०९

अथ नवमोऽधिकारः अथैषां समयस्थानां कुर्यादीक्षां यदा गुरुः । तदाधिवासनं कृत्वा … … … ॥१ ॥ सच पूर्वां दिशं सम्यक् सूत्रमास्फालयेत्ततः। तन्मध्यात्पूर्ववारुण्यावयेत समान्तरम् ॥२॥

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परमेशमुखोद्भूतज्ञानचन्द्रमरीचिरूपम्

श्रीमालिनी विजयोत्तरतन्त्रम् डॉ. परमहंसमिश्रविरचित-नोर-क्षीर विवेकनामकभाषाभाष्यसमन्वितम्

नवमोऽधिकारः

[९]

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अधिकार के प्रारम्भ में ‘अथ’ अव्यय द्वारा सष्टिकर्ता के आदिम विश्वारम्भ का स्मरण हो जाता है। दीक्षा भी शिष्य के दिव्यजीवन के आरम्भ की प्रक्रिया है। गुरु शास्त्रीय अधिकार प्राप्त और समयाचार सिद्ध शिष्य की दीक्षा करता है। यहाँ साधक-शिष्य विगत अध्यायों को शिक्षा से और आचार-पालन से योग्य हो गया हैं। अतः अब गुरु उसे अवश्य दीक्षित करें। इसके साथ अधिवासन करें और करायें । इसके बाद क्या करें यह आदेश वाक्य खण्डित हो गया है। उससे गुरु स्वयम् उस प्रक्रिया का अध्याहार करें, वही उत्तम है ॥ १ ॥

यहाँ सूत्रास्फालन की एक प्रक्रिया का निर्देश कर रहे हैं। आचार्य सूत्र गोलक शिष्य के हाथ में दें और उसे पूरब की ओर आस्फालित करायें। सूत्र मान लीजिये २० फीट दूर जा गिरा। उसके मध्य से अर्थात् दसवें फीट के अन्तिम बिन्दु से १० फोट का चिह्न या रेखा पूरब और पश्चिम की ओर खींच दें। इसी तरह पूरब पश्चिम की समान्तर रेखायें निर्धारित कर दें। इसी तरह उत्तर और दक्षिण की समान्तर रेखाओं का क्रास कर दें। इस प्रकार से एक समचतुर्भुज बन जायेगा ॥२॥

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श्रीमालिनीविजयोत्तरतन्त्रम् पूर्वापरसमासेन सूत्रेणोत्तरदक्षिणम् । अङ्कयेदपरावात्पूर्वादपि तथैव ते ॥ ३ ॥ मत्स्यमध्ये क्षिपेत्सूत्रमायतं’ दक्षिणोत्तरे।। मतक्षेत्राधमानेन मध्यादिक्ष्वङ्कयेत्समम् ॥ ४ ॥ तहिक्स्थाच्च कोणेषु अनुलोमविलोमतः।। पातयेत्तेषु सूत्राणि चतुरश्रप्रसिद्धये ॥ ५ ॥ वेदाश्रिते हि हस्ते प्राक् पूर्वमध विभाजयेत् । हस्ताधं सर्वतस्त्यक्त्वा पूर्वोदग्यामदिग्गतम् ॥ ६ ॥

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पूर्व और दोनों को आत्मसात् करने वाली सूत्रिका से उत्तर और दक्षिण की रेखाओं का अङ्कन भी आवश्यक माना जाता है। ये रेखायें प्रतीची से पूर्व और दक्षिण से उत्तर के क्रम में खोंचने पर जो चित्र उभरेगा वह इस प्रकार का होगा इसमें मत्स्य त्रिकोणवत् आकृति पूर्व का हो नाम है ।। ३ ।।

__ मत्स्य के मध्य में सूत्र रखकर दक्षिणोत्तर आयत बने हुए हैं। इसी तरह के चार आयत बने हुए हैं। मत अर्थात् स्वीकृत । वस्तुतः सूत्र स्फालन का अर्द्ध बिन्दु हो मध्य बिन्दु होता है। यह मत क्षेत्र होता है और एक ही मध्य बिन्दु से चार आयत बनते हैं। इसमें चार मत्स्यकोण बनते हैं। इन्हें स्वयम् आचार्य बनाये ॥४॥

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दिक्स्थ चारों कोणों से अनुलोम विलोम ढङ्ग से भी रेखायें खीचनी पड़ती हैं, या भीगे रंगीन सूत्र रखने से भी रेखायें उभर आती हैं । इसी पद्धति को अपनायें। इससे चतुरस्र कोण की आकृति सिद्ध हो जाती है ॥ ५ ॥

पहले चार हाथ का क्षेत्र लें। चार हाथ में ९६ अङ्गल होता है। तत्पश्चात् आधा विभाजित करें। उसमें हस्ता अर्थात् एक बित्ता अर्थात् १२ अङ्गल भाग चारों ओर छोड़ देना चाहिये। यह क्रम पूर्व से दक्षिण तक होना चाहिए। इस प्रकार ८४ अङ्गुल का लघु चतुरन मण्डल साकार हो उठेगा ॥ ६ ॥

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१. क॰ पु॰ ददेत्सूत्रमिति पाठः । २. क. पु॰ वेदाश्रिते त्रिहत्ते इति, ख पु॰ एवमस्य विहस्तस्य प्राक इति पाठान्तरं च ।।

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१३३

नवमोऽधिकारः गुणाङ्गुलसमै गैः शेषमस्य विभाजयेत् । व्यङ्गुलेः कोष्ठकैरूस्तिर्यक् चाष्टद्विधात्मकैः ॥७॥ द्वौ द्वौ भागौ परित्यज्य पुनर्दक्षिणसौम्यगौ । ब्रह्मणः पार्श्वयोर्जीवाच्चतुर्थात्पूर्वतस्तथा ॥ ८॥ भागाभागमानं तु खण्डचन्द्रद्वयं द्वयम् । तयोरन्तस्तृतोये तु दक्षिणोत्तरपार्श्वयोः ॥९॥ जीवे खण्डेन्दुयुगलं कुर्यादन्तर्भमाद्बुधः । तयोरपरमर्मस्थं खण्डेन्दुद्वयकोटिगम् ॥१०॥

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गुण (३) और अङ्गुल (५) बराबर आठ सम भाग करने पर ऊपर नीचे के क्रम में ६४ कोष्ठक बनते हैं। ८ को दो से गुणा कर १६ अङ्गल होते हैं। एक चतुरस्र मण्डल में तोन अङ्गुलों के कोष्ठक १६ से गुणा करने पर ४८ होंगे। यह चतुरन बनाने की ही एक विधि हैं ।।७।।

चतुरस्र मण्डल की इस आकृति में दक्षिण और उत्तर दो भाग मिटा देना चाहिये। ब्रह्मबिन्दु और जोवरेखा पर्यन्त के विषय में यह ध्यान देना चाहिये कि, ब्रह्म बिन्दु के दोनों पार्श्व तथा जीव बिन्दु से चतुर्थ पर्यन्त भागार्ध मान बिन्दु से तिर्यक् रेखा देने से खण्ड रूप दो चाँदों को आकृतियां उभर

आती हैं ।। ७-८॥

ब्रह्म बिन्दु से अन्तर में दो कोष्ठक मिटा दिये गये हैं। अब तीसरे कोष्ठक से तृतोय रेखा के पावों में ये चन्द्र उभरते हैं। अन्तर्धमि सूत्र से होती है। जीव रेखा से अन्तर्धमि द्वारा हो ये दोनों चाँद आकार ग्रहण करते हैं। इन दोनों के भी जो मर्म हैं, उनसे इन्दु-खण्डों के अग्रभाग से सम्पर्क रेखा द्वारा हो हो पाता है ॥ ९.१०॥

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२. तदेव ३१११३

१. श्रीत॰ ३१।११ ३. तदेव ३१११४

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श्रोमालिनीविजयोत्तरतन्त्रम् बहिर्मुखभ्रम’ कुर्यात् खण्डचन्द्रद्वयं द्वयम् । तद्वब्रह्मणि कुर्वीत भागभागार्धसंमितम् ॥ ११ ॥ ततो द्वितीयभागान्ते ब्रह्मणः पाश्र्वयोर्द्वयोः । द्वे रेखे पूर्वगे नेये भागत्र्यंशशमे बुधैः ॥ १२ ॥ एकार्धेन्दुलकोटिस्थं ब्रह्मसूत्रानसंगतम् । सूत्रद्वयं प्रकुर्वीत मध्यशृङ्गप्रसिद्धये ॥ १३ ॥ तदनपार्श्वयोर्जीवात्सूत्र मेकान्तरे “श्रितम् । आदिद्वितीयखण्डेन्दुकोणाकोणान्तमाश्रयेत् ॥१४॥

इनमें बहिर्मुख भ्रमि से दो इन्दुओं की तरह दूसरे इन्दुद्वय भी आकार ग्रहण करते हैं। इसी तरह ब्रह्म रेखा के भी भागार्धा किये जाते हैं। यह मण्डल को पृथक् प्रक्रिया है ॥ ११ ॥

तत्पश्चात् ब्रह्मरेखा के दोनों पार्श्व में पूर्व की ओर जाने वाली दो रेखामों का प्रणयन करना चाहिये। यह प्रक्रिया द्वितीय भागान्त में पूरी की जाती है। वे दोनों रेखायें वहीं तक जानी चाहिये, जहाँ त्र्यंशभाग का शमन अर्थात् अन्त होता है ।। १२ ॥

  • अर्ध इन्दु के एक ओर का भाग जो ऊर्व की ओर पड़ता है। उसके अग्र भागस्थ बिन्दु से ब्रह्मसूत्र के अग्रभाग से सङ्गति कर दो सूत्रों से वहाँ रेखा उभारने पर दोनों के मध्य में मध्य शृङ्गको आकृति बन जाती है। ॥ १३ ॥

जीव संज्ञक रेखा, ब्रह्मबिन्दु और अर्धेन्दुद्वय आदि शब्द उस समय की ज्यामिति शास्त्र में प्रयुक्त होते थे। मण्डल रचना भी ज्यामितिक रचना है। जीवरेख जीवसूत्र से और ब्रह्मरेखा ब्रह्म से बनतो थौं। (इस सम्बन्ध में मैंने श्रीतन्त्रालोक के ३१वें आह्निक में जो कुछ लिखा है अथवा यहाँ जो लिखने का प्रयास कर रहा हूँ, सब ऊहात्मक है। इसकी यथार्थता के लिये तान्त्रिक याज्ञिकों

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१. क॰ पु॰ मुखं भ्रममिति पाठः। ३. क. पु॰ एकान्द्वर्धति पाठः। ५. श्रीत॰ ३१६८-६९; ७. तदेव २०११;

२. क॰ पु. भागाति पाठः । ४. ख॰ पु. वृतमिति पाठः । ६. तदेव ३१६६४ ८. तदेव ३११३

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नवमोऽधिकारः तयोरेवापराज्जीवात्प्रथमार्धेन्दुकोणतः । तद्वदेव नयेत्सूत्रं शृङ्गद्वितयसिद्धये ॥१५॥ क्षेत्रार्धे ‘चापरे दण्डो द्विकरच्छन्नपञ्चकः । द्विकरं पञ्च तद्भागाः पञ्चपीठतिरोहिताः॥ १६ ॥ शेषमन्यद्भवेदृश्यं पृथुत्वाद्भागसंमितम् । षड्विस्तृतं चतुर्दीधं तदधोऽमलसारकम् ॥ १७ ॥

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की एक समिति बननी चाहिये। तभी इसका सही निर्णय हो सकता है।) यह प्रक्रिया प्रचलन में नहीं है। जो है, उसके लिये आचार्य को ही प्रमाण मानना चाहिये । इसी क्रम में दूसरी जीव रेखा से प्रथम अर्धेन्दु के कोण से द्वितीय खण्डेन्दु कोण के अन्त में रेखा खींचनी चाहिये ।। १४ ॥

दूसरे शृङ्ग को रचना से सम्बन्धित इस कारिका में जीवसंज्ञक दूसरी रेखा जहां प्रथम अर्धेन्दु का कोण है, वहाँ से उसी प्रकार पूर्वापर रेखाओं से शृङ्ग

आकार ग्रहण करता है ॥ १५ ॥

ऊपर के जितने विधान हैं वे ऊपर के क्षेत्रार्ध के हैं, जिनमें मध्यशृङ्ग और उभय पाश्वंशृङ्ग तथा खण्ड-चन्द्रद्वय निर्माण की चर्चा की गयी है। यहां क्षेत्राध के अन्य भाग के सम्बन्ध में चर्चा की जा रही है। इसमें प्रयुक्त कुछ शब्दार्थ इस प्रकार हैं

१. द्विकरः-दो हाथ। ये दो हाथ यह याद दिलाते हैं कि, कुल मण्डल चार हाथ का था। ऊर्व भाग के दो हाथों के वर्णन के बाद यह द्विकर शब्द प्रयुक्त है।

२. छन्न पञ्चक-शृङ्ग निर्माण में दण्ड रचना भी एक अङ्ग हैं। इसमें पांच गाउँ जो छन्न हों वे निर्दिष्ट हैं।

३. पञ्चपीठतिरोहिता-ये गाँठे पांच पीठों से तिरोहित रहती हैं। ऊपर का भाग दृश्य होता है ।। १६ ॥

दण्ड संरचना पृथक् नहीं होती अपितु रेखाओं के निर्माण के साथ ही बनता जाता है । इसे पृथुरूप होने के कारण दृश्य माना जाता है।

१. ख॰ पु. चापरे कुर्याद्दण्डमस्य यथा शृणु, इति पाठान्तरं वर्तते । २. श्रोत. ३१७०-७१;

२. ३१११६

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श्रोमालिनीविजयोत्तरतन्त्रम् वेदाङ्गुलं च तदधो मूलं तीक्षणाग्नमिष्यते ।

आदिक्षेत्रस्य कुर्वीत दिक्षु द्वारचतुष्टयम् ॥ १८॥ हस्तायाम तदधं तु विस्तारादपि तत्समम् । द्विगुणं’ बाह्यतः कुर्यात्ततः पद्मं यथा शृणु ॥ १९॥ एफैकभागमानानि कुर्याद्वृत्तानि वेदवत् । दिक्ष्वष्टौ पुनरप्यष्टौ जीवसूत्राणि षोडश ॥ २०॥

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४. षड्विस्तृत-यह षट् शब्द भी छः गाठों की ओर ही संकेत करता है।

५. चतुर्वीर्घ-इस शब्द से यह प्रतीत हो रहा है कि, पूरे चार हाथ की उँचाई की ही दण्ड रचना भी होती थी।

६. अमलसारक-ठोस गाँठ वाला निचला भाग पीपल के पत्ते की तरह का नीचे नुकीला होता है। उसे अमलसारक गांठ कहते हैं ॥ १७॥

उसी अमलसारक भाग को वेदाङ्गुल अर्थात् चार अङ्गुल का मानते है । दण्ड का अधोभाग तीक्ष्णान अर्थात् नुकीला ही बनाया जाता है ताकि वह भाग भूभाग में जम कर स्थिर रह सके । समचतुर्भुज मण्डल के चारों आदि रेखाओं के मध्य में बार द्वार रचना भी अनिवार्य है ॥१८॥

एक हाथ आयाम लेकर अथवा एक बालिस्त का ही आयाम लेकर जो दीर्घ विस्तार दोनों में सम हो, रचना का ध्यान रखकर बाह्य रेखाओं पर दिशाओं के द्विगुण अर्थात् १६ पद्मवृत्त कैस बनते हैं-इसकी जानकारी भगवान् दे रहे हैं और उसे सुनने का भी निर्देश दे रहे हैं ॥ १९ ॥

सर्व प्रथम एक-एक भाग मान वाले चार वृत्त निर्मित करना चाहिये । दिशाओं को दृष्टि से ये आठ और जीवसूत्र की विधि से सोलह हो जाते हैं। ॥ २० ॥

१. ग• पु॰ द्विगुणं बाह्यमध चेति पाठः । २. मोत॰ ३१७१

३. तदेव ३१७२ ४ तदेव ३१७३-७४ ५. तदेव ३१७४-७५

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s inindia -850890नवमोऽधिकारः

१३७

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द्वयोर्द्वयोः पुनर्मध्ये तत्संख्यातानि पातयेत्। एषां तृतीयवृत्तस्थं पार्श्वजीवसमं श्रमम् ॥२१॥ एतदन्तं प्रकुर्वीत ततो जीवाशमानयेत् । यत्रैव कुत्रचित्सअस्तत्संबन्धे स्थिरीकृते ॥ २२ ॥ तत्र कृत्वा नयेन्मन्त्री पत्राग्राणां प्रसिद्धये । एफैकस्मिन्दले कुर्यात्केसराणां त्रयं त्रयम् ॥ २३ ॥ द्विगुणाष्टाङ्गुलं कार्य तच्छृङ्गकजत्रयम् ।

ततः प्रपूजयेन्मन्त्री रजोभिः सितपूरकैः ॥ २४ ॥

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वृत्तों के मध्य बिन्दु से मध्य वृत्त बनाने पर पन पत्र बनते जाते हैं। सूत्र के पात की विधि से अच्छा परकाल विधि जो वर्तमान में प्रचलित है, इससे पद्मपत्र सुन्दर बनते हैं। बीच में १६ वृत्त बन जाते हैं। परकाल विधि से पेन्सिल द्वारा इनकी रचना करने पर जीव-सूत्र पात के माध्यम से रचना करने को कोई आवश्यकता नहीं पड़ती। पहले दूसरे वृत्तों के बाद तृतीय वृत्त के पाव में जीव रेखाभ्रमि का प्रभाव कैसा होता है, आचार्य को एतद्विषयक सावधानी बरतनी चाहिये ॥ २१ ॥

इस प्रकार पूरी रचना जीवसूत्र के माध्यम से कर लेने पर अन्त में जोवान भाग का आनयन बीच में दबाव देकर केन्द्र तक लाना चाहिये। वहाँ ले आकर पूरी पद्मपत्र रचना सम्पन्न हो जाती है। इस रचना से मण्डल रचना की पूत्ति और

उसकी स्थिरता भी आ जाती है ॥ २२॥

उस समस्त विधि-विधान को सम्पन्न कर लेने के उपरान्त मन्त्री साधक शिष्य पत्राग्न की संरचना में प्रवृत्त होकर एक-एक दल में केशर के लिये सूत्र से या परकाल से तीन-तीन रेखायें बनाये। ऊर्व कोष्ठक से सम्बन्धित पत्राग्न रचना का यही निर्देश उसको स्वाभाविकता के लिये आवश्यक है ।। २३ ।।

__ शृङ्गों पर कमल की संरचना में दल सहित उसके मान की चर्चा यहाँ की गयी है। कारिका के अनुसार इसका मान १६ अङ्गल होना चाहिये। कमलों

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१. ग॰ पु॰ एषु तृतीयेति पाठः । २. क॰ पु॰ द्विगुणाटलमिति पाठः ।

१. तदेव ३१७७;

मा॰बि॰-१८

२. क॰ पु॰ भ्रमादिति पाठः । ४. श्रीत ३११७६; ६. तदेव ३११७८

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श्रीमालिनोविजयोत्तरतन्त्रम् रक्तः कृष्णैस्तथा पीतैर्हरितैश्च विशेषतः । कणिका पीतवर्णेन मूलमध्यानदेशतः ॥ २५ ॥ सितं रक्तं तथा पोतं कार्य केसरजालकम् । दलानि शुक्लवर्णानि प्रतिवारणया सह ॥ २६ ॥ पोतं तद्वच्चतुष्कोण कणिकासमं बहिः। .सितरक्तपीतकृष्णैस्तत्पादावह्नितः क्रमात् ॥२७॥

चतुभिरपि शृङ्गाणि त्रिभिर्मण्डलमिष्यते ।

दण्डः स्यान्नोलरक्तन पोतमामलसारकम् ॥ २८ ॥ को ‘शृङ्ककज’ कहते हैं । दलाग्र और उसमें केशरत्रय की संरचना से उसमें आकर्षण

आ जाता है। ॥ २४ ॥

इसके बाद साधक रजों से ऐसी सज्जा तैयार करे जो श्वेत रङ्ग के पूरक बनकर सुन्दरता में चमत्कार भर दें। इसके लिये उसे रक्त-पीत-हरित और कृष्णवर्णी रङ्गों का प्रयोग करना चाहिये । विशेष रूप से यह ध्यान देना चाहिये कि कणिका पीतवर्ण से रंगी जाय। यह भी आवश्यक है कि मल, मध्य और अग्रभागीय केशरों को सित, रक्त और पोत वर्गों से रंगा जाय । प्रायः दल प्रतिवारणा रेखा ( चिह्नित रेखा से पृथक् करने वाली ) से पृथक्-पृथक् प्रतीत होते हैं ॥ २५-२६ ॥

इसी प्रकार चारों कोने भी पीतवर्णी हों। कणिका का अर्धभाग बाहर रह सकता है । अग्निकोण से रंगों का क्रम भी निम्नवत् रह सकता है। यथा-अग्नि कोण-सितवर्ण, ईशान-रक्तवर्ण, वायध्य-पोतवर्ण और नैऋत्य-कृष्णवर्ण। यह चतुर्वर्णी चतुष्कोण मण्डल रचना को आकर्षण से भर देता है ।। २७ ।।

दण्ड और शृङ्ग का आधाराधेय सम्बन्ध है। पूरा दण्ड जहां नील रक्ताभ होगा, वहीं चार शृङ्ग रङ्गों से और मण्डल में तीन रङ्गों का प्राधान्य होता है। यह भी आवश्यक है कि, दण्ड का अमलसारक अंश ( नीचे की गांठ ) जो नुकीलो होतो है, वह पीले रङ्गों से रंगी जाय ॥ २८ ॥

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१. क. पु॰ मध्याग्रभेदत इति पाठः । २. ग. पु. कर्णिकारसममिति पारः ।

३. श्रीत॰ ३१७८

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१३९

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नवमोऽधिकारः रक्तं शूलं प्रकुर्वीत यत्तत्पूर्व प्रकल्पितम् । पश्चाद्वारस्य पूर्वेण त्यक्त्वाङ्गुलचतुष्टयम् ॥ २९ ॥ द्वारं वेदाथि वृत्तं वा संकीर्ण वा विचित्रितम् । एकद्वित्रिपुरं तुल्यं सामुद्गमथ बोभयम् ॥ ३० ॥ कपोलकण्ठशोभोपशोभादिबहुचित्रितम् । विचित्राकारसंस्थानं वल्लोसूक्ष्मगृहान्वितम् ॥ ३१॥

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__शूल भाग रक्तावर्णी हो। यह पहले भी इसी तरह का होना वर्णित है । इसके बाद द्वार के सम्बन्ध का भी विचार कर यह निर्धारित करना चाहिये कि द्वार कहाँ-कहाँ हो ? पूर्व में ४ अङ्गुल भाग छोड़ देना चाहिये ।। २९ ।।

द्वार वेदाश्रि अर्थात् चतुष्कोण अथवा वृत्त मेहराबदार बनाये जाते हैं। ये शास्त्र सम्मत निर्मितियां हैं। यह संकोण पद्धति से भी निर्मित होतो हैं या अन्य आकृतियाँ भो गृहीत को जा सकतो हैं । विचित्र रचनाओं के प्रकारों से मण्डप-रचनाकार परिचित होते हैं। द्वार को सजाने को दृष्टि से एक रङ्ग, दो रङ्गों या तीन-चार रंगों का प्रयोग भी करते हैं। इसे ‘पूरना’ कहते हैं। जनपदीय क्षेत्रों में नापित, उनकी पत्नियाँ, या घर को स्त्रियाँ भी चौक पूरती हैं । इसमें मूंग का प्रयोग कर सामुद्गिक रङ्ग लाने का प्रयत्न करते हैं, या नोल रङ्ग से लहरातो रचना करते हैं। अथवा दोनों विधाओं के प्रयोग

भो कर लेते हैं ॥ ३० ॥

मण्डल रचना के वैशिष्ट्य के सम्बन्ध में कह रहे हैं कि, यह पिण्ड की रचना के हो अनुकूल रचना होती है। यह मानवीकरण के समान ही है। द्वार में भी कपाल (कपोल ), कण्ठ आदि को शोभित करने के उपाय करने चाहिये। द्वार ऐसा लगे जैसे कि कोई हृदय खोलकर स्वागत कर रहा । इसे विचित्र विचित्र आकार दिये जा सकते हैं । भोतर बाँस को बल्लियों का अथवा लताओं को ऐसी व्यवस्था होनी चाहिये । द्वार के साथ एक छोटा कक्ष भी हो तो कोई अन्तर नहीं पड़ता। उसे शास्त्र की भाषा में ‘सूक्ष्मगृह’ भी कहते हैं । यह सूक्ष्मगृह द्वार से हो सम्बद्ध होता है’ ॥ ३१ ॥

१. श्रीत. १९८३-८५

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एवमत्र सुनिष्पन्ने गन्धवस्त्रेण मार्जनम् । कृत्वा स्नानं प्रकुर्वीत पूर्वोक्तनैव ‘वर्मना ॥ ३२॥ प्रविश्य पूर्ववन्मन्त्री उपविश्य यथा पुरा।। न्यस्य पूर्वोदितं सर्व पञ्चधा भैरवात्मकम् ॥ ३३ ॥

उत्तरे विन्यसेच्छृङ्ग देवदेवं नवात्मकम् । मध्ये भैरवसद्धावं दक्षिणे रतिशेखरम् ॥ ३४ ॥

• रक्तत्वङ्मांसमूत्रैस्तु वामकर्णविभूषितम् । बिन्दुयुक्तं प्रमेयोतं रतिशेखरमादिशेत् ॥ ३५ ॥

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इस प्रकार मण्डल रचना के साथ-साथ द्वार की शोभादायक निमितियों से जनता का आकर्षण बढ़ जाता है। इतना करने के बाद गन्ध-वस्त्र से वहाँ की सफाई करनी चाहिये । सुगन्धित हम्माम में वस्त्र डालकर उसे सुखा लेने पर ही बह वस्त्र ‘गन्ध-वस्त्र’ कहलाता है। इतनी तैयारो कर साधक पुनः आवश्यक स्नान करता है, और इसमें भी पूर्वोक्त विधि ही अपनायो जाती हैं ॥ ३२ ॥

स्नानोपरान्त मन्त्री पुनः मण्डल में पूर्ववत् प्रवेश करें। अपने निर्धारित स्थान पर बैठे। पहले कहे हुए न्यासों से स्वयं को न्यस्त कर अपनी दिव्यता का संवर्धन कर लेना चाहिये। पञ्चधान्यास करने के उपरान्त एवात्म में भैरवभाव का आकलन करना श्रेयस्कर होता है ॥ ३३ ॥

उत्तर शृङ्ग में नवात्मक देवाधिदेव का विन्यास करना चाहिये। मध्य शृङ्ग में भैरवसद्भाव का विन्यास आवश्यक है और दक्षिण शृङ्ग में रतिशेखर को प्रतिष्ठा होनी चाहिये। नवाल्मक देव प्रकृति पुरुष, नियति, काल, माया, विद्या, ईश और सदाशिवमय माने जाते हैं । “भैरवसद्भाव मन्त्ररूप

देव माने जाते हैं । रतिशेखर मन्त्र का वर्णन तन्त्र-शास्त्रों में वर्णित हैं ।। ३४ ।।

रतिशेखर मन्त्र का वर्णन कूट शब्दों के माध्यम से इस कारिका में किया गया है। रक्त ( र), स्वक् (य), माँस (ल), सूत्र ( व ), वामकर्ण (ऊ) बिन्दु युक्त प्रमेयोपेत ये पाँच वर्ण बीजमन्त्र बन जाते हैं। नववर्णात्मक’ बीज को भी रतिशेखर कहते हैं ॥ ३५ ॥ १. ग॰ पु॰ वर्मणेति पाठः । २. मा॰ वि॰ ८।४७; ३. स्वच्छ इतन्त्र ११

४. श्रीत॰ ३०।१६-१.७…… ५. तदेव ३०१०-११;

६. तदेव ३०११-१२

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नवमोऽधिकार:

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शाक्तं च पूर्ववत्कृत्वा तर्पयेत्पूर्ववबुधः । पुनरभ्यर्च्य देवेशं भक्त्या विज्ञापयेदिदम् ॥ ३६ ॥ गुरुत्वेन त्वयैवाहमाज्ञातः परमेश्वर । अनुनायास्त्वया शिष्याः शिवशक्तिप्रवोदिताः ॥ ३७॥ तदेते’ तद्विधाः प्राप्तास्त्वमेषां कुर्वनुग्रहम् । मदोयां तनुमाविश्य येनाहं त्वत्समो भवन् ॥ ३८॥ करोम्येवमिति प्रोक्तो हर्षादुत्फुल्ललोचनः । ततः षड्विधमध्वानमनेनाधिष्ठितं स्मरेत् ॥३९ ।।

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इतनी प्रक्रिया पूर्ण करने के उपरान्त समस्त शाक्त विधियां पूरी कर आचार्य तर्पण को व्यवस्था करें। इसके बाद शिव की पूजा करनी चाहिये। भक्तिभाव से ओत प्रोत होकर यह विज्ञापित करना चाहिये

“हे परमेश्वर ! तुम्हारी आज्ञा से अनुशासित होकर इस प्रकार के याज्ञिक कर्म में प्रवृत्त हुआ हूँ। भगवन् ! ये शिष्य भी तुम्हारे अनुग्रह के अधिकारी हैं। इन पर अनुग्रह करें। इससे मैं भी अनुगृहीत हो जाऊँगा। ये सभी शिष्य आप और आपकी शक्ति से प्रेरित होकर ही यहां आये हैं। ये यहाँ शरणागत रूप में हैं। इन्हें आपका हो आश्रय है। भगवन् !

आप इन पर अनुग्रह करें। इसके लिये मुझ आचार्य के शरीर में प्रवेश करें। इससे मैं आपका हो प्रतिरूप हो जाऊँगा, इनके ऊपर मैं ही आपके अनुग्रह को वर्षा करूँगा।” इस प्रकार को आचार्य को प्रार्थना से भगवान् प्रसन्न होकर आचार्य में प्रवेश कर जाते हैं । वह हर्ष से विह्वल हो उठता है। उसको आँखें खिल उठती हैं। अब वह शिष्य वर्ग को देखकर यह सोचता है कि, इन पर षडव न्यास भी किया जा चुका है। यह स्मरण कर वह प्रसन्न हो जाता

है ।। ३६-३९ ।।

१. क. पु॰ तदेतदद्विविधा इति पाठः । २. श्रीत॰ १६७४

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१४२

श्रीमालिनोविजयोत्तरतन्त्रम् सृष्टयादिपञ्चकर्माणि ‘निष्पाद्यान्यस्य चिन्तयेत् । शक्तिभिर्जीवमूर्तिः स्यादद्विधैवास्य परापरा ॥ ४० ॥ मूर्तामूर्तत्वभेदेन’ मामध्येषानुतिष्ठति । करणत्वं प्रयान्त्यस्य मन्त्रा ये हृदयादयः ॥ ४१ ॥ एवंभूतं शिवं ध्यात्वा तद्गतेनान्तरात्मना। भाव्यं तन्मयमात्मानं दशधावर्तयेच्छिवम् ॥ ४२ ॥

सृष्टि, स्थिति, संहार, तिरोधान और अनुग्रह रूप पञ्चकृत्यो’ का निष्पादन दोक्षा में हो जाता है। आचार्य शिव की तरह पांचों कृत्यों का निष्पादक माना जाता है। इतना करने के बाद अन्य कार्यों के विषय में गुरुदेव को सोचना चाहिये। जोवमूर्ति का यह आकार शक्तियों से ही सम्पन्न होता है। परापरा शक्ति ही विशेष रूप से इस प्रक्रिया में प्रमाण हैं ॥ ४० ॥

परापरा शब्द हो दो प्रकार की प्रकल्पनाओं को समाहित करता है १. परा और २. अपरा प्रकार । इसमें प्रथम प्रकार अमूर्त और दूसरा मूर्त्तत्त्व का अध्याहार करता है। परापरा देवो शक्ति अपने प्रभाव से आचार्य को भी इन दो रूपों में प्रतिष्ठित करती है। इसमें हृदयादि मन्त्र ही साधकतम करण बनते हैं || ४१ ॥

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यह सारी महिमा शिव को हो है। इसका ध्यान हमेशा रहना चाहिये। ध्यान से साधक या आचार्य कोई भी तद्गतान्तरात्मा बन सकता है। वस्तुतः अन्तरात्मा की स्वरूपावस्था शिवत्व से ही अनुप्राणित होती हैं । ध्यान से स्वरूपोपलब्धि सम्भव है। तभो तन्मयता सिद्ध होती है। तन्मयता से तादात्म्य भावापत्ति अनायास उपलब्ध होती है। दीक्षा के इस अवसर पर आचार्य यह सब शिष्य को भी स्पष्ट करें और उसमें शिवत्व का दशधा आवर्तन करें ॥ ४२॥

१. ख॰ पु॰ निरूपाधानानीति पाठः । २. क॰ पु. मूत्यंमूर्तत्वभेदेन ममाप्येषा इति पाठः । ३. श्रीत॰ १६७७

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त्रिःकृत्वा सर्वमन्त्रांश्च गर्भावरणसंस्थितान् । सितोष्णीषं ततो बद्ध्वा समजलं नवात्मना ।। ४३ ।। शिवहस्तं ततः कुर्यात्पाशविश्लेषकारकम् । प्रक्षाल्य गन्धतोयेन हस्तं हस्तेन केनचित् ॥ ४४ ॥ गन्धदिग्धो यजेद्देवं साङ्गमासनजितम् । आत्मन्यालम्भनं कुर्याद ग्रहणं योजनं तथा ॥ ४५ ॥

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आचार्य जिन मन्त्रों से शिष्य को दीक्षा दे रहा है, वे सारे मन्त्र मूलतः शक्तिगर्भ में कीलित रूप में पहले से ही अवस्थित रहते हैं । उनका उत्कीलन का एक प्रकार है, जिसे कारिका में ‘त्रिः कृत्वा’ से संकेतित किया गया है। आचार्य इसका ज्ञाता होता है । इस प्रकार शुद्ध मन्त्रों से शिष्य को अन्वित कर अब उसे निष्णात मान लिया जाता है। उसे ‘पगड़ी पहनाया जाता है। उसक, रङ्ग श्वेत होना चाहिये। उसके शिर पर उसे बाँधकर नवात्मशिव रूप में उसे भावित कर सात बार उष्णीष मन्त्र का जप करना चाहिये ।। ४३ ॥

इसके बाद शिवहस्तविधि’ अपनानी चाहिये। ब्रह्मपञ्चक मन्त्रों से समन्वित, शिव से अधिष्ठित, पाशच्छेद में समर्थ, सबके कल्याण में प्रवृत्त आचार्य शिवहस्त विधि सम्पन्न करता है। वह शिष्य के शिर और हृदय पर हाथ रख कर शिष्य के कल्याण का परामर्श करता है । मन्त्र पढ़ते हुए शिष्य को पाशविमुक्त करने के लिये अपनी शक्ति का प्रयोग करता है। इसी विधि को शिवहस्त विधि कहते हैं । इस विधि के प्रयोग से शिष्य के पाशों का उच्छेद हो जाता है।

गन्ध जल से समन्वित हाथ से अपने दक्षहस्त को प्रक्षालित कर गन्धदिग्ध होकर आसन रहित साङ्ग परमेश्वर शिव का यजन करे। इसके तुरत बाद शिष्य को स्वात्मयोजित करे। ग्रहण-वियोजन दोनों कार्य स्वयं गुरुदेव ही सम्पन्न करें ॥ ४४-४५ ॥

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१. श्रीत॰ १६७८; २. भीत॰ १७३१, १६६७९

श्रीमालिनीविजयोत्तरतन्त्रम्

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वियोगं च तथोबारं पाशच्छेदादिकं च यत् । एवं पतित्वमासाद्य प्रपञ्चव्याप्तितः शिवम् ॥ ४६ ॥ भावयेत्पृथगात्मानं तत्समानगुणं ततः । मण्डलस्थोऽहमेवायं साक्षीवाखिलकर्मसु ॥ ४७ ॥ होमाधिकरणत्वेन वहावहमवस्थितः । आयागान्तमहं कुम्भे संस्थितो विघ्नशान्तये ॥४८॥ शिष्यवेहे च तत्पाशविश्लेषत्वप्रसिद्धये।

साक्षात्स्वदेहसंस्थोऽहं कर्तानुग्रहकर्मणः ॥ ४९ ।।

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आचार्य यहाँ शिव की भूमिका का ही निर्वाह करता है। वह शिष्य सत्ता को स्वात्मसत्ता में मिलाकर उसे आत्मवत् विशुद्ध बनाकर अपने से वियुक्त कर उसका उद्धार कर देता है। शिष्य के पाशों का उच्छेद वह पहले कर ही चुका होता है। जैसे वह स्वयं शिव ही बन गया हो। पाशबद्ध ही पशु होता है। पाश रूप बन्धन खोलना पशुपति के ही अधिकार क्षेत्र में आता है। शिष्य के पाशोच्छेद के कारण गुरु में भी पतित्व स्फुरित होता है। यही पतित्वासादन व्यापार है।

इस प्रकार सारे प्रपञ्चों में व्याप्ति की भावना से भावित आचार्य स्वात्म में शिवत्व का श्रद्धापूर्वक भावन करें। शिव के समस्त गुण धर्म से अपने को विभूषित समझ कर वह यह अनुभव करें कि, मैं स्वयं मण्डलस्थ शिव हूँ। यहाँ सम्पादित होने वाले समस्त कार्यों का साक्षी हूँ ॥ ४६-४७ ।।

यज्ञकुण्ड में अग्निदेव की प्रतिष्ठा स्वाभाविक है। आचार्य यह भी भावन करें कि, होम के अधिकरण से सम्पन्न अग्नि में शिव रूप से मैं ही व्याप्त हैं। इस वरुण कुम्भ में याग की पूर्णता पर्यन्त मैं स्वयं शिव बनकर विघ्न शान्ति के लिये उपस्थित हूँ। ४८ ॥

शिष्य के शरीर से पाशविश्लेष की प्रसिद्धि के लिये मैं स्वयं साक्षात् शिव स्वरूप आचार्य हूँ, मैं स्वयं प्रमाणरूप से विद्यमान हूँ। मैं अनुगृहीत साधक के सभी कर्मों का साक्षी स्वयं शिव ही हूँ ॥ ४९ ॥

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नवमोऽधिकारः

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इत्येतत्सर्वमालोच्य ‘शोध्याध्वानं विचिन्तयेत् । दीक्षां येनाध्वना मन्त्री शिष्याणां कर्तुमिच्छति ॥ ५० ॥ तत्रैवालोचयेत्सवं यायात्पदमनामयम् । तत्र तेनापृथग्भूत्वा पुनः संचिन्तयेविदम् ॥ ५१ ॥ अहमेव परं तत्त्वं मयि सर्वमिदं जगत् । अधिष्ठाता च कर्ता च सर्वस्याहमवस्थितः ॥५२॥ तत्समत्वं गतो जन्तुर्मुक्त इत्यभिधीयते । एवं संचिन्त्य भूयोऽपि शोध्यमाचं समाश्रयेत् ॥५३॥

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इन सारी बातों का विचार आचार्य को करना चाहिये। अध्वाशोधन की विधि भी उसे ही पूरी करनी होती है। अतः इस विधि को भी उसी समय पूरी कर लें । इसके बाद वह यह सोचे कि, शिष्य को किस अध्वा की दीक्षा देनी उचित है । यहाँ शिष्य की स्तरीय योग्यता का विचार आवश्यक होता है ॥ ५० ॥

वह शिवस्वरूप आचार्य स्वयं उसको कौन सी दीक्षा देने का विचार रखता है, इस पर भी विचार अपेक्षित है। उसे यह ध्यान देना चाहिये कि, शिष्य अनामय पद की प्राप्ति कैसे करे ? शिष्य अनामय पद की ओर कैसे अग्रसर होगा यह उत्तरदायित्व आचार्य का ही होता है। अतः तन्मय भाव से उससे अपृथक अनुभव करते हुए पुनः सोचे ॥ ५१ ॥

उसके सोचने का स्वरूप निर्दिष्ट कर रहे हैं कि, आचार्य अपने को परम तत्त्व रूप में अनुभूत करें। मुझमें ही यह सारा जगत् उल्लसित है। यह सारा जगत् मेरो अन्तरात्मिक व्याप्ति में खिल रहा है। मैं ही इसका अधिष्ठाता परमशक्तिमन्त शिव हूँ। स्वयं मैं इसका कर्ता हूँ। मैं सर्वत्र व्याप्त है। सभी में मैं अवस्थित हूँ। इस शाम्भव समावेश में ही वह आविष्ट हो जाये ॥५२ ।।।

म यह कहा जा सकता है कि, कोई भी जीव इस प्रकार के उच्चस्तरीय शाम्भव समावेश में आविष्ट-सिद्ध हो जाने पर मुक्त हो हो जाता है, क्योंकि १. ग. पु॰ शोध्यात्मानमिति पाठः । २. भीत॰१६।८१-८२

मा॰वि॰-१९

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श्रीमालिनीविजयोत्तरतन्त्रम् शिष्यमण्डलबहीनां तत्रैकं भावयस्थितम् ।

शोध्याध्वानं तु शिष्याणां न्यस्य देहे पुरोक्तवत् ॥५४॥ स्वेन स्वेनैव मन्त्रेण स्वव्याप्तिध्यानमाश्रयेत् । आगन्तु सहजं शाक्तं बवादौ पाशपञ्जरम् ॥ ५५ ॥ बाहुकण्ठशिखाग्रेषु त्रिषु(वृत्)त्रिगुणतन्तुना ।

• स्वमन्त्रेण ततस्तत्वमावाहोष्ट्वा प्रतयं च ॥ ५६ ॥

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वह उसके समत्त्व को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार का चिन्तन जो भक्त करते हैं, वे धन्य हैं-यह सब आचार्य भी सोचता है। इसके बाद वह आद्य शोध्य का आश्रय ग्रहण करता है ॥ ५३॥

एक और कार्य यहाँ करना चाहिये । वहां आचार्य के सामने शिष्य रहता है। पूरा मण्डल रहता है और कुण्ड में प्रतिष्ठित अग्निदेव भी रहते हैं । इन तीनों को एक शिवरूप में देखने के उच्चतम समरस भाव में ही इनका ऐक्य अनुभूत होता है । इस प्रकार भावन कर अध्वा का शोधन कर शिष्यों के शरीर में उसका न्यास करना चाहिये ।। ५४ ॥

आचार्य शिष्यों को जिन-जिन मन्त्रों से दीक्षित करता है, उन-उन मन्त्रों के माध्यम से ही स्वात्म व्याप्ति का ध्यान करना चाहिये। प्रारम्भ में ही यह आवश्यक है कि, शिष्य आगन्तुक, सहज और शाक्त नामक पाशों के पिञ्जर को आबद्ध करें। महामाहेश्वर अभिनव गुप्त ने इस विषय में कहा है कि, गुरु के ध्यान मात्र से ही पाशों की राशि भस्म हो जाती है ॥ ५५ ॥

शरीर के तीन स्थानों क्रमशः बाहु, कण्ठ और शिखाग्र में अपने मन्त्र के तिगुने आसूत्रण कर अर्थात् तीन बार लगातार जप करके पाशों को आबद्ध कर दें। इसके बाद परमतत्त्व का आवाहन कर उसका यजन और तर्पण करें ॥५६॥

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१. क. पु॰ आवाह्याध्वा प्रतयेति पाठः । २. श्रीत॰ १६६२३८; ‘पाशजालं बिलीयेत तद्धधानबलतो गुरो’ ।MARImpreparatoww

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नवमोऽधिकारः

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ततस्तच्छोध्ययोनीनां व्यापिनों योनिमानयेत् । मायान्तेऽध्वनि तामेव शुद्ध विद्यां विचक्षणः ॥ ५७ ॥

तस्यां संतपणं कृत्वा शिष्यमस्त्रेण ताडयत् । मालभ्य हृदये विद्वान्छिवहस्तेन तं पुनः ॥ ५८ ॥ ग्रहणं तस्य कुर्वीत रश्मिमात्रावियोगतः । नाडीमार्गेण गत्वा तु हहन्मन्नपुटोकृतम् ॥ ५९॥ कृत्वात्मस्थं ततो योनौ गर्भाधानं विचिन्तयेत् ।

वर्णार्धाक्षरया’ मन्त्री सर्वगर्भक्रियान्वितम् ॥ ६० ॥ भोग्यभोक्तृत्वसामर्थ्यनिष्पत्या जननं बुधः । दक्षशृङ्गस्थया मन्त्री प्रकुर्वीत सुलोचने ॥ ६१ ॥

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जिस तत्त्व का आवाहन, यजन और तर्पण किया गया है, उसे शोध्य-योनियों के मध्य व्यापिनी योनि में लाना चाहिये। व्यापिनो भूमि में भी उसका यजन, तर्पण कर माया के अन्त में अवस्थित शुद्ध विद्या भूमि में ले आवें। वहाँ उसका सन्तर्पण करें। तत्पश्चात् अस्त्र मन्त्र से शिष्य का ताडन करें। पुनः शिष्य का मालिङ्गन करें। तदनन्तर उसके हृदय में शिवहस्त विधि के प्रयोग के अनुसार स्पर्श कर शिष्य को अस्तित्वगत रूप से ग्रहण कर लें। यह ग्रहण शारीरिक नहीं होता। वरन् उसके अस्तित्व में उच्छलित शैव रश्मियों के रूप में आत्मसात् करें। उसके सौषुम्न मार्ग से उसके हृदय देश में प्रवेश कर ‘ह’ के साथ हृदयमन्त्र से सम्पुटित करें ॥ ५७-५९ ॥ ___अब शिष्य को आत्मस्थ कर लें। जिस तरह योनि-गर्भाधान संस्कार की चर्या में मन्त्र-मुहर्तादि का विचार करते हैं, उसी तरह शिष्य की सत्तागत शक्ति योनि में उसके नये उदय के उद्देश्य से गर्भाधान का विचार करना चाहिये । गर्भ की सारी क्रिया तीन वर्णयुक्त अर्धाक्षर सहित बोज से करना चाहिये ॥ ६० ॥

इस प्रक्रिया में भोग्य और भोक्तृत्व सामर्थ्य की निष्पत्ति आवश्यक होती है। गर्भाधान के अनन्तर जनन संस्कार तभी सम्पन्न किया जा सकता है। भगवान् १. क. पु. व्यर्णाधोर्धाक्षरामिति, क्रियान्वितामिति च पाठः। २. स्व. तम्ब २।२०४ (प्रणवपूर्वक पश्चिम-वक्त्रबो जलकार युक्त), श्रीत॰ १७.३६

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श्रोमालिनी विजयोत्तरतन्त्रम् पिबनीपूर्विकाभिश्च अस्त्रायोः परयापि छ । सम्यगाहुतयो दद्याद्दश पञ्च विचक्षणः ॥ ६ ॥ ततोऽस्यापरया कार्य पाशविच्छेदनं बुधैः । भुवनेशमथामन्थ्य तत्त्वेश्वरमथापि वा ॥ ६३ ॥

भोगभागा … … पश्चात्तमिदमादिशेत् । . भुवनेश त्वया नात्य साधकस्य शिवाज्ञया ॥ ६४ ॥

प्रतिबन्धः प्रकर्तव्यो धातुः पदमनामयम् ।

उत्क्षेपणं ततः कुर्यात्तयैवाध्युष्टवर्णया ॥ ६५ ॥ कहते हैं, देवि पार्वति ! इसको दक्ष-शृङ्गस्थ भाव से करना चाहिये। इसका विशेष रूप से अनुपालन होना चाहिये ॥ ६१ ॥

___ मान्त्रिक अघोर मन्त्र में पिवनी शक्ति का उल्लास अनुभव करता है। उस शक्ति से युक्त अस्त्रादि मन्त्रों सहित परामन्त्र से भी सम्यक् रूप से आहुतियां दी जानी चाहिये । ‘अग्निगर्भाय नमः’ मन्त्र से अर्चन के बाद उक्त मन्त्र से माहुतियाँ दी जाती हैं ।। ६२ ।।

जनन के बाद नाल-छेदन की क्रिया चर्या में चलती हैं। इस प्रक्रिया में पाशच्छेदन का विधान है। पाशोच्छेदन की क्रिया अपरा मन्त्र से की जाती हैं। इस अवसर पर भुवनेश्वर और तत्त्वेश्वर इन दोनों का आमन्त्रण आवश्यक माना जाता है। ६३ ॥

इस कारिका में ‘भोगभागा’ के बाद का पाठ खण्डित है । ऊहार्थ प्रकल्पन के अनुसार भोग-भागों का समर्पण करने के अनन्तर आचार्य को उनसे निवेदन करना चाहिये कि, हे भुवनेश ! मैं यह यज्ञ सम्पादित करा रहा हूँ। इसमें शिवत्व के प्रतीक रूप से यह कह रहा हूँ कि यह शिव की ही आज्ञा है।

आपको इस आध्यात्मिक याग में कोई प्रतिबन्ध उपस्थित नहीं करना चाहिये। यह शिव का ही आदेश है। इस सन्दर्भ में तन्त्र यात्रा में प्रवृत्त मन्त्री का अनामय पद सुरक्षित रहना चाहिये। इसके बाद उत्क्षेपण की क्रिया की जानी चाहिये। इसमें भी आचार्य द्वारा साधिकार प्रयुक्त वर्ण समन्वित मन्त्र को ही प्रयुक्त करना चाहिये ।। ६४-६५ ॥

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नवमोऽधिकारः

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अव्याप्तिमन्त्रसंयोगात्पृथङ् मार्गविशुद्धये । वद्यादेकैकशो ध्यात्वा आहुतीनां त्रयं त्रयम् ॥ ६६ ॥ ततः पूर्णाहुति दद्यात्परया वौषडन्तया। शिशुमुक्षिप्य चास्मस्थं तदेहस्थं च कारयेत् ॥ ६७ ॥

आहुतीनां त्रयं दद्याहत्त्वा पूर्णाहुति बुधः । महापाशुपतास्त्रेण विलोमादिविशुद्धये ॥ ६८॥ विसर्जयित्वा वागीशी तत्त्वं तु तदनन्तरम् । विलीनं भावयेच्छुद्धमशुद्ध परमेश्वरि ॥ ६ ॥ कालान्तव्याप्तिसंशुद्धौ कृतायामेवमादरात् । बाहुपाशं तु तं छित्त्वा होमयेदाज्यसंयुतम् ॥ ७० ॥

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अव्याप्ति मन्त्र संयोग की स्थिति में पृथक् मार्ग-विशुद्धि के लिये एक एक का ध्यान कर तीन तीन आहुतियाँ देनी चाहिये। इसके बाद पूर्णाहुति करनी चाहिये। यह वौषड् जातियुक्त परामन्त्र से ही को जाती है। तत्पश्चात् शिशुरूप शिष्य को स्वात्मशरीरस्थ करने का भावन करना चाहिये । ६६-६७ ॥

इस क्रिया के तुरन्त बाद तीन आहुतियां देनी चाहिये । पुनः महापाशुपत अस्त्र मन्त्र से विलोम आदि को प्रसिद्धि के लिये पूर्णाहुति प्रक्रिया अपनानी चाहिये।॥ ६८ ॥

तत्पश्चात् वागीशी पराशक्ति का विसर्जन करना चाहिये। वागीशी निवत्ति’ व्यापिका शक्ति भी मानी जाती है। इसे विसर्जन करने का अर्थ निवृत्ति कला से ऊपर उठने की स्थिति भी हो सकता है। पुनः यह भावित करना चाहिये कि, अशुद्ध में भी शुद्ध तत्त्व की व्याप्ति हो गयी है ।। ६९ ॥

इस प्रकार शुद्धता को व्याप्ति कालान्त पर्यन्त हो जाती है। इससे सम्यक् शुद्धि हो जाती है। अब श्रद्धा पूर्वक बाहु में अवस्थित आगन्तु-पाशका छेदन कर देना चाहिये। इसके लिये घी मिश्रित हवनीय से आहुतियां देना शास्त्र से समर्थित विधि के अन्तर्गत आता है ॥ ७० ॥

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१. ग॰ पु॰ बहुपाश मिति पाठः । २. स्वच्छन्द तन्त्र ४।१०१,

३. मा॰ वि॰ ६।५५-५६

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मालिनीविजयोत्तरतन्त्रम्

मायातत्त्वे विशुद्धे तु कण्ठपाशे तथा बुधः । मायान्तमार्गसंशुद्धौ दीक्षाकर्मणि सर्वतः ॥ ७१ ॥ क्रियास्वनुक्तमन्त्रासु योजयेदपरां बुधः । विद्यादिसकलान्ते च तद्वदेव परापराम् ॥ ७२ ॥ योजयेन्नैश्वरादूचं पिबन्यादिकमष्टकम् । न चापि सकलादूर्ध्वमङ्गाषट्कं विचक्षणः ॥७३॥ निष्कले परया कार्य यत्किचिद्विधिचोदितम् । विशुद्धे सकलान्ते तु शिखां छित्त्वा विचक्षणः ॥ ७४॥

इसके बाद माया नामक कण्ठपाश को विशुद्ध करना चाहिये । इससे मायान्त मार्ग की संशुद्धि अनिवार्य रूप से हो जाती है। दीक्षा कर्म को निर्विघ्न पूर्ण करने के लिये यह प्रक्रिया पूरी करनी पड़ती है ।। ७१ ॥

जिन क्रियाओं के लिये किसी मन्त्र का निर्देश न हुआ हो, वहाँ अपरामन्त्र का योजन विचक्षण आचार्य को करना चाहिये । विद्या से लेकर सकल पर्यन्त परापरा मन्त्र का योजन होता है ॥७२॥

__ मन्त्र प्रयोग की कुछ विशिष्ट बातों का ध्यान आचार्य को रखना चाहिये। पहली बात यह कि, ईश्वर से ऊपर किसी दशा में पिबन्यादि अष्टक का योजन नहीं करना चाहिये। दूसरी बात जिस पर विशेष ध्यान देना है, वह यह कि, सकल से ऊपर षडङ्ग न्यास का योजन शास्त्र विरुद्ध माना गया है ।। ७३ ॥

निष्कल भाव में केवल परामन्त्र का प्रयोग होता है। यह ध्यान देने का विषय है कि, शास्त्रानुमोदित विधि का ही प्रयोग करना चाहिये, इसके विपरीत नहीं। सकलान्त शोधन कर लेने के उपरान्त आचार्य शिष्य की शिखा का छेदन करे। यह मौन विधि है। अन्तः शिखा जिसकी प्रज्वलित हो जाती है, उसकी बाह्य शिखा प्रदर्शन मात्र रह जाती है। उसके ही छेदन का विधान यहाँ निर्दिष्ट है ।। ७४ ॥

१. क. पु॰ योजयेच्चश्वरादिति पाठः ; २. क. पु॰ अष्टधेति पाठः

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नवमोऽधिकारः हुत्वा चाज्यं ततः शिष्यं स्नापयैदनुपूर्वतः । आचम्याभ्यर्य देवेशं नुवमापूर्य सपिषा ॥ ७५ ॥ कृत्वा शिष्यं तथात्मस्थं मूलमन्त्रमनुस्मरेत् । शिवशक्ति तथात्मानं शिष्यं सपिस्तथानलम् ॥ ७६ ॥ एकीकुर्वग्छनैर्गच्छेद्वादशान्तमनन्यधीः । तत्र कुम्भकमास्थाय ध्यायन्सकलनिष्कलम् ॥ ७७ ॥ तिष्ठेत्तावदनुद्विग्नो यावदाज्यक्षयो भवेत् ।

एवं युक्तः परे तत्त्वे गुरुणा शिवमूतिना ॥ ७८ ॥ न भूयः पशुतामेति दग्धमायानिबन्धनः । विधिरेष समाख्यातो दीक्षाकर्मणि भौवने ॥ ७९ ॥

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आज्याहुति के पश्चात् शिष्य का अभिषेक करना चाहिये। तत्पश्चात् आचार्य स्वयम् आचमन करे। देवाधिदेव को पूजा करे। सुवा में सर्पिष् भरकर पूजा आचार्य ही करे ॥ ७५ ।।

___ अब शिष्य अधिकार सम्पन्न हो जाता है। आचार्य उसे आत्मस्थ करने की प्रक्रिया अपनाता है। इसमें मूल मन्त्र का ही अनुसरण किया जाता है। इस प्रसङ्ग में गुरु शिष्य दोनों शिव, शक्ति, स्वात्म और शिष्य, तथा घो, अनल इन यज्ञाङ्गों का भो ऐक्य साधित करना चाहिये। इस प्रक्रिया में तल्लीन रहते हुए अनन्य भाव-भावित शिष्य और आचार्य द्वादशान्त की साधना-यात्रा की अन्तिम भूमि को प्राप्त करें।

द्वादशान्त में पहुँच कर कुम्भक साध कर सकल-निष्कल सात्म्यि का ध्यान करे। शिष्य इस स्थिति में पहुँच कर अनुद्विग्न भाव से शान्तात्मा बनकर अवस्थित रहे। यह क्रिया तब तक चलनी चाहिये, जब तक घी पूरी तरह समाप्त नहीं हो जाता। शिष्य का यह सौभाग्य है कि, शिवमूर्ति गुरु द्वारा वह परतत्त्व में योजित कर दिया जाता है ।। ७६-७८ ॥

ऐसा शिष्य जो द्वादशान्त में अनुद्विग्न भाव से कुम्भक में अवस्थित होने की साधना में सिद्ध हो जाता है, पुनः संसृति चक्र में पतित नहीं होता। इसका कारण उसके अस्तित्व से माया ग्रन्थि का विच्छेद ही है। इसीलिये माया निबन्धन

२. श्रीत. १७४८८

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श्रोमालिनोविजयोत्तरतन्त्रम् इतराध्यविधिमुक्त्वा शिवयोगविधि तथा। विलोमकर्म संत्यज्य द्विगुणस्तत्त्ववर्त्मनि ॥ ८॥ तच्च वर्णमार्गेऽपि चतुर्धा पदवमनि ।

अष्टधा मन्त्रमार्गेऽपि कलाख्येऽपि च तद्विधा ॥ ८१ ॥ त्रिखण्डे विशतिगुणः स एव परिकीर्तितः । इति सर्वाध्वसंशुद्धिः समासात्परिकीर्तिता ॥ ८२॥

साधकाचार्ययोः कर्म कथ्यमानमतः शृणु ॥ ८३ ॥ इति श्रीमालिनोविजयोत्तरे तन्त्रे क्रियादीक्षाधिकारो नवमोऽधिकारः॥९॥

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के ज्ञानाग्नि से दग्ध होने का उल्लेख यहाँ किया गया है। यह भौवन दीक्षा का विधान है। इसी का आख्यान यहाँ किया गया है ॥ ७९ ॥

इसके अतिरिक्त इतर अध्वा अर्थात् पदाध्वा इत्यादि की दीक्षा में, भवन दीक्षा में आख्यात विधि का प्रयोग नहीं होता। एक तरह से इसे छोड़ ही देते है। शिवयोग विधि अर्थात् द्वादशान्त यात्रा का विधान भी नहीं अपनाते । विलोम कर्म में भी जो आहुतियां निर्दिष्ट हैं, उनका भी परित्याग कर उन आहतियों को द्विगुणित कर देना चाहिये । इसी तरह तत्त्वाध्वा में भी द्विगुणित करे । वर्णाध्वा में भी द्विगुणित तथा पदाध्वा में चतुगुणित’ आहुतियां देनी चाहिये । मन्त्राध्वा में आठ गुनी और कला के मार्ग में अर्थात् कलाध्वा में सोलह गुणित होनी चाहिये ॥ ८०-८१ ॥

इस तरह त्रितत्त्वों की शोधन प्रयुक्त आहुतियां बीस से तीन गुनी अधिक अर्थात् साठ हो जाती हैं। इस तरह क्रमिक रूप से सर्वाध्व संशुद्धि हो जाती है। इसके आगे साधक और आचार्य सम्बन्धी कर्म का क्रम आने वाला है। उसे भी ध्यान पूर्वक श्रवण करना चाहिये ।। ८२-८३ ।।

परमेशमुखोद्ध त ज्ञानचन्द्रमरीचिरूप श्रीमालिनीविजयोत्तरतन्त्र का डॉ. परमहंस मिश्र कृत नीर-क्षीर विवेक भाषा-भाष्य संवलित क्रियाधिकार-दीक्षा नामक नवम अधिकार पूर्ण ॥ ९ ॥

॥ ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॥