अथ चतुर्दशोऽधिकारः अब गन्धादिपूर्वाणां तन्मात्राणामनुक्रमात् । धारणाः संप्रवक्ष्यामि तत्फ लानां प्रसिद्धये ॥१॥ पोतकं गन्धतन्मात्रं तुर्याचं सर्वसंमितम् । नासारन्ध्रानगं ध्यायेद्वजलाञ्छनलाग्छितम् ॥ २॥
सौः परमेशमुखोद्भूतज्ञानचन्द्रमरोचिरूपम्
श्रीमालिनीविजयोत्तरतन्त्रम् डॉ॰ परमहंसमिश्रविरचित-नोर-क्षीर-विवेकनामकभाषाभाष्यसमन्वितम्
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[ १४ ] विश्व की माङ्गलिक भावनाओं और साधक के उत्कर्ष हेतु नयो धारणाओं के उपदेश को आरम्भिक आकाङ्क्षा को व्यक्त करने वाला ‘अथ’ अव्यय ही इस अधिकार के महत्त्व को सूचना दे रहा है। अब यहाँ तन्मात्राओं से सम्बन्धित धारणाओं का वर्णन किया जा रहा है। इसके पहले पञ्चमहाभूत की सभी धारणाओं को विस्तृत जानकारो दो जा चुको है। तन्मात्राओं में गन्ध सर्व प्रथम वर्णन करने योग्य है। उसके बाद अनुक्रम से सारी धारणाओं का क्रमिक उपदेश भगवान् स्वयम् करेंगे। इसके क्या फल हैं, उनसे किस प्रकार को सिद्धियाँ साधकों को प्राप्त होती हैं, उनके सम्बन्ध में सबको ज्ञान होना चाहिये । प्रवृत्ति के अनुसार ज्ञान रहने पर ही उसको प्रसिद्धि के लिये व्यक्ति प्रयत्नशोल होता है ॥ १ ॥
गन्ध तन्मात्र का रूप पीतवर्ण का माना जाता है। यह चतुष्कोण परिवेश में व्याप्त होता है । अंश-अंश अर्यात् गन्ध परमाणु समूह के राशि राशि रूप में व्याप्त १. स्वच्छ॰ पच्चसंमितमिति पाठः; २, क. पु॰ रन्ध्रान्तमिति पाठ ।
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श्रोमालिनोविजयोत्तरतन्त्रम् दशमाद्दिवसाध्वं योगिनोऽनन्यचेतसः । कोऽपि’ गन्धः समायाति द्विधाभूतोऽप्यनेकधा ॥३॥ ततोऽस्य ऋतुमात्रेण शुद्धो गन्धः स्थिरोभवेत् । षड्भिर्मासैः स्वयं गन्धमयमेव भविष्यति ॥ ४ ॥ यो यत्र रोचते गन्धस्तं तत्र कुरुते भृशम् । त्र्यब्दासिद्धिमवाप्नोति प्रेरितां पाश्चभौतिकीम् ॥ ५॥
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रहता है। इसकी अनुभूति नासिका के अग्रभाग में हो होतो है । यह वज्रलान्छन से लाञ्छित होता है। जैसे शितिकण्ठलाञ्छन शङ्कर को कहते हैं, उसी तरह वज्र लाञ्छन विष्णु को कहते हैं। विष्णु की तरह व्यापक तत्त्व का तरह यह भी व्यापकता से समन्वित है। ऐसे गन्ध तन्मात्र का ध्यान नासिका के अग्रभाग में
करना चाहिये ॥२॥
अनन्य भावना से भक्त साधक लगातार इसी तरह नासिका के अग्रभाग में गन्ध तन्मात्र का अनुचिन्तन करता रहे, तो दशवें दिन कोई विशेष गन्ध किसी अद्भत विशिष्टता और दिव्यता से समन्वित अनुभूत होतो है । नासिकान में वह द्विधाभूत होती प्रतीत होती है किन्तु उसमें अनेकता का मूल भी विद्यमान रहता है ॥३॥
इसो प्रकार एक ऋतु पर्यन्त अर्थात् दो मास अनवरत अनन्य भाव से अभ्यास करते रहने से अत्यन्त शुद्ध और दिव्य गन्ध उसके नासिकान में स्थिर हो जाती है। जिसका परिणाम यह होता है कि, वह उसे हमेशा अनुभूत होतो रहती है। छः मास अर्थात् तीन ऋतुओं में जैसे यदि साधक ने हेमन्त के प्रारम्भ में यह अभ्यास करना आरम्भ किया हो, ता हेमन्त, शिशिर और बसन्त के अन्त में छ: मास पूरा हो जाता है। अतः ग्रीष्म के आरम्भ में वह स्वयं गन्धमय हो जाता है। वाराणसी में स्वामो विशुद्धानन्द महाराज नामक योगिवर्य भी गन्धमय महात्मा थे। उनके शरीर से निरन्तर सुगन्ध निकला करती थी। उन्हें गन्धबाबा कहते भी थे। श्रीगोपीनाथ कविराज के गुरु थे। आज भो उनका विशुद्धानन्द आश्रम वाराणसी में मलदहिया क्षेत्र में है ।। ४ ।।
तीन वर्षों तक निरन्तर इस तरह के अभ्यास में संलग्न रहने के बाद साधक में पाञ्चभौतिक गन्ध-सिद्धियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। वह जिस गन्ध को, १. ख. पु॰ क्वापि गन्ध इति, द्विषाभूतस्य नकषा, इति च पाठः ।
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चतुर्दशोऽधिकारः तदूर्ध्वमात्मनो रूपं तत्र संचिन्तयेदि । गन्धावरणविज्ञानं त्रिभिरब्दैरवाप्नुयात् ॥ ६ ॥ ईषदोप्तियुतं तत्र तन्मण्डलविवजितम् । ध्यायन्प्रपश्यते सर्वागन्धावरणवासिनः ॥७॥ धरातत्त्वोक्तबिम्बाभं ’ तत्रैवमनुचिन्तयन् ।
तत्समानत्वमभ्येति पूर्ववद्वितये स्थिरे ॥८॥ स्वरूपं तत्र संचिन्त्य भासयन्तमधःस्थितम् ।
तदीशत्वमवाप्नोति पूर्वोक्तेनैव वर्त्मना ॥ ९॥ जब चाहे, जहाँ पर, अपनो इच्छा के अनुसार उत्पन्न करने में समर्थ हो जाता है ॥ ५ ॥ __इससे ऊर्ध्व अर्थात् चतुर्थ वर्ष के प्रारम्भ से साधक अपने अभ्यास को इसी तरह बढ़ाते हुए स्वात्म रूप को यदि हृदय में चिन्तन करता हुआ गन्ध के वातावरण में अवस्थित रहे, तो वह गन्धावरण विज्ञान का ज्ञाता बन जाता है। इस प्रक्रिया के लिये तोन वर्ष का समय अपेक्षित है। इतनी सिद्धि प्राप्त करने में अब तक साधक का साढ़े छः वर्ष का समय लग जाता है ॥ ६ ॥
हृदय में अपने रूप को स्वात्मज्योति से हो श्रोसमन्वित करे। उस दीप्तिमें ईषत् ज्योतिष्मन्त ध्यान में साधक संलग्न रहे और गन्धमय रहते हुए भी उसकी आवरण को माण्डलिता का अनुभव करे। सर्वथा अपेक्षा रहित भाव से साधना में रत रहते हुए उसे गन्धावरण विज्ञान के साथ हो गन्धावरण में रहने वाले जीव जगत् का भी विज्ञान उपलब्ध हो जाता है ।। ७॥
गन्ध जगत् है क्या ? इस प्रश्न का एकमात्र उत्तर है, धरातत्त्व का बिम्ब । इस अतिसूक्ष्म बिम्बात्मक गन्ध रूप विश्व की आभामयता का अनुचिन्तन करते हुये तन्मय भाव से उसी में रत रहने पर उसको समानता प्राप्त हो जातो है। इस प्रकार से गन्धावरण विज्ञान और बिम्ब की समानता प्राप्त कर लेने पर उसो स्वरूप में चिन्तनरत रहते हुये और इस बिम्ब भाव के अध:स्थित आत्मावस्थान से गन्ध-विश्व की ईशात्मकता प्राप्त हो जाती है। इस रूप में साधक पूरी तरह स्वात्मविभा से भासमान रहता है। इस साधना का मार्ग भी हृदय से चलकर नासिकाग्र तक हो सोमित है किन्तु इनको फलवत्ता अनन्त है ।। ८-९ ॥ १. क॰ बिम्बान्तमिति पाठः
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श्रीमालिनी विजयोत्तरतन्त्रम् धरातत्त्वोक्तवत्सर्वमत ऊर्ध्वमनुस्मरन् । तद्रूपं फलमाप्नोति गन्धावरणसंस्थितम् ॥ १० ॥ रसरूपामतो वक्ष्ये धारणां योगिसेविताम् । यया सर्व रसावाप्तियोगिनः संप्रजायते ॥११॥ जलबुद्बुदसंकाशं जिह्वायां चाग्रतः स्थितम् । चिन्तयेद्रसतन्मानं जिह्वाग्राधारमात्मनः ॥ १२ ॥ सुशोतं षड्रसं चिन्त्यं तद्गतेनान्तरात्मना । ततोऽस्य मासमात्रेण रसास्वादः प्रवर्तते ॥ १३ ॥
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गन्ध जगत् धरातत्त्व का ही बिम्ब है। अतः जिस तरह धरातत्त्व का अनुचिन्तन होता है और इसमें भी ऊनुिचिन्तन आवश्यक होता है, उसी तरह ऊर्ध्व-अनुचिन्तन करने से उसी प्रकार का फल साधक को प्राप्त होता है । गन्धावरण में भी अधः अवस्थान और ऊर्वावस्थान के पृथक्-पृथक् सुपरिणामों की अनुभूतियों से साधक प्रभावित होता है ॥ १०॥
यहां तक गन्ध तत्त्व की धारणा का वर्णन किया गया है। यहाँ से रस तन्मात्र को धारणा का वर्णन किया जा रहा है। यह धारणा भी योगियों की महत्त्वपूर्ण धारणा मानी जाती है। इस धारणा का सबसे बड़ा फल यह होता है कि, इसकी सिद्धि से समस्त रसों की अवाप्ति यागी को हो जाती है। सर्वरसावाप्ति रस धारणा की सिद्धि से ही सम्भव है ॥ ११ ॥
सर्वप्रथम आसन पर विराजमान साधक एकाग्रभाव से अपनी जिह्वा के अग्रभाग पर ध्यान लगावे। वह रस तन्मात्र का अनुचिन्तन करे। रस तन्मात्र जल के बुबुद के समान होता है। जिह्वाग्र में रस तन्मात्र का भी बुबुदवत् अनुचिन्तन करना चाहिये। वही रसतन्मात्र का आश्रय स्थान है ॥ १२॥
रस की शीतल अनुभूतियों की आनन्दमयता में डूबना योगीवर्ग की साधना का विषय है। इसमें षट् रसों का ही अनुचिन्तन करने की प्रक्रिया अपनायी जाती है। एक-एक रस को आनन्दमयता में तन्मय होने और आन्तर दर्शन करने से उस रस को अनुभूति करने में जो आनन्द मिलता है, उसे वर्णन का विषय नहीं
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१. ग. पु॰ राजनाड प्रसंस्थितमिति पाठः २. क. पु. पडसं विग्यमिति पात:
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चतुर्दशोऽधिकार लवणादीन्परित्यज्य यदा मधुरतां गतः । तदा तन्निगिरन्योगी षण्मासान्मृत्युजिद्भवेत् ॥ १४ ॥ जराव्याधिविनिर्मुक्तः कृष्णकेशोऽच्युतद्युतिः । जीवेदाचन्द्रतारार्कमभ्यत्यंश्च क्वचिस्ववचित् ॥ १५ ॥ पूर्वोक्तबुबुदाकार स्वरूपमनुचिन्तयन् । निरावरणविज्ञानमाप्नोतीति किमद्धतम् ॥१६॥
तमेव धुतिसंयुक्तं ध्यायन्नाधारजितम् ।
पश्यते’ वत्सरैः सर्व रसावरणमाश्रितम् ॥ १७ ॥ बनाया जा सकता। इस प्रकार एक मास पर्यन्त प्रयासरत रहने से वास्तविक रसास्वाद होता है ॥ १३ ॥
इस रसास्वाद में अन्य रसों को आन्तरित करते हुए मधुर रस के उदित होते ही उसमें डब जाना चाहिये। उसको बार-बार जिह्वान पर अनुभव करते हये बराबर उसे घोटते रहना चाहिये। गले के नीचे इस अमृत मधुर रस को यदि छः मास तक साधक उतारता और पीता रहे तो, वह परिणामस्वरूप मृत्युजित हो जाता है ।। १४॥
जरावस्था से उसकी मुक्ति हो जाती है। जरा रूप व्याधि अथवा जीवन को जर्जर बनाने वाली बीमारियों से उसे छुटकारा मिल जाता है। अर्थात् उस अमृतपान के फलस्वरूप वह अजर और निरोग ही नहीं वरन् अमरता को भी प्राप्त कर सकता है ॥ १५ ॥
पहले यह कहा जा चुका है कि, जलबुबुद के समान जिह्वान पर रसानुभूति में निमग्न होना चाहिये। उसी बुद्बुद के समान स्वात्म रूप का अनुचिन्तन एक नयी प्रक्रिया है। इसमें स्वयं रसरूपता में डूबना होता है। इस रसमयता का आश्चर्यजनक फल है, निरावरण विज्ञान । निरावरण विज्ञान योग के उच्च स्तर पर ही प्राप्त होता है ॥ १६ ॥
. इस स्थिति का ध्यान दो प्रकार से इस नयी प्रक्रिया में करते हैं। १. स्वाल्म को दीप्तिमन्त अनुभव करते हुये और २. आधार वजित रूप में। आधार
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जलतत्त्वोक्तबिम्बादि तदूर्ध्वमनुचिन्तयन् । पूर्वोक्तं सर्वमाप्नोति रसाबरणजं स्फुटम् ॥ १८॥ अतो रूपवतीं वक्ष्ये दिव्यदृष्टिप्रदां शुभाम् । धारणां सर्वसिद्धयर्थं रूपतन्मात्रमाश्रिताम् ॥ १९॥ एकान्तस्थो यदा योगी विनिमीलितलोचनः । शरसंध्याभ्रसंकाशं यत्तु किंचित्प्रपश्यति ॥ २०॥ तत्र चेतः समाधाय यावदास्ते ‘दशाहकम् । तावत्प्रपश्यते तत्र बिन्दून्सक्ष्मतमानपि ॥ २१ ॥ केचित्तत्र सिता रक्ताः पीता नीलास्तथा परे। तान्दृष्ट्वा तत्र’ संदध्यान्मनोऽत्यन्तमनन्यधीः ॥२२॥
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तो जिह्वाग्र ही होता है। इस प्रक्रिया में जिह्वान को छोड़कर रसतादात्म्य सार्वत्रिक और सामरस्यमय होता है। इस अवस्था में एक वर्ष व्यतीत करने पर साधक एक साल में ही रसावरण में अवस्थित समस्त विज्ञानवाद की उपलब्धि कर लेता है। ‘पश्यते’ पाठ की जगह इसका अर्थ होता है-एक वर्ष की इस साधना से रसतत्त्व
का दर्शन पाने में समर्थ हो जाता है ॥ १७॥
रस जलतत्त्व का बिम्ब है। इस रसमयता के परिवेश में रहते हुए ऊवं दर्शन की प्रक्रिया यदि अपनायी जाय तो, इससे भी रसावरण विज्ञान से उत्पन्न सभी सिद्धियों का अधिकारी वह हो जाता है ॥ १८॥
इसके बाद रूपवती धारणा का वर्णन भगवान् कर रहे हैं। इससे अत्यन्त कल्याण कारिणी दिव्य दृष्टि की प्राप्ति होती है। यह रूपतन्मात्र की आश्रिता धारणा है। इससे सारी सिद्धियाँ हस्तामलकवत् सरल हो जाती हैं ॥ १९ ॥
रूप तन्मात्र में चित्त को समाहित कर दश दिन पर्यन्त अनवरत अभ्यासरत रहने से उसमें सूक्ष्मतम बिन्दुओं के दर्शन होने लगते हैं। इनमें कुछ श्वेत, कुछ लाल, कुछ पीत और नीलवर्णी बिन्दु भी दीख पड़ते हैं। उनको देखकर मन को
१. क. पु॰ बहिर्मीलितलोचन इति पाठ ३. क॰ . दशाह्निकमिति पाठा ५.० पु॰ तेषु इति पाठः
२. क. पु॰ मत्तत्किचिदिति पाठः है. क॰ पु॰ तमानितीति पासा
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षण्मासात्पश्यते तेषु रूपाणि सुबहन्यपि । ज्यब्दात्तान्येव तेजोभिः प्रदीप्तानि स्थिराणि च ॥२३॥ तान्यभ्यस्यस्ततो द्वयब्दादिम्बाकाराणि पश्यति । ततोऽब्दात्पश्यते तेजः षण्मासात्पुरुषाकृति ॥ २४ ॥ त्रिमासावयापकं तेजो मासात्सर्व विसर्पितम् । कालक्रमाच्च पूर्वोक्तं रूपावरणमाश्रितम् ॥ २५ ॥ तत्सर्वं फलमाप्नोति दिव्यदृष्टिश्च जायते ।
इतीयं कल्पनाशून्या धारणा कुतकोदिता ॥ २६ ॥ उन्हों में डुबो देने का प्रयत्न करना चाहिये । इसमें तनिक शिथिलता, उपेक्षा या तन्मयता की टूट नहीं चाहिये। एकनिष्ठ भावना से अनन्त चिन्तन होना चाहिये ॥ २१-२२ ॥
छः माह पर्यन्त इस प्रक्रिया को अपनाने का परिणाम यह होता है कि, उनमें बहुत से रूप उतर आते और दृष्टिगोचर होते रहते हैं। लगातार तीन वर्ष तक इसे करने से उन रूपों में विचित्र दीप्तिमत्ता के भी दर्शन होने लगते हैं। उनमें कुछ चल और कुछ अचल बिन्दु भी होते हैं। इन्हें भी दो वर्षों तक अभ्यास करने से उनके बिम्बों के दर्शन होने लगते हैं। एक वर्ष और प्रयत्न करने पर तेज और छः माह और अभ्यास बढ़ाने उन रूपतन्मात्र के दीप्तिमन्त बिन्दुओं का रूप बदल जाता है और वे पुरुष की आकृति में व्यक्त होकर दीख पड़ने लगते हैं ।। २३-२४ ॥
तीन माह उपरान्त व्यापक रूप से तेज के दर्शन होते हैं। उसके एक माह बाद वह तेज और भी विस्तार प्राप्त करने लगता है। क्रमशः अभ्यास के बल पर समस्त रूपावरण तेजोमण्डलमय उद्दीप्त रूप से दीख पड़ने लग जाता है ।।२५।।
काल क्रम से रूपावरण पर आश्रित इस धारणा को सिद्ध करने से अनन्त फलों की प्राप्ति होती है। सबसे बड़ी तो इसको यह विशेषता है कि, श्लोक संख्या १९ से २४ पर्यन्त जितने भी फल कहे गये हैं, वे अकेले इस प्रक्रिया से प्राप्त हो जाते हैं। दूसरी इसको विशेषता यह है कि, इसके सिद्ध कर लेने से साधक को दिव्य दृष्टि प्राप्त हो जातो है । यह ऐसी धारणा है, जिसमें कल्पना के लिये कोई स्थान नहीं।
श्रोमालिनोविजयोत्तरतन्त्रम् वापञ्चविषो भवः स्वयमेवात्र जायते । थतोऽस्यां निश्चयं कुर्याकिमन्यैः शास्त्रडम्बरैः॥ २७ ॥ अतः स्पर्शवतीमन्यां कथयामि तवाधुना । धारणां तु यया योगी वज्रदेहः प्रजायते ॥ २८ ॥
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इसमें प्रयुक्त कृतक शब्द के कई अर्थ व्यवहार में लाये जाते है। जैसे व्याजपूर्ण, बहानाबाजी, चतुर्थ, किया हुआ ओर दतक आदि अनेक अर्यों में इसका प्रयोग साहित्य में उपलब्ध है। यहाँ पर केवल ‘स्वयं किया हुआ अनुभूत’ अर्थ हो अभिप्रेत है। भगवान् शङ्कर कह रहे हैं कि, पार्वति ! यह योगियों द्वारा अनुभूत धारणा मैंने तुम्हारे समक्ष कही है।
स्वयम् कहने से यह अपने आप अनुभव हो जाता है कि, यह रूपवती धारणा पन्द्रह प्रकार की होती है। इसकी महत्ता को समझते हुए यह निर्णय साधक को लेना चाहिये कि, यह अवश्य करणोय एवम् आचरणीय धारणा है। इसके करने का निश्चय कर लेने वाले योगो के लिये किन्हीं शास्त्रों के स्वाध्याय आदि आडम्बर की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है। इस धारणा के धनी योग विद्याविज्ञ यह कहा करते हैं कि, इसके अतिरिक्त अन्य शास्त्रों के विस्तार में क्यों जाया जाय ? ।। २६-२७ ॥
अतः अर्थात् शास्त्र के वर्णन क्रम में यहाँ से अर्थात् रूपावरण साधना के बाद अब स्पर्शवती धारणा का वर्णन करने की प्रतिज्ञा भगवान् शङ्कर कर रहे हैं। यह चौथी धारणा है। इसमें केवल स्पर्श धारणा की प्रक्रिया से सम्बन्धित बातों पर ही विचार किया जा रहा है। पार्वतो बड़े मनोयोग से इसके श्रवण के लिये उद्यत हैं । यह धारणा बड़ो उत्कृष्ट और महत्त्वपूर्ण हैं। इसके सिद्ध कर लेने का सबसे बड़ा सुपरिणाम यह होता है कि, सिद्ध साधक वज्रदेह हो जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि, जब तक यह जोवन है, दुर्बलता को पास न फटकने दिया जाय। वज्रवत् देह से हनुमान की तरह रामरूपी जगन्नियन्ता के कार्यों का सम्पादन करते हुये उसो को सेवा में इसे अर्पित कर दिया जाय, इसी भावना से भावित साधक इसमें प्रवृत्त होता है ।। २८॥
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चतुर्दशोऽधिकारः षट्कोणमण्डलान्तःस्थमात्मानं परिभावयेत् । रूक्षमञ्जनसंकाशं प्रत्यक्ष स्कुरिताकुलम् ॥ २९ ॥ ततोऽस्य दशभिर्देवि दिवसस्वचि सर्वतः । भवेत्पिपीलिकास्पर्शस्ततस्तमनुचिन्तयन् ॥३०॥ बनदेहत्वमासाद्य पूर्वोक्तं पूर्ववल्लभेत् । पूर्वोक्तमण्डलाकारं पूर्वरूपं विचिन्तयन् ॥ ३१ ॥ स्पर्शतत्त्वावृतिज्ञानं लभन्केन निवार्यते।
होनमण्डलमात्मानं ध्यायेत्तत्पतिसिद्धये ॥ ३२ ॥
सर्वप्रथम आसन पर विराजमान साधक स्वयं को षट्कोण मण्डल में अधिष्ठित हूँ, यह अनुभव करे। शरीर प्रत्यंश अर्थात् प्रत्यङ्ग रुक्ष अर्थात् कुछ सूखा सूखा सा लग रहा है और कृष्ण वर्ण का अन्जन के सदृश पूरा शरीर एक द्विव्य स्फुरण से व्याप्त हो रहा है, इस तरह भावना से भावित होता रहे। इस श्लोक में प्रत्यङ्गच्छरिता कुल पाठ में कोई वैशिष्ट्य नहीं हैं। … यह प्रयोग साधक लगातार दश दिन तक करता रहे। इस सक्रियता में लगातार लगे रहने के अनन्तर यह प्रतीत होता है कि, शरीर में चोटियाँ रेङ् रही हैं। एक तरह को खुजलाहट भरी आनन्द दायिनी गुदगुदो प्रत्यङ्ग में प्रतोत होती हैं। इसी तरह को अनुभूति के आनन्द का आस्वाद लेते हुये साधनारत रहना
चाहिये ॥ २९-३० ॥
उक्त प्रकार के अनुचिन्तन का परिणाम भी यही होता है कि, साधक वज देहत्व को प्राप्त कर लेता है। वज्रदेहत्व की प्राप्ति का उल्लेख रूपवती धारणा के अन्त में आया हुआ है। उसी तरह के सुपरिणाम की प्राप्ति इसमें भी होती है। यह इस धारणा को पहली महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है।
इसी तरह षटकोण मण्डल में रहते हुए ही पूर्व को तरह अपने अङ्गों के विषय में अनुचिन्तनरत रहना चाहिये। उस समय स्पर्श तत्त्व के आवरण का जो
ज्ञान होता है, यह इस साधना की उपलब्धि है। इसका निवारण कोई नहीं कर सकता। स्पर्शावरण के पतित्त्व की उपलब्धि भी इसी सन्दर्भ में हो जाती है। यह दूसरो महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है । इसमें षट्कोण मण्डल ध्यान की कोई आवश्यकता नहीं रहती ॥ ३१-३२॥ १. क॰ पु॰ प्रत्यङ्गछुरिताकुलमिति पाठः ।
श्रोमालिनोविजयोत्तरतन्त्रम् यया संसिद्धया सर्वस्पर्शवेदो भविष्यति । कौँ पिघाय यत्नेन निमीलितविलोचनः ॥ ३३ ॥ यं शृणोति महाघोषं चेतस्तत्रानुसन्धयेत् । दीप्यते जाठरो वह्निस्ततोऽस्य दशभिविनैः ॥ ३४ ॥ दूराच्छ्वणविज्ञानं षण्मासादुपजायते । यस्तस्यान्ते ध्वनिर्मन्दः किंचित्किचिद्विभाव्यते।। ३५॥ सकलात्मा स विज्ञेयस्तदभ्यासादनन्यधीः । शब्दावरणविज्ञानमाप्नोति स्थिरतां गतम् ॥ ३६ ॥ यः पुनः श्रूयते शब्दस्तदन्ते शंखनादवत् । प्रलयाकलरूपं तदभ्यस्यं तत्फलेप्सुभिः ॥ ३७ ।।
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जिस स्पर्श धारणा की सिद्धि होने पर सभी प्रकार के स्पर्शों को सिद्धि हो जाती है, वही यह प्रमाणित करती है कि, स्पर्शावरण का पतित्व इसे प्राप्त हो गया है। इसके बाद शाब्दी धारणा का वर्णन कर रहे हैं। ___ इसकी दूसरी प्रक्रिया के अनुसार कानों को ढककर और दोनों आँखों को बन्द कर देने पर जो महाघोष सुनायी पड़ता है, उसी के अनुसन्धान में अपने चित्त को स्थिर करना चाहिये। इसका परिणाम यह होता है कि, दश दिनों में ही उसकी जठराग्नि अत्यन्त तीव्र हो जाती है ।। ३३-३४ ।।
छः मास के अनवरत अभ्यास से दूर को ध्वनियों को सुन लेने का विज्ञान उक्त साधक को प्राप्त हो जाता है। इस ध्वनि के अन्त में अनुरणन की तरह जो मन्द-मन्द ध्वनि सुनायी पड़ती है और उसका विशेष से भासन होता है, ऐसा पुरुष सकलात्मा पुरुष माना जाता है। अनन्य भावना से इस प्रकार के अभ्यास की आवश्यकता होती है। इसके सतत अभ्यास से शब्दावरण विज्ञान अवश्य सिद्ध हो जाता है ॥ ३५-३६ ॥
इसके बाद शंखनाद की तरह की ध्वनियां भी सुन पड़ती हैं। उस अवस्था में साधक प्रलयाकल अवस्था का अधिकारी हो जाता है। उत्तम फल की चाह रखने वाले साधकों का यह कर्तव्य है कि, इसकी सिद्धि का प्रयत्न करें ॥ ३७ ।।
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मनोह्लादकरो योऽन्यस्तदन्ते संविभाव्यते । स मन्त्र इति विज्ञेयो योगिभिर्योगकाङ्क्षिभिः ॥ ३९ ॥ ततस्तु श्रूयते योऽन्यः शान्तघण्टानिनादवत् । स मन्त्रंश इति प्रोक्तः सर्वसिद्धिफलप्रदः ॥ ४० ॥ घण्टानादविरामान्ते यः शब्दः संप्रजायते। मन्त्रशेशपदं तद्धि सिद्धीनां कारणं महत् ॥ ४१ ॥
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इसके बाद ही विज्ञानाकल अवस्था की सिद्धि का क्रम आता है। इस अवस्था में ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जाती है, जो अन्य ध्वनियों को अतिक्रान्त कर उन्हें आच्छादित कर लेती है। भगवान कहते हैं कि, किसी के द्वारा पराजित न होने वाली अपराजिता संज्ञा से विभूषित देवि! यह विज्ञानाकल सिद्धि अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानी जाती है ॥ ३८ ॥
इस साधना में संलग्न साधक को बाद में ऐसी ध्वनि भी सुनायी पड़ती है, जिसे सुनकर मन मयूर नृत्य करने लगते हैं। एक प्रकार के मानसिक आह्लाद का अनुभव होने लगता है। योगमार्ग में प्रावीण्य प्राप्त करने वाले साधकों द्वारा यह ज्ञातव्य है कि, ऐसे साधक को ‘मन्त्र’ की संज्ञा से विभूषित करते हैं ॥ ३९ ॥
यह सारा का सारा चमत्कार और सभी स्तर कानों को बन्द करने पर ही और आँखों को निमीलित रखने की दशा में ही प्राप्त होते हैं। इस तरह श्लोक तैंतीस का अन्वय सबमें होता है। मन्त्र स्तर के उपरान्त शान्त घण्टानिनाद सुन पड़ता है। इस ध्वनि का सुपरिणाम सर्वसिद्धिप्रद माना जाता है। ऐसा योगी मन्त्रेश्वर कहलाता है।॥ ४०॥
शान्त घण्टाध्वनि के उपरान्त एक ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है, जिसमें एक महत्त्व पूर्ण अनिवर्चनीय ध्वनि सुनायी पड़ने लगती है । वह बड़ी ही मधुर और चामत्कारिक ध्वनि होती है। इस ध्वनि को सुनने वाला सौभाग्यशाली योगी मन्त्रमहेश्वर होता है। यह मन्त्रेश्वरों का भी स्वामी हो जाता है। मन्त्रेश से उच्च इस स्तर की इस सिद्धि से अन्य सिद्धियां भी सरलता से प्राप्त होने लगती हैं ॥ ४१॥ १. क. पु. भग्नेश इति भन्न इति पाठः ।
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श्रीमालिनीविजयोत्तरतन्त्रम्
अनिलेनाहता वीणा यादृङ्नादं विमुञ्चति ।। तादृशो यो ध्वनिस्तत्र तं विद्याच्छांभवं पदम् ॥ ४२ ॥ पृथग्वा क्रमशो वापि सर्वानेतान्समभ्यसेत् । प्राप्नोति सर्ववित्सिद्धोः शब्दावरणमाश्रिताः॥ ४३ ॥
इत्येताः कथिताः पञ्च तन्मात्राणां तु धारणा । इति श्रोमालिनोविजयोत्तरे तन्त्रे तन्मात्रधारणाधिकारश्चतुर्दशः ॥१४॥
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सुन्दर सी वीणा का यन्त्र एक स्थान पर रख दिया गया है। संयोगवश हवा के कुछ ऐसे प्रवाह वहां प्रवाहित होने लगते हैं, जिनसे उस वीणा के तार झकृत होने लगते हैं । इस दिव्य स्वाभाविक ध्वनि का भाग्यशाली श्रोता महान होता है। यह शाम्भव पद ही होता है, जिसमें ऐसी ध्वनि सुन पड़ने लगती है ॥ ४२ ॥
। भगवान् शङ्कर यह निर्देश कर रहे हैं कि, योगी अपनी इच्छा के अनुसार पृथक-पृथक् रूप से या चाहे तो क्रमिक रूप से इन ध्वनियों के सुनने का अभ्यास कर सकता है। शब्दावरण से सम्बन्धित सभी प्रकार को सिद्धियों का वह अधिकारी हो जाता है, जो इन ध्वनियों के श्रवण से उत्पन्न स्तरीयता प्राप्त करता है। अन्त में यह कहा जा सकता है कि, वह योगी सर्वज्ञ ही हो जाता है। इस प्रकार से शाब्दी धारणा के वर्णन के साथ पञ्चतन्मात्र धारणाओं की सिद्धि का यह प्रकरण पूर्णता को प्राप्त हो गया है। इसमें सारी सिद्धियों का क्रमिक निर्देश है ।। ४३ ॥
परमेशमुखोद्ध त ज्ञानचन्द्रमरीचिरूप श्रीमालिनीविजयोत्तरतन्त्र का डॉ॰ परमहंस मिश्र कृत नीर-क्षीर विवेक भाषा-भाज्य संवलित तन्मात्राधारणाधिकार नामक चौदहवां अधिकार परिपूर्ण ॥ १४ ॥
॥ॐ नमः शिवाय ॐनमः शिवाय॥