अथ द्वादशोऽधिकारः अर्थतां देवदेवस्य श्रुत्वा वाचमतिस्फुटाम् । प्रहर्षोत्फुल्लनयना जगदानन्दकारिणी ॥१॥ संतोषामृतसंतृप्ता देवी देवगणाचिता। , प्रणम्यान्धकहन्तारं पुनराहेति भारतीम् ॥२॥ पूर्वमेव त्वया प्रोक्तं योगी योगं समभ्यसेत् । तस्याभ्यासः कथं कार्यः कथ्यतां त्रिपुरान्तक ॥ ३ ॥
सौः परमेशमुखोद्भूतज्ञानचन्द्रमरीचिरूपम्
श्रीमालिनीविजयोत्तरतन्त्रम् डॉ॰ परमहंसमिश्रकृत नीरक्षीर-विवेक भाषा-भाष्य संवलितम्
द्वादशोऽधिकारः
[१२] देवाधिदेव महादेव के इन स्फुट और अत्यन्त सरल विधि-विधानों से विशिष्ट वचनों को सुनकर देवी पार्वती परम आनन्द से विह्वल हो उठीं। वे स्वयं विश्व में आनन्द सुधा की वर्षा कर सबको तप्त करने वाली वात्सल्यमयी मां हैं। उनकी आंखें भी प्रसन्नता से खिल उठी थीं ॥१॥
जैसे कोई भी अमृत पीकर तृप्त हो उठता है, उसी तरह वे भी संतोष के अमृत से परितृप्त हो उठी थीं। दिव्य शक्ति सम्पन्न, सर्वोत्कर्षेण वर्तमान, सभी देववर्ग द्वारा समचनीय चरणारविन्दा माँ ने आनन्द विभोर होकर शङ्कर के चरणों में प्रणति अर्पित कर पुनः भारत को रहस्य विद्या के उद्घाटन के लिये सप्रश्रय यह निवेदन किया ॥२॥
- देवी ने कहा-भगवान् आपने सन्दर्भवश मुझसे कहा था कि, योगी लोग योग का अभ्यास करें अर्थात् योगी उसे ही कहा जा सकता है, जो योगाभ्यास में नियमित
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१७६
श्रीमालिनोविजयोत्तरतन्त्रम् एवमुक्तो जगद्धाच्या भैरवो भयनाशनः । प्राह प्रसन्नगम्भीरां गिरमेतामुदारधीः ॥ ४ ॥ योगाभ्यागविधि देवि कथ्यमानं मया शृणु।। स्थिरीभूतेन येनेह योगी सिद्धिमवाप्स्यति ॥ ५॥ . गुहायां भूगृहे वापि निःशब्दे सुमनोरमे । सर्वाबाधाविनिर्मुक्ते योगी योगं समभ्यसेत् ॥ ६ ॥ जितासनो जितमना जितप्राणो जितेन्द्रियः। जितनिद्रो जितक्रोधो जितोद्वेगी गतव्यथः ॥७॥
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प्रवृत्त रहता है। भगवान् ! मेरी प्रार्थना है कि, योग का अभ्यास कैसे करना चाहिये, इस विधि का उपदेश देकर मुझे अनुगृहीत करें। आपने योगबल से हो त्रिपुर का अन्त किया था ॥ ३ ॥
त्रिपुरान्तक ने कहा-देवि ! मैं योगाभ्यास विधि का वर्णन करने जा रहा हैं। तम ध्यानपूर्वक इसे सुनो। जगद्धात्री को प्रार्थना से प्रसन्न भगवान भतभावन जो जगत की भीतियों को भगा देने में सर्वथा समर्थ हैं, उदारतापूर्वक इस प्रकार प्रसन्न वाणी में कहा तथा उनसे यह भी कहा कि, योगी जिस विधि से सिद्धि प्राप्त करते हैं, यह भी सविधि प्रकाशित करने जा रहा हूँ। तुम ध्यानपूर्वक इसे सुनो ॥ ४५ ॥
योग सिद्धि के लिये योग्य भूमि ‘गुहा’ मानी जाती है। इसके अतिरिक्त पृथ्वी के गर्भ में एक कक्ष का निर्माण करावें, जो ऊपर से तथा चारों ओर से सुरक्षित हो, उसे भूगृह, गर्भगृह तथा भाषा की बोली में भुइंधरा कहते हैं । वहाँ योगाभ्यास करना चाहिये। तीसरे प्रकार के स्थानों में एकान्त, निर्जन, निःशब्द, मनोरम स्थान भी योग के लिये उत्तम माना जाता है। इसमें सबसे अधिक ध्यान देने की बात है कि, वह स्थान सभी प्रकार को बाधाओं से रहित हो। वहीं योगी योग का अभ्यास करे ॥ ६ ॥ .
योगाभ्यास की कुछ शर्ते हैं, जैसे-योगी एक आसन पर नियमित बैठने में समर्थ हो, अर्थात् जितासन हो । उसकी दूसरी योग्यता यह है कि, वह मन को अपने वश में रखने में समर्थ अर्थात् ‘जितमना’ हो। वह श्वासजित् हो। जितेन्द्रियता में समर्थ हो । निद्रा को जीत चुका हो। वह कभी क्रोध न करे अर्थात्
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लक्ष्यभेदेन वा सर्वमथवा चित्तभेदतः । धरादिशक्तिपर्यन्तं योगीशस्तु प्रसाधयेत् ॥ ८॥ व्योमविग्रहविन्द्वर्णभुवनध्वनिभेदतः । ‘लक्ष्यभेदः स्मृतः षोढा यथावटुपदिश्यते ॥९॥ बाह्याभ्यन्तरभेदेन समुच्चयकृतेन च। त्रिविधं कोतितं व्योम दशधा बिन्दुरिष्यते ॥१०॥ कदम्बगोलकाकारः स्फुरत्तारकसंनिभः ।
शुक्लादिभेदभेदेन एकोऽपि दशधा मतः ॥११॥ क्रोधजित् हो, उद्वेग रहित हो और दुःख में अनुद्विग्न रहने की शक्ति से सम्पन्न हो। ये सभी लक्षण योगी के हैं। ऐसा व्यक्ति ही योगाभ्यास में सफल होता है यह निश्चय है ॥ ७॥
__ लक्ष्यवेध अथवा चित्तभेद की दृष्टि से योगी धरादि शक्तिपर्यन्त भेदसाधन करे। लक्ष्य से तात्पर्य जिस तत्त्व को या अध्वा और व्योम आदि को लक्ष्य बनाकर योगी साधना करना चाहता है, उसमें विना भेद के अनुप्रवेश नहीं होता। जैसे सितेतर से सित परिवेश में प्रवेश के लिये निरोधिका भेद आवश्यक है, उसी तरह लक्ष्य भेद आवश्यक होता है ॥८॥
लक्ष्य भेद छह प्रकार के माने गये हैं-१. व्योम, २. विग्रह, ३. बिन्दु, ४. वर्ण, ५. भुवन और ६. ध्वनि । इनका क्रमिक विवरण स्वयं भगवान् ने यहाँ उपदिष्ट कर दिया है ॥९॥
१. व्योम-बाह्य, आभ्यन्तर और समुच्चय-रूप तोन भेदों से व्योम तीन प्रकार का माना जाता है। बाह्य व्योम का व्यापक आवरण व्यक्ति के व्यक्तित्व को घेरकर व्यक्ति-सीमा को नित्य कोलित कर रहा है। आन्तर व्योम का वृत्त्यात्मक आनन्त्य स्वात्म की पहचान से वंचित रखता है। समुच्चय भेद दोनों कार्यों का साथ-साथ सम्पादन करता है ।। १०॥
२. बिन्दु-बिन्दु दस प्रकार का माना जाता है। कदम्ब का पुष्प जैसे गोल होता है और उसकी गोलाई में जिस प्रकार के लघु अरे उत्पन्न रहते हैं, १. ख॰ मुक्त वा समावधे इति पाठः ; २. क॰ लक्षभेदो मत इति पाठः; . ३. क. पु॰ तारकसप्रम इति पाठः
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श्रीमालिनीविजयोत्तरतन्त्रम् चिश्चिनीचीरवाकादिप्रभेदाद दशधा ध्वनिः । विग्रहः स्थाणुभेदाच्च द्विधा भिन्नोऽप्यनेकधा ॥ १२॥
भुवनानां न संख्यास्ति वर्णानां सा शताधिका । एकस्मिन्नपि साध्ये वै लक्षेदत्रानुषङ्गतः ॥ १३ ॥
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साथ ही उनमें पुष्पायमानता का जो स्वरूप होता है, यह सब उसे चार भेद भिन्न बना देता है। स्फुरणशीलता के उन्मिषद्भाव की अवस्था में वर्तमान रहता है। यह बिन्दुं की दूसरी विशेषता है। इसमें भी स्पष्ट, अस्पष्ट और लघुबृहत् तथा स्वतन्त्र एवम् आकृति के अङ्ग आदि भेद से यह तीन प्रकार का होता है।
- इसी प्रकार शुक्ल, पोत, लाल आदि भेद की दृष्टि से तीन प्रकार का माना जाता है। इस प्रकार कुल मिलाकर यह दश प्रकार का है-यह शास्त्र कहता है ॥ ११॥
३. ध्वनि-मुख्य चिञ्चिनी, चीर और वाक रूप तीन प्रकार की होती है। भेदों की अवान्तर भेद दृष्टि के आधार पर इसके कुल मिलाकर दश भेद होते हैं।
४. विग्रह-यह ‘स्व’ स्वरूप और संकुचित रूप अणु भेद से दो रूपों में व्यक्त रहते हुए भी अनेक अवान्तर भेदों से अनेक प्रकार का माना जाता है ॥ १२ ॥
__५. भुवनों को कुल संख्या के विषय में भगवान् स्पष्ट कहते हैं कि, इनकी कोई संख्या नहीं है। महामाहेश्वर अभिनवगुप्त ने भी कहा है कि, ‘अनन्ता भुवनावलीयम्’ अर्थात् भुवनों की कोई संख्या नहीं है। वे अनन्त हैं। ११८ मुख्य भुवन भी वर्णित हैं।
६. वर्गों की संख्या सौ की आधी अर्थात् पचास होती है। अ से क्ष तक की आधी अर्थात् पचास होती है। अ से क्ष तक की वर्णमाला ५० वर्णों की होती है। एक के साध्य बना लेने पर प्रसङ्गतः सभी अनुसन्धातव्य हैं ॥१३॥ १. श्रीत॰ ३७३३३ २, श्रीत. १३१५१-५३, १९ २० २९४-२९९ स्व॰ तन्त्र १०८६०, १०११-२६, भीत.
६।६७१, मा॰ वि॰ २।५१-५७ ।
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द्वादशोऽधिकारः अन्यान्यपि फलानि स्युलक्ष्यभेदः स उच्यते । एकमेव फलं यत्र चित्तभेदस्त्वसौ मतः ॥१४॥ होमदीक्षाविशुद्धात्मा ‘समावेशोपदेशवान् ।
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हस्तयोस्तु पराबीजं न्यस्य शक्तिमनुस्मरेत् । महामुद्राप्रयोगेन विपरीतविधौ बुधः ॥ १६ ॥ ज्वलद्वह्निप्रतीकाशं पावानान्मस्तकान्तिकम् । नमस्कारं ततः पश्चाद् बद्धा हुदि धृतानिलः ॥ १७ ॥
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. इस प्रक्रिया में ऐसे अन्यान्य सुपरिणाम मिलते हैं, जिनसे लक्ष्य भेद का महत्त्व बढ़ जाता है। यहाँ भेद शब्द भी बड़े महत्त्व का है। इसमें स्थूलता में विद्यमान सूक्षमता के रहस्य के उद्घाटन का भाव भरा हुआ है। लक्ष्य भेद से
शक्ति की ऊर्जस्वलता का स्फोट हो जाता है।
इसी प्रकार चित्त भेद की प्रक्रिया का भी महत्त्व है। चित्त अत्यन्त सूक्ष्म तत्त्व है। आप सभी परमाणु विस्फोट से परिचित हैं। यह भौतिक जगत् के सूक्ष्मता की एक इकाई मात्र है। इस विस्फोट की भयङ्करता का आकलन भी रोमहर्षक है। इस तरह का चित्तविस्फोट व्यक्ति सत्ता को परमात्मसत्ता में समाहित कर देता है। यदि कहों पर इसका दुरुपयोग हुआ तो मृत्यु अवश्यम्भावी हो जातो है। इसलिये सावधानी से समस्त तेजसिक न्यास मन्त्र न्यास से सन्नद्ध होकर क्षमतापूर्वक ही यह प्रक्रिया अपनानी चाहिये ॥ १४ ॥
होम और दीक्षा से अत्यन्त विशुद्ध चित्त बनकर अर्थात् चित्त भेद की दीक्षा से, समावेश दशा को उपलब्धि से दक्षता प्राप्त कर, और अन्यान्य उपदेशों के अनुसार अपने जीवन को ढाल कर तब जिस योग को सिद्ध करने की प्रबल इच्छा हो, उसको पूत्ति के प्रयत्न में संलग्न होना चाहिये। यह सब योगमार्ग के प्रवेश के प्रारम्भ में ही लगनपूर्वक कर लेना आवश्यक होता है ॥ १५ ॥
दोनों हाथों में परा बीज का न्यास करने के उपरान्त शक्ति का ध्यान करते हुए उसी में समाविष्ट हो जाना चाहिये । इसके उपरान्त महामुद्रा का प्रयोग विपरीत क्रमानुसार करना चाहिये। इसी क्रम में पादाङ्गष्ठ से लेकर मस्तक १. क. पु॰ समादेशोपदेशवानिति पाठः
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श्रीमालिनी विजयोत्तरतन्त्रम् स्वरूपेण पराबीजमतिदोप्तमनुस्मरेत् । तस्य मात्रात्रयं ध्यायेत्कखत्रयविनिर्गतम् ॥ १८॥ ततस्तालशताद्योगी समावेशमवाप्नुयात् । ब्रह्मघ्नोऽपि हि सप्ताहात्प्रतिवासरमभ्यसेत् ॥ १९ ॥ एवमाविष्टदेहस्तु यथोक्तं विधिमाचरेत् । यः, पुनर्गुरुणैवादौ कृतावेशविधिक्रमः ॥ २०॥ स वासनानुभावेन भूमिकाजयमारभेत् ।
गणनाथं नमस्कृत्य संस्मृत्य त्रिगुरुक्रमम् ॥ २१ ॥ पर्यन्त शक्ति के जाज्वल्यमान स्वरूप का स्वात्म में ही अनुसन्धान करने से ऊर्जा का जागरण हो जाता है। इसी मुद्रा में नमस्कार करने से तत्काल शैव समावेश सिद्ध होता है। इसके तुरन्त बाद प्राणायाम के कुम्भक में अवस्थित हो जाना चाहिये। इसी कुम्भक मुद्रा में पराबीज की तेजस्विता से दीप्त भाव का अनु स्मरण करना चाहिये । पराबीज के क ख त्रय’ विनिर्गत तीन मात्रामय स्वरूप
का ध्यान यहाँ विहित है ॥ १६-१८ ॥
- इतनी प्रक्रिया पूरी कर लेने पर ‘तालशत’ प्रयोग से योगी समावेश में अधिष्ठित हो जाता है। इसे सभी लोग प्रयोग में ला सकते हैं। भले ही वह प्रयोग करने वाला ब्रह्म हत्यारा ही क्यों न हो, उसे भी सप्ताह के प्रारम्भिक दिन से प्रारम्भ कर प्रतिदिन करना चाहिये । इससे उसको भी परमीकरण का
लाभ मिलता है ।। १९ ।।
यह प्रक्रिया इसी प्रकार समावेश सिद्ध होकर सम्पन्न करनी चाहिये । विधि पूर्वक इसे करते रहने से ही लाभ सम्भव है। जो शिष्य पहले से ही गुरु शरण में रहकर सीखता है, वह धन्य हो जाता है ।। २० ॥
ऐसा शिष्य वासना अर्थात् एतद्विषयक दृढ़ इच्छा शक्ति के बल पर इस भूमिका रूप तादात्म्योपलब्धि की प्रक्रिया में पहले से ही विजयी होने लगता है और उसका लक्ष्यभेद सिद्ध हो जाता है।
१. क. पु. विधिक्रमात् इति पाठः। २ मा॰ वि॰ ८।६१, श्रोत. १५।३०२ छदनद्वय, जयरथ के अनुसार दोनों के मध्य में
तत्त्व का अनुचिन्तन होना चाहिये (श्रीत॰ भाग ५ पृ॰ २४१ )
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सम्यगाविष्टवेहः स्यादिति ध्यायेदनन्यधीः । स्ववेहं हेमसंकाशं तुर्याचं वज्रलाग्छितम् ॥ २२ ॥ ततो गुरुत्वमायाति सप्तविंशतिभिदिनः । दिवसात्सप्तमादूर्व जडता चास्य जायते ॥ २३ ॥ षड्भिर्मासैजितव्याधितहेमनिभो भवेत् । वज्रदेहस्त्रिभिश्चान्दैनवनागपराक्रमः ॥२४॥
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इस प्रक्रिया में गणनाथ ( देवीसुत-प्राणतनु-दर्शनशतान पूज्य गणपति ) के प्रति अपनी प्रणति प्रारम्भ में करनी चाहिये। तत्पश्चात् परमेष्ठी गुरु, परमगुरु और दीक्षा गुरु का स्मरण करना भी आवश्यक है ॥ २१ ॥
तत्पश्चात् सम्यकरूप से समावेश अर्थात् शैव महाभाव से भावित होकर अनन्य भाव से आराध्य का चिन्तन करना चाहिये। अपना शरीर ताप्त दिव्य स्वर्ण के समान सोचते हुए तुरीया वृत्ति का समाश्रय लेकर विराजमान हो जाना चाहिये। इसमें वज्रासन का प्रयोग आवश्यक माना जाता है। उस समय शिष्य को स्वदेह-सोमा समाप्त हो जाती है और वह वज्रलाञ्छित विष्णु की भी व्यापकता को पा लेता है ॥ २२ ॥
यह प्रयोग यदि शिष्य तीन सप्ताह अर्थात् २१ दिन भी नियमतः सतत करता रहे, तो वह स्वयं गुरुत्व के पद पर प्रतिष्ठित होने योग्य हो जाता है। उसके कुछ लक्षण इस प्रकार परिलक्षित होते हैं-सर्वप्रथम निरन्तर सात दिनों तक यदि इसको शिष्य करता रहे तो, उसमें जड़ता अर्थात् घोर तल्लीनता की स्थिति उत्पन्न
हो जाती है ।। २३ ॥
__ लगातार छह मास यदि विधिपूर्वक इस प्रक्रिया का पालन कर लिया गया तो यह निश्चय है कि, यह योगमार्गी शिष्य सर्वरोग विनिर्मुक्त हो जाता है । उसकी कान्ति सोने के समान आकर्षक हो जाती है। उसका शरीर वज्रवत् परम पुष्ट हो जाता है। अधिक क्या कहा जाय, तीन वर्षों तक अनवरत इस प्रक्रिया में विधिपूर्वक परिनिष्ठित हो जाने पर उसमें नौ हाथियों का बल आ जाता है तथा तद्वत् पराक्रमी हो जाता है ।। २४ ॥
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श्रीमालिनीविजयोत्तरतन्त्रम्
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एषा ते पाथिवी शुद्धा धारणा परिकीर्तिता। आद्या पूर्वोदिते देवि भेदे पञ्चदशात्मके ॥ २५ ॥ सव्यापारं स्मरेद्देहं द्रुतहेमसमप्रभम् । उपविष्टं च तुर्याधे मण्डले वज्रभूषिते ॥ २६ ॥ सप्ताहाद् गुरुतामेति मासाद्व्याधिविजितः । षड्भिर्मासैर्धरान्तःस्थं सर्व जानाति तत्त्वतः ॥ २७ ॥ त्रिभिरब्दैर्महीं भुङ्क्ते सप्ताम्भोनिधिमेखलाम् । द्वितीयः कथितो भेवस्तृतीयमधुना शृणु ॥ २८ ॥
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भगवान् शङ्कर कहते हैं कि देवि पार्वति ! यह विशुद्ध रूप से पार्थिवी धारणा’ का प्रयोग तुमसे बतलाया गया है। इसे सभी १५ धारणाओं में आद्या धारणा मानी जाती है। सबसे पहले इसका प्रयोग करना चाहिये ॥ २५ ॥
अपने प्रक्रिया-व्यापार में लगातार लगे रहते हुये स्वात्म शरीर को ताप्त दिव्य काञ्चनवत् स्मरण करना चाहिये । वज्रासन पर विराजमान तुर्याश्रित वृत्ति सद्भाव संभूति दशा में वज्र मण्डल में बैठकर इसे सम्पन्न करना चाहिये ।। २६ ॥
एक सप्ताह अनवरत इस प्रयोग के करने का परिणाम यह होता है कि, साधक गुरुत्व को उपलब्ध हो जाता है। यह गुरुता शारीरिक और बौद्धिक दोनों स्तरों पर होती है। अनवरत एक मास करते रहने का सुपरिणाम और भी अच्छा होता है। साधक समस्त व्याधियों से छुटकारा पा लेता है। इसी तरह अनवरत छहः मास तक इसे लगन के साथ करते रहने से साधक को पृथ्वी के अन्तराल में कहाँ क्या है ? कहाँ द्रव्य है ? जल खारा, मीठा, स्वादिष्ट, भरपूर या अल्प मात्रा में हैं, हड्डी या कोई अशुद्ध पदार्थ है क्या ? इन सबका ज्ञान हो जाता है ॥ २७ ॥
तीन वर्षों तक लगातार इस व्यापार का निर्वाह करते हुये मनोयोगपूर्वक इसे सिद्ध कर लेने पर साधक पृथ्वी का अधिपति बन जाता है। वह सामान्य क्षेत्र का ही पृथ्वीपतित्व नहीं प्राप्त करता अपितु, सात समुद्रों की मेखला से घिरी १. श्रोत आ॰ २२।२
१८३
द्वादशोऽधिकारः तदेव स्मरेद्देहं किंतु व्यापारजितम् ।
पूर्वोक्तं फलमाप्नोति तद्वत्पातालसंयुतम् ॥ २९ ॥ चतुर्थे हृद्गतं ध्यायेद्वादशाङ्गुलमायतम् । पूर्ववर्णस्वरूपेण सव्यापारमतन्द्रितः ॥ ३०॥ प्राप्य पूर्वोदितं सर्व पातालाधिपतिर्भवेत् । तदेव स्थिरमाप्नोति निर्यापारे तु पञ्चमे ॥ ३१॥
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पृथ्वी का अधिकार प्राप्त कर लेता है । इस प्रकार यह दूसरे प्रकार का भेद वर्णित किया गया। अब तीसरे प्रकार के भेद के विषय में कहने जा रहा हूँ। इसे सुनो ॥२८॥
इस भेद के अनुसार शरीर को पूर्वोक्त रूप में ही स्मरण करना चाहिये। अन्तर यही है कि, कोई अन्य व्यापार इस अवस्था में नितान्त वर्जित है। जैसे पहले कहा गया है कि, धरा का अन्तःस्थ ज्ञान उसमें हो जाता है, उसी तरह इस भेद साधन के कारण पाताल का भी ज्ञान साधक को हो जाता है ॥ २९॥
चतुर्थ भेद में शरीर के स्थान पर हृदय का ध्यान किया जाना चाहिये। यह ध्यान १२ अङ्गुल चौड़ा अर्थात् सारे ध्यान को हृदय के केन्द्र में ही समाहित होना चाहिये । द्वादशाङ्गुल आयत चक्रसाधना से सम्बद्ध शब्द है। आयत शब्द लम्बाई-चौड़ाई बराबर होने का सङ्केत दे रहा है। अङ्गुल का माप अङ्गलियों के अग्रपर्व से होना चाहिये। इतने भाग में १२ अङ्गुल का गोलक ही केन्द्र होता है। जिसमें क्रमशः ‘क’ से ‘ठ’ पर्यन्त १२ अक्षर विन्यस्त होते हैं । इसका पूर्ण वर्ण ‘क’ है। इसका स्वरूप ‘अ’कार है। यह अनुत्तर शिवपद का ही वाचक है। यहाँ उसी का ध्यान अपेक्षित है। यहाँ सव्यापार अतन्द्रित ध्यान की बात पर भी ध्यान देना चाहिये ॥ ३० ॥
इस भेद के धारण कर लेने से पाताल का भी अधिपति होना स्वाभाविक हो जाता है। यह सव्यापार ध्यान में ही होता है। यही प्रक्रिया निर्व्यापार भाव में सम्पन्न की जाय, तो यही पांचवां भेद सिद्ध हो जाता है ॥ ३१ ॥मा कि
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श्रीमालिनी विजयोत्तरतन्त्रम् स्फुरत्सूर्य निभं पोतं षष्ठे कृष्णं घनावृतम् । निस्तरङ्गं स्मरेत्तद्वत्सप्तमेऽपि विचक्षणः ॥ ३२ ॥ तुयेऽप्यत्र स्थिरीभूते भूर्भुवःस्वरिति श्रयम् ।
वेत्ति भुङ्क्ते च लोकानां पुरोक्तरेव वत्सरैः ॥ ३३ ॥ सकलं हृदयान्तस्थमात्मानं कनकप्रभम् । स्वप्रभाद्योतिताशेषदेहान्तमनुचिन्तयेत् ॥३४॥ सव्यापारादिभेदेन सप्तलोकों तु पूर्ववत् । वेत्ति भुङ्क्ते स्थिरीभूते भेदेऽस्मिन्नवमे बुधः॥ ३५ ॥
पञ्चम भेद में स्वात्म को प्रातःकालीन पीत और आकर्षक प्रकाश समन्वित सूर्य के रूप में करना चाहिये । छठे भेद में अन्तर यह है कि, अपने को घनावृत्त भाद्र अष्टमी के कृष्ण के समान कृष्णवर्णी ध्यान में देखना चाहिये । इसी तरह सव्यापार ध्यान के बाद सातवें भेद से निव्यापार निस्तरङ्ग ध्यान होता है ।। ३२॥
___ जो साधक छठे और सातवें दोनों भेदों को स्थिर भाव से सिद्ध कर लेता है, वही इस आठवें भेद को सिद्ध करने का अधिकारी होता है। इसके द्वारा भूर्भवः और स्वर्लोक का ज्ञाता हो जाता है। ये तीनों लोक इसी शरीर में अवस्थित हैं । यह गायत्री मन्त्र सिद्धयोगी भी जान लेता है। इसका सुखपूर्वक उपभोग भी करता है। इसमें भी कम से कम तीन वर्ष का समय लगाना आवश्यक है ॥ ३३ ॥
आठवां सव्यापार चिन्तन वाला भेद होता है। इसमें शिव को हृदय में प्रतिष्ठित करते हैं और ‘स्व’ को स्वर्णवर्णी प्रभा से भूषित रूप में ध्यान किया जाता है। साधक एक तरह से स्वप्रभामण्डल में विराजमान रहता है। यह प्रकिया निर्यापार रूप से सम्पन्न करने पर नवां भेद हो जाता है। इससे सातों लोकों को जानने की क्षमता प्राप्त हो जाती है और उनका उपभोग करने का अधिकार भी उन साधकों को प्राप्त हो जाता है ॥ ३४-३५ ॥
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द्वादशोऽधिकारः रविबिम्बनिभं पोतं पूर्ववद्वितयं स्मरेत् । ब्रह्मलोकमवाप्नोति पूर्वोक्तेनैव वमना ॥ ३६ ॥
अधः प्रकाशितं पीतं द्विरूपं पूर्ववन्महत् । चिन्तयेन्मत्समो भूत्वा मल्लोकमनुगच्छति ॥ ३७॥
सबाह्याभ्यन्तरं पोतं तेजः सर्वप्रकाशकम् । चिन्तयेच्छतरुद्राणामधिपत्वमवाप्नुयात् ॥३८॥ इत्येवं पृथिवीतत्त्वमभ्यस्यं दशपञ्चधा । योगिभिर्योगसिद्धयर्थं तत्फलानां बुभुक्षया ॥३९॥ योग्यतावशसंजाता यस्य यत्रैव वासना । स तत्रैव नियोक्तव्यो दीक्षाकाले विचक्षणैः ॥ ४०॥
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आठवीं और नवीं विधि को सिद्ध कर लेने पर आराधक स्वात्म को पीतवर्णी सूर्यबिम्ब के समान दृष्टि से ध्यान करे। इससे ब्रह्मलोक को प्राप्ति होती है। यह निश्चित है ॥ ३६॥
जिसको सूर्य का पीतवर्णी बिम्ब ऊर्व और अधः सर्वत्र प्रकाशमान हो जाय और उक्त द्वितय की ( अर्थात् ऊर्ध्व और अधः की ) निर्व्यापार सिद्धि हो जाय देवि ! वह साधक मेरे समान हो जाता है और मेरे लोक को प्राप्त करता हैं, यह निश्चय है ॥ ३७॥
सबाह्यान्तर सर्वप्रकाशक पीततेज का चिन्तन सव्यापार और व्यापारवजित भेद से सम्पन्न करने पर शतरुद्रों के सदृश आधिपत्य का अधिकारी हो जाता है ।। ३८ ॥
. इस प्रकार १५ भेद भिन्न पृथ्वीतत्त्व का अभ्यास करने का निर्देश शास्त्र देता है। योगियों में ज्ञानसिद्धि की मुमुक्षा की दृष्टि हो, या सामान्य साधक की बुभुक्षा दृष्टि से उपभोग की आकांक्षामयी सिद्धि हो, सबके लिये यह लाभप्रद है ।। ३९ ॥
भगवान् शङ्कर कहते हैं कि, विचक्षण आचार्य का यह कर्तव्य है कि, दीक्षा के प्रसङ्ग में वह इस विषय पर अवश्य विचार कर ले कि, जिस साधक को साधना और संस्कार-शुद्धि के आधार पर जिस स्तरीयता की योग्यता उसे प्राप्त हो गयो
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१. क. पु॰ वशगा जातेति पाठः ।
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यो यत्र योजितस्तत्त्वे स तस्मान्न निवर्तते । तत्फलं सर्वमासाद्य शिवयुक्तोऽपवृज्यते ॥ ४१ ॥ अयुक्तोऽप्यूर्ध्वसंशुद्धिसंप्राप्तभुवनेशतः ।
शुद्धाच्छिवत्वमायाति दग्धसंसारबन्धनः ॥४२॥ इति श्रीमालिनोविजयोत्तरे तन्त्रे प्रथमधारणाधिकारी द्वादशः ॥१२॥
है, और उसकी जिस तत्ववादिता की ओर वासना अर्थात् प्रवृत्तिमयी रुझान हो, उसी में उसको नियुक्त करे। वह अपने अभिलषित लक्ष्य में लगाने के योग्य होता है। विपरीत व्यवहार से विपरीत फल की प्राप्ति होती है ॥ ४० ॥
__इस प्रकार गुरु द्वारा तत्व में नियोजित कर देने पर वह वहां से निवर्तित नहीं होता। यह एक प्रकार का सिद्धान्त वाक्य ही है कि, “जो जहाँ नियुक्त कर दिया जाता है, वहां से निवर्तित नहीं हो पाता।”
जिस तत्त्व में वह नियोजित हो जाता है, वह श्रीशिव-भक्तियोग सम्पन्न साधक उस तत्त्व का पूरा फल भोग लेने के बाद ही निवृत्त होकर अपवर्ग की प्राप्ति के मार्ग का अधिकारी परिव्राजक हो जाता है ॥ ४१ ॥
__ अयुक्त होने पर भी ऊवं श्रेणी को संशुद्धि के आधार पर किसी साधक का यह सौभाग्य होता है कि, वह भुवनेश पद का अधिकारी हो जाता है। उस अवस्था में भी अनवरत यदि वह साधक आराधना में संलग्न रहता है और अपना परिशद्ध स्तर बनाये रखता है, तो इसका सुपरिणाम उसे अवश्य प्राप्त होता है। भगवान् कहते हैं कि, इस साधना से उसके संसार के सभी बन्धन ध्वस्त हो जाते हैं। शिवतत्व संप्राप्ति की यह पहली और अन्तिम भी यही शर्त है कि, उसे दग्ध संसार बन्धन होना ही चाहिये । ऐसा साधक हो शिव के महासद्भाव को संभूति से भूषिल होता है ।। ४२॥
परमेशमुखोद्भूत ज्ञानचन्द्रमरीचिरूप श्रीमालिनीविजयोत्तरतन्त्र का
डॉ॰ परमहंसमिश्रकृत नीर-क्षीर-विवेक भाषाभाष्य संवलित प्रथमधारणाधिकार नामक बारहवां अधिकार परिपूर्ण ।। १२ ॥
॥ ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॥
१. श्रीत. २२१३
२. सदेव २२॥३
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