०३ post-rAga

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विश्वास-प्रस्तुतिः

असथिरु जो मानिओ देह सो तउ तेरउ होइ है खेह ॥ किउ न हरि को नामु लेहि मूरख निलाज रे ॥१॥

मूलम्

असथिरु जो मानिओ देह सो तउ तेरउ होइ है खेह ॥ किउ न हरि को नामु लेहि मूरख निलाज रे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: असथिरु = सदा कायम रहने वाला। जो देह = जो शरीर। मानिओ = तू माने बैठा है। तउ = तो। होइ है = हो जाएगा। खेहि = मिट्टी, राख। को = का। किउ न लेहि = तू क्यों नहीं जपता? (लेहि)। मूरख निलाज रे = हे मूर्ख! हे बेशर्म!।1।
अर्थ: हे मूर्ख! हे बे-शर्म! जिस (अपने) शरीर को तू सदा कायम रहने वाला समझे बैठा है, तेरा वह (शरीर) तो (अवश्य) राख हो जाएगा। (फिर) तू क्यों परमात्मा का नाम नहीं जपता?।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम भगति हीए आनि छाडि दे तै मन को मानु ॥ नानक जन इह बखानि जग महि बिराजु रे ॥२॥४॥

मूलम्

राम भगति हीए आनि छाडि दे तै मन को मानु ॥ नानक जन इह बखानि जग महि बिराजु रे ॥२॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हीए = हृदय में। आनि = ला रख। तै = तू। को = का। मानु = अहंकार। इहै = यह ही। बखानि = कहता है। महि = में। बिराजु = रोशन हो, अच्छा जीवन जीउ।2।
अर्थ: दास नानक (तुझे बार-बार) यही बात कहता है कि (अपने) मन का अहंकार छोड़ दे, परमात्मा की भक्ति (अपने) हृदय में बसा ले। इस तरह का सदाचारी जीवन जी।2।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

मूलम्

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक सहसक्रिती महला १ ॥ पड़्हि पुस्तक संधिआ बादं ॥ सिल पूजसि बगुल समाधं ॥ मुखि झूठु बिभूखन सारं ॥ त्रैपाल तिहाल बिचारं ॥ गलि माला तिलक लिलाटं ॥ दुइ धोती बसत्र कपाटं ॥ जो जानसि ब्रहमं करमं ॥ सभ फोकट निसचै करमं ॥ कहु नानक निसचौ ध्यिावै ॥ बिनु सतिगुर बाट न पावै ॥१॥

मूलम्

सलोक सहसक्रिती महला १ ॥ पड़्हि पुस्तक संधिआ बादं ॥ सिल पूजसि बगुल समाधं ॥ मुखि झूठु बिभूखन सारं ॥ त्रैपाल तिहाल बिचारं ॥ गलि माला तिलक लिलाटं ॥ दुइ धोती बसत्र कपाटं ॥ जो जानसि ब्रहमं करमं ॥ सभ फोकट निसचै करमं ॥ कहु नानक निसचौ ध्यिावै ॥ बिनु सतिगुर बाट न पावै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पुस्तक = वेद शास्त्र आदि धर्म पुस्तकें। बादं = चर्चा (वाद)। सिल = पत्थर की मूर्ति। बिभूखण = विभूषण, आभूषण, गहने। सारं = श्रेष्ट। त्रैपाल = तीन पालों वाली, गायत्री मंत्र। तिहाल = त्रिह काल, तीन समय। लिलाटं = माथे पर। बहमं करमं = परमात्मा की भक्ति का कर्म। निसचै = जरूर, यकीनन। निसचौ = श्रद्धा धार के। बाट = रास्ता। संधिआ = (The morning, noon and evening prayer of a Brahmin) ब्राहमण की तीन वक्त की पूजा पाठ। गलि = गले में। कपाट = कपाल, खोपरी, सिर।
अर्थ: पंडित (वेद आदि धार्मिक) पुस्तकें पढ़ के संध्या करता है, और (औरों के साथ) चर्चा करता है, मूर्ति पूजता है और बगुले की तरह समाधि लगाता है; मुँह से झूठ बोलता है (पर उस झूठ को) बड़े सुंदर गहनों की तरह सुंदर करके दिखलाता है; (हर रोज) तीनों वक्त गायत्री मंत्र को विचारता है; गले में माला रखता है, माथे पर तिलक लगाता है; सदा दो धोतियां (अपने पास) रखता है, और (संधिया करते वक्त) सिर पर एक वस्त्र रख लेता है।
पर, जो मनुष्य परमात्मा की भक्ति का काम जानता हो, तब निष्चय करके जान लो कि उसके लिए ये सारे काम फोके हैं। हे नानक! कह: (मनुष्य) श्रद्धा धार के परमात्मा को स्मरण करे (केवल यही रास्ता लाभदायक है, पर) ये रास्ता सतिगुरु के बिना नहीं मिलता।1।

दर्पण-भाव

भाव: श्रद्धा रख के परमात्मा की भक्ति करनी ही जीवन का सही रास्ता है, यह रास्ता गुरु से ही मिलता है। दिखावे के धार्मिक कर्म आत्मिक जीवन सुंदर नहीं बना सकते।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निहफलं तस्य जनमस्य जावद ब्रहम न बिंदते ॥ सागरं संसारस्य गुर परसादी तरहि के ॥ करण कारण समरथु है कहु नानक बीचारि ॥ कारणु करते वसि है जिनि कल रखी धारि ॥२॥

मूलम्

निहफलं तस्य जनमस्य जावद ब्रहम न बिंदते ॥ सागरं संसारस्य गुर परसादी तरहि के ॥ करण कारण समरथु है कहु नानक बीचारि ॥ कारणु करते वसि है जिनि कल रखी धारि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तस्य = उस (मनुष्य) का। जावद = (यावत्) जब तक। ब्रहम = परमात्मा (को)। न बिंदते = नहीं जानता (विद् = to know)। सागरं = समुंदर। तरहि = तैरते हैं। के = कई लोग (कद्ध = pronoun, plural)। करण कारण = जगत का मूल। वसि = वश में। जिनि = जिस परमात्मा ने। कल = कला, सक्तिआ। रखी धारि = धार रखी, टिका रखी है। कारणु = सबब। निहफलं = निष्फल, व्यर्थ। संसारस्य = संसार का।
अर्थ: जब तक मनुष्य परमात्मा के साथ सांझ नहीं डालता, तब तक उसका (मनुष्य) जनम व्यर्थ है। (जो मनुष्य) गुरु की कृपा से (परमात्मा के साथ सांझ डालते हैं, वे) अनेक ही संसार-समुंदर से पार लांघ जाते हैं। हे नानक! (परमात्मा का नाम बार-बार) कह, (परमात्मा के नाम की) विचार कर, (वह) जगत का मूल (परमात्मा) सब ताकतों का मालिक है। जिस प्रभु ने (जगत में अपनी) सत्ता टिका रखी है, उस कर्तार के इख्तियार में ही (हरेक) सबब है।2।

दर्पण-भाव

भाव: परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालने से ही मनुष्य-जन्म सफल होता है। गुरु की शरण पड़ कर जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं, वे दुनिया के विकारों से बचे रहते हैं। विकारों से बचा के रखने की सामर्थ्य परमात्मा के नाम में ही है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जोग सबदं गिआन सबदं बेद सबदं त ब्राहमणह ॥ ख्यत्री सबदं सूर सबदं सूद्र सबदं परा क्रितह ॥ सरब सबदं त एक सबदं जे को जानसि भेउ ॥ नानक ता को दासु है सोई निरंजन देउ ॥३॥

मूलम्

जोग सबदं गिआन सबदं बेद सबदं त ब्राहमणह ॥ ख्यत्री सबदं सूर सबदं सूद्र सबदं परा क्रितह ॥ सरब सबदं त एक सबदं जे को जानसि भेउ ॥ नानक ता को दासु है सोई निरंजन देउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबदं = धरम। सबदं ब्राहमणह = ब्राहमण: , ब्राहमण का धर्मं। सूर = सूरमे। परा क्रितह = पराकृत: , दूसरों की सेवा करनी। सरब सबदं = सारे धर्मों का धर्म, सबसे श्रेष्ठ धर्म। एक सबदं = एक प्रभु का (स्मरण-रूप) धर्म। भेउ = भेद। निरंजन देउ = माया रहित प्रभु का रूप। ता को = उसका। को = कोई (की ऽ पि)। जानसि = (जानाति) जानता है। निरंजन = (निर्+अंजन। अंजन = कालख, मोह की कालिख) वह परमात्मा जिस पर माया के मोह की कालिख असर नहीं कर सकती।
अर्थ: (वर्ण-भेद का भेदभाव डालने वाले कहते हैं कि) जोग का धर्म ज्ञान प्राप्त करना है (ब्रहम की विचार करना है;) ब्राहमण का धर्म वेदों की विचार है; क्षत्रियों का धर्म शूरवीरों वाले काम करना है और शूद्रों का धर्म दूसरों की सेवा करनी है।
पर सबसे श्रेष्ठ धर्म यह है कि परमात्मा का स्मरण किया जाए। अगर कोई मनुष्य इस भेद को समझ ले, नानक उस मनुष्य का दास है, वह मनुष्य परमात्मा का रूप हो जाता है।

दर्पण-भाव

भाव: परमात्मा का नाम स्मरणा मानव-जीवन का असली फर्ज है, और, ये फर्ज हरेक मनुष्य के लिए सांझा है चाहे मनुष्य कैसी भी वर्ण का हो। स्मरण करने वाला मनुष्य परमात्मा का ही रूप हो जाता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एक क्रिस्नं त सरब देवा देव देवा त आतमह ॥ आतमं स्री बास्वदेवस्य जे कोई जानसि भेव ॥ नानक ता को दासु है सोई निरंजन देव ॥४॥

मूलम्

एक क्रिस्नं त सरब देवा देव देवा त आतमह ॥ आतमं स्री बास्वदेवस्य जे कोई जानसि भेव ॥ नानक ता को दासु है सोई निरंजन देव ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: एक क्रिस्नं = (कृष्ण = The Supreme Spirit) एक परमात्मा। सरब देव आतमा = सारे देवताओं की आत्मा। देवा देव आतमा = देवताओं के देवताओं की आत्मा। त = भी। बास्वदेवस्य = वासुदेवस्य, वासुदेव का, परमात्मा का। बास्वदेवस्य आतम = प्रभु की आत्मा। निरंजन = (निर्+अंजन। अंजन = कालख, मोह की कालिख) वह परमात्मा जिस पर माया के मोह की कालिख असर नहीं। को = का।
अर्थ: एक परमात्मा ही सारे देवताओं की आत्मा है, देवताओं के देवों की भी आत्मा है। जो मनुष्य प्रभु की आत्मा का भेद जान लेता है, नानक उस मनुष्य का दास है, वह मनुष्य परमात्मा का रूप है।4।

दर्पण-भाव

भाव: परमात्मा ही सारे देवताओं का देवता है, उसके साथ ही गहरी सांझ बनानी चाहिए।
सलोक वार भाव:
मनुष्य के साथ सदा का साथ करने वाला सिर्फ परमात्मा का भजन ही है। कितने भी प्यारे रिश्तेदार हों किसी का भी साथ सदा के लिए नहीं हो सकता। माया भी यहीं धरी रह जाती है।
जो मनुष्य साधु-संगत में प्यार बनाते हैं, उनकी जिंदगी आत्मिक आनंद में बीतती है।
अजीब खेल बनी हुई है! ज्यों-ज्यों बुढ़ापा बढ़ता है त्यों-त्यों मनुष्य के अंदर माया का मोह भी बढ़ता जाता है। मनुष्य माया के मोह के कूएँ में गिरा रहता है। परमात्मा की कृपा ही इस कूएँ में से निकालती है।
इस शरीर की क्या पायां? पर आत्मिक जीवन की सूझ से वंचित मनुष्य इसको सदा कायम रहने वाला मिथ बैठता है और परमात्मा को भुला देता है।
परमात्मा के दर पर पड़े रहने पर ही जीवन की सही समझ पड़ती है।
जिसका रखवाला परमात्मा स्वयं बने, उसका कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता।
पर, धुर-दरगाह से जिसकी चिट्ठी फटी हुई आ जाती है, वह अपनी रखवाली के भले ही जितने प्रयत्न करता फिरे, थोड़ा सा ही बहाना उसकी चोग सदा के लिए समाप्त कर देता है।
जो मनुष्य गुरु के शब्द को प्यार करके परमात्मा की महिमा करते हैंउनको परमात्मा हर जगह बसता दिखता है।
ये सारा जगत दिखाई देता जगत नाशवान है। सिर्फ विधाता परमात्मा ही अविनाशी है, और उसका स्मरण करने वाले बँदों का आत्मिक जीवन अटल रहता है।
जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है, वह उसका नाम स्मरण करता है। नाम की इनायत से उसका जीवन ऐसा बन जाता है कि वह विकारों से सदा संकोच करता है, पर नेकी भलाई करने में थोड़ी सी भी ढील नहीं करता।
माया कई रंगों-रूपों में मनुष्य पर अपना प्रभाव डालती है। जो मनुष्य परमात्मा की शरण आता है, उस पर माया का जोर नहीं चल सकता।
जगत में दिखाई देती हरेक चीज़ का अंत भी है। सिर्फ परमात्मा ही मनुष्य के साथ निभ सकता है, और, यह स्मरण साधु-संगत के आसरे किया जा सकता है।
जिस मनुष्य पर परमात्मा की मेहर होती है, उसको सही जीवन की सूझ आ जाती है, उसका मन काबू में रहता है, और, वह सदा परमात्मा के दीदार में मस्त रहता है।
सबसे श्रेष्ठ विद्या है परमात्मा की याद। जिस मनुष्यों पर परमात्मा की कृपा होती है वे परमात्मा से सदा नाम-जपने की दाति माँगते रहते हैं।
परमात्मा का नाम जपने की इनायत से मनुष्य के अंदर ये निष्चय बन जाता है कि दया का समुंदर परमात्मा ही सबकी पालना करने वाला है।
परमात्मा की मेहर से जिस मनुष्य को साधु-संगत प्राप्त होती है वह माया की खातिर भटकने से बच जाता है वह विकारों में फसने से बच जाता है।
कोई बड़े से बड़े कठिन तप भी मनुष्य को माया के मोह से नहीं बचा सकते। प्राणों का आसरा सिर्फ गुरु-शब्द ही हो सकता है जो साधु-संगत में मिलता है।
परमात्मा के नाम का स्मरण पिछले किए हुए सारे कुकर्मों के संस्कारों का नाश कर देता है।
नाम जपने की इनायत से सही जीवन की विधि आ जाती है, मनुष्य का आचरण सुच्चा बन जाता है।
गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा के दर से माँगी हरेक मुराद पूरी हो जाती है। परमात्मा सब दातें देने वाला है, देने के समर्थ है।
सर्व-व्यापक परमात्मा सबके दिलों की जानने वाला है, निआसरों को आसरा देने वाला है। उसके दर से उसकी भक्ति की दाति माँगते रहना चाहिए।
जिस पर परमात्मा मेहर करे वह उसका नाम स्मरण करता है। अपने उद्यम से मनुष्य भक्ति नहीं कर सकता।
जो मनुष्य सब दातें देने वाला परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं, वे इन नाशवान पदार्थों के मोह से बचे रहते हैं।
जगत में मल्कियतों और मौज-मेलों के कारण जो मनुष्य जीवन के अल्टे राह पर पड़ जाते हैं उनको अनेक जूनियों के दुख सहने पड़ते हैं।
जो मनुष्य परमात्मा की याद भुला देते हैं, वे शारीरिक तौर पर नरोऐ होते हुए भी अनेक आत्मिक रोग सहेड़ लेते हैं।
जिस मनुष्य को परमात्मा का नाम जपने की आदत पड़ जाती है वह इसके बिना नहीं रह सकता।
जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करता है; दूसरों द्वारा अति सहना उसका स्वभाव बन जाता है।
परमात्मा का नाम स्मरण करने वाले मनुष्य पर किसी के द्वारा की गई कोई निरादरी अपना असर नहीं डाल सकती, कोई दुख-कष्ट अपना प्रभाव नहीं डाल सकता।
विनम्रता, स्मरण, शब्द की ओट -जिस मनुष्य के पास हर वक्त ये हथियार हैं, कामादिक विकार उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते।
जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करता है वह परिवार के मोह में नहीं फसता।
साधु-संगत में टिक के मूर्ख मनुष्य भी सयाना बन जाता है क्योंकि वहाँ वह जीवन का सही रास्ता पा लेता है।
परमात्मा का नाम जपने से और हृदय में प्रभु-प्यार टिकाने से मनुष्य मोहनी माया के प्रभाव से बचा रहता है।
जो मनुष्य गुरु के बताए हुए रास्ते पर नहीं चलता, वह विकारों में लिप्त हुआ रहता है और चारों तरफ से उसे फिटकारें ही पड़ती हैं।
साधु-संगत का आसरा ले के जो मनुष्य सदा परमात्मा का नाम स्मरण करता है, विकार उसके नजदीक नहीं फटक सकते।
दुनिया के पदार्थ मिलने मुश्किल बात नहीं परमात्मा का नाम कहीं सौभाग्य से मिलता है। मिलता है ये साधु-संगत में से; तब, जब परमात्मा स्वयं मेहर करे।
जो मनुष्य परमात्मा के हर जगह दर्शन करने लग जाए, उस पर विकार अपना प्रभाव नहीं डाल सकते।
जिस मनुष्य को परमात्मा के नाम का सहारा मिल जाता है, वह जनम मरण के चक्करों में से निकल जाता है, आत्मिक मौत उसके नजदीक नहीं फटकती, दुनिया के कोई डर-सहम उस पर असर नहीं डाल सकते।
जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है उसको शांति-स्वभाव बख्शता है उसको पवित्र जीवन बख्शता है।
साधु-संगत ही एक ऐसी जगह है जहाँ मनुष्य को आत्मिक शांति हासिल होती है।
असली साधु वह मनुष्य है, सर्व-व्यापक परमात्मा के नाम की इनायत से जिस की आत्मिक अवस्था ऐसी बन जाती है कि उसके अंदर से मेर-तेर मिट जाती है परमात्मा की महिमा ही उसकी जिंदगी का सहारा बन जाती है माया और कामादिक विकार उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते।
दुनिया के भोगों के साथ-साथ दुनिया में अनेक सहम भी हैं जो परमात्मा के नाम से टूटने पर मनुष्य पर अपना प्रभाव डाले रखते हैं।
माया अनेक ढंगों से मनुष्य पर अपना प्रभाव डालती रहती है। जो मनुष्य साधु-संगत का आसरा ले के परमात्मा का भजन करता है वह उससे बचा रहता है।
परमात्मा ही सब जीवों को दातें देता है और देने के योग्य है। उसी का आसरा लेना चाहिए।
जिस मनुष्य पर परमात्मा की मेहर होती है वह साधु-संगत का आसरा ले के उसका नाम जपता है। यही है मनुष्य जीवन का उद्देश्य। नाम-जपने की बख्शिश से मनुष्य का जीवन पलट जाता है।
मोह जगत के सारे जीवों पर प्रभावी है इसकी मार से वही बचते हैं जो जगत के मालिक परमात्मा का आसरा लेते हैं परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं।
मनुष्य उच्च जाति के हों अथवा नीच जाति के, कामदेव सबको अपने काबू में कर लेता है। इसकी मार से वही बचता है जो साधु-संगत में टिक के परमात्मा का आसरा लेता है।
बली क्रोध के वश में आ के मनुष्य कई झगड़े खड़े कर लेता है, और अपना जीवन दुखी बना लेता है। इसकी मार से बचने के लिए परमात्मा की शरण ही एक-मात्र उपाय है।
लोभ के असर तले मनुष्य शर्म-हया छोड़ के अयोग्य करतूतें करने लग जाता है। परमात्मा के ही दर पर अरदासें कर के इससे बचा जा सकता है।
परमात्मा ही एक ऐसा हकीम है जो अहंकार के रोग से जीवों को बचाता है। अहंकार के वश हो के जीव अनेक वैरी सहेड़ लेता है।
हर वक्त परमात्मा का नाम ही स्मरणा चाहिए। वही संसारी जीवों के दुख नाश करने के समर्थ है।
संसार-समुंदर में से जिंदगी की बेड़ी सही-सलामत पार लंघाने का एक-मात्र तरीका है: साधु-संगत में रह के परमात्मा की महिमा की जाए।
परमात्मा ही मनुष्य के शरीर की जीवात्मा की हरेक तरह से रक्षा करने वाला है। जो मनुष्य उसकी भक्ति करते हैं उनके साथ वह प्यार करता है।
संसार, समुंदर की तरह है। इसमें अनेक विकारों की लहरें उठ रही हैं। जो मनुष्य परमात्मा का आसरा लेता है उसके आत्मिक जीवन को ये विकार तबाह नहीं कर सकते।
परमात्मा की भक्ति ही इन्सानी जिंदगी के सफर के लिए समतल रास्ता है। यह दाति साधु-संगत में से मिलती है।
जो मनुष्य साधु-संगत के द्वारा परमात्मा का आसरा ले के नाम स्मरण करता है वह मोह अहंकार आदि सारे बलवान विकारों का मुकाबला करने के योग्य हो जाता है।
निरे धार्मिक चिन्ह धारण करके भक्ति से वंचित रह के अपने आप को धर्मी कहलवाने वाला मनुष्य धर्मी नहीं है।
परमात्मा, भक्ति करने वालों के दिल में बसता है।
मनुष्य इस संसार-समुंदर के अनेक ही विकारों के घेरे में फसा रहता है। साधु-संगत का आसरा ले के जो मनुष्य परमात्मा का भजन करता है वही इनसे बचता है। पर यह दाति मिलती है परमात्मा की अपनी मेहर से।
जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है, वह साधु-संगत में आ के उसका नाम स्मरण करता है।
भला मनुष्य वह है जो अंदर से भी भला है और बाहर से भी भला है। अंदर खोट रख के भलाई का दिखावा करने वाला मनुष्य भला नहीं है।
माया का मोह बहुत प्रबल है। बुढ़ापा आ के मौत सिर पर आवाज़ दे रही होती है, फिर भी मनुष्य परिवार के मोह में फसा रहता है। इस मोह से परमात्मा की याद ही बचाती है।
जीभ से परमात्मा का नाम जपना था, पर ये मनुष्य को चस्कों में ही उलझाए रखती है।
परमात्मा को भुला के दूसरों पर ज्यादतियां करने वाले अहंकारी मनुष्य से भला परमात्मा का नाम स्मरण करने वाला अति-गरीब मनुष्य है। अहंकारी का जीवन व्यर्थ जाता है, वह सदा ही ऐसे कर्म करता है कि उसे धिक्कारें पड़ती हैं।
जिस मनुष्य पर गुरु परमात्मा मेहर करता है, नाम-जपने की इनायत से उसका आत्मिक जीवन बहुत ऊँचा हो जाता है, विकारों का अंधेरा उसके नजदीक नहीं फटकता, उसकी जिंदगी गुणों से भरपूर हो जाती है।
परमात्मा का नाम स्मरण करने वाला मनुष्य ही ऊँची जाति का है उसकी संगति में और लोग भी कुकर्मों से बच जाते हैं। माया के मोह में फसा हुआ (ऊँची जाति का भी) मनुष्य व्यर्थ जीवन गवा लेता है।
अपने प्राणों की खातिर औरों का नुकसान करके पराया धन बरतने वाले मनुष्य की जिंदगी बुरे कर्मों की गंदगी में ही गुजरती है।
जो मनुष्य परमात्मा की याद में जुड़ा रहता है वह विकारों से बच जाता है, उसकी संगति करने वाले मनुष्य भी विकारों के पँजे में से निकल जाते हैं।
लड़ी-वार भाव:
(1 से 15) . मनुष्य के साथ सदा साथ निभने वाला साथी सिर्फ परमात्मा का नाम ही है। पर, आत्मिक जीवन की सूझ से वंचित मनुष्य माया के मोह के कूएं में गिरा रहता है, और, असल साथी को भुलाए रखता है। माया कई रंगों-रूपों में मनुष्य पर अपना प्रभाव डालती है। जिस मनुष्य पर परमात्मा की मेहर होती है उसको सही आत्मिक जीवन की सूझ आ जाती है, वह साधु-संगत की ओट ले के नाम स्मरण करता है।
(16 से 25) अपने उद्यम से मनुष्य भक्ति नहीं कर सकता। पिछले किए कर्मों के संस्कार उसी ही तरफ प्रेरते हैं। कोई बड़े से बड़े कठिन तप भी मनुष्य को माया के मोह से बचा नहीं सकते। जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है, वह साधु-संगत की शरण ले के महिमा में जुड़ता है, और, इस तरह उसके पिछले किए सारे कुकर्मों के संस्कार मिट जाते हैं। शारीरिक तौर पर नरोए होते हुए भी अगर मनुष्य परमात्मा की याद भुलाता है, तो वह अनेक आत्मिक रोग सहेड़ी रखता है।
(26 से 44) परमात्मा के नाम जपने की इनायत से मनुष्य के अंदर ऊँचे आत्मिक गुण पैदा हो जाते हैं। किसी के द्वारा हुई कोई भी निरादरी उस पर असर नहीं डाल सकती, कोई विकार उसके नजदीक नहीं आ सकता, उसकी सहनशक्ति इतनी असीम हो जाती है कि दूसरों की ज्यादती सहने की उसे आदत पड़ जाती है।
ये दाति मिलती है साधु-संगत में से, और, मिलती है परमात्मा की मेहर से।
(45 से 55) काम क्रोध लोभ मोह अहंकार आदि विकार इतने बली हैं कि मनुष्य अपने प्रयासों से इनका मुकाबला नहीं कर सकता। इनकी मार से बच के संसार-समुंदर में से जिंदगी की बेड़ी सही-सलामत पार लंघाने का एक-मात्र तरीका है -साधु-संगत में रह के परमात्मा की महिमा। यही इन्सानी जिंदगी के सफर के लिए जीवन का समतल रास्ता है। पर ये मिलता है परमात्मा की अपनी मेहर से।
(56 से 67) निरे धार्मिक चिन्ह मनुष्य को विकारों का मुकाबला करने-योग्य नहीं बना सकते। अंदर खोट रख के भलाई का दिखावा मनुष्य को भला नहीं बना सकता। माया का मोह बहुत प्रबल है, इससे परमात्मा की याद ही बचाती है।
परमात्मा को भुला के दूसरों पर ज्यादती करने वाले अहंकारी मनुष्य से स्मरण करने वाला अति-गरीब व्यक्ति अच्छा है, वह ही ऊँची जाति वाला है, उसकी संगति में और लोग भी कुकर्मों से बच जाते हैं।
मुख्य भाव:
माया का मोह बहुत प्रबल है, इसके असर तले रह के मनुष्य विकारों में फस जाता है। विकारों से बचे रहने का एक-मात्र तरीका है: साधु-संगत में टिक के परमात्मा की महिमा करते रहना। ये दाति मिलती है परमात्मा की अपनी मेहर से।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘सहसक्रिती’ शब्द ‘संस’ का प्राक्रित–रूप है, जैसे शब्द ‘संशय का प्राक्रित रूप ‘सहसा’ है। सो, ये शलोक जिस का शीर्षक है ‘सहस क्रिती’ संस्कृत के नहीं हैं। शब्द ‘सहस–क्रिती’ शब्द संस्कृत का प्राक्रित रूप है। ये सारे शलोक प्राक्रित बोली के हैं।
पाठकों की सहूलत के लिए शब्दों के असल संस्कृत–रूप भी पदअर्थों में दे दिए गए हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक सहसक्रिती महला ५ ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

मूलम्

सलोक सहसक्रिती महला ५ ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कतंच माता कतंच पिता कतंच बनिता बिनोद सुतह ॥ कतंच भ्रात मीत हित बंधव कतंच मोह कुट्मब्यते ॥ कतंच चपल मोहनी रूपं पेखंते तिआगं करोति ॥ रहंत संग भगवान सिमरण नानक लबध्यं अचुत तनह ॥१॥

मूलम्

कतंच माता कतंच पिता कतंच बनिता बिनोद सुतह ॥ कतंच भ्रात मीत हित बंधव कतंच मोह कुट्मब्यते ॥ कतंच चपल मोहनी रूपं पेखंते तिआगं करोति ॥ रहंत संग भगवान सिमरण नानक लबध्यं अचुत तनह ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कतं = कहाँ? च = और। बनिता = वनिता, स्त्री। बिनोद = आनंद, लाड प्यार। सुतह = (सुत:) पुत्र। हित = हितू, हितैषी। बंधव = रिश्तेदार। चपल = चंचल। पेखंते = देखते ही। करोति = करती है। रहंत = रहता है। लबध्यं = ढूँढ सकते हैं। अचुत = अविनाशी प्रभु (अच्युत)। तनह = (तन:) पुत्र। अचुत तनह = अविनाशी प्रभु के पुत्र, संत जन।
अर्थ: कहाँ रह जाती है माँ, और कहाँ रह जाता है पिता? और कहाँ रह जाते हैं स्त्री-पुत्रों के लाड-प्यार? कहाँ रह जाते हैं भाई मित्र और सन्बंधी? और कहाँ रह जाता है परिवार का मोह? कहाँ जाती है मन को मोहने वाली ये चंचल माया देखते-देखते ही छोड़ जाती है।
हे नानक! (मनुष्य के) साथ (सदा) रहता है भगवान का भजन (ही), और यह भजन मिलता है संत जनों से।1।

दर्पण-भाव

भाव: मनुष्य के साथ सदा का साथ करने वाला सिर्फ परमात्मा का भजन ही है। कितने भी प्यारे रिश्तेदार हों, किसी का भी साथ सदा के लिए नहीं हो सकता। माया भी यहीं धरी रह जाती है।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्रिगंत मात पिता सनेहं ध्रिग सनेहं भ्रात बांधवह ॥ ध्रिग स्नेहं बनिता बिलास सुतह ॥ ध्रिग स्नेहं ग्रिहारथ कह ॥ साधसंग स्नेह सत्यिं सुखयं बसंति नानकह ॥२॥

मूलम्

ध्रिगंत मात पिता सनेहं ध्रिग सनेहं भ्रात बांधवह ॥ ध्रिग स्नेहं बनिता बिलास सुतह ॥ ध्रिग स्नेहं ग्रिहारथ कह ॥ साधसंग स्नेह सत्यिं सुखयं बसंति नानकह ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ध्रिगं = धिक्कारयोग, बुरा, त्यागने योग्य (धिक्)। त = तां, ही। सनेह = स्नेह, प्यार, मोह। बिलास = विलास, आनंद। सुतह = (सुत:) पुत्र का। ग्रिहारथकह = गृह+अर्थका, घर के पदार्थों का। सनेह = स्नेह, प्यार। सत्यिं = सत्यं, सदा स्थिर रहने वाला। सुख्यं = सुख से, आत्मिक आनंद से। बसंति = वसन्ति, बसते हैं। नानकह = (नानक:) हे नानक! बांधव = संबन्धी।
अर्थ: माता-पिता का मोह त्यागने-योग्य है, भाईयों सन्बंधियों का मोह भी खराब है। स्त्री-पुत्र के मोह का आनंद भी त्यागने लायक है, घर के पदार्थों की कसक भी बुरी है (क्योंकि ये सारे नाशवान है, और इनका मोह प्यार भी सदा कायम नहीं रह सकता)।
सत्संग से (किया हुआ) प्यार सदा स्थिर रहता है, और, हे नानक! (सत्संग से प्यार करने वाले मनुष्य) आत्मिक आनंद से जीवन व्यतीत करते हैं।2।

दर्पण-भाव

भाव: जो मनुष्य साधु-संगत में प्यार बनाते हैं, उनकी जिंदगी आत्मिक आनंद में बीतती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिथ्यंत देहं खीणंत बलनं ॥ बरधंति जरूआ हित्यंत माइआ ॥ अत्यंत आसा आथित्य भवनं ॥ गनंत स्वासा भैयान धरमं ॥ पतंति मोह कूप दुरलभ्य देहं तत आस्रयं नानक ॥ गोबिंद गोबिंद गोबिंद गोपाल क्रिपा ॥३॥

मूलम्

मिथ्यंत देहं खीणंत बलनं ॥ बरधंति जरूआ हित्यंत माइआ ॥ अत्यंत आसा आथित्य भवनं ॥ गनंत स्वासा भैयान धरमं ॥ पतंति मोह कूप दुरलभ्य देहं तत आस्रयं नानक ॥ गोबिंद गोबिंद गोबिंद गोपाल क्रिपा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिथ्य = मिथ्या, नाशवान। देहं = शरीर। खीणं = क्षीण, कमजोर हो जाना। जरूआ = जरा, बुढ़ापा। हित्यं = हित, मोह। अत्यंत = बहुत ही। आथित्य = अतिथि, मेहमान। भवन = घर। गनंत = गिनता है। भैयान = भयानक, डरावना। धरमं = धर्म राज। पतंति = पतित होता है, गिरता है। कूप = कुप, कूआँ। दुरलभ्य = दुर्लभ, मुश्किल से मिलने वाला। तत = उसका। गोपाल क्रिपा = परमात्मा की कृपा।
अर्थ: (ये) शरीर तो नाशवान है, (इसका) बल भी घटता रहता है। (पर ज्यों-ज्यों) बुढ़ापा बढ़ता है, माया का मोह भी (बढ़ता जाता है,) (पदार्थों की) आसा तीव्र होती जाती है (वैसे जीव यहाँ) घर के मेहमान (की तरह) हैं। डरावना धर्मराज (इसकी उम्र की) सांसें गिनता रहता है। यह अमोलक मनुष्य शरीर मोह के कूएं में गिरा रहता है।
हे नानक! एक गोबिंद गोपाल की मेहर ही (बचा सकती हे), उसी का आसरा (लेना चाहिए)।3।

दर्पण-भाव

भाव: अजीब खेल बनी हुई है! ज्यों-ज्यों बुढ़ापा बढ़ता है त्यों-त्यों मनुष्य के अंदर माया का मोह भी बढ़ता जाता है। मनुष्य माया के मोह के कूएँ में गिरा रहता है। परमात्मा की कृपा ही इस कूएं में से निकालती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काच कोटं रचंति तोयं लेपनं रकत चरमणह ॥ नवंत दुआरं भीत रहितं बाइ रूपं असथ्मभनह ॥ गोबिंद नामं नह सिमरंति अगिआनी जानंति असथिरं ॥ दुरलभ देह उधरंत साध सरण नानक ॥ हरि हरि हरि हरि हरि हरे जपंति ॥४॥

मूलम्

काच कोटं रचंति तोयं लेपनं रकत चरमणह ॥ नवंत दुआरं भीत रहितं बाइ रूपं असथ्मभनह ॥ गोबिंद नामं नह सिमरंति अगिआनी जानंति असथिरं ॥ दुरलभ देह उधरंत साध सरण नानक ॥ हरि हरि हरि हरि हरि हरे जपंति ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काच = कच्चा। कोट = किला। रचंति = रचा हुआ है। तोयं = पानी। रकत = रक्त, लहू। चरमणह = (चर्मण:) चमड़ी, खाल। नवं = नौ। भीत = भिक्ति, दरवाजे के तख्ते। बाइ = बाय, हवा, श्वास। असथंभनह = (स्तंभन:) स्तंभ। जानंति = जानते हैं। असथिरं = सदा स्थिर रहने वाला। उधरंत = बचा लेते हैं। जपंति = जपते हैं (जो)।
अर्थ: (यह शरीर) कच्चा किला है, (जो) पानी (भाव, वीर्य) का बना हुआ है, और लहू और चमड़ी के साथ लिंबा हुआ है। (इसके) नौ दरवाजे (गोलकें) हैं, पर (पर दरवाजों के) भिक्त नहीं हैं, साँसों की (इसको) स्तंभ (लगा हुआ) है।
मूर्ख जीव (इस शरीर को) सदा-स्थिर रहने वाला जानते हैं, और परमात्मा का नाम कभी याद नहीं करते।
हे नानक! जो लोग साधु-संगत में आ के परमात्मा का नाम जपते हैं, वे इस दुर्ल भ इस शरीर को (नित्य की मौत के मुँह से) बचा लेते हैं।4।

दर्पण-भाव

भाव: इस शरीर की क्या पायां है? पर आत्मिक-जीवन की समझ से वंचित मनुष्य इसको सदा कायम रहने वाला मिथ बैठता है और परमात्मा को भुला देता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुभंत तुयं अचुत गुणग्यं पूरनं बहुलो क्रिपाला ॥ ग्मभीरं ऊचै सरबगि अपारा ॥ भ्रितिआ प्रिअं बिस्राम चरणं ॥ अनाथ नाथे नानक सरणं ॥५॥

मूलम्

सुभंत तुयं अचुत गुणग्यं पूरनं बहुलो क्रिपाला ॥ ग्मभीरं ऊचै सरबगि अपारा ॥ भ्रितिआ प्रिअं बिस्राम चरणं ॥ अनाथ नाथे नानक सरणं ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुभं = शोभा दे रहा हैं। तुयं = तू। गुणग्यं = गुणों को जानने वाला। बहुलो = बहुत। सरबगि = सर्वज्ञ, सबका जानने वाला। भ्रितिआ = भृत्य, सेवक। भ्रितिआ प्रिअं = सेवकों का प्यारा। अचुत = अविनाशी। पूरन = व्यापक।
अर्थ: हे अविनाशी! हे गुणों के जानने वाले! हे सर्व-व्यापक! तू बड़ा कृपालु है, तू (सब जगह) शोभा दे रहा है। तू अथाह है, ऊँचा है, सबका जानने वाले है, और बेअंत है।
तू अपने सेवकों का प्यारा है, तेरे चरण (उनके लिए) आसरा हैं।
हे नानक! (कह:) हे अनाथों के नाथ! हम तेरी शरण आए हैं।5।

दर्पण-भाव

भाव: परमात्मा के दर पर पड़े रहने से ही जीवन की सही समझ पड़ती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

म्रिगी पेखंत बधिक प्रहारेण लख्य आवधह ॥ अहो जस्य रखेण गोपालह नानक रोम न छेद्यते ॥६॥

मूलम्

म्रिगी पेखंत बधिक प्रहारेण लख्य आवधह ॥ अहो जस्य रखेण गोपालह नानक रोम न छेद्यते ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: म्रिगी = हिरनी। बधिक = शिकारी (वध् = to kill)। प्रहारेण = प्रहार से, चोट से। लख्य = लक्ष्य (aim, target) निशाना (देख के)। आवधह = (आयुध = a weapon) अस्त्र, हथियार। अहो = वाह! जस्य = (यस्य) जिसका। रखेण = रक्षा वास्ते। रोम = बाल। न छेद्यते = नहीं भेदा जाता।
अर्थ: (एक) हिरनी को देख के (एक) शिकारी निशाना लगा के शस्त्रों से चोट मारता है। पर वाह! हे नानक! जिसकी रक्षा के लिए परमात्मा हो, उसका कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता।

दर्पण-भाव

भाव: जिसका रखवाला परमात्मा खुद बने, उसका कोई बाल भी बाँका नहीं कर सका।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहु जतन करता बलवंत कारी सेवंत सूरा चतुर दिसह ॥ बिखम थान बसंत ऊचह नह सिमरंत मरणं कदांचह ॥ होवंति आगिआ भगवान पुरखह नानक कीटी सास अकरखते ॥७॥

मूलम्

बहु जतन करता बलवंत कारी सेवंत सूरा चतुर दिसह ॥ बिखम थान बसंत ऊचह नह सिमरंत मरणं कदांचह ॥ होवंति आगिआ भगवान पुरखह नानक कीटी सास अकरखते ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करता = करने वाला। सूरा = शूरवीर। चतुर = चार। दिसह = (दिस:), दिशा। चतुर दिसह = चारों तरफ से। बिखम = मुश्किल। बसंत = बसता। मरणं = मौत। कदांचह = कभी भी। होवंति = होती है। कीटी = कीड़ी। अकरखते = आकर्षित करती है।
अर्थ: (जो मनुष्य) बड़े प्रयत्न कर सकता हो, बड़ा बलवान हो, चारों तरफ से कई शूरवीर जिसकी सेवा करने वाले हों, जो मुश्किल ऊँची जगह पर बैठा हो, (जहाँ उसको) मौत की कभी याद भी ना आए। हे नानक! एक कीड़ी उसके प्राण खींच लेती है जब भगवान अकाल-पुरख का हुक्म हो (उसको मारने का)।7।

दर्पण-भाव

भाव: धुर दरगाह से जिसकी चिट्ठी फटी हुई आ जाती है, वह अपनी रक्षा के भले ही अनेक उपाय करे, थोड़ा सा बहाना ही उसकी चोग सदा के लिए समाप्त कर देता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सबदं रतं हितं मइआ कीरतं कली करम क्रितुआ ॥ मिटंति तत्रागत भरम मोहं ॥ भगवान रमणं सरबत्र थान्यिं ॥ द्रिसट तुयं अमोघ दरसनं बसंत साध रसना ॥ हरि हरि हरि हरे नानक प्रिअं जापु जपना ॥८॥

मूलम्

सबदं रतं हितं मइआ कीरतं कली करम क्रितुआ ॥ मिटंति तत्रागत भरम मोहं ॥ भगवान रमणं सरबत्र थान्यिं ॥ द्रिसट तुयं अमोघ दरसनं बसंत साध रसना ॥ हरि हरि हरि हरे नानक प्रिअं जापु जपना ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रतं = रति, प्रीति। हितं = प्रेम। मइआ = कृपा, तरस, जीवों पर दया। कीरतं = कीर्ति, महिमा। क्रितुआ = कृत्वा, कर के। तत्रागत = तत्+आगत, वहाँ आए हुए। रमणं = व्यापक। अमोघ = (अमोघ = Unfailing) कभी निष्फल ना होने वाला। रसना = जीभ। कली = कलियुग में (भाव, इस जगत में)। तुयं द्रिसटि = तेरी (मेहर की) नजर।
अर्थ: गुरु-शब्द में प्रीति, जीव दया से हित, परमात्मा सें महिमा -इस जगत में जो मनुष्य ये काम करता है (शब्दों से, यह कर्म करके), वहाँ आए हुए (भाव, उसके) भ्रम और मोह मिट जाते हैं। उसको भगवान हर जगह व्यापक दिखता है।
हे नानक! (कह:) हे हरि! (संत जनों को) तेरा नाम जपना प्यारा लगता है, तू संतों की जीभ पर बसता है, तेरा दीदार तेरी (मेहर की) नज़र कभी निष्फल नहीं हैं।8।

दर्पण-भाव

भाव: जो मनुष्य गुरु के शब्द को प्यार करके परमात्मा की महिमा करते हैं उनको परमात्मा हर जगह बसता दिखाई देता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घटंत रूपं घटंत दीपं घटंत रवि ससीअर नख्यत्र गगनं ॥ घटंत बसुधा गिरि तर सिखंडं ॥ घटंत ललना सुत भ्रात हीतं ॥ घटंत कनिक मानिक माइआ स्वरूपं ॥ नह घटंत केवल गोपाल अचुत ॥ असथिरं नानक साध जन ॥९॥

मूलम्

घटंत रूपं घटंत दीपं घटंत रवि ससीअर नख्यत्र गगनं ॥ घटंत बसुधा गिरि तर सिखंडं ॥ घटंत ललना सुत भ्रात हीतं ॥ घटंत कनिक मानिक माइआ स्वरूपं ॥ नह घटंत केवल गोपाल अचुत ॥ असथिरं नानक साध जन ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घटंत = घटते हैं, नाश हो जाते हैं। दीपं = द्वीप, जजीरा। रवि = सूरज। ससीअर = (शशधर = Moon) चंद्रमा। नख्यत्र = (नक्षत्र) तारे। गगनं = आकाश। बसुधा = धरती (वसुधा)। गिरि = पहाड़। तर = (तरु) वृक्ष। सिखंडं = ऊँची चोटी वाले। ललना = स्त्री। कनिक = सोना। मानिक = मोती।
अर्थ: रूप नाशवान है, (सातों) द्वीप नाशवान हैं, सूरज चंद्रमा तारे आकाश नाशवान हैं, स्त्री पुत्र भाई और संबन्धी नाशवान हैं, सोना मोती माया के सारे सरूप नाशवान हैं।
हे नानक! केवल अविनाशी गोपाल प्रभु नाशवान नहीं है, और उस की साधु-संगत भी सदा-स्थिर है।9।

दर्पण-भाव

भाव: ये सारा दिखाई देता जगत नाशवान है। सिर्फ विधाता परमात्मा अविनाशी है। उसका स्मरण करने वाले लोगों का जीवन अटल रहता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नह बिल्मब धरमं बिल्मब पापं ॥ द्रिड़ंत नामं तजंत लोभं ॥ सरणि संतं किलबिख नासं प्रापतं धरम लख्यिण ॥ नानक जिह सुप्रसंन माधवह ॥१०॥

मूलम्

नह बिल्मब धरमं बिल्मब पापं ॥ द्रिड़ंत नामं तजंत लोभं ॥ सरणि संतं किलबिख नासं प्रापतं धरम लख्यिण ॥ नानक जिह सुप्रसंन माधवह ॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिलंब = देर, (विलम्ब) ढील। द्रिड़ंद = दृढ़ करना, मन का ठिकाना, जपना। तजंत = त्यागना। किलबिख = पाप (किल्विषं)। लख्यिण = लक्षण। जिह = जिस पर। माधवह = (माधव:) माया का धव, माया का पति, परमात्मा।
अर्थ: धर्म कमाने में ढील ना करनी, पाप करने में विलम्ब करना, नाम (हृदय में) दृढ़ करना और लोभ त्यागना, संतों की शरण जा के पापों का नाश करना- हे नानक! धर्म के ये लक्षण उस मनुष्य को प्राप्त होते हैं जिस पर परमात्मा मेहर करता है।10।

दर्पण-भाव

भाव: जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है, वह उसका नाम स्मरण करता है। नाम की इनायत से उसका जीवन ऐसा बन जाता है कि वह विकारों से सदा संकोच करता है, पर नेकी-भलाई करने में थोड़ी सी भी ढील नहीं करता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिरत मोहं अलप बुध्यं रचंति बनिता बिनोद साहं ॥ जौबन बहिक्रम कनिक कुंडलह ॥ बचित्र मंदिर सोभंति बसत्रा इत्यंत माइआ ब्यापितं ॥ हे अचुत सरणि संत नानक भो भगवानए नमह ॥११॥

मूलम्

मिरत मोहं अलप बुध्यं रचंति बनिता बिनोद साहं ॥ जौबन बहिक्रम कनिक कुंडलह ॥ बचित्र मंदिर सोभंति बसत्रा इत्यंत माइआ ब्यापितं ॥ हे अचुत सरणि संत नानक भो भगवानए नमह ॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिरत = (मृत) नाशवान पदार्थ। अलप = अल्प, थोड़ी। अलप बुध्यं = अल्प बुद्धिं, होछी मति वाला मनुष्य। रचंति = रचा रहता है, मस्त रहता है। साह = उत्साह, चाव। जौबन = जवानी, यौवन। बहिक्रम = (बहिष्त्रन्न्म) बल। बचित्र = किस्म किस्म के, विचित्र। बसत्रा = वस्त्र, कपड़े। इत्यंत = इस तरह। ब्यापिंत = प्रभाव डालती है। भो = हे! भगवानए = भगवान को। नमह = नमस्कार। बिनोद = विनोद, कलोल, (amusement)।
अर्थ: होछी मति वाला मनुष्य नाशवान पदार्थों के मोह में लीन रहता है, स्त्री के विनोद और चावों में मस्त रहता है। जवानी, ताकत, सोने के कुण्डल (आदि), रंग-बिरंगे महल-माढ़ियों, सुंदर वस्त्र- इन तरीकों से उसको माया व्यापती है (अपना प्रभाव डालती है)।
हे नानक! (कह:) हे अविनाशी! हे संतों के सहारे! हे भगवान! तुझे हमारा नमस्कार है (तू ही माया के प्रभाव को बचाने वाला है)।11।

दर्पण-भाव

भाव: माया कई रूपों-रंगों में मनुष्य पर अपना प्रभाव डालती है। जो मनुष्य परमात्मा की शरण आता है उस पर माया का जोर नहीं पड़ सकता।

[[1355]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनमं त मरणं हरखं त सोगं भोगं त रोगं ॥ ऊचं त नीचं नान्हा सु मूचं ॥ राजं त मानं अभिमानं त हीनं ॥ प्रविरति मारगं वरतंति बिनासनं ॥ गोबिंद भजन साध संगेण असथिरं नानक भगवंत भजनासनं ॥१२॥

मूलम्

जनमं त मरणं हरखं त सोगं भोगं त रोगं ॥ ऊचं त नीचं नान्हा सु मूचं ॥ राजं त मानं अभिमानं त हीनं ॥ प्रविरति मारगं वरतंति बिनासनं ॥ गोबिंद भजन साध संगेण असथिरं नानक भगवंत भजनासनं ॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरख = खुशी, हर्ष, खुशी। सोग = शोक, चिन्ता। नाना = नन्हा। मूच = बड़ा। हीन = हीनता, निरादरी। मारग = मार्ग, रास्ता। प्रविरति मारग = दुनियां में प्रवृक्ति होने का रास्ता। भजनासन = भजन+असन, भजन का भोजन (असन = भोजन) (अश् = to eat)। त = से, भी। असथिर = सदा कायम रहने वाला।
अर्थ: (जहाँ) जनम है (वहाँ) मौत भी है, खुशी है तो ग़मी भी है, (मायावी पदार्थों के) भोग हैं तो (उनसे उपजते) रोग भी हैं। जहाँ ऊँचा-पन है, वहां नीच-पना भी आ जाता है, जहाँ गरीबी है, वहाँ बड़प्पन भी आ सकता है। जहाँ राज है, वहाँ अहंकार भी है, जहाँ अहंकार है, वहाँ निरादरी भी है।
सो दुनिया के रास्ते में हरेक चीज़ का अंत (भी) है। सदा-स्थिर रहने वाली परमात्मा की भक्ति ही है साधु-संगत (के आसरे की जा सकती है)। (इस वास्ते) हे नानक! भगवान के भजन का भोजन (अपनी जीवात्मा को दे)।12।

दर्पण-भाव

भाव: जगत में दिखाई देती हरेक चीज़ का अंत भी है। सिर्फ परमात्मा का नाम ही मनुष्य के साथ निभ सकता है, और यह नाम मिलता है साधु-संगत में से।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किरपंत हरीअं मति ततु गिआनं ॥ बिगसीध्यि बुधा कुसल थानं ॥ बस्यिंत रिखिअं तिआगि मानं ॥ सीतलंत रिदयं द्रिड़ु संत गिआनं ॥ रहंत जनमं हरि दरस लीणा ॥ बाजंत नानक सबद बीणां ॥१३॥

मूलम्

किरपंत हरीअं मति ततु गिआनं ॥ बिगसीध्यि बुधा कुसल थानं ॥ बस्यिंत रिखिअं तिआगि मानं ॥ सीतलंत रिदयं द्रिड़ु संत गिआनं ॥ रहंत जनमं हरि दरस लीणा ॥ बाजंत नानक सबद बीणां ॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किरपं = कृपा। हरीअं = हरि, परमात्मा। बिगसीध्यि = खिले रहते हैं। बुधा = (बुध) ज्ञानवान लोग। बस्यिं = वश में। रिखिअं = (हृीषकं) इंद्रिय। द्रिढ़ु = पक्का कर। गिआनं = ज्ञान, आत्मिक जीवन की सूझ। संत = शांति देने वाली। रहंत = रह जाती है, समाप्त हो जाती है। लीन = मस्त। बाजंत = बजता है। बीणां = बाजा। ततु गिआन = अस्लियत समझ, सही आत्मिक जीवन की सूझ। कुसल = सुख, आनंद। तिआगि = त्याग के।
अर्थ: जहाँ परमातमा की कृपा हो वहाँ मनुष्य की बुद्धि को जीवन की सही सूझ आ जाती है, (ऐसी बुद्धि) सुख का ठिकाना बन जाती है, (ऐसी बुद्धि वाले) ज्ञानवान लोग सदा खिले रहते हैं। मान त्यागने के कारण उनकी इंद्रिय वश में रहती हें, उनका हृदय (सदा) शीतल रहता है, यह शांति वाला ज्ञान उनके अंदर पक्का रहता है।
हे नानक! परमात्मा के दीदार में मस्त ऐसे लोगों का जन्म (-मरण) खत्म हो जाता है, उनके अंदर परमात्मा की महिमा की वाणी के बाजे (सदा) बजते हैं।13।

दर्पण-भाव

भाव: जिस मनुष्य पर परमात्मा की मेहर होती है, उसको सही जीवन की समझ आ जाती है, उसका मन काबू में रहता है, और वह सदा परमात्मा के दीदार में मस्त रहता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहंत बेदा गुणंत गुनीआ सुणंत बाला बहु बिधि प्रकारा ॥ द्रिड़ंत सुबिदिआ हरि हरि क्रिपाला ॥ नाम दानु जाचंत नानक दैनहार गुर गोपाला ॥१४॥

मूलम्

कहंत बेदा गुणंत गुनीआ सुणंत बाला बहु बिधि प्रकारा ॥ द्रिड़ंत सुबिदिआ हरि हरि क्रिपाला ॥ नाम दानु जाचंत नानक दैनहार गुर गोपाला ॥१४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कहंत = कहते हैं। गुणंत = विचारते हैं। बाला = बालक, विद्यार्थी। बहु बिधि = कई तरीकों से। बहु प्रकारा = कई प्रकार से। सु बिदिआ = श्रेष्ठ विद्या। जाचंत = माँगते हैं (याचान्त)। दैनहार = देने वाला। गुनीआ = गुणी व्यक्ति, विचारवान मनुष्य।
अर्थ: जो कुछ वेद कहते हैं, उसको विद्वान मनुष्य कई ढंग-तरीकों से विचारते हैं, और (उनके) विद्यार्थी सुनते हैं।
पर, जिस पर परमात्मा की कृपा हो, वे (परमात्मा के स्मरण की) श्रेष्ठ विद्या को (अपने हृदय में) दृढ़ करते हैं। हे नानक! वह भाग्यशाली मनुष्य देवनहार गुरु परमात्मा से (सदा) नाम की दाति ही माँगते हैं।14।

दर्पण-भाव

भाव: सबसे श्रेष्ठ विद्या है परमात्मा की याद। जिस मनुष्यों पर परमात्मा की कृपा होती है, वे उसे सदा नाम जपने की दाति माँगते रहते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नह चिंता मात पित भ्रातह नह चिंता कछु लोक कह ॥ नह चिंता बनिता सुत मीतह प्रविरति माइआ सनबंधनह ॥ दइआल एक भगवान पुरखह नानक सरब जीअ प्रतिपालकह ॥१५॥

मूलम्

नह चिंता मात पित भ्रातह नह चिंता कछु लोक कह ॥ नह चिंता बनिता सुत मीतह प्रविरति माइआ सनबंधनह ॥ दइआल एक भगवान पुरखह नानक सरब जीअ प्रतिपालकह ॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लोक कह = (लोकक:) लोगों का। मीतह = (मीत:) मित्रों का। प्रतिपालकह = (प्रतिपालक:) पालने वाला। पित = पिता। भ्रातह = (भ्रात:) भाईयों की। चिंता = (पालने का) फिक्र। बनिता = स्त्री। सुत = पुत्र।
अर्थ: माता, पिता, भाई, स्त्री, पुत्र मित्र और लोग जो माया में प्रवृति होने के कारण (हमारे) संबन्धी हैं, इनके वास्ते किसी तरह की चिन्ता व्यर्थ है।
हे नानक! सारे जीवों को पालने वाला दया का समुंदर एक भगवान अकाल-पुरख ही है।15।

दर्पण-भाव

भाव: परमात्मा का नाम जपने की इनायत से मनुष्य के अंदर ये निष्चय बन जाता है कि दया का समुंदर एक परमात्मा ही सबकी पालना करने वाला है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनित्य वितं अनित्य चितं अनित्य आसा बहु बिधि प्रकारं ॥ अनित्य हेतं अहं बंधं भरम माइआ मलनं बिकारं ॥ फिरंत जोनि अनेक जठरागनि नह सिमरंत मलीण बुध्यं ॥ हे गोबिंद करत मइआ नानक पतित उधारण साध संगमह ॥१६॥

मूलम्

अनित्य वितं अनित्य चितं अनित्य आसा बहु बिधि प्रकारं ॥ अनित्य हेतं अहं बंधं भरम माइआ मलनं बिकारं ॥ फिरंत जोनि अनेक जठरागनि नह सिमरंत मलीण बुध्यं ॥ हे गोबिंद करत मइआ नानक पतित उधारण साध संगमह ॥१६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनित्य = अ+नित्य, अनिक्त, नित्य ना रहने वाला, व्यर्थ। वितं = (विक्तं) धन। हेतं = मोह। अहं बंधं = अहंकार का बँधा हुआ। मलन = मैले। बिकारं = विकार, बुरे काम, पाप। जठरागनि = (जठर+अग्नि) पेट की आग। मलीण बुध्यं = मलीन बुद्धि वाला। चितं = चिंतन, सोचना। पतित = बड़े विकरमी, विकारों में गिरे हुए (पत् = to fall)। करत = कर। मइआ = मेहर (मयस = खुशी, प्रसन्नता)।
अर्थ: धन नित्य रहने वाला नहीं है, (इसलिए धन की) सोचें व्यर्थ (का उद्यम) है, और धन की कई किस्मों की आशाएं (बनानी भी) व्यर्थ हैं।
नित्य ना रहने वाले पदार्थों के मोह के कारण अहंकार का बँधा हुआ जीव माया की खातिर भटकता है, और, मलीन बुरे कर्म करता है। मैली मति वाला बंदा अनेक जूनियों में भटकता है और (माँ के) पेट के आग को याद नहीं रखता (जो जूनियों में पड़ने पर सहनी पड़ती है)।
हे नानक! (विनती कर-) हे गोबिंद! मेहर कर, और जीव को साधु-संगत बख्श जहाँ से बड़े कुकर्मी भी बच निकलते हैं।16।

दर्पण-भाव

भाव: परमात्मा की मेहर से जिस मनुष्य को साधु-संगत प्राप्त होती है, वह माया की खातिर भटकने से बच जाता है वह विकारों में फसने से बच जाता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गिरंत गिरि पतित पातालं जलंत देदीप्य बैस्वांतरह ॥ बहंति अगाह तोयं तरंगं दुखंत ग्रह चिंता जनमं त मरणह ॥ अनिक साधनं न सिध्यते नानक असथ्मभं असथ्मभं असथ्मभं सबद साध स्वजनह ॥१७॥

मूलम्

गिरंत गिरि पतित पातालं जलंत देदीप्य बैस्वांतरह ॥ बहंति अगाह तोयं तरंगं दुखंत ग्रह चिंता जनमं त मरणह ॥ अनिक साधनं न सिध्यते नानक असथ्मभं असथ्मभं असथ्मभं सबद साध स्वजनह ॥१७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गिरंत = गिर के। देद्वीप्य = जलती, भड़कती। बैसवांतरह = (वैश्वांतर:) आग। अगाह = गहरे। तोयं = पानी। तरंगं = लहरें (तरंग = a wave)। ग्रह = गृह, घर। ग्रह चिंता = माया का मोह। दुखंत = दुखी करने वाली। न सिध्यते = सफल नहीं होता। स्वजनह = भले लोग। गिरि = पहाड़। असथंभं = (स्तम्भ) स्तंभ, थम, सहारा, आसरा।
अर्थ: पहाड़ से गिर के पाताल में जा गिरना, भड़कती आग में जलना, गहरे पानी की लहरें में बह जाना- ऐसे अनेक (कठिन) साधन, घर की चिन्ता (माया के मोह) और जनम मरन के दुखों से (बचने के लिए) सफल नहीं होते।
हे नानक! सदा के लिए जीव का आसरा गुरु-शब्द ही है जो साधु-संगत में मिलता है।17।

दर्पण-भाव

भाव: कोई बड़े से बड़ा कठिन तप भी मनुष्य को माया के मोह से नहीं बचा सकते। प्राणों का आसरा सिर्फ गुरु-शब्द ही हो सकता है जो साधु-संगत में से मिलता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घोर दुख्यं अनिक हत्यं जनम दारिद्रं महा बिख्यादं ॥ मिटंत सगल सिमरंत हरि नाम नानक जैसे पावक कासट भसमं करोति ॥१८॥

मूलम्

घोर दुख्यं अनिक हत्यं जनम दारिद्रं महा बिख्यादं ॥ मिटंत सगल सिमरंत हरि नाम नानक जैसे पावक कासट भसमं करोति ॥१८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हत्यं = हत्या, खून, कतल। दारिद्रं = आलस, गरीबी। बिख्यादं = (विषाद:) झगड़े, विखाद। सगल = सारे, सकल। पावक = आग। कासट = लकड़ी (काष्ठ = a piece of wood)। भसम = (भस्मन् = ashes) राख। घोर = भयानक (awful)। करोति = कर देती है।
अर्थ: भयानक दुख-कष्ट, (किए हुए) अनेक खून, जन्मों-तन्मांतरों की गरीबी, बड़े-बड़े झगड़े- ये सारे, हे नानक! परमात्मा का नाम स्मरण करने से मिट जाते हैं, जैसे आग लकड़ियों को राख कर देती है।18।

दर्पण-भाव

भाव: परमात्मा के नाम का स्मरण पिछले किए हुए सारे कुकर्मों के संस्कारों का नाश कर देता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंधकार सिमरत प्रकासं गुण रमंत अघ खंडनह ॥ रिद बसंति भै भीत दूतह करम करत महा निरमलह ॥ जनम मरण रहंत स्रोता सुख समूह अमोघ दरसनह ॥ सरणि जोगं संत प्रिअ नानक सो भगवान खेमं करोति ॥१९॥

मूलम्

अंधकार सिमरत प्रकासं गुण रमंत अघ खंडनह ॥ रिद बसंति भै भीत दूतह करम करत महा निरमलह ॥ जनम मरण रहंत स्रोता सुख समूह अमोघ दरसनह ॥ सरणि जोगं संत प्रिअ नानक सो भगवान खेमं करोति ॥१९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंधकार = अंधेरा (अंधकार:)। प्रकास = (प्रकाश:) रौशनी। अघ = पाप (अघ = a sin)। दूतह = जम के दूत। स्रोता = सुनने वाला। अमोघ = सफल, फल देने से ना उक्ताने वाला (अमोघ)। अमोघ दरसनह = उसका दीदार सफल है। खेमं = कुशल, सुख (क्षेमं)। रमंत = स्मरण करने से, याद करने से। सरण जोग = शरण आए की सहायता करने में समर्थ। संत प्रिअ = संतों का प्यारा। करोति = करता है।
अर्थ: परमात्मा का नाम स्मरण करने से (अज्ञानता का) अंधेरा (दूर हो के) (आत्मिक जीवन की सूझ का) प्रकाश हो जाता है। प्रभु के गुण याद करने से पापों का नाश हो जाता है। प्रभु का नाम हृदय में बसने से जमदूत भी डरते हैं, वह मनुष्य बड़े पवित्र कर्म करने वाला बन जाता है।
प्रभु की महिमा सुनने वाले का जनम-मरण (का चक्कर) समाप्त हो जाता है, प्रभु का दीदार फल मिलता है, अनेक सुख मिलते हैं।
हे नानक! वह भगवान जो संतों का प्यारा है और शरण आए हुओं की सहायता करने के समर्थ है (भगतों को) सब सुख देता है।19।

दर्पण-भाव

भाव: नाम जपने की इनायत से सही जीवन जीने की विधि आ जाती है, मनुष्य का आचरण ऊँचा बन जाता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाछं करोति अग्रणीवह निरासं आस पूरनह ॥ निरधन भयं धनवंतह रोगीअं रोग खंडनह ॥ भगत्यं भगति दानं राम नाम गुण कीरतनह ॥ पारब्रहम पुरख दातारह नानक गुर सेवा किं न लभ्यते ॥२०॥

मूलम्

पाछं करोति अग्रणीवह निरासं आस पूरनह ॥ निरधन भयं धनवंतह रोगीअं रोग खंडनह ॥ भगत्यं भगति दानं राम नाम गुण कीरतनह ॥ पारब्रहम पुरख दातारह नानक गुर सेवा किं न लभ्यते ॥२०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पाछं = पीछे। करोति = कर देता है। अग्रणीवह = (अग्रणी = a leader) आगे लगने वाले। भयं = हो जाता है (भु = to become)। भगत्यं = भक्तों को। किं न = क्या नहीं? (भाव,) सब कुछ। लभ्यते = मिल जाता है।
अर्थ: सर्व-व्यापक प्रभु सब दातें देने वाला है। हे नानक! गुरु की सेवा से (उससे) क्या कुछ नहीं मिलता?
वह प्रभु पीछे चलनों वालों को नेता बना देता है, निराश लोगों की आशाएं पूरी कर देता है। (उसकी मेहर से) कंगाल धन वाला बन जाता है। वह मालिक रोगियों का रोग नाश करने-योग्य है। प्रभु अपने भक्तों को अपनी भक्ति, नाम और गुणों की महिमा की दाति देता है।20।

दर्पण-भाव

भाव: गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा के दर से हरेक मांग मुराद पूरी हो जाती है। परमात्मा सब दातें देने वाला है, देने के समर्थ है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधरं धरं धारणह निरधनं धन नाम नरहरह ॥ अनाथ नाथ गोबिंदह बलहीण बल केसवह ॥ सरब भूत दयाल अचुत दीन बांधव दामोदरह ॥ सरबग्य पूरन पुरख भगवानह भगति वछल करुणा मयह ॥ घटि घटि बसंत बासुदेवह पारब्रहम परमेसुरह ॥ जाचंति नानक क्रिपाल प्रसादं नह बिसरंति नह बिसरंति नाराइणह ॥२१॥

मूलम्

अधरं धरं धारणह निरधनं धन नाम नरहरह ॥ अनाथ नाथ गोबिंदह बलहीण बल केसवह ॥ सरब भूत दयाल अचुत दीन बांधव दामोदरह ॥ सरबग्य पूरन पुरख भगवानह भगति वछल करुणा मयह ॥ घटि घटि बसंत बासुदेवह पारब्रहम परमेसुरह ॥ जाचंति नानक क्रिपाल प्रसादं नह बिसरंति नह बिसरंति नाराइणह ॥२१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अधरं = आसरा हीन। धरं = आसरा। नरहरह = परमात्मा। नरहरह नाम = परमात्मा का नाम। केसवह = परमात्मा (लंबे केशों वाला) (केशव: केष: प्रशास्ता: सन्ति अस्य)। भूत = (भूतं) जीव। दामोदरह = परमात्मा (दामन् = a string) दामन्+उदर। भगति वछल = भक्ति से प्यार करने वाला। करुणामयह = करुणा+मयह, तरस रूप, दया स्वरूप (करुणा = तरस)। बासुदेवह = परमात्मा। प्रसादं = दया, कृपा। घटि घटि = हरेक हृदय में। अचुत = (अविनाशी) अविनाशी प्रभु। दीन = कंगाल। बांधव = बंधु, रिश्तेदार। पूरन पुरख = सर्व व्यापक। सरबग्य = (सर्वज्ञ) सबके दिल की जानने वाला। जाचंति = माँगता है (याच = to beg)।
अर्थ: परमात्मा का नाम निआसरों को आसरा देने वाला है, और धन-हीनों का धन है। गोबिंद अनाथों का नाथ है और केशव प्रभु निताणियों का ताण है (निर्बलों का बल है)। अविनाशी प्रभु सब जीवों पर दया करने वाला है और कंगालों का बँधु है। सर्व-व्यापक भगवान सब जीवों के दिल की जानने वाला है, भक्ति को प्यार करता है और तरस का घर है। परमात्मा पारब्रहम परमेश्वर हरेक के दिल में बसता है।
नानक उस कृपालु नारायण से कृपा का यह दान माँगता है कि वह मुझे कभी ना भूले, कभी ना बिसरे।21।

दर्पण-भाव

भाव: सर्व-व्यापक परमात्मा सब के दिलों की जानने वाला है, निआसरों को आसरा देने वाला है। उसके दर से उसकी भक्ति की दाति माँगते रहना चाहिए।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

नह समरथं नह सेवकं नह प्रीति परम पुरखोतमं ॥ तव प्रसादि सिमरते नामं नानक क्रिपाल हरि हरि गुरं ॥२२॥

मूलम्

नह समरथं नह सेवकं नह प्रीति परम पुरखोतमं ॥ तव प्रसादि सिमरते नामं नानक क्रिपाल हरि हरि गुरं ॥२२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: समरथं = सामर्थ्य, ताकत। पुरखोतमं = उत्तम पुरुष, परमात्मा। तव = तेरी। प्रसादि = (प्रसादेन) कृपा से। गुर = सबसे बड़ा।
अर्थ: हे परम उत्तम अकाल पुरख! हे कृपालु हरि! हे गुरु हरि! (मेरे अंदर स्मरण की) ना ही स्मर्थता है, ना ही मैं सेवक हूँ, ना ही मेरे अंदर (तेरे चरणों की) प्रीति है। (तेरा दास) नानक तेरी मेहर से (ही) तेरा नाम स्मरण करता है।22।

दर्पण-भाव

भाव: जिस पर परमात्मा मेहर करे वह ही उसका नाम स्मरण करता है। अपने प्रयासों से मनुष्य भक्ति नहीं कर सकता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरण पोखण करंत जीआ बिस्राम छादन देवंत दानं ॥ स्रिजंत रतन जनम चतुर चेतनह ॥ वरतंति सुख आनंद प्रसादह ॥ सिमरंत नानक हरि हरि हरे ॥ अनित्य रचना निरमोह ते ॥२३॥

मूलम्

भरण पोखण करंत जीआ बिस्राम छादन देवंत दानं ॥ स्रिजंत रतन जनम चतुर चेतनह ॥ वरतंति सुख आनंद प्रसादह ॥ सिमरंत नानक हरि हरि हरे ॥ अनित्य रचना निरमोह ते ॥२३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भरण पोखण = पालन पोषण। बिस्राम = विश्राम, ठिकाना, सहारा। छादन = कपड़ा। स्रिजंत = सृजंत (सृज = to create) पैदा करता है। चतुर = सियाना, समर्थ। चेतनह = (चित् = to pervceive), सजिंद, सब कुछ अनुभव कर सकने वाला। निरमोह = मोह से बचे हुए। ते = वे मनुष्य। प्रसादह = कृपा से।
अर्थ: समर्थ चेतन्य-स्वरूप परमात्मा श्रेष्ठ मनुष्य जनम देता है, सारे जीवों का पालन-पोषण करता है, कपड़ा आसरा आदि दातें देता है। उस आनंद-रूप प्रभु की कृपा से जीव सुखी रहते हैं।
हे नानक! जो जीव उस हरि को स्मरण करते हैं, वे इस नाशवान रचना से निर्मोह रहते हैं।

दर्पण-भाव

भाव: जो मनुष्य सब दातें देने वाले परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं, वे इन नाशवान पदार्थों के मोह से बचे रहते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दानं परा पूरबेण भुंचंते महीपते ॥ बिपरीत बुध्यं मारत लोकह नानक चिरंकाल दुख भोगते ॥२४॥

मूलम्

दानं परा पूरबेण भुंचंते महीपते ॥ बिपरीत बुध्यं मारत लोकह नानक चिरंकाल दुख भोगते ॥२४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परा पूरबेण = पूर्बले जन्मों में। भुंचंते = (भुज् = to possess) भोगते हैं, मल्कियत पाते हैं। महीपते = धरती के पति, (मही = धरती) राजा। बिपरीत = विपरीत, उल्टी। मारत लोकह = मातृ लोक, जगत। मारत = (मात्र्य = mortal) नाशवान। दुख = (दु:ख) दुख।
अर्थ: पिछले जन्मों में किए पुण्य कर्मों के सदका राजे (यहाँ राज-मिलख की) मल्कियत पाते हैं।
पर, हे नानक! यहाँ नाशवान जगत में (उन सुखों के कारण) जिनकी बुद्धि उल्टी हो जाती है, वे चिरंकाल तक दुख भोगते हैं।24।

दर्पण-भाव

भाव: जगत में मल्कियतों और मौज-मेलों के कारण जो मनुष्य जीवन के उलट राह पर पड़ जाते हैं उनको अनेक जूनियों के दुख सहने पड़ते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रिथा अनुग्रहं गोबिंदह जस्य सिमरण रिदंतरह ॥ आरोग्यं महा रोग्यं बिसिम्रिते करुणा मयह ॥२५॥

मूलम्

ब्रिथा अनुग्रहं गोबिंदह जस्य सिमरण रिदंतरह ॥ आरोग्यं महा रोग्यं बिसिम्रिते करुणा मयह ॥२५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ब्रिथा = व्यर्थ, खाली। अनुग्रहं = (अनुग्रह: क्ष् a favour) कृपा। जस्य = (येषां) जिस के। रिदंतरह = रिद+अंतर: , हृदय में। आरोग्यं = रोग रहित, अरोग, नरोए। बिसिम्रिते = भुला देते हैं। करुणायह = करुणा+मय: , तरस रूप, दया स्वरूप।
अर्थ: जो मनुष्य गोबिंद की मेहर से खाली रह गए हैं, जिनके हृदय उसके स्मरण करने से वंचित हैं, वे नरोए मनुष्य भी बहुत बड़े रोगी हैं, क्योंकि वे दया-स्वरूप गोबिंद को बिसार रहे हैं।

दर्पण-भाव

भाव: जो मनुष्य परमात्मा की याद भुला देते हैं वे शारीरिक तौर पर निरोगी होते हुए भी अनेक रोग सहेड़ लेते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रमणं केवलं कीरतनं सुधरमं देह धारणह ॥ अम्रित नामु नाराइण नानक पीवतं संत न त्रिप्यते ॥२६॥

मूलम्

रमणं केवलं कीरतनं सुधरमं देह धारणह ॥ अम्रित नामु नाराइण नानक पीवतं संत न त्रिप्यते ॥२६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रमणं = जपना। सुधरमं = श्रेष्ठ धर्म। देह धारणह = देहधारी, मनुष्य। त्रिपते = (तृप् = to be contented तृप्यति) अघाते, संतुष्ट होते। केवलं = (कद्धवलं = Solely) सिर्फ। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला।
अर्थ: केवल महिमा करनी मनुष्य का श्रेष्ठ धर्म है। हे नानक! संत जन परमात्मा का आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पीते हुए अघाते नहीं।26।

दर्पण-भाव

भाव: जिस मनुष्य को परमात्मा का नाम जपने की आदत पड़ जाती है वह इसके बिना नहीं रह सकता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहण सील संतं सम मित्रस्य दुरजनह ॥ नानक भोजन अनिक प्रकारेण निंदक आवध होइ उपतिसटते ॥२७॥

मूलम्

सहण सील संतं सम मित्रस्य दुरजनह ॥ नानक भोजन अनिक प्रकारेण निंदक आवध होइ उपतिसटते ॥२७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहण = सहन। सील = शील, मीठा स्वभाव। सहण सील = सहन शील (patient, forgiving)। सम = बराबर। मित्रस्य = मित्र का। दुरजनह = (दुर्जन) बुरे मनुष्य। आवध = (आयुद्ध) शस्त्र, हथियार। उपतिसटते = (उपतिष्ठति = comes near) नजदीक आते हैं।
अर्थ: संत जनों के लिए मित्र और शत्रु एक समान होते हैं। दूसरों की ज्यादती को सहना - ये उनका स्वभाव बन जाता है। हे नानक! मित्र तो अनेक किस्मों का भोजन ले के, पर निंदक (उनको मारने के लिए) शस्त्र ले के उनके पास जाते हैं (वे दोनों को प्यार की दृष्टि से देखते हैं)।27।

दर्पण-भाव

भाव: जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं, दूसरों की ज्यादती सहना उनका स्वभाव बन जाता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिरसकार नह भवंति नह भवंति मान भंगनह ॥ सोभा हीन नह भवंति नह पोहंति संसार दुखनह ॥ गोबिंद नाम जपंति मिलि साध संगह नानक से प्राणी सुख बासनह ॥२८॥

मूलम्

तिरसकार नह भवंति नह भवंति मान भंगनह ॥ सोभा हीन नह भवंति नह पोहंति संसार दुखनह ॥ गोबिंद नाम जपंति मिलि साध संगह नानक से प्राणी सुख बासनह ॥२८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिरसकार = (तिरस्कार:) निरादरी। भवंति = (भवति, भवन: , भवन्ति। भु = to become) होता। मान भंगनह = निरादरी, अपमान। मिलि = मिल के। से प्रानी = वह लोग। जपंति = जपते हैं। पोहंति = (प्रभावयन्ति)।
अर्थ: हे नानक! जो लोग साधु-संगत में मिल के गोबिंद का नाम जपते हें, वह सुखी बसते हैं; उनकी कभी निरादरी नहीं हो सकती, उनका कभी अपमान नहीं हो सकता। उनकी कभी भी शोभा नहीं मिटती, और उनको संसार के दुख छू नहीं सकते।28।

दर्पण-भाव

भाव: परमात्मा का नाम स्मरण करने वाले मनुष्य पर किसी के द्वारा की गई निरादरी अपना असर नहीं डाल सकती, कोई दुख-कष्ट अपना जोर नहीं डाल सकता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सैना साध समूह सूर अजितं संनाहं तनि निम्रताह ॥ आवधह गुण गोबिंद रमणं ओट गुर सबद कर चरमणह ॥ आरूड़ते अस्व रथ नागह बुझंते प्रभ मारगह ॥ बिचरते निरभयं सत्रु सैना धायंते गुोपाल कीरतनह ॥ जितते बिस्व संसारह नानक वस्यं करोति पंच तसकरह ॥२९॥

मूलम्

सैना साध समूह सूर अजितं संनाहं तनि निम्रताह ॥ आवधह गुण गोबिंद रमणं ओट गुर सबद कर चरमणह ॥ आरूड़ते अस्व रथ नागह बुझंते प्रभ मारगह ॥ बिचरते निरभयं सत्रु सैना धायंते गुोपाल कीरतनह ॥ जितते बिस्व संसारह नानक वस्यं करोति पंच तसकरह ॥२९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सैना = सेना, फौज। सूर = सूरमे। संनाहं = संजोअ (संनाह = armour)। तनि = तन पर। आवधह = शस्त्र (आयुद्ध)। कर = हाथ। चरमणह = (चर्मन) चमड़ी, ढाल। कर चरमणह = हाथ की ढाल। आरूड़ते = सवार होते हैं। अस्व = (अश्व) घोड़े। नागह = (नाग) हाथी। बिचरते = चलते फिरते हैं। सत्रु = (शत्रु) वैरी (कामादिक)। बिस्व = (विश्व) सारा। तसकरह = (तस्कर) चोर। साध समूह = सारे साधु, संत जन। धायंते = (धावन्ति) हमला करते हैं।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘गुोपाल’ में अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘गोपाल’, यहां ‘गुपाल’ पढ़ना है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: संत-जन अजीत शूरवीरों की सेना है। गरीबी स्वभाव उनके शरीर पर संजोअ है, गोबिंद के गुण गाने उनके पास शस्त्र हैं। गुरु-शब्द की ओट उनके हाथ की ढाल है। संत-जन परमात्मा (के मिलाप) का रास्ता तलाशते रहते हैं; ये मानो, वे घोड़े रथ हाथियों की सवारी करते हैं।
संत-जन परमात्मा की महिमा (की सहायता) से (कामादिक) वैरी-दल पर हमला करते हैं, और (इस तरह उनमें) निडर हो के उनमें चलते फिरते हैं।
हे नानक! संत-जन उन पाँच चोरों को अपने वश में कर लेते हैं जो सारे संसार को जीत रहे हैं।

दर्पण-भाव

भाव: विनम्रता, स्मरण, शब्द की ओट -जिस मनुष्य के पास हर वक्त ये हथियार हैं, कामादिक विकार उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते।

विश्वास-प्रस्तुतिः

म्रिग त्रिसना गंधरब नगरं द्रुम छाया रचि दुरमतिह ॥ ततह कुट्मब मोह मिथ्या सिमरंति नानक राम राम नामह ॥३०॥

मूलम्

म्रिग त्रिसना गंधरब नगरं द्रुम छाया रचि दुरमतिह ॥ ततह कुट्मब मोह मिथ्या सिमरंति नानक राम राम नामह ॥३०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: म्रिग त्रिसना = मृग तृष्णा, हिरन की प्यास; मृग मरीचिका, ठगनीरा। रेतीला इलाका जो सूरज की तपश में पानी का दरिया प्रतीत होता है। प्यास से घबराया हिरन पानी की ओर दौड़ता है, वह मृगतृष्णा आगे और आगे बढ़ता जाता है। इस तरह हिरन दौड़ते-दौड़ते प्यासा तड़प के मर जाता है (mirage)। गंधरब नगरं = आकाश में बसती नगरी। द्रुम = वृक्ष। रचि = रच के, सही मान लेता है। ततह = वहाँ, उसी तरह (for that reason)। मिथ्या = नाशवान, झूठा (मिथ्या = to no purpose)। दुरमतहि = (दुर्मति:) बुरी मति वाले।
अर्थ: दुर्मति वाला व्यक्ति मृग मारीचिका को हवाई किले को और वृक्ष की छाया को सही समझ लेता है। उसी तरह नाशवान कुटंब का मोह है। हे नानक! (इसको त्याग के संत-जन) परमात्मा के नाम का स्मरण करते हें।30।

दर्पण-भाव

भाव: जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करता है, वह परिवार के मोह में नहीं फसता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नच बिदिआ निधान निगमं नच गुणग्य नाम कीरतनह ॥ नच राग रतन कंठं नह चंचल चतुर चातुरह ॥ भाग उदिम लबध्यं माइआ नानक साधसंगि खल पंडितह ॥३१॥

मूलम्

नच बिदिआ निधान निगमं नच गुणग्य नाम कीरतनह ॥ नच राग रतन कंठं नह चंचल चतुर चातुरह ॥ भाग उदिम लबध्यं माइआ नानक साधसंगि खल पंडितह ॥३१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: न च = और नहीं, ना ही। निगमं = वेद। निधान = खजाना। गुणग्य = (गुणज्ञ) गुणों को जानने वाला। चातुरह = समझदार। खल = मूर्ख। चतुर चातुरह = समझदारों का भी समझदार। चंचल = चुस्त। कंठ = गला। निधान = खजाना। साध संगि = साधु-संगत में।
अर्थ: ना ही मैं वेद-विद्या का खजाना हूँ, ना ही मैं गुणों का पारखू हूँ, ना ही मेरे पास परमात्मा की महिमा है।
मेरे गले में श्रेष्ठ राग भी नहीं, ना ही मैं चुस्त और बहुत समझदार हूँ।
पूर्बले भाग्यों अनुसार उद्यम करने से माया मिलती है (वह भी मेरे पास नहीं)।
(पर) हे नानक! साधु-संगत में आ के मूर्ख भी पंडित (बन जाता है, यही मेरा भी आसरा है)।31।

दर्पण-भाव

भाव: साधु-संगत में टिक के मूर्ख मनुष्य भी समझदार बन जाता है, क्योंकि वहाँ वह जीवन का सही रास्ता पा लेता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कंठ रमणीय राम राम माला हसत ऊच प्रेम धारणी ॥ जीह भणि जो उतम सलोक उधरणं नैन नंदनी ॥३२॥

मूलम्

कंठ रमणीय राम राम माला हसत ऊच प्रेम धारणी ॥ जीह भणि जो उतम सलोक उधरणं नैन नंदनी ॥३२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कंठ = गला। रमणीय = सुंदर। हसत = हस्त, हाथ। हसत ऊच = गोमुखी, मालधानी, एक थैली जिसका आकार गऊ के मुख जैसा होता है, जिसमें माला डाल के फेरी जाती है। हिन्दू शास्त्रों के अनुसार इसको जमीन से छूहाने की आज्ञा नहीं, छाती की कौडी से हाथ लगा के जप करने की आज्ञा है। इसीलिए इसका नाम ‘हस्त ऊच’ है। धारणी = टिकाई। जीह = जीभ। भणि = उचारता है, भणै। नंदनी = (नन्दन = pleasing) खुश करने वाली। नैन नंदनी = आँखों को खुश करने वाली, माया। नैन = नयन, आँखें।
अर्थ: जो मनुष्य (गले से) परमात्मा के नाम के उच्चारण को गले की सुंदर माला बनाता है, (हृदय में) प्रेम टिकाने को माला की थैली बनाता है, जो मनुष्य जीभ से महिमा की वाणी उचारता है, वह माया के प्रभाव से बच जाता है।32।

दर्पण-भाव

भाव: परमात्मा का नाम जपने से और हृदय में प्रभु का पयार टिकाने से मनुष्य सोहणी माया के प्रभाव से बचा रहता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर मंत्र हीणस्य जो प्राणी ध्रिगंत जनम भ्रसटणह ॥ कूकरह सूकरह गरधभह काकह सरपनह तुलि खलह ॥३३॥

मूलम्

गुर मंत्र हीणस्य जो प्राणी ध्रिगंत जनम भ्रसटणह ॥ कूकरह सूकरह गरधभह काकह सरपनह तुलि खलह ॥३३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हीणस्य = हीन। भ्रसटणह = भ्रष्ट बुद्धि वाला। कूकरह = कुक्ता। सूकरह = सूअर। गरबह = गधा। काकह = कौआ। तुलि = तुल्य, बराबर। खलह = (खल:) मूर्ख।
अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरु के उपदेश से वंचित है, उस भ्रष्ट बुद्धि वाले का जीवन धिक्कार-योग्य है। वह मूर्ख कुत्ते, सूअर, गधे, कौए, साँप के बराबर है।33।

दर्पण-भाव

भाव: जो मनुष्य गुरु के बताए हुए रास्ते पर नहीं चलता, वह विकारों में गलतान रहता है और चारों तरफ से उसको धिक्कारें ही पड़ती हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरणारबिंद भजनं रिदयं नाम धारणह ॥ कीरतनं साधसंगेण नानक नह द्रिसटंति जमदूतनह ॥३४॥

मूलम्

चरणारबिंद भजनं रिदयं नाम धारणह ॥ कीरतनं साधसंगेण नानक नह द्रिसटंति जमदूतनह ॥३४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चरणारबिंद = चरण+अरबिंद, चरण कमल (अरविंद = कमल का फूल)। जम दूतनह = जमराज के दूत।
अर्थ: जो मनुष्य अपने हृदय में परमात्मा का नाम बसाता है, परमात्मा के चरण-कमलों को स्मरण करता है, साधु-संगत में जुड़ के परमात्मा की महिमा करता है, हे नानक! जमराज के दूत उस मनुष्य की ओर देख (भी) नहीं सकते (क्योंकि विकार उसके नजदीक नहीं आते)।34।

दर्पण-भाव

भाव: साधु-संगत का आसरा ले के जो मनुष्य सदा परमात्मा का नाम स्मरण करता है, विकार उसके नजदीक नहीं फटक सकते।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

नच दुरलभं धनं रूपं नच दुरलभं स्वरग राजनह ॥ नच दुरलभं भोजनं बिंजनं नच दुरलभं स्वछ अ्मबरह ॥ नच दुरलभं सुत मित्र भ्रात बांधव नच दुरलभं बनिता बिलासह ॥ नच दुरलभं बिदिआ प्रबीणं नच दुरलभं चतुर चंचलह ॥ दुरलभं एक भगवान नामह नानक लबध्यिं साधसंगि क्रिपा प्रभं ॥३५॥

मूलम्

नच दुरलभं धनं रूपं नच दुरलभं स्वरग राजनह ॥ नच दुरलभं भोजनं बिंजनं नच दुरलभं स्वछ अ्मबरह ॥ नच दुरलभं सुत मित्र भ्रात बांधव नच दुरलभं बनिता बिलासह ॥ नच दुरलभं बिदिआ प्रबीणं नच दुरलभं चतुर चंचलह ॥ दुरलभं एक भगवान नामह नानक लबध्यिं साधसंगि क्रिपा प्रभं ॥३५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिंजंनं = (व्यंजन) खाने योग स्वादिष्ट पदार्थ, रोटी के साथ लगा के खाने वाली मसालेदार भाजी आदि। अंबरह = कपड़े। स्वछ = (स्वच्छ) साफ। प्रबीणं = प्रवीण, समझदार। बनिता = स्त्री। बिलास = लाड प्यार, विलास। साध संगि = साधु-संगत में।
अर्थ: धन और रूप पाना बहुत मुश्किल नहीं है, ना ही स्वर्ग का राज। स्वादिष्ट मसालेदार खाने प्राप्त करने मुश्किल नहीं, ना ही साफ-सुथरे कपड़े। पुत्र, मित्र भाई रिश्तेदारों का मिलना बहुत मुश्किल नहीं, ना ही स्त्री के लाड-प्यार।
विद्या हासिल करके समझदार बनना भी बहुत मुश्किल नहीं है, ना ही कठिन है (विद्या की सहायता से) चालाक और तीक्ष्ण बुद्धि होना।
हाँ, हे नानक! केवल परमात्मा का नाम मुश्किल से मिलता है। नाम साधु-संगत में ही मिलता है (पर तब मिलता है जब) परमात्मा की मेहर हों

दर्पण-भाव

भाव: दुनिया के पदार्थ मिलने मुश्किल बात नहीं। पर परमात्मा का नाम कहीं भाग्यों से ही मिलता है। मिलता है यह साधु-संगत में से, तब जब परमात्मा स्वयं मेहर करे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जत कतह ततह द्रिसटं स्वरग मरत पयाल लोकह ॥ सरबत्र रमणं गोबिंदह नानक लेप छेप न लिप्यते ॥३६॥

मूलम्

जत कतह ततह द्रिसटं स्वरग मरत पयाल लोकह ॥ सरबत्र रमणं गोबिंदह नानक लेप छेप न लिप्यते ॥३६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मरत = (मक्र्त) मातृलोक, धरती। पयाल = पातालै। छेप = (क्षेप) कष्ट, निंदा, अहंकार, विकार। लिप्यते = लिप्त होता है। लेप = पोचा, अपवित्रता। जत कतह = जहाँ कहाँ। ततह = वहाँ। रमणं = व्यापक। जत कतह ततह = हर जगह।
अर्थ: हे नानक! जिस व्यक्ति ने सर्व-व्यापक परमात्मा को सवर्ग, मातलोक, पाताल लोक - हर जगह देख लिया है, वह विकारों के पोचे से नहीं लिबड़ता।36।

दर्पण-भाव

भाव: जो मनुष्य हर जगह परमात्मा के दर्शन करने लग जाता है, उस पर विकार अपना प्रभाव नहीं डाल सकते।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिखया भयंति अम्रितं द्रुसटां सखा स्वजनह ॥ दुखं भयंति सुख्यं भै भीतं त निरभयह ॥ थान बिहून बिस्राम नामं नानक क्रिपाल हरि हरि गुरह ॥३७॥

मूलम्

बिखया भयंति अम्रितं द्रुसटां सखा स्वजनह ॥ दुखं भयंति सुख्यं भै भीतं त निरभयह ॥ थान बिहून बिस्राम नामं नानक क्रिपाल हरि हरि गुरह ॥३७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिखया = विष, जहर। भयंति = हो जाता है, बन जाता है (भवषि, भवत: , भवन्ति)। द्रुसटां = द्वैष करने वाला, विरोध करने वाला। सखा = मित्र। स्वजनह = स्व+जन: , अपने आदमी, करीबी रिश्तेदार। थान बिहून = ठिकाने के बिना, अनेक जूनियों में भटकने वाला। बिस्राम = विश्राम। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला, अमर करने वाला।
अर्थ: हे नानक! परमात्मा-का-रूप-सतिगुरु (जिस मनुष्य पर) कृपालु हो जाए, जहर उसके लिए अमृत बन जाता है, दुखदाई उसके मित्र और करीबी रिश्तेदार बन जाते हैं, दुख-कष्ट सुख बन जाते हैं, अगर वह (पहले) अनेक डरों से सहमा रहता था, तो (वह अब) निडर हो जाता है; अनेक जूनों में भटकते को परमात्मा का नाम सहारा-आसरा मिल जाता है।37।

दर्पण-भाव

भाव: जिस मनुष्य को परमात्मा के नाम का सहारा मिल जाता है, वह जनम-मरन के चक्करों में से निकल जाता है, आत्मिक मौत उसके पास नहीं फटकती, दुनिया के कोई डर-सहम उस पर अपना असर नहीं डाल सकते।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरब सील ममं सीलं सरब पावन मम पावनह ॥ सरब करतब ममं करता नानक लेप छेप न लिप्यते ॥३८॥

मूलम्

सरब सील ममं सीलं सरब पावन मम पावनह ॥ सरब करतब ममं करता नानक लेप छेप न लिप्यते ॥३८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरब = सारे जी। पावन = पवित्र करने वाला (पु = to make pure Caus पावयति)। छेप = दोश, कलंक (क्षेप)। न लिप्यते = नहीं लिबड़ता। ममं = (मम) मेरा। करतब = करता, रचनहार, करने योग्य। सील = शांति स्वभाव, पवित्र जीवन।
अर्थ: हे नानक! जो प्रभु सब जीवों को शांति-स्वभाव देने वाला है मुझे भी वही शांति देता है; जो सबको पवित्र करने के समर्थ है, मेरा भी वही पवित्र कर्ता है; जो प्रभु सब जीवों को रचने के योग्य है, वही मेरा भी कर्ता है। वह प्रभु विकारों के पोचे से नहीं लिबड़ता।38।

दर्पण-भाव

भाव: जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है उसको शांति स्वभाव बख्शता है। उसको पवित्र जीवन बख्शता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नह सीतलं चंद्र देवह नह सीतलं बावन चंदनह ॥ नह सीतलं सीत रुतेण नानक सीतलं साध स्वजनह ॥३९॥

मूलम्

नह सीतलं चंद्र देवह नह सीतलं बावन चंदनह ॥ नह सीतलं सीत रुतेण नानक सीतलं साध स्वजनह ॥३९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बावन चंदनह = वामन चंदन, सफेद चँदन जो सुगन्धि वाला होता है। सीत रुतेण = शीत ऋतेण, ठंडी ऋतु, सर्दियों की ऋतु। सीतलं = ठंढा। चंद्र देवह = चँद्र देवता, चँद्रमा।
अर्थ: हे नानक! चँद्रमा (उतनी) ठंढक पहुँचाने वाला नहीं है, ना ही सफेद चँदन (उतनी) शीतलता दे सकता है, ना ही सर्दियों की बहार (उतनी) ठंढक ला सकती है, (जितनी) ठंढ-शांति गुरमुख साधु-जन देते हैं।39।

दर्पण-भाव

भाव: साधु-संगत ही एक ऐसी जगह है जहाँ मनुष्य को आत्मिक-शांति हासिल होती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मंत्रं राम राम नामं ध्यानं सरबत्र पूरनह ॥ ग्यानं सम दुख सुखं जुगति निरमल निरवैरणह ॥ दयालं सरबत्र जीआ पंच दोख बिवरजितह ॥ भोजनं गोपाल कीरतनं अलप माया जल कमल रहतह ॥ उपदेसं सम मित्र सत्रह भगवंत भगति भावनी ॥ पर निंदा नह स्रोति स्रवणं आपु त्यिागि सगल रेणुकह ॥ खट लख्यण पूरनं पुरखह नानक नाम साध स्वजनह ॥४०॥

मूलम्

मंत्रं राम राम नामं ध्यानं सरबत्र पूरनह ॥ ग्यानं सम दुख सुखं जुगति निरमल निरवैरणह ॥ दयालं सरबत्र जीआ पंच दोख बिवरजितह ॥ भोजनं गोपाल कीरतनं अलप माया जल कमल रहतह ॥ उपदेसं सम मित्र सत्रह भगवंत भगति भावनी ॥ पर निंदा नह स्रोति स्रवणं आपु त्यिागि सगल रेणुकह ॥ खट लख्यण पूरनं पुरखह नानक नाम साध स्वजनह ॥४०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अलप = अलिप, अलेप, निर्लिप। भावनी = भावना, श्रद्धा, प्यार। स्रवणं = श्रवण, कान। रेणुकह = चरण धूल। मंत्रं = किसी देवता को प्रसन्न करने के लिए जपने-योग्य शब्द। ध्यानं = ध्यान, किसी चीज में तवज्जो को लिवलीन करना। ग्यान = ज्ञान, समझ। स्रोति = सुनना। आपु = स्वै भाव। त्यिगि = त्याग के। खट = छह। लख्यण = लक्षण। सम = बराबर। जुगति = जीवन गुजारने का तरीका।
अर्थ: परमात्मा का नाम (जीभ से) जपना और उसको सर्व-व्यापक जान के उसमें तवज्जो जोड़नी; सुखों-दुखों को एक-समान समझना तथा पवित्र और वेर-रहित जीवन जीना; सारे जीवों के साथ प्यार-हमदर्दी रखनी और कामादिक पाँचों विकारों से बचे रहना; परमात्मा की उपमा को जिंदगी का आसरा बनाना और माया से इस प्रकार निर्लिप रहना जैसे कमल का फूल पानी में, सज्जन और वैरी से एक जैसा प्रेम-भाव रखने की शिक्षा गहण करनी और परमात्मा की भक्ति में प्यार बनाना; पराई निंदा अपने कानों से ना सुननी और स्वै भाव त्याग के सबके चरणों की धूल बनना। हे नानक! पूरन पुरखों में ये छह लक्षण होते हैं, उनको ही साधु गुरमुखि कहा जाता हैं।40।

दर्पण-भाव

भाव: असल साधु वह मनुष्य है, सर्व-व्यापक परमात्मा के नाम की इनायत से जिसकी आत्मिक अवस्था ऐसी बन जाती है कि उसके अंदर से मेर-तेर मिट जाती है परमातमा की महिमा ही उसकी जिंदगी का सहारा बन जाता है माया और कामादिक विकार उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अजा भोगंत कंद मूलं बसंते समीपि केहरह ॥ तत्र गते संसारह नानक सोग हरखं बिआपते ॥४१॥

मूलम्

अजा भोगंत कंद मूलं बसंते समीपि केहरह ॥ तत्र गते संसारह नानक सोग हरखं बिआपते ॥४१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अजा = बकरी। कंद = गाजर आदि पदार्थ जो धरती के अंदर ही पैदा होते हैं। समीप = नजदीक। केहरह = (केसरिन्) शेर। तत्र गते = वही रीत, वही चाल। बिआपते = प्रभाव डाले रखते हैं। मूल = गाजर मूली आदि धरती के अंदर पैदा होने वाले। भोगंत = खाती।
अर्थ: बकरी गाजरमूली आदि खाती हो, पर शेर के नजदीक बसती हो (उसे मन-भाता खाना मिलने की प्रसन्नता तो जरूर है पर हर वक्त शेर का डर भी बना रहता है); हे नानक! यही है हाल जगत का, इसको खुशी और गमी दोनों व्यापते हैं।41।

दर्पण-भाव

भाव: दुनिया के भोगों के साथ-साथ जगत में अनेक सहम भी हैं जो परमात्मा की याद से टूटे हुए मनुष्य पर अपना प्रभाव बनाए रखते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

छलं छिद्रं कोटि बिघनं अपराधं किलबिख मलं ॥ भरम मोहं मान अपमानं मदं माया बिआपितं ॥ म्रित्यु जनम भ्रमंति नरकह अनिक उपावं न सिध्यते ॥ निरमलं साध संगह जपंति नानक गोपाल नामं ॥ रमंति गुण गोबिंद नित प्रतह ॥४२॥

मूलम्

छलं छिद्रं कोटि बिघनं अपराधं किलबिख मलं ॥ भरम मोहं मान अपमानं मदं माया बिआपितं ॥ म्रित्यु जनम भ्रमंति नरकह अनिक उपावं न सिध्यते ॥ निरमलं साध संगह जपंति नानक गोपाल नामं ॥ रमंति गुण गोबिंद नित प्रतह ॥४२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: छिद्रं = ऐब, दोख। किलबिख = पाप (किल्विष)। मद = अहंकार। म्रित्यु = मृत्यु, मौत। नित प्रतह = सदा। छल = धोखा। बिघन = (विघ्न) रुकावट। कोटि = करोड़ों। मान = आदर। अपमान = निरादरी। बिआपत = दबाव तले आते हैं। भ्रमंति = भ्रमन्ति, भटकते हैं। न सिध्यते = कामयाब नहीं होते।
अर्थ: (दूसरों को) धोखा (देना), (किसी के) ऐब (फरोलने), (औरों के रास्ते में) करोड़ों रुकावटें (डालनी), विकार, पाप, भटकना, मोह, आदर, निरादरी, अहंकार- (जिस लोगों को इन तरीकों से) माया अपने दबाव तले रखती है, वे जनम-मरण में भटकते रहते हैं, नर्क भोगते रहते हैं। अनेक उपाय करने से भी (इन दुखों में से) निकलने में कामयाब नहीं होते।
हे नानक! जो मनुष्य सदा साधु-संगत में रह के परमात्मा का नाम जपते हैं सदा गोबिंद के गुण गाते हैं, वे पवित्र (-जीवन) वाले हो जाते हैं।42।

दर्पण-भाव

भाव: माया अनेक तरीको से मनुष्यों पर अपना प्रभाव डाले राखती है। जो मनुष्य साधसंगति का आसरा ले के परमात्मा का भजन करता है, वह इससे बचा रहता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तरण सरण सुआमी रमण सील परमेसुरह ॥ करण कारण समरथह दानु देत प्रभु पूरनह ॥ निरास आस करणं सगल अरथ आलयह ॥ गुण निधान सिमरंति नानक सगल जाचंत जाचिकह ॥४३॥

मूलम्

तरण सरण सुआमी रमण सील परमेसुरह ॥ करण कारण समरथह दानु देत प्रभु पूरनह ॥ निरास आस करणं सगल अरथ आलयह ॥ गुण निधान सिमरंति नानक सगल जाचंत जाचिकह ॥४३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तरण = (तृ = to cross। तरण = a boat) जहाज। करण कारण = जगत का मूल। अरथ = पदार्थ। आलयह = (आलय:) घर। निधान = खजाना (निधानं)। जाचंत = (याचन्ति) मांगते हैं। जाचकहि = भिखारी (याचका:)। रमण सील = क्रीड़ा करने वाला, करिष्में करने वाला।
अर्थ: परमात्मा सब करिष्मों को करने वाला है, सबका मालिक है, उसकी शरण (जीवों के लिए, मानो) जहाज है। पूरन प्रभु जीवों को दातें देता है, वह जगत का मूल है, सब कुछ करने योग्य है।
प्रभु निराशों की आशाएं पूरी करने वाला है, सारे पदार्थों का घर है।
हे नानक! सारे (जीव) भिखारी (बन के उसके दर से) माँगते हैं, और सब गुणों के खजाने प्रभु को स्मरण करते हैं।43।

दर्पण-भाव

भाव: परमात्मा ही सब जीवों को दातें देता है और देने के समर्थ है। उसी का आसरा लेना चाहिए।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुरगम सथान सुगमं महा दूख सरब सूखणह ॥ दुरबचन भेद भरमं साकत पिसनं त सुरजनह ॥ असथितं सोग हरखं भै खीणं त निरभवह ॥ भै अटवीअं महा नगर बासं धरम लख्यण प्रभ मइआ ॥ साध संगम राम राम रमणं सरणि नानक हरि हरि दयाल चरणं ॥४४॥

मूलम्

दुरगम सथान सुगमं महा दूख सरब सूखणह ॥ दुरबचन भेद भरमं साकत पिसनं त सुरजनह ॥ असथितं सोग हरखं भै खीणं त निरभवह ॥ भै अटवीअं महा नगर बासं धरम लख्यण प्रभ मइआ ॥ साध संगम राम राम रमणं सरणि नानक हरि हरि दयाल चरणं ॥४४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुरगम = (दुर्गम) जहाँ पहुँचना मुश्किल हो। सथान = (स्थान) जगह। सुगम = जहाँ आसानी से ही पहुँच सकें। भेद = (भिद् = to pierce) भेदना। भरमं = (भ्रम) भटकना, जीवन का गलत रास्ता। साकत = रब से टूटा हुआ। पिसन = (पिशुन) टुकड़े करने वाला (फाड़ने वाला), (पिशुन: चुगल)। निरभवह = निर्भव: , निडर। मइआ = मयस्, प्रसन्नता, दया।
अर्थ: दुर्गम स्थान सुगम हो जाते हैं, बड़े-बड़े सुख सारे ही सुख बन जाते हैं। जो लोग जीवन के गलत रास्ते पर पड़ के खरवें वचनों से (औरों के मन) भेदते (छेदते) रहते थे वे माया-ग्रसित चुग़लखोर बंदे, नेक बन जाते हैं। चिन्ता, खुशी में जा बदल जाती है। (बदल के खुशी बन जाती है)। डरों से सहमा हुआ बँदा निडर हो जाता है। डरावना जंगल अच्छा-खासा बसता शहर प्रतीत होने लगता है; यह है धर्म के लक्षण जो प्रभु की मेहर से प्राप्त होते हैं।
हे नानक! (वह धर्म है:) साधु-संगत में जा के परमात्मा का नाम स्मरणा और दयालु प्रभु के चरणों का आसरा लेना।44।

दर्पण-भाव

भाव: जिस मनुष्य पर परमात्मा की मेहर होती है, वह साधु-संगत का आसरा ले के उसका नाम जपता है। यही है मनुष्य-जीवन का उद्देश्य। नाम-जपने की इनायत से मनुष्य का जीवन पलट जाता है।

[[1358]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

हे अजित सूर संग्रामं अति बलना बहु मरदनह ॥ गण गंधरब देव मानुख्यं पसु पंखी बिमोहनह ॥ हरि करणहारं नमसकारं सरणि नानक जगदीस्वरह ॥४५॥

मूलम्

हे अजित सूर संग्रामं अति बलना बहु मरदनह ॥ गण गंधरब देव मानुख्यं पसु पंखी बिमोहनह ॥ हरि करणहारं नमसकारं सरणि नानक जगदीस्वरह ॥४५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सूर = शूरवीर (a hero)। संग्राम = युद्ध अति। बलना = बहुत बल वाला। मरदनह = (मर्दन = crushing) मल देने वाला, नाश करने वाला। गंधरब = देव लोक के गवईए। अथर्व वेद में इनकी गिनती 6333 है। इनमें से आठ प्रधान हैं: हाहा, हूहू, चित्रर्थ, हंस, विश्वावसू, गोयू, तुंबर और नंदी। पुराणों के अनुसार दक्ष्य की दो बेटियाँ मुनि और प्रधा को कद्वऋषि ने बयाहा था, उनकी संतान हैं गन्धर्व। गण = देवताओं के दास (जैसे जमगण) शिवगण (गण)। नौ देवताओं की ‘गण’ संज्ञा, क्योंकि वे गिनती में कई-कई हैं;

दर्पण-टिप्पनी

अनिल (पवन) –49; 2. आदित्य–12; 3. आभास्वर–64; 4. साध्य–12; 5. तुशित–36; 6. महाराजिक–दो सौ बीस। 7. रुद्र–11; 8. वसू–8; 9. विश्वदेवा–10

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे ना जीते जाने वाले (मोह)! तू युद्ध का सूरमा है, तू अनेक महाबलियों को कुचल देने वाला है। गण-गन्धर्व देवतागण मनुष्य पशु पक्षी -इन सबको तू मोह लेता है।
(पर इसकी मार से बचने के लिए) हे नानक! जगत के मालिक प्रभु की शरण ले और जगत के राखनहार हरि को नमस्कार कर।45।

दर्पण-भाव

भाव: मोह जगत के सारे जीवों में प्रभावी है। इसकी मार से वही बचते हैं जो जगत के मालिक परमात्मा का आसरा लेते हैं परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हे कामं नरक बिस्रामं बहु जोनी भ्रमावणह ॥ चित हरणं त्रै लोक गम्यं जप तप सील बिदारणह ॥ अलप सुख अवित चंचल ऊच नीच समावणह ॥ तव भै बिमुंचित साध संगम ओट नानक नाराइणह ॥४६॥

मूलम्

हे कामं नरक बिस्रामं बहु जोनी भ्रमावणह ॥ चित हरणं त्रै लोक गम्यं जप तप सील बिदारणह ॥ अलप सुख अवित चंचल ऊच नीच समावणह ॥ तव भै बिमुंचित साध संगम ओट नानक नाराइणह ॥४६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गम्यं = (गम्य) पहुँच वाला। सील = (शील) शुद्ध आचरण। बिदरणह = (विद = to tear in pieces) नाश करने वाला। अवित = (वित = धन) वित हीन, धन हीन करने वाला। तव = तेरा। बिमुंचित = खलासी मिलती है। नरक बिस्रामं = नर्क में विश्राम देने वाला। चित हरणं = (हृ = to captivate) मन को भ्रमा लेने वाला। अलप = अल्प, थोड़ा।
अर्थ: हे काम! तू (जीवों को अपने वश में कर के) नर्क में पहुँचाने वाला है और कई जूनियों में भटकाने वाला है।
तू जीवों के मन भ्रमा लेता है, तीनों ही लोकों में तेरी पहुँच है, तू जीवों के जप-तप और शुद्ध-आचरण का नाश कर देता है।
हे चँचल काम्! तू सुख तो थोड़ा ही देता है, पर इसके साथ तू जीवों को (शुद्व-आचरण के) धन से वंचित कर देता है। जीव ऊँचे हों, नीचे हों, सबमें तू पहुँच जाता है।
साधु-संगत में पहुँचने से तेरे डर से निजात मिलती है। हे नानक! (साधु-संग में जा के) प्रभु की शरण ले।46।

दर्पण-भाव

भाव: मनुष्य ऊँची जाति के हों चाहे नीच जाति के, कामदेव सबको अपने काबू में कर लेता है। इसकी मार से वही बचता है जो साधु-संगत में टिक के परमात्मा का आसरा लेता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हे कलि मूल क्रोधं कदंच करुणा न उपरजते ॥ बिखयंत जीवं वस्यं करोति निरत्यं करोति जथा मरकटह ॥ अनिक सासन ताड़ंति जमदूतह तव संगे अधमं नरह ॥ दीन दुख भंजन दयाल प्रभु नानक सरब जीअ रख्या करोति ॥४७॥

मूलम्

हे कलि मूल क्रोधं कदंच करुणा न उपरजते ॥ बिखयंत जीवं वस्यं करोति निरत्यं करोति जथा मरकटह ॥ अनिक सासन ताड़ंति जमदूतह तव संगे अधमं नरह ॥ दीन दुख भंजन दयाल प्रभु नानक सरब जीअ रख्या करोति ॥४७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कलि मूल = (कलि = strife, quarrel) झगड़े का मूल। कंद च = (कदा च) कभी भी। उपरजते = पैदा होती। (उपजिनं = acquiring)। बिखयंत = विषयी। वस्यं करोति = वश में कर लेता (वश्यं करोति)। नित्यं = (नृत्यं) नाच। जथा = (यथा) जैसे। मरकटह = (मर्कट = monkey) बंदर। सासन = (शासनं) हुक्म। ताड़ंति = (ताडन्ति) दंड देते हैं। अधमं = (अधम:) नीच। तव = तेरे। करुणा = (करुण) तरस, दया। रख्या = रक्षा।
अर्थ: हे झगड़े के मूल क्रोध! (तेरे अंदर) कभी दया नहीं पैदा होती। तू विषयी जीवों को अपने वश में कर लेता है। तेरे वश में आया जीव ऐसे नाचता है जैसे बँदर।
तेरी संगत में जीव नीच (स्वभाव वाले) बन जाते हैं। जमदूत उनको अनेक हुक्म और दण्ड देते हैं।
हे नानक! दीनों के दुख दूर करने वाला दयालु प्रभु ही (इस क्रोध से) सब जीवों की रक्षा करता है (और कोई नहीं कर सकता)।47।

दर्पण-भाव

भाव: बली क्रोध के वश में आ के मनुष्य कई झगड़े खड़े कर लेता है, और, अपना जीवन दुखी बना लेता है। इसकी मार से बचने के लिए भी परमात्मा की शरण एकमात्र तरीका है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हे लोभा ल्मपट संग सिरमोरह अनिक लहरी कलोलते ॥ धावंत जीआ बहु प्रकारं अनिक भांति बहु डोलते ॥ नच मित्रं नच इसटं नच बाधव नच मात पिता तव लजया ॥ अकरणं करोति अखाद्यि खाद्यं असाज्यं साजि समजया ॥ त्राहि त्राहि सरणि सुआमी बिग्याप्ति नानक हरि नरहरह ॥४८॥

मूलम्

हे लोभा ल्मपट संग सिरमोरह अनिक लहरी कलोलते ॥ धावंत जीआ बहु प्रकारं अनिक भांति बहु डोलते ॥ नच मित्रं नच इसटं नच बाधव नच मात पिता तव लजया ॥ अकरणं करोति अखाद्यि खाद्यं असाज्यं साजि समजया ॥ त्राहि त्राहि सरणि सुआमी बिग्याप्ति नानक हरि नरहरह ॥४८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लंपट = मगन, डूबा हुआ। सिरमोरह = (शिरस्+मौलि) सिर का ताज, प्रधान, मुखी लोग, सिर मौर। धावंत = (धावन्ति) दौड़ते हैं। लजया = (लज्जा) शर्म। अकरणं = (अकर्णीय) ना करने योग्य। करोति = करता है। अखाद्यि = (अखाद्य, खाद्य। खाद् = to eat)। असाज्यं = ना सृजन योग्य, नामुमकिन। समजया = समाज, सभा, मंडली (भाव, निसंग हो, खुले तौर पर)। विग्यिाप्ति = (विज्ञाप्ति) विनती। नरहरह = परमात्मा। त्राहि = (त्रायस्व) बचा ले। तव = तेरे (कारण), तेरे असर तले रह के। न च = ना तो।
अर्थ: हे लोभ! मुखी लोग (भी) तेरी संगति में (रह के विकारों में) डूब जाते हैं, तेरी लहरों में (फंस के) अनेक कलोल करते हैं।
तेरे वश में आए हुए जीव कई तरह से भटकते फिरते हैं, अनेक तरीकों से डोलते हैं।
तेरे असर के नीचे रहने के कारण उन्हें ना किसी मित्र की, ना गुरु पीर की, ना सम्बन्धियों की, और ना ही माता-पिता की कोई शर्म रहती है।
तेरे प्रभाव से जीव खुले तौर पर समाज में वह काम करता है जो नहीं करने चाहिए, वह चीजें खाता है जो नहीं खानी चाहिए, वह बातें करता है जो नहीं करनी चाहिए।
हे नानक! (लोभ से बचने के लिए) इस तरह अरदास कर- हे प्रभु! हे स्वामी! मैं तेरी शरण आया हूँ, मुझे इससे बचा ले, बचा ले।48।

दर्पण-भाव

भाव: लोभ के असर तले मनुष्य शर्म-हया छोड़ के अयोग्य करतूतें करने लग जाता है। परमात्मा के ही दर पर अरदासें कर के इससे बचा जा सकता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हे जनम मरण मूलं अहंकारं पापातमा ॥ मित्रं तजंति सत्रं द्रिड़ंति अनिक माया बिस्तीरनह ॥ आवंत जावंत थकंत जीआ दुख सुख बहु भोगणह ॥ भ्रम भयान उदिआन रमणं महा बिकट असाध रोगणह ॥ बैद्यं पारब्रहम परमेस्वर आराधि नानक हरि हरि हरे ॥४९॥

मूलम्

हे जनम मरण मूलं अहंकारं पापातमा ॥ मित्रं तजंति सत्रं द्रिड़ंति अनिक माया बिस्तीरनह ॥ आवंत जावंत थकंत जीआ दुख सुख बहु भोगणह ॥ भ्रम भयान उदिआन रमणं महा बिकट असाध रोगणह ॥ बैद्यं पारब्रहम परमेस्वर आराधि नानक हरि हरि हरे ॥४९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पापातमा = (पापत्मन्) दुष्टात्मा, जिसका मन सदा पाप में रहे। द्रिढ़ंति = पक्का कर लेता है। बिस्तीरनह = (विस्तीर्ण) पसारा, खिलारा। बिकट = (विकट) भयानक, बिखड़ा। असाध = (असाध्य, असाध्यनीय) जिसका इलाज ना हो सके। बैद्यं = (वैद्य) बैद्, हकीम। रमणं = भटकना। उदिआन = (उद्यान) जंगल।
अर्थ: हे पापी अहंकार! तू जीवों के जनम-मरण का कारण है। माया के अनेक खिलारे पसार के तू मित्रों का त्याग करा के वैरी पक्के कराए जाता है।
(तेरे वश में हो के) जीव जनम-मरण के चक्करों में पड़ के थक जाते हैं, अनेक दुख-सुख भोगते हैं, भटकनों में पड़ कर, जैसे, डरावने जंगल में से गुजरते हैं, और बड़े भयानक ला-इलाज रोगों में फसे हुए हैं।
(अहंकार के रोग से बचाने वाला) हकीम परमात्मा ही है। हे नानक! उस प्रभु को हर वक्त स्मरण कर।49।

दर्पण-भाव

भाव: परमात्मा ही एक ऐसा हकीम है जो अहंकार के रोगों से जीवों को बचाता है। अहंकार के वश हो के जीव अनेक वैरी बना लेता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हे प्राण नाथ गोबिंदह क्रिपा निधान जगद गुरो ॥ हे संसार ताप हरणह करुणा मै सभ दुख हरो ॥ हे सरणि जोग दयालह दीना नाथ मया करो ॥ सरीर स्वसथ खीण समए सिमरंति नानक राम दामोदर माधवह ॥५०॥

मूलम्

हे प्राण नाथ गोबिंदह क्रिपा निधान जगद गुरो ॥ हे संसार ताप हरणह करुणा मै सभ दुख हरो ॥ हे सरणि जोग दयालह दीना नाथ मया करो ॥ सरीर स्वसथ खीण समए सिमरंति नानक राम दामोदर माधवह ॥५०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जगद गुरो = हे जगत के गुरु! हरो = (हृ = to take away) दूर करो। मया = तरस, कृपा (मयस्)। स्वस्थ = (स्वास्थ्यं) अरोगता। समए = (समय)। करुणा = तरस। करुणा मै = (करुणा+मय) तरस रूप। दयालह = दया का घर। करो = (कुरू) कर।
अर्थ: हे गोबिंद! हे जीवों के मालिक! हे कृपा के खजाने! हे जगत के गुरु! हे दुनिया के दुखों के नाश करने वाले! हे तरस-स्वरूप प्रभु! (जीवों के) सारे दुख-कष्ट दूर कर।
हे दया के घर! हे शरण आए हुओं की सहायता करने-योग्य प्रभु! हे दीनों के नाथ! मेहर कर।
हे राम! हे दामोदर! हे माधो! शारीरिक आरोगता के समय और शरीर के नाश होने के वक्त (हर वक्त) नानक तुझे स्मरण करता रहे।50।

दर्पण-भाव

भाव: हर वक्त परमात्मा का नाम ही स्मरणा चाहिए। वही संसारी जीवों का दुख नाश करने में समर्थ है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरण कमल सरणं रमणं गोपाल कीरतनह ॥ साध संगेण तरणं नानक महा सागर भै दुतरह ॥५१॥

मूलम्

चरण कमल सरणं रमणं गोपाल कीरतनह ॥ साध संगेण तरणं नानक महा सागर भै दुतरह ॥५१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रमणं = उचारना। दुतरह = (दुस्तर) जिसे तैरना मुश्किल हो। साध संगेण = साधु-संगत से, गुरमुखों की संगति करने से। सरण = ओट आसरा। चरण कमल = कमल फूलों जैसे सुंदर चरण। भै = डरों (से भरपूर), भयानक। सागर = समुंदर। कीरतह = महिमा।
अर्थ: हे नानक! (संसार) एक बड़ा भयानक समुंदर है, जिसमें से पार लांघना बहुत मुश्किल है।
साधु-संगत से प्रभु के सुंदर चरणों का आसरा (लेने से), जगत के पालनहार परमात्मा की महिमा उचारने से (इसमें से) पार लांघा जा सकता है।51।

दर्पण-भाव

भाव: संसार-समुंदर में से जिंदगी की बेड़ी सही-सलामत पार लंघाने का एक-मात्र तरीका है: साधु-संगत में रह के परमात्मा की उपमा की जाए।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिर मस्तक रख्या पारब्रहमं हस्त काया रख्या परमेस्वरह ॥ आतम रख्या गोपाल सुआमी धन चरण रख्या जगदीस्वरह ॥ सरब रख्या गुर दयालह भै दूख बिनासनह ॥ भगति वछल अनाथ नाथे सरणि नानक पुरख अचुतह ॥५२॥

मूलम्

सिर मस्तक रख्या पारब्रहमं हस्त काया रख्या परमेस्वरह ॥ आतम रख्या गोपाल सुआमी धन चरण रख्या जगदीस्वरह ॥ सरब रख्या गुर दयालह भै दूख बिनासनह ॥ भगति वछल अनाथ नाथे सरणि नानक पुरख अचुतह ॥५२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रख्या = (रक्षा), राखी। मस्तक = माथा। हस्त = हाथ। काया = (काय:) शरीर। अचुतह = अविनाशी (चयु: नाश हो जाना, गिर जाना; च्युत: गिरा हुआ, नाशवान; अच्युत: नाश ना होने वाला)।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: इस शब्द का उच्चरण करने के वक्त ‘अच्’ को यूँ पढ़ना है कि जैसे दोनों के बीच अर्धक ‘ॅ’ है ‘अच’)।

दर्पण-भाषार्थ

आतम = (आत्मन्) जीवात्मा। गुर = सबसे बड़ा (गुरु)। वछल = (वत्सल) प्यार करने वाला।
अर्थ: सिर, माथा, हाथ, शरीर, जीवात्मा, पैर, धन-पदार्थ -जीवों की हर तरह से रक्षा करने वाला पारब्रहम परमेश्वर गोपाल, स्वामी, जगदीश्वर, सबसे बड़ा दया का घर परमात्मा ही है। वही सारे दुखों का नाश करने वाला है।
हे नानक! वह प्रभु निआसरों का आसरा है, भक्ति को प्यार करने वाला है। उस अविनाशी सर्व-व्यापक प्रभु का आसरा ले।52।

दर्पण-भाव

भाव: परमात्मा ही मनुष्य के शरीर की जीवात्मा की हरेक किसम की रक्षा करने वाला है। जो मनुष्य उसकी भक्ति करते हैं उनसे वह प्यार करता है।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

जेन कला धारिओ आकासं बैसंतरं कासट बेसटं ॥ जेन कला ससि सूर नख्यत्र जोत्यिं सासं सरीर धारणं ॥ जेन कला मात गरभ प्रतिपालं नह छेदंत जठर रोगणह ॥ तेन कला असथ्मभं सरोवरं नानक नह छिजंति तरंग तोयणह ॥५३॥

मूलम्

जेन कला धारिओ आकासं बैसंतरं कासट बेसटं ॥ जेन कला ससि सूर नख्यत्र जोत्यिं सासं सरीर धारणं ॥ जेन कला मात गरभ प्रतिपालं नह छेदंत जठर रोगणह ॥ तेन कला असथ्मभं सरोवरं नानक नह छिजंति तरंग तोयणह ॥५३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कला = सक्तिआ, ताकत। बैसंतर = (वैश्वानर:) आग। बेसटं = (वेष्टित) घेरा हुआ, ढका हुआ। जेन = (येन = by whom) जिस ने। ससि = (शशिन्) चँद्रमा। नख्यत्र = (नक्षत्रं) तारे। जोत्यिं = (ज्योतिस्) प्रकाश। असथंभं = (स्तम्भ), सहारा, आसरा, थंम। तयोणह = (तोयं) जल। सूर = सूरज (सूर्य)। सरीर = शरीरं। सास = श्वास। जठर = (जठरं = the womb) माँ के पेट। तेन = (by him) उस ने।
अर्थ: जिस (परमात्मा) ने अपनी कला से आकाश को टिकाया हुआ है और आग को लकड़ी में ढका हुआ है;
जिस प्रभु ने अपनी ताकत से चँद्रमा सूर्य और तारों में अपना प्रकाश टिकाया हुआ है और सब शरीरों में साँसें टिकाई हुई हैं;
जिस अकाल-पुरख ने अपनी सत्ता से माँ के पेट में जीवों की रक्षा (का प्रबंध किया हुआ है), माँ के पेट की आग-रूप रोग जीव का नाश नहीं कर सकता।
हे नानक! उस प्रभु ने इस (संसार-) सरोवर को अपनी ताकत का आसरा दिया हुआ है, इस सरोवर के पानी की लहरें (जीवों का) नाश नहीं कर सकतीं।53।

दर्पण-भाव

भाव: संसार, समुंदर के समान है। इसमें अनेक विकारों की लहरें उठ रही हैं। जो मनुष्य परमात्मा का आसरा लेता है उसके आत्मिक जीवन को ये विकार तबाह नहीं कर सकते।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुसांई गरिस्ट रूपेण सिमरणं सरबत्र जीवणह ॥ लबध्यं संत संगेण नानक स्वछ मारग हरि भगतणह ॥५४॥

मूलम्

गुसांई गरिस्ट रूपेण सिमरणं सरबत्र जीवणह ॥ लबध्यं संत संगेण नानक स्वछ मारग हरि भगतणह ॥५४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गरिस्ट = (गृष्ट) बहुत वजनदार, बहुत भारी। स्वछ = (स्वच्छ) साफ, निर्मल। मारग = (मार्ग) रास्ता। लबध्यं = मिल जाता है। जीवणह = (जीवन) जीवन, जीवात्मा, सहारा। सरबत्र = (सर्वत्र) हर जगह। सरबत्र जीवणह = सब जीवों का जीवन। हरि भगतणह = परमात्मा की भक्ति। गुसांई = (गोस्वामिन्) जगत का मालिक।
अर्थ: जगत का मालिक परमात्मा सबसे बड़ी हस्ती है, उसका स्मरण सब जीवों का जीवन (सहारा) है।
हे नानक! परमात्मा की भक्ति हर (इनसानी जिंदगी के सफर का) निर्मल रास्ता है, जो साधु-संगत में मिलता है।

दर्पण-भाव

भाव: परमात्मा की भक्ति ही इन्सानी जिंदगी की यात्रा के लिए समतल राह है। ये दाति साधु-संगत में से मिलती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मसकं भगनंत सैलं करदमं तरंत पपीलकह ॥ सागरं लंघंति पिंगं तम परगास अंधकह ॥ साध संगेणि सिमरंति गोबिंद सरणि नानक हरि हरि हरे ॥५५॥

मूलम्

मसकं भगनंत सैलं करदमं तरंत पपीलकह ॥ सागरं लंघंति पिंगं तम परगास अंधकह ॥ साध संगेणि सिमरंति गोबिंद सरणि नानक हरि हरि हरे ॥५५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मसकं = (मशक:) मच्छर (कमजोर जीव)। भगनंत = तोड़ देता है। सैलं = पहाड़, पत्थर (अहंकार) (शैल:)। करदमं = (कर्दम:) कीचड़ (मोह)। पपीलकह = (पीलक: , पीलुक: an ant) कीड़ी। पिंगं = पिंगला, लूला (शुभ कर्मों से वंचित)। तम = अंधेरा (तमस्)। अंध्कह = (अन्धक:) अंधा, (अज्ञानी)। तरंत = (तरति, तरत: , तरन्ति) पार लांघ जाती है। साध संगेणि = (साधुसंगेन) साधु-संगत से।
अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य साधु-संगत के माध्यम से परमात्मा की ओट ले के गोबिंद का स्मरण करता है, वह (पहले) मच्छर (की तरह निताणा होते हुए भी अब) पहाड़ (अहंकार) को तोड़ लेता है, वह (पहले) कीड़ी (की तरह कमजोर होते हुए भी) कीचड़ (मोह) पर से तैर जाता है, वह (पहले) पिंगले जैसा (निआसरा होते हुए भी अब संसार-) समुंदर से पार लांघ जाता है, वह (पहले अज्ञानी) अंधे का अंधकार (अब) रौशनी बन जाता है।55।

दर्पण-भाव

भाव: जो मनुष्य साधु-संगत से परमात्मा का आसरा ले के नाम स्मरण करता है वह मोह अहंकार आदि सारे बलवान विकारों का मुकाबला करने के योग्य हो जाता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिलक हीणं जथा बिप्रा अमर हीणं जथा राजनह ॥ आवध हीणं जथा सूरा नानक धरम हीणं तथा बैस्नवह ॥५६॥

मूलम्

तिलक हीणं जथा बिप्रा अमर हीणं जथा राजनह ॥ आवध हीणं जथा सूरा नानक धरम हीणं तथा बैस्नवह ॥५६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जथा = (यथा) जैसे। बिप्रा = (विप्र:) ब्राहमण। अमर = हुक्म। आवध = शस्त्र (आयुद्ध)। सूरा = (सुर:) सूरमा। बैस्नवह = विष्णू का भक्त, परमात्मा का भक्त (वैष्णव:)। हीण = (हीन) वंचित।
अर्थ: जैसे तिलक के बिना ब्राहमण, जैसे हुक्म (की समर्थता) के बगैर राजा, जैसे शस्त्र के बिना शूरवीर (शोभा नहीं पाता), वैसे, हे नानक! धर्म से टूटा हुआ विष्णु-भक्त (समझो)।56।

दर्पण-भाव

भाव: निरे धार्मिक चिन्ह धारण करके भक्ति से वंचित र हके अपने आप को धर्मी कहलवाने वाला मनुष्य धर्मी नहीं है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

न संखं न चक्रं न गदा न सिआमं ॥ अस्चरज रूपं रहंत जनमं ॥ नेत नेत कथंति बेदा ॥ ऊच मूच अपार गोबिंदह ॥ बसंति साध रिदयं अचुत बुझंति नानक बडभागीअह ॥५७॥

मूलम्

न संखं न चक्रं न गदा न सिआमं ॥ अस्चरज रूपं रहंत जनमं ॥ नेत नेत कथंति बेदा ॥ ऊच मूच अपार गोबिंदह ॥ बसंति साध रिदयं अचुत बुझंति नानक बडभागीअह ॥५७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गदा = गुदगर। संखं = शंखं। सिआम = (श्याम:) काला। कथंति = (कथन्ति) कहते हैं। नेत = (न इति) ऐसा नहीं। मूच = बड़ा। अचुत = अविनाशी प्रभु।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: शब्द ‘अचुत’ का उच्चारण करते वक्त ‘अच’ पर जोर देना है ‘अच’ अच्युत)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: गोबिंद बेअंत है, (बहुत) ऊँचा है, (बहुत) बड़ा है, वेद कहते हैं कि उस जैसा और कोई नहीं है, वह जनम से रहित है, उसका रूप आश्चर्य है (जो बयान नहीं हो सकता), उसके हाथ में ना शंख है ना चक्र है ना गदा है, ना ही वह काले रंग वाला है। (भाव, ना ही वह विष्णू है ना ही कृष्ण है)।
वह अविनाशी प्रभु गुरमुखों के हृदय में बसता है। हे नानक! बड़े भाग्यों वाले लोग ही (ये बात) समझते हैं।57।

दर्पण-भाव

भाव: परमात्मा, भक्ति करने वाले लोगों के हृदय में बसता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदिआन बसनं संसारं सनबंधी स्वान सिआल खरह ॥ बिखम सथान मन मोह मदिरं महां असाध पंच तसकरह ॥ हीत मोह भै भरम भ्रमणं अहं फांस तीख्यण कठिनह ॥ पावक तोअ असाध घोरं अगम तीर नह लंघनह ॥ भजु साधसंगि गुोपाल नानक हरि चरण सरण उधरण क्रिपा ॥५८॥

मूलम्

उदिआन बसनं संसारं सनबंधी स्वान सिआल खरह ॥ बिखम सथान मन मोह मदिरं महां असाध पंच तसकरह ॥ हीत मोह भै भरम भ्रमणं अहं फांस तीख्यण कठिनह ॥ पावक तोअ असाध घोरं अगम तीर नह लंघनह ॥ भजु साधसंगि गुोपाल नानक हरि चरण सरण उधरण क्रिपा ॥५८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उदिआन = (उद्यान) जंगल। स्वान = (श्वन्) कुक्ता। सिआल = (शुगाल) गीदड़। खरह = (खर = an ass) गधा, खर। बिखम = (विषम) कठिन, मुश्किल। मदिरं = (मदरा) शराब। असाध = (असाध्य) ना साधे जा सकने वाला। तसकरह = (तस्कर:) चोर। हीत = हित। अहं = अहंकार। तीख्यण = (तीक्ष्ण) तेज, तीखा। पावक = आग, तृष्णा। तोअ = (तोयं) पानी (सांसारिक पदार्थ)। तीर = किनारा। अगम = (अगम्य) पहुँच से परे। उधरण = (अद्धरणं) उद्धार।
अर्थ: जीव का वासा एक ऐसे संसार जंगल में है जहाँ कुत्ते, गीदड़, गधे इसके सम्बन्धी हैं (भाव, जीव का स्वभाव कुत्ते, गीदड़, गधे जैसा है)। जीव का मन बड़ी कठिन जगह (फसा हुआ) है, मोह की शराब (में मस्त है), बड़े ही अजेय पाँच (कामादिक) चोर (इस के पीछे पड़े हैं)।
हित, मोह, (अनेक) सहम, भटकना (में जीव काबू आया हुआ है), अहंकार का कठिन तेज़ फंदा (इसके गले में पड़ा हुआ है)।
(जीव एक ऐेसे समुंदर में गोते खा रहा है जहाँ) तृष्णा की आग लगी हुई है, भयानक असाध्य विषियों का पानी (लबालब भरा पड़ा है), (उस समुंदर का) किनारा अगम्य (पहुँच से परे) है अगम्य है, पार नहीं लांघा जा सकता।
हे नानक! साधु-संगत में जाकर गोपाल का भजन कर, प्रभु के चरणों की ओट लेने से ही उसकी मेहर से (इस भयानक संसार-समुंद में से) बचाव हो सकता है।58।

दर्पण-भाव

भाव: मनुष्य इस संसार-समुंदर के अनेक ही विकारों के घेरे में फसा रहता है। साधु-संगत का आसरा ले के जो मनुष्य परमात्मा का भजन करता है वही इनसे बचता है। पर ये दाति मिलती है परमात्मा की अपनी मेहर से ही।

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रिपा करंत गोबिंद गोपालह सगल्यं रोग खंडणह ॥ साध संगेणि गुण रमत नानक सरणि पूरन परमेसुरह ॥५९॥

मूलम्

क्रिपा करंत गोबिंद गोपालह सगल्यं रोग खंडणह ॥ साध संगेणि गुण रमत नानक सरणि पूरन परमेसुरह ॥५९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सगल्यं = (सकल) सारे। संगेणि = (संगेन) संगति में, संगति से। रमत = (रमते) स्मरण करता है।
अर्थ: जब गोबिंद गोपाल (जीव पर) कृपा करता है तब (उसके) सारे रोग नाश कर देता है।
हे नानक! साधु-संगत द्वारा ही परमात्मा की महिमा की जा सकती है, और पूरन परमेश्वर का आसरा लिया जा सकता है।59।

दर्पण-भाव

भाव: जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है, वह साधु-संगत में आ के उस का नाम स्मरण करता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिआमलं मधुर मानुख्यं रिदयं भूमि वैरणह ॥ निवंति होवंति मिथिआ चेतनं संत स्वजनह ॥६०॥

मूलम्

सिआमलं मधुर मानुख्यं रिदयं भूमि वैरणह ॥ निवंति होवंति मिथिआ चेतनं संत स्वजनह ॥६०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिआमलं = सुंदर, मनोहर। मधुर = मीठा। भूमि = (भुमि) धरती। रिदयं = (हृदय)। मथिआ = (मिथ्या) व्यर्थ, झूठ। स्वजनह = (सजजन: a good man) भले मनुष्य। चेतनं = सावधान, होशियार।
अर्थ: मनुष्य (देखने में) सुंदर हो, और बोल (उसके) मीठे हों, पर अगर उसके हृदय-धरती में वैर (-विरोध) (का बीज) हो, तो उसका (दूसरों के आगे) झुकना (सिर्फ) ठगी है।
भले मनुष्य संत जन (इस कमी से) सावधान रहते हैं।60।

दर्पण-भाव

भाव: भला मनुष्य वह है जो अंदर से भी भला है और बाहर से भी भला है। अंदर खोट रख के भलाई का दिखावा करने वाला मनुष्य भला नहीं है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अचेत मूड़ा न जाणंत घटंत सासा नित प्रते ॥ छिजंत महा सुंदरी कांइआ काल कंनिआ ग्रासते ॥ रचंति पुरखह कुट्मब लीला अनित आसा बिखिआ बिनोद ॥ भ्रमंति भ्रमंति बहु जनम हारिओ सरणि नानक करुणा मयह ॥६१॥

मूलम्

अचेत मूड़ा न जाणंत घटंत सासा नित प्रते ॥ छिजंत महा सुंदरी कांइआ काल कंनिआ ग्रासते ॥ रचंति पुरखह कुट्मब लीला अनित आसा बिखिआ बिनोद ॥ भ्रमंति भ्रमंति बहु जनम हारिओ सरणि नानक करुणा मयह ॥६१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अचेत = (अचेतस्, अचिक्त = बेसमझ) गाफल, बेसमझ। मूढ़ा = (मुढ:) मूर्ख। घटंत = (घट्ट = to shake) कम हो रहे हैं। सास = श्वास। नित प्रते = सदा। छिजंत = कमजोर हो रही है। कांइआ = (काय:) देह, शरीर। काल कंनिआ = मौत की बेटी (वृद्ध अवस्था) (कन्या)। ग्रासते = (ग्रस = to devour ग्रसते) खा रही है, ग्रस रही है। बिखिआ = माया। बिनोद = (विनोद) आनंद, खुशियां। भ्रमंति भ्रमंति = (भ्रम = to wander) भटकते भटकते। करुणामयह = करुणा+मयह, तरस रूप, दया-स्वरूप। अनित = नित्य ना रहने वाली। करुणा = तरस, दया।
अर्थ: बेसमझ मूर्ख मनुष्य यह नहीं जानता कि साँसें घटती जा रही हैं, बड़ा सुंदर शरीर (दिन-ब-दिन) कमजोर होता जाता है, वृद्ध-अवस्था अपना जोर डालती जा रही है।
(ऐसी हालत में भी) व्यक्ति अपने परिवार के कलोलों में मस्त रहता है, और नित्य ना रहने वाली माया की खुशियों की आशाएं (बनाए रखता है)।
(नतीजा ये निकलता है कि) अनेक जूनियों में भटकता जीव थक जाता है।
हे नानक! (इस कलेष से बचने के लिए) दया-स्वरूप प्रभु का आसरा ले।61।

दर्पण-भाव

भाव: माया का मोह बहुत प्रबल है। बुढ़ापा आ के मौत सिर पर कूक रही होती है, फिर भी मनुष्य परिवार के मोह में फसा रहता है। इस मोह से परमात्मा की याद ही बचाती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हे जिहबे हे रसगे मधुर प्रिअ तुयं ॥ सत हतं परम बादं अवरत एथह सुध अछरणह ॥ गोबिंद दामोदर माधवे ॥६२॥

मूलम्

हे जिहबे हे रसगे मधुर प्रिअ तुयं ॥ सत हतं परम बादं अवरत एथह सुध अछरणह ॥ गोबिंद दामोदर माधवे ॥६२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिहबा = जीभ। रसगे = रसज्ञ, रसों को जानने वाली, स्वादों से सांझ डाले रखने वाली। तुयं = तुझे। अवरत एथह = (आवत्र्तयेथा:) (आवृत् = cause to repeat, recite) बार बार उच्चारण कर। मधुर = मीठे (पदार्थ)। प्रिअ = (प्रिया) प्यारे। अछरण = (अक्षर) शब्द। सुध = (शुद्ध) पवित्र। सत = (सत् = the really existent truth) सदा-स्थिर हरि नाम। हतं = मरी हुई। बादं = (वाद) झगड़े।
अर्थ: हे जीभ! हे (सब) रसों को जानने वाली! (हे चस्कों से सांझ डाल के रखने वाली! हे चस्कों में फसी हुई!) मीठे पदार्थ तुझे प्यारे लगते हैं। परमात्मा के नाम (-स्मरण) के प्रति तू मरी हुई है, और बड़े-बड़े झगड़े सहेड़ती है।
हे जीभ! गोबिंद दामोदर माधो! -ये पवित्र शब्द तू बार-बार उच्चरण कर (तब ही तू जीभ कहलवाने के योग्य होगी)।62।

दर्पण-भाव

भाव: जीभ से परमात्मा का नाम जपना था, पर यह मनुष्य को चस्कों में ही फसाए रखती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गरबंति नारी मदोन मतं ॥ बलवंत बलात कारणह ॥ चरन कमल नह भजंत त्रिण समानि ध्रिगु जनमनह ॥ हे पपीलका ग्रसटे गोबिंद सिमरण तुयं धने ॥ नानक अनिक बार नमो नमह ॥६३॥

मूलम्

गरबंति नारी मदोन मतं ॥ बलवंत बलात कारणह ॥ चरन कमल नह भजंत त्रिण समानि ध्रिगु जनमनह ॥ हे पपीलका ग्रसटे गोबिंद सिमरण तुयं धने ॥ नानक अनिक बार नमो नमह ॥६३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गरबंति = (गर्व = अहंकार) अहंकार करता है (गर्व् = to be proud)। मदोनमतं = मद+उन्मक्त, (उन्मक्त = intoxicated) काम-वासना में मस्त। बलातकारणह = (बलात्कार: violence) ज्यादती करने वाला। त्रिण = तृणं, तीला। समानि = बराबर। ध्रिग = धिक्कार योग्य (धिक्)। पपीलका = (पीलक) कीड़ी। ग्रसट = (गरिष्ठ = most important) भारी, वजनदार। तुयं = (तव) तेरा।
अर्थ: (जो) मनुष्य स्त्री के मद में मस्त हुआ अपने आप को बलवान जान के अहंकार करता है, और (औरों पर) ज्यादती करता है, वह परमात्मा के सुंदर चरणों का ध्यान नहीं धरता, (इसके कारण उसकी हस्ती) तीले के बराबर है, उसका जीवन धिक्कारयोग्य है।
हे कीड़ी! (अगर) गोबिंद का स्मरण तेरा धन है, (तो तू छोटी सी होते हुए भी) भारी है (तेरे मुकाबले में वह बलवान मनुष्य हल्का तीले के समान है)।
हे नानक! अनेक बार परमत्मा के आगे नमस्कार कर।63।

दर्पण-भाव

भाव: परमात्मा को भुला के दूसरों पर ज्यादतियाँ करने वाले अहंकारी मनुष्य से कहीं बेहतर प्रभु का नाम स्मरण करने वाला अति-गरीब मनुष्य है। अहंकारी का जीवन व्यर्थ जाता है। वह ऐसे कर्म ही सदा करता है कि उसको धिक्कारें ही पड़ती हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिणं त मेरं सहकं त हरीअं ॥ बूडं त तरीअं ऊणं त भरीअं ॥ अंधकार कोटि सूर उजारं ॥ बिनवंति नानक हरि गुर दयारं ॥६४॥

मूलम्

त्रिणं त मेरं सहकं त हरीअं ॥ बूडं त तरीअं ऊणं त भरीअं ॥ अंधकार कोटि सूर उजारं ॥ बिनवंति नानक हरि गुर दयारं ॥६४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मेरं = (मेरु) सुमेर पर्वत। सहकं = (शुष्क) सूखा हुआ। बूडं = डूबता। ऊणं = वंचित। कोटि = करोड़। सूर = (सूर्य) सूरज। उजारं = (उज्वला) रौशनी। दयारं = (दयालु) दयालु।
अर्थ: नानक विनती करता है (जिस पर) गुरु परमात्मा दयाल हो जाए, वह तीले से सुमेर पर्वत बन जाता है, सूखे से हरा हो जाता है, (विचारों में) डूबता तैर जाता है, (गुणों से) वंचित (गुणों से) भर जाता है, (उसके लिए) अंधेरे से करोड़ों सूर्यों की रोशनी हो जाती है।64।

दर्पण-भाव

भाव: जिस मनुष्य पर गुरु परमात्मा मेहर करता है, नाम-जपने की इनायत से उस का आत्मिक जीवन ऊँचा हो जाता है, विकारों का अंधेरा उसके नजदीक नहीं फटकता, उसकी जिंदगी गुणों से भरपूर हो जाती है।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रहमणह संगि उधरणं ब्रहम करम जि पूरणह ॥ आतम रतं संसार गहं ते नर नानक निहफलह ॥६५॥

मूलम्

ब्रहमणह संगि उधरणं ब्रहम करम जि पूरणह ॥ आतम रतं संसार गहं ते नर नानक निहफलह ॥६५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संगि = साथ, संगति में। उधरणं = उद्धरणं, उद्धार। ब्रहम = परमातमा। ब्रहम करम = हरि नाम स्मरण का कर्म। जि = जो। आतम = अपना आप, अपना मन (आत्मन्)। रतं = रति हुआ। गहंते = (गच्छन्नि) चले जाते हैं, जीवन गुजार जाते हैं। नर = वे मनुष्य, वे लोग। निहफल = (निष्फल = fruitless) असफल।
अर्थ: जो मनुष्य हरि-स्मरण के काम में पूरा है वह है असल ब्राहमण, उसकी संगति में (औरों का भी) उद्धार हो सकता है।
(पर) हे नानक! जिस मनुष्यों का मन संसार में रति होया हुआ है वह (जगत से) निष्फल ही जाते हैं।65।

दर्पण-भाव

भाव: परमात्मा के नाम-स्मरण वाला मनुष्य ही उच्च जाति का है, उसकी संगति में और लोग भी कुकर्मों से बच जाते हैं। माया के मोह में फसा हुआ (ऊँची जाति का भी) मनुष्य व्यर्थ जीवन गवा के जाता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पर दरब हिरणं बहु विघन करणं उचरणं सरब जीअ कह ॥ लउ लई त्रिसना अतिपति मन माए करम करत सि सूकरह ॥६६॥

मूलम्

पर दरब हिरणं बहु विघन करणं उचरणं सरब जीअ कह ॥ लउ लई त्रिसना अतिपति मन माए करम करत सि सूकरह ॥६६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पर = पराया। दरब = (द्रव्यं) धन। हिरणं = (हृ = to steal) चुराना। कह = वासते, की खातिर। सरब = सारे, कई किस्मों के बोल। लउ = मैं ले लूँ। लई = मैं ले लूँ। माए = माया। सूकरह = (सुकर) सूअर। जीअ कह = जिंद की खातिर, जिंद पालने के लिए, उपजीविका के लिए। अतिपति = (अ+तिपति), भूख, असंतोष। स = वे लोग।
अर्थ: जो मनुष्य अपनी उपजीविका के लिए पराया धन चुराते हैं, औरों के कामों में रोड़ा अटकाते हैं, कई किस्मों के बोल बोलते हैं, जिनके मन में (सदा) माया की भूख है, तृष्णा के अधीन हो के (और माया) ले लूँ ले लूँ (ही सोचते रहते हैं), वे लोग सूअरों वाले काम करते हैं (सूअर सदा गंदगी ही खाते हैं)।66।

दर्पण-भाव

भाव: अपनी जिंद की खातिर औरों का नुक्सान करके पराया धन बरतने वाले मनुष्य की जिंदगी सदा बुरें कामों के गंद में ही गुजरती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मते समेव चरणं उधरणं भै दुतरह ॥ अनेक पातिक हरणं नानक साध संगम न संसयह ॥६७॥४॥

मूलम्

मते समेव चरणं उधरणं भै दुतरह ॥ अनेक पातिक हरणं नानक साध संगम न संसयह ॥६७॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: समेव = लीन (सं+एव) साथ ही। समेव चरणं = चरणों के साथ ही। दुतरह = (दुस्तर) जिससे तैरना मुश्किल है। पातिक = पाप। (पातक = a sin)। संसयह = (संशय:) शक। साध संग = गुरमुखों की संगति। भै = डरावना, भयानक। मते = (मस्त)।
अर्थ: जो मनुष्य (प्रभु की याद में) मस्त हो के (प्रभु-चरणों में) लीन रहते हें, वे भयानक और दुस्तर (संसार) से पार लांघ जाते हें।
हे नानक! इसमें (रक्ती भर भी) शक नहीं कि ऐसे गुरमुखों की संगति अनेक पाप दूर करने में समर्थ है।67।4।

दर्पण-भाव

भाव: जो मनुष्य परमात्मा की याद में जुड़ा रहता है, वह विकारों से बच जाता है, उस की संगति करने वाले मनुष्य भी विकारों के पँजे में से निकल जाते हैं।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: दूसरे अंक 4 का भाव यह है कि यह पहले चार सलोकों की गिनती है। सारे सहसक्रिती सलोकों का जोड़ 71 है।

दर्पण-शीर्षक

गाथा महला ५ का भाव:

दर्पण-भाव

सलोक-वार:
इस शरीर का मान करना मूर्खता है जिसके अंदर मैला ही मैला है और जिसके साथ छू के सुगन्धियां भी दुर्गन्धियाँ बन जाती हैं।
यह मनुष्य शरीर तब ही सफल है जब मनुष्य गुरु का आसरा ले के परमात्मा का नाम जपे। बड़ी बड़ी सिद्धियां हासिल की हुई भी किसी काम की नहीं।
इस नाशवान जगत में से मनुष्य के सदा साथ निभने वाली एक ही चीज़ है: परमात्मा की महिमा जो साधु-संगत में से मिलती है।
सुख भी इस महिमा में ही है, और, ये मिलती है गुरु की संगति में रहने से।
जो मनुष्य बाँस की तरह सदा अकड़ के रहता है उसको साधु-संगत में से कुछ भी नहीं मिलता।
महिमा में बहुत ताकत है, इसकी इनायत से मनुष्य के अंदर के कामादिक पाँचों वैरी नाश हो जाते हैं।
परमात्मा की महिमा की इनायत से मनुष्य सुखी जीवन व्यतीत करता है, मनुष्य जनम-मरण के चक्करों वाले राह पर नहीं पड़ता।
नाम से वंचित मनुष्य दुख सहता है और जीवन व्यर्थ गवा जाता है।
साधु-संगत के माध्यम से ही परमात्मा के नाम में श्रद्धा बनती है। मनुष्य की जिंदगी की बेड़ी संसार-समुंदर में से सही-सलामत पार लांघ जाती है।
साधु-संगत में टिक के कीर्तन करने से दुनिया की वासनाएं अपना जोर नहीं डाल सकतीं। महिमा की ताकत की किसी विरले को समझ पड़ती है।
गुरु के वचन करोड़ों पापों का नाश कर देते हैं। इन वचनों पर चलके नाम स्मरण वाला मनुष्य अपने अनेक साथियों का उद्धार कर लेता है।
जिस जगह परमात्मा की महिमा होती रहे, वह जगह ही सोहावनी हो जाती है। महिमा करने वाले बंदे भी दुनिया के बंधनो से मुक्त हो जाते हैं।
परमात्मा ही मनुष्य का असल साथी असल मित्र है।
परमात्मा का स्मरण मनुष्य को दुनिया के विकारों से बचा लेता है। यह स्मरण मिलता है गुरु की वाणी से।
परमात्मा की महिमा मनुष्य के लिए आत्मिक जीवन है, यह दाति साधु-संगत में से मिलती है।
साधु-संगत में टिकने से मनुष्य के सारे आत्मिक रोग दूर हो जाते हैं।
गुरु की संगति करने से ही परमात्मा से प्यार बनता है।
महिमा की इनायत से मनुष्य का जीवन सुखी हो जाता है।
साधु-संगत में टिक के महिमा करने से विकारों से बचा जा सकता है।
धर्म-पुस्तकें पढ़ने से असल लाभ यही मिलना चाहिए कि मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करे।
परमात्मा के नाम की दाति साधु-संगत में से मिलती है।
उस मनुष्य के भाग्य जाग उठे समझो जो साधु-संगत में जाने लग जाता है। साधु-संगत में नाम स्मरण से सारे विकार दूर हो जाते हैं।
साधु-संगत के माध्यम से ही परमात्मा से प्यार बन सकता है।
माया के रंग-तमाशे कुसंभ के फूल जैसे ही हैं। इनमें फसे रहने पर सुख नहीं मिल सकता।
लड़ी-वार भाव:
(1 से 8) ये मानव शरीर तब ही सफल समझो जब मनुष्य गरीबी स्वभाव में रह के साधु-संगत का आसरा ले के परमात्मा का नाम स्मरण करता है। नाम-जपने की इनायत से मनुष्य विकारों से बचा रहता है और सुखी जीवन व्यतीत करता है।
(9 से 24) स्मरण और महिमा की दाति सिर्फ साधु-संगत में से मिलती है। साधु-संगत में रहने से ही परमात्मा की श्रद्धा बनती है, फिर विकार अपना जोर नहीं डाल सकते, जीवन इतना ऊँचा बन जाता है कि कि उस मनुष्य की संगति में और भी अनेक लोग विकारों से बच के जीवन-नईया को संसार-समुंद में से सही सलामत पार लंघा लेते हैं।
मुख्य भाव:
मनुष्य का शरीर तब ही सफल है अगर मनुष्य परमात्मा की महिमा करता रहे। और, यह दाति सिर्फ साधु-संगत में से ही मिलती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

महला ५ गाथा ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

महला ५ गाथा ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

करपूर पुहप सुगंधा परस मानुख्य देहं मलीणं ॥ मजा रुधिर द्रुगंधा नानक अथि गरबेण अग्यानणो ॥१॥

मूलम्

करपूर पुहप सुगंधा परस मानुख्य देहं मलीणं ॥ मजा रुधिर द्रुगंधा नानक अथि गरबेण अग्यानणो ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गाथा = एक प्राचीन प्राक्रित भाषा जिसमें संस्कृत पाली व अन्य बोलियों के शब्द लिखे हुए मिलते हैं। ‘ललित विसतर’ आदि बौध धर्म = ग्रंथ इसी भाषा में हैं।
करपूर = (कर्पूर) काफूर। पुहप = (पुष्प) फूल। परस = छूह के (स्पर्श = to touch)। देह = शरीर। मजा = मज्जा, शरीर की चिकनाई (मज्जन = marrow of the bones & flesh)। रुधिर = खून। द्रुगंध = दुर्गंध, बदबू। अथि = फिर भी, इसके ऊपर भी। अग्यानणो = अज्ञानी मनुष्य।
अर्थ: मुश्क कपूर, फूल व अन्य सुगंधियां मनुष्य के शरीर को छू के मैलियां हो जाती हैं। (मनुष्य के शरीर में) मज्जा लहू और-और दुर्गंन्धियां हैं; फिर भी, हे नानक! अज्ञानी मनुष्य (इस शरीर का) माण करता है।1।

दर्पण-भाव

भाव: इस शरीर का माण करना मूर्खता है जिसके अंदर मैला ही मैला है और जिससे छू के सुगंधियां भी दुर्गन्धियां बन जाती हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

परमाणो परजंत आकासह दीप लोअ सिखंडणह ॥ गछेण नैण भारेण नानक बिना साधू न सिध्यते ॥२॥

मूलम्

परमाणो परजंत आकासह दीप लोअ सिखंडणह ॥ गछेण नैण भारेण नानक बिना साधू न सिध्यते ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परमाणो = (परमाणु = an atom) परम अणू, बहुत छोटा भाग, बारीक जर्रा जिसका हिस्सा ना हो सके। परजंत = (पर्यन्त) आखिरी हद, अन्तिम सीमा। दीप = द्वीप (an island)। लोअ = लोक। सिखंडणह = (शिखरिन्) पहाड़। गछेण = चलने से। नैण भारेण = आँख की झपक में। नैण भार = आँख के झपकने जितना समय, निमख। न सिध्यते = सफल नहीं होता।
अर्थ: हे नानक! अगर मनुष्य अति-छोटा अणु बन के आकाशों तक सारे द्वीपों लोकों और पहाड़ों पर आँख की एक झपक में ही हो आए, (इतनी सिद्धि होते हुए भी) गुरु के बिना उसका जीवन सफल नहीं होता।2।

दर्पण-भाव

भाव: यह मनुष्य शरीर तब ही सफल है अगर मनुष्य गुरु का आसरा ले के परमात्मा का नाम जपे। बड़ी-बड़ी सिद्धियाँ हासिल करनी भी किसी काम की नहीं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जाणो सति होवंतो मरणो द्रिसटेण मिथिआ ॥ कीरति साथि चलंथो भणंति नानक साध संगेण ॥३॥

मूलम्

जाणो सति होवंतो मरणो द्रिसटेण मिथिआ ॥ कीरति साथि चलंथो भणंति नानक साध संगेण ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सति = सच, सत्य, अटल। मरणो = (मरणं) मौत। मिथिआ = नाशवान, झूठ, मिथ्या। कीरति = कीर्ति, महिमा। चलंथो = जाती है (चलति, चलत: , चलन्ति)। द्रिसटेण = जो कुछ दिख रहा है, ये दिखाई देता जगत। साध संगेण = (साधु संगेन) साधु-संगत से।
अर्थ: मौत का आना ही अटल समझो, ये दिखता जगत (अवश्य) नाश होने वाला है (इसमें से किसी ने साथ नहीं निभना)।
नानक कहता है: साधु-संगत के आसरे की हुई परमात्मा की महिमा ही (मनुष्य) के साथ जाती है।3।

दर्पण-भाव

भाव: इस नाशवान जगत में से मनुष्य के सदा साथ निभने वाली एक ही चीज है: परमात्मा की महिमा जो साधु-संगत में से मिलती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माया चित भरमेण इसट मित्रेखु बांधवह ॥ लबध्यं साध संगेण नानक सुख असथानं गोपाल भजणं ॥४॥

मूलम्

माया चित भरमेण इसट मित्रेखु बांधवह ॥ लबध्यं साध संगेण नानक सुख असथानं गोपाल भजणं ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इसट = (इष्ट) प्यारे। मित्रेखु = (मित्रेषु) मित्रों में। लबध्यं = ढूँढ सकता है, ढूँढने योग्य। सुख असथानं = (सुख स्थानं) सुख मिलने की जगह। चित = (चिक्तं)।
अर्थ: माया (मनुष्य के) मन को प्यारे मित्रों-संबन्धियों (के मोह) में भटकाती रहती है (और भटकना के कारण इसको सुख नहीं मिलता)।
हे नानक! सुख मिलने की जगह (केवल) परमात्मा का भजन ही है, जो साधु-संगत के द्वारा मिल सकता है।

दर्पण-भाव

भाव: सुख भी इस महिमा में ही है, और, यह मिलती है गुरु की संगति में रहने से।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मैलागर संगेण निमु बिरख सि चंदनह ॥ निकटि बसंतो बांसो नानक अहं बुधि न बोहते ॥५॥

मूलम्

मैलागर संगेण निमु बिरख सि चंदनह ॥ निकटि बसंतो बांसो नानक अहं बुधि न बोहते ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मैलागर = मलय पर्वत पर उगा हुआ पौधा, (मलयाग्र) चंदन। संगेण = (संगेन) संगत से। निकटि = (निकटे) नजदीक। अहंबुधि = (अहंबुद्धि) अहंकार वाली बुद्धि के कारण। बोहते = सुगंधित होता है। बिरख = (वृक्ष) पेड़।
अर्थ: चँदन की संगति से नीम का वृक्ष चंदन ही हो जाता है, पर, हे नानक! चँदन के नजदीक बसता बाँस अपनी अकड़ के कारण सुगन्धि वाला नहीं बनता।5।

दर्पण-भाव

भाव: जो मनुष्य बाँस की तरह सदा अकड़ के रहता है उसको साधु-संगत में से कुछ भी नहीं मिलता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गाथा गु्मफ गोपाल कथं मथं मान मरदनह ॥ हतं पंच सत्रेण नानक हरि बाणे प्रहारणह ॥६॥

मूलम्

गाथा गु्मफ गोपाल कथं मथं मान मरदनह ॥ हतं पंच सत्रेण नानक हरि बाणे प्रहारणह ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गाथा = स्तुति, महिमा (गाथा = a religious verse, गै = to sing)। गुंफ = गूंदना, काव्य रचना करनी (गुंफ = to string together, to compose)। कथं = कथा। मथं = कुचल देना, नाम कर देना (मन्थ् = to crush, destroy)। मरदनह = (मर्दन) मला जाता है। हतं = नाश हो जाते हैं। बाण = तीर। प्रहारणह = चलाने से (प्रहरणं = striking, throwing)।
अर्थ: परमात्मा की महिमा की कहानियों का गुंदन मनुष्य के अहंकार को कुचल देता है।
हे नानक! परमात्मा (की महिमा) का तीर चलाने से (कामादिक) पाँचों वैरी नाश हो जाते हैं।6।

दर्पण-भाव

भाव: महिमा में बड़ी ताकत है, इसकी इनायत से मनुष्य के अंदर से कामादिक पाँचों वैरी नाश हो जाते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बचन साध सुख पंथा लहंथा बड करमणह ॥ रहंता जनम मरणेन रमणं नानक हरि कीरतनह ॥७॥

मूलम्

बचन साध सुख पंथा लहंथा बड करमणह ॥ रहंता जनम मरणेन रमणं नानक हरि कीरतनह ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पंथा = रास्ता। साध = (साधु) गुरु, गुरमुख। लहंथा = ढूँढते हैं। रहंता = रह जाते हैं, समाप्त हो जाता है। रमणं = स्मरण।
अर्थ: गुरु के (परमात्मा की महिमा के) वचन सुख का रास्ता हैं, पर ये वचन सौभाग्य से मिलते हैं।
हे नानक! परमात्मा की महिमा करने से जनम-मरण का चक्कर समाप्त हो जाता है।7।

दर्पण-भाव

भाव: परमात्मा की महिमा की इनायत से मनुष्य सुखी जीवन व्यतीत करता है, मनुष्य जनम-मरण के चक्कर वाले रास्ते पर नहीं पड़ता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पत्र भुरिजेण झड़ीयं नह जड़ीअं पेड स्मपता ॥ नाम बिहूण बिखमता नानक बहंति जोनि बासरो रैणी ॥८॥

मूलम्

पत्र भुरिजेण झड़ीयं नह जड़ीअं पेड स्मपता ॥ नाम बिहूण बिखमता नानक बहंति जोनि बासरो रैणी ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भुरिजेण = भुर के। पेड = पेड़। संपता = (संपद् = wealth) संपत से। बिखमता = (विषमता) कठिनाई। बहंति = (वहन्तिावह् = to suffer experience) (दुख) सहते हैं, भटकते हैं। बासरो = (वासर:) दिन। रैणी = रात (रजनि, रजनी, रअणि, रैणि)। पेड संपता = वृक्ष की संपत से, वृक्ष की टहनियों से।
अर्थ: (जैसे वृक्ष के) पत्ते भुर-भुर के (वृक्ष से) झड़ जाते हैं, (और दोबारा) वृक्ष की शाखाओं के साथ जुड़ नहीं सकते, (वैसे ही) हे नानक! नाम से टूटे हुए मनुष्य दुख सहते हैं और, दिन-रात (और-और) जूनियों में पड़े भटकते हैं।8।

दर्पण-भाव

भाव: नाम से वंचित मनुष्य दुख सहता है और जीवन व्यर्थ गवा जाता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भावनी साध संगेण लभंतं बड भागणह ॥ हरि नाम गुण रमणं नानक संसार सागर नह बिआपणह ॥९॥

मूलम्

भावनी साध संगेण लभंतं बड भागणह ॥ हरि नाम गुण रमणं नानक संसार सागर नह बिआपणह ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भावनी = श्रद्धा (भावनी = feeling of devotion, faith)। सागर = समुंदर। बिआपणह = (व्याप् = to pervade) जोर डाल सकता। रमणं = स्मरण।
अर्थ: साधु-संगत से (परमात्मा के नाम में) श्रद्धा बहुत भाग्यों से मिलती है। हे नानक! परमात्मा के नाम और गुणों की याद से संसार-समुंदर (जीव पर) अपना जोर नहीं डाल सकता।9।

दर्पण-भाव

भाव: साधु-संगत से ही परमात्मा के नाम में श्रद्धा बनती है, मनुष्य के जिंदगी की बेड़ी संसार-समुंदर में से सही-सलामत पार लांघ जाती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गाथा गूड़ अपारं समझणं बिरला जनह ॥ संसार काम तजणं नानक गोबिंद रमणं साध संगमह ॥१०॥

मूलम्

गाथा गूड़ अपारं समझणं बिरला जनह ॥ संसार काम तजणं नानक गोबिंद रमणं साध संगमह ॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गूढ़ = गहरी (गुह = hidden, concealed गुह = to conceal)। काम = वासना। गाथा = महिमा (a religious verse)। अपार = बेअंत (प्रभु)। तजणं = (त्जय् = to give up)। साध संगमह = (साधु संगम) सत्संग।
अर्थ: बेअंत परमात्मा की महिमा करनी एक गहरी (रम्ज़ वाला) काम है, इसको कोई विरला मनुष्य समझता है।
हे नानक! सत्संग में रह के परमात्मा का स्मरण करने से दुनिया की वासनाएं त्यागी जा सकती हैं।10।

दर्पण-भाव

भाव: साधु-संगत में टिक के स्मरण करने से दुनिया की वासनाएं जोर नहीं डालतीं। पर महिमा की ताकत की किसी विरले को समझ पड़ती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुमंत्र साध बचना कोटि दोख बिनासनह ॥ हरि चरण कमल ध्यानं नानक कुल समूह उधारणह ॥११॥

मूलम्

सुमंत्र साध बचना कोटि दोख बिनासनह ॥ हरि चरण कमल ध्यानं नानक कुल समूह उधारणह ॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुमंत्र = श्रेष्ठ मंत्र। कोटि = करोड़। समूह = ढेर। दोख = दोष, पाप। ध्यानं = ध्यान। साध = साधु, गुरु।
अर्थ: गुरु के वचन (ऐसे) श्रेष्ठ मंत्र हैं (जो) करोड़ों पापों का नाश कर देते हैं।
हे नानक! (उन वचनों से) प्रभु के कमल फूलों जैसे सुंदर चरणों का ध्यान सारी कुलों का उद्धार कर देता है।11।

दर्पण-भाव

भाव: गुरु के वचन करोड़ों पापों का नाश कर देते हैं। इन वचनों पर चल के नाम स्मरण वाला मनुष्य अपने अनेक साथियों का उद्धार कर लेता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुंदर मंदर सैणह जेण मध्य हरि कीरतनह ॥ मुकते रमण गोबिंदह नानक लबध्यं बड भागणह ॥१२॥

मूलम्

सुंदर मंदर सैणह जेण मध्य हरि कीरतनह ॥ मुकते रमण गोबिंदह नानक लबध्यं बड भागणह ॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंदर = घर (मन्दिर = a dwelling)। जेण मध्य = (येनां मध्ये) जिन के अंदर। सैणह = सोना, बसना (स्वप् = to lie down, to rest)। मुकते = स्वतंत्र, आजाद, मुक्त। रमण = स्मरण।
अर्थ: उन घरों में ही बसना सुहावना है जिनमें परमात्मा की महिमा होती हो। जो मनुष्य परमात्मा का स्मरण करते हैं वे (दुनिया के बंधनो से) मुक्त हो जाते हैं। पर, हे नानक! (यह स्मरण) बड़े भाग्यों से मिलता है।

दर्पण-भाव

भाव: जिस जगह परमात्मा की महिमा होती रहे वही जगह सुहावनी हो जाती है। महिमा करने वाले लोग भी दुनिया के बंधनो से मुक्त हो जाते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि लबधो मित्र सुमितो ॥ बिदारण कदे न चितो ॥ जा का असथलु तोलु अमितो ॥ सुोई नानक सखा जीअ संगि कितो ॥१३॥

मूलम्

हरि लबधो मित्र सुमितो ॥ बिदारण कदे न चितो ॥ जा का असथलु तोलु अमितो ॥ सुोई नानक सखा जीअ संगि कितो ॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुमितो = (सुमि+त्र) श्रेष्ठ मित्र। बिदारण = (विदारण = breaking. वद् = to cut pieces) फाड़ना, तोड़ना। असथलु = (स्थ्लं = firmground)। अमितो = (अमित) अतोलवा, जो नापा ना जा सके। सुोई = (यहाँ असल पाठ ‘सोइ’ है, पर पढ़ना ‘सुई’ है)। कितो = (कृत:) किया है। चितो बिदारण = दिल को तोड़ना। लबधो = (लब्ध:) मिला है।
अर्थ: हे नानक! मैंने वह श्रेष्ठ मित्र परमात्मा पा लिया है, मैंने उस परमात्मा को अपनी जिंद (के साथ रहने वाला) साथी बनाया है जो कभी (मेरा) दिल नहीं तोड़ता, और जिसका ठिकाना असीम तोल वाला है।13।

दर्पण-भाव

भाव: परमात्मा ही मनुष्य का असल साथी असल मित्र है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपजसं मिटंत सत पुत्रह ॥ सिमरतब्य रिदै गुर मंत्रणह ॥ प्रीतम भगवान अचुत ॥ नानक संसार सागर तारणह ॥१४॥

मूलम्

अपजसं मिटंत सत पुत्रह ॥ सिमरतब्य रिदै गुर मंत्रणह ॥ प्रीतम भगवान अचुत ॥ नानक संसार सागर तारणह ॥१४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अपजस = बदनामी (अपयशस्)। सत पुत्रह = अच्छा पुत्र (सत्पुत्र)। सिमरतब्य = स्मरणा चाहिए (स्मृ = to remember स्मरति = remembers)। मंत्रणह = उपदेश। रिदै = हृदय में। अचुत = (अच्युत) अविनाशी।
अर्थ: (जैसे) सपुत्र के पैदा होने पर सारी कुल की (पिछली कोई) बदनामी धुल जाती है, (वैसे ही) हे नानक! अविनाशी प्यारे परमात्मा (का स्मरण) संसार-समुंदर (के विकारों) से बचा लेता है।
(इस वास्ते) गुरु का उपदेश हृदय में बसा के रखना चाहिए (और परमात्मा का स्मरण करना चाहिए)।14।

दर्पण-भाव

भाव: परमात्मा का स्मरण मनुष्य को दुनिया के विकारों से बचा लेता है। यह स्मरण मिलता है गुरु के द्वारा।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

मरणं बिसरणं गोबिंदह ॥ जीवणं हरि नाम ध्यावणह ॥ लभणं साध संगेण ॥ नानक हरि पूरबि लिखणह ॥१५॥

मूलम्

मरणं बिसरणं गोबिंदह ॥ जीवणं हरि नाम ध्यावणह ॥ लभणं साध संगेण ॥ नानक हरि पूरबि लिखणह ॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मरणं = मौत। बिसरणं गोबिंदह = परमात्मा को विसारना। पूरबि लिखणह = पूर्बले समय में लिखे अनुसार। बिसरणं = (विस्मरणं) भुलाना, बिसारना। पूरबि = (पुर्व) पूर्बले समय में। साध संगेण = (साधु संगेन) गुरु की संगति से। लभणं = लभनं।
अर्थ: गोबिंद को बिसारना (आत्मिक) मौत है, और परमात्मा का नाम चेते रखना (आत्मिक) जीवन है पर हे नानक! प्रभु (का स्मरण) साधु-संगत में पूर्बले लिखे अनुसार मिलता है।15।

दर्पण-भाव

भाव: परमात्मा की महिमा मनुष्य के लिए आत्मिक जीवन है, यह दाति साधु-संगत में से मिलती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दसन बिहून भुयंगं मंत्रं गारुड़ी निवारं ॥ ब्याधि उपाड़ण संतं ॥ नानक लबध करमणह ॥१६॥

मूलम्

दसन बिहून भुयंगं मंत्रं गारुड़ी निवारं ॥ ब्याधि उपाड़ण संतं ॥ नानक लबध करमणह ॥१६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दसन = दाँत (दशन = a tooth। दंश् = to bite)। भुयंगं = (भुजंग = a serpent) साँप। ब्याधि = (ailment) रोग। करमणह = सौभाग्य से। गारुड़ी = गरुड़ मंत्र को जानने वाला, साँप का जहर दूर करने वाली दवाई का जानकार (गरुड़ = a charm against snake-poison)। लबध = (लब्ध) मिलता।
अर्थ: (जैसे) गरुड़-मंत्र जानने वाला मनुष्य साँप को दंत-हीन कर देता है और (साँप के जहर को) मंत्रों से दूर कर देता है, (वैसे ही) संत-जन (मनुष्य के आत्मिक) रोगों का नाश कर देते हैं।
पर, हे नानक! (संतों की संगति) सौभाग्य से मिलती है।16।

दर्पण-भाव

भाव: साधु-संगत में टिकने से मनुष्य के सारे आत्मिक रोग दूर हो जाते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जथ कथ रमणं सरणं सरबत्र जीअणह ॥ तथ लगणं प्रेम नानक ॥ परसादं गुर दरसनह ॥१७॥

मूलम्

जथ कथ रमणं सरणं सरबत्र जीअणह ॥ तथ लगणं प्रेम नानक ॥ परसादं गुर दरसनह ॥१७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जथ कथ = जहाँ कहाँ, हर जगह। तब = उस में। परसादं = कृपा (प्रसाद)। सरण = ओट, आसरा (शरणं)। सरबत्र = (सर्वत्र = in all places) सारे। रमण = व्यापक।
अर्थ: जो परमात्मा हर जगह व्यापक है और सारे जीवों का आसरा है, उसमें, हे नानक! गुरु के दीदार इनायत से ही (जीव का) प्यार बनता है।17।

दर्पण-भाव

भाव: गुरु की संगति करने से ही परमात्मा के साथ प्यार बनता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरणारबिंद मन बिध्यं ॥ सिध्यं सरब कुसलणह ॥ गाथा गावंति नानक भब्यं परा पूरबणह ॥१८॥

मूलम्

चरणारबिंद मन बिध्यं ॥ सिध्यं सरब कुसलणह ॥ गाथा गावंति नानक भब्यं परा पूरबणह ॥१८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चरणारबिंद = (चरण+अरविंद) चरण कमल। बिध्यं = (विद्धं) भेदा हुआ। कुसलणह = (कुशल) सुख। गाथा = महिमा। भब्यं = (भव्य = prosperity) भावी, नसीब। परा पूरबणह = बहुत पूर्ब काल के। अरबिंद = (अरविंद) कमल का फूल। गावंति = (गायन्ति) गाते हैं।
अर्थ: (जिस मनुष्य का) मन (परमात्मा के) सुंदर चरणों में भेदित होता है, (उसको) सारे सुख मिल जाते हैं। पर, हे नानक! वही लोग परमात्मा की महिमा गाते हैं जिनके पूर्बले भाग्य हों।18।

दर्पण-भाव

भाव: महिमा की इनायत से मनुष्य का जीवन सुखी हो जाता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुभ बचन रमणं गवणं साध संगेण उधरणह ॥ संसार सागरं नानक पुनरपि जनम न लभ्यते ॥१९॥

मूलम्

सुभ बचन रमणं गवणं साध संगेण उधरणह ॥ संसार सागरं नानक पुनरपि जनम न लभ्यते ॥१९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पुनरपि = पुनह अपि, फिर भी, बार बार (पुनरपि, पुनः अपि)। सुभ बचन = सुंदर बोल, महिमा की वाणी। रवण = उच्चारण करना। गवण = जाना, पहुँचना (गमनं)। उधरणह = (उध्दरणं) उद्धार। साध संगेण = (साधु संगेन) गुरु की संगति से।
अर्थ: (जो मनुष्य) साधु-वंगति में जा के परमात्मा की महिमा की वाणी उच्चारते हैं (उनका) उद्धार हो जाता है।
हे नानक! उनको (इस) संसार-समुंदर में बार-बार जनम नहीं लेना पड़ता।1।

दर्पण-भाव

भाव: साधु-संगत में टिक के महिमा करने से विकारों से बचा जाता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बेद पुराण सासत्र बीचारं ॥ एकंकार नाम उर धारं ॥ कुलह समूह सगल उधारं ॥ बडभागी नानक को तारं ॥२०॥

मूलम्

बेद पुराण सासत्र बीचारं ॥ एकंकार नाम उर धारं ॥ कुलह समूह सगल उधारं ॥ बडभागी नानक को तारं ॥२०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बडभागी को = कोई भाग्यशाली मनुष्य। उर = (उरस = heart) हृदय। एकंकार नाम = एक परमात्मा का नाम। कुलह समूह = सारी कुलें।
अर्थ: हे नानक! जो कोई भाग्यशाली मनुष्य वेद पुराण शास्त्र (आदि धर्म-पुस्तकों को) विचार के एक परमात्मा का नाम अपने हृदय में बसाता है, वह (स्वयं) तैर जाता है और अपनी अनेक सारी कुलों को तैरा लेता है।20।

दर्पण-भाव

भाव: धर्म पुस्तकों को पढ़ने से असल भाव यही मिलना चाहिए कि मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिमरणं गोबिंद नामं उधरणं कुल समूहणह ॥ लबधिअं साध संगेण नानक वडभागी भेटंति दरसनह ॥२१॥

मूलम्

सिमरणं गोबिंद नामं उधरणं कुल समूहणह ॥ लबधिअं साध संगेण नानक वडभागी भेटंति दरसनह ॥२१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भेटंति = मिलते हैं। भेटंति दरसनह = दर्शन करते हैं। लबधिअं = (लब्धय) मिलता है। साध संगेण = (साधु संगेन) गुरु की संगति से। सिमरणं = (स्मरणं)।
अर्थ: गोबिंद का नाम स्मरण करने से सारी कुलों का उद्धार हो जाता है, पर, (गोबिंद का नाम) हे नानक! साधु-संगत में मिलता है, (और साधु-संगत का) दर्शन बड़े भाग्यशाली (व्यक्ति) करते हैं।21।

दर्पण-भाव

भाव: परमात्मा के नाम की दाति साधु-संगत में से मिलती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरब दोख परंतिआगी सरब धरम द्रिड़ंतणः ॥ लबधेणि साध संगेणि नानक मसतकि लिख्यणः ॥२२॥

मूलम्

सरब दोख परंतिआगी सरब धरम द्रिड़ंतणः ॥ लबधेणि साध संगेणि नानक मसतकि लिख्यणः ॥२२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दोख = (दोष) विकार। परं = पूरे तौर पर, अच्छी तरह। तिआगी = त्यागने वाला (बनना)। द्रिढ़ंतणः = (हृदय में) पक्का करना। मसतकि = (मस्तक = माथा। मस्तके = माथे पर) माथे पर। लिख्यणणः = लिखा हुआ लेख।
अर्थ: हे नानक! सारे विकार अच्छी तरह त्याग देने और धर्म को पककी तरह (हृदय में) टिकाना- (यह दाति उस बंदे को) साधु-संगत में मिलती है (जिसके) माथे पर (अच्छा) लेखा लिखा हो।22।

दर्पण-भाव

भाव: उस मनुष्य के भाग्य जाग उठे जानो जो साधु-संगत में जाने लग जाता है। साधु-संगत में नाम स्मरण से सारे विकार दूर हो जाते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

होयो है होवंतो हरण भरण स्मपूरणः ॥ साधू सतम जाणो नानक प्रीति कारणं ॥२३॥

मूलम्

होयो है होवंतो हरण भरण स्मपूरणः ॥ साधू सतम जाणो नानक प्रीति कारणं ॥२३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: होयो = जो पिछले समय में मौजूद था। है = जो अब भी मौजूद है। होवंतो = जो आगे भी मौजूद होगा। हरण = नाश करने वाला। भरण = पालने वाला। संपूरण: = व्यापक। सतम = (सत्यं) निष्चय कर के। जाणो = समझो।
अर्थ: जो परमात्मा भूत वर्तमान भविष्य में सदा ही स्थिर रहने वाला है, जो सब जीवों का नाश करने वाला है सबको पालने वाला है और सबमें व्यापक है, हे नानक! उसके साथ प्यार डालने का कारण निष्चय ही संतों को समझो।23।

दर्पण-भाव

भाव: साधु-संगत से ही परमात्मा का प्यार बन सकता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुखेण बैण रतनं रचनं कसु्मभ रंगणः ॥ रोग सोग बिओगं नानक सुखु न सुपनह ॥२४॥

मूलम्

सुखेण बैण रतनं रचनं कसु्मभ रंगणः ॥ रोग सोग बिओगं नानक सुखु न सुपनह ॥२४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुखेण = सुखदाई। बैण रतनं = (वचन, वअण) बोल रूप रतन। रचनं = मस्त होना। कसुंभ रंगण: = (माया) कसुंभ के रंगों में। बिओग = वियोग, विछोड़ा, दुख। सुपनेह = (स्व्प्ने)। सोग = (शोक) चिन्ता।
अर्थ: हे नानक! (माया-) कसुंभ के रंगों में और (माया संबन्धी) सुखदाई सुंदर बोलों में रहने से रोग चिन्ता और दुख ही व्यापते हैं। सुख सपने में भी नहीं मिल सकता।24।

दर्पण-भाव

भाव: माया के रंग-तमाशे कुसंभ के फूल जैसे ही हैं। इनमें फसे रहने से सुख नहीं मिल सकता।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: सहसक्रिती सलोक और गाथा का टीका अगसत 1955 में लिखा और सितंबर 1963 में इस टीके की सुधाई की)।

दर्पण-शीर्षक

फुनहे महला ५ का भाव

दर्पण-भाव

हरेक व्यकित का अलग-अलग
इस जगत रचना में विधाता प्रभु हरेक जीव के अंग-संग मौजूद है। उसकी कुदरति में मर्यादा ही इस प्रकार है कि जीव के किए कर्मों के संस्कार उसके मन में इकट्ठे होते जाते हैं, जैसे उसके माथे पर लेख लिखे जाते हैं।
साधु-संगत में जिस मनुष्य का उठना-बैठना हो जाता है, वहाँ वह परमात्मा की महिमा करता है। इसी तरह, उसके माथे के भाग्य जाग उठते हैं, और उसकी तवज्जो परमात्मा के चरणों में जुड़ने लगती है।
दुनिया के मौज मेले, शारीरिक भले ही कितने ही क्यों ना हों; पर जब तक मनुष्य का मन परमात्मा के चरणों में नहीं जुड़ता, इसको आत्मिक आनंद हासिल नहीं होता।
जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा आ बसता है, उसका जीवन कामयाब हो जाता है। जो भी मनुष्य ऐसे व्यक्ति की संगति करता है, वह भी परमात्मा की महिमा करने लग जाता है।
माया के योद्धे कामादिक इतने बली हैं कि कोई मनुष्य अपने उद्यम के बल पर इनके हमले से बच नहीं सकता। जिस मनुष्य पर गुरु दयावान होता है उसका मन टिक जाता है, और वह परमात्मा की याद में जुड़ने लग जाता है।
विकारों-भरे इस संसार-समुंदर से पार लांघना बहुत ही मुश्किल खेल है। गुरु ही मनुष्य को परमात्मा की महिमा में जोड़ के विकारों से बचाता है। परमात्मा का आत्मिक जीवन देने वाला नाम गुरु से ही मिलता है।
बुरी नजर से बचाने के लिए लोग अपने बच्चों के गले में नज़र-पट्टू डालते हैं। गुरु की मेहर से जिस मनुष्य के गले में राम-रतन परोया जाता है, उसके भाग्य जाग उठते हैं, कोई विकार-दुख उस पर अपना जोर नहीं डाल सकता। उसके अंदर हर वक्त आत्मिक आनंद की सुगन्धि बिखरी रहती है।
पर तन, पर धन आदिक विकार मनुष्य को शर्मसार करते है। पर, जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करता है उसका जीवन पवित्र हो जाता है, वह मनुष्य अपने सारे साथियों संबन्धियों को भी विकारों से बचा लेता है।
पर तन, पर धन आदिक विकारों से बचने के लिए गृहस्थ छोड़ के जंगलों में जा डेरा लगाना जीवन का सही रास्ता नहीं है। ये सारा जगत परमात्मा का रूप है। गुरु की शरण पड़ कर जो मनुष्य परमात्मा की याद में जुड़ता है, वह हर वक्त उसके दर्शनों में मस्त रहता है।
गुरु की संगति एक सरोवर है जिसमें आत्मिक स्नान करने से मनुष्य के मन के सारे पाप धुल जाते हैं। साधु-संगत, मानो, एक शहर है जिसमें आत्मिक गुणों की सघन आबादी है। साधु-संगत में टिकने से दुनिया के पाप-विकार अपना जोर नहीं डाल सकते।
पपीहा बरखा के पानी की एक बूँद के लिए दरियाओं, टोभों के पानी से उपराम हो के जंगल ढूँढता फिरता है। जो मनुष्य पपीहे की तरह परमात्मा का नाम माँगता है वह भाग्यशाली है।
साधु-संगत में टिक के ये समझ आती है कि अगर मनुष्य परमात्मा की महिमा में अपने मन को जोड़े, तो ये सदा-भटकता मन माया के पीछे भटकने से हट के परमात्मा के नाम-धन का प्रेमी बन जाता है।
परमात्मा की याद है ही ऐसी स्वादिष्ट कि ये मनुष्य में कसक डालने लगती है। फिर वह भाग्यशाली मनुष्य परमात्मा के मिलाप को ही अपनी जिंदगी का सबसे ऊँचा निशाना समझता है।
जब परमात्मा की याद भूल जाए तब हम दिन-ब-दिन आत्मिक जीवन के पक्ष से कमजोर होते जाते हैं, आँखें, पर धन, पर तन को देख-देख के बेहाल हुई रहती हैं, जीभ निंदा आदि करने में और कान निंदा चुगली आदि सुनने में व्यस्त रहते हैं।
कमल फूल की तेज सुगन्धि में मस्त हो के भँवरा फूल पर से उड़ना भूल जाता है। यही हाल होता है जीव-भौरे का। परमात्मा की याद भुला के मनुष्य की जिंद को माया के मोह की पक्की गाँठ बँध जाती है।
कामादिक पाँचों वैरी मनुष्य को सदा ही सताते रहते हैं। इनको मारने का एक ही तरीका है कि गुरु का आसरा ले के स्मरण के तेज तीर सदा ही चलाते रहें।
गुरु की शरण पड़ के हरि-नाम की दाति बरतने वाला मनुष्य विकारों की मार से बचा रहता है। परमात्मा स्वयं ही यह दाति देता है। जिसको मिलती है, आत्मिक मौत उसके नजदीक नहीं फटकती।
परमात्मा का नाम जप के मनुष्य के मन में आत्मिक आनंद पैदा होता है। जिस जगह पर बैठ के कोई प्रेमी जीव नाम जपता है उस जगह के जर्रे-जर्रे में महिमा की लहर चल पड़ती है। वहाँ का सुहावना वायुमण्डल वहाँ आ के बैठे किसी मनुष्य के अंदर भी स्मरण के हिल्लौरे पैदा कर देता है।
मायावी पदार्थों के हवाई किलों को देख-देख के खुश होते रहना जीवन का गलत रास्ता है। इनके मोह में फसे रहके जिंदगी की बेड़ी बहुत समय तक सुख से नहीं चलाई जा सकती। यह मोह तो मनुष्य को परमात्मा की याद से दूर परे ले जाता है।
इन हवाई किलों के आसरे कुकर्मों की गंदगी में फस के मनुष्य अपने अमूल्य जन्म को कौड़ी से भी हल्का कर लेता है, अहंकार के अंधेरे में भटकता फिरता है। मनुष्य को मौत भी नहीं सूझती।
आखिर उम्र की मियाद पूरी हो जाने पर मौत आ पकड़ती है, और, यह मायावी पदार्थ यहीं धरे रह जाते हैं। सिर्फ मायावी पदार्थों के लिए ही की हुई मेहनत व्यर्थ चली जाती है।
दुनिया के पदार्थों का मोह तो मनुष्य को विकारों की तरफ प्रेरित करता है; पर परमात्मा का नाम दवाई है जो विकारों में गलने से बचाती है। जिस मनुष्य पर परमात्मा की मेहर होती है उसको यह दवाई साधु-संगत में से मिलती है। वह मनुष्य परमात्मा के मिलाप का आनंद पाता है।
संत-जन विकारी लोगों को विकार-रोगों से बचाने के लिए, मानो, हकीम हैं। उन संत-जनों के नित्य के कर्तव्य साधु-संगत में आए आम लोगों के लिए बढ़िया पद्-चिन्ह बन जाते हैं। इस वास्ते साधु-संगत में आए भाग्यशालियों के शरीर से सारे दुख सारे रोग सारे पाप दूर हो जाते हैं।
लड़ी-वार भाव:
(1 से 4) विधाता प्रभु की बनाई मर्यादा के अनुसार मनुष्य के किए हुए कर्मों के संस्कार उसके मन में इकट्ठे होते रहते हैं, और, आगे उसी तरह के कर्म करने की प्रेरणा करते रहते हैं। जो मनुष्य साधु-संगत में आता है उसके अंदरूनी भले संस्कार जाग उठते हैं, वह परमात्मा के नाम-जपने की तरफ पलटता है, उसकी जिंदगी कामयाब हो जाती है।
(5 से 10) कोई मनुष्य उपने उद्यम के आसरे कामादिक विकारों के हमलों से बच नहीं सकता। विकारों भरे इस संसार-समुंदर में से जिंदगी की बेड़ी सही-सलामत पार लंघानी एक बड़ी मुश्किल खेल है। परमात्मा का नाम ही है आत्मिक जीवन देने वाला, और, यह मिलता है, गुरु से साधु-संगत में। साधु-संगत एक सरोवर है, इसमें आत्मिक स्नान करने से मनुष्य के मन के सारे पाप धुल जाते हैं।
(11 से 13) भाग्यशाली है वह मनुष्य जो पपीहे की तरह नाम-जल सदा माँगता है। इसकी इनायत से मन माया के पीछे भटकने से हट जाता है, क्योंकि परमात्मा की याद है ही ऐसी स्वादिष्ट कि ये मनुष्य के मन को सदा अपनी ओर खींचती रहती है।
(14 से 18) परमात्मा की याद भुलाने से मनुष्य का मन आत्मिक जीवन के पक्ष से कमजोर हो जाता है, मनुष्य की जिंद माया के मोह में बँध जाती है, कामादिक वैरी सदा सताने लग जाते हैं। अगर इनकी मार से बचना है तो गुरु का आसरा ले के स्मरण के तेज़ तीर चलाते रहो। जिस जगह कोई भाग्यशाली मनुष्य नाम स्मरण करता है उस जगह का वायु-मण्डल ऐसा बन जाता है कि वहाँ आ के बैठे मनुष्य के अंदर भी स्मरण का हुलारा पैदा कर देता है।
(19 से 23) मायावी पदार्थों का आसरा हवाई किलों की तरह ही है, मनुष्य कुकर्मों की गंदगी में फस जाता है, मौत आने पर ये पदार्थ यहीं धरे रह जाते हैं। परमात्मा का नाम ही एक-मात्र दवाई है जो विकारों में गलने से बचाती है, यह मिलती है साधु-संगत में।
साधु-संगत क्या है? विकारी लोगों को विकार-रोगों से बचाने वाले संत-जन-हकीमों का समूह। इस समूह में वह व्यक्ति आता है जिस पर परमात्मा की मेहर होती है।
मुख्य भाव:
मनुष्य के किए कर्मों के संस्कार उसके मन में इकट्ठे होते रह के उसी दिशा में ही उसको प्रेरित करते रहते हैं। इन पहले संस्कारों के कारण ही मनुष्य अपने उद्यम से विकारों हमलों से बच नहीं सकता। एक ही तरीका है बचने का। गुरु का आसरा लो। जिस मनुष्य पर परमात्मा की मेहर होती है वह गुरु की संगति में आ के नाम-जपने की आदत बनाता है। नाम-जपना ही दवाई है विकारों से बचाने वाली, यह मिलती है संत-जन-हकीमों से जो साधु-संगत में इकट्ठे हो के बाँटते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फुनहे महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

फुनहे महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हाथि कलम अगम मसतकि लेखावती ॥ उरझि रहिओ सभ संगि अनूप रूपावती ॥ उसतति कहनु न जाइ मुखहु तुहारीआ ॥ मोही देखि दरसु नानक बलिहारीआ ॥१॥

मूलम्

हाथि कलम अगम मसतकि लेखावती ॥ उरझि रहिओ सभ संगि अनूप रूपावती ॥ उसतति कहनु न जाइ मुखहु तुहारीआ ॥ मोही देखि दरसु नानक बलिहारीआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: फुनहे = वह ‘छंत’ जिसके हरेक ‘बंद’ में कोई एक शब्द (फनि) बार-बार आया है (पुनः पुनह, बार बार, फिर। इसका प्राक्रित रूप वाणी में ‘फुनि’ आया है)। (नोट: इस छंत के बंदों में शब्द ‘हरिहां’ बार-बार आता है)। हाथि = (तेरे) हाथ में। अगंम = हे अगम्य (पहुँच से परे) हरि! मसतकि = (जीवों के) माथे पर। उरझि रहिओ = (तू) मिला हुआ है। संगि = साथ। अनूप रूपावती = हे अनूप रूप वाले! उसतति = बड़ाई। मुखहु = मुँह से। मोही = मैं मोही गई हूँ, मेरा मन मोहा गया है। देखि = देख के।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु! (तेरे) हाथ में कलम है (जो सब जीवों के) माथे पर (लेख) लिखती जा रही है। हे अति सुंदर रूप वाले! तू सब जीवों के साथ मिला हुआ है। (किसी भी जीव द्वारा अपने) मुँह से तेरी उपमा बयान नहीं की जा सकती। मैं तुझसे सदके हूँ, तेरे दर्शन करके मेरा मन मोहा गया है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संत सभा महि बैसि कि कीरति मै कहां ॥ अरपी सभु सीगारु एहु जीउ सभु दिवा ॥ आस पिआसी सेज सु कंति विछाईऐ ॥ हरिहां मसतकि होवै भागु त साजनु पाईऐ ॥२॥

मूलम्

संत सभा महि बैसि कि कीरति मै कहां ॥ अरपी सभु सीगारु एहु जीउ सभु दिवा ॥ आस पिआसी सेज सु कंति विछाईऐ ॥ हरिहां मसतकि होवै भागु त साजनु पाईऐ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बैस = बैठक, उठना बैठना। कि = ता कि। कीरति = महिमा। कहा = कहूँ। अरपी = मैं भेट कर दूँ। जीउ = जिंद। दिवा = मैं दे दूँ। आस पिआसी सेज = (दर्शन की) आस की तमन्ना वाली हृदय सेज। कंति = कंत ने। हरिहां = हे हरि! मसतकि = माथे पर। पाईऐ = मिलता है।2।
अर्थ: (हे सहेली! मेरी ये तमन्ना है कि) साधु-संगत में उठना-बैठना हो जाए ताकि मैं (परमात्मा की) महिमा करती रहूँ। (उस पति-प्रभु के मिलाप के बदले में) मैं (अपना) सारा श्रृंगार भेट कर दूँ, मैं अपनी जिंद भी हवाले कर दूँ। (दर्शन की) आस की तमन्ना वाली की मेरी हृदय-सेज कंत-प्रभु ने (स्वयं) बिछाई है। हे सहेलिए! अगर माथे के भाग्य जाग उठें तब ही सज्जन-प्रभु मिलता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सखी काजल हार त्मबोल सभै किछु साजिआ ॥ सोलह कीए सीगार कि अंजनु पाजिआ ॥ जे घरि आवै कंतु त सभु किछु पाईऐ ॥ हरिहां कंतै बाझु सीगारु सभु बिरथा जाईऐ ॥३॥

मूलम्

सखी काजल हार त्मबोल सभै किछु साजिआ ॥ सोलह कीए सीगार कि अंजनु पाजिआ ॥ जे घरि आवै कंतु त सभु किछु पाईऐ ॥ हरिहां कंतै बाझु सीगारु सभु बिरथा जाईऐ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सखी = हे सहेलिए! काजल = सुरमा। तंबोल = पान। साजिआ = तैयार कर लिया। सोलह = सोलह। अंजनु = सुरमा। पाजिआ = पा लिया। घरि = घर में। कंतु = पति। पाईऐ = प्राप्त कर लेते हैं। बाझु = बिना। बिरथा = व्यर्थ।
अर्थ: हे सहेलिए! (यदि) काजल, हार, पान - ये सब कुछ तैयार भी कर लिया जाए, (यदि) सोलह श्रृंगार भी कर लिए जाएं, और (आँखों में) सुरमा भी लगा लिया जाए, तो भी अगर पति ही घर आए, तब ही सब कुछ प्राप्त होता है। पति (के मिलाप) के बिना सारा श्रृंगार व्यर्थ चला जाता है (यही हाल है जीव-स्त्री का)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिसु घरि वसिआ कंतु सा वडभागणे ॥ तिसु बणिआ हभु सीगारु साई सोहागणे ॥ हउ सुती होइ अचिंत मनि आस पुराईआ ॥ हरिहां जा घरि आइआ कंतु त सभु किछु पाईआ ॥४॥

मूलम्

जिसु घरि वसिआ कंतु सा वडभागणे ॥ तिसु बणिआ हभु सीगारु साई सोहागणे ॥ हउ सुती होइ अचिंत मनि आस पुराईआ ॥ हरिहां जा घरि आइआ कंतु त सभु किछु पाईआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिसु घरि = जिस (जीव-स्त्री) के (हृदय-) घर में। सा = वह (जीव-स्त्री)। बणिआ = फबा। हभु = सारा। साई = वह ही। हउ = मैं। अचिंत = बेफिक्र, चिन्ता रहित। सुती = (प्रभु पति के चरणों में) लीन हो गई हूँ। मनि = मन में (टिकी हुई)। पुराईआ = पूरी हो गई। घरि = (हृदय) घर में।4।
अर्थ: हे सहेलिए! जिस (जीव-सत्री) के (हृदय-) घर में प्रभु-पति बस जाता है, वह भाग्यशाली हो जाती है। (आत्मिक जीवन ऊँचा करने के लिए उसका सारा उद्यम) उसका सारा श्रंृगार उसको फब जाता है, वह (जीव-स्त्री) ही पति वाली (कहलवा सकती है)। (इस प्रकार की सोहागन की संगति में रह के) मैं (भी अब) चिन्ता-रहित हो के (प्रभु-चरणों में) लीन हो गई हूँ, मेरे मन में (मिलाप की पुरानी) आशा पूरी हो गई। हे सहेलिए! जब (हृदय-) घर में पति (प्रभु) आ जाता है तब हरेक मांग पूरी हो जाती है।4।

[[1362]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा इती आस कि आस पुराईऐ ॥ सतिगुर भए दइआल त पूरा पाईऐ ॥ मै तनि अवगण बहुतु कि अवगण छाइआ ॥ हरिहां सतिगुर भए दइआल त मनु ठहराइआ ॥५॥

मूलम्

आसा इती आस कि आस पुराईऐ ॥ सतिगुर भए दइआल त पूरा पाईऐ ॥ मै तनि अवगण बहुतु कि अवगण छाइआ ॥ हरिहां सतिगुर भए दइआल त मनु ठहराइआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इती आस = इतनी कु आस। पुराईऐ = पूरी हो गई। दइआल = दयावान। त = तो। पूरा = सर्व गुण सम्पन्न। पाईऐ = मिलता है। मै तनि = मेरे शरीर में। छाइआ = ढका रहता है। ठहराइआ = ठहर जाता है, विकारों की ओर डोलने से हट जाता है।5।
अर्थ: हे सहेलिए! (मेरे अंदर) इतनी सी तमन्ना बनी रहती है कि (प्रभु-मिलाप की मेरी) आशा पूरी हो जाए। पर सर्व-गुण-भरपूर प्रभु तब ही मिलता है जब गुरु दयावान हो। हे सहेलिए! मेरे शरीर में (इतने) ज्यादा अवगुण हैं कि (मेरा स्वै) अवगुणों से ढका रहता है। पर जब गुरु दयावान होता है तब मन (विकारों की ओर) डोलने से हट जाता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु नानक बेअंतु बेअंतु धिआइआ ॥ दुतरु इहु संसारु सतिगुरू तराइआ ॥ मिटिआ आवा गउणु जां पूरा पाइआ ॥ हरिहां अम्रितु हरि का नामु सतिगुर ते पाइआ ॥६॥

मूलम्

कहु नानक बेअंतु बेअंतु धिआइआ ॥ दुतरु इहु संसारु सतिगुरू तराइआ ॥ मिटिआ आवा गउणु जां पूरा पाइआ ॥ हरिहां अम्रितु हरि का नामु सतिगुर ते पाइआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुतरु = (दुस्तर) जिससे पार लांघना बहुत मुश्किल है। तराइआ = पार लंघा दिया। आवागउणु = पैदा होने मरने का चक्कर। जां = जब। पाइआ = पा लिया, मिलाप हासिल कर लिया। ते = से।6।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे सहेलिए!) इस संसार-समुंदर से पार लांघना बहुत मुश्किल है, पर जिस मनुष्य ने बेअंत परमात्मा का नाम स्मरणा शुरू कर दिया, गुरु ने उसको पार लंघा दिया (गुरु ने उसको पूरन प्रभु से जोड़ दिया, और) जब उसने पूरन प्रभु का मिलाप हासिल कर लिया, उसका जनम मरन का चक्कर (भी) समाप्त हो गया। हे सहेलिए! परमात्मा का आत्मिक जीवन देने वाला नाम गुरु से ही मिलता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरै हाथि पदमु आगनि सुख बासना ॥ सखी मोरै कंठि रतंनु पेखि दुखु नासना ॥ बासउ संगि गुपाल सगल सुख रासि हरि ॥ हरिहां रिधि सिधि नव निधि बसहि जिसु सदा करि ॥७॥

मूलम्

मेरै हाथि पदमु आगनि सुख बासना ॥ सखी मोरै कंठि रतंनु पेखि दुखु नासना ॥ बासउ संगि गुपाल सगल सुख रासि हरि ॥ हरिहां रिधि सिधि नव निधि बसहि जिसु सदा करि ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हाथि = हाथ में। मेरै हाथि = मेरे हाथ में। पदमु = कमल फूल (कमल फूल की रेखा)। आगनि = आँगन में (हृदय के अँगने में)। बासना = सुगंधि। सुख बासना = आत्मिक आनंद की सुगंधी। सखी = हे सहेलिए! मोरै कंठि = मेरे गले में। पेखि = देख के। बसाउ = मैं बसती हूँ। संगि गुपाल = सृष्टि के पालनहार प्रभु के साथ। सगल = सारे। सुख रासि = सुखों का स्रोत। रिधि सिधि = आत्मिक ताकतें। नव निधि = (धरती के सारे) नौ खजाने। बसहि = बसते हैं। जिस करि = जिस (परमात्मा) के हाथ में। करि = हाथ में।7।
अर्थ: हे सहेलिए! जिस (परमात्मा) के हाथ में सारी ताकतें और (धरती के सारे) नौ खजाने सदा टिके रहते हैं, जो परमात्मा सारे सुखों का श्रोत है (गुरु की मेहर के सदका) मैं उस सृष्टि के पालनहार के साथ (सदा) बसती हूँ। (अब) मेरे हाथ में कमल-फूल (की रेखा बन गई) है (मेरे भाग्य जाग उठे हैं) मेरे (हृदय के) आँगन में आत्मिक आनंद की सुगंधी (बिखरी रहती) है। (जैसे बच्चों के गले में नज़र-पट्टू डाला होता है) हे सहेलिए! मेरे गले में रतन लटक रहा है (मेरे गले में नाम-रतन परोया गया है) जिसको देख के (हरेक) दुख दूर हो गया है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पर त्रिअ रावणि जाहि सेई ता लाजीअहि ॥ नितप्रति हिरहि पर दरबु छिद्र कत ढाकीअहि ॥ हरि गुण रमत पवित्र सगल कुल तारई ॥ हरिहां सुनते भए पुनीत पारब्रहमु बीचारई ॥८॥

मूलम्

पर त्रिअ रावणि जाहि सेई ता लाजीअहि ॥ नितप्रति हिरहि पर दरबु छिद्र कत ढाकीअहि ॥ हरि गुण रमत पवित्र सगल कुल तारई ॥ हरिहां सुनते भए पुनीत पारब्रहमु बीचारई ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पर त्रिअ = पराई स्त्री। रावणि जाहि = भोगने जाते हैं। सेई = वह लोग ही। लाजीअहि = (प्रभु की हजूरी में) लज्जावान होते हैं, शर्मशार होते हैं। नित प्रति = सदा ही। हिरहि = चुराते हैं (बहुवचन)। दरबु = धन। छिद्र = एैब, विकार। कत = कहाँ? ढाकीअहि = ढके जा सकते हैं। रमत = स्मरण करते हुए। तारई = तैरा लेता है (एकवचन)। पुनीत = पवित्र। बीचारई = विचारता है (एकवचन)।8।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य पराई स्त्री भोगने जाते हैं, वे (प्रभु की हजूरी में) अवश्य शर्मशार होते हैं। जो मनुष्य सदा पराया धन चुराते रहते हैं (हे भाई! उनके यह) कुकर्म कहीं छुपे रह सकते हैं? (परमात्मा सब कुछ देख रहा है)। हे भाई! परमात्मा के गुण याद करते हुए मनुष्य (स्वयं) पवित्र जीवन वाला बन जाता है (और अपनी) सारी कुलों को (भी संसार-समुंदर से) पार लंघा लेता है। (जो मनुष्य परमात्मा की महिमा) सुनते हैं, वे सारे पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊपरि बनै अकासु तलै धर सोहती ॥ दह दिस चमकै बीजुलि मुख कउ जोहती ॥ खोजत फिरउ बिदेसि पीउ कत पाईऐ ॥ हरिहां जे मसतकि होवै भागु त दरसि समाईऐ ॥९॥

मूलम्

ऊपरि बनै अकासु तलै धर सोहती ॥ दह दिस चमकै बीजुलि मुख कउ जोहती ॥ खोजत फिरउ बिदेसि पीउ कत पाईऐ ॥ हरिहां जे मसतकि होवै भागु त दरसि समाईऐ ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ऊपरि = ऊपर। बनै = फब रहा है। तलै = नीचे, पैरों की तरफ। धर = धरती। सोहती = (हरियाली आदि से) सजी हुई है। दह = दस। दिस = दिशा। दह दिस = दसों तरफ। बीजुलि = बिजली। जोहती = देखती है, लिश्कारे मारती है। फिरउ = मैं फिरती हूँ। बिदेसि = परदेस में। पीउ = प्रीतम प्रभु। कत = कहाँ? पाईऐ = मिल सकता है। मसतकि = माथे पर। दरसि = दर्शन में। समाईऐ = लीन हो सकता है।9।
अर्थ: हे सहेलिए! ऊपर (तारों आदि से) आकाश फब रहा है, नीचे पैरों की तरफ (हरियाली आदि से) धरती सज रही है। दसों दिशाओं में बिजली चमक रही है, मुँह पर लिश्कारे मार रही है (ईश्वरीय ज्योति का कैसा सुंदर साकार सरूप है!) पर मैं (उसके इस सरगुण स्वरूप की कद्र ना समझ के) परदेस में (जंगल आदि में) ढूँढती फिरती हूँ कि प्रीतम-प्रभु कहीं मिल जाए। हे सहेलिए! अगर माथे के भाग्य जाग उठे तो (हर जगह उसके) दीदार में लीन हुआ जा सकता है।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

डिठे सभे थाव नही तुधु जेहिआ ॥ बधोहु पुरखि बिधातै तां तू सोहिआ ॥ वसदी सघन अपार अनूप रामदास पुर ॥ हरिहां नानक कसमल जाहि नाइऐ रामदास सर ॥१०॥

मूलम्

डिठे सभे थाव नही तुधु जेहिआ ॥ बधोहु पुरखि बिधातै तां तू सोहिआ ॥ वसदी सघन अपार अनूप रामदास पुर ॥ हरिहां नानक कसमल जाहि नाइऐ रामदास सर ॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: थाव = जगह। सभे थाव = सारी जगहें। तुधु जेहिआ = तेरे बराबर का। बधोहु = तुझे बाँधा हुआ है, तुझे बनाया है। पुरखि = (अकाल-) पुरख ने। बिधातै = विधाता ने। सोहिआ = सोहाना दिखता है। वसदी = आबादी, (ऊँचे आत्मिक गुणों की) आबादी। सघन = घनी। अपार = बेअंत। अनूप = (अन+ऊप) उपमा रहित, बेमिसाल। रामदास = राम के दास। रामदासपुर = हे राम के दासों के नगर! हे सत्संग! नानक = हे नानक! कसमल = (सारे) पाप। जाहि = दूर हो जाते हैं। रामदास सर = हे राम के दासों के सरोवर! नाइऐ = (तेरे में) स्नान करने से।10

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘थाव’ है ‘थाउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे नानक! (कह:) हे राम के दासों के सरोवर! (हे सत्संग! तेरे में आत्मिक) स्नान करने से! (मनुष्य के सारे) पाप दूर हो जाते हैं। हे राम के दासों के शहर! (हे सत्संग!) (तेरे अंदर उच्च आत्मिक गुणों की) बहुत ही सघन आबादी है, बेअंत है, बेमिसाल है। हे राम के दासों के शहर! (हे सत्संगी!) तेरी नींव अकाल-पुरख विधाता ने स्वयं रखी हुई है, इसी लिए तू (उसके आत्मिक गुणों की इनायत से) सुंदर दिखाई दे रहा है।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चात्रिक चित सुचित सु साजनु चाहीऐ ॥ जिसु संगि लागे प्राण तिसै कउ आहीऐ ॥ बनु बनु फिरत उदास बूंद जल कारणे ॥ हरिहां तिउ हरि जनु मांगै नामु नानक बलिहारणे ॥११॥

मूलम्

चात्रिक चित सुचित सु साजनु चाहीऐ ॥ जिसु संगि लागे प्राण तिसै कउ आहीऐ ॥ बनु बनु फिरत उदास बूंद जल कारणे ॥ हरिहां तिउ हरि जनु मांगै नामु नानक बलिहारणे ॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चात्रिक = पपीहा। चित सुचति = सचेत चिक्त हो के। सु = वह। चाहीऐ = प्यार करना चाहिए। संगि = साथ। प्राण = जिंद। तिसै कउ = तिस ही को, उसी को। आहीऐ = ढूँढना चाहिए, तलाशना चाहिए। बनु बनु = हरेक जंगल। कारणे = वास्ते। हरि जनु = परमात्मा का भक्त। मांगै = माँगता है (एकवचन)।11।
अर्थ: हे भाई! पपीहे की तरह सचेत चिक्त हो के उस सज्जन-प्रभु को प्यार करना चाहिए। जिस सजजन से प्राणों की प्रीति बन जाए, उसको ही (मिलने की) तमन्ना करनी चाहिए। (हे भाई! देख, पपीहा बरखा के) पानी की एक बूँद के लिए (दरियाओं-टोभों के पानी से) उपराम हो के जंगल (ढूँढता) फिरता है। हे नानक! (कह: जो) प्रभु का सेवक (पपीहे की तरह परमात्मा का नाम) माँगता है, मैं उससे कुर्बान जाता हूँ।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मित का चितु अनूपु मरमु न जानीऐ ॥ गाहक गुनी अपार सु ततु पछानीऐ ॥ चितहि चितु समाइ त होवै रंगु घना ॥ हरिहां चंचल चोरहि मारि त पावहि सचु धना ॥१२॥

मूलम्

मित का चितु अनूपु मरमु न जानीऐ ॥ गाहक गुनी अपार सु ततु पछानीऐ ॥ चितहि चितु समाइ त होवै रंगु घना ॥ हरिहां चंचल चोरहि मारि त पावहि सचु धना ॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मित = (प्रभु) मित्र। अनूपु = (अन+ऊप) बेमिसाल, अति सुंदर। मरंमु = भेद। गाहक गुनी अपार = उस अपार प्रभु के गुणों के गाहकों से। सु ततु = वह मरंमु, वह भेद, वह अस्लियत। पछानीऐ = पहचान सकते हैं। चितहि = (प्रभु के) चिक्त में। समाइ = लीन हो गए। रंगु = आत्मिक आनंद। घना = बहुत। चंचल चोरहि = हर वक्त भटक रहे (मन) चोर को। त = तो। पावहि = तू हासिल कर लेगा। सचु = सदा टिके रहने वाला।12।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा-) मित्र का चिक्त बहुत सुंदर है, (उसका) भेद नहीं जाना जा सकता। पर उस बेअंत प्रभु के गुणों के गाहक संत-जनों द्वारा वह भेद समझ लिया जाता है। (वह भेद यह है कि) अगर उस परमात्मा के चिक्त में (मनुष्य का) चिक्त लीन हो जाए, तो (मनुष्य के अंदर) बहुत आत्मिक आनंद पैदा हो जाता है। सो, हे भाई! अगर तू (प्रभु के चिक्त में लीन करके) इस सदा भटकते (मन-) चोर की (चंचलता) मार ले, तो तू सदा कायम रहने वाला नाम-धन हासिल कर लेगा।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुपनै ऊभी भई गहिओ की न अंचला ॥ सुंदर पुरख बिराजित पेखि मनु बंचला ॥ खोजउ ता के चरण कहहु कत पाईऐ ॥ हरिहां सोई जतंनु बताइ सखी प्रिउ पाईऐ ॥१३॥

मूलम्

सुपनै ऊभी भई गहिओ की न अंचला ॥ सुंदर पुरख बिराजित पेखि मनु बंचला ॥ खोजउ ता के चरण कहहु कत पाईऐ ॥ हरिहां सोई जतंनु बताइ सखी प्रिउ पाईऐ ॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुपनै = सपने में (प्रभु पति को देख के)। ऊभी = ऊँची। ऊभी भई = (मैं) उठ खड़ी हुई। की न = क्यों ना? गहिओ = पकड़ा। अंचला = (प्रभु पति का) पल्ला। बिराजित = दग दग कर रहा। पेखि = देख के। बंचला = ठगा गया, मोहा गया। खोजउ = मैं खोज रही हूँ। ता के = उस (प्रभु-पति) के। कत = कहाँ? कैसे? जतंनु = प्रयत्न, उद्यम। सखी = हे सहेलिए! प्रिउ = प्यारा।13।
अर्थ: हे सहेलिए! सपने में (प्रभु-पति को देख के) मैं उठ खड़ी हुई (पर, मैं उसका पल्ला ना पकड़ सकी)। मैंने (उसका) पल्ला क्यों ना पकड़ा? (इसलिए नही पकड़ सकी क्योंकि) उस सुंदर दग-दग करते प्रभु-पति को देख के (मेरा) मन मोहित हो गया (मुझे अपने आप की सुधि ही ना रही)। अब मैं उसके कदमों की खोज करती फिरती हूँ। बताओ, हे सखिए! वह कैसे मिले? हे सखी! मुझे वह प्रयत्न बता जिससे वह प्यारा मिल जाए।13।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: अगले ‘बंद’ में यह प्रयत्न बताया गया है)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैण न देखहि साध सि नैण बिहालिआ ॥ करन न सुनही नादु करन मुंदि घालिआ ॥ रसना जपै न नामु तिलु तिलु करि कटीऐ ॥ हरिहां जब बिसरै गोबिद राइ दिनो दिनु घटीऐ ॥१४॥

मूलम्

नैण न देखहि साध सि नैण बिहालिआ ॥ करन न सुनही नादु करन मुंदि घालिआ ॥ रसना जपै न नामु तिलु तिलु करि कटीऐ ॥ हरिहां जब बिसरै गोबिद राइ दिनो दिनु घटीऐ ॥१४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नैण = आँखें। न देखहि = नहीं देखती, दर्शन नहीं करती। साध = संत जन, सत्संगी लोग। सि नैण = वह आँखें। बिहालिआ = बेहाल, बुरे हाल वालियां। करन = कान (बहुवचन)। न सुनही = नहीं सुनते। नादु = शब्द, महिमा। मुंदि = (आत्मिक आनंद की ओर से) बंद करके। मुंदि घालिआ = बंद किए हुए हैं। रसना = जीभ। तिलु तिलु करि = रक्ती रक्ती कर के। कटीऐ = कटी जा रही है, (दुनिया के झमेलों की बातें और निंदा आदि की कैंची से) कटी जा रही है। बिसरै = भूल जाता है। घटीऐ = आत्मिक जीवन की तरफ से कमजोर होते जाता है।14।
अर्थ: हे सहेलिए! जो आँखें सत्संगियों का दर्शन नहीं करतीं, वे आँखें (दुनिया के पदार्थों और रूप को देख-देख के) बेहाल हुई रहती हैं। जो कान परमात्मा की महिमा नहीं सुनते, वे कान (आत्मिक आनंद की धुनि सुनने से) बंद किए हुए होते हैं। जो जीभ परमात्मा का नाम नहीं जपती, वह जीभ (दुनिया के झमेलों की बातें और आनंदा आदि की कैंची से हर वक्त) कटती जा रही है। हे सहेलिए! जब प्रभु-पातशाह (की याद) भूल जाए, जब दिन-ब-दिन (आत्मिक जीवन) कमजोर होता जाता है। (सो, हे सहेलिए! साधु-संगत में प्रभु की महिमा सुनते रहना, जीभ से नाम जपते रहना- यही है प्रयत्न उसको पा सकने का)।14।

[[1363]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

पंकज फाथे पंक महा मद गु्मफिआ ॥ अंग संग उरझाइ बिसरते सु्मफिआ ॥ है कोऊ ऐसा मीतु जि तोरै बिखम गांठि ॥ नानक इकु स्रीधर नाथु जि टूटे लेइ सांठि ॥१५॥

मूलम्

पंकज फाथे पंक महा मद गु्मफिआ ॥ अंग संग उरझाइ बिसरते सु्मफिआ ॥ है कोऊ ऐसा मीतु जि तोरै बिखम गांठि ॥ नानक इकु स्रीधर नाथु जि टूटे लेइ सांठि ॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पंक = कीचड़। पंकज = (कीचड़ के ऊपर उगे हुए) कमल फूल। पंक = पंख, भौरों के पंख। मद = सुगंधी। महा मद = तीव्र सुगंधी। गुंफिआ = (गुंफ् = to string or weave to gether, गूंदना) गूंदा जा के, फस के, फसने के कारण, मस्त हो जाने के कारण। अंग संग उरझाइ = (कमल फूल की) पंखुड़ियों में उलझ के। सुंफिआ = खिलना, खुशी, एक फूल से उड़ के दूसरे फूल पर जाना, उड़ना। जि = जो। तोरै = तोड़ दे। बिखम = मुश्किल। गांठि = गाँठ। स्रीधर = लक्ष्मी का आसरा। लेइ सांठि = गाँठ लेता है।
अर्थ: हे भाई! (कमल-फूल की) तीव्र सुगंधी में मस्त हो जाने के कारण (भौरे के) पंख कमल-फूल (की पंखड़ियों) में फंस जाते हैं, (उन) पंखड़ियों से उलझ के (भौरे को) उड़ानें भरनी भूल जाती हैं (यही हाल है जीव-भौरे का)। कोई विरला ही ऐसा (संत-) मित्र मिलता है जो (इस जीव-भौरे की जिंद को माया के मोह की पड़ी हुई) पक्की गाँठ तोड़ सकता है। हे नानक! लक्ष्मी का आसरा (सारे जगत का) नाथ प्रभु ही समर्थ है जो (अपने से) टूटे हुओं को दोबारा गाँठ लेता है।15।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धावउ दसा अनेक प्रेम प्रभ कारणे ॥ पंच सतावहि दूत कवन बिधि मारणे ॥ तीखण बाण चलाइ नामु प्रभ ध्याईऐ ॥ हरिहां महां बिखादी घात पूरन गुरु पाईऐ ॥१६॥

मूलम्

धावउ दसा अनेक प्रेम प्रभ कारणे ॥ पंच सतावहि दूत कवन बिधि मारणे ॥ तीखण बाण चलाइ नामु प्रभ ध्याईऐ ॥ हरिहां महां बिखादी घात पूरन गुरु पाईऐ ॥१६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धावउ = मैं दौड़ता हूं। दसा = दिशा, तरफ (दशा = हालत)। पंच दूत = (कामादिक) पाँच वैरी। सतावहि = सताते रहते हैं (बहुवचन)। कवन बिधि = किस तरीके से? तीखण = तेज़। चलाइ = चला के। धाईऐ = ध्याईए, स्मरणा चाहिए। महां बिखादी = बड़े झगड़ालू। घात = मौत, मारना। पाईऐ = मिल जाता है।16।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा (के चरणों) का प्रेम हासिल करने के लिए मैं कई दिशाओं में दौड़ता फिरता हूं, (पर यह कामादिक) पाँच वैरी सताते (ही) रहते हैं। (इनको) किस तरीके से मारा जाए? (इनको मारने का तरीका यही है कि) परमात्मा का नाम (सदा) स्मरण करते रहना चाहिए। जब पूरा गुरु मिलता है (उसकी सहायता से स्मरण के) तेज़ तीर चला के (इन कामादिक) कड़े झगड़ालुओं का नाश (किया जा सकता है)।16।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुर कीनी दाति मूलि न निखुटई ॥ खावहु भुंचहु सभि गुरमुखि छुटई ॥ अम्रितु नामु निधानु दिता तुसि हरि ॥ नानक सदा अराधि कदे न जांहि मरि ॥१७॥

मूलम्

सतिगुर कीनी दाति मूलि न निखुटई ॥ खावहु भुंचहु सभि गुरमुखि छुटई ॥ अम्रितु नामु निधानु दिता तुसि हरि ॥ नानक सदा अराधि कदे न जांहि मरि ॥१७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दाति = नाम की दाति। मूलि = बिल्कुल। निखुटई = खत्म होती। भुंचहु = बरतो, इस्तेमाल करो, खाओ। सभि = सारे। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। छुटई = छूटे, विकारों से बच जाता है। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला, अमृत। निधानु = खजाना। तुसि = प्रसन्न हो के, खुश हो के। अराधि = स्मरण किया कर।17।
अर्थ: हे भाई! गुरु की बख्शी हुई हरि-नाम-दाति कभी समाप्त नहीं होती, बेशक तुम सभी इस दाति का इस्तेमाल करो। (बल्कि) गुरु की शरण पड़ कर (इस दाति को बरतने वाला मनुष्य विकारों से) बचा रहता है। आत्मिक जीवन देने वाला (ये) नाम-खजाना परमात्मा (स्वयं ही) खुश हो के देता है। हे नानक! (कह: हे भाई!) सदा इस नाम को स्मरण किया कर, तुझे कभी आत्मिक मौत नहीं आएगी।17।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिथै जाए भगतु सु थानु सुहावणा ॥ सगले होए सुख हरि नामु धिआवणा ॥ जीअ करनि जैकारु निंदक मुए पचि ॥ साजन मनि आनंदु नानक नामु जपि ॥१८॥

मूलम्

जिथै जाए भगतु सु थानु सुहावणा ॥ सगले होए सुख हरि नामु धिआवणा ॥ जीअ करनि जैकारु निंदक मुए पचि ॥ साजन मनि आनंदु नानक नामु जपि ॥१८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिथै = जिस जगह पर। जाए = जाता है, जा बैठता है। सु = वह (एकवचन)। सगले = सारे। जीअ = (सारे) जीव। करनि = करते हैं, करने लग जाते हैं। जैकारु = परमात्मा की महिमा। पचि = जल के, (ईष्या की आग में) जल के। मुए = आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं। मनि = मन में। जपि = जप के।18।
अर्थ: हे भाई! जिस जगह पर (भी कोई परमात्मा का) भक्त जा बैठता है, वह जगह (महिमा के वायु-मण्डल से) सुखदाई बन जाती है, परमात्मा का नाम स्मरण करने से (वहाँ) सारे सुख हो जाते हैं, (वहाँ आस-पड़ोस रहने वाले सारे) जीव परमात्मा की महिमा करने लग जाते हैं। (पर सौभाग्य की बात है कि) निंदा करने वाले मनुष्य (संत-जनों की बड़ाई देख के ईष्या की आग से) जल-जल के आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं। हे नानक! परमात्मा का नाम जप-जप के सज्जन जनों के मन में खुशी पैदा होती है।18।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पावन पतित पुनीत कतह नही सेवीऐ ॥ झूठै रंगि खुआरु कहां लगु खेवीऐ ॥ हरिचंदउरी पेखि काहे सुखु मानिआ ॥ हरिहां हउ बलिहारी तिंन जि दरगहि जानिआ ॥१९॥

मूलम्

पावन पतित पुनीत कतह नही सेवीऐ ॥ झूठै रंगि खुआरु कहां लगु खेवीऐ ॥ हरिचंदउरी पेखि काहे सुखु मानिआ ॥ हरिहां हउ बलिहारी तिंन जि दरगहि जानिआ ॥१९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पावन = पवित्र स्वरूप हरि। पतित पुनीत = विकारियों को पवित्र करने वाला। कतह नहीं = कभी भी नहीं। सेवीऐ = स्मरण किया जा सकता। झूठे रंगि = नाशवान पदार्थों के प्यार रंग में। खुआरु = खुआर, दुखी। कहां लगु = कब तक? बहुत समय नहीं। खेवीऐ = (जिंदगी की) बेड़ी चलाई जा सकती। हरि चंदउरी = हरीचंद नगरी, गंधर्व नगरी, हवाई किले। पेखि = देख के। हउ = मैं। जि = जो। दरगहि = परमात्मा की हजूरी में।
अर्थ: हे भाई! मायावी पदार्थों के मोह में (फसे र हके जिंदगी की) बेड़ी ज्यादा (सुख से) नहीं चलाई जा सकती, (आखिर) दुखी ही हुआ जाता है, (इस झूठे रंग में टिके रह के) पवित्र-स्वरूप हरि को, विकारियों को पवित्र करने वाले हरि को कभी भी नहीं स्मरण किया जा सकता। हे भाई! (मायावी पदार्थों के इन) हवाई किलों को देख-देख के तू क्यों सुख प्रतीत कर रहा है? (ना ये सदा कायम रहने, और ना ही इनके मोह में फंस के प्रभु-दर पर आदर मिलना)। हे भाई! मैं (तो) उनके सदके जाता हूँ जो (परमात्मा का नाम जप-जप के) परमात्मा की हजूरी में सत्कारे जाते हैं।19।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कीने करम अनेक गवार बिकार घन ॥ महा द्रुगंधत वासु सठ का छारु तन ॥ फिरतउ गरब गुबारि मरणु नह जानई ॥ हरिहां हरिचंदउरी पेखि काहे सचु मानई ॥२०॥

मूलम्

कीने करम अनेक गवार बिकार घन ॥ महा द्रुगंधत वासु सठ का छारु तन ॥ फिरतउ गरब गुबारि मरणु नह जानई ॥ हरिहां हरिचंदउरी पेखि काहे सचु मानई ॥२०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गवार = मूर्ख। घन = बहुत। करम बिकार = विकारों भरे कर्म। द्रुगंधत = विकारों की गंदगी। वासु = निवास। सठ = मूर्ख। छारु = राख (के बराबर)। छारु तन = मिट्टी में मिला शरीर। फिरतउ = फिरता है। गरब गुबारि = अहंकार के अंधेरे में। मरणु = मौत। जानई = जानै, जानता। हरिचंउरी = हरिचंद नगरी, गंर्धव नगरी, हवाई किले। पेखि = देख के। काहे = क्यों? सचु = सा स्थिर। मानई = मानै, मानता है।
अर्थ: हे भाई! मूर्ख मनुष्य अनेक ही कुकर्म करता रहता है। बड़े कुकर्मों की गंदगी में इसका निवास हुआ रहता है जिसके कारण मूर्ख का शरीर मिट्टी में मिल जाता है (अमूल्य मानव-शरीर कौड़ी के बराबर का नहीं रह जाता)। (ऐसा मनुष्य) अहंकार के अंधेरे में चलता फिरता है, इसको मौत (भी) नहीं सूझती। इस हवाई किले को देख-देख के पता नहीं, यह क्यों इसको सदा कायम रहना माने बैठा है।20।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिस की पूजै अउध तिसै कउणु राखई ॥ बैदक अनिक उपाव कहां लउ भाखई ॥ एको चेति गवार काजि तेरै आवई ॥ हरिहां बिनु नावै तनु छारु ब्रिथा सभु जावई ॥२१॥

मूलम्

जिस की पूजै अउध तिसै कउणु राखई ॥ बैदक अनिक उपाव कहां लउ भाखई ॥ एको चेति गवार काजि तेरै आवई ॥ हरिहां बिनु नावै तनु छारु ब्रिथा सभु जावई ॥२१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पूजै = आखिर में पहुँच जाती है, खत्म हो जाती है, समाप्त हो जाती है। अउध = (उम्र की) मियाद, आखिरी हद। राखई = रख सकता है, मौत से बचा सकता है। बैदक = हिकमत विद्या। उपाव = उपाय, ढंग। कहां लउ = कहां तक? भाखई = बता सकती है। एको = एक (परमात्मा) को ही। चेति = स्मरण किया कर। गवार = हे मूर्ख! काजि तेरै = तेरे काम में। आवई = आए, आता है। छारु = राख (के समान)। ब्रिथा = व्यर्थ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस की’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जिस (मनुष्य) की (उम्र की) आखिरी हद पहुँच जाती है, उसको कोई मनुष्य (मौत के मुँह से) बचा नहीं सकता। हिकमत विद्या के अनेक ही ढंग (नुस्खे) कहां तक (कोई) बता सकता है? हे मूर्ख! एक परमात्मा को ही याद किया कर, (वह ही हर वक्त) तेरे काम आता है। हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना यह शरीर मिट्टी (के समान) है, सारा व्यर्थ चला जाता है।21।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अउखधु नामु अपारु अमोलकु पीजई ॥ मिलि मिलि खावहि संत सगल कउ दीजई ॥ जिसै परापति होइ तिसै ही पावणे ॥ हरिहां हउ बलिहारी तिंन्ह जि हरि रंगु रावणे ॥२२॥

मूलम्

अउखधु नामु अपारु अमोलकु पीजई ॥ मिलि मिलि खावहि संत सगल कउ दीजई ॥ जिसै परापति होइ तिसै ही पावणे ॥ हरिहां हउ बलिहारी तिंन्ह जि हरि रंगु रावणे ॥२२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अउखधु = दवाई। अपारु = बेअंत। अमोलकु = जिसका मूल्य नहीं डाला जा सकता। पीजई = पीया जा सकता। मिलि = मिल के। मिलि मिलि = सदा मिल के। खावहि = खाते हैं (बहुवचन)। दीजई = बाँटा जाता है। परापति होइ = भाग्यों के मुताबिक मिलना हो। तिसै ही = उसी को ही। रंगु = आनंद। रावणे = माणते हैं।
अर्थ: हे भाई! (आत्मिक रोगों को दूर करने के लिए परमात्मा का) नाम (ही) दवाई है, बहुत ही कीमती दवाई है। (यह दवाई साधु-संगत में मिल के) की जा सकती है। (साधु-संगत में) संत-जन सदा मिल के (यह हरि-नाम दवाई) बाँटी जाती है। पर उसी मनुष्य को यह नाम-दवाई मिलती है, जिसके भाग्यों में इस का मिलना लिखा होता है। हे भाई! मैं सदके जाता हूं उन पर से जो (हरि-नाम जप के) प्रभु-मिलाप का आनंद लेते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैदा संदा संगु इकठा होइआ ॥ अउखद आए रासि विचि आपि खलोइआ ॥ जो जो ओना करम सुकरम होइ पसरिआ ॥ हरिहां दूख रोग सभि पाप तन ते खिसरिआ ॥२३॥

मूलम्

वैदा संदा संगु इकठा होइआ ॥ अउखद आए रासि विचि आपि खलोइआ ॥ जो जो ओना करम सुकरम होइ पसरिआ ॥ हरिहां दूख रोग सभि पाप तन ते खिसरिआ ॥२३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संदा = का। वैदा संदा संगु = वैदां संदा संगु, हकीमों का साथ, हकीमों का टोला, (आत्मिक मौत से बचाने वाले) संत जनों की संगति। अउखद = दवाई, नाम दारू। आए रासि = पूरा असर करती है, कारगर हो जाती है। आपि = परमात्मा स्वयं। ओना = उन (वैद्यों) के, उन संतजनों के। करम = नित्य के कर्तव्य। सुकरम = श्रेष्ठ कर्म, श्रेष्ठ पद्चिन्ह। सुकरम होइ = बढ़िया पद्चिन्ह बन के। पसारिआ = बिखरते हैं, आम लोगों के सामने आते हैं। सभि = सारे। ते = से। खिसरिआ = दूर हो जाते हैं।23।
अर्थ: हे भाई! (साधु-संगत में आत्मिक मौत से बचाने वाले) हकीमों (संत जनों) की संगति इकट्ठी होती है (उनकी बरती हुई बताई हुई हरि-नाम स्मरण की) दवाई (साधु-संगत में) अपना पूरा असर करती है (क्योंकि उस समूह में परमात्मा स्वयं हाजिर रहता है)। (आत्मिक रोगों के वह वैद्य संत-जन) जो-जो नित्य के कर्तव्य करते हें (वह साधु-संगत में आए आम लोगों के सामने) बढ़िया पद्चिन्ह प्रकट होते हैं, (इसीलिए साधु-संगत में आए भाग्यशालियों के) शरीर से सारे रोग सारे पापा दूर हो जाते हैं।23।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चउबोले महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

चउबोले महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समन जउ इस प्रेम की दम क्यिहु होती साट ॥ रावन हुते सु रंक नहि जिनि सिर दीने काटि ॥१॥

मूलम्

समन जउ इस प्रेम की दम क्यिहु होती साट ॥ रावन हुते सु रंक नहि जिनि सिर दीने काटि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संमन = हे संमन! हे मन वाले बंदे! हे दिल वाले व्यक्ति! हे दिल खोल के दान करने वाले बंदे! हे दानी मनुष्य! जउ = अगर। दम = दमड़े, धन। क्यिहु = से। साट = अदला बदली। होती = हो सकती। हुते = जैसे। रंक = कंगाल। जिनि = जिस (रावण) ने। सु = वह (रावण)। सिर = (शिव जी को प्रसन्न करने के लिए 11 वार अपना) सिर। काटि = काट के।1।
अर्थ: हे दानी मनुष्य! (धन के बदले हरि-नाम का प्रेम नहीं मिल सकता) अगर इस प्रेम की अदला-बदली धन से हो सकती, तो वह (रावण जिसने शिव जी को प्रसन्न करने के लिए ग्यारह बार अपने) सिर काट के दिए थे (सिर देने की जगह बेअंत धन दे देता, क्योंकि) रावण जैसे कंगाल तो थे नहीं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीति प्रेम तनु खचि रहिआ बीचु न राई होत ॥ चरन कमल मनु बेधिओ बूझनु सुरति संजोग ॥२॥

मूलम्

प्रीति प्रेम तनु खचि रहिआ बीचु न राई होत ॥ चरन कमल मनु बेधिओ बूझनु सुरति संजोग ॥२॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: चउबोला एक छंद का नाम है। यहाँ ‘चउबोला छंत के 11 बंद हैं।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तनु = शरीर। खचि रहिआ = मगन हुआ रहता है। बीचु = अंतर, दूरी। राई = रक्ती भर। चरन कमल = कमल फूल जैसे चरणों में। बेधिओ = भेदा गया (जैसे भौरा कमल फूल में)। बूझनु = समझ, मन की समझने की ताकत। सुरति संजोग = तवज्जो के साथ मिल गई है (भाव, मन लगन में ही लीन हो गया है)।2।
अर्थ: (हे दानी मनुष्य! देख, जिस मनुष्य का) हृदय (अपने प्रीतम के) प्रेम-प्यार में मगन हुआ रहता है (उसके अंदर से अपने प्रीतम से) रक्ती भर भी दूरी नहीं होती, (जैसे भौरा कमल-फूल में भेदा जाता है, वैसे ही उस मनुष्य का) मन (परमात्मा के) सुंदर चरणों में भेदा रहता है, उसकी समझने वाली मानसिक ताकत लगन में ही लीन रहती है।2।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

सागर मेर उदिआन बन नव खंड बसुधा भरम ॥ मूसन प्रेम पिरम कै गनउ एक करि करम ॥३॥

मूलम्

सागर मेर उदिआन बन नव खंड बसुधा भरम ॥ मूसन प्रेम पिरम कै गनउ एक करि करम ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सागर = समुंदर। मेर = सुमेर आदि पहाड़। उदिआन = जंगल। बन = जंगल। बसुधा = धरती। नव खंड = नौ टुकड़े, नौ हिस्से। नव खंड बसुधा = नौ हिस्सों वाली धरती, सारी धरती। भरम = भ्रमण, भटकना। मूसन = (मुष् = to steal, to rob = लूट लेना) हे लुटे जा रहे मनुष्य! पिरंम कै = प्यारे के (रास्ते) में। प्रेम पिरंम कै = प्यारे के प्रेम के रास्ते में। गनउ = मैं गिनता हूँ। करम = कदम। करि = कर के। एक करि करम = एक कदम करके, एक कदम के बराबर।3।
अर्थ: समुंदर, पर्वत, जंगल, सारी धरती- (इनकी यात्रा आदि की खातिर) भ्रमण करने में ही आत्मिक जीवन की ओर से लुटे जा रहे हे मनुष्य! प्रीतम-प्रभु के प्रेम के रासते में मैं तो (इस सारे रटन को) सिर्फ एक कदम के बराबर ही समझता हूँ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूसन मसकर प्रेम की रही जु अ्मबरु छाइ ॥ बीधे बांधे कमल महि भवर रहे लपटाइ ॥४॥

मूलम्

मूसन मसकर प्रेम की रही जु अ्मबरु छाइ ॥ बीधे बांधे कमल महि भवर रहे लपटाइ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मसकर = चाँदनी (मस्करी = चँद्रमा), चाँद की चाँदनी। अंबरु = आकाश। छाइ रही = छा रही है, ढक रही है, बिखर रही है। बीधे = भेदे हुए। रहे लपटाइ = लिपट रहे हैं।4।
अर्थ: हे आत्मिक जीवन लुटा रहे मनुष्य! (चँद्रमा की) चाँदनी सारे आकाश में बिखरी हुई होती है (उस वक्त) भौरे कमल-फूल में भेदे हुए बँधे हुए (कमल-फूल में ही) लिपट रहे होते हैं (इसी तरह जिस मनुष्यों के हृदय-) आकाश को प्रभु-प्रेम की चाँदनी रौशन कर रही होती है (वे मनुष्य प्रभु-प्रेम में) भेदे हुए (प्रभु के) सुंदर चरणों में जुड़े रहते हैं।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जप तप संजम हरख सुख मान महत अरु गरब ॥ मूसन निमखक प्रेम परि वारि वारि देंउ सरब ॥५॥

मूलम्

जप तप संजम हरख सुख मान महत अरु गरब ॥ मूसन निमखक प्रेम परि वारि वारि देंउ सरब ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जप = मंत्रों का जाप। तप = धूणियां तपानी। संजम = संयम, इन्द्रियों को विकारों से हटाने के जतन। हरख = खुशी। मान = इज्जत। महत = बड़ाई। अरु = और। गरब = अहंकार। मूसन = (इन जप तप आदि के जाल में फस के) आत्मिक संपत्ति लुटा रहे हे मनुष्य! निमखक = आँख झपकने जितने समय के लिए। परि = से। वारि देंउ = मैं कुर्बान करता हूँ।5।
अर्थ: (देवताओं को प्रसन्न करने की खातिर मंत्रों के) जाप, धूणियां तपानी, इन्द्रियों को वश में करने के लिए (उल्टे लटकने आदि अनेक) प्रयत्न- इन साधनों से मिली खुशी, इज्जत, महानता, इनसे मिला हुआ सुख और अहंकार- इनमें ही आत्मिक जीवन को लुटा रहे हे मनुष्य! मैं तो आँख झपकने जितने समय के लिए मिले प्रभू-प्यार से इनके सारे साधनों को कुर्बान करता हूँ।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूसन मरमु न जानई मरत हिरत संसार ॥ प्रेम पिरम न बेधिओ उरझिओ मिथ बिउहार ॥६॥

मूलम्

मूसन मरमु न जानई मरत हिरत संसार ॥ प्रेम पिरम न बेधिओ उरझिओ मिथ बिउहार ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मरमु = भेद। जानई = जाने, जानता है। मरत = आत्मिक मौत मर रहा। हिरत = लुटा जा रहा। प्रेम पिरंम = प्यारे के प्यार में। बेधिआ = भेदा हुआ। मिथ = नाशवान।6।
अर्थ: हे आत्मिक जीवन लुटा रहे मनुष्य! (देख, तेरी तरह ही यह) जगत (प्रेम का) भेद नहीं जानता, (और) आत्मिक मौत मर रहा है, आत्मिक जीवन की राशि-पूंजी लुटा रहा है, प्रभु-प्रीतम के प्यारे में नहीं भेदता, नाशवान पदार्थों के कार्य-व्यवहार में ही फसा रहता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घबु दबु जब जारीऐ बिछुरत प्रेम बिहाल ॥ मूसन तब ही मूसीऐ बिसरत पुरख दइआल ॥७॥

मूलम्

घबु दबु जब जारीऐ बिछुरत प्रेम बिहाल ॥ मूसन तब ही मूसीऐ बिसरत पुरख दइआल ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घबु = घर। दबु = (द्रव्य) धन पदार्थ। जारीऐ = जल जाता है। बिहाल = दुखी। तब ही = तब ही। मूसीऐ = लूटे जाते हैं।7।
अर्थ: (जब किसी मनुष्य का) घर जल जाता है, धन-पदार्थ जल जाता है (उस जयदाद से) विछुड़ा हुआ वह मनुष्य उसके मोह के कारण बहुत दुखी होता है (और पुकारता है ‘मैं लूटा गया, मैं लुट गया’)। पर आत्मिक जीवन लुटा रहे हे मनुष्य! (असल में) तब ही लुटे जाते हैं जब दया का श्रोत अकाल-पुरख मन से भूलता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा को प्रेम सुआउ है चरन चितव मन माहि ॥ नानक बिरही ब्रहम के आन न कतहू जाहि ॥८॥

मूलम्

जा को प्रेम सुआउ है चरन चितव मन माहि ॥ नानक बिरही ब्रहम के आन न कतहू जाहि ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: को = का। सुआउ = स्वार्थ, जीवन उद्देश्य। जा को सुआउ = जिस का जीवन निशाना। चितव = याद। माहि = में। नानक = हे नानक! बिरही = प्रेमी। ब्रहम = परमात्मा। आन कतहू = किसी भी और जगह। जाहि = जाते।8।
अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्यों का जीवन-निशाना (प्रभु-चरणों का) प्यार है, (जिस मनुष्यों के) मन में (प्रभु के) चरणों की याद (टिकी रहती) है, वे मनुष्य परमात्मा के आशिक हैं, वे मनुष्य (‘नवखंड बसुधा भ्रम’ और ‘जप तप संजम’ आदि) और किसी भी तरफ नहीं जाते।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

लख घाटीं ऊंचौ घनो चंचल चीत बिहाल ॥ नीच कीच निम्रित घनी करनी कमल जमाल ॥९॥

मूलम्

लख घाटीं ऊंचौ घनो चंचल चीत बिहाल ॥ नीच कीच निम्रित घनी करनी कमल जमाल ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लख = (लक्ष्य) निशाना। घनो = बहुत। बिहाल = दुखी। कीच = कीचड़। निम्रित = विनम्रता, गरीबी। घनी = बहुत ज्यादा। करनी = जीवन कर्तव्य। जमाल = कोमल सुंदरता।9।
अर्थ: हे भाई! (मनुष्य का) चंचल मन (दुनियावी बड़प्पन की) अनेक ऊँची चोटियों (पर पहुँचने) को (अपना) निशाना बनाए रखता है, और, दुखी होता है। पर कीचड़ निचली जगह है (निचली जगह बना रहता है। नीची जगह पर बने रहने वाली उसमें) बड़ी निम्रता है। इस जीवन कर्तव्य की इनायत से (उसमें) कोमल सुंदरता वाला कमल-फूल उगता है।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कमल नैन अंजन सिआम चंद्र बदन चित चार ॥ मूसन मगन मरम सिउ खंड खंड करि हार ॥१०॥

मूलम्

कमल नैन अंजन सिआम चंद्र बदन चित चार ॥ मूसन मगन मरम सिउ खंड खंड करि हार ॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नैन = आँखें। अंजन = सुरमा। सिआम = काला। बदन = मुँह। चंद्र बदन = चाँद (जैसा सुंदर) मुँह। चार = सोहाना, सुंदर। चित चार = सोहाने चिक्त वाला। मरंम = मर्म, भेद। सिउ = साथ, में। खंड खंड = टुकड़े टुकड़े। करि = कर दे। हार = हारों को, शारीरिक श्रृंगारों को, बाहरी धार्मिक दिखावों को।10।
अर्थ: हे आत्मिक जीवन को लुटा रहे मनुष्य! अगर तू (उस परमात्मा के मिलाप के) भेद में मस्त होना चाहता है जो चाँद से सुंदर मुखड़े वाला है, और सुंदर चिक्त वाला है जिसके कमल-फूल जैसे सुंदर नेत्र हैं जिस में काला सुरमा पड़ा हुआ है (भाव, जो परमात्मा अति ही सुंदर है), तो अपने इन हारों को (‘नवखंड बसुधा भ्रम’ और ‘जप तप संजम’ आदि की दिखावों के) टुकड़े-टुकड़े कर दे।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मगनु भइओ प्रिअ प्रेम सिउ सूध न सिमरत अंग ॥ प्रगटि भइओ सभ लोअ महि नानक अधम पतंग ॥११॥

मूलम्

मगनु भइओ प्रिअ प्रेम सिउ सूध न सिमरत अंग ॥ प्रगटि भइओ सभ लोअ महि नानक अधम पतंग ॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मगनु = मस्त। प्रिअ प्रेम सिउ = प्यारे (दीए) के प्रेम में। सूध = सुधि बुधि। सिमरत = (अपने प्यारे को) याद करते हुए। सूध न अंग = (अपने) शरीर की सुध बुध नहीं (रहती)। सभ लोअ महि = सारे जगत में। नानक = हे नानक! अधम = नीच। पतंग = पतंगा।11।
अर्थ: हे नानक! (बेचारा) नीच (सा) पतंगा (अपने) प्यारे (जलते हुए दीए) के प्यार में (इतना) मस्त हो जाता है (कि प्यारे को) याद करते हुए उसे अपने शरीर की सुध-बुध नहीं रहती (वह पतंगा जलते हुए दीए की लाट पर जल मरता है। पर अपने इस इश्क के सदका) नीच सा पतंगा सारे जगत में मशहूर हो गया है।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक भगत कबीर जीउ के ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

सलोक भगत कबीर जीउ के ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर मेरी सिमरनी रसना ऊपरि रामु ॥ आदि जुगादी सगल भगत ता को सुखु बिस्रामु ॥१॥

मूलम्

कबीर मेरी सिमरनी रसना ऊपरि रामु ॥ आदि जुगादी सगल भगत ता को सुखु बिस्रामु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिमरनी = माला। रसना = जीभ। आदि = जगत के शुरू से। जुगादी = जुगादि, जगत के आरम्भ से। ता को = उस (राम) का, उस प्रभु का (नाम)। बिस्रामु = विश्राम, ठहराव, शांति, अडोलता।
अर्थ: हे कबीर! मेरी जीभ पर राम (का नाम) बस रहा है; यही मेरी माला है। जब से सृष्टि बनी है सारे भक्त (यही नाम स्मरण करते आए हैं)। उसका नाम (ही भगतों के लिए) सुख और शांति (का कारण) है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर मेरी जाति कउ सभु को हसनेहारु ॥ बलिहारी इस जाति कउ जिह जपिओ सिरजनहारु ॥२॥

मूलम्

कबीर मेरी जाति कउ सभु को हसनेहारु ॥ बलिहारी इस जाति कउ जिह जपिओ सिरजनहारु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कउ = को। सभु को = हरेक बंदा। हसनेहारु = हँसने का आदी। बलिहारी = सदके। जिह = जिससे, जिस जाति में पैदा हो के।
अर्थ: हे कबीर! मेरी जाति पर हरेक व्यक्ति हँसता होता था (भाव, जुलाहों की जाति का हरेक व्यक्ति मजाक उड़ाता है)। पर, अब मैं इस जाति पर से सदके हूँ क्योंकि इसमें पैदा हो के मैंने ईश्वर की बँदगी की है (और आत्मिक सुख पा रहा हूँ)।2।

दर्पण-भाव

भाव: नीच से नीच जाति भी सराहनीय हो जाती है जब उसमें पैदा हो के कोई मनुष्य परमात्मा की भक्ति करता है। नीच जाति वाले को भी कोई नाम स्मरण से रोक नहीं सकता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर डगमग किआ करहि कहा डुलावहि जीउ ॥ सरब सूख को नाइको राम नाम रसु पीउ ॥३॥

मूलम्

कबीर डगमग किआ करहि कहा डुलावहि जीउ ॥ सरब सूख को नाइको राम नाम रसु पीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किआ डगमग करहि = तू क्यों डोलता है? प्रभु की भक्ति से तू क्यों जी चुराता है? कहा = और कहाँ? प्रभु के बिना और किस जगह? जीउ = प्राण, मन। नाइको = मालिक।
अर्थ: हे कबीर! (सुख की खातिर परमात्मा को बिसार के) और किस तरफ़ मन को भटका रहा है? (परमातमा की याद से) क्यों तेरा मन डाँवाडोल हो रहा है? परमात्मा के नाम का अमृत पी, यह नाम ही सारे सुखों का प्रेरक है (सारे सुख परमात्मा स्वयं ही देने योग्य है)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर कंचन के कुंडल बने ऊपरि लाल जड़ाउ ॥ दीसहि दाधे कान जिउ जिन्ह मनि नाही नाउ ॥४॥

मूलम्

कबीर कंचन के कुंडल बने ऊपरि लाल जड़ाउ ॥ दीसहि दाधे कान जिउ जिन्ह मनि नाही नाउ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कंचन = सोना। कुंडल = कानों में पड़ने वाले ‘वाले’ अथवा कुण्डल। ऊपरि = उन कुण्डलों पर। दीसहि = दिखते हैं। दाधे = जले हुए। कान = काने, सरकड़ा। मनि = मन में।
अर्थ: हे कबीर! अगर सोने के कुण्डल बने हुए हों, उन कुण्डलों पर लाल जड़े हुए हों, (और ये ‘कुण्डल’ लोगों के कानों में पड़े हुए हों); पर जिनके मन में परमात्मा का नाम नहीं बसता, उनके यह कुण्डल जले हुए तिनकों की तरह दिखते हैं (जो बाहर से तो चमकते हैं, पर अंदर से राख होते हैं)।4।

दर्पण-भाव

भाव: नाम के बिना मनुष्य के अंदर सड़न बनी रहती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर ऐसा एकु आधु जो जीवत मिरतकु होइ ॥ निरभै होइ कै गुन रवै जत पेखउ तत सोइ ॥५॥

मूलम्

कबीर ऐसा एकु आधु जो जीवत मिरतकु होइ ॥ निरभै होइ कै गुन रवै जत पेखउ तत सोइ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: एकु आध = कोई विरला मनुष्य। मिरतकु = मुर्दा, दुनिया के रसों से मुर्दा, दुनियावी सुखों से बेपरवाह। निरभै = निडर, सुख मिले चाहे दुख की परवाह ना हो। रवै = स्मरण करे, याद करे। गुन रवै = प्रभु के गुण चेते करे, गुण गाए। जत = जिधर। पेखउ = मैं देखता हूं। तत = तत्र, उधर।
अर्थ: हे कबीर! ऐसा कोई विरला ही मनुष्य होता है, जो दुनियावी सुखों के प्रति बेपरवाह रहे, सुख मिले चाहे दुख आए- इस बात की परवाह ना करते हुए वह परमात्मा के गुण गाए जिसको मैं जिधर देखता हूँ उधर ही मौजूद है।5।

दर्पण-भाव

भाव: जब तक सांसारिक सुखों की लालसा है, स्मरण नहीं हो सकता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर जा दिन हउ मूआ पाछै भइआ अनंदु ॥ मोहि मिलिओ प्रभु आपना संगी भजहि गुोबिंदु ॥६॥

मूलम्

कबीर जा दिन हउ मूआ पाछै भइआ अनंदु ॥ मोहि मिलिओ प्रभु आपना संगी भजहि गुोबिंदु ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा दिन = (प्रभु के गुण गा के) जिस दिन, जब। हउ मूआ = ‘मैं मैं करने वाला खत्म हो गया, मैं सुखी होऊँ मैं धनी हो जाऊँ ये विचार समाप्त हो गया। पाछै = अहंकार खत्म होने पर। मोहि = मुझे। आपना = मेरा प्यारा। संगी = साथी, मेरी ज्ञान-इंद्रिय। भजहि = स्मरण करने लग जाते हैं।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘गुोबिंदु’ अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘गोबिंद’, यहां ‘गुबिंद’ पढ़ना है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे कबीर! (प्रभु के गुण याद करके) जब मेरा ‘मैं-मैं’ करने वाला स्वभाव खत्म हो गया, तब मेरे अंदर सुख बन गया। (निरा सुख ही ना बना) मुझे मेरा प्यारा ईश्वर मिल गया, और अब मेरी साथी ज्ञान-इंद्रिय भी परमात्मा को याद करती हैं (ज्ञान-इंद्रिय की रुचि ईश्वर की ओर हो गई है)।6।

दर्पण-भाव

भाव: सुख ‘हउ’ (मैं-मैं) के तयाग में है, स्मरण भी ‘हउ’ को छोड़ने से हो सकता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर सभ ते हम बुरे हम तजि भलो सभु कोइ ॥ जिनि ऐसा करि बूझिआ मीतु हमारा सोइ ॥७॥

मूलम्

कबीर सभ ते हम बुरे हम तजि भलो सभु कोइ ॥ जिनि ऐसा करि बूझिआ मीतु हमारा सोइ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हम तजि = मेरे बिना। सभु कोइ = हरेक जीव। जिनि = जिस मनुष्य ने। ऐसा करि = इस तरह। बूझिआ = समझ लिया, सूझ आ गई है।
अर्थ: हे कबीर! (हरि-नाम स्मरण करके अब मेरा ‘मैं-मैं’ करने वाला स्वभाव हट गया है, मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि) मैं सबसे बुरा हूँ, हरेक जीव मुझसे अच्छा है; (सिर्फ यही नहीं) जिस-जिस भी मनुष्य ने इस तरह की समझ प्राप्त कर ली है, वह भी मुझे अपना मित्र मालूम होता है।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस शलोक में पिछले शलोक की कुछ व्याख्या सी है। ‘हउ मूआ’ के ख्याल को समझाया है। ‘हउ’ के भुलेखे में मनुष्य अपने ही अंदर गुण देखता है; पर जब ‘हउ मूआ’ वाली हालत बनती है, तो यह पहले वाला स्वभाव बिल्कुल ही उलट जाता है, फिर दूसरों में भी गुण दिखाई देने लग जाते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर आई मुझहि पहि अनिक करे करि भेस ॥ हम राखे गुर आपने उनि कीनो आदेसु ॥८॥

मूलम्

कबीर आई मुझहि पहि अनिक करे करि भेस ॥ हम राखे गुर आपने उनि कीनो आदेसु ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आई = (यह अहंकार मुझे कुमार्ग पर डालने) आया (‘हउ’ आई)। मुझहि पहि = मेरे पास भी (जैसे यह औरों के पास आती है)। भेस = वेश। करे = कर कर, बार बार करके। अनिक…भेस = कई भेस धार के, कई ढंग बना के, कई तरीकों से, कई शक्लों में। हम = मुझे। उनि = उस (अहंकार) ने। आदेसु = नमस्कार। उनि…आदेसु = उस अहंकार ने नमस्कार की, वह अहंम् झुक गया, वह अहंकार बदल के निम्रता बन गई।
अर्थ: हे कबीर! (ये अहंकार जैसे और लोगों को भरमाने आता है वैसे ही) मेरे पास भी कई शक्लों में आया। पर, मुझे प्यारे सतिगुरु ने (इससे) बचा लिया, और वह ‘अहम्’ बदल के विनम्रता बन गई।8।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: धन, जवानी, विद्या, राज, धरम–करम आदि मनुष्य में ‘अहंकार’ पैदा कर देते हैं। जिस उद्यमों को मनुष्य बहुत अच्छे समझ के करता है वह भी कई बार अहंकार में ले आते हैं। अमृत बेला में उठ के प्रभु को याद करना, जरूरतमंदों की सेवा करनी आदि भले काम हैं, पर अगर मनुष्य रक्ती भर भी अचेत हो जाए, तो यही गुण अहंकार का अवगुण पैदा कर देते हैं कि ‘मैं’ धर्मी हूँ, ‘मैं’ दानी हूँ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर सोई मारीऐ जिह मूऐ सुखु होइ ॥ भलो भलो सभु को कहै बुरो न मानै कोइ ॥९॥

मूलम्

कबीर सोई मारीऐ जिह मूऐ सुखु होइ ॥ भलो भलो सभु को कहै बुरो न मानै कोइ ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सोई = इस अहंकार को ही। जिह मूऐ = जिस अहंकार के मरने से। सभु को = हरेक जीव। भलो भलो कहै = (अहंकार के त्याग को हरेक जीव) सराहता है। कोइ बुरो न मानै = (अहंकार के मारने को) कोई मनुष्य बुरा काम नहीं कहता।
अर्थ: हे कबीर! इस अहम् को ही मारना चाहिए, क्योंकि इसको मारने से सुख मिलता है। अहंकार के त्याग को हरेक मनुष्य सराहता है, कोई मनुष्य इस काम को बुरा नहीं कहता।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर राती होवहि कारीआ कारे ऊभे जंत ॥ लै फाहे उठि धावते सि जानि मारे भगवंत ॥१०॥

मूलम्

कबीर राती होवहि कारीआ कारे ऊभे जंत ॥ लै फाहे उठि धावते सि जानि मारे भगवंत ॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कारीआ = कालियां, अंधेरी। ऊभे = उठ खड़े होते हैं, चल पड़ते हैं। कारे जंत = काले जीव, काले दिलों वाले लोग, चोर आदि विकारी मनुष्य। लै = ले के। उठि धावते = उठ दौड़ते हैं। सि = ऐसे लोग। जानि = जान ले, समझ ले, यकीन रख। मारे भगवंत = ईश्वर के मारे हुए, ईश्वर से बहुत दूर।
अर्थ: हे कबीर! जब रातें अंधेरी होती हैं, तो चोर आदि काले दिल वाले लोग (अपने घरों से) उठ खड़े होते हैं, फंदे ले के (दूसरों का घर लूटने के लिए) चल पड़ते हैं, पर यकीन जानो ऐसे लोग रब की ओर से मारे हुए हैं।10।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शलोक नं: 9 में लिखते हैं कि जो मनुष्य अपने अंदर से अहंकार को मारता है वही सुखी है। जगत भी इस काम को सराहता है। इसके मुकाबले ऐसे लोग भी हैं जो और लोगों को मारने को चल पड़ते हैं, जान तो अपनी भी वे तली पर रख के चलते हैं, पर ये दलेरी धिक्कारयोग्य है। जगत भी धिक्कारें डालता है, और उनके दिल भी काले ही रहते हैं। ऐसे रब से विछुड़े हुए लोगों को भला सुख कहाँ?

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विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर चंदन का बिरवा भला बेड़्हिओ ढाक पलास ॥ ओइ भी चंदनु होइ रहे बसे जु चंदन पासि ॥११॥

मूलम्

कबीर चंदन का बिरवा भला बेड़्हिओ ढाक पलास ॥ ओइ भी चंदनु होइ रहे बसे जु चंदन पासि ॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिरवा = छोटा सा पौधा। बेड़्हिओ = वेड़ा हुआ, घिरा हुआ। पलास = पलाह, छिछरा। ओइ = वह (ढाक पलाह के वृक्ष)। जु = जो वृक्ष। बसे = बसते हैं, उगे हुए हैं। पासि = नजदीक।
अर्थ: हे कबीर! चँदन का छोटा सा भी पौधा बेहतर जानो, चाहे वह ढाक-पलाह जैसे पेड़ों से घिरा हुआ हो। वह (ढाक-पलाह जैसे बेकाम के वृक्ष) भी, जो चँदन के पास उगे हुए होते हैं, चँदन ही हो जाते हैं।11।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: जहाँ अहंकार है वहाँ रब से विछुड़े हुए हैं, उनके दिल काली रातों जैसे काले हैं, वहाँ सुख कहाँ?
दूसरी तरफ, एक छोटा सा, गरीब सा, व्यक्ति भी बहुत भाग्यशाली है अगर उसके अंदर विनम्रता की सुगंधि है। इस सुगंधि से वह अपने आस-पास के बहुतों का बेड़ा पार कर देता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर बांसु बडाई बूडिआ इउ मत डूबहु कोइ ॥ चंदन कै निकटे बसै बांसु सुगंधु न होइ ॥१२॥

मूलम्

कबीर बांसु बडाई बूडिआ इउ मत डूबहु कोइ ॥ चंदन कै निकटे बसै बांसु सुगंधु न होइ ॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बडाई = अहंकार में, ऊँचा लंबा होने के माण में। बूडिआ = डूबा हुआ समझो। कोइ = तुममें से कोई पक्ष। इउ = इस तरह। मत डूबहु = ना डूबना। निकटे = नजदीक। सुगंधु = सुगन्धी वाला।
अर्थ: हे कबीर! बाँस का पौधा (ऊँचा-लंबा होने के) माण में डूबा हुआ है; बाँस चाहे चँदन के पास भी उगा हुआ हो, उसमें चँदन वाली सुगन्धि नहीं आती। (हे भाई!) तुममें से कोई भी बाँस की तरह (अहंकार में) ना डूब जाना।12।

दर्पण-भाव

शलोक 1 से 12 तक मिश्रित भाव:
सुख सिर्फ वहाँ है जहाँ प्रभु की याद है; क्योंकि प्रभु का नाम-जपना ही मनुष्य की ‘मैं-मैं’ का नाश करता है, और सुख ‘मैं-मैं’ के नाश में है। गुरु-दर पर पहुँच के प्रभु की की हुई बँदगी अहम् से हटा के विनम्रता की ओर लाती है। अहंकार को मारना ही ऐसा भला काम है जिसको सारा संसार सराहता है। निम्रता वाला मनुष्य, मानो चँदन का पौधा है जो सबको सुगन्धि देता है। अहंकार के मारे हुए बँदे अंधेरी रातों जैसे काले दिल वाले होते हैं, वे, मानो, बाँस हैं जो चँदन के पास रहते हुए भी चँदन की सुगन्धि से वंचित रहते हैं, और आपस में खह-खह के (रगड़ खा-खा के) जलते रहते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर दीनु गवाइआ दुनी सिउ दुनी न चाली साथि ॥ पाइ कुहाड़ा मारिआ गाफलि अपुनै हाथि ॥१३॥

मूलम्

कबीर दीनु गवाइआ दुनी सिउ दुनी न चाली साथि ॥ पाइ कुहाड़ा मारिआ गाफलि अपुनै हाथि ॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दीनु = धरम, मज़हब। सिउ = खातिर, वास्ते। पाइ = पैर पर। गाफिल = गाफिल (मनुष्य) ने।
अर्थ: हे कबीर! गाफिल मनुष्य ने ‘दुनिया’ (के धन-पदार्थों) की खातिर ‘दीन’ गवा लिया, (आखिर में यह) दुनिया भी मनुष्य के साथ ना चली। (सो) लापरवाह बंदे ने अपने पैरों पर अपने ही हाथ से कोहाड़ा मार लिया (भाव, अपना नुकसान आप ही कर लिया)।13।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर जह जह हउ फिरिओ कउतक ठाओ ठाइ ॥ इक राम सनेही बाहरा ऊजरु मेरै भांइ ॥१४॥

मूलम्

कबीर जह जह हउ फिरिओ कउतक ठाओ ठाइ ॥ इक राम सनेही बाहरा ऊजरु मेरै भांइ ॥१४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जह जह = जहाँ जहाँ। हउ = मैं। कउतक = करिश्मे, तमाशे, रंग तमाशे। ठाओ ठाइ = जगह-जगह पर, हरेक जगह। सनेही = स्नेह करने वाला, प्यार करने वाला। बाहरा = बिना, बगैर। ऊजरु = उजाड़ जगह। मेरै भांइ = मेरे लिए तो। राम सनेही = राम से स्नेह करने वाला, परमात्मा से प्यार करने वाला।
अर्थ: हे कबीर! मैं जहाँ-जहाँ गया हूँ, जगह-जगह ‘दुनिया’ वाले रंग-तमाशे ही (देखें हैं); पर मेरे लिए तो वह जगह उजाड़ है जहाँ परमात्मा के साथ प्यार करने वाला (संत) कोई नहीं (क्योंकि वहाँ ‘दुनिया’ ही ‘दुनिया’ देखी है ‘दीन’ का नाम-निशान नहीं)।14।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर संतन की झुंगीआ भली भठि कुसती गाउ ॥ आगि लगउ तिह धउलहर जिह नाही हरि को नाउ ॥१५॥

मूलम्

कबीर संतन की झुंगीआ भली भठि कुसती गाउ ॥ आगि लगउ तिह धउलहर जिह नाही हरि को नाउ ॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: झुंगीआ = छोटी सी झुग्गी, छोटी यी कुल्ली। भली = सुंदर। भठि = भट्ठी (जैसा)। गाउ = गाँव। कुसती = कुसत्ती, बेईमान, खोटा मनुष्य। आगि = आग लगने से। तिह धउलहर = उस महल माढ़ी को। जिह = जिस (धउलहर) में। को = का। नाउ = नाम।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘आगि’ है हुकमी भविष्यत अन्य-पुरुष, एकवचन है; जैसे ‘भिजउ सिजउ कंबली, अलह वरसउ मेह’ में शब्द ‘भिजउ’ ओर ‘वरसउ’ हैं।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे कबीर! संतों की छोटी सी कुल्ली भी (मुझे) सुंदर (लगती) है, (वहाँ ‘दीन’ विहाजते हैं कमाते हैं) पर खोटे मनुष्य का गाँव (जलती हुई) भट्ठी जैसा (जानो) (वहाँ हर वक्त दुनिया की तृष्णा की आग जल रही है)। जिस महल-माढ़ी में परमात्मा का नाम नहीं स्मरण किया जाता, उसे आग लगे (मुझे ऐसे महल-माढ़ियों की जरूरत नहीं)।15।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर संत मूए किआ रोईऐ जो अपुने ग्रिहि जाइ ॥ रोवहु साकत बापुरे जु हाटै हाट बिकाइ ॥१६॥

मूलम्

कबीर संत मूए किआ रोईऐ जो अपुने ग्रिहि जाइ ॥ रोवहु साकत बापुरे जु हाटै हाट बिकाइ ॥१६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किआ रोईऐ = रोने की जरूरत नहीं, क्यों रोना? ग्रिहि = घर में। अपुने ग्रिहि = अपने घर में, वह घर जो सिर्फ और सिर्फ उसका अपना है, जहाँ से उसे कोई नहीं निकालेगा। जाइ = जाता है। साकत = रब से टूटा हुआ, परमात्मा से विछुड़ा हुआ जीव, जो ‘दुनिया’ की खातिर ‘दीन’ गवा रहा है। बापुरा = बेचारा, बदनसीब, दुर्भाग्यशाली। रोवहु = अफसोस करो। जु = जो। हाटै हाट = दुकान दुकान पर, हरेक दुकान पर, एक हाट से दूसरी हाट पर। बिकाइ = बिकता फिरता है, किए विकारों के बदले भटकता है।
अर्थ: हे कबीर! किसी संत के मरने पर अफसोस करने की आवश्यक्ता नहीं, क्योंकि वह संत तो उस घर में जाता है जहाँ उसको कोई निकालेगा नहीं (भाव, वह संत ‘दीन’ का व्यापारी होने के कारण प्रभु चरणों में जा पहुँचता है); (अगर अफसोस करना ही है) उस अभागे (के मरने) पर अफसोस करो जो प्रभु-चरणों से विछुड़ा हुआ है, (वह अपने किए हुए बुरे कर्मों के बदले में) हरेक हाट पर बिकता है (भाव, सारी ‘दुनिया’ की खातिर भटकना करके अब कई जूनियों में भटकता है)।16।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर साकतु ऐसा है जैसी लसन की खानि ॥ कोने बैठे खाईऐ परगट होइ निदानि ॥१७॥

मूलम्

कबीर साकतु ऐसा है जैसी लसन की खानि ॥ कोने बैठे खाईऐ परगट होइ निदानि ॥१७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साकतु = प्रभु से टूटा हुआ मनुष्य, परमात्मा से विछुड़ा हुआ जीव, जो ‘दुनिया’ की खातिर ‘दीन’ गवा रहा है। लसन = लस्सुन। खानि = कोठी, स्टोर। कोनै = (घर के किसी) कोने में, कहीं छुप के। बैठे = बैठ के। परगट = प्रकट हो जाता है। निदानि = आखिर में, अवश्य।
अर्थ: हे कबीर! जो मनुष्य रब से टूटा हुआ है (जो ‘दुनिया’ की खातिर ‘दीन’ गवाए जा रहा है) उसको यूँ समझो जैसे लस्सुन की भरी हुई कोठरी है। लस्सुन कहीं छुपी हुई जगह भी बैठ के खा लें, तो भी वह हर हाल में (अपनी बदबू से) जाहिर हो जाता है (साकत के अंदर से जब भी निकलेंगे बुरे वचन ही निकलेंगे)।17।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर माइआ डोलनी पवनु झकोलनहारु ॥ संतहु माखनु खाइआ छाछि पीऐ संसारु ॥१८॥

मूलम्

कबीर माइआ डोलनी पवनु झकोलनहारु ॥ संतहु माखनु खाइआ छाछि पीऐ संसारु ॥१८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माइआ = ‘दुनिया’। डोलनी = चाटी, दूध की चाटी। पवनु = हवा, सांस। झकोलहारु = वह चीज जिससे दूध मथा जाता है, मथानी। संतहु = संतों ने, उन लोगों ने जो ‘दुनिया’ की खातिर ‘दीन’ को नहीं गवाते। छाछि = लस्सी। संसारु = ‘दुनिया’ का व्यापारी।
अर्थ: हे कबीर! इस ‘दुनिया’ (‘माया’) को दूध की भरी चाटी समझो, (हरेक जीव की) हरेक सांस (उस चाटी को मथने के लिए) मथानी मिथ लो। (जिनको ये दूध मथने की विधि आ गई, जिन्होंने परमात्मा का स्मरण करते हुए इस माया को बरता, जिन्होंने ‘दुनिया’ का वणज किया पर ‘दीन’ भी गवाने नहीं दिया) उन संत जनों ने (इस मंथन में से) मक्खन (हासिल किया और) खाया (भाव, मनुष्य-जनम का असल उद्देश्य हासिल किया, जैसे दूध को मथने बका मकसद है मक्खन निकालना); पर सिर्फ ‘दुनिया’ का व्यापारी (मानो,) लस्सी ही पी रहा है (मनुष्य-जन्म का असल उद्देश्य नहीं पा सका)।18।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर माइआ डोलनी पवनु वहै हिव धार ॥ जिनि बिलोइआ तिनि खाइआ अवर बिलोवनहार ॥१९॥

मूलम्

कबीर माइआ डोलनी पवनु वहै हिव धार ॥ जिनि बिलोइआ तिनि खाइआ अवर बिलोवनहार ॥१९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वहै = चलती है। हिव = बर्फ। हिवधार = बर्फ की धार वाला, ठंडा, शीतल। पवनु = सांस। पवनु हिवधार वहै = (जिस चाटी में) शांत सांस रूप मथानी चलती है, नाम की ठंडक वाले श्वासों की मथनी हिलती है। जिनि = जिस मनुष्य ने। बिलोइआ = (इस मथानी से) मथा है। अवर = और लोग। बिलोवनहार = सिर्फ मथ ही रहे हैं।
अर्थ: हे कबीर! यह ‘दुनिया’ (‘माया’) मानो, दूध की चाटी है (इस चाटी में नाम की) ठंडक वाले श्वास, मानो, जैसे मथानी चलाई जा रही है। जिस (भाग्यशाली मनुष्य) ने (इस मथानी से दूध) मथा है उसने (मक्खन) खाया है, बाकी के और लोग सिर्फ रिड़क ही रहे हैं (उन्हें मक्खन खाने को नहीं मिलता) (भाव, जो लोग निर्वाह-मात्र माया को बरतते हैं, और साथ-साथ श्वास-श्वास परमात्मा को याद रखते हैं, उनका जीवन शांति भरा होता है, मनुष्य-जन्म का असल उद्देश्य वे प्राप्त कर लेते हैं। पर, जो लोग ‘दीन’ को बिसार के सिर्फ ‘दुनिया’ के पीछे भाग-दौड़ करते हें, वे दुखी होते हैं, और जीवन व्यर्थ गवा देते हैं)।19।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर माइआ चोरटी मुसि मुसि लावै हाटि ॥ एकु कबीरा ना मुसै जिनि कीनी बारह बाट ॥२०॥

मूलम्

कबीर माइआ चोरटी मुसि मुसि लावै हाटि ॥ एकु कबीरा ना मुसै जिनि कीनी बारह बाट ॥२०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चोरटी = चंदरी सी, चोरनी, ठगनी। मुसि = ठग के। मुसि मुसि = ठग के। मुसि मुसि = सदा ठग ठग के। लावै हाटि = दुकान सजाती है। ना मूसै = नहीं ठगा जाता। जिनि = जिस ने। बाहर बाट = बारह टुकड़े।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘चोर’ से ‘चोरटा’ अल्पार्थक संज्ञा पुलिंग है, ‘चोरटी’ इसका स्त्रीलिंग है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे कबीर! ये दुनिया, ये माया, चोरनी है (जो लोग ‘दीन’ बिसार के निरी ‘दुनिया’ की खातिर भटक रहे हें, उनको) ठग-ठग के यह माया अपनी दुकान (और-और) सजाती है। हे कबीर! सिर्फ वही मनुष्य इस ठगी से बचा रहता है जिसने इस माया के बारह टुकड़े कर डाले (जिसने इसकी ठगी को तोड़ के रख दिया है)।20।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर सूखु न एंह जुगि करहि जु बहुतै मीत ॥ जो चितु राखहि एक सिउ ते सुखु पावहि नीत ॥२१॥

मूलम्

कबीर सूखु न एंह जुगि करहि जु बहुतै मीत ॥ जो चितु राखहि एक सिउ ते सुखु पावहि नीत ॥२१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ऐंह जुगि = इस मनुष्य जनम में, यह मनुष्य जनम पा के। करहि जु = तू जो बना रहा है। बहुतै मीत = (कहीं पुत्र, कहीं स्त्री, कहीं धन, कहीं राज-भाग आदिक) कई यार। एक सिउ = एक परमात्मा के साथ। राखहि = जोड़ रखते हैं। ते = वह लोग।
अर्थ: हे कबीर! (‘दीन’ बिसार के, परमात्मा को भुला के तू जो पुत्र स्त्री धन जमीन आदि) कई मित्र बना रहा है, इस मनुष्य जनम में (इन मित्रों से) सुख नहीं मिलेगा। सिर्फ वह मनुष्य सदा सुख पाते हैं जो (‘दुनिया’ में कार्य-व्यवहार करते हुए भी) एक परमात्मा के साथ अपना मन जोड़ के रखते हैं।21।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर जिसु मरने ते जगु डरै मेरे मनि आनंदु ॥ मरने ही ते पाईऐ पूरनु परमानंदु ॥२२॥

मूलम्

कबीर जिसु मरने ते जगु डरै मेरे मनि आनंदु ॥ मरने ही ते पाईऐ पूरनु परमानंदु ॥२२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मरने ते = मरने से, पुत्र स्त्री धन जमीन आदि से मोह तोड़ने की मौत से, ‘दुनिया’ के मोह से मरने से, ‘दुनिया’ से मोह तोड़ने से। जगु डरै = जगत डरता है, जगत संकोच करता है, जगत झकता है। आनंदु = खुशी। मरने ही ते = पुत्रादिक बहुते मित्रों से मोह तोड़ने पर ही। परमानंद = वह परमात्मा जिस में परम आनंद है, वह प्रभु जो ऊँची से ऊँची खुशी का मालिक है।
अर्थ: (‘दुनिया’ की खातिर ‘दीन’ को बिसार के मनुष्य धन-पदार्थ पुत्र स्त्री आदि कई मित्र बनाता है, और इनसे सुख की आस रखता है, इस आस के कारण ही इनसे मोह तोड़ नहीं सकता; पर) हे कबीर! जिस (के त्याग रूप) मौत से जगत डरता है, उससे मेरे मन में खुशी पैदा होती है; ‘दुनिया’ के इस मोह से मरने पर ही वह परमात्मा मिलता है जो मुकम्मल तौर पर आनंद स्वरूप है।22।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम पदारथु पाइ कै कबीरा गांठि न खोल्ह ॥ नही पटणु नही पारखू नही गाहकु नही मोलु ॥२३॥

मूलम्

राम पदारथु पाइ कै कबीरा गांठि न खोल्ह ॥ नही पटणु नही पारखू नही गाहकु नही मोलु ॥२३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पदारथु = सुंदर वस्तु। पाइ कै = हासिल करके, अगर तुझे मिल गया है। पटणु = शहर। पारखू = परख करने वाला, कद्र जानने वाला। गाहकु = खरीदने वाला। मोलु = (‘मरने ही ते पाईऐ’) ‘दुनिया’ से त्याग रूप कीमत।
अर्थ: (जिधर देखो, ‘दुनिया’ की खातिर ही दौड़-भाग है; सो) हे कबीर! (सौभाग्य से) अगर तुझे परमात्मा के नाम की सुंदर (अमूल्य) वस्तु मिल गई है तो ये गठड़ी औरों के आगे ना खोलता फिर। (जगत ‘दुनिया’ में इतना मस्त है कि नाम-पदार्थ के खरीदने के लिए) ना कोई मंडी है ना कोई वस्तु की कद्र करने वाला है, ना यह कोई वस्तु खरीदनी चाहता है, और ना ही कोई इतनी कीमत ही देने को तैयार है (कि ‘दुनिया’ से प्रीति तोड़े)।23।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर ता सिउ प्रीति करि जा को ठाकुरु रामु ॥ पंडित राजे भूपती आवहि कउने काम ॥२४॥

मूलम्

कबीर ता सिउ प्रीति करि जा को ठाकुरु रामु ॥ पंडित राजे भूपती आवहि कउने काम ॥२४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ता सिउ = उस (सत्संगी) से। जा को = जिसका (आसरा)। ठाकुरु = पालक। भूपति = (भू = धरती। पती = खसम) जमीनों के मालिक राजा। कउने काम आवहि = किस काम आते हैं, किसी काम नहीं आते; साथ नहीं निभाते।
अर्थ: हे कबीर! उस (सत्संगी) के साथ सांझ बना जिसका (आसरा) वह परमात्मा है जो सबका पालक है, (‘राम पदारथ’ के बन्जारों से बनी हुई प्रीति आखिर तक निभ सकती है, पर जिन्हें विद्या रात भूमि आदि का माण है, जो ‘दुनिया’ के व्यापारी हैं वह) पण्डित हों चाहे राजा हों चाहे बहुत सारी भूमि के मालिक हों किसी काम नहीं आते।24।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर प्रीति इक सिउ कीए आन दुबिधा जाइ ॥ भावै लांबे केस करु भावै घररि मुडाइ ॥२५॥

मूलम्

कबीर प्रीति इक सिउ कीए आन दुबिधा जाइ ॥ भावै लांबे केस करु भावै घररि मुडाइ ॥२५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आन = और, ‘दुनिया’ वाली। दुबिधा = दोचिक्तापन, सहम। जाइ = दूर हो जाता है। भावै = चाहे। लांबे केस करु = (राख मल मल के) बालों की जटा बढ़ा ले (और ‘दुनिया’ छोड़ के बाहर डेरा जा कर)। घररि मुडाइ = बिल्कुल ही सिर के बाल साफ करा के रोड मोड साधु बन के ‘दुनिया’ त्याग दे। कीए = अगर की जाए।
अर्थ: हे कबीर! (‘दुनिया’ वाला) और-और सहम तब ही दूर होता है जब एक परमात्मा से पयार डाला जाए। (जब तक प्रभु के साथ प्रीति नहीं जोड़ी जाती, ‘दुनिया’ वाली ‘दुबिधा’ नहीं मिट सकती) चाहे (राख मल के) लंबी बालों की जटा रख ले, चाहे बिलकुल ही रोड-मोड कर ले (और जंगलों अथवा तीर्थों पर जा के डेरा लगा ले)।25।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: श्लोक नं: 13 से उनका वर्णन चला आ रहा है जो ‘दीन’ को बिसार के सिर्फ ‘दुनी’ का व्यापार कर रहे हैं; यही विषय शलोक नं: 40 तक चलता है। पिछले शलोक में लिखते हैं कि जिन्होंने विद्या राज भूमि को जिंदगी का आसरा बना रखा है, उनकी सांझ–मित्रता भी ऐतबार योग नहीं होती, क्योंकि ‘दुनी’ वाला आसरा कच्चा है, मनुष्य के अंदर दोचिक्तापन सहम टिका रहता है। और अब कहते हैं कि इस ‘दुबिधा’ को दूर करने का सिर्फ एक ही तरीका है; ‘दुनी’ की जगह ‘दीन’ से प्यार, एक परमात्मा से प्रीत।
लंबी जटाओं वाले अथवा सिर घिसे सन्यासी देख के एक गृहस्थी के मन में ये विचार पैदा हो जाना स्वाभाविक है कि ये लोग तो ‘दुनी’ छोड़ के ‘दीन’ के रास्ते पर पड़े हुए हैं, इनके अंदर तो ‘दुबिधा’ नहीं होगी। कबीर जी कहते हैं सच्चाई ये है कि कोई भी भेख अथवा बाहरी त्याग ‘दुनी’ के मोह से नहीं बचा सकता। सिर्फ प्रभु प्रीति ही कारगर नुस्खा है।
नोट: पिछले शलोक में असली दुनियादारियों का जिक्र है, यहाँ पर उनका जिकर है जो अपनी तरफ से ‘दुनिया’ त्याग गए हैं। कबीर जी के वक्त अभी ‘खालसे’ की तरह पंथ नहीं था, जिस पर कोई नुक्ताचीनी करने की कबीर जी को जरूरत पड़ती अथवा खालसा नुक्ता–निगाह से अपने शलोक को देखते। यहाँ जटाधारियों का ही जिकर है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर जगु काजल की कोठरी अंध परे तिस माहि ॥ हउ बलिहारी तिन कउ पैसि जु नीकसि जाहि ॥२६॥

मूलम्

कबीर जगु काजल की कोठरी अंध परे तिस माहि ॥ हउ बलिहारी तिन कउ पैसि जु नीकसि जाहि ॥२६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जगु = जगत, दुनिया का मोह। अंध = अंधे मनुष्य, वह लोग जिनको ‘दीन’ की कोई समझ नहीं, जिस की आँखें नहीं खुली। तिस महि = उस कोठरी में (जहाँ ‘दुनिया’ के मोह की कालिख है)। काजल = कालिख। बलिहारी = सदके। हउ = मैं। पैसि = पड़ कर, गिर के, बस के। नीकसि जाहि = निकल जाते हैं।
अर्थ: हे कबीर! ‘दुनिया’ का मोह, मानो, एक ऐसी कोठरी है जो कालिख से भरी हुई है; इसमें वे लोग गिर गए हैं जिनकी आँखें बंद हैं (जिनको ‘दीन’ की सूझ नहीं आई, चाहे वह पण्डित राजे भूपति हैं, चाहे जटाधारी सन्यासी आदि हैं)। पर, मैं उन पर से सदके हूँ, जो इसमें गिर के दोबारा निकल आते हैं (जो एक परमात्मा के साथ प्यार डाल के ‘दुनी’ के मोह को त्याग देते हें)।26।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: पंडित हो चाहे राजा भूपति हो, विद्या अथवा बेअंत धन–पदार्थ ‘दुनिया’ के मोह की कालिख–भरी कोठरी में गिरने से बचा नहीं सकते। पर यह भुलेखा है कि जटाधारी व सन्यासी आदि साधु, जो हम गृहस्तियों को तयागी लगते हैं, इस काजल की कोठरी में गिरने से बचे हुए हैं। ये जाहरा त्याग बचाने के काबिल नहीं है। एक प्रभु की प्रीति ही एक मात्र तरीका है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर इहु तनु जाइगा सकहु त लेहु बहोरि ॥ नांगे पावहु ते गए जिन के लाख करोरि ॥२७॥

मूलम्

कबीर इहु तनु जाइगा सकहु त लेहु बहोरि ॥ नांगे पावहु ते गए जिन के लाख करोरि ॥२७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जाइगा = नाश हो जाएगा। सकहु = (अगर वापस कर) सको, यदि नाश होने से रोक सकते हो। त = तो। लेहु बहोरि = रोक लो, बचा लो। ते = वे लोग। नांगे पावहु = नंगे पैर, कंगालों की ही तरह। जिन के = जिस के पास।
अर्थ: हे कबीर! यह सारा शरीर नाश हो जाएगा, यदि तुम इसको नाश होने से बचा सकते हो तो बचा लो (भाव, कोई भी अपने शरीर को नाश होने से नहीं बचा सकता, यह अवश्य ही नाश होगा)। जिस लोगों के पास लाखों-करोड़ों रुपए जमां थे, वे भी यहाँ से नंगे पैर ही (भाव, कंगालों की तरह ही) चले गए (सारी उम्र ‘दुनिया’ की खातिर भटकते रहे, ‘दीन’ को बिसार दिया; आखिर यह ‘दुनिया’ तो यहीं रह गई, यहाँ से आत्मिक जीवन में बिलकुल कंगाल हो के चले)।27।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर इहु तनु जाइगा कवनै मारगि लाइ ॥ कै संगति करि साध की कै हरि के गुन गाइ ॥२८॥

मूलम्

कबीर इहु तनु जाइगा कवनै मारगि लाइ ॥ कै संगति करि साध की कै हरि के गुन गाइ ॥२८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कवनै मारगि = किस रास्ते पर, किसी उस काम में जो फायदेमंद हो। कै = या।
अर्थ: हे कबीर! ये शरीर नाश हो जाएगा, इसको किसी (उस) काम में जोड़ (जो तेरे लिए लाभप्रद हो); सो, साधु-संगत कर और प्रभु की महिमा कर (‘दुनी’ तो यहीं रह जाती है, ‘दीन’ ही साथी बनता है)।28।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: यहाँ शब्द ‘कै’ से यह भाव नहीं है कि मनुष्य ने ‘साध संगति’ और ‘हरि गुन’ में से एक चीज चुननी है। यहाँ भाव ये है: बस! दो ही लाभप्रद काम हैं, ‘साध संगति– और ‘हरि गुन’, तीसरा और कोई नहीं। सो यहां ‘या’ से भाव ‘और’ का लेना है।
कबीर मरता मरता जगु मूआ मरि भी न जानिआ कोइ॥ ऐसे मरने जो मरै बहुरि न मरना होइ॥२९॥ (पन्ना १३६६)
नोट: ‘अैसे मरने जो मरै’ कबीर जी ने यहाँ साफ शब्दों में ये नहीं बताया कि वह ‘अैसे मरने’ से क्या भाव लेते हैं। वैसे शलोक नं: 28 में वे बता आए हैं कि इस नाशवान शरीर को सफल करने के लिए ‘संगति करि साध की, हरि के गुन गाइ’। शब्द ‘अैसे’ बताता है कि इसका जिकर पहले शलोक में किया जा चुका है। जब मनुष्य सिर्फ ‘दुनिया’ की खातिर भटकता है तो इस माया को अपनी जिंदगी का आसरा बना लेता है; फिर हर वक्त ये सहम भी बना रहता है कि राशि-पूंजी हाथ से चली ना जाए, या इस जोड़ी हुई को जल्दी ही ना छोड़ना पड़ जाए, जल्दी ही मौत का नगारा ना आ बजे। सो, सिर्फ ‘दुनिया’ का गाहक मनुष्य इस तरह दिन में कई बार अन–आई मौत ही मरता रहता है, सहम से हर वक्त इसकी सांसें सूखी रहती हैं। इस रोजाना कीमौत से बचने के लिए कबीर जी ने ‘मार्ग’ बताया है ‘संगति करि साध की, हरि के गुन गाइ’। उसी ख्याल को इस शलोक में इशारे-मात्र ही कहते हैं ‘अैसे मरने जो मरै’।
इस ‘अैसे मरने जो मरै’ को गुरु अमरदास जी ने साफ शब्दों में समझा दिया है। देखो बिहागड़े की वार नं: 17।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर मरता मरता जगु मूआ मरि भी न जानिआ कोइ ॥ ऐसे मरने जो मरै बहुरि न मरना होइ ॥२९॥

मूलम्

कबीर मरता मरता जगु मूआ मरि भी न जानिआ कोइ ॥ ऐसे मरने जो मरै बहुरि न मरना होइ ॥२९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मरता मरता = बार बार मरता, रोज रोज मरता, हर रोज मौत के सहम में दबा हुआ। मरि न जानिआ = (मौत के सहम से) मरने की विधि ना सीखी, मौत का सहम खत्म करने का सलीका ना सीखा। ऐसे मरने जो मरै = जो इस तरह माया के प्रति मर जाए (जैसे पिछले शलोक नं: 28 में बताया है) जो साधु-संगत में प्रभु की महिमा करके माया के प्रति मरे। बहुरि = दोबारा, फिर। बहुरि न मरना होइ = उसको बार बार मौत का सहम नहीं होता।
अर्थ: हे कबीर! (निरी ‘दुनिया’ का व्यापारी) जगत हर वक्त मौत के सहम में दबा रहता है, (सिर्फ माया का व्यापारी) किसी को भी समझ नहीं आती कि मौत का सहम कैसे खत्म किया जाए। (साधु-संगत में प्रभु की महिमा करके) जो मनुष्य जीते-जी ही मरता है (‘दुनिया’ से मोह तोड़ता है) उसको फिर यह सहम नहीं रहता।29।

दर्पण-टिप्पनी

कबीर जी के इस ‘अैसे मरने जो मरै’ के भाव को समझाने के लिए गुरु अमरदास जी इस तरह लिखते हैं;
म: ३॥ किआ जाणा किव मरहगे, कैसा मरणा होइ॥ जेकरि साहिब मनहु न वीसरै, ता सहिला मरणा होइ॥ मरणै ते जगतु डरै, जीविआ लोड़ै सभु कोइ॥ गुर परसादी जीवतु मरै, हुकमै बूझै सोइ॥ नानक ऐसी मरनी जो मरै, ता सद जीवणु होइ॥2॥17॥ (पंन्ना 555)
परमात्मा को मन से ना बिसारना और उसकी रजा को समझना–ये है कबीर जी के गूझ भाव की व्याख्या जो सतिगुरु अमरदास जी ने की है; आखिर में हजूर ने कबीर जी के शब्दों को दोहरा कर कह भी दिया है;
नानक ऐसी मरनी जो मरै, ता सद जीवणु होइ॥
कबीर जी लिखते हैं ‘अैसे मरने जो मरै’; सतिगुरु जी लिखते हैं ‘नानक अैसी मरनी जो मरै’। कबीर जी लिखते हैं ‘बहुरि न मरना होइ’; सतिगुरु जी इस ख्याल को और शब्दों में बदल के लिखते हैं ‘ता सद जीवणु होइ’।
ख्याल और शब्दों की ये सांझ सबब से ही नहीं हो गई। गुरु अमरदास जी के पास कबीर जी का यह शलोक हू–ब–हू मौजूद था। कबीर जी ने ख्याल को गूझा सा रखा था, गुरु अमरदास जी ने उसको खुले शब्दों में स्पष्ट कर दिया। सो, ये कहानी गलत है कि भगतों की वाणी गुरु अरजन साहिब ने इकट्ठी की थी। ये तो पहले ही गुरु-व्यक्तियों के पास मौजूद थी (पढ़ें इस पुस्तक की शुरूआती विचार)।

[[1366]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर मानस जनमु दुल्मभु है होइ न बारै बार ॥ जिउ बन फल पाके भुइ गिरहि बहुरि न लागहि डार ॥३०॥

मूलम्

कबीर मानस जनमु दुल्मभु है होइ न बारै बार ॥ जिउ बन फल पाके भुइ गिरहि बहुरि न लागहि डार ॥३०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मानस = मनुष्य का। बारै बार = बार-बार। बन = जंगल। पाके = पके हुए। भइ = जमीन पर। गिरहि = गिरते हैं। डार = डाली।
अर्थ: हे कबीर! मनुष्य जन्म बड़ी मुश्किल से मिलता है, (और, यदि प्रभु का नाम बिसार के सिर्फ ‘दुनिया’ में लग के एक बार हाथ से निकल गया) तो बार-बार नहीं मिलता; जैसे जंगल के पेड़ों के पके हुए फल (जब) जमीन पर गिर जाते हैं तो दोबारा डाली पर नहीं लगते।30।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: जंगल के वृक्षों से गिरे हुए फल किसी के काम भी नहीं आते, और दोबारा डाली पर भी नहीं लग सकते। इस तरह यदि ‘दीन’ को ‘दुनी’ की खातिर गवा दिया, माया की खातिर परमात्मा की याद बिसार रखी, तो यह मिला हुआ जनम भी व्यर्थ गया, और दोबारा मिलता भी नहीं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीरा तुही कबीरु तू तेरो नाउ कबीरु ॥ राम रतनु तब पाईऐ जउ पहिले तजहि सरीरु ॥३१॥

मूलम्

कबीरा तुही कबीरु तू तेरो नाउ कबीरु ॥ राम रतनु तब पाईऐ जउ पहिले तजहि सरीरु ॥३१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तुही तू = तू ही तूं, सिर्फ तू। कबीरु = सबसे बड़ा। तजहि = यदि (हे कबीर!) तू छोड़ दे। सरीरु = शरीर का मोह, देह अध्यास।
अर्थ: (इस मनुष्य-जनम का असल उद्देश्य ‘परमात्मा के नाम की प्राप्ति’ है, इसके लिए यह जरूरी है कि परमात्मा का स्मरण किया जाए; सो) हे कबीर! (सदा ऐसे कह: हे प्रभु!) तू ही सबसे बड़ा है, तेरा ही नाम सबसे बड़ा है। (पर इस महिमा के साथ हे कबीर!) अगर तू पहले अपने शरीर का मोह भी तयागे, तब ही परमात्मा का नाम रूप रत्न मिलता है।31।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर झंखु न झंखीऐ तुमरो कहिओ न होइ ॥ करम करीम जु करि रहे मेटि न साकै कोइ ॥३२॥

मूलम्

कबीर झंखु न झंखीऐ तुमरो कहिओ न होइ ॥ करम करीम जु करि रहे मेटि न साकै कोइ ॥३२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: झंखु = बुड़ बुड़, गिले-गुजारी। न होइ = नहीं हो सकता। करम = बख्शिश। करीम = बख्शिश करने वाले प्रभु जी। मेटि न साकै = कम ज्यादा नहीं कर सकता।
अर्थ: हे कबीर! (‘शरीर त्यागने’ का भाव ये है कि ‘दुनिया’ की खातिर) गिले-शिकवे ना करते रहें, (दुनिया की लालच में फसा हुआ) जो कुछ तू कहता है वही नहीं हो सकता, (महिमा करने के साथ-साथ ये भी यकीन रख कि) बख्शिश करने वाले प्रभु जी जो बख्शिशें (जीवों पर) करते हैं उनको (और जीव) कम-ज्यादा नहीं कर सकता।32।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: पिछले शलोक नं: 31में लिखे हुए ‘जउ पहिले तजहि सरीरु’ की इस शलोक में और व्याख्या की गई है। शरीर का मोह मनुष्य को ‘दुनिया’ की दौड़–भाग की तरफ प्रेरता है, यदि मनुष्य की चाह अनुसार माया ना इकट्ठी हो तो ये गिले–शिकवे करता है। प्रभु के गुण भी गाए, और गिले–शिकवे भी करता रहे– ये दोनों बातें नहीं फबतीं। इसे बँदगी नहीं कहा जाता। उस प्रभु के राज़क होने पर भी यकीन बँधना चाहिए।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर कसउटी राम की झूठा टिकै न कोइ ॥ राम कसउटी सो सहै जो मरि जीवा होइ ॥३३॥

मूलम्

कबीर कसउटी राम की झूठा टिकै न कोइ ॥ राम कसउटी सो सहै जो मरि जीवा होइ ॥३३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कस = (संस्कृत: कष् to test, rub on a touch stone) परखना, पत्थर पर रगड़ना जैसे सोना परखने के लिए घिसाते हैं। वटी = (सं: वट:) रोड़ा, पत्थर। कश वटी = वह रोड़ा जिस पर सोना रगड़ के परखा जाता है कि खरा है कि खोटा। कसउटी = कस वटी। कसउटी राम की = वह कसौटी जिससे मनुष्य की प्रभु के साथ सच्ची प्रीति परखी जा सके। झूठा = झूठ से प्यार करने वाला, सिर्फ ‘दुनिया’ से मोह करने वाला, ‘दीन’ को ‘दुनी’ की खातिर गवाने वाला। सहै = सहता है, पार उतारता है, खरा साबत होता है। मरि जीवा = मर के जीवित होया हुआ, जो ‘दुनिया’ की तरफ से मर के ‘दीन’ पर जीया, जिसने देह अध्यास समाप्त कर दिया है। न टिकै = परख में खरा साबित हीं होता, पूरा नहीं उतरता।
अर्थ: हे कबीर! जो मनुष्य ‘दुनिया’ के साथ मोह करने वाला है वह उस कसौटी पर खरा साबित नहीं होता जिससे मनुष्य की प्रभु से सच्ची प्रीति परखी जाती है। प्रभु के साथ प्रीति की परख में वही मनुष्य पूरा उतरता है जो ‘दुनिया’ के मोह से मर के ‘दीन’ के प्यार में जी पड़ा है।33।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर ऊजल पहिरहि कापरे पान सुपारी खाहि ॥ एकस हरि के नाम बिनु बाधे जम पुरि जांहि ॥३४॥

मूलम्

कबीर ऊजल पहिरहि कापरे पान सुपारी खाहि ॥ एकस हरि के नाम बिनु बाधे जम पुरि जांहि ॥३४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ऊजल = उजले, साफ सुथरे, सफेद, बढ़िया। पहिरहि = पहनते हैं। कापरे = कपड़े। खाहि = खाते हैं। पान सुपारी खाहि = बाँके लगने के लिए पान सुपारी खाते हैं। बाधे = बँधे हुए, शरीर को सजाए रखने के मोह में बँधे। जमपुरि = जम के शहर में, जम के वश में, जम के दबाव में, मौत के सहम में। जोहि = जाते हैं, टिके रहते हैं।
अर्थ: हे कबीर! (सिर्फ ‘दुनिया’ के व्यापारी लोग अपने आप के दिखावे-शौकीनी के लिए) बढ़िया कपड़े पहनते हैं और पान सुपारियां खाते हैं; पर (शरीर को सजाए रखने के मोह से) बँधे हुए वे मौत आदि के सहम में बने रहते हैं क्योंकि वे परमात्मा के नाम से वंचित रहते हैं (‘दीन’ विसार के ‘दुनी’ का मोह हर हालत में दुखदाई है)।34।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर बेड़ा जरजरा फूटे छेंक हजार ॥ हरूए हरूए तिरि गए डूबे जिन सिर भार ॥३५॥

मूलम्

कबीर बेड़ा जरजरा फूटे छेंक हजार ॥ हरूए हरूए तिरि गए डूबे जिन सिर भार ॥३५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बेड़ा = जहाज। जरजरा = बहुत पुराना, जर्जर, खद्दा, भुग्गा। फूटे = फूटे हुए हैं, पड़े हुए हैं। छेंक हजार = हजारों छेद। हरूए हरूए = हल्के हल्के, हल्के भार वाले, जिन्होंने भार नहीं उठाया हुआ। तिरि गए = तैर जाते हैं।
अर्थ: हे कबीर! अगर एक बहुत ही पुराना जहाज़ हो, जिसमें हजारों ही छेंक पड़ गए हों (वह आखिर में समुंदर में डूब ही जाता है, इस जहाज के मुसाफिरों में से) सिर्फ वही लोग तैर के पार लांघ जाते हैं जिन्होंने कोई भार नहीं उठाया होता; पर जिनके सिर पर भार होता है, (वे भार तले दब के) डूब जाते हैं।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इन्सानी जिंदगी मानो, एक बेड़ी है। जीव कई जूनियों में से गुजरता और बेअंत बुरे कर्म करता चला आ रहा है; सो, इस जिंदगी की पुरानी हो चुकी बेड़ी में किए कर्मों के संस्कार, मानो, छेद हो गए हैं। जैसे जहाज़ में छेदों के माध्यम से बाहर से समुंदर का पानी आ के जहाज को डुबा देता है, वैसे ही पिछले बुरे संस्कार इन्सान के अंदर और-और बुरी वासनाएं पैदा करते हैं। इस तरह इन्सानी जीवन की बेड़ी विकारों की लहरों में डूब जाती है। जिन्होंने विकारों का, दुनिया के मोह का, देह अध्यास का, भार नहीं उठाया हुआ होता, वे साफ–सुथरा जीवन गुजार जाते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर हाड जरे जिउ लाकरी केस जरे जिउ घासु ॥ इहु जगु जरता देखि कै भइओ कबीरु उदासु ॥३६॥

मूलम्

कबीर हाड जरे जिउ लाकरी केस जरे जिउ घासु ॥ इहु जगु जरता देखि कै भइओ कबीरु उदासु ॥३६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उदासु = (हड्डी केस आदि के बने शरीर के मोह से) उपराम, निर्मोह।
अर्थ: (‘दीन’ को बिसार के सिर्फ ‘दुनिया’ की खातिर दौड़-भाग करते हुए मनुष्य अपने शरीर में इतना फंस जाता है कि हर वक्त मौत से सहमा रहता है। फिर भी, ये शरीर सदा कायम नहीं रह सकता, मौत आ ही जाती है, तब) हे कबीर! (शरीर को चिखा में डालने पर) हड्डियां लकड़ियों की तरह जलती हैं, केस घास की तरह जलते हैं। इस सारे संसार को ही जलता देख के (भाव, ये देख के कि सभ जीवों का इस शरीर से विछोड़ा आखिर जरूर होता है) मैं कबीर इस शरीर के मोह से उपराम हो गया हूँ (मैंने शरीर का मोह छोड़ दिया है)।36।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर गरबु न कीजीऐ चाम लपेटे हाड ॥ हैवर ऊपरि छत्र तर ते फुनि धरनी गाड ॥३७॥

मूलम्

कबीर गरबु न कीजीऐ चाम लपेटे हाड ॥ हैवर ऊपरि छत्र तर ते फुनि धरनी गाड ॥३७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गरबु = अहंकार, माण। हैवर = है+वर, हय वर, चुने हुए बढ़िया घोड़े। वर = चुनिंदा, बढ़िया। छत्र = छत्र। तर = तले, नीचे। ते फुनि = वह मनुष्य भी, ऐसे लोग भी। धरनी = मिट्टी, धरती। गाड = मिल जाते हैं, रल जाते हैं।
अर्थ: हे कबीर! (इस शरीर की जवानी सुंदरता आदि का) माण नहीं करना चाहिए (आखिर है तो ये) हड्डियों (की मूठ) जो चमड़ी से लपेटी हुई हैं। (इस शरीर का अहंकार करते) वे लोग भी (अंत को) मिट्टी में जा मिले जो बढ़िया घोड़ों पर (सवार होते थे) और जो (झूलते) छतरों तले बैठते थे।37।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर गरबु न कीजीऐ ऊचा देखि अवासु ॥ आजु काल्हि भुइ लेटणा ऊपरि जामै घासु ॥३८॥

मूलम्

कबीर गरबु न कीजीऐ ऊचा देखि अवासु ॥ आजु काल्हि भुइ लेटणा ऊपरि जामै घासु ॥३८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देखि = देख के। अवासु = महल। आजु काल्हि = आजकल में ही। भुइ = जमीन पर। जामै = उग जाता है।38।
अर्थ: हे कबीर! अपना ऊँचा महल देख के (भी) अहंकार नहीं करना चाहिए (ये भी चार दिनों की ही खेल है; मौत आने पर इस महल को छोड़ के) आज या कल मिट्टी में ही मिल जाना है, हमारे (शरीर) पर घास उग आएगा।38।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर गरबु न कीजीऐ रंकु न हसीऐ कोइ ॥ अजहु सु नाउ समुंद्र महि किआ जानउ किआ होइ ॥३९॥

मूलम्

कबीर गरबु न कीजीऐ रंकु न हसीऐ कोइ ॥ अजहु सु नाउ समुंद्र महि किआ जानउ किआ होइ ॥३९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रंकु = कंगाल मनुष्य। नाउ = नाँव, बेड़ी, जिंदगी की बेड़ी। किआ जानउ = मैं क्या जानता हूँ? न हसीऐ = मजाक ना करना।
अर्थ: हे कबीर! (यदि तू धनवान है, तो इस धन-पदार्थ का भी) माण नहीं करना, ना किसी कंगाल को देख के हँसी-मजाक करना। (तेरी अपनी जीवन-) बेड़ी अभी समुंदर में है, पता नहीं क्या हो जाए (ये धन-पदार्थ हाथ से जाने पर देर नहीं लगती)।39।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर गरबु न कीजीऐ देही देखि सुरंग ॥ आजु काल्हि तजि जाहुगे जिउ कांचुरी भुयंग ॥४०॥

मूलम्

कबीर गरबु न कीजीऐ देही देखि सुरंग ॥ आजु काल्हि तजि जाहुगे जिउ कांचुरी भुयंग ॥४०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देही = शरीर, काया। सुरंग = सुंदर रंग वाली। आजु काल्हि = आज कल, थोड़े ही समय में। कांचुरी = कुँज। भुयंग = साँप।
अर्थ: हे कबीर! इस सुंदर रंग वाले शरीर को देख के भी अहंकार नहीं करना चाहिए; ये शरीर भी थोड़े दिनों में ही छोड़ जाओगे जैसे साँप कुँज उतार देता है (प्राण और शरीर का भी पक्का साथ नहीं है)।40।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर लूटना है त लूटि लै राम नाम है लूटि ॥ फिरि पाछै पछुताहुगे प्रान जाहिंगे छूटि ॥४१॥

मूलम्

कबीर लूटना है त लूटि लै राम नाम है लूटि ॥ फिरि पाछै पछुताहुगे प्रान जाहिंगे छूटि ॥४१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लूटना है = अगर दबा दब संभालना है, यदि इकट्ठा करना है। त = तो। लूटि लै = इकट्ठा कर ले। राम नाम है लूटि = परमात्मा के नाम की लूट पड़ी हुई है। फिरि = दोबारा, समय बीत जाने पर।
अर्थ: हे कबीर! (‘दुनिया’ की खातिर क्या भटक रहा है? देख) परमात्मा के नाम की लूट लगी हुई है (दबादब बाँटा जा रहा है), अगर इकट्ठा करना है तो यह नाम-धन इकट्ठा कर। जब प्राण (शरीर में से) निकल गए, समय बीत जाने पर बाद में अफसोस करना पड़ेगा।41।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर ऐसा कोई न जनमिओ अपनै घरि लावै आगि ॥ पांचउ लरिका जारि कै रहै राम लिव लागि ॥४२॥

मूलम्

कबीर ऐसा कोई न जनमिओ अपनै घरि लावै आगि ॥ पांचउ लरिका जारि कै रहै राम लिव लागि ॥४२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोई न जनमिओ = कोई विरला ही होता है। अपनै…आगि = जो अपने घर को आग लगाए, जो अपनत्व को जलाए, जो देह के मोह को समाप्त कर दे। पांचउ लरिका = पाँचों लड़के, माया के पाँचों पुत्र कामादिक। जारि कै = जला के। लागि रहै = लगाए रखे। लिव = तवज्जो/ध्यान की तार।
अर्थ: (पर नाम धन इकट्ठा करने के लिए जरूरी है कि मनुष्य अपनत्व को पहले खत्म करे, और) हे कबीर! (जगत में) ऐसा कोई विरला ही मिलता है जो अपने शरीर मोह को जलाता है, और, कामादिक माया के पाँचों ही पुत्रों को जला के परमात्मा (की याद) में तवज्जो में जोड़े रखता है।42।

विश्वास-प्रस्तुतिः

को है लरिका बेचई लरिकी बेचै कोइ ॥ साझा करै कबीर सिउ हरि संगि बनजु करेइ ॥४३॥

मूलम्

को है लरिका बेचई लरिकी बेचै कोइ ॥ साझा करै कबीर सिउ हरि संगि बनजु करेइ ॥४३॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: पिछले शलोक में शब्द ‘पांचउ लरिका’ में ‘लरिका’ बहुवचन है, यही शब्द इस शलोक में भी उस पहले भाव में ही बरता है। इसी तरह शब्द ‘लरिकी’ भी बहुवचन है।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लरिका = ‘पांचउ लरिका’, कामादिक माया के पाँचों ही पुत्र। लरिकी = लडकियां, आशा तृष्णा ईष्या आदि माया की बेटियां। बेचै = नाम धन के बदले में दे दे, नाम धन खरीदने के लिए यह कामादिक और आशा तृष्णा आदि दे। को है = कोई विरला ही होता है। बेचई = बेचे, बेचता है। साझा = सांझ, सत्संग की सांझ, नाम धन के व्यापार की सांझ। कबीर सिउ = कबीर से, कबीर चाहता है कि मेरे साथ। हरि संगि बनजु = ‘लरिका लरकी’ हरि को दे के हरि के नाम का सौदा। बनजु = सौदा, लेन देन, व्यापार।
अर्थ: कोई विरला ही होता है जो परमात्मा से (उसके नाम का) वणज करता है, जो (नाम-धन खरीदने के लिए कामादिक माया के पाँच) पुत्र और (आशा तृष्णा ईष्या आदि) लड़कियों के बदले में देता है। कबीर चाहता है कि ऐसा मनुष्य (इस व्यापार में) मेरे साथ भी सत्संग की सांझ बनाए।43।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर इह चेतावनी मत सहसा रहि जाइ ॥ पाछै भोग जु भोगवे तिन को गुड़ु लै खाहि ॥४४॥

मूलम्

कबीर इह चेतावनी मत सहसा रहि जाइ ॥ पाछै भोग जु भोगवे तिन को गुड़ु लै खाहि ॥४४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चेतावनी = चेता, याद दिलानी। मत = कहीं। सहसा = हसरत, भ्रम, गुमर। पाछै = अब तक के जीवन में। भोग जु = जो भोग। पाछै भोग जु भोगवे = जो भोग अब तक भोगे हैं। तिन को = उन भोगों के बदले में। तिन को गुड़ु लै खाहि = (उन भोगों की कीमत बस इतनी है कि) उनके बदले में थोड़ा सा गुड़ ले कर खा ले, उनके बदले थोड़ा सा गुड़ ही मिल सकता है (जैसे कोई गाहक दुकान से सौदा ले और बाद में झूँगे के तौर पर थोड़ा सा गुड़ माँग लेता है)।
अर्थ: हे कबीर! मैं तुझे चेतावनी देता हूँ कि कहीं ये भ्रम रह जाए, जो भोग अब तक तूने भोगे हैं (ये ना समझ लेना कि तूने बहुत मौजें माण ली हैं, दरअसल) इनकी पायां बस इतनी ही है (जैसे किसी दुकान से सौदा ले के झूँगे के तौर पर) थोड़ा सा गुड़ लेकर खा लिया।44।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर मै जानिओ पड़िबो भलो पड़िबे सिउ भल जोगु ॥ भगति न छाडउ राम की भावै निंदउ लोगु ॥४५॥

मूलम्

कबीर मै जानिओ पड़िबो भलो पड़िबे सिउ भल जोगु ॥ भगति न छाडउ राम की भावै निंदउ लोगु ॥४५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जानिओ = जाना, समझा था। पढ़िबो भलो = पढ़ना अच्छा है, मनुष्य जीवन का सबसे अच्छा काम विद्या पढ़नी है। पढ़िबे सिउ = पढ़ने से। जोगु = प्रभु चरणों में जुड़ना। निंदउ = बेशक निंदा करे, बुरा कहे।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘निंदउ’ है हुकमी भविष्यत, अंन पुरख, एकवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे कबीर! (यहाँ काशी में उच्च जाति वालों को वेद-शास्त्र आदि पढ़ता देख के) मैंने समझा था कि विद्या पढ़नी मनुष्य जन्म का सबसे अच्छा काम होगा, पर (इन लोगों के निरे वाद-विवाद को देख के मुझे यकीन हो गया है कि ऐसी विद्या) पढ़ने से प्रभु-चरणों में जुड़ना (मनुष्य के लिए) भला है। (सो, इस बात से) जगत बेशक मुझे चाहे बुरा कहता रहे मैं (विद्या के बदले भी) परमात्मा की भक्ति नहीं छोड़ूँगा।45।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: पिछले शलोकों में दुनिया के भोग–पदार्थों से ‘नाम’ को बेहतर कहा है, इस शलोक में विद्या के मुकाबले ‘नाम’ की महत्वता बताई है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर लोगु कि निंदै बपुड़ा जिह मनि नाही गिआनु ॥ राम कबीरा रवि रहे अवर तजे सभ काम ॥४६॥

मूलम्

कबीर लोगु कि निंदै बपुड़ा जिह मनि नाही गिआनु ॥ राम कबीरा रवि रहे अवर तजे सभ काम ॥४६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कि निंदै = क्या निंदा कर सकता है? (उसके द्वारा) ढूँढे हुए अवगुणों को कौन सही मानेगा? बपुड़ा = बेचारा, मूर्ख। जिह मनि = जिस के मन में। गिआनु = समझ, अच्छे बुरे की पहचान। रवि रहे = स्मरण कर रहा है। तजे = तजि, छोड़ के।
अर्थ: हे कबीर! जिस मनुष्य के अंदर (यह) समझ नहीं है (कि विद्या के मुकाबले पर पभू की भक्ति कितनी बहुमूल्य दाति है, वह मनुष्य यदि मेरे इस चयन पर मुझे बुरा कहे) तो उस मनुष्य का यह निंदा करने का कोई अर्थ नहीं है। सो, कबीर (ऐसे लोगों की इस दंतकथा की परवाह नहीं करता, और) परमात्मा का स्मरण कर रहा है, और अन्य सारे (कामों के) मोह का त्याग कर रहा है।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: किसी मनुष्य के अच्छे और बुरे पहलू को सही तरीके से वही मनुष्य परख सकता है जिसे दोनों पक्षों की खुद पहले समझ हो। उसी मनुष्य द्वारा की नुक्ताचीनी का कोई मूल्य पड़ सकता है। कबीर के शलोक नं: 45 में लिखते हैं अगर विद्या और भक्ति में से कोई एक चीज चुननी है तो मैं तो भक्ति को ही पसंद करूँगा। इसमें कोई शक नहीं कि लोग मेरे इस चुनाव की हँसी उड़ाएंगे; इस बारे लोगों के हँसी–मज़ाक की परवाह तब ही की जा सकती है यदि उन्हें विद्या और भक्ति की कुछ समझ हो। परन्तु आम हालत ये है कि लोग बेचारे भक्ति की सार ही नहीं जानते, इसलिए यदि ये लोग मुझे मेरे इस चयन को बुरा कहते हैं तो इनकी नुक्ताचीनी का कौड़ी मूल्य नहीं है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर परदेसी कै घाघरै चहु दिसि लागी आगि ॥ खिंथा जलि कोइला भई तागे आंच न लाग ॥४७॥

मूलम्

कबीर परदेसी कै घाघरै चहु दिसि लागी आगि ॥ खिंथा जलि कोइला भई तागे आंच न लाग ॥४७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परदेसी = यह जीव जो इस जगत में मुसाफिर की तरह चार दिन के लिए रहने आया है, जैसे कोई जोगी किसी बस्ती में दो चार दिन के लिए आ बसता है। घाघरा = (सं: घर्घर, घर घरा a gate, a door) दरवाजा (भाव, ज्ञान इन्द्रिया)। घाघरै = दरवाजे को, ज्ञान इन्द्रियों को। चहु दिसि = चारों तरफ से (भाव, हरेक ज्ञान इन्द्रिय को)। आगि = आग, विकारों की आग (आँखों को ‘पर द्रिसटि विकार’, कानो को निंदा; जीभ को ‘मीठा स्वाद’ इत्यादिक)। खिंथा = गोदड़ी, इस परदेसी जोगी का शरीर रूप गोदड़ी। तागा = इस शरीर गोदड़ी की टाकियों को जोड़ के रखने वाला धागा, जिंद आत्मा। आँच = सेक, विकारों की आग का सेक।
अर्थ: इस परदेसी जीव की ज्ञान-इन्द्रियों को हर तरफ से विकारों की आग लगी हुई है, (जो परदेसी जोगी बेपरवाह हो कर इस आग की गर्मी का आनंद लेता रहा, उसकी) शरीर गोदड़ी (विकारों की आग में) जल के कोयला हो गई, (पर जिस परदेसी जोगी ने इस गोदड़ी के धागे का, इस शरीर में बसते प्राणों का, ख्याल रखा और विकार-अग्नि की गर्मी का रस लेने से संकोच करता रहा, उसकी) आत्मा को (इन विकारों की आग का) सेक भी ना लगा (भाव, वह जलती आग में बच गया)।47।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर खिंथा जलि कोइला भई खापरु फूट मफूट ॥ जोगी बपुड़ा खेलिओ आसनि रही बिभूति ॥४८॥

मूलम्

कबीर खिंथा जलि कोइला भई खापरु फूट मफूट ॥ जोगी बपुड़ा खेलिओ आसनि रही बिभूति ॥४८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खापरु = खप्पर जिसमें जोगी घर-घर से आटा माँगता है, वह मन जो दर-दर पर भटकता है, वह मन जो कई वासनाओं में भटकता फिरता है। फूट मफूट = दुकड़े टुकड़े हो गया, बेअंत वासनाओं के पीछे दौड़ भाग करने लग पड़ा। बपुड़ा = बेचारा, दुर्भाग्यशाली, जिसने इस जनम फेरी में कुछ भी नहीं कमाया। खेलिओ = खेल उजाड़ गया, बाजी हार गया। आसनि = आसन पर, इसके पल्ले। बिभूति = राख।
अर्थ: हे कबीर! (विकारों की आग में पड़ कर जिस बद्नसीब जीव जोगी की) शरीर-गोदड़ी जल के कोयला हो गई और (जिसका) मन-खप्पर दर-दर से वासना की भिक्षा ही इकट्ठी करता रहा, (वह) दुर्भाग्यपूर्ण जीव-जोगी मनुष्य जनम की खेल उजाड़ के ही जाता है, उसके पल्ले खेह-ख्वारी ही पड़ती है।48।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर थोरै जलि माछुली झीवरि मेलिओ जालु ॥ इह टोघनै न छूटसहि फिरि करि समुंदु सम्हालि ॥४९॥

मूलम्

कबीर थोरै जलि माछुली झीवरि मेलिओ जालु ॥ इह टोघनै न छूटसहि फिरि करि समुंदु सम्हालि ॥४९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: थोरै जलि = कम पानी में। थोरै जलि माछुली = कम पानी में मछली।49।
अर्थ: हे कबीर! थोड़े पानी में मछली रहती हो, तो झिउर मछुआरा आ के जाल डाल देता है (वैसे ही अगर जीव दुनियावी भोग विद्या धन आदि को अपने जीवन का आसरा बना ले तो माया के ‘पांचउ लरिका’ आसानी से ही ग्रस लेते हैं)। हे मछली! इस तालाब में रह के तू झिउर के जाल से बच नहीं सकती, अगर बचना है तो समुंदर ढूँढ (हे जीवात्मा! इन भोग-पदार्थों को आसरा बनाने से तू कामादिक की मार से बच नहीं सकती, ये होछे आसरे छोड़, और परमात्मा को तलाश)।49।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: जैसे पानी मछली के प्राणों का आसरा है, वैसे ही परमात्मा जीवातमा का आसरा है। अगर मछली कम पानी वाले छप्पर में रहने लग जाए, तो झिउर आदि आसानी से आ के जाल लगा के उसको पकड़ लेते हैं; वैसे ही यदि जीव धन विद्या दुनियावी भोग आदि को अपने जीवन का आसरा बना ले तो माया के ‘पांचउ लरिका’ आसानी से ही ग्रस लेते हैं। यह टोघनै–इस गड्ढे में, इस छप्पड़ में, इस तालाब में, इन होछे आसरों के अधीन रहने से। समालि–संभाल, आसरा ले।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर समुंदु न छोडीऐ जउ अति खारो होइ ॥ पोखरि पोखरि ढूढते भलो न कहिहै कोइ ॥५०॥

मूलम्

कबीर समुंदु न छोडीऐ जउ अति खारो होइ ॥ पोखरि पोखरि ढूढते भलो न कहिहै कोइ ॥५०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जउ = अगर। खारो = नमकीन, बेस्वादा। पोखर = (सं: पुष्कर = a lake a pond) छप्पड़। पोखरि = तालाब में। पोखरि पोखरि = हरेक छोटे तालाब में। पोखरि पोखरि ढूढते = छोटे छोटे छप्परों में (जिंद का आसरा) ढूँढने से। कोई न कहि है = कोई नहीं कहता।50।
अर्थ: हे कबीर! समुंदर नहीं छोड़ना चाहिए चाहे, (उसका पानी) जितना भी खारा हो, छोटे छोटे तालाबों में (जीवात्मा का आसरा) तलाशने से- कोई नहीं कहता कि ये काम अच्छा है।51।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: दुनिया के भोग स्वादिष्ट लगते हैं, धन विद्या आदि का गर्व भी हिलौरे में ले आता है। प्रभु की याद इनके मुकाबले में बेस्वादी चीज प्रतीत होती है, स्वै वारना पड़ता है। पर, फिर भी प्रभु के नाम के सामने दुनिया वाले ये सारे आसरे होछे हैं; इनकी टेक रखने से कामादिक आ दबाते हैं, जीवन के राह से भटक जाते हैं, जीवन के राह से भटक जाते हैं, और अंत फिटकारें ही मिलती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर निगुसांएं बहि गए थांघी नाही कोइ ॥ दीन गरीबी आपुनी करते होइ सु होइ ॥५१॥

मूलम्

कबीर निगुसांएं बहि गए थांघी नाही कोइ ॥ दीन गरीबी आपुनी करते होइ सु होइ ॥५१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुसांई = गो+साई, धरती का साई, प्रभु पति। निगुसाइआ = निखसमा। निगुसांए = निखसमे। बहि गए = बह गए। थांघी = मल्लाह, गुरु मल्लाह। दीन = दीनता, निम्रता। आपुनी = (जिन्होंने) अपनी (बनाई)। करते होइ सु होइ = कर्तार द्वारा जो होता है सो (सही) होता है, उनको कर्तार की रज़ा मीठी लगती है।
अर्थ: हे कबीर! (यह संसार, मानो समुंदर है, जिसमें से जीवों के जिंदगी के बेड़े तैर के गुजर रहे हैं, पर) जो बेड़े निखस्मे (मालिक के बगैर) होते हैं जिस पर कोई गुरु-मल्लाह नहीं होता, वे डूब जाते हैं। जिस लोगों ने (अपनी समझदारी छोड़ के) निम्रता और गरीबी धार के (गुरु-मल्लाह का आसरा लिया है, वे संसार-समुंदर की लहरें देख के) जो होता है उसको कर्तार की रजा जान के बेफिक्र रहते हैं (उनको अपने बेड़े के डूबने का कोई फिक्र नहीं होता है)।51।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: यह संसार, मानो, एक समुंदर है जिसमें विकारों की लहरें चल रही हैं। हरेक प्राणी की जिंदगी, मानो, एक छोटी सी बेड़ी है जो इस समुंदर में तैर के गुजरनी है। दरिया में से बेड़ी और समुंदर में से जहाज तब ही सही–सलामत पार लांघ सकते हैं अगर इनको चलाने वाले मल्लाह समझदार हों। निखसमों और मल्लाह–हीन बेड़ियां लहरों में फस के अवश्य डूब जाती हैं। इसी तरह जिस प्राणियों की जिंदगी–रूप बेड़ियों का कोई गुरु–मल्लाह नहीं होता, वे बेड़ियां विकारों की लहरों से ठोकरें खा के डूब जाती हैं। पर जिन्होंने अपनी चतुराई छोड़ के निम्रता से गुरु–मल्लाह का आसरा देखा है, वे इन लहरों से नहीं डरते, उनको अपने गुरु पर यकीन होता है कि वह पार लंघा लेगा।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर बैसनउ की कूकरि भली साकत की बुरी माइ ॥ ओह नित सुनै हरि नाम जसु उह पाप बिसाहन जाइ ॥५२॥

मूलम्

कबीर बैसनउ की कूकरि भली साकत की बुरी माइ ॥ ओह नित सुनै हरि नाम जसु उह पाप बिसाहन जाइ ॥५२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बैसनउ = वैश्णव, परमात्मा का भक्त। कूकरि = कुक्ती (कूकरु = कुक्ता)। साकत = रब से टूटा हुआ व्यक्ति, मनमुख। माइ = माँ। बुरी = खराब, दुर्भाग्यपूर्ण। ओह = वह भक्त। जसु = यश, बड़ाई। बिसाहण = विहाजने।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘ओह’ शब्द पुलिंग है, शब्द ‘उह’ स्त्रीलिंग है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे कबीर! (किसी) भक्त की कुक्ती भी भाग्यशाली जान, पर रब से टूटे हुए व्यक्ति की माँ भी दुर्भागिनी है; क्योंकि वह भक्त सदा हरि-नाम की बड़ाई करता है उसकी संगति में रह के वह कुक्ती भी सुनती है, (साकत नित्य पाप कमाता है, उसके कुसंग में) उसकी माँ भी पापों की भागणि बनती है।52।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर हरना दूबला इहु हरीआरा तालु ॥ लाख अहेरी एकु जीउ केता बंचउ कालु ॥५३॥

मूलम्

कबीर हरना दूबला इहु हरीआरा तालु ॥ लाख अहेरी एकु जीउ केता बंचउ कालु ॥५३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुबला = कमजोर। हरना = जीव हिरन। इहु = यह जगत। इहु तालु = ये जगत-रूप तालाब। हरीआला = हरियाली भरा, जिसमें मायावी भोगों की हरियाली है। अहेरी = शिकारी, बेअंत विकार। एकु = अकेला। जीउ = जीव, जिंद। केता कालु = कितना समय? ज्यादा समय तक नहीं। बंचउ = मैं बच सकता हूँ।
अर्थ: हे कबीर! यह जगत एक ऐसा सरोवर है जिसमें बेअंत मायावी भोगों की हरियाली है, मेरा ये जिंद-रूप हिरन कमजोर है (इस हरियाली की तरफ जाने से रह नहीं सकता)। मेरी जिंद अकेली है (इसको फसाने के लिए मायावी भोग) लाखों शिकारी हैं (इनकी मार से अपने उद्यम से) मैं ज्यादा समय बच नहीं सकता।53।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर गंगा तीर जु घरु करहि पीवहि निरमल नीरु ॥ बिनु हरि भगति न मुकति होइ इउ कहि रमे कबीर ॥५४॥

मूलम्

कबीर गंगा तीर जु घरु करहि पीवहि निरमल नीरु ॥ बिनु हरि भगति न मुकति होइ इउ कहि रमे कबीर ॥५४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तीर = किनारे पर। जु = अगर। करहि = तू बना ले। निरमल = साफ। नीरु = पानी। मुकति = (‘लाख अहेरी’ आदि विकारों से) खलासी। इउ कहि = इस तरह कह के। रमे = (प्रभु का नाम) स्मरण करता है।
अर्थ: हे कबीर! यदि तू गंगा के किनारे पर (रहने के लिए) अपना घर बना ले, तो (गंगा का) साफ पानी पीता रहे, तो भी परमात्मा की भक्ति किए बिना (‘लाख अहेरी’ आदि विकारों से) मुक्ति नहीं हो सकती। कबीर तो ये बात बता के परमात्मा का नाम ही स्मरण करता है।54।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर मनु निरमलु भइआ जैसा गंगा नीरु ॥ पाछै लागो हरि फिरै कहत कबीर कबीर ॥५५॥

मूलम्

कबीर मनु निरमलु भइआ जैसा गंगा नीरु ॥ पाछै लागो हरि फिरै कहत कबीर कबीर ॥५५॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे कबीर! (गंगा आदि तीर्थों के साफ जल के किनारे रिहायश रखने से तो कामादिक विकार खलासी नहीं करते, और ना ही मन ही पवित्र हो सकता है, पर) जब (परमात्मा के नाम का स्मरण करने से) मेरा मन गंगा के साफ पानी जैसा पवित्र हो गया, तो परमात्मा मुझे कबीर कबीर कह के (आवाजें मारता) मेरे पीछे चलता फिरेगा।55।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शलोक नं: 54 और 55 मिश्रित ख्याल देते हैं कि तीर्थ पर रिहायश रखने से मन विकारों से नहीं बचता, स्मरण से ही पवित्र होता है, और इतना पवित्र हो जाता है कि परमात्मा खुद मनुष्य के अंदर आ प्रकट होता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर हरदी पीअरी चूंनां ऊजल भाइ ॥ राम सनेही तउ मिलै दोनउ बरन गवाइ ॥५६॥

मूलम्

कबीर हरदी पीअरी चूंनां ऊजल भाइ ॥ राम सनेही तउ मिलै दोनउ बरन गवाइ ॥५६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरदी = हल्दी। पीअरी = पीली, पीले रंग की। ऊजल भाइ = सफेद रंग पर, सफेद। सनेही = स्नेह करने वाला, प्यार करने वाला। तउ = तब। दोनउ बरन = दोनों ऊँची और नीच जाति (का भेदभाव)।56।
अर्थ: हे कबीर! हल्दी पीले रंग की होती है, चूना सफेद होता है (पर जब ये दोनों मिलते हैं तो दोनों का रंग दूर हो जाता है; इसी तरह) परमात्मा से प्यार करने वाला मनुष्य परमात्मा को तब मिला हुआ समझो, जब मनुष्य ऊँच-नीच जातियों (का भेद) मिटा देता है, (और उसके अंदर सब जीवों में एक प्रभु की ज्योति ही देखने की सूझ पैदा हो जाती है)।56।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर हरदी पीरतनु हरै चून चिहनु न रहाइ ॥ बलिहारी इह प्रीति कउ जिह जाति बरनु कुलु जाइ ॥५७॥

मूलम्

कबीर हरदी पीरतनु हरै चून चिहनु न रहाइ ॥ बलिहारी इह प्रीति कउ जिह जाति बरनु कुलु जाइ ॥५७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पीरतनु = पिलत्तन, पीला रंग। हरै = दूर कर देती है। चून चिहनु = चूने का सफेद रंग, चूने का चिन्ह। न रहाइ = नहीं रहता। बलिहारी = सदके, कुर्बान। जिह = जिस प्रीति की इनायत से।57।
अर्थ: हे कबीर! (जब हल्दी और चूना मिलते हैं तो) हल्दी अपना पीला रंग छोड़ देती है, चूने का सफेद रंग नहीं रहता, (इस तरह नाम-जपने की इनायत से नीच जाति वाले मनुष्य के अंदर से नीच जाति वाली ढहिंदी कला नीच सूझ मिट जाती है, और ऊँची जाति वाले के मन में से उच्चता का घमण्ड दूर हो जाता है)। मैं सदके हूँ इस प्रभु-प्रीति से, जिस सदका ऊँच नीच जाति वर्ण कुल (का फर्क) मिट जाता है।57।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: जैसे गंगा आदि तीर्थों का स्नान ‘पांचउ लरिका’ और ‘लाख अहेरी’ की मार से नहीं बचा सकता, वैसे उच्च जाति में जन्म होना भी कोई सहायता नहीं कर सकता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर मुकति दुआरा संकुरा राई दसएं भाइ ॥ मनु तउ मैगलु होइ रहिओ निकसो किउ कै जाइ ॥५८॥

मूलम्

कबीर मुकति दुआरा संकुरा राई दसएं भाइ ॥ मनु तउ मैगलु होइ रहिओ निकसो किउ कै जाइ ॥५८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुकति दुआरा = वह दरवाजा जिसमें गुजर के ‘लाख अहेरी’ और ‘पांचउ लरिका’ से खलासी हो सकती है। संकुरा = संकुचित, भीड़ा। दसऐं भाइ = दसवां हिस्सा। मैगल = (सं: मदकल) मस्त हाथी, तीर्थ स्नान और उच्च जाति में जन्म के अहंकार से हाथी की तरह मस्त हुआ। किउ कै = कैसे? किस तरह? (भाव, नहीं)। निकसो जाइ = पार किया जाए।58।
अर्थ: हे कबीर! वह दरवाजा जिसमें से लांघ के ‘लाख अहेरी’ और ‘पांचउ लरिका’ से खलासी होती है, बहुत सँकरा है, राई के दाने से भी दसवाँ हिस्सा समझो, पर जिस मनुष्य का मन तीर्थ-स्नान और ऊँची जाति में जन्म लेने के अहंकार से मस्त हाथी जैसा बना हुआ है, वह इस दरवाजे में से नहीं गुजर सकता।58।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर ऐसा सतिगुरु जे मिलै तुठा करे पसाउ ॥ मुकति दुआरा मोकला सहजे आवउ जाउ ॥५९॥

मूलम्

कबीर ऐसा सतिगुरु जे मिलै तुठा करे पसाउ ॥ मुकति दुआरा मोकला सहजे आवउ जाउ ॥५९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तुठा = प्रसन्न हो के। पसाउ = प्रसाद, मेहर, कृपा। मोकला = खुला। सहजे = सहज में, अडोल अवस्था में टिक के। ‘पांचउ लरिका’ और ‘लाख अहेरी’ की घबराहट से परे रह के। आवउ जाउ = बेशक काम काज करते रहो।59।
अर्थ: हे कबीर! अगर कोई ऐसा गुरु मिल जाए, जो प्रसन्न हो के (मनुष्य पर) मेहर करे तो वह दरवाजा जिससे इन कामादिकों से मुक्ति हो सकती है, खुला हो जाता है, (गुरु दर से मिली) अडोल अवस्था में टिक के फिर बेशक काम-काज करते फिरो।59।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: कबीर जी के इन शलोकों के साथ मिला कर गुरु अमरदास जी का निम्न-लिखित शलोक पढ़ो जो राग गूजरी की वार महला ३ की पउड़ी ४ के साथ दर्ज है;
नानक मुकति दुआरा अति नीका, नान्हा होइ सु जाइ॥ हउमै मनु असथूलु है, किउकरि विचुदे जाइ॥ सतिगुरि मिलिऐ हउमै गई, जोति रही सभ आइ॥ इहु जीउ सदा मुकतु है सहजे रहिआ समाइ॥२॥४॥
गुरु अमरदास जी ने कबीर जी के शब्द ‘मैगल’ की व्याख्या कर दी है ‘हउमै मनु असथूलु’। ‘तुठा’ गुरु क्या ‘पसाउ’ करता है? ‘सतिगुरि मिलिअै हउमै गई’।
एक बात साफ स्पष्ट है। जब गुरु अमरदास जी ने ये शलोक लिखा था, कबीर जी के ये दोनों शलोक उनके पास मौजूद थे। यह कहानी गलत है कि भगतों की वाणी गुरु अरजन साहिब ने एकत्र की थी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर ना मुोहि छानि न छापरी ना मुोहि घरु नही गाउ ॥ मत हरि पूछै कउनु है मेरे जाति न नाउ ॥६०॥

मूलम्

कबीर ना मुोहि छानि न छापरी ना मुोहि घरु नही गाउ ॥ मत हरि पूछै कउनु है मेरे जाति न नाउ ॥६०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुोहि = मेरे पास। छानि = छंन। छापरी = कुल्ली। गाउ = गाँव। मत = शायद, कहीं। मेरे = मेरे पास (आसरा)। नाउ = नाम, मल्कियत की बड़ाई, शोभा।60।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘मुोहि’ असल में है ‘मोहि’ यहां ‘मुहि’ पढ़ना है। पाठ की चाल को ठीक रखने के लिए एक मात्रा घटानी है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे कबीर! मेरे पास ना कोई छंन ना कुल्ली; ना मेरे पास कोई घर ना गाँव; जैसे मेरे मन में जाति का कोई भेद-भाव नहीं वैसे ही मल्कियत की शोभा की भी कोई चाह नहीं (अगर जाति अभिमान और माया की ममता छोड़ दें तो) शायद परमात्मा (हमारी) बात पूछ ले।60।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: जैसे तीर्थ–स्नान और ऊँची जाति व कुल का आसरा स्मरण नहीं करने देते, बल्कि ‘लाख अहेरी’ और पांचउ लरिका’ के जाल में फसा देते हें, वैसे ही जायदाद की मल्कियत, माया की ममता भी प्रभु-चरणों में जुड़ने नहीं देती।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर मुहि मरने का चाउ है मरउ त हरि कै दुआर ॥ मत हरि पूछै कउनु है परा हमारै बार ॥६१॥

मूलम्

कबीर मुहि मरने का चाउ है मरउ त हरि कै दुआर ॥ मत हरि पूछै कउनु है परा हमारै बार ॥६१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुहि = मुझे। मरने का = स्वै भाव मिटाने का, अच्छे कर्म उच्च जाति ओर मल्कियत के घमण्ड से मरने का। चाउ = तमन्ना, चाव। मरउ = यदि मैं ये मौत मरना चाहता हूँ। त = तो। बार = दरवाजे पर।61।
अर्थ: हे कबीर! मेरे अंदर तमन्ना है कि मैं स्वै-भाव मिटा दूँ, ममता खत्म कर दूँ; पर ये स्वै-भाव तब ही मिट सकता है अगर प्रभु के दर पर गिर जाएं, (इस तरह कोई अजब बात नहीं कि मेहर करके वह बख्शिंद) प्रभु पूछ ही बैठे कि मेरे दरवाजे पर कौन गिरा पड़ा है।61।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ममता त्यागनी है, पर यह त्याग के भी प्रभु के दर से बख्शिश की आस रखनी है, ममता के त्याग से कोई हक नहीं बन जाता कि अब जरूर मिल जाएगा।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर ना हम कीआ न करहिगे ना करि सकै सरीरु ॥ किआ जानउ किछु हरि कीआ भइओ कबीरु कबीरु ॥६२॥

मूलम्

कबीर ना हम कीआ न करहिगे ना करि सकै सरीरु ॥ किआ जानउ किछु हरि कीआ भइओ कबीरु कबीरु ॥६२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नाह हम कीआ = मैंने यह काम नहीं किया, ये मेरी हिम्मत नहीं थी कि कामादिक ‘लाख अहेरी’ की मार से बच के मैं प्रभु-चरणों में जुड़ सकता। न करहिगे = आगे को भी मेरे में ये ताकत नहीं आ सकती कि मैं इन विकारों का मुकाबला खुद कर सकूँ। ना करि सकै सरीरु = मेरा ये शरीर भी अपने आप इतनी हिम्मत करने के लायक नहीं, क्योंकि इसके ज्ञान इन्द्रिए विकारों की तरफ ही प्रेरित कर रहे हैं। किआ जानउ = क्या पता? कोई अजीब बात नहीं कि, असल बात ये होगी कि। किछु = जो कुछ किया है, कामादिक को जीत के जो भी भक्ति की है। कबीरु = बड़ा।
अर्थ: हे कबीर! ये मेरी हिम्मत नहीं थी कि कामादिक ‘लाख अहेरी’ की मार से बच के मैं प्रभु-चरणों में जुड़ सकता; आगे को भी मेरे मन में ताकत नहीं आ सकती कि खुद इन विकारों का मुकाबला करूँ; मेरा ये शरीर इतने लायक है ही नहीं। असल बात ये है कि कामादिकों को जीत के जो थोड़ी-बहुत भक्ति मुझसे हुई है यह सब कुछ प्रभु ने आप किया है और (उसकी मेहर से) कबीर (भक्त) मशहूर हो गया है।62।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: पिछले शलोक में के ‘मत हरि पूछै कउनु है’ के ख्याल को फिर दोहराया है कि प्रभु के चरणों का प्यार केवल प्रभु की अपनी दाति है, जिस पर मेहर करे उसी को मिलती है। जगत में ‘लाख अहेरी’ हैं, मनुष्य अपनी हिम्मत से इनसे बच नहीं सकता, प्रभु खुद सहायता करे तो ही इनके पंजे से निकला जा सकता है।
नोट: इस शलोक के साथ यज्ञ आदि की कच्ची कहानियां जोड़ के अपनी समझ का मजाक बनाने वाली बात है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर सुपनै हू बरड़ाइ कै जिह मुखि निकसै रामु ॥ ता के पग की पानही मेरे तन को चामु ॥६३॥

मूलम्

कबीर सुपनै हू बरड़ाइ कै जिह मुखि निकसै रामु ॥ ता के पग की पानही मेरे तन को चामु ॥६३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुपनै हू = सपने में। बरड़ाइ कै = सोते हुए सपने में कई बार बातें करने लग जाते हैं, इसको बरड़ाना कहते हैं। जिह मुखि = जिस मनुष्य के मुँह से। निकसै = निकले। पग = पैर। पानही = (सं: उपानह) जूती। चामु = चमड़ी, खाल।63।
अर्थ: हे कबीर! सोए हुए सपने में ऊँचा बोलने से अगर किसी मनुष्य के मुँह से परमात्मा का नाम निकले तो उसके पैरों की जूती के लिए मेरे शरीर की खाल हाजिर है (भाव, मैं हर तरह से उसकी सेवा करने को तैयार हूँ)।63।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: जो काम सारा दिन करते रहें, जिस तरफ सारा दिन तवज्जो जुड़ी रहे, रात को सोते हुए भी आम तौर पर तवज्जो ने उधर ही जाना है और उन्हीं कामों के सपने आने हैं। सालाना इम्तिहान के दिनों में विद्यार्थी पढ़ने में दिन–रात एक कर देते हैं, तो सोए हुए भी वही विषय वही किताबें पढ़ते जाते हैं।
इसी तरह दिन में काम–काज करते हुए जिस मनुष्य की तवज्जो प्रभु की याद में जुड़ी रहती है, उसी को सपने में भी रब याद आ सकता है।
कबीर जी इस शलोक में अपने स्वाभाविक गूझ ढंग से कहते हैं कि दिन के वक्त काम–काज करते हुए तवज्जो प्रभु-चरणों में जोड़ो, रात को सोते हुए अपने आप तवज्जो प्रभु में जुड़ी रहेगी; और, इस तरह उठते–बैठते सोते–जागते हर वक्त प्रभु-चरणों में जुड़ने की आदत बन जाएगी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर माटी के हम पूतरे मानसु राखिओु नाउ ॥ चारि दिवस के पाहुने बड बड रूंधहि ठाउ ॥६४॥

मूलम्

कबीर माटी के हम पूतरे मानसु राखिओु नाउ ॥ चारि दिवस के पाहुने बड बड रूंधहि ठाउ ॥६४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पूतरे = पुतले। पाहुने = प्राहुणे मेहमान। रूंधहि = हम मलते हैं। ठाउ = जगह। बड बड = ज्यादा ज्यादा, और-और। मानसु = मनुष्य।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘राखिओु’ में ‘उ’ जिसे हिन्दी में यहाँ ‘अ’ के रूप में लिखा गया है के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’। असल शब्द ‘राखिओ’ है, यहाँ पाठ की चाल को ठीक रखने के लिए ‘राखिउ’ पढ़ना है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे कबीर! हम मिट्टी की पुतलियां हैं, हमने अपने आप का नाम तो मनुष्य रख लिया है (पर रहे हम मिट्टी के पुतले ही, क्योंकि जिस परमात्मा ने हमारा यह पुतला सजा के इस में अपनी ज्योति डाली है उसको बिसार के मिट्टी से ही प्यार कर रहे हैं); हम यहाँ चार दिनों के लिए मेहमान हैं पर ज्यादा से ज्यादा जगह कब्जा करते जा रहे हैं।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: जो तवज्जो सारा दिन सिर्फ ये भी वो भी पा लेने में लगी रहें, वे रात को सोते हुए भी प्रभु-चरणों में नहीं लग सकती।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर महिदी करि घालिआ आपु पीसाइ पीसाइ ॥ तै सह बात न पूछीऐ कबहु न लाई पाइ ॥६५॥

मूलम्

कबीर महिदी करि घालिआ आपु पीसाइ पीसाइ ॥ तै सह बात न पूछीऐ कबहु न लाई पाइ ॥६५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: महिदी करि = महिंदी की तरह। घालिआ = मेहनत की। आपु = अपने आप को। पीसाइ पीसाइ = पीस पीस के, तप आदिक कष्ट दे दे के। सह = हे खसम! तै बात न पूछीऐ = तूने बात भी नहीं पूछी, तू ध्यान भी ना दिया, तूने पलट के देखा भी नहीं। कबहु = कभी भी। न लाई पाइ = पैरों पर ना लगाया, चरणों में ना जोड़ा (जैसे पीसी हुई मेंहंदी कोई पैरों पर लगाता है)।
अर्थ: हे कबीर! (मेहंदी पीस-पीस के बारीक की जाती है, और फिर पैरों पर लगाई जाती है। इस तरह मेहंदी द्वारा सहे हुए कष्ट, मानो, स्वीकार हो जाते हैं; पर) जिस मनुष्य ने तप आदि से कष्ट दे कर बड़ी मेहनत की जैसे मेहंदी को पीस-पीस के बारीक किया जाता है, हे प्रभु! तूने उसकी की हुई मेहनत की तरफ तो पलट के देखा भी नहीं, तूने उसको कभी अपने चरणों से नहीं जोड़ा।65।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: जिंदगी की सारी दौड़–भाग ‘ये भी वो भी पा लेने’ के लिए नहीं होनी चाहिए, पर दूसरी तरफ, दुनिया छोड़ के धूनीयां तपाने से, उल्टा लटकने से और ऐसे अनेक कष्ट शरीर को देने से भी रब नहीं मिलता। दुनिया के काम–काज करने हैं और हक की मेहनत-कमाई करते हुए उसके दर से नाम की दाति भी माँगनी है, उसकी याद केवल उसकी बख्शिश है बख्शिश। किसी जप–तप का कोई माण नहीं किया जा सकता, कोई हक नहीं जताया जा सकता।
नोट: रामकली की वार म: ३ की पउड़ी नं2 के साथ कबीर जी का ये शलोक दर्ज है, और इस शलोक के साथ गुरु अमरदास जी का नीचे दिया हुआ शलोक है;
म: ३॥ नानक महिदी करि कै रखिआ, सो सहु नदरि करेइ॥ आपे पीसै आपे घसै, आपे ही लाइ लएइ॥ इहु पिरमु पिआला खसम का, जै भावै ते देइ॥२॥२॥
दोनों शलोकों को मिला के पढ़ें। ये शलोक लिखने के वक्त गुरु अमरदास जी के पास कबीर जी का शलोक मौजूद था। सो, यह कहानी गलत है कि भगतों की वाणी गुरु अरजन साहिब ने इकट्ठी की थी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर जिह दरि आवत जातिअहु हटकै नाही कोइ ॥ सो दरु कैसे छोडीऐ जो दरु ऐसा होइ ॥६६॥

मूलम्

कबीर जिह दरि आवत जातिअहु हटकै नाही कोइ ॥ सो दरु कैसे छोडीऐ जो दरु ऐसा होइ ॥६६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हटकै = रोक डालता है, टोकता है, जिंदगी की सही राह से रोकता है। आवत जातिअहु = आने जाने वाले को, जो सदा आता जाता रहे, जो सदा टिका रहे, सदा टिके रहने वाले को। कोइ = ‘लाख अहेरी’ ‘पांचउ लरिका’ में से कोई भी। कैसे छोडीऐ = छोड़ना नहीं चाहिए। ऐसा = ऐसा। दरु = दरवाजा, प्रभु के चरण, प्रभु का आसरा।
अर्थ: हे कबीर! जो दरवाजा ऐसा है कि उस दर पर टिके रहने से (‘लाख अहेरी’ ‘पांचउ लरिका’ आदि में से) कोई भी (जीवन की) सही राह में से रोक नहीं डाल सकता, वह दर कभी छोड़ना नहीं चाहिए।66।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर डूबा था पै उबरिओ गुन की लहरि झबकि ॥ जब देखिओ बेड़ा जरजरा तब उतरि परिओ हउ फरकि ॥६७॥

मूलम्

कबीर डूबा था पै उबरिओ गुन की लहरि झबकि ॥ जब देखिओ बेड़ा जरजरा तब उतरि परिओ हउ फरकि ॥६७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जरजरा = बहुत पुराना। डूबा था = डूब चला था। पै = पर। उबरिओ = निकल आया, डूबने से बच गया। झबकि = झबके से, झटके से। लहरि झबकि = लहरों के धक्के से। गुन = प्रभु की महिमा। गुन झबकि = प्रभु की महिमा रूप लहर के हुल्लारे से। हउ = मैं। फरकि = छलांग से, छलांग मार के, तुरंत।
अर्थ: हे कबीर! (संसार-समुंदर में) मैं डूब चला था, पर प्रभु की महिमा की लहर के धक्के से (सांसारिक मोह की लहरों में से) मैं ऊपर उठ आया। (पहले मोह में मस्त था, अब आँखें खुल गई) उस वक्त मैंने देखा (कि जिस शारीरिक मोह के बेड़े में मैं सवार हूँ) थोड़ा-बहुत पुराना होया हुआ है (विकारों से छेद-छेद होया हुआ है)। मैं छलांग लगा के (उस ममता वाले बेड़े में से) उतर गया (मैंने अपनत्व, शारीरिक मोह छोड़ दिया। पर यह सब कुछ इसी कारण था कि मैंने वह ‘दर’ नही छोड़ा जिस दर पर टिकने से ‘हटकै नाही कोइ’)।67।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर पापी भगति न भावई हरि पूजा न सुहाइ ॥ माखी चंदनु परहरै जह बिगंध तह जाइ ॥६८॥

मूलम्

कबीर पापी भगति न भावई हरि पूजा न सुहाइ ॥ माखी चंदनु परहरै जह बिगंध तह जाइ ॥६८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: न भावई = अच्छी नहीं लगती। न सुहाइ = सुख नहीं देती। परहरै = त्याग देती है। जह = जहाँ। बिगंध = बदबू।
अर्थ: हे कबीर! (चाहे प्रभु के दर पर टिके रहने में प्रभु की महिमा करने में ये इनायत है कि संसार-समुंदर में डूबने से बच जाया जाता है, पर) विकारी व्यक्ति को परमात्मा की भक्ति अच्छी नहीं लगती, परमात्मा की पूजा नहीं सोहाती (सुखद नहीं लगती)। (विकारी व्यक्ति का स्वभाव मक्खी की तरह हो जाता है) मक्खी (सुंदर खुशबू वाले) चँदन को त्याग देती है, जहाँ बदबू हो वहाँ जाती है।68।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर बैदु मूआ रोगी मूआ मूआ सभु संसारु ॥ एकु कबीरा ना मूआ जिह नाही रोवनहारु ॥६९॥

मूलम्

कबीर बैदु मूआ रोगी मूआ मूआ सभु संसारु ॥ एकु कबीरा ना मूआ जिह नाही रोवनहारु ॥६९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बैदु = रोगियों का इलाज करने वाला, वैद्य, विकारियों को उपदेश करके आत्मिक मौत से बचाने के प्रयत्न करने वाला। मूआ = (रो-रो के) मर गया, (मायावी भोगों को रो = रो के) मर गया, (मायावी भोगों की खातिर खप = खप के आत्मिक मौत) मर गया। एकु = सिर्फ वह मनुष्य। जिह = जिसका। रोवनहारु = राने वाला, रो रो के खपने वाला, मायावी भोगों के लिए खपने वाला। नाही = कोई नहीं।
अर्थ: हे कबीर! (मायावी भोगों की खातिर खप-खप के) सारा जगत (संसार-समुंदर में डूब के, मायावी मोह में डूब के, आत्मिक मौत) मर रहा है, चाहे कोई रोगी है चाहे कोई हकीम है (भाव, एक तो वे लोग हैं जो अंजान और मूढ़ होने के कारण जीवन का राह जानते ही नहीं, और विकारों में फसे पड़े हैं, दूसरे वो हैं जो विद्वान पंडित हैं और मूर्ख लोगों को उपदेश करते हैं। पर हालत दोनों की ये है कि इनकी सारी दौड़-भाग मायावी भोगों के लिए ही है, इनकी ज्ञान-इंद्रिय अपने-अपने विषौ-भोगों में खप रही हैं, भोगों को रो रही हैं। एक भक्ति से वंचित रहने के कारण ये सब आत्मिक मौत मरे पड़े हैं)। सिर्फ वह मनुष्य (आत्मिक मौत) नहीं मरता जिसका कोई (संगी-साथी, ज्ञान-इंद्रिय) (मायावी भोगों की खातिर) रो नहीं रहा (खप नहीं रहा और, ऐसा मनुष्य सिर्फ वही हो सकता है जो प्रभु-दर नहीं छोड़ता, क्योंकि प्रभु-दर पर रहने से ‘हटकै नाही कोइ’)।69।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर रामु न धिआइओ मोटी लागी खोरि ॥ काइआ हांडी काठ की ना ओह चर्है बहोरि ॥७०॥

मूलम्

कबीर रामु न धिआइओ मोटी लागी खोरि ॥ काइआ हांडी काठ की ना ओह चर्है बहोरि ॥७०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खोरि = खोड़, खोखलापन। मोटी खोरि लागी = उसके अंदर मोटी खोड़ बनती जा रही है, उसको विकार अंदर से खोखला किए जाते हैं और वह धीरे-धीरे आत्मिक मौत मरता जाता है। काइआ = शरीर। न चरै = न चढ़ै, (चूल्हे पर) नहीं चढ़ती। बहोरि = फिर से, दूसरी बार, दोबारा।
अर्थ: हे कबीर! जिस-जिस मनुष्य ने परमात्मा का स्मरण नहीं किया, उसको अंदर-अंदर से विकार खोखला किए जाते हैं (और वह धीरे-धीरे आत्मिक मौत मरता जाता है)। जैसे लकड़ी की हांडी (चूल्हे पर एक बार जल के) दोबारा (चूल्हे पर) नहीं चढ़ सकती, वैसे ही (विकारों की आग में जल मरे मनुष्य का) ये शरीर है (जो इस को दूसरी बार नहीं मिलता)।70।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर ऐसी होइ परी मन को भावतु कीनु ॥ मरने ते किआ डरपना जब हाथि सिधउरा लीन ॥७१॥

मूलम्

कबीर ऐसी होइ परी मन को भावतु कीनु ॥ मरने ते किआ डरपना जब हाथि सिधउरा लीन ॥७१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: होइ परी = हो पड़ी है। ऐसी होइ परी = ऐसी हो गई है, अजब मौज बन गई है। कीनु = कर दिया है, प्रभु ने कर दिया है। मन को भावतु = वह काम जो मन को पसंद आ गया है। मरने = मौत, स्वै भाव की तरफ से मौत। ते = से। किआ डरपना = क्यों डरना हुआ? डरना नहीं चाहिए। हाथि = हाथ में। सिधउरा = सिधौरा, वह नारियल जिसको सिंदूर लगाया हुआ है।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: जो हिन्दू स्त्री अपने पति के मरने पर उसके साथ ही चिता में जल–मरना चाहती थी, वह अपने हाथ में सिंदूरा हुआ नारियल पकड़ लेती थी। सिंदूर लगा नारियल हाथ में पकड़ लेना इस बात की निशानी थी कि स्त्री मौत से नहीं डरती, और अपने मरे पति के साथ जलने को तैयार है। इसी तरह जिस भाग्यशाली मनुष्य को प्रभु–दर से भक्ति की दाति मिले, यह दाति ही इस बात की निशानी है कि इस मनुष्य ने स्वै–भाव की मौत से नहीं डरना, खुशी–खुशी स्वै भाव त्यागेगा, विकारों से मुँह मोड़ेगा।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे कबीर! जब कोई स्त्री (अपने पति के मरने पर) हाथ में संदूर लगा नारियल पकड़ती है तब वह मरने से नहीं डरती। जिस मनुष्य को प्रभु मन- भाती (भक्ति की) दाति बख्शता हे, जिस पर अजीब मेहर होती है, वह मनुष्य खुशी-खुशी स्वै-भाग स्वै-भाव त्यागता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर रस को गांडो चूसीऐ गुन कउ मरीऐ रोइ ॥ अवगुनीआरे मानसै भलो न कहिहै कोइ ॥७२॥

मूलम्

कबीर रस को गांडो चूसीऐ गुन कउ मरीऐ रोइ ॥ अवगुनीआरे मानसै भलो न कहिहै कोइ ॥७२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रस को गांडो = रस का गंना, रस से भरा हुआ गंना। चूसीऐ = चूसा जाता है, पीढ़ा जाता है, पीढ़े जाने की तकलीफ़ सहता है (रस प्राप्त करने के बदले उसको यह मूल्य देना पड़ता है कि बेलने में पीसा जाता है)। गुन कउ = गुणों की खातिर, गुणों के बदले। मरीऐ = मरना पड़ता है, स्वै भाव त्यागना पड़ता है। रोइ = रो के, (अवगुणों को) छोड़ के। मानसै = मनुष्य को। कहि है = कहेगा।
अर्थ: हे कबीर! रस से भरा हुआ गंना (बेलने में) पीढ़ा जाता है (भाव, रस की दाति के बदले में उसको ये मूल्य देना पड़ता है कि वह मशीन में पीढ़ा जाए) सो गुणों के बदले अवगुण को छोड़ के स्वैभाव के प्रति मरना ही पड़ता है। (जो मनुष्य स्वै भाव नहीं त्यागता, और विकारों की तरफ ही रुचि रखता है, उस) विकारी मनुष्य को (जगत में) कोई व्यक्ति अच्छा नहीं कहता (भाव, भक्ति की दाति से वंचित रहता है, और, जगत में बदनामी भी कमाता है)।72।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर गागरि जल भरी आजु काल्हि जैहै फूटि ॥ गुरु जु न चेतहि आपनो अध माझि लीजहिगे लूटि ॥७३॥

मूलम्

कबीर गागरि जल भरी आजु काल्हि जैहै फूटि ॥ गुरु जु न चेतहि आपनो अध माझि लीजहिगे लूटि ॥७३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गागरि = (मिट्टी का) घड़ा। आजु काल्हि = आजकल, थोड़े ही दिनों में। फूट जैहै = टूट जाएगी। जु = जो लोग। न चेतहि = याद नहीं रखते। अध माझ = अधबीच में ही। लीजहिगे लूटि = लूट लिए जाएंगे।
अर्थ: हे कबीर! मिट्टी का कच्चा घड़ा पानी से भरा हुआ हो, वह जल्दी ही टूट जाता है (इस शरीर की भी यही पायां है, सदा कायम नहीं रह सकता। मनुष्य-जन्म का उद्देश्य प्राप्त करने के लिए इस शरीर का मोह इसके नाश होने से पहले ही त्यागना है, अपनी मर्जी त्याग के गुरु के बताए हुए राह पर चलना है; पर) जो मनुष्य अपने गुरु को याद नहीं रखते (शारीरिक मोह में फंस के गुरु को भुला बैठते हैं, गुरु के बताए हुए रास्ते को बिसार देते हैं) वह मनुष्य जिंदगी के सफर के अधबीच में ही लूट लिए जाते हैं (कामादिक विकार अपने जाल में फसा के उनके सारे गुण नाश कर देते हैं, विकारों में पड़ कर यहाँ की राशि-पूंजी भी खत्म हो जाती है और परलोक भी बिगड़ जाता है)।73।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: कई सज्जन यहाँ पाठ ‘अध माझली’ करते हें, शब्द ‘जाहिगे’ को अलग कर देते हैं। ये गलत है। ‘जाहिगे’ कोई शब्द नहीं बनता, ना ही इसका कोई अर्थ निकलता है। ‘माझली’ के ‘झ’ को अर्थ करते वक्त ‘ज’ पढ़ के शब्द ‘मज़ल’ बनाना भी बिल्कुल ही बेनियमा है। शब्द ‘माझ’ वाणी में बेअंत बार आता है। सो, पाठ ‘अध माझ’ है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर कूकरु राम को मुतीआ मेरो नाउ ॥ गले हमारे जेवरी जह खिंचै तह जाउ ॥७४॥

मूलम्

कबीर कूकरु राम को मुतीआ मेरो नाउ ॥ गले हमारे जेवरी जह खिंचै तह जाउ ॥७४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कूकरु = कुक्ता। को = का। मुतीआ = (सुंदर) मोती।
जह = जहाँ, जिधर। खिंचै = खींचता है। जाउ = मैं जाता हूँ।
अर्थ: हे कबीर! मैं अपने मालिक प्रभु (के दर) का कुक्ता हूँ (प्रभु के दरवाजे पर ही टिका रहता हूँ, और इस कारण) मेरा नाम भी ‘मोती’ पड़ गया है (भाव, दुनिया भी मुझे प्यार से बुलाती है)। मेरे मालिक प्रभु ने मेरे गले में रस्सी डाली हुई है, जिधर वह मुझे खींचता है, मैं उधर ही जाता हूँ।74।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शौकीन लोग घरों में कुत्ते रखते हैं, और ‘मोती’ आदि सुंदर प्यारे उनके नाम रखते हैं, पाले हुए कुक्तों को बुलाते भी प्यार से हैं। वे कुत्ते रोटी की तरफ से बेफिकर रहते हैं, मालिक से रोटी मिलनी यकीनी होती है। पर बाजारी कुत्ते रोटी की खातिर दर-दर भटकते हैं, हर जगह से उनको ‘दुर…दुर’ ही होती है। एक मालिक का हो के रहने में ही आदर और सुख है, दर-दर पर भटकते निरादरी और दुख है। स्वै भाव त्याग के प्रभु के दर पर टिके रहना ही, प्रभु की रजा में चलना ही, सही रास्ता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर जपनी काठ की किआ दिखलावहि लोइ ॥ हिरदै रामु न चेतही इह जपनी किआ होइ ॥७५॥

मूलम्

कबीर जपनी काठ की किआ दिखलावहि लोइ ॥ हिरदै रामु न चेतही इह जपनी किआ होइ ॥७५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जपनी = माला। काठ की = तुलसी रुद्राक्ष आदि लकड़ी की। लोइ = जगत में, लोगों को। न चेतही = तू नहीं स्मरण करता। किआ होइ = कोई लाभ नहीं।
अर्थ: हे कबीर! तू तुलसी रुद्राक्ष आदि की माला (हाथ में लेकर) क्यों लोगों को दिखलाता फिरता है? तू अपने दिल में तो परमात्मा को याद नहीं करता, (हाथ में पकड़ी हुई) इस माला का कोई लाभ नहीं हो सकता।75।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर बिरहु भुयंगमु मनि बसै मंतु न मानै कोइ ॥ राम बिओगी ना जीऐ जीऐ त बउरा होइ ॥७६॥

मूलम्

कबीर बिरहु भुयंगमु मनि बसै मंतु न मानै कोइ ॥ राम बिओगी ना जीऐ जीऐ त बउरा होइ ॥७६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिरहु = विछोड़ा, परमात्मा से विछोड़े का अहसास, ये चुभन कि मैं परमात्मा से विछुड़ा हुआ हूँ। भुयंगमु = साँप। मनि = मन में। न मानै = नहीं मानता, कीला नहीं जा सकता। राम बिओगी = वह मनुष्य जिसको परमात्मा से विछोड़े का अहसास है, जिसको ये चुभन है कि मैं मायावी भोगों के कारण ईश्वर से टूटा हुआ हूँ, जिसे बिरह-साँप का डंक बज चुका है। ना जीऐ = (विकारों के लिए) नहीं जी सकता, (स्वै भाव में) नहीं जी सकता। बउरा = कमला।
अर्थ: हे कबीर! (‘काठ की जपनी’ तो कुछ सवार ही नहीं सकती, पर) जिस मनुष्य के मन में गुरु की शरण पड़ कर विरह का साँप आ बसे (जिस मनुष्य को गुरु-दर से ये सूझ मिल जाए कि इन कामादिकों ने मुझे रब से विछोड़ दिया है) (कामादिकों का) कोई मंत्र उस पर नहीं चल सकता। परमात्मा से विछोड़े को महसूस करने वाला मनुष्य जी ही नहीं सकता, (भाव, परमात्मा से विछोड़े का अहसास एक ऐसा डंक है कि इसका डसा हुआ वयक्ति मायावी भोगों के लिए जी ही नहीं सकता) जो जीवन वह जीता है, दुनिया की बाबत तो वह पागलों वाला जीवन है।76।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: हमारे देश में कई लोग साँपों का मंत्र जानते हैं; साँपों के डंक मारे लोगों को मंत्रों की सहायता से साँप के जहर से बचाते हैं। पर कई साँप ऐसे भी होते हैं, जिनका डसा हुआ वयक्ति शायद ही बचता हो।
कबीर जी इस शलोक में इस बात की तरफ इशारा कर के देखते हैं परमात्मा से विछोड़े का अहसास, मानो, साँप है। जिस मनुष्य को ये डंक लग जाए (जिसके ये समझ आ जाए कि मैं परमात्मा से विछुड़ा हुआ हूँ, मुझे मायावी भोगों ने ईश्वर से विछोड़ दिया है), ये डंक इतना तेज़ होता है कि दुनियावी पदार्थों के मोह का कोई मंत्र इस पर असर नहीं डाल सकता। विरह का डसा हुआ मनुष्य ‘दुनिया’ की तरफ से मर जाता है उसका जीवन और किस्म का हो जाता है, ‘दुनिया’ उसको ‘बउरा’ कहती है, दुनिया की बाबत वह ‘कमला’ होता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर पारस चंदनै तिन्ह है एक सुगंध ॥ तिह मिलि तेऊ ऊतम भए लोह काठ निरगंध ॥७७॥

मूलम्

कबीर पारस चंदनै तिन्ह है एक सुगंध ॥ तिह मिलि तेऊ ऊतम भए लोह काठ निरगंध ॥७७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चंदनै = चंदन में। पारस चंदनै = पारसै चंदनै, पारस में और चंदन में। तिन है = इन पारस में और चंदन में। सुगंध = महक, खुशबू, गुण। तिह मिलि = इन पारस और चंदन को मिल के। तेऊ = वह भी, वह काठ और लोहा भी। काठ निरगंध = लकड़ी जिसमें कोई सुगंधी नहीं।
अर्थ: हे कबीर! पारस और चँदन- इन दोनों में एक-एक गुण है। लोहा और सुगंधि-हीन लकड़ी इनके साथ छूह के उत्तम बन जाते हैं (लोहा पारस को छू के सोना बन जाता है; साधारण वृक्ष चँदन के नजदीक रह के सुगन्धी वाला हो जाता है। वैसे ही पहले कामादिकों से बिका हुआ मनुष्य गुरु को मिल के ‘राम बियोगी’ बन जाता है)।77।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: बिरह का अनुभव गुरु के माध्यम से ही होता है। गुरु, मानो, पारस है, गुरु चंदन है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर जम का ठेंगा बुरा है ओहु नही सहिआ जाइ ॥ एकु जु साधू मुोहि मिलिओ तिन्हि लीआ अंचलि लाइ ॥७८॥

मूलम्

कबीर जम का ठेंगा बुरा है ओहु नही सहिआ जाइ ॥ एकु जु साधू मुोहि मिलिओ तिन्हि लीआ अंचलि लाइ ॥७८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ठेंगा = चोट। ओह = वह ठेंगा। साधू = गुरु। मुोहि = (असल शब्द ‘मोहि’ है, यहाँ पढ़ना है ‘मुहि’) मुझे। तिन्हि = उसने। अंचलि = आँचल से, पल्ले।
अर्थ: हे कबीर! (कामादिकों के बस में पड़े रहने से जम का डंडा सिर पर बजता है, जनम-मरन के चक्करों में पड़ा जाता है, और) जम की (यह) चोट इतनी बुरी है कि सहनी बड़ी ही मुश्किल है। (परमात्मा की कृपा से) मुझे गुरु मिल गया, उसने अपने आँचल से लगा लिया (और मैं कामादिकों के) बहकावे में नहीं आया।78।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर बैदु कहै हउ ही भला दारू मेरै वसि ॥ इह तउ बसतु गुपाल की जब भावै लेइ खसि ॥७९॥

मूलम्

कबीर बैदु कहै हउ ही भला दारू मेरै वसि ॥ इह तउ बसतु गुपाल की जब भावै लेइ खसि ॥७९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बैद = हकीम, वैद्य। हउ ही = मैं ही। भला = समझदार। मेरै वसि = मेरे वश में। इह = ये प्राण। बसतु = वस्तु, चीज़। खसि लेइ = छीन लेता है।79।
अर्थ: हे कबीर! वैद्य (तो) कहता है कि मैं बहुत समझदार हूँ (रोग आने पर प्राणों को शरीर से विछुड़ने से बचाने के लिए) इलाज मेरे इख्तियार में है (मैं रोग का इलाज करना जानता हूँ)। पर ये जिंद उस मालिक प्रभु की (दी हुई अमानती) चीज़ है, जब वह चाहता है (शरीर में से) वापस ले लेता है (यहाँ सदा नहीं टिके रहना, इसलिए जम के ठेंगे का ख्याल रखो ओर, गुरु-दर पर आ के ‘गुन कउ मरीअै रोइ’)।79।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर नउबति आपनी दिन दस लेहु बजाइ ॥ नदी नाव संजोग जिउ बहुरि न मिलहै आइ ॥८०॥

मूलम्

कबीर नउबति आपनी दिन दस लेहु बजाइ ॥ नदी नाव संजोग जिउ बहुरि न मिलहै आइ ॥८०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नउबति = ढोल। आपनी नउबति बजाइ लेहु = मन मानी मौजें कर लो। नाव = नाँव, बेड़ी। संजोग = मेला, मिलाप। नदी…जिउ = जैसे नदी सें पार लांघने के लिए बेड़ी में बैठे मुसाफिरों का मिलाप है (फिर कभी उन सभी का मिलाप नहीं होता)। बहुरि = दोबारा। न मिलि है = नहीं मिलेगा, (मनुष्य जनम) नहीं मिलेगा।80।
अर्थ: हे कबीर! (यदि तू ये नहीं सुनता, तो तेरी मर्जी) मन-मर्जी की मौज कर ले (पर ये मोजें हैं सिर्फ) दस दिनों के लिए ही। जैसे नदी से पार लांघने के लिए बेड़ी में बैठे मुसाफिरों का मिलाप है (फिर वे सारे कभी नहीं मिलते) वैसे ही (मन-मानी मौजों में गवाया हुआ) ये मनुष्य-शरीर दोबारा नहीं मिलेगा।80।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर सात समुंदहि मसु करउ कलम करउ बनराइ ॥ बसुधा कागदु जउ करउ हरि जसु लिखनु न जाइ ॥८१॥

मूलम्

कबीर सात समुंदहि मसु करउ कलम करउ बनराइ ॥ बसुधा कागदु जउ करउ हरि जसु लिखनु न जाइ ॥८१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मसु = स्याही। करउ = मैं करूँ। बनराइ = सारी बनस्पति, सारे पेड़ पौधे। बसुधा = धरती। कागदु = कागज़।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: अक्षर ‘ज़’ कई बार ‘द’ की तरह उचारा जाता है, जैसे, काज़ी या कादी, हजूर या हदूर, हाज़र या हादर)।

दर्पण-भाषार्थ

जउ = अगर। जसु = यश, बड़ाई।81।
अर्थ: हे कबीर! यदि मैं सातों ही समुंद्रों (के पानियों) की स्याही बना हूँ, सारे पेड़-पौधों की कलमें घड़ लूँ, सारी धरती को कागज़ के रूप में इस्तेमाल करूँ, तो भी परमात्मा के गुण (पूरी तौर पर) लिखे नहीं जा सकते (भाव, इन्सान ने परमात्मा के गुण इस वास्ते नहीं गाने कि उसके गुणों का अंत पाया जा सके, और सारे गुण बयान किए जा सकें)।81।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शलोक नं: 72 में लिखते हें ‘अवगुनीआरे मानसै, भलो न कहि है कोइ’ विकारों–अवगुणों में पड़ कर मनुष्य के अंदर अवगुणों के संस्कार इकट्ठे होते जाते हैं। इनसे बचने का तरीका? सिर्फ यही है कि गुरु पारस है मिल के मनुष्य प्रभु के गुण गाए। ‘गुणों’ से मन को बार-बार जोड़ने से मन में भी ‘गुण’ ही पैदा होने शुरू हो जाएंगे, मन नीचता से हट के सूचा और पवित्र हो जाएगा और आखिर ‘गुणी’ के साथ एक–मेक हो सकेगा। इस ख्याल की व्याख्या अगले शलोक नं: 82 में करते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर जाति जुलाहा किआ करै हिरदै बसे गुपाल ॥ कबीर रमईआ कंठि मिलु चूकहि सरब जंजाल ॥८२॥

मूलम्

कबीर जाति जुलाहा किआ करै हिरदै बसे गुपाल ॥ कबीर रमईआ कंठि मिलु चूकहि सरब जंजाल ॥८२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किआ करै = कुछ बिगाड़ नहीं सकती, मेरे अंदर निताणी, बेआसरा वाली रुचि पैदा नहीं कर सकती। रमईआ कंठ मिलु = प्रभु के गले लग, प्रभु की याद में जुड़। चूकहि = खत्म हो जाएंगे।
अर्थ: हे कबीर! (प्रभु के गुण गाने से गुणों का अंत नहीं पड़ सकता, पर महिमा की इनायत से) मेरी (नीच) जुलाहा-जाति मेरे अंदर निताणा-पन पैदा नहीं कर सकती क्योंकि अब मेरे हृदय में सृष्टि का मालिक परमात्मा बस रहा है।
हे कबीर! प्रभु की याद में जुड़ (सिर्फ नीच जाति की कमजोरी ही नहीं) माया के सारे ही जंजाल समाप्त हो जाएंगे।82।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: नीच जाति में पैदा हुआ व्यक्ति लोगों के ताने–मेहणों से अपने आप को नीच महसूस करने लग जाता है, धीरे-धीरे मनुष्यता की निर्भयता के स्तर से गिर जाता है, मायूसी ढहती कला में रहता है और उच्च जाति वालों व धनाढ लोगों के आगे लिल्ड़ियां लेता है (झुका रहता है)। पर प्रभु की महिमा की इनायत से ये निताणापन दूर हो जाता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर ऐसा को नही मंदरु देइ जराइ ॥ पांचउ लरिके मारि कै रहै राम लिउ लाइ ॥८३॥

मूलम्

कबीर ऐसा को नही मंदरु देइ जराइ ॥ पांचउ लरिके मारि कै रहै राम लिउ लाइ ॥८३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: को नही = कोई विरला ही होता है। मंदर = शरीर, शरीर का मोह, देह अध्यास। जराइ देइ = जला दे। पांचउ लरिके = माया के पाँचों पुत्र, कामादिक। लिउ = तवज्जो, लगन।
अर्थ: हे कबीर! (भले ही महिमा में बड़ी इनायत है, पर शारीरिक मोह और कामादिक का इतना जोर है कि) कोई विरला ऐसा मनुष्य होता है जो शारीरिक मोह को जलाता है, कोई विरला है जो कामादिक माया के पाँचों पुत्रों को मार के प्रभु के साथ लगन लगाए रखता है।83।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर ऐसा को नही इहु तनु देवै फूकि ॥ अंधा लोगु न जानई रहिओ कबीरा कूकि ॥८४॥

मूलम्

कबीर ऐसा को नही इहु तनु देवै फूकि ॥ अंधा लोगु न जानई रहिओ कबीरा कूकि ॥८४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तनु = शरीर, शरीर का मोह। फूक देवै = जला दे। अंधा = अंधा होया हुआ, शारीरिक मोह में अंधा, देह अध्यास में इतना मस्त कि जीवन का सही रास्ता आँखों से दिखता ही नहीं, (चाहे) कबीर ऊँचा-ऊँचा (कूक के) बता रहा है।84।
अर्थ: हे कबीर! (माया के प्रभाव के कारण) कोई विरला ही ऐसा मिलता है जो (प्रभु की महिमा करे, और) शारीरिक मोह को जला दे। जगत मोह में इतना ग़र्क है कि इसको अपनी भलाई सूझती ही नहीं, (भले ही) कबीर ऊँचा-ऊँचा (कूक के) बता रहा है।84।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर सती पुकारै चिह चड़ी सुनु हो बीर मसान ॥ लोगु सबाइआ चलि गइओ हम तुम कामु निदान ॥८५॥

मूलम्

कबीर सती पुकारै चिह चड़ी सुनु हो बीर मसान ॥ लोगु सबाइआ चलि गइओ हम तुम कामु निदान ॥८५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सती = वह स्त्री जो अपने मरे पति के साथ चिखा पर चढ़ती है। चिह = चिखा। हे बीर मसान = हे बीर मसाण! हे मसाणों की प्यारी आग! सबाइआ = सारा। चलि गइओ = चला गया है, साथ छोड़ गया है। निदान = आखिर, ओड़क। कामु = मतलब, वाह, गर्ज। हम तुम कामु = मुझे तेरे साथ गरज पड़ी है। पुकारै = ऊँची आवाज में कहती है, दलेर हो के कहती है।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘सुनु’ एकवचन, सिर्फ किसी एक को संबोधन किया जा रहा है। कई सजजन शब्द ‘मसान’ का अर्थ करते हैं ‘हे मसाणों में आए लोगो’। ये अर्थ गलत है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे कबीर! जो स्त्री अपने परलोक पहुँचे पति को मिलने की खातिर उसके शरीर के साथ अपने आप को जलाने के लिए तैयार होती है वह चिखा पर चढ़ कर दलेर हो के कहती है: हे वीर मसाण! सुन, सारे संबन्धी मेरा साथ छोड़ गए हैं (मुझे कोई मेरे पति के साथ नहीं मिला सका) आखिर, हे वीर! मुझे तेरे साथ गरज़ आ पड़ी है।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: जिस जीव-स्त्री को ये यकीन बन जाता है कि शारीरिक मोह को जलाए बिना प्रभु–पति से मिलाप नहीं हो सकता, और इस मोह को जलाने के लिए सिर्फ महिमा ही समर्थ है, सिर्फ ‘ब्रहम–अग्नि’ ही इसको जला सकती है, वह जीव-स्त्री इस महिमा को प्यार करती है, इस ‘ब्रहमाग्नि’ को ‘वीर’ कह के बुलाती है, और कहती है: हे प्यारी ‘ब्रहमाग्नि’! दुनिया वाले साथी मुझे प्रभु–पति के साथ नहीं जोड़ सके, उनका साथ भी कच्चा ही साबत हुआ। हे ‘ब्रहम–अग्नि’! सिर्फ एक तू ही है जो मेरे शारीरिक मोह को जला के मुझे प्यारे प्रभु–पति के साथ मिला सकती है। आखिर मैंने तेरा आसरा लिया है।
नोट: इस शलोक के साथ पिछले दोनों शलोक नं: 83 और 84 मिला के पढ़ो। एक आश्चर्य भरी आत्मिक उड़ान है। कहते हैं कोई विरला ही हैजो अपने आप को जलाता है। हाँ हमने ‘सती’ को देखा है वह हस–हस के अपने शरीर को जलाती है, सारा संसार ‘मसाणों’ से डरता–काँपता है, पर ‘सती’ उस ‘मसाण’ को ‘वीर’ कह के बुलाती है, उस ‘मसाण’ से प्यार करती है। क्यों? ‘सती’ जानती है जब ये मसाण मेरे शरीर को जला देगा, तो मैं अपने परलोक अपने पति को जा मिलूँगी।
प्रभु–पति परदेस में बैठा है, जीव-स्त्री पेके (मायके) बैठी अपने ही शरीर से प्यार किए जा रही है। जीव-स्त्री का यह शारीरिक मोह प्रभु–पति को मिलने की राह में रोक डाल रहा है। पर ये मोह बड़ा ही बलवान है, इसको विरली ही छोड़ती है, इसको कोई विरली ही जलाती है। सिर्फ वही जलाती है जिसको समझ आ गई है कि इसके जलने पर ही प्रभु–पति मिलेगा। फिर, वह जीव-स्त्री क्यों उस ‘ब्रहम अग्नि’ को ‘वीर’ ना कहे? क्यों उस ‘मसाण’ को प्यारा ना कहे, जो इसके ‘शरीर’ को ‘शारीरिक मोह’ को देह–अध्यास को, जलाता है?

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विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर मनु पंखी भइओ उडि उडि दह दिस जाइ ॥ जो जैसी संगति मिलै सो तैसो फलु खाइ ॥८६॥

मूलम्

कबीर मनु पंखी भइओ उडि उडि दह दिस जाइ ॥ जो जैसी संगति मिलै सो तैसो फलु खाइ ॥८६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दह दिस = दसों दिशाओं में, हर तरफ, अनेक मायावी पदार्थों की तरफ। उडि उडि = बार बार उड़ के, बार बार भटक के।
अर्थ: (हे कबीर! ये जानते हुए भी कि प्रभु के महिमा विकारों को जला के प्रभु-चरणों में जोड़ती है) मनुष्य का मन पंछी बन जाता है (एक प्रभु का आसरा छोड़ के) भटक-भटक के (मायावी पदार्थों के पीछे) दसों दिशाओं में जोड़ता है (और यह कुदरति का नीयम ही है कि) जो मनुष्य जैसी संगति में बैठता है वैसा ही उसको फल मिलता है।86।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर जा कउ खोजते पाइओ सोई ठउरु ॥ सोई फिरि कै तू भइआ जा कउ कहता अउरु ॥८७॥

मूलम्

कबीर जा कउ खोजते पाइओ सोई ठउरु ॥ सोई फिरि कै तू भइआ जा कउ कहता अउरु ॥८७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ठउरु = जगह। फिरि कै = पलट के, तब्दील हो के। जा कउ = जिस (जगह) को।
अर्थ: हे कबीर! (प्रभु की महिमा करने से, प्रभु के गुण गाने से, गुणों का अंत नहीं पड़ सकता; पर महिमा की सहायता से) मैं (प्रभु के चरण रूप) जो जगह तलाश कर रहा था, वही जगह मुझे मिल गई है। हे कबीर! जिस (प्रभु) को तू पहले ‘कोई और’ कहता था (जिसको तू पहले अपने आप से अलग समझता था) तू (महिमा की इनायत से) बदल के उसी का ही रूप बन गया है, (उसी में ही लीन हो गया है, उसी के साथ एक-मेक हो गया है)।87।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर मारी मरउ कुसंग की केले निकटि जु बेरि ॥ उह झूलै उह चीरीऐ साकत संगु न हेरि ॥८८॥

मूलम्

कबीर मारी मरउ कुसंग की केले निकटि जु बेरि ॥ उह झूलै उह चीरीऐ साकत संगु न हेरि ॥८८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मरउ = मैं मर जाऊँगी, मेरी जिंद आत्मिक मौत मर जाएगी। कुसंग की मारी = बुरी संगति की मार से, बुरी सोहबत में बैठने से, विकारों के असर तले आ के। निकटि = नजदीक। जु = जैसे, ज्यों। बेरि = बेरी। उह झूलै = बेरी हवा से हुलारे लेती है, झूमती है। उह चीरीऐ = वह केला चीरा जाता है। न हेरि = ना देख, ना ताक। साकत = ईश्वर से टूटा हुआ व्यक्ति, वह मनुष्य जो परमात्मा की याद भुला बैठा है।
अर्थ: हे कबीर! (यदि तूने परमात्मा की महिमा छोड़ दी, तो सहज ही तू उनका साथ करेगा जो प्रभु से टूटे हुए हैं; पर देख) ईश्वर से टूटे हुए लोगों का साथ कभी भी ना करना।
केले के नजदीक बेर का पेड़ उगा हुआ हो, बेरी हवा से झूलती है, केला (बेरी के काँटों से) चीरा जाता है; वैसे ही (हे कबीर!) बुरी सोहबत में बैठने से विकारों के असर तले तेरी जीवात्मा आत्मिक मौत मर जाएगी।88।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: प्रभु के गुण गाने से गुणों का अंत नहीं पड़ता, पर इसकी इनायत से कुसंग से बचे रहा जाता है और जीवात्मा आत्मिक मौत मरने से बच जाती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर भार पराई सिरि चरै चलिओ चाहै बाट ॥ अपने भारहि ना डरै आगै अउघट घाट ॥८९॥

मूलम्

कबीर भार पराई सिरि चरै चलिओ चाहै बाट ॥ अपने भारहि ना डरै आगै अउघट घाट ॥८९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भार पराई = पराई (निंदा) का भार। सिर चरै = मनुष्य के सिर के ऊपर चढ़ता जाता है, ‘कुसंग’ में फसे मनुष्य के सिर के ऊपर चढ़ता जाता है। बाट = रस्ता। चलिओ चाहै बाट = (भार चढ़ता जाता है, फिर भी मनुष्य निंदा के इस) राह पर ही चलना पसंद करता है। अपने भारहि = अपने (किए हुए विकारों के) भार से। आगै = मनुष्य के सामने। अउघट घाटि = मुश्किल रास्ता।
अर्थ: हे कबीर! मनुष्य के सामने एक बहुत ही मुश्किल रास्ता है, पर (कुसंग के कारण) इसके सिर पर पराई (निंदा) का भार चढ़ता जाता है (भार भी चढ़ता जाता है, फिर भी मनुष्य इस निंदा के) राह पर ही चलना पसंद करता है; और अपने (किए और बुरे कर्मों के) भार का तो इसको चेता ही नहीं आता।89।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: जिंदगी का सफर, मानो एक मुश्किल घाटी है, चढ़ाई का राह है, क्योंकि अनेक विकार मनुष्य के रास्ते में रुकावटें डालते हैं। जब मनुष्य परमातमा की याद भुलाता है और अचेतपन में कुसंग में जा फसता है तो इसकी कोमल जीवात्मा विकारों के काँटों से चीरी जाती है, कई विकार–कुकर्म सहेड़ लेता है, कुकर्म करने से बिल्कुल गुरेज नहीं करता। एक तरफ अपनी ये दुर्दशा दूसरी तरफ औरों की निंदा करने की भी आदत पड़ जाती है, ये आदत बल्कि इसको डुबोती है। बस! एक महिमा से टूटने पर ऐसी बुरी हालत बनती है।
नोट: निंदा बड़ी खतरे वाली बात यह होती है कि मनुष्य औरों के ऐब फोलता–फोलता अपने बुरे जीवन के प्रति अचेत हो जाता है। प्रभु की महिमा ही इस खतरनाक रास्ते से बचाती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर बन की दाधी लाकरी ठाढी करै पुकार ॥ मति बसि परउ लुहार के जारै दूजी बार ॥९०॥

मूलम्

कबीर बन की दाधी लाकरी ठाढी करै पुकार ॥ मति बसि परउ लुहार के जारै दूजी बार ॥९०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वणि = बन, जंगल। दाधी लाकरी = जली हुई लकड़ी, कोयला बन चुकी लकड़ी। ठाढी = खड़ी हुई (भाव, साफ तौर पर प्रत्यक्ष)। मत = कहीं। बसि = वश में, सोहबत में। लुहार = वह मनुष्य जो सारी उम्र कोयले-विकार विहाजने में ही गुजार रहा है, साकत, विकारी मनुष्य।
अर्थ: हे कबीर! (अगर तू ध्यान से सुन के समझे तो) जंगल की कोयला बनी हुई लकड़ी भी साफ तौर पर पुकार करती (सुनी जा सकती है) कि मैं कहीं लोहार के वश ना पड़ जाऊँ, वह तो मुझे दूसरी बार जलाएगा।90।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: जो कोयला लोहार आदि लोग अपनी भट्ठियों में बरतते हैं इसको तैयार करने के लिए एक खास तरीका अपनाना पड़ता है। किक्कर आदि लकड़ी के मोछे खास तरह की बनी हुई भट्ठी में मिट्टी के नीचे दबाए जाते हैं, इन मोछों को इस तरह आग लगाई जाती है कि बाहर से हवा ना लगे और मिट्टी के अंदर–अंदर ही लकड़ियां कोयला बन जाएं, पर इनकी गैस कोयले में बनी रहे। चुँकि ये कोयला बरतने की आवश्यक्ता आम तौर पर लोहारों को ही पड़ती थी, सो इस कोयले को तैयार भी लोहार ही किया करते थे। एक बार तो लकड़ी कोयला बनने के वक्त मिट्टी के अंदर–अंदर रह के जलती है और दूसरी बार लोहार आदि की भट्ठी में पड़ कर जलती है।
ये शब्द ‘लुहार’ बाबा फरीद जी ने भी बरता है, उन्होंने भी कोयले के ही संबंध में प्रयोग किया है। लिखते हैं;
कंधि कुहाड़ा, सिरि घड़ा, वणि केसरु लोहारु॥ फरीदा हउ लोड़ी सहु आपणा, तू लोड़हि अंगिआर॥४३॥
इस शलोक का अर्थ इस प्रकार है;
कंधे पर कुहाड़ा और सिर पर घड़ा (रख के) लोहार जंगल में बादशाह (बना होता) है (क्योंकि जिस पेड़ पर चाहे कुहाड़ा चला सकता है); इसी तरह मनुष्य, जगत–जंगल का सरदार है। हे फरीद! मैं तो (इस जगत–जंगल में) अपने मालिक–प्रभु को ढूँढ रहा हूँ, ओर, तू (हे जीव! लोहार की तरह) कोयले तलाश रहा है, (भाव, ‘विसु गंदलां’–रूप कोयले ढूँढता है)।
कबीर जी ओर फरीद जी के इन दोनों शलोकों में शब्द ‘लुहार’ की सांझ बहुत मजेदार है, दोनों का भाव भी एक ही है: वह मनुष्य जो कि था इस धरती का सरदार, पर सारी उम्र कोयले विहाजते ही गुजार रहा है, सारी उम्र विकारों में ही गवा रहा है, साकत।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर एक मरंते दुइ मूए दोइ मरंतह चारि ॥ चारि मरंतह छह मूए चारि पुरख दुइ नारि ॥९१॥

मूलम्

कबीर एक मरंते दुइ मूए दोइ मरंतह चारि ॥ चारि मरंतह छह मूए चारि पुरख दुइ नारि ॥९१॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे कबीर! (प्रभु के गुण गाने से उसके गुणों का अंत नहीं पड़ सकता, पर इस महिमा की इनायत से ‘मन’ मर जाता है ‘मन’ विकारों से हट जाता है) इस एक मन के मरने से एक और भी मरा जाति अभिमान, और कुल दो मर गए- मन और जाति अभिमान। फिर दो और मरे-देह अध्यास और तृष्णा; कुल चार हो गए। दो और मरे- कुसंग और निंदा; और ये सारे मिल के छह हो गए, चार पुलिंग (‘पुरख’) और दो स्त्री-लिंग (‘नारि’)।91।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस शलोक में किसी छहों के मरने का वर्णन है। कुछ टीकाकार सज्जनों ने एक हिरनी उसके बच्चों, शिकारी और उसकी पत्नी के मरने की कहानी घड़ ली है; पर ये प्रयास तो पूरी तरह से हास्यास्पद है। जिनको कहानियां घड़ने की आदत पड़ी हुई है, वे यहाँ पहुँच के बिल्कुल मुँह भार गिर चुके प्रतीत होते हैं। आखिर इन हिरनी आदि के मरने से इन्सानी जीवन का क्या संबंध? हमें अपनी मौजूदा जीवन-यात्रा में क्या हिदायत मिली?
ये शलोक काफी मुश्किल है क्योंकि इन ‘छियों’ का वेरवा तसल्ली–बख्श नहीं मिल रहा। हंगता, राग, द्वैष, अहंकार, आशा, तृष्णा आदि बड़े मशहूर शब्द हैं, टीकाकार ने अपनी–अपनी समझ के अनुसार ये गिनती पूरी कर दी है। पर, ये कैसे पता लगे कि कबीर जी किन ‘छहों’ की तरफ इशारा कर रहे हैं?
जैसे फरीद जी के शलोकों को मैं एक कड़ी में बँधा हुआ विषय समझता हूं, इसी धुरे से मैंने उनका टीका लिखा था, इसी तरह मैं इन शलोकों को भी लड़ी–वार विषय (कड़ी में बँधा हुआ) ही समझता हूँ। यदि इस धुरे से विचारने की कोशिश की जाए, तो आशा तृष्णा हंगता आदि विकारों के नाम दे के गिनती पूरी करने की जरूरत नहीं रहेगी।
शलोक नं: 81 में परमात्मा के गुणगान का जिकर है। इससे अगले 9 शलोकों में कबीर जी लिखते हैं कि महिमा की इनायत से ये–ये नतीजे निकलते हैं।
धार्मिक रास्ते पर चलने का प्रयत्न करने वाले हरेक मनुष्य के सामने सबसे पहला मोटा सवाल ये आता है कि मन को कैसे मारा जाए। कोई तप करता है, कोई दान–पुण्य करता है, कोई तीर्थों पर जाता है, कोई जंगलों में जा के बसता है, पर कबीर जी कहते हैं;
मन मारन कारनि बन जाईऐ॥ सो जलु बिनु भगवंत न पाईऐ॥
इन शलोकों में भी और–ओर वेरवे दे के शलोक नं: 101 में साफ तौर पर कहते हैं कि साधनों का क्या लाभ अगर ‘मनु मूंडिआ नही’ मनुष्य–जीवन की रण–भूमि में सबसे पहला मुकाबला मन से ही माना गया है, अगर ये जीत लिया जाए तो इसके साथ कई विकार जीत लिए जाते हैं जिनमें से शलोक नंबर 91 में कबीर जी ने सिर्फ पाँच की ओर ही इशारा किया है (और, छेवां मन)।
ये ठीक है कि इस शलोक में कबीर जी ने छह कह के सिर्फ इशारा ही किया है, पर असल में शलोक नं: 81 से 90 तक इन पाँचों का वेरवा वे स्वयं दे चुके हैं। कहते हैं: प्रभु के गुण गाने से गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता पर इस महिमा की इनायत से ‘मन मूंडिआ’ जाता है, मन मर जाता है, इस मन के मरने से निम्न-लिखित पाँच बड़े–बड़े और दैत्य भी मर जाते हैं;
शलोक नं: 82 –जाति अभिमान।
शलोक नं: 83,84,85 – शारीरिीक मोह, देह अध्यास
शलोक नं: 86 – भटकना, तृष्णा
शलोक नं: 88 – कुसंग
शलोक नं: 89 निंदा
इनमें से– मन, जाति अभिमान, शारीरिक मोह, कुसंग– ये चारे ‘पुरष’ हें, पुलिंग हैं। तृष्णा और निंदा स्त्रीलिंग हैं ‘नारि’ हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर देखि देखि जगु ढूंढिआ कहूं न पाइआ ठउरु ॥ जिनि हरि का नामु न चेतिओ कहा भुलाने अउर ॥९२॥

मूलम्

कबीर देखि देखि जगु ढूंढिआ कहूं न पाइआ ठउरु ॥ जिनि हरि का नामु न चेतिओ कहा भुलाने अउर ॥९२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देखि देखि ढूँढिआ = बार बारी देख के तलाश की है। कहूँ न = कहीं भी नहीं। ठउरु = जगह, मन के टिकने की जगह, वह जगह जहाँ मन को शांति मिले, जहाँ मन भटकने से हट जाए। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। कहा अउर = कहीं और जगह? क्यों कहीं और जगह? भुलाने = भूले फिरते हो।
अर्थ: हे कबीर! मैंने बड़ी मेहनत से सारा जगत ढूँढ के देखा है, कहीं भी ऐसी जगह नहीं मिली जहाँ मन भटकने से हट जाएं जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम नहीं स्मरण किया (उसको कहीं भी मन की शांति की जगह नहीं मिल सकी; प्रभु का नाम ही, जो सत्संग में मिलता है, भटकने से बचाता है)। (महिमा छोड़ के) क्यों और-और जगहों पर भटकते फिरते हो?।92।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर संगति करीऐ साध की अंति करै निरबाहु ॥ साकत संगु न कीजीऐ जा ते होइ बिनाहु ॥९३॥

मूलम्

कबीर संगति करीऐ साध की अंति करै निरबाहु ॥ साकत संगु न कीजीऐ जा ते होइ बिनाहु ॥९३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंति = आखिर तक, सदा। करै निरबाहु = साथ देता है, संगी बनाए रहता है। साकत संगु = ईश्वर से टूटे हुए की सोहबत। जा ते = जिस (संग) से। बिनाहु = नाश, विनाश, आत्मिक मौत।
अर्थ: हे कबीर! (मन की शांति के लिए एक ही ‘ठौर’ है, वह है साधु-संगत, सो) साधु-संगत में जुड़ना चाहिए, साधु-संगत वाला साथ आखिर तक निभता है; ईश्वर से टूटे हुए लोगों की संगति नहीं करनी चाहिए, इससे आत्मिक मौत (होने का डर) है।93।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर जग महि चेतिओ जानि कै जग महि रहिओ समाइ ॥ जिन हरि का नामु न चेतिओ बादहि जनमें आइ ॥९४॥

मूलम्

कबीर जग महि चेतिओ जानि कै जग महि रहिओ समाइ ॥ जिन हरि का नामु न चेतिओ बादहि जनमें आइ ॥९४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जग महि = जग महि (आय), जगत में आ के, जगत में जनम ले के। जानि कै = पहचान के। बादहि = व्यर्थ। आइ जनमें = आ के जन्में।
अर्थ: हे कबीर! (मन के लिए शांति की ‘ठौर’ प्रभु का नाम ही है, सो) जिन्होंने जगत में जनम ले के उस प्रभु को, ऐसे पहचान के कि वह सारे जगत में व्यापक है, स्मरण किया है (उनको ही जगत में जन्मा हुआ समझो, उनका ही पैदा होना सफल है, वही हैं साधु, और उनकी संगति ही साधु-संगत है)। जिन्होंने परमात्मा का नाम नहीं स्मरण किया, वे व्यर्थ ही पैदा हुए।94।

दर्पण-टिप्पनी

पहली तुक का आनवै यूँ है;
कबीर! जिनह जग महि (आइ) सो प्रभु जानि कै चेतिओ (जो) जग तहि रहिओ समाइ (से जग पहि जनमें आइ) …।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर आसा करीऐ राम की अवरै आस निरास ॥ नरकि परहि ते मानई जो हरि नाम उदास ॥९५॥

मूलम्

कबीर आसा करीऐ राम की अवरै आस निरास ॥ नरकि परहि ते मानई जो हरि नाम उदास ॥९५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आसा…की = परमात्मा के ऊपर आशा रखें, परमात्मा का आसरा देखें। निरास = निर+आस। नरकि परहि = नर्क में पड़ते हैं, सदा दुखी रहते हैं। मानई = मनुष्य।
अर्थ: हे कबीर! (अगर मन के लिए शांति की ‘ठौर’ चाहिए तो ‘साधु-संगत’ में जुड़ के) एक परमात्मा पर डोरी रखनी चाहिए, और आशाएं छोड़ देनी चाहिए। जो मनुष्य परमात्मा की याद से मुँह मोड़ लेते हैं वे नर्क में पड़े रहते हैं (सदा दुखी रहते हैं)।95।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर सिख साखा बहुते कीए केसो कीओ न मीतु ॥ चाले थे हरि मिलन कउ बीचै अटकिओ चीतु ॥९६॥

मूलम्

कबीर सिख साखा बहुते कीए केसो कीओ न मीतु ॥ चाले थे हरि मिलन कउ बीचै अटकिओ चीतु ॥९६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिख = चेले चाटड़े, चेले। केसो = (संस्कृत: केशव, केशा: प्रशास्ता: संन्ति अस्य इति, जिसके लंबे लंबे केश हैं वह हरि) परमात्मा। चाले थे = चले थे? उद्यम किया था। अटकिओ = फस गया।
अर्थ: हे कबीर! जिन्होंने परमात्मा को मित्र नहीं बनाया (परमात्मा के साथ सांझ नहीं बनाई, और) कई चेले-चाटड़े बना लिए, (उन्होंने पहले तो भले ही) उद्यम किया था, पर उनका मन राह में ही अटक गया (चेले-चाटड़ों से सेवा-पूजा कराने में वे व्यस्त हो गए, प्रभु का स्मरण भुला बैठे ओर मन की शांति की ‘ठौर’ नसीब नहीं हुई)।96।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: जिनकी ‘संगति’ करने का वर्णन शलोक नं: 93 में है, उनके बारे में किसी भुलेखे से बचाने के लिए कबीर जी कहते हैं कि ‘साध’ सिर्फ वही हैं जो सर्व-व्यापक राम को स्मरण करते हैं। जिन्होंने चेले–चाटड़ों का आडम्बर रच लिया है और जो बँदगी से टूट के अपनी सेवा–पूजा में ही मस्त हो गए वे ‘साध’ नहीं हैं, भले ही वे और लोगों को उपदेश भी करते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर कारनु बपुरा किआ करै जउ रामु न करै सहाइ ॥ जिह जिह डाली पगु धरउ सोई मुरि मुरि जाइ ॥९७॥

मूलम्

कबीर कारनु बपुरा किआ करै जउ रामु न करै सहाइ ॥ जिह जिह डाली पगु धरउ सोई मुरि मुरि जाइ ॥९७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कारनु = साधन, सबब, हरि मिलन का साधन, कारण। बपुरा = बेचारा, कमजोर। सहाइ = सहायता। जिह जिह = जिस जिस। धरउ = मैं धरता हूँ। पगु = पैर। पगु धरउ = मैं पैर धरता हूँ, मैं सहारा लेता हूँ। मुरि मुरि जाइ = मुड़ मुड़ जाए, लिफती जा रही है, टूटती जा रही है, किसी ना किसी विकार तले खुद दबता जा रहा है।
अर्थ: हे कबीर! (ये तो ठीक है कि मन की शांति का ‘ठौर’ साधु-संगत ही है, प्रभु के चरणों में टिके रहने के लिए ‘संगति करीअै साधु की’ साधु-संगत ही एक-मात्र साधन है; पर) यदि परमात्मा स्वयं सहायता ना करे (अगर ‘साधु’ के अंदर परमात्मा स्वयं ना आ बसे, अगर ‘साधु’ खुद प्रभु-चरणों में ना जुड़ा हुआ हो) तो ये साधन कमजोर हो जाने के कारण कोई लाभ नहीं पहुँचाता। (इन्सानी उच्च जीवन-रूप वृक्ष की चोटी पर पहुँचाने के लिए ‘साधु’ मानो, डालियां हैं, पर भेखी और चेले-चाटड़े ही बनाने वाले ‘साधु’ कमजोर टहनियां हैं) मैं तो (ऐसी) जिस-जिस डाली पर पैर रखता हूँ वह (वह स्वार्थ में कमजोर होने के कारण) टूटती जा रही है।97।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: किसी ऊँचे–लंबे पेड़ की चोटी पर चढ़ना हो, तो पेड़ की डालियों का आसरा लिया जाता है; किसी डाली पर हाथ डालना, किसी डाली पर पैर रखने से। बस, धीरे–धीरे ढंग से चोटी पर पहुँचा जाता है। पर, अगर पेड़ की डालियां कमजोर हों, तो चोटी तक पहुँचने की जगह किसी डाली के टूट जाने से चोटें ही खानी पड़ती हैं और जान जाने का भी कई बार खतरा बन जाता है।
इन्सानी जिंदगी, मानो, एक ऊँचा–लंबा पेड़ है जिसकी चोटी प्रभु के चरण हैं। मनुष्य ने अपने जीवन–सफर में इस चोटी पर पहुँचना है। गुरमुखि, साधु इस वृक्ष की डालियां हैं, ये लोग साधारण मनुष्य के लिए प्रभु-चरणों तक पहुँचाने का साधन हैं। पर जगत में भेख भी बहुत है। जो खुद ही हरि-नाम से कोरे हैं, और निरे चेले ही बनाए फिरते हैं, वे इस वृक्ष की मानो, कच्चियां डालियां हैं, इनका आसरा लेने से चोटी पर नहीं पहुँचा जा सकता, बल्कि मुँह–भार गिर के जान गवाने का डर है, आत्मिक मौत मरने का खतरा बन जाता है। ‘साध’ साधन तो अवश्य है, पर ‘साध’ वे हों जिनके अपने अंदर भी नाम-जपने की सत्ता हो।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर अवरह कउ उपदेसते मुख मै परि है रेतु ॥ रासि बिरानी राखते खाया घर का खेतु ॥९८॥

मूलम्

कबीर अवरह कउ उपदेसते मुख मै परि है रेतु ॥ रासि बिरानी राखते खाया घर का खेतु ॥९८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अवरह कउ = और लोगों को। मै = महि, में। परि है = पड़ती है।

दर्पण-टिप्पनी

रेत: शब्द ‘रेतु’ स्त्रीलिंग है, पर फिर भी इसके अंत में ‘ु’ मात्रा लगी रहती है।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिगानी = बेगानी, औरों की। रासि = राशि, पूंजी। राखते = रक्षा करने का प्रयत्न करते हैं। खेतु = फसल, पिछली की कमाई, पिछले सारे गुण।98।
अर्थ: हे कबीर! जो (‘साधु’ सिर्फ) और लोगों को ही शिक्षा उपदेश देते हैं, पर उनके अपने अंदर कोई रस नहीं आता। ऐसे (‘साधु’) औरों की राशि-पूंजी की तो रखवाली करने का प्रयत्न करते हें, पर अपने पिछले सारे गुण समाप्त कर लेते हैं (ऐसे ‘साधु’ भी कमजोर डालियां हैं, मानवता की चोटी पर ये भी पहुँचवा नहीं सकते)।98।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: परमात्मा के नाम की बातें, जैसे, खंड हैं, जो जो जीव सुनता है, उसको मीठी लगती हैं। पर जो लोग निरी और लोगों को शिक्षा देने वाले ही हैं, उनके लिए तो ये शब्द, निरी रेत ही हैं, उन्हें स्वयं कोई रस नहीं आता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर साधू की संगति रहउ जउ की भूसी खाउ ॥ होनहारु सो होइहै साकत संगि न जाउ ॥९९॥

मूलम्

कबीर साधू की संगति रहउ जउ की भूसी खाउ ॥ होनहारु सो होइहै साकत संगि न जाउ ॥९९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भूसी = छिल्ल्ड़, छिलका। जउ = जौ (अनाज)।99।
अर्थ: हे कबीर! (कह: मेरी तो ये तमन्ना है कि) मैं गुरमुखों की संगति में टिका रहूँ (चाहे मेरा कामकाज बहुत ही कम हो जाए) और मैं जौ के छिलके खा के गुजारा करूँ। (साधु-संगत में समय देने के कारण गरीबी आदि) अगर कष्ट भी आए तो आए। पर, मैं रब से टूटे हुए लोगों की संगति में ना जाऊँ।99।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर संगति साध की दिन दिन दूना हेतु ॥ साकत कारी कांबरी धोए होइ न सेतु ॥१००॥

मूलम्

कबीर संगति साध की दिन दिन दूना हेतु ॥ साकत कारी कांबरी धोए होइ न सेतु ॥१००॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दिन दिन = दिनो दिन, ज्यों ज्यों दिन गुजरते हैं। हेतु = (प्रभु से) प्यार। कारी = काली। कांबरी = कंबली। धोए = धोने से। सेतु = श्वेत, सफेद।100।
अर्थ: हे कबीर! गुरमुखों की संगति में रहने से दिन-ब-दिन परमात्मा के साथ प्यार बढ़ता ही बढ़ता है। पर रब से टूटा हुआ मनुष्य, जैसे, काली कंबली है जो धोने पर भी कभी सफेद नहीं होती। उसकी सोहबति में टिकने से मन की पवित्रता नहीं मिल सकती।100।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर मनु मूंडिआ नही केस मुंडाए कांइ ॥ जो किछु कीआ सो मन कीआ मूंडा मूंडु अजांइ ॥१०१॥

मूलम्

कबीर मनु मूंडिआ नही केस मुंडाए कांइ ॥ जो किछु कीआ सो मन कीआ मूंडा मूंडु अजांइ ॥१०१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मूंडिआ = मुनाया। कांइ = किसलिए? व्यर्थ ही। मूंडु = सिर। अजांइ = बेकार ही, बेफायदा।
अर्थ: हे कबीर! (ये जो सिर मुना के अपने आप को ‘साधु’ समझता फिरता है, इसने) अपना मन नहीं मुनाया (मन में से विकारों की मैल दूर नहीं की) सिर के केस मुनाने से तो यह ‘साधु’ नहीं बन गया। जिस भी बुरे कर्म की प्रेरना करता है मन ही करता है (यदि ‘साधु’ बनने की खातिर ही सिर मुंडाया है तो) सिर मुनवाना बेकार है।101।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शलोक नं: 97 वाली कमजोर डालियों की तरफ इशारा है, ऐसे ‘साध’ कमजोर साधन हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर रामु न छोडीऐ तनु धनु जाइ त जाउ ॥ चरन कमल चितु बेधिआ रामहि नामि समाउ ॥१०२॥

मूलम्

कबीर रामु न छोडीऐ तनु धनु जाइ त जाउ ॥ चरन कमल चितु बेधिआ रामहि नामि समाउ ॥१०२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जाइ = (अगर) जाता है, (अगर) नाश होता है। त = तो। जाउ = बेशक जाए, बेशक नाश हो जाए, कोई परवाह नहीं नाश हो जाए। बेधिआ = भेदा (रहे)। रामहि नामि = राम के नाम में (रामहि = रामस्य)। समाउ = समाया रहे।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जाउ’ व्याकरण अनुसार है हुकमी भविष्यत, एकवचन, अन्य-पुरुष Imperative mood, Third person Singular number.
नोट: ‘समाउ’ है हुकमी भविष्यत, एकवचन, अन्य-पुरुष।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे कबीर! परमात्मा का नाम कभी ना भुलाएं, (अगर नाम स्मरण करने से हमारा) शरीर और धन नाश होने लगे तो बेशक नाश हो जाए। पर हमारा चिक्त प्रभु के सुंदर चरणों में अवश्य भेदा रहे, परमात्मा के नाम में जरूर समाया रहे।102।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर जो हम जंतु बजावते टूटि गईं सभ तार ॥ जंतु बिचारा किआ करै चले बजावनहार ॥१०३॥

मूलम्

कबीर जो हम जंतु बजावते टूटि गईं सभ तार ॥ जंतु बिचारा किआ करै चले बजावनहार ॥१०३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जंतु = यंत्र, बाजा, शरीर का मोह, देह अध्यास। टूटि गई = टूट गई हैं। तार = (मोह की) तारें, शारीरिक मोह की तारें। किआ करै = क्या कर सकता है, कोई जोर नहीं डाल सकता। बजावनहार = बजाने वाला, जंत्र (ढोल, बाजे) को बजाने वाला, देह अध्यास के ढोल को बजाने वाला, जो मन-शरीर का मोह रूपी बाजा बजा रहा था।
अर्थ: (‘तनु धन’ जाने पर भी यदि मेरा मन ‘रामहि नामि’ में समाया रहे, तो यह सौदा बड़ा सस्ता है, क्योंकि) हे कबीर! (परमात्मा के नाम से टूट के) शारीरिक मोह का जो बाजा मैं सदा बजाता रहता था (अब नाम-जपने की इनायत से) उसकी (मोह की) सारी तारें टूट गई हैं। (देह अध्यास का ये) बेचारा बाजा (अब) क्या कर सकता है? भाव, नाम की इनायत से शारीरिक मोह मात खा गया है। (शारीरिक मोह तो कहीं रहा) वह मन ही नहीं रहा जो शारीरिक मोह का बाजा बजा रहा था।103।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: यही ख्याल कबीर जी आसा राग शब्द नं: 18 में इस तरह जाहर करते हैं;
बजावनहारो कहा गइओ, जिनि इहु मंदरु कीना॥ साखी सबदु सुरति नही उपजै, खिंचि तेजु सभु लीना॥2॥
इसी ही राग के शब्द नं: 28 में भी यही विचार यूँ लिखते हैं;
जउ मै रूप कीए बहुतेरे, अब फुनि रूपु न होई॥ तागा तंतु साजु सभु थाका, राम नाम बसि होई॥१॥ अब मोहि नाचनो न आवै॥ मेरा मनु मंदरीआ न बजावै॥१॥ रहाउ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर माइ मूंडउ तिह गुरू की जा ते भरमु न जाइ ॥ आप डुबे चहु बेद महि चेले दीए बहाइ ॥१०४॥

मूलम्

कबीर माइ मूंडउ तिह गुरू की जा ते भरमु न जाइ ॥ आप डुबे चहु बेद महि चेले दीए बहाइ ॥१०४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माइ मूंडउ = माँ (का सिर) मुन दूँ। तिह = उस। जा ते = जिसके पास रह के, जिसके बताए हुए राह पर चल के। भरमु = मन की भटकना, शारीरिक मोह रूप भटकना, देह अध्यास। ना जाइ = ना जाए, दूर ना हो। दीए बहाइ = बहा दिए।104।
अर्थ: (ये पंडित मुझे परमात्मा के नाम में जुड़ने से रोकता है और अपने वेद आदिक कर्म पुस्तकों के कर्मकांड का ढोल बजा के मेरा गुरु-परोहित बनना चाहता है; पर) हे कबीर! मैं ऐसे गुरु की माँ का सिर मुंन दूँ, इस राह पर चलने से (शारीरिक मोह की) भटकना दूर नहीं हो सकती। ये लोग खुद भी चारों वेदों (के कर्मकांड) में पड़ कर (देह-अध्यास के गहरे पानियों में) डूबे हुए हैं, जो-जो लोग इनके पीछे लगते हैं उनको भी इन्होंने उसी मोह में बहा डाला है।104।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर जेते पाप कीए राखे तलै दुराइ ॥ परगट भए निदान सभ जब पूछे धरम राइ ॥१०५॥

मूलम्

कबीर जेते पाप कीए राखे तलै दुराइ ॥ परगट भए निदान सभ जब पूछे धरम राइ ॥१०५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जेते = जितने भी। तलै = नीचे, अपने अंदर। दुराइ राखे = छुपा के रखे। निदान = आखिर।105।
अर्थ: (परमात्मा की याद भुलाने पर मनुष्य शारीरिक मोह के बहाव में पड़ कर विकारों के राह पर पड़ जाता है; तिलक, माला, पूजा, धोती आदि धार्मिक भेस से लोग शायद पतीज जाएं कि ये भक्त हैं; पर प्रभु के नाम से टूट के) हे कबीर! जो-जो पाप किए जाते हैं (भले ही वे पाप) अपने अंदर छुपा के रखे जाते हैं, फिर भी जब धर्मराज पूछता है वे पाप सारे उघड़ आते हैं (भाव, वेद आदि का कर्मकांड विकारों से नहीं बचा सकता, बाहरी धर्म-भेस दिखावे से लोग तो भले ही पतीज जाएं, पर अंदरूनी पाप परमात्मा से छुपे नहीं रह सकते)।105।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: अगले तीन शलोकों में तीन उदाहरण दे के बताते हैं कि स्मरण छोड़ के दुनिया उल्टी दिशा में चल पड़ती है। इसलिए ‘रामु न छोडीअै, तनु धनु जाइ त जाउ’।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर हरि का सिमरनु छाडि कै पालिओ बहुतु कुट्मबु ॥ धंधा करता रहि गइआ भाई रहिआ न बंधु ॥१०६॥

मूलम्

कबीर हरि का सिमरनु छाडि कै पालिओ बहुतु कुट्मबु ॥ धंधा करता रहि गइआ भाई रहिआ न बंधु ॥१०६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रहि गइआ = आत्मा रह जाता है, आत्मा ही कमजोर हो जाती है, आत्मा मर ही जाती है, जीव आत्मिक मौत मर जाता है। न रहिआ = कोई ना रहा, कोई बचाने लायक नहीं होता, कोई बचा नहीं सकता। छाडि = छोड़ के। पालिओ बहुतु = बहुत समय पालता रहा (सारी उम्र यही काम करता रहा कि) सिर्फ (परिवार) पालता रहा।106।
अर्थ: हे कबीर! परमात्मा का स्मरण छोड़ने का नतीजा ये हैं कि मनुष्य सारी उम्र सिर्फ परिवार ही पालता रहता है, (परिवार की खातिर) जगत के धंधे करता (और, जिंद के साथी परमात्मा से विछुड़ा हुआ रह के) आखिर आत्मिक मौत मर जाता है (इस आत्मिक मौत से) कोई रिश्तेदार बचाने के काबिल नहीं होता।106।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर हरि का सिमरनु छाडि कै राति जगावन जाइ ॥ सरपनि होइ कै अउतरै जाए अपुने खाइ ॥१०७॥

मूलम्

कबीर हरि का सिमरनु छाडि कै राति जगावन जाइ ॥ सरपनि होइ कै अउतरै जाए अपुने खाइ ॥१०७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जगावन जाइ = (मसाण) जगाने जाती है। अउतरै = उतरती है, पैदा करती है। सरपनि = सँपनी। होइ कै = बन के। अपुने जाए = अपने पैदा किए हुए बच्चे। खाइ = खाती है।107।
अर्थ: हे कबीर! परमात्मा के स्मरण से वंचित रहके ही (कोई औतरी जाहिल औरत) रात को मसाण जगाने के लिए (मसाण-भुमि में) जाती है। (पर बुरे काम से सुख कहाँ? ऐसी औरत मनुष्य-जन्म हाथ से गवाने के बाद) सँपनी बन के पैदा होती है, और अपने ही बच्चे खाती है।107।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: हमारे देश में अनपढ़ता के कारण बेअंत जहालत है, गाँवों में तो अंधेर मचा हुआ है। मुल्ला-मुलाणें कई तरह के जादू टूणे तवीत बना -बना के देते हैं। जिस औरतों के घर संतान नहीं होती, आम तौर पर वही ये जादू -तवीत कराती फिरती हैं। संतान-हीन औरत मसाण-भूमि में जा के, किसी नए जल रहे मुर्दे की चिखा के पास खास टूणा आदि कर के, नंगी नहा के, रोटी पका के खाती है। इस सारे बेहूदे कर्तव्य के दो मनोरथ होते हैं, जिस चिखा के पास ये टूणा किया जा रहा है, उनके बाल-बच्चे मर जाएं; और, दूसरा टूणा करने वाली के घर औलाद हो जाए।
नोट: धर्म और मज़हब के नाम पर अनपढ़ लोगों को आपस में लड़वा के मरवा के अपना स्वार्थ पूरा करते जाना शराफत नहीं है। यह पाज़ ज्यादा समय तक टिका नहीं रहेगा। अब तो देश में अपना राज है। गाँव–गाँव में लड़के–लड़कियों के स्कूल खोल के अनपढ़ता दूर करो, और लोगों को सही धर्म की समझ दो।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर हरि का सिमरनु छाडि कै अहोई राखै नारि ॥ गदही होइ कै अउतरै भारु सहै मन चारि ॥१०८॥

मूलम्

कबीर हरि का सिमरनु छाडि कै अहोई राखै नारि ॥ गदही होइ कै अउतरै भारु सहै मन चारि ॥१०८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अहोई = कार्तिक के महीने सीतला देवी की पूजा के व्रत; देवी-देवताओं की खास-खास सवारी मानी गई हुई है; जैसे गणेश की सवारी चूहा, ब्रहमा की सवारी हंस, शिव की सवारी सफेद बैल, दुर्गा की सवारी शेर; इसी तरह सीतला की सवारी गधा। गदही = गधी। मन चारि = चार मन (भार, वजन)।108।
अर्थ: हे कबीर! (‘रामु न छोडीअै, तनु धनु जाइ त जाउ’ नहीं तो) राम-नाम छोड़ने का ही ये नतीजा है कि (मूर्ख) स्त्री सीतला के व्रत रखती फिरती है। (और अगर सीतला उससे बड़ा प्यार करेगी तो उसको हर वक्त अपने साथ रखने के लिए अपनी सवारी गधी बना लेगी) सो, वह मूर्ख स्त्री गदही की जून पड़ती है और (अन्य गधे-गधियों की तरह) चार मन वज़न ढोती है।108।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: एक अनपढ़ता, दूसरा परमात्मा को छोड़ के और-और देवी-देवताओं मढ़ी-मसाणों की पूजा और कई किस्म के व्रतों ने भारत की स्त्री-जाति को नकारा बनाया हुआ है। चेत्र में कार्तिक में इन व्रतों की भरमार होती है; करवा चौथ, महा लक्ष्मी, नवरात्रे आदि कई व्रत हैं, जिनके द्वारा हिन्दू औरतें कई तरह की सुखणें सुखती रहती हैं। गुरु नानक पातिशाह ने सिख-स्त्री को इस जहालत-भरी गुलामी में से निकालने की कोशिश की थी, पर जब तक देश में अनपढ़ता है, औरतें तो कहां रहीं, मर्द भी पागल हुए फिरते हैं। सिख मर्द गुरपुरब भुला के मसिआ, पुंनिआ, संग्रांद मनाते फिरते हैं, औरतें करवा चौथ के व्रत रख के पतियों के शगन मना रही हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर चतुराई अति घनी हरि जपि हिरदै माहि ॥ सूरी ऊपरि खेलना गिरै त ठाहर नाहि ॥१०९॥

मूलम्

कबीर चतुराई अति घनी हरि जपि हिरदै माहि ॥ सूरी ऊपरि खेलना गिरै त ठाहर नाहि ॥१०९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ठाहर = जगह, आसरा।
अर्थ: हे कबीर! (दुनिया के सहम, वहम-भ्रम से बचने के लिए) सबसे बड़ी समझदारी यही है कि परमात्मा का नाम हृदय में याद कर। (पर) ये स्मरण करना कोई आसान काम नहीं है; (जाति-अभिमान, निंदा, कुसंग, चस्के, व्रत आदि भ्रम छोड़ने पड़ते हैं; सो) प्रभु का स्मरण सूली पर चढ़ने के समान है, इस सूली से गिरने पर भी (भाव, स्मरण का इस अत्यंत-मुश्किल काम को छोड़ने पर भी) बात नहीं बनती, क्योंकि स्मरण के बिना (दुनिया के दुख-कष्ट और सहमों से बचने के लिए) और कोई आसरा भी नहीं है।109।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: प्रभु-चरणों से विछुड़े मनुष्य को जगत के कई सहम घेर लेते हैं: दुख-कष्ट, रोग, गरीबी, लोक-सम्मान, ईष्या-जलन, कई किस्म की मुथाजियां आदि। इनसे बचने के लिए कहीं ये बेचारा छुपे पाप करता है, कहीं संतान की खातिर मसाण जगाए जाते हैं, कहीं व्रत रखे जाते हैं, कहीं तीर्थों की तरफ दौड़–भाग हो रही है। फिर भी सुख नहीं है, सहम ही सहम है। ये सारी समझदारियाँ अकारथ व्यर्थ जा रही हैं।
इनका एक ही इलाज है। प्रभु से विछोड़े के कारण ये दुख हैं। सिर्फ विछोड़ा दूर करना है, प्रभु के चरणों में जुड़ना है। पर सिर्फ ‘राम राम’ कहने को स्मरण नहीं कहा जाता। इस दवा के साथ कई परहेज़ भी हैं: चस्के, शारीरिक मोह, आति अभिमान, पराई निंदा, कुसंग, व्रत आदि के भ्रम, संग्रांद–मसिआ की भटकना, नाक रखने के लिए की जाने वाली व्यर्थ रस्में –ऐसे कई काम हैं जो जब तक छोड़े ना जाएं, स्मरण अपना जौहर नहीं दिखा सकता। पर, इनका त्याग कोई आसान खेल नहीं, कहीं अपना ही बिगड़ा हुआ मन रोकता है, कहीं लोक-सम्मान वरजती है। सो, स्मरण करना एक बड़ी कठिन खेल है, सूली पर चढ़ने के समान है। पर, स्मरण के बिना और कोई रास्ता है ही नहीं, जिस पर चल कर मनुष्यता की चोटी पर पहुँचा जा सके।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर सुोई मुखु धंनि है जा मुखि कहीऐ रामु ॥ देही किस की बापुरी पवित्रु होइगो ग्रामु ॥११०॥

मूलम्

कबीर सुोई मुखु धंनि है जा मुखि कहीऐ रामु ॥ देही किस की बापुरी पवित्रु होइगो ग्रामु ॥११०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धंनि = धन्य, भाग्य वाला। देही = शरीर। बापुरी = बेचारी। ग्रामु = गाँव।110।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘सुोई’ अक्षर में ‘स’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘सोई’, यहां ‘सुई’ पढ़ना है, इस शलोक की चाल पूरी रखने के लिए।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (इसलिए) हे कबीर! वही मुँह भाग्यशाली है जिस मुँह से राम का नाम उचारा जाता है। उस शरीर बेचारे की क्या बात है? (उस शरीर का पवित्र होना तो एक छोटी सी बात है, सिर्फ वह शरीर तो कहाँ रहा,) वह सारा गाँव ही पवित्र हो जाता है। जहाँ पर रहता हुआ मनुष्य नाम स्मरण करता है।110।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर सोई कुल भली जा कुल हरि को दासु ॥ जिह कुल दासु न ऊपजै सो कुल ढाकु पलासु ॥१११॥

मूलम्

कबीर सोई कुल भली जा कुल हरि को दासु ॥ जिह कुल दासु न ऊपजै सो कुल ढाकु पलासु ॥१११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ऊपजै = (सं: जन्+उप, उपजन = to become visible, to appear, to grow प्रकट होना, बनना) प्रकट होना।111।
अर्थ: हे कबीर! जिस कुल में परमात्मा का स्मरण करने वाला भक्त प्रकट हो जाए, वही कुल सुलक्ष्णी है। जिस कुल में प्रभु की भक्ति करने वाला बंदा नहीं प्रकट होता, वह कुल ढाक पलाह (आदि निकम्मे पेड़ों जैसी निष्फल जानो)।111।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर है गइ बाहन सघन घन लाख धजा फहराहि ॥ इआ सुख ते भिख्या भली जउ हरि सिमरत दिन जाहि ॥११२॥

मूलम्

कबीर है गइ बाहन सघन घन लाख धजा फहराहि ॥ इआ सुख ते भिख्या भली जउ हरि सिमरत दिन जाहि ॥११२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: है = हय, घोड़े। गइ = गै, गय, गज, हाथी। बाहन = वाहन, सवारी (करने के लिए)। सघन घन = बेअंत। धजा = ध्वजा, झंडे। फहराइ = लहराएं, हवा में झूलें। भिख्या = भिक्षा, फकीरों-साधुओं का गृहस्थी के दर से माँगा हुआ अन्न। जउ = अगर। जाहि = गुजरें। ते = से।
अर्थ: हे कबीर! अगर सवारी करने के लिए बेअंत घोड़े-हाथी हों, अगर (महलों पर) लाखों झण्डे झूलते हों (इतना तेज-प्रताप भी हो, पर परमात्मा के नाम से टूटे रह के ये राज-भाग किसी काम के नहीं हैं)। यदि परमात्मा का स्मरण करते हुए (जिंदगी के) दिन गुज़रें तो उस (स्मरण-हीन राज-भाग के) सुख से वह टुकड़ा बेहतर है जो लोगों के दर से माँग के मँगते फकीर खाते हैं।112।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: अभी ‘हरि का सिमरनु छाडि कै’ वाला विचार ही चला आ रहा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर सभु जगु हउ फिरिओ मांदलु कंध चढाइ ॥ कोई काहू को नही सभ देखी ठोकि बजाइ ॥११३॥

मूलम्

कबीर सभु जगु हउ फिरिओ मांदलु कंध चढाइ ॥ कोई काहू को नही सभ देखी ठोकि बजाइ ॥११३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मांदलु = ढोल। कंध = कंधे पर। चढाइ = चढ़ा के, रख के। काहू को = किसी का। सभ = सारी (सृष्टि)। ठोकि बजाइ = अच्छी तरह परख के।
अर्थ: हे कबीर! कंधों पर ढोल रख के मैं (बजाता फिरा हूँ और) सारा जगत गाह मारा है (मैं पूछता फिरा कि बताओ, भाई! इस राज-भाग, महल-माढ़ियां, साक-संबन्धी में से कोई आखिर तक साथ निभाने वाले साथी को भी किसी ने देखा है, पर किसी ने हामी नहीं भरी; सो) सारी सृष्टि मैंने अच्छी तरह परख के देख ली है कोई भी किसी का (आखिर तक साथ निभाने वाला साथी) नहीं है (असल साथी सिर्फ परमात्मा का नाम ही है, इसलिए ‘रामु न छोडीअै तनु धनु जाइ त जाउ’)।113।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: वही ख्याल चला आ रहा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मारगि मोती बीथरे अंधा निकसिओ आइ ॥ जोति बिना जगदीस की जगतु उलंघे जाइ ॥११४॥

मूलम्

मारगि मोती बीथरे अंधा निकसिओ आइ ॥ जोति बिना जगदीस की जगतु उलंघे जाइ ॥११४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मारगि = रास्ते में। बीथरे = बिखरे हुए हैं। निकसिओ आइ = सबब से आ पहुँचा है। जोति = रौशनी। जगदीस = जगत+ईश, जगत का मालिक प्रभु। उलंघे जाइ = उलंघता जा रहा है, (उन मोतियों को) पैरों तले लिताड़ता जा रहा है।
अर्थ: (परमात्मा के गुण, मानो) मोती (हैं जो इन्सानी जिंदगी के सफर के) रास्ते में बिखरे हुए हैं (भाव, ये मोती लेने के लिए कोई धन-पदार्थ नहीं खर्चना पड़ता; पर यहाँ ज्ञान-हीन) अंधा मनुष्य आ पहुँचा है। परमात्मा की बख्शी हुई (ज्ञान की) ज्योति के बिना जगत इन मोतियों को पैरों तले लिताड़ता चला जा रहा है (मनुष्य को परमात्मा की महिमा करने की कद्र नहीं पड़ती, प्रभु स्वयं ही मेहर करे तो ये जीव गुण गा सकता है)।114।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बूडा बंसु कबीर का उपजिओ पूतु कमालु ॥ हरि का सिमरनु छाडि कै घरि ले आया मालु ॥११५॥

मूलम्

बूडा बंसु कबीर का उपजिओ पूतु कमालु ॥ हरि का सिमरनु छाडि कै घरि ले आया मालु ॥११५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बूडा = डूब गया (समझो)। बंसु = वंश, खानदान, कुल (आँख, नाक, कान आदि बारे सारी ज्ञान-इंद्रिय) परिवार। उपजिओ = (देखो शलोक नं: 111) प्रकट हो गया, इस हालत में पहुँच गया। पूतु = पुत्र, मन। कमालु = कामल, लायक, अजब लायक (भाव, नालायक, मूर्ख)। घरि = घर में, हृदय में, अपने अंदर। मालु = धन, धन की लालसा, माया का मोह (इस भाव को समझने के लिए पढ़ें शलोक नं: 112 और 113)।
अर्थ: (‘है गइ बाहन सघन घन’ और ‘लाख धजा’ में से ‘कोई काहू को नहीं’ -ये बात मैंने देखी ‘डिठी ठोकि बजाइ’, फिर भी) अगर मेरा मूख मन ऐसी (नीची) अवस्था में आ पहुँचा है कि परमात्मा का स्मरण छोड़ के अपने अंदर माया का मोह बसा रहा है तो मैं कबीर का सारा ही परिवार (आँख, नाक, कान आदि बारे सारी ज्ञान-इंद्रिय का टोला विकारों में अवश्य) डूब गया जानो।115।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शलोक नं: 107, 108 पढ़ के देखो, अभी वही ख्याल चला आ रहा है, अभी वह शब्द ‘हरि का सिमरनु छाडि कै’ बरते जा रहे हैं। शलोक नं: 112, 113 में भी वही बात कही है कि स्मरण से वंचित रह के ये राज–भाग भी व्यर्थ। अब वाला शलोक भी उसी सिलसिले में है।
नोट: कबीर जी बहुत सारी वाणी ऐसी है जिसकी गहरी रम्ज़ें हैं। पर हमारे कई टीकाकार इन मुश्किल घाटियों को कहानियाँ घड़–घड़ के पार करते आऐ हैं। कहानियाँ घड़ने के वक्त कई बार इस बात का भी ख्याल नहीं रहा कि इस कहानी की टेक पर किए हुए अर्थ हमारे मौजूदा इन्सानी जीवन के साथ मेल खाते हैं या नहीं। कबीर का अपना पत्नी लोई के साथ गुस्सा हो जाना, नामदेव का मुग़ल को रब कहना –ऐसी कई बेतुकी कथा–कहानियां इस वक्त सिख प्रचारक सुना देते हैं, जो असल में सिख धर्म के आशय के ही बिल्कुल विरुद्ध जाती हैं।
पर इस मौजूदा शलोक में कबीर जी के साथ एक बेइन्साफी भी की गई है। अपने कच्चे और कमजोर अर्थों को पक्का साबित करने की खातिर कहानियां घड़ने वालों ने यह अंदाजा लगाया है कि कबीर का पुत्र (जिसका नाम ये लोग ‘कमाल’ बता रहे हैं) किसी लालच में फस के कुछ ‘माल’ घर ले आया था, और कबीर जी ने उसकी इस करतूत की विरोधता इस शलोक में की है। कुछ इसी तरह ही राग गउड़ी के ‘छंत’ में शब्द ‘मोहन’ देख के कहानियां घड़ने वालों ने बाबा मोहन की सैंचियों की कहानी गुरु अरजन साहिब के साथ जोड़ दी (इस बारे मेरी पुस्तक ‘कुछ और धार्मिक लेख’ में ‘गुरबाणी के इतिहास बारे’ के पहले तीन लेख)। ऐसे बेतुके अंदाजे लगानेकई बार महापुरुषों की निरादरी के तूल्य हो जाते हैं।
हम पहले बता आए हैं के कबीर जी के कई शब्द देखने में तो साधारण लगते हैं, पर उनके भीतर बहुत ही गहरी रम्ज़ हुआ करती है। मिसाल के तौर पर;
सोरठि
…घसि कुंकम चंदनु गारिआ॥ …बिनु नैनहु जगतु निहारिआ॥ …पूति पिता इकु जाइआ॥ …बिनु ठाहर, नगरु बसाइआ॥२॥६॥
इसके अर्थ:
जिस पुत्र (जीवात्मा) ने मेहनत करके अपने प्राणों को प्रभु में मिला दिया है, उसने अपनी आँखों को जगत–तमाशे से हटा के जगत (की अस्लियत) को देख लिया है; पहले वह सदा बाहर भटकता था, अब (उसने अपने अंदर, जैसे) शहर बसा लिया है (भाव, उसके अंदर वह सुंदर गुण पैदा हो गए हैं कि वह अब बाहर नहीं भटकता)।2।
बसंतु
…जोइ खसमु है जाइआ॥ पूति बापु खेलाइआ॥ …बिनु स्रवणा खीरु पिलाइआ॥१॥ …देखहु लोगा कलि का भाउ॥ …सुति मुकलाई अपनी माउ॥ रहाउ॥३॥
इसका अर्थ:
हे लोगो! देखो, कलियुग का अजब प्रभाव पड़ रहा है (भाव, प्रभु से विछुड़ने के कारण जीव पर अजीब तरह का दबाव पड़ रहा है; मन–रूप पुत्र ने अपनी माँ (–माया) को ब्याह लिया है। रहाउ।
स्त्री ने पति को जन्म दिया है (भाव, जिस मन को माया ने जन्म दिया है, वही इसको भोगनेवाला बन जाता है, इसका पति बन जाता है); मन–पुत्र ने पिता–जीवात्मा को खेलने लगाया हुआ है; (यह मन) थनों के बिना ही (जीवात्मा को) दूध पिला रहा है (भाव, नाशवान पदार्थों के स्वाद में डाल रहा है)।1।
इसी तरह इस शलोक नं: 115 में भी शब्द ‘पूत’ का अर्थ है ‘मन’।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर साधू कउ मिलने जाईऐ साथि न लीजै कोइ ॥ पाछै पाउ न दीजीऐ आगै होइ सु होइ ॥११६॥

मूलम्

कबीर साधू कउ मिलने जाईऐ साथि न लीजै कोइ ॥ पाछै पाउ न दीजीऐ आगै होइ सु होइ ॥११६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साधू = भला मनुष्य, जिसने अपने मन को साधा हुआ है, गुरमुखि। आगै = साधु को ओर जाते हुए, किसी गुरमुखि के सन्मुख रहते हुए। होइ सु होइ = अगर कोई मुश्किल भी हो तो होती रहे।
अर्थ: हे कबीर! (‘रामु न छोडीअै, तनु धनु जाइ त जाउ’; पर प्रभु का नाम सिर्फ उनसे ही मिलता है जिन्होंने अपने मन को साधु के रखा हुआ है, जो आप ‘साधु’ हैं; सो, ‘साधु’ की संगति करनी चाहिए; पर) अगर किसी साधु गुरमुखि के दर्शन करने जाएं, तो किसी को अपने साथ नहीं ले के जाना चाहिए (किसी साथ का इन्तजार नहीं करना चाहिए, जाने के लिए कोई आसरा नहीं ढूंढना चाहिए, कि कहीं ममता में बँधा हुआ साथी टाल-मटोल ही करा दे)। किसी गुरमुखि का दीदार करने जाने पर कभी पैर पीछे ना धरें (भाव, कभी आलस ना करें); बल्कि उधर को जाते को कोई मुश्किल भी आए तो आती रहे (परवाह ना करें)।116।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर जगु बाधिओ जिह जेवरी तिह मत बंधहु कबीर ॥ जैहहि आटा लोन जिउ सोन समानि सरीरु ॥११७॥

मूलम्

कबीर जगु बाधिओ जिह जेवरी तिह मत बंधहु कबीर ॥ जैहहि आटा लोन जिउ सोन समानि सरीरु ॥११७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिह जवेरी = जिस रस्सी से, ममता की जिस रस्सी से; माया मोह की रस्सी से। तिह = उस रस्सी से। मत बंधहु = ना बँध जाना। जै हहि = तबाह हो जाएगा। आटा लोन जिउ = आटा नमक की तरह, सस्ते भाव। सोन समानि = सोने जैसा, बहुमूल्य। सरीर = मनुष्य शरीर।
अर्थ: हे कबीर! माया-मोह की जिस रस्सी से जगत (का हरेक जीव) बँधा हुआ है, उस रससी से अपने आप को बँधने ना देना। ये सोने जैसा (कीमती) मनुष्य-शरीर (मिला) है, (अगर तू मोह की रस्सी में बँध के गुरमुखों की संगति से परे रह के, परमात्मा का स्मरण छोड़ बैठा, तो) सस्ते भाव में बेकार ही तबाह हो जाएगा।117।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: किसी साधु गुरमुखि की संगति में जाते वक्त क्यों किसी साथी का इन्जार नहीं करना चाहिए– ये बात इस शलोक में समझाई है कि आम तौर पर हरेक जीव ममता में बँधा हुआ है, आसरे देखते–देखते कहीं किसी साथी की प्रेरणा में ही आ जाएं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर हंसु उडिओ तनु गाडिओ सोझाई सैनाह ॥ अजहू जीउ न छोडई रंकाई नैनाह ॥११८॥

मूलम्

कबीर हंसु उडिओ तनु गाडिओ सोझाई सैनाह ॥ अजहू जीउ न छोडई रंकाई नैनाह ॥११८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हंसु = जीवात्मा। उडिओ = उडिओ चाहे, उड़ना चाहता है, शरीर को छोड़ने की तैयारी में है। तनु गाडिओ = तनु गाडे जाने वाला है, शरीर और जीवात्मा का विछोड़ा होने पर है। सोझाई = सूझ। सैनाह = सैनतों से। रंकाई = कंगालता, नीचता। नैनाह = नैणों की, आँखों की।
अर्थ: (ये ममता की जंजीर कोई साधारण सा बंधन नहीं होता) हे कबीर! (परमात्मा के स्मरण से टूट के माया-मोह की रस्सी में बँधे हुओं का हाल अगर तुने समझना है तो देख कि मौत सिर पर आ पहुँचती है) जीवात्मा (शरीर में से) निकलने पर होता है, शरीर (आत्मा के विछुड़ने पर) (शिथिर और) गिरने वाला होता है, फिर भी मोह की जंजीर का बँधा हुआ जीव सैनतों के साथ ही (पिछले संबन्धियों को) समझाता है, (उस वक्त भी प्रभु याद नहीं आता), अभी भी जीव आँखों की कंगालता नहीं छोड़ता।118।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर नैन निहारउ तुझ कउ स्रवन सुनउ तुअ नाउ ॥ बैन उचरउ तुअ नाम जी चरन कमल रिद ठाउ ॥११९॥

मूलम्

कबीर नैन निहारउ तुझ कउ स्रवन सुनउ तुअ नाउ ॥ बैन उचरउ तुअ नाम जी चरन कमल रिद ठाउ ॥११९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नैन निहारउ = आँखों से मैं देखूँ। तुझ कउ = तुझे (हे प्रभु!)। स्रवन = कानों से। सुनउ = मैं सुनूँ। तुअ = तेरा। बैन = वचन, वचनों से। उचारदा = मैं उचारूँ। जी = हे प्रभु जी! चरन कमल = कमल के फूल जैसे सुंदर चरण। ठाउ = जगह।
अर्थ: हे कबीर! (प्रभु-दर पर अरदास कर और कह: हे प्रभु! तुझे बिसार के जिस मोह-जंजीर से जगत बँधा हुआ है और मरने के वक्त तक भी आँखों की कंगालता नहीं छोड़ता; मेहर कर, उस जेवरी से बचने के लिए) मैं अपनी आँखों से (हर तरफ) तेरा ही दीदार करता रहूँ, तेरा ही नाम मैं अपने कानों से सुनता रहूँ, (जीभ से) वचनों द्वारा मैं तेरा नाम ही उचारता रहूँ, और तेरे सुंदर चरणों को अपने हृदय में जगह दिए रखूँ।119।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर सुरग नरक ते मै रहिओ सतिगुर के परसादि ॥ चरन कमल की मउज महि रहउ अंति अरु आदि ॥१२०॥

मूलम्

कबीर सुरग नरक ते मै रहिओ सतिगुर के परसादि ॥ चरन कमल की मउज महि रहउ अंति अरु आदि ॥१२०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। रहिओ = बच गया हूँ। परसादि = कृपा से। मउज = लहर, हुलारा। अंति अरु आदि = शुरू से आखिर तक, सदा ही।120।
अर्थ: हे कबीर! मैं तो सदा ही परमात्मा के सुंदर चरणों (की याद) के हुलारे में रहता हूं; (और इस तरह) अपने सतिगुरु की कृपा से मैं स्वर्ग (की लालसा) और नर्क (के डर) से बच गया हूँ।120।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर चरन कमल की मउज को कहि कैसे उनमान ॥ कहिबे कउ सोभा नही देखा ही परवानु ॥१२१॥

मूलम्

कबीर चरन कमल की मउज को कहि कैसे उनमान ॥ कहिबे कउ सोभा नही देखा ही परवानु ॥१२१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मउज को = लहर का हुलारे का। कहि = कहे, बताए। कैसे = कैसे? उनमान = (सं: उन्मान = measuring, price) तोल, अंदाजा, कीमत। कहिबे कउ = बयान करने से। परवानु = प्रमाणिक, मानने योग्य।121।
अर्थ: (पर,) हे कबीर! प्रभु के सुंदर चरणों में टिके रहने के हुलारे का अंदाजा कैसे कोई बता सकता है? (जीभ से) उस मौज का बयान करना फबता ही नहीं है; वह कितना (और कैसा) हुलारा है? - ये तो हुलारा ले के ही पता चलता है।121।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर देखि कै किह कहउ कहे न को पतीआइ ॥ हरि जैसा तैसा उही रहउ हरखि गुन गाइ ॥१२२॥

मूलम्

कबीर देखि कै किह कहउ कहे न को पतीआइ ॥ हरि जैसा तैसा उही रहउ हरखि गुन गाइ ॥१२२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किह = क्या? कहउ = मैं कहूँ। पतीआइ = पतीजता, तसल्ली होती, आनंद आता। रहउ = मैं रहता हूँ। हरखि = खुशी में, खेड़े में। गाइ = गा के।122।
अर्थ: हे कबीर! उस प्रभु के दीदार करके मैं बता भी कुछ नहीं सकता, और बताने पर किसी को तसल्ली भी नहीं हो सकती (क्योंकि जगत में कोई चीज ऐसी नहीं है जिस तरफ इशारा कर के कहा जा सके कि परमात्मा इस जैसा है), परमात्मा अपने जैसा स्वयं ही है; (मैं तो सिर्फ यह कह सकता हूं कि) उसके गुण गा-गा के मैं मौज में टिका रहता हूँ।122।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर चुगै चितारै भी चुगै चुगि चुगि चितारे ॥ जैसे बचरहि कूंज मन माइआ ममता रे ॥१२३॥

मूलम्

कबीर चुगै चितारै भी चुगै चुगि चुगि चितारे ॥ जैसे बचरहि कूंज मन माइआ ममता रे ॥१२३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चुगै = (चोगा) चुगती है। चितारै = (अपने बच्चों को) याद करती है। भी = दोबारा, फिर। चुगि चुगि चितारे = चुग चुग के (बच्चों को याद करती है, चोगा भी चुगती जाती है और बच्चों को याद भी करती है)। बचरहि = बच्चों में। ममता = ये ख्याल कि (माया) मेरी बन जाए, मल्कियत की तमन्ना। रे = हे भाई!
अर्थ: हे कबीर! कूँज चोगा चुगती है और अपने बच्चों को भी चेता करती है, फिर चुगती है, चोगा भी चुगती है और बच्चों को भी याद करती है। जैसे कूँज की तवज्जो हर वक्त अपने बच्चों में रहती है, वैसे ही, हे भाई! (‘हरि का सिमरनु छाडि कै’) मनुष्य का मन माया की मल्कियत की तमन्ना में टिका रहता है।123।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर अ्मबर घनहरु छाइआ बरखि भरे सर ताल ॥ चात्रिक जिउ तरसत रहै तिन को कउनु हवालु ॥१२४॥

मूलम्

कबीर अ्मबर घनहरु छाइआ बरखि भरे सर ताल ॥ चात्रिक जिउ तरसत रहै तिन को कउनु हवालु ॥१२४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंबर = आकाश, आसमान। घनहरु = बादल। छाइआ = बिछ गए, बिखर गए। बरखि = बरस के, बस के। सर ताल = सरोवर तालाब। चात्रिक = पपीहा। रहै = रहते हैं। कउनु हवालु = (भाव) बुरा ही हाल।
अर्थ: हे कबीर! (वर्षा ऋतु में) बादल आकाश में (चारों तरफ) बिछ जाता है, बरखा कर के (छोटे बड़े सारे) सरोवर तालाब भर देता है (पर, पपीहा फिर भी बरखा की बूँद को तरसता और कूकता रहता है)। (परमात्मा सारी सृष्टि में व्यापक है, पर माया की ममता में फसे हुए जीव उसका दर्शन नहीं कर सकते) (‘हरि का सिमरनु छाडि कै’) वह पपीहे की तरह तरले लेते हैं, और उनका सदा बुरा हाल ही रहता है।124।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर चकई जउ निसि बीछुरै आइ मिलै परभाति ॥ जो नर बिछुरे राम सिउ ना दिन मिले न राति ॥१२५॥

मूलम्

कबीर चकई जउ निसि बीछुरै आइ मिलै परभाति ॥ जो नर बिछुरे राम सिउ ना दिन मिले न राति ॥१२५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चकई = चकवी।
जउ = जब। निसि = रात के वक्त। परभाति = सूरज चढ़ने से पहले। सिउ = से।
अर्थ: हे कबीर! चकवी जब रात को (अपने चकवे से) विछुड़ती है और सुबह होती ही दोबारा आ के मिलती है (रात का अंधेरा इनके मेल के रास्ते में रुकावट बना रहता है, वैसे ये अंधकार उनको ज्यादा से ज्यादा चार पहर ही विछोड़ सकता है। पर माया की ममता का अंधेरा ऐसा नहीं जो जल्दी खत्म हो सके, यह तो जन्म-जन्मांतरों तक खलासी नहीं करता; इस अंधेरे के कारण) जो मनुष्य प्रभु से विछुड़ते हैं, वे ना दिन में मिल सकते हैं ना रात को।125।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: आम ख्याल है कि चकवी अपने साथी चकवे से सारी रात विछुड़ी रहती है। एक दूसरे की याद में कूकते हैं, पर मिल नहीं सकते। सवेर होते सार ही दोबारा मिल जाते हैं)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर रैनाइर बिछोरिआ रहु रे संख मझूरि ॥ देवल देवल धाहड़ी देसहि उगवत सूर ॥१२६॥

मूलम्

कबीर रैनाइर बिछोरिआ रहु रे संख मझूरि ॥ देवल देवल धाहड़ी देसहि उगवत सूर ॥१२६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रैनाइर = (सं: रत्नाकर = रत्नों की खान) समुंदर। मझूरि = (रैनाइर) माझ, समुंदर में ही। रहु = टिका रह। देवल = (देवालय = देव+आलय) देवते का घर, देहुरा, ठाकुरद्वारा, मन्दिर। धाहड़ी = धाह+ड़ी, डरावनी ढाह। देसहि = देएगां। सूर = सूरज।126।
अर्थ: हे कबीर! (कह:) समुंदर से विछुड़े हुए हे शंख! समुंदर में ही टिका रह, नहीं तो हर रोज चढ़ते सूरज के साथ हरेक मन्दिर में डरावनी आवाज मारेगा (दहाड़ेगा)।126।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: प्रभु चरणों से विछुड़ के ममता का मारा जीव माया की खातिर दर-दर पर तरले लेता है; अगर प्रभु के दर पर टिका रहे तो और-और आशाएं धार के धक्के खाने से बच जाता है। तभी तो,
(‘कबीर रामुन छोडीअै, तनु धनु जाइ त जाउ’)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर सूता किआ करहि जागु रोइ भै दुख ॥ जा का बासा गोर महि सो किउ सोवै सुख ॥१२७॥

मूलम्

कबीर सूता किआ करहि जागु रोइ भै दुख ॥ जा का बासा गोर महि सो किउ सोवै सुख ॥१२७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सूता = (माया की ममता की नींद में) सोया हुआ। भै = (दुनिया के) डर सहम।
बासा = वास, निवास। गोर = कब्र, अंधेरी गहरी जगह, दुनिया के दुखों और सहम से भरी हुई जिंदगी। किउ = कैसे? किउ सोवै = सुख से सो नहीं सकता, सुखी हो नहीं सकता।127।
अर्थ: हे कबीर! (माया के मोह में) सोया हुआ (मस्त हुआ) क्या कर रहा है (क्यों व्यर्थ में उम्र गवा रहा है?) प्रभु की याद में होशियार हो और (इस याद की इनायत से उन सांसारिक) सहमों और कष्टों से खलासी हासिल कर (जो प्रभु-चरणों से विछुड़ने पर आ घेरते हैं। तू समझता है कि मोह की नींद मीठी नींद है, पर इस मोह से पैदा हुए दुखों-कष्टों और सहमों के तले दबे रहना कब्र में पड़ने के समान है। ये दुखों-कष्टों-सहमों भरा जीवन सुखी जीवन नहीं है)। जिस मनुष्य का वास सदा (ऐसी) कब्र में रहे, वह कभी सुखी जीवन जीता हुआ नहीं कहा जा सकता।128।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘रोइ भै दुख’ (देखो शलोक नं: 72) दुनिया के डरों सहमों और दुखों को दूर कर। (किसी को रो बैठने का भाव है किसी से संबन्ध तोड़ लेना)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर सूता किआ करहि उठि कि न जपहि मुरारि ॥ इक दिन सोवनु होइगो लांबे गोड पसारि ॥१२८॥

मूलम्

कबीर सूता किआ करहि उठि कि न जपहि मुरारि ॥ इक दिन सोवनु होइगो लांबे गोड पसारि ॥१२८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उठि = सचेत हो के, होशियार हो के। कि = क्यों? मुरारि = परमात्मा। पसारि = पसार के, बिखेर के। लांबे गोड पसारि = लंबे घुटने पसार के, ऐसे बेफिक्र हो के कि जैसे दोबारा उठना ही ना हो।128।
अर्थ: हे कबीर! माया के मोह में मस्त हो के क्यों उम्र व्यर्थ गवा रहा है? इस मोह की नींद में से होशियार हो के क्यों परमात्मा का स्मरण नहीं करता? एक दिन ऐसा बे-बस हो के सोना पड़ेगा कि दोबारा उठा ही नहीं जा सकेगा (एक दिन सदा की नींद सोना पड़ेगा)।128।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर सूता किआ करहि बैठा रहु अरु जागु ॥ जा के संग ते बीछुरा ता ही के संगि लागु ॥१२९॥

मूलम्

कबीर सूता किआ करहि बैठा रहु अरु जागु ॥ जा के संग ते बीछुरा ता ही के संगि लागु ॥१२९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा के संग ते = जिस परमात्मा की संगति से। लागु = लगा रह, जुड़ा रह।129।
अर्थ: हे कबीर! माया के मोह में मस्त हो के क्यों उम्र व्यर्थ गवा रहा है? होशियार हो, ममता की नींद के हुलारे से सचेत रह। जिस प्रभु की याद से विछुड़ा हुआ है (और ये सहम और कष्ट बर्दाश्त कर रहा है) उसी प्रभु के चरणों में जुड़ा रह।129।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: तीसरे शलोक की आखिर तुक कारे पढ़ने से साफ पता चल जाता है कि ‘सोने’ से भाव है परमात्मा के चरणों से विछुड़ना और ‘जागने’ से भाव है प्रभु की याद में जुड़ना।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर संत की गैल न छोडीऐ मारगि लागा जाउ ॥ पेखत ही पुंनीत होइ भेटत जपीऐ नाउ ॥१३०॥

मूलम्

कबीर संत की गैल न छोडीऐ मारगि लागा जाउ ॥ पेखत ही पुंनीत होइ भेटत जपीऐ नाउ ॥१३०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गैल = रास्ता, पीछा। संत की गैल = वह रास्ता जिस पर संत चले हैं। मारगि = रस्ते पर। लागा जाउ = चला चल। पुंनीत = पुनीत, पवित्र। भेटत = मिलने से, संगति करने से, पास बैठने से।
अर्थ: (पर) हे कबीर! (अगर ‘जा के संग ते बीछुरा, ताही के संग लागु’ वाला उद्यम करना है तो) वह रास्ता ना छोड़ें जिस पर संत गुरमुखि चलते हैं, उनके रास्ते पर चलते चलना चाहिए। संतों-गुरमुखों का दर्शन करने से मन पवित्र हो जाता है, उनके पास बैठने से परमात्मा का स्मरणा शुरू हो जाता है (स्मरण का शौक पड़ जाता है)।130।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर साकत संगु न कीजीऐ दूरहि जाईऐ भागि ॥ बासनु कारो परसीऐ तउ कछु लागै दागु ॥१३१॥

मूलम्

कबीर साकत संगु न कीजीऐ दूरहि जाईऐ भागि ॥ बासनु कारो परसीऐ तउ कछु लागै दागु ॥१३१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साकत = ईश्वर से टूटा हुआ मनुष्य। संगु = सुहबत। दूरहि = (साकत से) दूर ही। भागि जाईऐ = भाग जाना चाहिए। बासनु = बर्तन। कारो = काला। तउ = तो। कछु = कुछ, थोड़ा बहुत।
अर्थ: हे कबीर! (अगर ‘जा के संग ते बीछुरा, ताही के संग लागु’ वाला उद्यम करना है तो) रब से टूटे हुए बंदे की सोहबति नहीं करनी चाहिए, उससे दूर ही हट जाना चाहिए। (देख,) यदि किसी काले बर्तन को छूएं, तो थोड़ा-बहुत दाग़ लग ही जाता है।132।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीरा रामु न चेतिओ जरा पहूंचिओ आइ ॥ लागी मंदिर दुआर ते अब किआ काढिआ जाइ ॥१३२॥

मूलम्

कबीरा रामु न चेतिओ जरा पहूंचिओ आइ ॥ लागी मंदिर दुआर ते अब किआ काढिआ जाइ ॥१३२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जरा = बुढ़ापा। लागी = (आग) लग गई। मंदरि = घर। मंदरि दुआर ते = घर के दरवाजे पर। अब = अब, आग लगने पर। किआ काढिआ जाइ = क्या निकाला जा सकता है? क्या बचाया जा सकता है? सब कुछ बचाया नहीं जा सकता।132
अर्थ: हे कबीर! (अगर ‘जा के संग ते बीछुरा, ताही के संग लागु’ वाला उद्यम करना है तो ये समय-सिर ही हो सकता है, साधारण तौर पर बुढ़ापे से पहले-पहले ही ये उद्यम करना चाहिए; पर अगर जवानी में परमात्मा का भजन ना किया (ऊपर से) बुढ़ापा आ पहुँचा, इस उम्र तक माया के मोह में फंसे रहने से बेअंत बुरे संस्कार अंदर जमा होते गए, अब ये कैसे नाम-जपने की तरफ पलटने देंगे?) अगर किसी घर को दरवाजे की तरफ से आग लग जाए, तो उस वक्त (घर में से) बहुत कुछ (जलने से) नहीं बचाया जा सकता (इसी तरह अगर) जवानी विकारों में गल जाए, तो बुढ़ापे में उम्र के गिनती के दिन होने के कारण जीवन बहुत सँवारा नहीं जा सकता।132।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर कारनु सो भइओ जो कीनो करतारि ॥ तिसु बिनु दूसरु को नही एकै सिरजनहारु ॥१३३॥

मूलम्

कबीर कारनु सो भइओ जो कीनो करतारि ॥ तिसु बिनु दूसरु को नही एकै सिरजनहारु ॥१३३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कारनु = कारण, सबब, साधन, ‘राम को चेतने का सबब। सो भइओ = वही (सबब) बनता है। एकै = एक ही।133।
अर्थ: (पर) हे कबीर! (यदि स्मरण से वंचित ही जवानी गुजर गई है ओर बुढ़ापा आ जाने पर अब समझ आई है, तो भी निराश होने की आवश्यक्ता नहीं। स्मरण प्रभु की अपनी बख्शिश हैजब दे तब ही जीव स्मरण कर सकता है। जवानी हो चाहे बुढ़ापा, स्मरण करने का) सबब वही बनाता है जो कर्तार स्वयं बनाए; (ये दाति किसी भी जीव के हाथ में नहीं है, ये सबब बनाने वाला) उस परमात्मा के बिना और कोई नहीं, सिर्फ सृष्टि का रचनहार स्वयं ही सबब बनाने-योग्य है।133।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर फल लागे फलनि पाकनि लागे आंब ॥ जाइ पहूचहि खसम कउ जउ बीचि न खाही कांब ॥१३४॥

मूलम्

कबीर फल लागे फलनि पाकनि लागे आंब ॥ जाइ पहूचहि खसम कउ जउ बीचि न खाही कांब ॥१३४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: फल फलनि लागे = आमों को फल लगने लग जाते हैं। खसम कउ = बाग़ के मालिक के पास। जउ = अगर। बीचि = बीच में ही, पकने से पहले ही। कांब = कँपनी, कंपन, अंधेरी आदि के कारण टहनी से फल का हिल जाना।
अर्थ: हे कबीर! आम के पेड़ों को (पहले) फल लगते हैं, और (धीरे-धीरे फिर वह) पकने शुरू होते हैं; पकने से पहले अगर ये आम (अंधेरी आदि के कारण टहनी से) हिल ना जाए तो ही मालिक तक पहुँचते हैं।134।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: बसंत ऋतु में आमों को बौर पड़ता है, आगे गर्मियां शुरू हो जाती हैं। पहले कच्चे फलों को गिलहरियां–तोते आदि ही कतर–कतर के खा जाते हैं, अंधेरी आने पर बहुत सारा फल झड़ जाता है, कई फल टहनियों के साथ लगे तो रहते हैं, पर अंधेरी के कारण हिल जाने के कारण ऊपर ही सूख जाते हैं। इन कई कठिनाईयों से जूझते हुए जो पकते हैं, वही स्वीकार होते हैं। यही हाल मनुष्यों का है, जगत के कई विकार इन्सान को प्रभु से विछोड़ते हैं, जो मनुष्य माया के सब हमलों से बच के पूरी श्रद्धा से प्रभु के दर पर टिके रहते हैं, वही मालिक प्रभु की नजरों में जचते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर ठाकुरु पूजहि मोलि ले मनहठि तीरथ जाहि ॥ देखा देखी स्वांगु धरि भूले भटका खाहि ॥१३५॥

मूलम्

कबीर ठाकुरु पूजहि मोलि ले मनहठि तीरथ जाहि ॥ देखा देखी स्वांगु धरि भूले भटका खाहि ॥१३५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मोलि ले = मूल्य ले के, खरीद के। जाहि = जाते हैं। देखा देखी = एक दूसरे को (ये काम करते हुए) देख के। सांगु धरि = स्वांग बना के, नकल करके। भटका खाहि = भटकते हैं।135।
अर्थ: (ष्) हे कबीर! जो लोग ठाकुर (की मूर्ति) मूल्य में लेकर (उसकी) पूजा करते हें, और मन के हठ से तीर्थों पर जाते हैं, (दरअसल वे लोग) एक-दूसरे को (ये काम करते हुए) देख के स्वांग बनाए जाते हैं (एक-दूसरे की नकल करते हैं) (इसमें सच्चाई कोई नहीं होती, सब कुछ लोगों में भला कहलवाने के लिए ही किया जाता है, हृदय में परमात्मा के प्यार का कोई हिलोरा नहीं होता) सही राह से टूटे हुए ये लोग भटकते हैं।135।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर पाहनु परमेसुरु कीआ पूजै सभु संसारु ॥ इस भरवासे जो रहे बूडे काली धार ॥१३६॥

मूलम्

कबीर पाहनु परमेसुरु कीआ पूजै सभु संसारु ॥ इस भरवासे जो रहे बूडे काली धार ॥१३६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पाहनु = पत्थर (की मूर्ति)। कीआ = बना लिया, मिथ लिया। इस भरवासे = इस यकीन में (कि ये परमात्मा है)। बूडै = डूब गए। काली धार = गहरे पानी में।136।
अर्थ: हे कबीर! (पंडितों के पीछे लगा हुआ ये) सारा जगत पत्थर (की मूर्ति) को परमेश्वर समझ रहा है और इसकी पूजा कर रहा है। जिस लोगों का ये ख्याल बना हुआ है कि पत्थर को पूज के वे परमात्मा की भक्ति कर रहे हैं, वे गहरे पानियों में डूबे हुए समझो (जहाँ उनका कोई खुरा-खोज ही नहीं मिलना)।136।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: समुंदर का पानी ज्यों-ज्यों ज्यादा गहरा होता जाए, उसका रंग ज्यादा काला दिखेगा)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर कागद की ओबरी मसु के करम कपाट ॥ पाहन बोरी पिरथमी पंडित पाड़ी बाट ॥१३७॥

मूलम्

कबीर कागद की ओबरी मसु के करम कपाट ॥ पाहन बोरी पिरथमी पंडित पाड़ी बाट ॥१३७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ओबरी = कैदखाने की कोठरी। कागद = (भाव, पंडितों के) धर्म शास्त्र। मसु = स्याही। मसु के = स्याही से लिखे हुए। करम = कर्मकांड (की मर्यादा)। कपाट = किवाड़, पक्के दरवाजे। बोरी = डुबा दी। पिरथमी = पृथवी, धरती, धरती के लोग। पाड़ी बाट = राह तोड़ दिया है, डाका मार लिया है। बाट = रास्ता।137।
अर्थ: हे कबीर! (इन पंडितों के) शास्त्र, जैसे कैद खाने हैं, (इन शास्त्रों में) स्याही से लिखी हुई कर्मकांडों की मर्यादा, जैसे, उस कैद खाने के बंद दरवाजे हैं। (इस कैद खाने में रखी हुई) पत्थर की मूर्तियों ने धरती के लोगों को (संसार-समुंदर में) डुबो दिया है, पंडित लोग डाके मार रहे हैं (भाव, सादा-दिल लोगों को भोले-भाले लोगों को शास्त्रों की कर्मकांड की मर्यादा और मूर्ति-पूजा में लगा के दक्षिणा-दान आदि के नाम पर लूट रहे हैं)।137।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस शलोक नं: 136 के होते हुए कोई सिख जो इस वाणी में श्रद्धा रखता हो यह नहीं कह सकता कि मूर्ति के द्वारा ही परमात्मा की पूजा हो सकती है, अथवा मूर्ति-पूजा भी एक ठीक रास्ता है जिस रास्ते पर चल के मनुष्य परमात्मा को मिल सकता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर कालि करंता अबहि करु अब करता सुइ ताल ॥ पाछै कछू न होइगा जउ सिर परि आवै कालु ॥१३८॥

मूलम्

कबीर कालि करंता अबहि करु अब करता सुइ ताल ॥ पाछै कछू न होइगा जउ सिर परि आवै कालु ॥१३८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कलि = कल, आगे आने वाला दिन। अबहि = अभी ही। सुइ ताल = उसी पल। जउ = जब। कालु = मौत। पाछै = भक्ति करने को मौका गुजर जाने पर, असल समय के बाद।
अर्थ: हे कबीर! (परमात्मा का स्मरण करने में कभी आलस ना कर) कल (स्मरण करूँगा, ये सलाह) करता अभी ही (स्मरण) कर (कल स्मरण शुरू करने की जगह अभी ही शुरू कर दे। नहीं तो कल-कल करते हुए) जब मौत सिर पर आ जाती है उस वक्त समय बीत जाने पर कुछ नहीं हो सकता।138।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शलोक नं: 132 में कबीर जी ने यह ताकीद की थी कि बुढ़ापा आने से पहले भक्ति का स्वभाव बनाओ। साथ ही याद करवाते हैं कि भक्ति प्रभु की बख्शिश ही है, जिस पर आ जाए। आम के फल की मिसाल दे के समझाते हैं कि उसकी मेहर पर यकीन रखो, वह अवश्य बख्शिश करता है। पर साथ ही आगे सचेत करते हैं कि इन मूर्ति–पूजकों को परमात्मा के भक्त ना समझो, ये बेचारे तो पंडित लोगों के कैदी हैं।
शलोक नं: 132 के ख्याल को दोबारा जारी रखते हुए कहते हैं कि;

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर ऐसा जंतु इकु देखिआ जैसी धोई लाख ॥ दीसै चंचलु बहु गुना मति हीना नापाक ॥१३९॥

मूलम्

कबीर ऐसा जंतु इकु देखिआ जैसी धोई लाख ॥ दीसै चंचलु बहु गुना मति हीना नापाक ॥१३९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ऐसा जंतु = ऐसा मनुष्य जिसने ‘रामु न चेतिओ’। धोई लाख = धोई हुई लाख (जो बहुत चमकती है)। चंचलु = चालाक, चुस्त। बहु गुना = बहुत ही ज्यादा। मति हीना = मति हीन, बुद्धिहीन। नापाक = अपवित्र, गंदे जीवन वाला।
अर्थ: हे कबीर! मैंने एक ऐसा मनुष्य देखा (जिसने कभी परमात्मा का स्मरण नहीं था किया) वह (बाहर से देखने को) धोई हुई चमकती लाख जैसा था। प्रभु की याद से टूटा हुआ मनुष्य चाहे बहुत ही चुस्त-चालाक दिखता हो, पर वह असल में बुद्धिहीन होता है क्योंकि प्रभु से विछुड़ के उसका जीवन गंदा होता है।139।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर मेरी बुधि कउ जमु न करै तिसकार ॥ जिनि इहु जमूआ सिरजिआ सु जपिआ परविदगार ॥१४०॥

मूलम्

कबीर मेरी बुधि कउ जमु न करै तिसकार ॥ जिनि इहु जमूआ सिरजिआ सु जपिआ परविदगार ॥१४०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बुधि = बुद्धि, अकल। कउ = को। तिसकार = तिरस्कार, निरादरी। जिनि = जिस (परवदिगार) ने, जिस पालनहार प्रभु ने। जमूआ = गरीब सा जम, बेचारा जम।
सु = उस (परमात्मा) को।
अर्थ: हे कबीर! (प्रभु की याद से भूला हुआ मनुष्य बड़ा चुस्त-चालाक होता हुआ भी बुद्धि-हीन और तिरस्कारयोग्य होता है क्योंकि उसका जीवन नीच रह जाता है। पर मेरे ऊपर प्रभु की मेहर हुई है, दुनिया के लोग तो कहां रहे) मेरी बुद्धि को तो जमराज भी नहीं धिक्कार सकता, क्योंकि मैंने उस पालनहार प्रभु को स्मरण किया है जिसने इस बेचारे जम को पैदा किया है।140।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: जिस ‘जम’ से दुनिया थर-थर काँपती है, भक्ति करने वाले को वह भी परमात्मा का पैदा किया हुआ एक साधारण सा जीव लगता है, उससे वे रक्ती भर भी नहीं डरते)।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीरु कसतूरी भइआ भवर भए सभ दास ॥ जिउ जिउ भगति कबीर की तिउ तिउ राम निवास ॥१४१॥

मूलम्

कबीरु कसतूरी भइआ भवर भए सभ दास ॥ जिउ जिउ भगति कबीर की तिउ तिउ राम निवास ॥१४१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कबीरु = सबसे बड़ा, परमात्मा, परम आत्मा। भइआ = हो जाता है, लगता है। दास = (परमातमा की भक्ति करने वाले) सेवक। कबीर की भगति = परमात्मा की भक्ति।
अर्थ: (भक्ति करने वालों को) परमात्मा (ऐसा प्रतीत होता है जैसे) कस्तूरी है, सारे भक्त उसके भौरे बन जाते हैं (जैसे भौरे फूल की सुगन्धि में मस्त हो जाते हैं और किसी गंदी बदबू वाली जगह की तरफ नहीं जाते, वैसे ही भक्त परमात्मा के प्यार की सुगन्धि में लीन रहते हैं और मायावी पदार्थों की तरफ नहीं पलटते)। ज्यों-ज्यों वे परमात्मा की भक्ति करते हैं, त्यों-त्यों उनके हृदय में परमात्मा का निवास होता जाता है (ऐसे मनुष्यों की अकल को कौन धिक्कार सकता है?)।141।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर गहगचि परिओ कुट्मब कै कांठै रहि गइओ रामु ॥ आइ परे धरम राइ के बीचहि धूमा धाम ॥१४२॥

मूलम्

कबीर गहगचि परिओ कुट्मब कै कांठै रहि गइओ रामु ॥ आइ परे धरम राइ के बीचहि धूमा धाम ॥१४२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गहगचि = घमासान में, रौणक में। कुटंब कै गहगचि = परिवार के झमेले में। परिओ = पड़ा रहा, फसा रहा। कांठै = किनारे पर, एक तरफ ही। धरमराइ के = धर्मराज के भेजे हुए दूत। आइ परे = आ पहुँचे। बीचहि = बीच में ही। धूमधाम = शोर शराबा।
अर्थ: हे कबीर! जो मनुष्य परिवार के दलदल में ही फसा रहता है, परमात्मा (का भजन उसके हृदय से) अलग ही रह जाता है। इस शोर-शराबे में फसे हुए के पास धर्मराज के भेजे हुए दूत आ पहुँचते हैं (‘रामु न चेतिओ, जरा पहूँचिओ आइ’)।142।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर साकत ते सूकर भला राखै आछा गाउ ॥ उहु साकतु बपुरा मरि गइआ कोइ न लैहै नाउ ॥१४३॥

मूलम्

कबीर साकत ते सूकर भला राखै आछा गाउ ॥ उहु साकतु बपुरा मरि गइआ कोइ न लैहै नाउ ॥१४३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साकत ते = ईश्वर से टूटे हुए मनुष्य से। सूकर = सूअर। भला = अच्छा। आछा = साफ। गाउ = गाँव। बपुरा = बेचारा, बद नसीब। कोइ नाउ न लै है = कोई उसका नाम भी नहीं लेता, किसी को उसकी याद भी नहीं रह जाती।
अर्थ: हे कबीर! (परिवार के दलदल में पड़ के परमात्मा को बिसार देने वाले) साकत से बेहतर तो सूअर जानो (जो गाँव के आस-पास की गंदगी खा के) गाँव को साफ-सुथरा रखता है। जब वह अभागा साकत मर जाता है किसी को उसकी याद भी नहीं रह जाती (चाहे वह जीते जी कितना ही बड़ा बन-बन के बैठता हो)।143।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: यहाँ साकत और सूअर के जीवन का मुकाबला करके बताया है कि दोनों में से सूअर को ही बेहतर समझो। साकत सारी उम्र गंदे–मंदे विकारों में पड़ा रहता है, सूअर गंद खाता है। पर साकत तो गरीब लोगों को दुख देता रहा होगा, और सुअर गाँव की सफाई रख के गाँव की सेवा ही करता रहा।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर कउडी कउडी जोरि कै जोरे लाख करोरि ॥ चलती बार न कछु मिलिओ लई लंगोटी तोरि ॥१४४॥

मूलम्

कबीर कउडी कउडी जोरि कै जोरे लाख करोरि ॥ चलती बार न कछु मिलिओ लई लंगोटी तोरि ॥१४४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चलती बार = संसार से चलने के वक्त, मरने के वक्त।
अर्थ: हे कबीर! (प्रभु से टूट के सिर्फ माया जोड़ने का भी क्या लाभ?) जिस मनुष्य ने तरले कर-कर के लाखों-करोड़ों रुपए भी इकट्ठे कर लिए हों (और इस जोड़े हुए धन का इतना ख्याल रखता हो कि वांसली में डाल के कमर से बाँधे फिरता हो, उसको भी) मरने के वक्त कुछ प्राप्त नहीं होता, (उसके सन्बंधी) उसकी वांसली भी तोड़ के उतार लेते हैं।144।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: ‘लंगोटी’ प्राणी के मरने पर उसके शरीर को साधारण हालातों में उसके सन्बंधी नहला-धुला के कपड़े पहना के जलाते व दबाते हैं। ये नहीं होता कि उसके कमर की लंगोटी भी उतार लें। पर, पुराने समय में व्यापारी लोग घर से चलने के वक्त रुपयों को वांसली में डाल के कमर से बाँध लेते थे, ताकि चुराए ना जाएं। वासंली एक लंबी और संकरी थैली होती है जिसमें गोलाई की तरफ मुश्किल से एक रुपया आ सके। सो, लंबे राह के लिए उसको रुपयों से भर लेते हैं, वांसली के दोनों सिरों पर डोर सी लगी होती है, जिसको कमर के इर्द-गिर्द बाँध लिया जाता है। जिस मनुष्य को अपने कमाए रुपयों का बहुत फिक्र होगा, वह हर वक्त भी इसे बाँधे फिरता होगा। मालूम होता है कि यहाँ लंगोटी से कबीर जी का भाव वांसली से है)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर बैसनो हूआ त किआ भइआ माला मेलीं चारि ॥ बाहरि कंचनु बारहा भीतरि भरी भंगार ॥१४५॥

मूलम्

कबीर बैसनो हूआ त किआ भइआ माला मेलीं चारि ॥ बाहरि कंचनु बारहा भीतरि भरी भंगार ॥१४५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बैसनो = तिलक माला चक्र आदि लगा के बना हुआ विष्णू का भक्त। माला मेलीं चारि = चार मालाएं पहन लीं। कंचनु = सोना। बारहा = बारह वंनी का, शुद्ध। भीतरि = अंदर, मन में। भंगार = लाख, खोट।
अर्थ: हे कबीर! (प्रभु का स्मरण छोड़ के सिर्फ धन कमाने के लिए लोग उम्र व्यर्थ गवाते हैं क्योंकि धन यहीं पड़ा रहता है। पर निरे भेख को ही भक्ति-मार्ग समझने वाले भी कुछ नहीं कमा रहे) अगर किसी मनुष्य ने तिलक चक्र लगा के और चार माला डाल के अपने आप को वैश्णव भक्त कहलवा लिया, उसने भी कुछ नहीं कमाया। (इस धार्मिक भेस के कारण) बाहर से देखने पर चाहे शुद्ध सोना दिखे, पर उसके अंदर खोट ही खोट है।145।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: चौंक आदि कई गहने लोग ऐसे बनवाते हैं जिनके बाहर से शुद्ध सोना लगा होता है पर उसके अंदर लाख भरी जाती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर रोड़ा होइ रहु बाट का तजि मन का अभिमानु ॥ ऐसा कोई दासु होइ ताहि मिलै भगवानु ॥१४६॥

मूलम्

कबीर रोड़ा होइ रहु बाट का तजि मन का अभिमानु ॥ ऐसा कोई दासु होइ ताहि मिलै भगवानु ॥१४६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रोड़ा = ईट का टुकड़ा। बाट = रास्ता, पहिया। तजि = छोड़ के। ताहि = उसी को।146।
अर्थ: हे कबीर! (अगर ‘जा के संग ते बीछुरा, ताही के संग’ मिलने की तमन्ना है तो) अहंकार छोड़ के राह में पड़े हुए रोड़े जैसा हो जा (और हरेक राही के ठेडे सह)! जो कोई मनुष्य ऐसा सेवक बन जाता है, उसको परमात्मा मिल जाता है।146।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर रोड़ा हूआ त किआ भइआ पंथी कउ दुखु देइ ॥ ऐसा तेरा दासु है जिउ धरनी महि खेह ॥१४७॥

मूलम्

कबीर रोड़ा हूआ त किआ भइआ पंथी कउ दुखु देइ ॥ ऐसा तेरा दासु है जिउ धरनी महि खेह ॥१४७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पंथी = राही, मुसाफिर। धरनी = धरती। खेह = मिट्टी, धूल।147।
अर्थ: पर, हे कबीर! रोड़ा बन के भी अभी पूरी कामयाबी नहीं होती, क्योंकि (रोड़ा, ठोकरें तो सहता है, पर नंगे पैरों से चलने वाले) राहियों के पैरों में चुभता भी है (तूने किसी को दुख नहीं देना)। हे प्रभु! तेरा भक्त तो ऐसा (नर्म-दिल) बन जाता है जैसे राह की बारीक धूल।147।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर खेह हूई तउ किआ भइआ जउ उडि लागै अंग ॥ हरि जनु ऐसा चाहीऐ जिउ पानी सरबंग ॥१४८॥

मूलम्

कबीर खेह हूई तउ किआ भइआ जउ उडि लागै अंग ॥ हरि जनु ऐसा चाहीऐ जिउ पानी सरबंग ॥१४८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरबंग = सारे अंगों से (मेल रखने वाला)।148।
अर्थ: हे कबीर! धूल (खेह) (की तरह) बनने पर भी अभी कसर रह जाती है, धूल (पैरों से) उड़ के (राहियों के) अंगों पर पड़ती है। परमात्मा का भक्त ऐसा चाहिए जैसे पानी हरेक शकल के बर्तन में समाया रहता है।148।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर पानी हूआ त किआ भइआ सीरा ताता होइ ॥ हरि जनु ऐसा चाहीऐ जैसा हरि ही होइ ॥१४९॥

मूलम्

कबीर पानी हूआ त किआ भइआ सीरा ताता होइ ॥ हरि जनु ऐसा चाहीऐ जैसा हरि ही होइ ॥१४९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सीरा = सीअरा, शीतल, ठंडा। ताता = गरम।149।
अर्थ: हे कबीर! पानी की तरह सबके साथ मेल रखने पर (भी) अभी संपूर्णता नसीब नहीं होती, पानी कभी ठंडा और कभी गर्म हो जाता है, भक्त तो ऐसा होना चाहिए (कि दुनिया से व्यवहार करता हुआ अपने स्वभाव को इतना अडोल रखे) कि इसमें और परमात्मा में कोई फर्क नहीं रह जाए।149।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: प्रभु के नाम-जपने की सहायता से जीवन को धीरे-धीरे ऊँचा करके परमात्मा के साथ अभेद करने के लिए इस चार शलोकों में कबीर जी रोड़े, धूल और पानी का दृष्टांत दे के इनके गुण धारण और इनके अवगुण छोड़ने का उपदेश करते हैं।
रास्ते में पड़ा हुआ रोड़ा राहियों के पैरों की ठोकरें खाता है, इसी तरह मनुष्य ने दूसरों द्वारा आए कष्टों और कुबोलों को सहने की आदत पकानी है। रोड़ा नंगे पैर जाने वाले राहियों के पैरों में चुभता है, भक्त ने किसी गरीब से गरीब को भी कोई चुभवें बोल नहीं बोलने, धूल की तरह नर्म–दिल रहना है। पर धूल मुसाफिरों पर पड़ कर उनको गंदा करती है; भक्त ने इस बुराई से भी बचना है, किसी के ऐब नहीं फरोलने। जैसे पानी सारी अंगों के लिए एकसमान होता है, सभ शक्लों के बर्तनों से भी मेल कर लेता है, भक्त ने अच्छे-बुरे सबके साथ प्यार करना है। पर भक्त ने सदा ठंडे स्वभाव वाला रहना है, इतना एक-रस कि परमात्मा और इसके बीच में कोई दूरी ना रह जाए।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊच भवन कनकामनी सिखरि धजा फहराइ ॥ ता ते भली मधूकरी संतसंगि गुन गाइ ॥१५०॥

मूलम्

ऊच भवन कनकामनी सिखरि धजा फहराइ ॥ ता ते भली मधूकरी संतसंगि गुन गाइ ॥१५०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भवन = महल। कनकामनी = कनक+कामनी (कनक: सोना, धन, दौलत; कामनी: सुंदर स्त्री। सिखरि = (महल की) चोटी पर। धजा = ध्वजा, झंडा। फहराइ = झूलता हो। मधूकरी = दर-दर से मंगतों की तरह माँगी हुई भिक्षा।150।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: ‘कनक’ का आखिरी और ‘कामनी’ का पहला अक्षर ‘क’ इकट्ठे मिला दिए गए हैं)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: ऊँची महल-माढ़ियां हों, बड़ा धन-पदार्थ हो, सुंदर स्त्री हो, महल की चोटी पर झण्डा झूलता हो (पर अगर प्रभु के नाम से शून्य हो) - इस सारे राज-भाग से बेहतर है माँग के लाई हुई भिक्षा, अगर मनुष्य संतों की संगति में रह के परमात्मा की महिमा करता हो।150।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर पाटन ते ऊजरु भला राम भगत जिह ठाइ ॥ राम सनेही बाहरा जम पुरु मेरे भांइ ॥१५१॥

मूलम्

कबीर पाटन ते ऊजरु भला राम भगत जिह ठाइ ॥ राम सनेही बाहरा जम पुरु मेरे भांइ ॥१५१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पाटन = शहर। ऊजरु = उजड़ी हुई जगह। इह ठाइ = इस जगह पर। सनेही = प्यार करने वाला। राम सनेही बाहरा = परमात्मा से प्यार करने वालों से सूनी जगह। जम पुरु = जम का शहर, नरक। मेरै भांइ = मेरे लिए।151
अर्थ: हे कबीर! शहर से बेहतर वही उजड़ी हुई जगह है जहाँ प्रभु के भक्त (प्रभु के गुण गाते) हों। जो जगह परमात्मा से प्यार करने वाले लोगों से सूना है, मुझे तो वह नरक लगता है।151।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: कबीर जी काम–काज छोड़ के माँग के खाने को यहाँ अच्छा नहीं कह रहे। यहाँ वे उस राज–भाग की विरोधता करते हैं जो प्रभु की याद से विछोड़ दे। जो मनुष्य अभिमान त्यागता है, कोमल हृदय वाला हो जाता है, सबके साथ ऐसा सुहृदयता भरा सलूक करता है कि ‘जैसा हरि ही होइ’ वैसा बन जाता है, उसको सत्संग ही सबसे प्यारी जगह लगती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर गंग जमुन के अंतरे सहज सुंन के घाट ॥ तहा कबीरै मटु कीआ खोजत मुनि जन बाट ॥१५२॥

मूलम्

कबीर गंग जमुन के अंतरे सहज सुंन के घाट ॥ तहा कबीरै मटु कीआ खोजत मुनि जन बाट ॥१५२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गंग जमुन के अंतरे = गंगा जमुना (और सरस्वती) के मेल में। सहज = अडोल अवस्था, मन की वह हालत जब ये माया में डोलता नही, जब ‘ऊच भवन कनकामनी’ और ‘सिखरि धजा’ इसको मोह नहीं सकते। सुंन = शून्य, वह अवस्था जहाँ मायावी पदार्थों के फुरने नहीं उठते। तहा = उस अडोलता में। घाट = पत्तन, ठिकाना। मटु = निवास। कबीरै = कबीर ने, कबीर के मन ने। बाट = वाट, रास्ता।152।
अर्थ: हे कबीर! (ज्यों-ज्यों मैं ‘जपिआ परविदगार’, रोड़े आदि की तरह मैंने अभिमान छोड़ा और ‘जैसा हरि ही होइ’ वाली मेरी अवस्था बनी, तो) मैंने कबीर के मन ने उस पत्तन पर ठिकाना किया जहाँ सहज अवस्था मायावी पदार्थों के फुरनों से शून्य है, जहाँ, मानो, गंगा-जमुना के पानियों का मिलाप है (अलग-अलग नदियों के पानी का वेग कम हो के अब गंभीरता और शांति है)। इस अवस्था में पहुँचने का रास्ता सारे ऋषि लोग ढूँढते रहते हैं।152।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: जहाँ दो नदियां मिलती हैं वहाँ पानी गहरा और गंभीर हो जाता है। पानी की रफतार कम हो जाती है, पानी ठहरा हुआ प्रतीत होता है। रोड़े की तरह अभिमान आदि त्याग के जब मनुष्य ‘जैसा हरि ही होइ’ बनता है, तो वह अवस्था बनती है जिस बारे में कबीर जी ने कहा है ‘उलटी गंगा जमुन मिलावउ’, भाव, मन माया की तरफ से पलट के अडोल अवस्था में आ जाता है।
नोट: पता नहीं हमारे कई टीकाकार सज्जन कबीर जी को जबरन प्राणायामी क्यों बनाए जा रहे हैं। इस शलोक का अर्थ आम तौर पर यूँ किया जा रहा है; ‘दाई और बाई सुर जहाँ मिलती है जो जगह अफुर तुरिया अवस्था की है, वहाँ कबीर जी ने अपना मन बनाया है’। श्री गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज हुई सारी वाणी गुरु–रूप है। अगर यहाँ प्राणायाम करने की हिदायत है, तो हरेक सिख के लिए दाई और बाई सुर वाला अभ्यास आवश्यक हो गया। कहीं भी इस शलोक के साथ कोई ऐसा हुक्म दर्ज नहीं है कि इसे सिर्फ पढ़ना ही है इस पर अमल नहीं करना।
पर असली बात यह है कि इस शलोक में प्राणायाम का कोई जिक्र नहीं है। शलोक नं: 146 से ये सारे शलोक मिला के पढ़ो। जो मनुष्य ‘जैसा हरि ही होइ’ वैसा बन जाता है उसकी आत्मिक अवस्था बयान की गई है। शब्द ‘गंग जमुन’ से तुरंत प्राणायाम के मतलब बना लेने बड़ी जल्दबाजी की बात है। हमारे दीन–दुनी के पातशाह सतिगुरु नानक देव जी भी यही शब्द प्रयोग करते हैं। क्या फिर वे भी प्राणायाम किया करते थे?
तुखारी छंत महला १ बारा माहा॥ माघि पुनीत भई, तीरथु अंतरि जानिआ॥ साजन सहजि मिले, गुण गहि अंकि समानिआ॥ प्रीतम गुण अंके, सुणि प्रभ बंके, तुधु भावा सरि नावा॥ गंग जमुन तह बेणी संगम सात समुंद समावा॥ पुंन दान पूजा परमेसुर, जुगि जुगि एको जाता॥ नानक माघि महा रसु हरि जपि, अठसठि तीरथ नाता॥१५॥
जो सज्जन थोड़ा भी विचारने की कोशिश करेंगे वे देख लेंगे कि चौथी तुक का शब्द ‘तह’ पहली तुक के ‘तीरथु अंतरि जानिआ’ के साथ संबंध रखता है। सो, ‘गंग जमुन बेणी संगम’ हरेक मनुष्य के ‘अंतरि’ है। वहाँ ‘हरि जपि’ ‘महा रसु’ पैदा होता है, इतना रस कि, मानो, ‘अठसठि तीरथ नाता’।
किसी भी हालत में कोई सज्जन ये खींच–घसीट नहीं कर सकता कि गुरु नानक देव जी यहाँ दाई और बाई सुर के अभ्यास का वर्णन कर रहे हैं।
कबीर जी स्वयं भी और जगह ‘गंग जमुन’ का जिकर करते हैं, वहाँ भी ईड़ा–पिंगला आदि की तरफ इशारा नहीं है। देखें;
गउड़ी कबीर जी॥ पिंड मूऐ, जीउ किह घरि जाता॥ सबदि अतीत अनाहदि राता॥ जिनि रामु जानिआ, तिनहि पछानिआ॥ जिउ गूंगे साकर मनु मानिआ॥१॥ ऐसा गिआनु कथै बनवारी॥ मन रे, पवन द्रिढ़, सुखमन नारी॥१॥ रहाउ॥
उलटी गंगा जमुन मिलावउ॥ बिनु जल संगम, मन महि नावउ॥ … कहै कबीर निरंजनु धिआवउ॥ तिउ घरि जाउ, जि बहुरि न आवउ॥४॥१८॥
इसका अर्थ:
(प्रशन:) शरीर का मोह दूर होने पर आत्मा कहाँ टिकती है? (भाव, पहले तो जीव अपने शरीर के मोह के कारण माया में मस्त रहता है, जब मोह दूर हो जाए तब जीव की तवज्जो कहाँ जुड़ी रहती है?)
(उक्तर:) तब आत्मा सतिगुरु के शब्द की इनायत से उस प्रभु में जुड़ी रहती है जो माया के बंधनो से परे है और बेअंत है। पर जिस मनुष्य ने प्रभु को (अपने अंदर) जान लिया है उसने उसको पहचाना है जैसे गूँगे का मन शक्कर में पतीजता है (कोई और उस स्वाद को नहीं समझता, किसी और को वह समझा भी नहीं सकता)।1।
इस तरह का ज्ञान प्रभु खुद ही प्रकट करता है (भाव, प्रभु से मिलाप वाला यह स्वाद प्रभु स्वयं ही बख्शता है, इसलिए) हे मन! श्वास–श्वास नाम जप, यही है सुखमना नाड़ी का अभ्यास।1। रहाउ।
मैंने अपने मन की रुचि पलट ली है (इस तरह मैं) गंगा और जमुना को मिला रहा हूँ (भाव, अपने अंदर त्रिवेणी का संगम बना रहा हूँ); (इस उद्यम से) मैं उस मन–रूप (त्रिवेणी) संगम में स्नान कर रहा हूँ जहाँ (गंगा–जमुना–सरस्वती वाला) जल नहीं है।…
कबीर कहता है: मैं माया से रहित प्रभु को स्मरण कर रहा हूँ, (स्मरण करके) उस घर (सहज अवस्था) में पहुँच गया हूँ कि फिर (पलट के वहाँ) आना नहीं पड़ेगा।4।18।
सतिगुरु नानक देव जी और कबीर जी के इन दोनों शबदों से हमने देख लिया है कि दोनों का ‘गंग जमुन’ के बारे में सांझा भाव है। दोनों महापुरुख यही कहते हैं कि त्रिवेणी का असल स्नान यह है कि मनुष्य अपने अंदर प्रभु-चरणों में जुड़े।
यह ख्याल इस शलोक नं: 152 में है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर जैसी उपजी पेड ते जउ तैसी निबहै ओड़ि ॥ हीरा किस का बापुरा पुजहि न रतन करोड़ि ॥१५३॥

मूलम्

कबीर जैसी उपजी पेड ते जउ तैसी निबहै ओड़ि ॥ हीरा किस का बापुरा पुजहि न रतन करोड़ि ॥१५३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जैसी = जिस तरह की कोमलता। पेड = नया उगा हुआ पौधा। ते = से। जउ = अगर। निबहे = बनी रहे। ओड़ि = आखिर तक, सदा ही।
अर्थ: हे कबीर! जिस प्रकार की कोमलता नए उगे हुए पौधे की होती है, यदि ऐसी कोमलता (मनुष्य के हृदय में) सदा बनी रहे (‘ऊच भवन कनकामनी’ और ‘सिखरि धजा’ उस कोमलता को दूर ना कर सकें, मनुष्य ‘सहज सुंन के घाट’ पर सदा आसन लगाए रखे, तो उस मनुष्य का जीवन इतना ऊँचा हो जाता है कि) एक हीरा क्या? करोड़ों रत्न भी उसकी कीमत नहीं पा सकते।153।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: जब कोई नया पौधा उगता है, वह बड़ा नर्म और कोमल होता है। कितनी ही तेज़ आंधियां आएं, उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकती, क्योंकि वह लिफ जाता है, तेज़ हवाएं उसको तोड़ नहीं सकतीं। पर ज्यों-ज्यों पौधा बड़ा होता है पहले वाली कोमलता और लचक नहीं रहती। उम्र पा के बड़े आकार वाला तो भले ही बन जाता है, पर आंधी इसको सहजे ही जड़ से उखाड़ बाहर मार देती है।
परमात्मा के चरणों में जुड़ने के लिए सबसे पहले ‘अभिमान’ दूर करना जरूरी है, अभिमान दूर होने पर हृदय में कोमलता आती है जिसकी इनायत से मनुष्य गरीबों–अमीरों सबको एक परमात्मा का पैदा किया हुआ जान के सबसे प्यार करता है, और स्वयं भी सदा शांत चिक्त बना रहता है। यदि मनुष्य ‘सहज सुंन के घाट’ पर टिका रहे, तो ये कोमलता भी बनी रहती है। ऐसे मनुष्य के उच्च जीवन की कीमत नहीं डाली जा सकती।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीरा एकु अच्मभउ देखिओ हीरा हाट बिकाइ ॥ बनजनहारे बाहरा कउडी बदलै जाइ ॥१५४॥

मूलम्

कबीरा एकु अच्मभउ देखिओ हीरा हाट बिकाइ ॥ बनजनहारे बाहरा कउडी बदलै जाइ ॥१५४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अचंभउ = आश्चर्य (मूर्खता भरा) तमाशा। हाट = दुकान दुकान पर। बिकाइ = बिक रहा है। बनजनहारे बाहरा = वणजहारे बाहरा, किसी को वणज करने की विधि ना होने के कारण, खरीददार ना होने के कारण।
अर्थ: हे कबीर! (जगत में) मैंने एक आश्चर्य (मूर्खताभरा) तमाशा देखा है। हीरा दुकान-दुकान पर बिक रहा है, चुँकि किसी को इसकी कद्र-पहचान नहीं है, ये कौड़ियों के भाव जा रहा है (व्यर्थ जा रहा है)।153।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: मानव–जनम दुर्लभ है, सौभाग्य से मिलता है; यह मानो, एक ऐसा कीमती हीरा है जिसका मूल्य नहीं डाला जा सकता। जीव यह मनुष्य–जन्म पा के यहाँ पर वणज करने आया है, परमात्मा के नाम का सौदा करने आया है। पर ‘ऊच भवन कनकामनी’ ‘सिखरि धजा’ आदि मायावी पदार्थों में फस के असली वणज करना इसको भूल ही गया है। ये दुनिया के पदार्थ यहीं रह जाते हैं, यहां से खाली हाथ चलना पड़ता है; सो, सारी उम्र व्यर्थ ही चली जाती है, यह हीरा–जनम, मानो, कौड़ियों के भाव बिक जाता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीरा जहा गिआनु तह धरमु है जहा झूठु तह पापु ॥ जहा लोभु तह कालु है जहा खिमा तह आपि ॥१५५॥

मूलम्

कबीरा जहा गिआनु तह धरमु है जहा झूठु तह पापु ॥ जहा लोभु तह कालु है जहा खिमा तह आपि ॥१५५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जहा = जहाँ, जिस मनुष्य के अंदर। गिआनु = समझ, यह समझ कि हीरा जनम किसलिए मिला है। तह = उस मनुष्य के अंदर। धरमु = जनम उद्देश्य को पूरा करने का फर्ज। कालु = (आत्मिक) मौत। खिमा = धीरज, शांति। आपि = परमात्मा स्वयं।
अर्थ: हे कबीर! जनम-उद्देश्य के पूरा करने की फर्ज-अदायगी सिर्फ वहीं हो सकती है जहाँ ये समझ हो कि हीरा-जनम किसलिए मिला है। पर जिस मनुष्य के अंदर झूठ और लोभ (का जोर) हो, वहाँ (धर्म की जगह) पाप और आत्मिक मौत ही हो सकती है (वह जीवन ‘कउडी बदलै’ ही जाना हुआ)। परमात्मा का निवास सिर्फ उसी दिल में होता है जहाँ शांति है।155।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर माइआ तजी त किआ भइआ जउ मानु तजिआ नही जाइ ॥ मान मुनी मुनिवर गले मानु सभै कउ खाइ ॥१५६॥

मूलम्

कबीर माइआ तजी त किआ भइआ जउ मानु तजिआ नही जाइ ॥ मान मुनी मुनिवर गले मानु सभै कउ खाइ ॥१५६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुनिवर = चुने हुए मुनि, बड़े बड़े ऋषि। मान गले = अहंकार में गल गए। सभै कउ = हरेक को।
अर्थ: हे कबीर! (‘ऊच भवन कनकामनी’ आदि) माया त्याग दी तो भी कुछ नहीं सँवारता, अगर अहंकार नहीं त्यागा जाता। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि (त्याग के) इस मान-अहंकार में गल जाते हैं, (ये अहंकार किसी का लिहाज नहीं करता) अहंकार हरेक को खा जाता है (जो भी प्राणी अहंकार करता है उसका आत्मिक जीवन खत्म हो जाता है)।156।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘ऊच भवन कनकामनी’ ‘सिखरि धजा’ आदि मायावी पदार्थों में मस्त रहने के कारण हीरा–जनम ‘कउडी बदलै’ जाता है, क्योंकि दुनियां की मौजों के ‘लोभ’ के कारण मनुष्य आत्मिक मौत सहेड़ता है। पर इसका ये भाव नहीं कि कबीर जी दुनिया के ‘तिआग’ वाला रास्ता पसंद करते हें। यह तो बल्कि माण–अहंकार पैदा करता है। बड़े–बड़े ऋषि–मुनि गृहस्थ त्याग के जंगलों में जा बैठे, पर इस त्याग का अहंकार ही उनको खा गया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर साचा सतिगुरु मै मिलिआ सबदु जु बाहिआ एकु ॥ लागत ही भुइ मिलि गइआ परिआ कलेजे छेकु ॥१५७॥

मूलम्

कबीर साचा सतिगुरु मै मिलिआ सबदु जु बाहिआ एकु ॥ लागत ही भुइ मिलि गइआ परिआ कलेजे छेकु ॥१५७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मै = मुझे। जु = जब। एकु सबदु बाहिआ = एक शब्द रूपी तीर चलाया, शब्द सुनाया जो मेरे दिल में तीर की तरह भेद गया। भुइ = मिट्टी में। भुइ मिलि गइआ = मिट्टी में मिल गया, मैं निर-अहंकार हो गया। परिआ कलेजे छेकु = मेरे कलेजे में छेद हो गया, मेरा हृदय गुरु चरणों में परोया गया।157
अर्थ: हे कबीर! (हीरा-जनम बचाने के लिए मुझे गृहस्थ त्यागने की आवश्यक्ता नही पड़ी) मुझे पूरा गुरु मिल गया, उसने एक शब्द सुनाया जो मुझे तीर की तरह लगा, मेरा हृदय गुरु-चरणों में परोया गया, और मेरा अहंकार मिट्टी में मिल गया।157।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: हीरे जनम को ‘कउडी बदलै’ जाने से बचाने का, बस, एक मात्र रास्ता है, वह है सतिगुरु की शरण। पर गुरु–दर पर भी रस्मी तौर पर नहीं आना। अपनी चतुराई छोड़ के गुरु के बताए हुए राह पर चलना है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर साचा सतिगुरु किआ करै जउ सिखा महि चूक ॥ अंधे एक न लागई जिउ बांसु बजाईऐ फूक ॥१५८॥

मूलम्

कबीर साचा सतिगुरु किआ करै जउ सिखा महि चूक ॥ अंधे एक न लागई जिउ बांसु बजाईऐ फूक ॥१५८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चूक = कमी। एक न लागई = एक भी शिक्षा की बात असर नहीं करती। अंधे = अंधे को, उस मनुष्य को जो अहंकार में अंधा हुआ पड़ा है। बजाईऐ फूक = फूक से बजाते हैं, फूक मारने से बज उठता है।
अर्थ: पर, हे कबीर! अगर सिखों में कमी हो, तो सतिगुरु भी कुछ सँवार नहीं सकता (इस हीरे-जनम को ‘कउडी बदलै’ जाते को बचा नहीं सकता), जो मनुष्य अहंकार में अंधा हुआ रहे, गुरु की शिक्षा की कोई भी बात उसको असर नहीं कर सकती। जैसे फूंक मारने से बाँस (बाँसुरी) बजने लग जाती है (पर फूंक एक सिरे से गुजर के दूसरे सिरे से बाहर निकल जाती है, वैसे ही अहंकारी के एक कान से दूसरे कान द्वारा वह शिक्षा बिना असर किए ही निकल जाती है। हाँ, चोंच-ज्ञानी वह भले ही बन जाए।)।158।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर है गै बाहन सघन घन छत्रपती की नारि ॥ तासु पटंतर ना पुजै हरि जन की पनिहारि ॥१५९॥

मूलम्

कबीर है गै बाहन सघन घन छत्रपती की नारि ॥ तासु पटंतर ना पुजै हरि जन की पनिहारि ॥१५९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: है = हय, घोड़े। गै = गय, गज, हाथी। बाहन = वाहन, सवारी। सघन घन = बहुत सारे। छत्र पती = छत्र का मालिक राजा। तासु पटंतर = उसके बराबर। पनिहार = पानी हारि, पानी भरने वाली।159।
अर्थ: हे कबीर! जो स्त्री परमात्मा का भजन करने के लिए गुरमुखों का पानी भरने की सेवा करती है (वह चाहे कितनी गरीब भी हो) उसकी बराबरी उस छत्रपति राजे की रानी भी नहीं कर सकती जिसके पास सवारी के लिए बेअंत घोड़े-हाथी हों।159।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर न्रिप नारी किउ निंदीऐ किउ हरि चेरी कउ मानु ॥ ओह मांग सवारै बिखै कउ ओह सिमरै हरि नामु ॥१६०॥

मूलम्

कबीर न्रिप नारी किउ निंदीऐ किउ हरि चेरी कउ मानु ॥ ओह मांग सवारै बिखै कउ ओह सिमरै हरि नामु ॥१६०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: न्रिप = नृप, राजा। चेरी = दासी। मानु = आदर। कउ = को। मांग सवारै = सजती सँवरती है। बिखै कउ = काम-वासना के लिए।160
अर्थ: हे कबीर! हम उस रानी को बुरा क्यों कहते हैं और संत-जनों की सेवा करने वाली को आदर क्यों देते हैं? (इसका कारण ये है कि) नृप-नारी तो सदा काम-वासना की खातिर श्रंृगार करती रहती है, पर संत-जनों की दासी (संतों की संगति में रह के) परमात्मा का नाम सिमरती है।160।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर थूनी पाई थिति भई सतिगुर बंधी धीर ॥ कबीर हीरा बनजिआ मान सरोवर तीर ॥१६१॥

मूलम्

कबीर थूनी पाई थिति भई सतिगुर बंधी धीर ॥ कबीर हीरा बनजिआ मान सरोवर तीर ॥१६१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: थूनी = थंमी, खंभा, सतिगुरु का शब्द। थिति = स्थिर, टिकाव, शांति, प्रभु चरणों में टिकाव। बंधी धीर = धीरज बँध दिया, अडोलता दी, भटकना से बचा लिया। हीरा = परमात्मा का नाम। बनजिआ = खरीदा (मन की दौड़-भाग दे के, मन गुरु के हवाले करके)। मान सरोवर = सत्संग। तीर = किनारा।161।
अर्थ: हे कबीर! जिस मनुष्य को सतिगुरु के शब्द का सहारा मिल जाता है जिसको गुरु (‘ऊच भवन कनकामनी’ ‘है गै बाहन’ आदि की ओर) भटकने से बच जाता है उसका मन प्रभु-चरणों में टिक जाता है। (अपना मन सतिगुरु के हवाले करके) वह मनुष्य सत्संग में परमात्मा का अमूल्य नाम खरीदता है।161।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर हरि हीरा जन जउहरी ले कै मांडै हाट ॥ जब ही पाईअहि पारखू तब हीरन की साट ॥१६२॥

मूलम्

कबीर हरि हीरा जन जउहरी ले कै मांडै हाट ॥ जब ही पाईअहि पारखू तब हीरन की साट ॥१६२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जन = हरि जन, परमात्मा के भक्त, सत्संगी। जउहरी = जौहरी, नाम रूप हीरे का व्यापारी। ले कै = नाम हीरा ले के। मांडै = सजाता है। हाट = दुकान, हृदय। पाईअहि = मिलते हैं, सत्संगे में एकत्र होते हैं। पारखू = नाम हीरे की कद्र जानने वाले। हीरन की = हीरों की, प्रभु के गुणों की।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: ‘हीरन’ बहुवचन होने के कारण इसका अर्थ है ‘परमात्मा के गुण’)।

दर्पण-भाषार्थ

साट = अदला बदली, सांझ, सत्संग में मिल के प्रभु के गुणों का वर्णन।
अर्थ: हे कबीर! परमात्मा का नाम, मानो, हीरा है। परमात्मा का सेवक उस हीरे का व्यापारी है; ये हीरा हासिल करके वह (अपने) हृदय को सुंदरता से सजाता है। जब (नाम हीरे की) कद्र जानने वाले (परख रखने वाले) ये सेवक (सत्संग में) मिलते हैं, तब परमात्मा के गुणों की सांझ बनाते हैं (भाव, मिल के प्रभु की) महिमा करते हैं।162।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शलोक नं: 161 में और अगले शलोक की पहली तुक में शब्द ‘हीरा’ एकवचन है, पर आखिरी तुक में शब्द ‘हीरन’ बहुवचन है। इनके अर्थ में थोड़ा सा फर्क पड़ेगा, भाव हलांकि वही रहेगा।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर काम परे हरि सिमरीऐ ऐसा सिमरहु नित ॥ अमरा पुर बासा करहु हरि गइआ बहोरै बित ॥१६३॥

मूलम्

कबीर काम परे हरि सिमरीऐ ऐसा सिमरहु नित ॥ अमरा पुर बासा करहु हरि गइआ बहोरै बित ॥१६३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काम परे = जब कोई जरूरत पड़े, जब कोई गरज पड़े। अमरापुर = वह पुरी जहाँ अमर हो जाते हैं, वह पुरी जहाँ जनम मरण के चक्करों से बच जाया जाता है। गइआ बित = गायब हुआ धन, वह शुभ गुण जो मायावी पदार्थों के पीछे दौड़-दौड़ के गायब हो चुके हैं। बहोरै = वापस ले आता है, दोबारा पैदा कर देता है।
अर्थ: हे कबीर! कोई गरज़ पड़ने पर जिस तरह (भाव, जिस आर्कषण और प्यार से) परमात्मा को याद किया जाता है, यदि उसी कसक-प्यार से उसको सदा ही याद करो, तो उस जगह पर टिक जाओ जहाँ अमरत्व मिल जाता है (जहाँ आत्मिक मौत छू नहीं सकती); और, जो सुंदर गुण मायावी पदार्थों के पीछे दौड़-दौड़ के गुम हो चुके होते हैं, वह गुण प्रभु दोबारा (स्मरण करने वाले के हृदय में) पैदा कर देता है।163।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर सेवा कउ दुइ भले एकु संतु इकु रामु ॥ रामु जु दाता मुकति को संतु जपावै नामु ॥१६४॥

मूलम्

कबीर सेवा कउ दुइ भले एकु संतु इकु रामु ॥ रामु जु दाता मुकति को संतु जपावै नामु ॥१६४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: को = का। दाता = देने वाला। मुकति = मायावी बंधनो से मुक्ति। जपावै = जपने में सहायता करता है, जपने की ओर प्रेरता है।164।
अर्थ: हे कबीर! मायावी बंधनो से खलासी देने वाला परमात्मा स्वयं है, और संत-गुरमुखि उस परमात्मा के नाम-नाम-जपने की ओर प्रेरित करता है; सो, एक संत और एक परमात्मा- (मुक्ति और प्रभु-मिलाप की खातिर) इन दोनों की ही सेवा-पूजा करनी चाहिए।164।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर जिह मारगि पंडित गए पाछै परी बहीर ॥ इक अवघट घाटी राम की तिह चड़ि रहिओ कबीर ॥१६५॥

मूलम्

कबीर जिह मारगि पंडित गए पाछै परी बहीर ॥ इक अवघट घाटी राम की तिह चड़ि रहिओ कबीर ॥१६५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिह मारगि = जिस राह पर, कर्मकांड के जिस मार्ग पर, तीर्थ व्रत आदि के जिस राह पर। परी = चल पड़ी, चलती जा रही है। बहीर = भीड़, लोगों की भीड़, बेअंत लोग। अवघट घाटी = मुश्किल घाटी, मुश्किल चढ़ाई का रास्ता।165।
अर्थ: हे कबीर! (तीर्थ-व्रत आदि के) जिस रास्ते पर पंडित लोग चल रहे हैं (यह रास्ता चुँकि आसान है) भीड़ उनके पीछे लगी हुई है; पर परमात्मा के स्मरण का रास्ता, मानो, एक कठिन पहाड़ी रास्ता है, कबीर (इन पंडितों लोगों को छोड़ के) चढ़ाई वाला रास्ता तय कर रहा है।165।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: कबीर जी यहाँ लोगों की सेवा से नहीं मना कर रहे। दोनों शलोकों को मिला के पढ़ें, तो उनका भाव स्पष्ट हो जाता है। वैसे तो वे शलोक नं: 146 सं 149 तक हरेक प्राणी–मात्र के साथ प्यार का सलूक करने की हिदायत करते हैं, यहाँ यह जिकर है कि एक तो परमात्मा के बिना किसी और देवी–देवते की पूजा ना करो; दूसरा, परमात्मा का मिलाप सिर्फ सत्संग में गुरमुखों की संगति में होता है, कर्मकांडी पंडितों अथवा भेखी साधुओं के आगे नाक ना रगड़ते फिरो।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर दुनीआ के दोखे मूआ चालत कुल की कानि ॥ तब कुलु किस का लाजसी जब ले धरहि मसानि ॥१६६॥

मूलम्

कबीर दुनीआ के दोखे मूआ चालत कुल की कानि ॥ तब कुलु किस का लाजसी जब ले धरहि मसानि ॥१६६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुनीआ के दोखे = इस फिक्र में कि दुनिया क्या कहेगी। मूआ = मर जाता है, आत्मिक मौत मर जाता है। कुल की कानि = उस बंदिश में जिसमें अपने कुल के लोग चले आ रहे हैं। लाजमी = लज्जावान होगा, शर्मसार होगा, बदनामी कमाएगा। मसानि = मसाण में।166।
अर्थ: हे कबीर! मनुष्य आम तौर पर कुल-रीति के अनुसार ही चलता है, इस ख्याल से कि दुनिया क्या कहेगी (लोकाचार को छोड़ के भक्ति-सत्संग वाले रास्ते की ओर नहीं आता, इस तरह) आत्मिक मौत मर जाता है। (यह नहीं सोचता कि) जब मौत आ गई (तब यह कुलरीति तो खुद-ब-खुद ही छूट जानी है; स्मरण-भक्ति से वंचित रह के जो तकलीफ मोल ले ली, उसके कारण) किसके कुल में नामोशी आएगी?।166।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर डूबहिगो रे बापुरे बहु लोगन की कानि ॥ पारोसी के जो हूआ तू अपने भी जानु ॥१६७॥

मूलम्

कबीर डूबहिगो रे बापुरे बहु लोगन की कानि ॥ पारोसी के जो हूआ तू अपने भी जानु ॥१६७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रे बापुरे = हे अभागे जीव! लोगन की कानि = लोक-सम्मान में। पारोसी = पड़ोसी।167।
अर्थ: हे कबीर! (लोक-सम्मान में फंस के भक्ति से वंचित रहने वाले व्यक्ति को कह:) हे अभागे मनुष्य! बहुत लोक-सम्मान में रहने से (लोक-सम्मान में ही) डूब जाएगा (आत्मिक मौत मर जाएगा)। (यहाँ सदा बैठे नहीं रहना) अगर मौत किसी पड़ोसी पर आ रही है, तो याद रख कि वह तेरे पर भी आनी है।167।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: पंडित लोगों ने तीर्थ–व्रत आदि का जो रास्ता चला दिया है, इस पर चलने के लिए साधरण मनुष्य को कुल–रीति भी बहुत मजबूर करती है। यदि कोई हिन्दू स्त्री करवा चौथ महा लक्ष्मी आदि का व्रत रखना छोड़ दे, तो आस–पड़ोस ‘हाय बहन, हाय बहन’ होने लग जाता है। इस लोकाचार में से निकलना बहुत मुश्किल है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर भली मधूकरी नाना बिधि को नाजु ॥ दावा काहू को नही बडा देसु बड राजु ॥१६८॥

मूलम्

कबीर भली मधूकरी नाना बिधि को नाजु ॥ दावा काहू को नही बडा देसु बड राजु ॥१६८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मधूकरी = घर घर से माँगी हुई भिक्षा। नाना बिधि को = कई किस्मों का। नाजु = अनाज, अन्न। दावा = मल्कियत का हक। काहू को = किसी (जयदाद) से।168।
अर्थ: हे कबीर! (जायदादों के कब्जे करने से मँगता बन के) घर-घर से माँगी हुई रोटी खा लेनी अच्छी है जिसमें (घर-घर से माँगने के कारण) कई किस्म का अन्न होता है। (मँगता) किसी जायदाद पर मल्कियत का हक नहीं बाँधता, सारा देश उसका अपना देश है, सारा राज उसका अपना राज है।168।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर दावै दाझनु होतु है निरदावै रहै निसंक ॥ जो जनु निरदावै रहै सो गनै इंद्र सो रंक ॥१६९॥

मूलम्

कबीर दावै दाझनु होतु है निरदावै रहै निसंक ॥ जो जनु निरदावै रहै सो गनै इंद्र सो रंक ॥१६९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दावै = मल्कियतें बनानी। दाझनु = जलन, खिझ। निसंक = बेफिक्र। इंद्र सो = देवते जैसों को। रंक = कंगाल।169।
अर्थ: हे कबीर! मल्कियतें बनाने से मनुष्य के अंदर खिझ-सड़न पैदा होती है। जो मनुष्य कोई मल्कियत नहीं बनाता उसको कोई चिन्ता-फिक्र नहीं रहती। जो मनुष्य जायदादों की मल्कियतें नहीं बनाता, वह इन्द्र देवते जैसे को भी कंगाल समझता है (भाव, वह किसी धनाढ आदि की खुशामद नहीं करता फिरता)।169।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: कबीर जी शलोक नं: 168 में मांग के खाने की हिदायत नहीं करते। कहते हैं कि जायदादें बनाने, एक के बाद एक विजय हासिल करने, मल्कियतें बनाने से बेहतर है मँगतों की तरह माँग के खाना, क्यों–क्यों ज्यों-ज्यों मनुष्य जायदाद इकट्ठी करता है त्यों-त्यों उसके अंदर ‘दाझनु’ बढ़ती है। गुरु अमरदास जी ने भी सोरठि राग के एक शब्द में लिखा है;
‘काचा धनु संचहि मूरख गावार’
यह अजब खेल है कि गुरद्वारे जा के श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की तालीम तो हम सुनते हैं कि धन जोड़ना मूर्ख उजड्डों का काम है, इससे तो माँग के खाना अच्छा है। पर, बाहर दुनिया में आ के हमारा सारा जोर ही धन जोड़ने और मल्कियतें बनाने पर लगता है। पर साधारण मनुष्य धन जोड़ने का प्रयत्न ना करे तो और करे भी कया? बुढ़ापा, बिमारी, बच्चों की तालीम आदि कई जरूरते ऐसी हैं जो मनुष्य ने पूरी करनी हैं। मालूम होता हैकि भक्त कबीर जी ओर गुरु अमरदास जी भाईचारिक प्रबंध और राज–प्रबंध में भी कई खामियाँ देख रहे थे। अगर राज–प्रबंध ऐसा हो जहाँ हरेक मनुष्य मात्र के बच्चों की तालीम और परवरिश, उसके अपने रोज़गार का पक्का प्रबंध, बीमारी ओर बुढ़ापे की जरूरतें पूरी हो सकें तो आम तौर पर माया जोड़ने–इकट्ठी करने की जरूरत ही नहीं रह जाती। धक्का, धोखा आदि बहुत कम हो सकते हैं। सहज ही हक की कमाई और ख़लकति से प्यार वाले राह पड़ा जा सकता है। इसके आगे धर्म की सिर्फ एक मुश्किल घाटी ही रह जाती है; लगन और रज़ा।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर पालि समुहा सरवरु भरा पी न सकै कोई नीरु ॥ भाग बडे तै पाइओ तूं भरि भरि पीउ कबीर ॥१७०॥

मूलम्

कबीर पालि समुहा सरवरु भरा पी न सकै कोई नीरु ॥ भाग बडे तै पाइओ तूं भरि भरि पीउ कबीर ॥१७०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पालि = (सं. पालि = skirt boundary) किनारा। समुहा = सु+मुह, मुँह तक, नाको नाक। पालि समुहा = किनारे तक नाको नाक। सरवरु = तालाब। तै पाइओ = तू (नीरु) ढूँढ रहा है। भरि भरि = प्याले भर भर के, पेट भर भर के।
अर्थ: हे कबीर! सरोवर किनारों तक नाको-नाक (पानी से) भरा हुआ है, (पर, ‘दावै दाझनु’ के कारण यह पानी किसी को दिखाई नहीं देता, इसलिए) कोई मनुष्य यह पानी नहीं पी सकता। हे कबीर! (तू इस ‘दाझन’ से बच गया) सौभाग्य से तुझे यह पानी दिखाई दे गया है, तू अब (प्याले) भर-भर के पी (मौज से श्वास-श्वास नाम जप)।170।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस शलोक में बहुत हसरत भरी दुखद बात बताते हें। लोक ‘दाझन’ के कारण, अंदरूनी प्यास–जलन के कारण पानी के लिए तरस रहे हैं। पानी का तालाब भरा हुआ है, और लबा–लब भरा हुआ है, पर किसी को दिखाई नहीं देता। यह सारा दोष किसका है? दुनिया की चीजों को हथियाने का, मलिकयतें बनाने को संसार के जरे–जरे में प्रभु बसता हो घट–घट में वयापक हो, पर लोग हर चीज हथिया लेने के आहर में लग के तृष्णा–अग्नि में जलते हुए उस घट–घट वासी को ना पहचान सके –ये इतनी हसरति भरी घटना है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर परभाते तारे खिसहि तिउ इहु खिसै सरीरु ॥ ए दुइ अखर ना खिसहि सो गहि रहिओ कबीरु ॥१७१॥

मूलम्

कबीर परभाते तारे खिसहि तिउ इहु खिसै सरीरु ॥ ए दुइ अखर ना खिसहि सो गहि रहिओ कबीरु ॥१७१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परभाते = प्रभात के वक्त (जब सूर्यादय होने को होता है, सूर्य के तेज-प्रताप के कारण)। खिसहि = खिसकते हैं, मध्यम पड़ते जाते हैं, (तारों की) रोशनी कम होती जाती है। तिउ = उसी तरह ‘दावै दाझनु’ के कारण, मल्कियतों के कारण पैदा हुई अंदरूनी तपश के असर तले। खिसै = क्षीण होता जाता है। खिसै सरीरु = यह शरीर क्षीण होता जाता है, इस शरीर में से आत्मिक लौअ कमजोर होती जाती है (ज्ञान-इंद्रिय में से प्रभु के प्रति प्रेरणा कम होती जाती है; ए दुइ अखर ना खिसहि, ‘राम’ नाम के दोनों अक्षर मध्यम नहीं पड़ते, परमात्मा के नाम पर मल्कियतों की तपश कोई प्रभाव नहीं डाल सकती)।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: यहाँ ‘दुइ अखर’ से भाव है: ‘राम’ का दो अक्षरी नाम, प्रभु का नाम)।

दर्पण-भाषार्थ

गहि रहिओ = संभाल के बैठा है।
अर्थ: हे कबीर! (जैसे सूर्य के तेज-प्रताप के कारण) प्रभात के वकत तारे (जो रात की ठहरी हुई शांति में चमक रहे होते हैं) मध्यम पड़ते जाते हैं; वैसे ही (दुनियावी पदार्थों के) मालकानों से पैदा हुई तपश के कारण ज्ञान-इन्द्रियों में से प्रभु के प्रति लौअ कम होती जाती है। सिर्फ एक प्रभु का नाम ही है जो मल्कियतों की तपश के असर से परे रहता है। कबीर (दुनियावी मल्कियतों की जगह) उस नाम को संभाले बैठा है।171।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: यहाँ शब्द ‘गहि रहिओ’ साफ तौर पर नं: 169 के ‘दावै’ की तरफ इशारा करते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर कोठी काठ की दह दिसि लागी आगि ॥ पंडित पंडित जलि मूए मूरख उबरे भागि ॥१७२॥

मूलम्

कबीर कोठी काठ की दह दिसि लागी आगि ॥ पंडित पंडित जलि मूए मूरख उबरे भागि ॥१७२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोठी = (‘इहु जगु सचै की है कोठरी’) जगत। दिसि = की ओर से। दह दिसि = दसो तरफ से, हर तरफ से। आगि लागी = ‘दावै दाझनु’ लगी हुई है, मल्कियतें बनाने के कारण मन में तपश पैदा हो रही है। मूर्ख = वह लोग जो मालकानें बनाने से बेपरवाह रहे। भागि = भाग के, दौड़ के, इस ‘दावै दाझनु’ से परे हट के।
अर्थ: हे कबीर! यह जगत, मानो, लकड़ी का मकान है जिसको हर तरफ से (कब्जा करने की) आग लगी हुई है; (जो मनुष्य अपनी ओर से) समझदार (बन के इस आग में ही बैठे रहते हैं वे) जल मरते हैं, (जो इन समझदार लोगों के हिसाब से) मूर्ख (हैं वे) इस आग से दूर परे भाग के (जलने से) बच जाते हैं।172।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘पंडित’ यहाँ ब्राहमण के लिए नहीं है; इसके विपरीत मुकाबले में शब्द ‘मूर्ख’ प्रयोग किया गया है। सो, शब्द ‘पंडित’ का भाव है ‘वह मनुष्य जो अपने आप को समझदार समझते हैं’।
नोट: माया अनेक रूपों में मनुष्य को मोह रही है, मनुष्य इस माया की हरेक मौज को अपनी मल्कियत बनाने की कोशिश करता है। सो, कब्जा करने से पैदा हुई अंदरूनी आग, जैसे, हरेक तरफ से लगी हुई है। दुनिया में समझदार वही माने जाते हैं जो ज्यादा से ज्यादा कामयाब हों, ज्यादा से ज्यादा धन–पदार्थ जोड़ें। जो इस उद्यम के प्रति बेपरवाह रहते हैं उनको दुनिया मूर्ख कहती है।
सो, यहाँ ये भाव नहीं है कि कबीर जी विद्या के मुकाबले में अनपढ़ता को अच्छा कह रहे हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर संसा दूरि करु कागद देह बिहाइ ॥ बावन अखर सोधि कै हरि चरनी चितु लाइ ॥१७३॥

मूलम्

कबीर संसा दूरि करु कागद देह बिहाइ ॥ बावन अखर सोधि कै हरि चरनी चितु लाइ ॥१७३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संसा = चिन्ता, ‘दाझनु’। कागद = कागज, (भाव,) दुनिया की चिन्ता वाले लेखे, ‘दावै दाझनु’ वाले लेखे। बिहाइ देहि = बहा दे, हरि चरणों में चिक्त जोड़ने का एक ऐसा प्रवाह चला दे कि ‘दावै दाझनु’ वाले लेखे उस नाम प्रवाह में बह जाएं। बावन अखर = बावन अक्षर (संस्कृत-हिंदी के बावन अक्षर है। हिन्दू कौम संस्कृत या हिन्दी के द्वारा विद्या हासिल करने का प्रयास करती थी; सो ‘बावन अखर’ का भाव है ‘विद्या’), विद्या। सोधि कै = (अपने आप को) सोध के, विचारवान बन के।
अर्थ: हे कबीर! विद्या के द्वारा विचारवान बन के प्रभु-चरणों में चिक्त जोड़ (भाव, हे भाई! यदि तुझे विद्या हासिल करने का मौका मिला है तो उसके द्वारा दुनिया की मल्कियतों में खिझने की जगह विचारवान बन और परमात्मा का स्मरण कर)। (इस प्रभु-याद की इनायत से) दुनिया वाले संशय-दाझन दूर कर, चिन्ता वाले सारे लेखे ही भक्ति के प्रवाह में बहा दे।173।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर संतु न छाडै संतई जउ कोटिक मिलहि असंत ॥ मलिआगरु भुयंगम बेढिओ त सीतलता न तजंत ॥१७४॥

मूलम्

कबीर संतु न छाडै संतई जउ कोटिक मिलहि असंत ॥ मलिआगरु भुयंगम बेढिओ त सीतलता न तजंत ॥१७४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संतई = संत का स्वभाव, चिक्त की शांति। जउ = चाहे, भले ही। कोटिक = करोड़ों। असंत = विकारी लोग जिनके मन शांत नहीं हैं। मलिआगरु = मलय पर्वत पर उगा हुआ चँदन का पौधा। भुयंगम = साँप। बेढिओ = घिरा हुआ।
अर्थ: हे कबीर! (हरि-चरणों में चिक्त लगाने की ही यह इनायत है कि) संत अपना शांत-स्वभाव नहीं छोड़ता, भले ही उसका करोड़ों बुरे लोगों से पाला पड़ता रहे। चँदन का पौधा साँपों से घिरा रहता है, पर वह अपनी अंदरूनी ठंडक नहीं त्यागता।174।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर मनु सीतलु भइआ पाइआ ब्रहम गिआनु ॥ जिनि जुआला जगु जारिआ सु जन के उदक समानि ॥१७५॥

मूलम्

कबीर मनु सीतलु भइआ पाइआ ब्रहम गिआनु ॥ जिनि जुआला जगु जारिआ सु जन के उदक समानि ॥१७५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि जुआला = जिस माया रूपी आग ने। जारिआ = जला दिया है। सु = वह आग। जन के = जन के लिए, बँदगी करने वाले के लिए। उदक = पानी। गिआनु = सूझ, जान पहचान। ब्रहम = परमात्मा।
अर्थ: हे कबीर! जब मनुष्य परमात्मा से (स्मरण के द्वारा) जान-पहचान बना लेता है तब (दुनिया के कार्य-व्यवहार करते हुए भी) उसका मन ठंडा-ठार रहता है। जिस (माया की मल्कियत की) आग ने सारा संसार जला दिया है, बँदगी करने वाले मनुष्य के लिए वह पानी (जैसी ठंडी) रहती है।175।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर सारी सिरजनहार की जानै नाही कोइ ॥ कै जानै आपन धनी कै दासु दीवानी होइ ॥१७६॥

मूलम्

कबीर सारी सिरजनहार की जानै नाही कोइ ॥ कै जानै आपन धनी कै दासु दीवानी होइ ॥१७६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सारी = सजाई हुई, बनाई हुई। सिरजनहार = विधाता, सृष्टि बनाने वाले परमात्मा। जानै नाही कोइ = हर कोई नहीं जानता। कै = या। धनी आपन = मालिक प्रभु स्वयं। दीवानी = उस के दीवान में रहने वाला, उसकी हजूरी में रहने वाला।
अर्थ: हे कबीर! ये बात हरेक व्यक्ति नहीं जानता कि यह (माया-रूपी आग सारे संसार को जला रही है) परमात्मा ने स्वयं बनाई है। इस भेद को प्रभु स्वयं जानता है या वह भक्त जानता है जो सदा उसके चरणों में जुड़ा रहे (सो, हजूरी में रहने वाले को पता होता है कि माया की जलन से बचने के लिए माया को बनाने वाले के चरणों में जुड़े रहना ही सही तरीका है)।176।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर भली भई जो भउ परिआ दिसा गईं सभ भूलि ॥ ओरा गरि पानी भइआ जाइ मिलिओ ढलि कूलि ॥१७७॥

मूलम्

कबीर भली भई जो भउ परिआ दिसा गईं सभ भूलि ॥ ओरा गरि पानी भइआ जाइ मिलिओ ढलि कूलि ॥१७७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भली भई = (मनुष्य के मन की हालत) अच्छी हो जाती है। जो = जब। भउ = (परमात्मा का) डर, ये डर कि परमात्मा को बिसार के माया के पीछे भटकने से कई ठोकरें खानी पड़ती हैं। दिसा = (और-और) दिशाएं, और-और दिशाओं की भटकना। ओरा = ओला, अहिण। गरि = (सेक से) गल के। ढलि = ढलक के, नीचे के तल की तरफ ढलक के। कूलि = नदी।
अर्थ: हे कबीर! जब मनुष्य के अंदर (यह) डर पैदा होता है (कि परमात्मा को बिसार के माया के पीछे भटकते हुए कई ठोकरें खानी पड़ती हैं) तो (इसके) मन की हालत अच्छी हो जाती है, इसको (परमात्मा की ओट के बिना और) सारी दिशाएं भूल जाती हैं। (परमात्मा का डर मनुष्य के कठोर हुए मन के लिए, मानो, सेक का काम देता है; जैसे सेक लगने से तापमान बढ़ने से) ओला पिघल के फिर पानी बन जाता है, और बह के नदी में जा मिलता है।172।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: बरखा पड़ने पर बरसात की बूँदें मिल के नदी में जा मिलती हैं पर बहुत ठंड हो जाने पर वह बूँदे जम के ओले (अहिण) बन जाती हैं, ये ओले आपस में रगड़ खा के टकरा के धरती पर इधर–उधर गिरते हैं ढलकते हैं बिखरते हैं। जब इनको फिर गर्मी मिलती है तापमान बढ़ने से, ये दोबारा पानी बन कर अपने मूल नदी के पानी में जा मिलते हैं।
माया मनुष्य के अंदर कठोरता पैदा कर देती है; लोगों से भी रूखा और ईश्वर के प्रति भी रूखा; माया की भटकना में इधर–उधर ठोकरें खाता फिरता है। जब प्रभु का डर–रूप सेक इसको लगता है, तो और तरफों से भूल के ये प्रभु-चरणों में आ जुड़ता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीरा धूरि सकेलि कै पुरीआ बांधी देह ॥ दिवस चारि को पेखना अंति खेह की खेह ॥१७८॥

मूलम्

कबीरा धूरि सकेलि कै पुरीआ बांधी देह ॥ दिवस चारि को पेखना अंति खेह की खेह ॥१७८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धूरि = धूल, मिट्टी। सकेलि कै = इकट्ठी कर के। पुरीआ = नगरी। देह = शरीर। को = का। पेखना = देखने को सुंदर। अंति = आखिर को। खेह की खेह = मिट्टी से पैदा हुई फिर मिट्टी में जा मिली।
अर्थ: हे कबीर! (जैसे) मिट्टी इकट्ठी करके एक नगरी बसाई जाती है वैसे ही (पाँच तत्व इकट्ठे कर के परमात्मा ने) यह शरीर रचा है। देखने को चार दिन सुंदर लगता है, पर आखिर में जिस मिट्टी से बना है उसी मिट्टी में ही मिल जाता है।178।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर सूरज चांद कै उदै भई सभ देह ॥ गुर गोबिंद के बिनु मिले पलटि भई सभ खेह ॥१७९॥

मूलम्

कबीर सूरज चांद कै उदै भई सभ देह ॥ गुर गोबिंद के बिनु मिले पलटि भई सभ खेह ॥१७९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सूरज चांद कै उदै = सूर्य और चँद्रमा के प्रकाश की खातिर।
अर्थ: हे कबीर! (पाँच-तत्वों से यह) शरीर-रचना इस वास्ते हुई है कि इसमें सूरज और चँद्रमा का उदय हो (भाव, नर्म-दिली और शीतलता पैदा हों, पर ये गुण तभी पैदा हो सकते हैं अगर गुरु मिले ओर गुरु के द्वारा गोबिंद के चरणों में जुड़ें)। गुरु परमात्मा के मेल के बिना ये शरीर दोबारा मिट्टी का मिट्टी ही हो जाता है (भाव, यह मनुष्य-शरीर बिल्कुल व्यर्थ ही चला जाता है)।179।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस शलोक को पिछले शलोक के साथ मिला के पढ़ो। ‘अंति खेह की खेह’ और ‘पलटि भई सभ खेह’ से साफ दिखता है कि दोनों शलोक इकट्ठे ही विचारने हैं।
भले ही ये नगरी चार दिनों के वास्ते ही है, पर इसमें सूरज का प्रकाश होना चाहिए, इसमें चँद्रमा की ठंडी–मीठी किरणें पड़नी चाहिए। और, सूरज वाला प्रकाश और चँद्रमा वाली शीतलता तब ही उदय हो सकती है यदि गुरु के माध्यम से परमात्मा मिले।
शलोक नं: 174 से ले कर 177 तक ध्यान से पढ़ें। जीव के चारों तरफ विकारों की तपश है (दाझन है), इसकी अंतरात्मा को चँद्रमा वाली शीतलता की जरूरत है, जैसे चँदन को उसकी अपनी ठंडक साँपों के जहर से बचाए रखती है। माया के असर तले सदा यह खतरा है कि जीव ओले (अहिण) की तरह कठोर ना बन जाएं, इनको अंतरात्मे सूरज की गरमी की जरूरत है। ये गर्मी (प्यार) और ये शीतलता गुरु परमात्मा के चरणों में जुड़ने से मिलता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जह अनभउ तह भै नही जह भउ तह हरि नाहि ॥ कहिओ कबीर बिचारि कै संत सुनहु मन माहि ॥१८०॥

मूलम्

जह अनभउ तह भै नही जह भउ तह हरि नाहि ॥ कहिओ कबीर बिचारि कै संत सुनहु मन माहि ॥१८०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जह = जहाँ, जिस हृदय में। अनभउ = अंदरूनी समझ, ज्ञान, जिंदगी के सही रास्ते की समझ। भै = दुनिया वाले डर फिक्र। भउ = सहम, संशा। सुनहु मन माहि = मन लगा के सुनो, ध्यान से सुनो।180।
अर्थ: हे संत जनो! ध्यान लगा के सुनो, मैं कबीर ये बात विचार के कह रहा हूँ- जिस हृदय में जिंदगी के सही रास्ते की समझ पैदा हो जाती है, वहाँ (दाझन, संशय, कठोरता आदि) कोई खतरा नहीं रह जाता। पर, जिस हृदय में अभी (शांत जीवन को भुला देने के लिए खिझ, सहम, बेरहमी आदि कोई) डर मौजूद है, वहाँ परमात्मा का निवास नहीं हुआ।180।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर जिनहु किछू जानिआ नही तिन सुख नीद बिहाइ ॥ हमहु जु बूझा बूझना पूरी परी बलाइ ॥१८१॥

मूलम्

कबीर जिनहु किछू जानिआ नही तिन सुख नीद बिहाइ ॥ हमहु जु बूझा बूझना पूरी परी बलाइ ॥१८१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिन बिहाइ = उनकी उम्र गुजरती है। सुख नीद = (संशय = सहमों में पड़े रहने से भी) गफ़लत की नींद, बेपरवाही में। बूझा = समझ लिया। बूझना = समझने योग्य बात कि ‘जह अनभउ तह भै नही, जह भउ तह हरि नाहि’। पूरी परी बलाइ = पूरी बला गले में पड़ गई है, जगत के संशयों का मुकाबला करने का मुश्किल काम कभी बिसरता ही नहीं।181।
अर्थ: हे कबीर! जिस लोगों ने (जीवन के इस भेद को) रक्ती भर भी नहीं समझा वह (इस दाझन, संशय, कठोरता आदि में बिलकते हुए भी) बेपरवाही से उम्र गुजार रहे हैं; पर (‘गुर गोबिंद’ की मेहर से) मैंने ये बात समझ ली है कि ‘जह अनभउ तह भै नही, जह भउ तह हरि नाहि’; मुझे ये बात किसी भी वक्त नहीं बिसरती।181।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: यहाँ ये भाव नहीं कि कबीर जी इस राह पर चलने को पसंद नहीं करते। कबीर जी कहते हैं कि लोग तो इन कामादिकों की चोटें खाते हुए और ‘हाय हाय’ करते हुए भी बेपरवाह बन रहे हैं; पर मैं दिन-रात इनका मुकाबला कर रहा हूँ, वैसे ये काम है बड़ा मुश्किल)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर मारे बहुतु पुकारिआ पीर पुकारै अउर ॥ लागी चोट मरम की रहिओ कबीरा ठउर ॥१८२॥

मूलम्

कबीर मारे बहुतु पुकारिआ पीर पुकारै अउर ॥ लागी चोट मरम की रहिओ कबीरा ठउर ॥१८२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मारे = जिसको (‘दाझन संसा’ आदि की) मार पड़ती है। बहुत पुकारिआ = वह बहुत हाहाकार करता है, बहुत दुखी होता है। पीर = चोट, पीड़ा। पीर पुकारै अउर = ज्यों ज्यों (‘दाझन संसे’ आदि की) पीड़ा उठती है त्यों त्यों और पुकारता है और दुखी होता है। चोट = शब्द की चोट। मरंम की = दिल को भेदने वाली। रहिओ ठउर = जगह पर ही रह गया हूँ, पुकारने के लायक ही नहीं रहा, ना ‘दाझन संसे’ आदि मारते हैं और ना ही मैं पुकारता हूँ।182।
अर्थ: हे कबीर! जिस मनुष्य को (‘दाझन संसे’ आदि की) मार पड़ती है, वह बहुत हाहाकार करता है, ज्यों-ज्यों वह पीड़ा उठती है त्यों-त्यों और दुखी होता है (पर फिर भी माया का पीछा नहीं छोड़ता)। मुझे कबीर को गुरु के शब्द की चोट लगी है जिसने मेरा दिल भेद लिया है, अब मैं एक जगह पर (भाव, प्रभु-चरणों में) टिक गया हूँ। (मुझे यह दाझन संसा आदि दुखी कर ही नहीं सकते)।182।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर चोट सुहेली सेल की लागत लेइ उसास ॥ चोट सहारै सबद की तासु गुरू मै दास ॥१८३॥

मूलम्

कबीर चोट सुहेली सेल की लागत लेइ उसास ॥ चोट सहारै सबद की तासु गुरू मै दास ॥१८३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेल = नेज़ा, गुरु का शब्द रूप नेज़ा। सुहेली = सुख देने वाली।
लेइ उसास = भरी हुई साँसें लेता है, प्रभु को मिलने की तमन्ना पैदा होती है।
अर्थ: हे कबीर! गुरु के शब्द-रूप नेज़े की चोट है भी सुखदाई। जिस मनुष्य को ये चोट लगती है (बिरही नारी की तरह उसके अंदर) पति-प्रभु को मिलने की तीव्र इच्छा पैदा हो जाती है। जो (भाग्यशाली) मनुष्य गुरु-शब्द की चोट खाता रहता है, उस पूजनीय मनुष्य का मैं (हर समय) दास (बनने को तैयार) हूँ।183।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: ‘दाझन संसे’ आदि की चोट तो दुखी करती है, पर गुरु के शब्द रूप नेज़े की चोट सुख पहुँचाती है)।
नोट: गउड़ी राग में कबीर जी प्रभु चरणों के प्रेमी की हालत एक विरहणी नारि जैसी बताते हें। परदेस गए पति का वह नारी राह देखती है, उसकी आँखें वैराग जल से भर जाती हैं, वह गहरी साँसें लेते हैं, पर उन आहों में से भी उसे ढारस नहीं मिलती क्योंकि राह देखती का दिल भरता ही नहीं, देखती जाती है।
पंथु निहारे कामिनी, लोचन भरीले उसासा॥ उरु न भिजै पगु न खिसै, हरि दरसन की आसा॥१॥ ….–गउड़ी कबीर

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर मुलां मुनारे किआ चढहि सांई न बहरा होइ ॥ जा कारनि तूं बांग देहि दिल ही भीतरि जोइ ॥१८४॥

मूलम्

कबीर मुलां मुनारे किआ चढहि सांई न बहरा होइ ॥ जा कारनि तूं बांग देहि दिल ही भीतरि जोइ ॥१८४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुलां = हे मुल्लां! किआ चढहि = चढ़ने का कोई फायदा नहीं। मुनारे किआ चढहि = मीनार पर चढ़ने का तुझे खुद को कोई लाभ नहीं, बांग देने का तुझे खुद को कोई फायदा नहीं (मुल्ला मीनार पे चढ़ के बांग देता है ताकि मुसलमान सुन के नमाज़ पढ़ने के लिए मस्जिद में आ जाएं। पर उसके अपने दिल में कठोरता है, तो जहाँ तक उसकी अपनी ज़ात का ताल्लुक है, उसको इस बांग देने से कोई लाभ नहीं। रब दिल में बसता है, अगर वह बसता दिख जाए तो दिल में नरमी और प्यार पैदा होना चाहिए। यदि ये अवस्था नहीं बनी तो ऊँचा बोल = बोल के हम रब को धोखा नहीं दे सकते)। बहरा = बहरा।
जा कारनि = जिस रब की नमाज़ की खातिर। जोइ = देख, ढूँढ।184।
अर्थ: हे कबीर! (कह:) हे मुल्ला्! मस्जिद की मीनार पर चढ़ने का तुझे खुद ही कोई लाभ नहीं हो रहा। जिस (रब की नमाज़) की खातिर तू बांग दे रहा है, उसको अपने दिल में देख (तेरे अंदर ही बसता है। यदि तेरे अपने अंदर शांती नहीं है, सिर्फ लोगों को ही बुला रहा है, तो) खुदा बहरा नहीं (वह तेरे दिल की हालत भी जानता है, उसको ठगा नहीं जा सकता)।184।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: बहरे व्यक्ति को ऊँचा कूक के आदर-प्यार की बात कह के, पर धीमी आवाज में गालियां निकाल के ठगा जा सकता है, पर रब तो दिल की हालत भी समझता है, वह नहीं ठगा जा सकता)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेख सबूरी बाहरा किआ हज काबे जाइ ॥ कबीर जा की दिल साबति नही ता कउ कहां खुदाइ ॥१८५॥

मूलम्

सेख सबूरी बाहरा किआ हज काबे जाइ ॥ कबीर जा की दिल साबति नही ता कउ कहां खुदाइ ॥१८५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबूरी = संतोष। दिल साबति = दिल की साबती, दिल की शांती, अडोलता। ता कउ = उस की मर्जी से। कहा खुदाय = रब कहीं भी नहीं।185।
अर्थ: हे शेख! अगर तेरे अपने अंदर संतोष नहीं है, तो काबे का हज करने जाने का भी कोई लाभ नहीं है; क्योंकि, हे कबीर! जिस मनुष्य के अपने दिल में शांति नहीं आई, उसकी बाबत रब कहीं भी नहीं है।185।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर अलह की करि बंदगी जिह सिमरत दुखु जाइ ॥ दिल महि सांई परगटै बुझै बलंती नांइ ॥१८६॥

मूलम्

कबीर अलह की करि बंदगी जिह सिमरत दुखु जाइ ॥ दिल महि सांई परगटै बुझै बलंती नांइ ॥१८६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बलंती = जलती हुई आग, तृष्णा की जलती आग। नांइ = नाम से।186।
अर्थ: हे कबीर! रब की बँदगी कर, बँदगी करने से ही दिल का विकार दूर होता है, दिल में रब का ज़हूर होता है, और इस बँदगी की इनायत से लालच की जलती हुई आ्रग दिल में से बुझ जाती है।186।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर जोरी कीए जुलमु है कहता नाउ हलालु ॥ दफतरि लेखा मांगीऐ तब होइगो कउनु हवालु ॥१८७॥

मूलम्

कबीर जोरी कीए जुलमु है कहता नाउ हलालु ॥ दफतरि लेखा मांगीऐ तब होइगो कउनु हवालु ॥१८७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जोरी कीए = जबरदस्ती करने से। हलालु = जायज़, भेटा करने योग्य, रब के नाम पर कुर्बानी देने के योग्य।187।
अर्थ: हे कबीर! (मुल्लां को बता कि) किसी पर जबरदस्ती करना जुल्म है, (तू जानवर को पकड़ कर बिसमिल्ला कह के ज़बह करता है और) तू कहता है कि यह (ज़बह किया हुआ जानवर) रब के नाम पर कुर्बानी देने के लायक हो गया है (और इस कुर्बानी से खुदा तेरे पर खुश हो गया है); (पर, ये मास तू खुद ही खा लेता है। इस तरह पाप बख्शे नहीं जाते, कभी सोच कि) जब रब की दरगाह में तेरे अमलों का हिसाब होगा तो तेरा क्या हाल होगा?।187।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर खूबु खाना खीचरी जा महि अम्रितु लोनु ॥ हेरा रोटी कारने गला कटावै कउनु ॥१८८॥

मूलम्

कबीर खूबु खाना खीचरी जा महि अम्रितु लोनु ॥ हेरा रोटी कारने गला कटावै कउनु ॥१८८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खूबु खाना = अच्छी खुराक। लोनु = नमक। हेरा = मास। कारने = गरज से, नीयत से। कटावै कउनु = मैं कटने को तैयार नहीं हूँ।188।
अर्थ: हे कबीर! (मुललां को बेशक कह कि कुर्बानी के बहाने मास खाने से) खिचड़ी खा लेनी अच्छी है जिसमें सिर्फ स्वाद का नमक ही डाला गया है। मैं तो इस बात के लिए तैयार नहीं हूँ कि मास रोटी खाने की नीयत मेरी अपनी हो पर (कुर्बानी बहाना बना के किसी पशू को) ज़बह करता फिरूँ।188।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: कोई भी मज़हब धर्म हो आदमी के लिए वह तब तक ही लाभदायक है जब तक उसके बताए पद्चिन्हों पर चल कर मनुष्य अपने दिल में भलाई पैदा करने की कोशिश करता है, ख़ालिक और उसकी ख़लकति के लिए दिल में मुहब्बत बनाता है। जब मनुष्य रिवाजी तौर पर मज़हब के असूलों और रस्मों को करने लग जाता है, पर ये नहीं देखता कि दिल में कोई भली तब्दीली आई है अथवा नहीं, या, कहीं भलाई की जगह अंदर कठोरता तअसुब आदि तो नहीं बढ़ रहे, उस वक्त उसके सारे धार्मिक उद्यम व्यर्थ हो जाते हैं।
पठानों–मुग़लों के राज के वक्त हमारे देश में इस्लामी शरह का कानून चलता था। भारत वासियों के लिए और आम पठानों–मुग़लों के लिए भी अरबी बोली बेगाने देश की बोली थी; सो, हरेक मुसलमान कुरान–शरीफ़ को नहीं समझ सकता था। इसका नतीजा ये निकला कि जहाँ तक कानून को बरतने का संबन्ध पड़ता था, राजसी ताकत काज़ियों–मौलवियों के ही हाथ में ही थी क्योंकि ये लोग कुरान–शरीफ़ के अर्थ करने में ऐतबार–योग माने जाते थे। एक तरफ ये लोग राजसी ताकत के मालिक; दूसरी तरफ, यही लोग धार्मिक नेता आम लोगों को जीवन का सही राह बताने वाले। ये दोनों विरोधी बातें इकट्ठी हो गई। राज–प्रबंध चलाने के वक्त गुलाम हिन्दू कौम पर कठोरता बरतनी इन लोगों के लिए स्वाभाविक बात थी। पर इस कठोरता को अपनी तरफ से ये लोग इस्लामी शरह समझते और बताते थे। सो, मज़हब में से इनको स्वाभाविक रूप से ही दिल की कठोरता ही मिलती गई। जिस भी देश में राज–प्रबंध किसी विशेष मज़हब के असूलों के अनुसार चलाया जाता रहा है, उस मज़हब के प्रचारकों का यही हाल होता रहा है।
कबीर जी अपने वक्त के काजियों–मौलवियों की यह हालत देख के इन शलोकों में कह रहे हैं कि मज़हब ने, मज़हब के रीति–रिवाजों ने, बांग निमाज हज आदि ने, साफ–दिली सिखानी थी। पर, अगर रिश्वत, कठोरता, तअसुब आदि के कारण ना सिर्फ दिल निर्दयी हो चुका है, बल्कि यही कर्म दिल को और कठोर बनाए जा रहे हैं, तो इनके करने का कोई लाभ नहीं। यही ख्याल कबीर जी ने प्रभाती राग के शब्द नं: 4 में बताया है;
…मुलां, कहहु निआउ खुदाई॥ तेरे मन का भरम न जाई॥१॥ रहाउ॥ पकरि जीउ आनिआ, देह बिनासी, माटी कउ बिसमिल कीआ॥ जोति सरूप अनाहत लागी, कहु हलालु किआ कीआ॥२॥ किआ उजू पाकु कीआ मुहु धोइआ, किआ मसीति सिरु लाइआ॥ जउ दिल महि कपटु निवाज गुजारहु, किआ हज काबै जाइआ॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर गुरु लागा तब जानीऐ मिटै मोहु तन ताप ॥ हरख सोग दाझै नही तब हरि आपहि आपि ॥१८९॥

मूलम्

कबीर गुरु लागा तब जानीऐ मिटै मोहु तन ताप ॥ हरख सोग दाझै नही तब हरि आपहि आपि ॥१८९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तब जानीऐ = तब जानो, तब ये समझो। गुरु लागा = गुरु मिल गया है। तन ताप = शरीर के कष्ट, शरीर को जलाने वाले दुख-कष्ट। हरख = खुशी। सोग = चिन्ता। दाझै नही = ना जलाए। आपहि आप = हर जगह खुद ही खुद दिखता है।189।
अर्थ: हे कबीर! (जनेऊ आदि पहन के हिन्दू समझता है कि मैंने फलाणे ब्राहमण को अपना गुरु धार लिया है; पर) तभी समझो कि गुरु मिल गया है जब (गुरु धारण करने वाले मनुष्य के दिल में से) माया का मोह दूर हो जाए, जब शरीर को जलाने वाले कष्ट मिट जाएं, जब हरख-सोग कोई भी चिक्त को ना जलाए। ऐसी हालत में पहुँचने पर हर जगह परमात्मा ही दिखाई देता है।189।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर राम कहन महि भेदु है ता महि एकु बिचारु ॥ सोई रामु सभै कहहि सोई कउतकहार ॥१९०॥

मूलम्

कबीर राम कहन महि भेदु है ता महि एकु बिचारु ॥ सोई रामु सभै कहहि सोई कउतकहार ॥१९०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भेदु = फर्क। एकु बिचारु = एक खास समझने वाली बात। सभै = सारे जीव। सोई = वही राम, उसी राम को। कउतकहार = रास धरने वाले, रास धारिए।190।
अर्थ: हे कबीर! (जनेऊ दे के ब्राहमण राम की पूजा-पाठ का उपदेश भी करता है; पर) राम-राम कहने में भी फर्क पड़ जाता है, इसमें भी एक बात समझने वाली है। एक राम तो वह है जिसको हरेक जीव स्मरण करता है (ये है सर्व-व्यापी राम, इसका स्मरण करना मनुष्य-मात्र का फर्ज है)। पर यही राम नाम रासधारिए भी (रासों में स्वांग बना-बना के) लेते हैं (यह राम अवतारी राम है और राजा दशरथ का पुत्र है, यही मूर्ति-पूजा व्यर्थ है)।190।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर रामै राम कहु कहिबे माहि बिबेक ॥ एकु अनेकहि मिलि गइआ एक समाना एक ॥१९१॥

मूलम्

कबीर रामै राम कहु कहिबे माहि बिबेक ॥ एकु अनेकहि मिलि गइआ एक समाना एक ॥१९१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रामै राम कहु = हर वक्त राम का नाम स्मरण कर। बिबेक = परख, पहचान। कहिबे माहि = कहने में, स्मरण में। अनेकहि = अनेक जीवों में। समाना एक = सिर्फ एक शरीर में टिका हुआ था।191।
अर्थ: हे कबीर! सदा राम का नाम जप, पर जपने के वक्त ये बात याद रखनी कि एक राम तो अनेक जीवों में व्यापक है (इसका नाम जपना हरेक मनुष्य का धर्म है), पर एक राम (दशरथ का पुत्र) सिर्फ एक शरीर में ही आया (अवतार बना; इसका जाप कोई गुण नहीं दे सकता)।191।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: पिछले पाँच शलोक काज़ियों–मोलवियों की कमजोरियां बताने के लिए थे, अगले शलोकों में ब्राहमण द्वारा डाले गए भुलेखों की ओर ध्यान दिला रहे हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर जा घर साध न सेवीअहि हरि की सेवा नाहि ॥ ते घर मरहट सारखे भूत बसहि तिन माहि ॥१९२॥

मूलम्

कबीर जा घर साध न सेवीअहि हरि की सेवा नाहि ॥ ते घर मरहट सारखे भूत बसहि तिन माहि ॥१९२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा घर = जिन घरों में। साध = भले मनुष्य, वह लोग जिन्होंने अपने मन को सुधार कर लिया है, सत्संगी। न सेवीअहि = नहीं सेवे जाते। सेवा = पूजा, भक्ति। ते घर = वह (सारे) घर। मरहट = मरघट, मसाण। सारखे = जैसे।
अर्थ: हे कबीर! (ठाकुरों की पूजा के हरेक दिन-दिहार के समय ब्राहमण की सेवा- बस! यह है शिक्षा जो ब्राहमण अपने श्रद्धालुओं को दे रहा है। श्रद्धालू बेचारे भी ठाकुर-पूजा और ब्राहमण सेवा करके अपने आप को सदाचारी और उत्तम हिन्दू समझ लेते हैं; पर असल बात यह है कि) जिस घरों में नेक बंदों की सेवा नहीं होती, और परमात्मा की भक्ति नहीं की जाती, वह घर (भले ही कितने ही पवित्र और साफ रखे जाते हों) मसानों जैसे हैं, उन घरों में (मनुष्य नहीं) भूतने बसते हैं।192।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर गूंगा हूआ बावरा बहरा हूआ कान ॥ पावहु ते पिंगुल भइआ मारिआ सतिगुर बान ॥१९३॥

मूलम्

कबीर गूंगा हूआ बावरा बहरा हूआ कान ॥ पावहु ते पिंगुल भइआ मारिआ सतिगुर बान ॥१९३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गूँगा = (भाव) जो अपनी जीभ से झूठे या बुरे बोल नहीं बोलता, पराई निंदा नहीं करता। बावरा = पागल, बेसमझ। बहरा = कान से ना सुन सकने वाला, जो पराई निंदा नहीं सुनता। पिंगुला = लूला। पावहु ते = पैरों से (भाव, उन जगहों पर नहीं जाता जहाँ बुरे काम होते हों)। बान = शब्द का तीर, बाण।193।
अर्थ: हे कबीर! (जनेऊ पहन के ब्राहमण को गुरु धार के, ठाकुर-पूजा और हरेक दिन-त्यौहार के समय ब्राहमण की ही सेवा-पूजा करके गुरु वाला नहीं बना जा सकता; जिसको सचमुच पूरा गुरु मिलता है उसका सारा जीवन ही बदल जाता है) जिस मनुष्य के हृदय में सतिगुरु अपने शब्द का तीर मारता है, वह (दुनिया के लिए) गूँगा, कमला, बहरा और लूला हो जाता है (क्योंकि वह मनुष्य मुँह से बुरे बोल नहीं बोलता, उसको किसी की अधीनता नहीं होती, कानो से निंदा नहीं सनता, और पैरों से बुरी तरफ चल के नहीं जाता)।193।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर सतिगुर सूरमे बाहिआ बानु जु एकु ॥ लागत ही भुइ गिरि परिआ परा करेजे छेकु ॥१९४॥

मूलम्

कबीर सतिगुर सूरमे बाहिआ बानु जु एकु ॥ लागत ही भुइ गिरि परिआ परा करेजे छेकु ॥१९४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भुइ = धरती पर, मिट्टी में। भुइ गिरि परिआ = (भाव,) निर अहंकार हो गया। परा करेजे छेक = कलेजे में छेद हो गया, हृदय शब्द में भेदा गया, हृदय प्रभु चरणों में परोया गया। सूरमा सतिगुर = वह गुरु जो स्वयं इन कामादिक वैरियों का मुकाबला सूरमों की तरह कर सकता है और करता है।194।
अर्थ: हे कबीर! जिस मनुष्य को सूरमा सतिगुरु अपने शब्द का एक तीर मारता, तीर बजते ही वह मनुष्य अहंकार-हीन हो जाता है, उसका हृदय प्रभु-चरणों में परोया जाता है।194।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शलोक नं: 189 से ले के कबीर जी कह रहे हैं कि ब्राहमण के पास से जनेऊ पहनवा के उसको गुरु धार के ठाकुर-पूजा और दिन–दिहार के समय ब्राहमण की सेवा को हिन्दू अपना मुख्य धर्म समझ लेता है; पर इस बात की तरफ कभी ध्यान नहीं देता कि जीवन में क्या फर्क पड़ा है। पराई निंदा करनी और सुननी, विकारों की ओर जाना, अहंकार– ऐसे बुरे कर्मों को त्यागने का ख्याल भी नहीं आता। फिर भी समझता है कि मैं गुरु–परोहित वाला हूँ। जिन्हें सतिगरू मिलता है, उनमें ये विकार रह ही नहीं सकते, वे हर वक्त प्रभु-चरणों में जुड़े रहते हैं।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर निरमल बूंद अकास की परि गई भूमि बिकार ॥ बिनु संगति इउ मांनई होइ गई भठ छार ॥१९५॥

मूलम्

कबीर निरमल बूंद अकास की परि गई भूमि बिकार ॥ बिनु संगति इउ मांनई होइ गई भठ छार ॥१९५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरमल = साफ, पवित्र। अकास की बूँद = आकाश से पड़ने वाली वर्षा की बूँद, (ऊँचे मण्डलों में रहने वाले परमात्मा का अंश)। परि गई = गिर पड़ी। भूमि बिकार = नकारी धरती में। इउ = इसी तरह। मानई = मनुष्य। भठ छार = जलती हुई भट्ठी की राख।195।
अर्थ: हे कबीर! (वर्षा के समय) आकाश (से बरसात) की जो साफ बूँद नकारा धरती पर गिर पड़ी, (वह किसी का कुछ सँवार नहीं सकी, बल्कि खुद भी) वह, मानो, (जलती हुई) भट्ठी की राख हो गई। यही हाल संगति के बिना मनुष्य का होता है (परम पवित्र परमात्मा की अंश जीव जनम ले के अगर कुसंग में फंस गया तो सृष्टि की कोई सेवा करने की बजाय खुद भी विकारों में जल मरा)।195।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर निरमल बूंद अकास की लीनी भूमि मिलाइ ॥ अनिक सिआने पचि गए ना निरवारी जाइ ॥१९६॥

मूलम्

कबीर निरमल बूंद अकास की लीनी भूमि मिलाइ ॥ अनिक सिआने पचि गए ना निरवारी जाइ ॥१९६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लीनी मिलाइ = (हल सोहागे आदि से सँवारी हुई जमीन में) मिला लेता है। रिवारी ना जाइ = आकाशी बूँद उस धरती से निखेड़ी नहीं जा सकती। पचि गए = कोशिश करके थक टूट गए।196।
अर्थ: हे कबीर! (वर्षा के वक्त) आकाश (से बरसात) की जिस साफ बूँद को (समझदार जमींदार ने हल आदि से जोत कर) सँवारी हुई अपनी ज़मीन में (हद-बन्ना ठीक करके) मिला लिया, वह बूँद ज़मीन से हटाई नहीं जा सकती, चाहे अनेक समझदार कोशिश करके थक-टूट जाएं।196।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: बरखा होती है तो बादलों से बूँदें हरेक किस्म की धरती पर पड़ती हें। कहीं नकारी, कलराठी, या रेतीली धरती है, जहाँ कुछ भी पैदा नहीं होता, यहाँ पड़ने वाली बूँदें बुरी धरती की संगति के कारण कुछ नहीं सँवारतीं, बल्कि अपना आप ही गवा जाती हैं। कहीं पर ताकत वाली जमीन है, जिसमें फसल, बाग़–बगीचे आदि सुंदर लह–लह करते हैं; इस जमीन में पड़ी बूँदें सृष्टि की और ज्यादा सेवा करके अपना आप सँवार जाती हैं, कयोंकि समझदार जमीनदार हल चला के, सुहागा फेर के धरती को सँवार–बना के बरसात के पानी को उस धरती में अच्छी तरह मिला लेता है।
यही हाल है मनुष्य का। जीवात्मा ऊँचे मण्डलों में बसते परमात्मा का अंश है। जनम लेकर जीव इस धरती पर आता है, अगर कहीं विकारियों की सोहबत में बैठ जाए तो अपना आप भी गवा जाता है और किसी और की कोई सेवा नहीं कर सकता; पर परमात्मा की मेहर हो, इसको गुरु मिल जाए, तो गुरु इसके शरीर–धरती को ऐसा सँवार देता है, कि इसकी ज्ञानेन्द्रिय साथियों को ऐसा तराश देता है कि यह अपना जीवन भी सफल कर लेता है, और औरों की भी सेवा करता है; कोई विकार, कोई कुसंग इसको इस सुंदर रास्ते से हटा नहीं सकता।
(नोट: कलराठी बिना ज्योति से सँवारी धरती पर पड़ा बरखा का पानी धरती पर जाला बन जाने के कारण कहुत कम धरती में जज़्ब होता है)।
(यही हाल मनुष्य का समझो। पूरे गुरु की मेहर से उसकी जीभ कान आदि इंद्रिय पर–निंदा आदि विकारों से हट जाते हैं। इस सँवारी हुई सारी धरती से वह मनुष्य प्रभु-चरणों में ऐसा जुड़ता है कि कोई विकार उसको वहाँ से विछोड़ नहीं सकता)।196।
नोट: शलोक नं: 184 से 188 तक के पाँच शलोकों में कबीर जी ने इस्लामी शरह, बांग, नमाज़, हज, कुर्बानी का वर्णन किया है; इस वास्ते इनमें शब्दावली भी आमतौर पर इस्लामी ही बरती है।
नंबर 189 से ले के 196 तक आठ शलोकों में ब्राहमणों के रस्मी गुरु बनने और मूर्ति-पूजा का जिकर है; इन में शब्दावली भी सारी हिन्दकी ही बरती गई है।
आगे शलोक नं: 197 से 201 तक में फिर ‘कुर्बानी’ देने का जिक्र है; यहाँ फिर सारे शब्द और ख्याल आम तौर पर मुसलमानी हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर हज काबे हउ जाइ था आगै मिलिआ खुदाइ ॥ सांई मुझ सिउ लरि परिआ तुझै किन्हि फुरमाई गाइ ॥१९७॥

मूलम्

कबीर हज काबे हउ जाइ था आगै मिलिआ खुदाइ ॥ सांई मुझ सिउ लरि परिआ तुझै किन्हि फुरमाई गाइ ॥१९७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ = मैं। जाइ था = जा रहा था। आगै = वहाँ गए को आगे। किन्हि = किस ने? फुरमाइ गाइ = गाय (ज़बह करने) का हुक्म दिया था। किनि फुरमाइ गाइ = किसने कहा था कि मेरे नाम पर गाय ज़बह करो (तो पाप बख्शे जाएंगे)? किसने कहा था कि मेरे नाम पर गाय की कुर्बानी दो (तब बख्शे जाओग)?।197।
अर्थ: हे कबीर! मैं काबे का हज करने के लिए जा रहा था, वहाँ जाते को आगे से खुदा मिल गया! वह मेरा साई (खुदा खुश होने की बजाय कि मैंउसके घर का दीदार करने आया हूँ, बल्कि) मेरे पर गुस्से हो गया (और कहने लगा) कि मैंने तो यह हुक्म नहीं दिया जो मेरे नाम पर तू गाय (आदि) की कुर्बानी दे (और, मैं तेरे गुनाह बख्श दूँगा)।197।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर हज काबै होइ होइ गइआ केती बार कबीर ॥ सांई मुझ महि किआ खता मुखहु न बोलै पीर ॥१९८॥

मूलम्

कबीर हज काबै होइ होइ गइआ केती बार कबीर ॥ सांई मुझ महि किआ खता मुखहु न बोलै पीर ॥१९८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: होइ होइ गइआ = कई बार हुआ। साई = हे साई! पीर = हे पीर! हे मुरशिद! खता = दोष। हज काबै = काबे का हज।198।
अर्थ: हे कबीर! मैं कई बार, हे साई! (तेरे घर-) काबे के दीदार करने के लिए गया हूँ। पर, हे ख़ुदा! तू मेरे साथ बात ही नहीं करता, मेरे में तू कौन-कौन सी गलतियां देख रहा है? (जो हज और कुर्बानी से भी बख्शे नहीं गए)? (भाव, हज और कुर्बानी से खुदा खुश नहीं होता)।198।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर जीअ जु मारहि जोरु करि कहते हहि जु हलालु ॥ दफतरु दई जब काढि है होइगा कउनु हवालु ॥१९९॥

मूलम्

कबीर जीअ जु मारहि जोरु करि कहते हहि जु हलालु ॥ दफतरु दई जब काढि है होइगा कउनु हवालु ॥१९९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जु = जो। जीव = जीवों को। जोरु = जबरदस्ती, धक्का। करि = कर के। कहते हहि जु = पर कहते हैं कि। हलालु = जायज़, भेटा करने योग्य, रब के नाम पर कुर्बानी देने के लायक। दई = (सब जीवों के साथ प्यार करने वाला) परमात्मा।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: इस शब्द ‘दई’ का प्रयोग यहाँ विशेष तौर पर मजेदार और अर्थ–भरपूर है। जो लोग ये यकीन रखते हैं कि खुदा किसी कुर्बानी दे देने से खुश होता है और गुनाह बख्श देता है, वे उसको ‘रबिल आलमीन’ भी कहते हैं। सारे आलम का पालनहार होते हुए भी वह उस गाय आदि पशू को भी पालता और ‘प्यार करता’ है। फिर ये कैसे हो सकता है कि वह उस व्यक्ति से खुश हो जो उसी के प्यारे और पाले हुए को उसी की खातिर ज़बह करे, और खुद ही खा–पी के यह समझ ले कि ये कुर्बानी खुदा को पहुँच गई है, और उसने मेरे गुनाह बख्श दिए हैं)।

दर्पण-भाषार्थ

दफतरि काढि है = लेखा करेगा।199।
अर्थ: हे कबीर! जो लोग जबरदस्ती करके (गाय आदि) जीवों को मारते हैं; पर कहते हैं कि (यह ज़बह किया हुआ मास) खुदा के नाम पर कुर्बानी के काबिल हो गया है, जब सब जीवों से प्यार करने वाला खुदा (इन लोगों से- कर्मों का लेखा माँगेगा, तब इनका क्या हाल होगा?) (भाव, कुबांनी देने से गुनाह बख्शे नहीं जाते)।199।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: यहाँ मास खाने अथवा ना खाने पर बहस नहीं है। कबीर जी सिर्फ ये कहते हैं कि कुर्बानी देनें वाले खा–पी जाते हैं, पर मान ये लेते हैं कि खुदा के आगे भेट किया गया है और खुदा ने हमारे पाप बख्श दिए हैं। खुदा को खुश करने की जगह ये तो उसको नाराज़ करने वाली बात है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर जोरु कीआ सो जुलमु है लेइ जबाबु खुदाइ ॥ दफतरि लेखा नीकसै मार मुहै मुहि खाइ ॥२००॥

मूलम्

कबीर जोरु कीआ सो जुलमु है लेइ जबाबु खुदाइ ॥ दफतरि लेखा नीकसै मार मुहै मुहि खाइ ॥२००॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नीकसै = निकलता है। मुहै मुहि = मुँह पर, बार बार मुँह पर। खाइ = खाता है।200।
अर्थ: हे कबीर! जो भी मनुष्य किसी पर जबरदस्ती करता है और जुल्म करता है; (और जुल्म का) लेखा खुदा माँगता है। जिस किसी की भी लेखे की बाकी निकलती है वह बड़ी सजा भुगतता है।200।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: किए हुए गुनाहों को ‘कुरबानी’ दे के धोया नहीं जा सकता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर लेखा देना सुहेला जउ दिल सूची होइ ॥ उसु साचे दीबान महि पला न पकरै कोइ ॥२०१॥

मूलम्

कबीर लेखा देना सुहेला जउ दिल सूची होइ ॥ उसु साचे दीबान महि पला न पकरै कोइ ॥२०१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दिल सूची = दिल की सुच, दिल की स्वच्छता, दिल की पाकीज़गी। दीबान = कचहरी। पला न पकरै कोइ = कोई सख्श पल्ला नहीं पकड़ता, कोई ऐतराज नहीं करता।201
अर्थ: हे कबीर! (वह रब मनुष्य से सिर्फ दिल की पाकीज़गी की कुर्बानी माँगता है) अगर मनुष्य के दिल की पवित्रता कायम हो तो अपने किए अमलों का लेखा देना आसान हो जाता है; (इस पवित्रता की इनायत से) उस सच्ची कचहरी में कोई रोक-टोक नहीं करता।201।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: कबीर जी की वाणी पर विचार करते हुए अब तक हम ये अच्छी तरह देख आए हैं कि कबीर जी मुसलमान नहीं थे, वे हिन्दू जुलाहा थे। सो, उनको हज पर जाने की कोई जरूरत नहीं थी, किसी और की खामियों को यकीनी तौर पर और तसल्ली से समझाने के लिए कविता में यह एक तरीका है कि अपने आप को भी वही काम करता जाहिर किया जाता है। हिन्दू कर्मकांड की विरोधता करते हुए सतिगुरु अरजन साहिब ने भी इसी तरह ही लिखा है;
सोरठि महला ५ असटपदी॥ पाठु पढ़िओ अरु बेदु बीचारिओ, निवलि भुअंगम साधे॥ पंच जना सिउ संगु न छुटकिओ, अधिक अहंबुधि बाधे॥१॥ पिआरे इन बिधि मिलणु न जाई, मै कीए करम अनेका॥ हारि परिओ सुआमी कै दुआरै, दीजै बुधि बिबेका॥१॥ रहाउ॥ …
चुँकि आम मुसलमान काबे को खुदा का घर समझता है, इसलिए कबीर जी भी वही ख्याल बता के कहते हैं कि खुदा मेरे हज पर खुश होने की जगह मेरे से गुस्से हो गया। अनेक बार हज करने पर भी खुदा खुश हो के क्यों हाज़ी को दीदार नहीं देता और वह हाज़ी ख़ुदा की निगाहों में अभी भी क्यों गुनहगार समझा जाता है; इस भेद का जिक्र इन शलोकों में किया गया है कि ख़ुदा के नाम पर गाय आदि की कुर्बानी देनी, मिल–जुल के खा–पी जाना सब कुछ खुद ही, और फिर ये समझ लेना कि इस कुर्बानी के इव्ज़ में हमारे गुनाह बख्श दिए गए हैं: ये बड़ा भारी भुलेखा है। यह, खुदा को खुश करने का तरीका नहीं। खुदा खुश होता है दिल की पाकीज़गी पवित्रता से।
नामदेव जी ने भी इसी तरह बीठुल–मूर्ति के पुजारियों की ताड़ना की है और बताया है कि क्यों इतने नाक रगड़ने पर भी उनको बीठल के दर्शन नहीं होते। कहते हैं कि तुम पूजा आदि तो करते हो, पर अपने ईष्ट पर पूरी श्रद्धा नहीं रखते;
गौंड नामदेव जी॥ आजु नामे बीठलु देखिआ, मूरख कउ समझाऊ रे॥१॥ रहाउ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर धरती अरु आकास महि दुइ तूं बरी अबध ॥ खट दरसन संसे परे अरु चउरासीह सिध ॥२०२॥

मूलम्

कबीर धरती अरु आकास महि दुइ तूं बरी अबध ॥ खट दरसन संसे परे अरु चउरासीह सिध ॥२०२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धरती अरु आकास महि = सारी सृष्टि में। दुइ = हे द्वैत! अबध = अ+बध, जिसका वध ना किया जा सके। तूं बरी अबध = तुझे बड़ी मुश्किल से मारा जा सकता है। खट दरसन = छह भेख (जोगी, जंगम, सेवड़े, बौधी, बैरागी)। संसे = संशय में, सहम में। अरु = और। सिध = पहुँचे हुए माहिर जोगी जो जोग के साधनों में प्रपक्व हो चुके हैं।
अर्थ: हे कबीर! (कह:) है द्वैत! सारी सृष्टि में ही (तू बहुत बली है) तुझे बहुत मुश्किल से मारा जा सकता है। (हज करने और कुर्बानी देने वाले मुल्ला, या ठाकुर-पूजा करने वाले ब्राहमण तो कहीं रहे) छह भेषों के त्यागी और (योग साधना में सिद्धहस्त हुए) चौरासी सिद्ध भी, हे द्वैत! तुझसे सहमे हुए हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर मेरा मुझ महि किछु नही जो किछु है सो तेरा ॥ तेरा तुझ कउ सउपते किआ लागै मेरा ॥२०३॥

मूलम्

कबीर मेरा मुझ महि किछु नही जो किछु है सो तेरा ॥ तेरा तुझ कउ सउपते किआ लागै मेरा ॥२०३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किआ लागै मेरा = मेरा कुछ भी खर्च नहीं होता।
अर्थ: हे कबीर! (इस ‘दुइ’ को मिटाने के लिए ना हज, कुर्बानियां, ना ठाकुर-पूजा ना ब्राहमण की सेवा, ना त्याग और ना ही योग साधना- ये कोई भी सहायता नहीं करते। सिर्फ एक ही तरीका है वह यह कि अपना आप प्रभु के हवाले किया जाए, इसी का नाम ‘दिल-साबति’ है। सो, प्रभु के दर पे अरदास कर और कह:) हे प्रभु जो कुछ मेरे पास है (यह तन मन धन), इसमें कोई चीज़ ऐसी नहीं जिसको मैं अपनी कह सकूँ; जो कुछ मेरे पास है सब तेरा ही दिया हुआ है। (यदि तेरी मेहर हो तो) तेरा बख्शा हुआ (यह तन मन धन) मैं तेरी भेट करता हूँ, इसमें मेरे पल्ले से कुछ भी खर्च नहीं होता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर तूं तूं करता तू हूआ मुझ महि रहा न हूं ॥ जब आपा पर का मिटि गइआ जत देखउ तत तू ॥२०४॥

मूलम्

कबीर तूं तूं करता तू हूआ मुझ महि रहा न हूं ॥ जब आपा पर का मिटि गइआ जत देखउ तत तू ॥२०४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तूं तूं करता = तूं तूं कहता, (हे प्रभु!) तेरा जाप करता, हर वक्त तुझे स्मरण करते हुए। तू हूआ = मैं तेरा ही रूप हो गया हूँ, मैं तेरे में ही लीन हो गया हूँ। हूँ = (ये ख्याल कि) मैं हूँ, ‘मैं मैं’ का स्वभाव, अपनी बड़ाई की चाह। आपा पर का = अपने पराए वाला भेदभाव। जत = जिधर। देखउ = मैं देखता हूँ। तत = उधर। तू = (हे प्रभु!) तू ही (दिख रहा है)।
अर्थ: हे कबीर! (प्रभु के दर पर यूँ कह: हे प्रभु! तेरी मेहर से) हर वक्त तेरा स्मरण करते हुए मैं तेरे में लीन हो गया हूं, मेरे अंदर ‘मैं मैं’ का विचार रह ही नहीं गया है। (तेरा स्मरण करते हुए अब) जब (मेरे अंदर से) अपने-पराए वाला भेदभाव मिट गया है (‘दुइ’ मिट गई है), मैं जिधर देखता हूँ मुझे (हर जगह) तू ही दिख रहा है।204।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शलोक नं: 203 और 204 दोनों एक साथ पढ़ने हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर बिकारह चितवते झूठे करते आस ॥ मनोरथु कोइ न पूरिओ चाले ऊठि निरास ॥२०५॥

मूलम्

कबीर बिकारह चितवते झूठे करते आस ॥ मनोरथु कोइ न पूरिओ चाले ऊठि निरास ॥२०५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिकार = विकार, बुरे काम। बिकारह चितवते = बुरे काम की सोचे सोचते। झूठे आस करते = उन पदार्थों की तमन्नाएं करते जो नाशवान हैं। मनोरथु = मनो+रथु, मन की भाग दौड़, मन की वह आशा जिसकी खातिर दौड़ भाग करते रहे। निरास = आशा पूरी हुए बिना ही, दिल की आशाएं साथ ले के।
अर्थ: हे कबीर! (जो मनुष्य ‘दुइ’ में फसे रह के प्रभु का स्मरण नहीं करते) जो सदा बुरे काम करने की सोचे सोचते रहते हैं, जो सदा इन नाशवान पदार्थों की ही तमन्नाएं पालते रहते हैं, वे मनुष्य दिल की आशाएं साथ ले के ही (यहाँ से) चल पड़ते हैं, उनके मन की कोई दौड़-भाग पूरी नहीं होती (भाव, किसी भी पदार्थ के मिलने से उनके मन की दौड़-भाग खत्म नहीं होतीं, आशाएं और-और बढ़ती जाती हैं)।205।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर हरि का सिमरनु जो करै सो सुखीआ संसारि ॥ इत उत कतहि न डोलई जिस राखै सिरजनहार ॥२०६॥

मूलम्

कबीर हरि का सिमरनु जो करै सो सुखीआ संसारि ॥ इत उत कतहि न डोलई जिस राखै सिरजनहार ॥२०६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संसारि = संसार में। इत = यहाँ, इस मौजूदा जनम में। उत = वहाँ, इस जनम के बाद, परलोक में। कतहि = कहीं भी। राखै = रखवाली करता है, (विकारों और आशाओं से) बचाता है।
अर्थ: हे कबीर! जो मनुष्य परमात्मा की याद हृदय में बसाता है, वह इस जगत में सुखी जीवन व्यतीत करता है; वह मनुष्य इस लोक में परलोक में कहीं भी (इन आशाओं ओर विकारों के कारण) भटकता नहीं है, क्योंकि परमातमा सवयं उसको इनसे बचाता है।206।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर घाणी पीड़ते सतिगुर लीए छडाइ ॥ परा पूरबली भावनी परगटु होई आइ ॥२०७॥

मूलम्

कबीर घाणी पीड़ते सतिगुर लीए छडाइ ॥ परा पूरबली भावनी परगटु होई आइ ॥२०७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घाणी पीढ़ते = (विकारों और आशाओं की) घाणी में पीढ़े जाते (जैसे तिल कोल्हू में पीढ़े जाते हैं)। परा पूरबली = पहले जनम के समय की। भावनी = श्रद्धा, प्यार।
अर्थ: हे कबीर! (दुनिया के जीव विकारों और दुनियावी आशाओं की) घाणी में (इस तरह) पीढ़े जा रहे हैं, (जैसे कोल्हू में तिल पीढ़े जाते हैं;) (पर जो जो ‘हरि का स्मरण करै’) उनको सतिगुरु (इस घाणी में से) बचा लेता है। (प्रभु-चरणों से उनका) प्यार जो धुर से चला आ रहा था (पर जो इन विकारों और आशाओं के तले दब गया था, वह नाम-जपने की इनायत और सतिगुरु की मेहर से) दोबारा हृदय में चमक उठता है।207।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर टालै टोलै दिनु गइआ बिआजु बढंतउ जाइ ॥ ना हरि भजिओ न खतु फटिओ कालु पहूंचो आइ ॥२०८॥

मूलम्

कबीर टालै टोलै दिनु गइआ बिआजु बढंतउ जाइ ॥ ना हरि भजिओ न खतु फटिओ कालु पहूंचो आइ ॥२०८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: टालै टोलै = टाल मटोल में, आज कल करते हुए (क्योंकि विकारों और आशाओं की तरफ से रुचि नाम-जपने की ओर लगने नहीं देती)। दिनु = उम्र का हरेक दिन। बिआजु = (शाहूकार अपनी राशि-पूंजी ज्यों ज्यों सूद पर चढ़ाता है, त्यों त्यों सूद बढ़ के वह रकम बड़ी होती जाती है, इसी तरह मनुष्य के अंदर विकारों और आशाओं की इकट्ठी हुई राशि-पूंजी और-और विकारों और आशाओं की तरफ़ प्रेरित करती है, इस तरह ये विकार और अधिक मनुष्य के हृदय में बढ़ते जाते हैं) ब्याज, सूद। खतु = लेखा, (विकारों और आशाओं के) संस्कार (जो मन में बने रहते हैं)।
अर्थ: हे कबीर! (जो मनुष्य गुरु की शरण नहीं आते, उनके किए विकारों और बनाई हुई आशाओं के कारण नाम-जपने की ओर से) आजकल उनकी उम्र का वक्त गुज़रता जाता है, (विकारों और आशाओं का) ब्याज बढ़ता जाता है। ना ही वे परमात्मा का स्मरण करते हें, ना ही उनका (विकारों और आशाओं का यह) लेखा खत्म होता है। (बस! इन विकारों और आशाओं में फसे हुओं के सिर पर) मौत आ पहुँचती है।208।

विश्वास-प्रस्तुतिः

महला ५ ॥ कबीर कूकरु भउकना करंग पिछै उठि धाइ ॥ करमी सतिगुरु पाइआ जिनि हउ लीआ छडाइ ॥२०९॥

मूलम्

महला ५ ॥ कबीर कूकरु भउकना करंग पिछै उठि धाइ ॥ करमी सतिगुरु पाइआ जिनि हउ लीआ छडाइ ॥२०९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कूकरु = कुक्ता। भउकना = भौंकने वाला। करंग = कंकाल, मुरदा। करमी = (प्रभु की) मेहर से। जिनि = जिस (गुरु) ने। हउ = मुझे।209।
अर्थ: हे कबीर! भौंकने वाला (भाव लालच का मारा हुआ) कुक्ता सदा मुरदे की तरफ ही दौड़ता है (इसी तरह विकारों और आशाओं में फसा मनुष्य सदा विकारों और आशाओं की ओर ही दौड़ता है, तभी ये स्मरण से टाल-मटोले करता है)। मुझे परमातमा की मेहर से सतिगुरु मिल गया है, उसने मुझे (इन विकारों और आशाओं के पँजे से) छुड़ा लिया है।209।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: यह शलोक नं: 209 ओर इसके आगे के दो शलोक 210 और 211 गुरु अरजन साहिब जी के हैं, क्योंकि इन तीनों ही शलोकों का शीर्षक ‘महला ५’ है।
शलोक नं: 207 में कबीर जी ने कहा था कि जिनको सतिगुरु मिल जाता है, उनको वह विकारों और आशाओं के चक्करों में से निकाल लेता है। शलोक नं: 208 में कहते हैं कि जिनको गुरु नहीं मिलता, वे प्रभु का स्मरण नहीं कर सकते, और ना ही विकारों और आशाओं से उनकी खलासी हो सकती है। कबीर जी के इसी ही ख्याल को गुरु अरजन साहिब और खोल के बयान करते हैं कि गुरु के बिना ये जीव टाल–मटोल करने पर मजबूर है क्योंकि इसका स्वभाव कुत्ते जैसा है, इस की आदत ही ऐसी है कि हर वक्त मुर्दे के पीछे दौड़ता फिरे। जिस पर प्रभु की अपनी मेहर हो उसको सतिगुरु मिलता है, वही इन विकारों और आशाओं से बचाता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

महला ५ ॥ कबीर धरती साध की तसकर बैसहि गाहि ॥ धरती भारि न बिआपई उन कउ लाहू लाहि ॥२१०॥

मूलम्

महला ५ ॥ कबीर धरती साध की तसकर बैसहि गाहि ॥ धरती भारि न बिआपई उन कउ लाहू लाहि ॥२१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धरती साध की = सतिगुरु की धरती, सतिगुरु की संगति। तसकर = चोर, विकारी लोग। बैसहि = आ बैठते हैं, अगर आ बैठें। गाहि = गहि, पकड़ के, सिदक से, और विचार छोड़ के।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: कई टीकाकार इस शब्द ‘गाहि’ का अर्थ ‘कभी’ करते हैं, और इसको फारसी का शब्द समझते हैं, पर यह गलत है। इस शलोक के हरेक शब्द को ध्यान से पढ़ें, हरेक शब्द हिन्दी = संस्कृत का है। इस्लामी मत का भी यहाँ कोई प्रसंग नहीं हैं सो, बाकी शब्दों की ही तरह ये भी संस्कृत के नजदीक ही है)।

दर्पण-भाषार्थ

भारि = भार से, भार तले, तस्करों के भार तले। न बिआपई = नहीं वयापता, कोई मुश्किल नहीं समझती, असर तले नहीं आती। उन कउ = उन तस्करों को। लाहू = लाह ही, लाभ ही (मिलता है)। लाहि = लहहि, उह तसकर लाभ ही लहहि, वे विकारी बल्कि लाभ ही उठाते हैं
अर्थ: हे कबीर! अगर विकारी मनुष्य (सौभाग्यों से) और आशाएं छोड़ के (और दरवाजे छोड़ के) सतिगुरु की संगति में आ बैठें, तो विकारियों का असर उस संगति पर नहीं पड़ता। हाँ, विकारी लोगों को अवश्य लाभ पहुँचता है, वह विकारी लोग जरूर फायदा उठाते हैं।210।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शलोक नं: 209 वाले ही ख्याल को जारी रखा गया है। विकारी लोगों का जोर गुरु और गुर–संगति पर नहीं पड़ सकता, क्योंकि गुरु महान ऊँचा है। पर हाँ, सतिगुरु और उसकी संगति की इनायत से विकारियों को अवश्य लाभ पहुँचता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

महला ५ ॥ कबीर चावल कारने तुख कउ मुहली लाइ ॥ संगि कुसंगी बैसते तब पूछै धरम राइ ॥२११॥

मूलम्

महला ५ ॥ कबीर चावल कारने तुख कउ मुहली लाइ ॥ संगि कुसंगी बैसते तब पूछै धरम राइ ॥२११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तुख = तोह, चावलों के छिल्के। लाइ = लगती है, बजती है।
अर्थ: हे कबीर! (छिल्कों से) चावल (अलग करने) की खातिर (छड़ने के वक्त) तोहों को मुसली (की चोट) लगती है। इसी तरह जो मनुष्य विकारियों की सोहबति में बैठता है (वह भी विकारों की चोट खाता है, विकार करने लग जाता है) उससे धर्मराज लेखा माँगता है।211।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शलोक नं: 210 में ‘साध की धरती’ और ‘तस्कर’ की मिसाल दे के कबीर जी ने कहा है कि ‘तस्करों’ का असर ‘धरती’ पर नहीं हो सकता। क्यों? इसलिए कि ‘धरती’ का भार ‘तसकरों’ के भार से बहुत ज्यादा है। ‘साध की धरती’ भारी है, बलवान है, इसलिए तस्कर जोर नहीं डाल सकते। अगर भलाई वाला पासा तगड़ा हो, तो वहाँ विकारी व्यक्ति भी आ के भलाई की ओर पलट आते हैं।
नं: 211 में ‘चावल’ और ‘तुख’ की मिसाल है। वज़न में ‘चावल’ भारा है ‘तुख’ हल्का है। ‘तुख’ (तोह, छिल्का) कमजोर होने के कारण मार खाता है; इसी तरह विकारियों के तगड़े समूह में अगर कोई साधारण सा मनुष्य (चाहे वह भला ही हो, पर उनके मुकाबले में कमजोर दिल हो) बैठना शुरू कर दे, तो वह भी उसी स्वभाव वाला बन के विकारों से मार खाता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामा माइआ मोहिआ कहै तिलोचनु मीत ॥ काहे छीपहु छाइलै राम न लावहु चीतु ॥२१२॥

मूलम्

नामा माइआ मोहिआ कहै तिलोचनु मीत ॥ काहे छीपहु छाइलै राम न लावहु चीतु ॥२१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: छीपहु = ठेक रहे हो। छाइलै = रजाईयों के अंबरे।212।
अर्थ: त्रिलोचन कहता है: हे मित्र नामदेव! तू तो माया में फसा हुआ लगता है। ये अंबरे क्यों ठेक रहा है? (रजाईयां चादरें धो-धो के बिछाए जा रहा है, धोबी वाले काम कर रहा है) परमात्मा के (चरणों) से चिक्त क्यों नहीं जोड़ता?।212।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

नामा कहै तिलोचना मुख ते रामु सम्हालि ॥ हाथ पाउ करि कामु सभु चीतु निरंजन नालि ॥२१३॥

मूलम्

नामा कहै तिलोचना मुख ते रामु सम्हालि ॥ हाथ पाउ करि कामु सभु चीतु निरंजन नालि ॥२१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पाउ = पैर। कामु सभु = (घर का) सारा काम काज। निरंजन = अंजन रहित, जिस पर माया की कालिख असर नहीं कर सकती।213।
अर्थ: नामदेव (आगे से) उक्तर देता है: हे त्रिलोचन! मुँह से परमात्मा का नाम ले; हाथ-पैर का इस्तेमाल कर के सारा काम-काज कर, और अपना चिक्त माया-रहित परमात्मा से जोड़।213।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इन दोनों शलोकों को इस लड़ी के विषय में समझने के लिए कबीर जी के शलोक नं: 208 के साथ मिला के पढ़ो, बीच के तीन शलोक गुरु अरजन साहिब के हैं। विकारों और आशाओं के ‘खतु’ फाड़ने के लिए ‘हरि भजन’ करना है, पर इस का भाव यह नहीं है कि दुनिया की मेहनत-कमाई छोड़ देनी है।
नोट: ‘महला ५’ के शलोक सिर्फ तीन थे– नं: 209, 210 और 211। अब फिर कबीर जी के उचारे हुए शलोक हैं, क्योंकि इनका शीर्षक ‘महला ५’ नहीं है।
इन शलोकों में कबीर जी भक्त नामदेव जी और भक्त त्रिलोचन जी की आपस में हुई बातचीत का जिक्र करते हैं। इस बात से ये साबित हुआ कि ये दोनों भक्त कबीर जी से पहले हुए हैं। नामदेव जी बंबई (आज के मुम्बई) प्रांत के जिला सतारा के रहने वाले थे, फिर भी आप इतने प्रसिद्ध हो चुके थे कि बनारस के निवासी कबीर जी इनको जानते थे।
कबीर जी इन शलोकों में नामदेव और त्रिलोचन की आपस में हुई बातचीत का वर्णन करते हैं। ये सारा ख्याल वही है जो नामदेव जी ने खुद रामकली राग के शब्द में दिया है। साथियों के साथ गप्पें मारते हुए एक लड़के का कागज़ की पतंग उड़ाना, मिल के बातें करती लड़कियों का कूएँ से पानी भर के लाना, गाईयों को बछुड़ों से अलग हो के बाहर घास चुगने जाना, माँ का अपने छोटे बच्चे को पालने में सुला के घर के काम–काज में लगना– ये सारे काम–काज करते हुए भी लड़के की तवज्जो पतंग में, लड़कियों की तवज्जो अपने-अपने घड़ों में, हरेक गाय की तवज्जो अपने बछड़े में, और, माँ की तवज्जो अपने बच्चे में होती है। नामदेव जी के उस शब्द का संक्षेप भाव कबीर जी इन दो शलोकों में दे रहे हैं। इससे ये साफ नतीजा निकलता है कि कि कबीर जी के पास नामदेव जी के वह सारे शब्द मौजूद थे। कोई अजीब बात नहीं कि नामदेव जी की सारी ही वाणी कबीर जी के पास हो, क्योंकि दोनों हम–ख्याल थे ओर दोनों ही ब्राहमण के धार्मिक दबाव को तोड़ने की कोशिश कर रहे थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

महला ५ ॥ कबीरा हमरा को नही हम किस हू के नाहि ॥ जिनि इहु रचनु रचाइआ तिस ही माहि समाहि ॥२१४॥

मूलम्

महला ५ ॥ कबीरा हमरा को नही हम किस हू के नाहि ॥ जिनि इहु रचनु रचाइआ तिस ही माहि समाहि ॥२१४॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे कबीर! जिस परमात्मा ने ये रचना रची है, हम तो उसी की याद में टिके रहते हैं, क्योंकि ना कोई हमारा सदा का साथी है और ना ही हम किसी के सदा के लिए साथी बन सकते हैं (बेड़ी के पूर का मेला है)।214।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: यह शलोक भी सतिगुरु अरजन देव जी का है, जैसे कि इसका शीर्षक ‘महला ५’ से स्पष्ट है। कबीर जी के शलोक नं: 213 की व्याख्या के लिए है। जो उक्तर नामदेव जी ने त्रिलोचन जी को दिया था, उसका हवाला दे के कबीर जी कहते हैं कि दुनिया की मेहनत-कमाई नहीं छोड़नी, ये करते हुए ही हमने अपना चिक्त इससे अलग रखना है।
इस शलोक नं: 214 में गुरु अरजन देव जी ने ये बताया है कि साकों–संबन्धियों में रहते हुए और माया में व्यवहार करते हुए हर वक्त यह चेते रखना है कि यह सब कुछ यहाँ सिर्फ चार दिन के साथी हैं, असल साथी परमात्मा का नाम है और काम–काज करते हुए उसको भी हर वक्त याद रखना है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर कीचड़ि आटा गिरि परिआ किछू न आइओ हाथ ॥ पीसत पीसत चाबिआ सोई निबहिआ साथ ॥२१५॥

मूलम्

कबीर कीचड़ि आटा गिरि परिआ किछू न आइओ हाथ ॥ पीसत पीसत चाबिआ सोई निबहिआ साथ ॥२१५॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे कबीर! (कोई औरत जो किसी के घर से आटा पीस के लाई, अपने घर आते हुए रास्ते में ही वह) आटा कीचड़ में गिर गया, उस (बेचारी) के हाथ-पल्ले कुछ ना पड़ा। चक्की पीसते-पीसते जितने दाने उसने चबा लिए, बस! वही उसके काम आया।215।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: परमात्मा का स्मरण करने के लिए दिन के किसी खास समय को या उम्र के किसी खास हिस्से का इन्तजार नहीं करते रहना, स्वभाव ऐसा बनाएं कि हर वक्त हरेक काम–काज में ईश्वर चेते रहे। अगर सारा दिन कार्य–व्यवहार में ईश्वर को बिसार के चोर–बाजारी, ठगी–फरेब करते रहे, और सुबह के वक्त मन्दिर–गुरद्वारे में राम–राम कर आए अथवा इस कमाई में से कुछ दान–पुण्य कर दिया, तो ये उद्यम इस तरह ही समझो जैसे घंटे दो घंटे लगा के पीसा हुआ आटा रास्ते में ही आते हुए कीचड़ में गिर गया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर मनु जानै सभ बात जानत ही अउगनु करै ॥ काहे की कुसलात हाथि दीपु कूए परै ॥२१६॥

मूलम्

कबीर मनु जानै सभ बात जानत ही अउगनु करै ॥ काहे की कुसलात हाथि दीपु कूए परै ॥२१६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कुसलात = कुशलता, सुख। हाथि दीपु = हाथों में दीया (हो)। कूए = कूँए में।
अर्थ: हे कबीर! (जो मनुष्य हर रोज़ धर्म-स्थान पर जा के भजन भक्ति करने के बाद सारा दिन ठगी-फरेब की मेहनत-कमाई करता है, वह इस बात से नावाकिफ नहीं कि ये बुरी बात है, उसका) मन सब कुछ जानता है, पर वह जानता हुआ भी (ठगी की कमाई वाला) पाप करता जाता है। (परमात्मा की भक्ति तो एक जलता हुआ दीपक है जिसने जिंदगी के अंधेरे भरे सफर में मनुष्य को रास्ता दिखाना है, विकारों के कूएँ में गिरने से बचाना है, पर) उस दीए का क्या सुख अगर उस दीए के हमारे हाथ में होते हुए भी हम कूँएं में गिर जाए?।216।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: किसी खास नीयत समय में पूजा–पाठ करके सारा दिन ठगी–धोखे का धंधा करना इस तरह ही है, जैसे चक्की पीस–पीस कर इकट्ठा किया हुआ आटा कीचड़ में गिर जाए; अथवा जैसे रात के समय जलता हुआ दीपक हाथ में पकड़ा हो, दीए की रौशनी होते हुए भी मनुष्य किसी कूँए में जा गिरे।
स्मरण-भजन के साथ-साथ हक की मेहनत-कमाई अति जरूरी है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर लागी प्रीति सुजान सिउ बरजै लोगु अजानु ॥ ता सिउ टूटी किउ बनै जा के जीअ परान ॥२१७॥

मूलम्

कबीर लागी प्रीति सुजान सिउ बरजै लोगु अजानु ॥ ता सिउ टूटी किउ बनै जा के जीअ परान ॥२१७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुजान = समझदार, घट घट के जाने वाला। लागी = लगी हुई। अजानु = अंजान, बेसमझ, मूर्ख। ता सिउ = उस (सुजान प्रभु) से। किउ बनै = कैसे फब जाये? कैसे सुंदर लगे? नहीं फबती, सुंदर नहीं लगती। जीअ = जिंद, प्राण। बरजै = वरजता है, रोकता है।
अर्थ: हे कबीर! (अगर तू ‘चीतु निरंजन नालि’ जोड़ के रखता है तो यह याद रख कि यह) मूर्ख जगत (भाव, साक-संबन्धियों का मोह और ठगी की मेहनत-कमाई) घट-घट के जानने वाले परमात्मा के साथ बनी प्रीति के रास्ते में रुकावट डालता है; (और इस धोखे में आने पर घाटा ही घाटा है, क्योंकि) जिस परमात्मा की दी हुई यह जिंद-जान है उससे विछुड़ी हुई (किसी हालत में भी) यह सुंदर नहीं लग सकती (आसान नहीं रह सकती)।217।

दर्पण-टिप्पनी

इसलिए

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर कोठे मंडप हेतु करि काहे मरहु सवारि ॥ कारजु साढे तीनि हथ घनी त पउने चारि ॥२१८॥

मूलम्

कबीर कोठे मंडप हेतु करि काहे मरहु सवारि ॥ कारजु साढे तीनि हथ घनी त पउने चारि ॥२१८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंडप = शामियाने, महल माड़ियां। हेतु करि = हित कर के, शौक से। सवारि = सजा सजा के। काहे मरहु = क्यों आत्मिक मौत मर रहे हो? कारजु = काम, मतलब, जरूरत। घनी = बहुत, ज्यादा। त = तो।
अर्थ: (प्राण-दाते प्रभु से विछुड़ी जीवात्मा सुखी नहीं रह सकती, ‘ता सिउ टूटी किउ बनै’; इसलिए) हे कबीर! (उस प्राण-दाते को भुला के) घर महल-माढ़ियां बड़े शौक से सजा-सजा के क्यों आत्मिक मौत मर रहे हो? तुम्हारी अपनी जरूरत तो साढ़े तीन हाथ जमीन से पूरी हो रही है (क्योंकि हर रोज सोने के लिए अपने कद के अनुसार तुम इतनी ही जगह बरतते हो), पर अगर (तुम्हारा कद कुछ लंबा है, अगर) तुम्हें कुछ ज्यादा जमीन की जरूरत पड़ती है तो पौने चार हाथ बरत लेते होवोगे।218।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: रोजाना जीवन के धर्म को जबरदस्ती किसी आगे आने वाले समय का धर्म बनाते जाने से मौजूदा जीवन में धर्म का प्रभाव बल्कि कम होता जाता है। कबीर जी हिन्दू थे। मरने पर हिन्दू की लाश जलाई जाती है, जो दो–तीन घंटों में ही जल के राख हो जाती है। साढ़े तीन हाथ तो कहाँ रहे, मसाणों में उसके लिए एक चप्पा जगह भी नहीं रह जाती। सो, कबीर जी मरने के बाद की बातें नहीं बता रहे। पर हमारे टीकाकारों ने साढ़े तीन हाथ जमीन का संबंध मनुष्य के मरने से ही जोड़ा है, जो गलत है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर जो मै चितवउ ना करै किआ मेरे चितवे होइ ॥ अपना चितविआ हरि करै जो मेरे चिति न होइ ॥२१९॥

मूलम्

कबीर जो मै चितवउ ना करै किआ मेरे चितवे होइ ॥ अपना चितविआ हरि करै जो मेरे चिति न होइ ॥२१९॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे कबीर! (‘चीतु निरंजन नालि’ रखने की जगह तू सारा दिन माया की ही सोचें सोचता रहता है, पर तेरे) मेरे सोचें सोचने से कुछ नहीं बनता; परमात्मा वह कुछ नहीं करता जो मैं सोचता हूँ (भाव, जो हम सोचते रहते हैं)। प्रभु वह कुछ करता है जो वह खुद सोचता है, और जो कुछ परमात्मा सोचता है वह हमारे चिक्त-चेते भी नहीं होता।219।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ चिंता भि आपि कराइसी अचिंतु भि आपे देइ ॥ नानक सो सालाहीऐ जि सभना सार करेइ ॥२२०॥

मूलम्

मः ३ ॥ चिंता भि आपि कराइसी अचिंतु भि आपे देइ ॥ नानक सो सालाहीऐ जि सभना सार करेइ ॥२२०॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे कबीर! (जीवों के क्या वश?) प्रभु स्वयं ही जीवों के मन में दुनिया के फिक्र-सोचों से रहित हो जाता है। हे नानक! जो प्रभु सब जीवों की संभाल करता है उसी के गुण गाने चाहिए (भाव, प्रभु के आगे ही अरदास करके दुनिया की फिक्र-सोचों से बचे रहने की दाति माँगें)।220।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस शलोक की शीर्षक है ‘महला ३’ यह गुरु अमरदास जी का लिखा हुआ है। उपरोक्त शलोक के साथ मिला के पढ़ो; साफ दिखता है कि गुरु अमरदास जी ने कबीर जी के शलोक नं: 219 के संबंध में ये शलोक उचारा है। सो, कबीर जी के शलोक गुरु अमरदास जी के पास मौजूद थे। यह साखी गलत है कि भगतों की वाणी गुरु अरजन साहिब ने इकट्ठी की थी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ५ ॥ कबीर रामु न चेतिओ फिरिआ लालच माहि ॥ पाप करंता मरि गइआ अउध पुनी खिन माहि ॥२२१॥

मूलम्

मः ५ ॥ कबीर रामु न चेतिओ फिरिआ लालच माहि ॥ पाप करंता मरि गइआ अउध पुनी खिन माहि ॥२२१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मरि गइआ = आत्मिक मौत मर जाता है, जीवन में गुणों का अभाव ही हो जाता है। अउध = उम्र। पुनी = पुग जाती है, समाप्त हो जाती है। खिन माहि = आँख के फोर में, अचानक ही, आगे विकारों में चिक्त अघाता ही नहीं कि अचानक।
अर्थ: हे कबीर! जो मनुष्य परमात्मा का स्मरण नहीं करता (स्मरण ना करने का नतीजा ही ये निकलता है कि वह दुनिया की सोचें सोचता है, और दुनिया के) लालच में भटकता फिरता है। पाप करते-करते वह (भाग्य-हीन) आत्मिक मौत मर जाता है (उसके अंदर से ऊँचा आत्मिक जीवन खत्म हो जाता है), और विकार करते-करते उसका मन भरता ही नहीं पर अचानक उम्र खत्म हो जाती है।221।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: यह शलोक गुरु अरजन साहिब का है, इसका संबंध भी कबीर जी के शलोक नं: 219 से है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर काइआ काची कारवी केवल काची धातु ॥ साबतु रखहि त राम भजु नाहि त बिनठी बात ॥२२२॥

मूलम्

कबीर काइआ काची कारवी केवल काची धातु ॥ साबतु रखहि त राम भजु नाहि त बिनठी बात ॥२२२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कारवी = करवा, छोटा सा लोटा, कुज्जा। केवल = सिर्फ। धातु = असला। साबतु = (देखो शलोक नं: 185 ‘जा की दिल साबति नही’। ‘साबति’ का अर्थ है ‘पाकीज़गी’, पवित्रता) पवित्र, पाकीज़ा। रखहि = अगर तू रखना चाहे। भजु = स्मरण कर। बिनठी = बिगड़ी, नाश हुई। बात = बातचीत।
अर्थ: हे कबीर! ये शरीर कच्चा लोटा (समझ ले), इसकी अस्लियत केवल कच्ची मिट्टी (मिथ ले)। अगर तू इसको (बाहरी बुरे असरों से) पवित्र रखना चाहता है तो परमात्मा का नाम स्मरण कर, नहीं तो (मनुष्य जन्म की यह) खेल बिगड़ी ही जान ले (भाव, हर हाल में बिगड़ जाएगी)।222।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: पीतल काँसे आदि के बर्तन में कोई चीज़ डाल के रखें तो उस चीज़ का असर बर्तन के पीतल काँसे आदि में नहीं जा सकता। पर अगर कच्ची मिट्टी का बर्तन हो, उसमें रखी चीज़ की सुगंध–दुर्गंध मिट्टी में अपना असर कर जाती है।
मनुष्य का शरीर एक ऐसा बर्तन है जिसकी ज्ञान–इंद्रिय, माने, कच्ची मिट्टी की बनी हुई हैं, जिस कर्म–विकर्म से इनका संबंध पड़ता है, उसका असर ग्रहण कर लेते हैं, तभी शरीर के अंदर बसती जीवात्मा की (जो परमात्मा की अपनी अंश है) ये प्रभु से दूरी करवा देते हैं। इन इन्द्रियों को, इस शरीर को, ‘साबतु’ (पवित्र) रखने का तरीका यही हो सकता है कि ‘अपवित्र’ करने वाले कर्म और पदार्थ इसके नजदीक ना आने दिए जाएं और जीवात्मा को इसके अपने असले प्रभु के बहुत नजदीक रखा जाए।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर केसो केसो कूकीऐ न सोईऐ असार ॥ राति दिवस के कूकने कबहू के सुनै पुकार ॥२२३॥

मूलम्

कबीर केसो केसो कूकीऐ न सोईऐ असार ॥ राति दिवस के कूकने कबहू के सुनै पुकार ॥२२३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: केसो = केशव (केशा: प्रशस्ता: संन्ति अस्य = लंबे केसों वाला) परमात्मा। असार = गाफल होके, बेपरवाही में, विकारों से गाफिल रह के। कबहू के = कभी तो।
अर्थ: हे कबीर! (अगर इस शरीर को विकारों से ‘साबतु रखहि त’) हर वक्त परमात्मा का नाम याद करते रहें, किसी भी वक्त विकारों से बेपरवाह ना होएं। यदि दिन-रात (हर वक्त) परमात्मा को स्मरण करते रहें तो किसी ना किसी वक्त वह प्रभु जीव की अरदास सुन ही लेता है (और इसको आत्मिक मौत मरने से बचा लेता है)।223।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर काइआ कजली बनु भइआ मनु कुंचरु मय मंतु ॥ अंकसु ग्यानु रतनु है खेवटु बिरला संतु ॥२२४॥

मूलम्

कबीर काइआ कजली बनु भइआ मनु कुंचरु मय मंतु ॥ अंकसु ग्यानु रतनु है खेवटु बिरला संतु ॥२२४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काइआ = शरीर। कजली बनु = ऋषीकेश हरिद्वार के नजदीक के एक जंगल का नाम है जहाँ हाथी रहते हैं, सघना जंगल। भइआ = (अगर ‘केसो केसो’ ना कूकें, तो ये शरीर विकार-वृक्षों से भरा हुआ एक जंगल) बन जाता है। कुंचरु = हाथी। मय मंतु = (मद-मत) अपने मद/अहंकाट में ही डुबा हुआ। अंकसु = अंकुश, लोहे का वह कुंडा जिससे हाथी को हाँकते हैं। रतनु = रतन जैसा श्रेष्ठ। खेवटु = चलाने वाला।
अर्थ: हे कबीर! (यदि केशव-केशव ना पुकारें ना कूकें, अगर परमात्मा का स्मरण ना करें तो अनेक विकार हो जाने के कारण) यह मनुष्य का शरीर, मानो, ‘कजली बनु’ बन जाता है जिसमें मन हाथी अपने मद में मस्त हुआ फिरता है। इस हाथी को काबू रखने के लिए गुरु का श्रेष्ठ ज्ञान ही कुंडा बन सकता है, कोई भाग्यशाली गुरमुखि (इस ज्ञान-कुंडे को बरत के मन-हाथी को) चलाने के योग्य होता है।224।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: जब मनुष्य परमातमा की याद भुला बैठता है तो इसी सारी ज्ञान-इंद्रिय विकारों की ओर पलट जाती हैं कामादिक जैसे अनेक विकार प्रकट हो उठते हैं। ऐसे शरीर को एक जंगल समझ लो जिसमें अनेक विकार, मानो, सघन पेड़ हैं)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर राम रतनु मुखु कोथरी पारख आगै खोलि ॥ कोई आइ मिलैगो गाहकी लेगो महगे मोलि ॥२२५॥

मूलम्

कबीर राम रतनु मुखु कोथरी पारख आगै खोलि ॥ कोई आइ मिलैगो गाहकी लेगो महगे मोलि ॥२२५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोथरी = गुत्थी, बटूआ। पारख = परख करने वाला, कद्र कीमत जानने वाला। गाहकी = नाम रतन को खरीदने वाला। महगे मोलि = तगड़ी कीमत दे के।
अर्थ: हे कबीर! परमात्मा का नाम (दुनिया में) सबसे कीमती पदार्थ है, (इस पदार्थ को संभाल के रखने के लिए) अपने मुँह को गुत्थी बना के इस रत्न की कद्र-कीमत जानने वाले किसी (जौहरी) गुरमुखि के आगे ही मुँह खोलना (भाव, सत्संग में प्रभु-नाम की महिमा कर)। जब नाम-रतन की कद्र जानने वाला कोई गाहक सत्संग में आ पहुँचता है तो वह अपना मन गुरु के हवाले कर के नाम-रतन को खरीदता है।225।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: इस काया-जंगल में मन मस्त हुए हाथी की तरह आजाद घूमता है। क्या पशू-पक्षी और क्या मनुष्य, अपनी आजादी हाथ से देनी हरेक के लिए सबसे बड़ी कुर्बानी है; मन की इस स्वतंत्रता के बदले कोई भी चीज़ मोल लेनी महिंगी से महिंगी कीमत देनी है), मन हवाले कर के।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर राम नामु जानिओ नही पालिओ कटकु कुट्मबु ॥ धंधे ही महि मरि गइओ बाहरि भई न ब्मब ॥२२६॥

मूलम्

कबीर राम नामु जानिओ नही पालिओ कटकु कुट्मबु ॥ धंधे ही महि मरि गइओ बाहरि भई न ब्मब ॥२२६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जानिओ नही = (जिस मनुष्य ने) कद्र नहीं जानी। पालिओ = पालता रहा। कटकु = फौज। कटकु कुटंबु = बहुत सारा परिवार। मरि गइओ = आत्मिक मौत मर गया। बाहरि = धंधों से बाहर, (भाव,) धंधों से खाली हो के। बंब = आवाज, खबर। बाहरि भई न बंब = धंधों से निकल के कभी उसके मुँह से राम नाम की आवाज़ भी नहीं निकली।
अर्थ: (पर), हे कबीर! जिस मनुष्य को परमात्मा के नाम-रतन की कद्र नहीं पड़ती, वह (नाम-रतन को बिसार के सारी उम्र) ज्यादा परिवार ही पालता रहता है; दुनिया के धंधों में ही खप-खप के वह मनुष्य आत्मिक मौत मर जाता है, इन झंझटों में से निकल के कभी उसके मुँह से राम-नाम की आवाज़ नहीं निकलती (ना ही इन झंझटों में से उसे कभी वक्त मिलता है, और ना वह कभी परमात्मा के नाम को मुँह से उचारता है)।226।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर आखी केरे माटुके पलु पलु गई बिहाइ ॥ मनु जंजालु न छोडई जम दीआ दमामा आइ ॥२२७॥

मूलम्

कबीर आखी केरे माटुके पलु पलु गई बिहाइ ॥ मनु जंजालु न छोडई जम दीआ दमामा आइ ॥२२७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: केरे = के। माटुके = पलकों की झपकना। आखी केरे माटुके = आँखों के झपकने जितना समय। गई बिहाइ = (उम्र) बीत जाती है। दमामा = नगारा। आइ दीआ = आ के बजा देता है।
अर्थ: हे कबीर! (उस बद्नसीब का हाल देख जो प्रभु-नाम की कद्र-कीमत ना जानता हुआ सारी उम्र कुटंब पालने में ही गुजारता है और कभी भी प्रभु-नाम मुँह से नहीं उचारता! थोड़ी-थोड़ी करके पता ही नहीं चलता कब) उसकी उम्र आँखों के झपकने जितने समय और पल-पल करके बीत जाती है; फिर भी उसका मन (परिवार का) जंजाल नहीं छोड़ता, आखिर, जम मौत का नगारा आ बजाते हैं।227।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर तरवर रूपी रामु है फल रूपी बैरागु ॥ छाइआ रूपी साधु है जिनि तजिआ बादु बिबादु ॥२२८॥

मूलम्

कबीर तरवर रूपी रामु है फल रूपी बैरागु ॥ छाइआ रूपी साधु है जिनि तजिआ बादु बिबादु ॥२२८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तरवर = तर+वर, सुंदर वृक्ष। तर = वृक्ष। बैरागु = निरमोहता। छाइआ = छाया। जिनि = जिस (साधु = गुरमुखि) ने। बादु बिबादु = वाद विवाद, झगड़ा, माया का झमेला।
अर्थ: हे कबीर! (विकारों की तपश से तप रहे इस संसार में) प्रभु का नाम एक सुंदर वृक्ष है। जिस मनुष्य ने (अपने अंदर से इन विकारों का) झगड़ा खत्म कर दिया है वह गुरमुखि इस वृक्ष की, मानो, छाया है। (जो भाग्यशाली व्यक्ति उस तपश से बचने के लिए इस छाया का आसरा लेता है उसको) वैराग-रूप फल (हासिल होता) है।228।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ऐसा प्रतीत होता है जैसे कबीर जी की आँखों के सामने अपने वतन की गर्मी की ऋतु का नक्शा आया खड़ा है। तपश पड़ रही है, एक मुसाफिर दूर से एक सुंदर सघन छाया वाले वृक्ष आम को देख के उसका आसरा आ लेता है। इस छाया का आसरा लेने पर उसकी तपश भी मिटती है और उसको पेड़ से पका हुआ फल भी मिलता है जिससे वह अपनी भूख भी दूर करता है।
विकारों की तपश से तप रहे इस जगत में परमात्मा का नाम, मानो, एक सुंदर वृक्ष है; गुरमुखि संत–जन इस वृक्ष की ठंडी–मीठी छाया हैं। जो मनुष्य गुरमुखि की संगति करता है, विकारों की तपश से बचने के लिए गुरमुखि की संगति का सहारा लेता है, उसके अंदर ठंड पड़ जाती है, और उसको वैराग की दाति मिलती है जिसकी इनायत से वह माया से तृप्त हो जाता है। पर साधु गुरमुखि वह है जिसने माया के जंजाल को त्यागा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर ऐसा बीजु बोइ बारह मास फलंत ॥ सीतल छाइआ गहिर फल पंखी केल करंत ॥२२९॥

मूलम्

कबीर ऐसा बीजु बोइ बारह मास फलंत ॥ सीतल छाइआ गहिर फल पंखी केल करंत ॥२२९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बारह मास = बारह महीने, सदा ही। फलंत = फल देता है। सीतल = ठंडी, ठंड देने वाली, शांति बख्शने वाली। छाइआ = छाया, आसरा। गहिर = गंभीरता, अडोलता, वैराग। पंखी = (भाव, तेरे) ज्ञान इन्द्रिय। केल = आनंद।229।
अर्थ: हे कबीर! (‘जिनि तजिआ बादु बिबादु’ उस ‘साधु’ की संगति में रह के तू भी अपने हृदय की धरती में परमात्मा के नाम का) एक ऐसा बीज बो जो सदा ही फल देता रहता है; उसका असर लें तो अंदर ठंड पड़ती है, फल मिलता है कि दुनिया के ‘बाद बिबाद’ से मन ठहर जाता है, और सारी ज्ञान-इंद्रिय (जो पहले पक्षियों की तरह जगह-जगह पर चोग के लिए भटकती थीं, अब प्रभु के नाम का) आनंद लेती हैं।229।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर दाता तरवरु दया फलु उपकारी जीवंत ॥ पंखी चले दिसावरी बिरखा सुफल फलंत ॥२३०॥

मूलम्

कबीर दाता तरवरु दया फलु उपकारी जीवंत ॥ पंखी चले दिसावरी बिरखा सुफल फलंत ॥२३०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दाता = प्रभु के नाम की दाति करने वाला। दया = जीवों से प्यार। उपकारी जीवंत = जो उपकार करने में ही जीता है, जो सारा जीवन उपकार में ही गुजारता है। पंखी = इस जगत-वृक्ष के पंछी, सारे जीव। दिसावरी = दिशा अवर, और-और दिशाओं को, और-और तरफ, और-और धंधों में। बिरखा = ‘नाम’ देने वाला पेड़ (साधु)। सुफल फलंत = ‘दया’ की सुंदर दाति ही करता रहता है, सबको यही सिखाता रहता है कि सभ जीवों के साथ प्यार करो। सुफल = सु+फल, सुंदर फल।230।
अर्थ: हे कबीर! (‘जिनि तजिआ बादु बिबादु’) वह ‘साधु’ अपनी सारी उम्र परोपकार में ही गुजारता है; प्रभु के नाम की दाति देने वाला वह ‘साधु’ विकारों में तपते सारे इस संसार के लिए, मानो, एक सुंदर वृक्ष है, उससे ‘जीव दया’ की दाति प्राप्त होती है। संसारी जीव तो और-और धंधों में व्यस्त रहते हैं, पर गुरमुखि ‘साधु’ सदा यही शिक्षा देता रहता है कि सबके साथ दया-प्यार करो।230।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर साधू संगु परापती लिखिआ होइ लिलाट ॥ मुकति पदारथु पाईऐ ठाक न अवघट घाट ॥२३१॥

मूलम्

कबीर साधू संगु परापती लिखिआ होइ लिलाट ॥ मुकति पदारथु पाईऐ ठाक न अवघट घाट ॥२३१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साधू संगु = (‘जिनि तजिआ बादु बिबादु’ उस) साधु की सुहबति। लिलाट = माथा। लिखिआ होइ लिलाट = अगर माथे पर लेख लिखा हो, यदि अच्छे भाग्य हों। मुकति = ‘बाद बिबाद’ से खलासी। ठाक = रोक। अवघट घाट = मुश्किल पहाड़ी रास्ता।231।
अर्थ: हे कबीर! ‘जिनि तजिआ बादु बिबादु’ उस साधु-गुरमुखि की संगति उस मनुष्य को प्राप्त होती है जिसके बहुत अच्छे भाग्य हों। उसकी संगति से फल ये मिलता है कि दुनिया के ‘बाद-बिबाद’ से मुक्ति मिल जाती है, कोई भी विकार इस मुश्किल सफर के रास्ते में रोक नहीं डालता।231।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: दुनिया के ‘बाद बिबाद’ से बच के रहने की कोशिश करनी ऐसे है जैसे किसी ऊँची पहाड़ी पर चढ़ना)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर एक घड़ी आधी घरी आधी हूं ते आध ॥ भगतन सेती गोसटे जो कीने सो लाभ ॥२३२॥

मूलम्

कबीर एक घड़ी आधी घरी आधी हूं ते आध ॥ भगतन सेती गोसटे जो कीने सो लाभ ॥२३२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गोसटे = गोष्ठी, बातचीत, मिलाप। कीने = किया जाए।232।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: शब्द ‘गोष्ठि के दो अर्थ हैं: 1. चर्चा, बहस, बातचीत और 2. मिलाप, संगति। जैसे ‘सिध गोसटि’ = 1. सिद्धों से बहस, 2. परमात्मा से मिलाप। देखो मेरा टीका ‘सिध गोसटि’)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे कबीर! (चुँकि दुनिया के ‘बाद बिबाद’ से मुक्ति साधु की संगति करने से ही मिलती है, इसलिए) एक घड़ी, आधी घड़ी, घड़ी का चौथा हिस्सा- जितना समय भी गुरमुखों की संगति की जाए, इससे (आत्मिक जीवन में) फायदा ही फायदा है।232।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर भांग माछुली सुरा पानि जो जो प्रानी खांहि ॥ तीरथ बरत नेम कीए ते सभै रसातलि जांहि ॥२३३॥

मूलम्

कबीर भांग माछुली सुरा पानि जो जो प्रानी खांहि ॥ तीरथ बरत नेम कीए ते सभै रसातलि जांहि ॥२३३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भांग = भांग (नशे की वस्तु)। माछुली = मछली। सुरा = शराब। पान = पीना। पानि = पीने वाला (जैसे, ‘धन’ से ‘धनि’ = धन वाला; ‘गुण’ से ‘गुणि’ = गुण वाला)। खांहि = खाते हैं। ते सभै = वह सारे ही (तीर्थ यात्रा व्रत नेम आदि)। रसातलि जांहि = गर्क जाते हैं, उनसे कोई रक्ती भर लाभ नहीं होता।233।
अर्थ: हे कबीर! अगर लोग ‘भगतन सेती गोसटे’ कर के तीर्थ-यात्रा व्रत नेम आदि भी करते हैं और वह शराबी लोग भांग-मछली भी खाते हैं (भाव, सत्संग में भी जाते हैं और शराब-कबाब भी खाते-पीते हैं, विकार भी करते हैं) उनके वह तीर्थ-व्रत आदि वाले सारे कर्म बिल्कुल व्यर्थ जाते हैं।233।

दर्पण-टिप्पनी

उपरोक्त सारी तुक का गद्य (Prose Order) इस प्रकार है: ‘जो जो सुरापानि प्रानी भांग माछुली खांहि’।
नोट: शलोक नं: 228 से एक नया ख्याल आरम्भ हुआ है। जगत में ‘बाद बिबाद’ की तपश पड़ रही है, जीव तड़प रहे हैं। परमात्मा का नाम यहाँ एक खूबसूरत वृक्ष है। जिस विरले भाग्यशाली गुरमुखों ने दुनिया का यह ‘बादु बिबादु तजिआ’ है, वे इस वृक्ष की ठंडी छाया हैं। इस छाया का आसरा लेने से, साधु–गुरमुखों की संगति करने से इस ‘बाद बिबाद’ से खलासी हो जाती है, इससे ‘वैराग’ प्राप्त हो जाता है।
पर दुनियां में एक अजीब खेल हो रही है। लोग सवेरे के वक्त धर्म–स्थान में भी आते हैं, व्रत आदि भी रखते हैं, और कई किस्म के नियम भी निभाते हैं; पर, इन सबके साथ-साथ विकार भी करते जाते हैं। कबीर जी यहाँ कहते हैं कि ‘साधु’ की संगति करने का भाव यह नहीं है कि जितना समय सत्संग में बैठो, उतने समय ‘राम–राम’ किए जाओ, वहाँ से आओ तो विकारों में भी हिस्सा लिए जाओ। यह तीर्थ–यात्रा, व्रत नेम सभ निष्फल जाते हैं अगर मनुष्य विकारी जीवन से नहीं पलटता।
(नोट: पिछले शलोक में जिकर है कि ‘भगतन सेती गोसटे’ से आ के शराब-मास आदि में लगा रहे, तो वह किया हुआ सत्संग और वहाँ लिए हुए प्रण (-व्रत) सभ व्यर्थ जाते हैं)।
नोट: कई सज्जन शब्द ‘पानि’ का अर्थ ‘पान का पक्ता’ करते हैं। यह ग़लत है। वाणी में जहाँ भी वह शब्द है उसका जोड़ ‘पान’ है; जैसे:
‘पान सुपारी खातीआं मुखि बीड़ीआ लाईआ’॥
शब्द ‘भांग माछुली और सुरा’ से भाव यह नहीं लेना कि कबीर जी सिर्फ भांग और शराब से रोकते हैं, और पोस्त–अफीम की मनाही नहीं करते। इसी तरह ये बात भी नहीं कि यहाँ मछली का मास खाने से रोक रहे हैं। सारे प्रसंग को मिला के पढ़ो। सत्संग भी करना और विकार भी किए जाने– कबीर जी इस काम से वरजते हैं। कामी लोग आम तौर पर शराब मास बर्त के काम-वासना व्यभचार में प्रवृक्त होते हैं; और; मछली का मास चुँकि काम–रुचि पैदा करने में प्रसिद्ध है, इस वास्ते कबीर जी ने शराब भांग मछली शब्दों का प्रयोग किया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नीचे लोइन करि रहउ ले साजन घट माहि ॥ सभ रस खेलउ पीअ सउ किसी लखावउ नाहि ॥२३४॥

मूलम्

नीचे लोइन करि रहउ ले साजन घट माहि ॥ सभ रस खेलउ पीअ सउ किसी लखावउ नाहि ॥२३४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लोइन = आँखें। करि रहउ = मैं करी रखती हूँ। साजन = प्यारे पति प्रभु को। घट माहि ले = हृदय में संभाल के। पीअ सउ = प्यारे प्रभु से। खेलउ = मैं खेलती हूँ। लखावउ नाहि = मैं बताती नहीं।234।
अर्थ: (हे मेरी सत्संगी सहेलिए! जब से मुझे ‘साधु संगु परापती’ हुई है, मैं ‘भगतन सेती गोसटे’ ही करती हूँ, इस ‘साधु संग’ की इनायत से) प्यारे प्रभु-पति को अपने हृदय में संभाल के (इन ‘भांग माछुली सुरा’ आदि विकारों से) मैं अपनी आँखें नीची किए रखती हूँ, (दुनिया के इन रसों से खेल खेलने की जगह) मैं प्रभु-पति के साथ सारे रंग भोगती हूँ; पर मैं (यह भेद) किसी को नहीं बताती।234।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आठ जाम चउसठि घरी तुअ निरखत रहै जीउ ॥ नीचे लोइन किउ करउ सभ घट देखउ पीउ ॥२३५॥

मूलम्

आठ जाम चउसठि घरी तुअ निरखत रहै जीउ ॥ नीचे लोइन किउ करउ सभ घट देखउ पीउ ॥२३५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जाम = पहर। आठ जाम = आठ पहर।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: दिन रात के कुल आठ पहर होते हैं), दिन रात, हर वक्त। चउसठि घरी–चौंसठ घड़ियां (नोट: एक पहर की आठ घड़ियां होती हैं, चौंसठ घड़ियों के आठ पहर, रात दिन, हर वक्त)।

दर्पण-भाषार्थ

तुअ = (सं: त्वा, तुआं) तुझे। निरखत रहै = देखती रहती है। जीउ = मेरी जिंद। नीचे…करउ = मैं किसी जीव से आँखें नीची क्यों करूँ? मैं किसी भी जीव से अब नफरत नहीं करती।235।
अर्थ: (हे सखी! मैं सिर्फ प्रभु-पति को ही कहती हूँ कि हे पति!) आठों पहर हर घड़ी मेरी जीवात्मा तुझे ही देखती रहती है। (हे सखी!) मैं सभ शरीरों में प्रभु-पति को ही देखती हूं, इसलिए मुझे किसी प्राणी-मात्र से नफ़रत नहीं है।235।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनु सखी पीअ महि जीउ बसै जीअ महि बसै कि पीउ ॥ जीउ पीउ बूझउ नही घट महि जीउ कि पीउ ॥२३६॥

मूलम्

सुनु सखी पीअ महि जीउ बसै जीअ महि बसै कि पीउ ॥ जीउ पीउ बूझउ नही घट महि जीउ कि पीउ ॥२३६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुन सखी = हे मेरी सहेलिए! सुन। पीअ महि = प्यारे प्रभु पति में। जीउ = जिंद, जीवात्मा। जीअ महि = जिंद में। कि = अथवा। बूझउ नही = हे सखी! तू नहीं समझ सकती।236।
अर्थ: हे सहेलिए! (‘साधु संग’ की इनायत से मेरे अंदर एक आश्चर्यजनक खेल बन गई है, मुझे अब ये पता नहीं लगता कि) मेरी जिंद प्रभु-पति में बस रही है या जिंद में प्यारा आ बसा है। हे सहेलिए! तू अब ये समझ ही नहीं सकती कि मेरे अंदर मेरी जिंद है या मेरा प्यारा प्रभु-पति।236।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर बामनु गुरू है जगत का भगतन का गुरु नाहि ॥ अरझि उरझि कै पचि मूआ चारउ बेदहु माहि ॥२३७॥

मूलम्

कबीर बामनु गुरू है जगत का भगतन का गुरु नाहि ॥ अरझि उरझि कै पचि मूआ चारउ बेदहु माहि ॥२३७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अरझि = फस के। उरझि = उलझ के। पचि = ख्वार हो के। मूआ = मर गया है, आत्मिक मौत मर गया है, उसकी जिंद प्रभु मिलाप का जीवन नहीं जी सकी।
अर्थ: पर, हे कबीर! (कह: मुझे जो यह जीवन-दाति मिली है, जीवन-दाते सतिगुरु से मिली है जो स्वयं भी नाम का रसिया है; जनेऊ आदि दे के और कर्मकांड का रास्ता बता के) ब्राहमण सिर्फ दुनियादारों का ही गुरु कहलवा सकता है, भक्ति करने वालों का उपदेश-दाता ब्राहमण नहीं बन सकता, क्योंकि यह तो आप ही चारों वेदों के यज्ञ आदि कर्मकांड की उलझनों को सोच-सोच के इन में ही खप-खप के आत्मिक मौत मर चुका है (इसकी अपनी ही जिंद प्रभु-मिलाप का आनंद नहीं ले सकी, ये भगतों को वह स्वाद कैसे दे सकता है?)।237।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि है खांडु रेतु महि बिखरी हाथी चुनी न जाइ ॥ कहि कबीर गुरि भली बुझाई कीटी होइ कै खाइ ॥२३८॥

मूलम्

हरि है खांडु रेतु महि बिखरी हाथी चुनी न जाइ ॥ कहि कबीर गुरि भली बुझाई कीटी होइ कै खाइ ॥२३८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रेतु महि = रेत में।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: शब्द ‘रेतु’ सदा उकारांत ‘ु’ मात्रा के साथ अंत होता है वैसे ये स्त्रीलिंग है। इस शब्द का ये आखिरी ‘ु’ भी टिका रहता है)।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हाथी = हाथी से। कहि = कहे, कहता है। गुरि = गुरु ने। भली बुझाई = अच्छी मति दी है। कीटी = कीड़ी। होइ कै = बन के। खाइ = खा सकता है।
अर्थ: परमात्मा का नाम, मानो, खंड है जो रेत में बिखरी हुई है, हाथी से ये खंड रेत में से चुनी नहीं जा सकती। कबीर कहता है: पूरे सतिगुरु ने यह भली मति दी है कि मनुष्य कीड़ी बन के यह खंड खा सकता है।238।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: विनम्रता गरीबी की दाति ब्राहमण से नहीं मिल सकती, क्योंकि उसके कर्मकांड ने तो सिर्फ यह सिखाना है कि फलाना कर्म करने से अवश्य फलाना फल मिल जाएगा। ‘गरीबी’ की उसकी शिक्षा में जगह ही नहीं है, क्योंकि ‘गरीबी’ किसी कर्मकांड का हिस्सा नहीं है। ये कर्मकांड बल्कि अहंकार पैदा करते हैं क्योंकि इससे ये यकीन बनता है कि इसके करने से फल अवश्य मिलना है। पर परमात्मा का स्मरण गरीबी स्वभाव के बिना हो ही नहीं सकता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर जउ तुहि साध पिरम की सीसु काटि करि गोइ ॥ खेलत खेलत हाल करि जो किछु होइ त होइ ॥२३९॥

मूलम्

कबीर जउ तुहि साध पिरम की सीसु काटि करि गोइ ॥ खेलत खेलत हाल करि जो किछु होइ त होइ ॥२३९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तुहि = तुझे। साध = तमन्ना, चाह। पिरंम = प्रेम। गोइ = गेंद। हाल करि = मस्त हो जा। त होइ = होता रहे।239।
अर्थ: हे कबीर! अगर तुझे प्रभु-प्यार की खेल खेलने की चाहत है, तो अपना सिर काट के गेंद बना ले (इस तरह अहंकार दूर कर कि लोग बेशक ठोकरें मारें ‘कबीर रोड़ा होइ रहु बाट का, तजि मन का अभिमानु’) यह खेल खेलता-खेलता इतना मस्त हो जा कि (दुनिया की ओर से) जो (सलूक तेरे साथ) हो वह होता रहे।239।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: नौशाहीऐ फकीर ‘हाल’ खेलते हैं, और मस्त हो जाते हैं)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर जउ तुहि साध पिरम की पाके सेती खेलु ॥ काची सरसउं पेलि कै ना खलि भई न तेलु ॥२४०॥

मूलम्

कबीर जउ तुहि साध पिरम की पाके सेती खेलु ॥ काची सरसउं पेलि कै ना खलि भई न तेलु ॥२४०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पाके सेती = पक्के (गुरु) से, पूरे सतिगुरु की शरण पड़ के। पेलि कै = पीढ़ के।240।
अर्थ: पर, हे कबीर! अगर तुझे प्रभु-प्यार की ये खेल खेलने की उमंग है तो पूरे सतिगुरु की शरण पड़ के खेल; (कर्मकांडी ब्राहमण के पास यह चीज नहीं है)। कच्ची सरसों पीढ़ने से ना तेल निकलता है और ना ही खाल बनती है (यही हाल जनेऊ आदि दे के बने कच्चे गुरूओं का है)।240।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ढूंढत डोलहि अंध गति अरु चीनत नाही संत ॥ कहि नामा किउ पाईऐ बिनु भगतहु भगवंतु ॥२४१॥

मूलम्

ढूंढत डोलहि अंध गति अरु चीनत नाही संत ॥ कहि नामा किउ पाईऐ बिनु भगतहु भगवंतु ॥२४१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: डोलहि = डोलते हैं, भटकते हैं, टटौले मारते हैं। गति = हालत, हाल। अंध गति = जैसे अंधों की हालत होती है, अंधों की तरह। अरु = और। चीन्त नाही = चीन्हत नाही, पहचानते नहीं। कहि = कहे, कहता है। किउ पाईऐ = नहीं मिल सकता। बिनु भगतहु = भक्ति करने वालों की (संगति) के बिना। भगवंतु = भगवान, परमात्मा।
अर्थ: नामदेव कहता है कि भक्ति करने वाले लोगों (की संगति) के बिना भगवान नहीं मिल सकता; जो मनुष्य (प्रभु की) तलाश करते हैं, पर भक्त-जनों को पहचान नहीं सकते वह अंधों की तरह ही टटोलते रहते हैं।241।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि सो हीरा छाडि कै करहि आन की आस ॥ ते नर दोजक जाहिगे सति भाखै रविदास ॥२४२॥

मूलम्

हरि सो हीरा छाडि कै करहि आन की आस ॥ ते नर दोजक जाहिगे सति भाखै रविदास ॥२४२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सो = जैसा। करहि = करते हैं। आन = अन्य। दोजक = नर्क, वह जगह जहाँ जीवों को दुख ही दुख भोगने पड़ते हैं। जाहिगे = (भाव,) जाते हैं, पड़ते हैं। दोजक जाहिगे = दोजकों में पड़ते हैं, दुख ही दुख भोगते हैं। सति = सच, सही बात। भाखै = कहता है।
अर्थ: (सारे सुख प्रभु के स्मरण में हैं, पर) जो मनुष्य परमात्मा का नाम-हीरा छोड़ के और-और जगहों से सुखों की आस रखते हैं वे लोग सदा दुख ही सहते हैं: ये सच्ची बात रविदास बताता है।242।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: भक्त नामदेव जी और भक्त रविदास जी के कोई शलोक नहीं हैं, सिर्फ शब्द हैं। जैसे शलोक नं: 212 और 213 हैं तो कबीर जी के अपने उचारे हुए, वैसे ही शलोक नं241 और 242 भी कबीर जी के अपने ही हैं। कबीर जी कहते हैं कि हमने उनकी वाणी पढ़ के देखी है वह भी हमारे साथ ही सहमति रखते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबीर जउ ग्रिहु करहि त धरमु करु नाही त करु बैरागु ॥ बैरागी बंधनु करै ता को बडो अभागु ॥२४३॥

मूलम्

कबीर जउ ग्रिहु करहि त धरमु करु नाही त करु बैरागु ॥ बैरागी बंधनु करै ता को बडो अभागु ॥२४३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जउ = अगर। ग्रिहु करहि = तू घर बनाता है, तू गृहस्थी बनता है। त = तो। धरमु = फर्ज, घर बारी वाला फर्ज।
अर्थ: हे कबीर! अगर तू घर-बारी बनता है तो घर-बारी वाला फर्ज भी निभा (भाव, प्रभु का स्मरण कर, विकारों से बचा रह और किसी से नफरत ना कर। पर गृहस्थी में रह के) अगर तूने माया में ग़रके रहना है तो इसको त्यागना ही भला है। त्यागी बन के जो मनुष्य फिर भी साथ-साथ माया का जंजाल सहेड़ता है उसके बहुत दुभाग्य समझो (वह किसी जगह के लायक नहीं रहा)।243।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: गृहस्थी के लिए वह कौन सा ‘धर्म’ है जिसकी तरफ इस आखिरी शलोक में इशारा है?)
शलोक नं: 228 से ले कर 242 तक ध्यान से पढ़िए। एक ही ख्याल की सुंदर कड़ी चली आ रही है कि विकारों और वाद–विवाद की तपश में जलते इस संसार के अंदर परमात्मा का नाम ही सुंदर छाया वाला वृक्ष है। ये नाम कर्मकांडी ब्राहमण से नहीं मिल सकता, इसकी प्राप्ति केवल ‘साधु संग’ से ही है, पूरे गुरु से ही है। शलोक नं: 242 में सारी विचार को समेटते हैं और रविदास जी के विचारों का हवाला देकर कहते हैं कि यदि विकारों और वाद–विवाद की दोज़ख की तपश से बचना है तो परमात्मा का नाम ही स्मरण करो। बस! यही है गृहस्थी का ‘धर्म’।
अगर इस शलोकों को पिछली तरफ से पढ़ना शुरू कर दें, तो इस ‘धर्म’ की प्रौढ़ता के लिए शलोक नं: 234, 235 और 236 पर नजर आ टिकेगी। नं: 237 से 241 तक सिर्फ इस बात पर जोर है कि यह ‘धर्म’, यह आत्मिक जीवन, तपश दूर करने वाला यह साधन, कर्मकांडी ब्राहमण से नहीं मिलता, सिर्फ पूरे गुरु से ही मिल सकता है। नं: 234, 235 और 236 में इस ‘धर्म’ का फैसला यूँ किया है कि मेहनत-कमाई के साथ-साथ प्रभु का नाम स्मरण करो, इस नाम-जपने की इनायत से विकारों की तपश से बचे रहोगे और किसी प्राणी–मात्र से नफरत नहीं रहेगी।
शलोक नं: 192 में तो कबीर जी खुले शब्दों में ‘घर’ का ‘धर्म’ बता आए हैं;
कबीर जा घर साध न सेवीअहि, हरि की सेवा नाहि॥ ते घर मरहट सारखे, भूत बसहि तिन माहि॥१९२॥
(सो, गृहस्थ का धरम है भलों की सेवा और प्रभु की बँदगी)। बैरागु–त्याग। अभागु–बद किस्मती।
नोट: कबीर जी इन्सानी जीवन को दो हिस्सों में नहीं बाँट रहे। गृहस्थी–जीवन के ही हक में हैं, पर वे गृहस्थी नहीं जो दातार को बिसार के उसकी दातों में ही अंधा हुआ रहे। कबीर जी कहते हैं कि विकारों में ग़रके रहने से, सिर्फ विकारी जीवन से, ‘त्याग’ बेहतर है। गृहस्थी के विकारी जीवन और त्याग का मुकाबला करते हुए इन दोनों में से ‘त्याग’ को ही अच्छा कह रहे हैं; पर उस त्याग में पूण त्याग हो, पाखण्ड ना हो।
नोट: सबसे पहले शलोक नं: 1 में कबीर जी ने ये कहा है कि जब से संसार बना है इन्सान के लिए सुख और शांती का साधन सिर्फ हरि-नाम ही चला आ रहा है, यही कारण है कि आदि काल से भक्त–जन हरि-नाम ही स्मरण करते आ रहे हैं। आखिर में आ के शलोक नं: 243 में कबीर जी ने ये मोहर लगा दी और फैसला दे दिया है कि बस! हरि-नाम ही गृहस्थी का मुख्य ‘धर्म’ है, यदि ‘हरि-नाम’ को बिसार के सांसारिक भोगों और विकारों से मनुष्य सुख तलाशता है तो यह इसका कमला–पन है। मनुष्य के लिए घर–बारी जीवन जिंदगी का सही रास्ता है, पर वह भी तब ही, अगर इसमें हरि-नाम स्मरण करे; वरना जीवन गंदा कर लेने से बढ़िया है घर–बार छोड़ दे।
पाठकों के लिए ये बात जान लेनी मजेदार होगी कि जिस ख्याल से शलोकों को कबीर जी ने शुरू किया है वहीं आ के खत्म किया है। सारे ही शलोकों में एक ही विषय-वस्तु ‘हरि नाम का स्मरण’ के ऊपर उसके अलग-अलग पहलुओं को ले के विचार की गई है। सो, यह कहना बिल्कुल ही ग़लत है कि ये शलोक अलग-अलग विचारों वाले हैं और इनमें कोई मिला हुआ बँधा हुआ भाव नहीं है।

दर्पण-शीर्षक

सलोक शेख फरीद के॥

दर्पण-टिप्पनी

जान–पहचान

दर्पण-शीर्षक

टीका कब लिखा?

दर्पण-टिप्पनी

बाबा फरीद जी के सारे शलोक का टीका मैंने दिसंबर 1942 में लिखा था, और जुलाई 1944 में इसको छपवाना शुरू किया। पर 20 सफे ही छपे थे कि काम वहीं पर अटक गया। उसके बाद मेरा ख्याल बना कि अब इन शलोकों को सारी भगतों की वाणी के टीके के साथ मिला के ही छापा जाए। भक्त-वाणी का टीका मैंने सितंबर 1945 में खतम किया। कबीर जी के शलोक रह गए।
टीका लिखने का अवसर:
गुरु नानक खालसा कालेज गुजरांवाले से फ़ारक हो के खालसा कालिज अमृतसर में मुझे नवंबर 1929 में नौकरी मिल गई। एफ.ए. की कक्षा के विद्यार्थियों की गिनती बहुत ज्यादा होने के कारण धार्मिक विषय की पढ़ाई के लिए उनके दो-दो सेक्शन बनाए होते थे। एक-एक सेक्शन की धार्मिक पढ़ाई मुझे दी गई, और एक-एक सेक्शन को सरदार जोध सिंघ पढ़ाया करते थे। बी.ऐ. की कक्षाओं को धार्मिक विषय वही पढ़ाते थे। इस विषय के मुख्य अध्यापक वही थे।
संन् 1936 में वे कालेज के प्रिंसीपल बन गए। उनको सारा वक्त दफतर और अन्य जिंमेवारियों की तरफ देना पड़ गया। इसलिए बी.ऐ. की कक्षा का धार्मिक विषय भी मेरे सुपुर्द किया गया। बी.ऐ. की कक्षा में और बाणियों के अलावा फरीद जी के शलोक भी पढ़ाए जाते थे। मैंने इन शलोकों का ज़बानी याद करना शुरू कर दिया।

दर्पण-शीर्षक

एक अनोखी मुश्किल और उसका हल:

दर्पण-टिप्पनी

श्री गुरु ग्रंथ साहिब की वाणी की बोली के व्याकरण की पहली झलक मुझे दिसंबर 1920 में नसीब हुई थी। तब से ही मैं सारी वाणी को उस वयाकरण के अनुसार ही विचारने का प्रयत्न करता आ रहा था। सारा व्याकरण भी 1932 में मुकम्मल तौर पर मैं लिखती रूप में ला सका था। विद्यार्थों को वाणी पढ़ाने के वक्त थोड़ा व्याकरण भी समझा दिया करता था, इस तरह वाणी को समझने की दिशा में उनकी रुचि बढ़ती थी।
फरीद जी के शलोक पढ़ाने के वक्त शलोक नं: 43 मेरे राह में बहुत सारी रुकावट डालता था। टीकाकार ने उसकी पहली तुक इस प्रकार लिखी हुई थी;
‘कंधि कुहाड़ा सिरि घड़ा, वणि कै सरु लोहारु॥’
इसके अर्थ उन्होंने लिखे हुए थे– ‘वण के सिर पर लोहार (खड़ा है’)। गुरबाणी व्याकरण के अनुसार ना ही यह पाठ मुझे जचता था, और ना ही इसके लिखे हुए अर्थ। पर मुझे खुद को कुछ नहीं सूझ रहा था। मैं विद्यार्थियों को अपनी ये मुश्किल साफ कह देता था।
सन 1938 की गर्मी की छुट्टियों में कुछ दिनों के लिए मैं शिमला गया, वहाँ मेरा बड़ा बेटा करतार सिंह नौकरी करता था। फरीद जी के शलोक मुझे ज़बानी याद हो चुके हुए हैं। रोज़ सवेरे मैं उनका पाठ ज़बानी किया करता था। एक दिन पाठ करते हुए शलोक नं: 43 का पाठ अपने आप मेरे मुँह से निकला, ‘वणि कैसरु लोहारु’। मेरी आँखे खल गई। मेरी आदत बन चुकी है कि पाठ करने के वक्त तकरीबन हरेक शब्द का व्याकर्णि्क जोड़ मेरे सामने आया रहता है। ये नया पाठ मुँह से निकला, कि अर्थ भी खुल गए। मैं स्कूल में चौथी कक्षा से लेकर आठवी कक्षा तक फारसी पढ़ाता रहा था। ‘कैसरु’ फारसी शब्द है, और इसका अर्थ है ‘बादशाह’। उसी दिन वहाँ फारसी पढ़ाने वाले एक मौलवी से इस शब्द के बारे में तसल्ली भी कर ली।

दर्पण-शीर्षक

भक्त-वाणी के टीके में से झलक:

दर्पण-टिप्पनी

भगतों की वाणी का टीका 1945 में लिखते–लिखते मुझे ऐसा प्रतीत होने लग पड़ा कि यह वाणी गुरु नानक देव जी ने स्वयं ही इकट्ठी की थी। ये विचार आँखों के आगे रख ज्यों-ज्यों मैं भक्त-वाणी की अंदरूनी गवाही की तलाश करने लगा, मेरा यह विचार और भी ज्यादा पक्का होता चला गया।
पर गुरु नानक देव जी ने इसको क्या करना था? हमारे इतिहास में यह जिकर है कि सतिगुरु नानक देव जी की अपनी ही वाणी जगह-जगह पर बिखरी पड़ी थी जो गुरु अरजन साहिब ने देश–देशांतरों में सिखों को चिट्ठियां भेज के इकट्ठी करवाई थी। जिस गुरु-व्यक्ति ने अपनी ही वाणी संभाल के नहीं रखी, उसने भक्त-वाणी एकत्र करने की ज़हमत क्यों करनी थी? पर, भक्त-वाणी की अंदरूनी खोज ने यह खुल्लम–खुल्ला बताना शुरू कर दिया कि इसके इकट्ठे करने का काम गुरु नानक देव जी के हिस्से आया था।

दर्पण-शीर्षक

नई तलाश:

दर्पण-टिप्पनी

सो, मैंने गुरु नानक साहिब से ले के गुरु अरजन साहिब तक पाँचों गुरु-व्यक्तियों की वाणी को खोजना शुरू कर दिया। थोड़ी सी मेहनत से ही यह बात प्रत्यक्ष दिखाई दे गई कि सतिगुरु नानक देव जी ने अपनी सारी वाणी ही लिख के संभाली थी। यह खजाना उन्होंने गुरु अंगद साहिब को दिया, और हरेक गुरु-व्यक्ति ने अपनी वाणी मिला के, आखिर में गुरु रामदास जी ने यह सारा भण्डार गुरु अरजन साहिब के हवाले किया।
मैंने ये सारा विषय तीन लेखों में बाँट कर अर्ध–मासिक अखबार ‘पटियाला समाचार’ में छपवाया। फिर मेरे और लेखों समेत ये लेख भी मेरी लेखों की दूसरी पुस्तक ‘कुछ और धार्मिक लेख’ में छापे गए। अब इस पुस्तक का नाम बदल के ‘गुरबाणी के इतिहास बारे’ रखा गया है। ‘सिंघ ब्रदर्ज़’ बाजार माई सेवां अमृतसर से मिलती है। इसी पुस्तक में से वे तीनों लेख ले कर ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब दर्पण’ के तीसरे भाग में पाठकों की जानकारी के लिए छाप दिए गए हैं (देखें इसी दर्पण के तीसरे भाग के आखिरी लेख)।

दर्पण-शीर्षक

भुलेखे:

दर्पण-टिप्पनी

जैसे श्री गुरु गोबिंद सिंघ जी की वाणी में से कई शब्दों को गलत समझ के सतिगुरु जी के जीवन–लिखारियों ने देवी–पूजा आदि कहानियां घड़ लीं, इसी तरह बाबा फरीद जी के शलोकों को बेपरवाही से पढ़ के यहाँ भी लिखा गया कि बाबा जी ने अपने पल्ले काठ की रोटी बाँधी हुई थी, जब भूख लगती थी, इस रोटी को दांतों से चबा के गुजारा कर लेते थे। यह भी कहा जाता है कि बाबा फरीद जी उल्टे लटक के कई साल तप करते रहे, और कई बार कौए आ–आ के इनके पैरों में चोंच मारते थे।

दर्पण-शीर्षक

सिख का फर्ज:

दर्पण-टिप्पनी

अगर बाबा फरीद जी की वाणी गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज ना होती, तो हमें इन कहानियों के विश्लेषण करने की आवश्यक्ता नहीं थी। हरेक मनुष्य का हक है कि वह अपने ईष्ट को जिस रूप में चाहे देखे। पर, इन कहानियों की प्रौढ़ता के लिए चुँकि उस वाणी में से प्रमाण दिए जाते हैं जो गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज है, इसलिए हरेक सिख का फर्ज है कि इनको थोड़ी गंभीरता से विचारे। जिस ‘बीड़’ कोहम ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ कहते हैं और ‘गुरु की तरह जिसका आदर करते हैं उसका हरेक शब्द गुरु–रूप है। अगर हम किसी भट्ट अथवा भक्त का कोई शब्द गुरु–आशय के उलट समझते हैं, तो वह ‘बीड़’ जिसमें गुरु–आशय से अलग भाव वाले वाक्य दर्ज हैं समूचे तौर पर गुरु का दर्जा नहीं रख सकती। यह एक हास्यास्पद निष्चय है कि भगतों के कई शबदों को हम गुरमति अनुसार मानें, और, कई शबदों को गुरु आशय के विरुद्ध। गुरु अरजन साहिब ने सारी ‘बीड़’ में ये बात कहीं भी नहीं लिखी कि फलाने–फलाने शब्द गुरमति अनुसार नहीं हैं। तर्क करने वाले तो जल्दबाजी में यह भी कह उठे हैं कि तुखारी राग में से छंत महला ४ ‘नावनु पुरबु अभीचु’ भी गुरमति के उलट है।

दर्पण-शीर्षक

सिख की श्रद्धा:

दर्पण-टिप्पनी

सिख को यह श्रद्धा बनानी चाहिए कि श्री गुरु ग्रंथ साहिब के किसी भी अंग में कोई कमी नहीं है। और, इसी ही निष्चय से हमने बाबा फरीद जी के ये शलोक पढ़ने हैं। पर, यह सिर्फ पढ़ने के लिए तो नहीं, और गुरबाणी ही की तरह ये भी सिख को जीवन की विधि सिखाते हैं, सिख के जीवन का आसरा हैं, सिख के मन का स्तम्भ हैं। इस धुरे से ‘फरीदा रोटी मेरी काठ की’ वाले शलोक पढ़ के काठ की रोटी वाली कहानी सुन के साधारण तौर पर पाठक के मन में कई प्रश्न उठते हैं। क्या रोटी खानी बुरा काम है? अगर ये बुरा काम है तो काठ की रोटी से मन को परचाना कैसे अच्छा काम हो सकता है? पर, क्या काठ से मन भी परच सकता है? क्या यह शलोक हरेक प्राणी मात्र के लिए सांझा उपदेश है? तो फिर, क्या कभी कोई ऐसी अवस्था भी आनी चाहिए जब इस वाणी को पढ़ने वाले काठ की रोटी पल्ले से बाँधे फिरें? अगर ऐसा दौर नहीं आना चाहिए, तो इसके पढ़ने का क्या लाभ?
जैसे काठ की रोटी की कहानी इस शलोक को गलत ढंग से समझने से बनी, वैसे ही ‘कागा चूंडि न पिंजरा’ शलोक से यह ख्याल बन गया, कि फरीद जी उल्टे लटक के तप करते थे। भूखें काटनीं, धूणियां तपानी और उल्टे लटकना आदि कर्म गुरमति के अनुसार अनावश्यक हैं, और ना ही फरीद जी की वाणी में कहीं भी इनको जरूरी बताया गया है।

दर्पण-शीर्षक

यह हानिकारक मनौत:

दर्पण-टिप्पनी

कई सज्जन सहज–सुभाय यह कह दिया करते हैं कि कई–कई जगह फरीद जी ने गुरमति के दृष्टिकोण से अलग ख्याल प्रकट किए, पर सतिगुरु जी ने अपना पक्षा पूरा करने के लिए उसके साथ अपना शलोक दर्ज कर दिया, जैसे ‘तनु तपै तनूर जिउ’ और ‘फरीदा पाड़ि पटोला धजु करी’। ये ख्याल बहुत खतरनाक और हानीकारक है। ‘गुरु’ (ग्रंथ साहिब) में गुरु–आशय से ना मिलने वाले वाक्य बता–बता के सिख के सिदक को भारी चोट मारना है, और अपने ईष्ट को खुद ही बे–प्रतीता साबित करने का अनुचित प्रयत्न है।
ऐसे ऐतराज़–योग्य ख्याल पैदा होने के कारण ऐसा लगता है कि आम सज्जन फरीद जी के शलोकों को एक कड़ी में जुड़ा हुआ मज़मून नहीं मानते, ऐसा समझते हैं कि रंग–बिरंगी तरंगों का संग्रह है।

दर्पण-शीर्षक

असल बात:

दर्पण-टिप्पनी

असल बात ये है कि फरीद जी के शलोकों में कहीं भी गुरमति की विरोधता नहीं जिसको सतिगुरु जी ने अपने अगले शलोक में ठीक कर दिया हो। हाँ, जहाँ–कहाँ फरीद जी ने कोई ख्याल इशारे मात्र दिया है और भुलेखा होने की संभावना हो सकती हो, सतिगुरु जी ने उस को और ज्यादा खोल के दे दिया है।
इस टीके में मैंने इन शलोकों को एक कड़ी में परोया हुआ विषय समझने की कोशिश की है, जिसके कारण ऊपर लिखे संशय अपने आप ही खत्म हो जाते हैं। सारे शलोकों का लड़ी–वार भाव भी दिया गया है, ताकि पाठकों को इस सारी वाणी को समझने में सहूलत हो सके।
नोट: बाबा फरीद जी के शलोकों के टीके की पहली एडीशन मई संन् 1946 में छपी थी। तब मैं खालसा कालिज अमृतसर में पढ़ाता था। दूसरी एडीशन 1949 में छप गई थी, तब भी मैं खालसा कालेज में ही था।
नोट: ‘काठ की रोटी’ और ‘उल्टे लटक के तप करने’ के बारे में मेरा लेख पहले पहले मेरी लेख लड़ी की तीसरी पुस्तक ‘गुरमति प्रकाश’ में छपे थे। उसमें से ले के अब ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब दर्पण’ की तीसरी पोथी के अंतिम लेख के रूप में छापे गए हैं। यह तीन लेख हैं। पहला यह कि बाबा फरीद जी की वाणी गुरु नानक देव जी ने आप ही ला के अपने पास रखी हुई थी। पुस्तक ‘गुरमति प्रकाश’ सिंघ ब्रदर्ज़ बाजार माई सेवां अमृतसर से मिलती है। मेरी और पुस्तकें भी वहीं से ही।
–साहिब सिंह

ੴ (इक ओअंकार) सतिगुर प्रसादि॥

दर्पण-शीर्षक

जीवन बाबा फरीद जी

दर्पण-टिप्पनी

(संन ११७३ से १२६६)
बारहवीं सदी ईसवी में काबुल का बदशाह फ़रुख शाह था। गज़नी व और नज़दीक के इलाकों के बादशाह इसकी ईन मानते थे। पर फरुखशाह का पुत्र अपने पिता की तरह तेज–प्रताप वाला साबित ना हुआ, और, गज़नी के बादशाह ने काबुल पर कब्ज़ा कर लिया। पर आखिर उसने अपनी लड़की की शादी फरुख़शाह के पुत्र से करके उसको काबुल की बादशाहियत वापस कर दी।
जब गजनी और काबुल के आपस में इस तरह के लड़ाई–झगड़े हो रहे थे, तो गज़नी के बादशाह का एक भाई शेख शईब (519 हिजरी) संन 1125 में अपना वतन छोड़ के अपने कुछ रिश्तेदारों और तीन पुत्रों समेत कसूर आ बसा। कुछ समय बाद कसूर से ये मुल्तान चले गए, और फिर दिपालपुर के नजदीक एक नगर कोठीवाल जा बसे, जिसका नाम इस वक्त चाउली मुशैखां है। शेख शईब के बड़े पुत्र का नाम जमालु–दीन सुलेमान था।
गजनी और काबुल के शाही झगड़ों के दिनों में काबुल का रहने वाला एक मौलवी वजीह–उद्दीन भी काबुल से मुल्तान के जिले में नगर करोर में आ बसा। यह मौलवी हज़रत मुहम्मद साहिब के चाचा हज़रत अब्बास के खानदान में से था। इस मौलवी ने हज़रत अली के खनदान के एक सय्यद मुहम्मद अब्दुल्ला शाह की लड़की बीबी मरियम को अपनी लड़की बना के पाला हुआ था। काबुल से चलने के वक्त इस लड़की को भी यह मौलवी अपने साथ ले आया।
जब बीबी मरियम जवान हुई तब मौलवी वजीहुद्दीन ने इसकी शादी शेख शईश के बड़े बेटे जमाल्लुद्दीन से कर दी। इनके घर तीन लड़के पैदा हुए, और एक लड़की। दूसरे बेटे का नाम फरीदुद्दीन मसऊद का। ये हिजरी 569 के महीने रमज़ान की पहली तारीख़ को पैदा हुए। तब संन ईसवी 1173 थी।
16 साल की उम्र में फरीद जी माता-पिता के साथ हज करने के लिए मक्के–शरीफ़ गए। वापस आ के इस्लामी तालीम हासिल करने के लिए काबुल भेजे गए। तालीम पूरी करके जब ये मुल्तान वापस आए, तो यहाँ इनको दिल्ली वाले ख्वाजा कुतबुद्दीन बख़्तीअर उशी के दर्शन हुए। फरीद जी ख्वाजा जी के मुरीद बन गए। मुरशद के हुक्म अनुसार कुछ समय फरीद जी हांसी और सरसे भी इस्लामी तामील लेते रहे। जब ख्वाजा कुतबुद्दीन का इंतकाल हो गया, तब फरीद जी अजोधण आ टिके, जिसको अब पाकपट्टन कहते हैं। इस वक्त तक फरीद जी की शादी हो चुकी थी। फरीद जी के छह लड़के दो लड़कियां थीं, बड़े बेटे का नाम शेख बदरुद्दीन सुलेमान था। बाबा फरीद जी के बाद यही उनकी गद्दी पर बैठे।
बाबा फरीद जी, हिजरी 664 के महीना मुहर्रम की पाँच तारीख को (संन ईसवी 1266) 93 साल की उम्र में अपने गाँव अजोधण (पाक पत्तन) में संसार से रुख़्सत हुए।
शेख–ब्रहम, जिसको गुरु नानक देव जी तीसरी ‘उदासी’ के वक्त पाकपट्टन में मिले थे, बाबा फरीद जी के खानदान में ग्यारहवीं जगह पर थे। जब अमीर तैमूर अपने हमले के वक्त संन 1398 में अजोधण आया था, तब बाबा फरीद जी का पौत हज़रत अलाउद्दीन मौजदरिया गद्दी पर था।
शेख ब्रहम, बाबा फरीद जी की गद्दी पर संन 1510 में बैठे थे, और 42 साल रह के संन 1552 में इनका इंतकाल हुआ। सरहंद में इनका मकबरा है। गुरु नानक साहिब ने शेख ब्रहम से ही बाबा फरीद जी की सारी वाणी हासिल की थी।
कई लिखारी यह कहते हैं कि यह शलोक और शब्द जो बाबा फरीद के नाम पर लिखे हुए गुरु ग्रंथ साहिब में मिलते हैं, ये शेख ब्रहम के हैं जिस को फरीद सानी भी कहा जाता है। पर, ये ख्याल बिल्कुल ही ग़लत है। अगर बाबा फरीद जी ने खुद कोई वाणी उचारी ना होती, तो उनकी गद्दी पर बैठे किसी और व्यक्ति को ये हक नहीं हो सकता कि वह फरीद जी का नाम बरतता। गुरु अंगद साहिब, गुरु अमरदास, गुरु रामदास, गुरु अरजन साहिब और गुरु तेग बहादर साहिब ने अपनी उचारी वाणी में सतिगुरु नानक देव जी का नाम तब ही प्रयोग कर सके जब गुरु नानक देव जी ने स्वयं भी वाणी उचारी और शब्द ‘नानक’ बरता। फिर, बागबा फरीद जी की गद्दी पर उनसे ले के शेख ब्रहम तक बाबा फरीद जी के बिना कोई भी और सज्जन उनकी बराबरी का मशहूर नहीं हुआ।
ये ख्याल भी निर्मूल है कि बाबा फरीद जी के समय तक ‘पंजाबी बोली’ इतने सुंदर ठेठ रूप में नहीं आ सकी थी। फरीद जी का देहांत संन 1266 में हुआ। गुरु नानक देव जी संन 1469 में जन्मे। सिर्फ दो सौ साल का अंतर था। सतिगुरु नानक देव जी की वाणी में बहुत सारे शब्द असली ठेठ पंजाबी के हैं। अकबर के समय कवि दमोदर हुआ है, जिसने ठेठ पंजाबी में हीर का किस्सा लिखा है। यदि बाबा फरीद जी के वक्त अभी ‘पंजाबी बोली’ ठेठ रूप में नहीं थी आ सकी, तो इन तीन सौ सालों में इतनी भारी तब्दीली नहीं आ सकती थी। ‘बोली’ बनते और तब्दील होते सैंकड़ों नहीं हजारों साल लग जाया करते हैं। बाबा फरीद जी भले ही अरबी–फारसी के प्रसिद्ध विद्वान थे, पर वे पंजाब में जन्मे-पले थे, और पंजाबी उनकी अपनी बोली थी। पंजाब के लोगों में प्रचार करने के लिए सबसे उत्तम ढंग पंजाबी बोली ही हो सकता था, जो फरीद जी ने अपनाया। इलाके के असर तले लहिंदी पंजाबी के शब्द बाबा जी की वाणी में काफी हैं।

दर्पण-शीर्षक

गंज शकर

दर्पण-टिप्पनी

बाबा फरीद जी के नाम के साथ उनके नाम–लेवा शब्द ‘गंज शकर’ बरतते हैं। बाबा जी को ‘गंज शकर कहना कैसे शुरू हुआ – इस बारे भी आश्चर्य भरी कहानियां लिखी मिलती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे फरीद जी की वाणी को गलत समझ के ये ख्याल बनाए गए कि बाबा जी ने काठ की रोटी अपने पल्ले बाँधी हुई थी, और वे जंगल में उल्टे लटक के तप किया करते थे, इसी तरह उनके जीवन को ग़लत समझ के उनके ‘गंज शकर’ होने के संबन्ध में भी अजीब साखियां लिखी हुई मिलती हैं।
उन कहानियों में से एक कहानी यूँ है कि फरीद जी अपने नफ़स को मारने के लिए तीन-तीन दिन रोज़ा रखा करते थे। एक बार रोज़ा रखा, तीन दिनों बाद जब रोज़ा खोलना था तो खाने को कुछ ना मिला, भूख से घबराए तो फरीद जी ने मिट्टी की कुछ ढेलियां मुँह में डालीं। वह मिट्टी शक्कर बन गई। बस! इससे उनको लोगों ने ‘गंज शकर’ कहना शुरू कर दिया।
पर, यह कहानी लिखने वाले को उनकी काठ की रोटी का चेता नहीं रहा। अगर फरीद जी सिर्फ तीन दिन की भूख से व्याकुल हो सकते थे, तो वे कई–कई दिन काठ की रोटी को दाँतों से चबा के अपने आप को कैसे तसल्ली दे लेते थे? दोनों बातें आपस में मेल नहीं खातीं।
असल बात बिल्कुल और है। ये बात आम प्रसिद्ध है कि बाबा फरीद जी के जीवन की छू से लाखों लोगों की जिंदगी को सही राह मिला, सिर्फ मुसलमान ही नहीं, लाखों हिन्दुओं ने भी आ के फरीद जी का पलला पकड़ा। आखिर ये बात तब ही हो सकी जब बाबा जी के जीवन में कोई आकर्षण और मिठास थी, जब उनके पास बैठने वालों को कोई ठंडक पड़ती थी। मनुष्य की विनम्रता और मिठास एक ऐसा गुण है जो अन्य सभी मानवीय गुणों का श्रोत है, और सभी अच्छाईयों का मूल है तत्तव है, साहिब गुरु नानक देव जी ने इस गुण को यूँ सराहा है;
मिठतु नीवी नानका गुण चंगिआईआ ततु॥
रब के दरवेश के गुण बयान करते वक्त फरीद जी ने खुद भी यही कहा है कि मीठा बोलना और किसी का दिल ना दुखाना रब को मिलने के चाहवान के लिए सबसे जरूरी गुण है;
इकु फिका न गालाइ, सभना मै सचा धणी॥ हिआउ न कैही ठाहि, माणक सभ अमोलवे॥१२९॥ सभना मन माणिक, ठाहणु मूलि मचांगवा॥ जो तउ पिरीआ दी सिक, हिआउ न ठाहे कहीदा॥१३०॥
बस! यही शक्कर थी बाबा फरीद जी के मुँह में। यही ‘गंज’ थी और यही खजाना था ‘शक्कर’ का, जिसने लाखों लोगों को उनके चरणों का भँवरा बना रखा था।
बाबा फरीद का मज़हब
फरीद जी के जीवन–लिखारी फरीद जी को ‘सूफी’ कहते हैं। उनके मज़हब का नाम कोई भी रख लो, पर जब हम उनकी अपनी वाणी को ध्यान से पढ़ के निर्णय करते हैं, तो उनके धार्मिक ख्याल निम्न-लिखित अनुसार दिखाई देते हैं;
मनुष्य नीयत समय ले के जगत में ईश्वर को मिलने के लिए आया है, ‘दरवेश’ बनने आया है। पर माया के मोह की पोटली इसको निंदा और वैर–विरोध आदि इसे गलत रास्ते पर डाल देते हैं।
‘दरवेश’ बनने के लिए किसी जंगल में जाने की जरूरत नहीं है, घर का काम–काज करते हुए हृदय में ईश्वर को देखना है। ऐसे ‘दरवेश’ के लक्षण ये हैं: सहनशीलता, दुनियावी लालच से मुक्ति, एक ईश्वर पर आस, ख़लकति की सेवा, किसी का दिल ना दुखाना, हक की कमाई, और रब की याद। अगर माया का लालच खत्म नहीं हुआ, तो धार्मिक भेख और धार्मिक आहर, ‘दरवेश’ जीवन का दम इतना घोट देते हैं कि उसका पनपना मुश्किल हो जाता है।
शलोकों का वेरवा
ये सारे शलोकों की गिनती 130 है। इनमें से 18 शलोक गुरु नानक देव, गुरु अमरदास, गुरु रामदास व गुरु अरजन साहिब के भी हैं, जो फरीद जी के कुछ शलोकों के भाव और ज्यादा स्पष्ट समझाने के लिए लिखे गए हैं, ताकि कोई अंजान मनुष्य गलती ना करे। सो, सिर्फ फरीद जी के शलोकों का भाव लिखने के वक्त सतिगुरु जी के शलोकों को साथ मिलाने की जरूरत नहीं है।
विचारों की मिलती–जुलती तरतीब के अनुसार इन शलोकों को निम्न-लिखित पाँच हिस्सों में बाँटा गया है;
शलोक नं: 1 से 15 तक। इनमें शलोक नं: 13 गुरु अमरदास जी का है (फरीद जी के 14 हैं)।
शलोक नं: 16 से 36 तक (21शलोक)। इनमें शलोक नं: 32 गुरु नानक साहिब का है, (फरीद जी के अपने 20 हैं)।
शलोक नं: 37 से 65 तक (29 शलोक)। इनमें शलोक नं: 52 गुरु अमरदास जी का है (फरीद जी के 28 हैं)।
शलोक नं: 66 से 92 तक (27 शलोक)। इनमें शलोक नं: 75, 82, 83 गुरु अरजन साहिब जी के हैं (फरीद जी के अपने 24 हैं)।
शलोक नं: 93 से 130 तक (38 शलोक)। इनमें गुरु नानक देव जी के तीन शलोक हैं (नं: 113, 120, 124), गुरु अमरदास जी के तीन शलोक हैं (नं: 104, 122, 123), गुरु रामदास जी का एक शलोक (नं: 121), और गुरु अरजन साहिब के पाँच शलोक हैं (नं: 105, 108, 109, 110, 111)। फरीद जी के अपने 26 शलोक हैं।
सो,
बाबा फरीद जी के – 112 शलोक
गुरु नानक देव जी – 4 (नं: 32,113,120,124)
गुरु अमरदास जी – 5 (नं: 13,52,104,122,123)
गुरु रामदास जी – 1 (नं: 121)
गुरु अरजन साहिब – 8 (नं: 75,82,83,105,108,109, 110, 111)
कुल जोड़ –130

दर्पण-शीर्षक

बाबा फरीद जी के शलोकों का भाव

दर्पण-टिप्पनी

शलोक–वार
नं: 1 से 15 तक –15 शलोक
हरेक जीव की जिंदगी के दिन गिनती के हैं, जीव यहाँ बँदगी, ‘दरवेशी’ करने आया है। पर मनुष्य मोह की पोटली सिर पर बाँधे फिरता है, यह छुपी हुई गहन आग हमेशा इसे जलाती है। फिर भी माया के कारण अहंकारी होया हुआ जीव ईश्वर से संबन्ध तोड़ लेता है। इस मस्ती में किसी की निंदा करता है, किसी के साथ वैर बाँध लेता है। इन कामों में जवानी का समय (जब बँदगी हो सकती है) गवा लेता है। आखिर बुढ़ापा आ जाता है, दुनिया के पदार्थ भी नहीं हज़म होते, क्योंकि सारे अंग कमजोर हो जाते हैं, और, जवानी गुजार के बुढ़ापे में बँदगी का स्वभाव पकाना बहुत मुश्किल हो जाता है। अंत मरने पर ये सुंदर शरीर मिट्टी हो जाता है। पर, आश्चर्यजनक बात ये है कि इस मन के मुरीद बंदे को कितना भी समझाओ, ये एक नहीं सुनता।
नं: 16 से 36 तक – 21 शलोक
इस जगत–मेले की भीड़ में कई बार धक्के खाने पड़ते हैं, ज्यादतियां सहनी पड़ती हैं; पर, ‘दरवेश’ दभ और खाक की तरह सहनशील हो जाता है।
‘दरवेश’ का रूहानी प्यार किसी दुनियावी लालच के आसरे नहीं होता। उसको ये जरूरत भी नहीं पड़ती कि ईश्वर को जंगलों में ढूँढने जाए, उसको हृदय में ही पा लेता हैं पर, ‘दरवेशी’ कमाने का वक्त जवानी ही है।
‘दरवेश’ कभी पराई आस नहीं देखता, और ना ही घर आए किसी परदेसी की सेवा से चिक्त चुराता है।
सुखी जीवन की खातिर बँदगी के बिना और उपाय करने मूर्खता है। दरवेश को कोई और लालच आदि बँदगी के राह से नहीं हटा सकते, क्योंकि वह जानता है कि जिस शरीर और सुख के लिए जगत गलतियां करता है, आखिर वह शरीर भी मिट्टी में मिल जाता है। सो, ‘दरवेश’ शरीर के निर्वाह के लिए पराई चोपड़ी से अपनी कमाई हुई रूखी–सूखी को ज्यादा अच्छा समझता है।
‘दरवेश’ एक पल भर के लिए भी रब को याद किए बिना नहीं रह सकता। स्मरण से टूट के धार्मिक भेस और साधनों को ‘दरवेश’ निकम्मे जानता है, क्योंकि इनमें उम्र व्यर्थ ही गुजरती है, चिन्ता ओर दुख सदा सताते ही रहते हैं। जिस मनुष्य को कभी याद नहीं आया कि मैं रब से विछुड़ा हुआ हूँ, उसकी आत्मा विकारों में जल गई समझो।
नं: 37 से 65 तक–29 शलोक
दुनिया के इन मीठे मगर जहरीले पदार्थों की खातिर मनुष्य सारा दिन भटकता है, और, उम्र दुखों में गुजारता है। बुढ़ापे में भी इसका यही हाल रहता है, दूसरों के दर पर जा–जा के धक्के खाता है। था ये सृष्टि का सरदार; पर इसकी सारी उम्र, मानो, कोयलों के व्यापार में गुजर जाती है।
मनुष्य–जीवन की कामयाबी के माप–दण्ड ये पदार्थ नहीं हैं, क्योंकि छत्र–धारी पातशाह भी आखिर यतीमों जैसे हो गए। महल-माढ़ियों वाले भी यहीं छोड़ के चले गए। ये पदार्थ तो कहां रहे, इसकी अपनी जान की भी कोई बिसात नहीं (इसकी जान का भी कोई भरोसा नहीं); इससे ज्यादा भरोसा तो इस बेकार सी दिखती गोदड़ी पर किया जा सकता है। देखते–देखते ही मौत इस शरीर–किले को लूट के ले जाती है। सो, ये पदार्थ भी साथ ना निभे, और इनकी खातिर किए बुरे कामों के कारण उम्र भी दुखों में कटी।
बाहरी धार्मिक भेस भी सहायता नहीं करता। चाहिए तो ये कि बँदगी की इनायत से इन ‘विसु–गंदला’ का लालच ना रहे।
इन ‘विसु गंदलों’ की खातिर भटकते हुए जवानी बीत जाती है, सफेद बाल आ जाते हैं। आखिर कब तक? जिंदगी के गिने–चुने दिन खत्म होते जाते हैं, महल–माढ़ियां और धन यही पड़े रह जाते हैं, और खसम के दर पर जा के शर्मिंदा होना पड़ता है।
अगर फकीरी के राह पर चलते हुए, और अपनी ओर से धार्मिक जीवन व्यतीत करते हुए, मन में ‘विसु गंदलों’ के लिए भटकना टिकी रहे तो सारे धार्मिक उद्यम बाहर–मुखी हो जाते हैं। बल्कि, एक और नुकसान का खतरा हो जाता है कि वह पहला धार्मिक चाव उत्साह खत्म ही हो जाता है, उसका दोबारा पनपना मुश्किल हो जाता है। पर, हँस इस दुनिया– कल्लर की छपड़ी से पानी नहीं पीता, हँस कोधरा नहीं खाता, उसकी ख़ुराक मानसरोवर के मोती हैं।
नं: 66 से 92 तक – 27 शलोक
इस संसार–सरोवर के जीव–पंछियों के झुंड में से नित्य किसी ना किसी के चलने की बारी आती रहती है। यहाँ बँदगी–हीन बँदे का जीवन किसी काम का नहीं। यहीं पर रह जाने वाली माया के कारण उसका अकड़ा हुआ सिर सूखी लकड़ी ही समझो।
अहंकारी मनुष्य इस जिंदगी को इतना दोज़क बना देते हैं कि जीने का कोई उल्लास ही नहीं रह जाता। पर माया का मान तो कहाँ रहा, ये अपने शारीरिक अंग भी जवाब दे जाते हैं किसी को दुखाना है ही मूर्खता। यहाँ तो सारे पंछी मेहमान ही हैं। इस संसार–वृक्ष पर गफ़लति में सारी रात सोते रहने की बजाए अगले सफर की तैयारी करने की जरूरत है।
माया में भूल के, बँदगी–हीन हो के सभ जीव दुखी हो रहे हैं, ये अपने ही किए बुरे कर्मों का फल मिलता है, दिन दुखों में और रात चिंताओं में बीतती है। दुखों की इस बाढ़ में बहने से सिर्फ वही मनुष्य बचते हैं, जिनकी जिंदगी का मल्लाह गुरु है।
जगत में चारों तरफ स्वादिष्ट और मन–मोहक वस्तुएं मनुष्य के मन को आकर्षित करती हैं, इनके चस्कों में पड़ कर शरीर का सत्यानाश हो जाता है, पर, तृष्णा (झाक) खत्म नहीं होती। हाँ, जिस हृदय में पति–प्रभु का प्यार बसता है, उसको कोई विकार विषौ–भोगों की तरफ़ प्रेरित नहीं कर सकते।
नं: 93 से 130 तक (38 शलोक)
मनुष्य के देखते–देखते ही ख़लकति मौत का शिकार हो के कब्रों में पड़ती जा रही है। ये बँदा नदी के किनारे के सूने पेड़ की तरह है, उस बगुले की तरह है, जिसको केल करते को बाज़ झपट्टा मार के आ दबोचता है। सारे जगत को मौत ने अपने चुँगल में लपेटा हुआ है, अच्छे–भले पले शरीर भी मौत से नहीं बच सकते, क्योंकि बुढ़ापा आने पर आखिर पले हुए अंग भी कमजोर हो जाते हैं, जैसे पेड़ों के पत्ते झड़ जाते हैं। पर, ये सब देखते हुए भी हरेक मनुष्य स्वार्थ का मारा हुआ है। ऐसे मनुष्य से बेहतर तो वे पंछी हैं, जो कंकड़ चुग के पेड़ों पर घोंसले बना के गुजारा करते हैं, पर ईश्वर को याद रखते हैं।
ऐसी महल–माढियों के बसेरे से तो कंबली पहन के फकीर बन जाना अच्छा है अगर वहाँ रब याद रह सके, क्योंकि महल-माढ़ियों का वासा और पहनने के लिए पट–रेशम होते हुए भी अगर रब बिसरा है तो यहाँ भी दुख ही दुख, और रब की हजूरी में भी शर्मिंदगी।
वैसे कंबली पहन के फकीर बनने की जरूरत नहीं, घर में रह के ही ‘दरवेशी’ कमानी है। वह दरवेशी है: अमृत बेला में उठ के मालिक को याद करना, और आसरे छोड़ के सब्र धरना (ये रास्ता कठिन अवश्य है, पर माया के अनेक फंदों से बचने के लिए रास्ता यही है), निम्रता, सहन–शीलता, मीठा बोलना और किसी का दिल ना दुखाना, क्योंकि सब में वही मालिक मौजूद है जिसकी बँदगी करने के लिए मनुष्य यहाँ आया है।

दर्पण-भाव

संक्षेप भाव:
(शलोक नं: 1 से 15 तक) मनुष्य गिने हुए दिन ले के, ‘दरवेशी’ के लिए आता है, पर, माया के मोह की पोटली इसको निंदा वैर आदि गलत राह पर डाल देती है।
(शलोक नं: 16 से 36 तक) सहन–शीलता, दुनियावी लालच से निजात, एक रब की आस, ख़लकति की सेवा, हक की कमाई, और रब की याद –ये हैं लक्षण ‘दरवेश’ के। ऐसे ‘दरवेश’ को जंगल में जाने की जरूरत नहीं पड़ती, घर में ही वह रब को मिल लेता है।
(शलोक नं: 37 से 65 तक) माया की खातिर भटकते हुए सारी उम्र ख्वारी में गुजरती है, माया भी यहीं रह जाती है। जब तक माया का लालच मौजूद है धार्मिक भेख और आहर ‘दरवेश’ जीवन का बल्कि दम घोट देते हैं, उसका पनपना कठिन हो जाता है।
(शलोक नं: 66 से 92 तक) यहीं पर रह जाने वाली माया के कारण अहंकारी हुआ मनुष्य जिंदगी को इतना दोज़क बना देता है कि जीने का चाव ही समाप्त हो जाता है। दिन–रात दुखों में बीतते हैं, मन–मोहक पदार्थों के चस्के शरीर का सत्यानाश कर देते हैं। यह जीवन असल में ‘दरवेशी’ कमाने के लिए मिला है। जो मनुष्य प्रभु–प्यार में जुड़ता है उसको विषौ–भोग नहीं सताते। वह सुखी हो जाता है।
(शलोक नं: 93 से 130 तक) दूसरों को मरते हुए देख के भी स्वार्थ में फसा हुआ मनुष्य ईश्वर को याद नहीं करता। ऐसे मनुष्य से तो पक्षी अच्छे। ऐसे महल-माढ़ियों से फकीरी बेहतर। वैसे घर–घाट छोड़ने की जरूरत नहीं है। घर में रहते हुए ही ‘दरवेशी’ कमानी है। वह ‘दरवेशी’ यह है: अमृत बेला में प्रभु की याद, एक रब की आस, विनम्रता, सहन–शीलता और किसी का दिल ना दुखाना।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक सेख फरीद के ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

सलोक सेख फरीद के ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जितु दिहाड़ै धन वरी साहे लए लिखाइ ॥ मलकु जि कंनी सुणीदा मुहु देखाले आइ ॥ जिंदु निमाणी कढीऐ हडा कू कड़काइ ॥ साहे लिखे न चलनी जिंदू कूं समझाइ ॥ जिंदु वहुटी मरणु वरु लै जासी परणाइ ॥ आपण हथी जोलि कै कै गलि लगै धाइ ॥ वालहु निकी पुरसलात कंनी न सुणी आइ ॥ फरीदा किड़ी पवंदीई खड़ा न आपु मुहाइ ॥१॥

मूलम्

जितु दिहाड़ै धन वरी साहे लए लिखाइ ॥ मलकु जि कंनी सुणीदा मुहु देखाले आइ ॥ जिंदु निमाणी कढीऐ हडा कू कड़काइ ॥ साहे लिखे न चलनी जिंदू कूं समझाइ ॥ जिंदु वहुटी मरणु वरु लै जासी परणाइ ॥ आपण हथी जोलि कै कै गलि लगै धाइ ॥ वालहु निकी पुरसलात कंनी न सुणी आइ ॥ फरीदा किड़ी पवंदीई खड़ा न आपु मुहाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जितु = जिस में। जितु दिहाड़ै = जिस दिन में, जिस दिन। धन = स्त्री। वरी = चुनी जाएगी, ब्याही जाएगी। साहे = (उसका) नीयत समय। मलकु = मलकतु मौत, (मौत का) फरिश्ता। कूं = को। न चलनी = नहीं टल सकते। जिंदू कूँ = जिंद को। मरण = मौत। वरु = दूल्हा। परणाइ = ब्याह के। जोलि कै = चला के, विदा कर के। कै गलि = किस के गले में? धाइ = दौड़ के। वालहु = बाल से। पुरसलात = पुल सिरात। कंनी = कानों से। किड़ी पवंदीई = आवाजें पड़ती हैं। किड़ी = आवाज। आपु = अपने आप को। न मुहाइ = ना ठगा, धोखे में ना डाल, ना लुटा।
अर्थ: जिस दिन (जीव-) स्त्री ब्याही जाएगी, वह समय (पहले ही) लिखा गया है (भाव, जीव के जगत में आने से पहले ही इसकी मौत का समय मिथा जाता है), मौत का फरिश्ता जो कानों से सुना ही हुआ था, आ के मुँह दिखाता है (भाव, जिसके बारे में पहले औरों की मौत के समय सुना था, अब वह जीव-स्त्री को आ के मुँह दिखाता है जिसकी वारी आ जाती है)।
हड्डियों को तोड़-तोड़ के (भाव, शरीर को रोग आदि से शिथिल कर के) बेचारी जीवात्मा (इसमें से) निकाल ली जाती है। (हे भाई!) जिंद को (ये बात) समझा कि (मौत का) ये निहित समय टल नहीं सकता।
जीवात्मा, मानो, दुल्हन है, मौत (का फरिश्ता इसका) दूल्हा है (जीवात्मा को) ब्याह के अवश्य ले जाएगा, यह (काया जीवात्मा को) अपने हाथों से विदा करके किसके गले लगेगी? (भाव, निआसरी हो जाएगी)।
हे फरीद! तूने कभी ‘पुल सिरात’ का नाम नहीं सुना जो बाल से भी बारीक है? कानों में आवाजें पड़ने पर भी अपने आप को लुटाए ना जा (भाव, जगत में समुंदर है जिसमें विकारों की लहरें उठ रही हैं, इसमें से सही सलामत पार लांघने के लिए ‘दरवेशी’, मानो, एक पुल है, जो है बहुत ही सँकरा और बारीक, अर्थात, दरवेशी कमानी बहुत कठिन है, पर दुनिया के विकारों से बचने के लिए रास्ता सिर्फ यही है। हे भाई! धर्म-पुस्तकों के द्वारा गुरु-पैग़ंबर तुझे विकारों की लहरों के खतरों से बचाने के लिए आवाजें मार रहे हैं; ध्यान से सुन और जीवन को व्यर्थ ना गवा)।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘जिंदु’ के अंत में ‘ु’ मात्रा होती है, वैसे यह स्त्रीलिंग है। ‘संबंधक’ आदि के साथ ‘जिंदु’ से ‘जिंदू’ हो जाता है, जैसे ‘खाकु’ से ‘खाकू’, ‘विसु’ से विसू’। (देखो ‘गुरबाणी व्यकरण’)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा दर दरवेसी गाखड़ी चलां दुनीआं भति ॥ बंन्हि उठाई पोटली किथै वंञा घति ॥२॥

मूलम्

फरीदा दर दरवेसी गाखड़ी चलां दुनीआं भति ॥ बंन्हि उठाई पोटली किथै वंञा घति ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गाखड़ी = मुश्किल। दरवेसी = फकीरी। दर = (परमात्मा के) दर की। भति = भांति, की तरह। बंन्हि = बाँध के। वंञा = जाऊँ। घति = फेंक के। पोटली = छोटी सी गठरी।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘बंनि्’ में अक्षर ‘न’ के नीचे आधा ‘ह’ है (बन्हि)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे फरीद! (परमात्मा के) दर की फकीरी कठिन (कार) है, और मैं दुनियादारों की तरह चल रहा हूँ, (‘दुनिया’ वाली) छोटी सी पोटली (मैंने भी) बाँध के उठाई हुई है, इसको कहाँ फेंक के जाऊँ? (भाव, दुनिया के मोह को छोड़ना कोई आसान काम नहीं है)।2।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

किझु न बुझै किझु न सुझै दुनीआ गुझी भाहि ॥ सांईं मेरै चंगा कीता नाही त हं भी दझां आहि ॥३॥

मूलम्

किझु न बुझै किझु न सुझै दुनीआ गुझी भाहि ॥ सांईं मेरै चंगा कीता नाही त हं भी दझां आहि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किझु = कुछ भी। बुझै = समझ आती, पता लगता। दुनीआ = दुनिया का मोह। गुझी = छुपी हुई। भाहि = आग। सांई मेरै = मेरे सांई ने। हंभी = मैंने भी। दझां आहि = जल जाता।
अर्थ: दुनिया (देखने में तो गुलज़ार है, पर इसका मोह असल में) छुपी हुई गुप्त आग है (जो अंदर ही अंदर मन में धुखती रहती है; इसमें पड़े हुए जीवों को जिंदगी के सही रास्ते की) कुछ सूझ-बूझ नहीं पड़ती। मेरे सांई ने (मेरे ऊपर) मेहर की है (और मुझे इससे बचा लिया है) नहीं तो (बाकी लोगों की तरह) मैं भी (इसमें) जल जाता (भाव, माया के मोह से प्रभु स्वयं ही मेहर करके बचाता है, हमारे अपने वश की बात नहीं कि यह ‘पोटली’ सिर से उतार के फेंक सकें)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा जे जाणा तिल थोड़ड़े समलि बुकु भरी ॥ जे जाणा सहु नंढड़ा तां थोड़ा माणु करी ॥४॥

मूलम्

फरीदा जे जाणा तिल थोड़ड़े समलि बुकु भरी ॥ जे जाणा सहु नंढड़ा तां थोड़ा माणु करी ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिल = (भाव,) साँसें। थोड़ड़े = बहुत कम। समंलि = संभल के, सोच समझ के। सहु = पति प्रभु। नंढड़ा = छोटा सा नढा, छोटा सा बालक (भाव, बालक स्वभाव वाला)।
अर्थ: हे फरीद! अगर मुझे पता हो कि (इस शरीर-रूपी बर्तन में) बहुत थोड़े से (श्वास रूप) तिल हैं तो मैं सोच-समझ के (इनकी) मुट्ठी भरूँ (भाव, बेपरवाही से जीवन की साँसें ना गुजारी जाऊँ)। अगर मुझे समझ आ जाए कि (मेरा) पति (-प्रभु) बाल-स्वभाव वाला है (भाव, भोले स्वभाव को प्यार करता है) तो मैं भी (इस दुनिया वाली ‘पोटली’ का) गुमान छोड़ दूँ।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ब्याह हो जाने पर जब नव–विवाहिता बधू ससुराल में आती है, तो वर वाले घर की औरतें परात आदि किसी खुले चौड़े बर्तन में बहुत सारे तिल लाती हैं। पहले दूल्हा अपनी मुट्ठी भर के दुल्हन की मुट्ठी में डालता है, फिर दुल्हन मुट्ठी भर के दुल्हे की मुट्ठी में डालती है। इस रस्म को ‘तिल भल्ले’ या ‘तिल वेतरे’ कहते हैं। पति के साथ ‘तिल वेतरे’ खेलने के बाद दुल्हन अपनी ननदों और जेठानियों के साथ ‘तिल वेतरे’ खेलती है। इस रस्म का भाव ये लिया जाता है कि नई आई वधू का दिल नए परिवार में सबके साथ रच–मिच जाए। लहिंदे पंजाब में इस रस्म का हिन्दू घरों में आम रिवाज़ था। फरीद जी इस रस्म की तरफ इशारा करके शलोक नं: 4 में फरमाते हैं कि जीव-स्त्री ने पति–प्रभु के सारे परिवार (ख़लकति) के साथ बाल–स्वभाव बन के प्यार करना है।
इसी तरह एक रस्म है जिसको ‘गंढ चित्रावा’ कहते हैं। जब नव-विवाहित वधू अपने पेके घर से विदा होने लगती है, तो पहले लड़की-लड़का दोनों को दहेज में दिए पलंघ पर बैठा के उनके दुपट्टों की गाँठ बाँध देते हैं। घर का परोहित उस वक्त कुछ शलोक पढ़ता है, इस रस्म का भाव ये होता है कि इस नव-ब्याही जोड़ी का आपस में उसी तरह पक्का प्यार रहे, जैसे इन दुपट्टों की पक्की गाँठ डाली गई है। इस रस्म की ओर बाबा फरीद जी शलोक नं: 5 में इशारा करते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जे जाणा लड़ु छिजणा पीडी पाईं गंढि ॥ तै जेवडु मै नाहि को सभु जगु डिठा हंढि ॥५॥

मूलम्

जे जाणा लड़ु छिजणा पीडी पाईं गंढि ॥ तै जेवडु मै नाहि को सभु जगु डिठा हंढि ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लड़ु = पल्ला। छिजणा = टूट जाना है। पीडी = पक्की। तै जेवड = तेरे जितना। हंडि = फिर के।
अर्थ: (हे पति-प्रभु!) यदि मुझे समझ हो कि (इस पोटली के कारण तेरा पकड़ा हुआ) पल्ला छिज जाता है (भाव, तेरे से दूरी बन जाती है) तो मैं (तेरे पल्ले से ही) पक्की गाँठ डालूँ। (हे साई!) मैंने सारा जगत फिर के देख लिया है, तेरे जैसा (साथी) मुझे और कोई नहीं मिला।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा जे तू अकलि लतीफु काले लिखु न लेख ॥ आपनड़े गिरीवान महि सिरु नींवां करि देखु ॥६॥

मूलम्

फरीदा जे तू अकलि लतीफु काले लिखु न लेख ॥ आपनड़े गिरीवान महि सिरु नींवां करि देखु ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अकलि लतीफु = सुजान अकल वाला, बारीक समझ वाला, बुद्धिमान। काले लेखु = काले कर्मों का लेखा, औरों के बुरे कामों का लेखा पड़चोल। गिरीवान = गिरेबान।
अर्थ: हे फरीद! यदि तू बारीक बुद्धि वाला (समझदार) है, तो और लोगों के बुरे कर्मों की पड़ताल ना कर; अपने गिरेबान में झांक के देख (कि तेरे अपने कर्म कैसे हैं)।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा जो तै मारनि मुकीआं तिन्हा न मारे घुमि ॥ आपनड़ै घरि जाईऐ पैर तिन्हा दे चुमि ॥७॥

मूलम्

फरीदा जो तै मारनि मुकीआं तिन्हा न मारे घुमि ॥ आपनड़ै घरि जाईऐ पैर तिन्हा दे चुमि ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तै = तुझे। मारे = मारि। न मारे = ना मार। घुंमि = घूम के, पलट के। आपनड़ै घरि = अपने घर में, स्वै स्वरूप में, शांत अवस्था में। चुंमि = चूम के। जाईऐ = पहुँच जाया जाता है।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिना’ में अक्षर ‘न’ के साथ आधा ‘ह’ है (तिन्हा)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे फरीद! जो (मनुष्य) तुझे मुक्के मारें (भाव, कोई दुख दें) उनको तू पलट के ना मारना (भाव, बदला ना लेना, बल्कि) उनके पैर चूम के अपने घर में (शांत अवस्था में) टिका रह।7।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: फरीद जी इन सारे शलोकों में बता रहे हैं कि जिस व्यक्ति पर साई की मेहर हो वह इन ऊपर लिखी जुगतियों से दुनिया वाली ‘पोटली’ सिर से उतार देता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा जां तउ खटण वेल तां तू रता दुनी सिउ ॥ मरग सवाई नीहि जां भरिआ तां लदिआ ॥८॥

मूलम्

फरीदा जां तउ खटण वेल तां तू रता दुनी सिउ ॥ मरग सवाई नीहि जां भरिआ तां लदिआ ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तउ = तेरा। खटण वेल = कमाने का समय। रता = रंगा हुआ, मस्त। सिउ = साथ। मारग = मौत। सवाई = बढ़ती गई, पक्की होती गई। जां = जब। भरिआ = भरी गई, श्वास पूरे हो गए। नीहि = नींव।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘नीहि’ अक्षर ‘न’ के साथ आधा ‘ह’ है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे फरीद! जब तेरा (असल कमाई) कमाने की बेला थी तब तूने दुनिया (की ‘पोटली’) के साथ मस्त रहा। (इसी तरह) मौत की नींव पक्की होती चली गई, (भाव, मौत का समय नजदीक आता चला गया) जब सारे श्वास पूरे हो गए, तब यहाँ से कूच करना पड़ा।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

देखु फरीदा जु थीआ दाड़ी होई भूर ॥ अगहु नेड़ा आइआ पिछा रहिआ दूरि ॥९॥

मूलम्

देखु फरीदा जु थीआ दाड़ी होई भूर ॥ अगहु नेड़ा आइआ पिछा रहिआ दूरि ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: थीआ = हो गया है। जु = जो कुछ। भूर = सफेद। अगहु = आगे से। पिछा = पिछला पासा, जब से पैदा हुआ था।
अर्थ: हे फरीद! देख, जो कुछ (अब तक) हो चुका है (वह ये है कि) दाढ़ी सफेद हो गई है, मौत की तरफ से वक्त नजदीक आता जा रहा है, और पिछला पासा (जब से पैदा हुआ था) दूर (पीछे को) रह गया है, (सो, अब अंजान वाले काम ना कर, और आगे की तैयारी के लिए कमाई कर)।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

देखु फरीदा जि थीआ सकर होई विसु ॥ सांई बाझहु आपणे वेदण कहीऐ किसु ॥१०॥

मूलम्

देखु फरीदा जि थीआ सकर होई विसु ॥ सांई बाझहु आपणे वेदण कहीऐ किसु ॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जि थीआ = जो कुछ हुआ है। सकर = शक्कर, मीठे पदार्थ। विसु = जहर, दुखद। वेदण = वेदना, पीड़ा, दुखड़ा।
अर्थ: हे फरीद! देख, (अब तक) जो हुआ है (वह यह है कि ‘दाढ़ी भूरी’ हो जाने के कारण) दुनिया के मीठे पदार्थ (भी) दुख देते हैं (रास नहीं आते, कयोंकि अब शारीरिक इंद्रिय कमजोर पड़ जाने के कारण उन भोगों को अच्छी तरह भोग नहीं सकते) यह दुखड़ा अपने साई के अलावा किस को कहें? (भाव, प्रभु के नियमों के अनुसार हो रही इस तब्दीली में कोई रोक नहीं डाल सकता)।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा अखी देखि पतीणीआं सुणि सुणि रीणे कंन ॥ साख पकंदी आईआ होर करेंदी वंन ॥११॥

मूलम्

फरीदा अखी देखि पतीणीआं सुणि सुणि रीणे कंन ॥ साख पकंदी आईआ होर करेंदी वंन ॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पतीणीआं = पतली पड़ गई हैं, नीचे उतर गई हैं। रीणे = खाली, बहरे। साख = टहनी, शरीर। पकंदी आईआ = पक गई हैं। वंन = रंग।
अर्थ: हे फरीद! (‘सकर’ के ‘विसु’ हो जाने का कारण ये है कि) आँखें (जगत के रंग-तमाशे) देख के (अब) कमजोर हो गई हैं (जगत के रंग-तमाशे तो उसी तरह मौजूद हैं, पर आँखों में अब देखने की ताकत नहीं रही), कान (दुनिया के राग-रंग) सुन-सुन के (अब) बहरे हो गए हैं। (सिर्फ आँखें और कान ही नहीं, सारा) शरीर ही बिरध हो गया है, इसने और ही रंग बदल लिया है (अब भोग भोगने के लायक नहीं रहा, और इन आहों का कोई इलाज नहीं है)।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा कालीं जिनी न राविआ धउली रावै कोइ ॥ करि सांई सिउ पिरहड़ी रंगु नवेला होइ ॥१२॥

मूलम्

फरीदा कालीं जिनी न राविआ धउली रावै कोइ ॥ करि सांई सिउ पिरहड़ी रंगु नवेला होइ ॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कालीं = जब केश काले थे, काले केशों के होते हुए। राविआ = भोगा। धउली = सफेद बाल आने पर। कोइ = कोई विरला। पिरहड़ी = प्यार। नवेला = नया। रंग = प्यार।
अर्थ: हे फरीद! काले केसों के होते हुए जिन्होंने पति-प्रभु के साथ प्यार नहीं किया, उनमें से कोई विरला ही धउले आने पर (भाव, विरध उम्र में) ईश्वर को याद कर सकता है। (हे फरीद!) तू साई प्रभु से प्यार कर, (यह) प्यार (नित्य) नया रहेगा (दुनिया की ‘पोटली’ वाला प्यार तो शरीर- ‘साख’ पकने पर टूट जाएगा)।12।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस शलोक के प्रथाय अगले शलोक में गुरु अमरदास जी फरमाते हें कि जिस भागयशाली पर साई मेहर करे, उसको अपने चरणों का प्यार बख्शता है, उम्र चाहे जवानी की हो चाहे बुढ़ापे की।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ फरीदा काली धउली साहिबु सदा है जे को चिति करे ॥ आपणा लाइआ पिरमु न लगई जे लोचै सभु कोइ ॥ एहु पिरमु पिआला खसम का जै भावै तै देइ ॥१३॥

मूलम्

मः ३ ॥ फरीदा काली धउली साहिबु सदा है जे को चिति करे ॥ आपणा लाइआ पिरमु न लगई जे लोचै सभु कोइ ॥ एहु पिरमु पिआला खसम का जै भावै तै देइ ॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चिति = चिक्त में। चिति करे = चिक्त में टिकाए, बँदगी करे। पिरमु = प्यार। सभ कोइ = हरेक जीव। जै = जिसको। तै = तिस को।
अर्थ: हे फरीद! अगर कोई बँदा बँदगी करे, तो जवानी में भी और बुढ़ापे में भी मालिक (मिल सकता) है। पर बेशक कोई चाह व कोशिश करके देख ले, ‘यह प्यार’ अपने आप नहीं लगाया जा सकता। यह प्यार-रूपी प्याला तो मालिक का (अपना) है, जिसको उसकी मर्जी होती है देता है।13।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ये शलोक ऊपर के शलोक की ही वयाख्या है। बुढ़ापे में क्यों प्रभु को मिलना मुश्किल हो जाता है? इसलिए कि जवानी में मायावी आदतें पक जाने के कारण बुढ़ापे में ‘बँदगी’ की तरफ पलटना मुश्किल होता है। पर जवानी हो या बुढ़ापा, ‘बँदगी’ सदा है ही प्रभु की ‘बख्शिश’।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा जिन्ह लोइण जगु मोहिआ से लोइण मै डिठु ॥ कजल रेख न सहदिआ से पंखी सूइ बहिठु ॥१४॥

मूलम्

फरीदा जिन्ह लोइण जगु मोहिआ से लोइण मै डिठु ॥ कजल रेख न सहदिआ से पंखी सूइ बहिठु ॥१४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लोइण = आँखें। सूइ = बच्चे। बहिठु = बैठने की जगह।
अर्थ: हे फरीद! (इस दिखाई देती गुलजार, पर असल में, ‘गुझी भाहि’ अर्थात ‘गुप्त आग’ में मस्त जीव को कुछ सूझता-बूझता नहीं। खूब गुमान करता है। पर गुमान किस बात का?) जो (सुंदर) आँखों ने जगत को मोह रखा था, वह आँखें मैंने भी देखीं, (पहले तो इतनी नाजुक थीं कि) काजल की धार नहीं सह सकती थीं, फिर वे पंछियों के बच्चों का घोंसला बनीं (भाव, हमारे सामने शारीरिक सुंदरता आखिर नित्य नाश हो जाती है, इस पर गुमान झूठा है)।14।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा कूकेदिआ चांगेदिआ मती देदिआ नित ॥ जो सैतानि वंञाइआ से कित फेरहि चित ॥१५॥

मूलम्

फरीदा कूकेदिआ चांगेदिआ मती देदिआ नित ॥ जो सैतानि वंञाइआ से कित फेरहि चित ॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सैतानि = शैतान ने (भाव, मन ने) (फरीद जी इस्लामी विचारों के अनुसार शैतान को बदी का प्रेरक कह रहे हैं)। कूकेदिआ चांगेदिआ = बार बार पुकार के समझाने पर भी। से = वे लोग। वंञाइआ = बिगाड़ा है।
अर्थ: हे फरीद! (चाहे कितना ही) पुकार-पुकार के कहें (कितना ही) नित्य समझाते रहें; पर, जिस लोगों को (मन-) शैतान ने बिगाड़ा हुआ है, वह कैसे (‘दुनी’ की तरफ से) चिक्त फेर सकते हैं?।15।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा थीउ पवाही दभु ॥ जे सांई लोड़हि सभु ॥ इकु छिजहि बिआ लताड़ीअहि ॥ तां साई दै दरि वाड़ीअहि ॥१६॥

मूलम्

फरीदा थीउ पवाही दभु ॥ जे सांई लोड़हि सभु ॥ इकु छिजहि बिआ लताड़ीअहि ॥ तां साई दै दरि वाड़ीअहि ॥१६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: थीउ = हो जा, बन जा। पवाही = पहे की, रास्ते की। दभु = दूब, कुशा, घास। जे लोड़हि = अगर तू ढूँढता है। सभु = हर जगह, सब में। इकु = एक को, किसी दूब के पौधे को। छिजहि = (लोग) तोड़ते हैं। बिआ = कोई और (दूब के पौधे)। लताडीअहि = लताड़े जाते हैं। माई कै दरि = मालिक के दर पे। वाड़ीअहि = तू अंदर भेजा जाएगा, (भाव,) स्वीकार होगा।
अर्थ: हे फरीद! अगर तू मालिक (-प्रभु) को हर जगह ढूँढता है (भाव, देखना चाहता है) तो रास्ते की दूब (जैसा) बन जा (जिसके) एक पौधे को (लोग) तोड़ते हैं, तो कई और पौधे (उनके पैरों तले) लिताड़े जाते हैं। (यदि तू ऐसा स्वभाव बना लें) तो तू मालिक के दर पर स्वीकार होगा।16।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा खाकु न निंदीऐ खाकू जेडु न कोइ ॥ जीवदिआ पैरा तलै मुइआ उपरि होइ ॥१७॥

मूलम्

फरीदा खाकु न निंदीऐ खाकू जेडु न कोइ ॥ जीवदिआ पैरा तलै मुइआ उपरि होइ ॥१७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खाकु = मिट्टी। जेडु = जितना, जैसा।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘खाकु’ शब्द के आखिर में सदा ‘ु’ मात्रा होती है, इसी तरह और शब्द ‘खंडु, विसु, जिंदु। जब इन ‘ु’ अंत वाले शब्दों के साथ कोई ‘संबन्धक’ बरता जाता है अथवा इनको किसी ‘कारक’- रूप में प्रयोग किया जाता है तो ‘ु’ की जगह ‘ू’ हो जाता है, जैसे ‘खाकु’ से ‘खाकू’, जिंदु’ से ‘जिंदू’, ‘विसु’ से ‘विसू’।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे फरीद! मिट्टी को बुरा नहीं कहना चाहिए, मिट्टी की बराबरी कोई नहीं कर सकता। (मनुष्य के) पैरों तले होती है, (पर मनुष्य के) मरने पर उसके ऊपर हो जाती है, (इसी तरह ‘गरीबी-स्वभाव’ की रीस नहीं हो सकती, ‘गरीबी स्वभाव’ वाला व्यक्ति जिंदगी में चाहे सबकी ज्यादती सहता है, पर मन को मारने के कारण आत्मिक अवस्था में सबसे ऊँचा होता है)।17।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा जा लबु ता नेहु किआ लबु त कूड़ा नेहु ॥ किचरु झति लघाईऐ छपरि तुटै मेहु ॥१८॥

मूलम्

फरीदा जा लबु ता नेहु किआ लबु त कूड़ा नेहु ॥ किचरु झति लघाईऐ छपरि तुटै मेहु ॥१८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नेहु किआ = कैसा पयार? (भाव, असली पयार नहीं)। कूड़ा = झूठा। किचरु = कितना चिर? कब तक? झति = समय। छपरि = छप्पर पर। छपरि तूटे = टूटे हुए छप्पर पर। मेहु = बरसात।
अर्थ: हे फरीद! अगर (ईश्वर की बँदगी करते-करते बतौर इवज़ाने कोई दुनिया का) लालच है, तो (ईश्वर से) असल प्यार नहीं है। (जब तक) लालच है, तब तक पयार झूठा है। टूटे हुए छप्पर पर वर्षा होने पर कितना समय निकल सकेगा? (भाव, जब दुनिया वाली गरज़ पूरी ना हुई, पयार टूटेगा)।18।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा जंगलु जंगलु किआ भवहि वणि कंडा मोड़ेहि ॥ वसी रबु हिआलीऐ जंगलु किआ ढूढेहि ॥१९॥

मूलम्

फरीदा जंगलु जंगलु किआ भवहि वणि कंडा मोड़ेहि ॥ वसी रबु हिआलीऐ जंगलु किआ ढूढेहि ॥१९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जंगलु जंगलु = हरेक जंगल में। किआ भवहि = भ्रमण का क्या लाभ? वणि = बन में, जंगल में। किआ मोड़ेहि = क्यों लिताड़ता है? वसी = बसता है। हिआलीऐ = हृदय में। किआ ढूढेहि = तलाशने का कया लाभ?
अर्थ: हे फरीद! हरेक जंगल को गाहने का क्या लाभ है? जंगल में काँटें क्यों लिताड़ता फिरता है? रब (तो तेरे) हृदय में बसता है, जंगल को तलाशने का क्या फायदा?।19।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा इनी निकी जंघीऐ थल डूंगर भविओम्हि ॥ अजु फरीदै कूजड़ा सै कोहां थीओमि ॥२०॥

मूलम्

फरीदा इनी निकी जंघीऐ थल डूंगर भविओम्हि ॥ अजु फरीदै कूजड़ा सै कोहां थीओमि ॥२०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इनी जंघीऐ = इन लातों से। डूगर = पहाड़। भविओम्हि = मैंने ढूँढा, मैं घूम आया। अजु = (भाव,) बुढ़ापे में। फरीदै थीओमि = मैं फरीद को हो गया है। कूजड़ा = एक छोटा सा लोटा।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘भविओम्’ में अक्षर ‘म’ के तले आधा ‘ह’ है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे फरीद! इन छोटी-छोटी बातों से (जवानी के वक्त) मैं थल और पहाड़ फिर आता रहा, पर आज (बुढ़ापे में) मुझे फरीद को (यह थोड़ी सी दूर पड़ा हुआ) लोटा सौ कोसों पर हो गया है (सो, बँदगी का वक्त भी जवानी ही है जब शरीर काम दे सकता है)।20।

[[1379]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा राती वडीआं धुखि धुखि उठनि पास ॥ धिगु तिन्हा दा जीविआ जिना विडाणी आस ॥२१॥

मूलम्

फरीदा राती वडीआं धुखि धुखि उठनि पास ॥ धिगु तिन्हा दा जीविआ जिना विडाणी आस ॥२१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धुखि उठनि = धुख उठते हैं, अकड़ जाते हैं। पास = शरीर के पासे। विडाणी = बेगानी। वडीआं = लंबियां। ध्रिगु = धिक्कारयोग्य।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘पास’ और ‘पासि’ में अंतर देखना आवश्यक है। देखो शलोक नं: 45 ‘पासि दमामे’। व्याकरण अनुसार शब्द ‘पास’ संज्ञा बहुवचन (Noun Plural) भाव, जिस्म के पासे, पसलियां। ‘पासि’ संबंधक है भाव, जिनके पास।
नोट: शब्द ‘जिनां’ और ‘तिनां’ के अक्षर ‘न’ के साथ ‘ह’ है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे फरीद! (सर्दियों की) लंबी रातों में (सो-सो के) पासे (पसलियां) अकड़ जाते हैं (इसी तरह पराई आस देखते हुए समय खत्म नहीं होता, पराए दर पर बैठ के बोर हो जाते हैं)। सो, जो लोग दूसरों की आस देखते हैं उनके जीवन को धिककार है, (आस एक रब की रखो)।21।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा जे मै होदा वारिआ मिता आइड़िआं ॥ हेड़ा जलै मजीठ जिउ उपरि अंगारा ॥२२॥

मूलम्

फरीदा जे मै होदा वारिआ मिता आइड़िआं ॥ हेड़ा जलै मजीठ जिउ उपरि अंगारा ॥२२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वारिआ होदा = छुपाया होता। मिता आइड़िआं = आए हुए मित्रों को। हेड़ा = शरीर, मास। मजीठ जिउ = मजीठ की तरह। जलै = जलता है।
अर्थ: हे फरीद! अगर मैं आए सज्जनों से कभी कुछ छुपा के रखूँ, तो मेरा शरीर (ऐसे) जलता है जैसे जलते हुए कोयलों पर मजीठ (भाव, घर-आए किसी अभ्यागत की सेवा करने से अगर कहीं मन खिसके तो जिंद को बहुत दुख प्रतीत होता है)।22।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: उपरोक्त दोनों शलोकों में मनुष्य को जीने की विधि सिखाते हुए, फरीद जी ने कहा है कि ना तो दूसरों के दरवाजों पर रुलता फिर, और ना ही घर आए किसी परदेसी की सेवा से चिक्त चुरा।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा लोड़ै दाख बिजउरीआं किकरि बीजै जटु ॥ हंढै उंन कताइदा पैधा लोड़ै पटु ॥२३॥

मूलम्

फरीदा लोड़ै दाख बिजउरीआं किकरि बीजै जटु ॥ हंढै उंन कताइदा पैधा लोड़ै पटु ॥२३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिजउरीआं = बिजौर के इलाके की (यह इलाका पठानी देश में मालाकंद स्वात से परे है)। दाखु = छोटा अंगूर। किकरि = किक्कर। हंढै = फिरता है। पैधा लोड़ै = पहनना चाहता है।
अर्थ: हे फरीद! (बँदगी के बिना सुखी जीवन की आस रखने वाला मनुष्य उस किसान की तरह है) जो किसान किक्करें बीजता है पर (उन किक्करों से) बिजौर के इलाके का छोटा अंगूर (खाना) चाहता है, (सारी उम्र) ऊन कातता फिरता है, पर रेशम पहनना चाहता है।23।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा गलीए चिकड़ु दूरि घरु नालि पिआरे नेहु ॥ चला त भिजै क्मबली रहां त तुटै नेहु ॥२४॥

मूलम्

फरीदा गलीए चिकड़ु दूरि घरु नालि पिआरे नेहु ॥ चला त भिजै क्मबली रहां त तुटै नेहु ॥२४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रहां = अगर मैं रह जाऊँ, (भाव,) अगर मैं ना जाऊँ। त = तो। तुटै = टूटता है। नेहु = प्यार।
अर्थ: हे फरीद! (बरखा के कारण) गली में कीचड़ है, (यहाँ से प्यारे का) घर दूर है (पर) प्यारे के साथ (मेरा) प्यार (बहुत) है। अगर मैं (प्यारे को मिलने के लिए) जाऊँ तो मेरी कंबली भीगती है, जो (बरखा के कीचड़ से डरता) ना जाऊँ तो मेरा प्यार टूटता है।24।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भिजउ सिजउ क्मबली अलह वरसउ मेहु ॥ जाइ मिला तिना सजणा तुटउ नाही नेहु ॥२५॥

मूलम्

भिजउ सिजउ क्मबली अलह वरसउ मेहु ॥ जाइ मिला तिना सजणा तुटउ नाही नेहु ॥२५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अलह = अल्लाह कर के, रब कर के। भिजउ = बेशक भीगे (let it be soaked).

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘भिजउ’ शब्द व्याकरण के अनुसार ‘हुकमी भविष्यत अन्य-पुरुष एकवचन (Imperative mood, Third person, Singular number) है, इस वास्ते शब्द ‘कंबली’ का अर्थ है ‘हे कंबली! ’ नहीं हो सकता। इसी तरह ‘वरसउ’ भी ‘हुकमी भविष्यत एकवचन’ है, इसका अर्थ ‘बेशक बरसे’ (Let it rain) यहाँ भी शब्द ‘मेहु’ का अर्थ ‘हे मींह तथा हे वर्षा’ नहीं हो सकता, क्योंकि शब्द ‘मेहु’ व्याकरण के अनुसार पत्यक्ष तौर पर ‘कर्ताकारक, एक वचन’ है। अगर ‘संबोधन’ होता तो इसके अंत में ‘ु’ ना होता। ज्यादा जानकारी के लिए देखें मेरा ‘गुरबाणी व्याकरण’)। शब्द ‘तुटउ’ भी शब्द ‘भिजउ सिजउ’ और ‘वरसउ’ की तरह ही है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (मेरी) कंबली भले ही अच्छी तरह भीग जाए, रब करे वर्षा (भी) होती रहे, (पर) मैं उन सज्जनों को अवश्य मिलूँगा, (ताकि कहीं) मेरा प्यार टूट ना जाए।25।

दर्पण-भाव

शलोक नंबर 24, 25 का भाव:
दरवेश को दुनिया का कोई लालच रब की बँदगी के रास्ते से दूर नहीं ले जा सकता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा मै भोलावा पग दा मतु मैली होइ जाइ ॥ गहिला रूहु न जाणई सिरु भी मिटी खाइ ॥२६॥

मूलम्

फरीदा मै भोलावा पग दा मतु मैली होइ जाइ ॥ गहिला रूहु न जाणई सिरु भी मिटी खाइ ॥२६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मै = मुझे। भोलावा = भेलेखा, धोखा, वहम, फिक्र। मतु = कहीं ऐसा ना हो, मत कहीं। मतु हो जाइ = कहीं ऐसा ना हो जाए। गहिला = बेपरवाह, गाफिल। जाणई = जानता।
अर्थ: हे फरीद! मुझे (अपनी) पगड़ी का फिक्र (रहता) है (कि मिट्टी से मेरी पगड़ी) कहीं मैली ना हो जाए, पर कमली जिंद यह नहीं जानती कि मिट्टी (तो) सिर को भी खा जाती है।26।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा सकर खंडु निवात गुड़ु माखिओु मांझा दुधु ॥ सभे वसतू मिठीआं रब न पुजनि तुधु ॥२७॥

मूलम्

फरीदा सकर खंडु निवात गुड़ु माखिओु मांझा दुधु ॥ सभे वसतू मिठीआं रब न पुजनि तुधु ॥२७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निवात = मिश्री। खंडु = मीठी वस्तु। माखिओु = माखिओ, शहद। रब = हे रब! हे परमात्मा! न पुजनि = नहीं पहुँचतीं। तुधु = तुझे।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘खंडु’ इस शब्द का अंत सदा ‘ु’ से है। देखें शलोक न: 37।
नोट: ‘माखिओु’ शब्द के अक्षर (पंजाबी ‘उ’ = हिन्दी में ‘अ’ लिखा है) को दो मात्राएं लगी हुई हैं ‘ु’ और ‘ो’। असल शब्द ‘ो’ मात्रा लगा के माखिओ है। पर यहाँ छंद की मात्राएं पूरी रखने के लिए पढ़ना है ‘माखिउ’। इस दो मात्राओं के विशय में ज्यादा जानकारी के लिए पढ़े ‘गुरबाणी व्याकरण’।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे फरीद! शक्कर, खंड, मिसरी, गुड़, शहद और माझा दूध- ये सारी चीजें मीठी हैं पर, हे रब! (मिठास में यह चीजें) तेरे (नाम की मिठास) तक नहीं पहुँच सकतीं।27।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा रोटी मेरी काठ की लावणु मेरी भुख ॥ जिना खाधी चोपड़ी घणे सहनिगे दुख ॥२८॥

मूलम्

फरीदा रोटी मेरी काठ की लावणु मेरी भुख ॥ जिना खाधी चोपड़ी घणे सहनिगे दुख ॥२८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काठ की रोटी = काठ की तरह सूखी रोटी, रूखी रोटी। लावणु = सब्जी, नमकीन। घणे = बहुत। चोपड़ी = चुपड़ी हुई स्वादिष्ट।
अर्थ: हे फरीद! (अपने हाथों की कमाई हुई) मेरी रूखी-सूखी (भाव, सादी) रोटी है, मेरी भूख ही (इस रोटी के साथ) नमकीन है। जो लोग चुपड़ी खाते हैं, वे बड़े कष्ट सहते हैं (भाव, अपनी कमाई की सादी रोटी बेहतर है, चस्के मनुष्य को दुखी करते हैं)।28।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुखी सुखी खाइ कै ठंढा पाणी पीउ ॥ फरीदा देखि पराई चोपड़ी ना तरसाए जीउ ॥२९॥

मूलम्

रुखी सुखी खाइ कै ठंढा पाणी पीउ ॥ फरीदा देखि पराई चोपड़ी ना तरसाए जीउ ॥२९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देखि = देख के।
अर्थ: हे फरीद! (अपनी कमाई की) रूखी-सुखी ही खा के ठंडा पानी पी ले। पर पराई स्वादिष्ट रोटी देख के अपना मन ना तरसाना।29।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इन तीन शलोकों में फरीद जी बताते हैं कि बँदगी करने वाले बंदे को परमात्मा का नाम सब पदार्थों से ज्यादा प्यारा लगता है। उस का जीवन संतोख वाला होता है। अपनी हक की कमाई के सामने वह बेगाने बढ़िया पदार्थों की भी परवाह नहीं करता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अजु न सुती कंत सिउ अंगु मुड़े मुड़ि जाइ ॥ जाइ पुछहु डोहागणी तुम किउ रैणि विहाइ ॥३०॥

मूलम्

अजु न सुती कंत सिउ अंगु मुड़े मुड़ि जाइ ॥ जाइ पुछहु डोहागणी तुम किउ रैणि विहाइ ॥३०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिउ = साथ। अंगु = शरीर, जिस्म। मुड़ि जाइ = टूट रहा है। मुड़े मुड़ि जाइ = मुड़ मुड़ जाता है, ऐसे है जैसे टूट रहा है। डोहागणी = दुहागनि, त्यागी हुई स्त्री, पति से विछुड़ी हुई, भाग्यहीन, मंद भागिनी। जाइ = जा के। रैणि = रात (भाव, सारी जिंदगी रूप रात)।
अर्थ: मैं (तो केवल) आज (ही) प्यारे के साथ नहीं सोई (भाव, मैं तो केवल आज ही प्यारे पति-परमात्मा में लीन नहीं हुई, और अब) यूँ है जैसे मेरा शरीर टूट रहा है। जा के त्यागी हुई स्त्री (भाग्यहीन दोहागिनों) को पूछो कि तुम्हारी (सदा ही) रात कैसे बीतती है (भाव, मुझे तो आज ही थोड़ा समय प्रभु बिसरा है और मैं दुखी हूँ। जिन्होंने कभी भी उसको याद ही नहीं किया, उनकी तो सारी उम्र ही दुख में गुजरती होगी)।30।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साहुरै ढोई ना लहै पेईऐ नाही थाउ ॥ पिरु वातड़ी न पुछई धन सोहागणि नाउ ॥३१॥

मूलम्

साहुरै ढोई ना लहै पेईऐ नाही थाउ ॥ पिरु वातड़ी न पुछई धन सोहागणि नाउ ॥३१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साहुरै = ससुराल घर, परलोक में, प्रभु की हजूरी में। ढोई = आसरा, जगह। पेईऐ = पेके घर, इस लोक में। पिरु = पति प्रभु। वातड़ी = थोड़ी सी बात। धन = स्त्री।
अर्थ: जिस स्त्री की थोड़ी सी बात भी पति नहीं पूछता, वह अपना नाम बेशक सोहागनि रखी रखे, पर उसको ना ससुराल और ना ही पेके घर कोई जगह कोई आसरा मिलता है (भाव, प्रभु की याद से टूटे हुए जीव लोक-परलोक दोनों जगह दुखी होते हें, बाहर से बँदगी वाला भेस कोई सहायता नहीं कर सकता)।31।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साहुरै पेईऐ कंत की कंतु अगमु अथाहु ॥ नानक सो सोहागणी जु भावै बेपरवाह ॥३२॥

मूलम्

साहुरै पेईऐ कंत की कंतु अगमु अथाहु ॥ नानक सो सोहागणी जु भावै बेपरवाह ॥३२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अगंमु = पहुँच से परे। अथाहु = गहरा, अगाध। बेपरवाह भावै = बेपरवाह को प्यारी लगती है।
अर्थ: हे नानक! पति-परमात्मा जीवों की पहुँच से परे है, और बहुत गहरा है (भाव, वह इतना जिगरे वाला है कि भूलने वालों पर भी गुस्सा नहीं होता; पर) सोहागनि (जीव-स्त्री) वही है जो उस बेपरवाह प्रभु को प्यारी लगती है, जो इस लोक और परलोक में उस पति की बन के रहती है।32।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: यह शलोक गुरु नानक देव जी का है, ‘वार मारू म: ३’ की छेवीं पउड़ी में भी शलोक दर्ज है, कई शब्दों का फर्क है, वहाँ ये शलोक इस प्रकार है;
महला १॥ ससुरै पेईऐ कंत की, कंतु अगंमु अथाहु॥ नानक धंनु सुोहागणी जो भावहि वेपरवाहु॥२॥६॥
फरीद जी ने शलोक नं31 में बताया है कि अगर पति कभी बात ही ना पूछे तो सिर्फ नाम ही ‘सोहागनि’ रख लेना किसी काम का नहीं। गुरु नानक देव जी ने ‘सोहागिनि’ के असल लक्षण भी इस शलोक में बता के फरीद जी के शलोक की और ज्यादा व्याख्या कर दी है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाती धोती स्मबही सुती आइ नचिंदु ॥ फरीदा रही सु बेड़ी हिंङु दी गई कथूरी गंधु ॥३३॥

मूलम्

नाती धोती स्मबही सुती आइ नचिंदु ॥ फरीदा रही सु बेड़ी हिंङु दी गई कथूरी गंधु ॥३३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संबही = सजी हुई, फबती। नचिंदु = बे फिक्र। बेड़ी = लिबड़ी हुई। कथूरी = कस्तूरी। गंधु = सुगंधि, खुशबो।33।
अर्थ: (जो जीव-स्त्री) नहा-धो के (पति मिलने की आस में) तैयार बैठी हो, (पर फिर) बे फिक्र हो के सो गई, हे फरीद! उसकी कस्तूरी वाली सुगंधि तो उड़ गई, वह हींग की (बदबू से) भरी रह गई (भाव, जो बाहरी धार्मिक साधन कर लिए, पर स्मरण से टूटे रहे तो भले गुण सब दूर हो जाते हैं, और पल्ले अवगुण ही रह जाते हैं)।33।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जोबन जांदे ना डरां जे सह प्रीति न जाइ ॥ फरीदा कितीं जोबन प्रीति बिनु सुकि गए कुमलाइ ॥३४॥

मूलम्

जोबन जांदे ना डरां जे सह प्रीति न जाइ ॥ फरीदा कितीं जोबन प्रीति बिनु सुकि गए कुमलाइ ॥३४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहु = पति। सह प्रीति = पति का प्यार। किती = कितने ही।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: शब्द ‘सहु’ औह ‘सह’ के ‘जोड़’, ‘उच्चारण’ और ‘अर्थ’ के अंतर को पाठक ध्यान से देख लें)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: अगर पति (-प्रभु) के साथ मेरी प्रीति ना टूटे तो मेरी जवानी के (गुजर) जाने का डर नहीं है। हे फरीद! (प्रभु की) प्रीति से वंचित कितने ही जोबन कुम्हला के सूख गए (भाव, अगर प्रभु-चरणों के साथ प्यार नहीं बना तो मनुष्य-जीवन का जोबन व्यर्थ ही गया)।34।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा चिंत खटोला वाणु दुखु बिरहि विछावण लेफु ॥ एहु हमारा जीवणा तू साहिब सचे वेखु ॥३५॥

मूलम्

फरीदा चिंत खटोला वाणु दुखु बिरहि विछावण लेफु ॥ एहु हमारा जीवणा तू साहिब सचे वेखु ॥३५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चिंत = चिन्ता। खटोला = चारपाई, छोटी सी खाट। बिरह = विरह, विछोड़ा। बिरहि = विछोड़े में (तड़पना)। विछावण = तुलाई, बिछौना। साहिब = हे साहिब!
अर्थ: हे फरीद! (प्रभु की याद भुला के) चिन्ता (हमारी) छोटी सी खाट (बनी हुई है), दुख (उस चारपाई का) वाण है (जिससे चारपाई बुनी हुई है) और विछोड़े के कारण (दुख की) तुलाई और लेफ है। हे सच्चे मालिक! देख, (तुझसे विछुड़ के) यह है हमारा जीवन (का हाल)।35।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिरहा बिरहा आखीऐ बिरहा तू सुलतानु ॥ फरीदा जितु तनि बिरहु न ऊपजै सो तनु जाणु मसानु ॥३६॥

मूलम्

बिरहा बिरहा आखीऐ बिरहा तू सुलतानु ॥ फरीदा जितु तनि बिरहु न ऊपजै सो तनु जाणु मसानु ॥३६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिरहा = विछोड़ा। आखीऐ = कहा जाता है। सुलतानु = राजा। जितु तनि = जिस तन में। बिरहु = विछोड़ा, विछोड़े की सूझ। मसानु = मुर्दें जलाने की जगह। जितु = जिस में। तनि = तन में।
अर्थ: हर कोई कहता है (हाय!) विछोड़ा (बुरा) (हाय!) विछोड़ा (बुरा)। पर, हे विछोड़े! तू बादशाह है (भाव, तुझे मैं सलाम करता हूँ, क्योंकि), हे फरीद! जिस शरीर में विछोड़े का दर्द नहीं पैदा होता (भाव, जिस मनुष्य को कभी ये चुभन नहीं लगी कि मैं प्रभु से विछुड़ा हुआ हूँ) उस शरीर को मसाण समझो (भाव, उस शरीर में रहने वाली रूह विकारों में जल रही है)।36।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा ए विसु गंदला धरीआं खंडु लिवाड़ि ॥ इकि राहेदे रहि गए इकि राधी गए उजाड़ि ॥३७॥

मूलम्

फरीदा ए विसु गंदला धरीआं खंडु लिवाड़ि ॥ इकि राहेदे रहि गए इकि राधी गए उजाड़ि ॥३७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ए = ये दुनिया के पदार्थ। विसु = जहर। गंदला = गंदल, नर्म डंठल (जैसे सरसों आदि के)। खंडु लिवाड़ि = खंड के साथ लपेट के। इकि = कई जीव। राहेदे = बीजते। रहि गए = थक गए, मर गए। राधी = बीजी हुई। उजाड़ि = उजाड़ के, वीरान करके।
अर्थ: हे फरीद! ये दुनिया के पदार्थ (मानो,) जहर-भरी गंदलें हैं, जो खंड के साथ लपेट के रखी हुई हैं। इन गंदलों को कई बीजते ही मर गए और, बीजे हुओं को (बीच में ही) छोड़ गए।37।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा चारि गवाइआ हंढि कै चारि गवाइआ समि ॥ लेखा रबु मंगेसीआ तू आंहो केर्हे कमि ॥३८॥

मूलम्

फरीदा चारि गवाइआ हंढि कै चारि गवाइआ समि ॥ लेखा रबु मंगेसीआ तू आंहो केर्हे कमि ॥३८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हंढि कै = हंढा के, भटक के, दौड़ भाग करके। संमि = सो के। मंगेसीआ = माँगेगा। आंहो = आया था। केर्हे कंमि = केड़े कंमि, किस काम के लिए?
अर्थ: हे फरीद! (इन विष-गंदलों के लिए, दुनिया के इन पदार्थों के लिए) चार (पहर दिन) तूने दौड़-भाग के व्यर्थ गुजार दी है, और चार (पहर रात) सो के गवा दी है। परमात्मा हिसाब माँगेगा कि (जगत में) तू किस काम के लिए आया था।38।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा दरि दरवाजै जाइ कै किउ डिठो घड़ीआलु ॥ एहु निदोसां मारीऐ हम दोसां दा किआ हालु ॥३९॥

मूलम्

फरीदा दरि दरवाजै जाइ कै किउ डिठो घड़ीआलु ॥ एहु निदोसां मारीऐ हम दोसां दा किआ हालु ॥३९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दरि = दर पर, दरवाजे पर। दरवाजै = दरवाजे पर। जाइ कै = जा के। किउं = क्यों? क्या? निदोसा = निर्दोषों। मारीऐ = मार खाता है।
अर्थ: हे फरीद! क्या (किसी) दर पे (किसी) दरवाजे पर (कभी) घंटा (बजता) देखा है? ये (घड़ियाल या घंटा) बिना किसी दोष के (ही) मार खाता है, (भला,) हम दोषियों का क्या हाल?

विश्वास-प्रस्तुतिः

घड़ीए घड़ीए मारीऐ पहरी लहै सजाइ ॥ सो हेड़ा घड़ीआल जिउ डुखी रैणि विहाइ ॥४०॥

मूलम्

घड़ीए घड़ीए मारीऐ पहरी लहै सजाइ ॥ सो हेड़ा घड़ीआल जिउ डुखी रैणि विहाइ ॥४०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घड़ीए घड़ीए = घड़ी घड़ी के बाद। पहरी = पहर पहर के बाद। सजाइ = दण्ड, मार, सजा। हेड़ा = शरीर। सिउ = की तरह। रैणि = (जिंदगी की) रात। विहाइ = गुजरती है, बीतती है।
अर्थ: (घंटे को) हरेक घड़ी के बाद मार पड़ती है, हरेक पहर के बाद (यह) मार खाता है। घंटे की तरह ही है वह शरीर (जिसने ‘विसु गंदलों’ की खातिर ही उम्र गुजार दी)। उसकी (जिंदगी-रूप) रात दुखों में ही बीतती है।40।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

बुढा होआ सेख फरीदु क्मबणि लगी देह ॥ जे सउ वर्हिआ जीवणा भी तनु होसी खेह ॥४१॥

मूलम्

बुढा होआ सेख फरीदु क्मबणि लगी देह ॥ जे सउ वर्हिआ जीवणा भी तनु होसी खेह ॥४१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देह = शरीर। खेह = राख, मिट्टी। होसी = हो जाएगा।
अर्थ: (‘विसु गंदलों’ के पीछे दौड़-दौड़ के ही) शेख फरीद (अब) बुढा हो गया है, शरीर काँपने लग गया है। अगर सौ बरस भी जीवन मिल जाए, तो भी (आखिर को) शरीर मिट्टी हो जाएगा (और इन ‘विसु गंदलों’ से साथ टूट जाएगा)।41।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा बारि पराइऐ बैसणा सांई मुझै न देहि ॥ जे तू एवै रखसी जीउ सरीरहु लेहि ॥४२॥

मूलम्

फरीदा बारि पराइऐ बैसणा सांई मुझै न देहि ॥ जे तू एवै रखसी जीउ सरीरहु लेहि ॥४२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बार = दरवाजे पर। बारि पराइऐ = पराए दरवाजे पर। बैसणा = बैठना। सांई = हे सांई! एवै = इस तरह, (भाव, दूसरों के दरवाजे पर)। सरीरहु = शरीर में से। जीउ = जिंद।
अर्थ: हे फरीद! (कह:) हे साई! (इन दुनिया के पदार्थों की खातिर) मुझे पराऐ दरवाजे पर ना बैठाना। पर, अगर तूने ऐसे ही रखना है (भाव, अगर तूने मुझे दूसरों का मुथाज बनाना है) तो मेरे शरीर में से प्राण निकाल ले।42।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कंधि कुहाड़ा सिरि घड़ा वणि कै सरु लोहारु ॥ फरीदा हउ लोड़ी सहु आपणा तू लोड़हि अंगिआर ॥४३॥

मूलम्

कंधि कुहाड़ा सिरि घड़ा वणि कै सरु लोहारु ॥ फरीदा हउ लोड़ी सहु आपणा तू लोड़हि अंगिआर ॥४३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कंधि = कांधे पर। सिरि = सिर पर। वणि = वन में, जंगल में। कैसरु = बादशाह। हउ = मैं। सहु = पति। लोड़ी = मैं ढूँढता हूँ। अंगिआर = भखते कोयले।
अर्थ: कंधे पर कोहाड़ा और सिर पर घड़ा (रख के) लोहार जंगल में बादशाह (बना होता) है (क्योंकि जिस पेड़ पर चाहे कुहाड़ा चला सकता है) (इसी तरह मनुष्य जगत-रूप जंगल में सरदार है)। हे फरीद! (कह:) मैं तो (इस जगत रूप जंगल में) अपने मालिक-प्रभु को तलाश रहा हूँ, और, तू, (हे जीव! लोहार की तरह) कोयले (लोहार लकड़ी से कोयला बनाता है) ढूँढ रहा है (भाव, ‘विसु गंदल’-रूपी कोयले ढूंढता है)।43।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: अब तक सारे टीकाकार इस शलोक की पहली तुक के आखिरी हिस्से का पद–विच्छेद इस तरह करते चले आ रहे हैं: ‘वणि कै सरु’ और इसका अर्थ करते हैं:‘वन के सिर पर’। पर, यह पद–विच्छेद भी गलत है और इसका अर्थ भी गलत है। शलोक की पहली तुक में आए शब्द ‘कंधि’ और ‘सिरि’ का अर्थ है ‘कांधे पर’ व्याकरण के अनुसार यह शब्द ‘अधिकरण कारक, एक वचन’ है। अब तक पहले आ चुके शलोकों में निम्न-लिखित शब्दों पर भी ध्यान दें;
शलोक नं: १ कै गलि– किसके गले में?
शलोक नं: 7 घरि –घर में।
शलोक नं: 13 चिति– चिक्त में।
शलोक नं: 16 दरि– दर पर।
शलोक नं: 18 तुटै छपरि– टूटे हुए छप्पर पर।
शलोक नं: 19 वणि– वन में।
शलोक नं: 36 जितु तनि– जिस शरीर में।
शलोक नं: 39 दरि– दर पर।
शलोक नं: 42 बारि– बार पर, दरवाजे पर।
पर, वणि कै सरु’ में शब्द ‘सरु’ का जोड़ ऊपर दिए शब्दों की तरह नहीं है। इसके आखिर में ‘ि’ की जगह ‘ु’ मात्रा है, जैसे इसी ही शलोक में शब्द ‘लोहारु’ और ‘सहु’ हैं। शब्द ‘लोहारु’ का अर्थ ‘लोहार में’ अथवा ‘लोहार पर’ नहीं हो सकता; ‘सहु’ का अर्थ ‘सहु में’ अथवा ‘सहु पर’ नहीं हो सकता। इसी ही शलोक ‘सरु’ का अर्थ ‘सिर पर’ नहीं हो सकता। इसी ही शलोक में शब्द ‘सिरि’ और ‘सरु’ हैं। दोनों के जोड़ स्पष्ट तौर पर अलग-अलग दिख रहे हैं, अर्थ दोनों का एक नहीं हो सकता।
जैसे शब्द ‘कंधि’ और ‘सिरि’ को किसी ‘संबंधक’ की जरूरत नहीं, आखिरी मात्रा (ि) के साथ इनका अर्थ है ‘कांधे पर’, ‘सिर पर’; इसी तरह शब्द ‘वणि’ को भी किसी संबंधक की आवश्यक्ता नहीं, इसका अर्थ है ‘वन में’। सो, शब्द ‘कै’ का कोई संबंध शब्द ‘वणि’ के साथ नहीं है। सही पद्–विच्छेद है ‘वणि+कैसरु (भाव,) ‘जगत–रूप वन के बादशाह’।
कई सज्जन ‘घड़े’ और ‘कुहाड़े’ का आपस में संबंध समझने में मुश्किल महसूस कर रहे हैं। पर, साधारण सी बात है। जिस मजदूर ने सारा दिन किसी जंगल में जा के काम करना है, उसने रोटी पानी का प्रबंध भी घर से ही करके चलना है। सिख इतिहास में गुरु हरिगोबिंद साहिब के वक्त भाई साधु और भाई रूपे की साखी प्रसिद्ध है। ये भी जंगल में से लकड़ियाँ काटने का काम करते थे। घर से ही पानी का घड़ा ला के किसी पेड़ के साथ लटका के रखते थे। एक दिन गर्मियों की ऋतु में यह पानी बहुत ही ठंडा देख के भाई साधु और भाई रूपे के दिल में तमन्ना पैदा हुई कि खुद पीने से पहले ये ठंडा पानी गुरु हरि गोबिंद साहिब को भेटा करें। उन दिनों गुरु हरि गोबिंद साहिब जी डरोली गए हुए थे। दिलों का दिलों से मेल होता है। इनकी तीव्र खींच महसूस कर के सतिगुरु जी दोपहर के वक्त घोड़े पर चढ़ कर इनके पास पहुँचे थे। जिस इलाके में फरीद जी रहते थे, उधर गर्मी बहुत है। जंगल भी तब बहुत थे, और पानी का प्रबंध कहीं आस-पास नहीं होता था। फरीद जी ने उन जंगलों में से लकड़ियों काटने वाले लोहारों को कई बार घर से पानी का घड़ा ले जाते हुए देखा होगा।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा इकना आटा अगला इकना नाही लोणु ॥ अगै गए सिंञापसनि चोटां खासी कउणु ॥४४॥

मूलम्

फरीदा इकना आटा अगला इकना नाही लोणु ॥ अगै गए सिंञापसनि चोटां खासी कउणु ॥४४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अगला = बहुत ज्यादा। लोणु = नमक। आगै = परलोक में। सिंञापसन्हि = (सिआंपसनि, सिआणे जाणा = पहचाने जाना) पहचाने जाएंगे। खासी = खाएगा।44।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: अक्षर ‘नि्’ के अंत में आधा अक्षर ‘ह’ है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे फरीद! कई लोगों के पास आटा बहुत है (‘विसु गंदलें’ बहुत हैं, दुनिया के पदार्थ बहुत हैं), एक के पास (इतना भी) नहीं जितना (आटे में) नमक (डाला जाता) है। (मनुष्य के जीवन की सफलता का पैमाना यह ‘विसु गंदलें’ नहीं), आगे जा के (कर्मों पर) पहचान होगी कि मार किस को पड़ती है।44।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पासि दमामे छतु सिरि भेरी सडो रड ॥ जाइ सुते जीराण महि थीए अतीमा गड ॥४५॥

मूलम्

पासि दमामे छतु सिरि भेरी सडो रड ॥ जाइ सुते जीराण महि थीए अतीमा गड ॥४५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पासि = पास (जिन्हों के)। दमामे = धौंसे। छतु = छत्र। सिरि = सिर पर (देखों शलोक नं: 43)। भेरी = तूतीआं। सडो = बुलावा। रड = एक ‘छंत’ का नाम है जो स्तुति के लिए बरता जाता है (देखो सवैये महले चउथे के, भाट नल्ह, छंत नं: 1/5 से 8/12)। जीराण = मसाण। अतीम = यतीम। गड थीए = रल मिल गए।
अर्थ: (इन ‘विसु गंदलों’ का क्या माण?) (जिस लोगों के) पास धौंसे (बजते थे), सिर पर छत्र (झूलते थे), तूतीआं (बजती थीं) स्तुति के छंद (गाए जाते हैं), वह भी आखिर मसाणों में जा के सो गए, और यतीमों के साथ जा मिले (भाव, यतीमों जैसे ही हो गए)।45।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा कोठे मंडप माड़ीआ उसारेदे भी गए ॥ कूड़ा सउदा करि गए गोरी आइ पए ॥४६॥

मूलम्

फरीदा कोठे मंडप माड़ीआ उसारेदे भी गए ॥ कूड़ा सउदा करि गए गोरी आइ पए ॥४६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंडप = शामियाने। माढ़ीआ = चुबारों वाले महल। कूड़ा = झूठा, संग ना निभने वाला। गोरी = गोर में, कब्रों में।
अर्थ: हे फरीद! (‘विसु गंदलों’ के व्यापारियों की ओर देखो) घर महल-माड़ियां उसारने वाले भी (इनको छोड़ के) चले गए। वही सौदा किया, जो साथ नहीं निभा और (आखिर में खाली हाथ) कब्रों में जा पड़े।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा खिंथड़ि मेखा अगलीआ जिंदु न काई मेख ॥ वारी आपो आपणी चले मसाइक सेख ॥४७॥

मूलम्

फरीदा खिंथड़ि मेखा अगलीआ जिंदु न काई मेख ॥ वारी आपो आपणी चले मसाइक सेख ॥४७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खिंथड़ि = गोदड़ी। मेखा = मेखां, कीलें, टांके, तरोपे। अगलीआ = बहुत (देखें शलोक नं 44 ‘अगला’)। मसाइक = (शेख का बहुवचन) कई शेख।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिंदु’ शब्द का सदा ‘ु’ के साथ अंत होता है, देखो ‘गुरबाणी व्याकरण’।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे फरीद! ये ‘विसु गंदलें’ तो कहां रहीं, इस अपनी जिंद की भी कोई पायां नहीं (इससे तो नकारी गोदड़ी का ही ज्यादा ऐतबार हो सकता है, क्योंकि) गोदड़ी को कई टांके लगे हुए हैं, पर जिंद को एक भी टाँका नहीं (क्या पता, किस वक्त शरीर से अलग हो जाए?) बड़े-बड़े कहलवाने वाले शेख आदि सब अपनी-अपनी बारी में यहाँ से चले गए।47।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा दुहु दीवी बलंदिआ मलकु बहिठा आइ ॥ गड़ु लीता घटु लुटिआ दीवड़े गइआ बुझाइ ॥४८॥

मूलम्

फरीदा दुहु दीवी बलंदिआ मलकु बहिठा आइ ॥ गड़ु लीता घटु लुटिआ दीवड़े गइआ बुझाइ ॥४८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुह दीवी बलंदिआ = अभी ये दोनों दीए जलते ही थे, (भाव,) इन दोनों आँखों के सामने ही। मलकु = (मौत का) फरिश्ता। गड़ु = गढ़, किला (शरीर रूप)। घटु = हृदय, अंतहकरण। लीता = ले लिया, कब्जा कर लिया।
अर्थ: हे फरीद! इन दोनों आँखों के सामने (इन दोनों दीयों के जलते ही) मौत का फरिश्ता (जिस भी व्यक्ति के पास) आ बैठा, उसने उसके शरीर-रूप किले पर कब्जा कर लिया, अतंहकरण लेट लिया (भाव, जिंद काबू कर ली) और (इन आँखों के) दीए बुझा गया।48।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा वेखु कपाहै जि थीआ जि सिरि थीआ तिलाह ॥ कमादै अरु कागदै कुंने कोइलिआह ॥ मंदे अमल करेदिआ एह सजाइ तिनाह ॥४९॥

मूलम्

फरीदा वेखु कपाहै जि थीआ जि सिरि थीआ तिलाह ॥ कमादै अरु कागदै कुंने कोइलिआह ॥ मंदे अमल करेदिआ एह सजाइ तिनाह ॥४९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जि = जो कुछ। थीआ = हुआ, बीता। सिरि = सिर पर (देखो शलोक नं: 43)। कुंनी = मिट्टी की हांडी। सजाइ = दण्ड। तिनाह = उनको। अमल = काम, करतूतें।
अर्थ: हे फरीद! देख! जो हालत कपास की होती है (भाव, बेलने में बेली जाती है), जो तिलों के सिर पर बीतती है (कोल्हू में पीढ़े जाते हैं), जो कमाद, कागज़, मिट्टी की हांडी और कोयलों के साथ बरतती है, यह सज़ा उन लोगों को मिलती है जो (इन ‘विसु गंदलों’ की खातिर) बुरे काम करते हैं (भाव, ज्यों-ज्यों दुनियावी पदार्थों की खातिर बुरे काम करते हैं, त्यों त्यों बहुत दुखी होते हैं)।49।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा कंनि मुसला सूफु गलि दिलि काती गुड़ु वाति ॥ बाहरि दिसै चानणा दिलि अंधिआरी राति ॥५०॥

मूलम्

फरीदा कंनि मुसला सूफु गलि दिलि काती गुड़ु वाति ॥ बाहरि दिसै चानणा दिलि अंधिआरी राति ॥५०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कंनि = कंधे पर। सूफु = काली खफनी। गलि = गले में। दिलि = दिल में।
अर्थ: हे फरीद! (तेरे) कांधे पर मुसला है, (तूने) गले में काली खफनी (डाली हुई है), (तेरे) मुँह में गुड़ है; (पर) दिल में कैंची है (भाव, बाहर लोगों को दिखाने के लिए फकीरी भेस है, मुँह से भी लोगों के साथ मीठा बोलता है, पर दिल से ‘विसु गंदलों’ की खातिर खोटा है सो) बाहर तो रौशनी दिख रही है (पर) दिल में अंधेरी रात (बनी हुई) है।50।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा रती रतु न निकलै जे तनु चीरै कोइ ॥ जो तन रते रब सिउ तिन तनि रतु न होइ ॥५१॥

मूलम्

फरीदा रती रतु न निकलै जे तनु चीरै कोइ ॥ जो तन रते रब सिउ तिन तनि रतु न होइ ॥५१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रती = रक्ती जितना भी। रतु = लहू। रते = रंगे हुए। सिउ = साथ। तिन तनि = उनके तन में।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘रतु’ शब्द ‘स्त्रीलिंग’ है, गुरमुखी में इसके अंत में ‘ु’ सदा रहता है; इस जैसे और शब्द जो इन शलोकों में ही आए हैं, ये हैं: जिंदु, खंडु, मैलु, विसु, खाकु।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे फरीद! जो लोग रब के साथ रंगे होते हैं (भाव, रब के प्यार में रंगे होते हैं), उनके शरीर में (‘विसु गंदलों’ का मोह रूप) लहू नहीं होता, अगर कोई (उनका) शरीर चीरे (तो उसमें से) रक्ती जितना भी लहू नहीं निकलता (पर, हे फरीद! तूने तो मुसले और खफनी आदि से निरा बाहर का ही ख्याल रखा हुआ है)।51।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ इहु तनु सभो रतु है रतु बिनु तंनु न होइ ॥ जो सह रते आपणे तितु तनि लोभु रतु न होइ ॥ भै पइऐ तनु खीणु होइ लोभु रतु विचहु जाइ ॥ जिउ बैसंतरि धातु सुधु होइ तिउ हरि का भउ दुरमति मैलु गवाइ ॥ नानक ते जन सोहणे जि रते हरि रंगु लाइ ॥५२॥

मूलम्

मः ३ ॥ इहु तनु सभो रतु है रतु बिनु तंनु न होइ ॥ जो सह रते आपणे तितु तनि लोभु रतु न होइ ॥ भै पइऐ तनु खीणु होइ लोभु रतु विचहु जाइ ॥ जिउ बैसंतरि धातु सुधु होइ तिउ हरि का भउ दुरमति मैलु गवाइ ॥ नानक ते जन सोहणे जि रते हरि रंगु लाइ ॥५२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभो = सारा ही। रतु बिनु = लहू के बिना। तंनु = तन, शरीर। सह = पति। सह रते = पति के साथ रंगे हुए। तितु तनि = उस शरीर में। तितु = उस में। भै पइऐ = डर में पड़ने से, डर में रहने से। खीणु = पतला, लिस्सा। जाइ = दूर हो जाती है। बैसंतरि = आग में। सुधु = साफ। जि = जो। रंगु = प्यार।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘रतु बिनु’ को ध्यान दें। जो शब्द अपनी संरचना अनुसार सदा ‘ु’ मात्रा से अंत होता है, उनकी ये ‘ु’ की मात्रा ‘संबंधक’ के साथ भी टिकी रहती है। यहाँ शब्द ‘रतु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘बिनु’ के होने के बावजूद कायम है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: यह सारा शरीर लहू है (भाव, सारे शरीर में खून मौजूद है), लहू के बिना शरीर रह नहीं सकता (फिर, शरीर को चीरने से, भाव, शरीर की पड़ताल करने से, कौन सा लहू नहीं निकलता?) जो लोग अपने पति (प्रभु के प्यार) में रंगे हुए हें (उनके) इस शरीर में लालच-रूप लहू नहीं होता।
अगर (परमात्मा के) डर में जीएं, तो शरीर (इस तरह) कमजोर हो जाता है (कि) इसमें से लोभ रूपी लहू निकल जाता है। जैसे आग में (डालने से सोना आदि) धातु साफ हो जाती है; इसी तरह परमात्मा का डर (मनुष्य की) बुरी मति-रूपी मैल को काट देता है। हे नानक! वे लोग सोहणे हैं जो परमात्मा के साथ नेहु लगा के (उसके नेहु में) रंगे हुए हैं।52।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: फरीद जी ने जिस ‘रतु’ का वर्णन शलोक नं: 51 में किया है, उसको शलोक नं: 50 में शब्द ‘दिलि काती’ में इशारे मात्र ही बताया है। उसको और स्पष्ट करने के लिए गुरु अमरदास जी ने ये शलोक उचारा।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा सोई सरवरु ढूढि लहु जिथहु लभी वथु ॥ छपड़ि ढूढै किआ होवै चिकड़ि डुबै हथु ॥५३॥

मूलम्

फरीदा सोई सरवरु ढूढि लहु जिथहु लभी वथु ॥ छपड़ि ढूढै किआ होवै चिकड़ि डुबै हथु ॥५३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरवरु = सोहणा तालाब (सर = तालाब। वर = श्रेष्ठ)। वथु = (असल) चीज़। छपड़ि ढूढै = अगर छप्पड़ ढूँढें। चिकड़ि = कीचड़ में।53।
अर्थ: हे फरीद! वही सुंदर तालाब ढूँढ, जिसमें से (असल) चीज़ (नाम-रूप मोती) मिल जाए, छप्पड़ तलाशे कुछ नहीं मिलता, (वहाँ से तो) कीचड़ में (ही) हाथ डूबता है।53।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शलोक नं: 50 में बताए भेखी को इस शलोक में ‘छप्पर’ जैसा बताया है, और शलोक नं: 51 में बताए सच्चे प्यार वाले बंदे को यहाँ ‘सरवरु’ कहा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा नंढी कंतु न राविओ वडी थी मुईआसु ॥ धन कूकेंदी गोर में तै सह ना मिलीआसु ॥५४॥

मूलम्

फरीदा नंढी कंतु न राविओ वडी थी मुईआसु ॥ धन कूकेंदी गोर में तै सह ना मिलीआसु ॥५४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नंढी = जवान स्त्री ने। न राविओ = को पाने का सुख नहीं पाया, नहीं भोगा। वडी थी = बुढी हो के। मुईआस = मुईआ सु, वह मर गई। धन = स्त्री। गोर में = कब्र में। तै = तुझे। सह = हे सह! हे पति! नामिलिआसु = वह ना मिली।54।
अर्थ: हे फरीद! जिस जवान (जीव-) स्त्री ने (परमात्मा-) पति को नहीं पाया (भाव, जिस जीव ने जवानी के वक्त रब को ना स्मरण किया), वह (जीव-) स्त्री जब बुढी हो के मर गई तो (फिर) कब्र में तरले लेती है (भाव, मरने के बाद जीव पछताता है) कि हे (प्रभु-) पति! मैं तुझे (समय सिर) ना मिली।54।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा सिरु पलिआ दाड़ी पली मुछां भी पलीआं ॥ रे मन गहिले बावले माणहि किआ रलीआं ॥५५॥

मूलम्

फरीदा सिरु पलिआ दाड़ी पली मुछां भी पलीआं ॥ रे मन गहिले बावले माणहि किआ रलीआं ॥५५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पलिआ = सफेद हो गया। रे गहिले = हे गाफ़िल! बावला = कमला। रलीआं = मौजें।55।
अर्थ: हे फरीद! सिर सफेद हो गया है, दाढ़ी सफेद हो गई है, मूछें भी सफेद हो गई हैं। हे गाफिल और कमले मन! (अभी तू दुनिया की ही) मौजें क्यों ले रहा है?।55।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा कोठे धुकणु केतड़ा पिर नीदड़ी निवारि ॥ जो दिह लधे गाणवे गए विलाड़ि विलाड़ि ॥५६॥

मूलम्

फरीदा कोठे धुकणु केतड़ा पिर नीदड़ी निवारि ॥ जो दिह लधे गाणवे गए विलाड़ि विलाड़ि ॥५६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धुकणु = दौड़ना। केतड़ा = कहाँ तक? नीदड़ी = अनुचित नींद। निवारि = दूर कर। दिह = दिन। गाणवे दिह = (उम्र के) गिनती के दिन। लधे = मिले। विलाड़ि = दौड़ के, छलांगे लगा के, (भाव,) बड़ी जल्दी जल्दी।56।
अर्थ: हे फरीद! कोठे की दौड़ कहाँ तक (भाव, कोठे पर दौड़ लंबी नहीं हो सकती, इसी तरह रब से गाफिल कब तक रहेगा? उम्र आखिर खत्म हो जाएगी, इसलिए) रब (के प्रति) ये अनुचित (गफ़लत की) नींद दूर कर दे। (उम्र के) जो गिनती के दिन मिले हुए हैं वह छलांगे मार-मार के खत्म होते जा रहे हैं।56।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा कोठे मंडप माड़ीआ एतु न लाए चितु ॥ मिटी पई अतोलवी कोइ न होसी मितु ॥५७॥

मूलम्

फरीदा कोठे मंडप माड़ीआ एतु न लाए चितु ॥ मिटी पई अतोलवी कोइ न होसी मितु ॥५७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंडप = महल। एतु = इस में, इन (महल माड़ियों के सिलसिले) में।
अर्थ: हे फरीद! (यह जो तेरे) घर और महल-माढ़ियां (हैं, इनके) इस (सिलसिले) में चिक्त ना जोड़। (मरने पर जब कब्र में तेरे ऊपर) मनों भार मिट्टी पड़ेगी तब (इनमें से) कोई भी तेरा साथी नहीं बनेगा।57।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा मंडप मालु न लाइ मरग सताणी चिति धरि ॥ साई जाइ सम्हालि जिथै ही तउ वंञणा ॥५८॥

मूलम्

फरीदा मंडप मालु न लाइ मरग सताणी चिति धरि ॥ साई जाइ सम्हालि जिथै ही तउ वंञणा ॥५८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मरग = मौत। सताणी = स+ताणी, ताण वाली, बल वाली। चिति = चिक्त में। साई = वही। जाइ = जगह। जिथै ही = जहाँ आखिर को। वंञणा = जाना। मालु = धन।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘समा्लि’ में ‘म’ के नीचे आधा ‘ह’ है (सम्हालि)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे फरीद! (सिर्फ) महल-माड़ियों और धन को चिक्त में ना टिकाए रख, (सबसे) बलवान मौत को चिक्त में रख (याद रख)। वह जगह भी याद रख आखिर तूने जाना है।58।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा जिन्ही कमी नाहि गुण ते कमड़े विसारि ॥ मतु सरमिंदा थीवही सांई दै दरबारि ॥५९॥

मूलम्

फरीदा जिन्ही कमी नाहि गुण ते कमड़े विसारि ॥ मतु सरमिंदा थीवही सांई दै दरबारि ॥५९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिन्ही कंमी = जो कामों में। कंमड़े = कड़वे काम। थीवई = तू होएं। दै = (शब्द ‘दे’ की जगह ‘दै’ क्यों हो गया है, ये बात समझने के लिए पढ़ें मेरा ‘गुरबाणी व्याकरण’)। दरबारि = दरबार में। दै दरबारि = के दरबार में।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिनी्’ में अक्षर ‘न’ के नीचे आधा ‘ह’ है (जिन्ही)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे फरीद! वह बुरे काम छोड़ दे, जिस कामों में (जिंद के लिए कोई) लाभ नहीं है, कहीं ऐसा ना हो पति (परमात्मा) के दरबार में शरमिंदा होना पड़े।59।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा साहिब दी करि चाकरी दिल दी लाहि भरांदि ॥ दरवेसां नो लोड़ीऐ रुखां दी जीरांदि ॥६०॥

मूलम्

फरीदा साहिब दी करि चाकरी दिल दी लाहि भरांदि ॥ दरवेसां नो लोड़ीऐ रुखां दी जीरांदि ॥६०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भरांदि = (‘विसु गंदलों’ की खातिर) भ्रम, भ्रांति, संशय, भटकना। लाहि = उतार के, दूर कर के। चाकरी = नौकरी, (भाव,) बँदगी। लोड़ीऐ = चाहिए। जीरांदि = धीरज, सब्र। दरवेस = फकीर। नो = को।
अर्थ: हे फरीद! (इन ‘विसु गंदलों’ की खातिर अपने) दिल की भटकना दूर करके मालिक (-प्रभु) की बँदगी कर। फकीरों को (तो) पेड़ों जैसा जिगरा करना चाहिए।60।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा काले मैडे कपड़े काला मैडा वेसु ॥ गुनही भरिआ मै फिरा लोकु कहै दरवेसु ॥६१॥

मूलम्

फरीदा काले मैडे कपड़े काला मैडा वेसु ॥ गुनही भरिआ मै फिरा लोकु कहै दरवेसु ॥६१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मैडे = मेरा। वेसु = पहरावा, पोशाक। गुनही = गुनाहों से। फिरां = फिरूँ, फिरता हूं। लोकु = जगतु। कहै = कहता है।
अर्थ: हे फरीद! (मेरे अंदर पेड़ों वाला धीरज नहीं है जो फकीरों के अंदर चाहिए थी फकीरों की तरह) मेरे कपड़े (तो) काले हैं, मेरा भेस काला है (पर ‘विसु गंदलों’की खातिर ‘भरांदि’ अथवा भ्रम के कारण) मैं गुनाहों से भरा हुआ फिरता हूँ और जगत फकीर कहता है।61।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तती तोइ न पलवै जे जलि टुबी देइ ॥ फरीदा जो डोहागणि रब दी झूरेदी झूरेइ ॥६२॥

मूलम्

तती तोइ न पलवै जे जलि टुबी देइ ॥ फरीदा जो डोहागणि रब दी झूरेदी झूरेइ ॥६२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तती = जली हुई। तोइ = पानी में। पलवै = पलरती है, प्रफुल्लित होती है। जलि = जल में। डोहागणि = दोहागनि, दुर्भागनि, बुरे भागयों वाली, त्यागी हुई। झूरेदी झूरेइ = सदा ही झुरती है। जे = चाहे।
अर्थ: पानी में जली हुई (खेती फिर) हरी नहीं होती, भले ही (उस खेती को) पानी में (कोई) डुबोए रखे। हे फरीद! (इस तरह जो जीव-स्त्री अपनी ओर से रब के राह पर चलती हुई भी) रब से विछुड़ी हुई है, वह सदा ही दुखी होती है, (भाव, फकीरी लिबास होते हुए भी अगर मन गुनाहों से भरा रहा, दरवेश बन के भी अगर ‘विसु गंदलों’ की खातिर मन में ‘भरांदि’ अथवा भटकना बनी रही, सत्संग में रह के भी अगर मन शंकाओं में रहा, तो भाग्यों में सदा झुरना ही झुरना (चिन्ता-फिक्र) है)।62।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जां कुआरी ता चाउ वीवाही तां मामले ॥ फरीदा एहो पछोताउ वति कुआरी न थीऐ ॥६३॥

मूलम्

जां कुआरी ता चाउ वीवाही तां मामले ॥ फरीदा एहो पछोताउ वति कुआरी न थीऐ ॥६३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वीवाही = ब्याही, जब ब्याही गई। मामले = जंजाल। पछोताउ = पछतावा। वति = फिर, दोबारा। न थीऐ = नहीं हो सकती। जां = जब। तां = तब।
अर्थ: जब (लड़की) कँवारी होती है तब (उसको विवाह का) चाव होता है (पर जब) ब्याही जाती है तो जंजाल पड़ जाते हैं। हे फरीद! (उस वक्त) यही पछतावा होता है कि वह दोबारा क्वारी नहीं हो सकती (भाव, उसके पहले वाला चाव उसके मन में पैदा नहीं हो सकता)।63।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शलोक नं: 62 वाले ख्याल को ही यहाँ एक लड़की के जीवन की मिसाल दे के समझाया है।
नोट: अगर सत्संग में रोजाना आ के, अगर फकीरी की राह पर चलते हुए, अगर अपनी ओर से धार्मिक जीवन व्यतीत करते हुए, मन में ‘विसु गंदलों’ की खातिर ‘भरांदि’ (भटकना) बनी रहे, तो सारे धार्मिक उद्यम बाहर–मुखी हो जाते हैं। ऐसा धार्मिक जीवन बल्कि ये नुक्सान करता है कि वह पहला धार्मिक चाव मारा ही जाता है, उसका दोबारा प्रफुल्लित होना कठिन हो जाता है। ये विचार शलोक नं: 60 से लेकर 63 तक चला आ रहा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलर केरी छपड़ी आइ उलथे हंझ ॥ चिंजू बोड़न्हि ना पीवहि उडण संदी डंझ ॥६४॥

मूलम्

कलर केरी छपड़ी आइ उलथे हंझ ॥ चिंजू बोड़न्हि ना पीवहि उडण संदी डंझ ॥६४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: केरी = की। आइ उलथे = आ उतरे। हंझ = हँस। चिंजू = चोंच। बोड़न्हि = डुबोते हैं। संदी = की। डंझ = तमन्ना, चाहत।
अर्थ: कल्लर की छपरी में हँस आ उतरते हैं, (वे हँस छपड़ी में अपनी) चोंच डुबोते हैं, (पर, वे मैला पानी) नहीं पीते, उनको वहाँ से उड़ जाने की चाहत बनी रहती है।64।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: उपरोक्त 4 शलोकों में उनका हाल बताया है; जो सत्संग में रहते हुए भी सत्संग के आनंद से वंचित रहे, और आखिर में अंदर से चाव खत्म हो गया। शलोक नं: 64 से लेकर शलोक नं: 65 में असल सत्संगियों का हाल है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हंसु उडरि कोध्रै पइआ लोकु विडारणि जाइ ॥ गहिला लोकु न जाणदा हंसु न कोध्रा खाइ ॥६५॥

मूलम्

हंसु उडरि कोध्रै पइआ लोकु विडारणि जाइ ॥ गहिला लोकु न जाणदा हंसु न कोध्रा खाइ ॥६५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उडि = उड़ के। कोध्रै = कोधरे के खेत में। पइआ = जा पड़ा, जा बैठा। विडारणि = उड़ाने के लिए। गहला = कमला। लोकु = जगत, (भाव) जगत के लोग।
अर्थ: हँस उड़ के कोधरे के खेत में जा बैठा तो दुनिया के लोग उसको उड़ाने जाते हैं कमली दुनिया ये नहीं जानती कि हँस कोधरा नहीं खाता।65।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चलि चलि गईआं पंखीआं जिन्ही वसाए तल ॥ फरीदा सरु भरिआ भी चलसी थके कवल इकल ॥६६॥

मूलम्

चलि चलि गईआं पंखीआं जिन्ही वसाए तल ॥ फरीदा सरु भरिआ भी चलसी थके कवल इकल ॥६६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चलि चलि गईआं = अपनी अपनी बारी आने पर चली गई। पंखीआं = पक्षियों की डारें। तल = तालाब। वसाए = रौणक दे रहे थे। सरु = सरोवर, तालाब। चलसी = सूख जाएगा। थके = कुम्हला गए। इकल = पीछे अकेले रहे हुए।
अर्थ: हे फरीद! जिस (जीव-) पंछियों की डारों ने इस (संसार-) तालाब को सुहावना बनाया हुआ है, वह अपनी-अपनी बारी (इसको छोड़ के) चलते जा रहे हैं। (यह जगत-) सरोवर भी सूख जाएगा और पीछे रहने वाले अकेले कमल फूल भी कुम्हला जाएंगे (भाव, सृष्टि के ये सुंदर पदार्थ सब नाश हो जाएंगे)।66।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा इट सिराणे भुइ सवणु कीड़ा लड़िओ मासि ॥ केतड़िआ जुग वापरे इकतु पइआ पासि ॥६७॥

मूलम्

फरीदा इट सिराणे भुइ सवणु कीड़ा लड़िओ मासि ॥ केतड़िआ जुग वापरे इकतु पइआ पासि ॥६७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इट सिराणे = सिर के तले ईट होगी। भंइ = धरती में। मासि = मास में, शरीर में। केतड़िआ जुग = कई जुग, बेअंत समय। वापरे = गुजर जाएंगे। इकतु पासि = एक तरफ।
अर्थ: हे फरीद! (जीव-पंछियों की चलती जा रही डारों की तरह जब तेरी बारी आई, तेरे भी) सिर तले ईट होगी, धरती में (भाव, तू कब्र में) सोया पड़ा होगा, (और तेरे) शरीर पर कीड़े चलते होंगे। (इस तरह) एक ही तरफ पड़ा ढेर लंबा समय गुजर जाएगा (तब तुझे किसी ने जगाना नहीं, अब तो गाफिल हो के ना सो)।67।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा भंनी घड़ी सवंनवी टुटी नागर लजु ॥ अजराईलु फरेसता कै घरि नाठी अजु ॥६८॥

मूलम्

फरीदा भंनी घड़ी सवंनवी टुटी नागर लजु ॥ अजराईलु फरेसता कै घरि नाठी अजु ॥६८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सवंनवी = सुंदर वंन (रंग) वाली। घड़ी = शरीर रूप भांडा। नागर = सुंदर। लजु = रस्सी (श्वासों की लड़ी)।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘लजु’ संस्कृत के शब्द ‘रजु’ (रज्जु) से बना है जिसका अंत ‘ु’ मात्रा है। सो, ये भी, ‘ु’ अंत ही है चाहे है यह शब्द ‘स्त्रीलिंग’। इसके मुकाबले और शब्द ‘लज’ मुक्ता-अंत है, इसका अर्थ है, इज्जत शर्म, (देखो, ‘गुरबाणी व्याकरण’)। कै घरि = किस के घर में? नाठी = मेहमान।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे फरीद! (देख, तेरे पड़ोस में किस बंदे का शरीर-रूप) सुंदर रंग वाला बर्तन टूट गया है (और श्वासों की) सुंदर रस्सी टूट गई है? (देख,) आज किस के घर (मौत का) फरिश्ता इज़राइल मेहमान है? (भाव, अगर जीव-पंछियों की डारों में नित्य तेरे सामने किसी ना किसी की यहाँ से चलने की बारी आई रहती है), तो तू क्यों गाफिल हो के सोया पड़ा हुआ है?।68।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा भंनी घड़ी सवंनवी टूटी नागर लजु ॥ जो सजण भुइ भारु थे से किउ आवहि अजु ॥६९॥

मूलम्

फरीदा भंनी घड़ी सवंनवी टूटी नागर लजु ॥ जो सजण भुइ भारु थे से किउ आवहि अजु ॥६९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भुइ = धरती पर। भारु थे = (निरे) भार थे (भाव, जो जनम उद्देश्य को बिसारे बैठे थे)। किउ आवहि अजु = आज फिर कैसे आएं? (भाव,) फिर ये मनुष्य जन्म वाला समय नहीं मिलता।
अर्थ: हे फरीद! (देख, किस का शरीर-रूप) सुंदर रंग वाला बर्तन टूट गया है (और श्वास-रूप) सुंदर रस्सी टूट गई है? जो भाई (नमाज़ से गाफिल हो के) धरती पर (निरा) भार ही बने रहे, उनको मानव-जन्म वाला ये समय फिर नहीं मिलेगा।69।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा बे निवाजा कुतिआ एह न भली रीति ॥ कबही चलि न आइआ पंजे वखत मसीति ॥७०॥

मूलम्

फरीदा बे निवाजा कुतिआ एह न भली रीति ॥ कबही चलि न आइआ पंजे वखत मसीति ॥७०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रीति = तरीका, जीने का तरीका। कब ही = कभी भी। चलि न आइआ = चल के नहीं आए, उद्यम करके नहीं आए। बेनिवाजा = जो नमाज नहीं पढ़ते, जो बँदगी नहीं करते।
अर्थ: हे फरीद! जो लोग नमाज़ नहीं पढ़ते (भाव, जो बँदगी नहीं करते) जो कभी भी उद्यम कर के पाँचों वक्त मस्जिद नहीं आते (भाव, जो कभी भी कम से कम पाँच वक्त रब को नहीं याद करते) वे कुक्तों (के समान) हैं, उनका जीने का ये तरीका ठीक नहीं कहा जा सकता।70।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उठु फरीदा उजू साजि सुबह निवाज गुजारि ॥ जो सिरु सांई ना निवै सो सिरु कपि उतारि ॥७१॥

मूलम्

उठु फरीदा उजू साजि सुबह निवाज गुजारि ॥ जो सिरु सांई ना निवै सो सिरु कपि उतारि ॥७१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उजू = नमाज़ पढ़ने से पहले हाथ मुँह पैर धोने। उजू साजि = उजू कर, मुँह हाथ धो। सुबह = सवेरे की। निवाज गुजारि = नमाज़ पढ़। कपि = काट के।
अर्थ: हे फरीद! उठ, मुँह-हाथ धो, और सवेरे की नमाज़ पढ़। जो सिर मालिक रब के आगे नहीं झुकता, वह सिर काट के उतार दे (भाव, बँदगी-हीन बंदे का जीना किस अर्थ का?)।71।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो सिरु साई ना निवै सो सिरु कीजै कांइ ॥ कुंने हेठि जलाईऐ बालण संदै थाइ ॥७२॥

मूलम्

जो सिरु साई ना निवै सो सिरु कीजै कांइ ॥ कुंने हेठि जलाईऐ बालण संदै थाइ ॥७२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कीजै कांइ = क्या करें? क्या बनाएं? कुंना = हांडी। संदै = के।
अर्थ: जो सिर (बँदगी में) मालिक-रब के आगे नहीं झुकता, उस सिर का कोई लाभ नहीं। उस सिर को हांडी तले ईधन की तरह जला देना चाहिए (भाव, उस अकड़े हुए सिर को सूखी हुई लकड़ी ही समझो)।72।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा किथै तैडे मापिआ जिन्ही तू जणिओहि ॥ तै पासहु ओइ लदि गए तूं अजै न पतीणोहि ॥७३॥

मूलम्

फरीदा किथै तैडे मापिआ जिन्ही तू जणिओहि ॥ तै पासहु ओइ लदि गए तूं अजै न पतीणोहि ॥७३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तैडे = तेरे। तू = तुझे। जणिओहि = जन्म दिया। पतीणोहि = पतीजा, तसल्ली हुई, यकीन आया। ओइ = वह (तेरे माता पिता)।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिनी’ में अक्षर ‘न’ के नीचे आधा ‘ह’ है (जिन्ही)।
नोट: ‘ओइ’ शब्द ‘ओह’ का बहुवचन है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे फरीद! (जीव-पंछियों की चलती जा रही डारों का अगर तुझे ख्याल नहीं आया, तो यही देख कि) तेरे (अपने) माता-पिता कहाँ हैं, जिन्होंने तुझे पैदा किया था। वह तेरे माता-पिता तेरे पास से कब के चले गए हैं। तुझे अभी भी यकीन नहीं आया (कि तूने तो यहाँ से चले जाना है, इसी लिए रब की बंदगी से गाफिल होया हुआ है)।73।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा मनु मैदानु करि टोए टिबे लाहि ॥ अगै मूलि न आवसी दोजक संदी भाहि ॥७४॥

मूलम्

फरीदा मनु मैदानु करि टोए टिबे लाहि ॥ अगै मूलि न आवसी दोजक संदी भाहि ॥७४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मैदानु = पधरी जगह, मैदानी इलाका, समतल। लाहि = दूर कर दे। टोए टिबे = ऊँची नीची जगह। अगै = तेरे आगे, तेरी जिंदगी के सफर में। संदी = की। भाहि = आग। आवसी = आएगी।
अर्थ: हे फरीद! मन को समतल मैदान बना दे (और इसके) ऊँची-नीची जगह दूर कर दे, (अगर तू कर सके, तो) तेरे जीवन-सफर में दोज़क की आग बिल्कुल नहीं आएगी, (भाव, मन में टोए-टिबे बने रहने के कारण जो कष्ट मनुष्य को बने रहते हैं, इनके दूर होने पर वे कष्ट मिट जाएंगे)।74।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: मन में कौन से टोए–टिबे हैं, और इनको दूर करने से क्या अभिप्राय है? ये बात फरीद जी ने स्पष्ट करके नहीं लिखी। फरीद जी के इस ख्याल को स्पष्ट करने के लिए सतिगुरु अरजन देव जी ने अगला शलोक अपनी तरफ से लिखा है, और नाम फरीद जी का ही बरता है। बात साफ करने के लिए शीर्षक ‘महला ५’ दे दिया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

महला ५ ॥ फरीदा खालकु खलक महि खलक वसै रब माहि ॥ मंदा किस नो आखीऐ जां तिसु बिनु कोई नाहि ॥७५॥

मूलम्

महला ५ ॥ फरीदा खालकु खलक महि खलक वसै रब माहि ॥ मंदा किस नो आखीऐ जां तिसु बिनु कोई नाहि ॥७५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खालकु = खलकत को पैदा करने वाला परमात्मा। माहि = में। तिसु बिनु = उस परमात्मा के बिना।
अर्थ: हे फरीद! (सृष्टि पैदा करने वाला) परमात्मा (सारी) सृष्टि में मौजूद है, और सृष्टि परमात्मा में बस रही है। जब (कहीं भी) उस परमात्मा के बिना और दूसरा नहीं है, तो किस जीव को बुरा कहा जाए? (भाव, किसी मनुष्य को बुरा नहीं कहा जा सकता)।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: कोई मनुष्य किसी दूसरे को बुरा कहने के वक्त अपने आप को अच्छा समझता है, दूसरे शब्दों में, खुद टिबे (ऊँची जगह) पर खड़ा हुआ नीचे टोए (गड्ढे) की ओर ताक रहा होता है। जिनको नीच कहता है, वे इस अहंकारी से नफरत करते हैं। इस तरह वैर और नफरत की आग भड़क उठती है, जिससे कई किस्म के कष्ट पैदा होते हैं। अगले शलोक में फरीद जी कहते हैं कि इन कष्टों से तो मौत अच्छी है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा जि दिहि नाला कपिआ जे गलु कपहि चुख ॥ पवनि न इती मामले सहां न इती दुख ॥७६॥

मूलम्

फरीदा जि दिहि नाला कपिआ जे गलु कपहि चुख ॥ पवनि न इती मामले सहां न इती दुख ॥७६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जि दिहि = जिस दिन। नाला = नाड़ी, नाभि। कपहि = (तू) काट देती है (हे दाई!)। चुख = थोड़ा सा। इतीं = इतने। मामले = झमेले।
अर्थ: हे फरीद! (कह:) (हे दाई!) जिस दिन मेरी नाड़ि काटी थी, अगर थोड़ा सा मेरा गला भी काट देती, तो (मन के टोयों-टिबों के कारण) ना इतने झमेले पड़ने थे और ना ही मुझे इतना दुख सहना पड़ना था।76।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: कई सज्जन बड़ी जल्दबाजी में कहने लग पड़े हैं कि फरीद जी के शलोक पढ़ने से ऐसा लगता है कि जैसे बाबा जी दुनिया से बहुत दुखी होए हुए हैं और उनका ये शलोक उदासीनता की तरफ निराशता की ओर ले जाता है। ऐसे लोग ऐसी गलती तब कर रहे हैं क्योंकि वे इन शलोकों को मिला के पढ़ना अभी नहीं सीखे। शलोक नं: 74 और 76 को मिला के पढ़िए, भाव साफ है कि एक-दूसरे से नफरत करके लोगों ने जगत को नर्क बना दिया है। फरीद जी इस अकड़ और नफरत से मना कर रहे हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चबण चलण रतंन से सुणीअर बहि गए ॥ हेड़े मुती धाह से जानी चलि गए ॥७७॥

मूलम्

चबण चलण रतंन से सुणीअर बहि गए ॥ हेड़े मुती धाह से जानी चलि गए ॥७७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चबण = दंद, चबाने वाले दाँत। चलण = लातें। रतंन = आँखें। सुणीअर = कान। से = वे (जिनके गुमान में मन में टोए-टिबे बनाए हुए थे, जिनके गुमान से दूसरों को हीन समझते थे)। बहि गए = बैठ गए, बहिकल हो गए हैं, काम करने से रह गए हैं। हेड़े = शरीर ने। धाह मुती = ढाह मारी। सेजानी = वह मित्र (जिस पे माण था)।
अर्थ: (किस गुमान पर दूसरों को बुरा कहना हुआ? किस गुमान पर मन में ये टोए-टिबे बनाए हुए?) वह दाँत, लातें, आँखें और कान (जिस पर गुमान करके ये टोए-टिबे बने थे) काम करने से ही रह गए हैं। (इस) शरीर ने ढाह मारी है (अर्थात, ये अपना ही शरीर अब दुखी हो रहा है, कि मेरे) वे मित्र चले गए हैं (भाव, काम के नहीं रहे, जिस पर मुझे गुमान था)।77।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा बुरे दा भला करि गुसा मनि न हढाइ ॥ देही रोगु न लगई पलै सभु किछु पाइ ॥७८॥

मूलम्

फरीदा बुरे दा भला करि गुसा मनि न हढाइ ॥ देही रोगु न लगई पलै सभु किछु पाइ ॥७८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। न हढाइ = ना आने दे। देही = शरीर को। न लगई = नहीं लगता। सभु किछु = हरेक चीज। पलै पाइ = पल्ले पड़ी रहती है, संभाली रहती है।
अर्थ: हे फरीद! बुराई करने वाले के साथ भी भलाई कर। गुस्सा मन में ना आने दे। (इस तरह) शरीर को कोई रोग नहीं लगता और हरेक पदार्थ (भाव, अच्छे गुण) संभाले रहते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा पंख पराहुणी दुनी सुहावा बागु ॥ नउबति वजी सुबह सिउ चलण का करि साजु ॥७९॥

मूलम्

फरीदा पंख पराहुणी दुनी सुहावा बागु ॥ नउबति वजी सुबह सिउ चलण का करि साजु ॥७९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पंख = पंछियों की डार। दुनी = दुनिया। सुहावा = सुंदर। नउबत = धौंसा, डंका। सुबह सिउ = सवेरे का। साजु = सामान, आहर, तैयारी।
अर्थ: हे फरीद! ये दुनिया (एक) सुंदर बाग़ है (यहाँ कयों मन में ‘टोए-टिबे बनाए हुए हैं? यहाँ तो सारे जीव-रूपी) पंछियों की डार मेहमान है। जब सुबह का धौंसा (डंका) बजा (सबने जिंदगी की रात काट के चले जाना है)। (हे फरीद! ये ‘टोए-टिबे दूर कर, और तू भी) चलने की तैयारी कर।79।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा राति कथूरी वंडीऐ सुतिआ मिलै न भाउ ॥ जिंन्हा नैण नींद्रावले तिंन्हा मिलणु कुआउ ॥८०॥

मूलम्

फरीदा राति कथूरी वंडीऐ सुतिआ मिलै न भाउ ॥ जिंन्हा नैण नींद्रावले तिंन्हा मिलणु कुआउ ॥८०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कथूरी = कसतूरी। भाउ = हिस्सा। नींद्रावले = नींद अवस्था में। मिलणु = मेल, प्राप्ती। कुआउ = कहाँ से? कैसे?

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिंना्, तिंना्’ में अक्षर ‘न’ के नीचे आधा ‘ह’ है (जिंन्हा, तिंन्हा)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे फरीद! (वह तैयारी रात को ही हो सकती है) रात (की एकांत) में कस्तूरी बाँटी जाती है (भाव, रात के एकांत के समय भजन की सुगंधि पैदा होती है), जो सोए रहें उनको (इसमें से) हिस्सा नहीं मिलता। जिनकी आँखें (सारी रात) नींद में बनी रहें, उनको (नाम की कस्तूरी की) प्राप्ति कैसे हो?।80।

दर्पण-टिप्पनी

ज़रूरी नोट: शलोक नं: 74 में मन के जो ‘टोए–टिबे’ बताए गए हैं, अगले शलोक नं: 81 में उन टोए–टिबों का असर बयान करते हैं, कि इनके कारण सारे जगत में दुख ही दुख घटित हो रहा है, पर इस बात की समझ उसी को पड़ती है जो खुद मन के ‘टोए–टिबों’ से ऊपर होता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा मै जानिआ दुखु मुझ कू दुखु सबाइऐ जगि ॥ ऊचे चड़ि कै देखिआ तां घरि घरि एहा अगि ॥८१॥

मूलम्

फरीदा मै जानिआ दुखु मुझ कू दुखु सबाइऐ जगि ॥ ऊचे चड़ि कै देखिआ तां घरि घरि एहा अगि ॥८१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुझ कू = मुझे। सबाइऐ जगि = सारे जगत में। ऊचे चढ़ि कै = दुख से ऊँचा हो के। घरि = घर में। घरि घरि = हरेक घर में।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘अगि’ शब्द को योग ध्यान से देखें, सदा अंत में ‘ि’ मात्रा है, असल शब्द संस्कृत का अग्नि’ है इसका प्राक्रित रूप ‘अगि’ है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे फरीद! मैंने (पहले मन के ‘टोए-टिबों’ से पैदा हुए दुख में घबरा के यह) समझा कि दुख (सिर्फ) मुझे (ही) है (सिर्फ मैं ही दुखी हूँ), (पर असल में यह) दुख तो सारे (ही) जगत में (घटित हो रहा, फैला हुआ) है। जब मैंने (अपने दुख से) ऊँचा हो के (ध्यान मारा) तब मैंने देखा कि हरेक घर में यही आग (जल) रही है (भाव, हरेक जीव दुखी है)।81।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस शलोक से आगे के शलोक गुरु अरजन साहिब जी के हैं। आप लिखते हैं कि वही विरले बंदे दुखों की मार से बचे हुए हैं, जो सतिगुरु की शरण पड़ कर परमात्मा को याद करते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

महला ५ ॥ फरीदा भूमि रंगावली मंझि विसूला बाग ॥ जो जन पीरि निवाजिआ तिंन्हा अंच न लाग ॥८२॥

मूलम्

महला ५ ॥ फरीदा भूमि रंगावली मंझि विसूला बाग ॥ जो जन पीरि निवाजिआ तिंन्हा अंच न लाग ॥८२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भूमि = धरती। रंगावली = रंग+आवली। आवली = कतार, सिलसिला। रंग = सुहज, खुशी, आनंद। रंगावली = सोहावनी। मंझि = (इस) में। विसूला = विष भरा, विषौला।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: जिस शब्दों के असल रूप में ‘ु’ मात्रा सदा साथ लगी रहती है, उनके ‘कारकी’ आदि रूपों में ‘ु’ की जगह ‘ू’ हो जाती है, जैसे: ‘जिंदु’ से ‘जिंदू’; ‘खाकु’ से ‘खाकू’; ‘मसु’ से ‘मसू’ और ‘विसु’ से ‘विसू’।

दर्पण-भाषार्थ

निवाजिआ = वडिआइआ हुआ, आदर मिला हुआ। अंच = सेक, आँच। पीर = मुरशिद, गुरु।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिना्’ में अक्षर ‘न’ के साथ आधा ‘ह’ है (तिंन्हा)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे फरीद! (ये) धरती (तो) सुहावनी है, (पर, मनुष्य के मन के ‘टोए-टिबों’ के कारण इस) में विषौला बाग (लगा हुआ) है (जिसमें दुखों की आग जल रही है)। जिस मनुष्यों को सतिगुरु ने ऊँचा किया है, उनको (दुख-अग्नि का) सेक नहीं लगता।82।

विश्वास-प्रस्तुतिः

महला ५ ॥ फरीदा उमर सुहावड़ी संगि सुवंनड़ी देह ॥ विरले केई पाईअनि जिंन्हा पिआरे नेह ॥८३॥

मूलम्

महला ५ ॥ फरीदा उमर सुहावड़ी संगि सुवंनड़ी देह ॥ विरले केई पाईअनि जिंन्हा पिआरे नेह ॥८३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुहावड़ी = सुहावनी, सुखद, सुख भरी। संगि = (उम्र के) साथ। सुवंन = सोहणा रंग। सुवंनड़ी = सुंदर रंग वाली। देह = शरीर। पाईअन्हि = पाए जाते हैं, मिलते हें। नेह = प्यार।
अर्थ: हे फरीद! (उन लोगों की) जिंदगी आसान है और शरीर भी सुंदर रंग वाला (भाव, रोग-रहित) है, जिनका प्यार प्यारे परमात्मा के साथ है, (‘विषौला बाग़’ और ‘दुख-अग्नि’ उनको नहीं छूते, पर ऐसे लोग) कोई विरले ही मिलते हैं।83।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कंधी वहण न ढाहि तउ भी लेखा देवणा ॥ जिधरि रब रजाइ वहणु तिदाऊ गंउ करे ॥८४॥

मूलम्

कंधी वहण न ढाहि तउ भी लेखा देवणा ॥ जिधरि रब रजाइ वहणु तिदाऊ गंउ करे ॥८४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वहण = हे वहण! कंधी = नदी का किनारा। तउ = तू। जिधरि = जिस तरफ। रब रजाइ = रब की मर्जी। तिदाऊ = उसी तरफ। गंउ करे = रास्ता बनाता है, चलता है, चाल चलता है।84।
अर्थ: दुखों के तले दबा हुआ जीव ‘दुख’ के आगे तरले ले के कहता है: हे (दुखों के) प्रवाह! (मुझे) नदी के किनारे (के लगे हुए पेड़) को मत गिरा (भाव, मुझे दुखी ना कर), तुझे भी (अपने किए का) हिसाब देना पड़ेगा। (दुखी मनुष्य को यह समझ नहीं रहती कि) दुखों की बाढ़ उसी तरफ को ढाह लगाती है, जिस तरफ रब की मर्जी होती है (भाव, रब की रजा के अनुसार रब से विछुड़े हुए बँदों के अपने द्वारा किए हुए बुरे-कर्मों के तहत दुखों की बाढ़ उनको आ बहाती है)।84।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शलोक नं: 82 में फरीद जी ने ‘दुख’ को ‘आग’ का नाम दिया है। शलोक नं: 82 में गुरु अरजन देव जी इसको ‘विसूला बाग़’ कहते हैं। यहीं फरीद जी सांसारिक दुखों को ‘एक लंबी नदी, प्रवाह, वहण, बहाव’ कहते हैं। मनुष्य–जीवन नदी का किनारा है जो दुखों–रूपी प्रवाह के वेग से ढलकता जा रहा है (नदी के पानी के किनारे पर पड़ते उछाल व वेग से गिरता जा रहा है)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा डुखा सेती दिहु गइआ सूलां सेती राति ॥ खड़ा पुकारे पातणी बेड़ा कपर वाति ॥८५॥

मूलम्

फरीदा डुखा सेती दिहु गइआ सूलां सेती राति ॥ खड़ा पुकारे पातणी बेड़ा कपर वाति ॥८५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: डुखा सेती = दुखों से, दुखों में। दिहु = दिन। सूलां = चुभन, चिन्ता फिक्र। पातणी = मल्लाह, मुहाणा। कपर = लहरें, ठाठां। वाति = मुँह में। (देखें शलोक नं: 50)

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘राति’ के आखिर में सदा ‘ि’ होती है, ये संस्कृत के शब्द ‘रात्रि’ से है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे फरीद! (मन में बने ‘टोए-टिबे’ के कारण दुखों की नदी में बहते जाते जीवों का) दिन दुखों में गुजरता है, रात भी (चिन्ता की) चुभन में बीतती है। (किनारे पे) खड़ा हुआ (गुरु-) मल्लाह इनको ऊँचा-ऊँचा कह रहा है (कि तुम्हारा जिंदगी का) बेड़ा (दुखों की) लहरों के मुँह में (आ गिरने लगा) है।85।

विश्वास-प्रस्तुतिः

लमी लमी नदी वहै कंधी केरै हेति ॥ बेड़े नो कपरु किआ करे जे पातण रहै सुचेति ॥८६॥

मूलम्

लमी लमी नदी वहै कंधी केरै हेति ॥ बेड़े नो कपरु किआ करे जे पातण रहै सुचेति ॥८६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लंमी लंमी = बहुत लंबी। नदी = दुखों की नदी। वहै = बह रही है। केरै हेति = गिराने के लिए। नो = को। किआ करे = क्या बिगाड़ सकता है? पातण = मल्लाह के। पातण चेति = मल्लाह की याद में। सु = वह बेड़ा। चेति = याद में।
अर्थ: (संसारी लोगों-रूप) किनारे के (कमजोर पेड़ों) को गिराने के लिए (भाव, दुखी करने के लिए) (ये पेड़ों की) बेअंत लंबी नदी बह रही है, (पर इस नदी का) बवंडर घुमंण-घेर (उस जिंदगी-रूप) बेड़े का कोई नुक्सान नहीं कर सकता, जो (सतिगुरु) मललाह के चेते में रहे (भाव, जिस मनुष्य पर गुरु मेहर की नजर रखे, उसको दुख-अग्नि नहीं छूती)।86।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा गलीं सु सजण वीह इकु ढूंढेदी न लहां ॥ धुखां जिउ मांलीह कारणि तिंन्हा मा पिरी ॥८७॥

मूलम्

फरीदा गलीं सु सजण वीह इकु ढूंढेदी न लहां ॥ धुखां जिउ मांलीह कारणि तिंन्हा मा पिरी ॥८७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गलीं = बातों से, (भाव,) बातों से पतियाने वाले। इकु = असल सज्जन। न लहां = मुझे नहीं मिलता। धुखां = अंदर अंदर से दुखी हो रहा है। मांलीह = मिली, सूखे हुए गोबर का चूरा। मा = मेरा। पिरी कारणि = प्यारे सज्जनों की खातिर। तिंना = उनके।
अर्थ: हे फरीद! बातों से पतियाने वाले तो बीसों मित्र (मिल जाते) हैं; पर खोज करने के वक्त असल सच्चा मित्र नहीं मिलता (जो मेरी जिंदगी के बेड़े को दुखों की नदी में से पार लंघाए)।
मैं तो ऐसे (सत्संगी) सज्जनों के (ना मिलने) के कारण धुखते सूखे गोबर की तरह अंदर दुखी हो रहा हूँ।87।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा इहु तनु भउकणा नित नित दुखीऐ कउणु ॥ कंनी बुजे दे रहां किती वगै पउणु ॥८८॥

मूलम्

फरीदा इहु तनु भउकणा नित नित दुखीऐ कउणु ॥ कंनी बुजे दे रहां किती वगै पउणु ॥८८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भउकणा = जिसको भौंकने की आदत पड़ जाती है, भौंकने वाला। दुखीऐ कउणु = कौन परेशान होता रहे? दे रहां = दिए रहूँ, दिए रखूँगा। किती = कितनी ही, जितनी जी चाहे। पउणु = हवा।
अर्थ: हे फरीद! यह (मेरा) शरीर तो भौंकने वाला हो गया है (भाव, हर वक्त नित्य नए पदार्थ माँगता रहता है, इसकी नित्य की माँगें पूरी करने की खातिर) कौन रोज परेशान होता रहे? (भाव, मुझे ये नहीं अच्छा लगता कि रोज कठिनाईयां उठाता रहूँ)। मैं तो कानों में बुजे (रूई आदि के) दिए रखूँगा जितनी जी चाहे हवा झूलती रहे, (भाव, जितना जी चाहे ये शरीर माँगें माँगने का शोर मचाए रखे, मैं इसकी एक नहीं सुनूँगा)।88।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: एक तो लोगों के मन में ‘टोए–टिबे’ बनाए हुए हैं, दूसरे, दुनिया के मन–मोहने पदार्थ हरेक जीव को आकर्षित कर रहे हैं। नतीजा ये निकल रहा है कि जगत दुखों की खान बन गया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा रब खजूरी पकीआं माखिअ नई वहंन्हि ॥ जो जो वंञैं डीहड़ा सो उमर हथ पवंनि ॥८९॥

मूलम्

फरीदा रब खजूरी पकीआं माखिअ नई वहंन्हि ॥ जो जो वंञैं डीहड़ा सो उमर हथ पवंनि ॥८९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रब खजूरी = रब की खजूरें। माखिअ = शहद की। माखिअ नई = शहद की नदियां।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: शब्द ‘माखिअ’ की तरफ ध्यान देने की जरूरत है, जैसे ‘जिउ’ से ‘जीअ’, ‘प्रिउ’ से ‘प्रिअ’ और ‘हीउ’ से ‘हीअ’, वैसे ही ‘माखिउ’ से ‘माखिअ’ है)। वहंनि–बहती हें, बह रही हैं। डीहड़ा–दिहाड़ा, दिवस। हथ पवंनि्–हाथ पड़ रहे हैं। नोट: शब्द ‘पवंनि्’ के अक्षर ‘न’ के नीचे आधा ‘ह’ है, देखें शलोक नं: 44 में ‘सिंञापसनि्’।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (पर, ये शरीर बेचारा भी क्या करे? इसको लोभाने के लिए चार-चुफेरे जगत में) हे फरीद! परमात्मा की पकी हुई खजूरें (दिख रही हैं), और शहद की नदियां बह रही हैं (भाव, हर तरफ सुंदर-सुंदर, स्वादिष्ट और मन-मोहक पदार्थ और विषौ-विकार मौजूद हैं)। (वैसे यह भी ठीक है कि इन पदार्थों को भोगने में मनुष्य का) जो-जो दिन बीतता है, वह इसकी उम्र को ही हाथ डाल रहे हैं (भाव, व्यर्थ में गवा रहे हें)।89।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: बाबा फरीद जी दुनिया के सुंदर और स्वादिष्ट पदार्थों को पक्की खजूरों और शहद की नदियों से उपमा देते हैं। वंञै–जाता है, गुजरता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा तनु सुका पिंजरु थीआ तलीआं खूंडहि काग ॥ अजै सु रबु न बाहुड़िओ देखु बंदे के भाग ॥९०॥

मूलम्

फरीदा तनु सुका पिंजरु थीआ तलीआं खूंडहि काग ॥ अजै सु रबु न बाहुड़िओ देखु बंदे के भाग ॥९०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: थीआ = हो गया है। पिंजरु = पिंजर, कंकाल बन गया है। खूंडहि = चोंच से ठूँगे मार रहे हें। काग = कौए, विकार, दुनियावी पदार्थों के चस्के। अजै = अभी भी (जबकि सारी दुनिया के भोग भोग के अपनी ताकत भी गवा बैठा है)। न बाहुड़िओ = नही आया, प्रसन्न नहीं हुआ, (उसे) तरस नहीं आया।
अर्थ: हे फरीद! यह (भौंका) शरीर (विषौ-विकारों में पड़ कर) बहुत जर्जर हो गया है, पिंजर बन के रह गया है। (फिर भी, ये) कौए इसकी तलियों पर ठूँगे मारे जा रहे हैं (भाव, दुनियावी पदार्थों के चस्के और विषौ-विकार इसके मन को चुभोएं लगाए जा रहे हैं)। देखो, (विकारों में पड़े) मनुष्य की किस्मत भी अजीब है कि अभी भी (जबकि इसका शरीर दुनिया के विषौ भोग भोग के अपनी सत्ता भी गवा बैठा है) रब इस पर प्रसन्न नहीं हुआ (भाव, इसकी झाक खत्म नहीं हुई)।90।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कागा करंग ढंढोलिआ सगला खाइआ मासु ॥ ए दुइ नैना मति छुहउ पिर देखन की आस ॥९१॥

मूलम्

कागा करंग ढंढोलिआ सगला खाइआ मासु ॥ ए दुइ नैना मति छुहउ पिर देखन की आस ॥९१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कागा = कौओं ने, विकारों ने, दुनियावी पदार्थों के चस्कों ने। करंग = पिंजर, बहुत कमजोर होया हुआ शरीर। सगला = सारा। मति छुहउ = रब करके कोई ना छेड़े (देखें, शलोक नं: 25 में शब्द ‘भिजउ’, ‘वरसउ’ और ‘तुटउ’)। आस = आशा, तमन्ना।
अर्थ: कौओं ने पिंजर भी फरोल मारा है, और सारा मास खा लिया है (भाव, दुनियावी पदार्थों के चस्के और विषौ-विकार इस अति-कमजोर हुए शरीर को भी चुभन लगाए जा रहे हैं, इस भौंके शरीर की सारी ताकत इन्होंने खींच ली है)। रब कर के कोई विकार (मेरी) इन दोनों आँखों को ना छेड़े, इनमें तो प्यारे प्रभु को देखने की चाहत टिकी रहे।91।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कागा चूंडि न पिंजरा बसै त उडरि जाहि ॥ जितु पिंजरै मेरा सहु वसै मासु न तिदू खाहि ॥९२॥

मूलम्

कागा चूंडि न पिंजरा बसै त उडरि जाहि ॥ जितु पिंजरै मेरा सहु वसै मासु न तिदू खाहि ॥९२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कागा = हे कौए! हे दुनियावी पदार्थों के चस्के! चूंडि न = ना ठूँग। पिंजरा = सूखा हुआ शरीर। बसै = (अगर) वश में (है), अगर तेरे वश में है, अगर तू कर सके। त = तो। जितु = जिस में। जितु पिंजरै = जिस शरीर में। तिदू = उस शरीर में से।
अर्थ: हे कौए! मेरा पिंजर में ठूँगे ना मार, अगर तेरे वश में (ये बात) है तो (यहाँ से) उड़ जा, जिस शरीर में मेरा पति-प्रभु बस रहा है, इसमें से मास ना खा (भाव, हे विषयों के चस्के! मेरे इस शरीर को चोंच मारनी छोड़ दे, तरस कर, और जा, खलासी कर। इस शरीर में तो पति-प्रभु का प्यार बस रहा है, तू इसको विषौ-भोगों की तरफ प्रेरने का प्रयत्न ना कर)।92।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा गोर निमाणी सडु करे निघरिआ घरि आउ ॥ सरपर मैथै आवणा मरणहु ना डरिआहु ॥९३॥

मूलम्

फरीदा गोर निमाणी सडु करे निघरिआ घरि आउ ॥ सरपर मैथै आवणा मरणहु ना डरिआहु ॥९३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निमाणी = बेचारी। सडु = निमंत्रण, बुलावा, आवाज मारनी। सडु करे = आवाज मार रही है। निघरिआ = हे बेघरे जीव! घरि = घर में। सरपर = आखिर को। मैथै = मेरे पास।
अर्थ: हे फरीद! कब्र बेचारी (बँदे को) आवाजें मार रही है (और कहती है:) हे बे-घरे जीव! (अपने) घर में आ, (भाव,) आखिर को (तूने) मेरे पास ही आना है (और फिर) मौत से (इतना) ना डर।93।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एनी लोइणी देखदिआ केती चलि गई ॥ फरीदा लोकां आपो आपणी मै आपणी पई ॥९४॥

मूलम्

एनी लोइणी देखदिआ केती चलि गई ॥ फरीदा लोकां आपो आपणी मै आपणी पई ॥९४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लोइण = आँखें। एनी लोइणी = इन आँखों से। केती = कितनी ही (खलकति), बेअंत जीव।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘इनी्’ में अक्षर ‘न’ के नीचे आधा ‘ह’ है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: इन आँखों से देखते हुए (भाव, मेरी आँखों के सामने) कितनी ही ख़लकति चली गई है (मौत का शिकार हो गई है)। हे फरीद! (ख़लकति चलती जाती देख के भी) हरेक को अपने-अपने स्वार्थों का ही ख्याल है (भाव, हरेक जीव दुनिया वाली धुन में ही है), मुझे भी अपना ही फिक्र पड़ा हुआ है।94।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपु सवारहि मै मिलहि मै मिलिआ सुखु होइ ॥ फरीदा जे तू मेरा होइ रहहि सभु जगु तेरा होइ ॥९५॥

मूलम्

आपु सवारहि मै मिलहि मै मिलिआ सुखु होइ ॥ फरीदा जे तू मेरा होइ रहहि सभु जगु तेरा होइ ॥९५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपु = अपने आप को। मै = मुझे।
अर्थ: हे फरीद! यदि तू अपने आप को सँवार ले, तो तू मुझे मिल जाएगा, और मेरे में जुड़ने से ही तुझे सुख होगा (दुनिया के पदार्थों में नहीं)। अगर तू मेरा बन जाए, (भाव, दुनिया वाला प्यार छोड़ के मेरे साथ प्यार करने लग जाए, तो) सारा जगत तेरा बन जाएगा (भाव, माया तेरे पीछे-पीछे दौड़ेगी)।95।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: मौत की ढाह लगी देख के जब फरीद जी ने आत्मिक जीवन की तरफ ध्यान मारा तो रब की तरफ से ये धीरज मिला।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कंधी उतै रुखड़ा किचरकु बंनै धीरु ॥ फरीदा कचै भांडै रखीऐ किचरु ताई नीरु ॥९६॥

मूलम्

कंधी उतै रुखड़ा किचरकु बंनै धीरु ॥ फरीदा कचै भांडै रखीऐ किचरु ताई नीरु ॥९६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कंधी = किनारा। रुखड़ा = छोटा सा पेड़, बेचारा वृक्ष। धीर = धीरज, धरवास। नीरु = पानी।
अर्थ: (दरिया के) किनारे पर (उगा हुआ) बेचारा वृक्ष कब तक धीरज रखेगा? हे फरीद! कच्चे बर्तन में कब तक पानी रखा जा सकता है? (इसी तरह मनुष्य मौत की नदी के किनारे पर खड़ा हुआ है, इस शरीर में से साँसे खत्म होती जा रही हैं)।96।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा महल निसखण रहि गए वासा आइआ तलि ॥ गोरां से निमाणीआ बहसनि रूहां मलि ॥ आखीं सेखा बंदगी चलणु अजु कि कलि ॥९७॥

मूलम्

फरीदा महल निसखण रहि गए वासा आइआ तलि ॥ गोरां से निमाणीआ बहसनि रूहां मलि ॥ आखीं सेखा बंदगी चलणु अजु कि कलि ॥९७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: महल = पक्के घर। निसखण = बिल्कुल खाली, सूने। तलि = तल में, नीचे धरती में। बहसनि = बैठेंगीं। गोरां निमाणीआ = ये कब्रें जिनसे लोग नफ़रत करते हैं। मलि = मल के, कब्जा करके।
अर्थ: हे फरीद! (मौत आने पर) महल-माढ़ियां सूनी रह जाती हैं, धरती के तले (कब्र में) डेरा लगाना पड़ता है, उन कब्रों में जिनसे नफ़रत की जाती है रूहें सदा के लिए जा बैठेंगी। हे शेख (फरीद)! (रब की) बँदगी कर (इन महल-माढ़ियों से) आज या कल कूच करना होगा।97।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: यहाँ आम इस्लामी विचार अनुसार रूह का कब्र में जा बैठना कहा है, भाव ये कि शरीर ने आखिर मिट्टी में मिल जाना है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा मउतै दा बंना एवै दिसै जिउ दरीआवै ढाहा ॥ अगै दोजकु तपिआ सुणीऐ हूल पवै काहाहा ॥ इकना नो सभ सोझी आई इकि फिरदे वेपरवाहा ॥ अमल जि कीतिआ दुनी विचि से दरगह ओगाहा ॥९८॥

मूलम्

फरीदा मउतै दा बंना एवै दिसै जिउ दरीआवै ढाहा ॥ अगै दोजकु तपिआ सुणीऐ हूल पवै काहाहा ॥ इकना नो सभ सोझी आई इकि फिरदे वेपरवाहा ॥ अमल जि कीतिआ दुनी विचि से दरगह ओगाहा ॥९८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: एवै = इस तरह, ऐसे। ढाहा = किनारा। हूल = रौला, शोर। काहाहा = हाहाकार। दोजक = नर्क। इकि = कई (जीव)। ओगाहा = गवाह, साखी।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे फरीद! जैसे दरिया का किनारा है (जो पानी के वेग से ढह रहा होता है) इसी तरह मौत (-रूप) नदी का किनारा है (जिसमें बेअंत जीव उम्र भोग के गिरते जा रहे हैं)। (मौत) के आगे (विकारियों के लिए) तपे हुए नर्क सुने जाते हैं, वहाँ उनकी हाहाकार और शोर पड़ रहा है। कई (भाग्यशालियों) को तो सारी समझ आ गई है (कि यहाँ कैसे जिंदगी गुजारनी है, पर) कई बेपरवाह फिर रहे हैं। जो अमल यहाँ दुनिया में किए जाते हैं, वह रब की दरगाह में (मनुष्य की जिंदगी के) गवाह बनते हैं।98।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा दरीआवै कंन्है बगुला बैठा केल करे ॥ केल करेदे हंझ नो अचिंते बाज पए ॥ बाज पए तिसु रब दे केलां विसरीआं ॥ जो मनि चिति न चेते सनि सो गाली रब कीआं ॥९९॥

मूलम्

फरीदा दरीआवै कंन्है बगुला बैठा केल करे ॥ केल करेदे हंझ नो अचिंते बाज पए ॥ बाज पए तिसु रब दे केलां विसरीआं ॥ जो मनि चिति न चेते सनि सो गाली रब कीआं ॥९९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कंनै = किनारे पर। केल = कलोल। हंझ = हँस (जिहा सफेद बगुला)। अचिंते = अचन चेत। तिहु = उस (हंस) को। विसरीआं = भूल गई। मनि = मन मे। चेते सनि = याद थीं। गाली = बातें।
अर्थ: हे फरीद! (बंदा जगत के रंग-तमाशों में मस्त है, जैसे) दरिया के किनारे पर बैठा हुआ बगुला कलोल करता है (जैसे उस) हँस (जैसे सफेद बगले) कलोल करते को अचानक बाज़ आ पड़ते हें, (वैसे ही बंदे को मौत के दूत आ दबोचते हैं)। जब उसको बाज़ आ के दबोचते हैं, तो उसे सारे कलोल भूल जाते हैं (अपनी जान की पड़ जाती है, यही हाल मौत आने पर बंदे का होता है)। जो बातें (मनुष्य के कभी) मन में चिक्त-चेते नहीं थीं, रब ने वह कर दीं।99।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साढे त्रै मण देहुरी चलै पाणी अंनि ॥ आइओ बंदा दुनी विचि वति आसूणी बंन्हि ॥ मलकल मउत जां आवसी सभ दरवाजे भंनि ॥ तिन्हा पिआरिआ भाईआं अगै दिता बंन्हि ॥ वेखहु बंदा चलिआ चहु जणिआ दै कंन्हि ॥ फरीदा अमल जि कीते दुनी विचि दरगह आए कमि ॥१००॥

मूलम्

साढे त्रै मण देहुरी चलै पाणी अंनि ॥ आइओ बंदा दुनी विचि वति आसूणी बंन्हि ॥ मलकल मउत जां आवसी सभ दरवाजे भंनि ॥ तिन्हा पिआरिआ भाईआं अगै दिता बंन्हि ॥ वेखहु बंदा चलिआ चहु जणिआ दै कंन्हि ॥ फरीदा अमल जि कीते दुनी विचि दरगह आए कमि ॥१००॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देहुरी = सुंदर शरीर, पला हुआ शरीर। चलै = चलता है, काम देता है। अंनि = अन्न से।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘विचि’ के आखिर में सदा ‘ि’ की मात्रा होती है। शब्द ‘बिनु’ के आखिर में सदा ‘ु’ की मात्रा होती है।

दर्पण-भाषार्थ

वति = बार बार, पलट पलट के। आसूणी = छोटी सी आशा, सुंदर सी छोटी आस। बंन्हि = बाँध के। मलक = फरिश्ता। अल = का। मलकल मउत = मौत का फरिश्ता। कंन्हि = कंधे पर। आए कंमि = काम में आए, सहायक हुए।
अर्थ: (मनुष्य का यह) साढ़े तीन मन का पला हुआ शरीर (इसको) पानी और अन्न के जोर पर काम दे रहा है। बँदा जगत में कोई सुंदर सी आशा बाँध के आया है (पर, आशा पूरी नहीं होती)। जब मौत का फरिश्ता (शरीर के) सारे दरवाजे तोड़ के (भाव, सारी इन्द्रियों को नकारा कर के) आ जाता है, (मनुष्य के) वह प्यारे वीर (मौत के फरिश्ते के) आगे बाँध के चला देते हैं। देखो! बँदा चार लोगों के कांधों पर चल पड़ा है।
हे फरीद! (परमात्मा की) दरगाह में वही (भले) काम सहाई होते हैं जो दुनिया में (रह के) किए जाते हैं।100।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा हउ बलिहारी तिन्ह पंखीआ जंगलि जिंन्हा वासु ॥ ककरु चुगनि थलि वसनि रब न छोडनि पासु ॥१०१॥

मूलम्

फरीदा हउ बलिहारी तिन्ह पंखीआ जंगलि जिंन्हा वासु ॥ ककरु चुगनि थलि वसनि रब न छोडनि पासु ॥१०१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ = मैं। बलिहारी = सदके, कुर्बान। जंगलि = जंगल में। वासु = बसेरा, निवास। ककरु = कंकड़, रोड़। थलि = थल पर, जमीन पर। रब पासु = रब का पासा, रब का आसरा।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिन्’ में अक्षर ‘न’ के नीचे आधा ‘ह’ है (तिन्ह)। ‘छोड़नि्’ अक्षर ‘न’ के नीचे आधा ‘ह’ है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे फरीद! मैं उन पक्षियों से सदके हूँ जिनका वासा जंगल में है, कंकड़ चुगते हैं, जमीन पर बसते हैं, (पर) रब का आसरा नहीं छोड़ते (भाव, महलों में रहने वाले पले हुए शरीर वाले पर रब को भुला देने वाले लोगों से बेहतर तो वे पक्षी ही हैं जो पेड़ों पर घोंसले बना लेते हैं, कंकड़ चुग के गुजारा कर लेते हैं, पर रब को याद रखते हैं)।101।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा रुति फिरी वणु क्मबिआ पत झड़े झड़ि पाहि ॥ चारे कुंडा ढूंढीआं रहणु किथाऊ नाहि ॥१०२॥

मूलम्

फरीदा रुति फिरी वणु क्मबिआ पत झड़े झड़ि पाहि ॥ चारे कुंडा ढूंढीआं रहणु किथाऊ नाहि ॥१०२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: फिरी = बदल गई है। वणु = जंगल (भाव, जंगल का पेड़)। (शब्द ‘वणु’ के रूप और शलोक नं: 19 और 43 में आए शब्द ‘वणि’ के व्याकर्णिक रूप का फर्क देखें)। रहणु = स्थिरता। किथाऊ = कहीं भी।
अर्थ: हे फरीद! मौसम बदल गया है, जंगल (का बूटा-बूटा) हिल गया है, पत्ते झड़ रहे हैं। (जगत की) चारों दिशाएं ढूँढ के देख ली हैं, स्थिरता कहीं भी नहीं है (ना ही ऋतु एक जैसी रह सकती है, ना ही वृक्ष और वृक्षों के पत्ते सदा टिके रह सकते हैं। भाव, समय गुजरने पर इस मनुष्य पर बुढ़ापा आ जाता है, सारे अंग कमजोर पड़ जाते हैं, आखिर जगत से चल पड़ता है)।102।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा पाड़ि पटोला धज करी क्मबलड़ी पहिरेउ ॥ जिन्ही वेसी सहु मिलै सेई वेस करेउ ॥१०३॥

मूलम्

फरीदा पाड़ि पटोला धज करी क्मबलड़ी पहिरेउ ॥ जिन्ही वेसी सहु मिलै सेई वेस करेउ ॥१०३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पाड़ि = फाड़ के। पटोला = (सिर पर लेने वाला औरत का) पट का कपड़ा। धज = लीरें। कंबलड़ी = तुच्छ सी कंबली। जिनी वेसी = जिस भेषों से। सहु = पति।
अर्थ: हे फरीद! पाट/रेशम का कपड़ा फाड़ के लीर कर दूँ, और बेकार सी कंबली पहन लूँ। मैं वही वेश कर लूँ, जिस वेशों से (मेरा) पति परमात्मा मिल जाए।103।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ काइ पटोला पाड़ती क्मबलड़ी पहिरेइ ॥ नानक घर ही बैठिआ सहु मिलै जे नीअति रासि करेइ ॥१०४॥

मूलम्

मः ३ ॥ काइ पटोला पाड़ती क्मबलड़ी पहिरेइ ॥ नानक घर ही बैठिआ सहु मिलै जे नीअति रासि करेइ ॥१०४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काइ = किस लिए? क्यों? पहिरेइ = पहनती है। घर ही = घर में ही। रासि = अच्छी, साफ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘घर ही’ में से शब्द ‘घरि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (पति-परमात्मा को मिलने के लिए जीव-स्त्री) सिर पर पाट/रेशम का कपड़ा क्यों फाड़े और बेकार सी कंबली क्यों पहने? हे नानक! घर बैठे ही पति (-परमात्मा) मिल जाता है, अगर (जीव-स्त्री अपनी) नीयत साफ कर ले (यदि मन पवित्र कर ले)।104।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ५ ॥ फरीदा गरबु जिन्हा वडिआईआ धनि जोबनि आगाह ॥ खाली चले धणी सिउ टिबे जिउ मीहाहु ॥१०५॥

मूलम्

मः ५ ॥ फरीदा गरबु जिन्हा वडिआईआ धनि जोबनि आगाह ॥ खाली चले धणी सिउ टिबे जिउ मीहाहु ॥१०५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गरबु = अहंकार। वडिआईआ गरबु = वडिआईयों का गुमान, दुनियावी इज्जत का घमण्ड। धनि = धन के कारण। जोबनि = जवानी के कारण। आगाह = बेअंत। धणी = रब, परमात्मा। सिउ = से। मीहाहु = मींह से, बरसात से।
अर्थ: हे फरीद! जिस लोगों को दुनियावी इज्जत का अहंकार (रहा), बेअंत धन के कारण अथवा जवानी के कारण (कोई) माण रहा, वे (जगत में से) मालिक (की मेहर) से वंचित ही चले गए, जैसे टिबे (ऊँची जगहें) बरसात (वर्षा होने) के बाद (सूखे ही रह जाते हैं)।106।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा तिना मुख डरावणे जिना विसारिओनु नाउ ॥ ऐथै दुख घणेरिआ अगै ठउर न ठाउ ॥१०६॥

मूलम्

फरीदा तिना मुख डरावणे जिना विसारिओनु नाउ ॥ ऐथै दुख घणेरिआ अगै ठउर न ठाउ ॥१०६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ऐथै = इस जीवन में। घणेरिआ = घनेरे, बड़े। ठउर न ठाउ = ना जगह ना ठौर।
अर्थ: हे फरीद! जिस लोगों ने परमात्मा का नाम भुलाया हुआ है, उनके मुँह डरावने लगते हैं (उनको देखने से ही डर लगता है, चाहे वे रेशमी कपड़े पहनने वाले हों, धन वाले हों, जवानी वाले हों अथवा आदर सत्कार वाले हों)। (जब तक) वे यहाँ (जीते हैं, उनको) कई दुख होते हैं, और आगे भी उनको कोई ठौर-ठिकाना नहीं मिलता (भाव, धक्के ही पड़ते हैं)।106

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शलोक नं: 103 और 106 फरीद जी के हैं। नं: 104 गुरु अमरदास जी का है और नं: 105 गुरु अरजन साहिब का है। फरीद जी के दोनों शलोकों को मिला के पढ़ो। पहला नं: 106 और फिर नं: 103। दोनों का भाव यह है, जिस लोगों ने परमात्मा का नाम भुलाया है उनके मुँह डरावने लगते हैं चाहे वे बढ़िया कपड़े पहनें और धनवान ही हों। धन होते हुए भी, रेशम पहनने से भी, वे दुखी ही रहते हैं। सो, रब को भुला के ऐसे रेशम पहनने की जगह तो लीरें पहन लेनी ही बेहतर हैं, कंबली पहन लेनी बढ़िया, यदि इन लीरों और इस कंबली को पहन कर के रब ना भूले।
पर इसका भाव ये नहीं कि फरीद जी फकीरी पहरावे की हिदायत कर रहे हैं। सो, इस भुलेखे को दूर करने के लिए गुरु अमरदास जी ने फरीद जी के शलोक नं: 103 के साथ अपनी ओर से शलोक नं: 104 लिखा है। गुरु अरजन साहिब ने इस ख्याल की और व्याख्या करते हुए लिखा है कि कि धन और जवानी का मान करने से रब की मेहर से वंचित ही रह जाया जाता है। इसलिए ऐसे धन–जवानी की मौज से फकीरी की नज़रें और गोदड़ी बेहतर, अगर इस फकीरी में रब की याद रह सके।
फरीद जी का इससे अगला शलोक नं: 107 थोड़ा ध्यान से पिछले शलोकों के साथ मिला के पढ़ के देखो। वे खुद ही कहते हैं कि लीरों और गोदड़ी की जरूरत नहीं है, घर छोड़ के जंगलों में जाने की जरूरत भी नहीं, सिफ्र निम्न-लिखित उद्यम करो– अमृत बेला में उठ के रब को याद करो, एक रब की ओट रखो, संतोख रखो आदि।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा पिछल राति न जागिओहि जीवदड़ो मुइओहि ॥ जे तै रबु विसारिआ त रबि न विसरिओहि ॥१०७॥

मूलम्

फरीदा पिछल राति न जागिओहि जीवदड़ो मुइओहि ॥ जे तै रबु विसारिआ त रबि न विसरिओहि ॥१०७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पिछलि राति = पिछली रात, अमृत बेला में। न जागिओहि = तू ना जागा। मुइओहि = तू मरा। तै = तू। रबि = रब ने।107।
अर्थ: हे फरीद! अगर तू अमृत बेला में नहीं जागा तो (यह अनुचित जीवन) जीता हुआ ही तू मरा हुआ है। अगर तूने रब को भुला दिया है, तो रब ने तुझे नहीं भुलाया (भाव, परमात्मा हर वक्त तेरे अमलों को देख रहा है)।107।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: पिछली रात क्यों जागना है? ये बात फरीद जी ने सिर्फ इशारे मात्र कही है: ‘जे तै रबु विसारिआ’, भाव पिछली राते जाग के रब को याद करना है। गुरु अरजन देव जी फरीद जी के इस भाव को अगले शलोकों में और ज्यादा स्पष्ट करते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ५ ॥ फरीदा कंतु रंगावला वडा वेमुहताजु ॥ अलह सेती रतिआ एहु सचावां साजु ॥१०८॥

मूलम्

मः ५ ॥ फरीदा कंतु रंगावला वडा वेमुहताजु ॥ अलह सेती रतिआ एहु सचावां साजु ॥१०८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कंतु = पति, परमात्मा। रंगावला = (देखो शलोक नं: 82 में ‘रंगावली’) सोहज मयी, सोहणा। अलह सेती = रब से। साजु = बणतर, रूप। सचावां = सच वाला, परमात्मा वाला। एहु साजु = ये रूप, (भाव,) ‘रंगावाला’ और ‘वेमुहताजु’ रूप।
अर्थ: हे फरीद! पति (परमात्मा) सुंदर है और बहुत बेमुहताज है। (अमृत बेला में उठ के) अगर रब के साथ रंगे जाएं तो (मनुष्य को भी) रब वाला यह (सुंदर और बेमुथाजी वाला) रूप मिल जाता है (भाव, मनुष्य का मन सुंदर हो जाता है, और इसको किसी की अधीनता नहीं रहती)।108।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ५ ॥ फरीदा दुखु सुखु इकु करि दिल ते लाहि विकारु ॥ अलह भावै सो भला तां लभी दरबारु ॥१०९॥

मूलम्

मः ५ ॥ फरीदा दुखु सुखु इकु करि दिल ते लाहि विकारु ॥ अलह भावै सो भला तां लभी दरबारु ॥१०९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इकु करि = एक समान कर, एक जैसे जान। विकारु = पाप। ते = से। अलह भावै = (जो) रब को अच्छा लगे। दरबारु = रब की दरगाह।
अर्थ: हे फरीद! (अमृत बेला में उठ के रब की याद के अभ्यास से जीवन में घटित होते) दुख और सुख को एक समान जान, तब तुझे (परमात्मा की) दरगाह की प्राप्ति होगी।109।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ५ ॥ फरीदा दुनी वजाई वजदी तूं भी वजहि नालि ॥ सोई जीउ न वजदा जिसु अलहु करदा सार ॥११०॥

मूलम्

मः ५ ॥ फरीदा दुनी वजाई वजदी तूं भी वजहि नालि ॥ सोई जीउ न वजदा जिसु अलहु करदा सार ॥११०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुनी = दुनिया, दुनिया के लोग। वजाई = माया की प्रेरित हुई। नालि = दुनिया के ही साथ। जिसु = जिसकी। सार = संभाल। अलहु = परमात्मा।
अर्थ: हे फरीद! दुनिया के लोग (बाजे हैं जो माया के) बजाए हुए बज रहे हैं, तू भी उनके साथ ही बज रहा है, (भाव, माया का नचाया नाच रहा है)। वही (भाग्यशाली) जीव (माया का बजाया हुआ) नहीं बजता, जिसकी (संभाल) रखवाली परमात्मा खुद करता है (सो, अमृत बेला में उठ के उसकी याद में जुड़, ताकि तेरी भी संभाल, रखवाली हो सके)।110।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शलोक नं: 108, 109 ओर 110 में शब्द ‘अलह’ का प्रयोग व्याकरण के अनुसार इस तरह है: ‘अलह सेती’– यहाँ मुक्ता अंत शब्द ‘अलह’ के साथ ‘संबंधक’ ‘सेती बरता गया है। ‘अलह भावै’– यहाँ क्रिया ‘भावै’ के साथ शब्द ‘अलह’ संप्रदान कारक, एक वचन है, भाव, ‘अलह नूं’ ‘अलहु करदा’– यहाँ शब्द ‘अलहु’ कर्ता–कारक, एकवचन है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ५ ॥ फरीदा दिलु रता इसु दुनी सिउ दुनी न कितै कमि ॥ मिसल फकीरां गाखड़ी सु पाईऐ पूर करमि ॥१११॥

मूलम्

मः ५ ॥ फरीदा दिलु रता इसु दुनी सिउ दुनी न कितै कमि ॥ मिसल फकीरां गाखड़ी सु पाईऐ पूर करमि ॥१११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रता = रंगा हुआ। दुनी = दुनिया, माया। दुनी = दुनिया, माया। कितै कंमि = किसी काम में (नहीं आती)। मिसल = फकीरों वाली रहनी। गाखड़ी = मुश्किल। पूर करंमि = पूरी किस्मत से।
अर्थ: हे फरीद! (अमृत बेला में उठना ही काफी नहीं; उस उठने का भी क्या लाभ अगर उस वक्त भी) दिल दुनिया (के पदार्थों) के साथ ही रंगा रहा? दुनिया (आखिरी वक्त पर) किसी काम नहीं आती। (उठ के रब को याद कर, ये) फकीरों वाली रहन-सहन बहुत मुश्किल है, और मिलती है बहुत बड़े भाग्यों से।111।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: अगल शलोक नं: 112 फरीद जी का है।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

पहिलै पहरै फुलड़ा फलु भी पछा राति ॥ जो जागंन्हि लहंनि से साई कंनो दाति ॥११२॥

मूलम्

पहिलै पहरै फुलड़ा फलु भी पछा राति ॥ जो जागंन्हि लहंनि से साई कंनो दाति ॥११२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: फुलड़ा = सुंदर सा फूल। पछाराति = पिछली राते, अमृत वेला। लहंनि = हासिल करते हैं। कंनो = से (देखें शलोक नं: 99 में शब्द ‘कंनै’)।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जागंनि्’ में अक्षर ‘न’ के नीचे आधा ‘ह’ है (जागंन्हि)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (रात के) पहले पहर की बँदगी (जैसे) एक सुंदर सा फूल है, फल अमृत बेला की बँदगी ही हो सकती है। जो लोग (अमृत बेला में) जागते हैं वे परमात्मा से बख्शिशें हासिल करते हैं।112।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: अमृत बेला में उठने के बारे में यहाँ फरीद जी के सिर्फ दो शलोक हैं: नं: 107 और यह नं: 112। शलोक नं: 108,109,110 और 111 गुरु अरजन देव जी के हैं, जिनमें बताया है कि अमृत बेला की बँदगी में से ये लाभ निकलने चाहिए– बेमुथाजी, पाप की र्निर्विक्ति, रजा में रहना, माया की मार से बचाव। फरीद जी ने दोनों शलोकों में सिर्फ ये कहा है: अमृत बेला में उस का नाम जपो, पहली रात भी रब की याद में ही सोना चाहिए, पर पहले पहर से अमृत वेला ज्यादा गुणकारी है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दाती साहिब संदीआ किआ चलै तिसु नालि ॥ इकि जागंदे ना लहन्हि इकन्हा सुतिआ देइ उठालि ॥११३॥

मूलम्

दाती साहिब संदीआ किआ चलै तिसु नालि ॥ इकि जागंदे ना लहन्हि इकन्हा सुतिआ देइ उठालि ॥११३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दाती = बख्शिशें। संदीआ = की। तिसु नालि = उस (साहिब) के साथ। किआ चलै = क्या जोर चल सकता है। इकि = कई लोग। लहन्हि = प्राप्त करते हैं।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘दाति’ के अंत में ‘ि’ है, इसका बहुवचन ‘ि’ को दीर्घ करने से बनेगा, इसी तरह शब्द ‘लहरि’ का बहुवचन ‘लहरी’; जैसे ‘साइरु लहरी देइ’।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: बख्शिशें, मालिक की (अपनी) हैं। उस मालिक के साथ (किसी का) क्या जोर चल सकता है? कई (अमृत बेला में) जागते हुए भी (ये बख्शिशें) नहीं ले सकते, कई (भाग्यशालियों को) सोए हुओं को (वह खुद) जगा देता है (भाव, कई अमृत बेला में जागते हुए भी किसी अहंकार आदि रूप माया में सोए रह जाते हैं, और कई गाफिलों को मेहर कर के खुद सूझ दे देता है)।113।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ये शलोक गुरु नानक देव जी का है, जो फरीद जी के उपरोक्त शलोक (नं: 112) की व्याख्या के लिए उचारा गया है। फरीद जी ने शब्द ‘दाति’ बरत के इशारे-मात्र बताया है कि जो अमृत बेला में जाग के बँदगी करते हैं, उन पर ईश्वर प्रसन्न होता है। गुरु नानक देव जी ने स्पष्ट करके कह दिया है कि यह तो ‘दाति’ है, और ‘दाति’, हक नहीं बन जाता। कहीं कोई अमृत बेला में उठने का माण ही करने लग जाए।
गुरु अरजन देव जी ने इस शलोक को गुरु रामदास जी की उचारी हुई ‘सिरी राग’ की वार की दूसरी पउड़ी के साथ भी बरता हैं। वहाँ ये शलोक यूँ है।
सलोक म: १॥ दाती साहिब संदीआ, किआ चलै तिसु नालि॥ इकि जागंदे ना लहंनि इकना सुतिआ देइ उठालि॥१॥२॥ (सिरी राग की वार महला ४)
यहाँ दूसरी तुक के दो शब्दों के जोड़ में थोड़ा सा फर्क है: ‘लहंनि्’ और ‘इकना’।
नोट: गुरु नानक देव जी के उपरोक्त शलोक के साथ ‘सिरी राग’ की वार में गुरु नानक देव जी का दूसरा शलोक इस तरह है;
महला १॥ सिदक सबूरी सादिका, सबर तोसा मलाइकां॥ दीदारु पूरे पाइसा, थाउ नाही खाइका॥२॥२॥
इन दोनों शलोकों को इकट्ठे पढ़ने पर ये शिक्षा प्रत्यक्ष दिखाई देती है कि रब की ओर से ‘दाति’ तब ही मिलती है अगर बँदा ‘सबरु’ धारण करे। इसी तरह फरीद जी के शलोक नं: 112 के साथ फरीद जी के अपने अगले चार शलोक नं 114 से 117 तक भी यही कहते हैं कि ‘दाति’ तब ही मिलेगी जब ‘सबरु’ धारण करेंगे। ‘हक’ समझ के जल्दबाजी में कोई और ‘झाक’ नहीं झाँकनी।
नोट: शलोक नं: 114 से 119 तक फरीद जी के ही हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ढूढेदीए सुहाग कू तउ तनि काई कोर ॥ जिन्हा नाउ सुहागणी तिन्हा झाक न होर ॥११४॥

मूलम्

ढूढेदीए सुहाग कू तउ तनि काई कोर ॥ जिन्हा नाउ सुहागणी तिन्हा झाक न होर ॥११४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कू = को। तउ तनि = तेरे तन में, तेरे अंदर। कोर = कसर, कमी। काई = कोई। झाक = आस, आसरा, टेक।
अर्थ: सुहाग (-परमात्मा) को तलाशने वाली (हे जीव-सि्त्रए!) (तू अमृत बेला में उठ के पति-परमात्मा को मिलने के लिए बँदगी करती है पर तुझे अभी भी नहीं मिला) तेरे अपने अंदर ही कोई कसर है। जिनका नाम ‘सोहगनें’ है उनके अंदर और कोई टेक नहीं होती (भाव, पति-मिलाप की ‘दाति’ उनको ही मिलती है जो अमृत वेला में उठने का कोई ‘हक’ नहीं जमातीं)।114।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सबर मंझ कमाण ए सबरु का नीहणो ॥ सबर संदा बाणु खालकु खता न करी ॥११५॥

मूलम्

सबर मंझ कमाण ए सबरु का नीहणो ॥ सबर संदा बाणु खालकु खता न करी ॥११५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंझ = (मन) मंझ, (मन) में। सबर कमाण = सब्र की कमान। सबरु = धीरज, सिदक। का = (कमाने का)। नीहणो = चिल्ला। संदा = का। बाणु = तीर। खता न करी = व्यर्थ नहीं जाने देना, गवाने नहीं देना।
अर्थ: यदि मन में इस सब्र की कमान हो, और सब्र की कमान का चिल्ला हो, सब्र का ही तीर हो, तो परमात्मा (इसका निशाना) हाथ से जाने नहीं देगा।115।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सबर अंदरि साबरी तनु एवै जालेन्हि ॥ होनि नजीकि खुदाइ दै भेतु न किसै देनि ॥११६॥

मूलम्

सबर अंदरि साबरी तनु एवै जालेन्हि ॥ होनि नजीकि खुदाइ दै भेतु न किसै देनि ॥११६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साबरी = सब्र वाले लोग। एवै = इसी तरह (भाव,) सब्र में ही। तनु जालेन्हि = शरीर को जलाते हैं, मेहनत करते हैं, (भाव, जब जगत सोया हुआ है, वह अमृत बेला में उठ के बँदगी करते हैं, और बेमुथाजी पाप-र्निर्विती और रज़ा का सबक पकाते हैं)। होनि = होते हैं। नजीकि = नजदीक। किसै = किसी को। भेतु न देनि = अपना भेद नहीं देते, जल्दबाजी में किसी के आगे गिला नहीं करते कि इतनी मेहनत करने पर भी अभी तक क्यों नहीं मिला।
अर्थ: सब्र वाले बँदे सब्र में रह के इसी तरह (सदा सब्र में ही) बँदगी की घाल घालते (मेहनत करते) हैं (इस तरह वे) रब के नजदीक होते जाते हैं, और किसी को अपने दिल का भेद नहीं देते।116।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सबरु एहु सुआउ जे तूं बंदा दिड़ु करहि ॥ वधि थीवहि दरीआउ टुटि न थीवहि वाहड़ा ॥११७॥

मूलम्

सबरु एहु सुआउ जे तूं बंदा दिड़ु करहि ॥ वधि थीवहि दरीआउ टुटि न थीवहि वाहड़ा ॥११७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुआउ = स्वार्थ, प्रयोजन, जिंदगी का निशाना। बंदा = हे बंदे! हे मनुष्य! दिढ़ु = दृढ़, पक्का। वधि = बढ़ के। बीजहि = हो जाएगा। वाहड़ा = छोटा सा बहाव। टुटि = टूट के, कम हो के।
अर्थ: हे बँदे! यह सब्र ही जिंदगी का असल निशाना है। अगर तू (सब्र को हृदय में) पक्का कर ले, तो तू बढ़ के दरिया हो जाएगा, (पर) कम हो के छोटा सा बहाव नहीं बनेगा (भाव, सब्र वाला जीवन बनाने से तेरा दिल बढ़ के दरिया हो जाएगा, तेरे दिल में सारे जगत के लिए प्यार पैदा हो जाएगा, तेरे अंदर तंग-दिली नहीं रह जाएगी)।117।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फरीदा दरवेसी गाखड़ी चोपड़ी परीति ॥ इकनि किनै चालीऐ दरवेसावी रीति ॥११८॥

मूलम्

फरीदा दरवेसी गाखड़ी चोपड़ी परीति ॥ इकनि किनै चालीऐ दरवेसावी रीति ॥११८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गाखड़ी = मुश्किल। दरवेसी = फकीरी। चोपड़ी = ऊपर ऊपर से बढ़िया, दिखावे वाली। इकनि किनै = किसी एक ने, किसी विरले ने। चालीऐ = चलाई है। दरवेसावी = दरवेशों वाली।
अर्थ: हे फरीद! (ये सब्र वाला जीवन असल) फकीरी (है, और यह) कठिन (काम) है, पर (हे फरीद! रब से तेरी) प्रीति तो ऊपर-ऊपर से है। फकीरों का (यह सब्र वाला) काम किसी विरले बँदे ने कमाया है।118।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तनु तपै तनूर जिउ बालणु हड बलंन्हि ॥ पैरी थकां सिरि जुलां जे मूं पिरी मिलंन्हि ॥११९॥

मूलम्

तनु तपै तनूर जिउ बालणु हड बलंन्हि ॥ पैरी थकां सिरि जुलां जे मूं पिरी मिलंन्हि ॥११९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिउ = जैसे। पैरी = पैरों से (चलते हुए)। थकां = अगर मैं थक जाऊँ। सिरि = सिर से, सिर भार। जुलां = मैं चलूँ। मूँ = मुझे। पिरी = प्यारी (रब) की।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘बलंनि्’ में अक्षर ‘न’ के नीचे आधा ‘ह’ है ‘बलंन्हि’। ‘मिलंनि्’ में अक्षर ‘न’ के नीचे का चिन्ह आधा ‘ह’ है ‘मिलंन्हि’।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: मेरा शरीर (बेशक) तंदूर की तरह तपे, मेरी हड्डियाँ (चाहे इस तरह) जलें जैसे ईधन (जलता) है। (प्यारे रब को मिलने की राह में अगर मैं) पैरों से (चलता-चलता) थक जाऊँ, तो मैं सिर भार चलने लग पड़ूँ। (मैं ये सारी मुश्किलें सहने को तैयार हूँ) अगर मुझे प्यारे रब जी मिल जाएं (भाव, रब को मिलने के लिए यह जरूरी हो कि शरीर को धूणियां तपा-तपा के दुखी किया जाए, तो मैं ये कष्ट सहने को भी तैयार हूँ)।119।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तनु न तपाइ तनूर जिउ बालणु हड न बालि ॥ सिरि पैरी किआ फेड़िआ अंदरि पिरी निहालि ॥१२०॥

मूलम्

तनु न तपाइ तनूर जिउ बालणु हड न बालि ॥ सिरि पैरी किआ फेड़िआ अंदरि पिरी निहालि ॥१२०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिरि = सिर ने। पैरी = पैरों ने। फेड़िआ = बिगाड़ा है। निहालि = देख, ताक।
अर्थ: शरीर को (धूणियों से) तंदूर की तरह ना जला; और हड्डियों को इस तरह ना जला जैसे यह ईधन है। सिर ने और पैरों ने कुछ नहीं बिगाड़ा है, (इस वास्ते इनको दुखी ना कर) परमात्मा को अपने अंदर देख।120।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ये शलोक गुरु नानक देव जी का है। ‘शलोक वारां ते वधीक महला १’ में भी ये दर्ज है। वहाँ कुछ इस तरह है;
तनु न तपाइ तनूर जिउ, बालणु हड न बालि॥ सिरि पैरी किआ फेड़िआ, अंदर पिरी समालि॥18॥
यहाँ सिर्फ एक शब्द का फर्क है ‘निहालि’ की जगह शब्द ‘समालि’ है, दोनों का अर्थ एक ही है। जैसे श्लोक नं: 113 में देख आए हैं, कि सतिगुरु जी ने फरीद के शलोक नं: 113 की व्याख्या की है, वैसे ही यहाँ भी यही बात है। फरीद जी की किसी ‘कमी’ को सही नहीं किया। अगर गुरमति की कसवटी पर यहाँ कोई ‘कमी’ होती, तो गुरु–रूप गुरबाणी में ‘कमी’ को जगह क्यों मिलती? फरीद जी ने भी यहाँ कहीं धूणियां तपाने की जरूरत नहीं बताई। उनका अगला शलोक (नं: 125) इसके साथ मिला के पढ़ो (बीच के सारे शलोक सतिगुरु जी के हैं), भाव यह है जगत के विकारों से बचने का एक ही उपाय है: परमात्मा की ओट, यह ओट किसी भी भाव पर मिले तो सौदा सस्ता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ ढूढेदी सजणा सजणु मैडे नालि ॥ नानक अलखु न लखीऐ गुरमुखि देइ दिखालि ॥१२१॥

मूलम्

हउ ढूढेदी सजणा सजणु मैडे नालि ॥ नानक अलखु न लखीऐ गुरमुखि देइ दिखालि ॥१२१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मैडे नालि = मेरे साथ, मेरे हृदय में। अलखु = लक्षणहीन, जिसका कोई खास लक्षण नहीं पता लगता। देइ दिखाल = दिखा देता है।
अर्थ: मैं (जीव-स्त्री) सज्जन (-प्रभु) को (बाहर) तलाश रही हूँ, (पर वह) सज्जन (तो) मेरे हृदय में बस रहा है। हे नानक! उस (सज्जन) का कोई लक्षण नहीं, (अपने उद्यम से जीव से) वह पहचाना नहीं जा सकता, सतिगुरु दिखा देता है।121।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ये शलोक गुरु राम दास जी का है। राग कानड़े की वार की पंद्रहवीं पौड़ी में आया है, थोड़ा सा फर्क है, वहाँ पर इस प्रकार है;
सलोक महला ४॥ हउ ढूढेदी सजणा, सजणु मैंडे नालि॥ जन नानक अलखु न लखीऐ, गुरमुखि देइ दिखालि॥१॥१५॥
गुरु रामदास जी का यह शलोक गुरु नानक देव जी के शलोक की व्याख्या है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हंसा देखि तरंदिआ बगा आइआ चाउ ॥ डुबि मुए बग बपुड़े सिरु तलि उपरि पाउ ॥१२२॥

मूलम्

हंसा देखि तरंदिआ बगा आइआ चाउ ॥ डुबि मुए बग बपुड़े सिरु तलि उपरि पाउ ॥१२२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बगा = बगलों को। बपुड़े = बेचारे। तलि = नीचे।
अर्थ: हंसों को तैरता हुआ देख के बगुलों को भी चाव चढ़ गया, पर बेचारे बगुले (ये उद्यम करने के चक्कर में) सिर तले और पैर ऊपर (हो के) डूब के मर गए।122।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: यह शलोक गुरु अमरदास जी का है। ‘वडहंस की वार’ में यह और इससे अगला शलोक (नं: 123) जो गुरु अमरदास जी का है, इस प्रकार दर्ज हैं;
हंसा वेखि तरंदिआ बगां भि आइआ चाउ॥ डुबि मुइ बग बपुड़े, सिरु तलि उपरि पाउ॥३॥१॥ मै जानिआ वडहंसु है, ता मै कीआ संगु॥ जे जाणा बगु बपुड़ा, त जनमि न देई अंगु॥२॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मै जाणिआ वड हंसु है तां मै कीता संगु ॥ जे जाणा बगु बपुड़ा जनमि न भेड़ी अंगु ॥१२३॥

मूलम्

मै जाणिआ वड हंसु है तां मै कीता संगु ॥ जे जाणा बगु बपुड़ा जनमि न भेड़ी अंगु ॥१२३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वडहंसु = बड़ा हंस। संगु = साथ। जे जाणा = अगर मुझे पता होता। जनमि = जनम में, जनम भर, सारी उम्र। न भेड़ी = ना छूती।
अर्थ: मैंने समझा कि ये कोई बड़ा हँस है, इसीलिए मैंने उसकी संगति की। पर अगर मुझे पता होता कि ये नाकारा बगुला है, तो मैं कभी उसके नजदीक ना फटकती।123।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इन दोनों शलोकों का भाव यह है कि धूणियों को ही प्रभु-मिलाप का साधन समझने वाले का ये उद्यम यूँ है जैसे कोई बगुला हँसों की रीस करने लग जाए। इसका नतीजा ये निकलता है कि एक तो वह व्यर्थ दुख सहेड़ता है; दूसरा यह पाज उघड़ जाता है, कोई इस पर रीझता नहीं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किआ हंसु किआ बगुला जा कउ नदरि धरे ॥ जे तिसु भावै नानका कागहु हंसु करे ॥१२४॥

मूलम्

किआ हंसु किआ बगुला जा कउ नदरि धरे ॥ जे तिसु भावै नानका कागहु हंसु करे ॥१२४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किआ = चाहे, भले ही। जा कउ = जिस पर। नदरि = मेहर की नजर। तिसु = उस (प्रभु) को। कागहु = कौए से।
अर्थ: चाहे हो हँस चाहे हो बगुला, जिस पर (प्रभु) कृपा की नजर करे (उसको अपना बना लेता है; सो किसी से नफरत क्यों?) हे नानक! अगर परमात्मा को ठीक लगे तो (बगुला तो एक तरफ रहा, वह) कौए से (भी) हँस बना देता है (भाव, बड़े से बड़े विकारी को भी सुधार लेता है)।124।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ये शलोक श्री गुरु नानक देव जी का है। ‘वार सिरी रागु’ की पउड़ी नं: 20 के साथ ये इस तरह दर्ज है;
किआ हंसु किआ बगुला, जा कउ नदरि करेइ॥ जो तिसु भावै नानका, कागहु हंसु करेइ॥२॥२०॥
नोट: अगला शलोक (नं: 124) फरीद जी के शलोक नं: 119 के सिलसिले में है। बीच वाले पाँचों शलोक उस भुलेखे को दूर करने के लिए हैं, जो फरीद जी के अकेले शलोक नं: 119 को पढ़ के लग सकते थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरवर पंखी हेकड़ो फाहीवाल पचास ॥ इहु तनु लहरी गडु थिआ सचे तेरी आस ॥१२५॥

मूलम्

सरवर पंखी हेकड़ो फाहीवाल पचास ॥ इहु तनु लहरी गडु थिआ सचे तेरी आस ॥१२५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरवर = (जगत रूप) तालाब में। हेकड़ो = अकेला। गडु थिआ = फस गया है। लहरी = लहरों में।
अर्थ: (जगत रूप) तालाब में (ये जीव-रूपी) पंछी अकेला ही है, फसाने वाले (कामादिक) पचास हैं। (मेरा) यह शरीर (संसार-रूप तालाब की विकार-रूप) लहरों में फंस गया है। हे सच्चे (प्रभु)! (इनसे बचने के लिए) एक तेरी (सहायता की ही) आस है (इस वास्ते तुझे मिलने के लिए अगर तप तपाने पड़ें, तो भी सौदा सस्ता है)।125।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: वह ‘तप’ कौन से हैं, जो फरीद जी के ख्याल अनुसार प्रभु-मिलाप के लिए और ‘फाहीवाल पचास’ से बचने के लिए जरूरी हैं? वह अगले पाँच शलोकों में दिए गए हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कवणु सु अखरु कवणु गुणु कवणु सु मणीआ मंतु ॥ कवणु सु वेसो हउ करी जितु वसि आवै कंतु ॥१२६॥

मूलम्

कवणु सु अखरु कवणु गुणु कवणु सु मणीआ मंतु ॥ कवणु सु वेसो हउ करी जितु वसि आवै कंतु ॥१२६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मणीआ = शिरोमणी। हउ = मैं। जितु = जिस (भेस) से। वसि = वश में।
अर्थ: (हे बहन!) वह कौन सा अक्षर है? वह कौन सा गुण है? वह कौन सा शिरोमणि मंत्र है? वह कौन सा भेस मैं करूँ जिससे (मेरा) पति (मेरे) वश में आ जाए?।126।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवणु सु अखरु खवणु गुणु जिहबा मणीआ मंतु ॥ ए त्रै भैणे वेस करि तां वसि आवी कंतु ॥१२७॥

मूलम्

निवणु सु अखरु खवणु गुणु जिहबा मणीआ मंतु ॥ ए त्रै भैणे वेस करि तां वसि आवी कंतु ॥१२७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खवणु = सहना। जिहबा = मीठी जीभ, मीठा बोलना।
अर्थ: हे बहन! झुकना अक्षर है, सहना गुण है, मीठा बोलना शिरोमणि मंत्र है। अगर ये तीन वेश (भेस) कर ले तो (मेरा) पति (तेरे) वश में आ जाएगा।127।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मति होदी होइ इआणा ॥ ताण होदे होइ निताणा ॥ अणहोदे आपु वंडाए ॥ को ऐसा भगतु सदाए ॥१२८॥

मूलम्

मति होदी होइ इआणा ॥ ताण होदे होइ निताणा ॥ अणहोदे आपु वंडाए ॥ को ऐसा भगतु सदाए ॥१२८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मति = बुद्धि। होइ = बने। ताणु = जोर, ताकत। अणहोदे = जब कुछ भी देने के लायक ना रहे। सदाए = कहलवाए।
अर्थ: (जो मनुष्य) अक्ल के होते हुए भी अंजान बना रहे (भाव, अकल के ताण से ताकत से दूसरों पर कोई दबाव ना डाले), जोर होते हुए कमजोरों की तरह जीए (भाव, किसी के ऊपर जोर जबरदस्ती ना करे), जब कुछ भी देने के लायक ना हो, तब अपना आप (भाव, अपना हिस्सा) बाँट दे, किसी ऐसे मनुष्य को (ही) भक्त कहना चाहिए।128।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इकु फिका न गालाइ सभना मै सचा धणी ॥ हिआउ न कैही ठाहि माणक सभ अमोलवे ॥१२९॥

मूलम्

इकु फिका न गालाइ सभना मै सचा धणी ॥ हिआउ न कैही ठाहि माणक सभ अमोलवे ॥१२९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गालाइ = बोल। इकु = एक भी वचन। धणी = मालिक, पति। हिआउ = हृदय। कैही = किसी की भी। ठाहि = ढाह। माणक = मोती।
अर्थ: एक भी फीका वचन ना बोल (क्योंकि) सबमें सच्चा मालिक (बस रहा है), किसी का भी दिल ना दुखा (क्योंकि) यह सारे (जीव) अमूल्य मोती हैं।129।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभना मन माणिक ठाहणु मूलि मचांगवा ॥ जे तउ पिरीआ दी सिक हिआउ न ठाहे कही दा ॥१३०॥

मूलम्

सभना मन माणिक ठाहणु मूलि मचांगवा ॥ जे तउ पिरीआ दी सिक हिआउ न ठाहे कही दा ॥१३०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ठाहणु = ढाहणा, दुखाना। मूलि = बिल्कुल ही। मचांगवा = अच्छा नहीं। तउ = तुझे।
अर्थ: सारे जीवों के मन मोती हैं, (किसी को भी) दुखाना बिल्कुल ठीक नहीं। अगर तुझे प्यारे प्रभु से मिलने की तमन्ना है, तो किसी का दिल ना दुखा।130।

[[1385]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

मूलम्

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सवये स्री मुखबाक्य महला ५ ॥

मूलम्

सवये स्री मुखबाक्य महला ५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आदि पुरख करतार करण कारण सभ आपे ॥ सरब रहिओ भरपूरि सगल घट रहिओ बिआपे ॥

मूलम्

आदि पुरख करतार करण कारण सभ आपे ॥ सरब रहिओ भरपूरि सगल घट रहिओ बिआपे ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पुरख = सर्व व्यापक। करण कारण = करण का कारण, सृष्टि का आदि। भरपूरि = व्यापक। सगल घट = सारे घटों में। रहिओ बिआपे = व्याप रहा है, पसर रहा है, हाजर नाजर है।
अर्थ: हे आदि पुरख! हे कर्तार! तू खुद ही सारी सृष्टि का मूल है। तू सब जगह भरपूर है; (भाव, कोई जगह ऐसी नहीं, जहाँ तू ना हो)। तू सब शरीरों में मौजूद है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्यापतु देखीऐ जगति जानै कउनु तेरी गति सरब की रख्या करै आपे हरि पति ॥

मूलम्

ब्यापतु देखीऐ जगति जानै कउनु तेरी गति सरब की रख्या करै आपे हरि पति ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देखीऐ = देखते हैं। जगति = जगत में। पति = मालिक।
अर्थ: हे (सबके) मालिक अकाल पुरख! तू सारे जगत में पसरा हुआ दिखाई दे रहा है। कौन जानता है कि तू किस तरह का है? तू स्वयं ही सब (जीवों) की रक्षा करता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अबिनासी अबिगत आपे आपि उतपति ॥ एकै तूही एकै अन नाही तुम भति ॥

मूलम्

अबिनासी अबिगत आपे आपि उतपति ॥ एकै तूही एकै अन नाही तुम भति ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अबिनासी = नाश ना होने वाला। अबिगत = अव्यक्त जो व्यक्ति से रहित हो, शरीर से रहित, अदृष्ट, इन आँखों से ना दिखने वाला। आपे आपि = अपने आप से। उतपति = पैदाइश। अन = अन्य, कोई और। तुम भति = तुम भांति, तेरे जैसा।
अर्थ: (हे आदि पुरख!) तू कभी नाश होने वाला नहीं है, तू इन आँखों से नहीं दिखता; तेरी उत्पक्ति तेरे अपने आप से ही है। तू केवल एक ही एक है, तेरे जैसा और कोई नहीं है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि अंतु नाही पारावारु कउनु है करै बीचारु जगत पिता है स्रब प्रान को अधारु ॥

मूलम्

हरि अंतु नाही पारावारु कउनु है करै बीचारु जगत पिता है स्रब प्रान को अधारु ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पारावारु = इस पार उस पार, हद बंदी। स्रब प्रान के = सारे प्राणियों का। आधारु = आसरा।
अर्थ: (हे भाई!) हरि का अंत और हदबंदी नहीं (पायी जा सकती)। कौन (मनुष्य) है जो (उसकी हदबंदी को ढूँढने के लिए) विचार कर सकता है? हरि सारे जगत का पिता है और सारे जीवों का आसरा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनु नानकु भगतु दरि तुलि ब्रहम समसरि एक जीह किआ बखानै ॥ हां कि बलि बलि बलि बलि सद बलिहारि ॥१॥

मूलम्

जनु नानकु भगतु दरि तुलि ब्रहम समसरि एक जीह किआ बखानै ॥ हां कि बलि बलि बलि बलि सद बलिहारि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दरि = दर पर, (अकाल-पुरख के) दरवाजे पर। तुलि = स्वीकार। ब्रहम समसरि = अकाल पुरख के समान, अकाल-पुरख का रूप। जीह = जीभ। बखानै = कहै, कह सकती है। बलि = सदके। सद = सदा।
अर्थ: (हरि का) भक्त सेवक (गुरु) नानक (हरि के) दर पर स्वीकार (हुआ है) और हरि जैसा है। (मेरी) एक जीभ (उस गुरु नानक के) क्या (गुण) कथन कर सकती है? मैं (गुरु नानक से) सदके हूँ, सदके हूँ, सदा सदके हूँ।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: पद ‘हाँ कि’ सवईऐ की टेक–मात्र ही बरता गया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अम्रित प्रवाह सरि अतुल भंडार भरि परै ही ते परै अपर अपार परि ॥

मूलम्

अम्रित प्रवाह सरि अतुल भंडार भरि परै ही ते परै अपर अपार परि ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल। प्रवाह = झरने, वहण, चश्मे। सरि = सरें, चलते हैं। अतुल = जो तोले ना जा सकें। भंडार = खजाने। भरि = भरे पड़े हैं। अपर अपार = बेअंत।
अर्थ: (हे अकाल पुरख!) (तुझसे) अमृत के प्रवाह चल रहे हैं, तेरे ना तुल सकने वाले खजाने भरे पड़े हैं; तू परे से परे हैं और बेअंत है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपुनो भावनु करि मंत्रि न दूसरो धरि ओपति परलौ एकै निमख तु घरि ॥

मूलम्

आपुनो भावनु करि मंत्रि न दूसरो धरि ओपति परलौ एकै निमख तु घरि ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भावनु = मर्जी। करि = करता है। मंत्रि = मंत्र में, मंत्रणा में, सलाह में। दूसरो = किसी और को। न धरि = नहीं धरता है, तू नहीं लाता। ओपति = उत्पक्ति, जगत की पैदायश। परलौ = प्रलय, जगत का नाश। एकै निमख = एक निमख में, आँख झपकने जितने समय में। तु = (तव) तेरे।
अर्थ: तू अपनी मर्जी करता है; किसी और को अपनी सलाह में नहीं लाता, (भाव, तू किसी और से सलाह नहीं करता) तेरे घेरे में (भाव, तेरे हुक्म में) जगत की पैदायश और अंत आँख झपकने जितने समय में हो जाते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आन नाही समसरि उजीआरो निरमरि कोटि पराछत जाहि नाम लीए हरि हरि ॥

मूलम्

आन नाही समसरि उजीआरो निरमरि कोटि पराछत जाहि नाम लीए हरि हरि ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आन = कोई और। समसरि = बराबर, समान, जैसा। उजीआरो = प्रकाश, रौशनी। निरमरि = निर्मल, साफ (संस्कृत: निर्माल्य, pure, Clean, Stainless. इससे प्राक्रित और पंजाबी रूप निरमल, निरमारि, निरमरि)। कोटि पराछत = करोड़ों पाप। जाहि = दूर हो जाते हैं।
अर्थ: कोई और हरि जैसा नहीं है; उसका निर्मल प्रकाश है; उस हरि का नाम लेने से करोड़ों पाप दूर हो जाते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनु नानकु भगतु दरि तुलि ब्रहम समसरि एक जीह किआ बखानै ॥ हां कि बलि बलि बलि बलि सद बलिहारि ॥२॥

मूलम्

जनु नानकु भगतु दरि तुलि ब्रहम समसरि एक जीह किआ बखानै ॥ हां कि बलि बलि बलि बलि सद बलिहारि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हरि का भक्त दास (गुरु) नानक (हरि के) दर पर स्वीकार (हुआ है) और हरि जैसा ही है। (मेरी) एक जीभ (उस गुरु नानक के) क्या (गुण) कह सकती है? मैं (गुरु नानक से) सदके हूँ, सदके हूँ, सदा सदके हूँ।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सगल भवन धारे एक थें कीए बिसथारे पूरि रहिओ स्रब महि आपि है निरारे ॥

मूलम्

सगल भवन धारे एक थें कीए बिसथारे पूरि रहिओ स्रब महि आपि है निरारे ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सगल भवन = सारे मंडल, सारे लोक। धारे = बनाए, थापे। एक थें = एक (अपने आप) से। बिसथारे = खिलारा, पसारा। पूरि रहिओ = व्यापक है। निरारे = निराला, निवेकला, न्यारा।
अर्थ: उस हरि ने सारे लोक बनाए हैं; एक अपने आप से ही (यह संसार का) विस्तार किया है; खुद ही सब में व्यापक है (और फिर) है (भी) निर्लिप।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि गुन नाही अंत पारे जीअ जंत सभि थारे सगल को दाता एकै अलख मुरारे ॥

मूलम्

हरि गुन नाही अंत पारे जीअ जंत सभि थारे सगल को दाता एकै अलख मुरारे ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: थारे = तेरे। अलख = जो लखा ना जा सके, जिसका सही रूप बयान ना किया जा सके। को = का। मुरारे = हे मुरारि! मुर नाम के दैत्य का वैरी (अकाल-पुरख के नामों में से एक ये नाम भी बरता गया है)।
अर्थ: हे बेअंत हरि! तेरे गुणों का अंत और पार नहीं (पड़ सकता)। सारे जीव-जंतु तेरे ही हैं, तू एक खुद ही सबका दाता है। तेरा स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता।

[[1386]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

आप ही धारन धारे कुदरति है देखारे बरनु चिहनु नाही मुख न मसारे ॥

मूलम्

आप ही धारन धारे कुदरति है देखारे बरनु चिहनु नाही मुख न मसारे ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धारन = सृष्टि। धारे = आसरा दे रहा है। देखारे = दिखलाता है। बरनु = वर्ण, रंग। चिहनु = निशान। मसारे = (संस्कृत: शमश्र) दाढ़ी।
अर्थ: (हरि) स्वयं ही सारे जगत को आसरा दे रहा है, अपनी कुदरति दिखा रहा है। ना (उसका कोई) रंग है ना (कोई) निशान, ना मुँह, और ना दाढ़ी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनु नानकु भगतु दरि तुलि ब्रहम समसरि एक जीह किआ बखानै ॥ हां कि बलि बलि बलि बलि सद बलिहारि ॥३॥

मूलम्

जनु नानकु भगतु दरि तुलि ब्रहम समसरि एक जीह किआ बखानै ॥ हां कि बलि बलि बलि बलि सद बलिहारि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हरि का भक्त दास (गुरु) नानक (हरि के) दर पर स्वीकार (हुआ है) और हरि जैसा है। (मेरी) एक जीभ (उस गुरु नानक के) क्या (गुण) कह सकती है? मैं (गुरु नानक से) सदके हूँ, सदके हूँ, सदा सदके हूँ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरब गुण निधानं कीमति न ग्यानं ध्यानं ऊचे ते ऊचौ जानीजै प्रभ तेरो थानं ॥

मूलम्

सरब गुण निधानं कीमति न ग्यानं ध्यानं ऊचे ते ऊचौ जानीजै प्रभ तेरो थानं ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निधानं = खजाना। कीमति = मूल्य। जानीजै = जाना जाता है, सुना जाता है। थान = ठिकाना। प्रभ = हे प्रभु!
अर्थ: हे प्रभु! तू सारे गुणों का खजाना है, तेरे ज्ञान का और (तेरे में) ध्यान (जोड़ने) का मूल्य नहीं (पड़ सकता)। तेरा ठिकाना ऊँचे से ऊँचा सुना जाता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनु धनु तेरो प्रानं एकै सूति है जहानं कवन उपमा देउ बडे ते बडानं ॥

मूलम्

मनु धनु तेरो प्रानं एकै सूति है जहानं कवन उपमा देउ बडे ते बडानं ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सूत = सूत्र, मर्यादा, सत्ता। एकै सूति = एक ही मर्यादा में। उपमा = तशबीह, बराबर की चीज़। बडानं = बड़ा। देउ = देऊँ, मैं दूँ।
अर्थ: (हे प्रभु!) मेरा मन, मेरा धन और मेरे प्राण - ये सब तेरे ही दिए हुए हैं। सारा संसार तेरी एक ही सत्ता में है (भाव, सत्ता के आसरे है)। मैं किस का नाम बताऊँ जो तेरे बराबर का हो? तू बड़ों से भी बड़ा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानै कउनु तेरो भेउ अलख अपार देउ अकल कला है प्रभ सरब को धानं ॥

मूलम्

जानै कउनु तेरो भेउ अलख अपार देउ अकल कला है प्रभ सरब को धानं ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भाउ = भेद, राज़, गूढ़ गती। अपार = बेअंत। देउ = देव, प्रकाश रूप। अकल कला = जिस की कला (सत्ता) अंग रहित है, भाव, एक रस है। धानं = आसरा (संस्कृत: धानं = a receptacle, seat, nourishment)।
अर्थ: हे प्रभु! तेरा भेद कौन जान सकता है? हे अलख! हे अपार! हे प्रकाश-रूप! तेरी सत्ता (सब जगह) एक-रस है, तू सारे जीवों का आसरा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनु नानकु भगतु दरि तुलि ब्रहम समसरि एक जीह किआ बखानै ॥ हां कि बलि बलि बलि बलि सद बलिहारि ॥४॥

मूलम्

जनु नानकु भगतु दरि तुलि ब्रहम समसरि एक जीह किआ बखानै ॥ हां कि बलि बलि बलि बलि सद बलिहारि ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे प्रभु! (तेरा भक्त सेवक (गुरु) नानक (तेरे) दर पर स्वीकार (हुआ है) और (हे प्रभु! तेरे) ब्रहम जैसा है। (मेरी) एक जीभ (उस गुरु नानक के) क्या (गुण) कह सकती है? मैं (गुरु नानक से) सदके हूँ, सदके हूँ, सदा सदके हूँ।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरंकारु आकार अछल पूरन अबिनासी ॥ हरखवंत आनंत रूप निरमल बिगासी ॥

मूलम्

निरंकारु आकार अछल पूरन अबिनासी ॥ हरखवंत आनंत रूप निरमल बिगासी ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरंकारु = आकार से रहित, वर्णों चिन्हों से बाहर। आकार = सरगुन, स्वरूप वाला। अछल = जिसको कोई धोखा ना दे सके। हरखवंत = सदा प्रसन्न। आनंतरूप = बेअंत स्वरूपों वाला। बिगासी = मौला हुआ, खिला हुआ, प्रकट।
अर्थ: तू वर्णों-चिन्हों से बाहर का है, और स्वरूप वाला भी है; तुझे कोई छल नहीं सकता, तू सब जगह व्यापक है, और कभी नाश होने वाला नहीं है, तेरे बेअंत स्वरूप हैं, तू शुद्ध-स्वरूप है और जाहरा-जहूर है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुण गावहि बेअंत अंतु इकु तिलु नही पासी ॥ जा कउ होंहि क्रिपाल सु जनु प्रभ तुमहि मिलासी ॥

मूलम्

गुण गावहि बेअंत अंतु इकु तिलु नही पासी ॥ जा कउ होंहि क्रिपाल सु जनु प्रभ तुमहि मिलासी ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बेअंत = बेअंत जीव। इकु तिलु = रक्ती भी। नही पासी = नहीं पड़ता। मिलासी = मिल जाता है। प्रभ = हे प्रभु!
अर्थ: बेअंत जीव तेरे गुण गाते हैं, पर तेरा अंत थोड़ा सा भी नहीं पड़ता (जाना जा सकता)। हे प्रभु! जिस पर तू दयावान होता है, वह मनुष्य तुझे मिल जाता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धंनि धंनि ते धंनि जन जिह क्रिपालु हरि हरि भयउ ॥ हरि गुरु नानकु जिन परसिअउ सि जनम मरण दुह थे रहिओ ॥५॥

मूलम्

धंनि धंनि ते धंनि जन जिह क्रिपालु हरि हरि भयउ ॥ हरि गुरु नानकु जिन परसिअउ सि जनम मरण दुह थे रहिओ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धंनि = धन्य, भाग्यशाली। जिह = जिस पर। हरि गुरु नानकु = (इस तरह के गुणों वाले) हरि का रूप गुरु नानक। जिन = जिन्होंने। परसियउ = प्रसन्न किया है, छूआ है, चरन परसे हैं, सेवा की है। सि = वे (भाग्यशाली) मनुष्य। दुह थे = दोनों से। रहिओ = बचे रहे हैं।
अर्थ: भाग्यशाली हैं वे मनुष्य, जिस पर हरि दयावान हुआ है। जिस मनुष्यों ने (उपरोक्त गुणों वाले) हरि के रूप गुरु नानक को परसा है, वे जनम-मरण दोनों से बच रहे हैं।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सति सति हरि सति सति सते सति भणीऐ ॥ दूसर आन न अवरु पुरखु पऊरातनु सुणीऐ ॥

मूलम्

सति सति हरि सति सति सते सति भणीऐ ॥ दूसर आन न अवरु पुरखु पऊरातनु सुणीऐ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सति = सदा रहने वाला, अटल। भणीऐ = कहा जाता है (भाव, लोग कहते हैं)। अवरु = और। आन = कोई और। पऊरातनु = पुरातन, पुराना, आदि का। सुणीऐ = सुना जाता है।
अर्थ: महात्मा लोग सदा कहते आए हैं कि हरि सदा अटल है, सदा कायम रहने वाला है; वह पुरातन पुरख सुना जाता है (भाव, सबका आदि है) कोई और दूसरा उसके जैसा नहीं है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अम्रितु हरि को नामु लैत मनि सभ सुख पाए ॥ जेह रसन चाखिओ तेह जन त्रिपति अघाए ॥

मूलम्

अम्रितु हरि को नामु लैत मनि सभ सुख पाए ॥ जेह रसन चाखिओ तेह जन त्रिपति अघाए ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जेह = जिस मनुष्यों ने। रसन = रसना द्वारा, जीभ से। तेह जन = वह मनुष्य (बहु वचन)। त्रिपति अघाए = संतुष्ट हो गए, अघा गए। मन = हे मन!
अर्थ: हे मन! जिन्होंने हरि का आत्मिक जीवन देने वाला नाम लिया है, उनको सारे सुख मिल गए हैं। जिन्होंने (नाम-अमृत) जीभ से चखा है, वे मनुष्य तृप्त हो गए हैं (भाव, और रसों की उनको तमन्ना नहीं रही)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिह ठाकुरु सुप्रसंनु भयुो सतसंगति तिह पिआरु ॥ हरि गुरु नानकु जिन्ह परसिओ तिन्ह सभ कुल कीओ उधारु ॥६॥

मूलम्

जिह ठाकुरु सुप्रसंनु भयुो सतसंगति तिह पिआरु ॥ हरि गुरु नानकु जिन्ह परसिओ तिन्ह सभ कुल कीओ उधारु ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिह = जिस पर। तिह = उनका। ठाकुरु = मालिक प्रभु। उधारु = उद्धार, पार उतारा।

दर्पण-टिप्पनी

भयुो = अक्षर ‘य’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं, पर यहाँ ‘ु’ पढ़नी है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जिस मनुष्यों पर मालिक-प्रभु दयावान हुआ है, उनका साधु-संगत में प्रेम (पड़ गया है)। (इस तरह के) हरि-रूप गुरु नानक (के चरणों) को जिन्होंने परसा है, उन मनुष्यों ने अपनी सारी कुल का उद्धार कर लिया है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचु सभा दीबाणु सचु सचे पहि धरिओ ॥ सचै तखति निवासु सचु तपावसु करिओ ॥

मूलम्

सचु सभा दीबाणु सचु सचे पहि धरिओ ॥ सचै तखति निवासु सचु तपावसु करिओ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभा = संगति, दरबार। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। दीबाणु = कचहरी। सचे पहि = सदा स्थिर हरि के रूप गुरु के पास। सचै तखति = सच्चे तख्त पर। तपावसु = न्याय।
अर्थ: (अकाल पुरख की) सभा सदा अटल रहने वाली है, (उसकी) कचहरी सदा-स्थिर है; (अकाल-पुरख ने अपना आप) अपने सदा-स्थिर-रूप गुरु के पास रखा हुआ है; (भाव, हरि गुरु के माध्यम से मिलता है), (अकाल-पुरख का) ठिकाना सदा कायम रहने वाला है और, वह सदा (सच्चा) न्याय करता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचि सिरज्यिउ संसारु आपि आभुलु न भुलउ ॥ रतन नामु अपारु कीम नहु पवै अमुलउ ॥

मूलम्

सचि सिरज्यिउ संसारु आपि आभुलु न भुलउ ॥ रतन नामु अपारु कीम नहु पवै अमुलउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचि = सच्चे (अकाल-पुरख) ने, सदा कायम रहने वाले (प्रभु) ने। सिरज्यिउ = सिरजियो, सृजन किया, पैदा किया है। आभुलु = ना भूलने वाला। न भुलउ = भूल नहीं करता है। कीम = कीमत। नहु = नहीं। अमुलउ = अमोलक है।
अर्थ: सदा स्थिर सच्चे (अकाल-पुरख) ने जगत को रचा है, वह स्वयं कभी गलती नहीं करता, कभी भूल नहीं करता। (अकाल-पुरख का) श्रेष्ठ नाम (भी) बेअंत है, अमूल्य है, (उसके नाम का) मूल्य नहीं पाया जा सकता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिह क्रिपालु होयउ गुोबिंदु सरब सुख तिनहू पाए ॥ हरि गुरु नानकु जिन्ह परसिओ ते बहुड़ि फिरि जोनि न आए ॥७॥

मूलम्

जिह क्रिपालु होयउ गुोबिंदु सरब सुख तिनहू पाए ॥ हरि गुरु नानकु जिन्ह परसिओ ते बहुड़ि फिरि जोनि न आए ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिह = जिस मनुष्यों पर। बहुड़ि = दोबारा, पलट के। जोनि न आए = नहीं जनम लिया, नहीं जन्मे। तिनहू = उन्होंने ही।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘गुोबिंद’ में अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘गोबिंद’, यहां ‘गुबिंद’ पढ़ना है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जिस मनुष्यों पर अकाल-पुरख दयावान हुआ है, उनको ही सारे सुख मिले हैं। (ऐसे गुणों वाले) अकाल-पुरख के रूप नानक (के चरणों) को जिन्होंने परसा है, वे फिर पलट के जनम (-मरण) में नहीं आते।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कवनु जोगु कउनु ग्यानु ध्यानु कवन बिधि उस्तति करीऐ ॥ सिध साधिक तेतीस कोरि तिरु कीम न परीऐ ॥

मूलम्

कवनु जोगु कउनु ग्यानु ध्यानु कवन बिधि उस्तति करीऐ ॥ सिध साधिक तेतीस कोरि तिरु कीम न परीऐ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कवन बिधि = किस तरह, किस बिधि से, किस जुगति से? साधकि = साधना करने वाले, जो मनुष्य आत्मिक जिंदगी के लिए प्रयत्न कर रहे हैं। तेतीस कोरि = तैतीस करोड़ देवते। तिरु = तिल मात्र, थोड़ा भी। कीम = कीमत, मूल्य। परीऐ = पाई नहीं जा सकती।
अर्थ: कौन से योग (का साधन) करें? कौन सा ज्ञान (विचारें)? कौन सा ध्यान (धरें)? वह कौन सी जुगति बरतें जिससे अकाल-पुरख के गुण गा सकें? सिद्ध, साधिक और तैतिस करोड़ देवताओं से भी अकाल-पुरख की थोड़ी सी भी कीमत नहीं पड़ सकी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रहमादिक सनकादि सेख गुण अंतु न पाए ॥ अगहु गहिओ नही जाइ पूरि स्रब रहिओ समाए ॥

मूलम्

ब्रहमादिक सनकादि सेख गुण अंतु न पाए ॥ अगहु गहिओ नही जाइ पूरि स्रब रहिओ समाए ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ब्रहमादिक = ब्रहमा व अन्य देवता गण (ब्रहम+आदिक)। सनकादिक = (सनक+आदिक) सनक व अन्य (सनक, सनातन, सनत कुमार और सनंदन, ये चारों ब्रहमा के पुत्र थे)। सेख = शेशनाग, पुरातन हिन्दू विचार है कि इसके एक हजार फन हैं और विष्णू का ये आसन है; ये ख्याल भी प्रचलित है कि शेशनाग सारी सृष्टि को अपने फन पर उठाए खड़ा है। अगहु = (अ+गहु) जो पकड़ से परे है, जिस तक पहुँच ना हो सके। पूरि = व्यापक। गहिओ = पकड़ा। स्रब = सरब, सारे।
अर्थ: ब्रहमा व अन्य देवतागण (ब्रहमा के पुत्र) सनक आदिक और शेशनाग, अकाल-पुरख के गुणों का अंत ना पा सके। (अकाल-पुरख मनुष्यों की) समझ से ऊँचा है, उसकी गति नहीं पाई जा सकती, सब जगह व्यापक है और सबमें रमा हुआ है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिह काटी सिलक दयाल प्रभि सेइ जन लगे भगते ॥ हरि गुरु नानकु जिन्ह परसिओ ते इत उत सदा मुकते ॥८॥

मूलम्

जिह काटी सिलक दयाल प्रभि सेइ जन लगे भगते ॥ हरि गुरु नानकु जिन्ह परसिओ ते इत उत सदा मुकते ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिह = जिस मनुष्यों की। सिलक = (माया का) फंदा। प्रभि = प्रभु ने। सेइ जन = वे मनुष्य (बहुवचन)। भगते = भक्ति में। इत उत = यहाँ वहाँ, इस लोक में परलोक में। मुकते = मुक्त, बंधनो से स्वतंत्र।
अर्थ: दयालु प्रभु ने जिस मनुष्यों के (माया के मोह का) फंदा काट दिया है, वे मनुष्य उसकी भक्ति में जुड़ गए हैं। (इस तरह के उपरोक्त गुणों वाले) हरि के रूप गुरु नानक जिन्होंने पसरा है, वह जीव लोक-परलोक में माया के बंधनो से बचे हुए हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभ दातउ दातार परि्यउ जाचकु इकु सरना ॥ मिलै दानु संत रेन जेह लगि भउजलु तरना ॥

मूलम्

प्रभ दातउ दातार परि्यउ जाचकु इकु सरना ॥ मिलै दानु संत रेन जेह लगि भउजलु तरना ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परि्यउ = पड़ा है। जाचकु = याचना करने वाला, भिखारी। सरना = शरण। दानु = ख़ैर, भिक्षा। संत रेन = सत्संगियों के चरणों की धूल। जेह लगि = जिस के आसरे, जिस (धूल) की ओट ले के। भउजलु = घुम्मन घेर (संसार का)। तरना = तैरा जा सके।
अर्थ: हे प्रभु! हे दाते! हे दातार! मैं एक जाचिक तेरी शरण आया हूँ, (मुझ भिखारी को) सत्संगियों के चरणों की धूल की ख़ैर मिल जाए, ता कि इस धूल की ओट ले के मैं (संसार के) भवजल से पार लांघ सकूँ।

[[1387]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनति करउ अरदासि सुनहु जे ठाकुर भावै ॥ देहु दरसु मनि चाउ भगति इहु मनु ठहरावै ॥

मूलम्

बिनति करउ अरदासि सुनहु जे ठाकुर भावै ॥ देहु दरसु मनि चाउ भगति इहु मनु ठहरावै ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करउ = करूँ, मैं करता हूँ। मनि = (मेरे) मन में। चाउ = तमन्ना। भगति = (तेरी) भक्ति में। इहु मनु = मेरा यह मन। ठहरावै = टिक जाए।
अर्थ: हे ठाकुर! यदि तुझे अच्छा लगे तो (मेहर करके मेरी) अरजोई सुन, मैं एक विनती करता हूं, “(मुझे) दीदार दे; मेरे मन में यह तमन्ना है, (मेहर कर) मेरा यह मन तेरी भक्ति में टिक जाए”।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलिओ चरागु अंध्यार महि सभ कलि उधरी इक नाम धरम ॥ प्रगटु सगल हरि भवन महि जनु नानकु गुरु पारब्रहम ॥९॥

मूलम्

बलिओ चरागु अंध्यार महि सभ कलि उधरी इक नाम धरम ॥ प्रगटु सगल हरि भवन महि जनु नानकु गुरु पारब्रहम ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चरागु = चिराग, दीया। अंध्यार महि = अंधेरे में। कलि = सृष्टि। उधरी = पार लांघ गई। नाम धरम = हरि नाम के स्मरण रूप धर्म द्वारा। भवन = संसार। हरि = हे हरि! जन नानकु = (तेरा) सेवक (गुरु) नानक।
अर्थ: हे भाई! तेरा सेवक, हे पारब्रहम! तेरा रूप गुरु नानक सारे जगत में प्रकट हुआ है। (गुरु नानक) अंधेरे में दीया जग उठा है, (उसके बताए हुए) नाम की इनायत से सारी सृष्टि पार लांघ रही है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सवये स्री मुखबाक्य महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

सवये स्री मुखबाक्य महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काची देह मोह फुनि बांधी सठ कठोर कुचील कुगिआनी ॥ धावत भ्रमत रहनु नही पावत पारब्रहम की गति नही जानी ॥

मूलम्

काची देह मोह फुनि बांधी सठ कठोर कुचील कुगिआनी ॥ धावत भ्रमत रहनु नही पावत पारब्रहम की गति नही जानी ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काची = कच्ची, ना स्थिर रहने वाली। देह = शरीर। मोह बांधी = (माया के) मोह से बँधी हुई। फुनि = फिर। सठ = दुर्जन। कठोर = निर्दयी। कुचील = गंदा रहने वाला। कुगिआनी = अज्ञानी, मूढ़, मूर्ख। धावत भ्रमत = भटकता फिरता हूँ। रहनु = टिकाव, स्थिरता। नही पावत = नहीं मिलती, प्राप्त नहीं होती। गति = भेद, ऊँची आत्मिक अवस्था।
अर्थ: मैं दुर्जन हूँ, कठोर-दिल हूँ, बुरे कामों में लगा रहता हूँ और मूर्ख हूँ। (एक तो पहले ही मेरा) शरीर सदा-स्थिर रहने वाला नहीं है, ऊपर से बल्कि ये मोह में जकड़ा हुआ है, (इस मोह के कारण) भटकता फिरता हूँ, (मन) टिकता नहीं है, और ना ही मैंने यह जाना है कि परमात्मा कैसा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जोबन रूप माइआ मद माता बिचरत बिकल बडौ अभिमानी ॥ पर धन पर अपवाद नारि निंदा यह मीठी जीअ माहि हितानी ॥

मूलम्

जोबन रूप माइआ मद माता बिचरत बिकल बडौ अभिमानी ॥ पर धन पर अपवाद नारि निंदा यह मीठी जीअ माहि हितानी ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जोबन = जवानी। रूप = सुंदर शकल। मद = अहंकार। माता = मस्त। बिचरत = विचरते हुए, मैं भटक रहा हूँ। बिकल = व्याकुल, अपने आप को भुला के। अपवाद = बुरे वचन, कड़वे बोल। नारि = (पराई) स्त्री (की ओर मंद दृष्टि)। यह = यह। जीअ माहि = हृदय में। हितानी = प्यारे लगते हैं।
अर्थ: मैं जवानी, सुंदर शक्ल-सूरत और माया के माण में मस्त होया हुआ हूँ, अपने आप को भुला के भटक रहा हूँ और बड़ा अहंकारी हूँ। पराया धन, पराई बखीली, पराई स्त्री पर कु-दृष्टि से देखना और पराई निंदा- मेरे दिल को ये बातें मीठी और प्यारी लगती हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलबंच छपि करत उपावा पेखत सुनत प्रभ अंतरजामी ॥ सील धरम दया सुच नास्ति आइओ सरनि जीअ के दानी ॥ कारण करण समरथ सिरीधर राखि लेहु नानक के सुआमी ॥१॥

मूलम्

बलबंच छपि करत उपावा पेखत सुनत प्रभ अंतरजामी ॥ सील धरम दया सुच नास्ति आइओ सरनि जीअ के दानी ॥ कारण करण समरथ सिरीधर राखि लेहु नानक के सुआमी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बलबंच उपावा = ठगी के उपाय। छपि = छुप के। करत = मैं करता हूँ। पेखत = तू देखता है। सुनत = (तू) सुनता है। प्रभ = हे प्रभु! सील = अच्छा स्वभाव। सुच = पवित्रता। नास्ति = नास्ति, ना+अस्ति, नहीं है। आइओ = मैं आया हूँ। जीअ कै दानी = हे जीवात्मा के दानी! हे जीवन दान देने वाले! कारण करण = हे सृष्टि के मूल! सिरी धर = हे माया के पति!।1।
अर्थ: हे अंतजामी प्रभु! मैं छुप-छुप के ठगी (करने की) साजिशें रचता हूँ, (पर) तू देखता और सुनता है। हे जीवन दान देने वाले! मेरे में ना शील है ना धर्म; ना दया है ना शुचिता। मैं तेरी शरण आया हूँ। हे सृष्टि के समर्थ कर्तार! हे माया के मालिक! हे नानक के स्वामी! (मुझे इनसे) बचा ले।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कीरति करन सरन मनमोहन जोहन पाप बिदारन कउ ॥ हरि तारन तरन समरथ सभै बिधि कुलह समूह उधारन सउ ॥

मूलम्

कीरति करन सरन मनमोहन जोहन पाप बिदारन कउ ॥ हरि तारन तरन समरथ सभै बिधि कुलह समूह उधारन सउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन मोहन = मन को मोह लेने वाले हरि की। कीरति करन = महिमा करनी। सरन = शरण पड़ना। जोहन = जोधन, योद्धे। बिदारन कउ = नाश करने के लिए, दूर करने के लिए। तारन तरन = (संसार सागर से) तैरने के लिए बेड़ी। तरन = बेड़ी। सभै बिधि = हर तरह, पूरी तौर पर। कुलह समूह = कूलों के समूह, कई कुलें। उधारन सउ = तारने के लिए, उद्धार के लिए पार करने के लिए।
अर्थ: मन को मोह लेने वाली हरि की महिमा करनी और उसकी शरण पड़ना- (जीवों के) पापों के नाश करने के लिए ये समर्थ हैं (भाव, हरि की शरण पड़ कर उसका यश करें तो पाप दूर हो जाते हैं)। हरि (जीवों को संसार-सागर से) तैराने के लिए जहाज़ है और (भक्त-जनों की अनेक कुलों को पार उतारने के लिए पूरन तौर पर समर्थ है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चित चेति अचेत जानि सतसंगति भरम अंधेर मोहिओ कत धंउ ॥ मूरत घरी चसा पलु सिमरन राम नामु रसना संगि लउ ॥

मूलम्

चित चेति अचेत जानि सतसंगति भरम अंधेर मोहिओ कत धंउ ॥ मूरत घरी चसा पलु सिमरन राम नामु रसना संगि लउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चित अचेत = हे अचेत चिक्त! हे गाफल मन! चेति = स्मरण कर। जानि = पहचान। भरम अंधेर मोहिओ = भ्रम रूप अंधेरे में मोहित होया हुआ। कत = किधर? धंउ = तू दौड़ता है, भटकता है। मूरत = महूरत। घरी = घड़ी। सिमरन = चिंतन (कर)। रसना संगि = जीभ से। लउ = लै।
अर्थ: हे (मेरे) गाफल मन! (राम को) स्मरण कर, साधु संगत के साथ सांझ डाल, भ्रम रूप अंधेरे का मोहित हुआ (तू) किधर भटकता फिरता है? महूरत मात्र, घरी भर, रक्ती भर या पल भर ही राम का स्मरण कर, जीभ से राम का नाम स्मरण कर।

विश्वास-प्रस्तुतिः

होछउ काजु अलप सुख बंधन कोटि जनम कहा दुख भंउ ॥ सिख्या संत नामु भजु नानक राम रंगि आतम सिउ रंउ ॥२॥

मूलम्

होछउ काजु अलप सुख बंधन कोटि जनम कहा दुख भंउ ॥ सिख्या संत नामु भजु नानक राम रंगि आतम सिउ रंउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: होछउ = होछा, तोड़ ना निभने वाला। काजु = काम, धंधा। अलप = थोड़े। बंधन = बसाने का साधन। कोटि = करोड़ों। कहा = क्यों? किस की खातिर? दुखों में। भंउ = भटकता फिरेगा। सिख्या = शिक्षा, उपदेश (ले के)। नानक = हे नानक! रंगि = रंग में। आतम सिउ = अपनी आत्मा से। रंउ = आनंद ले।2।
अर्थ: (इस दुनिया का) धंधा सदा साथ निभने वाला नहीं है, (माया के यह) थोड़े से सुख (जीव को) फसाने का कारण हैं; (इनकी खातिर) कहाँ करोड़ों जन्मों तक (तू) दुखों में भटकता फिरेगा? इसलिए, हे नानक! संतों का उपदेश लेकर नाम स्मरण कर, और राम के रंग में (मगन हो के) अपने अंदर ही आनंद ले।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रंचक रेत खेत तनि निरमित दुरलभ देह सवारि धरी ॥ खान पान सोधे सुख भुंचत संकट काटि बिपति हरी ॥

मूलम्

रंचक रेत खेत तनि निरमित दुरलभ देह सवारि धरी ॥ खान पान सोधे सुख भुंचत संकट काटि बिपति हरी ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रंचक रेत = थोड़ सा वीर्य। खेत = पैली, खेत। तनि = शरीर में (भाव, माता के पेट में)। खेत तनि = माँ के पेट रूपी खेत में। निरमित = निंमिआ, निर्मित किया, बीजा। देह = शरीर। दुरलभ = अमोलक। सवारि = सजा के। खान पान = पाने पीने के पदार्थ। सोधे = महल माढ़ियां। सुख भुंचत = भोगने के लिए सुख (दिए)। संकट = कष्ट (भाव, माता के उदर में उल्टे रहने वाला कष्ट)। काटि = काट के, हटा के। बिपत = बिपता, मुसीबत। हरी = दूर की।
अर्थ: (हे जीव! परमात्मा ने पिता का) थोड़ा सा वीर्य माँ के पेट-रूप खेत में निर्मित किया और (तेरा) अमोलक (मनुष्य) शरीर सजा के रख दिया। (उसने तुझे) खाने-पीने के पदार्थ, महल-माढ़ियों को माणने के सुख बख्शे, संकट काट के तेरी बिपता दूर की।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मात पिता भाई अरु बंधप बूझन की सभ सूझ परी ॥ बरधमान होवत दिन प्रति नित आवत निकटि बिखम जरी ॥ रे गुन हीन दीन माइआ क्रिम सिमरि सुआमी एक घरी ॥

मूलम्

मात पिता भाई अरु बंधप बूझन की सभ सूझ परी ॥ बरधमान होवत दिन प्रति नित आवत निकटि बिखम जरी ॥ रे गुन हीन दीन माइआ क्रिम सिमरि सुआमी एक घरी ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अरु = और। बंधप = संबन्धी, साक सैन। बूझन की = पहचानने की। सूझ = मति, बुद्धि। परी = (तेरे मन में) पड़ी। बरधमान होवत = बढ़ता है। दिन प्रति = प्रति दिन, रोज, दिनो दिन। नित = सदा। निकटि = नजदीक। बिखंम = डरावना। जरी = बुढ़ापा। गुनहीन = गुणों से वंचित। दीन = कंगाल। क्रिम = कीड़ा, कृमि।
अर्थ: (हे जीव! परमात्मा की मेहर से) तब माता, पिता, भाई, साक-संबन्धी की तेरे अंदर सूझ पड़ गई। दिनो-दिन सदा (तेरा शरीर) बढ़-फूल रहा है और डरावना बुढ़ापा नजदीक आ रहा है। हे गुणों से रहित, कंगले, माया के कीड़े! एक घड़ी (तो) उस मालिक को याद कर (जिसने तेरे ऊपर इतनी बख्शिशें की हैं)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करु गहि लेहु क्रिपाल क्रिपा निधि नानक काटि भरम भरी ॥३॥

मूलम्

करु गहि लेहु क्रिपाल क्रिपा निधि नानक काटि भरम भरी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करु = हाथ। गहि = पकड़ के। गहि लेहु = पकड़ लो। क्रिपाल = हे कृपाल हरि! क्रिपा निधि = हे कृपा के खजाने! काटि = दूर कर। भरंम भरी = भरमों की पोटली।3।
अर्थ: हे दयालु! हे दया के समुंदर! नानक का हाथ पकड़ ले और भरमों की पोटली उतार दे।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रे मन मूस बिला महि गरबत करतब करत महां मुघनां ॥ स्मपत दोल झोल संगि झूलत माइआ मगन भ्रमत घुघना ॥

मूलम्

रे मन मूस बिला महि गरबत करतब करत महां मुघनां ॥ स्मपत दोल झोल संगि झूलत माइआ मगन भ्रमत घुघना ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मूस = चूहा। बिला = बिल। गरबत = (तू) अहंकार करता है। करतब = कर्तव्य, काम, करतूत। महां मुघनां = बड़े मूर्खों वाले। संपत = धन, पदार्थ। दोल = पींघ, झूला, पंघूड़ा। झोल = झुलाना, हुलारा। झोल संग = हुलारे के साथ। झूलत = (तू) झूलता है। मगन = मस्त। घुघना = उल्लू की तरह।
अर्थ: हे मन! (तू इस शरीर में माण करता है जैसे) चूहा खुड (बिल) में र हके हंकार करता है, और तू बड़े मूर्खों वाले काम करता है। (तू) माया के पंगूड़े में हुलारे ले के झूल रहा है, और माया में मस्त हो के उल्लू की तरह भटक रहा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुत बनिता साजन सुख बंधप ता सिउ मोहु बढिओ सु घना ॥ बोइओ बीजु अहं मम अंकुरु बीतत अउध करत अघनां ॥

मूलम्

सुत बनिता साजन सुख बंधप ता सिउ मोहु बढिओ सु घना ॥ बोइओ बीजु अहं मम अंकुरु बीतत अउध करत अघनां ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुत = पुत्र। बनिता = स्त्री। ता सिउ = इनसे। बढिओ = बढ़ा हुआ है। घणा = बहुत। अहं = अहंकार। मम = ममता। अंकुरु = अंगूर। अउध = उम्र। अघनां = पाप।
अर्थ: पुत्र, स्त्री, मित्र, (संसार के) सुख और संबन्धी -इनसे (तेरा) बहुत मोह बढ़ रहा है। तूने (अपने अंदर) अहंकार का बीज बीजा हुआ है (जिससे) ममता का अंगूर (उग रहा है), तेरी उम्र पाप करते हुए बीत रही है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिरतु मंजार पसारि मुखु निरखत भुंचत भुगति भूख भुखना ॥ सिमरि गुपाल दइआल सतसंगति नानक जगु जानत सुपना ॥४॥

मूलम्

मिरतु मंजार पसारि मुखु निरखत भुंचत भुगति भूख भुखना ॥ सिमरि गुपाल दइआल सतसंगति नानक जगु जानत सुपना ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिरतु = मौत। मंजार = बिल्ला। मुखु पसारि = मुँह खोल के। निरखत = देखता है। भुंचत भुगति = भोगों को भोगता है। भुगति = दुनिया के भोग। भूख = तृष्णा। जानत = जान के, जानता हुआ।
अर्थ: मौत रूप बिल्ला मुँह खोल के (तुझे) ताक रहा है, (पर) तू भोगों को भोग रहा है। फिर भी तृष्णा-अधीन (तू) भूखा ही है। हे नानक (के मन!) संसार को सपना जान के सत्संगति में (टिक के) गोपाल दयाल हरि को स्मरण कर।4।

[[1388]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

देह न गेह न नेह न नीता माइआ मत कहा लउ गारहु ॥ छत्र न पत्र न चउर न चावर बहती जात रिदै न बिचारहु ॥

मूलम्

देह न गेह न नेह न नीता माइआ मत कहा लउ गारहु ॥ छत्र न पत्र न चउर न चावर बहती जात रिदै न बिचारहु ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देह = शरीर। गेह = घर। नेह = मोह प्यार। न नीता = अनित, सदा ना रहने वाला। मत = मस्त हुआ, अहंकारी। कहा लउ = कब तक? गारहु = (तू) अहंकार करेगा। छत्र = राज का छत्र। पत्र = हुकमनामा। चावर = चवर करने वाले। बहती जात = बहती जा रही है, (भाव, नाश हो जाएंगे)। रिदै = हृदय में।
अर्थ: हे माया में मते हुए (जीव!) यह शरीर, यह घर, (माया के) यह मोह-प्यार, कोई सदा रहने वाले नहीं हैं; कब तक (तू इनका) अहंकार करेगा? यह (राजसी) छत्र, यह हुकमनामे, यह चवर और यह चवर बरदार, सब नाश हो जाएंगे। पर हृदय में तू विचारता ही नहीं है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथ न अस्व न गज सिंघासन छिन महि तिआगत नांग सिधारहु ॥ सूर न बीर न मीर न खानम संगि न कोऊ द्रिसटि निहारहु ॥

मूलम्

रथ न अस्व न गज सिंघासन छिन महि तिआगत नांग सिधारहु ॥ सूर न बीर न मीर न खानम संगि न कोऊ द्रिसटि निहारहु ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अस्व = अश्व, घोड़े। गज = हाथी। सिंघासन = सिंहासन, तख्त। छिन महि = पल में, बहुत जल्द। तिआगत = छोड़ के। नांग = नंगे। सिधारहु = चला जाएगा। सूर = सूरमे। बीर = योद्धे। मीर = पातशाह। खानम = खान, सिरदार। संगि = संगी, साथी। द्रिसटि = आँखों से। निहारहु = देखो।
अर्थ: रथ, घोड़े, हाथी, तख्त, (इनमें से कोई भी साथ) नहीं (निभना), इनको एक छिन में छोड़ के नंगा (ही यहाँ से) चला जाऐगा। आँखों से देख, ना सूरमे, ना योद्धे, ना मीर, ना सिरदार, कोई भी साथी नहीं (बनने वाला)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोट न ओट न कोस न छोटा करत बिकार दोऊ कर झारहु ॥ मित्र न पुत्र कलत्र साजन सख उलटत जात बिरख की छांरहु ॥

मूलम्

कोट न ओट न कोस न छोटा करत बिकार दोऊ कर झारहु ॥ मित्र न पुत्र कलत्र साजन सख उलटत जात बिरख की छांरहु ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोट = किले। ओट = आसरे। कोस = कोश, खजाने। छोटा = छुटकारा। बिकार = पाप। दोऊ = दोनों। कर = हाथ (बहुवचन)। झारहु = (तू) झाड़ता है। कलत्र = स्त्री। सख = सखे, साथी। उलटत जात = उलट जाते हैं, मुड़ जाते हैं, मुँह मोड़ लेते हैं, छोड़ जाते हैं। छारहु = छाया की तरह।
अर्थ: इन किलों, (माया के) आसरों और खजानों से (आखिरी वक्त पर) छुटकारा नहीं (हो सकेगा)। (तू) पाप कर-कर के दोनों हाथ झाड़ता है (भाव, बेपरवाह हो के पाप करता है)। यह मित्र, पुत्र, स्त्री, सज्जन और साथी (आखिरी वक्त पर) साथ छोड़ देंगे, जैसे (अंधेरे में) वृक्ष की छाया (उसका साथ छोड़ देती है)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीन दयाल पुरख प्रभ पूरन छिन छिन सिमरहु अगम अपारहु ॥ स्रीपति नाथ सरणि नानक जन हे भगवंत क्रिपा करि तारहु ॥५॥

मूलम्

दीन दयाल पुरख प्रभ पूरन छिन छिन सिमरहु अगम अपारहु ॥ स्रीपति नाथ सरणि नानक जन हे भगवंत क्रिपा करि तारहु ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दीन दयाल = दीनों पर दया करने वाला। पूरन पुरख = सब जगह व्यापक हरि। छिन छिन = सदा, हर वक्त। अगम = अंबे, जिस तक पहुँच होनी बहुत कठिन है। स्रीपति = माया का मालिक। स्री = माया।
अर्थ: (हे मन!) दीनों पर दया करने वाले, सब जगह व्यापक, बेअंत और अपार हरि को हर वक्त याद कर, (और कह) - हे माया के पति! हे नाथ! हे भगवंत! नानक दास को कृपा करके पार लगा लो, जो तेरी शरण आया है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रान मान दान मग जोहन हीतु चीतु दे ले ले पारी ॥ साजन सैन मीत सुत भाई ताहू ते ले रखी निरारी ॥

मूलम्

प्रान मान दान मग जोहन हीतु चीतु दे ले ले पारी ॥ साजन सैन मीत सुत भाई ताहू ते ले रखी निरारी ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मान = इज्जत। दान = दान (ले ले के)। मग जोहन = राह देख देख के, डाके मार के। हीतु = प्यार। हीतु दे = मोह डाल के। चीतु दे = ध्यान दे दे के। पारी = इकट्ठी की। ताहू ते = उनसे। निरारी = अलग, छुपा के।
अर्थ: (लोग) जान लगा के, इज्जत भी दे के, दान ले-ले के, डाके मार-मार के, (माया में) प्रेम जोड़ के, (पूर्ण) ध्यान दे-दे (माया को) ले-ले के इकट्ठा करते हैं; सज्जन, साथी, मित्र, पुत्र, भाई- इन सबसे छुपा-छुपा के रखते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धावन पावन कूर कमावन इह बिधि करत अउध तन जारी ॥ करम धरम संजम सुच नेमा चंचल संगि सगल बिधि हारी ॥

मूलम्

धावन पावन कूर कमावन इह बिधि करत अउध तन जारी ॥ करम धरम संजम सुच नेमा चंचल संगि सगल बिधि हारी ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धावन पावन = दौड़ने भागने। कूर कमावन = झूठे कर्म करने। इह बिधि = इस तरह। अउध तन = शरीर की उम्र। जारी = जला दी, गवा दी। चंचल = साथ छोड़ने वाली माया। सगल बिधि = सब कर्म धर्म आदि। हारी = गवा ली।
अर्थ: (लोग माया के पीछे) दौड़ना-भागना, ठगी के काम करने -सारी उम्र यह कुछ करते हुए ही गवा देते हैं; पुण्य कर्म, जुगती में रहना, आत्मिक सुचि और नियम -ये सारे ही काम चंचल माया की संगति में छोड़ बैठते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पसु पंखी बिरख असथावर बहु बिधि जोनि भ्रमिओ अति भारी ॥ खिनु पलु चसा नामु नही सिमरिओ दीना नाथ प्रानपति सारी ॥

मूलम्

पसु पंखी बिरख असथावर बहु बिधि जोनि भ्रमिओ अति भारी ॥ खिनु पलु चसा नामु नही सिमरिओ दीना नाथ प्रानपति सारी ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पंखी = पंछी। असथावर = (स्थावर) पर्वत आदिक जो अपनी जगह से नहीं हिलने वाले हैं। बहु बिधि = कई तरह की। भ्रमिओ अति भारी = बहुत भटकता फिरा। सारी = सृष्टि।
अर्थ: (जीव) पशू, पंछी, वृक्ष, पर्वत आदिक- इन रंग-बिरंगी जूनियों में बहुत भटकते फिरते हैं; छिन मात्र, पल मात्र या रक्ती भर भी दीनों के नाथ, प्राणों के मालिक, सृष्टि के विधाता का नाम नहीं जपते।

विश्वास-प्रस्तुतिः

खान पान मीठ रस भोजन अंत की बार होत कत खारी ॥ नानक संत चरन संगि उधरे होरि माइआ मगन चले सभि डारी ॥६॥

मूलम्

खान पान मीठ रस भोजन अंत की बार होत कत खारी ॥ नानक संत चरन संगि उधरे होरि माइआ मगन चले सभि डारी ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खान पान = खाना पीना। अंत की बार = आखिरी वक्त। कत = कक्तई, बिल्कुल। खारी = कड़वे। उधरे = उद्धार हो गया, चले गए। होरि = और लोग। मगन = डूबे हुए, मस्त। डारी = डारि, छोड़ के।
अर्थ: खाने-पीने, मीठे रसों वाले पदार्थ- (ये सब) आखिरी वक्त सदा कड़वे (लगते हैं)। हे नानक! जो संत-जनों के चरणों में आ लगते हैं वह तैर जाते हैं, बाकी लोग, जो माया में मस्त हैं, सब कुछ छोड़ के (खाली हाथ ही) जाते हैं।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रहमादिक सिव छंद मुनीसुर रसकि रसकि ठाकुर गुन गावत ॥ इंद्र मुनिंद्र खोजते गोरख धरणि गगन आवत फुनि धावत ॥

मूलम्

ब्रहमादिक सिव छंद मुनीसुर रसकि रसकि ठाकुर गुन गावत ॥ इंद्र मुनिंद्र खोजते गोरख धरणि गगन आवत फुनि धावत ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: छंद = (छंदस = The Vedas) वेद। मुनीसुर = बड़े बड़े मुनी। रसकि = रस ले ले के, प्रेम से। ठाकुर गुन = ठाकुर के गुण। मुनिंद्र = बड़े बड़े मुनि। धरणि = धरती। गगन = आकाश। फुनि = फिर। धावत = दौड़ते हैं।
अर्थ: ब्रहमा जैसे, शिव जी और बड़े-बड़े मुनि वेदों द्वारा परमात्मा के गुण प्रेम से गाते हैं। इन्द्र, बड़े-बड़े मुनिजन और गोरख (आदिक) कभी धरती पर आते हैं और कभी आकाश की तरफ दौड़ते फिरते हैं, (और परमात्मा को हर जगह) खोज रहे हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिध मनुख्य देव अरु दानव इकु तिलु ता को मरमु न पावत ॥ प्रिअ प्रभ प्रीति प्रेम रस भगती हरि जन ता कै दरसि समावत ॥

मूलम्

सिध मनुख्य देव अरु दानव इकु तिलु ता को मरमु न पावत ॥ प्रिअ प्रभ प्रीति प्रेम रस भगती हरि जन ता कै दरसि समावत ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिध = जोगसाधना में माहिर जोगी। देव = देवते। अरु = और। दानव = राक्षस। इकु तिलु = तिल मात्र भी, रक्ती भर भी। मरमु = भेद। प्रिअ प्रभ = प्यारे प्रभु की। ता कै दरसि = उस (प्रभु) के दर्शन में। समावत = लीन हो जाते हैं। जन = दास।
अर्थ: सिद्ध, मनुष्य, देवते और दैत्य, किसी ने भी उस (प्रभु) का तिल-मात्र भी भेद नहीं पाया। पर, हरि के दास प्यारे प्रभु की प्रीति द्वारा और प्रेम-रस वाली भक्ति के द्वारा उसके दर्शन में लीन हो जाते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिसहि तिआगि आन कउ जाचहि मुख दंत रसन सगल घसि जावत ॥ रे मन मूड़ सिमरि सुखदाता नानक दास तुझहि समझावत ॥७॥

मूलम्

तिसहि तिआगि आन कउ जाचहि मुख दंत रसन सगल घसि जावत ॥ रे मन मूड़ सिमरि सुखदाता नानक दास तुझहि समझावत ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिसहि = उस (प्रभु) को। तिआगि = छोड़ के। आन कउ = और लोगों को। जाचहि = (जो मनुष्य) माँगते हैं। दंत = दाँत। रसन = जीभ। मूढ़ = हे मूर्ख! सुखदाता = सुखों के देने वाला।
अर्थ: (जो मनुष्य) उस प्रभु को छोड़ के औरों से माँगते हैं (माँगते-माँगते उनके) मुँह, दाँत और जीभ -ये सारे ही घिस जाते हैं। हे मूर्ख मन! सुखों को देने वाले (प्रभु) को याद कर, तुझे (प्रभु का) दास नानक समझा रहा है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माइआ रंग बिरंग करत भ्रम मोह कै कूपि गुबारि परिओ है ॥ एता गबु अकासि न मावत बिसटा अस्त क्रिमि उदरु भरिओ है ॥

मूलम्

माइआ रंग बिरंग करत भ्रम मोह कै कूपि गुबारि परिओ है ॥ एता गबु अकासि न मावत बिसटा अस्त क्रिमि उदरु भरिओ है ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भ्रम मोह कै = भुलेखे और मोह के कारण। कूपि = कूएँ में। गुबारि कूपि = अंधे कूँए में। परिओ है = तू पड़ा हुआ है। गबु = गरब, अहंकार। आकासि = आसमान तक। न मावत = नहीं समाता। अस्त = अस्थि, हड्डियां। क्रिमि = कीड़े। उदरु = पेट।
अर्थ: (हे भाई!) भुलेखे और मोह के कारण (जिस माया के) अंधेरे कूँए में तू पड़ा हुआ है, (वह) माया कई रंगों के करिश्मे करती है। (तुझे) इतना अहंकार है कि आसमान तक नहीं (तू) समाता। (पर तेरी हस्ती तो यही कुछ है ना कि तेरा) पेट विष्टा, हड्डियां और कीड़ों से भरा हुआ है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दह दिस धाइ महा बिखिआ कउ पर धन छीनि अगिआन हरिओ है ॥ जोबन बीति जरा रोगि ग्रसिओ जमदूतन डंनु मिरतु मरिओ है ॥

मूलम्

दह दिस धाइ महा बिखिआ कउ पर धन छीनि अगिआन हरिओ है ॥ जोबन बीति जरा रोगि ग्रसिओ जमदूतन डंनु मिरतु मरिओ है ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दहदिस = दसों तरफ। धाइ = दौड़ दौड़ के। महा बिखिआ कउ = बड़ी विषौली माया की खातिर। छीनि = छीन के। अगिआन = मूर्खता। हरिओ = ठगा हुआ। जरा = बढ़ापा। रोगि = रोग ने। मिरतु = मौत।
अर्थ: तू माया की खातिर दसों दिशाओं में दौड़ता है, पराया धन छीनता है, तुझे अज्ञान ने ठग लिया है। (तेरी) जवानी बीत गई है; बुढ़ापा-रूपी रोग ने (तुझे) आ घेरा है; (तू ऐसी) मौत मरा है (जहाँ) तुझे जमदूतों का दण्ड भरना पड़ेगा।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनिक जोनि संकट नरक भुंचत सासन दूख गरति गरिओ है ॥ प्रेम भगति उधरहि से नानक करि किरपा संतु आपि करिओ है ॥८॥

मूलम्

अनिक जोनि संकट नरक भुंचत सासन दूख गरति गरिओ है ॥ प्रेम भगति उधरहि से नानक करि किरपा संतु आपि करिओ है ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संकट = कष्ट, दुख। भुंचत = तू भोगता है। सासन = (जमों की) ताड़ना। दूख गरति = दुखों के टोए में। गरिओ है = तू गल रहा है। उधरहि = पार उतर जाते हैं, तैर जाते हैं। से = वह बंदे।
अर्थ: तू अनेक जूनों के कष्ट और नर्क भोगता है, जमों की ताड़ना के दुखों के टोए में गल रहा है। हे नानक! वह मनुष्य प्रेम-भक्ति की इनायत से पार लंघ गए हैं, जिस को (हरि ने) मेहर कर के खुद संत बना लिया है।8।

[[1389]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुण समूह फल सगल मनोरथ पूरन होई आस हमारी ॥ अउखध मंत्र तंत्र पर दुख हर सरब रोग खंडण गुणकारी ॥ काम क्रोध मद मतसर त्रिसना बिनसि जाहि हरि नामु उचारी ॥ इसनान दान तापन सुचि किरिआ चरण कमल हिरदै प्रभ धारी ॥

मूलम्

गुण समूह फल सगल मनोरथ पूरन होई आस हमारी ॥ अउखध मंत्र तंत्र पर दुख हर सरब रोग खंडण गुणकारी ॥ काम क्रोध मद मतसर त्रिसना बिनसि जाहि हरि नामु उचारी ॥ इसनान दान तापन सुचि किरिआ चरण कमल हिरदै प्रभ धारी ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुण समूह = सारे गुण। फल सगल मनोरथ = सारे मनोरथों के फल। अउखध = औषधि, दवाई, जड़ी बूटी। पर दुख हर = पराए दुख दूर करने वाला। खंडण = नाश करने वाला। गुणकारी = गुण पैदा करने वाला। मद = अहंकार। मतसर = ईष्या। बिनसि जाहि = नाश हो जाते हैं। उचारी = स्मरण से, उचारि। तापन = तप साधने। सुचि किरिआ = शारीरिक स्वच्छता रखने वाले साधन। चरण कमल = हरि के कमलों जैसे सुंदर पैर।
अर्थ: (हरि के नाम को स्मरण से) हमारी आशा पूरी हो गई है, सारे गुण और सारे मनोरथों के फल प्राप्त हो गए हैं। पराए दुख दूर करने के लिए (यह नाम) औषधि-रूप है, मंत्र-रूप है, नाम सारे रोगों के नाश करने वाला है और गुण पैदा करने वाला है। हरि-नाम को स्मरण करने से काम, क्रोध, अहंकार, ईष्या और तृष्णा- यह सब नाश हो जाते हैं। (तीर्थों के) स्नान करने, (वहाँ) दान करने, तप साधने और शारीरिक सुच के कर्म- (इन सब की जगह) हमने प्रभु के चरण हृदय में धार लिए हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साजन मीत सखा हरि बंधप जीअ धान प्रभ प्रान अधारी ॥ ओट गही सुआमी समरथह नानक दास सदा बलिहारी ॥९॥

मूलम्

साजन मीत सखा हरि बंधप जीअ धान प्रभ प्रान अधारी ॥ ओट गही सुआमी समरथह नानक दास सदा बलिहारी ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीअ धान = जिंदगी का आसरा, जिंद का स्रोत। प्रान अधारी = प्राणों का आधार। गही = पकड़ी है। सुआमी समरथह = समर्थ मालिक की।
अर्थ: हरि हमारा सज्जन है, मित्र है, सखा और सम्बन्धी है; हमारी जिंदगी का आसरा है और प्राणों का आधार है। हमने समर्थ मालिक की ओट पकड़ी है, नानक (उसका) दास उससे सदा सदके है।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आवध कटिओ न जात प्रेम रस चरन कमल संगि ॥ दावनि बंधिओ न जात बिधे मन दरस मगि ॥

मूलम्

आवध कटिओ न जात प्रेम रस चरन कमल संगि ॥ दावनि बंधिओ न जात बिधे मन दरस मगि ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आवध = शस्त्रों से। चरन कमल संगि = चरण कमलों से। दावनि = रस्सी से (दामन् = रस्सी)। बंधिओ न जात = बाँधा नहीं जा सकता। बिधे = भेदा हुआ। दरस मगि = (हरि के) दर्शन के रास्ते में। मगि = रास्ते में।
अर्थ: (जिस मनुष्य ने) हरि के चरण-कमलों के साथ जुड़ के प्रेम का स्वाद (चखा है, वह) शस्त्रों से काटा नहीं जा सकता। (जिसका) मन (हरि के) दर्शन के राह में भेदा गया है, वह रस्सी से (किसी और तरफ) बाँधा नहीं जा सकता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पावक जरिओ न जात रहिओ जन धूरि लगि ॥ नीरु न साकसि बोरि चलहि हरि पंथि पगि ॥ नानक रोग दोख अघ मोह छिदे हरि नाम खगि ॥१॥१०॥

मूलम्

पावक जरिओ न जात रहिओ जन धूरि लगि ॥ नीरु न साकसि बोरि चलहि हरि पंथि पगि ॥ नानक रोग दोख अघ मोह छिदे हरि नाम खगि ॥१॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पावक = आग। जरिओ न जात = जलाया नहीं जा सकता। जन धूरि = संत जनों की चरण धूल में। नीरु = पानी। बोरि = डुबो। पंथ = रस्ता। पग = पैर। अघ = पाप। छिदे = काटे जाते हैं। खगि = तीर से। दोख = विकार। पंथि = रास्ते पर।
अर्थ: (जो मनुष्य) संत जनों की चरण धूल से जुड़ा रहा है, (उसको) आग जला नहीं सकती; (जिसके) पैर ईश्वर के राह की ओर चलते हैं, उसको पानी डुबो नहीं सकता। हे नानक! (उस मनुष्य के) रोग, दोख, पाप और मोह -यह सारे ही हरि के नाम-रूपी तीर से काटे जाते हैं।१।१०।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदमु करि लागे बहु भाती बिचरहि अनिक सासत्र बहु खटूआ ॥ भसम लगाइ तीरथ बहु भ्रमते सूखम देह बंधहि बहु जटूआ ॥

मूलम्

उदमु करि लागे बहु भाती बिचरहि अनिक सासत्र बहु खटूआ ॥ भसम लगाइ तीरथ बहु भ्रमते सूखम देह बंधहि बहु जटूआ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिचरहि = बिचारते हैं। अनिक = बहुत सारे लोग। सासत्र खटूआ = छह शास्त्रों को (सांख, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा, वेदांत)। भ्रमते = भटकते फिरते हैं। सूखम = कमजोर। देह = शरीर। बहु = बहुत सारे मनुष्य। बंधहि जटूआ = जटों बालों की जटा सिर पर धारण कर रहे हैं।
अर्थ: अनेक मनुष्य कई तरह के उद्यम कर रहे हैं, छह शास्त्र विचार रहे हैं; (शरीर पर) राख मल के बहुत सारे मनुष्य तीर्थों पर भटकते फिरते हैं, और कई बँदे शरीर को (तपों से) कमजोर कर चुके हैं और (सीस पर) बालों की जटा धार रहे हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु हरि भजन सगल दुख पावत जिउ प्रेम बढाइ सूत के हटूआ ॥ पूजा चक्र करत सोमपाका अनिक भांति थाटहि करि थटूआ ॥२॥११॥२०॥

मूलम्

बिनु हरि भजन सगल दुख पावत जिउ प्रेम बढाइ सूत के हटूआ ॥ पूजा चक्र करत सोमपाका अनिक भांति थाटहि करि थटूआ ॥२॥११॥२०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सगल = सारे (मनुष्य)। प्रेम = प्रेम से, मजे से। बढाइ = बढ़ाता है, तानता है। सूत के हटूआ = सूत्र के घर, तारों के घर, तारों का जाल। सोमपाका = स्वयं पाक, अपने हाथों से रोटी तैयार करनी। थाटहि = बनाते हैं। बहु थटूआ = कई थाट, कई बनावटें, कई भेख।
अर्थ: कई मनुष्य पूजा करते हैं; शरीर पर चक्रों के चिन्ह लगाते हैं, (शुचिता की खातिर) अपने हाथों से रोटी तैयार करते हैं, व और अनेक तरह की रचनाएं बनाते हैं। पर, हरि के नाम लेने के बिना, ये सारे लोग दुख पाते हैं (यह सारे आडंबर उनके लिए फसने के लिए जाल बन जाते हैं) जैसे (कहना) बड़े मजे से तारों का जाल तनता है (और आप ही उसमें फंस के अपने बच्चों के हाथों मारा जाता है)।2।11।20।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सवईए महले पहिले के १

मूलम्

सवईए महले पहिले के १

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: गुरु नानक साहिब की स्तुति में उचारे हुए सवईऐ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इक मनि पुरखु धिआइ बरदाता ॥ संत सहारु सदा बिखिआता ॥ तासु चरन ले रिदै बसावउ ॥ तउ परम गुरू नानक गुन गावउ ॥१॥

मूलम्

इक मनि पुरखु धिआइ बरदाता ॥ संत सहारु सदा बिखिआता ॥ तासु चरन ले रिदै बसावउ ॥ तउ परम गुरू नानक गुन गावउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इक मनि = एक मन से, एकाग्र हो के। धिआइ = स्मरण करके, याद कर के। बरदाता = बख्शिश करने वाला। संत सहारु = संतों का आसरा। बिखिआता = प्रकट, हाज़र नाज़र। तासु = उसके। ले = ले के। बसावउ = बसाता हूँ, मैं बसा लूँ। तउ = तब। गुरू नानक गुन = गुरु नानक के गुण।1।
अर्थ: उस अकाल-पुरख को एकाग्र मन से स्मरण करके, जो बख्शिशें करने वाला है, जो संतों का आसरा है और जो सदा हाज़र-नाजर है, मैं उसके चरण अपने हृदय में बसाता हूँ, (और इनकी इनायत से) परम सतिगुरु नानक देव जी के गुणों को गाता हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गावउ गुन परम गुरू सुख सागर दुरत निवारण सबद सरे ॥ गावहि ग्मभीर धीर मति सागर जोगी जंगम धिआनु धरे ॥

मूलम्

गावउ गुन परम गुरू सुख सागर दुरत निवारण सबद सरे ॥ गावहि ग्मभीर धीर मति सागर जोगी जंगम धिआनु धरे ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुन सुख सागर = सुखों के समुंदर (खजाने) सतिगुरु के गुण। दुरत = पाप। दुरत निवारण = जो गुरु पापों को दूर करता है। सबद सरे = (जो गुरु) शब्द का सर (भाव, वाणी का श्रोत) है। धीर = धैर्य वाले मनुष्य। मति सागर = मति के समुंदर, ऊँची मति वाले। धिआन धरे = ध्यान धर के। परम = सबसे ऊँचा।
अर्थ: मैं उस परम गुरु नानक देव जी के गुण गाता हूँ, जो पापों को दूर करने वाला है और जो वाणी का श्रोत है। (गुरु नानक को) जोगी, जंगम ध्यान धर के गाते हैं, और वह लोग गाते हैं जो गंभीर हैं, जो धैर्यवान हैं और जो ऊँची मति वाले हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गावहि इंद्रादि भगत प्रहिलादिक आतम रसु जिनि जाणिओ ॥ कबि कल सुजसु गावउ गुर नानक राजु जोगु जिनि माणिओ ॥२॥

मूलम्

गावहि इंद्रादि भगत प्रहिलादिक आतम रसु जिनि जाणिओ ॥ कबि कल सुजसु गावउ गुर नानक राजु जोगु जिनि माणिओ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इंद्रादि = इन्द्र और अन्य। भगत प्रहिलादिक = प्रहलाद आदि भक्त। आतम रसु = आत्मा का आनंद। जिनि = जिस (गुरु नानक) ने। कबि कल = हे कल्य कवि! सुजसु = सुंदर यश। गुर नानक = गुरु नानक का। जिनि = जिस (गुरु नानक) ने।
अर्थ: जिस गुरु नानक ने आत्मिक आनंद जाना है, उसको इन्द्र आदिक और प्रहलाद आदि भक्त गाते हैं। ‘कल्य’ कवि (कहता है), -मैं उस गुरु नानक देव जी के सुंदर गुण गाता हूँ जिसने राज और जोग पाया है (भाव, जो गृहस्थी भी है और साथ ही माया से उपराम हो के हरि के साथ जुड़ा हुआ है)।2।

[[1390]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

गावहि जनकादि जुगति जोगेसुर हरि रस पूरन सरब कला ॥ गावहि सनकादि साध सिधादिक मुनि जन गावहि अछल छला ॥

मूलम्

गावहि जनकादि जुगति जोगेसुर हरि रस पूरन सरब कला ॥ गावहि सनकादि साध सिधादिक मुनि जन गावहि अछल छला ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जुगति = समेत। जुगति जोगेसुर = जोगीश्वरों के साथ, बड़े बड़े जोगियों समेत। हरि रस पूरन = जो (गुरु नानक) हरि के आनंद से पूण है। सरब कला = सारी कलाओं वाला, सत्ता वाला गुरु नानक। सनकादि = ब्रहमा के पुत्र सनक, सनंदन, सनद कुमार और सनातन। सिधादिक = सिद्ध आदिक। अछल = ना छले जा सकने वाला गुरु नानक। छला = माया, छलने वाली।
अर्थ: जो गुरु नानक हरि के रस में भीगा हुआ है, जो गुरु नानक हर प्रकार की सक्तिया (शक्ति) वाला है, उसको जनक आदि बड़े-बड़े जोगियों समेत गाते हैं। जिस गुरु नानक को माया नहीं छल सकी, उसको ऋषि गाते हैं, सनक आदिक साधु और सिद्ध आदि गाते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गावै गुण धोमु अटल मंडलवै भगति भाइ रसु जाणिओ ॥ कबि कल सुजसु गावउ गुर नानक राजु जोगु जिनि माणिओ ॥३॥

मूलम्

गावै गुण धोमु अटल मंडलवै भगति भाइ रसु जाणिओ ॥ कबि कल सुजसु गावउ गुर नानक राजु जोगु जिनि माणिओ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गावै = गाता है। धोम = एक ऋषि का नाम है। अटल मंडलवै = अटल मण्डल वाला ध्रुव भक्त। भगति भाइ = भक्ति वाले भाव से। रसु = (हरि के मिलाप का) आनंद।
अर्थ: जिस गुरु नानक ने भक्ति वाले भाव द्वारा (हरि के मिलाप का) आनंद जाना है, उसके गुणों को धोमु ऋषि गाता है, ध्रुव भक्त गाता है। कल्य कवि (कहता है) - ‘मैं उस गुरु नानक के सुंदर गुण गाता हूँ जिस ने राज और जोग पाया है’।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गावहि कपिलादि आदि जोगेसुर अपर्मपर अवतार वरो ॥ गावै जमदगनि परसरामेसुर कर कुठारु रघु तेजु हरिओ ॥

मूलम्

गावहि कपिलादि आदि जोगेसुर अपर्मपर अवतार वरो ॥ गावै जमदगनि परसरामेसुर कर कुठारु रघु तेजु हरिओ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कपिलादि = कपिल ऋषि आदिक। आदि जोगेसुर = पुरातन बड़े बड़े जोगी है। अपरंपर = जिसका पार ना पाया जा सके, बेअंत। वर = श्रेष्ठ, उत्तम। अपरंपर अवतार वरो = बेअंत हरि के श्रेष्ठ अवतार गुरु नानक को। कर = हाथ। कुठारु = कोहाड़ा। तेजु = प्रताप। रघु = श्री राम चंद्र जी। कर कुठारु = हाथ का कुहाड़ा।
अर्थ: कपिल आदि ऋषि और पुरातन बड़े-बड़े जोगी-जन परमात्मा के शिरोमणि अवतार गुरु नानक को गाते हैं। (गुरु नानक के यश को) जमदगनि का पुत्र परशुराम भी गा रहा है, जिस के हाथ का कुहाड़ा और जिसका प्रताप श्री राम चंद्र जी ने छीन लिया था।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उधौ अक्रूरु बिदरु गुण गावै सरबातमु जिनि जाणिओ ॥ कबि कल सुजसु गावउ गुर नानक राजु जोगु जिनि माणिओ ॥४॥

मूलम्

उधौ अक्रूरु बिदरु गुण गावै सरबातमु जिनि जाणिओ ॥ कबि कल सुजसु गावउ गुर नानक राजु जोगु जिनि माणिओ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उधौ = ऊधव, श्री कृष्ण जी का भक्त था। अक्रूर = श्री कृष्ण जी का भक्त था। बिदरु = श्री कृष्ण जी का भक्त था। सरबातमु = सर्व व्यापक हरि। जिनि = जिस (गुरु नानक ने)।
अर्थ: जिस गुरु नानक ने सर्व-व्यापक हरि को जान लिया (गहरी सांझ डाली हुई थी), उस के गुण ऊधव गाता है, अक्रूर गाता है, बिदर भक्त गाता है। कल्य कवि (कहता है) - ‘मैं उस गुरु नानक का सुंदर यश गाता हूं, जिसने राज और जोग दोनों माणें हैं’।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गावहि गुण बरन चारि खट दरसन ब्रहमादिक सिमरंथि गुना ॥ गावै गुण सेसु सहस जिहबा रस आदि अंति लिव लागि धुना ॥

मूलम्

गावहि गुण बरन चारि खट दरसन ब्रहमादिक सिमरंथि गुना ॥ गावै गुण सेसु सहस जिहबा रस आदि अंति लिव लागि धुना ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गावहि = गाते हैं (गावै = गाता है)। बरन चारि = चारे वर्ण, ब्रहमण, खत्री, वैश्य और शूद्र। खट दरसन = छह भेख: जोगी, जंगम, सरेवड़े, सन्यासी आदिक। सिमरंथि = स्मरण करते हैं। गुना = गुणों को। सेसु = शेशनाग। सहस जिहबा = हजारों जीभों से। रस = प्रेम से। आदि अंति = सदा, एक रस। लिव लागि धुना = लगन की धुन लगा के।
अर्थ: चारों वर्ण, छह भेख, गुरु नानक के गुण गा रहे हैं, ब्रहम आदिक भी उसके गुण याद कर रहे हैं। शेशनाग हजारों जीभों द्वारा प्रेम से एक-रस लगन की धुनी लगा के गुरु नानक के गुण गाता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गावै गुण महादेउ बैरागी जिनि धिआन निरंतरि जाणिओ ॥ कबि कल सुजसु गावउ गुर नानक राजु जोगु जिनि माणिओ ॥५॥

मूलम्

गावै गुण महादेउ बैरागी जिनि धिआन निरंतरि जाणिओ ॥ कबि कल सुजसु गावउ गुर नानक राजु जोगु जिनि माणिओ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: महादेउ = शिव जी। बैरागी = वैरागवान, त्यागी। जिनि = जिस (गुरु नानक) ने। निरंतरि = एक रस।
अर्थ: जिस गुरु नानक ने एक-रस तवज्जो जोड़ के अकाल-पुरख को पहचाना है (सांझ डाली है), उसके गुण वैरागवान शिव जी (भी) गाता है। कल्य कवि (कहता है) - ‘मैं उस गुरु नानक के गुण गाता हूं, जिसने राज और जोग दोनों माणें हैं (जीए हैं)’।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजु जोगु माणिओ बसिओ निरवैरु रिदंतरि ॥ स्रिसटि सगल उधरी नामि ले तरिओ निरंतरि ॥

मूलम्

राजु जोगु माणिओ बसिओ निरवैरु रिदंतरि ॥ स्रिसटि सगल उधरी नामि ले तरिओ निरंतरि ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बसिओ = बस रहा है। रिदंतरि = (गुरु नानक के) हृदय में। सगल = सारी। उधरी = (गुरु नानक ने) उद्धार कर दी है। नामि = नाम से। ले = (स्वयं नाम) जप के। तरिओ = (गुरु नानक) तैर गया है, (गुरु नानक का) उद्धार हो गया है। निरंतरि = एक रस।
अर्थ: (गुरु नानक देव जी ने) राज भी पाया है और जोग भी; निरवैर अकाल-पुरख (उनके) हृदय में बस रहा है। (गुरु नानक देव) स्वयं एक-रस नाम जप के पार निकल गया है, और (उसने) सारी सृष्टि को भी नाम की इनायत से पार लगा दिया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुण गावहि सनकादि आदि जनकादि जुगह लगि ॥ धंनि धंनि गुरु धंनि जनमु सकयथु भलौ जगि ॥

मूलम्

गुण गावहि सनकादि आदि जनकादि जुगह लगि ॥ धंनि धंनि गुरु धंनि जनमु सकयथु भलौ जगि ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सनकादि = सनक आदिक ब्रहमा के चारों पुत्र। आदि = पुरातन। जनकादि = जनक आदि ऋषि। जुगह लगि = जुगों प्रयन्त, सदा। सकयथु = सकार्थ, सफल। भलौ = भला, अच्छा। जगि = जगत में।
अर्थ: सनक आदि ब्रहमा के चारों पुत्र, जनक आदि पुरातन ऋषि-जन कई जुगों से (गुरु नानक देव जी के) गुण गा रहे हैं। धन्य हैं गुरु (नानक)! धन्य हैं गुरु (नानक)! जगत में (उनका) जन्म लेना सकार्थ और भला हुआ है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाताल पुरी जैकार धुनि कबि जन कल वखाणिओ ॥ हरि नाम रसिक नानक गुर राजु जोगु तै माणिओ ॥६॥

मूलम्

पाताल पुरी जैकार धुनि कबि जन कल वखाणिओ ॥ हरि नाम रसिक नानक गुर राजु जोगु तै माणिओ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पाताल पुरी = पाताल लोक से। जैकार धुनि = (गुरु नानक की) जै जै की आवाज़। वखाणिओ = कहता है। रसिक = रसिया। नानक गुर = हे गुरु नानक! तै = तू।6।
अर्थ: दास कल्य कवि विनती करता है: ‘हरि के नाम के रसिए हे गुरु नानक! पाताल लोक से भी तेरी जै-जैकार की आवाज (उठ रही है), तूने राज और जोग दोनों पाए हैं’।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतजुगि तै माणिओ छलिओ बलि बावन भाइओ ॥ त्रेतै तै माणिओ रामु रघुवंसु कहाइओ ॥

मूलम्

सतजुगि तै माणिओ छलिओ बलि बावन भाइओ ॥ त्रेतै तै माणिओ रामु रघुवंसु कहाइओ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिजुग = सतियुग में। तै = तू (हे गुरु नानक!)। माणिओ = (राज और योग) माणा (भोगा अथवा पाया)। बलि = राजा बलि जिसको वामन अवतार ने छला था। भाइओ = अच्छा लगा। बावन = वामन अवतार। त्रेतै = त्रेते जुग में। रघुवंसु = रघु के वंश वाला।
अर्थ: (हे गुरु नानक!) सतियुग में (भी) तूने ही (राज और जोग) माण था, तूने ही राजा बलि को छला था और तब वामन अवतार बनना तुझे अच्छा लगा था। त्रेते में भी तूने ही (राज और जोग) माणा था, तब तूने अपने आप को रघुवंशी राम कहलवाया था (भाव, हे गुरु नानक! मेरे लिए तो तू ही है वामन अवतार, तू ही है रघुवंशी अवतार राम)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुआपुरि क्रिसन मुरारि कंसु किरतारथु कीओ ॥ उग्रसैण कउ राजु अभै भगतह जन दीओ ॥

मूलम्

दुआपुरि क्रिसन मुरारि कंसु किरतारथु कीओ ॥ उग्रसैण कउ राजु अभै भगतह जन दीओ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुआपरि = द्वापर (युग) में। मुरारि = (मुर-अरि) मुर (दैत्य) का वैरी। किरतारथु = सफल, मुक्त। उग्रसैण = मथुरा का राजा, कंस का पिता; कंस अपने पिता उग्रसेन को गद्दी से उतार के खुद राजा बन बैठा था; श्री कृष्ण जी ने कंस को मार के दोबारा उग्रसेन को राज दे दिया था। अभै = अभयपद, निर्भयता। भगतह जन = भगतों को।
अर्थ: (हे गुरु नानक!) द्वापर जुग में कृष्ण मुरारी भी (तू ही था), तू ही कंस को (मार के) मुक्त किया था (तू ही) उग्रसैन को (मथुरा का) राज और अपने भक्त-जनों को निर्भयता बख्शी थी (भाव, हे गुरु नानक! मेरे वास्ते तो तू ही है श्री कृष्ण)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलिजुगि प्रमाणु नानक गुरु अंगदु अमरु कहाइओ ॥ स्री गुरू राजु अबिचलु अटलु आदि पुरखि फुरमाइओ ॥७॥

मूलम्

कलिजुगि प्रमाणु नानक गुरु अंगदु अमरु कहाइओ ॥ स्री गुरू राजु अबिचलु अटलु आदि पुरखि फुरमाइओ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कलिजुगि = कलजुग में। प्रमाणु = प्रमाणिक, जाना माना हुआ, सामर्थ्य वाला। नानक = हे (गुरु) नानक! श्री गुरू राजु = श्री गुरु (नानक देव जी) का राज। अबिचलु = ना हिलने वाला, पक्का, स्थिर। आदि पुरखि = आदि पुरख ने, अकाल-पुरख ने।
अर्थ: हे गुरु नानक! कलियुग में (भी तू ही) समर्थता वाला है, (तू ही अपने आप को) गुरु अंगद और गुरु अमरदास कहलवाया है। (यह तो) अकाल-पुरख ने (ही) हुक्म दे रखा है कि श्री गुरु (नानक देव जी) का राज सदा-स्थिर और अटल है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुण गावै रविदासु भगतु जैदेव त्रिलोचन ॥ नामा भगतु कबीरु सदा गावहि सम लोचन ॥

मूलम्

गुण गावै रविदासु भगतु जैदेव त्रिलोचन ॥ नामा भगतु कबीरु सदा गावहि सम लोचन ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गावहि = गाते हैं। समलोचन = समान नेत्रों वाले दो (गुणों को), उस गुरु नानक के (गुणों को) जो अकाल-पुरख को अपने नेत्रों से सब जगह देख रहा है। सम = बराबर। लोचन = आँख।
अर्थ: (उस गुरु नानक के) गुण रविदास भक्त गा रहा है, जैदेव और त्रिलोचन गा रहे हैं, भक्त नामदेव और कबीर गा रहे हैं; (जो) अकाल पुरख को अपने नेत्रों से सब जगह देख रहा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगतु बेणि गुण रवै सहजि आतम रंगु माणै ॥ जोग धिआनि गुर गिआनि बिना प्रभ अवरु न जाणै ॥

मूलम्

भगतु बेणि गुण रवै सहजि आतम रंगु माणै ॥ जोग धिआनि गुर गिआनि बिना प्रभ अवरु न जाणै ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रवै = गाता है, जपता है। सहजि = सहज अवस्था में, अडोलता में (रह के)। आतम रंगु = परमात्मा (के मिलाप) का स्वाद। जोग = (परमात्मा का) मिलाप। जोग धिआनि = जोग के ध्यान में, परमात्मा के मिलाप में ध्यान लगाने के कारण, भाव, परमात्मा में सुरती जोड़ने के कारण। गुर गिआन = गुरु के ज्ञान द्वारा। अवरु = किसी और को।
अर्थ: (जो गुरु नानक) अडोलता में टिक के परमात्मा के मिलाप के स्वाद का आनंद लेता है, (जो गुरु नानक) गुरु के ज्ञान की इनायत से अकाल-पुरख में तवज्जो जोड़ के उसके बिना किसी और को नहीं जानता, (उसके) गुणों को बेणी भक्त गा रहा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुखदेउ परीख्यतु गुण रवै गोतम रिखि जसु गाइओ ॥ कबि कल सुजसु नानक गुर नित नवतनु जगि छाइओ ॥८॥

मूलम्

सुखदेउ परीख्यतु गुण रवै गोतम रिखि जसु गाइओ ॥ कबि कल सुजसु नानक गुर नित नवतनु जगि छाइओ ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुखदेउ = ब्यास ऋषि के एक पुत्र का नाम है; यह सुखदेव जी घृताची नाम अप्सरा की कोख से जन्मे थे; पैदा होने के वक्त ही ज्ञानवान थे, महान तपस्वी प्रसिद्ध हुए हैं, इन्होंने ही राजा परीक्ष्यत को भगवत पुराण सुनाया था। परीख्यतु = परीक्ष्यत् राजा अभिमन्यु का पुत्र और अर्जुन का पौत्र हुआ है, युधिष्ठर के बाद हस्तिनापुर का राज इसी को मिला था, साँप डसने के कारण इसकी मौत हो गई थी। कहते हैं, कलियुग का समय इसके राज से ही आरम्भ हुआ था। रवै = स्मरण कर रहा है (एकवचन)। सुजसु नानक गुर = गुरु नानक का सुंदर यश। नवतनु = नया। छाइओ = छाया हुआ है, प्रभाव वाला है।
अर्थ: सुखदेव ऋषि (गुरु नानक के गुण) गा रहा है और (राजा) परीक्ष्यत (भी गुरु नानक के) गुणों को गा रहा है। गौतम ऋषी ने (भी गुरु नानक का ही) यश गाया है। हे कल्य कवी! गुरु नानक (देव जी) की सुंदर शोभा नित्य नई है और जगत में अपना प्रभाव डाल रही है।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुण गावहि पायालि भगत नागादि भुयंगम ॥ महादेउ गुण रवै सदा जोगी जति जंगम ॥

मूलम्

गुण गावहि पायालि भगत नागादि भुयंगम ॥ महादेउ गुण रवै सदा जोगी जति जंगम ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पायालि = पाताल में। नागादि = (शेष-) नाग आदि। भुयंगम = साँप। जति = जती। जंगम = छह भेषों में से एक भेस है।
अर्थ: पाताल में भी (शेष-) नाग आदिक और सर्प-भक्त (गुरु नानक के) गुण गा रहे हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुण गावै मुनि ब्यासु जिनि बेद ब्याकरण बीचारिअ ॥ ब्रहमा गुण उचरै जिनि हुकमि सभ स्रिसटि सवारीअ ॥

मूलम्

गुण गावै मुनि ब्यासु जिनि बेद ब्याकरण बीचारिअ ॥ ब्रहमा गुण उचरै जिनि हुकमि सभ स्रिसटि सवारीअ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस (व्यास मुनि) ने। बेद = वेदों को। ब्याकरण = व्याकर्णों द्वारा। बीचारिअ = विचारा है। जिनि = जिस (ब्रहमा) ने। हुकमि = (अकाल-पुरख के) हुक्म में। सवारीअ = रची है।
अर्थ: जिस (ब्यास मुनि) ने सारे वेदों को व्याकरणों द्वारा विचारा है, वह (गुरु नानक के) गुण गा रहा है। जिस (ब्रहमा) ने अकाल-पुरख के हुक्म में सारी सृष्टि रची है, वह (गुरु नानक के) गुण उचार रहा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रहमंड खंड पूरन ब्रहमु गुण निरगुण सम जाणिओ ॥ जपु कल सुजसु नानक गुर सहजु जोगु जिनि माणिओ ॥९॥

मूलम्

ब्रहमंड खंड पूरन ब्रहमु गुण निरगुण सम जाणिओ ॥ जपु कल सुजसु नानक गुर सहजु जोगु जिनि माणिओ ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ब्रहमंड खंड = खंडों ब्रहमंडों में, सारी दुनिया में। पूरन = व्यापक, हाजर नाजर। ब्रहम = अकाल पुरख। गुण = गुण वाला, सरगुण। सम = एक जैसा। जपु = याद कर, स्मरण कर। सुजसु = सुंदर यश। कल = हे कल्य कवि! नानक गुर = गुरु नानक के। सहजु = अडोलता, शांत अवस्था। जिनि = (जिस गुरु नानक) ने। जोग = (प्रभु के साथ) मिलाप।
अर्थ: जिस गुरु नानक ने अडोल अवस्था को और अकाल-पुरख के मिलाप को पाया है, जिस गुरु नानक ने सारी दुनिया में हाजिर-नाजर अकाल-पुरख को सरगुण और निरगुण रूपों में एक-समान पहचाना है, हे कल्य! उस गुरु नानक के सुंदर गुणों को याद कर।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुण गावहि नव नाथ धंनि गुरु साचि समाइओ ॥ मांधाता गुण रवै जेन चक्रवै कहाइओ ॥

मूलम्

गुण गावहि नव नाथ धंनि गुरु साचि समाइओ ॥ मांधाता गुण रवै जेन चक्रवै कहाइओ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नव नाथ = नौ नाथ (गोरख, मछंदर आदिक)। साचि = साच में, सदा स्थिर हरि में। समाइओ = लीन हो गया है। मांधाता = सूर्यवंशी कुल का एक राजा, युवनांशु का पुत्र था, बड़ा बली राजा था। जेन = जिनि, जिस ने (अपने आप को)। चक्रवै = चक्रवर्ती। कहाइओ = कहलवाया।
अर्थ: नौ नाथ (भी) गुरु नानक के गुण गाते हैं (और कहते हैं), “गुरु नानक धन्य है जो सच्चे हरि में जुड़ा हुआ है।” जिस मान्धाता ने अपने आप को चक्रवर्ती राजा कहलवाया था, वह भी गुरु नानक के गुण उचार रहा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुण गावै बलि राउ सपत पातालि बसंतौ ॥ भरथरि गुण उचरै सदा गुर संगि रहंतौ ॥

मूलम्

गुण गावै बलि राउ सपत पातालि बसंतौ ॥ भरथरि गुण उचरै सदा गुर संगि रहंतौ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बलिराउ = राजा बलि। सपत पातालि = सातवें पाताल में। बसंतौ = बसता हुआ। गुर संगि = गुरु के साथ। रहंतौ = रहता हुआ।
अर्थ: सातवें पाताल में बसता हुआ राजा बली (गुरु नानक के) गुण गा रहा है। अपने गुरु के साथ रहता हुआ भरथरी भी सदा (गुरु नानक के) गुण उचार रहा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दूरबा परूरउ अंगरै गुर नानक जसु गाइओ ॥ कबि कल सुजसु नानक गुर घटि घटि सहजि समाइओ ॥१०॥

मूलम्

दूरबा परूरउ अंगरै गुर नानक जसु गाइओ ॥ कबि कल सुजसु नानक गुर घटि घटि सहजि समाइओ ॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दूरबा = दुर्वासा ऋषि। परूरउ = राजा पुरू, चँद्रवंशी कुल का छेवाँ राजा, ययाती और सरमिष्ट का सबसे छोटा पुत्र। अंगरै = एक प्रसिद्ध ऋषि हुआ है; ऋगवेद में कई छंद इस ऋषि के नाम पर हैं; ब्रहमा के मन से पैदा हुए दस पुत्रों में से एक यह भी था। नानक जसु = नानक यश। घटि = घट में, हृदय में। घटि घटि = हरेक हृदय में। सहजि = सहज ही।
अर्थ: दुर्वासा ऋषि ने, राजा पुरू ने और अंगर ऋषि ने गुरु नानक का यश गाया है। हे कल्य कवि! गुरु नानक की सुंदर शोभा सहज ही हरेक प्राणी-मात्र के हृदय में टिकी हुई है।10।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ये 10 सवईऐ भाट कल्य के उचारे हुए हैं।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

सवईए महले दूजे के २

मूलम्

सवईए महले दूजे के २

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: गुरु अंगद देव जी की स्तुति में उचारे गए सवईऐ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोई पुरखु धंनु करता कारण करतारु करण समरथो ॥ सतिगुरू धंनु नानकु मसतकि तुम धरिओ जिनि हथो ॥

मूलम्

सोई पुरखु धंनु करता कारण करतारु करण समरथो ॥ सतिगुरू धंनु नानकु मसतकि तुम धरिओ जिनि हथो ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पुरखु = व्यापक हरि। कारण करण = सृष्टि का कारण, सृष्टि का विधाता। समरथो = समर्थता वाला, सारी ताकतों का मालिक। मसतकि तुम = तेरे माथे पर (हे गुरु अंगद!)। जिनि = जिस (गुरु नानक) ने।
अर्थ: धन्य है वह कर्तार सर्व-व्यापक हरि, जो इस सृष्टि का मूल कारण है, सृजने वाला है और समर्थता वाला है। धन्य है सतिगुरु नानक, जिस ने (हे गुरु अंगद!) तेरे माथे पर (अपना) हाथ रखा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

त धरिओ मसतकि हथु सहजि अमिउ वुठउ छजि सुरि नर गण मुनि बोहिय अगाजि ॥ मारिओ कंटकु कालु गरजि धावतु लीओ बरजि पंच भूत एक घरि राखि ले समजि ॥

मूलम्

त धरिओ मसतकि हथु सहजि अमिउ वुठउ छजि सुरि नर गण मुनि बोहिय अगाजि ॥ मारिओ कंटकु कालु गरजि धावतु लीओ बरजि पंच भूत एक घरि राखि ले समजि ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अमिउ = अमृत। वुठउ = बस पड़ा। छजि = छहबर लगा के। बोहिय = भीग गए, तरो तर हो गए, सुगंधित हो गए। अगाजि = प्रत्यक्ष तौर पर। कंटकु = काँटा (भाव, दुखदाई)। गरजि = गरज के, अपना बल दिखा के। धावतु = भटकता। बरजि लीओ = रोक लिया। पंच भूत = कामादिक पाँचों को। समजि = इकट्ठे करके, समेट के (समज = संस्कृत में इकट्ठा करने को कहते हैं, इससे ‘समाज’ ‘नाम’ बना है।)
अर्थ: तब सहजे ही (गुरु नानक ने तेरे) माथे पर हाथ रखा। (तेरे हृदय में) नाम-अमृत छहबर लगा के बस गया, जिसकी इनायत से देवतागण, मनुष्य, गण और ऋषि-मुनि प्रत्यक्ष तौर पर भीग गए। (हे गुरु अंगद!) तूने दुखदाई काल को अपना बल दिखा के नाश कर दिया, अपने मन को भटकने से रोक लिया, और कामादिक पाँचों को ही एक जगह पर इकट्ठा करके काबू कर लिया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जगु जीतउ गुर दुआरि खेलहि समत सारि रथु उनमनि लिव राखि निरंकारि ॥ कहु कीरति कल सहार सपत दीप मझार लहणा जगत्र गुरु परसि मुरारि ॥१॥

मूलम्

जगु जीतउ गुर दुआरि खेलहि समत सारि रथु उनमनि लिव राखि निरंकारि ॥ कहु कीरति कल सहार सपत दीप मझार लहणा जगत्र गुरु परसि मुरारि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीतउ = जीत लिया है। गुरदुआरि = गुरु के दर पर (पड़ कर)। समत = सबको एक दृष्टि से देखना। सारि = नरद। समत सारि = समता की बाज़ी। खेलहि = तू खेलता है। लिव रथु = तवज्जो/ध्यान का रथ, तवज्जो का प्रवाह। उनमनि = उनमन अवस्था में, पूरन खिलाव में। राखि = रख के, रखने के कारण। निरंकारि = अकाल पुरख में। कीरति = शोभा। कल सहार = हे कलसहार! सपत दीप मझार = सातों द्वीपों के बीच (भाव, सारी दुनिया में)। लहणा कीरति = लहणे की शोभा। जगत्र गुरु = जगत के गुरु (नानक देव जी) को। परसि = परस के, छू के। मुरारि = मुरारी रूप गुरु नानक को (मुर+अरि)।1।
अर्थ: (हे गुरु अंगद!) गुरु (नानक) के दर पर पड़ कर तूने जगत को जीत लिया है, तू समता की बाजी खोल रहा है; (भाव, तू सबका एक-दृष्टि से देख रहा है)। निरंकार में लगन रखने के कारण तेरी तवज्जो का प्रवाह पूर्ण खिलाव की अवस्था में बना रहता है। हे कल्यसहार! कह: “हरि-रूप जगत के गुरु (नानक देव जी) को परस के (भाव, गुरु नानक के चरणों में लग के) लहणे की शोभा सारे संसार में फैल रही है”।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा की द्रिसटि अम्रित धार कालुख खनि उतार तिमर अग्यान जाहि दरस दुआर ॥ ओइ जु सेवहि सबदु सारु गाखड़ी बिखम कार ते नर भव उतारि कीए निरभार ॥

मूलम्

जा की द्रिसटि अम्रित धार कालुख खनि उतार तिमर अग्यान जाहि दरस दुआर ॥ ओइ जु सेवहि सबदु सारु गाखड़ी बिखम कार ते नर भव उतारि कीए निरभार ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा की = जिस (गुरु) की। अंम्रितधार दृष्टि = अमृत बरसाने वाली नज़र। कालुख = पाप रूपी कालिख। खनि = खोद के। खनि उतार = उखाड़ के दूर करने के समर्थ। तिमर = अंधेरा। जाहि = दूर हो जाते हैं। दरस दुआर = (जिस के) दर का दर्शन करने से। ओइ = वह मनुष्य (बहुवचन)। सेवहि = जपते हैं। सारु = श्रेष्ठ। गाखड़ी = मुश्किल। बिखम = बिखड़ी। ते नर = वे लोग। भव उतारि = संसार समुंदर से पार लंघा के। निरभार = भार से रहित, हल्के, मुक्त।
अर्थ: जिस (गुरु अंगद देव जी) की दृष्टि अमृत बरसाने वाली है, (पापों की) कालिख़ खोद के दूर करने में समर्थ है, उसके दर का दर्शन करने से अज्ञान आदि के अंधेरे दूर हो जाते हैं। जो मनुष्य (उसके) श्रेष्ठ शब्द को जपते हैं, और (ये) मुश्किल और बिखड़ी कार करते हैं, उनको संसार-सागर से पार लंघा के सतिगुरु ने मुक्त कर दिया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतसंगति सहज सारि जागीले गुर बीचारि निमरी भूत सदीव परम पिआरि ॥ कहु कीरति कल सहार सपत दीप मझार लहणा जगत्र गुरु परसि मुरारि ॥२॥

मूलम्

सतसंगति सहज सारि जागीले गुर बीचारि निमरी भूत सदीव परम पिआरि ॥ कहु कीरति कल सहार सपत दीप मझार लहणा जगत्र गुरु परसि मुरारि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहज सारि = सहज की सार ले के, सहज अवस्था को संभाल के। सहज = आत्मिक अडोलता। जागीले = जाग उठते हैं। गुर बिचारि = सतिगुरु की बताई विचार द्वारा। निंमरी भूत = नीच स्वभाव वाले हो जाते हैं। पिआरि = प्यार में।2।
अर्थ: (वह मनुष्य) सत्संगति में सहज अवस्था को प्राप्त करते हैं, सतिगुरु की बताई हुई विचार की इनायत से (उनके मन) जाग उठते हैं; वे सदा विनम्रता और परम-प्यार में (भीगे) रहते हैं। हे कलसहार! कह: “मुरारी के रूप जगत-गुरु (नानक देव जी) को परस के (ऐसे गुरु अंगद) लहणे की शोभा सारे संसार में पसर रही है।”।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तै तउ द्रिड़िओ नामु अपारु बिमल जासु बिथारु साधिक सिध सुजन जीआ को अधारु ॥ तू ता जनिक राजा अउतारु सबदु संसारि सारु रहहि जगत्र जल पदम बीचार ॥

मूलम्

तै तउ द्रिड़िओ नामु अपारु बिमल जासु बिथारु साधिक सिध सुजन जीआ को अधारु ॥ तू ता जनिक राजा अउतारु सबदु संसारि सारु रहहि जगत्र जल पदम बीचार ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तै तउ = तू तो। द्रिढ़िओ = दृढ़ किया है, हृदय में टिकाया है। अपारु = बेअंत। बिमल = निर्मल। जासु = यश, शोभा। बिथारु = विस्तार, पसारा। सुजन = नेक लोक। रहहि = तू रहता है। जगत्र = जगत में। जल पदम बीचार = जैसे जल में पदम (कमल) रहता है (भाव, निर्लिप रहता है)। जीआ = जिंदगी। को = का।
अर्थ: (हे गुरु अंगद!) तूमने तो (अकाल पुरख के) अपार नाम को अपने हृदय में टिकाया है, तेरी निर्मल शोभा पसरी हुई है। तू साधिक सिद्ध और संत जनों की जिंदगी का सहारा है। (हे गुरु अंगद!) तू तो (निर्लिपता में) राजा जनक का अवतार है (भाव, जैसे राजा जनक निर्लिप रहता था, वैसे ही तू निर्लिप रहता है)। जगत में (तेरा) शब्द श्रेष्ठ है, तू जगत में इस तरह निर्लिप रहता है, जैसे कमल-फूल जल में।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलिप तरु रोग बिदारु संसार ताप निवारु आतमा त्रिबिधि तेरै एक लिव तार ॥ कहु कीरति कल सहार सपत दीप मझार लहणा जगत्र गुरु परसि मुरारि ॥३॥

मूलम्

कलिप तरु रोग बिदारु संसार ताप निवारु आतमा त्रिबिधि तेरै एक लिव तार ॥ कहु कीरति कल सहार सपत दीप मझार लहणा जगत्र गुरु परसि मुरारि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कलिप तरु = कल्प वृक्ष, मनो कामना पूरी करने वाला पेड़। (संस्कृत के विद्वानों ने माना है कि ये वृक्ष इन्द्र के स्वर्ग में है। देखें, आसा दी वार सटीक, पउड़ी 13, ‘पारिजातु’)। रोग बिदारु = रोगों को दूर करने वाला। संसार ताप निवारु = संसार के तापों का निवारण करने वाला। आतमा त्रिबिधि = तीनों किस्मों वाले (भाव, तीन गुणों में बरतने वाले) जीव, संसारी जीव। तेरै = तेरे में (हे गुरु अंगद!)। एक लिव तार = एक रस तवज्जो/ध्यान लगा के रखते हैं।3।
अर्थ: (हे गुरु अंगद देव!) तू कल्प वृक्ष है, रोगों को दूर करने वाला है, संसार के दुखों को निर्वित करने वला है। सारे संसारी जीव तेरे (चरणों) में एक-रस लगन लगाए बैठे हैं। हे कल्यसहार! कह: ‘मुरारी-रूप जगत-गुरु (नानक देव जी) को परस के (ऐसे गुरु अंगद) लहणे की शोभा सातों द्वीपों में फैल रही है’।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तै ता हदरथि पाइओ मानु सेविआ गुरु परवानु साधि अजगरु जिनि कीआ उनमानु ॥ हरि हरि दरस समान आतमा वंतगिआन जाणीअ अकल गति गुर परवान ॥ जा की द्रिसटि अचल ठाण बिमल बुधि सुथान पहिरि सील सनाहु सकति बिदारि ॥

मूलम्

तै ता हदरथि पाइओ मानु सेविआ गुरु परवानु साधि अजगरु जिनि कीआ उनमानु ॥ हरि हरि दरस समान आतमा वंतगिआन जाणीअ अकल गति गुर परवान ॥ जा की द्रिसटि अचल ठाण बिमल बुधि सुथान पहिरि सील सनाहु सकति बिदारि ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हदरथि = दरगाह से, हजूर से, गुरु नानक से। परवानु = प्रामाणिक, जाना माना। साधि = सुधार के, काबू कर के। अजगरु = अजगर साँप (जैसे मन को)। जिनि = जिस (गुरु नानक ने)। उनमान = ऊँचा मन। हरि हरि दरस समान = जिस का दर्शन हरि के दर्शनों के समान हैं। आतमा वंत गिआन = तू आत्मज्ञान वाला है। जाणीअ = तू जानने वाला है। अकल = (नास्ति कला अवयवो यस्य) एक रस व्यापक प्रभु। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। गुर परवान = स्वीकार हुए गुरु (नानक) का। जा की = जिस (माने हुए गुरु नानक) की। अचल ठाण = अचल ठिकाने पर। सुथान = श्रेष्ठ जगह पर। पहिरि = पहन के। सनाहु = लोहे की जाली आदिक जो युद्ध में शरीर के बचाव के लिए पहनी जाती है। सकति = माया। बिदारि = नाश कर के।
अर्थ: (हे गुरु अंगद!) तूने तो (गुरु-नानक की) हजूरी में सम्मान पाया है; तूने प्रामाणिक गुरु (नानक) की सेवा की है, जिसने असाध्य मन को साधु के उसको ऊँचा किया हुआ है, जिस (गुरु नानक) की निगाह अचल ठिकाने पर (टिकी हुई) है, जिस गुरु की बुद्धि निर्मल है और श्रेष्ठ जगह पर लगी हुई है, और जिस गुरु नानक ने विनम्रता वाले स्वभाव का सनाह (कवच) पहन के माया (के प्रभाव) को नाश किया है। (हे गुरु अंगद!) जिस गुरु का दर्शन हरि के दर्शनों के समान है, जो आत्म ज्ञान वाला है, तूने उस प्रामाणिक और सर्व-व्यापक प्रभु के रूप गुरु (नानक देव जी) की ऊँची आत्मिक अवस्था समझ ली है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु कीरति कल सहार सपत दीप मझार लहणा जगत्र गुरु परसि मुरारि ॥४॥

मूलम्

कहु कीरति कल सहार सपत दीप मझार लहणा जगत्र गुरु परसि मुरारि ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे कल्यसहार! कह: “मुरारी के रूप जगत-गुरु (नानक देव जी के चरणों) को परस के (ऐसे गुरु अंगद) लहणे की शोभा सारे संसार में पसर रही है”।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रिसटि धरत तम हरन दहन अघ पाप प्रनासन ॥ सबद सूर बलवंत काम अरु क्रोध बिनासन ॥

मूलम्

द्रिसटि धरत तम हरन दहन अघ पाप प्रनासन ॥ सबद सूर बलवंत काम अरु क्रोध बिनासन ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: द्रिसटि धरत = दृष्टि करते ही। तम हरन = अंधेरे को दूर करने वाला। दहन अघ = पापों को जलाने वाला। पाप प्रनासन = पापों को नाश करने वाला। सबद सूर = शब्द का सूरमा।
अर्थ: (हे गुरु अंगद!) दृष्टि करते ही तू (अज्ञान-रूप) अंधेरे को दूर कर देता है; तू पाप जलाने वाला है, और पाप नाश करने वाला है। तू शब्द का सूरमा है और बलवान है, काम और क्रोध को तू नाश कर देता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोभ मोह वसि करण सरण जाचिक प्रतिपालण ॥ आतम रत संग्रहण कहण अम्रित कल ढालण ॥

मूलम्

लोभ मोह वसि करण सरण जाचिक प्रतिपालण ॥ आतम रत संग्रहण कहण अम्रित कल ढालण ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आतम रत = आत्मिक प्रेम। कहण = कथन, वचन। कल = सुंदर। ढालण = प्रवाह। वसि = वश में।
अर्थ: (हे गुरु अंगद!) तूने लोभ और मोह को काबू किया हुआ है, शरण आए मंगतों को तू पालने वाला है, तूने आत्मिक प्रेम को इकट्ठा किया हुआ है, तेरे वचन अमृत के सुंदर चश्मे हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरू कल सतिगुर तिलकु सति लागै सो पै तरै ॥ गुरु जगत फिरणसीह अंगरउ राजु जोगु लहणा करै ॥५॥

मूलम्

सतिगुरू कल सतिगुर तिलकु सति लागै सो पै तरै ॥ गुरु जगत फिरणसीह अंगरउ राजु जोगु लहणा करै ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कल = हे कल्यसहार! सति = निश्चय कर के, श्रद्धा धार के। गुरु जगत = जगत का गुरु। फिरण सीह = बाबा फेरू का सपुत्र। अंगरउ = गुरु अंगद देव।
अर्थ: हे कल्यसहार! सतिगुरु (अंगद देव) शिरोमणी गुरु है। जो मनुष्य श्रद्धा धार के उसके चरणों में लगता है उसका उद्धार हो जाता है। जगत का गुरु, बाबा फेरू (जी) का सपुत्र लहिणा जी (गुरु) अंगद राज और जोग माणता है।5।

[[1392]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदा अकल लिव रहै करन सिउ इछा चारह ॥ द्रुम सपूर जिउ निवै खवै कसु बिमल बीचारह ॥

मूलम्

सदा अकल लिव रहै करन सिउ इछा चारह ॥ द्रुम सपूर जिउ निवै खवै कसु बिमल बीचारह ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अकल = कला (अंग) रहित, एक रस सर्व व्यापक प्रभु। लिव = लगन, ध्यान। करन सिउ = करनी में। इछा चारह = स्वतंत्र। द्रुम = वृक्ष। सपूर = (फलों से) भरा हुआ। खवै = सहता है। बिमल = निर्मल।
अर्थ: (हे गुरु अंगद!) तेरी तवज्जो सदा अकाल-पुरख में टिकी रहती है, करणी में तू स्वतंत्र है (भाव, तेरे ऊपर माया आदि का बल नहीं पड़ सकता)। जैसे फल वाला वृक्ष झुकता है और दुख सहता है, वैसे ही (गुरु अंगद की) निर्मल विचार है, (भाव, गुरु अंगद भी इसी तरह झुकता है, और संसारी जीवों की खातिर तकलीफें सहता है)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहै ततु जाणिओ सरब गति अलखु बिडाणी ॥ सहज भाइ संचिओ किरणि अम्रित कल बाणी ॥

मूलम्

इहै ततु जाणिओ सरब गति अलखु बिडाणी ॥ सहज भाइ संचिओ किरणि अम्रित कल बाणी ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ततु = भेद। सरब गति = सर्व व्यापक। अलखु = जिसका भेद ना पाया जा सके। बिडाणी = आश्चर्यजनक। सहज भाइ = सहज स्वाभाव ही। किरणि = किरण द्वारा। कल = सुंदर।
अर्थ: (हे गुरु अंगद!) तूने ये भेद पा लिया है कि आश्चर्यजनक और अलख हरि सर्व-व्यापक है। अमृत-भरी सुंदर वाणी-रूप किरण के द्वारा (संसारी जीवों के हृदय में) तू सहज स्वभाव ही अमृत सींच रहा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर गमि प्रमाणु तै पाइओ सतु संतोखु ग्राहजि लयौ ॥ हरि परसिओ कलु समुलवै जन दरसनु लहणे भयौ ॥६॥

मूलम्

गुर गमि प्रमाणु तै पाइओ सतु संतोखु ग्राहजि लयौ ॥ हरि परसिओ कलु समुलवै जन दरसनु लहणे भयौ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुर गमि प्रमाणु = गुरु नानक वाला दर्जा। गमि = गम्य, जिस तक पहुँच हो सके। गुर गमि = जहाँ गुरु (नानक) की पहुँच है। प्रमाणु = दर्जा। ग्राहजि लयौ = ग्रहण कर लिया है। समुलवै = ऊँचा पुकारता है। दरसनु लहणे = लहणे जी का दर्शन। भयौ = हुआ।
अर्थ: (हे गुरु अंगद!) तूने गुरु (नानक देव जी) वाला दर्जा हासिल कर लिया है, और सत-संतोख को ग्रहण कर लिया है। कल्सहार (कवि) ऊँचा पुकार के कहता है: ‘जिस जनों को लहणा जी का दर्श्न हुआ है, उन्होंने अकाल-पुरख को परस लिया है’।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनि बिसासु पाइओ गहरि गहु हदरथि दीओ ॥ गरल नासु तनि नठयो अमिउ अंतरगति पीओ ॥

मूलम्

मनि बिसासु पाइओ गहरि गहु हदरथि दीओ ॥ गरल नासु तनि नठयो अमिउ अंतरगति पीओ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। बिसासु = श्रद्धा। गहरि = गंभीर (हरि) में। गहु = पहुँच। हदरथि = हजरत ने, गुरु नानक ने। गरल = विष, जहर। तनि = शरीर में से। अमिओ = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। अंतर गति = आत्मा के बीच, अपने अंदर। पीओ = पीया है।
अर्थ: (हे गुरु अंगद!) तूने अपने मन में श्रद्धा प्राप्त की है, हजूर (गुरु नानक जी) ने तुझे गंभीर (हरि) में पहुँच दे दी है। नाश करने वाला जहर (भाव, माया का मोह) तेरे शरीर में से भाग गया है और तूने अंतरात्मे नाम-अमृत पी लिया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रिदि बिगासु जागिओ अलखि कल धरी जुगंतरि ॥ सतिगुरु सहज समाधि रविओ सामानि निरंतरि ॥

मूलम्

रिदि बिगासु जागिओ अलखि कल धरी जुगंतरि ॥ सतिगुरु सहज समाधि रविओ सामानि निरंतरि ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अलखि = अकाल-पुरख ने। कल = सत्ता। जुगंतरि = जुगों में। रिदि = हृदय में। बिगासु = प्रकाश। रविओ = व्यापक है। सामानि = एक जैसा। निरंतरि = सबके अंदर, एक रस, अंतर के बिना। सहज = आत्मिक अडोलता (की)।
अर्थ: जिस अकाल-पुरख ने अपनी सत्ता (सारे) जुगों में रखी हुई है, उसका प्रकाश (गुरु अंगद के) हृदय में जाग उठा है। अकाल-पुरख एक-रस सबके अंदर व्याप रहा है, उसमें सतिगुरु (अंगद देव) आत्मिक अडोलता में समाधि जोड़े रखता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदारउ चित दारिद हरन पिखंतिह कलमल त्रसन ॥ सद रंगि सहजि कलु उचरै जसु ज्मपउ लहणे रसन ॥७॥

मूलम्

उदारउ चित दारिद हरन पिखंतिह कलमल त्रसन ॥ सद रंगि सहजि कलु उचरै जसु ज्मपउ लहणे रसन ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उदारउ चित = उदार चिक्त वाला। दारिद हरन = गरीबी दूर करने वाला। पिखंतिह = देखते हुए ही। कलमल = पाप। त्रसन = डरना। सद = सदा। रंगि = रंग में, प्रेम से। सहजि = आत्मिक अडोलता में (टिक के)। उचरै = कहता है। जस = शोभा। जंपउ = मैं उचारता हूँ। रसन = जीभ से।
अर्थ: कल्सहार कहता है: ‘मैं अपनी जीभ से सदा प्रेम में और आत्मिक अडोलता में (टिक के) उस लहणे जी का यश उचारता हूँ, जो उदार-चिक्त वाला है, जो गरीबी दूर करने वाला है, और जिसको देख के पाप त्राहि जाते हैं।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामु अवखधु नामु आधारु अरु नामु समाधि सुखु सदा नाम नीसाणु सोहै ॥ रंगि रतौ नाम सिउ कल नामु सुरि नरह बोहै ॥

मूलम्

नामु अवखधु नामु आधारु अरु नामु समाधि सुखु सदा नाम नीसाणु सोहै ॥ रंगि रतौ नाम सिउ कल नामु सुरि नरह बोहै ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अवखधु = दवाई, जड़ी बूटी। समाधि सुखु = वह सुख जो समाधी लगाने से मिलता है। नाम नीसाणु = नाम का झण्डा। सोहै = शोभता है। रंगि रतौ = रंग में रंगा हुआ। नाम सिउ = नाम की इनायत से। सुरि = देवते। नरह = मनुष्यों को। बोहै = सुगंधित करता है। कल = हे कल्सहार!
अर्थ: अकाल पुरख का नाम (सारे रोगों की) दवाई है, नाम (सबका) आसरा है और नाम ही समाधि वाला आनंद है; अकाल-पुरख के नाम का झण्डा सदा शोभ रहा है। हे कल्सहार! हरि-नाम की इनायत से ही (गुरु अंगद) रंग में रंगा हुआ है। यह नाम देवताओं और मनुष्यों को सुगंधित कर रहा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाम परसु जिनि पाइओ सतु प्रगटिओ रवि लोइ ॥ दरसनि परसिऐ गुरू कै अठसठि मजनु होइ ॥८॥

मूलम्

नाम परसु जिनि पाइओ सतु प्रगटिओ रवि लोइ ॥ दरसनि परसिऐ गुरू कै अठसठि मजनु होइ ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परसु = छूह। जिनि = जिस ने। सतु रवि = सत धरम रूप सूरज। लोइ = सृष्टि में। दरसनि परसिऐ = दर्शन करने से। अठसठि = अढ़सठ तीर्थ। मजनु = स्नान। सतु = ऊँचा आचरण।
अर्थ: जिस मनुष्य के नाम की छोह (गुरु अंगद देव जी) से प्राप्त की है, उसका सत धर्म-रूप सूरज संसार में चमक पड़ा है। सतिगुरु (अंगद देव जी) का दर्शन करने से अढ़सठ तीर्थों का स्नान हो जाता है।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचु तीरथु सचु इसनानु अरु भोजनु भाउ सचु सदा सचु भाखंतु सोहै ॥ सचु पाइओ गुर सबदि सचु नामु संगती बोहै ॥

मूलम्

सचु तीरथु सचु इसनानु अरु भोजनु भाउ सचु सदा सचु भाखंतु सोहै ॥ सचु पाइओ गुर सबदि सचु नामु संगती बोहै ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचु = सच्चे हरि का नाम। भाखंत = उचारते हुए। सोहै = शोभा दे रहा है। गुर सबदि = गुरु के शब्द से। संगति = संगतों को। बोहै = सुगंधित करता है।
अर्थ: सदा-स्थिर हरि का नाम ही (गुरु अंगद देव जी का) तीर्थ है, नाम ही स्नान है और नाम और प्यार ही (उनका) भोजन है। सदा-स्थिर प्रभु का नाम उचारते हुए ही (गुरु अंगद जी) शोभा दे रहे हैं। (गुरु अंगद देव जी ने) अकाल-पुरख का नाम गुरु (नानक देव जी) के शब्द द्वारा प्राप्त किया है, ये सच्चा नाम संगतों को सुगंधित करता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिसु सचु संजमु वरतु सचु कबि जन कल वखाणु ॥ दरसनि परसिऐ गुरू कै सचु जनमु परवाणु ॥९॥

मूलम्

जिसु सचु संजमु वरतु सचु कबि जन कल वखाणु ॥ दरसनि परसिऐ गुरू कै सचु जनमु परवाणु ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिसु संजमु = जिस (गुरु अंगद देव जी) का संयमं। कल = हे कल्सहार! वखाणु = कह। सचु = सदा स्थिर हरि नाम। परवाणु = प्रमाणिक, स्वीकार, सफल।
अर्थ: हे दास कलसहार कवि! कह: “जिस (गुरु अंगद देव जी) का संयम अकाल-पुरख का नाम है और वरत भी हरि का नाम ही है, उस गुरु के दर्शन करने से सदा-स्थिर हरि-नाम प्राप्त हो जाता है और मनुष्य का जनम सफल हो जाता है”।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमिअ द्रिसटि सुभ करै हरै अघ पाप सकल मल ॥ काम क्रोध अरु लोभ मोह वसि करै सभै बल ॥

मूलम्

अमिअ द्रिसटि सुभ करै हरै अघ पाप सकल मल ॥ काम क्रोध अरु लोभ मोह वसि करै सभै बल ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अमिअ = अमृतमयी, अमृत भरी, आत्मिक जीवन देने वाली। द्रिसटि = नजर। हरै = दूर करता है। अघ = पाप। सकल मल = सारी मैलें। वसि करै = काबू करता है। बल = अहंकार।
अर्थ: (गुरु अंगद देव जी जिस पर) आत्मिक जीवन देने वाली भली निगाह करता है, (उसके) पाप और सारी मैलें दूर कर देता है, और काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार- ये सारे उसके काबू में कर देता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदा सुखु मनि वसै दुखु संसारह खोवै ॥ गुरु नव निधि दरीआउ जनम हम कालख धोवै ॥

मूलम्

सदा सुखु मनि वसै दुखु संसारह खोवै ॥ गुरु नव निधि दरीआउ जनम हम कालख धोवै ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। संसारह = संसार का। खोवै = नाश करता है। नवनिधि दरीआउ = नौ निधियों का दरिया। जनम हम = हमारे जन्मों की। निधि = खजाना।
अर्थ: (गुरु अंगद के) मन में सदा सुख बस रहा है, (वह) संसार का दुख दूर करता है। सतिगुरु नौ-निधियों का दरिया है; हमारे जन्मों (-जन्मों) की कालिख धोता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सु कहु टल गुरु सेवीऐ अहिनिसि सहजि सुभाइ ॥ दरसनि परसिऐ गुरू कै जनम मरण दुखु जाइ ॥१०॥

मूलम्

सु कहु टल गुरु सेवीऐ अहिनिसि सहजि सुभाइ ॥ दरसनि परसिऐ गुरू कै जनम मरण दुखु जाइ ॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: टल = हे टल्! हे कल्य! हे कल्यसहार! अहि = दिन। निस = रात। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में।
अर्थ: हे कल्सहार! कह: “(ऐसे) गुरु (अंगद देव जी) की दिन-रात आत्मिक अडोलता और प्रेम में टिक के सेवा करनी चाहिए। (ऐसे) सतिगुरु के दर्शन करने से जनम-मरण के दुख काटे जाते हैं”।10।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इन 15 सवईयों का कर्ता भाट ‘कल्सहार’ है, जिसके दूसरे नाम ‘कल्य’ और ‘टल्’ हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सवईए महले तीजे के ३

मूलम्

सवईए महले तीजे के ३

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: गुरु अमरदास जी की स्तुति में उचारे हुए सवईऐ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोई पुरखु सिवरि साचा जा का इकु नामु अछलु संसारे ॥ जिनि भगत भवजल तारे सिमरहु सोई नामु परधानु ॥

मूलम्

सोई पुरखु सिवरि साचा जा का इकु नामु अछलु संसारे ॥ जिनि भगत भवजल तारे सिमरहु सोई नामु परधानु ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिवरि = स्मरण कर। साचा = सदा कायम रहने वाला। जा का = जिस (हरि) का। अछलु = ना छले जाने वाला। संसारे = संसार में। जिनि = जिस (नाम) ने। परधानु = श्रेष्ठ, उत्तम।
अर्थ: उस सदा-स्थिर अकाल-पुरख को स्मरण कर; जिसका एक नाम संसार में अछल है। जिस नाम ने भगतों को संसार-सागर से पार उतारा है, उस उत्तम नाम को स्मरण करो।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तितु नामि रसिकु नानकु लहणा थपिओ जेन स्रब सिधी ॥ कवि जन कल्य सबुधी कीरति जन अमरदास बिस्तरीया ॥

मूलम्

तितु नामि रसिकु नानकु लहणा थपिओ जेन स्रब सिधी ॥ कवि जन कल्य सबुधी कीरति जन अमरदास बिस्तरीया ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तितु नामि = उसी नाम का। रसिकु = आनंद लेने वाला। थपिओ = थापा गया, स्थापित किया गया, टिकाया गया। जेन = जिस कर के (भाव, उसी के नाम की इनायत के कारण)। स्रब सिधी = सारी सिद्धियां (प्राप्त हुई)। सबुधी = बुद्धि वाला, ऊँची मति वाला, सद्बुद्धि। कीरति = शोभा। जन = जनों में, लोगों में। अमरदास = गुरु अमरदास की। बिस्तरीया = बिखरी हुई है।
अर्थ: उसी नाम में (गुरु) नानक आनंद ले रहा है, (उसी नाम द्वारा) लहणा जी टिक गए, जिसके कारण सारी सिद्धियाँ उन्हें प्राप्त हुई। हे कल्य कवि! (उसी की इनायत से) उच्च बुद्धि वाले गुरु अमरदास जी की शोभा लोगों में पसर रही है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कीरति रवि किरणि प्रगटि संसारह साख तरोवर मवलसरा ॥ उतरि दखिणहि पुबि अरु पस्चमि जै जै कारु जपंथि नरा ॥

मूलम्

कीरति रवि किरणि प्रगटि संसारह साख तरोवर मवलसरा ॥ उतरि दखिणहि पुबि अरु पस्चमि जै जै कारु जपंथि नरा ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कीरति रवि किरण = शोभा रूप सूरज की किरण द्वारा। रवि = सूरज। कीरति = शोभा। प्रगटि = प्रकट हो के, बिखर के। संसारह = संसार में। साख = शाखाएं, टहनियां। तरोवर = श्रेष्ठ वृक्ष। मवलसरा = मौलसरी का पेड़ (इसके छोटे-छोटे फूल बड़ी ही मीठी और भीनी सुगन्धि वाले होते हैं)। उतरि = उक्तर, पहाड़ वाली दिशा में। दखिणहि = दक्षिण की तरफ। पुबि = पूरब की तरफ, चढ़ती दिशा में। पस्चमि = पश्चिम, पच्छिम की ओर। जपंथि = जपते हैं।
अर्थ: (जैसे) मौलसरी के श्रेष्ठ वृक्ष की शाखाएं (बिखर के सुगन्धि बिखेरती हैं, वैसे ही गुरु अमरदास की) शोभा-रूप सूरज की किरण के जगत में प्रकट होने के कारण पहाड़, उक्तर-दक्षिण-पुरब-पश्चिम (भाव, हर तरफ) लोग गुरु अमरदास जी की जय-जयकार कर रहे हैं।

[[1393]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि नामु रसनि गुरमुखि बरदायउ उलटि गंग पस्चमि धरीआ ॥ सोई नामु अछलु भगतह भव तारणु अमरदास गुर कउ फुरिआ ॥१॥

मूलम्

हरि नामु रसनि गुरमुखि बरदायउ उलटि गंग पस्चमि धरीआ ॥ सोई नामु अछलु भगतह भव तारणु अमरदास गुर कउ फुरिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रसनि = रसना द्वारा, जीभ से (भाव, उचार के)। गुरमुखि = गुरु (नानक) ने। बरदायउ = वरताया, बाँटा। उलटि = उल्टा के। गंग = गंगा का प्रवाह, जीवों की रुचि। पस्चमि = पश्चिम की ओर, माया से उलट। धरीआ = टिका दी। भगतह भव तारणु = भगतों को संसार से तारने वाला। फुरिआ = अनुभव हुआ।
अर्थ: जो हरि का नाम गुरु नानक देव जी ने उचार के बाँटा और संसारी जीवों की रुचि संसार से पलट दी, वही अचल नाम, वही भगतों को संसार से पार उतारने वाला नाम गुरु अमरदास जी के हृदय में प्रकट हुआ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिमरहि सोई नामु जख्य अरु किंनर साधिक सिध समाधि हरा ॥ सिमरहि नख्यत्र अवर ध्रू मंडल नारदादि प्रहलादि वरा ॥

मूलम्

सिमरहि सोई नामु जख्य अरु किंनर साधिक सिध समाधि हरा ॥ सिमरहि नख्यत्र अवर ध्रू मंडल नारदादि प्रहलादि वरा ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरा = शिव जी। नख्त्र = नक्षत्र, तारे। ध्रू मंडल = ध्रुव मण्डल के तारे। वरा = श्रेष्ठ।
अर्थ: उसी नाम को जख्, किन्नर, साधिक सिद्ध और शिव जी समाधी लगा के स्मरण कर रहे हैं। उसी नाम को अनेक नक्षत्र, ध्रुव भक्त के मण्डल, नारद आदिक और प्रहलाद आदिक श्रेष्ठ भक्त जप रहे हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ससीअरु अरु सूरु नामु उलासहि सैल लोअ जिनि उधरिआ ॥ सोई नामु अछलु भगतह भव तारणु अमरदास गुर कउ फुरिआ ॥२॥

मूलम्

ससीअरु अरु सूरु नामु उलासहि सैल लोअ जिनि उधरिआ ॥ सोई नामु अछलु भगतह भव तारणु अमरदास गुर कउ फुरिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ससीअरु = (शशधर) चँद्रमा। अरु = और। सूरु = सूरज। उलासहि = चाहते हैं। सैल लोअ = पत्थरों के ढेर। सैल = शैल, पत्थर, पहाड़। लोअ = लोक, ढेर। उधारिआ = उद्धार कर दिया। जिनि = जिस (नाम) ने।
अर्थ: चँद्रमा और सूरज उसी हरि-नाम को लोच रहे हैं, जिसने पत्थरों के ढेर तैरा दिए। वही ना छले जान वाला नाम, और भगतों को संसार से तैराने वाला नाम सतिगुरु अमरदास जी के हृदय में प्रकट हुआ।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोई नामु सिवरि नव नाथ निरंजनु सिव सनकादि समुधरिआ ॥ चवरासीह सिध बुध जितु राते अ्मबरीक भवजलु तरिआ ॥

मूलम्

सोई नामु सिवरि नव नाथ निरंजनु सिव सनकादि समुधरिआ ॥ चवरासीह सिध बुध जितु राते अ्मबरीक भवजलु तरिआ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिवरि = स्मरण करके। नव = नौ। निरंजनु = निर्लिप हरि (निरअंजनु। माया की कालिख से रहित)। समुधरिआ = तैर गए, पार उतर गए। जितु = जिस (नाम) में। बुध = समझदार, ज्ञानवान मनुष्य। राते = रति हुए, रंगे हुए।
अर्थ: नौ नाथ, शिव जी, सनक आदिक उसी पवित्र नाम को स्मरण करके तैर गए; चौरासी सिद्ध व अन्य ज्ञानवान उसी रंग में रंगे हुए हैं; (उसी नाम की इनायत से) अंबरीक संसार-सागर से पार लांघ गया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उधउ अक्रूरु तिलोचनु नामा कलि कबीर किलविख हरिआ ॥ सोई नामु अछलु भगतह भव तारणु अमरदास गुर कउ फुरिआ ॥३॥

मूलम्

उधउ अक्रूरु तिलोचनु नामा कलि कबीर किलविख हरिआ ॥ सोई नामु अछलु भगतह भव तारणु अमरदास गुर कउ फुरिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कलि = कलियुग में। किलविख = पाप। हरिआ = दूर किए। उधउ = कृष्ण जी का भक्त। अक्रूर = कृष्ण जी का भक्त।
अर्थ: उसी नाम को ऊधव, अक्रूर, त्रिलोचन और नामदेव भक्त ने स्मरण किया, (उसी नाम ने) कलियुग में कबीर के पाप दूर किए। वही ना छले जान वाला नाम, और भक्त जनों को संसार को पार कराने वाला नाम, सतिगुरु अमरदास जी को अनुभव हुआ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तितु नामि लागि तेतीस धिआवहि जती तपीसुर मनि वसिआ ॥ सोई नामु सिमरि गंगेव पितामह चरण चित अम्रित रसिआ ॥

मूलम्

तितु नामि लागि तेतीस धिआवहि जती तपीसुर मनि वसिआ ॥ सोई नामु सिमरि गंगेव पितामह चरण चित अम्रित रसिआ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तितु नामि = उसी नाम में। लागि = लग के, जुड़ के। तेतीस = तैतीस करोड़ देवते। तपीसुर मनि = बड़े बड़े तपियों के मन में। गंगेव पितामह = गंगा का पुत्र भीष्म पितामह। चरन = (हरि के) चरणों में (जुड़ने के कारण)। रसिआ = चोयाया।
अर्थ: तैंतीस करोड़ देवते उसी नाम में जुड़ के (अकाल-पुरख को) स्मरण कर रहे हैं, (वही नाम) जतियों व बड़े-बड़े तपियों के मन में बस रहा है। उसी नाम को स्मरण करके अकाल-पुरख के चरणों में जुड़ने के कारण भीष्म-पितामह के चिक्त में अमृत चूआ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तितु नामि गुरू ग्मभीर गरूअ मति सत करि संगति उधरीआ ॥ सोई नामु अछलु भगतह भव तारणु अमरदास गुर कउ फुरिआ ॥४॥

मूलम्

तितु नामि गुरू ग्मभीर गरूअ मति सत करि संगति उधरीआ ॥ सोई नामु अछलु भगतह भव तारणु अमरदास गुर कउ फुरिआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरूअ मति = गहरी मति वाले, उच्च बुद्धि वाले। गुरू = गुरु के द्वारा। सति करि = सिदक धार के, श्रद्धा से। उधरीआ = तैर रही है।
अर्थ: उसी नाम में लग के, गंभीर और ऊँची मति वाले सतिगुरु के द्वारा, पूर्ण श्रद्धा के सदका, संगत का उद्धार हो रहा है। वही ना छले जान वाला नाम और भक्त जनों को संसार-सागर से तैराने वाला नाम गुरु अमरदास जी के दिल में प्रकट हुआ।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाम किति संसारि किरणि रवि सुरतर साखह ॥ उतरि दखिणि पुबि देसि पस्चमि जसु भाखह ॥

मूलम्

नाम किति संसारि किरणि रवि सुरतर साखह ॥ उतरि दखिणि पुबि देसि पस्चमि जसु भाखह ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किति = किरति, शोभा, बड़ाई। नाम किति = नाम की कीर्ति। संसारि = जगत में। रवि = सूरज। किरणि = किरण द्वारा। सुरतर = (सुर = स्वर्ग। तर = तरु, वृक्ष) स्वर्ग का पेड़। साखह = शाखाएं, टहणियां। जसु = महिमा। भाखह = उचारते हैं। उतरि = उक्तर (देश) में। पुबि = पूरब (देश) में। पस्चमि = पश्चिम (देश) में।
अर्थ: (जैसे) स्वर्ग के वृक्ष (मौलसरी) की शाखाएं (पसर के सुगंधी बिखेरती हैं), (वैसे ही) परमात्मा के नाम की बड़ाई-रूप सूरज की किरण के जगत में (प्रकाश करने के कारण) उक्तर-दक्षिण-पूरब-पश्चिम देश में (भाव, हर तरफ) लोक नाम का यश उचार रहे हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनमु त इहु सकयथु जितु नामु हरि रिदै निवासै ॥ सुरि नर गण गंधरब छिअ दरसन आसासै ॥

मूलम्

जनमु त इहु सकयथु जितु नामु हरि रिदै निवासै ॥ सुरि नर गण गंधरब छिअ दरसन आसासै ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: त = तो। सकयथु = सकार्थ, सफल। जितु = जिस (जनम) में। रिदै = हृदय में। निवासै = बस जाए। छिअ दरसन = जोगी जंगम आदि छह भेस। आसासै = (आसासहि) कामना रखते हैं। सुरि = देवते। नर = मनुष्य। गंधरब = गंर्धव, देवताओं के रागी।
अर्थ: वही जनम सकार्थ है जिस में परमात्मा का नाम हृदय में बसे। इस नाम की देवता, मनुष्य, गण, गंधर्व और छह भेस कामना करते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भलउ प्रसिधु तेजो तनौ कल्य जोड़ि कर ध्याइअओ ॥ सोई नामु भगत भवजल हरणु गुर अमरदास तै पाइओ ॥५॥

मूलम्

भलउ प्रसिधु तेजो तनौ कल्य जोड़ि कर ध्याइअओ ॥ सोई नामु भगत भवजल हरणु गुर अमरदास तै पाइओ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भलउ प्रसिधु = भल्लों की कुल में प्रसिद्ध। तेजो तनौ = तेज भान जी का पुत्र। जोड़ि कर = हाथ जोड़ के। भगत भवजल हरणु = भगतों का जनम मरण दूर करने वाला। गुर अमरदास = हे गुरु अमरदास! तै = तूं।
अर्थ: तेज भान जी के पुत्र, भल्लों की कुल में अग्रणीय (गुरु अमरदास जी को) कल्य कवि हाथ जोड़ के आराधता है (और कहता है) - ‘हे गुरु अमरदास! भगतों का जनम-मरण काटने वाला वही नाम तूने पा लिया है।’।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामु धिआवहि देव तेतीस अरु साधिक सिध नर नामि खंड ब्रहमंड धारे ॥ जह नामु समाधिओ हरखु सोगु सम करि सहारे ॥

मूलम्

नामु धिआवहि देव तेतीस अरु साधिक सिध नर नामि खंड ब्रहमंड धारे ॥ जह नामु समाधिओ हरखु सोगु सम करि सहारे ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तेतीस = तैंतिस करोड़। नामि = नाम ने। धारे = टिकाए हुए हैं। जह = जिन्होंने। समाधिओ = जपा है। हरखु सोगु = खुशी और ग़मी, आनंद और चिन्ता। सम करि = एक समान करके, एक समान। सहारे = सहे हैं।
अर्थ: परमात्मा के नाम को तैंतिस करोड़ देवते साधिक-सिद्ध और मनुष्य ध्याते हैं। हरि के नाम ने सारे ही खंड-ब्रहिमण्ड (भाव, सारे लोक) टिकाए हुए हैं। जिन्होंने हरि नाम को स्मरण किया है, उन्होंने खुशी और चिन्ता को एक-समान सहा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामु सिरोमणि सरब मै भगत रहे लिव धारि ॥ सोई नामु पदारथु अमर गुर तुसि दीओ करतारि ॥६॥

मूलम्

नामु सिरोमणि सरब मै भगत रहे लिव धारि ॥ सोई नामु पदारथु अमर गुर तुसि दीओ करतारि ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिरोमणि = श्रेष्ठ, उत्तम। सरब मै = सभी में व्यापक। लिव धारि = तवज्जो/ध्यान लगा के, तवज्जो जोड़ के। रहे = टिक रहे हैं। पदारथु = वस्तु। अमर गुर = हे गुरु अमरदास! तुसि = प्रसन्न हो के। करतारि = कर्तार ने।
अर्थ: (सारे पदार्थों में से) सर्व-व्यापक हरि का नाम-पदार्थ उत्तम है, भक्त जन इस नाम में तवज्जो जोड़ के टिक रहे हैं। हे गुरु अमरदास! वही पदार्थ कर्तार ने प्रसन्न हो के (तुझे) दिया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सति सूरउ सीलि बलवंतु सत भाइ संगति सघन गरूअ मति निरवैरि लीणा ॥ जिसु धीरजु धुरि धवलु धुजा सेति बैकुंठ बीणा ॥

मूलम्

सति सूरउ सीलि बलवंतु सत भाइ संगति सघन गरूअ मति निरवैरि लीणा ॥ जिसु धीरजु धुरि धवलु धुजा सेति बैकुंठ बीणा ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सति सूरउ = सति का सूरमा। सील = मीठा स्वभाव। बलवंत सत भाइ = शांत स्वभाव में बलवान। संगति सघन = सघन संगति वाला, बड़ी संगतों वाला। गरूआ मति = गहरी मति वाला। निरवैरि = निर्वैर (हरि) में। धुरि = धुर से। धीरजु धवलु धुजा = धीरज (रूपी) सफेद झण्डा। सेति बैकुंठ = बैकुंठ के पुल पर। बीणा = बना हुआ है। धवलु = सफेद। धुजा = झण्डा।
अर्थ: (गुरु अमरदास) सत्य का सूरमा है (भाव, नाम का पूरन रसिया), सीलवंत है, शांत-स्वभाव में बलवान है, बड़ी संगति वाला है, गहरी मति वाला है और निर्वैर हरि में जुड़ा हुआ है; जिसका (भाव, गुरु अमरदास जी का) धुर दरगाह से धीरज रूपी झण्डा बैकुंठ के पुल पर बना हुआ है (भाव, गुरु अमरदास जी की धीरज से शिक्षा ले के सेवक जन संसार से पार लांघ के मुक्त होते हैं। गुरु अमरदास जी का धीरज सेवकों का, झण्डा-रूप हो के, अगवाई कर रहा है)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

परसहि संत पिआरु जिह करतारह संजोगु ॥ सतिगुरू सेवि सुखु पाइओ अमरि गुरि कीतउ जोगु ॥७॥

मूलम्

परसहि संत पिआरु जिह करतारह संजोगु ॥ सतिगुरू सेवि सुखु पाइओ अमरि गुरि कीतउ जोगु ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परसहि संत = संत जन परसते हैं। पिआरु = प्यार रूप गुरु अमरदास जी को। जिह = जिस गुरु अमरदास जी का। करतारह संजोगु = कर्तार के साथ मिलाप। सेवि = स्मरण करके, सेवा करके। अमरि गुरि = गुरु अमर (दास जी) ने। जोगु = योग्य, लायक।
अर्थ: जिस (गुरु अमरदास जी) का कर्तार से संजोग बना हुआ है,, उस प्यार-स्वरूप गुरु को संत-जन परसते हैं, सतिगुरु को सेव के सुख पाते हैं, क्योंकि गुरु अमरदास जी ने उनको इस योग्य बना दिया।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामु नावणु नामु रस खाणु अरु भोजनु नाम रसु सदा चाय मुखि मिस्ट बाणी ॥ धनि सतिगुरु सेविओ जिसु पसाइ गति अगम जाणी ॥

मूलम्

नामु नावणु नामु रस खाणु अरु भोजनु नाम रसु सदा चाय मुखि मिस्ट बाणी ॥ धनि सतिगुरु सेविओ जिसु पसाइ गति अगम जाणी ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नावणु = (तीर्थों का) स्नान। चाय = चाव, उत्साह। मुखि = मुँह में। मिस्ट = मीठी। धनि सतिगुरु = धन्य गुरु (अंगद देव) जी। जिसु पसाइ = जिसकी कृपा से। गति गम = अगम हरि की गति। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)।
अर्थ: (गुरु अमरदास के लिए) नाम ही स्नान है, नाम ही रसों का खाना-पीना है, नाम का रस ही (उनके लिए) उत्साह देने वाला है और नाम ही (उनके) मुख में मीठे वचन हैं। गुरु (अंगद देव) धन्य हैं (जिनकी गुरु अमरदास जी ने) सेवा की है और जिस की कृपा से उन्होंने अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु का भेद पाया है।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

कुल स्मबूह समुधरे पायउ नाम निवासु ॥ सकयथु जनमु कल्युचरै गुरु परस्यिउ अमर प्रगासु ॥८॥

मूलम्

कुल स्मबूह समुधरे पायउ नाम निवासु ॥ सकयथु जनमु कल्युचरै गुरु परस्यिउ अमर प्रगासु ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कुल संबूह = कुलों के समूह, सारी कुलें। समुधरे = उद्धार कर दी हैं। पायउ = प्राप्त किया है। नाम निवासु = (हृदय में) नाम का निवास। सकयथु = सकार्थ, सफल। कल्हुचरै = (कल्ह+उचरै) कल्य कहता है। परस्यिउ = (जिसने परसा है), सेवा की है। अमर प्रगासु = प्रकाश स्वरूप अमरदास जी को।
अर्थ: (गुरु अमरदास जी ने) कई कुलों का उद्धार कर दिया, (आपने अपने हृदय में) नाम का निवास प्राप्त किया है। कवि कल्सहार कहता है: ‘उस मनुष्य का जन्म सकार्थ है जिसने प्रकाश-स्वरूप गुरु अमरदास जी की सेवा की है’।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बारिजु करि दाहिणै सिधि सनमुख मुखु जोवै ॥ रिधि बसै बांवांगि जु तीनि लोकांतर मोहै ॥

मूलम्

बारिजु करि दाहिणै सिधि सनमुख मुखु जोवै ॥ रिधि बसै बांवांगि जु तीनि लोकांतर मोहै ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बारिजु = कमल, पदम। करि = हाथ में। दाहिणै करि = दाहिने हाथ में। सिधि = सिद्धि। सनमुख = सामने हो के। जोवै = ताक रही है। बांवांगि = बाएं हाथ में। तीनि लोकांतर = तीन लोगों को। मोहै = मोह रही है।
अर्थ: (गुरु अमरदास जी के) दाएं हाथ में पदम है; सीधे (उनके) मुँह के सामने हो के ताक रही है; (आप के) बाएं अंग में रिद्धि बस रही है, जो तीन लोगों को मोहती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रिदै बसै अकहीउ सोइ रसु तिन ही जातउ ॥ मुखहु भगति उचरै अमरु गुरु इतु रंगि रातउ ॥

मूलम्

रिदै बसै अकहीउ सोइ रसु तिन ही जातउ ॥ मुखहु भगति उचरै अमरु गुरु इतु रंगि रातउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रिदै = हृदय में। अकहीउ = जिसका वर्णन नहीं हो सकता। सोइ रसु = वह आनंद। तिन ही = तिनि ही, उसने ही, उस (गुरु अमरदास) ने ही। जातउ = जाना है। बितु रंगि रातउ = इस रंग में रंगा हुआ।
अर्थ: (गुरु अमरदास जी के) हृदय में अकथ हरि बस रहा है, इस आनंद को उस (गुरु अमरदास जी) ने आप ही जाना है। इस रंग में रति हुआ गुरु अमरदास अपने मुख से (अकाल-पुरख की) भक्ति उचार रहा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मसतकि नीसाणु सचउ करमु कल्य जोड़ि कर ध्याइअउ ॥ परसिअउ गुरू सतिगुर तिलकु सरब इछ तिनि पाइअउ ॥९॥

मूलम्

मसतकि नीसाणु सचउ करमु कल्य जोड़ि कर ध्याइअउ ॥ परसिअउ गुरू सतिगुर तिलकु सरब इछ तिनि पाइअउ ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मसतकि = माथे पर। सचउ करमु = सच्ची बख्शिश, सदा कायम रहने वाली बख्शिश। जोड़ि कर = हाथ जोड़ कर (शब्द ‘कर’ बहुवचन)। ध्याइअउ = (गुरु अमरदास जी को) स्मरण करता है। परसिअउ = (जिस ने) परसिया है, सेवा की है। सतिगुर तिलकु = शिरोमणि गुरु। तिनि = उस (मनुष्य) ने।
अर्थ: (गुरु अमरदास जी के) माथे पर (परमात्मा की) सच्ची बख्शिश-रूप निशान है। हे कल्य कवि! हाथ जोड़ के (इस सतिगुरु को) जिस मनुष्य ने ध्याया है और इस शिरोमणी सतिगुरु की सेवा की है, उसने अपनी सारी मनो-कामनाएं पूरी कर ली हैं।9।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: यह 9 सवईऐ भाट कल्सहार (कल्य) के उचारे हुए हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरण त पर सकयथ चरण गुर अमर पवलि रय ॥ हथ त पर सकयथ हथ लगहि गुर अमर पय ॥

मूलम्

चरण त पर सकयथ चरण गुर अमर पवलि रय ॥ हथ त पर सकयथ हथ लगहि गुर अमर पय ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: त = तो। पर = भली प्रकार, अच्छी तरह। सकयथ = सकार्थ, सफल। चरण = (जो) चरण। गुर अमर पवलि = गुरु अमर (दास के) राह में। रय = रफतार, चाल। चरण रय = जिस चरणों की चाल है (भाव, जो चरण चलते हैं)। गुर अमर पय = गुरु अमरदास जी के पैरों पर।
अर्थ: वही चरण अच्छी तरह सकार्थ हैं, जो चरण गुरु अमरदास जी के राह पर चलते हैं। वही हाथ सफल हैं, जो हाथ गुरु अमरदास जी के चरणों पर लगते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीह त पर सकयथ जीह गुर अमरु भणिजै ॥ नैण त पर सकयथ नयणि गुरु अमरु पिखिजै ॥

मूलम्

जीह त पर सकयथ जीह गुर अमरु भणिजै ॥ नैण त पर सकयथ नयणि गुरु अमरु पिखिजै ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीह = जीभ। गुर अमर = गुरु अमरदास जी को। भणिजै = उचारती है, सलाहती है। नैण = आँखें। नयणि = नैणीं, आँखों से। पिखिजै = देखिए।
अर्थ: वही जीभ सकार्थ है, जो गुरु अमरदास जी को सराहती है। वही आँखें सफल हैं जिस आँखों से गुरु अमरदास जी को देखें।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्रवण त पर सकयथ स्रवणि गुरु अमरु सुणिजै ॥

मूलम्

स्रवण त पर सकयथ स्रवणि गुरु अमरु सुणिजै ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: स्रवण = कान। स्रवणि = कानों से। गुरु अमरु = गुरु अमरदास जी को (भाव, गुरु अमरदास जी की शोभा को)। सुणिजै = सुनें।
अर्थ: वही कान सफल हैं, जिस कानों से गुरु अमरदास जी की शोभा सुनी जाती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सकयथु सु हीउ जितु हीअ बसै गुर अमरदासु निज जगत पित ॥ सकयथु सु सिरु जालपु भणै जु सिरु निवै गुर अमर नित ॥१॥१०॥

मूलम्

सकयथु सु हीउ जितु हीअ बसै गुर अमरदासु निज जगत पित ॥ सकयथु सु सिरु जालपु भणै जु सिरु निवै गुर अमर नित ॥१॥१०॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: जालप भाट का यह पहला सवईया है। कुल जोड़ 10 है।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीउ = हृदय। जितु हीअ = जिस हृदय में। निज = अपना। जगत पित = जगत का पिता। जालपु भणै = जालप (कवि) कहता है। नित = सदा।
अर्थ: वही हृदय सकार्थ है, जिस हृदय में जगत का पिता प्यारा गुरु अमरदास जी बसता है। जालप कवि कहता है: ‘वही सिर सफल है, जो सिर सदा गुरु अमरदास जी के आगे झुकता है’।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ति नर दुख नह भुख ति नर निधन नहु कहीअहि ॥ ति नर सोकु नहु हूऐ ति नर से अंतु न लहीअहि ॥

मूलम्

ति नर दुख नह भुख ति नर निधन नहु कहीअहि ॥ ति नर सोकु नहु हूऐ ति नर से अंतु न लहीअहि ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ति नर = उन मनुष्यों को। निधन = निर्धन, कंगाल। नहु = नहीं। कहीअहि = कहे जा सकते। सोक = चिन्ता। हूऐ = होता। ति नर से = वे मनुष्य ऐसे हैं कि।
अर्थ: उन मनुष्यों को ना कोई दुख है ना भूख, वे मनुष्य कंगाल नहीं कहे जा सकते; उन मनुष्यों को कोई चिन्ता नहीं व्यापती; वे मनुष्य ऐसे हैं कि उनका अंत नहीं पाया जा सकता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ति नर सेव नहु करहि ति नर सय सहस समपहि ॥ ति नर दुलीचै बहहि ति नर उथपि बिथपहि ॥

मूलम्

ति नर सेव नहु करहि ति नर सय सहस समपहि ॥ ति नर दुलीचै बहहि ति नर उथपि बिथपहि ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेव = अधीनता (गुलामी)। नहु करहि = नहीं करते। सय सहस = सैकड़ों हजारों (पदार्थ)। समपहि = समर्पण करते हैं, देते हैं। दुलीचै = गलीचे पर। उथपि = (अवगुणों को हृदय में से) उखाड़ के। बिथपहि = (शुभ गुणों को हृदय में) टिकाते हैं।
अर्थ: वे मनुष्य किसी की अधीनता नहीं करते, वे मनुष्य (तो स्वयं) सैकड़ों-हजारों (पदार्थ और मनुष्यों को) देते हैं; गलीचे पर बैठते हैं (भाव, राज भोगते हैं) और वे मनुष्य (अवगुणों को हृदय में से) उखाड़ के (शुभ गुणों को हृदय में) बसाते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुख लहहि ति नर संसार महि अभै पटु रिप मधि तिह ॥ सकयथ ति नर जालपु भणै गुर अमरदासु सुप्रसंनु जिह ॥२॥११॥

मूलम्

सुख लहहि ति नर संसार महि अभै पटु रिप मधि तिह ॥ सकयथ ति नर जालपु भणै गुर अमरदासु सुप्रसंनु जिह ॥२॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लहहि = लेते हैं। अभै पटु = अभयता (निर्भयता) का वस्त्र (ओढ़ के रखते हैं)। रिपु = वैरी (कामादिक)। रिप मधि = (कामादिक) वैरियों के बीच। तिह = वह मनुष्य। सकयथ = सफल। जिह = जिस पर।
अर्थ: वह मनुष्य संसार में सुख पाते हैं, (कामादिक) वैरियों के बीच निर्भयता का वस्त्र पहने रखते हैं (भाव, निडर रहते हैं)। जालप कवि कहता है: ‘जिस मनुष्यों पर गुरु अमरदास जी प्रसन्न हैं, वे मनुष्य सफल हैं (भाव, उनका जनम सफल है)।2।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तै पढिअउ इकु मनि धरिअउ इकु करि इकु पछाणिओ ॥ नयणि बयणि मुहि इकु इकु दुहु ठांइ न जाणिओ ॥

मूलम्

तै पढिअउ इकु मनि धरिअउ इकु करि इकु पछाणिओ ॥ नयणि बयणि मुहि इकु इकु दुहु ठांइ न जाणिओ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तै = तू (हे गुरु अमरदास!)। इकु = एक अकाल-पुरख को। मनि = मन में। करि इकु = अकाल-पुरख को उपमा रहित जान के, ये जान के कि अकाल-पुरख के बिना और कोई नहीं है। नयणि = आँखों में। बयणि = वचनों में। मुहि = मुँह में। इकु इकु = केवल एक अकाल-पुरख। दुहु = दूसरा पन, द्वैत। ठांइ = (हृदय रूप) जगह में।
अर्थ: (हे गुरु अमरदास!) तूने एक अकाल-पुरख को ही पढ़ा है, तूने (अपने) मन में एक को ही स्मरण किया है, और यही निश्चय किया है कि अकाल-पुरख स्वयं ही स्वयं है (भाव, कोई उस जैसा नहीं है); (तेरी) दृष्टि में, (तेरे) वचनों में और (तेरे) मुँह में केवल अकाल-पुरख ही अकाल-पुरख है, तूने द्वैत को (भाव, इस ख्याल को कि अकाल-पुरख के बिना कोई और भी दूसरा है) अपने हृदय में समझा ही नहीं है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुपनि इकु परतखि इकु इकस महि लीणउ ॥ तीस इकु अरु पंजि सिधु पैतीस न खीणउ ॥

मूलम्

सुपनि इकु परतखि इकु इकस महि लीणउ ॥ तीस इकु अरु पंजि सिधु पैतीस न खीणउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुपनि = सपने में। परतखि = प्रत्यक्ष तौर पर, जागते हुए। तीस = तीस (दिनों में, भाव, महीने साल सदियों जुगों में)। पंजि = पाँच तत्वों के समूह में, (भाव, सारी सृष्टि में)। सिधु = प्रकट, जहूर हरि। पैतीस = पैंतिस अक्षरों में (भाव, वाणी मैं)। न खीउण = जो क्षीण नहीं है, जो नाश होने वाला नहीं है, अविनाशी अकाल-पुरख।
अर्थ: जो अकाल-पुरख तीसों (दिनों में, भाव, महीने साल सदियों जुगों में सदा हर समय) में एक ही है, जो अकाल-पुरख पाँच-तत्वों के समूह में, (भाव, सारी सृष्टि में) प्रकट है, जो अविनाशी प्रभु पैंतिस अक्षरों में (भाव, सारी वाणी में इन अक्षरों द्वारा लिखती रूप में आई है) मौजूद है, उस एक को, (हे गुरु अमरदास!) तू सपने में भी और जागते हुए भी (स्मरण करता है), तू उस एक में ही (सदा) लीन रहता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इकहु जि लाखु लखहु अलखु है इकु इकु करि वरनिअउ ॥ गुर अमरदास जालपु भणै तू इकु लोड़हि इकु मंनिअउ ॥३॥१२॥

मूलम्

इकहु जि लाखु लखहु अलखु है इकु इकु करि वरनिअउ ॥ गुर अमरदास जालपु भणै तू इकु लोड़हि इकु मंनिअउ ॥३॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इकहु = एक (अकाल-पुरख) से। लाखु = लाखों जीव। लखहु = लाखों जीवों से। अलखु = जो ना लखा जा सके। वरनिअउ = तूने वर्णन किया है। गुर अमरदास = हे गुरु अमरदास! लोड़हि = लोचता है।
अर्थ: जिस एक हरि से लाखों जीव बने हैं, और जो इन लाखों जीवों की समझ से परे है, उस एक को (हे गुरु अमरदास!) तू एक (अद्वितीय) करके ही वर्णन किया है। जालप भाट कहता है - ‘हे गुरु अमरदास! तू एक अकाल-पुरख को ही माँगता है और एक को ही मानता है’।3।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जि मति गही जैदेवि जि मति नामै समाणी ॥ जि मति त्रिलोचन चिति भगत क्मबीरहि जाणी ॥ रुकमांगद करतूति रामु ज्मपहु नित भाई ॥ अमरीकि प्रहलादि सरणि गोबिंद गति पाई ॥ तै लोभु क्रोधु त्रिसना तजी सु मति जल्य जाणी जुगति ॥ गुरु अमरदासु निज भगतु है देखि दरसु पावउ मुकति ॥४॥१३॥

मूलम्

जि मति गही जैदेवि जि मति नामै समाणी ॥ जि मति त्रिलोचन चिति भगत क्मबीरहि जाणी ॥ रुकमांगद करतूति रामु ज्मपहु नित भाई ॥ अमरीकि प्रहलादि सरणि गोबिंद गति पाई ॥ तै लोभु क्रोधु त्रिसना तजी सु मति जल्य जाणी जुगति ॥ गुरु अमरदासु निज भगतु है देखि दरसु पावउ मुकति ॥४॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जि = जो। गही = ली, सीखी। जैदेवि = जैदेव ने। नामै = नाम देव ने। संमाणी = समाई हुई थी, रची हुई थी। त्रिलोचन चिति = त्रिलोचन के चिक्त में। कंबीरहि = कबीर ने। रुकमांगद = एक राजा था। रुकमांगद करतूति = रुकमांगद राजा का ये रोज का काम था। जंपहु = जपो। भाई = हे सज्जन! प्रहलादि = प्रहलाद ने। सरणि गोबिंद = गोबिंद की शरण पड़ कर। तै = (हे गुरु अमरदास जी!) तू। तजी = त्याग दी। सु मति जाणी जुगति = उस मति की जुगति जानी। जल्य = हे जल्य! हे जालप! निज भगतु = अकाल-पुरख का अपना भक्त। देखि = देख के। पावउ = मैं प्राप्त करता हूं।
अर्थ: जो मति जैदेव ने सीखी, जो मति नामदेव में समाई हुई थी, जो मति त्रिलोचक के हृदय में थी, जो मति भक्त कबीर ने समझी थी, जिस मति का सदका रुकमांगद का ये काम था (कि खुद जपता था और-और लोगों को कहता था) हे भाई! नित्य राम को स्मरण करो, जिस मति द्वारा अंबरीक और प्रहलादि ने गोबिंद की शरण पड़ कर ऊँची आत्मिक अवस्था पाई थी (हे गुरु अमरदास!) जल्य (कहता है) तूने उस मत की जुगती जान ली है तूने लोभ, क्रोध और तृष्णा त्याग दी है।?
गुरु अमरदास अकाल-पुरख का प्यारा भक्त है। मैं (उसके) दर्शन देख के विकारों से खलासी हासिल करता हूँ।4।13।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरु अमरदासु परसीऐ पुहमि पातिक बिनासहि ॥ गुरु अमरदासु परसीऐ सिध साधिक आसासहि ॥

मूलम्

गुरु अमरदासु परसीऐ पुहमि पातिक बिनासहि ॥ गुरु अमरदासु परसीऐ सिध साधिक आसासहि ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पुहमि = पुढवी, पृथ्वी। पुहमि पातिक = धरती के ताप। बिनासहि = नाश हो जाते हैं। आसासहि = लोचते हैं, चाहते हैं।
अर्थ: (हे भाई! आओ) गुरु अमरदास (जी के चरणों) को परसें, (गुरु अमरदास के चरण परसने से) धरती के पाप दूर हो जाते हैं। गुरु अमरदास जी को परसें, (गुरु अमरदास के चरण परसन को) सिद्ध और साधिक लोचते हैं।

[[1395]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरु अमरदासु परसीऐ धिआनु लहीऐ पउ मुकिहि ॥ गुरु अमरदासु परसीऐ अभउ लभै गउ चुकिहि ॥

मूलम्

गुरु अमरदासु परसीऐ धिआनु लहीऐ पउ मुकिहि ॥ गुरु अमरदासु परसीऐ अभउ लभै गउ चुकिहि ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पउ = पंध, सफर (भाव, जनम मरन)। (‘पउ पंध मोकले होण’ ये पंजाबी का एक मुहावरा है जिसका अर्थ है ‘रास्ता आसान हो’)। अभउ = निर्भय हरि। गऊ = गवन जनम मरन, भटकना।
अर्थ: गुरु अमरदास (जी के चरणों) को परसें, (इस तरह परमात्मा वाला) ध्यान प्राप्त होता है (भाव, परमात्मा में तवज्जो जुड़ती है) और (जनम-मरण के) सफर समाप्त हो जाते हैं। गुरु अमरदास जी को परसें, (इस तरह) निर्भउ अकाल-पुरख मिल जाता है और जनम-मरण के चक्र समाप्त हो जाते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इकु बिंनि दुगण जु तउ रहै जा सुमंत्रि मानवहि लहि ॥ जालपा पदारथ इतड़े गुर अमरदासि डिठै मिलहि ॥५॥१४॥

मूलम्

इकु बिंनि दुगण जु तउ रहै जा सुमंत्रि मानवहि लहि ॥ जालपा पदारथ इतड़े गुर अमरदासि डिठै मिलहि ॥५॥१४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इकु = अकाल-पुरख को। बिंनि = बीन के, जान के, पहचान के। दुगण = दूसरा भाव, दोचिक्तापन, ये मानना कि परमात्मा के बिना और कोई दूसरा भी है। जु = जो (मान्यता है)। तउ = तब। रहै = दूर होती है। जा = जब। सुमंत्रि = (सतिगुरु के) श्रेष्ठ मंत्र द्वारा। इतड़े = इतने पदार्थ।
अर्थ: जो दूसरा भाव है वह तब ही दूर होता है जब मनुष्य गुरु के श्रेष्ठ उपदेश से एक परमात्मा को पहचान के प्राप्त कर लेते हैं। हे जालप! यह सारे पदार्थ (जो ऊपर बताए गए हैं) सतिगुरु अमदास जी को देखने से मिल जाते हैं।5।14।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ये पाँच सवईऐ भाट जालप के उचारे हुए हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचु नामु करतारु सु द्रिड़ु नानकि संग्रहिअउ ॥ ता ते अंगदु लहणा प्रगटि तासु चरणह लिव रहिअउ ॥

मूलम्

सचु नामु करतारु सु द्रिड़ु नानकि संग्रहिअउ ॥ ता ते अंगदु लहणा प्रगटि तासु चरणह लिव रहिअउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: द्रिढ़ु = पक्की तौर पर, अच्छी तरह। नानकि = (गुरु) नानक ने। संग्रहिअउ = ग्रहण किया है। ता ते = उनसे (भाव, गुरु नानक जी से)। प्रगटि = प्रकट हो के, रौशनी ले के। तासु चरणह = गुरु नानक देव जी के चरणों में।
अर्थ: (गुरु) नानक (देव जी) ने अकाल पुरख का नाम जो सदा-स्थिर रहने वाला है, पक्के तौर पर ग्रहण किया, उनसे लहणा जी गुरु अंगद देव जी हो के प्रकट हुए और उन्होंने गुरु नानक देव जी के चरणों में अपनी तवज्जो लगा के रखी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तितु कुलि गुर अमरदासु आसा निवासु तासु गुण कवण वखाणउ ॥ जो गुण अलख अगम तिनह गुण अंतु न जाणउ ॥

मूलम्

तितु कुलि गुर अमरदासु आसा निवासु तासु गुण कवण वखाणउ ॥ जो गुण अलख अगम तिनह गुण अंतु न जाणउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तितु कुलि = उस कुल में (भाव, गुरु नानक देव और गुरु अंगद देव जी की कुल में)। आसा निवासु = आशाओं का निवास, आशा का ठिकाना (भाव, आशाएं पूरी करने वाला)। तासु = (तस्य) उसके। तासु गुण कवण = उस (गुरु अमरदास जी) के कौन से गुण? वखाणउ = मैं बखान करूँ। तिनह गुण अंतु = उन गुणों का अंत। न जाणउ = मैं नहीं जानता। अलख = बयान से परे। अगंम = अगम्य (पहुँच से परे)।
अर्थ: उस कुल में गुरु अमरदास, आशाएं पूरी करने वाले, (प्रकट हुए)। मैं उनके कौन से गुण बयान करूँ? वे गुण अलख और अगम हैं, मैं उन गुणों का अंत नहीं जानता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बोहिथउ बिधातै निरमयौ सभ संगति कुल उधरण ॥ गुर अमरदास कीरतु कहै त्राहि त्राहि तुअ पा सरण ॥१॥१५॥

मूलम्

बोहिथउ बिधातै निरमयौ सभ संगति कुल उधरण ॥ गुर अमरदास कीरतु कहै त्राहि त्राहि तुअ पा सरण ॥१॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बोहिथउ = जहाज। बिधातै = कर्तार ने। निरमयौ = बनाया है। उधरण = उद्धार के लिए। गुरु अमरदास = हे गुरु अमरदास जी! कीरतु कहै = कीरत (भाट) कहता है। त्राहि = रक्षा कर, बचा ले। तुअ पा = तेरे चरणों की।
अर्थ: सारी संगति और सारी कुलों के उद्धार के लिए कर्तार ने (गुरु अमरदास जी को) एक जहाज बनाया है; कीरत (भाट) कहता है: ‘हे गुरु अमरदास (जी)! मेरी रक्षा कर, मुझे बचा ले, मैं तेरे चरणों की शरण पड़ा हूँ’।1।15।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपि नराइणु कला धारि जग महि परवरियउ ॥ निरंकारि आकारु जोति जग मंडलि करियउ ॥

मूलम्

आपि नराइणु कला धारि जग महि परवरियउ ॥ निरंकारि आकारु जोति जग मंडलि करियउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कला धारि = सक्तिआ रच के। जग महि = जगत में। परवरियउ = प्रवृक्त हुआ है। निरंकारि = निरंकार ने। आकारु = आकार रूप हो के, सरूप धार के। जग मंडलि = जगत के मंडल में। जोति करियउ = ज्योति प्रकट की है।
अर्थ: (गुरु अमरदास) स्वयं ही नारायण रूप है, जो अपनी सक्तिया रच के जगत में प्रवृक्त हुआ है। निरंकार ने (गुरु अमरदास जी का) आकार-रूप हो के (रूप धारण करके) जगत में ज्योति प्रकट की है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जह कह तह भरपूरु सबदु दीपकि दीपायउ ॥ जिह सिखह संग्रहिओ ततु हरि चरण मिलायउ ॥

मूलम्

जह कह तह भरपूरु सबदु दीपकि दीपायउ ॥ जिह सिखह संग्रहिओ ततु हरि चरण मिलायउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जह कह = जहाँ कहाँ। तह = वहाँ ही। भरपूरु = व्यापक, हाजिर नाजिर। सबदु = शब्द को। दीपक = दीए से (भाव, गुरु अमरदास जी रूपी दीए से)। दीपायउ = जगाया है, प्रकाशा है, प्रकट किया है। जिह सिखह = जिस सिखों ने। ततु = तुरन्त, तत्काल।
अर्थ: (निरंकार ने) अपने शब्द (-नाम) को, जो हर जगह हाजर-नाजर है, (गुरु अमरदास जी-रूप) दीपक द्वारा प्रकटाया है। जिस सिखों ने इस शब्द को ग्रहण किया है, (गुरु अमरदास जी ने) तुरंत (उनको) हरि के चरणों में जोड़ दिया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक कुलि निमलु अवतरि्यउ अंगद लहणे संगि हुअ ॥ गुर अमरदास तारण तरण जनम जनम पा सरणि तुअ ॥२॥१६॥

मूलम्

नानक कुलि निमलु अवतरि्यउ अंगद लहणे संगि हुअ ॥ गुर अमरदास तारण तरण जनम जनम पा सरणि तुअ ॥२॥१६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नानक कुलि = (गुरु) नानक (देव जी) की कुल में। निंमलु = निरमल। अवतरि्यउ = अवतरियउ, अवतार हुआ। लहणे जी के साथ हो के, साथ मिल के। तारण तरण = तैराने के लिए जहाज। पा सरणि तुअ = तेरे चरणों की शरण (रहूँ)। तरण = जहाज।
अर्थ: लहणे जी (भाव,) गुरु अंगद देव जी के साथ मिल के (गुरु अमरदास) गुरु नानक देव जी की कुल में निर्मल अवतार हुआ है। हे गुरु अमरदास जी! हे संसार से तैराने को जहाज! मैं हरेक जनम में तेरे चरणों की शरण (रहूँ)।2।16।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जपु तपु सतु संतोखु पिखि दरसनु गुर सिखह ॥ सरणि परहि ते उबरहि छोडि जम पुर की लिखह ॥

मूलम्

जपु तपु सतु संतोखु पिखि दरसनु गुर सिखह ॥ सरणि परहि ते उबरहि छोडि जम पुर की लिखह ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पिखि = देख के। गुर दरसनु = सतिगुरु (अमरदास जी) के दर्शन। सिखह = सिखों को। परहि = पड़ते हैं। उबरहि = पार उतर जाते हैं। छोडि = छोड़ के। लिखह = लिखत। जम पुर की = जम पुरी की।
अर्थ: सतिगुरु (अमरदास जी) के दर्शन करके सिखों को जप-तप-संतोख (प्राप्त होते हैं)। जो मनुष्य (गुरु की) शरण पड़ते हैं, वह जम-पुरी की लिखत को छोड़ के पार लांघ जाते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगति भाइ भरपूरु रिदै उचरै करतारै ॥ गुरु गउहरु दरीआउ पलक डुबंत्यह तारै ॥

मूलम्

भगति भाइ भरपूरु रिदै उचरै करतारै ॥ गुरु गउहरु दरीआउ पलक डुबंत्यह तारै ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भगति भाइ = भक्ति के प्रेम में। रिदै = हृदय में। उचरै = (गुरु अमरदास) स्मरण करता है। करतारै = कर्तार को। गउहरु = गहर, गंभीर। दरआउ = दरिया दिल, सखी। पलक = पल में। डुबंतह = डूबते हुए को।
अर्थ: (गुरु अमरदास अपने) हृदय में (कर्तार की) भक्ति के प्रेम में भरा हुआ है, और कर्तार को स्मरण करता है; सतिगुरु (अमरदास) गंभीर है, दरिया-दिल है, डूबते हुए जीवों को पल भर में तैरा देता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक कुलि निमलु अवतरि्यउ गुण करतारै उचरै ॥ गुरु अमरदासु जिन्ह सेविअउ तिन्ह दुखु दरिद्रु परहरि परै ॥३॥१७॥

मूलम्

नानक कुलि निमलु अवतरि्यउ गुण करतारै उचरै ॥ गुरु अमरदासु जिन्ह सेविअउ तिन्ह दुखु दरिद्रु परहरि परै ॥३॥१७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नानक कुलि = (गुरु) नानक के कुल में। निंमलु = निर्मल। गुण करतारै = कर्तार के गुणों को। जिन्ह = जिस मनुष्यों को। तिन्ह = उनका। परहरि परै = दूर हो जाता है।
अर्थ: (गुरु) नानक (देव जी) की कुल में (गुरु अमरदास जी) निर्मल अवतार हुआ है, जो कर्तार के गुणों को उचारता है। जिस मनुष्यों ने गुरु अमरदास जी की सेवा की है, उनका दुख और दरिद्रता दूर हो जाती है।3।17।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चिति चितवउ अरदासि कहउ परु कहि भि न सकउ ॥ सरब चिंत तुझु पासि साधसंगति हउ तकउ ॥

मूलम्

चिति चितवउ अरदासि कहउ परु कहि भि न सकउ ॥ सरब चिंत तुझु पासि साधसंगति हउ तकउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चिति = चिक्त में। चितवउ = चितवता हूँ, विचारता हूँ। कहउ = कहता हूं, मैं कहूँ। सरब चिंत = सारे फिक्र। तुझु पासि = तेरे पास। हउ = मैं।
अर्थ: (हे गुरु अमरदास जी!) मैं चिक्त में सोचें सोचता हूँ कि (एक) विनती कहूँ; पर मैं कह भी नहीं सकता; (हे सतिगुरु!) मेरी सारी चिंताएं तेरे हवाले हैं (भाव, तुझे ही मेरे सारे फिक्र हैं), मैं साधु-संगत (का आसरा) देखता हूँ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेरै हुकमि पवै नीसाणु तउ करउ साहिब की सेवा ॥ जब गुरु देखै सुभ दिसटि नामु करता मुखि मेवा ॥

मूलम्

तेरै हुकमि पवै नीसाणु तउ करउ साहिब की सेवा ॥ जब गुरु देखै सुभ दिसटि नामु करता मुखि मेवा ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तेरै हुकमि = (हे सतिगुरु!) तेरी रजा में। नीसाणु = प्रवानगी। पवै = मिले। तउ = तब। सुभ दिसटि = मेहर की नजर करके। नामु मेवा = नाम रूप फल। करता = कर्तार का। मुखि = मुँह में।
अर्थ: (हे गुरु अमरदास जी!) अगर तेरी रज़ा में प्रवानगी मिल जाए, तो मैं मालिक-प्रभु की सेवा करूँ। जब सतिगुरु (अमरदास) मेहर की नजर से देखता है, तो कर्तार का नाम-रूप फल मुँह में (भाव, खाने को) मिलता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अगम अलख कारण पुरख जो फुरमावहि सो कहउ ॥ गुर अमरदास कारण करण जिव तू रखहि तिव रहउ ॥४॥१८॥

मूलम्

अगम अलख कारण पुरख जो फुरमावहि सो कहउ ॥ गुर अमरदास कारण करण जिव तू रखहि तिव रहउ ॥४॥१८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अगम = हे अगम हरि रूप सतिगुरु! फुरमावहि = तू हुक्म करता है। कारण करण = सृष्टि का कर्ता। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अलख = जिसका स्वरूप बताया ना जा सके। करण = सृष्टि। कारण = (सृष्टि का) मूल। पुरख = सर्व व्यापक।
अर्थ: हे अगम-रूप सतिगुरु! हे अलख-हरि-रूप गुरु! हे कारण पुरख-रूप गुरु अमरदास जी! जो तू हुक्म करता है, मैं वही कहता हूं। हे सृष्टि के कर्ता-रूप गुरु अमरदास जी! जैसे तू मुझे रखता है वैसे ही मैं रहता हूँ।4।18।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ये चार सवईए भाट कीरत के उचारे हुए हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भिखे के ॥ गुरु गिआनु अरु धिआनु तत सिउ ततु मिलावै ॥ सचि सचु जाणीऐ इक चितहि लिव लावै ॥

मूलम्

भिखे के ॥ गुरु गिआनु अरु धिआनु तत सिउ ततु मिलावै ॥ सचि सचु जाणीऐ इक चितहि लिव लावै ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तत सिउ = परमात्मा के साथ (जो सबका मूल है)। ततु = आत्मा को। गुरु = गुरु (अमरदास जी)। सचि = सच में, सदा स्थिर अकाल पुरख में (जुड़ने के कारण)। सचु = सदा स्थिर रहने वाला अकाल पुरख रूप। इक चितहि = एकाग्र मन हो के।
अर्थ: सतिगुरु अमरदास ज्ञान-रूप और ध्यान रूप है (भाव, पूर्ण ज्ञान वाला और दृढ़ ध्यान वाला है); (गुरु अमरदास ने) अपनी आत्मा को हरि के साथ मिला लिया है। सदा-स्थिर हरि में जुड़ने के कारण सतिगुरु को हरि-रूप ही समझना चाहिए, (गुरु अमरदास) एकाग्र मन हो के (हरि में) लगन लगा रहा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काम क्रोध वसि करै पवणु उडंत न धावै ॥ निरंकार कै वसै देसि हुकमु बुझि बीचारु पावै ॥

मूलम्

काम क्रोध वसि करै पवणु उडंत न धावै ॥ निरंकार कै वसै देसि हुकमु बुझि बीचारु पावै ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पवणु = चंचल मन। उडंत = भटकता। धावै = दौड़ता। देसि = देश में। बुझि = समझ के, पहचान के। बीचारु = ज्ञान।
अर्थ: गुरु अमरदास काम क्रोध को अपने वश में किए रखता है, (उनका) मन भटकता नहीं है। (गुरु अमरदास) निरंकार के देश में टिक रहा है, (प्रभु का) हुक्म पहचान के (उन्होंने) ज्ञान प्राप्त किया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलि माहि रूपु करता पुरखु सो जाणै जिनि किछु कीअउ ॥ गुरु मिल्यिउ सोइ भिखा कहै सहज रंगि दरसनु दीअउ ॥१॥१९॥

मूलम्

कलि माहि रूपु करता पुरखु सो जाणै जिनि किछु कीअउ ॥ गुरु मिल्यिउ सोइ भिखा कहै सहज रंगि दरसनु दीअउ ॥१॥१९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कलि माहि = कलियुग में। सो = वह अकाल पुरख। जिनि = जिस (अकाल पुरख) ने। किछु = यह अलख करिश्मा (भाव, इस तरह के गुरु को संसार में भेजने का करिश्मा)। सोइ = वह (गुरु अमरदास)। दीअउ = दिया है। सहज = आत्मिक अडोलता, पूर्ण खिड़ाव।
अर्थ: कलजुग में (गुरु अमरदास) करता पुरख-रूप है; (इस करिश्मे को) वह कर्तार ही जानता है जिसने यह आश्चर्यजनक करिश्मा किया है। भिखा कवि कहता है: ‘मुझे वह गुरु (अमरदास) मिल गया है, (उन्होंने) पूर्ण खिलाव के रंग में मुझे दर्शन दिया है’।1।19।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रहिओ संत हउ टोलि साध बहुतेरे डिठे ॥ संनिआसी तपसीअह मुखहु ए पंडित मिठे ॥

मूलम्

रहिओ संत हउ टोलि साध बहुतेरे डिठे ॥ संनिआसी तपसीअह मुखहु ए पंडित मिठे ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ = मैं। टोलि रहिओ = ढूँढ ढूँढ के थक गया हूँ। डिठे = मैंने देखे हैं। तपसीअह = तपस्वी लोग। ए = यह। मुखहु मिठे पंडित = मुँह से मीठे पंडित।
अर्थ: मैं संतों को तलाश्ता-तलाशता थक गया हूँ, मैंने कई साधु (भी) देखे हैं, कई सन्यासी, कई तपस्वी और कई ये मुँह के मीठे पंडित (भी) देखे हैं।

[[1396]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

बरसु एकु हउ फिरिओ किनै नहु परचउ लायउ ॥ कहतिअह कहती सुणी रहत को खुसी न आयउ ॥

मूलम्

बरसु एकु हउ फिरिओ किनै नहु परचउ लायउ ॥ कहतिअह कहती सुणी रहत को खुसी न आयउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नहु = नही। परचउ = तसल्ली। किनै…लायउ = किसी ने मेरी निशा नहीं की (कहीं मेरी संतुष्टि नहीं हुई)। कहतिअह कहती = कहते कहते। रहत को = रहत देख के। खुसी = आनंद। रहत को खुसी = रहत का आनंद।
अर्थ: मैं एक साल से फिरता रहा हूँ, किसी ने मेरी निशा नहीं की।; बल्कि (मुँह से) कहते ही कहते (भाव, और लोगों को उपदेश करते ही) सुने हैं, पर किसी की रहत देख के मुझे आनंद नहीं आया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि नामु छोडि दूजै लगे तिन्ह के गुण हउ किआ कहउ ॥ गुरु दयि मिलायउ भिखिआ जिव तू रखहि तिव रहउ ॥२॥२०॥

मूलम्

हरि नामु छोडि दूजै लगे तिन्ह के गुण हउ किआ कहउ ॥ गुरु दयि मिलायउ भिखिआ जिव तू रखहि तिव रहउ ॥२॥२०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: छोडि = छोड़ के। दूजै = दूसरे पन में, द्वैत में, अकाल-पुरख को छोड़ के किसी और में, माया में। गुर = हे सतिगुर (अमरदास जी)! दयि = प्यारे (अकाल-पुरख) ने। भिखिआ = भिखे भाट को। रहउ = मैं रहता हूँ।
अर्थ: उन लोगों के गुण मैं क्या कहूँ, जो हरि के नाम को छोड़ के दूसरे (भाव, माया के प्यार) में लगे हुए हैं? हे गुरु (अमरदास)! प्यारे (हरि) ने मुझे, भिखे को, तुझसे मिला दिया है, जैसे तू रखेगा वैसे मैं रहूँगा।2।20।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: यह दोनों सवईऐ भाट भिखे के उचारे हुए हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पहिरि समाधि सनाहु गिआनि है आसणि चड़िअउ ॥ ध्रम धनखु कर गहिओ भगत सीलह सरि लड़िअउ ॥

मूलम्

पहिरि समाधि सनाहु गिआनि है आसणि चड़िअउ ॥ ध्रम धनखु कर गहिओ भगत सीलह सरि लड़िअउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पहिरि = पहन के। समाधि सनाहु = समाधि रूप संनाह। संनाहु = संजोअ, लोहे की वर्दी। है = (हय) घोड़ा। गिआन है = ज्ञान रूप (हय) घोड़े पर। आसणि चढ़िआउ = आसन पर बैठा है, आसन जमाया हुआ है। ध्रंम धनखु = धर्म का धनुष। कर = हाथों में। रहिओ = पकड़ा हुआ है। भगत सील = भगतों वाला शील (स्वभाव)। भगत सीलह = भगतों वाले शील के। सरि = तीर से। समाधि = प्रभु चरणों में तवज्जो जोड़नी।
अर्थ: समाधि-रूप संनाह (जिरह बख्तर) पहन के ज्ञान-रूप घोड़े पर (गुरु अमरदास जी ने) आसन जमाया हुआ है। धर्म का धनुष हाथों में पकड़ कर (गुरु अमरदास) भगतों वाले सील रूप तीर से (कामादिक वैरियों से) लड़ रहा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भै निरभउ हरि अटलु मनि सबदि गुर नेजा गडिओ ॥ काम क्रोध लोभ मोह अपतु पंच दूत बिखंडिओ ॥

मूलम्

भै निरभउ हरि अटलु मनि सबदि गुर नेजा गडिओ ॥ काम क्रोध लोभ मोह अपतु पंच दूत बिखंडिओ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भै = (हरि का) भय रखने के कारण। मनि = मन में। सबदि गुर = सतिगुरु के शब्द द्वारा। अपतु = आपा भाव, अहंकार। बिखंडिओ = नाश कर दिए हैं। दूत = वैरी।
अर्थ: हरि का भय रखने के कारण (गुरु अमरदास जी) निरभउ हैं, सतिगुरु के शब्द की इनायत से हरि को (गुरु अमरदास ने) मन में धारा है; यह (गुरु अमरदास ने मानो), नेजा गाड़ा हुआ है और काम, क्रोध लोभ, मोह, अहंकार, इन पाँचों वैरियों का नाश कर दिया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भलउ भूहालु तेजो तना न्रिपति नाथु नानक बरि ॥ गुर अमरदास सचु सल्य भणि तै दलु जितउ इव जुधु करि ॥१॥२१॥

मूलम्

भलउ भूहालु तेजो तना न्रिपति नाथु नानक बरि ॥ गुर अमरदास सचु सल्य भणि तै दलु जितउ इव जुधु करि ॥१॥२१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भलउ = भल्लों की कुल में। भूहालु = भुपालु, राजा। भलउ भूहालु = भल्लों की कुल का शिरोमणी। तेजो तना = हे तेजभान जी के पुत्र! न्रिपति नाथु = राजाओं का राजा। नानक बरि = (गुरु) नानक (देव जी) के वर से। भणि = कह। तै = आप ने, तू। इव = इस तरह। करि = कर के। दलु = फौज।
अर्थ: तेजभान जी के पुत्र हे गुरु अमरदास जी! तू भल्लों की कुल में शिरोमणि है और (गुरु) नानक (देव जी) के वर से राजाओं का राजा है। हे सल्य कवि! (ऐसा) कह: ‘हे गुरु अमरदास! तू इस तरह युद्ध कर के (इन विकारों का) दल जीत लिया है।1।21।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ये एक सवईया भाट सल्य का है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घनहर बूंद बसुअ रोमावलि कुसम बसंत गनंत न आवै ॥ रवि ससि किरणि उदरु सागर को गंग तरंग अंतु को पावै ॥

मूलम्

घनहर बूंद बसुअ रोमावलि कुसम बसंत गनंत न आवै ॥ रवि ससि किरणि उदरु सागर को गंग तरंग अंतु को पावै ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घनहर = बादल। बूँद = बूँद। घनहर बूँद = बादलों की बूँदें। बसुअ = बसुधा, धरती। रोमावलि = रोमों की पंक्ति। बसुअ रोमावलि = धरती की रोमावली, बनस्पति। कुसम = फूल। बसंत = बसंत ऋतु के। गनंत = गिनते हुए। रवि = सूरज। ससि = चंद्रमा। गंग तरंग = गंगा की लहरें। को = कौन? पावै = पा सकता है।
अर्थ: बादलों की बूँदें, धरती की बनस्पति, बसंत के फूल- इनकी गिनती नहीं हो सकती। सूरज और चँद्रमा की किरणें, समुंदर का पेट गंगा की लहरें- इनका अंत कौन पा सकता है?

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुद्र धिआन गिआन सतिगुर के कबि जन भल्य उनह जुो गावै ॥ भले अमरदास गुण तेरे तेरी उपमा तोहि बनि आवै ॥१॥२२॥

मूलम्

रुद्र धिआन गिआन सतिगुर के कबि जन भल्य उनह जुो गावै ॥ भले अमरदास गुण तेरे तेरी उपमा तोहि बनि आवै ॥१॥२२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रुद्र = शिव। रुद्र धिआन = शिव जी वाले ध्यान से (भाव, पूरन अडोल समाधि लगा के)। भल्य = हे भल्य! उनह = (बादलों की बूँदें, बनस्पति, बसंत के फूल, सूरज चँद्रमा की किरणें, समुंदर की थाह, और गंगा की लहरें) इन सभी को। जुो गावै = जो कोई वर्णन कर ले तो चाहे कर ले। तोहि = तुझे ही। बनि आवै = फबती है। उपमा = बराबर की चीज। तेरी उपमा तोहि बनि आवै = तेरे जैसा तू खुद ही है तेरे बराबर का तुझे ही बताएं तो बात फबती है। जुो = (असली शब्द है ‘जो’ यहाँ पढ़ना है ‘जु’)।
अर्थ: शिव जी की तरह पूर्ण समाधि लगा के और सतिगुरु के बख्शे हुए ज्ञान द्वारा, हे भल्य कवि! उन उपरोक्त बताए पदार्थों को चाहे कोई मनुष्य वर्णन कर सके, पर भलों की कुल में प्रकट हुए हे गुरु अमरदास जी! तेरे गुण वर्णन नहीं हो सकते। तेरे जैसा तू खुद ही है।1।22।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इन उपरोक्त अंकों को विचारने की जरूरत है। अंक १– यह भाट भल्य का सवईया है।
अंक २२– गुरु अमरदास जी की स्तुति में उचारे हुए सारे सवईयों का जोड़ 22 है जिनका वेरवा इस प्रकार है;

विश्वास-प्रस्तुतिः

सवईए महले चउथे के ४

मूलम्

सवईए महले चउथे के ४

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: गुरु रामदास जी की स्तुति में उचारे हुए सवईऐ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इक मनि पुरखु निरंजनु धिआवउ ॥ गुर प्रसादि हरि गुण सद गावउ ॥ गुन गावत मनि होइ बिगासा ॥ सतिगुर पूरि जनह की आसा ॥

मूलम्

इक मनि पुरखु निरंजनु धिआवउ ॥ गुर प्रसादि हरि गुण सद गावउ ॥ गुन गावत मनि होइ बिगासा ॥ सतिगुर पूरि जनह की आसा ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इक मनि = एकाग्र मन से। निरंजनु = अंजनु (माया) से रहत। धिआवउ = मैं ध्याऊँ। हरि गुण = हरि के गुण। गावउ = मैं गाऊँ। गावत = गाते हुए। मनि = मन में। बिगासा = खिलाव, आनंद, खुशी। सतिगुर = हे सतिगुरु! पूरि = पूरी कर। जनह की = दास की।
अर्थ: अर्थ- हे सतिगुरु! मुझ दास की आस पूरी कर (कि), मैं एकाग्र-मन हो के माया के रहत अकाल-पुरख को स्मरण करूँ, गुरु की कृपा से सदा हरि के गुण गाऊँ और गुण गाते-गाते मेरे मन में खिलाव पैदा हो।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु सेवि परम पदु पायउ ॥ अबिनासी अबिगतु धिआयउ ॥ तिसु भेटे दारिद्रु न च्मपै ॥ कल्य सहारु तासु गुण ज्मपै ॥

मूलम्

सतिगुरु सेवि परम पदु पायउ ॥ अबिनासी अबिगतु धिआयउ ॥ तिसु भेटे दारिद्रु न च्मपै ॥ कल्य सहारु तासु गुण ज्मपै ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेवि = सेव के, सेवा करके। परम पदु = ऊँची पदवी, ऊँचा दर्जा। पायउ = पाया है (जिस गुरु रामदास जी ने)। अबिगतु = अव्यक्त, अदृष्य अकाल पुरख। तिसु = उस (गुरु रामदास) को। भेटे = मिलने से, चरनी लगने से। चंपै = चिपकता। दारिद्रु = दलिद्रता, गरीबी। तासु = उस (गुरु रामदास जी) के।
अर्थ: (जिस गुरु रामदास जी ने) गुरु (अमरदास जी) की सेवा करके ऊँची पदवी पाई है, और अविनाशी व अदृष्य हरि को स्मरण किया है, उस (गुरु रामदास) की चरनीं लगने से, दरिद्रता नहीं चिपकती, कल्यसहार कवि उस (गुरु रामदास जी) के गुण गाता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्मपउ गुण बिमल सुजन जन केरे अमिअ नामु जा कउ फुरिआ ॥ इनि सतगुरु सेवि सबद रसु पाया नामु निरंजन उरि धरिआ ॥

मूलम्

ज्मपउ गुण बिमल सुजन जन केरे अमिअ नामु जा कउ फुरिआ ॥ इनि सतगुरु सेवि सबद रसु पाया नामु निरंजन उरि धरिआ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जंपउ = मैं जपता हूँ। बिमलु = निर्मल। सुजन = श्रेष्ठ। जन केरे = जन के। केरे = के। अमिअ नामु = अमृतमयी नाम। जा कउ = जिस (गुरु रामदास जी) को। फुरिआ = अनुभव हुआ। इनि = इस (गुरु रामदास जी) ने। सबद रसु = सबद का आनंद। नामु निरंजन = निरंजन का नाम। उरि = हृदय में। धरिआ = टिकाया है।
अर्थ: मैं उस श्रेष्ठ जन (गुरु रामदास जी) के निर्मल गुण गाता हूँ, जिसको आत्मिक जीवन देने वाला नाम अनुभव हुआ है, इस (गुरु रामदास जी) ने (अमरदास जी) को सेव के सबद का आनंद प्राप्त किया है और निरंजन का नाम हृदय में टिकाया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि नाम रसिकु गोबिंद गुण गाहकु चाहकु तत समत सरे ॥ कवि कल्य ठकुर हरदास तने गुर रामदास सर अभर भरे ॥१॥

मूलम्

हरि नाम रसिकु गोबिंद गुण गाहकु चाहकु तत समत सरे ॥ कवि कल्य ठकुर हरदास तने गुर रामदास सर अभर भरे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रसिकु = रसिया, प्रेमी। गुण गाहकु = गुणों का गाहक। चाहकु तत = हरि को चाहने वाला। समत = समदृष्टता, समदर्शी, सबको एक प्यार भाव से देखने वाला। सरे = सरोवर। ठकुर = ठाकुर (आदर का पद है)। हरदास तने = हर दास का पुत्र। अभर = ना भरे हुए, खाली। भरे = भरने वाला।
अर्थ: हे कल्सहार कवि! ठाकुर हरदास जी के सपुत्र, गुरु रामदास जी (हृदय-रूपी) खाली सरोवरों को (नाम-जल से) भरने वाले हैं। (गुरु रामदास) अकाल पुरख के नाम का रसिया है, गोबिंद के गुणों का गाहक है, अकाल-पुरख से प्यार करने वाला है, और सम-श्रेष्ठता का सरोवर है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

छुटत परवाह अमिअ अमरा पद अम्रित सरोवर सद भरिआ ॥ ते पीवहि संत करहि मनि मजनु पुब जिनहु सेवा करीआ ॥

मूलम्

छुटत परवाह अमिअ अमरा पद अम्रित सरोवर सद भरिआ ॥ ते पीवहि संत करहि मनि मजनु पुब जिनहु सेवा करीआ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अमिअ = अमृत का। अमरा पद = अमर (अटल) पदवी देने वाला। अमृत सरोवर = अमृत का सरोवर। सद = सदा। ते संत = वह संत (बहुवचन)। पीवहि = पीते हैं। करहि = करते हैं। मनि = मन में। मजनु = स्नान। पुब = पूर्बले जनम की। जिनहु = जिन्होंने। करीआ = की है।
अर्थ: (गुरु रामदास) अमृत का सरोवर (है, जो) सदा भरा रहता है (और जिसमें से) अटल पदवी देने वाले अमृत के चश्मे चल रहे हैं। (इस अमृत को) वे संत-जन पीते हैं (और) अंतरात्मे स्नान करते हैं, जिन्होंने पूर्बले जन्मों में कोई सेवा की हुई है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिन भउ निवारि अनभै पदु दीना सबद मात्र ते उधर धरे ॥ कवि कल्य ठकुर हरदास तने गुर रामदास सर अभर भरे ॥२॥

मूलम्

तिन भउ निवारि अनभै पदु दीना सबद मात्र ते उधर धरे ॥ कवि कल्य ठकुर हरदास तने गुर रामदास सर अभर भरे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिन = उन (संत जनों) का। निवारि = दूर कर के। अनभै पदु = निर्भयता का दर्जा। सबद मात्र = अपना शब्द सुनाते ही। उधर धरे = उद्धार कर दिया, पार कर दिए।
अर्थ: (गुरु रामदास जी ने) उन (संत-जनों) का भय दूर कर के, उनको निर्भयता की पदवी बख्श दी है, और अपना शब्द सुनाते हुए ही उनका पार उतार दिया है। हे कल्सहार कवि! ठाकुर हरदास जी के सपुत्र गुरु रामदास जी (हृदय-रूपी) खाली सरोवरों को (नाम-अमृत से) भरने वाले हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतगुर मति गूड़्ह बिमल सतसंगति आतमु रंगि चलूलु भया ॥ जाग्या मनु कवलु सहजि परकास्या अभै निरंजनु घरहि लहा ॥

मूलम्

सतगुर मति गूड़्ह बिमल सतसंगति आतमु रंगि चलूलु भया ॥ जाग्या मनु कवलु सहजि परकास्या अभै निरंजनु घरहि लहा ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुर मति = सतिगुरु की बुद्धि। गूढ़ = गहरी। बिमल = निर्मल। आतमु = आत्मा। रंगि = (हरि के) प्यार में। चलूलु = गाढ़े रंग वाला। भया = हो गया है। सहजि = सहज अवस्था में, आत्मिक अडोलता के कारण। प्रकासा = प्रकाश्या, खिल उठा है। अभै = निर्भउ। घरहि = (हृदय रूप) घर में ही। लहा = मिल गया है।
अर्थ: गुरु (रामदास जी) की मति गहरी है, (आप की) निर्मल सत्संगति है; (और आप की) आत्मा हरि के प्यार में गाढ़ी रंगी हुई है। (सतिगुरु रामदास जी का) मन जागा हुआ है, (उनके हृदय का) कमल फूल आत्मिक अडोलता में खिला हुआ है और (उन्होंने) निर्भय हरि को हृदय में ही पा लिया है।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

सतगुरि दयालि हरि नामु द्रिड़्हाया तिसु प्रसादि वसि पंच करे ॥ कवि कल्य ठकुर हरदास तने गुर रामदास सर अभर भरे ॥३॥

मूलम्

सतगुरि दयालि हरि नामु द्रिड़्हाया तिसु प्रसादि वसि पंच करे ॥ कवि कल्य ठकुर हरदास तने गुर रामदास सर अभर भरे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुरि दयालि = दयालु गुरु (अमरदास जी) ने। द्रिढ़ाया = (गुरु रामदास जी को) दृढ़ करवाया है। तिसु प्रसादि = उस (नाम) की कृपा से। पंच = कामादिक पाँचों (विकार)। वसि करे = (गुरु रामदास जी ने) काबू किए हैं।
अर्थ: दयालु गुरु (अमरदास जी) ने (गुरु रामदास जी को) नाम दृढ़ करवाया है (भाव, जपाया है); उस नाम की इनायत से (गुरु रामदास जी ने) कामादिक पाँचों को अपने काबू किया हुआ है। हे कल्सहार कवि! ठाकुर हरदास जी के सपुत्र गुरु रामदास जी (हृदय-रूपी) खाली सरोवरों को (नाम-अमृत से) भरने वाले हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनभउ उनमानि अकल लिव लागी पारसु भेटिआ सहज घरे ॥ सतगुर परसादि परम पदु पाया भगति भाइ भंडार भरे ॥

मूलम्

अनभउ उनमानि अकल लिव लागी पारसु भेटिआ सहज घरे ॥ सतगुर परसादि परम पदु पाया भगति भाइ भंडार भरे ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनभउ = ज्ञान (अनुभव)। उनमनि = अनुमान से, विचारों से। अकल = (नास्ती कला अवयवो यस्य। not in parts, epithet of the Supreme Spirit) एक रस व्यापक हरि। पारसु = (गुरु अमर दास जी)। भेटिआ = मिला। सहज घरे = शांति के घर में। परसादि = कृपा से। भगति भाइ = भक्ति के प्यार से। भंडार = खजाने।
अर्थ: (गुरु रामदास जी को) विचार द्वारा ज्ञान प्राप्त हुआ है, (आपकी) तवज्जो एक-रस व्यापक हरि के साथ जुड़ी हुई है। (गुरु रामदास जी को गुरु अमरदास) पारस मिल गया है (जिसकी इनायत से गुरु रामदास) सहज अवस्था में पहुँच गया है। सतिगुरु (अमरदास जी) की कृपा से (गुरु रामदास जी ने) ऊँची पदवी पाई है और भक्ति के प्यार से (आप के) खजाने भरे हुए हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेटिआ जनमांतु मरण भउ भागा चितु लागा संतोख सरे ॥ कवि कल्य ठकुर हरदास तने गुर रामदास सर अभर भरे ॥४॥

मूलम्

मेटिआ जनमांतु मरण भउ भागा चितु लागा संतोख सरे ॥ कवि कल्य ठकुर हरदास तने गुर रामदास सर अभर भरे ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जनमांतु = जनम और अंत, जनम और मरण। मरण भउ = मौत का डर। संतोख सरे = संतोख के सरोवर में, अकाल पुरख में।
अर्थ: गुरु रामदास जी ने (अपना) जनम-मरण मिटा लिया हुआ है, (गुरु रामदास जी का) मौत का डर दूर हो चुका है और (उनका) चिक्त संतोख के सरोवर अकाल पुरख में जुड़ा रहता है। हे कल्सहार कवि! ठाकुर हरदास जी के सपुत्र गुरु रामदास जी (हृदय-रूपी) खाली सरोवरों को (नाम-अमृत से) भरने वाले हैं।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभर भरे पायउ अपारु रिद अंतरि धारिओ ॥ दुख भंजनु आतम प्रबोधु मनि ततु बीचारिओ ॥

मूलम्

अभर भरे पायउ अपारु रिद अंतरि धारिओ ॥ दुख भंजनु आतम प्रबोधु मनि ततु बीचारिओ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अभर भरे = ना भरों को भरने वाला, खाली हृदयों को भरने वाला हरि। पायउ = प्राप्त किया है। अपार = बेअंत हरि। रिद अंतिर = हृदय में। धारिओ = टिकाया है। ततु = सारी सृष्टि का आरम्भ। आतम प्रबोधु = आत्मा को जगाने वाला हरि। बीचारिओ = स्मरण किया है।
अर्थ: (गुरु रामदास जी ने) खाली हृदयों को भरने वाला हरि पा लिया है, (आप ने बेअंत हरि को अपने) हृदय में बसा लिया है, (और अपने) मन में (उस) अकाल-पुरख को स्मरण किया है (जो) दुखों का नाश करने वाला है और आत्मा को जगाने वाला है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदा चाइ हरि भाइ प्रेम रसु आपे जाणइ ॥ सतगुर कै परसादि सहज सेती रंगु माणइ ॥

मूलम्

सदा चाइ हरि भाइ प्रेम रसु आपे जाणइ ॥ सतगुर कै परसादि सहज सेती रंगु माणइ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चाइ = चाव में, खुशी में। हरि भाइ = हरि के प्यार में। जाणइ = जाने, जानता है। सतगुर कै परसादि = गुरु (अमरदास जी) की कृपा से। माणइ = माणता है। सहज सेती = आत्मिक अडोलता से।
अर्थ: (गुरु रामदास) नित्य खुशी में (रहता है), हरि के प्यार में (मस्त है और हरि के) प्यार के स्वाद को वह स्वयं ही जानता है। (गुरु रामदास) सतगुरू (अमरदास जी) की कृपा द्वारा आत्मिक अडोलता से आनंद पा रहा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक प्रसादि अंगद सुमति गुरि अमरि अमरु वरताइओ ॥ गुर रामदास कल्युचरै तैं अटल अमर पदु पाइओ ॥५॥

मूलम्

नानक प्रसादि अंगद सुमति गुरि अमरि अमरु वरताइओ ॥ गुर रामदास कल्युचरै तैं अटल अमर पदु पाइओ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नानक प्रसादि = (गुरु) नानक की कृपा से। अंगद सुमति = (गुरु) अंगद (देव जी) द्वारा दी सुमति से। गुरि अमरि = गुरु अमरदास ने। अमरु = (अकाल-पुरख का) हुक्म। वरताइओ = कमाया है, प्रयोग में लाए हैं। गुर रामदास = हे गुरु रामदास! कल्चरै = कल्य उचरै, कलसहार कहता है।
अर्थ: कवि कलसहार कहता है: (गुरु) नानक जी की कृपा से (और गुरु) अंगद जी की बख्शी सुंदर बुद्धि से, गुरु अमरदास जी ने अकाल-पुरख का हुक्म प्रयोग में लाया है, (कि) हे गुरु रामदास जी! तू सदा-स्थिर रहने वाले अविनाशी हरि की पदवी प्राप्त कर ली है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संतोख सरोवरि बसै अमिअ रसु रसन प्रकासै ॥ मिलत सांति उपजै दुरतु दूरंतरि नासै ॥

मूलम्

संतोख सरोवरि बसै अमिअ रसु रसन प्रकासै ॥ मिलत सांति उपजै दुरतु दूरंतरि नासै ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरोवरि = सरोवर में। बसै = (गुरु रामदास) बसता है। अमिअ रसु = नाम अमृत का स्वाद। रसन = जीभ से। प्रकासै = प्रकट करता है। मिलत = (गुरु अमरदास जी को) मिलने से। सांति = ठंड। दुरतु = पाप। दूरंतरि = दूर से ही। नासै = नाश हो जाता है।
अर्थ: (गुरु रामदास) संतोख के सरोवर में बसता है, (और अपनी) जीभ से नाम-अमृत के स्वाद को प्रकट करता है। (गुरु रामदास जी के) दर्शन करने से (हृदय में) ठंढ पैदा होती है और पाप दूर से ही (देख के) नाश हो जाते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुख सागरु पाइअउ दिंतु हरि मगि न हुटै ॥ संजमु सतु संतोखु सील संनाहु मफुटै ॥

मूलम्

सुख सागरु पाइअउ दिंतु हरि मगि न हुटै ॥ संजमु सतु संतोखु सील संनाहु मफुटै ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुख सागर = सुखों का समुंदर (प्रभु मिलाप)। दिंतु = दिया हुआ, (गुरु रामदास जी का) बख्शा हुआ। हरि मगि = हरि के राह में। न हूटै = थकता नहीं। मफूटै = नहीं फूटता, नहीं टूटता। संनाहु = संजोअ। सील = मीठा स्वभाव।
अर्थ: (गुरु रामदास जी ने गुरु अमरदास जी का) दिया हुआ सुखों का सागर (प्रभु-मिलाप) प्राप्त किया है, (तभी गुरु रामदास) हरि के राह में (चलते हुए) थकते नहीं हैं। (गुरु रामदास जी का) संजम सत संतोख और मीठा स्वभाव-रूपी संजोअ (ऐसा है कि वह) टूटता नहीं है; (भाव, आप इतने गुण समपन्न हैं)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु प्रमाणु बिध नै सिरिउ जगि जस तूरु बजाइअउ ॥ गुर रामदास कल्युचरै तै अभै अमर पदु पाइअउ ॥६॥

मूलम्

सतिगुरु प्रमाणु बिध नै सिरिउ जगि जस तूरु बजाइअउ ॥ गुर रामदास कल्युचरै तै अभै अमर पदु पाइअउ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुरु प्रमाणु = गुरु अमरदास जी के तुल्य। बिधनै = बिधना ने, कर्तार ने। सिरिउ = (गुरु रामदास जी को) बनाया है। जगि = जगत ने। जस तूरु = शोभा का बाजा।
अर्थ: (गुरु रामदास जी को) कर्तार ने गुरु (अमरदास जी) के तुल्य बनाया है, जगत ने (आप की) शोभा का बाजा बजाया है। कवि कलसहार कहता है: ‘हे गुरु रामदास! तूने निरभउ और अविनाशी हरि की पदवी पा ली है’।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जगु जितउ सतिगुर प्रमाणि मनि एकु धिआयउ ॥ धनि धनि सतिगुर अमरदासु जिनि नामु द्रिड़ायउ ॥

मूलम्

जगु जितउ सतिगुर प्रमाणि मनि एकु धिआयउ ॥ धनि धनि सतिगुर अमरदासु जिनि नामु द्रिड़ायउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जितउ = जीता है। सतिगुर प्रमाणि = गुरु (अमरदास जी) की तरह। जिनि = जिसने।
अर्थ: (गुरु रामदास जी ने) गुरु (अमरदास जी) की तरह जगत को जीता है और (अपने) मन में एक (अकाल-पुरख) को स्मरण किया है। सतिगुरु अमरदास धन्य है, जिसने (गुरु रामदास जी को) नाम दृढ़ कराया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नव निधि नामु निधानु रिधि सिधि ता की दासी ॥ सहज सरोवरु मिलिओ पुरखु भेटिओ अबिनासी ॥

मूलम्

नव निधि नामु निधानु रिधि सिधि ता की दासी ॥ सहज सरोवरु मिलिओ पुरखु भेटिओ अबिनासी ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नवनिधि = नौ निद्धियां। निधान = खजाना। ता की = गुरु (रामदास जी) की। सहज सरोवरु = सहज अवस्था का समुंदर, शांति का समुंदर अकाल-पुरख। पुरखु = सर्व व्यापक प्रभु।
अर्थ: (गुरु रामदास जी को) नाम-खजाना मिल गया है, (मानो) नौ निधियां प्राप्त हो गई हैं। सभ रिद्धियां और सिद्धियां उसकी दासियां हैं। (गुरु रामदास जी को) शांति का सरोवर हरि मिल गया है, अविनाशी सर्व-व्यापक प्रभु मिल गया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आदि ले भगत जितु लगि तरे सो गुरि नामु द्रिड़ाइअउ ॥ गुर रामदास कल्युचरै तै हरि प्रेम पदारथु पाइअउ ॥७॥

मूलम्

आदि ले भगत जितु लगि तरे सो गुरि नामु द्रिड़ाइअउ ॥ गुर रामदास कल्युचरै तै हरि प्रेम पदारथु पाइअउ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आदि ले = आदि से ले के। जितु लगि = जिस (नाम) में लग के। सो = वह (नाम)। गुरि = गुरु (अमरदास जी) ने।
अर्थ: जिस (नाम) में लग के आदि से ही भगतों का उद्धार होता आया है, वह नाम गुरु (अमरदास जी) को दृढ़ करवाया है। कवि कल्सहार कहता है: ‘हे गुरु रामदास जी! तूने अकाल-पुरख के प्यार का (उत्तम) पदार्थ पा लिया है’।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रेम भगति परवाह प्रीति पुबली न हुटइ ॥ सतिगुर सबदु अथाहु अमिअ धारा रसु गुटइ ॥

मूलम्

प्रेम भगति परवाह प्रीति पुबली न हुटइ ॥ सतिगुर सबदु अथाहु अमिअ धारा रसु गुटइ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रेम भगति = प्यार भरी भक्ति। परवाह = प्रवाह, बहाव, चश्में। पुबली = पूर्बली। हुटइ = हुटती, खत्म होती। अथाहु = गहरा। अमिअ धारा रसु = नाम अमृत की धाराओं का स्वाद। गुटइ = गट गट करके पीता है।
अर्थ: (गुरु रामदास जी के हृदय में) अकाल पुरख की प्यार भरी भक्ति के चश्मे चल रहे हैं। (गुरु रामदास जी की अकाल-पुरख के साथ जो) पहले की प्रीति (है, वह) खत्म नहीं होती; गुरु (अमरदास जी) का (जो) अथाह शब्द (है, उस द्वारा गुरु रामदास) नाम-अमृत की धाराओं का स्वाद गट-गट करके ले रहा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मति माता संतोखु पिता सरि सहज समायउ ॥ आजोनी स्मभविअउ जगतु गुर बचनि तरायउ ॥

मूलम्

मति माता संतोखु पिता सरि सहज समायउ ॥ आजोनी स्मभविअउ जगतु गुर बचनि तरायउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरि सहज = सहज के सरोवर में, आत्मिक अडोलता के सरोवर में। समायउ = लीन हुआ है। आजोनी = जूनियों से रहत। संभविअउ = अपने आप से प्रकाश करने वाला। गुर बचनि = सतिगुरु के वचनों द्वारा।
अर्थ: (ऊँची) मति (गुरु रामदास जी की) माता है और संतोख (आप का) पिता है (भाव, आप इन गुणों में जन्में-पले हैं, आप ऊँची बुद्धि वाले और पूर्ण संतोखी हैं)। (गुरु रामदास) सदा शान्ति के सरोवर में डुबकी लगाए रखता है। (गुरु रामदास) जूनियों से रहित और स्वै-प्रकाश हरि का रूप है। संसार को (आप ने) सतिगुरु के वचनों से तैरा दिया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अबिगत अगोचरु अपरपरु मनि गुर सबदु वसाइअउ ॥ गुर रामदास कल्युचरै तै जगत उधारणु पाइअउ ॥८॥

मूलम्

अबिगत अगोचरु अपरपरु मनि गुर सबदु वसाइअउ ॥ गुर रामदास कल्युचरै तै जगत उधारणु पाइअउ ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अबिगत = अव्यक्त, अदृष्य। अगोचरु = जो इन्द्रियों की पहुँच से परे है। अपर = परे से परे, बेअंत। जगत उधारणु = संसार का उद्धार करने वाला अकाल-पुरख।
अर्थ: (गुरु रामदास) अदृष्य अगोचर और बेअंत हरि का रूप है। (आप ने अपने) मन में सतिगुरु का शब्द बसाया है। कवि कलसहार कहता है: ‘हे गुरु रामदास! तूने जगत का उद्धार करने वाला अकाल-पुरख पा लिया है’।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जगत उधारणु नव निधानु भगतह भव तारणु ॥ अम्रित बूंद हरि नामु बिसु की बिखै निवारणु ॥

मूलम्

जगत उधारणु नव निधानु भगतह भव तारणु ॥ अम्रित बूंद हरि नामु बिसु की बिखै निवारणु ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नव निधानु = नौ (निधियों) का खजाना। भगतह = भगतों को। भव = संसार सागर। तारणु = तैराने योग्य, उद्धार करने योग्य। हरी नामु = हरि का नाम। बिसु = विश्व, सारा संसार। बिखै = विष, जहर। निवारणु = दूर करने के समर्थ।
अर्थ: (सतिगुरु रामदास जी के पास) हरि का नाम, (मानो), अमृत की बूँद है, जो संसार को तारने-योग्य है, जो नौ निधियों का भंडार है, जो भक्त-जनों को संसार-सागर से पार करने के समर्थ है और जो सारे संसार के विष को दूर करने योग्य है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहज तरोवर फलिओ गिआन अम्रित फल लागे ॥ गुर प्रसादि पाईअहि धंनि ते जन बडभागे ॥

मूलम्

सहज तरोवर फलिओ गिआन अम्रित फल लागे ॥ गुर प्रसादि पाईअहि धंनि ते जन बडभागे ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तरोवर = श्रेष्ठ वृक्ष। पाईअहि = मिलते हैं। धंनि = भाग्यों वाले। ते जन = वे लोग।
अर्थ: गुरु रामदास आत्मिक अडोलता का श्रेष्ठ वृक्ष है जो फला-फुला हुआ है, (इस वृक्ष को) ज्ञान देने वाले अमृत फल लगे हुए हैं। (यह फल) गुरु की कृपा से मिलते हैं, और वह मनुष्य धन्य और अति भाग्याशाली हैं, (जिनको यह फल प्राप्त हुए हैं)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते मुकते भए सतिगुर सबदि मनि गुर परचा पाइअउ ॥ गुर रामदास कल्युचरै तै सबद नीसानु बजाइअउ ॥९॥

मूलम्

ते मुकते भए सतिगुर सबदि मनि गुर परचा पाइअउ ॥ गुर रामदास कल्युचरै तै सबद नीसानु बजाइअउ ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते मुकते = वह मनुष्य तैर गए हैं। सबदि = शब्द की इनायत से। मनि = मन में। गुर परचा = गुरु के साथ प्यार। सबद नीसानु = शब्द का नगारा।
अर्थ: वह मनुष्य सतिगुरु के शब्द की इनायत से मुक्त हो गए हैं, जिन्होंने अपने मन में गुरु (रामदास जी) के साथ प्यार डाला है। कवि कलसहार कहता है: ‘हे गुरु रामदास! तूने शब्द का नगारा बजाया है’।9।

[[1398]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेज सधा सहजु छावाणु संतोखु सराइचउ सदा सील संनाहु सोहै ॥ गुर सबदि समाचरिओ नामु टेक संगादि बोहै ॥

मूलम्

सेज सधा सहजु छावाणु संतोखु सराइचउ सदा सील संनाहु सोहै ॥ गुर सबदि समाचरिओ नामु टेक संगादि बोहै ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सधा = श्रद्धा, सिदक। सहजु = शांति, टिकाव, आत्मिक अडोलता। छावाणु = शामियाना। सराइचउ = कनात। सदा सील = सदा मीठे स्वभाव वाला रहना। संनाहु = संजोअ। सोहै = सुंदर लगता है, शोभता है। गुर सबदि = गुरु के शब्द से। समाचरिओ = कमाया है। टेक = (सतिगुरु का) आसरा। संगादि = संगी आदि को। बोहै = सुगंधित करता है।
अर्थ: (गुरु रामदास जी ने) श्रद्धा को (परमात्मा के लिए) सेज बनाई है, (आप के) हृदय का टिकाव शामियाना है, संतोख कनात है और नित्य का मीठा स्वभाव संजोअ है। गुरु (अमरदास जी) के शब्द की इनायत से (आप ने) कमाया है, (गुरु की) टेक (आप के) संगी आदिक को सुगंधित कर रही है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अजोनीउ भल्यु अमलु सतिगुर संगि निवासु ॥ गुर रामदास कल्युचरै तुअ सहज सरोवरि बासु ॥१०॥

मूलम्

अजोनीउ भल्यु अमलु सतिगुर संगि निवासु ॥ गुर रामदास कल्युचरै तुअ सहज सरोवरि बासु ॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अजोनीउ = जूनों से रहित। भल्य = भला। अमलु = (अ+मलु) निर्मल, शुद्ध। तुअ = तेरा। बास = बसेरा, ठिकाना। सहज सरोवरि = आत्मिक अडोलता के सर में।
अर्थ: गुरु रामदास जनम (मरन) से रहित है, भला है और शुद्ध आत्मा है। कवि कलसहार कहता है: ‘हे गुरु रामदास! तेरा वासा आत्मिक अडोलता के सरोवर में है’।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरु जिन्ह कउ सुप्रसंनु नामु हरि रिदै निवासै ॥ जिन्ह कउ गुरु सुप्रसंनु दुरतु दूरंतरि नासै ॥

मूलम्

गुरु जिन्ह कउ सुप्रसंनु नामु हरि रिदै निवासै ॥ जिन्ह कउ गुरु सुप्रसंनु दुरतु दूरंतरि नासै ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिन कउ = जिस मनुष्यों पर। रिदै = (उनके) हृदय में। निवासै = बसाता है। दुरतु = पाप। दूरंतरि = दूर से ही।
अर्थ: जिस मनुष्यों पर सतिगुरु प्रसन्न होता है, (उनके) हृदय में अकाल-पुरख का नाम बसाता है। जिस पर गुरु प्रसन्न होता है (उन से) पाप दूर से (देख कर) भाग जाते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरु जिन्ह कउ सुप्रसंनु मानु अभिमानु निवारै ॥ जिन्ह कउ गुरु सुप्रसंनु सबदि लगि भवजलु तारै ॥

मूलम्

गुरु जिन्ह कउ सुप्रसंनु मानु अभिमानु निवारै ॥ जिन्ह कउ गुरु सुप्रसंनु सबदि लगि भवजलु तारै ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निवारै = दूर करता है। सबदि लगि = शब्द में जुड़ के। भवजलु = संसार सागर। तारै = पार लगा देता है।
अर्थ: जिस पर सतिगुरु खुश होता है, उन मनुष्यों का अहंकार दूर कर देता है। जिस पर गुरु मेहर करता है, उन मनुष्यों को शब्द में जोड़ के इस संसार-सागर से पार लंघा देता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

परचउ प्रमाणु गुर पाइअउ तिन सकयथउ जनमु जगि ॥ स्री गुरू सरणि भजु कल्य कबि भुगति मुकति सभ गुरू लगि ॥११॥

मूलम्

परचउ प्रमाणु गुर पाइअउ तिन सकयथउ जनमु जगि ॥ स्री गुरू सरणि भजु कल्य कबि भुगति मुकति सभ गुरू लगि ॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परचउ = उपदेश। प्रमाणु = प्रमाणिक, जाना माना। गुर = गुरु का। तिन जनमु = उनका जनम। सकयथउ = सफल। जगि = जगत में। भजु = पड़। कल्य कबि = हे कवि कलसहार! भुगति = पदार्थ। गुरु लगि = गुरु की शरण पड़ने से।
अर्थ: जिस मनुष्यों ने सतिगुरु का प्रमाणिक उपदेश प्राप्त किया है, उनका पैदा होना जगत में सफल हो गया है। हे कवि कलसहार! सतिगुरु की शरण पड़, गुरु की शरण पड़ने से ही मुक्ति के सारे पदार्थ (मिल सकते हैं)।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरि खेमा ताणिआ जुग जूथ समाणे ॥ अनभउ नेजा नामु टेक जितु भगत अघाणे ॥

मूलम्

सतिगुरि खेमा ताणिआ जुग जूथ समाणे ॥ अनभउ नेजा नामु टेक जितु भगत अघाणे ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुरि = गुरु (रामदास जी) ने। खेमा = चंदोवा। जुग जूथ = जुगों के समूह, सारे जुग। समाणे = समा गए हैं (भाव, चंदोए के नीचे आ गए हैं)। अनभउ = अनुभव, ज्ञान। जितु = जिससे। अघाणे = तृप्त हो गए हैं।
अर्थ: सतिगुरु (रामदास जी) ने (अकाल-पुरख की महिमा रूप) चँदोआ ताना हुआ है, सारे जुग (भाव, सारे जुगों के जीव) उसके नीचे आ टिके हैं (भाव, सारे जीव हरि-जश करने लग गए हैं)। ज्ञान (आपके हाथ में) नेजा (भाला हथियार) है, अकाल-पुरख का नाम (आपका) आसरा है, जिसकी इनायत से सारे तृप्त हो रहे हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरु नानकु अंगदु अमरु भगत हरि संगि समाणे ॥ इहु राज जोग गुर रामदास तुम्ह हू रसु जाणे ॥१२॥

मूलम्

गुरु नानकु अंगदु अमरु भगत हरि संगि समाणे ॥ इहु राज जोग गुर रामदास तुम्ह हू रसु जाणे ॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि संगि = अकाल-पुरख में। समाणे = लीन हो गए हैं। गुर रामदास = हे गुरु रामदास! तुम्ह हू = आप ने भी। राज जोग रसु = राज योग का स्वाद। जाणे = जाना है।
अर्थ: (हरि-नाम रूपी टेक की इनायत से) गुरु नानक देव जी, गुरु अंगद साहिब, गुरु अमरदास जी व अन्य भक्त अकाल-पुरख में लीन हो गए हैं। हे गुरु रामदास जी! आप ने भी राज-जोग के इस स्वाद को पहचाना है।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनकु सोइ जिनि जाणिआ उनमनि रथु धरिआ ॥ सतु संतोखु समाचरे अभरा सरु भरिआ ॥

मूलम्

जनकु सोइ जिनि जाणिआ उनमनि रथु धरिआ ॥ सतु संतोखु समाचरे अभरा सरु भरिआ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सोइ = वह है। जिनि = जिस ने। जाणिआ = (अकाल-पुरख को) पहचान लिया है। उनमनि = उनमन में, पूर्ण खिलाव में। रथु = मन का प्रवाह। धरिआ = रखा है, टिकाया है। समाचरे = एकत्र किए हैं, कमाए हैं। अभरा = ना भरा हुआ। सरु = तालाब। अभरा सरु = वह तालाब जो भरा ना जा सके, ना तृप्त होने वाला मन। भरिआ = पूर्ण किया, तृप्त किया, संतुष्ट किया।
अर्थ: जनक वह है जिस ने (अकाल-पुरख को) जान लिया है, जिसने अपने मन की तवज्जो को पूर्ण खिलाव में टिकाया हुआ है, जिसने सत और संतोख (अपने अंदर) इकट्ठे किए हैं, और जिसने इस ना तृप्त होने वाले मन को संतुष्ट कर लिया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकथ कथा अमरा पुरी जिसु देइ सु पावै ॥ इहु जनक राजु गुर रामदास तुझ ही बणि आवै ॥१३॥

मूलम्

अकथ कथा अमरा पुरी जिसु देइ सु पावै ॥ इहु जनक राजु गुर रामदास तुझ ही बणि आवै ॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अकथ = जिसका वर्णन ना किया जा सके। अमरा पुरी = सदा अटल रहने वाली पुरी, सदा स्थिर रहने वाला ठिकाना, अडोल आत्मिक अवस्था। अकथ कथा अमरा पुरी = सहज अवस्था की यह छुपी हुई बात। जिसु = जिस मनुष्य को। देइ = (अकाल-पुरख को) देता है। बणि आवै = फबता है, शोभता है।
अर्थ: अडोल आत्मिक अवस्था की (भाव, जनक वाली) यह (उपरोक्त) गूझी बात जिस मनुष्य को अकाल-पुरख बख्शता है, वही प्राप्त करता है (भाव, इस तरह की जनक-पदवी हरेक को नहीं मिलती)। हे गुरु रामदास! ये जनक-राज तुझे ही शोभा देता है (भाव, इस आत्मिक अडोलता का तू ही अधिकारी है)।13।

दर्पण-टिप्पनी

भाट कलसहार के ये 13 सवईए हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुर नामु एक लिव मनि जपै द्रिड़्हु तिन्ह जन दुख पापु कहु कत होवै जीउ ॥ तारण तरण खिन मात्र जा कउ द्रिस्टि धारै सबदु रिद बीचारै कामु क्रोधु खोवै जीउ ॥

मूलम्

सतिगुर नामु एक लिव मनि जपै द्रिड़्हु तिन्ह जन दुख पापु कहु कत होवै जीउ ॥ तारण तरण खिन मात्र जा कउ द्रिस्टि धारै सबदु रिद बीचारै कामु क्रोधु खोवै जीउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जपै = (जो जो मनुष्य) जपता है। द्रिढ़ु = सिदक से, पक्के तौर पर। मनि = मन में। एक लिव = एकाग्र चिक्त हो के, तवज्जो जोड़ के। तिन्ह जन = उन मनुष्यों को। कहु = बताओ। कत = कब? द्रिस्टि धारै = मेहर की नजर से देखता है। रिद = हृदय में। खोवै = नाश कर देता है। तारण तरण = संसार के उद्धार के लिए जहाज। तरण = जहाज़।
अर्थ: जो जो मनुष्य सतिगुरु का नाम, तवज्जो जोड़ के श्रद्धा से जपता है, बताओ जी, उनको कष्ट और पाप कब छू सकता है? (सतिगुरु, जो) जगत के उद्धार के लिए (मानो) जहाज (है) जिस मनुष्य पर छिन भर के लिए भी मेहर की नजर करता है, वह मनुष्य (गुरु के) शब्द को हृदय में विचारता है और (अपने अंदर से) काम-क्रोध को गवा देता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीअन सभन दाता अगम ग्यान बिख्याता अहिनिसि ध्यान धावै पलक न सोवै जीउ ॥ जा कउ देखत दरिद्रु जावै नामु सो निधानु पावै गुरमुखि ग्यानि दुरमति मैलु धोवै जीउ ॥ सतिगुर नामु एक लिव मनि जपै द्रिड़ु तिन जन दुख पाप कहु कत होवै जीउ ॥१॥

मूलम्

जीअन सभन दाता अगम ग्यान बिख्याता अहिनिसि ध्यान धावै पलक न सोवै जीउ ॥ जा कउ देखत दरिद्रु जावै नामु सो निधानु पावै गुरमुखि ग्यानि दुरमति मैलु धोवै जीउ ॥ सतिगुर नामु एक लिव मनि जपै द्रिड़ु तिन जन दुख पाप कहु कत होवै जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीअन सभन = सारे जीवों का। अगम = जिस तक पहुँच ना हो सके। बिख्याता = विख्यात करने वाला, प्रकट करने वाला। अहिनिसि = दिन रात, हर वक्त। अहि = दिन। निसि = रात। धावै = धारे। न सोवै = नहीं सोता, गाफिल नहीं होता। जा कउ = जिस मनुष्य का। देखत = (गुरु को) देखते हुए। ग्यानि = (गुरु के) ज्ञान से।
अर्थ: (सतिगुरु रामदास) सारे जीवों का दाता है, अगम हरि के ज्ञान को प्रकट करने वाला है; दिन-रात हरि का ध्यान धारता है और एक छिन-पल के लिए भी गाफ़ल नहीं होता। जो गुरमुख (गुरु रामदास जी के दिए) ज्ञान से अपनी दुमर्ति की मैल धोता है, नाम-रूपी खजाना हासिल कर लेता है और उसका दरिद्र आपके दर्शन करने से दूर जाता है। जो जो मनुष्य सतिगुरु (रामदास जी) का नाम तवज्जो जोड़ के मन में श्रद्धा से जपता है, बताओं जी, उनको पाप-कष्ट छू सकता है?

विश्वास-प्रस्तुतिः

धरम करम पूरै सतिगुरु पाई है ॥ जा की सेवा सिध साध मुनि जन सुरि नर जाचहि सबद सारु एक लिव लाई है ॥

मूलम्

धरम करम पूरै सतिगुरु पाई है ॥ जा की सेवा सिध साध मुनि जन सुरि नर जाचहि सबद सारु एक लिव लाई है ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पाई है = प्राप्त करने से, मिलने से। जा की = जिस गुरु रामदास जी की। जाचहि = माँगते हैं। सुरि = देवते। सारु = श्रेष्ठ।
अर्थ: पूरे गुरु (रामदास जी) को मिलने से सारे धर्म-कर्म (प्राप्त हो जाते हैं); सिद्ध, साधु, मुनि लोक, देवते ओर मनुष्य इस (गुरु रामदास की) सेवा मांगते हैं, (आपका) शब्द श्रेष्ठ है और (आप ने) एक (अकाल-पुरख) के साथ तवज्जो जोड़ी हुई है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फुनि जानै को तेरा अपारु निरभउ निरंकारु अकथ कथनहारु तुझहि बुझाई है ॥ भरम भूले संसार छुटहु जूनी संघार जम को न डंड काल गुरमति ध्याई है ॥

मूलम्

फुनि जानै को तेरा अपारु निरभउ निरंकारु अकथ कथनहारु तुझहि बुझाई है ॥ भरम भूले संसार छुटहु जूनी संघार जम को न डंड काल गुरमति ध्याई है ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: को = कौन? तेरा = तेरा (अंत)। कथनहारु = कथन योग्य। तुझहि = तुझे ही। बुझाई है = समझ आई है, ज्ञान प्राप्त हुआ है। संसार = हे संसार! हे संसारी जीव! संघार = मरन, मौत। छुटहु = बच जाओ। डंड काल = दण्ड, सजा। ध्याई है = ध्याईये, ध्याएं, स्मरण करें।
अर्थ: (हे गुरु रामदास!) कौन तेरा (अंत) पा सकता है? तू बेअंत, निर्भय, निरंकार (का रूप) है। कथन-योग अकथ हरि का ज्ञान तुझे ही मिला है। भ्रमों में भूले हुए हे संसारी जीव! (तू) गुरु (रामदास जी) की मति ले के (प्रभु का नाम) स्मरण कर, तू जनम-मरण से बच जाएगा, और जम की मार भी नहीं पड़ेगी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन प्राणी मुगध बीचारु अहिनिसि जपु धरम करम पूरै सतिगुरु पाई है ॥२॥

मूलम्

मन प्राणी मुगध बीचारु अहिनिसि जपु धरम करम पूरै सतिगुरु पाई है ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुगघ = मूर्ख। बाचारु = विचार कर, सोच। अहिनिसि = दिन रात, हर वक्त। जपु = स्मरण कर।
अर्थ: हे मूर्ख मन! हे मूर्ख जीव! विचार कर के दिन-रात (नाम) स्मरण कर। पूरे सतिगुरु (रामदास जी) को मिलने से (सारे) धर्म-कर्म (प्राप्त) हो जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ बलि बलि जाउ सतिगुर साचे नाम पर ॥ कवन उपमा देउ कवन सेवा सरेउ एक मुख रसना रसहु जुग जोरि कर ॥

मूलम्

हउ बलि बलि जाउ सतिगुर साचे नाम पर ॥ कवन उपमा देउ कवन सेवा सरेउ एक मुख रसना रसहु जुग जोरि कर ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ = मैं। बलि बलि जाउ = कुर्बान जाऊँ, सदके जाऊँ। देउ = मैं दूँ। सरेउ = मैं करूँ। रसना = जीभ से। रसहु = जपो। जुग कर = दोनों हाथ। जोरि = जोड़ कर। एक मुख = सन्मुख हो के।
अर्थ: सच्चे सतिगुरु (रामदास जी) के नाम से सदके जाऊँ। मैं कौन सी उपमा दूँ (भाव, क्या कहूँ कैसा है), मैं कौन सी सेवा करूँ? (हे मेरे मन!) दोनों हाथ जोड़ के सन्मुख हो के जीभ से स्मरण कर (बस, यही उपमा और यही सेवा है)।

[[1399]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

फुनि मन बच क्रम जानु अनत दूजा न मानु नामु सो अपारु सारु दीनो गुरि रिद धर ॥ नल्य कवि पारस परस कच कंचना हुइ चंदना सुबासु जासु सिमरत अन तर ॥

मूलम्

फुनि मन बच क्रम जानु अनत दूजा न मानु नामु सो अपारु सारु दीनो गुरि रिद धर ॥ नल्य कवि पारस परस कच कंचना हुइ चंदना सुबासु जासु सिमरत अन तर ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: फुनि = और। जानु = पहचान। अनत = अन्य, कोई दूसरा। मानु = मंन, पूज, जप। सारु = श्रेष्ठ। गुरि = गुरु (रामदास जी) ने। रिद = हृदय का। धर = आसरा। परस = छूह। कंचना = सोना। हुइ = हो जाता है। चंदना सुबासु = चँदन की सुगंधि। अन तर = और वृक्षों में। जासु = जिस का (नाम)।
अर्थ: हे नल्य कवि! और अन्य (ये काम कर कि) अपने मन वचनों और कर्मों के द्वारा (उसी नाम को) दृढ़ कर, किसी और को ना जप, वह बेअंत और श्रेष्ठ नाम उस गुरु (रामदास जी) ने तेरे हृदय का आसरा बना दिया है, जिसको स्मरण करने से (ऐसे हो जाते हैं जैसे) पारस को छू के काँच सोना हो जाता है और (चँदन की छूह से) और वृक्षों में भी चँदन की खुशबू आ जाती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा के देखत दुआरे काम क्रोध ही निवारे जी हउ बलि बलि जाउ सतिगुर साचे नाम पर ॥३॥

मूलम्

जा के देखत दुआरे काम क्रोध ही निवारे जी हउ बलि बलि जाउ सतिगुर साचे नाम पर ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुआरे = दर, दरवाजा। निवारे = दूर हो जाते हैं।
अर्थ: जिस गुरु (रामदास जी) के दर के दर्शन करने से काम-क्रोध (आदि यह सारे) दूर हो जाते हैं, मैं सदके हूँ उस सच्चे गुरु के नाम पर से।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजु जोगु तखतु दीअनु गुर रामदास ॥

मूलम्

राजु जोगु तखतु दीअनु गुर रामदास ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दीअनु = दीया उनि, उस (हरि) ने दिया। गुर रामदास = गुरु रामदास जी को।
अर्थ: उस (अकाल-पुरख) ने गुरु रामदास (जी) को राज और जोग (वाला) तख़्त दिया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रथमे नानक चंदु जगत भयो आनंदु तारनि मनुख्य जन कीअउ प्रगास ॥ गुर अंगद दीअउ निधानु अकथ कथा गिआनु पंच भूत बसि कीने जमत न त्रास ॥

मूलम्

प्रथमे नानक चंदु जगत भयो आनंदु तारनि मनुख्य जन कीअउ प्रगास ॥ गुर अंगद दीअउ निधानु अकथ कथा गिआनु पंच भूत बसि कीने जमत न त्रास ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रथमे = पहले। चंदु = चँद्रमा। आनंदु = खुशी। तारनि = तैराने के लिए, उद्धार के लिए। प्रगास = प्रकाश, रौशनी। दीअउ = दिया। निधान = खजाना। अकथ = अकह। पंच भूत = (कामादिक) पाँचों वैरी। जमत न = पैदा नहीं होता। त्रास = डर। कीने = कर लिए।
अर्थ: पहले गुरु नानक देव जी चँद्रमा (-रूप प्रकट हुए), मनुष्यों के उद्धार के लिए (आपने) प्रकाश किया और (सारे) संसार को खुशी हुई। (फिर गुरु नानक देव ने) गुरु अंगद देव जी को हरि के अकथ-कथा का ज्ञान-रूप खजाना बख्शा, (जिसके कारण गुरु अंगद देव ने) कामादिक पाँचों वैरी वश में कर लिए, और (उसको उनका) डर ना रहा।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर अमरु गुरू स्री सति कलिजुगि राखी पति अघन देखत गतु चरन कवल जास ॥ सभ बिधि मान्यिउ मनु तब ही भयउ प्रसंनु राजु जोगु तखतु दीअनु गुर रामदास ॥४॥

मूलम्

गुर अमरु गुरू स्री सति कलिजुगि राखी पति अघन देखत गतु चरन कवल जास ॥ सभ बिधि मान्यिउ मनु तब ही भयउ प्रसंनु राजु जोगु तखतु दीअनु गुर रामदास ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पति = इज्जत। अघन = पाप। गतु = दूर हो गए। जास = जिस (गुरु अमरदास जी) के। सभ बिधि = सब तरह से, पूरी तौर से। मान्हिउ = पतीज गया।
अर्थ: (फिर गुरु अंगद देव जी की छूह से) श्री सतिगुरु गुरु अमरदास (प्रकट हुआ), (उसने) कलियुग की पति रखी, आप के चरण-कमलों का दर्शन करके (कलिजुग के) पाप भाग गए। (जब गुरु अमरदास जी का) मन पूरी तरह से पतीज गया, तब (वह गुरु रामदास जी पर) प्रसन्न हुए और (उन्होंने) गुरु रामदास को राज-जोग वाला तख़्त बख्शा।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रड ॥ जिसहि धारि्यउ धरति अरु विउमु अरु पवणु ते नीर सर अवर अनल अनादि कीअउ ॥ ससि रिखि निसि सूर दिनि सैल तरूअ फल फुल दीअउ ॥

मूलम्

रड ॥ जिसहि धारि्यउ धरति अरु विउमु अरु पवणु ते नीर सर अवर अनल अनादि कीअउ ॥ ससि रिखि निसि सूर दिनि सैल तरूअ फल फुल दीअउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रड = छंद। जिसहि = जिस हरि नाम ने। धार्उ = टिका के रखा है। विउमु = व्योम, आकाश। ते = वे (बहु वचन)। नीर सर = सरोवर का पानी। अवर = अरु, अन्य। अनल = आग। अनादि = अन्न आदि। कीअउ = पैदा किया है। तरूअ = तरु, वृक्ष। सैल = शैल, पहाड़। ससि = चँद्रमा। रिखि = तारे। निसि = रात के समय। सूर = सूरज। दिनि = दिन के वक्त।
अर्थ: जिस हरि-नाम ने धरती और आकाश को टिका के रखा है, और जिसने पवन, सरोवरों के वह जल, आग और अन्न आदि पैदा किए हैं, (जिसकी इनायत से) रात को चँद्रमा और तारे और दिन के वक्त सूरज (चढ़ता है), जिसने पहाड़ रचे हैं और जिसने वृक्षों को फल-फूल लगाए हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुरि नर सपत समुद्र किअ धारिओ त्रिभवण जासु ॥ सोई एकु नामु हरि नामु सति पाइओ गुर अमर प्रगासु ॥१॥५॥

मूलम्

सुरि नर सपत समुद्र किअ धारिओ त्रिभवण जासु ॥ सोई एकु नामु हरि नामु सति पाइओ गुर अमर प्रगासु ॥१॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुरि = देवते। नर = मनुष्य। सपत = सात। किअ = किए, बनाए। धारिओ = टिकाए हैं। जासु = जिस ने। प्रगासु = प्रकाश, रौशनी। सति = अटल, सदा स्थिर।
अर्थ: जिसने देवते मनुष्य और सात समुंदर पैदा किए हैं और तीनों भवन टिका के रखे हैं, वही एक हरि का नाम सदा अटल है, (गुरु रामदास जी ने वही नाम-रूप) प्रकाश गुरु अमरदास जी से पाया है।1।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कचहु कंचनु भइअउ सबदु गुर स्रवणहि सुणिओ ॥ बिखु ते अम्रितु हुयउ नामु सतिगुर मुखि भणिअउ ॥

मूलम्

कचहु कंचनु भइअउ सबदु गुर स्रवणहि सुणिओ ॥ बिखु ते अम्रितु हुयउ नामु सतिगुर मुखि भणिअउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कचहु = काँच से। सबदु गुर = गुरु का शब्द। स्रवणहि = श्रवण: , कानों से। बिखु = विष, जहर। मुखि = मुँह से। भणिअउ = उचारा।
अर्थ: (जिस मनुष्य ने) गुरु का शब्द कानों से सुना है, वह (मानो) काँच से सोना हो गया है। जिसने सतिगुरु का नाम मुँह से उचारा है, वह विष से अमृत बन गया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोहउ होयउ लालु नदरि सतिगुरु जदि धारै ॥ पाहण माणक करै गिआनु गुर कहिअउ बीचारै ॥

मूलम्

लोहउ होयउ लालु नदरि सतिगुरु जदि धारै ॥ पाहण माणक करै गिआनु गुर कहिअउ बीचारै ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लोहउ = लोहे से। जदि = यदि। नदरि धारै = देखे, दृष्टि करे। पाहण = पत्थर। बीचारै = विचार के। माणक = मोती।
अर्थ: अगर सतिगुरु (मेहर की) नजर करे, तो (जीव) लोहे से लाल बन जाता है। जिस मनुष्यों ने गुरु के बताए हुए ज्ञान को विचार के जपा है उनको गुरु (मानो) पत्थरों से माणक कर देता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काठहु स्रीखंड सतिगुरि कीअउ दुख दरिद्र तिन के गइअ ॥ सतिगुरू चरन जिन्ह परसिआ से पसु परेत सुरि नर भइअ ॥२॥६॥

मूलम्

काठहु स्रीखंड सतिगुरि कीअउ दुख दरिद्र तिन के गइअ ॥ सतिगुरू चरन जिन्ह परसिआ से पसु परेत सुरि नर भइअ ॥२॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काठहु = काठ से, लकड़ी से। श्रीखंड = चँदन। सतिगुरि = सतिगुरु ने। तिन के = उन मनुष्यों के। गइअ = गए, दूर हो जाते हैं। जिन्ह = जिस मनुष्यों ने। तिन के = उन मनुष्यों ने। से = वे मनुष्य (बहुवचन)।
अर्थ: जिस मनुष्यों ने सतिगुरु के चरण परसे हैं, वह पशू व प्रेतों से देवते और मनुष्य बन गए हैं, उनके दुख-दारिद्र दूर हो गए हैं और सतिगुरु ने उनको (मानो) काठ से चँदन बना दिया है।2।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जामि गुरू होइ वलि धनहि किआ गारवु दिजइ ॥ जामि गुरू होइ वलि लख बाहे किआ किजइ ॥

मूलम्

जामि गुरू होइ वलि धनहि किआ गारवु दिजइ ॥ जामि गुरू होइ वलि लख बाहे किआ किजइ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जामि = जब। वलि होइ = सहायता करे, की तरफ हो। धनहि = धन में, धन के कारण। गारवु = अहंकार। दिजइ = देता, करता। किआ गारवु = क्या गर्व? , क्या अहंकार? (भाव, कोई अहंकार नहीं)। लख बाहे = लाखों बाहें, लाखों फौजें। किआ किजइ = क्या बिगाड़ सकती हैं?
अर्थ: जब सतिगुरु (किसी मनुष्य की) सहायता करे तो वह धन के कारण अहंकार नहीं करता। जब गुरु (अपने) पक्ष में हो, तो लाखों फौजें क्या बिगाड़ सकती हैं?

विश्वास-प्रस्तुतिः

जामि गुरू होइ वलि गिआन अरु धिआन अनन परि ॥ जामि गुरू होइ वलि सबदु साखी सु सचह घरि ॥

मूलम्

जामि गुरू होइ वलि गिआन अरु धिआन अनन परि ॥ जामि गुरू होइ वलि सबदु साखी सु सचह घरि ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनन परि = किसी अन्य की तरफ नहीं। अनन = ना अन्य, नहीं कोई और। परि = की ओर, परायण। साखी = साक्षात हो जाता है, हृदय में प्रकट हो जाता है। सु = वह मनुष्य। सचह घरि = सदा स्थिर प्रभु के घर में (टिक के), सच के घर में।
अर्थ: जब गुरु पक्ष करे, तो मनुष्य ज्ञान और ध्यान की दाति होने के कारण (हरि के बिना) किसी और के साथ प्यार नहीं डालता। जब गुरु सहायता करे, तो जीवों के हृदय में शब्द साक्षात हो जाता है और वह सच्चे हरि के घर में (टिक जाता) है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो गुरू गुरू अहिनिसि जपै दासु भटु बेनति कहै ॥ जो गुरू नामु रिद महि धरै सो जनम मरण दुह थे रहै ॥३॥७॥

मूलम्

जो गुरू गुरू अहिनिसि जपै दासु भटु बेनति कहै ॥ जो गुरू नामु रिद महि धरै सो जनम मरण दुह थे रहै ॥३॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अहि निसि = दिन रात। अहि = दिन। निसि = रात। दासु भटु = दास (नल्य) भाट। रिद महि = हृदय में। धरै = टिकाता है। दुहथे = दोनों से। रहै = बच जाता है।
अर्थ: दास (नल्य) भाट विनती करता है कि जो मनुष्य दिन-रात ‘गुरु गुरु’ जपता है, जो सतिगुरु का नाम हृदय में टिकाता है, वह मनुष्य जनम-मरण से बच जाता है।3।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर बिनु घोरु अंधारु गुरू बिनु समझ न आवै ॥ गुर बिनु सुरति न सिधि गुरू बिनु मुकति न पावै ॥

मूलम्

गुर बिनु घोरु अंधारु गुरू बिनु समझ न आवै ॥ गुर बिनु सुरति न सिधि गुरू बिनु मुकति न पावै ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घोरु अंधारु = घोर अंधकार, डरावना अंधेरा।
अर्थ: सतिगुरु (की शरण पड़े) बिना (मनुष्य के जीवन की राह में) अंधकार ही अंधकार है, गुरु के बिना (सही जीवन की) समझ प्राप्त नहीं हो सकती। गुरु के बिना सोच (ऊँची) नहीं होती और (जीवन संग्राम में) सफलता प्राप्त नहीं होती, गुरु के बिना (विकारों से) खलासी नहीं मिलती।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरु करु सचु बीचारु गुरू करु रे मन मेरे ॥ गुरु करु सबद सपुंन अघन कटहि सभ तेरे ॥

मूलम्

गुरु करु सचु बीचारु गुरू करु रे मन मेरे ॥ गुरु करु सबद सपुंन अघन कटहि सभ तेरे ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करु = धारण कर। सबद सपुंन = शब्द सम्पन्न, शब्द का सूरा। अघन = पाप।
अर्थ: हे मेरे मन! सतिगुरु की शरण पड़, यही उत्तम विचार है। शब्द के शूरवीर गुरु की शरण पड़, तेरे सारे पाप कट जाएंगे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरु नयणि बयणि गुरु गुरु करहु गुरू सति कवि नल्य कहि ॥ जिनि गुरू न देखिअउ नहु कीअउ ते अकयथ संसार महि ॥४॥८॥

मूलम्

गुरु नयणि बयणि गुरु गुरु करहु गुरू सति कवि नल्य कहि ॥ जिनि गुरू न देखिअउ नहु कीअउ ते अकयथ संसार महि ॥४॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नयणि = नेत्र में। बयणि = वचन में। करहु = बसाओ। सति = सदा स्थिर। कीअउ = किया, धारण किया। अकयथ = निष्फल। ते = वह लोग। जिनि = जिस (जिस मनुष्य) ने। नहु = नहीं। कीअउ = किया, धारण किया।
अर्थ: कवि नल्य कहता है: (हे मेरे मन!) अपनी आँखों में, अपने बोलों में केवल गुरु को ही बसाओ, गुरु सदा-स्थिर रहने वाला है। जिस-जिस मनुष्य ने सतिगुरु के दर्शन नहीं किए, और जो जो मनुष्य सतिगुरु की शरण नहीं पड़ा, वह सारे संसार में निष्फल (ही आए)।4।8।

[[1400]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरू गुरू गुरु करु मन मेरे ॥ तारण तरण सम्रथु कलिजुगि सुनत समाधि सबद जिसु केरे ॥ फुनि दुखनि नासु सुखदायकु सूरउ जो धरत धिआनु बसत तिह नेरे ॥

मूलम्

गुरू गुरू गुरु करु मन मेरे ॥ तारण तरण सम्रथु कलिजुगि सुनत समाधि सबद जिसु केरे ॥ फुनि दुखनि नासु सुखदायकु सूरउ जो धरत धिआनु बसत तिह नेरे ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तारण तरण = तैराने के लिए जहाज। तरण = जहाज। सम्रथु = समर्थ। कलिजुगि = कलियुग में। सुनत = सुनते हुए। सबद जिसु केरे = जिस गुरु के शब्द। केरे = के। समाधि = समाधि (में जुड़ा जाया जाता है)। फुनि = फिर। दुखनि नासु = दुखों का नाश करने वाला। सूरउ = सूरमा। तिह नेरे = उस मनुष्य के पास।
अर्थ: हे मेरे मन! ‘गुरु’ ‘गुरु’ जप। जिस गुरु की वाणी सुन के समाधि (में लीन हो जाया जाता है), वह गुरु कलियुग में (संसार-सागर से) तैरा लेने के लिए समर्थ जहाज है। वह गुरु दुखों का नाश करने वाला है, सुखों के देने वाला शूरवीर है। जो मनुष्य उसका ध्यान धरता है, वह गुरु उसके अंग-संग बसता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूरउ पुरखु रिदै हरि सिमरत मुखु देखत अघ जाहि परेरे ॥ जउ हरि बुधि रिधि सिधि चाहत गुरू गुरू गुरु करु मन मेरे ॥५॥९॥

मूलम्

पूरउ पुरखु रिदै हरि सिमरत मुखु देखत अघ जाहि परेरे ॥ जउ हरि बुधि रिधि सिधि चाहत गुरू गुरू गुरु करु मन मेरे ॥५॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पूरउ = पूरा। रिदै = दिल में। मुखु = (उस गुरु का) मुँह। अघ = पाप। जाहि परेरे = दूर हो जाते हैं। जउ = यदि। हरि बुधि = ईश्वरीय बुद्धि।
अर्थ: सतिगुरु पूरन पुरख है, गुरु हृदय में हरि को स्मरण करता है, (उसका) मुख देखने से पाप दूर हो जाते हैं। हे मेरे मन! यदि तू ईश्वरीय बुद्धि, रिद्धियां और सिद्धियां चाहता है, तो ‘गुरु’ ‘गुरु’ जप।5।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरू मुखु देखि गरू सुखु पायउ ॥ हुती जु पिआस पिऊस पिवंन की बंछत सिधि कउ बिधि मिलायउ ॥ पूरन भो मन ठउर बसो रस बासन सिउ जु दहं दिसि धायउ ॥

मूलम्

गुरू मुखु देखि गरू सुखु पायउ ॥ हुती जु पिआस पिऊस पिवंन की बंछत सिधि कउ बिधि मिलायउ ॥ पूरन भो मन ठउर बसो रस बासन सिउ जु दहं दिसि धायउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरू मुख = सतिगुरु का मुँह। गुरू सुखु = बड़ा आनंद। गरू = (गरीयस् = Compare of गुरु)। पायउ = मिला है, लिया है। हुती जु पिआस = जो प्यास (लगी हुई) थी। पिऊस = (पीयुष) अमृत। पिवंन की = पीने की। बंछत = मन इच्छत। कउ = के लिए। बिधि = ढंग! मिलायउ = मिला दिया है, बना दिया है। भो = हो गया है। ठउर बसो = जगह बस गया है, टिक गया है। रस बासन सिउ = रसों व वासना से। जु = जो मन। दहं दिसि = दसों तरफ। धायउ = दौड़ता है।
अर्थ: सतिगुरु (अमरदास जी) के दर्शन कर के (गुरु रामदास जी ने) बड़ा आनंद पाया है। (आप को) अमृत पीने की जो तमन्ना लगी हुई थी, उस मन-इच्छित (चाहत की) सफलता का ढंग (हरि ने) बना दिया है। (संसारी जीवों का) जो मन रसों-वासनाओं के पीछे दसों-दिशाओं में दौड़ता है आप का वह मन तृप्त हो गया है और टिक गया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोबिंद वालु गोबिंद पुरी सम जल्यन तीरि बिपास बनायउ ॥ गयउ दुखु दूरि बरखन को सु गुरू मुखु देखि गरू सुखु पायउ ॥६॥१०॥

मूलम्

गोबिंद वालु गोबिंद पुरी सम जल्यन तीरि बिपास बनायउ ॥ गयउ दुखु दूरि बरखन को सु गुरू मुखु देखि गरू सुखु पायउ ॥६॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गोबिंद पुरी सम = हरि के नगर समान, बैकुंठ समान। सम = बराबर, जैसा। जल्न तीरि बिपास = ब्यास के जल के किनारे पर। बरखन को दुखु = वर्षों का दुख। तीरि = किनारे पर।
अर्थ: (जिस सतिगुरु अमरदास जी ने) बैकुंठ जैसा गोइंदवाल ब्यास के पानी के किनारे पर बना दिया है, उस गुरु का मुँह देख के (गुरु रामदास जी ने) बड़ा आनंद पाया है, (आप का, जैसे) वर्षों का दुख दूर हो गया है।6।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

समरथ गुरू सिरि हथु धर्यउ ॥ गुरि कीनी क्रिपा हरि नामु दीअउ जिसु देखि चरंन अघंन हर्यउ ॥ निसि बासुर एक समान धिआन सु नाम सुने सुतु भान डर्यउ ॥

मूलम्

समरथ गुरू सिरि हथु धर्यउ ॥ गुरि कीनी क्रिपा हरि नामु दीअउ जिसु देखि चरंन अघंन हर्यउ ॥ निसि बासुर एक समान धिआन सु नाम सुने सुतु भान डर्यउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिरि = सिर पर। गुरि = सतिगुरु ने। जिसु देखि चरंन = जिस (गुरु) के चरणों को देख के। अघंन = पाप। हर्यउ = दूर हो गए। निसि बासुर = रात दिन। बासुर = दिन। एक समान = एक रस। सुतु भान = सूरज का पुत्र, जम। भान = सूरज। सुने = सन के।
अर्थ: समर्थ गुरु (अमरदास जी) ने (गुरु रामदास जी के) सिर पर हाथ रखा है। जिस (गुरु अमरदास जी) के दर्शन करने से पाप दूर हो जाते हैं, उस गुरु ने मेहर की है, (गुरु रामदास जी को) हरि का नाम बख्शा है; (उस नाम में गुरु रामदास जी का) दिन-रात एक-रस ध्यान रहता है, उस नाम को सुनने से जम-राज (भी) डरता है (भाव, नजदीक नहीं आता)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भनि दास सु आस जगत्र गुरू की पारसु भेटि परसु कर्यउ ॥ रामदासु गुरू हरि सति कीयउ समरथ गुरू सिरि हथु धर्यउ ॥७॥११॥

मूलम्

भनि दास सु आस जगत्र गुरू की पारसु भेटि परसु कर्यउ ॥ रामदासु गुरू हरि सति कीयउ समरथ गुरू सिरि हथु धर्यउ ॥७॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भनि = कह। दास = हे दास (नल्य) कवि! जगत्र गुरू = जगत के गुरु। पारसु भेटि = पारस (गुरु अमरदास जी) को मिल के। परसु = परसन योग (पारसु)। कर्यउ = किया गया है। सति = अटल।
अर्थ: हे दास नल्य! कवि! कह: ‘गुरु रामदास जी को केवल जगत के गुरु की ही आस है, पारस (गुरु अमरदास जी) को मिल के आप भी परसन-योग (पारस ही) हो गए हैं। हरि ने गुरु रामदास जी को अटल कर रखा है, (क्योंकि) समर्थ गुरु (अमरदास जी) ने (उनके) सिर पर हाथ रखा हुआ है’।7।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब राखहु दास भाट की लाज ॥ जैसी राखी लाज भगत प्रहिलाद की हरनाखस फारे कर आज ॥ फुनि द्रोपती लाज रखी हरि प्रभ जी छीनत बसत्र दीन बहु साज ॥

मूलम्

अब राखहु दास भाट की लाज ॥ जैसी राखी लाज भगत प्रहिलाद की हरनाखस फारे कर आज ॥ फुनि द्रोपती लाज रखी हरि प्रभ जी छीनत बसत्र दीन बहु साज ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: फारे = फाड़ दिया। कर = हाथ। कर आज = हाथों के नाखूनों से। छीनत = छीनते हुए। दीन = दिया। साज = समान।
अर्थ: (हे सतिगुरु जी!) अब इस दास (नल्य) भाट की इज्जत रख लो, जैसे (आप ने) प्रहलाद भक्त की इज्जत रखी थी और हर्णाक्षस को हाथों के नाखूनों से मार दिया था। और, हे हरि-प्रभु जी! द्रोपदी की (भी) आपने इज्जत बचाई, जब उसके वस्त्र छीने जा रहे थे, (आपने) उसको बहुत सम्मान बख्शा था।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोदामा अपदा ते राखिआ गनिका पड़्हत पूरे तिह काज ॥ स्री सतिगुर सुप्रसंन कलजुग होइ राखहु दास भाट की लाज ॥८॥१२॥

मूलम्

सोदामा अपदा ते राखिआ गनिका पड़्हत पूरे तिह काज ॥ स्री सतिगुर सुप्रसंन कलजुग होइ राखहु दास भाट की लाज ॥८॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अपदा = बिपता, कष्ट। राखिआ = बचाया। गनिका = कंजरी। पूरे = पूरे किए, सफल किए। तिह काज = उस (गनिका) के काम। सतिगुर = हे सतिगुरु! सुप्रसंन होइ = प्रसन्न हो के। लाज = इज्जत।
अर्थ: हे सतिगुरु जी! सुदामे को (आपने) बिपता से बचाया, (राम नाम) पढ़ती गनिका का काम सफल किया। अब कलियुग के समय इस सेवक (नल्य) भाट पर (भी) प्रसन्न हो के इसकी इज्जत रखो।8।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

झोलना ॥ गुरू गुरु गुरू गुरु गुरू जपु प्रानीअहु ॥ सबदु हरि हरि जपै नामु नव निधि अपै रसनि अहिनिसि रसै सति करि जानीअहु ॥ फुनि प्रेम रंग पाईऐ गुरमुखहि धिआईऐ अंन मारग तजहु भजहु हरि ग्यानीअहु ॥

मूलम्

झोलना ॥ गुरू गुरु गुरू गुरु गुरू जपु प्रानीअहु ॥ सबदु हरि हरि जपै नामु नव निधि अपै रसनि अहिनिसि रसै सति करि जानीअहु ॥ फुनि प्रेम रंग पाईऐ गुरमुखहि धिआईऐ अंन मारग तजहु भजहु हरि ग्यानीअहु ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: झोलना = छंद। अपै = अरपे, अर्पित करता है। रसनि = जीभ से। अहिनिसि = दिन रात (भाव, हर वक्त)। रसै = आनंद लेता है, स्मरण करता है। सति करि = ठीक, सच कर के। जानीअहु = जानो, समझो। प्रेम रंग = प्रेम की रंगण। गुरमुखहि = गुरु के सन्मुख हो के। अंन मारग = और रास्ते, और पंथ। तजहु = छोड़ो। ग्यानीअहु = हे ज्ञानियो! हे ज्ञान वाले सज्जनो!
अर्थ: हे प्राणियो! नित्य ‘गुरु’ ‘गुरु’ जपो। (ये बात) सच जानो, कि (सतिगुरु स्वयं) हरि-शब्द जपता है, (और लोगों को) नाम-रूपी नौ-निद्धियां बख्शता है, और हर वक्त जीभ से (नाम का) आनंद ले रहा है। (अगर) गुरु की शिक्षा ले के (हरि को) स्मरण करें, तो हरि के प्रेम का रंग प्राप्त होता है, (इसलिए) हे ज्ञानवानों! और रास्ते छोड़ दो, और हरि को स्मरण करो।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बचन गुर रिदि धरहु पंच भू बसि करहु जनमु कुल उधरहु द्वारि हरि मानीअहु ॥ जउ त सभ सुख इत उत तुम बंछवहु गुरू गुरु गुरू गुरु गुरू जपु प्रानीअहु ॥१॥१३॥

मूलम्

बचन गुर रिदि धरहु पंच भू बसि करहु जनमु कुल उधरहु द्वारि हरि मानीअहु ॥ जउ त सभ सुख इत उत तुम बंछवहु गुरू गुरु गुरू गुरु गुरू जपु प्रानीअहु ॥१॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रिदि = हृदय में। वचन गुर = सतिगुरु के वचन। पंच भू = मन। बसि करहु = वश में करो, काबू करो। उधरहु = तैरा लो, सफल कर लो। द्वारि हरि = हरि के दर पर, हरि की दरगाह में। मानीअहु = मान पाओगे। जउत = यदि। इत उत = यहाँ वहाँ के, इस संसार के और परलोक के। सब सुख बंछवहु = तुम सारे सुख चाहते हो।
अर्थ: (हे प्राणियो!) सतिगुरु के वचनों को हृदय में टिकाओ (और इस तरह) अपने मन को काबू करो, अपने जनम और कुल को सफल करो, हरि के दर पर आदर पाओगे। अगर तुम परलोक के सारे सुख चाहते हो, तो हे प्राणियो! सदा गुरु गुरु जपो।1।13।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरू गुरु गुरू गुरु गुरू जपि सति करि ॥ अगम गुन जानु निधानु हरि मनि धरहु ध्यानु अहिनिसि करहु बचन गुर रिदै धरि ॥ फुनि गुरू जल बिमल अथाह मजनु करहु संत गुरसिख तरहु नाम सच रंग सरि ॥

मूलम्

गुरू गुरु गुरू गुरु गुरू जपि सति करि ॥ अगम गुन जानु निधानु हरि मनि धरहु ध्यानु अहिनिसि करहु बचन गुर रिदै धरि ॥ फुनि गुरू जल बिमल अथाह मजनु करहु संत गुरसिख तरहु नाम सच रंग सरि ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सति करि = श्रद्धा से, दृढ़ करके। अगम गुन निधानु = बेअंत गुणों का खजाना। जानु = जाननेवाला। मनि = मन में। धरि = धर के। बिमल = निर्मल, शुद्ध। अथाह = गंभीर। मजनु = स्नान। गुरसिख = हे गुरसिखो! रंगि सरि = प्रेम के सरोवर। तरहु = तैरो।
अर्थ: हे संतजनो! हे गुरसिखो! श्रद्धा से गुरु गुरु जपो। सतिगुरु के वचन हृदय में बसा के (घट-घट की) जाननेवाले और बेअंत गुणों के खजाने हरि को मन में बसाओ, और दिन-रात उसी का ध्यान धरो। फिर सतिगुरु-रूपी निर्मल और गंभीर जल में डुबकी लगाओ, और सच्चे नाम के प्रेम में तैराकी करो।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदा निरवैरु निरंकारु निरभउ जपै प्रेम गुर सबद रसि करत द्रिड़ु भगति हरि ॥ मुगध मन भ्रमु तजहु नामु गुरमुखि भजहु गुरू गुरु गुरू गुरु गुरू जपु सति करि ॥२॥१४॥

मूलम्

सदा निरवैरु निरंकारु निरभउ जपै प्रेम गुर सबद रसि करत द्रिड़ु भगति हरि ॥ मुगध मन भ्रमु तजहु नामु गुरमुखि भजहु गुरू गुरु गुरू गुरु गुरू जपु सति करि ॥२॥१४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जपै = (जो गुरु) जपता है। रसि = आनंद में। भगति हरि = हरि की भक्ति। मुगध मन = हे मूर्ख मन! गुरमुखि = गुरु से।
अर्थ: (जो गुरु रामदास) सदा निर्वैर और निर्भय निरंकार को जपता है, और सतिगुरु के शब्द के प्रेम के आनंद में हरि की भक्ति दृढ़ करता है, उस गुरु के सन्मुख हो के हे मूर्ख मन! (हरि का) नाम जप, और भ्रम छोड़ दे, श्रद्धा से ‘गुरु’ ‘गुरु’ कर।2।14।

[[1401]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरू गुरु गुरु करहु गुरू हरि पाईऐ ॥ उदधि गुरु गहिर ग्मभीर बेअंतु हरि नाम नग हीर मणि मिलत लिव लाईऐ ॥ फुनि गुरू परमल सरस करत कंचनु परस मैलु दुरमति हिरत सबदि गुरु ध्याईऐ ॥

मूलम्

गुरू गुरु गुरु करहु गुरू हरि पाईऐ ॥ उदधि गुरु गहिर ग्मभीर बेअंतु हरि नाम नग हीर मणि मिलत लिव लाईऐ ॥ फुनि गुरू परमल सरस करत कंचनु परस मैलु दुरमति हिरत सबदि गुरु ध्याईऐ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरू हरि पाईऐ = गुरु के द्वारा ही हरि मिलता है। उदधि = समुंदर। गहिर = गहरा। नग हीर मणि = मोती, हीरे, जवाहरात। मिलत = मिलते हैं। परमल परस = रसदायक सुगन्धि। कंचनु = सोना। गुरू परस = गुरु की छूह। हिरत = दूर कर देती है। सबदि गुरु = शब्द से गुरु को।
अर्थ: (हे भाई!) सदा ‘गुरु’ ‘गुरु’ करो, गुरु के द्वारा ही हरि मिलता है। सतिगुरु गहरा गंभीर और बेअंत समुंदर है, (उसमें) डुबकी लगाने से हरि का नाम-रूपी नग, हीरे और मणियां प्राप्त होती हैं। और, सतिगुरु की छोह (जीव के अंदर) स्वादिष्ट सुगन्धि पैदा कर देती है; सोना बना देती है, दुर्मति की मैल दूर कर देती है; (इसलिए) शब्द के माध्यम से गुरु को स्मरण करें।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अम्रित परवाह छुटकंत सद द्वारि जिसु ग्यान गुर बिमल सर संत सिख नाईऐ ॥ नामु निरबाणु निधानु हरि उरि धरहु गुरू गुरु गुरु करहु गुरू हरि पाईऐ ॥३॥१५॥

मूलम्

अम्रित परवाह छुटकंत सद द्वारि जिसु ग्यान गुर बिमल सर संत सिख नाईऐ ॥ नामु निरबाणु निधानु हरि उरि धरहु गुरू गुरु गुरु करहु गुरू हरि पाईऐ ॥३॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परवाह = प्रवाह, श्रोत। छुटकंत = चलते हैं, बहते हैं। सद = सदा। द्वारि जिसु = जिस गुरु के दर पर। सर = सरोवर। निरबाणु = वासना रहित, कल्पना रहित। उरि = हृदय में।
अर्थ: जिस गुरु के दर पर सदा अमृत के चश्मे (निरंतर) बह रहे हैं, जिस गुरु के ज्ञान-रूप निर्मल सरोवर में सिख संत स्नान करते हैं, उस गुरु के द्वारा हरि के वासना-रहित नाम-खजाने को हृदय में बसाओ। सदा ‘गुरु’ ‘गुरु’ करो, गुरु के द्वारा ही हरि मिलता है।3।15।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरू गुरु गुरू गुरु गुरू जपु मंन रे ॥ जा की सेव सिव सिध साधिक सुर असुर गण तरहि तेतीस गुर बचन सुणि कंन रे ॥ फुनि तरहि ते संत हित भगत गुरु गुरु करहि तरिओ प्रहलादु गुर मिलत मुनि जंन रे ॥

मूलम्

गुरू गुरु गुरू गुरु गुरू जपु मंन रे ॥ जा की सेव सिव सिध साधिक सुर असुर गण तरहि तेतीस गुर बचन सुणि कंन रे ॥ फुनि तरहि ते संत हित भगत गुरु गुरु करहि तरिओ प्रहलादु गुर मिलत मुनि जंन रे ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंन रे = हे मन! जा की सेव = जिस (गुरु) की सेवा से। सुर = देवते। असुर = राक्षस, दैत्य। गण = शिव जी के गण। तेतीस = तैतिस करोड़ देवते। कंन = कानों से। सुणि = सुन के। हित = प्यार से। ते संत = वह संत जन। साधिक = जोग साधना करने वाले। सिध = जोग साधना करने वाले सिद्ध योगी।
अर्थ: हे मेरे मन! गुरु गुरु जप, शिव जी, उसके गण, सिद्ध, साधिक, दैव, दैत्य और तैतिस करोड़ देवता, उस (गुरु) की सेवा करके और गुरु के वचन कानों से सुन के पार उतर जाते हैं। और, वह संत जन और भक्त तैर जाते हैं, जो प्यार से ‘गुरु’ ‘गुरु’ करते हैं। गुरु को मिल के प्रहलाद तैर गया और कई मुनि तैर गए।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तरहि नारदादि सनकादि हरि गुरमुखहि तरहि इक नाम लगि तजहु रस अंन रे ॥ दासु बेनति कहै नामु गुरमुखि लहै गुरू गुरु गुरू गुरु गुरू जपु मंन रे ॥४॥१६॥२९॥

मूलम्

तरहि नारदादि सनकादि हरि गुरमुखहि तरहि इक नाम लगि तजहु रस अंन रे ॥ दासु बेनति कहै नामु गुरमुखि लहै गुरू गुरु गुरू गुरु गुरू जपु मंन रे ॥४॥१६॥२९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि गुरमुखहि = हरि के रूप गुरु के द्वारा। इक नाम लगि = एक नाम में जुड़ के। रस अंन = और स्वाद। दासु = दास नल्य कवि। गुरमुखि = गुरु के द्वारा, गुरु के सन्मुख हो के।
अर्थ: हरि-रूप गुरु के द्वारा एक नाम में जुड़ के नारद और सनक आदि तैर जाते हैं; (इसलिए, हे मन! तू भी) अन्य स्वाद छोड़ दे (और एक नाम जप)। दास नल्य कवि अर्ज करता है कि नाम गुरु के द्वारा मिलता है, (इसलिए) हे मन! ‘गुरु’ ‘गुरु’ जप।4।16।29।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिरी गुरू साहिबु सभ ऊपरि ॥ करी क्रिपा सतजुगि जिनि ध्रू परि ॥ स्री प्रहलाद भगत उधरीअं ॥ हस्त कमल माथे पर धरीअं ॥

मूलम्

सिरी गुरू साहिबु सभ ऊपरि ॥ करी क्रिपा सतजुगि जिनि ध्रू परि ॥ स्री प्रहलाद भगत उधरीअं ॥ हस्त कमल माथे पर धरीअं ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतजुगि = सतियुग में। जिनि = जिस (गुरु) ने। परि = पर। उधरीअं = बचाया। हसत कमल = कमल फूल जैसे हाथ।
अर्थ: जिस (गुरु) ने सतियुग में ध्रुव पर कृपा की, प्रहलाद भक्त को बचाया, और उसके माथे पर अपने कमल जैसे हाथ रखे, उस गुरु ने सारे जीवों पर मेहर की है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अलख रूप जीअ लख्या न जाई ॥ साधिक सिध सगल सरणाई ॥ गुर के बचन सति जीअ धारहु ॥ माणस जनमु देह निस्तारहु ॥

मूलम्

अलख रूप जीअ लख्या न जाई ॥ साधिक सिध सगल सरणाई ॥ गुर के बचन सति जीअ धारहु ॥ माणस जनमु देह निस्तारहु ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीअ = जीवों से। लख्या न जाई = पहचाना नहीं जा सकता। सगल = सारे। सति = सत करके, दृढ़ कर के। जीअ = चिक्त में। देह = शरीर। निस्तारहु = सफल कर दो। अलख = अ+लख, वह परमात्मा जिसका स्वरूप बयान से परे हैं।
अर्थ: सारे सिद्ध और साधना करने वाले सतिगुरु की शरण आए हैं, किसी भी पक्ष से अलख प्रभु के रूप को और गुरु के स्वरूप को परखा नहीं जा सकता। (हे मन!) गुरु का वचन दृढ़ करके चिक्त में बसाओ, (और इस तरह) अपने मानव-जन्म और शरीर को सफल कर लो।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरु जहाजु खेवटु गुरू गुर बिनु तरिआ न कोइ ॥ गुर प्रसादि प्रभु पाईऐ गुर बिनु मुकति न होइ ॥

मूलम्

गुरु जहाजु खेवटु गुरू गुर बिनु तरिआ न कोइ ॥ गुर प्रसादि प्रभु पाईऐ गुर बिनु मुकति न होइ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खेवटु = मल्लाह। गुर प्रसादि = गुरु की कृपा से। मुकति = माया के बंधनो से मुक्ति।
अर्थ: (इस संसार सागर को तैरने के लिए) गुरु जहाज है, गुरु ही मल्लाह है, कोई प्राणी गुरु (की सहायता) के बिना नहीं तैर सका। गुरु की कृपा से ही प्रभु मिलता है, गुरु के बिना मुक्ति प्राप्त नहीं होती।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरु नानकु निकटि बसै बनवारी ॥ तिनि लहणा थापि जोति जगि धारी ॥ लहणै पंथु धरम का कीआ ॥ अमरदास भले कउ दीआ ॥ तिनि स्री रामदासु सोढी थिरु थप्यउ ॥ हरि का नामु अखै निधि अप्यउ ॥

मूलम्

गुरु नानकु निकटि बसै बनवारी ॥ तिनि लहणा थापि जोति जगि धारी ॥ लहणै पंथु धरम का कीआ ॥ अमरदास भले कउ दीआ ॥ तिनि स्री रामदासु सोढी थिरु थप्यउ ॥ हरि का नामु अखै निधि अप्यउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निकटि = नजदीक। बनवारी = जगत का मालिक। तिनि = उस (गुरु नानक) ने। थापि = निवाजि के। जगि = जगत में। थिरु थप्यउ = अटल कर दिया। अखै निधि = ना नाश होने वाला खजाना। अप्यउ = अर्पित किया, दिया।
अर्थ: गुरु नानक अकाल-पुरख के नजदीक बसता है। उस (गुरु नानक) ने लहणे को निवाज के जगत में (ईश्वरीय) ज्योति प्रकाश की। लहणे ने धर्म का राह चलाया, और भल्ले (गुरु) अमरदास जी को (नाम की दाति) दी। उस (गुरु अमरदास जी) ने सोढी गुरु रामदास जी को हरि का नाम-रूप ना खत्म होने वाला खजाना बख्शा और (उनको सदा के लिए) अटल कर दिया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्यउ हरि नामु अखै निधि चहु जुगि गुर सेवा करि फलु लहीअं ॥ बंदहि जो चरण सरणि सुखु पावहि परमानंद गुरमुखि कहीअं ॥

मूलम्

अप्यउ हरि नामु अखै निधि चहु जुगि गुर सेवा करि फलु लहीअं ॥ बंदहि जो चरण सरणि सुखु पावहि परमानंद गुरमुखि कहीअं ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चहु जुगि = चहुजुगी (नाम), सदा स्थिर रहने वाला (नाम)। लहीअं = प्राप्त किया है। बंदहि = नमस्कार करते हैं। परमानंद = परम आनंद वाले।
अर्थ: जो (मनुष्य गुरु के) चरणों में गिरते हैं और शरण आते हैं, वे सुख पाते हैं, वे परम-आनंद पाते हैं, और उन्हें गुरमुख कहते हैं। सतिगुरु की सेवा करके उनको (नाम-रूप) फल प्राप्त होता है। सतिगुरु (उनको) कभी ना खत्म होने वाला और सदा-स्थिर रहने वाला नाम-रूप खजाना बख्शता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

परतखि देह पारब्रहमु सुआमी आदि रूपि पोखण भरणं ॥ सतिगुरु गुरु सेवि अलख गति जा की स्री रामदासु तारण तरणं ॥१॥

मूलम्

परतखि देह पारब्रहमु सुआमी आदि रूपि पोखण भरणं ॥ सतिगुरु गुरु सेवि अलख गति जा की स्री रामदासु तारण तरणं ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देह = शरीर रूप। आदि = सबका मूल। रूपि = रूप वाला, अस्तित्व वाला। पोखण भरणं = पालने वाला। तारण तरणं = (संसार सागर से) तैराने के लिए जहाज। तरण = जहाज। गति = आत्मिक अवस्था। अलख = अकथनीय।
अर्थ: (जो) परमात्मा (सब जीवों का) मालिक है, सबका मूल है, अस्तित्व वाला है, सबको पालने वाला है (वह अब) प्रत्यक्ष तौर पर (गुरु रामदास जी के) शरीर (में प्रकट) है। (हे भाई!) जिस गुरु (रामदास) की आत्मिक अवस्था बयान से बाहर है, जो संसार-सागर से तैराने के लिए जहाज है, उसकी सेवा करो।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिह अम्रित बचन बाणी साधू जन जपहि करि बिचिति चाओ ॥ आनंदु नित मंगलु गुर दरसनु सफलु संसारि ॥

मूलम्

जिह अम्रित बचन बाणी साधू जन जपहि करि बिचिति चाओ ॥ आनंदु नित मंगलु गुर दरसनु सफलु संसारि ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिह = जिस (गुरु) के। बिचिति = चिक्त में विशेष कर के। करि चाओ = उत्साह से। संसारि = संसार में। सफलु = फलदायक। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला।
अर्थ: जिस (गुरु) के अमृत वचनों और वाणी को संत-जन हृदय में बड़े उत्साह के साथ जपते हैं और सदा आनंद-मंगल (करते हैं), उस गुरु का दर्शन संसार में (उत्तम) फल देने वाला है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संसारि सफलु गंगा गुर दरसनु परसन परम पवित्र गते ॥ जीतहि जम लोकु पतित जे प्राणी हरि जन सिव गुर ग्यानि रते ॥

मूलम्

संसारि सफलु गंगा गुर दरसनु परसन परम पवित्र गते ॥ जीतहि जम लोकु पतित जे प्राणी हरि जन सिव गुर ग्यानि रते ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जे = जो। सिव = कल्याण स्वरूप। ग्यानि = ज्ञान में। रते = रंगे जा के। हरि जन = ईश्वर के सेवक।
अर्थ: संसार में सतिगुरु के दर्शन गंगा की तरह सफल हैं। गुरु के (चरण) परसने से परम पवित्र पदवी प्राप्त होती है। जो मनुष्य (पहले) पतित भी (भाव, गिरे हुए आचरण वाले) होते हैं, वे कल्याण-स्वरूप सतिगुरु के ज्ञान में रंगे जा के ईश्वर के सेवक बन के जम-लोक को जीत लेते हैं, (भाव, उनको जमों का डर नहीं रहता)।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

रघुबंसि तिलकु सुंदरु दसरथ घरि मुनि बंछहि जा की सरणं ॥ सतिगुरु गुरु सेवि अलख गति जा की स्री रामदासु तारण तरणं ॥२॥

मूलम्

रघुबंसि तिलकु सुंदरु दसरथ घरि मुनि बंछहि जा की सरणं ॥ सतिगुरु गुरु सेवि अलख गति जा की स्री रामदासु तारण तरणं ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रघुबंसि = रघु के कुल में। तिलकु = शिरोमणि। दसरथ घरि = दशरथ के घर में। बंछहि = लोचते हैं। जा की = जिस की।
अर्थ: रघु की कुल में दशरथ के घर शिरोमणि और सुंदर (मेरी निगाहों में तो गुरु अमरदारस जी ही थे) जिनकी शरण आना (सारे) मुनि लोचते हैं। श्री गुरु (रामदास जी) की सेवा करो (शरण पड़ो) जिसकी आत्मिक अवस्था बयान से बाहर है, और जो तैराने के लिए जहाज है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संसारु अगम सागरु तुलहा हरि नामु गुरू मुखि पाया ॥ जगि जनम मरणु भगा इह आई हीऐ परतीति ॥

मूलम्

संसारु अगम सागरु तुलहा हरि नामु गुरू मुखि पाया ॥ जगि जनम मरणु भगा इह आई हीऐ परतीति ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरू मुखि = गुरु से। जगि = जगत में। भगा = नाश हो गया, समाप्त हो गया। हीऐ = हृदय में। परतीति = यकीन।
अर्थ: संसार अथाह समुंदर है, और हरि का नाम (इसमें से पार लगाने के लिए) तुलहा है; (जिस मनुष्य ने) गुरु के द्वारा (ये तुलहा) प्राप्त कर लिया है और जिसको हृदय में यकीन बँध गया है, उसका जगत में जनम-मरण समाप्त हो जाता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

परतीति हीऐ आई जिन जन कै तिन्ह कउ पदवी उच भई ॥ तजि माइआ मोहु लोभु अरु लालचु काम क्रोध की ब्रिथा गई ॥

मूलम्

परतीति हीऐ आई जिन जन कै तिन्ह कउ पदवी उच भई ॥ तजि माइआ मोहु लोभु अरु लालचु काम क्रोध की ब्रिथा गई ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तजि = छोड़ के। ब्रिथा = (व्यथा) पीड़ा, कष्ट। गई = खत्म हो गई।
अर्थ: जिस मनुष्यों के हृदय में यकीन बँध गया है, उनको ऊँची पदवी मिली है; माया का मोह, लोभ और लालच त्याग के (भाव, उन्होंने त्याग दिया है और) उनकी काम-क्रोध की पीड़ा दूर हो गई है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवलोक्या ब्रहमु भरमु सभु छुटक्या दिब्य द्रिस्टि कारण करणं ॥ सतिगुरु गुरु सेवि अलख गति जा की स्री रामदासु तारण तरणं ॥३॥

मूलम्

अवलोक्या ब्रहमु भरमु सभु छुटक्या दिब्य द्रिस्टि कारण करणं ॥ सतिगुरु गुरु सेवि अलख गति जा की स्री रामदासु तारण तरणं ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अवलोक्या = देखा। ब्रहमु = हरि (रूप गुरु रामदास जी) को। छुटक्या = दूर हो गया। दिब्य द्रिस्टि = दिव्य दृष्टि, (जिस गुरु की) नज़र ईश्वरीय ज्योति वाली है। कारण करणं = जो सृष्टि का मूल है।
अर्थ: जिस मनुष्य ने सृष्टि के मूल, दिव्य दृष्टि वाले हरि- (रूप गुरु रामदास जी) को देखा है, उसका सारा भ्रम मिट गया है। (इसलिए) गुरु रामदास जी की सेवा करो, जिसकी आत्मिक अवस्था बयान से परे है, और जो पार लगने के लिए जहाज है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

परतापु सदा गुर का घटि घटि परगासु भया जसु जन कै ॥ इकि पड़हि सुणहि गावहि परभातिहि करहि इस्नानु ॥

मूलम्

परतापु सदा गुर का घटि घटि परगासु भया जसु जन कै ॥ इकि पड़हि सुणहि गावहि परभातिहि करहि इस्नानु ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घटि घटि = हरेक हृदय में। जन कै = दासों के हृदय में। जसु = शोभा। परभातिहि = अमृत वेला में। इकि = कई। पढ़हि = पढ़ते हैं।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: सतिगुरु का प्रताप सदा हरेक घट में, और सतिगुरु का यश दासों के हृदय में प्रकट हो रहा है। कई मनुष्य (गुरु का यश) पढ़ते हैं, सुनते हैं और गाते हैं और (उस ‘यश’-रूप जल में) अमृत वेला में स्नान करते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इस्नानु करहि परभाति सुध मनि गुर पूजा बिधि सहित करं ॥ कंचनु तनु होइ परसि पारस कउ जोति सरूपी ध्यानु धरं ॥

मूलम्

इस्नानु करहि परभाति सुध मनि गुर पूजा बिधि सहित करं ॥ कंचनु तनु होइ परसि पारस कउ जोति सरूपी ध्यानु धरं ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुध मनि = शुद्ध मन से। बिधि सहित = मर्यादा से। परसि = छू के। करं = करते हैं। धरं = धरते हैं। गुर पूजा = गुरु की बताई हुई सेवा।
अर्थ: (कई मनुष्य गुरु के यश-रूप जल में) अमृत वेला में डुबकी लगाते हैं, और शुद्ध हृदय से मर्यादा अनुसार गुरु की पूजा करते हैं, ज्योति-रूप गुरु का ध्यान धरते हैं, और पारस-गुरु को छू के उनका शरीर कंचन (की तरह शुद्ध) हो जाता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जगजीवनु जगंनाथु जल थल महि रहिआ पूरि बहु बिधि बरनं ॥ सतिगुरु गुरु सेवि अलख गति जा की स्री रामदासु तारण तरणं ॥४॥

मूलम्

जगजीवनु जगंनाथु जल थल महि रहिआ पूरि बहु बिधि बरनं ॥ सतिगुरु गुरु सेवि अलख गति जा की स्री रामदासु तारण तरणं ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रहिआ पूरि = व्यापक है। बहु बिधि बरनं = कई रंगों में। जगंनाथु = जगत नाथ, जगत का पति।
अर्थ: सतिगुरु रामदास जी की सेवा करो, (शरण पड़ो) जिसकी आत्मिक अवस्था कथन से परे है, और जो पार लगने के लिए जहाज है, जो (गुरु) उस ‘जगत के जीवन’ और ‘जगत के नाथ’ हरि का रूप है जो (हरि) कई रंगों में जलों में थलों में व्यापक है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिनहु बात निस्चल ध्रूअ जानी तेई जीव काल ते बचा ॥ तिन्ह तरिओ समुद्रु रुद्रु खिन इक महि जलहर बि्मब जुगति जगु रचा ॥

मूलम्

जिनहु बात निस्चल ध्रूअ जानी तेई जीव काल ते बचा ॥ तिन्ह तरिओ समुद्रु रुद्रु खिन इक महि जलहर बि्मब जुगति जगु रचा ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निस्चल = निश्चय करके, दृढ़ कर के। बात = (गुरु के) वचन। रुद्रु = डरावना। जलहर = जलधर, बादल। बिंब = प्रतिबिंब, छाया। जलहर बिंब = बादलों की छाया। रचा = बचा हुआ है।
अर्थ: जिस (मनुष्यों ने) गुरु के वचन ध्रुव भक्त की तरह दृढ़ करके माने हैं, वे मनुष्य काल (के भय) से बच गए हैं। भयानक संसार-समुंदर उन्होंने एक पल में पार कर लिया है, जगत को वह बादलों की छाया की तरह रचा हुआ (समझते हैं)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुंडलनी सुरझी सतसंगति परमानंद गुरू मुखि मचा ॥ सिरी गुरू साहिबु सभ ऊपरि मन बच क्रम सेवीऐ सचा ॥५॥

मूलम्

कुंडलनी सुरझी सतसंगति परमानंद गुरू मुखि मचा ॥ सिरी गुरू साहिबु सभ ऊपरि मन बच क्रम सेवीऐ सचा ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कुंडलनी = गूंझल, मन की माया के साथ उलझनें। सुरझी = सुलझी, खुल गई। गुरू मुखि = गुरु के द्वारा। मचा = मचे हैं, चमके हैं, प्रकट होते हैं।
अर्थ: उनके मन की उलझनें सत्संग में खुलती हैं, वे परमानंद पाते हैं और गुरु की इनायत से उनका यश प्रकटता है। (इसलिए इस तरह के) सच्चे गुरु को मन वचन और कर्मों द्वारा पूजना चाहिए; यह सतिगुरु सबसे ऊँचा है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाहिगुरू वाहिगुरू वाहिगुरू वाहि जीउ ॥ कवल नैन मधुर बैन कोटि सैन संग सोभ कहत मा जसोद जिसहि दही भातु खाहि जीउ ॥ देखि रूपु अति अनूपु मोह महा मग भई किंकनी सबद झनतकार खेलु पाहि जीउ ॥

मूलम्

वाहिगुरू वाहिगुरू वाहिगुरू वाहि जीउ ॥ कवल नैन मधुर बैन कोटि सैन संग सोभ कहत मा जसोद जिसहि दही भातु खाहि जीउ ॥ देखि रूपु अति अनूपु मोह महा मग भई किंकनी सबद झनतकार खेलु पाहि जीउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वाहि गुरू = हे गुरु! तू आश्चर्य है। नैन = नेत्र। मधुर = मीठे। बैन = वचन। कोटि सैन = करोड़ों सेनाएं, करोड़ों जीव। संग = (तेरे) साथ। सोभ = सुंदर लगते हैं। जिसहि = जिस को, (हे गुरु!) भाव, तुझे (हे गुरु!)। कहत = कहती थी। मा जसोद = माता यशोदा। भातु = चावल। जीउ = हे प्यारे! देखि = देख के। अति अनुपु = बहुत सुंदर। महा मग भई = बहुत मगन हो जाती थी। किंकनी = तगाड़ी। सबद = आवाज। झनतकार = छणकार। खेलु पाहि जीउ = जब तू खेल मचाता था।
अर्थ: वाह वाह! हे प्यारे! हे गुरु! सदके! तेरे कमल जैसे नयन हैं, (मेरे वास्ते तो तू ही है जिसको) माँ यशोदा कहती थी- ‘हे लाल (आ), दही चावल खा’। जब तू खेल मचाता था, तेरी तगाड़ी की आवाज आती थी, तेरे अति सुंदर मुख को देख के (माँ यशोदा) तेरे प्यार में मगन में हो जाती थी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काल कलम हुकमु हाथि कहहु कउनु मेटि सकै ईसु बम्यु ग्यानु ध्यानु धरत हीऐ चाहि जीउ ॥ सति साचु स्री निवासु आदि पुरखु सदा तुही वाहिगुरू वाहिगुरू वाहिगुरू वाहि जीउ ॥१॥६॥

मूलम्

काल कलम हुकमु हाथि कहहु कउनु मेटि सकै ईसु बम्यु ग्यानु ध्यानु धरत हीऐ चाहि जीउ ॥ सति साचु स्री निवासु आदि पुरखु सदा तुही वाहिगुरू वाहिगुरू वाहिगुरू वाहि जीउ ॥१॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काल कलम = काल की कलम। हाथि = (तेरे) हाथ में। कहहु = बताओ। ईसु = शिव। बंम्हु = ब्रहमु, ब्रहमा। ग्यानु ध्यानु = ज्ञान ध्यान, तेरे ज्ञान और ध्यान को। धरत हीऐ चाहि जीउ = हृदय में धारण करना चाहते हैं। श्री निवासु = लक्ष्मी का ठिकाना।
अर्थ: (हे भाई!) काल की कलम और हुक्म (गुरु के ही) हाथ में हैं। बताओ, कौन (गुरु के हुक्म को) मिटा सकता है? शिव और ब्रहमा (गुरु के बख्शे हुए) ज्ञान और ध्यान को अपने हृदय में धारण करना चाहते हैं। हे गुरु! तू आश्चर्य है, तू सति-स्वरूप है, तू अटल है, तू ही लक्ष्मी का ठिकाना है, तू ही आदि पुरख है और सदा-स्थिर है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम नाम परम धाम सुध बुध निरीकार बेसुमार सरबर कउ काहि जीउ ॥ सुथर चित भगत हित भेखु धरिओ हरनाखसु हरिओ नख बिदारि जीउ ॥

मूलम्

राम नाम परम धाम सुध बुध निरीकार बेसुमार सरबर कउ काहि जीउ ॥ सुथर चित भगत हित भेखु धरिओ हरनाखसु हरिओ नख बिदारि जीउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राम नाम = हे राम नाम वाले! हे गुरु जिसका नाम ‘राम’ है। परम धाम = हे ऊँचे ठिकाने वाले! सुध बुध = हे शुद्व ज्ञान वाले! निरीकार = हे आकार रहित! बेसुमार = हे बेअंत! सरबर कउ = बराबर का, तेरे जितना। काहि = कौन है? सुथर = अडोल। भगत हित = भक्त की खातिर। धरिओ = धरा है। हरिओ = मारा है। नख बिदारि = नाखूनों से चीर के। बिदारि = चीर के।
अर्थ: हे सतिगुरु! तेरा ही नाम ‘राम’ है, और ठिकाना ऊँचा है। तू शुद्ध ज्ञान वाला है। (मेरे वास्ते तो तू ही है जिसने) भक्त (प्रहलाद) की खातिर (नरसिंघ का) रूप धारण किया था, और हर्णाक्षस को नाखूनों से चीर दिया था।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संख चक्र गदा पदम आपि आपु कीओ छदम अपर्मपर पारब्रहम लखै कउनु ताहि जीउ ॥ सति साचु स्री निवासु आदि पुरखु सदा तुही वाहिगुरू वाहिगुरू वाहिगुरू वाहि जीउ ॥२॥७॥

मूलम्

संख चक्र गदा पदम आपि आपु कीओ छदम अपर्मपर पारब्रहम लखै कउनु ताहि जीउ ॥ सति साचु स्री निवासु आदि पुरखु सदा तुही वाहिगुरू वाहिगुरू वाहिगुरू वाहि जीउ ॥२॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संख चक्र गदा पदम = ये विष्णू के चिन्ह माने गए हैं। छदम = छल (भाव, बावन अवतार)। आपु = अपने आप को। अपरंपर = बेअंत। लखै = पहचाने।
अर्थ: हे सतिगुरु! (मेरे लिए तो तू ही वह है जिसके) शंख, चक्र, गदा और पदम (चिन्ह हैं); (मेरे लिए तो तू ही वह है जिसने) अपने आप को (बावन-रूप) छल बनाया था। तू बेअंत पारब्रहम (का रूप) है, तेरे उस रूप को कौन पहचान सकता है? हे गुरु! तू आश्चर्य है, तू अटल है, तू ही लक्ष्मी का ठिकाना है, तू आदि पुरख है, और सदा-स्थिर है।2।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पीत बसन कुंद दसन प्रिआ सहित कंठ माल मुकटु सीसि मोर पंख चाहि जीउ ॥ बेवजीर बडे धीर धरम अंग अलख अगम खेलु कीआ आपणै उछाहि जीउ ॥

मूलम्

पीत बसन कुंद दसन प्रिआ सहित कंठ माल मुकटु सीसि मोर पंख चाहि जीउ ॥ बेवजीर बडे धीर धरम अंग अलख अगम खेलु कीआ आपणै उछाहि जीउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पीत = पीले। बसन = वस्त्र। कुंद = एक किस्म की चमेली का फूल जो सफेद और कोमल होता है। दसन = दाँत। प्रिआ = प्यारी (राधिका)। सहित = से। कंठ = गला। माल = माला। सीसि = सिर पर। मोर पंख = मोर के पंखों का। चाहि = चाव से (पहनता है)। वजीर = सलाहकार। धीर = धैर्य वाला। धरम अंग = धर्म स्वरूप। उछाहि = चाव से।
अर्थ: हे सतिगुरु! (मेरे लिए तो) पीले वस्त्रों वाला (कृष्ण) तू ही है, (जिसके) जिसके कुंद जैसे सफेद दाँत हैं, (जो) अपनी प्यारी (राधिका) के साथ है; (जिसके) गले में माला है, मोर के पंखों का मुकुट (जिसने) अपने मस्तक पर चाव से (पहना हुआ है)। तू बड़ा धैर्य वाला है, तुझे सलाहकार की जरूरत नहीं, तू धर्म-स्वरूप है, अलख और अगम है, ये सारा खेल तूने (ही) अपने चाव से रचा है।

[[1403]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकथ कथा कथी न जाइ तीनि लोक रहिआ समाइ सुतह सिध रूपु धरिओ साहन कै साहि जीउ ॥ सति साचु स्री निवासु आदि पुरखु सदा तुही वाहिगुरू वाहिगुरू वाहिगुरू वाहि जीउ ॥३॥८॥

मूलम्

अकथ कथा कथी न जाइ तीनि लोक रहिआ समाइ सुतह सिध रूपु धरिओ साहन कै साहि जीउ ॥ सति साचु स्री निवासु आदि पुरखु सदा तुही वाहिगुरू वाहिगुरू वाहिगुरू वाहि जीउ ॥३॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तीन लोक = तीन लोगों में। रहिआ समाइ = व्यापक है। सुतह सिध = अपनी इच्छा से, स्वाभाविक रूप से। रुपू धारिओ = प्रकट हुआ हैं।
अर्थ: (हे गुरु!) आपकी महिमा बयान से परे है जो कही नहीं जा सकती, आप तीन लोगों के बीच व्यापक हैं। हे शाह के राजा! आपने अपनी इच्छा के साथ (मानव रूप) लिया है। हे गुरु! आप चमत्कारिक, सत्-रूप और अन्नत हैं; आप लक्ष्मी का आसरा हैं; आप प्रारंभ से हैं और सदा के लिये। वाह-गुरु वाह-गुरु जी!

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरू सतिगुरू सतिगुरु गुबिंद जीउ ॥ बलिहि छलन सबल मलन भग्ति फलन कान्ह कुअर निहकलंक बजी डंक चड़्हू दल रविंद जीउ ॥ राम रवण दुरत दवण सकल भवण कुसल करण सरब भूत आपि ही देवाधि देव सहस मुख फनिंद जीउ ॥

मूलम्

सतिगुरू सतिगुरू सतिगुरु गुबिंद जीउ ॥ बलिहि छलन सबल मलन भग्ति फलन कान्ह कुअर निहकलंक बजी डंक चड़्हू दल रविंद जीउ ॥ राम रवण दुरत दवण सकल भवण कुसल करण सरब भूत आपि ही देवाधि देव सहस मुख फनिंद जीउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबल मलन = बल वालों को (भाव, अहंकारियों को) दलने वाला। कान्ह कुअर = कान्ह कुमार। चढ़ दल रविंद जीउ = रवि और इन्द्र (सूय्र और चँद्रमा) का दल तेरे साथ (तेरी शोभा बढ़ाने के लिए) चढ़ता है। रवणु = स्मरण करने वाला। दुरत दवण = पापों का नाश करने वाला। सकल भवण = व्यापक सब जगह। कुसल = आनंद, सुख। भूत = जीव। देवाधि देव = देवों का अधिदेव, देवताओं का देवता। फनिंद = शेशनाग, फनियर। सहस मुख = हजारों फनों वाला।
अर्थ: सतिगुरु गोबिंद-रूप है। (मेरे वास्ते तो) सतिगुरु ही है (वह) जिसने राजा बली को छला था, आप अहंकारियों का घमण्ड तोड़ने वाले हैं, भक्ति का फल देने वाले हैं। (मेरे लिए तो) गुरु ही कान्ह-कुमार है। (आप में) कोई कलंक नहीं है, आप का डंका बज रहा है, सूरज और चँद्रमा का दल आप ही की शोभा बढ़ाने के लिए चढ़ता है। आप अकाल-पुरख का स्मरण करते हैं, पापों को दूर करने वाले हैं, सब जगह सुख पैदा करने वाले हैं, सारे जीवों में आप ही हैं, आप ही देवताओं के देवता हैं। और (मेरे लिए तो) हजारों मुँहों वाले शेशनाग भी आप ही हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जरम करम मछ कछ हुअ बराह जमुना कै कूलि खेलु खेलिओ जिनि गिंद जीउ ॥ नामु सारु हीए धारु तजु बिकारु मन गयंद सतिगुरू सतिगुरू सतिगुर गुबिंद जीउ ॥४॥९॥

मूलम्

जरम करम मछ कछ हुअ बराह जमुना कै कूलि खेलु खेलिओ जिनि गिंद जीउ ॥ नामु सारु हीए धारु तजु बिकारु मन गयंद सतिगुरू सतिगुरू सतिगुर गुबिंद जीउ ॥४॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हुअ = हो के। करम = कर्म। जरम हुअ = जनम ले के। कूलि = किनारे पर। खेलु गिंद = गेंद की खेल। जिनि = जिस ने। सारु = श्रेष्ठ। हीए = हृदय में। धार = टिका के रख। मन गयंद = हे गयंद के मन! गयंद = भाट का नाम है।
अर्थ: (मेरे लिए तो गोबिंद-रूप सतिगुरु ही है वह) जिसने मछ-कछ और वराह के जनम ले के काम किए, जिसने यमुना के किनारे गेंद की खेल खेली थी। हे गयंद के मन! (इस सतिगुरु का) श्रेष्ठ नाम हृदय में धारण कर और विकार छोड़ दे; यह गुरु वही गोबिंद है।4।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिरी गुरू सिरी गुरू सिरी गुरू सति जीउ ॥ गुर कहिआ मानु निज निधानु सचु जानु मंत्रु इहै निसि बासुर होइ कल्यानु लहहि परम गति जीउ ॥ कामु क्रोधु लोभु मोहु जण जण सिउ छाडु धोहु हउमै का फंधु काटु साधसंगि रति जीउ ॥

मूलम्

सिरी गुरू सिरी गुरू सिरी गुरू सति जीउ ॥ गुर कहिआ मानु निज निधानु सचु जानु मंत्रु इहै निसि बासुर होइ कल्यानु लहहि परम गति जीउ ॥ कामु क्रोधु लोभु मोहु जण जण सिउ छाडु धोहु हउमै का फंधु काटु साधसंगि रति जीउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सति = सदा अटल। निज = अपना (भाव, साथ निभने वाला)। निधानु = खजाना। सचु जाणु = निष्चय जान, सही समझ। निसि = रात। बासुर = दिन। कल्यानु = कल्याण, सुख। लहहि = प्राप्त करेगा। परम गति = सबसे उच्च आत्मिक अवस्था। धोहु = ठगी। जण जण सिउ = जन जन से, हर जने खने से। फंधु = फंदा। रति = प्यार।
अर्थ: सतिगुरु ही सदा-स्थिर है। (हे मन!) सतिगुरु का वचन मान, यही साथ निभने वाला खजाना है; निष्चय करके मान कि यही मंत्र है (जिससे तुझे) दिन-रात सुख हुआ और तू ऊँची पदवी पा लेगा। काम, क्रोध, लोभ, मोह और हर जने-खणे से ठगी करनी छोड़ दे; अहंकार का फंदा (भी) दूर कर के साधु-संगत में प्यार डाल।

विश्वास-प्रस्तुतिः

देह गेहु त्रिअ सनेहु चित बिलासु जगत एहु चरन कमल सदा सेउ द्रिड़ता करु मति जीउ ॥ नामु सारु हीए धारु तजु बिकारु मन गयंद सिरी गुरू सिरी गुरू सिरी गुरू सति जीउ ॥५॥१०॥

मूलम्

देह गेहु त्रिअ सनेहु चित बिलासु जगत एहु चरन कमल सदा सेउ द्रिड़ता करु मति जीउ ॥ नामु सारु हीए धारु तजु बिकारु मन गयंद सिरी गुरू सिरी गुरू सिरी गुरू सति जीउ ॥५॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देह = शरीर। गेहु = घर। त्रिअ सनेहु = स्त्री का प्यार। चित बिलासु = मन की खेल। सेउ = स्मरण कर। द्रिढ़ता = सिदक, दृढ़ता, पक्कापन।
अर्थ: ये शरीर, घर, स्त्री का प्यार, ये (सारा) संसार मन की (ही) खेल है। (सतिगुरु के) चरण-कमलों का स्मरण कर, (अपनी) मति में यही भाव दृढ़ कर। हे गयंद के मन! (सतिगुरु का) श्रेष्ठ नाम हृदय में धारण कर और विकार छोड़ दे; सतिगुरु (ही) सदा-स्थिर है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेवक कै भरपूर जुगु जुगु वाहगुरू तेरा सभु सदका ॥ निरंकारु प्रभु सदा सलामति कहि न सकै कोऊ तू कद का ॥ ब्रहमा बिसनु सिरे तै अगनत तिन कउ मोहु भया मन मद का ॥

मूलम्

सेवक कै भरपूर जुगु जुगु वाहगुरू तेरा सभु सदका ॥ निरंकारु प्रभु सदा सलामति कहि न सकै कोऊ तू कद का ॥ ब्रहमा बिसनु सिरे तै अगनत तिन कउ मोहु भया मन मद का ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेवक कै = सेवकों के (हृदय = रूप घर में)। भरपूर = नाको नाक, व्यापक। जुगु जुगु = सदा। वाह = धंन है तू। गुरू = हे गुरु! सदका = इनायत। सलामति = स्थिर, अटल। सिरे = पैदा किए। तै = तू ही। अगनत = (अ+गनत) बेअंत। मोहु मन मद का = मन के अहंकार का मोह।
अर्थ: हे गुरु! तू धन्य है! तू अपने सेवकों के हृदय में सदा हाजर-नाजर है, तेरी ही सारी इनायत है; तू निरंकार (-रूप) है, प्रभु (-रूप) है, सदा स्थिर है। कोई नहीं कह सकता, तू कब का है। (हे गुरु!) तूने ही अगनित ब्रहमा और विष्णु पैदा किए हैं, और उनको अपने मन के अहंकार का मोह हो गया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चवरासीह लख जोनि उपाई रिजकु दीआ सभ हू कउ तद का ॥ सेवक कै भरपूर जुगु जुगु वाहगुरू तेरा सभु सदका ॥१॥११॥

मूलम्

चवरासीह लख जोनि उपाई रिजकु दीआ सभ हू कउ तद का ॥ सेवक कै भरपूर जुगु जुगु वाहगुरू तेरा सभु सदका ॥१॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तद का = तब का, जब पैदा की।
अर्थ: (हे गुरु! तू ही) चौरासी लाख जून पैदा की है, और सभी को तब से ही रिजक दे रहा है। हे गुरु! तू धन्य है! तू अपने सेवकों के हृदय में सदा हाजिर-नाजर है, तेरी ही सारी इनायत है।1।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाहु वाहु का बडा तमासा ॥ आपे हसै आपि ही चितवै आपे चंदु सूरु परगासा ॥ आपे जलु आपे थलु थम्हनु आपे कीआ घटि घटि बासा ॥

मूलम्

वाहु वाहु का बडा तमासा ॥ आपे हसै आपि ही चितवै आपे चंदु सूरु परगासा ॥ आपे जलु आपे थलु थम्हनु आपे कीआ घटि घटि बासा ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वाहु वाहु = धन्यता योग्य गुरु, इनायत वाला गुरु। तमासा = संसार रूप खेल। चितवै = विचारता है। थंम्नु = स्तंभ, आसरा। बासा = वासा, ठिकाना। घटि घटि = हरेक हृदय में।
अर्थ: इनायत वाले गुरु (रामदास) का (संसार-रूप यह) बड़ा खेल हो रहा है, (सरब-व्यापक प्रभु का रूप गुरु) आप ही हस रहा है, आप ही विचार रहा है, आप ही चाँद और सूरज को रौशनी दे रहा है। (वह गुरु) आप ही जल है, आप ही धरती है, आप ही आसरा है और उसने आप ही हरेक शरीर में निवास किया हुआ है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे नरु आपे फुनि नारी आपे सारि आप ही पासा ॥ गुरमुखि संगति सभै बिचारहु वाहु वाहु का बडा तमासा ॥२॥१२॥

मूलम्

आपे नरु आपे फुनि नारी आपे सारि आप ही पासा ॥ गुरमुखि संगति सभै बिचारहु वाहु वाहु का बडा तमासा ॥२॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नर = मनुष्य। फुनि = और। सारि = नर्द। पासा = चौपड़। गुरमुखि = हे गुरमुखो! संगति = संगति में। सभै = सारे।
अर्थ: (सर्व-व्यापक प्रभु का रूप गुरु रामदास) आप ही नर और आप ही नारी है; स्वयं ही नर्द है और स्वयं ही चौपड़ है। हे गुरमुखो! संगति में मिल के सारे विचार करो, इनायत वाले गुरु (रामदास जी) का (संसार-रूप) यह खेल हो रहा है।2।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कीआ खेलु बड मेलु तमासा वाहिगुरू तेरी सभ रचना ॥ तू जलि थलि गगनि पयालि पूरि रह्या अम्रित ते मीठे जा के बचना ॥

मूलम्

कीआ खेलु बड मेलु तमासा वाहिगुरू तेरी सभ रचना ॥ तू जलि थलि गगनि पयालि पूरि रह्या अम्रित ते मीठे जा के बचना ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खेलु = खेल। मेलु = मेला, तत्वों का मिलाप। तमासा = करिश्मा। वाहि = धन्य। गुरू = हे गुरु! रचना = सृष्टि। जलि = जल में। थलि = थल में। गगनि = आकाश पर। पयालि = पाताल में। पूरि रह्या = व्यापक है। जा के = जिस के।
अर्थ: हे गुरु! तू धन्य है, ये सृष्टि सभ तेरी (की हुई) है; तूने (तत्वों का) मेल (करके) एक खेल और तमाशा रचा दिया है। तू जल में, पृथ्वी पर, आकाश पर, पाताल में (सब जगह) व्यापक है; तेरे वचन अमृत से भी मीठे हैं।

[[1404]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

मानहि ब्रहमादिक रुद्रादिक काल का कालु निरंजन जचना ॥ गुर प्रसादि पाईऐ परमारथु सतसंगति सेती मनु खचना ॥ कीआ खेलु बड मेलु तमासा वाहगुरू तेरी सभ रचना ॥३॥१३॥४२॥

मूलम्

मानहि ब्रहमादिक रुद्रादिक काल का कालु निरंजन जचना ॥ गुर प्रसादि पाईऐ परमारथु सतसंगति सेती मनु खचना ॥ कीआ खेलु बड मेलु तमासा वाहगुरू तेरी सभ रचना ॥३॥१३॥४२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मानहि = सेवा करते हैं, मानते हैं। जचना = माँगते हैं, याचना (करते हैं)। गुर प्रसादि = हे गुरु! तेरी कृपा से, तू गुरु की कृपा से। परमारथु = ऊँची पदवी। सेती = साथ। खचना = जुड़ जाता है।
अर्थ: हे गुरु! ब्रहमा और रुद्र (शिव) आदि (तुझे) मानते हैं (तुझे सेवते हैं), तू काल का भी काल है, (तू) माया से रहित (हरि) है, (सब लोक तुझसे) माँगते हैं। हे गुरु! तेरी ही कृपा से ऊँची पदवी मिलती है, और सत्संग में मन जुड़ जाता है। हे गुरु! तू धन्य है, यह रचना तेरी ही है, (तत्वों का) मेल (कर के) तूने ये तमाशा और खेल रचा दिया है।3।13।42।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अगमु अनंतु अनादि आदि जिसु कोइ न जाणै ॥ सिव बिरंचि धरि ध्यानु नितहि जिसु बेदु बखाणै ॥

मूलम्

अगमु अनंतु अनादि आदि जिसु कोइ न जाणै ॥ सिव बिरंचि धरि ध्यानु नितहि जिसु बेदु बखाणै ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अगमु = अगम्य (पहुँच से परे)। अनंतु = बेअंत। अनादि = (अन+आदि) जिसका आदि मिल नहीं सकता। आदि = शुरुवात। बिरंचि = ब्रहमा। नितहि = नित्य, सदा। बखाणै = बयान करता है।
अर्थ: जो अकाल पुरख अगम्य (पहुँच से परे) है, अनंत है, अनादि है, जिसका आरम्भ कोई नहीं जानता, जिसका ध्यान सदा शिव और ब्रहमा धर रहे हैं और जिसके (गुणों) को वेद वर्णन कर रहा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरंकारु निरवैरु अवरु नही दूसर कोई ॥ भंजन गड़्हण समथु तरण तारण प्रभु सोई ॥

मूलम्

निरंकारु निरवैरु अवरु नही दूसर कोई ॥ भंजन गड़्हण समथु तरण तारण प्रभु सोई ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भंजन गढ़ण समथु = जीवों को नाश और पैदा करने के समर्थ। तरण तारण = तैरने के लिए जहाज। तरण = जहाज।
अर्थ: वह अकाल पुरख आकार-रहित है, वैर-रहित है, कोई और उसके समान नहीं है, वह जीवों को पैदा करने और मारने की ताकत रखने वाला है, वह प्रभु (जीवों को संसार-सागर से) तैराने के लिए जहाज है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाना प्रकार जिनि जगु कीओ जनु मथुरा रसना रसै ॥ स्री सति नामु करता पुरखु गुर रामदास चितह बसै ॥१॥

मूलम्

नाना प्रकार जिनि जगु कीओ जनु मथुरा रसना रसै ॥ स्री सति नामु करता पुरखु गुर रामदास चितह बसै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नाना प्रकार = कई तरह का। जिनि = जिस (अकाल पुरख) ने। रसना रसै = जीभ से (उसको) जपता है। गुर रामदास चितह = गुरु रामदास के हृदय में।
अर्थ: जिस अकाल-पुरख ने कई तरह के जगत को रचा है, उसको दास मथुरा जीभ से जपता है। वही सतिनामु करता पुरख गुरु रामदास जी के हृदय में बसता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरू समरथु गहि करीआ ध्रुव बुधि सुमति सम्हारन कउ ॥ फुनि ध्रम धुजा फहरंति सदा अघ पुंज तरंग निवारन कउ ॥

मूलम्

गुरू समरथु गहि करीआ ध्रुव बुधि सुमति सम्हारन कउ ॥ फुनि ध्रम धुजा फहरंति सदा अघ पुंज तरंग निवारन कउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गहि करीआ = पकड़ लिया है (भाव, शरण ली है)। ध्रुव = अडोल। सुमति = अच्छी मति, सद् बद्धि। समारन कउ = संभालने के लिए, प्राप्त करने के लिए। ध्रंम धुजा = धर्म का झण्डा। फहरंति = झूल रहा है। अघ = पाप। पुंज = समूह, ढेर। तरंग = लहरें।
अर्थ: जिस समर्थ गुरु का धर्म का झण्डा सदा झूल रहा है, मैंने उसकी शरण ली है; (क्यों?) अडोल बुद्धि और ऊँची मति पाने के लिए, और पापों के पुँज और तरंग (अपने अंदर से) दूर करने के लिए।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मथुरा जन जानि कही जीअ साचु सु अउर कछू न बिचारन कउ ॥ हरि नामु बोहिथु बडौ कलि मै भव सागर पारि उतारन कउ ॥२॥

मूलम्

मथुरा जन जानि कही जीअ साचु सु अउर कछू न बिचारन कउ ॥ हरि नामु बोहिथु बडौ कलि मै भव सागर पारि उतारन कउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जानि कही जीअ = हृदय में सोच के कही है। बिचारन कउ = विचारने योग्य बात। अउर कछू = और कोई बात। बोहिथु = जहाज। कलि मै = कलिजुग में।
अर्थ: दास मथुरा ने हृदय में सोच-समझ के ये सच कहा है, इसके बिना कोई और विचारने-योग्य बात नहीं है, कि संसार-सागर से पार उतारने के लिए हरि का नाम ही कलजुग में बड़ा जहाज है (और वह नाम समर्थ गुरु से मिलता है)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संतत ही सतसंगति संग सुरंग रते जसु गावत है ॥ ध्रम पंथु धरिओ धरनीधर आपि रहे लिव धारि न धावत है ॥

मूलम्

संतत ही सतसंगति संग सुरंग रते जसु गावत है ॥ ध्रम पंथु धरिओ धरनीधर आपि रहे लिव धारि न धावत है ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संतत ही = सदा ही, एक रस (संतत = always)। सतसंगति संग = सत्संग में। धरिओ = स्थापित है। धरनीधर = धरती का आसरा, अकाल-पुरख। लिव धारि = तवज्जो टिका के। न धावत है = भटकते नहीं।
अर्थ: (यह सतिगुरु वाला) धर्म का राह धरती के आसरे हरि ने स्वयं चलाया है। (जिस मनुष्यों ने इसमें) तवज्जो जोड़ी है और (जो) सदा एक-रस सत्संग में (जुड़ के) सुंदर रंग में रंगे जा के हरि का यश गाते हैं, (वे किसी और तरफ) भटकते नहीं फिरते।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मथुरा भनि भाग भले उन्ह के मन इछत ही फल पावत है ॥ रवि के सुत को तिन्ह त्रासु कहा जु चरंन गुरू चितु लावत है ॥३॥

मूलम्

मथुरा भनि भाग भले उन्ह के मन इछत ही फल पावत है ॥ रवि के सुत को तिन्ह त्रासु कहा जु चरंन गुरू चितु लावत है ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भनि = कह। उन्ह के = उन मनुष्यों के। मन इछत फल = मन भावित फल। रवि के सुत को = धर्म राज का। त्रासु = डर। कहा = कहाँ? रवि = सूरज। सुत = पुत्र। जु = जो लोग। रविसुत = धर्मराज।
अर्थ: हे मथुरा! कह: ‘जो मनुष्य गुरु (रामदास जी) के चरणों में मन जोड़ते हैं, उनके भाग्य अच्छे हैं, वे मन-भाते फल पाते हैं, उनको धर्म-राज का डर कहाँ रहता है? (बिल्कुल नहीं रहता)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरमल नामु सुधा परपूरन सबद तरंग प्रगटित दिन आगरु ॥ गहिर ग्मभीरु अथाह अति बड सुभरु सदा सभ बिधि रतनागरु ॥

मूलम्

निरमल नामु सुधा परपूरन सबद तरंग प्रगटित दिन आगरु ॥ गहिर ग्मभीरु अथाह अति बड सुभरु सदा सभ बिधि रतनागरु ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुधा = अमृत। परपूरन = भरा हुआ (सरोवर)। तरंग = लहरें। दिन आगरु = अमृत वेला। गहिर = गहरा। सुभरु = नाको नाक भरा हुआ। रतनागर = रत्नों का खजाना (रतन आकार = रत्नों की खान)।
अर्थ: (गुरु रामदास एक ऐसा सरोवर है जिस में परमात्मा का) पवित्र नाम-अमृत भरा हुआ है (उसमें) अमृत वेला में शब्द की लहरें उठती हैं, (यह सरोवर) बड़ा गहरा गंभीर और अथाह है, सदा नाको-नाक भरा रहता है और सब तरह के रत्नों का खजाना है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संत मराल करहि कंतूहल तिन जम त्रास मिटिओ दुख कागरु ॥ कलजुग दुरत दूरि करबे कउ दरसनु गुरू सगल सुख सागरु ॥४॥

मूलम्

संत मराल करहि कंतूहल तिन जम त्रास मिटिओ दुख कागरु ॥ कलजुग दुरत दूरि करबे कउ दरसनु गुरू सगल सुख सागरु ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मराल = हंस। कंतूहल = कलोल। दुख कागरु = दुखों का कागज़ (भाव, लेखा)। जम त्रास = जमों का डर। दुरत = पाप। करबे कउ = करने के लिए। सगल सुख सागरु = सारे सुखों का समुंदर।
अर्थ: (उस सरोवर में) संत-हंस कलोल करते हैं, उनका जमों का डर और दुखों का लेखा मिट गया है। कलिजुग के पाप दूर करने के लिए सतिगुरु का दर्शन सारे सुखों का समुंदर है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा कउ मुनि ध्यानु धरै फिरत सगल जुग कबहु क कोऊ पावै आतम प्रगास कउ ॥ बेद बाणी सहित बिरंचि जसु गावै जा को सिव मुनि गहि न तजात कबिलास कंउ ॥

मूलम्

जा कउ मुनि ध्यानु धरै फिरत सगल जुग कबहु क कोऊ पावै आतम प्रगास कउ ॥ बेद बाणी सहित बिरंचि जसु गावै जा को सिव मुनि गहि न तजात कबिलास कंउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा कउ = जिस (के दर्शन) की खातिर। धरै = धरता है। फिरत सगल जुग = सारे जुगों में भटकता। कबहु क = कभी, किसी विरले समय में। आतम प्रगास = अंदर का प्रकाश। बिरंचि = (विरंचि) ब्रहमा। गहि = पकड़ के। न तजात = नहीं छोड़ता। कबिलास = कैलाश पर्वत।
अर्थ: सारे जुगों में भटकता हुआ कोई मुनि जिस (हरि) की खातिर ध्यान धरता है, और कभी ही उसको अंदर का प्रकाश मिलता है, जिस हरि का यश ब्रहमा वेदों की वाणी समेत गाता है, और जिस में समाधि लगा के शिव कैलाश पर्वत नहीं छोड़ता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा कौ जोगी जती सिध साधिक अनेक तप जटा जूट भेख कीए फिरत उदास कउ ॥ सु तिनि सतिगुरि सुख भाइ क्रिपा धारी जीअ नाम की बडाई दई गुर रामदास कउ ॥५॥

मूलम्

जा कौ जोगी जती सिध साधिक अनेक तप जटा जूट भेख कीए फिरत उदास कउ ॥ सु तिनि सतिगुरि सुख भाइ क्रिपा धारी जीअ नाम की बडाई दई गुर रामदास कउ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा कौ = जा कउ, जिसकी खातिर। उदास कउ = उदास को (धारण करके)। सु तिनि सतिगुरि = उस हरि रूप गुरु (अमरदास जी) ने। सुख भाइ = सुभाय। जीअ = जीवों पर। तिनि = उसने। सतिगुरि = सतिगुरु ने।
अर्थ: जिस (का दर्शन करने) के लिए अनेक जोगी, जती, सिद्ध और साधिक तप करते हैं और जटा-जूट रह के उदास-भेस धार के फिरते हैं, उस (हरि-रूप) गुरु (अमरदास जी) ने सहज स्वभाव जीवों पर कृपा की और गुरु रामदास जी को हरि-नाम की बडिआई बख्शी।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामु निधानु धिआन अंतरगति तेज पुंज तिहु लोग प्रगासे ॥ देखत दरसु भटकि भ्रमु भजत दुख परहरि सुख सहज बिगासे ॥

मूलम्

नामु निधानु धिआन अंतरगति तेज पुंज तिहु लोग प्रगासे ॥ देखत दरसु भटकि भ्रमु भजत दुख परहरि सुख सहज बिगासे ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धिआन = ध्यान। अंतरगति = अंदर की ओर, अंतरमुख। तिहु लोग = तीनों लोगों में। प्रगासे = चमका। भटकि = भटक के। भजत = भाग जाता है, दूर हो जाता है। परहरि = दूर हो के। सहज = आत्मिक अडोलता। बिगसे = प्रकट होते हैं।
अर्थ: (गुरु रामदास जी के पास) नाम-रूप खजाना है, (आप की) अंतरमुखी रुचि है, (आप के) तेज का पुँज तीनों लोकों में चमक रहा है, (आप के) दर्शन करके (दर्शन करने वालों का) भ्रम भटक के भाग जाता है, और (उनके) दुख दूर हो के (उनके अंदर) आत्मिक अडोलता के सुख प्रकट हो जाते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेवक सिख सदा अति लुभित अलि समूह जिउ कुसम सुबासे ॥ बिद्यमान गुरि आपि थप्यउ थिरु साचउ तखतु गुरू रामदासै ॥६॥

मूलम्

सेवक सिख सदा अति लुभित अलि समूह जिउ कुसम सुबासे ॥ बिद्यमान गुरि आपि थप्यउ थिरु साचउ तखतु गुरू रामदासै ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लुभित = चाहवान, लोभी। अलि समूह = शहद की मक्खियों का समूह। कुसम = फूल। बिद्यमान = प्रत्यक्ष। गुरि = गुरु (अमरदास जी ने)। गुरू रामदासै = गुरु रामदास जी का।
अर्थ: सेवक और सिख सदा (गुरु रामदास जी के चरणों के) आशिक हैं, जैसे भौरे फूलों की वासना के। प्रत्यक्ष गुरु (अमरदास जी) ने स्वयं ही गुरु रामदास जी का सच्चा तख़्त निष्चल टिका दिया है।

[[1405]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

तार्यउ संसारु माया मद मोहित अम्रित नामु दीअउ समरथु ॥ फुनि कीरतिवंत सदा सुख स्मपति रिधि अरु सिधि न छोडइ सथु ॥

मूलम्

तार्यउ संसारु माया मद मोहित अम्रित नामु दीअउ समरथु ॥ फुनि कीरतिवंत सदा सुख स्मपति रिधि अरु सिधि न छोडइ सथु ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मद = अहंकार। सथु = साथ। कीरति = शोभा। संपति = सम्पक्ति, धन। अंम्रित = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला।
अर्थ: (गुरु रामदास जी ने) माया के मद में मोहे हुए सेसार का उद्धार किया है, (आप ने जीवों को) सामर्थ्य वाला अमृत नाम बख्शा है, आप सदा सुख, धन और शोभा के मालिक हैं, रिद्धी और सिद्धी आपका साथ नहीं छोड़ती।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दानि बडौ अतिवंतु महाबलि सेवकि दासि कहिओ इहु तथु ॥ ताहि कहा परवाह काहू की जा कै बसीसि धरिओ गुरि हथु ॥७॥४९॥

मूलम्

दानि बडौ अतिवंतु महाबलि सेवकि दासि कहिओ इहु तथु ॥ ताहि कहा परवाह काहू की जा कै बसीसि धरिओ गुरि हथु ॥७॥४९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दानि = दानी। अतिवंतु = अत्यंत। सेवक दासि = सेवक दास (मथुरा) ने। कहिओ = कहा है। तथु = सच। ताहि = उस (मनुष्य) को। कहा = कहाँ? बसीसि = सिर पर। गुरि = गुरु ने।
अर्थ: (गुरु रामदास) बड़ा दानी है और अत्यंत महाबली है, सेवक दास (मथुरा) ने यह सच कहा है। जिसके सिर पर गुरु (रामदास जी) ने हाथ रखा है, उसको किसी की क्या परवाह है?।7।49।

दर्पण-टिप्पनी

भाट मथुरा के 7 सवईऐ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तीनि भवन भरपूरि रहिओ सोई ॥ अपन सरसु कीअउ न जगत कोई ॥ आपुन आपु आप ही उपायउ ॥ सुरि नर असुर अंतु नही पायउ ॥

मूलम्

तीनि भवन भरपूरि रहिओ सोई ॥ अपन सरसु कीअउ न जगत कोई ॥ आपुन आपु आप ही उपायउ ॥ सुरि नर असुर अंतु नही पायउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भरपूरि रहिओ = व्यापक है। सोई = वह अकाल पुरख। सहसु = सदृष्य, जैसा। आपुन आप = अपना आप। उपायउ = पैदा किया। सुरि = देवते। नर = मनुष्य। असुर = दैत्य। आप ही = खुद ही।
अर्थ: (जो) अकाल-पुरख स्वयं ही तीनों भवनों में व्यापक है, जगत का कोई दूसरा जीव (जिसने) अपने जैसा पैदा नहीं किया, अपना आप (जिसने) आप ही पैदा किया है, देवते, मनुष्य, दैत्य, किसी ने (जिसका) अंत नहीं पाया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पायउ नही अंतु सुरे असुरह नर गण गंध्रब खोजंत फिरे ॥ अबिनासी अचलु अजोनी स्मभउ पुरखोतमु अपार परे ॥

मूलम्

पायउ नही अंतु सुरे असुरह नर गण गंध्रब खोजंत फिरे ॥ अबिनासी अचलु अजोनी स्मभउ पुरखोतमु अपार परे ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संभउ = (स्वयंभुं) अपने आप से प्रकट होने वाला।
अर्थ: देवते, दैत्य, मनुष्य, गण, गंधर्व- सब जिसको खोजते फिरते हैं, (किसी ने जिसका) अंत नहीं पाया, जो अकाल-पुरख अविनाशी है, अडोल है, जूनियों से रहित है, अपने आप से प्रकट हुआ है, उत्तम पुरख है और बहुत बेअंत है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करण कारण समरथु सदा सोई सरब जीअ मनि ध्याइयउ ॥ स्री गुर रामदास जयो जय जग महि तै हरि परम पदु पाइयउ ॥१॥

मूलम्

करण कारण समरथु सदा सोई सरब जीअ मनि ध्याइयउ ॥ स्री गुर रामदास जयो जय जग महि तै हरि परम पदु पाइयउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करण = जगत। करण कारण = सृष्टि का मूल। सरब जीअ = सारे जीवों ने। मनि = मन में। जयो जय = जै जैकार हो रही है। महि = जगत में। हरि परम पदु = (उपरोक्त) हरि की ऊँची पदवी।
अर्थ: (जो) हरि सृष्टि का मूल है, (जो) स्वयं ही सदा समर्थ है, सारे जीवों ने (जिसको) मन में स्मरण किया है, हे गुरु रामदास जी! (आपकी) जगत में जै-जैकार हो रही है कि आप ने ऊँची पदवी पा ली है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरि नानकि भगति करी इक मनि तनु मनु धनु गोबिंद दीअउ ॥ अंगदि अनंत मूरति निज धारी अगम ग्यानि रसि रस्यउ हीअउ ॥

मूलम्

सतिगुरि नानकि भगति करी इक मनि तनु मनु धनु गोबिंद दीअउ ॥ अंगदि अनंत मूरति निज धारी अगम ग्यानि रसि रस्यउ हीअउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुरि नानकि = सतिगुरु नानक ने। इक मनि = एकाग्र मन हो के। दीअउ = अर्पण कर दिया। अंगदि = अंगद ने। अनंत मूरति = बेअंत आकारों वाला, सरगुण हरि। निज धारी = अपने अंदर धारण की। अगम ग्यानि = अगम हरि के ज्ञान से। रसि = प्रेम में। रस्यउ = रस गया, भीग गया। हीअउ = (गुरु अंगद जी का) हृदय। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)।
अर्थ: गुरु नानक देव जी ने एक-मन हो के भक्ति की, और (अपना) तन-मन-धन गोबिंद को अर्पित कर दिया। (गुरु) अंगद (साहिब जी) ने ‘अनंत मूरति’ हरि को अपने अंदर टिकाया, अगम्य (पहुँच से परे) हरि के ज्ञान की इनायत से आपका हृदय प्रेम में भीग गया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरि अमरदासि करतारु कीअउ वसि वाहु वाहु करि ध्याइयउ ॥ स्री गुर रामदास जयो जय जग महि तै हरि परम पदु पाइयउ ॥२॥

मूलम्

गुरि अमरदासि करतारु कीअउ वसि वाहु वाहु करि ध्याइयउ ॥ स्री गुर रामदास जयो जय जग महि तै हरि परम पदु पाइयउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरि अमरदासि = गुरु अमरदास (जी) ने। वसि = वश में। वाहु वाहु करि = ‘तू धन्य है, तू धन्य है’ कह के। परम = सबसे ऊँचा। पदु = दर्जा। हरि परम पदु = प्रभु (के मिलाप) का सबसे ऊँचा दर्जा।
अर्थ: गुरु अमरदास जी ने कर्तार को अपने वश में किया। ‘तू धन्य है, तू धन्य है’ - ये कह के आप ने कर्तार को स्मरण किया। हे गुरु रामदास जी! आप की भी जगत में जय-जयकार हो रही है, आप ने अकाल-पुरख के मिलाप का सबसे ऊँचा दर्जा हासिल कर लिया है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नारदु ध्रू प्रहलादु सुदामा पुब भगत हरि के जु गणं ॥ अ्मबरीकु जयदेव त्रिलोचनु नामा अवरु कबीरु भणं ॥ तिन कौ अवतारु भयउ कलि भिंतरि जसु जगत्र परि छाइयउ ॥ स्री गुर रामदास जयो जय जग महि तै हरि परम पदु पाइयउ ॥३॥

मूलम्

नारदु ध्रू प्रहलादु सुदामा पुब भगत हरि के जु गणं ॥ अ्मबरीकु जयदेव त्रिलोचनु नामा अवरु कबीरु भणं ॥ तिन कौ अवतारु भयउ कलि भिंतरि जसु जगत्र परि छाइयउ ॥ स्री गुर रामदास जयो जय जग महि तै हरि परम पदु पाइयउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पुब = पूर्बले (जुगों के)। गणं = गिने जाते हैं। अवरु = और अन्य। भणं = कहे जाते हैं। अवतारु = जनम। कलि भिंतरि = कलिजुग में। छाइयउ = बिखरा है।
अर्थ: नारद, धु्रव, प्रहलाद, सुदामा और अंबरीक- जो हरि के पूर्बले जुगों के भक्त गिने जाते हैं; जैदेव, त्रिलोचन, नामा और कबीर, जिनका जनम कलियुग में हुआ है; इन सभी का यश जगत में (हरि का भक्त होने के कारण ही) पसरा हुआ है। हे गुरु रामदास जी! आप जी की भी जय-जयकार जगत में हो रही है, कि आप ने हरि (के मिलाप) की परम पदवी पाई है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनसा करि सिमरंत तुझै नर कामु क्रोधु मिटिअउ जु तिणं ॥ बाचा करि सिमरंत तुझै तिन्ह दुखु दरिद्रु मिटयउ जु खिणं ॥

मूलम्

मनसा करि सिमरंत तुझै नर कामु क्रोधु मिटिअउ जु तिणं ॥ बाचा करि सिमरंत तुझै तिन्ह दुखु दरिद्रु मिटयउ जु खिणं ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनसा = मन की रुचि। तिणं = उनका। बाचा = वचन। खिंणं = छिन में।
अर्थ: जो मनुष्य (हे सतिगुरु!) तुझे मन जोड़ के स्मरण करते हैं, उनका काम और क्रोध मिट जाता है। जो जीव आप को वचनों द्वारा (भाव, जीभ से) स्मरण करते हैं, उनका दुख और दरिद्र छिन में दूर हो जाता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करम करि तुअ दरस परस पारस सर बल्य भट जसु गाइयउ ॥ स्री गुर रामदास जयो जय जग महि तै हरि परम पदु पाइयउ ॥४॥

मूलम्

करम करि तुअ दरस परस पारस सर बल्य भट जसु गाइयउ ॥ स्री गुर रामदास जयो जय जग महि तै हरि परम पदु पाइयउ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करम करि = कर्मों द्वारा (भाव, शरीर की इंद्रिय बरत के)। पारस सर = (वह) पारस समान (हो जाते हैं)। सर = बराबर, जैसे। तुअ = तव, तेरा।
अर्थ: हे गुरु रामदास जी! बल्य भाट (आप का) यश गाता है (और कहता है कि) जो मनुष्य आप के दर्शन शारीरिक इन्द्रियों से परसते हैं, वे पारस समान हो जाते हैं। हे गुरु रामदास जी! आप की जय-जयकार जगत में हो रही है कि आपने हरि की उच्च पदवी पा ली है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिह सतिगुर सिमरंत नयन के तिमर मिटहि खिनु ॥ जिह सतिगुर सिमरंथि रिदै हरि नामु दिनो दिनु ॥

मूलम्

जिह सतिगुर सिमरंत नयन के तिमर मिटहि खिनु ॥ जिह सतिगुर सिमरंथि रिदै हरि नामु दिनो दिनु ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नयन = नेत्र, आँखें। तिमर = अंधेरा। रिदै = हृदय में।
अर्थ: जिस गुरु का स्मरण करने से, आँखों का अंधेरा छिन में मिट जाता है, जिस गुरु का स्मरण करने से हृदय में हरि का नाम दिनो-दिन (ज्यादा पैदा होता है);

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिह सतिगुर सिमरंथि जीअ की तपति मिटावै ॥ जिह सतिगुर सिमरंथि रिधि सिधि नव निधि पावै ॥

मूलम्

जिह सतिगुर सिमरंथि जीअ की तपति मिटावै ॥ जिह सतिगुर सिमरंथि रिधि सिधि नव निधि पावै ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जिस गुरु को स्मरण करने से (जीव) हृदय की तपश को मिटाता है, जिस गुरु को याद करके (जीव) रिद्धियां-सिद्धियां और नौ-निधियां पा लेता है;

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोई रामदासु गुरु बल्य भणि मिलि संगति धंनि धंनि करहु ॥ जिह सतिगुर लगि प्रभु पाईऐ सो सतिगुरु सिमरहु नरहु ॥५॥५४॥

मूलम्

सोई रामदासु गुरु बल्य भणि मिलि संगति धंनि धंनि करहु ॥ जिह सतिगुर लगि प्रभु पाईऐ सो सतिगुरु सिमरहु नरहु ॥५॥५४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भणि = कह। लगि = (चरणों में) लग के। नरहु = हे मनुष्यो!
अर्थ: हे बल्य (कवि!) कह: हे जनो! जिस गुरु रामदास के चरणों में लग के प्रभु को मिलते हैं, उस गुरु को स्मरण करो और संगति में मिल के उसको कहो- ‘तू धन्य है, तू धन्य है’।5।54।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिनि सबदु कमाइ परम पदु पाइओ सेवा करत न छोडिओ पासु ॥ ता ते गउहरु ग्यान प्रगटु उजीआरउ दुख दरिद्र अंध्यार को नासु ॥

मूलम्

जिनि सबदु कमाइ परम पदु पाइओ सेवा करत न छोडिओ पासु ॥ ता ते गउहरु ग्यान प्रगटु उजीआरउ दुख दरिद्र अंध्यार को नासु ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस (गुरु रामदास जी) ने। पासु = पासा, साथ। ता ते = उस (गुरु रामदास जी) से। गउहरु = मोती (के जैसा उज्जवल)। ग्यान उजीआरउ = ज्ञान की रौशनी। अंध्यार = अंधेरा। को = का।
अर्थ: जिस (गुरु रामदास जी) ने शब्द को कमा के ऊँची पदवी पाई, और (गुरु अमरदास जी की) सेवा करते हुए साथ नहीं छोड़ा, उस (गुरु) से मोती-वत् उज्जवल ज्ञान का प्रकाश प्रकट हुआ, और दरिद्रता व अंधकार का नाश हो गया।

[[1406]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

कवि कीरत जो संत चरन मुड़ि लागहि तिन्ह काम क्रोध जम को नही त्रासु ॥ जिव अंगदु अंगि संगि नानक गुर तिव गुर अमरदास कै गुरु रामदासु ॥१॥

मूलम्

कवि कीरत जो संत चरन मुड़ि लागहि तिन्ह काम क्रोध जम को नही त्रासु ॥ जिव अंगदु अंगि संगि नानक गुर तिव गुर अमरदास कै गुरु रामदासु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जो = जो मनुष्य। त्रासु = डर। जिव = जैसे। अंगि संगि नानक गुर = गुरु नानक के सदा साथ।
अर्थ: हे कवि कीरत! जो मनुष्य उस संत (गुरु रामदास जी) के चरणों में लगते हैं, उनको काम, क्रोध और जमों का डर नहीं रहता। जैसे (गुरु) अंगद (साहिब जी) सदा गुरु नानक देव जी के साथ (रहे, भाव, सदा गुरु नानक देव जी की हजूरी में रहे), वैसे (ही) गुरु रामदास (जी) गुरु अमरदास (जी) के (साथ रहे)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिनि सतिगुरु सेवि पदारथु पायउ निसि बासुर हरि चरन निवासु ॥ ता ते संगति सघन भाइ भउ मानहि तुम मलीआगर प्रगट सुबासु ॥

मूलम्

जिनि सतिगुरु सेवि पदारथु पायउ निसि बासुर हरि चरन निवासु ॥ ता ते संगति सघन भाइ भउ मानहि तुम मलीआगर प्रगट सुबासु ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस (गुरु रामदास जी) ने। पदारथ = नाम पदार्थ। निसि बासुर = रात दिन। निसि = रात। बासुर = दिन। तां ते = उस (गुरु रामदास जी) से। सघन = बेअंत। भाइ = प्रेम में। मलीआगर = मलय पहाड़ पर उगा हुआ चँदन (मलय+अग्र)।
अर्थ: जिस (गुरु रामदास जी) ने सतिगुरु (अमरदास जी) को स्मरण करके नाम पदार्थ पाया है, और आठों पहर जिसका हरि के चरणों में निवास रहता है, उस (गुरु रामदास जी) से बेअंत संगतें प्रेम में (मस्त हो के) भउ मनाती हैं (और कहती हैं) - (“हे गुरु रामदास जी!) आप प्रत्यक्ष रूप से चँदन सी मीठी वासना वाले हो।”

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्रू प्रहलाद कबीर तिलोचन नामु लैत उपज्यो जु प्रगासु ॥ जिह पिखत अति होइ रहसु मनि सोई संत सहारु गुरू रामदासु ॥२॥

मूलम्

ध्रू प्रहलाद कबीर तिलोचन नामु लैत उपज्यो जु प्रगासु ॥ जिह पिखत अति होइ रहसु मनि सोई संत सहारु गुरू रामदासु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जु प्रगासु = जो प्रकाश। जिह पिखत = जिसको देखते हुए। रहसु = खिलाव। मनि = मन में। संत सहारु = संतों का आसरा।
अर्थ: नाम स्मरण करके ध्रुपव, प्रहलाद, कबीर और त्रिलोचन को जो रौशनी (दिखी थी) और जिसको देख-देख के मन में बड़ा आनंद होता है, वह संतों का आसरा गुरु रामदास ही है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानकि नामु निरंजन जान्यउ कीनी भगति प्रेम लिव लाई ॥ ता ते अंगदु अंग संगि भयो साइरु तिनि सबद सुरति की नीव रखाई ॥

मूलम्

नानकि नामु निरंजन जान्यउ कीनी भगति प्रेम लिव लाई ॥ ता ते अंगदु अंग संगि भयो साइरु तिनि सबद सुरति की नीव रखाई ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नानकि = नानक ने। जान्हउ = पहचाना है। ता ते = उस (गुरु नानक) से। साइरु = समुंदर। तिनि = उस (गुरु अंगद देव जी) ने। वरखाई = बरखा।
अर्थ: (गुरु) नानक (देव जी) ने निरंजन का नाम पहचाना, प्रेम से तवज्जो जोड़ के भक्ति की। उनसे समुंदर-रूप गुरु अंगद देव जी (हुए, जो) सदा उनकी हजूरी में टिके और जिन्होंने ‘शब्द सूझ’ की बरखा की (भाव, शब्द के ध्यान की खुली बाँट बाँटी)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर अमरदास की अकथ कथा है इक जीह कछु कही न जाई ॥ सोढी स्रिस्टि सकल तारण कउ अब गुर रामदास कउ मिली बडाई ॥३॥

मूलम्

गुर अमरदास की अकथ कथा है इक जीह कछु कही न जाई ॥ सोढी स्रिस्टि सकल तारण कउ अब गुर रामदास कउ मिली बडाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीह = जीभ। तारण कउ = तैराने के लिए।
अर्थ: गुरु अमरदास जी की कथा कथन से परे है, (गुरु अमरदास जी की ऊँची आत्मिक अवस्था बयान नहीं की जा सकती), मेरी एक जीभ है, इससे कुछ कही नहीं जा सकती। अब (गुरु अमरदास जी से) सारी सृष्टि को तैराने के लिए सोढी गुरु रामदास (जी) को बड़ाई मिली है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम अवगुणि भरे एकु गुणु नाही अम्रितु छाडि बिखै बिखु खाई ॥ माया मोह भरम पै भूले सुत दारा सिउ प्रीति लगाई ॥

मूलम्

हम अवगुणि भरे एकु गुणु नाही अम्रितु छाडि बिखै बिखु खाई ॥ माया मोह भरम पै भूले सुत दारा सिउ प्रीति लगाई ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिखु = जहर। बिखै बिखु = जहर ही जहर। बिखै बिखु खाई = हमने सिर्फ जहर ही खाया है। पै = पड़ कर। सुत = पुत्र। दारा = स्त्री। सउ = साथ। अंम्रितु = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल।
अर्थ: हम अवगुणों से भरे पड़े हैं, (हमारे में) एक भी गुण नहीं है, अमृत (-नाम) को छोड़ के हमने सिर्फ जहर ही खाया है। माया के मोह में और भरमों में पड़ कर हम (सही जीवन-राह से) भूले हुए हैं, और स्त्री-पुत्र से हमने प्यार डाला हुआ है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इकु उतम पंथु सुनिओ गुर संगति तिह मिलंत जम त्रास मिटाई ॥ इक अरदासि भाट कीरति की गुर रामदास राखहु सरणाई ॥४॥५८॥

मूलम्

इकु उतम पंथु सुनिओ गुर संगति तिह मिलंत जम त्रास मिटाई ॥ इक अरदासि भाट कीरति की गुर रामदास राखहु सरणाई ॥४॥५८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिह मिलंत = उसमें मिल के। त्रास = डर। भाट = भाट। गुर = हे गुरु!
अर्थ: हमने सतिगुरु की संगति वाला एक उत्तम राह सुना है, उसमें मिल के हमने जमों का त्रास मिटा लिया है। ‘कीरत’ भाट की अब एक विनती है कि हे गुरु रामदास जी! अपनी शरण में रखो।4।58।

दर्पण-टिप्पनी

(भाट कीरत के 4 सवईऐ)

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोहु मलि बिवसि कीअउ कामु गहि केस पछाड़्यउ ॥ क्रोधु खंडि परचंडि लोभु अपमान सिउ झाड़्यउ ॥

मूलम्

मोहु मलि बिवसि कीअउ कामु गहि केस पछाड़्यउ ॥ क्रोधु खंडि परचंडि लोभु अपमान सिउ झाड़्यउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मलि = मल के, मसल के। बिवसि कीअउ = काबू कर लिया है। गहि केस = केसों से पकड़ कर। पछाढ़उ = जमीन पर पटका है। खंडि = टुकड़े टुकड़े कर के। परचंडि = (अपने) तेज पताप से। अपमान सिउ = निरादरी से। झाढ़उ = दुत्कारा है।
अर्थ: (हे गुरु रामदास जी!) आप ने ‘मोह’ को मसल के काबू में कर लिया है, और ‘काम’ को केसों से पकड़ के जमीन पर दे पटका है। (आपने) ‘क्रोध’ को (अपने) तेज-प्रताप से टुकड़े-टुकड़े कर दिया है, और ‘लोभ’ को आप ने निरादरी से परे दुत्कारा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनमु कालु कर जोड़ि हुकमु जो होइ सु मंनै ॥ भव सागरु बंधिअउ सिख तारे सुप्रसंनै ॥

मूलम्

जनमु कालु कर जोड़ि हुकमु जो होइ सु मंनै ॥ भव सागरु बंधिअउ सिख तारे सुप्रसंनै ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कर जोड़ि = हाथ जोड़ के। भव सागरु = संसार समुंदर को। सुप्रसंनै = सदा प्रसन्न रहने वाले (गुरु) ने।
अर्थ: ‘जनम’ और ‘मरन’ हाथ जोड़ के आप का जो हुक्म होता है उसको मानते हैं, आप ने संसार-समुंदर को बाँध दिया है, और आप ने, जो सदा प्रसन्न रहने वाले हो, सिख (इस संसार-समुंदर से) तैरा लिए हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिरि आतपतु सचौ तखतु जोग भोग संजुतु बलि ॥ गुर रामदास सचु सल्य भणि तू अटलु राजि अभगु दलि ॥१॥

मूलम्

सिरि आतपतु सचौ तखतु जोग भोग संजुतु बलि ॥ गुर रामदास सचु सल्य भणि तू अटलु राजि अभगु दलि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिरि = सिर पर। आतपतु = छत्र (आतप = धूप। आतपात्, त्रायते इति)। सचौ = सच्चा, अटल। जोग भोग संजुतु = जोग और राज भोगने वाले। बलि = बल वाला। सल्य = हे सल्य कवि! अटलु राजि = अटल राज वाला। अभगु दलि = अखंड दल वाला, ना हारने वाली फौज वाला।
अर्थ: (आप के) सिर पर छत्र है, (आप का) तख़्त सदा स्थिर है, आप राज और जोग दोनों भोगते हो, और बली हो। हे सल्य कवि! तू सच कह “हे गुरु रामदास! तू अटल राज वाला और (दैवी संपती रूप) ना नाश होने वाली फौज वाला है”।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तू सतिगुरु चहु जुगी आपि आपे परमेसरु ॥ सुरि नर साधिक सिध सिख सेवंत धुरह धुरु ॥

मूलम्

तू सतिगुरु चहु जुगी आपि आपे परमेसरु ॥ सुरि नर साधिक सिध सिख सेवंत धुरह धुरु ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चहु जुगी = चारों ही जुगों में रहने वाला, सदा स्थिर। आपे = आप ही। धुरहु धुरु = धुर से ही, आदि से ही। सुरि = देवते। नर = मनुष्य। साधिक = जोग साधना करने वाले। सिध = जोग साधना में पुगे हुए जोगी।
अर्थ: हे गुरु रामदास! तू चारों जुगों में ही स्थिर गुरु है, (मेरी नज़रों में तो) तू ही परमेश्वर है। देवता, मनुष्य, साधक, सिद्ध और सिख, आदि से ही तुझे सेवते आए हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आदि जुगादि अनादि कला धारी त्रिहु लोअह ॥ अगम निगम उधरण जरा जमिहि आरोअह ॥

मूलम्

आदि जुगादि अनादि कला धारी त्रिहु लोअह ॥ अगम निगम उधरण जरा जमिहि आरोअह ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उधरण = बचाने वाले। अगम निगम = वेद शास्त्र। जरा = बुढ़ापा। जंमिहि = जम पर। आरोअह = सवार हो।
अर्थ: (आप) आदि से हो, जुगादि से हो, और अनादि हो। तीनों लोकों में ही (आप ने अपनी) सत्ता धारी हुई है। (मेरे लिए तो आप ही हो जिसने) वेद-शास्त्रों को बचाया था (वराह-रूप हो के)। आप बुढ़ापे और जमों पर सवार हो (भाव, आप को इनका डर नहीं है)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर अमरदासि थिरु थपिअउ परगामी तारण तरण ॥ अघ अंतक बदै न सल्य कवि गुर रामदास तेरी सरण ॥२॥६०॥

मूलम्

गुर अमरदासि थिरु थपिअउ परगामी तारण तरण ॥ अघ अंतक बदै न सल्य कवि गुर रामदास तेरी सरण ॥२॥६०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुर अमरदासि = गुरु अमरदास (जी) ने। थिरु थपिअउ = अटल कर दिया है। परगामी = पारग्रामी, मुक्त। तरण = जहाज। अघ = पाप। अंतक = जम। बदै न = परवाह नहीं करता, नहीं डरता।
अर्थ: (आप को) गुरु अमरदास (जी) ने अटल कर दिया है, आप मुक्त हो और औरों के उद्धार के लिए जहाज़ हो। हे गुरु रामदास! सल्य कवि (कहता है) - जो मनुष्य तेरी शरण आया है, वह पापों और जमों की परवाह नहीं करता (से नहीं डरता)।2।60।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सवईए महले पंजवे के ५

मूलम्

सवईए महले पंजवे के ५

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: गुरु अरजन साहिब जी की स्तुति में उचारे हुए सवईए।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिमरं सोई पुरखु अचलु अबिनासी ॥ जिसु सिमरत दुरमति मलु नासी ॥ सतिगुर चरण कवल रिदि धारं ॥ गुर अरजुन गुण सहजि बिचारं ॥

मूलम्

सिमरं सोई पुरखु अचलु अबिनासी ॥ जिसु सिमरत दुरमति मलु नासी ॥ सतिगुर चरण कवल रिदि धारं ॥ गुर अरजुन गुण सहजि बिचारं ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिमरं = मैं स्मरण करता हूँ। धारं = धारता हूँ। रिदि = हृदय में। बिचारं = विचारता हूँ। सहजि = सहज से, प्रेम से, आत्मिक अडोलता में (टिक के)।
अर्थ: मैं उस अविनाशी और अटल अकाल-पुरख को स्मरण करता हूँ, जिसका स्मरण करने से दुर्मति की मैल दूर हो जाती है। मैं सतिगुरु के कँवलों जैसे चरण हृदय में टिकाता हूँ, और प्रेम से गुरु अरजन देव जी के गुण विचारता हूँ।

[[1407]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर रामदास घरि कीअउ प्रगासा ॥ सगल मनोरथ पूरी आसा ॥ तै जनमत गुरमति ब्रहमु पछाणिओ ॥ कल्य जोड़ि कर सुजसु वखाणिओ ॥

मूलम्

गुर रामदास घरि कीअउ प्रगासा ॥ सगल मनोरथ पूरी आसा ॥ तै जनमत गुरमति ब्रहमु पछाणिओ ॥ कल्य जोड़ि कर सुजसु वखाणिओ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुर रामदास घरि = गुरु रामदास (जी) के घर में। कीअउ प्रगासा = प्रकट हुए। जनमत = जनम लेते ही, आदि से ही। गुरमति = गुरु की मति ले के। जोड़ि कर = हाथ जोड़ के। कर = हाथ (बहुवचन)।
अर्थ: (हे गुरु अरजुन!) कल्य कवि हाथ जोड़ के (आपकी) महिमा उचारता है, (आप ने) गुरु रामदास (जी) के घर में जनम लिया, (उनके) सारे उद्देश्य और आशाएं पूरी हुई। जनम से ही आप ने गुरु की मति के द्वारा ब्रहम को पहचाना है (परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाली हुई है)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगति जोग कौ जैतवारु हरि जनकु उपायउ ॥ सबदु गुरू परकासिओ हरि रसन बसायउ ॥

मूलम्

भगति जोग कौ जैतवारु हरि जनकु उपायउ ॥ सबदु गुरू परकासिओ हरि रसन बसायउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कौ = को। जैतवारु = जीतने वाला। रसन = जीभ पर।
अर्थ: आप ने भक्ति के जोग को जीत लिया है (भाव, आपने भक्ति का मिलाप पा लिया है)। हरि ने (आप को) ‘जनक’ पैदा किया है। (आप ने) गुरु शब्द को प्रकट किया है, और हरि को (आप ने) जीभ पर बसाया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर नानक अंगद अमर लागि उतम पदु पायउ ॥ गुरु अरजुनु घरि गुर रामदास भगत उतरि आयउ ॥१॥

मूलम्

गुर नानक अंगद अमर लागि उतम पदु पायउ ॥ गुरु अरजुनु घरि गुर रामदास भगत उतरि आयउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: गुरु नानक देव, गुरु अंगद साहिब और गुरु अमरदास जी के चरणों में लग के, (गुरु अरजन साहिब जी ने) उत्तम पदवी पाई है; गुरु रामदास (जी) के घर में गुरु अरजुन भक्त पैदा हो गया है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बडभागी उनमानिअउ रिदि सबदु बसायउ ॥ मनु माणकु संतोखिअउ गुरि नामु द्रिड़्हायउ ॥

मूलम्

बडभागी उनमानिअउ रिदि सबदु बसायउ ॥ मनु माणकु संतोखिअउ गुरि नामु द्रिड़्हायउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उनमानिअउ = पूरन खिलाव में है। रिदि = हृदय में है। गुरि = गुरु ने।
अर्थ: (गुरु अरजन) बहुत भाग्यशाली है, पूर्ण खिलाव में है। (आपने) हृदय में शब्द बसाया है; (आपने अपने) माणक-रूप मन को संतोख में टिकाया है; गुरु (रामदास जी) ने (आप को) नाम दृढ़ कराया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अगमु अगोचरु पारब्रहमु सतिगुरि दरसायउ ॥ गुरु अरजुनु घरि गुर रामदास अनभउ ठहरायउ ॥२॥

मूलम्

अगमु अगोचरु पारब्रहमु सतिगुरि दरसायउ ॥ गुरु अरजुनु घरि गुर रामदास अनभउ ठहरायउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुरि = सतिगुरु (रामदास जी) ने। दरसायउ = दिखाया है। अनभउ = ज्ञान। ठहरायउ = स्थापित किया है। अगमु = अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु। अगोचरु = (अ+गो+चरु) जिस तक इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती।
अर्थ: सतिगुरु (रामदास जी) ने (आप को) अगम अगोचर पारब्रहम दिखा दिया है। गुरु रामदास (जी) के घर में अकाल-पुरख ने गुरु अरजुन (जी) को ज्ञान-रूप स्थापित किया है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनक राजु बरताइआ सतजुगु आलीणा ॥ गुर सबदे मनु मानिआ अपतीजु पतीणा ॥

मूलम्

जनक राजु बरताइआ सतजुगु आलीणा ॥ गुर सबदे मनु मानिआ अपतीजु पतीणा ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जनक राजु = जनक का राज (भाव, ज्ञान का राज)। आलीणा = समाया हुआ है, पसरा हुआ है। अपतीजु = ना पतीजने वाला मन।
अर्थ: (गुरु अरजन साहिब ने) ज्ञान का राज बरता दिया है, (अब तो) सतिगुरु बरत रहा है। (आप का) मन गुरु के शब्द में माना हुआ है, और यह ना पतीजने वाला मन पतीज गया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरु नानकु सचु नीव साजि सतिगुर संगि लीणा ॥ गुरु अरजुनु घरि गुर रामदास अपर्मपरु बीणा ॥३॥

मूलम्

गुरु नानकु सचु नीव साजि सतिगुर संगि लीणा ॥ गुरु अरजुनु घरि गुर रामदास अपर्मपरु बीणा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साजि = उसार के। सतिगुर संगि = गुरु (अरजन देव) में। अपरंपरु = बेअंत हरि। बीणा = बना हुआ है।
अर्थ: गुरु नानक देव स्वयं ‘सचु’-रूप नींव उसार के गुरु (अरजन देव जी) में लीन हो गया है। गुरु रामदास (जी) के घर में गुरु अरजुन देव अपरंपर-रूप बना हुआ है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

खेलु गूड़्हउ कीअउ हरि राइ संतोखि समाचरि्यओ बिमल बुधि सतिगुरि समाणउ ॥ आजोनी स्मभविअउ सुजसु कल्य कवीअणि बखाणिअउ ॥

मूलम्

खेलु गूड़्हउ कीअउ हरि राइ संतोखि समाचरि्यओ बिमल बुधि सतिगुरि समाणउ ॥ आजोनी स्मभविअउ सुजसु कल्य कवीअणि बखाणिअउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गूढ़उ = आश्चर्य। हरि राइ = अकाल-पुरख ने। समाचरि्यओ = विचारता है (गुरु अरजुन)। बिमल = निर्मल। सतिगुरि = गुरु (अरजुन) में। समाणउ = समाई है। आजोनी = जूनों से रहत। संभविअउ = (स्वयं भु) अपने आप से प्रकट होने वाला। कल्य कवीअणि = कल्य आदि कवियों ने।
अर्थ: अकाल पुरख ने (यह) आश्चर्य (भरी) खेल रची है, (गुरु अरजुन) संतोख में विचर रहा है। निर्मल बुद्धि गुरु (अरजुन) में समाई हुई है। आप जूनियों से रहित और स्वयंभु हरि का रूप हैं। कल्य आदि कवियों ने (आप का) सुंदर यश उचारा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरि नानकि अंगदु वर्यउ गुरि अंगदि अमर निधानु ॥ गुरि रामदास अरजुनु वर्यउ पारसु परसु प्रमाणु ॥४॥

मूलम्

गुरि नानकि अंगदु वर्यउ गुरि अंगदि अमर निधानु ॥ गुरि रामदास अरजुनु वर्यउ पारसु परसु प्रमाणु ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वर्उ = वर दिया है। निधानु = खजाना। परसु = परसना, छूना। पारसु प्रमाणु = पारस जैसा।
अर्थ: गुरु नानक (देव जी) ने गुरु अंगद को वर बख्शा; गुरु अंगद (देव जी) ने (सब पदार्थों के) खजाना (गुरु) अमरदास (जी) को दिया। गुरु रामदास जी ने (गुरु) अरजुन (साहिब जी) को वर दिया; और उन (के चरणों) को छूना पारस की छोह जैसा हो गया।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सद जीवणु अरजुनु अमोलु आजोनी स्मभउ ॥ भय भंजनु पर दुख निवारु अपारु अन्मभउ ॥

मूलम्

सद जीवणु अरजुनु अमोलु आजोनी स्मभउ ॥ भय भंजनु पर दुख निवारु अपारु अन्मभउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पर दुख = पराए दुख। अनंभउ = ज्ञान रूप।
अर्थ: (गुरु) अरजन (साहिब) सद-जीवी हैं, (आपका) मूल्य नहीं आँका जा सकता, (आप) जूनियों से रहत और स्वयंभू हरि का रूप है; (गुरु अरजन) भय दूर करने वाले, पराए दुख हरने वाले, बेअंत और ज्ञान-स्वरूप है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अगह गहणु भ्रमु भ्रांति दहणु सीतलु सुख दातउ ॥ आस्मभउ उदविअउ पुरखु पूरन बिधातउ ॥

मूलम्

अगह गहणु भ्रमु भ्रांति दहणु सीतलु सुख दातउ ॥ आस्मभउ उदविअउ पुरखु पूरन बिधातउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अगह = जो पहुँच से परे है। अगह गहणु = पहुँच से परे जो हरि है उस तक पहुँच वाला। आसंभउ = उत्पक्ति रहत, अजन्मा। अदविअउ = प्रकट हुआ है। बिधातउ = बिधाता, कर्तार।
अर्थ: (गुरु अरजन साहिब जी की) उस हरि तक पहुँच है जो (जीवों की) पहुँच से परे है, (गुरु अरजन) भ्रम और भटकना को दूर करने वाला है, सीतल है और सुखों को देने वाला है; (मानो) अजन्मा, पूरन पुरख विधाता प्रकट हो गया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक आदि अंगद अमर सतिगुर सबदि समाइअउ ॥ धनु धंनु गुरू रामदास गुरु जिनि पारसु परसि मिलाइअउ ॥५॥

मूलम्

नानक आदि अंगद अमर सतिगुर सबदि समाइअउ ॥ धनु धंनु गुरू रामदास गुरु जिनि पारसु परसि मिलाइअउ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आदि = आरम्भ से ले के। सतिगुरि सबदि = सतिगुरु के शब्द में। समाइअउ = (गुरु अरजन) लीन हुआ है। जिनि = जिस (गुरु रामदास जी) ने। परसि = (गुरु अरजन को) परस के। पारसु = पारस (बना के)।
अर्थ: गुरु नानक, गुरु अंगद और गुरु अमरदास जी की इनायत से, (गुरु अरजन देव) सतिगुरु के शब्द में लीन है। गुरु रामदास जी धन्य हैं, जिसने गुरु (अरजन जी को) परस के पारस बना के अपने जैसा कर लिया है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जै जै कारु जासु जग अंदरि मंदरि भागु जुगति सिव रहता ॥ गुरु पूरा पायउ बड भागी लिव लागी मेदनि भरु सहता ॥

मूलम्

जै जै कारु जासु जग अंदरि मंदरि भागु जुगति सिव रहता ॥ गुरु पूरा पायउ बड भागी लिव लागी मेदनि भरु सहता ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जासु = जिस (गुरु अरजन जी) का। मंदरि = (हृदय-रूप) घर में। सिव = कल्याण स्वरूप हरि। जुगति सिव रहता = हरि से जुड़ा हुआ रहता है। मेदनि = पृथ्वी। मेदनि भरु = धरती का भार।
अर्थ: जिस गुरु की महिमा जगत में हो रही है, जिसके हृदय के भाग्य जाग उठे हैं, जो हरि से जुड़ा रहता है, (जिसने) बड़े भाग्यों से पूरा गुरु पा लिया है, (जिसकी) तवज्जो (हरि में) जुड़ी रहती है, और जो धरती का भार सह रहा है;

विश्वास-प्रस्तुतिः

भय भंजनु पर पीर निवारनु कल्य सहारु तोहि जसु बकता ॥ कुलि सोढी गुर रामदास तनु धरम धुजा अरजुनु हरि भगता ॥६॥

मूलम्

भय भंजनु पर पीर निवारनु कल्य सहारु तोहि जसु बकता ॥ कुलि सोढी गुर रामदास तनु धरम धुजा अरजुनु हरि भगता ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तोहि = तेरा। बकता = कहता है। कुलि सोढी = सोढी कुल में। गुर रामदास तन = गुरु रामदास (जी) का पुत्र। धरम धुजा = धर्म के झण्डे वाला।
अर्थ: (हे गुरु अरजुन जी!) तू भय दूर करने वाला, पराई पीड़ा हरने वाला है, कवि कलसहार तेरा यश कहता है। गुरु अरजुन साहिब गुरु रामदास जी का पुत्र, सोढी कुल में धर्म के झण्डे वाला, हरि का भक्त है।6।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: पहले सवईयों में भाट का नाम ‘कल्य’ आ रहा था, इस सवईऐ में नाम ‘कल्सहार’ आया है, अगले सवईयों में फिर ‘कल्य’ आएगा। सवईयों का क्रमांक भी उसी कड़ी में जारी है। सो, ‘कल्सहार’ और ‘कल्य’ एक ही कवि हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्रम धीरु गुरमति गभीरु पर दुख बिसारणु ॥ सबद सारु हरि सम उदारु अहमेव निवारणु ॥

मूलम्

ध्रम धीरु गुरमति गभीरु पर दुख बिसारणु ॥ सबद सारु हरि सम उदारु अहमेव निवारणु ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ध्रंम = धरम। पर = पराए। सारु = श्रेष्ठ। उदारु = खुले दिल वाला। अहंमेव = अहंकार।
अर्थ: (गुरु अरजन देव जी ने) धैर्य को अपना धर्म बनाया हुआ है, (गुरु अरजन) गुरमति में गहरा है, पराए दुख दूर करने वाला है, श्रेष्ठ शब्द वाला है, हरि जैसा उदार-चिक्त है, और अहंकार को दूर करता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

महा दानि सतिगुर गिआनि मनि चाउ न हुटै ॥ सतिवंतु हरि नामु मंत्रु नव निधि न निखुटै ॥

मूलम्

महा दानि सतिगुर गिआनि मनि चाउ न हुटै ॥ सतिवंतु हरि नामु मंत्रु नव निधि न निखुटै ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: न हुटै = नहीं खत्म होता। न निखुटै = खत्म नहीं होता। गिआनि = ज्ञानवान। मनि = मन में। नवनिधि = नौ खजाने।
अर्थ: (आप) बड़े दानी हैं, गुरु के ज्ञान वाले हैं, (आप के) मन में उत्साह कभी कम नहीं होता। (आप) सतिवंत हैं, हरि का नाम-रूप मंत्र (जो, मानो) नौ-निधियां (हैं, जो आप के खजाने में से) कभी खत्म नहीं होती।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर रामदास तनु सरब मै सहजि चंदोआ ताणिअउ ॥ गुर अरजुन कल्युचरै तै राज जोग रसु जाणिअउ ॥७॥

मूलम्

गुर रामदास तनु सरब मै सहजि चंदोआ ताणिअउ ॥ गुर अरजुन कल्युचरै तै राज जोग रसु जाणिअउ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तनु = पुत्र। सरब मै = सर्व मय, सरब व्यापक। सहजि = सहज अवस्था में। गुर अरजुन = हे गुरु अरजुन देव जी! कल्हुचरै = कल्य+उचरै, कल्य कहता है। तै = आप ने, तूने। राज जोग रसु = राज और जोग का आनंद।
अर्थ: गुरु रामदास जी का सपुत्र (गुरु अरजन जी) सर्व-व्यापक (का रूप) है; (आपने) आत्मिक अडोलता में (अपना) चँदोआ ताना हुआ है (भाव, आप सहज रूप में आनंद ले रहे हैं)। कल्य कवि कहता है, “हे गुरु अरजुन देव! तूने राज और जोग का आनंद समझ लिया है” (भोग रहा है)।7।

[[1408]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

भै निरभउ माणिअउ लाख महि अलखु लखायउ ॥ अगमु अगोचर गति गभीरु सतिगुरि परचायउ ॥

मूलम्

भै निरभउ माणिअउ लाख महि अलखु लखायउ ॥ अगमु अगोचर गति गभीरु सतिगुरि परचायउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भै निरभउ = अकाल पुरख जो भय रहित है। लाख महि = लाखों जीवों में व्यापक। लखायउ = दिखाया है। अगोचर गति = जिसकी गति अगोचर है, जिसकी अवस्था इन्द्रियों की पहुँच से परे है। सतिगुरि = गुरु (रामदास जी) ने। परचायउ = उपदेश दिया है।
अर्थ: (गुरु अरजन देव जी ने) उस हरि को माणा है, जिसको कोई डर छू नहीं सकता, और जो लाखों में रमा हुआ है। गुरु (रामदास जी) ने आपको उस हरि का उपदेश दिया है जो अगम है, गंभीर है और जिसकी हस्ती इन्द्रियों की पहुँच से परे है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर परचै परवाणु राज महि जोगु कमायउ ॥ धंनि धंनि गुरु धंनि अभर सर सुभर भरायउ ॥

मूलम्

गुर परचै परवाणु राज महि जोगु कमायउ ॥ धंनि धंनि गुरु धंनि अभर सर सुभर भरायउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुर परचै = गुरु के उपदेश के कारण। अभर = खाली, (अ+भर)। सर = (हृदय-रूप) सरोवर। सुभर = नाको नाक।
अर्थ: गुरु के उपदेश के कारण आप (प्रभु की हजूरी में) स्वीकार हो गए हो, आप ने राज में जोग कमाया है। गुरु अरजन देव धन्य हैं। खाली हृदयों को आप ने (नाम-अमृत से) नाको-नाक भर दिया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर गम प्रमाणि अजरु जरिओ सरि संतोख समाइयउ ॥ गुर अरजुन कल्युचरै तै सहजि जोगु निजु पाइयउ ॥८॥

मूलम्

गुर गम प्रमाणि अजरु जरिओ सरि संतोख समाइयउ ॥ गुर अरजुन कल्युचरै तै सहजि जोगु निजु पाइयउ ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गम = (गम्य) पहुँच। प्रमाणु = दर्जा, तोल। गुरगम प्रमाणु = गुरु का पहुँचने योग्य दर्जा। गुरगम प्रमाणि = गुरु के पहुँचने योग्य दर्जे के कारण, भाव, गुरु वाली पदवी प्राप्त कर लेने के कारण। सरि = सर में। सहजि = आत्मिक अडोलता से। निजु जोगु = स्वै स्वरूप, असली मिलाप।
अर्थ: गुरु वाली पदवी प्राप्त कर लेने के कारण आप ने अजर अवस्था को जरा है, और आप संतोख के सरोवर में लीन हो गए हैं। कवि ‘कल्य’ कहता है: ‘हे गुरु अरजुन (देव जी)! तूने आत्मिक अडोलता में टिक के (अकाल-पुरख से) असली कृपा प्राप्त कर ली है’।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमिउ रसना बदनि बर दाति अलख अपार गुर सूर सबदि हउमै निवार्यउ ॥ पंचाहरु निदलिअउ सुंन सहजि निज घरि सहार्यउ ॥

मूलम्

अमिउ रसना बदनि बर दाति अलख अपार गुर सूर सबदि हउमै निवार्यउ ॥ पंचाहरु निदलिअउ सुंन सहजि निज घरि सहार्यउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अमिउ = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। रसना = जीभ से। बदनि = मुख से। बर दाति = वर की बख्शिश। गुर सूर = हे सूरमे गुरु! सबदि = शब्द द्वारा। पंचारहु = पाँच (ज्ञानेंन्द्रियों) को हरण करने वाले, (अज्ञान) को। सहार्उ = धारण किया, जरा है।
अर्थ: हे अलख! हे अपार! हे सूरमे गुरु! आप जीभ से अमृत (बरसाते हो) और मुँह से वर की बख्शिश करते हो, शब्द द्वारा आपने अहंकार दूर किया है। अज्ञान को आपने नाश कर दिया है और आत्मिक अडोलता से अफुर निरंकार को अपने हृदय में टिकाया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि नामि लागि जग उधर्यउ सतिगुरु रिदै बसाइअउ ॥ गुर अरजुन कल्युचरै तै जनकह कलसु दीपाइअउ ॥९॥

मूलम्

हरि नामि लागि जग उधर्यउ सतिगुरु रिदै बसाइअउ ॥ गुर अरजुन कल्युचरै तै जनकह कलसु दीपाइअउ ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कलसु = कलश, घड़ा, सुनहरी गागर आदि जो मन्दिरों के ऊपर लगाई जाती है, यह मन्दिर का निशान होता है। जनकह कलसु = जनक का कलश, ज्ञान का कलश, ज्ञान-रूप कलश। दीपाइअउ = चमका है।
अर्थ: हे गुरु अरजुन! हरि-नाम में जुड़ के (आपने) जगत को बचा लिया है; (आप ने) सतिगुरु को हृदय में बसाया है। कल्य कवि कहता है: आपने ज्ञान-रूप कलश को चमकाया है।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठे ॥ गुरु अरजुनु पुरखु प्रमाणु पारथउ चालै नही ॥ नेजा नाम नीसाणु सतिगुर सबदि सवारिअउ ॥१॥

मूलम्

सोरठे ॥ गुरु अरजुनु पुरखु प्रमाणु पारथउ चालै नही ॥ नेजा नाम नीसाणु सतिगुर सबदि सवारिअउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रमाणु = तोल, दर्जा। पुरखु प्रमाणु = अकाल पुरख रूप। पारथउ = (पार्थ) अर्जुन (पांडव कुल का)। चालै नही = हिलता नहीं, घबराता नहीं। नाम नीसाणु = नाम का प्रकाश। सतिगुर सबदि = सतिगुरु के शब्द की इनायत से।
अर्थ: गुरु अरजुन (देव जी) अकाल-पुरख-रूप है, अर्जुन की तरह कभी घबराने वाले नहीं हैं (भाव, जैसे अर्जुन कुरुक्षेत्र के युद्ध में वैरियों के दलों से नहीं घबराते थे, वैसे ही गुरु अरजुन देव जी कामादिक वैरियों से नहीं घबराते; संस्कृत-पार्थ - a metronymic of Arjuna) नाम का प्रकाश आपका नेजा है (हथियार है), गुरु के शब्द ने आपको सुंदर बनाया हुआ है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवजलु साइरु सेतु नामु हरी का बोहिथा ॥ तुअ सतिगुर सं हेतु नामि लागि जगु उधर्यउ ॥२॥

मूलम्

भवजलु साइरु सेतु नामु हरी का बोहिथा ॥ तुअ सतिगुर सं हेतु नामि लागि जगु उधर्यउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साइरु = समुंदर। सेतु = पुल। बोहिथा = जहाज। तुअ = तेरा। सं = साथ। हंतु = प्यार। उधर्उ = (संसार समुंदर से) उद्धार कर लिया है, बचा लिया है।
अर्थ: संसार समुंदर है, अकाल-पुरख का नाम पुल है और जहाज है। आपका गुरु से प्यार है। (अकाल-पुरख के) नाम में जुड़ के आप ने जगत को (संसार-समुंदर से) बचा लिया है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जगत उधारणु नामु सतिगुर तुठै पाइअउ ॥ अब नाहि अवर सरि कामु बारंतरि पूरी पड़ी ॥३॥१२॥

मूलम्

जगत उधारणु नामु सतिगुर तुठै पाइअउ ॥ अब नाहि अवर सरि कामु बारंतरि पूरी पड़ी ॥३॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तुठै = प्रसन्न होने से। अवर सरि = किसी और के साथ। बारंतरि = दर पर। पूरी पड़ी = कारज रास हो गए हैं।
अर्थ: जगत को तैराने वाला नाम आपने गुरु के प्रसन्न होने पर प्राप्त किया है। हमें अब किसी से कोई सरोकार नहीं। (गुरु अरजुन देव जी के) दर पर ही हमारे सारे कारज रास हो गए हैं।3।12।

दर्पण-टिप्पनी

(कल्सहार के 12 सवईऐ और सोरठे मिले जुले)

विश्वास-प्रस्तुतिः

जोति रूपि हरि आपि गुरू नानकु कहायउ ॥ ता ते अंगदु भयउ तत सिउ ततु मिलायउ ॥

मूलम्

जोति रूपि हरि आपि गुरू नानकु कहायउ ॥ ता ते अंगदु भयउ तत सिउ ततु मिलायउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जोति = प्रकाश। तत = ज्योति।
अर्थ: प्रकाश-रूप हरि ने अपने आप को गुरु नानक कहलवाया। उस (गुरु नानक देव जी) से (गुरु अंगद प्रकट हुआ), (गुरु नानक देव जी की) ज्योति (गुरु अंगद जी की) ज्योति के साथ मिल गई।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंगदि किरपा धारि अमरु सतिगुरु थिरु कीअउ ॥ अमरदासि अमरतु छत्रु गुर रामहि दीअउ ॥

मूलम्

अंगदि किरपा धारि अमरु सतिगुरु थिरु कीअउ ॥ अमरदासि अमरतु छत्रु गुर रामहि दीअउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अमरतु = अमरदास वाला।
अर्थ: (गुरु) अंगद (देव जी) ने कृपा करके अमरदास जी को गुरु स्थापित किया; (गुरु) अमरदास (जी) ने अपने वाला छत्र गुरु रामदास (जी) को दे दिया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर रामदास दरसनु परसि कहि मथुरा अम्रित बयण ॥ मूरति पंच प्रमाण पुरखु गुरु अरजुनु पिखहु नयण ॥१॥

मूलम्

गुर रामदास दरसनु परसि कहि मथुरा अम्रित बयण ॥ मूरति पंच प्रमाण पुरखु गुरु अरजुनु पिखहु नयण ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंम्रित बयण = (गुरु अरजन देव जी के) आत्मिक जीवन देने वाले वचन। पंच = पाँचवीं। प्रमाण पुरखु = अकाल पुरख रूप। पिखहु = देखो। नयण = आँखों से। कहि = कहे, कहता है।
अर्थ: मथुरा कहता है: ‘गुरु रामदास (जी) का दर्शन कर के (गुरु अरजन देव जी के) वचन आत्मिक जीवन देने वाले हो गए हैं। पाँचवें स्वरूप अकाल-पुरख रूप गुरु अरजुन देव जी को आँखों से देखो।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सति रूपु सति नामु सतु संतोखु धरिओ उरि ॥ आदि पुरखि परतखि लिख्यउ अछरु मसतकि धुरि ॥

मूलम्

सति रूपु सति नामु सतु संतोखु धरिओ उरि ॥ आदि पुरखि परतखि लिख्यउ अछरु मसतकि धुरि ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उरि = हृदय में। आदि पुरखि = अकाल पुरख ने। मसतकि = माथे पर। धुरि = धुर से, आदि से। अछरु = अक्षर, लेख।
अर्थ: (गुरु अरजुन देव जी ने) संत-संतोख हृदय में धारण किया है, और उस हरि को अपने अंदर बसाया है जिसका रूप सति है और नाम सदा-स्थिर है। प्रत्यक्ष तौर पर अकाल पुरख ने धुर से ही आप के माथे पर लेख लिखा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रगट जोति जगमगै तेजु भूअ मंडलि छायउ ॥ पारसु परसि परसु परसि गुरि गुरू कहायउ ॥

मूलम्

प्रगट जोति जगमगै तेजु भूअ मंडलि छायउ ॥ पारसु परसि परसु परसि गुरि गुरू कहायउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भूअ मंडलि = धरती पर। छायउ = बिखरा हुआ है। परसु = परसने योग्य गुरु को। गुरि = गुरु से, गुरु के द्वारा। कहायउ = कहलवाया।
अर्थ: (आप के अंदर) प्रतयक्ष तौर पर (हरि की) ज्योति जगमग-जगमग कर रही है, (आपका) तेज धरती पर छाया हुआ है। पारस (गुरु) को और परसने-योग्य (गुरु) को छू के (आप) गुरु से गुरु कहलवाए।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भनि मथुरा मूरति सदा थिरु लाइ चितु सनमुख रहहु ॥ कलजुगि जहाजु अरजुनु गुरू सगल स्रिस्टि लगि बितरहु ॥२॥

मूलम्

भनि मथुरा मूरति सदा थिरु लाइ चितु सनमुख रहहु ॥ कलजुगि जहाजु अरजुनु गुरू सगल स्रिस्टि लगि बितरहु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भनि = कह। मूरति = स्वरूप में। थिरु चितु लाइ = मन भली प्रकार जोड़ के। कलिजुगि = कलजुग में। सगल स्रिस्टि = हे सारी सृष्टि! (भाव, हे दुनिया के लोगो)! बितरहु = तैरो।
अर्थ: हे मथुरा! कह: (गुरु अरजुन देव जी के) स्वरूप में मन भली प्रकार जोड़ के सन्मुख रहो। गुरु अरजन कलियुग में जहाज है। हे दुनिया के लोगो! उसके चरणों में लग के (संसार-सागर) से सही-सलामत पार हो जाओ।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिह जन जाचहु जगत्र पर जानीअतु बासुर रयनि बासु जा को हितु नाम सिउ ॥ परम अतीतु परमेसुर कै रंगि रंग्यौ बासना ते बाहरि पै देखीअतु धाम सिउ ॥

मूलम्

तिह जन जाचहु जगत्र पर जानीअतु बासुर रयनि बासु जा को हितु नाम सिउ ॥ परम अतीतु परमेसुर कै रंगि रंग्यौ बासना ते बाहरि पै देखीअतु धाम सिउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जन = हे लोगो! तिह जाचहु = उससे माँगो। जगत्र पर = सारे संसार में। जानीअतु = प्रकट है। बासुर = दिन। रयनि = रात। बासु = वासा। हितु = प्यार। सिउ = साथ। संगि = प्रेम में। ते = से। पै = परंतू। धाम = घर।
अर्थ: हे लोगो! उस गुरु के दर से माँगो, जो सारे संसार में प्रकट है और दिन-रात जिसका प्यार और वासा नाम के साथ है, जो पूरन वैरागवान है, हरि के प्यार में भीगा हुआ है, वाशना से परे है; पर वैसे गृहस्थ में देखा जाता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपर पर्मपर पुरख सिउ प्रेमु लाग्यौ बिनु भगवंत रसु नाही अउरै काम सिउ ॥ मथुरा को प्रभु स्रब मय अरजुन गुरु भगति कै हेति पाइ रहिओ मिलि राम सिउ ॥३॥

मूलम्

अपर पर्मपर पुरख सिउ प्रेमु लाग्यौ बिनु भगवंत रसु नाही अउरै काम सिउ ॥ मथुरा को प्रभु स्रब मय अरजुन गुरु भगति कै हेति पाइ रहिओ मिलि राम सिउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अपर परंपर पुरख = बेअंत हरि। रसु = स्वाद, प्यार। अउरै काम सिउ = किसी और काम से। राम पाइ सिउ मिलि रहिओ = हरि के चरणों में जुड़ रहा है।
अर्थ: (जिस गुरु अरजुन का) प्यार बेअंत हरि के साथ लगा हुआ है, और जिसको हरि के बिना किसी और काम के साथ कोई सरोकार नहीं है, वह वह गुरु अरजुन ही मथुरा के सर्व-व्यापक प्रभु हैं, वह भक्ति की खातिर हरि के चरणों में जुड़ा हुआ है।3।

[[1409]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंतु न पावत देव सबै मुनि इंद्र महा सिव जोग करी ॥ फुनि बेद बिरंचि बिचारि रहिओ हरि जापु न छाड्यिउ एक घरी ॥

मूलम्

अंतु न पावत देव सबै मुनि इंद्र महा सिव जोग करी ॥ फुनि बेद बिरंचि बिचारि रहिओ हरि जापु न छाड्यिउ एक घरी ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबै = सारे। जोग = जोग साधना। करी = की। फुनि = और। बिरंचि = ब्रहमा। न छाडिउ = नहीं छोड़ा।
अर्थ: इन्द्र और शिव जी ने जोग-साधना की, ब्रहमा बेद विचार के थक गया, उसने हरि का जाप एक घड़ी ना छोड़ा, पर इन सभी देवताओं और मुनियों ने (गुरु अरजुन का) अंत नहीं पाया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मथुरा जन को प्रभु दीन दयालु है संगति स्रिस्टि निहालु करी ॥ रामदासि गुरू जग तारन कउ गुर जोति अरजुन माहि धरी ॥४॥

मूलम्

मथुरा जन को प्रभु दीन दयालु है संगति स्रिस्टि निहालु करी ॥ रामदासि गुरू जग तारन कउ गुर जोति अरजुन माहि धरी ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: को = का। करी = की है। रामदासि गुरू = गुरु रामदास ने। गुर जोति = गुरु वाली ज्योति।
अर्थ: दास मथुरा का प्रभु (गुरु अरजुन) दीनों पर दया करने वाला है, आपने संगत को और सृष्टि को निहाल किया है। गुरु रामदास जी ने जगत के उद्धार के लिए गुरु वाली ज्योति गुरु अरजुन में रख दी।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जग अउरु न याहि महा तम मै अवतारु उजागरु आनि कीअउ ॥ तिन के दुख कोटिक दूरि गए मथुरा जिन्ह अम्रित नामु पीअउ ॥

मूलम्

जग अउरु न याहि महा तम मै अवतारु उजागरु आनि कीअउ ॥ तिन के दुख कोटिक दूरि गए मथुरा जिन्ह अम्रित नामु पीअउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अउरु न = कोई और नहीं। जग महा तम मै = जगत के बड़े अंधेरे में। तम = अंधेरा। मै = में। उजागरु = बड़ा, मशहूर। आनि = ला के। कोटिक = करोड़ों। जिन्ह = जिन्होंने।
अर्थ: जगत के इस घोर अंधेरे में (गुरु अरजुन के बिना) कोई और (रखवाला) नहीं है, उसी को (हरि ने) ला के उजागर अवतार बनाया है। हे मथुरा! जिन्होंने (उससे) नाम-अमृत पिया है उनके करोड़ों दुख दूर हो गए हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इह पधति ते मत चूकहि रे मन भेदु बिभेदु न जान बीअउ ॥ परतछि रिदै गुर अरजुन कै हरि पूरन ब्रहमि निवासु लीअउ ॥५॥

मूलम्

इह पधति ते मत चूकहि रे मन भेदु बिभेदु न जान बीअउ ॥ परतछि रिदै गुर अरजुन कै हरि पूरन ब्रहमि निवासु लीअउ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पधति = पद्धति, रास्ता। ते = से। मत = कहीं। चूकहि = चूक जाए। भेदु = फर्क, दूरी। बीअउ = दूसरा। रिदै = हृदय में।
अर्थ: हे मेरे मन! कहीं इस राह से भटक ना जाना, कहीं ये दूरी ना समझना, कि गुरु अरजुन (हरि से अलग) दूसरा है। पूरन ब्रहम हरि ने गुरु अरजन के हृदय में प्रत्यक्ष तौर पर निवास किया है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जब लउ नही भाग लिलार उदै तब लउ भ्रमते फिरते बहु धायउ ॥ कलि घोर समुद्र मै बूडत थे कबहू मिटि है नही रे पछुतायउ ॥

मूलम्

जब लउ नही भाग लिलार उदै तब लउ भ्रमते फिरते बहु धायउ ॥ कलि घोर समुद्र मै बूडत थे कबहू मिटि है नही रे पछुतायउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जब लउ = जब तक। लिलार भाग = माथे के भाग्य। उदै = उदय, जागे। बहु धायउ = बहुत दौड़ते। घोर = डरावना। बूडत थे = डूब रहे थे। पछुतायउ = पछताना। रे = हे भाई!
अर्थ: हे भाई! जब तक माथे के भाग्य नहीं थे जागे, तब तक बहुत भटकते फिरते और भागते फिरते थे, पछतावा किसी भी वक्त नहीं मिटता था।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततु बिचारु यहै मथुरा जग तारन कउ अवतारु बनायउ ॥ जप्यउ जिन्ह अरजुन देव गुरू फिरि संकट जोनि गरभ न आयउ ॥६॥

मूलम्

ततु बिचारु यहै मथुरा जग तारन कउ अवतारु बनायउ ॥ जप्यउ जिन्ह अरजुन देव गुरू फिरि संकट जोनि गरभ न आयउ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ततु बिचारु = सच्ची विचार। यहै = यही है। संकट = दुख।
अर्थ: पर, हे मथुरा! अब सच्ची विचार ये है कि जगत के उद्धार के लिए (हरि ने गुरु अरजुन) अवतार बनाया है, जिन्होंने गुरु अरजुन देव (जी) को जपा है, वे पलट के गर्भ जोनि और दुखों में नहीं आए।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलि समुद्र भए रूप प्रगटि हरि नाम उधारनु ॥ बसहि संत जिसु रिदै दुख दारिद्र निवारनु ॥

मूलम्

कलि समुद्र भए रूप प्रगटि हरि नाम उधारनु ॥ बसहि संत जिसु रिदै दुख दारिद्र निवारनु ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कलि = कलजुग। जिसु रिदै = जिस हृदय में।
अर्थ: कलजुग के समुंदर से तैराने के लिए गुरु अरजुन देव जी हरि का नाम-रूप प्रकट हुए हैं, आप के हृदय में संत (शांति के श्रोत प्रभु जी) बसते हैं, आप दुखों-दरिद्रों के दूर करने वाले हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरमल भेख अपार तासु बिनु अवरु न कोई ॥ मन बच जिनि जाणिअउ भयउ तिह समसरि सोई ॥

मूलम्

निरमल भेख अपार तासु बिनु अवरु न कोई ॥ मन बच जिनि जाणिअउ भयउ तिह समसरि सोई ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भेख = स्वरूप। निरमल = पवित्र। अपार = बेअंत प्रभु का। जिनि = जिस ने। समसरि = जैसा।
अर्थ: उस (गुरु अरजुन) के बिना और कोई नहीं है, आप अपार हरि का निर्मल रूप हैं। जिस (मनुष्य) ने मन और वचनों से हरि को पहचाना है, वह हरि जैसा ही हो गया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धरनि गगन नव खंड महि जोति स्वरूपी रहिओ भरि ॥ भनि मथुरा कछु भेदु नही गुरु अरजुनु परतख्य हरि ॥७॥१९॥

मूलम्

धरनि गगन नव खंड महि जोति स्वरूपी रहिओ भरि ॥ भनि मथुरा कछु भेदु नही गुरु अरजुनु परतख्य हरि ॥७॥१९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धरनि = धरती। गगन = आकाश। महि = में। भरि = व्यापक। परतख्य = प्रतक्ष्य, साक्षात तौर पर।
अर्थ: (गुरु अरजुन ही) ज्योति-रूप हो के धरती आकाश और नौ-खण्डों में व्याप रहा है। हे मथुरा! कह: गुरु अरजुन साक्षात अकाल पुरख है। कोई फर्क नहीं है।7।19।

दर्पण-टिप्पनी

(मथुरा भाट के 7 सवईऐ)

विश्वास-प्रस्तुतिः

अजै गंग जलु अटलु सिख संगति सभ नावै ॥ नित पुराण बाचीअहि बेद ब्रहमा मुखि गावै ॥

मूलम्

अजै गंग जलु अटलु सिख संगति सभ नावै ॥ नित पुराण बाचीअहि बेद ब्रहमा मुखि गावै ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अजै = ना जीते जाने वाला, ईश्वरीय। गंग जलु = गंगा का जल। अटलु = सदा स्थिर रहने वाला। नावै = स्नान करती है। बाचीअहि = पढ़े जाते हैं। मुखि = मुँह से। गावै = गाता है। पुराण = ब्यास ऋषि की लिखी हुई अठारह धर्म पुस्तकें।
अर्थ: (गुरु अरजुन देव जी की दरगाह में) कभी ना खत्म होने वाला (नाम-रूप) गंगा जल (बह रहा है, जिसमें) सारी संगति स्नान करती है। (आपकी हजूरी में इतने महा ऋषि ब्यास की लिखी हुई धर्म पुस्तकें) पुराण सदा पढ़े जाते हैं और ब्रहमा (भी आपकी हजूरी में) मुँह से वेदों को गा रहा है (भाव, ब्यास और ब्रहमा जैसे बड़े-बड़े देवते और विद्वान ऋषि भी गुरु अरजुन के दर पर हाजिर रहने में अपने अच्छे भाग्य समझते हैं। मेरे लिए तो गुरु की वाणी ही पुराण और वेद है)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अजै चवरु सिरि ढुलै नामु अम्रितु मुखि लीअउ ॥ गुर अरजुन सिरि छत्रु आपि परमेसरि दीअउ ॥

मूलम्

अजै चवरु सिरि ढुलै नामु अम्रितु मुखि लीअउ ॥ गुर अरजुन सिरि छत्रु आपि परमेसरि दीअउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ढुलै = झूल रहा है। गुरू अरजुन सिरि = गुरु अरजुन के सिर पर। परमेसरि = परमेश्वर ने।
अर्थ: (आप के) सिर पर ईश्वरीय चवर झूल रहा है, आप ने आत्मिक जीवन देने वाला नाम मुँह से (सदा) उचारा है। गुरु अरजन देव जी के सिर पर यह छत्र परमेश्वर ने स्वयं बख्शा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिलि नानक अंगद अमर गुर गुरु रामदासु हरि पहि गयउ ॥ हरिबंस जगति जसु संचर्यउ सु कवणु कहै स्री गुरु मुयउ ॥१॥

मूलम्

मिलि नानक अंगद अमर गुर गुरु रामदासु हरि पहि गयउ ॥ हरिबंस जगति जसु संचर्यउ सु कवणु कहै स्री गुरु मुयउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिलि = मिल के। हरि पहि = हरि के पास। हरि बंस = हे हरिबंस कवि! जगति = संसार में। संचर्उ = पसरा हुआ है। मिलि गुर = गुरु को मिल के। मुयउ = मरा हुआ है।
अर्थ: गुरु नानक, गुरु अंगद और गुरु अमरदास जी को मिल के, गुरु रामदास जी हरि में लीन हो गए हैं। हे हरिबंस! जगत में सतिगुरु जी की शोभा पसर रही है। कौन कहता है, कि गुरु रामदास जी मर गए हैं?

विश्वास-प्रस्तुतिः

देव पुरी महि गयउ आपि परमेस्वर भायउ ॥ हरि सिंघासणु दीअउ सिरी गुरु तह बैठायउ ॥

मूलम्

देव पुरी महि गयउ आपि परमेस्वर भायउ ॥ हरि सिंघासणु दीअउ सिरी गुरु तह बैठायउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देव पुरी = हरि का देश, सचखंड। भायउ = अच्छा लगा। हरि = हरि ने। सिंघासणु = तख़्त। तह = वहाँ।
अर्थ: (गुरु रामदास) सचखण्ड में गए हैं हरि को यही रज़ा ठीक लगी है। हरि ने (आप को) तख्त दिया है और उस पर श्री गुरु (रामदास जी) को बैठाया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रहसु कीअउ सुर देव तोहि जसु जय जय ज्मपहि ॥ असुर गए ते भागि पाप तिन्ह भीतरि क्मपहि ॥

मूलम्

रहसु कीअउ सुर देव तोहि जसु जय जय ज्मपहि ॥ असुर गए ते भागि पाप तिन्ह भीतरि क्मपहि ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रहसु = खुशी, मंगल। सुरदेव = देवताओं ने। तोहि जसु = तेरा यश। असुर = दैत्य। ते = वह सारे।
अर्थ: देवताओं ने मंगलचार किया है, तेरा यश और जय-जयकार कर रहे हैं। वह (सारे) दैत्य (वहाँ से) भाग गए हैं, (उनके अपने) पाप उनके अंदर काँप रहे हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काटे सु पाप तिन्ह नरहु के गुरु रामदासु जिन्ह पाइयउ ॥ छत्रु सिंघासनु पिरथमी गुर अरजुन कउ दे आइअउ ॥२॥२१॥९॥११॥१०॥१०॥२२॥६०॥१४३॥

मूलम्

काटे सु पाप तिन्ह नरहु के गुरु रामदासु जिन्ह पाइयउ ॥ छत्रु सिंघासनु पिरथमी गुर अरजुन कउ दे आइअउ ॥२॥२१॥९॥११॥१०॥१०॥२२॥६०॥१४३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिन नरहु के = उन मनुष्यों के। के आइअउ = दे के आ गया है।
अर्थ: उन मनुष्यों के पाप कट गए हैं, जिस को गुरु रामदास मिल गया है। गुरु रामदास धरती का छत्र और सिंहासन गुरु अरजुन साहिब जी को दे आया है।2।21।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ये दोनों सवईए ‘हरिबंस’ भाट के हैं। पहले सवईए में गुरु अरजन साहिब जी के दरबार की महिमा की है। हिन्दू मत में गंगा, पुराण और वेदों की महानता मानी गई है। भाट जी के हृदय पर सतिगुरु जी का दरबार देख के यह प्रभाव पड़ता है कि नाम अमृत, मानो, गंगा जल है। पुराण और वेद भी गुरु–दर की शोभा कर रहे हैं। उसी तरह का ख्याल है, जैसे बाबा लहणा जी ने वैश्णों देवी को गुरु नानक के दर पर झाड़ू लगाते हुए देखा। भाट हरिबंस के हृदय में पहले गंगा, पुराण और वेदों की इज्जत थी, गुरु का दर देख के प्रतीत हुआ कि इस दर के तो वो भी सेवक हैं।

[[1410]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

मूलम्

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक वारां ते वधीक ॥

मूलम्

सलोक वारां ते वधीक ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महला १ ॥ उतंगी पैओहरी गहिरी ग्मभीरी ॥ ससुड़ि सुहीआ किव करी निवणु न जाइ थणी ॥ गचु जि लगा गिड़वड़ी सखीए धउलहरी ॥ से भी ढहदे डिठु मै मुंध न गरबु थणी ॥१॥

मूलम्

महला १ ॥ उतंगी पैओहरी गहिरी ग्मभीरी ॥ ससुड़ि सुहीआ किव करी निवणु न जाइ थणी ॥ गचु जि लगा गिड़वड़ी सखीए धउलहरी ॥ से भी ढहदे डिठु मै मुंध न गरबु थणी ॥१॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: सलोक वारां ते वधीक–‘वारों’ (में दर्ज होने) से बढ़े हुए सलोक।
नोट: श्री गुरु ग्रंथ साहिब में कुल 22 वारें हैं। गुरु नानक देव जी गुरु अमरदास जी और गुरु रामदास साहिब जी की रची हुई ‘वारें’ पहले सिर्फ ‘पउड़ियों’ का संग्रह थीं। जब गुरु अरजुन साहिब ने सारी वाणी को रागों के अनुसार अब वाली तरतीब दी, तो उन्होंने ‘वार’ की हरेक पउड़ी के साथ कम से कम दो-दो मिलते-जुलते भाव वाले सलोक दर्ज कर दिए। जो सलोक बढ़ गए, वह सतिगुरु जी ने श्री गुरु ग्रंथ साहिब के आखिर में ‘सलोक वारां ते वधीक’ के शीर्षक तहत दर्ज कर दिए।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। उतंगी = (उत्तुंग = Lofty, high, tall) लंबी, लंबे कद वाली। पैओहरी = (पयस् = दूध। पयोधर = थन) थनों वाली, भरी जवानी में पहुँची हुई। गहीरी = गहरी, मगन। गंभीरी = गंभीर स्वभाव वाली। गहिरी गंभीरी = माण में मती हुई, मस्त चाल वाली। ससुड़ी = ससुड़ी को, सास को। सुहीआ = नमस्कार। किव = कैसे? करी = करीं, मैं करूँ। थणी = थनों के कारण, भरी हुई छाती के कारण। गचु = चूने का पलस्तर। जि धउलहरी = जिस धौलरों को, जिस पक्के महलों को। गिड़वड़ी धउलहरी = पहाड़ों जैसे पक्के महलों को! सखीए = हे सखी! से = वह (बहुवचन)। डिठु = देखे हैं। मुंध = हे मुंध! (मुगधा = A young girl attractive by her youthful simplicity) हे भोली जवान कन्या! न गरबु = अहंकार ना कर। थणी = थनों के कारण, जवानी के कारण।1।
अर्थ: ऊँचे लंबे कद वाली, भरी जवानी में पहुँची हुई, माण में मस्त हुई मस्त चाल वाली (अपनी सहेली को कहती है: हे सहेलिए!) भरी हुई छाती के कारण मुझसे झुका नहीं जाता। (बता,) मैं (अपनी) सास को नमस्कार कैसे करूँ? (कैसे माथा टेकूँ?)। (आगे से सहेली उक्तर देती है:) हे सहेलिए! (इस) भरी हुई जवानी के कारण अहंकार ना कर (इस जवानी को जाते देर नहीं लगनी। देख,) जो पहाड़ों जैसे पक्के महलों को चूने का पलस्तर लगा होता था, वह (पक्के महल) भी गिरते मैंने देख लिए हैं (तेरी जवानी की तो कोई बिसात ही नहीं है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुणि मुंधे हरणाखीए गूड़ा वैणु अपारु ॥ पहिला वसतु सिञाणि कै तां कीचै वापारु ॥ दोही दिचै दुरजना मित्रां कूं जैकारु ॥ जितु दोही सजण मिलनि लहु मुंधे वीचारु ॥ तनु मनु दीजै सजणा ऐसा हसणु सारु ॥ तिस सउ नेहु न कीचई जि दिसै चलणहारु ॥ नानक जिन्ही इव करि बुझिआ तिन्हा विटहु कुरबाणु ॥२॥

मूलम्

सुणि मुंधे हरणाखीए गूड़ा वैणु अपारु ॥ पहिला वसतु सिञाणि कै तां कीचै वापारु ॥ दोही दिचै दुरजना मित्रां कूं जैकारु ॥ जितु दोही सजण मिलनि लहु मुंधे वीचारु ॥ तनु मनु दीजै सजणा ऐसा हसणु सारु ॥ तिस सउ नेहु न कीचई जि दिसै चलणहारु ॥ नानक जिन्ही इव करि बुझिआ तिन्हा विटहु कुरबाणु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरणाखीए = (हिरण+अखीए) हिरन सी आँखों वालीए! हे मृगनयनी! हे सुंदर नेत्रों वाली! मुंधे = हे भोली जवान कन्या! गूढ़ा = गहरा, भेद भरा। अपारु = बहुत। वैणु = वचन, बोल। कीचै = करना चाहिए। दोही = दुहाई, रब की दोहाई, प्रभु की महिमा की दुहाई। दिचै = देनी चाहिए। दुरजना = (कामादिक) दुष्टों (को निकालने के लिए)। कूँ = की खातिर। जैकारु = प्रभु की जैकार, प्रभु की महिमा। मित्रां कूं = भले गुणों की खातिर। जितु दोही = जिस दोहाई से, जिस रूहानी महिमा से। मिलनि = मिलते हैं। लहु वीचारु = (उस दोहाई को) मन में बसाए रख। दीजै = देना चाहिए। हसणु = खुशी, आनंद। सारु = श्रेष्ठ। सउ = साथ। न कीचई = नहीं करना चाहिए। नेहु = प्यार, मोह। जि = जो। चलणहारु = नाशवान। इव करि = इस तरह, इस तरीके से। विटहु = से।2।
अर्थ: हे सुंदर नेत्रों वाली भोली जवान कन्या! (हे जगत-रचना में से सोहणी जीव-सि्त्रऐ!) मेरी एक बहुत गहरी भेद की बात सुन। (जब कोई चीज़ खरीदने लगें, तो) पहले (उस) चीज़ को परख के तब उसका व्च्यापार करना चाहिए (तभी वह खरीदनी चाहिए)। हे भोली जवान कन्या! (कामादिक विकार आत्मिक जीवन के वैरी हैं, इन) दुष्टों को (अंदर से निकाल भगाने के लिए प्रभु की महिमा की) दुहाई देते रहना चाहिए (भले गुण आत्मिक जीवन के असल मित्र हैं, इन) मित्रों के साथ की खातिर (परमात्मा की) महिमा करते रहना चाहिए। हे भोलीऐ! जिस दोहाई की इनायत से ये सज्जन मिले रहें, (उस दोहाई की) विचार को (अपने अंदर) संभाल के रख। (इन) सज्जनों (के मिलाप) की खातिर अपना तन अपना मन भेट कर देना चाहिए (अपने मन और अपनी इन्द्रियों की नीच प्रेरणा से बचे रहना चाहिए) (इस तरह एक) ऐसा (आत्मिक) आनंद पैदा होता है (जो अन्य सारी खुशियों से श्रेष्ठ होता है)।
हे भोलिऐ! (ये जगत-पसारा) नाशवान दिख रहा है; इससे मोह नहीं करना चाहिए। हे नानक! (कह:) जिस (भाग्यशालियों ने) (आत्मिक जीवन के भेद को) इस तरह समझा है मैं उन पर से सदके (जाता हूँ)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जे तूं तारू पाणि ताहू पुछु तिड़ंन्ह कल ॥ ताहू खरे सुजाण वंञा एन्ही कपरी ॥३॥

मूलम्

जे तूं तारू पाणि ताहू पुछु तिड़ंन्ह कल ॥ ताहू खरे सुजाण वंञा एन्ही कपरी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पाणि = पानी। तारू पाणि = पानी का तैराक (बनना चाहे)। ताहू = उनको। कल = कला, हुनर, तरीका। तिड़ंन्ह कल = तैरने की कला। ताहू = वह (मनुष्य) ही। खरे सुजाण = असल सयाने। एनी कपरी = एनी कपरीं, इन लहरों में से। वंञा = मैं लांघ सकता हूँ, मैं गुजरता हूँ।3।
अर्थ: हे भाई! अगर तू (संसार-समुंदर के) पानियों का तैराक (बनना चाहता है), (तो तैरने की विधि) उनसे पूछ (जिनको इस संसार-समुंदर में से) पार लांघ जाने का सलीका है। हे भाई! वह मनुष्य असल समझदार (तैराक हैं, जो संसार-समुंदर की इन विकारों की लहरों में से पार लांघते हैं)। मैं (भी उनकी संगति में ही) इन लहरों से पार लांघ सकता हूँ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

झड़ झखड़ ओहाड़ लहरी वहनि लखेसरी ॥ सतिगुर सिउ आलाइ बेड़े डुबणि नाहि भउ ॥४॥

मूलम्

झड़ झखड़ ओहाड़ लहरी वहनि लखेसरी ॥ सतिगुर सिउ आलाइ बेड़े डुबणि नाहि भउ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ओहाड़ = बाढ़। लहरी लखेसरी = (विकारों की) लाखों ही लहरें। वहनि = बहती हैं, चल रही हैं। सिउ = साथ, पास। आलाइ = पुकार कर। डुबणि = डूबने में। भउ = डर, खतरा।
अर्थ: हे भाई! (इस संसार-समुंदर में विकारों की) झड़ियां (लगीं हुई हैं, विकारों के) झक्खड़ (झूल रहे हैं, विकारों की) बाढ़ (आ रही हैं, विकारों की) लाखों लहरें उठ रही हैं। (अगर तू अपनी जिंदगी की बेड़ी को बचाना चाहता है, तो) गुरु के पास पुकार कर (इस तरह तेरी जीवन-) नईया का (इस संसार-समुंदर में) डूब जाने का कोई खतरा नहीं रह जाएगा।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक दुनीआ कैसी होई ॥ सालकु मितु न रहिओ कोई ॥ भाई बंधी हेतु चुकाइआ ॥ दुनीआ कारणि दीनु गवाइआ ॥५॥

मूलम्

नानक दुनीआ कैसी होई ॥ सालकु मितु न रहिओ कोई ॥ भाई बंधी हेतु चुकाइआ ॥ दुनीआ कारणि दीनु गवाइआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सालकु = सच्चा संत जो खुद जपे और-और लोगों को जपाए, सही जीवन-राह बताने वाला। मितु = मित्र। भाई बंधी = भाईयों सम्बन्धियों (के मोह में फस के)। हेतु = (परमात्मा का) प्यार। चुकाइआ = चुकाया, समाप्त कर दिया है। कारणि = की खातिर, वास्ते। दीनु = धरम, आत्मिक जीवन की संपत्ति।5।
अर्थ: हे नानक! दुनिया (की लुकाई) अजब नीचली तरफ जा रही है। सही जीवन-रास्ता बताने वाले मित्र कहीं कोई मिलते नहीं। भाईयों-सम्बन्धियों के मोह में फंस के (मनुष्य परमात्मा का) प्यार (अपने अंदर से खत्म किए बैठा है) दुनिया (की माया) की खातिर आत्मिक जीवन की संपत्ति गवाए जा रहा है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

है है करि कै ओहि करेनि ॥ गल्हा पिटनि सिरु खोहेनि ॥ नाउ लैनि अरु करनि समाइ ॥ नानक तिन बलिहारै जाइ ॥६॥

मूलम्

है है करि कै ओहि करेनि ॥ गल्हा पिटनि सिरु खोहेनि ॥ नाउ लैनि अरु करनि समाइ ॥ नानक तिन बलिहारै जाइ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: है है = हाय हाय। करि कै = कह कह के। ओहि करेनि = ‘ओए ओए’ करती हैं। पिटनि = पीटती हैं, रोती हैं। खोहेनि = (पागलों की तरह सिर के बालों को) खींचती हैं। नाउ = (परमात्मा का) नाम। लैनि = लेते हैं, लेती हैं। अरु = और। समाइ = समाई, शांति। करनि समाइ = समाई करते हैं, शांति करते हैं, भाणा मानते हैं। जाइ = जाता है। नानक जाइ = नानक जाता है।6।
अर्थ: हे भाई! (किसी प्यारे सम्बन्धि के मरने पर औरतें) ‘हाय-हाय’ कह: कह के ‘ओय ओय’ करती हैं (मुँह से कहती हैं। अपनी) गालों को पीटती हैं (अपने) सिर (के बाल) खींचती हैं (यह बहुत ही बुरा काम है)।
हे भाई! जो प्राणी (ऐसे सदमे के समय भी परमात्मा का) नाम जपते हैं, और (परमात्मा की) रज़ा को मानते हैं, नानक उनके सदके जाता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रे मन डीगि न डोलीऐ सीधै मारगि धाउ ॥ पाछै बाघु डरावणो आगै अगनि तलाउ ॥ सहसै जीअरा परि रहिओ मा कउ अवरु न ढंगु ॥ नानक गुरमुखि छुटीऐ हरि प्रीतम सिउ संगु ॥७॥

मूलम्

रे मन डीगि न डोलीऐ सीधै मारगि धाउ ॥ पाछै बाघु डरावणो आगै अगनि तलाउ ॥ सहसै जीअरा परि रहिओ मा कउ अवरु न ढंगु ॥ नानक गुरमुखि छुटीऐ हरि प्रीतम सिउ संगु ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: डीगि = टेढ़े (रास्ते) पर। न डोलीऐ = डोलना नहीं चाहिए, भटकना नहीं चाहिए। सीधै मारगि = सीधे रास्ते पर। धाउ = दौड़। पाछै = इस जगत में। बाघु = बघियाड़, (आत्मिक जीवन को खा जाने वाला) बाघ, आत्मिक मौत। डरावणो = भयानक। आगै = अगले आ रहे समय में, परलोक में। अगनि तलाउ = आग का तालाब, पानी की आग/दावानल। सहसै = सहम में। जीअरा = जिंद। परि रहिओ = पड़ा रहता है। मा कउ = मुझे। अवरु = कोई (और)। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। छुटीऐ = बचा जा सकता है। सिउ = साथ। संगु = साथ, प्यार।7।
अर्थ: हे मन! (विकारों-भरे) टेढ़े (जीवन-) राह पर नहीं भटकते फिरना चाहिए। हे मन! सीधे (जीवन-) राह पर दौड़। (टेढ़े रास्ते पर चलने से) इस लोक में भयानक आत्मिक मौत (आत्मिक जीवन को खाए जाती है, और) आगे परलोक में जठराग्नि के बवंडर में (डुबो लेती है भाव, जनम-मरण का चक्र ग्रस लेता है)। (टेढ़े रास्ते पर चलने से हर वक्त यह) जिंद सहम में पड़ी रहती है। हे मन! (इस टेढ़े रास्ते से बचने के लिए गुरु की शरण के बिना) मुझे कोई और तरीका नहीं सूझता। हे नानक! गुरु की शरण पड़ कर (ही इस टेढ़े रास्ते से) बचा जा सकता है, और प्रीतम प्रभु का साथ बन सकता है।7।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

बाघु मरै मनु मारीऐ जिसु सतिगुर दीखिआ होइ ॥ आपु पछाणै हरि मिलै बहुड़ि न मरणा होइ ॥ कीचड़ि हाथु न बूडई एका नदरि निहालि ॥ नानक गुरमुखि उबरे गुरु सरवरु सची पालि ॥८॥

मूलम्

बाघु मरै मनु मारीऐ जिसु सतिगुर दीखिआ होइ ॥ आपु पछाणै हरि मिलै बहुड़ि न मरणा होइ ॥ कीचड़ि हाथु न बूडई एका नदरि निहालि ॥ नानक गुरमुखि उबरे गुरु सरवरु सची पालि ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बाघु = बघिआड़, (आत्मिक जीवन को खा जाने वाला) बाघ, आत्मिक मौत। मारीऐ = वश में कर सकते हैं। जिसु = जिस (मनुष्य) को। दीखिआ = शिक्षा। आपु = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को। पछाणै = परखता है। बहुड़ि = दोबारा। कीचड़ि = कीचड़ में। एका नदरि = एक मेहर की निगाह से। निहालि = (परमात्मा) देखता है। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य। उबरे = बच निकले। सची = सदा स्थिर रहने वाली। पालि = दीवार।8।
अर्थ: हे भाई! जिस (मनुष्य) को गुरु की शिक्षा (प्राप्त) होती है, (उसका) मन वश में आ जाता है, (उसके अंदर से आत्मिक जीवन को खा जाने वाला) बाघ मर जाता है। (वह मनुष्य) अपने आत्मिक जीवन को परखता रहता है, वह परमात्मा को मिल जाता है, दोबारा उस को जनम-मरन का चक्कर नहीं पड़ता। परमात्मा (उस मनुष्य को) मेहर की निगाह से देखता है (इसलिए उसका) हाथ कीचड़ में नहीं डूबता (उसका मन विकारों में नहीं फंसता)। हे नानक! गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य (ही विकारों के कीचड़ में डूबने से) बच निकलते हैं। गुरु ही (नाम का) सरोवर है, गुरु ही सदा-स्थिर रहने वाली दीवार है (जो विकारों के कीचड़ में लिबड़ने से बचाती है)।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अगनि मरै जलु लोड़ि लहु विणु गुर निधि जलु नाहि ॥ जनमि मरै भरमाईऐ जे लख करम कमाहि ॥ जमु जागाति न लगई जे चलै सतिगुर भाइ ॥ नानक निरमलु अमर पदु गुरु हरि मेलै मेलाइ ॥९॥

मूलम्

अगनि मरै जलु लोड़ि लहु विणु गुर निधि जलु नाहि ॥ जनमि मरै भरमाईऐ जे लख करम कमाहि ॥ जमु जागाति न लगई जे चलै सतिगुर भाइ ॥ नानक निरमलु अमर पदु गुरु हरि मेलै मेलाइ ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अगनि = आग। लोड़ि लहु = ढूँढ लो। निधि = सरोवर, नाम का सरोवर। जनमि मरै = जनम मरन के चक्कर में पड़ जाता है। भरमाईऐ = जूनों में भटकाया जाता है। कमाहि = कमाते रहें (बहुवचन)। जागाति = जागाती, मसूलिया। न लगई = (अपना) वार नहीं कर सकता। सतिगुर भाइ = गुरु की रजा में। अमर पदु = आत्मिक जीवन वाला दर्जा।9।
अर्थ: हे भाई! (गुरु की शरण पड़ कर नाम-) जल ढूँढ ले (इस नाम-जल की इनायत से) तृष्णा की आग बुझ जाती है। (पर) गुरु (की शरण) के बिना नाम-सरोवर का यह जल मिलता नहीं। (इस जल के बिना) मनुष्य जनम-मरण के चक्करों में पड़ा रहता है, अनेक जूनियों में घुमाया जाता है। हे भाई! जो मनुष्य (नाम को भुला के और) लाखों करम कमाते रहें (तो भी यह अंदरूनी आग नहीं मरती)। अगर मनुष्य गुरु की रज़ा में चलता रहे, तो जमराज मसूलिया (उस पर) अपना वार नहीं कर सकता। हे नानक! गुरु (मनुष्य) को पवित्र ऊँचा आत्मिक दर्जा बख्शता है, गुरु (मनुष्य को) परमात्मा के साथ मिला देता है।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलर केरी छपड़ी कऊआ मलि मलि नाइ ॥ मनु तनु मैला अवगुणी चिंजु भरी गंधी आइ ॥ सरवरु हंसि न जाणिआ काग कुपंखी संगि ॥ साकत सिउ ऐसी प्रीति है बूझहु गिआनी रंगि ॥ संत सभा जैकारु करि गुरमुखि करम कमाउ ॥ निरमलु न्हावणु नानका गुरु तीरथु दरीआउ ॥१०॥

मूलम्

कलर केरी छपड़ी कऊआ मलि मलि नाइ ॥ मनु तनु मैला अवगुणी चिंजु भरी गंधी आइ ॥ सरवरु हंसि न जाणिआ काग कुपंखी संगि ॥ साकत सिउ ऐसी प्रीति है बूझहु गिआनी रंगि ॥ संत सभा जैकारु करि गुरमुखि करम कमाउ ॥ निरमलु न्हावणु नानका गुरु तीरथु दरीआउ ॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: केरी = की। मलि मलि = मलमल के बड़े शौक से। कऊआ = (विकारों की कालिख से) काले हुए मन वाला मनुष्य। नाइ = नहाता है। अवगुणी = विकारों से। गंधी = बदबू से। आइ = आ के। हंसि = (परमात्मा की अंश जीव-) हँस ने। कुपंखी = बुरे पक्षी। संगि = साथ। साकत = परमात्मा से टूटा हुआ मनुष्य। गिआनी = हे ज्ञानवान! हे आत्मिक जीवन की सूझ वाले! रंगि = (प्रभु के प्यार-) रंग में। संत सभा = साधु-संगत में। जैकारु = (परमात्मा की) महिमा। गुरमुखि करम = गुरु के सन्मुख रहने वाले करम। निरमलु = पवित्र। नावणु = स्नान।10।
अर्थ: हे भाई! (विकारों की कालिख से) काले हुए मन वाला मनुष्य (विकारों के) कल्लर की छपड़ी में बड़े शौक से स्नान करता रहता है (इसलिए उसका) मन (उसका) तन विकारों (की मैल) से मैला हुआ रहता है (जैसे कौए की) चोंच गंदगी से भरी रहती है (वैसे ही विकारी मनुष्य का मुँह भी निंदा आदि के गंद से ही भरा रहता है)। हे भाई! बुरे पंछी कौओं की संगति में (विकारी बँदों की सोहबत में परमात्मा की अंश जीव-) हँस ने (गुरु-) सरोवर (की कद्र) ना समझी। हे भाई! परमात्मा से टूटे हुए मनुष्यों के जोड़ी हुई प्रीत ऐसी ही होती है। हे आत्मिक जीवन की सूझ हासिल करने के चाहवान मनुष्य! परमात्मा के प्रेम में टिक के (जीवन-राह को) समझ। साधु-संगत में टिक के परमात्मा की महिमा करा कर, गुरु के सन्मुख रखने वाले करम कमाया कर- यही है पवित्र स्नान। हे नानक! गुरु ही तीर्थ है गुरु ही दरिया है (गुरु में डुबकी लगाए रखनी ही पवित्र स्नान है)।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनमे का फलु किआ गणी जां हरि भगति न भाउ ॥ पैधा खाधा बादि है जां मनि दूजा भाउ ॥ वेखणु सुनणा झूठु है मुखि झूठा आलाउ ॥ नानक नामु सलाहि तू होरु हउमै आवउ जाउ ॥११॥

मूलम्

जनमे का फलु किआ गणी जां हरि भगति न भाउ ॥ पैधा खाधा बादि है जां मनि दूजा भाउ ॥ वेखणु सुनणा झूठु है मुखि झूठा आलाउ ॥ नानक नामु सलाहि तू होरु हउमै आवउ जाउ ॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जनमे का = पैदा होने का, मानव जनम हासिल किए का। गणी = मैं गिनूँ। किआ गणी = मैं क्या गिनूँ? मैं क्या बताऊँ? जां = जब। भाउ = प्रेम, प्यार। पैधा = पहना हुआ। बादि = व्यर्थ। मनि = मन में। दूजा भाउ = परमात्मा के बिना और का प्रेम। झूठु = नाशवान जगत। मुखि = मुँह से। आलाउ = अलाप, बोल। सलाहि = सलाहा कर। आवउ जाउ = आना-जाना, जनम मरन का चक्कर।11।
अर्थ: हे भाई! जब तक (मनुष्य के हृदय में) परमात्मा की भक्ति नहीं, परमात्मा का प्रेम नहीं, तब तक उसके मनुष्य जन्म हासिल किए का कोई लाभ नहीं। जब तक (मनुष्य के) मन में परमात्मा के बिना और-और मोह-प्यार बसता है, तब तक उसका पहना (हुआ कीमती कपड़ा उसका) खाया हुआ (कीमती भोजन सब) व्यर्थ जाता है (क्योंकि वह) नाशवान जगत को ही दृष्टि में रखता, नाशवान जगत को ही कानों में बसाए रखता है, नाशवान जगत की बातें ही मुँह से करता रहता है।
हे नानक! तू (सदा परमात्मा की) महिमा करता रह। (महिमा को भुला के) और (सारा उद्यम) अहंकार के कारण जनम-मरण के चक्कर बनाए रखते हैं।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हैनि विरले नाही घणे फैल फकड़ु संसारु ॥१२॥

मूलम्

हैनि विरले नाही घणे फैल फकड़ु संसारु ॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हैनि = हैं (बहुवचन)। घणे = बहुत सारे। फैल = दिखावे के काम। फकड़ु = गंदे मंदे बोल। संसारु = जगत।12।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा की महिमा करने वाले मनुष्य) कोई विरले-विरले (बहुत कम) हैं, ज्यादा नहीं हैं। (आम तौर पर) जगत दिखावे के काम ही (करता रहता है, आत्मिक जीवन को) नीचा करने वाले बोल ही (बोलता रहता है)।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक लगी तुरि मरै जीवण नाही ताणु ॥ चोटै सेती जो मरै लगी सा परवाणु ॥ जिस नो लाए तिसु लगै लगी ता परवाणु ॥ पिरम पैकामु न निकलै लाइआ तिनि सुजाणि ॥१३॥

मूलम्

नानक लगी तुरि मरै जीवण नाही ताणु ॥ चोटै सेती जो मरै लगी सा परवाणु ॥ जिस नो लाए तिसु लगै लगी ता परवाणु ॥ पिरम पैकामु न निकलै लाइआ तिनि सुजाणि ॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तुरि = (तुर = speed. तुरंग: तुरेणगच्छति) तुरंत, जल्दी ही। मरै = स्वै भाव मर जाता है। जीवण ताणु = (स्वार्थ भरे) जीवन का जोर। सेती = साथ। लगी = लगी हुई चोट।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस नो’ में से संबंधक ‘नो’ के कारण शब्द ‘जिसु’ की ‘ु’ की मात्रा उड़ गई है।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ता = तो, तब। परवाणु = (प्रभु के दर पर) स्वीकार, मंजूर। पैकामु = तीर। पिरम पैकामु = प्रेम का तीर। तिनि = उस (परमात्मा) ने। सुजाणि = समझदार (प्रभु) ने। तिनि सुजाणि = उस सयाने (परमात्मा) ने।13।
अर्थ: हे नानक! (जिस मनुष्य के हृदय में प्रेम की चोट) लगती है (वह मनुष्य) तुरंत स्वैभाव की ओर से मर जाता है (उसके अंदर से स्वार्थ खत्म हो जाता है), (उसके अंदर स्वार्थ के) जीवन का जोर नहीं रह जाता। हे भाई! जो मनुष्य (प्रभु-चरणों की प्रीत की) चोट से स्वै भाव की ओर से मर जाता है (उसका जीवन प्रभु-दर पर स्वीकार हो जाता है) वही लगी हुई चोट (प्रभु-दर पर) स्वीकार होती है। पर, हे भाई! (यह प्रेम की चोट) उस मनुष्य को ही लगती है जिसको (परमात्मा आप) लगाता है (जब यह चोट परमात्मा की ओर से लगती है) तब ही यह लगी हुई (चोट) स्वीकार होती है (सफल होती है)। हे भाई! उस समझदार (तीरंदाज-प्रभु) ने (जिस मनुष्य के हृदय में प्रेम का तीर) भेद दिया; (उस हृदय में से यह) प्रेम का तीर फिर नहीं निकलता।13।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भांडा धोवै कउणु जि कचा साजिआ ॥ धातू पंजि रलाइ कूड़ा पाजिआ ॥ भांडा आणगु रासि जां तिसु भावसी ॥ परम जोति जागाइ वाजा वावसी ॥१४॥

मूलम्

भांडा धोवै कउणु जि कचा साजिआ ॥ धातू पंजि रलाइ कूड़ा पाजिआ ॥ भांडा आणगु रासि जां तिसु भावसी ॥ परम जोति जागाइ वाजा वावसी ॥१४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भांडा = शरीर बर्तन। धोवै कउणु = कौन धो सकता है? कौन शुद्ध पवित्र कर सकता है? कोई पवित्र नहीं कर सकता। जि = जो शरीर बर्तन। कचा = कच्चा। कचा भांडा = कच्चा घड़ा (कच्चे घड़े को पानी में धोने से उसकी मिट्टी पानी में खुर-खुर के बर्तन को कीचड़ से लबेड़ती जाएगी। शरीर कच्चा बर्तन है, इसको सदा विकारों का कीचड़ लगा रहता है। तीर्थ-स्नान आदि से ये कीचड़ नहीं उतर सकता)। धातू पंजि = (हवा, पानी, मिट्टी, आग, आकाश) पाँच तत्व। कूड़ा पाजिआ = नाशवान खिलौना सा बनाया गया है। आणगु = लाएगा। आणगु रासि = (गुरु) शुद्ध पवित्र कर देगा। जां = जब। तिसु = उस (परमात्मा) को। परम = सबसे ऊँची। वाजा = रूहानी ज्योति का बाजा। वावसी = बजाएगा।14।
अर्थ: हे भाई! (तीर्थ-स्नान आदि से) कोई भी मनुष्य शरीर-घड़े को पवित्र नहीं कर सकता, क्योंकि ये बनाया ही ऐसा है कि इसको विकारों का कीचड़ हमेशा लगा रहता है। (हवा, पानी, मिट्टी, आग, आकाश) पाँच तत्व इकट्ठे करके यह शरीर-बर्तन एक नाशवान सा खिलौना बनाया गया है।
हाँ, हे भाई! जब उस परमात्मा की रज़ा होती है (मनुष्य को गुरु मिलता है, गुरु मनुष्य के) शरीर-बर्तन को पवित्र कर देता है। (गुरु मनुष्य के अंदर) सबसे ऊँची रूहानी-ज्योति जगा के (रूहानी ज्योति का) बाजा बजा देता है। (रूहानी-ज्योति का रूहानी-महिमा का इतना प्रबल प्रभाव बना देता है कि मनुष्य के अंदर विकारों का शोर सुना ही नहीं जाता। विकारों की कोई पेश नहीं चलती कि कुकर्मों का कोई कीचड़ बिखेर सकें)।14।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनहु जि अंधे घूप कहिआ बिरदु न जाणनी ॥ मनि अंधै ऊंधै कवल दिसनि खरे करूप ॥ इकि कहि जाणनि कहिआ बुझनि ते नर सुघड़ सरूप ॥ इकना नादु न बेदु न गीअ रसु रसु कसु न जाणंति ॥ इकना सिधि न बुधि न अकलि सर अखर का भेउ न लहंति ॥ नानक ते नर असलि खर जि बिनु गुण गरबु करंत ॥१५॥

मूलम्

मनहु जि अंधे घूप कहिआ बिरदु न जाणनी ॥ मनि अंधै ऊंधै कवल दिसनि खरे करूप ॥ इकि कहि जाणनि कहिआ बुझनि ते नर सुघड़ सरूप ॥ इकना नादु न बेदु न गीअ रसु रसु कसु न जाणंति ॥ इकना सिधि न बुधि न अकलि सर अखर का भेउ न लहंति ॥ नानक ते नर असलि खर जि बिनु गुण गरबु करंत ॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जि = जो मनुष्य। अंधे घूप = घुप अंधे, बहुत ही मूर्ख। बिरदु = (इन्सानी) फर्ज। कहिआ = बताने पर भी, कहने पर भी। मनि अंधै = अंधे मन के कारण। ऊंधै कवल = उल्टे हुए (हृदय-) कंवल के कारण। खरे करूप = बहुत कुरूप। कहि जाणनि = बात करनी जानते हैं। सुघड़ = सुचज्जे। नाद रसु = नाद का रस। बेद रसु = गीत का रस। रसु कसु = कसैला रस। सिधि = सिद्धि। बुधि = अकल। सर = सार, समझ। भउ = भेद। अखर का भेउ = पढ़ने की विधि। असलि खर = निरे गधे (खर = गधे)। जि = जो मनुष्य। गरबु = अहंकार।15।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य मन से घोर अंधे हैं (महा मूर्ख हैं) वे बताने पर भी (इन्सानी) फर्ज नहीं जानते। मन अंधा होने के कारण, हृदय केवल (धर्म की ओर से) उलटा होने के कारण वे लोग बहुत ही बुरे (विचलित जीवन वाले) लगते हैं। कई मनुष्य ऐसे होते हैं जो (खुद) बात करनी भी जानते हैं, और किसी का कहा भी समझते हें, वे मनुष्य निपुण और सुंदर भी लगते हैं।
कई लोगों को ना जोगियों के नाद का रस, ना वेद का शौक, ना राग की खींच- किसी भी तरह की कोमल कला की ओर उनकी रुचि ही नहीं है, ना (विचारों में) सफलता, ना अच्छी बुद्धि, ना अकल की सार है, और एक अक्षर भी पढ़ना नहीं जानते (फिर भी, अकड़ ही अकड़ दिखाते हैं)। हे नानक! जिनमें कोई गुण ना हो, और अहंकार किए जाएं, वह मनुष्य केवल गधे हैं।15।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: यह शलोक ‘सारग की वार’ की पौड़ी नं: 32 के साथ थोड़ा सा फर्क रख के दूसरा शलोक है। देखें सफा 1246 (मूल)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो ब्रहमणु जो बिंदै ब्रहमु ॥ जपु तपु संजमु कमावै करमु ॥ सील संतोख का रखै धरमु ॥ बंधन तोड़ै होवै मुकतु ॥ सोई ब्रहमणु पूजण जुगतु ॥१६॥

मूलम्

सो ब्रहमणु जो बिंदै ब्रहमु ॥ जपु तपु संजमु कमावै करमु ॥ सील संतोख का रखै धरमु ॥ बंधन तोड़ै होवै मुकतु ॥ सोई ब्रहमणु पूजण जुगतु ॥१६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिंदै = (विद् = to know) जानता है, जान पहचान पैदा करता है, गहरी सांझ डालता है। ब्रहमु = परमात्मा। संजमु = इन्द्रियों को वश में रखने का प्रयत्न। सील = अच्छा मीठा स्वभाव। संतोख = माया की तृष्णा के प्रति तृप्ति। रखै = रखता है, निबाहता है। बंधन = माया के मोह के फंदे। मुकतु = माया के मोह से आजाद। पूजण जुगतु = पूजने के लायक।16।
अर्थ: हे भाई! (हमारी नजरों में) वह (मनुष्य असल) ब्राहमण है जो परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाले रखता है, जो यही जप-कर्म करता है, यही तप कर्म करता है, यही संजम करम करता है (जो परमात्मा की भक्ति को ही जप-तप-संजम समझता है) जो मीठे स्वभाव और संतोख का फर्ज निभाता है, जो माया के मोह के फंदों को तोड़ लेता है और माया के मोह से आजाद हो जाता है। हे भाई! वही ब्राहमण आदर-सत्कार का हकदार है।16।

विश्वास-प्रस्तुतिः

खत्री सो जु करमा का सूरु ॥ पुंन दान का करै सरीरु ॥ खेतु पछाणै बीजै दानु ॥ सो खत्री दरगह परवाणु ॥ लबु लोभु जे कूड़ु कमावै ॥ अपणा कीता आपे पावै ॥१७॥

मूलम्

खत्री सो जु करमा का सूरु ॥ पुंन दान का करै सरीरु ॥ खेतु पछाणै बीजै दानु ॥ सो खत्री दरगह परवाणु ॥ लबु लोभु जे कूड़ु कमावै ॥ अपणा कीता आपे पावै ॥१७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सूरु = सूरमा। करमा का सूरु = (कामादिक बली शूरवीरों के मुकाबले पर) नेक कर्म करने वाला सूरमा। पुंन = पुण्य, भले कर्म बाँटने। सरीरु = (भाव,) अपना जीवन। खेतु = शरीर खेत। दानु = नाम की दाति। दरगह = परमात्मा की हजूरी में। आपे = आप ही।17।
अर्थ: हे भाई! (हमारी नजरों में) वही मनुष्य खत्री है जो (कामादिक वैरियों को खत्म करने के लिए) नेक कर्म करने वाला शूरवीर बनता है, जो अपने शरीर को (अपने जीवन को, औरों में) भले कर्म बाँटने के लिए साधन बनाता है, जो (अपने शरीर को किसान के खेत की तरह) खेत समझता है (और, इस खेत में परमात्मा के नाम की) दाति (नाम-बीज) बीजता है। हे भाई! ऐसा खत्री परमात्मा की हजूरी में स्वीकार होता है।
पर जो मनुष्य लब-लोभ और अन्य ठगी आदि करता रहता है (वह जनम का चाहे खत्री ही हो) वह मनुष्य (लब आदि) किए हुए कर्मों का फल खुद ही भुगतता है (वह मनुष्य कामादिक विकारों का शिकार हुआ ही रहता है, वह नहीं है सूरमा)।17।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तनु न तपाइ तनूर जिउ बालणु हड न बालि ॥ सिरि पैरी किआ फेड़िआ अंदरि पिरी सम्हालि ॥१८॥

मूलम्

तनु न तपाइ तनूर जिउ बालणु हड न बालि ॥ सिरि पैरी किआ फेड़िआ अंदरि पिरी सम्हालि ॥१८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिउ = की तरह। सिरि = सिर ने। पैरी = पैरों ने। फेड़िआ = बिगाड़ा। अंदरि = अपने हृदय में ही। पिरी = प्रीतम प्रभु को। समालि = संभाल के रख।
अर्थ: हे भाई! (अपने) शरीर को (धूणियों से) तंदूर की तरह ना जला, और, हड्डियों को (धूणियों के साथ) इस तरह ना जला जैसे ये ईधन है। (तेरे) सिर ने (तेरे) पैरों ने कुछ नहीं बिगाड़ा (इनको धूणियों के साथ क्यों दुखी करता है? इनको दुखी ना कर) परमात्मा (की याद) को अपने हृदय में संभाल के रख।18।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: यह शलोक थोड़े से ही फर्क के साथ फरीद जी के शलोकों में भी नंबर 120 पर दर्ज है।

[[1412]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभनी घटी सहु वसै सह बिनु घटु न कोइ ॥ नानक ते सोहागणी जिन्हा गुरमुखि परगटु होइ ॥१९॥

मूलम्

सभनी घटी सहु वसै सह बिनु घटु न कोइ ॥ नानक ते सोहागणी जिन्हा गुरमुखि परगटु होइ ॥१९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घट = शरीर। सभनी घटी = सारे शरीरों में। सहु = पति प्रभु। सह बिनु = पति प्रभु के बिना। नानक = हे नानक! ते = वह जीव स्त्रीयां। सोहागणी = पति वाली। गुरमुखि = गुरु के द्वारा, गुरु की शरण पड़ कर।19।
अर्थ: हे भाई! प्रभु-पति सारे शरीरों में बसता है। कोई भी शरीर (ऐसा) नहीं है जो पति-प्रभु के बिना हो (जिसमें पति-प्रभु ना बसता हो। पर बसता है गुप्त)। हे नानक! वह जीव-स्त्रीयां भाग्यशाली हैं जिनके अंदर (वह पति‘-प्रभु) गुरु के माध्यम से प्रकट हो जाता है।19।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जउ तउ प्रेम खेलण का चाउ ॥ सिरु धरि तली गली मेरी आउ ॥ इतु मारगि पैरु धरीजै ॥ सिरु दीजै काणि न कीजै ॥२०॥

मूलम्

जउ तउ प्रेम खेलण का चाउ ॥ सिरु धरि तली गली मेरी आउ ॥ इतु मारगि पैरु धरीजै ॥ सिरु दीजै काणि न कीजै ॥२०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जउ = अगर। तउ = तुझे, तेरा। चाउ = शौक। धरि = धर के, रख के। सिरु = (भाव,) अहंकार। इतु = इस में। मारगि = रास्ते में। इतु मारगि = इस रास्ते में, (प्रेम के) इस राह पर। धरीजै = धरना चाहिए। काणि = झिझक। न कीजै = नहीं करनी चाहिए।20।
अर्थ: हे भाई! अगर तुझे (प्रभु-प्रेम की) खेल-खलने का शौक है, तो (अपना) सिर तली पर रख के मेरी गली में आ (लोक-सम्मान छोड़ के अहंकार दूर कर के आ)। (प्रभु-प्रीति के) इस रास्ते पर (तब ही) पैर धरा जा सकता है (जब) सिर भेटा किया जाए, पर कोई झिझक ना की जाए (अर्थात, जब बिना किसी झिझक के लोक-सम्मान और अहंकार छोड़ा जाए)।20।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नालि किराड़ा दोसती कूड़ै कूड़ी पाइ ॥ मरणु न जापै मूलिआ आवै कितै थाइ ॥२१॥

मूलम्

नालि किराड़ा दोसती कूड़ै कूड़ी पाइ ॥ मरणु न जापै मूलिआ आवै कितै थाइ ॥२१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किराड़ = माया के मोह में फसे हुए मनुष्य, हर वक्त माया की गिनती-मिणती करने वाले मनुष्य। दोसती = मित्रता। कूड़ै = झूठ के कारण, माया के मोह के कारण। पाइ = पायां, (दोस्ती की) पायां। कूड़ी = जिस पर ऐतबार ना हो सके। न जापै = (ये बात) नहीं सूझती। कितै थांइ = किसी भी जगह पर। आवै = आ जाती है। मरणु = मौत।21।
अर्थ: हे भाई! अगर हर वक्त माया की गिनती गिनने वाले मनुष्य के साथ दोस्ती बनाई जाए, (तो उस किराड़ के अंदरूनी) माया के मोह के कारण (उसकी दोस्ती की) पायां भी ऐतबार-योग्य नहीं होती। हे मूलिया! (माया के मोह में फसा हुआ मनुष्य सदा मौत से बचे रहने के उपाय करता रहता है, पर उसको ये बात) सूझती ही नहीं कि मौत किसी भी जगह पर (किसी भी वक्त) आ सकती है।21।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गिआन हीणं अगिआन पूजा ॥ अंध वरतावा भाउ दूजा ॥२२॥

मूलम्

गिआन हीणं अगिआन पूजा ॥ अंध वरतावा भाउ दूजा ॥२२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गिआन = ज्ञान, आत्मिक जीवन की सूझ। हीणं = हीन। अगिआन = आत्मिक जीवन से बेसमझी। अंध = अंधा, आत्मिक जीवन से अंधा बनाए रखने वाला। वरतारा = वरतण व्यवहार। भाउ = प्यार। भाउ दूजा = परमात्मा के बिना और प्यार, माया का मोह।22।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य आत्मिक जीवन की सूझ से वंचित होते हैं, वह आत्मिक जीवन से बेसमझी को ही सदा पसंद करते हैं। हे भाई! (जिस मनुष्यों के अंदर) माया का मोह (टिका रहता है, उनका) वर्तण-व्यवहार (आत्मिक जीवन के पक्ष से) अंधा (बनाए रखने वाला होता) है।22।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर बिनु गिआनु धरम बिनु धिआनु ॥ सच बिनु साखी मूलो न बाकी ॥२३॥

मूलम्

गुर बिनु गिआनु धरम बिनु धिआनु ॥ सच बिनु साखी मूलो न बाकी ॥२३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ, परमात्मा के साथ सांझ। धरम = फर्ज, कर्तव्य। धिआनु = लगन, तवज्जो, ध्यान। सच = सदा स्थिर हरि नाम का स्मरण। साखी = गवाही, परवाना, जीवन-राहदारी। मूलो = मूल भी, संपत्ति भी (आत्मिक जीवन की वह) संपत्ति भी (जिसने मनुष्य जनम ले के दिया था)। न बाकी = बाकी नहीं रहता, पल्ले नहीं रहता।23।
अर्थ: हे भाई! गुरु (की शरण पड़े) बिना परमात्मा के साथ गहरी सांझ नहीं बनती। (इस गहरी सांझ को मनुष्य जीवन का आवश्यक) फर्ज बनाए बिना (हरि-नाम स्मरण की) लगन नहीं बनती। सदा-स्थिर हरि-नाम स्मरण के बिना (और-और मायावी उद्यमों की जीवन-) राहदारी के कारण (आत्मिक जीवन की वह) संपत्ति भी पल्ले नहीं रह जाती (जिसने मनुष्य-जन्म ले के दिया था)।23।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माणू घलै उठी चलै ॥ सादु नाही इवेही गलै ॥२४॥

मूलम्

माणू घलै उठी चलै ॥ सादु नाही इवेही गलै ॥२४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माणू = मनुष्य (को)। घलै = (परमातमा) भेजता है। उठी = उठ के। चलै = (जगत से) चल पड़ता है। सादु = स्वाद, आनंद। इवेही गलै = ऐसी बात में।24।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा) मनुष्य को (जगत में कोई आत्मिक लाभ कमाने के लिए) भेजता है, (पर अगर आत्मिक जीवन की कमाई कमाए बिना ही मनुष्य जगत से) उठ चलता है, (तो) इस तरह का जीवन जीने में मनुष्य (को काई) आत्मिक आनंद हासिल नहीं होता।24।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामु झुरै दल मेलवै अंतरि बलु अधिकार ॥ बंतर की सैना सेवीऐ मनि तनि जुझु अपारु ॥ सीता लै गइआ दहसिरो लछमणु मूओ सरापि ॥ नानक करता करणहारु करि वेखै थापि उथापि ॥२५॥

मूलम्

रामु झुरै दल मेलवै अंतरि बलु अधिकार ॥ बंतर की सैना सेवीऐ मनि तनि जुझु अपारु ॥ सीता लै गइआ दहसिरो लछमणु मूओ सरापि ॥ नानक करता करणहारु करि वेखै थापि उथापि ॥२५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रामु = (श्री) रामचंद्र। झुरै = दुखी होता है। दल = फौजें। मेलवै = इकट्ठा करता है। अंतरि = (श्री रामचंद्र के) अंदर। अधिकार = इख्तियार। बलु अधिकार = अधिकार की ताकत। बंतर की सैना = बंदरों की फौज से। सेवीऐ = (श्री रामचंद्र की) सेवा की जा रही है। मनि = मन में। तनि = तन में। जुझु = युद्ध का चाव। दहसिरो = दस सिर वाला रावण। मूओ = मर गया। सरापि = श्राप से। करणहारु = सब कुछ कर सकने वाला। करता = कर्तार। करि = कर के। थापि = पैदा करके। उथापि = नाश कर के।25।
अर्थ: हे नानक! कर्तार सब कुछ कर सकने की समर्थता वाला है (उसको कभी झुरने की दुखी होने की आवश्यक्ता नहीं), वह तो पैदा करके नाश करके (सब कुछ करके खुद ही) देखता है। (श्री रामचंद्र उस कर्तार की बराबरी नहीं कर सकता। देखो, रावण के साथ लड़ने के लिए) श्री रामचंद्र फौजें इकट्ठी करता है, (उसके) अंदर (फौजें इकट्ठी करने के) अधिकार की ताकत भी है, बाँदरों की (उस) फौज से (उसकी) सेवा भी हो रही है (जिस सेना के) मन में तन में युद्ध करने का बेअंत चाव है, (फिर भी श्री) रामचंद्र (तब) दुखी होता है (दुखी हुआ, जब) सीता (जी) को रावण ले गया था, (और, फिर जब श्री रामचंद्र जी का भाई) लक्ष्मण श्राप से मर गया था।25।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन महि झूरै रामचंदु सीता लछमण जोगु ॥ हणवंतरु आराधिआ आइआ करि संजोगु ॥ भूला दैतु न समझई तिनि प्रभ कीए काम ॥ नानक वेपरवाहु सो किरतु न मिटई राम ॥२६॥

मूलम्

मन महि झूरै रामचंदु सीता लछमण जोगु ॥ हणवंतरु आराधिआ आइआ करि संजोगु ॥ भूला दैतु न समझई तिनि प्रभ कीए काम ॥ नानक वेपरवाहु सो किरतु न मिटई राम ॥२६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: झुरै = दुखी होता है (दुखी हुआ)। जोगु = की खातिर, वास्ते। हणवंतरु = हनूमान (हनु = ठोडी। हनूमान = लंबी ठोडी वाला)। आराधिआ = याद किया। करि = कर के, के कारण। संजोगु = मिलाप, (पिछले किए कर्मों के संस्कारों अनुसार) मिलाप। संजोगु करि = (परमात्मा की ओर से बने) संजोग से। दैतु = रावण दैत्य। न समझई = नहीं समझता (ना समझा)। तिनि प्रभ = उस परमात्मा ने। तिनि = उसने। काम = सारे काम। वेपरवाहु = जिसको किसी की अधीनता नहीं। किरतु = पिछले किए कर्मों के संस्कारों का समूह, भावी। न मिटई राम = (श्री) रामचंद्र से (भी) नहीं मिटे।26।
अर्थ: हे भाई! वह परमात्मा (तो) बेमुथाज है (श्री रामचंद्र उस परमात्मा की बराबरी नहीं कर सकता)। (श्री) रामचंद्र (जी) से (भी) भावी नहीं मिट सकी। (देखो, श्री) रामचंद्र (अपने) मन में सीता (जी) के लिए दुखी हुआ (जब सीता जी को रावण चुरा के ले गया, फिर) दुखी हुआ लक्ष्मण की खातिर (जब रणभूमि में लक्ष्मण बरछी से मूर्छित हुआ)। (तब श्री रामचंद्र ने) हनूमान को याद किया जो (परमात्मा से बने) संजोग के कारण (श्री रामचंद्र जी की शरण) आया था। मूर्ख रावण (भी) यह बात नहीं समझा कि ये सारे काम परमात्मा ने (खुद ही) किए हैं।26।

विश्वास-प्रस्तुतिः

लाहौर सहरु जहरु कहरु सवा पहरु ॥२७॥

मूलम्

लाहौर सहरु जहरु कहरु सवा पहरु ॥२७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जहरु = (आत्मिक मौत लाने वाला) जहर।27।
अर्थ: हे भाई! लोहौर का शहर (शहर निवासियों के लिए आत्मिक मौत लाए रखने के कारण) जहर (बना हुआ है, क्योंकि यहाँ नित्य सवेरे ईयवरीय महिमा की बजाए) सवा पहर (दिन चढ़ने तक मास की खातिर पशुओं पर) कहर (होता रहता है। मास आदि खाना और विषौ भोगना ही लाहौर-निवासियों का जीवन-उद्देश्य बन रहा है)।27।

विश्वास-प्रस्तुतिः

महला ३ ॥ लाहौर सहरु अम्रित सरु सिफती दा घरु ॥२८॥

मूलम्

महला ३ ॥ लाहौर सहरु अम्रित सरु सिफती दा घरु ॥२८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंम्रित सरु = अमृत का सरोवर, अमृत का चश्मा। सिफती का = प्रभु की महिमा का।28।
अर्थ: महला ३। हे भाई! (अब) लाहौर शहर अमृत का चश्मा बन गया है, परमात्मा की महिमा का श्रोत बन गया है (क्योंकि गुरु रामदास जी का जन्म हुआ है)।28।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: जहाँ मास आदि खाना और विषौ भोगना ही जीवन का उद्देश्य बन के रह जाए, वह जगह वहाँ के वासियों के लिए आत्मिक मौत का कारण बन जाती है। पर, जहाँ कोई महापुरख प्रकट हो जाए, वहाँ लोगों को आत्मिक जीवन का संदेश मिलने लग जाता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

महला १ ॥ उदोसाहै किआ नीसानी तोटि न आवै अंनी ॥ उदोसीअ घरे ही वुठी कुड़िईं रंनी धमी ॥ सती रंनी घरे सिआपा रोवनि कूड़ी कमी ॥ जो लेवै सो देवै नाही खटे दम सहमी ॥२९॥

मूलम्

महला १ ॥ उदोसाहै किआ नीसानी तोटि न आवै अंनी ॥ उदोसीअ घरे ही वुठी कुड़िईं रंनी धमी ॥ सती रंनी घरे सिआपा रोवनि कूड़ी कमी ॥ जो लेवै सो देवै नाही खटे दम सहमी ॥२९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उदोसाहै नीसानी = (माया कमाने के लिए) उत्साह की निशानी। तोटि = कमी। अंन = अन्न धन की। उदोसीअ = उदासी, उपरामता, (हरि नाम से) लापरवाही। घरे ही = हृदय घर में ही। वुठी = टिकी रहती है। कुड़िई रंनी = झूठ में फसी हुई स्त्रीयों का, माया के मोह में फसी हुई इन्द्रियों का। धंमी = शोर।
सती रंनी = सातों ही स्त्रीयों का (दो आँखें, दो कान, एक नाक, एक मुँह, एक काम इन्द्रीय) सातों ही इन्द्रियों का। घरे = शरीर घर में ही। सिआपा = झगड़ा। रोवनि = रोती हैं, शोर मचाती रहती हैं। कूड़ी कंमी = (विकारों वाले) झूठे कार्यों के लिए। जो दंम = जो दमड़े, जो पैसे। लेवै = कमाता है। सहंमी = वह दमड़ै। देवै नाही = (अपने हाथ से और लोगों को) नहीं देता। खटे दंम = दमड़े कमाता है। सहंमी = (फिर भी) सहम (बना रहता है)।
अर्थ: हे भाई! सिर्फ माया की खातिर की हुई दौड़-भाग की क्या पहचान है? (पहचान ये है कि इस दौड़-भाग करने वाले को) अन्न-धन की कमी नहीं होती। (पर सिर्फ माया की खातिर दौड़-भाग करने के कारण हरि-नाम के प्रति) लापरवाही भी सदा हृदय-घर में बनी रहती है, माया के मोह में फसा इन्द्रियों के शोर में पड़ा रहता है।
(दो आँखें, दो कान, एक नाक, एक मुँह और एक काम इन्द्रीय, इन) सातों ही इन्द्रियों का झगड़ा शरीर-घर में बना रहता है। ये इंद्रिय (विकारों वाले) झूठे कामों के लिए शोर मचाती रहती हैं। (जो मनुष्य निरी माया की खातिर ही दौड़-भाग करता रहता है, वह) पैसे तो कमाता है, पर सहम में टिका रहता है, जो कुछ कमाता है वह और लोगों को हाथों से देता नहीं।29।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पबर तूं हरीआवला कवला कंचन वंनि ॥ कै दोखड़ै सड़िओहि काली होईआ देहुरी नानक मै तनि भंगु ॥ जाणा पाणी ना लहां जै सेती मेरा संगु ॥ जितु डिठै तनु परफुड़ै चड़ै चवगणि वंनु ॥३०॥

मूलम्

पबर तूं हरीआवला कवला कंचन वंनि ॥ कै दोखड़ै सड़िओहि काली होईआ देहुरी नानक मै तनि भंगु ॥ जाणा पाणी ना लहां जै सेती मेरा संगु ॥ जितु डिठै तनु परफुड़ै चड़ै चवगणि वंनु ॥३०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पबर = (पद्माकर = पदमों की खान, कमल फूलों की खान, सरोवर) हे सरोवर! हरीआवला = चारों तरफ से हरा भरा। कंचन = सोना। वंन = रंग। कंचन वंनि = सोने के रंग वाले। कै दोखड़े = किस दोष के कारण? सड़िओहि = तू जल रहा है। देहुरी = सुंदर शरीर, सुंदर देही। नानक = हे नानक! मै तनि = मेरे शरीर में। भंगु = तोट, कमी। जाणा = जानूँ, मैं जानता हूँ, मुझे समझ आई है। न लहां = मैं हासिल नहीं कर रहा। जै सेती = जिस (पानी) से। संगु = साथ, मेल। जितु डिठै = जिस (पानी) को देखने से। परफुड़ै = प्रफुल्लित हो जाता है, खिल उठता है। चवगणि वंनु = चार गुना रंग।30।
अर्थ: हे सरोवर! तू (कभी) चार-चुफेरों से हरा-भरा था, (तेरे अंदर) सोने के रंग जैसे (चमकते) कमल-फूल (खिले हुए थे)। अब तू किस नुक्स के कारण जल गया है? तेरा सुंदर शरीर क्यों काला हो गया है?
हे नानक! (इस कालिख का कारण यह है कि) मेरे शरीर में (पानी की) कमी आ गई है। मुझे ये समझ आ रही है कि जिस (पानी) से मेरा (सदा) साथ (रहता था) जिस (पानी) के दर्शन करके शरीर खिला रहता है, चार-गुना रंग चढ़ा रहता है (वह) पानी अब मुझे नहीं मिलता।30।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रजि न कोई जीविआ पहुचि न चलिआ कोइ ॥ गिआनी जीवै सदा सदा सुरती ही पति होइ ॥ सरफै सरफै सदा सदा एवै गई विहाइ ॥ नानक किस नो आखीऐ विणु पुछिआ ही लै जाइ ॥३१॥

मूलम्

रजि न कोई जीविआ पहुचि न चलिआ कोइ ॥ गिआनी जीवै सदा सदा सुरती ही पति होइ ॥ सरफै सरफै सदा सदा एवै गई विहाइ ॥ नानक किस नो आखीऐ विणु पुछिआ ही लै जाइ ॥३१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रजि = पेट भर के, संतुष्टता से। पहुचि = (सारे धंधों के आखिर तक) पहुँच के, दुनिया वाले सारे धंधे समाप्त कर के। गिआनी = आत्मिक जीवन की सूझ वाला मनुष्य। जीवै = आत्मिक जीवन जीता है। सुरती = परमात्मा में तवज्जो जोड़ने वाला मनुष्य। पति = इज्जत। सरफै = सर्फा करने में, बचत करने में। एवै = इसी तरह ही। गई विहाइ = (उम्र) बीत जाती है। लै जाइ = ले जाता है।31।

दर्पण-टिप्पनी

किस नो = (संबंधक ‘नो’ के कारण शब्द ‘किसु’ की ‘ु’ मात्रा उड़ जाती है)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! (लंबी) उम्र भोग-भोग के किसी मनुष्य की कभी तसल्ली नहीं हुई। ना कोई मनुष्य दुनिया वाले सारे धंधे खत्म करके (यहाँ से) चलता है (ना ही कोई यह कहता है कि अब मेरे काम-धंधे खत्म हो गए हैं)।
हे भाई! आत्मिक जीवन की सूझ वाला मनुष्य सदा ही आत्मिक जीवन जीता है (सदा अपनी तवज्जो परमात्मा की याद में जोड़ी रखता है) (परमात्मा में) तवज्जो जोड़े रखने वाले मनुष्य की ही (लोक-परलोक में) इज्जत होती है। पर, हे नानक! (माया में ग्रसित मनुष्य की उम्र) सदा ही कंजूसी करते-करते इन बचतों में ही बीतती जाती है (बचत-मारे मनुष्य को भी मौत) उसकी सलाह लिए बगैर ही यहाँ से ले चलती है। किसी की भी पेश नहीं जा सकती।31।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दोसु न देअहु राइ नो मति चलै जां बुढा होवै ॥ गलां करे घणेरीआ तां अंन्हे पवणा खाती टोवै ॥३२॥

मूलम्

दोसु न देअहु राइ नो मति चलै जां बुढा होवै ॥ गलां करे घणेरीआ तां अंन्हे पवणा खाती टोवै ॥३२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देअहु = दो। राइ = अमीर मनुष्य, धनी, मायाधारी। मति चलै = बुद्धि (परमार्थ की ओर) काम करने से रह जाती है। जां = जब। गलां = बातें (माया की) बातें। घणेरीआं = बहुत सारी। अंना = अंधा, आत्मिक जीवन की सूझ से वंचित, जिसको आत्मिक जीवन वाला रास्ता नहीं दिखता। खाती = खातीं, खातों में। टोवै = टोए में।
अर्थ: हे भाई! मायाधारी मनुष्य के सिर पर दोष ना थोपो (माया का मोह उसको सदा माया में ही जकड़े रखता है)। जब (माया-ग्रसित मनुष्य) बुढा (बड़ी उम्र का) हो जाता है (तब तो परमार्थ की तरफ काम करने की उसकी) बुद्धि (बिल्कुल ही) खत्म होती जाती है। (वह हर वक्त माया की ही) बहुत सारी बातें करता रहता है। हे भाई! अंधे मनुष्य ने तो टोए-टीलों-गढों में ही गिरना हुआ (जिस मनुष्य को आत्मिक जीवन का रास्ता दिखे ही ना, उसने तो मोह के ठेढे खा-खा के दुखों में ही पड़े रहना हुआ)।32।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूरे का कीआ सभ किछु पूरा घटि वधि किछु नाही ॥ नानक गुरमुखि ऐसा जाणै पूरे मांहि समांही ॥३३॥

मूलम्

पूरे का कीआ सभ किछु पूरा घटि वधि किछु नाही ॥ नानक गुरमुखि ऐसा जाणै पूरे मांहि समांही ॥३३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पूरै का = सर्व गुण भरपूर प्रभु का। पूरा = पूरण, अभूल। घटि वधि किछु = कोई नुक्स। नानक = हे नानक! गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। जाणै = जानता है, यकीन रखता है (एकवचन)। मांहि = में। समांही = समांहि, लीन रहते हैं (बहुवचन)।33।
अर्थ: हे नानक! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य ये निश्चय रखता है कि सर्व गुण सम्पन्न परमात्मा की रची हुई जगत-मर्यादा अमोध है, इसमें कहीं कोई नुक्स नहीं है। हे नानक! (गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य इस निश्चय की इनायत से) सारे गुणों के मालिक परमात्मा (की याद) में लीन रहते हैं।33।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक महला ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

सलोक महला ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिआगत एह न आखीअहि जिन कै मन महि भरमु ॥ तिन के दिते नानका तेहो जेहा धरमु ॥१॥

मूलम्

अभिआगत एह न आखीअहि जिन कै मन महि भरमु ॥ तिन के दिते नानका तेहो जेहा धरमु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अभिआगत = (गम् = with अभि and आ = नजदीक आना, पहुँचना) मेहमान की तरह आया हुआ, वह साधु जो अपने आप को जगत में मेहमान ही समझते हें, साधु। एह = ऐसे लोग। न आखीअहि = नहीं कहे जा सकते (वर्तमान काल; करम वाच। आखहि = कहते हैं)। भरमु = (माया की खातिर) भटकना।1।
अर्थ: हे भाई! ऐसे लोग ‘साधु संत’ नहीं कहे जा सकते, जिनके के मन में (माया आदि माँगने की खातिर ही) भटकना लगी हुई है। हे नानक! ऐसे साधों को (अन्न-वस्त्र माया आदि) देना कोई धार्मिक काम नहीं है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभै निरंजन परम पदु ता का भीखकु होइ ॥ तिस का भोजनु नानका विरला पाए कोइ ॥२॥

मूलम्

अभै निरंजन परम पदु ता का भीखकु होइ ॥ तिस का भोजनु नानका विरला पाए कोइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अभै = वह परमात्मा जिसको कोई डर छू नहीं सकता। निरंजन = (निर+अंजन) जिसको माया के मोह की कालिख नहीं छूती। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। ता का = उस (‘परम पद’) का। भीखकु = भिखारी। तिस का भोजनु = ऐसे नाम भिखारी वाला (आत्मिक) भोजन।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस का’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा को कोई डर नहीं छू सकता, जिस परमात्मा को माया के मोह की कालिख नहीं लग सकती, उसका मिलाप सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा है। जो मनुष्य उस (ऊँचे आत्मिक दर्जे) का भिखारी है (वह है असल ‘साधसंत’)। हे नानक! ऐसे (भिखारी) वाला (नाम-) भोजन किसी विरले को ही प्राप्त होता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

होवा पंडितु जोतकी वेद पड़ा मुखि चारि ॥ नवा खंडा विचि जाणीआ अपने चज वीचार ॥३॥

मूलम्

होवा पंडितु जोतकी वेद पड़ा मुखि चारि ॥ नवा खंडा विचि जाणीआ अपने चज वीचार ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: होवा = होऊँ, अगर बन जाऊँ। जोतकी = ज्योतिषी। पढ़ा = अगर मैं पढ़ता रहूँ। मुखि = (अपने) मुँह से। नवा खंडा विचि = नवां खंडां विचि, सारी धरती पर, सारे ही जगत में। जाणीआ = मैं जाना जाऊँगा। चज = कर्म, कर्तव्य। वीचार = ख्याल।3।
अर्थ: हे भाई! अगर मैं (मेहनत से विद्या प्राप्त कर के) ज्योतिषी (भी) बन जाऊँ, पण्डित (भी) बन जाऊँ, (और) चारों वेद (अपने) मुँह से पढ़ता रहूँ, तो भी जगत में वैसा ही समझा जाऊँगा, जैसे मेरे कर्म हैं और मेरे ख्याल हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रहमण कैली घातु कंञका अणचारी का धानु ॥ फिटक फिटका कोड़ु बदीआ सदा सदा अभिमानु ॥ पाहि एते जाहि वीसरि नानका इकु नामु ॥ सभ बुधी जालीअहि इकु रहै ततु गिआनु ॥४॥

मूलम्

ब्रहमण कैली घातु कंञका अणचारी का धानु ॥ फिटक फिटका कोड़ु बदीआ सदा सदा अभिमानु ॥ पाहि एते जाहि वीसरि नानका इकु नामु ॥ सभ बुधी जालीअहि इकु रहै ततु गिआनु ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ब्रहमण घातु = ब्राहमण की हत्या। कैली घात = गाय की हत्या। कंञका घातु = बेटी की हत्या (धरती का पैसा)। अणचारी = कुकर्मी, पापी। धानु = अन्न आदिक। कोड़ु बदीआ = पापों का कोढ़। फिटक फिटका = (जगत से) धिक्कारें ही धिक्कारें। सदा सदा अभिमानु = हर वक्त की अकड़। पाहि = पा लेते हैं, कमाते हैं। एते = यह सारे ही (ऐब)। जालीअहि = जलाई जाती हैं (बहुवचन)। सभ बधी = सारी ही समझदारियां। इकु रहै = सिर्फ परमात्मा का नाम सदा कायम रहता है। ततु = (जीवन का) निचोड़। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ।4।
अर्थ: हे भाई! ब्राहमण की हत्या, गाय की हत्या, बेटी की हत्या (बेटी का पैसा), कुकर्मी का पैसा, (जगत से) धिक्कारें ही धिक्कारें, बदियां की कोढ़, हर वक्त की आकड़ -ये सारे ही ऐब, हे नानक! वह मनुष्य कमाते रहते हैं, जिनको परमात्मा का नाम भूला रहता है। हे भाई! और सारी ही समझदारियां व्यर्थ जाती हैं, सिर्फ प्रभु का नाम ही कायम रहता है। यह नाम ही है जीवन का निचोड़, यह नाम ही है असल ज्ञान।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माथै जो धुरि लिखिआ सु मेटि न सकै कोइ ॥ नानक जो लिखिआ सो वरतदा सो बूझै जिस नो नदरि होइ ॥५॥

मूलम्

माथै जो धुरि लिखिआ सु मेटि न सकै कोइ ॥ नानक जो लिखिआ सो वरतदा सो बूझै जिस नो नदरि होइ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माथै = (मनुष्य के) माथे पर। धुरि = धुर दरगाह से, मनुष्य के किए कर्मों के अनुसार। सु = वह लेख। वरतदा = व्यापता है। नदरि = मेहर की निगाह। सो = वह मनुष्य। बूझै = (लिखे लेख को मिटाने की विधि) समझ लेता है।5।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे नानक! (मनुष्य के किए कर्मों के अनुसार) धुर दरगाह से जो लेख लिखा जाता है वह घटित रहता है, (परमात्मा का नाम स्मरण के बिना) कोई मनुष्य उस लेख को मिटा नहीं सकता (हरि-नाम का स्मरण पिछले लेखों को मिटा सकता है। पर) जिस मनुष्य पर परमात्मा की मेहर की निगाह हो, वही (इस भेद को) समझता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिनी नामु विसारिआ कूड़ै लालचि लगि ॥ धंधा माइआ मोहणी अंतरि तिसना अगि ॥ जिन्हा वेलि न तू्मबड़ी माइआ ठगे ठगि ॥ मनमुख बंन्हि चलाईअहि ना मिलही वगि सगि ॥ आपि भुलाए भुलीऐ आपे मेलि मिलाइ ॥ नानक गुरमुखि छुटीऐ जे चलै सतिगुर भाइ ॥६॥

मूलम्

जिनी नामु विसारिआ कूड़ै लालचि लगि ॥ धंधा माइआ मोहणी अंतरि तिसना अगि ॥ जिन्हा वेलि न तू्मबड़ी माइआ ठगे ठगि ॥ मनमुख बंन्हि चलाईअहि ना मिलही वगि सगि ॥ आपि भुलाए भुलीऐ आपे मेलि मिलाइ ॥ नानक गुरमुखि छुटीऐ जे चलै सतिगुर भाइ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनी = जिस (मनुष्यों) ने। विसारिआ = भुला दिया। कूड़ै लालचि = झूठे लालच में, नाशवान पदार्थों के लालच में। लगि = लग के, फस के। धंधा = दौड़ भाग। अंतरि = (उनके) अंदर। अगि = आग। तूंबड़ी = कद्दू आदि फल। ठगि = ठग के द्वारा, मोह रूप ठग से। माइआ ठगि = माया के मोह रूप ठग से। ठगे = लूटे गए, आत्मिक जीवन लुटा बैठे। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले लोग। बंन्हि = बंध के। चलाईअहि = आगे लिए जाते हैं। मिलही = मिलते हें। वगि = (दूध देने वाले पशुओं के) झुंड में। सगु = कुक्ता। सग = कुत्ते। सगि = कुत्ते (वाले स्वभाव) के कारण, लालच के कारण। भुलीऐ = गलत राह पर पड़ जाते हैं। आपे = (प्रभु) खुद ही। मेलि = मेल में, सत्संग के मेल में। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। सतिगुर भाइ = गुरु की रजा के अनुसार। चलै = जीवन-राह पर चले।6।
अर्थ: हे भाई! नाशवान पदार्थों की लालच में फंस कर जिस (मनुष्यों) ने (परमात्मा का) नाम भुला दिया, जो मनुष्य मन को मोह लेने वाली माया की खातिर ही दौड़-भाग करते रहे, (उनके) अंदर तृष्णा की आग (जलती रहती है)। हे भाई! माया के (मोह-रूप) ठग ने जिनके आत्मिक सरमाए को लूट लिया, वह मनुष्य उन बेलों की तरह है जिनको कोई फल नहीं पड़ता। हे भाई! (जैसे कुत्ते गाय-भैंसों के) झुंड में नहीं चल सकते (वैसे ही) अपने ही मन के पीछे चलने वाले लोग लालची स्वभाव के कारण (गुरमुखों में) नहीं मिल सकते, (चोरों की तरह उन) मनमुखों को बाँध के आगे चलाया जाता है। (पर, हे भाई! जीव के क्या वश? जब परमात्मा जीव को) खुद गलत रास्ते पर डालता है (तब ही) गलत रास्ते (जीव) पड़ जाता है, वह खुद ही (जीव को गुरमुखों की) संगति में मिलाता है। हे नानक! अगर मनुष्य गुरु की रज़ा अनुसार जीवन-राह पर चले, तो गुरु की शरण पड़ कर ही (लालच आदिक से) निजात हासिल करता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सालाही सालाहणा भी सचा सालाहि ॥ नानक सचा एकु दरु बीभा परहरि आहि ॥७॥

मूलम्

सालाही सालाहणा भी सचा सालाहि ॥ नानक सचा एकु दरु बीभा परहरि आहि ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सालाही = सराहनीय परमात्मा। सालाहणा = सराहना करनी चाहिए। भी = दोबारा, फिर, हर वक्त। सचा = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। सालाहि = सराहा कर। दरु = दरवाजा। बीभा = दूसरा (दर)। परहरि आहि = त्याग देना चाहिए।7।
अर्थ: हे भाई! सराहनीय परमात्मा की महिमा करते रहना चाहिए। हे भाई! बार-बार सदा कायम रहने वाले परमात्मा की ही महिमा करते रहा कर। हे नानक! सिर्फ परमात्मा का दरवाजा ही सदा कायम रहने वाला है, (उसके बिना कोई) दूसरा (दर) छोड़ देना चाहिए (किसी और की आस नहीं बनानी चाहिए)।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक जह जह मै फिरउ तह तह साचा सोइ ॥ जह देखा तह एकु है गुरमुखि परगटु होइ ॥८॥

मूलम्

नानक जह जह मै फिरउ तह तह साचा सोइ ॥ जह देखा तह एकु है गुरमुखि परगटु होइ ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जह जह = जहाँ जहाँ। फिरउ = मैं फिरता हूँ। तह तह = वहाँ वहाँ। साचा = सदा कायम रहने वाला। सोइ = वह (परमात्मा) ही। देखा = देखूँ, मैं देखता हूँ। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के।8।
अर्थ: हे नानक! (कह:) जहाँ जहाँ मैं घूमता हूँ, वहाँ वहाँ वह सदा कायम रहने वाला (परमात्मा) ही (मौजूद) है। मैं जहाँ (भी) देखता हूँ, वहाँ सिर्फ परमात्मा ही है, पर गुरु की शरण पड़ के ही ये समझ आती है।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दूख विसारणु सबदु है जे मंनि वसाए कोइ ॥ गुर किरपा ते मनि वसै करम परापति होइ ॥९॥

मूलम्

दूख विसारणु सबदु है जे मंनि वसाए कोइ ॥ गुर किरपा ते मनि वसै करम परापति होइ ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दूख विसारणु = दुखों को भुला सकने वाला। मंनि = मनि, मन में। जे कोइ = अगर कोई मनुष्य। ते = से, के द्वारा। करम = अच्छे भाग्यों से।9।
अर्थ: हे भाई! गुरु का शब्द (मनुष्य के अंदर से सारे) दुखों का नाश कर सकने वाला है (पर यह तब ही निष्चय बनता है) अगर कोई मनुष्य (अपने) मन में (गुरु-शब्द को) बसा ले। गुरु की कृपा से ही (गुरु का शब्द मनुष्य के) मन में बसता है, गुरु-शब्द की प्राप्ति सौभाग्य से ही होती है।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक हउ हउ करते खपि मुए खूहणि लख असंख ॥ सतिगुर मिले सु उबरे साचै सबदि अलंख ॥१०॥

मूलम्

नानक हउ हउ करते खपि मुए खूहणि लख असंख ॥ सतिगुर मिले सु उबरे साचै सबदि अलंख ॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ = मैं। करते = करते करते। हउ हउ करते = ‘मैं (बड़ा), मैं (बड़ा)’ कहते कहते। खपि = दुखी हो के। मुए = आत्मिक मौत सहेड़ते रहे। असंख = अनगिनत। खूहणि = (अक्ष्औहिणी = a large army) बेअंत। सु = वे लोग। उबरे = बच गए। साचै सबदि = सच्चे शब्द से। अलंख = अलख प्रभु को।10।
अर्थ: हे नानक! (दुनिया में) लाखों ही जीव, अनगिनत जीव, बेअंत जीव ‘मैं (बड़ा) मैं (बड़ा)’-ये कहते कहते दुखी हो-हो के आत्मिक मौत मरते रहे। जो मनुष्य गुरु को मिल गए, गुरु के सच्चे शब्द की इनायत से अलख प्रभु को मिल गए, वे इस ‘हउ हउ’ से बचते रहे।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिना सतिगुरु इक मनि सेविआ तिन जन लागउ पाइ ॥ गुर सबदी हरि मनि वसै माइआ की भुख जाइ ॥ से जन निरमल ऊजले जि गुरमुखि नामि समाइ ॥ नानक होरि पतिसाहीआ कूड़ीआ नामि रते पातिसाह ॥११॥

मूलम्

जिना सतिगुरु इक मनि सेविआ तिन जन लागउ पाइ ॥ गुर सबदी हरि मनि वसै माइआ की भुख जाइ ॥ से जन निरमल ऊजले जि गुरमुखि नामि समाइ ॥ नानक होरि पतिसाहीआ कूड़ीआ नामि रते पातिसाह ॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इक मनि = एक मन से, श्रद्धा से। तिन जन पाइ = उन मनुष्यों के चरणों में। लागउ = मैं लगता हूँ। सबदी = शब्द से। मनि = मन में। भुख = लालच। जाइ = दूर हो जाती है। निरमल = पवित्र जीवन वाले। ऊजले = रौशन जीवन वाले। जि = जो जो (एकवचन)। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। नामि = नाम में। समाइ = लीन हो जाता है (एकवचन)। कूड़ीआ = नाशवान। नामि रते = जो मनुष्य हरि नाम में रंगे जाते हैं।11।
अर्थ: हे भाई! मैं उन (भाग्यशाली) मनुष्यों के चरण लगता हूँ जिन्होंने पूरी श्रद्धा से गुरु को सेवा की है (गुरु का पल्ला पकड़ा है)। हे भाई! गुरु के शब्द से ही परमात्मा (मनुष्य के) मन में बसता है (और मनुष्य के अंदर) माया का लालच दूर होता है। हे भाई! जो जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर (परमात्मा के) नाम में जुड़ता है वह सारे मनुष्य पवित्र जीवन वाले चमकते जीवन वाले हो जाते हैं।
हे नानक! (दुनिया की) और (सारी) पातशाहियां नाशवान हैं। असल पातशाह वह हैं, जो परमात्मा के नाम में रंगे रहते हैं।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिउ पुरखै घरि भगती नारि है अति लोचै भगती भाइ ॥ बहु रस सालणे सवारदी खट रस मीठे पाइ ॥ तिउ बाणी भगत सलाहदे हरि नामै चितु लाइ ॥ मनु तनु धनु आगै राखिआ सिरु वेचिआ गुर आगै जाइ ॥ भै भगती भगत बहु लोचदे प्रभ लोचा पूरि मिलाइ ॥ हरि प्रभु वेपरवाहु है कितु खाधै तिपताइ ॥ सतिगुर कै भाणै जो चलै तिपतासै हरि गुण गाइ ॥ धनु धनु कलजुगि नानका जि चले सतिगुर भाइ ॥१२॥

मूलम्

जिउ पुरखै घरि भगती नारि है अति लोचै भगती भाइ ॥ बहु रस सालणे सवारदी खट रस मीठे पाइ ॥ तिउ बाणी भगत सलाहदे हरि नामै चितु लाइ ॥ मनु तनु धनु आगै राखिआ सिरु वेचिआ गुर आगै जाइ ॥ भै भगती भगत बहु लोचदे प्रभ लोचा पूरि मिलाइ ॥ हरि प्रभु वेपरवाहु है कितु खाधै तिपताइ ॥ सतिगुर कै भाणै जो चलै तिपतासै हरि गुण गाइ ॥ धनु धनु कलजुगि नानका जि चले सतिगुर भाइ ॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पुरखै घरि = (किसी) मनुष्य के घर में। भगती नारि = प्यार करने वाली स्त्री, सेवा करने वाली स्त्री, पतिव्रता स्त्री। अति = बहुत। लोचै = (सेवा करने की) तमन्ना रखती है। भगती भाइ = प्यार भावना से। सालणे = सलूणे, भाजियां, सब्जियां। खट = कमाए। पाइ = पा के। सलाहदे = (परमात्मा की) महिमा करते हैं। नामै = नाम में। लाइ = लगा के, जोड़ के। जाइ = जा के। भै = (परमात्मा के) डर में। पूरि = पूरी कर के। मिलाइ = मिलाता है। कितु खाधै = किसी खाई हुई चीज़ से? क्या खाने से? तिपताइ = तृप्त हो जाता है। कै भाणै = की रजा में। गाइ = गाता है। तिपतासै = प्रसन्न होता है। कलिजुगि = विकारों भरी दुनिया में। जि = जो।12।
अर्थ: हे भाई! जो (किसी) मनुष्य के घर में (उसकी) पतिव्रता स्त्री है जो पयार भावना से (अपने पति की सेवा करने की) बहुत तमन्ना करती है, खट्टे और मीठे रस डाल के कई स्वादिष्ट सब्जियां (पति के लिए) बनाती रहती है; इसी तरह परमात्मा के भक्त परमात्मा के नाम में चिक्त जोड़ के सतिगुरु की वाणी से परमात्मा की महिमा करते रहते हैं। उन भगतों ने अपना मन अपना तन अपना धन (सब कुछ) गुरु के आगे ला के रखा होता है, उन्होंने अपना सिर गुरु के आगे बेच दिया होता है।
हे भाई! परमातमा के अदब में टिक के परमात्मा के भक्त उसकी भक्ति की बहुत तमन्ना रखते हैं, प्रभु (उनकी) तमन्ना पूरी कर के (उनको अपने साथ) मिला लेता है।
हे भाई! परमात्मा को तो किसी चीज़ की कोई अधीनता की आवश्यक्ता नही है, फिर वह कौन सी चीज़ खाने से खुश होता है? जो मनुष्य गुरु की रजा में जीवन-चाल चलता है और परमात्मा के गुण गाता रहता है, (उस पर परमात्मा) प्रसन्न होता है।
हे नानक! इस विकारों-भरे संसार में वह मनुष्य शोभा कमाते हैं जो गुरु की मर्जी अनुसार जीवन-राह पर चलते हैं।12।

[[1414]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरू न सेविओ सबदु न रखिओ उर धारि ॥ धिगु तिना का जीविआ कितु आए संसारि ॥ गुरमती भउ मनि पवै तां हरि रसि लगै पिआरि ॥ नाउ मिलै धुरि लिखिआ जन नानक पारि उतारि ॥१३॥

मूलम्

सतिगुरू न सेविओ सबदु न रखिओ उर धारि ॥ धिगु तिना का जीविआ कितु आए संसारि ॥ गुरमती भउ मनि पवै तां हरि रसि लगै पिआरि ॥ नाउ मिलै धुरि लिखिआ जन नानक पारि उतारि ॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: न सेविओ = आसरा ना लिया। उर = हृदय। धारि = टिका के। धिगु = धिक्कार योग्य। कितु = किस काम के लिए? संसारि = संसार में। मनि = मन में। हरि रसि = हरि के रस में। हरि पिआरि = हरि के प्यार में। धुरि = धुर दरगाह से। लिखिआ = किए कर्मों के लेखों अनुसार। पारि उतारि = पार उतारे, पार लंघा लेता है।13।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्यों ने कभी) गुरु का आसरा नहीं लिया, जिन्होंने गुरु का शब्द (कभी अपने) हृदय में टिका के नहीं रखा, वे किस लिए जगत में आए? उनका जीवन-समय धिक्कार-योग्य ही रहता है (वह सारी उम्र वैसे ही काम करते रहते हैं, जिनसे जगत में उनको धिक्कारें ही पड़ती रहती हैं)।
हे भाई! जब गुरु की मति पर चल के (मनुष्य के) मन में (परमात्मा का) डर-अदब टिकता है, तब वह परमात्मा के प्यार में परमात्मा के मेल-आनंद में जुड़ता है। पर, हे नानक! हरि-नाम धुर दरगाह से किए कर्मों के संस्कारों के लेख अनुसार ही मिलता है, और, यह नाम (मनुष्य को संसार-समुंदर से) पार लंघा लेता है।13।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माइआ मोहि जगु भरमिआ घरु मुसै खबरि न होइ ॥ काम क्रोधि मनु हिरि लइआ मनमुख अंधा लोइ ॥ गिआन खड़ग पंच दूत संघारे गुरमति जागै सोइ ॥ नाम रतनु परगासिआ मनु तनु निरमलु होइ ॥ नामहीन नकटे फिरहि बिनु नावै बहि रोइ ॥ नानक जो धुरि करतै लिखिआ सु मेटि न सकै कोइ ॥१४॥

मूलम्

माइआ मोहि जगु भरमिआ घरु मुसै खबरि न होइ ॥ काम क्रोधि मनु हिरि लइआ मनमुख अंधा लोइ ॥ गिआन खड़ग पंच दूत संघारे गुरमति जागै सोइ ॥ नाम रतनु परगासिआ मनु तनु निरमलु होइ ॥ नामहीन नकटे फिरहि बिनु नावै बहि रोइ ॥ नानक जो धुरि करतै लिखिआ सु मेटि न सकै कोइ ॥१४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मोहि = मोह में (फस के), मोह के कारण। भरमिआ = भटकता फिरता है। घरु = (हृदय-) घर। मुसै = लूटा जाता है। खबरि = सूझ। क्रोधि = क्रोध ने। हिरि लइआ = चुरा लिया होता है। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। लोइ = जगत में। गिआन = आत्मिक जीवन की सुझ। खड़ग = तलवार। पंच दूत = (कामादिक) पाँच वैरी। संघारे = मार लिए। जागै = सचेत रहता है। परगासिआ = चमक पड़ता है। नकटे = नाक कटे। बहि रोइ = बैठ के रोता है। धुरि = धुर दरगाह से। करतै = कर्तार ने।14।
अर्थ: हे भाई! माया के मोह के कारण जगत भटकता फिरता है, (जीव का हृदय-) घर (आत्मिक संपत्ति) लूटी जाती है (पर जीव को) यह पता ही नहीं लगता। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य जगत में (आत्मिक जीवन की सूझ के प्रति) अंधा हुआ रहता है, काम ने क्रोध ने (उसके) मन को चुरा लिया होता है।
हे भाई! (जो मनुष्य) आत्मिक जीवन की सूझ की तलवार (पकड़ के कामादिक) पाँच वैरियों को मार लेता है, वह ही गुरु की मति की इनायत से (माया के हमलों से) सचेत रहता है। (उसके अंदर) परमात्मा के नाम का रतन चमक पड़ता है, उसका मन उसका तन पवित्र हो जाता है।
पर, हे भाई! नाम से वंचित मनुष्य बे-शर्मों की तरह चले-फिरते हैं। नाम से टूटा हुआ मनुष्य बैठ के रोता रहता है (सदा दुखी रहता है)। हे नानक! (कर्तार की रज़ा यूँ ही होती है कि नाम-हीन प्राणी दुखी रहे, सो) कर्तार ने जो कुछ धुर दरगाह से यह लेख लिख दिया है, इसको कोई मिटा नहीं सकता (उल्टा नहीं सकता)।14।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखा हरि धनु खटिआ गुर कै सबदि वीचारि ॥ नामु पदारथु पाइआ अतुट भरे भंडार ॥ हरि गुण बाणी उचरहि अंतु न पारावारु ॥ नानक सभ कारण करता करै वेखै सिरजनहारु ॥१५॥

मूलम्

गुरमुखा हरि धनु खटिआ गुर कै सबदि वीचारि ॥ नामु पदारथु पाइआ अतुट भरे भंडार ॥ हरि गुण बाणी उचरहि अंतु न पारावारु ॥ नानक सभ कारण करता करै वेखै सिरजनहारु ॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखा = गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों ने। कै सबदि = के शब्द से। वीचारि = विचार के, हरि नाम को मन में बसा के। अतुट = ना खत्म होने वाले। भंडार = खजाने। बाणी = (गुरु की) वाणी से। उचरहि = उचारते हैं। नानक = हे नानक!।15।
अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों ने गुरु के शब्द से (हरि-नाम को) अपने मन में बसा के परमात्मा का नाम-धन कमा लिया है। गुरमुखों ने कीमती नाम-धन ढूँढ लिया है (उनके अंदर हरि-नाम-धन के) ना-खत्म होने वाले खजाने भरे रहते हैं। जिस परमात्मा (के गुणों) का अंत नहीं पड़ सकता, जिस परमात्मा (की हस्ती) का उरला-परला किनारा नहीं मिल सकता, उस परमात्मा के गुणों को (गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य गुरु की) वाणी के द्वारा उचारते रहते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि अंतरि सहजु है मनु चड़िआ दसवै आकासि ॥ तिथै ऊंघ न भुख है हरि अम्रित नामु सुख वासु ॥ नानक दुखु सुखु विआपत नही जिथै आतम राम प्रगासु ॥१६॥

मूलम्

गुरमुखि अंतरि सहजु है मनु चड़िआ दसवै आकासि ॥ तिथै ऊंघ न भुख है हरि अम्रित नामु सुख वासु ॥ नानक दुखु सुखु विआपत नही जिथै आतम राम प्रगासु ॥१६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहजु = आत्मिक अडोलता। दसवै आकासि = दसवें आकाश में, उस दसवें ऊँचे ठिकाने पर जहाँ शारीरिक नौ गोलकों का प्रभाव नहीं पड़ता। तिथै = उस अवस्था में। ऊँघ = नींद। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। सुख = आत्मिक आनंद। विआपत नही = अपना जोर नहीं डाल सकता। आतम राम = सर्व व्यापक प्रभु का।16।
अर्थ: पर हे नानक! ये सारे सबब कर्तार (खुद ही) बनाता है, (इस खेल को) विधाता (स्वयं) देख रहा है।
हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य के अंदर आत्मिक अडोलता बनी रहती है, उसका मन (उस) दसवें द्वार में टिका रहता है (जिस शरीर पर नौ-गौलकों का प्रभाव नहीं पड़ सकता)। उस अवस्था में (गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य को माया के मोह की नींद नहीं आती, माया की भूख नहीं सताती)। (उस अवस्था में गुरु के अंदर) आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम टिका रहता है। आत्मिक आनंद बना रहता है। हे नानक! जिस हृदय में सर्व-व्यापक परमात्मा का प्रकाश हो जाता है, वहाँ ना दुख ना सुख (कोई भी अपना) जोर नहीं डाल सकता।16।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काम क्रोध का चोलड़ा सभ गलि आए पाइ ॥ इकि उपजहि इकि बिनसि जांहि हुकमे आवै जाइ ॥ जमणु मरणु न चुकई रंगु लगा दूजै भाइ ॥ बंधनि बंधि भवाईअनु करणा कछू न जाइ ॥१७॥

मूलम्

काम क्रोध का चोलड़ा सभ गलि आए पाइ ॥ इकि उपजहि इकि बिनसि जांहि हुकमे आवै जाइ ॥ जमणु मरणु न चुकई रंगु लगा दूजै भाइ ॥ बंधनि बंधि भवाईअनु करणा कछू न जाइ ॥१७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चोलड़ा = शरीर चोला। काम क्रोध का चोलड़ा = काम क्रोध के रंग में रंगा हुआ वस्त्र। सभ = सब जीव। गलि = गले में। पाइ = पा के। इकि = कई। उपजहि = पैदा होते हैं। बिनसि जांहि = मर जाते हैं। आवै जाइ = (हरेक जीव) पैदा होता मरता है। न चुकई = नहीं खत्म होता। रंगु = प्यार। दूजै भाइ = (प्रभु को भुला के) माया के मोह में। बंधनि = (मोह की) रस्सी से। बंधि = बाँध के। भवाईअनु = भटकाई है (सारी दुनिया) उसने, पैदा होने मरने में डाली है उसने।17।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! सारे जीव काम-क्रोध (आदि विकारों) के रंगे जा सकने वाला शरीर-चोला पहने के (जगत में) आते हैं; कई पैदा होते हैं कई मरते हैं, (सारी दुनिया परमात्मा के) हुक्म में ही जनम-मरण के चक्कर में पड़ी हुई है। (जब तक जीव की) माया के मोह में प्रीत लगी हुई है (तब तक उसका) जनम-मरण का चक्कर खत्म नहीं होता। हे भाई! परमात्मा ने (खुद ही मोह की) रस्सी बाँध के (सारी लोकाई जनम-मरण के चक्कर में) डाली हुई है। (इसमें से निकलने के लिए उसकी मेहर के बिना और) कोई उपाय किया नहीं जा सकता।17।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन कउ किरपा धारीअनु तिना सतिगुरु मिलिआ आइ ॥ सतिगुरि मिले उलटी भई मरि जीविआ सहजि सुभाइ ॥ नानक भगती रतिआ हरि हरि नामि समाइ ॥१८॥

मूलम्

जिन कउ किरपा धारीअनु तिना सतिगुरु मिलिआ आइ ॥ सतिगुरि मिले उलटी भई मरि जीविआ सहजि सुभाइ ॥ नानक भगती रतिआ हरि हरि नामि समाइ ॥१८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धारीअनु = धारी है उस (परमात्मा) ने। आइ = आ के। सतिगुरि मिले = सतिगुरु मिलने से, गुरु मिलने से। उलटी भई = (काम क्रोध आदि विकारों से) पलट गई। मरि = (विकारों से) मर के। जीविआ = जी उठा, आत्मिक जीवन वाला हो गया। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रभु प्यार में। रतिआ = रंगीज के। नामि = नाम में। समाइ = लीन हो जाता है।18।
अर्थ: हे भाई! जिस (मनुष्यों) पर उस (परमात्मा) ने मेहर कर दी, उनको गुरु मिल गया। हे भाई! गुरु के मिलने से (जिस मनुष्य की तवज्जो काम-क्रोध आदि विकारों से) पलट गई, वह मनुष्य (विकारों से) मर के आत्मिक अडोलता में प्रभु-प्रेम में जी उठा (आत्मिक जीवन जीने लग गया)। हे नानक! (परमात्मा की) भक्ति के रंग में रंगा हुआ मनुष्य सदा परमात्मा के नाम में लीन रहता है।18।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुख चंचल मति है अंतरि बहुतु चतुराई ॥ कीता करतिआ बिरथा गइआ इकु तिलु थाइ न पाई ॥ पुंन दानु जो बीजदे सभ धरम राइ कै जाई ॥ बिनु सतिगुरू जमकालु न छोडई दूजै भाइ खुआई ॥ जोबनु जांदा नदरि न आवई जरु पहुचै मरि जाई ॥ पुतु कलतु मोहु हेतु है अंति बेली को न सखाई ॥ सतिगुरु सेवे सो सुखु पाए नाउ वसै मनि आई ॥ नानक से वडे वडभागी जि गुरमुखि नामि समाई ॥१९॥

मूलम्

मनमुख चंचल मति है अंतरि बहुतु चतुराई ॥ कीता करतिआ बिरथा गइआ इकु तिलु थाइ न पाई ॥ पुंन दानु जो बीजदे सभ धरम राइ कै जाई ॥ बिनु सतिगुरू जमकालु न छोडई दूजै भाइ खुआई ॥ जोबनु जांदा नदरि न आवई जरु पहुचै मरि जाई ॥ पुतु कलतु मोहु हेतु है अंति बेली को न सखाई ॥ सतिगुरु सेवे सो सुखु पाए नाउ वसै मनि आई ॥ नानक से वडे वडभागी जि गुरमुखि नामि समाई ॥१९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनमुख मति = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्यों की अकल। चंचल = हर वक्त भटकती। कीता कराइआ = (उनका) सारा ही किया हुआ उद्यम। थाइ न पाइ = (परमात्मा की दरगाह में) स्वीकार नहीं होता। इकु तिलु = रत्ती भर भी। जो = जो भी (कर्म बीज)। धरमराइ कै = धर्मराज के पास। सभ = सारी (मेहनत)। जमकालु = मौत, मौत का चक्कर। दूजै भाइ = माया के प्यार में। खुआई = ख्वार होता है। नदरि न आवई = दिखता ही नहीं, पता ही नहीं लगता कि कब चला गया। जोबनु = जवानी। जरु = बुढ़ापा। कलतु = स्त्री। मोहु = माया का मोह। हेतु = माया का प्यार। अंति = आखिर में। को = कोई भी। बेली = साथी। सखाई = मित्र। सेवे = शरण पड़ता है। मनि = मन में। आई = आ के। जि = जो। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। नामि = नाम में। समाई = लीन होता है।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्यों की मति हर वक्त भटकती रहती है, उनके अंदर (अपनी मति की) चतुराई (का) बहुत (घमण्ड) होता है। (अपनी अकल के आसरे पुण्य-दान आदि का) किया हुआ (उनका) सारा उद्यम व्यर्थ जाता है (उनका ये सारा उद्यम परमात्मा की हजूरी में) स्वीकार नहीं होता। पुण्य-दान (आदि) जो भी (कर्म-बीज वे अपनी शरीर-धरती में) बीजते हैं, (उनकी यह) सारी मेहनत धर्मराज के हवाले हो जाती है (भाव, इस सारी मेहनत से तो मनुष्य धर्मराज के ही अधीन रहता है)।
हे भाई! गुरु की शरण पड़े बिना (जनम) मरण का चक्कर (मनुष्य को) नहीं छोड़ता। माया के मोह के कारण (मनुष्य) दुखी ही होता है। (मनुष्य की) जवानी के गुजरते देर नहीं लगती, बुढ़ापा आ पहुँचता है, (और आखिर प्राणी) मर जाता है। पुत्र, स्त्री, माया का मोह-प्यार- (इनमें से) अंत में कोई यार नहीं बनता, कोई साथ नहीं बनता।
हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह आत्मिक आनंद पाता है, परमात्मा का नाम (उसके) मन में बसता है। हे नानक! जो जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ के परमात्मा के नाम में लीन रहता है, वह सारे ऊँचे जीवन वाले होते है, बड़े भाग्यों वाले होते हैं।19।

[[1415]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुख नामु न चेतनी बिनु नावै दुख रोइ ॥ आतमा रामु न पूजनी दूजै किउ सुखु होइ ॥ हउमै अंतरि मैलु है सबदि न काढहि धोइ ॥ नानक बिनु नावै मैलिआ मुए जनमु पदारथु खोइ ॥२०॥

मूलम्

मनमुख नामु न चेतनी बिनु नावै दुख रोइ ॥ आतमा रामु न पूजनी दूजै किउ सुखु होइ ॥ हउमै अंतरि मैलु है सबदि न काढहि धोइ ॥ नानक बिनु नावै मैलिआ मुए जनमु पदारथु खोइ ॥२०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। चेतनी = चेतन (बहुवचन)। रोइ = रोता है। आतमा रामु = सर्व व्यापक प्रभु। पूजनी = पूजनि (बहुवचन)। दूजै = माया के मोह में। सबदि = शब्द से। धोइ = धो के। मुए = आत्मिक मौत मरे। खोइ = गवा के।20
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम से टूटा हुआ मनुष्य (सदा अपने) दुख फरोलता रहता है। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य परमात्मा का नाम नहीं स्मरण करते, सर्व-व्यापक प्रभु की भक्ति नहीं करते। (भला) माया के मोह में (फसे रह के उनको) सुख कैसे मिल सकता है? उनके अंदर अहंकार की मैल टिकी रहती है जिसको वे गुरु के शब्द द्वारा (अपने अंदर से) धो के नहीं निकालते। हे नानक! नाम से वंचित हुए मनुष्य कीमती मानव जनम गवा के विकारों की मैल से भरे रहते हैं, और आत्मिक मौत सहेड़े रखते हैं।20।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुख बोले अंधुले तिसु महि अगनी का वासु ॥ बाणी सुरति न बुझनी सबदि न करहि प्रगासु ॥ ओना आपणी अंदरि सुधि नही गुर बचनि न करहि विसासु ॥ गिआनीआ अंदरि गुर सबदु है नित हरि लिव सदा विगासु ॥ हरि गिआनीआ की रखदा हउ सद बलिहारी तासु ॥ गुरमुखि जो हरि सेवदे जन नानकु ता का दासु ॥२१॥

मूलम्

मनमुख बोले अंधुले तिसु महि अगनी का वासु ॥ बाणी सुरति न बुझनी सबदि न करहि प्रगासु ॥ ओना आपणी अंदरि सुधि नही गुर बचनि न करहि विसासु ॥ गिआनीआ अंदरि गुर सबदु है नित हरि लिव सदा विगासु ॥ हरि गिआनीआ की रखदा हउ सद बलिहारी तासु ॥ गुरमुखि जो हरि सेवदे जन नानकु ता का दासु ॥२१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिसु महि = (मनमुखों की) उस (सोच) में। बुझनी = बूझनि (बहुवचन)। प्रगास = प्रकाश। सुधि = सूझ। बचनि = वचन में। बिसासु = विश्वास, यकीन। गिआनी = आत्मिक जीवन की सूझ वाला मनुष्य। विगासु = खिड़ाव। हउ = मैं। सद = सदा। तासु = उनसे। ता का = उनका।21।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य गुरु की वाणी में तवज्जो जोड़नी नहीं समझते, गुरु के शब्द से (अपनी तवज्जो में आत्मिक जीवन की सूझ का) प्रकाश नहीं करते, (उनकी) उस (सोच) में तृष्णा-अग्नि का निवास हुआ रहता है (इस वास्ते आत्मिक जीवन के उपदेश से वह) अंधे और बहरे हुए रहते है। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्यों के अंदर अपने आपे की समझ नहीं होती, वे गुरु के वचन में श्रद्धा नहीं लाते।
पर, हे भाई! आत्मिक जीवन की सूझ वाले बंदों के अंदर (सदा) गुरु का शब्द बसता है, उनकी लगन सदा हरि में रहती है (इस वास्ते उनके अंदर) सदा (आत्मिक) खिड़ाव बना रहता है। परमात्मा आत्मिक जीवन वाले मनुष्यों की सदा (इज्जत) रखता है, मैं उन पर से सदा कुर्बान जाता हूँ। हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर जो मनुष्य परमात्मा की सेवा-भक्ति करते रहते हैं, दास नानक उनका सेवक है।21।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माइआ भुइअंगमु सरपु है जगु घेरिआ बिखु माइ ॥ बिखु का मारणु हरि नामु है गुर गरुड़ सबदु मुखि पाइ ॥ जिन कउ पूरबि लिखिआ तिन सतिगुरु मिलिआ आइ ॥ मिलि सतिगुर निरमलु होइआ बिखु हउमै गइआ बिलाइ ॥ गुरमुखा के मुख उजले हरि दरगह सोभा पाइ ॥ जन नानकु सदा कुरबाणु तिन जो चालहि सतिगुर भाइ ॥२२॥

मूलम्

माइआ भुइअंगमु सरपु है जगु घेरिआ बिखु माइ ॥ बिखु का मारणु हरि नामु है गुर गरुड़ सबदु मुखि पाइ ॥ जिन कउ पूरबि लिखिआ तिन सतिगुरु मिलिआ आइ ॥ मिलि सतिगुर निरमलु होइआ बिखु हउमै गइआ बिलाइ ॥ गुरमुखा के मुख उजले हरि दरगह सोभा पाइ ॥ जन नानकु सदा कुरबाणु तिन जो चालहि सतिगुर भाइ ॥२२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भुइअंगमु = साँप। सरपु = साँप। बिखु = आत्मिक मौत लाने वाला जहर। माइ = माया। मारणु = (असर) खत्म करने वाला। गरुड़ = (साँप डसने का जहर दूर करने वाला) गारुड़ी मंत्र। मुखि = मुँह में। पाइ = डाले रख। पूरबि = पहले से ही, धुर दरगाह से। आइ = आ के। मिलि = मिल के। बिखु = जहर। गइआ बिलाइ = बिल्कुल दूर हो जाता है। उजले = रौशन। पाइ = पा के, हासिल करके। सतिगुर भाइ = गुरु की रजा में।22।
अर्थ: हे भाई! माया साँप है बड़ा साँप। आत्मिक मौत लाने वाली जहर का भरा हुआ यह माया-सर्प जगत को घेरे बैठा है। परमात्मा का नाम (ही इस) जहर का असर खत्म कर सकने वाला है। गुरु का शब्द (ही) गारुड़ मंत्र है (इसको सदा अपने) मुँह में डाले रख।
हे भाई! जिनके माथे पर धुर दरगाह से ही लेख लिखा होता है, उनको गुरु आ के मिल जाता है, गुरु को मिल के उनका जीवन पवित्र हो जाता है उनके अंदर से अहंकार का जहर सदा के लिए दूर हो जाता है। परमात्मा की हजूरी में शोभा कमा के गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों के मुँह रौशन हो जाते हैं। दास नानक उन मनुष्यों से सदा सदके जाता है जो गुरु की रजा में चलते हैं।22।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुर पुरखु निरवैरु है नित हिरदै हरि लिव लाइ ॥ निरवैरै नालि वैरु रचाइदा अपणै घरि लूकी लाइ ॥ अंतरि क्रोधु अहंकारु है अनदिनु जलै सदा दुखु पाइ ॥ कूड़ु बोलि बोलि नित भउकदे बिखु खाधे दूजै भाइ ॥ बिखु माइआ कारणि भरमदे फिरि घरि घरि पति गवाइ ॥ बेसुआ केरे पूत जिउ पिता नामु तिसु जाइ ॥ हरि हरि नामु न चेतनी करतै आपि खुआइ ॥ हरि गुरमुखि किरपा धारीअनु जन विछुड़े आपि मिलाइ ॥ जन नानकु तिसु बलिहारणै जो सतिगुर लागे पाइ ॥२३॥

मूलम्

सतिगुर पुरखु निरवैरु है नित हिरदै हरि लिव लाइ ॥ निरवैरै नालि वैरु रचाइदा अपणै घरि लूकी लाइ ॥ अंतरि क्रोधु अहंकारु है अनदिनु जलै सदा दुखु पाइ ॥ कूड़ु बोलि बोलि नित भउकदे बिखु खाधे दूजै भाइ ॥ बिखु माइआ कारणि भरमदे फिरि घरि घरि पति गवाइ ॥ बेसुआ केरे पूत जिउ पिता नामु तिसु जाइ ॥ हरि हरि नामु न चेतनी करतै आपि खुआइ ॥ हरि गुरमुखि किरपा धारीअनु जन विछुड़े आपि मिलाइ ॥ जन नानकु तिसु बलिहारणै जो सतिगुर लागे पाइ ॥२३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरवैरु = किसी के साथ वैर ना करने वाला। हिरदै = हृदय में। लिव लाइ = तवज्जो/ध्यान जोड़ के रखता है। रचाइदा = बनाए रखता है। घरि = (हृदय-) घर में। लूकी = (ईष्या की) लूती। अंतरि = अंदर। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। बोलि = बोल के। कूड़ु = झूठ। भउकदे = बेमतलब बोलते हैं। बिखु = जहर। दूजै भाइ = हरेक घर (के दरवाजे) पर। पति = इज्जत। गवाइ = गवा के। बेसुआ = वेश्वा। केरे = के। जिउ = की तरह। करतै = कर्तार ने। खुआइ = गलत रास्ते पर पड़े होते हैं। धारीअनु = उस (प्रभु) ने धारी है। पाइ = पैरों पर।23।
अर्थ: हे भाई! गुरु (एक ऐसा महा-) पुरष है जिसका किसी के साथ भी वैर नहीं है, गुरु हर वक्त अपने हृदय में परमात्मा के साथ लगन लगाए रखता है। जो मनुष्य (ऐसे) निर्वैर (गुरु) के साथ वैर बनाए रखता है, वह अपने (हृदय-) घर में (ईष्या की) चिंगारी जलाए रखता है। उसके अंदर क्रोध (की ज्वाला) है, उसके अंदर अहंकार (के शोले भड़कते रहते) हैं (जिसमें) वह हर वक्त जलता रहता है, और, सदा दुख पाता रहता है।
हे भाई! (जो मनुष्य गुरु के विरुद्ध) झूठ बोल-बोल के अनाब-शनाब बोलते रहते हैं, माया के मोह में (वे इस तरह आत्मिक मौत मरे रहते हैं, जैसे) उन्होंने जहर खाया होता है। आत्मिक मौत लाने वाली माया-जहर की खातिर वह घर-घर (के दरवाजे) और इज्जत गवा के (हल्के पड़ के) भटकते फिरते हैं। (ऐसे मनुष्य) वेश्वा के पुत्र की तरह (नाक-काटे होते हैं) जिसके पिता का नाम गुम हो जाता है। वह मनुष्य परमात्मा का नाम नहीं स्मरण करते (पर उनके भी क्या वश?) कर्तार ने खुद (उनको) गलत रास्ते पर डाला होता है।
हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों पर हरि ने स्वयं कृपा की होती है। गुरु के माध्यम से उन विछुड़े हुओं को भी हरि खुद (अपने साथ) मिला लेता है। हे भाई! दास नानक उस मनुष्य से सदके जाता है, जो गुरु के चरणों में पड़े रहते हैं।23।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामि लगे से ऊबरे बिनु नावै जम पुरि जांहि ॥ नानक बिनु नावै सुखु नही आइ गए पछुताहि ॥२४॥

मूलम्

नामि लगे से ऊबरे बिनु नावै जम पुरि जांहि ॥ नानक बिनु नावै सुखु नही आइ गए पछुताहि ॥२४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नामि = नाम में। से = वे (बहुवचन)। ऊबरे = (संसार समुंदर में डूबने से) बच गए। जमपुरि = जमराज के शहर में। जांहि = जाते हैं (बहुवचन)। आइ = पैदा हो के। गए = (दुनिया से) चले गए।24।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के नाम में जुड़े रहे, वे (संसार-समुंदर में डूबने से) बच गए। नाम से खाली रहने वाले मनुष्य जमराज में बस जाते हैं। हे नानक! परमात्मा के नाम के बिना (उनको) आत्मिक आनंद नहीं मिलता। (जगत में) जनम ले के (नाम से वंचित ही) जाते हैं और पछताते रहते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चिंता धावत रहि गए तां मनि भइआ अनंदु ॥ गुर प्रसादी बुझीऐ सा धन सुती निचिंद ॥ जिन कउ पूरबि लिखिआ तिन्हा भेटिआ गुर गोविंदु ॥ नानक सहजे मिलि रहे हरि पाइआ परमानंदु ॥२५॥

मूलम्

चिंता धावत रहि गए तां मनि भइआ अनंदु ॥ गुर प्रसादी बुझीऐ सा धन सुती निचिंद ॥ जिन कउ पूरबि लिखिआ तिन्हा भेटिआ गुर गोविंदु ॥ नानक सहजे मिलि रहे हरि पाइआ परमानंदु ॥२५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धावत = भटक रहे। रहि गए = (भटकने से) हट गए। तां मनि = उनके मन में। मनि = मन में। प्रसादी = कृपा से। बुझीऐ = समझ सकते हैं। साधन = जीव-स्त्री। सुती = सोई रहती है, लीन रहती है। निचिंद = चिन्ता रहित अवस्था में। पूरबि = धुर से, पहले से। भेटिआ = मिला। सहजे = आत्मिक अडोलता में। परमानंदु = सबसे ऊँचे आनंद का मालिक प्रभु।25।
अर्थ: हे भाई! माया की चिन्ता में भटक रहे जो मनुष्य (इस भटकना से) हट जाते हैं, उनके मन में आनंद पैदा हो जाता है, (पर, यह भेद) गुरु की कृपा से ही समझा जा सकता है। (जो) जीव-स्त्री (इस भेद को समझ लेती है, वह) चिन्ता-रहित अवस्था में लीन रहती है।
हे नानक! जिस मनुष्यों के माथे पर धुर दरगाह से लेख लिखा होता है उनको गुरु परमात्मा मिल जाता है, वह आत्मिक अडोलता में टिके रहते हैं। सबसे ऊँचे आत्मिक आनंद के मालिक-प्रभु (का मिलाप) वे मनुष्य प्राप्त कर लेते हैं।25।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु सेवनि आपणा गुर सबदी वीचारि ॥ सतिगुर का भाणा मंनि लैनि हरि नामु रखहि उर धारि ॥ ऐथै ओथै मंनीअनि हरि नामि लगे वापारि ॥ गुरमुखि सबदि सिञापदे तितु साचै दरबारि ॥ सचा सउदा खरचु सचु अंतरि पिरमु पिआरु ॥ जमकालु नेड़ि न आवई आपि बखसे करतारि ॥ नानक नाम रते से धनवंत हैनि निरधनु होरु संसारु ॥२६॥

मूलम्

सतिगुरु सेवनि आपणा गुर सबदी वीचारि ॥ सतिगुर का भाणा मंनि लैनि हरि नामु रखहि उर धारि ॥ ऐथै ओथै मंनीअनि हरि नामि लगे वापारि ॥ गुरमुखि सबदि सिञापदे तितु साचै दरबारि ॥ सचा सउदा खरचु सचु अंतरि पिरमु पिआरु ॥ जमकालु नेड़ि न आवई आपि बखसे करतारि ॥ नानक नाम रते से धनवंत हैनि निरधनु होरु संसारु ॥२६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेवनि = सेवते हैं (बहुवचन)। वीचारि = विचार के, तवज्जो/ध्यान जोड़ के। मंनि लैनि = मान लेते हैं। रखहि = रखते हैं। उर = हृदय। उर धारि रखहि = हृदय में बसाए रखते हैं। ऐथै = इस लोक में। ओथै = परलोक में। मंनीअनि = माने जाते हैं, सत्कारे जाते हैं (बहुवचन)। हरि नामि = हरि नाम में। वापारि = व्यापार में। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य। सबदि = गुरु के शब्द से। सिञापदे = जाने जाते हैं। तितु = उस में। तितु दरबारि = उस दरबार में। तितु साचै दरबारि = उस सदा स्थिर दरबार में। सचा = सदा कायम रहने वाला। सचु = सदा स्थिर हरि नाम। पिरमु = प्रेम। आवई = आता, आए। करतारि = कर्तार ने। नाम रते = (समासी) नाम रंग में रंगे हुए मनुष्य। से = वे (बहुवचन)। धनवंत = धन वाले। निरधनु = कंगाल, धन हीन।26।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द में तवज्जो जोड़ के प्यारे गुरु की शरण पड़े रहते हैं, गुरु की रजा को (सिर माथे) मानते हैं, परमात्मा का नाम (अपने) हृदय में बसाए रखते हैं, परमात्मा के नाम में व्यस्त रहते हैं, वे मनुष्य इस लोक में और परलोक में सत्कारे जाते हैं।
हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य उस सदा-स्थिर दरबार में गुरु के शब्द से पहचाने जाते हैं। वे मनुष्य सदा-स्थिर हरि-नाम का वणज (करते रहते हैं), सदा-स्थिर हरि नाम ही आत्मिक खुराक के तौर पर बरतते रहते हैं, उनके अंदर परमात्मा का प्रेम-प्यार (सदा टिका रहता है)। उन पर कर्तार ने आप मेहर की होती है, मौत (का डर उनके) नजदीक नहीं फटकता (आत्मिक मौत उनके नजदीक नहीं आती)।
हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा के नाम-रंगमें रंगे रहते हैं, वे धनवान हैं, बाकी सारा संसार कंगाल है।26।

[[1416]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

जन की टेक हरि नामु हरि बिनु नावै ठवर न ठाउ ॥ गुरमती नाउ मनि वसै सहजे सहजि समाउ ॥ वडभागी नामु धिआइआ अहिनिसि लागा भाउ ॥ जन नानकु मंगै धूड़ि तिन हउ सद कुरबाणै जाउ ॥२७॥

मूलम्

जन की टेक हरि नामु हरि बिनु नावै ठवर न ठाउ ॥ गुरमती नाउ मनि वसै सहजे सहजि समाउ ॥ वडभागी नामु धिआइआ अहिनिसि लागा भाउ ॥ जन नानकु मंगै धूड़ि तिन हउ सद कुरबाणै जाउ ॥२७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: टेक = आसरा, सहारा। ठवर = जगह। मनि = मन में। सहजे = आत्मिक अडोलता में ही। समाउ = लीनता। अहि = दिन। निसि = रात। भाउ = प्यार। नानक मंगै = नानक माँगता है (एकवचन)। हउ = मैं। सद = सदा। जाउ = मैं जाता हूँ।27।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम (ही परमात्मा के) सेवकों का सहारा है, हरि-नाम के बिना (उनको) कोई और आसरा नहीं सूझता। गुरु की मति की इनायत से परमात्मा का नाम (उनके) मन में बसा रहता है, हर वक्त आत्मिक अडोलता में (उनकी) लीनता रहती है। बड़े भाग्यों से (उन्होने दिन-रात परमात्मा का) नाम स्मरण किया है, दिन-रात उनका प्यार (हरि-नाम से) बना रहता है। दास नानक उनके चरणों की धूल (सदा) माँगता है (और कहता है: हे भाई!) मैं उनसे सदा सदके जाता हूँ।27।

विश्वास-प्रस्तुतिः

लख चउरासीह मेदनी तिसना जलती करे पुकार ॥ इहु मोहु माइआ सभु पसरिआ नालि चलै न अंती वार ॥ बिनु हरि सांति न आवई किसु आगै करी पुकार ॥ वडभागी सतिगुरु पाइआ बूझिआ ब्रहमु बिचारु ॥ तिसना अगनि सभ बुझि गई जन नानक हरि उरि धारि ॥२८॥

मूलम्

लख चउरासीह मेदनी तिसना जलती करे पुकार ॥ इहु मोहु माइआ सभु पसरिआ नालि चलै न अंती वार ॥ बिनु हरि सांति न आवई किसु आगै करी पुकार ॥ वडभागी सतिगुरु पाइआ बूझिआ ब्रहमु बिचारु ॥ तिसना अगनि सभ बुझि गई जन नानक हरि उरि धारि ॥२८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मेदनी = धरती। तिसना = माया का लालच। जलदी = जल रही। सभ = सारी दुनिया में। पसरिआ = बिखरा हुआ है। अंती वार = आखिरी वक्त। आवई = आए, आती। करी = करीं, मैं करूँ। वडभागी = बड़े भाग्यों से। बूझिआ = समझ लिया। सभ = सारी। उरि = हृदय में। धारि = रख के।28।
अर्थ: हे भाई! चौरासी लाख जूनियों वाली ये धरती तृष्णा (की आग) में जल रही है और पुकार रही है। माया का यह मोह सारी दुनिया में प्रभाव डाल रहा है (पर ये माया) आखिरी वक्त (किसी के भी) साथ नहीं जाती। परमात्मा के नाम के बिना (माया से किसी को) शांति भी नहीं मिलती। (गुरु के बिना) किस के आगे पुकार करूँ? (माया के मोह से और कोई नहीं छुड़ा सकता)।
बहुत भाग्यशाली (जिस मनुष्यों ने) गुरु पा लिया, उन्होंने परमात्मा के साथ सांझ डाल ली, उन्होंने परमात्मा के गुणों को अपने मन में बसा लिया। हे दास नानक! परमात्मा को दिल में बसाने के कारण (उनके अंदर से) तृष्णा की सारी आग बुझ गई।28।

विश्वास-प्रस्तुतिः

असी खते बहुतु कमावदे अंतु न पारावारु ॥ हरि किरपा करि कै बखसि लैहु हउ पापी वड गुनहगारु ॥ हरि जीउ लेखै वार न आवई तूं बखसि मिलावणहारु ॥ गुर तुठै हरि प्रभु मेलिआ सभ किलविख कटि विकार ॥ जिना हरि हरि नामु धिआइआ जन नानक तिन्ह जैकारु ॥२९॥

मूलम्

असी खते बहुतु कमावदे अंतु न पारावारु ॥ हरि किरपा करि कै बखसि लैहु हउ पापी वड गुनहगारु ॥ हरि जीउ लेखै वार न आवई तूं बखसि मिलावणहारु ॥ गुर तुठै हरि प्रभु मेलिआ सभ किलविख कटि विकार ॥ जिना हरि हरि नामु धिआइआ जन नानक तिन्ह जैकारु ॥२९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: असी = हम जीव। खते = (खता = भूल, गुनाह) भूलें। पारावारु = (भूलों) इस पार उस पार। हरि = हे हरि! बखसि लैहु = माफ कर, क्षमा कर। हउ = मैं। गनहगारु = गुनाहीं। लेखै = लेखे से। वार = (माफ करने की) बारी। बखसि = बख्श के, माफ करके। तुठै गुर = प्रसन्न हुए गुरु ने। किलविख = पाप। कटि = काट के, दूर करके। जैकारु = इज्जत, शोभा।29।
अर्थ: हे हरि! हम जीव बहुत भूलें करते रहते हैं, (हमारी भूलों का) अंत नहीं पाया जा सकता, (हमारी भूलों का) इस पार-उस पार का किनारा नहीं मिलता। तू मेहर करके खुद ही बख़्श ले, मैं पापी हूँ, गुनहगार हूँ। हे प्रभु जी! (मेरे किए कर्मों के) लेखों के आसरे तो (बख्शिश हासिल करने की मेरी) बारी नहीं आ सकती, तू (ही मेरी भूलें) बख्श के (मुझे अपने चरणों में) मिलाने की सामर्थ्य वाला है।
हे भाई! (जिसके ऊपर प्रभु की मेहर हुई, उसके अंदर से) सारे पाप-विकार काट के दयावान हुए गुरु ने उसको हरि-प्रभु से मिला दिया।
हे दास नाक! (कह:) जिस लोगों ने परमात्मा का नाम स्मरण किया है, उनको (लोक-परलोक में) आदर-सत्कार मिलता आया है।29।

विश्वास-प्रस्तुतिः

विछुड़ि विछुड़ि जो मिले सतिगुर के भै भाइ ॥ जनम मरण निहचलु भए गुरमुखि नामु धिआइ ॥ गुर साधू संगति मिलै हीरे रतन लभंन्हि ॥ नानक लालु अमोलका गुरमुखि खोजि लहंन्हि ॥३०॥

मूलम्

विछुड़ि विछुड़ि जो मिले सतिगुर के भै भाइ ॥ जनम मरण निहचलु भए गुरमुखि नामु धिआइ ॥ गुर साधू संगति मिलै हीरे रतन लभंन्हि ॥ नानक लालु अमोलका गुरमुखि खोजि लहंन्हि ॥३०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: विछुड़ि = (प्रभु से) विछुड़ के। विछुड़ि विछुड़ि = बार बार विछुड़ के। भै = डर अदब में। भाइ = प्यार में। निहचलु = अडोल। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। धिआइ = स्मरण करके। लभंनि = ढूँढ लेते हैं। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। खोजि = खोज के, ढूँढ के। लहंन्हि = ढूँढ लेते हैं।
अर्थ: हे भाई! (अनेक जन्मों में परमात्मा से) बार-बार विछुड़ के जो मनुष्य (आखिर) गुरु के डर-अदब में गुरु के प्रेम में टिक गए, वे गुरु के माध्यम से परमात्मा का नाम स्मरण कर-कर के जनम-मरण के चक्करों से अडोल हो गए।
हे नानक! जिस मनुष्यों को साधु गुरु की संगति हासिल हो जाती है, वे (उस संगतिमें से) परमात्मा के कीमती आत्मिक गुण ढूँढ लेते हैं। परमात्मा का अत्यंत कीमती नाम-हीरा गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य (संगति में से) खोज के हासिल कर लेते हैं।30।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुख नामु न चेतिओ धिगु जीवणु धिगु वासु ॥ जिस दा दिता खाणा पैनणा सो मनि न वसिओ गुणतासु ॥ इहु मनु सबदि न भेदिओ किउ होवै घर वासु ॥ मनमुखीआ दोहागणी आवण जाणि मुईआसु ॥ गुरमुखि नामु सुहागु है मसतकि मणी लिखिआसु ॥ हरि हरि नामु उरि धारिआ हरि हिरदै कमल प्रगासु ॥ सतिगुरु सेवनि आपणा हउ सद बलिहारी तासु ॥ नानक तिन मुख उजले जिन अंतरि नामु प्रगासु ॥३१॥

मूलम्

मनमुख नामु न चेतिओ धिगु जीवणु धिगु वासु ॥ जिस दा दिता खाणा पैनणा सो मनि न वसिओ गुणतासु ॥ इहु मनु सबदि न भेदिओ किउ होवै घर वासु ॥ मनमुखीआ दोहागणी आवण जाणि मुईआसु ॥ गुरमुखि नामु सुहागु है मसतकि मणी लिखिआसु ॥ हरि हरि नामु उरि धारिआ हरि हिरदै कमल प्रगासु ॥ सतिगुरु सेवनि आपणा हउ सद बलिहारी तासु ॥ नानक तिन मुख उजले जिन अंतरि नामु प्रगासु ॥३१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्यों ने। धिगु = धिक्कारयोग्य। वासु = (जगत में) बसेरा। मनि = मन में। गुण तास = गुणों का खजाना हरि। सबदि = गुरु के शब्द में। भेदिओ = भेदा हुआ, परोया गया। घर वासु = (असल) घर का वासा। मन मुखीआ = अपने मन के पीछे चलने वाली जीव स्त्रीयां। दोहागणी = बुरे भाग्य वाली, त्यागी हुई स्त्री। आवण जाणि = पैदा होने मरने (के चक्कर) में। मुईआसु = आत्मिक मौत मरी हुई।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस दा’ में से संबंधक ‘दा’ के कारण ‘जिसु’ का ‘ु’ उड़ गया है।

दर्पण-भाषार्थ

गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाली। सुहागु = सुभाग। मसतकि = माथे पर। मणी = टीका। उरि = दिल में। हिरदै = दिल में। प्रगासु = खिड़ाव। सेवनि = सेवा करती हैं। हउ = मैं। सद = सदा। तासु = उनसे। उजले = रौशन। अंतरि = अंदर।31।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्यों ने परमात्मा का नाम नहीं स्मरण किया, उनका जीना धिक्कार-योग्य, उनका जगत-बसेरा तिरस्कार-योग्य ही रहता है। उनके मन में गुणों का खजाना वह प्रभु नहीं टिका, जिसका दिया हुआ अन्न और वस्त्र वे बरतते रहते हैं। उनका ये मन (कभी) गुरु के शब्द में नहीं जुड़ता। फिर उन्हें प्रभु-चरणों का निवास कैसे हासिल हो? हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्रीयांबद्-नसीब ही रहती हैं, वे जनम-मरण के चक्कर में पड़ी रहती हैं, वे सदा आत्मिक मौत मरती रहती हैं।
हे भाई! जो जीव-स्त्रीयां गुरु के सन्मुख हैं (उनके हृदय में बसता हरि-) नाम उनके सिर पर सोहाग है, उनके माथे पर टीका लगा हुआ है। गुरु के सन्मुख रहने वालियों ने परमात्मा का नाम सदा अपने हृदय में बसाया होता है उनके दिल का कमल-फूल खिला हुआ रहता है। वे जीव-स्त्रीयां हमेशा अपने गुरु की शरण पड़ी रहती हैं। मैं उनसे सदा सदके हूँ। हे नानक! (कह:) जिनके दिल में (परमात्मा का) नाम (आत्मिक जीवन का) प्रकाश (किए रखता) है उनके मुँह (लोक-परलोक में) रौशन रहते हैं।31।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सबदि मरै सोई जनु सिझै बिनु सबदै मुकति न होई ॥ भेख करहि बहु करम विगुते भाइ दूजै परज विगोई ॥ नानक बिनु सतिगुर नाउ न पाईऐ जे सउ लोचै कोई ॥३२॥

मूलम्

सबदि मरै सोई जनु सिझै बिनु सबदै मुकति न होई ॥ भेख करहि बहु करम विगुते भाइ दूजै परज विगोई ॥ नानक बिनु सतिगुर नाउ न पाईऐ जे सउ लोचै कोई ॥३२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबदि = (गुरु के) शब्द से। मरै = (विकारों से) मरता है। सिझै = कामयाब होता है। मुकति = विकारों से मुक्ति। भेख = धार्मिक पहरावा। करम = (दिखावे के धार्मिक) कर्म। विगुते = दुखी होते हैं। भाइ दूजै = माया के प्यार में। परज = सृष्टि। विगोई = दुखी होती है। न पाईऐ = नहीं मिलता। जे = चाहे। सउ = सौ बार।32।
अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य गुरु के) शब्द से (विकारों से) मर जाता है वही मनुष्य (जिंदगी में) कामयाब होता है। (गुरु के) शब्द के बिना विकारों से मुक्ति नहीं मिलती। जो मनुष्य सिर्फ दिखावे के धार्मिक पहरावे पहनते हैं और दिखावे के ही धार्मिक कर्म करते हैं, वह दुखी होते रहते हैं। हे भाई! माया के मोह में फसे रह के दुनिया दुखी होती है। हे नानक! (कह: हे भाई!) गुरु की शरण पड़े बिना परमात्मा का नाम नहीं मिलता, चाहे कोई मनुष्य सौ बार तमन्ना करता रहे।32।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि का नाउ अति वड ऊचा ऊची हू ऊचा होई ॥ अपड़ि कोइ न सकई जे सउ लोचै कोई ॥ मुखि संजम हछा न होवई करि भेख भवै सभ कोई ॥ गुर की पउड़ी जाइ चड़ै करमि परापति होई ॥ अंतरि आइ वसै गुर सबदु वीचारै कोइ ॥ नानक सबदि मरै मनु मानीऐ साचे साची सोइ ॥३३॥

मूलम्

हरि का नाउ अति वड ऊचा ऊची हू ऊचा होई ॥ अपड़ि कोइ न सकई जे सउ लोचै कोई ॥ मुखि संजम हछा न होवई करि भेख भवै सभ कोई ॥ गुर की पउड़ी जाइ चड़ै करमि परापति होई ॥ अंतरि आइ वसै गुर सबदु वीचारै कोइ ॥ नानक सबदि मरै मनु मानीऐ साचे साची सोइ ॥३३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नाउ = नाम, महिमा। ऊची हू ऊचा = ऊचे से ऊँचा, बहुत ऊँचा है। न सकई = ना सके। सउ लोचै = सौ बार तमन्ना करे। मुखि = मुँह से, जबानी बातें करने से। संजम = इन्द्रियों को विकारों से रोकने का प्रयत्न। न होवई = न हो, नहीं होता। करि = कर के। भेख = धार्मिक पहरावे। सभ कोई = हर कोई, हरेक साधु। जाइ चढ़ै = (प्रभु-चरणों में) जा पहुँचता है। करमि = (प्रभु की) बख्शिश से। अंतरि = हृदय में। वीचारै = बिचारता है, मन में बसाता है। सबदि = शब्द से। मरै = विकारों से हटता है। मानीऐ = पतीज जाता है। साचे = साचि, सदा स्थिर प्रभु में (टिकने से)। साची = सदा कायम रहने वाली। सोइ = शोभा।33।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा की महानता ऊची से ऊँची है, बहुत ऊँची है। चाहे कोई मनुष्य सौ बार तमन्ना करता रहे, उसकी महानता तक कोई नहीं पहुँच सकता। हरेक साधु धार्मिक पहरावा पहन के फिरता है (और समझता होगा कि इस तरह उच्च जीवन में मैं परमात्मा की महानता तक पहुँच गया हूँ, पर) इन्द्रियों को वश में कर लेने की निरी ज़बानी बातें कर लेने से कोई मनुष्य पवित्र जीवन वाला नहीं हो जाता।
हे भाई! जो कोई मनुष्य गुरु के शब्द को अपने मन में बसाता है उसके अंदर परमात्मा आ बसता है। (गुरु का शब्द ही है) गुरु की (बताई हुई) सीढ़ी (जिसकी सहायता से मनुष्य प्रभु के चरणों तक) जा पहुँचता है, (पर यह ‘गुर की पउड़ी’ परमात्मा की) मेहर से ही मिलती है।
हे नानक! (जो मनुष्य गुरु के) शब्द से (विकारों से) मरता है, उसका मन (परमात्मा की याद में) गिझ जात है, सदा-स्थिर प्रभु में लीन रहने से उसको सदा कायम रहने वाली शोभा मिलती है।33।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

माइआ मोहु दुखु सागरु है बिखु दुतरु तरिआ न जाइ ॥ मेरा मेरा करदे पचि मुए हउमै करत विहाइ ॥ मनमुखा उरवारु न पारु है अध विचि रहे लपटाइ ॥ जो धुरि लिखिआ सु कमावणा करणा कछू न जाइ ॥ गुरमती गिआनु रतनु मनि वसै सभु देखिआ ब्रहमु सुभाइ ॥ नानक सतिगुरि बोहिथै वडभागी चड़ै ते भउजलि पारि लंघाइ ॥३४॥

मूलम्

माइआ मोहु दुखु सागरु है बिखु दुतरु तरिआ न जाइ ॥ मेरा मेरा करदे पचि मुए हउमै करत विहाइ ॥ मनमुखा उरवारु न पारु है अध विचि रहे लपटाइ ॥ जो धुरि लिखिआ सु कमावणा करणा कछू न जाइ ॥ गुरमती गिआनु रतनु मनि वसै सभु देखिआ ब्रहमु सुभाइ ॥ नानक सतिगुरि बोहिथै वडभागी चड़ै ते भउजलि पारि लंघाइ ॥३४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सागरु = समुंदर। बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाली जहर। दुतरु = (दुष्तर) जिससे पार लांघना बहुत मुश्किल है। पचि = (तृष्णा की आग में) जल के। मुए = आत्मिक मौत मर गए। विहाइ = (उम्र) बीतती है। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। विहाइ = (उम्र) बीतती है। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। उरवारु = (समुंदर का) इस पार का किनारा। पारु = परला किनारा। रहे लपटाइ = (मोह के साथ) चिपके रहे। धुरि = धुर दरगाह से। सु = वह (लेख)। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। मनि = मन में। सभु = हर जगह, सारी सृष्टि में। सुभाइ = प्रेम से। सतिगुरि = सतिगुरु में। बोहिथै = जहाज में। सतिगुरि बोहिथै = गुरु जहाज में। ते = उनको। भउजलि = संसार समुंदर में (डूबतों को)।34।
अर्थ: हे भाई! माया का मोह (मनुष्य की जिंद के लिए) दुख (का मूल) है, (मानो, दुखों का) समुंदर है, आत्मिक मौत लाने वाला जहर (-भरा समुंदर) है, इसमें से पार लांघना बहुत मुश्किल है, पार नहीं लांघा जा सकता। ‘मेरा (धन), मेरा (धन)’ कहते (जीव तृष्णा की आग में) जल-जल के आत्मिक मौत सहेड़ी रखते हैं, ‘हउ हउ’ करते (जीवों की उम्र) गुजरती है। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्यों को (मोह के समुंदर का) ना इस पार का किनारा मिलता है ना उस पार का। (इस समुंदर के) आधे में ही (गोते खाते मोह से) चिपके रहते हैं। पर जीव भी क्या करें? (पिछले किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार) धुर दरगाह से जो लेख (जीव के माथे पर) लिखा जाता है, वह लेख कमाना ही पड़ता है (अपनी अकल के आसरे उस लेख से बचने के लिए) कोई उद्यम नहीं किया जा सकता।
गुरु की मति पर चल कर (जिस मनुष्य के) मन में परमात्मा की बड़ी गहरी सांझ (का) रतन आ बसता है, प्रभु-प्रेम से वह मनुष्य सारी लुकाई में प्रभु को ही देखता है। हे नानक! बड़े भाग्यों से ही (कोई मनुष्य) गुरु-जहाज़ में सवार होता है (और, जो मनुष्य गुरु-जहाज में चढ़ते हैं, गुरु के बताए राह पर चलते हैं) उनको संसार-समुंदर में (डूबतों को गुरु) पार लंघा लेता है।34।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु सतिगुर दाता को नही जो हरि नामु देइ आधारु ॥ गुर किरपा ते नाउ मनि वसै सदा रहै उरि धारि ॥ तिसना बुझै तिपति होइ हरि कै नाइ पिआरि ॥ नानक गुरमुखि पाईऐ हरि अपनी किरपा धारि ॥३५॥

मूलम्

बिनु सतिगुर दाता को नही जो हरि नामु देइ आधारु ॥ गुर किरपा ते नाउ मनि वसै सदा रहै उरि धारि ॥ तिसना बुझै तिपति होइ हरि कै नाइ पिआरि ॥ नानक गुरमुखि पाईऐ हरि अपनी किरपा धारि ॥३५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दाता = (नाम की) दात देने वाला। को = कोई (सर्वनाम)। देइ = देता है। आधारु = आसरा। ते = से। मनि = मन में। वसै = आ बसता है। उरि = हृदय में। धारि = धार के, टिका के। बुझै = (आग) बुझ जाती है। तिपति = तृप्ति, शांति। कै नाइ = के नाम में। कै पिआर = के प्यार में। गुरमुखि = गुरु से।35।
अर्थ: हे भाई! गुरु के बिना (परमात्मा के नाम की) दाति देने वाला और कोई नहीं है, वह गुरु ही परमात्मा का नाम (जिंद के लिए) आसरा देता है। गुरु की कृपा से परमात्मा का नाम (मनुष्य के) मन में आ बसता है, (मनुष्य हरि-नाम को अपने) हृदय में बसाए रखता है। हरि-नाम से, हरि के प्यार से (मनुष्य के अंदर से) तृष्णा (की आग) बुझ जाती है, (मनुष्य के अंदर माया के प्रति) तृप्ति हो जाती है।
हे नानक! गुरु की शरण पड़ने से (परमात्मा का नाम) प्रप्त हो जाता है। (गुरु की शरण पड़ने से) परमात्मा (सेवक पर) अपनी मेहर करता है।35।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु सबदै जगतु बरलिआ कहणा कछू न जाइ ॥ हरि रखे से उबरे सबदि रहे लिव लाइ ॥ नानक करता सभ किछु जाणदा जिनि रखी बणत बणाइ ॥३६॥

मूलम्

बिनु सबदै जगतु बरलिआ कहणा कछू न जाइ ॥ हरि रखे से उबरे सबदि रहे लिव लाइ ॥ नानक करता सभ किछु जाणदा जिनि रखी बणत बणाइ ॥३६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बरलिआ = झल्ला हो रहा है। कहणा कछू न जाइ = कुछ कहा नहीं जा सकता, कोई पेश नहीं जाती। रखे = रखा जाता है। से = वे (बहुवचन)। उबरे = बच गए। सबद = गुरु के शब्द में। लिव = लगन। लिव लाइ रहे = तवज्जो जोड़े रखते हैं। नानक = हे नानक! सभ किछु = हरेक बात। जिनि = जिस (कर्तार) ने। बणत = मर्यादा।36।
अर्थ: हे भाई! गुरु के शब्द से वंचित रह के जगत (माया के पीछे) झल्ला हुआ फिरता है, किसी की कोई पेश नहीं जाती। जिस की रक्षा परमात्मा ने खुद की, वह (माया के असर से) बच गए, वह मनुष्य गुरु के शब्द में तवज्जो जोड़ी रखते हैं।
हे नानक! जिस (कर्तार) ने यह सारी मर्यादा कायम कर रखी है, वह ही इस सारे भेद को जानता है।36।

विश्वास-प्रस्तुतिः

होम जग सभि तीरथा पड़्हि पंडित थके पुराण ॥ बिखु माइआ मोहु न मिटई विचि हउमै आवणु जाणु ॥ सतिगुर मिलिऐ मलु उतरी हरि जपिआ पुरखु सुजाणु ॥ जिना हरि हरि प्रभु सेविआ जन नानकु सद कुरबाणु ॥३७॥

मूलम्

होम जग सभि तीरथा पड़्हि पंडित थके पुराण ॥ बिखु माइआ मोहु न मिटई विचि हउमै आवणु जाणु ॥ सतिगुर मिलिऐ मलु उतरी हरि जपिआ पुरखु सुजाणु ॥ जिना हरि हरि प्रभु सेविआ जन नानकु सद कुरबाणु ॥३७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: होम = हवन। सभि = सारे। तीरथा = तीर्थ (-स्नान)। पढ़ि = पढ़ के। बिखु माइआ = आत्मिक मौत लाने वाली माया का जहर। मिटई = मिटता। आवण जाणु = पैदा होने मरने (का चक्कर)। सतिगुर मिलिऐ = अगर सतिगुरु मिल जाए। सुजाणु = समझदार। सेविआ = सेवा भक्ति की। सद = सदा।37।
अर्थ: हे भाई! पंडित लोग हवन कर के, यज्ञ करके, सारे तीर्थ स्नान कर के, पुराण (आदि धर्म-पुस्तकें) पढ़ के थक जाते हैं, (पर, फिर भी) आत्मिक मौत लाने वाली माया-जहर का मोह (उनके अंदर से) नहीं मिटता, अहंकार में (फसे रहने के कारण उनका) जनम-मरण (का चक्कर बना रहता है)।
पर, हे भाई! अगर गुरु मिल जाए (तो गुरु की शरण पड़ कर जिस मनुष्य ने) अंतरजामी अकाल-पुरख का नाम जपा (उसके अंदर से विकारों की) मैल उतर गई। दास नानक उन मनुष्यों से सदा सदके जाता है, जिन्होंने सदा परमात्मा की सेवा-भक्ति की।37।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माइआ मोहु बहु चितवदे बहु आसा लोभु विकार ॥ मनमुखि असथिरु ना थीऐ मरि बिनसि जाइ खिन वार ॥ वड भागु होवै सतिगुरु मिलै हउमै तजै विकार ॥ हरि नामा जपि सुखु पाइआ जन नानक सबदु वीचार ॥३८॥

मूलम्

माइआ मोहु बहु चितवदे बहु आसा लोभु विकार ॥ मनमुखि असथिरु ना थीऐ मरि बिनसि जाइ खिन वार ॥ वड भागु होवै सतिगुरु मिलै हउमै तजै विकार ॥ हरि नामा जपि सुखु पाइआ जन नानक सबदु वीचार ॥३८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चितवदे = चेते करते रहते हैं (बहुवचन)। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (एकवचन)। असथिरु = अडोल चित्त। ना थीऐ = नहीं होता (एकवचन)। मरि = मर के। मरि बिनसि जाइ = मर के मरता है, बार बार मरता है, बार बार आत्मिक मौत मरता रहता है। खिन वार = छिन छिन बार बार, हर वक्त। भागु = भाग्य। तजै = त्यागता है। जपि = जप के। वीचारु = सोच का केन्द्र।38।
अर्थ: हे भाई! (अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य) सदा माया का मोह ही चेते करते रहते हैं, अनेक आशाएं बनाए रहते हैं, लोभ चितवते हैं, विकार चितवते रहते हैं। (इसीलिए) अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (कभी) अडोल-चित्त नहीं होता,वह हर वक्त आत्मिक मौत मरता रहता है। जिस मनुष्य के भाग्य जाग उठें, उसको गुरु मिल जाता है, वह मनुष्य अहंकार त्याग देता है, विकार छोड़ देता है।
हे नानक! जो मनुष्य ने गुरु के शब्द को (अपनी) सोच का केन्द्र (धुरा) बना लिया, वह परमात्मा का नाम जप के आत्मिक आनंद भोगने लग पड़ा।38।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु सतिगुर भगति न होवई नामि न लगै पिआरु ॥ जन नानक नामु अराधिआ गुर कै हेति पिआरि ॥३९॥

मूलम्

बिनु सतिगुर भगति न होवई नामि न लगै पिआरु ॥ जन नानक नामु अराधिआ गुर कै हेति पिआरि ॥३९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: न होवई = ना हो, नहीं हो सकती। नामि = नाम में। कै हेति = के प्यार में। कै पिआरि = के प्यार में।39।
अर्थ: हे भाई! गुरु (की शरण पड़े) बिना (परमात्मा की) भक्ति नहीं हो सकती, (परमात्मा के) नाम में प्यार नहीं बन सकता। हे दास नानक! (कह: हे भाई!) गुरु के प्रेम-प्यार में (रह के ही परमात्मा का नाम) स्मरण किया जा सकता है।39।

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोभी का वेसाहु न कीजै जे का पारि वसाइ ॥ अंति कालि तिथै धुहै जिथै हथु न पाइ ॥ मनमुख सेती संगु करे मुहि कालख दागु लगाइ ॥ मुह काले तिन्ह लोभीआं जासनि जनमु गवाइ ॥ सतसंगति हरि मेलि प्रभ हरि नामु वसै मनि आइ ॥ जनम मरन की मलु उतरै जन नानक हरि गुन गाइ ॥४०॥

मूलम्

लोभी का वेसाहु न कीजै जे का पारि वसाइ ॥ अंति कालि तिथै धुहै जिथै हथु न पाइ ॥ मनमुख सेती संगु करे मुहि कालख दागु लगाइ ॥ मुह काले तिन्ह लोभीआं जासनि जनमु गवाइ ॥ सतसंगति हरि मेलि प्रभ हरि नामु वसै मनि आइ ॥ जनम मरन की मलु उतरै जन नानक हरि गुन गाइ ॥४०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: न कीजै = नहीं करना चाहिए। वेसाहु = ऐतबार। जेका पारि = जहाँ तक। वसाइ = बस (चल सके)। अंति कालि = आखिरी वक्त। धुहै = धोखा दे जाता है। हथु न पाइ = (कोई और) हाथ नहीं डाल सकता, मदद नहीं कर सकता। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। सेती = साथ। संगु = साथ, मेल। मुहि = मुँह पर। जासनि = जाएंगे, जाते हैं। गवाइ = व्यर्थ गवा के। प्रभ = हे प्रभु! मनि = मन में। गाइ = गा के।40।
अर्थ: हे भाई! जहाँ तक हो सके, किसी लालची मनुष्य का ऐतबार नहीं करना चाहिए, (लालची मनुष्य) आखिर उस जगह पर धोखा दे जाता है, जहाँ कोई मदद ना कर सके। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य के साथ (जो मनुष्य) साथ बनाए रखता है, (वह भी) (अपने) मुँह पर (बदनामी की) कालिख लगाता है (बदनामी का) दाग़ लगाता है। उन लालची मनुष्यों के मुँह (बदनामी की कालिख से) काले हुए रहते हैं, वे मनुष्य-जनम व्यर्थ गवा के (जगत से) जाते हैं।
हे प्रभु! (अपनी) साधु-संगत में मिलाए रख (साधु-संगत में रहने से ही) हरि-नाम-धन मन में बस सकता है, और, हे नानक! परमात्मा के गुण गा-गा के जनम-मरण के विकारों की मैल (मन में से) उतर जाती है।40।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धुरि हरि प्रभि करतै लिखिआ सु मेटणा न जाइ ॥ जीउ पिंडु सभु तिस दा प्रतिपालि करे हरि राइ ॥ चुगल निंदक भुखे रुलि मुए एना हथु न किथाऊ पाइ ॥ बाहरि पाखंड सभ करम करहि मनि हिरदै कपटु कमाइ ॥ खेति सरीरि जो बीजीऐ सो अंति खलोआ आइ ॥ नानक की प्रभ बेनती हरि भावै बखसि मिलाइ ॥४१॥

मूलम्

धुरि हरि प्रभि करतै लिखिआ सु मेटणा न जाइ ॥ जीउ पिंडु सभु तिस दा प्रतिपालि करे हरि राइ ॥ चुगल निंदक भुखे रुलि मुए एना हथु न किथाऊ पाइ ॥ बाहरि पाखंड सभ करम करहि मनि हिरदै कपटु कमाइ ॥ खेति सरीरि जो बीजीऐ सो अंति खलोआ आइ ॥ नानक की प्रभ बेनती हरि भावै बखसि मिलाइ ॥४१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धुरि = धुर दरगाह से। करतै = कर्तार ने। सु = वह (लेख)। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। हरि राइ = प्रभु पातशाह। भुखे = तृष्णा के अधीन। किथाऊ = कहीं भी। न पाइ = नहीं पड़ता। पाखंड करम = दिखावे के कर्म। करहि = करते हैं। मनि = मन में। हिरदै = दिल में। खेति = खेत में। सरीरि = शरीर में। कपटु = खोट, धोखा। कमाइ = कमा के। बीजीऐ = बीजा जाता है। अंति = आखिर। खलोआ आइ = प्रकट हो जाता है। प्रभ = हे प्रभु! हरि = हे हरि! भावै = (जैसे तुझे) अच्छा लगे। बखसि = मेहर कर के।41।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस का’ में से संबंधक ‘का’ के कारण शब्द ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! (जीव के पिछले किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार) कर्तार हरि प्रभु ने धुर-दरगाह से (जीव के माथे पर) जो लेख लिख दिए, वह लेख (किसी जीव से अपने उद्यम से) मिटाया नहीं जा सकता (क्योंकि हरेक जीव की यह) जिंद यह शरीर उस (परमात्मा) का दिया हुआ है जो प्रभु-पातशाह (सबकी) पालना भी करता है (उस दातार प्रभु को भुला के) चुगली-निंदा करने वाले मनुष्य माया की तृष्णा में फसे रह के दुखी रह के आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं (इस बुरी दशा में से निकलने के लिए) कहीं भी उनका हाथ नहीं पड़ सकता (उसकी कोई पेश नहीं चल सकती)। (ऐसे मनुष्य अपने मन में) दिल में खोट कमा के बाहर (लोगों को दिखाने के लिए) दिखावे के धार्मिक कर्म करते रहते हैं। (ये कुदरती नियम है कि) इस शरीर-खेत में जो भी (अच्छा-बुरा) करम बीजा जाता है, वह जरूर प्रकट हो जाता है।
हे प्रभु! हे हरि! (तेरे दास) नानक की (तेरे दर पर) विनती है कि जैसे हो सके मेहर कर के (जीवों को अपने चरणों में) जोड़।41।

[[1418]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन आवण जाणु न सुझई ना सुझै दरबारु ॥ माइआ मोहि पलेटिआ अंतरि अगिआनु गुबारु ॥ तब नरु सुता जागिआ सिरि डंडु लगा बहु भारु ॥ गुरमुखां करां उपरि हरि चेतिआ से पाइनि मोख दुआरु ॥ नानक आपि ओहि उधरे सभ कुट्मब तरे परवार ॥४२॥

मूलम्

मन आवण जाणु न सुझई ना सुझै दरबारु ॥ माइआ मोहि पलेटिआ अंतरि अगिआनु गुबारु ॥ तब नरु सुता जागिआ सिरि डंडु लगा बहु भारु ॥ गुरमुखां करां उपरि हरि चेतिआ से पाइनि मोख दुआरु ॥ नानक आपि ओहि उधरे सभ कुट्मब तरे परवार ॥४२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! आवण जाणु = जनम मरण (के चक्कर)। न सुझई = नहीं सूझता, ख्याल नहीं आता। दरबारु = परमात्मा की हजूरी। मोहि = मोहमें। पलेटिआ = लिबड़ा हुआ, फसा हुआ। अंतरि = (तेरे) अंदर। अगिआनु = आत्मिक जीवन के प्रति बेसमझी। गुबारु = (आत्मिक जीवन के प्रति) घोर अंधकार। सिरि = सिर पर। डंडु = डंडा। भारु = भारा, करारा। कर = हाथ। करां उपरि = हाथों पर, हाथों की उंगलियों पर, हर वक्त। से = वे (बहुवचन)। पाइनि = तलाश लेते हैं। मोख = मोक्ष, विकारों से खलासी। मोख दुआरु = विकारों से मुक्ति पाने का दरवाजा। ओहि = वे। उधरे = बच गए।42।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे मन! (तुझे) जनम मरण का चक्कर नहीं सूझता (तुझे ये ख्याल ही नहीं आता कि जनम-मरण के चक्कर में पड़ना पड़ेगा), (तुझे) प्रभु की हजूरी याद नहीं आती। तु (सदा) माया के मोह में फसा रहता है, तेरे अंदर आत्मिक जीवन के प्रति बेसमझी है, आत्मिक जीवन के प्रति घोर अंधकार है।
हे भाई! (माया के मोह की) नींद में पड़ा हुआ मनुष्य तब (ही) होश करता है जब (इसके) सिर पर (धर्मराज का) तगड़ा करारा डंडा पड़ता है (मौत आ दबोचती है)।
हे नानक! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य हर वक्त परमात्मा को स्मरण करते रहते हैं, उस माया के मोह से खलासी का रास्ता तलाश लेते हैं। वे खुद (भी विकारों में गलने से) बच जाते हैं, उनके परिवार-कुटंब के सारे साथी भी (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाते हैं।42।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सबदि मरै सो मुआ जापै ॥ गुर परसादी हरि रसि ध्रापै ॥ हरि दरगहि गुर सबदि सिञापै ॥ बिनु सबदै मुआ है सभु कोइ ॥ मनमुखु मुआ अपुना जनमु खोइ ॥ हरि नामु न चेतहि अंति दुखु रोइ ॥ नानक करता करे सु होइ ॥४३॥

मूलम्

सबदि मरै सो मुआ जापै ॥ गुर परसादी हरि रसि ध्रापै ॥ हरि दरगहि गुर सबदि सिञापै ॥ बिनु सबदै मुआ है सभु कोइ ॥ मनमुखु मुआ अपुना जनमु खोइ ॥ हरि नामु न चेतहि अंति दुखु रोइ ॥ नानक करता करे सु होइ ॥४३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबदि = गुरु शब्द से। मरै = (विकारों से) मरता है। सो मुआ = विकारों के प्रति मरा है वह मनुष्य। जापै = प्रसिद्ध हो जाता है, शोभा कमाता है। परसादी = कृपा से। रसि = रस से। ध्रापै = तृप्त हो जाता है, अघा जाता है। सिञापै = पहचाना जाता है, सत्कार प्राप्त करता है। मुआ = आत्मिक मौत मरा हुआ। सभु कोइ = हरेक जीव। मनमुखु = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। खोइ = गवा के। न चेतहि = नहीं चेतते (बहुवचन)। अंति = आखिर तक, जीवन के अंत तक। रोइ = रोवहि, रोते रहते हैं।43।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘रोइ’ एक वचन से बहुवचन आम तौर पर ‘रोवहि’ है, ‘रोहि’ नहीं।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! गुरु के शब्द से (मनुष्य विकारों के प्रति) मर जाता है (उस पर विकार अपना असर नहीं कर पाते) (और विकारों के प्रति) मरा हुआ मनुष्य (जगत में) शोभा कमाता है। गुरु की किरपा से हरि-नाम-रस से (मनुष्य माया की तृष्णा के प्रति) तृप्त रहता है। गुरु के शब्द की इनायत से (मनुष्य) परमात्मा की हजूरी में (भी) सम्मान प्राप्त करता है।
हे भाई! गुरु के शब्द के बिना हरेक जीव आत्मिक मौत मरा रहता है। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य अपना मानव-जीवन व्यर्थ गवा के आत्मिक मौत सहेड़ी रखता है। जो मनुष्य परमात्मा का नाम नहीं स्मरण करते, वे (जिंदगी के) आखिर तक (अपना कोई ना कोई) दुख (ही) रोते रहते हैं।
(पर, जीवों के भी क्या वश?) हे नानक! (जीवों के पिछले किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार जीव के लिए) परमात्मा जो कुछ करता है, वही होता है।43।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि बुढे कदे नाही जिन्हा अंतरि सुरति गिआनु ॥ सदा सदा हरि गुण रवहि अंतरि सहज धिआनु ॥ ओइ सदा अनंदि बिबेक रहहि दुखि सुखि एक समानि ॥ तिना नदरी इको आइआ सभु आतम रामु पछानु ॥४४॥

मूलम्

गुरमुखि बुढे कदे नाही जिन्हा अंतरि सुरति गिआनु ॥ सदा सदा हरि गुण रवहि अंतरि सहज धिआनु ॥ ओइ सदा अनंदि बिबेक रहहि दुखि सुखि एक समानि ॥ तिना नदरी इको आइआ सभु आतम रामु पछानु ॥४४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। बुढे = (आत्मिक जीवन के प्रति) कमजोर। सुरति = प्रभु चरणों की लगन। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। रवहि = याद करते हैं। सहज = आत्मिक अडोलता। सहज धिआनु = आत्मिक अडोलता की समाधि। ओइ = वे। अनंदि = आनंद में। बिबेक = (अच्छे बुरे काम की) परख। रहहि = रहते हैं (बहुवचन)। दुखि = दुख में। सुखि = सुख में। एक समानि = एक जैसा, एक जैसी आत्मिक हालत में, अडोल चित्त। इको = एक (परमात्मा) ही। सभु = हर जगह। आतमरामु = सर्व व्यापक प्रभु। पछानु = पछाणू, मित्र, साथी।44।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले जिस मनुष्यों के अंदर प्रभु-चरणों की लगन टिकी रहती है, आत्मिक जीवन की सूझ टिकी रहती है, वह मनुष्य (आत्मिक जीवन में) कभी कमजोर नहीं होते। वे सदा ही परमात्मा केगुण याद करते रहते हैं, उनके अंदर आत्मिक अडोलता की समाधि बनी रहती है। वे मनुष्य (अच्छे बुरे काम की) परख के आनंद में सदा मगन रहते हैं, (हरेक) दुख में (हर एक) सुख में वे सदा अडोल चित्त रहते हैं। उनको हर जगह सिर्फ सर्व-व्यापक परमात्मा साथी ही बसता दिखता है।44।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुखु बालकु बिरधि समानि है जिन्हा अंतरि हरि सुरति नाही ॥ विचि हउमै करम कमावदे सभ धरम राइ कै जांही ॥ गुरमुखि हछे निरमले गुर कै सबदि सुभाइ ॥ ओना मैलु पतंगु न लगई जि चलनि सतिगुर भाइ ॥ मनमुख जूठि न उतरै जे सउ धोवण पाइ ॥ नानक गुरमुखि मेलिअनु गुर कै अंकि समाइ ॥४५॥

मूलम्

मनमुखु बालकु बिरधि समानि है जिन्हा अंतरि हरि सुरति नाही ॥ विचि हउमै करम कमावदे सभ धरम राइ कै जांही ॥ गुरमुखि हछे निरमले गुर कै सबदि सुभाइ ॥ ओना मैलु पतंगु न लगई जि चलनि सतिगुर भाइ ॥ मनमुख जूठि न उतरै जे सउ धोवण पाइ ॥ नानक गुरमुखि मेलिअनु गुर कै अंकि समाइ ॥४५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। बालकु = (भाव, नरोए शारीरिक अंगों वाले) जवान। बिरधि समानि = बुढे मनुष्य जैसा कमजोर (आत्मिक जीवन में कमजोर)। सुरति = लगन। धरमराइ कै = धर्मराज के वश में। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले। कै सबदि = के शब्द से। सुभाइ = (प्रभु के) प्यार में। पतंगु मैलु = रत्ती भर भी (विकारों की) मैल। जि = जो। चलनि = चलते हैं। भाइ = प्रेम में। मनमुखि जूठि = अपनेमन के पीछे चलने वाले मनुष्य की (विकारों की) झूठ। सउ = सौ बार। धोवण पाइ = धोने का प्रयत्न करे। मेलिअनु = मिला लिए हैं उस (परमात्मा) ने। कै अंकि = की गोद में। समाइ = लीन कर के।45।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य नरोए शारीरिक अंगों (जवान) वाला होता हुआ भी (आत्मिक जीवन में) बुढ़े मनुष्य जैसा कमजोर होता है। हे भाई! जिस मनुष्यों के अंदर परमात्मा की लगन नहीं होती, वह मनुष्य (धार्मिक) कर्म (भी) अहंकार में (रह के ही) करते हैं, वे सारे धर्मराज के वश पड़ते हैं।
हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य गुरु के शब्द द्वारा (प्रभु के) प्यार में टिक के सच्चे पवित्र जीवन वाले होते हैं। जो मनुष्य गुरु के अनुसार रह के जीवन चाल चलते हैं, उनको (विकारों की) रत्ती भर भी मैल नहीं लगती। पर, अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य की (विकारों की) झूठ (उसके मन से) कभी नहीं उतरती, चाहे वह सौ बार (उसको) धोने का प्रयत्न करता रहे।
हे नानक! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों को गुरु की गोद में लीन कर के परमात्मा ने (स्वयं अपने चरणों में) मिलाया होता है।45।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बुरा करे सु केहा सिझै ॥ आपणै रोहि आपे ही दझै ॥ मनमुखि कमला रगड़ै लुझै ॥ गुरमुखि होइ तिसु सभ किछु सुझै ॥ नानक गुरमुखि मन सिउ लुझै ॥४६॥

मूलम्

बुरा करे सु केहा सिझै ॥ आपणै रोहि आपे ही दझै ॥ मनमुखि कमला रगड़ै लुझै ॥ गुरमुखि होइ तिसु सभ किछु सुझै ॥ नानक गुरमुखि मन सिउ लुझै ॥४६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बुरा = बुराई। सु = वह मनुष्य। केहा = कैसा? सिझै = कामयाब होता है। रोहि = क्रोध में। दझै = जलता रहता है। मनमुखि = अपने मन का मुरीद मनुष्य। कमला = झल्ला। रगड़ै = दुनिया के झगड़े झमेले में। लुझै = (औरों के साथ) उलझता रहता है। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। सभ किछु = (जीवन का) हरेक भेद। सुझै = समझ में आ जाता है। सिउ = साथ। लुझै = मुकाबला करता है।46।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य (माया आदि की खातिर किसी और के साथ) कोई बुराई कमाता है, वह जिंदगी में कामयाब नहीं समझा जा सकता। (उलझने के कारण) वह मनुष्य अपने ही गुस्से (की आग) में (माया की खातिर) पागल हुआ फिरता है, (दुनिया के) झगड़े-झमेले में (औरों के साथ) उलझता रहता है। (पर) गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (आत्मिक जीवन के) हरेक भेद को समझता है। हे नानक! गुरु की शरण पड़े रहने वाला मनुष्य (अपने) मन से मुकाबला करता रहता है।46।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिना सतिगुरु पुरखु न सेविओ सबदि न कीतो वीचारु ॥ ओइ माणस जूनि न आखीअनि पसू ढोर गावार ॥ ओना अंतरि गिआनु न धिआनु है हरि सउ प्रीति न पिआरु ॥ मनमुख मुए विकार महि मरि जमहि वारो वार ॥ जीवदिआ नो मिलै सु जीवदे हरि जगजीवन उर धारि ॥ नानक गुरमुखि सोहणे तितु सचै दरबारि ॥४७॥

मूलम्

जिना सतिगुरु पुरखु न सेविओ सबदि न कीतो वीचारु ॥ ओइ माणस जूनि न आखीअनि पसू ढोर गावार ॥ ओना अंतरि गिआनु न धिआनु है हरि सउ प्रीति न पिआरु ॥ मनमुख मुए विकार महि मरि जमहि वारो वार ॥ जीवदिआ नो मिलै सु जीवदे हरि जगजीवन उर धारि ॥ नानक गुरमुखि सोहणे तितु सचै दरबारि ॥४७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबदि = गुरु के शब्द में। न कीतो वीचारु = मन नहीं जोड़ा। ओइ = (शब्द ‘ओह’ का बहुवचन)। न आखीअनि = नहीं कहे जाते। ढोर = मरे प्शू। गावार = महां मूरख। अंतरि = अंदर। गिआन = आत्मिक जीवन की सूझ। धिआन = प्रभु चरणों की तवज्जो, ध्यान। सउ = से। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। मुए = आत्मिक मौत मरे हुए। वारो वार = बार बार। नो = को। जीवदिआ = आत्मिक जीवन जीने वालों को। मिलै = मिलता है (एकवचन)। जीवदे = आत्मिक जीवन वाले। उर धारि = हृदय में बसा के। तितु दरबारि = उस दरबार में। तितु सचै दरबारि = उस सदा स्थिर दरबार में।47।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने गुरु महापुरुख की शरण नहीं पकड़ी, जिन्होंने शब्द में अपना मन नहीं जोड़ा, वे लोग मानव जून में आए हुए नहीं कहे जा सकते, वे तो पशु हैं, वे तो मरे हुए जानवर हैं, वे महा-मूर्ख हैं। उन मनुष्यों के अंदर आत्मिक जीवन की सूझ नहीं है, उनके अंदर प्रभु-चरणों की लगन नहीं है, प्रभु से उनका प्रेम-प्यार नहीं है। अपने मन के पीछे चलने वाले वे मनुष्य विकारों में ही आत्मिक मौत सहेड़ी रखते हैं वे बार-बार जनम-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं।
हे भाई! जो जो मनुष्य आत्मिक जीवन वाले मनुष्यों को मिलते हैं वे सारे ही जगत के जीवन हरि को हृदय में बसा के आत्मिक जीवन वाले बन जाते हैं। हे नानक! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य उस सदा स्थिर (ईश्वरीय) दरबार में शोभा कमाते हैं।47।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि मंदरु हरि साजिआ हरि वसै जिसु नालि ॥ गुरमती हरि पाइआ माइआ मोह परजालि ॥ हरि मंदरि वसतु अनेक है नव निधि नामु समालि ॥ धनु भगवंती नानका जिना गुरमुखि लधा हरि भालि ॥ वडभागी गड़ मंदरु खोजिआ हरि हिरदै पाइआ नालि ॥४८॥

मूलम्

हरि मंदरु हरि साजिआ हरि वसै जिसु नालि ॥ गुरमती हरि पाइआ माइआ मोह परजालि ॥ हरि मंदरि वसतु अनेक है नव निधि नामु समालि ॥ धनु भगवंती नानका जिना गुरमुखि लधा हरि भालि ॥ वडभागी गड़ मंदरु खोजिआ हरि हिरदै पाइआ नालि ॥४८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साजिआ = बनाया है। जिसु नालि = क्योंकि इस (शरीर) के साथ, इस शरीर में। परजालि = अच्छी तरह जला के। मंदरि = मंदर में। नवनिधि नामु = परमात्मा का नाम जो, मानो, धरती के सारे ही नौ खजाने हैं। समालि = संभाल के रख। धनु = धन्य। भगवंती = भाग्यों वाले। गुरमुखि = गुरु से। लधा = मिल गया। गढ़ = किला। हिरदै = दिल में।
अर्थ: हे भाई! (मनुष्य का ये शरीर-) हरि-मन्दिर परमात्मा ने (खुद) बनाया है, इस शरीर-हरि मंदिर में परमात्मा स्वयं बसता है। (पर) गुरु की मति पर चल कर (अंदर से) माया का मोह अच्छी तरह जला के (ही, किसी भाग्यशाली के अंदर बसता) परमात्मा मिला है।
हे भाई! परमात्मा का नाम, मानो, नौ खजाने हैं (इसको हृदय में) संभाल के रख (अगर हरि-नाम संभाला जाए, तो) इस शरीर हरि मन्दिर में अनेक ही उत्तम कीमती गुण (मिल जाते) हैं।
हे नानक! साबाश है उन भाग्यशालियों को, जिन्होंने गुरु की शरण पड़ कर (इस शरीर हरिमन्दिर में बसता) परमात्मा खोज के पा लिया है। जिस बड़े भाग्यशालियों ने इस शरीर किले को शरीर मन्दिर को खोजा, दिल में ही अपने साथ बसता परमात्मा पा लिया।48।

[[1419]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुख दह दिसि फिरि रहे अति तिसना लोभ विकार ॥ माइआ मोहु न चुकई मरि जमहि वारो वार ॥ सतिगुरु सेवि सुखु पाइआ अति तिसना तजि विकार ॥ जनम मरन का दुखु गइआ जन नानक सबदु बीचारि ॥४९॥

मूलम्

मनमुख दह दिसि फिरि रहे अति तिसना लोभ विकार ॥ माइआ मोहु न चुकई मरि जमहि वारो वार ॥ सतिगुरु सेवि सुखु पाइआ अति तिसना तजि विकार ॥ जनम मरन का दुखु गइआ जन नानक सबदु बीचारि ॥४९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। दह = दस। दिसि = दिशा। दह दिसि = दसों तरफ (चार तरफें, चार कोने, ऊपर, नीचे)। न चुकई = खत्म नहीं होता। मरि जंमहि = मर के पैदा होते हैं। वारो वार = बार बार। सेवि = सेवा कर के, शरण पड़ कर। सुखु = आत्मिक आनंद। तजि = त्याग के। सबदु बीचारि = गुरु के शब्द को मन में बसा के।49।
अर्थ: हे भाई! माया की भारी तृष्णा, माया का लालच और अनेक विकारों में फंस के अपने मन के मुरीद मनुष्य दसों दिशाओं में भटकते फिरते हैं। (जब तक उनके अंदर से) माया का मोह खत्म नहीं होता, वह बार-बार पैदा होते रहते हैं।
हे दास नानक! गुरु की शरण पड़ कर (अपने अंदर से) तृष्णा आदि विकार त्याग के जिन्होंने आत्मिक आनंद हासिल कर लिया, गुरु के शब्द को मन में बसा के उनका जनम-मरण (के चक्कर) का दुख दूर हे गया।49।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि नामु धिआइ मन हरि दरगह पावहि मानु ॥ किलविख पाप सभि कटीअहि हउमै चुकै गुमानु ॥ गुरमुखि कमलु विगसिआ सभु आतम ब्रहमु पछानु ॥ हरि हरि किरपा धारि प्रभ जन नानक जपि हरि नामु ॥५०॥

मूलम्

हरि हरि नामु धिआइ मन हरि दरगह पावहि मानु ॥ किलविख पाप सभि कटीअहि हउमै चुकै गुमानु ॥ गुरमुखि कमलु विगसिआ सभु आतम ब्रहमु पछानु ॥ हरि हरि किरपा धारि प्रभ जन नानक जपि हरि नामु ॥५०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हेमन! धिआइ = स्मरण किया कर। पावहि = तू हासिल कर लेगा। मानु = आदर, इज्जत। किलविख = पाप। सभि = सारे। कटीअहि = काटे जाते हैं। चुकै = खत्म हो जाता है। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। कमलु = हृदय कमल फूल। विगसिआ = खिल उठता है। सभु = हर जगह। आतम ब्रहम = सर्व व्यापक हरि। पछानु = पहचान का, साथी। हरि हरि = हे हरि! प्रभ = हे प्रभु! जपि = मैं जपता रहूँ।50।
अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा का नाम स्मरण किया कर (नाम-जपने की इनायत से) तू परमात्मा की हजूरी में आदर प्राप्त करेगा। (स्मरण करने से मनुष्य के) सारे पाप ऐब काटे जाते हैं, (मन में से) अहम्-अहंकार दूर हो जाता है। गुरु की शरण पड़ कर (स्मरण करने से) हृदय-कमल-फूल खिल उठता है, हर जगह सर्व-व्यापक प्रभु ही साथी दिखता है।
हे दास नानक! (कह:) हे हरि! हे प्रभु (मेरे पर) मेहर कर, मैं (सदा तेरा) नाम जपता रहूँ।50।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनासरी धनवंती जाणीऐ भाई जां सतिगुर की कार कमाइ ॥ तनु मनु सउपे जीअ सउ भाई लए हुकमि फिराउ ॥ जह बैसावहि बैसह भाई जह भेजहि तह जाउ ॥ एवडु धनु होरु को नही भाई जेवडु सचा नाउ ॥ सदा सचे के गुण गावां भाई सदा सचे कै संगिरहाउ ॥

मूलम्

धनासरी धनवंती जाणीऐ भाई जां सतिगुर की कार कमाइ ॥ तनु मनु सउपे जीअ सउ भाई लए हुकमि फिराउ ॥ जह बैसावहि बैसह भाई जह भेजहि तह जाउ ॥ एवडु धनु होरु को नही भाई जेवडु सचा नाउ ॥ सदा सचे के गुण गावां भाई सदा सचे कै संगिरहाउ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धनासरी = एक रागनी। धनवंती = धन वाली, भाग्यशाली। जाणीऐ = समझी जानी चाहिए। भाई = हे भाई! जां = जब। कमाइ = कमाती है। सउपे = सौंपती है, भेटा रती है, हवाले करती है। जीअ सउ = जिंद समेत। हुकमि = हुक्म में। लए फिराउ = फेरा लेती है, चलती फिरती है, जीवन चाल चलती है। जह = जहाँ। बैसावहि = (प्रभु जी) बैठाते हैं। बैसह = हम जीव बैठते हैं। भेजहि = (प्रभु जी) भेजते हैं। तह = वहाँ। जाउ = मैं जाता हूँ।
एवडु = इतना बड़ा, इतना कीमती। को = कोई। जेवडु = जितना कीमती। सचा नाउ = सदा हरि नाम धन। गावां = मैंगाता हूँ। भाई = हे भाई! कै संगि = के साथ। सचे कै संगि = सदा स्थिर प्रभूके साथ। रहाउ = रहूँ, मैं रहता हूँ।
अर्थ: हे भाई! जब कोई जीव-स्त्री गुरु के (बताए हुए) कार्य करने लग जाती है, जब वह अपना तन अपना मन अपनी जिंद समेत (अपने गुरु के) हवाले करती है, जब वह (अपने गुरु के) हुक्म में जीवन-चाल चलने लग जाती है, तब उस जीव-स्त्री को नाम-धन वाली भाग्यशाली समझना चाहिए। (हे भाई! जीव प्रभु के हुक्म से आकी हो ही नहीं सकते) जहाँ प्रभु जी हम जीवों को बैठाते हैं, वहीं हम बैठते हैं, जहाँ प्रभु जी मुझे भेजते हैं, वहीं मैं जाता हूँ।
हे भाई! सदा कायम रहने वाले परमात्मा का नाम (-धन) जितना कीमती है, इतना कीमती और कोईधन नहीं है। हे भाई! मैं तो सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु के गुण ही सदा गाता हूँ, सदा-स्थिर प्रभु के चरणों में ही सदा टिका रहता हूँ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पैनणु गुण चंगिआईआ भाई आपणी पति के साद आपे खाइ ॥ तिस का किआ सालाहीऐ भाई दरसन कउ बलि जाइ ॥ सतिगुर विचि वडीआ वडिआईआ भाई करमि मिलै तां पाइ ॥ इकि हुकमु मंनि न जाणनी भाई दूजै भाइ फिराइ ॥ संगति ढोई ना मिलै भाई बैसणि मिलै न थाउ ॥ नानक हुकमु तिना मनाइसी भाई जिना धुरे कमाइआ नाउ ॥ तिन्ह विटहु हउ वारिआ भाई तिन कउ सद बलिहारै जाउ ॥५१॥

मूलम्

पैनणु गुण चंगिआईआ भाई आपणी पति के साद आपे खाइ ॥ तिस का किआ सालाहीऐ भाई दरसन कउ बलि जाइ ॥ सतिगुर विचि वडीआ वडिआईआ भाई करमि मिलै तां पाइ ॥ इकि हुकमु मंनि न जाणनी भाई दूजै भाइ फिराइ ॥ संगति ढोई ना मिलै भाई बैसणि मिलै न थाउ ॥ नानक हुकमु तिना मनाइसी भाई जिना धुरे कमाइआ नाउ ॥ तिन्ह विटहु हउ वारिआ भाई तिन कउ सद बलिहारै जाउ ॥५१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पैनणु = पोशाक, सिरोपा, (लोक परलोक में) इज्जत। पति = इज्जत। पति के साद = (मिली) इज्जत के आनंद। आपे = आप ही। खाइ = खाता है, भोगता है। तिस का उस (मनुष्य) का। किआ सालाहीऐ = क्या महिमा की जाए? महिमा हो ही नहीं सकती। बलि जाइ = सदके जाता रहता है। दरसन कउ = (परमात्मा के) दर्शन से।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस का’ में से संबंधक ‘का’ के कारण शब्द ‘तिसु’ का ‘ु’ हट गया है।

दर्पण-भाषार्थ

वडिआईआ = गुण। भाई = हे भाई! करमि = मेहर से, प्रभु की बख्शिश से। मिलै = (गुरु) मिल जाता है। तां = तब। पाइ = (जब मनुष्य को गुरु मिल जाता है तब) हासिल रता है। इकि = कई। मंनि न जाणनी = मानना नहीं जानते। दूजै भाइ = माया के प्यार में। फिराइ = भटक भटक के। ढोई = आसरा, सहारा। बैसणि = बैठने के लिए।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

नानक = हे नानक! धुरे = धुर दरगाह से लिए अनुसार। कमाइआ नाउ = नाम मिशन की कमाई की। विटहु = से। हउ = मैं। वारिआ = कुरबान। सद = सदा। जाउ = मैं जाता हूँ।51।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य के हृदय में ईश्वरीय) गुणों (ईश्वरीय) अच्छाईयों का निवास हो जाता है (वे मनुष्य लोक-परलोक में) आदर-सत्कार हासिल करते हैं। (वे मनुष्य) अपनी (इस मिली) इज्जत का आनंद खुद ही भोगते रहते हैं (वे आनंद बयान नहीं किए जा सकते)। हे भाई! उस मनुष्य की महिमा (पूरे तौर पर) नहीं की जा सकती, वह मनुष्य परमात्मा के दर्शन से (हमेशा) सदका होता रहता है।
हे भाई! गुरु में बड़े गुण हैं, (जब किसी मनुष्य को परमात्मा की) मेहर से (गुरु) मिल जाता है, तब वह (ये गुण) हासिल कर लेता है। पर कई लोग (ऐसे हैं जो) माया के मोह में भटक-भटक के (गुरु का) हुक्म मानना नहीं जानते। हे भाई! (ऐसे मनुष्यों को) साधु-संगत में आसरा नहीं मिलता, साधु-संगतमें बैठने के लिए जगह नहीं मिलती (क्योंकि वह तो संगति की ओर जाता ही नहीं)।
हे नानक! (कह: हे भाई!) धुर दरगाह से (पिछले किए कर्मों के संस्कारोंके अनुसार) जिस मनुष्यों ने हरि-नाम जपने की कमाई करनी शुरू की, उन मनुष्यों से ही (परमात्मा अपनी) रज़ा (मीठी कर के) मनाता है। हे भाई! मैं ऐसे मनुष्यों पर से कुर्बान जाता हूँ, सदके जाता हूँ।51।

विश्वास-प्रस्तुतिः

से दाड़ीआं सचीआ जि गुर चरनी लगंन्हि ॥ अनदिनु सेवनि गुरु आपणा अनदिनु अनदि रहंन्हि ॥ नानक से मुह सोहणे सचै दरि दिसंन्हि ॥५२॥

मूलम्

से दाड़ीआं सचीआ जि गुर चरनी लगंन्हि ॥ अनदिनु सेवनि गुरु आपणा अनदिनु अनदि रहंन्हि ॥ नानक से मुह सोहणे सचै दरि दिसंन्हि ॥५२॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: किसी मनुष्य की दाढ़ी इस बात का लक्षण माना गया है कि वह अब ऐतबार योग्य हो गया है, आदर–सत्कार का हकदार हो गया है।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: से = वे (बहुवचन)। सचीआ = सच्ची, सचमुच आदर सत्कार की हकदार। जि = जो मनुष्य। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। सेवनि = शरण पड़े रहते हैं। अनदि = आनंद में। रहंन्हि = टिके रहते हैं। सचै दरि = सदा स्थिर हरि के दर पर।52।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के चरणों में टिके रहते हैं, जो मनुष्य हर वक्त अपने गुरु की शरण पड़े रहते हैं, और हर वक्त आत्मिक आनंद में लीन रहते हैं, उन मनुष्यों की दाढ़ियां सचमुच आदर-सत्कार की हकदार हो जाती हैं। हे नानक! (उन ही मनुष्यों के) ये मुँह सदा-स्थिर प्रभु के दर पर सुंदर दिखाई देते हैं।52।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुख सचे सचु दाड़ीआ सचु बोलहि सचु कमाहि ॥ सचा सबदु मनि वसिआ सतिगुर मांहि समांहि ॥ सची रासी सचु धनु उतम पदवी पांहि ॥ सचु सुणहि सचु मंनि लैनि सची कार कमाहि ॥ सची दरगह बैसणा सचे माहि समाहि ॥ नानक विणु सतिगुर सचु न पाईऐ मनमुख भूले जांहि ॥५३॥

मूलम्

मुख सचे सचु दाड़ीआ सचु बोलहि सचु कमाहि ॥ सचा सबदु मनि वसिआ सतिगुर मांहि समांहि ॥ सची रासी सचु धनु उतम पदवी पांहि ॥ सचु सुणहि सचु मंनि लैनि सची कार कमाहि ॥ सची दरगह बैसणा सचे माहि समाहि ॥ नानक विणु सतिगुर सचु न पाईऐ मनमुख भूले जांहि ॥५३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुख = मुँह (बहुवचन)। सचे = आदर-सत्कार के हकदार। सचु = सदा स्थिर हरि नाम। सचु कमाहि = सदा स्थिर हरि नाम जपने की कमाई करते हैं। मनि = मन में। मांहि = में। समांहि = लीन हुए रहते हैं। रासी = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत। पदवी = आत्मिक दर्जा। पांहि = पाते हैं, हासिल कर लेते हैं। मंनि लैनि = मान लेतेहैं। बैसणा = आदर की जगह। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। भूले जांहि = गलत राह पर पड़े रहते हैं।53।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सदा-स्थिर हरि-नाम स्मरण करते हैं, सदा-स्थिर हरि-नाम जपने की कमाई करते रहते हैं, जिनके मन में सदा-स्थिर प्रभु की महिमा का शब्द हर वक्त टिका रहता है, जो हर वक्त गुरु में लीन रहते हैं, उनके मुँह सचमुच सत्कार के हकदार हो जाते हैं, उनकी दाढ़ियां सम्मान की हकदार हो जाती हैं। उन मनुष्यों के पास सदा-स्थिर हरि-नाम की संपत्ति धन (एकत्र हो जाता) है, वह मनुष्य (लोक-परलोक में) उच्च आत्मिक दर्जा हासिल कर लेते हैं।
हे भाई! जो मनुष्य (हर वक्त) सदा-स्थिर हरि-नाम सुनते हैं, सदा-स्थिर हरि-नाम को सिदक-श्रद्धा से अपने अंदर बसा लेते हैं। सदा-स्थिर हरि-नाम जपने की कार करते हैं उन मनुष्यों को सदा-स्थिर प्रभु की हजूरी में मान-सम्मान की जगह मिलती है, वह सदा-स्थिर प्रभु (की याद) में हर वक्त लीन रहते हैं।
पर, हे नानक! गुरु की शरण के बिना सदा-स्थिर हरि-नाम नहीं मिलता। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (अवश्य जिन्दगी के) ग़लत रास्ते पर पड़े रहते हैं।53।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाबीहा प्रिउ प्रिउ करे जलनिधि प्रेम पिआरि ॥ गुर मिले सीतल जलु पाइआ सभि दूख निवारणहारु ॥ तिस चुकै सहजु ऊपजै चुकै कूक पुकार ॥ नानक गुरमुखि सांति होइ नामु रखहु उरि धारि ॥५४॥

मूलम्

बाबीहा प्रिउ प्रिउ करे जलनिधि प्रेम पिआरि ॥ गुर मिले सीतल जलु पाइआ सभि दूख निवारणहारु ॥ तिस चुकै सहजु ऊपजै चुकै कूक पुकार ॥ नानक गुरमुखि सांति होइ नामु रखहु उरि धारि ॥५४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बाबीहा = पपीहा। प्रिउ प्रिउ करे = ‘प्रिउ प्रिउ’ पुकारता है। जल निधि = पानी का खजाना, बादल, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल का खजाना, परमात्मा। पिआरि = प्यार में। सीतल जलु = आत्मिक ठंड देने वाला नाम जल। सभि = सारे। निवारणहारु = दूर करने की समर्थता वाला। तिस = तिखा, प्यास, तृष्णा। चुकै = खत्म हो जाती है। सहजु = आत्मिक अडोलता। कूक पुकार = (माया की खातिर) दौड़ भाग। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने पर। उरि = हृदय में।54।
अर्थ: हे भाई! (जैसे) पपीहा बादल के प्रेम में (वर्षा की बूँद की खातिर) ‘प्रिउ प्रिउ’ पुकारता रहता है (जब वह बूँद उसको मिलती है, तो वह प्यास खत्म हो जाती है, उसकी ‘कूक पुकार’ खत्म हो जाती है। वैसे ही गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य परमात्मा के प्रेम-प्यार में परमात्मा का नाम उचारता रहता है), गुरु को मिल के वह आत्मिक ठंड देने वाला नाम-जल प्राप्त कर लेता है, (वह नाम-जल) सारे दुख दूर करने की समर्थता वाला है। (इस नाम-जल की इनायत से, उसकी) तृष्णा खत्म हो जाती है (उसके अंदर) आत्मिक अडोलता पैदा हो जाती है, (माया की खातिर उसकी) घबराहट खत्म हो जाती है।
हे नानक! गुरु की शरण पड़ने से (नाम की इनायत से) आत्मिक ठंड मिल जाती है। इसलिए, हे भाई! परमात्मा का नाम हृदय में बसाए रखो।54।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

बाबीहा तूं सचु चउ सचे सउ लिव लाइ ॥ बोलिआ तेरा थाइ पवै गुरमुखि होइ अलाइ ॥ सबदु चीनि तिख उतरै मंनि लै रजाइ ॥ चारे कुंडा झोकि वरसदा बूंद पवै सहजि सुभाइ ॥ जल ही ते सभ ऊपजै बिनु जल पिआस न जाइ ॥ नानक हरि जलु जिनि पीआ तिसु भूख न लागै आइ ॥५५॥

मूलम्

बाबीहा तूं सचु चउ सचे सउ लिव लाइ ॥ बोलिआ तेरा थाइ पवै गुरमुखि होइ अलाइ ॥ सबदु चीनि तिख उतरै मंनि लै रजाइ ॥ चारे कुंडा झोकि वरसदा बूंद पवै सहजि सुभाइ ॥ जल ही ते सभ ऊपजै बिनु जल पिआस न जाइ ॥ नानक हरि जलु जिनि पीआ तिसु भूख न लागै आइ ॥५५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बाबीहा = हे पपीहे! (हे आत्मिक बूँद देने वाली नाम बूँद के रसिए!)। सचु = सदा कायम रहने वाला हरि नाम। चउ = उचार, उचारा कर। सचे कउ = सदा स्थिर हरि नाम से। लिव लाइ = तवज्जो जोड़ी रख। थाइ = जगह में। थाइ पवै = स्वीकार होगा। अलाइ = अलापा कर। गुरमुखि सोइ = गुरु की शरण पड़ कर। चीनि = पहचान के, सांझ डाल के। तिख = प्यास (माया की तृष्णा)। रजाइ = रजा, भाणा, हुक्म। चारे कुंडां = हर तरफ। झोकि = झुक के। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। ते = से। सभ = सारी लुकाई। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। तिसु = उस (मनुष्य) को।55।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘थाइ’ है शब्द ‘थाउ’ का अधिकरण कारक एकवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे पपीहे! (हे आत्मिक जीवन देने वाली नाम-बूँद के रसिए!) तू सदा कायम रहने वाले परमात्मा का नाम स्मरण किया कर, सदा-स्थिर प्रभु से तवज्जो जोड़ के रखा कर। गुरु की शरण पड़ कर (हरि-नाम) उचारा कर, (तब ही) तेरा स्मरण करने का उद्यम (प्रभु की हजूरी में) स्वीकार पड़ सकता है। हे भाई! गुरु के शब्द के साथ सांझ डाल के (परमात्मा के) हुक्म को भला समझ के माना कर (इस तरह माया की) तृष्णा दूर हो जाती है। (हे पपीहे! यह नाम-जल) सारी सृष्टि में बरसता रहता है (पर, इसकी) बूँद (उस मनुष्य के मुँह में ही) पड़ती है (जो) आत्मिक अडोलता में है (जो परमात्मा के) प्रेम में (लीन) है।
हे भाई! (प्रभु से ही, हरि नाम) जल से ही सारी सृष्टि पैदा होती है (तभी हरि-नाम) जल के बिना (किसी भी जीव की माया की) प्यास दूर नहीं होती। हे नानक! जिस (मनुष्य) ने हरि-नाम-जल पी लिया, उसको (कभी माया की) भूख नहीं व्यापती।55।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाबीहा तूं सहजि बोलि सचै सबदि सुभाइ ॥ सभु किछु तेरै नालि है सतिगुरि दीआ दिखाइ ॥ आपु पछाणहि प्रीतमु मिलै वुठा छहबर लाइ ॥ झिमि झिमि अम्रितु वरसदा तिसना भुख सभ जाइ ॥ कूक पुकार न होवई जोती जोति मिलाइ ॥ नानक सुखि सवन्हि सोहागणी सचै नामि समाइ ॥५६॥

मूलम्

बाबीहा तूं सहजि बोलि सचै सबदि सुभाइ ॥ सभु किछु तेरै नालि है सतिगुरि दीआ दिखाइ ॥ आपु पछाणहि प्रीतमु मिलै वुठा छहबर लाइ ॥ झिमि झिमि अम्रितु वरसदा तिसना भुख सभ जाइ ॥ कूक पुकार न होवई जोती जोति मिलाइ ॥ नानक सुखि सवन्हि सोहागणी सचै नामि समाइ ॥५६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बाबीहा = हे पपीहे! (हे आत्मिक जीवन देने वाली नाम बूँद के रसिए!)। सहजि = आत्मिक अडोलता में (टिका के)। बोलि = (हरि नाम) जपा कर। सचै सबदि = सदा स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द में (जुड़ के)। सुभाइ = (प्रभु के) प्यार में (टिक के)। सभ किछु = (हरि नाम बूँद से पैदा होने वाला) हरेक आनंद। सतिगुरि = गुरु ने। आपु = अपना आप, अपना आत्मिक जीवन। पछाणहि = (जो जीव) पड़तालते रहते हैं। वुठा = आ बसता है। छहबर लाइ = झड़ी लगा के। झिमि झिमि = धीरे-धीरे, अडोल। कूक पुकार = माया के मोह का शोर। न होवई = नहीं होता। सुखि = आत्मिक आनंद में। सवन्हि = लीन रहती हैं। सोहागणी = भाग्यों वाली जीव स्त्रीयां। समाइ = टिक के। सचै नामि = सदा स्थिर हरि नाम में।56।
अर्थ: हे पपीहे! (हे आत्मिक जीवन देने वाली नाम बूँद के रसिए!) आत्मिक अडोलता में (टिक के) सदा-स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द में (जुड़ के), (प्रभु के) प्यार में (टिक के), तू (हरि का नाम) जपा कर। हे पपीहे! (हरि-नाम-बूँद से पैदा होने वाला) हरेक आनंद मौजूद है (पर ये आनंद उसी जीव को प्राप्त होता है, जिसको) गुरु ने (ये) दिखा दिया है।
हे भाई! जो मनुष्य अपने आत्मिक जीवन को पड़तालते रहते हैं, उनको प्रीतम-प्रभु मिल जाता है, उनके अंदर (महिमा के बादल) झड़ी लगा के आ बसता है। उनके अंदर धीरे-धीरे अडोल आत्मिक जीवन वाले नाम-जल की बरखा होती रहती है (उनके अंदर से) माया की सारी तृष्णा माया की सारी भूख दूर हो जाती है। माया के मोह का सारा शोर उनके अंदर से समाप्त हो जाता है, उनकी जिंद प्रभु की ज्योति में मिली रहती है।
हे नानक! सदा-स्थिर हरि-नाम में लीन हो के भाग्यशाली जीव-स्त्रीयां आत्मिक आनंद में टिकी रहती हैं।56।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धुरहु खसमि भेजिआ सचै हुकमि पठाइ ॥ इंदु वरसै दइआ करि गूड़्ही छहबर लाइ ॥ बाबीहे तनि मनि सुखु होइ जां ततु बूंद मुहि पाइ ॥ अनु धनु बहुता उपजै धरती सोभा पाइ ॥ अनदिनु लोकु भगति करे गुर कै सबदि समाइ ॥ आपे सचा बखसि लए करि किरपा करै रजाइ ॥ हरि गुण गावहु कामणी सचै सबदि समाइ ॥ भै का सहजु सीगारु करिहु सचि रहहु लिव लाइ ॥ नानक नामो मनि वसै हरि दरगह लए छडाइ ॥५७॥

मूलम्

धुरहु खसमि भेजिआ सचै हुकमि पठाइ ॥ इंदु वरसै दइआ करि गूड़्ही छहबर लाइ ॥ बाबीहे तनि मनि सुखु होइ जां ततु बूंद मुहि पाइ ॥ अनु धनु बहुता उपजै धरती सोभा पाइ ॥ अनदिनु लोकु भगति करे गुर कै सबदि समाइ ॥ आपे सचा बखसि लए करि किरपा करै रजाइ ॥ हरि गुण गावहु कामणी सचै सबदि समाइ ॥ भै का सहजु सीगारु करिहु सचि रहहु लिव लाइ ॥ नानक नामो मनि वसै हरि दरगह लए छडाइ ॥५७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धुरहु = (अपनी) धुर दरगाह से। खसमि = मालिक प्रभु ने। सचै = सदा कायम रहने वाले। पठाइ = भेज के (प्रस्थाप्य)। इंदु = इन्द्र देवता, बादल। छहबर लाइ = झड़ी लगा के। तनि = तन में। मनि = मन में। जां = जब। ततु = (जीवन तत्व) हरि नाम। मुहि = मुँह में। अनु = अन्न। उपजै = पैदा होता है। पाइ = हासिल करती है। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। कै सबदि = के शब्द में। समाइ = लीन हो के। आपे = आप ही। सचा = सदा स्थिर प्रभु। करै रजाइ = अपना हुक्म चलाता है।, हुक्म लागू करता है। कामणी = हे जीव-स्त्री! भै का सहजु = (परमात्मा के) डर अदब से पैदा हुई आत्मिक अडोलता। सीगारु = श्रृंगार, गहना। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। लिव लाइ = तवज्जो/ध्यान जोड़ के। नामौ = नाम ही। मनि = मन में। लए छडाइ = लेखे से बचा लेता है।57।
अर्थ: हे भाई! सदा कायम रहने वाले मालिक प्रभु ने धुर दरगाह से (अपने) हुक्म अनुसार (ही) प्रेरित कर के (इन्द्र देवते को, गुरु को सदा) भेजा है। (उसके हुक्म में ही) मेहर कर के बादल (गुरु) खूब झड़ी लगा के बरखा करता है। जब पपीहा (आत्मिक जीवन देने वाली नाम-बूँद का रसिया) नाम-बूँद (अपने) मुँह में डालता है, तब उसके तन में आनंद पैदा होता है। (जैसे वर्षा से) धरती हरी-भरी हो जाती है, (उसमें) बहुत अन्न पैदा होता है (जैसे) गुरु के शब्द में लीन हो के जगत हर वक्त परमात्मा की भक्ति करने लग जाता है। सदा कायम रहने वाला प्रभु खुद ही (गुरु की शरण पड़ी हुई दुनिया पर) बख्शिश करता है, मेहर करके अपना हुक्म बरताता है, (हुक्म लागू करता है)।
हे जीव-स्त्री! सदा-स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी में लीन हो के परमात्मा के गुण गाया कर, (प्रभु के) डर-अदब से पैदा हुई आत्मिक अडोलता को (अपने जीवन का) श्रंृगार बनाए रख, सदा-स्थिर हरि में तवज्जो जोड़ के टिके रहा कर।
हे नानक! जिसके मन में हरि नाम ही टिका रहता है, परमात्मा उसको दरगाह में लेखे से बचा लेता है।57।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाबीहा सगली धरती जे फिरहि ऊडि चड़हि आकासि ॥ सतिगुरि मिलिऐ जलु पाईऐ चूकै भूख पिआस ॥ जीउ पिंडु सभु तिस का सभु किछु तिस कै पासि ॥ विणु बोलिआ सभु किछु जाणदा किसु आगै कीचै अरदासि ॥ नानक घटि घटि एको वरतदा सबदि करे परगास ॥५८॥

मूलम्

बाबीहा सगली धरती जे फिरहि ऊडि चड़हि आकासि ॥ सतिगुरि मिलिऐ जलु पाईऐ चूकै भूख पिआस ॥ जीउ पिंडु सभु तिस का सभु किछु तिस कै पासि ॥ विणु बोलिआ सभु किछु जाणदा किसु आगै कीचै अरदासि ॥ नानक घटि घटि एको वरतदा सबदि करे परगास ॥५८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बाबीहा = हे पपीहे! (हे आत्मिक जीवन देने वाली नाम बूँद के रसिए!)। फिरहि = तू फिरता रहे। ऊडि = उड़ के। आकासि = आकाश में। सतिगुरि मिलिऐ = अगर सतिगुरु मिल जाए, गुरु के मिलने से ही। पाईऐ = मिलता है। चूकै = समाप्त हो जाती है। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। विणु बोलिआ = बिना बोले। कीचै = की जाए। घटि घटि = हरेक शरीर में। एको = एक प्रभु ही। सबदि = गुरु के शब्द से। परगास = (आत्मिक जीवन की) रौशनी।58।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस का’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हटा दी गई है।
नोट: ‘तिस कै’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कै’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे आत्मिक जीवन देने वाली नाम बूँद के रसिए! (गुरु को छोड़ के) तू (तीर्थ-यात्रा आदि की खातिर) सारी धरती पर रटन करता फिरे, अगर तू (मानसिक शक्तियों की मदद से) उड़ के आकाश में भी जा पहुँचे (तो भी इस तरह माया की तृष्णा की भूख नहीं मिटती। सिर्फ नाम-जल से ही माया की) भूख-प्यास मिटती है (और वह नाम-) जल गुरु के मिलने पर (ही) प्राप्त होता है।
हे भाई! ये जिंद ये शरीर सब कुछ उस (परमात्मा) का ही दिया हुआ है, हरेक दाति उस के ही वश में है। (जीवों के) बोले बिना ही (हरेक जीव की) हरेक जरूरत वह जानता है, (उसको छोड़ के) और किस के आगे अरदास की जा सकती है? हे नानक! हरेक शरीर में वह परमात्मा स्वयं ही मौजूद है, (गुरु के) शब्द द्वारा (हरेक जीव के अंदर आत्मिक जीवन की) रौशनी (वह खुद ही) करता है।58।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक तिसै बसंतु है जि सतिगुरु सेवि समाइ ॥ हरि वुठा मनु तनु सभु परफड़ै सभु जगु हरीआवलु होइ ॥५९॥

मूलम्

नानक तिसै बसंतु है जि सतिगुरु सेवि समाइ ॥ हरि वुठा मनु तनु सभु परफड़ै सभु जगु हरीआवलु होइ ॥५९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिसै = उस (मनुष्य) को ही। बसंतु = खिलने की ऋतु। जि = जो (मनुष्य)। सेव = शरण पड़ कर। समाइ = (हरि नाम में) लीन रहता है। वुठा = आ बसता है। परफड़े = खिल उठता है। हरीआवलु = हरा भरा।59।
अर्थ: (जैसे बसंत ऋतु आने पर) सारा जगत हरा-भरा हो जाता है, (वैसे ही) हे नानक! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर (हरि नाम में) लीन रहता है उसके अंदर आत्मिक खिलाव की ऋतु बनी रहती है (जब मनुष्य के अंदर) परमात्मा आ बसता है, उसका तन उसका मन (आत्मिक आनंद से) खिल उठता है।59।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सबदे सदा बसंतु है जितु तनु मनु हरिआ होइ ॥ नानक नामु न वीसरै जिनि सिरिआ सभु कोइ ॥६०॥

मूलम्

सबदे सदा बसंतु है जितु तनु मनु हरिआ होइ ॥ नानक नामु न वीसरै जिनि सिरिआ सभु कोइ ॥६०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबदे = गुरु के शब्द से। जितु = जिस (बसंत) से। जिनि = जिस (प्रभु) ने। सिरिआ = पैदा किया है। सभु कोइ = हरेक जीव।60।
अर्थ: हे नानक! जिस (परमात्मा) ने हरेक जीव पैदा किया है (जिस मनुष्य को उसका) नाम (गुरु के) शब्द से (कभी) नहीं भूलता, उसके अंदर सदा के लिए (ऐसी) खिलने की ऋतु बन जाती है जिसकी इनायत से उसका मन आनंद-भरपूर हो जाता है।60।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक तिना बसंतु है जिना गुरमुखि वसिआ मनि सोइ ॥ हरि वुठै मनु तनु परफड़ै सभु जगु हरिआ होइ ॥६१॥

मूलम्

नानक तिना बसंतु है जिना गुरमुखि वसिआ मनि सोइ ॥ हरि वुठै मनु तनु परफड़ै सभु जगु हरिआ होइ ॥६१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु से। मनि = मन में। सोइ = वह परमात्मा। हरि वुठै = जब परमात्मा आ बसता है। परफड़ै = खिल उठता है।61।
अर्थ: हे नानक! गुरु की शरण पड़ कर जिस मनुष्यों के मन में वह (परमात्मा) आ बसता है, उनके अंदर आत्मिक खिलाव का समय बना रहता है। हे भाई! (जैसे बसंत ऋतु में) सारा जगत हरा-भरा हो जाता है (वैसे ही, जिस मनुष्य के अंदर) परमात्मा आ बसता है (उसका) मन (उसका) तन खिल उठता है।61।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वडड़ै झालि झलु्मभलै नावड़ा लईऐ किसु ॥ नाउ लईऐ परमेसरै भंनण घड़ण समरथु ॥६२॥

मूलम्

वडड़ै झालि झलु्मभलै नावड़ा लईऐ किसु ॥ नाउ लईऐ परमेसरै भंनण घड़ण समरथु ॥६२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: झालि = झालांघे, प्रभात के समय। वडड़ै झालि = बहुत सवेरे। झलुंभलै = घुसमुसे, भोर के वक्त। नावड़ा = सुंदर नाम। किसु नावड़ा = किसका सुंदर नाम? परमेसरै नाउ = परमेश्वर का नाम। समरथु = ताकत वाला।62।
अर्थ: हे भाई सुबह प्रभात के वक्त (उठ के) किस का सुंदर नाम लेना चाहिए? उस परमेश्वर का नाम लेना चाहिए है जो (जीवों को) पैदा करने व नाश करने की समर्थता वाला है।62।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरहट भी तूं तूं करहि बोलहि भली बाणि ॥ साहिबु सदा हदूरि है किआ उची करहि पुकार ॥ जिनि जगतु उपाइ हरि रंगु कीआ तिसै विटहु कुरबाणु ॥ आपु छोडहि तां सहु मिलै सचा एहु वीचारु ॥ हउमै फिका बोलणा बुझि न सका कार ॥ वणु त्रिणु त्रिभवणु तुझै धिआइदा अनदिनु सदा विहाण ॥ बिनु सतिगुर किनै न पाइआ करि करि थके वीचार ॥ नदरि करहि जे आपणी तां आपे लैहि सवारि ॥ नानक गुरमुखि जिन्ही धिआइआ आए से परवाणु ॥६३॥

मूलम्

हरहट भी तूं तूं करहि बोलहि भली बाणि ॥ साहिबु सदा हदूरि है किआ उची करहि पुकार ॥ जिनि जगतु उपाइ हरि रंगु कीआ तिसै विटहु कुरबाणु ॥ आपु छोडहि तां सहु मिलै सचा एहु वीचारु ॥ हउमै फिका बोलणा बुझि न सका कार ॥ वणु त्रिणु त्रिभवणु तुझै धिआइदा अनदिनु सदा विहाण ॥ बिनु सतिगुर किनै न पाइआ करि करि थके वीचार ॥ नदरि करहि जे आपणी तां आपे लैहि सवारि ॥ नानक गुरमुखि जिन्ही धिआइआ आए से परवाणु ॥६३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरहट = रहट (बहुवचन)। करहि = करते हैं (बहुवचन)। बोलहि = बोलते हैं। भली बाणि = मीठी बोली। हदूरि = हाजर नाजर, हर जगह हाजिर। करहि = तू करता है। किआ = किस लिए?। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। जिनि हरि = जिस हरि ने। रंगु = तमाशा। विटहु = से। आपु = स्वै भाव। छोडहि = अगर तू छोड़ दे। सहु = शहु, पति प्रभु। सचा = अटल, सदा कायम रहने वाला। फिका = फीका, बेस्वादा। बुझि न सका = समझ नहीं सकूँ। कार = (परमात्मा को मिल सकने वाला) करतब। वणु = जंगल। त्रिणु = तीला, घास। त्रिभवणु = सारा जगत। अनदिनु = हर रोज, हरेक दिन। विहाण = बीतता है। करि = कर के। करि करि वीचार = (और-और) विचारें कर कर के। नदरि = मेहर की निगाह। करहि = (हे प्रभु!) तू करे। आपे = स्वयं ही। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। से = वह (बहुवचन)। परवाणु = मंजूर, स्वीकार।63।
अर्थ: हे भाई! मालिक-प्रभु तो सदा तेरे साथ बसता है (उस अंदर बसते प्रभु को भुला के बाहर लोक-दिखावे के लिए) तू क्यों ऊँची-ऊँची पुकारता (फिरता) है? (इस तरह तो) रहट भी (चलते कूँए की आवाज निकालते इस तरह लगते हैं कि) ‘तूं तूं’ कर रहे हैं, और मीठी सुर में आवाज़ निकालते हैं (पर, वह भक्ति तो नहीं कर रहे)।
हे भाई! जिस हरि ने यह जगत पैदा करके यह खेल तमाशा बनाया है, उससे सदके हुआ कर। सदा कायम रहने वाला विचार यह है कि अगर तू (अपने अंदर से) स्वै भाव छोड़ देगा, तो तुझे परमात्मा मिल जाएगा।
हे भाई! अहम्-अहंकार के आसरे (तूं तूं) बोलता (भी) फीका रहता है (आत्मिक जीवन के हिलौरे पैदा नहीं कर सकता)। (अगर मैं हमेशा अहंकार के आसरे ही, अहम् में रह कर ही ‘तूं तूं’ बोलता रहा, तो) मैं (परमात्मा के साथ मिल सकने वाला) करतब नहीं समझ सकता।
हे प्रभु! जंगल, (जंगल के) घास (से लेकर), सारा जगत तुझे ही स्मरण कर रहा है। हरेक दिन सदा सारा समय (तेरी ही याद में) बीत रहा है। पर (अनेक ही पंडित लोग) सोचें-विचारें करके थकते चले आ रहे हैं, गुरु की शरण पड़े बिना किसी ने तेरा मिलाप प्राप्त नहीं किया। अगर तू मेहर की निगाह करे, तो तू स्वयं ही (जीवों के आत्मिक जीवन) सुंदर बना लेता है।
हे नानक! गुरु की शरण पड़ कर जिस मनुष्यों ने प्रभु का नाम स्मरण किया है, जगत में उन्हीं का पैदा होना (प्रभु की हजूरी में) स्वीकार हुआ है।63।

[[1421]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

जोगु न भगवी कपड़ी जोगु न मैले वेसि ॥ नानक घरि बैठिआ जोगु पाईऐ सतिगुर कै उपदेसि ॥६४॥

मूलम्

जोगु न भगवी कपड़ी जोगु न मैले वेसि ॥ नानक घरि बैठिआ जोगु पाईऐ सतिगुर कै उपदेसि ॥६४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जोगु = (परमात्मा से) मिलाप। भगवी कपड़ी = भगवे कपड़ों से, गेरुए रंग के वस्त्रों से। वेसि = भेस से, पहरावे से। घरि = घर में, गृहस्थ में। पाईऐ = प्राप्त कर लेता है। कै उपदेसि = के उपदेश से।64।
अर्थ: हे भाई! (गृहस्थ त्याग के) गेरुए रंग के कपड़ों से अथवा मैले पहरावे से (परमात्मा का) मिलाप नहीं हो जाता। पर, हाँ, हे नानक! गुरु के उपदेश से गृहस्थ में रहते हुए ही (परमात्मा से) मिलाप हो सकता है।64।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चारे कुंडा जे भवहि बेद पड़हि जुग चारि ॥ नानक साचा भेटै हरि मनि वसै पावहि मोख दुआर ॥६५॥

मूलम्

चारे कुंडा जे भवहि बेद पड़हि जुग चारि ॥ नानक साचा भेटै हरि मनि वसै पावहि मोख दुआर ॥६५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चारे कुंडा = चारों तरफ। भवहि = तू भटकता फिरे। पढ़हि = तू पढ़ता रहे, पढ़े। साचा = सदा कायम रहने वाला प्रभु। भेटै = मिल जाता है। मनि = मन में। वसै = आ बसता है। पावहि = तू प्राप्त कर लेगा। मोख दुआर = विकारों से खलासी का रास्ता।65।
अर्थ: हे भाई! (गृहस्थ त्याग के) अगर तू (धरती पर) चारों तरफ भागता फिरे, और, अगर तू सदा ही वेद (आदि धर्म-पुस्तकें) पढ़ता रहे (तो भी विकारों से खलासी का रास्ता नहीं पा सकता)। हे नानक! (कह: हे भाई!) तू विकारों से निजात का दरवाजा (तब) ढूँढ लेगा, जब सदा कायम रहने वाला परमात्मा तुझे मिल जाएगा, जब हरि (तेरे) मन में आ बसेगा।65।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक हुकमु वरतै खसम का मति भवी फिरहि चल चित ॥ मनमुख सउ करि दोसती सुख कि पुछहि मित ॥ गुरमुख सउ करि दोसती सतिगुर सउ लाइ चितु ॥ जमण मरण का मूलु कटीऐ तां सुखु होवी मित ॥६६॥

मूलम्

नानक हुकमु वरतै खसम का मति भवी फिरहि चल चित ॥ मनमुख सउ करि दोसती सुख कि पुछहि मित ॥ गुरमुख सउ करि दोसती सतिगुर सउ लाइ चितु ॥ जमण मरण का मूलु कटीऐ तां सुखु होवी मित ॥६६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नानक = हे नानक! वरतै = बरत रहा है, चल रहा है। भवी = उल्टी हुई है, उल्टे रास्ते पड़ी हुई है। फिरहि = तू फिरता है। चलचित = चंचल चिक्त हो के। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। सउ = से। करि = कर के, बना के। कि = कौन से? मित = हे मित्र! करि दोसती = दोस्ती पैदा कर। लाइ चितु = चिक्त जोड़ी रख। मूलु = जड़। कटीऐ = काटा जाता है। मित = हे मित्र!।66।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! तेरे भी कया वश? सारे संसार में) मालिक-प्रभु का हुक्म चल रहा है (उस हुक्म में ही) तेरी मति उल्टे रास्ते पर पड़ी हुई है, और तू चंचल-चिक्त हो के (धरती पर) विचर रहा है। पर, हे मित्र! (यह तो बता कि) अपने मन के पीछे चलने वालों के साथ दोस्ती पा के तू आत्मिक आनंद की आस कैसे कर सकता है? हे भाई गुरु के सन्मुख रहने वालों के साथ मित्रता बना, गुरु (के चरणों) से चिक्त जोड़े रख। (इस तरह जब) जनम-मरण के चक्करों की जड़ काटी जाती है, तब आत्मिक आनंद प्राप्त होता है।66।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भुलिआं आपि समझाइसी जा कउ नदरि करे ॥ नानक नदरी बाहरी करण पलाह करे ॥६७॥

मूलम्

भुलिआं आपि समझाइसी जा कउ नदरि करे ॥ नानक नदरी बाहरी करण पलाह करे ॥६७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: समझाइसी = सूझ बख्शेगा। जा कउ = जिस (मनुष्य) पर। नदरि = मेहर की निगाह। नदरी बाहरी = मेहर की निगाह से बाहर रह के। करण पलाह = (करुणा प्रलाप; करुणा = तरस; प्रलाप = विरलाप भरे बोल) तरस भरे बोल, दुहाई।67।
अर्थ: हे भाई! जिन्दगी के गलत रास्ते पर पड़े हुए भी जिस मनुष्य पर (परमात्मा) मेहर की निगाह करता है, उसको खुद (ही आत्मिक जीवन की) समझ बख्श देता है। हे नानक! परमात्मा की मेहर की निगाह से वंचित हुआ मनुष्य (सदा) विरलाप ही करता रहता है।67।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक महला ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

सलोक महला ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वडभागीआ सोहागणी जिन्हा गुरमुखि मिलिआ हरि राइ ॥ अंतरि जोति परगासीआ नानक नामि समाइ ॥१॥

मूलम्

वडभागीआ सोहागणी जिन्हा गुरमुखि मिलिआ हरि राइ ॥ अंतरि जोति परगासीआ नानक नामि समाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सोहागणी = सोहाग वाली। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। हरि राइ = प्रभु पातशाह। अंतरि = (उनके) अंदर। परगासीआ = चमक पड़ती है। नामि = नाम में। समाइ = लीन रह के।1।
अर्थ: हे नानक! गुरु की शरण पड़ कर जिस जीव-स्त्रीयों को प्रभु-पातशाह मिल जाता है, वे अति भाग्यशाली बन जाती है, वे सोहगनें कहलाती है। प्रभु के नाम में लीन रह के उनके अंदर परमात्मा की ज्योति चमक उठती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाहु वाहु सतिगुरु पुरखु है जिनि सचु जाता सोइ ॥ जितु मिलिऐ तिख उतरै तनु मनु सीतलु होइ ॥ वाहु वाहु सतिगुरु सति पुरखु है जिस नो समतु सभ कोइ ॥ वाहु वाहु सतिगुरु निरवैरु है जिसु निंदा उसतति तुलि होइ ॥ वाहु वाहु सतिगुरु सुजाणु है जिसु अंतरि ब्रहमु वीचारु ॥ वाहु वाहु सतिगुरु निरंकारु है जिसु अंतु न पारावारु ॥ वाहु वाहु सतिगुरू है जि सचु द्रिड़ाए सोइ ॥ नानक सतिगुर वाहु वाहु जिस ते नामु परापति होइ ॥२॥

मूलम्

वाहु वाहु सतिगुरु पुरखु है जिनि सचु जाता सोइ ॥ जितु मिलिऐ तिख उतरै तनु मनु सीतलु होइ ॥ वाहु वाहु सतिगुरु सति पुरखु है जिस नो समतु सभ कोइ ॥ वाहु वाहु सतिगुरु निरवैरु है जिसु निंदा उसतति तुलि होइ ॥ वाहु वाहु सतिगुरु सुजाणु है जिसु अंतरि ब्रहमु वीचारु ॥ वाहु वाहु सतिगुरु निरंकारु है जिसु अंतु न पारावारु ॥ वाहु वाहु सतिगुरू है जि सचु द्रिड़ाए सोइ ॥ नानक सतिगुर वाहु वाहु जिस ते नामु परापति होइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वाहु = धन्य, सराहनीय। वाहु वाहु = धन्य धन्य। जिनि = जिस (गुरु) ने। सचु = सदा कायम रहने वाला प्रभु। जाता = सांझ डाली। जितु मिलिऐ = जिसको मिलने से। तिख = त्रेह। सीतल = ठंडा ठार। समतु = एक जैसा। सभ कोइ = हरेक जीव। तुलि = बराबर। सुजाणु = समझदार। जिसु अंतरि = जिस (गुरु) के अंदर। जिसु अंतु न = जिस (परमात्मा के गुणों) का अंत नहीं (पड़ सकता)। जि = जो। द्रिढ़ाए = हृदय में पक्का करता है। सतिगुर वाहु वाहु = गुरु को धन्य धन्य (कहो)। जिस ते = जिस (गुरु) से।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।
नोट: ‘जिस ते’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘ते’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! महापुरुष गुरु धन्य है धन्य है, जिस (गुरु) ने सदा कायम रहने वाले प्रभु के साथ गहरी सांझ डाली हुई है, जिस (गुरु) को मिलने से (माया की) तष्णा दूर हो जाती है, (मनुष्य का) तन और मन ठंडा शांत हो जाता है।
हे भाई! गुरु सत्पुरख सराहनीय है धन्य है, क्योंकि उसको हरेक जीव एक जैसा (दिखता) है। गुरु धन्य है, गुरु धन्य है, गुरु को किसी से वैर नहीं (कोई मनुष्य गुरु की निंदा करे) गुरु को (वह) निंदा अथवा बड़ाई एक जैसी ही प्रतीत होती है।
हे भाई! गुरु धन्य है गुरु धन्य है, गुरु (आत्मिक जीवन की सूझ में) समझदार है, गुरु के अंदर परमात्मा सदा बस रहा है। गुरु सराहने-योग्य है, गुरु (उस) निरंकार (का रूप) है जिसके गुणों का अंत इस पार का-उस पार का अंत नहीं पाया जा सकता। गुरु धन्य है गुरु धन्य है, क्योंकि वह (मनुष्य के हृदय में) सदा-स्थिर प्रभु (का नाम) पक्का कर देता है।
हे नानक! जिस (गुरु) से परमात्मा का नाम हासिल होता है, उसको (सदा) धन्य-धन्य कहा करो।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि प्रभ सचा सोहिला गुरमुखि नामु गोविंदु ॥ अनदिनु नामु सलाहणा हरि जपिआ मनि आनंदु ॥ वडभागी हरि पाइआ पूरन परमानंदु ॥ जन नानक नामु सलाहिआ बहुड़ि न मनि तनि भंगु ॥३॥

मूलम्

हरि प्रभ सचा सोहिला गुरमुखि नामु गोविंदु ॥ अनदिनु नामु सलाहणा हरि जपिआ मनि आनंदु ॥ वडभागी हरि पाइआ पूरन परमानंदु ॥ जन नानक नामु सलाहिआ बहुड़ि न मनि तनि भंगु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि प्रभू गोबिंदु नामु = हरि प्रभु का गोबिंद नाम। सचा = सदा कायम रहने वाला। सोहिला = खुशी के गीत। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। मनि = मन में। वडभागी = बड़े भाग्यों वालों ने। परमानंदु = परम आनंद, सबसे ऊँचे आनंद का मालिक प्रभु। बहुड़ि = दोबारा। मनि = मन में। भंगु = तोट, आत्मिक आनंद की ओर से कमी।3।
अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों के लिए हरि प्रभु का नाम (ही) सदा कायम रहने वाला खुशी का गीत है। जिस मनुष्यों ने हरि-नाम की महिमा की, हरि-नाम ही जपा, उनके मन में आनंद बना रहता है। हे भाई! बड़े भाग्यों वाले मनुष्यों ने सबसे ऊँचे आत्मिक आनंद के मालिक प्रभु का मिलाप हासिल कर लिया। हे दास नानक! (जिन्होंने हर वक्त) हरि-नाम की बड़ाई की, उनके मन में उनके तन में (आत्मिक आनंद की) दोबारा कभी कमी नहीं आती।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूं पिरीआ सउ नेहु किउ सजण मिलहि पिआरिआ ॥ हउ ढूढेदी तिन सजण सचि सवारिआ ॥ सतिगुरु मैडा मितु है जे मिलै त इहु मनु वारिआ ॥ देंदा मूं पिरु दसि हरि सजणु सिरजणहारिआ ॥ नानक हउ पिरु भाली आपणा सतिगुर नालि दिखालिआ ॥४॥

मूलम्

मूं पिरीआ सउ नेहु किउ सजण मिलहि पिआरिआ ॥ हउ ढूढेदी तिन सजण सचि सवारिआ ॥ सतिगुरु मैडा मितु है जे मिलै त इहु मनु वारिआ ॥ देंदा मूं पिरु दसि हरि सजणु सिरजणहारिआ ॥ नानक हउ पिरु भाली आपणा सतिगुर नालि दिखालिआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सउ = से। पिरीआ सउ = प्यारे से। मूं नेहु = मेरा प्यार। किउ = कैसे। मिलहि = मिल जाएं (बहुवचन)। हउ = मैं। तिन सजण = उन सज्जनों को। सचि = सदा स्थिर हरि नाम ने। सवारिआ = सोहाने जीवन वाले बना दिया है। मैडा = मेरा। त = तो। वारिआ = सदके किया। मूं = मुझे। देंदा दसि = बता देता है। सिरजणहारिआ = (सृष्टि) पैदा करने वाला। नानक = हे नानक! (कह-)। भाली = मैं तलाशती हूँ। सतिगुर = हे सतिगुरु! नालि = (मेरे) साथ (बसता)।4।
अर्थ: हे भाई! (अपने) प्यारे (प्रभु) के साथ मेरा प्यार है (मेरी हर वक्त तमन्ना है कि मुझे) कैसे (वह) प्यारे सज्जन मिल जाएं (जो मुझे प्रभु-पति से मिला दें)। मैं उन सज्जनों को ढूँढती फिरती हूँ, सदा-स्थिर हरि-नाम ने जिनको सुंदर जीवन वाले बना दिया है। हे भाई! गुरु (ही) मेरा (असल) मित्र है। अगर (मुझे गुरु) मिल जाए, तो (मैं अपना) यह मन (उस पर से) सदके कर दूँ। (गुरु ही) मुझे बता सकता है कि विधाता हरि (ही असल) सज्जन है।
हे नानक! (कह:) हे सतिगुरु! मैं अपना पति-प्रभु ढूँढ रही थी, तूने (मुझे मेरे) साथ (बसता) दिखा दिया है।4।

[[1422]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ खड़ी निहाली पंधु मतु मूं सजणु आवए ॥ को आणि मिलावै अजु मै पिरु मेलि मिलावए ॥ हउ जीउ करी तिस विटउ चउ खंनीऐ जो मै पिरी दिखावए ॥ नानक हरि होइ दइआलु तां गुरु पूरा मेलावए ॥५॥

मूलम्

हउ खड़ी निहाली पंधु मतु मूं सजणु आवए ॥ को आणि मिलावै अजु मै पिरु मेलि मिलावए ॥ हउ जीउ करी तिस विटउ चउ खंनीऐ जो मै पिरी दिखावए ॥ नानक हरि होइ दइआलु तां गुरु पूरा मेलावए ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ = मैं। खड़ी = खड़ी हुई, तमन्ना से। निहाली = मैं देख रही हूँ। पंधु = रास्ता। मतु = शायद। मूं सजणु = मेरा सज्जन। आवए = आ रहा है।
अर्थ: हे भाई! मैं चाह से राह ताक रही हूँ कि शायद मेरा सज्जन आ रहा है, जो मुझे (मेरा प्रभु-) पति आज (इसी जीवन में) ला के मिला देता हो। जो मुझे मेरे प्यारे का दर्शन करा दे, मैं उस पर से (अपनी) जिंद चार टुकड़े कर दूँ (सदके करने को तैयार हूँ)।
हे नानक! जब हरि प्रभु (स्वयं) दयावान होते हैं, तब वह पूरे गुरु से मिलाते हैं (और, पूरा गुरु प्रभु-पति के चरणों में जोड़ देता है)।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंतरि जोरु हउमै तनि माइआ कूड़ी आवै जाइ ॥ सतिगुर का फुरमाइआ मंनि न सकी दुतरु तरिआ न जाइ ॥ नदरि करे जिसु आपणी सो चलै सतिगुर भाइ ॥ सतिगुर का दरसनु सफलु है जो इछै सो फलु पाइ ॥ जिनी सतिगुरु मंनिआं हउ तिन के लागउ पाइ ॥ नानकु ता का दासु है जि अनदिनु रहै लिव लाइ ॥६॥

मूलम्

अंतरि जोरु हउमै तनि माइआ कूड़ी आवै जाइ ॥ सतिगुर का फुरमाइआ मंनि न सकी दुतरु तरिआ न जाइ ॥ नदरि करे जिसु आपणी सो चलै सतिगुर भाइ ॥ सतिगुर का दरसनु सफलु है जो इछै सो फलु पाइ ॥ जिनी सतिगुरु मंनिआं हउ तिन के लागउ पाइ ॥ नानकु ता का दासु है जि अनदिनु रहै लिव लाइ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जोरु हउमै = अहंकार का जोर। तनि = शरीर। कूड़ी = झूठ मूठ, दिखावे के लिए ही। आवै = (गुरु के दर से) आता है। जाइ = जाए, जाता है। दुतरु = दुष्तर, जिससे पार लंघाना मुश्किल होता है। नदरि = मेहर की निगाह। सतिगुर भाइ = गुरु की रजा में। सफलु = फल देने वाला। जो फलु = जो फल। इछै = मन में धारण करता है। सतिगुरु मंनिआ = गुरु पर श्रद्धा लाती है। हउ = मैं। लागउ = मैं लगता हूँ। तिन के पाइ = उनके पैरों पर। ता का = उस (मनुष्य) ने। जि = जो (मनुष्य)। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। लिव लाइ रहै = तवज्जो जोड़ी रखता है।6।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के अंदर अहंकार भारी हुआ रहता है जिसके शरीर में माया का प्रभाव बना रहता है, वह मनुष्य (गुरु के दर पर) सिर्फ दिखावे की खातिर ही आता रहता है। वह मनुष्य गुरु के बताए हुए हुक्म में श्रद्धा नहीं बना सकता, (इस वास्ते वह मनुष्य इस संसार-समुंदर से) पार नहीं लांघ सकता जिससे पार लांघना बहुत मुश्किल है। (पर, हे भाई!) वह मनुष्य (ही) गुरु की रजा में (जीवन-चाल) चलता है, जिस पर परमात्मा अपनी मेहर की निगाह करता है। हे भाई! गुरु का दीदार जरूर फल देता है, (गुरु के दर्शन करने वाला मनुष्य) जो मांग अपने मन में धारण करता है, वही माँग प्राप्त कर लेता है।
हे भाई! जिस मनुष्यों ने गुरु पर श्रद्धा बनाई, मैं उनके चरणों में लगता हूँ। जो मनुष्य हर वक्त (गुरु-चरणों में) तवज्जो जोड़े रखता है, नानक उस मनुष्य का (सदा के लिए) दास है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिना पिरी पिआरु बिनु दरसन किउ त्रिपतीऐ ॥ नानक मिले सुभाइ गुरमुखि इहु मनु रहसीऐ ॥७॥

मूलम्

जिना पिरी पिआरु बिनु दरसन किउ त्रिपतीऐ ॥ नानक मिले सुभाइ गुरमुखि इहु मनु रहसीऐ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पिरी पिआरु = प्यारे (प्रभु) का प्यार। किउ त्रिपतीऐ = कैसे तृप्ति हो सकती है। सुभाइ = प्यार में। गुरमुखि मनु = गुरु के सन्मुख रहने वाले का मन। रहसीऐ = प्रसन्न रहता है।7।
अर्थ: हे भाई! जिस (मनुष्यों) के अंदर प्यारे का प्रेम होता है, (अपने प्यारे के) दर्शन के बिना उनके मन में शांति नहीं होती। हे नानक! वह मनुष्य (प्यारे के) प्रेम में लीन रहते हैं। (इसी कारण) गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य का यह मन सदा खिला रहता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिना पिरी पिआरु किउ जीवनि पिर बाहरे ॥ जां सहु देखनि आपणा नानक थीवनि भी हरे ॥८॥

मूलम्

जिना पिरी पिआरु किउ जीवनि पिर बाहरे ॥ जां सहु देखनि आपणा नानक थीवनि भी हरे ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किउ जीवनि = कैसे जी सकते हैं? सुखी जीवन नहीं जी सकते। बाहरे = बगैर। जा = जब। देखनि = देखते हैं (बहुवचन)। थीवनि = हो जाते हैं। भी = फिर। हरे = आत्मिक जीवन वाले।8।
अर्थ: हे भाई! जिस (मनुष्यों) के अंदर प्यारे का प्रेम होता है, वे अपने प्यारे के मिलाप के बिना सुखी नहीं जी सकते। हे नानक! जब वे अपने पति-प्रभु का दर्शन करते हैं, तब वे दोबारा आत्मिक जीवन वाले बन जाते हैं।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिना गुरमुखि अंदरि नेहु तै प्रीतम सचै लाइआ ॥ राती अतै डेहु नानक प्रेमि समाइआ ॥९॥

मूलम्

जिना गुरमुखि अंदरि नेहु तै प्रीतम सचै लाइआ ॥ राती अतै डेहु नानक प्रेमि समाइआ ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण रख के। प्रीतम = हे प्रीतम प्रभु! तै सचै = तू सदा कायम रहने वाले ने। अतै = और। डेहु = दिन। प्रेमि = प्रेम में।9।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे प्रीतम प्रभु! तू सदा कायम रहने वाले ने गुरु के माध्यम से जिस मनुष्यों के अंदर (अपना) प्यार पैदा किया है, वे मनुष्य तेरे प्यार में दिन-रात लीन रहते हैं।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि सची आसकी जितु प्रीतमु सचा पाईऐ ॥ अनदिनु रहहि अनंदि नानक सहजि समाईऐ ॥१०॥

मूलम्

गुरमुखि सची आसकी जितु प्रीतमु सचा पाईऐ ॥ अनदिनु रहहि अनंदि नानक सहजि समाईऐ ॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सची आसकी = सच्ची आशिकी, सदा कायम रहने वाला प्रेम। जितु = जिस (आशिकी) से। पाईऐ = मिल जाता है। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। अनंदि = आनंद में। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समाईऐ = लीन रहा जाता है।10।
अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों के अंदर (परमात्मा के लिए) सदा कायम रहने वाला प्यार (पैदा हो जाता है), उस प्यार की इनायत से वह सदा-स्थिर प्रीतम-प्रभु उनको मिल जाता है, और वे हर वक्त आनंद में टिके रहते हैं। हे नानक! (प्यार की इनायत से) आत्मिक अडोलता में लीन रहा जाता है।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचा प्रेम पिआरु गुर पूरे ते पाईऐ ॥ कबहू न होवै भंगु नानक हरि गुण गाईऐ ॥११॥

मूलम्

सचा प्रेम पिआरु गुर पूरे ते पाईऐ ॥ कबहू न होवै भंगु नानक हरि गुण गाईऐ ॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। न होवै भंगु = टूटता नहीं। गाईऐ = गाते रहना चाहिए।11।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा के साथ) सदा कायम रहने वाला प्रेम-प्यार पूरे गुरु से ही मिलता है, (और वह प्यार) कभी नहीं टूटता। हे नानक! (इस प्यार को कायम रखने के लिए) परमात्मा की महिमा करते रहना चाहिए।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन्हा अंदरि सचा नेहु किउ जीवन्हि पिरी विहूणिआ ॥ गुरमुखि मेले आपि नानक चिरी विछुंनिआ ॥१२॥

मूलम्

जिन्हा अंदरि सचा नेहु किउ जीवन्हि पिरी विहूणिआ ॥ गुरमुखि मेले आपि नानक चिरी विछुंनिआ ॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नेहु = प्यार। किउ = सुखी जीवन नहीं जी सकते। गुरमुखि = गुरु से।12।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों के दिल में (परमात्मा के साथ) सदा कायम रहने वाला प्यार बन जाता है, वह मनुष्य परमात्मा की याद के बिना सुखी जीवन नहीं जी सकते (पर, ये उसकी अपनी ही मेहर है)। हे नानक! चिरों से विछुड़े जीवों को प्रभु स्वयं ही गुरु के द्वारा अपने साथ मिलाता है।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन कउ प्रेम पिआरु तउ आपे लाइआ करमु करि ॥ नानक लेहु मिलाइ मै जाचिक दीजै नामु हरि ॥१३॥

मूलम्

जिन कउ प्रेम पिआरु तउ आपे लाइआ करमु करि ॥ नानक लेहु मिलाइ मै जाचिक दीजै नामु हरि ॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तउ आपे = तू खुद ही। करमु = मेहर, बख्शिश। करि = कर के। मै जाचक = मुझे भिखारी को। दीजै = दे।13।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे हरि! तूने खुद ही मेहर करके जिनके अंदर अपना प्रेम-प्यार पैदा किया है, उनको तू (अपने चरणों में) जोड़े रखता है। हे हरि! मुझे मँगते को (भी) अपना नाम बख्श।13।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि हसै गुरमुखि रोवै ॥ जि गुरमुखि करे साई भगति होवै ॥ गुरमुखि होवै सु करे वीचारु ॥ गुरमुखि नानक पावै पारु ॥१४॥

मूलम्

गुरमुखि हसै गुरमुखि रोवै ॥ जि गुरमुखि करे साई भगति होवै ॥ गुरमुखि होवै सु करे वीचारु ॥ गुरमुखि नानक पावै पारु ॥१४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहनें वाला मनुष्य। हसै = (भक्ति के आत्मिक आनंद में कभी) खिल उठता है। रोवै = (भक्ति के बिरह रस में कभी) वैराग में आ जाता है। जि = जो (भक्ति)। साई = वही। सु = वह मनुष्य। करे वीचारु = (परमात्मा की महिमा को) मन में बसाए रखता है। पारु = (संसार समुंदर का) परला किनारा। पावै = पा लेता है।14।
अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (भक्ति के आत्मिक आनंद में कभी) खिल उठता है (कभी भक्ति के बिरह रस के कारण) वैराग में आ जाता है। हे भाई! असल भक्ति वही होती है जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रह कर करता है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ा रहता है, वह (परमात्मा की महिमा को) अपने मन में बसाए रखता है। हे नानक! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (इस संसार-समुंदर का) परला छोर तलाश लेता है।14।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिना अंदरि नामु निधानु है गुरबाणी वीचारि ॥ तिन के मुख सद उजले तितु सचै दरबारि ॥ तिन बहदिआ उठदिआ कदे न विसरै जि आपि बखसे करतारि ॥ नानक गुरमुखि मिले न विछुड़हि जि मेले सिरजणहारि ॥१५॥

मूलम्

जिना अंदरि नामु निधानु है गुरबाणी वीचारि ॥ तिन के मुख सद उजले तितु सचै दरबारि ॥ तिन बहदिआ उठदिआ कदे न विसरै जि आपि बखसे करतारि ॥ नानक गुरमुखि मिले न विछुड़हि जि मेले सिरजणहारि ॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निधानु = (सारे सुखों का) खजाना। वीचारि = विचार के, मन में बसा के। सद = सदा। उजले = रौशन। तितु = उस में। तितु दरबारि = उस दरबार में। तितु सचै दरबारि = उस सदा स्थिर रहने वाले दरबार में। जि = जिनको। करतारि = कर्तार ने। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। सिरजणहारि = विधाता ने।15।
अर्थ: हे भाई! सतिगुरु की वाणी को मन में बसा कर जिस मनुष्यों के हृदय में परमात्मा का नाम-खजाना आ बसता है, उनके मुँह उस सदा कायम रहने वाले (ईश्वरीय) दरबार में सदा रौशन रहते हैं। हे भाई! कर्तार ने स्वयं जिस मनुष्यों पर मेहर की होती है, उनको बैठते-उठते किसी भी वक्त (परमात्मा का नाम) नहीं भूलता। हे नानक! जिस मनुष्यों को विधाता प्रभु ने (स्वयं अपने चरणों में) जोड़ा होता है, वे मनुष्य गुरु के द्वारा (प्रभु चरणों में) मिले हुए फिर कभी नहीं बिछुड़ते।15।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर पीरां की चाकरी महां करड़ी सुख सारु ॥ नदरि करे जिसु आपणी तिसु लाए हेत पिआरु ॥ सतिगुर की सेवै लगिआ भउजलु तरै संसारु ॥ मन चिंदिआ फलु पाइसी अंतरि बिबेक बीचारु ॥ नानक सतिगुरि मिलिऐ प्रभु पाईऐ सभु दूख निवारणहारु ॥१६॥

मूलम्

गुर पीरां की चाकरी महां करड़ी सुख सारु ॥ नदरि करे जिसु आपणी तिसु लाए हेत पिआरु ॥ सतिगुर की सेवै लगिआ भउजलु तरै संसारु ॥ मन चिंदिआ फलु पाइसी अंतरि बिबेक बीचारु ॥ नानक सतिगुरि मिलिऐ प्रभु पाईऐ सभु दूख निवारणहारु ॥१६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: की चाकरी = की (बताई हुई) सेवा। करड़ी = मुश्किल। सारु = श्रेष्ठ। नदरि = मेहर की निगाह। हेत = हित, प्रेम। सेवै = सेवा में। भउजलु = संसार समुंदर। संसारु = जगत। तरै = पार लांघ जाता है। मन चिंदिआ = मन इच्छित। पाइसी = हासिल कर लेगा। बिबेक बीचारु = बिबेक की सूझ, अच्छे बुरे काम के परख की सूझ। सतिगुर मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए। निवारणहारु = दूर कर सकने वाला।16।
अर्थ: हे भाई! महा पुरुषों की (बताई हुई) कार बहुत मुश्किल होती है (क्योंकि उसमें स्वै मारना पड़ता है, पर उसमें से) श्रेष्ठ आत्मिक आनंद प्राप्त होता है। (इस सेवा को करने के लिए) उस मनुष्य के अंदर (परमात्मा) प्रीत-प्यार पैदा करता है, जिस पर अपनी मेहर की निगाह करता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुख सेवा जो करे दूजै भाइ चितु लाइ ॥ पुतु कलतु कुट्मबु है माइआ मोहु वधाइ ॥ दरगहि लेखा मंगीऐ कोई अंति न सकी छडाइ ॥ बिनु नावै सभु दुखु है दुखदाई मोह माइ ॥ नानक गुरमुखि नदरी आइआ मोह माइआ विछुड़ि सभ जाइ ॥१७॥

मूलम्

मनमुख सेवा जो करे दूजै भाइ चितु लाइ ॥ पुतु कलतु कुट्मबु है माइआ मोहु वधाइ ॥ दरगहि लेखा मंगीऐ कोई अंति न सकी छडाइ ॥ बिनु नावै सभु दुखु है दुखदाई मोह माइ ॥ नानक गुरमुखि नदरी आइआ मोह माइआ विछुड़ि सभ जाइ ॥१७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। सेवा जो = जो भी सेवा। दूजै भाइ = (परमात्मा के बिना) किसी और के प्यार में। लाइ = लगाए रखता है। कलतु = स्त्री। वधाइ = बढ़ाए जाता है। दरगहि = प्रभु की हजूरी में। मंगीऐ = मांगा जाता है। अंति = अंत के समय। मोह माइ = माया का मोह। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। नदरी आइआ = दिखाई दे जाता है।17।
अर्थ: हे भाई! गुरु की (बताई हुई) सेवा में लग के जगत संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है। (जो भी मनुष्य गुरु की बताई हुई सेवा करेगा वह) मन-माँगी मुरादें प्राप्त कर लेगा, उसके अंदर अच्छे-बुरे काम की परख की सूझ (पैदा हो जाएगी)। हे नानक! अगर गुरु मिल जाए, तो वह परमात्मा मिल जाता है, जो हरेक दुख दूर करने वाला है।16।
हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाल मनुष्य जो भी सेवा करता है, (उसके साथ-साथ वह अपना) चिक्त (परमात्मा के बिना) और के प्यार में जोड़े रखता है। (यह मेरा) पुत्र (है, यह मेरी) स्त्री (है, यह मेरा) परिवार है (-यह कह कह के ही वह मनुष्य अपने अंदर) माया का मोह बढ़ाए जाता है। परमात्मा की दरगाह में (किए हुए कर्मों का) हिसाब (तो) माँगा (ही) जाता है, (माया के मोह के फंदे से) अंत में कोई छुड़ा नहीं सकता। माया का मोह दुखदाई साबित होता है, परमात्मा के नाम के बिना और सारा (उद्यम) दुख (का ही मूल) है।
हे नानक! गुरु की शरण पड़ कर (जिस मनुष्य को यह भेद) दिखाई दे जाता है, (उसके अंदर से) माया का सारा मोह दूर हो जाता है।17।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि हुकमु मंने सह केरा हुकमे ही सुखु पाए ॥ हुकमो सेवे हुकमु अराधे हुकमे समै समाए ॥ हुकमु वरतु नेमु सुच संजमु मन चिंदिआ फलु पाए ॥ सदा सुहागणि जि हुकमै बुझै सतिगुरु सेवै लिव लाए ॥ नानक क्रिपा करे जिन ऊपरि तिना हुकमे लए मिलाए ॥१८॥

मूलम्

गुरमुखि हुकमु मंने सह केरा हुकमे ही सुखु पाए ॥ हुकमो सेवे हुकमु अराधे हुकमे समै समाए ॥ हुकमु वरतु नेमु सुच संजमु मन चिंदिआ फलु पाए ॥ सदा सुहागणि जि हुकमै बुझै सतिगुरु सेवै लिव लाए ॥ नानक क्रिपा करे जिन ऊपरि तिना हुकमे लए मिलाए ॥१८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। केरा = का। सह केरा = पति प्रभु का। हुकमे = हुक्म में (चल के)। हुकमो = हुक्म को ही। अराधे = चेते रखता है। समै समाए = हर वक्त लीन रहता है। सुच = शरीरिक पवित्रता। संजमु = इन्द्रियों को विकारों से हटाने का प्रयत्न। मन चिंदिआ = मन माँगा। सुहागणि = सोहागनि, भाग्यशाली। जि = जो (जीव-स्त्री)। लिव लाए = तवज्जो/ध्यान जोड़ के।18।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रह के पति-प्रभु का हुक्म मानता है, वह हुक्म में टिक के ही आत्मिक आनंद भोगता है। वह मनुष्य प्रभु के हुक्म को हर वक्त याद रखता है, हुक्म की भक्ति करता है, हर वक्त हुक्म में लीन रहता है। व्रत (आदि रखने का) नियम, शारीरिक पवित्रता, इन्द्रियों को रोकने का प्रयत्न- यह सब कुछ उस मनुष्य के लिए प्रभु का हुक्म मानना ही है। (हुक्म मान के) वह मनुष्य मन-माँगी मुराद प्राप्त करता है।
हे भाई! जो जीव-स्त्री परमात्मा की रजा को समझती है, जो तवज्जो जोड़ के गुरु की शरण पड़ी रहती है, वह जीव-स्त्री सदा भाग्यशाली है। हे नानक! जिस जीवों पर (परमात्मा) मेहर करता है, उनको (अपने) हुक्म में लीन कर लेता है।18।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुखि हुकमु न बुझे बपुड़ी नित हउमै करम कमाइ ॥ वरत नेमु सुच संजमु पूजा पाखंडि भरमु न जाइ ॥ अंतरहु कुसुधु माइआ मोहि बेधे जिउ हसती छारु उडाए ॥ जिनि उपाए तिसै न चेतहि बिनु चेते किउ सुखु पाए ॥ नानक परपंचु कीआ धुरि करतै पूरबि लिखिआ कमाए ॥१९॥

मूलम्

मनमुखि हुकमु न बुझे बपुड़ी नित हउमै करम कमाइ ॥ वरत नेमु सुच संजमु पूजा पाखंडि भरमु न जाइ ॥ अंतरहु कुसुधु माइआ मोहि बेधे जिउ हसती छारु उडाए ॥ जिनि उपाए तिसै न चेतहि बिनु चेते किउ सुखु पाए ॥ नानक परपंचु कीआ धुरि करतै पूरबि लिखिआ कमाए ॥१९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री। बपुड़ी = बेचारी। कमाइ = कमाता है। पाखंडि = पाखंड से, दिखावे से। भरमु = भटकना। अंतरहु = अंदर से। कुसुधु = खोटा, मैला। मोहि = मोह में। बेधे = भेदे हुए। हसती = हाथी। छारु = राख, मिट्टी। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। न चेतहि = चेते नहीं करते (बहुवचन)। बिनु चेते = स्मरण किए बिना। परपंच = जगत रचना। धुरि = धुर दरगाह से। करतै = कर्तार ने। पूरबि = पूर्बले जनम में।19।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाली बद्-नसीब जीव-स्त्री (परमात्मा की) रज़ा को नहीं समझती, सदा अहंकार के आसरे (अपने द्वारा निहित हुए धार्मिक) काम करती रहती है। वह व्रत-नेम, सुच-संजम-देव पूजा (आदि कर्म करती है, पर ये हैं निरे दिखावे, और) दिखावे से मन की भटकना दूर नहीं होती।
हे भाई! (जिस मनुष्यों का मन) अंदर से खोटा रहता है, जो माया के मोह में भेदे रहते हैं (उनके किए हुए धार्मिक कर्म ऐसे ही हैं) जैसे हाथी (नहा कर अपने ऊपर) मिट्टी उड़ा के डाल लेता है। वे मनुष्य उस परमात्मा को याद नहीं करते, जिसने (उनको) पैदा किया। (हरि-नाम का) स्मरण किए बिना कोई मनुष्य कभी सुख नहीं पा सकता।
हे नानक! कर्तार ने ही धुर-दरगाह से (अपने हुक्म से) जगत-रचना की हुई है, हरेक जीव अपने पिछले किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार ही (अब भी) कर्म किए जाता है।19।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि परतीति भई मनु मानिआ अनदिनु सेवा करत समाइ ॥ अंतरि सतिगुरु गुरू सभ पूजे सतिगुर का दरसु देखै सभ आइ ॥ मंनीऐ सतिगुर परम बीचारी जितु मिलिऐ तिसना भुख सभ जाइ ॥ हउ सदा सदा बलिहारी गुर अपुने जो प्रभु सचा देइ मिलाइ ॥ नानक करमु पाइआ तिन सचा जो गुर चरणी लगे आइ ॥२०॥

मूलम्

गुरमुखि परतीति भई मनु मानिआ अनदिनु सेवा करत समाइ ॥ अंतरि सतिगुरु गुरू सभ पूजे सतिगुर का दरसु देखै सभ आइ ॥ मंनीऐ सतिगुर परम बीचारी जितु मिलिऐ तिसना भुख सभ जाइ ॥ हउ सदा सदा बलिहारी गुर अपुने जो प्रभु सचा देइ मिलाइ ॥ नानक करमु पाइआ तिन सचा जो गुर चरणी लगे आइ ॥२०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। परतीति = श्रद्धा। मानिआ = पतीजा रहता है। अनदिनु = हर वक्त। करत = करते हुए। समाइ = लीन रहता है। अंतरि = (जिसके) अंदर। सभ = सारी दुनिया। पूजे = आदर सत्कार करता है। सभ = सारी लुकाई में। मंनीऐ = श्रद्धा बनानी चाहिए। परम बीचारी = सबसे ऊँची आत्मिक विचार के मालिक। जितु मिलिऐ = जिसको मिलने से। हउ = मैं। देइ मिलाइ = मिला देता है। सचा = सदा कायम रहने वाला। करमु = बख्शिश, मेहर। सचा करमु = सदा स्थिर मेहर। आइ = आ के।20।
अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य के अंदर (गुरु के प्रति) श्रद्धा बनी रहती है, (उसका) मन (गुरु में) पतीजा रहता है, वह हर वक्त सेवा करते हुए (सेवा में) मस्त रहता है। (जिस मनुष्य के) दिल में (सदा) गुरु बसता है सबका आदर-सत्कार करता है, वह सारी लुकाई में गुरु के दर्शन करता है।
हे भाई! सबसे ऊँची आत्मिक विचार के मालिक गुरु में श्रद्धा बनानी चाहिए, जिस (गुरु) के मिलने से (माया की) सारी भूख सारी प्यास दूर हो जाती है।
हे भाई! मैं सदा ही अपने गुरु से सदके जाता हूँ क्योंकि वह गुरु सदा कायम रहने वाला परमात्मा मिल जाता है।
हे नानक! जो मनुष्य गुरु के चरणों में आ के टिक गए, उन्होंने सदा कायम रहने वाली (रूहानी) मेहर प्राप्त कर ली।20।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन पिरीआ सउ नेहु से सजण मै नालि ॥ अंतरि बाहरि हउ फिरां भी हिरदै रखा समालि ॥२१॥

मूलम्

जिन पिरीआ सउ नेहु से सजण मै नालि ॥ अंतरि बाहरि हउ फिरां भी हिरदै रखा समालि ॥२१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सउ = से। पिरीआ सउ = प्यारे (प्रभु) से। नेहु = प्यार। से = वह (बहुवचन)। मै नालि = मेरे साथ। हउ फेरां = मैं फिरता हूं। भी = फिर भी। हिरदै = हृदय में। रखा = रखूँ, मैं रखता हूँ। समालि = संभाल के।21।
अर्थ: हे भाई! जिस (सत्संगियों का) प्यारे प्रभु के साथ साथ बना हुआ है, वह सत्संगी सज्जन मेरे (सहयोगी) हैं। (उनके सत्संग की इनायत से) मैं अंदर बाहर (दुनिया के कार-व्यवहार में भी) चलता-फिरता हूँ, (फिर) भी (परमात्मा को अपने) हृदय में संभाल के रखता हूँ।21।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिना इक मनि इक चिति धिआइआ सतिगुर सउ चितु लाइ ॥ तिन की दुख भुख हउमै वडा रोगु गइआ निरदोख भए लिव लाइ ॥ गुण गावहि गुण उचरहि गुण महि सवै समाइ ॥ नानक गुर पूरे ते पाइआ सहजि मिलिआ प्रभु आइ ॥२२॥

मूलम्

जिना इक मनि इक चिति धिआइआ सतिगुर सउ चितु लाइ ॥ तिन की दुख भुख हउमै वडा रोगु गइआ निरदोख भए लिव लाइ ॥ गुण गावहि गुण उचरहि गुण महि सवै समाइ ॥ नानक गुर पूरे ते पाइआ सहजि मिलिआ प्रभु आइ ॥२२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इक मनि = एकाग्र मन से। इक चिति = एकाग्र चिक्त से। सउ = से। लाइ = जोड़ के। निरदोख = विकार रहित। गावहि = गाते हैं। उचरहि = उचारते हैं। सवै = लीन रहता है (एकवचन)। समाइ = समाया रहता है। ते = से। सहजि = आत्मिक अडोलता में।22।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने गुरु-चरणों में चिक्त जोड़ के एकाग्र मन से एकाग्र चिक्त से (परमात्मा का नाम) स्मरण किया है, उनके सारे दुख दूर हो जाते हैं, उनकी माया की भूख दूर हो जाती है, उनके अंदर से अहंकार का बड़ा रोग दूर हो जाता है, (प्रभु-चरणों में) तवज्जो जोड़ के वे पवित्र जीवन वाले बन जाते हैं। वह मनुष्य सदा प्रभु के गुण गाते हैं, गुण उचारते हैं।
हे भाई! (गुरु चरणों में तवज्जो जोड़ के) मनुष्य परमात्मा के गुणों में सदा लीन रहता है टिका रहता है। हे नानक! परमात्मा पूरे गुरु के माध्यम से ही मिलता है, आत्मिक अडोलता में आ मिलता है।22।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुखि माइआ मोहु है नामि न लगै पिआरु ॥ कूड़ु कमावै कूड़ु संघरै कूड़ि करै आहारु ॥ बिखु माइआ धनु संचि मरहि अंति होइ सभु छारु ॥ करम धरम सुचि संजमु करहि अंतरि लोभु विकार ॥ नानक मनमुखि जि कमावै सु थाइ न पवै दरगह होइ खुआरु ॥२३॥

मूलम्

मनमुखि माइआ मोहु है नामि न लगै पिआरु ॥ कूड़ु कमावै कूड़ु संघरै कूड़ि करै आहारु ॥ बिखु माइआ धनु संचि मरहि अंति होइ सभु छारु ॥ करम धरम सुचि संजमु करहि अंतरि लोभु विकार ॥ नानक मनमुखि जि कमावै सु थाइ न पवै दरगह होइ खुआरु ॥२३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य के अंदर। नामि = नाम में। कूड़ु = (कुट = fraud, deceipt) धोखा, फरेब, ठगी। संघरै = संग्रह करता है। कूड़ि = फरेब से। आहारु = आजीविका, खुराक। बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाली। संचि = सारा (धन)। सुचि = शारीरिक पवित्रता। संजमु = इन्द्रियों को रोकने का प्रयत्न। करहि = करते हैं (बहुवचन)। जि = जो कुछ। थाइ न पवै = स्वीकार नहीं होता। थाइ = जगह में, सही जगह पर। खुआरु = दुखी, मुसीबत में।23।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य के अंदर माया का मोह (बना रहता) है, (इसलिए उसका परमात्मा से) नाम में प्यार नहीं बनता। वह मनुष्य ठगी-फरेब करता रहता है, ठगी-फरेब (के संस्कार अपने अंदर) इकट्ठे करता जाता है, ठगी-फरेब से ही अपनी आजीविका बनाए रखता है।
हे भाई! आत्मिक मौत लाने वाली माया का धन (मनुष्य के) अंत समय (उसके लिए तो) सारा राख हो जाता है, (पर, इसी) धन को जोड़-जोड़ के (जीव) आत्मिक मौत सहेड़ते रहते हैं, (अपनी तरफ से तीर्थ-यात्रा आदि निहित हुए) धार्मिक कर्म करते रहते हैं, शारीरिक पवित्रता रखते हैं, (एक समान हरेक) संयम करते हैं, (पर, उनके) अंदर लोभ टिका रहता है विकार टिके रहते हैं।
हे नानक! अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (सारी उम्र) जो कुछ करता रहता है वह परमात्मा की हजूरी में स्वीकार नहीं होता, वहाँ पर वह मुसीबत में ही रहता है।23।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभना रागां विचि सो भला भाई जितु वसिआ मनि आइ ॥ रागु नादु सभु सचु है कीमति कही न जाइ ॥ रागै नादै बाहरा इनी हुकमु न बूझिआ जाइ ॥ नानक हुकमै बूझै तिना रासि होइ सतिगुर ते सोझी पाइ ॥ सभु किछु तिस ते होइआ जिउ तिसै दी रजाइ ॥२४॥

मूलम्

सभना रागां विचि सो भला भाई जितु वसिआ मनि आइ ॥ रागु नादु सभु सचु है कीमति कही न जाइ ॥ रागै नादै बाहरा इनी हुकमु न बूझिआ जाइ ॥ नानक हुकमै बूझै तिना रासि होइ सतिगुर ते सोझी पाइ ॥ सभु किछु तिस ते होइआ जिउ तिसै दी रजाइ ॥२४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भाई = हे भाई! सो = वह (‘सचु’ ही, ‘स्मरण’ ही)। भला = अच्छा (उद्यम)। जितु = जिस (उद्यम) से, जिस (स्मरण) से। मनि = मन में। सचु = सदा स्थिर हरि-नाम (का स्मरण)। रागै बाहरा = राग (की कैद) से परे। नादै बाहरा = नाद (की कैद) से परे। इनी = इन (रागों और नादों) से। नादु = आवाज, सिंगी आदि का बजाना। बूझै = समझता है (एकवचन)। तिना = उनके लिए। रासि होइ = (राग भी) रास हुए, (राग भी) सफल हो जाता है, (राग भी) सहायक बन जाता है। ते = से। सोझी = रजा की सूझ। तिस ते = उस परमात्मा से। जिउ = जैसे।24।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस ते’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘ते’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! सदा-स्थिर हरि-नाम (का नाम-जपना ही मनुष्य के लिए) सब कुछ है, सदा-स्थिर हरि-नाम ही (मनुष्य के लिए) राग है नाद है, (हरि-नाम के स्मरण का) मूल्य बयान नहीं किया जा सकता। हे भाई! सारे रागों में वह (हरि-नाम-स्मरण ही) अच्छा (उद्यम) है, क्योंकि उस (स्मरण) से (ही परमात्मा मनुष्य के) मन में आ बसता है। परमात्मा (का मिलाप) राग (की कैद) से परे है, नाद (की कैद) से परे है। इन (रागों-नादों) से (परमात्मा की) रज़ा को समझा नहीं जा सकता।
हे नानक! (जो जो मनुष्य परमात्मा की) रज़ा को समझ लेता है उनके लिए (राग भी) सहायक हो सकता है (वैसे सिर्फ राग ही आत्मिक जीवन के रास्ते में सहायक नहीं हैं)।
हे भाई! गुरु के माध्यम से ये (बात) समझ आ जाती है कि सब कुछ उस परमात्मा से ही हो रहा है, जैसे उसकी रजा है, (वैसे ही सब कुछ हो रहा है)।24।

[[1424]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुर विचि अम्रित नामु है अम्रितु कहै कहाइ ॥ गुरमती नामु निरमलुो निरमल नामु धिआइ ॥ अम्रित बाणी ततु है गुरमुखि वसै मनि आइ ॥ हिरदै कमलु परगासिआ जोती जोति मिलाइ ॥ नानक सतिगुरु तिन कउ मेलिओनु जिन धुरि मसतकि भागु लिखाइ ॥२५॥

मूलम्

सतिगुर विचि अम्रित नामु है अम्रितु कहै कहाइ ॥ गुरमती नामु निरमलुो निरमल नामु धिआइ ॥ अम्रित बाणी ततु है गुरमुखि वसै मनि आइ ॥ हिरदै कमलु परगासिआ जोती जोति मिलाइ ॥ नानक सतिगुरु तिन कउ मेलिओनु जिन धुरि मसतकि भागु लिखाइ ॥२५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंम्रित नाम = आत्मिक जीवन देने वाला हरि नाम। कहै = जपता है, उचारता है। कहाइ = जपाता है (औरों से)। निरमलुो = पवित्र। अंम्रित बाणी = आत्मिक जीवन देने वाली वाणी मैं। ततु = अस्लियत। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। मनि = मन में। परगासिआ = मिल जाता है। जोति = जिंद। मेलिओनु = उस (प्रभु) ने मिलाया है। धुरि = धुर दरगाह से। मसतकि = माथे पर। भागु = भाग्य, अच्छी किस्मत।25।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘निरमलुो’ में से अक्षर ‘ल’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘निरमलु’, यहां ‘निरमलो’ पढ़ना है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! (परमात्मा का) आत्मिक जीवन देने वाला नाम गुरु (के दिल) में बसता है, (गुरु स्वयं यह) अमृत नाम जपता है (व औरों से) जपाता है। गुरु की मति पर चलने से ही (यह) पवित्र नाम (प्राप्त होता है। गुरु की मति पर चल के ही मनुष्य यह) पवित्र-नाम जप (सकता है)।
हे भाई! (मनुष्य जीवन का) तत्व (हरि-नाम गुरु की) आत्मिक जीवन देने वाली वाणी से ही मिलता है, गुरु की शरण पड़ने से ही (हरि-नाम मनुष्य के) मन में आ बसता है (जिस मनुष्य के अंदर हरि-नाम आ बसता है, उसके) हृदय में कमल-फूल खिल उठता है, (उसकी) जिंद परमात्मा की ज्योति में मिली रहती है। पर, हे नानक! उस (परमात्मा) ने गुरु उन (मनुष्यों) को मिलाया, जिनके माथे पर (उसने) धुर-दरगाह से (ये) अच्छी किस्मत लिख दी।25।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंदरि तिसना अगि है मनमुख भुख न जाइ ॥ मोहु कुट्मबु सभु कूड़ु है कूड़ि रहिआ लपटाइ ॥ अनदिनु चिंता चिंतवै चिंता बधा जाइ ॥ जमणु मरणु न चुकई हउमै करम कमाइ ॥ गुर सरणाई उबरै नानक लए छडाइ ॥२६॥

मूलम्

अंदरि तिसना अगि है मनमुख भुख न जाइ ॥ मोहु कुट्मबु सभु कूड़ु है कूड़ि रहिआ लपटाइ ॥ अनदिनु चिंता चिंतवै चिंता बधा जाइ ॥ जमणु मरणु न चुकई हउमै करम कमाइ ॥ गुर सरणाई उबरै नानक लए छडाइ ॥२६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनमुख अंदरि = अपने मन के मुरीद मनुष्य के दिल में। अगि = आग। जाइ = दूर होती। कूड़ु = नाशवान पसारा। कूड़ि = नाशवान पसारे में। रहिआ लपटाइ = फसा रहता है। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। चिंतवै = सोचता रहता है। बधा = बँधा हुआ। जाइ = (जगत से) चल पड़ता है। न चुकई = नहीं खत्म होता। कमाइ = करता रहता है। उबरै = बचता है। नानक = हे नानक!।26।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के मुरीद मनुष्य के हृदय में तृष्णा की (आग जलती) रहती है, (उसके अंदर से माया की) भूख (कभी) दूर नहीं होती। हे भाई! (जगत का यह) मोह नाशवान पसारा है, (यह) परिवार (भी) नाशवान है, (पर, मन का मुरीद मनुष्य इस) नाशवान पसारे में (सदा) फसा रहता है, हर वक्त (माया के मोह की) सोचें सोचता रहता है, सोचों में बँधा हुआ (ही जगत से) चला जाता है, अहंकार के आसरे ही (सारे) काम करता रहता है (तभी तो उसका) जनम-मरण का चक्कर (कभी) खत्म नहीं होता। पर, हे नानक! गुरु की शरण पड़ कर (वह मनुष्य भी मोह के जाल में से) बच निकलता है, गुरु (इस मोह-जाल में से) छुड़ा लेता है।26।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुर पुरखु हरि धिआइदा सतसंगति सतिगुर भाइ ॥ सतसंगति सतिगुर सेवदे हरि मेले गुरु मेलाइ ॥ एहु भउजलु जगतु संसारु है गुरु बोहिथु नामि तराइ ॥ गुरसिखी भाणा मंनिआ गुरु पूरा पारि लंघाइ ॥ गुरसिखां की हरि धूड़ि देहि हम पापी भी गति पांहि ॥ धुरि मसतकि हरि प्रभ लिखिआ गुर नानक मिलिआ आइ ॥ जमकंकर मारि बिदारिअनु हरि दरगह लए छडाइ ॥ गुरसिखा नो साबासि है हरि तुठा मेलि मिलाइ ॥२७॥

मूलम्

सतिगुर पुरखु हरि धिआइदा सतसंगति सतिगुर भाइ ॥ सतसंगति सतिगुर सेवदे हरि मेले गुरु मेलाइ ॥ एहु भउजलु जगतु संसारु है गुरु बोहिथु नामि तराइ ॥ गुरसिखी भाणा मंनिआ गुरु पूरा पारि लंघाइ ॥ गुरसिखां की हरि धूड़ि देहि हम पापी भी गति पांहि ॥ धुरि मसतकि हरि प्रभ लिखिआ गुर नानक मिलिआ आइ ॥ जमकंकर मारि बिदारिअनु हरि दरगह लए छडाइ ॥ गुरसिखा नो साबासि है हरि तुठा मेलि मिलाइ ॥२७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुर भाइ = गुरु के प्यार में (टिक के)। सेवदे = शरण पड़ते हैं। भउजलु = संसार समुंदर। बोहिथ = जहाज। नामि = नाम से। तराइ = पार लंघा लेता है। गुरसिखी = गुरु के सिखों ने। भाणा = रज़ा, मर्जी। हरि = हे हरि! गति = उच्च आत्मिक अवस्था। पांहि = हम हासिल कर सकें। धुरि = धुर दरगाह से। मसतकि = माथे पर। गुर मिलिआ = गुरु को मिल गया। कंकर = किंकर, दास, सेवक। जम कंकर = जम के दास जमदूत (बहुवचन)। मारि = मार के। बिदारिअनु = (उस गुरु ने) खत्म कर दिए। नो = को। तुठा = प्रसन्न।27।
अर्थ: हे भाई! गुरु महापुरख साधु-संगत में गुरु के प्यार में टिक के परमात्मा का स्मरण करता रहता है। (जो मनुष्य) साधु-संगत में आ के गुरु की शरण पड़ते हैं, गुरु उनको परमात्मा में जोड़ देता है परमात्मा के साथ मिला देता है। (हे भाई! वैसे तो) यह जगत इस संसार में भयानक समुंदर है, पर गुरु-जहाज (शरण आए जीवों को) हरि-नाम में (जोड़ के इस समुंदर से) पार लंघा देता है। (जिस) गुरसिखों ने (गुरु का) हुक्म मान लिया, पूरा गुरु (उनको संसार-समुंदर से) पार लंघाता है।
हे हरि! हम जीवों को गुरसिखों के चरणों की धूल बख्श, ताकि हम विकारी जीव भी उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त कर सकें।
हे नानक! धुर-दरगाह से हरि-प्रभु का लिखा लेख (जिस मनुष्य के) माथे पर उघड़ पड़ता है वह मनुष्य गुरु को आ मिलता है। उस (गुरु) ने (सारे) जमदूत मार के खत्म कर दिए। (गुरु उसको) परमात्मा के दरगाह में सही स्वीकार करा लेता है।
हे भाई! गुरसिखों को (लोक-परलोक में) आदर-सत्कार मिलता है, प्रभु उन पर प्रसन्न हो के (उनको अपने साथ) मिला लेता है।27।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरि पूरै हरि नामु दिड़ाइआ जिनि विचहु भरमु चुकाइआ ॥ राम नामु हरि कीरति गाइ करि चानणु मगु देखाइआ ॥ हउमै मारि एक लिव लागी अंतरि नामु वसाइआ ॥ गुरमती जमु जोहि न सकै सचै नाइ समाइआ ॥ सभु आपे आपि वरतै करता जो भावै सो नाइ लाइआ ॥ जन नानकु नाउ लए तां जीवै बिनु नावै खिनु मरि जाइआ ॥२८॥

मूलम्

गुरि पूरै हरि नामु दिड़ाइआ जिनि विचहु भरमु चुकाइआ ॥ राम नामु हरि कीरति गाइ करि चानणु मगु देखाइआ ॥ हउमै मारि एक लिव लागी अंतरि नामु वसाइआ ॥ गुरमती जमु जोहि न सकै सचै नाइ समाइआ ॥ सभु आपे आपि वरतै करता जो भावै सो नाइ लाइआ ॥ जन नानकु नाउ लए तां जीवै बिनु नावै खिनु मरि जाइआ ॥२८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। दिढ़ाइआ = (हृदय में) पक्का कर दिया। जिनि = जिस (गुरु) ने। विचहु = (जीव के) अंदर से। भरमु = भटकना। चुकाइआ = खत्म कर दिया। कीरति = महिमा। गाइ = (खुद) गा के। करि = पैदा कर के। मगु = रास्ता। मारि = मार के। लिव = तवज्जो, ध्यान। जोहि न सकै = ताक नहीं सकता। सचै नाइ = सदा कायम रहने वाले हरि नाम में। सभ = हर जगह। आपे = आप ही। वरतै = मौजूद है। जो भावै = जो जीव उसको अच्छा लगता है। नाइ = नाम में। नानकु नाउ लए = नानक हरि नाम लेता है। तां = तब। जीवै = आत्मिक जीवन प्राप्त कर लेता है। मरि जाइआ = आत्मिक मौत आई समझता है, मर जाता है।28।
अर्थ: हे भाई! (जिस) पूरे गुरु ने (जीव के अंदर सदा) परमात्मा का नाम पक्का किया है, जिस (पूरे गुरु) ने (जीव के) अंदर से भटकना (सदा) खत्म की है, (उस गुरु ने खुद) परमात्मा का नाम (स्मरण करके), परमात्मा की महिमा गा गा के (शरण आए मनुष्य के दिल में आत्मिक जीवन का) प्रकाश पैदा करके (उसको आत्मिक जीवन का सही) रास्ता (सदा) दिखाया है।
हे भाई! (पूरे गुरु से) अहंकार दूर करके (जिस मनुष्य के अंदर) एक परमात्मा की लगन लग गई, (उसने अपने) दिल में परमात्मा का नाम बसा लिया। गुरु की मति पर चलने के कारण जमराज भी (उस मनुष्य की ओर) ताक नहीं सकता, (वह मनुष्य) सदा-स्थिर हरि-नाम में (सदा) लीन रहता है। (उसको यह निश्चय बन जाता है कि) हर जगह कर्तार स्वयं ही स्वयं मौजूद है, जो मनुष्य उसको अच्छा लगने लगता है उसको अपने नाम में जोड़ लेता है।
हे भाई! दास नानक (भी जब परमात्मा का) नाम जपता है तब आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है। भाई! परमात्मा के नाम के बिना तो जीव एक छिन में ही आत्मिक मौत सहेड़ लेता है।28।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन अंतरि हउमै रोगु भ्रमि भूले हउमै साकत दुरजना ॥ नानक रोगु गवाइ मिलि सतिगुर साधू सजणा ॥२९॥

मूलम्

मन अंतरि हउमै रोगु भ्रमि भूले हउमै साकत दुरजना ॥ नानक रोगु गवाइ मिलि सतिगुर साधू सजणा ॥२९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भ्रमि = भटकना में। भूले = गलत रास्ते पर पड़े हुए हैं। साकत = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य। दुरजन = दुराचारी मनुष्य, बुरे लोग। अंतरि = अंदर। गवाइ = दूर कर लेता है। मिलि = मिल के।29।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा से टूटे हुए दुराचारी मनुष्यों के मन में अहंकार का रोग (सदा टिका रहता है), इस अहंकार के कारण भटकना में पड़ कर वे (जीवन के) ग़लत रास्ते पड़े रहते हैं। हे नानक! (साकत मनुष्य भी) सज्जन साधु गुरु को मिल के (अहंकार का यह) रोग दूर कर लेता है।29।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमती हरि हरि बोले ॥ हरि प्रेमि कसाई दिनसु राति हरि रती हरि रंगि चोले ॥ हरि जैसा पुरखु न लभई सभु देखिआ जगतु मै टोले ॥ गुर सतिगुरि नामु दिड़ाइआ मनु अनत न काहू डोले ॥ जन नानकु हरि का दासु है गुर सतिगुर के गुल गोले ॥३०॥

मूलम्

गुरमती हरि हरि बोले ॥ हरि प्रेमि कसाई दिनसु राति हरि रती हरि रंगि चोले ॥ हरि जैसा पुरखु न लभई सभु देखिआ जगतु मै टोले ॥ गुर सतिगुरि नामु दिड़ाइआ मनु अनत न काहू डोले ॥ जन नानकु हरि का दासु है गुर सतिगुर के गुल गोले ॥३०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमती = गुरु की मति पर चल के। बोले = जपती रहती है। प्रेमि = प्रेम में। कसाई = खींची रहती है। हरि रंगि = हरि के (प्रेम-) रंग में। रती = रंगी हुई। चोले = (आत्मिक आनंद) पाती है। पुरखु = पति। न लभई = नहीं मिलता। टोलै = खोज के। सतिगुरि = सतिगुरु ने। दिढ़ाइआ = (दिल में) पक्का कर दिया। अनत = (अन्यत्र) और तरफ। अनत काहू = किसी भी और तरफ। गुल गोले = गोलों के गोलों का, दासों के दासों का।30।
अर्थ: हे भाई! (जो जीव-स्त्री) गुरु की मति पर चल कर (सदा) परमात्मा का नाम जपती रहती है, वह दिन-रात परमात्मा के प्यार में खिंची रहती है, परमात्मा (के नाम) में रति रहती है, वह परमात्मा के (प्रेम-) रंग में (आत्मिक आनंद) माणती रहती है।
हे भाई! मैंने सारा संसार तलाश के देख लिया है, परमात्मा जैसा पति (किसी और जगह) नहीं मिलता।
हे भाई! गुरु सतिगुरु ने (जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का) नाम पक्का कर दिया, (उसका) मन किसी भी और तरफ नहीं डोलता। हे भाई! दास नानक (भी) परमात्मा का दास है, गुरु सतिगुरु के दासों के दासों का दास है।30।

[[1425]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

सलोक महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रते सेई जि मुखु न मोड़ंन्हि जिन्ही सिञाता साई ॥ झड़ि झड़ि पवदे कचे बिरही जिन्हा कारि न आई ॥१॥

मूलम्

रते सेई जि मुखु न मोड़ंन्हि जिन्ही सिञाता साई ॥ झड़ि झड़ि पवदे कचे बिरही जिन्हा कारि न आई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रते = (प्रेम रंग में) रंगे हुए। सोई = वह (मनुष्य) ही (बहुवचन)। जि = जो (मनुष्य)। जिनी = जिन्हों ने। सिञाता = समझा, गहरी सांझ डाली हुई है। साई = साई, पति प्रभु। झड़ि झड़ि पवदे = बार बार झड़ते हैं। कचे बिरही = कमजोर प्रीत वाले। कारि = कारी, मुआफिक (देखो, ‘गुर की मति जीइ आई कारि’ = पंन्ना 220)।1।
अर्थ: हे भाई! वे मनुष्य ही (प्रेम-रंग में) रंगे हुए हैं, जो (पति-प्रभु की याद से कभी भी) मुँह नहीं मोड़ते (कभी भी प्रभु की याद नहीं भुलाते), जिन्होंने पति-प्रभु के साथ गहरी सांझ डाली हुई है। पर जिनको (प्रेम की दवाई) मुआफिक नहीं बैठती (ठीक असर नहीं करती,) वह कमजोर प्रेम वाले मनुष्य (प्रभु चरणों से इस तरह) बार-बार टूटते हैं (जैसे कमजोर कच्चे फल टाहनी से)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धणी विहूणा पाट पट्मबर भाही सेती जाले ॥ धूड़ी विचि लुडंदड़ी सोहां नानक तै सह नाले ॥२॥

मूलम्

धणी विहूणा पाट पट्मबर भाही सेती जाले ॥ धूड़ी विचि लुडंदड़ी सोहां नानक तै सह नाले ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धणी = मालिक प्रभु। विहूणा = बिना। पाट = रेशम। पटंबर = पट+अंबर, पाट/रेशम के कपड़े। भाहि = आग। सेती = से। भाही सेती = आग से। जाले = जला दिए हैं। लुडंदड़ी = लेटती। सोहां = मैं सुंदर लगती है। नानक = हे नानक! सह नाले = पति से। तै नाले = तेरे साथ। तै सह नाले = हे पति! तेरे साथ।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) (मैंने तो वह) रेशमी कपड़े (भी) आग के साथ जला दिए हैं (जिनके कारण जीवन) पति-प्रभु (की याद) से वंचित ही रहे। हे पति-प्रभु! तेरे साथ (तेरे चरणों में रह के) मैं धूल-मिट्टी में लिबड़ी हुई भी (अपने आप को) सुंदर लगती हूँ।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर कै सबदि अराधीऐ नामि रंगि बैरागु ॥ जीते पंच बैराईआ नानक सफल मारू इहु रागु ॥३॥

मूलम्

गुर कै सबदि अराधीऐ नामि रंगि बैरागु ॥ जीते पंच बैराईआ नानक सफल मारू इहु रागु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कै सबदि = के शब्द से। अराधीऐ = स्मरणा चाहिए। नामि = नाम में (जुड़ने से), नाम से। रंगि = प्रेम रंग से। बैरागु = विकारों से उपरामता। जीते = जीते जाते हैं, वश में आ जाते हैं। पंच बैराईआ = (कामादिक) पाँचों वैरी। सफल = कामयाब। मारू = खत्म कर देने वाली (दवा)। रागु = हुलारा, प्यार का हुलारा (emotion, feeling)।3।
अर्थ: हे भाई! गुरु के शब्द में जुड़ के परमात्मा का नाम स्मरणा चाहिए। (प्रभु के) नाम की इनायत से, (प्रभु के प्रेम-) रंग की इनायत से (मन में विकारों की ओर से) उपरामता (पैदा हो जाती है), (कामादिक) पाँचों वैरी बस में आ जाते हैं। हे नानक! ये प्रेम-हिलौरे (विकार-रोगों को) खत्म कर देने वाली कारगर दवा हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जां मूं इकु त लख तउ जिती पिनणे दरि कितड़े ॥ बामणु बिरथा गइओ जनमु जिनि कीतो सो विसरे ॥४॥

मूलम्

जां मूं इकु त लख तउ जिती पिनणे दरि कितड़े ॥ बामणु बिरथा गइओ जनमु जिनि कीतो सो विसरे ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जां = जब। मूं = मेरा, मेरी ओर। त = तब। लख = लाखों ही (मेरी ओर)। तउ = तेरी। जिती = जितनी भी। तउ जिती = तेरी जितनी भी (सृष्टि है)। दरि = (तेरे) दर पर। कितड़े = कितने ही, अनेक, यह सारे अनेक। पिनड़े = माँगने वाले, भिखारी। बामणु जनंमु = (सबसे ऊँचा समझे जाने वाला) ब्राहमण (के घर का) जनम (भी)। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। कीतो = पैदा किया है। सो = वह (परमात्मा)।4।
अर्थ: हे प्रभु! जब तू एक मेरी ओर है, तब (तेरे) पैदा किए हुए लाखों ही (जीव मेरी ओर हो जाते हैं)। (ये) तेरी जितनी भी (पैदा की हुई सृष्टि है, तेरे) दर पर (यह सारे) अनेक ही भिखारी हैं।
हे भाई! जिस परमात्मा ने पैदा किया है, अगर वह भूला रहे (मनुष्य को पैदा करने वाला वह भूल जाए), तो (सबसे ऊँचा समझे जाना वाला) ब्राहमण (के घर का) जनम (भी) व्यर्थ चला गया।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठि सो रसु पीजीऐ कबहू न फीका होइ ॥ नानक राम नाम गुन गाईअहि दरगह निरमल सोइ ॥५॥

मूलम्

सोरठि सो रसु पीजीऐ कबहू न फीका होइ ॥ नानक राम नाम गुन गाईअहि दरगह निरमल सोइ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सोरठि = एक रागिनी। सो रसु = वह (नाम-) रस। पीजीऐ = पीना चाहिए। कबहू = कभी भी। फीका = बेस्वादा। गाईअहि = गाने चाहिए। सोइ = शोभा। निरमल सोइ = बेदाग शोभा।5।
अर्थ: हे भाई! वह (हरि-नाम-) रस पीते रहना चाहिए, जो कभी भी बेस्वादा नहीं होता। हे नानक! परमात्मा के नाम के गुण (सदा) गाए जाने चाहिए (इस तरह परमात्मा की) हजूरी में बेदाग़ शोभा मिलती है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो प्रभि रखे आपि तिन कोइ न मारई ॥ अंदरि नामु निधानु सदा गुण सारई ॥ एका टेक अगम मनि तनि प्रभु धारई ॥ लगा रंगु अपारु को न उतारई ॥ गुरमुखि हरि गुण गाइ सहजि सुखु सारई ॥ नानक नामु निधानु रिदै उरि हारई ॥६॥

मूलम्

जो प्रभि रखे आपि तिन कोइ न मारई ॥ अंदरि नामु निधानु सदा गुण सारई ॥ एका टेक अगम मनि तनि प्रभु धारई ॥ लगा रंगु अपारु को न उतारई ॥ गुरमुखि हरि गुण गाइ सहजि सुखु सारई ॥ नानक नामु निधानु रिदै उरि हारई ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। न मारई = ना मारे, नहीं मारता, नहीं मार सकता। निधानु = खजाना। सारई = संभालता है, हृदय में बसाए रखता है। अगंम = अगम्य (पहुँच से परे)। टेक अगंम = अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु का आसरा। मनि = मन में। तनि = तन में। धारई = धारे, बसाता है, बसाए रखता है। रंगु = प्रेम रंग। अपार = कभी ना खत्म होने वाला (अ+पार)। को = कोई जीव। न उतारई = न उतारे, दूर नहीं कर सकता। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। गाइ = गाता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सारई = सारे, संभालता है। रिदै = हृदय में। उरि = हृदय में। हारई = धारे, टिकाए रखता है।6।
अर्थ: हे भाई! जिस (मनुष्यों) की प्रभु ने खुद रक्षा की, उनको कोई मार नहीं सकता। हे भाई! (जिस मनुष्य के) हृदय में परमात्मा का नाम खजाना बस रहा है, वह सदा परमात्मा के गुण याद करता रहता है। जिसको एक अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु का (सदा) आसरा है, वह अपने मन में तन में प्रभु को बसाए रखता है। (जिसके हृदय में) कभी ना खत्म होने वाला प्रभु-प्रेम बन जाता है, उस प्रेम-रंग को कोई उतार नहीं सकता।
हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य परमात्मा के गुण गाता रहता है, और आत्मिक अडोलता में (टिक के आत्मिक) आनंद माणता रहता है। हे नानक! (गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य) परमात्मा के नाम का खजाना अपने हृदय में (इस तरह) टिकाए रखता है (जैसे हार गले में डाल के रखा जाता है)।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करे सु चंगा मानि दुयी गणत लाहि ॥ अपणी नदरि निहालि आपे लैहु लाइ ॥ जन देहु मती उपदेसु विचहु भरमु जाइ ॥ जो धुरि लिखिआ लेखु सोई सभ कमाइ ॥ सभु कछु तिस दै वसि दूजी नाहि जाइ ॥ नानक सुख अनद भए प्रभ की मंनि रजाइ ॥७॥

मूलम्

करे सु चंगा मानि दुयी गणत लाहि ॥ अपणी नदरि निहालि आपे लैहु लाइ ॥ जन देहु मती उपदेसु विचहु भरमु जाइ ॥ जो धुरि लिखिआ लेखु सोई सभ कमाइ ॥ सभु कछु तिस दै वसि दूजी नाहि जाइ ॥ नानक सुख अनद भए प्रभ की मंनि रजाइ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करे = (जो काम परमात्मा) करता है। सु = उस (काम) को। मानि = मान, मसझ। दुयी = दूसरी, और-और, अन्य। गणत = चिन्ता। लाहि = दूर कर। नदरि = मेहर की निगाह से। निहालि = देख के। आपे = खुद ही। लेहु लाइ = (अपने चरणों में) जोड़ ले। मती = मति, बुद्धि। उपदेसु = शिक्षा। विचहु = (सेवक के) अंदर से। भरमु = भटकना। जाइ = दूर हो जाए। धुरि = धुर दरगाह से। सोई = वह (लिखा लेख) ही। सभ = सारी लुकाई। तिस दै वसि = उस (परमात्मा) के वश में। जाइ = जगह। भए = हो जाते हैं। मनि = मान के। रजाइ = रजा, भाणा, हुक्म।7।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस दै’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘दै’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! (जो काम परमात्मा) करता है, उस (काम) को अच्छा समझ, (और अपने अंदर से) और तरह की चिन्ता-फिकरें दूर कर।
हे प्रभु! (जीवों के किए कर्मों के अनुसार) धुर दरगाह से जो लेख (इनके माथे पर) लिखा जाता है, सारी दुनिया (उस लेख के अनुसार ही हरेक) कार करती है (क्योंकि) हरेक कार उस (परमात्मा) के वश में है; (उसके बिना जीवों के लिए) और कोई जगह (आसरा) नहीं है।
हे नानक! परमात्मा की रजा को मान के (जीव के अंदर आत्मिक) सुख-आनंद बने रहते हैं।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरु पूरा जिन सिमरिआ सेई भए निहाल ॥ नानक नामु अराधणा कारजु आवै रासि ॥८॥

मूलम्

गुरु पूरा जिन सिमरिआ सेई भए निहाल ॥ नानक नामु अराधणा कारजु आवै रासि ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस (जिस) ने। सेई = वह (सारे) ही। निहाल = प्रसन्न चिक्त। कारजु आवै रासि = (हरेक) काम सिरे चढ़ जाता है, सफल हो जाता है।8।
अर्थ: हे भाई! जिस जिस मनुष्य ने पूरे गुरु को (गुरु के उपदेश को) याद रखा, वह सारे प्रसन्न-चिक्त हो गए। हे नानक! (गुरु का उपदेश यह है कि परमात्मा का) नाम स्मरणा चाहिए (नाम-जपने की इनायत से) जीवन का लक्ष्य सफल हो जाता है।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पापी करम कमावदे करदे हाए हाइ ॥ नानक जिउ मथनि माधाणीआ तिउ मथे ध्रम राइ ॥९॥

मूलम्

पापी करम कमावदे करदे हाए हाइ ॥ नानक जिउ मथनि माधाणीआ तिउ मथे ध्रम राइ ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करदे हाइ हाइ = दुखी होते रहते हैं। मथनि = मथती रहती हैं। ध्रमराइ = धरमराज।9।
अर्थ: हे भाई! विकारी मनुष्य (विकारों के) काम करते रहते हैं। हे नानक! (विकारियों को) धरमराज (हर वक्त) इस तरह दुखी करता रहता है जैसे मथानियां (दूध) मथती हैं।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामु धिआइनि साजना जनम पदारथु जीति ॥ नानक धरम ऐसे चवहि कीतो भवनु पुनीत ॥१०॥

मूलम्

नामु धिआइनि साजना जनम पदारथु जीति ॥ नानक धरम ऐसे चवहि कीतो भवनु पुनीत ॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धिआइनि = (बहुवचन) ध्याते हैं। पदारथु = कीमती चीज। जीति = जीत के। चवहि = बोलते हैं। ऐसे = इस तरह। भवनु = जगत, संसार। पुनीत = पवित्र।10।
अर्थ: हे भाई! जो भले मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं, वे इस कीमती मनुष्य जीवन की बाज़ी जीत के (जाते हैं)। हे नानक! जो मनुष्य (मनुष्य के जीवन का) उद्देश्य (हरि-नाम) उचारते रहते हैं, वे जगत को भी पवित्र कर देते हैं।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

खुभड़ी कुथाइ मिठी गलणि कुमंत्रीआ ॥ नानक सेई उबरे जिना भागु मथाहि ॥११॥

मूलम्

खुभड़ी कुथाइ मिठी गलणि कुमंत्रीआ ॥ नानक सेई उबरे जिना भागु मथाहि ॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खुभड़ी = बुरी तरह चुभी रहती है। कुथाइ = गलत जगह में। गलणि = जिल्लत। मंत्र = उपदेश, शिक्षा। कुमंत्र = बुरी शिक्षा। कुमंत्रीआ = बुरी मति लेने वाली। सेई = वह लोग ही। उबरे = बचते हैं। जिना मथाहि = जिनके माथे पर।11।
अर्थ: हे भाई! बुरी मति लेने वाली (जीव-स्त्री माया के मोह की जिल्लत में) गलत जगह पर बुरे हाल चुभी (धँसी) रहती है, (पर यह) जिल्लत (उसको) मीठी (भी लगती है)। हे नानक! वह मनुष्य ही (माया के मोह की इस जिल्लत में से) बच निकलते हैं, जिनके माथे पर भाग्य (जाग उठते हैं)।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुतड़े सुखी सवंन्हि जो रते सह आपणै ॥ प्रेम विछोहा धणी सउ अठे पहर लवंन्हि ॥१२॥

मूलम्

सुतड़े सुखी सवंन्हि जो रते सह आपणै ॥ प्रेम विछोहा धणी सउ अठे पहर लवंन्हि ॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुतड़े = प्रेम लगन में मस्त रहने वाले। सवंन्हि = सोते हैं, जीवन व्यतीत करते हैं। सहु = पति। सह आपणै = अपने शहु के (प्रेम रंग) में। रते = रंगे हुए। विछोहा = विछोड़ा। धणी = मालिक प्रभु। सउ = से। लवंन्हि = लौ लौ करते रहते हैं (बिना मतलब बोलते रहते हैं)।12।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य अपने पति-प्रभु के प्रेम-रंग में रंगे रहते हैं, प्रेम-लगन में मस्त रहने वाले वे मनुष्य आनंद से जीवन व्यतीत करते हैं। पर, जिस मनुष्यों को पति से प्रेम का विछोड़ा रहता है, वह (माया की खातिर) आठों पहर (कौऐ की तरह) काँव-काँव करते रहते हैं।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुतड़े असंख माइआ झूठी कारणे ॥ नानक से जागंन्हि जि रसना नामु उचारणे ॥१३॥

मूलम्

सुतड़े असंख माइआ झूठी कारणे ॥ नानक से जागंन्हि जि रसना नामु उचारणे ॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: असंख = अनगिनत। कारणे = की खातिर। से = वे (बहुवचन)। जि = जो।13।
अर्थ: हे भाई! नाशवान माया की खातिर अनगिनत जीव (मोह की नींद में) सोए रहते हैं। हे नानक! (मोह की इस नींद में से सिर्फ) वही लोग जागते रहते हैं, जो (अपनी) जीभ से परमात्मा का नाम जपते रहते हैं।13।

विश्वास-प्रस्तुतिः

म्रिग तिसना पेखि भुलणे वुठे नगर गंध्रब ॥ जिनी सचु अराधिआ नानक मनि तनि फब ॥१४॥

मूलम्

म्रिग तिसना पेखि भुलणे वुठे नगर गंध्रब ॥ जिनी सचु अराधिआ नानक मनि तनि फब ॥१४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: म्रिग तिसना = मृग तृष्णा, ठग नीरा। पेखि = देख के। वुठे = जब आ बसे, जब दिखाई दे गए। नगर गंध्रब = गंधर्व नगर, हरी चंद की नगरी, हवाई किला। सचु = सदा कायम रहने वाला हरि नाम। मनि = मन में। तनि = तन में। छब = सुंदरता, फब।4।
अर्थ: हे भाई! (जैसे) मृगतृष्णा को देख के (हिरण भूल जाते हैं कि और जान गवा लेते हैं, वैसे ही माया की) बनी गंधर्व-नगरी को देख के (जीव) गलत राह पर पड़े रहते हैं। हे नानक! जिस मनुष्यों ने सदा-स्थिर हरि-नाम स्मरण किया, उनके मन में उनके तन में (आत्मिक जीवन की) सुंदरता पैदा हो गई।14।

[[1426]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतित उधारण पारब्रहमु सम्रथ पुरखु अपारु ॥ जिसहि उधारे नानका सो सिमरे सिरजणहारु ॥१५॥

मूलम्

पतित उधारण पारब्रहमु सम्रथ पुरखु अपारु ॥ जिसहि उधारे नानका सो सिमरे सिरजणहारु ॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पतित = (विकारों में) गिरे हुए। पतित उधारण = विकारियों को विकार में से निकालने वाला। संम्रथ = सभी ताकतों का मालिक। अपार = बेअंत। जिसहि = जिस (मनुष्य) को। उधारे = (विकारों से) बचाता है। सो = वह मनुष्य (एकवचन)।15।
अर्थ: हे भाई! अकाल पुरख परमात्मा बेअंत है, सब ताकतों का मालिक है, विकारियों को विकारों से बचाने वाला है। हे नानक! जिस (जीव) को वह विकारों में निकालता है, वह उस विधाता कर्तार को स्मरण करने लग जाता है।15।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दूजी छोडि कुवाटड़ी इकस सउ चितु लाइ ॥ दूजै भावीं नानका वहणि लुड़्हंदड़ी जाइ ॥१६॥

मूलम्

दूजी छोडि कुवाटड़ी इकस सउ चितु लाइ ॥ दूजै भावीं नानका वहणि लुड़्हंदड़ी जाइ ॥१६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: छोडि = छोड़ दे। दूजी कुवाटड़ी = (परमात्मा की याद के बिना) और अनुचित रास्ता। सउ = से। भाव = प्यार। भावीं = प्यारों में। दूजे भावीं = (परमात्मा के बिना) औरों के स्नेह में (फसने से)। वहणि = बहाव में। लुड़ंदड़ी = लुढ़कती, बहती। जाइ = जाती है।16।
अर्थ: हे भाई! सिर्फ एक परमात्मा के साथ (अपना) चिक्त जोड़े रख, (प्रभु की याद के बिना) माया के मोह वाला अनुचित रास्ता छोड़ दे। हे नानक! औरों के प्यार में (फसने से), जीव-स्त्री (विकारों के) बहाव में बहती चली जाती है।16।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिहटड़े बाजार सउदा करनि वणजारिआ ॥ सचु वखरु जिनी लदिआ से सचड़े पासार ॥१७॥

मूलम्

तिहटड़े बाजार सउदा करनि वणजारिआ ॥ सचु वखरु जिनी लदिआ से सचड़े पासार ॥१७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिहटड़े = ति+हटड़े, तीन हाटों वाले। तिहटड़े बाजार = तीन हाटों वाले बाजार में, माया के तीन गुणों के प्रभाव में। करनि = करते हैं। सउदा = दुनिया का कार व्यवहार। वणजारिआ = जगत में वणज करने आए जीव। सचु = सदा स्थिर हरि नाम। पासार = पसारी।17।
अर्थ: हे भाई! (जगत में हरि-नाम का) वणज करने आए हुए जीव (आम तौर पर) माया के तीन गुणों के प्रभाव तले ही दुनिया की कार्य-व्यवहार करते रहते हैं। असल व्यापारी वे हैं जिन्होंने (यहाँ से) सदा-स्थिर हरि-नाम (का) सौदा लादा है।17।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पंथा प्रेम न जाणई भूली फिरै गवारि ॥ नानक हरि बिसराइ कै पउदे नरकि अंध्यार ॥१८॥

मूलम्

पंथा प्रेम न जाणई भूली फिरै गवारि ॥ नानक हरि बिसराइ कै पउदे नरकि अंध्यार ॥१८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पंथा = रास्ता। पंथा प्रेम = प्रेम का रासता। जाणई = जाने, जानती (एकवचन)। गवारि = मूर्ख जीव-स्त्री। भूली = सही जीवन-राह से विछुड़ी हुई। बिसराइ कै = भुला के। नरकि = नरक में। नरकि अंध्यार = अंधेरे नर्क में।18।
अर्थ: हे भाई! जो जीव-स्त्री (परमात्मा के) प्रेम का रास्ता नहीं जानती, वह मूर्ख स्त्री जीवन के सही राह सें टूट के भटकती फिरती है। हे नानक! परमात्मा (की याद) भुला के जीव घोर नरक में पड़े रहते हैं।18।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माइआ मनहु न वीसरै मांगै दमां दम ॥ सो प्रभु चिति न आवई नानक नही करमि ॥१९॥

मूलम्

माइआ मनहु न वीसरै मांगै दमां दम ॥ सो प्रभु चिति न आवई नानक नही करमि ॥१९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनहु = मन से। वीसरै = भूलती। मांगै = मांगता रहता है। दंमां दंम = पैसे ही पैसे, धन ही धन। चिति = चिक्त में। न आवई = ना आए, नहीं आता। करंमि = करम में, भाग्य में, किसमत से।19।
अर्थ: हे भाई! (माया-ग्रसित मनुष्य के) मन से माया कभी नहीं भूलती, (वह हर वक्त) धन ही धन तलाशता रहता है। वह परमात्मा (जो सब कुछ देने वाला है, उसके) चिक्त में नहीं आता। पर, हे नानक! (वह माया-ग्रसित मनुष्य भी क्या करे? नाम-धन उसकी) किस्मत में है ही नहीं।19।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिचरु मूलि न थुड़ींदो जिचरु आपि क्रिपालु ॥ सबदु अखुटु बाबा नानका खाहि खरचि धनु मालु ॥२०॥

मूलम्

तिचरु मूलि न थुड़ींदो जिचरु आपि क्रिपालु ॥ सबदु अखुटु बाबा नानका खाहि खरचि धनु मालु ॥२०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिचरु = तब तक। मूलि न = बिल्कुल नहीं। थुड़ींदो = थुड़दा, कम होता, समाप्त होता। जिचरु = जब तक। सबदु = परमात्मा की महिमा। अखुट = कभी ना खत्म होने वाला (धन)। बाबा = हे भाई! खाहि = खुद इस्तेमाल कर। खरचि = और लोगों को बाँट।20।
अर्थ: हे नानक (कह:) हे भाई! परमात्मा की महिमा ऐसा धन है ऐसा माल है जो कभी खत्म नहीं होता। (इस धन को स्वयं) इस्तेमाल किया कर, (और लोगों को भी) बाँटा कर। जब तक परमात्मा स्वयं दयावान रहता है, तब तक यह धन कभी समाप्त नहीं होता।20।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ख्मभ विकांदड़े जे लहां घिंना सावी तोलि ॥ तंनि जड़ांई आपणै लहां सु सजणु टोलि ॥२१॥

मूलम्

ख्मभ विकांदड़े जे लहां घिंना सावी तोलि ॥ तंनि जड़ांई आपणै लहां सु सजणु टोलि ॥२१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: विकांदड़े = बिकते। लहां = मैं ढूँढ लूं, खरीद लूँ। घिंनां = मैं ले लूँ। सावी = बराबर। तोलि = तोल के। सावी तोलि = अपने स्वै के बराबर का तोल के। तंनि = शरीर पर। टोलि = खोज के। सजणु = मित्र।21।
अर्थ: हे भाई! अगर मैं कहीं पंख ढूँढ लूँ, तो मैं अपना-आप दे के उसके बराबर तोल के वह पंख ले लूँ। मैं वह पंख अपने शरीर पर जड़ लूँ और (उड़ान भर के) तलाश के उस सज्जन-प्रभु का मिलाप हासिल कर लूँ (भाव, स्वै-भाव सदके करने से ही वह आत्मिक उड़ान भरी जा सकती है जिसकी इनायत से परमात्मा मिल जाता है)।21।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सजणु सचा पातिसाहु सिरि साहां दै साहु ॥ जिसु पासि बहिठिआ सोहीऐ सभनां दा वेसाहु ॥२२॥

मूलम्

सजणु सचा पातिसाहु सिरि साहां दै साहु ॥ जिसु पासि बहिठिआ सोहीऐ सभनां दा वेसाहु ॥२२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सदा = सदा कायम रहने वाला। साहां दै सिरि = शाहों के सिर पर। साहु = शाह, पातशाह। सोहीऐ = सुंदर लेते हैं, शोभा कमाई जाती है। वेसाहु = आसरा।22।
अर्थ: हे भाई! (असल) मित्र सदा कायम रहने वाला प्रभु-पातशाह है जो (दुनिया के सारे) पातशाहों के सिर पर पातशाह है (सब दुनिया के बादशाहों से बड़ा है)। वह प्रभु-पातशाह सब जीवों का आसरा है, (वह ऐसा है कि) उसके पास बैठने से (लोक-परलोक की) शोभा कमा ली जाती है।22।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सलोक महला ९ ॥

मूलम्

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सलोक महला ९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुन गोबिंद गाइओ नही जनमु अकारथ कीनु ॥ कहु नानक हरि भजु मना जिह बिधि जल कउ मीनु ॥१॥

मूलम्

गुन गोबिंद गाइओ नही जनमु अकारथ कीनु ॥ कहु नानक हरि भजु मना जिह बिधि जल कउ मीनु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुन गोबिंद = गोबिंद के गुण। अकारथ = व्यर्थ। कीनु = बना लिया। कहु = कह। मना = हे मन! जिह बिधि = जिस तरीके से, जिस तरह। जल कउ = पानी को। मीनु = मछली।1।
अर्थ: हे भाई! अगर तूने परमात्मा के गुण कभी नहीं गाए, तो तूने अपना मानव जन्म निकम्मा कर लिया। हे नानक! कह: हे मन! परमात्मा का भजन किया कर (और, उसको इस तरह जिंदगी का आसरा बना) जैसे पानी को मछली (अपनी जिंद का आसरा बनाए रखती है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिखिअन सिउ काहे रचिओ निमख न होहि उदासु ॥ कहु नानक भजु हरि मना परै न जम की फास ॥२॥

मूलम्

बिखिअन सिउ काहे रचिओ निमख न होहि उदासु ॥ कहु नानक भजु हरि मना परै न जम की फास ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिखिअन सिउ = विषियों से। काहे = क्यों? निमख = (निमेष) आँख झपकने जितने समय के लिए। न होहि = तू नहीं होता। उदासु = उपराम। परै न = नहीं पड़ता। फास = फंदा।2।
अर्थ: हे भाई! तू विषियों के साथ (इतना) मस्त क्यों रहता है? तू आँख झपकने जितने समय के लिए भी विषियों से चिक्त नहीं हटाता। हे नानक! कह: हे मन! परमात्मा का भजन किया कर। (भजन की इनायत से) जमों का फंदा (गले में) नहीं पड़ता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तरनापो इउ ही गइओ लीओ जरा तनु जीति ॥ कहु नानक भजु हरि मना अउध जातु है बीति ॥३॥

मूलम्

तरनापो इउ ही गइओ लीओ जरा तनु जीति ॥ कहु नानक भजु हरि मना अउध जातु है बीति ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तरनापो = जवानी (तरुण = जवान)। इउ ही = ऐसे ही, बेपरवाही में। जरा = बुढ़ापा। जीति लीओ = जीत लिया। अउध = उम्र। जात है बीति = गुजरती जा रही है।3।
अर्थ: हे भाई! (तेरी) जवानी बेपरवाही में ही गुजर गई, (अब) बुढ़ापे ने तेरे शरीर को जीत लिया है। हे नानक! कह: हे मन! परमात्मा का भजन किया कर। उम्र गुजरती जा रही है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिरधि भइओ सूझै नही कालु पहूचिओ आनि ॥ कहु नानक नर बावरे किउ न भजै भगवानु ॥४॥

मूलम्

बिरधि भइओ सूझै नही कालु पहूचिओ आनि ॥ कहु नानक नर बावरे किउ न भजै भगवानु ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिरधि = बुड्ढा। सूझै नही = समझ में नहीं आता। कालु = मौत। आनि = आ के। नर बावरे = हे झल्ले मनुष्य! न भजहि = तू नहीं जपता।4।
अर्थ: हे नानक! कह: हे झल्ले मनुष्य! तू क्यों परमात्मा का भजन नहीं करता? (देख, अब तू) बुड्ढा हो गया है (पर, तुझे अभी भी यह) समझ नहीं आ रही कि मौत (सिर पर) आ पहुँची है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनु दारा स्मपति सगल जिनि अपुनी करि मानि ॥ इन मै कछु संगी नही नानक साची जानि ॥५॥

मूलम्

धनु दारा स्मपति सगल जिनि अपुनी करि मानि ॥ इन मै कछु संगी नही नानक साची जानि ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दारा = स्त्री। संपति सगल = सारी संपक्ति, सारी जायदाद। जिनि मनि = ना मान, कहीं ऐसा ना समझ। अपुनी करि = अपनी जान के। इन महि = इन सभी में। संगी = साथी। साची जानि = (ये बात) सच मान ले।5।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) धन, स्त्री, सारी जायदाद- (इसको) अपनी कर के ना मान। ये बात सच्ची समझ कि इन सभी में से कोई एक भी तेरा साथी नहीं बन सकता।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतित उधारन भै हरन हरि अनाथ के नाथ ॥ कहु नानक तिह जानीऐ सदा बसतु तुम साथि ॥६॥

मूलम्

पतित उधारन भै हरन हरि अनाथ के नाथ ॥ कहु नानक तिह जानीऐ सदा बसतु तुम साथि ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पतित = विकारों में गिरे हुए। पतित उधारन = विकारियों को विकारों से बचाने वाले। भै = डर। भै हरन = सारे डर दूर करने वाले। अनाथ के नाथ = निखसमों के खसम। तिह = उस (परमात्मा) को। जानीऐ = (इस तरह) जानना चाहिए (कि)। साथि = साथ।6।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) प्रभु जी विकारियों को विकारों से बचाने वाले हैं, सारे डर दूर करने वाले हैं, और अनाथों के नाथ हैं। हे भाई! उस (प्रभु) को (इस प्रकार) समझना चाहिए कि वह सदा तेरे साथ बसता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तनु धनु जिह तो कउ दीओ तां सिउ नेहु न कीन ॥ कहु नानक नर बावरे अब किउ डोलत दीन ॥७॥

मूलम्

तनु धनु जिह तो कउ दीओ तां सिउ नेहु न कीन ॥ कहु नानक नर बावरे अब किउ डोलत दीन ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिह = जिस (परमात्मा) ने। तो कउ = तुझे। तां सिउ = उस (परमात्मा) के साथ। नेहु = प्यार। नर बावरे = हे झल्ले मनुष्य! दीन = आतुर।7।
अर्थ: हे नानक! कह: हे झल्ले मनुष्य! जिस (परमात्मा) ने तुझे शरीर दिया, धन दिया, तूने उसके साथ प्यार नहीं डाला। फिर अब दीन-हीन बन के (आतुर हो के) घबराया क्यों फिरता है (भाव, उस हरि को ना याद करने के कारण घबराना तो हुआ ही)।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तनु धनु स्मपै सुख दीओ अरु जिह नीके धाम ॥ कहु नानक सुनु रे मना सिमरत काहि न रामु ॥८॥

मूलम्

तनु धनु स्मपै सुख दीओ अरु जिह नीके धाम ॥ कहु नानक सुनु रे मना सिमरत काहि न रामु ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संपै = धन। अरु = और। जिह = जिस ने। नीके = अच्छे, सोहणे। धाम = घर। काहि न = क्यों नहीं।8।
अर्थ: हे नानक! कह: हे मन! सुन, जिस (परमात्मा) ने शरीर दिया, धन दिया, जायदाद दी, सुख दिए और सुंदर घर दिए, उस परमात्मा का तू स्मरण क्यों नहीं करता?।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभ सुख दाता रामु है दूसर नाहिन कोइ ॥ कहु नानक सुनि रे मना तिह सिमरत गति होइ ॥९॥

मूलम्

सभ सुख दाता रामु है दूसर नाहिन कोइ ॥ कहु नानक सुनि रे मना तिह सिमरत गति होइ ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दाता = देने वाला। नाहिन = नहीं। तिह = उस (राम) को। सिमरत = स्मरण करते हुए। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।9।
अर्थ: हे नानक! कह: हे मन! परमात्मा (ही) सारे सुख देने वाला है, (उसके बराबर का और) कोई दूसरा नहीं है, उस (का नाम) स्मरण करते हुए ऊँची आत्मिक अवस्था (भी) प्राप्त हो जाती है।9।

[[1427]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिह सिमरत गति पाईऐ तिह भजु रे तै मीत ॥ कहु नानक सुनु रे मना अउध घटत है नीत ॥१०॥

मूलम्

जिह सिमरत गति पाईऐ तिह भजु रे तै मीत ॥ कहु नानक सुनु रे मना अउध घटत है नीत ॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पाईऐ = प्राप्त की जाती है। तै = तू। रे मीत = हे मित्र! अउध = उम्र। नीत = नित्य।10।
अर्थ: हे मित्र! तू उस परमात्मा का भजन किया कर, जिसका नाम स्मरण करने से ऊँची आत्मिक अवस्था प्राप्त होती है। हे नानक! कह: हे मन! सुन, उम्र घटती जा रही है (परमात्मा का स्मरण ना बिसार)।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पांच तत को तनु रचिओ जानहु चतुर सुजान ॥ जिह ते उपजिओ नानका लीन ताहि मै मानु ॥११॥

मूलम्

पांच तत को तनु रचिओ जानहु चतुर सुजान ॥ जिह ते उपजिओ नानका लीन ताहि मै मानु ॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पांच तत = पाँच तत्व: मिट्टी, हवा, पानी, आग, आकाश। को = का। चतुर = हे चतुर मनुष्य! सुजान = हे समझदार मनुष्य! जिह ते = जिस तत्वों से। ताहि माहि = उन (ही तत्वों) में। मानि = मान ले, यकीन जान।11।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे चतुर मनुष्य! हे समझदार मनुष्य! तू जानता है कि (तेरा ये) शरीर (परमात्मा ने) पाँच तत्वों से बनाया है। (ये भी) यकीन जान कि जिस तत्वों से (ये शरीर) बना है (दोबारा) उनमें ही लीन हो जाएगा (फिर इस शरीर के झूठे मोह में फंस के परमात्मा का स्मरण क्यों भुला रहा है?।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घट घट मै हरि जू बसै संतन कहिओ पुकारि ॥ कहु नानक तिह भजु मना भउ निधि उतरहि पारि ॥१२॥

मूलम्

घट घट मै हरि जू बसै संतन कहिओ पुकारि ॥ कहु नानक तिह भजु मना भउ निधि उतरहि पारि ॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घट = शरीर। घट घट मै = हरेक शरीर में। जू = जी। पुकारि = पुकार के, ऊँचा ऊँचा बोल के। भउनिधि = संसार समुंदर। उतरहि = तू पार लांघ जाएगा।12।
अर्थ: हे नानक! कह: हे मन! संत जनों ने ऊँचा-ऊँचा पुकार के बता दिया है कि परमात्मा हरेक शरीर में बस रहा है। तू उस (परमात्मा) का भजन किया कर, (भजन की इनायत से) संसार-समुंदर से तू पार लांघ जाएगा।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुखु दुखु जिह परसै नही लोभु मोहु अभिमानु ॥ कहु नानक सुनु रे मना सो मूरति भगवान ॥१३॥

मूलम्

सुखु दुखु जिह परसै नही लोभु मोहु अभिमानु ॥ कहु नानक सुनु रे मना सो मूरति भगवान ॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिह = जिस (के मन) को। परसै = छूता। अभिमानु = अहंकार। सो = वह (मनुष्य)। मूरति भगवान = भगवान का स्वरूप।13।
अर्थ: हे नानक! कह: हे मन! सुन, जिस मनुष्य (के हृदय) को सुख-दुख नहीं छू सकता, लोभ मोह अहंकार नहीं पोह सकता (भाव, जो मनुष्य सुख-दुख के समय आत्मिक जीवन से नहीं डोलता, जिस पर लोभ-मोह-अहंकार अपना जोर नहीं डाल सकता) वह मनुष्य (साक्षात) परमात्मा का रूप है।13।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उसतति निंदिआ नाहि जिहि कंचन लोह समानि ॥ कहु नानक सुनि रे मना मुकति ताहि तै जानि ॥१४॥

मूलम्

उसतति निंदिआ नाहि जिहि कंचन लोह समानि ॥ कहु नानक सुनि रे मना मुकति ताहि तै जानि ॥१४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उसतति = बड़ाई। जिहि = जिस (के मन) को। कंचन = सोना। लोह = लोहा। समानि = एक जैसा। मुकति = मोह से खलासी। ताहि = उस (मनुष्य) ने (प्राप्त की है)। ते = तू। जानि = समझ ले।14।
अर्थ: हे नानक! कह: हे मन! सुन, जिस मनुष्य (के मन) को स्तुति नहीं (डाँवा-डोल कर सकती), जिसको सोना और लोहा एक समान (दिखते हैं, भाव, जो लालच में नहीं फंसता), यह बात (पक्की) समझो कि उसको मोह से छुटकारा मिल चुका है।14।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरखु सोगु जा कै नही बैरी मीत समानि ॥ कहु नानक सुनि रे मना मुकति ताहि तै जानि ॥१५॥

मूलम्

हरखु सोगु जा कै नही बैरी मीत समानि ॥ कहु नानक सुनि रे मना मुकति ताहि तै जानि ॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरखु = खुशी। सोगु = चिन्ता, गम। जा कै = जिस (मनुष्य) के हृदय में। समानि = एक जैसे। मुकति = माया के मोह से खलासी।15।
अर्थ: हे नानक! कह: हे मन! सुन, जिस मनुष्य के हृदय में खुशी-ग़मी अपना जोर नहीं डाल सकती, जिसको वैरी और मित्र एक जैसे (मित्र ही) प्रतीत होते हैं, तू ये बात पक्की समझ कि उसको माया के मोह से निजात मिल चुकी है।15।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भै काहू कउ देत नहि नहि भै मानत आन ॥ कहु नानक सुनि रे मना गिआनी ताहि बखानि ॥१६॥

मूलम्

भै काहू कउ देत नहि नहि भै मानत आन ॥ कहु नानक सुनि रे मना गिआनी ताहि बखानि ॥१६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भै = डरावे। आन = अन्य के। गिआनी = आत्मिक जीवन की सूझ वाला मनुष्य। ताहि = उसको। बखानि = कह।16।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे नानक! कह: हे मन! सुन, जो मनुष्य किसी को (कोई) डरावे नहीं देता, और किसी से भयभीत (भी) नहीं होता (धमकियों डरावों से घबराता नहीं) उसको आत्मिक जीवन की सूझ वाला समझ।16।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिहि बिखिआ सगली तजी लीओ भेख बैराग ॥ कहु नानक सुनु रे मना तिह नर माथै भागु ॥१७॥

मूलम्

जिहि बिखिआ सगली तजी लीओ भेख बैराग ॥ कहु नानक सुनु रे मना तिह नर माथै भागु ॥१७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिहि = जिस (मनुष्य) ने। बिखिआ = माया। सगली = सारी। बिखिआ सगली = (काम क्रोध लोभ मोह अहंकार निंदा ईष्या आदि) सारी की सारी माया। तिह नर माथै = उस मनुष्य के माथे पर।17।
अर्थ: हे नानक! कह: हे मन! सुन, जिस (मनुष्य) ने (काम क्रोध लोभ मोह अहंकार निंदा ईष्या आदि) सारी की सारी माया त्याग दी, (उसने ही सही) वैराग का (सही) भेस धारण किया (समझो)। हे मन! उस मनुष्य के माथे पर (अच्छे) भाग्य (जागे समझ)।17।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिहि माइआ ममता तजी सभ ते भइओ उदासु ॥ कहु नानक सुनु रे मना तिह घटि ब्रहम निवासु ॥१८॥

मूलम्

जिहि माइआ ममता तजी सभ ते भइओ उदासु ॥ कहु नानक सुनु रे मना तिह घटि ब्रहम निवासु ॥१८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ममता = अपनत्व। ते = से। उदासु = उदास, उपराम। तिह घटि = उस (मनुष्य) के दिल में।18।
अर्थ: हे नानक! कह: हे मन! सुन, जिस (मनुष्य) ने माया का मोह छोड़ दिया, (जो मनुष्य माया के कामादिक) सारे विकारों से उपराम हो गया, उसके दिल में (प्रत्यक्ष तौर पर) परमात्मा का निवास हो जाता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिहि प्रानी हउमै तजी करता रामु पछानि ॥ कहु नानक वहु मुकति नरु इह मन साची मानु ॥१९॥

मूलम्

जिहि प्रानी हउमै तजी करता रामु पछानि ॥ कहु नानक वहु मुकति नरु इह मन साची मानु ॥१९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिहि प्रानी = जिस प्राणी ने। पछानि = पहचान के, सांझ डाल के। वहु नरु = वह मनुष्य। मुकत = विकारों से बचा हुआ। मन = हे मन!।19।
अर्थ: जिस मनुष्य ने कर्तार विधाता के साथ गहरी सांझ डाल के (अपने अंदर से) अहंकार त्याग दिया, हे नानक! कह: हे मन! ये बात सच्ची समझ कि वह मनुष्य (ही) मुक्त है।19।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भै नासन दुरमति हरन कलि मै हरि को नामु ॥ निसि दिनु जो नानक भजै सफल होहि तिह काम ॥२०॥

मूलम्

भै नासन दुरमति हरन कलि मै हरि को नामु ॥ निसि दिनु जो नानक भजै सफल होहि तिह काम ॥२०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भै = सारे डर। हरन = दूर करने वाला। दुरमति = खोटी मति। कलि महि = कष्ट भरे संसार में। को = का। निसि = रात। भजै = जपता है (एकवचन)। होहि = हो जाते हैं। तिह काम = उसके (सारे) काम।20।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) इस कष्ट भरे संसार में परमात्मा का नाम (ही) सारे डर नाश करने वाला है, खोटी मति दूर करने वाला है। जो मनुष्य प्रभु का नाम रात दिन जपता रहता है उसके सारे काम सफल हो जाते हैं।20।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिहबा गुन गोबिंद भजहु करन सुनहु हरि नामु ॥ कहु नानक सुनि रे मना परहि न जम कै धाम ॥२१॥

मूलम्

जिहबा गुन गोबिंद भजहु करन सुनहु हरि नामु ॥ कहु नानक सुनि रे मना परहि न जम कै धाम ॥२१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिहबा = जीभ (से)। करन = कानों से। परहि न = नहीं पड़ते। धाम = घर। जम कै धाम = जम के घर में, जम के वश में।21।
अर्थ: हे भाई! (अपनी) जीभ से परमात्मा के गुणों का जाप किया करो, (अपने) कानों से परमात्मा का नाम सुना करो। हे नानक! कह: हे मन! (जो मनुष्य नाम जपते हैं, वे) जमों के वश नहीं पड़ते।21।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो प्रानी ममता तजै लोभ मोह अहंकार ॥ कहु नानक आपन तरै अउरन लेत उधार ॥२२॥

मूलम्

जो प्रानी ममता तजै लोभ मोह अहंकार ॥ कहु नानक आपन तरै अउरन लेत उधार ॥२२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ममता = अपनत्व, मोह। तजै = छोड़ता है। तरै = पार लांघ जाता है। अउरन = और लोगों को। लेत उधार = बचा लेता है।22।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) जो मनुष्य (अपने अंदर से माया की) ममता त्यागता है, लोभ मोह और अहंकार को दूर करता है, वह स्वयं (भी इस संसार-समुंदर से) पार लांघ जाता है और-और लोगों को भी (विकारों से) बचा लेता है।22।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिउ सुपना अरु पेखना ऐसे जग कउ जानि ॥ इन मै कछु साचो नही नानक बिनु भगवान ॥२३॥

मूलम्

जिउ सुपना अरु पेखना ऐसे जग कउ जानि ॥ इन मै कछु साचो नही नानक बिनु भगवान ॥२३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अरु = और। कउ = को। जानि = समझ ले। इन महि = इन (दिखाई देते पदार्थों) में (बहुवचन)। कछु = कोई भी पदार्थ। साचो = सदा कायम रहने वाला, सदा साथ निभाने वाला।23।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जैसे (सोए हुए) सपना (आता है) और (और उस सपने में कई पदार्थ हम) देखते हैं, वैसे ही इस जगत को समझ ले। परमात्मा के नाम के बिना (जगत में दिखाई दे रहे) इन (पदार्थों) में कोई भी पदार्थ सदा साथ निभाने वाला नहीं है।23।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निसि दिनु माइआ कारने प्रानी डोलत नीत ॥ कोटन मै नानक कोऊ नाराइनु जिह चीति ॥२४॥

मूलम्

निसि दिनु माइआ कारने प्रानी डोलत नीत ॥ कोटन मै नानक कोऊ नाराइनु जिह चीति ॥२४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निसि = रात। कारने = की खातिर। डोलत = भटकता फिरता है। नीत = नित्य, सदा। कोटन मै = करोड़ों में। कोऊ = कोई विरला। जिह चीति = जिसके चिक्त में।24।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) माया (इकट्ठी करने) की खातिर मनुष्य सदा रात-दिन भटकता फिरता है। करोड़ों (लोगों) में कोई विरला (ऐसा होता) है, जिसके मन में परमात्मा की याद टिकी होती है।24।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैसे जल ते बुदबुदा उपजै बिनसै नीत ॥ जग रचना तैसे रची कहु नानक सुनि मीत ॥२५॥

मूलम्

जैसे जल ते बुदबुदा उपजै बिनसै नीत ॥ जग रचना तैसे रची कहु नानक सुनि मीत ॥२५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। बुदबुदा = बुल बुला। रची = बनाई हुई है। मीत = हे मित्र!।25।
अर्थ: हे नानक! कह: हे मित्र! सुन, जैसे पानी से सदा बुलबुला पैदा होता है और नाश होता रहता है, वैसे ही (परमात्मा ने) जगत की (यह) खेल बनाई हुई है।25।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रानी कछू न चेतई मदि माइआ कै अंधु ॥ कहु नानक बिनु हरि भजन परत ताहि जम फंध ॥२६॥

मूलम्

प्रानी कछू न चेतई मदि माइआ कै अंधु ॥ कहु नानक बिनु हरि भजन परत ताहि जम फंध ॥२६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: न चेतई = ना चेते, नहीं सोचता। मदि = नशे में। मदि माइआ कै = माया के नशे में। अंधु = (आत्मिक जीवन से) अंधा। परत = पड़ते हैं, पड़े रहते हैं। फंध = फंदे।26।
अर्थ: पर, माया के नशे में (आत्मिक जीवन से) अंधा हुआ मनुष्य (आत्मिक जीवन के बारे में) कुछ भी नहीं सोचता। हे नानक! कह: परमात्मा के भजन के बिना (ऐसे मनुष्य को) जमों के फंदे पड़े रहते हैं।26।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जउ सुख कउ चाहै सदा सरनि राम की लेह ॥ कहु नानक सुनि रे मना दुरलभ मानुख देह ॥२७॥

मूलम्

जउ सुख कउ चाहै सदा सरनि राम की लेह ॥ कहु नानक सुनि रे मना दुरलभ मानुख देह ॥२७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जउ = यदि। चाहै = चाहता है। लेह = ले रखे, पड़ा रहे। देह = शरीर।27।
अर्थ: हे नानक! कह: हे मन! सुन, ये मनुष्य-शरीर बड़ी मुश्किल से मिलता है (इसको माया की खातिर भटकने में ही नहीं व्यर्थ गवा देना चाहिए)। सो, जो (मनुष्य) आत्मिक आनंद (हासिल करना) चाहता है, तो (उसको चाहिए कि) परमात्मा की शरण पड़ा रहे।27।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माइआ कारनि धावही मूरख लोग अजान ॥ कहु नानक बिनु हरि भजन बिरथा जनमु सिरान ॥२८॥

मूलम्

माइआ कारनि धावही मूरख लोग अजान ॥ कहु नानक बिनु हरि भजन बिरथा जनमु सिरान ॥२८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धावही = दौड़ते फिरते हैं। अजान = बेसमझ। सिरान = गुजर जाता है।28।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) मूर्ख बेसमझ बंदे (निरी) माया (इकट्ठी करने) के लिए भटकते रहते हैं, परमात्मा के भजन के बिना (उनका ये मनुष्य-) जनम व्यर्थ बीत जाता है।28।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

जो प्रानी निसि दिनु भजै रूप राम तिह जानु ॥ हरि जन हरि अंतरु नही नानक साची मानु ॥२९॥

मूलम्

जो प्रानी निसि दिनु भजै रूप राम तिह जानु ॥ हरि जन हरि अंतरु नही नानक साची मानु ॥२९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निसि = रात। भजै = जपता है। रूप राम = परमात्मा का रूप। तिह = उसको। जानु = समझो। अंतरु = भेद, फर्क। हरि जन = परमात्मा का भक्त। साची मानु = (ये बात) सच्ची मान।29।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) जो मनुष्य रात-दिन (हर वक्त परमात्मा का नाम) जपता रहता है, उसको परमात्मा का रूप समझो। यह बात सच्ची मानो कि परमात्मा के भक्त और परमात्मा में कोई फर्क नहीं है।29।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनु माइआ मै फधि रहिओ बिसरिओ गोबिंद नामु ॥ कहु नानक बिनु हरि भजन जीवन कउने काम ॥३०॥

मूलम्

मनु माइआ मै फधि रहिओ बिसरिओ गोबिंद नामु ॥ कहु नानक बिनु हरि भजन जीवन कउने काम ॥३०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: फधि रहिओ = फसा रहता है। कउने काम = कौन से काम का? किसी भी काम का नहीं।30।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई! जिस मनुष्य का) मन (हर समय) माया (के मोह) में फसा रहता है (जिसको) परमात्मा का नाम (सदा) भूला रहता है (बताओ) परमात्मा के भजन के बिना (उसका) जीना किस काम का?।30।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रानी रामु न चेतई मदि माइआ कै अंधु ॥ कहु नानक हरि भजन बिनु परत ताहि जम फंध ॥३१॥

मूलम्

प्रानी रामु न चेतई मदि माइआ कै अंधु ॥ कहु नानक हरि भजन बिनु परत ताहि जम फंध ॥३१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: न चेतई = ना चेते, याद नहीं करता। मदि = नशे में। अंधु = (आत्मिक जीवन से) अंधा हुआ मनुष्य। परत = पड़े रहते हैं। ताहि = उसको। जम फंध = जमों के फंदे।31।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) माया के मोह में (फंस के आत्मिक जीवन से) अंधा हुआ (जो) मनुष्य परमात्मा का नाम याद नहीं करता, परमात्मा के भजन के बिना उसको (उसके गले में) जमों के फंदे पड़े रहते हैं।31।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुख मै बहु संगी भए दुख मै संगि न कोइ ॥ कहु नानक हरि भजु मना अंति सहाई होइ ॥३२॥

मूलम्

सुख मै बहु संगी भए दुख मै संगि न कोइ ॥ कहु नानक हरि भजु मना अंति सहाई होइ ॥३२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संगी = साथी, मेली गेली। संगि = साथ। अंति = आखिरी वक्त (भी)। सहाई = मददगार।32।
अर्थ: हे नानक! कह: हे मन! परमात्मा का भजन किया कर (परमातमा) अंत समय (में भी) मददगार बनता है। (दुनिया में तो) सुख के समय अनेक मिलने-जुलने वाले बन जाते हैं, पर दुख में कोई भी साथ नहीं होता।32।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनम जनम भरमत फिरिओ मिटिओ न जम को त्रासु ॥ कहु नानक हरि भजु मना निरभै पावहि बासु ॥३३॥

मूलम्

जनम जनम भरमत फिरिओ मिटिओ न जम को त्रासु ॥ कहु नानक हरि भजु मना निरभै पावहि बासु ॥३३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जनम जनम = अनेक जन्मों में। को = का। त्रासु = डर। निरभै = निडर अवस्था में, उस प्रभु में जिसको कोई डर छू नहीं सकता। पावहि = तू प्राप्त कर लेगा।33।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा का स्मरण भुला के जीव) अनेक जन्मों में भटकता फिरता है, जमों का डर (इसके अंदर से) खत्म नहीं होता। हे नानक! कह: हे मन! परमातमा का भजन करता रहा कर, (भजन की इनायत से) तू उस प्रभु में निवास प्राप्त कर लेगा जिसको कोई डर छू नहीं सकता।33।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जतन बहुतु मै करि रहिओ मिटिओ न मन को मानु ॥ दुरमति सिउ नानक फधिओ राखि लेहु भगवान ॥३४॥

मूलम्

जतन बहुतु मै करि रहिओ मिटिओ न मन को मानु ॥ दुरमति सिउ नानक फधिओ राखि लेहु भगवान ॥३४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: को = का। मानु = अहंकार। दुरमति = खोटी मति। सिउ = साथ। फधिओ = फसा रहता है। भगवान = हे भगवान!।34।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे भगवान! मैं अनेक (और-और) प्रयत्न कर चुका हूँ (उन प्रयत्नों से) मन का अहंकार दूर नहीं होता, (यह मन) खोटी मति से चिपका रहता है। हे भगवान! (तू स्वयं ही) रक्षा कर।34।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाल जुआनी अरु बिरधि फुनि तीनि अवसथा जानि ॥ कहु नानक हरि भजन बिनु बिरथा सभ ही मानु ॥३५॥

मूलम्

बाल जुआनी अरु बिरधि फुनि तीनि अवसथा जानि ॥ कहु नानक हरि भजन बिनु बिरथा सभ ही मानु ॥३५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अरु = और। बिरधि = बुढ़ापा। फुनि = पुनः , फिर। तीनि = तीन। जानि = जान, समझ ले। मान = मान ले।35।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) बाल-अवस्था, जवानी की अवस्था, और फिर बुढ़ापे की अवस्था- (उम्र की ये) तीन अवस्थाएं समझ ले (जो मनुष्य पर आती है)। (पर, ये) याद रख (कि) परमात्मा के भजन के बिना ये सारी ही व्यर्थ ही जाती हैं।35।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करणो हुतो सु ना कीओ परिओ लोभ कै फंध ॥ नानक समिओ रमि गइओ अब किउ रोवत अंध ॥३६॥

मूलम्

करणो हुतो सु ना कीओ परिओ लोभ कै फंध ॥ नानक समिओ रमि गइओ अब किउ रोवत अंध ॥३६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करणो हुतो = (जो कुछ) करना था। सु = वह। कै फंध = के फंदे में। समिओ = (मनुष्य जीवन का) समय। रमि गइओ = गुजर गया। अंध = हे (माया के मोह में) अंधे हो चुके मनुष्य!।36।
अर्थ: हे नानक! (कह: माया के मोह में) अंधे हो रहे मनुष्य! जो कुछ तूने करना था, वह तूने नहीं किया (सारी उम्र) तू लोभ के फंदे में (ही) फसा रहा। (जिंदगी का सारा) समय (इसी तरह ही) गुजर गया। अब रोता क्यों है? (अब पछताने से क्या फायदा?)।36।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनु माइआ मै रमि रहिओ निकसत नाहिन मीत ॥ नानक मूरति चित्र जिउ छाडित नाहिन भीति ॥३७॥

मूलम्

मनु माइआ मै रमि रहिओ निकसत नाहिन मीत ॥ नानक मूरति चित्र जिउ छाडित नाहिन भीति ॥३७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मै = में। रमि रहिओ = फसा हुआ है। नाहिन = नहीं। मीत = हे मित्र! मूरति = तस्वीर। चित्र = चित्रित रूप। भीति = दीवार।37।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे मित्र! जैसे (दीवार पर किसी) मूर्ति का बनाया हुआ चित्र दीवार को नहीं छोड़ता, दीवार के साथ ही चिपका रहता है, वैसे ही जो मन माया (के मोह) में फंस जाता है, (वह इस मोह में से अपने आप ही) नहीं निकल सकता।37।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नर चाहत कछु अउर अउरै की अउरै भई ॥ चितवत रहिओ ठगउर नानक फासी गलि परी ॥३८॥

मूलम्

नर चाहत कछु अउर अउरै की अउरै भई ॥ चितवत रहिओ ठगउर नानक फासी गलि परी ॥३८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अउरै की अउरै = और की और ही। चितवत रहिओ = तू सोचता रहा। ठगउर = ठगमूरी, ठग-बूटी, ठगीयां। गलि = गले में। परी = पड़ गई।38।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे भाई! (माया के मोह में फंस के) मनुष्य (प्रभु-नाम-जपने की जगह) कुछ और ही (भाव, माया ही माया) मांगता रहता है। (पर, कर्तार की रजा में) और की और ही हो जाती है (मनुष्य सोचता कुछ है हो कुछ जाता है)। (मनुष्य और लोगों को) ठगने की सोचें सोचता है (लेकिन मौत का) फंदा (उसके) गले में आ पड़ता है।38।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जतन बहुत सुख के कीए दुख को कीओ न कोइ ॥ कहु नानक सुनि रे मना हरि भावै सो होइ ॥३९॥

मूलम्

जतन बहुत सुख के कीए दुख को कीओ न कोइ ॥ कहु नानक सुनि रे मना हरि भावै सो होइ ॥३९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुख के = सांसारिक सुखों की प्राप्ति के। को = का। दुख को = दुखों का। हरि भावै = जो कुछ परमात्मा को अच्छा लगता है।39।
अर्थ: हे नानक! कह: हे मन! जो कुछ परमात्मा को अच्छा लगता है (अवश्य ही) वह (ही) होता है (जीव भले ही) सुखों (की प्राप्ति) के लिए अनेक जतन करता रहता है, और दुखों के लिए प्रयत्न नहीं करता (पर, फिर भी रजा के अनुसार दुख भी आ ही पड़ते हैं। सुख भी तब ही मिलता है जब प्रभु की रज़ा हो)।39।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जगतु भिखारी फिरतु है सभ को दाता रामु ॥ कहु नानक मन सिमरु तिह पूरन होवहि काम ॥४०॥

मूलम्

जगतु भिखारी फिरतु है सभ को दाता रामु ॥ कहु नानक मन सिमरु तिह पूरन होवहि काम ॥४०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भिखारी = भिखारी। सभ को = सब जीवों का। मन = हे मन! तिह = उस (परमात्मा) को। होवहि = हो जाएंगे। काम = सारे काम।40।
अर्थ: जगत भिखारी (हो के) भटकता फिरता है (ये याद नहीं रखता कि) सारे जीवों को दातें देने वाला परमात्मा स्वयं है। हे नानक! कह: हे मन! उस दातार प्रभु का स्मरण करता रहा कर, तेरे सारे काम सफल होते रहेंगे।40।

विश्वास-प्रस्तुतिः

झूठै मानु कहा करै जगु सुपने जिउ जानु ॥ इन मै कछु तेरो नही नानक कहिओ बखानि ॥४१॥

मूलम्

झूठै मानु कहा करै जगु सुपने जिउ जानु ॥ इन मै कछु तेरो नही नानक कहिओ बखानि ॥४१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: झूठै = नाशवान (संसार) के। कहा करे = क्यों करता है? जिउ = जैसा। जानि = समझ ले। इन मै = इन (दुनियावी पदार्थों) में। तेरो = तेरा (असल साथी)। बखानि = उचार के, समझा के।41।
अर्थ: हे भाई! (पता नहीं मनुष्य) नाशवान दुनिया का मान क्यों करता रहता है। हे भाई! जगत को सपने (में देखे हुए पदार्थों) की तरह (ही) समझो। हे नानक! (कह: हे भाई!) मैं तुझे ठीक बता रहा हूँ कि इन (दिखाई देते पदार्थों) में तेरा (असल साथी) कोई भी पदार्थ नहीं है।41।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गरबु करतु है देह को बिनसै छिन मै मीत ॥ जिहि प्रानी हरि जसु कहिओ नानक तिहि जगु जीति ॥४२॥

मूलम्

गरबु करतु है देह को बिनसै छिन मै मीत ॥ जिहि प्रानी हरि जसु कहिओ नानक तिहि जगु जीति ॥४२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गरबु = गर्व, अहंकार। देह को = (जिस) शरीर का। बिनसै = नाश हो जाता है। मीत = हे मित्र! जिहि प्रानी = जिस मनुष्य ने। जसु = महिमा। तिहि = उसने। जीतु = जीत लिया।42।
अर्थ: हे मित्र! (जिस) शरीर का (मनुष्य सदा) माण करता रहता है (कि यह मेरा अपना है, वह शरीर) एक छिन में ही नाश हो जाता है। (और पदार्थों का मोह तो कहां रहा, अपने इस शरीर का मोह भी झूठा ही है)। हे नानक! जिस मनुष्य ने परमात्मा की महिमा करनी शुरू कर दी, उसने जगत (के मोह) को जीत लिया।42।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिह घटि सिमरनु राम को सो नरु मुकता जानु ॥ तिहि नर हरि अंतरु नही नानक साची मानु ॥४३॥

मूलम्

जिह घटि सिमरनु राम को सो नरु मुकता जानु ॥ तिहि नर हरि अंतरु नही नानक साची मानु ॥४३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिह घटि = जिस (मनुष्य) के हृदय में। को = का। मुकता = विकारों से बचा हुआ। जानु = समझो। अंतरु = फर्क, दूरी। साची मानु = ठीक मान।43।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का स्मरण (टिका रहता है) उस मनुष्य को (मोह के जाल से) बचा हुआ समझ। हे नानक! (कह: हे भाई!) यह बात ठीक मान कि उस मनुष्य और परमात्मा में कोई फर्क नहीं।43।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एक भगति भगवान जिह प्रानी कै नाहि मनि ॥ जैसे सूकर सुआन नानक मानो ताहि तनु ॥४४॥

मूलम्

एक भगति भगवान जिह प्रानी कै नाहि मनि ॥ जैसे सूकर सुआन नानक मानो ताहि तनु ॥४४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कै मनि = के मन में। जिह प्रानी कै मनि = जिस प्राणी के मन में। सूकर तनु = सूअर का शरीर। सुआन तनु = कुत्ते का शरीर। ताहि = उस (मनुष्य) का।44।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जिस मनुष्य के मन में परमात्मा की भक्ति नहीं है, उसका शरीर वैसा ही समझ जैसा (किसी) सूअर का शरीर है (या किसी) कुत्ते का शरीर है।44।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुआमी को ग्रिहु जिउ सदा सुआन तजत नही नित ॥ नानक इह बिधि हरि भजउ इक मनि हुइ इक चिति ॥४५॥

मूलम्

सुआमी को ग्रिहु जिउ सदा सुआन तजत नही नित ॥ नानक इह बिधि हरि भजउ इक मनि हुइ इक चिति ॥४५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: को = का। ग्रिह = घर। तजत नही = छोड़ता नहीं। इह बिधि = इस तरीके से। भजउ = भजन किया करो। इक मनि हुइ = एकाग्र हो के। इक चिति हुइ = एक चिक्त हो के।45।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) एक-मन हो के एक-चिक्त हो के परमात्मा का भजन इसी तरीके से किया करो (कि उसका दर कभी छूटे ही ना), जैसे कुक्ता (अपने) मालिक का घर (घर का दरवाजा) सदा (पकड़े रखता है) कभी भी नहीं छोड़ता।45।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तीरथ बरत अरु दान करि मन मै धरै गुमानु ॥ नानक निहफल जात तिह जिउ कुंचर इसनानु ॥४६॥

मूलम्

तीरथ बरत अरु दान करि मन मै धरै गुमानु ॥ नानक निहफल जात तिह जिउ कुंचर इसनानु ॥४६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अरु = और। करि = कर के। मन मै = मन में। गुमानु = मान। तिह = उसके (इस तीर्थ व्रत दान)। निहफल = व्यर्थ। कुंचर = हाथी (का)।46।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! परमात्मा का भजन छोड़ के मनुष्य) तीर्थ-स्नान करके व्रत रख के, दान-पुण्य कर के (अपने) मन में अहंकार करता है (कि मैं धर्मी बन गया हूँ, पर) उसके (ये सारे किए हुए कर्म इस प्रकार) व्यर्थ (चले जाते हैं) जैसे हाथी का (किया हुआ) स्नान।46।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: हाथी नहा के राख मिट्टी अपने ऊपर डाल लेता है)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिरु क्मपिओ पग डगमगे नैन जोति ते हीन ॥ कहु नानक इह बिधि भई तऊ न हरि रसि लीन ॥४७॥

मूलम्

सिरु क्मपिओ पग डगमगे नैन जोति ते हीन ॥ कहु नानक इह बिधि भई तऊ न हरि रसि लीन ॥४७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कंपिओ = काँप रहा है। पग = पैर। डगमगे = डगमगा रहे हैं। ते = से। नैन = आँखें। जोति = रौशनी। इह बिधि = यह हालत। तऊ = फिर भी। लीन = मगन। हरि रस लीन = हरि नाम के रस में मगन।47।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई! बुढ़ापा आ जाने पर मनुष्य का) सिर काँपने लग जाता है (चलते हुए) पैर थिड़कने लगते हैं, आँखों की ज्योति मारी जाती है (बुढ़ापे से शरीर की) यह हालत हो जाती है, फिर भी (माया का मोह इतना प्रबल होता है कि मनुष्य) परमात्मा के नाम के स्वाद में मगन नहीं होता।47।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

निज करि देखिओ जगतु मै को काहू को नाहि ॥ नानक थिरु हरि भगति है तिह राखो मन माहि ॥४८॥

मूलम्

निज करि देखिओ जगतु मै को काहू को नाहि ॥ नानक थिरु हरि भगति है तिह राखो मन माहि ॥४८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निज करि = अपना समझ के। को = कोई जीव। काहू को = किसी का भी। थिरु = स्थिर, सदा कायम रहने वाली।48।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) मैं जगत को अपना समझ के (ही अब तक) देखता रहा, (पर, यहाँ तो) कोई किसी का भी (सदा के लिए अपना) नहीं है। सदा कायम रहने वाली तो परमात्मा की भक्ति ही है। इस (भक्ति) को (अपने) मन में परो के रख।48।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जग रचना सभ झूठ है जानि लेहु रे मीत ॥ कहि नानक थिरु ना रहै जिउ बालू की भीति ॥४९॥

मूलम्

जग रचना सभ झूठ है जानि लेहु रे मीत ॥ कहि नानक थिरु ना रहै जिउ बालू की भीति ॥४९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: झूठ = नाशवान। कहि = कहै, कहता है। बालू = रेत। भीति = दीवार।49।
अर्थ: नानक कहता है: हे मित्र! यह बात सच्ची जान कि जगत की सारी रचना ही नाशवान है। रेत की दीवार की तरह (जगत में) कोई भी चीज़ सदा कायम रहने वाली नहीं है।49।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामु गइओ रावनु गइओ जा कउ बहु परवारु ॥ कहु नानक थिरु कछु नही सुपने जिउ संसारु ॥५०॥

मूलम्

रामु गइओ रावनु गइओ जा कउ बहु परवारु ॥ कहु नानक थिरु कछु नही सुपने जिउ संसारु ॥५०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गइओ = चला गया, कूच कर गया। जा कउ = जिस (रावण) को। बहु परवारु = बड़े परिवार वाला (कहा जाता है)। सुपने जिउ = सपने जैसा।50।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई! श्री) राम (चंद्र) कूच कर गया, रावण भी चल बसा जिसको बड़े परिवार वाला कहा जाता है। (यहाँ) कोई भी सदा कायम रहने वाला पदार्थ नहीं है। (यह) जगत सपने जैसा (ही) है।50।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चिंता ता की कीजीऐ जो अनहोनी होइ ॥ इहु मारगु संसार को नानक थिरु नही कोइ ॥५१॥

मूलम्

चिंता ता की कीजीऐ जो अनहोनी होइ ॥ इहु मारगु संसार को नानक थिरु नही कोइ ॥५१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ता की = उस (बात) की। कीजीऐ = करनी चाहिए। अनहोनी = ना होने वाली, असंभव। को = का। मारगु = रास्ता। संसार को मारगु = संसार का रास्ता।51।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! मौत आदिक तो) उस (घटना) की चिन्ता करनी चाहिए जो कभी घटित होने वाली ना हो। जगत की तो चाल ही यह है कि (यहाँ) कोई जीव (भी) सदा कायम रहने वाला नहीं है।51।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो उपजिओ सो बिनसि है परो आजु कै कालि ॥ नानक हरि गुन गाइ ले छाडि सगल जंजाल ॥५२॥

मूलम्

जो उपजिओ सो बिनसि है परो आजु कै कालि ॥ नानक हरि गुन गाइ ले छाडि सगल जंजाल ॥५२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिनसि है = नाश हो जाएगा। परो = नाश हो जाने वाला। कै = अथवा। कालि = तड़के, भलके, कल, tomarrow। छाडि = छोड़ के। जंजाल = माया के मोह के फंदे।52।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई! जगत में तो) जो भी पैदा हुआ है वह (अवश्य) नाश हो जाएगा (हर कोई यहाँ से) आज या कल कूच कर जाने वाला है। (इसलिए माया के मोह के) सारे फंदे उतार के परमात्मा के गुण गाया कर।52।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दोहरा ॥ बलु छुटकिओ बंधन परे कछू न होत उपाइ ॥ कहु नानक अब ओट हरि गज जिउ होहु सहाइ ॥५३॥

मूलम्

दोहरा ॥ बलु छुटकिओ बंधन परे कछू न होत उपाइ ॥ कहु नानक अब ओट हरि गज जिउ होहु सहाइ ॥५३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बलु = (आत्मिक) ताकत। बंधन = (माया के मोह के) फंदे। परे = पड़ गए, पड़ जाते हैं। उपाइ = उपाय। अब = उस वक्त। ओट = आसरा। हरि = हे हरि! सहाइ = सहायक, मददगार।53।
अर्थ: हे भाई! (प्रभु से विछुड़ के जब माया के मोह के) फंदे (मनुष्य को) आ पड़ते हैं (उन फंदों को काटने के लिए मनुष्य के अंदर से आत्मिक) शक्ति समाप्त हो जाती है (माया का मुकाबला करने के लिए मनुष्य से) कोई भी उपाय नहीं किया जा सकता। हे नानक! कह: हे हरि! इस (संकट भरे) वक्त में (अब) तेरा ही आसरा है। जैसे तू (तेंदूए से छुड़ाने के लिए) हाथी का मददगार बना, वैसे ही सहाई बन। (भाव, माया के मोह के बंधनो से खलासी पाने के लिए परमातमा के दर पर अरदास ही एक मात्र साधन है)।53।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलु होआ बंधन छुटे सभु किछु होत उपाइ ॥ नानक सभु किछु तुमरै हाथ मै तुम ही होत सहाइ ॥५४॥

मूलम्

बलु होआ बंधन छुटे सभु किछु होत उपाइ ॥ नानक सभु किछु तुमरै हाथ मै तुम ही होत सहाइ ॥५४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: छुटे = टूट जाते हैं। सभु किछु उपाइ = हरेक उद्यम। होत = हो सकता है। सभु किछु = हरेक चीज।54।
अर्थ: हे भाई! (जब मनुष्य प्रभु के दर पर गिरता है, और माया से मुकाबला करने के लिए उसके अंदर आत्मिक) बल पैदा हो जाता है (तब माया के मोह के) बंधन टूट जाते हैं (मोह का मुकाबला करने के लिए) हरेक उपाय सफल हो सकता है। सो, हे नानक! (कह: हे प्रभु!) सब कुछ तेरे हाथ में है (तेरी पैदा की हुई माया भी तेरे ही अधीन है, इससे बचने के लिए) तू ही मददगार हो सकता है।54।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संग सखा सभि तजि गए कोऊ न निबहिओ साथि ॥ कहु नानक इह बिपति मै टेक एक रघुनाथ ॥५५॥

मूलम्

संग सखा सभि तजि गए कोऊ न निबहिओ साथि ॥ कहु नानक इह बिपति मै टेक एक रघुनाथ ॥५५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संग = संगी। सभि = सारे। तजि गए = छोड़ गए, छोड़ जाते हैं। साथि = साथ। इह बिपति मै = इस मुसीबत में, इस अकेलेपन में। रघुनाथ टेक = परमात्मा का आसरा।55।
अर्थ: हे नानक! कह: (जब अंत के समय) सारे संगी-साथी छोड़ जाते हैं, जब कोई भी साथ नहीं निभा सकता, उस (अकेलेपन की) मुसीबत के समय भी सिर्फ परमात्मा का ही सहारा होता है (सो, हे भाई! सदा परमात्मा का नाम स्मरण किया करो)।55।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामु रहिओ साधू रहिओ रहिओ गुरु गोबिंदु ॥ कहु नानक इह जगत मै किन जपिओ गुर मंतु ॥५६॥

मूलम्

नामु रहिओ साधू रहिओ रहिओ गुरु गोबिंदु ॥ कहु नानक इह जगत मै किन जपिओ गुर मंतु ॥५६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रहिओ = रहता है, साथी बना रहता है। साधू = गुरु। गुरु गोबिंद = अकाल पुरख। किन = जिस किसी ने। गुरमंतु = (हरि नाम वाला स्मरण) गुर उपदेश।56।
अर्थ: हे नानक! कह: हे भाई! इस दुनिया में जिस किसी (मनुष्य) ने (हरि-नाम स्मरण वाला) गुरु का उपदेश अपने अंदर बसाया है (और नाम जपा है, अंत के समय भी परमात्मा का) नाम (उसके) साथ (रहता) है, (वाणी के रूप में) गुरु उसके साथ रहता है, अकाल-पुरख उसके साथ है।56।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम नामु उर मै गहिओ जा कै सम नही कोइ ॥ जिह सिमरत संकट मिटै दरसु तुहारो होइ ॥५७॥१॥

मूलम्

राम नामु उर मै गहिओ जा कै सम नही कोइ ॥ जिह सिमरत संकट मिटै दरसु तुहारो होइ ॥५७॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उर = हृदय। उर महि = दिल में। गहिओ = पकड़ लिया, पक्की तरह बसा लिया। जा कै सम = जिस (हरि नाम) के बराबर। जिह सिमरत = जिस हरि नाम को स्मरण करने से। संकट = दुख-कष्ट।57।
अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य ने तेरा वह नाम अपने हृदय में बसाया है जिसके बराबर का और कोई नहीं और जिसको स्मरण करने से हरेक दुख-कष्ट दूर हो जाता है, उस मनुष्य को तेरा दर्शन भी हो जाता है।57।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुंदावणी महला ५ ॥ थाल विचि तिंनि वसतू पईओ सतु संतोखु वीचारो ॥ अम्रित नामु ठाकुर का पइओ जिस का सभसु अधारो ॥ जे को खावै जे को भुंचै तिस का होइ उधारो ॥ एह वसतु तजी नह जाई नित नित रखु उरि धारो ॥ तम संसारु चरन लगि तरीऐ सभु नानक ब्रहम पसारो ॥१॥

मूलम्

मुंदावणी महला ५ ॥ थाल विचि तिंनि वसतू पईओ सतु संतोखु वीचारो ॥ अम्रित नामु ठाकुर का पइओ जिस का सभसु अधारो ॥ जे को खावै जे को भुंचै तिस का होइ उधारो ॥ एह वसतु तजी नह जाई नित नित रखु उरि धारो ॥ तम संसारु चरन लगि तरीऐ सभु नानक ब्रहम पसारो ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: थाल विचि = (उसके हृदय) थाल में। तिंनि वसतू = तीन चीजें (सत, संतोख और विचार)। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। जिस का = जिस (नाम) का। सभसु = हरेक जीव को। अधारो = आसरा। को = कोई (मनुष्य)। भुंचै = खाता है, माणता है। तिस का = उस (मनुष्य) का। उधारो = उद्धार, पार उतारा, विकारों से बचाव। एह वसतु = यह वस्तु, आत्मिक प्रसन्नता देने वाली ये चीज, ये मुदावणी। तजी नह जाई = त्यागी नहीं जा सकती। रखु = संभाल के रखो। उरि = हृदय में। धारो = टिकाओ। तम = (तमस्) अंधेरा। तम संसारु = (विकारों के कारण बना हुआ) घुप अंधेरा जगत। लगि = लग के। सभु = हर जगह। ब्रहम पसारो = परमात्मा का खिलारा, परमात्मा के स्वै का प्रकाश।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस का’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हटा दी गई है।
नोट: ‘तिस का’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! (उस मनुष्य के हृदय-) थाल में ऊँचा आचरण, संतोख और आत्मिक जीवन की सूझ - ये तीनों वस्तुएं टिकी रहती हैं, (जिस मनुष्य के हृदय-थाल में) परमात्मा का आत्मिक जीवन देने वाला नाम आ बसता है (ये ‘अमृत-नाम’ ऐसा है) कि इसका आसरा हरेक जीव के लिए (जरूरी) है। (इस आत्मिक भोजन को) अगर कोई मनुष्य सदा खाता रहता है, तो उस मनुष्य का विकारों से बचाव हो जाता है।
हे भाई! (अगर आत्मिक उद्धार की आवश्यक्ता है तो) आत्मिक प्रसन्नता देने वाली ये नाम-वस्तु त्यागी नहीं जा सकती, इसको सदा ही अपने हृदय में संभाल के रख। हे नानक! (इस नाम-वस्तु की इनायत से) प्रभु की चरणी लग के घोर अंधकार भरा संसार-समुंदर तैरा जा सकता है और हर जगह परमात्मा के स्वै का प्रकाश ही (दिखाई देने लग जाता है)।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शीर्षक ‘मुंदावणी’ का अर्थ समझने के लिए ‘सोरठि की वार’ की अठवीं पउड़ी का पहिला शलोक सामने रखना आवश्यक है;
सलोकु महला ३॥ थालै विचि तै वसतू पईओ हरि भोजनु अंम्रितु सारु॥ जितु खाधै मनु त्रिपतीऐ पाईऐ मोख दुआरु॥ इहु भोजनु अलभु है संतहु लभै गुर वीचारि॥ एह मुदावणी किउ विचहु कढीऐ सदा रखीऐ उरि धारि॥ एह मुदावणी सतिगुरू पाई गुरसिखा लधी भालि॥ नानक जिसु बुझाए सु बुझसी हरि पाइआ गुरमुखि घालि॥१॥
(सोरठि की वार महला ४ पन्ना ६४५)
इस सलोक महला ३ को ‘मुंदावणी महला ५’ के साथ मिला के देखिए। दोनों का मजमून एक ही है। कई शब्द सांझे हैं। गुरु अमरदास जी के वचनों का शीर्षक है ‘सलोकु’। गुरु अरजन साहिब के वचनों का शीर्षक है ‘मुंदावणी’। पर ये शब्द गुरु अमरदास जी ने ‘सलोक’ में प्रयोग कर दिए हैं, हलाँकि थोड़ा सा फर्क है; टिप्पी (बिंदी) का अंतर।
ख्याल, विषय-वस्तु, शब्दों की समानता के आधार पर नि: संदेह ये कहा जा सकता है कि शब्द ‘मुदावणी’ और ‘मुंदावणी’ एक ही है। दोनों की वचनों (शबदों) में ये शब्द ‘स्त्री–लिंग’ में प्रयोग किया गया है। गुरु अरजन साहिब इस ‘मुंदावणी’ के बारे में कहते हैं कि ‘ऐह वसतु तजी नह जाई’, इसको ‘नित नित रखु उरि धारो’। यही बात गुरु अमरदास जी ने इस प्रकार कही है कि;
‘ऐह मुदावणी किउ विचहु कढीअै?
सदा रखीअै उरिधारि’।
शब्द ‘मुदावणी’ ‘मुंदावणी’ का अर्थ:
(मुद्–to please, प्रसन्न करना। मोदयति–pleases)। मुदावणी अथवा मुंदावणी–आत्मिक प्रसन्नता देने वाली वस्तु।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक महला ५ ॥ तेरा कीता जातो नाही मैनो जोगु कीतोई ॥ मै निरगुणिआरे को गुणु नाही आपे तरसु पइओई ॥ तरसु पइआ मिहरामति होई सतिगुरु सजणु मिलिआ ॥ नानक नामु मिलै तां जीवां तनु मनु थीवै हरिआ ॥१॥

मूलम्

सलोक महला ५ ॥ तेरा कीता जातो नाही मैनो जोगु कीतोई ॥ मै निरगुणिआरे को गुणु नाही आपे तरसु पइओई ॥ तरसु पइआ मिहरामति होई सतिगुरु सजणु मिलिआ ॥ नानक नामु मिलै तां जीवां तनु मनु थीवै हरिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कीता = किया हुआ (उपकार)। जातो नाही = (तेरे किए हुए उपकार की) मैंने कद्र नहीं समझी। मैनो = मुझे। कीतोई = तूने (मुझे) बनाया है। जोगु = योग्य, लायक, (उपकार की दाति संभालने के) योग्य (बर्तन)। मै निरगुणिआरे = मुझ गुण हीन में। को गुणु = कोई गुण। आपे = स्वयं ही। मिहरामति = मेहर, दया। मिलै = मिलता है। तां = तब। जीवां = मैं जी उठता हूं, मुझे आत्मिक जीवन मिल जाता है। थीवै = हो जाता है। हरिआ = (आत्मिक जीवन से) हरा भरा।1।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु!) मैं तेरे किए हुए उपकारों की कद्र नहीं समझ सकता, (उपकार की दाति संभालने के लिए) तूने (खुद ही) मुझे योग्य बर्तन बनाया है। मुझ गुण-हीन में कोई गुण नहीं है। तुझे स्वयं ही मुझ पर तरस आ गया। हे प्रभु! तेरे मन में मेरे लिए दया पैदा हुई, मेरे पर तेरी मेहर हुई, तब मुझे मित्र गुरु मिला (तेरा यह उपकार भुलाया नहीं जा सकता)। (अब प्यारे गुरु से) जब मुझे (तेरा) नाम मिलता है, तो मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा हो जाता है, मेरा तन मेरा मन (उस आत्मिक जीवन की इनायत से) खिल उठता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ राग माला ॥

मूलम्

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ राग माला ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राग एक संगि पंच बरंगन ॥ संगि अलापहि आठउ नंदन ॥

मूलम्

राग एक संगि पंच बरंगन ॥ संगि अलापहि आठउ नंदन ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संगि = साथ। बरंगन = (वरांगना) स्त्रीयां, रागनियां। अलापहि = (गायक लोग) अलापते हैं, गाते हैं (बहुवचन)। नंदन = पुत्र। आठउ = आठ-आठ ही।

[[1430]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रथम राग भैरउ वै करही ॥ पंच रागनी संगि उचरही ॥

मूलम्

प्रथम राग भैरउ वै करही ॥ पंच रागनी संगि उचरही ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वै = वे (गायक लोग)। करही = करते हैं। उचरही = उचारते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रथम भैरवी बिलावली ॥ पुंनिआकी गावहि बंगली ॥ पुनि असलेखी की भई बारी ॥ ए भैरउ की पाचउ नारी ॥

मूलम्

प्रथम भैरवी बिलावली ॥ पुंनिआकी गावहि बंगली ॥ पुनि असलेखी की भई बारी ॥ ए भैरउ की पाचउ नारी ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गावहि = गाते हैं। पुनि = फिर।
अर्थ: भैरव राग की पाँच रागनियाँ: भैरवी, बिलावली, पुंनिआ, बंगली और असलेखी।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: संस्कृत शब्द ‘पुनह’ ‘पुनः ’ है। श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी में जहाँ कहीं भी संस्कृत शब्द ‘पुनह’ का पुराना पंजाबी रूप आया है वह ‘फुनि’ है, ‘पुनि’ कहीं भी नहीं। साहित्यक दृष्टिकोण से ये एक अनोखी बात है। किसी भी गुरु-व्यक्ति ने अपनी वाणी में ये शब्द नहीं बरता)।
फिर देखें शीर्षक। शब्द ‘राग माला’ के साथ ‘महला १’, ‘महला २’, ‘महला ३’, ‘महला ४’, ‘महला ५’, आदिक कोई भी शब्द नहीं, जिससे पाठक ये निर्णय कर सके कि ये किस गुरु-व्यक्ति की लिखी हुई रचना है।
सारे ही श्री गुरु ग्रंथ साहिब में कहीं भी कोई शब्द सलोक आदि दर्ज नहीं है, जिसके लिखने वाले गुरु-व्यक्ति का निर्णय करना सिखों पर छोड़ दिया गया हो।
यहाँ ये अनोखी बात क्यों?

विश्वास-प्रस्तुतिः

पंचम हरख दिसाख सुनावहि ॥ बंगालम मधु माधव गावहि ॥१॥ ललत बिलावल गावही अपुनी अपुनी भांति ॥ असट पुत्र भैरव के गावहि गाइन पात्र ॥१॥

मूलम्

पंचम हरख दिसाख सुनावहि ॥ बंगालम मधु माधव गावहि ॥१॥ ललत बिलावल गावही अपुनी अपुनी भांति ॥ असट पुत्र भैरव के गावहि गाइन पात्र ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुनावहि = सुनाते हैं। गावहि = गाते हैं। गावही = गाते। भांति = ढंग, किस्म, तरीका। असट = आठ। गाइन पात्र = गवईए।
अर्थ: भैरव राग के आठ पुत्र: पंचम, हरख, दिसाख, बंगालम, मधु, माधव, ललत, बिलावल।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के शबदों, अष्टपदियों, छंदों को ध्यान से देखो। जब कहीं कोई ‘बंद’ खत्म होता है, तब उसके आखिर में एक अंक दिया होता है। उस ‘बंद’ का ‘भाव’ अपने आप में मुकम्मल होता है। पर रागमाला की काव्य–संरचना में एक अनोखी बात देखी जा रही है। ‘चोपई’ की आठ तुकों के आखिर में ‘अंक १’ दिया हुआ है। पर, आखिरी दो तुकों में भैरउ राग के सारे पुत्रों के नाम नहीं आ सके। ललित और बिलावल दो नाम अगली ‘दोहरे’ की तुक में हैं। उस दोहरे के आखिर में भी ‘अंक १’ है।)

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुतीआ मालकउसक आलापहि ॥ संगि रागनी पाचउ थापहि ॥ गोंडकरी अरु देवगंधारी ॥ गंधारी सीहुती उचारी ॥ धनासरी ए पाचउ गाई ॥ माल राग कउसक संगि लाई ॥

मूलम्

दुतीआ मालकउसक आलापहि ॥ संगि रागनी पाचउ थापहि ॥ गोंडकरी अरु देवगंधारी ॥ गंधारी सीहुती उचारी ॥ धनासरी ए पाचउ गाई ॥ माल राग कउसक संगि लाई ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आलापहि = अलापते हैं। पाचउ = पाँच ही। थापहि = स्थापित करते हैं। ए पाचउ = ये पाँचों ही। माल राग कउसक = राग मालकौंस। संगि = साथ। लाई = लगा के।
अर्थ: राग मालकौंस की पाँच रागनियाँ: गौंडकरी, देवगंधारी, गंधारी, सीहुती, धनासरी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मारू मसतअंग मेवारा ॥ प्रबलचंड कउसक उभारा ॥ खउखट अउ भउरानद गाए ॥ असट मालकउसक संगि लाए ॥१॥

मूलम्

मारू मसतअंग मेवारा ॥ प्रबलचंड कउसक उभारा ॥ खउखट अउ भउरानद गाए ॥ असट मालकउसक संगि लाए ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अउ = और। असट = आठ (पुत्र)। संगि = साथ। मालकउसक (मालकौंस) के आठ पुत्र = मारू, मस्त अंग, मेवारा, प्रबल चंड, कउसक, उभारा, खउखट, भउरानद।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनि आइअउ हिंडोलु पंच नारि संगि असट सुत ॥ उठहि तान कलोल गाइन तार मिलावही ॥१॥

मूलम्

पुनि आइअउ हिंडोलु पंच नारि संगि असट सुत ॥ उठहि तान कलोल गाइन तार मिलावही ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पुनि = फिर। नारि = स्त्रीयां, रागनियां। सुत = पुत्र। उठहि = उठते हैं। गाइनि = गाते हैं। मिलावही = मिलाते हैं।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: हर जगह ‘अंक १’ का प्रयोग कोई निर्णय नहीं दे रहा)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेलंगी देवकरी आई ॥ बसंती संदूर सुहाई ॥ सरस अहीरी लै भारजा ॥ संगि लाई पांचउ आरजा ॥

मूलम्

तेलंगी देवकरी आई ॥ बसंती संदूर सुहाई ॥ सरस अहीरी लै भारजा ॥ संगि लाई पांचउ आरजा ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुहाई = शोभनीक। भारजा = स्त्री, रागिनी। आरजा = स्त्री, रागिनी।
अर्थ: हिंडोल की रागनियाँ: तेलंगी, देवकरी, बसंती, संदूर, सहस अहीरी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुरमानंद भासकर आए ॥ चंद्रबि्मब मंगलन सुहाए ॥ सरसबान अउ आहि बिनोदा ॥ गावहि सरस बसंत कमोदा ॥ असट पुत्र मै कहे सवारी ॥ पुनि आई दीपक की बारी ॥१॥

मूलम्

सुरमानंद भासकर आए ॥ चंद्रबि्मब मंगलन सुहाए ॥ सरसबान अउ आहि बिनोदा ॥ गावहि सरस बसंत कमोदा ॥ असट पुत्र मै कहे सवारी ॥ पुनि आई दीपक की बारी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हिंडोल के पुत्र: सुरमानंद, भास्कर, चंद्र बिम्ब, मंगलन, सरस बान, बिनोदा, बसंत, कमोदा।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: आखिरी तुक बताती है कि अगले ‘बंद’ से राग ‘दीपक’ की वर्णन चलेगा।)

विश्वास-प्रस्तुतिः

कछेली पटमंजरी टोडी कही अलापि ॥ कामोदी अउ गूजरी संगि दीपक के थापि ॥१॥

मूलम्

कछेली पटमंजरी टोडी कही अलापि ॥ कामोदी अउ गूजरी संगि दीपक के थापि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अलापि = अलाप के। अउ = और। थापि = स्थापित कर के।
अर्थ: दीपक राग की रागनियाँ: कछेली, पटमंजरी, टोडी, कामोदी, गूजरी।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: यहाँ ‘चौपाई’ और ‘दोहरा’ समेत तीसरा ‘बंद’ मुकम्मल खत्म हो गया है। अब तक भैरव, मालकौंस, हिंडोल– इन तीन रागों का वर्णन पूरा हो चुका है। दीपक राग की पाँच रागनियां भी दी जा चुकी हैं।)

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालंका कुंतल अउ रामा ॥ कमलकुसम च्मपक के नामा ॥ गउरा अउ कानरा कल्याना ॥ असट पुत्र दीपक के जाना ॥१॥

मूलम्

कालंका कुंतल अउ रामा ॥ कमलकुसम च्मपक के नामा ॥ गउरा अउ कानरा कल्याना ॥ असट पुत्र दीपक के जाना ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: राग दीपक के आठ पुत्र: कालंका, कुंतल, रामा, कमल कुसम, चंपक, गउरा, कानड़ा, कलाना।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: दीपक राग के आठ पुत्र चोपई की इन चार तुकों में दे के आगे ‘अंक १’ लिखा गया है। इससे आगे पाँचवां राग ‘सिरी राग’ शुरू किया गया है। यह भी चोपई के साथ ही शुरू होता है)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभ मिलि सिरीराग वै गावहि ॥ पांचउ संगि बरंगन लावहि ॥ बैरारी करनाटी धरी ॥ गवरी गावहि आसावरी ॥ तिह पाछै सिंधवी अलापी ॥ सिरीराग सिउ पांचउ थापी ॥१॥

मूलम्

सभ मिलि सिरीराग वै गावहि ॥ पांचउ संगि बरंगन लावहि ॥ बैरारी करनाटी धरी ॥ गवरी गावहि आसावरी ॥ तिह पाछै सिंधवी अलापी ॥ सिरीराग सिउ पांचउ थापी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिलि = मिल के। वै = वे (विद्वान) लोग। गावहि = गाते हैं। बरंगन = वरांगना, स्त्रीयां, रागनियाँ। लावहि = लगाते हैं, प्रयोग करते हैं।
अर्थ: सिरी राग की पाँच रागनियाँ: बैरारी, करनाटी, गवरी, आसावरी, सिंधवी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सालू सारग सागरा अउर गोंड ग्मभीर ॥ असट पुत्र स्रीराग के गुंड कु्मभ हमीर ॥१॥

मूलम्

सालू सारग सागरा अउर गोंड ग्मभीर ॥ असट पुत्र स्रीराग के गुंड कु्मभ हमीर ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: श्री राग के आठ पुत्र: सालू, सारग, सागरा, गौंड, गंभीर, गुंड, कुंभ, हमीर।

विश्वास-प्रस्तुतिः

खसटम मेघ राग वै गावहि ॥ पांचउ संगि बरंगन लावहि ॥ सोरठि गोंड मलारी धुनी ॥ पुनि गावहि आसा गुन गुनी ॥ ऊचै सुरि सूहउ पुनि कीनी ॥ मेघ राग सिउ पांचउ चीनी ॥१॥

मूलम्

खसटम मेघ राग वै गावहि ॥ पांचउ संगि बरंगन लावहि ॥ सोरठि गोंड मलारी धुनी ॥ पुनि गावहि आसा गुन गुनी ॥ ऊचै सुरि सूहउ पुनि कीनी ॥ मेघ राग सिउ पांचउ चीनी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खसटम = छेवां। वै = वे (विद्वान) लोग। गावहि = गाते हैं। बरंगन = वरांगना, स्त्रीयां, रागनियां। पुनि = फिर। ऊचै सुरि = ऊँची सुर से। सिउ = साथ, समेत। चीनी = पहचान ली।
अर्थ: मेघ राग की रागनियाँ: सोरठ, गोंड, मलारी, आसा, सूहउ।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: सिरी राग के आठ पुत्रों में भी ‘गोंड’ का वर्णन आ चुका है)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बैराधर गजधर केदारा ॥ जबलीधर नट अउ जलधारा ॥ पुनि गावहि संकर अउ सिआमा ॥ मेघ राग पुत्रन के नामा ॥१॥

मूलम्

बैराधर गजधर केदारा ॥ जबलीधर नट अउ जलधारा ॥ पुनि गावहि संकर अउ सिआमा ॥ मेघ राग पुत्रन के नामा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अउ = और।
अर्थ: मेघ राग के आठ पुत्रों के नाम: बैराधर, गजधर, केदारा, जबलीधर, नट, जलधारा, संकर, सिआमा।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: जहाँ–जहाँ भी कोई ‘बंद’ खत्म हुआ है, हर जगह ‘अंक १’ बरता गया है। श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी में अंकों की कहीं भी ये प्रथा नहीं है। हर जगह ‘अंक १’ का लिखा जाना अंकों के बारे में पाठकों की कोई सहायता नहीं करता)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

खसट राग उनि गाए संगि रागनी तीस ॥ सभै पुत्र रागंन के अठारह दस बीस ॥१॥१॥

मूलम्

खसट राग उनि गाए संगि रागनी तीस ॥ सभै पुत्र रागंन के अठारह दस बीस ॥१॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खसट = छह। उनि = उन्होंने। अठारह दस बीस = 18+10+20: 48।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: छह राग: भैरव, मालकौंस, हिण्डोल, दीपक, सिरी राग, मेघ। हरेक राग की पाँच रागनियां।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: कुल रागनियाँ - 30
हरेक राग के आठ पुत्र।
छह रागों के कुल पुत्र: 48
सारा जोड़: 6+30+48 = 84.

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: ये बात समझ में नहीं आती कि आखिरी अंक ‘१॥१॥ का क्या भाव है)।
श्री गुरु ग्रंथ साहिब की वाणी में निम्न-लिखित 31 राग हैं;
सिरी राग, माझ, गाउड़ी, आसा, गूजरी, देवगंधारी, बिहागड़ा, वडहंस, सोरठि, धनासरी, जैतसरी, टोडी, बैराड़ी, तिलंग, सूही, बिलावल, गौंड, रामकली नट, माली गउड़ा, मारू, तुखारी, केदारा, भैरव, सारंग मलार, कानड़ा, कलिआन, प्रभाती, जैजावंती।
इन 31 के अलावा निम्न-लिखित 6 दूसरे रागों के साथ मिला के गाने की भी हिदायत है;
ललित, आसावरी, हिंडोल, भोपाली, बिभास, काफ़ी।
नोट: ‘आसावरी’ रा्रग ‘आसा’ में ही दर्ज है।
नोट: इस तरह सारे श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी में कुल 37 राग आ गए।
नोट: पाठकों के लिए ये बात हैरानी–जनक होगी कि श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में बरते कुछ राग इस ‘राग माला’ में नहीं हैं। और बहुत सारे रागों का वर्णन है जो श्री गुरु ग्रंथ साहिब में नहीं हैं।