३० परभाती

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विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सतिनामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

मूलम्

ੴ सतिनामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु परभाती बिभास महला १ चउपदे घरु १ ॥

मूलम्

रागु परभाती बिभास महला १ चउपदे घरु १ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाइ तेरै तरणा नाइ पति पूज ॥ नाउ तेरा गहणा मति मकसूदु ॥ नाइ तेरै नाउ मंने सभ कोइ ॥ विणु नावै पति कबहु न होइ ॥१॥

मूलम्

नाइ तेरै तरणा नाइ पति पूज ॥ नाउ तेरा गहणा मति मकसूदु ॥ नाइ तेरै नाउ मंने सभ कोइ ॥ विणु नावै पति कबहु न होइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नाइ = नाय, नाम से। तेरै नाइ = तेरे नाम में जुड़ के। पति = इज्जत। पूज = पूजा, आदर। मकसूदु = मकसद, उद्देश्य, निशाना। मति मकसूद = समझ का उद्देश्य। नाउ मंनै = नाम मानता है, बड़ाई देता है। सभ कोइ = हरेक जीव।1।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे नाम में जुड़ के ही (संसार-समुंदर के विकारों से) पार लांघा जाता है, तेरे नाम के द्वारा ही इज्जत-आदर मिलता है। तेरा नाम (इन्सानी जीवन को श्रृंगारने के लिए) गहना है, मानवीय-बुद्धि का मकसद यही है (कि मनुष्य तेरा नाम स्मरण करे)। हे प्रभु! तेरे नाम में टिक के ही हर कोई (नाम-जपने वाले की) इज्जत करता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवर सिआणप सगली पाजु ॥ जै बखसे तै पूरा काजु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

अवर सिआणप सगली पाजु ॥ जै बखसे तै पूरा काजु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अवर सिआणप = (नाम स्मरण छोड़ के बड़ाई हासिल करने के लिए) और-और चतुराईयों (वाला काम)। पाजु = लोक दिखावा। जै = जिस को। तै काजु = उसका कारजु, उसका जगत में आने का उद्देश्य। पूरा = संपूर्ण (करता है), सिरे चढ़ाता है।1। रहाउ।
अर्थ: (प्रभु का स्मरण छोड़ के दुनिया में आदर हासिल करने के लिए) और-और चतुराईयों (के काम निरे) लोक-दिखावा हैं (वह पाज उघड़ जाता है और हासिल की हुई इज्जत भी खत्म हो जाती है)। जिस जीव पर प्रभु बख्शिश करता है (उसको अपने नाम की दाति देता है, और उस जीव का) जिंदगी का असल उद्देश्य सफल होता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाउ तेरा ताणु नाउ दीबाणु ॥ नाउ तेरा लसकरु नाउ सुलतानु ॥ नाइ तेरै माणु महत परवाणु ॥ तेरी नदरी करमि पवै नीसाणु ॥२॥

मूलम्

नाउ तेरा ताणु नाउ दीबाणु ॥ नाउ तेरा लसकरु नाउ सुलतानु ॥ नाइ तेरै माणु महत परवाणु ॥ तेरी नदरी करमि पवै नीसाणु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ताणु = बल, ताकत। दीबाणु = आसरा, हकूमत। महत = महत्वता, बड़ाई। परवाणु = स्वीकार, जाना माना। नदरी = मेहर की नजर से। करमि = बख्शिश से। पवै = मिलता है। नीसाणु = परवाना, राहदारी।2।
अर्थ: (मनुष्य दुनियावी ताकत, हकूमत, फौजों की सरदारी और बादशाहियत के लिए दौड़ता-फिरता है, फिर ये सब कुछ नाशवान है) हे प्रभु! तेरा नाम ही (असल) ताकत है, तेरा नाम ही (असल) हकूमत है, तेरा नाम ही फौजों (की सरदारी) है, जिसके पल्ले तेरा नाम है वही बादशाह है। हे प्रभु! तेरे नाम में जुड़ने से ही असल आदर मिलता है इज्जत मिलती है। जो मनुष्य तेरे नाम में मस्त है वही जगत में जाना-माना हुआ है। पर, तेरी मेहर की नज़र से ही तेरी बख्शिश से ही (जीव-यात्री को इस जीवन-यात्रा में) यह परवाना (राहदारी) मिलता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाइ तेरै सहजु नाइ सालाह ॥ नाउ तेरा अम्रितु बिखु उठि जाइ ॥ नाइ तेरै सभि सुख वसहि मनि आइ ॥ बिनु नावै बाधी जम पुरि जाइ ॥३॥

मूलम्

नाइ तेरै सहजु नाइ सालाह ॥ नाउ तेरा अम्रितु बिखु उठि जाइ ॥ नाइ तेरै सभि सुख वसहि मनि आइ ॥ बिनु नावै बाधी जम पुरि जाइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहजु = अडोल अवस्था, मन की शांति। सालाह = महिमा (की आदत)। अंम्रितु = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला पवित्र जल। बिखु = (विषौ-विकारों का) जहर। मनि = मन में। जम पुरि = जमराज के शहर में।3।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे नाम में जुड़ने से ही मन की शांति मिलती है, तेरे नाम में जुड़ने से तेरी महिमा करने की आदत बनती है। तेरा नाम ही आत्मिक जीवन देने वाला ऐसा पवित्र जल है (जिसकी इनायत से मनुष्य मन में से विषौ-विकारों का सारा) जहर धुल जाता है। तेरे नाम में जुड़ने से सारे सुख मन में आ बसते हैं। नाम से टूट के दुनिया (विकारों की जंजीरों में) बँधी हुई जम की नगरी में जाती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नारी बेरी घर दर देस ॥ मन कीआ खुसीआ कीचहि वेस ॥ जां सदे तां ढिल न पाइ ॥ नानक कूड़ु कूड़ो होइ जाइ ॥४॥१॥

मूलम्

नारी बेरी घर दर देस ॥ मन कीआ खुसीआ कीचहि वेस ॥ जां सदे तां ढिल न पाइ ॥ नानक कूड़ु कूड़ो होइ जाइ ॥४॥१॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: यह शब्द प्रभाती और बिभास दोनों मिश्रित रागों में गाने की हिदायत है।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नारी = स्त्री (का मोह)। बेरी = बेड़ी, बंधन। देस = मिलख, जमीन। कीचहि = करते हैं। वेस = पहरावे। जां = जब। कूड़ु = वह पदार्थ जिसके साथ हमेशा संबंध नहीं रहना।4।
अर्थ: हे नानक! स्त्री (का प्यार) घरों को जमीन-जायदादों की मल्कियत - ये सब कुछ (जीव-यात्री के पैरों में) बेड़ियाँ (पड़ी हुई) हैं (जो इसको सही जीवन-यात्रा में चलने नहीं देतीं)। मन की प्रसन्नता के लिए अनेक पहरावे पहनते है। (ये खुशियाँ व चाव भी बेड़ियाँ ही हैं)। जब (परमात्मा जीव को) मौत का बुलावा भेजता है (उसके बुलावे पर) रक्ती भर भी ढील नहीं हो सकती। (तब समझ आती है कि) झूठे पदार्थों का साथ झूठा ही निकलता है।4।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला १ ॥ तेरा नामु रतनु करमु चानणु सुरति तिथै लोइ ॥ अंधेरु अंधी वापरै सगल लीजै खोइ ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला १ ॥ तेरा नामु रतनु करमु चानणु सुरति तिथै लोइ ॥ अंधेरु अंधी वापरै सगल लीजै खोइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करमु = बख्शिश। तिथै = उस (सोच) में। लोइ = (ज्ञान का) प्रकाश। अंधेरु = अंधेरा, अज्ञानता का अंधेरा। अंधी = (माया के मोह में) अंधी हुई सृष्टि पर। वापरै = जोर डाल रहा है। खोइ लीजै = गवा लेता है।1।
अर्थ: (हे प्रभु!) जिस (मानव) सोच में तेरा नाम-रत्न (जड़ा हुआ) है, तेरी बख्शिश रौशनी कर रही है उस सोच के अंदर (तेरे ज्ञान का) प्रकाश हो रहा है। (माया के मोह में) अंधी हो रही सृष्टि पर अज्ञानता का अंधेरा प्रभाव डाल रहा है, (इस अंधेरे में) सारी आत्मिक राशि-पूंजी गवा ली जाती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहु संसारु सगल बिकारु ॥ तेरा नामु दारू अवरु नासति करणहारु अपारु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

इहु संसारु सगल बिकारु ॥ तेरा नामु दारू अवरु नासति करणहारु अपारु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिकारु = बुरे कर्म, एैब। नासति = (ना+अस्ति) नहीं है। करणहारु = बनाने वाला।1। रहाउ।
अर्थ: (हे प्रभु! तेरे नाम से टूट के) ये सारा जगत विकार ही विकार (सहेड़ रहा) है। (इस विकार रोग की) दवाई (सिर्फ) तेरा नाम ही है, (तेरे नाम के बिना) कोई और दवा-दारू नहीं है। (जगत को और जगत के रोगों की दवाई को) बनाने वाला तू बेअंत प्रभु स्वयं ही है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाताल पुरीआ एक भार होवहि लाख करोड़ि ॥ तेरे लाल कीमति ता पवै जां सिरै होवहि होरि ॥२॥

मूलम्

पाताल पुरीआ एक भार होवहि लाख करोड़ि ॥ तेरे लाल कीमति ता पवै जां सिरै होवहि होरि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: एक भार होवहि = अगर (इकट्ठे बँध के) एक गाँठ बन जाएं। लाल = लाल जैसे कीमती नाम की। ता = तब ही। जां = जब। सिरै = (तराजू के दूसरे) छाबे में। होरि = (पाताल पुरियों आदि के सारे पदार्थों को छोड़ के) कोई और पदार्थ।2।
अर्थ: अगर सृष्टि की सारी पाताल और पुरियाँ (आपस में बँध के) एक गठड़ी बन जाएं, और अगर इस तरह की और लाखों-करोड़ों गठड़ियां भी हो जाएं (तो ये सारे मिल के भी परमात्मा के नाम की बराबरी नहीं कर सकते)। हे प्रभु! तेरे कीमती नाम का मूल्य तब ही पड़ सकता है जब नाम को तोलने के लिए तकड़ी के दूसरे छाबे में (सारी दुनिया के धन-पदार्थों को छोड़ के) कोई और पदार्थ हों (भाव, तेरी सिफतों के खजाने हों! तेरे नाम जैसा कीमती नाम ही है, तेरी तारीफ-सालाहें ही हैं)।2।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

दूखा ते सुख ऊपजहि सूखी होवहि दूख ॥ जितु मुखि तू सालाहीअहि तितु मुखि कैसी भूख ॥३॥

मूलम्

दूखा ते सुख ऊपजहि सूखी होवहि दूख ॥ जितु मुखि तू सालाहीअहि तितु मुखि कैसी भूख ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। जितु मुखि = जिस मुँह से। तितु मुखि = उस मुँह में। भूख = माया की भूख, तृष्णा।3।
अर्थ: (दुनियां वाले दुख-कष्ट भी प्रभु की बख्शिश का साधन हैं क्योंकि इन) दुखों से (इन दुखों के कारण विषौ-विकारों से पलटने पर वापस लौटने पर) आत्मिक सुख पैदा हो जाते हैं, (और दुनियावी भोगों के) सुखों से (आत्मिक और शारीरिक) रोग उपजते हैं। हे प्रभु! जिस मुँह से तेरी महिमा की जाती है, उस मुँह में माया की भूख नहीं रह जाती (और माया की भूख दूर होने पर सारे दुख-रोग नाश हो जाते हैं)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक मूरखु एकु तू अवरु भला सैसारु ॥ जितु तनि नामु न ऊपजै से तन होहि खुआर ॥४॥२॥

मूलम्

नानक मूरखु एकु तू अवरु भला सैसारु ॥ जितु तनि नामु न ऊपजै से तन होहि खुआर ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: एक तू = सिफ तू ही। अवरु सैसारु = बाकी सारा संसार। जितु तनि = जिस जिस शरीर में। से तन = वह सारे शरीर।4।
अर्थ: हे नानक! (अगर तेरे अंदर परमात्मा का नाम नहीं है तो) सिर्फ तू ही मूर्ख है, तेरे से कहीं ज्यादा संसार अच्छा है। जिस जिस शरीर में प्रभु का नाम नहीं, वह शरीर (विकारों में पड़ कर) दुखी होते हैं।4।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला १ ॥ जै कारणि बेद ब्रहमै उचरे संकरि छोडी माइआ ॥ जै कारणि सिध भए उदासी देवी मरमु न पाइआ ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला १ ॥ जै कारणि बेद ब्रहमै उचरे संकरि छोडी माइआ ॥ जै कारणि सिध भए उदासी देवी मरमु न पाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जै = जिस। जै कारणि = जिस (परमात्मा के मिलाप) की खातिर। ब्रहमै = ब्रहमा ने। संकरि = शंकर ने, शिव ने। सिध = साधनों में माहिर जोगी। देवी = देवीं देवताओं ने। मरमु = भेद।1।
अर्थ: जिस परमात्मा के मिलाप की खातिर ब्रहमा ने वेद उचारे, और शिव जी ने दुनिया की माया त्यागी, जिस प्रभु को प्राप्त करने के लिए जोग-साधना में माहिर जोगी (दुनिया से) विरक्त हो गए (वह बड़ा बेअंत है), देवताओं ने (भी) उस (के गुणों) का भेद नहीं पाया।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाबा मनि साचा मुखि साचा कहीऐ तरीऐ साचा होई ॥ दुसमनु दूखु न आवै नेड़ै हरि मति पावै कोई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बाबा मनि साचा मुखि साचा कहीऐ तरीऐ साचा होई ॥ दुसमनु दूखु न आवै नेड़ै हरि मति पावै कोई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बाबा = हे भाई! मनि = मन में। साचा = सदा कायम रहने वाला प्रभु। मुखि = मुँह में। तरीऐ = तैरा जाता है। होई = हुआ जाता है। न आवै नेड़ै = नजदीक नहीं आता, जोर नहीं डाल सकता। हरि मति = हरि स्मरण करने की अक्ल। कोई = जो कोई।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! अपने मन में सदा कायम रहने वाले परमात्मा को बसाना चाहिए, मुँह से सदा-स्थिर प्रभु की तारीफ करनी चाहिए, (इस तरह संसार-समुंदर की विकार-लहरों से) पार लांघा जाता है, उस सदा-स्थिर प्रभु का रूप हो जाया जाता है। जो कोई मनुष्य परमात्मा का स्मरण करने की बुद्धि सीख लेता है, कोई वैरी उस पर जोर नहीं डाल सकता, कोई दुख-कष्ट उसको दबा नहीं सकता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अगनि बि्मब पवणै की बाणी तीनि नाम के दासा ॥ ते तसकर जो नामु न लेवहि वासहि कोट पंचासा ॥२॥

मूलम्

अगनि बि्मब पवणै की बाणी तीनि नाम के दासा ॥ ते तसकर जो नामु न लेवहि वासहि कोट पंचासा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अगनि = आग, तमो गुण। बिंब = पानी, सतोगुण। पवण = हवा, रजो गुण। बाणी = बनावट, बनतर। तीनि = ये तीनों माया के गुण। तसकर = चोर। वासहि = बसते हैं। कोट = किले। पंचासा = (पंच+अस्य: पंचास्यं सपवद) शेर। कोट पंचासा = शेरों के किलों में, कामादिक शेरों के घुरनों में।2।
अर्थ: यह सारा जगत तमो गुण, सतो गुण और रजो गुण की रचना है (सारे जीव-जंतु इन गुणों के अधीन हैं), पर यह तीनों गुण प्रभु के नाम के दास हैं (जो लोग नाम जपते हैं, उन पर ये तीन गुण अपना जोर नहीं डाल सकते)। (पर हाँ,) जो जीव प्रभु का नाम नहीं स्मरण करते वे (इन तीन गुणों के) चोर हैं (इनसे मार खाते हैं, क्योंकि) वह सदा (कामादिक) शेरों के घुरनों में बसते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जे को एक करै चंगिआई मनि चिति बहुतु बफावै ॥ एते गुण एतीआ चंगिआईआ देइ न पछोतावै ॥३॥

मूलम्

जे को एक करै चंगिआई मनि चिति बहुतु बफावै ॥ एते गुण एतीआ चंगिआईआ देइ न पछोतावै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: एक चंगिआई = एक भलाई, एक भला काम। मनि = मन में। चिति = चिक्त में। बफावै = डींगे मारता है। देइ = (दातें) देता है।3।
अर्थ: (हे भाई! देखो, उस परमात्मा की दरिया-दिली) अगर कोई व्यक्ति (किसी के साथ) कोई एक भलाई करता है; तो वह अपने मन में चिक्त में बड़ी डींगे मारता है (बड़ा गुमान करता है, पर) परमात्मा में इतने बेअंत गुण हैं, वह इतने भले कार्य करता है, वह (सब जीवों को दातें) देता है, पर दातें दे दे के कभी अफसोस नहीं करता (कि जीव दातें लेकर कद्र नहीं करते)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुधु सालाहनि तिन धनु पलै नानक का धनु सोई ॥ जे को जीउ कहै ओना कउ जम की तलब न होई ॥४॥३॥

मूलम्

तुधु सालाहनि तिन धनु पलै नानक का धनु सोई ॥ जे को जीउ कहै ओना कउ जम की तलब न होई ॥४॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सलाहनि = (जो जीव) सालाहते हैं, महिमा करते हैं। तिन पलै = उनके पल्ले, उनके हृदय में। सोई = वही है। को = कोई व्यक्ति। जीउ कहै = आदर सत्कार के वचन बोलता है। तलब = पूछताछ।4।
अर्थ: हे प्रभु! जो लोग तेरी महिमा करते हैं, उनके हृदय में तेरा नाम-धन है (वह असली धन है), मुझ नानक का धन भी तेरा नाम ही है। (जिनके पल्ले नाम-धन है) यदि कोई उनके साथ आदर-सत्कार के बोल बोलता है, तो जमराज (भी) उनसे कर्मों का लेखा नहीं पूछता (भाव, वे बुराई से हट जाते हैं)।4।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला १ ॥ जा कै रूपु नाही जाति नाही नाही मुखु मासा ॥ सतिगुरि मिले निरंजनु पाइआ तेरै नामि है निवासा ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला १ ॥ जा कै रूपु नाही जाति नाही नाही मुखु मासा ॥ सतिगुरि मिले निरंजनु पाइआ तेरै नामि है निवासा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा कै = जिस लोगों के पास। मासा = (शरीर पर) मास (भाव, शारीरिक बल)। सतिगुरि = सतिगुरु में, गुरु के चरणों में। मिले = जुड़े। निरंजनु = वह प्रभु जो माया की कालिख से रहित है। तेरै नामि = (हे प्रभु!) तेरे नाम में।1।
अर्थ: (हे जोगी!) जिनके पास रूप नहीं, जिनकी ऊँची जाति नहीं, जिनके सुंदर नक्श नहीं, जिनके पास शारीरिक बल नहीं, जब वे गुरु-चरणों में जुड़े, तो उनको माया-रहित प्रभु मिल गया। (हे प्रभु! गुरु की शरण पड़ने से) उनका निवास तेरे नाम में हो गया।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अउधू सहजे ततु बीचारि ॥ जा ते फिरि न आवहु सैसारि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

अउधू सहजे ततु बीचारि ॥ जा ते फिरि न आवहु सैसारि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अउधू = (वह साधु जिसने माया के बंधन तोड़ के किनारे फेंक दिए, वह विरक्त साधु जो शरीर पर राख मले फिरते हैं), हे अउधू! सहजे = सहजि, अडोल अवस्था में टिक के। ततु = जगत का मूल प्रभु। ततु बीचारि = जगत का मूल प्रभु (के गुणों) की विचार, प्रभु के गुणों में तवज्जो जोड़। जा ते = जिस पर, जिस (उद्यम) से। संसारि = संसार में, जनम मरण के चक्कर में।1। रहाउ।
अर्थ: हे जोगी! (तू घर-बार छोड़ के तन पर राख मल के ही यह समझे बैठा है कि तू जनम-मरण के चक्करों में से निकल गया है, तुझे भुलेखा है)। अडोल आत्मिक अवस्था में टिक के प्रभु की महिमा में तवज्जो जोड़। (यही तरीका है) जिससे तू दोबारा जनम-मरण के चक्कर में नहीं आएगा।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा कै करमु नाही धरमु नाही नाही सुचि माला ॥ सिव जोति कंनहु बुधि पाई सतिगुरू रखवाला ॥२॥

मूलम्

जा कै करमु नाही धरमु नाही नाही सुचि माला ॥ सिव जोति कंनहु बुधि पाई सतिगुरू रखवाला ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करमु = धार्मिक कर्म। धरम = वर्ण आश्रम वाला कोई कर्म। सुचि = चौके आदि वाली स्वच्छता सुचि। सिव जोति = कल्याण रूप परमात्मा की ज्योति। कंनहु = पास से। बुधि = (तत्व विचारने की) बुद्धि, प्रभु के गुणों में तवज्जो जोड़ने की सूझ।2।
अर्थ: (हे जोगी!) जो लोग शास्त्रों का बताया हुआ कोई कर्म-धर्म नहीं करते, जिन्होंने चौके आदि की कोई सुचि नहीं रखी, जिनके गले में (तुलसी आदि की) माला नहीं, जब उनका रखवाला गुरु बन गया, उनको कल्याण-रूप निरंकारी ज्योति से (उसकी महिमा में जुड़ने की) बुद्धि मिल गई।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा कै बरतु नाही नेमु नाही नाही बकबाई ॥ गति अवगति की चिंत नाही सतिगुरू फुरमाई ॥३॥

मूलम्

जा कै बरतु नाही नेमु नाही नाही बकबाई ॥ गति अवगति की चिंत नाही सतिगुरू फुरमाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नेमु = कर्म कांड अनुसार रोजाना करने वाला काम। बकबाई = बकवास, हवाई बातें, व्यर्थ वचन, चतुराई के बोल। गति = मुक्ति। अवगति = (मुक्ति के उलट) नर्क आदि। चिंत = सहम, फिक्र। फुरमाई = हुक्म, उपदेश।3।
अर्थ: (हे जोगी!) जिस लोगों ने कभी कोई व्रत नहीं रखा, कोई (इस तरह का और) नियम नहीं रखा, जो शास्त्र-चर्चा के कोई चतुराई भरे बोल नहीं बोलने जानते, जब गुरु का उपदेश उनको मिला, तो मुक्ति अथवा नर्क का उनको कोई फिक्र सहम नहीं रह गया।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा कै आस नाही निरास नाही चिति सुरति समझाई ॥ तंत कउ परम तंतु मिलिआ नानका बुधि पाई ॥४॥४॥

मूलम्

जा कै आस नाही निरास नाही चिति सुरति समझाई ॥ तंत कउ परम तंतु मिलिआ नानका बुधि पाई ॥४॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आस = दुनियां के धन-पदार्थों की आशाएं। निरास = दुनिया से उपराम हो जाने का ख्याल। जा कै चिति = जिसके चिक्त में। समझाई = समझ, सूझ। तंत = जीवात्मा। परम तंतु = परम आत्मा अकाल पुरख। बुधि = (प्रभु के गुणों की तवज्जो जोड़ने की) अकल।4।
अर्थ: हे नानक! जिस जीव के पास धन-पदार्थ नहीं कि वह दुनिया की आशाएं चिक्त में बनाए रखे, जिस जीव के चिक्त में माया से उपराम हो के गृहस्थ-त्याग के ख्याल भी नहीं उठते, जिसको ऐसी कोई तवज्जो नहीं समझ नहीं, जब उसको (सतिगुरु से प्रभु की महिमा में जुड़ने की) अकल मिलती है, तो उस जीव को परमात्मा मिल जाता है।4।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला १ ॥ ता का कहिआ दरि परवाणु ॥ बिखु अम्रितु दुइ सम करि जाणु ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला १ ॥ ता का कहिआ दरि परवाणु ॥ बिखु अम्रितु दुइ सम करि जाणु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ता का = उस मनुष्य का। कहिआ = बोला हुआ वचन। दरि = प्रभु के दर पर। परवाणु = स्वीकार, ठीक माना जाता है। बिखु = जहर (भाव, दुख)। अंम्रितु = (भाव, सुख)। सम = बराबर। करि = कर के। जाणु = जो जाने वाला है।1।
अर्थ: जो मनुष्य जहर और अमृत (दुख और सुख) दोनों को एक-समान समझने के लायक हो जाता है (परमात्मा की रज़ा के बारे में) उस मनुष्य का बोला हुआ वचन परमात्मा के दर पर ठीक माना जाता है (क्योंकि वह मनुष्य अच्छी तरह जानता है कि जिनको सुख व दुख मिलता है उन सबमें परमात्मा स्वयं मौजूद है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किआ कहीऐ सरबे रहिआ समाइ ॥ जो किछु वरतै सभ तेरी रजाइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

किआ कहीऐ सरबे रहिआ समाइ ॥ जो किछु वरतै सभ तेरी रजाइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किआ कहीऐ = कुछ कहा नहीं जा सकता। सरबै = सब जीवों में। रजाइ = हुक्म अनुसार।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु (जगत में) जो कुछ घटित हो रहा है सब तेरे हुक्म अनुसार घटित हो रहा है। (किसी को सुख है किसी को दुख मिल रहा है, पर इसके उलट) कुछ कहा नहीं जा सकता क्योंकि तू सब जीवों में मौजूद है (जिनको सुख अथवा दुख मिलता है उनमें भी तू स्वयं ही व्यापक है, और स्वयं ही उस सुख अथवा दुख को भोग रहा है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रगटी जोति चूका अभिमानु ॥ सतिगुरि दीआ अम्रित नामु ॥२॥

मूलम्

प्रगटी जोति चूका अभिमानु ॥ सतिगुरि दीआ अम्रित नामु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चूका = दूर हो गया। सतिगुरि = सतिगुरु ने।2।
अर्थ: जिस मनुष्य को सतिगुरु ने आत्मिक जीवन देने वाला प्रभु का नाम दिया है, उसके अंदर परमात्मा की ज्योति कभी रौशनी हो जती है (उस रौशनी की इनायत से उसको अपनी विक्त की समझ पड़ जाती है, इस वास्ते उसके अंदर से) अहंकार दूर हो जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलि महि आइआ सो जनु जाणु ॥ साची दरगह पावै माणु ॥३॥

मूलम्

कलि महि आइआ सो जनु जाणु ॥ साची दरगह पावै माणु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कलि महि = जगत में। जाणु = जानो, समझो। माणु = इज्जत।3।
अर्थ: (हे भाई!) उसी मनुष्य को जगत में जन्मा समझो (भाव, उसी व्यक्ति का जगत में आना सफल है, जो सर्व-व्यापक परमात्मा की रजा को समझता है, और इस वास्ते) सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु की दरगाह में इज्जत हासिल करता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहणा सुनणा अकथ घरि जाइ ॥ कथनी बदनी नानक जलि जाइ ॥४॥५॥

मूलम्

कहणा सुनणा अकथ घरि जाइ ॥ कथनी बदनी नानक जलि जाइ ॥४॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अकथ घरि = अकथ प्रभु के घर में। बदनी = (वद् = बोलना)। जलि जाइ = जल जाता है, व्यर्थ जाता है।4।
अर्थ: हे नानक! वही वचन बोलने और सुनने सफल हैं जिनसे मनुष्य बेअंत गुणों वाले परमात्मा के चरणों में जुड़ सकता है। (परमातमा की रज़ा से परे जाने वाली, परमात्मा के चरणों से दूर रखने वाली) और-और कहनी-कथनी व्यर्थ जाती है।4।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला १ ॥ अम्रितु नीरु गिआनि मन मजनु अठसठि तीरथ संगि गहे ॥ गुर उपदेसि जवाहर माणक सेवे सिखु सुो खोजि लहै ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला १ ॥ अम्रितु नीरु गिआनि मन मजनु अठसठि तीरथ संगि गहे ॥ गुर उपदेसि जवाहर माणक सेवे सिखु सुो खोजि लहै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंम्रितु = अटल आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। नीरु = पानी। गिआनि = ज्ञान में, गुरु से मिले आत्मिक प्रकाश में। मजनु = चुभ्भी,स्नान। अठसठि = अढ़सठ। संगि = साथ ही, गुरु तीर्थ के साथ ही। गहे = मिल जाते हैं। उपदेसि = उपदेश में। सुो = वे (सिख)

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: असल शब्द है ‘सो’, पर यहाँ पढ़ना है ‘सु’)।

दर्पण-भाषार्थ

लहै = पा लेता है। खोजि = खोज के।1।
अर्थ: (गुरु से मिलने वाला) प्रभु-नाम (गुरु-तीर्थ का) जल है, गुरु से मिले आत्मिक प्रकाश में मन की डुबकी (उस गुरु-तीर्थ का) स्नान है, (गुरु-तीर्थ के) साथ ही अढ़सठ तीर्थों (के स्नान) मिल जाते हैं। गुरु के उपदेश (-रूप गहरे पानियों में परमात्मा की महिमा के) मोती और जवाहर है। जो सिख (गुरु-तीर्थ को) सेवता है (श्रद्धा से आता है) वह तलाश करके पा लेता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर समानि तीरथु नही कोइ ॥ सरु संतोखु तासु गुरु होइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गुर समानि तीरथु नही कोइ ॥ सरु संतोखु तासु गुरु होइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: समानि = जैसा, बराबर का। सरु = तालाब। तासु = वही।1। रहाउ।
अर्थ: गुरु के बराबर का और कोई तीर्थ नहीं है। वह गुरु ही संतोख-रूप सरोवर है।1। रहाउ।

[[1329]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरु दरीआउ सदा जलु निरमलु मिलिआ दुरमति मैलु हरै ॥ सतिगुरि पाइऐ पूरा नावणु पसू परेतहु देव करै ॥२॥

मूलम्

गुरु दरीआउ सदा जलु निरमलु मिलिआ दुरमति मैलु हरै ॥ सतिगुरि पाइऐ पूरा नावणु पसू परेतहु देव करै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरमलु = मल रहित, साफ। दुरमति = बुरी अकल। हरै = दूर करता है। सतिगुरि पाईऐ = यदि सतिगुरु मिल जाए। नावणु = स्नान। परेतहु = प्रेतों से। करै = बना देता है।2।
अर्थ: गुरु एक (ऐसा) दरिया है जिससे मिलता नाम-अमृत उस दरिया में (ऐसा) जल है जो सदा ही साफ रहता है, जिस मनुष्य को वह जल मिलता है उसकी खोटी मति की मैल दूर कर देता है। यदि गुरु मिल जाए तो (तो उस गुरु-दरिया में किया स्नान) सफल स्नान होता है, गुरु पशुओं से प्रेतों से देवता बना देता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रता सचि नामि तल हीअलु सो गुरु परमलु कहीऐ ॥ जा की वासु बनासपति सउरै तासु चरण लिव रहीऐ ॥३॥

मूलम्

रता सचि नामि तल हीअलु सो गुरु परमलु कहीऐ ॥ जा की वासु बनासपति सउरै तासु चरण लिव रहीऐ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रता = रंगा हुआ। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। नामि = नाम में। तल = ऊपरी सतह (भाव, ज्ञान-इंद्रिय)। हीअलु = हिअरा, हृदय। परमलु = सुगंधी, चंदन। जा की = जिस की। वासु = सुगंधि (साथ)। सउरै = सँवर जाती है, सुगंधित हो जाती है। तासु चरण = उसके चरणों में। रहीऐ = टिकी रहनी चाहिए।3।
अर्थ: जिस गुरु की ज्ञान-इंद्रिय जिस गुरु का हृदय (सदा) परमात्मा के नाम-रंग में रंगा रहता है, उस गुरु को चँदन कहना चाहिए, चँदन की सुगंधि (पास उगी हुई) बनस्पति को (भी) सुगन्धित कर देती है (गुरु का उपदेश शरण आए लोगों का जीवन सँवार देता है), उस गुरु के चरणों में तवज्जो जोड़ के रखनी चाहिए।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि जीअ प्रान उपजहि गुरमुखि सिव घरि जाईऐ ॥ गुरमुखि नानक सचि समाईऐ गुरमुखि निज पदु पाईऐ ॥४॥६॥

मूलम्

गुरमुखि जीअ प्रान उपजहि गुरमुखि सिव घरि जाईऐ ॥ गुरमुखि नानक सचि समाईऐ गुरमुखि निज पदु पाईऐ ॥४॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीअ प्राण = जीवों के प्राण, जीवों के आत्मिक जीवन। उपजहि = पैदा हो जाते हैं। सिव घरि = शिव के घर में, उसके घर में जो सदा कल्याण रूप है। निज = अपना। पदु = आत्मिक जीवन वाला दर्जा। निज पदु = वह आत्मिक दर्जा जो सदा अपना बना रहता है।4।
अर्थ: गुरु की शरण पड़ने से जीवों के अंदर आत्मिक जीवन पैदा हो जाते हैं, गुरु के माध्यम से उस प्रभु के दर पर पहुँच जाया जाता है जो सदा आनंद-स्वरूप है। हे नानक! गुरु की शरण पड़ने से सदा-स्थिर प्रभु में लीन हुआ जाता है, गुरु के द्वारा ऊँचा आत्मिक दर्जा मिल जाता है जो सदा ही अपना बना रहता है (अटल उच्च आत्मिक अवस्था मिल जाती है)।4।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला १ ॥ गुर परसादी विदिआ वीचारै पड़ि पड़ि पावै मानु ॥ आपा मधे आपु परगासिआ पाइआ अम्रितु नामु ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला १ ॥ गुर परसादी विदिआ वीचारै पड़ि पड़ि पावै मानु ॥ आपा मधे आपु परगासिआ पाइआ अम्रितु नामु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परसादी = कृपा से, प्रसादि। मानु = आदर। आपा मधे = अपने अंदर। आपु = अपना आप। परगासिआ = रौशन हो जाता है।1।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु की कृपा से (परमात्मा का नाम स्मरण करने की) विद्या विचारता है (सीखता है) वह उस विद्या को पढ़-पढ़ के (जगत में) आदर हासिल करता है, उसके अंदर ही उसका अपना आप चमक उठता है (उसका आत्मिक जीवन रौशन हो जाता है, उसके मन में से अज्ञानता का अंधेरा दूर हो जाता है), उस मनुष्य को आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल मिल जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करता तू मेरा जजमानु ॥ इक दखिणा हउ तै पहि मागउ देहि आपणा नामु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

करता तू मेरा जजमानु ॥ इक दखिणा हउ तै पहि मागउ देहि आपणा नामु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करता = हे कर्तार! जजमान = दाता।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘यजमान’, वह जो यज्ञ आदि ब्राहमणों से करवा के उसको धन-पदार्थ भेटा करता है।

दर्पण-भाषार्थ

दखिणा = दक्षिणा, ब्राहमण को माया की भेटा, दान। तै पहि = तुझसे। मागउ = मैं माँगता हूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे कर्तार! तू मेरा दाता है। मैं तेरे पास से एक दान माँगता हूँ। मुझे अपना नाम बख्श।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पंच तसकर धावत राखे चूका मनि अभिमानु ॥ दिसटि बिकारी दुरमति भागी ऐसा ब्रहम गिआनु ॥२॥

मूलम्

पंच तसकर धावत राखे चूका मनि अभिमानु ॥ दिसटि बिकारी दुरमति भागी ऐसा ब्रहम गिआनु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पंच = पाँच। तसकर = चोर। धावत = (विकारों की तरफ) दौड़ते। मनि = मन में (टिका हुआ)। दिसटि = निगाह, नजर। बिकारी = विकारों वाली। दुरमति = खोटी मति। ब्रहम गिआनु = परमात्मा के साथ जान पहचान।2।
अर्थ: (स्मरण से) परमात्मा के साथ डाली हुई गहरी सांझ ऐसी (इनायत वाली) है कि (इसकी मदद से विकारों की तरफ) दौड़ती पाँचों ज्ञान-इंद्रिय रोक ली जाती हैं, मन में (टिका हुआ) अहंकार दूर हो जाता है, विकारों वाली निगाह और दुर्मति समाप्त हो जाती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जतु सतु चावल दइआ कणक करि प्रापति पाती धानु ॥ दूधु करमु संतोखु घीउ करि ऐसा मांगउ दानु ॥३॥

मूलम्

जतु सतु चावल दइआ कणक करि प्रापति पाती धानु ॥ दूधु करमु संतोखु घीउ करि ऐसा मांगउ दानु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जतु = इन्द्रियों को विकारों से रोकने का उद्यम। सतु = ऊँचा आचरण। प्रापति पाती = प्रभु की प्राप्ति का पात्र बनना, परमात्मा से मिलाप की योग्यता। धानु = धन।3।
अर्थ: (ब्राहमण अपने जजमान से चावल, गेहूँ, धन, दूध, घी आदि सारे पदार्थ माँगता है और लेता है। हे प्रभु! तू मेरा जजमान है, मैंने तेरे नाम का यज्ञ रचाया हुआ है,) मैं तुझसे ऐसा दान माँगता हूँ कि मुझे चावलों की जगह जत-सत दे (मुझे सच्चा आचरण दे कि मैं ज्ञान-इंद्रिय को बुराई की ओर बढ़ने से रोक सकूँ), गेहूँ की जगह तू मेरे हृदय में दया पैदा कर, मुझे ये धन दे कि मैं तेरे चरणों में जुड़ने के योग्य हो जाऊँ। मुझे शुभ कर्म (करने की समर्थता) दे, संतोख दे, ये है मेरे लिए दूध और घी।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

खिमा धीरजु करि गऊ लवेरी सहजे बछरा खीरु पीऐ ॥ सिफति सरम का कपड़ा मांगउ हरि गुण नानक रवतु रहै ॥४॥७॥

मूलम्

खिमा धीरजु करि गऊ लवेरी सहजे बछरा खीरु पीऐ ॥ सिफति सरम का कपड़ा मांगउ हरि गुण नानक रवतु रहै ॥४॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहजे = सहजि, अडोल अवस्था में। बछरा = बछड़ा (मन)। खीरु = दूध। सरम = उद्यम (श्रम)। रवतु रहै = स्मरण करता रहे।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु! मेरे अंदर) दूसरों की ज्यादती सहने का स्वभाव और जिगरा पैदा कर, यह है मेरी लिए लवेरी गाय, ताकि मेरा मन बहुत शांत अवस्था में टिक के (ये शांति का) दूध पी सके। मैं तुझसे तेरी महिमा करने के उद्यम का कपड़ा माँगता हूँ, ताकि मेरा मन सदा तेरे गुण गाता रहे।4।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला १ ॥ आवतु किनै न राखिआ जावतु किउ राखिआ जाइ ॥ जिस ते होआ सोई परु जाणै जां उस ही माहि समाइ ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला १ ॥ आवतु किनै न राखिआ जावतु किउ राखिआ जाइ ॥ जिस ते होआ सोई परु जाणै जां उस ही माहि समाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आवतु = (संसार में) आता, पैदा होता। न राखिआ = नहीं रोका। जावतु = जगत से जाता, मरता। जिस ते = जिस परमात्मा से। होआ = पैदा हुआ है। सोई = वही, वही परमात्मा। परुजाणै = अच्छी तरह जानता है। माहि = में।1।
अर्थ: प्रभु की रज़ा के अनुसार जो जीव जगत में पैदा होता है उसको पैदा होने से कोई रोक नहीं सकता, जो (मर के यहाँ से) जाने लगता है उसको कोई यहाँ रोक नहीं सकता। जिस परमात्मा से जगत पैदा होता है, उसी में ही लीन हो जाता है (इस जगत-रचना के भेद को) वह परमात्मा ही ठीक तरह से जानता है (जीव को ये बात नहीं शोभा देती कि जगत को बुरा कह के इससे नफरत कर के परे हटे)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूहै है वाहु तेरी रजाइ ॥ जो किछु करहि सोई परु होइबा अवरु न करणा जाइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

तूहै है वाहु तेरी रजाइ ॥ जो किछु करहि सोई परु होइबा अवरु न करणा जाइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वाहु = आश्चर्य। परु होइबा = जरूर होगा।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! (इस जगत का रचनहार) तू स्वयं ही है (तूने खुद ही इसको अपनी रज़ा के अनुसार पैदा किया है) तेरी रज़ा भी आश्चर्यजनक है (भाव, जीवों की समझ से परे है)। हे प्रभु! जो कुछ तू करता है, अवश्य ही वही कुछ घटित होता है, तेरी मर्जी के उलट (किसी जीव से) कुछ नहीं किया जा सकता (जीव की यह अज्ञानता है कि तेरे रचे जगत से नफरत करे, और गृहस्थ छोड़ के फकीर जा बने)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैसे हरहट की माला टिंड लगत है इक सखनी होर फेर भरीअत है ॥ तैसो ही इहु खेलु खसम का जिउ उस की वडिआई ॥२॥

मूलम्

जैसे हरहट की माला टिंड लगत है इक सखनी होर फेर भरीअत है ॥ तैसो ही इहु खेलु खसम का जिउ उस की वडिआई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरहट = रहट। माला = माहल। फेरि = दोबारा। खेलु = जगत रचना का तमाशा।2।
अर्थ: जैसे बहते कूएँ (रहट लगे कूएँ) की माहल के साथ टिंडें (रहट में लगने वाले लोहे की बाल्टी समान डिब्बे) बँधी होती हैं (ज्यों-ज्यों रहट चलता है, त्यों-त्यों) कुछ टिंडें खाली होती जाती हैं और कुछ (टिंडें कूएँ के पानी से) फिर भरती जाती हैं। इसी तरह ही सारा जगत एक तमाशा है जो पति-प्रभु ने रचा हुआ है (कुछ यहाँ से कूच कर के जगह खाली कर जाते हैं, और कुछ शरीर धारण करके जगह आ घेरते हैं)। जैसे परमात्मा की मर्जी है वैसे ही यह तमाशा हो रहा है (इससे नाक मरोड़ना फबता नहीं)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुरती कै मारगि चलि कै उलटी नदरि प्रगासी ॥ मनि वीचारि देखु ब्रहम गिआनी कउनु गिरही कउनु उदासी ॥३॥

मूलम्

सुरती कै मारगि चलि कै उलटी नदरि प्रगासी ॥ मनि वीचारि देखु ब्रहम गिआनी कउनु गिरही कउनु उदासी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मारगि = रास्ते पर। सुरती कै मारगि = परमात्मा के चरणों में तवज्जो जोड़ने के रास्ते पर। उलटी = (माया के मोह से) पलटी हुई। मनि = मन मे। वीचारि = विचार के। ब्रहम गिआनी = हे ब्रहम ज्ञानी! हे परमात्मा के साथ सांझ डालने का प्रयत्न करने वाले! गिरही = गृहस्थी।3।
अर्थ: (पर हाँ) उस मनुष्य की निगाह में रोशनी हुई है (भाव, उस मनुष्य को जीवन-जुगति की सही समझ पड़ी है) जिसने (जगत के रचनहार) कर्तार के चरणों में तवज्जो जोड़ने के रास्ते पर चल के अपनी तवज्जो माया के मोह से हटाई है। हे परमात्मा के साथ सांझ डालने का प्रयत्न करने वाले! अपने मन में सोच के (आँखें खोल के) देख (यदि तवज्जो ठिकाने पर नहीं है; तो) ना ही गृहस्थी जीवन-यात्रा में ठीक राह पर चल रहा है और ना ही (वह मनुष्य जो अपने आप को) विरक्त (समझता है)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिस की आसा तिस ही सउपि कै एहु रहिआ निरबाणु ॥ जिस ते होआ सोई करि मानिआ नानक गिरही उदासी सो परवाणु ॥४॥८॥

मूलम्

जिस की आसा तिस ही सउपि कै एहु रहिआ निरबाणु ॥ जिस ते होआ सोई करि मानिआ नानक गिरही उदासी सो परवाणु ॥४॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरबाणु = वासना रहित। सोई = उसी प्रभु को। करि = कर के, (रजा का मालिक) जान के। मानिआ = माना, अपना मन जोड़ लिया। परवाणु = स्वीकार।4।
अर्थ: हे नानक! जिस परमात्मा ने दुनिया वाली मोह-माया की आशा चिपका दी है, जो मनुष्य उसी परमात्मा के (यह आशा तृष्णा) हवाले करता है, और वासना-रहित हो के जीवन गुजारता है, और इस परमात्मा की रज़ा में यह जगत-रचना हुई है उसको रजा का मालिक जान के उसमें अपना मन जोड़ता है, वह चाहे गृहस्थी है चाहे विरक्त, वह परमात्मा की दरगाह में स्वीकार है।4।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला १ ॥ दिसटि बिकारी बंधनि बांधै हउ तिस कै बलि जाई ॥ पाप पुंन की सार न जाणै भूला फिरै अजाई ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला १ ॥ दिसटि बिकारी बंधनि बांधै हउ तिस कै बलि जाई ॥ पाप पुंन की सार न जाणै भूला फिरै अजाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दिसटि = दृष्टि, निगाह, नजर, तवज्जो, ध्यान। बिकारी = विकारों की ओर। बंधनि = बंधन से, जकड़ से, रस्सी से। हउ = मैं। तिस कै = उस बंदे से। बलि जाई = मैं कुर्बान जाता हूँ। सार = अस्लियत। अजाई = व्यर्थ।1।
अर्थ: मैं उस बंदे से कुर्बान जाता हूँ जो (अपनी) विकारों की ओर जाती तवज्जो को (हरि-नाम स्मरण की) डोरी से बाँध के रखता है। (पर जो मनुष्य स्मरण से टूट के) भले-बुरे काम के भेद को नहीं समझता, वह (जीवन के सही रास्ते से टूट के) भटकता फिरता है और (जीवन) व्यर्थ गवाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बोलहु सचु नामु करतार ॥ फुनि बहुड़ि न आवण वार ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बोलहु सचु नामु करतार ॥ फुनि बहुड़ि न आवण वार ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचु = सदा कायम रहने वाला। फुनि = दोबारा। बहुड़ि = दोबारा। आवण वार = आने की बारी, जनम लेने की बारी।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) कर्तार का सदा कायम रहने वाला नाम (सदा) स्मरण करो। (नाम जपने की इनायत से जगत में) बार-बार जनम लेने की बारी नहीं आएगी।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊचा ते फुनि नीचु करतु है नीच करै सुलतानु ॥ जिनी जाणु सुजाणिआ जगि ते पूरे परवाणु ॥२॥

मूलम्

ऊचा ते फुनि नीचु करतु है नीच करै सुलतानु ॥ जिनी जाणु सुजाणिआ जगि ते पूरे परवाणु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुलतान = बादशाह। जाणु = जाननहार प्रभु को। जगि = जगत में।2।
अर्थ: (हे भाई! उस कर्तार का नाम सदा स्मरण करो) जो ऊँचों से नीच कर देता है और निम्न श्रेणियों (गरीबों) को बादशाह बना देता है। जिस लोगों ने उस (घट-घट की) जानने वाले परमात्मा को अच्छी तरह जान लिया है (भाव, उससे गहरी सांझ डाल ली है) जगत में आए वही लोग सफल हैं और स्वीकार हें।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ता कउ समझावण जाईऐ जे को भूला होई ॥ आपे खेल करे सभ करता ऐसा बूझै कोई ॥३॥

मूलम्

ता कउ समझावण जाईऐ जे को भूला होई ॥ आपे खेल करे सभ करता ऐसा बूझै कोई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ता कउ = उस बंदे को। को = कोई। करता = कर्तार।3।
अर्थ: (पर, जीवों के भी क्या वश?) उसी जीव को मति देने का प्रयत्न किया जा सकता है जो (खुद) गलत रास्ते पर पड़ा हो, (यहाँ तो राह पड़ने अथवा गलत रास्ते पड़ने वाला) सारा ही तमाशा कर्तार स्वयं ही कर रहा है; यह भेद भी कोई विरला व्यक्ति ही समझता है। (और वह रज़ा के मालिक कर्तार का नाम स्मरण करता है)।3।

[[1330]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाउ प्रभातै सबदि धिआईऐ छोडहु दुनी परीता ॥ प्रणवति नानक दासनि दासा जगि हारिआ तिनि जीता ॥४॥९॥

मूलम्

नाउ प्रभातै सबदि धिआईऐ छोडहु दुनी परीता ॥ प्रणवति नानक दासनि दासा जगि हारिआ तिनि जीता ॥४॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबदि = गुरु के शब्द में (जुड़ के)। दुनी परीता = दुनिया की प्रीत, माया का मोह। तिनि = उस मनुष्य ने।4।
अर्थ: (हे भाई!) अमृत बेला में (उठ के) गुरु के शब्द में जुड़ के कर्तार का नाम स्मरणा चाहिए, (हे भाई!) माया का मोह त्यागो (ये मोह ही कर्तार की याद भुलाता है)। कर्तार के सेवकों का सेवक नानक विनती करता है कि जो व्यक्ति (माया का मोह त्याग के) जगत में निम्रता के साथ जिंदगी गुजारता है, उसी ने ही (जीवन की बाज़ी) जीती है।4।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला १ ॥ मनु माइआ मनु धाइआ मनु पंखी आकासि ॥ तसकर सबदि निवारिआ नगरु वुठा साबासि ॥ जा तू राखहि राखि लैहि साबतु होवै रासि ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला १ ॥ मनु माइआ मनु धाइआ मनु पंखी आकासि ॥ तसकर सबदि निवारिआ नगरु वुठा साबासि ॥ जा तू राखहि राखि लैहि साबतु होवै रासि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धाइआ = दौड़ता है। पंखी = पंछी। आकासि = आकाश में। तसकर = (कामादिक) चोर। सबदि = गुरु के शब्द से। निवारिआ = दूर किए, अंदर से निकाले। नगरु = शरीर नगर। वुठा = बस गया (शरीर नगर का वासी मन बाहर की दौड़-भाग छोड़ के शरीर के अंदर टिक गया)। रासि = भले गुणों की पूंजी।1।
अर्थ: (हे प्रभु! तेरे नाम-खजाने से वंचित) मन (कामादिक चोरों के प्रभाव में आकर, सदा) माया ही माया (चाहता रहता है), (माया के पीछे ही) दौड़ता है, मन (मन माया की खातिर ही उड़ानें भरता रहता है जैसे) पक्षी आकाश में (उड़ानें लगाता है, और शरीर-नगर सूना पड़ा रहता है, कामादिक चोर शुभगुणों की राशि-पूंजी लूटते रहते हैं)। जब गुरु के शब्द से ये चोर (शरीर-नगर में से) निकाल दिए जाते हैं, तो (शरीर-) नगर बस जाता है (भाव, मन बाहर माया के पीछे भटकने से हट के अंदर टिक जाता है, और इसको) शोभा-बड़ाई मिलती है। (पर, हे प्रभु!) जब तू खुद (इस मन की) रखवाली करता है, (जब तू खुद इसको कामादिक चोरों से) बचाता है, तब (मनुष्य-शरीर की शुभ-गुणों की) राशि-पूंजी राशि-पूंजी सही-सलामत बची रहती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसा नामु रतनु निधि मेरै ॥ गुरमति देहि लगउ पगि तेरै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ऐसा नामु रतनु निधि मेरै ॥ गुरमति देहि लगउ पगि तेरै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निधि = खजाना। मेरै = मेरे पास, मेरे अंदर, मेरे हृदय में। देहि = (हे प्रभु! तू) दे। लगउ = मैं लगता हूं। पगि = पैरों में। तेरै पगि = तेरे पैरों में। लगउ पगि तेरै = मैं तेरी शरण आया हूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! तेरा नाम श्रेष्ठ रतन है। गुरु की मति से यह नाम मुझे दे, मैं तेरी शरण आया हूँ। (मेहर कर तेरा यह नाम) मेरे पास खजाना बन जाए।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनु जोगी मनु भोगीआ मनु मूरखु गावारु ॥ मनु दाता मनु मंगता मन सिरि गुरु करतारु ॥ पंच मारि सुखु पाइआ ऐसा ब्रहमु वीचारु ॥२॥

मूलम्

मनु जोगी मनु भोगीआ मनु मूरखु गावारु ॥ मनु दाता मनु मंगता मन सिरि गुरु करतारु ॥ पंच मारि सुखु पाइआ ऐसा ब्रहमु वीचारु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जोगी = विरक्त, दुनिया की ओर से उदास। भोगीआ = दुनिया के भोगों में प्रवृत। मन सिरि = मन के सिर पर। पंच मारि = कामादिक पाँचों को मार के। ब्रहमु = ईश्वरीय महिमा।2।
अर्थ: (जब तक मन के सिर पर गुरु कर्तार का कुंडा ना हो अंकुश ना हो, तब तक) मन मूर्ख है मन गँवार है (अपने मूर्ख-पने में कभी यह) मन (माया से नफ़रत कर के) विरक्त बन जाता है, कभी मन दुनिया के भोगों में व्यस्त हो जाता है (कभी माया की खुमारी में अपने आप को) दानी समझता है (कभी धन गायब होने पर) कंगाल बन जाता है।
जब मन के सिर पर गुरु रखवाला बनता है, कर्तार हाथ रखता है, तब यह श्रेष्ठ रूहानी महिमा (का खजाना मिल जाता है, और उसकी इनायत से) कामादिक पाँच चोरों को मार के आत्मिक आनंद पाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घटि घटि एकु वखाणीऐ कहउ न देखिआ जाइ ॥ खोटो पूठो रालीऐ बिनु नावै पति जाइ ॥ जा तू मेलहि ता मिलि रहां जां तेरी होइ रजाइ ॥३॥

मूलम्

घटि घटि एकु वखाणीऐ कहउ न देखिआ जाइ ॥ खोटो पूठो रालीऐ बिनु नावै पति जाइ ॥ जा तू मेलहि ता मिलि रहां जां तेरी होइ रजाइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घटि घटि = हरेक शरीर में। कहउ = मैं (भी) कहता हूँ। खोटे = खोटा जीव, जिसके अंदर खोट है। रालीऐ = रुलाते हैं। पूठो रालीऐ = (गर्भ जोनि में) उल्टा करके रुलाया जाता है। पति = इज्जत। रजाइ = रज़ा में, हुक्म, मर्जी।3।
अर्थ: हे प्रभु! यह कहा जाता है (भाव, हरेक शरीर यह कहता तो है) कि तू हरेक शरीर में मौजूद है, मैं भी यह कहता हूँ (पर निरे कहने से हरेक में) तेरे दर्शन नहीं होते। अंदर से खोटा होने के कारण जीव (चौरासी की गर्भ जोनि में) उल्टा (लटका के) रुलाया जाता है, तेरा नाम स्मरण करे बिना इसका आदर-सत्कार भी चला जाता है। हे प्रभु! जब तू स्वयं मुझे अपने चरणों में जोड़ता है, जब तेरी अपनी मेहर होती है, तब ही मैं तेरी याद में जुड़ा रह सकता हूँ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जाति जनमु नह पूछीऐ सच घरु लेहु बताइ ॥ सा जाति सा पति है जेहे करम कमाइ ॥ जनम मरन दुखु काटीऐ नानक छूटसि नाइ ॥४॥१०॥

मूलम्

जाति जनमु नह पूछीऐ सच घरु लेहु बताइ ॥ सा जाति सा पति है जेहे करम कमाइ ॥ जनम मरन दुखु काटीऐ नानक छूटसि नाइ ॥४॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सच घरु = सदा कायम रहने वाले प्रभु का ठिकाना। लेहु बताइ = पूछ लो। जति पति = जाति पाति। नाइ = नाम में जुड़ के।4।
अर्थ: हे नानक! (प्रभु हरेक जीव के अंदर मौजूद है, प्रभु ही हरेक की जाति-पाति है। भिन्नता में पड़ कर) ये नहीं पूछना चाहिए कि (फलाने की) जाति कौन सी है किस कुल में उसका जनम हुआ है। (पूछना है तो) पूछो कि सदा कायम रहने वाला परमात्मा किस हृदय-घर में प्रकट हुआ है। जाति-पाति तो जीव की वही है जिस तरह के जीव कर्म कमाता है।
जनम-मरण (के चक्र) का दुख तब ही दूर होता है जब जीव प्रभु के नाम में जुड़ता है। नाम में जुड़ने से ही (कामादिक पाँच चोरों से) खलासी होती है।4।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला १ ॥ जागतु बिगसै मूठो अंधा ॥ गलि फाही सिरि मारे धंधा ॥ आसा आवै मनसा जाइ ॥ उरझी ताणी किछु न बसाइ ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला १ ॥ जागतु बिगसै मूठो अंधा ॥ गलि फाही सिरि मारे धंधा ॥ आसा आवै मनसा जाइ ॥ उरझी ताणी किछु न बसाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जागतु = (अपनी ओर से) जागता, (दुनिया के कामों में) सुचेत समझदार। बिगसै = खुश होता है। मूठो = ठगा जा रहा है, लुटा जा रहा है। अंधा = (माया के मोह में) अंधा। गलि = गले में। सिरि = सिर पर। मारे = (चोटें) मारता है। धंधा = जगत के जंजालों का फिक्र। मनसा = मन के फुरने। उरझी = उलझी हुई, बिगड़ी हुई। बसाइ = वश, जोर, पेश।1।
अर्थ: जीव अपनी तरफ से समझदार है; पर माया के मोह में अंधा हुआ पड़ा है, लुटा जा रहा है (अनेक विकार इसकी आत्मिक राशि-पूंजी को लूट रहे हैं) पर ये खुश-खुश हुआ फिरता है। इसके गले में माया के मोह का फंदा पड़ा हुआ है (जो इसे दुनियावी पदार्थों के पीछे घसीटता फिरता है)। जगत के जंजालों का फिक्र इसके सिर पर चोटें मारता रहता है। दुनियाँ की आशाओं में बँधा जगत में आता है, मन के अनेक फुरने ले के यहाँ से चल पड़ता है। इसकी जिंदगी की ताणी दुनिया की आशा और मन की दौड़ों से पेचीदा हुई पड़ी है। (इस ताणी को इन पेचीदा पेचों से साफ़ रखने के लिए) इसकी कोई पेश नहीं चलती।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जागसि जीवण जागणहारा ॥ सुख सागर अम्रित भंडारा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जागसि जीवण जागणहारा ॥ सुख सागर अम्रित भंडारा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीवण = हे (जगत के) जीवन! जगणहारा = हे जागनहार! हे जागते रहने की समर्थता रखने वाले!।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! तू सारे जगत का जीव है; एक तू ही जागता है; सिर्फ तेरे में ही समर्थता है कि माया तुझे अपने मोह में नहीं सुला सकती। हे सुखों के समुंदर प्रभु! (तेरे घर में) नाम-अमृत के भण्डारे भरे पड़े हैं (जो माया के मोह में आत्मिक मौत मरे पड़े हुओं को जिंदा कर सकता है।)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहिओ न बूझै अंधु न सूझै भोंडी कार कमाई ॥ आपे प्रीति प्रेम परमेसुरु करमी मिलै वडाई ॥२॥

मूलम्

कहिओ न बूझै अंधु न सूझै भोंडी कार कमाई ॥ आपे प्रीति प्रेम परमेसुरु करमी मिलै वडाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बूझै = समझता। अंधु = (माया के मोह में) अंधा जीव। भोंडी = बुरी। आपे = स्वयं ही। करमी = (प्रभु की) मेहर से।2।
अर्थ: (माया के मोह में) जीवन इतना अंधा हुआ पड़ा है कि किसी कही हुई शिक्षा को यह समझ नहीं सकता, अपने आप इसको (आत्मिक जीवन बचाने की कोई बात) नहीं सूझती, नित्य बुरे कर्म ही किए जा रहा है। (पर जीव के वश की बात नहीं है) परमेश्वर स्वयं ही अपने चरणो की प्रीति प्रेम बख्शता है, उसकी मेहर से ही उसके नाम-स्मरण का माण मिलता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिनु दिनु आवै तिलु तिलु छीजै माइआ मोहु घटाई ॥ बिनु गुर बूडो ठउर न पावै जब लग दूजी राई ॥३॥

मूलम्

दिनु दिनु आवै तिलु तिलु छीजै माइआ मोहु घटाई ॥ बिनु गुर बूडो ठउर न पावै जब लग दूजी राई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दिनु दिनु आवै = एक-एक करके दिन आता है। छीजै = (उम्र) कम होती जा है। घटाई = घट ही, घटि ही, हृदय में ही (टिका हुआ है)। ठउर = जगह। दूजी = प्रभु के बिना किसी ओर की प्रीति। राई = रक्ती भर भी।3।
अर्थ: जिंदगी का एक-एक करके दिन आता है और इस तरह थोड़ी-थोड़ी करके उम्र कम होती जाती है; पर माया का मोह जीव के हृदय में (उसी तरह) टिका रहता है। गुरु की शरण आए बिना जीव (माया के मोह में) डूबा रहता है। जब तक इसके अंदर रक्ती भर भी माया की प्रीति कायम है, यह भटकता फिरता है इसको (आत्मिक सुख की) जगह नहीं मिलती।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहिनिसि जीआ देखि सम्हालै सुखु दुखु पुरबि कमाई ॥ करमहीणु सचु भीखिआ मांगै नानक मिलै वडाई ॥४॥११॥

मूलम्

अहिनिसि जीआ देखि सम्हालै सुखु दुखु पुरबि कमाई ॥ करमहीणु सचु भीखिआ मांगै नानक मिलै वडाई ॥४॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अहि = दिन। निसि = रात। देखि = देख के, ध्यान से। पुरबि कमाई = पिछली की कमाई के अनुसार। करम हीणु = जिसको किसी पूर्बले कर्मों का गुमान नहीं है। सचु = सदा कायम रहने वाले प्रभु का नाम। वडाई = इज्जत।4।
अर्थ: (आत्मिक जीवन की दाति प्रभु से ही मिलती है जो) दिन-रात बड़े ध्यान से जीवों की संभाल करता है और जीवों की पूर्बली कमाई अनुसार इनको सुख अथवा दुख (भोगने को) देता है।
हे प्रभु! मैं अच्छे किए कर्मों का गुमान नहीं करता, मुझे नानक को तेरा नाम जपने की बड़ाई मिल जाए, नानक तेरे दर से तेरे नाम की नाम-जपने की भिक्षा ही माँगता है।4।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला १ ॥ मसटि करउ मूरखु जगि कहीआ ॥ अधिक बकउ तेरी लिव रहीआ ॥ भूल चूक तेरै दरबारि ॥ नाम बिना कैसे आचार ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला १ ॥ मसटि करउ मूरखु जगि कहीआ ॥ अधिक बकउ तेरी लिव रहीआ ॥ भूल चूक तेरै दरबारि ॥ नाम बिना कैसे आचार ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मसटि = खामोशी। मसटि करउ = अगर मैं खामोशी (इख्तियार) करूँ, अगर मैं चुप रहूँ। जगि = जगत में। कहीआ = कहा जाता है। अधिक = बहुत। बकउ = अगर मैं बोलूं। रहीआ = रह जाती है, कम हो जाती है। भूल चूक = कमियां। तेरै दरबारि = तेरी हजूरी में। आचार = भाईचारक रस्में। कैसे = किसी काम की नहीं।1।
अर्थ: (दुनियावी रस्म-रिवाज से बेपरवाह हो के तेरी महिमा में मस्त हो के) अगर मैं चुप कर रहता हूँ, तो जगत में मैं मूर्ख कहा जाता हूँ, पर अगर (इन टूटे हुए लोगों को इनकी यह कमियाँ समझाने के) मैं बहुत बोलता हूँ, तो तेरे चरणों में तवज्जो का टिकाव कम होता है। (यह लोग निरी भाईचारक रस्मों के करने को ही जीवन का सही रास्ता समझते हैं, तेरे स्मरण के उद्यम को ये निंदते हैं। इनमें से कमी वाला रास्ता कौन सा है?) असल कमियां वही हैं जो तेरी हजूरी में कमी जानीं जाएं। वे भाईचारक रस्में किसी अर्थ की नहीं जो तेरे नाम-स्मरण से विछोड़ती हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसे झूठि मुठे संसारा ॥ निंदकु निंदै मुझै पिआरा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ऐसे झूठि मुठे संसारा ॥ निंदकु निंदै मुझै पिआरा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ऐसे = ऐसे तरीके से। झूठि = झूठ में, व्यर्थ की भाईचारक रस्मों के बंधनो में। मुठे = लूटे जा रहे हें। संसारा = संसारी जीव। निंदकु = (नाम स्मरण की) निंदा करने वाला। निंदै = नाम स्मरण को निंदता है, भाईचारक रस्मों के पाबंदी को नाम-स्मरण करने के मुकाबले में बेहतर समझता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! संसारी जीव व्यर्थ की रस्मों के वहम में फंस के माया के चक्कर में ऐसे लूटे जा रहे हैं (आत्मिक जीवन ऐसा लुटा रहे हैं कि इनको ये समझ ही नहीं पड़ती)। (निरी भाईचारक रस्मों के मुकाबले और तेरे नाम-जपने की) निंदा करने वाला मनुष्य (तेरे नाम को) बुरा कहता है (पर तेरी मेहर से) मुझे (तेरा नाम) प्यारा लगता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिसु निंदहि सोई बिधि जाणै ॥ गुर कै सबदे दरि नीसाणै ॥ कारण नामु अंतरगति जाणै ॥ जिस नो नदरि करे सोई बिधि जाणै ॥२॥

मूलम्

जिसु निंदहि सोई बिधि जाणै ॥ गुर कै सबदे दरि नीसाणै ॥ कारण नामु अंतरगति जाणै ॥ जिस नो नदरि करे सोई बिधि जाणै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिसु = जिस (नाम-जपने वाले को)। सोई = वह मनुष्य। बिधि = जीवन की विधि, जीवन जुगति। सबदे = सबदि, शब्द में जुड़ के। दरि = प्रभु के दर पर। नीसानै = प्रकट होता है। अंतरि गति = अपने हृदय में। जाणै = पहचानता है, सांझ डालता है। नदरि = मेहर की निगाह।2।
अर्थ: (ये कर्मकांडी लोग प्रभु की भक्ति करने वालों की निंदा करते हैं, पर) जिसको ये बुरा कहते हैं (असल में) वही मनुष्य जीवन की सही जुगति जानता है, वह मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ के प्रभु के दर पर आदर-माण हासिल करता है, सारी सृष्टि के मूल प्रभु के नाम को वह अपने हृदय में बसाता है।
पर महिमा की यह जुगति वही मनुष्य समझता है जिस पर प्रभु स्वयं मेहर की नजर करता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मै मैलौ ऊजलु सचु सोइ ॥ ऊतमु आखि न ऊचा होइ ॥ मनमुखु खूल्हि महा बिखु खाइ ॥ गुरमुखि होइ सु राचै नाइ ॥३॥

मूलम्

मै मैलौ ऊजलु सचु सोइ ॥ ऊतमु आखि न ऊचा होइ ॥ मनमुखु खूल्हि महा बिखु खाइ ॥ गुरमुखि होइ सु राचै नाइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मै मेलौ = हम जीव (नाम से भूल के) विकारों से मलीन। सचु = सदा कायम रहने वाला प्रभु। आखि = (अपने आप को) कह के। मनमुखु = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। खूल्हि = खुल के, प्रत्याप्त तौर पर। बिखु = (विषौ-विकारों का) जहर। नाइ = प्रभु के नाम में।3।
अर्थ: (प्रभु के नाम से टूट के) हम जीवमलीन-मन हो रहे हैं, वह सदा कायम रहने वाला प्रभु ही (विकारों की मैल से) साफ़ है। (प्रभु की याद भुला के सिर्फ कर्मकांड के आसरे अपने आप को) उत्तम कह के कोई मनुष्य ऊँचे जीवन वाला नहीं हो सकता। जो मनुष्य (गुरु के शब्द से टूटता है और) अपने मन के पीछे चलता है वह बेझिझक (माया के मोह का) जहर खाता रहता है (जो आत्मिक जीवन को खत्म कर देता है। फिर यह स्वच्छ और ऊँचा कैसे?) जो मनुष्य गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलता है, वह प्रभु के नाम में लीन रहता है (और वह स्वच्छ जीवन वाला है)।3।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

अंधौ बोलौ मुगधु गवारु ॥ हीणौ नीचु बुरौ बुरिआरु ॥ नीधन कौ धनु नामु पिआरु ॥ इहु धनु सारु होरु बिखिआ छारु ॥४॥

मूलम्

अंधौ बोलौ मुगधु गवारु ॥ हीणौ नीचु बुरौ बुरिआरु ॥ नीधन कौ धनु नामु पिआरु ॥ इहु धनु सारु होरु बिखिआ छारु ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंधे = माया के मोह में अंधा हुआ जीव। बोलौ = वह मनुष्य जो प्रभु की महिमा नहीं सुनता, नाम की ओर से बहरा। मुगधु = मूर्ख। बुरिआरु = बुरे बुरा। नीधन = कंगाल, निर्धन। कौ = वास्ते। सारु = श्रेष्ठ। बिखिआ = माया। छारु = राख, निकम्मी।4।
अर्थ: माया के मोह में अंधा हुआ मनुष्य, प्रभु की महिमा से कान मूँद के रखने वाला मनुष्य मूर्ख है, गवार है, आत्मिक जीवन से वंचित है। गिरावट की ओर जा रहा है, बुरे से बुरा है। परमात्मा का नाम परमात्मा के चरणों का प्यार (आत्मिक जीवन की ओर से) कंगालों के लिए धन है। यही धन श्रेष्ठ धन है, इसके बिना दुनिया की माया राख के समान है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उसतति निंदा सबदु वीचारु ॥ जो देवै तिस कउ जैकारु ॥ तू बखसहि जाति पति होइ ॥ नानकु कहै कहावै सोइ ॥५॥१२॥

मूलम्

उसतति निंदा सबदु वीचारु ॥ जो देवै तिस कउ जैकारु ॥ तू बखसहि जाति पति होइ ॥ नानकु कहै कहावै सोइ ॥५॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिस कउ = उस परमात्मा को। जैकारु = नमस्कार। कहावै सोइ = वह परमात्मा ही (जीव के मुँह से अपनी महिमा) कहलवाता है।5।
अर्थ: (पर जीवों के भी क्या वश? महिमा अथवा इससे नफरत, गुरु के शब्द का प्यार, प्रभु के गुणों की विचार- ये जो कुछ भी देता है प्रभु स्वयं ही देता है), जो जो प्रभु जीवों को यह देता है सदा उसी को नमस्कार करनी चाहिए (और कहना चाहिए कि) हे प्रभु! जिसको तू अपनी महिमा बख्शता है, उसकी, मानो, ऊँची जाति हो जाती है, उसको इज्जत मिलती है।
(प्रभु का दास) नानक (प्रभु की महिमा के बोल तभी) कह सकता है यदि प्रभु स्वयं ही कहलवाए।5।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला १ ॥ खाइआ मैलु वधाइआ पैधै घर की हाणि ॥ बकि बकि वादु चलाइआ बिनु नावै बिखु जाणि ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला १ ॥ खाइआ मैलु वधाइआ पैधै घर की हाणि ॥ बकि बकि वादु चलाइआ बिनु नावै बिखु जाणि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पैधे = पहनने से, पहनने के रस में फसे रहने से। हाणि = नुकसान। घर की हाणि = घर का ही नुकसान, अपना ही नुकसान, अपने आत्मिक जीवन को ही घाटा। बकि बकि = बोल बोल के। वादु = झगड़ा। बिखु = समझ।1।
अर्थ: प्रभु के स्मरण को छोड़ के ज्यों-ज्यों मनुष्य स्वादिष्ट खाने के चस्के की मैल अपने मन में बढ़ाता है, (सुंदर वस्त्र) पहनने के रसों में फंसने से भी मनुष्य के आत्मिक जीवन में ही कमी आती है। (अपनी प्रशंसा के) बोल बोल के भी (दूसरों से) झगड़ा खड़ा कर लेता है। (सो, हे भाई! स्मरण से टूट के यही) समझ कि मनुष्य जहर (ही विहाजता है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाबा ऐसा बिखम जालि मनु वासिआ ॥ बिबलु झागि सहजि परगासिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बाबा ऐसा बिखम जालि मनु वासिआ ॥ बिबलु झागि सहजि परगासिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बाबा = हे भाई! ऐसा वासिआ = इतनी बुरी तरह से डाला गया है, ऐसा बुरा फसाया गया है। बिखम जालि = मुश्किल जाल में। बिबलु = बाढ़ का पानी जो झाग से भरा होता है। झागि = मुश्किल से गुजर के। सहजि = अडोल अवस्था में, ठहराव वाली हालत में।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (खाने पहनने और अपनी शोभा करवाने आदि पर) मुश्किल जाल में मन ऐसा फंस जाता है (कि इसमें से निकलना मुश्किल हो जाता है। संसार-समुंदर में माया के रसों की ठिलें पड़ रही हैं, इस) झागदार पानी को बड़ी मुश्किल से लांघ के ही जब ठहाराव वाली अवस्था में पहुँचा जाता है तब मनुष्य के अंदर ज्ञान का प्रकाश होता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिखु खाणा बिखु बोलणा बिखु की कार कमाइ ॥ जम दरि बाधे मारीअहि छूटसि साचै नाइ ॥२॥

मूलम्

बिखु खाणा बिखु बोलणा बिखु की कार कमाइ ॥ जम दरि बाधे मारीअहि छूटसि साचै नाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जम दरि = जम राज के दर पर। मारीअहि = मारे जाते हैं, कूटे जाते हैं। साचै नाइ = सदा स्थिर रहने वाले प्रभु के नाम में (जुड़ के)।2।
अर्थ: (मोह के जाल में फंस के) मनुष्य जो कुछ खाता है वह भी (आत्मिक जीवन के लिए) जहर, जो कुछ बोलता है वह भी जहर, जो कुछ करता कमाता है वह भी जहर ही है। (ऐसे लोग आखिर) जम राज के दरवाजे पर बँधे हुए (मानसिक दुखों की) मार खाते हैं। (इन मानसिक दुखों से) वही निजात हासिल करता है जो सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के नाम में जुड़ता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिव आइआ तिव जाइसी कीआ लिखि लै जाइ ॥ मनमुखि मूलु गवाइआ दरगह मिलै सजाइ ॥३॥

मूलम्

जिव आइआ तिव जाइसी कीआ लिखि लै जाइ ॥ मनमुखि मूलु गवाइआ दरगह मिलै सजाइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कीआ = किए कर्मों का समूह। लिखि = लिख के, (किए कर्मों के) संस्कार मन में उकर के। मूलु = असल राशि-पूंजी।3।
अर्थ: जगत में जैसे जीव नंगा आता है वैसे नंगा ही यहाँ से चला जाता है (पर मोह के करड़े जाल में फसा रह के यहाँ से) किए हुए बुरे कर्मों के संस्कार अपने मन में उकर के अपने साथ ले चलता है। (सारी उम्र) अपने मन के पीछे चल के (भले गुणों की) राशि-पूंजी (जो थोड़ी बहुत पल्ले थी यहीं) गवा जाता है, और परमात्मा की दरगाह में इसको सज़ा मिलती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जगु खोटौ सचु निरमलौ गुर सबदीं वीचारि ॥ ते नर विरले जाणीअहि जिन अंतरि गिआनु मुरारि ॥४॥

मूलम्

जगु खोटौ सचु निरमलौ गुर सबदीं वीचारि ॥ ते नर विरले जाणीअहि जिन अंतरि गिआनु मुरारि ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुरारि गिआनु = परमात्मा के साथ सांझ।4।
अर्थ: जगत (का मोह) (भाव, मनुष्य के मन को खोटा-मैला बना देता है), परमात्मा का सदा-स्थिर नाम पवित्र है (मन को भी पवित्र करता है), (यह सच्चा नाम) गुरु के शब्द में तवज्जो जोड़ के प्राप्त होता है। (पर) ऐसे लोग कोई विरले-विरले ही मिलते हैं जिन्होंने अपने हृदय में परमात्मा के साथ जान-पहचान डाली है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अजरु जरै नीझरु झरै अमर अनंद सरूप ॥ नानकु जल कौ मीनु सै थे भावै राखहु प्रीति ॥५॥१३॥

मूलम्

अजरु जरै नीझरु झरै अमर अनंद सरूप ॥ नानकु जल कौ मीनु सै थे भावै राखहु प्रीति ॥५॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अजरु = वह चोट जो सहन करनी मुश्किल है। जरै = सह जाए। नीझरु = चश्मा, झरना। झरै = चल पड़ता है, फूट जाता है। जल कौ = पानी को। मीनु = मछली। सै = है। थे = तुझे (हे प्रभु!)। भावै = अच्छा लगे।5।
अर्थ: (माया के मोह की चोट सहनी बहुत मुश्किल खेल है, यह चोट आत्मा को मार के रख देती है, पर जो कोई) इस ना सही जाने वाली चोट को सह लेता है (उसके अंदर) सदा अटल और आनंद स्वरूप परमात्मा (के प्यार) का चश्मा फूट पड़ता है।
हे प्रभु! जैसे मछली (ज्यादा से ज्यादा) जल की तमन्ना रखती है, वैसे (तेरा दास) नानक (तेरी प्रीति तलाशता है) तेरी मेहर हो, तो तू अपना प्यार (मेरे हृदय में) टिकाए रख (ता कि नानक माया के मोह-जाल में फसने से बचा रहे।)।5।13।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला १ ॥ गीत नाद हरख चतुराई ॥ रहस रंग फुरमाइसि काई ॥ पैन्हणु खाणा चीति न पाई ॥ साचु सहजु सुखु नामि वसाई ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला १ ॥ गीत नाद हरख चतुराई ॥ रहस रंग फुरमाइसि काई ॥ पैन्हणु खाणा चीति न पाई ॥ साचु सहजु सुखु नामि वसाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नाद = आवाज। गीत नाद = गीत गाने। हरख = खुशियां। रहस = आनंद, चाव। फुरमाइसि = हकूमत। काई = कोई भी चीज। काई चीति न पाई = कुछ भी चिक्त में नहीं पड़ता, कुछ भी चिक्त को अच्छा नहीं लगता। सहजु = अडोल अवस्था। वसाई = (जब तक) मैं (अपने मन को) बसाता हूँ।1।
अर्थ: दुनियावी गीत गाने, दुनियावी खुशियाँ और चतुराईयाँ, दुनिया वाले चाव उल्लास और हकूमतें, अनेक पदार्थ खाने और सुंदर वस्त्र पहनने- (इनमें से) कुछ भी मेरे चिक्त को नहीं भाता। (जब तक) स्मरण से मैं (परमात्मा को अपने दिल में) बसाता हूँ, मेरे अंदर अटल अडोलता बनी रहती है, मेरे अंदर सुख बना रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किआ जानां किआ करै करावै ॥ नाम बिना तनि किछु न सुखावै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

किआ जानां किआ करै करावै ॥ नाम बिना तनि किछु न सुखावै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किआ जानां = मैं क्या जानता हूँ? तनि = शरीर में।1। रहाउ।
अर्थ: मुझे ये समझ नहीं कि (मेरा विधाता मेरे लिए) क्या कुछ कर रहा है और (मुझसे) क्या करवा रहा है। (पर, मैं यह समझता हूँ कि) परमात्मा के नाम के बिना और कुछ भी मेरे हृदय को अच्छा नहीं लगता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जोग बिनोद स्वाद आनंदा ॥ मति सत भाइ भगति गोबिंदा ॥ कीरति करम कार निज संदा ॥ अंतरि रवतौ राज रविंदा ॥२॥

मूलम्

जोग बिनोद स्वाद आनंदा ॥ मति सत भाइ भगति गोबिंदा ॥ कीरति करम कार निज संदा ॥ अंतरि रवतौ राज रविंदा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिनोद = करिश्मे। भाइ = प्रेम से। सत भाइ = सच्चे प्रेम से। कीरति = महिमा। करम कार = नित्य की कार। निज संदा = मेरी अपनी। संदा = का। रवतौ = रम रहा है, प्रकट हो रहा है। राज = प्रकाश। राज रवंदा = प्रकाश कर रहा है।2।
अर्थ: (प्रभु चरणों के) सच्चे प्रेम की इनायत से मेरी मति में गोबिंद की भक्ति टिकी हुई है, प्रभु की महिमा करनी ही मेरी अपनी नित्य की कार बन गई है, इसी में से मुझे जोग के करिश्मों के स्वाद और आनंद आ रहे हैं। (सारे जगत में) प्रकाश करने वाला प्रभु मेरे हृदय में हर वक्त हिल्लोरे दे रहा है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रिउ प्रिउ प्रीति प्रेमि उर धारी ॥ दीना नाथु पीउ बनवारी ॥ अनदिनु नामु दानु ब्रतकारी ॥ त्रिपति तरंग ततु बीचारी ॥३॥

मूलम्

प्रिउ प्रिउ प्रीति प्रेमि उर धारी ॥ दीना नाथु पीउ बनवारी ॥ अनदिनु नामु दानु ब्रतकारी ॥ त्रिपति तरंग ततु बीचारी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रेमि = प्रेम से। उर धारी = मैं हृदय में टिका रहा हूँ। पीउ = पति प्रभु। बनवारी = जगत का मालिक। अनदिनु = हर रोज। ब्रत कारी = व्रत कर रहा हूँ, नियम निभा रहा हूँ। तरंग = माया के मोह की लहरें। ततु = जगत का मूल प्रभु।3।
अर्थ: प्रभु के प्रेम में (जुड़ के) मैं उस प्यारे को नित्य पुकारता हूँ, उसकी प्रीति मैं अपने हृदय में टिकाता हूँ। (मुझे यकीन बन गया है कि) वह दीनों का नाथ है, वह सबका पति है, वह जगत का मालिक है। हर रोज (हर वक्त) उसका नाम स्मरणा और-और लोगों को स्मरण करने के लिए प्रेरित करना - यह नियम मैं सदा निभा रहा हूँ। ज्यों-ज्यों मैं जगत के मूल प्रभु (के गुणों) को विचारता हूं; माया के मोह की लहरों की ओर से मैं तृप्त होता जा रहा हूँ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकथौ कथउ किआ मै जोरु ॥ भगति करी कराइहि मोर ॥ अंतरि वसै चूकै मै मोर ॥ किसु सेवी दूजा नही होरु ॥४॥

मूलम्

अकथौ कथउ किआ मै जोरु ॥ भगति करी कराइहि मोर ॥ अंतरि वसै चूकै मै मोर ॥ किसु सेवी दूजा नही होरु ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अकथौ = जिसके गुण कथन नहीं किए जा सकते। कथउ = मैं बयान कर सकूँ। मोर = मुझसे। करी = मैं करूँ। मै मोर = मैं मेरी।4।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे गुण बयान नहीं किए जा सकते। मेरी क्या ताकत है कि मैं तेरे गुणों का बयान करूँ? जब तू मुझसे अपनी भक्ति कराता है तब ही मैं कर सकता हूँ। जब तेरा नाम मेरे अंदर आ बसता है तब (मेरे अंदर से) ‘मैं मेरी’ समाप्त हो जाती है (अहंकार और ममता दोनों नाश हो जाती हैं) तेरे बिना मैं किसी और की भक्ति नहीं कर सकता, मुझे तेरे जैसा और कोई दिखता ही नहीं।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर का सबदु महा रसु मीठा ॥ ऐसा अम्रितु अंतरि डीठा ॥ जिनि चाखिआ पूरा पदु होइ ॥ नानक ध्रापिओ तनि सुखु होइ ॥५॥१४॥

मूलम्

गुर का सबदु महा रसु मीठा ॥ ऐसा अम्रितु अंतरि डीठा ॥ जिनि चाखिआ पूरा पदु होइ ॥ नानक ध्रापिओ तनि सुखु होइ ॥५॥१४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस मनुष्य ने। पदु = आत्मिक दर्जा। ध्रापिओ = संतुष्ट हो गया, अघा गया, तृप्त हो गया।5।
अर्थ: (हे प्रभु! तेरी मेहर से) तेरा नाम-अमृत मेरे अंदर ऐसा प्रकट हो गया है कि गुरु का शब्द (जिसके द्वारा तेरा नाम-अमृत मिलता है) मुझे मीठा लग रहा है मुझे और सारे रसों से शिरोमणी रस (सर्वोक्तम) लग रहा है।
हे नानक! जिस मनुष्य ने प्रभु का नाम-रस चखा है उसको पूर्ण आत्मिक अवस्था का दर्जा मिल जाता है, वह दुनिया के पदार्थों की ओर से तृप्त हो जाता है, उसके हृदय में आत्मिक सुख बना रहता है।5।14।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला १ ॥ अंतरि देखि सबदि मनु मानिआ अवरु न रांगनहारा ॥ अहिनिसि जीआ देखि समाले तिस ही की सरकारा ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला १ ॥ अंतरि देखि सबदि मनु मानिआ अवरु न रांगनहारा ॥ अहिनिसि जीआ देखि समाले तिस ही की सरकारा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देखि = देख के। सबदि = गुरु के शब्द में (जुड़ के)। अहि = दिन। निसि = रात। समाले = संभाल करता है। तिस ही की = उस (परमात्मा) की ही। सरकार = हकूमत, बादशाही।1।
अर्थ: (जीवों के मनों पर प्रेम का) रंग चढ़ाने वाला (प्रेम के श्रोत परमात्मा के बिना) कोई और नहीं है, (उसी की मेहर से) गुरु के शब्द में जुड़ के प्रभु को अपने हृदय में (बसता) देख के जीव का मन उसके प्रेम-रंग को स्वीकार कर लेता है। (प्रेम का श्रोत) प्रभु दिन-रात ध्यान से जीवों की संभाल करता है, उसी की ही सारी सृष्टि में बादशाहियत है (प्रेम की दाति उसके अपने ही हाथ में है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरा प्रभु रांगि घणौ अति रूड़ौ ॥ दीन दइआलु प्रीतम मनमोहनु अति रस लाल सगूड़ौ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरा प्रभु रांगि घणौ अति रूड़ौ ॥ दीन दइआलु प्रीतम मनमोहनु अति रस लाल सगूड़ौ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रांगि = रंग वाला। रांगि घणौ = गाढ़े रंग वाला। रूड़ौ = सुंदर। लाल सगूड़ौ = गाढ़े लाल रंग वाला। अति रस = बहुत रस वाला, रसों का श्रोत, प्रेम का श्रोत।1। रहाउ।
अर्थ: मेरा प्रभु बड़े गाढ़े प्रेम-रंग वाला है बहुत सुंदर है दीनों पर दया करने वाला है, सबका प्यारा है, सबके मन को मोहने वाला है, प्रेम का श्रोत है, प्रेम के गाढ़े लाल रंग में रंगा हुआ है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊपरि कूपु गगन पनिहारी अम्रितु पीवणहारा ॥ जिस की रचना सो बिधि जाणै गुरमुखि गिआनु वीचारा ॥२॥

मूलम्

ऊपरि कूपु गगन पनिहारी अम्रितु पीवणहारा ॥ जिस की रचना सो बिधि जाणै गुरमुखि गिआनु वीचारा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ऊपरि = ऊपर, सबसे ऊँचा। कूपु = कूआँ, अमृत का कूआँ, नाम अमृत का श्रोत परमात्मा। गगन = आकाश, चिदाकाश, दसवां द्वार। गगन पनिहारी = गगन का पनिहारी, गगन का पानी भरने वाला, ऊँची सूझ वाला। बिधि = तरीका, नाम अमृत पिलाने का तरीका। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। गिआनु = जान पहचान, गहरी सांझ।2।
अर्थ: नाम-अमृत का श्रोत परमात्मा सबसे ऊँचा है, ऊँची सूझ वाला जीव ही (उसकी मेहर से) नाम-अमृत पी सकता है। नाम-अमृत पिलाने का ढंग (भी) वह परमात्मा स्वयं ही जानता है जिसकी रची हुई सारी सृष्टि है। (उस तरीके से प्रभु की मेहर से) जीव गुरु की शरण पड़ के प्रभु के साथ गहरी सांझ बनाता है और उसके गुणों की विचार करता है।2।

[[1332]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

पसरी किरणि रसि कमल बिगासे ससि घरि सूरु समाइआ ॥ कालु बिधुंसि मनसा मनि मारी गुर प्रसादि प्रभु पाइआ ॥३॥

मूलम्

पसरी किरणि रसि कमल बिगासे ससि घरि सूरु समाइआ ॥ कालु बिधुंसि मनसा मनि मारी गुर प्रसादि प्रभु पाइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पसारी = बिखेरी। रसि = रस से, आनंद से। बिगासे = प्रसन्न होते हैं। ससि = चंद्रमा, शीतलता, मन की शांत अवस्था। ससि घरि = चँद्रमा के घर में। सूरु = सूरज, तपश, तामसी स्वभाव। कालु = मौत (का डर)। बिधुंसि = मार के। मनसा = मन का फुरना, मायावी फुरना। मनि = मन में।3।
अर्थ: जैसे सूरज की किरणों के बिखरने पर कमल के फूल खिल उठते है वैसे ही ज्योति-किरन का प्रकाश होने पर मनुष्य का मन नाम-अमृत के रस के साथ खिल उठता है (मन शांति-अवस्था हासिल कर लेता है, और उस) शांति अवस्था में मनुष्य का तामसी स्वभाव समा जाता है। मनुष्य, मौत के डर को समाप्त कर के मायावी फुरने अपने मन में ही मार देता है, और गुरु की मेहर से परमात्मा को (अपने अंदर ही) पा लेता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अति रसि रंगि चलूलै राती दूजा रंगु न कोई ॥ नानक रसनि रसाए राते रवि रहिआ प्रभु सोई ॥४॥१५॥

मूलम्

अति रसि रंगि चलूलै राती दूजा रंगु न कोई ॥ नानक रसनि रसाए राते रवि रहिआ प्रभु सोई ॥४॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रसि = रस में, प्यार में, आनंद में। चलूलै रंगि = गाढ़े रंग में। राती = रंगी हुई। रसनि = जीभ। रसाए = जिन्होंने रस वाली बनाया है।4।
अर्थ: जिस मनुष्यों की जीभ प्रेम के श्रोत प्रभु में प्रभु के गाढ़े प्यार-रंग में रंगी जाती है, उनको माया के मोह का रंग छू नहीं सकता।
हे नानक! जिन्होंने जीभ को नाम-रस से रसाया है, वे प्रभु-प्रेम में रंगे गए हैं, उनको परमात्मा हर जगह व्यापक दिखाई देता है।4।15।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला १ ॥ बारह महि रावल खपि जावहि चहु छिअ महि संनिआसी ॥ जोगी कापड़ीआ सिरखूथे बिनु सबदै गलि फासी ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला १ ॥ बारह महि रावल खपि जावहि चहु छिअ महि संनिआसी ॥ जोगी कापड़ीआ सिरखूथे बिनु सबदै गलि फासी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बारह = जोगियों के बारह पंथ (हेतु, पाव, आई, गम्य, पागल, गोपाल, कंथड़ी, बन, ध्वज, चोली, रावल और दास)। रावल = जोगी जो अलख अलख की धुनि करके भिक्षा माँगते हैं। जोगियों का एक खास फिरका जिसमें मुसलमान और हिन्दू दोनों हैं। चहु छिअ महि = दस (फिरकों) में (सन्यासियों के दस फिरके = तीर्थ, आश्रम, वन, अरण्य, गिरि, परवत, सागर, सरस्वती, भारती और पुरी)। कापड़ीआ = टाकी लगे हुई गोदड़ी अथवा चोला पहनने वाला। सिरखूथा = जैन मत का एक फिरका जो सिर के बाल जड़ से उखाड़ देता है, ढूँढीआ। गलि = गले में।1।
अर्थ: परमात्मा की महिमा से टूट के बारह फिरकों के जोगी और दसों फिरकों के सन्यासी खपते फिरते हैं। टाकी लगे चोले पहनने वाले जोगी और सिर के बालों को जड़ों से उखड़वाने वाले ढूँढिए जैनी भी (ख्वार ही होते रहते हैं)। गुरु के शब्द के बिना इन सभी के गले में (माया के मोह का) फंदा पड़ा रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सबदि रते पूरे बैरागी ॥ अउहठि हसत महि भीखिआ जाची एक भाइ लिव लागी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सबदि रते पूरे बैरागी ॥ अउहठि हसत महि भीखिआ जाची एक भाइ लिव लागी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबदि = गुरु के शब्द में। बैरागी = विरक्त। अउहठ = (अवघट्ट) हृदय। अउहठि हसत = (अवघट्टस्थ) हृदय में टिका हुआ। भीखिआ = भिक्षा, दान। जाची = मांगी। एक भाइ = एक (परमात्मा) के प्यार में।1। रहाउ।
अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा की महिमा की वाणी में रंगे रहते हैं, वे (माया के मोह से) पूरी तरह से उपराम रहते हैं। उन्होंने अपने दिल में टिके परमात्मा (के चरणों) में (जुड़ के सदा उसके नाम की) भिक्षा माँगी है, उनकी तवज्जो सिर्फ परमात्मा के प्यार में टिकी रहती है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रहमण वादु पड़हि करि किरिआ करणी करम कराए ॥ बिनु बूझे किछु सूझै नाही मनमुखु विछुड़ि दुखु पाए ॥२॥

मूलम्

ब्रहमण वादु पड़हि करि किरिआ करणी करम कराए ॥ बिनु बूझे किछु सूझै नाही मनमुखु विछुड़ि दुखु पाए ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वादु = झगड़ा, चर्चा, बहस। करि = कर के। किरिआ करम = कर्मकांड। मनमुखु = अपने मन के पीछे चलने वाला। विछुड़ि = प्रभु से विछुड़ के।2।
अर्थ: ब्राहमण ऊँचे आचरण (पर बल देने की जगह) कर्मकांड कराता है, यह कर्मकांड करके (इसी के आधार पर शास्त्रों में से) चर्चा पढ़ते हैं। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य परमात्मा की याद से टूट के आत्मिक दुख सहता है, क्योंकि (गुरु के शब्द को) ना समझने के कारण इसको जीवन का सही रास्ता सूझता नहीं है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सबदि मिले से सूचाचारी साची दरगह माने ॥ अनदिनु नामि रतनि लिव लागे जुगि जुगि साचि समाने ॥३॥

मूलम्

सबदि मिले से सूचाचारी साची दरगह माने ॥ अनदिनु नामि रतनि लिव लागे जुगि जुगि साचि समाने ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सूचा चारी = पवित्र आचरण वाले। नामि रतनि = नाम रतन में, श्रेष्ट नाम में। जुग जुग = हरेक युग में, सदा ही।3।
अर्थ: पवित्र कर्तव्य वाले सिर्फ वही लोग हैं जो (मन से) गुरु के शब्द में जुड़े हुए हैं, परमात्मा की सदा कायम रहने वाली दरगाह में उनको आदर मिलता है। उनकी लगन हर रोज प्रभु के श्रेष्ठ नाम में लगी रहती है, वे सदा ही सदा-स्थिर (की याद) में लीन रहते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सगले करम धरम सुचि संजम जप तप तीरथ सबदि वसे ॥ नानक सतिगुर मिलै मिलाइआ दूख पराछत काल नसे ॥४॥१६॥

मूलम्

सगले करम धरम सुचि संजम जप तप तीरथ सबदि वसे ॥ नानक सतिगुर मिलै मिलाइआ दूख पराछत काल नसे ॥४॥१६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुचि = पवित्रता। संजम = इन्द्रियों को वश में रखने के उद्यम। सतिगुर मिलै = (जो मनुष्य) गुरु को मिल जाता है। पराछत = पाप। काल = मौत का डर।4।
अर्थ: (सिरे की बात) कर्मकांड के सारे धर्म, (बाहरी) स्वच्छता, (बाहरी) संयम, जप तप और तीर्थ-स्नान- यह सारे ही गुरु के शब्द में बसते हैं (भाव, प्रभु की महिमा की वाणी में जुड़ने वाले को इन कर्मों-धर्मों की आवश्यक्ता नहीं रह जाती)।
हे नानक! जो मनुष्य प्रभु की मेहर से गुरु को मिल जाता है। (गुरु की शरण आ जाता है) उस के सारे दुख-कष्ट, पाप और मौत आदि के डर दूर हो जाते हैं।4।16।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला १ ॥ संता की रेणु साध जन संगति हरि कीरति तरु तारी ॥ कहा करै बपुरा जमु डरपै गुरमुखि रिदै मुरारी ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला १ ॥ संता की रेणु साध जन संगति हरि कीरति तरु तारी ॥ कहा करै बपुरा जमु डरपै गुरमुखि रिदै मुरारी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रेणु = चरण धूल। कीरति = महिमा। तरु तारी = तारी तैर, (पार लांघने के लिए) ऐसा तैरो। कहा करै = क्या कर सकता है? कुछ बिगाड़ नहीं सकता। बपुरा = बेचारा। डरपै = डरता है। रिदै = हृदय में। मुरारी = परमात्मा।1।
अर्थ: (हे मेरे मन!) संत जनों की चरण-धूल (अपने माथे पर लगा), साधु-जनों की संगति कर, (सत्संग में) परमात्मा की महिमा कर (संसार-समुंदर की लहरों में से पार लांघने के लिए इस तरह) तैर। गुरु की शरण पड़ कर (जिस मनुष्य के) हृदय में परमात्मा (आ बसता) है, बेचारा जमराज (भी) उसका कुछ नहीं बिगाड़ नहीं सकता, बल्कि जमराज (उससे) डरता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जलि जाउ जीवनु नाम बिना ॥ हरि जपि जापु जपउ जपमाली गुरमुखि आवै सादु मना ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जलि जाउ जीवनु नाम बिना ॥ हरि जपि जापु जपउ जपमाली गुरमुखि आवै सादु मना ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जलि जाउ = जल जाए। जपउ = मैं जपता हूं। जपमाली = माला। सादु = स्वाद, रस। मना = हे मन!।1। रहाउ।
अर्थ: प्रभु के नाम स्मरण के बिना (मनुष्य का) जीवन (विकारों की आग में जलता है तो) जलता रहे (स्मरण के बिना कोई और उद्यम इसको जलने से नहीं बचा सकता)। (इसलिए) हे (मेरे) मन! मैं परमात्मा का नाम जप के जपता हूँ (भाव, बार-बार परमात्मा का नाम ही जपता हूं), मैंने परमात्मा के जाप को ही माला (बना लिया है)। गुरु की शरण पड़ के (जपने से इस जाप का) आनंद आता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर उपदेस साचु सुखु जा कउ किआ तिसु उपमा कहीऐ ॥ लाल जवेहर रतन पदारथ खोजत गुरमुखि लहीऐ ॥२॥

मूलम्

गुर उपदेस साचु सुखु जा कउ किआ तिसु उपमा कहीऐ ॥ लाल जवेहर रतन पदारथ खोजत गुरमुखि लहीऐ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुर उपदेस सुखु = गुरु के उपदेश का आनंद। जा कउ = जिस (मनुष्य) को। उपमा = बड़ाई। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के।2।
अर्थ: जिस मनुष्य को सतिगुरु के उपदेश का सदा कायम रहने वाला आत्मिक आनंद आ जाता है, उसकी बड़ाई बयान नहीं की जा सकती। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है वह (गुरु के उपदेश में से) खोजता-खोजता लाल हीरे रतन (आदि पदार्थों जैसे कीमती आत्मिक गुण) हासिल कर लेता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चीनै गिआनु धिआनु धनु साचौ एक सबदि लिव लावै ॥ निराल्मबु निरहारु निहकेवलु निरभउ ताड़ी लावै ॥३॥

मूलम्

चीनै गिआनु धिआनु धनु साचौ एक सबदि लिव लावै ॥ निराल्मबु निरहारु निहकेवलु निरभउ ताड़ी लावै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चीनै = पहचानता है, समझता है। गिआनु = (परमात्मा से) गहरी सांझ। साचौ = सदा कायम रहने वाला। सबदि = शब्द में। निरालंबु = (निर+आलंबु) जिसको किसी और आसरे की आवश्यक्ता नहीं। निहकेवलु = जिसको कोई वासना छूह नहीं सकती। ताड़ी लावै = अपनी तवज्जो में टिकाता है।3।
अर्थ: जो मनुष्य एक (प्रभु की कीर्ति) के शब्द में तवज्जो जोड़ता है वह परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालनी समझ जाता है, परमात्मा में जुड़ी तवज्जो उसका सदा-स्थिर धन बन जाता है। वह मनुष्य अपनी तवज्जो में उस परमात्मा को टिका लेता है जिसको किसी अन्य आसरे की जरूरत नहीं जिसको किसी खुराक की जरूरत नहीं जिसको कोई वासना छू नहीं सकती।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साइर सपत भरे जल निरमलि उलटी नाव तरावै ॥ बाहरि जातौ ठाकि रहावै गुरमुखि सहजि समावै ॥४॥

मूलम्

साइर सपत भरे जल निरमलि उलटी नाव तरावै ॥ बाहरि जातौ ठाकि रहावै गुरमुखि सहजि समावै ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साइर = समुंदर, सागर। सपत = सात। साइर सपत = सात समुंदर, सात सरोवर (पाँच ज्ञान-इंद्रिय, मन और बुद्धि)। जल निरमलि = निर्मल जल से। उलटी = माया से पलटी हुई। नाव = बेड़ी, जीवन नईया। जातौ = जाता। ठाकि = रोक के। सहजि = सहज (अवस्था) में।4।
अर्थ: (पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ, मन और बुद्धि- ये सातों ही जैसे, चश्मे हैं जिनसे हरेक इन्सान को आत्मिक जीवन की प्रफुल्लता वास्ते अच्छी-बुरी प्रेरणा का पानी मिलता रहता है) जिस मनुष्य के यह सातों ही सरोवर नाम-स्मरण के पवित्र जल से भरे रहते हैं (उसको इन से पवित्र प्रेरणा का जल मिलता है और) वह विकारों से उलट अपनी जिंदगी की बेड़ी नाम-जल में तैराता है। (नाम की इनायत से) वह बाहर भटकते मन को रोके रखता है, और गुरु की शरण पडत्र के अडोल अवस्था में लीन रहता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो गिरही सो दासु उदासी जिनि गुरमुखि आपु पछानिआ ॥ नानकु कहै अवरु नही दूजा साच सबदि मनु मानिआ ॥५॥१७॥

मूलम्

सो गिरही सो दासु उदासी जिनि गुरमुखि आपु पछानिआ ॥ नानकु कहै अवरु नही दूजा साच सबदि मनु मानिआ ॥५॥१७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गिरही = गृहस्थी। उदासी = विरक्त। जिनि = जिस ने। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। आपु = अपने आप को। सबदि = शब्द में।5।
अर्थ: (यदि मन विकारों की तरफ़ भटकता ही रहे तो गृहस्थ अथवा विरक्त कहलवाने में कोई फर्क नहीं पड़ता) जिस मनुष्य ने गुरु की शरण पड़ कर अपने आप को पहचान लिया है वही (असल) गृहस्थी है और वही (प्रभु का) सेवक विरक्त है।
नानक कहता है जिस मनुष्य का मन सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा (की महिमा) के शब्द में गिझ जाता है, उसको प्रभु के बिना (कहीं भी) कोई और दूसरा नहीं दिखता।5।17।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु प्रभाती महला ३ चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु प्रभाती महला ३ चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि विरला कोई बूझै सबदे रहिआ समाई ॥ नामि रते सदा सुखु पावै साचि रहै लिव लाई ॥१॥

मूलम्

गुरमुखि विरला कोई बूझै सबदे रहिआ समाई ॥ नामि रते सदा सुखु पावै साचि रहै लिव लाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रह के। बूझै = समझता है (एकवचन)। सबदे = गुरु के शब्द से। रहिआ समाई = (सबमें) व्यापक है। नामि = नाम में। पावै = हासिल करता है। साचि = सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा में। रहै लिव लाई = तवज्जो/ध्यान लगाए रखता है।1।
अर्थ: हे भाई! कोई विरला मनुष्य गुरु के सन्मुख रह के गुरु के शब्द से (यह) समझ लेता है कि परमात्मा सब जगह व्यापक है। परमात्मा के नाम में रति रह के (मनुष्य) सदा आत्मिक आनंद माणता है, सदा कायम रहने वाले प्रभु में तवज्जो जोड़े रखता है।1।

[[1333]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि नामु जपहु जन भाई ॥ गुर प्रसादि मनु असथिरु होवै अनदिनु हरि रसि रहिआ अघाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि हरि नामु जपहु जन भाई ॥ गुर प्रसादि मनु असथिरु होवै अनदिनु हरि रसि रहिआ अघाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जन भाई = हे जनो! हे भाईयो! प्रसादि = कृपा से। असथिरु = स्थिर, अडोल। अनदिनु = हर रोज। रसि = रस से। रहिआ अघाई = तृप्त रहता है, अघाया रहता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई जनो! सदा परमात्मा का नाम जपा करो। (नाम जपने से) गुरु की कृपा से (मनुष्य का) मन (माया के हमलों के मुकाबले के वक्त) अडोल रहता है। हरि-नाम के स्वाद की इनायत से (मनुष्य) हर वक्त (माया की लालच से) तृप्त रहता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनदिनु भगति करहु दिनु राती इसु जुग का लाहा भाई ॥ सदा जन निरमल मैलु न लागै सचि नामि चितु लाई ॥२॥

मूलम्

अनदिनु भगति करहु दिनु राती इसु जुग का लाहा भाई ॥ सदा जन निरमल मैलु न लागै सचि नामि चितु लाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! दिन-रात हर वक्त परमात्मा की भक्ति करते रहो। यही है इस मानव जीवन का लाभ। (भक्ति करने वाले) मनुष्य सदा पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं। जो मनुष्य सदा-स्थिर हरि-नाम में चिक्त जोड़ता है (उसके मन को विकारों की) मैल नहीं लगती।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुखु सीगारु सतिगुरू दिखाइआ नामि वडी वडिआई ॥ अखुट भंडार भरे कदे तोटि न आवै सदा हरि सेवहु भाई ॥३॥

मूलम्

सुखु सीगारु सतिगुरू दिखाइआ नामि वडी वडिआई ॥ अखुट भंडार भरे कदे तोटि न आवै सदा हरि सेवहु भाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सीगारु = गहना, (आत्मिक जीवन के लिए) गहना। अखुट = कभी ना खत्म होने वाले। भंडार = खजाने।3।
अर्थ: हे भाई! आत्मिक आनंद (मनुष्य जीवन के लिए एक) गहना है। (जिस मनुष्य को) गुरु ने (यह गहना) दिखा दिया, उसने हरि-नाम में जुड़ के (लोक-परलोक की) इज्जत कमा ली। हे भाई! सदा प्रभु की सेवा-भक्ति करते रहो (सदा भक्ति करते रहने से यह) कभी ना खत्म होने वाले खजाने (मनुष्य के अंदर) भरे रहते हैं, (इन खजानों में) कभी कमी नहीं आती।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे करता जिस नो देवै तिसु वसै मनि आई ॥ नानक नामु धिआइ सदा तू सतिगुरि दीआ दिखाई ॥४॥१॥

मूलम्

आपे करता जिस नो देवै तिसु वसै मनि आई ॥ नानक नामु धिआइ सदा तू सतिगुरि दीआ दिखाई ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। तिसु मनि = उस (मनुष्य) के मन में। सतिगुरि = सतिगुरु ने।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: पर, हे भाई! यह नाम-खजाना जिस मनुष्य को कर्तार स्वयं ही देता है, उसके मन में आ बसता है। हे नानक! तू सदा हरि-नाम स्मरण करता रह। (भक्ति-स्मरण का ये रास्ता) गुरु ने (ही) दिखाया है (ये रास्ता गुरु के माध्यम से ही मिलता है)।4।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला ३ ॥ निरगुणीआरे कउ बखसि लै सुआमी आपे लैहु मिलाई ॥ तू बिअंतु तेरा अंतु न पाइआ सबदे देहु बुझाई ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला ३ ॥ निरगुणीआरे कउ बखसि लै सुआमी आपे लैहु मिलाई ॥ तू बिअंतु तेरा अंतु न पाइआ सबदे देहु बुझाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कउ = को। सुआमी = हे स्वामी! आपे = (तू) स्वयं ही। सबदे = (गुरु के) शब्द में (जोड़ के)। बुझाई = (आत्मिक जीवन की) सूझ।1।
अर्थ: हे मेरे स्वामी! (मुझ) गुण-हीन को बख्श ले, तू स्वयं ही (मुझे अपने चरणों से जोड़े रख। तू बेअंत है, तेरे गुणों का किसी ने अंत नहीं पाया। (हे स्वामी! गुरु के) शब्द में (जोड़ के) मुझे (आत्मिक जीवन की) सूझ बख्श।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जीउ तुधु विटहु बलि जाई ॥ तनु मनु अरपी तुधु आगै राखउ सदा रहां सरणाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि जीउ तुधु विटहु बलि जाई ॥ तनु मनु अरपी तुधु आगै राखउ सदा रहां सरणाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बलि जाइ = कुर्बान जाता हूं। अरपी = मैं भेट करता हूँ। राखउ = मैं रखता हूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु जी! मैं तुझसे सदके जाता हूँ। मैं (अपना) तन (अपना) मन भेटा करता हूँ, तेरे आगे रखता हूँ (मेहर कर,) मैं सदा तेरी शरण पड़ा रहूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपणे भाणे विचि सदा रखु सुआमी हरि नामो देहि वडिआई ॥ पूरे गुर ते भाणा जापै अनदिनु सहजि समाई ॥२॥

मूलम्

आपणे भाणे विचि सदा रखु सुआमी हरि नामो देहि वडिआई ॥ पूरे गुर ते भाणा जापै अनदिनु सहजि समाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुआमी = हे स्वामी! नामो = नाम ही। वडिआई = इज्जत। ते = से, के द्वारा। जापै = प्रतीत होता है, समझ में आता है। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समाई = लीनता।2।
अर्थ: हे मेरे स्वामी! मुझे सदा अपनी रज़ा में रख, मुझे अपना नाम ही दे (यह ही मेरे वास्ते) इज्जत (है)। हे भाई! पूरे गुरु से (परमात्मा की) रज़ा की समझ आती है, और हर वक्त आत्मिक अडोलता में लीनता हो सकती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेरै भाणै भगति जे तुधु भावै आपे बखसि मिलाई ॥ तेरै भाणै सदा सुखु पाइआ गुरि त्रिसना अगनि बुझाई ॥३॥

मूलम्

तेरै भाणै भगति जे तुधु भावै आपे बखसि मिलाई ॥ तेरै भाणै सदा सुखु पाइआ गुरि त्रिसना अगनि बुझाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भाणै = रजा में, (ईश्वर) की मर्जी में। तुधु = तुझे। भावै = अच्छा लगे। गुरि = गुरु ने।3।
अर्थ: हे मेरे स्वामी! अगर तुझे अच्छा लगे तो तेरी रज़ा में ही तेरी भक्ति हो सकती है, तू स्वयं ही मेहर करके अपने चरणों में जोड़ता है। (जिस मनुष्य के अंदर से) गुरु ने तृष्णा की आग बुझा दी, उसने (हे प्रभु!) तेरी रज़ा में रह के सदा आत्मिक आनंद पाया।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो तू करहि सु होवै करते अवरु न करणा जाई ॥ नानक नावै जेवडु अवरु न दाता पूरे गुर ते पाई ॥४॥२॥

मूलम्

जो तू करहि सु होवै करते अवरु न करणा जाई ॥ नानक नावै जेवडु अवरु न दाता पूरे गुर ते पाई ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करते = हे कर्तार! जेवडु = बराबर। ते = से। पाई = प्राप्त होता है।4।
अर्थ: हे कर्तार! (जगत में) वही कुछ होता है जो कुछ तू (स्वयं) करता है (तेरी मर्जी के उलट) और कुछ नहीं किया जा सकता। हे नानक! परमात्मा के नाम के बराबर का और कोई दातें देने वाला नहीं है। यह नाम गुरु से (ही) मिलता है।4।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला ३ ॥ गुरमुखि हरि सालाहिआ जिंना तिन सलाहि हरि जाता ॥ विचहु भरमु गइआ है दूजा गुर कै सबदि पछाता ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला ३ ॥ गुरमुखि हरि सालाहिआ जिंना तिन सलाहि हरि जाता ॥ विचहु भरमु गइआ है दूजा गुर कै सबदि पछाता ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। सालाहिआ = महिमा की। सलाहि जाता = महिमा करने की विधि आई। भरमु दूजा = माया वाली भटकना। कै सबदि = के शब्द से।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा की महिमा की, उन्होंने ही महिमा करनी सीखी। उनके अंदर से माया वाली भटकना दूर हो जाती है, गुरु के शब्द से वे परमात्मा के साथ सांझ डाल लेते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जीउ तू मेरा इकु सोई ॥ तुधु जपी तुधै सालाही गति मति तुझ ते होई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि जीउ तू मेरा इकु सोई ॥ तुधु जपी तुधै सालाही गति मति तुझ ते होई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सोई = सार लेने वाला। जपी = मैं जपता हूँ। तुधै = तुझे ही। सालाही = मैं सराहना करता हूँ। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। तुझ ते = तेरे से।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु जी! मेरी सार लेने वाला सिर्फ एक तू ही है। मैं (सदा) तुझे (ही) जपता हूँ, मैं (सदा) तुझे ही सलाहता हूँ। ऊँची आत्मिक अवस्था और ऊँची अक्ल तुझसे ही मिलती है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि सालाहनि से सादु पाइनि मीठा अम्रितु सारु ॥ सदा मीठा कदे न फीका गुर सबदी वीचारु ॥२॥

मूलम्

गुरमुखि सालाहनि से सादु पाइनि मीठा अम्रितु सारु ॥ सदा मीठा कदे न फीका गुर सबदी वीचारु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा की महिमा करते हैं, वे (उसका) आनंद पाते हैं। आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल उनको मीठा लगता है (और सब पदार्थों से) श्रेष्ठ लगता है। वे मनुष्य गुरु के शब्द से (परमात्मा के नाम का) विचार (करते हैं, उसका स्वाद उनको) सदा मीठा लगता है, कभी बेस्वादा नहीं लगता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिनि मीठा लाइआ सोई जाणै तिसु विटहु बलि जाई ॥ सबदि सलाही सदा सुखदाता विचहु आपु गवाई ॥३॥

मूलम्

जिनि मीठा लाइआ सोई जाणै तिसु विटहु बलि जाई ॥ सबदि सलाही सदा सुखदाता विचहु आपु गवाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सालाहनि = सराहना करते हैं (बहुवचन)। से = वे (बहुवचन)। सादु = स्वाद। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। सारु = श्रेष्ट। गुर सबदी = गुरु के शब्द से। आपु = स्वै भाव। गवाई = गवा के, दूर करके।3।
अर्थ: पर, हे भाई! जिस (परमात्मा) ने (अपना नाम) मीठा महसूस करवाया है, वह स्वयं ही (इस भेद को) जानता है। मैं उससे सदा सदके जाता हूँ। मैं (गुरु के) शब्द से (अपने अंदर से) स्वै-भाव दूर करके उस सुख-दाते परमात्मा की सदा महिमा करता हूँ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु मेरा सदा है दाता जो इछै सो फलु पाए ॥ नानक नामु मिलै वडिआई गुर सबदी सचु पाए ॥४॥३॥

मूलम्

सतिगुरु मेरा सदा है दाता जो इछै सो फलु पाए ॥ नानक नामु मिलै वडिआई गुर सबदी सचु पाए ॥४॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इछै = माँगता है (एकवचन)। सचु = सदा कायम रहने वाला हरि।4।
अर्थ: हे भाई! प्यारा गुरु सदा (हरेक) दाति देने वाला है जो मनुष्य (गुरु से) माँगता है, वह फल हासिल कर लेता है। हे नानक! (गुरु से परमात्मा का) नाम मिलता है (यही है असल) इज्जत। गुरु के शब्द से (मनुष्य) सदा-स्थिर प्रभु को मिल जाता है।4।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला ३ ॥ जो तेरी सरणाई हरि जीउ तिन तू राखन जोगु ॥ तुधु जेवडु मै अवरु न सूझै ना को होआ न होगु ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला ३ ॥ जो तेरी सरणाई हरि जीउ तिन तू राखन जोगु ॥ तुधु जेवडु मै अवरु न सूझै ना को होआ न होगु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि जीउ = हे प्रभु जी! तिन = उनको (बहुवचन)। राखन जोगु = रक्षा करने की ताकत वाला। जेवडु = बराबर का। अवरु = कोई और। को = कोई (सर्वनाम)। होगु = (भविष्य में) होगा।1।
अर्थ: हे प्रभु जी! जो मनुष्य तेरी शरण आ पड़ते हैं, तू उनकी रक्षा करने के समर्थ है। हे प्रभु जी! तेरे बराबर का मुझे और कोई नहीं सूझता। (अभी तक तेरे बराबर का) ना कोई हुआ है (और भविष्य में) ना कोई होगा।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जीउ सदा तेरी सरणाई ॥ जिउ भावै तिउ राखहु मेरे सुआमी एह तेरी वडिआई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि जीउ सदा तेरी सरणाई ॥ जिउ भावै तिउ राखहु मेरे सुआमी एह तेरी वडिआई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भावै = (तुझे) अच्छा लगे। सुआमी = हे स्वामी! वडिआई = बड़प्पन, समर्थता।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु जी! (मेहर कर, मैं) सदा तेरी शरण पड़ा रहूँ। हे मेरे स्वामी! जैसे तुझे अच्छा लगे (मेरी) रक्षा कर (हम जीवों की रक्षा कर सकना) यह तेरी ही समर्थता है।1। रहाउ।

[[1334]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो तेरी सरणाई हरि जीउ तिन की करहि प्रतिपाल ॥ आपि क्रिपा करि राखहु हरि जीउ पोहि न सकै जमकालु ॥२॥

मूलम्

जो तेरी सरणाई हरि जीउ तिन की करहि प्रतिपाल ॥ आपि क्रिपा करि राखहु हरि जीउ पोहि न सकै जमकालु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करहि = तू करता है। प्रतिपाल = पालना, सहायता। करि = कर के। पोहि न सकै = (अपना) प्रभाव नहीं डाल सकता, डरा नहीं सकता।2।
अर्थ: हे प्रभु जी! जो मनुष्य तेरी शरण आ पड़ते हैं, तू (स्वयं) उनकी पालना करता है। मेहर करके तू स्वयं उनकी रक्षा करता है, उनको (फिर) मौत का डर छू नहीं सकता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेरी सरणाई सची हरि जीउ ना ओह घटै न जाइ ॥ जो हरि छोडि दूजै भाइ लागै ओहु जमै तै मरि जाइ ॥३॥

मूलम्

तेरी सरणाई सची हरि जीउ ना ओह घटै न जाइ ॥ जो हरि छोडि दूजै भाइ लागै ओहु जमै तै मरि जाइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सची = सदा कायम रहने वाली। न जाइ = खत्म नहीं होती, नाश नहीं होती। छोडि = छोड़ के। दूजै भाइ = किसी और प्यार में। तै = और। मरि जाइ = मर जाता है।3।
अर्थ: हे प्रभु जी! तेरी ओट सदा कायम रहने वाली है, ना वह घटती है ना वह खत्म होती है। पर, हे भाई! जो मनुष्य प्रभु (की ओट) छोड़ के माया के प्यार में लग जाता है, वह जनम-मरण के चक्करों में पड़ जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो तेरी सरणाई हरि जीउ तिना दूख भूख किछु नाहि ॥ नानक नामु सलाहि सदा तू सचै सबदि समाहि ॥४॥४॥

मूलम्

जो तेरी सरणाई हरि जीउ तिना दूख भूख किछु नाहि ॥ नानक नामु सलाहि सदा तू सचै सबदि समाहि ॥४॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नानक = हे नानक! सचै सबदि = सदा स्थिर प्रभु की महिमा में। समाहि = तू लीन रहेगा।4।
अर्थ: हे प्रभु जी! जो मनुष्य तेरी शरण पड़ते हैं उनको कोई दुख नहीं दबा सकता, उनको (माया की) भूख नहीं व्यापती। हे नानक! परमात्मा का नाम सदा सलाहते रहा कर, इस तरह तू सदा स्थिर प्रभु की महिमा में लीन रहेगा।4।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला ३ ॥ गुरमुखि हरि जीउ सदा धिआवहु जब लगु जीअ परान ॥ गुर सबदी मनु निरमलु होआ चूका मनि अभिमानु ॥ सफलु जनमु तिसु प्रानी केरा हरि कै नामि समान ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला ३ ॥ गुरमुखि हरि जीउ सदा धिआवहु जब लगु जीअ परान ॥ गुर सबदी मनु निरमलु होआ चूका मनि अभिमानु ॥ सफलु जनमु तिसु प्रानी केरा हरि कै नामि समान ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। जब लगु = जब तक। जीअ परान = जिंद है और साँसें चल रही हैं। सबदी = शब्द से। निरमलु = पवित्र। चूका = समाप्त हो जाता है। मनि = मन में। केरा = का। कै नामि = के नाम में। समान = समाया रहता है।1।
अर्थ: हे भाई! जब तक प्राण कायम हैं, और साँसें आ रही हैं गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम स्मरण करते रहो। (जो मनुष्य नाम स्मरण करता है, उसका) मन गुरु के शब्द की इनायत से पवित्र हो जाता है, उसके मन में (बसता) अहंकार समाप्त हो जाता है। उस मनुष्य का सारा जीवन कामयाब हो जाता है, वह मनुष्य (सदा) परमात्मा के नाम में लीन हो रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे मन गुर की सिख सुणीजै ॥ हरि का नामु सदा सुखदाता सहजे हरि रसु पीजै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे मन गुर की सिख सुणीजै ॥ हरि का नामु सदा सुखदाता सहजे हरि रसु पीजै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! सिख = शिक्षा। सुणीजै = सुननी चाहिए। सहजे = आत्मिक अडोलता में। पीजै = पीना चाहिए।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! गुरु का (यह) उपदेश (सदा) सुनते रहना चाहिए (कि) परमात्मा का नाम सदा सुख देने वाला है (इस वास्ते) आत्मिक अडोलता में (टिक के) परमात्मा का नाम-जल पीते रहना चाहिए।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूलु पछाणनि तिन निज घरि वासा सहजे ही सुखु होई ॥ गुर कै सबदि कमलु परगासिआ हउमै दुरमति खोई ॥ सभना महि एको सचु वरतै विरला बूझै कोई ॥२॥

मूलम्

मूलु पछाणनि तिन निज घरि वासा सहजे ही सुखु होई ॥ गुर कै सबदि कमलु परगासिआ हउमै दुरमति खोई ॥ सभना महि एको सचु वरतै विरला बूझै कोई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मूलु = जगत का रचनहार। निज घरि = अपने (असल) घर में, प्रभु चरणों में। कै सबदि = के शब्द से। कमलु = हृदय, कमल फूल। परगासिआ = खिल उठता है। दुरमति = खोटी। सचु = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। वरतै = काम कर रहा है, मौजूद है (वृत = to exist)।2।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य जगत के रचनहार के साथ सांझ डालते हैं, उनका निवास प्रभु-चरणों में हुआ रहता है सदा आत्मिक अडोलता में टिके रहने के कारण उनको आत्मिक आनंद मिला रहता है। गुरु के शब्द की इनायत से उनका हृदय खिला रहता है। (उनके अंदर से) अहंकार वाली खोटी मति नाश हो जाती है। हे भाई! (वैसे तो) सभ जीवों में सदा कायम रहने वाला परमात्मा ही मौजूद है, पर कोई विरला मनुष्य (गुरु के शब्द के द्वारा ये बात) समझता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमती मनु निरमलु होआ अम्रितु ततु वखानै ॥ हरि का नामु सदा मनि वसिआ विचि मन ही मनु मानै ॥ सद बलिहारी गुर अपुने विटहु जितु आतम रामु पछानै ॥३॥

मूलम्

गुरमती मनु निरमलु होआ अम्रितु ततु वखानै ॥ हरि का नामु सदा मनि वसिआ विचि मन ही मनु मानै ॥ सद बलिहारी गुर अपुने विटहु जितु आतम रामु पछानै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम। वखानै = उचारता है (एकवचन)। मनि = मन में। विचि मन ही = मन के अंदर ही। मानै = पतीजा रहता है। सद = सदा। विटहु = से। जितु = जिस (गुरु) से। आतम रामु = परमात्मा।3।
अर्थ: हे भाई! गुरु की मति पर चल के (जिस मनुष्य का) मन पवित्र हो जाता है, वह मनुष्य जगत के अस्लियत परमात्मा का आत्मिक जीवन देने वाला नाम जपता रहता है। परमात्मा का नाम सदा उसके मन में टिका रहता है, उसका मन अपने अंदर से ही पतीजा रहता है। वह मनुष्य सदा अपने गुरु से सदके जाता है जिससे वह परमात्मा के साथ सांझ पा लेता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मानस जनमि सतिगुरू न सेविआ बिरथा जनमु गवाइआ ॥ नदरि करे तां सतिगुरु मेले सहजे सहजि समाइआ ॥ नानक नामु मिलै वडिआई पूरै भागि धिआइआ ॥४॥५॥

मूलम्

मानस जनमि सतिगुरू न सेविआ बिरथा जनमु गवाइआ ॥ नदरि करे तां सतिगुरु मेले सहजे सहजि समाइआ ॥ नानक नामु मिलै वडिआई पूरै भागि धिआइआ ॥४॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जनमि = जनम में, जीवन में। बिरथा = वृथा, व्यर्थ। नदरि = मेहर की निगाह। मेले = मिलाता है। सहजे सहजि = हर वक्त आत्मिक अडोलता में। पूरै भागि = बड़ी किस्मत से।4।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने इस मानव-जीवन में गुरु की शरण नहीं ली, उसने अपनी जिंदगी व्यर्थ गवा ली। (पर जीव के भी क्या वश?) जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर की निगाह करता है, उसको गुरु मिलाता है, वह मनुष्य फिर हर वक्त आत्मिक अडोलता में लीन रहता है। हे नानक! जिस मनुष्य को नाम (जपने की) बड़ाई मिल जाती है, वह बड़ी किस्मत से नाम स्मरण करता रहता है।4।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला ३ ॥ आपे भांति बणाए बहु रंगी सिसटि उपाइ प्रभि खेलु कीआ ॥ करि करि वेखै करे कराए सरब जीआ नो रिजकु दीआ ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला ३ ॥ आपे भांति बणाए बहु रंगी सिसटि उपाइ प्रभि खेलु कीआ ॥ करि करि वेखै करे कराए सरब जीआ नो रिजकु दीआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपे = (प्रभु) स्वयं ही। भांति = अनेक किस्मों की। बहु रंगी = अनेक रंगों की। उपाइ = पैदा करके। प्रभि = प्रभु ने। खेलु = जगत तमाशा। करि = कर के। करि करि = (‘खेलु’) रच रच के। कराए = (जीवों से) करवाता है।1।
अर्थ: हे भाई! प्रभु स्वयं ही कई किस्मों की कई रंगों की श्रृष्टि रचता है। सृष्टि रच के प्रभु ने स्वयं ही यह जगत-तमाशा बनाया है। (यह जगत-तमाशा) रच-रच के (स्वयं ही इसकी) संभाल करता है, (सब कुछ आप ही) कर रहा है (जीवों से) करवा रहा है। सभ जीवों को स्वयं ही रिज़क देता आ रहा है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कली काल महि रविआ रामु ॥ घटि घटि पूरि रहिआ प्रभु एको गुरमुखि परगटु हरि हरि नामु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कली काल महि रविआ रामु ॥ घटि घटि पूरि रहिआ प्रभु एको गुरमुखि परगटु हरि हरि नामु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कली काल महि = इस जीवन समय में जो कई बखेड़ों से घिरा हुआ है। कली = झगड़े कष्ट। रविआ = स्मरण किया। घटि घटि = हरेक शरीर में। गुरमुखि = गुरु से।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सिर्फ परमात्मा ही हरेक घट में व्यापक है, पर जिस मनुष्य ने इस बखेड़ों भरे जीवन काल में गुरु की शरण पड़ कर उस राम को स्मरण किया है, उसके अंदर उसका नाम प्रकट हो जाता है (और झगड़े-बखेड़े उस पर प्रभाव नहीं डाल सकते)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुपता नामु वरतै विचि कलजुगि घटि घटि हरि भरपूरि रहिआ ॥ नामु रतनु तिना हिरदै प्रगटिआ जो गुर सरणाई भजि पइआ ॥२॥

मूलम्

गुपता नामु वरतै विचि कलजुगि घटि घटि हरि भरपूरि रहिआ ॥ नामु रतनु तिना हिरदै प्रगटिआ जो गुर सरणाई भजि पइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुपता = छुपा हुआ। विचि = (हरेक जीव के) अंदर। कलजुगि = कलजुग में, बखेड़ों भरे जीवन समय में। घटि घटि = हरेक घट में। हिदरै = हृदय में। भजि पइआ = जल्दी चला गया, भाग लिया।2।
अर्थ: हे भाई! (हरेक शरीर में) परमात्मा का नाम गुप्त (रूप में) मौजूद है, बखेड़ों-झमेलों भरे जीवन काल में (वह स्वयं ही सबके अंदर छुपा हुआ है)। प्रभु हरेक शरीर में व्यापक है। (फिर भी उसका) श्रेष्ठ नाम उन मनुष्यों के हृदय में (ही) प्रकट होता है, जो गुरु की शरण पड़ते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इंद्री पंच पंचे वसि आणै खिमा संतोखु गुरमति पावै ॥ सो धनु धनु हरि जनु वड पूरा जो भै बैरागि हरि गुण गावै ॥३॥

मूलम्

इंद्री पंच पंचे वसि आणै खिमा संतोखु गुरमति पावै ॥ सो धनु धनु हरि जनु वड पूरा जो भै बैरागि हरि गुण गावै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पंचे = पाँच ही। वसि = वश में। आणै = लाता है। खिमा = किसी की ज्यादती को सहने का स्वभाव। धनु धनु = धन्य धन्य, भाग्यशाली। भै = (परमात्मा के) डर अदब में (रह के)। बैरागि = (दुनिया से) उपरामता में।3।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की मति से क्षमा संतोष (आदि गुण) हासिल कर लेता है, जो मनुष्य डर-अदब में रह के वैराग से परमात्मा के गुण गाता है, वह मनुष्य भाग्यशाली है, वह मनुष्य बड़ा है गुणों में पूरन है (यह जो बलवान) पाँच इन्द्रियाँ हैं इन पाँचों को अपने वश में ले आता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर ते मुहु फेरे जे कोई गुर का कहिआ न चिति धरै ॥ करि आचार बहु स्मपउ संचै जो किछु करै सु नरकि परै ॥४॥

मूलम्

गुर ते मुहु फेरे जे कोई गुर का कहिआ न चिति धरै ॥ करि आचार बहु स्मपउ संचै जो किछु करै सु नरकि परै ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। चिति = (अपने) चिक्त में। करि आचार = (कर्मकांड के) कर्म कर के। संपउ = धन। संचे = इकट्ठा करता है। नरकि = नर्क में, दुख में। परै = पड़ा रहता है।4।
अर्थ: पर, हे भाई! अगर कोई मनुष्य गुरु से मुँह फेर के रखता है, गुरु के वचन अपने मन में नहीं बसाता, (वैसे तीर्थ-यात्रा आदि निहित हुए) धार्मिक कर्म कर के बहुत धन भी इकट्ठा कर लेता है, (फिर भी) वह जो कुछ करता है (वह करते हुए) नर्क में ही पड़ा रहता है (सदा दुखी ही रहता है)।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एको सबदु एको प्रभु वरतै सभ एकसु ते उतपति चलै ॥ नानक गुरमुखि मेलि मिलाए गुरमुखि हरि हरि जाइ रलै ॥५॥६॥

मूलम्

एको सबदु एको प्रभु वरतै सभ एकसु ते उतपति चलै ॥ नानक गुरमुखि मेलि मिलाए गुरमुखि हरि हरि जाइ रलै ॥५॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: एको = एक ही। सबदु = (परमात्मा का) हुक्म। वरतै = चल रहा है। एकसु ते = एक परमात्मा से ही। गुरमुखि = गुरु से।5।
अर्थ: हे भाई! (जीवों के भी कया वश?) एक परमात्मा ही (सारे जगत में) मौजूद है, (परमात्मा का ही) हुक्म चल रहा है। एक परमात्मा से ही सारी सृष्टि की कार चल रही है। हे नानक! गुरु की शरण में ला के प्रभु स्वयं ही जिस जीव को अपने साथ मिलाता है, वह जीव गुरु के माध्यम से परमात्मा में जा मिलता है।5।6।

[[1335]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला ३ ॥ मेरे मन गुरु अपणा सालाहि ॥ पूरा भागु होवै मुखि मसतकि सदा हरि के गुण गाहि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

प्रभाती महला ३ ॥ मेरे मन गुरु अपणा सालाहि ॥ पूरा भागु होवै मुखि मसतकि सदा हरि के गुण गाहि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! सालाहि = उपमा किया कर, बड़ाई किया कर। भागु = भाग्य। मुखि = मुँह पर। मसतकि = माथे पर। गाहि = डुबकी लगाया कर। गुण गाहि = गुणों में डुबकी लगाया कर।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! (सदा) अपने गुरु की शोभा किया कर, (गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा के गुणों में डुबकी लगाया कर। तेरे माथे पर पूरी किस्मत जाग उठेगी।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अम्रित नामु भोजनु हरि देइ ॥ कोटि मधे कोई विरला लेइ ॥ जिस नो अपणी नदरि करेइ ॥१॥

मूलम्

अम्रित नामु भोजनु हरि देइ ॥ कोटि मधे कोई विरला लेइ ॥ जिस नो अपणी नदरि करेइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। देइ = देता है। कोटि मधे = करोड़ों में से। लेइ = लेता है। नदरि = मेहर की निगाह। करेइ = करता है।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा अपनी मेहर की निगाह करता है, (उसको उसकी जिंद के लिए) खुराक (अपना) आत्मिक जीवन देने वाला नाम बख्शता है, (पर) करोड़ों में से कोई विरला मनुष्य ही (यह दाति) हासिल करता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर के चरण मन माहि वसाइ ॥ दुखु अन्हेरा अंदरहु जाइ ॥ आपे साचा लए मिलाइ ॥२॥

मूलम्

गुर के चरण मन माहि वसाइ ॥ दुखु अन्हेरा अंदरहु जाइ ॥ आपे साचा लए मिलाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वसाइ = बसाए रख। जाइ = दूर हो जाता है। अनेरा = अंधेरा, आत्मिक जीवन से बेसमझी का अंधेरा। आपे = स्वयं ही। साचा = सदा कायम रहने वाला प्रभु।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु के (सुंदर) चरण (अपने) मन में टिकाए रख (इस तरह) मन में से (हरेक) दुख दूर हो जाता है, (आत्मिक जीवन का) बेसमझी का (अज्ञानता भरा) अंधेरा हट जाता है (और) सदा कायम रहने वाला (प्रभु) स्वयं ही (जीव को अपने साथ) मिला लेता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर की बाणी सिउ लाइ पिआरु ॥ ऐथै ओथै एहु अधारु ॥ आपे देवै सिरजनहारु ॥३॥

मूलम्

गुर की बाणी सिउ लाइ पिआरु ॥ ऐथै ओथै एहु अधारु ॥ आपे देवै सिरजनहारु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिउ = साथ। ऐथै = इस लोक में। ओथै = परलोक में। अधारु = (जिंदगी का) आसरा।3।
अर्थ: हे भाई! सतिगुरु की वाणी से प्यार जोड़। (यह वाणी ही) इस लोक और परलोक में (जिंदगी का) आसरा है (पर यह दाति) जगत को पैदा करने वाला प्रभु स्वयं ही देता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचा मनाए अपणा भाणा ॥ सोई भगतु सुघड़ु सुोजाणा ॥ नानकु तिस कै सद कुरबाणा ॥४॥७॥१७॥७॥२४॥

मूलम्

सचा मनाए अपणा भाणा ॥ सोई भगतु सुघड़ु सुोजाणा ॥ नानकु तिस कै सद कुरबाणा ॥४॥७॥१७॥७॥२४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भाणा = रज़ा, मर्जी। मनाए = मानने के लिए मदद करता है। सुघड़ु = सुंदर मानसिक घाड़त वाला, कुशलता वाला। सुोजाणा = समझदार। तिस कै = उस से। सद = सदा।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘सुोजाणा’ में अक्षर ‘स’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘सुजाणा’, यहां ‘सोजाणा’ पढ़ना है। ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कै’ के कारण हटा दी गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! सदा-स्थिर रहने वाला परमात्मा (गुरु की शरण में डाल के) अपनी रज़ा मीठी कर के मानने के लिए (मनुष्य की) सहायता करता है। (जो मनुष्य रज़ा को मान लेता है) वही है सुंदर-सदाचारी-समझदार भक्त। (ऐसे मनुष्य से) नानक सदा सदके जाता है।4।7।17।7।24।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला ४ बिभास ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

प्रभाती महला ४ बिभास ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रसकि रसकि गुन गावह गुरमति लिव उनमनि नामि लगान ॥ अम्रितु रसु पीआ गुर सबदी हम नाम विटहु कुरबान ॥१॥

मूलम्

रसकि रसकि गुन गावह गुरमति लिव उनमनि नामि लगान ॥ अम्रितु रसु पीआ गुर सबदी हम नाम विटहु कुरबान ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रसकि = स्वाद से। रसकि सरकि = बार बार स्वाद से। गावह = आओ हम गाया करें। उनमनि = (प्रभु मिलाप की) तमन्ना में। नामि = नाम में। लगान = लग जाती है। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। विटहु = से।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु की मति पर चल के, आओ हम बार-बार स्वाद से परमात्मा के गुण गाया करें, (इस तरह) परमात्मा के नाम में लगन लग जाती है (प्रभु मिलाप की) तमन्ना में तवज्जो टिकी रहती है। हे भाई! गुरु के शब्द की इनायत से आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पीया जा सकता है। हे भाई! मैं तो परमात्मा के नाम से सदके जाता हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हमरे जगजीवन हरि प्रान ॥ हरि ऊतमु रिद अंतरि भाइओ गुरि मंतु दीओ हरि कान ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हमरे जगजीवन हरि प्रान ॥ हरि ऊतमु रिद अंतरि भाइओ गुरि मंतु दीओ हरि कान ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जगजीवन हरि = जगत के जीवन प्रभु जी। प्रान = जिंद जान। रिद = हृदय। भाइआ = प्यारा लग जाता है। गुरि = गुरु ने। मंतु = उपदेश। कान = कानों में!। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जगत के जीवन प्रभु जी ही हम जीवों की जिंद-जान हैं (फिर भी हम जीवों को यह समझ नहीं आती)। (जिस मनुष्य के) कानों में गुरु ने हरि-नाम का उपदेश दे दिया, उस मनुष्य को उत्तम हरि (अपने) हृदय में प्यारा लगने लग जाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आवहु संत मिलहु मेरे भाई मिलि हरि हरि नामु वखान ॥ कितु बिधि किउ पाईऐ प्रभु अपुना मो कउ करहु उपदेसु हरि दान ॥२॥

मूलम्

आवहु संत मिलहु मेरे भाई मिलि हरि हरि नामु वखान ॥ कितु बिधि किउ पाईऐ प्रभु अपुना मो कउ करहु उपदेसु हरि दान ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संत = हे संत जनो! भाई = हे भाईयो! मिलि = मिल के। वखान = उचारें। कितु = किस से? कितु बिधि = किसी बिधि से? किउ = कैसे? मो कउ = मुझे।2।
अर्थ: हे संत जनो! हे मेरे भाईयो! आओ, मिल बैठो। मिल के परमात्मा का नाम जपें। हे संत जनो! प्रभु-मिलाप का उपदेश मुझे बतौर दान देवो (और मुझे बताओ कि) प्यारा प्रभु कैसे किस ढंग से मिल सकता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतसंगति महि हरि हरि वसिआ मिलि संगति हरि गुन जान ॥ वडै भागि सतसंगति पाई गुरु सतिगुरु परसि भगवान ॥३॥

मूलम्

सतसंगति महि हरि हरि वसिआ मिलि संगति हरि गुन जान ॥ वडै भागि सतसंगति पाई गुरु सतिगुरु परसि भगवान ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि गुन जान = प्रभु के गुणों के साथ सांझ बनती है। भागि = किस्मत से। परसि = छू के।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा साधु-संगत में सदा बसता है। साधु-संगत में मिल के परमात्मा के गुणों की सांझ पड़ सकती है। जिसको बड़ी किस्मत से साधु-संगत प्राप्त हो गई, उसने गुरु सतिगुरु (के चरण) छूह के भगवान (का मिलाप हासिल कर लिया)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुन गावह प्रभ अगम ठाकुर के गुन गाइ रहे हैरान ॥ जन नानक कउ गुरि किरपा धारी हरि नामु दीओ खिन दान ॥४॥१॥

मूलम्

गुन गावह प्रभ अगम ठाकुर के गुन गाइ रहे हैरान ॥ जन नानक कउ गुरि किरपा धारी हरि नामु दीओ खिन दान ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गावह = आओ हम गाएँ। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। गाइ = गा के। हैरान = विस्माद अवस्था में। गुरि = गुरु ने।4।
अर्थ: हे भाई! आओ, अगम्य (पहुँच से परे) ठाकुर प्रभु के गुण गाया करें। उसके गुण गा-गा के (उसकी बड़ाई आँखों के सामने ला-ला के) हैरत में गुंम हुआ जाता है। हे नानक! जिस दास पर गुरु ने मेहर की, उसको (गुरु ने) एक छिन में परमात्मा का नाम दान दे दिया।4।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला ४ ॥ उगवै सूरु गुरमुखि हरि बोलहि सभ रैनि सम्हालहि हरि गाल ॥ हमरै प्रभि हम लोच लगाई हम करह प्रभू हरि भाल ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला ४ ॥ उगवै सूरु गुरमुखि हरि बोलहि सभ रैनि सम्हालहि हरि गाल ॥ हमरै प्रभि हम लोच लगाई हम करह प्रभू हरि भाल ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सूरु = सूरज। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। बोलहि = बोलते हैं। रैनि = रात। समालहि = संभालते हें, याद करते हें। हरि गाल = हरि की (महिमा की) बातें। हमरै प्रभि = हमारे प्रभु ने, मेरे प्रभु ने। लोच = तमन्ना। हम = मुझे, हमें। हम करह = हम करते हैं, मैं करता हूं। भाल = तलाश।1।
अर्थ: हे भाई! (जब) सूर्य उदय होता है गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य परमात्मा का नाम जपने लग जाते हैं, सारी रात भी वे परमात्मा की महिमा की बातें ही करते हैं। मेरे प्रभु ने भी मेरे अंदर ये लगन पैदा कर दी है, (इसलिए) मैं भी प्रभु की तलाश करता रहता हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरा मनु साधू धूरि रवाल ॥ हरि हरि नामु द्रिड़ाइओ गुरि मीठा गुर पग झारह हम बाल ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरा मनु साधू धूरि रवाल ॥ हरि हरि नामु द्रिड़ाइओ गुरि मीठा गुर पग झारह हम बाल ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साधू = गुरु। रवाल = चरण धूल। द्रिढ़ाइओ = हृदय में पक्का कर दिया है। गुरि = गुरु ने। गुर पग = गुरु के पैर। झारह हम = हम झाड़ते हैं। बाल = केसों से।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु ने परमात्मा का मीठा नाम मेरे हृदय में पक्का कर दिया है। मैं (अपने) केसों से गुरु के चरण झाड़ता हूं। मेरा मन गुरु के चरणों की धूल हुआ रहता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साकत कउ दिनु रैनि अंधारी मोहि फाथे माइआ जाल ॥ खिनु पलु हरि प्रभु रिदै न वसिओ रिनि बाधे बहु बिधि बाल ॥२॥

मूलम्

साकत कउ दिनु रैनि अंधारी मोहि फाथे माइआ जाल ॥ खिनु पलु हरि प्रभु रिदै न वसिओ रिनि बाधे बहु बिधि बाल ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साकत कउ = प्रभु से टूटे हुए लोगों को। अंधारी = अंधेरी। मोहि = मोह में। जाल = फंदे। रिदै = हृदय में। रिनि = कर्जे से (ऋण = करज़ा)। बाल बाधे = बाल बाल बचे रहते हैं।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा से टूटे हुए मनुष्यों के लिए (सारा) दिन (सारी) रात घोर अंधेरा होता है, (क्योंकि वह) माया के मोह में, माया (के मोह) के फंदों में फसे रहते हैं। उनके हृदय में परमात्मा एक छिन भर भी एक पल भर भी नहीं बसता। वह कई तरीकों से (विकारों के) करज़े में बाल-बाल बँधे रहते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतसंगति मिलि मति बुधि पाई हउ छूटे ममता जाल ॥ हरि नामा हरि मीठ लगाना गुरि कीए सबदि निहाल ॥३॥

मूलम्

सतसंगति मिलि मति बुधि पाई हउ छूटे ममता जाल ॥ हरि नामा हरि मीठ लगाना गुरि कीए सबदि निहाल ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिलि = मिल के। हउ = अहंकार। ममता जाल = अपनत्व के फंदे। गुरि = गुरु ने। सबदि = शब्द से। निहाल = प्रसन्न, शांत।3।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने साधु-संगत में मिल के (ऊँची) मति (ऊँची) बुद्धि प्राप्त कर ली, (उनके अंदर से) अहंकार समाप्त हो जाता है, माया के मोह के फंदे टूट जाते हैं। उनको प्रभु का नाम प्यारा लगने लग जाता है। गुरु ने (उनको अपने) शब्द की इनायत से निहाल कर दिया होता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम बारिक गुर अगम गुसाई गुर करि किरपा प्रतिपाल ॥ बिखु भउजल डुबदे काढि लेहु प्रभ गुर नानक बाल गुपाल ॥४॥२॥

मूलम्

हम बारिक गुर अगम गुसाई गुर करि किरपा प्रतिपाल ॥ बिखु भउजल डुबदे काढि लेहु प्रभ गुर नानक बाल गुपाल ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हम = हम जीव। बारिक = बच्चे। गुर = बड़ा। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। गुसाई = धरती का पति। (गो = धरती। सांई = पति)। गुर = हे गुरु! प्रतिपाल = रक्षा कर। बिखु = आत्मिक मौत लाने वाला जहर। भउजल = संसार समुंदर। प्रभ = हे प्रभु! गुपाल = हे गुपाल! हे सृष्टि के रखवाले!।4।
अर्थ: हे गुरु! हे अगम्य (पहुँच से परे) मालिक! हम जीव तेरे (अंजान) बच्चे हैं। हे गुरु! मेहर कर, हमारी रक्षा कर। हे नानक! (कह:) हे गुरु! हे प्रभु! हे धरती के रखवाले! ळम तेरे (अंजान) बच्चे हैं, आत्मिक मौत लाने वाली माया के मोह के समुंदर में हम डूबते हुओं को बचा ले।4।2।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला ४ ॥ इकु खिनु हरि प्रभि किरपा धारी गुन गाए रसक रसीक ॥ गावत सुनत दोऊ भए मुकते जिना गुरमुखि खिनु हरि पीक ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला ४ ॥ इकु खिनु हरि प्रभि किरपा धारी गुन गाए रसक रसीक ॥ गावत सुनत दोऊ भए मुकते जिना गुरमुखि खिनु हरि पीक ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु के। रसक रसीक = हरि नाम के रस के रसीआ ने। दोऊ = दोनों ही। मुकते = विकारों से बचे हुए। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। हरि पीक = हरि नाम रस पीता है।1।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्यों पर) प्रभु ने एक छिन भर भी मेहर की, उन्होंने नाम-रस के रसिए बन के परमात्मा के गुण गाने शुरू कर दिए। हे भाई! जिस मनुष्यों ने गुरु की शरण पडत्र कर छिन-छिन हरि-नाम-रस पीना शुरू कर दिया, वह हरि-गुण गाने वाले और सुनने वाले दोनों ही विकारों से बच गए।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरै मनि हरि हरि राम नामु रसु टीक ॥ गुरमुखि नामु सीतल जलु पाइआ हरि हरि नामु पीआ रसु झीक ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरै मनि हरि हरि राम नामु रसु टीक ॥ गुरमुखि नामु सीतल जलु पाइआ हरि हरि नामु पीआ रसु झीक ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मेरै मनि = मेरे मनि में। टीक = टिका हुआ है। गुरमुखि = गुरु से। सीतल = ठंढा। हरि रसु = हरि नाम रस। झीक = डीक लगा के।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (गुरु की कृपा से) मेरे मन में हर वक्त परमात्मा का नाम-रस टिका रहता है। (जिस मनुष्य को) गुरु के सन्मुख हो के (आत्मिक) ठंढ डालने वाला नाम-जल मिल जाता है, वह मनुष्य परमात्मा का नाम-रस डीक लगा के पीता रहता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन हरि हिरदै प्रीति लगानी तिना मसतकि ऊजल टीक ॥ हरि जन सोभा सभ जग ऊपरि जिउ विचि उडवा ससि कीक ॥२॥

मूलम्

जिन हरि हिरदै प्रीति लगानी तिना मसतकि ऊजल टीक ॥ हरि जन सोभा सभ जग ऊपरि जिउ विचि उडवा ससि कीक ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिन हिरदै = जिस के हृदय में। मसतकि = माथे पर। टीक = टीका। ऊजल = रौशन, चमकता। ऊपरि = ऊपर। उडवा = तारे। ससि = चंद्रमा। कीक = किया हुआ है।2।
अर्थ: हे भाई! (गुरु ने) जिस मनुष्यों के हृदय में परमात्मा का प्यार पैदा कर दिया (लोक-परलोक में) उनके माथे पर (शोभा का) रौशन टीका लगा रहता है। हे भाई! परमात्मा के भक्तों की शोभा सारे जहान में बिखर जाती है; जैसे (आकाश के) तारों में चँद्रमा (सुंदर) बनाया हुआ है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन हरि हिरदै नामु न वसिओ तिन सभि कारज फीक ॥ जैसे सीगारु करै देह मानुख नाम बिना नकटे नक कीक ॥३॥

मूलम्

जिन हरि हिरदै नामु न वसिओ तिन सभि कारज फीक ॥ जैसे सीगारु करै देह मानुख नाम बिना नकटे नक कीक ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभि = सारे। फीक = फीके, कोरे, रूखे, बेस्वादे। सीगारु = सजावट। देह = शरीर। करै = करता है (एकवचन)। नकटे = नाक कटे। कीक = क्या?।3।
अर्थ: पर, हे भाई! जिस मनुष्यों के हृदय में परमात्मा का नाम नहीं बसता, उनके (दुनियावी) सारे ही काम फीके होते हैं (उनके जीवन को रूखा बनाए रखते हैं), जैसे (कोई नाक-कटा मनुष्य अपने) मनुष्य शरीर की सजावट करता है, पर नाक के बिना (‘बिना नाक’ के) वह सजावट किस अर्थ? परमात्मा के नाम के बिना मनुष्य नाक-कटे ही हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घटि घटि रमईआ रमत राम राइ सभ वरतै सभ महि ईक ॥ जन नानक कउ हरि किरपा धारी गुर बचन धिआइओ घरी मीक ॥४॥३॥

मूलम्

घटि घटि रमईआ रमत राम राइ सभ वरतै सभ महि ईक ॥ जन नानक कउ हरि किरपा धारी गुर बचन धिआइओ घरी मीक ॥४॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घटि घटि = हरेक शरीर में। रमईआ = सुंदर राम। रमता = व्यापक है। राम राइ = प्रभु पातशाह। सभ वरतै = सारी सृष्टि में मौजूद है। ईक = एक स्वयं ही। कउ = को, के ऊपर। गुर बचन = गुरु के वचनों से (बहुवचन)। घरी मीक = एक घड़ी।4।
अर्थ: हे भाई! (वैसे तो) सुंदर राम प्रभु पातशाह हरेक शरीर में व्यापक है, सारी सृष्टि में सारे जीवों में वह स्वयं ही मौजूद है, (पर), हे नानक! जिस सेवकों पर उसने मेहर की, वह गुरु के चरणों पर चल के घड़ी-घड़ी (हर वक्त) उसका नाम स्मरण करने लग पड़े।4।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला ४ ॥ अगम दइआल क्रिपा प्रभि धारी मुखि हरि हरि नामु हम कहे ॥ पतित पावन हरि नामु धिआइओ सभि किलबिख पाप लहे ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला ४ ॥ अगम दइआल क्रिपा प्रभि धारी मुखि हरि हरि नामु हम कहे ॥ पतित पावन हरि नामु धिआइओ सभि किलबिख पाप लहे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। प्रभि = प्रभु ने। मुखि = मुँह से। हम = हम जीवों ने। कहे = उचारा। पतित = पापों में गिरे हुए। पतित पावन = विकारों को पवित्र करने वाला। सभि = सारे। किलबिख = पाप।1।
अर्थ: हे भाई! अगम्य (पहुँच से परे) और दया के श्रोत प्रभु ने (जब हम जीवों पर) मेहर की, तब हमने मुँह से उसका नाम जपा। हे भाई! जिस मनुष्यों ने पापियों को पवित्र करने वाले परमात्मा का नाम स्मरण किया, उनके सारे ही पाप दूर हो गए।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जपि मन राम नामु रवि रहे ॥ दीन दइआलु दुख भंजनु गाइओ गुरमति नामु पदारथु लहे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जपि मन राम नामु रवि रहे ॥ दीन दइआलु दुख भंजनु गाइओ गुरमति नामु पदारथु लहे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जपि = जपा कर। मन = हे मन! रवि रहे = (जो सब जगह) व्यापक है। दुख भंजनु = दुखों का नाश करने वाला प्रभु। पदारथु = कीमती वस्तु। लहे = पा लिया है।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! जो परमात्मा सबमें व्यापक है उसका नाम जपा कर। जिस मनुष्य ने दीनों पर दया करने वाले दुखों का नाश करने वाले परमात्मा की महिमा की, गुरु की मति से उसने बहु-मूल्य हरि-नाम पा लिया।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काइआ नगरि नगरि हरि बसिओ मति गुरमति हरि हरि सहे ॥ सरीरि सरोवरि नामु हरि प्रगटिओ घरि मंदरि हरि प्रभु लहे ॥२॥

मूलम्

काइआ नगरि नगरि हरि बसिओ मति गुरमति हरि हरि सहे ॥ सरीरि सरोवरि नामु हरि प्रगटिओ घरि मंदरि हरि प्रभु लहे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नगरि = नगर में। नगरि नगरि = हरेक नगर में। सहे = सही किया, निश्चय लाए। सरोवरि = सरोवर में। घरि = (हृदय) घर में। मंदरि = (शरीर-) मन्दिर में। लहे = पा लिया।2।
अर्थ: हे भाई! (वेसे तो) हरेक शरीर-शहर में परमात्मा बसता है, पर गुरु की मति की इनायत से ही यह निश्चय बनता है। जिस शरीर-सरोवर में परमात्मा का नाम प्रकट होता है, उस हृदय-घर में परमात्मा मिल जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो नर भरमि भरमि उदिआने ते साकत मूड़ मुहे ॥ जिउ म्रिग नाभि बसै बासु बसना भ्रमि भ्रमिओ झार गहे ॥३॥

मूलम्

जो नर भरमि भरमि उदिआने ते साकत मूड़ मुहे ॥ जिउ म्रिग नाभि बसै बासु बसना भ्रमि भ्रमिओ झार गहे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भरमि भरमि = भटक भटक के। उदिआने = (संसार-) जंगल में। ते = वह (बहुवचन)। साकत = परमात्मा से टूटे हुए। मूढ़ = मूर्ख। मुहे = ठगे गए। म्रिग नाभि = हिरन की नाभि में। बासु = कस्तूरी। भ्रमि भ्रमिओ = भटकता फिरा। झार = झाड़ियां। गहे = पकड़ता है, ढूँढता है।3।
अर्थ: पर, हे भाई! जो मनुष्य (माया की खातिर ही इस संसार) जंगल में भटक के (उम्र गुजारते हैं) वे मनुष्य परमात्मा से टूटे रहते हैं, (वह अपना आत्मिक जीवन) लुटा बैठते हैं; जैसे कस्तूरी की सुगंधि (तो) हिरन की नाभि में बसती है, पर वह (बाहर भटक- भटक के) झाड़ियाँ सूँघता फिरता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुम वड अगम अगाधि बोधि प्रभ मति देवहु हरि प्रभ लहे ॥ जन नानक कउ गुरि हाथु सिरि धरिओ हरि राम नामि रवि रहे ॥४॥४॥

मूलम्

तुम वड अगम अगाधि बोधि प्रभ मति देवहु हरि प्रभ लहे ॥ जन नानक कउ गुरि हाथु सिरि धरिओ हरि राम नामि रवि रहे ॥४॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अगाधि बोधि = बोध में अगाध, मनुष्य की समझ से परे। प्रभ = हे प्रभु! लहे = पा सकें। गुरि = गुरु ने। सिरि = सिर पर। नामि = नाम में। रवि रहे = लीन हो गए।4।
अर्थ: हे हरि! हे प्रभु! तू बहुत अगम्य (पहुँच से परे) है, तू जीवों की समझ से परे है। यदि तू स्वयं ही बुद्धि बख्शे, तब ही तुझे जीव मिल सकते हैं। हे नानक! जिस सेवक के सिर पर गुरु ने (अपना मेहर भरा) हाथ रखा वह मनुष्य सदा परमात्मा के नाम में लीन रहता है।4।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला ४ ॥ मनि लागी प्रीति राम नाम हरि हरि जपिओ हरि प्रभु वडफा ॥ सतिगुर बचन सुखाने हीअरै हरि धारी हरि प्रभ क्रिपफा ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला ४ ॥ मनि लागी प्रीति राम नाम हरि हरि जपिओ हरि प्रभु वडफा ॥ सतिगुर बचन सुखाने हीअरै हरि धारी हरि प्रभ क्रिपफा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। वडफा = बड़ा। सुखाने = प्यारे लगे। हीअरै = हृदय में। क्रिपफा = कृपा।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर हरि-प्रभु ने मेहर की, उसके हृदय में गुरु के वचन प्यारे लगने लगे, उसके मन में परमात्मा के नाम की प्रीति पैदा हो गई, उसने सबसे बड़े हरि-प्रभु का नाम जपना शुरू कर दिया।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे मन भजु राम नाम हरि निमखफा ॥ हरि हरि दानु दीओ गुरि पूरै हरि नामा मनि तनि बसफा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे मन भजु राम नाम हरि निमखफा ॥ हरि हरि दानु दीओ गुरि पूरै हरि नामा मनि तनि बसफा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! निमखफा = हर निमख (आँख झपकने जितना समय)। गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। मनि = मन में। तनि = तन में। बसफा = बस गया।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम हर निमख (हर वक्त) जपा कर। जिस मनुष्य को पूरे गुरु ने परमातमा का नाम जपने की दाति दे दी, उसके मन में उसके हृदय में हरि-नाम बस पड़ा।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काइआ नगरि वसिओ घरि मंदरि जपि सोभा गुरमुखि करपफा ॥ हलति पलति जन भए सुहेले मुख ऊजल गुरमुखि तरफा ॥२॥

मूलम्

काइआ नगरि वसिओ घरि मंदरि जपि सोभा गुरमुखि करपफा ॥ हलति पलति जन भए सुहेले मुख ऊजल गुरमुखि तरफा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काइआ = काया, शरीर। नगरि = नगर में। घरि = (हृदय) घर में। मंदरि = मन्दिर में। जपि = जप के। करपफा = करते हैं। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में (परत्र)। सुहेले = सुखी। ऊजल = रौशन। तरफा = तैरते हैं।2।
अर्थ: हे भाई! (वैसे तो) हरेक शरीर-नगर में, शरीर-घर में, शरीर-मन्दिर में परमात्मा बसता है, पर गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य (ही उसका नाम) जप के उसकी महिमा करते हैं। प्रभु के सेवक इस लोक में परलोक में (नाम की इनायत से) सुखी रहते हैं, उनके मुख (लोक-परलोक में) रौशन रहते हें, वह (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनभउ हरि हरि हरि लिव लागी हरि उर धारिओ गुरि निमखफा ॥ कोटि कोटि के दोख सभ जन के हरि दूरि कीए इक पलफा ॥३॥

मूलम्

अनभउ हरि हरि हरि लिव लागी हरि उर धारिओ गुरि निमखफा ॥ कोटि कोटि के दोख सभ जन के हरि दूरि कीए इक पलफा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनभउ = जिसको कोई डर छू नहीं सकता। उर = हृदय। उरधारिओ = हृदय में बसाया। गुरि = गुरु से। कोटि = करोड़ों। कोटि कोटि के = करोड़ों (जन्मों) के। दोख = ऐब, पाप। पलफा = पल में।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा पर कोई डर-भय प्रभाव नहीं डाल सकता। गुरु से जिस मनुष्य ने उस परमात्मा में तवज्जो जोड़ी, उस परमात्मा को एक निमख वास्ते भी हृदय में बसाया, परमात्मा ने उस सेवक के करोड़ों जन्मों के पाप एक पल में दूर कर दिए।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुमरे जन तुम ही ते जाने प्रभ जानिओ जन ते मुखफा ॥ हरि हरि आपु धरिओ हरि जन महि जन नानकु हरि प्रभु इकफा ॥४॥५॥

मूलम्

तुमरे जन तुम ही ते जाने प्रभ जानिओ जन ते मुखफा ॥ हरि हरि आपु धरिओ हरि जन महि जन नानकु हरि प्रभु इकफा ॥४॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तुम ही ते = तुझसे ही, तेरी ही मेहर से। जाने = प्रकट होते हैं। प्रभ = हे प्रभु! जानिओ = (जिन्होंने तुझे) जाना, तेरे साथ सांझ डाली। जन ते = ते जन, वे मनुष्य (बहुवचन)। मुखफा = मुखी, इज्जत वाले। आपु = अपना आप। जन नानकु = (प्रभु का) दास (गुरु) नानक (है)। इकफा = एक रूप।4।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे भक्त तेरी ही मेहर से (जगत में) प्रकट होते हें। हे प्रभु! जिन्होंने तेरे साथ सांझ डाली, वह सेवक इज्जत वाले हो जाते हैं। हे भाई! परमात्मा ने अपना आप अपने भक्तों के अंदर रखा होता है। (तभी, हे भाई! परमात्मा का) सेवक (गुरु) नानक और हरि-प्रभु एक-रूप है।4।5।

[[1337]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला ४ ॥ गुर सतिगुरि नामु द्रिड़ाइओ हरि हरि हम मुए जीवे हरि जपिभा ॥ धनु धंनु गुरू गुरु सतिगुरु पूरा बिखु डुबदे बाह देइ कढिभा ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला ४ ॥ गुर सतिगुरि नामु द्रिड़ाइओ हरि हरि हम मुए जीवे हरि जपिभा ॥ धनु धंनु गुरू गुरु सतिगुरु पूरा बिखु डुबदे बाह देइ कढिभा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुरि = सतिगुरु ने। द्रिढ़ाइओ = (हृदय में) पक्का कर दिया। मूए = (पहले) आत्मिक मौत मरे हुए। जीवे = जी पड़े, आत्मिक जीवन वाले हो गए। जपिभा = जपि, जप के। धनु धंनु = सलाहने योगय। बिखु डुबदे = आत्मिक मौत लाने वाली जहर (के समुंदर) में डूबते को। देइ = दे के। कढिभा = निकाल लिया।1।
अर्थ: हे भाई! हम जीव आत्मिक मौत मरे रहते हैं। सतिगुरु ने जब हमारे दिल में परमात्मा का नाम दृढ़ कर दिया तब हरि-नाम जप के हम आत्मिक जीवन हासिल कर लेते हैं। हे भाई! पूरा गुरु धन्य है, गुरु सराहनीय है। (आत्मिक मौत लाने वाली माया के मोह के) विषौले समुंदर में डूबते हुए को गुरु (अपनी) बाँह पकड़ा के निकाल लेता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जपि मन राम नामु अरधांभा ॥ उपज्मपि उपाइ न पाईऐ कतहू गुरि पूरै हरि प्रभु लाभा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जपि मन राम नामु अरधांभा ॥ उपज्मपि उपाइ न पाईऐ कतहू गुरि पूरै हरि प्रभु लाभा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जपि = जपा कर। मन = हे मन! अरधांभा = आराधने योग्य। उपजंपि = उपजाप (Secret whispering into ears = कान में कोई गुप्त मंत्र देना) कान में कोई गुप्त मंत्र देने से। उपाइ = (शब्द ‘उपाउ’ से करण कारक) तरीके से। गुरि पूरै = पूरे गुरु से।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा का नाम जपा कर; (यह नाम) जपने योग्य है। कानों में कोई गुप्त मंत्र देने आदि के ढंग से कभी भी परमात्मा नहीं मिलता। पूरे गुरु से (नाम ज पके ही) परमात्मा मिलता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम नामु रसु राम रसाइणु रसु पीआ गुरमति रसभा ॥ लोह मनूर कंचनु मिलि संगति हरि उर धारिओ गुरि हरिभा ॥२॥

मूलम्

राम नामु रसु राम रसाइणु रसु पीआ गुरमति रसभा ॥ लोह मनूर कंचनु मिलि संगति हरि उर धारिओ गुरि हरिभा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रसाइणु = (रस+आयन) रसों का घर, सब रसों से श्रेष्ठ। रसभा = रस से। मनूर = जला हुआ लोहा। कंचनु = सोना। मिलि = मिल के। उरधारिओ = हृदय में बसा दिया। गुरि = गुरु ने। हरिभा = हरि की ज्योति।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम-रस (दुनिया के अन्य सभी) रसों का घर है (सब रसों से श्रेष्ठ है, पर) यह नाम-रस गुरमति के रस से ही पीया जा सकता है। जला हुआ लोहा (पारस को मिल के) सोना (हो जाता है, वैसे) संगति में मिल के (मनुष्य) परमात्मा का नाम-रस (अपने) हृदय में बसा लेता है, गुरु से ही ईश्वरीय ज्योति उसके अंदर प्रकट हो जाती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउमै बिखिआ नित लोभि लुभाने पुत कलत मोहि लुभिभा ॥ तिन पग संत न सेवे कबहू ते मनमुख भू्मभर भरभा ॥३॥

मूलम्

हउमै बिखिआ नित लोभि लुभाने पुत कलत मोहि लुभिभा ॥ तिन पग संत न सेवे कबहू ते मनमुख भू्मभर भरभा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिखिआ = माया। बिखिआ लोभि = माया के लोभ में। कलत = स्त्री। मोहि = मोह में। पग संत = संत जनों के चरण। ते मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले वह मनुष्य। भूंभर = भुंबल; धुखती आग, गर्म राख। भूंभर भरभा = गर्म राख में लिबड़े हुए।3।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य अहंकार में ग्रसे रहते हैं, माया के लोभ में सदा फसे रहते हैं, पुत्र स्त्री के मोह में घिरे रहते हैं, उन्होंने कभी संत-जनों के चरण नहीं छूए होते, अपने मन के पीछे चलने वाले उन मनुष्यों के अंदर (तृष्णा की) आग धुखती रहती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुमरे गुन तुम ही प्रभ जानहु हम परे हारि तुम सरनभा ॥ जिउ जानहु तिउ राखहु सुआमी जन नानकु दासु तुमनभा ॥४॥६॥

मूलम्

तुमरे गुन तुम ही प्रभ जानहु हम परे हारि तुम सरनभा ॥ जिउ जानहु तिउ राखहु सुआमी जन नानकु दासु तुमनभा ॥४॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

छका १ ॥

मूलम्

छका १ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! हारि = हार के; औरों से आस उतार के। सुआमी = हे सवामी! तुमनभा = तेरा।4।
अर्थ: हे प्रभु! अपने गुण तू स्वयं ही जानता है। हम जीव (और सब तरफ से) हार के तेरी ही शरण आ पड़ते हैं। हे स्वामी! जैसे भी हो सके, मेरी रक्षा कर (मैं) नानक तेरा ही दास हूँ।4।6। छका1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती बिभास पड़ताल महला ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

प्रभाती बिभास पड़ताल महला ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जपि मन हरि हरि नामु निधान ॥ हरि दरगह पावहि मान ॥ जिनि जपिआ ते पारि परान ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जपि मन हरि हरि नामु निधान ॥ हरि दरगह पावहि मान ॥ जिनि जपिआ ते पारि परान ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पडताल = इस शब्द को गाने के वक्त ताल बार बार पलटना है। जपि = जपा कर। मन = हे मन! निधान = खजाना। पावहि = तू हासिल करेगा। मान = आदर। जिनि = जिनि जिनि, जिस जिस ने। ते = वे (बहुवचन)। पारि परान = (संसार समुंदर से) पार लांघ गए।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) राम! हर वक्त परमात्मा का नाम जपा कर (यही है असली) खजाना। (नाम की इनायत से) तू परमात्मा की हजूरी में आदर हासिल करेगा। जिस जिस ने नाम जपा है वह सब (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनि मन हरि हरि नामु करि धिआनु ॥ सुनि मन हरि कीरति अठसठि मजानु ॥ सुनि मन गुरमुखि पावहि मानु ॥१॥

मूलम्

सुनि मन हरि हरि नामु करि धिआनु ॥ सुनि मन हरि कीरति अठसठि मजानु ॥ सुनि मन गुरमुखि पावहि मानु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करि धिआनु = ध्यान कर के, ध्यान से। कीरति = महिमा। अठसठि = अढ़सठ तीर्थ। मजानु = नहान, स्नान। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के।1।
अर्थ: हे (मेरे) मन! ध्यान जोड़ के सदा परमात्मा का नाम सुना कर। हे मन! परमात्मा की महिमा सुना कर (यही है) अढ़सठ तीर्थों का स्नान। हे मन! गुरु की शरण पड़ कर (परमात्मा का नाम) सुना कर (लोक-परलोक में) इज्जत कमाएगा।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जपि मन परमेसुरु परधानु ॥ खिन खोवै पाप कोटान ॥ मिलु नानक हरि भगवान ॥२॥१॥७॥

मूलम्

जपि मन परमेसुरु परधानु ॥ खिन खोवै पाप कोटान ॥ मिलु नानक हरि भगवान ॥२॥१॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोटान पाप = करोड़ों पापों (का नाश)। मिलु = मिला रह।2।
अर्थ: हे मन! परमेश्वर (का नाम) जपा कर (वही सबसे) बड़ा (है)। (नाम जपने की इनायत से) करोड़ों पापों का नाश (एक) छिन में हो जाता है। हे नानक! सदा हरि भगवान (के चरणों में) जुड़ा रह।2।1।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला ५ बिभास ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

प्रभाती महला ५ बिभास ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनु हरि कीआ तनु सभु साजिआ ॥ पंच तत रचि जोति निवाजिआ ॥ सिहजा धरति बरतन कउ पानी ॥ निमख न विसारहु सेवहु सारिगपानी ॥१॥

मूलम्

मनु हरि कीआ तनु सभु साजिआ ॥ पंच तत रचि जोति निवाजिआ ॥ सिहजा धरति बरतन कउ पानी ॥ निमख न विसारहु सेवहु सारिगपानी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साजिआ = पैदा किया। रचि = बना के। निवाजिआ = सुंदर बना दिया। सिहजा = (लेटने के लिए) बिछौना। कउ = को, वास्ते। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। सारिगपानी = (सारिग = धनुष। पानी = पाणि, हाथ। जिसके हाथ में धनुष है) परमात्मा।1।
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने (तेरा) मन बनाया, (तेरा) शरीर बनाया। (मिट्टी हवा आदि) पाँच तत्वों का पुतला बना के (उसको अपनी) ज्योति से सुंदर बना दिया। (जिसने तुझे) लेटने के लिए धरती दी, (जिसने तुझे) उपयोग के लिए पानी दिया, उस परमात्मा को कभी ना भुलाओ, उसको (हर समय) स्मरण करते रहो।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन सतिगुरु सेवि होइ परम गते ॥ हरख सोग ते रहहि निरारा तां तू पावहि प्रानपते ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मन सतिगुरु सेवि होइ परम गते ॥ हरख सोग ते रहहि निरारा तां तू पावहि प्रानपते ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! परम गते = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। हरख = खुशी। ते = से। रहहि = (यदि) तू टिका रहे। निरारा = अलग। प्रान पते = जिंद का मालिक प्रभु।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! गुरु की शरण पड़ा रह (इस तरह) सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था प्राप्त हो जाती है। अगर तू (गुरु के दर पर रह के) खुशी-ग़मी से निर्लिप टिका रहे, तो तू प्राणों के मालिक प्रभु को मिल सकता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कापड़ भोग रस अनिक भुंचाए ॥ मात पिता कुट्मब सगल बनाए ॥ रिजकु समाहे जलि थलि मीत ॥ सो हरि सेवहु नीता नीत ॥२॥

मूलम्

कापड़ भोग रस अनिक भुंचाए ॥ मात पिता कुट्मब सगल बनाए ॥ रिजकु समाहे जलि थलि मीत ॥ सो हरि सेवहु नीता नीत ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कापड़ = कपड़े। भुंचाए = खाने के लिए देता है। सगल = सारे। कुटंब = परिवार। समाहे = संबाहे, पहुँचाता है। जलि = जल में। थलि = थल पर, धरती पर, धरती में। मीत = हे मित्र! नीता नीत = सदा ही।2।
अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने तुझे अनेक (किस्मों के) कपड़े बरतने को दिए, जिसने तुझे अनेक अच्छे-अच्छे पदार्थ खाने-पीने को दिए, जिसने तेरे वास्ते माता-पिता-परिवार (आदि) सारे संबंधी बना दिए। हे मित्र! जो परमात्मा पानी में धरती में (हर जगह जीवों को) रिज़क पहुँचाता है, उस परमात्मा को सदा ही सदा ही याद करते रहो।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तहा सखाई जह कोइ न होवै ॥ कोटि अप्राध इक खिन महि धोवै ॥ दाति करै नही पछुोतावै ॥ एका बखस फिरि बहुरि न बुलावै ॥३॥

मूलम्

तहा सखाई जह कोइ न होवै ॥ कोटि अप्राध इक खिन महि धोवै ॥ दाति करै नही पछुोतावै ॥ एका बखस फिरि बहुरि न बुलावै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तह = वहाँ। सखाई = साथी। जह = जहाँ। कोटि = करोड़ों। अप्राध = अपराध, भूलें। पछुोतावै = अफसोस करता। एका = एक ही बार। बखस = बख्शिश, मेहर। बहुरि = दोबारा। बुलावै = बुलाता, लेखा माँगता।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘पछुोतावै’ में से अक्षर ‘छ’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द ‘पछुतावै’ है, यहाँ ‘पछोतावै’ पढ़ना है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जहाँ कोई भी मदद नहीं कर सकता, परमात्मा वहाँ (भी) साथी बनता है, (जीवों के) करोड़ों पाप एक छिन में धो देता है। हे भाई! वह प्रभु (सब जीवों को) दातें देता रहता है, कभी (इस बात से) पछताता नहीं। (जिस प्राणी पर) एक बार बख्शिश कर देता है, उसको (उसके लेखा माँगने के लिए) फिर नहीं बुलाता।3।

[[1338]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

किरत संजोगी पाइआ भालि ॥ साधसंगति महि बसे गुपाल ॥ गुर मिलि आए तुमरै दुआर ॥ जन नानक दरसनु देहु मुरारि ॥४॥१॥

मूलम्

किरत संजोगी पाइआ भालि ॥ साधसंगति महि बसे गुपाल ॥ गुर मिलि आए तुमरै दुआर ॥ जन नानक दरसनु देहु मुरारि ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किरत = पिछले किए हुए कर्म। संजोग = मेल। संजोगी = मेल अनुसार। किरत संजोगी = पिछले किए कर्मों के मिलाप के अनुसार। भालि = तलाश के। गुपाल = धरती के रखवाले प्रभु। गुर मिलि = गुरु को मिल के। मुरारि = हे मुरारी! (मुर+अरि। अरि = वैरी। मुर दैत्य का वैरी)।4।
अर्थ: हे भाई! सृष्टि का रक्षक प्रभु साधु-संगत में बसता है। पिछले किए कर्मों के संजोगों से (उसको साधु-संगत में) ढूँढ के तलाश लिया जाता है। हे मुरारी! गुरु की शरण पड़ कर मैं तेरे दर पर आया हूँ (अपने) दास नानक को (अपने) दीदार बख्श।4।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला ५ ॥ प्रभ की सेवा जन की सोभा ॥ काम क्रोध मिटे तिसु लोभा ॥ नामु तेरा जन कै भंडारि ॥ गुन गावहि प्रभ दरस पिआरि ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला ५ ॥ प्रभ की सेवा जन की सोभा ॥ काम क्रोध मिटे तिसु लोभा ॥ नामु तेरा जन कै भंडारि ॥ गुन गावहि प्रभ दरस पिआरि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेवा = भक्ति। जन कै भंडारि = सेवकों के खजाने में। गावहि = गाते हैं (बहु वचन)। दरस पिआरि = दर्शन की तमन्ना में।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा की भक्ति से परमात्मा के भक्त की बड़ाई (लोक-परलोक में) होती है, उसके अंदर से काम क्रोध लोभ (आदि विकार) मिट जाते हैं। हे प्रभु! तेरा नाम-धन तेरे भगतों के खजाने में (भरपूर रहता है)। हे प्रभु! तेरे भक्त तेरे दीदार की तमन्ना में तेरे गुण गाते रहते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुमरी भगति प्रभ तुमहि जनाई ॥ काटि जेवरी जन लीए छडाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

तुमरी भगति प्रभ तुमहि जनाई ॥ काटि जेवरी जन लीए छडाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! तुमहि = तू (खुद) ही। जनाई = समझाई, बताई। काटि = काट के। जेवरी = मोह की रस्सी।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! अपनी भक्ति (अपने सेवकों को) तूने स्वयं ही समझाई है, (उनके मोह का) फंदा काट के आपने सेवकों को तूने स्वयं ही (माया के मोह से) बचाया है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो जनु राता प्रभ कै रंगि ॥ तिनि सुखु पाइआ प्रभ कै संगि ॥ जिसु रसु आइआ सोई जानै ॥ पेखि पेखि मन महि हैरानै ॥२॥

मूलम्

जो जनु राता प्रभ कै रंगि ॥ तिनि सुखु पाइआ प्रभ कै संगि ॥ जिसु रसु आइआ सोई जानै ॥ पेखि पेखि मन महि हैरानै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कै रंगि = के (प्रेम-) रंग में। राता = रंगा हुआ। कै संगि = के साथ। रसु = स्वाद। पेखि = देख के। हैरानै = विस्माद की हालत में।2।
अर्थ: हे भाई! जो जो मनुष्य परमात्मा के प्रेम रंग में रंगा गया, उन्होंने परमात्मा के (चरणों) से (लग के) आत्मिक आनंद प्राप्त किया, (पर उस आनंद को बयान नहीं किया जा सकता) जिस मनुष्य को वह आनंद आता है, वही उसको जानता है, वह मनुष्य (परमात्मा का) दर्शन कर-कर के (अपने) मन में वाह-वाह कर उठता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो सुखीआ सभ ते ऊतमु सोइ ॥ जा कै ह्रिदै वसिआ प्रभु सोइ ॥ सोई निहचलु आवै न जाइ ॥ अनदिनु प्रभ के हरि गुण गाइ ॥३॥

मूलम्

सो सुखीआ सभ ते ऊतमु सोइ ॥ जा कै ह्रिदै वसिआ प्रभु सोइ ॥ सोई निहचलु आवै न जाइ ॥ अनदिनु प्रभ के हरि गुण गाइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। सोइ = वह ही। कै ह्रिदै = हृदय में। निहचलु = अडोल चिक्त। आवै न जाइ = ना आता है ना जाता है, भटकता नहीं। अनदिनु = हर रोज।3।
अर्थ: हे भाई! जिस (मनुष्य) के हृदय में वह परमात्मा आ बसता है, वह सुखी हो जाता है, वह और सभी से श्रेष्ठ जीवन वाला हो जाता है। वह मनुष्य हर समय परमात्मा के गुण गाता रहता है, वह सदा अडोल चिक्त रहता है, वह कभी भटकता नहीं फिरता।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ता कउ करहु सगल नमसकारु ॥ जा कै मनि पूरनु निरंकारु ॥ करि किरपा मोहि ठाकुर देवा ॥ नानकु उधरै जन की सेवा ॥४॥२॥

मूलम्

ता कउ करहु सगल नमसकारु ॥ जा कै मनि पूरनु निरंकारु ॥ करि किरपा मोहि ठाकुर देवा ॥ नानकु उधरै जन की सेवा ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कउ = को। सगल = सारे। जा कै मनि = जिस के मन में। मोहि = मुझे, मेरे पर। ठाकुर = हे ठाकुर! देवा = हे देव! उधरै = (विकारों से) बचा रहे।4।
अर्थ: हे भाई! जिस (मनुष्य) के मन में परमात्मा आ बसता है, उसके आगे सारे अपना सिर झुकाया करो। हे ठाकुर प्रभु! हे प्रकाश-रूप प्रभु! मेरे ऊपर मेहर कर, (तेरा सेवक) नानक तेरे भक्त की शरण में रह के (विकारों से) बचा रहे।4।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला ५ ॥ गुन गावत मनि होइ अनंद ॥ आठ पहर सिमरउ भगवंत ॥ जा कै सिमरनि कलमल जाहि ॥ तिसु गुर की हम चरनी पाहि ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला ५ ॥ गुन गावत मनि होइ अनंद ॥ आठ पहर सिमरउ भगवंत ॥ जा कै सिमरनि कलमल जाहि ॥ तिसु गुर की हम चरनी पाहि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गावत = गाते हुए। मनि = मन में। सिमरउ = मैं स्मरण करता हूँ। जा कै = जिस (गुरु की कृपा) से। कलमल = (सारे) पाप। जाहि = दूर हो जाते हैं (बहुवचन)। हम पाहि = हम पड़ते हैं, मैं पड़ता हूँ। सिमरनि = नाम स्मरण से।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के गुण गाते हुए मन में आनंद पैदा होता है, (तभी तो) मैं आठों पहर भगवान (का नाम) स्मरण करता हूं। जिस गुरु की कृपा से परमातमा का नाम स्मरण करने से (सारे) पाप दूर हो जाते हैं, मैं उस गुरु के (सदा) चरणों में लगा रहता हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुमति देवहु संत पिआरे ॥ सिमरउ नामु मोहि निसतारे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सुमति देवहु संत पिआरे ॥ सिमरउ नामु मोहि निसतारे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संत पिआरे = हे प्यारे गुरु! सिमरउ = मैं स्मरण करता हूँ। मोहि = मुझे। निसतारे = (संसार समुंदर से) पार लंघाता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्यारे सतिगुरु! (मुझे) सद्-बुद्धि बख्श (जिससे) मैं परमात्मा का नाम स्मरण करता रहूँ (जो नाम) मुझे (संसार-समुंदर से) पार लंघा ले।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिनि गुरि कहिआ मारगु सीधा ॥ सगल तिआगि नामि हरि गीधा ॥ तिसु गुर कै सदा बलि जाईऐ ॥ हरि सिमरनु जिसु गुर ते पाईऐ ॥२॥

मूलम्

जिनि गुरि कहिआ मारगु सीधा ॥ सगल तिआगि नामि हरि गीधा ॥ तिसु गुर कै सदा बलि जाईऐ ॥ हरि सिमरनु जिसु गुर ते पाईऐ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस ने। गुरि = गुरु ने। जिनि गुरि = जिस गुरु ने। मारगु = (जीवन-) राह। तिआगि = त्याग के। नामि = नाम में। गीधा = गिझ गया, परच गया। कै बलि जाईऐ = से सदके जाना चाहिए। ते = से। पाईऐ = प्राप्त होता है।2।
अर्थ: हे भाई! जिस गुरु ने (आत्मिक जीवन का) सीधा रास्ता बताया है (जिसकी इनायत से मनुष्य) और सारे (मोह) छोड़ के परमात्मा के नाम में रति रहता है, जिस गुरु से परमात्मा के नाम स्मरण (की दाति) मिलती है, उस गुरु से सदा कुर्बान जाना चाहिए।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बूडत प्रानी जिनि गुरहि तराइआ ॥ जिसु प्रसादि मोहै नही माइआ ॥ हलतु पलतु जिनि गुरहि सवारिआ ॥ तिसु गुर ऊपरि सदा हउ वारिआ ॥३॥

मूलम्

बूडत प्रानी जिनि गुरहि तराइआ ॥ जिसु प्रसादि मोहै नही माइआ ॥ हलतु पलतु जिनि गुरहि सवारिआ ॥ तिसु गुर ऊपरि सदा हउ वारिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बूडत = (विकारों में) डूबता। जिनि गुरहि = जिस गुरु ने। जिसु प्रसादि = जिस की कृपा से। मोहै नही = मोह नहीं सकती। हलतु = यह लोक। पलतु = परलोक। सवारिआ = सुंदर बना दिया। हउ = मैं। वारिआ = कुर्बान।3।
अर्थ: हे भाई! जिस गुरु ने (संसार-समुंदर में) डूब रहे प्राणियों को पार लंघाया, जिस (गुरु) की मेहर से माया ठग नहीं सकती, जिस गुरु ने (शरण पड़े मनुष्य का) यह लोक और परलोक सुंदर बना दिए, मैं उस गुरु से सदा सदके जाता हूँ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

महा मुगध ते कीआ गिआनी ॥ गुर पूरे की अकथ कहानी ॥ पारब्रहम नानक गुरदेव ॥ वडै भागि पाईऐ हरि सेव ॥४॥३॥

मूलम्

महा मुगध ते कीआ गिआनी ॥ गुर पूरे की अकथ कहानी ॥ पारब्रहम नानक गुरदेव ॥ वडै भागि पाईऐ हरि सेव ॥४॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुगध = मूर्खं। ते = से। गिआनी = समझदार, ज्ञानवान, आत्मिक जीवन की सूझ वाला। अकथ = (अ+कथ) जो बयान ना की जा सके। नानक = हे नानक! भागि = किस्मत से।4।
अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु की महिमा पूरी तरह से बयान नहीं की जा सकती (बयान से परे है), (गुरु ने) महा मूर्ख मनुष्य से आत्मिक जीवन की सूझ वाला बना दिया। हे नानक! (कह: गुरु की शरण पड़ के) बहुत किस्मत से पारब्रहमि गुरदेव हरि की सेवा-भक्ति प्राप्त होती है।4।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला ५ ॥ सगले दूख मिटे सुख दीए अपना नामु जपाइआ ॥ करि किरपा अपनी सेवा लाए सगला दुरतु मिटाइआ ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला ५ ॥ सगले दूख मिटे सुख दीए अपना नामु जपाइआ ॥ करि किरपा अपनी सेवा लाए सगला दुरतु मिटाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दीए = दिए। सगले = सारे। करि = कर के। सेवा = भक्ति। दुरतु = पाप।1।
अर्थ: हे भाई! (प्रभु ने) मेहर कर के (जिनको) अपनी भक्ति में जोड़ा, (उनके अंदर से उसने) सारा पाप दूर कर दिया। जिनको उसने अपना नाम जपने की प्रेरणा की, उनको उसने सारे सुख बख्श दिए, (उनके अंदर से) सारे दुख दूर हो गए।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम बारिक सरनि प्रभ दइआल ॥ अवगण काटि कीए प्रभि अपुने राखि लीए मेरै गुर गोपालि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हम बारिक सरनि प्रभ दइआल ॥ अवगण काटि कीए प्रभि अपुने राखि लीए मेरै गुर गोपालि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ दइआल = हे दया के घर प्रभु! बारिक = बच्चे। काटि = काट के। प्रभि = प्रभु ने। मेरै गोपालि = मेरे गोपाल ने, मेरे प्रभु ने। गोपालि = गोपाल ने, सृष्टि के रक्षक ने।1। रहाउ।
अर्थ: हे दया के श्रोत प्रभु! हम (जीव तेरे) बच्चे (तेरी) शरण में हैं। हे भाई! धरती के रक्षक प्रभु ने (जिनकी) रक्षा की, (उनके अंदर से) अवगुण दूर कर के (उनको उस) प्रभु ने अपना बना लिया।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ताप पाप बिनसे खिन भीतरि भए क्रिपाल गुसाई ॥ सासि सासि पारब्रहमु अराधी अपुने सतिगुर कै बलि जाई ॥२॥

मूलम्

ताप पाप बिनसे खिन भीतरि भए क्रिपाल गुसाई ॥ सासि सासि पारब्रहमु अराधी अपुने सतिगुर कै बलि जाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ताप = दुख-कष्ट। भीतरि = में। गुसाई = गोसाई, धरती का पति। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। सासि = साँस से। अराधी = मैं आराधन करता हूँ। कै बलि जाई = (गुरु) से मैं सदके जाता हूँ।2।
अर्थ: हे भाई! धरती के पति प्रभु जी (जिस पर) दयावान हुए, (उनके) सारे दुख-कष्ट सारे पाप एक छिन में नाश हो गए। हे भाई! मैं अपने गुरु से सदके जाता हूँ, (उसकी मेहर से) मैं अपनी हरेक साँस से परमात्मा का नाम स्मरण करता हूँ।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अगम अगोचरु बिअंतु सुआमी ता का अंतु न पाईऐ ॥ लाहा खाटि होईऐ धनवंता अपुना प्रभू धिआईऐ ॥३॥

मूलम्

अगम अगोचरु बिअंतु सुआमी ता का अंतु न पाईऐ ॥ लाहा खाटि होईऐ धनवंता अपुना प्रभू धिआईऐ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय। चरु = पहुँच) जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती। न पाईऐ = नहीं पाया जा सकता। खटि = कमा के। होईऐ = हुआ जाता है। धिआईऐ = ध्याना चाहिए।3।
अर्थ: हे भाई! मालिक-प्रभु अगम्य (पहुँच से परे) है, उस तक (जीवों की) इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती, वह बेअंत है, उसके गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। हे भाई! अपने उस प्रभु का स्मरण करना चाहिए, (उसका नाम ही असल धन है, यह) लाभ कमा के धनवान बना जाता है।3।

[[1339]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

आठ पहर पारब्रहमु धिआई सदा सदा गुन गाइआ ॥ कहु नानक मेरे पूरे मनोरथ पारब्रहमु गुरु पाइआ ॥४॥४॥

मूलम्

आठ पहर पारब्रहमु धिआई सदा सदा गुन गाइआ ॥ कहु नानक मेरे पूरे मनोरथ पारब्रहमु गुरु पाइआ ॥४॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धिआई = मैं ध्यान धरता हूँ। पाइआ = पा लिया है, पाया।4।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) मुझे गुरु मिल गया है (गुरु की कृपा से) मुझे परमात्मा मिल गया है, मेरी सारी मनोकानाएं पूरी हो गई हैं। अब मैं आठों पहर उसका नाम स्मरण करता हूँ, सदा ही उसके गुण गाता रहता हूँ।4।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला ५ ॥ सिमरत नामु किलबिख सभि नासे ॥ सचु नामु गुरि दीनी रासे ॥ प्रभ की दरगह सोभावंते ॥ सेवक सेवि सदा सोहंते ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला ५ ॥ सिमरत नामु किलबिख सभि नासे ॥ सचु नामु गुरि दीनी रासे ॥ प्रभ की दरगह सोभावंते ॥ सेवक सेवि सदा सोहंते ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिमरत = स्मरण करते हुए। किलबिख = पाप। सचु = सदा कायम रहने वाला। गुरि = गुरु ने। रासे = राशि, संपत्ति, धन-दौलत, पूंजी। सेवि = सेवा कर के, भक्ति कर के। सोहंते = सुंदर लगते हैं।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए सारे पाप नाश हो जाते हैं। (जिस को) गुरु ने सदा-स्थिर हरि-नाम की राशि-पूंजी बख्शी, परमात्मा की दरगाह में वे इज्जत वाले बने। हे भाई! परमात्मा के भक्त (परमात्मा की) भक्ति कर के सदा (लोक-परलोक में) सुंदर लगते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि नामु जपहु मेरे भाई ॥ सगले रोग दोख सभि बिनसहि अगिआनु अंधेरा मन ते जाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि हरि नामु जपहु मेरे भाई ॥ सगले रोग दोख सभि बिनसहि अगिआनु अंधेरा मन ते जाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भाई = हे भाई! दोख = ऐब, पाप। सभि = सारे। बिनसहि = नाश हो जाते हैं। अगिआनु = आत्मिक जीवन से बेसमझ। ते = से। जाई = दूर हो जाता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे भाई! सदा परमात्मा का नाम जपा करो। (नाम-जपने की इनायत से साथ मन के) सारे रोग दूर हो जाते हैं, सारे पाप नाश हो जाते हैं, आत्मिक जीवन से बेसमझी का अंधेरा मन से दूर हो जाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनम मरन गुरि राखे मीत ॥ हरि के नाम सिउ लागी प्रीति ॥ कोटि जनम के गए कलेस ॥ जो तिसु भावै सो भल होस ॥२॥

मूलम्

जनम मरन गुरि राखे मीत ॥ हरि के नाम सिउ लागी प्रीति ॥ कोटि जनम के गए कलेस ॥ जो तिसु भावै सो भल होस ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। राखे = समाप्त कर दिए, रख दिए, ठहरा दिए। मीत = हे मित्र! सिउ = साथ। कोटि = करोड़ों। तिसु भावै = उस परमात्मा को अच्छा लगता है। भल = भला। होस = होगा।2।
अर्थ: हे मित्र! (गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा के नाम में (जिस मनुष्यों का) प्यार बना, गुरु ने (उनके) जनम-मरण (के चक्कर) समाप्त कर दिए। (हरि-नाम जल प्रीति की इनायत से उनके) करोड़ों जन्मों के दुख-कष्ट दूर हो गए। (उनको) वह कुछ भला प्रतीत होता है जो परमात्मा को अच्छा लगता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिसु गुर कउ हउ सद बलि जाई ॥ जिसु प्रसादि हरि नामु धिआई ॥ ऐसा गुरु पाईऐ वडभागी ॥ जिसु मिलते राम लिव लागी ॥३॥

मूलम्

तिसु गुर कउ हउ सद बलि जाई ॥ जिसु प्रसादि हरि नामु धिआई ॥ ऐसा गुरु पाईऐ वडभागी ॥ जिसु मिलते राम लिव लागी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ = मैं। सद = सदा। बलि जाई = मैं सदके जाता हूँ। प्रसादि = कृपा से। धिआई = मैं ध्याता हूँ। लिव = लगन।3।
अर्थ: हे भाई! मैं उस गुरु से सदा सदके जाता हूँ, जिसकी मेहर से मैं परमात्मा का नाम स्मरण करता रहता हूँ। हे भाई! ऐसा गुरु बड़ी किस्मत से ही मिलता है, जिसके मिलने से परमात्मा के संग प्यार बनता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि किरपा पारब्रहम सुआमी ॥ सगल घटा के अंतरजामी ॥ आठ पहर अपुनी लिव लाइ ॥ जनु नानकु प्रभ की सरनाइ ॥४॥५॥

मूलम्

करि किरपा पारब्रहम सुआमी ॥ सगल घटा के अंतरजामी ॥ आठ पहर अपुनी लिव लाइ ॥ जनु नानकु प्रभ की सरनाइ ॥४॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पारब्रहम = हे पारब्रहम! घर = शरीर, हृदय। अंतरजामी = हे अंदर की जानने वाले! लिव लाइ = प्यार बनाए रख। जनु = दास।4।
अर्थ: हे पारब्रहम! हे स्वामी! हे सब जीवों के दिल की जानने वाले! मेहर कर। (मेरे अंदर) आठों पहर अपनी लगन लगाए रख, (तेरा) दास नानक तेरी शरण पड़ा रहे।4।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला ५ ॥ करि किरपा अपुने प्रभि कीए ॥ हरि का नामु जपन कउ दीए ॥ आठ पहर गुन गाइ गुबिंद ॥ भै बिनसे उतरी सभ चिंद ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला ५ ॥ करि किरपा अपुने प्रभि कीए ॥ हरि का नामु जपन कउ दीए ॥ आठ पहर गुन गाइ गुबिंद ॥ भै बिनसे उतरी सभ चिंद ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करि = कर के। प्रभि = प्रभु ने। कीए = बना दिए। कउ = वास्ते, को। गाइ = गाया कर। भै = सारे डर। चिंद = चिन्ता।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़े) प्रभु ने (उनको) मेहर करके अपना बना लिया (क्योंकि गुरु ने) परमात्मा का नाम जपने के लिए उनको दे दिया।
हे भाई! (गुरु की शरण पड़ कर) आठों पहर परमात्मा के गुण गाया कर (इस तरह) सारे डर नाश हो जाते हैं, सारी चिन्ता दूर हो जाती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उबरे सतिगुर चरनी लागि ॥ जो गुरु कहै सोई भल मीठा मन की मति तिआगि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

उबरे सतिगुर चरनी लागि ॥ जो गुरु कहै सोई भल मीठा मन की मति तिआगि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उबरे = (विकारों से) बच गए। लागि = लग के। कहै = कहता है। भल = भला। तिआगि = त्याग के।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सतिगुरु के चरणों में लग के (अनेक प्राणी डूबने से) बच जाते हैं। अपने मन की चतुराई छोड़ के (गुरु की शरण पड़ने) जो कुछ गुरु बताता है, वह अच्छा और प्यारा लगता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनि तनि वसिआ हरि प्रभु सोई ॥ कलि कलेस किछु बिघनु न होई ॥ सदा सदा प्रभु जीअ कै संगि ॥ उतरी मैलु नाम कै रंगि ॥२॥

मूलम्

मनि तनि वसिआ हरि प्रभु सोई ॥ कलि कलेस किछु बिघनु न होई ॥ सदा सदा प्रभु जीअ कै संगि ॥ उतरी मैलु नाम कै रंगि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। तनि = तन में। कलि = झगड़े। कलेस = दुख। बिघनु = रुकावट। जीअ कै संगि = जिंद के साथ। कै रंगि = के (प्रेम-) रंग में।2।
अर्थ: हे भाई! (गुरु की शरण पड़ने से) मन में तन में वह परमात्मा ही बसा रहता है, कोई दुख-कष्ट (आदि जिंदगी के रास्ते में) रुकावट नहीं बनते। परमात्मा हर समय ही जिंद के साथ (बसता प्रतीत होता है), परमात्मा के नाम के प्यार-रंग में टिके रहने से (विकारों की) सारी मैल (मन से) उतर जाती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरन कमल सिउ लागो पिआरु ॥ बिनसे काम क्रोध अहंकार ॥ प्रभ मिलन का मारगु जानां ॥ भाइ भगति हरि सिउ मनु मानां ॥३॥

मूलम्

चरन कमल सिउ लागो पिआरु ॥ बिनसे काम क्रोध अहंकार ॥ प्रभ मिलन का मारगु जानां ॥ भाइ भगति हरि सिउ मनु मानां ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिउ = साथ। मारगु = रास्ता। जानां = समझ लिया। भाइ = प्रेम में। मानां = पतीज गया, रीझ गया।3।
अर्थ: हे भाई! (गुरु की शरण पड़ने से) परमात्मा के सुंदर चरणों के साथ प्यार बन जाता है, काम क्रोध अहंकार (आदि विकार अंदर से) समाप्त हो जाते हैं। हे भाई! (जिस मनुष्य ने गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा के मिलाप का रास्ता समझ लिया, प्यार की इनायत से भक्ति की इनायत से उसका मन प्रभु की याद में गिझ जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुणि सजण संत मीत सुहेले ॥ नामु रतनु हरि अगह अतोले ॥ सदा सदा प्रभु गुण निधि गाईऐ ॥ कहु नानक वडभागी पाईऐ ॥४॥६॥

मूलम्

सुणि सजण संत मीत सुहेले ॥ नामु रतनु हरि अगह अतोले ॥ सदा सदा प्रभु गुण निधि गाईऐ ॥ कहु नानक वडभागी पाईऐ ॥४॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सजण = हे सज्जन! स्ंत = हे संत जनो! अगह = अगम्य (पहुँच से परे)। अगह नामु = अगम्य (पहुँच से परे) हरि का नाम। गुणनिधि = गुणों का खजाना प्रभु। गाईऐ = गाना चाहिए, महिमा करनी चाहिए। पाईऐ = प्राप्त होती है।4।
अर्थ: हे सज्जन! हे संत! हे मित्र! सुन (गुरु की शरण में पड़ कर जिन्होंने) अगम्य (पहुँच से परे) और अतोल हरि का कीमती नाम हासिल कर लिया, वे सदा सुखी जीवन वाले हो गए। हे भाई! सदा ही गुणों के खजाने प्रभु की महिमा करनी चाहिए, पर, हे नानक! कह: ये दाति बहुत बड़ी किस्मत से मिलती है।4।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला ५ ॥ से धनवंत सेई सचु साहा ॥ हरि की दरगह नामु विसाहा ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला ५ ॥ से धनवंत सेई सचु साहा ॥ हरि की दरगह नामु विसाहा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: से = वे मनुष्य (बहुवचन)। सेई = वही मनुष्य (बहुवचन)। सचु = यकीनी तौर पर। साहा = शाहूकार। विसाहा = खरीदा, विहाजा।1।
अर्थ: हे भाई! (गुरु की शरण पड़ कर जिन्होंने यहाँ) परमात्मा के नाम का सौदा खरीदा, परमात्मा की हजूरी में (वे) मनुष्य धनी (गिने जाते हैं), वही मनुष्य यकीनी तौर पर शाहूकार (समझे जाते हैं)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि नामु जपहु मन मीत ॥ गुरु पूरा पाईऐ वडभागी निरमल पूरन रीति ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि हरि नामु जपहु मन मीत ॥ गुरु पूरा पाईऐ वडभागी निरमल पूरन रीति ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! मीत = हे मित्र! निरमल = पवित्र करने वाली। रीति = मर्यादा।1। रहाउ।
अर्थ: हे मित्र! हे मन! (गुरु की शरण पड़ के) सदा परमात्मा का नाम जपा कर। (पर नाम जपने वाली) पवित्र और संपूर्ण मर्यादा (चलाने वाला) पूरा गुरु बड़ी किस्मत से (ही) मिलता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाइआ लाभु वजी वाधाई ॥ संत प्रसादि हरि के गुन गाई ॥२॥

मूलम्

पाइआ लाभु वजी वाधाई ॥ संत प्रसादि हरि के गुन गाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वजी = बज पड़ी, तगड़ीहो गई। वाधाई = उत्साह वाली अवस्था, चढ़दीकला। संत प्रसादि = गुरु की कृपा से। गाई = गाता है।2।
अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य) गुरु की कृपा से परमात्मा के गुण गाता है (वह यहाँ असल) लाभ कमाता है, (उसके अंदर) आत्मिक उत्साह वाली अवस्था प्रबल बनी रहती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सफल जनमु जीवन परवाणु ॥ गुर परसादी हरि रंगु माणु ॥३॥

मूलम्

सफल जनमु जीवन परवाणु ॥ गुर परसादी हरि रंगु माणु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सफल = कामयाब। परवाणु = स्वीकार। परसादी = कृपा से। रंगु = आत्मिक आनंद। माणु = माणता रह, भोगता रह, आनंद लेता रह।3।
अर्थ: हे भाई! गुरु की कृपा से परमात्मा के नाम का आनंद लेता रह (नाम जपने वाले का) मानव जनम सफल है, जीवन (प्रभु की हजूरी में) स्वीकार है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनसे काम क्रोध अहंकार ॥ नानक गुरमुखि उतरहि पारि ॥४॥७॥

मूलम्

बिनसे काम क्रोध अहंकार ॥ नानक गुरमुखि उतरहि पारि ॥४॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। उतरहि पारि = पार लांघ जाते हैं।4।
अर्थ: हे नानक! गुरु की शरण पड़ कर (नाम जपने वाले मनुष्य संसार-समुंदर से) पार लांघ जाते हैं, (उनके अंदर से) काम क्रोध अहंकार (आदि विकार) नाश हो जाते हैं।4।7।

[[1340]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला ५ ॥ गुरु पूरा पूरी ता की कला ॥ गुर का सबदु सदा सद अटला ॥ गुर की बाणी जिसु मनि वसै ॥ दूखु दरदु सभु ता का नसै ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला ५ ॥ गुरु पूरा पूरी ता की कला ॥ गुर का सबदु सदा सद अटला ॥ गुर की बाणी जिसु मनि वसै ॥ दूखु दरदु सभु ता का नसै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ता की = उस (गुरु) की। कला = ताकत, आत्मिक उच्चता। सद = सदा। अटला = अटल, अपने निशाने पर सदा अटल टिके रहने वाला। जिसु मनि = जिस (मनुष्य) के मन में। ता का = उस (मनुष्य) का। नसै = दूर हो जाता है।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु (सारे गुणों से) पूर्ण है, गुरु की (आत्मिक) शक्ति हरेक तरह की समर्थता वाली है, गुरु का शब्द सदा ही अटल रहता है (कभी कमी वाला नहीं)। जिस (मनुष्य) के मन में सतिगुरु की वाणी टिकी रहती है, उस (मनुष्य) का हरेक दर्द नाश हो जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि रंगि राता मनु राम गुन गावै ॥ मुकतुो साधू धूरी नावै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि रंगि राता मनु राम गुन गावै ॥ मुकतुो साधू धूरी नावै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रंगि = प्रेम रंग में। राता = रंगा हुआ। गावै = गाता रहता है। मुकतुो = विकारों से बचा हुआ। नावै = स्नान करता है।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘मुकतुो’ में से अक्षर ‘त’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘मुकतु’, यहां ‘मुकतो’ पढ़ना है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य का) मन परमात्मा के (प्यार-) रंग में रंगा रहता है (जो मनुष्य) प्रभु के गुण गाता रहता है, (जो मनुष्य) गुरु की चरण-धूल में स्नान करता रहता है, वह विकारों से बचा रहता है (वही है ‘मुक्त’)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर परसादी उतरे पारि ॥ भउ भरमु बिनसे बिकार ॥ मन तन अंतरि बसे गुर चरना ॥ निरभै साध परे हरि सरना ॥२॥

मूलम्

गुर परसादी उतरे पारि ॥ भउ भरमु बिनसे बिकार ॥ मन तन अंतरि बसे गुर चरना ॥ निरभै साध परे हरि सरना ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परसादी = प्रसादि, कृपा से। भरमु = वहम, भटकना। अंतरि = अंदर। साध = संत जन। निरभै = सारे डरों से रहत।2।
अर्थ: हे भाई! जिनके मन में जिनके तन में गुरु के चरण टिके रहते हैं, डर भटकना (आदि सारे) विकार (उनके अंदर से) नाश हो जाते हैं, गुरु की कृपा से वह मनुष्य संसार-समुंदर से पार लांघ जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनद सहज रस सूख घनेरे ॥ दुसमनु दूखु न आवै नेरे ॥ गुरि पूरै अपुने करि राखे ॥ हरि नामु जपत किलबिख सभि लाथे ॥३॥

मूलम्

अनद सहज रस सूख घनेरे ॥ दुसमनु दूखु न आवै नेरे ॥ गुरि पूरै अपुने करि राखे ॥ हरि नामु जपत किलबिख सभि लाथे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनद = आनंद। सहज = आत्मिक अडोलता। घनेरे = बहुत। नेरे = नजदीक। गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। करि = बना के। राखे = रख लिए, रक्षा की। जपत = जपते हुए। किलबिख = पाप। सभि = सारे।3।
अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु ने जिनको अपने बना के (उनकी) रक्षा की, परमात्मा का नाम जपते हुए (उनके) सारे पाप दूर हो गए। कोई वैरी दुख उनके नजदीक नहीं फटक सकता (उन पर अपना दबाव नहीं डाल सकता)। (उनके अंदर) आत्मिक अडोलता के अनेक आनंद और सुख बने रहते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संत साजन सिख भए सुहेले ॥ गुरि पूरै प्रभ सिउ लै मेले ॥ जनम मरन दुख फाहा काटिआ ॥ कहु नानक गुरि पड़दा ढाकिआ ॥४॥८॥

मूलम्

संत साजन सिख भए सुहेले ॥ गुरि पूरै प्रभ सिउ लै मेले ॥ जनम मरन दुख फाहा काटिआ ॥ कहु नानक गुरि पड़दा ढाकिआ ॥४॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिख = (सारे) सिख (बहुवचन)। सुहेले = सुखी। सिउ = साथ। लै = पकड़ के। मेले = मिला दिए। गुरि = गुरु ने। पड़दा ढाकिआ = इज्जत रख ली।4।
अर्थ: हे भाई! जिस संत-जनों सज्जनों सिखों को पूरे गुरु ने परमात्मा के साथ जोड़ा, वह सुखी जीवन वाले हो गए। हे नानक! कह: गुरु ने उनकी इज्जत रख ली, उनके जनम-मरण के चक्कर के दुखों के फंदे (गुरु ने) काट दिए हैं।4।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला ५ ॥ सतिगुरि पूरै नामु दीआ ॥ अनद मंगल कलिआण सदा सुखु कारजु सगला रासि थीआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

प्रभाती महला ५ ॥ सतिगुरि पूरै नामु दीआ ॥ अनद मंगल कलिआण सदा सुखु कारजु सगला रासि थीआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुरि पूरे = पूरे सतिगुरु ने। अनद = आनंद। मंगल = खुशी। कलिआण = कल्याण, सुख शांति। सगला = सारा। रासि थीआ = सफल हो गया, सिरे चढ़ जाता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य को) पूरे गुरु ने (परमात्मा का) नाम (-खजाना) बख्शा, उसके अंदर आनंद खुशी शांति और सदा सुख बन गया, उस (की जिंदगी) का सारा ही उद्देश्य सफल हो गया।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरन कमल गुर के मनि वूठे ॥ दूख दरद भ्रम बिनसे झूठे ॥१॥

मूलम्

चरन कमल गुर के मनि वूठे ॥ दूख दरद भ्रम बिनसे झूठे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चरन कमल गुर के = गुरु के सुंदर चरण। मनि = (जिस मनुष्य के) मन में। वूठे = आ बसे। भ्रम झूठे = नाशवान पदार्थों की खातिर भटकना।1।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य के) मन में गुरु के सुंदर चरण आ बसे, उसके सारे दुख दूर हो गए, नाशवान पदार्थों की खातिर सारी भटकनें (उसके अंदर से) समाप्त हो गई।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नित उठि गावहु प्रभ की बाणी ॥ आठ पहर हरि सिमरहु प्राणी ॥२॥

मूलम्

नित उठि गावहु प्रभ की बाणी ॥ आठ पहर हरि सिमरहु प्राणी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उठि = उठ के। प्राणी = हे प्राणी!।2।
अर्थ: हे प्राणियो! सदा उठ के (नित्य उद्यम से) परमात्मा की महिमा की वाणी गाया करो, और आठों पहर परमात्मा का स्मरण किया करो।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घरि बाहरि प्रभु सभनी थाई ॥ संगि सहाई जह हउ जाई ॥३॥

मूलम्

घरि बाहरि प्रभु सभनी थाई ॥ संगि सहाई जह हउ जाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घरि = घर में। थाई = थाई, जगहों में। संगि = साथ। सहाई = मदद करने वाला। जह = जहाँ। हउ = मैं। जाई = जाई, मैं जाता हूँ।3।
अर्थ: हे भाई! मैं (तो) जहाँ (भी) जाता हूँ, मुझे परमात्मा (तेरे) साथ मददगार (दिखाई देता) है, घर के अंदर और बाहर (हर जगह) सभ जगहों में (मुझे) प्रभु ही (दिखाई देता) है।3

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुइ कर जोड़ि करी अरदासि ॥ सदा जपे नानकु गुणतासु ॥४॥९॥

मूलम्

दुइ कर जोड़ि करी अरदासि ॥ सदा जपे नानकु गुणतासु ॥४॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुइ कर = दोनों हाथ। करी = मैं करता हूँ। गुण तासु = गुणों का खजाना प्रभु।4।
अर्थ: हे भाई! मैं (तो) दोनों हाथ जोड़ के अरजोई करता रहता हूँ कि (उस प्रभु का दास) नानक सदा गुणों के खजाने प्रभु का नाम जपता रहे।4।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला ५ ॥ पारब्रहमु प्रभु सुघड़ सुजाणु ॥ गुरु पूरा पाईऐ वडभागी दरसन कउ जाईऐ कुरबाणु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

प्रभाती महला ५ ॥ पारब्रहमु प्रभु सुघड़ सुजाणु ॥ गुरु पूरा पाईऐ वडभागी दरसन कउ जाईऐ कुरबाणु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुघड़ = (सुघट = सुंदर हृदय वाला) सुंदर आत्मिक घाड़त वाला। सुजाणु = समझदार। पाईऐ = मिलता है। दरसन कउ = दर्शनों की खातिर। जाईऐ कुरबानु = सदके होना चाहिए, स्वै वारना चाहिए, अपना आप (गुरु के) हवाले कर देना चाहिए।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सुंदर आत्मिक घाड़त वाला समझदार प्रभु पारब्रहम (तब ही मिलता है, जब) बड़े भाग्यों से पूरा गुरु मिल जाता है। (हे भाई! गुरु के) दर्शन करने के लिए अपना-आप (गुरु के) हवाले करने की आवश्यक्ता होती है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किलबिख मेटे सबदि संतोखु ॥ नामु अराधन होआ जोगु ॥ साधसंगि होआ परगासु ॥ चरन कमल मन माहि निवासु ॥१॥

मूलम्

किलबिख मेटे सबदि संतोखु ॥ नामु अराधन होआ जोगु ॥ साधसंगि होआ परगासु ॥ चरन कमल मन माहि निवासु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किलबिख = पाप। मेटे = (गुरु ने) मिटा दिए। सबदि = शब्द से। जोगु = लायक। साध संगि = गुरु की संगति में। परगासु = (आत्मिक जीवन की सूझ का) प्रकाश। चरन कमल = कमल फूल जैसे सुंदर चरण।1।
अर्थ: हे भाई! (गुरु ने अपने) शब्द से (जिस मनुष्य के सारे) पाप मिटा दिए (और उसको) संतोख बख्शा, वह मनुष्य परमात्मा का नाम-स्मरण के योग्य हो जाता है। गुरु की संगति में (रह के जिस मनुष्य के अंदर आत्मिक जीवन की सूझ का) प्रकाश हो जाता है, परमात्मा के सुंदर चरण उसके मन में टिक जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिनि कीआ तिनि लीआ राखि ॥ प्रभु पूरा अनाथ का नाथु ॥ जिसहि निवाजे किरपा धारि ॥ पूरन करम ता के आचार ॥२॥

मूलम्

जिनि कीआ तिनि लीआ राखि ॥ प्रभु पूरा अनाथ का नाथु ॥ जिसहि निवाजे किरपा धारि ॥ पूरन करम ता के आचार ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस (परमात्मा) ने। तिनि = उस (परमात्मा) ने। अनाथ = बिना पति के, अ+नाथ। निवाजे = ऊँचा करता है, इज्जत देता है। धारि = धार के, कर के। आचार = कर्तव्य।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिसहि’ में से जिस मनुष्य को (‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! जिस (परमात्मा) ने (मनुष्य को) पैदा किया है (जब वह मनुष्य गुरु की शरण पड़ गया तो) उस (पैदा करने वाले प्रभु) ने (उसको विकारों से) बचा लिया। हे भाई! प्रभु (सारे गुणों से) पूरन है, और निखसमों का खसम है। मेहर कर के परमात्मा जिस (मनुष्य) को इज्जत बख्शता है, उस मनुष्य के सारे कर्म सारे कर्तव्य सफल हो जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुण गावै नित नित नित नवे ॥ लख चउरासीह जोनि न भवे ॥ ईहां ऊहां चरण पूजारे ॥ मुखु ऊजलु साचे दरबारे ॥३॥

मूलम्

गुण गावै नित नित नित नवे ॥ लख चउरासीह जोनि न भवे ॥ ईहां ऊहां चरण पूजारे ॥ मुखु ऊजलु साचे दरबारे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गावै = गाता है (एकवचन)। ईहां = इस लोक में। ऊहां = परलोक में। ऊजलु = रौशन। दरबारे = दरबार में। साचे दरबारे = सदा स्थिर प्रभु के दरबार में।3।
अर्थ: हे भाई! (गुरु की शरण पड़ कर जो मनुष्य) सदा ही परमात्मा के गुण इस तरह गाता रहता है (जैसे वह गुण उसके लिए अभी) नए (हैं, जैसे पहले कभी ना देखी हुई चीज़ मन को आकर्षित करती है), वह मनुष्य चौरासी लाख जूनियों के चक्करों में नहीं भटकता। उस सिख की इस लोक और परलोक में इज्जत होती है। सदा कायम रहने वाले प्रभु की हजूरी में उस मनुष्य का मुँह रौशन होता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिसु मसतकि गुरि धरिआ हाथु ॥ कोटि मधे को विरला दासु ॥ जलि थलि महीअलि पेखै भरपूरि ॥ नानक उधरसि तिसु जन की धूरि ॥४॥१०॥

मूलम्

जिसु मसतकि गुरि धरिआ हाथु ॥ कोटि मधे को विरला दासु ॥ जलि थलि महीअलि पेखै भरपूरि ॥ नानक उधरसि तिसु जन की धूरि ॥४॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिसु मसतकि = जिस (मनुष्य) के माथे पर। गुरि = गुरु ने। को = कोई (सर्वनाम)। जलि = पानी में। थलि = धरती के अंदर। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, अंतरिक्ष में, आकाश में। पेखै = देखता है। भरपूरि = हर जगह व्यापक। नानक = हे नानक! उधरसि = तू (भी) तैर जाएगा।4।
अर्थ: हे भाई! गुरु ने जिस (मनुष्य) के माथे पर हाथ रखा, वह मनुष्य परमात्मा का दास बन जाता है (पर ऐसा मनुष्य) करोड़ों में कोई विरला होता है। (फिर, वह मनुष्य) पानी में धरती में आकाश में (हर जगह) परमात्मा को बसता देखता है। हे नानक! ऐसे मनुष्य की चरण-धूल ले के तू भी संसार-समुंदर से पार लांघ जाएगा।4।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला ५ ॥ कुरबाणु जाई गुर पूरे अपने ॥ जिसु प्रसादि हरि हरि जपु जपने ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

प्रभाती महला ५ ॥ कुरबाणु जाई गुर पूरे अपने ॥ जिसु प्रसादि हरि हरि जपु जपने ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जाई = मैं जाता है। जिसु प्रसादि = जिस (गुरु) की कृपा से। जपने = जपा जा सकता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस (गुरु) की कृपा से सदा परमात्मा (के नाम) का जाप जपा जा सकता है, मैं अपने उस गुरु पर से सदके जाता हूँ (अपने आप को गुरु के हवाले करता हूँ)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अम्रित बाणी सुणत निहाल ॥ बिनसि गए बिखिआ जंजाल ॥१॥

मूलम्

अम्रित बाणी सुणत निहाल ॥ बिनसि गए बिखिआ जंजाल ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाली। निहाल = प्रसन्न चिक्त। बिखिआ = माया। जंजाल = फंदे।1।
अर्थ: हे भाई! (मैं अपने उस गुरु से सदके जाता हूँ, जिसकी) आत्मिक जीवन देने वाली महिमा की वाणी सुन के मन खिल उठता है, और माया (के मोह) के फंदे नाश हो जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साच सबद सिउ लागी प्रीति ॥ हरि प्रभु अपुना आइआ चीति ॥२॥

मूलम्

साच सबद सिउ लागी प्रीति ॥ हरि प्रभु अपुना आइआ चीति ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिउ = साथ। सबद = महिमा। चीति = चिक्त में।2।
अर्थ: हे भाई! (मैं अपने उस गुरु से सदके जाता हूँ, जिससे) सदा-स्थिर प्रभु की महिमा से प्यार बन जाता है, और अपना हरि-प्रभु मन में आ बसता है।2।

[[1341]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामु जपत होआ परगासु ॥ गुर सबदे कीना रिदै निवासु ॥३॥

मूलम्

नामु जपत होआ परगासु ॥ गुर सबदे कीना रिदै निवासु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जपत = जपते हुए। परगासु = (आत्मिक जीवन की सूझ का) प्रकाश। सबदे = शबदि, शब्द से। रिदै = हृदय में।3।
अर्थ: हे भाई! (मैं अपने उस गुरु से सदके जाता हूँ, जिसकी कृपा से परमात्मा का) नाम जपते हुए (मन में आत्मिक जीवन की सूझ की) रौशनी हो जाती है, (जिस) गुरु के शब्द की इनायत से (परमात्मा मनुष्य के) हृदय में आ निवास करता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर समरथ सदा दइआल ॥ हरि जपि जपि नानक भए निहाल ॥४॥११॥

मूलम्

गुर समरथ सदा दइआल ॥ हरि जपि जपि नानक भए निहाल ॥४॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: समरथ = सभ ताकतों का मालिक। जपि = जप के।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) गुरु सभ ताकतों का मालिक है, गुरु सदा ही दयावान रहता है, (गुरु की मेहर से) परमात्मा का नाम जप-जप के मन खिला रहता है।4।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला ५ ॥ गुरु गुरु करत सदा सुखु पाइआ ॥ दीन दइआल भए किरपाला अपणा नामु आपि जपाइआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

प्रभाती महला ५ ॥ गुरु गुरु करत सदा सुखु पाइआ ॥ दीन दइआल भए किरपाला अपणा नामु आपि जपाइआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करत = करते हुए। गुरु गुरु करत = गुरु को हर वक्त याद करते हुए। किरपाला = दयावान।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु को हर वक्त याद करते हुए सदा आत्मिक आनंद प्राप्त हुआ रहता है। गरीबों पर दया करने वाले प्रभु जी मेहरवान हो जाते हैं, और अपना नाम सवयं जपने के लिए (जीव को) प्रेरणा देते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संतसंगति मिलि भइआ प्रगास ॥ हरि हरि जपत पूरन भई आस ॥१॥

मूलम्

संतसंगति मिलि भइआ प्रगास ॥ हरि हरि जपत पूरन भई आस ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संत संगति = गुरु की संगति। मिलि = मिल के। प्रगास = (आत्मिक जीवन की सूझ की) रोशनी। जपत = जपते हुए।1।
अर्थ: हे भाई! गुरु की संगति में मिल के (बैठने से मनुष्य के अंदर आत्मिक जीवन की सूझ का) प्रकाश हो जाता है। (गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा का नाम हर वक्त जपते हुए (हरेक) आशा पूरी हो जाती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरब कलिआण सूख मनि वूठे ॥ हरि गुण गाए गुर नानक तूठे ॥२॥१२॥

मूलम्

सरब कलिआण सूख मनि वूठे ॥ हरि गुण गाए गुर नानक तूठे ॥२॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरब = सारे। कलिआण = कल्याण, सुख, आनंद। मनि = मन में। वूठे = आ बसे। नानक = हे नानक! गुर तूठे = गुरु के प्रसन्न होने पर।2।
अर्थ: हे नानक! यदि गुरु मेहरबान हो जाए, तो परमात्मा के गुण गाए जा सकते हैं (गुण गाने की इनायत से) सारे सुख-आनंद (मनुष्य के) मन में आ बसते हैं।2।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला ५ घरु २ बिभास ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

प्रभाती महला ५ घरु २ बिभास ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवरु न दूजा ठाउ ॥ नाही बिनु हरि नाउ ॥ सरब सिधि कलिआन ॥ पूरन होहि सगल काम ॥१॥

मूलम्

अवरु न दूजा ठाउ ॥ नाही बिनु हरि नाउ ॥ सरब सिधि कलिआन ॥ पूरन होहि सगल काम ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अवरु = अन्य, और। ठाउ = जगह, आसरा। सरब सिधि = सारियां सिद्धियां। सरब कलिआन = सारे सुख। पूरन होहि = पूरे हो जाते हैं (बहुवचन)। काम = काम।1।
अर्थ: हे भाई! (परमातमा के नाम के बिना हम जीवों का) और कोई दूसरा आसरा नहीं है, परमात्मा के नाम के बिना (और कोई सहारा) नहीं है। (हरि-नाम में ही) सारी सिद्धियाँ हैं सारे सुख हैं। (नाम जपने की इनायत से) सारे काम सफल हो जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि को नामु जपीऐ नीत ॥ काम क्रोध अहंकारु बिनसै लगै एकै प्रीति ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि को नामु जपीऐ नीत ॥ काम क्रोध अहंकारु बिनसै लगै एकै प्रीति ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: को = का। जपीऐ = जपना चाहिए। नीत = नित्य, सदा। बिनसै = नाश हो जाता है। एकै प्रीति = एक परमातमा का ही प्यार।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम सदा जपना चाहिए। (जो मनुष्य जपता है उसके अंदर से) काम क्रोध अहंकार (आदि हरेक विकार) नाश हो जाता है, (उसके अंदर) एक परमात्मा का प्यार बना रहता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामि लागै दूखु भागै सरनि पालन जोगु ॥ सतिगुरु भेटै जमु न तेटै जिसु धुरि होवै संजोगु ॥२॥

मूलम्

नामि लागै दूखु भागै सरनि पालन जोगु ॥ सतिगुरु भेटै जमु न तेटै जिसु धुरि होवै संजोगु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नामि = नाम में। भागै = दूर हो जाता है। सरनि पालन जोगु = शरण पड़े की रक्षा कर सकने वाला प्रभु। भेटै = मिलता है। न तेटै = जोर नहीं डाल सकता। धुरि = धुर दरगाह से। संजोगु = (गुरु से) मिलाप का अवसर।2।
अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य परमात्मा के) नाम में जुड़ता है (उसका हरेक) दुख दूर हो जाता है (क्योंकि परमात्मा) शरण पड़े मनुष्य की रक्षा कर सकने वाला है। हे भाई! जिस मनुष्य को धुर-दरगाह से (गुरु के साथ) मिलाप का अवसर मिलता है, उसको गुरु मिल जाता है (और, उस मनुष्य पर) जम (भी) जोर नहीं डाल सकता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रैनि दिनसु धिआइ हरि हरि तजहु मन के भरम ॥ साधसंगति हरि मिलै जिसहि पूरन करम ॥३॥

मूलम्

रैनि दिनसु धिआइ हरि हरि तजहु मन के भरम ॥ साधसंगति हरि मिलै जिसहि पूरन करम ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रैनि = रात। तजहु = छोड़ो। भरम = भटकना। मिलै = मिलता है। जिसहि = जिस के। करम = भाग्य।3।
अर्थ: हे भाई! (अपने) मन की सारी भटकनें छोड़ो, और दिन-रात सदा परमात्मा का नाम जपते रहो। जिस मनुष्य के पूरे भाग्य जागते हैं, उसको गुरु की संगति में परमात्मा मिल जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनम जनम बिखाद बिनसे राखि लीने आपि ॥ मात पिता मीत भाई जन नानक हरि हरि जापि ॥४॥१॥१३॥

मूलम्

जनम जनम बिखाद बिनसे राखि लीने आपि ॥ मात पिता मीत भाई जन नानक हरि हरि जापि ॥४॥१॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिखाद = (विषाद) दुख-कष्ट। जापि = जपा कर।4।
अर्थ: हे दास नानक! सदा परमात्मा का नाम जपा कर। परमात्मा ही माता पिता मित्र भाई है। (परमात्मा का नाम जपने से) अनेक जन्मों के दुख-कष्ट नाश हो जाते हैं, (दुखों-कष्टों से) परतमात्मा स्वयं ही बचा लेता है।4।1।13।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला ५ बिभास पड़ताल ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

प्रभाती महला ५ बिभास पड़ताल ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रम राम राम राम जाप ॥ कलि कलेस लोभ मोह बिनसि जाइ अहं ताप ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

रम राम राम राम जाप ॥ कलि कलेस लोभ मोह बिनसि जाइ अहं ताप ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पड़ताल = ताल बार बार पलटनी है गाते समय। रम = सर्व व्यापक। कलि = दुख, झगड़े। बिनसि जाइ = नाश हो जाता है (एकवचन)। अहं = अहंकार।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सर्व-व्यापक परमात्मा का नाम सदा जपा कर। (नाम-जपने की इनायत से) दुख-कष्ट लोभ मोह अहंकार का ताप - (हरेक विकार) नाश हो जाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपु तिआगि संत चरन लागि मनु पवितु जाहि पाप ॥१॥

मूलम्

आपु तिआगि संत चरन लागि मनु पवितु जाहि पाप ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपु = स्वै भाव। जाहि = दूर हो जाते हैं (बहुवचन)।1।
अर्थ: हे भाई! स्वै-भाव छोड़ दे, संत जनों के चरणों में टिका रह। (इस तरह) मन पवित्र (हो जाता है, और सारे) पाप दूर हो जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानकु बारिकु कछू न जानै राखन कउ प्रभु माई बाप ॥२॥१॥१४॥

मूलम्

नानकु बारिकु कछू न जानै राखन कउ प्रभु माई बाप ॥२॥१॥१४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बारिकु = अंजान बच्चा। न जाणै = नहीं जानता। राखन कउ = रक्षा कर सकने वाला। माई = माँ।2।
अर्थ: हे भाई! नानक (तो प्रभु का एक) अंजान बच्चा (इन विकारों से बचने का) कोई ढंग-तरीका नहीं जानता। प्रभु स्वयं ही बचा सकने वाला है, वह प्रभु ही (नानक का) माता-पिता है।2।1।14।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला ५ ॥ चरन कमल सरनि टेक ॥ ऊच मूच बेअंतु ठाकुरु सरब ऊपरि तुही एक ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

प्रभाती महला ५ ॥ चरन कमल सरनि टेक ॥ ऊच मूच बेअंतु ठाकुरु सरब ऊपरि तुही एक ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: टेक = आसरा। मूच = बड़ा।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! सभ जीवों के ऊपर एक तू ही (रखवाला) है। तू बेअंत ऊँचा मालिक है, तू बेअंत बड़ा मालिक है। (तेरे) सुंदर चरणों की शरण ही (जीवों के लिए) आसरा है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रान अधार दुख बिदार दैनहार बुधि बिबेक ॥१॥

मूलम्

प्रान अधार दुख बिदार दैनहार बुधि बिबेक ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अधार = आसरा। दुख बिदार = दुखों का नाश करने वाला। देनहार = दे सकने वाला। बिबेक = (अच्छे बुरे कामों की) परख।1।
अर्थ: हे प्रभु! (तू सब जीवों की) जिंद का आसरा है, तू (सब जीवों के) दुख नाश करने वाला है, तू (जीवों को) अच्छे-बुरे कर्मों की परख कर सकने वाली बुद्धि (बिबेक) देने वाला है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमसकार रखनहार मनि अराधि प्रभू मेक ॥ संत रेनु करउ मजनु नानक पावै सुख अनेक ॥२॥२॥१५॥

मूलम्

नमसकार रखनहार मनि अराधि प्रभू मेक ॥ संत रेनु करउ मजनु नानक पावै सुख अनेक ॥२॥२॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। अराधि = आराधना करो। मेक = एक, सिर्फ। रेनु = चरण धूल। करउ = मैं करता हूँ। मजनु = स्नान। नानक = हे नानक! पावै = हासिल करता है।2।
अर्थ: हे भाई! सिर्फ (उस) प्रभु को ही (अपने) मन में स्मरण किया करो, उस सब की रक्षा कर सकने वाले को सिर झुकाया करो। हे नानक! (कह: हे भाई!) मैं (उस प्रभु के) संत-जनों के चरणों की धूल में स्नान करता हूँ। (जो मनुष्य संत-जनों की चरण-धूल में स्नान करता है, वह) अनेक सुख हासिल कर लेता है।2।2।15।

[[1342]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती असटपदीआ महला १ बिभास ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

प्रभाती असटपदीआ महला १ बिभास ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुबिधा बउरी मनु बउराइआ ॥ झूठै लालचि जनमु गवाइआ ॥ लपटि रही फुनि बंधु न पाइआ ॥ सतिगुरि राखे नामु द्रिड़ाइआ ॥१॥

मूलम्

दुबिधा बउरी मनु बउराइआ ॥ झूठै लालचि जनमु गवाइआ ॥ लपटि रही फुनि बंधु न पाइआ ॥ सतिगुरि राखे नामु द्रिड़ाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुबिधा = परमात्मा के बिना किसी और आसरे की झाक, दोचिक्तापन। लालचि = लालच के कारण। लपटि रही = (माया) चिपकी रहती है। बंधु = रोक, रुकावट। सतिगुरि = गुरु ने।1।
अर्थ: (माया के मोह के कारण मनुष्य की मति) परमात्मा के बिना अन्य आसरों की झाक में कमली हो जाती है, मन (भी) पागल हो जाता है (इस तरह) झूठे लालच में फंस के मनुष्य अपना जीवन व्यर्थ गवा लेता है। (माया इतनी प्रबल है कि यह जीव को) बार-बार चिपकती है, इसकी राह में कोई रुकावट नहीं पड़ सकती। (हाँ) जिस मनुष्य के हृदय में गुरु ने परमात्मा का नाम दृढ़ कर दिया, उसको उसने (माया के पंजे से) बचा लिया।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ना मनु मरै न माइआ मरै ॥ जिनि किछु कीआ सोई जाणै सबदु वीचारि भउ सागरु तरै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ना मनु मरै न माइआ मरै ॥ जिनि किछु कीआ सोई जाणै सबदु वीचारि भउ सागरु तरै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ना मनु मरै = मन माया के मोह में फसने से हटता नहीं। न माइआ मरै = माया अपना प्रभाव डालने से नहीं हटती। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। किछु = यह खेल। भउ सागरु = संसार समुंदर।1। रहाउ।
अर्थ: माया (इतनी प्रबल है कि ये जीवों पर) अपना प्रभाव डालने से नहीं हटती, (मनुष्य का) मन (कमजोर है यह) माया के मोह में फंसने से नहीं हटता। जिस परमात्मा ने ये खेल रची है वही जानता है (कि माया के प्रभाव से जीव कैसे बच सकता है)। जो मनुष्य गुरु के शब्द को अपने सोच-मण्डल में टिकाता है वह (माया के मोह-रूप) संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माइआ संचि राजे अहंकारी ॥ माइआ साथि न चलै पिआरी ॥ माइआ ममता है बहु रंगी ॥ बिनु नावै को साथि न संगी ॥२॥

मूलम्

माइआ संचि राजे अहंकारी ॥ माइआ साथि न चलै पिआरी ॥ माइआ ममता है बहु रंगी ॥ बिनु नावै को साथि न संगी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संचि = जोड़ जोड़ के, इकट्ठी करके। ममता = अपनत्व, अपना बनाने की तमन्ना। बहु रंगी = कई किस्मों की।2।
अर्थ: माया एकत्र करके राजे गुमान करने लग जाते हैं, पर उनकी वह प्यारी माया (अंत के समय) उनके साथ नहीं जाती। माया को अपनी बनाने की चाहत कई रंगों की है (भाव, कई तरीकों से माया जीव पर ममता का जाल बिछाती है), पर परमात्मा के नाम के बिना और कोई पदार्थ जीव का संगी नहीं बनता, जीव के साथ नहीं जाता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिउ मनु देखहि पर मनु तैसा ॥ जैसी मनसा तैसी दसा ॥ जैसा करमु तैसी लिव लावै ॥ सतिगुरु पूछि सहज घरु पावै ॥३॥

मूलम्

जिउ मनु देखहि पर मनु तैसा ॥ जैसी मनसा तैसी दसा ॥ जैसा करमु तैसी लिव लावै ॥ सतिगुरु पूछि सहज घरु पावै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देखहि = देखते हैं। पर मनु = दूसरे का मन। मनसा = कामना, ख्वाहिश। दसा = दशा, हालत, अवस्था। करमु = काम। लिव = लगन। पूछि = पूछ के। सहज घरु = आत्मिक अडोलता का ठिकाना, वह घर जहाँ आत्मिक अडोलता मिल सके।3।
अर्थ: (माया के प्रभाव तले जीवों की हालत ऐसी हो जाती है कि मनुष्य) जैसे अपने मन को देखते हैं, वैसा ही औरों के मन को समझते हैं (भाव, जैसे अपने आप को माया के वश जानते हैं वैसे ही और लोगों को भी माया के लोभी समझते हैं। इसलिए कोई किसी पर ऐतबार नहीं करता)। (मनुष्य के अंदर) जिस प्रकार की कामना उठती है वैसी ही उसके आत्मिक जीवन की हालत हो जाती है, (उस हालत में) मनुष्य जिस तरह के काम (नित्य) करता है, वैसी ही उसकी लगन बनती जाती है (इस चक्कर में फसा मनुष्य सारी उम्र माया की खातिर भटकता फिरता है)। सतिगुरु जी से शिक्षा ले के ही मनुष्य आत्मिक अडोलता का ठिकाना ढूँढ सकता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागि नादि मनु दूजै भाइ ॥ अंतरि कपटु महा दुखु पाइ ॥ सतिगुरु भेटै सोझी पाइ ॥ सचै नामि रहै लिव लाइ ॥४॥

मूलम्

रागि नादि मनु दूजै भाइ ॥ अंतरि कपटु महा दुखु पाइ ॥ सतिगुरु भेटै सोझी पाइ ॥ सचै नामि रहै लिव लाइ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रागि = राग से। नादि = नाद से। रागि नादि = (दुनिया के) राग रंग से। भाइ = प्यार में। भउ = प्यार। कपटु = खोट। भेटै = मिलता है।4।
अर्थ: (दुनिया वाला राग-रंग भी माया का ही स्वरूप है। विकार-वासना पैदा करने वाले) राग-रंग में फंस के मन परमात्मा के बिना अन्य मोह में फंस जाता है (इस राग-रंग से ज्यों-ज्यों विकार वासना बढ़ती है) मनुष्य के अंदर खोट पैदा होता है (और खोट के कारण) मनुष्य बहुत दुख पाता है। जिस मनुष्य को गुरु मिल जाता है उसको (सही जीवन-राह की) समझ आ जाती है, वह मनुष्य सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के नाम में तवज्जो जोड़े रखता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचै सबदि सचु कमावै ॥ सची बाणी हरि गुण गावै ॥ निज घरि वासु अमर पदु पावै ॥ ता दरि साचै सोभा पावै ॥५॥

मूलम्

सचै सबदि सचु कमावै ॥ सची बाणी हरि गुण गावै ॥ निज घरि वासु अमर पदु पावै ॥ ता दरि साचै सोभा पावै ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर स्मरण का काम। घरि = घर में। अमर पदु = वह दर्जा जहाँ आत्मिक जीवन बना रहता है। दरि = (प्रभु के) दर पर।5।
अर्थ: (जिस मनुष्य को गुरु मिलता है वह) गुरु के सच्चे शब्द में जुड़ के सदा-स्थिर नाम जपने की कमाई करता है, वह परमात्मा की महिमा की वाणी में जुड़ता है वह परमात्मा के गुण (सदा) गाता है, वह (बाहर माया के पीछे भटकने की बजाए) अपने अंतरात्मे ही टिकता है, उसको वह अवस्था प्राप्त हो जाती है जहाँ सदा ऊँचा आत्मिक जीवन बना रहता है। तब वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु के दर पर आदर पाता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर सेवा बिनु भगति न होई ॥ अनेक जतन करै जे कोई ॥ हउमै मेरा सबदे खोई ॥ निरमल नामु वसै मनि सोई ॥६॥

मूलम्

गुर सेवा बिनु भगति न होई ॥ अनेक जतन करै जे कोई ॥ हउमै मेरा सबदे खोई ॥ निरमल नामु वसै मनि सोई ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खोई = नाश होता है। सोई = वही।6।
अर्थ: अगर कोई मनुष्य अनेक प्रयत्न भी करे, तो भी गुरु की बताई हुई सेवा किए बिना परमात्मा की भक्ति नहीं हो सकती (अहंकार और ममता मनुष्य का मन भक्ति में जुड़ने नहीं देते; ये) अहंकार और ममता गुरु के शब्द से ही मनुष्य (अपने अंदर से) दूर कर सकता है। जिस मनुष्य के मन में (गुरु की कृपा से परमात्मा का) पवित्र नाम बस जाता है वह पवित्र जीवन वाला हो जाता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इसु जग महि सबदु करणी है सारु ॥ बिनु सबदै होरु मोहु गुबारु ॥ सबदे नामु रखै उरि धारि ॥ सबदे गति मति मोख दुआरु ॥७॥

मूलम्

इसु जग महि सबदु करणी है सारु ॥ बिनु सबदै होरु मोहु गुबारु ॥ सबदे नामु रखै उरि धारि ॥ सबदे गति मति मोख दुआरु ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरु = श्रेष्ठ। गुबारु = अंधेरा। उरि = हृदय में। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।7।
अर्थ: सतिगुरु का शब्द (हृदय में बसाना) इस जगत में सबसे श्रेष्ठ कर्म है। गुरु-शब्द के बिना मनुष्य के प्राणों के लिए (चारों तरफ) अन्य सब कुछ मोह (-रूपी) घुप-अंधेरा पैदा करने वाला है। जो मनुष्य गुरु के शब्द द्वारा अपने द्ददय में परमात्मा का नाम टिका के रखता है, वह शब्द में जुड़ के ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है उसकी मति सु-मति हो जाती है, वह (माया के मोह से) खलासी पाने का रास्ता तलाश लेता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवरु नाही करि देखणहारो ॥ साचा आपि अनूपु अपारो ॥ राम नाम ऊतम गति होई ॥ नानक खोजि लहै जनु कोई ॥८॥१॥

मूलम्

अवरु नाही करि देखणहारो ॥ साचा आपि अनूपु अपारो ॥ राम नाम ऊतम गति होई ॥ नानक खोजि लहै जनु कोई ॥८॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करि = (जगत) पैदा करके। देखणहारो = संभाल करने वाला। अनूपु = (उपमा रहित) बेमिसाल, महां सुंदर। अपारो = जिसके गुणों का परला किनारा ना दिखे।8।
अर्थ: (गुरु के शब्द में जुड़ने वाले को ये समझ आ जाती है कि) जगत रच के इसकी संभाल करने वाला एक परमात्मा ही है, और कोई दूसरा नहीं है। वह प्रभु स्वयं सदा-स्थिर रहने वाला है, उस जैसा और कोई नहीं, और उसके गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। वह मनुष्य प्रभु का नाम जप-जप के ऊँची आत्मिक अवस्था प्राप्त कर लेता है।
पर, हे नानक! कोई विरला मनुष्य ही (गुरु के शब्द से) तलाश कर के परमात्मा की प्राप्ति करता है।8।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला १ ॥ माइआ मोहि सगल जगु छाइआ ॥ कामणि देखि कामि लोभाइआ ॥ सुत कंचन सिउ हेतु वधाइआ ॥ सभु किछु अपना इकु रामु पराइआ ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला १ ॥ माइआ मोहि सगल जगु छाइआ ॥ कामणि देखि कामि लोभाइआ ॥ सुत कंचन सिउ हेतु वधाइआ ॥ सभु किछु अपना इकु रामु पराइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मोहि = मोह ने। छाइआ = प्रभावित किया हुआ है। कामणि = स्त्री। कामि = काम-वासना में। सुत = पुत्र। कंचन = सोना। हेतु = मोह, प्रेम।1।
अर्थ: (प्रभु के नाम से टूटे हुए) सारे जगत को माया के मोह ने प्रभावित किया हुआ है (कहीं तो ये) स्त्री को देख के काम-वासना में फंस जाता है (कहीं ये जगत) पुत्रों और सोने (आदि धन) के साथ प्यार बढ़ा रहा है। (जगत ने दिखती) हरेक चीज़ को अपनी बनाया हुआ है, सिर्फ परमात्मा को ही (ये) पराया (अनजान, बाहरी) समझता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसा जापु जपउ जपमाली ॥ दुख सुख परहरि भगति निराली ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ऐसा जापु जपउ जपमाली ॥ दुख सुख परहरि भगति निराली ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जपउ = मैं जपता हूँ। जपमाली = माला की तरह (जैसे माला के मणके कभी खत्म नहीं होते) एक तार। परहरि = त्याग के। निराली = निरी, केवल।1। रहाउ।
अर्थ: (जैसे माया के मणके समाप्त नहीं होते, मणकों का चक्र जारी रहता है) मैं एक-तार (सदा) ऐसे तरीके से परमात्मा के गुणों का जाप जपता हूँ कि दुखों की घबराहट और सुखों की लालसा छोड़ के प्रभु की केवल (प्रेम-भरी) भक्ति ही करता हूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुण निधान तेरा अंतु न पाइआ ॥ साच सबदि तुझ माहि समाइआ ॥ आवा गउणु तुधु आपि रचाइआ ॥ सेई भगत जिन सचि चितु लाइआ ॥२॥

मूलम्

गुण निधान तेरा अंतु न पाइआ ॥ साच सबदि तुझ माहि समाइआ ॥ आवा गउणु तुधु आपि रचाइआ ॥ सेई भगत जिन सचि चितु लाइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुण निधान = हे गुणों के खजाने प्रभु! आवागउणु = जनम मरण का चक्कर। सचि = सदा स्थिर प्रभु में।2।
अर्थ: हे गुणों के खजाने प्रभु! (तेरी कुदरति का) किसी ने अंत नहीं पाया। जो मनुष्य तेरी सदा स्थिर रहने वाली महिमा के शब्द में जुड़ता है वही तेरे चरणों में लीन रहता है (वह तुझे ‘पराया’ नहीं जानता)। हे प्रभु! जनम-मरण के चक्क्र तूने स्वयं ही बनाए हैं, जिन्होंने तेरे सदा-स्थिर नाम में चिक्त जोड़ा है (वे इन चक्करों में नहीं पड़ते, और) वही (तेरे असल) भक्त हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गिआनु धिआनु नरहरि निरबाणी ॥ बिनु सतिगुर भेटे कोइ न जाणी ॥ सगल सरोवर जोति समाणी ॥ आनद रूप विटहु कुरबाणी ॥३॥

मूलम्

गिआनु धिआनु नरहरि निरबाणी ॥ बिनु सतिगुर भेटे कोइ न जाणी ॥ सगल सरोवर जोति समाणी ॥ आनद रूप विटहु कुरबाणी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नरहरि = परमात्मा। निरबाणी = वासना रहित। सरोवर = सरोवरों में, शरीरों में। विटहु = से।3।
अर्थ: परमात्मा की ज्योति सारे ही शरीरों में व्यापक है (फिर भी) उस वासना-रहित प्रभु के साथ गहरी सांझ और उसके चरणों में जुड़ना सतिगुरु को मिले बिना कोई मनुष्य नहीं समझ सकता।
मैं उस आनंद-स्वरूप परमात्मा से बलिहार (जाता) हूँ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भाउ भगति गुरमती पाए ॥ हउमै विचहु सबदि जलाए ॥ धावतु राखै ठाकि रहाए ॥ सचा नामु मंनि वसाए ॥४॥

मूलम्

भाउ भगति गुरमती पाए ॥ हउमै विचहु सबदि जलाए ॥ धावतु राखै ठाकि रहाए ॥ सचा नामु मंनि वसाए ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: विचहु = अपने अंदर से। सबदि = शब्द से। धावतु = (माया की ओर) दौड़ता मन। मंनि = मन में।4।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु की मति पर चल कर परमात्मा के साथ प्यार करना सीखता है परमात्मा की भक्ति करता है, वह गुरु के शब्द में जुड़ के अपने अंदर से अहंकार को जला देता है, वह (माया की तरफ़) दौड़ते मन को बचा लेता है (बाहर जाते को) रोक के (अपने अंदर ही) टिका लेता है, वह मनुष्य परमात्मा का सदा-स्थिर नाम अपने मन में बसा लेता है।4।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

बिसम बिनोद रहे परमादी ॥ गुरमति मानिआ एक लिव लागी ॥ देखि निवारिआ जल महि आगी ॥ सो बूझै होवै वडभागी ॥५॥

मूलम्

बिसम बिनोद रहे परमादी ॥ गुरमति मानिआ एक लिव लागी ॥ देखि निवारिआ जल महि आगी ॥ सो बूझै होवै वडभागी ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिसम = आश्चर्य। बिनोद = रंग तमाशे। रहे = रह जाते हैं, समाप्त हो जाते हैं। परमादी = प्रमाद पैदा करने वाले, मस्ती पैदा करने वाले, प्रमोदी। देखि = (परमात्मा को) देख के। जल महि = नाम जल में डुबकी लगा के। आगी = आग, तृष्णा अग्नि।5।
अर्थ: (उस मनुष्य के अंदर से) मोह का प्रमोद करने वाले आश्चर्य रंग-तमाशे समाप्त हो जाते हैं, उसका मन गुरु की शिक्षा में पतीज जाता है, उसकी तवज्जो एक प्रभु में जुड़ी रहती है, परमात्मा के दर्शन करके परमात्मा के नाम-जल में डुबकी लगा के वह अपने अंदर से तृष्णा की आग बुझा लेता है। पर ये भेद वही समझता है जो भाग्यशाली हो।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु सेवे भरमु चुकाए ॥ अनदिनु जागै सचि लिव लाए ॥ एको जाणै अवरु न कोइ ॥ सुखदाता सेवे निरमलु होइ ॥६॥

मूलम्

सतिगुरु सेवे भरमु चुकाए ॥ अनदिनु जागै सचि लिव लाए ॥ एको जाणै अवरु न कोइ ॥ सुखदाता सेवे निरमलु होइ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भरमु = भटकना। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। जागै = (माया के हमलों के प्रति) सचेत रहता है। सचि = सदा स्थिर प्रभु में।6।
अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरु की शरण पड़ता है वह अपने मन की भटकना दूर कर लेता है, वह हर वक्त (माया के हमलों के प्रति) सुचेत रहता है, वह सदा-स्थिर प्रभु में अपनी तवज्जो जोड़े रखता है। वह मनुष्य सिर्फ परमात्मा को ही सुखों का दाता समझता है, किसी और को नहीं। वह उस सुखदाते को स्मरण करता है और (नाम-जपने की इनायत से) पवित्र (जीवन वाला) हो जाता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेवा सुरति सबदि वीचारि ॥ जपु तपु संजमु हउमै मारि ॥ जीवन मुकतु जा सबदु सुणाए ॥ सची रहत सचा सुखु पाए ॥७॥

मूलम्

सेवा सुरति सबदि वीचारि ॥ जपु तपु संजमु हउमै मारि ॥ जीवन मुकतु जा सबदु सुणाए ॥ सची रहत सचा सुखु पाए ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: स्बदि = गुरु के शब्द से। मारि = मार के। जा = जब। सची = सदा स्थिर।7।
अर्थ: गुरु के शब्द से परमात्मा के गुणों की विचार कर के उस मनुष्य की तवज्जो सेवा की ओर पलटती है, अपने अंदर से अहंकार को मार के वह, मानो, जप तप और संयम कमा लेता है। सतिगुरु उसको अपना शब्द सुनाता है और वह मनुष्य दुनिया के कार्य-न्व्यवहार करता हुआ ही (माया के मोह से) स्वतंत्र हो जाता है, उसकी रहिणी-बहिणी ऐसी हो जाती है कि (माया की तरफ) वह डोलता ही नहीं और (इस तरह) वह सदा कायम रहने वाला आत्मिक आनंद पाता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुखदाता दुखु मेटणहारा ॥ अवरु न सूझसि बीजी कारा ॥ तनु मनु धनु हरि आगै राखिआ ॥ नानकु कहै महा रसु चाखिआ ॥८॥२॥

मूलम्

सुखदाता दुखु मेटणहारा ॥ अवरु न सूझसि बीजी कारा ॥ तनु मनु धनु हरि आगै राखिआ ॥ नानकु कहै महा रसु चाखिआ ॥८॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बीजी = दूसरी, अन्य। नानकु कहै = नानक कहता है।8।
अर्थ: उस मनुष्य को परमात्मा ही सुखों के देने वाला और दुखों को काटने वाला दिखता है (इस वास्ते प्रभु के स्मरण के बिना) उसको और कोई काम (लाभदायक) नहीं सूझती। वह मनुष्य अपना शरीर अपना मन और अपना धन-पदार्थ परमात्मा के आगे भेटा रखता है। नानक कहता है कि वह मनुष्य (सब रसों से) श्रेष्ठ नाम-रस चखता है।8।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला १ ॥ निवली करम भुअंगम भाठी रेचक पूरक कु्मभ करै ॥ बिनु सतिगुर किछु सोझी नाही भरमे भूला बूडि मरै ॥ अंधा भरिआ भरि भरि धोवै अंतर की मलु कदे न लहै ॥ नाम बिना फोकट सभि करमा जिउ बाजीगरु भरमि भुलै ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला १ ॥ निवली करम भुअंगम भाठी रेचक पूरक कु्मभ करै ॥ बिनु सतिगुर किछु सोझी नाही भरमे भूला बूडि मरै ॥ अंधा भरिआ भरि भरि धोवै अंतर की मलु कदे न लहै ॥ नाम बिना फोकट सभि करमा जिउ बाजीगरु भरमि भुलै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निवली करम = आँतों को चक्कर में घुमाना। भुअंगम = कुण्डलनी नाड़ी। भाठी = दसवाँ द्वार। रेचक = श्वास उतारने। पूरक = श्वास ऊपर चढ़ाने। कुंभ = श्वास सुखमना में टिकाए रखने (रेचक, पूरक, कुंभक = ये तीनों प्राणायाम के साधन हैं)। मरै = आत्मिक मौत सहेड़ लेता है। फोकट = फोके, व्यर्थ। सभि = सारे।1।
अर्थ: (अज्ञानी अंधे मनुष्य प्रभु का नाम बिसार के) निवली कर्म करता है, कुण्डलनी नाड़ी से दसवें द्वार में प्राण चढ़ाता है, श्वास उतारता है, श्वास चढ़ाता है, श्वास (सुखमना में) टिकाता है। पर इस भटकना में गलत रास्ते पर पड़ कर (इन कर्मों के चक्करों में) फंस के आत्मिक मौत सहेड़ लेता है। सतिगुरु की शरण पड़े बिना सही जीवन की इसको समझ नहीं पड़ती। अंधा मनुष्य विकारों की मैल से भरा रहता है, बार-बार गलत रास्ते पर पड़ कर और विकारों की मैल से लिबड़ता है (निवली कर्म आदि के द्वारा) यह मैल धोने का यत्न करता है, पर (इस तरह) मन की मैल कभी नहीं उतरती। (ये रेचक, पूरक आदि) आरे ही कर्म परमात्मा के नाम के बिना व्यर्थ हैं। जैसे किसी मदारी को देख के (अंजान मनुष्य) भुलेखे में पड़ जाता है (कि जो जो कुछ मदारी दिखाता है सचमुच उसके पास मौजूद है, वैसे ही कर्मकांडी मनुष्य इन नाटकों-चेटकों में भुलेखा खा जाता है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

खटु करम नामु निरंजनु सोई ॥ तू गुण सागरु अवगुण मोही ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

खटु करम नामु निरंजनु सोई ॥ तू गुण सागरु अवगुण मोही ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खटु करम = शास्त्रों में बताए गए छह किस्म के धार्मिक कर्म। मोही = मेरे में ही।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! शास्त्रों में बताए गए छह धार्मिक कर्म (मेरे लिए) तेरा नाम ही है, तेरा नाम माया की कालिख से रहित है। हे प्रभु! तू गुणों का खजाना है, पर (पर तेरे नाम से टूट के और अन्य कर्मकांडों में पड़ कर) मेरे अंदर अवगुण पैदा हो जाते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माइआ धंधा धावणी दुरमति कार बिकार ॥ मूरखु आपु गणाइदा बूझि न सकै कार ॥ मनसा माइआ मोहणी मनमुख बोल खुआर ॥ मजनु झूठा चंडाल का फोकट चार सींगार ॥२॥

मूलम्

माइआ धंधा धावणी दुरमति कार बिकार ॥ मूरखु आपु गणाइदा बूझि न सकै कार ॥ मनसा माइआ मोहणी मनमुख बोल खुआर ॥ मजनु झूठा चंडाल का फोकट चार सींगार ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धावणी = दौड़ भाग, भटकना। बिकार = व्यर्थ। आपु = अपने आप को। गणाइदा = अच्छा कहलवाता है। मनसा = कामना, ख्वाहिश। मजनु = स्नान। चार = सुंदर।2।
अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य के मन की दौड़-भाग तो माया के धंधों में ही रहती है; मूर्ख सही रास्ते के काम को तो समझता नहीं, (इन निवली कर्म आदि के कारण) अपने आप को बड़ा जाहिर करने का प्रयत्न करता है; उस मनमुख की ख्वाहिशें मोहनी माया में ही बनी रहती हैं (ऊपर-ऊपर से धर्म के) बोल से (बल्कि) ख्वार होता है। (अंतरात्मे उसका जीवन चण्डाल जैसा है) उस चण्डाल का किया हुआ तीर्थ-स्नान भी निरी ठगी ही होती है, (निवली कर्म आदि वाले उसके सारे) सुंदर श्रृंगार व्यर्थ जाते हैं।
उसका यह सारा उद्यम इस प्रकार है जैसे किसी ब्राहमण के लिए किसी चण्डाल का तीर्थ-स्नान निरी ठगी है और उसका सुंदर श्रृंगार भी फोका है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

झूठी मन की मति है करणी बादि बिबादु ॥ झूठे विचि अहंकरणु है खसम न पावै सादु ॥ बिनु नावै होरु कमावणा फिका आवै सादु ॥ दुसटी सभा विगुचीऐ बिखु वाती जीवण बादि ॥३॥

मूलम्

झूठी मन की मति है करणी बादि बिबादु ॥ झूठे विचि अहंकरणु है खसम न पावै सादु ॥ बिनु नावै होरु कमावणा फिका आवै सादु ॥ दुसटी सभा विगुचीऐ बिखु वाती जीवण बादि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बादि = व्यर्थ। बिबाद = झगड़ा। अहंकरणु = अहंकार। सादु = स्वाद, आनंद। विगुचीऐ = दुखी होते हैं। बिखु = जहर। वाती = वात में, मुँह में।3।
अर्थ: मनमुख के मन की मति झूठ की ओर ले जाती है, उसके कर्तव्य भी निरे झगड़े का मूल हैं और व्यर्थ जाते हैं। उस झूठ विहाजने वाले के अंदर अहमं अहंकार टिका रहता है उसको पति-प्रभु के मिलाप का आनंद नहीं आ सकता। परमात्मा के नाम को छोड़ के (निवली कर्म आदि) जो कर्म भी किए जाते हैं उनका स्वाद फीका होता है (वह जीवन को फीका ही बनाते हैं) ऐसी बुरी संगति में (बैठने से) ख्वार हुआ जाता है क्योंकि ऐसे लोगों के मुँह में (फीके बोल-रूप) जहर होता है और उनका जीवन व्यर्थ जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ए भ्रमि भूले मरहु न कोई ॥ सतिगुरु सेवि सदा सुखु होई ॥ बिनु सतिगुर मुकति किनै न पाई ॥ आवहि जांहि मरहि मरि जाई ॥४॥

मूलम्

ए भ्रमि भूले मरहु न कोई ॥ सतिगुरु सेवि सदा सुखु होई ॥ बिनु सतिगुर मुकति किनै न पाई ॥ आवहि जांहि मरहि मरि जाई ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ए = हे! भ्रमि = भटकना में। मरि जाई = आत्मिक मौत मर जाता है।4।
अर्थ: (न्योली कर्म आदि की) भटकना में भूले हुए, हे लोगो! (इस राह पर पड़ कर) आत्मिक मौत ना सहेड़ों। सतिगुरु की शरण पड़ने से ही सदा का आत्मिक आनंद मिलता है। गुरु की शरण के बिना कभी किसी को (माया के मोह से) निजात नहीं मिलती। वे सदा पैदा होते हैं और आत्मिक मौत सहेड़ते हैं। (जो भी मनुष्य गुरु की शरण से और स्मरण से वंचित रहता है) वह आत्मिक मौत सहेड़ता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एहु सरीरु है त्रै गुण धातु ॥ इस नो विआपै सोग संतापु ॥ सो सेवहु जिसु माई न बापु ॥ विचहु चूकै तिसना अरु आपु ॥५॥

मूलम्

एहु सरीरु है त्रै गुण धातु ॥ इस नो विआपै सोग संतापु ॥ सो सेवहु जिसु माई न बापु ॥ विचहु चूकै तिसना अरु आपु ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धातु = माया। अरु = और। आपु = आपा भाव, स्वै भाव, अहंकार।5।
अर्थ: यह शरीर है ही त्रै-गुणी माया का स्वरूप (भाव, इन्द्रियाँ सहज ही माया के मोह में फंस जाती है, जिसका नतीजा यह निकलता है कि) शरीर को चिन्ता-फिक्र और दुख-कष्ट सताए रखता है। (हे भाई!) उस परमात्मा का स्मरण करो, जिसका ना कोई पिता है ना कोई माता है, (नाम-जपने की इनायत से) अंदर से माया की तृष्णा अहम्ं व अहंकार मिट जाता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जह जह देखा तह तह सोई ॥ बिनु सतिगुर भेटे मुकति न होई ॥ हिरदै सचु एह करणी सारु ॥ होरु सभु पाखंडु पूज खुआरु ॥६॥

मूलम्

जह जह देखा तह तह सोई ॥ बिनु सतिगुर भेटे मुकति न होई ॥ हिरदै सचु एह करणी सारु ॥ होरु सभु पाखंडु पूज खुआरु ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देखा = मैं देखता हूँ। सारु = श्रेष्ठ।6।
अर्थ: (गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम जप के अब) मैं जिधर-जिधर निगाह मारता हूँ मुझे वही परमात्मा बसता दिखता है (और मुझे माया गलत राह पर नहीं डालती)। पर गुरु की शरण के बिना माया के बंधनो से आजादी नहीं मिल सकती। (हे भाई!) सदा-स्थिर परमात्मा का नाम हृदय में बसाना - यह कर्तव्य सबसे श्रेष्ठ है (यह छोड़ के निवली आदि कर्म करना) यह सब कुछ पाखण्ड है (इन कर्मों के द्वारा लोगों से करवाई) पूजा-सेवा (आखिर) दुखी करती है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुबिधा चूकै तां सबदु पछाणु ॥ घरि बाहरि एको करि जाणु ॥ एहा मति सबदु है सारु ॥ विचि दुबिधा माथै पवै छारु ॥७॥

मूलम्

दुबिधा चूकै तां सबदु पछाणु ॥ घरि बाहरि एको करि जाणु ॥ एहा मति सबदु है सारु ॥ विचि दुबिधा माथै पवै छारु ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुबिधा = प्रभु के बिना अन्य आसरे की झाक। पछाणु = पहचानने योग्य। माथै = माथे पर, सिर पर। छारु = राख।7।
अर्थ: हे भाई! गुरु के शब्द से सांझ बनाओ, अपने अंदर और बाहर सारे संसार में सिर्फ एक परमात्मा को बसता समझो। तब ही अन्य आसरों की आस खत्म होगी। यही सद्-बुद्धि है। गुरु का शब्द (हृदय में बसाना ही) श्रेष्ठ (उत्तम) है। जो मनुष्य गुरु का शब्द बिसार के प्रभु का नाम भुला के अन्य आसरों की झाक में पड़ता है, उसके सिर राख ही पड़ती है (वह दुखी ही होता है)।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करणी कीरति गुरमति सारु ॥ संत सभा गुण गिआनु बीचारु ॥ मनु मारे जीवत मरि जाणु ॥ नानक नदरी नदरि पछाणु ॥८॥३॥

मूलम्

करणी कीरति गुरमति सारु ॥ संत सभा गुण गिआनु बीचारु ॥ मनु मारे जीवत मरि जाणु ॥ नानक नदरी नदरि पछाणु ॥८॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करणी = करतब। कीरति = कीर्ति, महिमा। नदरी = मेहर की निगाह करने वाला परमात्मा।8।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा की महिमा करनी श्रेष्ठ करनी है, गुरु की शिक्षा पर चलना श्रेष्ठ उद्यम है। साधु-संगत में जा के परमात्मा के गुणों के साथ सांझ डालनी सीख। ये बात पक्की समझ कि जो मनुष्य अपने मन को मारता है वह दुनिया के कार्य-व्यवहार करता हुआ ही (विकारों की चोट से बचा रहता है) माया के मोह से उपराम रहता है। हे नानक! वह मनुष्य मेहर की निगाह करने वाले परमात्मा की नजर में आ जाता है (परमात्मा को जच जाता है)।8।3।

[[1344]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला १ दखणी ॥ गोतमु तपा अहिलिआ इसत्री तिसु देखि इंद्रु लुभाइआ ॥ सहस सरीर चिहन भग हूए ता मनि पछोताइआ ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला १ दखणी ॥ गोतमु तपा अहिलिआ इसत्री तिसु देखि इंद्रु लुभाइआ ॥ सहस सरीर चिहन भग हूए ता मनि पछोताइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लुभाइआ = मस्त हो गया। सहस = हजार। चिहन = निशान। मनि = मन में।1।
अर्थ: गौतम (एक प्रसिद्ध) तपस्वी (था), अहिल्या (उसकी) स्त्री (थी), उसका रूप देख के (देवताओं का राजा कहलवाने वाला) इन्द्र मोहित हो गया। (गौतम के श्राप से) (उसके इन्द्र के) शरीर पर हजार भगों के निशान बन गए, तब इन्द्र अपने मन में (उस कुकर्म पर) पछताया।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोई जाणि न भूलै भाई ॥ सो भूलै जिसु आपि भुलाए बूझै जिसै बुझाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कोई जाणि न भूलै भाई ॥ सो भूलै जिसु आपि भुलाए बूझै जिसै बुझाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जाणि = जान बूझ के, सोच समझ के। भूलै = गलत रास्ते पर पड़ता है। भाई = हे भाई!।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! कोई भी जीव जान-बूझ के गलत राह पर नहीं पड़ता (जीव के वश की बात नहीं)। वही मनुष्य कुमार्ग पर पड़ता है जिसको परमात्मा स्वयं कुमार्ग पर डालता है। वही मनुष्य (सही जीवन-राह को) समझता है, जिसको परमात्मा स्वयं समझ बख्शता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिनि हरी चंदि प्रिथमी पति राजै कागदि कीम न पाई ॥ अउगणु जाणै त पुंन करे किउ किउ नेखासि बिकाई ॥२॥

मूलम्

तिनि हरी चंदि प्रिथमी पति राजै कागदि कीम न पाई ॥ अउगणु जाणै त पुंन करे किउ किउ नेखासि बिकाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिनि हरी चंद राजे = उस राजे हरी चंद ने। कागदि = कागज़ पर। कीम = कीमत! नेखासि = मंडी में।2।
अर्थ: धरती के राजे उस राजा हरी चंद ने (इतने दान-पुण्य किए कि उनका) मूल्य कागज़ पर नहीं पड़ सकता। अगर (राजा हरी चंद उन दान-पुन्यों को) बुरा काम समझता तो दान-पुण्य करता ही क्यों? (ना वह दान पुण्य करता) और ना ही मंडी में बिकता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करउ अढाई धरती मांगी बावन रूपि बहानै ॥ किउ पइआलि जाइ किउ छलीऐ जे बलि रूपु पछानै ॥३॥

मूलम्

करउ अढाई धरती मांगी बावन रूपि बहानै ॥ किउ पइआलि जाइ किउ छलीऐ जे बलि रूपु पछानै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करउ अढाई = ढाई करम (लम्बी)। बावन रूपि = बौने रूप में। बहानै = बहाने से। पइआलि = पाताल में। छलीऐ = ठगा जाता है। रूपु = बौने रूप को।3।
अर्थ: (विष्णू ने) बौने रूप में (आ के) बहाने से राजा बलि से ढाई करम धरती (का दान अपनी कुटिया बनाने के लिए) माँगा। अगर बलि राजा बौने रूप को पहचान लेता, तो ना ही ठगा जाता और ना ही पाताल में जाता।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजा जनमेजा दे मतीं बरजि बिआसि पड़्हाइआ ॥ तिन्हि करि जग अठारह घाए किरतु न चलै चलाइआ ॥४॥

मूलम्

राजा जनमेजा दे मतीं बरजि बिआसि पड़्हाइआ ॥ तिन्हि करि जग अठारह घाए किरतु न चलै चलाइआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दे = दे के। मती = शायद। बरजि = वरज के, रोक के। बिआसि = ब्यास ने। तिनि = उस (राजा जनमेजा) ने। घाए = मार दिए। किरतु = किए हुए कर्मों के संस्कारों का समूह।4।
अर्थ: ब्यास ऋषि ने राजा जनमेजा को खूब समझाया और मना किया (कि उस अप्सरा को अपने घर ना लाना। पर, परमात्मा ने उसकी बुद्धि भ्रष्ट की हुई थी। उसने ऋषि का कहना नहीं माना। अप्सरा को ले आया। फिर) उसने अठारह यज्ञ करके अठराह ब्राहमण मार दिए (क्योंकि वह बहुत ही बारीक कपड़ों में आई अर्ध-नग्न अप्सरा देख के हँस पड़े थे)। किए कर्मों के फल को कोई मिटा नहीं सकता।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गणत न गणीं हुकमु पछाणा बोली भाइ सुभाई ॥ जो किछु वरतै तुधै सलाहीं सभ तेरी वडिआई ॥५॥

मूलम्

गणत न गणीं हुकमु पछाणा बोली भाइ सुभाई ॥ जो किछु वरतै तुधै सलाहीं सभ तेरी वडिआई ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: न गणीं = मैं नहीं गिनता। बोली = मैं बोलता हूँ। भाइ = भाय, प्रेम में। तुधै = तुझे ही, हे प्रभु! सलाहीं = मैं सलाहता हूं।5।
अर्थ: हे प्रभु! मैं और कोई सोचें नहीं सोचता, मैं तो तेरी रज़ा को समझने का प्रयत्न करता हूँ, और तेरे प्रेम में (मगन हो के) तेरे गुण उचारता हूँ। मैं तो तेरी ही महिमा करता हूँ। जो कुछ जगत में हो रहा है तेरी ताकत का जहूर हो रहा है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि अलिपतु लेपु कदे न लागै सदा रहै सरणाई ॥ मनमुखु मुगधु आगै चेतै नाही दुखि लागै पछुताई ॥६॥

मूलम्

गुरमुखि अलिपतु लेपु कदे न लागै सदा रहै सरणाई ॥ मनमुखु मुगधु आगै चेतै नाही दुखि लागै पछुताई ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अलिपतु = निर्लिप। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। आगै = पहले, समय सिर। दुखि लागै = दुख लगने पर, जब दुख में फसता है।6।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है वह जगत में निर्लिप रहता है, उस पर माया का प्रभाव नहीं पड़ता, वह सदा परमात्मा की ओट पकड़ता है। पर अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (जिंदगी में) समय सिर परमात्मा को याद नहीं करता, जब (अपनी इस मूर्खता के कारण) दुख में फंस जाता है तो हाथ मलता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे करे कराए करता जिनि एह रचना रचीऐ ॥ हरि अभिमानु न जाई जीअहु अभिमाने पै पचीऐ ॥७॥

मूलम्

आपे करे कराए करता जिनि एह रचना रचीऐ ॥ हरि अभिमानु न जाई जीअहु अभिमाने पै पचीऐ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस (कर्तार) ने। हरि = हे हरि! जीअहु = दिल में से। पै = पड़ कर।7।
अर्थ: जिस परमात्मा ने यह जगत रचना रची है वह स्वयं ही सब कुछ करता है वह स्वयं ही जीवों से सब कुछ कराता है।
हे प्रभु! (हम जीव मूर्ख हैं, हम यह गुमान करते हैं कि हम ही सब कुछ करते हैं और कर सकते हैं) हमारे दिलों में से अहंकार दूर नहीं होता। अहंकार में पड़ कर दुखी होते हैं।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भुलण विचि कीआ सभु कोई करता आपि न भुलै ॥ नानक सचि नामि निसतारा को गुर परसादि अघुलै ॥८॥४॥

मूलम्

भुलण विचि कीआ सभु कोई करता आपि न भुलै ॥ नानक सचि नामि निसतारा को गुर परसादि अघुलै ॥८॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभु कोई = हरेक जीव। निसतारा = विकारों से निजात। परसादि = कृपा से। अघुलै = खलासी प्राप्त करता है, मुक्ति मिलती है।8।
अर्थ: ईश्वर स्वयं कभी गलती नहीं करता। पर, हरेक जीव जो उसने पैदा किया है भूलों में फंसता रहता है।
हे नानक! सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के नाम में जुड़ने से इन भूलों से बचा जा सकता है। गुरु की कृपा से ही कोई विरला जीव कुमार्ग पर पड़ने से बचता है।8।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला १ ॥ आखणा सुनणा नामु अधारु ॥ धंधा छुटकि गइआ वेकारु ॥ जिउ मनमुखि दूजै पति खोई ॥ बिनु नावै मै अवरु न कोई ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला १ ॥ आखणा सुनणा नामु अधारु ॥ धंधा छुटकि गइआ वेकारु ॥ जिउ मनमुखि दूजै पति खोई ॥ बिनु नावै मै अवरु न कोई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अधारु = आसरा। वेकारु = व्यर्थ। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। दूजै = प्रभु के बिना किसी और आसरे की झाक में। पति = इज्जत।1।
अर्थ: जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम सुनने व सुनाने को अपने आत्मिक जीवन का सहारा बना लिया है, उसकी माया की खातिर हर वक्त की व्यर्थ दौड़-भाग समाप्त हो जाती है। पर अपने मन के पीछे चलने वाला बँदा परमात्मा के बिना और-और आसरे की झाक में (दौड़-भाग करता) है और इज्जत गवा लेता है। (हे मेरे मन!) मुझे तो परमात्मा के नाम के बिना कोई और आसरा नहीं सूझता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुणि मन अंधे मूरख गवार ॥ आवत जात लाज नही लागै बिनु गुर बूडै बारो बार ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सुणि मन अंधे मूरख गवार ॥ आवत जात लाज नही लागै बिनु गुर बूडै बारो बार ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन गवार = हे गवार मन! लाज नही लागै = शर्म नहीं आती। बारो बार = बार-बार।1। रहाउ।
अर्थ: हे (माया के मोह में) अंधे हुए मन! हे मूर्ख मन! हे गवार मन! सुन (जो व्यक्ति माया के मोह में अंधा हो जाता है, और बार-बार माया के मोह में फंसने से बाज़ नहीं आता, उसको सिर्फ) माया की खातिर दौड़-भाग करने में कोई शर्म महसूस नहीं होती। गुरु की शरण से वंचित रह के वह बार-बार माया के मोह में ही डूबता है (हे मन! याद रख कि तू भी ऐसा ही निर्लज हो जाएगा)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इसु मन माइआ मोहि बिनासु ॥ धुरि हुकमु लिखिआ तां कहीऐ कासु ॥ गुरमुखि विरला चीन्है कोई ॥ नाम बिहूना मुकति न होई ॥२॥

मूलम्

इसु मन माइआ मोहि बिनासु ॥ धुरि हुकमु लिखिआ तां कहीऐ कासु ॥ गुरमुखि विरला चीन्है कोई ॥ नाम बिहूना मुकति न होई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मोहि = मोह में। बिनासु = आत्मिक मौत। कासु = किस को? चीनै = पहचानता है।2।
अर्थ: (हे भाई!) माया के मोह में (फंस के) इस मन की आत्मिक मौत हो जाती है (पर, जीव के क्या वश?) जब धुर से ही यह हुक्म चला आ रहा है तो किसी और के आगे पुकार नहीं की जा सकती (भाव, माया का मोह आत्मिक मौत का कारण बनता है; ये नियम अटल है, कोई इसकी उलंघना नहीं कर सकता)। कोई विरला व्यक्ति ही गुरु की शरण में पड़ कर समझता है कि प्रभु के नाम के बिना माया के मोह से खलासी नहीं हो सकती।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रमि भ्रमि डोलै लख चउरासी ॥ बिनु गुर बूझे जम की फासी ॥ इहु मनूआ खिनु खिनु ऊभि पइआलि ॥ गुरमुखि छूटै नामु सम्हालि ॥३॥

मूलम्

भ्रमि भ्रमि डोलै लख चउरासी ॥ बिनु गुर बूझे जम की फासी ॥ इहु मनूआ खिनु खिनु ऊभि पइआलि ॥ गुरमुखि छूटै नामु सम्हालि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भ्रमि = भटक के। ऊभि = ऊँचा, आकाश में। पइआल = पाताल में।3।
अर्थ: माया के मोह में भटक-भटक के जीव चौरासी लाख जूनियों के चक्करों में धक्के खाता फिरता है। गुरु के बिना सही जीवन-राह को नहीं समझता और जम का फंदा (इसके गले में पड़ा रहता है)। (माया के असर में) यह मन कभी आकाश में जा चढ़ता है और कभी पाताल में गिर जाता है। जो मनुष्य गुरु के बताए हुए राह पर चलता है वह परमात्मा का नाम स्मरण करके इस चक्कर में से बच निकलता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे सदे ढिल न होइ ॥ सबदि मरै सहिला जीवै सोइ ॥ बिनु गुर सोझी किसै न होइ ॥ आपे करै करावै सोइ ॥४॥

मूलम्

आपे सदे ढिल न होइ ॥ सबदि मरै सहिला जीवै सोइ ॥ बिनु गुर सोझी किसै न होइ ॥ आपे करै करावै सोइ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहिला = आसान।4।
अर्थ: जिस मनुष्य को प्रभु स्वयं ही (अपने चरणों में जुड़ने के लिए) बुलाता है उसको मिलते हुए समय नहीं लगता, वह मनुष्य गुरु के शब्द से माया के मोह से उपराम हो जाता है (भाव, माया उस पर प्रभाव नहीं डाल सकती) और वह बड़ा आसान जीवन बिताता है। गुरु की शरण पड़े बिना किसी को आत्मिक जीवन की समझ नहीं पड़ती (गुरु से भी प्रभु स्वयं ही मिलाता है) प्रभु स्वयं ही ये सब कुछ करता है और जीवों से करवाता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

झगड़ु चुकावै हरि गुण गावै ॥ पूरा सतिगुरु सहजि समावै ॥ इहु मनु डोलत तउ ठहरावै ॥ सचु करणी करि कार कमावै ॥५॥

मूलम्

झगड़ु चुकावै हरि गुण गावै ॥ पूरा सतिगुरु सहजि समावै ॥ इहु मनु डोलत तउ ठहरावै ॥ सचु करणी करि कार कमावै ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहिज = आत्मिक अडोलता में। सचु = सदा स्थिर परमात्मा का नाम स्मरण।5।
अर्थ: जिस मनुष्य का माया के मोह का लंबा चक्र प्रभु खत्म कर देता है वह मनुष्य प्रभु के गुण गाता है, पूरा गुरु उसके सिर पर रखवाला बनता है और वह आत्मिक अडोलता में टिका रहता है। तब मनुष्य का यह मन माया के पीछे भटकने से हट जाता है, तब मनुष्य सदा-स्थिर-नाम के स्मरण को अपना कर्तव्य जान के नाम-जपने की कार करता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंतरि जूठा किउ सुचि होइ ॥ सबदी धोवै विरला कोइ ॥ गुरमुखि कोई सचु कमावै ॥ आवणु जाणा ठाकि रहावै ॥६॥

मूलम्

अंतरि जूठा किउ सुचि होइ ॥ सबदी धोवै विरला कोइ ॥ गुरमुखि कोई सचु कमावै ॥ आवणु जाणा ठाकि रहावै ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुचि = पवित्रता। कोइ = कोई विरला। ठाकि = रोक के।6।
अर्थ: पर जिस मनुष्य का मन (विकारों से) मैला हो चुका हो उसके अंदर (बाहरी स्नान आदि से) पवित्रता नहीं आ सकती। कोई विरला मनुष्य गुरु के शब्द के साथ ही (मन को) साफ करता है। कोई विरला ही गुरु की शरण पड़ कर सदा-स्थिर-हरि-नाम को स्मरण करने का कार्य करता है और अपने मन की भटकना को रोक के रखता है।6।

[[1345]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

भउ खाणा पीणा सुखु सारु ॥ हरि जन संगति पावै पारु ॥ सचु बोलै बोलावै पिआरु ॥ गुर का सबदु करणी है सारु ॥७॥

मूलम्

भउ खाणा पीणा सुखु सारु ॥ हरि जन संगति पावै पारु ॥ सचु बोलै बोलावै पिआरु ॥ गुर का सबदु करणी है सारु ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भउ = डर अदब। सारु = श्रेष्ठ। पारु = परला छोर।7।
अर्थ: जिस मनुष्य ने परमात्मा के डर-अदब को अपने आत्मिक जीवन का आसरा बना लिया है जैसे खाने-पीने को शरीर का सहारा बनाया जाता है, वह मनुष्य गुरमुखों की संगति में रह के (माया के मोह के समुंदर का) परला छोर मिल जाता है। वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु का नाम स्मरण करता है, प्रभु-चरणों का प्यार उसको स्मरण करने की ओर ही प्रेरित करता रहता है। गुरु के शब्द को हृदय में टिकाना ही वह मनुष्य सबसे श्रेष्ठ कर्तव्य समझता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जसु करमु धरमु पति पूजा ॥ काम क्रोध अगनी महि भूंजा ॥ हरि रसु चाखिआ तउ मनु भीजा ॥ प्रणवति नानकु अवरु न दूजा ॥८॥५॥

मूलम्

हरि जसु करमु धरमु पति पूजा ॥ काम क्रोध अगनी महि भूंजा ॥ हरि रसु चाखिआ तउ मनु भीजा ॥ प्रणवति नानकु अवरु न दूजा ॥८॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जसु = यश, महिमा। भूंजा = भूना है, जला दिया है।8।
अर्थ: उस मनुष्य ने यह निश्चय कर लिया होता है कि परमात्मा की महिमा ही मेरे लिए कर्मकांड है, यही मेरे लिए (लोक-परलोक की) इज्जत है और यही मेरे वास्ते देव-पूजा है। वह मनुष्य काम-क्रोध आदि विकारों को (ज्ञान की) आग में जला देता है।
नानक विनती करता है कि जब मनुष्य (एक बार) परमात्मा के नाम का रस चख लेता है तो उसका मन (सदा के लिए उस रस में) भीग जाता है, फिर उसको कोई और रस अच्छा नहीं लगता।8।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला १ ॥ राम नामु जपि अंतरि पूजा ॥ गुर सबदु वीचारि अवरु नही दूजा ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला १ ॥ राम नामु जपि अंतरि पूजा ॥ गुर सबदु वीचारि अवरु नही दूजा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंतरि = हृदय में। वीचारि = अपने सोच मंडल में रख।1।
अर्थ: (हे पंडित!) परमात्मा का नाम जप, (यही) अंतरात्मा में (परमातम देव की) पूजा है। गुरु के शब्द को अपने सोच-मण्डल में टिकाए रख (तुझे समझ आ जाएगी कि) परमात्मा के बिना कोई (देवी-देवता) नहीं है (जिसकी पूजा की जाए)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एको रवि रहिआ सभ ठाई ॥ अवरु न दीसै किसु पूज चड़ाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

एको रवि रहिआ सभ ठाई ॥ अवरु न दीसै किसु पूज चड़ाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रहि रहिआ = व्यापक है। ठाई = जगह में।1। रहाउ।
अर्थ: (हे पंडित!) एक परमात्मा सब जगहों में व्यापक है। मुझे (उसके बिना कहीं) कोई और नहीं दिखता। मैं और किस की पूजा करूँ? मैं और किस को (फूल आदि) भेटा करूँ?।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनु तनु आगै जीअड़ा तुझ पासि ॥ जिउ भावै तिउ रखहु अरदासि ॥२॥

मूलम्

मनु तनु आगै जीअड़ा तुझ पासि ॥ जिउ भावै तिउ रखहु अरदासि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीअड़ा = छोटी सी जिंद।2।
अर्थ: (हे पण्डित! ये फूलों की भेटा किस अर्थ? मैं तो ऐसे परमात्मा के दर पर) अरदास करता हूँ - (हे प्रभु!) मेरा यह मन मेरा यह शरीर तेरे आगे हाजिर है मेरी यह तुच्छ से प्राण भी तेरे हवाले हैं, जैसे तेरी रज़ा है मुझे वैसे रख।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचु जिहवा हरि रसन रसाई ॥ गुरमति छूटसि प्रभ सरणाई ॥३॥

मूलम्

सचु जिहवा हरि रसन रसाई ॥ गुरमति छूटसि प्रभ सरणाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर प्रभु का नाम। रसन = जीभ। रसाई = एकसार कर लिया।3।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु की मति ले के प्रभु की शरण पड़ता है, अपनी जीभ से सदा-स्थिर प्रभु का नाम स्मरण करता है और अपनी जीभ को प्रभु के नाम-रस में रसा लेता है वह माया के बंधनो से मुक्त हो जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करम धरम प्रभि मेरै कीए ॥ नामु वडाई सिरि करमां कीए ॥४॥

मूलम्

करम धरम प्रभि मेरै कीए ॥ नामु वडाई सिरि करमां कीए ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभि मेरै = मेरे प्रभु ने। सिरि करमां = कर्मों के सिर पर।4।
अर्थ: (परमात्मा सभी जीवों में व्यापक है, इस दृष्टि-कोण से) मेरे परमात्मा ने ही कर्मकांड बनाए हैं, पर प्रभु ने ही नाम-स्मरण को सब कर्मों से उत्तम रखा है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुर कै वसि चारि पदारथ ॥ तीनि समाए एक क्रितारथ ॥५॥

मूलम्

सतिगुर कै वसि चारि पदारथ ॥ तीनि समाए एक क्रितारथ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तीनि = तीन पदार्थ (धर्म, अर्थ और काम)। क्रितारथ = कृतार्थ, सफल।5।
अर्थ: (लोग दुनियावी पदार्थों की खातिर देवी-देवताओं की पूजा करते-फिरते हैं, पर) गुरु के अधिकार में (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) चारों ही पदार्थ हैं। (गुरु की) शरण पड़ने से, (पहले) तीन पदार्थों की वासना ही खत्म हो जाती है, और, मनुष्य को एक में सफलता मिल जाती है (अर्थात, माया के मोह से मोक्ष की प्राप्ति मुक्ति मिल जाती है)।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरि दीए मुकति धिआनां ॥ हरि पदु चीन्हि भए परधाना ॥६॥

मूलम्

सतिगुरि दीए मुकति धिआनां ॥ हरि पदु चीन्हि भए परधाना ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुरि = गुरु ने। मुकति = माया के मोह से खलासी। चीन्हि = पहचान के।6।
अर्थ: जिस मनुष्यों को गुरु ने माया के मोह से खलासी बख्शी, प्रभु-चरणों में तवज्जो जोड़ने की दाति दी, उन्होंने परमात्मा के साथ मेल-अवस्था पहचान ली और वे (लोक-परलोक में) जाने-माने हो गए।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनु तनु सीतलु गुरि बूझ बुझाई ॥ प्रभु निवाजे किनि कीमति पाई ॥७॥

मूलम्

मनु तनु सीतलु गुरि बूझ बुझाई ॥ प्रभु निवाजे किनि कीमति पाई ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। निवाजे = आदर दिया है। किनि = किस ने?।7।
अर्थ: जिस मनुष्यों को सतिगुरु ने आत्मिक जीवन की समझ बख्शी उनका मन उनका शरीर (भाव, ज्ञान-इंद्रिय विकारों की तपश से बच के) ठंडे-ठार शीतल हो गए, प्रभु ने उनको आदर दिया, (उनका आत्मिक जीवन इतना ऊँचा हो गया कि) कोई आदमी उस जीवन का मूल्य नहीं आँक सकता।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु नानक गुरि बूझ बुझाई ॥ नाम बिना गति किनै न पाई ॥८॥६॥

मूलम्

कहु नानक गुरि बूझ बुझाई ॥ नाम बिना गति किनै न पाई ॥८॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।8।
अर्थ: हे नानक! कह: गुरु ने (मुझे) ये सूझ बख्श दी है कि परमात्मा का नाम स्मरण के बिना किसी ने (कभी) ऊँची अवस्था हासिल नहीं की।8।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला १ ॥ इकि धुरि बखसि लए गुरि पूरै सची बणत बणाई ॥ हरि रंग राते सदा रंगु साचा दुख बिसरे पति पाई ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला १ ॥ इकि धुरि बखसि लए गुरि पूरै सची बणत बणाई ॥ हरि रंग राते सदा रंगु साचा दुख बिसरे पति पाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इकि = कई लोग, जो लोग। गुरि = गुरु ने। धुरि = धुर से प्रभु की रज़ा के अनुसार। सची = सदा स्थिर रहने वाली, सदा स्थिर प्रभु की याद की ओर प्रेरणा करने वाली। बणत = बनावट, मन की बनावट। साचा = सदा स्थिर रहने वाला। पति = इज्जत।1।
अर्थ: जो लोग धुर से ही प्रभु की रज़ा के अनुसार पूरे गुरु ने बख्शे हैं (जिस पर गुरु ने मेहर की है) गुरु ने उनकी मानसिक बनावट ऐसी बना दी है कि (जो) उनको सदा-स्थिर प्रभु के नाम-जपने की ओर प्रेरित करती है। वे सदा परमात्मा के नाम-रंग में रंगे रहते हैं, उन (के मन) को सदा-स्थिर रहने वाला प्रेम-रंग चढ़ा रहता है। उनके दुख दूर हो जाते हैं और वे (लोक-परलोक में) शोभा कमाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

झूठी दुरमति की चतुराई ॥ बिनसत बार न लागै काई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

झूठी दुरमति की चतुराई ॥ बिनसत बार न लागै काई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: झूठी = नाशवान, नाशवान पदाथों की ओर प्रेरणा करने वाली। चतुराई = समझदारी। बिनसत = नाश होते हुए, आत्मिक मौत आते हुए। बार = समय।1। रहाउ।
अर्थ: दुर्मति से पैदा हुई समझदारी मनुष्य को नाशवान पदार्थों की तरफ ही प्रेरित करती रहती है, इस समझदारी के कारण मनुष्य को आत्मिक मौत मरते हुए थोड़ी सी भी देर नहीं लगती।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुख कउ दुखु दरदु विआपसि मनमुखि दुखु न जाई ॥ सुख दुख दाता गुरमुखि जाता मेलि लए सरणाई ॥२॥

मूलम्

मनमुख कउ दुखु दरदु विआपसि मनमुखि दुखु न जाई ॥ सुख दुख दाता गुरमुखि जाता मेलि लए सरणाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: विआपसि = व्यापता है, जोर डालता है।2।
अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले व्यक्तियों को (कई तरह के) दुख-कष्ट दबाए रखते हैं, अपने मन की अगुवाई में उनका दुख कभी दूर नहीं होता। जो लोग गुरु की शरण पड़ते हैं वे सुख देने वाले परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालते हैं, परमात्मा उनको अपनी शरण में रख के अपने साथ मिला लेता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुख ते अभ भगति न होवसि हउमै पचहि दिवाने ॥ इहु मनूआ खिनु ऊभि पइआली जब लगि सबद न जाने ॥३॥

मूलम्

मनमुख ते अभ भगति न होवसि हउमै पचहि दिवाने ॥ इहु मनूआ खिनु ऊभि पइआली जब लगि सबद न जाने ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। अभ = हृदय। अभ भगति = दिल से की गई भक्ति। पचहि = ख्वार होते हैं। दिवाने = पागल। ऊभि = आकाश में। पइआलि = पाताल में। जब लगि = जब तक।3।
अर्थ: मनमुखों द्वारा चिक्त की एकाग्रता से परमात्मा की भक्ति नहीं हो सकती क्योंकि वे अहंकार में पागल होए हुए अंदर-अंदर से दुखी होते रहते हैं। जब तक मनुष्य गुरु के शब्द के साथ सांझ नहीं डालता, तब तक इसका ये मन (माया के मोह के कारण) कभी आकाश में जा पहुँचता है कभी पाताल में जा गिरता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूख पिआसा जगु भइआ तिपति नही बिनु सतिगुर पाए ॥ सहजै सहजु मिलै सुखु पाईऐ दरगह पैधा जाए ॥४॥

मूलम्

भूख पिआसा जगु भइआ तिपति नही बिनु सतिगुर पाए ॥ सहजै सहजु मिलै सुखु पाईऐ दरगह पैधा जाए ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिपति = संतोख। सहजु = आत्मिक अडोलता। पैधा = सिरोपा ले के, बाइज्जत।4।
अर्थ: जगत माया की भूख माया की प्यास के कारण घबराया हुआ है, सतिगुरु की शरण आए बिना तृष्णा नहीं मिटती संतोष नहीं आता, गुरु की शरण पड़ने से आत्मिक अडोलता प्राप्त होती है, आत्मिक आनंद मिलता है, और परमात्मा की हजूरी में मनुष्य आदर से जाता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दरगह दाना बीना इकु आपे निरमल गुर की बाणी ॥ आपे सुरता सचु वीचारसि आपे बूझै पदु निरबाणी ॥५॥

मूलम्

दरगह दाना बीना इकु आपे निरमल गुर की बाणी ॥ आपे सुरता सचु वीचारसि आपे बूझै पदु निरबाणी ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दाना = (सबके दिलों की) जानने वाला। बीना = सबके कामों को देखने वाला। सुरता = तवज्जो जोड़ने वाला, सुनने वाला। निरबाणी = वासना रहित।5।
अर्थ: सतिगुरु की पवित्र वाणी में जुड़ने से यह समझ आती है कि परमात्मा स्वयं ही सब जीवों के दिल की जानता है, स्वयं ही सबके कर्म देखता है, सदा-स्थिर प्रभु स्वयं ही सबकी अरदासें सुनता है और विचारता है, स्वयं ही जीवों की आवश्यक्ताओं को समझता है, स्वयं ही वासना-रहित आत्मिक आनंद का मालिक है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जलु तरंग अगनी पवनै फुनि त्रै मिलि जगतु उपाइआ ॥ ऐसा बलु छलु तिन कउ दीआ हुकमी ठाकि रहाइआ ॥६॥

मूलम्

जलु तरंग अगनी पवनै फुनि त्रै मिलि जगतु उपाइआ ॥ ऐसा बलु छलु तिन कउ दीआ हुकमी ठाकि रहाइआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तरंग = लहर। पवन = हवा। हुकमी = हुक्म में ही।6।
अर्थ: गुरु के द्वारा ये समझ आ जाती है कि परमात्मा ने खुद ही पानी आग हवा (आदि) तत्व पैदा किए, प्रभु के हुक्म में ही इन तीनों ने मिल के जगत पैदा किया। परमात्मा ने इन तत्वों को बेअंत शक्ति दी हुई है, पर अपने हुक्म से इनको (बेवजही ताकत बरतने से) रोक भी रखा है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसे जन विरले जग अंदरि परखि खजानै पाइआ ॥ जाति वरन ते भए अतीता ममता लोभु चुकाइआ ॥७॥

मूलम्

ऐसे जन विरले जग अंदरि परखि खजानै पाइआ ॥ जाति वरन ते भए अतीता ममता लोभु चुकाइआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खजानै = खजाने में। ते = से। अतीता = निर्लिप, अलग।7।
अर्थ: जगत में ऐसे लोग विरले हैं जिनके जीवन को परख के (और स्वीकार करके) परमात्मा ने अपने खजाने में डाल लिया, ऐसे लोग जाति और (ब्राहमण, खत्री आदि) वर्ण के गुमान से निर्लिप रहते हैं, और माया की ममता और माया का लोभ दूर कर लेते हैं।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामि रते तीरथ से निरमल दुखु हउमै मैलु चुकाइआ ॥ नानकु तिन के चरन पखालै जिना गुरमुखि साचा भाइआ ॥८॥७॥

मूलम्

नामि रते तीरथ से निरमल दुखु हउमै मैलु चुकाइआ ॥ नानकु तिन के चरन पखालै जिना गुरमुखि साचा भाइआ ॥८॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: से = वे मनुष्य। नामि = नाम में। पखालै = धोता है। साचा = सदा स्थिर प्रभु।8।
अर्थ: हे नानक! (कह:) गुरु की शरण पड़ कर जिस लोगों को सदा-स्थिर रहने वाला परमात्मा प्यारा लगता है मैं उनके चरण धोता हूँ। परमात्मा के नाम-रंग में रंगे हुए व्यक्ति असली तीर्थ हैं, उन्होंने अहंकार का दुख अहंकार की मैल अपने मन में से समाप्त कर ली होती है।8।7।

[[1346]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला ३ बिभास ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

प्रभाती महला ३ बिभास ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर परसादी वेखु तू हरि मंदरु तेरै नालि ॥ हरि मंदरु सबदे खोजीऐ हरि नामो लेहु सम्हालि ॥१॥

मूलम्

गुर परसादी वेखु तू हरि मंदरु तेरै नालि ॥ हरि मंदरु सबदे खोजीऐ हरि नामो लेहु सम्हालि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुर परसादी = गुरु की कृपा से। सबदे = शब्द से। खोजीऐ = खोजा जा सकता है। नामो = नाम ही। लेहु समालि = संभाल ले, संभाल के रख।1।
अर्थ: हे भाई! तू गुरु की कृपा से देख, परमात्मा का घर तेरे साथ है (तेरे अंदर ही है। इस) ‘हरि-मन्दिर’ को गुरु के शब्द से ही पाया जा सकता है (हे भाई! गुरु के शब्द में जुड़, और) परमात्मा का नाम अपने अंदर संभाल के रख।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन मेरे सबदि रपै रंगु होइ ॥ सची भगति सचा हरि मंदरु प्रगटी साची सोइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मन मेरे सबदि रपै रंगु होइ ॥ सची भगति सचा हरि मंदरु प्रगटी साची सोइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! रपै = (जो मनुष्य) रंगा जाता है। रंगु = (प्रभु के प्यार का) रंग। सची भगति = सदा स्थिर प्रभु की भक्ति। सचा = सदा कायम रहने वाला, कभी ना डोलने वाला। सोइ = शोभा।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! (जो मनुष्य गुरु के) शब्द में रंगा जाता है (उसके मन को परमात्मा की भक्ति का) रंग चढ़ जाता है। उसको सदा-स्थिर प्रभु की भक्ति प्राप्त हो जाती है, उसकी शोभा सदा के लिए (लोक-परलोक में) बिखर जाती है। (उस मनुष्य का शरीर) परमात्मा का कभी ना डोलने वाला घर बन जाता है (उसका शरीर ऐसा ‘हरि-मन्दिर’ बन जाता है जिसको विकारों की अंधेरी उड़ा नहीं सकती)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि मंदरु एहु सरीरु है गिआनि रतनि परगटु होइ ॥ मनमुख मूलु न जाणनी माणसि हरि मंदरु न होइ ॥२॥

मूलम्

हरि मंदरु एहु सरीरु है गिआनि रतनि परगटु होइ ॥ मनमुख मूलु न जाणनी माणसि हरि मंदरु न होइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गिआनि = आत्मिक जीवन की सूझ से। रतनि = रतन से। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। न जाणनी = नहीं जानते (बहुवचन)। माणसि = मनुष्य के अंदर।2।
अर्थ: हे भाई! (मनुष्य का) यह शरीर ‘हरि-मंदिर’ है (पर, यह भेद सतिगुरु की बख्शी) आत्मिक जीवन की कीमती सूझ से ही खुलता है। अपने मन के पीछे चलने वाले (जगत के) मूल (परमात्मा) के साथ सांझ नहीं डालते (इसलिए वे समझते हैं कि) मनुष्य के अंदर ‘हरि-मन्दिर’ नहीं हो सकता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि मंदरु हरि जीउ साजिआ रखिआ हुकमि सवारि ॥ धुरि लेखु लिखिआ सु कमावणा कोइ न मेटणहारु ॥३॥

मूलम्

हरि मंदरु हरि जीउ साजिआ रखिआ हुकमि सवारि ॥ धुरि लेखु लिखिआ सु कमावणा कोइ न मेटणहारु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साजिआ = बनाया। हुकमि = (अपने) हुक्म से। रखिआ सवारि = सुंदर बना दिया है। धुरि = धुर दरगाह से। लेखु = (पिछले किए हुए कर्मों के संस्कारों के) लेख। सु = वह लेख।3।
अर्थ: हे भाई! (ये मनुष्य का शरीर) ‘हरि-मन्दिर’ प्रभु जी ने स्वयं बनाया है (और अपनी) आज्ञा से सजा रखा है। धुर-दरगाह से (हरेक मनुष्य के किए कर्मों के अनुसार जो) लेख (हरेक शरीर-हरि-मन्दिर में) लिखा जाता है उस लेख के अनुसार हरेक प्राणी को चलना पड़ता है। कोई मनुष्य (अपने किसी उद्यम से उस लेख को) मिटाने के काबिल नहीं है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सबदु चीन्हि सुखु पाइआ सचै नाइ पिआर ॥ हरि मंदरु सबदे सोहणा कंचनु कोटु अपार ॥४॥

मूलम्

सबदु चीन्हि सुखु पाइआ सचै नाइ पिआर ॥ हरि मंदरु सबदे सोहणा कंचनु कोटु अपार ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चीन्हि = पहचान के। नाइ = नाम में। सचै नाइ = सदा थिर प्रभु के नाम में। सबदे = शब्द की इनायत से। कंचनु = सोना। कोटु = किला। अपार कोटु = बेअंत प्रभु का किला।4।
अर्थ: हे भाई! (गुरु के शब्द से) सदा-स्थिर-हरि-नाम से (जिस मनुष्य ने) प्यार किया, उसने गुरु के शब्द के साथ सांझ डाल के आत्मिक आनंद प्राप्त किया। (उस मनुष्य का शरीर-) हरि-मन्दिर गुरु के शब्द की इनायत से सुंदर बन गया, (वह हरि-मन्दिर) बेअंत प्रभु (के निवास) के लिए (जैसे) सोने का किला बन गया।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि मंदरु एहु जगतु है गुर बिनु घोरंधार ॥ दूजा भाउ करि पूजदे मनमुख अंध गवार ॥५॥

मूलम्

हरि मंदरु एहु जगतु है गुर बिनु घोरंधार ॥ दूजा भाउ करि पूजदे मनमुख अंध गवार ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घोरंधार = घोर अंधार, घोर अंधेरा। दूजा = दूसरा, परमात्मा के बिना किसी और को। भाउ करि = प्यार कर के। अंध = अंधे। गवार = मूर्ख।5।
अर्थ: हे भाई! ये सारा संसार भी ‘हरि-मन्दिर’ ही है (परमात्मा के रहने का घर है)। पर गुरु (की शरण) के बिना (आत्मिक जीवन की ओर से) घोर अंधकार बना रहता है (और, जीवों को इस भेद की समझ नहीं पड़ती)। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य, आत्मिक जीवन की ओर से अंधे होए हुए मूर्ख मनुष्य (परमात्मा के बिना) औरों से प्यार डाल के उसको पूजते-सत्कारते रहते हैं।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिथै लेखा मंगीऐ तिथै देह जाति न जाइ ॥ साचि रते से उबरे दुखीए दूजै भाइ ॥६॥

मूलम्

जिथै लेखा मंगीऐ तिथै देह जाति न जाइ ॥ साचि रते से उबरे दुखीए दूजै भाइ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंगीऐ = माँगा जाता है। देह = शरीर। जाइ = जाती। साचि = सदा स्थिर प्रभु में। रते = रंगे हुए। से = वे (बहुवचन)। उबरे = (लेखे में) आजाद हो जाते हैं, उद्धार हे जाता है। दूजै भाइ = (प्रभु के बिना) अन्य के प्यार में।6।
अर्थ: हे भाई! जहाँ (परमात्मा की दरगाह में मनुष्य से उसके किए कर्मों का) हिसाब माँगा जाता है वहाँ (मनुष्य के साथ) ना (यह) शरीर जाता है ना (ऊँची-नीची) जाति जाती है। (जो मनुष्य) सदा-स्थिर हरि-नाम में रंगे रहते हैं, वे (वहाँ लेखा होने के वक्त) सही स्वीकार हो जाते हैं, (जो) माया के प्यार में (ही जिंदगी के दिन गुजार जाते हैं, वे वहाँ) दुखी होते हैं।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि मंदर महि नामु निधानु है ना बूझहि मुगध गवार ॥ गुर परसादी चीन्हिआ हरि राखिआ उरि धारि ॥७॥

मूलम्

हरि मंदर महि नामु निधानु है ना बूझहि मुगध गवार ॥ गुर परसादी चीन्हिआ हरि राखिआ उरि धारि ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निधानु = खजाना। बूझहि = समझते (बहुवचन)। परसादी = कृपा से। चीन्हिआ = पहचाना। उरि = दिल में। राखिआ धारि = टिका के रखा।7।
अर्थ: हे भाई! (इस शरीर-) ‘हरि-मन्दिर’ में परमात्मा का नाम (मनुष्य के लिए) खजाना है, पर मूर्ख लोग (ये बात) नहीं समझते। जिन्होंने गुरु की कृपा से (ये भेद) समझ लिया, उन्होंने परमात्मा का नाम अपने हृदय में संभाल के रख लिया।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर की बाणी गुर ते जाती जि सबदि रते रंगु लाइ ॥ पवितु पावन से जन निरमल हरि कै नामि समाइ ॥८॥

मूलम्

गुर की बाणी गुर ते जाती जि सबदि रते रंगु लाइ ॥ पवितु पावन से जन निरमल हरि कै नामि समाइ ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। जाती = (कद्र) समझ ली। जि = जो मनुष्य। रते = रंगे हुए। रंग लाइ = प्यार बना के। पावन = पवित्र। कै नामि = के नाम में। समाइ = लीन हो के।8।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य (गुरु के माध्यम से परमात्मा के संग) प्यार बना के गुरु के शब्द में रंगे रहते हैं, वे मनुष्य गुरु से गुरु की वाणी (की कद्र) समझ लेते हैं। वे मनुष्य परमात्मा के नाम में लीन रह के स्वच्छ पवित्र जीवन वाले बन जाते हैं।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि मंदरु हरि का हाटु है रखिआ सबदि सवारि ॥ तिसु विचि सउदा एकु नामु गुरमुखि लैनि सवारि ॥९॥

मूलम्

हरि मंदरु हरि का हाटु है रखिआ सबदि सवारि ॥ तिसु विचि सउदा एकु नामु गुरमुखि लैनि सवारि ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हाटु = हाट, दुकान। सबदि = शब्द से। सवारि = सजा के। तिसु विचि = उस (शरीर) हाट में। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। लैनि = लेते हैं (बहुवचन)।9।
अर्थ: हे भाई! (यह मनुष्य का शरीर) ‘हरि-मन्दिर’ परमात्मा (के नाम-सौदे) की हाट है, इस (हाट) को गुरु शब्द की इनायत से सजा कर रखा जा सकता है। इस (शरीर हाट) में परमात्मा का नाम-सौदा (मिल सकता) है। (पर, सिर्फ) गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य (ही अपने जीवन को) सुंदर बना के (ये सौदा) लेते हैं।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि मंदर महि मनु लोहटु है मोहिआ दूजै भाइ ॥ पारसि भेटिऐ कंचनु भइआ कीमति कही न जाइ ॥१०॥

मूलम्

हरि मंदर महि मनु लोहटु है मोहिआ दूजै भाइ ॥ पारसि भेटिऐ कंचनु भइआ कीमति कही न जाइ ॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लोहटु = लोहा। मोहिआ = ठगा हुआ। दूजै भाइ = माया के प्यार में। पारसि भेटिऐ = अगर (गुरु) पारस को मिल जाए। कंचनु = सोना।10।
अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य) माया के मोह में (फंस के आत्मिक जीवन की राशि-पूंजी) लुटा बैठता हैं, (उसका) मन (इस शरीर-) ‘हरि-मन्दिर’ में लोहा (ही बना रहता) है। (पर, हाँ) यदि गुरु-पारस मिल जाए (तो लोहे जैसा निकम्मा बन चुका उसका मन) सोना हो जाता है (फिर वह इतने ऊँचे जीवन वाला हो जाता है कि उसका) मूल्य नहीं पाया जा सकता।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि मंदर महि हरि वसै सरब निरंतरि सोइ ॥ नानक गुरमुखि वणजीऐ सचा सउदा होइ ॥११॥१॥

मूलम्

हरि मंदर महि हरि वसै सरब निरंतरि सोइ ॥ नानक गुरमुखि वणजीऐ सचा सउदा होइ ॥११॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरब निरंतरि = सब जीवों के अंदर एक रस। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। वणजीऐ = वणज किया जा सकता है।11।
अर्थ: हे भाई! (इस शरीर-) ‘हरि-मन्दिर’ में परमात्मा (स्वयं) बसता है, वह परमात्मा सब जीवों में ही एक-रस बस रहा है। हे नानक! (सरब-निवासी प्रभु के नाम का सौदा) गुरु के द्वारा ही किया जा सकता है (वणज किया जा सकता है)। यह सौदा सदा कायम रहने वाला सौदा है।11।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला ३ ॥ भै भाइ जागे से जन जाग्रण करहि हउमै मैलु उतारि ॥ सदा जागहि घरु अपणा राखहि पंच तसकर काढहि मारि ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला ३ ॥ भै भाइ जागे से जन जाग्रण करहि हउमै मैलु उतारि ॥ सदा जागहि घरु अपणा राखहि पंच तसकर काढहि मारि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भै = (प्रभु के) डर अदब में। भाइ = (प्रभु के) प्यार में। जागे = (जो मनुष्य कामादिक हमलों से) सुचेत रहते हैं। जाग्रण = जागरण, जागरे (गाँवों में कई लोग जागरा कराते हैं, जिसमें देवी के भक्त झीउर पहले देवी की स्तुति में गीत गाते हैं, फिर सारी रात रामायण महाभारत आदि की ‘वारें’ गाते हैं। पहु-फुटने के करीब फिर देवी की स्तुति गाई जाती है, और ‘जागरा’ खत्म हो जाता है। आम तौर पर लोग सुखना-सुखने के लिए ‘जागरे’ करवाते हैं)। करहि = करते हैं। उतारि = उतार के, दूर करके। जागहि = सचेत रहते हैं। तसकर = चोर। मारि = मार के।1।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के डर-अदब में रह के परमात्मा के प्यार में टिक के (कामादिक विकारों के हमलों के प्रति) सुचेत रहते हैं, वे लोग ही (अपने मन में से) अहंकार की मैल उतार कर (असल) जगराते करते हैं (ऐसे मनुष्य) सदा सुचेत रहते हैं, अपना हृदय-घर (विकारों की मार से) बचा के रखते हैं (इन कामादिक) पाँच चोरों को (अपने अंदर से) मार के निकाल देते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन मेरे गुरमुखि नामु धिआइ ॥ जितु मारगि हरि पाईऐ मन सेई करम कमाइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मन मेरे गुरमुखि नामु धिआइ ॥ जितु मारगि हरि पाईऐ मन सेई करम कमाइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। धिआइ = स्मरण किया कर। जितु मारगि = जिस रास्ते से। पाईऐ = मिल सके। मन = हे मन! कमाइ = कर।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम स्मरण किया कर। हे मन! (और-और पूजा के कर्म छोड़ के) वही कर्म किया कर, जिस राह पर चलने से परमात्मा का मिलाप हो सके।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि सहज धुनि ऊपजै दुखु हउमै विचहु जाइ ॥ हरि नामा हरि मनि वसै सहजे हरि गुण गाइ ॥२॥

मूलम्

गुरमुखि सहज धुनि ऊपजै दुखु हउमै विचहु जाइ ॥ हरि नामा हरि मनि वसै सहजे हरि गुण गाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। सहज धुनि = आत्मिक अडोलता की तुकांत। विचहु = मन में से। जाइ = दूर हो जाता है। मनि = मन में। सहजे = आत्मिक अडोलता में। गाइ = गा के।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़ने से (मनुष्य के अंदर) आत्मिक अडोलता की धुनि चल पड़ती है (मनुष्य के अंदर से) अहंकार का दुख दूर हो जाता है। आत्मिक अडोलता में परमात्मा के गुण गा-गा के परमात्मा का नाम सदा के लिए (मनुष्य के) मन में आ बसता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमती मुख सोहणे हरि राखिआ उरि धारि ॥ ऐथै ओथै सुखु घणा जपि हरि हरि उतरे पारि ॥३॥

मूलम्

गुरमती मुख सोहणे हरि राखिआ उरि धारि ॥ ऐथै ओथै सुखु घणा जपि हरि हरि उतरे पारि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उरि = दिल में। ऐथै = इस लोक में। ओथै = परलोक में। घणा = बहुत। जपि = जप के।3।
अर्थ: हे भाई! गुरु की मति पर चल के (जिस मनुष्यों ने) परमात्मा को अपने हृदय में बसा लिया, उनके मुँह (लोक-परलोक में) सुंदर हो जाते हैं। उनको इस लोक में और परलोक में बहुत आनंद तो मिलता है। परमात्मा का नाम सदा जप के वह मनुष्य संसार-समुंदर से पार लांघ जाते हैं।3।

[[1347]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउमै विचि जाग्रणु न होवई हरि भगति न पवई थाइ ॥ मनमुख दरि ढोई ना लहहि भाइ दूजै करम कमाइ ॥४॥

मूलम्

हउमै विचि जाग्रणु न होवई हरि भगति न पवई थाइ ॥ मनमुख दरि ढोई ना लहहि भाइ दूजै करम कमाइ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जाग्रणु = जागरण, जगराता। न होवई = ना हो, नहीं हो सकता। न पवई = नहीं पड़ती। थाइ = जगह में, स्वीकार। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। दरि = (प्रभु के) दर पर। ढोई = जगह, आसरा। भाइ दूजे = किसी और के प्यार में। कमाइ = कमा के, कर के।4।
अर्थ: हे भाई! अहंकार में फसे रहने से (विकारों से) जगराता नहीं हो सकता, (अहंकार में टिक के रहके की हुई) परमात्मा की भक्ति (भी) स्वीकार नहीं होती। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (प्रभु के बिना) अन्य के प्यार में कर्म कर-कर के परमात्मा के दर से आसरा नहीं तलाश सकते।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्रिगु खाणा ध्रिगु पैन्हणा जिन्हा दूजै भाइ पिआरु ॥ बिसटा के कीड़े बिसटा राते मरि जमहि होहि खुआरु ॥५॥

मूलम्

ध्रिगु खाणा ध्रिगु पैन्हणा जिन्हा दूजै भाइ पिआरु ॥ बिसटा के कीड़े बिसटा राते मरि जमहि होहि खुआरु ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ध्रिगु = धिक्कारयोग्य। दूजै भाइ = (प्रभु के बिना) और के मोह में। राते = रति हुए, मस्त हुए। मरि जंमहि = मर के पैदा होते हैं, जनम मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं। होहि = होते हैं (बहुवचन)।5।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों की लगन माया के मोह में टिकी रहती है, (उनके बढ़िया-बढ़िया पदार्थ) खाना-पहनना (भी उनके लिए) धिक्कार-योग्य (जीवन ही बनाता) है। (जैसे) विष्टा के कीड़े विष्टा में ही मस्त रहते हैं (वैसे ही माया के मोह में फसे मनुष्य भी विकारों की गंदगी में ही पड़े रहते हैं, वे) जनम-मरण के चक्करों में फसे रहते हैं और दुखी होते रहते हैं।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन कउ सतिगुरु भेटिआ तिना विटहु बलि जाउ ॥ तिन की संगति मिलि रहां सचे सचि समाउ ॥६॥

मूलम्

जिन कउ सतिगुरु भेटिआ तिना विटहु बलि जाउ ॥ तिन की संगति मिलि रहां सचे सचि समाउ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भेटिआ = मिल गया। विटहु = से। बलि जाउ = मैं कुर्बान जाता हूँ। मिलि रहां = मैं मिला रहूँ। सचे सचि = हर वक्त सदा स्थिर प्रभु में। समाउ = मैं लीन रहूँ।6।
अर्थ: हे भाई! जिस (भाग्यशालियों) को गुरु मिल जाता है, मैं उन पर से बलिहार जाता हूँ (मेरी तमन्ना है कि) मैं उनकी संगति में टिका रहूं (और इस तरह) सदा-स्थिर-प्रभु (की याद) में लीन रहूँ।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूरै भागि गुरु पाईऐ उपाइ कितै न पाइआ जाइ ॥ सतिगुर ते सहजु ऊपजै हउमै सबदि जलाइ ॥७॥

मूलम्

पूरै भागि गुरु पाईऐ उपाइ कितै न पाइआ जाइ ॥ सतिगुर ते सहजु ऊपजै हउमै सबदि जलाइ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भागि = किस्मत से। पाईऐ = मिलता है। उपाइ कितै = किसी (अन्य) उपाय से। ते = से। सहजु = आत्मिक अडोलता। सबदि = (गुरु के) शब्द से। जलाइ = जला के।7।
अर्थ: पर, हे भाई! गुरु बड़ी किस्मत से (ही) मिलता है, किसी भी (अन्य) तरीके से नहीं पाया जा सकता। (यदि गुरु मिल जाए, तो) गुरु के शब्द की इनायत से (अंदर से) अहंकार जला के गुरु के माध्यम से (अंदर) आत्मिक अडोलता पैदा हो जाती है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि सरणाई भजु मन मेरे सभ किछु करणै जोगु ॥ नानक नामु न वीसरै जो किछु करै सु होगु ॥८॥२॥७॥२॥९॥

मूलम्

हरि सरणाई भजु मन मेरे सभ किछु करणै जोगु ॥ नानक नामु न वीसरै जो किछु करै सु होगु ॥८॥२॥७॥२॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भजु = पड़ा रह। मन = हे मन! करणै जोगु = करने की समर्थता वाला। होगु = होगा।8।
अर्थ: हे मेरे मन! (गुरु के माध्यम से) परमात्मा की शरण पड़ा रह। परमात्मा सब कुछ करने की समर्थता वाला है। हे नानक! (तू सदा अरदास करता रह कि परमात्मा का) नाम ना भूल जाए, होगा वही जो कुछ वह स्वयं करता है (भाव, उसका नाम, उसकी मेहर से ही मिलेगा)।8।2।7।2।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिभास प्रभाती महला ५ असटपदीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

बिभास प्रभाती महला ५ असटपदीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मात पिता भाई सुतु बनिता ॥ चूगहि चोग अनंद सिउ जुगता ॥ उरझि परिओ मन मीठ मुोहारा ॥ गुन गाहक मेरे प्रान अधारा ॥१॥

मूलम्

मात पिता भाई सुतु बनिता ॥ चूगहि चोग अनंद सिउ जुगता ॥ उरझि परिओ मन मीठ मुोहारा ॥ गुन गाहक मेरे प्रान अधारा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भाई = भ्राता। सुतु = पुत्र। बनिता = स्त्री। चूगहि चोग = चोग चुगते हें, भोग भोगते हैं (बहुवचन)। जुगता = मिल के। उरझि परिओ = फसा रहता है। मुोहारा = मोह का। मीठ मुोहारा = मोह की मिठास में। प्रान अधारा = प्राणों का आसरा। गुन गाहक = परमात्मा के गुणों के वणजारे।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘मुोहारा’ में से अक्षर ‘म’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘मोहारा’, यहां ‘मुहारा’ पढ़ना है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री (परिवारों के ये सारे साथी) मिल के मौज से (माया के) भोग भोगते रहते हैं, (सबके) मन (माया के) मोह की मिठास में फसे रहते हें। (पर, गुरु की कृपा से परमात्मा के) गुणों के गाहक (संत जन) मेरी जिंदगी का आसरा बन गए हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकु हमारा अंतरजामी ॥ धर एका मै टिक एकसु की सिरि साहा वड पुरखु सुआमी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

एकु हमारा अंतरजामी ॥ धर एका मै टिक एकसु की सिरि साहा वड पुरखु सुआमी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंतरजामी = सब के दिल की जानने वाला। धर = आसरा। टिक = टेक, सहारा। सिरि साहा = शाहों के सिर पर।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सब के दिल की जानने वाला परमात्मा ही मेरा (रखवाला) है। मुझे सिर्फ परमात्मा का ही आसरा है, मुझे सिर्फ एक परमात्मा का ही सहारा है। (मेरा) वह मालिक बड़े बड़े बादशाहों के सिर पर (भी) खसम है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

छल नागनि सिउ मेरी टूटनि होई ॥ गुरि कहिआ इह झूठी धोही ॥ मुखि मीठी खाई कउराइ ॥ अम्रित नामि मनु रहिआ अघाइ ॥२॥

मूलम्

छल नागनि सिउ मेरी टूटनि होई ॥ गुरि कहिआ इह झूठी धोही ॥ मुखि मीठी खाई कउराइ ॥ अम्रित नामि मनु रहिआ अघाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नागनि = सर्पनी, माया। टूटनि होई = (प्रीत) टूट गई है। गुरि = गुरु ने। धोही = ध्रोह करने वाली, ठगी करने वाली। मुखि = मुँह में। खाई = खाई हुई। कउराइ = कड़वा स्वाद देने वाली। अंम्रित नामि = आत्मिक जीवन देने वाले हरि नाम में। रहिआ अघाइ = तृप्त हुआ पड़ा है।2।
अर्थ: हे भाई! गुरु ने (मुझे) बता दिया है कि यह (माया) झूठी है और ठगी करने वाली है (यह माया उस चीज़ जैसी है जो) मुँह में मीठी लगती है, पर खाने में कड़वा स्वाद देती है। (सो, गुरु की कृपा से) इस छल करने वाली सर्पनी (माया) से मेरा संबंध टूट गया है, मेरा मन आत्मिक जीवन देने वाले हरि-नाम से तृप्त रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोभ मोह सिउ गई विखोटि ॥ गुरि क्रिपालि मोहि कीनी छोटि ॥ इह ठगवारी बहुतु घर गाले ॥ हम गुरि राखि लीए किरपाले ॥३॥

मूलम्

लोभ मोह सिउ गई विखोटि ॥ गुरि क्रिपालि मोहि कीनी छोटि ॥ इह ठगवारी बहुतु घर गाले ॥ हम गुरि राखि लीए किरपाले ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिउ = साथ। विखोटि = (वि+खोटि। खोट के बिना) ऐतबार। गुरि क्रिपालि = कृपालु गुरु ने। छोटि = बख्शिश। मोहि = मुझे, मेरे पर। ठगवारी = ठगों की वाड़ी ने, ठगों के टोले ने।3।
अर्थ: हे भाई! कृपालु गुरु ने मेरे ऊपर बख्शिश की है, लोभ मोह (आदि) से मेरा ऐतबार खत्म हो चुका है। ठगों के इस टोले ने अनेक घर (हृदय) तबाह कर दिए हैं। मुझे तो (इनसे) दया के सोमे गुरु ने बचा लिया है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काम क्रोध सिउ ठाटु न बनिआ ॥ गुर उपदेसु मोहि कानी सुनिआ ॥ जह देखउ तह महा चंडाल ॥ राखि लीए अपुनै गुरि गोपाल ॥४॥

मूलम्

काम क्रोध सिउ ठाटु न बनिआ ॥ गुर उपदेसु मोहि कानी सुनिआ ॥ जह देखउ तह महा चंडाल ॥ राखि लीए अपुनै गुरि गोपाल ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ठाटु = मेल। मोहि = मैं। कानी = कानों से। जह = जहाँ। देखउ = देखूँ, मैं देखता हूँ। महा = बड़े। अपुनै गुरि = अपने गुरु ने।4।
अर्थ: हे भाई! गुरु का उपदेश मैंने बड़े ध्यान से सुना है, (इसलिए) काम क्रोध (आदि) से मेरी सांझ नहीं बनी। मैं जिधर देखता हूँ, उधर ये बड़े चण्डाल (अपना जोर डाल रहे हैं), मुझे तो मेरे गुरु ने गोपाल ने (इनसे) बचा लिया है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दस नारी मै करी दुहागनि ॥ गुरि कहिआ एह रसहि बिखागनि ॥ इन सनबंधी रसातलि जाइ ॥ हम गुरि राखे हरि लिव लाइ ॥५॥

मूलम्

दस नारी मै करी दुहागनि ॥ गुरि कहिआ एह रसहि बिखागनि ॥ इन सनबंधी रसातलि जाइ ॥ हम गुरि राखे हरि लिव लाइ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दस नारी = दस इंद्रिय। करी = कर दीं हैं। दुहागनि = त्यागी हुई स्त्री। गुरि = गुरु ने। रसहि = रसों की। बिखागनि = बिख अगनि, आत्मिक मौत लाने वाली जहर आग। इन सनबंधी = इन (रसों) के साथ मेल रखने वाला। रसातलि = नर्क में, आत्मिक मौत की गहरी गड्ढे में। जाइ = जा पड़ता है (एकवचन)। लाइ = लगा के, पैदा कर के।5।
अर्थ: हे भाई! (अपनी) दसों इन्द्रियों को मैंने त्याग कर दिया है (रसों की खुराक पहुँचानी बंद कर दी है, क्योंकि) गुरु ने (मुझे) बताया है कि यह रसों की आत्मिक मौत लाने वाली आग है, इन (रसों) से मेल रखने वाला (प्राणी) आत्मिक मौत की गहरी खाई में जा पड़ता है। हे भाई! परमात्मा की लगन पैदा करके गुरु ने मुझे (इन रसों से) बचा लिया है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहमेव सिउ मसलति छोडी ॥ गुरि कहिआ इहु मूरखु होडी ॥ इहु नीघरु घरु कही न पाए ॥ हम गुरि राखि लीए लिव लाए ॥६॥

मूलम्

अहमेव सिउ मसलति छोडी ॥ गुरि कहिआ इहु मूरखु होडी ॥ इहु नीघरु घरु कही न पाए ॥ हम गुरि राखि लीए लिव लाए ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अहंमेव = (अहंएव) मैं ही मैं,अहंकार। मसलति = सलाह, मेल जोल। होडी = जिद्दी। नीघरु = निघरा। घरु = ठिकाना। कही = कहीं भी।6।
अर्थ: हे भाई! मैंने अहंकार से (भी) मेल-मिलाप छोड़ दिया है, गुरु ने (मुझे) बताया है कि यह (अहंकार) मूर्ख है जिद्दी है (अहंकार मनुष्य को मूर्ख और ज़िद्दी बना देता है)। (अब) ये (अहंकार) बेघर हो गया है (मेरे अंदर) इसको कोई ठिकाना नहीं मिलता। प्रभु-चरणों की लगन पैदा करके गुरु ने मुझे इस अहंकार से बचा लिया है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन लोगन सिउ हम भए बैराई ॥ एक ग्रिह महि दुइ न खटांई ॥ आए प्रभ पहि अंचरि लागि ॥ करहु तपावसु प्रभ सरबागि ॥७॥

मूलम्

इन लोगन सिउ हम भए बैराई ॥ एक ग्रिह महि दुइ न खटांई ॥ आए प्रभ पहि अंचरि लागि ॥ करहु तपावसु प्रभ सरबागि ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बैराई = बेगाने, ओपरे। दुइ = दोनों पक्षों का। खटांई = मेल। पहि = पास। अंचरि = (गुरु के) पल्ले से। लागि = लग के। तपावसु = न्याय। प्रभ = हे प्रभु! सरबागि = सर्वज्ञ, हे सब कुछ जानने वाले!।7।
अर्थ: हे भाई! इन (काम क्रोध अहंकार आदिक) से मैं बे-वास्ता हो गया हूँ (मेरा कोई मतलब नहीं रह गया), एक ही (शरीर) घर में दोनों पक्षों का मेल नहीं हो सकता। मैं (अपने गुरु के) पल्ले से लग के प्रभु के दर पर आ गया हूँ, (और, अरदास करता हूं-) हे सर्वज्ञ प्रभु! तू स्वयं ही न्याय कर।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभ हसि बोले कीए निआंएं ॥ सगल दूत मेरी सेवा लाए ॥ तूं ठाकुरु इहु ग्रिहु सभु तेरा ॥ कहु नानक गुरि कीआ निबेरा ॥८॥१॥

मूलम्

प्रभ हसि बोले कीए निआंएं ॥ सगल दूत मेरी सेवा लाए ॥ तूं ठाकुरु इहु ग्रिहु सभु तेरा ॥ कहु नानक गुरि कीआ निबेरा ॥८॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हसि = हस के। दूत = वैरी। ग्रिहु = शरीर घर। ठाकुरु = मालिक। निबेरा = फैसला।8।
अर्थ: हे भाई! प्रभु जी हस के कहने लगे- हमने न्याय कर दिया है। हे भाई! प्रभु ने (कामादिक यह) सारे वैरी मेरी सेवा में लगा दिए हैं। हे नानक! कह: गुरु ने यह फ़ैसला कर दिया है (और कह दिया है:) यह (शरीर-) घर सारा तेरा है, और अब तू इसका मालिक है (कामादिक इस पर जोर नहीं डाल सकेंगे)।8।1।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला ५ ॥ मन महि क्रोधु महा अहंकारा ॥ पूजा करहि बहुतु बिसथारा ॥ करि इसनानु तनि चक्र बणाए ॥ अंतर की मलु कब ही न जाए ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला ५ ॥ मन महि क्रोधु महा अहंकारा ॥ पूजा करहि बहुतु बिसथारा ॥ करि इसनानु तनि चक्र बणाए ॥ अंतर की मलु कब ही न जाए ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: महि = में। कहहि = कहते हैं। बिसथारा = विस्तार (कई रस्मों का)। करि = कर के। तनि = शरीर पर। चक्र = (धार्मिक चिनहों के) निशान। अंतर की = (मन के) अंदर की। कब ही = कभी भी।1।
अर्थ: हे भाई! अगर मेरे मन में क्रोध टिका रहे, बली अहंकार बसा रहे, पर कई धार्मिक रस्मों के खिलारे खिलार के (मनुष्य देव) -पूजा करते रहें, अगर (तीर्थ आदि पर) स्नान करके शरीर पर (धार्मिक चिन्हों के) निशान लगाए जाएं, (इस तरह) मन की (विकारों की) मैल दूर नहीं होती।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इतु संजमि प्रभु किन ही न पाइआ ॥ भगउती मुद्रा मनु मोहिआ माइआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

इतु संजमि प्रभु किन ही न पाइआ ॥ भगउती मुद्रा मनु मोहिआ माइआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इतु = इससे। संजमि = संयम से। इतु संजमि = इस तरीके से। किन ही = किसी ने भी। भगउती मुद्रा = विष्णू भक्ति के चिन्ह। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘किन ही’ में से ‘किनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! (अगर) मन माया के मोह में फसा रहे, (पर मनुष्य) विष्णू-भक्ति के बाहरी चिन्ह (अपने शरीर पर बनवाता रहे, तो) इस तरीके से किसी ने भी प्रभु-मिलाप हासिल नहीं किया।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाप करहि पंचां के बसि रे ॥ तीरथि नाइ कहहि सभि उतरे ॥ बहुरि कमावहि होइ निसंक ॥ जम पुरि बांधि खरे कालंक ॥२॥

मूलम्

पाप करहि पंचां के बसि रे ॥ तीरथि नाइ कहहि सभि उतरे ॥ बहुरि कमावहि होइ निसंक ॥ जम पुरि बांधि खरे कालंक ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करहि = करते हैं (बहुवचन)। बासि = वश में। रे = हे भाई! नाइ = नहा के। तीरथि = (किसी) तीर्थ पर। कहहि = कहते हैं। सभि = सारे (पाप)। बाहुरि = दोबारा, फिर। निसंक = शंका उतार के। जमपुरि = जमराज की नगरी में। बांधि = बाँध के। खरे = ले जाए जाते हैं। कालंक = पापों के कारण।2।
अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य कामादिक) पाँचों के वश में (रह के) पाप करते रहते हैं, (फिर किसी) तीर्थ पर स्नान करके कहते हैं (कि हमारे) सारे (पाप) उतर गए हैं, (और) निसंग हो के बार-बार (वही पाप) करते जाते हैं (तीर्थ-स्नान उन्हें जमराज से बचा नहीं सकता, वे तो किए) पापों के कारण बाँध के जमराज के देश में पहुँचाए जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घूघर बाधि बजावहि ताला ॥ अंतरि कपटु फिरहि बेताला ॥ वरमी मारी सापु न मूआ ॥ प्रभु सभ किछु जानै जिनि तू कीआ ॥३॥

मूलम्

घूघर बाधि बजावहि ताला ॥ अंतरि कपटु फिरहि बेताला ॥ वरमी मारी सापु न मूआ ॥ प्रभु सभ किछु जानै जिनि तू कीआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घूघर = घुंघरू। बजावहि = बजाते हैं। अंतरि = (मन के) अंदर। बेताला = (सही आत्मिक जीवन के) ताल से उखड़े हुए। वरमी = साँप की खुड। मारी = बँद कर दी। जिनि = जिस (प्रभु) ने। तू = तुझे। कीआ = पैदा किया।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘अंतर’ और ‘अंतरि’ का फर्क याद रखने योग्य है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य) घुंघरू बाँध के (किसी मूर्ति के आगे अथवा रास आदि में) ताल बजाते हैं (ताल में नाचते हैं), पर उनके मन में ठगी-फरेब है, (वह मनुष्य असल में सही जीवन-) ताल से थिरके फिरते हैं। अगर साँप का बिल बँद कर दिया जाए, (तो इस तरह उस खुड में रहने वाला) साँप नहीं मरता। हे भाई! जिस परमात्मा ने पैदा किया है वह (तेरे दिल की) हरेक बात जानता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूंअर ताप गेरी के बसत्रा ॥ अपदा का मारिआ ग्रिह ते नसता ॥ देसु छोडि परदेसहि धाइआ ॥ पंच चंडाल नाले लै आइआ ॥४॥

मूलम्

पूंअर ताप गेरी के बसत्रा ॥ अपदा का मारिआ ग्रिह ते नसता ॥ देसु छोडि परदेसहि धाइआ ॥ पंच चंडाल नाले लै आइआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पूंअर = धूणियां। ताप = तपाने से। अपदा = विपदा। ते = से। छोडि = छोड़ के। धाइआ = दौड़ता फिरता। पंच चंडाल = (कामादिक) पाँचों चंदरे विकार। नाले = साथ ही।4।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य धूणियां तपाता रहता है, गेरुए रंग के कपड़े पहने फिरता है (वैसे किसी) विपदा का मारा (अपने) घर से भागा फिरता है अपना वतन छोड़ के और-और देशों में भटकता फिरता है, (ऐसा मनुष्य कामादिक) पाँच चाण्डालों को तो (अपने अंदर) साथ ही लिए फिरता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कान फराइ हिराए टूका ॥ घरि घरि मांगै त्रिपतावन ते चूका ॥ बनिता छोडि बद नदरि पर नारी ॥ वेसि न पाईऐ महा दुखिआरी ॥५॥

मूलम्

कान फराइ हिराए टूका ॥ घरि घरि मांगै त्रिपतावन ते चूका ॥ बनिता छोडि बद नदरि पर नारी ॥ वेसि न पाईऐ महा दुखिआरी ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: फराइ = फड़वा के। हिराए = (हेरे) देखता फिरता है। टूका = टुकड़ा। घरि घरि = हरेक घर में। ते = से। चूका = रह जाता है। बनिता = स्त्री। छोडि = छोड़ के। बद = बुरी। नदरि = निगाह। वेसि = वेस से, धार्मिक पहरावे से।5।
अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य अपनी ओर से शांति के लिए) कान फड़वा के (जोगी बन जाता है, पर पेट की भूख मिटाने के लिए और के) टुकड़े देखता फिरता है, हरेक घर (के दरवाजे) पर (रोटी) माँगता फिरता है, वह (बल्कि) तृप्ति से वंचित रहता है। (वह मनुष्य अपनी) स्त्री को छोड़ के पराई स्त्री की ओर बुरी निगाह रखता है। हे भाई! (निरे) धार्मिक पहरावे से (परमात्मा) नहीं मिलता। (इस तरह बल्कि जिंद) बहुत दुखी होती है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बोलै नाही होइ बैठा मोनी ॥ अंतरि कलप भवाईऐ जोनी ॥ अंन ते रहता दुखु देही सहता ॥ हुकमु न बूझै विआपिआ ममता ॥६॥

मूलम्

बोलै नाही होइ बैठा मोनी ॥ अंतरि कलप भवाईऐ जोनी ॥ अंन ते रहता दुखु देही सहता ॥ हुकमु न बूझै विआपिआ ममता ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मोनी = मोनधारी। अंतरि = अंदर, मन में। कलप = कल्पना, कामना। ते = से। देही = शरीर। विआपिआ = फसा हुआ। ममता = अपनत्व।6।
अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य आत्मिक शांति के लिए जीभ से) नहीं बोलता, मौनधारी बन के बैठ जाता है (उसके) अंदर (तो) कामना टिकी रहती है (जिसके कारण) कई जूनियों में वह भटकाया जाता है। (वह) अन्न (खाने) से परहेज़ करता है, (इस तरह) शरीर पर दुख (ही) सहता है। (जब तक मनुष्य परमात्मा की) रज़ा को नहीं समझता, (माया की) ममता में फसा (ही) रहता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु सतिगुर किनै न पाई परम गते ॥ पूछहु सगल बेद सिम्रिते ॥ मनमुख करम करै अजाई ॥ जिउ बालू घर ठउर न ठाई ॥७॥

मूलम्

बिनु सतिगुर किनै न पाई परम गते ॥ पूछहु सगल बेद सिम्रिते ॥ मनमुख करम करै अजाई ॥ जिउ बालू घर ठउर न ठाई ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किनै = किसी ने भी। परम गते = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। अजाई = व्यर्थ। बालू = रेत। ठउर ठाई = जगह स्थान।7।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।
नोट: ‘गुोबिंद’ में अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘गोबिंद’, यहां ‘गुबिंद’ पढ़ना है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! बेशक वेद-स्मृतियाँ (आदि धर्म-पुस्तकों) को भी विचारते रहो, गुरु की शरण के बिना कभी किसी ने ऊँची आत्मिक अवस्था प्राप्त नहीं की। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (जो भी अपनी ओर से धार्मिक) कर्म करता है व्यर्थ (ही जाते हैं), जैसे रेत के घर का निशान ही मिट जाता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिस नो भए गुोबिंद दइआला ॥ गुर का बचनु तिनि बाधिओ पाला ॥ कोटि मधे कोई संतु दिखाइआ ॥ नानकु तिन कै संगि तराइआ ॥८॥

मूलम्

जिस नो भए गुोबिंद दइआला ॥ गुर का बचनु तिनि बाधिओ पाला ॥ कोटि मधे कोई संतु दिखाइआ ॥ नानकु तिन कै संगि तराइआ ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिनि = उस ने। पाला = पल्ले। कोटि मधे = करोड़ों में। तिन कै संगि = उनकी संगति में।8।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा दयावान हुआ, उसने गुरु के वचन (अपने) पल्लू से बाँध लिए। (पर इस तरह का) संत करोड़ों में कोई विरला ही देखने को मिलता है। नानक (तो) इस तरह के (संत जनों) की संगति में (ही संसार-समुंदर से) पार लंघाता है।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जे होवै भागु ता दरसनु पाईऐ ॥ आपि तरै सभु कुट्मबु तराईऐ ॥१॥ रहाउ दूजा ॥२॥

मूलम्

जे होवै भागु ता दरसनु पाईऐ ॥ आपि तरै सभु कुट्मबु तराईऐ ॥१॥ रहाउ दूजा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! अगर (माथे के) भाग्य जाग उठे तो (ऐसे संत का) दर्शन प्राप्त होता है। (दर्शन करने वाला) स्वयं पार लांघता है, अपने सारे परिवार को भी पार लंघा लेता है। रहाउ दूजा।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती महला ५ ॥ सिमरत नामु किलबिख सभि काटे ॥ धरम राइ के कागर फाटे ॥ साधसंगति मिलि हरि रसु पाइआ ॥ पारब्रहमु रिद माहि समाइआ ॥१॥

मूलम्

प्रभाती महला ५ ॥ सिमरत नामु किलबिख सभि काटे ॥ धरम राइ के कागर फाटे ॥ साधसंगति मिलि हरि रसु पाइआ ॥ पारब्रहमु रिद माहि समाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिमरत = स्मरण करते हुए। किलबिख सभि = सारे पाप। कागर = (कर्मों के लेखे) काग़ज़। फाटे = फट जाते हैं। मिलि = मिल के। रसु = स्वाद, आनंद। रिद माहि = हृदय में।1।
अर्थ: हे भाई! (संत जनों की शरण पड़ कर) हरि नाम स्मरण करते हुए (मनुष्य के) सारे पाप काटे जाते हैं, धर्मराज के लेखे के कागज़ भी फट जाते हैं। (जिस मनुष्य ने) साधु-संगत में मिल के परमात्मा के नाम का आनंद प्राप्त किया, परमात्मा उसके हृदय में टिक गया।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम रमत हरि हरि सुखु पाइआ ॥ तेरे दास चरन सरनाइआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

राम रमत हरि हरि सुखु पाइआ ॥ तेरे दास चरन सरनाइआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रमत = स्मरण करते हुए। सुखु = आत्मिक आनंद। तेरे दास चरन = तेरे दासों के चरणों की।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! (जो मनुष्य) तेरे दासों के चरणों की शरण आ पड़ा, उसने सदा तेरा हरि-नाम स्मरण करते हुए आत्मिक आनंद पाया।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चूका गउणु मिटिआ अंधिआरु ॥ गुरि दिखलाइआ मुकति दुआरु ॥ हरि प्रेम भगति मनु तनु सद राता ॥ प्रभू जनाइआ तब ही जाता ॥२॥

मूलम्

चूका गउणु मिटिआ अंधिआरु ॥ गुरि दिखलाइआ मुकति दुआरु ॥ हरि प्रेम भगति मनु तनु सद राता ॥ प्रभू जनाइआ तब ही जाता ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चूका = समाप्त हो गया। गउणु = भटकना। अंधिआरु = (आत्मिक जीवन से बेसमझी का) अंधेरा। गुरि = गुरु ने। मुकति दुआरु = विकारों से खलासी का दरवाजा। सद = सदा। राता = रंगा रहता है। जनाइआ = समझ बख्शी। जाता = समझा।2।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य को) गुरु ने विकारों से खलासी पाने का (ये नाम-स्मरण वाला) रास्ता दिखा दिया, उसकी भटकना समाप्त हो गई, (उसके अंदर से) आत्मिक जीवन के प्रति बेसमझी का अंधेरा मिट गया, उसका मन उसका तन परमात्मा की प्यार-भरी भक्ति में सदा रंगा रहता है। पर, हे भाई! यह सूझ तब ही पड़ती है जब परमात्मा खुद सूझ बख्शे।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घटि घटि अंतरि रविआ सोइ ॥ तिसु बिनु बीजो नाही कोइ ॥ बैर बिरोध छेदे भै भरमां ॥ प्रभि पुंनि आतमै कीने धरमा ॥३॥

मूलम्

घटि घटि अंतरि रविआ सोइ ॥ तिसु बिनु बीजो नाही कोइ ॥ बैर बिरोध छेदे भै भरमां ॥ प्रभि पुंनि आतमै कीने धरमा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घटि घटि = हरेक शरीर में। अंतरि = (सभ जीवों के) अंदर। रविआ = व्यापक। बीजो = दूसरा। छेदे = काटे जाते हैं। भै = सारे डर। प्रभि = प्रभु ने। पुंनिआतमै = पवित्र आत्मा वाले ने। धरम = फर्ज।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! (संत जनों की शरण पड़ कर हरि-नाम स्मरण करते हुए ये समझ आ जाती है कि) हरेक शरीर में (सब जीवों के) अंदर वह (परमात्मा) ही मौजूद है, उस (परमात्मा) के बिना कोई और नहीं है। (नाम-जपने की इनायत से मनुष्य के अंदर से) सारे वैर-विरोध सारे डर-भ्रम काटे जाते हैं। (पर यह दूसरा उसी को मिला, जिस पर) पवित्र आत्मा वाले परमात्मा ने स्वयं मेहर की।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

महा तरंग ते कांढै लागा ॥ जनम जनम का टूटा गांढा ॥ जपु तपु संजमु नामु सम्हालिआ ॥ अपुनै ठाकुरि नदरि निहालिआ ॥४॥

मूलम्

महा तरंग ते कांढै लागा ॥ जनम जनम का टूटा गांढा ॥ जपु तपु संजमु नामु सम्हालिआ ॥ अपुनै ठाकुरि नदरि निहालिआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तरंग = लहरें। ते = से। कांढै = किनारे पर। गांढा = गाँठ बाँध दी, जोड़ दिया। समालिआ = हृदय में बसा लिया। ठाकुरि = ठाकुर ने। नदरि निहालिआ = मेहर की निगाह से देखा।4।
अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य को) प्यारे मालिक-प्रभु ने मेहर की निगाह से देखा, उसने (अपने हृदय में) परमात्मा का नाम बसाया (यह हरि-नाम ही उसके वास्ते) जप-तप-संजम होता है। वह मनुष्य (संसार-समुंदर की) बड़ी-बड़ी लहरों से बच के किनारे लग जाता है, अनेक ही जन्मों का विछुड़ा हुआ वह फिर प्रभु के चरणों के साथ जुड़ जाता है।4।

[[1349]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

मंगल सूख कलिआण तिथाईं ॥ जह सेवक गोपाल गुसाई ॥ प्रभ सुप्रसंन भए गोपाल ॥ जनम जनम के मिटे बिताल ॥५॥

मूलम्

मंगल सूख कलिआण तिथाईं ॥ जह सेवक गोपाल गुसाई ॥ प्रभ सुप्रसंन भए गोपाल ॥ जनम जनम के मिटे बिताल ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंगल = खुशियां। कलिआण = सुख शांत। तिथाई = उस जगह में ही। जह = जहाँ। सेवक गोपाल = गोपाल के सेवक। गोपाल = सृष्टि को पालने वाला प्रभु। बिताल = (जीवन-यात्रा में) ताल से भटके हुए।5।
अर्थ: हे भाई! जहाँ (साधु-संगत में) सृष्टि के रक्षक पति-प्रभु के भक्त-जन (रहते हैं), वहीं सारे सुख सारी खुशियाँ सारे आनंद होते हैं। (वहाँ साधु-संगत में जो मनुष्य टिकते हैं, उन पर) जगत-रक्षक प्रभु जी बहुत प्रसन्न होते हैं, (उनके) अनेक जन्मों के बेताले-पन समाप्त हो जाते हैं।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

होम जग उरध तप पूजा ॥ कोटि तीरथ इसनानु करीजा ॥ चरन कमल निमख रिदै धारे ॥ गोबिंद जपत सभि कारज सारे ॥६॥

मूलम्

होम जग उरध तप पूजा ॥ कोटि तीरथ इसनानु करीजा ॥ चरन कमल निमख रिदै धारे ॥ गोबिंद जपत सभि कारज सारे ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उरध तप = उल्टे लटक के किए हुए तप। कोटि = करोड़ों। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। रिदै = हृदय में। जपत = जपते हुए। सभि = सारे। सारे = सँवार लेता है।6।
अर्थ: हे भाई! (साधु-संगत की इनायत से जो मनुष्य) परमात्मा के सुंदर चरण निमख-निमख (हर वक्त) अपने हृदय में बसाए रखता है, वह मनुष्य गोबिंद का नाम जपते हुए (अपने) सारे काम सँवार लेता है, (उसने मानो,) करोड़ों तीर्थों का स्नान कर लिया, (उसने, मानो, अनेक) हवन-यज्ञ (कर लिए। उसने जैसे,) उल्टे लटक के तप (कर लिए। उसने, मानो, देव-) पूजा (कर ली)।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊचे ते ऊचा प्रभ थानु ॥ हरि जन लावहि सहजि धिआनु ॥ दास दासन की बांछउ धूरि ॥ सरब कला प्रीतम भरपूरि ॥७॥

मूलम्

ऊचे ते ऊचा प्रभ थानु ॥ हरि जन लावहि सहजि धिआनु ॥ दास दासन की बांछउ धूरि ॥ सरब कला प्रीतम भरपूरि ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ थानु = प्रभु का ठिकाना। लावहि = लाते हें। सहजि = आत्मिक अडोलता में। बाछउ = मैं माँगता हूं। कला = ताकत।7।
अर्थ: हे भाई! (साधु-संगत की इनायत से ये समझ आ जाती है कि) परमात्मा का ठिकाना बहुत ही ऊँचा है (बहुत ही ऊँचा आत्मिक जीवन ही उसके चरणों के साथ मिला सकता है)। प्रभु के भक्त आत्मिक अडोलता में (उस प्रभु में) तवज्जो जोड़ी रखते हैं। हे भाई! जो प्रभु-प्रीतम सारी ताकतों का मालिक है जो सब जगह मौजूद है, उसके दासों के दासों की चरण-धूल मैं (भी) लोचता रहता हूँ।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मात पिता हरि प्रीतमु नेरा ॥ मीत साजन भरवासा तेरा ॥ करु गहि लीने अपुने दास ॥ जपि जीवै नानकु गुणतास ॥८॥३॥२॥७॥१२॥

मूलम्

मात पिता हरि प्रीतमु नेरा ॥ मीत साजन भरवासा तेरा ॥ करु गहि लीने अपुने दास ॥ जपि जीवै नानकु गुणतास ॥८॥३॥२॥७॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नेरा = नजदीक। करु = हठ। गहि = पकड़ के। जपि = जप के। गुणतास = गुणों का खजाना है।8।
अर्थ: हे प्रभु! तू ही मेरी माँ है मेरा पिता है प्रीतम है मेरे हर वक्त नज़दीक रहता है। हे प्रभु! तू ही मेरा मित्र है, मेरा सज्जन है, मुझे तेरा ही सहारा है। हे प्रभु! अपने दासों को (उनका) हाथ पकड़ कर के तू अपने बना लेता है। हे गुणों के खजाने प्रभु! (तेरा दास) नानक (तेरा नाम) जप के (ही) आत्मिक जीवन हासिल कर रहा है।8।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिभास प्रभाती बाणी भगत कबीर जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

बिभास प्रभाती बाणी भगत कबीर जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मरन जीवन की संका नासी ॥ आपन रंगि सहज परगासी ॥१॥

मूलम्

मरन जीवन की संका नासी ॥ आपन रंगि सहज परगासी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संका = सहसा, फिक्र, शक। आपन रंगि = अपनी मौज में, अपनी रज़ा में। सहज = अडोल अवस्था का।1।
अर्थ: (उस मनुष्य का) की यह शंका समाप्त हो जाती है कि जनम-मरण के चक्कर में पड़ना पड़ेगा, क्योंकि परमात्मा अपनी मेहर से (उसके अंदर) आत्मिक अडोलता का प्रकाश कर देता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रगटी जोति मिटिआ अंधिआरा ॥ राम रतनु पाइआ करत बीचारा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

प्रगटी जोति मिटिआ अंधिआरा ॥ राम रतनु पाइआ करत बीचारा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करत बीचारा = विचार करते करते, तवज्जो जोड़ते जोड़ते।1। रहाउ।
अर्थ: (प्रभु के नाम में) तवज्जो जोड़ते-जोड़ते जिस मनुष्य को नाम-रत्न मिल जाता है (उसके अंदर) प्रभु की ज्योति जाग उठती है, और (उसके अंदर से विकारों आदि का) अंधेरा मिट जाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जह अनंदु दुखु दूरि पइआना ॥ मनु मानकु लिव ततु लुकाना ॥२॥

मूलम्

जह अनंदु दुखु दूरि पइआना ॥ मनु मानकु लिव ततु लुकाना ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जह = जिस मन में। पइआना = चला जाता है। मानकु = मोती। ततु = सारे जगत का मूल प्रभु। लुकाना = छुपा लेता है, बसा लेता है। लिव = तवज्जो/ध्यान जोड़ के।2।
अर्थ: जिस मन में (प्रभु के मेल का) आनंद बन जाए और (दुनिया वाला) दुख-कष्ट नाश हो जाए, वह मन (प्रभु-चरणों में) जुड़ने की इनायत से मोती (जैसा कीमती) बन के प्रभु को अपने अंदर बसा लेता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो किछु होआ सु तेरा भाणा ॥ जो इव बूझै सु सहजि समाणा ॥३॥

मूलम्

जो किछु होआ सु तेरा भाणा ॥ जो इव बूझै सु सहजि समाणा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इव = इस तरह। इव बूझै = यह समझ आ जाती है। सहजि = सहज अवस्था में।3।
अर्थ: (हे प्रभु! तेरे नाम में तवज्जो जोड़ते-जोड़ते) जिस मनुष्य को यह सूझ पड़ जाती है कि जगत में जो कुछ हो रहा है तेरी रज़ा हो रही है, वह मनुष्य सदा अडोल अवस्था में टिका रहता है (उसे कभी कोई शंका व संशय नहीं रहता)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहतु कबीरु किलबिख गए खीणा ॥ मनु भइआ जगजीवन लीणा ॥४॥१॥

मूलम्

कहतु कबीरु किलबिख गए खीणा ॥ मनु भइआ जगजीवन लीणा ॥४॥१॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ये शब्द विभास और प्रभाती दोनों मिश्रित रोगों में गाने के लिए हैं।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खीणा = कमजोर। गए खीणा = कमजोर हो के नाश हो जाते हैं। भइआ लीणा = लीन हो जाता है, मगन हो जाता है।4।
अर्थ: कबीर कहता है: उस मनुष्य के पाप नाश हो जाते हैं, उसका मन जगत-के-जीवन प्रभु में मगन रहता है।4।1।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: मिलाप अवस्था-मन में से विकार दूर हो जाते हैं, जगत में जो कुछ हो रहा है प्रभु की रज़ा ही दिखती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती ॥ अलहु एकु मसीति बसतु है अवरु मुलखु किसु केरा ॥ हिंदू मूरति नाम निवासी दुह महि ततु न हेरा ॥१॥

मूलम्

प्रभाती ॥ अलहु एकु मसीति बसतु है अवरु मुलखु किसु केरा ॥ हिंदू मूरति नाम निवासी दुह महि ततु न हेरा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: केरा = का। दुह महि = (हिन्दू और मुसलमान) दोनों में से। हेरा = देखा।1।
अर्थ: अगर (वह) ख़ुदा (सिर्फ) काबे में बसता है तो बाकी का मुल्क किस का (कहा जाए)? (सो, मुसलमानों का यह अकीदा ठीक नहीं है)। हिन्दू परमात्मा का निवास मूर्ति में समझता है; (इस तरह हिन्दू-मुसलमान) दोनों में से किसी ने परमात्मा को नहीं देखा।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अलह राम जीवउ तेरे नाई ॥ तू करि मिहरामति साई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

अलह राम जीवउ तेरे नाई ॥ तू करि मिहरामति साई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीवउ = मैं जीऊँ। नाई = नाम की इनायत से, नाम स्मरण करके, नाम से।1। रहाउ।
अर्थ: हे अल्लाह! हे राम! हे साई! तू मेरे पर मेहर कर, (मैं तुझे एक ही जान के) तेरा नाम स्मरण करके जीऊँ (आत्मिक जीवन हासिल करूँ)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दखन देसि हरी का बासा पछिमि अलह मुकामा ॥ दिल महि खोजि दिलै दिलि खोजहु एही ठउर मुकामा ॥२॥

मूलम्

दखन देसि हरी का बासा पछिमि अलह मुकामा ॥ दिल महि खोजि दिलै दिलि खोजहु एही ठउर मुकामा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दखन देस = जगन्नाथपुरी जो कबीर जी के वतन बनारस से दक्षिण की ओर है। पछिमि = पश्चिम की ओर। अलह = अल्लाह का, रब का। दिलि = दिल में। दिलै दिलि = दिल ही दिल में। ठउर = जगह।2।
अर्थ: (हिन्दू कहता है कि) हरि का निवास दक्षिण देश में (जगन्नाथपुरी में) है, मुसलमान कहता है कि ख़ुदा का घर पश्चिम की ओर (काबे में) है। (पर, हे सज्जन!) अपने दिल में (ईश्वर को) तलाश, सिर्फ दिल में ही ढूँढ, यह दिल ही उसका निवास स्थान है, उसका मुकाम है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रहमन गिआस करहि चउबीसा काजी मह रमजाना ॥ गिआरह मास पास कै राखे एकै माहि निधाना ॥३॥

मूलम्

ब्रहमन गिआस करहि चउबीसा काजी मह रमजाना ॥ गिआरह मास पास कै राखे एकै माहि निधाना ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गिआस = एकादसी। चउबीसा = 24 (हर महीने दो एकादशियां, साल में चौबीस)। मह रमजाना = रमजान का महीना। मास = महीने। पास कै = अलग करके।3।
अर्थ: ब्राहमण चौबीस एकादशियों (के व्रत रखने की आज्ञा) करते हैं, काज़ी रमज़ान के महीने (रोज़े रखने की हिदायत) करते हैं। ये लोग (बाकी के) ग्यारह महीने एक तरफ़ ही रख देते हैं, और (कोई) खजाना एक ही महीने में से ढूँढते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहा उडीसे मजनु कीआ किआ मसीति सिरु नांएं ॥ दिल महि कपटु निवाज गुजारै किआ हज काबै जांएं ॥४॥

मूलम्

कहा उडीसे मजनु कीआ किआ मसीति सिरु नांएं ॥ दिल महि कपटु निवाज गुजारै किआ हज काबै जांएं ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उडीसे = उड़ीसा प्रांत का तीर्थ जगन्नाथपुरी। मजनु = तीर्थ स्नान। नांऐं = झुकाया।4।
अर्थ: (दरअसल बात यह है कि) अगर दिल में ठगी-फरेब बसता है तो ना तो उड़ीसा जगन्नाथपुरी में स्नान करने का कोई लाभ है, ना ही मस्जिद में जा के सजदा करने का कोई फायदा है, ना नमाज़ पढ़ने का लाभ है, ना ही काबे का हज करने का कोई गुण है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एते अउरत मरदा साजे ए सभ रूप तुम्हारे ॥ कबीरु पूंगरा राम अलह का सभ गुर पीर हमारे ॥५॥

मूलम्

एते अउरत मरदा साजे ए सभ रूप तुम्हारे ॥ कबीरु पूंगरा राम अलह का सभ गुर पीर हमारे ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अउरत = औरतें। मरदा = मर्दों। पूंगरा = छोटा सा बच्चा, अंजान बच्चा।5।
अर्थ: हे प्रभु! ये सारे स्त्री-मर्द जो तूने पैदा किए हैं, ये सब तेरा ही रूप हैं (तू ही स्वयं इनमें बसता है)। तू ही, हे प्रभु! अल्लाह है और राम है। मैं कबीर तेरा अंजान बच्चा हूँ, (तेरे भेजे हुए) अवतार पैग़ंबर मुझे सब अपने दिखते हैं।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहतु कबीरु सुनहु नर नरवै परहु एक की सरना ॥ केवल नामु जपहु रे प्रानी तब ही निहचै तरना ॥६॥२॥

मूलम्

कहतु कबीरु सुनहु नर नरवै परहु एक की सरना ॥ केवल नामु जपहु रे प्रानी तब ही निहचै तरना ॥६॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नरवै = हे नारियो! निहचै = निश्चय से, अवश्य।6।
अर्थ: कबीर कहता है: हे नर-नारियो! सुनो, एक परमात्मा की ही शरण पड़ो (वही अल्लाह है, वही राम है)। हे लोगो! सिर्फ नाम जपो, यकीन से जानो, तब ही (संसार-जगत से) तैर सकोगे।6।2।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: सर्व-व्यापक- ना विशेष तौर पर काबे में बैठा है, ना जगन्नाथपुरी में। उसको अपने हृदय में बसाओ, मज़हबी पक्ष-पात दूर हो जाएंगे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती ॥ अवलि अलह नूरु उपाइआ कुदरति के सभ बंदे ॥ एक नूर ते सभु जगु उपजिआ कउन भले को मंदे ॥१॥

मूलम्

प्रभाती ॥ अवलि अलह नूरु उपाइआ कुदरति के सभ बंदे ॥ एक नूर ते सभु जगु उपजिआ कउन भले को मंदे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अवलि = सबसे पहले, शुरू में, सबका मूल। अलह नूर = अल्लाह का नूर, परमात्मा की ज्योति। उपाइआ = (जिसने जगत) पैदा किया। कुदरति के = खुदा की कुदरति के (पैदा किए हुए)। नूर = ज्योति। ते = से। का = कौन?।1।
अर्थ: सबसे पहले ख़ुदा का नूर ही है जिसने (जगत) पैदा किया है, यह सारे जीव-जंतु रब के ही बनाए हुए हैं। एक प्रभु की ही ज्योति से सारा जगत पैदा होया हुआ है। (तो फिर किसी जाति-मज़हब के भुलेखे में पड़ कर) किसी को अच्छा और किसी को बुरा ना समझो।1।

[[1350]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोगा भरमि न भूलहु भाई ॥ खालिकु खलक खलक महि खालिकु पूरि रहिओ स्रब ठांई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

लोगा भरमि न भूलहु भाई ॥ खालिकु खलक खलक महि खालिकु पूरि रहिओ स्रब ठांई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लोगा = हे लोगो! भाई = हे भाई! खालकु = (जगत को) पैदा करने वाला प्रभु। स्रब ठांई = सब जगहों पर।1। रहाउ।
अर्थ: हे लोगो! हे भाई! (रब की हस्ती के बारे) किसी भूलेखे में पड़ कर दुखी मत होवो। वह रब सारी सृष्टि को पैदा करने वाला है और सारी सृष्टि में मौजूद है वह सब जगह भरपूर है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माटी एक अनेक भांति करि साजी साजनहारै ॥ ना कछु पोच माटी के भांडे ना कछु पोच कु्मभारै ॥२॥

मूलम्

माटी एक अनेक भांति करि साजी साजनहारै ॥ ना कछु पोच माटी के भांडे ना कछु पोच कु्मभारै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भांति = किस्म। साजी = पैदा की, बनाई। पोच = ऐब, कमी।2।
अर्थ: विधाता ने एक ही मिट्टी से (भाव, एक जैसे तत्वों से) अनेक किस्मों के जीव-जन्तु पैदा कर दिए हैं। (जहाँ तक जीवों की अस्लियत का खरे होने का सम्बंध है) ना इन मिट्टी के बर्तनों (भाव, जीवों) में कोई कमी है, और ना (इन बर्तनों के बनाने वाले) कुम्हार में।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभ महि सचा एको सोई तिस का कीआ सभु कछु होई ॥ हुकमु पछानै सु एको जानै बंदा कहीऐ सोई ॥३॥

मूलम्

सभ महि सचा एको सोई तिस का कीआ सभु कछु होई ॥ हुकमु पछानै सु एको जानै बंदा कहीऐ सोई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सोई = वही मनुष्य।3।
अर्थ: वह सदा कायम रहने वाला प्रभु सब जीवों में बसता है। जो कुछ जगत में हो रहा है, उसी का किया हुआ हो रहा है। वही मनुष्य रब का (प्यारा) बँदा कहा जा सकता है, जो उसकी रज़ा को पहचानता है और उस एक के साथ सांझ डालता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अलहु अलखु न जाई लखिआ गुरि गुड़ु दीना मीठा ॥ कहि कबीर मेरी संका नासी सरब निरंजनु डीठा ॥४॥३॥

मूलम्

अलहु अलखु न जाई लखिआ गुरि गुड़ु दीना मीठा ॥ कहि कबीर मेरी संका नासी सरब निरंजनु डीठा ॥४॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अलखु = जिसका मुकम्मल स्वरूप बयान नहीं हो सकता। गुड़ु = (परमात्मा के गुणों की सूझ रूपी) गुड़। गुरि = गुरु ने। संका = शक, भुलेखा। सरब = सारों में।4।
अर्थ: वह रब ऐसा है जिसका मुकम्मल स्वरूप बयान से परे है, उसके गुण कहे नहीं जा सकते। कबीर कहता है: मेरे गुरु ने (प्रभु के गुणों की सूझ रूपी) मीठा गुड़ मुझे दिया है (जिसका स्वाद तो मैं नहीं बता सकता, पर) मैंने उस माया-रहित प्रभु को हर जगह देख लिया है, मुझे इस में कोई शक नहीं रहा (मेरा अंदर किसी जाति अथवा मज़हब के लोगों की उच्चता व नीचता का कर्म नहीं रहा)।4।3।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: सर्व-व्यापक प्रभु ही सारे जीवों का विधाता है। सबकी अस्लियत एक ही है, किसी को बुरा मत कहो।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती ॥ बेद कतेब कहहु मत झूठे झूठा जो न बिचारै ॥ जउ सभ महि एकु खुदाइ कहत हउ तउ किउ मुरगी मारै ॥१॥

मूलम्

प्रभाती ॥ बेद कतेब कहहु मत झूठे झूठा जो न बिचारै ॥ जउ सभ महि एकु खुदाइ कहत हउ तउ किउ मुरगी मारै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे हिन्दू और मुसलमान भाईयो!) वेदों और कुरान आदि को (एक-दूसरे की) धर्म-पुस्तकों को झूठा ना कहो। झूठा तो वह व्यक्ति है जो इन धर्म-पुस्तकों की विचार नहीं करता। (भला, हे मुल्लां!) अगर तू यह कहता है कि खुदा सब जीवों में मौजूद है तो (उस खुदा के आगे कुर्बानी देने के लिए) मुर्गी क्यों मारता है? (क्या उस मुर्गी में वह ख़ुदा नहीं है? मुर्गी में बैठे खुदा के अंश को मार के खुदा के आगे भेट करने का क्या भाव है?)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुलां कहहु निआउ खुदाई ॥ तेरे मन का भरमु न जाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मुलां कहहु निआउ खुदाई ॥ तेरे मन का भरमु न जाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुलां = हे मुल्ला! कहहु = सुनाता है। निआउ = इन्साफ।1। रहाउ।
अर्थ: हे मुल्ला! तू (और लोगों को तो) खुदा का न्याय सुनाता है, पर तेरे अपने मन का भुलेखा अभी दूर ही नहीं हुआ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पकरि जीउ आनिआ देह बिनासी माटी कउ बिसमिलि कीआ ॥ जोति सरूप अनाहत लागी कहु हलालु किआ कीआ ॥२॥

मूलम्

पकरि जीउ आनिआ देह बिनासी माटी कउ बिसमिलि कीआ ॥ जोति सरूप अनाहत लागी कहु हलालु किआ कीआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आनिआ = ले आए। देह = शरीर। बिसमिल = (अरबी: बिसमिल्लाह = अल्लाह के नाम पर, ख़ुदा के वास्ते। मुर्गी आदि किसी जीव का मास तैयार करने के वक्त मुसलमान शब्द ‘बिसमिल्लाह’ पढ़ता है, भाव यह है कि मैं ‘अल्लाह के नाम पर, अल्लाह की खातिर’ इसको ज़बह करता हूँ। सो, ‘बिसमिल’ करने का अर्थ है = ‘ज़बह करना’)। जोति सरूप = वह प्रभु जिसका स्वरूप ज्योति ही ज्योति है, जो सिर्फ नूर ही नूर है। अनाहत = अविनाशी प्रभु की। लागी = हर जगह लगी हुई है, हर जगह मौजूद है। हलालु = जाइज़, भेट करने योग्य, रब के नाम पर कुर्बानी देने के लायक।2।
अर्थ: हे मुल्ला! (मुर्गी आदि) जीव को पकड़ कर तू ले आया, तूने उसका शरीर नाश कर दिया, उस (के जिस्म) की मिट्टी को तूने खुदा के नाम पर कुर्बान किया (भाव, खुदा की नज़र भेट किया)। पर, हे मुल्ला! जो खुदा निरा नूर ही नूर है, और जो अविनाशी है उसकी ज्योति तो हर जगह मौजूद है, (उस मुर्गी में भी है जो तू खुदा के नाम से कुर्बान करता है) तो फिर, बता, तूने रब के नाम पर कुर्बानी देने के लायक कौन सी चीज़ बनाई?।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किआ उजू पाकु कीआ मुहु धोइआ किआ मसीति सिरु लाइआ ॥ जउ दिल महि कपटु निवाज गुजारहु किआ हज काबै जाइआ ॥३॥

मूलम्

किआ उजू पाकु कीआ मुहु धोइआ किआ मसीति सिरु लाइआ ॥ जउ दिल महि कपटु निवाज गुजारहु किआ हज काबै जाइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उजू = नमाज़ पढ़ने से पहले हाथ पैर मुँह धोने की क्रिया। पाकु = पवित्र।3।
अर्थ: हे मुल्ला! अगर तू अपने दिल में कपट रख के नमाज़ पढ़ता है, तो इस नमाज़ का क्या फायदा? पैर हाथ आदि साफ़ करने की रस्म का क्या लाभ? मुँह धोने के क्या गुण? मस्जिद में जाकर सजदा करने की क्या जरूरत? और, काबे के हज का क्या फायदा?।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूं नापाकु पाकु नही सूझिआ तिस का मरमु न जानिआ ॥ कहि कबीर भिसति ते चूका दोजक सिउ मनु मानिआ ॥४॥४॥

मूलम्

तूं नापाकु पाकु नही सूझिआ तिस का मरमु न जानिआ ॥ कहि कबीर भिसति ते चूका दोजक सिउ मनु मानिआ ॥४॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नापाकु = पलीत, अपवित्र, मैला, मलीन। पाकु = पवित्र प्रभु। मरमु = भेद। चूका = चूक गया। सिउ = साथ।4।
अर्थ: हे मुल्ला! तू अंदर से तो अपवित्र ही रहा, तुझे उस पवित्र प्रभु की समझ ही नहीं पड़ी, तूने उसका भेद नहीं पाया। कबीर कहता है: (इस भुलेखे में फसे रह के) तू बहिश्त से चूक गया है, और दोजक तेरा नसीब बन गई है।4।4।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: निरी शरह- अगर दिल में ठगी है, तो नमाज़, हज आदि सभ कुछ व्यर्थ के उद्यम हैं। सबमें बसता रब मुर्गी आदि की ‘कुर्बानी’ से भी खुश नहीं होता।

दर्पण-टिप्पनी

(पढ़ें मेरी लिखी ‘सलोक कबीर जी सटीक’ में कबीर जी के सलोक नंबर 184 से 188 तक)

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती ॥ सुंन संधिआ तेरी देव देवाकर अधपति आदि समाई ॥ सिध समाधि अंतु नही पाइआ लागि रहे सरनाई ॥१॥

मूलम्

प्रभाती ॥ सुंन संधिआ तेरी देव देवाकर अधपति आदि समाई ॥ सिध समाधि अंतु नही पाइआ लागि रहे सरनाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुंन = शून्य, अफुर अवस्था, माया के मोह का कोई विचार मन में ना उठने वाली अवस्था। संधिआ = (संध्या = The morning, noon and evening of a Brahman) सवेरे, दोपहर, और शाम के समय की पूजा जो हरेक ब्राहमण को करनी चाहिए। देवाकर = दिवाकर, सूर्य, हे रोशनी की खान! (देव+आकर)। अधपति = हे मालिक! आदि = हे सारे जगत के मूल! समाई = हे सर्व व्यापक! सिध = पुगे हुए जोगी, जोग अभ्यास में निपुन्न जोगी।1।
अर्थ: हे देव! हे उजाले की खान! हे जगत के मालिक! हे सबके मूल! हे सर्व-व्यापक प्रभु! जोगाभ्यास में निपुन्न जोगियों ने समाधियाँ लगा के भी तेरा अंत नहीं पाया वे भी आखिर में तेरी शरण लेते हैं। (तू माया से रहित है, सो) माया के फुरनों से मन को साफ रखना (और तेरे चरणों में ही जुड़े रहना) यह तेरी आरती करनी है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

लेहु आरती हो पुरख निरंजन सतिगुर पूजहु भाई ॥ ठाढा ब्रहमा निगम बीचारै अलखु न लखिआ जाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

लेहु आरती हो पुरख निरंजन सतिगुर पूजहु भाई ॥ ठाढा ब्रहमा निगम बीचारै अलखु न लखिआ जाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हो भाई = हे भाई! पुरख निरंजन आरती = माया रहित सर्व व्यापक प्रभु की आरती। ठाढा = खड़ा हुआ। निगम = वेद। अलखु = (संस्कृत: अलक्ष्य = having no particular marks) जिसके कोई खास चक्र चिन्ह नहीं।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! गुरु के बताए हुए राह पर चलो, और उस प्रभु की आरती उतारो जो माया से रहित है और जो सबमें व्यापक है, जिसका कोई खास चक्र-चिन्ह नहीं है, जिसके गुण बयान नहीं किए जा सकते और जिसके दर पर खड़ा ब्रहमा वेद विचार रहा है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततु तेलु नामु कीआ बाती दीपकु देह उज्यारा ॥ जोति लाइ जगदीस जगाइआ बूझै बूझनहारा ॥२॥

मूलम्

ततु तेलु नामु कीआ बाती दीपकु देह उज्यारा ॥ जोति लाइ जगदीस जगाइआ बूझै बूझनहारा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ततु = ज्ञान। बाती = बाती। उज्यारा = उजियारा, उजाला। देह उज्यारा = शरीर में (तेरे नाम का) उजाला। जगदीस जोति = जगदीश के नाम की ज्योति। बूझनहारा = ज्ञानवान।2।
अर्थ: कोई विरला ज्ञानवान (प्रभु की आरती का भेद) समझता है। (जिसने समझा है उसने) ज्ञान को तेल बनाया है, नाम को बाती और शरीर में (नाम की) रौशनी को ही दीपक बनाया है। यह दीया उसने जगत के मालिक प्रभु की ज्योति (में जुड़ के) जगाया है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पंचे सबद अनाहद बाजे संगे सारिंगपानी ॥ कबीर दास तेरी आरती कीनी निरंकार निरबानी ॥३॥५॥

मूलम्

पंचे सबद अनाहद बाजे संगे सारिंगपानी ॥ कबीर दास तेरी आरती कीनी निरंकार निरबानी ॥३॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पंचे सबद = पाँच ही नाद; पाँच किस्मों के साजों की आवाज, (पाँच किस्मों के साज ये हैं: तंती साज, खाल से मढ़े हुए, धातु के बने हुए, घड़ा आदि, फूक मार के बजाने वाले साज़। जब यह सारी किस्मों के साज़ मिला के बजाए जाएं तो महा सुंदर राग पैदा होता है, जो मन को मस्त कर देता है)। अनाहद = बिना बजाए, एक रस। संगे = साथ ही, अंदर ही (दिखाई दे जाता है)। सारिंगपानी = (सारिंग = धनुष। पानी = हाथ) जिसके हाथ में धनुष है, जो सारे जगत का नाश करने वाला भी है।3।
अर्थ: हे वासना-रहित निरंकार! हे सारिंगपाणि! मैं तेरे दास कबीर ने भी तेरी (ऐसी ही) आरती की है (जिसकी इनायत से) तू मुझे अंग-संग दिखाई दे रहा है (और मेरे अंदर एक ऐसा आनंद बन रहा है, मानो) पाँच ही किस्मों के साज़ (मेरे अंदर) एक-रस बज रहे हैं।3।5।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: कबीर जी का अपने नाम के साथ शब्द ‘दास’ लगाना जाहिर करता है कि वे मुसलमान नहीं थे।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: मूर्ति पूजा खण्डन-सर्व व्यापक परमात्मा का नाम-जपना ही सही आरती है। ज्ञान का तेल बरतो, नाम की बाती बनाओ, शरीर के अंदर आत्म-ज्ञान का प्रकाश हो जाएगा, प्रभु अंग-संग दिखेगा और अंदर सदा खिलाव बना रहेगा।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: पाठक सज्जनों ने इस शब्द के अर्थ पढ़ लिए हैं। इस में सर्व-व्यापक परमात्मा के स्मरण को ही जीवन का सही रास्ता बताया है। पर इस शब्द के बारे में भक्त-वाणी का विरोधी सज्जन इस प्रकार लिखता है;
“कबीर जी ने प्रभाती राग के अंदर अपने विचारों की आरती दर्ज की है, जो गुरमति वाली आरती का विरोध करती है।” इससे आगे शब्द को पेश किया गया है। पर ‘रहाउ’ की तुकों के शब्द ‘सतिगुर’ के साथ ही ब्रेकेटों में शब्द ‘रामानंद’ भी दे दिया है। क्यों? जान-बूझ के भुलेखा डालने की खातिर। आगे लिखते हैं: ‘उक्त शब्द स्वामी रामानंद जी के आगे आरती करने के हित था।’

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती बाणी भगत नामदेव जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

प्रभाती बाणी भगत नामदेव जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन की बिरथा मनु ही जानै कै बूझल आगै कहीऐ ॥ अंतरजामी रामु रवांई मै डरु कैसे चहीऐ ॥१॥

मूलम्

मन की बिरथा मनु ही जानै कै बूझल आगै कहीऐ ॥ अंतरजामी रामु रवांई मै डरु कैसे चहीऐ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिरथा = (सं: व्यथा) पीड़ा, दुख। कै = अथवा। बूझल आगै = बूझनहार के आगे, अंतरजामी प्रभु के आगे। रवांई = मैं स्मरण करता हूँ। मै = मुझे। कैसे = क्यों? चाहिऐ = चाहिए, आवश्यक, हो।1।
अर्थ: मन का दुख-कष्ट अथवा (दुखिए का) अपना मन जानता है अथवा (अंतरजामी प्रभु जानता है, सो अगर कहना होतो) उस अंतरजामी के आगे ही कहना चाहिए। मुझे तो अब कोई (दुखों का) डर रहा ही नहीं, क्योंकि मैं उस अंतरजामी परमात्मा को स्मरण कर रहा हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बेधीअले गोपाल गुोसाई ॥ मेरा प्रभु रविआ सरबे ठाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बेधीअले गोपाल गुोसाई ॥ मेरा प्रभु रविआ सरबे ठाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बेधीअले = भेद लिया है।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘गुोसाई’ में अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘गोसाई’, यहां ‘गुसाई’ पढ़ना है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: मेरे गोपाल गोसाई ने मुझे (अपने) चरणों में भेद लिया है, अब मुझे वह प्यारा प्रभु हर जगह बसता दिखता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मानै हाटु मानै पाटु मानै है पासारी ॥ मानै बासै नाना भेदी भरमतु है संसारी ॥२॥

मूलम्

मानै हाटु मानै पाटु मानै है पासारी ॥ मानै बासै नाना भेदी भरमतु है संसारी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मानै = मन में ही। पाटु = पटण शहर। पासारी = हाट चलाने वाला। नाना भेदी = अनेक रूप रंग बनाने वाला परमात्मा। संसारी = संसार में भटकने वाला, संसार से मोह डालने वाला।2।
अर्थ: (उस अंतरजामी का मनुष्य के) मन में ही हाट है, मन में ही शहर है, और मन में ही वह हाट चला रहा है, वह अनेक रूपों-रंगों वाला प्रभु (मनुष्य के) मन में ही बसता है। पर संसार से मोह रखने वाला मनुष्य बाहर भटकता फिरता है।2।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर कै सबदि एहु मनु राता दुबिधा सहजि समाणी ॥ सभो हुकमु हुकमु है आपे निरभउ समतु बीचारी ॥३॥

मूलम्

गुर कै सबदि एहु मनु राता दुबिधा सहजि समाणी ॥ सभो हुकमु हुकमु है आपे निरभउ समतु बीचारी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राता = रंगा हुआ। दुबिधा = दु+चिक्ता पन। सहजि = सहज में, आत्मिक अडोलता में। आपे = आप ही। समतु = एक समान। बीचारी = विचारता है, समझता है।3।
अर्थ: जिस मनुष्य का ये मन सतिगुरु के शब्द में रंगा गया है, उसकी मेर-तेर अडोल आत्मिक अवस्था में लीन हो गई है, वह सम-दरसी हो जाता है, वह निडर हो जाता है क्योंकि उसको (हर जगह) प्रभु का ही हुक्म बरतता दिखता है, प्रभु स्वयं ही हुक्म चला रहा प्रतीत होता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो जन जानि भजहि पुरखोतमु ता ची अबिगतु बाणी ॥ नामा कहै जगजीवनु पाइआ हिरदै अलख बिडाणी ॥४॥१॥

मूलम्

जो जन जानि भजहि पुरखोतमु ता ची अबिगतु बाणी ॥ नामा कहै जगजीवनु पाइआ हिरदै अलख बिडाणी ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जानि = जान के, इस तरह जान के, प्रभु को ऐसा समझ के। ची = की। ता ची = उनकी। अबिगतु = अदृष्य प्रभु (का नाम)। ता ची बाणी = उनकी वाणी। विडाणी = आश्चर्य।4।
अर्थ: जो मनुष्य उत्तम पुरख प्रभु को (इस तरह सर्व-व्यापक) जान के स्मरण करते हैं, उनकी वाणी ही प्रभु का नाम बन जाता है (भाव, वे हर वक्त सिफत्सालाह ही करते हैं)। नामदेव कहता है उन लोगों ने आश्चर्य-जनक अलख और जगत-के-जीवन प्रभु को अपने हृदय में ही पा लिया है।4।1।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: नाम-जपने की इनायत से सर्व-व्यापक परमात्मा हृदय में ही मिल जाता है। इसलिए निडरता पैदा होती है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती ॥ आदि जुगादि जुगादि जुगो जुगु ता का अंतु न जानिआ ॥ सरब निरंतरि रामु रहिआ रवि ऐसा रूपु बखानिआ ॥१॥

मूलम्

प्रभाती ॥ आदि जुगादि जुगादि जुगो जुगु ता का अंतु न जानिआ ॥ सरब निरंतरि रामु रहिआ रवि ऐसा रूपु बखानिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आदि = (सबकी) शुरूवात। जुगादि = जुगों के आदि से। जुगो जुगु = हरेक युग में। ता का = उस (प्रभु) का। निरंतरि = अंदर एक रस। रवि रहिआ = व्यापक है। बखानिआ = बयान किया गया है, (धर्म पुस्तकों में) बताया गया है।1।
अर्थ: (वह सुंदर राम) सारे संसार का मूल है, जुगों के आदि से है, हरेक युग में मौजूद है, उस राम के गुणों का किसी ने अंत नहीं पाया, वह राम सब जीवों में एक-रस व्यापक है: (सब धर्म-पुस्तकों ने) उस राम का कुछ इस तरह का स्वरूप बयान किया है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोबिदु गाजै सबदु बाजै ॥ आनद रूपी मेरो रामईआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गोबिदु गाजै सबदु बाजै ॥ आनद रूपी मेरो रामईआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गाजे = गरजता है, प्रकट हो जाता है। बाजै = बजता है। सबदु बाजै = गुरु के शब्द का बाजा बजता है। रामईआ = सुंदर राम।1। रहाउ।
अर्थ: (इस मनुष्य के हृदय में गुरु का) शब्द बाजा बजता है, वहाँ मेरा सुंदर राम, सुख स्वरूप राम, गोबिंद प्रकट हो जाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बावन बीखू बानै बीखे बासु ते सुख लागिला ॥ सरबे आदि परमलादि कासट चंदनु भैइला ॥२॥

मूलम्

बावन बीखू बानै बीखे बासु ते सुख लागिला ॥ सरबे आदि परमलादि कासट चंदनु भैइला ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बावन = चंदन। बीखू = (वृक्ष) पेड़। बानै बीखे = बन विखे, जंगल में। बासु ते = (चँदन की) सुगंधी से। लागिला = लगता है, मिलता है। परमलादि = परमल आदि, सुगंधियों का मूल। कासट = (साधारण) काठ। भैइला = हो जाता है।2।
अर्थ: (जैसे) जंगल में चँदन का पौधा होता है, (उसकी) सुगंधि से (सबको) सुख मिलता है, (उसकी संगति से साधारण) वृक्ष चंदन बन जाता है; वैसेही, वह राम, सब जीवों का मूल राम, (सब गुणों का रूप) सुगन्धियों का मूल है (उसकी संगति में साधारण जीव गुणवान हो जाते हैं)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुम्ह चे पारसु हम चे लोहा संगे कंचनु भैइला ॥ तू दइआलु रतनु लालु नामा साचि समाइला ॥३॥२॥

मूलम्

तुम्ह चे पारसु हम चे लोहा संगे कंचनु भैइला ॥ तू दइआलु रतनु लालु नामा साचि समाइला ॥३॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तुम्ह चे = तेरे जैसा (भाव, तू) पारस हैं। हम चे = मेरे जैसा (भाव, मैं)। संगे = तेरी संगति में, तेरे साथ छूने से। कंचन = सोना। साचि = सदा कायम रहने वाले परमात्मा में। समाइला = लीन हो गया है।3।
अर्थ: (हे मेरे सुंदर राम) तू पारस है, मैं लोहा हूँ, तेरी संगति में मैं सोना बन गया हूँ। तू दया का घर है, तू रतन है, तू लाल है। मैं नामा तुझ सदा स्थिर रहने वाले में लीन हो गया हूँ।3।2।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: नाम-जपने की इनायत से परमात्मा वाले गुण भक्त के अंदर पैदा हो जाते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती ॥ अकुल पुरख इकु चलितु उपाइआ ॥ घटि घटि अंतरि ब्रहमु लुकाइआ ॥१॥

मूलम्

प्रभाती ॥ अकुल पुरख इकु चलितु उपाइआ ॥ घटि घटि अंतरि ब्रहमु लुकाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कु = धरती। कुल = धरती से पैदा हुआ, खानदान, वंश। अकुल = (अ+कुल) जो धरती के ऊपर पैदा हुई (किसी भी) कुल में से नहीं है। पुरख = सब में व्यापक (संस्कृत: पुरि शेते इति पुरुष:)। चलित्रु = जगत रूप तमाशा। घटि घटि = हरेक घट में। अंतरि = हरेक के अंदर। ब्रहमु = आत्मा, जिंद।1।
अर्थ: जिस परमात्मा की कोई खास कुल नहीं है उस सर्व-व्यापक ने ये जगत-रूप एक खेल बना दी है। हरेक शरीर में, हरेक के अंदर उसने अपनी आत्मा गुप्त रख दी है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीअ की जोति न जानै कोई ॥ तै मै कीआ सु मालूमु होई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जीअ की जोति न जानै कोई ॥ तै मै कीआ सु मालूमु होई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीअ की जोति = हरेक जीव के अंदर बसती ज्योति। कोई = कोई प्राणी। तै मै कीआ = हम जीवों ने जो कुछ किया, हम जीव जो कुछ करते हैं। मैं = तू और मैं, हम सारे जीव। होई = होता है।1। रहाउ।
अर्थ: सारे जीवों में बसती ज्योति को तो कोई प्राणी जानता नहीं है, पर हम सारे जीव जो कुछ करते हैं (हमारे अंदर) उस अंदर-बस-रही-ज्योति को मालूम हो जाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिउ प्रगासिआ माटी कु्मभेउ ॥ आप ही करता बीठुलु देउ ॥२॥

मूलम्

जिउ प्रगासिआ माटी कु्मभेउ ॥ आप ही करता बीठुलु देउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिउ = जैसे। कुंभेउ = कुंभ, घड़ा। करता = पैदा करने वाला। बीठुल देउ = माया से रहित प्रभु।2।
अर्थ: जैसे मिट्टी से घड़ा बन जाता है, (वैसे ही उस परम ज्योति से सारे जीव बनते हैं, पर) वह बीठलु प्रभु खुद ही सबको पैदा करने वाला है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीअ का बंधनु करमु बिआपै ॥ जो किछु कीआ सु आपै आपै ॥३॥

मूलम्

जीअ का बंधनु करमु बिआपै ॥ जो किछु कीआ सु आपै आपै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करमु = किया हुआ कर्म। बंधनु = जंजाल। बिआपै = प्रभाव डाले रखता है। आपै = आप ही आप, प्रभु ने आप ही।3।
अर्थ: जीव का किया हुआ काम उसके लिए जंजाल बन जाता है, पर यह जंजाल आदि भी जो कुछ बनाया है प्रभु ने स्वयं ही बनाया है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रणवति नामदेउ इहु जीउ चितवै सु लहै ॥ अमरु होइ सद आकुल रहै ॥४॥३॥

मूलम्

प्रणवति नामदेउ इहु जीउ चितवै सु लहै ॥ अमरु होइ सद आकुल रहै ॥४॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चितवै = चितवता है, तमन्ना रखता है। लहै = हासिल कर लेता है। अमरु = (अ+मरु) मौत रहित। आकुल = सर्व व्यापक।4।
अर्थ: नामदेव विनती करता है, यह जीव जिस शै के ऊपर अपना मन टिकाता है उसको हासिल कर लेता है (माया-जाल की चितवनी करता है और माया-जाल में फंस जाता है, पर) अगर यह जीव सर्व-व्यापक परमात्मा को अपने मन में टिकाए तो (उस अमर प्रभु में टिक के स्वयं भी) अमर हो जाता है।4।

दर्पण-भाव

शब्द का भाव: सर्व-व्यापक परमात्मा ने जगत की यह खेल खुद ही रची है।
नोट: नामदेव जी का ‘बीठुल’ वह है जो ‘आप ही करता’ है जिस ने यह जगत-तमाशा बनाया है और जिसको सब जीवों के दिल के भेद मालूम हो जाते हैं। यह शब्द ‘बीठुल’ सतिगुरु जी ने भी अपनी वाणी में कई बार बरता है। अगर निरा यह शब्द बरतने से ही नामदेव जी को किसी बीठुल-मूर्ति का उपासक मान लेना है तो यह शब्द सतिगुरु जी ने भी उपयोग किया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाती भगत बेणी जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

प्रभाती भगत बेणी जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तनि चंदनु मसतकि पाती ॥ रिद अंतरि कर तल काती ॥ ठग दिसटि बगा लिव लागा ॥ देखि बैसनो प्रान मुख भागा ॥१॥

मूलम्

तनि चंदनु मसतकि पाती ॥ रिद अंतरि कर तल काती ॥ ठग दिसटि बगा लिव लागा ॥ देखि बैसनो प्रान मुख भागा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तनि = शरीर पर। मसतकि = माथे पर। पाती = तुलसी के पत्र। रिद = हृदय। कर तल = हाथों की तलियों पर, हाथों में। काती = कैंची। दिसटि = नजर, ताक। बगा = बगुला। देखि = देख के, देखने को। प्रान = श्वास। भागा = भाग गए।1।
अर्थ: (हे लंपट!) तू शरीर पर चँदन (का लेप करता है) माथे पर तुलसी का पत्र (लगाता है; पर) तेरे दिल में (ऐसा कुछ हो रहा है जैसे) तेरे हाथों में कैंची पकड़ी हुई है; तेरी निगाहें ठगों वाली बगुले की तरह तूने समाधि लगाई हुई है, देखने को तू वैष्णव लगता है जैसे तेरे मुँह में से साँस निकल गए हैं (भाव, देखने में तू बड़ा ही दयावान लगता है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलि भगवत बंद चिरांमं ॥ क्रूर दिसटि रता निसि बादं ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कलि भगवत बंद चिरांमं ॥ क्रूर दिसटि रता निसि बादं ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कलि = कलियुग में। चिरामं = समय तक। क्रूर = टेढ़ी। रता = मस्त। निस = (भाव) निसि दिन, रात दिन, हर वक्त। बादं = झगड़ा, माया के लिए झगड़ा, माया के लिए दौड़ भाग।1। रहाउ।
अर्थ: (हे विषई मनुष्य! तू वैसे तो) विवाद वाला स्वभाव में प्रवृति है, पर मूर्ति को काफी देर तक नमस्कार करता है, तेरी नजर टेढ़ी है (तेरी निगाह में खोट है), दिन-रात तू माया के धंधों में रति हुआ रहता है (ऐसे इरादे से, तेरा इन मूर्तियों की बँदना किस अर्थ की?)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नितप्रति इसनानु सरीरं ॥ दुइ धोती करम मुखि खीरं ॥ रिदै छुरी संधिआनी ॥ पर दरबु हिरन की बानी ॥२॥

मूलम्

नितप्रति इसनानु सरीरं ॥ दुइ धोती करम मुखि खीरं ॥ रिदै छुरी संधिआनी ॥ पर दरबु हिरन की बानी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नित प्रति = सदा। मुखि खीरं = मुँह में दूध है, दूधाधारी है। संधिआनी = ताक के रखी हुई है, निशाना बाँध के रखी हुई है। दरबु = धन। हिरन = चुराना। बानी = आदत।2।
अर्थ: (हे विषई मनुष्य!) तू हर रोज अपने शरीर को स्नान करवाता है, दो धोतियाँ रखता है, (अन्य) कर्मकांड (भी करता है), दूधाधारी (बना हुआ) है; पर अपने हृदय में तूने छुरी कस के रखी हुई है, तुझे पराया धन ठगने की आदत पड़ी हुई है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिल पूजसि चक्र गणेसं ॥ निसि जागसि भगति प्रवेसं ॥ पग नाचसि चितु अकरमं ॥ ए ल्मपट नाच अधरमं ॥३॥

मूलम्

सिल पूजसि चक्र गणेसं ॥ निसि जागसि भगति प्रवेसं ॥ पग नाचसि चितु अकरमं ॥ ए ल्मपट नाच अधरमं ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निसि = रात को। भगति = रासों की भक्ति। पग = पैरों से। अकरमं = बुरे कर्मों में। ए लंपट = हे विषई! अधरमं = धर्म के लिए नहीं।3।
अर्थ: (हे लंपट!) तू शिला पूजता है, शरीर पर तूने गणेश देवते के निशान बनाए हुए हैं, रातों में रास (डालने के नाम पर भक्ति करने के लिए) जागता भी है, वहाँ पैरों से तू नाचता है, पर तेरा चिक्त बुरे कर्मों में ही मगन रहता है, हे लंपट! यह नाच कोई धर्म (का काम) नहीं है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

म्रिग आसणु तुलसी माला ॥ कर ऊजल तिलकु कपाला ॥ रिदै कूड़ु कंठि रुद्राखं ॥ रे ल्मपट क्रिसनु अभाखं ॥४॥

मूलम्

म्रिग आसणु तुलसी माला ॥ कर ऊजल तिलकु कपाला ॥ रिदै कूड़ु कंठि रुद्राखं ॥ रे ल्मपट क्रिसनु अभाखं ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: म्रिग = हिरन। कर ऊजल = साफ हाथों से। कपाला = माथे पर। कंठि = गले में। क्रिसनु = परमात्मा। अभाखं = अ+भाखं, नहीं बोलता, नहीं स्मरण करता।4।
अर्थ: हे विषयी मनुष्य! (पूजा पाठ के वक्त) तू हिरन की खाल का आसन (प्रयोग करता है), तुलसी की माला तेरे पास है, साफ हाथों से तू माथे पर तिलक लगाता है, गले में तूने रुद्राक्ष की माला पहनी हुई है, पर तेरे हृदय में ठगी है। (हे लंपट! इस तरह) तू हरि को नहीं स्मरण कर रहा है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिनि आतम ततु न चीन्हिआ ॥ सभ फोकट धरम अबीनिआ ॥ कहु बेणी गुरमुखि धिआवै ॥ बिनु सतिगुर बाट न पावै ॥५॥१॥

मूलम्

जिनि आतम ततु न चीन्हिआ ॥ सभ फोकट धरम अबीनिआ ॥ कहु बेणी गुरमुखि धिआवै ॥ बिनु सतिगुर बाट न पावै ॥५॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस मनुष्य ने। ततु = अस्लियत। अबीनिआ = अंधे ने। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। बाट = जीवन का सही रास्ता।5।1।
अर्थ: हे बेणी! ये बात सच है कि जिस मनुष्य ने आत्मा की अस्लियत को नहीं पहचाना, उस अंधे के सारे धर्म-कर्म फोके हैं। वही मनुष्य स्मरण करता है जो गुरु के सन्मुख होता है, गुरु के बिना जिंदगी का सही राह नहीं मिलता।5।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस शब्द के शब्दों को जरा ध्यान से देखें; किसी अच्छे विद्वान के मुँह से निकले दिखाई देते हैं। बेणी जी जाति के ब्राहमण थे, विद्वान ब्राहमण थे। ब्राहमण के बिछाए हुए कर्मकांड के जाल का चित्रण कर रहे हैं। ये किसी शूरवीर का ही मर्दानगी भरा काम हो सकता है कि अपनी जाति-भाई ब्राहमणों के साथ मिल के इस कर्मकांडी जाल पर पर्दा डालने की बजाए, बेणी जी ने इसका थोथा-पन जाहिर कर दिया। बेणी जी की यही दलेरी, जिसने सतिगुरु नानक पातशाह को आकर्षित किया। पहली ‘उदासी’ में गुरु नानक देव जी ने बेणी जी के शब्द ले के आए थे, और अपनी वाणी के साथ संभाल के रखे थे। बेणी जी किसी पाखण्डी का चित्रण कर रहे हैं कि कैसे बाहर से धार्मिक भेस धार के अंदर से कैंची चलाता है।
इसी ही राग में सतिगुरु नानक देव जी का शब्द नंबर 14 ध्यान से पढ़ के देखें। इन दोनों शबदों में बहुत गहरी समानता है;
दोनों शबदों के पाँच-पाँच बंद हैं
हरेक बंद की चार-चार तुकें हैं,
तुकों की संरचना तकरीबन एक समान हैं,
बेणी जी तो किसी पाखण्डी का हाल बताते हैं, गुरु नानक देव जी ‘गुरमुख’ का जीवन बयान करते हैं, देखिए, दोनों को आमने-सामने रख के;
इन दोनों शबदों की इस सांझ से साफ प्रकट है कि सतिगुरु नानक साहिब ने जब यह शब्द नं: 14 उचारा था, उनके पास बेणी जी का यह शब्द मौजूद था।
प्रभाती राग में गुरु नानक देव जी का वह शब्द नंबर 14 इस प्रकार है;
गीत नाद हरख चतुराई॥ रहस रंग फुरमाइसि काई॥ पैन्णु खाणा चीति न पाई॥ साचु सहजु सुखु नामि वसाई॥१॥ किआ जानां किआ करै करावै॥ नाम बिना तनि किछु न सुखावै॥१॥ रहाउ॥ जोग बिनोद स्वाद आनंदा॥ मति सत भाइ भगति गोबिंदा॥ कीरति करम कार निज संदा॥ अंतरि रवतौ राज रविंदा॥२॥ प्रिउ प्रिउ प्रीति प्रेमि उर धारी॥ दीना नाथु पीउ बनवारी॥ अनदिनु नामु दानु ब्रतकारी॥ तिपति तरंगी, ततु बीचारी॥३॥ अकथौ कथउ किआ मै जोरु॥ भगति करी कराइहि मोर॥ अंतरि वसै चूकै मै मोर॥ किसु सेवी दूजा नही होरु॥४॥ गुर का सबदु महा रसु मीठा॥ ऐसा अंम्रितु अंतरि डीठा॥ जिनि चाखिआ पूरा पदु होइ॥ नानक ध्रापिओ तनि सुखु होइ॥५॥१४॥ (पन्ना १३३१)
आसा की वार की पौड़ी नंबर 14 का दूसरा शलोक भी पढ़ें;
महला १॥ पढ़ि पुसतक संधिआ बादं॥ सिल पूजसि बगुल समाधं॥ मुखि झूठ बिभूखण सारं॥ त्रैपाल तिहाल बिचारं॥ गलि माला तिलकु लिलाटं॥ दुइ धोती बसत्र कपाटं॥ जे जाणसि ब्रहमं करमं॥ सभि फोकट निसचउ करमं॥ कहु नानक निहचउ धिआवै॥ विणु सतिगुर वाट न पावै॥२॥१४॥ (पन्ना ४७०)
बेणी जी के शब्द से इसको मिला के पढ़िए। विषय-वस्तु मिलता है, चाल मिलती है, कई शब्द सांझे हें, आखिरी तुक की सांझ तो कमाल की है। विरोधी सज्जन अगर इस शलोक को बेणी जी के शब्द के साथ मिला के पढ़ने की ज़हमत उठाता, तो ये ना लिखता कि इस शब्द में से ‘गुरमति के किसी सिद्धांत पर रोशनी नहीं पड़ती’।