[[शङ्करविजयः Source: EB]]
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SANSKRIT WORKS PUBLISHED
IN THE NEW SERIES
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SANSKRIT WORKS IN PROGRESS
The Maitri Upanishad, with the commentary of Rámatírtha, edited, with an English Translation, by E. B. Cowell, M. A. Fasc. I. and II. Nos. 35 and 40.
The Mímáñsá Dars’ana, with the commentary of Sabara Swámin, edited by Pandita Mahes’achandra Nyáyaratna, Fasc. I. to V. Nos. 44, 85, 95, 101, 115.
The Taittiriya Aranyaka of the Black Yajur Veda, with the commentary of Sáyanácháryya, edited by Bábu Rájendralála Mitra. Fasc. I. II. III. IV. and V. Nos. 60, 74, 88, 97 and 130.
The Sañkara Vijaya of Anantánanda Giri, edited by Pandita Nava-dwipachandra Goswámi. Fasc. I. II. III. Nos. 46, 137 and 138.
[TABLE]
शङ्करविजयः।
आनन्दगिरिविरचितः।
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श्रीनवद्वीपगोस्वामिना
श्रीजयनारायण - तर्कपञ्चाननेन च
परिशोधितः।
_____________
३३ प्रकरणपर्य्यन्तं सोमप्रकाशयन्त्रे
अनन्तरं कलिकाताराजधान्यां वाप्तिष्ट-मिषन्-यन्त्रे
मुद्रितः।
शकाब्दाः १०८९ । ख्रीष्टाब्दाः १८६८।
विज्ञापनम्।
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शङ्करविजयग्रन्थः पूर्व्वमेतद्देशे दुष्प्राप्य आसीत्, किन्त्वयं ग्रन्थश्छात्राणां पण्डितानाञ्चानेकमत-ज्ञापनेन समीचीनां व्युत्पत्तिमादधाति, शङ्कराचार्य्याणां बादरायणसूत्रभाष्यकाराणां जीव-नचरितमपि समीचीनतया ज्ञापयति। शङ्कराचार्य्यस्तु माधवाचार्य्यहर्षमिश्रवाचस्पतिमिश्रपक्षधर मिश्रोदयनाचार्य्यगङ्गेशोपाध्यायादीनामतीवमान्यास्तदपेक्षया प्राचीनाश्च, तच्छिष्योपशिष्यैर्बहूनि अद्वैतमतप्रकाशकप्रकरणानि भारतवर्षप्रचलितानि प्रणीतानि। गुरुपरम्परयास्माभिः श्रुतं शङ्कराचार्य्यसमयमपेक्ष्य द्वादशशतवत्सरा व्यतीता इति। शङ्करविजयस्य नागराक्षरलिखितं एकं पुस्तकं बहुयत्नेन प्राप्तं, तैलाङ्गाक्षरलिखितमपरमपि यत्नैरनेकैरानीतम्, तद्दृष्ट्वा वङ्गाक्षरेण एक्रं पुस्तकमपि लिखितं लेखकेन, एतत्पूस्तकत्रयं दृष्ट्वा व्युत्पत्तिबलेन चायं ग्रन्थः शोधित इति ॥
यत्प्रसादादेतादृशं दुर्लभमपि सुलभतमं भवति सासियाखण्डक्षेमकारिणी सभा क्रमशोऽधि-काधिकां दीप्तिं दधाना चिरजीविनी भूयादिति श्रीजयनारायणतर्कपञ्चाननः प्रार्थयते॥
______________
विज्ञापनम् ।
————
पुरासीत् खड्दहग्रामे प्रसिद्धः सिद्धपूरुषः।
नित्यानन्दप्रभुर्नाम्ना शिष्यसङघैकतारकः॥१॥
तदन्वयभवः श्रीमान् नवद्वीपेति नामकः।
विद्यारत्नोपनामा च गोस्वामीतीर्य्यते जनैः॥२॥
नानाशास्त्राटवीयानपञ्चाननसमः सुधीः।
शङ्कराचार्य्यविजयग्रन्थस्य शोधनाय सः॥३॥
प्राप्तवान् आसियासंशत्-सभ्यानुमतिमर्थितां।
शोधितस्तेन रामाग्निमितप्रकरणवधिः॥४॥
मुद्रितोऽभूत्ततः सोऽपि निजकार्य्येषु तत्परः।
अत्यन्तानवकाशत्वादशक्तः शोधने स्वयं॥५॥
जयनारायणं नाम्ना तर्कपञ्चाननाभिधं।
स्वीयन्यायगुरुं धीरं समागम्येदमब्रवीत्॥६॥
ममावकाशलेशोऽपि नास्तीदानीमतः कथं।
इमं ग्रन्थं शोधयामि भवताऽतः प्रगृह्यतां॥७॥
कृपया मम भारोऽयं ग्रन्थसंशोधनात्मकः।
अध्यापकाऽसैा कृपया ततस्तामवहद्धुरं॥८॥
कालीपीठादवाच्यान्दिशिविमलकुलब्राह्मणावासभूमिर्वङ्स्वासज्ञोऽस्ति पल्लीब्रजवितततनुर्ग्राम उद्यद्विदग्र्यः।
तत्रासीद् विद्वदिन्द्रः सुमतिजनगणाध्यापनासक्तचित्तः
सावर्णैः स्थापितोऽतिप्रथितकुल-चतुःसागरीवारिपूर्णैः ॥९॥
श्यामसुन्दरसञ्ज्ञोऽसौ वाचस्पतिपदास्पदं।
प्रतीच्यवैदिकश्रेणीलसत्काण्वायनान्वयः॥१०॥
सावर्णेभ्यः समासाद्य बहुलां भूमिमुत्तमां।
जीविकां बहुलानन्तेवासिनोऽध्यापयच्चिरं॥११॥
भ्रातृव्यस्तस्य धीरेन्द्रो रामचन्द्रेति नामधृक्।
तर्कालङ्कारोपनामा तत्र तर्कमपाठयत्॥१२॥
तस्याङ्गजो हरिश्चन्द्रविद्यासागरसञ्ज्ञकः।
पुराणे धर्म्मशास्त्रे च निपुणोऽभून्महामतिः॥१३॥
तस्य द्वितीयस्तनयो जयनारायणाभिधः।
तर्कपञ्चाननोपाख्याविख्यातस्तर्कमंश्रयात्॥१४॥
काव्यं व्याकरणं धर्म्मशास्त्रञ्च स्मार्त्तनिर्म्मितं।
योऽधीतवान् यत्नशाली कथितात् पितुरात्मनः॥१५॥
येनाऽलङ्कारशास्त्राणि प्राप्तानि रामतोषणात्।
विद्यालङ्कारविख्यातादागमग्रन्थकारकात्॥१६॥
कल्क्यातानगरादारात् शालिकाग्राम उत्तमः।
गङ्गापश्चिमकूलस्थस्तचासीद्गोतमोपमः॥१७॥
तर्कसिद्धान्तोपनामा जगन्मोहननामधृक्।
तस्मादतिसुविख्यातादधीतं येन यत्नतः॥ १८ ॥
तर्कशास्त्रं तत्त्वचिन्तामणिप्रभृतिविस्तृतं।
दीधितिप्रमुखञ्चापि गादाधर्य्यादिकन्तथा॥१९॥
येन गुर्ज्जरदेशीयान्नाथूरामाख्यशास्त्रिणः।
वेदान्तादीन्यधीतानि वाग्देव्याः पौरुषाकृतेः॥२०॥
यो नारिकेलडाङ्गाख्यग्रामे लोहाध्वसन्निधौ।
निवसन् सुधियः शिष्यानध्यापयति साम्प्रतं॥२१॥
श्रीयुक्तेश्वरचन्द्राख्यो विद्यासागरमञ्ज्ञितः।
यस्मान्यायादिशास्त्राणि विख्यातोऽधीतवान् पुरा॥२२॥
महेशचन्द्रः श्रीयुक्तो न्यायरत्नोपनामकः।
यस्मात्तर्कादिका विद्या विख्यातः प्राप्तवान् पुरा॥२३॥
कल्क्यातानगरान्तःस्थे स्वीयसंस्कृतमन्दिरे।
दर्शनाध्यापने राजा यः परीक्ष्यनियोजितः॥२४॥
यस्य ज्येष्ठः शालिकास्थे मठे श्रीमधुसूदनः।
पाठयत्यधुना तर्कं तर्कवागीशविश्रुतः॥२५॥
जयनारायणः श्रीमान् सेोऽयं न्यायादिवित्तमः।
चतुस्त्रिंशात् प्रकरणादारभ्यैनमशोधयत् ॥२६॥
शकस्य धरणीपतेर्भुजगनागशैलेन्दुसेऽ-
हितालियुतहायने शनिदिनेऽत्र मासे मधौ।
विशुद्धपदवीं गता गदिततर्कपञ्चाननात्
सदादृतसुमुद्रणकृतिरियाय सम्पूर्णताम्॥२७॥
————-
शङ्करविजयस्य निर्घण्टपत्रम्।
| प्रकरणानि | विषयाः |
| १ | मङ्गलाचरणशास्त्रोपक्रमणिका |
| २ | शङ्कराचार्य्यस्य शङ्करावतारस्य प्रादुर्भावकथारम्भः |
| ३ | अद्वैतस्वरूपकथनारम्भः |
| ४ | शैवमतनिराकरणाम्भः |
| ५ | शिवमतैकदेशिमतनिराकरणारम्भः |
| ६ | भागवतमतनिराकरणारम्भः |
| ७ | वैष्णवमतनिराकरणारम्भः |
| ८ | पञ्चरात्रागमनिराकरणारम्भः |
| ९ | वैखानसमतनिराकरणारम्भः |
| १० | कर्म्महीनवैष्णवमतनिराकरणारम्भः |
| ११ | हैरण्यगर्भमतनिराकरणारम्भः |
| १२ | अग्निवादिमतनिराकरणारम्भः |
| १३ | सौरमतनिराकरणारम्भः |
| १४ | गुरुस्तुतिः |
| १५ | महागणपतिमतनिराकरणारम्भः |
| १६ | हरिद्रागणपतिमतनिराकरणारम्भः |
| १७ | उच्छिष्टगणपतिमतनिराकरणारम्मः |
| १८ | नवनीतस्वर्णसन्तानगणपतिमतनिराकरणारम्भः |
| १९ | शक्तिमतनिराकरणारम्भः |
| २० | महालक्ष्मीमतनिराकरणारम्मः |
| २१ | वाग्देवतामतनिराकरणारम्भः |
| प्रकरणानि | विषयाः |
| २२ | वामाचारमतनिराकरणारम्भः |
| २३ | कापालिकमतनिराकरणारम्भः |
| २४ | कापालिकैकदेशिमतनिराकरणारम्भः |
| २५ | चार्व्वाकमतनिराकरणारम्भः |
| २६ | सौगतमतनिराकरणारम्भः |
| २७ | जैनमतनिराकरणारम्भः |
| २८ | बौद्धमतनिराकरणारम्भः |
| २९ | मल्लारिमतनिराकरणारम्भः |
| ३० | विश्वक्सेनमतनिराकरणारम्भः |
| ३१ | मन्मथमतनिराकरणारम्भः |
| ३२ | कुवेरमतनिराकरणारम्भः |
| ३३ | इन्द्रमतनिराकरणारम्भः |
| ३४ | यममतनिराकरणारम्भः |
| ३५ | वरुणादिमतनिराकरणारम्भः |
| ३६ | शून्यमतनिराकरणारम्भः |
| ३७ | वराहमतनिराकरयारम्भः |
| ३८ | लोकमतनिराकरणारम्भः |
| ३९ | गुणमतनिराकरणम् |
| ४० | साङ्ख्यमतनिराकरणारम्भः |
| ४१ | योगमतनिराकरणारम्भः |
| ४२ | पीलुवादिमतनिराकरणारम्भः |
| ४३ | कर्म्ममतनिराकरणारम्भः |
| ४४ | चन्द्रमतनिराकरणारम्भः |
| ४५ | राजमतनिराकरणारम्भः |
| प्रकरणानि | विषयाः |
| ४६ | क्षपणकमतनिराकरणारम्भः |
| ४७ | पितृमतनिराकरणारम्भः |
| ४८ | शेषगरुडमतनिराकरणम् |
| ४९ | सिद्धमतनिराकरणारम्भः |
| ५० | गन्धर्व्वमतनिराकरणम् |
| ५१ | भूतवेतालमतनिराकरणम् |
| ५२ | व्यासदर्शनम् |
| ५३ | ब्रह्मदेववचनम् |
| ५४ | व्यासदत्तायुः प्रपञ्चनम् |
| ५५ | रुद्धाख्यपुरे भट्टदर्शनम् |
| ५६ | मण्डनमिश्रजयाभिधानारम्भः |
| ५७ | सरसवाण्या सह यतिप्रसंङ्गप्रपञ्चः |
| ५८ | देहान्तरसञ्चारारम्भः |
| ५९ | शिष्यागमनम् |
| ६० | नृसिंहसाक्षात्कारः |
| ६१ | सरसवाणीविजयः |
| ६२ | गुरोः सरसवाण्याञ्च शुङ्गगिरिस्थाननिवासः |
| ६३ | काञ्चीनगरनिर्म्माणारम्भः |
| ६४ | कामाक्षीप्रकरणम् |
| ६५ | श्रीचक्रनिर्म्माणारम्भः |
| ६६ | मोक्षमार्गप्रकाशारम्भः |
| ६७ | शैवमतस्थापनारम्भः |
| ६८ | वैष्णवमतस्थापनारम्भः |
| ६९ | सौरमतस्थापनम् |
| प्रकरणानि | विषयाः |
| ७० | शक्तिमतस्थापनारम्भः |
| ७१ | गाणपत्यमतस्थापनारम्भः |
| ७२ | कापालिकमतस्थापनम् |
| ७३ | श्रीगुरुस्तुत्यारम्भः |
| ७४ | गुरोर्देहत्यागः |
| ग्रन्थसमाप्तिः |
___________________
| अशुद्धानि | शुद्धानि |
| सवात्मको | सर्वात्मको |
| मनुष्ठेयमिति | मनुष्ठेय इति |
| कुटीचका | कुटीचरा |
| कुटीचका | कुटीचरा |
| स्तदाश्रमा | स्तदा तदाश्रमा |
| कुटीचकः | कुटीचरः |
| वुद्धिवृद्धि | बुद्धिवृद्धि |
| वासः बास | वासुः वासु |
| वुद्धिगुहा | बुद्धिगुहा |
| कम्मणैव | कर्म्मणैव |
| भवत | भवता |
| धारयिताव्य | धारयितव्य |
| अंशद्वयं | अंसद्वयं |
| वाहु | बाहु |
| किञ्चिद्ज्ञ | किञ्चिज्ज्ञ |
| निरास्तान्तरज्ञान | निरस्तान्तराज्ञान |
| वैष्णवादधिक | वैष्णवादधिकं |
| पाशुपाता | पाशुपता |
| मोक्ष | मोक्षं |
| सर्वदेवकारणः | सर्वदेवकारणं |
| कैण्डिन्यमुनेः | कौण्डिन्यमुनेः |
[TABLE]
| अशुद्धानि | शुद्धानि |
| गुरुनमस्कृत्वा | गुरुं नमस्कृत्वा |
| भूमि | भूमिं |
| अतिष्ठत | अतिष्ठत् |
| जयेछया | जयेच्छया |
| केचिछङ्ख | केचिच्छङ्ख |
| पिछवातै | पिच्छवातै |
| तछिष्यता | तच्छिव्यता |
| नस्मभव | देह्महमभवं |
| गुणयुतोऽभव | गुणयुतोभव |
| सदुपासवतां | सदुपासनावतां |
| वेदामंज्जा | वेदाः |
| वदन्ति | विन्दन्ति |
| मां निगमैर्माध्यैर्वेद्यं | मां ये निगमावेद्यं |
| पतादूम्बपूषः | एतादृग्वपुष |
| तत्पट्टन | तत्पत्तन |
| तात्पर्ये | तात्पर्यै |
| तन्मल | तन्मूल |
| शिष्टो | श्लिष्टो |
| षडदल | षड्दल |
| एव | एवं |
| चिरकालारम्भ | चिरकालादारम्भ |
| प्रसङ्गात | प्रसंङ्गात् |
| त्यागनेके | त्यागेनैके |
| देतद्ग्राह्य | देतदग्राह्य |
| अशुद्धानि | शुद्धानि |
| सत्वामात्र | सत्तामात्र |
| तसुप | तमुप |
| बुद्धिरित्वा | बुद्धिरीत्या |
| तदत्यन्तदौष्टं | तदत्यन्तदुष्टं |
| तवनीत | नवनीत |
| तह्यतिरेकेन | तह्यतिरेकेण |
| तस्ततद्गुण | तस्तत्तद्गुण |
| विद्यता | विघ्नता |
| गरुं | गुरुं |
| माङ्गार्चिताङ्वि | माङ्गार्चिताङ्घ्रि |
| सहाविद्यया | सह अविद्यया |
| वाच्यस्य | वाच्यत्वं |
| सर्वकारणः | सर्वकारणं |
| परमगुरु | परमगुरुं |
| विंशम | विंशम् |
| सर्वे | सर्वै |
| दभि | दिभि |
| न वेदुः | न विदुः |
| शब्दवाच्य | शब्दवाच्यं |
| साक्षात्कर्त्तेवेति | साक्षात्कर्त्तव्यश्चेति |
| वाग्रपा | वाग्रूपा |
| परभावात् | पराभावात् |
| तद्ज्ञानकारणं | तद्भानकारणं |
| किञ्चिद्विचारणीयं | न किञ्चिद्विचारणीयं |
| अशुद्धानि | शुद्धानि |
| स्यात् भृगु | स्यात् विष्णुर्भृगु |
| निवर्हण | निवर्हणं |
| प्रत्यामन्न | प्रत्यासन्न |
| मैरव | भैरव |
| भक्ष्ययिष्यती | भक्षयिष्यती |
| भवतकृतं | भवत्कृतं |
| ब्राह्मण्याचरतां | ब्राह्मण्याचारतां |
| जटाजुटो | जटाजूटो |
| शम्भू भैरव | शम्भुभैरव |
| किमज्ञ | किमज्ञा |
| तीतः शून्यात्म | तीतशून्यात्म |
| पुनरागमने | पुनरागमनं |
| जलुकावत् | जलौकावत् |
| तृणजलुका | तृणजलौका |
| मृतोपधि | मृतोपाधि |
| केचिन्म र्खजना | केचिन्मूर्खजना |
| भोक्षसाधनं | मोक्षसाधनं |
| धर्म्मेणेव | धर्म्मेणैव |
| सर्वे | सर्वै |
| वोद्ध | बौद्ध |
| शवलनामा | शवरनामा |
| स्वामिन | स्वामिन् |
| सर्वोत्तम | सर्वोत्तम |
| किलकश्चिच्छवरनामालोके | किल लोके |
| अशुद्धानि | शुद्धानि |
| सत्पट्टनं | सत्पत्तनं |
| त्रिकालनाद्यस्तु | त्रिकालनाथस्त |
| मृढतम | मूढतम |
| स्ववाहनारूढस्य | श्ववाहनारूढस्य |
| स्वन्तर्गत | श्वान्तर्गत |
| श्यामशवलीदयो | श्यावशवलादयो |
| बहुप्रपद्यैः | बहुप्रपन्नैः |
| वियुलतराय | विपुलतरायां |
| मात्रेशलक्ष्य | मात्रलक्षणं |
| परमात्मानमीक्ष्य | परनात्मानं समीक्ष्य |
| वकुण्ठ | वैकुण्ठे |
| प्रसादलवं | प्रसादलवो |
| मित्यनुज्ञा | इत्यनुज्ञा |
| पुस्पधनु | पुष्पधनु |
| कृत्वा मोक्षप्रदोऽपि | कृत्वा स्थिताय मोक्षप्रदोऽपि |
| शीकृत | वशीकृत |
| पुस्पधनु | पुष्पधनु |
| वशासम्भवात् | वशीकरणाद्यसम्भवात् |
| यदुच्येत | यद्युच्येत |
| दरद्रादि | दरिद्रादि |
| मूलकत्वं | मूलत्वं |
| नामयक्षि | नामकयक्षि |
| सङ्घः कृत | सङ्घकृत |
| अशुद्धानि | शुद्धानि |
| चिदर्थं दत्तं | चिदर्थोदत्तं |
| विहिता | विदिता |
| केचिद्भषणानि | केचिद्भूषणानि |
| दयाऽप्युप | दयोऽप्युप |
| वक्तव्य | वक्तव्यम् |
| परिसेव्यमान | परिसेव्यमानं |
| बहुनि | बहूनि |
| पूर्ब्बपक्षे | पूर्व्वपक्षे |
| प्रतिपादितं | यद्व्रह्म |
| इक्ष्यत | इक्षत |
| इक्ष्यत | इक्ष्यत |
| याग्यता | योग्यता |
| एकस्येन्दानुपातः | एकस्येन्द्रानुपातः |
| ब्रह्मेतिप्राप्तिः | ब्रह्मेतिप्राप्तेः |
| भगवद्भिरार्यै | भगवद्भिराचार्यै |
| किमुच्चरितं | किमूच्चरितं |
| जाम्बूनदी | जाम्बुनदी |
| लङ्कापट्टणं | लङ्कापत्तणं |
| कोटिपट्टणं | कोटिपत्तणं |
| पट्टणं | पत्तणं |
| पट्टणोपर्येव | पत्तणोपर्येव |
| वृत्तेर्लब्ध्यो | वृत्तेर्लब्ध्य्वो |
| अपमृत्यकालमृत्यु | अपमृत्व्यकालमृत्यु |
| भवद्भिरेव | भवगद्भिरेव |
| अशुद्धानि | शुद्धानि |
| शरीबन्धः | शरीरबन्धः |
| प्रभं | प्रभुं |
| मल्लिकार्जन | मल्लिकार्ज्जुन |
| पट्टणं | पत्तनं |
| पट्टणं | पत्तनं |
| पट्टणं | पत्तनं |
| ज्ञानानन्तलक्षणं | ज्ञानानन्तानन्दलक्षणं |
| यत् | यत्र |
| समासतो भावि | समासतो वदभावि |
| मार्गेण अवलम्ब्य | मार्गमवलम्ब्य |
| ब्राह्मणोपासनं | ब्राह्मणोपासनार्थं |
शुद्धिपत्रं समाप्तं॥
__________
शङ्कर विजये
प्रथमं प्रकरणं।
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श्रीगणेशाय नमः।
**श्रीगुरुभ्यो नमः। ॐ आचार्यजयो लिख्यते। **
नमामि शङ्कराचार्य्यगुरुपादसरोरुहं।
यस्य प्रसादान्मूढोऽपि सर्वज्ञोऽहं सदास्म्यऽलं॥
अनन्तानन्दगिरिरहमप्रतिहताज्ञस्य भगवतः शिष्यः स्वगुरोरवतारप्रयोजनं वर्णयामि, सन्त्यत्र मम परमगुरोरवतारकथा-त-दुपकृतिपोषितजगत्परम्पराऽविच्छिन्नशुद्धाद्वैतविद्याप्रतिष्ठातदाशाविजयकौतूहल-तद्व्यासदर्शनविचित्रतच्छरीरावसानकाला-गतब्रह्मदेववचन व्यासदत्तायुःप्रपञ्चभट्टदर्शनमण्डनमिश्रजयतदङ्गनाप्रसङ्गदेहान्तरसञ्चारविदितकामशास्त्र–शिष्या-गमननृसिंहसाक्षात्कारसरस्वतीजयशृङ्गगिरिस्थानवासकाञ्चीनगरनिर्म्माणकामाक्षिप्रपञ्चश्रीचक्रनिर्म्माणमोक्षमार्ग–प्रकाश-सच्चिदानन्दैक्यनामानि प्रकरणानि तत्तदवान्तरकथाविस्तारविजृम्भितं नानाप्रश्नोत्तरभासुरं बहुदुष्टमतनिबर्हणमिदानीं करोमि॥ ॥ इत्यनन्तानन्दगिरिकृतौ आचार्य्यविजये शास्त्रोपकरणं प्रकरणं प्रथमं॥
अथ1 भगवांश्चतुर्मुखः स्वमुखबाहूरूपादेभ्यः किल ब्रह्मक्षत्रवेश्यरूद्रान् निर्म्माय संस्थानचक्राधिदेव-शिवविष्णुब्रह्मगणपत्युपासकान कृत्वा जातिधर्म्मपरिपालनतपोविधिमाकल्पपर्य्यन्तमाचकार। ततः प्रवृत्तेषु कृतादियुगेषु ब्राह्मणादयः सत्यधर्म्मतपोविद्यादिपरिशोभितशीलाः सर्व्वदेवमयः स्वजातिदेव इति सम्यग्विचारसम्पन्नाः स्वेशैक्यनिर्ज्जितभिदाद्यन्तरायाः सदाद्यर्थपर्यालोचनतत्परा बभूवुः।
पूज्येषु सेवका नीचाः पुण्यमार्गक्रियानुगाः।
तत्तदेव पदं चापुर्यथाजातिकुलस्थिति॥
विप्राणां दैवतं शम्भुः क्षत्रियाणां तु माधवः।
वैश्यानां तु भवेद्ब्रह्मा शूद्राणां गणनायकः। इति मनुस्मृतेः॥
ब्राह्मणेन शिवः शिवतत्त्वविदा सेवितव्यः क्षत्रियादिना तुं तत्तत्तत्त्वविदेति निरवद्यं मनुस्मृतेरितरथाकर्त्तुमशक्यत्वात्। परन्तु क्षीणे पुण्ये लुप्तधर्मतया क्लेशभाजि कलियुगे परस्पररागादिग्रस्तेषु2ब्राह्मणादिषु सत्यज्ञानशून्येषु निगमाचारपरित्यक्तेषु लोकप्रवृत्तिः काचिदासीत्3।
केचिच्छम्भुरताः परे हरिरता बाणीरताः केचन
केचिद्वह्निरता दिवाकररता विघ्नेशभक्ताः परे।
केचिच्छक्तिरताश्च भैरवरताः केचित्तु मल्लारिगा
विष्वक्सेनरताः परे मदनगाः केचिद्भजन्त्यर्थदं॥
केचित्सुरेशमपरे यममप्पतिञ्च
वायुं महीमुदकमम्बरमादिमूर्त्तिं।
केचिद्विराजमपरे त्रिगुणान् यथेष्टं
केचित् प्रधानमपरेऽणु4मुपात्तकर्म्म॥
केचिच्चन्द्रपराः परे कुजपुराः केचित्तु सौम्योत्सुकाः
केचिज्जीवपराः परे भृगुपराः केचित्तु मन्दाश्रिताः।
केचित्कालपराः परे पितृपराः केचित्तु नागेशगाः
केचित्तार्क्षपराश्च सिद्धनिचयं5सेवन्ति केचिद्धिया॥
केचिद्गन्धर्ब्बसाध्यादीन् भूतवेतालगाः परे।
एवं नानाप्रभेदानां6नृणां वृत्तिर्यथेस्मिता॥
केचित् स्ववृत्तिं वेदार्थेः प्रतिपाद्यां समूचिरे।
केचिद्धर्म्मैरियंमुक्तिरितिजल्पं7 समास्थिताः॥
अन्योन्यमत्सरग्रस्ताः परस्परजयैषिणः।
निजेच्छाकृतिमङ्गेषु धारयन्ति रुषान्विताः॥
ततश्च लिङ्गत्रिशूलडमरुमृड़ादिचिह्नं, शङ्खचक्रगदापद्मादिचिह्नं, कमण्डलुकूर्च्चिकादिचिह्नं, विस्फुलिङ्गादिचिह्नं, पूर्णमण्डलरक्तचन्दनादिचिह्नं, एकदन्तचिह्नं, स्वर्णचर्म्मपादहरिद्रादिचिह्नं, स्फटिकार्द्धचन्द्रजटाविभूत्यादिचिह्नं, वराटमालिकाश्ववेषभाषादिचिह्नं, खर्णदिरचितशङ्खचतुर्बाहुत्वादिदण्डतोत्रपाणित्वादिचिह्नं, पुष्पकोदण्डाद्युपकल्पितवसन्तोत्सव- भूषणचिह्नं, नवनिधानरूपकण्ठमालिकादिचिह्नं, मणिरचितवज्रायुधधारणादिचिह्नं, महिषरूपवेषप्रतिमादिचिह्नं, सलिलमध्यस्थलपूजादिचिह्नं, वायुपुरुषस्तवोपासनचिह्नं, भूमिदेवतोपासनचिह्नं, तीर्थयात्राद्युदकधारणादिचिह्नं, शून्योपासनचिह्नं, आदिवराहोपासनचिह्नं, चतुर्द्दशलोकपालोपासनचिह्नं, सत्त्वरजस्तमोगुणेपासजवेषधारणदिचिह्नं, साङ्ख्यनिर्द्दिष्टप्रधानोपासनचिह्नं, तर्कराद्धान्तनिश्चितपोलपासनचिह्नं, जैमिनिमतसिद्धकर्मप्रपञ्चसञ्चारचिह्नं,पूर्णिमादिकालवेषचन्द्रोपासनादिचिह्नं, अङ्गारकादिपञ्चग्रहोपासनचिह्नं, क्षपणकमतसिद्धकालोपासनादिचिह्नं, दर्शादिपुण्यकालासादितपवित्रपित्रुपासनादिचिह्नं, स्वर्णदिरचितशेषफलधारणादिचिह्नं, वैनतेयमूर्त्तुपासनचिह्नं, नित्यनाथादिसिद्धवेषभाषाधारणादिचिह्नं, गानविशेषे विश्वावसूपासनादिचिह्नं, चिताभस्मोद्धूलनशल्यविशेषधारणादिभिर्भूतराडुपासनादिचिह्नं, अक्षादिबद्धकज्जलादिधारणवेतालोपासनचिह्नमित्यादिबहुविधं यथेच्छं सम्प्राप्य स्वेच्छाविहरणशीला मर्त्या बभूवुः, तानहरहःसन्ध्यामुपासीतेत्यादि बहुविधविधिवचनानि पीड़यन्ति।
कर्मभ्रष्टान्परानन्ददूरान्8मूढान्नराधमान्।
तान् दृष्ट्वानारदः शीघ्रमाप ब्रह्मपदान्तिकम्॥
भो तात नूतनमभूज्जगदेतदर्वा-
ग्वाक्वित्रयुक्तिपरिकल्पितकर्मशीलं।
कालादिजातनिगमार्थपरम्परा स्था-
द्व्यर्थातदा यदि भवन्मतमप्रमाणम्॥
भवद्भिः पूर्वमिदमुक्तं। सदेव सैाम्येदमग्र आसीत्।ब्रह्म वा इदमग्र आसीत्। आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीत्। वासुदेवो वा इदमग्र आसीत्।
यदाऽतमस्तन् न दिवा न रात्रि-
र्न सम्न्न चासच्छिव एव केवलः।
तदक्षर तत्मावतुवरण्य
प्रज्ञा च तस्मात्प्रसृता पुराणी॥ स्मृतिश्च,
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते।
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः इति॥
तत्प्रीतये कर्म करोतु विप्रः क्षवस्तु भूमिं महसा9 भुनक्तु। वैश्योददात्वर्थमथास्य10 तुष्ट्यैशूद्रः करोत्वग्रजपूजनं हि॥ इति॥
तस्माद् द्विजातीनामेकमेव दैवतं सदादिशब्दवाच्यं तस्य गुणातीतवृत्तेर्लिङ्गाभावात् तत्सत्त्वे मानाभावाच्च निरुपाधिकं ब्रह्मैव मुमुक्षुभिरुपासनीयमिति। एवं नारदवचनं निशम्य ब्रह्मापि चिरं ध्यात्वा स्वलोकात् पुत्रमित्रभक्तादियुक्तः शिवलोकं प्राविशत् तत्र मध्याह्नकोटिसूर्य्यकोटितेजसं कोटिहिमांशुशीतलं पञ्चवक्त्रं चन्द्रमौलिं विद्युत्पिङ्गजटाधरम् पार्व्वतीवामार्द्धशरीरिणं सर्व्वेश्वरं महादेवं दृष्ट्वादण्डवत्सगणः प्रणनाम, उत्थाय सम्पुटितहस्तयुगः सगणोब्रह्मा किलोवाच। भो महादेव सर्व्वज्ञ सर्व्वलोकेश सर्व्वसाक्षिन् सर्व्वमय सर्व्वकारण सर्व्वात्मक सर्व्वातीत सर्व्वदेववन्दितचरणारविन्द प्रणवरूप प्रणवातीत प्रणवगोचर कालरूप कालातीत कमनीयविग्रह कन्दर्पहर कामितार्थप्रद करुणाकर श्रीपरमेश्वर सावधानेन मदीयां विज्ञापनामवधारय, तुरीयप्रणवातीताद्ब्रह्मणः सत्यज्ञानानन्तलक्षणाद्भगवतः किलार्द्धविन्दुरूपा प्रकृतिरुत्पन्ना, तवैतस्याश्चन्द्रचन्द्रिकान्यायेन शुद्धाद्वैता सा त्त्वमेवेति सिद्धं। तत्सकाशादकारः शुक्लः सत्त्वसम्पन्नः, तस्मादुकारः कृष्णः तामसगुणप्रधान उत्पन्नः, तस्मान्मकारः शोणवर्णः रजःसम्पन्नोऽहं भवदाज्ञया11जरायुजादिचतुर्विधजङ्गमान् पर्व्वतादीन् स्थावरांश्च सृष्ट्वासमुद्रद्वीपगिरिनदीवनपुरग्रामगोतुरगमर्त्त्यकरिसिंहव्याघ्रभल्लुकादीन् ब्रह्मक्षत्रियवैश्य शूद्रजातीन् प्राणिनश्च तत्तद्धर्म्मसमाचारशीलान् कृत्वा भवच्चरणारविन्दध्यानासक्तेमयि सत्यलोकाश्रिते भूलोके कश्चिदुपद्रवः समुत्थितोऽभवत्। तदवधारय।
श्रुत्याचारं परित्यज्य मिथ्याचारं समाश्रिताः।
विप्रादयो विचित्रैस्तु लिङ्गैः सन्तप्तदेहिनः॥
हुतं नैव यथाकालमग्नौ हव्यमृगन्ततः12।
लिङ्गिनो वयमित्युच्चैरभिमानान्नराधमाः॥
न दत्तं पर्व्वणि प्राप्ते कव्यं पित्रादितृप्तये।
नाध्यापितं ब्रह्मयज्ञं सत्यलोकस्य सिद्धये॥
नाग्निष्टोमो नाग्रयणं न सन्न्यासं कदाचन।
करोति मनुजः कश्चित्सर्व्वे पाषण्डमाप्नुयुः॥
विष्णुदासा वयं चेति वयमीशानलिङ्गिनः।
भैरवार्कगणेशानां देव्या भक्ताश्च केचन॥
केचित्कापालिकाचारा मद्यमांसाशिनः सदा।
एकस्यैवमतस्यापि13भेदषट्कं समाश्रिताः॥
एवं बहवश्चार्वाकमतसिद्धान्ताश्रिताः तत्स्वरूपमेव परमिति तदाचाराः14। सत्यशौचादिधर्मकर्मज्ञानरहिताः पशव इव द्वैतवादिनः श्रुतिस्मृतीतिहासपुराणोपपुराणादिफलितकर्मज्ञानरूपमार्गद्वयं परित्यज्य तृतीयपथा मूढतात्पर्य्येण हि विहिताविहितमविज्ञाय शुद्धाद्वैतविरोधिनः दुर्नीत्या श्रुत्यर्थविरुद्धं तात्पर्य्यंस्वीकृत्य सर्व्वे कुमतशीला बभूवुः।
कर्त्ता त्वमीश जगतां मम केशवस्य
तेजोभुगन्तसमये लयकर्तृकत्वात-।
तस्मात्कुविप्रवलकुत्सितदुर्म्मतानां15
नाशाय चिन्तय समुद्धर वेदमार्गं॥
इति ब्रह्मणा प्रस्तुतः श्रीपरमेश्वरः सन्तुष्टान्तरः सन्निदमुवाच।
ब्रह्मन् यथासुखं गच्छ सन्तुष्टोऽस्मि तवोक्तितः।
शङ्कराचार्य्यनाम्नाहं सम्भवामि महीतले॥
यद्धितं तव विष्णेश्च तदेव स्थापयाम्यहं।
मम भक्तावुभौयस्मात्सत्यं नान्यद्विचिन्तय॥
मद्विभूतिर्हरिस्त्वं हि चेन्द्राद्यष्टदिगीश्वराः।
वसवो द्वादशादित्या गन्धर्ब्बाश्च मरुद्गणाः॥
यक्षाः सिद्धास्तथा साध्या गरुड़ाः किन्नरादयः।
किमत्र बहुनोक्तेन सर्व्वं चेदं चराचरं॥
मदङ्गभेदसञ्जातं लये मय्येव लीयते।
अहमेकोऽक्षरः कर्त्ता ध्रुवः शाश्वत एव च॥
आत्मा गुहाशयः सर्व्ववेदार्थप्रणवात्परः।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामद्वैतमुपाश्रय॥
इति सम्बोधितो ब्रह्मा प्रणिपत्य महेश्वरं।
सगणः प्राप सत्याख्यं निजलोकमनन्यधीः॥
ततः सवात्मको देवश्चिदम्बरपुराश्रितः।
आकाशलिङ्गनाम्ना तु विख्यातोऽभून्महीतले॥
तत्र विद्वन्महेन्द्रस्य कुले द्विजगणश्रिते।
जातः सर्वज्ञनाम्ना तु कश्चिद्द्विजकुलेश्वरः॥
कामाक्षीति सती चाभूत्तस्य लक्षणलक्षिता।
चिदम्बरेश्वरं ध्यात्वा तावुभौ प्रापतुः सुतां॥
सा कुमारी सदा ध्यानसक्ताऽभूज् ज्ञानतत्परा।
विशिष्टेति च नाम्ना तु प्रसिद्धाऽभून्महीतले॥
तामष्टमेऽब्दे विप्राय शान्तायाद्भुतकर्मणे।
प्रददौ विश्वजिन्नाम्ने सर्वज्ञोऽस्याः पिता स्वयं॥
सा सदा पतिमद्वैतं ध्यात्वाकाशात्मकं शिवं।
तस्या16-राधनमत्युग्रमाचकार विवेकिनी॥
तादृशीमपिसन्त्यज्य ययौविश्वजिदद्भुतं।
अरण्यं17तपसे कृत्वा मनो निश्चयतां गतं॥
तदा प्रभृति सा नारी चिदम्बरमहेश्वरं।
तोषयामास18पूजाभिर्ध्यानैरात्मगतैः सदा॥
स देवः19सर्वपूर्णोऽपि तस्या वदनपङ्कजं।
प्रविश्य विस्मितान् कुर्वन् जनानन्यान् समागतान्20॥
महोग्रतेजसा जुष्टा विशिष्टाऽभूद्यथाम्बिका21।
सर्वैः सम्पूजिता नित्यं पित्रादिभिरुपाश्रिता22॥
अतीते मासि गर्भस्य वृद्धिरासीद्दिने दिने।
चिदम्बरेश्वरं कृत्वा यजमानं द्विजोत्तमाः॥
तृतीयादिषु मासेषु चक्रुः कर्माणि वेदतः।
प्राप्ते तु दशमे मासि विशिष्टागर्भगोलतः23॥
प्रादुरासीन्महादेवः शङ्कराचार्य्यनामतः।
आसीत्तदा पुष्पवृष्टिर्देवसङ्घैः प्रचोदिता।
नेदुर्दुन्दुभयोदिव्याः स्वर्गलोके चिरं सुखम्॥
इत्यनन्तानन्दगिरिकृतौ आचार्य्यविजये श्रीमच्छङ्करभगवत्पादाचार्य्यख्यश्रीमदद्वैतसिद्धान्त-श्रीपरमगुरोरवतारकथा प्रकरणं द्वितीयम्॥*॥
** तृतीयं प्रकरणं।**
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विचित्ररूपतेजोगुणगाम्भीर्य्यादियुक्तः शैशवेऽपि प्राकृतमागधगीर्बाणादिसर्वभाषाकुशलः सरस्वतीविलास इव समवर्त्तत। तृतीये वर्षे चौलकर्म पञ्चमे वर्षे मौञ्जीवन्धं विध्युक्तितश्चकुः24विप्रौघाः। तदनु विद्यागुरुसमीपे सकृच्छ्रवणादेवावगतसर्वविद्याप्रपञ्चातीत इव समज्ञानवशाज्25जीवन्मुक्त इव किलानालस्यादभवद्भगवान् श्रीमदाचार्य्यः। षड्दर्शनमूल इतिहासस्याणुः निगमशाखः षड़ङ्गपल्लवः सूत्रपुष्पः मन्त्रशलाटुः26 ज्ञानपक्वफलः श्रीशङ्करकल्पवृक्ष आसीत्।
स्वर्गे यथा कल्पतरुस्तथा भूमौ हि शङ्करः।
सुराणां भूसुराणां च वाञ्छितार्थप्रदो गुरुः॥
वेदे ब्रह्मसमस्तदङ्गनिक्षये गार्ग्योपमस्तत्कथा-
तात्पर्य्यार्थविवेचने गुरुसमस्तत्कर्मसस्वर्णने27।
आसीज्जैमिनिरेव तद्वचनदर्पोद्वाधकन्दे28समो
व्यासेनैव मदीयसद्गरुरसौ श्रीशङ्कराख्यः क्षितौ॥
अद्वैतार्णवपूर्णचन्द्रमभिधापद्माटवीभास्करम्
विद्वत्कोटिसमर्च्चिताङ्घ्रियुगलं प्रद्वेषिकक्षानलं।
हृद्यावद्यसमस्तवेदजनितप्रोद्यद्विवेकाङ्कुरं
स्विद्यद्वागमृतं परात्परगुरुं29श्रीशङ्करं तं भजे॥
अर्द्धेन्दुललाटः पूर्णेन्दुमुखः विशालवक्षाआजानुबाहुरुन्नितम्बः पीनोरुर्गूढगुल्फः30स्वल्पपादः शोणनखः करपादमध्यस्थलेषु शङ्खचक्रादिचिह्नितः शिरसि वामभागे त्रिशूलचिह्नं दक्षिणभागे त्वर्द्धचन्द्रचिह्नमेवमङ्कद्वयेन31साक्षाच्चिदम्बरेश्वर द्रव विराजमानः समप्रमाणशरीरः मौञ्चिदण्डाजिनतिलकधारणभिक्षाशनादिभिः32शास्त्रविधिरेवमनुष्ठेयमिति सर्व्वमर्त्यान् बोधयन् शिष्यबोधनार्थमुपाध्यायानुज्ञावशाद् ब्रह्मासने चतुःषष्टिकलापरागके चतुर्द्दशविद्यामणिविराजिते सहस्रवेदप्रभादीपिते सूत्रेतिहासतन्तुविराजिते तापनीयागममन्त्रयन्त्रतन्त्रादिषट्त्रिंशदङ्गुलोच्छ्रिते प्रागद्रौबालभानुरिव, ब्रह्माण्डगोलकीले ध्रुव इव, जनककृतद्वादशवार्षिके सत्रे याज्ञवल्क्य इव, परीक्षिन्नरेन्द्रस्य ज्ञानबोधसमये शुकइव, मेरुमस्तके तपश्चर्य्यङ्गीकारोचितव्यास इव, रामकथाप्रदातृत्वकाले वाल्मीकिरिव, भाष्योपदेशकाले कृष्ण इव, देवानां33 शिक्षासमये सुराचार्य्य इव, नारदोपदेशकाले ब्रह्मेव, धर्मराजस्य तत्वोपदेशकाले श्रीकृष्ण इव, समासीनः34 श्रीशङ्कराचार्य्यगुरुरनेकशिष्याणां निगमादिसर्वशास्त्रप्रपञ्चस्य सदुपदेशमाचकार। भोः शिष्य त्वमेव ब्रह्म कस्माच्चैतन्यस्यैकरूपत्वात् तर्हि अविद्यापरिकल्पितेषु देहेन्द्रियादिषु विद्यमानेष्वपि चेतनस्त्वमेव भवसि। कथं गुरो सुखदुःखभाजो मे चेतनता, जन्मान्तरकर्म्मवशाज्जनिं प्राप्तस्यजलबुद्बुदवदशाश्वतदेहस्य इन्द्रियादिभिरुपेतस्य जन्मस्थितिमरणप्रवाहलीनस्यारि- षड्वर्गपीड़ितस्यदारादीषणत्रयग्रहग्रस्तस्य नहि नित्यानन्दरूपत्वं कल्पयितुमुचितं मदन्तर्वर्त्तिनो जीवस्येति चेन्न तस्यापि किञ्चिज्ज्ञत्वादिधर्माश्रयत्वादिच्छामोहादिपीड़ितत्वाच्च। किञ्च भेदवादिनस्तावदज्ञोजीवः शुभाशुभभोक्ता मायागोलगूढः परमेश्वराद्भिन्नरूपः तस्य परिपक्कज्ञानेनापि सायुज्यभाव एव, किन्तु सुकृतकर्मणा पुण्यलोकप्राप्तिः कपूयादि कर्मणा35 नरकलोकप्राप्तिरेवमाह शास्त्रं (महती श्रुतिः छान्दोग्यपञ्चमाध्याये दशमखण्डे) अथ यदि ते रमणीयचरण रमणीयां योनिमापद्येरन् ब्राह्मण्योनिं क्षत्रिययोनिं वा वैश्ययोनिं वेति। अथ यदि ते कपूयचरणाः कपूयां योनिमापद्येरन् श्वयोनिं वा शूकरयोनिं वा चाण्डालयोनिंवेति36 तस्मात् सृष्टौप्रलयेऽपि भिन्न एव जीवः प्रतिशरीरं विचित्रकर्माणि करोति, मोक्षो नाम सुखरूपस्थानप्राप्तिमात्रमेव प्रोच्यत इति वदन्ति, तादृशे मयि सत्यज्ञानानन्दलक्षणलक्षितशुद्धचैतन्यकल्पना कथमुचितास्यादित्यालापिनं शिष्यं प्रत्याह भगवान् श्रीमदाचार्य्यः यः सर्व्वज्ञः सर्व्वविद् यस्यज्ञानमयं तप इत्यादिशास्त्रप्रसिद्धः परमात्मा जगदुपादानकारणं, स ईक्षत लोकान् नु सृजा इति स इँमालोकानसृजत। अम्भो मरीचिर्मरमापोऽदोऽम्भ इति लोकसृष्टिं विधाय अतलादिस्त्यान्तचतुर्द्दशलोकरूप विराड़देहे अग्न्यादिदेवान् सम्पाद्य मुखादिच्छिद्रेषु यथायतनं प्रविशतेत्युक्ताकिञ्चिदालोचितवानभूत्, एवम्भूतस्य साङ्गस्यसेन्द्रियस्य विराड़देहस्यनहि तृप्तिकरमन्नं सम्पादयितुं शक्यं तद्व्यतिरिक्तवस्त्वभावात्। तस्मादन्यदल्पशरीरं स्रष्टव्यमिति विचार्य्य गोदेहं सेन्द्रियाधिदेवक्षुत्पिपासादिसंयुतं सृष्टवान्, ततस्त्वग्न्यादिदेवताः परमात्मानमब्रुवन् तावदयं गोदेहः यददन्तः37पशुभावमापन्नः वाग्रहितश्च न वै नोयमलमिति अतस्त्वीश्वरः स्वतन्त्रकरुण्या दूर्ब्बाङ्कुरमूलोत्पाटनहेतुभूतमुभयतोदन्तमश्वदेहं सृष्ट्वाअग्न्यादिदेवान् यथायतनं प्रविशतेत्याह, ते तत्र गता अपि सुखलेशमलब्ध्वा पुनर्न वै नोऽयमलमि-
________________________________________________________________
३५८। तद्य इह रमनीयचरणा अभ्याशो ह यत्ते रमणीयां योनिमापद्येरन् ब्राह्मणयोनिं वा क्षत्रिययोनिं वा वैश्ययोनिंवाथ य इह कपूयचरणा अभ्याशो ह यत्ते कपूयां योनिमापद्येरन् श्वयोनिं वा शूकरयोनिं वा चाण्डालयोनिम्बेति भाष्यसम्मतं।
त्यब्रुवन्, भगवान पुनरपि विचार्य्य निर्निमेषकरुण्या विवेकवाक्यसम्पन्नं पुरुषदेहं सृष्ट्वा अग्न्यादिदेवान् यथायतनं प्रविशतेत्याह । ते तत्र गताः सुकृतं वतेति पुरुषो वाव सुकृतमिति सुखमापुः पुनरेवं विचारमाचकार, मनःप्रवृत्यनुकूला किलेन्द्रियप्रवृत्तिः तस्य प्रेरकाभावे कार्य्यसामर्थ्यं स्यात् समनस्कस्येन्द्रियगणस्य जड़त्वात् जड़प्रेरकेण त्वजड़ेनैव भवितव्यं अजड़स्य चैतन्यत्वात् तदन्यस्यजड़त्वाच्च, तस्मादाह परमेश्वरः कथं न्विदं मदृते स्यादिति। यदिदं देहेन्द्रियतदभिमानिदेवतावच्छरीरजातमस्ति तदिदं सर्वं मदृते भोगखामिनं जीवरूपधारिणं विना कथं नु नाम स्यात् तस्माद्भोगस्वामिना मया जीवरूपधारिणा देहः प्रवेष्टव्य इत्यर्थः। ततः परमात्मा स इक्षत कतरेण प्रपद्या इति तावद्द्वारप्रवेशमार्गै द्वौपादाग्रं मूर्द्ध्नि ब्रह्मरन्धञ्च तयोर्मध्ये कतरेण केन मार्गेण प्रपद्यै प्रविशामीत्यर्थः ननु कथं न्विदमिति वाक्येन आत्मनो जीवरूपेण प्रवेशस्यदेहेन्द्रियादिव्यापारपालनमेव38प्रयोजनं नान्यदिति चेन्न आत्मबोधस्वरूपस्यप्रयोजनान्तरस्यविद्यमानत्वात्, प्रविष्टस्य देहेन्द्रियादिप्रेरकस्यदेहेन्द्रियातीतस्य प्रवेशमात्रेणैव मायानुग्रहवशाज्जीवभावमापन्नस्य सत्यज्ञानानन्तलक्षणलक्षितस्यपरमात्मनः सम्यग्ज्ञानादभेदाध्यवसायेन परमात्मनि39मनोनये जाते एकमेवाद्वितीयम् ब्रह्मनेह नानाऽस्ति किञ्चनेत्यभेदसिद्धिर्भवतीति सोहमिति सर्वात्मज्ञानवानिहामुत्रव्यापकः परिपूर्णोभवतीति शास्त्रात् तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनायेति च ब्रह्मविदाप्नोति परमित्यादि च। तदनु स परमेश्वरः एतमेव सीमानं विदार्यैतया द्वारा प्रापद्यत, एतमेव मूर्ध्नि मध्यभागमेव कपालसन्धिरूपं स्थानं विदार्य्यछिद्रं कृत्वा तत्तन्मार्गेण क्रियाज्ञानशक्तियुक्तः40सन् देहमध्यं प्राविशत् यस्माद्भावनोपाधिकस्यमूर्ध्नि मध्ये प्रवेशः तस्मान्मूर्ध्नि ज्ञानेन्द्रियबाहुल्यं सम्भाव्यते क्रियाशक्त्युपाधिकस्य पादाग्रे प्रवेशात् कण्ठादधोभागे कर्मेन्द्रियबाहुल्यं प्राप्यते एतद्विषयप्रपञ्चस्तु बहुधा मदीयेषु ग्रन्थेषु दर्शितः41 इत्युक्तः शिष्यः श्रीमद्गुरुपादाम्बुजं नत्वा स्वस्वरूपं विदित्वा सुखमास। एवमनेक शिष्याःश्रीगुरूपदेशमहिम्ना सर्वविद्यासम्पन्ना बभूवुः।
शतैः सहस्रैः सच्छिष्यैर्लक्षैः कोटिभिरेव च।
व्याप्तमासीज्जगदिदं शुद्धाद्वैतपरायणैः॥
श्रुतिस्मृतीतिहासादिचोदिताचारतत्परैः।
पञ्चयज्ञपरैर्नित्यं पञ्चपूजाविशारदैः॥
आदित्यमम्बिकां विष्णुं गणनाथं महेश्वरं।
ब्राह्मणः पूजयेत्पञ्च पञ्चयज्ञपरायणः॥
कर्म ब्रह्मार्पणं कुर्यात्सर्वदेवमयः परः।
तन्निदिध्यासशक्तस्य सर्वभूतमस्य च॥
सर्व्वसूत्रात्मनश्चैव सर्व्वव्यापकतेजसः42।
शुद्धाद्वैतात्मनस्तस्य न वहिःपूजनं विदुः॥
न कर्म लिप्यते तस्मिन् ज्ञानवह्न्यात्मकेऽद्वये॥
देहाद्यैरविशेषेण देहिनो ग्रहणं निजं43।
प्राणिनां तदविद्योत्थं तावत्कर्मविधिर्भवेत्।
काम्यकर्माणि सन्त्यज्य नित्यकर्म समाचरेत्॥
नित्येन कर्म्मण तृप्तः परमेशः प्रयछति।
अद्वैतं ज्ञानमत्युग्रं तेन मुक्तो भवेन्नरः॥
इहामुत्रैकरूपत्वान् प्राणिनः44कर्म्मसंक्षये।
देहत्यागो विमुक्तिः स्यादिति वेदविदो विदुः॥
न तस्य प्राणा उत्क्रामन्त्यत्रैव समवलीयन्त इति श्रुतेः।
अद्वैतनिरतो यत्र स देशः पुण्यवर्द्धनः।
तद्दर्शनपरा ये तु ते मुक्ताः स्युर्न संशयः॥
अद्वैतनिन्दां कुर्वन्ति ये मूढ़ा दुःखभोगिनः।
ते सर्वे नरकं यान्ति मातृनिन्दापरा यथा॥
एवमनेकप्रकारेण बहुशिष्यान् धन्यान् कृत्वा अष्टमे वर्षे प्राप्ते श्रीमद्गोविन्दयोगीन्द्रस्यसदुपदेशात्परमहंसाश्रमस्वीकारं कृतवन्तः श्रीमच्छङ्करभगवत्पादाचार्य्यसर्व्वज्ञाः। ननु ब्राह्मणनां ब्रह्मचर्य्याद्याश्रमचतुष्टयमस्ति तथा च श्रुतिः ब्रह्मचर्य्यं समाप्यगृही भवेत् गृही भूत्वा वनी भवेत् वनी भूत्वाऽथ प्रव्रजेदिति एतैरेवाश्रमैरेव यथोक्तक्रर्म्मनुष्टितैर्मुक्तिर्भवत्येव क्रममन्तरेण ब्रह्मचर्य्याश्रमात्परमहंसाश्रमस्वीकारः किमर्थमङ्गीकृतो भगवद्भिरिति तचापि कुटीचका45-द्याश्रमाण्यतिक्रम्य परमहंसाश्रमस्वीकारश्चेति च प्राप्ते ब्रूमः ब्रह्मचर्य्याद्याश्रमेषु यत्र विराग उत्पन्नस्तदाश्रमादेव प्रव्रजेन्न तद्युक्तं यदीतरथा ब्रह्मचर्य्यादेव प्रव्रजेत गृहाद्वा वनाद्वा अथ पुनरव्रती वा उत्सन्नाग्निको वा यदहरेव विरजेत तदहरेव प्रव्रजेदिति श्रुतेः, कुटीचकाद्याश्रमाणां परमहंसाश्रमाधिकारिविषयत्वाभावाद्भगवद्भिः पूर्णब्रह्मानुसन्धानविचक्षणैः भेदगन्धरहितान्तःकरणैः सर्व्वज्ञैः परमहंसाश्रम एवाङ्गीकृत इति निरवद्यम्॥ इत्यनन्तानन्दगिरिकृतौ आचार्य्यविजये अद्वैतस्वरूपकथनं नाम प्रकरणं तृतीयम्॥ ॥
चतुर्थं प्रकरणं।
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**द्वे रूपे वासुदेवस्य चरञ्चाचरमेव च।
चरं सन्न्याप्रासिनां रूपमचरं प्रतिमादिकं॥ इति **
वचनवलाद्वासुदेवरूपमास्थाय प्रपञ्चोपास्य इव वर्त्तयन् अथातो ब्रह्मजिज्ञासेत्यादिव्याससूत्राणां व्यासमनोवृत्तितात्पर्य्यप्र- काशकमद्वैतभाष्यंकुर्व्वन् विश्वजिदिव दिग्विदिग्वर्त्तमानानामन्तरादिजयमारभमाणः46पद्मपादहस्तामलकसमित्पाणि- चिद्विलासज्ञानकन्दविष्णुगुप्तशुद्धकीर्त्ति47भानुमरीचिकृष्णदर्शनवुद्धिवृद्धिविरिञ्चिपादशुद्धानन्तानन्दगिरिप्रमुखैः शिष्यवरैः सेव्यमानः सर्व्वज्ञः श्रीशङ्करभगवत्पादाचार्य्यः चिदम्बरस्थलात् प्रदक्षिणमार्गेण श्रीमन्मध्यार्जुनं नाम शिवाविर्भूतस्थलविशेषं प्राप।
**मध्यार्ज्जुनेशानमदृष्टपूर्व्व48-
विद्यादिभिः पूजितपादपद्मं। **
बुद्ध्योपचारै49रभजत्परेशं
निध्यायतां मोक्षफलैकहेतुं॥
तत्र किल भगवान् श्रीशङ्कराचार्य्यः सदाशिवमेवमब्रवीत् स्वामिन् मध्यार्ज्जुन सर्वोपनिषदर्थोऽसि सर्व्वज्ञोऽसि यदि निगमादीनां तात्पर्य्यगोचरो द्वैतनिर्णयः अद्वैतनिर्णयो वा पारमार्थिकः पश्यतां सर्वेषां जनानां संशयनिवृत्तिं कुर्व्वित्येवं प्रार्थितो मध्यार्ज्जुनेशः लिङ्गाग्रात् सावयवरूपेण निष्क्रम्य मेघवद्गम्भीरगिरा दक्षिणं हस्तमुद्यम्य सत्यमद्वैतमिति त्रिरुक्तालिङ्गाग्रेणान्तर्दधे पश्यतां नराणं महदद्भुतमासीत्।
तद्भक्ताश्च तदा समस्त50-मनुजास्तद्ग्रामदेशस्थिताः
शुद्धाद्वैतपरायणाः श्रुतिकथासञ्चोदिताचारगाः।
कृत्वा सद्गुरुमेव शङ्करवरं तद्बोधितप्राम्भव51-
श्रीमन्त्रोपजपादुमागणपतीशार्काच्युतार्च्चापराः॥
प्रातःस्नानविशुद्धाश्च पञ्चयज्ञपरायणाः।
नित्यकर्म प्रकुर्वाणा52भगवत्प्रीतयेऽनघाः॥
एवं तद्देशस्थान् ब्राह्मणान् सर्व्वानद्वैतवादिनः कृत्वा प्रमथैः शङ्कर द्रव शिष्यसमेतः समुद्रबन्धनहेतुभूतसेतुसमीपे रामेश्वरं नाम प्रसिद्धस्थलं प्रति जगाम।
रामेश्वरं रामकृतप्रतिष्ठं
कामेश्वरीभूषितवामभागम्।
महेन्द्रनीलोज्ज्वलदुत्किरीटं
भीमेश्वरं त्वामिह पूजयामि।
इति गङ्गाजलैः शुद्धैरर्च्चयामास शङ्करं।
शङ्करः पङ्कजैः पुष्यैरन्यैर्वन्यफलैस्तथा।
एवं महादेवमर्च्चयित्वा मासद्वयं तत्र सुखमास। तदानींकिल समागताः,
अद्वैतद्रोहिणः केचिल्लिङ्गाङ्कितभुजद्वयाः।
केचित् फाले त्रिशूलञ्च डमरुञ्च भुजद्वये॥
केचित् फाले लिङ्गचिह्नं हृदि शूलं तथाऽपरे।
केचित् फाले भुजद्वन्द्वेहृदि नाभौ च लिङ्गिनः॥
एवं महेशचिह्नानि धारयित्वा समागताः।
तेषां भेदं क्रमाद्वक्ष्येषड्विधानां परस्परम्॥
भुजद्वयलिङ्गाङ्कधराः शैवाः फाले त्रिशूलधारिणेरौद्राः, भुजद्वये डमरुधारिण उग्राःफाले लिङ्गचिह्नधारिणेभट्टाः, हृदि53 त्रिशूलं शिरसि पाषाणलिङ्गञ्च धारिणे जङ्गमाः, ललाटे भुजद्वन्दे हृन्नाभिषु लिङ्गधारिणः पाशुपता इत्युच्यन्ते ते सर्व्वे श्रीमच्छङ्करभगवत्पादाचार्य्यमिदमब्रुवन् किंभोः सन्न्यासिन् तव शिवतत्त्वमशेषदोषनिराकरणहेतुभूतमरुच्यमासीत्। शिवस्य जगत्कारणमूर्तेः54पञ्चभूतरूपाणि पञ्च लिङ्गानि सन्ति, त्रिशूलडमरुगततेजउत्पन्नौ रविचन्द्रौ लिङ्गद्वयं, एवं लिङ्गाष्टकं भगवतोऽष्ट मूर्त्तयः55अन्तर्लिङ्गवहिर्लिङ्गसंयोजनं कृत्वा चिदचिदैक्यारूढबुद्धिवृत्तिः निन्द्यानिन्द्यादिद्वन्दरहितः सर्व्वं शिवमयमिति शिवाङ्गधारी सन् पश्यति स एव शिवः तद्धारणमात्रेण तन्मयः स एव मुक्तः तस्य ज्ञानमयत्वात् समस्तजनैरुपासनीयः, शिवस्यैव जगत्कारणता निर्वचनीया एवं किल।
ऋतं सत्यं परं ब्रह्म पुरुषं कृष्णपिङ्गलं।
ऊर्द्धरेतं विरूपाक्षं विश्वरूपाय नमोनमः56॥
इत्यादिना रुद्रस्यसर्वोत्तमत्वं घटते। अस्यार्थः, ऋतमणुस्वरूपं सत्यं महद्रूपं परं ब्रह्म एतद्विशेषणचतुष्टययुतं पुरुषं पुरीततिमध्ये57 हृदयकमलकर्णिकायां वहिःप्रदेशे व्यापकरूपत्वेन शायिनं कृष्णपिङ्गलं कण्ठे कृष्णवर्णं, जटासु पिङ्गलवर्णं ऊर्द्धरेतमूर्द्धमुखरेतसं विरूपाक्षं विरूपान्यकेर्न्दुवह्निरूपाणि त्रीणि अक्षीणि यस्यतं विश्वरूपाय क्षित्याद्यष्टमूर्त्तित्वेन व्यापकत्वेन विश्वरूपः तस्मै तं नमो नम इति चतुर्थोद्वितीययोरङ्गीकारश्छान्दसः। तथा
द्यौर्मूर्द्धानं यस्य वेदा वदन्ति
खंवै नाभिश्चन्द्रसूर्यौ च नेत्रे।
दिशःश्रोत्रे वाग्विवृताश्चवेदा
मुमुक्षुर्वैशरणमहं प्रपद्ये॥
इत्यस्यायमर्थः, यथा परमेश्वरस्यमूर्द्धानं शिरः द्यौः द्युलोकः, स तु मेघमण्डलोपरिप्रदेशात् ब्रह्माण्डकर्परपर्य्यन्तं वेदा वदन्ति द्यौरेव परमेश्वरस्य मूर्द्धेत्यर्थः। तस्य नाभिः खं आकाशं वदन्तोत्यनुषङ्गः चन्द्रसूर्य्यौनेत्रे चकारादग्निश्चेत्यर्थः। दिशः श्रोत्रे कर्णावित्यर्थः वाग्विवृताश्च वेदा यस्य वाङ्मात्रेण विस्तृता वेदाः चवर्णेन इतिहासपुराणादिकञ्चेत्यर्थः। तं परमात्मानं मुमुक्षुरहं शरणं प्रपद्ये शरणं यामीत्यर्थः वैशब्देन शरणागतानां मोक्षः सिद्धो भवति, एतादृशं शरणागतमोक्षप्रदं, जन्ममरणरण्यदावानलमाश्रित्य तदीयमुद्राचारसम्पादितदृढ़ भक्तिनिरताः शाश्वते शिवके वसन्ति। किञ्च, अथर्व्वशिखायां, जगत्कारणानुचिन्तनप्रकरणे, कारणन्तु श्रेयः सर्वैश्वर्य्यसम्पन्नः सर्व्वेश्वरः शम्भुराकाशमध्य इति शिवस्य जगत्कारणता प्रतिपाद्यते। अथर्व्वशिरसि देवैः कस्त्वमिति प्रश्ने कृते तदा पृष्टः परमेश्वरः सोऽब्रवीदहमेकः प्रथममासं वर्त्तामि च भविष्यामि च नान्यः कश्चिन्मत्तो व्यतिरिक्त इत्यादि, मत्तो व्यतिरिक्तः मदन्यः कश्चनेति भगवदुक्तेःतस्यैव सर्व्वोत्तमत्वं घटते सदात्मब्रह्मेतिसामान्यशब्दा अपि तत्परा एव तेषां जगदुपादानकारणपरत्वात् वासुदेवो वा इदमग्र आसीन्न ब्रह्मा न च शङ्कर इति वचनस्यायमर्थः इदं जगदधिकृत्याग्रे सृष्टेः प्राक्तनकाले वसत्यस्मिन्प्रपञ्च इति वासः वासश्चासौदेवश्च वासुदेवः उकारश्छान्दसः म परमेश्वरः, तस्य सर्वप्रपञ्चलयकर्त्तृत्वात् स एक एवासीत्, जगदग्रे स एक एव वर्त्तत इत्यर्थः, न ब्रह्मा चतुर्म्मुखः, न च शङ्करो विष्णुः, शं सुखं जीवनं करोतीति व्युत्पत्तेः तस्य स्थितिकर्त्तृत्वात् सर्व्वप्राणिरक्षणोद्योगकर्त्तेत्यर्थः। प्रलये जगदभावाज्जगद्रक्षकाभावत्वमर्थतः सिद्धमेव, तयोः परमेश्वरेच्छाजातत्वात् मकारादुकारस्य उकारादकारस्यजनिदर्शनात्।
अनाभेर्ब्रह्मणो रूपमागलाद्वैष्णवं वपुः।
अशीर्षाद्रुद्रमीशानन्तदग्रे सर्व्वतः शिवं॥
इत्यादिना नरसिंहस्वरूपज्ञानेन शिवपरतत्त्वस्य रूढत्वात् परमेश्वरस्य कलारूपाणामेकादशरुद्राणां मध्ये शङ्करो विष्णुरिति प्रसिद्धः रुद्राणां शङ्करश्चास्मीति श्रीकृष्णवचनगीतादर्शनाच्च। शिवरहस्ये रुद्रयामले च दुर्वासोमुनेरुपदेशकाले महादेववचनानि।
अहमेकाक्षरः कर्त्ता परात्परतरः शिवः।
सदात्मा ब्रह्मविष्णुश्च लोकानामादिकारणं॥
पुराणः पूर्व्वगः पूर्व्वोज्येष्ठः श्रेष्ठोऽहमद्वयः।
मदिच्छारूपिणी शक्तिर्जगत्संहारकारिणी॥
लुप्ता मय्येव सा सृष्टा पुनः सृष्टा मया ऽनघ।
सा महत्तत्त्वमुत्पाद्य त्रिगुणाङ्कुरकारणं॥
अहङ्कारं समुत्पाद्य त्रैगुण्यं पूर्व्वतत्त्वतः।
गुणत्रयात्मकान् कृत्वा रुद्रानेकादशाऽव्ययान्॥
राजसं सृष्टिकर्त्तारं58 कारयामास सादरं।
सात्विकान्पालनपरान् तामसान्प्रलयेश्वरान्॥
क्रमादवर्णात् सञ्जातानुवर्णाच्च मवर्णतः59।
तेषु मुख्यतमा ब्रह्मविष्णुरुद्रा इति त्रिधा॥
अन्ये तदनुवृत्तिस्था एवमेकादशेश्वराः।
तेषां विभूतयः सर्व्वे देवा लोकाश्चराचराः॥
पृथक् पृथङ्नामयुतास्तत्तत्कर्मानुसारतः।
ते सर्व्वे प्रलये ब्रह्मतेजस्येव लयं गताः॥
राजसे रक्तवर्णे च स तु ब्रह्मा समस्तभृत्।
कृष्णे नारायणस्यैव तेजस्यस्तोऽभवत्पुरा॥
रुद्रस्य शुक्लवर्णे तु ह्यस्तो नारायणः स्वयं।
स तु रुद्रः प्रकृत्यन्तर्गतः शुक्लेन तेजसा60॥
मदिच्छा शुक्लवर्णा सा मय्येव विलयं गता।
अतोऽस्म्याऽनन्तः सर्व्वार्थवेदैरपि न गोचरः॥
वेत्ति कश्च न मन्मायां जन्मस्थितिलयावहां।
अतो रुद्रार्च्चनपरा रुद्रसूक्तजपान्विताः॥
पञ्चाक्षरीजपपरा रुद्राक्षाभरणैर्युताः।
भूतिभूषितसर्र्व्वाङ्गाः सदा ध्यानपरायणाः॥
ईश्वरं रुद्रमव्यक्तं व्यक्तरूपं जगल्लये।
येऽर्च्चयन्ति नरश्रेष्ठास्तेषां मुक्तिः करे स्थिता॥
अतस्त्वं भूतिरुद्राक्षधारणं कुरु सर्व्वदा।
कुरु नित्यं महादेवपूजनं भक्तिसंयुतः॥
दुर्व्वाससे मुनीन्द्राय ह्येवमुक्त्वा सदाशिवः।
अन्तर्दधे तदाचारसक्तोऽभून्मुनिसत्तमः॥ इति॥
अतो दुर्व्वास-आदिभिस्तत्स्वरूपविद्भिरुपासितं शिवतत्वाचारकथनमिति निरवद्यं। अथर्व्वशिरसि, अथ पुरुषो ह वै श्रीनारायणोऽकामयत प्रजाः सृजेयेति नारायणात् प्राणे जायते मनः सर्व्वेन्द्रियाणि च खं वायुः ज्योतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी नारायणद्ब्रह्मा जायते नारायणात् प्रजापतिः प्रजायते रुद्रा वसवः सर्व्वाणि च छन्दांसि नारायणदेव समुत्पद्यन्ते नारायणत्प्रवर्द्धन्ते नारायणात् प्रलीयन्ते अथ पुरुषो ह वै नारायणो ब्रह्मा नारायणः शिवश्च नारायणः शक्रश्च नारायणः ऊर्द्धश्च नारायणः अधश्च नारायणः आकाशश्च नारायणः अन्तर्व्वहिश्च नारायणः नारायणदेवेदकं सर्व्वं यद्भूतं यच्च भव्यं निष्कलङ्को निरञ्जनो निर्व्विकल्पो निराख्यातः शुद्धो देवः एको नारायणः न द्वितीयोऽस्तीत्यादिकृत्स्नोपनिषदश्चायमर्थः, नरो ब्रह्मा प्रथमजीवः सृष्टेः पूर्व्वमेव जातत्वात् तत्कृता सृष्टिरिति प्रसिद्धेः राजसगुणप्रधानो रुद्रः तदादयोविष्णुरुद्रेन्द्रादयश्चतुर्द्दशलोकवासिनः प्राणिनः तेषां समूहो नारं तदेवायनं स्थानं यस्यआत्माकारेण सर्व्वव्यापकः परमेश्वरः रषाभ्यां नो णः समानपद इति सूत्रेण नस्यणत्वे कृते नारायण इति रूपं निष्पणं तस्यैवांशाः सर्वे देवाः नमो रुद्रेभ्यो ये पृथिव्यां येऽन्तरीक्षे ये दिवि येषामन्नं वातोवर्षमृषभस्तेभ्यो दश प्राची दश दक्षिणा दश प्रतीचीर्दशोदीचीर्दशोर्ड्लवास्तेभ्यो नमस्ते नो मृड़यन्वित्यादिप्रमाणात्। नमो ज्येष्ठाय च कनिष्ठाय चेत्यादिना गुणातीतवृत्तौ परमेश्वरे ज्येष्ठत्वमर्थतः सिद्धं तस्य सर्व्वोत्पत्तिकारणत्वात् कनिष्ठत्वन्तु मकारविलक्षणे प्रकृतिजाते रुद्रे वर्त्तते उकाराकारयोस्तज्जन्यत्वात् तदात्मकत्वं सिद्धं। यतो ब्रह्मविष्णुरुद्रास्ते संप्रसूयन्त इति श्रुतेः। कारणकार्य्ययोर्ज्येष्ठकनिष्ठभावो युक्त एव। स नारायणः अकामयत इछां कृतवान् किमिति प्रजाः सृजेयेति तस्मात् खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी अजायन्त पृथिवी कीदृशीत्युक्ते विश्वस्य प्रपञ्चस्यधारिणीत्यर्थः। तदनु नारायणात्प्राणो जायते मनः सर्व्वेन्द्रियाणि चेति पाठक्रममन्तरेण कथमित्युक्ते तैत्तिरीये। एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः आकाशाद्वायुः वायोरग्निरग्नेरापः अद्भ्यःपृथिवी पृथिव्या ओषधयः ओषधीभ्योऽन्नमन्नात्पुरुषमित्यादि भूतसृष्टिं विना प्राणादिसृष्टेरभावात् प्राणानां वायुरूपत्वाच्च प्राणदिसृष्टिः भूतसृष्ट्यनन्तरभाव्येव भवितुमर्हति। यद्वाप्रकृते र्महान् महतोऽहङ्कारः अहङ्कारात्पञ्च तन्मात्राणीति सृष्टिक्रमदर्शनात् अहङ्कारादेव भूतोत्पत्तिर्युक्तैव भाति तस्यगुणत्रयात्मकत्वाद्भूतानामपि तथात्वात्। अतः सगुणाद्रुद्राद्भूतप्रजाप्राणमनोमुख्यसृष्टिरुचिता, कार्य्यस्य कारणानुरूपत्वात् कुलालादिना घटादिवत्। रुद्रविष्णुब्रह्मादिहृदयपुण्डरीकेषु व्यापकरूपेण स्थितस्यात्मनः सकाशात् भूतादिसृष्टिं केचिदिच्छन्ति। सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन् सोऽश्नुते सर्व्वान् कामान् सह ब्रह्मणा विपश्चितेति आकाशाद्वायुरित्यादि एतच्छब्देन यो वा परमेश्वरः स्वयंनिर्गुणोऽपि सर्व्वप्राणिबुद्धिगुहाविहरणशीलः सन् तस्मात् भूतोत्पत्तिरिति। ब्रह्मा भृतोत्पत्त्यनन्तरं सृष्टिं करोमीति बहुकालं विचार्य्य स्वान्तर्गतमात्मतेजः सूर्य्यकारेण सृष्टवान् मन एव चन्द्रंसत्त्वमङ्गारकं वाङ्मयं वुधं ज्ञानसुखमयं गुरुं शुक्रमयं शुक्रं क्लेशमयं शनिं चकार। सूर्य्यादिगोलकान्यपि परमेश्वरेणैव प्रतिभान्ति।
न तत्र सूर्य्योभाति न चन्द्रतारकं
नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेवभान्तममुभाति सर्व्वं
तस्य भासा सर्व्वमिदं विभाति। इति श्रुतेः।
तस्मान्नारायणाद्ब्रह्मा जायते नारायणात्प्रजापतिः प्रजापरिपालनशीलः स्थितिकर्त्ती विष्णुर्जायते अन्ये नव रुद्रा वसवः सर्व्वणि छन्दांसि एतानि सर्व्वणि नारायणदेव समुत्पद्यन्ते तस्य जगत्कारणत्वात् तस्मादेव प्रवर्द्धन्ते तस्मिन् लये लीयन्त इत्यर्थः। अथ पुरुषो ह वैनारायण इत्यादिना तस्य विश्वरूपत्वं प्रतिपादितं। निष्कलङ्को निरञ्जनो निर्व्विकल्पो निराख्यातः शुद्धो देवः एको नारायण इति जगदतीतस्य परमात्मनो लक्षणमेतत्, कलङ्कं नाम पुण्यपापबन्धः तदभावान्निष्कलङ्कः, अञ्जनं अज्ञानं तदभावान्निरञ्जनः, अयमात्मा अन्यो वा आत्मेति संशयाभावानिर्व्विकल्पः, आख्यातं नाम रूपगुणकर्म्मादिस्तदभावात् निराख्यातः, शुद्धः शुक्लतेजोमयः, यच्छुक्लं तद्ब्रह्न, कं ब्रह्म खं ब्रह्म आकाशशरीरं ब्रह्मेति।
अचिन्त्यमव्यक्तमनन्तरूपं
तथारसं नित्यमगन्धवच्च यत्।
अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं
निचाय्य तं मृत्युमुखात् प्रमुच्यते॥ इति श्रुतिभ्यः।
दिव्यत इति देवः तेजः तदन्यत्राभावात् एकः एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चनेति श्रुतेः आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीदिति एक एव रुद्रो न द्वितीयोऽवतस्य इति च। स नारायणः अद्वितीयः प्रलये द्वितीयसत्तामात्राभावात् एक एव भाति, एकमेव ब्रह्म विभाति निर्व्वाणमिति श्रुतेः। महोपनिषदि। एको ह वै नारायण आसीन्न ब्रह्मा नेशानो नाग्नीषोमौ नेमे द्यावापृथिवीत्यादि श्रुतेरयमर्थः, नारायण एक एव आसीद्यदा कार्य्याभावः स तु प्रलयो न तत्र ब्रह्मविष्णुभावः ईशानशब्दवाच्योविष्णुः किमेतयोरभावस्यसिद्धत्वात् अग्नीषोमयोरभावः शङ्कनीयः? नेमे द्यावापृथिवीति सिद्धमेव। एवं,नासदासीन्नोसदासीत्तदानीं नासोद्रजो नो व्योमापरो यत्। किमावरीवः कुहकस्य शर्म्मन्नम्भः किमासीद्गहनं गभीरं।
न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्रा अह्न आसीत्प्रकेतः61॥
इत्यादि, ऋङ्मन्त्राः ईश्वर एव जगल्लयादीन् प्रतिपादयन्ति। अस्यार्थः। असन् प्रदर्शनयोग्यभूतावाकाशवायू तदादि तादृग्वस्तु नासीत् तदानीं प्रलये न विद्यत इत्यर्थः62।सत् तेजाम्बुपृथिव्यस्तदादि वस्तु च नो आसीत्, रजःकारण पृथिव्यपि नासीत् व्योमकारणमणुरूपं अपरः कारणम्न्युदकवायवः नासुः, लिङ्ग व्यत्ययः छान्दसः। कुहकस्य ब्रह्मज्ञानस्य63 आवरीवः आवरणानि महदहङ्कारादि सप्त शर्मन् ब्रह्माण्डञ्चकिमासीत् किञ्च नासीदित्यर्थः। तदण्डोपरि विलसितं गहनं दुष्प्रविष्टं गभीरं नमित प्रवेशे सान्द्रतया व्याप्तमम्भस्तोयं किमासीत् तदपि नास्तीत्यर्थः। मृत्युः सर्व्वलोकत्रासप्राणिप्राणहर्त्ता64नासीत्।तर्हि मृत्युरहितसमये अमृतंमृत्युनिवर्हणहेतुभूतं अमृतमृत्योस्तेजस्तिमिरयोरिव परस्परवैषम्यदर्शनान् विपक्षाभावे सपक्षाभावस्य श्रेयस्त्वादमृतस्याप्यभाव इत्याह अमृतं नासीत्। कथमित्युक्ते ईश्वरव्यतिरिक्तसर्वाभावस्ययुक्तत्वात् तदभाव उचित एवेत्यर्थः रात्र्यह्नोः कारणाभावात् कार्य्याभावः सिद्ध एव। ननु सर्वभावे ईश्वरस्याप्यभावो भवतु नाम, एकस्मिन् काले स्वत एव जगदस्तं गतं भवति, अन्यस्मिन् काले पुनर्निजरूपेणोत्थितं भवति। तथेदं65तर्ह्यव्याकृतमासीत् तन्नामरूपाभ्यामन्वकार्षीदिति श्रुतेः अशोकपुष्पविकासादिवत्कालतः प्रपद्यते66। जगद्बीजं तु जगत्कर्मैव।
कर्म्मणा जायते लोकः कम्मणैव हि लीयते।
इति जैमिनिराचार्य्योमन्यते। पापकर्म्मशीलस्य नरस्यपुण्ययोनिसम्भवत्वमीश्वरेण कथं न कृतं67 []68 कर्मानुकूलं जन्मेति चेत् कर्मैव स्वमार्गेण जीवं बुद्ध्यादिलिङ्गशरीरबन्धं नयति तस्यघटकत्वाघटकत्वयोस्तुल्यसमर्थत्वात् अतः कर्म्मणा जगत्युत्पद्यमाने किमन्तर्गतेनेश्वरेणेति प्राप्ते ब्रूमः तत्सूक्ते एकं सन्तं तद्बहुधाकल्पयन्ति बहुधा नानाप्रमाणैः सर्वाभावे प्रलये सन्तं वसन्तं परमात्मानमेकमद्वितीयं कल्पयन्ति वेदाः स्वयमेव जगज्जन्मादि कारणं ब्रह्म निरुपाधिकं69वर्त्तत एवेत्यर्थः शाखान्तरेतैत्तिरीये। असन्नेव स भवति असद्ब्रह्मेति वेद चेत् अस्ति ब्रह्मेति चेद्वेद सन्तमेनन्ततो विदुरिति। ब्रह्म असत्। असत्यं असदप्रमाणं चेद्वेद सः असन्नेव भवति असन्नास्तिको भवति ब्रह्म बृहत्त्वात् व्यापकत्वाच्च तथा प्रसिद्धं शुद्धवुद्धमुक्तस्वरूपं ब्रह्म अस्तीति वेद चेत् वेदितुः फलमाह सन्तमेनं ततो विदुरिति। एवमीश्वरसद्भावे प्रमाणसहस्रस्थित्या तस्यमनोवागतीतत्वेन दुःसाध्यत्वात् तदिच्छासम्भूतमकारप्रधानसगुणरुद्रस्योपासनं तच्चिन्हाङ्कनं युक्तमेव। एवं प्राप्ते प्राहुराचार्य्या भोः तप्तलिङ्गाङ्कितभुजद्वयविद्वेषवीरनामक सत्यमुक्तं भवता ऋतं सत्यं परं ब्रह्मेत्यादयः भवदुक्ताः सर्वाः श्रुतयः परमेश्वरं ब्रह्मांशेन सृष्टिं कुर्वाणं विष्णवंशेन पालनं कुर्वाणं रुद्रांशेन लयं कुर्वाणं शुद्धमद्वैतरूपमव्ययमनादि ब्रह्म प्रशंसन्ति ताः भवतव्याख्याताः, मयापि च व्याख्याता एव तात्पर्य्यस्यैकरूपत्वात्, किञ्चैतावन्मात्रं विरुद्धमप्रमाणमस्ति तप्तलिङ्गाद्यङ्कनन्धारयिताव्यमिति तदसत् धारणवीजश्रुत्यादिप्रमाणाभावात् निष्प्रमाणत्वेनैव ब्राह्मणोचितवेदोक्तगर्भाधानादिसद्धर्म्मसंस्कृतस्यशरीरस्य निर्मूलतप्तता कथं श्रेयःपरम्पराजनिका भविष्यति परन्तु प्रत्यवायधाव्येव। कथमिति उक्तञ्च ब्रह्मयामले।
नाभेरूर्द्धं सोमपास्तु नाभ्यधस्तादसोमपाः।
देवास्तिष्ठन्ति विप्रेन्द्रे वेदवेदाङ्गपारगे॥
शिखां शिरो ललाटञ्च कर्णौ घ्राणं कपोलकम्70।
जिह्वायाञ्च तथा चौष्ठौ चिवुकं कण्ठमेव च॥
अंशद्वयं भुजद्वन्दं वाहू हस्तयुगन्तथा।
वक्षोनाभिः कटिर्लिङ्गं वृषणं चोरुजानुकम्।
गुल्फौ पादौ समाश्रित्य मदाद्याः सर्वदेवताः।
पितर ऋषयश्चैव स्नानाद्याह्निकमिश्रितैः71।
नित्यादिकर्म्मभिस्तृप्ता भवामो नात्र संशयः।
इति ब्रह्मारुणकेतुसम्बादः। श्रुतिश्च। यावूतीर्वै72देवतास्ताः सर्वा वेदविदि ब्राह्मणे वसन्ति तस्मात् तथाविधतनोर्जीवनदशायां कृते तापे देवाः पलायन्ते तप्तायःसान्निध्यान्मनुष्या इव।
तथाविधतनोरस्य तापनाङ्कं करोति यः।
एनं शप्त्वा73पलायन्ते देवाः शीर्षादिवासिनः।
पतितोऽयं भवत्येव शुद्रवच्चितिकाष्ठवत्।
व्याधिं विना कर्म्मयोग्ये विप्राङ्गे चिह्नमीक्ष्यच।
लोकेश्वरं भानुमीक्षेदथवा ह्रदमाविशेत्॥
इत्यादिबहूनि वचनानि प्रमाणानि सन्ति। श्रुतावपि, योऽन्यां देवतामुपास्ते अन्योऽहमस्मीति न स वेद यथा पशुरिति। यः पुरुषः स्वस्मादन्यां देवतामुपास्ते असौदेवता अन्या सर्वज्ञा सच्चिदानन्दादिलक्षणसम्पन्ना देवताद्वारा किञ्चिदुज्ञत्वा-दिगुणविशिष्टोऽहमन्योऽस्मोति न स वेद स पुनर्व्वेदज्ञानसम्पन्नो न स्यादित्यर्थः उक्तार्थं दृष्टान्तेन दृढयति यथा पशुरिति पशोर्यथा विवेकज्ञानाभावः तथैवेत्यर्थः परीक्ष्यलोकान् कर्म्मचितान् ब्राह्मणोनिर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन कर्म्मणेत्यादि- मुण्डकोपनिषदुपदेशवशात्74ब्राह्मणः कर्मचितान् कर्मसम्पादितान् अनित्यान् लोकान् दृष्ट्वानिर्व्वेदमायात्। अकृतो मोक्षः कृतेन कर्मणा75 नास्तीति तस्मान् मोक्षप्राप्तये, तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठमित्यादिना गुरुमभिव्रजेन् अनेन सद्गुरूपदेशेनैव ब्रह्मलक्षणभिज्ञः सर्वाशुभकर्मनिर्मूलनपरः संसारार्णवमतिक्रम्य सर्व्ववस्थास्वात्मानं ध्यात्वा मुक्तो भवति।न वहिश्चिह्नितप्ताङ्गादिना प्रयोजनम्, चर्महानिमात्रफलमस्ति लिङ्गिनः, मुक्तिस्तु ज्ञानतेजोनिरस्तान्तरज्ञानान्धकारस्यैव भवति76। केवलं रुद्रोपासनायाः पुण्यलोकप्राप्तिरेव77फलं न तु मुक्तिः तस्यास्तु जीवेशैक्यानुसन्धानभावनालब्धत्वात्।
तं दुर्दर्शं गूढमनुप्रविष्टं
गुहाहितङ्गह्वरेष्ठं पुराणं।
अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं78
मत्वा धीरो हर्षशोकौजहाति॥ इति।
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो
न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्य-
स्तस्यैष आत्मा वृणुते तनूं स्वां॥ इति।
अशरीरं शरीरेषु अनवस्थष्वेऽवस्थितं।
महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचतीति॥
तस्माद्गुरुकटाक्षागतशुद्धाद्वैतविद्यामाश्रित्य अभेदकल्पतरुफलरसपानेन तृप्तो भवेदिति श्रीमद्भिराचार्य्यैरेवमुक्तः विद्वेषवीरनामको लिङ्गभृदग्रणीरिदमाह,
स्वामिन् त्वमेव शरणं मम सर्वदाऽसि
संसारसर्पविषदग्धतनुं नयाशु79।
मामद्य युष्मदतिनिर्म्मलवेदवाक्यै-
र्नष्टा भिदाऽस्मि शिव एव जगत्पिताऽसि॥
महादेवार्चनफलं गुरो त्वमसि सत्तम।
अद्वैतामृतदातृत्वे80
रुद्राद्युत्तमोत्तमः॥
इति आचार्य्यशिरेमणिं स्तुतिपात्रं मुहुर्मुहुर्नत्वा तदीयचरणोदकपानं तदुक्ताचारलक्षणं शिरसा परिगृह्य स्वकुलग्रामदेशस्थान् सर्वानप्यद्वैतवृत्तिनः कृत्वा श्रीमत्परहंसाचार्य्यगुरुमभिवाद्य सुखमास॥ इत्यनन्तानन्दगिरिकृतौशैवमतनिवर्हणं नाम चतुर्थं प्रकरणं॥ * ॥
पञ्चमं प्रकरणं।
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एवं लिङ्गादिधारणकारणे शिवमते81निरस्तेऽप्यराध्याः केचन पीठार्चननिरताः प्राणलिङ्गधारिणोनिरवशेषभक्षकाः82फाले लिङ्गधारिणः शुभ्रविभूतिभूषितसर्व्वाङ्गाः शिरःकण्ठवाहुषु सहस्रपरिमितरुद्राक्षमालाभूषिताः प्रतिपक्षचण्डभैरवविपक्षशूलभक्ता- ग्रगण्यपरमतकालानलादयः श्रीशङ्करार्य्यं दृष्ट्वा इदमूचुः कस्त्वंसन्यासिन् मायावेषधारीव समागत्य षड्विधशैवाचारं83सकलवेदप्रमाणं परित्यज्य विद्वेषवीरादीन् मतभ्रष्टान् कृत्वा गन्तुमायतो भवसि प्रतिपक्षचण्डभैरवमाराध्यमतपद्मभास्करं मां विद्धि, किं शैवमतं नास्ति।ब्राह्मण्यादुत्तमं84 प्रोक्तं वैष्णवं मुनिसत्तम। वैष्णवादधिक शैवमित्यादिना नारदं प्रति ब्रह्मोक्तेःशैवमतस्य श्रेष्ठत्वं दर्शितं। तादृशमुत्तमोत्तममतं परिहृत्य ब्राह्मणस्यनिपतनं वृक्षाग्रमारूढस्य पुरुषस्याधःपतनमिव प्रतिभाति। ब्राह्मण्यमूलाद्वैष्णवमतशाखामवलम्ब्य85। शैवाग्रं गतच रूढपतनं किमर्थं भवद्भिः कृतं। मताधिदेवस्य रुद्रस्य परमत्वं नास्तीति यद्युच्यते तत्परमत्वं नमस्ते रुद्र मन्यव इत्यादि शतरुद्रमन्त्रेषु सर्व्वजगदुपादानकारणमभूत्। वेदपुरुषोऽपि रुद्र इत्यर्थमुपक्रम्य तत्स्वरूपस्यातिरौद्रत्वात्सर्वोत्तमत्वाच्च वेपमानशरीरः चिरं तूष्णीं स्थित्वा स्वापराधनिवृत्तये प्रतिपदे नमस्कारपुरःसरमेव स्तुतिमकरोत् हे रुद्र ते तव मन्यवे कोपाय चतुर्द्दशभुवनलयहेतुभूताय नमः उत तदनन्तरं ते तव लयहेतवे दूषवे बाणाय नमः हे रुद्र ते तव धन्वने चापाय नमोऽस्तु ते वाहुभ्यां पाशुपतपिनाकधारिभ्यां86नमः इत्यादिषु मन्त्रेषु प्रतिपदे बहुधा देवं नत्वा निवृत्तापराधोऽभूत्। उतामृतत्वस्येशान इति पुरुषसूक्तमध्यवर्त्तिना मन्त्रवरेण धर्मार्थकाममोक्षेषु चतुर्व्विधपुरुषार्थेषु मध्ये मोक्षरूप पुरुषार्थस्य श्रेष्ठत्वात् तस्य ईशानः रुद्रः कर्त्तेत्यनेन शिवस्य सर्व्वोत्तमत्वं। किञ्च पुरुषसूक्तस्याधिदैवं रुद्रः तस्य ऋषिर्नारायणः पुरुषो देवतेति पुरुषो रुद्र एव, तस्यसहस्रशीर्षत्वं सहस्राक्षत्वं सहस्रपात्वं सिद्धमेव नमः सहस्राक्षाय शतधन्वन इत्यादिबहुश्रुतिभ्यः।
विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो
विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात्
सं बाहुभ्यां धमति मं पतत्रैरित्यादिश्रुतेः।
इदमिदानीं चोद्यं87।
सहस्रशीर्षं देवं तं विश्वाक्षं विश्वसम्भवं।
विश्वं नारायणं देवमक्षरं परमं पदं॥
इत्यादिना सहस्रशीर्षादिसाम्यात्सूक्तं नारायणपरमिति चेन्न उपसंहारविरोधात्। उपक्रमस्यदौर्व्वल्ये उपसंहारवशादुपक्रमनयनस्यमीमांसासिद्धत्वात्। प्रथमशाखाब्राह्मणे शतपथे श्वेताश्वतरोपनिषदि पुरुषसूक्तमुक्त्वाउपसंहार एवं क्रियते।
ततो यदुत्तरतरं तदरूपमनामयं,
य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति,
अथेतरे दुःखमेवापि यन्ति।
सर्व्वाननशिरोग्रीवः सर्व्वभृतगुहाशयः।
सर्व्वव्यापी स भगवान् तस्मात्सर्व्वगतः शिवः॥ इति।
एवमुपक्रमोपसंहारयोरेकवाक्यता स्यात् सहस्रशीर्षा पुरुष इत्यनेन सर्व्वाननशिरोग्रीव इति प्रतिपादितस्यार्थस्यानुकूलत्वान्। तन्मध्ये ह्रीश्च ते लक्ष्मीश्च ते पन्त्यौअहोरात्रे पाश्वइति वाक्यद्वयेनापि प्रतिपादितः शिव एव। ह्रीःगङ्गा लक्ष्मीः पार्व्वतीत्यर्थः। तत्पतित्वं रुद्रस्यघटते। उक्तञ्च स्कान्दे।
हिमाग्रादपतन्मौलौगङ्गा रुद्रस्य वेगतः।
तदीयभारसम्भ्रान्तो ह्यवादीत्तां सदाशिवः॥
ह्रीमती भव नात्युच्चैर्वर्त्त संप्राप्यमामिह।
पुरुषं पुरुषश्रेष्ठं ब्रह्मविद्यादिकारणं॥
सा तं नत्वा महादेवं तदाप्रभृति भक्तितः।
ह्रिया जटासु88मिलिता ह्रीरिति प्रोच्यते बुधैः॥
रुद्रयामले।
तस्याङ्कमञ्चमारूढा89शक्तिर्माहेश्वरी परा।
महालक्ष्मीरिति ख्याता श्यामा सर्वमनोहरा॥
तस्यास्तेजःकणाज्जाता लक्ष्मीवाक्कोटयः पुरा।
शिवतेजःसमुद्भूता हरिब्रह्मादिकोटयः॥
क्रियन्ते पुनरेवैते तत्र तत्र लयानुगाः।
इति गङ्गालक्ष्मीपतित्वं शिवस्यासाधारणमित्यविरुद्धं। उत्तरवाक्ये अहोरात्रे पार्श्वे अहश्च रात्रिश्च अहोरात्रे तस्य द्विवचनान्तत्वात् अहोरात्रे पार्श्वे यस्य,अहोरात्रपार्श्वत्वं च रुद्रस्यैव। दक्षिणपार्श्वस्य शुद्धस्पटिकसङ्काशत्वात्अहोरूपपार्श्वत्वं। वामपार्श्वस्य देवीभागत्वेन श्यामवर्णत्वाद्रात्रिरूपपार्श्वत्वञ्च रूद्रस्यासाधारणमेतत्।
अतः सूक्तस्यशिवपरत्वेन शिवस्यैव जगत्कारणत्वात् सर्व्वांपेक्षया तन्मतस्य90प्रावल्यंप्राप्तं।अथर्व्वशिरसि॥ भगवता परमेश्वरेण देवान् प्रति स्वस्यसर्व्वात्मकत्वं प्रतिपादितं। सोऽहं नित्यानित्योऽहं ब्रह्माहं उपाङ्गः प्रत्यङ्गोऽहं दक्षिणञ्चोदञ्चोऽहमधश्चोर्द्धञ्चदिशञ्च विदिशश्चाहं पुमानपुमान् स्त्रियश्चाहं गायत्र्यहं सावित्र्याहं सरस्वत्यहं त्रिष्टुप्जगत्यनुष्टुबहंछन्दोऽहं गार्हपत्योऽहं दक्षिणाग्निराहवनीयोऽहं सत्योऽहं गौरहं गौर्य्यहं ज्येष्ठोऽहं श्रेष्ठोऽहं वरिष्ठोऽहमापोऽहं तेजोऽहमृग्यजुःसामाथर्व्वाङ्गिरसोऽहमक्षरमहं क्षरमहं गुह्योऽहं गोप्योऽहं अरण्योऽहं पुष्करमहं पवित्रमहमग्रञ्च मध्यञ्च वहिश्च पुरस्ताद्दशसु दिक्ष्ववस्थितमनवस्थितञ्च ज्योतिरित्यहमेवं सर्व्वे च मामेव मां यो वेद सर्व्वान् वेदेत्यादि91 भगवतो विश्वरूपत्वं प्रदर्शितं व्यापकचैतन्यस्य रुद्रस्यैव, रुदत्या स्वशक्त्या लोकान् द्रावयतीति रुद्रः ब्रह्मादिप्रलयकर्त्तेत्यर्थः॥ अत एवोक्तं शिवरहस्ये।
ध्येयत्वे तव साक्षिणो मुनिगणाः ज्ञानप्रदत्वे शुको
वन्द्यत्वे निगमाः स्वभक्तविमताक्रान्तौ92कृतान्तादयः-
नित्यत्वे भगवान् पितामहशिरःसम्बृन्दमाद्यन्तयोः
शून्यत्वे च वराहहंसवपुषौपद्माक्षपद्मासनौ॥
इत्यादिप्रमाणैः शिवस्य सर्व्वात्मकत्वं हरिब्रह्मेन्द्रादिकत्तृत्वं घटते तद्भक्तानान्तप्तलिङ्गरुद्रविभूत्यादिधारणात् पीठाद्यर्च्चनया रुद्राध्यायजपेन च सर्व्वपापविनिर्मुक्तः शिवसायुज्यं प्राप्नोतीति निरवद्यं।
उक्तञ्च स्कान्दे रुद्रप्रशंसाकाण्डे।
स्तेयं कृत्वा गुरुदारांश्च गत्वा
सुरां पीत्वा ब्रह्महत्याञ्च कृत्वा।
भस्मच्छन्नो भस्मशय्याशयानो
रुद्राध्यायी मुच्यते सर्वपापैः॥
कोटिजन्मार्जितैः पुण्यैः शिवे भक्तिः प्रजायते।
बहुनाऽत्र किमुक्तेन यस्य भक्तिः शिवे दृढा।
महापापौघपापौघ93-कोटिग्रस्तोऽपि मुच्यते॥
इति शिवगीतादृढोक्तेः। पुनरपि शिवगीतासु मुनीन् प्रति सूत इदमाह।
धर्म्मार्थकाममोक्षाणां पारं यास्यथ येन वै।
मुनयस्तत् प्रवक्ष्यामि व्रतं पाशुताभिधं॥
कृत्वा तु विरजां दीक्षांभूतिरुद्राक्षधारणं।
जपंस्तु वेदसाराख्यं शिवनामसहस्रकं।
सन्त्यज्य तेन मर्त्त्यत्वं शैवीं तनुमवास्यथ॥
ततः प्रसन्नो भगवान् शङ्करोलोकशङ्करः।
भवतां दृश्यतामेत्य कैवल्यं वः प्रदास्यतीत्यादिकं॥
तत्र विपक्षशूल इदमुवाच तैत्तिरीये नारायणोपनिषदि कद्रुद्राय प्रचेतसे मीढुष्टमाय तवसे वोत्तेम शंतमं हृदे सर्व्वोह्येष रुद्रस्तस्मै रुद्राय नमो अस्तु, पुरुषो वै रुद्रः सन्महो नमो नमः विश्वं भूतं भवनं चित्रं बहुधा जातं जायमानञ्च यत्, सर्व्वोह्येष रुद्रस्तस्मै रुद्राय नमो अस्तु इत्यादिना रुद्रस्य सर्व्वात्मकत्व सर्व्वान्तर्यामित्वं सर्व्वोत्कृष्टत्वञ्च94घटते यत्र सदात्मब्रह्मपुरुष95-साधारणवचनात्मकसूक्तानि वर्त्तन्ते तानि सर्व्वाणि शिवपराण्येव। ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणोऽधिपतिर्ब्रह्मा शिवो मेऽस्तु सदाशिवोमित्यादिना तस्य सर्व्वाधिपतित्वनियमात्। रुद्राङ्कनार्च्चनादिना धर्म्मादिपुरुषार्थस्यविद्यमानत्वात्। नच रुद्राङ्कधारणादिकं अयुक्तमिति भ्रमितव्यं96। कैवल्योपनिषदि हरोपासनामुपदिशति।
हृत्पुण्डरीकं विरजं विशुद्धं
विचिन्त्य मध्ये विशदं विशोकं।
अचिन्त्यमव्यक्तमनन्तरूपं
शिवं प्रशान्तममृतं ब्रह्मयोनिं॥
तदादिमध्यान्तविहीनमेकं
विभुं चिदानन्दमरूपमद्भुतं।
उमासहायं परमेश्वरं प्रभुं
त्रिलोचनं नीलकण्ठं प्रशान्तं॥
ध्यात्वा विनिर्गच्छति भूतयोनिं
समस्तसाक्षिं तमसः परस्तात्।
स ब्रह्मा स शिवः सेन्द्रः सोऽक्षरः परमः स्वराट्।
स एव विष्णुः स प्राणः स कालोऽग्निः स चन्द्रमाः॥
स एव सर्व्वं यद्भूतं यच्च भव्यं सनातनं।
ज्ञात्वा तं मृत्युमत्येति नान्यः पन्या विमुक्तये॥
इत्यादिकृत्स्नोस्वोपनिषदा हृदयपुण्डरीकान्तर्वर्त्तिनः उमासहायस्यत्रिलोचनस्य नीलकण्ठस्यब्रह्मादिसर्व्वदेवमयस्य ध्यानादपुनर्भूतयोनिं गच्छन्ति, मुक्त्यनन्तरं पुनर्योनिप्राप्तेरभावात्। एवञ्च महादेवस्योत्कृष्टत्वात् उमासहायादिलक्षणश्रितस्यलयस्वामिनो रुद्रस्यैवोपासनया मोक्षः सिद्ध इति फलितार्थः श्रुतिमन्यथाकर्तुमशक्यत्वात् उपासकसा विभूत्यादिचिह्नंयुक्तमेव। ब्राह्मणेनावश्यं विभूतिधारणं कर्त्तव्यमिति कालाग्निरुद्रोपनिषदि समाम्नातं, अथ कालाग्निरुद्रं भगवन्तं सनत्कुमारः पप्रछ धेहि भगवन् त्रिपुण्ड्रविधिं सत्यत्वं किं यद्द्रव्यं किं यं स्थानं कति प्रमाणं का रेखाः के मन्त्राः का शक्तिः किं दैवतं कः कर्त्ता किं फलमिति च तं होवाच भगवान् कालाग्निरुद्रो यद्द्रव्यं तदाग्नेयं भस्म सद्योजातादिपञ्चब्रह्ममन्त्रैः परिगृह्य अग्निरिति भस्म इत्यनेनाभिमन्त्र्य मानस्तोक इति समुद्धृत्य जलेन संमिश्र्यामानो महान्तमित्यालोड्यत्र्यम्बकं त्र्ययुतमिति शिरोललाटवक्षःस्कन्धेषु त्र्ययुधैः त्र्यम्बकेः त्रिशक्तिभिस्त्रिवृत्तिस्त्रो रेखाः प्रकुर्व्वीत व्रतमेतच्छाम्भवं सर्व्वेषु वेदेषु वेदवादिभिरुक्तं भवति तस्मात् तत्समाचारान्मुमुक्षुः न पुनर्भवाय धन सनत्कुमार प्रमाणमस्य त्रिपुण्ड्रधारणस्य त्रिविधा रेखा आललाटादाचक्षुरामूर्ध्नोमध्यतः याऽस्य प्रथमा रेखा सा गार्हपत्यश्चकारो रजो भूर्लोकश्चात्मा क्रियाशक्तिः ऋग्वेदः प्रातः सवनं महेश्वरो देवतेति याऽस्य द्वितीया रेखा सादक्षिणाग्निः ॠकारः सत्त्वमन्तरीक्षमन्तरात्मेछाशक्तिः यजुर्व्वेदः माध्यं दिनं सवनं सदाशिवो देवतेति याऽस्य तृतीया रेखा साहवनीयो मकारस्तमेा द्यौर्लोकः परमात्मा ज्ञानशक्तिः सामवेदस्तृतीयं सवनं शिवो देवतेति त्रिपुण्ड्रं भस्मना करोति योविद्वान् ब्रह्मचारी गृही वानप्रस्थो यतिर्वा स समस्तमहापातकोपपातकेभ्यः पूतो भवति स सर्व्वेषु तीर्थेषु स्नातो भवति स सर्व्वान् देवान् ध्यातो भवति स सर्व्वान् वेदान् अधीतो भवति स सन्ततं सकलरुद्रमन्त्रजापे भवति स सकलभोगभुग्देहं त्यक्त्वाशिवसायुज्यमाप्नोति न स पुनरावर्त्तते न स पुनरावर्त्तते इति यः शृणोत्यधीते वा सोऽप्येवमेव भवतीत्यन्तं सत्यमोसत्यमित्युपनिषदित्यस्यां कृत्स्नोपनिषदि त्रिपुण्ड्रस्य सर्व्वदेववेदकालात्मकत्वं मोक्षप्रदत्वञ्च प्रतिपादितं (सुगमत्वान्न व्याख्यातं) अतो विभूतिधारणमहिमानं वक्तुं न शक्यते केनापि, तस्मात् ब्रह्मचर्य्यादिभिराश्रमिभिः सर्वैरपि त्रिपुण्ड्रधारणमेवावश्यं कर्त्तव्यं। एवं रुद्राक्षलिङ्गधारणस्यापि प्रमाणसद्भावोऽस्त्येव।
शीर्षे कण्ठे कर्णयोश्च बाह्वोरुद्राक्षधारणात्।
नीलकण्ठोभवेन्मर्त्यो ब्राह्मणश्चेत् परात्परः॥
इति अगस्त्यसंहितायामुक्तं। अतप्ततनूर्न तदा मोक्ष अश्नुत इत्यादिप्रमाणेन तप्ततनोरेव फलश्रवणल्लिङ्गाङ्कनमवश्यं कर्त्त-
ह्रिया जटासु97मिलिता ह्रीरिति प्रोच्यते बुधैः॥
रुद्रयामले।
तस्याङ्कमञ्चमारूढा89शक्तिर्माहेश्वरी परा।
महालक्ष्मीरिति ख्याता श्यामा सर्वमनोहरा॥
तस्यास्तेजःकणाज्जाता लक्ष्मीवाक्कोटयः पुरा।
शिवतेजःसमुद्भूता हरिब्रह्मादिकोटयः॥
क्रियन्ते पुनरेवैते तत्र तत्र लयानुगाः।
इति गङ्गालक्ष्मीपतित्वं शिवस्यासाधारणमित्यविरुद्धं।उत्तरवाक्ये अहोरात्रे पार्श्वे अहश्च रात्रिश्च अहोरात्रे तस्य द्विवचनान्तत्वात् अहोरात्रे पार्श्वे यस्य,अहोरात्रपार्श्वत्वं च रुद्रस्यैव।दक्षिणपार्श्वस्य शुद्धस्फटिकसङ्काशत्वात् अहोरूपपार्श्वत्वं। वामपार्श्वस्यदेवीभागत्वेन श्यामवर्णत्वाद्रात्रिरूपपार्श्वत्वञ्च रूद्रस्यासाधारणमेतत्।
अतः सूक्तस्यशिवपरत्वेन शिवस्यैव जगत्कारणत्वात् सर्व्वापेक्षया तन्मतस्य98प्रावल्यं प्राप्तं। अथर्व्वशिरसि॥ भगवता परमेश्वरेण देवान् प्रति स्वस्य सर्व्वात्मकत्वंप्रतिपादितं। सोऽहं नित्यानित्योऽहं ब्रह्माहं उपाङ्गः प्रत्यङ्गोऽहं दक्षिणञ्चोदञ्चोऽहं मघश्चोर्द्धश्च दिशश्च विदिशश्चाहं पुमानपुमान् स्त्रियश्चाहं गायत्र्याहं सावित्र्यहं सरस्वत्यहं त्रिष्टुप्जगत्यनुष्टुबहं छन्दोऽहंगार्हपत्योऽहं दक्षिणाग्निराहवनीयोऽहं सत्योऽहं गौरहं गौर्य्यहं ज्येष्ठोऽहं श्रेष्ठोऽहं वरिष्ठोऽहमापोऽहं तेजोऽहमृग्यजुःसामाथर्व्वाङ्गिरमोऽहमक्षरमहं क्षरमहं गुह्योऽहं गोप्योऽहं अरण्योऽहं पुष्करमहं पवित्रमहमग्रञ्च मध्यञ्च वहिश्च पुरस्ताद्दशसु दिक्ष्ववस्थितमनवस्थितञ्च ज्योतिरित्यहमेवं सर्व्वे च मामेव मां यो वेद सर्व्वान् वेदेत्यादि99भगवतो विश्वरूपत्वं प्रदर्शितं व्यापकचैतन्यस्यरुद्रस्यैव, रुदत्या स्वशक्त्या लोकान् द्रावयतीति रुद्रः ब्रह्मादिप्रलयकर्त्तेत्यर्थः॥ अत एवोक्तं शिवरहस्ये।
ध्येयत्वे तव साक्षिणो मुनिगणाः ज्ञानप्रदत्वे शुको
वन्द्यत्वे निगमाः स्वभक्तविमताक्रान्तौ100कृतान्तादयः
नित्यत्वे भगवान् पितामहशिरःस्रग्वृन्दमाद्यन्तयोः
शून्यत्वे च वराहहंसवपुषौपद्माक्षपद्मासनौ॥
इत्यादिप्रमाणैः शिवस्य सर्व्वात्मकत्वं हरित्रब्रह्मेन्द्रादिकत्तृत्वं घटते तद्भक्तानान्तप्तलिङ्गरुद्रविभूत्यादिधारणात् पीठाद्यर्च्चनया रुद्राध्यायजपेन च सर्व्वपापविनिर्मुक्तः शिवसा युज्यं प्राप्नोतीति निरवद्यं।
उक्तञ्च स्कान्दे रुद्रप्रशंसाकाण्डे।
स्तेयं कृत्वा गुरुदारांश्च गत्वा
सुरां पीत्वा ब्रह्महत्याञ्च कृत्वा।
भस्मच्छन्नो भस्मशय्याशयानो
रुद्राध्यायी मुच्यते सर्वपापैः॥
कोटिजन्मार्जितैः पुण्यैः शिवे भक्तिः प्रजायते।
बहुनाऽत्र किमुक्तेन यस्य भक्तिः शिवे दृढा।
महापापौघपापौघ93-कोटिग्रस्तोऽपि मुच्यते॥
इति शिवगीतादृढोक्तेः। पुनरपि शिवगीतासु मुनीन् प्रति सूत इदमाह।
धर्म्मार्थकाममोक्षाणां पारं यास्यथ येन वै।
मुनयस्तत् प्रवक्ष्यामि व्रतं पाशुताभिधं॥
कृत्वा तु विरजां दीक्षांभूतिरुद्राक्षधारणं।
जपंस्तु वेदसाराख्यं शिवनामसहस्रकं।
सन्त्यज्य तेन मर्त्त्यत्वं शैवीं तनुमवास्यथ॥
ततः प्रसन्नो भगवान् शङ्करोलोकशङ्करः।
भवतां दृश्यतामेत्य कैवल्यं वः प्रदास्यतीत्यादिकं॥
तत्र विपक्षशूल इदमुवाच तैत्तिरीये नारायणोपनिषदि कद्रुद्राय प्रचेतसे मीढुष्टमाय तवसे वोत्तेम शंतमं हृदे सर्व्वोह्येष रुद्रस्तस्मै रुद्राय नमो अस्तु, पुरुषो वै रुद्रः सन्महो नमो नमः विश्वं भूतं भवनं चित्रं बहुधा जातं जायमानञ्च यत्, सर्व्वोह्येष रुद्रस्तस्मै रुद्राय नमो अस्तु इत्यादिना रुद्रस्य सर्व्वात्मकत्वसर्व्वान्तर्यामित्वं सर्व्वोत्कृष्टत्वञ्च94घटते यत्र सदात्मब्रह्मपुरुष95 साधारणवचनात्मकसूक्तानि वर्त्तन्ते तानि सर्व्वाणि शिवपराण्येव। ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणोऽधिपतिर्ब्रह्मा शिवो मेऽस्तु सदाशिवोमित्यादिना तस्य सर्व्वाधिपतित्वनियमात्। रुद्राङ्कनार्च्चनादिना धर्म्मादिपुरुषार्थस्यविद्यमानत्वात्। नच रुद्राङ्कधारणादिकं अयुक्तमिति भ्रमितव्यं96। कैवल्योपनिषदि हरोपासनामुपदिशति।
हृत्पुण्डरीकं विरजं विशुद्धं
विचिन्त्य मध्ये विशदं विशोकं।
अचिन्त्यमव्यक्तमनन्तरूपं
शिवं प्रशान्तममृतं ब्रह्मयोनिं॥
तदादिमध्यान्तविहीनमेकं
विभुं चिदानन्दमरूपमद्भुतं।
उमासहायं परमेश्वरं प्रभुं
त्रिलोचनं नीलकण्ठं प्रशान्तं॥
ध्यात्वा विनिर्गच्छति भूतयोनिं
समस्तसाक्षिं तमसः परस्तात्।
स ब्रह्मा स शिवः सेन्द्रः सोऽक्षरः परमः स्वराट्।
स एव विष्णुः स प्राणः स कालोऽग्निः स चन्द्रमाः॥
स एव सर्व्वं यद्भूतं यच्च भव्यं सनातनं।
ज्ञात्वा तं मृत्युमत्येति नान्यः पन्था विमुक्तये॥
इत्यादिकृत्स्नोस्वोपनिषदा हृदयपुण्डरीकान्तर्वर्त्तिनः उमासहायस्यत्रिलोचनस्य नीलकण्ठस्यब्रह्मादिसर्व्वदेवमयस्य ध्यानादपुनर्भूतयोनिं गच्छन्ति, मुक्त्यनन्तरं पुनर्योनिप्राप्तेरभावात्। एवञ्च महादेवस्योत्कृष्टत्वात् उमासहायादिलक्षणश्रितस्यलयस्वामिनो रुद्रस्यैवोपासनया मोक्षः सिद्ध इति फलितार्थः श्रुतिमन्यथाकर्तुमशक्यत्वात् उपासकस्य विभूत्यादिचिह्नंयुक्तमेव। ब्राह्मणेनावश्यं विभूतिधारणं कर्त्तव्यमिति कालाग्निरुद्रोपनिषदि समाम्नातं, अथ कालाग्निरुद्रं भगवन्तं सनत्कुमारः पप्रछ धेहि भगवन् त्रिपुण्ड्रविधिं सत्यत्वं किं यद्द्रव्यं किं यं स्थानं कति प्रमाणं का रेखाः के मन्त्राः का शक्तिः किं दैवतं कः कर्त्ता किं फलमिति च तं होवाच भगवान् कालाग्निरुद्रो यद्द्रव्यं तदाग्नेयं भस्म सद्योजातादिपञ्चब्रह्ममन्त्रैः परिगृह्य अग्निरिति भस्म इत्यनेनाभिमन्त्र्य मानस्तोक इति समुद्धृत्य जलेन संमिश्र्यामानो महान्तमित्यालोड्यत्र्यम्बकं त्र्ययुतमिति शिरोललाटवक्षःस्कन्धेषु त्र्ययुधैः त्र्यम्बकेः त्रिशक्तिभिस्त्रिवृत्तिस्त्रो रेखाः प्रकुर्व्वीत व्रतमेतच्छाम्भवं सर्व्वेषु वेदेषु वेदवादिभिरुक्तं भवति तस्मात् तत्समाचारान्मुमुक्षुः न पुनर्भवाय धन सनत्कुमार प्रमाणमस्य त्रिपुण्ड्रधारणस्य त्रिविधा रेखा आललाटादाचक्षुरामूर्ध्नो
मध्यतः याऽस्यप्रथमा रेखा सा गार्हपत्यश्चकारो रजो भूर्लोकश्चात्मा क्रियाशक्तिः ऋग्वेदः प्रातः सवनं महेश्वरो देवतेति याऽस्य द्वितीया रेखा सादक्षिणाग्निः ऋकारः सत्त्वमन्तरीक्षमन्तरात्मेछाशक्तिः यजुर्व्वेदः माध्यं दिनं सवनं सदाशिवो देवतेति याऽस्य तृतीया रेखा साहवनीयोमकारस्तमो द्योर्लोकःपरमात्मा ज्ञानशक्तिः सामवेदस्तृतीयं सवनं शिवो देवतेति त्रिपुण्ड्रंभस्मना करोति योविद्वान् ब्रह्मचारी गृही वानप्रस्थो यतिर्वा स समस्तमहापातकोपपातकेभ्यः पूतो भवति स सर्व्वेषु तीर्थेषुस्नाातो भवति स सर्व्वान् देवान् ध्यातो भवति स सर्व्वान् वेदान् अधीतो भवति स सन्ततं सकलरुद्रमन्त्रजापे भवति स सकलभोगभुग्देहं त्यक्त्वाशिवसायुज्यमाप्नोति न स पुनरावर्त्तते न स पुनरावर्त्तते इति यः शृणोत्यधीते वा सोऽप्येवमेव भवतीत्यन्तं सत्यमों सत्यमित्युपनिषदित्यस्यां कृत्स्नोपनिषदि त्रिपुण्ड्रस्य सर्व्वदेववेदकालात्मकत्वं मोक्षप्रदत्वञ्च प्रतिपादितं (सुगमत्वान्न व्याख्यातं) अतो विभूतिधारणमहिमानं वक्तुं न शक्यते केनापि, तस्मात् ब्रह्मचर्य्यादिभिराश्रमिभिः सर्वैरपि त्रिपुण्ड्रधारणमेवावश्यं कर्त्तव्यं। एवं रुद्राक्षलिङ्गधारणस्यापि प्रमाणसद्भावोऽस्त्येव।
शीर्षे कण्ठे कर्णयोश्च बाह्वोरुद्राक्षधारणात्।
नीलकण्ठोभवेन्मर्त्यो ब्राह्मणश्चेत् परात्परः॥
इति अगस्त्यसंहितायामुक्तं। अतप्ततनूर्न तदा मोक्ष अश्नुत इत्यादिप्रमाणेन तप्ततनोरेव फलश्रवणाल्लिङ्गाङ्कनमवश्यं कर्त्त-
व्यमिति प्राप्तश्रीशङ्कराचार्यैरिदमुच्यते, तप्तलिङ्गादिधारणं द्विजातिभिर्न कर्त्तव्यम् प्रमाणाभावात् अतप्ततनूरित्यादिश्रुतेरर्थस्तावदेवं वक्तव्यं नाग्निना तापो विवक्षितः किन्तु तपसैव ब्राह्मणस्यतपः कृच्छ्रचान्द्रायणादिकं तादृशेन तपसा तापो निर्दिष्टः कृच्छ्रचान्द्रायणैः कृश इति उक्तत्वात् आर्षविरोधाच्च101। तदुक्तं बृहन्नारदीये।
लिङ्गाङ्किततनुं दृष्ट्वाराजन् चक्राङ्कितन्तथा।
स्नानमेव तदा कार्य्यमथवा सूर्य्यमीक्षयेत्॥
पतितं तप्तलिङ्गाढ्यं चक्राङ्कितमथापि वा।
वाङमात्रेणापि नार्च्चेत पाषण्डाचारतत्परम्॥
शूद्रवत्स परित्याज्यो जीवञ्छवसमाकृतिः।
तस्मै दत्तञ्च हव्यञ्च कव्यञ्चापि वृथा भवेत्॥
तद्दर्शनात् परित्याज्यमन्नं मन्त्राभिमन्त्रितं।
अपि शूद्रेक्षणाद्भुञ्जेत् लिङ्गचक्राङ्किनं विना॥
अपि चेन्निगमाचाररतो वेदाङ्गतत्परः102।
लिङ्गचक्राङ्कमात्रेण स सद्यः पतितो भवेत्॥
मार्कण्डेय पुराणे।
ब्राह्मणानाञ्च गायत्र्याः सम्बादोऽभून्महान्पुरा।
अतस्तयाऽतिसंशप्ताः पाषण्डाश्चेशदेवताः॥
वेदोक्तकर्म्महीनाश्च तान्त्रिकाचारतत्पराः।
यूयं कलौभवन्त्वेवमिति तानाह सा रुषा।
अतः कलियुगे प्राप्ते भविष्यन्ति द्विजाधमाः।
वेदार्थहीनाः पाषण्डा लिङ्गचक्रादिचिन्हिताः॥
ज्ञानकर्म्मपथाद्भ्रष्टाः कामक्रोधादिपीड़िताः।
दुरात्मानः सत्यधर्म्मवर्जिताः शापभोगिनः॥
कलौ त्रिंशत्सहस्राब्दे पूर्णे नष्टा भवन्ति ते॥
निःशेषतां गताः पश्चादद्वैतार्थानुचिन्तकाः।
सत्यधर्म्मपरा भूयो भविष्यन्ति न संशय॥ इति।
तस्मादङ्कनं न युक्तं। भवदुक्तोपनिषत्तात्पर्य्यन्तु सत्यज्ञानमनन्तं ब्रह्म यतो वाचो निवर्त्तन्ते अप्राप्य मनसा सहेत्यादिना तस्य दुराराध्यत्वादुमासहयादिधर्मसंयुतस्यरुद्रस्यैवोपासनयाऽपि मोक्षोऽस्त्येव तस्य परब्रह्मावतारत्वात् तत्प्रीतये विभूतिरुद्राक्षधारणमवश्यं कर्त्तव्यमेव। किन्तु लिङ्गत्रिशूलडमरुधारणं निर्मूलत्वान्नाङ्गीकर्त्तव्यमिति सिद्धान्तः।
एवं परिहृतयोः शैवमतैकदेशिनोः पुनरन्यः शाखान्तरेण प्रत्यवतिष्ठते भक्ताग्रगण्य इति। तेषामसुराणां तिस्रः पुर आरुन्नयस्मय्यथ रजताऽथ हरिणी ता देवा जेतुं नाशक्नुवन् ता उपसदैव जिगीषं तस्मादाहुः यश्चैवं वेद यश्च नोपसदा वै महापुरं जयन्तीति इषु संस्कृत्य अग्निमनीषं सोमं शल्यं विष्णुं तेजनं तेऽब्रुवन् क इमामाशिष्यतीति रुद्र इत्यब्रुवन् रुद्रो वै क्रूरः सोस्यत्विति सोऽब्रवीत् वरं वृणे अहमेव पशूनामधिपतिरसानीति तस्माद्रुद्रः पशूनामधिपतिस्तां रुद्रो वासृजस तिस्रः पुरः क्रूरः
त्रिभ्यो लोकेभ्योऽसुरान् प्राणुदत यदुपसद उपमद्यन्ते भ्रातृव्यपराणुत्यै नान्यामाहुतिं पुरस्ताज्जुहूयादिति। पुरा राक्षसानां मध्ये तिस्रः पुर आसन् अयोमयं रजतमयं हिरण्मयञ्च पुरनामकान् त्रीन् राक्षसान् जेतुंदेवा अप्यसमर्था बभूवुः, ततस्ते देवा इषुं संस्कुर्व्वन्तः कल्पयामासुः त्रिदेवात्मिकामिषुं संस्कुर्व्वन्तः मूले अग्निदेवात्मिकां मध्ये चन्द्रदेवात्मिकां अग्रे विष्णुदेवात्मिकामित्यर्थः, ततस्ते देवा अब्रुवन् क इमामाशिष्यति क एनान्धारयति यतो अग्नीषोमविष्णुतेजःकूटात्मकत्वेनात्यन्तभारत्वात् जगल्लयतेजोरूपत्वाच्च। एतादृक् पुरुषः स्व हस्तेन धृत्वा को वा प्रयुनक्तीति विचार्य्य रुद्र इत्येवमब्रुवन् यतोरुद्रः क्रूरः किल वै अत एनां धर्त्तुं स एव समर्थः, यतो रुद्रस्याग्न्यादितेजः सर्व्वं स्वकीयमेतत्।कथमित्युक्तेतावदग्निचन्द्रौभगवतो नेत्रे विष्णुस्तु तदीयदेहात्सात्विकांशात्सम्भूतः अतः स्वतेजस्तस्य भारो न भवतीति रुद्रं प्रार्थयामासुः। सोऽब्रवीद्बरं वृणे भवद्भ्यः ब्रह्मादिभ्यो वरमिछामीत्यर्थः किमिति अहमेव पशूनामधिपतिः प्रधान इति, एवं रुद्रेणोक्ता अब्रुवन् तस्माद्रुद्रः पशूनामधिपतिः प्रधान इति रुद्रेणोक्ता अब्रुवन् तस्मात् रुद्रः पशूनामधिपतिरिति वयं ब्रह्मादयः सर्व्वे देवाः पशवः अस्माकं त्वमेक एव पतिरित्युक्त्वा तदीयलिङ्गत्रिशूलादिचिह्नानि सर्व्वे धारयामासुः। पशूनां ब्रह्मादीनां पतिः स्वामी पशुपतिः तस्मै नमो नम इति नमकेऽपि प्रतिपादितत्वात्। तस्मात् ब्रह्मनारायणादिभिः सर्वैरुपास्यः स्वामीत्यर्थः। अतः सर्व्वे
देवा लिङ्गत्रिशूलमुद्राधारिणः विभूतिरुद्राक्षलङ्कृतदेहिनः शुद्धस्फटिकाक्षमालिकाबद्धकराः पञ्चाक्षरीमन्त्रराजोच्चारणचलदधरौष्ठाः ईषन्नम्रशिरस्काः परमेश्वरपादारविन्दयुगलं निजकिरीटैरर्च्चयन्तः भक्ताग्रगण्या बभ्रुवुः। अतो निजलिङ्गत्रिशूलविभूतिरुद्राक्षधारणपरान् ब्रह्मादीन् प्रमथोत्कृष्टभक्तान्दृष्ट्वा तद्रक्षणाय पुरशिक्षणाय च मेरुगिरिं धनुः ज्यामहिराजं भूमिं रथं चन्द्रसूर्य्यात्मकं चक्रद्वयं वेदानश्वान् ब्रह्माणं सारथिञ्च कृत्वा वन्द्यादिभिरिव देवैः संस्तूयमानः परमेश्वरः (इत्यादि पुष्पदन्तोक्तप्रकारेण) तामिषुमसृजत पुरोपरि मुमोच मेषः पुराणि छित्वा मृत्युञ्जयस्य निषङ्गान्तरं प्राप तस्मात् पुरहरस्य लिङ्गादिचिह्नानि देवैरपि धृतानि तेषां मुख्यतया शिवभक्तत्वात् पशुत्वाच्च पशुपतिचिह्नधारणं युक्तमेव लोके सेव्यसेवकयोस्तथादर्शनाच्च तस्मात् शिवभक्तैरस्माभिश्च तदङ्कधारणमवश्यमङ्गीकर्त्तव्यमेवेति प्राप्ते आहुराचार्य्याः, त्रिपुरसंहारकाले रुद्रभक्तानामपि देवानां लिङ्गाद्यङ्कनमनुपपन्नं कुतस्तथाविधप्रमाणभावात् नारदादिमुनिषु च विभूतिरुद्राक्षस्फटिकधारणेविद्यमानेऽपि लिङ्गाङ्कनाभाव एव, तस्मादेव मुन्यादिषु कदाऽपि तप्तत्रिशूललिङ्गादिचिक्रं न विद्यते “श्रद्धाभक्तिध्यानयोगादवेहि” इति कैवल्योपनिषद्वचनालिङ्गाद्यङ्कनस्य ज्ञानाङ्गत्वाभावात्। नान्यः पन्था विद्यते अयनाय इति मनसैवे दमवाप्तव्यमित्यादिश्रुतेश्च मोक्षस्य ज्ञानसाध्यत्वमुपपन्नं तस्मान्निर्मलान्तःकरणप्राप्तस्य मोक्षस्य वहिस्तापेन प्रयोजनाभावात
तप्तलिङ्गादेर्निन्दादर्शनाच्च लिङ्गाङ्कनमयुक्तमेवेति सिद्धं। भवन्मतेऽपि देवाग्रगण्यस्य शिवस्य च अंशांशिभावत्वेन तत्रापि तदङ्कनं व्यर्थमेव तयोर्भेदाभावात्, यदि राजाङ्कनं भृत्यस्येत्युक्तं तदप्यसत्यं राज्ञः एकछत्रादिचिह्नं वर्त्तते तद्भृत्यस्य नास्त्येव। त्रिशूलाद्यायुधविशेषं देवोबिभर्त्ति भक्तेनापि तथायुधधारणं कर्त्तव्यमिति किल भवद्भिरुक्तं तथा चेदयोमयं त्रिशूलादिकं धारयतां भारमात्रमेव प्रयोजनं नत्वन्यत् नास्त्येव तथाविधकार्य्यकारणतायां। किञ्च नीलकण्ठभुजगभूषणादिचिह्नंदेवस्यास्ति तदपि धारय वृश्चिकादिविषमात्रेण म्रियमाणस्य मर्त्त्यस्य न कालकूटभक्षणे शक्तिरस्ति रज्जुदर्शनेन सर्पभ्रान्त्या पलायमानस्यभुजगभूषणता कथं युज्यते। तस्मात् पामरबुद्धिं विहाय लिङ्गाद्यङ्कनं परित्यज्य वेदोक्तकर्म्मसमर्पणं भगवति कृत्वा जीवेशयोरैक्यांशसन्धानं कुर्व्वन् वर्त्तयन् दृढेतज्ज्ञाने जन्ममरणप्रवाहकारणमूलाज्ञाननिवृत्तैा जातायां लिङ्गशरीरभङ्गद्वारा मुक्तो भवसीति परमाज्ञापितः भक्ताग्रगण्यस्तदनुसारिणश्च परमतकालानलादयः परमगुरुं श्रीशङ्कराचार्य्यं नत्वा स्ववन्धुपुत्रमित्रादिभिः सह त्यक्तलिङ्गाङ्काः सम्यगुपदिष्टशुद्धाद्वैतवादिनो बभूवुः। इत्यनन्तानन्दगिरिकृतौशिवमतैकदेशनिवर्हणं नाम पञ्चमं प्रकरणं॥ * ॥
षष्ठं प्रकरणं।
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तस्मादनन्तशयनं103 ( १ ) नाम भगवदर्च्चामूर्त्तिसन्निहितप्रदेशं संप्राप्तः तद्देवदर्शनं कृत्वा निजशिष्यैर्मासपर्य्यन्तमास तत्र
भक्ता भागवताश्चैव वैष्णवाः पाञ्चरात्रिणः104।
वैखानसाः कर्म्महीनाः षड्विधा वैष्णवा मताः॥
क्रियाज्ञानविभेदेन त एव द्वादशाभवन्।
तानाह शङ्कराचार्य्यः किं वो लक्षणमुच्यतां॥
आदौ भक्ता इदमूचुः। स्वामिन् वासुदेवः परमपुरुषः सर्व्वदा जगदवनपरः सर्व्वज्ञः सर्व्वदेवकारणः स एव रामकृष्णाद्यवतारविभेदेन भूभारं निवर्त्तयितुं शिष्टावनमशिष्टसंहारं च कुर्व्वन् पुण्यस्थलेषु निजाविर्भूतमूर्त्तिप्रतिष्ठामाचकार। मूढा वयं किल तदीयपादपङ्कजसेवया विगतपापास्तल्लोकवासं प्रास्याम इति निश्चयबुद्ध्या केण्डिन्यमुनेः प्रसन्नो विष्णुरनन्तनाम्ना किलाचैव वर्त्तते, तदीयचरणमेवनमनुदिनं कृत्वा तोर्थप्रसादादिभिस्तृप्तिमेत्य गोपुरप्राकारादिषु सम्मार्जनप्रोक्षणादिकं कुर्व्वन्तः सन्तो वसामः।
अङ्केन रहितानेतान् स्मार्त्तवंशसमुद्भवान्।
ऊर्द्ध्वपुण्ड्रपरान् भक्ताननन्ताङ्घिद्वये नयेत्105॥
स्नानमूलमिदं ब्राह्म्यमित्याद्याह्निकचोदिता॥
नित्यकर्म्मण्यप्रामाण्यमिव प्रतिफलति वः किमप्रामाण्यमिति यतिवर्य्य मदीयाचारो द्विविधः106ज्ञानक्रियाभेदात्। ज्ञानिनो वयं विष्णु शर्म्मादयः परे कर्म्मठाः ब्रह्मगुप्तादयः श्रीमदनन्तभक्ताः अत्रैव वर्त्तन्त इति विष्णुशर्म्मवचनं निशम्य शङ्कराचार्य्यस्तमपृच्छत् भवत्प्रमुखा ज्ञानिनः किल ज्ञानस्य किं वा लक्षणं तेन फलमपि किमित्युक्ते विष्णुशर्म्माह, श्रीमदनन्तभगवत्पादकमलमेव शरणमिति तूष्णीमवस्थितिरेव ज्ञानं तदनुज्ञां विना तृणचलनमपि न भवतीति, तमाचार्य्योऽब्रवीत् मूढ विष्णुशर्म्मन्।
“जन्मना जायते शूद्रः कर्म्मणा जायते द्विजः।”
इत्याश्रमधर्म्मानुकूलं कर्म सर्व्वेषामलङ्घ्यंतस्यैव तपःशब्दवाच्यत्वात्, सन्यासिनामपि विहितंं कर्म कर्त्तव्यमेव “कर्म्महीने तु पातित्यमिति दर्शनात् “अहरहः सन्ध्यामुपासीत, उदित सूर्य्येप्रातर्जुहोति, उद्यन्तमस्तं यन्तमादित्यमभिध्यायन् कुर्वन् ब्राह्मणोविद्वान् सकलं भद्रश्नुतेऽसावादित्यो ब्रह्मेति ब्रह्मैव सद्ब्रह्माप्येतिय एवं वेद” इति च सर्व्वेवेदा ब्राह्मणेचितं नित्यकर्म्म प्रशंसन्ति श्रौतस्मार्त्तादिकं यतः कर्म्मार्थमेव श्रुतिप्रवृत्तिः, अतः सर्व्वेराश्रमिभिः वेदोक्तं कर्म्म अवश्यं कर्त्तव्यमेव।
जीवन्कर्म्मपरित्यागं यः करोति नराधमः।
स मूढो नरकं याति यावदाभूतसंप्लवं॥
इति मनुवचनदर्शनात् देवार्च्चनज्ञानभिताचर्य्यादिकं कर्म यतीनाञ्च विद्यत एव। शौचाचमन स्नानस्नानसन्ध्यावन्दनजपाग्निहोत्रस्वाध्य. यमाध्याह्निकदेवातिथिपूजादिकं कर्म वानप्रस्थगृहस्थयोस्तुल्यमेव, वनस्थस्येयान किल विशेषः, तपो नानशनात्परमिति, ब्रह्मचारिणस्तु स्नानसन्ध्यास्वाध्यायेश्वरपूजागुरुकुलवासादिकं कर्म उचितं अतः स्वकर्म्मभ्रष्टानां भवतां ब्राह्मण्यहानिप्रसक्तिः स्यात्। किञ्च ज्ञानमार्गवर्त्तिनो वयमिति भवद्भिरुक्तं तत्राप्यधिकारो नास्त्येव यद्यस्ति बर्हि सदसल्लक्षणं ब्रह्मनाड़ीविभेदनं चित्परामर्शभावं षट्चक्रमार्गं दर्शयध्वं107, एवमाचार्य्येरुक्तेविष्णुशर्म्मादयः इदमूचुः, यतिनाथ अय कर्म्म ज्ञानं चोभयमेवास्माभिर्व्विदितं त्रिकालमनन्तदेवपाददर्शनं विना न किञ्चिदिति108, तद्वचः श्रुत्वासम्भूताश्चर्य्यः109श्रीशङ्कराचार्य्यं इदमाह, विष्णुशर्म्मन् कतिपयैरब्दैरेवं स्थितिः। स त्वाह, मत्सदृशः सप्तमः पुरुषः तत्पिता किञ्चित्कर्म्मशील इति बाल्ये मया श्रुतं। तन्नि-
शम्य कोपाश्चर्य्योभयात्मकमानसः सकलगुरुराह हेब्रात्य सकल धर्म्मवहिष्कृत दूराद्गच्छेति त्वत्संसर्गेणास्माकं दोषो भवेदिति विणुशर्म्माणमवादीन्। स तु क्लेशपूरितमानसः सगणः समस्तापराधं क्षमस्वेति दण्डवत्प्रणम्य सम्पुटितकरद्वयः स्थाणुवत्समातिष्ठत। विष्णुशर्म्माभिधमेनं शरणागतं दुर्मार्गाद्रक्षामोवयमितिर्धिया सगणस्य तस्य प्रायश्चित्तकरणे हस्तामलकादीन्निजशिष्यानाज्ञापयामास। ते विष्णुशर्म्मप्रमुखानां स्नानब्रह्मदण्डसमर्पणमुण्डनसहस्रघटस्नानशतप्राजापत्यकृच्छ्रप्राच्योदीच्याङ्गगोदानभूशयन110-गोगर्भजननजातकर्म्म नामकरणचौलोपनयनविवाहप्रमुखकर्माणि यथाविधि समाचरन्त। विष्णुशर्म्मादयोऽपि विहितब्राह्मणानुष्ठानतत्पराः श्रीपरमगुरुमिदम्चुः। स्वामिन् भवत्कृपया ब्राह्मण्यसिद्धिरासीत्। मोक्षसिद्धिः केनोपायेन नो भविष्यतीति जल्पन्तं विष्णुशर्म्माणमिदमब्रवीत्।
ब्राह्मणाचारदेवाः स्युरीशोविष्णुर्दिनेश्वरः।
उमा गणपतिश्चैव तेषां पूजापरा नराः॥
ब्रह्मार्पणधिया कामान् परित्यज्याचरन्ति ते।
एवं कृते नित्यकर्म्मण्यमले मनसि प्रभो॥
जीवस्य च भिदाभावो भवत्येव न संशयः।
मूलाज्ञानस्य तत्तस्य निवृत्तिज्ञानकारणं111॥
तेन भग्ने लिङ्गदेहे मुक्तिर्भवति नान्यथा।
इत्यादिष्टो विष्णु शर्म्मा दण्डवत्प्रणिपत्य तं॥
सगणः कारयामास नित्यकर्म्मगुरुं स्मरन्।
स्मार्त्ताचारपरिश्रान्तः पञ्चपूजाविशारदः॥
त्रिप्रण्ड्रंभस्मना कुर्व्वन् चन्दनेन च सुव्रतः।
स्नात्वा मृत्तिकया चोर्द्ध्वपुण्ड्रंकुर्व्वन् प्रयत्नतः॥
एवं निराकृतेषु विष्णुशर्मादिभक्तेषु तदन्ये कर्माश्रितभक्ताः ब्रह्मगुप्तादयः समागत्य मुनीन्द्रमिदमूचुः। स्वामिन् स्मार्त्तमार्गेण स्नानादिकर्म कुर्व्वन्तो वयमपि कर्मफलं भगवत्पादार्पणं कृत्वा निवसामः इति ब्रह्मगुप्तकृष्णदासकमलाभक्तादिभिर्विज्ञापितः श्रीशङ्कराचार्य्यः तान् प्रहसन्निदमुवाच इतः परं पञ्चपूजाफलपरिलब्धचित्तशुद्धयः शुद्धाद्वैतविद्यावैषद्यनिराकृतमायारचितभेदवासनाः यूयं स्वात्मानन्दानुभवत्यक्तलिङ्गशरीराः सच्चिदानन्दैक्यफलमनुभविष्यथेति गुरुवाक्यं श्रुत्वा नत्वा स्वस्था बभूवुः। एवं भक्तमते निराकृते भागवतमतावलम्बी कश्चिद्विप्रदेवः प्रत्यवतिष्ठते मन्त्रवर्षात्।
सर्ववेदेषु यत्पुण्यंसर्वतीर्थेषु यत्फलम्।
तत्फलं समवाप्नोति स्तुत्वा देवं जनार्द्दनम्॥
अनेन मन्त्रेण जगत्पतिस्तोत्रमात्रेणैव वेदपारायणतीर्थयात्रादिपरिलब्धफलस्य सत्त्वात्। श्रियःपतिकीर्त्तनमनुदिनमाचरन् वसामि ‘कलौसंकीर्त्त्य केशवं’ इति वचनान् मुक्तिः करस्यैव तस्मान्मन्मतस्य निगमोक्तत्वात् प्रामाण्यं स्मृत्याचारानुकूल-
लक्षणत्वात् स्मार्त्तं स्नानादिसत्कर्म तद्युक्तोऽपि भगवत्सम्बन्धिभागवतः श्रियःपतिकटाक्षादहमभवं नस्मिन्विचारः कर्त्तव्यः सुवर्णस्यपरिमलप्राप्तिरिव सद्ब्राह्मणस्य विष्णुस्तुतिः किल, तस्मात् श्रीमन्नारायणभक्त्या चोर्द्ध्वपुण्ड्रशङ्खचक्रगदापद्मादिचिह्नितस्तुलसोमालिकाद्वगलः सार्व्वकालिकमुच्चैःनितरां स्तौमि नारायणमेव शरणमिति वदन्तमाचार्य्योऽब्रवीत्, भागवत भवन्मतमसमञ्जसं विरोधसद्भावात् कथं चक्राद्यङ्कनस्य निन्दादर्शनात्। किञ्च भगवतोमूर्त्तिश्चतुर्द्धा भवति परव्यूह विभवार्च्चाभेदात्। परमूर्त्तेःस्वरूपाभावालिङ्गाभावः आकाशशरीरं ब्रह्मेति यच्छुक्तं तद्ब्रह्म कं ब्रह्म स्वं ब्रह्मेत्यादि श्रुतिभ्यः, तद्रूपं वक्तुं वेदा अपि असमर्था एव यतो वाचोनिवर्त्तन्तोअप्राप्य मनसा सहेत्यादि श्रुतिभ्यः अतो मनोवाग्वृत्त्यगोचरं ब्रह्मेत्यर्थः, तदेव परमूर्त्तिः। व्यूहमूर्त्तिर्विराट् चतुर्द्दशलोकात्मकः तस्य ब्रह्माण्डकर्परपर्य्यन्तमाकाशः शिरः, चन्द्रसूर्य्योनेत्रे, प्रागादिदिशः श्रोत्रे, अन्तरीक्षलोको घ्राणं, मेरुः पृष्ठवंशः, शिखरत्रयं भुजकण्ठाः, प्रत्यन्तपर्वताः पृष्ठपार्श्ववक्षांसि, उपपर्वताः शाल्मल्यादीनि, समुद्रा रक्तं, लता स्नायूनि तृणवृक्षाः रोमाणि भूमिः कुक्षिः, द्वोपा वलयः, भूरेखा रोमराजिः, भृमध्यप्रदेशो वस्तिः, शेषः शिश्नं, दिग्दन्तिपङ्क्तिर्नितम्बोरुभागः, अतलादिसप्तकं कटिपादान्तरालः, कुर्म्मःपादौ, एवं वर्त्तमानस्य विराड़देहस्याङ्केनतप्तमुद्राधारणं समर्थश्चेत्कुरु। शीर्षादिपादपर्य्यन्तं चिह्नेन केनचिदयोमयेन दृढ
-तप्तेन शरीरमङ्कय देहनाशात्परं वैष्णवसिद्धिर्भविष्यति। विभवमूर्त्तयः मत्स्याद्याः चेतने मत्स्याद्यवतारात्मके नारायणे विद्यमाने अचेतनयाः शङ्खचक्रयोश्चिह्नंकिमर्थं कर्त्तव्यं। चेतनपरित्यागे अचेतनपरिग्रहणे मानाभावाद्दोषबाहुल्यस्य बृहन्नारदीये उक्तत्वाच्च। अरे लोहमये आयुधरूपे शङ्खचक्रगदापद्मसहिते विहाय लोहमयान्येव मत्स्याद्याकाराणि कृत्वा तैरेव चिह्नधारणं कुरु तेन चर्म्मक्लेशमात्रं फलमस्ति। तथा कृतं चेत्प्राणान स्थीयन्त इति इति तु चक्रादि लोहमयं कृत्वा विष्णुमेव हस्ताभ्यां धारय बाहुभारमात्रं फलमस्ति। अर्च्चामूर्त्तीनां शिलामयत्वात् तद्रूपेण तप्तेन बाऽङ्कय। तस्मान्मूढ भगवच्चिह्नधारणं कर्त्तव्यमिति पाषण्डबुद्धिं त्यक्त्वास्वकर्म्म नित्यादि यथाशक्त्याकृत्वा तत्फलसमर्पणं भगवत्येव विधाय शुद्धाद्वैतवादिनं गुरुमाश्रित्य तदुपदेशवशाद्विनष्टकर्म्मबन्धः मुक्तो भविष्यसि। किञ्च स्तुतिमात्रेणैवमुक्तिःकरस्थितेति भवद्भिरुक्तं तदत्यन्तासम्बद्धं ब्रह्मणो वागतीतत्वेन स्तुतेर्वाग्रूपत्वेन मुक्तिः सुतरामयुक्तैव ज्ञानं विना मुक्तिर्नास्त्येव नान्यः पन्थाविद्यते अयनायेति निषेधदर्शनात्। यद्वाचाऽनभ्युदितं येन वागभ्युद्यते तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनोमतं तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासत इत्यादि श्रुतिभ्यः ब्रह्मणो वाङमनोवृत्त्यतीतत्वात् ईदृक् स्वरूपं ब्रह्मेति वक्तुमशक्यत्वात् तदीयध्यानादिकं सर्व्वदा अनुपपन्नं। जन्मान्तर सह स्राभ्यासपरिपक्वबुद्धेः कस्यचित् गुरूपदेशवशात् अवगत-
ब्रह्मतत्वस्य मुक्तिर्भवति। आश्चर्य्योवक्ता कुशलोऽस्य लब्धा ह्याश्चर्य्योज्ञाता कुशलानुशिष्टः, न नरेणावरेण प्रोक्त एष नु सुविज्ञेयो बहुधा चिन्त्यमान इत्यादि कठश्रुतिभ्यः। ब्रह्मवोधस्यसाध्यत्वात् ब्राह्मणेन कर्म्मनिष्ठावता भवितव्यं तदनुष्ठानेन चित्तशुद्धौजातायां बहुजन्मतपःफलादाविर्भूतब्रह्मस्वरूपप्रपन्नः सन् मुक्तोभवति। उक्तञ्च भगवद्गीतासु।
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान् मां प्रपद्यत। इति
वासुदेवः सर्व्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः। इति।
यत्र ब्रह्मणि प्रपञ्चदृष्टिजीयते112तदनन्तरज्ञानेन नेदं जगत् किन्त्वात्मैव जायते तदा स एवाहं भेदाभावो113भवत्येव, स एव मुक्तिरिति। एवमुपदेशं114कुर्व्वन्तं परमगुरुं श्रीशङ्कराचार्य्यं विप्रदेवः सम्यगभिवाद्य स्वामिन् मदीयमतेनालं तस्य मुक्तिजनकत्वाभावात् तावद्भवत्पाददर्शनं मम सुकृतशतेनैवाभूत्। अतः सदुपदेशेन मां कृतार्थं कुर्विति नमस्कार पुरःसरं विज्ञापितः श्रीपरमगुरुरिदमवादीत् भो विप्रदेव चिह्नाङ्कनादिकं परित्यज्य यथाकालोचितं नित्यकर्म्म कुर्व्वन् सदहं ब्रह्मास्मीति भावय, सिद्धायां भावनायां मुक्तो भवसीति॥ इत्यनन्तानन्दगिरिकृतोभागवतमतनिवर्हणं नाम षष्ठं प्रकरणम्॥
सप्तमं प्रकरणं।
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एवं भक्तभागवतमतयोः पुनरन्यो वैष्णवः शार्ङ्गपाणिरिति प्रत्यवतिष्ठते मन्त्रवर्णात्।
यमुक्त्वा मुच्यते योगी जन्मसंसारबन्धनात्।
ओँ नमो नारायणायेति मन्त्रोपासकः स आह। भगवद्भक्तेन वैकुण्ठलोकवासार्थमवश्यं शङ्खचक्राद्यङ्कनं कर्त्तव्यं। नारायणमुद्रादिधरः115नारायणाष्टाचर्य्युच्चारणमात्रेणैव जन्मसंसारबन्धनाद्विमुक्तः वैकुण्ठभवनं गमिष्यति, शङ्खचक्राद्यङ्कितगात्रः वैष्णवोत्तम इति तादृग्विधास्तल्लोकवासिनो मुक्ता इति प्रसिद्धेः। तदुक्तं पुराणादौ।
ये बाहुमूलपरिचिह्नितशङ्खचक्रा
ये कण्ठलग्नतुलसीनलिनाक्षमालाः।
ये वा ललाटफलके लसदूर्ध्वपुण्ड्रा-
स्ते वैष्णवा भुवनमाशु पवित्रयन्ति॥इति
शङ्खचक्राद्यङ्कनस्य पुराणपठितत्वादवश्यं कर्त्तव्यमेव भगवच्चिह्नत्वात्। एवं प्राप्ते आहुराचार्य्यः। मूढ तप्तशङ्खचक्रधारणं परिहर्त्तव्य कस्मात् तद्बोधकश्रुत्यभावात्116। अतप्ततनूर्नतदामो अश्रुत इति श्रुतिस्तत्र प्रमाणनितिचेन्न। तपस्तप्ततनुरेव ब्रह्मबोधस्यान्यत्र दर्शनात्। भृगुः ब्रह्मबोधार्थं पितरं वरुणमासाद्य यथोचितं नत्वा ब्रह्मोपदेशं कुर्वियुक्ते तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व तपो ब्रह्मेति किल वरुणेनोक्तं। तपःशब्दार्थस्तु महापातकध्वंसहेतुभूतकृच्छ्रचान्द्रायणादिः आश्रमविहितकर्म्मानुष्ठानं वा सकलवेदवचनविदितस्य साक्षिचैतन्यस्य सर्व्वदेवमयस्य ध्यानं वा। भविष्यति।
एको देवः सर्व्वभूतेषु गूढः
सर्व्वव्यापी सर्व्वभूतान्तरात्मा।
कार्य्याध्यक्षः सर्व्वभूताधिवासः
साक्षी चेता केवलो निर्गुणञ्च। इति।
अतः परमात्मनो रूपगुणकर्म्माभावाच्च तत्स्वरूपज्ञानेनैव मुक्तिदर्शनात् तपोमूलमेव ब्रह्मज्ञानमिति प्राप्तं तस्मात् चक्रादिचिह्नस्यानवकाशः कार्य्यमूर्त्तेर्विष्णोश्चक्राद्यायुधस्य विद्यमानत्वात्। तच्चिह्नधारणेन तन्मत्त्रजपेन च वैकुण्ठप्राप्तिरिति किलोक्तंनहि तदपि रमणीयं मेर्व्वगशृङ्गेषु त्रिषु वर्त्तमानेषु पश्चिमशृङ्गे रुद्रलोकः मध्यशङ्गे ब्रह्म-
लोकः प्राक्शृङ्गे विष्णुलोकःतेषां ब्रह्मावमानलयात्मकत्वात् तत्प्राप्तिरनर्थैव। तद्वारा चक्रादिधारणस्य निरर्थकत्वं प्राप्तं। ब्रह्मविदाप्नोति परमिति ब्रह्मविद एव निश्रेयमप्राप्तेः तदन्यतः क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्तीति संसारप्राप्तिकरमेवेति सिद्धं पुराणेषु बृहन्नारदीयादिषु तप्तचक्रलिङ्गनिषेधदर्शनात् कर्म्मवाह्यस्य ब्राह्मणव्यतिरिक्तस्य तच्चिह्नमतु तस्याप्यग्रजशुश्रूषयैव मुक्तिदर्शनादप्रयोजकत्वं चक्राद्यङ्कनस्य प्राप्तं। विष्णुचिह्नधारणेन विष्णुसमोऽहं भविष्यामीति फलधिया चेदङ्कधारणमात्रेणैव विष्णुत्वप्राप्तिः शूद्रस्य शिखायज्ञोपवीतधारणमात्रेण ब्राह्मण्यप्राप्तिरिव भाति ‘ब्रह्मभावनयैव ब्रह्मत्वप्राप्तेःब्रह्मविद ब्रह्मैव भवतीति श्रुतेः। किञ्च ओ अत्ता। चराचरग्रहणादित्यस्याधिकरणसूत्रस्य विषयवाक्यमेतत्। यस्य ब्रह्म च चत्रञ्चेाभे भवत ओदनं मृत्युर्यस्योपसेचनं क इत्थान्वेद यत्र स इति अस्मिन्नधिकरणे मया भाष्ये सिद्धान्त एवं कृतः, अत्ता परमात्मा कस्मात् चराचरग्रहणात् यस्य च ब्रह्मक्षत्राद्युपलक्षितं जगत् चराचरं ओदनमन्नं मृत्युःसर्व्वप्राणिप्राणहर्त्ताउपसेचनं उपदंशः इत्थं को वा वेद यत्र यस्मिन् जन्मनीत्यर्थः। वेदितुः फलमाह स एव परमात्मैव भवतीति तस्मात्ब्रह्मप्राप्तिः निरुपाधिकब्रह्मवेदनेनैव भवति। सर्व्वेषां देवानामात्मैकायनमिति वृहदारण्यकश्रुतेः। सर्व्वदेवस्वरूपोपासनमा मन एवेति चेन्न। कथं कर्म्मातीतवृत्तेरीश्वरस्य कर्म्मगोचरत्वं ब्रह्मलये देवानां पृथक्स्वरूपाभावात
कारणैक्यंसिद्धमेव117। अतः एकायनं मुख्यस्थानं। स्रष्टुर्मायान्तर्गतस्य वचनं बहु स्यां प्रजायेयेत्यनेन सर्व्वदेवमयत्वं प्राप्त देवानां तदंशसम्भृतत्वात्118। अतो यस्य देवस्य उपासनामविछिन्नां करोति तल्लोकप्राप्तिमात्रमेव फलं समधिगछति पुण्यलये पुनर्म्मर्त्यलोकप्राप्तेः। तदनन्तरप्रतिपत्तौरंहति सम्परिष्वक्रप्रश्ननिरूपणाभ्यामित्यस्मिन्नधिकरणे जीवस्य तृणजलौकान्यायेन परलेाकगमनमुक्त्वा119तत्र स्वकर्मसम्पादितफलमनुभूय किञ्चिदवशिष्टे निजकर्मणि पुनर्मर्त्त्यलोकप्राप्तये पञ्चाग्निविद्यामाश्रयति जीवः। स तु द्युपर्जन्यपृथिवीपुरुषयोषित्सु श्रद्धामोमवृष्ठ्यम्बुरेतोरूपाः पञ्चाहुतीरवलम्ब्यपुरुषाकारो भवतीति अतः संसारमार्गात् दृढतरज्ञानेन विना तप्तचक्रादिधारणेन नष्टो भवतीति अनृतवाद एव, सर्व्वस्य मायारूपत्वात् अमायिकसदनुसन्धानेनैव तन्निवृत्तिः120। अतः सर्व्वज्ञनित्यशुबुद्धमुक्तस्वरूपं सत्यज्ञानमनन्तमणुमहत्त्वादिलक्षणलक्षितं ब्रह्मास्मोत्यनुसन्धानं सदा कुरु। तदनुसन्धानेन भेदगन्धे निरस्ते जीवस्य परमत्वमेव, उक्तञ्च शिदगीतासु।
शिवः शिवोऽहमस्मीति वादिनं यञ्च कञ्चन।
आत्मना सह तादात्म्यभागिनं कुरुते भृशं। इति॥
एवमुपदिष्टः शार्ङ्गपाणिवैष्णवः श्रीशङ्कराचार्य्यं परमगुरुंनत्वा स्वामिन् भवदुपदेशेन कृतार्थोऽस्मि। इतः परं शुद्धाद्वैतवृत्तौसोऽहंभावनापरिलब्धफलनिरस्तभिदाशङ्कायां निश्चयेन वर्त्तेऽहमिति दण्डवन्ननाम। आचार्य्यस्त्वंमुक्तो भवेत्यवादीत्। तदनन्तरं निरस्तचिह्नः स्मार्त्ताचारपरिश्रान्तगात्रः पञ्चपूजानैपुण्यतृप्तसकलदेवदत्तवरः स्वकुलग्रामदेशस्थानशेषानेवमाचकार। इत्यनन्तानन्दगिरिकृतौवैष्णवमतनिवर्हणं नाम प्रकरणं सप्तमम्॥
अष्टमं प्रकरणं।
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एवं परिहृते वैष्णवमते पुनरन्यः पाञ्चरात्रागमदीक्षितः प्रत्यवतिष्ठते। स तु श्रीशङ्कराचार्य्यमिदमाह। स्वामिन् भवानत्रागत्य भक्तभागवतवैष्णवमतनिरसनं कृत्वा वर्त्तसे ते ‘वैष्णवाः किमु जातिमात्रोपजीविनः पुण्ड्रादिधारणमात्रेण तद्दीक्षाःतन्मतं भवता निरस्तमेव इदानीमशेषविष्णुविदीक्षाकारणं पाञ्चरात्रं परमवैष्णवमतमहमवलम्ब्यचिरादनन्तदेवपादकमलाराधनं कुर्व्वन् भगवत्प्रियोऽभवं। पाञ्चरात्रागमस्य निन्दां कर्त्तुमसमर्थ एव ईश्वरोऽपि अतः भगवदच्चीमूर्त्तिप्रतिष्ठादिकमपि तदनुष्ठानमूलकत्वात् कर्त्तव्यं। तस्मात् ब्राह्मणैः सर्व्वैरपि पाञ्चरात्रागमाचार एव कार्य्य इति प्राप्ते आचार्य्येरिदमुच्यते। भो वैष्णव समीचीनमुक्तं भवता विचार्य्यमाणे वेदाविरुद्धत्वमागमेऽस्ति चेत् तदुक्ताचारः परिग्राह्यो भवति यदि विरुद्धस्तदा स एवाचारः परित्याज्योभवति। प्रथमं विष्णुसम्बन्धो वैष्ण्वःविष्ण्वैकदेवतानिरत इत्यर्थः। तादृग्विधस्य वैष्ण्वस्य विष्णुमन्त्रशतोपदेशेनापि न ब्राह्मण्यभावः स्यात्।
किन्तु गायत्र्युपदेशेनैव ब्राह्मण्यसिद्धिर्भवतीति। अतो मन्त्रान्तरपरिग्रहस्य दुर्निवार्य्यत्वात् ब्राह्मण्यानुग्रहाय गायत्र्यङ्गीकारः कर्त्तव्य आसीत् गायत्र्यङ्गीकारोऽपि माऽभूदिति यद्युच्यते तर्हि गायत्र्यभावे पतित एव स्यात्। तस्मान्मन्त्रान्तरसद्भावात् वैष्णवत्वहानिः स्यात्। किञ्चैवमेव रविरग्निश्च सेवनीयः121तयोरपि ब्राह्मणकर्माधारत्वात् तस्मादपरिहार्य्येषु देवतान्तरेषु सद्भावात् तत्परित्यागे ब्राह्मण्यविच्छित्तिदर्शनात् वैष्णवमतमनृततरमित्युक्ते स त्वब्रवीत्। भवदुक्तमसमञ्जसं कथं गायत्र्या अपि विष्णुशक्तित्वात्। तदपि कथं शङ्खचक्रधारणस्य विद्यमानत्वाद्यत्रं यत्र विष्णु चिह्नधारणत्वं युज्यते तत्र तत्रतद्रूपत्वं प्राप्यते इति तर्हि रुद्रशक्तिरेवेति वक्तव्या, कथं पञ्चवदनेन्दुशेखरत्वाद्युपमानाद्रुद्रस्य प्रागादिमुखसद्भावो यथा तथैव गायत्र्याअपि चन्द्रमुकुटत्वं रुद्रस्यासाधारणोधर्म्मः। तद्वदस्याश्चेत्यतः गायत्री रुद्रशक्तिरेवेत्यविरुद्धं। किञ्च शरीरापेक्षया आयुधानां भिन्नत्वात्पञ्चवक्त्रसद्भावान् रुद्रशक्तिरस्तु वा न वेति सन्देहलेशाभावात् परमेश्वर्य्येव गायत्रीति निरवद्यं। स्वामिन् गायत्रीशब्दार्थस्तु न परमेश्वरींरुद्रशक्तिं वक्ति किन्तु सवितुर्देवस्य वरेण्यं श्रेष्ठ भर्गः तेजः धीमहीत्यादिना सूर्य्यतेजःप्राधान्यात् तन्मण्डलालयस्य नारायणस्यैवेय शक्तिरिति रोचते तस्या बहुरूपसद्भावात् पञ्चमुखादिकमविरुद्धं। ननु अष्टमूर्त्तेःपरमेश्वरस्यैव शक्तिरीदृशी कथं सूर्य्यस्य
तन्मूर्त्तित्वात् अतो रुद्रमूर्त्तिप्रतिपादिता गायत्री विष्णुशक्तिरिति वक्तुं नार्हसि गायत्रीहृदये गायत्र्युत्पत्तिप्रकारोऽपि नितरां प्रतिपादितस्तद्वारा प्रणवात् व्याहृत्युत्प्रत्पत्तिः व्याहृतीभ्यः गायत्र्युत्पत्तिः गायत्र्याः सावित्र्युत्पत्तिः सावित्र्याःसरस्वत्युत्यत्तिः सरस्वत्या वेदोत्पत्तिः वेदेभ्यः ब्रह्मोत्पत्तिः ब्रह्मणे लोकोत्पत्तिः एवं स्थिते प्रकृतिकार्य्ये किं चिन्त्यं। एतत्सर्व्वस्यापि प्रण्वजन्यत्वं सिद्धं भवति। प्रणवस्य तु ओमित्येतदग्रे अजायतेति जन्यत्वं दर्शयति श्रुतिः। प्रणवं प्रथमं परमेश्वरादजायतेति भाष्येऽप्युक्तं। परस्तादात्मन एव प्रणवोत्पत्तिः सिद्धैव।
यो वेदादौस्वरः प्रोक्तो वेदान्ते च प्रतिष्ठितः।
तस्य प्रकृतिलीनस्य यः परः समहेश्वरः॥ इति।
नारायणोपनिषद्वचनान्महेश्वरस्य जगत्कारणत्वाच्च। तस्मादेव गायत्रीजाता जगदुत्पत्तिहेतवे। स्वमायाप्रविष्टस्य तस्य पञ्जवक्त्रचन्द्रमुकुटविशेषणस्य शक्तिरेव गायत्रीति समाधानं बृहदारण्यके अन्तर्यामिब्राह्मणे, य आदित्ये तिष्ठन्नादित्यादन्तरो यमादित्यो न वेद यस्यादित्यः शरीरं य आदित्यमन्तरो यमयत्येष त अन्तर्यम्यमृतइति। यस्य परमात्मनः आदित्यः शरीरं भवति अष्टमूर्त्तन्तःपातित्वेनादित्यः शिवस्य शरीरमेव। एवञ्चादित्यशरीरस्य ईशानस्य तेजोरूपा गायत्री तस्याः पञ्चवक्त्र चन्द्रचूड़त्वाद्युपपन्नं। अतः चक्रस्यायुधविशेषत्वात रुद्रस्याप्युपपन्नमेव। तस्माद्देवतान्तरत्वान्नैव गायत्र्युपासनीया
वैष्णवेन। तथैवाग्निरपि परित्याज्यः तस्य रुद्रत्वात् अष्टमूर्त्त्यन्तःपातित्वात् यो रुद्रो अग्नो योऽस्मयओषधिषु योरुद्रो विश्वा भुवना विवेश तस्मै रुद्राय नमोऽस्त्विति श्रुतेः। रविस्त्वोशानमूर्त्तिरिति प्रतिपादित एव। तस्मात्गायत्र्याऽग्न्युपासनं वैष्णवः कर्त्तुं नार्हसि त्वं। एवं ब्राह्मण्यनिवृत्तावपि जातायां वैष्णवोऽस्मीति यद्युच्येत तर्हि प्रारब्धस्यातिविचित्रत्वात् को वा भवान्नास्माकन्तदुपयोगः जातिभ्रंशस्यामर्य्यादकत्वात् ज्ञानमतवत् भक्तादिषु नानामतावलम्बिनां122नियमातिक्रमवृत्तिमतां यथा जातिभ्रंशस्तथैवेत्यर्थः। तस्माद् ज्ञाने जाते संसारनिवृत्तरेव फलं लभ्यते नित्यसंसारिणामस्माकं ज्ञानमतमिति वदतां जात्याश्रमविहितकर्म्मभ्रष्टानां किमु वक्तव्यं तद्वदित्यर्थः। नित्यनैमित्तिककर्म्मपरित्यागे ज्ञानमतावलम्बः तदन्यत्रानियमान्नितम्विनीपरिसेवने कस्यमतस्यावलम्बोवास्माभिर्वेदितव्यः श्रुतिस्मृत्युक्तनियमछेदिनां ज्ञानकर्म्ममार्गद्वयभ्रष्टानां मतं किमस्तीति। उक्तञ्च।
जीवन् कर्म्मपरित्यागं यः करोति नराधमः।
स मूढोनरके शेते यावदाभूतसंप्लवं॥ इत्यादिना।
एवं वैष्णवमतस्य दौर्व्वल्ये प्राप्ते माधवाख्यो वैष्णव इदमाह। स्वामिन्पाञ्चरात्रागमे तप्तशङ्खचक्रे द्विभुजे धार्य्ये तेन परमं लोकं यातीति सम्यगागमदीक्षितस्य फलं प्रतिपादितं। वैष्णवस्याप्रामाण्ये आगमस्य सुतरामप्रामाण्यप्रवृत्तिः स्यात्।
तस्माद्वैष्णवमतमवश्यमङ्गीकर्त्तव्यमित्यत्रोच्यते। आगमोक्ततप्तशङ्खचक्रधारणमयुक्तं वेदविरुद्धत्वात् ब्रह्माद्युत्पत्तेः पूर्व्वभाविनो वेदस्य विरुद्धत्वे प्रोच्यमाने महानेव दोषः प्रसज्येत तद्विरुद्धाचारे तदेवसुर्य्यप्रणीतागमविरुद्धतापि123 तथैवेति चेन्न आगमेतिहासपुराणोक्ताचारस्तु वेदानुकूलवृत्त्या ग्राह्यः, अग्राह्य एव तत्प्रतिकूलः। उक्तञ्च
अतीन्द्रियार्थविज्ञाने प्रमाणं श्रुतिरेव हि।
श्रुत्युक्ताचारतो ग्राह्या ह्यागमानां प्रसज्यता॥इति।
अतः सर्व्वस्यापि वाङ्मयस्य निगममूलत्वेन तद्विरुद्धत्वेन वैष्णवस्याग्राह्यत्वं प्रसक्तं भवति अतः परित्यक्तचक्रादिचिह्नःत्वमद्य प्रतिहतं ब्राह्मणाचारं निर्वर्त्तय यथाशक्तिकर्म्माचरणेनापि प्रत्यवायाभावात्। श्रेयान् स्वधर्म्मोविगुणः परधर्म्मात् स्वनुष्ठितादित्युक्तेः। तस्मात् ब्राह्मणस्य यथोक्तकर्म्माचरणमेव तपः। तेन तपसा यस्तप्ततनुर्भवति स एव तप्ततनुः तस्य अतप्ततनोः पुरुषस्य तदाम तद्धामेत्यर्थः। तस्य भगवतो धाम तेजः अश्नुते न विना विद्यत इत्यर्थः। ज्ञानमृते मोक्षो न भवति तस्य मनोनैर्मल्यमूलं निर्मलेन मनसा संसारकारणस्य भेदस्य निवृत्तेः। ततः परमहमस्मि ब्रह्मेति महावाक्यस्य निष्पन्नत्वात् परं मोक्षमाप्नोति इति सिद्धान्तः।
सर्व्वभूतेषु चात्मानं सर्व्वभूतानि चात्मनि।
सम्पश्यन् ब्रह्म परमं याति नान्येन हेतुना॥ इति श्रुतेः।
एवं भावनया तत्सत्यज्ञानानन्तलक्षणलक्षितं ब्रह्म त्वमसि नतु पाञ्चरात्रागमदीक्षितो माधवः।
यः परं ब्रह्म सर्व्वात्मा विश्वस्यायतनं महत्।
सूक्ष्मात् सूक्ष्मतरं नित्यं तत्त्वमेव त्वमेव तत्॥ इति श्रुतेः॥
तस्मात् मायाकल्पितचक्राद्यङ्कनादिकं परित्यज्य शूद्धाद्वैतवृत्त्या जीवेशैक्यंकुरु मुक्तो भवसीति बोधितः त्यक्तचिह्नः परिवर्जितागमाचारः सन्मार्गगामी माधवः स्वकुलग्रामदेशवासिभिः सह शुद्धाद्वैतवृत्तिं प्राप्य स्नानसन्ध्याग्निहोत्रस्वाध्यायवैश्वदेवातिथिपूजापरायणः सर्व्वजगद्रूपेणावगतं ब्रह्मेति ध्यात्वा तथैवाहमस्मीति मुक्तोऽभवत्। इत्यनन्तानन्दगिरिकृतौपाञ्चरात्रागमनिवर्हणं नामाष्टमं प्रकरणं॥
नवमं प्रकरणं।
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एवं परिहृतेषु भक्तभागवतवैष्णवपाञ्चरात्रिषु पुनरन्यो वैखानसमताचारः व्यास इति प्रत्यवतिष्ठते मन्त्रवर्णत् स्वामिन् भवता निरस्ताः भक्तादयः चत्वारः तज्ज्ञानमार्गवर्त्तिनश्च इदानीमहमागतोऽस्मि व्यामदासः वैखानसमताचाराग्रणीः न च ब्रह्मापि मत्यक्षं निवारयितुं कुशलः मदीयमतेशस्य नारायणस्य सर्व्वोत्कृष्टत्वात् शङ्खचक्राद्यङ्किताद्गरोरुपदिष्टोऽहं विष्णुः सर्व्वोत्तम इति अस्मन्मतस्य श्रुतिरूढत्वञ्चेति तथा मन्त्रश्च। तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः दिवीव चक्षुराततं। तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसस्ममिन्धते। अस्यार्थः। सूरयः विद्वांसः विष्णोः नारायणस्य तत्प्रसिद्धं परम पदं उत्कृष्टं स्थानं वैकुण्ठाख्यं सदा सार्व्वकालिकं पश्यन्ति तथाविधस्थानं कदा वयं प्रास्याम इति पश्यन्तीत्यर्थः तत्पदं किम्बिधं दिवि द्युलोके आततं विस्तृतं चक्षुरिव वर्त्तमानं
चक्षुषोऽधिदैवतं सूर्य्य व प्रकाशमानमित्यर्थः विप्रासः ब्राह्मण विगतं पन्यं पापं येषां ते विपन्यवः जागृवांसः विगतनिद्राः निद्रालस्यादिनिन्द्यगुणरहिता इत्यर्थः विष्णोः नारायणस्य परमं सर्व्वापेक्षया पूज्यं पदं स्थानं यद्वर्त्तते तत् समिन्धते ध्यायन्तीत्यर्थः। तस्मात् सर्व्वदेवस्थानापेक्षया विष्णुपदस्य श्रेष्ठत्वात्। अनेन हि नारायणस्य सर्व्वोत्तमत्वं सिद्धमेव। नारायणद्ब्रह्मा जायते रुद्रा वसव इत्यादिना नारायणोपनिषदुक्तप्रकारेण सर्व्वदेवकारणत्वं नारायणे घटते। अन्तर्वहिश्च तत् सर्व्वं व्याप्य नारायणः स्थित इत्यादिना नारायण एवं परं ब्रह्म नराणां समूहो नारं तत्रायनं स्थानं यस्य नारायणः रेफात्पर नकारस्य णत्वविधानात् सर्व्वप्राणिबुद्धिगुहानिवासाच्छुद्धचैतन्यमित्यर्थः। तस्मान्नारायणभक्तानां तदङ्कधारणमुचितमेव। वैखानसोविष्णुभक्तो विरचितोर्द्धपुण्ड्रःशङ्खचक्राभ्यां पवित्रगात्र इति। अतः शङ्खचक्रोर्द्धपुण्ड्राद्यङ्कितः विष्णु भक्त इति प्राप्ते अत्रोच्यते। भोव्यासदास भवदुक्तमन्त्रद्वये विष्णुलोकस्य तेजोरूपत्वंविद्वत्प्रार्थ्यत्वंप्रदर्शितं। मायातीतस्य परमात्मनः सकाशात् अजा गुणत्रयमयीकिल अजायत ततः महत्तत्त्वं तस्मादहङ्कारस्त्रिगुण उत्पन्नः। विष्णुपुराणे।
वैकारिकस्तामसश्च भूतादिश्चैव राजसः।
त्रिविधोऽयमहङ्कारो महत्तत्वादजायत॥
इति वचनबलात् तस्य ब्रह्मविष्णुशिवात्मकत्वं प्राप्तं।
ते सृष्टिस्थितिलयकर्त्तारः तस्मात् पालनकर्त्ता विष्णुरित्युच्यते। व्यापकस्य पालनत्वेनैव सिद्धे सर्व्वभूतवहिरन्तः स्थितत्वेन नारायण इति नाम तस्य प्राप्तं। अतः पालनकर्त्तुर्विष्णोः पदं स्थानं सदा पश्यन्ति सूरय इत्युक्ते का वास्माकं हानिः। पालनकर्त्ता वा परब्रह्म वा विष्णुर्भवतु न चास्माकं तत् क्लेशः सर्व्वेषां देवानामात्मैकायनमिति बृहदारण्यकश्रुतेः परब्रह्मणः सर्व्वदेवमयत्वात् तस्मादोँङ्कार उत्पन्नो गुणत्रयसमाकृतिरिति। स मायायतन एव। उत्पन्नस्य प्रणवस्यार्णाःअकारोकारमकाराः परो विन्दुः तस्मात् मकारः तस्मादुकारः तस्मादकार इति प्रवृत्तिक्रमः निवृत्तिक्रमस्तु अकार उकारे लीयते उकारस्तु मकारे मकारो विन्दौ विन्दुरजायां सा परब्रह्मणि इति व्यवस्थितिः। एवम्भूतप्रणवोऽथ रुद्रविष्णुब्रह्माणः लयस्थितिस्सृष्टिकर्त्तारः तेषां मेरुशिखरेषु लोका वर्त्तन्ते ते तु तत्तदुपासकानां प्राप्याः सगुणत्वादनित्यत्वाच्च यः सोऽहं ब्रह्मांस्मीत्यात्मानमद्वितीयं वेद तस्यपुनः संसारप्राप्तिर्नेति किल सिद्धान्तः। भवान् विष्णुभक्तः तत्प्रीत्यैनित्यकर्म्म कुरु ब्राह्मणानां कर्मप्राधान्यात्, नहि तप्तचक्रादिधारणं कुरु तत्र प्रमाणाभावात्। आगम एव मानमिति यद्यप्युच्यते तथा न वक्तव्यं। आगमस्यखण्डद्वयात्मकत्वात् ग्राह्यखण्डोऽग्राह्यखण्डश्वेति। कोवा ग्राह्यखण्डःनिगमानुकूलखण्डस्तावत् ग्राह्यः। अग्राह्यस्तद्विरुद्धः। विरुद्धोऽप्यागमस्य प्रामाण्याद्ग्राह्य इति यद्युच्यते तर्हि ब्राह्मण्यहानिःस्यात् न सुरां पिवेत न कलञ्चं भक्षयेत् न परदारां गच्छेत्
नाग्नीनुद्वासयेदित्यादिनिगमनिषेधेषु आगमग्राह्यत्वञ्चाचारोपदेशे वर्त्तते निगमविरोधोऽप्यस्तु आगमबलात्तदाचारनिष्ठां करोति यदि तत्प्रतिग्राही भवति तदा स पतितो भवति, तस्मान्निगमसूत्रक्वेदिनो गतिरिहामुवापि न विद्यते अतस्तप्तचक्रादि धारणं न युक्तमिति एवमाचार्यैःप्रतिपादिते व्यासदास इदमुवाच स्वामिन् यथागमाचारः प्रमाणं पूर्व्वस्मिन् युगे दत्तात्रेयः परमयोगविदपि पञ्चमुद्रामुदितः कथमासीत् तस्मात् महद्भिः परिगृहीतो मार्गः शङ्खचक्रादिधारणपरः स्वीकर्त्तव्य एव किञ्च पुराणेषु च दर्शनात्। यत्र यत्र वैष्णवधर्म्माउक्ताः तत्र तत्र चक्राद्यङ्कनं पुरःसरमेव वर्त्तते तद्द्वाराऽपि तदङ्गीकारःसिद्ध इति भगवच्चिह्नाभावे वैष्णवत्वहानेः। तस्मात् भगवच्चिह्न- धारणमवश्यं कर्त्तव्यमिति पूर्व्वपक्षे प्राप्ते तत्राचार्य्येरिदमुच्यते। व्यासदास भवदविवेकः किमु वक्तव्यः, मुद्राङ्किततनुः दत्तात्रेय इति केन श्रुतं, तस्य मुद्राङ्कने किमु प्रयोजनं परमयोगविदस्तस्य भूतजयवृत्तिनिष्ठस्य नियमाभावात् स्वगात्रनिष्ठपञ्चीकृतपञ्चभूतानि अपञ्चीकृतभूतेषु संयोज्यते कस्मिन्नाक्षिप्ते अहमवस्थइत्युत्तरं जल्पं नास्ति तस्य महायोगिनः वहिरङ्केन किं प्रयोजनमस्ति124 (१) बाला अपि जानन्ति। किञ्च सर्व्वभूतानि स्वान्तः सर्व्वभूतान्तः स्वं च ध्यायतः जीवन्मुक्तस्य दत्तात्रेयस्य
किमङ्केन प्रयोजनं।किञ्चस्वाविर्भूतकालादेकादशाब्दमितं125 (१) ब्रह्मादीनां सम्पाद्य द्वादशदल-पद्मदललिखितवीजमन्त्रार्च्चादि126-(२) विदितमृत्युनिवर्हणहेतुकालसङ्कर्षणीविद्याकोविदस्यपर-मयोगिनः किं वहिरङ्केन। किञ्च कक्षपुटिमन्त्रराजविदितसकलजगन्नाथस्य वहिःप्रपञ्चेन मायाकृतचिह्नेन न हि किञ्चित्। अष्टभूतसम्पन्नस्य127 (३) सर्व्वदेवपूज्यस्य किं वहिरङ्केन, तस्माच्चक्राङ्कनमवश्यं कार्य्यमिति मन्दबुद्धिं दुराचारमूढतां परित्यज्य विगतचिह्नः सुखेन वर्त्तय। पुराणेषु भगवद्भक्तानां भगवचिह्नवारणं श्रुतनित्युक्तं न हितदप्यर्ह्यं। कथं को वा प्रह्लादस्य चक्राङ्कनं कारयामास नृसिंहाविर्भवमूलत्वात् विष्णुभक्तिरस्तीति किमु वक्तव्यः। गजेन्द्रः केन चक्राङ्कितः तस्यार्त्तिपरिहाराय चक्रहस्तो विष्णुः कथमागतः। विभीषणस्य को वा वहिश्चिङ्कमाचकार128 (४) रामः शाश्वतलङ्काधिपत्यं कथमददात्। ध्रुवः केन लिङ्ग्यभूत् तस्यब्रह्मालयपर्य्यन्ते स्थितिः कथमासीत्। द्रौपदी केन चिह्नेनाङ्किता तस्याः स्मरणमात्रेण वस्त्रचयदाताऽभूत्। अतोव्यासदास मूढबुद्धिं परित्यज्य वहिर्लिङ्ग
त्यक्त्वाचर्मविकारसाधनं सोऽहंभावेन त्यक्तभेदादिकल्मषः परमोक्षमत्रास्यसीति भगवच्चिह्नंधारणीयमित्युक्तं सत्यं भगवद्देहनिष्ठं चिह्नंवा उत भगवद्दतचिह्नं वा नाद्यः भगवद्देहे वक्षःस्थले लक्ष्मीकौस्तुभचिह्नं उदरे चतुर्द्दशभुवनचिह्नं पादादिनाभिपर्य्यन्तमधोलोकचिह्नमत ऊर्ध्वमूर्ध्वचिह्नमक्ष्नोःसूर्य्यचन्द्रचिह्नं जिह्वायामनन्तवेदचिह्नंएवमनेव चिह्नानि भगवद्देहे वर्त्तन्ते समर्थश्चेत् तच्चित्रावलम्बनं कुरु। यस्य कस्यापि मनुष्यस्यभगवद्देहचिह्नासम्भवात् प्रथमपक्षोदूषितः। न द्वितीयः। भगवत्करनिष्ठायुधचिह्नस्यात्यन्तालभ्यत्वात्। तदाकाराका-रिततप्तलोहमिति129 (१) चेन्न। यस्य कस्यापि विष्णुचक्रदर्शनाभावात् शङ्खस्य च तथात्वात् यथेच्छा कालोहतापोऽवविवक्षितो भवति न हि तेन किञ्चित् प्रयोजनं चर्महानिमृतेचक्रस्य वर्त्तुलत्वं। शङ्खस्य च पृथबध्नाकारत्वं130 (२) लोहेन परिकल्प्य कणाङ्गारेषु131 (३) तप्तं कृत्वा ताभ्यां भुजयोरङ्कनं कारयामीति चेत् मूर्खजनसम्प्रॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆॆतीतिः132 (४) स्यात्। तथा चेत् विष्णुतल्पं शेष इति विष्णुवाहनं गरुडइति च लोहेन तद्रूपं च कृत्वाताभ्यां चाङ्कनीयं भुजद्वयं शङ्खचक्राभ्यामङ्कितंएतद्वन्द्वं कुत्रेत्युक्ते व कपोलयुगले गले किलाङ्कयभुजापेक्षया ऊर्ध्व च कायस्य श्रेष्ठत्वात् तवज्ञाने-
न्द्रियबाहुल्याच्च कर्म्मेन्द्रियप्राचुर्य्येबाहूद्वन्द्वेचिह्निते ज्ञानेन्द्रियसान्निध्ये कपोलयुगले च तप्ते ज्ञानकर्म्मभ्यां विना पशुवद्रन्तुमुचितो भवति। विधिनिषेधात्मकरज्जुद्वये भग्न बन्धनिवृत्तिः स्यात्। तस्मात् ज्ञानकर्मस्वरूपबन्धनिवृत्तौ जातायां यथेच्छ्राविहरण-शीलत्वं युक्तमेव परच यमादिभ्यो जितोभयलोकस्वतव किं भयं विद्यते। वैष्णवोपाधिना स्मार्त्तकर्मपरित्यागं कुर्व्वतस्तव शुभ्रवस्त्रधारणमात्रमेवावशिष्यते नत्वग्निहोवादिकं कर्म। अतः शुद्धवैष्ण-ववृत्तिमाश्रित्य त्वं स्वस्थ भवेत्युक्तः व्यासदासः श्रीमच्छङ्कराचार्य्यमिदमब्रवीत्। स्वामिन् यतिवर्य्य भवत्कृपया जातविवेकोऽस्मि नाहं चक्राद्यङ्कितः किन्तु मद्गुरुस्तदङ्काङ्कित इति श्रुतं, वैखानसमतमवलम्ब्य किञ्चित्तत्र वर्त्तिनं133 (१) मां शुद्वाद्वैतवर्तिनं कुर्व्विति विज्ञाय दण्डवदभिवाद्य सम्पुटितकरद्वयमीष-न्नम्रशिरस्कं व्यासदासं दृष्ट्वाकरुणासमुद्रः श्रीशङ्कराचार्य्यः प्रहसन् तं इदमाह शृणु व्यासदास भवतस्त्वनायासेन मुक्तिकारणं।
ब्रह्मैवाहं न संसारी मुक्तोऽहमिति भावय।
तस्मिन्विधावशक्तस्त्वं वाक्यमेतदुदीरय॥
इत्यभ्यास134(२)-परित्यक्तद्वन्द्वेषणषडूर्मिकः।
विदित्वा परमात्मानं मुक्तो भवसि नान्यथा॥
इति सम्बोधितः शिष्यः कृतार्थोऽहमितीरयन्।
ब्रह्माहमिति संजल्पन् ययौस्वकुलसंयुतः॥
इत्यनन्तानन्दगिरिकृतौवैखानसमतनिवर्हणं नाम नवमप्रकरणम्॥*॥
शङ्कर विजये
**दशमं प्रकरणं। **
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एवं परिहृतेषु भक्तभागवतवैष्णवपाञ्चरात्रवैखानसेषुपुनरन्यः कर्महीनः प्रतिपज्ञःसमाग-तोऽभवत् नामतीर्थं इति। स तु श्रीमङ्कराचार्य्यं दृष्ट्वाइदमुवाच।
भोः स्वामिन् चिरकालनिष्ठाभ्यासपटिष्ठा135 (१) भक्तादयः श्रीमद्भिर्निवृत्ताः खलु इतःपरमागतं तृणीकृतकर्माणं विष्णुदाताग्रगण्यं नामतीर्थं मां विद्धि, विष्णुरेव गतिरिति निखितवता मया साधनात्तरं मत्रान्तरं गुर्व्वन्तरं देवतावरं परमपि न दृष्टं सर्वं विष्णुमयं जगदिति गुरूपदेशात् गुरुरेव मोक्षदः तदानीं भगवन्तमेवं प्रार्थयेत् इमं मच्छिष्यं निजपदारविन्दं प्रापयेति। एवं मद्गुरुभिरुक्तो136 (२) भगवानपि तथा करोति तस्मान्मम पुनर्जनन हेत्वभावात् जीवन्मुक्त एव मन्मतमन्यथा कर्त्तुमसमर्थः शेषोऽपि अतः सर्व्वे ब्राह्मणाःकर्मही-
नेति सुलभमनन्यदैवं विष्णुमवलम्ब्यभवन्तोऽपि मुक्त्वाभविष्यन्तीति नामतीर्थे नैवमुक्तः परमयतिः श्रीमच्छङ्कराचार्य्यइदमाह भो नामतीर्थ मूढतरोऽसि किञ्चिदपि बाल्ये गुरुकुले वामं कृत्वा भवता मन्दबुद्धिनानाधीतं। कर्मभ्रष्टस्य भवतः जीवन्मुक्तिरेव सत्यभुक्तं तावत्, ज्ञानिनः प्रवृत्तिर्बलोन्मत्तपिशाचवत् किललोके भवितव्या अतो भवद्वृत्तिरपि निन्द्यानिन्द्यं विना पिशाचवदभवत्137 (१)। लोकेमार्गद्वयं वर्तते कर्ममार्गः ज्ञानमार्गश्चेति तत्राद्यः स्वर्गादिकामनया श्रुतिस्मृत्युक्तकर्मकरणं ज्ञानमार्गे नाम वेदोक्त सर्व्वकर्माणि कृत्वा तत्फलसमर्पणं भगवति परमेश्वरे कर्त्तव्यमिति पूर्लमुक्तं। कर्मफलपरित्याग एव ज्ञानमार्गरुरुक्षुमार्गः। तस्मान्मार्गद्वयाद्भ्रष्टं त्वां दड्खिनं कर्त्तव्यं। ब्राह्मणः कर्म्मकुर्व्वीतेत्यादिप्रमाणवचनानां सद्भावात्। एकदिनसन्ध्यातिक्रमदोषपरिहारः प्राजापत्यकृच्छ्रत्रयेणभवति, बहुवर्षेषु गतेषु भवद्ब्रह्मण्यं किमु वक्तव्यं। कर्मवहिष्कृतस्य विष्णुभक्तावपि अधिकारो नास्त्येव। उक्तञ्च भागवते भगवद्भक्तस्य लक्षणं।
न चलति निजवर्णधर्मतो यः
सममतिरात्मसुहृद्विपक्षपक्षे।
न जहति न चहन्ति केचिदुच्चैः
सततममुं तमवेहि विष्णुभक्तं॥ इति॥
तस्मान्निजवर्णधर्माच्चलितस्य तव ब्राह्मण्याभावात् सुतरां
विष्णुभक्तिर्नास्त्येव। कर्मप्रतिपादकानां भगवद्वाद्यूपाणां वेदानामुल्लङ्घनात्।
श्रुतिस्मृतिसदाचारा आज्ञारूपा हि मे मताः।
आज्ञाच्छेदोमम द्रोही स याति नरकं सदा॥ इति॥
भगवद्वचनात् श्रुतिस्मृती भगवदाज्ञे अतो भगवदाज्ञाच्छेदिनस्तव तद्भक्ताधिकारमात्रं च न। गायत्रीमन्त्रमृते ब्राह्मस्याभावात् मन्त्रान्तरमवश्यमङ्गीकर्त्तव्यं साधनान्तरं जातकर्मादिकर्म गुर्व्वन्तरञ्च देवतान्तरं अग्निर्देवो द्विजातीनामितिवचनात् अग्निपरित्यागे कृते पतितो भवति एवं चतुर्णांविद्यमानत्वात् तदनुष्ठानाभावे महापातकदर्शनाच्च। ब्रह्मचारी गृहोवनस्थः केन धेर्य्येण कर्मत्यागः कर्त्तुं शक्यते परमहंससन्नवासं विना तेषां विधिदर्शनान्। “न कर्म्मणा न प्रजया धनेन त्यागनैके अमृतत्वमानशरिति। " तस्माद्भवान् सभां गत्वा द्वादश प्रदक्षिणनमस्कारान् कृत्वा समस्तापराधं क्षमध्वमिति विश्वासपूर्व्वकं सम्पार्थ्यब्रह्मदण्डं समर्प्यब्राह्मख्यंसम्पाद्य कृतार्थो भव इति श्रीशङ्कराचार्य्येरुक्तः नामतीर्थः प्रणामशतेन श्रीगुरुप्रीतं कृत्वा ब्राह्मणकर्मशीलः सगणोऽभवत्। तत्तन्मतज्ञानवादिनश्च स्वस्वसिद्धान्तनिरसनमाचार्य्यकृतं दृष्ट्वासर्व्वेकृतप्रायश्चित्ताः त्रिपुण्ड्रधारिणः पञ्चयज्ञपञ्चपूजापरायणाः शुद्धाद्वैत- मतावलम्बिनोनिगमाचारपरतन्त्रा बभूवुः। इत्यनन्तानन्दगिरिकृतो कर्म्महोन वैष्णवमतनिवर्हणं नाम दशमं प्रकरणं॥ *॥
तदनन्तरमनन्तशयनात्पश्चिममार्गेण पञ्चदशदिनैःसुब्रह्मण्यं नाम कुमाराविर्भूतस्थलं सकलदेशिकशिष्यैःसेवितः श्रीशङ्कराचार्य्यः परमहंसगुरुः प्राप।
स्नात्वा कुमारधारायां नद्यां शिव्यसमन्वितः।
भक्त्या संपूजयामास षण्मुखं शेषरूपिणं॥
काषायवस्त्रदण्डाढ्यःकमण्डलुलसत्करः।
भूतिभूषितसर्व्वाङ्गो बभो रुद्र इव स्वयं॥
नानादेशस्थविप्रौघाः सुब्रह्मण्यं समागताः।
दृष्ट्वातं शङ्कराचार्य्यमिदमूचुः सुविस्मिताः॥
स्वामिन् ब्राह्मणा वयं ब्रह्मकुलजाः किल मन्वादिस्मृत्युत्काचारशीलाः हिरण्यगर्भोपा-सनपरिलब्धमनस्थैर्य्याः सर्व्वं ब्रह्मनिर्म्मितं जगदिति ब्रह्मण एव सृष्टिस्थितिलयकर्त्तृत्वं निश्चय कृत्वा वसामः138 (१) हिरण्यगर्भस्य, जगत्कारणत्वं तज्ज्ञानान्मोक्षश्च श्रुतिमिद्धः ! तथाहि।
हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे
भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्।
सदा धार पृथिवीन्द्यामुतेमा-
ङ्कस्मै देवाय हविषा विधेमः॥ इति ॥
एतदृचा हिरण्यगर्भः चतुर्मुखोब्रह्मा अग्रे जगदादौसमवर्त्तत। भूतस्य आकाशादि-प्रपञ्चस्य पतिः स्वामी तस्मादेव आकाशादुत्पत्तिरित्यर्थः। अयं हिरण्यगर्भः एक एवजातः परब्रह्मणः निर्गुणात् सत्यज्ञानानन्तलक्षणादाविर्भूतः एक एव हिरण्यगर्भ इत्यर्थः। स चादावेक एवासीदिति एवकारः दूतरसत्तामात्रनिवृत्तिकरः। स पृथिवींउत द्यां दिवि इमां सदा धार सततं धृतवानित्यर्थः। तादृशं ब्रह्माणमते कस्मै देवाय हविषाविधे मः। अतः सर्व्वकर्तुर्हविर्भोक्तृत्वं ब्रह्मण एव घटते। किञ्च सर्व्वदेवापेक्षया ब्रह्मण एव परमत्वं श्रूयते। “ब्रह्मा ब्रह्मा हिपरःपरो हिब्रह्मेति” द्विरुक्तया एतदपेक्षया परं नास्तीत्यर्थः। किञ्च वरुणोपनिषदि। सैषानन्दस्य मीमांसा भवतीत्युपक्रम्य स एको ब्रह्मण आनन्द इत्यन्तेन ग्रन्थेन सर्व्वापेक्षया ब्रह्मानन्दस्य श्रेष्ठत्वंदर्शितं तत्परानन्दस्याभावात्। स चतुर्मुखः तत् सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत् तदनुप्रविश्य सच्च त्यच्चाभवदिति श्रुतेरयमर्थः। तत्कार्य्यरूपं जगत् सृष्ट्वाउत्पाद्य तदेव स्वसृष्टमेव अयमेव एवकारो देहलीदीपन्यायेन तथानुप्राविशदित्यनेन सम्बध्यते अनुकार्य्यं सृष्टिमनु प्रविष्टोऽपि ब्रह्मा तत्प्रपञ्चमनुप्रविश्य सच्चतेजात्यन्तरूपं139 ( १ ) त्यञ्च वाच्वाकाशरूपं चकारात् पञ्चभूतरूपशरी-
रान्तर्गतबुद्ध्यादिप्रेरकजीवरूपश्च अभवत्। बहुस्यां प्रजायेयेत्यादिवचनेभ्य-श्चसर्वप्रपञ्चस्य ब्रह्मस्वरूपत्वं ब्रह्माधारकत्वञ्च निवृत्तिदशायां ब्रह्मण्येव लयत्वञ्च सिद्धं भवति। अतः सर्वदेवप्रतिपाद्यमानस्य श्रेष्टत्वात्तस्य दक्षिणवामबाहुभ्यां विष्णुरुद्रोत्पत्ति दर्शनात् तद्भक्ताश्च तत्सम्बन्धिकमण्डलुकूर्च्चादिचिह्निताः कर्मज्ञानमार्गद्वयावलम्बिनः क्रमात् कमण्डलुकूर्चादि-धारिणेवा जगद्विधिहोमविधिकर्म्मविप्रविधि140-( १ )शुद्धब्रह्मकमण्डलुकीर्त्तियाग141 -(२) कूर्चब्रह्म-वेदिहत्कुक्षिविमतविधिवेदपाणिनिगमसूत्र142-( ३ ) श्रुतिपारीण143- (४) निगममुनिस्वाध्यायधर्म्मब्र-ह्मकर्मदेवकर्ममुनिकर्म्मयुगपितामहगुरुपरमेष्ठिद्विजपितामहादयः वयं भवन्तं सर्व्वज्ञं यतिपति-मोक्ष्य कृतार्थः स्मः। किञ्चिदस्माभिर्विज्ञापितमवधारय किमद्वैतेन प्रयोजनं। प्रथमजीवाहिर-ण्यगर्भात् सर्व्वे जोवाः जाताः। पुनः पुनः कर्म्मविकारैः जन्ममरणप्रवाहलीनानपि प्रभुर्ब्रह्मा लये एतान्144 (५) सर्व्वान्सम्भूतान् ब्रह्माण्डादितरे145 (६) स्वोदरे निवेश्य स्वयमेक एवं वर्त्तते
सृष्टौपुनस्तान् स्वकर्म्मगोलान्तःस्थान् निजप्रकृत्या146 (१) संयुज्य जन्ममरण प्रवाहसक्तानकरो-दिति मद्गुरुभिरुपदिष्टः परमार्थः। ब्रह्मकुक्षिप्राप्तकालो मोक्षएव तथा च147 (२) ब्रह्मविदाप्नोति परमिति श्रुत्या चतुर्मुखस्वरूपज्ञानेन तन्मन्त्रोपासनेन च ब्रह्मवित् ब्रह्मस्वरूपज्ञ इत्यर्थः148 (३) परं मोक्षमवाप्नोति ब्रह्मलोके विष्णुरुद्रादिदेवगोचरे चतुर्मुखकमण्डलुकूर्चादिचिह्नधरो मुक्तः क्रीडति तस्मात् भवान् कमण्डलुदण्डपाणिः ब्रह्मलोकयोग्य एव मदीयस्नेहान् विशेषांत् भवतीति हैरण्यगर्भैरुक्तः परमगुरुः श्रीशङ्कराचार्य्यः पठति।
यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति।
यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति तद् विजिज्ञासख तद्ब्रह्म॥ इति ॥
ज्ञानार्थिनं भगुमुद्दिश्य मित्रावरुणेनैवमुक्तं। इमान्याकाशादीनि पञ्च महाभूतानि भौतिकदे-होपेतहिरण्यगर्भादिस्तम्बान्ताः सर्व्वे प्राणिनः यतो वस्तुनः जायन्ते। शब्दः स इमान् लोकान-स्सृजतेत्यादिश्रुत्यन्तरप्रसिद्धिद्योतनार्थः। उत्पन्नानि च भूतानि येन वस्तुना जीवन्ति स्थितिं लभन्ते प्रयन्ति विनाशं प्रतिपद्यन्ते इमानि भूतानि यद्वस्त्वभिसंवि-
शन्ति साकल्येन प्रविशन्ति यथा फेनतरङ्गबुद्दद्बुदानामुत्पत्तिस्थितिलयाः समुद्रोभवन्ति तद्वज्जगदुत्पत्तिस्थितिलयकारणं वस्तु विचारय तदेव वस्तु त्वया149 पृष्टं ब्रह्म तस्य लक्षणन्तु’सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्मेति सत्यं सर्व्वविकारार्थविलक्षणं150 ( १ ) तर्हि भावरूपं जडमित्यत आह ज्ञानं जडविलक्षणं यद्यभावविलक्षणणे भावविशेषस्तर्हि घटादिकमपि तथेत्यत आह अनन्तं देशकालवस्तुपरिच्छेदशून्यं एतावत्युच्यमाने भावः स्यात्। श्रुतौ व्यवच्छेदार्थमाह सत्यमिति सत्यमनन्तमित्युच्यमाने जडमपि स्यात् तद्व्यावृत्त्यर्थं ज्ञानमित्याह यद्यपि ज्ञानमनन्तमित्युच्यमाने सत्यपदस्य न कृत्यं ज्ञानस्यास विलक्षणत्वात् तथापि ज्ञानममदिति सर्व्वमद्वादिनः सङ्गिरन्ते तत्पक्षाधिक्षेपार्थं सत्यमित्याह151 (२)। अयं भावः येनाऽपि सर्व्वीसत्यत्वमङ्गीक्रियते तेनाप्यङ्गी-क्रियत एव सत्त्वमन्यथासत्ये सत्वस्यानुपपत्तेः। ततो निरपेक्षत्वादितिहेतुभ्यः सत्त्वस्याङ्गीकरणी-यतया तादृशसत्यत्वं जड़वैलक्षण्यञ्च स्वयंप्रकाशमानानन्दात्मन एवं विद्यया सकलदुःख-नाशदर्शनादेवञ्चेत् ज्ञानमित्येवास्तु कृतमनन्तपदेनापीति न मन्तव्यं अन्तःकरणविद्यावृत्तेरपि152 (३) ज्ञानशब्दाभिधेयत्वात् तदेव ज्ञानमिदम-
पीति बुद्धिनिवारणार्थमनन्तपदस्योपयोगात् पदत्रयभूमिं स्वरूप लक्षणमखण्डैकरसं ब्रह्मबृंह-तेर्धात्वर्थभूतं153 (१) सर्व्वैर्मुमुक्षुभिरुपासनीयं तदिच्छाप्रकृतिप्रसृष्टं154 (२) महदादिसर्व्वं जगत्, तस्मात् मायागर्भान्तर्गतस्य हिरण्यगर्भस्य उपासनया मोक्षो नास्त्येव तस्य किञ्चित्फलदत्वात् तर्हि परब्रह्मणेऽपि मोक्षोनास्त्येव तद्विचारस्याशक्यत्वात्अतः प्राप्तमविचार्य्यमेव ब्रह्मेति उच्यते। एतद्विचारकर्त्तव्यता च भाव्ये प्रथमाध्यायस्य प्रथमपादे बहुधा चिन्तिता।
अविचार्य्यं विचार्य्यं वा ब्रह्माध्यासानिरूपणात्।
असन्देहफलत्वाभ्यां न विचारं तदर्हति॥
अध्यामोऽहंब्रह्मशब्देो साङ्गब्रह्म श्रुतीरितं।
सन्देहान्मुक्तिभावाच्च विचार्य्यं ब्रह्म वैततः॥ इति॥
आत्मा वा अरे द्रष्टव्य इत्यत्रात्मदर्शनफलमुद्दिश्य तत्साधनत्वेन श्रवणं विधीयते। अयं नाम वेदान्तवाक्यानां ब्रह्मणि
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हेतुभ्यः सत्वस्याङ्गीकारकरणीयेन सत्वस्येति जडवैलक्षस्य स्वयंप्रकाशज्ञानानन्दामत एव विद्यया सकार्य्यया जाते सतिदुःखानात्मत्वदर्शनादेवञ्चेत् ज्ञानमित्येवास्तुकृत्मनन्तपदेनापीति न मन्तव्यंअन्तः करणविद्या-वृत्त्योरपि। स.पु। का. पु.। तै.पु.।
तात्पर्य्यं निर्णेतुमनुकूलोन्यायविचारः तदेतद्विचारविधायकवाक्यं विषयः श्लोकयोर्न संगृहीतः। सन्देहमंग्रहेणैवार्थात् संग्रहप्रतीतेः। ब्रह्मविचारात्मकं शास्त्रमारभ्यमनारभ्यं वेति सन्देहः। पूर्व्वोत्तरपक्षयुक्तिद्वयं सर्व्वत्र सन्देहबीजमुन्नेयं। तत्रानारभ्यमिति तावत्प्राप्तं विषयप्रयोजनयो-रभावात् सन्दिग्धविदित्वा तस्याविषयो भवति ब्रह्मत्वं सन्दिग्धं। तथाहि तत् किं ब्रह्माकारेण सन्दिह्यते155 (१) आत्माकारेण वा। सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्मेति वाक्येन ब्रह्माकारस्य निश्चयात्। न द्वितीयः अहम्पत्ययेनात्माकारस्यापि निश्चयात् अध्यस्तात्मविषयत्वेन भ्रान्तोऽहम्प्रत्यय इति चेन्न अध्यासनिरूपणात् तमःप्रकाशवद्विरुड्वस्वभावयोर्देहात्मनोः
शुक्तिरजतवदन्योन्यतादात्म्या-ध्यासो न निरूपयितुं शक्यते। तस्मादभ्भ्रान्ताभ्यां अत्यहम्प्रत्ययाभ्यां निश्चितस्यात्मनः असन्दिग्धवान्नविचारस्य विषयोऽस्ति नापि प्रयोजन पश्यामः उक्तप्रकारेण ब्रह्मात्मनि निश्चितेऽपि मुक्तादर्शनात तस्मात् तद्ब्रह्म न विचारमर्हतीति शास्त्रमनारम्भणीयमिति पूर्व्वपक्षिभिराक्षिप्ते अत्रोच्यते।
शास्त्रमारम्भणीयं विषयप्रयोजनसद्भावात् श्रुत्यहम्प्रत्यययोर्विप्रतिपत्त्या सन्दिग्धं156 (२) ब्रह्मा-त्मवस्तु अयमात्मा ब्रह्मेति श्रुतिरसङ्गपदार्थं ब्रह्मात्मत्वेनोपदिशति। अहं मनुष्य इत्याद्यह-म्बुड्विर्देहादितादात्म्याध्यासेनात्मानं गृह्वा-
ति। अधासस्य च दुर्निरूयत्वमलङ्काराय तस्मात् सन्दिग्धं वस्तु विषयः तन्निश्चयेन च मुक्तिलक्षणं प्रयोजनं श्रुत्यादिविद्वंदनुभवेन प्रसिद्धं। तस्माद्वेदान्तवाक्यविचारमुखेन ब्रह्मणे विचारार्हत्वाच्च शास्त्रमारम्भणीयमितिसिद्धान्तः। विचारस्तु लक्षणप्रमाणाभ्यामस्तु तत्त्व-निर्णयावधिकः निर्णयानन्तरमखण्डं ब्रह्म स्वयमेव भवतीति निश्चयः। परब्रह्मांशजातरुद्र-विष्णुब्रह्मणां परम्पराकर्तृत्वात्तदुपासनायाः फलमप्युक्तमेव।
अतो भो ब्राह्मणाः कमण्डल्वादिचिह्नधारणं परिहर्त्तव्यं। बृहन्नारदीयादिवचन विरोधात्। कूर्चादिवत् चतुर्मुखत्वादेः चिह्नस्य कर्त्तव्यत्वापत्तेश्च। हिरण्यगर्भ एव परममूलकारणमित्य-प्यसङ्गतं।
योब्रह्माणं विदधाति पूर्व्वं
यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै।
तमात्मदेवं शरणं सनातनं
मुमुक्षुर्वे शरणमहं प्रपद्ये ॥
इत्यादिश्रुत्या ब्रह्मणः उत्पत्त्यादिश्रवणात्। जगतः परममूलं सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्मेत्यादि श्रुतिप्रतिपाद्यं निर्गुणं ब्रह्मौव। यतो वेत्यादिश्रुतयश्च तत्परा एव। अत एव हिरण्यगर्भ इति श्रुतौ जात इति पदं सङ्गच्छते। सत्यादिखरूपत्राणः सकाशादुत्पन्न इति तदर्थः। किञ्च चतुर्मुख-त्वादिसाकारोपासनायाः भेदघटितत्वेन मुक्ताभावप्रसङ्गान्। तथा हि श्रूयते। “उदमन्तर कुरुतेऽथ तस्य भयं भवतीति। जीवब्रह्मणेयोऽरमीषत् अन्तरं
भेदं कुरुते अथ तस्य भयं संसारो भवतीत्यर्थः। तस्मात्तत्त्वमस्यहं ब्रह्मास्मीति दैशिकोत-मार्गेण जीवब्रह्मणोर्भेदं परित्यज्य अभेदभावनया मुक्ता भवथेति आचार्येण बोधितास्ते हिरण्यगर्भवादिनः जगद्विधिप्रमुखाः ब्राह्मणाः औंँ तथेत्युक्वा आचार्य्यं नत्वा तथा चक्रुः157॥ (९)
इत्यनन्तानन्दगिरिकृतौहैरण्यगर्भमतनिवर्हणं नामैकादशं प्रकरणम्॥*॥
शङ्कर विजये
द्वादशं प्रकरणं।
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** **एवं परिहृतेषु हैरण्यगर्भेषु पुनरन्ये सुहोत्रवीतिहोचकव्यहोत्रादयः अग्निमतानुवर्त्तिनः प्रत्यव-तिष्ठन्ते। ते श्रीमन्तमद्वैतमतसिद्धान्तकर्त्तारं सर्व्वज्ञं श्रीशङ्कराचार्य्यमिदमूचुः। स्वामिन् परमेश्वर अग्निरेवास्माकं देवता कथं मन्त्रवर्णीत्।
अग्निरग्रे प्रथमो देवतानां
संजाताना158 ( १ ) मुत्तमो विष्णुरासीत्।
यजमानाय परिगृह्य देवान्
दीक्षयेतद्भविरागच्छूतं नः159॥ ( २ ) इति।
अग्रे सृष्टेः पूर्व्वकाले सर्व्वेषां देवानां प्रथमो ज्येष्ठः अग्निरेक एवासीत् तस्मात् संजातानां सम्यगग्निमनुसृत्य जातानां160 (३) देवा-
नां मध्ये विष्णुरुत्तम आसीत्। यतो दीक्षया यजमानाय देवान् परिगृह्य नोऽस्माकं हविः आगतं यस्य हविः हतं भवति तस्य तत् प्रापयतीत्यर्थः161 (१)। अग्निमुखा वै देवा इति मन्त्रान्तरात् अग्निर्देवो द्विजातीनामिति वचनाच्च तस्य सर्वोत्कृष्टत्वं प्राप्तं ब्राह्मणैस्तदुपासनायां क्रियमा-णायान्तच्चिन्हानां विस्फुलिङ्गरूपमणिशलाकानां162 (२) धारणं कर्त्तव्यमेव। ब्राह्मणोचितस्य कर्मणः श्रोतस्मार्त्तरूपस्य तत्कारणत्वात्163 (३)। ब्राह्मणानामस्माकं अग्निरेव देव इति सिद्धं। तस्यैव सर्व्वपापहरत्वं नारायणोपनिषदि श्रूयते।
उद्दीप्यस्वजातवेदो अपघ्नन् निर्ऋतिं मम।
पशूंश्च मह्यमावह जीवनञ्च दिशो दश॥इति164 (४)
अयमर्थः। हे जातवेदः उद्दीप्यस्वमम निर्ऋृतिं पापदेव-
तामपन्नन् संहरन्नित्यर्थः। मह्यमेव पशूनावह। पशूनांचतुस्पदां धेनुप्रमुखानां दानं कुर्व्वित्यर्थः।
" जीवनं द्रव्य धान्यञ्च श्रियमिच्छेद्भुताशनादिति।"
वचनात् दिशः प्रागादिदिक्षु मम यत्र सुखवसतिर्भवति तद्दिशो दश देहोत्यर्थः। अतः सर्वैः विप्रैरग्निरेक एवोपासनीयः। तस्माद्भवन्तोऽप्यग्न्युपासनया कृतार्थ भवत इति प्राप्ते।
आचार्यैरिदमुच्यते। नायमग्निः परो देवः। ऋग्वेदब्राह्मणे अग्नेरवमत्वदर्शनात्, अग्निर्वै देवाना-मवमोविष्णुःपरमस्तदन्तरेण सर्व्वादेवता इति165। (१)
देवानांमध्ये अग्नेरवमत्वं विष्णोर्व्यापकचैतन्यस्य ब्रह्मणः परमत्वं तदन्तरे तद्वयमध्ये अन्याः सर्व्वाः देवता इति एवं वेदार्थे स्थिते कथमग्नेः परमत्वं वक्तुं शक्यते किन्तु देवानामवम इति देवानां पुरोहितः हविर्भागित्यर्थः। कर्म्मण एवाग्निर्देवता न तु ज्ञानस्य। तथा हि कर्म्मद्वारा ज्ञानकारणमपीति चेत्तस्य भूतेन166 (२) जन्यत्वश्रवणात् गृहस्थानां श्रौतादिकर्म्मणि प्राप्ते सत्यु-पास्यदेवतामन्त्रं कल्पनीयं। अग्निमीड़े पुरोहितमित्यादि श्रुतेः। यत्र यत्राग्निकारणवाक्यानि वर्त्तन्ते तानि सर्व्वाण्यपि भूताग्निपराण्येवेति योजनीयं। तस्मात् कर्मण
एवाग्निर्देवता ब्रह्मणोंऽभूता। तदुपासनया क्षयिष्णुतल्लोकवासादिफललाभेपि मुक्तासम्भवात्। तस्मात्कर्माङ्गतयैवाग्न्युपासनं कृत्वा ‘जीवनं द्रव्य धान्यञ्च श्रियमिच्छूहूताशनादितिवचनबोधितं फलं प्राप्य मुक्तये सर्व्वव्यापकचैतन्यस्योपासनां167 (१) शुद्धाद्वैतवृत्तिमाश्रित्य मुक्त्वाभविष्यथ तचिह्नधारणं च परिहर्त्तव्यं प्रमाणभावादित्येवमाचार्यैरुक्ताः सुहोत्रादयः श्रीशङ्कराचार्य्यं गुरुं प्रणम्य तत्कटाक्षस्वीकृताद्वैतवृत्तिनः तथोक्तं चक्रुः।
इत्यनन्तानन्दगिरिकृतौअग्निवादिमतनिवर्हणं नाम द्वादशं प्रकरणम्॥*॥
** त्रयोदशं प्रकरणं।**
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ततः परिपूर्णमण्डलतिलकाः रक्तकुसुमधारिणः सूर्य्यभक्ताः दिवाकराद-यःश्रीशङ्कराचार्य्यमद्वैतमतसिद्धान्तगुरु नमस्कृत्वेदमूचुः। भोः स्वामिन् सूर्य्य एव परमात्मा जगत्कारणं वर्त्तते। स एवास्माकं कुलदैवतमुपास्योऽस्ति तस्य जगत्कारणत्वं श्रुतयएवाहुः। तथा हि “सूर्य्य आत्मा जगतस्तस्थुवश्च।” असावादित्यो ब्रह्मेति च।" आभ्यां हि सूर्य्यस्य सर्व्वत्मत्व अस्यैव च परब्रह्मत्वं च प्रतिपादितं भवति। ब्रह्मैव च सर्व्वजगत्कारणं यतो वा इमानि भूतानि जायन्त इत्यादिश्रुतेः। स्मृतिश्च।
नमः सवित्रे जगदेकचक्षुषे
जगत्प्रसूतिस्थितिनाशहेतवे।
त्रयीमयाय त्रिगुणात्मधारिणे
विरिञ्चिनारायणशङ्करात्मने ॥इति ॥
तस्मादेतस्य घृणिः सूर्य्य आदित्यमित्यष्टाक्षरमन्त्रोपासकाः
रक्तचन्दनपुण्ड्रमालाधारिणः षड्विधा भक्ता वर्त्तन्ते168 (१)। केचिदुदयमण्डलं ब्रह्मात्मकत्वेन सृष्टिकारणमिति भजन्ति। केचित्तुस्वमध्यवर्त्तिनं स्वर्य्यं ईश्वररूपेण सर्व्वजगल्लयकारणमिति भजन्ति उपसंहारवलादुपक्रमोऽपि तेनैव भवतीति निश्चयज्ञानेन भजन्ति। केचित्तु अस्तमयकालविम्बं विष्वात्मकत्वेन169 (२) सर्व्वजगत्परिपालनकारणं तदेव सृष्टिलयहेतुभूतं परतत्त्वमिति भजन्ति। केचित्रिमूर्त्यात्मकत्वेन चिकालमण्डलसेविनः केचिन्मण्डलेक्षणव्रता-नुष्ठायिनः तन्मध्यवर्त्तिनं परमात्मान
हिरण्यश्मश्रूहिरण्य केशमित्यादि स्वरूपं भजन्ति। (१) तत्रैकदेशिनस्तु170 भगवदीक्षणमात्र-व्रतपराः सम्यङ्मण्डलं दृष्ट्वा षोड़शोपचारपूजां समर्प्यकर्म्मफलं भगवदर्पणं कृत्वा वसन्ति न दर्शनं विनाऽश्नन्ति। पुनः केचित्तप्तलोहेन फाल भुजवक्षस्थलेषु मण्डलचिह्नानि धृत्वास्वमनस्येव171 (२) देवमनुक्षणं ध्यायन्तः सन्ति। तेषां षण्मामयमेक एव मन्त्र उपासनीयः धृणिः सूर्य्य आदित्यमिति तत्रानुस्वारलोपश्छान्दसः तस्मादेतन्मन्त्रस्य श्रेष्ठत्वादयमेव सर्व्वैरुपासनीयः तन्मण्डलस्तुतिपरा श्रूतयः भूयस्यः सन्ति तथाहि। “हंसः शुचिषद्वसुरंत-रिक्षमदिति।” “आदित्यो वा एषएतन्मण्डलं तपती " त्युपक्रम्य " य एवं वेदे ” त्युपनिषदन्तेन ग्रन्थेन " ब्रह्मैतदमृत एष पुरुष " इति सूर्य्यस्यैव ब्रह्मत्वं पुरुषत्वञ्च घटते। सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्र पादित्यादि पुरुषक्तप्रतिपाद्यः सूर्य्य एव कथं मण्डलादुपरितमोनिवृत्तये प्रसृताः रश्मयः शीर्षाणि तान्यस्य सन्तीति सहस्रशीर्षा स एवात्मत्वेन पुरीषु अन्तः शेते इति पुरुषः शस्य वः पुरुषः।
पुरुसंज्ञे शरीरेऽस्मिन् शयानात् पुरुषो हरिः।
शकारस्य षकारोऽयं व्यत्ययेन प्रयुज्यते॥ इत्युक्तेः ॥
तस्य सर्व्वप्राणिकर्म्मसाक्षित्वात् सहस्राक्षः। अधः प्रसृतारश्मयः सहस्रपादाः तस्य ते सन्तीति सहस्रपात्। स एव भूमि विश्वतः समन्तात् वृत्वा व्याप्य ब्रह्ममानेन भूम्युपरि सर्य्यपर्यन्ताकाशस्य दशाङ्गुलपरिमाणत्वात् दशाङ्गुलमिति अतिक्रम्य अतिष्ठत स्थित इत्यर्थः। इदं परिदृश्यमानं जगत् सर्व्वं पुरुष एष172 (१) सूर्य्य एवेत्यर्थः। यद्भूतं पूर्व्वकल्पे यद्गतं तदपि यच्च भव्यं वर्त्तमानकल्पापेक्षया भाविकल्पे यज्जगद्वर्त्तते तद्भानुरित्युच्यते173 (२) तदपि स एव। उतामृतत्वस्य मोक्षस्य तत्कारणस्य च ईशानः कर्त्तेत्यर्थः। इत्यादिमन्त्रेः174 (३) सूर्य्यस्यैव सर्व्वोत्तमत्वमङ्गीकर्त्तव्यं। अतः पुरुषो ज्जायानिति अत्र बहुवारपठितपुरुष शब्देन एष पुरुष इति शब्दसाम्यात् सर्व्ववेदप्रतिपादितः सूर्य्य एव175 (४) पुरुषं कृष्णपिङ्गलमित्यादिरुद्रप्रति-पादकमन्त्रस्थ176-(५) पुरुषशब्दोऽपि भगवत्पर एव भगवत्पुरुषशब्दावुभावपि स्वर्य्यपरावेव कथं हन्ति सर्व्वदा गच्छतीति हंसः शुचिषु शुद्धेषु प्रदेशेषु सीदतीति शचिषत् वसुः वसुदेवः स एव वासुदेवः तस्मिन् भगवत्पुरुषशब्दावनुपाधिकौवर्त्तेते।
भगवानितिशब्दोऽयं तथा पुरुष इत्यपि।
निरुपाधी प्रवर्त्तेते वासुदेवे सनातने॥ इति177॥ (१)
भारतवचनात्। ननु नेमौसूर्य्यप्रतिपादकौभगवत्पुरुषशब्दौकिन्तु नारायणप्रतिपादकौ। तथा हि। वसुदेवस्यापत्यं वासुदेवः कृष्ण इत्यर्थः। तस्मिन् पूर्णब्रह्मरूपे कृष्णे भगवत्पुरुषशब्दौ निरुपाधिकौवर्तेते। प्रकरणवलादित्याक्षिप्ते।
पूर्व्वपक्षावलम्बी पुनराह भगवत्पुरुषशब्दौ सूर्य्यपरावेव178 (२) तस्यैव विष्णुत्वात् कथं भगवतः स्वर्य्यस्य द्वादशभेदात्मकत्वेन विष्णुनाम्नस्तदन्तःपातित्वेन च तद्विरोधो नास्त्येव। अरुणः सूर्यो भानुस्तपश्चन्द्रो रविर्गभस्तिश्चार्य्यमा हिरण्यरेता दिवाकरो मित्रो विष्णुश्चेति वचनात्। ‘आदित्यानामहं विष्णुःज्योतिषां रविरंशुमानिति’ कृष्णवचनगीतादर्शनात् कृष्ण एव सूर्य्यःवासुदेवशब्दसाम्याच्च ध्येयः सदा सवितृमण्डलमध्यवर्त्तीनारायण दूति वचनात्तयोर्भेदाभावः। हरतीति से एव हरिः स्वास्तमयकाले सर्व्वप्राणिप्राणहरत्वं179 (३) प्रदातृत्वं अरुणोदये भगवतः प्रसिद्धमेव लोके तथाव्यवस्थादर्शनात् रुद्रो अपि स एव स्वशक्तयालोकद्रावणस्य180 (४) विद्यमानत्वात् अत एव
नमस्ते रुद्रमन्यव इत्यादिशतमन्त्रप्रतिपादितः सूर्य्य एक एव। तस्य स्वयंव्यक्तस्य सर्व्वदेवात्मकत्वात्। किञ्च ब्रह्मविष्णु रुद्राः सृष्टादिकारणात् सूर्य्यदेव जाताः सर्व्वलोकोड्व-स्ताहेतुभूतस्य सूर्य्यतेजसः शुक्लवर्णत्वेन तद्वर्णादुत्पत्तिः तेषां युक्तैव तच्छुक्लं तद्ब्रह्मोत्युपनिष181 (१) त्प्रमाणात्। अतः सूर्य्य एव सर्व्वैर्मुमुक्षुभिरुपास्यः। तस्य लिङ्गपूर्णमण्डलधारणादिभिरल-ङ्कृतगात्रास्तन्मन्त्रजपध्यानारुक्ताश्च यूयं मुक्ताभविव्यथेति पूर्व्वपक्षे प्राप्ते।
श्रीशङ्कराचार्य्योरिदमुच्यते भो दिवाकरमूढ किमुक्तं भवता तदसमञ्जसं वेदविरोधात्। तथा हि “चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्योऽजायतेति” श्रुतेः। सूर्य्यस्यापि जन्यत्वदर्शनात् यज्जन्यं तदनित्यमिति तर्कसिद्धान्तस्य विद्यमानत्वात् घटादिवदशाश्वतस्य सूर्य्यस्य कथं परब्रह्मत्वं182 (२) सिध्येत किन्तु तादृक्श्रुतितात्पर्य्यन्तु सूर्य्यनिष्ठपरमात्मपरमित्युन्नेयं जगदीश्वराज्ञावशादेव सूर्य्योभ्रमतीति तैत्तिरीयके समाम्नातं।
भीषास्माद्वातः पवते भीषोदेति सूर्य्यः।
भीषास्मादग्निश्चेन्द्रश्च मृत्युधावति पञ्चमः॥ इति ॥
तस्मात् सूर्य्यस्य पारतन्त्रिकत्वं183 (३) प्राप्तं। किञ्च सूर्य्यदिषु प्रभा184 (४) जगदीश्वरस्यैव। तथोक्तं श्रुत्यन्तरेI
न तत्र सूर्य्योभाति न चन्द्रतारकं
नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्व्वं
तस्य भासासर्व्वमिदं विभाति॥ इति ॥
अत एवादित्यान्तःपुरुषस्य185 (१) हिरण्यश्मश्रुहिरण्यकेशमित्यादिप्रतिपादितस्यैव परमात्मनः सर्व्वोत्कृष्टस्य स्तुतिपराः श्रुतयः कथमादित्यं नित्यं वर्णयन्ति। ज्योतिःशास्त्रेतदनित्यता वर्णिता।
सृष्टिः सरोजासनवासरादौ
वियञ्चराणां विलयस्तदन्ते।
आद्यन्तकालः स च कल्प उक्तः
कल्पद्वयं स्याद्दिवसोविरिञ्चेः॥ इति ॥
वियत्याकाशे चरन्तीति वियच्चराः ग्रहाः सूर्य्यादयः तेषां सरोजासनस्य ब्रह्मणणे वासरादौ दिनादो सृष्टिरुत्पत्तिः तदन्ते दिनान्ते विलयः एवमाद्यन्तकल्पः सहस्रयुगप्रमाणः विरिञ्चेश्चतुर्मुखस्य186 (२) दिनं दिवाकालः रात्रिरपि तादृशी कल्पद्वयमितो ब्रह्मदिवस इत्यर्थः एवं ब्रह्म दिनकर्त्तुः सूर्य्यात्187 (३) ब्रह्माद्युत्पत्तिर्भवदुक्ता तस्मादेव विदितो भवदधिकारः। ब्रह्मायुः शताब्दमध्ये एकस्मिन् दिने जन्मादिवृत्तिं188 (४) प्राप्तस्य
सूर्य्यस्य ब्रह्मपुरुषशब्दवाच्यत्वं भवता सम्पादितं किमु वक्तव्यं भवद्विद्यावैषद्यं। सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपादित्यादिना भगवतो विश्वरूपत्वं प्रदर्शितं नित्यस्य परमात्मनो लोकवहिरन्तर्गतस्य यद् यद्विशेषणमुक्तं तत्तत् सूर्य्यस्येति भ्रान्तो वक्ति सूर्य्यगतः परमात्मा सूर्य्यमण्डलवहिरन्तःस्थित एव तद्वारा तमोनिर्हरणं स एव करोति। जगदीश्वरादन्यस्य तादृग्विधशक्तप्रभावात् सूर्य्यादन्यः189 (१) देवमनुयतिर्य्यग्जन्तुष्वपि परमात्मा नेत्रान्तर्गतः सन् वर्त्ततएव दीप्तेः तद्रूपत्वात् य एषोऽक्षिण पुरुषो दृश्यते यश्चासावादित्ये स एक इति श्रुतेश्च एकोऽप्यात्मा सर्वजगदन्तर्गतः। प्रतिपादितञ्चैतत् ओँअन्तस्तद्धर्मोपदेशादिति व्याससू-त्रेऽस्माभिः। तस्मात्तच्चिक्रधारणं190 (२) पाषण्डेद्बोधकं त्यक्त्वा स्मार्त्ताचारपरिलब्धशुद्ध्वात-विद्यावलान्मुक्ता भवथ। एवमाज्ञप्ता दिवाकरादयः सौराः परमगुरुं नत्वा तत्कटाक्षलब्धशु-द्ध्वाद्वैतवादिनः शिय्या बभूवुः।
** चतुर्द्दशं प्रकरणं।**
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ततस्तत्र गतैर्विप्रैः सर्व्वैरपि यतीश्वरः।
समाश्रितो ययौतस्माद्वायोराशांजयेछया191॥ (१)
शिष्येषु त्रिसहस्रेषु केचिछङ्खप्रपूरणैः।
केचिद्वाद्यविशेषैश्च केचित्तालैः शुभोक्तिभिः192॥ (२)
केचिट्वष्टानिनादैश्च करदीपैश्च केचन।
केचिद्यजनवातैश्च पिछवातैस्तथापरे॥
समर्च्चयन्ति संन्यस्तसुखदुःखं यतीश्वरं193। ( ३ )
तत्तद्देशगता विप्रा दृष्ट्वा तछिय्यतां गताः॥
एवं प्रतिदिनं गत्वा तत्र तत्र गतान् द्विजान्।
कुमतस्थान् परानन्दभाजः कृत्वा शुभोक्तिभिः॥
पुरङ्गणवरं प्राप गणपस्याश्रमं शुभम्।
तत्र नद्यां हि कौमुद्यां स्नात्वा विघ्नेशमव्ययम्॥
संपूज्य यतिराड् तत्र मासमांस महानुगैः।
पद्मपादमुखाः शिय्याः पञ्चपूजापरायणाः॥
दिग्गजा इति विख्याताः परविद्याप्रभेदिनः।
परपक्षहरोद्युक्तवचसः प्रौढवादिनः॥
तद्वाक्यं शिरसा धवा शिय्योऽन्यः पुरजिद्वलः194। (१)
नियन्ता सर्व्वशिय्याणां पाकादिषु च कर्मसु॥
समर्च्य च गुरुं भिक्षां दत्त्वा तस्मै परात्मने।
पद्मपादस्तदन्येषां शिव्याणां षड्रसैर्युतं॥
अददद्बोजनं नित्यं ब्रह्मार्पणमिति स्मरन्।
सायन्तने सर्व्वशिष्याः परमगुरुमाचार्य्यशिरोमणिं द्वादशवारं प्रदक्षिणनमस्कारान् कृत्वा बहुधा स्तुत्वा ढक्कातालकराः परमेवं स्तुवन्तो नृत्यन्ति परिपूर्णेऽहं ब्रह्म सत्यं सत्सुखरूप-चिदानन्दोऽहं शुक्रौरजतवदाभातीदं मयि195 (२) विश्वं निश्चिनुमिथ्येति स्थूलकारणलिङ्गदेहैः आकाशादिवदस्पृष्टोऽहं196 (३)तादृङ्मयि बन्धः को वा दारादिर्नाम भविष्यति तत् अम्भः कणजालैरस्पृष्टं तामरसछदमिव न स्मभवं मन्तो जाता प्रकृतिरनन्ता तद्गर्भान्महदुद्भूतं हि तस्माज्जातोऽहङ्काराख्यस्त्रिगुणयुतोऽभवस्तस्माज्जाताः रुद्रो विष्णुर्ब्रह्मा तेभ्यः सृष्टिस्थितिलय-मभव-
न्नितरां कार्य्यार्थिभिरेतैः कृतमपि तद्धृदयगतोऽहं साक्षी परमः सर्व्वत्राऽहं वहिरन्तःस्थः सम्यक्ज्ञानफलप्रद एवं मत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म सर्व्वथा सर्व्वमयोऽहं सर्व्वीतीतः सर्व्वव्यापी कारणमेकः भानुमण्डलमध्यवर्त्तिपुरुषः साक्षीगतपरमद्वन्द्वोऽहं ईशो नित्यः शाश्वतविभवः सर्व्वमुक्तिदः सदुपासवतां सन्त्यैवैते वेदामज्जा मामद्वैतमजं न वदन्ति किं मनसाऽहं स्पृष्टः किम्वाकरणैदूरतरैरपि वेद्यः आत्मा ब्रह्म सदद्वयमेकः सच्चित्सुखरूपोऽहं सकलं मामिति ये मनुजा विदन्ति मायामेतां हि तरन्ति ते नित्यं मां निगममायैवेद्यं सत्यं मनसा धारयन्ति हि ये मुक्तिस्तेषामनुतुलिता स्याद्भक्तिमतां किमसाध्यं लोके मम सम्वित्प्रदमद्भुतरूपं सममखिले-ष्वपि गुरुमद्वैतं यमनियमादियुतः स्मरति हि चेत् सममखिलात्मा समुपास्यः स्यात् नृत्यन्तो जल्पन्तश्चैवं सत्यगुरुमभि नत्वा बहुधा शान्ता गुरुसन्निधिविश्रान्ताः दान्ताः पद्मपादाद्याः शिष्याः एवं प्रतिदिनभावं प्राप्ताः श्रीशङ्करगुरुपदगतचित्ताः197। (१)
इत्यनन्तानन्दगिरिकृतौगुरुस्तुतिर्नाम प्रकरणं चतुर्द्दशं॥ * ॥
मण्डलमध्यवर्त्तीपुरुषाक्षिजातः परमाद्वन्द्वोऽहं ईशोनित्यः पुरुषः शाश्वतविभवः सर्व्वमुक्तिदञ्च सन्त्येवेते वेदा मामद्वैतमजं न विन्दन्ति किं मनसाऽहं स्पृष्टः किम्वाकरणैः दूरतरं वेदाः आत्माब्रह्मपदद्वयमेकः सच्चित्सुखरूपोऽहं सकलं मामिति ये मनुजा विदन्ति मायामेतां तरन्ति ते नित्यं मां ये निगमावेद्य ये सत्यं मनसा ध्यायन्ति तेषां मत्या तुलिता स्यात् मक्तिस्तेषां किमसाध्यं लोके मम सम्बित्प्रदमद्भुतरूपं सममखिलेध्वपि गुरुमद्वैतं यमनियमादियुतः स्मरति चेत् मामखिलात्मानं न सम्बन्धभाक् स्यात् नृत्यन्तेा जल्पन्तः सत्यंगुरुमाश्रिता बहुधा श्रान्ता गुरुसन्निहिताः शान्ताः दान्ताः पद्मपादाद्याः शिष्याः एवं कतिदिनभावं प्राप्ताः श्रीशङ्करगुरुमुदं चिताः सर्व्वे॥ इत्यनन्तेत्यादि असमीचीनं पाठान्तरमेतत्। वा. पु.।
** पञ्चदशं प्रकरणं।**
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एवमानन्दसन्तुष्टमाचार्य्यं सेवकानपि।
तत्पट्टनद्विजाः प्रेक्ष्यकिमेतदिति चाब्रुवन्198॥ (१)
न हि युग्मन्मतं सम्यगिव भाति हि पश्यताम्।
आकाशवन्निरालम्बमद्वयं ब्रह्म केवलम्॥
मनोवागादिवृत्तीनामगोचरतरं परम्।
कथमज्ञोपबोधाय योग्यं स्यान्मतमीदृशं॥
तत्त्यक्वास्मन्मतं सम्यगाचरन्तु शुभाप्तये।
गाणपत्यमितिख्यातं षड्भिर्भेदैर्विजृम्भितं199॥(२)
समस्तवेदतात्पर्य्येस्तदेव हि समीरितम्।
तदाचरध्वमत्यन्तशान्तिदं मोक्षदन्नृणाम्॥
तुण्डैकदन्तचिह्नाभ्यां चिह्नितं शक्तिसंयुतम्।
महागणपतिं यस्तु सदा ध्यायत्यनन्यधीः॥
तन्मलमन्त्रपठन-परः सन् ब्राह्मणोत्तमः।
यो वर्त्तते स एवात्र मोक्षभाग्भवति ध्रुवं॥ इति ॥
** **तड्वगनन्तु,
वीजापूरगदेक्षुकार्म्मुकलसच्चक्राब्जपाशोत्पल-
व्रीह्यग्रस्वविषाणकाञ्चनघटोद्भास्वत्कराम्भोरुहः।
ध्येयो वल्लभया च पद्मकरया शिष्टोज्वलद्भूषया
विश्वोत्पत्तिविपत्तिसंस्थितिकरो विघ्नो विशिष्टार्थदः॥ इति
विश्वोत्पत्तिविपत्तिसंस्थितिकर इत्यनेन सृष्ट्यादि हेतुत्वं गणेशस्य घटते। ब्रह्मादिलयेऽपि एकस्यैव गणपतेर्विद्यमानत्वात्। गणनां रुद्रविष्णुब्रह्मगणानां पतिः स एक एव प्रथम आसीत्। अहमेक एव गणपतिरासमिति श्रुतेः तस्माद्गणपतिरेव सर्व्वातीतः परमात्मा तन्मायारचिता ब्रह्मादय इति प्राप्ते आहुःश्रीमदाचार्य्यः200। (१)
भो गाणपत्य सत्यमुक्तं भवता गणपतेः सर्वोत्तमत्वं, तन्मायावलाद्रुद्रादुपपत्तिश्चेति भवद्भिः प्रतिपादितं किल तदसमञ्जसमिव प्रतिभाति201 (२) कथं सगुणस्य गजमुखस्य गणपतेः रुद्रगणैः सह लयानुगस्य जगत्कारणत्वं कल्पयितुमुचितं। किञ्च रुद्रसुत इति लोके प्रसिद्धिरस्ति तस्य ब्रह्मत्वे कल्पिते पित्रा-
दिकारणत्वं सुतस्यानुचितमेव अतो रुद्रादिकारणं परब्रह्मैव। सदेव सौम्येदमग्र आसीत्। ब्रह्मवा इदमग्र आसीदित्यादिवाक्यादहमेक एव गणपतिरासमिति वाक्यस्यार्थ उन्नेयः तस्य विश्वोत्पत्तिविपत्तिसंस्थितिकरत्वं सिद्धं भवतीति निराकृते महागणपतिमते पुनराह स्वामिन् सर्व्वज्ञ भवदनुकूलं भवद्भिरुक्तं अङ्काभावः पुरुषः निरावलम्ब एव भवति तस्यापि देवस्याभिमानाभावात्। अतः साङ्केन पुंसा भवितव्यं। यथाङ्कां धारयति पुरुषः तस्याभिमानं तस्मिन् वर्त्तते प्रायेणापि तद्गणैस्तल्लोको गृह्यतेअतः सालोक्यस्य मुक्तिरूपत्वात्तत्प्राप्ति-र्निरङ्कस्य कथं भविष्यति मम गिरिजापुत्रस्य मदीयानां202 (१) गणनाथगणपत्यादीनां चेति जल्पन्तं गिरिजापुत्राभिधं महागाणपत्यवरं श्रीमदाचार्य्यइदमाह।
शृणु जड़मते गिरिजापुत्र ब्राह्मणस्य किमङ्कं वक्तव्यं प्रथमं ब्रह्मकुलजत्वमेकमङ्क द्वितीयं पुंसवनादिवेदोक्तकर्म्माङ्कं तृतीयं ब्रह्मचर्य्याद्याश्रमाङ्कं एवमङ्कत्रयविराजमानस्य सद्ब्राह्मणस्य निरङ्कता कथं ब्राह्मण्याङ्केन सममन्याङ्कं न विद्यते। ब्राह्मणकर्त्तव्येषु स्नानाचमनप्राणायाममा-र्ज्जन गायत्रीजपाग्निहोत्रवेदाभ्यासेश्वरपूजादिषु वेदोक्तवत्कर्म्मसुकिं न देवा विद्यन्तेसर्व्वदे-वतृप्त्यास्पदस्य ब्राह्मणस्य देवाङ्कं कथं न विद्यते तादृग्विधाङ्केन वर्त्तमाने पुनरङ्कधारणं पशोरिव चिह्नं भवति।
किञ्च ब्राह्मणस्य किं वा लक्षणमित्युक्ते शिखायज्ञोपवीत-
धारण्वेदोक्तकर्म्माचरणं लक्षणं तर्हि तत्क्षचियेऽपि विद्यमानत्वात् तत्रातिव्याप्तिरित्युक्ते ब्रह्मकुलजत्वं विशेषलक्षणं। एतन्मात्रेणैव ब्राह्मणस्य चारितार्थ्यात् अङ्कधारणं पाषण्डताजनकं परिहर अङ्काङ्गीकारे महापातकनस्तीति पुराणश्रवणात् वेदविरुद्धत्वाच्च। किञ्च सदुपासकानां मूलाधारस्वाधिष्ठानमणिपूरकानाहतविशुद्धाज्ञासहस्रारेषु चतुर्द्दलषड़दलदशदलद्वादशदल-षोड़शदलद्विदलसहस्रदलेषु स्वर्णविद्रुमनीलपिङ्गलधूम्रतेजः कर्पूरवर्णेषु स्थिता गणपतिब्रह्म-विष्णुरुद्रजीवात्मपरमात्मानः तदुपरि श्रीपरमगुरुरिति स्वतन्त्रदेवताः सम्प्रति देहधारिणः अतो गणपतेर्मूलाधारगतस्य सर्व्वधारकर्त्तृत्वं वर्त्तते। तदुपरि गतानां चक्राणां तदधिकारिणां ब्रह्मादि-देवतानां च तदाधारकत्वादतस्तथाविधे गणपतावन्तस्ये तुण्डदन्तचिह्नंभुजयोःकर्त्तव्यमिति निरर्थकं।
किञ्चमूलाधारस्ये गणपतौसर्व्वोत्तमे परमात्मनि सम्यगाज्ञाचक्रगते अनयोरधिकारे भवन्मते विशेषत्वं चिन्तय द्विसप्ततिसहस्रनाड़ीनां मूलाधाराचितानां नियामकत्वमात्रं गणपतेरधिकारः। तज्जनितनाड़ीभिरूर्ध्वाधः प्रसृताभिर्देहस्थितिकारणभूताभिरुपरिचक्राधारभूताभिर्गणपतेः कारणत्वं प्राप्तं परमात्मा सर्व्वगतोऽथाज्ञाचक्रवासी भूत्वासाधस्थजीवरुद्रविष्णु ब्रह्मगणपतीन् तत्तद्विनियोगेषु प्रेरयित्वा स्वयं साक्षीनिर्गुणः सच्चिदानन्दमयः सर्व्वातीतः सर्वोत्कृष्ट इति सम्यग्वेदेषु प्रतिपादितः। अतः परमात्मानमाज्ञाचक्रगतं चिन्तय
मुक्तो भवसोत्युपदिष्टः गिरिजापुत्रः सगणः त्यक्तलिङ्गः परगुरोः शिषोऽभवत्।
पञ्चपूजापरो नित्यं पञ्चयज्ञपरायणः।
गुरुशुश्रुषणासक्तः समभूद्गिरिजासुतः॥
इत्यनन्तानन्दगिरिकृतौमहागणपतिमतनिवर्हणं नाम पञ्चदशं प्रकरणं॥ *॥
** षोड़शं प्रकरणं।
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एव निरस्ते महागणपतिवादिनि गिरिजापुत्रे पुनरन्योहरिद्रागणपतिमतवादी प्रत्यवतिष्ठते मन्त्रवर्णान्। स आह। स्वामिन्मदीयं मतं शृणु। हरिद्रागणपतिरेव सर्व्वजगत्कारणं। न च तत्त्वे प्रमाणाभावः श्रुतेरेव प्रमाणत्वात्। तथाहि।
गणानां त्वा गणपतिं हवामहे
कविं कवीनामुपमश्रवस्तमं।
ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पतिम्
आ नः शृण्वन्नुतिभिः सीद साधनं॥ इति203। (१)
भो यतिवर्य्य गाणपत्यमतमयुक्तमिति प्रतिपाद्य चिरकालारभ्य रूढमतपदद्विनं गिरिजापुत्रं तदाश्रितांश्च भ्रष्टान् कृत्वा वर्त्तसे204 (२) किमिदमुचितं तर्हि इदानीमागतं प्रतिपक्षविघ्नढुण्डिराजगण-पतिकुमारनामानं मां विद्धि। किं गणेशमते न्यूनताऽस्ति तत्प्रतिपादकमन्त्रस्यायमर्थः। गणानां रुद्रविष्णुब्रह्मेन्द्रादिगणानां गणपतिमध्यक्षं त्वां हवामहे ध्यानं कुर्महे। किं विशिष्टं कवीनां भृगुगुरुशेषप्रभृतीनां कविमुपदेष्टारमित्यर्थः। पुनः कीदृशं उपमश्रवस्तमं उपमश्रवसां सकृच्छ्रवणसर्व्वविद्याविदां मध्ये तममत्यन्तं श्रेष्ठं। पुनः कीदृशं ब्रह्मणां प्रपञ्च
कर्त्तृणां ज्येष्ठराजं तद्द्वारा ज्येष्ठप्रभुमित्यर्थः ब्रह्मादिभिरपि सृष्ट्यादिषु विघ्नेशः पजनीय इत्यर्थः। आरम्भिकार्येषु सर्व्वेष्वपि देवमनुषप्रादिभिः सर्वैर्विघ्नेशः पूजनीय इति पुराणेषु च बहुधा वर्त्तते तं ब्रह्मणस्पतिं ब्रह्मणामपि पतिमित्यर्थः। आ नः श्र समन्तात् नः नुतिभिः स्तोत्रैः शृण्वन् साधनं निर्व्विघ्नं शुभं सीद ददात्वित्यर्थः। अतः सकलदेवपज्यो गणपतिरेव। ध्यानन्तु
पीताम्बरधरं देवं पीतयज्ञोपवीतिनं।
चतुर्भुजं त्रिनयनं हरिद्रालसदाननं॥
पाशाङ्कुशधरं देवं दण्डाभयकराम्बुजम्।
एवं यः पूजयेद्देवं स मुक्तो नात्र संशयः॥ इति ॥
स्कन्दपुराणवचनात्। जगदादिकारणं गणपतिरेक एव तत्कटाक्षाज्जाताः तदंशभूताः सर्वे ब्रह्मादयः अतः सर्वदेवपितामहं विघ्नं शं भवन्तोपि भजन्तु। तस्य चिह्नद्वयन्तुण्डैकदन्तात्मकं तदाकारतप्तलोहाङ्कितभुजद्वयस्तद्भक्ताग्रगण्यस्तस्यैव मुक्तिः करस्था भवतीति पूर्व्वपक्षे प्राप्ते श्रीमद्भिराचार्यैरिदमुच्यते।
किं गणकुमार भवद्बुद्धिवैकल्यमप्रतिहतं जगत्कारणवाक्यैः सदेव सौम्येदमग्र आसीदि-त्यादिभिः प्रतिपादितं ब्रह्मैव गणपतिरिति तस्यांशा ब्रह्मादयः सृष्ट्यादिकर्त्तार इति भग्वादीनामपि सर्व्वविद्यागुरुर्गणपतिरिति च प्रसङ्गात किञ्चिदन्यच्च सम्यक् प्रतिपादितं भवता। शुद्धबुद्धमुक्तस्वरूपं सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म गणपतिरेवास्तु सर्व्ववाच्यस्य ब्रह्मणः
गणपतिशब्देन किमपराड्वं। अतः परमात्मनः सकाशात् ब्रह्मादयो जाता इत्यविरुद्धं। ब्रह्मादीनां तदंशसम्भूतत्वात् रुद्रपुत्रो गणपतिरिति तत्राप्यविरोधः। अंशांशिनोरभेदात् अतो देवकार्य्यार्थी205 (१) जगन्निर्म्माणादिषु विघ्नहर्त्तेत्यर्थः। संसारिणामपि सर्व्वविघ्ननिवृत्तये तादृग्गणप-तिरूपास्य एव। अतः सर्वैर्मुमुक्षुभिरीशविष्णुगणपतिशक्तिसूर्य्यः पञ्च तत्तत्पुरुषबुद्धि भेदेनांशांशिभावमापन्ना उपास्या एव। किन्तु तुण्डेकदन्तचिन्हधारणमात्रमेव विरुद्धं लिङ्गिनः पाषण्डत्वश्रवणाद्वेदविरोधाच्च। तस्मात्तुण्डैकदन्तचिह्नंपरित्यज्य शुद्धाद्वैतवृत्तिमाश्रित्य पञ्चपू-जां स्नानादिनित्यकर्म्मच कुर्वन् मायानिवृत्तौ जातायां तद्द्वारा भग्नलिङ्गशरीरः सन् मुक्तो206 (२) भवसीत्येवमुपदिष्टो गणकुमारस्तथाङ्गीकृत्य गुरुवरं207 (३) ध्यायन् पञ्चपूजापरायणः सुखमाप।
** सप्तदशंप्रकरणं।**
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एवं परिहृते गाणपत्यैकदेशिमते208 (१) पुनरन्यः उच्छ्रिष्टगणपत्युपासकः दक्षिणेतरमार्गानुवर्त्ती हेरम्बसुत इति प्रसिद्धः प्रत्यवतिष्ठते। स तु श्रीमदाचार्य्यमिदमुवाच। भोः स्वामिन् हेरम्बसुतो-ऽहमागतोऽस्मि केन विधिना गणपतिमतमयुक्तमिति श्रीमद्भिर्भवद्भिरुक्तं। श्रूयतामस्मन्मतं शैवागमे द्वादशगणपतिप्रकरणे महागणपतिमतमेकं हरिद्रागणपतिमतमेकं उच्छ्रिष्टगणपति-मतमेकं नवनीतगणपतिमतमेकं स्वर्णगणपतिमतमेकं सन्तानगणपतिमतमेकं एवं षड्विध-गणपतिमतानि भवन्ति। एते मत प्रवर्त्तकाः षण्महामन्त्राः उपमन्त्रषट्कञ्च तत्तन्मतावान्तगणि ज्ञानमतानि वामावलम्बकानि। उच्छ्रिष्टगणपतेर्मतस्य ज्ञानमतं हैरम्बमित्युच्यते। उभयोरपि प्रधानाङ्गयेर्वाममार्गावलम्बकत्वेनोच्छ्रिष्ट गणपतिरिति नाम प्राप्तं। तदीयध्यानन्तु।
चतुर्भुजं त्रिनयनं पाशाङ्कुशगदाभयं।
तुण्डाग्रपीतमधुकं209 (१) गणनाथमहं भजे॥ इतितदङ्गहेरम्वस्य तु ध्यानमेतत्।
महापीठनिषणन्तं वामाङ्कोपरि210 (२) संस्थितां।
देवीमालिङ्ग्य चुम्बन्तं स्पृशंस्तुण्डेन वै भगं॥ इति ॥
अत एव तयोरङ्गाङ्गिनोर्वामबाहुल्यवशात् जीवेशयोरिवैक्यानुसन्धानं युक्तमिति मतद्वयमप्य-हमवलम्ब्य कुङ्कुमाङ्कितललाटः पुण्ड्रान्तरपरित्यागीसन्धादिसर्व्वकर्म्माणि इच्छावशगानि कृत्वा सम्वित्तीर्थपानजनितानन्दविदितसकललोकः211 (३) एतत्समम्मतान्तरं नास्तीति नित्यतृप्तो-ऽभवं।
किञ्च मदीयाचारे धर्म्मद्वयमेवानुवर्त्तनीयं। पुरुषाणां सार्व्वजातिकानां एकजातिवदित्येको धर्मः, स्त्रीणं सार्व्ववर्णिकानां एकजातिवदित्येको धर्म्मः, तेषां तासाञ्च संयोगे वियोगे च दोषाभावः। अस्या अयमेव पतिरिति नियामकाभावात्। तासु रजःसिक्तादौसुसम्पर्के212 (४) जाते रुधिरबाहुल्यात् आनन्दाधिक्याच्च (सर्व्वेवर्णाः समानजातयः दाम्पत्यव्यवस्था नास्ति। येन केनापि पुरुषेण स्वस्वहेरम्बतां विभाव्य यां काञ्चिस्त्रियन्तच्छक्तिं विचिन्त्य सुरयेन सम्भोगः कार्य्यः इत्यधिकः
क्वचित्।) आनन्दप्राप्तिरेव ब्रह्मप्राप्तिरिति तस्य सच्चिदानन्दलक्षणाच्च। तस्मादुच्छ्रिष्टगणपते-रखण्डानन्दरूपत्वेन ब्रह्मरूपत्वेन च तन्मतमनन्यभेद्यं। तदंशाः सर्व्वे ब्रह्मादयो देवाः, अशांशिनोरभेदः प्रतिपादितो रुद्रकाण्डे।नमकेपि, नमो गणेभ्यो गणपतिभ्यश्च वो नमो नम इति। गणरूपेभ्यो गणपतिरूपेभ्यश्च रुद्रेभ्यो नम इत्यनेन213 (१) गणत्वं गणपतित्वञ्च एकस्मिन्रुद्र घटते ओँकारातीतस्य परमशिवस्य गणपतिरूपत्वेन तदंशाः सर्व्वेदेवा इतियुक्तं। अतोब्रह्मप्राप्तये कर्म्मणोकारणत्वात् प्रवृत्तिर्व्यथैव।
किञ्च न कर्म्ममुक्तिसाधनं किन्तु कर्म्मत्याग एव। न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनेकेऽ-मृतत्वमानशुरिति श्रुतेः। त्यागः सन्नप्रासः स तु द्वन्द्वातीतः शान्तो दान्तः उपरतस्तितिक्षुः समाहितः श्रद्धायुक्तो भूत्वात्मन्येवात्मानमनुपश्येदिति श्रुतेः। उपरतिः सन्नप्रासः। तितिक्षा शीतोष्णद्वन्द्वसहनं एतदुपलक्षणं सुखदुःखमानापमानपुण्यपापादिष्वपि214 (२) द्वन्द्वता योजनीया। द्वन्द्वातीतवृत्तेः मोक्षहेतुत्वे तत्तवृत्त्यवलम्बनस्य उच्छ्रिष्ट-गणपतिमतानुकूलत्वात्तन्मतं मुमुक्षुभिः सर्व्वेरुपासनीयमिति प्राप्ते श्रीमदाचार्यैरुच्यते।
भो हेरम्बसुत भवन्मतमनुचितं। वेदविरोधसद्भावात्। वेदो हि ब्राह्मणादीनामुचितधर्मा-नुक्त्वापश्चान्महदाप-
द्यपि इदमग्राह्यमिति निषेधमाह। न सुरां पिबेत् न कलञ्जं भक्षयेत् न परादारां गच्छेत् नाम्नीनुद्वासयेदित्यादीनि बहूनि वचनानि सन्ति। तस्मादेतद्ग्राह्यमतस्य सुतरामयुक्तमेवाङ्गी-करणं मुमुक्षुभिरङ्गीकर्त्तव्यमितिभवदुक्तं तदपिन्यास एवेति अपरे च यदित्यादिना215 (१) त्यागेनैके अमृतत्वमानशुरित्यादिना श्रुत्यर्थेन सन्नासिन एव मोक्षाधिकारित्वमुक्तं भवतीति तस्य द्वन्द्वातीतत्वादिगुणविशिष्टत्वात् सुखदुःखमोहादिपरित्यक्तस्य महायतेः परमहंसस्य दृक् यत्र यत्र पतति तत्र ब्रह्मस्वरूपनिश्चयात् सर्व्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्च नेति ब्रह्मव्यतिरेकेण प्रपञ्चासत्वामात्ररूपिणः शुद्धाद्वैतं ब्रह्माहमस्मीति महामार्गारूढस्य सर्व्वभूतान्तःकरणमाक्षिणः शुद्धचैतन्यस्य द्वन्द्वातीतत्वं युक्तमेव। तमुपमानं कृत्वा भवत्प्रमुखाः संसारिणः सुरां पिबामः कलञ्चंभक्षयामः प्रतारणबुद्धिरित्याजलपथ तदत्यन्तदौष्टं नरकप्रदमेव मतं तस्माच्च मूढ़बुद्धिं परित्यज्य ब्रह्मसभानुग्रहात् कलितप्रायश्चित्ताः यूयं मुक्तिमार्गमवलम्बः पञ्चपूजापराः पञ्चयज्ञादि नित्य कर्मनिरताश्च कथं मूलाधारादिब्रह्मरन्ध्रान्तं प्रतिचक्र गणपतिब्रह्मविष्णुरुद्रान् जीवपरमात्मगुरुसर्व्वदेवताः परिकल्प्य पञ्चपूजापुरः सरमजपामन्त्र-जपपरास्तद्देवताध्यानमात्रेणैव मुक्त्वाभवथ नान्यद्विचारणीयं भवद्भिरित्युपदिष्टा हेरम्बसुृ-तादयः तत्सभानुग्रहात् कृतप्रायश्चित्ताः
श्रीमत्परमगुरुं नत्वा तत्कटाक्षप्राप्तब्राह्मणधर्माः श्रुत्याचारपरिश्रान्ता अद्वैतविद्याभ्यासतत्परा बभूवुः।
** इत्यनन्तानन्दगिरिकृतौउच्छ्रिष्टगणपतिमतनिवर्हणं नाम सप्तदशं प्रकरणं॥*॥**
** अष्टादशं प्रकरणं।**
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अतः परं तवनीतस्वर्णसन्तानगणपत्युपासकाः समागत्यश्रीमदाचार्य्यस्वामिनमिदमूचुः। स्वामिन् वयं नवनीतादिगणपत्युपासकाः मदीयाचारस्तु वेदोक्तकर्मानुकूलेन216 (१) तत्तदुपासनां कुर्मः। किन्तु गणपतेरुत्तमत्वं सर्व्वेषां देवानां तदंशजातत्वं च निश्चित्य गणपतिमतसिद्धान्त-मोक्षाभिलाषिणः सर्व्वं जगत् गणपतिरिति ध्यायिनो भवामः। न किल तत्र विवादः कर्त्तव्यः तस्य सर्व्वकार्येषु सर्व्वदेवपूज्यत्वात् आदौ पूज्यो गणाधिप इत्यादिप्रमाणसद्भावाच्च कथं भवद्भिर्महागणपत्यादिमतत्रयं निराकृतं तद्व्यतिरेकेन परमार्थिकाभावादिति। तत्तदुपासकैश्च तत्प्रीत्यर्थं हरिद्रादिधारणं कर्त्तव्यमेवेति प्राप्तेश्रीशङ्कराचार्य्यस्वामिभिरिदमुच्यते।
मतमिति यत्तदेवासत्। यूयं मूढाः पारमार्थिकावेदिनः। सत्यं ज्ञानं शृण्वन्तु। प्रकृतिपुरु-षाभ्यामादौमहत्तत्त्वे जाते तद्गर्भे अहङ्कारतत्त्वं गुणत्रयात्मकं उत्पन्नं तदेव रुद्रविष्णुब्रह्मरूप-मभवत् ते क्रमात्स्वशक्तितस्ततद्गुण-विशिष्टजगदुत्पत्ति-
हेतवोऽभवन्। तत्र किल तामसाहङ्कारे रुद्रसृष्टान्तर्जाताः गणपतिकुमारभैरवाः ते जगति स्वल्पाधिकारिणः217 (१) गणपतेः सृष्ट्यादि प्रयोजनेषु218 (२) मनुष्यसाध्येषु सृष्टप्रादि प्रयोजनेषु ब्रह्मादिसाध्येषु च तत्तदादिपूज्यत्वं वर्त्तते तत्र सर्व्वकार्य्यनिर्व्विघतासिद्धये कार्यदौ गणपतिः पूजनीयत्वेन स्थापितः लोके सार्वभौमेण तत्तत्कार्य्येतत्तदधिकारिकल्पनात्। अस्तु वा गणपतिरेव परमात्मा। अंशांशिनोरभेदात्219 (३)। तस्मात्220 (४) विप्रैर्गणपतिब्रह्मविष्णुरुद्रजीव-परमात्मानः221 (५) देहान्तर्गत मूलाधारादिचक्रोष्वेवोपास्याः तादृगनुष्ठानाशक्तानां222 (६) ब्राह्मणानां गणेशेनोमाहरीशाः प्रतिमादिषु पञ्च पूज्याः सर्व्वथा प्रमाणरहितं हरिद्रादिचिह्नमसङ्गतमित्यु-पदिष्टाः वीरभद्रे कदन्तादयः नवनीतस्वर्णसन्तानगणपत्युपासकाः परमगुरुं नत्वा परित्यन्य हरिद्रादिचिह्नानि पञ्चपूजापराः शुद्धाद्वैतविद्यावादिनः शिष्या223 (७) बभूवुः224। (८)
** इत्यनन्तानन्दगिरिकृतौगणपतिमतत्रयनिवर्हणं नाम अष्टादशं प्रकरणं॥ *॥**
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स्वल्पाधिकारिणः गणपतेः सृष्ट्यादिप्रयोजनेषु मनुष्यसाध्येषु सृष्ट्यादिप्रयेोजनेषु ब्रह्मादिसाध्येषु च तत्तदादिपूज्यत्वं वर्त्तते वस्त्राद्विप्रैर्गणपतिव्रह्मविष्णुरुद्रजीवगुरुपरमात्मानः मूलाधारादिचक्रेषु उपासनीयाः स्वदेहान्तञ्चक्राणि तद्वासुदेवरूपादिच परिकल्प्य पूजनीयानीत्यर्थः तादृगनुष्ठानासक्तानां ब्राह्मणानां गणेशेनोमाहरीशाः पञ्च पूज्याः इति सम्यगुपदिष्टा वीरभद्रैकदन्तादयः नवनीतस्वर्णसन्तानगणपत्युपासकाः परमगुरुंनत्वा त्यक्तहरिद्रादिपुण्ड्रादिचिह्नाःपञ्चपूजापराः श्रद्धाद्वैवविद्यावादिनः शिष्या बभूवुः इति पाठान्तरं । वा. पु.।
** ऊनविंशं प्रकरणं।
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ततः श्रीशङ्कराचार्य्यः भवानीनगरं प्राप225। (१) तस्मादिलांपादपद्मैर्विचित्रां226 (२) कुर्वन्नुपलाशोत्त-माङ्गार्चिताङ्घिद्वयां तां सकलपूर्णरूपां सशिष्योऽभजत् सः। एवं सकलयतिगुरुः श्रीशङ्करा-चार्य्यः समस्तशिष्याचरितपूजाङ्गीकार विलसत्पादकमलः सर्व्वदेवार्च्चितो गुरुरिव प्रकाशमान-मूर्त्तिः तत्र मासकालमतिष्ठत्। तत्रस्थाः परमगुरुं227 (३) यतिशिरोमणिं शिरोभिरभिवाद्य228 (४) सविनया इदमूचुः। स्वामिवस्मन्मतमति विचित्रतरं शृणु। भगवती229 (५) किल महाशम्भुशक्तिः प्रपञ्चमूलकारणं गुणातीतवृत्तिश्च230 (६) तन्मायावशात् महत्तत्त्वादिजग-
दखिलमुत्पन्नं तद्वारा ब्रह्माद्युत्पत्तिस्तच्छत्कुत्पत्तिश्च सिद्धा भवति तस्याः मनोवाग्वृत्त्यतीतत्वात् तदंशायाः भवान्याश्चरणारविन्दसेवापरास्तदङ्ककुङ्कुमादिधारिणस्तत्पादाकाराकारितस्वर्णपादवद्धगलबाहवो वयं जीवन्मुक्ता एवं विद्योपासकानाञ्च फलश्रवणात् सैव च प्रकृतिः प्रधानमिति च व्यवह्रियते तदुक्तं सांख्यसिद्धान्ते।
मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त।
षोड़षकस्तु विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः॥ इति।
श्रुतिश्च
अजामेकां लोहित शुक्लकृष्णां बहीः प्रजाः सृजमानां नमामः इति। प्रकृतिपुरुषयोः शिवशक्त्योपाश्चन्द्रचन्द्रिकान्यायेनाभेदः। तथा च श्रुतिः।
मायान्तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनन्तु महेश्वरमिति।
एतदुपासनयैव मुक्तिं श्रुतिराह। विद्याञ्चाविद्याञ्च यस्तद्वेदोभयं महाविद्यया मृत्युं तीर्त्वाविद्ययाऽमृतमश्रुत इति। इयमेवैका मुमुक्षुभिरुपासनीया231 तस्याः कटाक्षलेशेनैव मुक्तिदर्शनात् प्रकृतिश्चेश्वरश्चेत्यनेन श्रुतिवचसा प्रकृतिपुरुषयोरभेदात् सदेव सौम्येदमग्र आसीदित्यादि जगदुपादानकारणवाक्यानि प्रकृतिपराण्येव। अतः प्रकृत्युपासका इति232 निरवद्यं किञ्च प्रणवनिष्ठावर्णादुवर्णाद्युत्पत्तिर्यथा तथैव तच्छ-
क्तेर्भवान्या लक्ष्म्यादिशक्त्युत्पत्तिः सिद्धैव। अतः सर्व्वदेवकारणस्य रुद्रस्य या शक्तिः चन्द्रचन्द्रिकान्यायेन तदुद्बोधरूपिणी स्वाधीनवल्लभेति प्रसिद्धा सेव भवानीति निश्चयज्ञानवतामस्माकं न कश्चिद्विचारः। परमपुरुषैर्भवद्भिरपि तदङ्कधारणपुरसरं सेवोपासनीयेति प्राप्ते श्रीमदाचार्य्यस्वामिन इदमाहुः।
ननु भवदुक्ता भवानी संसारभयहारिणी जगत्कारणमिति परन्तु233 पुरुषस्य श्रेष्ठत्वादी ज्ञानेनैव मुक्तिरिति सर्व्वत्रापि प्रतिपादितत्वाच्च। आत्मानमात्मनाध्यात्वामुक्तो भवति नान्यथेतिमुक्तिवचनदर्शनात्234
अजातीतस्य परमात्मन एव ज्ञानेन मुक्तिः। ब्रह्मविद्ब्रह्मैव भवतीति श्रुतेः। सांख्यसिद्धान्तेऽपि प्रकृत्यपेक्षया मायातीतस्य ज्ञानादेव मुक्तिः। तैत्तिरीयोपनिषदि अजाखरूपमुक्क्त्वा तदितरत्वमीश्वरस्य दर्शितं।
अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां
बह्वींप्रजां जनयन्तीं सरूपां।
अजो ह्येको जुषमाणेऽनुशेते
जहात्येनां भुक्तभोगामजोन्यः॥ इति श्रुतेः।
विद्ययाऽमृतमश्रुत इति विद्यापदार्थश्चात्मभिन्नं सर्व्वमनित्यमात्मैव च शुद्धबुद्धमुक्तसच्चिदानन्दरूप इति ज्ञानमेव। प्रकृतेरजात्वन्तु अनादिप्रवाहरूपेण स्वर्गादेरमृत त्ववदापेक्षिकम्। अन्यथा एकमेवाद्वितीयं ब्रह्मेतिश्रुतिविरोधापत्तेः। ज्ञानस्य
मोक्षसाधनत्वे मुक्तिदशायां न हि तत्सद्भावः शङ्कनीयः। यतः तत्त्वज्ञानमपि जले कतकरेणुवत् अविद्यामपहृत्य स्वयमपि नश्यतीति नाद्वितीयत्वविरोधः। अतः परस्मिन्नद्वितीये ब्रह्मणि भवान्यास्तद्बोधकारणं घटते। अतो विद्याशब्दवाच्या भवानीतदुपासनेन चित्तशुद्धौजातायां लिङ्गशरीरभङ्गद्वारा
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१. परमात्मनएव ज्ञानेन मुक्तिः। तैत्तिरीयोपनिवटि प्रजास्वरूपमुक्त्वातदितरत्वमीश्वरस्य दर्शितं। व्यजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीप्रजां जनयन्तीं सरूपां। व्यजोह्येको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः॥ इति अतः परमात्मनः मायातीतस्याज्ञानान्मुक्तिः। किञ्च सांख्यैरपि पुरुषलक्षणमुक्तं।
मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त । षोडशकश्च विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः । इति प्रकृत्यपेक्षया भिन्नस्य परमात्मन एवज्ञानान्मुक्तिरिति निरवद्यं। ज्ञानस्य मोक्षसाधनत्वेन मुक्तिदशायां न हि तत्सहभवः शङ्कनीयः ईश्वरव्यतिरिक्तस्य सर्व्वस्यानित्यत्वात् किन्तु जीवनिष्टमज्ञानंपरिहृत्य स्वयं नष्टा भवति सपङ्कंजलं कतकरेनुवत् कतकरेणुर्जलनिष्ठंपङ्कमपहृत्य स्वयमपि नष्टो भवति एवं विद्यावतां ब्रह्मैक्यमुक्तं। ब्रह्मविद्ब्रह्मैवभवतीति श्रुतेः ।वा. पु.
२ तद्बोधकारं। वैपु.।
मोक्षः सिद्धः। अतो भवानीभक्ता भवन्तोपि सर्व्वाणि सगुणेपासनानि अल्पफलत्वात् परित्यज्य प्रमाणरहितं वेदविरुद्धकुङ्कुमपुण्ड्र235-स्वर्णपादादिचिह्नानि परित्यज्य शुद्धाद्वैतविद्यया236 ब्रह्माहमस्मीति निश्चयज्ञानेन मुक्ता भवथ। एतत्प्राप्तये भिदादिपशुमार्गे न साधनमिति सम्यगुक्ताः त्रिपुरकुमारविन्दुभक्तपूर्णानन्दपूर्णभगवच्चरणसेवकशुद्धमत्यादयोभवानीभक्ताः परमगुरुं237 यतिशिरोमणिं नत्वा त्यक्तलिङ्गाः कृताञ्जलयः शुद्धाद्वैतवृत्त्याश्रिताचाराः स्नानसन्ध्यावन्दनपञ्चपूजादिनिरताः सच्छिष्या बभूवुः।
इत्यनन्तानन्दगिरिकृतौ शक्तिमतनिवर्हणं नामैकोनविंशंप्रकरणं ॥*॥
विंशं प्रकरणं।
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अतः परं238 तत्समीपदेशस्थाः कुवलयपुरादिपत्तनाश्रिताः समागत्य परमपुरुषमाचार्य्यस्वामिनं नत्वेदमूचुः239 स्वामिन् महालक्ष्मीमातैव सर्व्वफलदा जगतां उत्पत्तिस्थितिलयकारणं भगवतो विष्णोः प्राणशक्तिः। तद्वारा पार्व्वतीबाण्यादिशक्तयश्च बहुधा उत्पन्ना। किञ्च त्रिमूर्तीनां मूलकारणमपिं तच्छक्तिरपि सेवैका भगवत्येव परमपुरुषस्य मच्छब्दवाच्यस्य तत्कारणस्य प्रकृतेरसच्छब्दवाच्यत्वञ्च तैत्तिरीयोपनिषद समाम्नातं। असद्दा इदमग्र आसीत् ततो वैसदजायत इति अतो मूलप्रकृतिः परमशक्तिः ब्रह्मादि प्रलये सर्व्वानपि भक्ष्य गुणातीतवृत्त्याअसद्रूपेणाग्रे आसीत् पुनः सृष्टिकाले तद्दशादेव ब्रह्मादयो जायन्त द्रति जगदुपादानकारणं सैवैकैव। तत्रापीश्वरोप्यस्तीति यद्युच्यते तदन्तर्वर्त्यैव
सोपीति विचारय तदादीनां240 तज्जन्यत्वात्। अतः परब्रह्मण्यपिसविमर्शता कल्पनीया। तयोः सार्व्वकालिकनित्यत्वाच्चन्द्रचन्द्रिकान्यायेन च भवदभेदस्यापि विरुद्धत्वाभावात् परप्रकृत्युपासनं भवद्भिरपि कर्त्तव्यं मुक्तिकाङ्क्षिभिरिति। अतः कमलायाः सर्व्वोत्कृष्टत्वात् तदुपासनं तच्चिह्नानां कमलपद्माक्षमालाकुङ्कुमानां भुजकण्ठतलादिषु धारणं कुर्म्मःभवद्भिरपि तथैवानुष्ठेयं मुक्तार्थमिति241 श्लिष्टभूषणगङ्गाकीर्त्तिलक्ष्मीविलासरमाभक्तादिभिः सर्व्वैर्विज्ञापितः श्रीशङ्कराचार्य्यगुरुरिदमाह।
श्रुतमद्भुतं भवद्भिः प्रतिपादितं मतं। भोः कमलाभक्ताः भवन्मतं न सम्यगाभाति। यतः स ईशः सर्व्वानसृजत स आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो सदेव सौम्येदमग्र आसीत्। यः सर्व्वज्ञः सर्व्वविदित्वादिबहुश्रुतिप्रपञ्चसारो विचारितः परमात्मा अपहतपाभा सर्व्वातीतः सर्व्वकारणः सर्व्वाधारः सर्व्वमयः स एकोऽद्वितीयः परानन्दमयः सदा वर्त्तते। तदिच्छारूपाया प्रकृतेस्तदाधारत्वेन तस्मिन् परमात्मनि प्रकृतिर्गुणमयी निजाङ्गंपरित्यज्य नष्टसर्व्वविकारा सद्रूपा समभवत्। पराधीनवृत्तिप्रत्यासत्तिशक्तेः स्वतन्त्रलेशाभावात् कथं मुक्ता स्वस्य मुक्ताभावे कथं मुक्तिप्रदा भवति। विद्यारूपायास्तस्यास्तथावि-
धसमर्थतास्तीति चेत्। ज्ञानस्यापीश्वरजीवभिदारूपमूलाज्ञाननिवृत्तिमात्रमेव सङ्घटते। अतो मुक्तिसमवाधिकारणस्य विद्यारूपस्यैव परमेश्वरत्वं वक्तुं न शक्यते। सर्व्वातीतं ब्रह्म प्रसिद्धं अहमस्मि ब्रह्माहमस्मीति योवा ध्याता तस्यैव मुक्तिः। अन्येषामनित्योपासकानामनित्यलोकप्राप्तिः। क्षीणे पुण्ये पुनर्मर्त्त्यलोकप्राप्तिरिति सिद्धं। अतो यूयं कमलकुङ्कुमपुण्ड्राद्यङ्कं परिहृत्य शुद्धाद्वैतविद्यामाश्रित्य मुक्ता भवथ। इत्युपदिष्टास्ते परमगुरुंनत्वा शुद्धाद्वैतविद्यानिरताःस्नानपञ्चपूजादिसत्कर्म्मिणः शिष्या बभूवुः।
इत्यनन्तानन्दगिरिकृतौशक्तिमतैकदेशनिराकरणं नाम प्रकरणं विंशम्॥*॥
एकविंशं प्रकरणं।
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एवं निराकृतेषु दुर्गालक्ष्मीमतसिद्धान्तिषु पुनरन्ये पुस्तकपुण्ड्राः कमलपाणयः निगमसावित्रपरागमसुवागादयः शारदोपासकाः स्वामिनं नत्वेदमूचुः242। भोः स्वामिन् विचित्रवेषधारित्वं सम्पाद्य दुर्गाकमलादिभक्तान् मतभ्रष्टान्कृत्वा सर्व्वसम इव वर्त्तसे इदानीमागतान् विद्धि नः शारदाभक्तान् निगमादीन् परमतभेदनपटून्। किलास्मन्मतं निगमसिद्धं। वेदानां तद्रूपत्वात् तेषां नित्यत्वाच्च वेदानां नित्यत्वप्राप्तौ तद्रूपायाः शारदायाः नित्यत्वमस्ति न वेति सन्देहाभावात् सैव जगत्कर्त्री, नित्या वाग्वेद इति श्रुतेः वाचा विरूपनित्ययेति श्रुतेश्च। अतः परात्परतरा शारदा जगदुपादानकारणं या नित्यप्रभा243 जगल्लयेऽस्ति सैव वाक् स ब्रह्मात्मा
शिवनारायणादिशब्दवाच्यगुणातीतवृत्तिः तद्द्वारा परब्रह्माद्युत्पत्तिरित्यविरुद्धं। अतः सर्वेर्मुमुक्षुभिः सैव निरन्तरमुपासनीया। अतो भवन्तोऽपि वृथाशाजालं परित्यज्य पुस्तकादभिश्चिह्निताः वागुपासनं कुरुध्वं वाक्स्वरूपज्ञानेनैव मुक्ता भवथ। अवेदार्थवित्पुरुषाः तं परमं वाग्रूपं न वेदुः। नावेदविन्मनुते तं बृहत्तमिति श्रुतेः। अतः सद्ब्रह्मादिशब्दवाच्य परं वाग्रूपं सम्यग्वेत्ता पुरुषो मुक्तः। ब्राह्मणस्य तद्वातिरेकेण मुक्ताभावात्। साङ्गो वेदोऽध्येतव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः साक्षात्कर्त्तेवेति श्रुतेः। अतः सर्व्वदा निश्चयेन वाग्रपानुसन्धानं कुरुत। एवं प्राप्ते।
श्रीमदाचार्य्यैरिदमुच्यते किं निगममूढ ब्रवीषि भवदज्ञानं केन वारयितुं शक्यं। भोः सारस्वताः भवन्मतमसमञ्जमं कस्मात् श्रूयतां। वर्णमात्रस्य नित्यत्वमभिमतमुतवेदादिरूपवर्णसन्ततेः। नाद्यः उत्पन्नो गकारः नष्टो गकार इत्यादि प्रतीतेर्वर्णमाचस्यानित्यत्वात्। सोऽयं गकार इत्यादिप्रतीतेस्तु सेयं दीपज्वालेतिवत्सादृश्यावलम्बनत्वात्। सर्व्वप्राणिप्रलये सर्व्वस्य वर्णस्यापि प्रलयसम्भवाञ्च। न द्वितीयः। यस्य निश्वसितं वेदा इति जन्यत्वदर्शनात् यज्जन्यं तदनित्यमिति प्रमाणेन अनित्यत्वावगतेः। वाचा निरूपनित्यया इत्यादिश्रुति प्रवाहानादितया स्वर्गादिवदपिक्षिकं नित्यत्वं प्रतिपादयति नात्यन्तिकं244।
अतः षडङ्गपरिशोभितस्य वेदराशेः महायुगान्ते प्रलयदर्शनात् तदनुप्रवृत्ते महायुगे सूर्य्यःकिल कालयुगादिकर्त्ता महर्षिभ्यो यच्छास्त्रं प्राह तदेव वेदादिकमिति। उक्तञ्च सूर्य्यसिद्धान्ते।युगे युगे महर्षीणां स्वयमेव विवस्वतेति। अतः प्रतियुगप्रलयवृत्तिसम्पत्तिश्रुतिप्रत्यासत्तिशक्तेः सरस्वत्याः कथं शक्यं नित्यतां रचयितुं देवानामनित्यत्वेऽपि245 ब्रह्मणे वक्त्रस्थायाः सरस्वत्या नित्यत्वं तद्वाचकजगत्246-सृष्टिस्तस्य ब्रह्मशक्तित्वादिति यद्युच्यते न हि तदपि रमणीयं। चतुर्मुखस्य प्रथमजीवस्यानित्यत्वे तच्छक्तेरनित्यत्वमस्ति वा न वेति सन्देहाभावात् परब्रह्मशक्तिः परप्रकृतिर्महदादिस्तत्र कारणं सरस्वतीति यदुच्यते न हि तदपि समञ्जसं। ईश्वरव्यतिरिक्तस्य सर्व्वस्यापि प्रलयदर्शनात् वाङ्मनो्वृत्तियातीतस्यैव परमात्मनः सद्ब्रह्मादिशब्दवाच्यत्वं न तु प्रकृतेः। अतः रुगणनिगम मूढबुद्धिं परित्यज्य सर्व्वशब्दवाच्यस्य तद्वृत्त्यतीतस्य परमात्मनः सम्यक् ज्ञानेनैव भुक्तिरन्यथा न ह्येवं247
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सम्पादयितुं अनित्यप्रपञ्चस्य वाग्रूपस्य सदादिशब्दवाच्यत्वं कथमुक्तं भवता किञ्च वर्णमात्रस्य नित्यत्वंवा सन्ततेर्नित्यत्वं वा नाद्यः सर्व्वप्राणिप्रलये वर्णस्यापि प्रलयसम्भवात् न द्वितीयः ‘यस्य निश्वसितं वेदा इति जन्यवदर्शनात् यज्जन्यतदनित्यमिति प्रमाणाच्च। वा. पु।
अतः शुद्धाद्वैतवृत्तिमाश्रित्य स्नानादिसत्कर्म्मकुर्व्वन् पञ्चपूजापरायणः त्वं कर्म्मफलं ब्रह्मार्पणमिति कृत्वा अनुष्ठिते सत्कर्मणि अनेकदुरितक्षयकारणेज्ञानप्रवृत्तौ जातायां लिङ्गशरीरभङ्गद्वारा मुक्तो भवतीति सम्यगुपदिष्टः निगमः सर्वैः स्वकीयैः सह त्यक्तलिङ्गः कृतार्थोऽहमस्मीति परमगुरुमाचार्य्यस्वामिनं नत्वा शुद्धाद्वैतवृत्त्याश्रितोऽभवत्।
इत्यनन्तानन्दगिरिकृतौशक्तिमतैकदेशनिवर्हणं नाम एकविंशं प्रकरणं॥*॥
द्वाविंशं प्रकरणं।
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एवं परिहृतेषु दुर्गाकमलावाणीमतसिद्धान्तिषु पुनरन्ये शक्तिवादिनः राजश्यामलोपासकाः शक्तिविलास चिदानन्दादयः वामाचारिणः प्रत्यवतिष्ठन्ते। ते समागत्याचार्य्यस्वामिनमिदमूचुः248। भोः स्वामिन् सम्वित्स्वरूपमविदित्वा यतिवेषधारी मतवह्निरिव249 समागत्य दुर्गाद्युपासकानां वृत्ति मन्यथासिद्धां250 कृत्वा करतलीकृतब्रह्मतत्व इव वर्त्तसे। किं तव ज्ञानेनाद्वैतेन तस्य शशविषाणवद्वन्धपुत्रवद्गगनारविन्दवदत्यन्तासत्वात् सृष्टौप्रलयेऽपि च भेदस्यैव सिद्धत्वात्। ईश्वरेऽपि विमर्शः पृथगेव यथा भर्त्तरि भार्य्यान्या तथैवेत्यर्थः। तयोर्जन्मादिविरुद्धत्वास्वतन्त्रा शक्तिः। शिवस्यापि वलकारिणी। तया विना तस्य-
तृणचलनक्रियायामप्यसमर्थत्वात्। अतः शक्तिरेव शिवस्यापि कारणं। तद्वारा जगत्प्रवृत्तिदर्शनात्। अतश्चविमर्शवादिनामस्माकं मतमेव श्रेयस्करं निर्विमर्शवादिनां तु भवतां मुक्तिरपि नास्ति। कथमित्युक्ते मुक्तिकारणाभावात्, मुक्तिकारणं हि विद्या किल, अतश्चापि विद्यावादिनां मुक्तिः करस्था विमर्शप्राप्तिरेव मुक्तिरिति। एते राजश्यामलोपासकाः मणीन्ध्रसुहोत्रवीतरूपपरामृत-भृग्वादयः पञ्चदश्युपासकाः शक्तिविलासचिदानन्दचिदङ्कुरविचरणोपासकाश्चन्द्रादयश्च सङ्गिरन्ते। अव्यक्तरूपविमर्श एव ब्रह्म तदतीतं वाङ्मनोवृत्त्यतिरिक्तं ब्रह्मास्मीति यदुच्यते तत्तदपि251तदाश्रितं शिवशब्दवाच्यं तद्वातिरिक्तपरभावात् तयानित्यत्वं252श्रुत्यागमसिद्धं नित्यपदार्थयोर्मध्ये शक्तेरधिकत्व तद्ज्ञानकारणं रहस्येष्टादिकं कर्म कुर्व्वतां ज्ञानसिद्धिदर्शनात्। अतो वयं षोडश्युपासकाः पूर्णाभिषिक्ताः कृतार्थः कृतकृत्याः समाः किल। तस्मात् विविधानामस्माकं निस्त्रैगुण्येपथि विचरतां किमवकुण्ठनं लोकत्रये विद्यते। विहिताविहित-मार्गद्वयसूत्रवद्वानां स्वर्गनरकप्रवृत्तिः। ज्ञानिनां मत्तगजवन्निरवकुण्ठनगतिप्रवृत्तेर्विद्यमानत्वात्। पूर्व्वयुगे भृग्वगस्त्यकॄभुनिदाघ-जड़भरतविश्वामित्ररामादिषुवामोपासकेषु253
लोकत्रयातीतवृत्तेः ज्ञानोन्नतेश्च254 दृष्टत्वात् तेषां मुक्तिःकरस्यैव। तस्माच्च तदाचारशीलवतां नः जीवद्दशायामपि मक्तिरेव।
यदि नो पश्चिमं जन्म यदि वा शङ्करः स्वयं।
तेनैव लभ्यते विद्या श्रीमत्पञ्चदशाक्षरी॥ इति॥
देव्यागमवचनस्य सत्यत्वात्255 अतो विद्यावतां नः किञ्चिद्विचारणीयं। भवन्तोपि सर्व्वं परित्यज्य विद्योपासका भवथेति प्राप्ते श्रीमदाचार्य्यः पठति।
भोः पूर्णभिषिक्त भवन्मतमसत्यं। कथमनित्यत्वात् तथा हि श्रुतिः यत्र त्वस्य सर्व्वमात्मैवाभूत् तत् केन कं पश्येदित्यादिना सिद्धज्ञानिनः पुरुषस्य आत्मातिरेकादर्शनात्। तदानीं विमर्शः कुत्र कल्पनीयः। ईषदपि तदतिरेके जगदभावात् जगत्सत्यत्वे हेतुः प्रकृतिः जगदभावे किं प्रकृत्यभावः शङ्कनीयः। अनित्यप्रकृतिज्ञानेन किं फलं अथच तस्याः बहुरूपतोक्तौ इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते इत्यादि श्रुत्या गुणमयी गुणकारणञ्च सा भवति। अतो नित्यायाः प्रकृतेरुपासनापेक्षया सत्यादिलक्षणलक्षितस्य परमात्मनो विशेषज्ञानेन मुक्तिदर्शनात्। स एक एव सर्व्वैर्मुमुक्षुभिरुपासनीयः तस्य सत्यसङ्कल्पवादिच्छामात्रेणैव महदादिजगदुत्पत्तिका-
रणत्वात् ईश्वरएक एव सर्व्वैरुपास्यः। गृहस्थे गृहिणीजातसुखानुभवो गृहस्थस्यास्ति देवे तदभावात्256। किञ्च ईश्वरस्यापि किञ्चित्करत्वमुक्तं तदपि न सम्भवति सर्व्वशक्तिः सर्व्वमयः सर्व्वकर्षणमिति श्रुतिभ्यः वाङ्मनोवृत्त्यतीतस्य ब्रह्मणस्तदाश्रितत्वमुक्तं भवद्विवेकस्य न लक्षणं किमु वक्तव्यं कलञ्जभक्षणशीलस्य वक्तव्यं किं सात्वतम्257अभक्ष्यभक्षणशीलस्य सुतरां प्रामाणिकत्वाभावात् वेदविरोधाच्च। अतो वामाचारवतां ब्राह्नाण्यविच्छित्तिदर्शनात् भवतां प्रायश्चित्तं कर्त्तव्यं भृग्वादिवद्वयं कृतार्था इत्युक्तं मन्दबुद्धीनां युष्माकं भृग्वादिसमता कथं स्यात् भृगुपादताडितो ब्रह्मादिधियमेव चकार। अगस्त्यादिषु समुद्रपानादिसाहसकर्माणि वर्त्तन्तेभवतां तादृक्शक्तिः कथं नास्ति। तस्मान्मूढबुद्धिं परित्यज्य ब्राह्मण्याद्भ्रष्टैर्भवद्भिः प्रायश्चित्तं कर्त्तव्यमिति सम्यगुपदिष्टास्ते परमगुरुं नत्वा सच्छिय्याः कृतप्रायश्चित्ताः शुद्धाद्वैतवादिनः सत्कर्मशीलाः पञ्चपूजापराः बभूवुः।
इत्यनन्तानन्दगिरिकृतौशक्तिमतैकदेशित्रितयनिवर्हणनाम द्वाविंशं प्रकरणं॥*॥
त्रयोविंशं प्रकरणं।
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तस्मात्पुरादुत्तरमार्गगामी
श्रीशङ्कराचार्य्यगुरुः सशिष्यः।
स उज्जयिन्याख्यपुरं ददर्श
कापालिकाचारपरैः समेतं।
स्थित्वा द्विमासं तत्रैव तत्रस्थानाह सत्वरं258।
आचारः प्रोच्यतां युष्मत्कुलागतविधिश्च कः।
इति पृष्टा यतीशन्तमूचुः कापालिकाः परे॥
स्फटिकैरर्द्धचन्द्रैश्च जटाभिः परिशोभिताः।
स्वाभिन्नम्मदाचारः सर्व्वप्राणिसन्तोषकरः कर्महीनः, कर्मणा न मुक्तिरिति वचनात्। मदुपास्ये भैरव एक एव जगत्कर्त्ती। ततः प्रलयो भवतीति यो वा प्रलयकर्त्ता स एव स्थित्युत्पत्त्योरपीति। (उपसंहारवलैनैव नीयतां स उपक्रम इति शास्त्रवृत्तेः। इत्यधिकः (स पु.।) उपसंहारवलान्निर्द्धारित
उपक्रमोपि चेति शास्त्रवृत्तेः तदंशा एव सर्व्वे देवाः तत्तदधिकारसम्पन्नाः श्रीमद्भैरवाज्ञां शिरसा धृत्वा तदुक्तिप्रत्यामन्नशक्तयः तत्तत्कार्य्यपराः बभूवुः।
किञ्च मद्गुरुभिरेवमुक्तं। एकोपि भैरवो ह्यष्टमूर्त्तिधरः
असिताङ्गोरुरुश्चण्डः क्रोधश्वोन्मत्तभैरवः।
कापाली भीषणश्चैव संहारश्चाष्ट भैरवाः॥ इति ॥
वचनात्।
असिताङ्गो विष्णुरूपः। गुरुर्ब्रह्मरूपः। चण्डः स्रुर्य्यः। क्रधो रुद्रः। उन्मत्तः इन्द्रः। कापाली चन्द्रः। भीषणोयमः। संहारः स्वयम्। एतद्व्यतिरिक्तदेवास्तत्तदंगाः सृष्टिकर्त्तारः सर्व्वेपिरुद्रांशाः। स्थितिकर्त्तारः सर्वेऽपि असिताङ्गांशाः। संहारकर्त्तारः सर्वेऽपि क्रोधांशा इति। एवं जगत्सृष्टयादिकं कृत्वा प्रलयानन्तरं निजसप्तमूर्त्तिसङ्कोचं कृत्वा एकः शाश्वतः संहारभैरवः परमात्मा वर्त्तते अतः सर्व्वदा अस्मन्मतस्य श्रेष्ठत्वात् सर्वैर्मदाचारः परिग्राह्यः सर्व्वदा बोधोल्वणनित्यानन्दोऽहं वटुकनाथनामतः मच्छिष्योऽस्ति विश्वरूपविदितवेषविश्वरूपविदितरवादयः सर्व्वेपि सदा द्रव्यजनितबोधपरवशाः259 कापालिकशस्तालिङ्गेन तुष्टान्तरङ्गाः260 सङ्गमोद्भूतपरामृतपानपराः पशुजनकल्पितस्वराज्यादिसुखं तृणीकृत्य देहान्ते भैरवः
पदमस्तीति निर्भयाः सन्तो वर्त्तन्ते। एवमत्यन्तसन्तोषजनकमतममलकीर्त्तिविस्तृतं परित्यज्य मूर्खजनाः श्रुतयः प्रमाणमिति पूर्व्वपक्षसिद्धान्तं नन्दिकेश विश्वकर्मादिदन्तशायाग्निभस्मा-युतमवलम्बा घटीयन्त्रघटवन्नैरन्त्रर्य्यजन्ममरणप्रवाहपतिताः कथं बोधं वहन्ति तस्मात् भवान् सन्न्यासी दण्डकमण्डलुधारी किल कर्महीनः कापालिकयोग्य एव अतो भवता स्वीकृते कापालिकमताचारे भवच्छिष्याः सर्व्वेपि तथैव भविष्यन्तीति प्राप्ते।
श्रीमदाचार्यस्वामिभिरिदमुच्यते किं मूढतम जल्पसि सा ते श्रुतिः261भगवन्मुखगुहाविर्भूत पञ्चास्यैव विधिरहितमत्तमातङ्गजशिक्षादक्षा किलातः श्रुतिविरुद्धाचारतत्परान् युष्मान्निक्षेप्तुमागमं। मद्यमांसाशिनां ब्राह्मण्यहानिदर्शनात् मद्यपायिनस्तव मैरवपरवचनेन किमागतं असम्बद्धप्रलापिनं कापालिकमतगुरुं बहुस्त्रीपुरुषमर्थ्यादाहन्तारं वेदशास्त्रादिप्रपञ्च सर्व्वस्त्रीपुरुषसम्पर्कवञ्जात-पापभागिनं तृणीकृतवेदशास्त्रादिप्रपञ्चं ब्राह्मण्यसमिद्दाहानलं ताड़यिष्यामीति शिष्यैस्तं सगणं ताडयामास हतः कापालिकगुरुः स्वशिष्यान् परिताडितान् दृष्ट्वासक्रोधमित्युच्चैःहुंकृत्याह यतीश्वरं एतावत्याप्तपञ्चिकैरवध्यः सगणोहं भवता ताडितोस्मि मदुपास्य संहारभैरवं मन्त्राविर्भूतं करोमि स तु त्वामचिरेण सगणंभक्ष्ययिष्यतीत्युक्त्वापुनर्हमित्युचार्य्य वामहस्तेन नरकपालं धृत्वा
तत्सुरापूरणं मन्त्रेण विधाय स्वयमर्द्धं पीत्वा अवशिष्टं शिष्येभ्यो दत्वा वृत्तारुणलोचनः स्वमध्यं पश्यन्निदमाह यः संहारकालो भैरवः प्रभुरीश्वरः स एवागत्य सन्नप्रातिप्रभृतीन् भक्षय सत्वरमित्युचैस्त्रिरुक्तमात्रेण खड्गकपालघण्टाशूलपाणिर्दिगम्बरो जटाक्षिप्ताम्बरः संहारभैरवः किलाविर्बभूव।
संहारभैरवं नत्वा सन्नासीति किलाब्रवीत्।
स्वामिन् वेदेषु शास्त्रेषु पुराणेषु च कर्म्मयत्॥
प्रतिपादितमस्तीह तत् कर्त्तव्यं हि धर्मतः।
विप्राणां कर्म्मणा धर्मं साध्यं स्यादिति मे मतं॥
धर्मेण सर्व्वपापौघोनष्टं याति शुचिव्रतात्।
पापसङ्घेतथा नष्टं मनःशुद्धिः प्रजायते॥
शुद्धेमनसि सर्व्वात्मसाक्षात्कारो भवत्यलं।
स एवमुक्तः सर्व्वेषां ब्राह्मणानां पुरः स्थितः॥
त्वद्भक्तः सहसावादि262
दुष्टयुक्तिपरम्परां।
एतन्नोचितमित्युग्रं मच्छिष्यैस्ताडितः स तु॥
आकरोदागतं त्वान्तु मन्त्रवीजपरायणः।
इतः परं त्वमेवैतत् सत्यासत्यं कुरु प्रभो॥
इत्युक्तो भैरवः प्राह विप्रदण्डार्थमागतः।
शङ्करस्त्वं सदा पूज्यः सर्व्ववेदपदार्थभाक्॥
भवतकृतं हि यत् कर्म्ममयापि च कृतं हि तत।
तेषां कापालिकानान्तु ब्राह्मण्याचरतां कुरु॥
विकले तु कलौप्राप्ते तेषां वृत्तिर्यर्थेप्सिता।
बभूव मन्त्रवद्धोऽहं प्रत्यक्षोस्मि न धर्म्मतः॥
इत्युक्त्वान्तर्दधे देवः कापालिकमतानुगाः।
तद्वाक्यश्रवणाद्भीताः परिव्राट्कुलशेखरं॥
नत्वा द्वादशधा सर्व्वेवटुकाद्याः सुविस्मिताः।
स्वामिन्मूढा वयं यस्मात् पालयास्मांश्च सादरं॥
एवमालापिनो दृष्ट्वा करुणपूर्णविग्रहः।
आज्ञापयामास यतिः शिष्यांस्तेषांविशोधने॥
पद्मपादमुखाः शिष्याश्वक्रुस्तान् ब्राह्मणाध्वगान्।
प्रातःस्नानरतान्नित्यं सन्ध्याकर्म्मदृढव्रतान्॥
पञ्चपूजापञ्चयज्ञपरान्निश्चलमानसान्॥
वटुकादयस्ते सर्व्वज्ञमूर्त्तिं परमगुरुमाश्रित्य सच्छिष्या बभूवुः।
इत्यनन्तानन्दगिरिकृतौकापालिकमतनिवर्हणं नाम त्रयोविंशं प्रकरणं॥*॥
चतुर्विंशं प्रकरणं।
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एवं निराकृते पुरन्ये नानावर्णाःकापालिकचार्वाकसौगतक्षपणकजैनवौद्धाः प्रत्यवतिष्ठन्तेतत्र तावच्छूद्रजातिःउन्मत्तभैरवनामा कश्चन कापालिकः चितिभस्मपूर्णकलेवरः नरकपालमालावृतगलः फालदेशरचितकज्जलरेखः सकलकेशरचितजटाजुटा व्याघ्रचर्भरचितकटिसूत्रकौपीनः कपालशो-भितवामकरः सनादघण्टाधृतदक्षिणकरः शम्भूभैरव अहो कालीश इति मुहुर्मुहुर्जल्पन् आचार्य्यस्वामिनमिदमब्रवीत् स्वामिन् किं कापालिकमते न्यूनतास्ति तदन्यत्र किं फलमस्ति वटुकनाथादिका भवद्भिस्तिरस्कृताः कापालिकमतभ्रष्टा बभ्रुवुः तद्दूषणं ब्राह्मणजातित्वं263न मे जात्या प्रयोजनं वर्त्तते अविवेकस्यैव जातिः कारणं ब्रह्मादिपिपीलिकान्तर्देहस्य भौतिकत्वात् कस्य जातिर्वक्तव्या अनङ्गमयशरीरस्य चर्म्ममांसास्थादिसप्तधातुमयस्य समत्वेनैव सर्व्वप्राणिषु
वर्त्तमानस्य विशेषाविशेषत्वं भवद्भिः कल्पितं भैरवाज्ञया मातृयोनेरुत्पन्नस्य नीचोच्चवृत्तित्वं मन्दा अपि नाङ्गीकुर्व्वन्ति अतोऽस्माकं न हि प्रमाणं जातिः किन्तु जातिद्वयं दृश्यते स्त्रीत्वं पुंस्त्वञ्च तयोर्मध्ये स्त्रीजातिः श्रेष्ठा कथमित्युक्ते तत्संयोगेनाभन्दभैरवनन्दनस्य विद्यमानत्वात् यदुक्तं श्रुत्यादिना भवद्भिः परदारां न गच्छेदित्यादिनिषेधवाक्यं तद्वयं नाङ्गीकुर्मः तस्याज्ञानविजृम्भितत्वात्। अस्मन्मताधिकारिणो या विद्या ते सा मदीयेव आनन्दग्रहणार्थं चर्म्मणश्चर्म्मसंयोगे कृते जीवस्य कोऽनर्थे भवति परामृततृप्तजीवस्य मोक्षदर्शनात् सार्थक एव देहपतनानन्तरं भैरवप्राप्तिरेव मोक्ष इति प्राप्ते श्रीमदाचार्य्यः पठति।
भोः कापालिक समीचीनमुक्तं भवता इदमेकं सत्यं वद भवन्माता कस्य पुत्रीति नियमितः कापालिकः पुनराह स्वामिन् मदीयमाता दीक्षितपुत्री तद्दीक्षितत्वं कथमित्युक्तेतालादिवृक्षगतां सुरामाहृत्य हस्तग्रहणादिना तदानन्दमिच्छुरपि स्वयं न पिबति किन्तु तद्विक्रयणशीलः तस्माद्दीक्षित इत्युच्यते तस्य पुत्रिका मम माता आनन्दानुभवायआगतान् पुरुषान् निजाङ्गसमर्पणानन्दसमुद्रमग्नान् सदाकरोत् तत्सुतोहमुन्मत्तभैरवनामा दिने कमण्डलुसुरापान-चमत्कासम्पन्नस्यैवमेव प्रसिद्धः मत्पिता कुलालः तदग्रे देवा अपि न तिष्ठन्ति सुरागन्धविमुखाः पलायन्ते अतः पितृतः समागतः सत्कुलप्रसृतोऽहं भवद्भिरपि न विचारणीय
एवेत्यालापिनं परमपुरुष इदमाह गच्छ कापालिक यथासुखं विहर ब्राह्मणनेव दुष्टमतावलम्बिनो दण्डयितुमस्मद्गमनं तदितरेषामप्यग्रजपादसेवनादिवृत्तिस्तदाचारानुसरणञ्च प्रशस्तमपि भ्रष्टस्य तव किं मानमित्युक्त्वाएष उच्चाटनीय इत्याचार्य्यवचनं शिरसा परिगृह्य तच्छिष्याः कशाघातपुरःसरं मदिरापानमत्तं कापालिकं दूरमत्यजन्।
** इत्यनन्तानन्दगिरिकृतौ कापालिकेकदेशिमतनिवर्हण नाम चतुर्व्विशं प्रकरणं॥*॥**
शङ्कर विजये
पञ्चविंशं प्रकरणं।
——o——
ततश्चार्व्वाकः प्रमथैःशङ्करमिव बहुशिष्यवरैराश्रितं लोकगुरुं श्रीशङ्कराचार्य्यं दृष्ट्वा किमेतत् जगन्मूर्खजनाक्रान्तं विचित्रमिव जातं किमज्ञ देहेन्द्रियातीतः, शून्यात्मवादिनः असन्तस्तेषां मुक्ताभावादेव लोके किल विकला इव बहवो जाता मूढतराः तेषां सहवासेन बुद्धिमतामस्माकमपि दुष्टमतिरायातीति बहुधा विचार्य्य अथैवं264तदग्रणीमन्नासीति कश्चिदस्ति खलु तस्य यदि विवेकोस्ति तदा तदग्रे क्षणं स्थास्यामि नोचेत् शीघ्रमागच्छामीति च सभां प्रविश्य इदमुवाच स्वामिन्यदि भवता परमार्थे विदितस्तर्हि265मुक्तिलक्षणं वद तावत् मद्विवेकः श्रूयतां पितृमातृकारणस्य कार्य्यरूपशरीरस्येन्द्रियप्राणजीवात्मकस्य लय एव मोक्षः मन्दमतयस्तस्य पुनरागमने
जल्पन्ति, भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः, शक्यं वक्तुं यदि समुद्रलीनानां सरिदम्भसां पुनरागमनमस्ति चेत् तदा स्मृतिं गतानामपि पुनरागमनमायाति। अतो स्मृतिरेव मुक्तिरिति निरवद्यं केचिन्मन्दधियः किल मृतानां श्राद्धं कर्म्मकुर्व्वन्ति तदन्नेन मृतानां तृप्तिरस्तीति तद्विवेकः किमु वक्तव्यः किञ्च खर्गनरकरूपः परलोकोऽस्ति तत्र सुखदुःखानुभवा मृतानामस्त्येव पुण्ये पापे वा क्षीणे देहिनः मर्त्यलोकप्राप्तिरिति केचिज्जल्पन्ति तन्मतं सुतरामप्रामाण्यं266इहैव स्वर्गनरकानुभवस्य विद्यमानत्वात्यो वा सुखभुक् स एव स्वर्गस्थःयो वा क्लेशभुक् स एव नरकस्थ इतिप्रत्यक्षदृश्यस्वर्गनरकरूपफलस्य परोक्षस्थितिर्न हि कल्पयितुमुचिता भूतेषु भूतानां तत्कार्येन्द्रियाणाञ्च नष्टत्वात्तेषां परलोकगमनमनर्थकं किन्तु जीवस्येति चेन्न तस्य स्वरूपाभावात् रूपाभावस्य जीवस्य कथं गमनं वक्तुमुचितं यदि घटाकाशस्य गमनमस्ति चेत् जीवस्यापि गमनं वक्तुं शक्यं वृक्षाग्राद्वृक्षाग्रं गतस्य पक्षिण इव जीवस्येति चेन्न सरूपस्य पक्षिणस्तथागमनमुचितं नौरूपस्य जीवस्य वक्तुमशक्यत्वात् तस्मादस्मन्मतमेव युक्तमिति प्राप्ते।
श्रीमद्भिरिदमुच्यते भोश्चार्व्वाक भवदुक्तं नार्हं वेदविरुद्धत्वात्267तावज्जीवो देहेन्द्रियेभ्यो भिन्नः स एवास्माभिः परमात्मेत्युच्यते स एव सर्व्वभूतान्तःकरणेषु वर्त्तमानः साक्षी
कूटस्य इत्युच्यते अन्तःकरणवृत्तौ कूटस्थस्यैव प्रतिफलनं जीव इति प्रसिद्धिः। यदा शूद्रान्तःकरणं लिङ्गशरीरग्रन्थिच्छेदं करोति तदा जीवस्य जीवत्वभ्रान्तिविच्छित्तिः सैव मोक्ष इति निश्चयस्य सर्व्ववेदवचनसम्यगर्थतात्पर्य्यसिद्धेः देहपतनमेव मोक्ष इति कथमुक्तं भवता ज्ञानमृते मोक्षस्याभावात्। ज्ञानाग्निदग्धकर्म्मणो यान्ति ब्रह्म सनातनमितिश्रुतेः। भौतिकदेहे अग्निना दग्धेऽपि स्थलाख्येसूक्ष्मकलेवराख्यलिङ्गदेहावृतः परत्र याति जीवितस्य स्वर्गनरकयोःपुण्यपापानुभोक्तृताभवता उक्तैव। ज्योतिष्टोमेन स्वर्गकामो यजेतेति श्रुतेः इहलोकाद्देहात् परलोकं तदनुकूलदेहञ्चेत् जीवस्य जलुकावत् पूर्व्वग्रहणादेव परालम्बनमतौन्द्रियविद्भिरुदाहृतं श्रुतिश्च तृणजलुका तृणस्यान्तं गत्वान्यमाक्रम्य आत्मानमुपसंहरति पूर्व्वहणं मुञ्चति स एवजीवा देहाद्देहान्तरं याति परलोकं स गच्छतीति तत्पुत्रादिना मृतोपधिस्थस्य जीवसा श्राद्धादिकर्म कर्त्तव्यं तेन तस्य प्रेतत्वनिवृत्तिः पुण्यलोकावाप्तिश्च भवत्येव गयादिपुण्यस्थलेषु पिण्डदानान्मुक्तिरस्तीति पुराणदर्शनात् जीवस्य स्वरूपाभावात् कथं परलोकगमनमित्यक्तं जीवमालिङ्गशरीरमेव रूपं दूदं सप्तदशावयवात्मकं लिङ्गं मदीयमित्यभिमानतो विशेषादामुक्तोर्लिङ्गस्थस्य268अन्तःकरणवृत्त्यन्तः प्रतिफलितत्वात् सगुणता कल्पनीया तावदज्ञोहं जीवोहं कृशोहं स्थलोहं मुख्यहं दुःख्यहञ्चेति स एव मन्यते अतः सगुणत्वात् पक्षिवत् लोकालोकान्तरगम-
नमुचितमेव सिद्धान्तितं269।तस्मात् चार्व्वाकमूढ़ पापाचार तूष्णींगच्छेत्युक्तः स तु वेषभाषादिकं परित्यज्य श्रीमदाचार्य्यगुरुपादपद्मद्वयं नत्वा तत्पुस्तकभारभरणोद्युक्तगोपालकोऽभवत्।
इत्यनन्तानन्दगिरिकृतौ चार्वाकमतनिवर्हणं नाम पञ्चविंशं प्रकरणं ॥* ॥
**शङ्कर विजये **
षड्विंशं प्रकरणं
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ततः पीनकलेवरःसूक्ष्मशिरस्कः सौगतः श्रीशङ्करगुरुं नत्वा इदमुवाच स्वामिन् जगदिदं व्यत्यस्तमासीत् सर्व्वेऽपि दुर्बोधवशात् कर्म्मशीला ईव भान्ति किं कर्म्मणा भौतिकदेहस्यास्ति सृष्टिस्थितिलयं विना तादृक्शरीरस्यभौतिकरूपस्य स्नानेन किं शुद्धतास्ति जीवस्तु निर्म्मलो देहपातानन्तरं मुक्तः तयोरन्तरम्बेति चेत् कथं वा स्नानवशाच्छूद्धिरस्ति अतो निरर्थकत्वात् स्नानादि कर्म्मन कार्य्यं किन्तु ऋणवशाज्जीवः पुनर्जातोभवतीति केचिन्मूर्खजना जल्पन्ति तन्न सत् देहादृष्टप्राप्तधनस्य कथमृणता वक्तुमुचिता द्रव्य लभ्यघृतादिभक्षणेन देहपुष्टेर्विद्यमानत्वात् पुष्टशरीरस्यैव तुष्टजीव कारणत्वात् अतो ऋणं कृत्वा घृतं पिवेदिति वचनसा प्रामाण्यात् तत्त्वविदा पुष्टशरीरिण भवितव्यं देहान्ते ऋणाभावात् तस्मात् तत्र तत्र ऋणं कृत्वा समग्रभक्षणशीलस्य सुखप्राप्तिरेव भोक्षसाधनं तदन्ते मोक्षः करस्थ एवेति प्राप्ते।
श्रीमद्भिरिदमुच्यते किं सौगत जल्पसि देहपातानन्तरं जीवस्य मोक्ष इत्युक्तं तदसत्यं परलोकागमनदर्शनात् तत्रसुखदुःखानुभवस्य श्रुतिसिद्धत्वात् अन्यथा वक्तुमनुचितं स्मृतिश्च क्षीणे पुण्येमर्त्यलोकं विशन्तीति अनेन परलोके लिङ्गशरीरबद्धजीवस्य सुखदुःखानुभवसिद्धोऽभूत् अतः परलोकादागत्य यस्य वा ऋणं दातव्यं यस्य वा द्रव्यमपहर्त्तव्यं तद्गर्भे तस्यजन्म भवत्येव तस्मात् अज्ञानबुद्धिं पापपङ्कलिप्तां270परित्यज्य सन्मार्गगामीभवेत्युक्तः पुनराहे।
स्वामिन् सुगतमुनिः चतुःसमुद्रान्तां भुवं दृष्ट्वाविस्मयाविष्टमानसः सत्यमेतदिति जगद्विचार्य्य सर्व्वप्राण्युपासकोऽभवत् स तु मदुपदेशकाले करुणावशात् इदमाह सर्व्वप्राप्यहिंसा परमोधर्म्मःतादृग्विधधर्म्मेणैव कपालनिवृत्तेर्मुक्तो भवतीति तदारभ्याहमपि गुरुवाक्यं शिरसा परिगृह्य तत्पादध्यानासक्तः सर्व्वप्राणिषु दयापरोऽस्मि तदन्यो धर्म्मोनास्त्येव लोके किलातः परम् मतमस्मदीयं धर्म्मस्थानं भवदादिभिः सर्वैरङ्गीकरणीयमिति पुनः सैागतमते प्राप्ते।
परमगुरुभिरिदमुच्यते रे रे सौगत नीचतर किं किं जल्पसि अहिंसा कथं धर्म्मौ भवितुमर्हति यागौयहिंसायाधर्मरूपत्वात् तथाहि अग्निष्टोमादिक्रतुः छागादिपशुमान् यागस्य परमधर्म्मत्वात् सर्व्वदेवतृप्तिमूलकत्वाच्च तद्द्वारा स्वर्गादिफलदर्शनाच्च पशुहिंसा श्रुत्याचारतत्परैरङ्गीकरणीया
तद्व्यतिरिक्तस्यैव पाषण्डत्वात् तदाचाररता नरकमेव यान्ति।
वेदनिन्दापरा ये तु तदाचारविवर्जिताः।
ते सर्व्वे नरकं यान्ति यद्यपि ब्रह्मवीजजाः॥
इति मनुवचनात् ।
हिंसा कर्त्तव्यत्यत्र वेदाः सहस्रं प्रमाणं वर्त्तते ब्रह्मक्षत्रवैश्यशूद्राणां वेदेतिहासपुराणाचारः प्रमाणमेव तदन्यः पतितो नरकगामी चेति सम्यगुपदिष्टः सौगतः परमगुरुं नत्वा निरस्तसमस्ताभिमानः पद्मपादादिगुरुशिष्याणां पादरक्षधारणाधिकारकुशलः सततं तदुच्छिष्टान्नभक्षणपुष्टतनुरभवत्॥
इत्यनन्तानन्दगिरिकृतौसौगतमतनिवर्हणं नाम षड्विंशंप्रकरणं ॥*॥
शङ्कर विजये
सप्तविंशं प्रकरणं
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ततः क्षपणकः कौपीनमात्रधारी गोलयन्त्रन्तुरीययन्त्रञ्च कराभ्यां धृत्वा समागत्याचार्य्य स्वामिनमिदमब्रवीत्। भोः स्वामिन्मदीयमतमतिविचित्रं शृणु। क्षपणकः पूर्णसमयनामाहं कालजनकं सूर्य्यं गोलेन तुरीयेण यन्त्रेण वा वध्वा समयज्ञानेन स्वर्गमर्त्यपातालस्थलभ्यालभ्यशुभाशुभं वच्मि। किञ्च काल एव परमदेवता।मत्यक्षं चलयितुं ईश्वरोपि न समर्थ इति जल्पन्तमाचार्य्यः प्रत्युवाच।
भोःपूर्णसमय समीचीनमुक्तं भवता त्वं कालवित् किल तथैवाहमपि तस्मान्मदाश्रयेण गच्छ यत्र भवत्परीक्षोचितकालागमनं तदानीं त्वां पृच्छामीत्युक्तः स तु तथैवास्त्विति तं सर्व्वदाश्रित्य सिद्धसङ्कल्पोऽ271भवतु।
ततो जैनः कोपीनमात्रधारी मलदिग्धाङ्गः सदार्ह्येऽर्हतइति मुहुर्मुहुरुच्चैरुच्चरन् शून्याङ्कः शून्यपुण्डधृतविन्दुपुण्ड्रः शिष्यसमेतः पिशाचवत् सर्व्वजनभयङ्करः समागत्य सकललोकगुरु मिदमुवाच। भोः स्वामिन् मदीयं मतमत्यन्तसुगमं श्रूयतां। जिनदेवः सर्व्वेषां किल मुक्तिदः जौतिपदवाच्यस्य जीवस्यनेतिपदेन पुनर्भव इति स एव दिव्यत इति देवः सर्व्वप्राणिहृत्पुण्डरीकेषु जीवरूपेण व्यवस्थित इति ज्ञानमात्रेण देहपातानन्तरं मुक्तः तस्य नित्यमुक्तिरूपत्वात् तेन करचरणादिसाधनद्वारा यद्यत् कर्म्म कृतं तत् सत्यं तस्य तदधीनत्वात्। अतो जीवः शुद्धः देहस्तु मलपिण्डः स्नानादिना तस्य शुद्धाभावात् वृथाप्रयोजनं स्नानादि कर्म्मन कार्य्यमिति प्राप्ते।
श्रीपरमगुरुः पठति। भो जैन किमुक्तं भवता मूढतरेण जीवस्य देहनिवृत्तिरेव मुक्तिरिति निष्प्रयोजनत्वात् स्नानादि कर्म्मन कर्त्तव्यमिति च तदयुक्तं कथं जीवस्य देहत्रयं विद्यते। स्थूलवक्ष्मकारणभेदात्। स्थूलस्य लक्षणन्तु पञ्चीकृतपञ्चमहाभूतस्वरुपं तच्चतुर्विंशतितत्त्वात्मकम्। सूक्ष्मस्य सप्तदशात्मकत्वं लक्षणं एकादशेन्द्रियपञ्चमहाभूतबुद्धिसंख्याकम्। कारणन्तु अज्ञानमात्रं272 तेषां लयस्तु स्थूलस्य स्रुक्ष्मेतस्य कारणे कारणस्य सगुणे सगुणस्य निर्गुणे परमात्मनौति तत्तदधिपतिविधिष्टानां देहानामेवं लये सच्चिदानन्दलक्षणलक्षितः परमात्मा जीव एव स्यात् जीवः परमात्मैव। तथा भेदभ्रमनिवृत्तौ मुक्तिरिति
निरवद्यं। ननु प्रत्यक्षदृष्टाच्छरीराच्छरीरान्तरकल्पना निरर्थका तत्सत्तामात्रेप्रमाणाभावात्। यद्यस्ति तर्हि जीवस्यशरीरत्रयसञ्चारो वक्तव्यः। मनःकल्पिते स्वप्ने गङ्गा मया दृष्टा हिमवान् मया दृष्ट इतिच प्रत्ययोऽस्ति। देहादात्मनो र्निर्गमनस्य युक्तत्वान्। कारणशरीरत्वे मनसः कल्पिते जीवस्यापिनिर्गमनमेव वक्तव्यं। निर्गमिते जीवे273पुनःप्राप्यभावात्स्वप्नानन्तरमेव मरणप्रसक्तिः। चतुर्विंशतितत्त्वेष्वेव लिङ्गस्यान्तर्भावात् तत्कल्पना व्यर्थाभूतजातीन्द्रियाणां तद्रूपत्वात्। अतोऽनया क्लिष्टकल्पनया न हि किञ्चित् प्रयोजनमस्ति। तस्मादेको देहः प्रतिजीवस्य तत्पातानन्तरं जीवस्यमुक्तिरिति प्राप्ते।
श्रीमद्भिरिदमुच्यते। जैन मूढतर तत्त्वेन श्रुतवानसि। पञ्चीकृतभूतैः पञ्चविंशतिसंख्या जाता तया तत्त्वानाञ्चतुर्विंशतिरभवत् पञ्चविंशतिसंख्याकस ज्ञानरूपत्वात्। न हि चतुर्विंशत्या देहसिद्धिर्भविष्यति अपञ्चीकृतपञ्चभूताभावात्। अतः पञ्चीकृतैरपञ्चीकृतैश्च भूतैर्देहसिद्भिर्वक्तव्या अतः स्थूलापेक्षया लिङ्गशरीरमङ्गीकृतं स्थूलशरीरस्य पातानन्तरं जीवे सूक्ष्मशरीरासक्ते परलोकगमनारम्भः प्रसज्यते। अरूढस्य पुरुषस्य तु शीर्णेलिङ्ग सर्वं मनस्येवाध्यस्तं भवति। तच्छुद्धं मनस्तुजाग्रदाद्यवस्थास्वामिभ्यो विश्वतैजस प्राज्ञेभ्यश्चोपरिविराजमानमङ्गुष्ठमात्रं सर्व्वजगत्प्रभुं मनोन्मनाख्यमधिगच्छति। स एव कारणशरीरलय इति प्रसिद्धः।
एवं नष्टं शरीरत्रये सगुणनिर्गुणोभयात्मको मनोन्मनः परमात्मनि लीनो भवति स एव मोक्ष इति सर्व्वेरतीन्द्रियविद्भिरुदाहृतः, एवमत्यन्तदुःसाध्यस्य मोक्षस्य न हि देहपातात् प्राप्तिः सम्भवतीति सिद्धान्तः। एवं श्रीमद्भिरुक्तो जैनः शिष्यैःसह स्ववेषभाषावियुक्तः परमगुरूणां प्रतिदिनं तण्डुलादिवस्त्वाकर्षणशीलः वणिग्जनोऽभवत्।
इत्यनन्तानन्दगिरिकृतौजैनमतनिवर्हणं नाम सप्तविंशं प्रकरणं ॥ * ॥
शङ्कर विजये
अष्टाविंशं प्रकरणं।
——o——
एवं निराकृतेषु कापालिकचार्व्वाकसौगतक्षपणकजैनेषु वौद्धः किल शवलनामा प्रवलः प्रत्यवतिष्ठते। किं स्वामिन सर्व्वोत्तम इव वर्त्तसे तव ज्ञानेन किमद्वैतफलमस्ति274तथा शश-विषाणवदत्यन्तासत्त्वात् दृष्टफलं परित्यज्यादृष्टफलाभिलाषी कथमसि। प्रत्यक्षद्रोहिणस्तव परोक्षेऽपि फलाभाव एव भविष्यति सर्व्वशून्यस्य परोक्षस्य फलदानासमर्थत्वान्निर्जीवत्वाच्च। यस्तु जीवशब्दवाच्यं चैतन्यं किल कश्चिच्छवरनामा लोके सर्वप्राणिषु वर्त्तते स तु एकोपि बहुरूपाणि धृत्वा हृदयादिप्रेरको भूत्वा नित्यमुक्तस्वरूपः कर्त्ताहं भोक्ताहमद्वयः परमानन्दोहमिति मन्वानः स्वाभीष्टं यावत्तावद्देहेषु क्रीडन्पश्चान्मुक्तो भवति देहं परित्यज्येति वौद्धोक्तः श्रीपरमगुरुः पठति।
भोः शवर अनर्हं भवता प्रतिपादितं कथमत्यन्तविरुद्धत्वात्
तस्य मोक्षः कथं देहपातानन्तरं275परलोकगमनदर्शनात्।
तथाहि पुराणे।
सत्यशौचरतो यस्तु देवतातिथिपूजने276।
स याति ब्रह्मणो लोकं यावदिन्द्राश्चतुर्द्दश॥
अग्निष्टोमं देवप्रीतिदं कुर्य्यादस्मादिन्द्रलोकंहि याति सत्याख्यः सत्पौण्डरीकात्प्रयाति याति तत्तदेवोपासकास्तत्तद्देवमिति।
यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्च्चितुमिच्छति।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहं ॥ इति।
भगवद्गीतावचनात्।
द्वयं देवता मदीयोपासनया तुष्टा देहावसानान्मे लोकनिवास दास्यतीति प्रमाणशतस्य विद्यमानत्वात् जीवस्य देहपातानन्तरं लोकान्तरगमनमस्तीति सिद्धमेवं परमात्मा सर्व्वदेवरूपः सर्व्वलोकद इति प्रसिद्धं। यो देव यस्याभीष्टः तल्लोकदः स एवात्मा एकोऽद्वितीय इति सिद्धं। अतो देहपातानन्तरमेव मुक्तिरिति सुतरामयुक्तं ज्ञानमृते मुक्ताभावदर्शनात्। ज्ञानस्य किं वा लक्षणमित्युक्त सर्व्वभूतानि स्वस्मिन् सर्व्वभूतेषु ध्याता पुरुषो मुक्त इति प्रसिद्धेः।
उक्तञ्च श्रुतौ।
सर्व्वभूतेषु चात्मानं सर्व्वभूतानि चात्मनि।
सम्पश्यन् ब्रह्म परमं याति नान्येन हेतुना॥इति ॥
तस्माछवर मूढबुद्धिं परित्यज्य स्वस्थो भवेत्युक्तः शवरनामको बौद्धः श्रीमदद्वैतसिद्धान्तिनं शङ्करनामानं परमगुरुं नत्वा तत्कीर्त्तिस्तवपरो वन्दिमागधसूतवेषधार्य्यभवत
इत्यनन्तानन्दगिरिकृतौवौद्धमतनिवर्हणं नामाष्टाविंशं प्रकरणं ॥ * ॥
शङ्कर विजये
एकोनत्रिंशं प्रकरणं ।
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तस्माद्वायुदिशि प्रसिद्धमखिलैः शिषैःसमेतः परः
प्राप प्रोद्यदिनाभमूर्त्तिरनुमल्लाख्यं हि सत्पट्टनं।
स्थित्वा तत्र दिनैकविंशतिमशेषान् वीक्ष्यतत्राश्रितान्
किं विप्रा वदत प्रभातमुखकालेकृत्यमार्षेद्गतं277॥
जगद्गुरुभिराचार्य्यैरवमुक्ताः पौराः किल नत्वेदमूचुः स्वामिन् मद्वंशप्रवृत्तेरागतमिदं लक्षणं यः परमेश्वरो मलासुरहरः प्रसिद्धा मल्लारिरिति लोके वर्त्तते तन्मूर्त्तिः किलाचैवाविर्भूतज गदुत्पत्तिसम्पत्तिकारणं तामनुदिनं संपूज्य तदाहनरूपशुनकवेषभाषादियुक्ता वयं कष्ठधृतवराटिकामालिकाङ्काः शङ्काहीनाः त्रिकालनाद्यस्तुवादिभिर्मम्लारिं प्रीतं कृत्व वसामः तत्कटाक्षजनितानुदिनवर्द्धमानानन्दपरवशाः सर्व्वजगन्मल्लारिगर्भकोट रान्तर्गतमितिध्यानासक्ता-स्तदतिरिक्तं किञ्चिदपि नेच्छामः तस्यैव सर्व्वात्मकत्वाच्च। किञ्च वेदेषु मल्ला-
रिणः सर्व्वव्यापकत्वं वर्त्तते तद्वाहनस्यापि वेदविहितत्वात् तद्देषभाषासक्तानामस्माकं नाह्यन्येच्छा तथा हि श्रुतिः। श्वभ्यः श्वपतिभ्यश्च वो नम इति। अतः श्रुतिप्रसिद्धाचारस्य दुर्निवार्य्यत्वात् त्वमपि सशिष्यःपरममुक्तिकारणमस्म्मदाचारानुग्रहणं कुरु भवद्धारणयोग्यानि वराटकानि दास्याम इति प्राप्ते।
श्रीमदाचार्यैरिदमुच्यते किं मृढतम ब्रवीषि मल्लारिकारणवादित्वं कथं घटते वेदविरुद्धत्वात् यतः परमात्मा एकोऽद्वितीयः सर्व्वसाक्षी सर्व्वकारणं सदेव सौम्येदमग्र आसीदित्यादि श्रुतिप्रतिपादितः तद्ब्रह्माखिललोककर्त्तातदिच्छारूपया प्रकृत्या महदादिकारणं जगत् असृजत278प्रकृतिगर्भजाताः ब्रह्मविष्णुरुद्राः सृष्ट्यादिकर्त्तारः किल तदन्ये ये देवाः तत्तद्गुणानुकूलवृत्त्या तदंशा एवेति प्रसिद्धाः यत्र कुत्र वा लयकारणे प्राप्ते रुद्रांशा वीरभद्रा भैरवादयो बहवः सन्ति तेषां ज्ञानेन मुक्तिरिति वक्तुं न ह्युचितमिव भाति मुक्तेर्जीवेशभिदाविरहकारणत्वात् किञ्च स्ववाहनारूढस्य मल्लारिनाम्नो रुद्रांशस्य वेदप्रतिपादितत्वात् तन्मतमङ्गीकर्त्तव्यमिति किल भवतोक्तं नहि तदपि प्रौढतरं। एकादशरुद्राणां स्तवमारभमाणेनानेन279कथं मल्लारिस्तुतिः कृता श्वपतिभ्य इत्यत्र रुद्रबाहुल्याद्बहुवचनमुक्तं ननु पूजायां बहुवचनमिति न्या-
येन मल्लाग्भ्यिः श्वपतिभ्य एव नम इत्यर्थः। पूर्व्ववाक्ये श्वभ्य इति तद्वाहननमस्कारस्य विद्यमानत्वादिति यद्युच्येत तदङ्गीकर्त्तव्यं रुद्राणां जगद्व्यापकत्वं प्रतिपादयितुं श्वभ्यः स्वान्तर्गतरुद्रेभ्यो नमः श्वपतयः श्यामशवलादयो वैवस्वतवंशसम्भवाः अथवा श्वपतयः श्वविक्रमार्जितमांसादिभुजः अथवा अपतयः चाण्डालाः श्वमांसभक्षणशीलाः। तेषां विविधानां हृदयव्यापकेभ्यः रुद्रेभ्य इति निरवद्यं।
किञ्चशुनां निकृष्टजन्तुत्वात् पापरूपत्वाच्च तदीयस्पृष्टधा मृत्तिकास्नानस्य (प्राणायामादिना इत्यधिकः तै.पु.) ब्राह्मणानां सिद्धत्वात् तद्देशभाषाचिह्नंकथं भवद्भिर्धृतं तन्मात्रस्य प्रायश्चित्ताभावाद्भवदाचरितचिकालनाथात्तत्कियाचरणेन लुप्तसन्ध्यादिनित्यकर्मणः प्राप्तदोषस्य किं प्रायश्चित्तं वक्तव्य एवं वंशप्रवृत्त्या चरितभवदुक्त्या ब्राह्मण्यस्य निरवकाश एव प्रसक्तः। तस्मात् भवन्मुखनिरीक्षणेन सूर्य्यावलोकनस्य विधिबोधितत्वात् इतःपरं मौनमेव कर्त्तव्यमित्युक्ताः मल्लारिणः परमगुरुचरणारविन्दसमीपे कृत्तमूलतरव द्रव महाराजसमीपे कृतापराधिन इव किलापतन्। दयारसाभिषिक्ततनुराचार्य्यस्वामी समीक्ष्यतान् तिष्ठध्वमित्युक्त्वातेषां पापविशोधनं कर्त्तुमत्यन्तनिपुणानखिलज्ञान् स्वशिय्यान् पद्मपादहस्तामलकमुखान् आज्ञापयामास ते किल तेषां शिरोमुण्डनं महानद्यांअयुतमृत्तिकास्नानं मुण्डनाहारनियमनं पुनर्मुण्डनं शतमृत्तिकास्नानं प्रायश्चित्तं संकल्प्य ब्रह्मदण्डं यथाविधि
कृत्त्वा ब्राह्मण्यमार्गगतानाचक्रुःतत्पुरब्राह्मणाश्च परम्गुरूणां मुख्यशिय्याः दानादिसत्कर्मशीलाः पञ्चपूजारताः शास्वाध्ययनपरा बभूवुः।
इत्यनन्तानन्दगिरिकृतौ मल्लारिमतनिवर्हणं नामैकोनविंशं प्रकरणं॥*॥
शङ्कर विजये
त्रिंशं प्रकरणं
——o——
तस्मात्पुरात्पश्चिमम्मार्गगामी
मरून्धसंज्ञां पुरमाप शिष्यैः।
ढक्कादिवाद्यानुचलत्करौधै
र्विचित्रवन्द्यादिबहुप्रपद्यैः॥
तत्र पुर्य्यां विचित्रं विष्वक्सेनगोपुरपूर्व्वभागे विपुलतरायप्रपाशालायामन्तर्गृहादिकल्पनां कृत्वा तत्र देवगृहे श्रीमदाचार्य्यः सम्यग्दर्भासनगतः सन् मनोन्मन्नाख्यमङ्गुष्ठमात्रेशलक्ष्यपूर्णमण्डलाकारं परमात्मानमीक्ष्यतन्निस्यन्दपीयूषविन्दुसन्दोहपानतृप्तसर्व्वाङ्गः कुण्डलिनींपुनर्मूलाधारं नीत्वातदधीशं गणपतिं स्तुत्वा सुखं चिरमास। तत्र विष्वक्सेनपरायणाः शङ्खचक्रचिह्नविराजद्भुजदण्डतोत्रपाणयः श्रीगुरुस्वामि नं नत्त्वेदमूचुः। स्वामिन् मदीयं मतमत्यन्तपुण्यदं विष्वक्चेनाधिदैवतं स तु किल वैकुण्ठवासिनो भगवतो280द्वितीयावतार
इव सकललोकनियन्ता वर्त्तते। तस्य भक्ता वयमनिशमावसामः वैकुण्ठनित्यमुक्ताः खलु नास्माकं यमादिभिरस्ति देहपातः। तदुपासनेन वैकुण्ठलोकप्राप्तिरिति वयं तमुपास्महे। भवद्भिरपि तदुपासना विधेयेति प्राप्ते।
आचार्यैरिदमुक्तम् भवन्मतमयुक्तं281। वेदवाह्यत्वात् तत्कथं नारायणकाण्डेषु श्रुतिप्रकरणेषु सर्व्व्वेषु विष्वक्सेनस्यानुक्रत्वात्। भगवद्भक्ता वैकुण्ठे बहवो वर्त्तन्ते भगवदर्च्चापरैरेव तद्भक्तानाञ्च किञ्चित् प्रसादलवं दातव्यमित्यनुज्ञामात्रेण कथं तेषामुपास्यत्वमासीत् तथाकर्त्तव्ये प्रमाणाभावात्। तदीशस्य नारायणस्योपासनन्तु तल्लोकेशुभिः कर्त्तव्यम्। तस्य सगुणत्वात् परम्परया मुक्तिद इति प्रसिद्धेःनतु साक्षान्मुक्तिप्रदः तमेवाखण्डरूपेण सर्व्वजीवैक्यभावनविशेषेण ध्यानतोस्य साक्षान्मुक्तिरिहैवेति282 यूयं मुक्तिकाङ्क्षिणश्चेत् अखण्डमद्वितीय सर्व्वव्यापिनमात्मानं सर्व्वगुणातीतं श्रीगुरूपदेशात्लक्ष्यद्वारा ध्यात्वा मुक्ता भवथेत्युपदिष्टाः283 त्यक्तलिङ्गाः परमगुरुचर
णारविन्दद्वन्द्वं उत्तमाङ्गैर्नत्वा शुद्धाद्वैतविद्यां तदुपदेशेन प्राप्यपञ्चपूजापराः स्मार्त्तश्रौतसकलकर्म्मशीला बभूवुः।
इत्यनन्तानन्दगिरिकृतौ विष्वक्सेनमतनिवर्हणं नाम त्रिंशं प्रकरणं॥*॥
शङ्कर विजये
एकत्रिंशं प्रकरणं
——o——
एवं परिहृतेषु विष्वक्सेनमतेषु पुनस्तत्रस्था एवान्ये विष्णुसुता इतिप्रसिद्धाः मन्मथोपासनानिरताः क्रौञ्चवित्कामविद्विद्याविदित्यादयः पुस्पधनुर्लक्ष्मशोभितबाहुयुगाः परमगुरुं नत्वेदमूचुः। स्वामिन् अस्मन्मतं शृणु सर्व्वजनमनोरञ्जनहेतुभूतं मन्मतेशोमन्मथः सर्व्वप्राणिहृदन्तर्व्वत्तिपरमात्मा स एवोत्पत्तिकारणं यस्योत्पत्तेरोशत्वं तस्यैव स्थितिसंहारयोरपीति जगदुपादानकारणत्वे सिद्धे सर्व्वैर्मुमुक्षुभिः स एक एव उपासनीयः नराणां समूहो नारं तस्मिन् अयनं यस्य स नारायणः मन्मथः तस्य सर्व्वदातृत्वे समर्थतास्तीति तत्स्तुतिं कृत्वा मोक्षप्रदोपि स एवेति सम्यगुक्तं तस्मात् धम्मार्थकाममोक्षप्रदातृत्वंतदासिद्धं तदावसन्तोत्सवादिषु भूषणानि मदनतेजोविजृम्भितं नित्यानन्दतरङ्गं नाम भूषणं284 हृकयदेशे वर्त्तुलाकारभूषणद्वयंशीकृतवैलेाक्य स्त्रीकदम्बकं यदस्ति तदीयदर्शनस्पर्शनाभ्यां निर-
वधिकानन्दस्य प्राप्ताखण्डानन्दस्य भगवद्रूपत्वेन285तत्प्राप्तिरेव मोक्षः अतो मोक्षकाङ्क्षिणो यूयमपि मन्मथोत्सवभूषणपुस्पधनुश्चिहानि धृत्वा तज्जनितनिरवधिकानन्दप्राप्तिमन्तोमुक्त्वाभवथेति प्राप्ते श्रीपरमगुरुभिरिदमुच्यते।
भोः क्रौञ्चविदादयः भवदुक्तमसमञ्जसं कथं प्रमाणाभावात्। तावन्मन्मथस्य सृष्टाधिकारः कथं सम्भावनीयः ब्रह्मण एव सृष्टिकर्त्तृत्वदर्शनात् तथैव स्थितिलयकर्त्त त्वाभावः विष्णुशिवावेतत्कर्त्तरावितिप्रसिद्धेः। मन्मथस्य नारायणपुत्रत्वात् स्वित्यधिकारः तस्यापि वक्तुं शक्यते इति यद्युच्येत तदसमञ्जसं। पुत्रे पितृशक्यभावदर्शनात् यथा सूर्य्यपुत्रे शनैश्वरे सूर्य्यप्रभाद्यदर्शनात् नतु वसन्तोत्सवकालसम्पादितविशेषभूषणधारलं कर्त्तव्यं तल्लोकत्रितयविद्यमानस्त्रीवशं करोतीति यदुक्तं तत् किं प्रमाणं स्त्रीणां तत्सङ्गिनां सङ्ग दूरतः परिवर्ज्जयेदिति निषेधदर्शनात् किञ्च मन्मथसास्त्रीपुरुषमोहकारकशक्ताभावात् तदुपासनं व्यर्थं कथं रुद्रकालाग्निना भस्मीभूतसाजगत्सम्मोहनवशासम्भवात् तथापि तत्सम्भवोस्विति यदुच्येत तर्हि आकाशस्यापि
कार्य्यकारणताप्रसक्तिः तस्मात् अनङ्गस्य मोक्षहानिप्रपञ्चे286 अनवकाशे प्राप्तेपरमेश्वरवराट्रतिदेवीप्रार्थनया तन्मात्रमस्तीति कल्पनीयं तादृशस्व प्रद्युम्नस्य कथं सृष्ट्यादिकर्तृत्वं शक्यं सम्पादयितुं अतः प्रत्यक्षविरुद्धं भवन्मतमप्रमाणमित्युक्ताः क्रौञ्चविदादयः परमगुरुं नत्वा त्यक्तलिङ्गाः शुद्धाद्वैतवृत्त्याश्रिताः पञ्चपूजापराः सत्कर्म्मशीला बभ्रुवुः।
इत्यनन्तानन्दगिरिकृतौमन्मथमतनिवर्हणं नामैकत्रिंशं प्रकरणं॥*॥
शङ्कर विजये
द्वात्रिंशं प्रकरणं
——o——
तस्मादुदङ्मार्गमाश्रित्यमागधपुरं प्राप्य तत्र यक्षालयं नाम प्रसिद्धं देवस्थानमाश्रितः। पक्षकालमाश्रिते सर्व्वशिष्यजनकृतपूजाचमत्कारधुरीणे287जगद्गुरावाचार्य्येसमासीने तत्रस्य ब्राह्मणाः कुवेरोपासका नवनिधानरूपस्वर्णगुटिकामालिकापरिशोभितगलाः कुवेरस्वोशपरार्द्धेश288प्रमुखाः स्वामिनं नवेत्वमूचुः स्वामिन्मदीयमतमतिविचित्रतरं किल यस्मात् मम स्वामी कुवेरः तस्य नवनिधानेशत्वात् लोके तातिरिक्तपूर्णधनाभावात् सर्व्वनर्थवता जितमिति वचनाच्च कुबेरभक्तानामस्माकं दरद्रादिदोषाभावात् पुर्णानन्दत्वं सिद्धं तस्य ब्रह्मरूपत्वात् तदेव मोक्षप्राप्तिः कर्म्मसिद्धेरप्यर्थमूलकलात् नहि तदतिरेकेणार्थसिद्धिरपि विद्यते अतोऽर्थस्य कर्म्मज्ञानमूलकत्वं तदधिपतेः कुवेरस्यैवे। पासनकर्म्ममुमुक्षुभिश्च कर्त्तव्यमिति सिद्धं।
किञ्च दिक्पालानां मध्ये कुवेरस्य श्रेष्ठत्वं विद्यते यावदभीष्टमर्थं इन्द्रादीनां ब्रह्मविष्णुरुद्रादीनाञ्च स एव ददातीतिमर्त्यलोकपाताललोकस्थानामपि स्वदाता स एव तस्य तत्स्वामित्वात् तत्परिचारकसुरसुन्दरीनामयक्षिण्युपासनेनापि महदैश्वर्य्यस्य सत्त्वात् किं रिक्थोपासनेन शक्यं वक्तुं धर्म्मार्थकाममोक्षरूपपुरुषार्थजनकरिक्थस्वामिनं विना केचिन्मन्दमतयः तदन्यदेवताराधनं कुर्व्वन्ति तदविवेककारणं पूर्व्वजन्मसञ्चितपापसङ्घः कृतव्रतानां हि धनमकृतव्रतानां कुत इति वचनबलात् कुवेरोपासनं मुक्तिकाङ्क्षिणोभवन्तोपि कुर्व्वन्त्विति प्राप्ते।
श्रीमदाचार्यैरिदमुच्यते भोः कुवेरस्वेशपरार्द्धेशाः289युग्मन्मतमसमञ्जसं प्रमाणाभावात् कुवेरस्यार्थस्वामित्वेसिद्धे नहि तेन कस्मैचिदर्थं दत्तं निधानागतार्थेन कस्तृप्तो विद्यते लोके दैवात् पूर्णादर्थवतः पुरुषस्यार्थलोपबाहुल्यात् रागाद्यरिषट्कस्य स्थानत्वात् धर्मलेशोपि नास्त्येव ज्ञानाध्यस्य मोक्षस्यावकाशः सुतरां नास्त्येवेतिसिद्धमेव अतोर्थस्यानर्थरूपत्वात् मुमुक्षूणां द्रव्यं परित्याज्यमेव।
अर्थमनर्थं भावय नित्यं
नास्ति ततः सुखलेशः सत्यं।
पुत्रादपि धनभाजां भीतिः
सर्व्वचैषा विहिता रीतिः ॥
इत्याचार्य्योक्तेःधर्म्मोपि साध्य इतिचेत् भवतुनाम प्राक्कर्म्मवशात् कुवेरनिधानार्थं विना द्रव्यं तदेव विवेकिनां धर्म्मकारणं निधानव्यतिरिक्तद्रव्यस्य भूगर्भनिविष्टत्वात् जनाः खनिसैकतादिरूपेण स्वर्गं बहुधा सम्पादयन्ति तेन केचिज्जीवनं कुर्व्वन्ति केचिद्भूषणानि धारयन्ति कुवेरद्रव्ये ऐन्द्रादयाऽप्युपजीवन्तीति यदुक्तं तदसत् कनकमयमेरुप्रदेशविलसदिन्द्रादयः स्वतन्त्रपुरुषाः सर्व्वसुखभाजः सर्व्वैन्नत्यैश्वर्य्यसम्पन्ना दीना इव निर्भाग्या इव किं कुवेरं याचन्ते भवदज्ञानवाक्यानां प्रामाण्याभावात् किमुत्तरं वक्तव्य ब्रह्मविष्णुरुद्राणां द्रव्यदाता कुबेर इत्युक्तं भवत्पशुमार्गः केन परिहर्त्तव्यः हिरण्यगर्भस्य ब्रह्मणः लक्ष्मीपतनारायणस्य हिरण्यरेतसो रुद्रस्य द्रव्ययाचनां सम्पादितस्य तवापवादोपदेशः किमन्यः कार्य्यःएवं समर्थतरेण भवता कुवेरेण मर्त्यलोकस्येषु निरर्थापवादपरम्परा सदैव कृता भाति290भवतस्तिलकमशकजिह्वायां न किमन्यदुचितं अतोमद्वाक्यात्291मूढतराः कुवेरशिष्यैःसह विगतलिङ्गस्त्वमद्वैतविद्यामाश्रित्य स्वानादिनित्यकर्मसक्ताः पञ्चपूजापरायणाः भवत इत्युक्ताः
कुवेरादयः त्यक्तनवनिधानचिह्नाः परमगुरुपादाम्बुजासक्ताः शुद्धाद्वैतविद्याश्रिता बभूवुः।
इत्यनन्तानन्दगिरिकृतौ कुवेरमतनिवर्हणं नाम द्वात्रिंशंप्रकरणं॥*॥
शङ्कर विजये
त्रयस्त्रिंशं प्रकरणं।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-17233636701.png"/>
इन्द्रप्रस्थपुरं प्रसिद्धमखिलैः शिष्यैः समेतः परः
प्राप प्रौढमहीसुराः पुरगताः सम्वोक्ष्य नत्वा गुरु।
श्रोतव्यं मतमस्मदीयममलं लोकत्रयाधीश्वरे-
णेन्द्रेणैव हि निर्मितं फलप्रदञ्चेत्यव्रु वन्नद्भुतं॥
पुनः परमगुरुमाचार्य्यस्वामिनं नत्वा ते किलेदमूचुः स्वामिन्मदीयमताधिदैवतमिन्द्रः सर्व्वदेवपरिमेव्यमान चरणाम्बुजः स एव जगदुपादानकारणं किलातस्तदंशा एव ब्रह्मवि-ष्णुशिवाः सद्ब्रह्मात्मादिसाधारणशब्दवाच्यपि स एवेति प्रतिपादितं नारायणोपनिषदि स ब्रह्मा स शिवः स हरिः सेन्द्रः सोक्षरः परमः स्वराडिति कैवल्योपनिषदि च स एव विष्णुरित्यादि तस्य चतुर्द्दशलोकेश्वरत्वा त्सर्व्वप्रदातृत्वं त्रिकाण्डे (ऋक संहितायां) ऽभिहितं इन्द्रश्रेष्ठानि द्रविणानि धेहि चित्तं दक्षस्य सुभगलमस्से पोषं रवीणामरिष्टं (१) तनूनां स्वात्मानं वाचः सुदिनत्वमहामिति इन्द्रो राजा जगतोपईशे292 (२) इतिच तस्मादिन्द्रस्य293
सर्ब्बदेवोत्तमत्वं प्राप्तं किञ्च इन्दस्य श्रेष्ठत्वद्योतकानि बहूनि सन्ति तथाहि इन्द्रानुजोनारायण एवउपेन्द्रनामावसति कनकाचले स्थानं जरामरणरहितमम्टतं द्वष्टार्थदः कामधेनुः कल्पवृक्षः चिन्तामणिरैरावतश्च उच्चैःश्रवः प्रमुखं वाहनं सेवकास्त्रयस्त्रिं शत्कोटिदेवाः कार्य्यसहायाः सगणाः चित्रभा- न्वादि दिक्पालकाः तस्यैव ब्रह्मविष्णु शिवात्मकत्वात् सृष्ट्यादिकर्तृत्वसिद्धिः। इवर्णेनेमं लोकं द्रावयति स्वशक्तिभिरिति इन्द्रः स एव सर्व्वात्मा गुणातीतः परात्परतरश्च तद्दशात् अहङ्कारादि तद्वाराप्रपञ्च- प्रवृत्तिरिति ऊर्ध्वरेतस्कानां यतीनां स एव शिक्षां करोति अधोमुखान् यतीन् मालावृकेभ्यः प्रायक्दिन्द्र इति अतः सर्व्वनियन्ता सर्व्वकारणं सर्व्वीतीतः स एव सर्व्व मायया प्रविष्टः जगत्पालनार्थमिन्द्ररूपेण सर्वैरुपास्य इव वर्त्तते तस्माच्च श्रेयस्कामिभिः भवद्भिरपि स एव वेदितव्यः धर्मार्थेकाममोक्षेच्छूनां तत्पुरुषार्थसिद्धिं स एव करोतीति निरवद्यं। वयं किल बहुजन्मतपः फलितकायाः जीवन्मुक्ताः किलेन्द्रोहमितिता-दात्मोपदेशवशाद्विदितपरमात्मानो बहुजन्म तपःप्राप्तपरानन्दकरलसन्मुक्तिफलाः भद्रेन्द्रश-चीपतिसरखतीपत्यादयो वयमिति सम्यक् पर्व्व पक्षे प्राप्त।
परमगुरुभिरिदमुच्यते। भो भद्रहरिप्रमुखा भवन्मतमसमञ्जसं। कथं प्रमाणभावात्। इन्द्रशब्दस्य ब्रह्मादिशब्दान्तःपातित्वेन इन्द्र एव जगदुपादान कारणमिति नार-
यणीय श्रुत्या प्रदर्शितमिति भवद्भिरुक्तं तदयुक्तं। सदेव सौम्येदमग्र आसीदित्यादि जगत्कारणवाक्येषु प्रतिपादितं। यद्ब्रह्म तत्सत्यं स आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो इत्यादि ब्राह्मणेाक्त्या नित्य-शुद्धबुद्धमुक्तस्वरूपं सर्व्वज्ञं सर्व्वजगदुपादानकारणमद्वितीयं बोध्यते स इक्ष्यत लोकान्नु सृजा इत्यादिना जगन्निर्माणार्थं स परमात्मा ईक्ष्यत इछांकृतवान्। या भगवदिछासैव प्रकृतिः तया किल महदादितत्त्वपूर्व्वकं जगत् सृष्टं तत्राहङ्कारतत्त्वे गुणत्रयात्मके ब्रह्मविष्णुरुद्राः संप्रसूयन्ते यत इति ते किल जगत्सृष्ट्यादिकर्त्तारः तत्र सृष्टिकर्त्तुःब्रह्मणो मुखादिन्द्राग्नी जायेते यद्वाविराण्मुखा भवन्ति तादृगिन्द्रस्य जगदुपादानकारणे प्रोच्यमाने तदन्यैर्दिक्पालैः किमकार्य्यं कृतं सर्व्वप्रदातृत्व मिन्द्रस्य वर्त्तत इत्युक्तं। सर्व्वेषां जन्तूनामपि तत्तदधिकारयाग्यतादातृत्वमत्येव किन्तेन ब्रह्मत्वमस्ति जरामरणरहितममृतसेवनमस्ति तेन ब्रह्मत्वमित्युक्तं भवदज्ञानं केन वारयितुं शक्यं। तथाचेदममृतपानं येषां विद्यते तेषां ब्रह्मत्वप्राप्त्याब्रह्मा नन्त्यप्रसक्तिः एकमेवाद्वितीयं ब्रह्मेत्यादि श्रुतयः व्यर्थाः स्युः किञ्च सहस्रयुगात्मके ब्रह्मदिने किल इन्दाश्चतुर्द्दश। एकस्येन्दानुपाततः साधितस्य कालस्य प्रमाणं घटिकादि। २।८।१४।
अतो ब्रह्मदिनचतुर्द्दशांशानुजीविनः स्वर्गराजस्य एक सप्ततिमहायुगाधिपत्वस्य कथं ब्रह्मत्वं वक्तुमुचितं। स्वमानेन ब्रह्मणः शताब्दायुषि पूर्णे पृथिव्यास्तोये विल यस्तस्याग्नौ वह्नेर्वायौवा-योराकाशे तस्य ब्रह्मणि लयः
ब्रह्मणे यथा देवाः इन्द्रादिदिक्पालप्रमुखा उत्पन्नाः, निवृत्तावपि तथैव ब्रह्मणस्तदङ्गं प्रविशन्ति, एवं सर्व्वलोकदेवलयस्थानं ब्रह्मापि नारायणे विलीनः स्यात्, तस्य रुद्रे, तस्य च महत्तत्त्वे, तस्याऽव्यक्तप्रकृतैौ, सा गुणरहितचिदानन्दमये परमात्मनि लोना सन्माचरूपेणावतिष्ठते। तदानों “सदेव सौम्येदमग्र आसीत्" “ब्रह्म वा इदमग्र आसीत्” “आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीत्” इत्यादि ब्रह्मकारणवाक्यानि प्रवृत्तानि। “यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति तद्विजिज्ञासख, तद्ब्रह्मेति”। “सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्मेति” “यतो वाचो निवर्त्तन्ते अप्राप्य मनसा सह" इत्यादि श्रुतयः प्रमाणानि। तस्मात् भद्रहरिप्रभृतयो मूढाः यूयं शुद्धाद्वैतविद्याश्रिताः विगतलिङ्गा भवतेति सम्यगुपदिष्टास्ते परमगुरुं नत्वा स्मार्त्तकर्म्म-शीलाः पञ्चपूजापरायणाः शुद्धविद्याश्रिता बभूवुः॥
इत्यानन्दगिरिकृतौ इन्द्रमतनिवर्हणं नाम त्रयस्त्रिंशत्प्रकरणम्॥ ॥
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शङ्करविजये
चतुस्त्रिंशत्प्रकरणम्।
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तस्मात् यमप्रस्थपुरं हि प्राप
सर्व्वात्मकः सद्गुरुराद्यशिष्यैः।
आढ्यो यथा सर्व्वगुणैरुपेतः
पुरन्दरः सर्व्वसुरैरिवासोत्294॥
तत्र किल मासकालमास्थिते परमगुरौ यमोपासकाः महिषरूपतप्तलोडाङ्कितभुजद्वयाश्चित्र-महिषवेशं धृत्वा नाय्यमाचरन्तः सङ्गायन्तो यमदेवं पुरस्कृताः सम्यगागत्य स्वामिनं नत्वेदमूचुः स्वामिन्नहं किल किङ्करनामा, मच्छिष्याः सन्ति बहुला यमवृद्धकिङ्करतरुणदूतादय, सर्व्वे यमपरायणाः यमस्यैव लयहेतुत्वेन सृष्टिस्थित्योरपि स एव कारणमिति कृत्वा तस्यैव सर्वोत्कृष्टत्वं वर्त्तत इति निश्चित्य तदुपासकानामस्माकं मुक्तिरेव भविष्यतीति निर्भीत्या जन्ममरणप्रवाहमुल्लङ्घ्य वर्त्तामः। किञ्च यमप्रतिपादिका वागियम्, यमाय सोमं सुनृत यमाय जुहुता हविः। यमं ह यज्ञो यच्छ-
त्यग्निर्हतो अरं कृत इति। एतदर्थ एवमुन्नेयः, सोमं यागद्रव्यंयमाय सुनृत वह हविश्व295यमाय जुहत कस्मादित्युक्तेः, यज्ञः श्रौतः स्मार्तोवा यमं गच्छति, हशब्दो निश्चयार्थः, अरमलमग्निरेव हतः यमोनेति शेषः। एवं यज्ञभुजो यज्ञरूपस्य यमस्य सृष्ट्यादिकारणस्य परब्रह्मत्वे सिद्धे तन्मूर्त्तिर्द्विधा भवति शुक्लकृष्णभेदात्, या शुक्ला सा परब्रह्मरूपा, यच्छुक्लं“तद्ब्रह्मेति̋ श्रुतेः। तस्मान्निर्गुणाद्यमादाविर्भृतमहत्तत्त्वादिद्वारा रुद्राख्यो यमावतारः, तस्माज्जातः कृष्णवर्णो यमः सर्व्वव्यापकः विष्णुसञ्ज्ञः, तन्नाभिकमले जातो रक्ताधिकत्वाद्रक्तवर्णाख्यो ब्रह्माख्यो यमः, तद्द्वारा किलाष्टदिगीशाः सूर्य्यीदिग्रहाः सर्व्वचराचरात्मकं जगदिति कृत्वा स्वयं पुण्यपाप-कर्म्मोपाधिद्वारा सर्व्वप्राणिशिक्षां कुर्व्वन् दक्षिणदिङ्मात्रेश्वरदण्डपाणिर्महिषवाइनारूढो यमदेवो वर्त्तते वेशधारीव। निजसत्यज्ञानानन्तलक्षणं विहाय किञ्चिज्ज्ञ इव इन्द्रादीनां स्वांशानां मध्ये स्वयमपि किञ्चिदिव लक्ष्यते, भस्मान्तर्गताङ्गार इव, पवनान्तर्गताग्निरिव समुद्रान्तर्गतवाडव इव, मेघान्तर्गतजलमिव, जडान्तर्गतात्मेव, घटान्तर्गतदीप इव, सरोऽन्तर्गतपद्ममिव भाति। तस्मात् जगत्कारणवाक्याभिप्रायरूपं शुद्धबुद्धमुक्तस्वरूपं ब्रह्म यमस्तस्यांशः सगुणः, शुद्धय-मोपासनायाः296 कर्त्तुमशक्यत्वात्।
सगुणनीलवर्णयमोपासनमस्माभिः क्रियते तेन मूलाज्ञाननिवृत्तौ यम एव सर्व्वमिति बोधो-त्पत्त्यनन्तरं शुक्लयमप्राप्तिरेव मोक्ष इति च। तस्मात् यूयं मोक्षकाङ्क्षिणः किल तस्मात् यमोपासनं कुरुध्वं तत्कटाक्षलेशेनैव मुक्तिर्वो भविष्यतीति प्राप्ते परमगुरुरेवं पठति, भोः किङ्करादयः शणुध्वं यूयं भवन्मतमनर्हं, कथं, श्रुत्यादिसर्व्ववाक्प्रपञ्चविरुद्धत्वात् तावद्वेदविरोध एव भवति। पुरा नचिकेताः किल पितृशापात् यमपुरं प्राप्तः, तद्द्वारे त्रिरात्रमनशनवृत्त्यैव उवास, तं सूर्य्यवर्च्चमसंनचिकेतसमतिथिं दृष्ट्वा वेपमानशरीरो यम इदमुवाच, “तिस्रो रात्रीर्यदवात्सोर्गृहे मेऽनश्नन् ब्रह्मन् अतिथिर्मे नमस्यः। नमस्तेऽस्तु ब्रह्मन् स्वस्ति मेऽस्तु तस्मात् प्रति त्रीन् वरान् वृणीव्वेति”।एवं नमःपुरःसरं यमेनादरेणोक्तः नचिकेताः किल वचनमुवाच। “शान्तसङ्कल्पः सुमना यथा स्यात् वीतमन्युर्गोतमो माऽभिमृत्यो त्वत्प्रसृष्टं माऽभिवदेत् प्रतीतः एतत्त्रयाणां प्रथमं वरं वृणे” इति नचिकेतसोक्तोमृत्युः पुनराह, “यथा पुरस्तात् भविता प्रतीत औद्दालकिरारुणिर्मत्प्रसृष्टः सुखं रात्रीः शयीता वीतमन्युः त्वां ददृशिवान् मृत्युमुखात् प्रमुक्तं, स्वर्गे लोके न भयं किञ्च- नास्ति न तत्र त्वं न जरया विभेति, उभे तोर्त्वाअशनायापिपासे शोकातिगो मोदते स्वर्गलोक इति” पितृसौमनस्यकाङ्क्षिणोनचिकेतसः तत्पितुश्च जरादिदो-षविहीनं स्वर्गलोकप्राप्तिरूपं फलं शान्तसङ्कल्पविग्रहादिफलञ्च
सम्यक्प्रदं मृत्युं नचिकेताः पुनराह द्वितीयं वरं, “स त्वमग्निंस्वर्गमध्येषि मृत्यो प्रब्रूहि तं श्रद्दधानाय मह्यं, स्वर्गलोका अमृतत्वं भजन्त एतद्वितीयेन वृणे वरेणेति” नचिकेतसा पृष्टेन यमेन प्रोक्तो द्वितीयवरस्वेताग्निरूपः, “चिनाचिकेतः त्रिभिरेत्यसन्धिं त्रिकर्म्मकृत्तरति जन्ममृत्यू ब्रह्मयज्ञं वेदमीड्यं विदित्वा निचाय्येमां शान्तिमत्यन्तमेतीति”। एवमुक्तो नचिकेताः तृतीयवरप्रार्थनामेवमकरोत्, “येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्ये अस्तीत्येके नायमस्तीति चैके, एतद्विद्यामनुशिष्ट स्त्वयाऽहं वराणामेष वरस्तृतीयः” इति पृष्टः यमस्तद्वरस्य रहस्यतत्त्वगोचर-त्वात् बहुधा द्रव्यवाहनमतिचिरायुः पुत्रमुखं*297 फलंदास्यामि तृतीयवरार्थमिति बहुधा लोभयित्वा पश्चान्निराशालोभनीयं नचिकेतसं दृष्ट्वा प्रणम्य इदमाह “सर्व्वे वेदा यत्पदमामनन्तीति, तपांसि सर्व्वाणि च यद्वदन्ति यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रब्रवीम्योमित्येतदिति।
अशरीरं शरीरेषु अनवस्थितमीश्वरं।298
महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचतीति” च ॥
“यस्य ब्रह्म च क्षत्रञ्चोभे भवत श्रोदनं मृत्युर्यस्योपसेचनं क इत्था वेद यत्र स इति”। जाग्रदा-द्यवस्थासाक्षीस्वयमशरीरः
शुक्लयमस्तेजोमयस्तुरीयः परमात्मा मूर्ध्नि पूर्णमण्डलाकारेण विराजमानः सर्व्वातीतः सर्व्वकारणं परं ब्रह्मास्ति तस्य गुणातीतत्वेन सर्वोत्कृष्टत्वेन च तदुपासनमत्यन्तगहनमपि तदधःप्रदेशवर्त्तमानपरमाङ्गुष्ठमात्रपुरुषे यो मनोलयं करोति स मुक्त इति। किञ्च सर्वसंहारकर्तृत्वं तस्य प्रतिपादयति ब्रह्मक्षत्राद्युपलक्षितं जगन्मृत्युरूपसेचनमिति च सम्यगुपदिष्टो नचिकेताः कृतार्थे भूत्वा पितरं प्राप यमस्यैव परब्रह्मत्वे प्रोच्यमाने स्ववाक्येऽप्रामाण्यप्रसक्तिः यस्यात्मनो जगदन्नं मृत्युरुपसेचनमिति तस्यैव स्वोपसेचनत्वविरो-धात्। अतो यमान्यद् ब्रह्म सर्वकारणं परिकल्पनीयं। यमादीनां किञ्चिज्ञत्वेन यमाद्युपास्यं ब्रह्म सगुणं सर्वकारणञ्च निर्गुणं परं ब्रह्म सदेव सौम्येदमग्र आसीदित्यादिकारणवाक्यप्रतिपादितं। सगुणं - ट्यादिकारणं ब्रह्मविष्णुशिवात्मकं अतो लयमूर्त्तेः शिवस्य महदुदरं प्रलये चतुर्मुखादयो देवा इन्द्रादिदिक्पतयः सूर्य्यादिग्रहाः पृथिव्यादिभूतानि चराचरं सर्व्वमपि जगत् प्रविशन्ति तदानों किल सर्व्वजगद्रूपान्नभक्षणकाले उपसेचनं नाम उपदेशो यमो भविष्यति तत्तादृग्यमस्य लिङ्गादिधारणेन मुक्तिरिति अनृतमुक्तं भवता यमादिगुरुणा किङ्करेण। पुराणेष्वपि मार्कण्डेयादिषु यमार्द्दितेषु शत्रुसूदनो भक्तवत्सलो महादेवः स्वतन्त्रो यमं निष्पीड्यभक्त-पालनमकरोदिति महापातकिनः सुन्दरनाम्नो ब्राह्मणस्य यमदूतै-
राकृष्यमाणे जीवे धनलोभात् कृतैकशिवरात्रिजागरणफलतुष्टमहादेवदूतैः सर्व्वोत्कृष्टबलवद्भि-स्ताडिता यमदूताः सुन्दरं परित्यज्यापलायन्त। शिवदूतैर्नीतः सुन्दरः शिवभक्ताग्रगण्य इव कैलासे वर्त्तमानः इति च पुराणेषु वर्त्तते। अजामिलोब्राह्मण्यकर्म्म परित्यज्य चण्डालोसंसर्गतः पुत्रान्पञ्च लब्ध्वाकनिष्ठनारायणाख्यपुत्रनामोच्चारणात् त्यक्तकले वरस्य ब्राह्मणस्य सूक्ष्मश-रीरे यमदूतैर्नीयमाने वलाढ्या विष्णुदूताः समागत्य अजामिलं स्वर्लोकं प्रापयन्ति स्म, दुर्व्वलिनस्तु यमदूतास्तैर्भग्नकलेवरा रुदन्तः सन्तो यमलोकं गताः इति वर्त्तते। तस्मात् यूयं किङ्करादयस्त्यक्तलिङ्गाः शुद्धाद्वैतविद्यामाश्रित्य स्नानसन्ध्यावन्दनस्वाध्यायपितृतर्पणवैश्वदेवा-तिथिपूजादिकं कर्म्मसमाचरथ। एवं निष्पापात्मानः सद्गुरूपदेशात् ब्रह्मस्वरूपं ज्ञात्वा मुक्ता भवथ इत्युक्ताः किङ्करादयः परमगुरुं नत्वा शुद्धाद्वैतवृत्त्याश्रिताः सच्छिष्या बभूवुः॥
इत्यानन्दगिरिकृतौ यममतनिवर्हणं नाम चतुस्त्रिंशत्प्रकरणं॥ • ॥
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शङ्करविजये
पञ्चत्रिंशत्प्रकरणम्।
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तस्मात् प्राप प्रयागाख्यं स्थलं पुण्यविवर्द्धनम्।
गङ्गाया यमुनायाश्च सरस्वत्याश्च सङ्गमम्॥
तत्र परमगुरौ समास्थिते वरुणोपासकाः पाशचिह्नाः वायूपासका ध्वजाचिह्नाः भूमिदेवोप-सकाः पूर्णाङ्कास्तीर्थोपासका विन्दुचिह्नाश्च समागताः। समागत्य तीर्थपतिप्राणनाथानन्त-जीवनदाख्याः स्वशिष्यैःसहेदमूचुः स्वामिन्नाचार्य्य मदीयमतमतिविचित्रमत्यन्तपुण्यदं शृणु। अहं किल तीर्थपतिः, मदीशो वरुणः सर्वदेववन्दितचरणारविन्दः सर्वेषां जीवन इति च सर्वोत्कृष्टः स एवोपासनीय इति। ततः प्राणनाथः स्वामिनं नत्वेदमाह, स्वामिन् मन्मते-शोवायुः किल सर्वदेहप्राणरूपः स एक एव लोकैरुपासनीयः। “ये प्राणं ब्रह्मोपासते” “प्राणो हि भूताना-मायुरिति श्रुतेः। अतः / प्राणोपासकानामस्माकं तदङ्कपरिशुद्धगात्राणां न विचारः कर्त्तव्यः किल इहामुत्र च। ततः परमगुरुमनन्तो नत्वेदमुवाच स्वामिन् मदीयमतमुत्तमं, भूमिः किल सर्वकारणम्। “स्योनापृथिवी भवानृक्षरा निवेशनीया स्वा नः शर्म्म
सप्रथा” इति श्रुतेः भूमेः सर्व्वौत्कृष्टत्वात् सर्व्वदेवमयत्वाच्च तदुपासकानामस्माकमिहामुत्रापि न विचार इति। ततः स्वामिनं जीवनदानत्वेदमुवाच, स्वामिन्नस्मन्मतमतिविचित्रतरम्। तोर्थस्य ब्रह्मरूपत्वात् तदुपासनमेव सर्वैर्मुमुक्षुभिः कर्त्तव्यं, तद्व्यतिरिक्तपरमाभावात् त्रिवेणीतीर्थविन्दु-सेवनमात्रेण ब्रह्महत्यादिदोषशान्तिर्भवति। दर्शनमाचेणैवेति केचिद्वदन्ति, “अम्ब त्वद्दर्शनान्मु-क्तिर्न जाने स्नानजं फलमिति” नारदोक्तेः। किञ्च उदकस्यैव सर्व्वात्मकत्वं श्रुत्या दर्शितम्, “आपो वा इदं सर्व्वं विश्वा भूतान्यापः प्राणोऽवर्णवः299। आपः पशवः आपोऽन्नमयोऽमृतमयः सम्राडापोविराडापः। स्वराडापो वा च्छन्दांस्यापेाज्योतींष्यापोयजूंष्यापः” इत्यादितः सर्वमयत्वे तीर्थस्य ब्रह्मत्वं सिद्धम्। तदुपासकानामस्माकमिहामुत्र न विचारः कर्त्तव्य इति। तस्माद्भवन्तोऽपि मोक्षकाङ्क्षिणः सर्वदा तीर्थोपासनं कुरुध्वमिति प्राप्ते परमगुरुभिरे वमुच्यते, भोस्तीर्थपतिप्राणनाथानन्तजीवनदाख्याः शृणुध्वं, युष्मन्मतानि अप्रमाणानि, जगत्कारणवा-क्यविरुद्धत्वात्। प्रथमं वरुणोपासनमनुचितम्, तस्य जगत्कारणत्वाभावात्। तथा वायोरपि परमत्वाभावः,क्षरपंञ्चभूतान्तःपातित्वात्। भूमेरपि तदज्जन्यत्वदर्शनात् यज्जन्यं तदनित्यमिति मानम्। “आत्मन आकाशः सम्भूतः, आकाशाद्वायुर्वायोरग्निः, अग्ने-
रापः, अद्भ्यः पृथ्वी” इति श्रुतेः तीर्थस्यानित्यता; किन्तु भूतानां मध्ये तीर्थस्योत्तमत्वं वर्णयति, “आपो वा इदं सर्व्वमिति”। क्षरज्ञानेनाक्षरपरब्रह्मप्राप्त्यभावा॑द् युष्माकं कथं मुक्तिरस्ति।तदभावाज्ज्ञानस्यापि फलाभावो वक्तव्यः, उपास्यानामनित्यत्वात्। तस्मान्मोहबुद्धिं परित्यज्य शुद्धाद्वैतविद्यानिरता भवथ। विश्वतैजसप्राज्ञातीतपरमाङ्गुष्ठमात्रब्रह्मद्वारा मनोलयानन्तरं पूर्ण-मण्डलाकारं शुद्धं ब्रह्म प्राप्य मुक्ता भवथ इत्याज्ञप्ताः परित्यक्तलिङ्गाः शुद्धाद्वैतविद्याश्रिताः शिष्या बभ्रुवुः ॥
इत्यानन्दगिरिकृतौवरुणवायुभूम्युदकसेवकमतनिवर्हणं नाम पञ्चत्रिंशत्प्रकरणम् ॥३५॥
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शङ्करविजये
षट्चिंशत्प्रकरणम्।
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एवं निराकृतेषु पुनरन्यः शून्यवादी प्रत्यवतिष्ठते। स किल स्वामिनं प्रणम्येदमुवाच, मम मतं सुखदं, तथाहि मया मार्गे किञ्चिद् दृष्टं तत्सावसाधेन शृणु।
मृगतृष्णाम्भसि स्नातः खपुष्पकृतशेखरः।
एष बन्ध्यासुतोयाति शशशृङ्गधनुर्द्धरः॥
तं दृष्ट्वा देवभावेन प्रणम्य शिरसा भृशम्।
आगतोस्मि यतिश्रेष्ठ तवान्तिकमहं द्रुतम्॥
इति श्रुत्वा भो विचित्रतर त्वन्नाम किम् इत्याचार्यैरुक्तः स तु पुनरुवाच, स्वामिन्नहं निरालम्बनामा, मत्पिता कल्पितरूपनामा, मन्माता निर्भरिता, इति निशम्य परमगुरुरि-दमाह, भो निरालम्ब भवन्मतमसमञ्जसम्। कथं। तस्य शून्यत्वात्, शून्यस्यैव परब्रह्मत्वमिति यदुच्यते तदयुक्तम् “तमेव भान्तमनुभाति सर्वमिति"श्रुतेः। सूर्यकोटितेजेारूपस्य ब्रह्मणः शून्यत्वं वक्रमनुचितं, तदधिकतत्समतत्खरूपाभावा-
देकमेवाद्वितीयं ब्रह्म सर्वैरुपासनीयमिति सिद्धान्तः। तस्मान्मूढबुद्धिं परित्यज्य शून्यमतं त्य-क्त्वाशुद्धाद्वेतविद्याश्रितो भव इति नियमितो निरालम्बः पुनराह, स्वामिन् आकाशस्य ब्रह्मत्वं युक्तं किल। कथं। व्यापकत्वाद्वेदमूलकत्वाच्च। तथाहि। “आकाशो ह्येतेभ्यो ज्यायानाकाशः परायणमाकाशं प्रत्यस्तं यन्तीति"। किञ्च वेदान्ते “ॐ आकाशस्तल्लिङ्गात्” इत्यधिकरणे आकाशस्य ब्रह्मत्वप्राप्तिर्निर्द्धारिता। अतः श्रुतितात्पर्य्याज्ज्यायस्त्वपरायणत्वे निर्द्धारिते। “आकाशं प्रत्यस्तं यन्ति” इत्यादिना लयस्थानञ्चाकाश एवेति कृत्वा सृष्ट्यादिकारणमाकाश एव ब्रह्मेति प्राप्तिः। पुनराचार्यैरिदमुच्यते, किं निरालम्ब मूढतम ब्रवीषि, कथमाकाशस्य ब्रह्मत्वमुचितं वक्तुं। आकाशलवसलिलांशाभ्यां जातस्य शब्दस्याकाशगुणत्वात्, सगुणस्या-काशस्य कथं ब्रह्मत्वप्राप्तिः। भूतरूपस्याऽस्याकाशाद्वायुरित्यादिश्रुतिसिद्धत्वात् कार्य्यभूतोत्प-त्तिलयस्थानमाकाशः किल तस्यापि ब्रह्मजन्यत्वं वर्त्तत एव। किन्तु आकाशशब्दः साधारणो ब्रह्माकाशयोर्वर्त्तते। “यदेष आकाश आनन्दो न स्यात्”। आकाशोऽपि नामरूपयोर्निर्वाहिता ते यदन्तरा तद्ब्रह्मेति ज्यायस्त्वपरायणत्वादिगुण अपि भवन्त्येव निर्निमित्ते नभस्यवस्थिताः। तथाहि। “ज्यायान् पृथिव्या ज्यायानन्तरिक्षात् ज्यायान् दिवो व्यायानेभ्यो लोकेभ्यः” इति श्रुतिः। “विज्ञानमानन्दं ब्रह्म रातेर्धातुः परायणमिति”। अपि च अन्तर्वत्त्वदो-
षेण कालावत्यस्य पक्षं नुदित्वा अनन्तरं किञ्चिद्वक्तुकामेन शैवलिना आकाशः परिगृहीतः, तदाकाशमुद्गीथे सम्पाद्योपसंहरति, “एष को वरीयानुद्गीथः स एषोऽनन्त इति ऋचः। अक्षरे परमे व्योमन् सैषा भार्गवी वारुणी विद्या परमे व्योमन् प्रतिष्ठिता” इत्यादिश्रुतिभ्य आकाशशब्दस्य ब्रह्मपरत्वे निर्द्धारिते शून्यवादिनिरालम्बनामा परमगुरुं नत्वेदमाह, स्वामिन् भवत्पाददर्शनेन कृतार्थोऽहं पुनर्ब्रह्म बोद्धुमिच्छामि, तदुपदेशं कुरु इति जल्पन्तं निरालम्बमिदमाह गुरुः, ॐ आकाशस्तल्लिङ्गात्” इत्यधिकरणसूत्रवाक्याभ्यां ब्रह्मैवाकाश इति सम्यग्हृदयकमलाग्रनिष्ठसूक्ष्मविवराकाशोदहराख्यो ब्रह्म, तदुपास्य त्वं कृतार्थे भवेत्युक्तः शुद्धाद्वैतविद्याश्रितः शिष्योऽभवत्॥
इत्यानन्दगिरिकतौशून्यमतनिवर्हणं नाम षट्त्रिंशत्प्रकरणम्॥ ३६॥ ०॥
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शङ्करविजये
सप्तत्रिंशत्प्रकरणम्।
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एवं परिहृते शून्यमते पुनरन्यो बालचन्द्राङ्कविराजमानभुजद्वयः आदिवराहोपासकः स्वामिनं नत्वेदमुवाच। भो यतिश्रेष्ठ कल्पान्ते किल एकीकृतसकलवार्धिजलनिमग्नभूम्युद्धरणहेतुभूत-स्यादिवराहस्य मतं मदीयं विद्धि, भगवतो दंष्ट्रादण्डाग्रे सप्तसमुद्रकुलाचलादियुता क्षितिः कमलमात्रं तिष्ठते, तस्मात् सकलजगत्कारणं सगुणनिर्गुणं ब्रह्म सर्वैर्मुमुक्षुभिः स एक एव परायणं, तो भवन्तोऽपि मोक्षकाङ्क्षिणोदंद्राङ्कयुतभुजाः वराहोपासकाः भवध्वमिति प्राप्ते पठत्याचार्यः,भो वराहोपासक भवन्मतमनर्हं, कुतः वेदविरोधात्, तत्कथं ब्राह्मणेन तपः कर्त्तव्यमित्येव ब्राह्मणलक्षणं शास्त्रे प्रतिपादितम्। “तपो ब्रह्म तपः शौचं तपः सत्यं तपो ब्रतं तपः शान्तं तपो दमस्तपः शमस्तपो दानं तपो यज्ञं तपो भूर्भुवर्ब्रह्ममाचं स्यादेतत्तपः” इति तप एव ब्रह्म, वृहतेर्द्भातोरर्थभूतं कृत्स्नं वस्त्वभिधीयते तत्समाधिकवस्त्वभावात्। ब्रह्मणस्तावन्न-भिन्नवस्तुमात्रमस्ति तेन न ब्रह्मभिन्नो जीव इति। अतो जगदुपादानकारणस्यास्य सृष्टिस्थिति-लयाद्या बहवो जातास्तैश्चिह्नैरनीयमिति यदि प्रामाण्यं तर्हि मत्स्यकूर्मादिचिह्नैःशिरःप्रभृतिगात्रेषु यथाशक्यमङ्क-
नीयं। ब्राह्मणव्यतिरिक्तस्यैवाङ्कनप्रयोजनं न तु ब्राह्मणानां। ब्राह्मणं कर्म कुर्विति तत्प्रयासस्या-न्यथासिद्धत्वात्। विमोचितं कर्म परित्यज्यादिवराहोपासनं कर्त्तव्यमिति को वाऽशनिपातस्त-वागतः। “उदिते सूर्ये प्रातर्जुहोतीति" श्रुतिः क्व गता। ब्राह्मण्याचारं परित्यज्य शूद्राचारपरिग्रहणं कथं भवता कृतम्। “अहरहः सन्ध्यामुपासीत” इत्यादिविप्रकर्त्तव्यविधिवचनानि तव शिक्षां किं न कुर्वन्ति। सगुणब्रह्मोपासना कर्त्तव्येति चेत् तथापि “ब्रह्मविष्णुरुद्राः सम्प्रसूयन्त” इति प्रमाणं। तेषामेकतमेनोपासनेन भवितव्यं, किमर्थं तदपि नाङ्गीकृतं भवता। वराहदंष्ट्रादण्डचिन्हं धृतं किमर्थं भवताऽहितं। अतः सदाचारं परित्यज्य दंष्ट्रादण्डाङ्कविराजमानभुजः पशुमार्गेण वर्त्तय, ज्ञानं विना मोक्षाभावः, दण्ड्यस्तावत्त्वम् कर्म्मोल्लङ्घ्य वर्त्तसे, कर्मातिक्रमी दण्ड्य इति मन्वादिकृतधर्मशास्त्रेषु प्रमाणदर्शनात्। तस्मात् स्वयं मूढबुद्धिं परित्यज्य विगतलिङ्गः स्वकुलोचितसत्कर्म्म कुर्वन् वर्त्तय, शुद्धाद्वैतविद्योपदेशं गुरुमुखात् प्राप्य मुक्तो भवसीति सम्यगुपदिष्टो वराहः परमगुरुं नत्वा तन्मुखारविन्दात् पारमार्थिकं ज्ञानं लब्ध्वालक्ष्मणाख्यः शिष्यतरोऽभवत्॥
इत्यानन्दगिरिकृतौ वराहमतनिवर्हणं नाम सप्तत्रिंशत्प्रकरेणम्॥ ३७॥
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शङ्करविजये
अष्टत्रिंशत्प्रकरणम्।
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एवमेतन्मते परिहृते पुनरन्यश्चतुर्दशलोकोपासकः कामकर्मनामा समागत्य यतीशं नत्वेदमा-ह,स्वामिन् लोकसङ्घएवेश्वर इति कृत्वा लोकानामुपासकोऽहम् लोकानुग्रहादेव सर्वलोकप्रा-प्तिफलं सम्यगस्ति, तस्मात् इहामुत्रापि न विचारः कर्त्तव्य इति भवन्तोऽपि मुक्तिकाङ्क्षिणः सत्यलोकवासेच्छातः प्रतिदिनं लोकोपासनं कुरुध्वम्। प्रसन्ने लोकसङ्घे सत्यलोकावाप्तिरेव मुक्तिरिति सर्वोन्नतफलं प्राप्स्यथ इति प्राप्ते भगवद्भिरार्यैरिदमुच्यते, भोः कामकर्म्मन् मूढतम, नास्ति किन्तव विवेकलेशोऽपि। लोकोपासनेन फलमस्तीति भवतोक्तं, तेषां भौतिकत्वाद-नित्यत्वाच्च तदुपासनमनृततरं, जडस्य फलार्पणसामर्थ्याभावात्,उपासनं कर्त्तव्यं यदि सगुण-ब्रह्मण एव, तस्यापि फलमस्त्येवेति सम्यगुपदिष्टः कामकर्मनामा परमगुरुं नत्वा तदुपदेशब-लात् अद्वैतवृत्त्याश्रिताऽभवत्॥
इत्यानन्दगिरिकृतौ लोकमतनिवर्हणं नाम अष्टत्रिंशत्प्रकरणम्॥ ३८ ॥
शङ्कर विजये
एकोनचत्वारिंशत्प्रकरणम्।
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एवमेतन्मते परिहृते पुनरन्ये गुणोपासकाः प्रत्यवतिष्ठन्ते, ते किल स्वामिनमिदमाहः, स्वामिन्, गुणाः किल लोककर्त्तारः ब्रह्मादिदेवकारणं किल, अतो वयं गुणोपासनामात्रेण कृतार्थाः। सर्व्वस्यापि प्रपञ्चस्य गुणमयत्वात् सर्वलोकपूज्यत्वं गुणोपासकानामस्माकमस्ति। तस्माद्भवन्तोऽपि गुणोपासनं कुर्वन्तो मुक्ताभविष्यन्तीति प्राप्ते दुष्टमतशिक्षायै आचार्यैरि-दमुच्यते, किमुक्तं भवद्भिर्मूढतमैर्गुणोपासनं कर्त्तव्यमिति, तदनुपपन्नम्, तेषां जन्यत्वात् अशा-श्वतगुणोपासनेन किं शाश्वतफलरूपोमोक्षोऽस्ति। तस्मान्मूढबुद्धिं परित्यज्य शुद्धाद्वैतविद्यामा-श्रित्य सत्याख्यशिलाविगतवेषभाषा भवथ इति प्रोक्तास्ते कृतविलासाः यतिशिष्याबभूवुः॥
इत्यानन्दगिरिकृतौगुणमतनिवर्हणं नामैकोनचत्वारिंशत्प्रकरणम्॥ ३८ ॥
शङ्करविजये
चत्वारिंशत्प्रकरणम्।
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एवमेतेषु गुणोपासकेषु परिहृतेषु साङ्ख्यः प्रधानवादी कश्चित् प्रत्यवतिष्ठते, स त्वाचा-र्यस्वामिनमिदमुवाच, प्रधानं जगदुपादानकारणं, तस्मिन् साङ्ख्यानां स्मृतिः किल प्रमाणं, मन्वादिस्मृतिवत् तत्स्मृत्यर्थमिव श्लोकरूपेण ऋषिकल्पितमात्रेण300स्मृतिरासीत्। अतो वेदा-र्थानां प्रमाणभावात् स्मृतिरपि प्रमाणमिति तद्बलात्प्रधानस्य जगदुपादानकारणत्वं सिद्धमा-सीत्।
तत्र किलायं श्लोकः स्मर्यते।
" गुणसाम्यं प्रधानं हि महत्तत्त्वादिकारणम्।
अव्यक्तं व्यक्तभावञ्च जगत्येकं हरात्परम् ”॥ इति।
तदुपासनमात्रेण मुक्तिः सन्निहिता नृणाम्॥ इति।
कपिलादिभिराचार्यैरादृतं योगमुत्तमम्। इति च।
तस्मात् · साङ्ख्यानामस्माकं प्रधानमेकमेव शरण्यं माक्षेच्छूनामिति’ प्राप्ते श्रीमद्भिरिदमु-च्यते, भोः साङ्ख्य भवन्मतमनुचितम्, कथं, प्रमाणाभावात्। स्मृतिः प्रमाणमिति यद्युच्येत
तन सम्भवति। वेदानुकूलायाः स्मृतेरेव प्रामाण्यात्, वेदगर्हितं साङ्ख्यस्मृतिसिद्धमप्रमाणमेव प्रधानम्, तस्याशब्दत्वात्,ईक्षितृत्वाभावाच्च। अतएवाचार्यैः, ॐ “ईक्षतेनीशब्दमित्यधिकरणे, शब्दं प्रधानं, नहि प्रमाणम्, ईक्षतेरिति भाष्ये प्रतिपादितम्, अचेतनस्य प्रधानस्य ईक्षितत्वा-सम्भवात् चैतन्ये ब्रह्मण्येव जगदुपादानकर्तृत्वम्। “आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीत् नान्यत् किञ्चनमिषत् ईक्षत लोकानसृजा" इत्यादि तृतीयकाण्डे “स ईक्षत बहुस्यां प्रजायेयेति सदेव सौम्य इदमग्र आसीत् ब्रह्मा वा इदमग्र आसीत् एको ह वै नारायण आसीत् एको रुद्रो न द्वितीयोऽवतस्थे” इत्यादि ब्रह्मकारणवाक्यानि, कथमचेतनं प्रधानं प्रशंसन्ति। तस्मात् साङ्ख्य मूढबुद्धिं परित्यज्यशुद्धाद्वैतविद्यामाश्रित्य सुखी भवेत्युपदिष्टः परमगुरुं नत्वेदमुवाच, स्वामिन् महानुभाव महत्तत्त्वादिकारणमव्यक्तं वेदचोदितमेव प्रधानम्, तत्कथमशब्दं भवितुमर्हति यतः कण्ठतः,
“अचिन्त्यमव्यक्तमरूपमव्ययं
तथा रसं नित्यमगन्धवच्च यत् ।
अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं
निचाय्य तं मृत्युमुखात् प्रमुच्यते”॥ इति ।
श्रुतौ अव्यक्तसञ्ज्ञं प्रधानं प्रतिपादितमेवेति पुनः साङ्ख्यमते प्राप्ते परमगुरुभिरेवमुच्यते। भोः साङ्ख्य भवदुक्तमनईम्, कथम्,
अव्यक्तं प्रधानं श्रुतिसिद्धं न भवति। अव्यक्तस्य महत्तत्त्ववीजरूपत्वे सगुणाङ्कुररूपाद-व्यक्तंसकलवदभवत्, तस्यैव प्रधानत्वं त्रिगुणसाम्यमिति प्रधानं यद्युच्चेत तदयुक्तम्, गुणत्यर साम्यप्रधानोपासनेन सत्त्वोद्रेकज्ञानं कथं सिद्ध्यति। ज्ञानं सात्त्विकमित्युक्ते गुणसा-म्यावस्थायामेकगुणबृद्ध्यसम्भवात् मोक्षस्थानर्पणयोग्यमपि कथम् जगत्कारणमिति यद्युच्येत तदपि न समञ्जसम्,अतन्निवृत्तिदर्शनात्। तस्मात् साङ्ख्यमूढकल्पितप्रधानकारणं परित्यज्य शुद्धाद्वैतविद्याश्रयस्त्वं सुखी भवेत्युक्तः साङ्ख्यः परमगुरुं मत्वा तदुपदेशेन तच्छिष्योऽभवत्॥
इत्यानन्दगिरिकृतौसाङ्ख्यमतनिवर्हणं नाम चत्वारिंशत्प्रकरणं॥ ४0॥
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शङ्करविजये
एकचत्वारिंशत्प्रकरणम्।
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एवं परिहृते साङ्ख्यमते पुनरन्यः कापिलोयोगवित् प्रत्यवतिष्ठते। स तु किल आचार्यस्वा-मिनं नत्वेदमुवाच,स्वामिन् मदीयमतमतिविचित्रतरम्, योगेन मुक्तिरिति निगमागमवचनद-र्शनात्। तथाहि,
“त्रिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरमित्यादि।
विविक्तदेशे च सुखासनस्थः
शुचिः समग्रीवशिरःशरीरः।
अत्याश्रमस्थः सकलेन्द्रियाणि
निरुध्य भक्त्या स्वगुरुं प्रणम्य॥
हृत्पुण्डरीकं विरुजं विशुद्धं
विचिन्त्य मध्ये विशदं विशोकम्।
अचिन्त्यमव्यक्तमनन्तरूपिणं301
शिवं प्रशान्तममृतं ब्रह्मयोनिम्॥
तदादिमध्यान्तविहीनमेकं
विभुं चिदानन्दमरूपमद्भुतम्।
उमासहायं परमेश्वरं प्रभुं
त्रिलोचनं नीलकण्ठं प्रशान्तम्॥
ध्यात्वा पुनर्गच्छति भूतयोनिं
समस्तसाक्षं तमसः परस्तात्”। इति।
आगमेऽप्यजपाविद्याया मूलाधारचक्रमारभ्य सहस्रारपर्यन्तं षट्चक्रस्यदेवतानां गणपत्यादीनां सम्यगुपासनेन ब्रह्मनाडीविले ज्ञाते ततः कुण्डलिनीं मूलाधारचक्रस्थां वामपादपार्ष्णिनिपीडि-तपायुबलात् प्राणापानवाय्वैक्यं गुरूपदेशात् कृत्वा तद्देशात् समुत्थाप्य प्रतिचक्रभेदेन सहस्रारं प्रापयित्वा तन्मूलाधारे पुनः स्थापयित्वा ब्रह्मानन्दसुखभुक् पुरुषः मुक्तो भविष्यति इति। अतो यूयं मोक्षकाङ्क्षिणो योगमाश्रयध्वम् इति॥ तत्राचार्यः पठति, भोः कापिल भवन्मतं सुतरामनर्हम्, कुतः, प्रमाणाभावात्। प्रमाणं, विविक्तदेशं इत्यादिलिखितमेवेति यद्युच्येत, तथा न वक्तव्यं, व्यक्तं तदादिवाक्यैरिह दहरविद्यैव प्रतिपादिता, न योगः। अजपाविद्याया-मागमोक्तबलाद्योग इति यद्युच्येत,तदपि न सम्भवति। अजपामूलमन्त्रस्य हंसरूपत्वेन सोऽहमित्यर्थे निर्द्धाारिते परजीवयोर्भिदागन्धलेशाभावात् कथं योग इति वक्तुं शक्यते। मन्त्रवशाद्योगस्यांप्राप्तावपि कुण्डलिन्या षट्चक्रभेदनमात्रं योग इति यद्युच्येत, तदपि न मानम्, मुक्तिमार्गाभावात्।
“सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
सम्पश्यन् ब्रह्म परमं याति नान्येन हेतुना॥
इति निषेधस्यान्यपरत्वात्। किञ्च, ज्ञानाधिकारपरामर्शोऽपि “शान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षुः समाहितः श्रद्धान्वितो भूत्वा आत्मन्येवात्मानमनुपश्येदिति” नियमः प्रतिपादितः। अनुशब्देन ब्रह्मविषयैकवेदान्तशास्त्राङ्गीकारमात्रञ्चोद्यते, “वेदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्थाः सन्यासंयोगाद्य-तयः शुद्धमत्त्वाः। ते ब्रह्मलोके तु परान्तकाले परामृतात्302 परिमुञ्चन्ति सर्वे” इति श्रुतेः। अतो योगस्य सर्वदा निरवकाशत्वात् अप्रामाण्ये प्राप्ते पुनःकापिलः सकललोकगुरुं स्वामिन-मिदमुवाच, भोः परमयतिवर्य, योगो न मुक्तिकारणमिति भवदुक्तंसत्यं मुक्तिस्वरूपान-भिज्ञस्त्वमेवं जल्पसि।
“अज्ञात्वा खेचरीमुद्रां ब्रह्मज्ञोऽहमिति द्विजः।
यो वदेत्तस्य जिह्वायाश्छेदं कुर्विति शासनम्॥
नदीचितयसंयोगं त्रिकूटाख्यमिति द्विजः।
ब्रह्माहमिति येो ब्रूते तज्जिह्वाच्छेदमाचरेत्॥
अविदित्वा द्विजोयस्तु शृङ्गाटकमतोपरि।
ब्रह्माहमिति यो ब्रूते तज्जिह्वाच्छेदमाचरेत्॥
मनोन्मन्या स्वरूपं हि पूर्णमण्डलमार्गतः।
अविदित्वा ब्रवीद्ब्रह्मेत्यस्य जिह्वांहि सञ्छिनेत्॥
अङ्गुष्ठमात्रस्य पुंसः स्थानज्ञानं विना द्विजः।
ब्रह्मास्मीत्युच्यते यो वै तस्य जिह्वां हि सञ्छिनेत्॥
अवस्थाचितयस्थानं नोचोन्मत्तविगर्हितम्।
अज्ञात्वा ब्रह्म यो ब्रूते शिरस्तस्य पतत्यधः"॥
इत्याद्यनेकगोप्यलक्ष्यलक्षणस्थानव्याप्तं ब्रह्मस्वरूपं योगशास्त्रं विना ज्ञातुमशक्यम्, लययोगे तत्प्रपञ्चस्यातीवदर्शनात्, “लयवित् परमं ब्रह्म याति नान्येन वर्त्मना ” इति योगपरस्य निषेधद-र्शनात्, लयभिन्नज्ञानस्य योगोऽवश्यमङ्गीकर्त्तव्यः। “हठवित् परमं स्थानं याति ब्रह्म सनातनम्” इति हठयोगप्रपञ्चस्य श्रेष्ठत्वमुक्तम्। अतः सर्वदा अत्यन्तयत्नेन मोक्षकाङ्क्षिभिर्योग एवाङ्गीक-र्त्तव्यः। एवं प्राप्ते भगवद्भिरिदमुच्यते, किं कापिल त्वं वृथा जल्पसि, प्राणायामप्रत्याहा-राद्यष्टाङ्गयोगैर्न मुक्तिमार्गगन्धः सम्भवति। किन्तु देहश्शुद्धिमात्रमेव फलम्। खेचरीमुद्रा-विज्ञानेन मोक्षो नास्तीति भवदुक्तम्, तदत्यन्तमन्दतरम्, परिपूर्णस्य ब्रह्मणः सम्यग्ज्ञानंकिला-भ्यसनीयम्, तादृग्विधज्ञानस्य चित्तशुद्धिमूलकत्वात्, तस्य सत्कर्माश्रयत्वादतो वेदोक्तसत्क-र्म्मैव सदनुष्ठितं तचित्तशुद्ध्यादिफलं जनयति। तेन नित्यानित्यवस्तुविवेके इहामुत्रार्थफ-लभोगविरागे शमदमादिषट्कसम्पत्तौ शीतोष्णादिद्वन्द्वसहने मुमुक्षुत्वे जाते सति मुक्तिः सिद्धैव साधनसम्पन्नस्य श्रवणादिना, इति। श्रवणं नाम श्रीमद्गुरुमुखात् महावाक्योपदेशः ‘तत्त्वमसि” “अहं ब्रह्मास्मि” “अयमात्मा ब्रह्म” “नेह नानास्ति किञ्चन। एवं
वाक्यचतुष्टयस्योपदेशादेव शिष्यस्य श्रवणसिद्धौजातायां तद्वाक्यार्थविचारणरूपं मननमिति वाक्यार्थनिष्पन्नस्वरूपध्यानमेव निदिध्यासनमित्युच्यते, तदा सर्वात्मकब्रह्मसाक्षात्कार एव मोक्ष इति निरवद्यम्। किञ्च रहस्यवेदे महादेवेन किल शुकोपदेशः कृत इत्युक्तम्, तदुप-देश प्रकारोऽपि महावाक्यचतुष्टयरूप एव, तथाविधोपदेशेन शुकस्य सर्वात्मकब्रह्मसा-त्कारसिद्धिः।
कठप्रश्ने
“आश्चर्योवक्ता कुशलोऽस्य लब्धा
ह्याश्वर्योज्ञाता कुशलानुशिष्टः।
न नरेणावरेण प्रोक्त-
एष संविज्ञेयो बहुधा चिन्त्यमानः ॥
अनन्यप्रोक्ते गतिरत्र नास्ति
अणीयो ह्यतर्क्यमनुप्राणात्”
इति गुरुशिष्याभ्यां प्रयत्नात् ज्ञातव्यस्य सर्वात्मकस्य ब्रह्मणः स्वरूपं केन वेत्तुं शक्यमिति उक्ते तत्रैवोक्तम्,
“मनसैवेदमाप्तव्यं नेह नानास्ति किञ्चन”।
इति। एवकारेण मनोव्यतिरिक्तसाधनान्तराभाव इत्युच्यते। अतः शुद्धमनोवेद्यं ब्रह्मेति प्राप्ते,
“यतो वाचो निवर्त्तन्ते अप्राप्य मनसा सह “
इति श्रुतिर्विरुध्यते तथाप्येतद्दूषणमपक्वमनसोज्ञातव्यम्। तावत्यपक्वमनसः कारणशरी-रस्य मनोन्मन्यवस्था यदा प्राप्यते तदा सदसदात्मके अङ्गुष्ठमात्रे पुरुषे लीनं मनो भवति तस्यैव
ज्ञानरूपत्वात्, जलमालिन्यङ्कतकरेणुवदित्यूहनीयम्। इच्छाकल्पितपरिच्छिन्नरूपमात्रपरमा-त्मनि मनोलये जाते मनःकल्पितसर्वप्रपञ्चोपशमान्मुक्तिरिति दिक्। चतुर्विंशतितत्त्वात्मकस्यू-लशरीरस्य सूक्ष्मेसदशेन्द्रियात्मके लयं कृत्वा तदपि कारणे मनोमात्रे लयप्रलयं कुर्वतः सिद्धमनसोऽपि परब्रह्मणि लयं चिकोर्षोःः पुरुषस्य जीवन्मुक्तस्य दग्धपटन्यायेन प्रपञ्चान्तः पातिनः किमु साङ्ख्ययोगाभ्यां प्रयोजनं विद्यते। ब्रह्मस्वरूपानभिज्ञस्य सद्गुरूपदेशलेशादपि दूरगतस्य मर्त्यस्य मूलाधारादिचक्रैःशल्यमांसमयैः किं मुक्तिरस्ति। तस्मान्मूढबुद्धिं परित्यज्य निरस्तयोगतत्त्वः शुद्धाद्वैतविद्यामाश्रित्य सर्वपरिपूर्णं ब्रह्म सच्चिदानन्दलक्षणं ज्ञात्वा मुक्तो भवेत्युक्तः कापिलः परमगुरुचरणारविन्दद्वन्दानम्रशिरास्तदुपदेशेन शुद्धाद्वैतविद्यामाश्रितः शिष्यश्रेष्ठाऽभवत्॥
इत्यानन्दगिरिकतौ योगमतनिवर्हणं नामैकचत्वारिंशत्प्रकरणम्॥ ४१ ॥
शङ्करविजये
द्विचत्वारिंशत्प्रकरणम्।
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ततः पीलूनां वादिनो धीरशिवभट्टशिवगङ्गानाथादयः परमगुरुं नत्वेदमूचुः, स्वामिन् अस्म-दीयमतं शृणु, साङ्ख्यमतनिराकरणमिव न सुलभम्। न्यायशास्त्रे कर्त्ताईश्वरः प्रसिद्धः। परमे-श्वरः साक्षात् जगत्कर्त्ता, स एव सृष्टौभूम्याद्यणुसंयोगं लये वियोगञ्च करोति, भूम्याद्यणूनां नित्यत्वात्। एवं भूम्यबग्निवायुप्रपञ्चे जाते तैरेवातलवितललोकसृष्टिं विधाय तत्तल्लोकवा-सयोग्यान् प्राणिनः सृष्ट्वा स्वयं सर्वसाक्षी सर्वं सम्पश्यन्नास्ते सर्वपरिपूर्णश्च आकाशवदिति प्राप्ते परमगुरुः पठति, भो धीरशिवादयः शृणुध्वं, भवन्मतमसमञ्जसम्, कुतः श्रुतिविरोधात्। आत्मन आकाशः सम्भूत इत्यादिना भूतानां जन्यत्वानित्यत्वे प्राप्ते कथं नित्यतास्ति “यज्जन्यं तदनित्यम्” इति न्यायात्, “अत्ता चराचरग्रहणात्” इति सूत्राच्च सर्वात्तृत्वे जगदीश्वरस्य प्रोच्य-माने केऽवशिष्टाः पीलवो विद्यन्ते। अतः पृथिव्यादिषु नहि नित्यत्वकल्पना युक्ता, पर-
मेश्वर एक एव नित्यस्तद्व्यतिरिक्तं जगदनित्यमिति सिद्धान्तः। तन्मतदूषणञ्च प्रतिपादितं,
“अधीत्य गौतमींविद्यां गार्द्धभीं303योनिमाविशेत्”।
इति प्रत्यक्षादिप्रमाणसिद्धभूतास्तित्वकल्पनां परित्यज्य नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वरूपं “रुत्यं ज्ञान-मनन्तं ब्रह्म" इति गुरूपदेशाज्ज्ञात्वा शुद्धाद्वैतविद्यामाश्रित्य मुक्ता भवथेत्युक्ताः पीलुवादिन-स्तदुपदेशवशात्तच्छिष्या बभ्रूवुः॥
इत्यानन्दगिरिकृतौ पोलुमतनिवर्हणं नाम द्विचत्वारिंशत्प्रकरणम्॥ ४२ ॥
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शङ्करविजये
त्रिचत्वारिंशत्प्रकरणम्।
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प्रातः स्नात्वा त्रिवेण्यां हि गुरुः शिष्यसमन्वितः।
प्राङ्मार्गात्प्राप पक्षार्द्धात्वाशीं काशीशसंयुताम्॥
तदानों वाद्यादिकृतस्तुतिभिः शिष्यकृतकरतलतालैः शङ्खढक्कादिनिनादैश्चित्रमासीत्, तत्र स्थिते त्रिमासकालं परमगुरौ केचित् कर्मबादिनः समागत्य स्वामिनमिदमूचुः शृणु मतं मदीयम्, अखिलकारणं कर्मैव, जगदुत्पत्तिविपत्तिसम्पत्तयः कर्मणैव भवन्ति, तथाविधप्र-माणस्य विद्यमानत्वात्। “तथेतर्ह्यव्याकृतमामीत्” इति श्रुतेः, “इदं जगदव्यक्तमासीत्” केन कर्म्मणैव तस्य स्वतन्त्रत्वात् कर्म्मैव कारणम् “अथातो धर्मजिज्ञासा" इति सूत्रे जैमिनिना सिद्धान्तितत्त्वाच्च। तदेव स्वनिष्ठान्सृजति लये संहरति तत्तदन्तरे पालयति;सत्यमेव तेषां सुकृतकर्म्मवतां जीवानां सुकृतयोनिप्राप्तिः। पापकर्मवतां पापयोनिप्राप्तिरपि दर्शिता। “अथ यदि ते रमणीयचरणा रमणीयां योनिमापद्येरन् ब्राह्मणयोनिं वा क्षत्रिययोनिं वा वैश्ययोनिं वेति। अथ यदि ते कपूयचरणाःकपूयां योनिमापद्येरन्, श्वयोनिं वा शूकरयोनिं वा चण्डालयोनिं वेति” चलि -
ताचरणमावरणं कर्म्मैव पण्यपापयोनिषु जननकारणमिति कृत्वा सत्कम्मैव सर्वैर्मुमुक्षुभिः कार्यमिति जीवस्य सुखप्राप्तिरेव मोक्षः,कर्म्मैव संसिद्धिनिमित्तकारणम्। अतः “कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः” इत्युक्तेर्गीतादौलोकदृष्टान्तोऽपि कट्यादिकर्म्मणाफलप्रा-प्तिदर्शनात्। तस्माद्भवद्भिरङ्गीकर्त्तव्यं कर्म्मैव मुमुक्षुभिरिति प्राप्ते परमगुरुः पठति, भवन्मत-मनर्हम्, कुतः, निगमादिवाक्यप्रपञ्चादिविरोधात्। तथाहि, “यस्यैवेतत्कर्म्म स वैवेदितव्यः” इति एतद्भगवत्कर्मैव तस्य जगदुत्पत्त्यादिकारणत्वात्। अथर्वशिखायां कारणन्तु ध्येय इत्युपक्रम्य “शम्भुराकाशमध्यगः” इत्युपसंहृतम्। अतः सर्वकारणं ब्रह्मास्तीति सिद्धमेव। श्रुत्य-न्तरञ्च, “ऋतञ्च सत्यञ्चाभीद्धात्तपसेाऽध्यजायत ततो रात्रिरजायत ततः समुद्रोऽर्णवः समुद्रा-दर्णवादधिसंवत्सरोऽजायत अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी सूर्याचन्द्रमसौधाता यथा पूर्वमकल्पयत् दिवञ्च पृथिवीञ्चान्तरीक्षमथोभुवः स्वरिति”॥ अर्थस्तु वक्तव्यः, ‘अभीद्धात्तपसः’ मायाशवलाद्ब्रह्मणः, ‘ऋतं’ सूक्ष्मं, महत्तत्त्वादि ‘सत्यं’ च स्थूलं विराडादिप्रपञ्चरूपं, ‘अध्यजायत’ तदा सूर्य्यादिग्रहाभावात् रात्रिरेव प्रथममजायत, ततः ‘समुद्र’ लवणादिसप्त-रूपः,‘अर्णवः’ गङ्गादितटिनोशः, ‘समुद्रात्’ उक्तात्, ‘अर्णवात्’ ,च अधिकृत्य ‘संवत्सरः’ कालः, ‘अजायत’, सम्यगस्मिन्नयनमासपक्षदिनाऽहोरात्रयामघटिकाविघटिकामुखसूक्ष्मकालाःयुग-
मन्वन्तरकल्पादिस्थूलकालाश्च वसन्तीति संवत्सरः, स एव प्रथमं ‘अजायत’ इत्यविरोधः। ततः सूर्यादिग्रहोत्पत्त्यनन्तरं ‘अहोरात्राणि विदधत्’ बहुवचनेन प्रतिविषयभिन्नभिन्नाहोरात्राणीति निरवद्यम। ‘मिषतो विश्वस्य’, ‘वशी’ ब्रह्मा, ‘सूर्याचन्द्रमसौ’, ‘यथापूर्वं’ पूर्वकल्पानुरोधेन, ‘अकल्पयत्, ‘सूर्येण विना अहोरात्र्युत्पत्त्यभावात् सूर्य्याद्युत्पत्त्यनन्तरमेवाहोरात्र्युत्पत्तिर्व-क्तव्या। अत्रार्थक्रम एवाङ्गीकर्त्तव्यः, पाठक्रमविरोधात्। “अग्निहोत्रं जुहोति” “यवागुं पचति” इत्यत्र अग्निहोत्रहामानन्तरं यवागुपाको व्यर्थः स्यात्, तस्मादर्थक्रमो यथाङ्गीकर्त्तव्यः, तथैवाचाङ्गीकर्त्तव्य इत्यलमतिप्रसङ्गेन। ‘दिवं’ द्युलोकं, ‘पृथिवीं’ भूमिष्ठातलादिसप्तलोकान्, ‘अन्तरिक्षं’ सूर्य्यादिग्रहलोकं ध्रुवलोकपर्यन्तं, ‘स्वः’ स्वर्लोकोपलक्षितमहजनस्तपः सत्यलोकञ्च, एवं ‘अकल्पयत्’। तस्मादीश्वरः सर्वकारणं कर्मणो जडस्य नहि जगज्जन्मादिकारणत्वं मन्दा अप्यङ्गीकुर्वन्ति, यत्परं कुव्यारचनादिकं कर्म तदेव फलदमिति वक्तुं नहि रमणीयम्। इदं कुव्यादिरचनादिकं कर्म कुरु इत्याज्ञप्तः फलदः स्यात्, तस्य चेतनत्वात् अतोब्रह्मैव जगदुपादानकारणमिति सम्यगुक्ताः कर्मवादिनः कनकगिरितुरङ्गनाथादयः परमगुरूपदेशेन शुद्धाद्वैतवि-द्याश्रिताः कृतार्था बभूवुः॥
इत्यानन्द गिरिकता कर्म्ममतनिवर्हणं नाम त्रिचत्वारिंशत्प्रकरणम्॥ ४३ ॥
शङ्करविजये
चतुश्चत्वारिंशत्प्रकरणम्।
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तदनन्तरं शिवाभरणाख्यः स्वशिष्यैः सह समागत्य स्वामिनमिदमुवाच, मदीयमतममृत-मिव सर्वलोकोपादेयं चन्द्रदैवतं, सावधानेन शृणु। भगवान् चन्द्रः किल षोडशकलापरिपूर्णः सर्वदा सर्वप्राणिपोषणपरः स्वाष्टादशसहस्रयोजनविस्तीर्णमण्डलेन ब्रह्माण्डं द्योतयन् विभुरे-कोऽद्वितीयः परोऽमृतरूपः स एव वर्त्तते,
“पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सेामोभूत्वा रसात्मकः”।
इति श्रुतेः सर्वदेवतृप्तिकरश्च। तथा हि स्वगात्रनिष्ठामृतं देवेभ्यो दत्वा तान् परिपालयति। तथा “प्रथमां पितरः पिवन्ति” इति श्रुतेः। अतः पूर्णिमादिपुण्यकालेषु चन्द्रोपासनया प्राप्तामृतपानेन मुक्तिरिति प्राप्ते परमगुरुः पठति, भोःशिवाभरण भवन्मतमनर्हं, प्रमाणा-भावात्। चन्द्रोपासनया मुक्तिरित्युक्तं तदपि न मानम्। अनित्योपासनया मुक्तिप्राप्तिर-स्तीति नह्यनुचितमेव तव रोचते। नहि माक्षमार्गोऽप्येतद्द्वारा विद्यते। किन्तु इष्टापूर्त्तादिक-र्मकृतां चन्द्रप्राप्तिः पुनर्मर्त्त्यलोकप्राप्तिरित्यनुज्ञामात्रेण मुक्तिः किं वर्त्तते। धूमोरात्रिस्त-याकृष्णः षण्मासा दक्षिणायनं।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतियोगी प्राप्य निवर्त्तते”॥
इति भगवदुक्तेः, “एष देवानामन्नम्” इति श्रुतेश्च अन्नरूपस्य चन्द्रस्य ज्ञानेन न हि मोक्षलेशः सम्भवति, तल्लोकप्राप्तिरिति वयमपि शुश्रुमः। मूढतम शुद्धाद्वैतविद्यामाश्रित्य त्वं कृतार्थो भवेत्युक्तः शिवाभरणः सद्गुरूपदेशं लब्ध्वाशुद्धाद्वैतविद्याश्रितोऽभवत्॥
इत्यानन्दगिरिकृतौचन्द्रमतनिर्हणं नाम चतुश्चत्वारिंशत्प्रकरणं॥ ४४॥
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शङ्कर विजये
पञ्चचत्वारिंशत्प्रकरणम्।
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एवमेतस्मिन् परिहृते पुनरन्ये भौमादिग्रहोपासकाः प्रत्यवतिष्ठन्ते, ते किल अनृणः सुविद्यः कृतविद्यः शर्म्मिष्ठः कल्माषः कृतवदन304इत्याद्याख्याः स्वामिनं नत्वेदमूचुः शृणु, अस्मदीयमतानि परमसुलभानि तावत्, भौमस्याग्निमूर्द्धत्वं ‘दिगिलापतित्वं श्रुतिसिद्धं। आगमेषु चाङ्गारक-प्रसिद्धिर्वर्त्तते ऋणविमोचनाङ्गारकादिस्तवेषु॥
“कुमारो रक्तवर्णश्च वह्निर्मूर्द्धाद्युक्पतिः।
भूयःकीर्त्तिर्महीतत्त्वगाचो भौमः स पातु माम्॥
भोगमोक्षौ ददात्वस्मत्कार्य्यं सफलम्रादरात्”॥
श्रुतिश्च। “अग्निर्मूर्द्धादिवः ककुत्पतिः पृथिव्या अयम् अपां रेतांसि जिन्वथ” इति। तस्मादिहामुत्र फलेच्छुभिर्भौमोपासनं कर्त्तव्यमिति प्राप्तं ; तद्वत्बुधोपासनमपि सर्वविद्याप्रदत्वात् ज्ञानहेतुक-त्वाच्च, ज्ञानं मोक्षदमतोमोक्षकारणस्य बुधस्योपासनस्य श्रुत्यादिमूलकत्वात् तदेवाङ्गीक-र्त्तव्यम्। गुरूपासनं कर्त्तव्यम् तस्य
वेदमूलकत्वात् देवगुरुत्वाच्च। अतो गुरोः सर्वज्ञत्वादिगुणविशिष्टत्वाच्च गुरूपासनमावश्यकं कर्त्तव्यम्। भृगोरुपासनमपि तद्वदेव,तस्य महर्षित्वात्। अनादिगुरुत्वं सर्वज्ञत्वं सर्वदिजपूज्यत्वं सिद्धं, तत्प्रसिद्भिर्यजुःकाण्डेऽभिहिता। “भूगूणां त्वाङ्गिरसां व्रतपते व्रतेन ददामीति भृग्व-ङ्गिरसामादद्यात्" इति। तस्य वरुणपुत्रत्वेन तदुपदेशबलात् सर्वज्ञस्य भृगोरुपासनया ज्ञानसि-द्धिः, तस्माद्भृगूपासनमावश्यकम् इति तावत् प्राप्तम्। मन्दस्य सुखकारणत्वेन तदुपासनया दुःखनिवृत्तौ जातायां सुखप्राप्तिरेव मोक्षावाप्तिः, इति तदुपासनस्यापि मोक्षकारणत्वेन ग्राह्यत्वं प्राप्तम्। राहूपासनं कर्त्तव्यम्, विष्णुवचनाद्रविचन्द्रग्रहणसमर्थस्य बलिनः परमोपासनया ग्रहा-तिग्रहमार्गादि वृत्तलभ्यमानत्वात्, तदुपासनमावस्यकम् इति प्राप्ते, तेषां भौमादीनां स्वतन्त्रत्वात् पृथगुपासनैर्धर्मार्थकाममोक्षपुरुषार्थसिद्धिर्भविष्यति। अतो निःसन्देहाद्भवन्तोपि मुक्तिकाङ्क्षिणः पञ्चकारणानां ग्रहाणामुपासनं कुर्वन्तु तेन कालातीतवृत्त्याश्रिता मुक्ता भवथ इति प्राप्ते आचार्यः पठति, यूयमनृणादयः शृणुध्वं भवन्मतानि नाङ्गीकर्त्तव्यानि कुतः प्रमाणाभावात्। वेदमूलमेव प्रमाणमिति यद्युच्येत, तर्हि सर्वस्यापि वेदमूलकत्वमस्त्येव। नहि सर्वस्योपासनं युक्तम्, यच्चैतन्यं जगदुपादानकारणम् “सदेव सौम्येदमग्र आसीत्” इत्यादि जगत्कारणवाक्प्रपञ्चवेद्यं तदेकमेवाद्वितोयं ब्रह्म सर्वैर्मुमुक्षुभिरुपासनीयम्। तदुपासकानां
तत्प्राप्तिरेव मोक्षः। विना विज्ञानं शरीरिणं ग्रहाणामुपासनेन मुक्तिरिति जडा अपि न मन्यन्ते। लोकानां विरुद्धग्रहषोडाशान्तये तत्तद्ग्रहोपासनं कर्त्तव्यमिति वेदमूलकत्वेनावश्यकं वाक्योप-योगिकञ्च, एवं वृत्तिमतां ज्ञानदातृत्वमनुचितमेव, तस्मात् जड़ाशां परित्यज्य शुद्धाद्वैतवृत्ता-भवथ। गुरुणा परमे ब्रह्मण्युपादिष्टे शिष्यः पुत्रोभवेत्, शिष्येणादिष्टे तु शिष्योगुरुरेवासीत्, गुरुः शिष्योभवेत्, तदा
“मनोन्मने मनस्येव लीने ब्रह्म परङ्गतः।
स एव सर्वसाक्षीस्यादिति वेदा वदन्ति हि ”।
श्रुत्वैतदनृणाद्यास्तु नत्वा गुरुपदद्वयम्॥
शिष्या बभूवुस्तद्बोधे जीवन्मुक्तास्तदाऽभवन्॥
इत्यानन्दगिरिकतौभौमादिग्रहपञ्चकस्यार्थाद्राहुमतस्य निव-र्हणं नाम पञ्चचत्वारिंशत्प्रकरणम् ॥ ४५ ॥
शङ्करविजये
षट्चत्वारिंशत्प्रकरणम् ।
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ततः क्षपणकः परमगुरुं नत्वा इदमाह, स्वामिन् भवदाश्रयस्थेन मया षण्मासकालोऽनुभूतः इतः परं मन्मतपरीक्षां कुरुध्वं अहं यास्यामीत्युक्तः शङ्करगुरुरपि तन्मतसुपरिशीलनार्थमि-दमब्रवीत्। भवत्करघृतयन्त्रस्य लक्षणमुक्त्वाशीघ्रङ्गच्छ इति। स तु क्षपणकः पुनः परमगुरुं नत्वा सावधानेनेदं श्रूयताम् इति विज्ञाप्याह, इदं किल गोलयन्त्रं तदन्तर्वर्त्तिगोभूपिण्डस्य नित्यमधःपतनशीलस्यानुकूलवृत्त्या सर्वग्रहर्क्षमण्डलोपेतं समान्तरमनुगच्छति, तन्मध्यस्यग्र-हास्तु चक्रवेगात् प्रागुदयं प्रत्यगस्तमयं यान्ति। केचिन्मन्दधियः कश्चिच्छिशुमारनामा भगवान् सकलादिप्रदेशेषु ग्रहर्क्षगणं विभर्तीति वेदन्ति। तदत्यन्तमसत्यम्, एकस्थस्य शरोरिणे विकृतशिशुमारस्य करादिस्था ग्रहाश्च तेषां भूम्यधो भ्रमणहेतुत्वाभावात्। तस्मात् कालचक्राश्रिता ग्रहाः सर्वे तस्योपरि कक्षाबद्धाश्चन्द्रादयः शन्यन्ताः कालरूपानुवृत्तिमाश्रिताः कालेन नित्यभ्रमणशीलाइति पूर्वापरयाम्योत्तरवृत्तद्वयसंयोगस्थानदत्तफलांश मखण्डद्वया-ग्रनिबद्धं कान्तिवृत्तं स्यात्, तस्मिन् किल द्वादशराशिषु
स्थावरजङ्गमञ्चारं कुर्वन् ग्रहराट् सूर्ये वर्त्तते, सर्वखेचरमण्डलाश्रितं ग्रहगोलं स्वपार्श्वस्थख-गोलान्तर्वर्त्तमानमध्यचिह्नमार्गविम्बमध्ये ग्रहदर्शनकालस्वरूपज्ञानतो मुक्तिरिति काल एव ब्रह्म,अतः कालविद्ब्रह्मविदिति निरवद्यम्। दिक्कालौनेश्वरादतिरिच्येते, मानाभावात्। न च परत्वापरत्वान्नायकत्वेन तत्सिद्भिः, आत्मनस्तदुन्नयनादित्यादितर्कराद्धान्तवशादपि कालस्य ब्रह्मत्वे प्राप्ते तत्तुर्यांशो लघुमार्गात्तुर्ययन्त्रं मण्डलचतुर्भागमित्यर्थः। तत्र यन्त्रोपरि किल रन्ध्रद्वयमखिलं कृत्वा तन्मध्यदृष्ट्यारविज्ञानेन कालज्ञानं जायते। अत्र तुर्य्ययन्त्रे त्रिंशज्जी-वकल्पना कर्त्तव्या, ताभ्यो नवत्यंशकल्पना, तदधः पञ्चदशघटिकादिकल्पना। एवमेतद्वित् सर्ववित् भवतीति सम्यगुपपादितमिति पूर्वपक्षे प्राप्ते परमगुरुः पठति भोः क्षपणक कालस्य ब्रह्मत्वं तावत् प्रतिपादितं किल, तदत्यन्तमग्राह्यम्, कथं, तस्य जन्यत्वदर्शनात् सावयवत्वात्। तथाहि यजुरारण्यके
“नदीव प्रभवेत् काचित् अक्षय्यात्स्यन्दते यथा।
तान्नद्योऽपि समायान्ति ताभिः सा न निवर्त्तते ॥
एवं नाना समुत्थानाः कालाः संवत्सराश्रिताः।
अणुशश्च महशश्च" इति ॥
अक्षय्यादविनाशस्थानात् कदाचित् नदी प्रभवति तां तदन्या अल्पनद्योऽधिकनद्यश्च समायान्ति। सा ताभिरनुरूपाधिकरूपा सतीन निवर्त्तते। एवमेव नानासमुत्थाः काला
अणुशो महशश्व संवत्सरादणवोऽयनादयो महशस्तु युगादयोऽपि सर्वेऽपि संवत्सरं कालमाश्रिताः। स तु संवत्सरः कालः केनापि न निवार्य इव वर्त्तते। श्रुत्यन्तरे “संवत्सरो-ऽजायतेति”। एवं जन्यस्य कथं ब्रह्मत्वं वक्तुं शक्यते। वैशेषिकास्तु कालमुपेयान्योऽन्येन पञ्चविंशतितत्त्वानि विविच्छेदमब्रुवन्, नानाविधशक्तिमयी सा जनयति कालतत्त्वम्, एवमेवाविर्भवद्भूतचयं कलयति जगदेव कालोऽत इति। अतः कालतत्त्वस्य जन्यत्वा-द्ब्रह्मत्वमयुक्तम्, इति सिद्धान्तः। गोलान्तःस्या पृथिवी नित्यमधः पततीत्युक्तं, तदपि न मानम्, भूमेरधः पतन हेतुप्रमाणभावात्। “मध्ये समतदण्डस्य भूगोलो व्योम्नि तिष्ठतीति सूर्यसिद्धा-न्तवचनाच्च”। किञ्च भूनिष्ठपुरुषेण गगणं प्रत्युत्क्षिप्तं पाषाणादिवस्तु भ्रभ्युपर्य्येव क्षिप्रं निपतति, तद्दृष्ट्वापि किमुच्चरितं भवता मन्दधिया। तस्मात् भूम्यधःपतनं निरालम्बमेवासीत्। अतः स्थिरस्य भूमिपिण्डस्यान्तर्गतयाम्योत्तरं किल सुमेरुशृङ्गत्रयं वर्त्तते। तत्र दक्षिणपश्चि-मदिक्स्थशृङ्गे रुद्रपत्तनं, मध्ये खलु ब्रह्मपुरं, प्राक्शिखरे विष्णुपुरञ्च वर्त्तते। तदधस्ताच्चा-ष्टदिक्पालपत्तनानि क्रमात्सन्ति। मेरोः परितोविष्कम्भशैलाः, तच्छिखरेषु कदम्बजम्बुवट-पिप्पलाख्यास्तरवश्च वर्त्तन्ते। जम्बुवृक्षपक्कफलानां रसेन नदी जाम्बूनदीति प्रसिद्धा, तद्वशादेवेदं जम्बुद्वीपमिति प्रसिद्धम्। भूम्यर्द्धमुदक्स्थं नवखण्डवर्षाख्यम्, अर्द्धमन्यत् सप्तसमुद्रैःषड्द्वीपैरन्वितमिति
ज्योतिःशास्त्रप्रसिद्धम्। भूमध्ये तु लङ्कापट्टणं, तत्प्राक् तूर्यांशान्तरेण यवकोटिपट्टणं, तत्प्रत्य-क्समान्तरे रोमकम् तदधस्तदूर्ड्व्वसमान्तरे सिद्धपुरम्, एवं पट्टणचतुष्टयस्य उदयमध्या-ह्नास्तमयार्द्धरात्रकालान् पञ्चदशघटिकान्तरेण पूरयति भानुः। एवं सति यदा लङ्कायामुदयः, तदा सिद्धपुरस्यास्तमयः, यवकोव्यां मध्याह्नः, रोमकस्य अर्द्धरात्रम्। उक्तञ्च सिद्धान्ते, “उदयो योऽयं लङ्कायां सेास्तमयः सवितुः” इति। सिद्धपुरे मध्याह्नः यवकोव्यां रामकविषये अर्द्धरात्रंचेति, तच्चतुःपट्टणो पर्येव कालचक्रं सप्तविंशतिनक्षत्रात्मकम्, तदन्तस्थल-नोचग्रहकक्षाश्रितं प्रवाहानिलजवात् भ्रमणशीलं ब्रह्मणा किल सृष्ट्यादौ सृष्टम्, तल्लङ्कायां समन्तादन्यविषये कालचक्रादिदिङ्मण्डलसम्पर्कवशात् स्वस्तिकचतुष्टयमुत्पाद्य वाह्यवृत्तं क्रान्तिमण्डलं, सूर्यस्तत्र किल राशिमनुभवति। लङ्कात उदक् प्राक् याम्येच त्रीणि त्रीणि अहोरात्रवृत्तानि कलयति। उदक् त्रिषु मेषादिषट्कमनुभवति। क्रमोत्क्रममार्गमाश्रित्य तदर्द्धान्मिथुनान्ते याम्यायनारम्भः सिद्ध एव। याम्ये धनुरन्ते दिङ्मार्गानुकूलवृत्ते उदगयनं प्रसिद्धमिति सम्प्रदायः। तेषां चक्रवशात् प्रत्यग्गतिरेवेत्युक्तम्, तदर्हम्, ग्रहाणां प्राग्गतेः प्रत्यक्षदृष्टत्वात्। तथाहि अश्विनोनक्षत्रे खमध्यङ्कते तदपेक्षया भरणी किल प्रागेव वर्त्तते, तत्प्राक् कृत्तिकादि। तथैवाश्विनोस्थग्रहोभरणीमेव याति। तचस्थः कृत्तिकामित्यादिप्राग्गतिः प्रत्यक्षदृष्टा। तस्मात्
ग्रहाणां प्राग्गतिः, चक्रस्य प्रत्यग्गतिः, इति। आदौभगवता सृष्टे चक्रे अश्विन्यादिघटिकायां भानुवारे प्रतिपदि चैत्रमासे शुक्लपक्षे प्रभवसंवत्सरे, कुपिण्डोपरि वायुद्वयोपरिवर्त्तमाने प्रवहवायौ चन्द्रबुधशुऽक्ररविकुजगुरुशनयोनिवेशिताः, स्वस्वोपरिकक्षास्थाश्चक्रान्त-र्वर्त्तिनोऽपि चक्रान्तस्था इव भान्ति, तद्वशादेव प्रागुदयः, पश्चादस्तमयश्च तेषाम् ऋक्षानुभवः कथमित्युक्ते कालचक्रस्थप्रतिपद्यन्तसूत्राणि चन्द्रकक्षानिर्गतानि305किल, प्रतिग्रहकक्षाग्रहण-माचरन्ति, तद्वशात् घटीमयसमयंश्च स्वकक्षासु प्राक्तनगत्या कुलालचक्रविपरीतगतिकीट इव प्रतिदिनं नभोधृतिभूमितपोजनप्रमाणमार्गञ्चरतां स्वस्वकक्षामागतानां बृहल्लघु-भगतिरिति सम्यगुपपद्यते। सा सर्वेषां समाप्तिभिन्नेव प्रतिफलति, लिङ्गलिङ्गालयकृता प्रदक्षिणपुरुषगतिरिव, एवं चन्द्रशन्योर्योजनीयम्। उक्तञ्च सिद्धान्ते
“मन्दामरेज्यभूपुत्रसूर्यशुक्रेन्दुविन्दवः।
परिक्रमन्त्यधोधःस्थाः सिद्धा विद्याधरा घनाः”॥ इति।
“कक्षाः सर्व अपि दिविषदां चक्रलिप्ताङ्कितास्ता
वृत्तेर्लब्ध्यो लघुनि महति स्युर्महत्यश्च लिप्ताः।
तस्मादेते शशिशशिजसितादित्यभौमेज्यमन्दा-
मन्दाक्रान्ता इव शशधराद्भान्ति यान्तः क्रमेण ’’॥ इति।
ग्रहगतिरपि षोढा पूर्वापरा उदग्याम्या ऊर्ध्वाधरा चेति कश्चिद्विशेषोऽत्रावगन्तव्यः। सूर्यः किल जननस्तद्वशात् सृष्ट्यादिकाला जाताः, शश्वत् प्राग्दिशञ्चरतोः सूर्यचन्द्रयोर्दर्शान्ते सङ्गमः सम्भवति। तस्मात् शीघ्रगत्या पुरोगते चन्द्रे भानौपृष्ठस्थे द्वादशांशमितं यदा भवति तावत् प्रतिपदुत्पद्यते। चतुर्विंशत्यंशान्तरे द्वितीयेत्याद्युत्पत्तिरित्येवमन्यासां तिथीनां ज्ञातव्यम्। चन्द्रा-देव नक्षत्रं तयोर्योगाद्योगसिद्ध्यर्थं करणमेवं पञ्चाङ्गोपपत्तिः। ग्रहपतिचलनादेव लोकान्धका-रनिवृत्त्यर्थं भगवति केचित् शिशुमारे ग्रहस्थानं वदन्ति, तदनर्हमिति भवदुक्तं तदेव ग्राह्यं भवति। कुतः पुराणप्रमाणस्य विद्यमानत्वात्। सर्वज्ञैर्व्यासैः किमन्यथा प्रतिपादितम्। शिशुमारं किल स्वस्तिकमध्यनीलवदनेन गृहीत्वा निजाङ्गेन ब्रह्माण्डमाक्रम्य कालचक्रं स्वपृष्ठाधारेण भूमयन् तदन्यमुखेन याम्यध्रुवकीलं गृह्णाति। मुखाभ्यामष्टाक्षरतेजोरूपेणोन्मिषं तद्बलादधः-प्रदेशाधारं महाकूर्मेण धृत्वा वर्त्तते इति कालभयेन ग्रहाभ्रमन्तीत्युक्तम्, न तथा वक्तव्यम्, श्रुतिविरोधात्। तथाहि
“भीषास्माद्वातः पवते भीषोदेति सूर्यः।
भीषास्मादग्निश्चेन्द्रश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः”॥
इति उपक्रम्य जगदुपादानकारणं विवक्षितम्, अन्तेन ग्रन्थेन “स एकोब्रह्मण आनन्दः” इति। अतो ‘अस्मात् ’ ब्रह्मण एव, ‘भीषा’
भयेन, ‘वातः पवते’, ‘भीषा’, एव ‘सूर्योऽपि’, उदेति ‘अग्निश्च’ ,सर्वलेाकेषु वहिरन्तर्व्यापकत्वेन वर्त्तते। ‘इन्द्रः’, त्रिलोकाधिपत्यं करोति। ‘मृत्युरपि सर्वप्राणिहिंसाव्याजेन ‘धावति’ ,इति तस्मात् क्षपणक कालो ब्रह्मेति मूढबुद्धिं परित्यज्य शुद्धाद्वैतवृत्तिमाश्रय, तया जागृदाद्यवस्थाचि-तयातीतमनोन्मयं गुरुमुखाज्ज्ञात्वा मुक्तो भवसीति नियमितः क्षपणकः परमगुरुं नत्वा शुद्धा-द्वैतविद्याश्रितोऽभवत्॥
इत्यानन्दगिरिकृतौ क्षपणकमतनिवर्हणं नाम षट्चत्वारिंशत्प्रकरणम्॥ ४६॥
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स्थावरजङ्गममञ्चारं कुर्वन् ग्रहराट् सूर्योवर्त्तते, सर्वखेचरमण्डलाश्रितं ग्रहगोलंस्वपार्श्वस्थख-गोलान्तर्वर्त्तमानमध्यचिन्हमार्गविम्बमध्ये ग्रहदर्शनकालस्वरूपज्ञानतो मुक्तिरिति काल एव ब्रह्म, अतः कालविद्ब्रह्मविदिति निरवद्यम्। दिक्कालौनेश्वरादतिरिच्येते, मानाभावात्। न च परत्वापरत्वान्नायकत्वेन तत्सिद्भिः, आत्मनस्तदुन्नयनादित्यादितर्कराद्धान्तवशादपि कालस्य ब्रह्मत्वे प्राप्ते तत्तुर्यांशो लघुमार्गात्तुर्ययन्त्रं मण्डलचतुर्भागमित्यर्थः। तत्र यन्त्रोपरि किल रन्ध्रद्व-यमखिलं कृत्वा तन्मध्यदृष्ट्यारविज्ञानेन कालज्ञानं जायते। अत्र तुर्य्ययन्त्रे त्रिंशज्जीवकल्पना कर्त्तव्या, ताभ्यो नवत्यंशकल्पना, तदधः पञ्चदशघटिकादिकल्पना। एवमेतद्वित् सर्ववित् भवतीति सम्यगुपपादितमिति पूर्वपक्षे प्राप्ते परमगुरुः पठति, भोः क्षपणक कालस्य ब्रह्मत्वं तावत् प्रतिपादितं किल, तदत्यन्तमग्राह्यम्, कथं, तस्य जन्यत्वदर्शनात् सावयवत्वात्। तथाहि यजुरारण्यके
“नदीव प्रभवेत् काचित् अक्षय्यात्स्यन्दते यथा।
तान्नद्योऽपि समायान्ति ताभिः सा न निवर्त्तते॥
एवं नाना समुत्थानाः कालाः संवत्सराश्रिताः।
अणुशश्च महशश्च" इति॥
अक्षय्यादविनाशस्थानात् कदाचित् नदी प्रभवति तां तदन्या अल्पनद्योऽधिकनद्यश्च समायान्ति। सा ताभिरनुरूपाधिकरूपा सती न निवर्त्तते। एवमेव नानासमुत्थाः काला
अणुशो महशश्च संवत्सरादवोऽयनादयो महशस्तु युगादयोऽपि सर्वेऽपि संवत्सरं कालमाश्रिताः। स तु संवत्सरः कालः केनापि न निवार्य द्रव वर्त्तते। श्रुत्यन्तरे “संवत्सरोऽजा-यतेति”। एवं जन्यस्य कथं ब्रह्मत्वं वक्तुं शक्यते। वैशेषिकास्तु कालमुपेक्ष्यान्योऽन्येन पञ्चविंशतितत्त्वानि विविच्येदमब्रुवन्,नानाविधशक्तिमयी सा जनयति कालतत्त्वम्, एवमेवा-विर्भवद्भूतचयं कलयति जगदेव कालोऽत इति। अतः कालतत्त्वस्य जन्यत्वाद्ब्रह्मत्वमयुक्तम्, इति सिद्धान्तः। गोलान्तःस्या पृथिवी नित्यमधः पततीत्युक्तं, तदपि न मानम्, भूमेरधःपतनहेतुप्रमाणाभावात्। “मध्ये समतदण्डस्य भूगोलो व्योम्नि तिष्ठतीति सूर्यसिद्धा-न्तवचनाच्च"। किञ्च भूनिष्ठपुरुषेण गगणं प्रत्युत्क्षिप्तं पाषाणादिवस्तु भूभ्युपर्येव क्षिप्रं निपतति, तद्दृष्ट्वापि किमुच्चरितं भवता मन्दधिया। तस्मात् भूम्यधःपतनं निरालम्बमेवासीत्। अतः स्थिरस्य भूमिपिण्डस्यान्तर्गतयाम्योत्तरं किल सुमेरुशृङ्गत्रयं वर्त्तते। तत्र दक्षिणपश्चिमदि-क्स्थशृङ्गे रुद्रपत्तनं, मध्ये खलु ब्रह्मपुरं, प्राक्शिखरे विष्णुपुरञ्च वर्त्तते। तदधस्ताच्चा-ष्टदिक्पालपत्तनानि क्रमात्सन्ति। मेरोः परितोविष्कम्भशैलाः, तच्छिखरेषु कदम्बजम्बुव-टपिप्पलाख्यास्तरवश्च वर्त्तन्ते। जम्बुवृक्षपक्वफलानां रसेन नदी जाम्बूनदीति प्रसिद्धा, तद्वशादेवेदं जम्बुद्वीपमिति प्रसिद्धम्। भूम्यर्द्धमुदक्स्थंनवखण्डवर्षाख्यम्, अर्द्धमन्यत् सप्तसमुद्रैःषड्द्वीपैरन्वितमिति
ज्योतिःशास्त्रप्रसिद्धम्। भूमध्ये तु लङ्कापट्टणं, तत्प्राक् तूर्यांशान्तरेण यवकोटिपट्टणं, तत्प्रत्यक्समान्तरे रोमकम् तदधस्तदुर्द्धसमान्तरे सिद्धपुरम् एवं पट्टणचतुष्टयस्य उदयमध्या-ह्नास्तमयार्द्धरात्रकालान् पञ्चदशघटिकान्तरेण पूरयति भानुः। एवं सति यदा लङ्कायामुदयः, तदा सिद्धपुरस्यास्तमयः, यवकोव्यां मध्याह्नः, रोमकस्य अर्द्धरात्रम्। उक्तञ्च सिद्धान्ते, “उदयो योऽयं लङ्कायां सेास्तमयः सवितुः” इति। सिद्धपुरे मध्याह्नः यवकोव्यां रोमकविषये अर्द्धरात्रंचेति, तच्चतुःपट्टणोपर्येव कालचक्रं सप्तविंशतिक्षचात्मकम्, तदन्तस्थलनीचग्रह-कक्षाश्रितं प्रवाहानिलजवात् भ्रमणशीलं ब्रह्मण किल सृष्ट्यादौ सृष्टम्, तल्लङ्कायां समन्तादन्यविषये कालचक्रादिदिङ्मण्डलसम्पर्कवशात् स्वस्तिकचतुष्टयमुत्पाद्य वाह्यवृत्तं क्रान्तिमण्डलं, सूर्यस्तत्र किल राशिमनुभवति। लङ्कात उदक् प्राक् याम्येच त्रीणि त्रीणि अहोरात्रवृत्तानि कलयति। उदक् त्रिषु मेषादिषट्कमनुभवति। क्रमोत्कममार्गमाश्रित्य तदर्द्धान्मिथुनान्ते याम्यायनारम्भः सिद्ध एव। याम्ये धनुरन्ते दिङ्मार्गानुकूलवृत्ते उदगयनं प्रसिद्धमिति सम्प्रदायः। तेषां चक्रवशात् प्रत्यग्गतिरेवेत्युक्तम्, तदनर्हम्, ग्रहाणां प्राग्गतेः प्रत्यक्षदृष्टत्वात्। तथाहि अश्विनोनक्षत्रे खमध्यङ्कते तदपेक्षया भरणी किल प्रागेव वर्त्तते, तत्प्राक् कृत्तिकादि। तथैवाश्विनोस्थग्रहोभरणीमेव याति। तत्रस्थः कृत्तिकामित्यादिप्राग्गतिः प्रत्यक्षदृष्टा। तस्मात्
ग्रहाणांप्राग्गतिः, चक्रस्य प्रत्यग्गतिः, इति। आदौभगवता सृष्टे चक्रे अश्विन्यादिघटिकायां भानुवारे प्रतिपदि चैत्रमासे शुक्लपक्षे प्रभवसंवत्सरे, कुपिण्डोपरि वायुद्वयोपरिवर्त्तमाने प्रवहबायौचन्द्रबुधश्शुक्ररविकुजगुरुशनयोनिवेशिताः, स्वस्वोपरिकक्षास्थाञ्चक्रान्तर्वर्त्तिनोऽपि चक्रान्तस्था इव भान्ति, तद्वशादेव प्रागुदयः, पश्चादस्तमयश्च तेषाम् ऋक्षानुभवः कथमित्युक्ते कालचक्रस्यप्रतिपद्यन्तसूत्राणि चन्द्रकक्षानिर्गतानि306किल, प्रतिग्रहकक्षाग्रहणमाचरन्ति तद्वशात् घटोमयसमयंश्च स्वकक्षासु प्रातनगत्या कुलालचक्रविपरीतगतिकीट इव प्रतिदिनं नभोधृतिभूमितपोजनप्रमाणमार्गञ्चरतां स्वस्वकक्षामागतानां वृहलघुभगतिरिति सम्यगुपप-द्यते। सा सर्वेषां समाप्तिभिन्नेव प्रतिफलति, लिङ्गलिङ्गालयकृता प्रदक्षिणपुरुषगतिरिव, एवं चन्द्रशन्योर्येाजनीयम्। उक्तञ्च सिद्धान्ते
“मन्दामरेज्यभूपुत्रसूर्यश्ऽक्रेन्दुविन्दवः।
परिक्रमन्त्यधोधःस्थाः सिद्धा विद्याधरा घनाः”॥इति।
“कक्षाः सर्व अपि दिविषदां चक्रलिप्ताङ्कितास्ता
वृत्तेर्लब्ध्योलघुनि महति स्युर्महत्यश्च लिप्ताः।
तस्मादेते शशिशशिजसितादित्यभौमेज्यमन्दा-
मन्दाक्रान्ता इव शशधराद्भान्ति यान्तः क्रमेण॥इति।
ग्रहगतिरपि षोढा पूर्वापरा उदग्याम्या ऊर्द्धधरा चेति कश्चिद्विशेषोऽत्रावगन्तव्यः। सूर्यः किल जननस्तद्वशात् सृष्ट्यादिकाला जाताः शश्वत् प्राग्दिशञ्चरतोः सूर्यचन्द्रयोर्दशन्ते सङ्गमः सम्भवति। तस्मात् शीघ्रगत्या पुरोगते चन्द्रे भाना पृष्ठस्थे द्वादशांशमितं यदा भवति तावत् प्रतिपदुत्पद्यते। चतुर्विशत्यंशान्तरे द्वितीयेत्याद्युत्पत्तिरित्येवमन्यासां तिथीनां ज्ञातव्यम्। चन्द्रादेव नक्षत्रं तयोर्योगाद्योगसिद्ध्यर्थं करणमेवं पञ्चाङ्गोपपत्तिः। ग्रहपतिचलनादेव लोकान्धकारनिवृत्त्यर्थं भगवति केचित् शिशुमारे ग्रहस्थानं वदन्ति, तदनर्हमिति भवदुक्तं तदेव ग्राह्यं भवति। कुतः, पुराणप्रमाणस्य विद्यमानत्वात्। सर्वज्ञैर्व्यासैः किमन्यथा प्रतिपादितम्। शिशुमारं किल स्वस्तिकमध्यनीलवदनेन गृहीत्वा निजाङ्गेन ब्रह्माण्डमाक्रम्य कालचक्रं स्वपृष्ठाधारेण भ्रमयन् तदन्यमुखेन याम्यध्रुवकीलं गृह्णाति। मुखाभ्यामष्टाक्षरतेजोरूपेणेन्मिषं तद्वलादधःप्रदेशाधारं महाकूर्मेण धृत्वा वर्त्तते इति कालभयेन ग्रहाभ्रमन्तीत्युक्तम्, न तथा वक्तव्यम्, श्रुतिविरोधात्।तथाहि
“भीषास्माद्वातः पवते भीषोदेति सूर्यः।
भीषास्मादग्निश्चेन्द्रश्च मृत्युधावति पञ्चमः"॥
इति उपक्रम्य जगदुपादानकारणं विवक्षितम्, अन्तेन ग्रन्थेन “स एकोब्रह्वण आनन्दः” इति। श्रतो ‘अस्मात्’ ब्रह्मण एव, ‘भीषा’
भयेन, ‘वातः पवते’, ‘भीषा’, एव ‘सूर्योऽपि’, उदेति ‘अग्निश्च’, सर्वलेाकेषु वहिरन्तर्व्याप-कत्वेन वर्त्तते। ‘इन्द्रः’, त्रिलोकाधिपत्यं करोति। ‘मृत्युरपि सर्वप्राणिहिंसाव्याजेन ‘धावति’, इति तस्मात् क्षपणक कालो ब्रह्मेति मूढबुद्धिं परित्यज्य शद्धाद्वैतवृत्तिमाश्रय, तया जाग्रदाद्य-वस्थाचितयातीतमनोन्मयं गुरुमुखाज्ज्ञात्वा मुक्तो भवसोति नियमितः क्षपणकः परमगुरुं मत्वा शुद्धाद्वैतविद्याश्रितोऽभवत्॥
इत्यानन्दगिरिकृतौ क्षपणकमतनिवर्हणं नाम षट्चत्वारिंशत्प्रकरणम्॥४६॥
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शङ्करविजये
सप्तचत्वारिंशत्प्रकरणम्।
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ततः पित्रुपासकाः सत्यशर्मछतवर्मादयः समागत्य परमगुरुं नत्वेदमृचुः, स्वामिन्नस्मतं सावधानेन श्टणु, पित्रयजनमेव नियतं कर्त्तव्यम, ते पितरः प्राचीना अग्निष्वात्तादयश्च-न्द्रमण्डलोपरि स्वर्गे नित्यमुक्ताः सन्तो वसन्ति। विचार्यमाणे तेषां मध्ये अमूर्त्तयस्त्रयः, मूर्त्तीश्चत्वारः, तदुपासनमत्यन्तफलद मितिकृत्वा तदन्येषामपि तदाधारत्वेन तत्तृप्तिद्वारा तेषामपि तृप्तिदर्शनात्, प्रतिवर्षमखिलतृदिनेषु सावत्यादिषु तदुपासनमेवास्माभिरादरात् कृतम्,
“श्राद्धकृत्सत्यवादी च गृहस्थोऽपि विमुच्यते”।
इति मोक्षहेतुत्वाच्च पितृमानेन चान्द्रमासस्य दिनरूपत्वात् मध्याङ्कममा भवति, अर्थादर्द्धरात्रं, पूर्णिमा, शुक्लपक्षाष्टृम्यामस्तमयः, कृष्णपक्षार्द्ध सूर्योदयश्च। तस्मात् सर्वेऽपि गृहस्थाः श्राद्धं कर्म्मअमायां कुर्वन्त्येव, तत्तृप्ते तेषां मुनिरिति सुस्थकैरेव मुक्तिः, परमगुरुः पठति भोः सत्यशर्मकृतवर्म्मादयः श्टणुध्वम्, भवन्मतमनर्हम्, कुतः, प्रमाणाभावात्। श्राद्धं कर्म्म कुर्वीतेति वचनमेव प्रमाणमिति यद्यच्यते तर्हि तेन कर्मणा मुक्तिरिति कथं न कर्मणेति निषेधदर्शनात्। किं ब्रह्मविदा-
प्नोति परमित्यादोनि वाक्यानि नहि भवद्भिरधीतानि, पितृकर्मण्येवाधिश्रवणसूक्तं न वर्त्तते, नोसदासीन्नासदासीदित्यादौ तदेव विचारयध्वम्। कर्मङ्गसुक्तेनैव कर्मनिवृत्तिर्भवति, पितृसृक्तानां ब्रह्मपरत्वात्। अतो ये कर्मविहिता मन्त्रा वर्त्तन्ते तेषां त्रिविधरूपता कल्पनीया, विध्यर्थवादमन्त्रभेदात्। “अहरहः सन्ध्यामुपासीत,” “ज्योतिष्टोमेन स्वर्गकामेयजेत”“न कलञ्जन्भक्षयेत्” “न परदारान् गच्छेत्” इत्यादिवाक्यानि विधिपराणि। एतदावश्यकं कर्त्तव्यम्, एतदकर्त्तव्यमिति बाधरूपात् केचिदर्थवादा वर्त्तन्ते, “हरिश्चन्द्रो ह वै धर्म इक्ष्वाको राजा पुत्र आह, तस्य शतं जाया बभ्रुवुः, तासु पुत्रं न लेभे, तस्य ह पर्वतनारदौगृह ऊषतुः, स ह नारदं पप्रच्छ, इति जनको ह वैदेहोवजदक्षिणेन यज्ञेनायजत, तत्र हकुरुपाञ्चालानां ब्राह्मणाअभिस्मेता बभ्रुवुः, तस्य ह जनकस्य वैदेहस्य विजिज्ञासा बभूवेत्यादि। भृगुर्वैवारु-णिर्वरुणं पितरमुपमसार, अधीहि भगवा ब्रह्मेति”। अचेदं चिन्त्यते एतदर्थवादरूपाण्यंशानि नो दिव्यानि प्रयोजनाभावात्। विधिमन्त्राभ्यामेव सर्वप्रयोजनसिद्धेरित्यत आह, अधिकरणरत्न-मालायाम्,
“पारिप्लवार्थमाख्यानं किंवा विद्यास्तुतिस्तुतेः।
ज्याथोऽनुष्ठानशेषत्वं तेन पारिप्लवार्थकः”॥
अस्यार्थस्तु अध्वरे महावेद्यां रात्रिषु राजानं सकुटमुपवेश्य तदग्रत एव वैदिकान्युपाख्यानानि अध्वर्युणा पठितव्यानि,
तदिहाख्यानं कर्म पारिप्लव आचक्षते नतु विद्यास्तुतिमात्रमाख्यानं प्रातः सायङ्कालयोरुचितहविर्होमानन्तरकालानुष्ठानपूरणं किलाख्यानैर्भवतीति कृत्वा अनुष्ठानशेषत्वं ज्यायः श्रेष्ठं भवतीत्यर्थः। अतोऽनुष्ठानापयोगित्वेनार्थवादा ग्राह्या भवन्ति। मन्त्रास्तु गायत्र्यादयः। “तत्पुरुषाय विद्महे, महादेवाय धीमहि, तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्”। “नारायणाय विद्महे, वासुदेवाय धीमहि, तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्”। “एह्यग्नये ह होता निषोदादवसु, पुरा एता भवानः, अवतां त्वा रोदसी, विश्रमन्ये यजामहे सौमनसाय देवान्” इत्यादयः। यस्मिन् कर्मणि यो मन्त्रो विधिदर्शितः स तस्मिन्नेव सदाङ्गीकर्त्तव्य इति अर्थे पर्यवसिते आर्यैरखण्डं निर्गुणं नित्यशद्धबुद्धमुक्तस्वरूपं ब्रह्म सर्वतन्त्रवाद्यमुन्नेयम्। श्रवणादिना कर्मणां गहनत्वाद्वेदानां सगुणत्वाच्च। उक्तञ्च भगवद्गीतासु
“त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन”।इति।
अतो मुमुक्षुणा निस्त्रैगुण्येन भवितव्यम्। तस्माद्भवन्तोऽपि पवित्रादिधारणेन पितृकर्म्मप्रप-ञ्चप्रवृत्तिं गताऽनेकजन्मार्जितां परित्यज्य सद्गुरुमुखेन्मेषमहावाक्यश्रवणादिना मुक्ता भवथ।“नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय” इति निषेधदर्शनात्, इत्युपदिष्टास्ते परमगुरुं नत्वा तदुपदेशबलात् कृतार्थी अभवन्॥
इत्यानन्दगिरिकृतौपितृमतनिवर्हणं नाम सप्तचत्वारिंशत्प्रकरणम्॥४७॥
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शङ्करविजये
अष्टचत्वारिंशत्प्रकरणम्।
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ततः शेषोपासका गरुडोपासकाश्च शङ्खपादकुब्जालीढप्रभृतयः समागत्य स्वामिन-मिदमूचुः भो गुरो मदीयं मतद्वयं अतिविचित्रतरं श्टणु, शेषः किल भूभर्त्ताभगवतो नारायणस्य तल्परूपेणान्तरङ्गः, ततः किल तस्मात्तदाकाराकारिततर्षणधारणमात्रेण307मुक्ता वयमिति, गरुडः किन्न सर्वलोककुक्षिप्रवेशं भगवन्तं स्वोपर्य्यारोह्य सञ्चरते इत्युत्कर्षेण तदुपासकाश्चनित्यमुक्ता वयं भगवद्भक्ताग्रगण्या इति प्राप्ते पूर्वपक्षे परमगुरुः पठति भोः शङ्खपाद, कुजलीढ, भवदविवेकः किमु वक्तव्यः। नारायणस्य तल्पवाहनोपास-नेनमुक्तिरित्युक्तम्, तदत्यन्तदुग्रह्यम्, तर्हि नारायणोपासनमेव कुरुतात् तस्य सर्वाक्तत्वात् ब्रह्मांशकत्वाच्च। परम्परया चित्तशुद्ध्यनन्तरं परमगुरूपदिष्टमार्गेण मुक्ता भवथ, इत्येवमुक्तौ तौ आचार्यं नत्वा शिष्येभ्यः शुद्धाद्वैतविद्याश्रिता बभ्रुवतुः॥
शङ्करविजये
एकोनपञ्चाशत्तमप्रकरणम्।
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ततः सिद्धोपासकाश्चिरकीर्त्तिजनितानन्दपरार्जुनादयः समागत्य स्वामिनमिदमूचुः, भोः स्वा-मिन् मदीयमतमतिविचित्रनरं किल मदुपाख्यानां सिद्धानां विचित्रत्वात्। अतः सिद्धोप-देशपरिलब्धसकलमन्त्रबुद्धयो वयं कृतार्थ मुक्ताश्च। तस्मात् भवन्तोऽपि सिद्धमतावलम्बिनो भवथ। श्रोशैलादिभगवदाविर्भूतस्थलेषु मन्त्रैषधविशेषान् प्राप्य सत्यनाथादिसिद्धाः कृता-र्थश्चिरञ्जीविनश्च बभ्रुवुः। तदुपदेशेन तथाविधा वयम् अस्माभिः सर्वप्रपञ्चो विदितः किल, तत्कथमित्युक्ते निधिनिक्षेपाञ्जनदर्शन मोहनस्तम्भनवश्यवादिस्तम्भनादिविद्याविशेषैः, अत्याहारानाहारजलाग्न्याकाशपृथ्वीजयसलिलजयवह्निजयवायुजयादिविद्याविशेषैः, विशेषे-ण पारदपानतैलपानप्रभृतिभिश्च अपमृत्वकालमृत्युहरप्रवृत्तिभिर्योगविशेषैः, अकालवर्षाका-लाशनिपातवृश्चिकवर्षसर्पवर्षवहिवर्षशिलावर्षादनुवर्षनक्षत्रवर्षग्रहवर्षप्रभृतिभिः क्रियावि-शेषैः, सलिलवर्षक्षीरवर्षदधिवर्षमध्वाज्यवर्षसुरावर्षामृतवर्षकनकवर्षादिभिः शक्तिविशेषैः, कुसुमवर्षान्नवर्षधान्यवर्षादिभिर्यक्षिणीविशेषैः, मीनवर्षपश्ऽवर्षयुवतिवर्षीदिभिर्मेहिनोवि-शेषैः, भूम्युत्क्षेपण्सलिलोत्क्षेपणवद्भ्युत्क्षेपणसलिलवायूत्क्षेपणतरुत्क्षेपणरिपूत्क्षेपणाद्यु-द्देश्यकविद्यारूपमन्त्रविशेषैः, गृहदाहग्रामदाहपुरदाहारण्यदाहादिभृदाहेति विद्यामन्त्रविशे-षैः, स्त्रीपुरुषाकृतिकरण-
पुरुषख्याकृतिकरणशत्रुजयसेनाजयस्त्रीजयादिकक्षघटिकादिविद्याप्रभेदैः, अयः करणताम्रक-रणरजतकरहेमकरणादिधातुविद्याप्रभेदैः, दृष्टिनिर्बन्धनसिंहशरभव्याघ्रादिदुष्टम्मृगबन्धनादी-न्द्रजालमहेन्द्रजालादिमन्त्रमूलिकाकज्जलविशेषैः, एतदाद्यनेकविशेषैर्वयं सर्वज्ञा एवाध्यास्महे, तस्मादनन्यभेद्यमस्मन्मतमिति प्राप्ते भगवानाचार्यः पठति, भोश्चिरकीर्त्तिनित्यानन्दपरार्जुनादयः किमनित्यफलेपशुभिर्भवद्भिः सम्भाषणमपि नाहं कुर्व्वे, कुतः, किं विचित्रवेषैः प्रयोजनं विद्यते, निधिनिक्षेपाद्यञ्जनादिभिः परद्रव्यापहारदोषप्राप्तिमात्रमेव फलम्, चिरजीवित्वादिभिर्न मुक्त्यु-पायः सम्भवति, देहस्य दुःखालयत्वात् तत्परित्यागेन ब्रह्मप्राप्युपायोबुद्धिमद्भिः सम्पादनीयः। तस्य गुर्व्वधीनत्वात्तन्मुखपद्मविगलनाद्वयामृतपानपरायणनित्यमुक्ताः सुखिनश्च भवन्ति। तदन्ये पुनर्दुःखालयमेव शाश्वतं संसारं नित्यं यान्ति, चिरजीविनां सुखमिति यद्युच्येत, तर्हि युगान्तरे मन्वन्तरे वा सर्वलोकजरामृत्युकालविलयोऽस्त्येव, तत्रापि पुनर्दुःखप्राप्तिरेव स्यात्। तस्मान्मुक्तानां यत्सुखं नित्यानन्दरूपं वर्त्तते, न तदन्येषां तत्, क्लेशाभावान्मुक्त्युपाय एव सुखेच्छुभिरनुदिनं चिन्तनीय इत्युक्तास्ते परमगुरुमाचार्यस्वामिनं नत्वा तदुपदेशबलान्मनो-न्मन्यां मनोलयं कृत्वा नित्यतेजःकूटरूपब्रह्मानुसन्धानं कुर्वन्तः शिष्यतरा बभ्रुवुः॥
इत्यानन्द गिरिकृतौसिद्धमतनिवर्हणं नामैकेानपञ्चाशत्तमप्रकरणम्॥४८॥
शङ्करविजये
पञ्चाशत्प्रकरणम्।
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ततः परं गानशीलाः विश्वावसुनामगन्धर्वकन्यकापत्युपासकाः पद्मोक्तमिथिलांगतगुण्ड-गानादयः परमगुरुं नत्वेदमूचुः, स्वामिन् वयं किल कृतार्थाः, मदीयमतमखिलपरमानन्ददम्, विश्वावसुपासनेन विदितगानकारणनादापासन परिलब्धवर्णातीतविन्दुकलाः, ध्यानसम्भूत-कलानुभव एव ब्रह्मानुभव इति कृत्वा नित्यमुक्ता एव, तस्माद्भवन्तोऽपि मुक्त्यभिलाषिणः सदा गान्धर्वविद्यापरिश्रमं कुरुध्वमिति प्राप्ते भगवान् पठति, ननु मादज्ञानेन ब्रह्मावाप्ति-रित्युक्तम्। तदयुक्तम्। श्रुतिविरोधात्, ब्रह्मणः शब्दाद्योतत्वाच्च विन्दुकलयोरपि सगुणत्वात्।
** “नादविन्दुकलातीतं यस्तं वेद स वेदवित्”** इति स्मृतेः।
“अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं
तथाऽरमं नित्यमगन्धवच्च यत्।
अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं
**निचाय्य तं मृत्युमुखात् प्रमुच्यते’’॥**इति कठश्रुतेः।
तस्मान्नादविन्दुकलातीतं परममद्वयंनित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वरूपं शुद्धं ब्रह्म उपासकानां निजैक्यकरणदक्षं सदा भजध्वम्, तद्वारा मुक्ता भवथेत्युद्देशमङ्गीकृत्य शिष्यास्ते बभूवुः॥
इत्यानन्दगिरिकृतौगन्धर्वमतनिवर्हणं नाम पञ्चाशत्प्रकरणम्॥५ ●॥
शङ्करविजये
एकपञ्चाशत्प्रकरणम्।
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ततः केचित् चितिभस्मव्याप्तसर्वाङ्गाः शल्यविशेषभूषितमणिबन्धगला भूतराडुपासकाः स्वामिनं नत्वेदमूचुः, स्वामिन् अस्मन्मतं श्टणु, भूतराजाः सप्त सप्तलोका दूत्र तालप्रमाण-देहिनोवर्त्तन्ते। उपासकानां प्रत्यक्षं तदुपासनेन शत्रुजयादिफलमस्तीति, गणकर्त्ती वेतालः। तदुपासकानामस्माकं सर्वलोकवशङ्करं रूपं फलमस्तीति प्राप्ते पूर्वपक्षे भवद्भिरेवमुक्तम् भृतवेतालोपासका भवन्मतमनईमेव भवति, ब्राह्मणानां नित्यकर्मादि परित्यज्य भूतादेरुपा-सनानईत्वादवेदमूलकत्वाच्च, तदुपासनमनर्हमेव।
“अपसर्पन्तु ते भूता ये भूता भुवि संस्थिताः।
ये भूता विघ्नकर्त्तारस्ते नश्यन्तु शिवाज्ञया”॥
इति वचनाच्च ब्रह्मकर्मप्रतिबन्धकरूपभूतार्चनं ब्राह्मणानामयुक्तम्, तदन्येषां रागद्वेषादि- रज्जुबद्धानामन्योन्यहानिमभीपूनां तद्विद्यावैशद्यप्रत्यासत्तिरिति सिद्धान्तः। यूयं ब्रह्मकुलजा एवमुक्ताचारं परित्यज्य शुद्धाद्वैतविद्याश्रिता वर्णोचितकर्मशोला भवथ। स्वकर्मभ्रष्टानां नहि गतिरिति, अमुत्र फलदेति गोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यैरभिहितमस्माभिरित्युक्ताः क्रोधद-ण्डविद्वेषणरागादयः स्वामिनं नत्वा तदुपदेशविदिततत्तत्कर्मशीलाः शुद्धाद्वैतविद्यानिरताः पञ्चपूजापरायणा बभूवुः॥
इत्यानन्दगिरिकृतौ भूतवेतालमतनिवर्हणं नामैकपञ्चाशत्प्रकरणम्॥५१॥
शङ्करविजये
द्विपञ्चाशत्प्रकरणम्।
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एवमशेषमतनिवर्हणं कृत्वा दिनमणो मध्यन्दिनङ्गते मणिकर्णिकातोरे निदिध्यासनलालसे परमगुरौ भगवान् व्यासः किल स्थविरब्राह्मण इव समागत्य षट्सहस्रशिष्यसमेतं प्रमथाधिवृतमोशमिव, देवावृतमिन्द्रमिव ऋष्यावृतं ब्रह्माणमिव दृष्ट्वा कोऽयमित्याक्षिपत्। शिष्यास्तं मायावेशधारिणमिदमूचुः,
श्टणु, वृद्ध, परानन्द गुरुः शङ्करनामकः।
सेतुप्रभृतिदेशेषु मतध्वंसमथाचरन्॥
भाष्यं कृत्वा ब्रह्मसूत्रतात्पर्यार्थविनिर्णयम्।
अद्वैतार्थावबोधेन शिष्यान् कृत्वा विवेकिनः॥
जयत्येव हि गङ्गायास्तोराविर्भूतचन्द्रवत्।
एवमुक्तः स्थविरोऽपि शिव्यसङ्घमतीत्य कम्यत्पलितवदनशिराः शङ्कराचार्यमिदमाह, यत्र भवताधिकृतः किमु ब्रह्मसृत्रपरिश्रमः। परमगुरुराचार्यं समोक्ष्यैवमवादीत् भो विप्र कुत्र भवतः प्रवेशस्तत्रैव वष्मोति। वृद्धः पुनराह, तदन्तरप्रतिपत्तौ रंहति सम्परिव्क्क्क्रः प्रश्ननिरूपणाभ्यामिति वचस्य कोऽर्थे भवताधिकृतः। पुन-
र्जगाद परमगुरुः, भूतस्रुक्ष्मैः सम्परिष्वक्त एव ‘तदन्तरप्रतिपत्ती’ देहान्तरप्रतिपत्तौ, ‘रंहति’ गच्छति, जीवो लिङ्गशरीरबन्धः परलोकमिति। वृद्धोऽप्येवमाह, भूतानां सर्वदेशसमत्वा-त्कर्मानुकूले गात्रग्रहणं तत्रैव करोतु यत्रैवारब्धव्या इति। पुनः परमगुरुराह, वृद्ध मूढतर तत्त्वमस्य न विदितं भवता। तथाहि, स्वदेहवीजभूतैर्भूतस्रुक्ष्मैःसम्परिष्वक्त एव गच्छतीत्यवगन्तव्यम्, कुतः, प्रश्ननिरूपणाभ्याम्। तथाहि प्रश्नो यथा “पञ्चम्यामाहुतावापः पुरुषवचसेा भवन्तीति”। निरूपणञ्च द्युलोकपर्जन्यपुरुषयोषित्सु श्रद्धासेामदृश्यन्नरेतेरूपाः पञ्चाक्षतोर्दर्शयित्वा “पञ्चम्यामाक्षतावापः पुरुषवचमो भवन्तीति”, तस्मादद्भिः परिवेष्टितो जीवो यासोति गम्यते। भो यते, अन्या श्रुतिः, “जस्नैकावत्पूर्वदेहं न मुञ्चति यावद्देहान्तरं नाक्रामतीति”। भो वृद्ध, तत्राप्यपरिवेष्टितस्यैव जीवस्य कर्मोपस्थापितप्रतिपत्तव्यदेहविषये भावनादिर्धीभावमात्रं जलौकयोपमीयते इति। पुनर्वृद्ध इदमाह, व्यापिनां करणानां आत्मनश्च देहान्तरप्रतिपत्तौ कर्मवशावृद्धिलाभस्तत्र भवति, इन्द्रियाणि तु देहवदभिनवान्येव तत्र तत्र भोगस्थाने उत्पद्यन्ते, मन एव हि केवलं भोगस्थानमभितिष्ठते, जीव एव उत्प्लुत्य देहाद्देहान्तरं प्रतिपद्यते, एकद्रव वृक्षाद् वृक्षान्तरमिति। यतिः पठति, भवन्मतमनर्हं, श्रुतिविरोधात्। तत्र श्रुतिः,“न तस्य प्राणाद्युत्क्रामन्ति तत्रैव समवलीयन्ते” इति। ननु उदाहृताभ्यां प्रश्नप्रति-वचनाभ्यां केवलाभिरद्भिः सम्परिष्वको
‘रंहति’ प्राप्नोति, अप्छब्दग्रहणसामर्थ्यात्। तत्र कथं सामान्येन प्रतिष्ठाय सर्वैर्भूतसूक्ष्मैः सम्परिष्वक्तोरंहति इति यद्युच्येत, तत्रैवमुत्तरं, सूत्रमेव त्र्यात्मकत्वात् भूयस्त्वात्तत् तुशब्देन चोदितामाशङ्कामुच्छिनत्ति, “आत्मका ह्यापस्त्रिवृत्करणश्रुतेः। तास्वारम्भकास्त्वभ्युपगम्यमानाः स्वेतरदपि भूतद्वयमवश्यमभ्युपगन्तव्यम्, त्र्यात्मकश्च देहस्त्रयाणां तेजोऽबन्नानां308तदस्मिन् कार्येपलब्धेः पुनश्च त्र्यात्मकः त्रिधातुत्वात्, त्रिभिर्वातपित्तश्लेष्मभिर्न सम्भूतान्तराणि प्रत्याख्याय केवलाभिरद्भिरारम्भः शक्यते, तस्मात् भूयस्त्वापेक्षायामापः पुरुषवचम इति प्रश्नप्रतिवचनयोरप्छब्दो न कैवल्यापेक्षः। सर्वदेहेषु रसलोहितादिवस्तु दृश्यते, पार्थिवो धातुर्भूयिष्ठो देहिषूपलक्ष्यते इति यद्युच्येत, नैष दोषः। इतरापेक्षया अपां बाहुल्यं भविष्यति। दृश्यते च शुक्रशोणितलक्षणेऽपि देहवीजे द्रवबाहुल्यं, कर्म च निमित्तकारणं देहारम्भे, कर्म्माणि चाग्निहोत्रादीनि सामाज्यपयःप्रभृतिद्रवद्रव्याश्रयाणि कर्माणि, कर्मसमवायस्य चापः श्रद्धाशब्देोदिताः सह कर्मभिर्द्युलोकाग्नौ ह्वयन्त इति वक्ष्यते। तस्मादप्यपां बाडल्यप्रसिद्धिः। बाहुल्यादप्यप्छब्देन सर्वेषामेव देहवीजानां भूतसूक्ष्माणामुपादानमिति निरवद्यम्। सृचान्तरं, “प्राणगतेश्च प्राणानां देहान्तरप्रतिपत्तौ गतिः”। श्रूयते “तमुत्क्रामन्तं प्राणो-
ऽनूत्क्रामति” प्राणमुत्क्रामन्तं प्राणा अनूत्क्रामन्ति” इत्यादि श्रुतिः। सा च प्राणिनां गतिराश्र-यमन्तरेण न भवतीत्यतः प्राणगतिप्रयुक्तातदाश्रयभूतान्तरोपसृष्टानां गतिरर्थादवगम्यते। नहि निराश्रयाः प्राणः क्वचित्तिष्ठन्ति गच्छन्ति वा जीवतोऽदर्शनादित्याग्रहेण जल्पतो वृद्धस्य कपोलताडनमाचकार। परं पद्मपादं निजशिष्यमिदमाह, एनं परपक्षश्रेष्ठं वृद्धमधोमुखं पातयित्वा पादाग्रावलम्बनाद्दुरं त्यजेति। स तु गुरुभिरेवमुक्तो तूष्णीमास। यतिराड्वाक्य-श्रवणात् स्वयमेवा दूरमगमत्। ततः शिष्यः परमगुरुं नत्वा इदमाह।
शङ्करः शङ्करः साक्षात् व्यासेनारायणः स्वयम्।
तयोर्विवादे सम्प्राप्ते किंङ्करः किं करोम्यहम्॥
इत्येवमुक्तः स्वामीदमाह, स एव व्यासश्चेदनुपममतिः सोऽयमपि मामवतु अद्वैतार्थेऽप्यनु-भववहिरस्तस्मृतिर्यदि, यथाभानुर्मध्यादिषु समकरः, सर्वभुगपि पूज्योवह्निश्चप्रभाकरणात्, दुःखन्त्यजतु सपदि तन्मद्वाक्योत्थं परज्ञानात्,
आयातु स्वयमेवात्र व्यासः शिष्यजनप्रियः।
अद्वैतभाष्यकर्तारं पातु नोवादरायणः॥
स एव परमार्थश्चेद्भिदामिथ्या भवेद्यदि।
व्यासं मंयमिनां श्रेष्ठं शरणं यामि सर्वदा।
स एवाद्य प्रसन्नात्मा हरत्वखिलतामसम्॥
शङ्कराचार्येण एवं स्तुतो व्यासः सर्वसम इव समक्षमाविरासीत्, गुरुः स्वामिनं नत्वा तस्य द्वादशप्रदक्षिणाभिर्वन्दनानि कृत्वा त्वदंशस्त्वच्छिष्योऽहमिति विज्ञाप्य निजकृतब्रह्मवत्रभाष्यम-वदत्। स तु भाव्यं सम्यगवलोक्य परमगुरुमालिङ्ग्यइदमुवाच।
सूत्राणान्तु पदार्थैकतात्पर्यं विदितं त्वया।
महाशयस्तु दुर्ज्ञेय आचार्यस्त्वं जगत्पतिः॥
शिव इव शिष्यजनैाघेरुर्व्याञ्चर भाष्यमुपदिशन्मम।
शुद्धाद्वैतविदः कुरु लोकानन्यमार्गानन्यान्॥
इत्यानन्दगिरिकृतौव्यासदर्शनं नाम द्विपञ्चाशत्प्रकरणम्॥५२॥
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शङ्करविजये
त्रिपञ्चाशत्प्रकरणम्।
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एक्मुक्त्वातु स स्वामी उच्चरन्तं मुनीश्वरम्।
नत्वेदमाह सर्वज्ञ मदंशोऽद्य भविष्यति॥
प्राणे प्रणवं वीक्ष्याथ यास्यसि त्वं दयानिधे।
त्वत्पादसन्निधेर्येगान्मुक्त एवाहमद्वयः॥
इत्युक्तः शङ्कराचार्यमिदमाह घृणान्वितः।
कथं प्रसिद्धं भाव्यं स्याद्गते त्वयिजगत्यलम्309॥
तस्मादद्वैतबोधाय स्थिरो भव परावरे॥
आज्ञप्तोऽप्येवमाचार्यः पुनराह मुनीश्वरम्।
षोडशेषु शरत्खेव यदायुस्थितिरित्यतः॥
व्यासस्त्वाकर्षयामास ब्रह्माणं सृष्टिकारणम्।
ब्रह्माण्यवादीदेवं हि स्वतन्त्रः शङ्करं प्रभं॥
दुष्टाचारविनाशाय प्रादुर्भूतो महीतले।
स एव शङ्कराचार्यः साक्षात्कैलासनायकः।
यावदिच्छाब्दमुर्व्यांहि स्थित्वा पश्चाङ्गमिष्यति॥
इत्यानन्दगिरिकृतौ ब्रह्मदेववचनं नाम त्रिपञ्चाशत्प्रकरणम्॥५३॥
शङ्करविजये
चतुःपञ्चाशत्प्रकरणम्।
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इति ब्राह्मवचः श्रुत्वा व्यासः काशीकृतालयः।
करेणानोय गङ्गाम्बु जीव त्वं शरदां शतम् ॥
इत्युक्क्ताप्रोक्षयामास शङ्कराचार्यमुत्तमम्।
व्यासदत्तायुरुत्कृष्टतेजःपूर्णकलेवरः॥
बभौ श्रीशङ्कराचार्योब्रह्मव्यासयुतस्तदा॥
विष्णुवागीशसंयुक्तमहादेववदद्भुतम्॥
स तु नत्वा मुनिश्रेष्ठं ब्रह्माणं पारमार्थिकः।
कृतार्थोऽस्मि भवत्पाददर्शनादित्यभाषत॥
श्टवाचार्य भिदा मिथ्या अद्वैतं पारमार्थिकम्।
उपदेशं नृणामेवं कुरु यत्नेन सर्वतः।
इत्युक्क्तान्तर्दधे ब्रह्मा व्यासश्च भगवानृषिः।
इत्यानन्दगिरिकृतौव्यासदत्तायुःप्रपञ्चनं नाम चतुःपञ्चाशत्प्रकरणम्॥५४॥
शङ्करविजये
पञ्चपञ्चाशत्प्रकरणम्।
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तस्मात् उदङ्ग्मार्गमवलम्ब्य अमरलिङ्ग केदारलिङ्गं दृष्ट्वा कुरुक्षेत्रमार्गात् वदरीनारायणदर्शनं कृत्वा तंत्र शीतलोदकस्वानस्यातिदुःसहत्वात् हिमवत्सान्निध्याच्च भगवन्तमिदमुवाच, भो नारायण स्नानाय उष्णोदकं नो देहि, इति। स तु नारायणः स्फटिकादधः प्रदेशात् उष्णतीर्थ-सरितमुत्पादयामास। सर्वे द्विजाः स्नात्वा शङ्कराचार्यन्तुष्टुवुः। तस्मात् द्वारकादिदि-व्यस्थलविलोकनात् प्रादक्षिण्यमयोध्यां प्राप। तस्मात्पुरात् गयाया मीशानादिदर्शनं कृत्वा गङ्गासहस्रनामसकलस्नानमाचरन् जगनाथमार्गात् पर्वतं प्राप। तत्र महादेवं मल्लिकार्जन-नामानं तच्छक्रिमद्वैतविद्यारूपिणीं भ्रमराम्यां नत्वा तत्रमासमास्थिते परमगुरौ रुद्धाख्यपुरांत् ब्राह्मणः समागम्य परमगुरुमिदमूचुः, स्वामिन्, भट्टाचार्याख्यो द्विजवरः कश्चिदुदग्देशा-त्समागत्य दुष्टमतावलम्बिना बौद्धान् जेनानसङ्ख्यातान् राजमुखादनेकविद्याप्रसङ्गभेदैर्नि-र्जित्य तेषां शीर्षाणि परशुभिश्छित्वा बहुषु उल-
खलेषु निक्षिप्य कटभ्रमणैश्चूर्णीकृत्य चैवं दुष्टमतध्वंसमाचरन् निर्भयो वर्त्तते इति।
श्रुत्वैतदद्भुतं कर्म गुरुः शिष्यसमन्वितः।
प्राप्तो रुद्धाख्यनगरं जयशब्दविजृम्भितम्॥
तत्र दिनदशकपूर्वकाले भट्टाचार्यः सर्वविपक्षध्वंसं कृत्वा जैनगुरुमुखात्कश्चिद्विद्यालेशोजात इति गुरुबधप्रायश्चित्तं विचार्य अष्टात्रतशतकारिकाप्रमाणोपत्यकाकरीषोपरि होमाग्निना परितः क्रमाद्दग्धेन वस्तिव्यमिति निश्चित्य विजनप्रदेशे तथा कारयित्वा तत्र कृतप्रायश्चित्तदीक्षः स तु करोषपर्वताग्रवासी समवर्त्तत। तदानों परमगुरुर्भट्टाचार्यं वीक्ष्यदमाह,
अज्ञानेन किल प्राप्ता व्यवस्था भवता द्विज।
ईदृशान् मूढ गूढार्थान् न वेत्सि निगमान् यतः॥
“हन्ता चेन्मन्यते हन्तुं हतश्चेन्मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते”॥
इति श्रुतेः। इत्युक्तो जानुमात्रदग्धोऽपि भट्टाचार्यः परमगुरुमिदमुवाच, जाग्रत्कालानागतो नूतनों बौद्धतरः कस्मात् इहागत्य उत्तापयसि। गुरुराह, नाहं बौद्ध, किन्तु शङ्कराचार्यः, शुद्धाद्वैतमार्गदाता प्रसङ्गार्थमिहागतोस्मि इति वचनं निशम्य पुनर्भट्टाचार्यः प्राह तथाऽदग्धशेषशरीरः, मद्भगिनीभर्त्ता
मण्डनमिश्रः सर्वज्ञ द्रव सकलविद्यासु पितामच द्रव वर्त्तते। तेन साकं भवद्वादकण्डूतिनि-वृत्तिपर्यन्तं प्रसङ्गं कुरु। अहमतिकर्मविपाकधर्मसूत्रबद्ध ईदृगवस्थया परलोकं यामि। मे भवद्दर्शनं प्रतिफलदमासीत् इत्युक्ता निमीलिताचः सर्वान्तःस्थब्रह्मरूढबुद्धिरासीत्। ततः परमगुरुरपि सर्वजनस्तुयमानविभवः पुनः पट्टणं प्राप्य रुद्धाख्यपुरवासिनः सर्वान् अद्वैतमा-र्गाश्रितान् चकार॥
इत्यानन्द गिरिकृतौभट्टदर्शनं नाम पञ्चपञ्चाशत्प्रकरणम्॥५५॥
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शङ्करविजये।
षट्पञ्चाशत्प्रकरणम्।
——————
ढक्काशङ्खतालध्वनिभिर्जवशब्दैर्वन्दिमागधस्रुतस्तवैः पद्मपादादिशिष्यकृतकरतालैर्दिक्क-रिकर्णकुहरबधिरत्वं सम्पादयन्तः श्रीपरमगुरुप्रमुखाः कुबेरदिज्ङ्मार्गमवलम्ब्य हस्तिनपुरा-दाग्नेवदिग्भागस्थलं विद्यालयमतिप्रसिद्धं तद्देशवासिनस्तु विजिल विन्दुरिति वदन्ति तत्पुरं प्राप्य तत्पुरान्तराले चतुर्योजनविस्तारे प्रत्यगदिशि कोशमात्रसमचतुरस्त्रभूमिनेमिभागे तालतरू-च्छितां शालां निर्माय तन्मुखे शतहस्तप्रमाणं परस्पराभिमुखं वेदिकाद्वितयं तदुपर्येतिप्रोतदा-रुपञ्जरबद्धशुकपञ्जराणि अनेकानि कल्पयित्वा तच पञ्चशतशिष्यानेकैकशास्त्रपारीणान् मण्डनमिश्र आचतुर्मुखेभ्यो ब्रह्मा इव सहस्त्रवदनेभ्योऽहिराज इव पञ्चास्येभ्यो रुद्र इव षड्दर्शनपाठपराक्रमितान् नानानदसमुद्रप्लवमानान् शिष्यान् अखिलाशाजयसमर्थनाचकार। तच्छालान्तरे सेवकैर्दासीदासजनैः कूपतडागादि निर्माय तद्वारिपरिबद्धसकलशस्यारा-मादिभिः प्राप्तान्नशाकादिभिरेव प्रत्यहमखिलशिय्यैः सह षड्रसेापेतान्नभक्षणपरितृप्ततनुर्निव-सन्, अर्थात् प्राप्ते पैतृकदिने निमन्त्रितब्राह्मणार्थनिमित्तं पितृस्थानाय व्यासं मन्त्रशक्तिबलादा-गतं निमन्त्रयामास। विश्वे देव-
स्थानीयतत्समब्राह्मणाभावात् लक्ष्मीनारायणरूपं शालग्रामं निमच्य कृतसकलपाकया विजयवत्या, पितृसमर्चनं कुरु पाको जात इति गृहीतवचनः शुचिः प्रसन्नहृदयो मण्डनमिश्रः पवित्रभूषितकरकमण्डलुकूचधरो माध्यामिकब्रह्मयज्ञवैश्वदेवकर्माणि कृत्वाचम्य पदे सङ्कल्प्य क्षणं (१) देवार्थं310 शालग्रामे दत्वा पित्रर्थं व्यासकरे दत्वा गृहाङ्गणे चतुरस्त्रवर्त्तुलमण्डल-द्वयंकृत्वा तत्पूजां विधिवदाचरित्वा स्वयं प्रत्यङ्मुखो भूत्वा देवस्थाने क्षणं दत्वा शालग्रामं दर्भेपरि सन्निवेश्य विश्वेदेवध्यानमाचरन्नास। तदानीं किल परमगुरुः सर्वशिष्यान् तत्पुर-पूर्वभागोद्यानेषु सन्निवेशयित्वा स्वयं पुरं प्रविवेश।भानौ खस्वस्तिकारूढे पुरः प्रत्यग्भागमार्गे किल दारकदम्बं वीक्ष्य मण्डनमिश्रालयः कुत्रास्ति इत्यब्रवीत्। तत्पृष्टास्ताः परमगुरुं प्रत्यूचुः,
प्रत्यक्षशब्दान्तविधिप्रभेदैः
शुकाङ्गना यत्र गिरं वदन्ति।
द्वारे तु नोडान्तरमनिरुद्धाः
अवेहि तन्मण्डनमिश्रधाम॥
जीवेश्वरैक्येन भिदाप्रभेदैः
शुकाङ्गना यत्र गिरं वदन्ति।
द्वारे तु नोड़ान्तर इत्यादि॥
शब्दान्तसत्प्रत्ययधातुवादैः
शुकाङ्गना यत्र गिरं वदन्ति।
द्वारे तु इत्यादि॥
स्नानादिविप्रोचितकर्म्मकृत्यां
शुकाङ्गना यत्र गिरं वदन्ति।
द्वारे तु इत्यादि॥
मन्त्रादिराजस्य विधानभेदैः
शुकाङ्गना यत्र गिरं वदन्ति॥
द्वारे तु इत्यादि॥
जैनोक्रिभिः कालविदुक्तिभेदैः
शुकाङ्गना यत्र गिरं वदन्ति।
द्वारे तु इत्यादि॥
कापालिकैभैरवपक्षपादैः
शुकाङ्गना यत्र गिरं वदन्ति।
द्वारे तु दूत्यादि॥
भक्त्यादिभिः शैवमतप्रभेदैः
शुकाङ्गना यत्र गिरं वदन्ति।
द्वारे तु इत्यादि॥
गणेशविष्णवर्कपरामृतार्थैः
शुकाङ्गना यत्र गिरं वदन्ति।
द्वारे तु इत्यादि॥
काव्यादिभिर्नाटकसिद्धवादैः
शुकाङ्गना यत्र गिरं वदन्ति।
द्वारे तु इत्यादि॥
आकर्षणोच्चाटनसिद्धमन्त्रैः
शुकाङ्गना यत्र गिरं वदन्ति॥
द्वारे तु नोडान्तरसन्निरुद्धाः
अवेहि तन्मण्डनमिश्रधाम॥
इत्यादिकान् बहुधा दासीवचनसन्दर्भसञ्जातह्येकान् श्रुत्वा महदाश्चर्यसम्मिश्रः परमंगुरुर्यु-वतिसङ्घमतीत्य मण्डनमिश्रग्टहं प्राप्य कवाटगुप्तं दुःप्रवेशमिति विचार्य प्राणायामब-लाद्गगनमार्गेणान्तःप्रविश्य मण्डनमिश्र कृतपूजाप्रसन्नविश्वेदेवमण्डले चयादवतिष्ठत। तदानीं मण्डनमिश्रो विश्वेदेवान् सङ्कल्प्य शालग्राम स्वागतमिति दर्भाक्षतप्रोक्षणकाले शङ्कराचा-र्यपादद्वयं मण्डलस्थं ददर्श। ततः सर्वाङ्गानि वीक्ष्यक्षणेन किलायं सन्यासीति ज्ञात्वा केोपकोलाहलचित्तः कुतो311मुण्डीत्यवादीत्, इति प्रथमवाक्यं मिश्रस्य। द्वितीयवाक्यं गुरोः, सर्वं न ज्ञातव्यम्, श्रगलान्मुण्डी, सुरा पीता, सा हि सुरा श्वेता, किं मत्तः गृहस्थेषु, किं जडधामतद्भौतिकदेहे, किं निर्भीग्य, यत्यर्त्तमंहत एव निर्भीग्यः, किं दूषकतत्पातकवति, किं चोरटत्याश्रित अरिवर्गपीडितस्यैव अप्रार्थितनिमन्त्रिताभ्यागतो वि-
ष्णुरहमित्यादिवाक्यानि व्यासः श्रुत्वा पाद्यं दीयतामिति प्राह मण्डनमिश्रं। पाद्यग्रहणकाले वादार्थमागतोऽस्मीति गुरुर्जगाद। मण्डनमिश्रोऽपि भोजनानन्तरं तदा करोमि इत्यवदत्। यथाविधि पितृकर्म निर्वर्त्य वादार्थं पणमेवं व्याचक्रतुः, गृहस्थोऽहमपि यदि पलायितः सन्यासी भवेयम्, अहमपि यदि वादे पलायितः, गृहस्थो भवामीति, उभयपक्षग्रहणसमर्थ मण्डन-मिश्रपत्नीं कृत्वा सरसवाणीनाम्नीं प्रसङ्गोपक्रममाचक्रतुः। निगमादिसर्वविद्यासु प्रसङ्गे क्रिय-माणे शतदिनात्परं प्रतिपक्षस्य स्खालित्यं श्रुत्वा खलायित इति निश्चित्य महानसात्पतिसमीपं गत्वा सरसवाणी सर्वज्ञा किलेदमब्रवीत्, नाथ मण्डनमिश्र, एहि भिक्षायै, एवमुक्तवती सारसवाणी,
‘कथां वहसि दुर्बुद्धे गर्द्धभेनापि दुर्भराम्।
शिखायज्ञोपवीताभ्यां कथं भारो भविष्यति’॥
‘कथां वहामि दुर्बुद्धे तव पिचादिदुर्भराम्।
शिखायज्ञोपवीताभ्यां श्रुतेर्भारो भविष्यति’॥
महानसात्समागम्य सरसवाणी सर्व्वज्ञा किलेदमब्रवीत्, नाथ मण्डनमिश्र विहिता भिक्षेति तां परमगुरुस्तुष्टाव, तदानीं मण्डनमिश्रः परमंगुरुचरणारविन्दं नत्वा तदुपदेशेन सन्यासी भूत्वा कुवेरदिशमभजत्॥
इत्यानन्दगिरिकृतौमण्डनमिश्रजयाभिधानं नाम षट्पञ्चाशंत्प्रकरणम्॥५६॥
शङ्करविजये
सप्तपञ्चाशत्प्रकरणम्।
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पतियत्याश्रमग्रहणात् पूर्वक्षणे महानसात् गगनमवलम्ब्य ब्रह्मलोकं गच्छन्तीं सरसवाणीं दृष्ट्वा परमगुरुर्वनदुर्गामन्त्रेण दिग्बन्धनमाचकार। तदनन्तरं भोः सरस्वाणि ब्रह्मशक्तिरसि, तदंशसम्भूतस्य मण्डनमिश्रस्य पत्नी उपाधिना प्रतिफलसि, तस्मान्मया साकं प्रसङ्गं कृत्वा गन्तुमर्हसि इति परमगुरुण उक्ता प्रत्युवाच, पतिसन्न्यासात् पूर्वमेव बैधव्यभयात् पृथिवी मया त्यक्ता, तस्मात्पुनः पृथिवीमहं न स्पृशामि हे यते त्वन्तु भुस्थ, कथं प्रसङ्गायैक-विषयस्थितिर्युज्यते इति। परमगुरुरेवं वदन्तीं प्रत्याह, मातस्तथापि भूम्युपर्य्यकाशे हस्तषट्कमात्रेणावतिष्ठ, मया सह साङ्गं सर्ववाक्यप्रपञ्चसञ्चारं कृत्वा गच्छसि, इति सादरा भूत्वा तेन सह सर्वशास्त्रेषु वेदेतिहासपुराणेष्वपि समयप्रसङ्ग कृत्वा यतितिरस्काराय दुःप्रवेशकामशास्त्रे नायिकानायकभेदप्रपञ्चेषु कृतबुद्धिरासीत्। तदानीं यतिवरः तत्कथान-भिज्ञस्तूष्णीमास॥
इत्यानन्दगिरिकृतौ सरस्वाण्या सह यतिप्रसङ्गप्रपञ्चो नाम सप्तपञ्चाशत्प्रशरणम्॥५७॥
——————
शङ्करविजये
अष्टपञ्चाशत्प्रकरणम्।
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ततः सरसवाणी किल यतिवरमित्यब्रवीत् भवदविदितं शास्त्रवृत्त्यन्तरमस्ति किल तामहं जानामि। कालवित् परमगुरुः प्रत्युवाच,
‘मातस्त्वत्रैव षण्मासं तिष्ठ पश्चात् कथासु च।
सति सर्वविभेदासु करोम्यर्थविनिर्णयम्॥
इत्युक्क्ताऽसावाग्रहपूर्वकं भगवतीं तत्रैव गगनमण्डले संस्थाप्य सर्वशिय्यान् यथायतनं प्रेषयित्वा चतुर्भिः शिष्यैः, सह हस्तामलकपद्मपादविधिविदानन्दगिरिप्रवराभिधानैः संसे-व्यमानस्तत्पुराद्वरुणाशादुर्गमवतरन् तच्छल्पप्रवचनानां मर्मविभेदं ज्ञात्वा अमृतपुरनामकं चिताङ्गणविशेषं प्राप्य तत्पतौ मृते व्यस्ते तद्देहं चितागतं ज्ञात्वा तत्पुरप्रान्ताद्रिकोटरे निजदेहं संस्थाप्य सर्वदा रक्ष्यतामिति शिष्यानुक्त्वा परकायप्रवेशविद्याप्रपञ्चेन लिङ्गशरीरमात्रेण साभिमानोजीवश्चितिगतनृपकबन्धे अम्बरनिष्ठो ब्रह्मरन्ध्रं प्राविशत्। ततश्चलितपादकरादिकं नृपं समीक्ष्य पाराः सर्वेऽपि प्रफुल्लवदनाश्चितेर्विस्मयप्राप्तजीवं राजानं शैत्योपचारैरनेकैः स्वस्यं कृत्वा चितिनिवेशापवादपरिहाराय312* कुक्कुटादिक्षुद्रजन्तून् तत्र निक्षिप्य वह्निनासंयोज्य शान्त्यर्थं बहुगन्धधारा-
भिषिक्तं भूपतिममृत इति प्रसिद्धं शङ्खभेरीकोलाहल ढक्कातालमर्द्दलादिवाद्यविशेषैर्वि-प्रपरीतशान्तिवक्तविशेषैः पुरस्त्रीकदम्बकृतनीराजनविशेषैर्हस्त्यश्वरथपदानुगचतुर्विधबल-समवेताः परमाप्तपैराः प्रभुं सिंहासनारूढमाचक्रुः। तत्र स्थित्वा ज्येष्ठभायगृहं गतः।
तदालिङ्गनसञ्जातसुखभुग्यतिकौशलात्।
मुखं मुखेन संयोज्य वक्षो वक्षोजयोस्तथा॥
नाभ्या नाभिञ्च सङ्कोच्य सङ्कोचेन पदा पदम्।
एवमेकाङ्गवत् कृत्वा गाढालिङ्गनतत्परः॥
कक्षास्थानेषु इस्ताभ्यां स्पृशन् प्रौढ इवावभौ।
तदालापविशेषज्ञा ज्येष्ठपत्नी कथादिवित्॥
देहमात्रं हि भर्त्तुः स्यात् न जीवोऽयं हि सर्ववित्।
इति ज्ञात्वा बलं दिक्षु प्रेषयामास पूर्वकम्॥
‘यत्र कुत्र शरीराणि जीवहीनानि भूमिषु॥
गुप्तानि शिष्यसङ्गैर्वानदीदेवालयादिषु।
गुहासु भूभृतां वापि मध्ये द्वादशयोजनात्॥
आलोक्य तानि सर्वाणि चितिं यान्त्विति सादरात्।
श्रवादीदपि तद्वादादन्वेषणपराभवत्॥
इत्यानन्दगिरिकृतौ देहान्तरसञ्चारविदितकृतकामशास्त्रप्रपञ्चो नामाष्टपञ्चाशत्प्रकरणम्॥५८॥
शङ्करविजये
एकोनषष्टिप्रकरणम्।
——————
नृपस्तदङ्गनासङ्गमहिमापद्यवर्णनम॥
ततः शङ्करगात्रज्ञाश्चाराः शिष्योपसेवनात्।
कृत्वा चितिं काष्ठशतैर्मध्ये स्थाप्य ततस्तनुम्॥
वहिं संयोज्य तं कुर्युः शिष्यास्तावत्पुरं गताः॥
कामलोलुपमेत्याशाबद्धर्बुद्धिं नृपोत्तमम्।
आलोक्य नाव्यं कुर्वन्ति बोधयन्तः परातिभिः॥
यत्सत्यमुख्यशब्दार्थानुकूलं तत्त्वमसि तत्त्वमसि राजन्।
न ह्येतत्त्वं विदितं नृषुभावम् तत्त्वमसि तत्त्वमसि राजन्।
विश्वोत्पत्त्यादिविधिहेतुभूतं तत्त्वमसि तत्त्वमसि राजन्।
सर्वं चिदात्मकं सर्वमद्वैतं तत्त्वमसि तत्त्वमसि राजन्।
परतार्किकैरीश्वरसर्वहेतुस्तत्त्वमसि तत्त्वमसि राजन्।
यद्वेदान्तादिभिर्ब्रह्म सर्वस्यं तत्त्वमसि तत्त्वमसि राजन्।
यज्जैमिनिनाक्तमखिलं कर्म तत्त्वमसि तत्त्वमसि राजन्।
यत्पाणिनिः प्राह शब्दस्वरूपं तत्त्वमसि तत्त्वमसि राजन्।
यत् साङ्ख्यानां मतहेतुभूतं तत्त्वमसि तत्त्वमसि राजन्।
अष्टाङ्गयोगेन अनन्तरूपं तत्त्वमसि तत्त्वमसि राजन्।
सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म तत्त्वमसि तत्त्वमसि राजन्।
नह्येतद्दृश्यप्रपञ्चं तत्त्वमसि तत्त्वमसि राजन्।
यद्ब्रह्मणे ब्रह्मविष्ण्वीश्वरा ह्यभवन् तत्त्वमसि तत्त्वमसि राजन्।
त्वद्रूपमेवमस्माभिर्विदितं राजन् तव पूर्वयत्याश्रमस्थम्॥
इत्यानन्दगिरिकृतौशिष्यागमनं नाम एकोनषष्टिप्रकरणम्॥५८॥
शङ्करविजये
षष्टिप्रकरणम्।
——————
विप्रोद्बोधितो राजा मूर्द्धामवलम्ब्य सदसि सर्वेषां देहान्निर्गमितो नीडस्थपक्षिवत्सलिङ्गकः गिरिकोटरे निजाङ्गं न प्राप, अग्नेर्मध्यगं वीक्ष्यवहि्नज्वालामध्यात् कपालमध्यात्प्रविश्यान्त-स्तदवस्थाहीनोऽयं लक्ष्मीनृसिंहं तदा प्रस्तौति,
ब्रह्मेन्द्ररुद्रमरुदर्ककिरीटकोटि-
सङ्घट्टिताङ्घ्रिकमलारुणकान्तिकान्त।
लक्ष्मीलसत्कुचसरोरुहराजहंस-
लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम्।
इत्याद्यष्टश्लोकैः॥
स्तुतो नृसिंहोऽपि लक्ष्मीसमेतः साक्षादभूव। ज्वालामालासहस्रपरिवेहितां चितिं समी-क्ष्यदक्षिणकरावलम्बनमाचार्यस्य दत्वा उत्थाप्याग्निशिखाकृतविकृतिं स्वदृगमृतपूरणेन सम्यग्विधाय सर्वलोकं जयेत्याशीः कृत्य स्वयं तिरोहितोऽभवत्॥
इत्यानन्दगिरिकृतैनृसिंहसाक्षात्कारो नाम षष्टिप्रकरणम्॥६०॥
शङ्करविजये
एकषष्टिप्रकरणम्।
—————
आचार्यस्ततः शिष्यजनसेव्यमानः शीघ्रं मण्डनमिश्रपुरं प्राप्य गगनासनस्थां सरसवाणों दृष्ट्वा परमतत्त्वरूपिणीं सर्वकलावतीं, मातस्त्वत्वतरतिशास्त्रप्रश्नानामुत्तरमद्यैव वक्ष्यामि। वाङ्मात्रेणैव सर्वज्ञा सरसवाणी सर्वज्ञस्त्वमिति स्वामिनं प्रस्तुतवत्यासीत्। ततस्त्वाचार्योऽपि विदितसमस्त-पदार्थः कृतार्थो बभैा॥
इत्यानन्दगिरिकृतौसरस्वतीविजयं नाम एकषष्टिप्रकरणम्॥६१॥
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शङ्करविजये
द्विषष्टिप्रकरणम्।
—————
ततः परं सरसवाणींमन्त्रबद्धां कृत्वा गगनमार्गादेव शृङ्गपुरसमीपे तुङ्गभद्रातीरे चक्रं निर्माय तदग्रे सरसवाणीं निधायएवमाकल्पं स्थिरा भव मदाश्रमे, इत्याज्ञाप्य निजमठं कृत्वा तंत्र विद्यापीठनिर्माणं कृत्वा भारतीसम्प्रदायं निजशिष्यं चकार। तदारभ्य शुद्धाद्वैतगुरवोभार-तीसम्प्रदायनिष्ठाः परमगुरोराचार्यस्वामिनः कटाक्षपरिलब्धविद्या313।१। वैषद्यायेति व्यवहारः।
यस्त्वद्वैतमते स्थित्वा भारतीमत314।२। निन्दकः।
स याति नरकं घोरं यावदाभूतसम्प्लवम्॥
यतिं शङ्कराचार्थगुरुप्रवर्यं
नित्यं स्मरत्युत्तमलोकवासो।
गुरुरूपज्ञातया हि मुक्तः
सत्यं परं ब्रह्म गुरुर्नचान्यत्।
नारायणं पद्मभवं वशिष्ठं
शक्तिञ्च तत्पुत्रपराशरञ्च॥
व्यामं शुकं गौडपदं महान्तं
गोविन्दयोगीन्द्रमथास्य शिष्यम्।
श्रीशङ्कराचार्यमथास्य शिष्यं
पद्मञ्च हस्तामलकञ्च शिष्यम्॥
तत्तोटकं वार्त्तिककारसद्गुरून् सततमानतोस्मि। गुर्वभिमतशुद्धाद्वैतमतमवलम्ब्य श्रद्धाभ-क्तिमतवृत्त्या जाग्रदाद्यवस्थात्रयातीतं मनोन्मनमङ्गुष्ठमात्रतनुं ध्यात्वा तद्वारा शुद्धं निष्कलं निष्क्रियं शान्तं निरवद्यं निरञ्जनं सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्मेतिवाक्यसिद्धं परमात्मानं यो वा वेद सोऽविद्यामुक्तो भवतीति दिक्॥
इत्यानन्दगिरिकृतौगुरोः सरसवाण्याश्च शृङ्गगिरिस्थाननिवासनं नाम द्विषष्टिप्रकरणम्॥६२॥
शङ्करविजये
त्रिषष्टिप्रकरणम्।
——————
तत्र परमगुरुर्द्वादशाब्दं विद्यापीठे स्थित्वा बहुशिष्येभ्यः शुद्धाद्वैतविद्यायाः सम्यगुपदेशं कृत्वा तदनन्तरं कञ्चिच्छिष्यं सुरेश्वराख्यं पीठाध्यक्षं कृत्वा स्वयं निश्चक्राम। तस्मात् अहोबलाख्यं नृसिंहाविर्भूतस्थलं प्राप्य तत्र नृसिंहं स्तुत्वा तस्मात् वैकल्यगिरिं प्राप्य वैकल्येशमखिलकारणं शुद्धाद्वैतरूपं नत्वा तत्रार्चकादीन् नत्वा द्वैतवृत्तीन् कृत्वा तस्मात् काञ्चीनगरप्रदेशं प्राविशत्। तत्र किल भगवान् महादेवः स्वकीयपृथिवीमूर्त्याविर्भूतलिङ्गरूपेण किल अम्बरेश इति प्रसिड्या वर्त्तते। तस्मिन् स्थले मासमात्रं स्थित्वा शङ्कुप्रतिष्ठापूर्वकं शिवकाञ्चीतिपट्टणं निर्माय तत्प्राक् ब्रह्मयज्ञकुण्डाविर्भूतविष्णुं वरदराजनामानं समाश्रित्य तत्र विष्णुकाञ्चीतिप्रसिद्धं पट्टणं निर्माय तत्सेवार्थं ब्राह्मणादीन् अनेकभक्तजनान् सम्पाद्य तानपि शुद्धाद्वैतवृत्तिन एव कृत्वा सर्ववेदान्ततात्पर्यैकनिष्ठः परमगुरुः सुखमास। ततस्तद्देशवासिनः सर्वे ताम्रपर्णीतटस्थाः परमगुरुं नत्वेदमूचुः, सर्वदा भिदा सत्यमिव भाति कथमभेदस्य सिद्धत्वमुचितं वक्तुं भेदस्य भूतभेदस्य प्रतिदेहभेदस्य प्रत्यक्षदृष्टत्वात्, तस्मात् भिदा एव पारमार्थिकी इति ब्रूमः। परलोकेऽपि केषाञ्चित् सुकृतकर्मवशात् स्वर्गप्राप्तिः, केषां चित् दुरितवशात् नरकप्राप्तिः, केषाञ्चित् अर्चिरादिमार्गद्वारा ब्रह्म-
लोकप्राप्तिः, केषांचित् यक्षलोकप्राप्तिः केषाञ्चित् पाशुपतानां रुद्रलोकप्राप्तिः, सौराणां सूर्यलोकप्राप्तिः, गाणपत्यानां तल्लोकप्राप्तिः, एवमनेकप्राप्तिरिति कृत्वा भेदस्यैव पारमार्थिकत्वं सम्भवतीति पूर्वपक्षे प्राप्ते परमगुरुरेवं पठति, भो द्विजवराः किमु पारमार्थिकमविदितं भवद्भिः, “यत्र त्वस्य सर्वमात्मैवाभृत् केन कं पश्येत् केन कं जिघ्रेत् केन कं विजानीयात्” इति श्रुतिभिः सर्व-स्यात्मरूपत्वेन ज्ञानाग्निदग्धपापपञ्जरस्य मर्त्यस्य न भिदा द्योतते तस्य भिदाभावान् मुक्तिरिति समस्तवेदान्तेषु निश्चयतत्त्वं न सन्देहगन्धः। “तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्” इति शास्त्र तात्पर्येण जगत्कर्त्तुः परब्रह्मण एव जीवरूपेण जगदन्तःप्रवेशावगमात्, किन्तत्तदुपासकानां तत्तल्लोकप्राप्तिरिति भवद्भिरु-क्तम्। यद्यस्ति जीवभेदस्तदा भविष्यन्ति कति भेदा इत्युपक्रम्य त्रयस्त्रिंशत्सहस्रेतिनिरुच्य के ते इति पृच्छायां “महिमानमेवैषामेव त्रयस्त्रिंशदेव देवा” इति भवति श्रुतिः, एकैकस्य देवतात्मनो-ऽनेकरूपतां दर्शयति। तथा त्रयस्त्रिंशतों वितरदन्तरभवक्रमेण कतम एको देव इति प्राणा इति, प्राणैकरूपतां देवानां दर्शयति। तस्यैकस्य प्राणस्य युगपदनेकतां दर्शयति। तथा स्मृतिरपि।
“श्रात्मनाञ्च सहस्राणि बहूनि भरतर्षभ।
योगी कुर्याद् बलं प्राप्य तैश्च सवीं महीं चरेत्॥
प्राप्नुयाद्विषयान् कश्चित्कश्चिदुग्रं तपश्चरेत्॥
संहरेच्च पुनस्तानि सूर्यस्तेजोगाणानिव”।
इत्येवञ्जातीयकप्राप्ताणिमाद्यैश्वर्य्यसङ्गयोगिनामपि युगपदनेकशरीरयोगं दर्शयति, किमु वक्तव्यम् अज्ञानसिद्धानां देवानां, अनेकप्रतिपत्तिसम्भवात्। एका सा देवता बहुरूपैरात्मानं प्रविभज्य बहुषु योगेषु युगपदङ्गभावं गच्छति परैश्च न दृश्यते। अन्तर्धानादिशक्ति-योगादित्युपपद्यते। विग्रहवत्तामपि कर्म्माङ्गभावे चोदनास्वनेकप्रतिपत्तिर्दृश्यते। क्वचिदेको विग्रहवाननेकत्र युगपदङ्गभावं न गच्छति। बहुभिर्भोजयद्भिर्नैको ब्राह्मणो युगपद्धोज्यते। क्वचित्तु एकोविग्रहवाननेकत्र युगपदङ्गभावं गच्छति। यथा बहुभिर्नमस्कु-र्वीणैरेको ब्राह्मणे नमस्क्रियते। तदिहोद्देशपरित्यागात्मकत्वात् यागस्य विग्रहपतिमेतावदेव तामुद्दिश्य बहवो युगपत्परीक्ष्यविग्रहवत्त्वेऽपि देवतानां न किञ्चित्कर्मणि विद्यते, तेष्वपि चैतन्यस्यैकरूपत्वात् सर्वस्यापि देवगणस्य ब्रह्मस्वरूपत्वाच्च, “बहुस्यां प्राजायेयेतिश्रुतेः। तस्मात् सर्वज्ञं नित्यशुद्धबुद्धस्वरूपं कारणं ब्रह्म मुमुक्षुभिरुपासनीयमिति सिद्धान्तः। तस्माद्भवन्तोऽपि जीवात्मभेदं देवताभेदं सर्वं परित्यज्य शुद्धाद्वैतब्रह्मोपासनया मुक्ता भवथेति सम्यगुपदिष्टाः काञ्चीताम्रपह्णदेशवासिनः शुद्धाद्वैतविद्याश्रिता बभूवुः॥
इत्यानन्दगिरिकृतैौ काञ्चीनगरनिर्माणं नाम त्रिषष्टिप्रकरणम् ॥६३॥
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शङ्करविजये
चतुःषष्टिप्रकरणम्।
——————
तदनन्तरं कामाक्षीप्रपञ्चश्चिन्त्यते। सा तु साङ्ख्यायनस्य मुनेराविर्भूता किलोपासनया भगवतो मरुद्रूपिणी ब्रह्मविद्या रुद्रशक्तिः। इदानीमपि गुहावासिनी भृत्वा वर्त्तते, निजमहिमाप्रकटार्थमनेकवैभवाननुभवती। तस्याः परमेश्वर्या विम्बप्रतिष्ठामष्टधा कारयामीति विद्याकामाक्षीप्रतिष्ठामाचकार। साप्युपासकानां फलदा कल्पवल्लोव समभवत्। अतो विद्यारूपया तया महापि युक्तः परमेश्वरोमोक्षद इति कृत्वा वेदवेदान्तसहस्रसिद्धमतवादः।
**“उमासहायं परमेश्वरं प्रभुं
त्रिलोचनं नीलकण्ठं प्रशान्तम्।
ध्यात्वा मुनिर्गच्छति भूतयोनिम्”**इति श्रुतेः।
अथर्वकाण्डे। “उमामनन्तं बहुशोभमानाम्" इत्यादिवाक्यानां विद्याफलमाह, उमा ‘विद्या’ ज्ञानरूपिणीति फलितार्थः। सैव मुक्तिदेति निरवद्यम्।
“या देवी सर्वभूतेषु ज्ञानरूपेण315 संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः”॥
इति मार्कण्डेयपुराणसद्भावाच्च। तस्मात् परा देवता कामाक्षीति तत्प्रपञ्चोऽभवत्॥
इत्यानन्द गिरिकृतौकामाक्षीप्रकरणं नाम चतुःषष्टिप्रकरणम् ॥६४॥
शङ्करविजये
पञ्चषष्टिप्रकरणम्।
———————
एवमेतस्मिन्नर्थे निष्पन्ने परशक्तित्वस्याभिव्यञ्जकं श्रीचक्रनिर्माणं क्रियते भवद्भिराचार्यैः। तत्र श्लोकोऽयम्।
“विन्दुत्रिकोणवसुकोणदशारयुग्म-
मन्नस्रनागदलसंयुतषोडशारम्।
वृत्तत्रयञ्च धरणीसदनत्रयञ्च
श्रीचक्रमेतदुदितं परदेवतायाः” इति॥
अत्र तु नव चक्राणि वर्ण्यन्ते खलु तेषां मध्ये केषांञ्चित् शैवत्वं केषाञ्चित् शाक्तत्वं। तथाहि।
“चतुर्भिः शिवचक्रैश्च शक्तिचक्रेश्च पञ्चभिः।
नवचक्रेश्च संसिद्धं श्रीचक्रं शिवयोर्वपुः” इति॥
तत्रापि देवीशिवचक्राविर्भावं दर्शयामि।
“त्रिकोणमष्टकोणञ्च दशकोणद्वयं तथा।
चतुर्द्दशारं चैतानि शक्तिचक्राणि पञ्च च॥
बिन्दुश्चाष्टदलं पद्मं तथा षोडशपत्रकम्।
चतुरस्त्रं चतुर्द्वरं शिवचक्राणि तु क्रमात्॥
त्रिकोणवैन्दवं लिष्टमष्टारेऽष्टदलाम्बुजम्।
दशारयोः षोडशारं भृगृहं भवनाखके॥
शैवानामपि शाक्तानां चक्राणाञ्च परस्परम्।
अविनाभावसम्बन्धं यो जानाति स चक्रवित् ॥
त्रिकोणरूपिणी शक्तिर्विन्दुरूपः सदाशिवः।
अविनाभावसम्बन्धं तस्मादिन्दुत्रिकोणयोः॥
एवं विभागमज्ञात्वा श्रीचक्रं यः समर्चयेत्।
न तत्फलमवाप्नोति ललिताम्बा न तुष्यति”॥
इत्यादिवचनैः श्रीचक्रस्य शिवशक्त्यैक्यरूपत्वात् विद्यात्मैक्यमत्यभेदादवसायसिद्धिः। तस्मात् मुक्तिकाङ्गिभिः सर्वैः श्रीचक्रपूजा कर्त्तव्येति दिक्। तस्मात् सर्वेषां मोक्षफलप्राप्तये दर्शनादेव श्रीचक्रं भवद्भिराचार्यैर्निर्म्मितमिति॥
इत्यानन्दगिरिकृतौ श्रीचक्रनिर्माणं नाम पञ्चषष्टिप्रकरणम्॥६५॥
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शङ्करविजये
षट्षष्टिप्रकरणम्।
——————
कदाचित् शिष्या अनन्तानन्दगिरिमुखा नत्वेदमूचुः, स्वामिन् मोक्षस्य मार्गलक्षणं वद। स तु परमगुरुः शिष्यैः प्रार्थितो मोक्षमार्गलचणं वक्तुमुपक्रममाचकार॥ भगवद्गीतासु।
“अग्निर्ज्योतिरहःशुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः"॥
इत्यम्यादिमार्गेऽयमर्चिरादिमार्ग इत्युच्यते। एतस्मिन्नर्थे भवङ्गिराचार्यैः सूत्रभाष्ये सम्यक् प्रतिपादितम्। सूत्रेष्वर्चिरादिषु संशयः। अथवा नेतारो गन्तृणमिति, तत्र मार्गलक्षणभृताः अर्चिरादय इति पूर्वपक्षः। अर्चिरादयश्चेतना इति सिद्धान्तः। तथा हि। **“चन्द्रमस्ये विद्युदन्तः पुरुषः सराणान् ब्रह्म गमयति”**इति सिद्धवद्गमयितृत्वं दर्शयति। तस्य स्वस्थानमागतस्य मुक्तजीवस्य लिङ्गं प्रथममग्निर्दह्यते तथा सोऽग्न्याकारो भवतीति तदुपरि निरञ्जनं ज्येतिः प्राप्य स्वयमपि ज्योतिःस्वरूपो भवति। अज्ञानस्वरूपाया रात्रेस्तत्राभावात्॥ ततः शुक्लं प्राप्य स्वयञ्चशुक्रो भवति, “यच्छुक्कं तत् ब्रह्म" इत्यादिना तदेव
ब्रह्मप्राप्तिरिति शुक्लगतस्य पुनरावृत्त्यभावात्। इत्यानन्द अहर्भूत्वा विहरति केचिदेवं वदन्ति। अर्चिरादिमार्गेण कार्यब्रह्मस्थानं प्राप्य तदन्तपर्यन्तं तदग्रे स्थित्वा तेन सह मुक्ताः ब्रह्म सत्यज्ञानानन्तलक्षणं प्राप्नुवन्तोति तन्मतमनर्द्दम्। सूक्ष्मशरीरनाशानन्तरं स्थित्यभावात्, सर्वगतं ब्रह्मैव स्वयम्भवतीति सिद्धान्तः॥
“धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायणम्।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्त्तते"॥
इति भेदफलं पुनरावृत्तिरेव तस्य सर्वदाप्यसत्वात्। तथाहि। इदमस्माद्भिन्नमिति प्रतीयमानो भेदो धर्मिस्वरूपं वा स्यात् तथा धर्मोवा, न तावद्धर्मिस्वरूपमात्रं भेदः। इदमस्माद्भिन्नम्, घटः पटो न, इत्यदौप्रकारतया भासमानस्य धर्मिस्वरूपत्वानुपपत्तेः। श्रयं घटः, घटः पटाङ्गिन्न इतिप्रतीत्योरविशेषप्रसङ्गात्, विषयवैचित्र्यव्यतिरेकेण प्रतीतिवैचित्र्यस्य वक्तुमशक्यत्वात्। अन्यथासि- द्धेत्यादेर्योग्यायोग्यघटितत्वेनाप्रत्यक्षत्वप्रसङ्गात्। क्वचिदपि प्रत्यक्षानङ्गीकारे अनुमानस्याप्रवृत्तेः। एवञ्च एक एव दण्डः कदाचिद्दण्डत्वेन भासते, दण्डवति कदाचिदन्नया-दिसाचिव्ये सति दण्डो घटकारणमिति तत्र दण्ड इति प्रतीतेः, न प्रतियोगिध्वंसापेक्षत्वम्, श्रन्वयाद्यपेक्षत्वं वा दृष्टानुसारित्वात् कल्पनायाः, विषयभेदाभावेऽपि प्रतीतिवैचित्र्यञ्चाङ्गी-कृतम्।
प्रतियोग्यनुयोगिविशेषणविशेष्याधाराधेयावच्छेद्यावच्छेदकभावादयोऽपि धर्मिस्वरूपा एव विलक्षणप्रतीतिनियामका इत्यङ्गीकृतम्। तथाचापि भेदस्य धर्मिस्वरूपत्वेऽपि विलक्षणप्रतीति-नियामकत्वं सत्प्रतियोगिकत्वं न विरुद्धमिति अत्रोच्यते। कारणत्वादयोऽपि विचारणी-यास्तेषामपि स्वरूपत्वेऽपि कथं विलक्षणप्रतीतिनियामकत्वं न ह्येकमेव वस्तु सत्प्रतियोगिकं निष्प्रतियोगिकञ्च सम्भवति विरोधात्। घटप्रतीतौ कारणत्वादिसन्देहो न स्यात् अज्ञातां-शलेशाभावात्। न च समानप्रकारकनिश्चयस्य समानप्रकारकसंशयविरोधितया घट इति निश्चयात् घटो न वेति सन्देहोमाभूत्। घटकारणं न वेति कारणत्वप्रकारकसंशये तु न बाधकं भिन्नप्रकारकत्वादिति वाच्यं घटत्वस्येव कारणत्वस्य घटधर्मत्वानङ्गीकारात्। घटस्य घटत्वापेक्षयाभिन्नत्वात् धर्मिस्वरूपज्ञानेऽपि दोषवशात् घटत्वाज्ञाने घटो न वेति संशयः सम्भवति। कारणत्वन्तु घटस्वरूपमेवेति कथं घटज्ञानेऽपि कारणत्वसंशयः, न च घट इति ज्ञाने घटस्याविशेषणत्वेन तत्स्वरूपस्यापि कारणत्वस्याप्रकारत्वात् तत्प्रकारकसंशयदु-र्भिक्षमिति वाच्यम् घटे घटत्वमिति घटज्ञाने सति कारणत्वसंशयो न स्यात् उक्तज्ञाने घटस्य प्रकारतया तत्वरूपस्य कारणताया अपि प्रकारत्वात् न च घटस्य घटत्वेन रूपेण प्रकारत्वेऽपि कारणत्वत्वेन रूपेण न प्रकारत्वमिति वाच्यम्। घटस्वरूपातिरिक्तकारण-त्वानङ्गीकारात्। तस्मात् धर्मिस्वरूपभेदो
न क्षोदक्षमः। न द्वितीयः। सधर्मः किं भावरूपोऽभावरूपो वा, भावरूपत्वे पृथक्कं विभागो वा द्वयमपि न सम्भवति। गुणादेर्भेदाभावप्रसङ्गात्। विभागपक्षेमंयुक्तयेर्भेदो न स्यात्। पृथक्वस्य प्रतोतिबलात् गुणादिवृत्तित्वाङ्गीकारे पृथक्कस्य भेदो न स्यात् पृथक्के पृथक्कानङ्गीकारात्। अन्योन्याभावेनैव पृथक्वव्यवहारोपपत्तौ अतिरिक्तपृथक्कानङ्गीकाराच्च। न चान्यारादित-रेत्यादिसूत्रे अन्यशब्दस्यार्थपरत्वेन इदमस्माद्भिन्नमितिवत् इदमस्मात् पृथगित्यपि प्रयोगादिति वाच्यम् विभक्त्यनुशासनस्य शब्दविशेषाधीनत्वस्य सर्वसम्प्रतिपत्तेः। अन्यथा घटात् प्रमेयमित्यपि प्रयोगापत्तेः प्रमेयशब्दार्थानामपि पृथक्वार्थकत्वात्। न चासाधारण्येन पृथक्कार्थकत्वमभिहितमिति वाच्यम्। कथञ्चिदर्थविवक्षायामतिप्रसङ्गभयेनार्थविशेषविवक्षायां नभिन्नत्वेनापि शब्दविशेषणत्वे बाधकाभावात् तस्यान्योन्यात्यन्ताभावसाधारणार्थकत्वेनासाधा-रण्येन तदर्थकत्वाभावाच्च। किञ्चिदिष्टप्रसङ्गग्रहार्थमर्थपरत्वव्याख्यानस्याभिमतत्वे सङ्ग्राह-कत्वाच्च। अत एव व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिर्न हि सन्देहादलक्षणम्, अभिधानलक्षणाः कृत्तद्धिता इत्यादि वैयाकरणादीनां प्रयोगशरणवाद् जोषम्, तस्माद्विभागः पृथक्कं वा न भेदः। अभावोऽपि किमन्योन्याभावः, अत्यन्ताभावो वा। नाद्यः, प्रतियोग्यनिरूपणात् न किं घटादिकमेव प्रतियोगीति शक्यं वक्तुम्। घटो नास्ति, घटो न भवतीत्युभयत्रापि घटस्यैव प्रतियोगित्वे अत्यन्तान्योन्याभावयो-
र्भेदो न स्यात् उभत्रापि घटस्यैवावच्छेदकत्वेनावच्छेदकभेदस्थाप्यभावाच्च। न च तद्भेदा-भावेऽपि क्वचित्तादात्म्यारोपः क्वचित्संसर्गारोप इति सम्बन्धभेदाद्भेद इति वाच्यम्। भूतले घटो नास्ति, भूतलं घटवन्न भवति इत्यत्र उभयत्रापि संसर्गस्यैवारोप्यत्वेन भेदानापत्तेः। न चैकत्र संसर्गः संसर्गत्वे नारोप्यत इतरत्र तादात्म्यत्वेनेति भेद इति वाच्यम्। संसर्गत्वतादात्म्य-त्वयोर्भेदस्य वक्तुमशक्यत्वात् न ह्यतो भेदः पारमार्थिक इत्युक्ताः शिष्याः पुनरूचुः, स्वामिन्,
“द्वा सुपर्णासयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्योऽभिचाकशीति”॥
“अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बहीं प्रजां जनयन्तीं सरूपाम्।
अजो ह्येकोजुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोन्यः”॥
इत्यच च जीवप्रभेदस्य निश्चयात्, कथम् अभेदः सिद्धान्त इति वक्तुमुचितम्। तस्माद्भेद एवाङ्गीकर्त्तव्य इति प्राप्ते, परमगुरुभिरेवमुच्यते, नेदं श्रुतिवाक्यद्वयंजीवपरभेदसमर्पणपरम्, किन्तु बुद्धिक्षेत्रज्ञसम्भिदार्पणपरम्। तयोरेकस्थानाश्रितत्वात् बुद्धिकोशे क्षेत्रज्ञस्य प्रतिफलनं जीव इति प्रसिड्या जीवक्षेत्रज्ञयोः सर्वदाऽभेद एव। सजलघटेषु सूर्यविम्बप्रतिफलनमिव, दर्पणन्तःप्रतिविम्बितमुखमिव, भिदागन्धलेशरहिते जीवशब्दवाच्ये क्षेत्रज्ञे, दर्पणमालिन्यान्मुख-मालिन्यमिव दर्पणान्तः प्रति-
विम्बिते जलमालिन्यात् दिनकरविम्बमालिन्यमिव कर्मफलान्यनुभवतः क्षेत्रज्ञस्य प्रतिविम्बित-स्य भिदा कल्पनीया तेन बहुबुद्धिकोशे प्रतिफलनेन क्षेत्रज्ञबाहुल्यमुचितं वक्तुम्। घटदर्पणबाहुल्येऽपि सूर्यमुखयोरेकत्वं, यथा, तद्वदभेद एव सिद्धान्तः। “तत्सृष्ट्वा तदेवानु-प्राविशदित्यादिना” प्रविष्टस्य ब्रह्मण एव क्षेत्रज्ञत्वात्, साक्षी नित्यः क्षेत्रज्ञः परमात्मा सद्ब्रह्मात्मेति ब्रह्मणि पर्यायशब्दाः,
“क्षेत्रज्ञञ्चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत”।
इति भगवद्वचनाच्च। तस्मादद्वैतमेव सिद्धान्तः। द्वैतन्तु मायाकल्पितं मोहकारणम् जन्ममरण- प्रवाहागाधजलप्रायमिति सिद्धान्तो व्यासमतसिद्धः। इष्टापूर्त्तादिकर्मशीलाञ्चन्द्रमसं धूममार्गद्वा-रा प्रविशन्ति, प्रथमं धूमस्याने मेघोपरितनप्रदेशे धूमायिताः। तदुपरि रात्रिं प्राप्य तदुपरि कृष्णवर्णी भूत्वा चन्द्र प्राप्नुवन्ति। तस्यापि कृष्णवर्णत्वाद्देवेपभोग्ययोग्ये चन्द्रमसि स्थितास्ते देवा आत्मतां प्राप्नुवन्ति, किंवा मण्डलैकदेशे किलेष्टादिकारणे वसन्तोति यद्युच्चेत, तत्रेदमुच्यते, प्रथमां पिवते वहिरित्यादिना देवानां चन्द्रचन्द्रिकापानमात्रमेव, न तु कृष्णवर्णचन्द्रविम्बानुभवः। अतोहेतोस्तत्र दृष्टादिकारणमपि कृष्णवर्णत्वेन देवोपभोग्यत्वं न सम्भवति। मण्डलाश्रयत्वमात्रमेव तेषां तत्रानुभवस्तु देववदम्मृतपानं खं न सम्भवति, किन्तु परं चन्द्रविम्बरूपममृतं दृष्ट्वा नित्यतृप्ता द्रव वर्त्तन्ते, यावत् पुण्यपापं, किञ्चिदवशिष्टपुण्ये तत्र स्यातुमसमर्थः, पक्कफलगणा इव च्युताः
पञ्चाग्निविद्यामवलम्ब्य पञ्चम्यामाहुताः पुनः पुरुषाकारतां प्राप्य नित्यमंसारिण दूव वर्त्तन्ते। तदन्ये तु यममार्गमवलम्ब्य स्वानि कर्माणि सेवन्ते सप्तविधनरकेषु पच्यन्ते। यावत् कर्मफलं तावधूयं स्थूलशरीरस्य लयं सूक्ष्मे सम्यग्विधाय सूक्ष्मस्य च कारणे मनामात्रान्तर्द्धानं कृत्वा, मनसोऽपि विश्वकारणे अङ्गुष्ठमात्रपुरुषे विलापं सम्पाद्य तदुपर्य्यभिन्नब्रह्म भूत्वा मुक्ता भवथेत्युक्ताः शिष्याः परमगुरुपादकमलद्वयसक्ताः शिष्याः कृतार्थः विदितब्रह्माणो जीवन्मुक्ता बभूवुः॥
इत्यानन्दगिरिकृतौमोक्षमार्गप्रकाशो नाम षट्षष्टिप्रकरणम्॥६६॥
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शङ्करविजये
सप्तषष्टिप्रकरणम्।
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तदनन्तरं सकललोकसाक्षी चैतन्यानुभवविदितभूतभविष्यद्वर्त्तमानकालः परमगुरुः स्वतन्त्रपु-रुषः शुद्धाद्वैतविद्यानिष्ठान् गरिष्ठान् सेतुहिमाचलमध्यदेशस्थाननिवेशान् ब्राह्मणादीन् कृत्वा तदीयविरोधाङ्गीकारसमर्थांनिजशिष्यपरम्परां आकल्पं श्टङ्गगिरिस्थानस्थां कृत्वा सकलशि-ष्येभ्यो मोक्षमार्गोपदेशं कृत्वा कलावस्मिन् युगे नानापापपरिध्वस्तज्ञानाङ्कुरेषु मर्त्येषु शुद्धाद्वैतविद्यायामनधिकारिषु तेषां वृत्तिः पुनरपि यथेसिता भवतीति सम्यग्विचार्य लोकरक्षार्थं वर्णाश्रम- परिपालनार्थं परमतकल्पनां जीवेशभेदास्पदाञ्च रचयितुमुपक्रम्य निजशिष्यं परमतकालानलं दृष्ट्वेदमाह, भोः शिष्य तव यत् प्रीतिस्तत्समासतो भाविकालोचितवशात् तत्करोमि तव मत इति उक्तः परमतकालानलः परमगुरुचरणारविन्दयुगलमुत्तमाङ्गेन धृत्वा सर्वापराधं क्षमस्वेति कपेालताडनपुरःसरं तिष्ठन् प्राञ्जलिरिदमब्रवीत् भोः स्वामिन् परमगुरो प्रत्यक्षशिवे शिवेति जगत्कारणे चिरान्मम मतिरवलग्ना। तथाहि। यदस्ति प्रपञ्चकारणं नित्यश्राद्धबुद्धमुक्तस्वरूपमखिलमयं ब्रह्म सत्यं ज्ञानमनन्तं तत् तदेव इति बुद्धिसिद्धं कृत्वा ध्वस्तसंशयोस्मि। अतः शिव
एव परिपूर्णं जगदुपादानकारणमिति निश्चयेन सर्वमपीदं परिदृश्यमानं जगत् शिवादनन्यवृत्त्याधारत्वात् तदीयतेजःकारणसञ्जातत्रह्मविष्णुरुद्रान् सृष्यादिजगदवस्थानिमि-त्तान् तत्तेजःसम्भूतदिगधोशादिकान् विग्रहानश्विन्यादितारावलीकृतकालचक्रमेतदन्तः सन्त-तस्थगितभूम्यब्धिद्वीपगिरिप्रमुखमखिलं शिवांशमिति बहुधा युक्तियुक्तं विचार्य निरुपाधिकः परमेश्वर एव सदुपदेशबलात् श्रात्मा स एवाहमिति समाधानमनसा वर्त्तमानस्यापि मतिरिदं निश्चिनोति। वन्हिकाष्ठसंयोगजातविस्फुलिङ्गा इव परमशिवाज्जातमखिलं जगदेव मनुष्य-तिर्यग्जीवव्याप्तम् इति, तस्मादीशोऽस्ति किल। यदंशा जीवा इत्युक्त्या परमेश्वरः सर्वैरुपासनीयः। ततोऽस्मद्भीष्टः शिवः,
“शिवध्यानपरा ये तु शिवभक्तावतन्द्रिताः।
लोकं यान्ति शिवाश्चैव सर्वदेवनमस्कृताः”॥
इति भारतवचनात् शिवस्योपासनमत्यन्तपुण्यवर्द्धनं भोगमोक्षास्पदं ब्रह्मचर्यादिभिः। अत इदमेव सदाङ्गीकरणीयमिति सम्यग्विज्ञापितः परमगुरुः, एवमेका मार्गेऽस्तु ब्रह्मविदुषामद्वैत- मार्गसमारोहणासमर्थानामिति प्राप्ते, कलियुगे यूयमेतद्देवतानिरता भवथ, इत्येकेभ्यो मुनिभ्यो दत्तं यतिशापञ्च प्राप्तशापमिव विचार्य दिग्विजयाधिकारिणं निजशिष्यं ज्ञात्वा बहुकालं शैवमतं शापान्तरमद्वैतान्वितं लोकोपकाररूपं कल्पयित्वा तमवादीत् स पुनः परमगुरुं प्रणम्य षड्विधभेदात्मकं शैवमतं
चापि रचयित्वा सेतुहिमाचलमध्यदेशवासिनो ब्राह्मणादीन् तन्मतावलम्बिनः कर्त्तुं प्रतिपक्षक्ष-यार्थञ्च दिग्विजयमारभमाणः परमतकालानलः काशीनगरप्रागादिदिङ्मार्गप्रक्रमणेन परमगु-र्वनुज्ञया वासमारभमाणो भगवतः शङ्करस्य त्रिशूलांशः परभतकालानलः सन्यस्तकर्म्मापि धृतैकदण्डः शूलहस्तमण्डलाहतडमरुगः पश्यतामाविर्भूतशङ्कर द्रव समवर्त्तत।
‘जनाः केचिदथाद्वैतं गहनं शङ्करोदितम्।
गुरुणा तेन सम्प्रोक्तं शैवं रुचिकरं हि नः॥
शिक्षिता गुरुणा तेन वयं कैलाशभागिनः।
भवाम इति तच्छिष्या बभूवुः शैवमार्गगाः॥
एवमशेषदिग्विजयं कृत्वा तत्तद्देशस्थान कांश्चित् पञ्चाक्षरमहामन्त्रराजेपदेशादिना तारयतिस्म परमतकालानलः शङ्कराचार्यशिष्यः॥
इत्यानन्द गिरिकृतौशैवमतस्थापनं नाम सप्तषष्टिप्रकरणम्॥६७॥
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शङ्करविजये
अष्टषष्टिप्रकरणम्।
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ततः परमगुरुस्त्रैगुण्यान् कलियुगमनुजान् दृष्ट्वा शैवानन्तरं वैष्णवमतञ्च कल्पनीयमिति विचार्य तत्सुबन्धशेषवायुमत्यजातौ लक्ष्मणहस्तामलकौस्वान्तरङ्गशिष्यो, युवयोराशयं वदतामिति। तौ परमगुरुचरणारविन्दयुगलं सद्भक्त्या उत्तमाङ्गेन नत्वा कृताञ्जली इदमूचतुः, स्वामिन् भवदुपदेशात् अचिन्त्यमव्यक्तमनन्तरूपं सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म सर्वकारणं तदेवाहमिति ज्ञानसिद्धावपि मदीयं चेतः सर्वदा श्रीनारायणचरणजव्याप्तमिव वर्त्तते‚ स एव ब्रह्मेति सहस्रप्रमाणसम्भूतः सिद्धान्तोऽस्मदीयः। एवं शिष्यवरवचनं निशम्य पुनरवादीत् परमगुरुः, समोचीनम्, लक्ष्मण, हस्तामलक, युवां ब्रह्मचारिणौ किल मतकल्पनाय स्वीकुरुतम् इति तावत्यन्तसन्तोषचित्तौ तदानीमेव परमगुरूपदेशवशात् सन्यासिनैा भवतः स्म। ताभ्यां वन्दितपादः परमगुरुर्दयाम्बुधिरिदमाह, विष्णुमतं षड्विधभेदविराजितं सकल-मनुजमेाहकरं द्विपञ्चमुद्रालिङ्गनारायणाष्टाक्षरमन्त्रोपदेशमूलं दृष्टिस्सृष्टिदोषवर्जितं कल्पयतम्, एवं षड्विधं कर्मविभेदेन वैष्णवमतं कृत्वा दिग्विजयं कुरुतम्, पुनरा-
गतयोर्भवतोः सत्यमिव तद्भविष्यतीति। एवमाज्ञप्तौमतकारण त्वादाचार्यौलक्ष्मणहस्तामल-कौकाञ्चीनगरक्रमात् पूर्वापराशाद्वयमवलम्ब्य परमगुरुमनुदिनं स्मरन्तौदिग्विजयं चक्राते। स हि पूर्वभागे लक्ष्मणाचार्यः किल दिग्विजयं कृत्वा कांश्चिद्वाह्मणादीन् सच्छिद्रोर्द्धपुण्डृ-धारणशङ्खचक्राङ्कभासुरभुजयुगलान् कृत्वा बहुशिष्यसमेतः पुनरावृत्त्य परमगुरुचरणं नत्वा तदनुज्ञावशात् मतविजृम्भणहेतुकं भाव्यादिग्रन्थचयमकरोत्। हस्तामलकस्तु भूमध्यात्पश्चि-मखण्डदिग्विजयं कृत्वा पञ्चमुद्राङ्कविराजितान् भगवदष्टाक्षरमन्त्रजपासक्तान् कांश्चिद्वाह्म-णादीन् कृत्वा रजतपीठादिस्थलेषु कृष्णादिदेवप्रतिमां कृत्वा मतं विज्ञापयितुम् पुनः परमगुरुं प्राप। दृष्ट्वा तदानींकाञ्च्यां परमगुरुं शङ्कराचार्यं नत्वा तत्पादयुगले स्वकृतं विज्ञापयामास॥
इत्यानन्दगिरिकृतौवैष्णवमतस्थापनं नामाष्टषष्टिप्रकरणम्॥६८॥
शङ्करविजये
एकोनसप्ततिप्रकरणम्।
—————
ततः परं सूर्यशक्तिगणपतिशिवनारायणानां ब्राह्मणोपासनयोग्यदेवतानां समयुपासनया मुक्तेः सिद्धत्वात् तत्रानधिकारिभिर्व्यड्युपासनञ्च कर्त्तव्यमिति कृत्वा शिवकेशवमतदयं प्रतिपादितम्। तदानीं सूर्याष्टाक्षरीमूलसौरमतं षड्विधभेदविजृम्भितं स्थापयितुं श्रीपरमगु-रुर्निजशिष्यं सर्वविद्याप्रवीणं दिवाकरनामानं वीक्ष्येदमाह, भो दिवाकर त्वं ब्रह्मचर्याश्रमत्रतं समाप्य परिव्राट् भव, सौरमतं रचयितुमिदानीं चलितकालोऽयमागत इति तद्वाक्यं शिरसा परिगृह्य दिवाकरस्तदानीमेव परमगुरूपदेशबलाद्भृतपरमहंसाश्रमः सौरमतदर्शनलक्षणं गुरुमुखात् श्रुत्वा तदनुज्ञावशात् सेतुहिमाचल पर्यन्तं दिग्विजयमारभमाणः काञ्चीनगरात् प्रागादिप्रदक्षिणमार्गेण अवलम्ब्य किञ्चिद्दूरं गत्वा तत्र कांश्चिद्विप्रान् मौरमतप्रचारका-नाचकार। एवमशेषदेशसञ्चारं कृत्वा तत्तद्विषयेषु सौरमतमुज्जृम्भयन् पुनः काञ्चीनगरं प्राप, परमगुरुं नत्वेदमाह, स्वामिन्, तव कृपया सर्वदेशेषु सौरमतस्थापनं विधाय तत्प्रतिपक्षान् युक्रिभिर्जित्वा भवदर्शनायागतोस्मि। इति परमगुरुस्तुष्टान्तरोऽङ्गसमीचीनं भवता कृतमिति तमवादीत्॥
इत्यानन्दगिरिकृतौसौरमतस्थापनं नाम एकोनसप्ततिप्रकरणं॥६६॥
शङ्करविजये
सप्ततिप्रकरणम्।
————
ततः परमगुरुः शक्तिमतं रचयितुं निजशिव्यवरं त्रिपुरकुमारं विलोक्येदमब्रवीत्। भोः शिष्य भवतः कुत्र मते विश्वासस्तद्वद, इत्युक्तः त्रिपुरकुमारः प्रणम्येदमब्रवीत्, स्वामिन् परमगुरो, भवदुपदेशेन भगवानात्मा सर्वकारणम्, स एवाहमिति निश्चलज्ञानवतोऽपि ममान्तः करणविमर्शस्य विश्वकारणं भगवती, तत्र भगवतो निमित्तकारणत्वमात्रमेव दृश्यते। ततः प्रकृतिरेव शिवः,वहिरावरणशक्तिरखिलकारणमस्मदादिपरिदृश्यमानजगति तथा दर्शनात्, शक्त्यभावे पुरुषस्याकिञ्चित्करत्वमेव सम्भवति। अतश्च सेापाधिक एव भगवान् जगत्कारणं कर्त्ता। भवन्मतेऽपि निरुपाधिकचैतन्यं जगत्कारणक्षमम्। तस्नात् प्रकृत्यभावे ईश्वरस्याप्यभावो वक्तुमुचित दूव प्रतिफलति। किञ्च उभयमपि जगत्कारणं वेदितव्यम्, ईश्वराभावे प्रकृत्यभावे च लोकसृष्टिर्न स्यात्। पितृमातृभ्यामिव मनुष्यः, तत्रापि पित्रपेक्षया शिशुधारणनिर्गमनप्रया-सस्य मातृनिष्ठत्वात् प्रथमं प्रकृतिर्जगदुपादानकारणं, पुरुषः पश्चात् इति सिद्धान्तः मदधिकारः, एवं भवत्कृपाबलात्प्रतिलब्धम् इति सम्यग्विज्ञापितः
परमगुरुः शिष्यवरं पुनः प्राह, मतं भवदाशयरूपं कल्पयितुं सन्यासमद्यैव स्वीकुरुष्व इति तदाज्ञां शिरसा परिगृह्य तदुपदेशवशात् सन्यासं पारमहंस्याख्यं प्राप्य दण्डकमण्डलुभ्यां विराजितकरः कषायवस्त्रशोभिततनुः शिष्यवरस्त्रिपुरकुमारः परमगुरुचरणकमलयुगलमत्य-न्तभक्त्या मुजर्मुजः प्रणम्य दिग्विजयार्थं काञ्चीनगरात्प्रागाद्याशामवलम्ब्याविर्भूतस्त्रिपुर द्रव परमगुर्वनुज्ञया ययौ। सेतुहिमाचलमध्यभूमिस्यप्रौढविद्वज्जनान्निजशक्तिदर्शनात् जिला कांश्चि-द्भक्तान् स्वदर्शनाशक्तान् श्रीविद्यानिरतान् कृतार्थान् कृत्वा आशुकाञ्चीनगरस्थं गुरुमभिवाद्य स्वकृतमशेषं प्रयोजनं विज्ञाप्यशैववैष्णवसेारमताध्यक्षयतिस्थानगोऽभवत्॥
इत्यानन्दगिरिकृतौ शक्तिमतस्थापनं नाम सप्ततिप्रकरणम्॥७०॥
शङ्करविजये
एकसप्ततिप्रकरणम्।
——————
एवं स्थापितेषु शैववैष्णवसोरशाक्तेषु, गिरिराजकुमार इति प्रसिद्धः सर्वशास्त्रपारं गतः समागत्य परमगुरुचरणारविन्दयुगलं नत्वा विनयादेवमाह, स्वामिन् ब्रह्मादिगणानां पतिर्गणपतिः सर्वलोककर्त्ता, अहमेक एव गणपतिः, ‘गणानां त्वा गणपतिं हवामहे’ इति श्रुतिः। किञ्च तस्य सर्वदेव पूज्यत्वं वर्त्तते। त्रिपुरसंहारकाले महादेवेन पूजितः। रावणासुरसंहरणार्थं समुद्रमध्ये सेतुरचनाकाले रामेण पूजितः। क्षीराब्धिमथनकाले देवासुरैः पूजितः। सृष्ट्यादौ ब्रह्मण पूजितः एवं शिवकेशवब्रह्मादिभिरुपास्यः परमपुरुषः किल महागणपतिः, तस्य निर्गुणत्वं सगुणत्वञ्च सिद्धमेव। महदादितत्त्वकारणं निर्गुणम्, व्योमादिभूतकारणं सगुणमेव। सकललोकव्यापकचैतन्यस्य गणपतेर्विष्णुनाम, वृहत्त्वाद्ब्रह्म नाम, स्वच्छ वर्णसाम्यालयकर्तृत्वाच्च रुद्रनाम नासिद्धं भवति। एवञ्चाकारत्रयेण सृष्ट्यादि स एव करोतीति दिक्।
‘शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजम्।
प्रसन्नवदनं ध्यायेत् सर्वविघ्नोपशान्तये’॥
इति तस्य कर्मादिपूज्यत्वस्य सिद्धत्वात् सर्वविद्यामयत्वाच्च तस्मिन् ज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वरूपं ब्रह्म,
गणपतिः एक एव आसीत्, तस्मादस्मन्मतमत्यन्तश्रेष्ठतरमिति कृत्वा तदेव सर्वैरङ्गीकर्त्तव्य-मिति विज्ञापितम्। इतः परं सर्वज्ञेर्भवद्भिः परमगुरुभिर्यथाज्ञापितं तदेव करोमीति ब्रुवन्तं गिरिराजपुत्रं शिष्यवरं वीक्ष्यभगवान् परमगुरुरिदमब्रवीत्, शिय्य, गणपतावास्तिक्यबुद्धिरस्ति चेन्मतं रचय, तदर्थं सन्यासी भव, एवमुक्तः शिष्या गुरूपदेशवशात् परमहंसाश्रमी भूला दिग्विजयार्थं काञ्चीनगरात् प्राज्ङ्मार्गमनुसृत्य सेतुहिमाचलमध्यभूमिषु स्वमतं प्रकाशयित्वा बहुगाणपत्यशिष्यसमेतः पुनः परमगुरुं नत्वा शिय्यस्थानमाप॥
इत्यानन्दगिरिकृतौ गाणपत्यमतस्थापनं नाम एकसप्ततिप्रकरणम्॥७१॥
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शङ्करविजये
द्विसप्ततिप्रकरणम्।
——————
एवं ब्राह्मणोपासनं पञ्चसु मतेषु स्थापितेषु कापालिका वटुकनाथ इति प्रसिद्धः समागत्य परमगुरुं बहुधा नत्वा विनयात् कृताञ्जलिरिदमाह, स्वामिन् मम मतेन समरेषु मतभेदं कृत्वा शुद्धाद्वैतवृत्तिं हिमवत्सेतुमध्यभूमिषु आपूर्य सर्वानपि ब्राह्म एदीन् अद्वैतदर्शनपरान् कृत्वा मर्त्यलोकेऽस्मिन् शुद्धाद्वैतवृत्त्याश्रितशैवादिपञ्चमतस्थापनप्रदोऽसि मन्मतस्यातिविवित्साव-काशं चिन्तय, सर्वमतगुरुर्गतिस्त्वमिति दण्डवत् प्रणम्य कृताञ्जलिपुटं वटुकनाथमालोक्य परमगुरुर्भगवानिदमाह, भोः शिष्य, देवसिद्धानां तेषां शैववैष्णवमौरशातगाणपत्यानां पूर्वपक्ष-वृत्त्या भवन्मतं रचय, तदभावे तेषां सिद्धान्तता न घटते, इति उपदिष्टः, स तु शिष्यो वटुकनाथः तथा करोमि, इति पुनरपि गुरुपादारविन्दयुगलं नत्वा काञ्चीनगरात्प्रागादि-दिङ्मार्गमवलम्ब्य सेतुहिमाचलमध्यभूमिषु तत्र तत्र कांश्चिद्वाह्मणादीन् भैरवमनप्रवर्त्तकान् कृत्वा पुनः शीघ्रमागत्य परमगुरुं नत्वा स्वामिन् भवत्कृपया रहस्यादिधर्माश्रितं कापालिकमतं मया केषुचिद्भक्षेषु प्रतिदेशे विजृम्भितमिति विज्ञाप्य मुख्यशिय्योऽहञ्च इति समीपे तद्दासद्वव समवर्त्तत॥
इत्यानन्दगिरिकृतौकापालिकमतस्थापनं नाम द्विसप्ततिप्रकरणम्॥७२॥
शङ्कर विजये
चिसप्ततिप्रकरणम्।
——————
तदानीं हि सर्वे शिष्या गुरुस्तुतिमेवमाचरन्, तावत्पद्मपाद एवमब्रवीत्,
‘अद्वैतार्णवपूर्वदिग्भवविभुं विद्याप्रदं प्राणिनां,
स्विद्यद्वागमृताशनं कृतधियां सन्देहशङ्कापहम्।
विद्वद्द्वैरिजनोक्तिपङ्क्तिमखिलाकल्पोक्तिसङ्घद्गमै-
माधुर्यामृतपानत्रप्तमनिशं नौमि प्रसिद्धं गुरुम्॥
‘यत्पादपङ्कजध्यानाल्लक्षणद्यामतेश्वराः।
बभूवुस्तादृशं वन्दे शङ्करं षण्मतेश्वरम्’॥
शङ्कराचार्यकल्पतरुः शुद्धाद्वैतमूलः। षण्मतशाखोज्ञानफलः सन्ततं लोके विराजति। ततः परमतकालानलादयो यतयः इदमूचुः,
‘यः कर्त्ती ब्रह्मविद्याया ब्रह्मवाद इति श्रुतेः।
आसीद्गुरुः स एवाद्य अस्माकं द्वैतवादिनाम्॥
तत्कटाक्षेणैव वयमुमेशादिमतानि हि।
विरच्य लोकरक्षार्थमभवाम कृतास्पदाः॥
मदर्थमाभातिगुरुः परात्मा,
स एव चाहं विदिते तु तत्त्वे।
अज्ञानतस्त्वं गुरुरल्पबुद्धिः,
शिष्योऽहमेतत् खलु भेदजातम्॥
अजा परेशस्य जगद्विमोहिनी,
विवेकिनामप्यपहर्त्ति संविदम्।
तथा ह्यभेदो नहि भाति सिद्धव-
द्विधिप्रतीपेऽसुभृतां भिदेक्षया॥
अपारमार्थिको भेदोऽप्यघैघग्रस्तचेतसाम्।
कल्पितानि मतान्यद्य तत्तारणकृपावशात्॥
तदभावेऽन्धमार्गेण चरन्त्यत्र विसंविदः।
गुरो भवत्कटाक्षेण मार्गगाः स्युः पुनः पुनः॥
सर्वज्ञयुष्मद्गुणसङ्घमद्य-
शेषोऽपि नो वर्णयितुं समर्थः।
किं युद्मदंङ्घ्य्रजनिषेवणाप्त-
ज्ञानास्तथा त्वत्कृपयात्तवेषाः॥
गुरो गरीयसी कीर्त्तिस्तव लोके भवेत्सदा।
षण्मताचार्य्यगुरुरित्यस्माभिः शिरसा धृता॥
श्रीशङ्कराचार्य्यगुरुं परात्परं,
भजामहे सन्ततमिष्टसिद्धिदम्।
इतीरयन्तः प्रणिपत्य सादरं,
तादात्म्यगाः स्युर्विगतद्विधाभयाः॥
तदन्ये भानुमरीच्यादयः शिय्याः परमगुरुमाचार्यस्वामिनं नत्वेदमूचुः,
‘जीवेशयोर्भिदा मिथ्या ह्यद्वैतं सत्यमुत्तमम्।
तद्दर्शनगुरुर्लोकगुरुस्त्वन्ये तु गर्हिताः॥
अतो लोकगुरुं त्वान्तु शुद्धाद्वैतं परात्परम्।
नमामि सच्चिदानन्दं नित्यमव्ययमीश्वरम्॥
अस्माकं यद्भिदाज्ञानमज्ञानेन प्रवर्द्धितम्।
तन्नाशनं कुरु गुरो मोक्षदो भव सन्ततम्॥
इत्युक्क्तापरमगुरुचरणारविन्दयुगलं नत्वा ढक्कातालवीणादिकराः कालातिक्रमविनोदमेवं चक्रुः,सद्गुरोः शङ्कराचार्यस्वामिनः कटाक्षलेशेनैव वयं कृतार्था नित्यमुक्ता अभवाम इति निश्चिक्युश्च।
तं वन्दे गुरुमव्यक्तं जगत्कारणमद्वयमिति।
नित्यं सत्यं ज्ञानमनन्तं शान्तमजं ध्रुवमक्षररूपम्।
तद्विज्ञानादिह सुज्ञानं प्राप्तमभृदचिरादस्माभिः॥
ये मूढा जीवे परभेदं जल्पन्तीह भवान्धौ मग्नाः।
नानायोनिषु मग्नाः पुनरपि मातुस्तनरसपानान्मत्ताः॥
बाल्यं पुनरपि कौमारं ते यौवनमुद्यत् स्यविरत्वञ्च।
पुनरपि मृत्योर्वशतां यान्ति ब्रह्मज्ञानबहिर्मुखमूढाः॥
दुःखप्राप्तिविधिस्था नित्यं भेदधियोऽङ्गीकृतसंसाराः।
शुद्धाद्वयविज्ञानमरुच्यन्तेषां घृतमिव रोगयुतानाम्॥
ये किल नष्टाखिलपाष्मानस्तेषामिति मतिरनिशं भाति।
परमव्ययमद्वैतं ब्रह्मैवाहं न तु किञ्चिज्ज्ञोजीवः॥
नहि मे देहेन्द्रियसंयोगो मिथ्याभूतजनिप्रमुखः किम्।
इह परलोकद्वयमपि नहि मे सत्त्वं पूर्णं सम्प्राप्तञ्च॥
स्थूलकलेवरमेतत् पञ्चीकृतभूतोत्थं लिङ्गान्तःस्थं।
कृत्वा कारणदेहे तदपि च, प्राणमतोत्य स विन्दुस्थाने॥
अङ्गुष्ठे परमात्मनि लीनं प्रविधायान्तः परिपूर्णमजम्।
भूताश्रयमानन्दाकारः शुद्धाद्वैतफलानुभवाद्धि॥
एवं वर्त्तितुरिह परभीतिर्नहि मे परमगुरोरुपदेशात्॥
संसारस्यौषधं नित्यं यो न वेत्ति विमूढधीः।
सगुणं निर्गुणं वापि कोऽन्यस्तस्मादचेतनः॥
अथवा सर्व्वदेहेषु समवस्थितमोश्वरम्।
न जानाति विमूढात्मा कोऽन्यस्तस्मादचेतनः॥
ब्राह्मण्यं प्राप्य लोकेऽस्मिन् मूको वा बधिरोऽपि वा।
नापक्रामति संसारादात्महन्ता भवेत् स तु॥
ब्राह्मण्यं प्राप्य दुर्बुद्धिः संसारे हि भ्रमेत्तु यः।
तत्रापि न विरक्तः स त्वधःपतनमृच्छति॥
ब्राह्मण्यं प्राप्य लोकेऽस्मिन् भवेदज्ञानमोहितः।
आत्मानं नहि जानाति आत्महन्ता भवेन्नरः॥
ब्राह्मणं प्राप्य लोकेऽस्मिन् न पिवेद्ब्रह्मद्रसम्।
तृष्णाशान्तिस्तस्य नास्ति बहुमातृस्तनाद्रसैः॥
ब्राह्मण्यं प्राप्य लोकेऽस्मिन् न ध्यायेत्परमेश्वरम्।
तस्य जन्म वृथा पश्चाच्चाण्डालो भवति ध्रुवम्॥
कर्मज्ञानद्वयं लोके प्रमाणं वर्त्तते खलु।
कर्मणेऽप्यधिकं ज्ञानं तद्द्यात्पतितच्युतः॥
ब्राह्मण्यं प्राप्य लोकेऽस्मिन् सद्गुरोरुपदेशतः।
न जानाति परं ब्रह्म तं विना पतितस्तु कः॥
ब्राह्मण्यं प्राप्य लोकेऽस्मिन् मूलाधारादिचक्रगम्।
ब्रह्ममार्गं न जानाति तं विना पतितस्तु कः॥
ब्राह्मण्यं प्राप्य लोकेऽस्मिन् पूर्णमण्डललक्षणम्।
न जानाति परं ब्रह्म तं विना पतितस्तु कः॥
ब्राह्मण्यं प्राप्य लेाकेऽस्मिन् शुद्धाद्वैताश्रितो न चेत्।
स याति मातृकोटीनां गर्भशय्यां विनष्टधीः॥
ब्राह्मण्यं प्राप्य लोकेऽस्मिन् शङ्कराचार्यमुत्तमम्।
अद्वैतगुरुमीशानं न ध्यायेत् स तु पातकी॥
श्रद्वैतेन विना मोक्षो न जीवस्येति निश्चयः।
तस्मादद्वैतमीशानं गुरुं वन्दामहे वयम्॥
इत्यादि बहुधा गुरुं स्तुत्वा प्राप्ततादात्म्यभावास्तूष्णीमासुः।
इत्यानन्द गिरिकृतौ श्रीगुरुस्तुतिनाम चिसप्ततिप्रकरणम्॥७३॥
शङ्करविजये
चतुःसप्ततिप्रकरणम्।
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ततः परं सर्वज्ञः सकलगुरुराचार्यः स्वशिष्यान् परमतकालानलादीन् यतीन् तदन्यांश्च तत्र तत्र विषयेषु प्रेषयित्वा स्वयं स्वेच्छया स्वलोकं गन्तुमिच्छुः काञ्चीनगरे मुक्तिस्थले कदाचिदुपविश्य स्थूलशरीरं सुक्ष्मेऽन्तर्धाय सद्रुपाभूत्वा सूक्ष्मं कारणे विलीनं कृत्वा चिन्मात्रो भूत्वा अङ्गुष्ठपुरुषस्तदुपरि पूर्णमखण्डमण्डलाकारमानन्दमीश्वरसन्निधौ प्राप्य सर्वजगद्व्यापकं चैतन्यमभवत्। सर्वव्यापकचैतन्यरूपेणाद्यापि तिष्ठति। तत्रत्या ब्राह्मणाः सर्वे शिष्याःप्रशिष्याश्च उपनिषद्गीताब्रह्मसूत्राणि सम्यक् पठन्तः अत्यन्तचिस्थले गर्त्तं कृत्वा तत्र गन्धाक्षतविल्व-पत्रतुलसीप्रसूनादिभिः सम्पूज्य तच्छरीरं समाधिं चक्रुः। ततः प्रत्यहं क्षीरतर्पणक्षीरान्न-निवेदनादिभिः सर्वोपचारैर्विधिवदभ्यर्च्य ततो महापूजादिने बहुयतीनां ब्रह्मविदां ब्राह्मणानां कर्मज्ञाननिष्ठानाम् उत्तमानाञ्च श्रीमदद्वैतविद्याप्रकाशकश्रोमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीमच्छ-ङ्करगुरुखामिनमुद्दिश्य परब्रह्मणो धिया स्वाद्वन्नमूलशाकरूपभक्ष्यघृतदध्यादिसमस्त- व्यञ्जनयुक्तमन्नं वस्त्राभरणैः शाकमीश्वरपूजामेवं चक्रुः। पूजां सर्वत्रैवं चक्रुः।
एवं हि शङ्कराचार्यगुरुर्मुक्तिप्रदः सताम्।
आकल्पमेतत्परमार्थबोधं
श्रीशङ्कराचार्यगुरोः कथार्थम्।
सच्छिष्यमुक्तिप्रदमस्तु लोके
संसेवितञ्चार्यजनैरभेदम्॥
सर्वव्यापकचैतन्यरूपेणाद्यापि तिष्ठति।
अनन्तानन्दगिरिणा गुरोर्विजयमुत्तमम्॥
रचितं ये तु गृह्णन्ति ते मुक्ताः स्यु र्न संशयः।
अद्वैतार्थप्रदं लोकैरद्वैतार्थानुचिन्तकैः॥
गुरुकीर्त्तिप्रदं शास्त्रमुपास्यं भवति ध्रुवम्।
इह तु सकललोकैः सेव्यमानो गुरुर्मे
विदितसकलवेदः शङ्कराचार्यनामा।
मतविदखिलकर्माण्यन्तरायाणि हत्वा
दिशतु परमतत्त्वोद्धारमोक्षं स एव॥
चतुःसप्तति तमैः316 ७४ प्रकरणैः परिशोभितं
गुरुदिग्विजयं नाम शास्त्रं जयतु भूतले॥
इत्यानन्दगिरिकता सच्चिदानन्दैक्यं नाम चतुःसप्ततिप्रकरणम्॥७४॥
॥*॥समाप्तश्चायं ग्रन्थः॥*॥
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]
-
“सर्गादौ। तै. पु.। का. पु.” ↩︎
-
“लुप्तधर्म्मेतपेालेशभाजि कलियुगे परस्पररोगादिग्रस्तेषु। का. पु.। तैलङ्ग पुस्तकेतु। परस्पररागादिग्रस्तेव्विति पाठान्तरं।” ↩︎
-
“कदाचिदेवमासीत्। का. पु.। तै. पु.। स. पु.।” ↩︎
-
“केचित्प्रधानमणुवाद। स. पु.। तै. पु.। का. पु.।” ↩︎
-
" केचित्तार्क्षपराः खनिश्चयपराः । बा. पु. का. पु.। वाह्यनिचयं । स.पु.।" ↩︎
-
“प्रभेदः स्यात्। का. पु. । तै. पु.।” ↩︎
-
“केचित्परैरियंमुक्तिरितिजल्पं तमाश्रिताः । का.पु.।तै. पु.।” ↩︎
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“दूरां श्चैतान्। स. पु.।तै. पु.।” ↩︎
-
“सहसा। स. पु.। तै. पु.। का. पु.।” ↩︎
-
“ददात्वर्थमथापि। बा. पु.।” ↩︎
-
“तत्मकाशान्मकारः शुक्लस्तामसगुणप्रधान उत्पन्नस्तस्मादुकारः कृष्णः सत्वसम्पन्नस्तत्मादकारः शोणवर्णः रजः सम्पन्नोऽहं भवदागत्य। का. पु.। स. पु.। बा. पु.। तै. पु.।” ↩︎
-
“हृव्यं स्वमन्त्रतः।वा पु.। स. पु.। का. पु.।” ↩︎
-
“एकस्यैकतमस्यापि। का. पु.। तै. पु.।” ↩︎
-
“तदादृताचाराः। स. पु.। का. पु.।” ↩︎
-
" तस्मात् कुविद्यवल। वा प। तस्मात्त विप्रवलकुत्सितदुर्म्मतीनामिति । स. पु.। तै. पु.।" ↩︎
-
“अस्या–। वा. पु.।” ↩︎
-
“अरण्ये। वा. पु.” ↩︎
-
" पूजयामास। स. पु.। वा.पु." ↩︎
-
“सदैव। बा.पु।” ↩︎
-
“सभागतान्। तै. पु.।” ↩︎
-
“दृढाम्बिका। वा. पु.। स. पु.।” ↩︎
-
“उपासिता। स. पु.। का. पु.” ↩︎
-
“विशिष्टागर्भगोलकात्। वा. पु.। ल. पु.।” ↩︎
-
“विधितश्चक्रुरिति। का. पु.। स. पु.। तै. पु.। विध्युक्तितःकुर्व्वन्तीति। वा. पु.।” ↩︎
-
“सम्यक्ज्ञानवशात्। का. पु.। तै. पु.।” ↩︎
-
" शलाटुः अपक्कफलम्।" ↩︎
-
“संवल्गने। तै. पु.।” ↩︎
-
“तद्वचनदप्रोद्बोधकन्दे। स. पु.। तै पु .।” ↩︎
-
“परापरगुरुं। वा. पु.।” ↩︎
-
“पोनायगुरुलफ इतिपाठस्तु तैलङ्गपुस्तके।” ↩︎
-
" एवमंशकद्वयेन। का. पु.। बा. पु.।" ↩︎
-
“तिलकभिक्षाशनादिभिरिति। का. पु.। स. पु. बा. पु.। त्रिपुण्ड्रधारयभिक्षाशनादिभिरिति। तै. पु.।” ↩︎
-
“पतञ्जलिरिव। का. पु.। तै. पु.।” ↩︎
-
“भोजसदसि कालिदास इवेत्यधिकः पाठस्तु का. पु.। वा. पु.।” ↩︎
-
“कपूयं धर्म्मसग्वम्बन्धवर्ज्जितं जुगुसितं कर्म्म इतिभाष्यं।” ↩︎
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“रोप्ररसाहेवमुद्रितग्रन्थेत्वेतच्छ्रुतेः पाठान्तरं छां, उं, पत्र” ↩︎
-
“एकदन्त इति। तै. पु.।” ↩︎
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“व्यवहारपालनमेव । का. पु.। तै. पु.।” ↩︎
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“सम्यग्ज्ञानादभेदाध्यवसायमनःसिद्धिप्रवृत्तिनिवृत्तिपरमात्मनि। का. पु.। तै. पु.। वा. पु.।” ↩︎
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“इच्छाक्रियाज्ञानशक्तियुक्तः। तै. पु.।” ↩︎
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“ब्रङ्कृचेापनिषद्भाष्यादौ द्रष्टव्यं।” ↩︎
-
" सर्व्वव्यापकक्षेतस इति। स. पु.। का. पु.। वा. पु.। तै पु.।" ↩︎
-
" नहि। वा. पु.।" ↩︎
-
“ज्ञानिनः। तै. पु.।” ↩︎
-
“कुटीचकः पुत्रान्नजीवीगृहस्थ इत्यर्थः।” ↩︎
-
“अद्वैतभाष्यं कुर्व्वन् सर्व्वद्वैतवादिजयमारभमाण इति पाठान्तरं। स. पु.। विश्वजिदिव दिग्विदिग्वर्त्तमाननानामतवादिजयमारभमाण इति। तै. पु. I” ↩︎
-
“गुह्यकीर्त्तिरिति पाठान्तरं। वा. पु.।” ↩︎
-
“अदृष्टपर्व्वं विद्यादिभिरिति। स. प.।” ↩︎
-
“बुद्धोपचारैरिति। का. पु.।वा. पु.। बुध्नोपचारैरिति च पाठान्तरं क्वचिदस्ति। बुध्नः शिवः तदीयैः उपचारैः पूजोपकरणसामग्रीभिरित्यर्थः। " ↩︎
-
“शमस्थ इति पाठान्तरं। वा. पु.।” ↩︎
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“तद्बोधितप्राभव इति। वा. पु.।” ↩︎
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“प्रकुर्व्वन्ति । वा. पु.। का. पु.” ↩︎
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“भक्ता इति। वा. पु. का. पु।” ↩︎
-
“अनुच्यमासीत्। शिवस्य सत्कारमूर्त्तेरिति। वा. पु.।का.पु.। स.पु.।” ↩︎
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“रविचन्द्रौ तद्रूपमेकं लिङ्गं एवं लिङ्गाष्टकं भगवतोऽष्टमूर्त्तयः लिङ्गद्वयं। वा. पु.। स. पु.। का. पु.। तै. पु.।” ↩︎
-
" विश्वरूपाय वै नम इति। वा. पु.। का. पु.। स. पु.।” ↩︎
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“पुरान्तर जलमध्ये इति पाठान्तरं। वा पु.।” ↩︎
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“राजसान् सृष्टिकर्त्तारमिति। का. पु.। स. पु.।” ↩︎
-
“क्रमादवर्णसञ्जातमवर्णाञ्चमवर्णग इति। का. पु.। स. पु.। वा. पु.। तै. पु.।” ↩︎
-
" शुक्लेन चेतसेति। वा. पु.। का. पु.। स. पु.।" ↩︎
-
“प्रकृत्या इति केचित्।” ↩︎
-
“असन् अदर्शनयोग्यभूताकाशवायू न सृष्टः प्रागित्यर्थः। स. पु.। तै. पु.।” ↩︎
-
“कुहकस्य ब्रह्मणः इति।वा. पु.।” ↩︎
-
“सर्व्वप्राणहर्त्ताइति। का. पु.। स. पु.।” ↩︎
-
“तर्हीदमिति का. पु.। तदेवमिति। स. पु.। तै. पु.।” ↩︎
-
“कालतः प्राप्यते इति। स. पु.। का. पु.। तै. " ↩︎
-
“पुण्ययोनि सम्भवत्वं नेश्वरेण विनेति कथं कुत इति।वा. पु.।” ↩︎
- ↩︎
-
“ब्रह्मविष्णुरूपाधिकं इति। वा पु.।” ↩︎
-
“तथास्यकमिति। वा. पु.।” ↩︎
-
“स्नानाधहरमिश्रितैः। का पु। स पु। स्नानाद्यहरहः श्रितेः। तै. पु.।” ↩︎
-
“२ यावतीर्ये । वा. पु.।” ↩︎
-
http://्र “एनं त्यक्ता। वा. पु.। का. प.।” ↩︎
-
“उपदे शवत्।का. पु.। वा. पु. स. पु.। " ↩︎
-
“कृतो न कर्म्मणा। तै. पु.। " ↩︎
-
“न वह्निश्चिह्नितप्ताङ्गादिना प्रयोजनं चर्म्महानिव्यतिरिक्तमस्ति ज्ञानतेजोभिरज्ञानान्धकारस्यैव मुक्तिदर्शनात्। वा, पु.। " ↩︎
-
“रुद्रोपासनया पुण्यलोकप्राप्तिरेव। वा. पु.।” ↩︎
-
“अध्यात्मयोगानुमतेन देवं। स. पु.। अध्यात्मयोगानुगतेन देवं। वा. पु.।” ↩︎
-
“नयाशां। स. पु.। का. पु.।” ↩︎
-
“अद्वैतामृतात्त्वं। का. पु.। वा. पु.। स. पु.।” ↩︎
-
“शिवभक्ते। वा. पु.” ↩︎
-
" निरवशेष बक्षकाः। का. पु.। वा. पु.।” ↩︎
-
“षड्विध शैवागमाचारं। स. पू.।” ↩︎
-
“किं शैवे जनताऽस्ति। स. पु.। का. पु.। तै. पु.।” ↩︎
-
“वैष्णवस्य मतमवलम्ब्य। का. पु.। स. पु.।” ↩︎
-
“पाशुपतपिणाकधारणयेाग्याभ्यां। वा. पु.।” ↩︎
-
“चोच्यते। तै. पु.।” ↩︎
-
" तपःसु। वा. पु.।” ↩︎
-
“तन्मात्रस्य। स. पु.। बा. पु.। का. पु.।” ↩︎
-
“सर्व्वान्देवान् वेदेत्यादि। तै. पु.। वा. पु.।” ↩︎
-
" स्वतःकविमतक्रान्तौ। वा. पु.। स्वतर्कविमतक्रान्तौ। इति केचित्।” ↩︎
-
“इत्यादिना रुद्रस्य सर्व्वात्मकत्वादिप्रतिपादनाद्यत्र यथ सदात्मब्रह्मपुरुष इत्यादि। स. पु.।” ↩︎ ↩︎
-
“न च रुद्राङ्कधारणादिकं अयुक्तमिति भवद्भिः केन हेतुना निवारितं। का. पु.। वा. पु.। नचेति विरहिते समीचीनं।” ↩︎ ↩︎
-
“तपःसु । वा. पु.” ↩︎
-
“तन्मात्रस्य। स. पु.। वा. पु.। का. पु.।” ↩︎
-
“सर्व्वान्देवान् वेदेत्यादि। तै. पु.।” ↩︎
-
“स्वतःकविमतक्रान्ता। वा. पु.। स्वतर्कविमतक्रान्तौइति केचित्।” ↩︎
-
" कृशत्वात् आर्षविरोधाच्च। तै. पु.।” ↩︎
-
“वेदान्ततत्परः। का. पु.। ते. पु.।” ↩︎
-
“रामेश्वरादनन्तशयनं। का. पु.। तै. पु.।” ↩︎
-
“वैष्णवाचारचक्रिणः। वा. पु.।” ↩︎
-
" भवेत। का. पु.। स. पु.। तै. पु.।" ↩︎
-
“नित्यकर्म्मप्रामाण्यमिव वः प्रामाण्यं किं न प्रतिफलति। स. पू.। नित्यकर्म्मप्रामाण्यमिव प्रतिफलति वः किम्प्रामाण्यं। तै.पु.। का.पु.।” ↩︎
-
“षट्चक्र मार्गयध्वं। वा. पु.।” ↩︎
-
" अस्माभिर्न विदितं त्रिकालमनन्तदेवपाददर्शनं विना। का. पु.। अस्माभिर्विदितमित्यादि न किच्चिदितीति विरहितं पाठान्तरं। स. पु.।" ↩︎
-
“तद्वचोगुम्पनेन समन्ताद्भूताश्चर्य्यः। वा. पु.।” ↩︎
-
“आज्यशयन।वा. पु.।” ↩︎
-
“मूलाज्ञानस्य निर्वृत्तिज्ञानस्य कारणं मतं। का. पु.। स.पु.। तै. पु.।” ↩︎
-
“प्रपञ्चदूष्टिलीयते। वा. पु.” ↩︎
-
“तदात्मनासह भेदाभावो। वा. पु.।” ↩︎
-
“एवं मुक्त्युपदेशं। वा. पु.।” ↩︎
-
“मन्त्रोपासकः वैकुण्ठभुवनं गमिष्यतीति। अतो नारायण मुद्रादिश्वरः। वा. पु.।” ↩︎
-
“तदवकाशःश्रुत्यभावात। सु. पु.।” ↩︎
-
“कारणैक्यता सिद्धैव। तै. पु.।” ↩︎
-
“तदंशभूतसम्भूतत्वात। वा. पु.।” ↩︎
-
" परलोकमक्त्वा। वा. पु.।" ↩︎
-
“अमायारूपत्वादमाथिकसदनुसन्धानैव तन्निवृत्तिः।वा. पु.।” ↩︎
-
“शङ्कनीयः। का. पु.। स. पु.। तै. पु.।” ↩︎
-
“ज्ञानमतावलम्बिनां। वा. पु.।” ↩︎
-
“तत्रैव सूर्य्यप्रणीतागम विरुद्धापि। तै. पु.।” ↩︎
-
“वहिरङ्गेन प्रयोजनमस्ति न वेति । स. पु.। का. पु.। वै. पु.।” ↩︎
-
“स्वाविर्भूतकालदेशदशाब्दभितं । स. पु. ।का. पु.। वैपु. ।” ↩︎
-
“द्वादशट्लपद्मदलवीजमर्चादिविदित । वा. पु. । स. पु. । का. पु।” ↩︎
-
“प्रजस्येत्यधिकः । वा. पु.।” ↩︎
-
“वह्निचिह्नमाचकार । वा. पु.।” ↩︎
-
“तप्तलोहचिह्नमिति । तै. पु.।” ↩︎
-
“तथात्वादित्यधिकः । का. पु. ।स. पु. ।वा. पु.” ↩︎
-
“अङ्गेषु । स पु । वा. पु.। का. पु. ।” ↩︎
-
“प्रीतिः स्यात् । का. पु.। वा. पु. ।स. पु.” ↩︎
-
“किञ्चित्तववर्त्तिनं । तै.पु. ।” ↩︎
-
“इत्याभास । का. पु. । स. पु. । तै. पु.” ↩︎
-
“निष्ठाभ्यासपदीराह । वा. पु.। का. पु. । स. पु. ।” ↩︎
-
“मद्गगुरुभिरुक्तो। वा. पु.। स. पु. । का. पु.।” ↩︎
-
“वर्त्तमान पिशाचवदभवत् । तै. पु. ।” ↩︎
-
“ब्राह्मण वयं मन्वादिस्मृत्युक्ताचारशीलाः हिरण्यगर्भं एव जगतः सृष्टिस्थितिलयकर्त्तेति निश्चित्य तदुपासनपरिलब्धमनःस्थैर्य्याः सन्तोऽत्र वसामः । स. पु. । क्वचिच्च ।” ↩︎
-
“तेजेावन्नरूपं । वा. पु.।” ↩︎
-
“कर्म्मविधिविप्रविधि । वै. पु. ।” ↩︎
-
“कीर्त्तिमार्ग ।वा. पु. ।” ↩︎
-
“निगम सूचि। तै. पु. ।” ↩︎
-
“श्रुतिपारीणां । वा. पु.। स. पु.। का. पु. ।” ↩︎
-
“प्रवाहलीना द्वयिप्रभुर्ब्रह्मा लये तान् । वा. पु.।का.पु।स. पु. ।” ↩︎
-
“ब्रह्माण्डान्तरे । वा. पु. ।” ↩︎
-
“सृष्टौपुनस्तावत् स्वकर्म्मशालान्तस्थनिजप्रकृत्या । वा.पु. । स. पु. ।का. पु.।” ↩︎
-
“इतरथापि । वा. पु.। का. पु।स. पु.।” ↩︎
-
“ब्रह्मस्वरूपवित् ब्रह्मखरूप इत्यर्थः । वा. पु.।स. पु.।का. पु. ।” ↩︎
-
“यस्तुतथा । वां. पु. । का. पु. ।स. पु.। तै. पु.।” ↩︎
-
“नकारार्थविलक्षणं वा पु. ।स. पु.। का. पु. ।” ↩︎
-
“सर्व्वासद्वादिनोऽसत्यक्षाधिक्षेपार्थं सत्यमित्याह । वा. पु.।” ↩︎
-
“अयं भावः येनापि सर्व्वासत्यत्वमङ्गीक्रियते तेनाप्यङ्गीक्रियत एव सत्वमन्यथा सत्वस्यानुपपत्तेः । ततो निरपेक्षत्वादिभ्यो” ↩︎
-
“अखण्डैकरसार्थमिति । स. पु.। का. पु. । तै. पु. ।बृह्म ते धातिरर्थभूतमिति । वा. पु.” ↩︎
-
“तदिच्छासृष्टं। वा. पु.।” ↩︎
-
“सङ्गृह्यते । वा. पु.।” ↩︎
-
“विप्रतिपत्त्यसन्दिग्धं । का. पु.। वा. पु.। स. पु.।” ↩︎
-
“फलमप्युक्तमेव । यते । ब्रह्मकमण्डलुकूर्च्चादिधारणं पाठखण्डमूलकं परित्यज्य शुद्धाद्वैतपरायणाः शिष्या बभूवुः । वा. पु.।” ↩︎
-
“संयातानां । स. पु. ।” ↩︎
-
“दीक्षयेदं हविरागच्छतं नः इति । वै. पु. । देहक्षये तद्दविरिति तु । वा. पि। स. पु. ।” ↩︎
-
“ज्येष्ठः स एव संयातानां सम्यगभिमनुसृत्ययातानां । स. पु. ।” ↩︎
-
“यतोदीक्षिताय यजमानाय देवान् व्यवगृह्य नोऽस्माकं येन आगच्छन्तं यस्येत्यादि । वा.पु. । यतोदेहक्षये यजमानाय देवान् परिगृह्य नोऽस्माकं हविरागच्छतं प्रापयतीत्यर्थः इति तु । स. क्षु. पु. ।” ↩︎
-
“मणिशलिकानां । वा. पु. ।का. पु. । स. पु. । तै.पु. । एवं सर्व्वत्र शलिका पाठोस्ति।” ↩︎
-
“सर्व्वेात्कृष्टत्वं प्राप्तं । तत्माद्दिस्फुलिङ्गरूपमणिशलाकां धृत्वा कृतार्थामुक्त्वाभविष्यन्ति । ब्राह्मणोचितस्य श्रौतस्मार्त्तरूपस्य तत्करणादिति । वा. पु.।” ↩︎
-
“दिशां दश । वा. पु.। स. पु.। का.पु।” ↩︎
-
“होगसाहेब प्रकाशित मुम्बयिमुद्रितैवेय ब्राह्मण पुस्तकेतु तदन्तरेण सर्व्वा अन्या देवता इति ।” ↩︎
-
“स्वरूपेण । वा. पु.।” ↩︎
-
“उतनाय । वा पु. । का. पु.। स. पु. । तै. पु.।” ↩︎
-
“ततः परं पूर्णमण्डलतिलकाः रक्तकुसुमधारिणः सूर्य्यभक्ताः दिवाकरादयः श्रीशङ्कराचार्य्यमिदमूचुः । स्वाभिन्नस्मन्मतमनन्यभेद्यं यतः सूर्य्यः सर्व्वलोकचक्षुः किल । अत एव ब्रह्मादिखरूपः तस्मात् सृष्टिस्थितिलयहेतुभूतः स एव परमात्मा भवितुमर्हति सूर्य्य आत्मा जगतस्तस्युवश्चेतिश्रुतेः । किञ्च परब्रह्मत्वं तस्यैव घटते । व्यसावादित्यो ब्रह्मेति श्रूतेः । अस्यैव भगवतः परमन्त्रोऽष्टाक्षरः घृणिः सूर्य्य आदित्यो न प्रभावात् त्राक्षरं मधूक्षरं मधति तद्रसं सत्यचैतद्रसमापो ज्योतिरसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवस्वरोमिति ऋगन्तर्वर्त्ति भगवतोऽष्टाक्षरमन्त्रः तमेव व्याकरोति श्रूतिः घुणिरिति द्वे अक्षरे या स इति त्रीणि व्यादित्यइति त्रीणि एतद्वैसावित्रस्याष्टाक्षरं पदं श्रियाभिषिक्त श्रिया व्यभिषिच्यते इति एतन्मद्योपासकाःसूर्य्यमन्नानुवर्त्तिनः रक्तचन्दनपूर्ण पुण्डमालाधारिणः षड्विधा भक्ता वर्त्तन्ते । वा पु. ।” ↩︎
-
“विश्वात्मकत्वेन । वा पु. ।” ↩︎
-
“हिरण्यश्मश्रू हिरण्यकेशं आप्रनखात् सर्व्व एव सुवर्णस्तस्य यथाकाप्यासं पुण्डरीकमेवमक्षिणौमित्यादिस्वरूपं भजन्तौत्यधिकः । वै. पु . ।” ↩︎
-
“रविं मनस्येव । वा पु. ।” ↩︎
-
“पुरुष एव इति । का. पु.। स. पु । वै.पु. । पुरुष एवएवेति क्वचित् ।” ↩︎
-
“तद्भव्यमित्यच्यते । का. पु. । वै. पु.।” ↩︎
-
" इत्यादिमन्त्रे। का. पु.। स. पु. । वै. पु.।" ↩︎
-
॑# “सूर्य्यएकएव इति । वै. पु.।” ↩︎
-
“मन्त्रस्येति । स. पु. का. । वै. पु.।” ↩︎
-
“वासनाद्वासनातन इति । वा. पु. का. पु. स. पु. ।” ↩︎
-
“वर्त्तेतेइत्यधिकः । का. पु.।स. पु.।” ↩︎
-
“सर्व्वप्राणिहरत्वं। वा. पु.।” ↩︎
-
“लोकद्रावकस्येति । वा. पु. ।का. पु.।स. पु. ।” ↩︎
-
“उपनिषदः इति । वा. पु.।” ↩︎
-
“कथं ब्रह्मत्व । वा. पु. ।” ↩︎
-
“पारतन्त्रं । वा. पु. ।” ↩︎
-
“सूर्य्यादिनिष्ठप्रभेति । वै. पु. । सूर्य्यादिनिज प्रभेति । का. पु.। स. पु.।” ↩︎
-
“अत एवान्तः पुरुषस्य । वा. पु. ।” ↩︎
-
“विरिञ्चिश्चतुमुखस्तस्येति । वा. पु.। का. पु. । स. पु.।” ↩︎
-
“एवं ब्राह्मणः सूर्य्यजनकत्वंसूर्य्यात् । वा. पु. ।” ↩︎
-
“जन्मनिवृत्तिं। वै. पु.।” ↩︎
-
“सूर्य्यादन्यद्देव । वा. पु. । सर्य्यादन्यदेव का. पु.। स. पु. । वै. पु. ।”
इत्यनन्तानन्दगिरिकृतौसौरमतनिवर्हणं नाम त्रयोदशं प्रकरणं॥ * ॥ ↩︎
-
“सर्व्वजगद्बहिरन्तर्गतः द्यों व्यन्तस्तद्धर्मोपदेशादिति सूत्राच्च तदधिकरणे श्रीमद्भिराचार्य्यैरुक्तं ब्रह्मपरमेव चैतदधिकरणमिति तस्मात् सर्व्वगते ब्रह्मण्यावर्त्तय भानुमंतविजृम्भणं त्यजतच्चिह्नधारणं । वा. पु. ।” ↩︎
-
“समानीतोययौतस्मात् वायोराशांजलेशयादिति। वा. पु. ।” ↩︎
-
“सुखोक्तिभिः । वै. पु.।” ↩︎
-
“सन्त्यक्तसुखदुःख यतीश्वरमिति क्वचित् ।” ↩︎
-
“पुरजिद्वलिरिति । का. पु.। स. पु. । पुरजिद्वलमिति । वा. पु. । पुरजद्वलमिति क्वचित् ।” ↩︎
-
“मयीत्यस्याभावः । वा. पु. ।” ↩︎
-
“देहैः कालत्रयेऽप्यस्पृष्टहं । वा. पु.।” ↩︎
-
“ताटूम्वयुवःको वा शरीरादिर्नामभविष्यति तृणजालैरुदकमिवाछन्नोऽविद्यया देह्यहमभवं मत्तो जातोऽनन्तान्महानुद्भूतंजगन्मूलं तस्माज्जातेाऽहङ्काराख्यः त्रिगुणयुताः भवस्तस्मात् रुद्रो विष्णुर्ब्रह्मा तेभ्यः सृष्टिस्थितिलया अभवन्नितरां कार्य्यार्थिभिरेतैः कृतमेतन्नाश्यभावाक्तंसाक्षी परमः सर्व्वत्रासम्बद्धिरन्तस्थः सम्यक् ज्ञानफलप्रदं मामेवाहुःपराणज्ञाः सत्यंज्ञानमनन्तं ब्रह्म सर्वाधा रः सर्व्वनयोऽहं सर्व्वीतीतः सर्व्वव्याप्तः कारणमेकश्चिदानन्दः भानु” ↩︎
-
“तत्पदं न द्विजाः प्रेक्ष्यकिमेतदितिचाब्रुवन्। स. क्षु. पु. । द्विजाः संप्रेक्ष्यबहुधेत्यादि वा. पु. । तत्पत्तनद्विजाः इत्यादि कचिच्च ।” ↩︎
-
“षड्भिर्भेदैर्विवर्जितं । वा. पु. । षड्भेदैश्चविराजितं । स. क्षु. पु. ।” ↩︎
-
“प्रतिपादितं तदसमञ्जसं विप्रतिभाति । वा.पु.।” ↩︎
-
“श्रुतेः । यतो गणपतेः सर्व्वातीतस्य परमात्मन एव जगत्कारणत्व सिद्धं तन्मायारचिता ब्रह्मादय इति व्यत एव तस्य गणपतित्वं एवं पठन्तं गाणपत्यमिदमाह श्रीमदाचार्थः । वा पु. ।” ↩︎
-
“महीद्यानामिनि । स. पु. । महीयानामिति । वा. पु.। " ↩︎
-
“सादनमिति सर्व्वत्रपाठः ।” ↩︎
-
“वदसि । वा.पु.।” ↩︎
-
“देवतार्थी । वा. पु. ।”
इत्यनन्तानन्दगिरिकृतौ गाणपत्यैकदेशिमतनिवर्हणं नाम षोड़शं प्रकरणम्॥ *॥ ↩︎
-
“तद्वाराद्भग्नलिङ्गशरीराङ्कमुक्तः त्वं । वा. पु. ।” ↩︎
-
“गणकुमारो धृवत्रिपुण्डः सद्गुरुवरं । वा. पु. ।” ↩︎
-
“गणपतिमतैकदेशिनि । वा. पु. ।” ↩︎
-
“तुण्डाग्रनीतमधुकं । वा. पु.।” ↩︎
-
“वामाङ्गोपरि । वा. पु. ।” ↩︎
-
“सम्यगदहनजनितानन्दविदित सकलालेाकः । वा. पु. । का.पु.। स.पु. ।” ↩︎
-
“रजःसिक्तासुसम्पर्के। वा. पु.।” ↩︎
-
“इत्यन्तेन । वा. पु.।” ↩︎
-
“सख्यसखिसमानासमान व्यपापादिष्वपि । वा. पु. ।” ↩︎
-
“न्यासएव यदित्यादिना। वा. पु.।” ↩︎
-
“वेदोक्तकर्मानुकूलत्वेन । का. पु.। स. पु । वै. पु.।” ↩︎
-
“स्वस्वाधिकारिणः। का. पु.। स. पु.।” ↩︎
-
“कृष्यादि प्रयोजनेषु । वै. पु.।” ↩︎
-
“तत्र सर्व्वकार्य्यनिर्व्विघ्नतेत्याद्यं शांशिनेारभेदादित्यन्तपाठासद्भावस्तैलङ्गपुस्तके।” ↩︎
-
“परन्तु । स. पु ।” ↩︎
-
“गणपत्यादयो । स. पु.।का. पु. ।” ↩︎
-
“तदशक्तौ। स. पु.।” ↩︎
-
“तच्छिष्याः । वै. पु. ।” ↩︎
-
“रुद्रसृष्ट्यन्तर्जातो गणपतिः कुमारोभैरवश्च ते जगति” ↩︎
-
“ततः श्रीशङ्कराचार्य्यस्तुलाभवानीनगरं प्रायन्मासमतिवत्। स.क्ष.पु. ।” ↩︎
-
“पादपद्मैःपवित्रां । वा. पु.।” ↩︎
-
“परमपुरुषं । वै. पु. ।” ↩︎
-
" शिरसाभिवाद्य । वा. पु.। स. पु ।का. पु.।” ↩︎
-
“मतमपीतिक्वचित् भागवती । वा. पु. ।” ↩︎
-
“प्रपञ्चमूलकारणगुणातीतलसद्वृत्तिश्च। वा. पु. ।” ↩︎
-
“अत उमातृकैव सर्व्वैर्मुमुक्षुभिरुपासनीया । वै.पु.।” ↩︎
-
“प्रकृत्य पासका मक्ता इति । वै. पु.।” ↩︎
-
“भयहारिण्येव तथापि । वा. पु. ।” ↩︎
-
“मुक्तिदर्शनाच्च । वा. पु.। का. पु. ।” ↩︎
-
“सगुणोपासनानि परित्यन्य कुङ्कुमपुण्डेत्यादि । वा. पु. ।” ↩︎
-
“शुद्धाद्वैतविद्यायां। वा. पु. ।” ↩︎
-
“परमपुरुषं । वा. पु. ।” ↩︎
-
“एवं श्रीमदाचार्य्यैः कृतं शक्तिमतनिरासं कृत्वा वा. पु. । छत्वेति श्रुत्वा भवितुमुचितं ।” ↩︎
-
“नत्वा किलेदमूचुः ।वा. पु. ।” ↩︎
-
“सोपीति वियदादीनां । वा. पु.।” ↩︎
-
“अतः कमलायाः सर्व्वोत्कृष्ठत्वात् भक्तानां भुजद्वयोः कमलाङ्गधारिणांपप्राक्षमालापरिशोभितगलकण्ठानां कुङ्कुमाङ्कितभक्तानां मुक्तिः कर स्थेति । वा. पु. ।” ↩︎
-
“पुनरन्ये शारदोषाशकाः पुस्तकपुण्ड्राःकमलपाणयः प्रत्यवतिष्ठन्ते । ते किल निगमसावित्रपरागमसुवागव्यक्त- सर्व्वावागित्यादयः परमगुरुमिदमूचुः। वा. पु.।” ↩︎
-
“यथानित्यप्रभा । स.पु.।” ↩︎
-
“शक्यं केन नित्यत्वे सत्ये वाङ्नित्यता स्यात् कण्टतालव्यादिसङ्गमज्ञानशब्दरूपवाच्यः कथं नित्यवाशक्यं” ↩︎
-
“वेदानामनित्यत्वेपि । वै. पु. ।” ↩︎
-
“तद्वारा जगत ।वै. पु.।” ↩︎
-
“नह्येकत्वं । वा. पु.।” ↩︎
-
“पुनरन्ये शक्तिवादिनः किल वामाचारतत्वराः समागत्य प्राचार्य्यस्वामिनमिदमूचुः। वा. पु. ।” ↩︎
-
“यतिवेशधारी वह्निरिव । वा. पु.। का. पु. ।” ↩︎
-
“अन्यथा सिद्धान्तं । वै.पु।” ↩︎
-
“यद्युच्येत । तदपि । वा. पु.।” ↩︎
-
“तयोर्नित्यत्व । वै. पु.।” ↩︎
-
“पूर्व्वयुगेषु भृग्वगस्तवॠभनिदाघजडभरतविश्वामित्ररामदशरथपरशुरामात्रेयश्रीकृष्णादिषु दक्षिणेतराचार प्रवर्त्तकेष ।वै. पु. ।” ↩︎
-
“ज्ञानोन्नतस्य च इति । स. पु. ।का. पु. । ज्ञानस्य चेतिवै.पु.।” ↩︎
-
“सत्त्यात । वै.पु.।” ↩︎
-
“वृक्षस्थे गृहिणौवद्दिमर्श इत्युक्तंतदप्यसत्यं गृहिणी जातसुखानुभवो गृहस्थस्यास्ति तथा देव तदभावात् । वै. पु.।” ↩︎
-
“किं सत्यत्वं । वा. पु.।” ↩︎
-
“तत्रस्थानातिसत्वरः। स. पु. ।वा. पु।” ↩︎
-
“सदासम्विद्द्रयभक्षणमधुसेवाजनितबोधपरवशाः इति । वै. पु.।” ↩︎
-
“कापालिकशक्तालिङ्गनतुष्टान्तरङ्गाः । वै.पु.।” ↩︎
-
“मातेव श्रुतिः । वै. पु. ।” ↩︎
-
“सहसापादि । स पु.। का. पु.।वा. पु।” ↩︎
-
“ते तु जात्याश्रयेण दूषिताः । स.पु.। का. पु. । वै. पु।” ↩︎
-
“अप्येवं । स. पु. ।” ↩︎
-
“स्वामिन् लोकान् प्रतारयन्निव वर्त्तते । यदि भवता परमार्थे विदितास्तर्हि। स. क्ष. पु. ।” ↩︎
-
“तन्मतं पुनरागम प्रमाणं । वा. पु. ।” ↩︎
-
“भवन्मतमयुक्तं वेदविरोधात् । स क्षु.पु.।” ↩︎
-
“मित्यभिमानवत् विशेषहीनमुक्तोर्लिङ्गस्थस्य । वा. पु.।” ↩︎
-
“नच वेदस्याप्रामाण्येन त्वदुक्तं सर्व्वनप्रमाणमितिवाच्यंवेदस्याप्रामाख्ये सुखदुःखजनककर्म्मासत्वेन एैश्वर्य्यादिना कश्च न दुःखीतिव्यवस्था न स्यात् तव मात्रागमनादियथेच्छव्यवहारापत्त्तिश्च इत्यधिकः । स.क्ष.पु. ।” ↩︎
-
“पापकल्पितां । स. पु.।” ↩︎
-
“सत्यसङ्कल्पो। वा. पु.।” ↩︎
-
“कारणन्तुमनोमात्रं। वा. पु. ।” ↩︎
-
“जाते । स. पु.। का. पु।” ↩︎
-
“तवज्ञानेन किमद्वैतेन फलमस्ति । वै. पु. ।” ↩︎
-
“कस्य मोक्षस्य कथं देहानन्तरं । का. पु. वा. पु.। स. पु.।” ↩︎
-
“सत्यशौचतपोयस्तुदेवतातिथिपूजने ॥ वा. पु. स. पु. ।” ↩︎
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“किं विप्रा वदत प्रभातमुखकाले क्रुद्धमार्षद्गतं। वै. पु.।” ↩︎
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“असृज्यत । वा. पु ।” ↩︎
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“स्तबमारभमाणेन नमकेन । स. पु. वा. पु. वै. पु. ।” ↩︎
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“स तु किल वैकुण्ठसेनाधिपतिः। भगवतो। वा. पु.।” ↩︎
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“यमादिभिरस्ति देहपातात्तद्भट्टचोदितमार्गेणवैकुण्ठलोक एव प्राप्तव्य इति प्राप्ते लोकविद्भिरिदमुक्तं । विष्वक्सेन मतमनुचितं कथं । वा. पु. ।” ↩︎
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“सर्व्वजीवैक्य भावनविशेषेण ध्याता तस्य साक्षान्मुक्तिरिति । वा. पु.।” ↩︎
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“भविष्यन्तीति नियमिताः । वा. पु. ।” ↩︎
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“नित्यानन्दकरं नाम भूषणदयं । वा. पु.।” ↩︎
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“निरवधिकनन्दस्योप्राप्तेरखण्डानन्दस्य भगवद्भूषत्वेन । स. पु. । का. पु.।” ↩︎
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“मोहादिप्रपञ्चे । वा. पु. ।” ↩︎
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“पूजाङ्गीकारधुरीणे। तै. पु.।” ↩︎
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“कुवेरेश परार्द्धेश । स. पु. । का. पु. ।” ↩︎
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“कुबेरेश परार्द्धेशः । स. पु. । का. पु. ।” ↩︎
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“सदेवकृता भवति । वा. पु. । सदैवकृतार्थभवेति । स. पु. ।” ↩︎
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“भवतस्तिलकमशकजिह्वया न किं कमनसमुच्चरितं । तमः पतितवाक्यात । वै. पु.।” ↩︎
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“१ सस्मै पोषं रमोनामरिष्टं । वा. पु. । मस्मै पैाषं रयि,नामरिष्टं। बै.पु. ।” ↩︎
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“२ जगतोपदेशे । स. पू. ।” ↩︎
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“* तस्मात् यमप्रस्थपुरं प्राप सर्व्वीत्मकः सद्गुरुराष्ट्यः शिष्यैर्यथा सर्व्वगुणैरुपेतः पुरन्दरः इत्यादि । वा० पु० ।” ↩︎
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“* यमाय सुनुत हविश्चेति क्वचित् पाठः ।” ↩︎
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“+ शुक्लयमोपासनाया इति क्वचित् पाठः ।” ↩︎
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“शतायुः पुत्रमुखं इति क्वचित्पाठः ।” ↩︎
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“अशरीरं शरीरेषु चनवस्थेष्ववस्थितमिति भाष्यसम्मतः पाठः ।” ↩︎
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“प्राण व्यापोऽर्णव इत्यपि पाठः ।” ↩︎
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“* मार्गेणेति क्वचित्पाठः ।” ↩︎
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“* रूपमिति पाठः साधुः ।” ↩︎
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“मृताः इति क्वचित् पाठः ।” ↩︎
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“शार्गालीमिति वा पाठः ।” ↩︎
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“क्रूरवदन इति क्वचित्पाठः ।” ↩︎
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“* चक्रकक्षाङ्कितानोति वा पाठः ।” ↩︎
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“चक्रकक्षाङ्कितानोति वा पाठः” ↩︎
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“तदाकारपूगधारणमात्रेणेति वा पाठः।”
इत्यानन्द गिरिकृतौशेषगरुडमतनिवर्हणं नामाष्टचत्वारिंशत्प्रकरणम्॥४८॥ ↩︎
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“त्रयाणामप्तेजोवायूनामिति क्वचित्पाठः।” ↩︎
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“जगत्पते इति क्वचित् पाठः।” ↩︎
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“पितृपक्षेतिलदर्भाणां क्षणं इति सङ्गादेवपक्षेयवदर्भाषणम्।” ↩︎
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“कुतोऽयमित्यवादोदिति क्वचित्पाठः ।” ↩︎
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“मृतापवादपरिहारायेति क्वचित् पाठः।” ↩︎
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“विद्या बभूवुरिति क्वचित्पाठः।” ↩︎
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“भारतीपीठनिन्दकः इति क्वचित्पाठः।” ↩︎
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“बुद्धिरूपेणेति क्वचित्पाठः।” ↩︎
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“चतुःसप्ततिसंख्यैः प्रकरणैः परिशोभितमिति क्वचित्पाठः।” ↩︎