Jagad Ananda H prema vivarta H

प्रेम-विवर्त

राधा कृष्ण-प्रणय-विकृतिर् ह्लादिनी शक्तिर् अस्माद्

एकात्मानाव् अपि भुवि पुरा देह-भेदं गतौ तौ

चैतन्याख्यं प्रकंअम् अधुना तद्-द्वयं चैक्यम् आप्तं

राधा-भाव-द्युति-सुवलितं नौमि कृष्ण-स्वरूपम्

–ओ)०(ओ–

श्री-राधा-कृष्ण-तत्त्व

*अखण्ड अद्वय ज्ञान सर्व तत्त्व सार ।*

*सेइ तत्त्वे दण्ड परणाम बार बार ॥१॥*

*सेइ तत्त्व कभु दुइ राधा कृष्ण रूपे ।*

*कभु एक परात्पर चैतन्य स्वरूपे ॥२॥*

*तत्त्व वस्तु एक सदा अद्वितीय भाय ।*

*वस्तु वस्तु शक्ति माझे किछु भेद नाइ ॥३॥*

*भेद नाइ बटे किन्तु सदा भेद ताय ।*

*भेदाभेद अविचिन्त्य सर्व वेदे गाय ॥४॥*

*वस्तु शक्ति चित् स्वरूप भावेते सन्धिनी ।*

*क्रियाते ह्लादिनी ताइ त्रिभाव धारिणी ॥५॥*

*वस्तु शक्ति द्वारे वस्तु देय परिचय ।*

*वस्तु शक्ति क्रिया योगे सर्व सिद्ध हय ॥६॥*

*अखण्ड वस्तुते भाव क्रिया नित्य हय ।*

*शक्ति शक्तिमान् वस्तु तबु पृथक् नय ॥७॥*

*ह्लादिनी वस्तुके दिया दुइटी स्वरूप ।*

*व्रजे राधा कृष्ण लीला कराय अपरूप ॥८॥*

*राधा कृष्ण प्रणयेर विकृति ह्लादिनी ।*

*अविचिन्त्य शक्ति राधा कृष्ण उन्मादिनी ॥९॥*

*अघटन घटाइते धरे महा शक्ति ।*

*निर्विकारे करियाछे विकार अनुरक्ति ॥१०॥*

तत्त्व वस्तु तार्किकेर अगोचर; कृष्ण कृपा सापेक्ष

*एबे एक उठिल अपूर्व पूर्व पक्ष ।*

*तार्किक ना बुझे यदि चिन्ते वर्ष लक्ष ॥११॥*

*कृष्ण यारे कृपा करे सेइ मात्र जाने ।*

*लक्ष वर्ष चिन्ति ताहा ना बुझिबे आने ॥१२॥*

*राधा कृष्ण प्रणयेर विकार ह्लादिनी ।*

*प्रणयेर परे जन्मे चित्त-उन्मादिनी ॥१३॥*

*राधा कृष्ण दुइ हले हय त प्रणय ।*

*प्रणय हैले तबे विकार घटय ॥१४॥*

*दुइ देह हबार आगे विकार ना छिल ।*

*तबे एक रूप दुइ केमने हैल ॥१५॥*

*ह्लादिनी हैते हय दुइ देह भेद ।*

*कोथा वा ह्लादिनी छिल हैल प्रभेद ॥१६॥*

*एइ प्रश्नेर एक मात्र आछे त उत्तर ।*

*देश-कालातीत कृष्ण तत्त्व निरन्तर ॥१७॥*

अप्राकृत-तत्त्वे देश-कालादिर विचार नाइ

*प्रकृतिर मध्ये देख कालेर प्रभाव ।*

*भूत भविष्यतेर बुद्धि ताहार स्वभाव ॥१८॥*

*अप्राकृत तत्त्वे भूत भविष्यत् नाइ ।*

*नित्य-वर्तमान तथा बलिहारि याइ ॥१९॥*

*वाङ्-मनेर अगोचर अप्राकृत तत्त्व ।*

*वर्णिते आइसे दोष एइ मात्र सत्य ॥२०॥*

*अप्राकृत तत्त्वे कभु दोष नाहि पाइ ।*

*अचिन्त्य शक्तिते सब समाधान भाइ ॥२१॥*

*पूर्वापर हेन कथा कभु नाहि ताय ।*

*सर्वदा नूतन सब आनन्दे माताय ॥२२॥*

*अत एव तत्त्वे ये अखण्ड खण्ड भाव ।*

*सम-काले देखि से-ओ तत्त्वेर स्वभाव ॥२३॥*

*विरुद्ध धर्माश्रय तत्त्व आश्चर्य तार गुण ।*

*जन्मे नाइ ह्लादिनी तबु क्रियाते निपुण ॥२४॥*

*जन्मिबार पूर्वे राधा-कृष्णे दुइ करे ।*

*दुण्हे प्रेमेर विकार हये निजे जन्म धरे ॥२५॥*

*नित्य वर्तमान तत्त्व काल-दोष-हीन ।*

*काल-दोष-विचार प्राकृत समीचीन ॥२६॥*

*श्री-अद्वय-तत्त्व आर राधा-कृष्ण-तत्त्व ।*

*सम काल सत्य नित्य आर शुद्ध सत्त्व ॥२७॥*

श्री-राधा-कृष्ण-इ श्री-चैतन्य

*अत एव राधा कृष्ण दुइ एक हञा ।*

*अधुना प्रकट मोर चैतन्य गोसाञा ॥२८॥*

*अधुना कलिते काल-भेद नाहि कर ।*

*अप्राकृते काल-भेद नाहि ताहा स्मर ॥२९॥*

*राधा कृष्ण छिल भेल चैतन्य गोसाञि ।*

*ए बलिले काल-दोष सत्य वस्तु हाराइ ॥३०॥*

*एकात्मा शब्देते यदि श्री-चैतन्य मान ।*

*राधा-कृष्णे हबे भाइ आधुनिक ज्ञान ॥३१॥*

*अग्रे राधा-कृष्ण किबा शचीर नन्दन ।*

*ए विचारे वृथा काल ण कर कर्त्तन ॥३२॥*

*बलियाछि अप्राकृते सब वर्तमान ।*

*चैतन्य कृष्णेते तर्के हओ सावधान ॥३३॥*

*प्रणय विकार शक्ति सेइ आह्लादिनी ।*

*सम-काल नित्य-काल राखे एइ जानि ॥३४॥*

*सेइ त चैतन्य एबे प्रपञ्च प्रकटे ।*

*सङ्कीर्तन करि बुले गङ्गा सिन्धु तटे ॥३५॥ *

*कृष्ण लीलार अधिक एइ श्री-चैतन्य-लीला ।*

*प्रणय-विकार याते उत्कट हैला ॥३६॥*

*उत्कट हैया कृष्णे राधा-भाव-द्युति ।*

*माखाइल प्रेम-भरे आह्लादिनी सती ॥३७॥*

*व्रजेर अधिक सुख नवद्वीप धामे ।*

*पाइल पुरट कृष्ण आसि निज कामे ॥३८॥*

श्री-चैतन्येर स्वरूप

*चैतन्य-मूरति कृष्णेर अपूर्व स्वरूप ।*

*कृष्ण मूर्ति चैतन्येर स्वरूप अपरूप ॥३९॥*

*ह्लादिनीर दुइ साज परम मधुर ।*

*मधु हैते मधु ताहा हैते सुमधुर ॥४०॥*

*सुमधुर स्वरूप कृष्णेर चैतन्य मूरति ।*

*निरन्तर करि ताङ्ते दण्डवन्-नति ॥४१॥*

*यदि बल एकात्मा शब्दे ब्रह्म निर्विकार ।*

*याहा हैते राधा-कृष्ण स्वरूप साकार ॥४२॥*

*ए सिद्धान्त हैते नारे श्लोकेर आभासे ।*

*सेइ दुइ एक आत्मा चैतन्य प्रकाशे ॥४२॥*

ब्रह्म श्री-चैतन्येर अङ्ग-कान्ति

*चैतन्य नहेन कभु ब्रह्म निर्विकार ।*

*आनन्द-विकार-पूर्ण विशुद्ध साकार ॥४३॥*

*ब्रह्म ताङ्र श्री-अङ्गेर ज्योति निर्विशेष ।*

*ब्रह्मेर प्रतिष्ठा कृष्ण चैतन्य विशेष ॥४४॥*

*अत एव एकात्मा शब्देते श्री चैतन्य ।*

*बुझेन पण्डित गण स्वरूपादि धन्य ॥४५॥*

*सेइ त एकात्म तत्त्वे कर परणाम ।*

*राधा कृष्ण सेवा पाबे सिद्ध हबे काम ॥४६॥*

परमात्मा श्री-चैतन्येर अंश

*यदि बल एकात्मा शब्दे हय परमात्मा ।*

*याहा हैते राधा कृष्ण हय दुइ आत्मा ॥*

*श्लोकेर आभासे ताहा कभु नहे सिद्ध ।*

*चैतन्याख्य शब्दे हय बड-इ विरुद्ध ॥*

*मूल-तत्त्व श्री-चैतन्य-स्वरूप जानिबा ।*

*ताङ्हार अंश परमात्मा सर्वदा बुझिबा ॥*

*राधा कृष्ण ऐक्य सेइ एकात्म स्वरूप ।*

*श्री-चैतन्य मोर प्राण नाथ अपरूप ॥*

*राध-पद दासी आमि राध-पद दासी ।*

*राधा द्युति सुवलित रूप भालवासि ॥५४॥*

*परात्पर शचीसुत ताङ्हार चरणे ।*

*दण्ड परणाम मोर अनन्य शरणे ॥५५॥*

* --ओ)०(ओ—*

(२)

ग्रन्थ रचना

*चैतन्य रूप गुण सदा पडे मने ।*

*पराण काङ्दाय देह फाङ्पाय सघने ॥१॥*

*काङ्दिते काङ्दिते मने हैल उदय ।*

*लेखनी धरिया लिखि छाडि लाज भय ॥२॥*

*नामेते पण्डित मात्रे घटे किछु नाइ ।*

*चैतन्येर लीला तबु लिखिबारे चाइ ॥३॥*

स्वरूप गोसाञि ओ पण्डित जगदानन्द

*गोसाञि स्वरूप बले कि लिख पण्डित ।*

*आमि बलि लिखि ताइ याहते पीरित ॥४॥*

*चैतन्येर लीला कथा याहा पडे मने ।*

*लिखिया राखिब आमि अति सङ्गोपने ॥५॥*

*स्वरूप बलेन तबे लिख प्रभुर चरित ।*

*याहा पडि जगतेर हबे बड हित ॥६॥*

*आमि बलि जगतेर हित नाहि जानि ।*

*याहा याहा भाल लागे ताइ लिखे आनि ॥७॥*

*स्वरूप छाडिल मोरे बातुल बलिया ।*

*एका बसि लिखि आमि प्रभु धेयाइया ॥८॥*

*देखिछि अनेक लीला थाकि प्रभु सङ्गे ।*

*किछु किछु लिखि ताइ निज मनो रङ्गे ॥९॥*

*मन कान्दे प्राण काङ्दे काङ्दे दुटी आग्खि ।*

*यखन याहा मने पडे तखन ताहा लिखि ॥१०॥*

महाप्रभु ओ ग्रन्थकार

*प्रभु मोरे हास्य करि कैल एक दिन ।*

*द्वारकार पाटेश्वरी तुमि त प्रवीन ॥११॥*

*आमि त भिखारी अति मोरे सेव केन ।*

*कत शत सन्न्यासी पाइबे आमा हेन ॥१२॥*

*मुञि बलि रेखे दाओ तोमार छलना ।*

*राधा पद दासी आमि ओ कथा बोलो ना ।१३॥।*

*आमार राधार वर्ण करियाछो चुरि ।*

*व्रजे लये याब आमि तोमाय चोर धरि ॥१४॥*

*आमि चाइ राधा पद तुमि फेल ठेलि ।*

*द्वारका पाठाओ मोरे एइ तोमार केलि ॥१५॥*

*तोमार सन्न्यासि गिरि आमि भाल जानि ।*

*मोदेर बञ्चिया राधा सेविबे आपनि ॥१६॥*

बाल्य-घटना-स्मरणे ग्रन्थकारेर आक्षेपोक्ति

*आहा से चैतन्य पद भजनेर सम्पद*

*कोथा एबे गेल आमा छाडि*

*आमाके फेलिया गेल मृत्यु मोर ना हैल*

*शोके आमि याइ गडागडि ॥१७॥*

*एक दिन शिशु काले दुजनेते पाठ शाले*

*कोन्दले करिनु हाताहाति ।*

*मायापुरे गङ्गा तीरे पडिया दुःखेर भारे*

*कान्दिलाम् एक दिन रीति ॥१८॥*

*सदय हैया नाथ ना हैते परभात *

*गदाधरेर सङ्गेते आसिया ।*

*डकेन जगदानन्द अभिमान बड मन्द*

*कथा बलो वक्रता छाडिया ॥१९॥*

*प्रभुर वदन हेरि अभिमान दूर करि *

*जिज्ञासिलाम् एत रात्र केन ?*

*नदीयार कडा भूमि चलि कष्ट पाइले तुमि*

*मो लागि तोमार कष्ट हेन ॥२०॥*

*प्रभु बले चल चल निशि अवसान भेल*

*गृहे गिया करह भोजन ।*

*तव दुःख जानि मने छिलाम् आमि अनशने*

*शय्या छाडि भूमिते शयान ॥२१॥*

*हेन काले गदाधर आइल आमार घर*

*दुङ्हे आइनु तोमार तल्लासे ।*

*भाल हैल मान गेल एबे निज गृहे चल *

*कालि खेला करिब उल्लासे ॥२२॥*

*गदाइ चरण धरि उठिलाम् धीरि धीरि*

*प्रभु आज्ञा ठेलिते ना पारि ।*

*प्रभुर गृहेते गिया किछु खाइ जल पिया*

*शुइलाम् दण्ड दुइ चारि ॥२३॥*

*प्राते शची-जगन्नाथ मोरे दिला दुध भात*

*प्रभु सङ्गे पडिते पाठाय ।*

*पडिया शुनिया तबे आइलाम् गृहे यबे*

*प्रभु मोरे गृहे आसि खाय ॥२४॥*

*कोन्दलेर परे प्रेम हय येन शुद्ध हेम*

*कत सुख मनेते हैल ।*

*प्रभु बले एइ लागि तुमि रागो आमि रागि*

*परस्पर प्रेम वृद्धि भेल ॥२५॥*

ग्रन्थकारेर श्री-चैतन्य प्रीति

*ए हेन गौराङ्ग चान्द ना भजिले परमाद*

*भजिले परम सुख हय ।*

*दयार ठाकुर तेण्हो ताङ्के कि भुलिबे केह *

*एत दया दासे वितरय ॥२६॥*

*चैतन्य आमार प्रभु चैतन्ये ना छाडि कभु*

*सेइ मोर प्राणेर ईश्वर ।*

*ये चैतन्य बलि डाके उठे कोल दिइ ताके *

*सेइ मोर प्राणेर सोदर ॥२७॥*

*हा चैतन्य प्राण धन ना बलिले येइ जन*

*मुख तार ना देखि नयने ।*

*चैतन्य भुलिल येबा यदि ओ से देवी देवा*

*कुप्रभात तार दरशने ॥२८॥*

*चैतन्ये छाडिया अन्य सन्न्यासीर करे मान्य*

*तारे यष्टि करिब प्रहार ।*

*छाडिया चैतन्य कथा अन्य इतिहास वृथा*

*बले येइ मुखे आगुन तार ॥२९॥*

*चैतन्येर याहे सुख ताहे यदि घटे दुःख*

*चिर दुःख भोग हौ मोर ।*

*से यदि स्व-सुख त्यजे यति धर्म कभु भजे*

*आमि ताहे दुःखेते विभोर ॥३०॥*

श्री-गौर-गदाधर तत्त्व

*एक दिन प्रभु मोर खेलिते खेलिते ।*

*चलिल अलका-तीरे निविड वनेते ॥३१॥*

*आमि आर गदाधर आछिलाम् सङ्गे ।*

*बकुलेर गाछे शुक पक्षी धरे रङ्गे ॥३२॥*

*शुके धरि बले तुइ व्यासेर नन्दन ।*

*राधा कृष्ण बलि कर आनन्द वर्धन ॥३३॥*

*शुक ताहा नाहि बले बले गौर हरि ।*

*प्रभु तारे दूरे फेले कोप छल करि ॥३४॥*

*तबु शुक गौर गौर बलिया नाचय ।*

*शुकेर कीर्तने हय प्रेमेर उदय ॥३५॥*

*प्रभु बले ओरे शुक ए ये वृन्दावन ।*

*राधा-कृष्ण बल हेथा शुनुक सर्व जन ॥३६॥*

*शुक बले वृन्दावन नवद्वीप हैल ।*

*राधा कृष्ण गौर हरि रूपे देखा दिल ॥३७॥*

*आमि शुक एइ वने गौर नाम गाइ ।*

*तुमि मोर कृष्ण राधा एइ ये गदाइ ॥३८॥*

*गदाइ गौराङ्ग मोर प्राणेर ईश्वर ।*

*आन किछु मुखे ना आइसे अतः पर ॥३९॥*

*प्रभु बले आमि राधा कृष्ण उपासक ।*

*अन्य नाम शुनिले आमार हय शोक ॥४०॥*

*एत बलि गदाइयेर हात-टी धरिया ।*

*मायापुरे फिरे आइल शुकेरे छाडिया ॥४१॥*

*शुके बले गाओ तुमि याहा लागे भाल ।*

*आमार भजन आमि करि चिर-काल ॥४२॥*

*मधुर चैतन्य-लीला जागे यार मने ।*

*मोर दण्डवत् भाइ ताङ्हार चरणे ॥४३॥*

श्री-नवद्वीप ओ वृन्दावन

*गदाइ गौराङ्ग मुञि राधा श्याम जानि ।*

*षोल-क्रोश नवद्वीपे वृन्दावन मानि ॥४४॥*

*यशोदा-नन्दने आर शचीर नन्दने ।*

*ये जन पृथक् देखे से ना मरे केने ॥४५॥*

*नवद्वीपे ना पाइल येइ वृन्दावन ।*

*वृथा से तार्किक केन धरय जीवन ॥४६॥*

गौर भजन विना राधा-कृष्ण भजन वृथा

*गौर नाम गौर धाम गौराङ्ग चरित ।*

*ये भजे ताते मोर अकैतव प्रीत ॥४७॥*

*गौर रूप गौर नाम गौर लीला गौर धाम*

*ये ना भजे गौडेते जन्मिया ।*

*राधा कृष्ण नाम रूप धाम लीला अपरूप*

*कभु नाहि स्पर्शे तार हिया ॥४८॥*

(३)

प्रथम प्रणाम

*याङ्र अंशे सत्यभामा द्वारकाय धाम ।*

*से राधा चरणे मोर असंख्य प्रणाम ॥१॥*

*श्री-नन्दनन्दन एबे श्री-कृष्ण-चैतन्य ।*

*गदाधरे सङ्गे आनि नदीया कैल धन्य ॥२॥*

*गदाधर लञा श्री-पुरुषोत्तम आइल ।*

*गदाइ गौराङ्ग रूपे गूढ लीला कैल ।*

*टोटा गोपीनाथ सेवा गदाधरे दिल ॥३॥*

*मोरे दिल गिरिधारी सेवा सिन्धु-तटे ।*

*गौडीय भकत सब आमार निकटे ॥४॥*

*दामोदर स्वरूप आमार प्राणेर समान ।*

*श्री-कृष्ण-चैतन्य यार देह मन प्राण ॥५॥*

*नमि प्राण गौर पदे साष्टाङ्ग पडिया ।*

*ए प्रेम-विवर्त लिखि भक्त आज्ञा पाया ॥६॥*

(४)

गौरस्य गुरुता

*भाइरे भज मोर प्राणेर गौराङ्ग ।*

*गौर विना वृथा सब जीवनेर रङ्ग ॥१॥*

*नवद्वीप मायापुरे शचीर अङ्गने ।*

*गौर नाचे नित्य निताइ अद्वैतेर सने ॥२॥*

*श्रीवास-अङ्गने नाचे गाय रस-भरे । *

*ना देखिल एक बार आर ना पाशरे ॥३॥*

*आमार हृदये नाट अङ्कित हैया ।*

*निरन्तर आछे मोर प्राण काङ्दाइया ॥४॥*

*जगन्नाथ मन्दिरेते नृत्य देखि यबे ।*

*अनन्त भावेर ढेउ मने उठे तबे ॥५॥*

*आर कि देखिब प्रभुर जाह्नवी पुलिने ।*

*सुनृत्य कीर्तन लीला ए छार जीवने ॥६॥*

सर्व देव देवी श्री गौराङ्गेर दास

*निष्ठा करि भज भाइ गौराङ्ग चरण ।*

*अन्य देव देवी कभु ना कर भजन ॥७॥*

*गौराङ्गेर दास बलि सर्व देवे जान ।*

*कृष्ण हैते गौरके कभु ना जानिबे आन ॥८॥*

*निज गुरुदेव जान गौर कृष्ण पात्र ।*

*गौराङ्ग पार्षदे जान गौर-देह पात्र ॥९॥*

*गौर वैरी रस पोष्टा एइ मात्र जान ।*

*सकले गौराङ्ग दास ए कथा-टी मान ॥१०॥*

गौर भजन निष्ठा

*पर-निन्दा पर-चर्चा ना कर कखन ।*

*दृढ भावे एकान्ते भज श्री-गौर-चरण ॥११॥*

*गौर ये शिखाल नाम सेइ नाम गाओ ।*

*अन्य सब नाम माहात्म्य सेइ नामे पाओ ॥१२॥*

*गौर विना गुरु नाइ ए भव-संसारे ।*

*सरल गौराङ्ग भक्ति शिखाओ सबारे ॥१३॥*

*कुटी-नाटी छाड मन करह सरल ।*

*गौर भजा लोक-रक्षा एकत्रे निष्फल ॥१४॥*

*हय गोरा भज नय लोक भज भाइ ।*

*एक पात्रे दुइ कभु ना रहे एक ठाञि ॥१५॥*

*जगाइ बले यदि एक निष्ठ ना हैबे ।*

*दुइ नाये नदी पारेर दुर्दशा लभिबे ॥१६॥*

(५)

विवर्त विलास सेवा

*प्रेमेर विचित्त्य गत प्रेमेर विवर्त यत*

*मोर मने नाचे निरन्तर ।*

*कलह गौरेर सने करि आमि दिने दिने*

*कुन्दले जगाइ नाम मोर ॥१॥*

*गेलाम् व्रजे देखिबारे रहि सनातनेर घरे *

*कलह करिनु तार सने ।*

*रक्त वस्त्र सन्न्यासीरे शिरे बाङ्धि आइला धीर *

*भातेर हाङ्डि मारिते कैनु मने ॥२॥*

*सनातनेर विनय देखे छाडि तारे एक पाके *

*लज्जाय बसिनु एक धारे ।*

*गौर मोर यत जाने आमाय पाठाय वृन्दावने*

*मजा देखे थाकि निजे दूरे ॥३॥*

*भाल तार हौक सुख मोर हौक चिर दुःख*

*तार सुखे हबे मोर सुख ।*

*आमि काङ्दि रात्र दिने गौर विच्छेद भावि मने*

*गौर हासे देखि काङ्दा मुख ॥४॥*

*सेइ त कपट न्यासी तार लीला भालवासि *

*मधु माखा कथा गुलि तार ।*

*ये भाव व्रजेते भेवे पुनः सेइ भाव एबे *

*बुझे-ओ न बुझि आर बार ॥५॥*

*चन्दनादि तैल आनि बाङ्का बाङ्का कथा शुनि*

*तैल भाण्ड भाङ्गिलाम बले ।*

*मान करि निजासने शुञा रैनु अनशने *

*से मान भाङ्गिल नाना छले ॥६॥*

*आमारे कराय पाक अन्न व्यञ्जन आबोना शाक*

*बले क्रोधेर पाक बड मिष्ट ।*

*बाडाय आमार रोष ताते तार सन्तोष *

*तार प्रसन्नता मोर इष्ट ॥७॥*

*जिज्ञासिल सनातन याइते कैनु वृन्दावन*

*ताते मोरे राखे बोका करि ।*

*बाल्य बुद्धि देखि तार चित्ते हय चमत्कार *

*आमि तार पाद-पद्म धरि ॥८॥*

*वृन्दावन याइते चाइ ताते आज्ञा नाहि पाइ *

*नाना छल करे मोर सने ।*

*यखन कोन्दल हय नवद्वीपे येते कय*

*सेइ तार कृपा जानि मने ॥९॥*

*मातृ आज्ञा छल करि आछेन वैकुण्ठ पुरी*

*निज धाम छाडिया एखन ।*

*ताते पाठाय निज पुरे याहाके से कृपा करे*

*येन गोपेर गोलोक दर्शन ॥१०॥*

*एइ भावे गौर सेवा करि आमि रात्र दिवा*

*गौर गणेर एइ त स्वभाव ।*

*गौर गदाधर पद आमार त सम्पद*

*दामोदर ज्ञाने एइ भाव ॥११॥*

(६)

जीव गति

जीव ओ कृष्ण

*चित कण जीव कृष्ण चिन्मय भास्कर ।*

*नित्य कृष्ण देखि कृष्णे करेन आदर ॥१॥*

माया ग्रस्त जीव

*कृष्ण बहिर्मुख हञा भोग वाञ्छा करे ।*

*निकट-स्थ माया तारे जापटिया धरे ॥२॥*

*पिशाची पाइले येन मति च्छन्न हय ।*

*माया ग्रस्त जीवेर हय से भाव उदय ॥३॥*

*आमि सिद्ध कृष्ण दास एइ कथा भुले*

*मायार नफर हञा चिर दिन बुले ॥४॥*

*कभु राजा कभु प्रजा कभु विप्र शूद्र ।*

*कभु दुःखी कभु सुखी कभु कीट क्षुद्र ॥५॥*

*कभु स्वर्गे कभु मर्त्ये नरके वा कभु ।*

*कभु देव कभु दैत्य कभु दास प्रभु ॥६॥*

साधु सङ्गे निस्तार

*एइ रूपे संसार भ्रमिते कोन जन ।*

*साधु सङ्गे निज तत्त्व अवगत हन ॥७॥ *

*निज तत्त्व जानि आर संसार ना चाय*

*केन वा भजिनु माया करे हाय हाय ॥८॥*

*केङ्दे बले ओहे कृष्ण आमि तव दास ।*

*तोमार चरण छाडि हैल सर्व नाश ॥९॥*

*कृपा करि कृष्ण तारे छाडान संसार ।*

*काकुति करिया कृष्णे यदि डाके एक बार ॥१०॥*

*मायाके पिछने राखि कृष्ण पाने चाय ।*

*भजिते भजिते कृष्ण पाद-पद्म पाइ ॥११॥*

*कृष्ण तारे देन निज चिच्-छक्तिर बल ।*

*माया आकर्षण छाऋए हैया दुर्बल ॥१२॥*

*साधु सङ्ग कृष्ण नामे एइ मात्र चाइ ।*

*संसार जिनिते आर कोनो वस्तु नाइ ॥१३॥*

*सकल भरसा छाडि गोरा पदे आश ।*

*करिया बसिया आछे जगाइ गोरार दास ॥१४॥*

–ओ)०(ओ–

(७)

सकलेर पक्षे नाम

असाधु सङ्गे नाम हय ना

*असाधु-सङ्गेते भाइ नाम नाहि हय ।*

*नामाक्षर बाहिराय बटे नाम कभु नय ॥१॥*

*कभु नामाभास सदा हय नाम अपराध ।*

*ए सब जानिबे भाइ कृष्ण-भक्तिर् बाध ॥२॥*

नाम-भजन-प्रणाली

*जदि करिबे कृष्ण-नाम साधु-सङ्ग कर ।*

*भुक्ति-मुक्ति-सिद्धि-वाञ्छा दूरे परिहर ॥३॥*

*दश-अपराध त्यज मान-अपमान ।*

*अनासक्त्ये विषय भुञ्ज आर लह कृष्ण-नाम ॥४॥*

*कृष्ण-भक्तिर अनुकूल सब करह स्वीकार ।*

*कृष्ण-भक्तिर प्रतिकूल सब कर परिहार ॥५॥*

*ज्ञान-योग-चेष्टा छाऋअ आर कर्म-सङ्ग ।*

*मर्कट-वैराग्य त्यज जाते देह-रङ्ग ॥६॥*

*कृष्ण आमार पाले राखे जान सर्व-काल ।*

*आत्म-निवेदन दैन्ये घुचाओ जञ्जाल ॥७॥*

*साधु पाओआ कष्ठ बऋअ जीवेर जानिया ।*

*साधु-गुरु-रूपे कृष्ण आइल नदीया ॥८॥*

*गोरा पद आश्रय करह बुद्धिमान् ।*

*गोरा बै साधु-गुरु आछे केबा आन *॥९॥

वैरागीर कर्तव्य

*वैरागी भाइ ग्राम्य कथा ना शुनिबे काने ।*

*ग्राम्य वार्ता ना कहिबे यबे मिलिबे आने ॥१०॥*

*स्वपने-ओ ना कर भाइ स्त्री-सम्भाषण ।*

*गृहे स्त्री छाडिया भाइ आसियाछ वन ॥११॥*

*यदि चाह प्रणय राखिते गौराङ्गेर सने ।*

*छोट हरिदासेर कथा थाके येन मने ॥१२॥*

*भाल ना खाइबे आर भाल ना परिबे ।*

*हृदयेते राधा कृष्ण सर्वदा सेविबे ॥१३॥*

*बड हरिदासेर न्याय कृष्ण नाम बलिबे वदने ।*

*अष्ट-काल राधा कृष्ण सेविबे कुञ्ज वने ॥१४॥*

गृहस्थ ओ वैरागीर प्रति आदेश

*गृहस्थ वैरागी दुङ्हे बले गोरा राय ।*

*देख भाइ नाम विना येन दिन नाहि याय ॥१५॥*

*बहु अङ्ग साधने भाइ नाहि प्रयोजन ।*

*कृष्ण नामाश्रये शुद्ध करह जीवन ॥१६॥*

*बद्ध जीवे कृपा करि’ कृष्ण हैल नाम ।*

*कलि जीवे दया करि कृष्ण हैल गौर धाम ॥१७॥*

*एकान्त सरल भावे भज गौर जन ।*

*तबे त पाइबे भाइ श्री कृष्ण चरण ॥१८॥*

*गौर जन सङ्ग कर गौराङ्ग बलिया ।*

*हरे कृष्ण नाम बल नाचिया नाचिया ॥१९॥*

*अचिरे पाइबे भाइ नाम प्रेम धन ।*

*याहा बिलाइते प्रभुर नदे आगमन ॥२०॥*

*प्रभुर कुन्दले जगा केङ्दे केङ्दे बले ।*

*नाम भज नाम गाओ भकत सकल ॥२१॥*

 --ओ)०(ओ--

(८)

कुटीनाटि छाड

सरल मने गोरा भजन

*गोरा भज गोराभज गोरा भज भाइ ।*

*गोरा विना ए जगते गुरु आर नाइ ॥१॥*

*यदि भजिबे गोरा सरल कर निज मन ।*

*कुटीनाटिइ छाडि भज गोरार चरण ॥२॥*

*मनेर कथा गोरा जाने फाङ्कि केमने दिबे ।*

*सरल हले गोरार शिक्षा बुझिया लैबे ॥३॥*

*आनेर मन राखिते गिया आपनाके दिबे फाङ्कि ।*

*मनेर कथा जाने गोराकेमने हृदय ढाकि ॥४॥*

*गोरा बले आमार मत करह चरित ।*

*आमार आज्ञा पालन कर चाह यदि हित ॥५॥*

कपट भजन

*गोरार आमि गोरार आमि मुखे बलिले ना चले ।*

*गोरार आचार गोरार प्रचार लैले फल फले ॥६॥*

*लोक देखानो गोरा भजा तिलक मात्र धरि ।*

*गोपनेते अत्याचार गोरा धरे चुरि ॥७॥*

*अधः पतन हबे भाइ कैले कुटीनाटि ।*

*नाम अपराधे तोमार भजन हबे माटि ॥८॥*

*नाम लञा ये करे पाप हय अपराध ।*

*एर मत भक्ति आर आछे किबा बाध ॥९॥*

*नाम करिते कष्ट नाइ नाम सहज धन ।*

*ओष्ठ स्पन्दन मात्रे हय नामेर कीर्तन ।*

*ताहाओ ना हय यदि हय नामेर स्मरण ॥१०॥*

*तुण्ड बन्धे चित्त भ्रंशे श्रवण तबु हय ।*

*सर्व पाप क्षये जीवेर मुख्य फलोदय ॥११॥*

*बहु जन्म अर्चनेते एइ फल धरे ।*

*कृष्ण नाम निरन्तर तुण्डे नृत्य करे ॥१२॥*

*कर्म ज्ञान योगादिर सेइ शक्ति नहे ।*

*विधि भङ्ग दोषे फल हीन शास्त्रे कहे ॥१३॥*

*से सब छाड भाइ नाम कर सार ।*

*अति अल्प दिने तबे जिनिबे संसार ॥१४॥*

कवि कर्णपूर

*धन्य कवि कर्णपूर स्व-ग्राम-निवासी ।*

*नामेर महिमा किछु राखिल प्रकाशि ॥१५॥*

*गौर यारे कृपा करे विश्वे सेइ धन्य ।*

*सप्त वर्षे वयसे हैल महा कवि मान्य ॥१६॥*

*धन्य शिवानन्द कवि कर्णपूर पिता ।*

*मोरे बाल्ये शिखाइल भागवत गीता ॥१७॥*

*नदीया लैया मोरे राखे प्रभु पदे ।*

*शिवानन्द त्राता मोर सम्पदे विपदे ॥१८॥*

*तार घरे भोग रान्धि पाक शिक्षा हैल ।*

*भाल पाक करि श्री-गौराङ्ग सेवा कैल ॥१९॥*

*जगाइ बले साधु सङ्गे दिन याय यार ।*

*सेइ मात्र नामाश्रय करे निरन्तर ॥२०॥*

*(९)*

युक्त वैराग्य

वैराग्य दुइ प्रकार – फल्गु ओ युक्त

*एक दिन जिज्ञासिलेन गोसाञी सनातन ।*

*युक्त वैराग्य कारे बले प्रभु करुन् वर्णन ॥१॥*

*मायावादी बले सब काक-विष्ठा-सम ।*

*विषय जानिले न्यासी हय सर्वोत्तम ॥२॥*

*वैष्णवेर कि कर्तव्य जानिते इच्छा करि ।*

*कृपा करि आज्ञा कर आज्ञा शिरे धरि ॥३॥*

*प्रभु बले वैराग्य हय दुइ त प्रकार ।*

*फल्गु युक्त भेद आमि शिखाइनु बार बार ॥४॥*

फल्गु वैराग्य

*कर्मी ज्ञानी यबे करे निर्वेद आश्रय*

*तार चित्ते फल्गु वैराग्य पाय दुष्टाशय ॥५॥*

*संसारेते तुच्छ बुद्धि आसिया तखन ।*

*जड विपरीत धर्मे करे प्रवर्तन ॥६॥*

*कृष्ण सेवा साधु सेवा आत्म रसास्वाद ।*

*नाम रूप गुण लीला ना हय समीचीन ॥७॥*

युक्त वैराग्य

*युक्त वैरागीर भक्ति हय त सुलभ ।*

*कृष्ण भक्ति पुत विषय तार घटे सब ॥८॥*

*प्रकृतिर जड धर्म तार चित्त छाडे अनायासे ।*

*चित् आश्रये मजे शीघ्र अप्राकृत भक्ति रसे ॥९॥*

*भक्ति योगे श्री कृष्णेर प्रसन्नता पाय ।*

*न मे भक्तः प्रणश्यति प्रतिज्ञा जानाय ॥१०॥*

*प्रसन्न हैया कृष्ण यारे कृपा करे ।*

*सेइ जन धन्य एइ संसार भितरे ॥११॥*

*गोलोकेर परम भाव तार चित्ते स्फुरे ।*

*गोकुले गोलोक पाय माया पडे दूरे ॥१२॥*

शुष्क वैराग्य दूर करा कर्तव्य

*ओरे भाइ शुष्क वैराग्य एबे दूर कर ।*

*युक्त वैराग्य आनि’ सदा हृदयेते धर ॥१३॥ *

*विषय छाडिया भाइ कोथा याबे बल ।*

*वने याबे सेखाने विषय जञ्जाल ॥१४॥*

*पेट तोमार सङ्गे याबे देहेर रक्षणे ।*

*कत लेठा हबे ताहा भेवे देख मने ॥१५॥*

*अकारणे जीवनेर शीघ्र हबे क्षय*

*मरिले केमने आर माया कर्बे जय ॥१६॥*

*यदिओ ना मर तबु हैबे दुर्बल ।*

*ज्ञान नाश हैले कोथा ज्ञानेर सम्बल ॥१७॥*

सुतरां युक्त वैराग्य कर्तव्य ।

*घरे बसि’ सदा काल कृष्ण नाम लञा ।*

*यथा योग्य विषय भुञ्ज अनासक्त हञा ॥१८॥*

*यथा योग्य एइ शब्द दुटीर मर्मार्थ बुझे लह ।*

*कपटार्थ लञा येन देहारामी ना ह ॥१९॥*

*शुद्ध भक्तिर अनुकूल कर अङ्गीकार ।*

*शुद्ध भक्तिर प्रतिकूल कर अस्वीकार ॥२०॥ *

*मर्मार्थ छाडिया येबा शब्द अर्थ करे ।*

*रसेर वशे देहारामी कपट मार्ग धरे ॥२१॥*

*भाल खाय भाल परे करे बहु धनार्जन ।*

*योषित् सङ्गे रत हञा फिरे रात्र दिने ॥२२॥*

*भाल शय्या अट्टालिका खोङ्जे अर्वाचीन ।*

*देह यात्रार उपयोगी नितान्त प्रयोजन ॥२३॥*

*विषय स्वीकार करि कर देहेर रक्षण ।*

*सात्त्विक सेवन कर आसव वर्जन ।*

*सर्व भूते दया करि’ कर उच्च सङ्कीर्तन ॥२४॥*

*देव सेवा छल करि’ विषय नाहि कर ।*

*विषयेते राग द्वेष सदा परिहर ॥२५॥*

*पर हिंसा कपटता अन्य सने वैर ।*

*कभु नाहि कर भाइ यदि मोर वाक्य धर ॥२६॥*

*निर्जन सुदृढ भक्ति कर आलोचन ।*

*कृष्ण सेवार सम्बन्धे दिन करह यापन ॥२७॥*

*मठ मन्दिर दालान बाडीर ना कर प्रयास ।*

*अर्थ थाके कर भाइ येमन अभिलाष ॥२८॥*

*अर्थ नाइ तबे मात्र सात्त्विक सेवा कर । *

*जल तुलसी दिया गिरिधारीके वक्षे धर ॥२९॥*

*भावेते काङ्दिया बल आमि त तोमार ।*

*तव पाद पद्म चित्ते रहुक आमार ॥३०॥*

*वैष्णवे आदर कर प्रसादादि दिया ।*

*अर्थ नाइ दैन्य वाक्ये तोष मिनति करिया ॥३१॥*

*परिजन परिकर कृष्ण दास दासी*

*आत्म सम पालने हैबे मिष्ट भाषी ॥३२॥*

*स्मरण कीर्तन सेवा सर्व भूते दया ।*

*एइ त करिबे युक्त वैरागी हैया ॥३३॥*

*कृष्ण यदि नाहि देय परिजन परिकर ।*

*अथवा दिया त लय सर्व सुखेर आकर ॥३४॥*

*शोक मोह छाड भाइ नाम कर निरन्तर ।*

*जगाइ बले एभाव गौरेर सने मोर कोङ्दल विस्तर ॥३५॥*

–ओ)०(ओ—

(१०)

जाति कुल

कुल ओ भजन योग्यता

*श्रद्धा हैले नर मात्र नामेर अधिकारी ।*

*जाति कुलेर तर्क तर्कीर ना चले भारि भुरि ॥१॥*

*ब्राह्मणेर सत् कुल ना हय भजनेर योग्य । *

*श्रद्धवान् नीच जाति नहे भजने अयोग्य ॥२॥*

कुलाभिमानी अभक्त

*संसारेर दश कर्मे जाति कुलेर आधिपत्य ।*

*कृष्ण जने जाति कुलेर ना आछे माहात्म्य ॥३।*

*जाति कुलेर अभिमाने अहङ्कारी जन ।*

*भक्तिके विद्वेष करि याय नरक भवन ॥४॥*

*ना माने वैष्णव भक्त ना माने धर्माधर्म ।*

*अहङ्कारे करे सदा अकर्म विकर्म ॥५॥*

अभक्त विप्र हैते भक्ति मुचि श्रेष्ठ

*मुचि हञा कृष्ण भजे कृष्ण कृपा पाय ।*

*शुचि हञा भक्ति हीन कृष्ण कृपा नाहि ताय ॥६॥*

*द्वादश गुणेते विप्र अलङ्कृत हञा ।*

*कृष्ण भक्ति विना याय नरके चलिया ॥७॥*

*कृष्ण भक्ति यथा तथा सर्व गुण गण ।*

*आपन इच्छाय देहे बैसे अनुक्षण ॥८॥*

*मृत देहे अलङ्कार हय घृणास्पद ।*

*अभक्तेर जप तप बाह्य से सम्पद ॥९॥*

विषये राग द्वेष वर्जनीय

*भज भाइ एक मने शचीर नन्दन ।*

*जाति कुलेर अभिमान हबे विसर्जन ॥१०॥*

*अभिमान छाडिले भाइ छाडिबे विषय ।*

*विषय छाडिले शुद्ध हबे तोमार आशय ॥११॥*

*विषय हैते अनुराग लओ उठाइया ।*

*कृष्ण पदाम्बुजे रागे देह लागाइया ॥१२॥*

*हओ तुमि सत् कुलीन ताहे किबा क्षति ।*

*कुलेर अभिमान छाडि’ हओ दीन मति ॥१३॥*

अभिमान हीन दीनेर प्रति भगवानेर् दया

*दीनेरे अधिक दया करे भगवान् ।*

*अभिमान दैन्य नाहि रहे एक स्थान ॥१४॥*

*अभिमान नरकेर पथ ताहा यत्ने त्यज ।*

*दैन्ये राधा गोविन्देर पाद पद्मे मज ॥१५॥*

अभिमान त्याग नित्यानन्देर दया सापेक्ष

*आहा प्रभु नित्यानन्द कबे करिबे दया ।*

*अभिमान छाडाञा मोरे दिबे पद छाया ॥१६॥*

 --ओ)०(ओ--

(११)

नवद्वीप दीपक

श्री-नवद्वीप वृन्दावन अभिन्न

*ब्रह्माण्डे धरणी धन्य धराय गौड क्षौणी धन्य ।*

*गौडे नवद्वीप धन्य द्व्य्-अष्ट-क्रोश जगत् मान्य ॥१॥*

*मध्ये स्रोतस्वती धन्य भागीरथी वेगवती ।*

*ताहाते मिलेछे आसि श्री यमुना सरस्वती ॥२॥*

*तार पूर्व तीरे साक्षात् गोलोक मायापुर ।*

*तथाय श्री-शची-गृहे शोभे गौराङ्ग ठाकुर ॥३॥*

*से ठाकुर द्वापरेर शेष वृन्दावने वने ।*

*महा रास क्रीडा कैल राधिकादि गोपी सने ॥४॥*

*परकीय महा रास गोलोकेर नित्य धन ।*

*आनिल व्रजेर सह नन्द यशोदा नन्दन ॥५॥*

*सेइ ठाकुर आबार निजेर योग मायापुर ।*

*प्रपञ्चे आनिल गौड रसास्वाद सुचतुर ॥६॥*

गौरावतारेर हेतु

*श्री व्रज लीलाय वाञ्छा त्रय ना हैल पूरण ।*

*श्री गौर लीलाय पूर्ण कैल से सुख साधन ॥७॥*

*मोरे प्रणय करि राधा पाय किबा सुख ।*

*मोर माधुर्य आस्वादने राधार कत ये कौतुक ॥८॥*

*आमार अनुभवे राधाय सौख्य कि प्रकार ।*

*नायक हञा नाहि बुझि ए सुखेर सार ॥९॥*

*अतएव राधार भाव कान्ति लञा गौर हब ।*

*कृष्ण माधुर्यादि भक्त भावे आस्वाद पाइब ॥१०॥*

*एत भावि’ कृष्ण निज धाम लञा गौड देशे ।*

*नवद्वीपे प्रकटिल स्वयं आनन्द आवेशे ॥११॥*

गौरेर भजन प्रणालीते कृष्ण भजन

*ओरे भाइ सब छाडि बैसो नवद्वीप पुरे ।*

*गौराङ्गेर अष्ट काल भज दुःख याबे दूरे ॥१२॥*

*अष्ट-काले अष्ट-परकार कृष्ण-लीला सार ।*

*गौरोदित भावे भज पाबे प्रेम चमत्कार ॥१३॥*

*कृष्ण भजिबारे यार एकान्त आछे मन ।*

*गौडेर अष्ट-काले भज कृष्ण रस धन ॥१४॥*

*गौर भाव नाहि जाने ये कृष्ण भजिते चाय ।*

*अप्राकृत कृष्ण तत्त्व तार कभु नाहि भाय ॥१५॥*

आचार्य वर्णाश्रमे आबद्ध नहेन

*किबा वर्णी किबाश्रमी किबा वर्णाश्रम हीन ।*

*कृष्ण तत्त्व वेत्ता येइ सेइ आचार्य प्रवीण ॥१६॥*

असद् गुरु ग्रहणे सर्व नाश

*आसल कथा छेडे भाइ वर्णे ये करे आदर ।*

*असद् गुरु करि तार विनष्ट पूर्वापर ॥१७॥*

  --ओ)०(ओ--

(१२)

वैष्णव महिमा

कृष्ण भक्ति ओ तीर्थ

*जल मय तीर्थ मृत् शिला मय मूर्ति ।*

*बहु काले देय जीव हृदे धम स्फूर्ति ॥१॥*

*कृष्ण भक्त देखि दूरे याय सर्वानर्थ ।*

*कृष्ण भक्ति समुदित हय परमार्थ ॥२॥*

साधु सङ्गेर फल

*संसार भ्रमिते भव क्षयोन्मुख यबे ।*

*साधु सङ्ग संघटन भाग्य क्रमे हबे ॥३॥*

*साधु सङ्ग फले कृष्णे सर्वेश्वरेश्वरे ।*

*भावोदय हय भाइ जीवेर अन्तरे ॥४॥*

प्राकृत वा कनिष्ठ भक्त

*सेइ त प्राकृत भक्त दीक्षित हैया ।*

*कृष्णार्चन करे विधि मार्गेते बसिया ॥५॥ \

उत्तम मध्यम भक्त ना करे विचार ।*

*शुद्ध भक्त समादर ना हय ताहार ॥६॥*

मध्यम भक्त

*कृष्ण प्रेम भक्ते मैत्री मूढे कृपा आर ।*

*शुद्ध भक्त द्वेषी उपेक्षा याङ्हार ॥७॥*

*तिहोङ् त प्रकृत भक्ति साधक मध्यम ।*

*अति शीघ्र कृष्ण बले हैबे उत्तम ॥८॥*

उत्तम भक्त

*सर्व भूते श्री कृष्णेर भाव सन्दर्शन ।*

*भगवाने सर्व भूते करेन दर्शन ॥९॥*

*शत्रु मित्र विषयेते नाहि राग द्वेष ।*

*तिहोङ् भागवतोत्तम एइ गौर उपदेश ॥१०॥*

उत्तम भक्तेर विषय स्वीकार

*विषय इन्द्रिय द्वारे करिया स्वीकार ।*

*राग-द्वेष-हीन भक्ति जीवने याङ्हार ॥११॥*

*समस्त जगत् देखि विष्णु-माया-मय ।*

*भागवत-गणोत्तम सेइ महाशय ॥१२॥*

ताङ्हार इन्द्रिय वृत्ति परिचालन

*देहेन्द्रिय प्राण मन बुद्धि युक्त सबे ।*

*जन्म नाश क्षुधा तृष्णा भय उपद्रवे ॥१३॥*

*अनित्य संसार धर्मे हञा मोह हीन ।*

*कृष्ण स्मरि’ काल काटे भक्त समीचीन ॥१४॥*

ताङ्हार कर्म देह यात्रार्थे मात्र, कामेर जन्य नहे

*याङ्र चित्ते निरन्तर यशोदा-नन्दन ।*

*देह यात्रा मात्र काम कर्मेर ग्रहण ॥१५॥*

*काम कर्म बीज रूप वासना ताङ्हार ।*

*चित्ते नाहि जन्मे एइ भक्ति तत्त्व सार ॥१६॥*

हरिजन देहात्म बुद्धि हीन

*ज्ञान कर्म वर्णाश्रम देहेर स्वभाव ।*

*ताहे सङ्ग द्वारा हय अहं मम भाव ॥१७॥*

*देह सत्त्वे अहं मम भाव नाहि याङ्र ।*

*हरि प्रिय जन तिहोङ् करह विचार ॥१८॥*

सर्वभूते सम बुद्धि सम्पन्न

*वित्त सत्त्वे ताहे छाडि स्व-पर-भावना ।*

*तुमि आमि सत्त्व भेदे मित्रारि कल्पना ॥१९॥*

*सर्व भूते सम बुद्धि शान्त येइ जन ।*

*भागवतोत्तम बलि ‘ ताङ्हार गणन ॥२०॥*

*कृष्ण पाद पद्मे सेइ सुर मृग्य धन ।*

*भुवन वैभव लागि’ ना छाडे ये जन ॥२१॥*

*कृष्ण पद स्मृति निमेषार्ध नाहि त्यजे ।*

*वैष्णव अग्रणी तिहोङ् परानन्दे मजे ॥२२॥*

भक्त त्रि-ताप मुक्त

*कृष्ण पद शाखा नख मणि चन्द्रिकाय ।*

*निरस्त सकल ताप याङ्हार हियाय ॥२३॥*

*से केन विषय सूर्य ताप अन्वेषिबे ।*

*हृदय शीतल तार सर्वदा रहिबे ॥२४॥*

उत्तम भक्तेर अन्यान्य लक्षण

*ये बेङ्धेछे प्रेम छाङ्दे कृष्णाङ्घ्रि-कमल ।*

*नाहि छाडे हरि तार हृदय सरल ॥२५॥*

*अवशे-ओ यदि मुखे स्फुरे कृष्ण नाम ।*

*भागवतोत्तम सेइ पूर्ण सर्व काम ॥२६॥*

*स्व-धर्मेर गुण-दोष बुझिया ये जन ।*

*सर्व धर्म छाडि भजे कृष्णेर चरण ॥२७॥*

*सेइ त उत्तम भक्त केह तार सम ।*

*ना आछे जगते आर भागवतोत्तम ॥२८॥*

*कृष्णेर स्वरूप आर नामेर स्वरूप ।*

*भक्तेर स्वरूप आर भक्तिर स्वरूप ॥२९॥*

*जानिया भजन करे येइ महाजन ।*

*तार तुल्य नाहि केह वैष्णव सुजन ॥३०॥*

*स्वरूप ना जाने तबु अनन्य-भावेते ।*

*श्री-कृष्णे साक्षात् भजे नाम स्वरूपेते ॥३१॥*

*तिहोङ् भक्तोत्तम बलि जानिबेरे भाइ ।*

*एइ आज्ञा दियाछेन चैतन्य गोसाञि ॥३२॥*

–ओ)०(ओ–

(१३)

श्री-गौर-दर्शनेर व्याकुलता

*गौराङ्ग तोमार चरण छाडिया*

*चलिनु श्री-वृन्दावने ।*

*पूर्व लीला तव देखिब बलिया*

*हैल आमार मने ॥१॥*

*केन सेइ भाव हैल आमार*

*एखन काङ्दिया मरि ।*

*तोमारे ना देखि प्राण छाडि याय *

*ना जानि एबे कि करि ॥२॥*

*ए राङ्गा चरण मम प्राण धन*

*समुद्र बालिते राखि ।*

*कि देखिते आइनु निज माथा खाइनु *

*उडु उडु प्राण पाखी ॥३॥*

*यत चलि याइ मन नाहि चले*

*तबु याइ जेद करि ।*

*प्रेमेर विवर्त आमारे नाचाय*

*ना बुझिया आमि मरि ॥४॥*

*गौराङ्गेर रङ्ग बुझिते नारिनु*

*पडिनु दुःख सागरे ।*

*आमि चाइ याहा नाहि पाइ ताहा*

*मन ये केमन करे ॥५॥*

*गौराङ्गेर तरे प्राण दिते याइ *

*ना हय मरण तबु ।*

*मरिब बलिया पडिया समुद्रे*

*खाइ मात्र हाबु डुबु ॥६॥*

*से चन्द्र वदन देखिबार लोभे*

*शीघ्र उठि सिन्धु तटे ।*

*पुनः नाहि देखि प्राण उडि याय *

*चलि पुनः टोटा-बाटे ॥७॥*

*गोपीनाथाङ्गने देखि गोरा मुख*

*पडि अचेतन हञा ।*

*पण्डित गोङ्साञि मोरे लञा राखे*

*देखि पुनः संज्ञा पाञा ॥८॥*

*गौर गदाधर बसिया दुजने*

*बलेन आमार कथा ।*

*अमनि काङ्दिया याइ गडागडि *

*ना विचारि यथा तथा ॥९॥*

*क्षणेक विरह सहिते ना पारि*

*गौर मोर हृदे नाचे ।*

*मरिते ना देय बाङ्चिले कोन्दल*

*किसे मोर हृदे नाचे ॥१०॥*

* *

*हेन अवस्थाय गौर पद छाडि *

*मोर वृन्दावने आसा ।*

*ए बुद्धि हैल केन नाहि जानि *

*इह पर लोक नाशा ॥११॥*

*आज्ञा लैनु याइते आज्ञा ना पालिले*

*ताते हय अपराध ।*

*गोरा चाङ्द मुख ना देखिया मरि *

*सब दिके मोर बाध ॥१२॥*

*गोरा प्रेम यार सङ्कट ताहार*

*प्राण लञा टानाटानि ।*

*गदाधर गणे एइ त दुर्दशा*

*सबे करे काणाकाणि ॥१३॥*

(१४)

विपरीत विवर्त

नवद्वीप दर्शने वृन्दावन दर्शन

*भाइ रे !*

*वृन्दावने याओआ आर हलो ना ॥१॥*

*गोरा मुख ना देखिया गोरा रूप धेयाइया *

*पथ भुलि याइ अन्य देश ।*

*सेखान हैते फिरि पुनः याइ धीरि धीरि*

*पुनः आसि देखि से प्रदेश ॥२॥*

*एइ रूपे कत दिने याब आमि वृन्दावने*

*ना जानि कि हबे दशा मोर ।*

*वृक्ष तले बसि बसि काटि आमि अहर् निशि *

*कभु मोर निद्रा आसे घोर ॥३॥*

*स्वप्ने बहु दूरे गिया सिन्धु तटे प्रवेशिया*

*देखि गोरार अपूर्व नर्तन ।*

*गदाधर नाचे सङ्गे भक्त गण नाचे रङ्गे*

*गाय गीत अमृत वर्षण ॥४॥*

*नृत्य गीत अवसाने गोरा मोर हात टने*

*बले तुमि क्रोधे छाडि गेले ।*

*आमार कि दोष बल तव चित्त सुचञ्चल*

*व्रजे गेले आमा हेथा फेले ॥५॥*

*आइसे आलिङ्गन करि तव वक्षे वक्ष धरि *

*छाङ्डो मुञि चित्तेर विकार ।*

*मध्याह्ने करिया पाक देह मोरे अन्न शाक*

*क्षुन्-निवृत्ति हौक् आमार ॥६॥*

*छाडिया जगदानन्दे मोर मन निरानन्दे*

*भोजनादि लैल कत दिन ।*

*कि बुझिया गेले तुमि दुःखेते पडिनु आमि *

*जगा मोरे सदा दया हीन ॥७॥*

*शीघ्र व्रज निरखिया आइस तुमि सुखी हञा*

*मोरे देह शाकान्न व्यञ्जन ।*

*तबे त बाञ्चिब आमि ताते सुखी हबे तुमि *

*क्रोध मोरे ना छाड कखन ॥८॥*

*निद्रा भाङ्गि देखि आमि बहु दूर व्रज भूमि*

*निकटेते जाह्नवी पुलिने ।*

*आहा नवद्वीप धाम नित्य गुअर लीला ग्राम*

*व्रज सार अति समीचीन ॥९॥*

*आनन्देते मायापुरे प्रवेशिनु अन्तः पुरे*

*नमि आमि आइ-माता पद ।*

*गौराङ्गेर कथा बलि शीघ्र आइलाम चलि *

*देखि नवद्वीप सुसम्पद ॥१०॥*

*भाविलाम वृन्दावन करिलाम दरशन*

*आर केन याउ दूर देश ।*

*गौर दरशन करि सब दुःख परिहरि *

*छाडि दिब विरहज-क्लेश ॥११॥*

(१५)

श्री-नवद्वीप पूर्वाह्न लीला

*यखन याहा मने पडे गौराङ्ग चरित ।*

*ताहा लिखि हैले-ओ क्रम विपरीत ॥१॥*

गौराङ्ग प्रसाद

*शची आइ एक दिन बड यत्न करि ।*

*गोरा अवशिष्ट पात्र मोरे दिल धरि ॥२॥*

*आमि खाइलाम येन अमृतास्वादन ।*

*गौराङ्ग प्रसाद पाञा आह्लादित मन ॥३॥*

*कभु कि करिब आमि से भूरि भोजन ।*

*आबोना अच्युत शाक आइयेर रन्धन ॥४॥*

*मोचा घण्ट कचु शाक ताहे फुल बडि ।*

*मानचाकि निम्ब पटोल आर दधि बडि ॥५॥*

गादिगाछा ग्रामे गमन

*भोजने आनन्द मति चलिलाम हंस गति*

*निताइ गौराङ्ग गण सङ्गे ।*

*गङ्गा-तीरे याइ गादि- गाछा ग्राम पाइ*

*हरिनाम गानेर प्रसङ्गे ॥६॥*

*गोविन्द मृदङ्ग बाय वासु घोष नाम गाय*

*नाचे गदाधर वक्रेश्वर ।*

*हरि बोल रव शुनि चारि दिके हुलु ध्वनि *

*गोरा प्रेमे सबे मातोआर ॥७॥*

*नाच गान नाहि जानि तबु नाचि ऊर्ध्व पाणि *

*गौराङ्ग नाचाय अङ्गे पशि ।*

*सुर-ताल-बोध नाइ तबु नाचि तबु गाइ *

*कि जानि कि जाने गौर शशी ॥८॥*

तथाय गोप-गणेर सेवा

*गादि गाछा ग्रामे आसि गोप पल्ली माझे पशि*

*गोरा बले शुन भक्त गण । *

*दह कूले विचरण आजि मोदेर विचरण*

*वृक्ष मूले करिब शयन ॥९॥*

*एइ बट वृक्ष तले गाभी आछे कुतूहले *

*गोप सह करिब विहार ।*

*बहु गोप गण आइल दधि छाना ननी दिल*

*पथ श्रम रहिल आर ॥१०॥*

*नृसिंहानन्देर सङ्गे प्रद्युम्न आइल रङ्गे*

*पुरुषोत्तमाचार्य मिलिल ।*

*मृदङ्गेर वाद्य-रवे गृह छाडि आइल सबे*

*हरि ध्वनि गगने उठिल ॥११॥*

भीम गोप

*भीम नामे गोप एक परम उदार ।*

*अग्रसर हञा बले शुनह गोहार ॥१२॥*

*आमार जननी श्यामा गोआलिनी धन्या ।*

*गङ्गा-नगरेर साधु गोआलार कन्या ॥१३॥*

*शची आइके मा बलिया सदा करे सेवा ।*

*से सम्पर्के तुमि आमार मातुल हैबा ॥१४॥*

*चल मामा मोर घरे चल दल लञा ।*

*श्री-कृष्ण-कीर्तन कर आनन्दित हञा ॥१५॥*

*दधि दुग्ध याहा किछु राखियाछे मा ।*

*सब खाओआइबे आर टीपे दिब पा ॥१६॥*

गौराङ्गेर भीमेर गृहे गमन ओ क्षीर भोजन

*नाछोड हैया यबे सकले धरिल ।*

*गोप प्रेम गोरा गोप गृहेते चलिल ॥१७॥*

*श्यामा गोआलिनी तबे उलु ध्वनि दिया ।*

*सकलके गोआल-घरे दिले बसाइया ॥१८॥*

*श्यामा बले पण्डित दादा केमन आछेन मा ।*

*भाल भाल बलि गोरा नाचाइल गा ॥१९॥*

*कला पाता पाति श्यामा देय दधि क्षीर ।*

*भक्त गण लञा निमाइ भोजने बसे धीर ॥२०॥*

गोरा-दह

*भोजन समापि चले सेइ दहेर तीरे ।*

*हरि गुण गान सबे करे धीरे धीरे ॥२१॥*

*रामदास गोप आसि करे निवेदन ।*

*दहेर जल पान नाहि करे गाभी गण ॥२२॥*

दहे नक्र

*नक्र एक भयङ्कर बेडाय दहेर जले ।*

*जल ना खाइया गाभी डके हाम्बा बोल ॥२३॥*

*ताहा शुनि गोरा करे श्री-नाम-कीर्तन ।*

*कीर्तन आकृष्ट हैल नक्र तत क्षण ॥२४॥*

नक्र नहे देव शिशु

*शीघ्र करि उठिया आइल गोरा पाय ।*

*पद स्पर्शे देव शिशु परिदृश्य हय ॥२५॥*

*काङ्दि सेइ देव शिशु करेन स्तवन ।*

*निज दुःख कथा बले आर करय रोदन ॥२६॥*

नक्र-रूपी देव शिशुर पूर्व विवरण

*देव शिशु बले प्रभु दुर्वासार शापे ।*

*नक्र रूपे भ्रमि आमि सर्व लोक काङ्पे ॥२७॥*

*काम्य वने मुनि वर शुतिया आछिल ।*

*चञ्चलता करि तार जटा काटि निल ॥२८॥*

*क्रोधे मुनि कहे तुमि पाञा नक्र रूप ।*

*चारि युग थाक कर्म फल अनुरूप ॥२९॥*

*तबे काङ्दिलाम आमि मिनति करिया ।*

*दया करि मुनि मोरे कहिल डकिया ॥३०॥*

*ओरे देव शिशु यबे श्री नन्दनन्दन ।*

*नवद्वीपे हैबेन शची प्राण धन ॥३१॥*

*ताङ्हार कीर्तने तोमार शाप क्षय हबे ।*

*दिव्य देह पेये तबे त्रिपिष्टप याबे ॥३२॥*

देव शिशुर स्तव

*जय जय शचीसुत पतित पावन ।*

*दीन हीन अगतिर गति महाजन ॥३३॥*

*चौद्द भुवने घोषे सुकीर्ति तोमार ।*

*आमा हेन अधमेरे करिले उद्धार ॥३४॥*

*एइ नवद्वीप धाम सर्व धाम सार ।*

*एखाने हैले कलि पावनावतार ॥३५॥*

*कलि जीव उद्ध्रिबे दिया हरि नाम ।*

*आसियाछ महाप्रभु तोमाके प्रणाम ॥३६॥*

*चारि युग आछि मि नक्र रूप धरि ।*

*एबे उद्धारिले तुमि पतित पावन हरि ॥३७॥*

*तव मुखे हरि नाम परम मधुर ।*

*स्थावरास्थावर जीव तारिले प्रचुर ॥३८॥*

*आज्ञा देओ याइ आमि त्रिपिष्टप यथा ।*

*माता पिता देखि सुख पाइब सर्वथा ॥३९॥*

देव शिशुर स्वरूप प्राप्ति ओ स्व-स्थाने गमन

*एत बलि प्रणमिया देव शिशु याय ।*

*कीर्तनेर रोल तबे उठे पुनराय ॥४०॥*

*मध्याह्न हैल देखि सर्व भक्त गण ।*

*प्रभु सङ्गे मायापुर करिल गमन ॥४१॥*

*महाप्रभुर एइ लीला ये करे श्रवण ।*

*ब्रह्म शाप मुक्त हय सेइ महाजन ॥४२॥*

गोरा दह दर्शनेर फल

*सेइ हैते गोरा दह नाम परचार ।*

*कालीयदहेर न्याय हैल ताहार ॥४३॥*

*सेइ दह दर्शने स्पर्शने पाप क्षय ।*

*कृष्ण भक्ति लाभ हय सर्व वेदे कय ॥४४॥*

*सेइ गोप गण देख महा प्रेमानन्दे ।*

*गौराङ्ग करिल हेथा मामा बलि स्कन्धे ॥४५॥*

*सकले देखिल प्रभुर पूर्वाह्न विहार ।*

*तङ्हि मध्ये देखे राम-कृष्ण लीला-सार ॥४६॥*

*देखे गोवर्धन तथा मानस जाह्नवी पुलिने ।*

*कृष्ण गो-चारण लीला अति समीचीन ॥४७॥*

*गोप-गण जानिल ये निमाञि चरित ।*

*श्री-नन्द-नन्दन लीला निज समीहित ॥४८॥*

(१६)

पीरिति कि रूप ?

श्री-रघुनाथ गोस्वामीर प्रश्न

*एक दिन रघुनाथ स्वरूपे जिज्ञासे ।*

*कि वस्तु पीरिति मोरे शिखाओ आभासे ॥१॥*

*विद्यापति चण्डी दासअ ये प्रीति वर्णिल ।*

*से प्रीति बुझिते मोर शक्ति ना हैल ॥२॥*

*ताङ्हादेर वाक्ये बाह्ये बुझे ये पीरिति ।*

*से केवल स्त्री-पुरुषेर प्रणयेर रीति ॥३॥*

*से केमने परमार्थ मध्ये गण्य हय ।*

*प्राकृत कामके केन अप्राकृत कय ॥४॥*

*महाप्रभु तोमार सङ्गे सेइ सब गान ।*

*करेन सर्वदा तार ना पि सन्धान ॥५॥*

*प्रभु तव हस्ते मोरे करिल समर्पण ।*

*आज्ञा कैल शिखाओ एबे निगूढ तत्त्व धन ॥६॥*

प्रीति-तत्त्व कि ?

*कृपा करि प्रीति तत्त्व मोरे देह बुझाइया ।*

*कृतार्थ हैब मुञि संशय त्यजिया ॥७॥*

उत्तर

*स्वरूप बलिल—भाइ रघुनाथ दास ।*

*निभृते तोमारे तत्त्व करिब प्रकाश ॥८॥*

*आमि किबा रामानन्द अथवा पण्डित ।*

*केह ना बुझिबे तत्त्व प्रभुर उदित ॥९॥*

*तबे यदि गौर चन्द्र जिह्वाय बसिया ।*

*बलाइबे निज तत्त्व सकृप हैया ॥१०॥*

*तखनि जानिबे हैल सुनृत्य प्रकाश ।*

*शुनिया आनन्द पाबे रघुनाथ दास ॥११॥*

*चण्डी दास विद्यापति कर्णामृत रायेर गीति *

*ए सब अमूल्य शास्त्र जान ।*

*ए सबे नाहिक काम ए सब प्रेमेर धाम*

*अप्राकृत ताहाते विधान ॥१२॥*

*स्त्री पुरुष विवरण ये किछु तङ्हि वर्णन *

*से सब उपमा-मात्र सार ।*

*प्राकृत काम वर्णन ताहे कृष्ण अदर्शन*

*अप्राकृत करह विचार ॥१३॥*

*कि पुरुष किबा नारी ए तत्त्व बुझिते नारि *

*जड देहे करे रस रङ्ग ।*

*से गुरु कृष्णेर भाणे शुद्ध रति नाहि जाने*

*ताहार भजन माया रङ्ग ॥१४॥*

कृष्ण प्रेम

*कृष्ण प्रेम सुनिर्मल येन शुद्ध गङ्गा जल*

*सेइ प्रेमा अमृतेर सिन्धु ।*

*निर्मल ये अनुराग नाहि ताहे जड दाग *

*शुक्ल वस्त्र शून्य मसी बिन्दु ॥१५॥*

*शुद्ध प्रेम सुख सिन्धु पाइ तार एक बिन्दु*

*सेइ बिन्दु जगत् डुबाय ।*

*जड देहे करि प्रीति केवल कामेर रीति *

*शुद्ध देह ना हय उदय ॥१६॥ \
*दूरे शुद्ध प्रेम बन्ध कपट प्रेमेते अन्ध *

*सेइ प्रेमे कृष्ण नाहि पाय ।*

*तबे ये करे क्रन्दन स्व-सौभाग्य प्रख्यापन*

*करे इहा जानिह निश्चय ॥१७॥*

*कृष्ण प्रेअम् यार हय तार विभाव चिन्मय *

*अनुभाव देहेते प्रकाश ।*

*सात्त्विकादि व्यभिचारी चिन्मय स्वरूप धरि*

*चित् स्वरूपे करये विलास ॥१८॥*

*धन्य सेइ लीला शुक कृष्ण तारे हये सम्मुख*

*दिल व्रजेर अप्राकृत रस ।*

*छाडिल ए देह रङ्ग प्राकृतालम्बन भङ्ग*

*ताहे कृष्ण परम सन्तोष ॥१९॥*

*विद्यापति चण्डी दास छाडि पूर्व रसाभास*

*अप्राकृत रस लाभ कैल ।*

*पूर्वे छिल तुच्छ रस ताहा छाडि प्रेम वश*

*हञा कृष्ण भजन लभिल ॥२०॥*

*तुच्छ रसे मातोआर ना पाय कृष्ण रस सार*

*नहे वंशी-वदनालम्बन ।*

*जड देहे साज साज माथाय तार पडे बाज *

*प्राण कीतेर करये धारण ॥२१॥*

*सेइ तुच्छ रस त्यजि श्री-नन्दनन्दन भजि*

*देखे कृष्ण श्री-वंशीवदन ।*

*निजे गोपी देह पाय व्रज वने वेगे याय*

*पूर्व सङ्ग करय त्यजन ॥२२॥*

तथा हि महाप्रभुर श्लोक

*न प्रेम-गन्धो ऽस्ति दरापि मे हरौ*

*क्रन्दामि सौभाग्य-भरं प्रकाशितुम्*

*वंशी-विलास्य्-आनन-लोकनं विना*

*बिभर्मि यत् प्राण-पतङ्गकान् वृथा ॥२३॥*

व्रज गोपी व्यतीत पीरिति बुझे ना

*पीरिति पीरिति पीरिति बले *

*पीरिति बुझिल के ?*

*ये जन पीरिति बुझिते पारे *

*व्रज गोपी हय से ॥२४॥*

*पीरिति बलिया तिन टि आग्खर*

*विदित भुवन माझे ।*

*याहाते पशिल सेइ से मजिल*

*कि तार कलङ्क-लाजे ॥२५॥*

*व्रज गोपी हञा चिद्-देह स्मरिया*

*जडेर सम्बन्ध छाडे ।*

*विषये आश्रये शुद्ध आलम्बन*

*परकीय रस बाडे ॥२६॥*

*व्रज विना कोथाओ नाहि परकीय भाव ।*

*वैकुण्ठ लक्ष्मीते तार सदा अस्द्-भाव ॥२७॥*

सहजियार प्रीति

*संसारे यतेक पुरुष रमणी*

*आलम्बन दोषे सदा ।*

*रक्त मांस देहे आरोप करिते*

*नारकी हय सर्वदा ॥२८॥*

*अतएव तारा सहज साधने*

*कृष्ण कृपा यबे पाय ।*

*जड देह गन्ध छाडिया से सब*

*चिद्-आनन्द रस धाय ॥२९॥*

राय रामानन्देर प्रीति

*प्रकृत सहज श्री-कृष्ण-भजन*

*करे रामानन्द राय ।*

*सुवैध साधने ए जड देहेते*

*सुयुक्त वैराग्य भाय ॥३०॥*

*विशुद्ध देहेते व्रजे कृष्ण भजे*

*महाप्रभु कृपा पाञा ।*

*नाटकाभिनये देव-दासी शिक्षा*

*सङ्ग-दोष शून्य हञा ॥३१॥*

प्रीति-शिक्षाय अधिकार काहार ?

*रामानन्द विना ताहे अधिकार*

*केह नाहि पाय आर ।*

*पर स्त्री दर्शन स्पर्शन सेवन*

*बुद्धि हृदे आछे यार ।*

*पीरिति शिक्षाय जानिबे निश्चय *

*नाहि तार अधिकार ॥३२॥*

स्त्री पुरुष थाकिते प्रीति साधन असम्भव

*कभु ए संसारे स्त्री पुं व्यवहारे*

*ना हय पीरिति धन ।*

*चर्म सुख यत अनित्य नियत*

*नहे नित्य संघटन ॥३३॥*

*गोपी भाव धरि चिद् धर्म आचरि*

*पीरिति साधिबे येइ ।*

*स्त्री पुं व्यवहार नाहिक तांहार *

*भितरे गोपिनी सेइ ॥३४॥*

*बाहिरे सज्जन धर्म आचरण *

*आमरण वैधाचार ।*

*अन्तरेते गोपी चित्ते कृष्ण सेवे *

*केवल पीरिति तार ॥३५॥*

*यः कौमार हरह् इत्य् आदि कविता*

*केवल उपमा-स्थल ।*

*नायक नायिका चित्-स्वरूप हञा*

*कृष्ण भजे सुनिर्मल ॥३६॥*

जडेते एइ भाव आरोप, नरक कलिर छलना

*केह यदि बले इहा आरोप चिन्ताय ।*

*पर-पुरुषेते कृष्ण भजन उपाय ॥३७॥*

*चैतन्य आज्ञाय आमि ए कथा ना मानि ।*

*जडेते ए रूप बुद्धि नरक बलि मानि ॥३८॥*

*जड देहे चिद्-आरोप सङ्ग तुच्छ अति ।*

*ताहे कृष्ण भाव आना समूह दुर्मति ॥३९॥*

*कलिर छलना एइ जानिह निश्चय ।*

*इहाते वैष्णव धर्म अधः पथे याय ॥४०॥*

*सुकृति पुरुष मात्र उपमा बुझिया ।*

*स्वीय अप्राकृत देहे कृष्ण भजे गिया ॥४१॥*

*चण्डी दास विद्यापति आदि महाजन ।*

*पूर्व बुद्धि दूरे राखि करिल भजन ॥४२॥*

*से सबार शेष वाक्य चिन्मयी पीरिति ।*

*आछे तबु नाहि बुझे दुष्कृतिर रीति ॥४३॥*

*रघुनाथ ए विषये करह विचार ।*

*तोमा हेन भक्त प्रचारिबे सद् आचार ॥४४॥*

*ए विषय एक बार प्रभुके जानाञा ।*

*चित्त दृढ करि लओ दृढ कर हिया ॥४५॥*

*तबे रघुनाथ श्रीमत् प्रभुपदे गिया ।*

*ठारे ठोरे जिज्ञासिल विनीत हैया ॥४६॥*

*प्रभु तारे आज्ञा दिल आमार सम्मुखे ।*

*रघुनाथ आज्ञा पेये भजे मन-सुखे ॥४७॥*

श्री-रघुनाथ प्रति श्रीमन्-महाप्रभुर आज्ञा

ग्राम्य-कथा ना शुनिबे ग्राम्य-वार्ता ना कहिबे ।

भालो ना खाइबे आर भालो ना परिबे ॥४८॥

अमानी मानद हञा कृष्ण-नाम लबे ।

*व्रजे राधा-कृष्ण-सेवा मानसे करिबे ॥४९॥ *

*एइ आज्ञा पाञा रघु बुझिल तखन ।*

*पीरिति ना हय कभु जडेते साधन ॥५०॥*

*मानसेते सिद्ध-देह करिया भावन ।*

सेइ देहे राधा-नाथेर करिबे सेवन ॥५१॥

अमानी मानद भावे अकिञ्चन हञा ।

वृक्ष हेन सहिष्णुता आपने करिया ॥५२॥

बाह्य देहे कृष्ण नाम सर्व काल गाय ।

अन्तर् देहे थाके राधा कृष्णेर सेवाय ॥५३॥

भाल खाओआ भाल परा परित्याग करि ।

प्राण-वृत्ति द्वारा जड-देह यात्रा धरि ॥५४॥

मर्कट-वैराग्य

*एइ जड देहे राधा कृष्ण बुद्ध्य्-आरोप ।*

*मर्कट वैरागी करे सर्व धर्म लोप ॥५५॥*

*प्रभु बलियाछेन मर्कट वैरागी से जन ।*

*वैरागीर प्राय थाकि करे प्रकृति-सम्भाषण ॥५६॥*

विशुद्ध वैरागी

* विशुद्ध वैरागी करे नाम सङ्कीर्तन ।*

*मागिया खाइया करे जीवन यापन ॥५७॥*

*वैरागी हैया येबा करे पराक्पेक्षा । *

कार्य सिद्धि नहे कृष्ण करे उपेक्षा ॥५८॥

वैरागी हैया करे जिह्वार लालस ।

परमार्थ याय आर हय रसेर वश ॥५९॥

वैरागी करिबे सदा नाम सङ्किर्तन ।

शाक पत्र फल मूले उदर भरण ॥६०॥

जिह्वार लालसे जेइ समाजे बेडाय ।

शिश्नोदर-परायण कृष्ण नाहि पाय ॥६१॥

(१७)

भक्त भेदे आचार भेद

*आर दिने श्री-स्वरूप रघुनाथे कय ।*

*तोमारे निगूढ किच्न्हु कहिब निश्चय ॥१॥*

भजन विहीन धर्म केवल कैतव

*ये वर्णेते जन्म यार ये आश्रमे स्थिति ।*

*तत्-तद्-धर्मे देह यात्रा एइ शुद्ध नीति ॥२॥*

*एइ मते देह यात्रा निर्वाह करिया ।*

*निरन्तर कृष्ण भजे एकान्त हैया ॥३॥*

*सेइ से सुबोध सुधार्मिक सुवैष्णव ।*

*भजन विहीन धर्म केवल कैतव ॥४॥*

*कृष्ण नाहि भजे करे धर्म आचरण ।*

*अधः पथे याय तार मानव जीवन ॥१७.५॥ *

*गृही ब्रह्मचारी वानप्रस्थ वा सन्न्यासी ।*

*कृष्ण भक्ति शून्य असम्भाष्य दिवा निशि ॥६॥*

सम्बन्ध ज्ञान लाभ ओ युक्त वैराग्य आश्रय

*सकले-इ करिबेन युक्त वैराग्य आश्रय ।*

*कृष्ण भजिबेन बुझि सम्बन्ध निश्चय ॥७॥*

*सम्बन्ध निर्णये हय आलम्बन बोध ।*

*शुद्ध आलम्बन हैले हय प्रेमेर प्रबोध ॥८॥*

*प्रेमे कृष्ण भजे सेइ बापेर ठाकुर ।*

*प्रेम शून्य जीव केवल छाङ्चेर कुकुर ॥९॥*

*कृष्ण भक्ति आछे यार वैष्णव से जन ।*

*गृह छाडि भिक्षा करे ना करे भजन ॥१०॥*

*वैष्णव बलिया तारे ना कर गणन ।*

*अन्य देव निर्माल्यादि ना कर ग्रहण ।*

*कर्म काण्डे कभु ना मानिबे निमन्त्रण ॥११॥*

गृही ओ गृह त्यागी वैष्णवेर आचार

*गृही गृह त्यागी भेदे वैष्णव विचार ।*

*दुङ्हे भक्ति अधिकारी पृथक् आचार ॥१२॥*

*दुङ्हार चाहिये युक्त वैराग्य विधान ।*

*सुज्ञान सुभक्ति दुङ्हार सम परिमाण ॥१३॥*

गृहस्थ वैष्णव कृत्य

*गृहस्थ वैष्णव सदा स्व-धर्मे अर्जिबे ।*

*आतिथ्यादि सेवा यथा साध्य आचरिबे ॥१४॥*

*वैध पत्नी सहवासे नहे भक्ति हानि ।*

*सार्षप सुतैल व्यवहारे नाहि दोष मानि ॥१५॥*

*दधि दुग्ध स्मार्त उपचरित आमिष ।*

*युक्त वैरागीर हय ग्रहणे निरामिष ॥१६॥*

*गृहस्थ वैष्णव सदा नामापराध राखि दूरे ।*

*आनुकूल्य लय प्रातिकूल्य त्याग करे ॥१७॥*

*ऐकान्तिक नामाश्रय ताहार महिमा ।*

*गृहस्थ वैष्णवेर नाहि माहात्म्येर सीमा ॥१८॥*

*पर-हिंसा त्याग पर उपकारे रत ।*

*सर्व-भूते दया गृहीर एइ मात्र व्रत ॥१९॥*

गृह त्यागी वा वैरागी वैष्णवेर कृत्य

*वैरागी वैष्णव प्राण-वृत्ति अङ्गीकरि ।*

*असञ्चय स्त्री-सम्भाषण शून्य भजे हरि ॥२०॥*

*एइ रूप आचार भेदे सकल वैष्णव ।*

*कृष्ण भजि पाय कृष्णेर अप्राकृत वैभव ॥२१॥*

वैष्णवेर कुटीनाटी नाइ

*गृही हौक त्यागी हौक भक्ते भेद नाइ ।*

*भेद कैले कुम्भीपाक नरकेते याइ ॥२२॥ \

मूल कथा कुटीनाटी व्यवहार यार ।*

*वैष्णव कुलेते सेइ महा-कुलाङ्गार ॥२३॥*

*सरल भावेते गठि निज व्यवहार ।*

*जीवने मरणे कृष्ण भक्ति जानि सार ॥२४॥*

*कुटीनाटी कपटता शाठ्य कुटिलता ।*

*ना छाडिया हरि भजे तार दिन गेल वृथा ॥२५॥*

*सेइ सब भागवत कदर्थ करिया ।*

*इन्द्रिया चराञा बुले प्रकृति भुलाइया ॥२६॥*

भागवत श्लोक यथा

*अनुग्रहाय भक्तानां मानुषं देहम् आश्रितः ।*

*भजते तादृशीः क्रीडा याः श्रुत्वा तत्-परो भवेत् ॥२७॥*

*लम्पट पापिष्ठ आपनाके कृष्ण मानि ।*

*कृष्ण लीला अनुकृति करे धर्म हानि ॥२८॥*

शुद्ध भक्तेर राधा कृष्णेर सेवा

*शुद्ध भक्त भक्त भावे चित्-स्वरूप हञा ।*

*व्रजे राधा कृष्ण सेवे सखी भाव लञा ॥२९॥*

*कृष्ण भावे तत्-पर हय ये पामर ।*

*कुम्भीपाक प्राप्त हय मरणेर पर ॥३०॥*

अन्तरङ्ग भक्ति देहे नहे आत्माय

*अन्तरङ्ग भक्ति माने देहे किछु नय ।*

*कुटीनाटी बले मूढ आचरण हय ॥३१॥*

*सेइ सब असत्-सङ्ग दूरे परिहरि’ ।*

*कृष्ण भजे शुद्ध भक्त सिद्ध देह धरि ॥३२॥*

कृष्ण-इ पुरुष आर सब प्रकृति

*भक्त सब प्रकृति हैया मजे कृष्ण पाय ।*

*पुरुष एकले कृष्ण दास महाशय ॥३३॥*

*रघुनाथ दास तबे विनीत हैया ।*

*स्वरूपेरे निवेदन करे दु हात जुडिया ॥३४॥*

*बल प्रभु आछे एक जिज्ञास्य आमार ।*

*स्व-धर्म-विहीन भक्ति सर्व भक्त् सार ॥३५॥*

गृहस्थ ओ स्वधर्म

*तबे केन गृहस्थ थाकिबे स्वधर्मेते ।*

*स्वधर्म छाडिया भक्ति पारे त करिते ॥३६॥*

*स्वरूप बले—शुनो भाइ इहाते ये मर्म ।*

*बलिब तोमाके आमि शुद्ध भक्ति धर्म ॥३७॥*

*स्व-धर्म जीवन यात्रा सहजे घटय ।*

*पर धर्मे कष्ट आछे स्वाभाविक नय ॥३८॥*

*स्वधर्मे भक्तिर अनुकूल याहा हय ।*

*ताइ भक्तिमान् जन ग्रहण करय ॥३९॥*

*याहा यखन भक्ति प्रतिकूल हञा याय ।*

*ताहा त्याग करिले त शुद्ध भक्ति पाय ॥४०॥*

*अतएव स्वधर्म-निष्ठा चित्त हैते त्यजि ।*

*भक्ति-निष्ठा करिलेइ साधु धर्म भजि ॥४१॥*

*स्वधर्म त्यागेर नाम निष्ठा परिहार ।*

*नियमाग्रह दूर हैले हय वैष्णव आचार ॥४२॥*

कृष्ण स्मृति विधि कृष्ण विस्मृति निषेध

*निरन्तर कृष्ण स्मृति मूल विधि भाइ ।*

*श्री-कृष्ण विस्मृति याहे निषेध मूल ताइ ॥४३॥*

*तबे रघुनाथ बले कथा एक आर ।*

*आज्ञा हय शुनि याहे वैष्णव विचार ॥४४॥*

श्री-अच्युत गोत्र ओ स्वधर्म

*श्री अच्युत गोत्र बलि वैष्णव निर्देश ।*

*इहार तात्पर्य किबा इथे कि विशेष ॥४५॥*

*स्वरूप बले—गृही त्यागी उभये सर्वथा ।*

*एइ गोत्रे अधिकारी नाहिक अन्यथा ॥४६॥*

*श्री अच्युत गोत्रे थाके शुद्ध भक्त यत ।*

*स्वधर्म निष्ठाय कभु नाहि हय रत ॥४७॥*

*संसारेर गोत्र त्यजि कृष्ण गोत्र भजे ।*

*सेइ नित्य गोत्र तार येइ बैसे व्रजे ॥४८॥*

*केह वा स्वदेहे बैसे व्रज गोपी हञा ।*

*केह वा आरोप सिद्ध मानसे लैया ॥४९॥*

प्रवर्त, साधक, सिद्ध

*प्रवर्त साधक सिद्ध तिने ये प्रकार ।*

*बुझिते पारिले बुझि भक्ति धर्म सार ॥५०॥*

*कनिष्ठाधिकारी हय प्रवर्ते गणन ।*

*मध्यमाधिकारी साधक भक्त महाजन ॥५१॥*

*उत्तमाधिकारी हय सिद्ध महाशय ।*

*हृदये स्वधर्म-निष्ठा कभु ना करय ॥५२॥*

*मध्यमाधिकारी आर उत्तमाधिकारी ।*

*सकले अच्युत गोत्र देखह विचारि ॥५३॥*

आरोप

*रघुनाथ बले – एबे आरोप बुझिब ।*

*तात्पर्य बुझिया सब सन्देह त्यजिब ॥५४॥*

*दामोदर बले—शुन आरोप सन्धान ।*

*इहाते चाहिये भक्ति-स्वरूपेर ज्ञान ॥५५॥*

त्रिविधा वैष्णवी भक्ति

*त्रिविधा वैष्णवी भक्ति करह विचार ।*

*आरोप सिद्धा, सङ्ग-सिद्ध, स्वरूप सिद्धाआर ॥५६॥*

आरोप सिद्धा भक्ति—कनिष्ठाधिकारीर

*आरोप सिद्धार कथा बलिब प्रथमे ।*

*सुस्थिर हैया बुझ चित्तेर संयमे ॥५७॥*

*बद्ध बहिर्मुख जीव विषयी प्रधान ।*

*जड सङ्ग मात्र करि करे अवस्थान ॥५८॥*

*जड सुख जड दुःख नियत ताहार ।*

*प्राकृत संसर्ग विना किछु नाहि आर ॥५९॥*

*अप्राकृत बलि किछु नाहि पाय ज्ञान ।*

*अप्राकृत तत्त्व मने नाहि पाय स्थान ॥६०॥*

*निजे अप्राकृत वस्तु ताहाओ ना जाने ।*

*अरक्षित शिशु येन सदाइ अज्ञाने ॥६१॥*

*कोन भाग्ये कोन जन्मे सुकृतिर फले ।*

*श्रद्धार उदय हय हृदय कमले ॥६२॥*

*प्रथम सन्धाने शुने आमि कृष्ण दास ।*

*ए संसार हैते उद्धारे करे आश ॥६३॥*

कृष्णार्चन

*गुरु बले शुन वाछा कर कृष्णार्चन ।*

*कृष्णार्चने तबे तार इच्छा सङ्गठन ॥६४॥*

*कृष्ण ये अप्राकृत प्रभु एइ मात्र शुने ।*

*कृष्ण स्वरूप अप्राकृत ताहा नाहि जाने ॥६५॥*

*निज चतुर्दिके याहा करे दरशने ।*

*तङ्हि मध्ये इष्ट याहा बुझि देख मने ॥६६॥*

*इष्ट-द्रव्य इष्ट-मूर्तिर करय पूजन ।*

*एइ स्थले हय तार आरोप चिन्तन ॥६७॥*

*मनुष्य-मूरति एक करिया गठन ।*

*गन्ध पुष्प धूप दीपे करये अर्चन ॥६८॥*

*आरोप बुद्ध्ये भावे सब अप्राकृत धन ।*

*आरोप चिन्तिया कभु अप्राकृतापन ॥६९॥*

*इहाते ये कर्मार्पण आरोपेर स्थल ।*

*आरोपे क्रमशः भक्ति तत्त्वे पाय बल ॥७०॥*

*एइ त आरोप सिद्धा भक्तिर लक्षण ।*

*कनिष्ठाधिकारीर हय एइ समर्चन ॥७१॥*

तत्त्व बोधे श्री-मूर्ति पूजा

*तत्त्व-टी बुझिया यबे श्री-मूर्ति पूजय ।*

*तबे मध्यम अधिकर हय त उदय ॥७२॥*

*उत्तमाधिकारीर आरोपेर नाहि स्थान ।*

*मानसे अप्राकृत तत्त्वेर पाय त सन्धान ॥७३॥*

*प्रेमेर उदय हय प्रेम चक्षे हेरि ।*

*प्राणेश्वर भजे पूर्व आरोप दूर करि ॥७४॥*

*भक्ति स्वभावतः नहे हेन कर्मार्पणे ।*

*आरोप सिद्धा भक्ति मध्ये हय तो गणने ॥७५॥*

आरोप सिद्धार मूल तत्त्व

*आरोप सिद्धार एक मूल तत्त्व एइ ।*

*जड वस्तु जड कर्म भक्ति भावे लै ॥७६॥*

*जड वस्तु जड कर्म मध्ये घृण्य याहा ।*

*अर्पणे-ओ भक्ति नाहि हय कभु ताहा ॥७७॥*

*उपादेय इष्ट बलि कर्मार्पण करे ।*

*आरोप सिद्धा भक्ति बलि बलिब ताहारे ॥७८॥*

*मायावादे अर्चनाङ्ग आरोप लक्षण ।*

*भक्ति-वादे स्वरूप-सिद्धा भक्तिर दर्शन ॥७९॥*

सङ्ग सिद्धा भक्ति

*एबे शुन सङ्ग सिद्धा भक्ति येइ रूप ।*

*शुद्ध ज्ञान सुवैराग्य सङ्ग सिद्धार स्वरूप ॥८०॥*

*यथा भक्ति तथा युक्त वैराग्य शुद्ध ज्ञान ।*

*साहचर्ये सङ्ग सिद्ध बुझह सन्धान ॥८१॥*

*दैन्य दया सहिष्णुता भक्त सहचर ।*

*सङ्ग सिद्ध भक्ति अङ्ग जान अतः पर ॥८२॥*

स्वरूप सिद्धा भक्ति

*साक्षात् भक्तिर कार्य याहाते निश्चय ।*

*स्वरूप सिद्धा भक्तिर क्रिया ताहा-इ हय ॥८३॥*

*श्रवण कीर्तन आदि नव विध भजन ।*

*स्वरूप सिद्धा भक्ति बलि तन्-नाम-कीर्तन ॥८४॥*

*कृष्णेते साक्षात् ताहादेर मुख गति ।*

*आरोप सिद्धा सङ्ग सिद्धार गौण भावे स्थिति ॥८५॥*

*स्वतः सिद्ध आत्म-वृत्ति शुद्ध भक्ति सार ।*

*बद्ध जीवे मनो वृत्ते उदय ताहार ॥८६॥*

*कृष्णोन्मुख जड देहे ताहार विस्तृति ।*

*ए जगते भक्ति देवीर एइ रूप स्थिति ॥८७॥*

त्रिविधा भक्तिर् त्रिविधा क्रिया

*सेइ भक्ति स्वरूप सिद्धा साक्षात् क्रिया यथा ।*

*सङ्ग सिद्धा सहचर साहाय्ये सर्वथा ॥८८॥*

*आरोप सिद्धा हय यथा प्राकृत वस्तु क्रिया ।*

*अप्राकृत भावे साधे प्राकृत नाशिया ॥८९॥*

*स्वरूपेर उपदेशे बुझे रघुनाथ ।*

*पीरिति स्वरूप तत्त्व जगाइयेर साथ ॥९०॥*

* --ओ)०(ओ--*

(१८)

श्री एकादशी

*एक दिन गौर हरि श्री-गुण्डिचा परिहरि*

*जगन्नाथ वल्लभे बसिला ।*

*शुद्धा एकादशी दिने कृष्ण नाम सङ्कीर्तने*

*दिवस रजनी काटाइला ॥१॥ *

*सङ्गे स्वरूप दामोदर रामानन्द वक्रेश्वर*

*आर यत क्षेत्र वासि गण ।*

*प्रभु बले—एक मने कृष्ण नाम सङ्कीर्तने*

*निद्राहार करिये वर्जन ॥२॥*

*केह कर सङ्ख्या नाम केह दण्ड परणाम *

*केल बल राम कृष्ण कथा ।*

*यथा तथा पडि सबे, गोविन्द गोविन्द रबे*

*महा प्रेम प्रमत्त सर्वथा ॥३॥*

*हेन काले गोपीनाथ पडिछा सार्वभौम साथ*

*गुण्डिचा प्रसाद लञा आइल ।*

*अन्न व्यञ्जन पिठा पाना परमान्न दधि छाना*

*महाप्रभु अग्रेते धरिल ॥४॥*

*प्रभुर साज्ञाय सबे दण्डवत् पडि तबे*

*महा प्रसाद वन्दिया वन्दिया ।*

*त्रियामा रजनी सबे महाप्रेम मग्न भावे*

*अकैतवे नामे काटाइया ॥५॥*

*प्रभु आज्ञा शिरे धरि प्रातः स्नान सबे करि*

*महा प्रसाद सेवाय पारण ।*

*करि हृष्ट चित्त सबे प्रभुर चरणे तबे*

*कर योड करे निवेदन ॥६॥*

श्री क्षेत्रे श्री एकादशी

*सर्व व्रत शिरोमणि श्री-हरि-वासरे जानि*

*निराहारे करि जागरण ।*

*जगन्नाथ प्रसादान्न क्षेत्रे सर्व काले मान्य *

*पाइले-इ करिये भक्षण ॥७॥*

*ए सङ्कटे क्षेत्र वासे मने हय बड त्रासे*

*स्पष्ट आज्ञा करिये प्रार्थना ।*

*सर्व वेद आज्ञा तव याहा माने ब्रह्मा शिव *

*ताहा दिया घुचाओ यातना ॥८॥*

श्री-महाप्रभुर विचार

*प्रभु बले भक्ति अङ्गे एकादशी मान भङ्गे*

*सर्व नाश उपस्थित हय ।*

*प्रसाद पूजन करि पर दिने पाइले तरि*

*तिथि पर दिने नाहि रय ॥९॥*

*श्री हरि वासर दिने कृष्ण नाम रस पाने*

*तृप्त हय वैष्णव सुजन ।*

*अन्य रस नाहि लय अन्य कथा नाहि कय*

*सर्व भोग करये वर्जन ॥१०॥*

*प्रसाद भोजन नित्य शुद्ध वैष्णवेर कृत्य *

*अप्रसाद ना करे भक्षण ।*

*शुद्धा एकादशी यबे निराहार थाके तबे *

*पारणेते प्रसाद भोजन ॥११॥*

*अनुकल्प स्थान मात्र निरन्न प्रसाद पात्र*

*वैष्णवके जानिह निश्चित ।*

*अवैष्णव जन यारा प्रसाद छलेते तारा*

*भोगे हय दिवा निशि रत ।*

*पाप पुरुषेर सङ्गे अन्नाहार कर रङ्गे*

*नाहि माने हरि वासर व्रत ॥१२॥*

*भक्ति अङ्ग सद् आचार भक्तिर सम्मान कर*

*भक्ति देवी कृपा लाभ हबे ।*

*अवैष्णव सङ्ग छाड एकादशी व्रत धर *

*नाम व्रते एकादशी तबे ॥१३॥*

*प्रसाद-सेवन आर श्री-हरि-वासरे ।*

*विरोध ना करे कभु बुझह अन्तरे ॥१४॥*

*एक अङ्ग माने आर अन्य अङ्गे द्वेष ।*

*ये करे निर्बोध सेइ जानह विशेष ॥१५॥*

*ये अङ्गेर ये देश काल विधि व्रत ।*

*ताहाते एकान्त भावे हओ भक्ति रत ॥१६॥*

*सर्व अङ्गेर अधिपति व्रजेन्द्र नन्दन ।*

*याहे तेंह तुष्ट ताहा करह पालन ॥१७॥*

*एकादशी दिने निद्राहार विसर्जन ।*

*अन्य दिने प्रसाद निर्माल्य सुसेवन ॥१८॥*

*शुनिया वैष्णव सब आनन्दे गोविन्द रब*

*दण्डवत् पडिलेन तबे ।*

*स्वरूपादि रामानन्द पाइलेन महानन्द*

*उडिया गौडिया भक्त सबे ॥१९॥*

*ओहे भाइ !*

*गौराङ्ग आमार प्राण धन ।*

*अकैतवे भज ताङ्रे याबे तबे भव पारे *

*शीतल हैबे तनु मन ॥२०॥*

श्री नाम भजन ओ एकादशी एक

*श्री नाम भजन आर एकादशी व्रत ।*

*एक तत्त्व नित्य जानि हओ ताहे रत ॥२१॥*

(१९)

नाम रहस्य पटल

*एकदा गौराङ्ग चाङ्द चन्द्रालोक पाइया ।*

*समुद्रेर तीरे आइल भक्त वृन्द लञा ॥१॥*

*हरि दास समाजेर उपकण्ठ बसि ।*

*सर्व वैष्णवेर प्रति बले गौर शशी ॥२॥*

श्री नाम-इ एक मात्र

*शुन हे भकत वृन्द कलि कालेर धर्म ।*

*श्री कृष्ण कीर्तन विना आर नाहि कर्म ॥३॥*

*कर्म ज्ञान योग ध्यान दुर्बल साधन ।*

*अप्राकृत सम्पत्ति लाभेर नहे क्रम ॥४॥*

*धर्म व्रत त्याग होम सकल-इ प्राकृत ।*

*अप्राकृत तत्त्व लाभे नाहि करे हित ॥५॥*

*कृष्ण नाम उच्चारणे स्मरणे श्रवणे ।*

*अप्राकृत सिद्धि हय बले श्रुति गणे ॥६॥*

*श्री नाम रहस्य सर्व शास्त्रेते देखिबा ।*

*नाम उच्चारण मात्र चित् सुख लभिबा ॥७॥*

पद्म-पुराणे स्वर्ग-खण्ड १८ अध्याय, नाम-रहस्य-पटलं, यथा—

श्री-शौनक उवाच—

नामोच्चारण-माहात्म्यं श्रूयते महद्-अद्भुतम् ।

यद् उच्चारण-मात्रेण नरो यायात् परं पदम् ।

तद्वद् अस्वाधुना सूत विधानं नाम-कीर्तने ॥८॥

श्री-सूत उवाच—

शृणु शौनक वक्ष्यामि संवादं मोक्ष-साधनम् ।

नारदः पृष्टवान् पूर्वं कुमारं तद् वदामि ते ॥९॥

एकदा यमुना-तीरे निविष्टं शान्त-मानसम् ।

सनत्-कुमारं पप्रच्छ नारदो रचिताञ्जलिः ।

श्रुत्वा नाना-विधान् धर्मान् धर्म-व्यतिकरांस् तथा ॥१०॥

श्री-नारद उवाच—

यो’सौ भगवता प्रोक्तो धर्म-व्यतिकरो नृणाम् ।

कथं तस्य विनाशः स्याद् उच्यतां भगवत्-प्रिय ॥११॥

*एइ पटलेर अर्थ किछु विशेष करिया ।*

*बलि स्वरूप रामानन्द शुन मन दिया ॥१२॥*

श्री-नाम-कीर्तन कि ? उच्चारण

*उच्चारण शब्दे बुझ श्री नाम कीर्तन ।*

*करे वा मालाय सङ्ख्या करे भक्त गण ॥१३॥*

*सङ्ख्या छाडि असङ्ख्य नाम कभु कभु हय ।*

*उच्चारण शब्दे ए सब जानह निश्चय ॥१४॥*

जप ओ कीर्तन

*लघूच्चारे जप हय उच्चारे कीर्तन ।*

*स्मरण कीर्तने सब हय त गणन ॥१५॥*

*कि प्रकारे नाम कैले सुकीर्तन हय ।*

*श्री नाम कीर्तने ताहा विधान निश्चय ॥१६॥*

कीर्तन सर्वथा ओ सर्वदा कर्तव्य

*श्री नाम कीर्तन हय जीवेर नित्य धर्म ।*

*जगते वैकुण्ठे जीवेर एइ मुख्य कर्म ॥१७॥*

*माया बद्ध जीवेर एइ मोक्ष साधन हय ।*

*मुक्त जीवेर पक्षे ताहा साध्यावधि रय ॥१८॥*

भक्ति हीन शुभ कार्य त्यज्य

*धर्म शास्त्र उक्त भक्ति हीन धर्म यत ।*

*भक्त्य्-उद्देश विना आर यत प्रकार व्रत ॥१९॥*

*भक्त्य्-उत्थित विराग व्यतीत यत त्याग ।*

*भक्ति प्रतिकूल यज्ञ प्राकृत विभाग ॥२०॥*

*एइ सब शुभ कर्म सम्बन्ध विचारे ।*

*भक्ति अनुकूल बलि शास्त्रेते प्रचारे ॥२१॥*

*कलि काले सेइ सब जड धर्म ह-इल ।*

*भक्ति आनुकूल्य त्यजि धर्म नष्ट भेल ॥२२॥*

*अतएव कलि काले नाम सङ्कीर्तन ।*

*विना आर धर्म नाइ शुन भक्त गण ॥२३॥*

*से धर्मेर व्यतिकर याहाइ देखिबे ।*

*ताहाइ वर्जिबे यत्ने भक्तिर प्रभावे ॥२४॥*

श्री-सनत्कुमार उवाच

शृणु नारद गोविन्द-प्रिय गोविन्द-धर्म-वित् ।

यत् पृष्टं लोक-निर्मुक्ति-कारणं तमसः परम् ॥४॥२५॥

*तुमि त नारद श्री-गोविन्द-धर्म-वेत्ता ।*

*गोविन्देर प्रिय माया बन्धनेर छेत्ता ॥२६॥*

*लोक निर्मुक्तिर हेतु जिज्ञासा तोमार ।*

*तव प्रश्नोत्तरे जीव हबे तमः पार ॥२७॥*

*कलिते सकल धर्माधर्म तमो-मय ।*

*नाम धर्म विना जीवेर संसार नहे क्षय ॥२८॥*

अतएव नामे सर्व पाप क्षय

सर्वाचार-विवर्जिताः शठ-धियो व्रात्या जगद्-वञ्चकाः

दम्भाहङ्कृति-पान-पैशुन्य-पराः पापाश् च ये निष्ठुराः ।

ये चान्ये धन-दार-पुत्र-निरताः सर्वे’धमास् ते’पि हि

श्री-गोविन्द-पदारविन्द-शरणाः शुद्धाः भवन्ति द्विजाः ॥५॥२९॥

*श्री-गोविन्द-पदारविन्द शरण ये लय ।*

*तार सर्व-पाप नामे निश्चय हय क्षय ॥३०॥*

*कृष्ण-नाम लये काङ्दे निज दोष बले ।*

*अति शीघ्र तार पाप याय भक्ति बले ॥३१॥*

कर्म-प्रायश्चित्त वासना नष्ट हय ना

*कर्म ज्ञान प्रायश्चित्ते तार किबा फल ।*

*से फल दुर्बल अति तार नाहि बल ॥३२॥*

*एक कृष्ण नामे पापीर यत पाप क्षय ।*

*बहु जन्मे सेइ पापी करिते नारय ॥३३॥*

*हेन पाप स्मार्त शास्त्रे ना आछे वर्णन ।*

*एक कृष्ण नामे याहा ना हय खण्डन ॥३४॥*

*तबे केन स्मार्त लोक प्रायश्चित्त करे ।*

*सुकृति अभावे तार कर्मे मति हरे ॥३५॥*

*कर्म प्रायश्चित्ते कभु वासना ना याय ।*

*ज्ञान प्रायश्चित्ते शोधे वासना हियाय ॥३६॥*

वासनार मूल अविद्या भक्तिते विनष्ट हय

*पुनः किछु दिने से वासना हय स्थूल ।*

*भक्तिते अविद्या याय वासनार मूल ॥३७॥*

*ये जन गोविन्द पदे लैया शरण ।*

*नाम लय काकु भरे करय रोदन ॥३८॥*

*तार पक्षे श्री मुखेर वाक्य सुमधुर ।*

*जीवेर मङ्गल गीताय देखह प्रचुर ॥३९॥*

श्री गीता

सर्व-धर्मान् परित्यज्य माम् एकं शरणं व्रज ।

अहं त्वां सर्व-पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥४०॥

अपि चेत् सुदुराचारो भजते माम् अनन्य-भाक् ।

साधुर् एव स मन्तव्यः सम्यग् व्यवसितो हि सः ॥४१॥

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शाश्वच्-छान्तिं निगच्छति ।

कौन्तेय प्रतिजाहीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥४२॥

अतएव नामेर फल

*अतएव कर्माङ्ग प्रायश्चित्तादि परिहरि’*

*बुद्धिमान् जन भजे प्राणेश्वर हरि ॥४३॥*

तम् अपि देव-करं करुणाकरं

स्थावर-जङ्गम-मुक्ति-करं परम् ।

अतिचरन्त्य् अपराध-परा जना

य इह तानवति ध्रुव-नाम हि ॥४४॥

*कृष्ण-नाम दयामय कृष्ण-तेजो-मय ।*

*स्थावर जङ्गम मुक्ति दाता सुनिश्चय ॥४५॥*

*नाम अपराधी ताहे करे अपराध ।*

*अतिचार आसि नाम धर्मे करे बाध ॥४६॥*

*सेइ महा अपराधीर दोष नामे हय क्षय ।*

*नाम विना जीव बन्धु जगते ना हय ॥४७॥*

श्री-नारद उवाच—

के ते’पराधा विप्रेन्द्र नाम्नो भगवतः कृता ।

विनिघ्नन्ति नृणां कृत्यं प्राकृतं ह्य् आनयन्ति च ॥४८॥

नामापराध

*ओहे गुरु सनत्-कुमार कृपा करि’ बल ।*

*नामे अपराध यत प्रकार सकल ॥४९॥*

*नाम रूप महा कृत्य जीवेर निश्चय ।*

*सेइ कृत्य याहे साधकेर नष्ट नय ॥५०॥*

*नामके प्राकृत करि साधन कराञा ।*

*सामान्य प्राकृत फले देय फेलाइया ॥५१॥*

श्री-सनत्कुमार उवाच—

सतां निन्दा नाम्नः परमम् अपराधं वितनुते

यतः ख्यातिं यातं कथम् उ सहते तद्-विगर्हाम् ।

शिवस्य श्री-विष्णोर् य इह गुण-नामादि-सकलं

धिया भिन्नं पश्येत् स खलु हरि-नामाहित-करः ॥८॥५२॥

नामापराध हैते मुक्ति

*दश-टी नामापराध भिन्न भिन्न करि ।*

*बुझिया लैले नाम अपराध तरि ॥५३॥*

*एइ श्लोके दुइ अपराधेर विचार ।*

*करिया करह शुद्ध नामेर आचार ॥५४॥*

साधु निन्दा

*एकान्त नामेते आश्रय आछे याङ्र ।*

*साधु पद वाच्य तेङ्ह तारेन संसार ॥५५॥*

*जड कर्म ज्ञान चेष्टा छाडि सेइ जन ।*

*शुद्ध भक्ति भावे नाम करेन उच्चारण ॥५६॥*

*नामेर प्रचार एका ताङ्हा हैते हय ।*

*ताङ्र निन्दा कृष्ण नाम कभु ना सहय ॥५७॥*

*से साधुर निन्दा ताङ्ते लघु बुद्धि यार ।*

*बड अपराध नामे निश्चय ताहार ॥५८॥*

*यत्ने एइ अपराध करिया वर्जन ।*

*सेइ साधु सङ्ग बले करह भजन ॥५९॥*

श्री नाम नामी एक तत्त्व

*मङ्गल स्वरूप विष्णु पर तत्त्व हरि ।*

*अप्राकृत स्वरूपेते श्री-व्रज-विहारी ॥६०॥*

*ताङ्र नाम रूप गुण लीला अप्राकृत ।*

*ताङ्हार स्वरूप हैते भिन्न नहे तत्त्व ॥६१॥*

*नाम नामी एक तत्त्व अप्राकृत धर्म ।*

*ए जड जगते तार नाहि आछे मर्म ॥६२॥*

*एइ शुद्ध ज्ञान लाभ भक्ति बले हय ।*

*तर्के बहु दूर इहा जानिह निश्चय ॥६३॥*

*निज शुद्ध साधन आर साधु गुरु बल ।*

*दुइयेर संयोगे लभि ए तत्त्व मङ्गल ॥६४॥*

*एइ तत्त्व सिद्धि यत दिन नाहि हय ।*

*तत दिन प्राकृत बुद्धि कभु ना छाडय ॥६५॥*

*तत दिन नाम करि ना पाइ स्वरूप ।*

*नामाभास मात्र हय भजन विरूप ॥६६॥ \

बहु यत्ने लभ भाइ स्वरूप सिद्धि ।*

*शुद्ध नामोच्चारे पाबे परं पद बुद्धि ॥६७॥ \

यत्न सह निरन्तर नामाभासे हरि ।*

*नामेते स्वरूप सिद्धि दिबे कृपा करि ॥६८॥*

कृष्ण सर्वेश्वर शिवादि ताङ्हार अंश

*सर्वेश्वर कृष्ण ताहे जानिबे निश्चय ।*

*शिवादि देवता ताङ्र अंश रूप हय ॥६९॥*

*सेइ सेइ देवेर नामादि गुण रूप ।*

*कृष्ण शक्ति दत्त सिद्ध जानह स्वरूप ॥७०॥*

*ए रूप जानिले शिव विष्णुते अभेदे ।*

*जन्मिबे स्वरूप बुद्धि गाय सर्व वेदे ॥७१॥*

*भेद बुद्धि अपराध यत्नेते त्यजिबे ।*

*गुरु कृपा बले तबे श्री नाम भजिबे ॥७२॥*

गुरोर् अवज्ञा श्रुति-शास्त्र-निन्दनम्

तथार्थ-वादो हरि-नाम्नि कल्पनम् ।

नाम्नो बलाद् यस्य हि पाप-बुद्धिर्

न विद्यते तस्य यमैर् हि शुद्धिः ॥९॥७३॥

गुरु कर्णधारेर अनादर

*कृपा करि येइ जन हरि देखाइल ।*

*हरि नाम परिचय कराइया दिल ॥७४॥*

*सेइ मोर कर्णधार गुरु महाशय ।*

*ताङ्हारे अवज्ञा कैले नामापराध हय ॥७५॥*

*हीन जाति पाण्डित्य रहित मन्त्र हीन ।*

*नामेर गुरुते हेन बुद्धि अर्वाचीन ॥७६॥*

श्रुति शास्त्रे अनादर

*येइ श्रुति शास्त्र नामेर ब्रह्मत्व देखाय ।*

*अपार माहात्म्य नामेर जगते जानाय ॥७७॥*

*तारे अनादर करि कर्मादि प्रशंसे ।*

*श्रुति निन्दा बलि तारे सर्व शास्त्रे भाषे ॥७८॥*

नामे कल्पना बुद्धि

*नाम नित्य धन सदा चिन्मय अगाध ।*

*ताहाते कल्पना बुद्धि गुरु अपराध ॥७९॥*

नाम बले पाप बुद्धि

*नाम बले पाप बुद्धि हृदये याहार ।*

*सतत उदय हय सेइ त असार ॥८०॥*

नामे अर्थ वाद

*रोचनार्था फल श्रुति कर्म मार्गे सत्य ।*

*भक्ति मार्गे नाम फल सर्व काले नित्य ॥८१॥*

*अप्राकृत नामेर माहात्म्य सीमा हीन ।*

*ताते यार अर्थ वाद सेइ अर्वाचीन ॥८२॥*

एइ सब अपराध वर्जने नामेर कृपा

*एइ पञ्च अपराध वर्जिबे यतने ।*

*तबे त नामेर कृपा लभिबे साधने ॥८३॥*

धर्म-व्रत-त्याग-हुतादि-सर्व-

शुभ-क्रिया-साम्यम् अपि प्रमादः ।

अश्रद्दधाने विमुखे’प्य् अशृण्वति

यश् चोपदेशः शिव-नामापराधः ॥१०॥ ८४॥

सर्व शुभ कर्म प्राकृत

*वर्णाश्रम मय धर्म धर्म शास्त्रे यत ।*

*दर्श पौर्णमासी आदि तमो मय व्रत ॥८५॥*

*दण्डी मुण्डी सन्न्यासादि त्यागेर प्रकार ।*

*नित्य नैमित्तिक होम आदिर व्यापार ॥८६॥*

*अष्टाङ्ग षड्-अङ्ग योग आदि शुभ कर्म ।*

*सकल-इ प्राकृत तत्त्व एइ सत्य मर्म ॥८७॥*

*उपाय रूपेते तार उपेय साधय ।*

*ना साधिले जड बै किछु आर नय ॥८८॥*

श्री नाम उपाय उपेय

*नाम किन्तु अप्राकृत चिन्मय व्यापार ।*

*साधने उपाय तत्त्व स्ध्ये उपेय सार ॥८९॥*

*अत एव नाम तत्त्व विशुद्ध चिन्मय ।*

*जडोपाय कर्म सह साम्य कभु नय ॥९०॥*

कर्म ज्ञान सह नाम तुल्य नहे

*कर्म ज्ञान सह नामे साम्य बुद्धि यथा ।*

*नाम अपराध गुरुतर घटे तथा ॥९१॥*

अविश्वासी जने नाम उपदेश

*नामे यार विश्वास ना जन्मिल भाग्याभावे ।*

*ताके नाम उपदेशि अपराध पाबे ॥९२॥*

*एइ दुइ अपराध सद्-गुरु-कृपाय ।*

*बहु यत्ने छाडि भाइ नाम धन पाय ॥९३॥*

श्रुते’पि नाम-माहात्म्ये यः प्रीति-रहितो’धमः ।

अहं-ममादि-परमो नाम्नि सो’प्य् अपराध-कृत् ॥११॥९४॥

*नामेर माहात्म्य सब शुनि शास्त्र हैते ।*

*तबु ताहे रति यार नैल कोन मते ॥९५॥*

*अहंता ममता बुद्धि देहेते करिया ।*

*लाभ पूजा प्रतिष्ठाते रहिल मजिया ॥९६॥*

*पापे रत हञा पाप छाडिते ना पारे ।*

*नामे यत्न करि चेष्टा करिबारे नारे ॥९७॥*

*साधु सङ्गे मति नहे असाधु विषये ।*

*सुख पाय विवेक वैराग्य छाडाइये ॥९८॥*

*एइ त नामापराध घटना ताहार ।*

*नामे रुचि नाहि पाय कृष्णेर संसार ॥९९॥*

*एइ दश अपराध नामापराध हय ।*

*नाम धर्मे बाधा देय सुमङ्गल क्षय ॥१००॥*

सर्वापराध-कृद् अपि मुच्यते हरि-संश्रयः ।

हरेर् अप्य् अपराधान् यः कुर्याद् द्विपाद-पांसनः ॥१०१॥

नामाश्रयः कदाचित् स्यात् तरत्य् एष स नामतः ।

नाम्नो हि सर्व-सुहृदो ह्य् अपराधात् पतत्य् अधः ॥१२॥१०२॥

*पाप ताप अपराध जीवेर यत हय ।*

*श्री-हरि-संश्रये सब सद्य हय क्षय ॥१०३॥*

कलिर संसार छाडिया कृष्णेर संसार कर

*कलिर संसार छाडि कृष्णेर संसार ।*

*अकैतवे करे येइ अपराध नाहि तार ॥१०४॥*

*अकैतवे करे यबे आत्म-निवेदन ।*

*कृष्ण तार पूर्व पाप करेन खण्डन ॥१०५॥*

*प्रायश्चित्त करिबारे तार नाहि हय ।*

*दीक्षा मात्र पाप क्षय सर्व शास्त्रे कय ॥१०६॥*

*निष्कपटे हर्षाश्रय करे येइ जन ।*

*सर्व अपराध तार विनष्ट तखन ॥१०७॥*

*आर पाप तापे कभु रुचि नाहि हय ।*

*पुनः पाप दूरे याय माया करे जय ॥१०८॥*

सेवा-अपराध

*तबे तार कभु हय सेवा अपराध ।*

*सेइ अपराधे हय भक्ति क्रिया बाध ॥१०९॥*

*साधु सङ्गे करे कृष्ण नामेर आश्रय ।*

*नामाश्रये सेवा अपराध नष्ट हय ॥११०॥*

*नाम कृपा हैले जीव सर्व शुद्धि पाय ।*

*कृष्णेर निकट गिया करे शुद्ध सेवार आश्रय ॥१११॥*

सर्वदा नामापराध वर्जनीय

*किन्तु यदि नाम अपराध तार हय ।*

*तबे पुनः अधः पात हैबे निश्चय ॥११२॥*

*सर्व जीव बन्धु नाम ताङ्र अपराध ।*

*कोन क्रमे क्षय नहे प्राप्त्ये हय बाध ॥११३॥*

*नाम अपराध त्याग बहु यत्ने करि ।*

*लभे जीव सर्व सिद्धि प्राप्त हय हरि ॥११४॥*

एवं नारदः शङ्करेण कृपया मह्यं मुनीनां परं

प्रोक्तं नाम सुखावहं भगवतो वर्ज्यं सदा यत्नतः ।

ये ज्ञात्वापि न वर्जयन्ति सहसा नामापराधान् दश 

क्रुद्धा मातरम् अप्य् अभोजन-पराः खिद्यन्ति ते बालवत् ॥१३॥११५॥

*आमि पूर्वे शिव लोके शङ्कर-सन्निधाने ।*

*नाम अपराध कथा जिज्ञासिलाम मुने ॥११६॥*

*बहु मुनि गण मध्ये शम्भु कृपा करि ।*

*आमाय उपदेश करे कैलास उपरि ॥११७॥*

*भगवानेर नाम सर्व जीव सुखावह ।*

*ताते अपराध सर्व अमङ्गल वह ॥११८॥*

*मङ्गल लभिते यार इच्छा आछे मने ।*

*सदा नाम अपराध वर्जिबे यतने ॥११९॥*

*साधु गुरु सन्निधाने बहु दैन्य धरि ।*

*दश अपराध तत्त्व लबे शिक्षा करि ॥१२०॥*

*अपराध गुलि यत्ने जानिया त्यजिबे ।*

*सत्वरे श्री-हरि-नामे प्रेम उपजिबे ॥१२१॥*

*नाम पेये अपराध वर्जन ना करे ।*

*सहसा ताहारे दश अपराध धरे ॥१२२॥*

अपराध वर्जन ना करिया नाम करा मूढता

*अपराध बुझिया ये वर्जने उदासीन ।*

*तार दुःख निरन्तर सेइ अर्वाचीन ॥१२३॥*

*माये क्रोध करि बालक ना करे भोजन ।*

*सुपथ्य अभावे सदा क्लेशेर भाजन ॥१२४॥*

*सेइ रूप अपराध वर्जन ना करि ।*

*नाम करे मूढ निज शिव परिहरि ॥१२५॥*

अपराध-विमुक्तो हि नाम्नि जप्तं सदाचर ।

नाम्नैव तव देवर्षे सर्वां सेत्स्यति नान्यथा ॥१४॥१२६॥

*सनत् कुमार बले ओहे देवर्षि प्रवर ।*

*निरपराध नाम जप सदा आचर ॥१२७॥*

*नाम विना अन्य पन्था नाहि प्रयोजन ।*

*नामेते सकल सिद्धि पाबे तपो-धन ॥१२८॥*

श्री-नारद उवाच—

सनत्-कुमार प्रिय साहसानां

विवेक-वैराग्य-विवर्जितानाम् ।

देह-प्रियार्थात्म्य-परायणानाम्

उक्तापराधाः प्रभवन्ति नो कथम् ॥१५॥१२९॥

*ओहे सनत्कुमार तुमि सिद्ध हरिदास ।*

*अनायासे करिले नाम रहस्य प्रकाश ॥१३०॥*

साधकेर नामापराध वर्जनोपाय

*साधक आमरा आमादेर बड भय ।*

*अपराध त्यागे यत्न कि रूपेते हय ॥१३१॥*

*विषय मोदेर बन्धु ताहार साहसे ।*

*करिबे सकल कर्म बद्ध माया पाशे ॥१३२॥*

*विवेक वैराग्य शून्य देह प्रिय जन ।*

*अर्थ स्वरूपे मोरा सदा परायण ॥१३३॥*

*कि रूपे साधक मने अपराध दश ।*

*नाहि उपजिबे ताह करह प्रकाश ॥१३४॥*

श्री-सनत्कुमार उवाच—

जाते नामापराधे’पि प्रमादेन कथञ्चन ।

सदा सङ्कीर्तयन् नाम तद्-एक-शरणो भवेत् ॥१३५॥

नामापराध-युक्तानां नामान्य् एव हरन्त्य् अघम् ।

अविश्रान्त-प्रयुक्तानि तान्य् एवार्थ-कराणि च ॥१६॥१३६॥

नामेते शरणापत्ति येइ क्षणे हय ।

तखन-इ नामापराधेर सद्य हय क्षय ॥१३७॥

तथापि प्रमादे यदि उठे अपराध ।

ताहाते-ओ भक्तिते हैया पडे बाध ॥१३८॥

अपराध प्रमादेते हैबे यखन ।

नाम-सङ्कीर्तन तबे करिबे अनुक्षण ॥१३९॥

नामेते शरणागति सुदृढ करिबे ।

अनुक्षण नाम बले अपराध याबे ॥१४०॥

नाम-इ उपाय

*नामे-इ नामापराध हैबेक क्षय ।*

*अपराध नाशिते आर कार-ओ शक्ति नय ॥१४१॥*

*ए विषये मूल-तत्त्व बलि हे तोमाय ।*

*बुझह नारद तुमि वेदे याहा गाय ॥१४२॥*

नामैकं यस्य वाचि स्मरण-पथ-गतं श्रोत्र-मूलं गतं वा

शुद्धं वाशुद्ध-वर्णं व्यवहित-रहितं तारयत्य् एव सत्यम् ।

तच् चेद् देह-द्रविण-जनता-लोभ-पाषण्ड-मध्ये

निक्षिप्तं स्यान् न फल-जनकं शीघ्रम् एवात्र विप्र ॥१७॥१४३॥

*यार मुखे उच्चारित एक कृष्ण नाम ।*

*याहार स्मरण पथे एक नाम गुण धाम ॥१४४॥*

*यार श्रोत्र मूले ताहा प्रवेश करिबे ।*

*व्यवहित रहित हैले तखन-इ तारिबे ॥१४५॥*

*व्यवहित एइ शब्दे दुइ अर्थ हय ।*

*अक्षरेर व्यवधाने नाम आच्छादय ॥१४६॥*

*अविद्यार आच्छादने प्राकृत प्रकाश ।*

*नाम नामी एक भावे अविद्या विनाश ॥१४७॥*

*व्यवहित रहित हैले शुद्ध नामोदय ।*

*वर्ण-शुद्धाशुद्धि-क्रमे दोष नाहि हय ॥१४८॥*

*अप्राकृत नामे कृष्ण सर्व शक्ति दिल ।*

*कालाकाल शौचाशौच नामे ना रहिल ॥१४९॥*

*सर्व काल सर्वावस्थाय शुद्ध नाम कर ।*

*सर्व शुभोदय हबे सर्वाशुभ हर ॥१५०॥*

असत् सङ्ग त्याग पूर्वक नाम ग्रहण

*एमत अपूर्व नाम सङ्ग युक्त यथा ।*

*शीघ्र शुभ फल दाता ना हय सर्वथा ॥१५१॥*

*देह धन जन लोभ पाषण्ड सङ्ग क्रमे ।*

*व्यवहित जन्मे जीव पडे महा भ्रमे ॥१५२॥*

*अत एव सकलेर अग्रे सङ्ग त्यजि ।*

*अनन्य शरण लञा नाम मात्र भजि ॥१५३॥*

*नाम कृपा बले हबे प्रमाद रहित ।*

*अपराध दूरे याबे हैबेक हित ॥१५४॥*

*अपराध मुक्त हञा लय कृष्ण नाम ।*

*प्रेम आसि नाम सह करिबे विश्राम ॥१५५॥*

*अपराधीर नाम लक्षण कैतव निश्चय ।*

*से सङ्ग यतने छाडि कर नामाश्रय ॥१५६॥*

इदं रहस्यं परमं पुरा नारद शङ्करात् ।

श्रुतं सर्वाशुभ-हरम् अपराध-निवारकम् ॥१५७॥

विदुर् विप्राभिधानं ये ह्य् अपराध-परा नराः ।

तेषाम् अपि भवेन् मुक्तिः पठनाद् एव नारद ॥१८॥१५८॥

*सनत्-कुमार बले—ओहे देवर्षि प्रवर ।*

*पूर्वे श्री-शङ्कर मोरे हञा दया पर ॥१५९॥*

*श्री-नाम-रहस्य सर्व अशुभ नाशन ।*

*अपराध निवारक कैल विज्ञापन ॥१६०॥*

*अपराध पर जन विष्णु नाम जानि ।*

*पाठ करिले-इ मुक्ति लभे इहा मानि ॥१६१॥*

नाम रहस्य पटल प्रचार

*ओहे स्वरूप राम राय ए नाम रहस्य *

*पटल यतने प्रचार करिबे अवश्य ॥१६२॥*

*कलिते जीवेर नाहि अन्य प्रतिकार ।*

*नाम रहस्येते पार हैबे संसार ॥१६३॥*

*पूर्वे मुञि शिक्षाष्टके ये तत्त्व कहिल ।*

*एबे व्यास-वाक्ये ताहा पुनः देखाइल ॥१६४॥ \

यतने रहस्य पटल प्रचारिबे सबे ।*

*सर्व क्षण आलोचिया नाम लबे तबे ॥१६५॥*

नामाचार्य ठाकुर हरिदासेर आनुगत्ये श्री नाम भजन

*पृथिवीर शिरोमणि छिल हरिदास । (३.११.९७)*

*एइ नाम रहस्य सब करिल प्रकाश ॥१६६॥*

*प्रचारिल आचरिल एइ नाम धर्म ।*

*नामेर आचार्य हरिदास जान मर्म ॥१६७॥*

*हरिदासेर अनुगत हैया श्री नाम ।*

*भजिबे ये जन सेइ नित्य सिद्ध काम ॥१६८॥*

(२०)

नाम महिमा

*एक दिन कृष्ण दास काशी मिश्रेर घरे ।*

*आपन गौहारि किछु कहिल प्रभुरे ॥१॥*

*आज्ञा हय शुनि कृष्ण नामेर महिमा ।*

*ये महिमार ब्रह्मा शिव नाहि जाने सीमा ॥२॥*

*प्रभु बले कृष्ण नामेर महिमा अपार ।*

*कृष्ण निजे नाहि जाने कि जानिब जीव छार ॥३॥*

*शास्त्रे याहा शुनियाछि कहिब तोमारे ।*

*विश्वास करिया शुन याबे भव पारे ॥४॥*

*सर्व पाप प्रशमक सर्व व्याधि नाश ।*

*सर्व दुःख विनाशन कलि बाधा ह्रास ॥५॥*

*नारकि उद्धार आर प्रारब्ध खण्डन ।*

*सर्व अपराध क्षय नामे सर्व क्षण ॥६॥*

*सर्व सत् कर्मेर पूर्ति नामेर विलास ।*

*सर्व वेदाधिक नाम सूर्येर प्रकाश ॥७॥*

*सर्व तीर्थेर अधिक नाम सर्व शास्त्र कय ।*

*सकल सत् कर्माधिक्य नामेते उदय ॥८॥*

*सर्वार्थ प्रदाता नाम सर्व शक्ति मय ।*

*जगत् आनन्द कारी नामेर धर्म हय ॥९॥*

*नाम लञा जगद्-वन्द्य हय सर्व जन ।*

*अगतिर गति नाम पतित पावन ॥१०॥*

*सर्वत्र सर्वदा सेव्य सर्व मुक्ति दाता ।*

*वैकुण्ठ प्रापक नाम हरि प्रीति दाता ॥११॥*

*नाम स्वयं पुरुषार्थ भक्त्य्-अङ्ग-प्रधान ।*

*श्रुति-स्मृति-शास्त्रे आछे बहुत प्रमाण ॥१२॥*

नाम सर्व पाप विनाशक

*सर्व पाप नाश करा नामेर एक धर्म ।*

*प्रथमे ताहा-इ स-प्रमाण शुन मर्म ॥१३॥*

*पापी अजामिल देख विवश हैया ।*

*हरिनाम उच्चारिल नारायण बलिया ॥१४॥*

*कोटि कोटि जन्मे पाप करियाछे यत ।*

*से सकल हैते मुक्त हैल साम्प्रत ॥१५॥*

अयं हि कृत-निर्वेशो जन्म-कोट्य्-अंहसाम् अपि ।

यद् व्याजहार विवशो नाम स्वस्त्य्-अयनं हरेः ॥१६॥

[भ्प् ६.२.७, ह्ब्व् ११.३३१]

*स्त्री राज गो ब्राह्मण घाती मद्य रत ।*

*गुरु पत्नी गामी मित्र द्रोही चौर्य व्रत ॥१७॥*

*ए सबेर पाप आर अन्य पाप चय ।*

*हरिनाम उच्चारणे सब परिष्कृत हय ॥१८॥*

*पाप सुनिष्कृत हैले कृष्णे हय मति ।*

*एइ रूपे नामे जीवेर हय त सद्-गति ॥१९॥*

स्तेनः सुरा-पो मित्र-ध्रुग् ब्रह्म-हा गुरु-तल्प-गः ।

स्त्री-राज-पितृ-गो-हन्ता ये च पातकिनो ऽपरे ॥२०॥

सर्वेषाम् अप्य् अघवताम् इदम् एव सुनिष्कृतम् ।

नाम-व्याहरणं विष्णोर् यतस् तद्-विषया मतिः ॥२१॥

[भ्प् ६.२.९-१०, ह्ब्व् ११.३३२-३]

व्रतादि नामेर निकट तुच्छ

*चान्द्रायण-व्रत आदि शास्त्रोक्त प्रकारे ।*

*पाप हैते पापीके नाहि से रूप निस्तारे ॥२२॥*

*कृष्ण नाम एक बार उच्चारित यबे ।*

*सर्व पाप हैते पापी मुक्त हय तबे ॥२३॥*

न निष्कृतैर् उदितैर् ब्रह्म-वादिभिस्

तथा विशुद्ध्यत्य् अघवान् व्रतादिभिः ।

यथा हरेर् नाम-पदैर् उदाहृतैस्

तद् उत्तमश्लोक-गुणोपलम्भकम् ॥२४॥

[भ्प् ६.१२.११, ह्ब्व् ११.३३४]

*सङ्केत वा परिहास स्तोभ हेला करि ।*

*नामाभासे कभु यदि बले कृष्ण हरि ॥२५॥*

*अशेष पातक तार दूरे याय तबे ।*

*श्री-वैकुण्ठे नीत हय यमदूतेर पराभवे ॥२६॥*

साङ्केत्यं पारिहास्यं वा स्तोभं हेलनम् एव वा ।

वैकुण्ठ-नाम-ग्रहणम् अशेषाघ-हरं विदुः ॥२७॥

[भ्प् ६.२.१४, ह्ब्व् ११.३३५]

*पडि खसि भग्न दष्ट दग्ध वा आहत ।*

*हैया विवशे बले आमि हैनु हत ॥२८॥*

*कृष्ण हरि नारायण नाम मुखे डाके ।*

*यातना कखन आश्रय ना करे ताहाके ॥२९॥*

पतितः स्खलितो भग्नः सन्दष्टस् तप्त आहतः ।

हरिर् इत्य् अवशेनाह पुमान् नार्हति यातनाः ॥३०॥

[भ्प् ६.२.१५, ह्ब्व् ११.३३६]

ज्ञाने वा अज्ञाने नाम

*अज्ञाने वा ज्ञाने कृष्ण नाम सङ्कीर्तने ।*

*सर्व पाप भस्म हय यथा काष्ठ अग्न्य्-अर्पणे ॥३१॥*

अज्ञानाद् अथवा ज्ञानाद् उत्तमश्लोक-नाम यत् ।

सङ्कीर्तितम् अघं पुंसो दहेद् एधो यथानलः ॥३२॥

[भ्प् ६.२.१८, ह्ब्व् ११.३३७]

प्रारब्ध अप्रारब्ध समस्त पाप नाश

*वर्तमान पाप आर पूर्व जन्मार्जित ।*

*भविष्यते हबे याहा से सकल हत ॥३३॥*

*अनायासे हबे कृष्ण नाम सङ्कीर्तने ।*

*नाम विना बन्धु नाहि जीवेर जीवने ॥३४॥*

वर्तमानं तु यत् पापं यद् भूतं यद् भविष्यति ।

तत् सर्वं निर्दहत्य् आशु गोविन्दानल-कीर्तनात् ॥३५॥

[लघुभा, ह्ब्व् ११.३३९]

द्रोहकारीर मुक्ति

*महीतले सज्जनेर प्रति पापाचारे ।*

*नाम कीर्तनेते मुक्ति लभे सर्व नरे ॥३६॥*

सदा द्रोह-परो यस् तु सज्जनानां मही-तले ।

जायते पावनो धन्यो हरेर् नामानुकीर्तनात् ॥३७॥

[लघुभा, ह्ब्व् ११.३४०]

कोटि प्रायश्चित्त नाम तुल्य नहे

*शास्त्रे कोटि कोटि प्रायश्चित्त आछे कहे ।*

*किन्तु कृष्ण कीर्तनेर तुल्य केह नहे ॥३८॥*

वसन्ति यानि कोटिस् तु पावनानि महीतले ।

न तानि तत्-तुलां यान्ति कृष्ण-नामानुकीर्तने ॥३९॥

[कुर्मप्, ह्ब्व् ११.३४१]

नाम-ग्रहण कारीर पाप थाके ना

*हरिनाम यत पाप निर्हरण करे ।*

*तत पाप पापी कभु करिते ना पारे ॥४०॥*

नाम्नो’स्य यावती शक्तिः पाप-निर्हरणे हरेः ।

तावत् कर्तुं न शक्नोति पातकं पातकी जनः ॥४१॥

[बृहद्-विष्णु-पुराणे ह्ब्व् ११.३४२॥

*मनो-वाक्-काय-ज पाप तत नाहि हय ।*

*कलिते गोविन्द नामे नाहि हय क्षय ॥४२॥*

तन् नास्ति कर्मजं लोके वाग्-जं मानसम् एव वा ।

यन् न क्षपयते पापं कलौ गोविन्द-कीर्तनम् ॥४३॥

[स्कान्द, ह्ब्व् ११.३४४]

नामे सर्व-रोग नाश हय

*नामे सर्व व्याधि ध्वंस सर्व शास्त्रे गाय ।*

*ओगो स्थानेस्वरी भक्त बलि हे तोमाय ॥४४॥*

*सत्य सत्य ब्लि लह विश्वास करिया ।*

*अच्युतानन्द गोविन्द एइ नाम उच्चारिया ॥४५॥*

*काङ्दिया काङ्दिया डक श्री मधुसूदन ।*

अच्युतानन्द-गोविन्द-नामोच्चरण-भीषितः ।

नश्यन्ति सकला रोगाः सत्यं सत्यं वदाम्य् अहम् ॥४६॥

[बृहन्-नारदीय ह्ब्व् ११.३५३॥

नामे महा पातकी पङ्क्ति पावन हय

*महा पातकी-ओ अहर्निश हरि गाने ।*

*शुद्ध हञा गण्य हय सुपङ्क्ति पावने ॥४७॥*

महा-पातक-युक्तो’पि कीर्तयेन्न् अनिशं हरिम् ।

शुद्धान्तःकरणो भूत्वा जायते पङ्क्ति-पावनः ॥४८॥

[ब्रह्माण्ड, ह्ब्व् ११.३४८]

भय ओ दण्ड निवारण

*महा व्याधि भय ओ वा राज दण्ड भय ।*

*नारायण सङ्कीर्तने निरातङ्क हय ॥४९॥*

महा-व्याधि-समाच्छन्नो राज-वधोपापिदितः ।

नारायणेति सङ्कीर्त्य निराटङ्को भवेन् नरः ॥५०॥

[वह्नि-पुराणे ह्ब्व् ११.३५६]

*सर्व-रोग सर्व-क्लेश उपद्रव सने ।*

*अरिष्टादि-विनाश हय हरि उच्चारणे ॥५१॥*

सर्व-रोगोपशमनं सर्वोपद्रव-नाशनम् ।

शान्तिदं सर्वारिष्टानां हरेर् नामानुकीर्तनम् ॥५२॥

[[ब्र्हद्-विष्णु-पुराणे ह्ब्व् ११.३५७॥

*यथा अति वायु बले मेघ दूरे याय ।*

*सूर्योदये तमो नाश अवश्य-इ पाय ॥५३॥*

*तथा सङ्कीर्तित नाम जीवेर व्यसन ।*

*दूर करे स्व-प्रभावे ए व्यास-वचन ॥५४॥*

सङ्कीर्त्यमानो भगवान् अनन्तः

श्रुतनुभावो व्यसनं हि पुंसाम् ।

प्रविश्य चित्तं विधुनोत्य् अशेषं

यथा तमो’र्को’भ्रम् इवाति-वातः ॥५५॥

[भ्प् १२.१२.४८, ह्ब्व् ११.३५९]

*आर्त वा विषण्ण शिथिल-मना भीत ।*

*घोर-व्याधि-क्लेशे आर ना देखे हित ॥५६॥*

*नारायण हरि बलि करे सङ्कीर्तन ।*

*निश्चय विमुक्त-दुःख सुखी सेइ जन ॥५७॥*

आर्ता विषण्णाः शिथिलाश् च भीता

घोरेषु च व्याधिषु वर्तमानाः ।

सङ्कीर्त्य नारायण-शब्दम् एकं

विमुक्त-दुःखाः सुखिनो भवन्ति ॥५८॥

[विष्णु-धर्मोत्तरे ह्ब्व् ११.३६०]

*असीम शक्तिमान् विष्णु ताङ्हार कीर्तने ।*

*यक्ष रक्ष वेतालादि भूत प्रेत गणे ॥५९॥*

*विनायक डकिन्यादि हिंस्रक समस्त ।*

*पलायन करे सब दुःख हय अस्त ॥६०॥*

*सर्वानर्थ-नाशी हरिनाम सङ्कीर्तन ।*

*क्षुधा तृष्णा स्खलितादि विपद-नाशन ॥६१॥*

*इहाते संशय यथा निश्चय तथाय ।*

*नामेर विक्रम कभु ना हय उदय ॥६२॥*

*विश्वासे नामेर कृपा अविश्वासे नय ।*

*ए एक रहस्य भक्त जानह निश्चय ॥६३॥*

कीर्तनद् देव-देवस्य विष्णोर् अमित-तेजसः ।

यक्ष-रक्षस-वेतल-भूत-प्रेत-विनयकः ॥६४॥

दकिन्यो विद्रवन्ति स्म ये तथान्ये च सिंहकः ।

सर्वानर्थ-हरं तस्य नाम-सङ्कीर्तनं स्मृतम् ॥६५॥

नाम-सङ्कीर्तनं कृत्वा क्षुट्-तृट्-प्रस्खलितादिषु ।

वियोगम् शीघ्रम् आप्नोति सर्वानर्थैर् न संशयः ॥६६॥

[विष्णु-धर्मोत्तरे ह्ब्व् ११.३६१-३]

*कलि काल कुसर्पेर तीक्ष्ण दंष्ट्रा हेरि ।*

*भय ना करिओ भक्त शुन श्रद्धा करि ॥६७॥*

*कृष्ण नाम दावानल प्रज्ज्वलित हञा ।*

*से सर्पेर दंष्ट्रा दग्ध करिबे फेलिया ॥६८॥*

कलि-कल-कु-सर्पस्य तीक्ष्ण-दंष्ट्रस्य मा भयम् ।

गोविन्द-नाम-दावेन दग्धो यास्यति भस्मताम् ॥६९॥

[स्कान्द, ह्ब्व् ११.३६५]

*एइ घोर कलि-युगे हरि नामाश्रये ।*

*कृत कृत्य भक्त गण त्यक्त अनाश्रये ॥७०॥*

*हरे केशव गोविन्द वासुदेव जगन्मय ।*

*एइ नाम सङ्कीर्तने बड सुखोदय ॥७१॥*

*सदा येइ गाय नाम विश्वास करिया ।*

*कलि बाधा नाहि तार सदा शुद्ध हिया ॥७२॥*

हरि-नाम-परा ये च घोरे कलि-युगे नराः ।

त एव कृत-कृत्याश् च न कलिर् बाधते हि तान् ॥७३॥

हरे केशव गोविन्द वासुदेव जगन्-मय ।

इतीरयन्ति ते नित्यं न हि तान् बाधते कलिः ॥७४॥

[बृहन्नारदीय, ह्ब्व् ११.३६६-७]

*नारकी कीर्तन करे हरि कृष्ण बलि ।*

*हरि भक्त हञा याय दिव्य धामे चलि ॥७५॥*

यथा यथा हरेर् नाम कीर्तयन्ति स्म नारकाः ।

तथा तथा हरौ भक्तिम् उद्वहन्तो दिवं ययुः ॥७६॥

[नारसिंहे ह्ब्व् ११.३६९]

*प्रारब्ध-खण्डन केवल हरि नामे हय ।*

*ज्ञान-कर्मे सेइ फल कभु ना मिलय ॥७७॥*

*विना हरि कीर्तन कभु कर्म बन्ध ।*

*खण्डन ना हय मुमुक्षुता नहे लब्ध ॥७८॥*

*ये मुक्ति लभिले आर ना हय कर्म सङ्ग ।*

*रजस् तमो दोष हीन शून्य माया-सङ्ग ॥७९॥*

नातः परं कर्म-निबन्ध-कृन्तनं

मुमुक्षतां तीर्थ-पदानुकीर्तनात् ।

न यत् पुनः कर्मसु सज्जते मनो

रजस्-तमोभ्यां कलिलं ततो’न्यथा ॥८०॥

[भ्प् ६.२.४६, ह्ब्व् ११.३७१]

*म्रियमाण क्लिष्ट जन पडिते खसिते ।*

*विवश हैया कृष्ण बले कोन मते ॥८१॥*

*कर्मार्गल मुक्त हञा लभे परा गति ।*

*कलि काले याहा नाहि लभे अन्य मति ॥८२॥*

यन्-नाम-धेयं म्रियमाण आतुरः

पतन् स्खलन् वा विवशो गृणन् पुमान् ।

विमुक्त-कर्मार्गल उत्तमां गतिं

प्राप्नोति यक्ष्यन्ति न तं कलौ जनाः ॥८३॥

[भ्प् १२.३.४४, ह्ब्व् ११.३७२]

*श्रद्धा करि नाम लैले अपराध कोटी ।*

*क्षमा करे कृष्ण यदि ना थाके कुटिनाटी ॥८४॥*

*इहाते विश्वास यार ना हय से जन ।*

*बड-इ दुर्भागा तार नाहिक मोचन ॥८५॥*

मम नामानि लोके’स्मिन् श्रद्धया यस् तु कीर्तयेत् ।

तस्यापराध-कोटिस् तु क्षमाम्य् एव न संशयः ॥८६॥

[विष्णु-यामले ह्ब्व् ११.३७५]

*मन्त्र तन्त्र छिद्र देश काल वस्तु दोष ।*

*नाम सङ्कीर्तने याय पाय परम सन्तोष ॥८७॥*

*सत् कर्म प्रधान नाम ताहार आश्रये ।*

*अन्य सत् कर्मेर सिद्धि हैबे निश्चये ॥८८॥*

मन्त्रतस् तन्त्रतश् छिद्रं देश-कालार्ह-वस्तुतः ।

सर्वं करोति निश्छिद्रम् अनुसङ्कीर्तनं तव ॥८९॥

[भ्प् ८.२३.१६, ह्ब्व् ११.३७६]

*सर्व वेदाधिक नाम इहाते संशय ।*

*ये करे ताहार कभु मङ्गल ना हय ॥९०॥*

*प्रणव कृष्णेर नाम याहा हैते वेद ।*

*जन्मिल ब्रह्मार मुखे बुझ तत्त्व भेद ॥९१॥*

*ऋक्-यजु-सामाथर्व से कैल पठन ।*

*हरि हरि यार मुखे शुनि अनुक्षण ॥९२॥*

र्ग्-वेदो हि यजुर्-वेदः साम-वेदो’प्य् अथर्वणः ।

अधीतस् तेन येनोक्तं हरिर् इत्य् अक्षर-द्वयम् ॥९३॥

[विष्णु-धर्मोत्तरे, ह्ब्व् ११.३७८]

*ऋक् यजु सामाथर्व पठ कि कारण ।*

*गोविन्द गोविन्द नाम करह कीर्तन ॥९४॥*

मा ऋचो मा यजुस् तात मा साम पठ किंचन ।

गोविन्देति हरेर् नाम गेयं गायस्व नित्यशः ॥९५॥

[स्कान्दे, ह्ब्व् ११.३७९॥

*विष्णुर प्रत्येक नाम सर्व वेदाधिक ।*

*राम नाम जान सहस्र नामेर अधिक ॥९६॥*

विष्णोर् एकैक-नामापि सर्व-वेदाधिकं मतम् ।

तदृङ्-नाम-सहस्रेण राम-नाम समं स्मृतम् ॥९७॥

[पाद्मे ह्ब्व् ११.३८०]

*सहस्र नाम तिन बार आवृत्ति करिले ।*

*येइ फल हय ताहा एक कृष्ण नामे मिले ॥९८॥*

*कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण हे ।*

*एइ नाम सर्व क्षण भक्त सब कर हे ॥९९॥*

*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।*

*हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥१००॥*

*एइ षोल नामे सर्व दिक् बजाय रहिल हे ।*

*सर्व फल सिद्धि लाभ एइ षोल नामे हैबे हे ॥१०१॥*

सहस्र-नाम्नां पुण्यानां त्रिर्-आवृत्त्या तु यत् फलम् ।

एकावृत्त्या तु कृष्णस्य नामैकं तत् प्रयच्छति ॥१०२॥

[ब्रह्माण्ड ह्ब्व् ११.४८८]

*तीर्थ यात्रा परिश्रमे किबा फल हबे ।*

*हरे कृष्ण नित्य गाने सब फल पाबे ॥१०३॥*

*किबा कुरुक्षेत्र काशी पुष्कर भ्रमणे ।*

*जिह्वाग्रेते हरि नाम याङ्र क्षणे क्षणे ॥१०४॥*

कुरुक्षेत्रेण किं तस्य किं कस्य पुस्करेण वा ।

जिह्वाग्रे वसते यस्य हरिर् इत्य् अक्षर-द्वयम् ॥१०५॥

[स्कान्दे ह्ब्व् ११.३८१]

*कोटि शत कोटि सहस्र तीर्थे याहा नय ।*

*हरिनाम कीर्तनेते सेइ फल हय ॥१०६॥*

तीर्थ-कोटि-सहस्राणि तीर्थ-कोटि-शतानि च ।

तनि सर्वाण्य् अवाप्नोति विष्णोर् नामानुकीर्तनात् ॥१०७॥

[वामन ह्ब्व् ११.३८२]

*कुरुक्षेत्रे बसि विश्वामित्र ऋषि बले ।*

*शुनियाछि बहु तीर्थ नाम धरातले ॥१०८॥*

*हरिनाम कीर्तनेर कोटि अंश तुल्य ।*

*कोन तीर्थ नाहि एइ वाक्य बहु मूल्य ॥१०९॥*

विश्रुताणि बहून्य् एव तीर्थानि बहुधानि च ।

कोत्य्-अंशेनापि तुल्यानि नाम-कीर्तनतो हरेः ॥११०॥

[विश्वामित्र-संहिता, ह्ब्व् ११.३८३]

*वेदागम बहु शास्त्रे किबा प्रयोजन ।*

*केन करे लोक बहु तीर्थादि भ्रमण ॥१११॥*

*आत्म-मुक्ति-वाञ्छा यार सेइ सर्व-क्षण ।*

*गोविन्द गोविन्द बलि करुक कीर्तन ॥११२॥*

किं तत वेदागम-शास्त्र-विस्तरैस्

तीर्थैर् अनेकैर् अपि किं प्रयोजनम् ।

यद्य् आत्मनो वाञ्छसि मुक्ति-कारणं

गोविन्द गोविन्द इति स्फुतम् रट ॥११३॥

[लघु-भागवते ह्ब्व् ११.३८४]

सर्व-सत्-कर्माधिक नाम जानह निश्चय ।

एइ कथा विश्वासिले सर्व धर्म हय ॥११४॥

सूर्य उपराग कोटि कोटि गरु दान ।

प्रयागेते कल्प वास माघेते विधान ॥११५॥

अयुत यज्ञादि कर्म स्वर्ग-मेरु दान ।

शतांशेते हरि नामेर ना हय समान ॥११६॥

गो-कोटि-दानं ग्रहणे खगस्य

प्रयाग-गङ्गोदक-कल्प-वासः ।

यज्ञायुतं मेरु-सुवर्ण-दानं

गोविन्द-कीर्तेर् न समं शतांशैः ॥११७॥

[लघु-भागवते ह्ब्व् ११.३८५]

इष्ट-पूर्त कर्म बहु बहु कृत हैले ।

तथापि से सब भव हेतु शास्त्रे बले ॥११८॥

हरिनाम अनायासे भव मूर्ति धर ।

कर्म फल नामेर काछे अकिञ्चित्कर ॥११९॥

इष्ट-पूर्तानि कर्माणि सु-बहूनि कृतान्य् अपि ।

भव-हेतूनि तान्य् एव हरेर् नाम तु मुक्तिदम् ॥१२०॥

[बौधयन-संहिता, ह्ब्व् ११.३८६]

साङ्ख्य अष्टाङ्गादि योगे इबा आशा धर ।

मुक्ति चाओ गोविन्द कीर्तन सदा कर ॥१२१॥

मुक्ति-ओ सामान्य फल नामेर निकटे ।

हेलाय करिले नाम जीवेर मुक्ति घटे ॥१२२॥

किं करिष्यति साङ्ख्येन किं योगैर् नर-नायक ।

मुक्तिम् इच्छसि राजेन्द्र कुरु गोविन्द-कीर्तनम् ॥१२३॥

[गारुडे ह्ब्व् ११.३८८]

श्वपच हैले-ओ द्विज-श्रेष्ठ बलि तारे ।

याहार जिह्वाग्रे कृष्ण-नाम नृत्य करे ॥१२४॥

सर्व-तप कैल सर्व तीर्थे कैल स्नान ।

सर्व वेद अध्ययने आर्य मतिमान् ॥१२५॥

एइ सब साधनेर बले भाग्यवान् ।

रसनाय सदा करे हरिनाम गान ॥१२६॥

अहो बत श्वपचो’तो गरीयान्

यज्-जिह्वाग्रे वर्तते नाम तुभ्यम् ।

तेपुस् तपस् ते जुहुवुर् सस्नुर् अर्या

ब्रह्मानूचुर् नाम गृह्णन्ति ये ते ॥१२७॥

[भ्प् ३.३३.७, ह्ब्व् ११.३८९]

सर्व अर्थ दाता हरिनाम महामन्त्र ।

फुकारिया बले यत वेदागम तन्त्र ॥१२८॥

हरिनाम बले सर्व षड्-वर्ग दमन ।

रिपु निग्रहण आर अध्यात्म साधन ॥१२९॥

एतत् सद्-वर्ग-हरणम् रिपु-निग्रहणं परम् ।

अध्यात्म-मूलम् एतद् धि विष्णोर् नामानुकीर्तनम् ॥१३०॥

स्कान्दे ह्ब्व् ११.३९०]

गुणज्ञ सार भुक् आर्य कलिके सम्माने ।

सर्व स्वार्थ लभि कलौ नाम सङ्कीर्तने ॥१३१॥

कलिं सभाजयन्त्य् आर्या गुण-जाः सार-भागिनः ।

यत्र सङ्कीर्तनेनैव सर्वः स्वर्थो’भिलभ्यते ॥१३२॥

[भ्प् ११.५.३६, ह्ब्व् ११.३९६]

सर्व शक्तिमान् नाम कृष्णेर समान ।

कृष्णेर सकल शक्ति नामेर् वर्तमान ॥१३३॥

दान व्रतस् तपस् तीर्थे छिल यत शक्ति ।

देव गणे कर्म काण्डे हैया विभक्ति ॥१३४॥

राजसूये अश्वमेधे आध्यात्मिक ज्ञाने ।

सब आकर्षिया कृष्ण निल आपन नामे ॥१३५॥

दान-व्रत-तपस्-तीर्थ-यात्रादीनां च याः स्थिताः ।

शक्तयो देव-महतां सर्व-पाप-हराः शुभाः ॥१३६॥

राज-सूयाश्वमेधानां ज्ञानस्याध्यात्म-वस्तुनः ।

आकृष्य हरिणा सर्वाः स्थापिताः स्वेषु नामसु ॥१३७॥

[स्कान्दे, ह्ब्व् ११.३९८-३९९]

देवदेव श्री-कृष्णेर सर्व अर्थ शक्ति ।

युक्त सब नाम तङ्हि मध्ये याते अनुरक्ति ॥१३८॥

सेइ नाम सर्व अथे योजना करिबे ।

सर्व अर्थ शक्ति हैते सकले-इ मिलिबे ॥१३९॥

सर्वार्थ-शक्ति-युक्तस्य देवदेवस्य चक्रिणः ।

यच् चाभिरुचितं नाम तत् सर्वार्थेषु योजयेत् ॥१४०॥

ब्रह्माण्डे ह्ब्व् ११.४०१]

हृषीकेश सङ्कीर्तने जगद् आनन्दित ।

अनुरागे हृष्ट-चित्त सर्वदा सम्प्रीत ॥१४१॥

दैत्य रक्ष भीत हैया पलाइया याय ।

सिद्ध सङ्घ सदा प्रणमित ताङ्र पाय ॥१४२॥

येइ कृष्ण सेइ नाम नामेर प्रभाव ।

उपयुक्त बटे ताते ना थाके अभाव ॥१४३॥

स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या

जगत् प्रहृष्यत्य् अनुरज्यते च ।

रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति

सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंघाः ॥१४४॥

[गीता ११.३६, ह्ब्व् ११.४०२]

वर्णादि विचार नाहि नाम सङ्कीर्तने ।

दीक्षा-पुरश्चर्या विधि बाध्य नाइ गणे ॥१४५॥

नारायण जगन्नाथ वासुदेव जनार्दन ।

यार मुखे सदा शुनि पूज्य गुरु येइ जन ॥१४६॥

शयने स्वपने आर चलिते बसिते ।

कृष्ण-नाम करे येइ पूज्य सर्व मते ॥१४७॥

नारायण जगन्नाथ वासुदेव जनार्दन ।

इतीरयन्ति ये नित्यं ते वै सर्वत्र वन्दिताः ॥१४८॥

स्वपन् भुञ्जन् व्रजंस् तिष्ठंश् च वदंस् तथा ।

ये वदन्ति हरेर् नाम तेभ्यो नित्यं नमो नमः ॥१४९॥

बृहन्-नारदीये, ह्ब्व् ११.४०३-४]

स्त्री-शूद्र-पुक्कश-यवनादि केन नय ।

कृष्ण-नाम गाय सेओ गुरु पूज्य हय ॥१५०॥

स्त्री शूद्रः पुक्कशो वापि ये चान्ये पाप-योनयः ।

कीर्तयन्ति हरिं भक्त्या तेभ्यो’पीह नमो नमः ॥१५१॥

नारायण-व्यूह-स्तवे, ह्ब्व् ११.४०५]

अन्य गति शून्य भोगी पर उपतापी ।

ब्रह्मचर्य ज्ञान वैराग्य हीन पापी ॥१५२॥

सर्व धर्म शून्य नाम जपी यदि हय ।

ताहार ये सुगति ताहा सर्व धार्मिकेर नय ॥१५३॥

अनन्य-गतयो मर्त्या भोगिनो’पि परन्तपाः ।

ज्ञान-वैराग्य-रहिता ब्रह्मचर्यादि-वर्जिताः ॥१५४॥

सर्व-धर्मोज्झिता विष्णोर् नाम-मात्रैक-जल्पकाः ।

सुखेन यां गतिं यान्ति न तां सर्वे’पि धार्मिकाः ॥१५५॥

पाद्मे, ह्ब्व् ११.४०६-७]

हरि नाम ग्रहणे देश कालेर नियम नाइ ।

उच्छिष्ट अशौचे विधि निषेध ना पाइ ॥१५६॥

एक बार मुखे बले हरि दु अक्षर ।

सेइ जन मोक्ष प्रति बद्ध परिकर ॥१५७॥

न देश-नियमस् तस्मिन् न काल-नियमस् तथा ।

नोच्छिष्ठादौ निषेधो’स्ति श्री-हरेर् नाम्नि लुब्धक ॥१५८॥

विष्णु-धर्म, ह्ब्व् ११.४०८]

कृष्ण-नाम सदा सर्वत्र करह कीर्तन ।

अशौचादि नाहि मान नाम स्वतन्त्र पावन ॥१५९॥

चक्रायुधस्य नामानि सदा सर्वत्र कीर्तयेत् ।

नाशौचं कीर्तने तस्य स पवित्र-करो यतः ॥१६०॥

[स्कान्दे ह्ब्व् ११.४०९॥

*यज्ञे दाने स्नाने जपे आछे कालेर नियम ।*

*कृष्ण कीर्तने कालाकाल चिन्ता महाभ्रम ॥१६१॥*

*देश काल नियमादि नामे कभु नाइ ।*

*कृष्ण कीर्तन सदा करह सबाइ ॥१६२॥*

न देश-नियमो राजन् न काल-नियमस् तथा ।

विद्यते नात्र सन्देहो विष्णोर् नामानुकीर्तने ॥१६३॥

कालो’स्ति दाने यज्ञे च स्थाने कालो’स्ति सज्-जपे ।

विष्णु-सङ्कीर्तने कालो नास्त्य् अत्र पृथिवी-तले ॥१६४॥

[वैष्णव-चिन्तामणौ, ह्ब्व् ११.४१२-३]

*संसारे निर्विण्ण-चित्ते अभ्य-पद चाय ।*

*हेन योगीर जन्य नाम एकमात्र उपाय ॥१६५॥*

एतन् निर्विद्यमानानाम् इच्छताम् अकुतो-भयम् ।

योगिनां नृप निर्णीतं हरेर् नामानुकीर्तनम् ॥१६६॥

[भ्प् २.१.११, ह्ब्व् ११.४१४]

*हरिनाम विना आर सहज मुक्ति दाता ।*

*केह नाहि त्रि जगते नाम-इ जीवेर त्राता ॥१६७॥*

*एक बार मुखे बले हरि दु अक्षर ।*

*सेइ जन मोक्ष प्रति बद्ध परिकर ॥१६८॥*

सकृद् उच्चारितं येन हरिर् इत्य् अक्षर-द्वयम् ।

बद्धः परिकरस् तेन मोक्षाय गमनं प्रति ॥१६९॥

[पद्म-पुराणे, ह्ब्व् ११.४१७]

*जित निद्र हञा एक बार नारायण बले ।*

*शुद्ध चित्त हञा सेइ निर्वाण पथे चले ॥१७०॥*

सकृद् उच्चारयेद् यस् तु नारायणम् अतन्द्रितः ।

शुद्धान्तःकरणो भूत्वा निर्वाणम् अधिगच्छति ॥१७१॥

[ब्रह्म-पुराणे, ह्ब्व् ११.४१८॥

*ए घोर संसारे बले विवशे हरे हरे ।*

*सद्यो मुक्त हय भय तारे भय करे ॥१७२॥*

आपन्नः संसृतिं घोरां यन्-नाम विवशो गृणन् ।

ततः सद्यो विमुच्येत यद् बिभेति स्वयं भयम् ॥१७३॥

[भ्प् १.१.१४, ह्ब्व् ११.४२५॥

*मृत्यु-काले विवशे ये करे उच्चारण ।*

*ताङ्र अवतार नाम लीला विडम्बन ॥१७४॥*

*बहु जन्म दुरित सहसा त्याग करि ।*

*याय से परम पदे भजे सेइ हरि ॥१७५॥*

यस्यावतार-गुण-कर्म-विडम्बनानि

नामानि ये’सु-विगमे विवशा गृणन्ति ।

ते’नैक-जन्म-शमलं सहसैव हित्वा

संयान्त्य् अपावृतामृतं तम् अजं प्रपद्ये ॥१७६॥

[भ्प् ३.९.१५, ह्ब्व् ११.४२६]

*चलिते बसिते स्वप्ने भोजने शयने ।*

*कलि दमन कृष्णोच्चारे वाक्येर पूरणे ॥१७७॥*

*हेलाते-ओ करि नाम निज स्वरूप पाञा ।*

*परम पद वैकुण्ठे याय निर्भय हैया ॥१७८॥*

व्रजंस् तिष्ठन् स्वपन्न् अश्नन् श्वसन् वाक्य-प्रपूरणे ।

नाम-सङ्कीर्तनं विष्णोर् हेलया कलि-मर्दनम् ।

कृत्वा स्वरूपतां याति भक्ति-युक्तं परं व्रजेत् ॥१७९॥

[लैङ्गे, ह्ब्व् ११.४२८]

*येन तेन प्रकारेते लय कृष्ण नाम ।*

*ताके प्रीति करे कृष्ण करुणा निदान ॥१८०॥*

*मद्य पाने भूताविष्ट वायु पीडा स्थले ।*

*हरि नामोच्चारे मुक्ति ताङ्र कर तले ॥१८१॥*

वासुदेवस्य सङ्कीर्त्या सुरापो व्याधितो’पि वा ।

मुक्तो जायेत नियतं महा-विष्णुः प्रसीदति ॥१८२॥

[वाराहे, ह्ब्व् ११.४४२]

*हरिनाम स्वतः परम पुरुषार्थ हय ।*

*उपेय माङ्गल्य तत्त्व परं धन मय ॥१८३॥*

*जीवनेर फल वस्तु काशी-खण्ड बले ।*

*पद्म-पुराणे-ओ ताहा कहे बहु स्थले ॥१८४॥*

इदम् एव हि मङ्गल्यं एतद् एव धनार्जनम् ।

जीवितस्य फलं चैतद् यद् दामोदर-कीर्तनम् ॥१८५॥

[पद्मप्, ह्ब्व् ११.४५०]

*सर्व मङ्गलेर हय परम मङ्गल ।*

*चित्-तत्त्व स्वरूप सर्व वेद वल्ली फल ॥१८६॥*

*कृष्ण नाम लय येइ श्रद्धा वा हेलाय ।*

*नर मात्र त्राण पाय सर्व वेदे गाय ॥१८७॥*

मधुर-मधुरम् एतन् मङ्गलं मङ्गलानां

सकल-निगम-वल्ली-सत्-फलं चित्-स्वरूपम् ।

सकृद् अपि परिगीतं श्रद्धया हेलया वा

भृगु-वर नर-मात्रं तारयेत् कृष्ण-नाम ॥१८८॥

[प्रभास-खण्डे, ह्ब्व् ११.४५१]

*भक्तिर प्रकार यत शास्त्रे देखा याय ।*

*तङ्हि मध्ये नामाश्रय श्रेष्ठ बलि गाय ॥१८९॥*

*कष्टेते अष्टाङ्ग योगे विष्णु-स्मृति साधे ।*

*ओष्ठ-स्पन्दने-इ श्रेष्ठ कीर्तन विराजे ॥१९०॥*

अघच्छित्-स्मरणं विष्णोर् बह्व्-आयासेन साध्यते ।

ओष्ठ-स्पन्दन-मात्रेण कीर्तनं तु ततो वरम् ॥१९१॥

[वैष्णव-चिन्तामणौ, ह्ब्व् ११.४५३]

*दीक्षा-पूर्वक अर्चन यदि शत जन्म करे ।*

*ताहार जिह्वाय नित्य हरि नाम स्फुरे ॥१९२॥*

येन जन्म-शतैः पूर्वं वासुदेवः समर्चितः ।

तन्-मुखे हरि-नामानि सदा तिष्ठन्ति भारत ॥१९३॥

[वैष्णव-चिन्तामणौ, ह्ब्व् ११.४५४॥

*सत्य-युगे बहु काले याहा तपो-ध्याने ।*

*यज्ञादि यजिया त्रेताय येवा फल टने ॥१९४॥*

*द्वापरे अर्चनाङ्गेते पाय येबा फल ।*

*कलिते हरिनामे पाय से सकल ॥१९५॥*

ध्यायन् कृते यजन् यज्ञैस् त्रेतायां द्वापरे’र्चयन् ।

यद् आप्नोति तद् आप्नोति कलौ सङ्कीर्त्य केशवम् ॥१९६॥

[विप् ६.२.१७, ह्ब्व् ११.४५६॥

*कलि काले महाभागवत बलि तारे ।*

*कीर्तने ये हरि भजे ए भव संसारे ॥१९७॥*

महा-भागवता नित्यं कलौ कुर्वन्ति कीर्तनम् ॥१९८॥

[स्कन्द, ह्ब्व् ११.४५९]

*चिद्-आत्मक हरिनाम बारेक उच्चारे ।*

*शिव ब्रह्मा अनन्यतार फल कहिते नारे ॥१९९॥*

*नामोच्चारण-माहात्म्य अद्भुत बलि गाय ।*

*उच्चारण-मात्रे नर परम पद पाय ॥२००॥*

कृते यद् ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखैः ।

द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद् धरि-कीर्तनात् ॥

[भ्प् १२.३.५२, ह्ब्व् ११.४५७॥

महा-भागवता नित्यं कलौ कुर्वन्ति कीर्तनम् ॥१९८॥

[स्कान्दे, ह्ब्व् ११.४५९]

*चिद्-आत्मक हरिनाम बारेक उच्चारे ।*

*शिव ब्रह्मा अनन्यतार फल कहिते नारे ॥१९९॥*

*नामोच्चारण माहात्म्य अद्भुत बलि गाय ।*

*उच्चारण-मात्रे नर परम पद पाय ॥२००॥*

सकृद् उच्चारयन्त्य् एव हरेर् नाम चिद्-आत्मकम् ।

फलं नास्य क्षमो वक्तुं सहस्र-वदनो विधिः ॥२०१॥

नामोच्चारण-माहात्म्यं श्रूयते महद् अद्भुतम् ।

यद् उच्चारण-मात्रेण नरो यायात् परं पदम् ॥२०२॥

कृष्ण बले शुन अर्जुन बलिब तोमाय ।

श्रद्धाय हेलाय जीव मम नाम गाय ॥२०३॥

सेइ नाम मम हृदि सदा वर्तमान ।

नाम सम व्रत नाइ नाम सम ज्ञान ॥२०४॥

नाम सम ध्यान नाइ नाम सम फल ।

नाम सम त्याग नाइ, नाम सम बल ॥२०५॥

नाम सम पुण्य नाइ नाम सम गति ।

नामेर शक्ति गाने वेदेर नाहिक शकति ॥२०६॥

नाम-इ परमा मुक्ति नाम-इ परमा गति ।

नाम-इ परमा शान्ति नाम-इ परमा स्थिति ॥२०७॥

नाम-इ परमा भक्ति नाम-इ परमा मति ।

नाम-इ परमा प्रीति नाम-इ परमा स्मृति ॥२०८॥

जीवेर कारण नाम नाम-इ जीवेर प्रभु ।

परम आराध्य नाम नाम-इ गुरु प्रभु ॥२०९॥

श्रद्धया हेलया नाम रटन्ति मम जन्तवः ।

तेषां नाम सदा पार्थ वर्तते हृदये मम ॥२१०॥

न नाम सदृशं ज्ञानं न नाम सदृशं व्रतम् ।

न नाम सदृशं ध्यानं न नाम सदृशं फलम् ॥२११॥

न नाम सदृशस् त्यागो न नाम सदृशः शमः ।

न नाम सदृशं पुण्यं न नाम सदृशी गतिः ॥२१२॥

नामैव परमा मुक्तिर् नामैव परमा गतिः ।

नामैव परमा शान्तिर् नामैव परमा स्थितिः ॥२१३॥

नामैव परमा भक्तिर् नामैव परमा मतिः ।

नामैव परमा प्रीतिर् नामैव परमा स्मृतिः ॥२१४॥

नामैव कारणं जन्तोर् नामैव प्रभुर् एव च ।

नामैव परमाराध्यो नामैव परमो गुरुः ॥२१५॥

आदि-पुराण, ह्ब्व् ११.४६४-४६९]

हरिनाम माहात्म्येर कभु नाहि पार ।

ये नाम श्रवणे सदा पुक्कश उद्धार ॥२१६॥

यन्-नाम सकृच् छ्रवणात्

पुक्कशो’पि विमुच्यते संसारात् ॥२१७॥

भ्प् ६.१६.१४, ह्ब्व् ११.४८६]

स्वपने जाग्रते येबा जल्पे कृष्ण नाम ।

कलिते से कृष्ण-रूपी कृष्णेर विधान ॥२१८॥

कृष्ण कृष्णेति कृष्णेति स्वपन् जाग्रद् व्रजंस् तथा ।

यो जल्पति कलौ नित्यं कृष्ण-रूपी भवेद् धि सः ॥२१९॥

वराह, ह्ब्व् ११.४९३॥

कृष्ण बलि नित्य स्मरे संसार सागरे ।

जलोत्थित पद्म येन नरके उद्धरे ॥२२०॥

कृष्ण कृष्णेति कृष्णेति यो मां स्मरति नित्यशः ।

जलं भित्त्वा यथा पद्मं नरकाद् उद्धराम्य् अहम् ॥२२१॥

नारसिंहे, ह्ब्व् ११.४९६]

कृष्ण-नाम सर्व मुख्य जीवेर आश्रय ।

अशेष पाप हरे सद्य पाप मुक्ति कर ॥२२२॥

नाम्नां मुख्यतरं नाम कृष्णाख्यं मे परन्तप ।

प्रायश्चित्तम् अशेषाणां पापानां मोचकं परम् ॥२२३॥

[प्रभास-पुराणे, ह्ब्व् ११.४९८]

नाम चिन्तामणि कृष्ण चैतन्य स्वरूप ।

पूर्ण शुद्ध नित्य मुक्त नाम नामी एक रूप ॥२२४॥

नाम चिन्तामणिः कृष्णश् चैतन्य-रस-विग्रहः ।

पूर्णः शुद्धो नित्य-मुक्तो भिन्नत्वान् नाम-नामिनोः ॥२२५॥

[ह्ब्व् ११.५०३]

विष्णु नाम विष्णु शक्ति येइ जन जाने ।

सुमति प्रार्थना करे अप्राकृत ज्ञाने ॥२२६॥

ओं आस्य जानन्तो नाम चिद् विविक्तन्

महस् ते विष्णो सुमतिं भजामहे ॥२२७॥

ऋक्वेद १.१५६.३, ह्ब्व् ११.५१०]

*स्थानेश्वरी कृष्ण-दास योड करि कर ।*

*बले प्रभु एक वस्तु प्रार्थना हामार ॥२२८॥*

*ए रूप माहात्म्य नामेर शुनिनु श्रवणे ।*

*सर्वत्र समान फल नाहि होय केने ॥२२९॥*

*प्रभु बले—श्रद्धा विश्वास सकलेर मूल ।*

*विश्वास अभावे केह नाहि लभे फल ॥२३०॥*

*प्र्भ बले—अन्तर्यामी नाम भगवान् ।*

*विश्वासानुसारे फल करेन प्रदान ॥२३१॥*

*नामेर महिमा पूर्ण विश्वास ना करे ।*

*नामेर फल नाहि पाय नाम अपराधे मरे ॥२३२॥*

*अर्थ वाद करे फले विश्वास त्यजिया ।*

*फल नाहि पाय थाके नरके पडिया ॥२३३॥*

अर्थ-वादं हरेर् नाम्नि सम्भावयति यो नरः ।

स पापिष्ठो मनुष्याणां निरये पतन्ति स्फुटम् ॥२३४॥

[कात्यायन-संहिता, ह्ब्व् ११.५१४॥

यन्-नाम-कीर्तन-फलं विविधं निशम्य

न श्रद्दधाति मनुते यद् उतार्थ-वादम् ।

यो मानुषस् तम् इह दुःख-चये क्षिपामि

संसार-घोर-विविधार्ति-निपीडिताङ्गम् ॥२३५॥

[ब्रह्म-संहिता ह्ब्व् ११.५१५]