।*
*नाम अपराधे तोमार भजन हबे माटि ॥८॥*
*नाम लञा ये करे पाप हय अपराध ।*
*एर मत भक्ति आर आछे किबा बाध ॥९॥*
*नाम करिते कष्ट नाइ नाम सहज धन ।*
*ओष्ठ स्पन्दन मात्रे हय नामेर कीर्तन ।*
*ताहाओ ना हय यदि हय नामेर स्मरण ॥१०॥*
*तुण्ड बन्धे चित्त भ्रंशे श्रवण तबु हय ।*
*सर्व पाप क्षये जीवेर मुख्य फलोदय ॥११॥*
*बहु जन्म अर्चनेते एइ फल धरे ।*
*कृष्ण नाम निरन्तर तुण्डे नृत्य करे ॥१२॥*
*कर्म ज्ञान योगादिर सेइ शक्ति नहे ।*
*विधि भङ्ग दोषे फल हीन शास्त्रे कहे ॥१३॥*
*से सब छाड भाइ नाम कर सार ।*
*अति अल्प दिने तबे जिनिबे संसार ॥१४॥*
कवि कर्णपूर
*धन्य कवि कर्णपूर स्व-ग्राम-निवासी ।*
*नामेर महिमा किछु राखिल प्रकाशि ॥१५॥*
*गौर यारे कृपा करे विश्वे सेइ धन्य ।*
*सप्त वर्षे वयसे हैल महा कवि मान्य ॥१६॥*
*धन्य शिवानन्द कवि कर्णपूर पिता ।*
*मोरे बाल्ये शिखाइल भागवत गीता ॥१७॥*
*नदीया लैया मोरे राखे प्रभु पदे ।*
*शिवानन्द त्राता मोर सम्पदे विपदे ॥१८॥*
*तार घरे भोग रान्धि पाक शिक्षा हैल ।*
*भाल पाक करि श्री-गौराङ्ग सेवा कैल ॥१९॥*
*जगाइ बले साधु सङ्गे दिन याय यार ।*
*सेइ मात्र नामाश्रय करे निरन्तर ॥२०॥*
*(९)*
युक्त वैराग्य
वैराग्य दुइ प्रकार – फल्गु ओ युक्त
*एक दिन जिज्ञासिलेन गोसाञी सनातन ।*
*युक्त वैराग्य कारे बले प्रभु करुन् वर्णन ॥१॥*
*मायावादी बले सब काक-विष्ठा-सम ।*
*विषय जानिले न्यासी हय सर्वोत्तम ॥२॥*
*वैष्णवेर कि कर्तव्य जानिते इच्छा करि ।*
*कृपा करि आज्ञा कर आज्ञा शिरे धरि ॥३॥*
*प्रभु बले वैराग्य हय दुइ त प्रकार ।*
*फल्गु युक्त भेद आमि शिखाइनु बार बार ॥४॥*
फल्गु वैराग्य
*कर्मी ज्ञानी यबे करे निर्वेद आश्रय*
*तार चित्ते फल्गु वैराग्य पाय दुष्टाशय ॥५॥*
*संसारेते तुच्छ बुद्धि आसिया तखन ।*
*जड विपरीत धर्मे करे प्रवर्तन ॥६॥*
*कृष्ण सेवा साधु सेवा आत्म रसास्वाद ।*
*नाम रूप गुण लीला ना हय समीचीन ॥७॥*
युक्त वैराग्य
*युक्त वैरागीर भक्ति हय त सुलभ ।*
*कृष्ण भक्ति पुत विषय तार घटे सब ॥८॥*
*प्रकृतिर जड धर्म तार चित्त छाडे अनायासे ।*
*चित् आश्रये मजे शीघ्र अप्राकृत भक्ति रसे ॥९॥*
*भक्ति योगे श्री कृष्णेर प्रसन्नता पाय ।*
*न मे भक्तः प्रणश्यति प्रतिज्ञा जानाय ॥१०॥*
*प्रसन्न हैया कृष्ण यारे कृपा करे ।*
*सेइ जन धन्य एइ संसार भितरे ॥११॥*
*गोलोकेर परम भाव तार चित्ते स्फुरे ।*
*गोकुले गोलोक पाय माया पडे दूरे ॥१२॥*
शुष्क वैराग्य दूर करा कर्तव्य
*ओरे भाइ शुष्क वैराग्य एबे दूर कर ।*
*युक्त वैराग्य आनि’ सदा हृदयेते धर ॥१३॥ *
*विषय छाडिया भाइ कोथा याबे बल ।*
*वने याबे सेखाने विषय जञ्जाल ॥१४॥*
*पेट तोमार सङ्गे याबे देहेर रक्षणे ।*
*कत लेठा हबे ताहा भेवे देख मने ॥१५॥*
*अकारणे जीवनेर शीघ्र हबे क्षय*
*मरिले केमने आर माया कर्बे जय ॥१६॥*
*यदिओ ना मर तबु हैबे दुर्बल ।*
*ज्ञान नाश हैले कोथा ज्ञानेर सम्बल ॥१७॥*
सुतरां युक्त वैराग्य कर्तव्य ।
*घरे बसि’ सदा काल कृष्ण नाम लञा ।*
*यथा योग्य विषय भुञ्ज अनासक्त हञा ॥१८॥*
*यथा योग्य एइ शब्द दुटीर मर्मार्थ बुझे लह ।*
*कपटार्थ लञा येन देहारामी ना ह ॥१९॥*
*शुद्ध भक्तिर अनुकूल कर अङ्गीकार ।*
*शुद्ध भक्तिर प्रतिकूल कर अस्वीकार ॥२०॥ *
*मर्मार्थ छाडिया येबा शब्द अर्थ करे ।*
*रसेर वशे देहारामी कपट मार्ग धरे ॥२१॥*
*भाल खाय भाल परे करे बहु धनार्जन ।*
*योषित् सङ्गे रत हञा फिरे रात्र दिने ॥२२॥*
*भाल शय्या अट्टालिका खोङ्जे अर्वाचीन ।*
*देह यात्रार उपयोगी नितान्त प्रयोजन ॥२३॥*
*विषय स्वीकार करि कर देहेर रक्षण ।*
*सात्त्विक सेवन कर आसव वर्जन ।*
*सर्व भूते दया करि’ कर उच्च सङ्कीर्तन ॥२४॥*
*देव सेवा छल करि’ विषय नाहि कर ।*
*विषयेते राग द्वेष सदा परिहर ॥२५॥*
*पर हिंसा कपटता अन्य सने वैर ।*
*कभु नाहि कर भाइ यदि मोर वाक्य धर ॥२६॥*
*निर्जन सुदृढ भक्ति कर आलोचन ।*
*कृष्ण सेवार सम्बन्धे दिन करह यापन ॥२७॥*
*मठ मन्दिर दालान बाडीर ना कर प्रयास ।*
*अर्थ थाके कर भाइ येमन अभिलाष ॥२८॥*
*अर्थ नाइ तबे मात्र सात्त्विक सेवा कर । *
*जल तुलसी दिया गिरिधारीके वक्षे धर ॥२९॥*
*भावेते काङ्दिया बल आमि त तोमार ।*
*तव पाद पद्म चित्ते रहुक आमार ॥३०॥*
*वैष्णवे आदर कर प्रसादादि दिया ।*
*अर्थ नाइ दैन्य वाक्ये तोष मिनति करिया ॥३१॥*
*परिजन परिकर कृष्ण दास दासी*
*आत्म सम पालने हैबे मिष्ट भाषी ॥३२॥*
*स्मरण कीर्तन सेवा सर्व भूते दया ।*
*एइ त करिबे युक्त वैरागी हैया ॥३३॥*
*कृष्ण यदि नाहि देय परिजन परिकर ।*
*अथवा दिया त लय सर्व सुखेर आकर ॥३४॥*
*शोक मोह छाड भाइ नाम कर निरन्तर ।*
*जगाइ बले एभाव गौरेर सने मोर कोङ्दल विस्तर ॥३५॥*
–ओ)०(ओ—
(१०)
जाति कुल
कुल ओ भजन योग्यता
*श्रद्धा हैले नर मात्र नामेर अधिकारी ।*
*जाति कुलेर तर्क तर्कीर ना चले भारि भुरि ॥१॥*
*ब्राह्मणेर सत् कुल ना हय भजनेर योग्य । *
*श्रद्धवान् नीच जाति नहे भजने अयोग्य ॥२॥*
कुलाभिमानी अभक्त
*संसारेर दश कर्मे जाति कुलेर आधिपत्य ।*
*कृष्ण जने जाति कुलेर ना आछे माहात्म्य ॥३।*
*जाति कुलेर अभिमाने अहङ्कारी जन ।*
*भक्तिके विद्वेष करि याय नरक भवन ॥४॥*
*ना माने वैष्णव भक्त ना माने धर्माधर्म ।*
*अहङ्कारे करे सदा अकर्म विकर्म ॥५॥*
अभक्त विप्र हैते भक्ति मुचि श्रेष्ठ
*मुचि हञा कृष्ण भजे कृष्ण कृपा पाय ।*
*शुचि हञा भक्ति हीन कृष्ण कृपा नाहि ताय ॥६॥*
*द्वादश गुणेते विप्र अलङ्कृत हञा ।*
*कृष्ण भक्ति विना याय नरके चलिया ॥७॥*
*कृष्ण भक्ति यथा तथा सर्व गुण गण ।*
*आपन इच्छाय देहे बैसे अनुक्षण ॥८॥*
*मृत देहे अलङ्कार हय घृणास्पद ।*
*अभक्तेर जप तप बाह्य से सम्पद ॥९॥*
विषये राग द्वेष वर्जनीय
*भज भाइ एक मने शचीर नन्दन ।*
*जाति कुलेर अभिमान हबे विसर्जन ॥१०॥*
*अभिमान छाडिले भाइ छाडिबे विषय ।*
*विषय छाडिले शुद्ध हबे तोमार आशय ॥११॥*
*विषय हैते अनुराग लओ उठाइया ।*
*कृष्ण पदाम्बुजे रागे देह लागाइया ॥१२॥*
*हओ तुमि सत् कुलीन ताहे किबा क्षति ।*
*कुलेर अभिमान छाडि’ हओ दीन मति ॥१३॥*
अभिमान हीन दीनेर प्रति भगवानेर् दया
*दीनेरे अधिक दया करे भगवान् ।*
*अभिमान दैन्य नाहि रहे एक स्थान ॥१४॥*
*अभिमान नरकेर पथ ताहा यत्ने त्यज ।*
*दैन्ये राधा गोविन्देर पाद पद्मे मज ॥१५॥*
अभिमान त्याग नित्यानन्देर दया सापेक्ष
*आहा प्रभु नित्यानन्द कबे करिबे दया ।*
*अभिमान छाडाञा मोरे दिबे पद छाया ॥१६॥*
--ओ)०(ओ--
(११)
नवद्वीप दीपक
श्री-नवद्वीप वृन्दावन अभिन्न
*ब्रह्माण्डे धरणी धन्य धराय गौड क्षौणी धन्य ।*
*गौडे नवद्वीप धन्य द्व्य्-अष्ट-क्रोश जगत् मान्य ॥१॥*
*मध्ये स्रोतस्वती धन्य भागीरथी वेगवती ।*
*ताहाते मिलेछे आसि श्री यमुना सरस्वती ॥२॥*
*तार पूर्व तीरे साक्षात् गोलोक मायापुर ।*
*तथाय श्री-शची-गृहे शोभे गौराङ्ग ठाकुर ॥३॥*
*से ठाकुर द्वापरेर शेष वृन्दावने वने ।*
*महा रास क्रीडा कैल राधिकादि गोपी सने ॥४॥*
*परकीय महा रास गोलोकेर नित्य धन ।*
*आनिल व्रजेर सह नन्द यशोदा नन्दन ॥५॥*
*सेइ ठाकुर आबार निजेर योग मायापुर ।*
*प्रपञ्चे आनिल गौड रसास्वाद सुचतुर ॥६॥*
गौरावतारेर हेतु
*श्री व्रज लीलाय वाञ्छा त्रय ना हैल पूरण ।*
*श्री गौर लीलाय पूर्ण कैल से सुख साधन ॥७॥*
*मोरे प्रणय करि राधा पाय किबा सुख ।*
*मोर माधुर्य आस्वादने राधार कत ये कौतुक ॥८॥*
*आमार अनुभवे राधाय सौख्य कि प्रकार ।*
*नायक हञा नाहि बुझि ए सुखेर सार ॥९॥*
*अतएव राधार भाव कान्ति लञा गौर हब ।*
*कृष्ण माधुर्यादि भक्त भावे आस्वाद पाइब ॥१०॥*
*एत भावि’ कृष्ण निज धाम लञा गौड देशे ।*
*नवद्वीपे प्रकटिल स्वयं आनन्द आवेशे ॥११॥*
गौरेर भजन प्रणालीते कृष्ण भजन
*ओरे भाइ सब छाडि बैसो नवद्वीप पुरे ।*
*गौराङ्गेर अष्ट काल भज दुःख याबे दूरे ॥१२॥*
*अष्ट-काले अष्ट-परकार कृष्ण-लीला सार ।*
*गौरोदित भावे भज पाबे प्रेम चमत्कार ॥१३॥*
*कृष्ण भजिबारे यार एकान्त आछे मन ।*
*गौडेर अष्ट-काले भज कृष्ण रस धन ॥१४॥*
*गौर भाव नाहि जाने ये कृष्ण भजिते चाय ।*
*अप्राकृत कृष्ण तत्त्व तार कभु नाहि भाय ॥१५॥*
आचार्य वर्णाश्रमे आबद्ध नहेन
*किबा वर्णी किबाश्रमी किबा वर्णाश्रम हीन ।*
*कृष्ण तत्त्व वेत्ता येइ सेइ आचार्य प्रवीण ॥१६॥*
असद् गुरु ग्रहणे सर्व नाश
*आसल कथा छेडे भाइ वर्णे ये करे आदर ।*
*असद् गुरु करि तार विनष्ट पूर्वापर ॥१७॥*
--ओ)०(ओ--
(१२)
वैष्णव महिमा
कृष्ण भक्ति ओ तीर्थ
*जल मय तीर्थ मृत् शिला मय मूर्ति ।*
*बहु काले देय जीव हृदे धम स्फूर्ति ॥१॥*
*कृष्ण भक्त देखि दूरे याय सर्वानर्थ ।*
*कृष्ण भक्ति समुदित हय परमार्थ ॥२॥*
साधु सङ्गेर फल
*संसार भ्रमिते भव क्षयोन्मुख यबे ।*
*साधु सङ्ग संघटन भाग्य क्रमे हबे ॥३॥*
*साधु सङ्ग फले कृष्णे सर्वेश्वरेश्वरे ।*
*भावोदय हय भाइ जीवेर अन्तरे ॥४॥*
प्राकृत वा कनिष्ठ भक्त
*सेइ त प्राकृत भक्त दीक्षित हैया ।*
*कृष्णार्चन करे विधि मार्गेते बसिया ॥५॥ \
उत्तम मध्यम भक्त ना करे विचार ।*
*शुद्ध भक्त समादर ना हय ताहार ॥६॥*
मध्यम भक्त
*कृष्ण प्रेम भक्ते मैत्री मूढे कृपा आर ।*
*शुद्ध भक्त द्वेषी उपेक्षा याङ्हार ॥७॥*
*तिहोङ् त प्रकृत भक्ति साधक मध्यम ।*
*अति शीघ्र कृष्ण बले हैबे उत्तम ॥८॥*
उत्तम भक्त
*सर्व भूते श्री कृष्णेर भाव सन्दर्शन ।*
*भगवाने सर्व भूते करेन दर्शन ॥९॥*
*शत्रु मित्र विषयेते नाहि राग द्वेष ।*
*तिहोङ् भागवतोत्तम एइ गौर उपदेश ॥१०॥*
उत्तम भक्तेर विषय स्वीकार
*विषय इन्द्रिय द्वारे करिया स्वीकार ।*
*राग-द्वेष-हीन भक्ति जीवने याङ्हार ॥११॥*
*समस्त जगत् देखि विष्णु-माया-मय ।*
*भागवत-गणोत्तम सेइ महाशय ॥१२॥*
ताङ्हार इन्द्रिय वृत्ति परिचालन
*देहेन्द्रिय प्राण मन बुद्धि युक्त सबे ।*
*जन्म नाश क्षुधा तृष्णा भय उपद्रवे ॥१३॥*
*अनित्य संसार धर्मे हञा मोह हीन ।*
*कृष्ण स्मरि’ काल काटे भक्त समीचीन ॥१४॥*
ताङ्हार कर्म देह यात्रार्थे मात्र, कामेर जन्य नहे
*याङ्र चित्ते निरन्तर यशोदा-नन्दन ।*
*देह यात्रा मात्र काम कर्मेर ग्रहण ॥१५॥*
*काम कर्म बीज रूप वासना ताङ्हार ।*
*चित्ते नाहि जन्मे एइ भक्ति तत्त्व सार ॥१६॥*
हरिजन देहात्म बुद्धि हीन
*ज्ञान कर्म वर्णाश्रम देहेर स्वभाव ।*
*ताहे सङ्ग द्वारा हय अहं मम भाव ॥१७॥*
*देह सत्त्वे अहं मम भाव नाहि याङ्र ।*
*हरि प्रिय जन तिहोङ् करह विचार ॥१८॥*
सर्वभूते सम बुद्धि सम्पन्न
*वित्त सत्त्वे ताहे छाडि स्व-पर-भावना ।*
*तुमि आमि सत्त्व भेदे मित्रारि कल्पना ॥१९॥*
*सर्व भूते सम बुद्धि शान्त येइ जन ।*
*भागवतोत्तम बलि ‘ ताङ्हार गणन ॥२०॥*
*कृष्ण पाद पद्मे सेइ सुर मृग्य धन ।*
*भुवन वैभव लागि’ ना छाडे ये जन ॥२१॥*
*कृष्ण पद स्मृति निमेषार्ध नाहि त्यजे ।*
*वैष्णव अग्रणी तिहोङ् परानन्दे मजे ॥२२॥*
भक्त त्रि-ताप मुक्त
*कृष्ण पद शाखा नख मणि चन्द्रिकाय ।*
*निरस्त सकल ताप याङ्हार हियाय ॥२३॥*
*से केन विषय सूर्य ताप अन्वेषिबे ।*
*हृदय शीतल तार सर्वदा रहिबे ॥२४॥*
उत्तम भक्तेर अन्यान्य लक्षण
*ये बेङ्धेछे प्रेम छाङ्दे कृष्णाङ्घ्रि-कमल ।*
*नाहि छाडे हरि तार हृदय सरल ॥२५॥*
*अवशे-ओ यदि मुखे स्फुरे कृष्ण नाम ।*
*भागवतोत्तम सेइ पूर्ण सर्व काम ॥२६॥*
*स्व-धर्मेर गुण-दोष बुझिया ये जन ।*
*सर्व धर्म छाडि भजे कृष्णेर चरण ॥२७॥*
*सेइ त उत्तम भक्त केह तार सम ।*
*ना आछे जगते आर भागवतोत्तम ॥२८॥*
*कृष्णेर स्वरूप आर नामेर स्वरूप ।*
*भक्तेर स्वरूप आर भक्तिर स्वरूप ॥२९॥*
*जानिया भजन करे येइ महाजन ।*
*तार तुल्य नाहि केह वैष्णव सुजन ॥३०॥*
*स्वरूप ना जाने तबु अनन्य-भावेते ।*
*श्री-कृष्णे साक्षात् भजे नाम स्वरूपेते ॥३१॥*
*तिहोङ् भक्तोत्तम बलि जानिबेरे भाइ ।*
*एइ आज्ञा दियाछेन चैतन्य गोसाञि ॥३२॥*
–ओ)०(ओ–
(१३)
श्री-गौर-दर्शनेर व्याकुलता
*गौराङ्ग तोमार चरण छाडिया*
*चलिनु श्री-वृन्दावने ।*
*पूर्व लीला तव देखिब बलिया*
*हैल आमार मने ॥१॥*
*केन सेइ भाव हैल आमार*
*एखन काङ्दिया मरि ।*
*तोमारे ना देखि प्राण छाडि याय *
*ना जानि एबे कि करि ॥२॥*
*ए राङ्गा चरण मम प्राण धन*
*समुद्र बालिते राखि ।*
*कि देखिते आइनु निज माथा खाइनु *
*उडु उडु प्राण पाखी ॥३॥*
*यत चलि याइ मन नाहि चले*
*तबु याइ जेद करि ।*
*प्रेमेर विवर्त आमारे नाचाय*
*ना बुझिया आमि मरि ॥४॥*
*गौराङ्गेर रङ्ग बुझिते नारिनु*
*पडिनु दुःख सागरे ।*
*आमि चाइ याहा नाहि पाइ ताहा*
*मन ये केमन करे ॥५॥*
*गौराङ्गेर तरे प्राण दिते याइ *
*ना हय मरण तबु ।*
*मरिब बलिया पडिया समुद्रे*
*खाइ मात्र हाबु डुबु ॥६॥*
*से चन्द्र वदन देखिबार लोभे*
*शीघ्र उठि सिन्धु तटे ।*
*पुनः नाहि देखि प्राण उडि याय *
*चलि पुनः टोटा-बाटे ॥७॥*
*गोपीनाथाङ्गने देखि गोरा मुख*
*पडि अचेतन हञा ।*
*पण्डित गोङ्साञि मोरे लञा राखे*
*देखि पुनः संज्ञा पाञा ॥८॥*
*गौर गदाधर बसिया दुजने*
*बलेन आमार कथा ।*
*अमनि काङ्दिया याइ गडागडि *
*ना विचारि यथा तथा ॥९॥*
*क्षणेक विरह सहिते ना पारि*
*गौर मोर हृदे नाचे ।*
*मरिते ना देय बाङ्चिले कोन्दल*
*किसे मोर हृदे नाचे ॥१०॥*
* *
*हेन अवस्थाय गौर पद छाडि *
*मोर वृन्दावने आसा ।*
*ए बुद्धि हैल केन नाहि जानि *
*इह पर लोक नाशा ॥११॥*
*आज्ञा लैनु याइते आज्ञा ना पालिले*
*ताते हय अपराध ।*
*गोरा चाङ्द मुख ना देखिया मरि *
*सब दिके मोर बाध ॥१२॥*
*गोरा प्रेम यार सङ्कट ताहार*
*प्राण लञा टानाटानि ।*
*गदाधर गणे एइ त दुर्दशा*
*सबे करे काणाकाणि ॥१३॥*
(१४)
विपरीत विवर्त
नवद्वीप दर्शने वृन्दावन दर्शन
*भाइ रे !*
*वृन्दावने याओआ आर हलो ना ॥१॥*
*गोरा मुख ना देखिया गोरा रूप धेयाइया *
*पथ भुलि याइ अन्य देश ।*
*सेखान हैते फिरि पुनः याइ धीरि धीरि*
*पुनः आसि देखि से प्रदेश ॥२॥*
*एइ रूपे कत दिने याब आमि वृन्दावने*
*ना जानि कि हबे दशा मोर ।*
*वृक्ष तले बसि बसि काटि आमि अहर् निशि *
*कभु मोर निद्रा आसे घोर ॥३॥*
*स्वप्ने बहु दूरे गिया सिन्धु तटे प्रवेशिया*
*देखि गोरार अपूर्व नर्तन ।*
*गदाधर नाचे सङ्गे भक्त गण नाचे रङ्गे*
*गाय गीत अमृत वर्षण ॥४॥*
*नृत्य गीत अवसाने गोरा मोर हात टने*
*बले तुमि क्रोधे छाडि गेले ।*
*आमार कि दोष बल तव चित्त सुचञ्चल*
*व्रजे गेले आमा हेथा फेले ॥५॥*
*आइसे आलिङ्गन करि तव वक्षे वक्ष धरि *
*छाङ्डो मुञि चित्तेर विकार ।*
*मध्याह्ने करिया पाक देह मोरे अन्न शाक*
*क्षुन्-निवृत्ति हौक् आमार ॥६॥*
*छाडिया जगदानन्दे मोर मन निरानन्दे*
*भोजनादि लैल कत दिन ।*
*कि बुझिया गेले तुमि दुःखेते पडिनु आमि *
*जगा मोरे सदा दया हीन ॥७॥*
*शीघ्र व्रज निरखिया आइस तुमि सुखी हञा*
*मोरे देह शाकान्न व्यञ्जन ।*
*तबे त बाञ्चिब आमि ताते सुखी हबे तुमि *
*क्रोध मोरे ना छाड कखन ॥८॥*
*निद्रा भाङ्गि देखि आमि बहु दूर व्रज भूमि*
*निकटेते जाह्नवी पुलिने ।*
*आहा नवद्वीप धाम नित्य गुअर लीला ग्राम*
*व्रज सार अति समीचीन ॥९॥*
*आनन्देते मायापुरे प्रवेशिनु अन्तः पुरे*
*नमि आमि आइ-माता पद ।*
*गौराङ्गेर कथा बलि शीघ्र आइलाम चलि *
*देखि नवद्वीप सुसम्पद ॥१०॥*
*भाविलाम वृन्दावन करिलाम दरशन*
*आर केन याउ दूर देश ।*
*गौर दरशन करि सब दुःख परिहरि *
*छाडि दिब विरहज-क्लेश ॥११॥*
(१५)
श्री-नवद्वीप पूर्वाह्न लीला
*यखन याहा मने पडे गौराङ्ग चरित ।*
*ताहा लिखि हैले-ओ क्रम विपरीत ॥१॥*
गौराङ्ग प्रसाद
*शची आइ एक दिन बड यत्न करि ।*
*गोरा अवशिष्ट पात्र मोरे दिल धरि ॥२॥*
*आमि खाइलाम येन अमृतास्वादन ।*
*गौराङ्ग प्रसाद पाञा आह्लादित मन ॥३॥*
*कभु कि करिब आमि से भूरि भोजन ।*
*आबोना अच्युत शाक आइयेर रन्धन ॥४॥*
*मोचा घण्ट कचु शाक ताहे फुल बडि ।*
*मानचाकि निम्ब पटोल आर दधि बडि ॥५॥*
गादिगाछा ग्रामे गमन
*भोजने आनन्द मति चलिलाम हंस गति*
*निताइ गौराङ्ग गण सङ्गे ।*
*गङ्गा-तीरे याइ गादि- गाछा ग्राम पाइ*
*हरिनाम गानेर प्रसङ्गे ॥६॥*
*गोविन्द मृदङ्ग बाय वासु घोष नाम गाय*
*नाचे गदाधर वक्रेश्वर ।*
*हरि बोल रव शुनि चारि दिके हुलु ध्वनि *
*गोरा प्रेमे सबे मातोआर ॥७॥*
*नाच गान नाहि जानि तबु नाचि ऊर्ध्व पाणि *
*गौराङ्ग नाचाय अङ्गे पशि ।*
*सुर-ताल-बोध नाइ तबु नाचि तबु गाइ *
*कि जानि कि जाने गौर शशी ॥८॥*
तथाय गोप-गणेर सेवा
*गादि गाछा ग्रामे आसि गोप पल्ली माझे पशि*
*गोरा बले शुन भक्त गण । *
*दह कूले विचरण आजि मोदेर विचरण*
*वृक्ष मूले करिब शयन ॥९॥*
*एइ बट वृक्ष तले गाभी आछे कुतूहले *
*गोप सह करिब विहार ।*
*बहु गोप गण आइल दधि छाना ननी दिल*
*पथ श्रम रहिल आर ॥१०॥*
*नृसिंहानन्देर सङ्गे प्रद्युम्न आइल रङ्गे*
*पुरुषोत्तमाचार्य मिलिल ।*
*मृदङ्गेर वाद्य-रवे गृह छाडि आइल सबे*
*हरि ध्वनि गगने उठिल ॥११॥*
भीम गोप
*भीम नामे गोप एक परम उदार ।*
*अग्रसर हञा बले शुनह गोहार ॥१२॥*
*आमार जननी श्यामा गोआलिनी धन्या ।*
*गङ्गा-नगरेर साधु गोआलार कन्या ॥१३॥*
*शची आइके मा बलिया सदा करे सेवा ।*
*से सम्पर्के तुमि आमार मातुल हैबा ॥१४॥*
*चल मामा मोर घरे चल दल लञा ।*
*श्री-कृष्ण-कीर्तन कर आनन्दित हञा ॥१५॥*
*दधि दुग्ध याहा किछु राखियाछे मा ।*
*सब खाओआइबे आर टीपे दिब पा ॥१६॥*
गौराङ्गेर भीमेर गृहे गमन ओ क्षीर भोजन
*नाछोड हैया यबे सकले धरिल ।*
*गोप प्रेम गोरा गोप गृहेते चलिल ॥१७॥*
*श्यामा गोआलिनी तबे उलु ध्वनि दिया ।*
*सकलके गोआल-घरे दिले बसाइया ॥१८॥*
*श्यामा बले पण्डित दादा केमन आछेन मा ।*
*भाल भाल बलि गोरा नाचाइल गा ॥१९॥*
*कला पाता पाति श्यामा देय दधि क्षीर ।*
*भक्त गण लञा निमाइ भोजने बसे धीर ॥२०॥*
गोरा-दह
*भोजन समापि चले सेइ दहेर तीरे ।*
*हरि गुण गान सबे करे धीरे धीरे ॥२१॥*
*रामदास गोप आसि करे निवेदन ।*
*दहेर जल पान नाहि करे गाभी गण ॥२२॥*
दहे नक्र
*नक्र एक भयङ्कर बेडाय दहेर जले ।*
*जल ना खाइया गाभी डके हाम्बा बोल ॥२३॥*
*ताहा शुनि गोरा करे श्री-नाम-कीर्तन ।*
*कीर्तन आकृष्ट हैल नक्र तत क्षण ॥२४॥*
नक्र नहे देव शिशु
*शीघ्र करि उठिया आइल गोरा पाय ।*
*पद स्पर्शे देव शिशु परिदृश्य हय ॥२५॥*
*काङ्दि सेइ देव शिशु करेन स्तवन ।*
*निज दुःख कथा बले आर करय रोदन ॥२६॥*
नक्र-रूपी देव शिशुर पूर्व विवरण
*देव शिशु बले प्रभु दुर्वासार शापे ।*
*नक्र रूपे भ्रमि आमि सर्व लोक काङ्पे ॥२७॥*
*काम्य वने मुनि वर शुतिया आछिल ।*
*चञ्चलता करि तार जटा काटि निल ॥२८॥*
*क्रोधे मुनि कहे तुमि पाञा नक्र रूप ।*
*चारि युग थाक कर्म फल अनुरूप ॥२९॥*
*तबे काङ्दिलाम आमि मिनति करिया ।*
*दया करि मुनि मोरे कहिल डकिया ॥३०॥*
*ओरे देव शिशु यबे श्री नन्दनन्दन ।*
*नवद्वीपे हैबेन शची प्राण धन ॥३१॥*
*ताङ्हार कीर्तने तोमार शाप क्षय हबे ।*
*दिव्य देह पेये तबे त्रिपिष्टप याबे ॥३२॥*
देव शिशुर स्तव
*जय जय शचीसुत पतित पावन ।*
*दीन हीन अगतिर गति महाजन ॥३३॥*
*चौद्द भुवने घोषे सुकीर्ति तोमार ।*
*आमा हेन अधमेरे करिले उद्धार ॥३४॥*
*एइ नवद्वीप धाम सर्व धाम सार ।*
*एखाने हैले कलि पावनावतार ॥३५॥*
*कलि जीव उद्ध्रिबे दिया हरि नाम ।*
*आसियाछ महाप्रभु तोमाके प्रणाम ॥३६॥*
*चारि युग आछि मि नक्र रूप धरि ।*
*एबे उद्धारिले तुमि पतित पावन हरि ॥३७॥*
*तव मुखे हरि नाम परम मधुर ।*
*स्थावरास्थावर जीव तारिले प्रचुर ॥३८॥*
*आज्ञा देओ याइ आमि त्रिपिष्टप यथा ।*
*माता पिता देखि सुख पाइब सर्वथा ॥३९॥*
देव शिशुर स्वरूप प्राप्ति ओ स्व-स्थाने गमन
*एत बलि प्रणमिया देव शिशु याय ।*
*कीर्तनेर रोल तबे उठे पुनराय ॥४०॥*
*मध्याह्न हैल देखि सर्व भक्त गण ।*
*प्रभु सङ्गे मायापुर करिल गमन ॥४१॥*
*महाप्रभुर एइ लीला ये करे श्रवण ।*
*ब्रह्म शाप मुक्त हय सेइ महाजन ॥४२॥*
गोरा दह दर्शनेर फल
*सेइ हैते गोरा दह नाम परचार ।*
*कालीयदहेर न्याय हैल ताहार ॥४३॥*
*सेइ दह दर्शने स्पर्शने पाप क्षय ।*
*कृष्ण भक्ति लाभ हय सर्व वेदे कय ॥४४॥*
*सेइ गोप गण देख महा प्रेमानन्दे ।*
*गौराङ्ग करिल हेथा मामा बलि स्कन्धे ॥४५॥*
*सकले देखिल प्रभुर पूर्वाह्न विहार ।*
*तङ्हि मध्ये देखे राम-कृष्ण लीला-सार ॥४६॥*
*देखे गोवर्धन तथा मानस जाह्नवी पुलिने ।*
*कृष्ण गो-चारण लीला अति समीचीन ॥४७॥*
*गोप-गण जानिल ये निमाञि चरित ।*
*श्री-नन्द-नन्दन लीला निज समीहित ॥४८॥*
(१६)
पीरिति कि रूप ?
श्री-रघुनाथ गोस्वामीर प्रश्न
*एक दिन रघुनाथ स्वरूपे जिज्ञासे ।*
*कि वस्तु पीरिति मोरे शिखाओ आभासे ॥१॥*
*विद्यापति चण्डी दासअ ये प्रीति वर्णिल ।*
*से प्रीति बुझिते मोर शक्ति ना हैल ॥२॥*
*ताङ्हादेर वाक्ये बाह्ये बुझे ये पीरिति ।*
*से केवल स्त्री-पुरुषेर प्रणयेर रीति ॥३॥*
*से केमने परमार्थ मध्ये गण्य हय ।*
*प्राकृत कामके केन अप्राकृत कय ॥४॥*
*महाप्रभु तोमार सङ्गे सेइ सब गान ।*
*करेन सर्वदा तार ना पि सन्धान ॥५॥*
*प्रभु तव हस्ते मोरे करिल समर्पण ।*
*आज्ञा कैल शिखाओ एबे निगूढ तत्त्व धन ॥६॥*
प्रीति-तत्त्व कि ?
*कृपा करि प्रीति तत्त्व मोरे देह बुझाइया ।*
*कृतार्थ हैब मुञि संशय त्यजिया ॥७॥*
उत्तर
*स्वरूप बलिल—भाइ रघुनाथ दास ।*
*निभृते तोमारे तत्त्व करिब प्रकाश ॥८॥*
*आमि किबा रामानन्द अथवा पण्डित ।*
*केह ना बुझिबे तत्त्व प्रभुर उदित ॥९॥*
*तबे यदि गौर चन्द्र जिह्वाय बसिया ।*
*बलाइबे निज तत्त्व सकृप हैया ॥१०॥*
*तखनि जानिबे हैल सुनृत्य प्रकाश ।*
*शुनिया आनन्द पाबे रघुनाथ दास ॥११॥*
*चण्डी दास विद्यापति कर्णामृत रायेर गीति *
*ए सब अमूल्य शास्त्र जान ।*
*ए सबे नाहिक काम ए सब प्रेमेर धाम*
*अप्राकृत ताहाते विधान ॥१२॥*
*स्त्री पुरुष विवरण ये किछु तङ्हि वर्णन *
*से सब उपमा-मात्र सार ।*
*प्राकृत काम वर्णन ताहे कृष्ण अदर्शन*
*अप्राकृत करह विचार ॥१३॥*
*कि पुरुष किबा नारी ए तत्त्व बुझिते नारि *
*जड देहे करे रस रङ्ग ।*
*से गुरु कृष्णेर भाणे शुद्ध रति नाहि जाने*
*ताहार भजन माया रङ्ग ॥१४॥*
कृष्ण प्रेम
*कृष्ण प्रेम सुनिर्मल येन शुद्ध गङ्गा जल*
*सेइ प्रेमा अमृतेर सिन्धु ।*
*निर्मल ये अनुराग नाहि ताहे जड दाग *
*शुक्ल वस्त्र शून्य मसी बिन्दु ॥१५॥*
*शुद्ध प्रेम सुख सिन्धु पाइ तार एक बिन्दु*
*सेइ बिन्दु जगत् डुबाय ।*
*जड देहे करि प्रीति केवल कामेर रीति *
*शुद्ध देह ना हय उदय ॥१६॥ \
*दूरे शुद्ध प्रेम बन्ध कपट प्रेमेते अन्ध *
*सेइ प्रेमे कृष्ण नाहि पाय ।*
*तबे ये करे क्रन्दन स्व-सौभाग्य प्रख्यापन*
*करे इहा जानिह निश्चय ॥१७॥*
*कृष्ण प्रेअम् यार हय तार विभाव चिन्मय *
*अनुभाव देहेते प्रकाश ।*
*सात्त्विकादि व्यभिचारी चिन्मय स्वरूप धरि*
*चित् स्वरूपे करये विलास ॥१८॥*
*धन्य सेइ लीला शुक कृष्ण तारे हये सम्मुख*
*दिल व्रजेर अप्राकृत रस ।*
*छाडिल ए देह रङ्ग प्राकृतालम्बन भङ्ग*
*ताहे कृष्ण परम सन्तोष ॥१९॥*
*विद्यापति चण्डी दास छाडि पूर्व रसाभास*
*अप्राकृत रस लाभ कैल ।*
*पूर्वे छिल तुच्छ रस ताहा छाडि प्रेम वश*
*हञा कृष्ण भजन लभिल ॥२०॥*
*तुच्छ रसे मातोआर ना पाय कृष्ण रस सार*
*नहे वंशी-वदनालम्बन ।*
*जड देहे साज साज माथाय तार पडे बाज *
*प्राण कीतेर करये धारण ॥२१॥*
*सेइ तुच्छ रस त्यजि श्री-नन्दनन्दन भजि*
*देखे कृष्ण श्री-वंशीवदन ।*
*निजे गोपी देह पाय व्रज वने वेगे याय*
*पूर्व सङ्ग करय त्यजन ॥२२॥*
तथा हि महाप्रभुर श्लोक
*न प्रेम-गन्धो ऽस्ति दरापि मे हरौ*
*क्रन्दामि सौभाग्य-भरं प्रकाशितुम्*
*वंशी-विलास्य्-आनन-लोकनं विना*
*बिभर्मि यत् प्राण-पतङ्गकान् वृथा ॥२३॥*
व्रज गोपी व्यतीत पीरिति बुझे ना
*पीरिति पीरिति पीरिति बले *
*पीरिति बुझिल के ?*
*ये जन पीरिति बुझिते पारे *
*व्रज गोपी हय से ॥२४॥*
*पीरिति बलिया तिन टि आग्खर*
*विदित भुवन माझे ।*
*याहाते पशिल सेइ से मजिल*
*कि तार कलङ्क-लाजे ॥२५॥*
*व्रज गोपी हञा चिद्-देह स्मरिया*
*जडेर सम्बन्ध छाडे ।*
*विषये आश्रये शुद्ध आलम्बन*
*परकीय रस बाडे ॥२६॥*
*व्रज विना कोथाओ नाहि परकीय भाव ।*
*वैकुण्ठ लक्ष्मीते तार सदा अस्द्-भाव ॥२७॥*
सहजियार प्रीति
*संसारे यतेक पुरुष रमणी*
*आलम्बन दोषे सदा ।*
*रक्त मांस देहे आरोप करिते*
*नारकी हय सर्वदा ॥२८॥*
*अतएव तारा सहज साधने*
*कृष्ण कृपा यबे पाय ।*
*जड देह गन्ध छाडिया से सब*
*चिद्-आनन्द रस धाय ॥२९॥*
राय रामानन्देर प्रीति
*प्रकृत सहज श्री-कृष्ण-भजन*
*करे रामानन्द राय ।*
*सुवैध साधने ए जड देहेते*
*सुयुक्त वैराग्य भाय ॥३०॥*
*विशुद्ध देहेते व्रजे कृष्ण भजे*
*महाप्रभु कृपा पाञा ।*
*नाटकाभिनये देव-दासी शिक्षा*
*सङ्ग-दोष शून्य हञा ॥३१॥*
प्रीति-शिक्षाय अधिकार काहार ?
*रामानन्द विना ताहे अधिकार*
*केह नाहि पाय आर ।*
*पर स्त्री दर्शन स्पर्शन सेवन*
*बुद्धि हृदे आछे यार ।*
*पीरिति शिक्षाय जानिबे निश्चय *
*नाहि तार अधिकार ॥३२॥*
स्त्री पुरुष थाकिते प्रीति साधन असम्भव
*कभु ए संसारे स्त्री पुं व्यवहारे*
*ना हय पीरिति धन ।*
*चर्म सुख यत अनित्य नियत*
*नहे नित्य संघटन ॥३३॥*
*गोपी भाव धरि चिद् धर्म आचरि*
*पीरिति साधिबे येइ ।*
*स्त्री पुं व्यवहार नाहिक तांहार *
*भितरे गोपिनी सेइ ॥३४॥*
*बाहिरे सज्जन धर्म आचरण *
*आमरण वैधाचार ।*
*अन्तरेते गोपी चित्ते कृष्ण सेवे *
*केवल पीरिति तार ॥३५॥*
*यः कौमार हरह् इत्य् आदि कविता*
*केवल उपमा-स्थल ।*
*नायक नायिका चित्-स्वरूप हञा*
*कृष्ण भजे सुनिर्मल ॥३६॥*
जडेते एइ भाव आरोप, नरक कलिर छलना
*केह यदि बले इहा आरोप चिन्ताय ।*
*पर-पुरुषेते कृष्ण भजन उपाय ॥३७॥*
*चैतन्य आज्ञाय आमि ए कथा ना मानि ।*
*जडेते ए रूप बुद्धि नरक बलि मानि ॥३८॥*
*जड देहे चिद्-आरोप सङ्ग तुच्छ अति ।*
*ताहे कृष्ण भाव आना समूह दुर्मति ॥३९॥*
*कलिर छलना एइ जानिह निश्चय ।*
*इहाते वैष्णव धर्म अधः पथे याय ॥४०॥*
*सुकृति पुरुष मात्र उपमा बुझिया ।*
*स्वीय अप्राकृत देहे कृष्ण भजे गिया ॥४१॥*
*चण्डी दास विद्यापति आदि महाजन ।*
*पूर्व बुद्धि दूरे राखि करिल भजन ॥४२॥*
*से सबार शेष वाक्य चिन्मयी पीरिति ।*
*आछे तबु नाहि बुझे दुष्कृतिर रीति ॥४३॥*
*रघुनाथ ए विषये करह विचार ।*
*तोमा हेन भक्त प्रचारिबे सद् आचार ॥४४॥*
*ए विषय एक बार प्रभुके जानाञा ।*
*चित्त दृढ करि लओ दृढ कर हिया ॥४५॥*
*तबे रघुनाथ श्रीमत् प्रभुपदे गिया ।*
*ठारे ठोरे जिज्ञासिल विनीत हैया ॥४६॥*
*प्रभु तारे आज्ञा दिल आमार सम्मुखे ।*
*रघुनाथ आज्ञा पेये भजे मन-सुखे ॥४७॥*
श्री-रघुनाथ प्रति श्रीमन्-महाप्रभुर आज्ञा
ग्राम्य-कथा ना शुनिबे ग्राम्य-वार्ता ना कहिबे ।
भालो ना खाइबे आर भालो ना परिबे ॥४८॥
अमानी मानद हञा कृष्ण-नाम लबे ।
*व्रजे राधा-कृष्ण-सेवा मानसे करिबे ॥४९॥ *
*एइ आज्ञा पाञा रघु बुझिल तखन ।*
*पीरिति ना हय कभु जडेते साधन ॥५०॥*
*मानसेते सिद्ध-देह करिया भावन ।*
सेइ देहे राधा-नाथेर करिबे सेवन ॥५१॥
अमानी मानद भावे अकिञ्चन हञा ।
वृक्ष हेन सहिष्णुता आपने करिया ॥५२॥
बाह्य देहे कृष्ण नाम सर्व काल गाय ।
अन्तर् देहे थाके राधा कृष्णेर सेवाय ॥५३॥
भाल खाओआ भाल परा परित्याग करि ।
प्राण-वृत्ति द्वारा जड-देह यात्रा धरि ॥५४॥
मर्कट-वैराग्य
*एइ जड देहे राधा कृष्ण बुद्ध्य्-आरोप ।*
*मर्कट वैरागी करे सर्व धर्म लोप ॥५५॥*
*प्रभु बलियाछेन मर्कट वैरागी से जन ।*
*वैरागीर प्राय थाकि करे प्रकृति-सम्भाषण ॥५६॥*
विशुद्ध वैरागी
* विशुद्ध वैरागी करे नाम सङ्कीर्तन ।*
*मागिया खाइया करे जीवन यापन ॥५७॥*
*वैरागी हैया येबा करे पराक्पेक्षा । *
कार्य सिद्धि नहे कृष्ण करे उपेक्षा ॥५८॥
वैरागी हैया करे जिह्वार लालस ।
परमार्थ याय आर हय रसेर वश ॥५९॥
वैरागी करिबे सदा नाम सङ्किर्तन ।
शाक पत्र फल मूले उदर भरण ॥६०॥
जिह्वार लालसे जेइ समाजे बेडाय ।
शिश्नोदर-परायण कृष्ण नाहि पाय ॥६१॥
(१७)
भक्त भेदे आचार भेद
*आर दिने श्री-स्वरूप रघुनाथे कय ।*
*तोमारे निगूढ किच्न्हु कहिब निश्चय ॥१॥*
भजन विहीन धर्म केवल कैतव
*ये वर्णेते जन्म यार ये आश्रमे स्थिति ।*
*तत्-तद्-धर्मे देह यात्रा एइ शुद्ध नीति ॥२॥*
*एइ मते देह यात्रा निर्वाह करिया ।*
*निरन्तर कृष्ण भजे एकान्त हैया ॥३॥*
*सेइ से सुबोध सुधार्मिक सुवैष्णव ।*
*भजन विहीन धर्म केवल कैतव ॥४॥*
*कृष्ण नाहि भजे करे धर्म आचरण ।*
*अधः पथे याय तार मानव जीवन ॥१७.५॥ *
*गृही ब्रह्मचारी वानप्रस्थ वा सन्न्यासी ।*
*कृष्ण भक्ति शून्य असम्भाष्य दिवा निशि ॥६॥*
सम्बन्ध ज्ञान लाभ ओ युक्त वैराग्य आश्रय
*सकले-इ करिबेन युक्त वैराग्य आश्रय ।*
*कृष्ण भजिबेन बुझि सम्बन्ध निश्चय ॥७॥*
*सम्बन्ध निर्णये हय आलम्बन बोध ।*
*शुद्ध आलम्बन हैले हय प्रेमेर प्रबोध ॥८॥*
*प्रेमे कृष्ण भजे सेइ बापेर ठाकुर ।*
*प्रेम शून्य जीव केवल छाङ्चेर कुकुर ॥९॥*
*कृष्ण भक्ति आछे यार वैष्णव से जन ।*
*गृह छाडि भिक्षा करे ना करे भजन ॥१०॥*
*वैष्णव बलिया तारे ना कर गणन ।*
*अन्य देव निर्माल्यादि ना कर ग्रहण ।*
*कर्म काण्डे कभु ना मानिबे निमन्त्रण ॥११॥*
गृही ओ गृह त्यागी वैष्णवेर आचार
*गृही गृह त्यागी भेदे वैष्णव विचार ।*
*दुङ्हे भक्ति अधिकारी पृथक् आचार ॥१२॥*
*दुङ्हार चाहिये युक्त वैराग्य विधान ।*
*सुज्ञान सुभक्ति दुङ्हार सम परिमाण ॥१३॥*
गृहस्थ वैष्णव कृत्य
*गृहस्थ वैष्णव सदा स्व-धर्मे अर्जिबे ।*
*आतिथ्यादि सेवा यथा साध्य आचरिबे ॥१४॥*
*वैध पत्नी सहवासे नहे भक्ति हानि ।*
*सार्षप सुतैल व्यवहारे नाहि दोष मानि ॥१५॥*
*दधि दुग्ध स्मार्त उपचरित आमिष ।*
*युक्त वैरागीर हय ग्रहणे निरामिष ॥१६॥*
*गृहस्थ वैष्णव सदा नामापराध राखि दूरे ।*
*आनुकूल्य लय प्रातिकूल्य त्याग करे ॥१७॥*
*ऐकान्तिक नामाश्रय ताहार महिमा ।*
*गृहस्थ वैष्णवेर नाहि माहात्म्येर सीमा ॥१८॥*
*पर-हिंसा त्याग पर उपकारे रत ।*
*सर्व-भूते दया गृहीर एइ मात्र व्रत ॥१९॥*
गृह त्यागी वा वैरागी वैष्णवेर कृत्य
*वैरागी वैष्णव प्राण-वृत्ति अङ्गीकरि ।*
*असञ्चय स्त्री-सम्भाषण शून्य भजे हरि ॥२०॥*
*एइ रूप आचार भेदे सकल वैष्णव ।*
*कृष्ण भजि पाय कृष्णेर अप्राकृत वैभव ॥२१॥*
वैष्णवेर कुटीनाटी नाइ
*गृही हौक त्यागी हौक भक्ते भेद नाइ ।*
*भेद कैले कुम्भीपाक नरकेते याइ ॥२२॥ \
मूल कथा कुटीनाटी व्यवहार यार ।*
*वैष्णव कुलेते सेइ महा-कुलाङ्गार ॥२३॥*
*सरल भावेते गठि निज व्यवहार ।*
*जीवने मरणे कृष्ण भक्ति जानि सार ॥२४॥*
*कुटीनाटी कपटता शाठ्य कुटिलता ।*
*ना छाडिया हरि भजे तार दिन गेल वृथा ॥२५॥*
*सेइ सब भागवत कदर्थ करिया ।*
*इन्द्रिया चराञा बुले प्रकृति भुलाइया ॥२६॥*
भागवत श्लोक यथा
*अनुग्रहाय भक्तानां मानुषं देहम् आश्रितः ।*
*भजते तादृशीः क्रीडा याः श्रुत्वा तत्-परो भवेत् ॥२७॥*
*लम्पट पापिष्ठ आपनाके कृष्ण मानि ।*
*कृष्ण लीला अनुकृति करे धर्म हानि ॥२८॥*
शुद्ध भक्तेर राधा कृष्णेर सेवा
*शुद्ध भक्त भक्त भावे चित्-स्वरूप हञा ।*
*व्रजे राधा कृष्ण सेवे सखी भाव लञा ॥२९॥*
*कृष्ण भावे तत्-पर हय ये पामर ।*
*कुम्भीपाक प्राप्त हय मरणेर पर ॥३०॥*
अन्तरङ्ग भक्ति देहे नहे आत्माय
*अन्तरङ्ग भक्ति माने देहे किछु नय ।*
*कुटीनाटी बले मूढ आचरण हय ॥३१॥*
*सेइ सब असत्-सङ्ग दूरे परिहरि’ ।*
*कृष्ण भजे शुद्ध भक्त सिद्ध देह धरि ॥३२॥*
कृष्ण-इ पुरुष आर सब प्रकृति
*भक्त सब प्रकृति हैया मजे कृष्ण पाय ।*
*पुरुष एकले कृष्ण दास महाशय ॥३३॥*
*रघुनाथ दास तबे विनीत हैया ।*
*स्वरूपेरे निवेदन करे दु हात जुडिया ॥३४॥*
*बल प्रभु आछे एक जिज्ञास्य आमार ।*
*स्व-धर्म-विहीन भक्ति सर्व भक्त् सार ॥३५॥*
गृहस्थ ओ स्वधर्म
*तबे केन गृहस्थ थाकिबे स्वधर्मेते ।*
*स्वधर्म छाडिया भक्ति पारे त करिते ॥३६॥*
*स्वरूप बले—शुनो भाइ इहाते ये मर्म ।*
*बलिब तोमाके आमि शुद्ध भक्ति धर्म ॥३७॥*
*स्व-धर्म जीवन यात्रा सहजे घटय ।*
*पर धर्मे कष्ट आछे स्वाभाविक नय ॥३८॥*
*स्वधर्मे भक्तिर अनुकूल याहा हय ।*
*ताइ भक्तिमान् जन ग्रहण करय ॥३९॥*
*याहा यखन भक्ति प्रतिकूल हञा याय ।*
*ताहा त्याग करिले त शुद्ध भक्ति पाय ॥४०॥*
*अतएव स्वधर्म-निष्ठा चित्त हैते त्यजि ।*
*भक्ति-निष्ठा करिलेइ साधु धर्म भजि ॥४१॥*
*स्वधर्म त्यागेर नाम निष्ठा परिहार ।*
*नियमाग्रह दूर हैले हय वैष्णव आचार ॥४२॥*
कृष्ण स्मृति विधि कृष्ण विस्मृति निषेध
*निरन्तर कृष्ण स्मृति मूल विधि भाइ ।*
*श्री-कृष्ण विस्मृति याहे निषेध मूल ताइ ॥४३॥*
*तबे रघुनाथ बले कथा एक आर ।*
*आज्ञा हय शुनि याहे वैष्णव विचार ॥४४॥*
श्री-अच्युत गोत्र ओ स्वधर्म
*श्री अच्युत गोत्र बलि वैष्णव निर्देश ।*
*इहार तात्पर्य किबा इथे कि विशेष ॥४५॥*
*स्वरूप बले—गृही त्यागी उभये सर्वथा ।*
*एइ गोत्रे अधिकारी नाहिक अन्यथा ॥४६॥*
*श्री अच्युत गोत्रे थाके शुद्ध भक्त यत ।*
*स्वधर्म निष्ठाय कभु नाहि हय रत ॥४७॥*
*संसारेर गोत्र त्यजि कृष्ण गोत्र भजे ।*
*सेइ नित्य गोत्र तार येइ बैसे व्रजे ॥४८॥*
*केह वा स्वदेहे बैसे व्रज गोपी हञा ।*
*केह वा आरोप सिद्ध मानसे लैया ॥४९॥*
प्रवर्त, साधक, सिद्ध
*प्रवर्त साधक सिद्ध तिने ये प्रकार ।*
*बुझिते पारिले बुझि भक्ति धर्म सार ॥५०॥*
*कनिष्ठाधिकारी हय प्रवर्ते गणन ।*
*मध्यमाधिकारी साधक भक्त महाजन ॥५१॥*
*उत्तमाधिकारी हय सिद्ध महाशय ।*
*हृदये स्वधर्म-निष्ठा कभु ना करय ॥५२॥*
*मध्यमाधिकारी आर उत्तमाधिकारी ।*
*सकले अच्युत गोत्र देखह विचारि ॥५३॥*
आरोप
*रघुनाथ बले – एबे आरोप बुझिब ।*
*तात्पर्य बुझिया सब सन्देह त्यजिब ॥५४॥*
*दामोदर बले—शुन आरोप सन्धान ।*
*इहाते चाहिये भक्ति-स्वरूपेर ज्ञान ॥५५॥*
त्रिविधा वैष्णवी भक्ति
*त्रिविधा वैष्णवी भक्ति करह विचार ।*
*आरोप सिद्धा, सङ्ग-सिद्ध, स्वरूप सिद्धाआर ॥५६॥*
आरोप सिद्धा भक्ति—कनिष्ठाधिकारीर
*आरोप सिद्धार कथा बलिब प्रथमे ।*
*सुस्थिर हैया बुझ चित्तेर संयमे ॥५७॥*
*बद्ध बहिर्मुख जीव विषयी प्रधान ।*
*जड सङ्ग मात्र करि करे अवस्थान ॥५८॥*
*जड सुख जड दुःख नियत ताहार ।*
*प्राकृत संसर्ग विना किछु नाहि आर ॥५९॥*
*अप्राकृत बलि किछु नाहि पाय ज्ञान ।*
*अप्राकृत तत्त्व मने नाहि पाय स्थान ॥६०॥*
*निजे अप्राकृत वस्तु ताहाओ ना जाने ।*
*अरक्षित शिशु येन सदाइ अज्ञाने ॥६१॥*
*कोन भाग्ये कोन जन्मे सुकृतिर फले ।*
*श्रद्धार उदय हय हृदय कमले ॥६२॥*
*प्रथम सन्धाने शुने आमि कृष्ण दास ।*
*ए संसार हैते उद्धारे करे आश ॥६३॥*
कृष्णार्चन
*गुरु बले शुन वाछा कर कृष्णार्चन ।*
*कृष्णार्चने तबे तार इच्छा सङ्गठन ॥६४॥*
*कृष्ण ये अप्राकृत प्रभु एइ मात्र शुने ।*
*कृष्ण स्वरूप अप्राकृत ताहा नाहि जाने ॥६५॥*
*निज चतुर्दिके याहा करे दरशने ।*
*तङ्हि मध्ये इष्ट याहा बुझि देख मने ॥६६॥*
*इष्ट-द्रव्य इष्ट-मूर्तिर करय पूजन ।*
*एइ स्थले हय तार आरोप चिन्तन ॥६७॥*
*मनुष्य-मूरति एक करिया गठन ।*
*गन्ध पुष्प धूप दीपे करये अर्चन ॥६८॥*
*आरोप बुद्ध्ये भावे सब अप्राकृत धन ।*
*आरोप चिन्तिया कभु अप्राकृतापन ॥६९॥*
*इहाते ये कर्मार्पण आरोपेर स्थल ।*
*आरोपे क्रमशः भक्ति तत्त्वे पाय बल ॥७०॥*
*एइ त आरोप सिद्धा भक्तिर लक्षण ।*
*कनिष्ठाधिकारीर हय एइ समर्चन ॥७१॥*
तत्त्व बोधे श्री-मूर्ति पूजा
*तत्त्व-टी बुझिया यबे श्री-मूर्ति पूजय ।*
*तबे मध्यम अधिकर हय त उदय ॥७२॥*
*उत्तमाधिकारीर आरोपेर नाहि स्थान ।*
*मानसे अप्राकृत तत्त्वेर पाय त सन्धान ॥७३॥*
*प्रेमेर उदय हय प्रेम चक्षे हेरि ।*
*प्राणेश्वर भजे पूर्व आरोप दूर करि ॥७४॥*
*भक्ति स्वभावतः नहे हेन कर्मार्पणे ।*
*आरोप सिद्धा भक्ति मध्ये हय तो गणने ॥७५॥*
आरोप सिद्धार मूल तत्त्व
*आरोप सिद्धार एक मूल तत्त्व एइ ।*
*जड वस्तु जड कर्म भक्ति भावे लै ॥७६॥*
*जड वस्तु जड कर्म मध्ये घृण्य याहा ।*
*अर्पणे-ओ भक्ति नाहि हय कभु ताहा ॥७७॥*
*उपादेय इष्ट बलि कर्मार्पण करे ।*
*आरोप सिद्धा भक्ति बलि बलिब ताहारे ॥७८॥*
*मायावादे अर्चनाङ्ग आरोप लक्षण ।*
*भक्ति-वादे स्वरूप-सिद्धा भक्तिर दर्शन ॥७९॥*
सङ्ग सिद्धा भक्ति
*एबे शुन सङ्ग सिद्धा भक्ति येइ रूप ।*
*शुद्ध ज्ञान सुवैराग्य सङ्ग सिद्धार स्वरूप ॥८०॥*
*यथा भक्ति तथा युक्त वैराग्य शुद्ध ज्ञान ।*
*साहचर्ये सङ्ग सिद्ध बुझह सन्धान ॥८१॥*
*दैन्य दया सहिष्णुता भक्त सहचर ।*
*सङ्ग सिद्ध भक्ति अङ्ग जान अतः पर ॥८२॥*
स्वरूप सिद्धा भक्ति
*साक्षात् भक्तिर कार्य याहाते निश्चय ।*
*स्वरूप सिद्धा भक्तिर क्रिया ताहा-इ हय ॥८३॥*
*श्रवण कीर्तन आदि नव विध भजन ।*
*स्वरूप सिद्धा भक्ति बलि तन्-नाम-कीर्तन ॥८४॥*
*कृष्णेते साक्षात् ताहादेर मुख गति ।*
*आरोप सिद्धा सङ्ग सिद्धार गौण भावे स्थिति ॥८५॥*
*स्वतः सिद्ध आत्म-वृत्ति शुद्ध भक्ति सार ।*
*बद्ध जीवे मनो वृत्ते उदय ताहार ॥८६॥*
*कृष्णोन्मुख जड देहे ताहार विस्तृति ।*
*ए जगते भक्ति देवीर एइ रूप स्थिति ॥८७॥*
त्रिविधा भक्तिर् त्रिविधा क्रिया
*सेइ भक्ति स्वरूप सिद्धा साक्षात् क्रिया यथा ।*
*सङ्ग सिद्धा सहचर साहाय्ये सर्वथा ॥८८॥*
*आरोप सिद्धा हय यथा प्राकृत वस्तु क्रिया ।*
*अप्राकृत भावे साधे प्राकृत नाशिया ॥८९॥*
*स्वरूपेर उपदेशे बुझे रघुनाथ ।*
*पीरिति स्वरूप तत्त्व जगाइयेर साथ ॥९०॥*
* --ओ)०(ओ--*
(१८)
श्री एकादशी
*एक दिन गौर हरि श्री-गुण्डिचा परिहरि*
*जगन्नाथ वल्लभे बसिला ।*
*शुद्धा एकादशी दिने कृष्ण नाम सङ्कीर्तने*
*दिवस रजनी काटाइला ॥१॥ *
*सङ्गे स्वरूप दामोदर रामानन्द वक्रेश्वर*
*आर यत क्षेत्र वासि गण ।*
*प्रभु बले—एक मने कृष्ण नाम सङ्कीर्तने*
*निद्राहार करिये वर्जन ॥२॥*
*केह कर सङ्ख्या नाम केह दण्ड परणाम *
*केल बल राम कृष्ण कथा ।*
*यथा तथा पडि सबे, गोविन्द गोविन्द रबे*
*महा प्रेम प्रमत्त सर्वथा ॥३॥*
*हेन काले गोपीनाथ पडिछा सार्वभौम साथ*
*गुण्डिचा प्रसाद लञा आइल ।*
*अन्न व्यञ्जन पिठा पाना परमान्न दधि छाना*
*महाप्रभु अग्रेते धरिल ॥४॥*
*प्रभुर साज्ञाय सबे दण्डवत् पडि तबे*
*महा प्रसाद वन्दिया वन्दिया ।*
*त्रियामा रजनी सबे महाप्रेम मग्न भावे*
*अकैतवे नामे काटाइया ॥५॥*
*प्रभु आज्ञा शिरे धरि प्रातः स्नान सबे करि*
*महा प्रसाद सेवाय पारण ।*
*करि हृष्ट चित्त सबे प्रभुर चरणे तबे*
*कर योड करे निवेदन ॥६॥*
श्री क्षेत्रे श्री एकादशी
*सर्व व्रत शिरोमणि श्री-हरि-वासरे जानि*
*निराहारे करि जागरण ।*
*जगन्नाथ प्रसादान्न क्षेत्रे सर्व काले मान्य *
*पाइले-इ करिये भक्षण ॥७॥*
*ए सङ्कटे क्षेत्र वासे मने हय बड त्रासे*
*स्पष्ट आज्ञा करिये प्रार्थना ।*
*सर्व वेद आज्ञा तव याहा माने ब्रह्मा शिव *
*ताहा दिया घुचाओ यातना ॥८॥*
श्री-महाप्रभुर विचार
*प्रभु बले भक्ति अङ्गे एकादशी मान भङ्गे*
*सर्व नाश उपस्थित हय ।*
*प्रसाद पूजन करि पर दिने पाइले तरि*
*तिथि पर दिने नाहि रय ॥९॥*
*श्री हरि वासर दिने कृष्ण नाम रस पाने*
*तृप्त हय वैष्णव सुजन ।*
*अन्य रस नाहि लय अन्य कथा नाहि कय*
*सर्व भोग करये वर्जन ॥१०॥*
*प्रसाद भोजन नित्य शुद्ध वैष्णवेर कृत्य *
*अप्रसाद ना करे भक्षण ।*
*शुद्धा एकादशी यबे निराहार थाके तबे *
*पारणेते प्रसाद भोजन ॥११॥*
*अनुकल्प स्थान मात्र निरन्न प्रसाद पात्र*
*वैष्णवके जानिह निश्चित ।*
*अवैष्णव जन यारा प्रसाद छलेते तारा*
*भोगे हय दिवा निशि रत ।*
*पाप पुरुषेर सङ्गे अन्नाहार कर रङ्गे*
*नाहि माने हरि वासर व्रत ॥१२॥*
*भक्ति अङ्ग सद् आचार भक्तिर सम्मान कर*
*भक्ति देवी कृपा लाभ हबे ।*
*अवैष्णव सङ्ग छाड एकादशी व्रत धर *
*नाम व्रते एकादशी तबे ॥१३॥*
*प्रसाद-सेवन आर श्री-हरि-वासरे ।*
*विरोध ना करे कभु बुझह अन्तरे ॥१४॥*
*एक अङ्ग माने आर अन्य अङ्गे द्वेष ।*
*ये करे निर्बोध सेइ जानह विशेष ॥१५॥*
*ये अङ्गेर ये देश काल विधि व्रत ।*
*ताहाते एकान्त भावे हओ भक्ति रत ॥१६॥*
*सर्व अङ्गेर अधिपति व्रजेन्द्र नन्दन ।*
*याहे तेंह तुष्ट ताहा करह पालन ॥१७॥*
*एकादशी दिने निद्राहार विसर्जन ।*
*अन्य दिने प्रसाद निर्माल्य सुसेवन ॥१८॥*
*शुनिया वैष्णव सब आनन्दे गोविन्द रब*
*दण्डवत् पडिलेन तबे ।*
*स्वरूपादि रामानन्द पाइलेन महानन्द*
*उडिया गौडिया भक्त सबे ॥१९॥*
*ओहे भाइ !*
*गौराङ्ग आमार प्राण धन ।*
*अकैतवे भज ताङ्रे याबे तबे भव पारे *
*शीतल हैबे तनु मन ॥२०॥*
श्री नाम भजन ओ एकादशी एक
*श्री नाम भजन आर एकादशी व्रत ।*
*एक तत्त्व नित्य जानि हओ ताहे रत ॥२१॥*
(१९)
नाम रहस्य पटल
*एकदा गौराङ्ग चाङ्द चन्द्रालोक पाइया ।*
*समुद्रेर तीरे आइल भक्त वृन्द लञा ॥१॥*
*हरि दास समाजेर उपकण्ठ बसि ।*
*सर्व वैष्णवेर प्रति बले गौर शशी ॥२॥*
श्री नाम-इ एक मात्र
*शुन हे भकत वृन्द कलि कालेर धर्म ।*
*श्री कृष्ण कीर्तन विना आर नाहि कर्म ॥३॥*
*कर्म ज्ञान योग ध्यान दुर्बल साधन ।*
*अप्राकृत सम्पत्ति लाभेर नहे क्रम ॥४॥*
*धर्म व्रत त्याग होम सकल-इ प्राकृत ।*
*अप्राकृत तत्त्व लाभे नाहि करे हित ॥५॥*
*कृष्ण नाम उच्चारणे स्मरणे श्रवणे ।*
*अप्राकृत सिद्धि हय बले श्रुति गणे ॥६॥*
*श्री नाम रहस्य सर्व शास्त्रेते देखिबा ।*
*नाम उच्चारण मात्र चित् सुख लभिबा ॥७॥*
पद्म-पुराणे स्वर्ग-खण्ड १८ अध्याय, नाम-रहस्य-पटलं, यथा—
श्री-शौनक उवाच—
नामोच्चारण-माहात्म्यं श्रूयते महद्-अद्भुतम् ।
यद् उच्चारण-मात्रेण नरो यायात् परं पदम् ।
तद्वद् अस्वाधुना सूत विधानं नाम-कीर्तने ॥८॥
श्री-सूत उवाच—
शृणु शौनक वक्ष्यामि संवादं मोक्ष-साधनम् ।
नारदः पृष्टवान् पूर्वं कुमारं तद् वदामि ते ॥९॥
एकदा यमुना-तीरे निविष्टं शान्त-मानसम् ।
सनत्-कुमारं पप्रच्छ नारदो रचिताञ्जलिः ।
श्रुत्वा नाना-विधान् धर्मान् धर्म-व्यतिकरांस् तथा ॥१०॥
श्री-नारद उवाच—
यो’सौ भगवता प्रोक्तो धर्म-व्यतिकरो नृणाम् ।
कथं तस्य विनाशः स्याद् उच्यतां भगवत्-प्रिय ॥११॥
*एइ पटलेर अर्थ किछु विशेष करिया ।*
*बलि स्वरूप रामानन्द शुन मन दिया ॥१२॥*
श्री-नाम-कीर्तन कि ? उच्चारण
*उच्चारण शब्दे बुझ श्री नाम कीर्तन ।*
*करे वा मालाय सङ्ख्या करे भक्त गण ॥१३॥*
*सङ्ख्या छाडि असङ्ख्य नाम कभु कभु हय ।*
*उच्चारण शब्दे ए सब जानह निश्चय ॥१४॥*
जप ओ कीर्तन
*लघूच्चारे जप हय उच्चारे कीर्तन ।*
*स्मरण कीर्तने सब हय त गणन ॥१५॥*
*कि प्रकारे नाम कैले सुकीर्तन हय ।*
*श्री नाम कीर्तने ताहा विधान निश्चय ॥१६॥*
कीर्तन सर्वथा ओ सर्वदा कर्तव्य
*श्री नाम कीर्तन हय जीवेर नित्य धर्म ।*
*जगते वैकुण्ठे जीवेर एइ मुख्य कर्म ॥१७॥*
*माया बद्ध जीवेर एइ मोक्ष साधन हय ।*
*मुक्त जीवेर पक्षे ताहा साध्यावधि रय ॥१८॥*
भक्ति हीन शुभ कार्य त्यज्य
*धर्म शास्त्र उक्त भक्ति हीन धर्म यत ।*
*भक्त्य्-उद्देश विना आर यत प्रकार व्रत ॥१९॥*
*भक्त्य्-उत्थित विराग व्यतीत यत त्याग ।*
*भक्ति प्रतिकूल यज्ञ प्राकृत विभाग ॥२०॥*
*एइ सब शुभ कर्म सम्बन्ध विचारे ।*
*भक्ति अनुकूल बलि शास्त्रेते प्रचारे ॥२१॥*
*कलि काले सेइ सब जड धर्म ह-इल ।*
*भक्ति आनुकूल्य त्यजि धर्म नष्ट भेल ॥२२॥*
*अतएव कलि काले नाम सङ्कीर्तन ।*
*विना आर धर्म नाइ शुन भक्त गण ॥२३॥*
*से धर्मेर व्यतिकर याहाइ देखिबे ।*
*ताहाइ वर्जिबे यत्ने भक्तिर प्रभावे ॥२४॥*
श्री-सनत्कुमार उवाच
शृणु नारद गोविन्द-प्रिय गोविन्द-धर्म-वित् ।
यत् पृष्टं लोक-निर्मुक्ति-कारणं तमसः परम् ॥४॥२५॥
*तुमि त नारद श्री-गोविन्द-धर्म-वेत्ता ।*
*गोविन्देर प्रिय माया बन्धनेर छेत्ता ॥२६॥*
*लोक निर्मुक्तिर हेतु जिज्ञासा तोमार ।*
*तव प्रश्नोत्तरे जीव हबे तमः पार ॥२७॥*
*कलिते सकल धर्माधर्म तमो-मय ।*
*नाम धर्म विना जीवेर संसार नहे क्षय ॥२८॥*
अतएव नामे सर्व पाप क्षय
सर्वाचार-विवर्जिताः शठ-धियो व्रात्या जगद्-वञ्चकाः
दम्भाहङ्कृति-पान-पैशुन्य-पराः पापाश् च ये निष्ठुराः ।
ये चान्ये धन-दार-पुत्र-निरताः सर्वे’धमास् ते’पि हि
श्री-गोविन्द-पदारविन्द-शरणाः शुद्धाः भवन्ति द्विजाः ॥५॥२९॥
*श्री-गोविन्द-पदारविन्द शरण ये लय ।*
*तार सर्व-पाप नामे निश्चय हय क्षय ॥३०॥*
*कृष्ण-नाम लये काङ्दे निज दोष बले ।*
*अति शीघ्र तार पाप याय भक्ति बले ॥३१॥*
कर्म-प्रायश्चित्त वासना नष्ट हय ना
*कर्म ज्ञान प्रायश्चित्ते तार किबा फल ।*
*से फल दुर्बल अति तार नाहि बल ॥३२॥*
*एक कृष्ण नामे पापीर यत पाप क्षय ।*
*बहु जन्मे सेइ पापी करिते नारय ॥३३॥*
*हेन पाप स्मार्त शास्त्रे ना आछे वर्णन ।*
*एक कृष्ण नामे याहा ना हय खण्डन ॥३४॥*
*तबे केन स्मार्त लोक प्रायश्चित्त करे ।*
*सुकृति अभावे तार कर्मे मति हरे ॥३५॥*
*कर्म प्रायश्चित्ते कभु वासना ना याय ।*
*ज्ञान प्रायश्चित्ते शोधे वासना हियाय ॥३६॥*
वासनार मूल अविद्या भक्तिते विनष्ट हय
*पुनः किछु दिने से वासना हय स्थूल ।*
*भक्तिते अविद्या याय वासनार मूल ॥३७॥*
*ये जन गोविन्द पदे लैया शरण ।*
*नाम लय काकु भरे करय रोदन ॥३८॥*
*तार पक्षे श्री मुखेर वाक्य सुमधुर ।*
*जीवेर मङ्गल गीताय देखह प्रचुर ॥३९॥*
श्री गीता
सर्व-धर्मान् परित्यज्य माम् एकं शरणं व्रज ।
अहं त्वां सर्व-पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥४०॥
अपि चेत् सुदुराचारो भजते माम् अनन्य-भाक् ।
साधुर् एव स मन्तव्यः सम्यग् व्यवसितो हि सः ॥४१॥
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शाश्वच्-छान्तिं निगच्छति ।
कौन्तेय प्रतिजाहीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥४२॥
अतएव नामेर फल
*अतएव कर्माङ्ग प्रायश्चित्तादि परिहरि’*
*बुद्धिमान् जन भजे प्राणेश्वर हरि ॥४३॥*
तम् अपि देव-करं करुणाकरं
स्थावर-जङ्गम-मुक्ति-करं परम् ।
अतिचरन्त्य् अपराध-परा जना
य इह तानवति ध्रुव-नाम हि ॥४४॥
*कृष्ण-नाम दयामय कृष्ण-तेजो-मय ।*
*स्थावर जङ्गम मुक्ति दाता सुनिश्चय ॥४५॥*
*नाम अपराधी ताहे करे अपराध ।*
*अतिचार आसि नाम धर्मे करे बाध ॥४६॥*
*सेइ महा अपराधीर दोष नामे हय क्षय ।*
*नाम विना जीव बन्धु जगते ना हय ॥४७॥*
श्री-नारद उवाच—
के ते’पराधा विप्रेन्द्र नाम्नो भगवतः कृता ।
विनिघ्नन्ति नृणां कृत्यं प्राकृतं ह्य् आनयन्ति च ॥४८॥
नामापराध
*ओहे गुरु सनत्-कुमार कृपा करि’ बल ।*
*नामे अपराध यत प्रकार सकल ॥४९॥*
*नाम रूप महा कृत्य जीवेर निश्चय ।*
*सेइ कृत्य याहे साधकेर नष्ट नय ॥५०॥*
*नामके प्राकृत करि साधन कराञा ।*
*सामान्य प्राकृत फले देय फेलाइया ॥५१॥*
श्री-सनत्कुमार उवाच—
सतां निन्दा नाम्नः परमम् अपराधं वितनुते
यतः ख्यातिं यातं कथम् उ सहते तद्-विगर्हाम् ।
शिवस्य श्री-विष्णोर् य इह गुण-नामादि-सकलं
धिया भिन्नं पश्येत् स खलु हरि-नामाहित-करः ॥८॥५२॥
नामापराध हैते मुक्ति
*दश-टी नामापराध भिन्न भिन्न करि ।*
*बुझिया लैले नाम अपराध तरि ॥५३॥*
*एइ श्लोके दुइ अपराधेर विचार ।*
*करिया करह शुद्ध नामेर आचार ॥५४॥*
साधु निन्दा
*एकान्त नामेते आश्रय आछे याङ्र ।*
*साधु पद वाच्य तेङ्ह तारेन संसार ॥५५॥*
*जड कर्म ज्ञान चेष्टा छाडि सेइ जन ।*
*शुद्ध भक्ति भावे नाम करेन उच्चारण ॥५६॥*
*नामेर प्रचार एका ताङ्हा हैते हय ।*
*ताङ्र निन्दा कृष्ण नाम कभु ना सहय ॥५७॥*
*से साधुर निन्दा ताङ्ते लघु बुद्धि यार ।*
*बड अपराध नामे निश्चय ताहार ॥५८॥*
*यत्ने एइ अपराध करिया वर्जन ।*
*सेइ साधु सङ्ग बले करह भजन ॥५९॥*
श्री नाम नामी एक तत्त्व
*मङ्गल स्वरूप विष्णु पर तत्त्व हरि ।*
*अप्राकृत स्वरूपेते श्री-व्रज-विहारी ॥६०॥*
*ताङ्र नाम रूप गुण लीला अप्राकृत ।*
*ताङ्हार स्वरूप हैते भिन्न नहे तत्त्व ॥६१॥*
*नाम नामी एक तत्त्व अप्राकृत धर्म ।*
*ए जड जगते तार नाहि आछे मर्म ॥६२॥*
*एइ शुद्ध ज्ञान लाभ भक्ति बले हय ।*
*तर्के बहु दूर इहा जानिह निश्चय ॥६३॥*
*निज शुद्ध साधन आर साधु गुरु बल ।*
*दुइयेर संयोगे लभि ए तत्त्व मङ्गल ॥६४॥*
*एइ तत्त्व सिद्धि यत दिन नाहि हय ।*
*तत दिन प्राकृत बुद्धि कभु ना छाडय ॥६५॥*
*तत दिन नाम करि ना पाइ स्वरूप ।*
*नामाभास मात्र हय भजन विरूप ॥६६॥ \
बहु यत्ने लभ भाइ स्वरूप सिद्धि ।*
*शुद्ध नामोच्चारे पाबे परं पद बुद्धि ॥६७॥ \
यत्न सह निरन्तर नामाभासे हरि ।*
*नामेते स्वरूप सिद्धि दिबे कृपा करि ॥६८॥*
कृष्ण सर्वेश्वर शिवादि ताङ्हार अंश
*सर्वेश्वर कृष्ण ताहे जानिबे निश्चय ।*
*शिवादि देवता ताङ्र अंश रूप हय ॥६९॥*
*सेइ सेइ देवेर नामादि गुण रूप ।*
*कृष्ण शक्ति दत्त सिद्ध जानह स्वरूप ॥७०॥*
*ए रूप जानिले शिव विष्णुते अभेदे ।*
*जन्मिबे स्वरूप बुद्धि गाय सर्व वेदे ॥७१॥*
*भेद बुद्धि अपराध यत्नेते त्यजिबे ।*
*गुरु कृपा बले तबे श्री नाम भजिबे ॥७२॥*
गुरोर् अवज्ञा श्रुति-शास्त्र-निन्दनम्
तथार्थ-वादो हरि-नाम्नि कल्पनम् ।
नाम्नो बलाद् यस्य हि पाप-बुद्धिर्
न विद्यते तस्य यमैर् हि शुद्धिः ॥९॥७३॥
गुरु कर्णधारेर अनादर
*कृपा करि येइ जन हरि देखाइल ।*
*हरि नाम परिचय कराइया दिल ॥७४॥*
*सेइ मोर कर्णधार गुरु महाशय ।*
*ताङ्हारे अवज्ञा कैले नामापराध हय ॥७५॥*
*हीन जाति पाण्डित्य रहित मन्त्र हीन ।*
*नामेर गुरुते हेन बुद्धि अर्वाचीन ॥७६॥*
श्रुति शास्त्रे अनादर
*येइ श्रुति शास्त्र नामेर ब्रह्मत्व देखाय ।*
*अपार माहात्म्य नामेर जगते जानाय ॥७७॥*
*तारे अनादर करि कर्मादि प्रशंसे ।*
*श्रुति निन्दा बलि तारे सर्व शास्त्रे भाषे ॥७८॥*
नामे कल्पना बुद्धि
*नाम नित्य धन सदा चिन्मय अगाध ।*
*ताहाते कल्पना बुद्धि गुरु अपराध ॥७९॥*
नाम बले पाप बुद्धि
*नाम बले पाप बुद्धि हृदये याहार ।*
*सतत उदय हय सेइ त असार ॥८०॥*
नामे अर्थ वाद
*रोचनार्था फल श्रुति कर्म मार्गे सत्य ।*
*भक्ति मार्गे नाम फल सर्व काले नित्य ॥८१॥*
*अप्राकृत नामेर माहात्म्य सीमा हीन ।*
*ताते यार अर्थ वाद सेइ अर्वाचीन ॥८२॥*
एइ सब अपराध वर्जने नामेर कृपा
*एइ पञ्च अपराध वर्जिबे यतने ।*
*तबे त नामेर कृपा लभिबे साधने ॥८३॥*
धर्म-व्रत-त्याग-हुतादि-सर्व-
शुभ-क्रिया-साम्यम् अपि प्रमादः ।
अश्रद्दधाने विमुखे’प्य् अशृण्वति
यश् चोपदेशः शिव-नामापराधः ॥१०॥ ८४॥
सर्व शुभ कर्म प्राकृत
*वर्णाश्रम मय धर्म धर्म शास्त्रे यत ।*
*दर्श पौर्णमासी आदि तमो मय व्रत ॥८५॥*
*दण्डी मुण्डी सन्न्यासादि त्यागेर प्रकार ।*
*नित्य नैमित्तिक होम आदिर व्यापार ॥८६॥*
*अष्टाङ्ग षड्-अङ्ग योग आदि शुभ कर्म ।*
*सकल-इ प्राकृत तत्त्व एइ सत्य मर्म ॥८७॥*
*उपाय रूपेते तार उपेय साधय ।*
*ना साधिले जड बै किछु आर नय ॥८८॥*
श्री नाम उपाय उपेय
*नाम किन्तु अप्राकृत चिन्मय व्यापार ।*
*साधने उपाय तत्त्व स्ध्ये उपेय सार ॥८९॥*
*अत एव नाम तत्त्व विशुद्ध चिन्मय ।*
*जडोपाय कर्म सह साम्य कभु नय ॥९०॥*
कर्म ज्ञान सह नाम तुल्य नहे
*कर्म ज्ञान सह नामे साम्य बुद्धि यथा ।*
*नाम अपराध गुरुतर घटे तथा ॥९१॥*
अविश्वासी जने नाम उपदेश
*नामे यार विश्वास ना जन्मिल भाग्याभावे ।*
*ताके नाम उपदेशि अपराध पाबे ॥९२॥*
*एइ दुइ अपराध सद्-गुरु-कृपाय ।*
*बहु यत्ने छाडि भाइ नाम धन पाय ॥९३॥*
श्रुते’पि नाम-माहात्म्ये यः प्रीति-रहितो’धमः ।
अहं-ममादि-परमो नाम्नि सो’प्य् अपराध-कृत् ॥११॥९४॥
*नामेर माहात्म्य सब शुनि शास्त्र हैते ।*
*तबु ताहे रति यार नैल कोन मते ॥९५॥*
*अहंता ममता बुद्धि देहेते करिया ।*
*लाभ पूजा प्रतिष्ठाते रहिल मजिया ॥९६॥*
*पापे रत हञा पाप छाडिते ना पारे ।*
*नामे यत्न करि चेष्टा करिबारे नारे ॥९७॥*
*साधु सङ्गे मति नहे असाधु विषये ।*
*सुख पाय विवेक वैराग्य छाडाइये ॥९८॥*
*एइ त नामापराध घटना ताहार ।*
*नामे रुचि नाहि पाय कृष्णेर संसार ॥९९॥*
*एइ दश अपराध नामापराध हय ।*
*नाम धर्मे बाधा देय सुमङ्गल क्षय ॥१००॥*
सर्वापराध-कृद् अपि मुच्यते हरि-संश्रयः ।
हरेर् अप्य् अपराधान् यः कुर्याद् द्विपाद-पांसनः ॥१०१॥
नामाश्रयः कदाचित् स्यात् तरत्य् एष स नामतः ।
नाम्नो हि सर्व-सुहृदो ह्य् अपराधात् पतत्य् अधः ॥१२॥१०२॥
*पाप ताप अपराध जीवेर यत हय ।*
*श्री-हरि-संश्रये सब सद्य हय क्षय ॥१०३॥*
कलिर संसार छाडिया कृष्णेर संसार कर
*कलिर संसार छाडि कृष्णेर संसार ।*
*अकैतवे करे येइ अपराध नाहि तार ॥१०४॥*
*अकैतवे करे यबे आत्म-निवेदन ।*
*कृष्ण तार पूर्व पाप करेन खण्डन ॥१०५॥*
*प्रायश्चित्त करिबारे तार नाहि हय ।*
*दीक्षा मात्र पाप क्षय सर्व शास्त्रे कय ॥१०६॥*
*निष्कपटे हर्षाश्रय करे येइ जन ।*
*सर्व अपराध तार विनष्ट तखन ॥१०७॥*
*आर पाप तापे कभु रुचि नाहि हय ।*
*पुनः पाप दूरे याय माया करे जय ॥१०८॥*
सेवा-अपराध
*तबे तार कभु हय सेवा अपराध ।*
*सेइ अपराधे हय भक्ति क्रिया बाध ॥१०९॥*
*साधु सङ्गे करे कृष्ण नामेर आश्रय ।*
*नामाश्रये सेवा अपराध नष्ट हय ॥११०॥*
*नाम कृपा हैले जीव सर्व शुद्धि पाय ।*
*कृष्णेर निकट गिया करे शुद्ध सेवार आश्रय ॥१११॥*
सर्वदा नामापराध वर्जनीय
*किन्तु यदि नाम अपराध तार हय ।*
*तबे पुनः अधः पात हैबे निश्चय ॥११२॥*
*सर्व जीव बन्धु नाम ताङ्र अपराध ।*
*कोन क्रमे क्षय नहे प्राप्त्ये हय बाध ॥११३॥*
*नाम अपराध त्याग बहु यत्ने करि ।*
*लभे जीव सर्व सिद्धि प्राप्त हय हरि ॥११४॥*
एवं नारदः शङ्करेण कृपया मह्यं मुनीनां परं
प्रोक्तं नाम सुखावहं भगवतो वर्ज्यं सदा यत्नतः ।
ये ज्ञात्वापि न वर्जयन्ति सहसा नामापराधान् दश
क्रुद्धा मातरम् अप्य् अभोजन-पराः खिद्यन्ति ते बालवत् ॥१३॥११५॥
*आमि पूर्वे शिव लोके शङ्कर-सन्निधाने ।*
*नाम अपराध कथा जिज्ञासिलाम मुने ॥११६॥*
*बहु मुनि गण मध्ये शम्भु कृपा करि ।*
*आमाय उपदेश करे कैलास उपरि ॥११७॥*
*भगवानेर नाम सर्व जीव सुखावह ।*
*ताते अपराध सर्व अमङ्गल वह ॥११८॥*
*मङ्गल लभिते यार इच्छा आछे मने ।*
*सदा नाम अपराध वर्जिबे यतने ॥११९॥*
*साधु गुरु सन्निधाने बहु दैन्य धरि ।*
*दश अपराध तत्त्व लबे शिक्षा करि ॥१२०॥*
*अपराध गुलि यत्ने जानिया त्यजिबे ।*
*सत्वरे श्री-हरि-नामे प्रेम उपजिबे ॥१२१॥*
*नाम पेये अपराध वर्जन ना करे ।*
*सहसा ताहारे दश अपराध धरे ॥१२२॥*
अपराध वर्जन ना करिया नाम करा मूढता
*अपराध बुझिया ये वर्जने उदासीन ।*
*तार दुःख निरन्तर सेइ अर्वाचीन ॥१२३॥*
*माये क्रोध करि बालक ना करे भोजन ।*
*सुपथ्य अभावे सदा क्लेशेर भाजन ॥१२४॥*
*सेइ रूप अपराध वर्जन ना करि ।*
*नाम करे मूढ निज शिव परिहरि ॥१२५॥*
अपराध-विमुक्तो हि नाम्नि जप्तं सदाचर ।
नाम्नैव तव देवर्षे सर्वां सेत्स्यति नान्यथा ॥१४॥१२६॥
*सनत् कुमार बले ओहे देवर्षि प्रवर ।*
*निरपराध नाम जप सदा आचर ॥१२७॥*
*नाम विना अन्य पन्था नाहि प्रयोजन ।*
*नामेते सकल सिद्धि पाबे तपो-धन ॥१२८॥*
श्री-नारद उवाच—
सनत्-कुमार प्रिय साहसानां
विवेक-वैराग्य-विवर्जितानाम् ।
देह-प्रियार्थात्म्य-परायणानाम्
उक्तापराधाः प्रभवन्ति नो कथम् ॥१५॥१२९॥
*ओहे सनत्कुमार तुमि सिद्ध हरिदास ।*
*अनायासे करिले नाम रहस्य प्रकाश ॥१३०॥*
साधकेर नामापराध वर्जनोपाय
*साधक आमरा आमादेर बड भय ।*
*अपराध त्यागे यत्न कि रूपेते हय ॥१३१॥*
*विषय मोदेर बन्धु ताहार साहसे ।*
*करिबे सकल कर्म बद्ध माया पाशे ॥१३२॥*
*विवेक वैराग्य शून्य देह प्रिय जन ।*
*अर्थ स्वरूपे मोरा सदा परायण ॥१३३॥*
*कि रूपे साधक मने अपराध दश ।*
*नाहि उपजिबे ताह करह प्रकाश ॥१३४॥*
श्री-सनत्कुमार उवाच—
जाते नामापराधे’पि प्रमादेन कथञ्चन ।
सदा सङ्कीर्तयन् नाम तद्-एक-शरणो भवेत् ॥१३५॥
नामापराध-युक्तानां नामान्य् एव हरन्त्य् अघम् ।
अविश्रान्त-प्रयुक्तानि तान्य् एवार्थ-कराणि च ॥१६॥१३६॥
नामेते शरणापत्ति येइ क्षणे हय ।
तखन-इ नामापराधेर सद्य हय क्षय ॥१३७॥
तथापि प्रमादे यदि उठे अपराध ।
ताहाते-ओ भक्तिते हैया पडे बाध ॥१३८॥
अपराध प्रमादेते हैबे यखन ।
नाम-सङ्कीर्तन तबे करिबे अनुक्षण ॥१३९॥
नामेते शरणागति सुदृढ करिबे ।
अनुक्षण नाम बले अपराध याबे ॥१४०॥
नाम-इ उपाय
*नामे-इ नामापराध हैबेक क्षय ।*
*अपराध नाशिते आर कार-ओ शक्ति नय ॥१४१॥*
*ए विषये मूल-तत्त्व बलि हे तोमाय ।*
*बुझह नारद तुमि वेदे याहा गाय ॥१४२॥*
नामैकं यस्य वाचि स्मरण-पथ-गतं श्रोत्र-मूलं गतं वा
शुद्धं वाशुद्ध-वर्णं व्यवहित-रहितं तारयत्य् एव सत्यम् ।
तच् चेद् देह-द्रविण-जनता-लोभ-पाषण्ड-मध्ये
निक्षिप्तं स्यान् न फल-जनकं शीघ्रम् एवात्र विप्र ॥१७॥१४३॥
*यार मुखे उच्चारित एक कृष्ण नाम ।*
*याहार स्मरण पथे एक नाम गुण धाम ॥१४४॥*
*यार श्रोत्र मूले ताहा प्रवेश करिबे ।*
*व्यवहित रहित हैले तखन-इ तारिबे ॥१४५॥*
*व्यवहित एइ शब्दे दुइ अर्थ हय ।*
*अक्षरेर व्यवधाने नाम आच्छादय ॥१४६॥*
*अविद्यार आच्छादने प्राकृत प्रकाश ।*
*नाम नामी एक भावे अविद्या विनाश ॥१४७॥*
*व्यवहित रहित हैले शुद्ध नामोदय ।*
*वर्ण-शुद्धाशुद्धि-क्रमे दोष नाहि हय ॥१४८॥*
*अप्राकृत नामे कृष्ण सर्व शक्ति दिल ।*
*कालाकाल शौचाशौच नामे ना रहिल ॥१४९॥*
*सर्व काल सर्वावस्थाय शुद्ध नाम कर ।*
*सर्व शुभोदय हबे सर्वाशुभ हर ॥१५०॥*
असत् सङ्ग त्याग पूर्वक नाम ग्रहण
*एमत अपूर्व नाम सङ्ग युक्त यथा ।*
*शीघ्र शुभ फल दाता ना हय सर्वथा ॥१५१॥*
*देह धन जन लोभ पाषण्ड सङ्ग क्रमे ।*
*व्यवहित जन्मे जीव पडे महा भ्रमे ॥१५२॥*
*अत एव सकलेर अग्रे सङ्ग त्यजि ।*
*अनन्य शरण लञा नाम मात्र भजि ॥१५३॥*
*नाम कृपा बले हबे प्रमाद रहित ।*
*अपराध दूरे याबे हैबेक हित ॥१५४॥*
*अपराध मुक्त हञा लय कृष्ण नाम ।*
*प्रेम आसि नाम सह करिबे विश्राम ॥१५५॥*
*अपराधीर नाम लक्षण कैतव निश्चय ।*
*से सङ्ग यतने छाडि कर नामाश्रय ॥१५६॥*
इदं रहस्यं परमं पुरा नारद शङ्करात् ।
श्रुतं सर्वाशुभ-हरम् अपराध-निवारकम् ॥१५७॥
विदुर् विप्राभिधानं ये ह्य् अपराध-परा नराः ।
तेषाम् अपि भवेन् मुक्तिः पठनाद् एव नारद ॥१८॥१५८॥
*सनत्-कुमार बले—ओहे देवर्षि प्रवर ।*
*पूर्वे श्री-शङ्कर मोरे हञा दया पर ॥१५९॥*
*श्री-नाम-रहस्य सर्व अशुभ नाशन ।*
*अपराध निवारक कैल विज्ञापन ॥१६०॥*
*अपराध पर जन विष्णु नाम जानि ।*
*पाठ करिले-इ मुक्ति लभे इहा मानि ॥१६१॥*
नाम रहस्य पटल प्रचार
*ओहे स्वरूप राम राय ए नाम रहस्य *
*पटल यतने प्रचार करिबे अवश्य ॥१६२॥*
*कलिते जीवेर नाहि अन्य प्रतिकार ।*
*नाम रहस्येते पार हैबे संसार ॥१६३॥*
*पूर्वे मुञि शिक्षाष्टके ये तत्त्व कहिल ।*
*एबे व्यास-वाक्ये ताहा पुनः देखाइल ॥१६४॥ \
यतने रहस्य पटल प्रचारिबे सबे ।*
*सर्व क्षण आलोचिया नाम लबे तबे ॥१६५॥*
नामाचार्य ठाकुर हरिदासेर आनुगत्ये श्री नाम भजन
*पृथिवीर शिरोमणि छिल हरिदास । (३.११.९७)*
*एइ नाम रहस्य सब करिल प्रकाश ॥१६६॥*
*प्रचारिल आचरिल एइ नाम धर्म ।*
*नामेर आचार्य हरिदास जान मर्म ॥१६७॥*
*हरिदासेर अनुगत हैया श्री नाम ।*
*भजिबे ये जन सेइ नित्य सिद्ध काम ॥१६८॥*
(२०)
नाम महिमा
*एक दिन कृष्ण दास काशी मिश्रेर घरे ।*
*आपन गौहारि किछु कहिल प्रभुरे ॥१॥*
*आज्ञा हय शुनि कृष्ण नामेर महिमा ।*
*ये महिमार ब्रह्मा शिव नाहि जाने सीमा ॥२॥*
*प्रभु बले कृष्ण नामेर महिमा अपार ।*
*कृष्ण निजे नाहि जाने कि जानिब जीव छार ॥३॥*
*शास्त्रे याहा शुनियाछि कहिब तोमारे ।*
*विश्वास करिया शुन याबे भव पारे ॥४॥*
*सर्व पाप प्रशमक सर्व व्याधि नाश ।*
*सर्व दुःख विनाशन कलि बाधा ह्रास ॥५॥*
*नारकि उद्धार आर प्रारब्ध खण्डन ।*
*सर्व अपराध क्षय नामे सर्व क्षण ॥६॥*
*सर्व सत् कर्मेर पूर्ति नामेर विलास ।*
*सर्व वेदाधिक नाम सूर्येर प्रकाश ॥७॥*
*सर्व तीर्थेर अधिक नाम सर्व शास्त्र कय ।*
*सकल सत् कर्माधिक्य नामेते उदय ॥८॥*
*सर्वार्थ प्रदाता नाम सर्व शक्ति मय ।*
*जगत् आनन्द कारी नामेर धर्म हय ॥९॥*
*नाम लञा जगद्-वन्द्य हय सर्व जन ।*
*अगतिर गति नाम पतित पावन ॥१०॥*
*सर्वत्र सर्वदा सेव्य सर्व मुक्ति दाता ।*
*वैकुण्ठ प्रापक नाम हरि प्रीति दाता ॥११॥*
*नाम स्वयं पुरुषार्थ भक्त्य्-अङ्ग-प्रधान ।*
*श्रुति-स्मृति-शास्त्रे आछे बहुत प्रमाण ॥१२॥*
नाम सर्व पाप विनाशक
*सर्व पाप नाश करा नामेर एक धर्म ।*
*प्रथमे ताहा-इ स-प्रमाण शुन मर्म ॥१३॥*
*पापी अजामिल देख विवश हैया ।*
*हरिनाम उच्चारिल नारायण बलिया ॥१४॥*
*कोटि कोटि जन्मे पाप करियाछे यत ।*
*से सकल हैते मुक्त हैल साम्प्रत ॥१५॥*
अयं हि कृत-निर्वेशो जन्म-कोट्य्-अंहसाम् अपि ।
यद् व्याजहार विवशो नाम स्वस्त्य्-अयनं हरेः ॥१६॥
[भ्प् ६.२.७, ह्ब्व् ११.३३१]
*स्त्री राज गो ब्राह्मण घाती मद्य रत ।*
*गुरु पत्नी गामी मित्र द्रोही चौर्य व्रत ॥१७॥*
*ए सबेर पाप आर अन्य पाप चय ।*
*हरिनाम उच्चारणे सब परिष्कृत हय ॥१८॥*
*पाप सुनिष्कृत हैले कृष्णे हय मति ।*
*एइ रूपे नामे जीवेर हय त सद्-गति ॥१९॥*
स्तेनः सुरा-पो मित्र-ध्रुग् ब्रह्म-हा गुरु-तल्प-गः ।
स्त्री-राज-पितृ-गो-हन्ता ये च पातकिनो ऽपरे ॥२०॥
सर्वेषाम् अप्य् अघवताम् इदम् एव सुनिष्कृतम् ।
नाम-व्याहरणं विष्णोर् यतस् तद्-विषया मतिः ॥२१॥
[भ्प् ६.२.९-१०, ह्ब्व् ११.३३२-३]
व्रतादि नामेर निकट तुच्छ
*चान्द्रायण-व्रत आदि शास्त्रोक्त प्रकारे ।*
*पाप हैते पापीके नाहि से रूप निस्तारे ॥२२॥*
*कृष्ण नाम एक बार उच्चारित यबे ।*
*सर्व पाप हैते पापी मुक्त हय तबे ॥२३॥*
न निष्कृतैर् उदितैर् ब्रह्म-वादिभिस्
तथा विशुद्ध्यत्य् अघवान् व्रतादिभिः ।
यथा हरेर् नाम-पदैर् उदाहृतैस्
तद् उत्तमश्लोक-गुणोपलम्भकम् ॥२४॥
[भ्प् ६.१२.११, ह्ब्व् ११.३३४]
*सङ्केत वा परिहास स्तोभ हेला करि ।*
*नामाभासे कभु यदि बले कृष्ण हरि ॥२५॥*
*अशेष पातक तार दूरे याय तबे ।*
*श्री-वैकुण्ठे नीत हय यमदूतेर पराभवे ॥२६॥*
साङ्केत्यं पारिहास्यं वा स्तोभं हेलनम् एव वा ।
वैकुण्ठ-नाम-ग्रहणम् अशेषाघ-हरं विदुः ॥२७॥
[भ्प् ६.२.१४, ह्ब्व् ११.३३५]
*पडि खसि भग्न दष्ट दग्ध वा आहत ।*
*हैया विवशे बले आमि हैनु हत ॥२८॥*
*कृष्ण हरि नारायण नाम मुखे डाके ।*
*यातना कखन आश्रय ना करे ताहाके ॥२९॥*
पतितः स्खलितो भग्नः सन्दष्टस् तप्त आहतः ।
हरिर् इत्य् अवशेनाह पुमान् नार्हति यातनाः ॥३०॥
[भ्प् ६.२.१५, ह्ब्व् ११.३३६]
ज्ञाने वा अज्ञाने नाम
*अज्ञाने वा ज्ञाने कृष्ण नाम सङ्कीर्तने ।*
*सर्व पाप भस्म हय यथा काष्ठ अग्न्य्-अर्पणे ॥३१॥*
अज्ञानाद् अथवा ज्ञानाद् उत्तमश्लोक-नाम यत् ।
सङ्कीर्तितम् अघं पुंसो दहेद् एधो यथानलः ॥३२॥
[भ्प् ६.२.१८, ह्ब्व् ११.३३७]
प्रारब्ध अप्रारब्ध समस्त पाप नाश
*वर्तमान पाप आर पूर्व जन्मार्जित ।*
*भविष्यते हबे याहा से सकल हत ॥३३॥*
*अनायासे हबे कृष्ण नाम सङ्कीर्तने ।*
*नाम विना बन्धु नाहि जीवेर जीवने ॥३४॥*
वर्तमानं तु यत् पापं यद् भूतं यद् भविष्यति ।
तत् सर्वं निर्दहत्य् आशु गोविन्दानल-कीर्तनात् ॥३५॥
[लघुभा, ह्ब्व् ११.३३९]
द्रोहकारीर मुक्ति
*महीतले सज्जनेर प्रति पापाचारे ।*
*नाम कीर्तनेते मुक्ति लभे सर्व नरे ॥३६॥*
सदा द्रोह-परो यस् तु सज्जनानां मही-तले ।
जायते पावनो धन्यो हरेर् नामानुकीर्तनात् ॥३७॥
[लघुभा, ह्ब्व् ११.३४०]
कोटि प्रायश्चित्त नाम तुल्य नहे
*शास्त्रे कोटि कोटि प्रायश्चित्त आछे कहे ।*
*किन्तु कृष्ण कीर्तनेर तुल्य केह नहे ॥३८॥*
वसन्ति यानि कोटिस् तु पावनानि महीतले ।
न तानि तत्-तुलां यान्ति कृष्ण-नामानुकीर्तने ॥३९॥
[कुर्मप्, ह्ब्व् ११.३४१]
नाम-ग्रहण कारीर पाप थाके ना
*हरिनाम यत पाप निर्हरण करे ।*
*तत पाप पापी कभु करिते ना पारे ॥४०॥*
नाम्नो’स्य यावती शक्तिः पाप-निर्हरणे हरेः ।
तावत् कर्तुं न शक्नोति पातकं पातकी जनः ॥४१॥
[बृहद्-विष्णु-पुराणे ह्ब्व् ११.३४२॥
*मनो-वाक्-काय-ज पाप तत नाहि हय ।*
*कलिते गोविन्द नामे नाहि हय क्षय ॥४२॥*
तन् नास्ति कर्मजं लोके वाग्-जं मानसम् एव वा ।
यन् न क्षपयते पापं कलौ गोविन्द-कीर्तनम् ॥४३॥
[स्कान्द, ह्ब्व् ११.३४४]
नामे सर्व-रोग नाश हय
*नामे सर्व व्याधि ध्वंस सर्व शास्त्रे गाय ।*
*ओगो स्थानेस्वरी भक्त बलि हे तोमाय ॥४४॥*
*सत्य सत्य ब्लि लह विश्वास करिया ।*
*अच्युतानन्द गोविन्द एइ नाम उच्चारिया ॥४५॥*
*काङ्दिया काङ्दिया डक श्री मधुसूदन ।*
अच्युतानन्द-गोविन्द-नामोच्चरण-भीषितः ।
नश्यन्ति सकला रोगाः सत्यं सत्यं वदाम्य् अहम् ॥४६॥
[बृहन्-नारदीय ह्ब्व् ११.३५३॥
नामे महा पातकी पङ्क्ति पावन हय
*महा पातकी-ओ अहर्निश हरि गाने ।*
*शुद्ध हञा गण्य हय सुपङ्क्ति पावने ॥४७॥*
महा-पातक-युक्तो’पि कीर्तयेन्न् अनिशं हरिम् ।
शुद्धान्तःकरणो भूत्वा जायते पङ्क्ति-पावनः ॥४८॥
[ब्रह्माण्ड, ह्ब्व् ११.३४८]
भय ओ दण्ड निवारण
*महा व्याधि भय ओ वा राज दण्ड भय ।*
*नारायण सङ्कीर्तने निरातङ्क हय ॥४९॥*
महा-व्याधि-समाच्छन्नो राज-वधोपापिदितः ।
नारायणेति सङ्कीर्त्य निराटङ्को भवेन् नरः ॥५०॥
[वह्नि-पुराणे ह्ब्व् ११.३५६]
*सर्व-रोग सर्व-क्लेश उपद्रव सने ।*
*अरिष्टादि-विनाश हय हरि उच्चारणे ॥५१॥*
सर्व-रोगोपशमनं सर्वोपद्रव-नाशनम् ।
शान्तिदं सर्वारिष्टानां हरेर् नामानुकीर्तनम् ॥५२॥
[[ब्र्हद्-विष्णु-पुराणे ह्ब्व् ११.३५७॥
*यथा अति वायु बले मेघ दूरे याय ।*
*सूर्योदये तमो नाश अवश्य-इ पाय ॥५३॥*
*तथा सङ्कीर्तित नाम जीवेर व्यसन ।*
*दूर करे स्व-प्रभावे ए व्यास-वचन ॥५४॥*
सङ्कीर्त्यमानो भगवान् अनन्तः
श्रुतनुभावो व्यसनं हि पुंसाम् ।
प्रविश्य चित्तं विधुनोत्य् अशेषं
यथा तमो’र्को’भ्रम् इवाति-वातः ॥५५॥
[भ्प् १२.१२.४८, ह्ब्व् ११.३५९]
*आर्त वा विषण्ण शिथिल-मना भीत ।*
*घोर-व्याधि-क्लेशे आर ना देखे हित ॥५६॥*
*नारायण हरि बलि करे सङ्कीर्तन ।*
*निश्चय विमुक्त-दुःख सुखी सेइ जन ॥५७॥*
आर्ता विषण्णाः शिथिलाश् च भीता
घोरेषु च व्याधिषु वर्तमानाः ।
सङ्कीर्त्य नारायण-शब्दम् एकं
विमुक्त-दुःखाः सुखिनो भवन्ति ॥५८॥
[विष्णु-धर्मोत्तरे ह्ब्व् ११.३६०]
*असीम शक्तिमान् विष्णु ताङ्हार कीर्तने ।*
*यक्ष रक्ष वेतालादि भूत प्रेत गणे ॥५९॥*
*विनायक डकिन्यादि हिंस्रक समस्त ।*
*पलायन करे सब दुःख हय अस्त ॥६०॥*
*सर्वानर्थ-नाशी हरिनाम सङ्कीर्तन ।*
*क्षुधा तृष्णा स्खलितादि विपद-नाशन ॥६१॥*
*इहाते संशय यथा निश्चय तथाय ।*
*नामेर विक्रम कभु ना हय उदय ॥६२॥*
*विश्वासे नामेर कृपा अविश्वासे नय ।*
*ए एक रहस्य भक्त जानह निश्चय ॥६३॥*
कीर्तनद् देव-देवस्य विष्णोर् अमित-तेजसः ।
यक्ष-रक्षस-वेतल-भूत-प्रेत-विनयकः ॥६४॥
दकिन्यो विद्रवन्ति स्म ये तथान्ये च सिंहकः ।
सर्वानर्थ-हरं तस्य नाम-सङ्कीर्तनं स्मृतम् ॥६५॥
नाम-सङ्कीर्तनं कृत्वा क्षुट्-तृट्-प्रस्खलितादिषु ।
वियोगम् शीघ्रम् आप्नोति सर्वानर्थैर् न संशयः ॥६६॥
[विष्णु-धर्मोत्तरे ह्ब्व् ११.३६१-३]
*कलि काल कुसर्पेर तीक्ष्ण दंष्ट्रा हेरि ।*
*भय ना करिओ भक्त शुन श्रद्धा करि ॥६७॥*
*कृष्ण नाम दावानल प्रज्ज्वलित हञा ।*
*से सर्पेर दंष्ट्रा दग्ध करिबे फेलिया ॥६८॥*
कलि-कल-कु-सर्पस्य तीक्ष्ण-दंष्ट्रस्य मा भयम् ।
गोविन्द-नाम-दावेन दग्धो यास्यति भस्मताम् ॥६९॥
[स्कान्द, ह्ब्व् ११.३६५]
*एइ घोर कलि-युगे हरि नामाश्रये ।*
*कृत कृत्य भक्त गण त्यक्त अनाश्रये ॥७०॥*
*हरे केशव गोविन्द वासुदेव जगन्मय ।*
*एइ नाम सङ्कीर्तने बड सुखोदय ॥७१॥*
*सदा येइ गाय नाम विश्वास करिया ।*
*कलि बाधा नाहि तार सदा शुद्ध हिया ॥७२॥*
हरि-नाम-परा ये च घोरे कलि-युगे नराः ।
त एव कृत-कृत्याश् च न कलिर् बाधते हि तान् ॥७३॥
हरे केशव गोविन्द वासुदेव जगन्-मय ।
इतीरयन्ति ते नित्यं न हि तान् बाधते कलिः ॥७४॥
[बृहन्नारदीय, ह्ब्व् ११.३६६-७]
*नारकी कीर्तन करे हरि कृष्ण बलि ।*
*हरि भक्त हञा याय दिव्य धामे चलि ॥७५॥*
यथा यथा हरेर् नाम कीर्तयन्ति स्म नारकाः ।
तथा तथा हरौ भक्तिम् उद्वहन्तो दिवं ययुः ॥७६॥
[नारसिंहे ह्ब्व् ११.३६९]
*प्रारब्ध-खण्डन केवल हरि नामे हय ।*
*ज्ञान-कर्मे सेइ फल कभु ना मिलय ॥७७॥*
*विना हरि कीर्तन कभु कर्म बन्ध ।*
*खण्डन ना हय मुमुक्षुता नहे लब्ध ॥७८॥*
*ये मुक्ति लभिले आर ना हय कर्म सङ्ग ।*
*रजस् तमो दोष हीन शून्य माया-सङ्ग ॥७९॥*
नातः परं कर्म-निबन्ध-कृन्तनं
मुमुक्षतां तीर्थ-पदानुकीर्तनात् ।
न यत् पुनः कर्मसु सज्जते मनो
रजस्-तमोभ्यां कलिलं ततो’न्यथा ॥८०॥
[भ्प् ६.२.४६, ह्ब्व् ११.३७१]
*म्रियमाण क्लिष्ट जन पडिते खसिते ।*
*विवश हैया कृष्ण बले कोन मते ॥८१॥*
*कर्मार्गल मुक्त हञा लभे परा गति ।*
*कलि काले याहा नाहि लभे अन्य मति ॥८२॥*
यन्-नाम-धेयं म्रियमाण आतुरः
पतन् स्खलन् वा विवशो गृणन् पुमान् ।
विमुक्त-कर्मार्गल उत्तमां गतिं
प्राप्नोति यक्ष्यन्ति न तं कलौ जनाः ॥८३॥
[भ्प् १२.३.४४, ह्ब्व् ११.३७२]
*श्रद्धा करि नाम लैले अपराध कोटी ।*
*क्षमा करे कृष्ण यदि ना थाके कुटिनाटी ॥८४॥*
*इहाते विश्वास यार ना हय से जन ।*
*बड-इ दुर्भागा तार नाहिक मोचन ॥८५॥*
मम नामानि लोके’स्मिन् श्रद्धया यस् तु कीर्तयेत् ।
तस्यापराध-कोटिस् तु क्षमाम्य् एव न संशयः ॥८६॥
[विष्णु-यामले ह्ब्व् ११.३७५]
*मन्त्र तन्त्र छिद्र देश काल वस्तु दोष ।*
*नाम सङ्कीर्तने याय पाय परम सन्तोष ॥८७॥*
*सत् कर्म प्रधान नाम ताहार आश्रये ।*
*अन्य सत् कर्मेर सिद्धि हैबे निश्चये ॥८८॥*
मन्त्रतस् तन्त्रतश् छिद्रं देश-कालार्ह-वस्तुतः ।
सर्वं करोति निश्छिद्रम् अनुसङ्कीर्तनं तव ॥८९॥
[भ्प् ८.२३.१६, ह्ब्व् ११.३७६]
*सर्व वेदाधिक नाम इहाते संशय ।*
*ये करे ताहार कभु मङ्गल ना हय ॥९०॥*
*प्रणव कृष्णेर नाम याहा हैते वेद ।*
*जन्मिल ब्रह्मार मुखे बुझ तत्त्व भेद ॥९१॥*
*ऋक्-यजु-सामाथर्व से कैल पठन ।*
*हरि हरि यार मुखे शुनि अनुक्षण ॥९२॥*
र्ग्-वेदो हि यजुर्-वेदः साम-वेदो’प्य् अथर्वणः ।
अधीतस् तेन येनोक्तं हरिर् इत्य् अक्षर-द्वयम् ॥९३॥
[विष्णु-धर्मोत्तरे, ह्ब्व् ११.३७८]
*ऋक् यजु सामाथर्व पठ कि कारण ।*
*गोविन्द गोविन्द नाम करह कीर्तन ॥९४॥*
मा ऋचो मा यजुस् तात मा साम पठ किंचन ।
गोविन्देति हरेर् नाम गेयं गायस्व नित्यशः ॥९५॥
[स्कान्दे, ह्ब्व् ११.३७९॥
*विष्णुर प्रत्येक नाम सर्व वेदाधिक ।*
*राम नाम जान सहस्र नामेर अधिक ॥९६॥*
विष्णोर् एकैक-नामापि सर्व-वेदाधिकं मतम् ।
तदृङ्-नाम-सहस्रेण राम-नाम समं स्मृतम् ॥९७॥
[पाद्मे ह्ब्व् ११.३८०]
*सहस्र नाम तिन बार आवृत्ति करिले ।*
*येइ फल हय ताहा एक कृष्ण नामे मिले ॥९८॥*
*कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण हे ।*
*एइ नाम सर्व क्षण भक्त सब कर हे ॥९९॥*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।*
*हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥१००॥*
*एइ षोल नामे सर्व दिक् बजाय रहिल हे ।*
*सर्व फल सिद्धि लाभ एइ षोल नामे हैबे हे ॥१०१॥*
सहस्र-नाम्नां पुण्यानां त्रिर्-आवृत्त्या तु यत् फलम् ।
एकावृत्त्या तु कृष्णस्य नामैकं तत् प्रयच्छति ॥१०२॥
[ब्रह्माण्ड ह्ब्व् ११.४८८]
*तीर्थ यात्रा परिश्रमे किबा फल हबे ।*
*हरे कृष्ण नित्य गाने सब फल पाबे ॥१०३॥*
*किबा कुरुक्षेत्र काशी पुष्कर भ्रमणे ।*
*जिह्वाग्रेते हरि नाम याङ्र क्षणे क्षणे ॥१०४॥*
कुरुक्षेत्रेण किं तस्य किं कस्य पुस्करेण वा ।
जिह्वाग्रे वसते यस्य हरिर् इत्य् अक्षर-द्वयम् ॥१०५॥
[स्कान्दे ह्ब्व् ११.३८१]
*कोटि शत कोटि सहस्र तीर्थे याहा नय ।*
*हरिनाम कीर्तनेते सेइ फल हय ॥१०६॥*
तीर्थ-कोटि-सहस्राणि तीर्थ-कोटि-शतानि च ।
तनि सर्वाण्य् अवाप्नोति विष्णोर् नामानुकीर्तनात् ॥१०७॥
[वामन ह्ब्व् ११.३८२]
*कुरुक्षेत्रे बसि विश्वामित्र ऋषि बले ।*
*शुनियाछि बहु तीर्थ नाम धरातले ॥१०८॥*
*हरिनाम कीर्तनेर कोटि अंश तुल्य ।*
*कोन तीर्थ नाहि एइ वाक्य बहु मूल्य ॥१०९॥*
विश्रुताणि बहून्य् एव तीर्थानि बहुधानि च ।
कोत्य्-अंशेनापि तुल्यानि नाम-कीर्तनतो हरेः ॥११०॥
[विश्वामित्र-संहिता, ह्ब्व् ११.३८३]
*वेदागम बहु शास्त्रे किबा प्रयोजन ।*
*केन करे लोक बहु तीर्थादि भ्रमण ॥१११॥*
*आत्म-मुक्ति-वाञ्छा यार सेइ सर्व-क्षण ।*
*गोविन्द गोविन्द बलि करुक कीर्तन ॥११२॥*
किं तत वेदागम-शास्त्र-विस्तरैस्
तीर्थैर् अनेकैर् अपि किं प्रयोजनम् ।
यद्य् आत्मनो वाञ्छसि मुक्ति-कारणं
गोविन्द गोविन्द इति स्फुतम् रट ॥११३॥
[लघु-भागवते ह्ब्व् ११.३८४]
सर्व-सत्-कर्माधिक नाम जानह निश्चय ।
एइ कथा विश्वासिले सर्व धर्म हय ॥११४॥
सूर्य उपराग कोटि कोटि गरु दान ।
प्रयागेते कल्प वास माघेते विधान ॥११५॥
अयुत यज्ञादि कर्म स्वर्ग-मेरु दान ।
शतांशेते हरि नामेर ना हय समान ॥११६॥
गो-कोटि-दानं ग्रहणे खगस्य
प्रयाग-गङ्गोदक-कल्प-वासः ।
यज्ञायुतं मेरु-सुवर्ण-दानं
गोविन्द-कीर्तेर् न समं शतांशैः ॥११७॥
[लघु-भागवते ह्ब्व् ११.३८५]
इष्ट-पूर्त कर्म बहु बहु कृत हैले ।
तथापि से सब भव हेतु शास्त्रे बले ॥११८॥
हरिनाम अनायासे भव मूर्ति धर ।
कर्म फल नामेर काछे अकिञ्चित्कर ॥११९॥
इष्ट-पूर्तानि कर्माणि सु-बहूनि कृतान्य् अपि ।
भव-हेतूनि तान्य् एव हरेर् नाम तु मुक्तिदम् ॥१२०॥
[बौधयन-संहिता, ह्ब्व् ११.३८६]
साङ्ख्य अष्टाङ्गादि योगे इबा आशा धर ।
मुक्ति चाओ गोविन्द कीर्तन सदा कर ॥१२१॥
मुक्ति-ओ सामान्य फल नामेर निकटे ।
हेलाय करिले नाम जीवेर मुक्ति घटे ॥१२२॥
किं करिष्यति साङ्ख्येन किं योगैर् नर-नायक ।
मुक्तिम् इच्छसि राजेन्द्र कुरु गोविन्द-कीर्तनम् ॥१२३॥
[गारुडे ह्ब्व् ११.३८८]
श्वपच हैले-ओ द्विज-श्रेष्ठ बलि तारे ।
याहार जिह्वाग्रे कृष्ण-नाम नृत्य करे ॥१२४॥
सर्व-तप कैल सर्व तीर्थे कैल स्नान ।
सर्व वेद अध्ययने आर्य मतिमान् ॥१२५॥
एइ सब साधनेर बले भाग्यवान् ।
रसनाय सदा करे हरिनाम गान ॥१२६॥
अहो बत श्वपचो’तो गरीयान्
यज्-जिह्वाग्रे वर्तते नाम तुभ्यम् ।
तेपुस् तपस् ते जुहुवुर् सस्नुर् अर्या
ब्रह्मानूचुर् नाम गृह्णन्ति ये ते ॥१२७॥
[भ्प् ३.३३.७, ह्ब्व् ११.३८९]
सर्व अर्थ दाता हरिनाम महामन्त्र ।
फुकारिया बले यत वेदागम तन्त्र ॥१२८॥
हरिनाम बले सर्व षड्-वर्ग दमन ।
रिपु निग्रहण आर अध्यात्म साधन ॥१२९॥
एतत् सद्-वर्ग-हरणम् रिपु-निग्रहणं परम् ।
अध्यात्म-मूलम् एतद् धि विष्णोर् नामानुकीर्तनम् ॥१३०॥
स्कान्दे ह्ब्व् ११.३९०]
गुणज्ञ सार भुक् आर्य कलिके सम्माने ।
सर्व स्वार्थ लभि कलौ नाम सङ्कीर्तने ॥१३१॥
कलिं सभाजयन्त्य् आर्या गुण-जाः सार-भागिनः ।
यत्र सङ्कीर्तनेनैव सर्वः स्वर्थो’भिलभ्यते ॥१३२॥
[भ्प् ११.५.३६, ह्ब्व् ११.३९६]
सर्व शक्तिमान् नाम कृष्णेर समान ।
कृष्णेर सकल शक्ति नामेर् वर्तमान ॥१३३॥
दान व्रतस् तपस् तीर्थे छिल यत शक्ति ।
देव गणे कर्म काण्डे हैया विभक्ति ॥१३४॥
राजसूये अश्वमेधे आध्यात्मिक ज्ञाने ।
सब आकर्षिया कृष्ण निल आपन नामे ॥१३५॥
दान-व्रत-तपस्-तीर्थ-यात्रादीनां च याः स्थिताः ।
शक्तयो देव-महतां सर्व-पाप-हराः शुभाः ॥१३६॥
राज-सूयाश्वमेधानां ज्ञानस्याध्यात्म-वस्तुनः ।
आकृष्य हरिणा सर्वाः स्थापिताः स्वेषु नामसु ॥१३७॥
[स्कान्दे, ह्ब्व् ११.३९८-३९९]
देवदेव श्री-कृष्णेर सर्व अर्थ शक्ति ।
युक्त सब नाम तङ्हि मध्ये याते अनुरक्ति ॥१३८॥
सेइ नाम सर्व अथे योजना करिबे ।
सर्व अर्थ शक्ति हैते सकले-इ मिलिबे ॥१३९॥
सर्वार्थ-शक्ति-युक्तस्य देवदेवस्य चक्रिणः ।
यच् चाभिरुचितं नाम तत् सर्वार्थेषु योजयेत् ॥१४०॥
ब्रह्माण्डे ह्ब्व् ११.४०१]
हृषीकेश सङ्कीर्तने जगद् आनन्दित ।
अनुरागे हृष्ट-चित्त सर्वदा सम्प्रीत ॥१४१॥
दैत्य रक्ष भीत हैया पलाइया याय ।
सिद्ध सङ्घ सदा प्रणमित ताङ्र पाय ॥१४२॥
येइ कृष्ण सेइ नाम नामेर प्रभाव ।
उपयुक्त बटे ताते ना थाके अभाव ॥१४३॥
स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या
जगत् प्रहृष्यत्य् अनुरज्यते च ।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति
सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंघाः ॥१४४॥
[गीता ११.३६, ह्ब्व् ११.४०२]
वर्णादि विचार नाहि नाम सङ्कीर्तने ।
दीक्षा-पुरश्चर्या विधि बाध्य नाइ गणे ॥१४५॥
नारायण जगन्नाथ वासुदेव जनार्दन ।
यार मुखे सदा शुनि पूज्य गुरु येइ जन ॥१४६॥
शयने स्वपने आर चलिते बसिते ।
कृष्ण-नाम करे येइ पूज्य सर्व मते ॥१४७॥
नारायण जगन्नाथ वासुदेव जनार्दन ।
इतीरयन्ति ये नित्यं ते वै सर्वत्र वन्दिताः ॥१४८॥
स्वपन् भुञ्जन् व्रजंस् तिष्ठंश् च वदंस् तथा ।
ये वदन्ति हरेर् नाम तेभ्यो नित्यं नमो नमः ॥१४९॥
बृहन्-नारदीये, ह्ब्व् ११.४०३-४]
स्त्री-शूद्र-पुक्कश-यवनादि केन नय ।
कृष्ण-नाम गाय सेओ गुरु पूज्य हय ॥१५०॥
स्त्री शूद्रः पुक्कशो वापि ये चान्ये पाप-योनयः ।
कीर्तयन्ति हरिं भक्त्या तेभ्यो’पीह नमो नमः ॥१५१॥
नारायण-व्यूह-स्तवे, ह्ब्व् ११.४०५]
अन्य गति शून्य भोगी पर उपतापी ।
ब्रह्मचर्य ज्ञान वैराग्य हीन पापी ॥१५२॥
सर्व धर्म शून्य नाम जपी यदि हय ।
ताहार ये सुगति ताहा सर्व धार्मिकेर नय ॥१५३॥
अनन्य-गतयो मर्त्या भोगिनो’पि परन्तपाः ।
ज्ञान-वैराग्य-रहिता ब्रह्मचर्यादि-वर्जिताः ॥१५४॥
सर्व-धर्मोज्झिता विष्णोर् नाम-मात्रैक-जल्पकाः ।
सुखेन यां गतिं यान्ति न तां सर्वे’पि धार्मिकाः ॥१५५॥
पाद्मे, ह्ब्व् ११.४०६-७]
हरि नाम ग्रहणे देश कालेर नियम नाइ ।
उच्छिष्ट अशौचे विधि निषेध ना पाइ ॥१५६॥
एक बार मुखे बले हरि दु अक्षर ।
सेइ जन मोक्ष प्रति बद्ध परिकर ॥१५७॥
न देश-नियमस् तस्मिन् न काल-नियमस् तथा ।
नोच्छिष्ठादौ निषेधो’स्ति श्री-हरेर् नाम्नि लुब्धक ॥१५८॥
विष्णु-धर्म, ह्ब्व् ११.४०८]
कृष्ण-नाम सदा सर्वत्र करह कीर्तन ।
अशौचादि नाहि मान नाम स्वतन्त्र पावन ॥१५९॥
चक्रायुधस्य नामानि सदा सर्वत्र कीर्तयेत् ।
नाशौचं कीर्तने तस्य स पवित्र-करो यतः ॥१६०॥
[स्कान्दे ह्ब्व् ११.४०९॥
*यज्ञे दाने स्नाने जपे आछे कालेर नियम ।*
*कृष्ण कीर्तने कालाकाल चिन्ता महाभ्रम ॥१६१॥*
*देश काल नियमादि नामे कभु नाइ ।*
*कृष्ण कीर्तन सदा करह सबाइ ॥१६२॥*
न देश-नियमो राजन् न काल-नियमस् तथा ।
विद्यते नात्र सन्देहो विष्णोर् नामानुकीर्तने ॥१६३॥
कालो’स्ति दाने यज्ञे च स्थाने कालो’स्ति सज्-जपे ।
विष्णु-सङ्कीर्तने कालो नास्त्य् अत्र पृथिवी-तले ॥१६४॥
[वैष्णव-चिन्तामणौ, ह्ब्व् ११.४१२-३]
*संसारे निर्विण्ण-चित्ते अभ्य-पद चाय ।*
*हेन योगीर जन्य नाम एकमात्र उपाय ॥१६५॥*
एतन् निर्विद्यमानानाम् इच्छताम् अकुतो-भयम् ।
योगिनां नृप निर्णीतं हरेर् नामानुकीर्तनम् ॥१६६॥
[भ्प् २.१.११, ह्ब्व् ११.४१४]
*हरिनाम विना आर सहज मुक्ति दाता ।*
*केह नाहि त्रि जगते नाम-इ जीवेर त्राता ॥१६७॥*
*एक बार मुखे बले हरि दु अक्षर ।*
*सेइ जन मोक्ष प्रति बद्ध परिकर ॥१६८॥*
सकृद् उच्चारितं येन हरिर् इत्य् अक्षर-द्वयम् ।
बद्धः परिकरस् तेन मोक्षाय गमनं प्रति ॥१६९॥
[पद्म-पुराणे, ह्ब्व् ११.४१७]
*जित निद्र हञा एक बार नारायण बले ।*
*शुद्ध चित्त हञा सेइ निर्वाण पथे चले ॥१७०॥*
सकृद् उच्चारयेद् यस् तु नारायणम् अतन्द्रितः ।
शुद्धान्तःकरणो भूत्वा निर्वाणम् अधिगच्छति ॥१७१॥
[ब्रह्म-पुराणे, ह्ब्व् ११.४१८॥
*ए घोर संसारे बले विवशे हरे हरे ।*
*सद्यो मुक्त हय भय तारे भय करे ॥१७२॥*
आपन्नः संसृतिं घोरां यन्-नाम विवशो गृणन् ।
ततः सद्यो विमुच्येत यद् बिभेति स्वयं भयम् ॥१७३॥
[भ्प् १.१.१४, ह्ब्व् ११.४२५॥
*मृत्यु-काले विवशे ये करे उच्चारण ।*
*ताङ्र अवतार नाम लीला विडम्बन ॥१७४॥*
*बहु जन्म दुरित सहसा त्याग करि ।*
*याय से परम पदे भजे सेइ हरि ॥१७५॥*
यस्यावतार-गुण-कर्म-विडम्बनानि
नामानि ये’सु-विगमे विवशा गृणन्ति ।
ते’नैक-जन्म-शमलं सहसैव हित्वा
संयान्त्य् अपावृतामृतं तम् अजं प्रपद्ये ॥१७६॥
[भ्प् ३.९.१५, ह्ब्व् ११.४२६]
*चलिते बसिते स्वप्ने भोजने शयने ।*
*कलि दमन कृष्णोच्चारे वाक्येर पूरणे ॥१७७॥*
*हेलाते-ओ करि नाम निज स्वरूप पाञा ।*
*परम पद वैकुण्ठे याय निर्भय हैया ॥१७८॥*
व्रजंस् तिष्ठन् स्वपन्न् अश्नन् श्वसन् वाक्य-प्रपूरणे ।
नाम-सङ्कीर्तनं विष्णोर् हेलया कलि-मर्दनम् ।
कृत्वा स्वरूपतां याति भक्ति-युक्तं परं व्रजेत् ॥१७९॥
[लैङ्गे, ह्ब्व् ११.४२८]
*येन तेन प्रकारेते लय कृष्ण नाम ।*
*ताके प्रीति करे कृष्ण करुणा निदान ॥१८०॥*
*मद्य पाने भूताविष्ट वायु पीडा स्थले ।*
*हरि नामोच्चारे मुक्ति ताङ्र कर तले ॥१८१॥*
वासुदेवस्य सङ्कीर्त्या सुरापो व्याधितो’पि वा ।
मुक्तो जायेत नियतं महा-विष्णुः प्रसीदति ॥१८२॥
[वाराहे, ह्ब्व् ११.४४२]
*हरिनाम स्वतः परम पुरुषार्थ हय ।*
*उपेय माङ्गल्य तत्त्व परं धन मय ॥१८३॥*
*जीवनेर फल वस्तु काशी-खण्ड बले ।*
*पद्म-पुराणे-ओ ताहा कहे बहु स्थले ॥१८४॥*
इदम् एव हि मङ्गल्यं एतद् एव धनार्जनम् ।
जीवितस्य फलं चैतद् यद् दामोदर-कीर्तनम् ॥१८५॥
[पद्मप्, ह्ब्व् ११.४५०]
*सर्व मङ्गलेर हय परम मङ्गल ।*
*चित्-तत्त्व स्वरूप सर्व वेद वल्ली फल ॥१८६॥*
*कृष्ण नाम लय येइ श्रद्धा वा हेलाय ।*
*नर मात्र त्राण पाय सर्व वेदे गाय ॥१८७॥*
मधुर-मधुरम् एतन् मङ्गलं मङ्गलानां
सकल-निगम-वल्ली-सत्-फलं चित्-स्वरूपम् ।
सकृद् अपि परिगीतं श्रद्धया हेलया वा
भृगु-वर नर-मात्रं तारयेत् कृष्ण-नाम ॥१८८॥
[प्रभास-खण्डे, ह्ब्व् ११.४५१]
*भक्तिर प्रकार यत शास्त्रे देखा याय ।*
*तङ्हि मध्ये नामाश्रय श्रेष्ठ बलि गाय ॥१८९॥*
*कष्टेते अष्टाङ्ग योगे विष्णु-स्मृति साधे ।*
*ओष्ठ-स्पन्दने-इ श्रेष्ठ कीर्तन विराजे ॥१९०॥*
अघच्छित्-स्मरणं विष्णोर् बह्व्-आयासेन साध्यते ।
ओष्ठ-स्पन्दन-मात्रेण कीर्तनं तु ततो वरम् ॥१९१॥
[वैष्णव-चिन्तामणौ, ह्ब्व् ११.४५३]
*दीक्षा-पूर्वक अर्चन यदि शत जन्म करे ।*
*ताहार जिह्वाय नित्य हरि नाम स्फुरे ॥१९२॥*
येन जन्म-शतैः पूर्वं वासुदेवः समर्चितः ।
तन्-मुखे हरि-नामानि सदा तिष्ठन्ति भारत ॥१९३॥
[वैष्णव-चिन्तामणौ, ह्ब्व् ११.४५४॥
*सत्य-युगे बहु काले याहा तपो-ध्याने ।*
*यज्ञादि यजिया त्रेताय येवा फल टने ॥१९४॥*
*द्वापरे अर्चनाङ्गेते पाय येबा फल ।*
*कलिते हरिनामे पाय से सकल ॥१९५॥*
ध्यायन् कृते यजन् यज्ञैस् त्रेतायां द्वापरे’र्चयन् ।
यद् आप्नोति तद् आप्नोति कलौ सङ्कीर्त्य केशवम् ॥१९६॥
[विप् ६.२.१७, ह्ब्व् ११.४५६॥
*कलि काले महाभागवत बलि तारे ।*
*कीर्तने ये हरि भजे ए भव संसारे ॥१९७॥*
महा-भागवता नित्यं कलौ कुर्वन्ति कीर्तनम् ॥१९८॥
[स्कन्द, ह्ब्व् ११.४५९]
*चिद्-आत्मक हरिनाम बारेक उच्चारे ।*
*शिव ब्रह्मा अनन्यतार फल कहिते नारे ॥१९९॥*
*नामोच्चारण-माहात्म्य अद्भुत बलि गाय ।*
*उच्चारण-मात्रे नर परम पद पाय ॥२००॥*
कृते यद् ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखैः ।
द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद् धरि-कीर्तनात् ॥
[भ्प् १२.३.५२, ह्ब्व् ११.४५७॥
महा-भागवता नित्यं कलौ कुर्वन्ति कीर्तनम् ॥१९८॥
[स्कान्दे, ह्ब्व् ११.४५९]
*चिद्-आत्मक हरिनाम बारेक उच्चारे ।*
*शिव ब्रह्मा अनन्यतार फल कहिते नारे ॥१९९॥*
*नामोच्चारण माहात्म्य अद्भुत बलि गाय ।*
*उच्चारण-मात्रे नर परम पद पाय ॥२००॥*
सकृद् उच्चारयन्त्य् एव हरेर् नाम चिद्-आत्मकम् ।
फलं नास्य क्षमो वक्तुं सहस्र-वदनो विधिः ॥२०१॥
नामोच्चारण-माहात्म्यं श्रूयते महद् अद्भुतम् ।
यद् उच्चारण-मात्रेण नरो यायात् परं पदम् ॥२०२॥
कृष्ण बले शुन अर्जुन बलिब तोमाय ।
श्रद्धाय हेलाय जीव मम नाम गाय ॥२०३॥
सेइ नाम मम हृदि सदा वर्तमान ।
नाम सम व्रत नाइ नाम सम ज्ञान ॥२०४॥
नाम सम ध्यान नाइ नाम सम फल ।
नाम सम त्याग नाइ, नाम सम बल ॥२०५॥
नाम सम पुण्य नाइ नाम सम गति ।
नामेर शक्ति गाने वेदेर नाहिक शकति ॥२०६॥
नाम-इ परमा मुक्ति नाम-इ परमा गति ।
नाम-इ परमा शान्ति नाम-इ परमा स्थिति ॥२०७॥
नाम-इ परमा भक्ति नाम-इ परमा मति ।
नाम-इ परमा प्रीति नाम-इ परमा स्मृति ॥२०८॥
जीवेर कारण नाम नाम-इ जीवेर प्रभु ।
परम आराध्य नाम नाम-इ गुरु प्रभु ॥२०९॥
श्रद्धया हेलया नाम रटन्ति मम जन्तवः ।
तेषां नाम सदा पार्थ वर्तते हृदये मम ॥२१०॥
न नाम सदृशं ज्ञानं न नाम सदृशं व्रतम् ।
न नाम सदृशं ध्यानं न नाम सदृशं फलम् ॥२११॥
न नाम सदृशस् त्यागो न नाम सदृशः शमः ।
न नाम सदृशं पुण्यं न नाम सदृशी गतिः ॥२१२॥
नामैव परमा मुक्तिर् नामैव परमा गतिः ।
नामैव परमा शान्तिर् नामैव परमा स्थितिः ॥२१३॥
नामैव परमा भक्तिर् नामैव परमा मतिः ।
नामैव परमा प्रीतिर् नामैव परमा स्मृतिः ॥२१४॥
नामैव कारणं जन्तोर् नामैव प्रभुर् एव च ।
नामैव परमाराध्यो नामैव परमो गुरुः ॥२१५॥
आदि-पुराण, ह्ब्व् ११.४६४-४६९]
हरिनाम माहात्म्येर कभु नाहि पार ।
ये नाम श्रवणे सदा पुक्कश उद्धार ॥२१६॥
यन्-नाम सकृच् छ्रवणात्
पुक्कशो’पि विमुच्यते संसारात् ॥२१७॥
भ्प् ६.१६.१४, ह्ब्व् ११.४८६]
स्वपने जाग्रते येबा जल्पे कृष्ण नाम ।
कलिते से कृष्ण-रूपी कृष्णेर विधान ॥२१८॥
कृष्ण कृष्णेति कृष्णेति स्वपन् जाग्रद् व्रजंस् तथा ।
यो जल्पति कलौ नित्यं कृष्ण-रूपी भवेद् धि सः ॥२१९॥
वराह, ह्ब्व् ११.४९३॥
कृष्ण बलि नित्य स्मरे संसार सागरे ।
जलोत्थित पद्म येन नरके उद्धरे ॥२२०॥
कृष्ण कृष्णेति कृष्णेति यो मां स्मरति नित्यशः ।
जलं भित्त्वा यथा पद्मं नरकाद् उद्धराम्य् अहम् ॥२२१॥
नारसिंहे, ह्ब्व् ११.४९६]
कृष्ण-नाम सर्व मुख्य जीवेर आश्रय ।
अशेष पाप हरे सद्य पाप मुक्ति कर ॥२२२॥
नाम्नां मुख्यतरं नाम कृष्णाख्यं मे परन्तप ।
प्रायश्चित्तम् अशेषाणां पापानां मोचकं परम् ॥२२३॥
[प्रभास-पुराणे, ह्ब्व् ११.४९८]
नाम चिन्तामणि कृष्ण चैतन्य स्वरूप ।
पूर्ण शुद्ध नित्य मुक्त नाम नामी एक रूप ॥२२४॥
नाम चिन्तामणिः कृष्णश् चैतन्य-रस-विग्रहः ।
पूर्णः शुद्धो नित्य-मुक्तो भिन्नत्वान् नाम-नामिनोः ॥२२५॥
[ह्ब्व् ११.५०३]
विष्णु नाम विष्णु शक्ति येइ जन जाने ।
सुमति प्रार्थना करे अप्राकृत ज्ञाने ॥२२६॥
ओं आस्य जानन्तो नाम चिद् विविक्तन्
महस् ते विष्णो सुमतिं भजामहे ॥२२७॥
ऋक्वेद १.१५६.३, ह्ब्व् ११.५१०]
*स्थानेश्वरी कृष्ण-दास योड करि कर ।*
*बले प्रभु एक वस्तु प्रार्थना हामार ॥२२८॥*
*ए रूप माहात्म्य नामेर शुनिनु श्रवणे ।*
*सर्वत्र समान फल नाहि होय केने ॥२२९॥*
*प्रभु बले—श्रद्धा विश्वास सकलेर मूल ।*
*विश्वास अभावे केह नाहि लभे फल ॥२३०॥*
*प्र्भ बले—अन्तर्यामी नाम भगवान् ।*
*विश्वासानुसारे फल करेन प्रदान ॥२३१॥*
*नामेर महिमा पूर्ण विश्वास ना करे ।*
*नामेर फल नाहि पाय नाम अपराधे मरे ॥२३२॥*
*अर्थ वाद करे फले विश्वास त्यजिया ।*
*फल नाहि पाय थाके नरके पडिया ॥२३३॥*
अर्थ-वादं हरेर् नाम्नि सम्भावयति यो नरः ।
स पापिष्ठो मनुष्याणां निरये पतन्ति स्फुटम् ॥२३४॥
[कात्यायन-संहिता, ह्ब्व् ११.५१४॥
यन्-नाम-कीर्तन-फलं विविधं निशम्य
न श्रद्दधाति मनुते यद् उतार्थ-वादम् ।
यो मानुषस् तम् इह दुःख-चये क्षिपामि
संसार-घोर-विविधार्ति-निपीडिताङ्गम् ॥२३५॥
[ब्रह्म-संहिता ह्ब्व् ११.५१५]