२९ कलिआन

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विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु कलिआन महला ४

मूलम्

रागु कलिआन महला ४

विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सतिनामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

मूलम्

ੴ सतिनामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामा रम रामै अंतु न पाइआ ॥ हम बारिक प्रतिपारे तुमरे तू बड पुरखु पिता मेरा माइआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

रामा रम रामै अंतु न पाइआ ॥ हम बारिक प्रतिपारे तुमरे तू बड पुरखु पिता मेरा माइआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रम = सर्व व्यापक। रामै अंतु = परमात्मा (की हस्ती) का अंत। हम = हम जीव। प्रतिपारे = पाले हुए। बड = बड़ा। माइआ = माँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सर्व-व्यापक परमात्मा (के गुणों) का अंत (किसी जीव द्वारा) नहीं पाया जा सकता। हे प्रभु! हम जीव तेरे बच्चे हैं, तेरे पाले हुए हैं, तू सबसे बड़ा पुरख है, तू हमारा पिता है, तू हमारी माँ है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि के नाम असंख अगम हहि अगम अगम हरि राइआ ॥ गुणी गिआनी सुरति बहु कीनी इकु तिलु नही कीमति पाइआ ॥१॥

मूलम्

हरि के नाम असंख अगम हहि अगम अगम हरि राइआ ॥ गुणी गिआनी सुरति बहु कीनी इकु तिलु नही कीमति पाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: असंख = (संख्या = गिनती) अनगिनत। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। हहि = हैं (बहुवचन)। राइआ = राजा, पातिशाह। सुरति = सोच, विचार। बहु = बहुत। पाइआ = पाया, पा के।1।
अर्थ: हे भाई! प्रभु-पातशाह के नाम अनगिनत हैं (प्रभु के नामों की गिनती तक) पहुँच नहीं हो सकती। हे भाई! अनेक गुणवान मनुष्य अनेक विचारवान मनुष्य बहुत सोच-विचार करते आए हैं, पर कोई भी मनुष्य परमात्मा की महानता का रक्ती भर भी आकलन नहीं कर सका।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोबिद गुण गोबिद सद गावहि गुण गोबिद अंतु न पाइआ ॥ तू अमिति अतोलु अपर्मपर सुआमी बहु जपीऐ थाह न पाइआ ॥२॥

मूलम्

गोबिद गुण गोबिद सद गावहि गुण गोबिद अंतु न पाइआ ॥ तू अमिति अतोलु अपर्मपर सुआमी बहु जपीऐ थाह न पाइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सद = सदा। गावहि = गाते हैं (बहु वचन)। गुण गोबिद अंतु = गोबिंद के गुणों का अंत। अमिति = (मिति = मर्यादा, हद बंदी) जिसकी हस्ती का अंदाजा ना लगाया जा सके। अपरंपर = परे से परे। बहु जपीऐ = (तेरा नाम) बहुत जपा जाता है। थाह = गहराई।2।
अर्थ: हे भाई! (अनेक ही जीव) परमात्मा के गुण सदा गाते हैं, पर परमात्मा के गुणों का अंत किसी ने नहीं पाया। हे प्रभु! तेरी हस्ती को नापा नहीं जा सकता, तेरी हस्ती को तोला नहीं जा सकता। हे मालिक-प्रभु! तू परे से परे है। तेरा नाम बहुत जपा जा रहा है, (पर तू एक ऐसा समुंदर है कि उसकी) गहराई नहीं पाई जा सकती।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उसतति करहि तुमरी जन माधौ गुन गावहि हरि राइआ ॥ तुम्ह जल निधि हम मीने तुमरे तेरा अंतु न कतहू पाइआ ॥३॥

मूलम्

उसतति करहि तुमरी जन माधौ गुन गावहि हरि राइआ ॥ तुम्ह जल निधि हम मीने तुमरे तेरा अंतु न कतहू पाइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उसतति = बड़ाई, महिमा। करहि = करते हैं (बहुवचन)। माधौ = (माधव। माया का धव। धव = पति) हे माया के पति प्रभु! हरि राइआ = हे प्रभु पातिशाह! जल निधि = पानी का खजाना, समुंदर। मीने = मछलियां। कतहू = कहीं भी।3।
अर्थ: हे माया के पति-प्रभु! हे प्रभु-पातिशाह! तेरे सेवक तेरी महिमा करते रहते हैं, तेरे गुण गाते रहते हैं। हे प्रभु! तू (मानो, एक) समुंदर है, हम जीव तेरी मछलियाँ हैं (मछली नदी में तैरती तो है पर नदी की हस्ती का अंदाजा नहीं लगा सकती)। हे प्रभु! कहीं भी कोई जीव तेरी हस्ती का अंत नहीं पा सका।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जन कउ क्रिपा करहु मधसूदन हरि देवहु नामु जपाइआ ॥ मै मूरख अंधुले नामु टेक है जन नानक गुरमुखि पाइआ ॥४॥१॥

मूलम्

जन कउ क्रिपा करहु मधसूदन हरि देवहु नामु जपाइआ ॥ मै मूरख अंधुले नामु टेक है जन नानक गुरमुखि पाइआ ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कउ = को, पर। मध सूदन = (‘मधु’ राक्षस को मारने वाला) हे परमात्मा! जपाइआ = जपने के लिए। अंधुले = अंधे के लिए। टेक = सहारा। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख होने पर।4।
अर्थ: हे दैत्य-दमन प्रभु! (अपने) सेवक (नानक) पर मेहर कर। हे हरि! (मुझे अपना) नाम दे (मैं नित्य) जपता रहूँ। मुझ मूर्ख वास्ते मुझ अंधे के लिए (तेरा) नाम सहारा है। हे दास नानक! (कह:) गुरु की शरण पड़ कर ही (परमात्मा का नाम) प्राप्त होता है।4।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलिआनु महला ४ ॥ हरि जनु गुन गावत हसिआ ॥ हरि हरि भगति बनी मति गुरमति धुरि मसतकि प्रभि लिखिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कलिआनु महला ४ ॥ हरि जनु गुन गावत हसिआ ॥ हरि हरि भगति बनी मति गुरमति धुरि मसतकि प्रभि लिखिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि जनु = परमात्मा का भक्त (एकवचन)। हसिआ = प्रसन्नचिक्त रहता है, खिला रहता है। बनी = फबती है, प्यारी लगती है। धुरि = धुर से, धुर दरगाह से, पहले से ही। मसतकि = माथे पर। प्रभि = प्रभु ने।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का भक्त परमात्मा के गुण गाते हुए प्रसन्न-चिक्त रहता है, गुरु की मति पर चल के परमात्मा की भक्ति उसको प्यारी लगती है। प्रभु ने (ही) धुर-दरगाह से ही उसके माथे पर ये लेख लिखे होते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर के पग सिमरउ दिनु राती मनि हरि हरि हरि बसिआ ॥ हरि हरि हरि कीरति जगि सारी घसि चंदनु जसु घसिआ ॥१॥

मूलम्

गुर के पग सिमरउ दिनु राती मनि हरि हरि हरि बसिआ ॥ हरि हरि हरि कीरति जगि सारी घसि चंदनु जसु घसिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पग = पैर, चरण (बहुवचन)। सिमरउ = मैं स्मरण करता हूँ। मनि = मन में। कीरति = कीर्ती, महिमा। जगि = जगत में। सारी = श्रेष्ठ। घसि = घिस के, रगड़ खा के (सुगंधि देता है)। जसु = यश, महिमा। घसिआ = (मनुष्य के हृदय में) रगड़ खाता है (और नाम की सुगंधि बिखेरता है)।1।
अर्थ: हे भाई! मैं दिन-रात उसके चरणों का ध्यान धरता हूँ, (गुरु की कृपा से ही) परमात्मा मेरे मन में आ बसा है। हे भाई! परमात्मा की महिमा जगत में (सबसे) श्रेष्ठ (पदार्थ) है, (जैसे) चंदन रगड़ खा के (सुगंधि देता है, वैसे ही परमात्मा का) यश (महिमा मनुष्य के हृदय से) रगड़ खाता है (और, नाम की सुगंधि बिखेरता है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जन हरि हरि हरि लिव लाई सभि साकत खोजि पइआ ॥ जिउ किरत संजोगि चलिओ नर निंदकु पगु नागनि छुहि जलिआ ॥२॥

मूलम्

हरि जन हरि हरि हरि लिव लाई सभि साकत खोजि पइआ ॥ जिउ किरत संजोगि चलिओ नर निंदकु पगु नागनि छुहि जलिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि जन = परमात्मा के भक्त (बहुवचन)। लिव लाई = तवज्जो जोड़ी। सभि = सारे। साकत = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य। खोजि पइआ = पीछे पड़ जाते हैं, निंदा ईष्या करते हैं। किरत = किए हुए काम। किरत संजोगि = पिछले किए कर्मों के संजोग से, पिछले किए कामों के संस्कारों के असर तले। चलिओ = जीवन चाल चलता है। पगु = पैर। नागनि = सपनी, (माया) सर्पनी। जलिआ = जल गया।2।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के भक्त सदा परमात्मा में तवज्जो जोड़े रखते हैं, पर परमात्मा से टूटे हुए सारे मनुष्य उनसे ईष्या करते हैं। (पर, साकत मनुष्य के भी क्या वश?) जैसे-जैसे पिछले किए कर्मों के संस्कारों के असर तले निंदक मनुष्य (निंदा वाली) जीवन-चाल चलता है (त्यों-त्यों उसका आत्मिक जीवन ईष्या की आग से) छू के जलता जाता है। (जैसे किसी मनुष्य का) पैर सपनी से छूह के (सर्पनी के डंक मारने से उसकी) मौत हो जाती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जन के तुम्ह हरि राखे सुआमी तुम्ह जुगि जुगि जन रखिआ ॥ कहा भइआ दैति करी बखीली सभ करि करि झरि परिआ ॥३॥

मूलम्

जन के तुम्ह हरि राखे सुआमी तुम्ह जुगि जुगि जन रखिआ ॥ कहा भइआ दैति करी बखीली सभ करि करि झरि परिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुआमी = हे स्वामी! जुगि जुगि = हरेक युग में, सदा ही। कहा भइआ = क्या हुआ? कुछ ना बिगाड़ सका। दैति = दैत्य ने। बखीली = ईष्या। झरि परिआ = झड़ पड़ा, गिर गया, आत्मिक मौत मर गया।3।
अर्थ: हे (मेरे) मालिक-प्रभु! अपने भगतों के आप स्वयं रखवाले हो, हरेक जुग में आप (अपने भगतों की) रक्षा करते आए हो। (हर्णाकष्यप) दैत्य ने (भक्त प्रहलाद के साथ) ईष्या की, पर (वह दैत्य भक्त का) कुछ ना बिगाड़ सका। वह सारी (दैत्य सभा ही) ईष्या कर-कर के अपनी आत्मिक मौत सहेड़ती गई।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जेते जीअ जंत प्रभि कीए सभि कालै मुखि ग्रसिआ ॥ हरि जन हरि हरि हरि प्रभि राखे जन नानक सरनि पइआ ॥४॥२॥

मूलम्

जेते जीअ जंत प्रभि कीए सभि कालै मुखि ग्रसिआ ॥ हरि जन हरि हरि हरि प्रभि राखे जन नानक सरनि पइआ ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जेते = जितने भी। प्रभि = प्रभु ने। सभि = सारे। कालै मुखि = काल के मुँह में। ग्रसिआ = पकड़ा गया, फसे हुए हैं। राखे = रक्षा की।4।
अर्थ: हे भाई! जितने भी जीव-जंतु प्रभु ने पैदा किए हुए हैं, यह सारे ही (परमात्मा से विछुड़ के) आत्मिक मौत के मुँह में फसे रहते हैं। हे दास नानक! अपने भगतों की प्रभु ने सदा ही स्वयं रक्षा की है, भक्त प्रभु की शरण पड़े रहते हैं।4।2।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

कलिआन महला ४ ॥ मेरे मन जपु जपि जगंनाथे ॥ गुर उपदेसि हरि नामु धिआइओ सभि किलबिख दुख लाथे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कलिआन महला ४ ॥ मेरे मन जपु जपि जगंनाथे ॥ गुर उपदेसि हरि नामु धिआइओ सभि किलबिख दुख लाथे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! जपु जगंनथे = जगत के नाथ (के नाम) का जाप। जपि = जपा कर। उरदेसि = उपदेश से। सभि = सारे। किलबिख = पाप। दुख = (सारे) दुख।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! जगत के नाथ (के नाम) का जाप जपा कर। (जिस मनुष्य ने) गुरु के उपदेश से परमात्मा का नाम स्मरण किया, उसके सारे पाप सारे दुख दूर हो गए।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रसना एक जसु गाइ न साकै बहु कीजै बहु रसुनथे ॥ बार बार खिनु पल सभि गावहि गुन कहि न सकहि प्रभ तुमनथे ॥१॥

मूलम्

रसना एक जसु गाइ न साकै बहु कीजै बहु रसुनथे ॥ बार बार खिनु पल सभि गावहि गुन कहि न सकहि प्रभ तुमनथे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रसना = जीभ। जसु = गुण, महिमा। कीजै = बना दे। बहु रसुनथे = बहुत सारी रसनाओं के नाथ, बहुत सारी जीभों वाले। बार बार = दोबारा दोबारा। सभि = सारे (जीव)। गावहि = गाते हैं (बहुवचन)। प्रभ = हे प्रभु! तुमनथे = तेरे।1।
अर्थ: हे प्रभु! (मनुष्य की) एक जीभ (तेरा) यश (पूरे तौर पर) गा नहीं सकती, (इसको) बहुत जीभों वाला बना दे। हे प्रभु! सारे जीव बार-बार हरेक पल तेरे गुण गाते हैं, पर तेरे (सारे) गुण बयान नहीं कर सकते।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम बहु प्रीति लगी प्रभ सुआमी हम लोचह प्रभु दिखनथे ॥ तुम बड दाते जीअ जीअन के तुम जानहु हम बिरथे ॥२॥

मूलम्

हम बहु प्रीति लगी प्रभ सुआमी हम लोचह प्रभु दिखनथे ॥ तुम बड दाते जीअ जीअन के तुम जानहु हम बिरथे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हम लोचह = हम तमन्ना करते हैं। दिखनथे = देखने के लिए। जीअ के दाते = जिंद के दाते। जीअन के दाते = सारे जीवों के दाते। बिरथे = (व्यथा) दिल की पीड़ा।2।
अर्थ: हे मेरे मालिक प्रभु! मेरे अंदर तेरे प्रति बहुत सारी प्रीति पैदा हो चुकी है; मैं तुझे देखने की तमन्ना रखता हूँ। हे प्रभु! तू सारे जीवों को जिंद देने वाला है, तू ही हम जीवों के दिल की पीड़ा जानता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोई मारगु पंथु बतावै प्रभ का कहु तिन कउ किआ दिनथे ॥ सभु तनु मनु अरपउ अरपि अरापउ कोई मेलै प्रभ मिलथे ॥३॥

मूलम्

कोई मारगु पंथु बतावै प्रभ का कहु तिन कउ किआ दिनथे ॥ सभु तनु मनु अरपउ अरपि अरापउ कोई मेलै प्रभ मिलथे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मारगु = रास्ता। पंथु = रास्ता। तिन कउ = उन (संत जनों) को। किआ दिनथे = क्या दिया जाए? अरपउ = अर्पित करूँ, मैं भेटा कर दूँ। अरपि = भेटा कर के। अरापउ = अर्पित करूँ, भेटा कर दूँ। प्रभ मिलबे = प्रभु को मिला हुआ।3।
अर्थ: हे भाई! अगर कोई (संत जन मुझे) प्रभु (के मिलाप) का रास्ता बता दे, तो ऐसे (संत-) जनों को क्या देना चाहिए? अगर प्रभु को मिला हुआ कोई प्यारा मुझे प्रभु से मिला दे तो मैं तो अपना सारा तन सारा मन सदा के लिए भेट कर दूँ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि के गुन बहुत बहुत बहु सोभा हम तुछ करि करि बरनथे ॥ हमरी मति वसगति प्रभ तुमरै जन नानक के प्रभ समरथे ॥४॥३॥

मूलम्

हरि के गुन बहुत बहुत बहु सोभा हम तुछ करि करि बरनथे ॥ हमरी मति वसगति प्रभ तुमरै जन नानक के प्रभ समरथे ॥४॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तुछ = बहुत कम। करि = कर के। हम बरनथे = हम जीव बयान करते हैं। वसगति = वश में। प्रभ = हे प्रभु! समरथे = सब ताकतों के मालिक।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के गुण बहुत ही बेअंत हैं, बहुत बेअंत हैं, हम जीव बहुत ही कम बयान करते हैं (पर जीवों के वश की बात नहीं है)। हे दास नानक के समर्थ प्रभु! हम जीवों की मति तेरे वश में है (जितनी मति तू देता है उतनी ही तेरी शोभा हम बयान कर सकते हैं)।4।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलिआन महला ४ ॥ मेरे मन जपि हरि गुन अकथ सुनथई ॥ धरमु अरथु सभु कामु मोखु है जन पीछै लगि फिरथई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कलिआन महला ४ ॥ मेरे मन जपि हरि गुन अकथ सुनथई ॥ धरमु अरथु सभु कामु मोखु है जन पीछै लगि फिरथई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! जपि = जपा कर। अकथ = अ+कथ, जिसके सारे गुण बयान ना किए जा सकें। सुनथई = सुना जाता है। सभु = सारे का सारा। लगि = लग के। जन पीछे = भक्त के पीछे। फिरथई = फिरता।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! उस परमात्मा के गुण याद किया कर जो अकथ सुना जा रहा है। धर्म अर्थ काम मोक्ष- (यही है) सारा (मनुष्य का उद्देश्य, पर इनमें से हरेक ही परमात्मा के) भक्त के पीछे-पीछे लगा फिरता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो हरि हरि नामु धिआवै हरि जनु जिसु बडभाग मथई ॥ जह दरगहि प्रभु लेखा मागै तह छुटै नामु धिआइथई ॥१॥

मूलम्

सो हरि हरि नामु धिआवै हरि जनु जिसु बडभाग मथई ॥ जह दरगहि प्रभु लेखा मागै तह छुटै नामु धिआइथई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धिआवै = स्मरण करता है। जिसु मथई = जिसके माथे पर। जह = जहाँ। मागै = मांगता है (एकवचन)। छुटै = आजाद होता है। धिआइथई = स्मरण करके।1।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के माथे पर बड़े भाग्य (जाग उठते) हैं, वह भक्त-जन परमात्मा का नाम सदा स्मरण करता है। जहाँ (अपनी) दरगाह में परमात्मा (मनुष्य के किए कर्मों का) लेखा माँगता है परमात्मा का नाम स्मरण करके ही वहाँ मनुष्य सुर्ख-रू होता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हमरे दोख बहु जनम जनम के दुखु हउमै मैलु लगथई ॥ गुरि धारि क्रिपा हरि जलि नावाए सभ किलबिख पाप गथई ॥२॥

मूलम्

हमरे दोख बहु जनम जनम के दुखु हउमै मैलु लगथई ॥ गुरि धारि क्रिपा हरि जलि नावाए सभ किलबिख पाप गथई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दोख = ऐब, पाप। जनम जनम के = अनेक जन्मों के। लगथई = लगा रहता है। गुरि = गुरु ने। हरि जलि = हरि नाम जल में। नावाए = स्नान कराया। किलबिख = पाप। गथई = दूर हो गया।2।
अर्थ: हम जीवों के (अंदर) अनेकों जन्मों के ऐब इकट्ठे हुए पड़े हैं, (हमारे भीतर) दुख (बना रहता है), अहंकार की गंदगी लगी रहती है। (जिन भाग्यशाली लोगों को) गुरु ने कृपा करके प्रभु-नाम-जल में स्नान करा दिया, (उनके भीतर से) पापों-विकारों की सारी (मैल) दूर हो गई।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जन कै रिद अंतरि प्रभु सुआमी जन हरि हरि नामु भजथई ॥ जह अंती अउसरु आइ बनतु है तह राखै नामु साथई ॥३॥

मूलम्

जन कै रिद अंतरि प्रभु सुआमी जन हरि हरि नामु भजथई ॥ जह अंती अउसरु आइ बनतु है तह राखै नामु साथई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रिद = हृदय। कै रिद अंतरि = के दिल में। भजथई = भजता है, भजन करता है, स्मरण करता है। अउसरु = अवसर, मौका। अंती = आखिरी। तह = वहाँ। साथई = साथी (बन के)।3।
अर्थ: हे भाई! भक्त-जनों के हृदय में मालिक-प्रभु बसा रहता है, भक्त-जनों ने सदा परमात्मा का नाम जपा है। जहाँ आखिरी वक्त आ बनता है, वहाँ परमात्मा का नाम साथी (बन के) रक्षा करता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जन तेरा जसु गावहि हरि हरि प्रभ हरि जपिओ जगंनथई ॥ जन नानक के प्रभ राखे सुआमी हम पाथर रखु बुडथई ॥४॥४॥

मूलम्

जन तेरा जसु गावहि हरि हरि प्रभ हरि जपिओ जगंनथई ॥ जन नानक के प्रभ राखे सुआमी हम पाथर रखु बुडथई ॥४॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गावहि = गाते हैं। हरि हरि = हे हरि! जगंनथई = जगंनाथ, जगत का नाथ। प्रभ = हे प्रभु! राखे सुआमी = हे रक्षा करने वाले स्वामी! रखु = रक्षा कर। बुडथई = डूबते हुओं को।4।
अर्थ: हे हरि! (तेरे) भक्त तेरा यश (सदा) गाते रहते हैं। हे जगत के नाथ प्रभु! (तेरे भक्तों ने) सदा तेरा नाम जपा है। हे दास नानक के रखवाले मालिक प्रभु! हम पत्थरों (की तरह) डूबते जीवों की रक्षा कर।4।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलिआन महला ४ ॥ हमरी चितवनी हरि प्रभु जानै ॥ अउरु कोई निंद करै हरि जन की प्रभु ता का कहिआ इकु तिलु नही मानै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कलिआन महला ४ ॥ हमरी चितवनी हरि प्रभु जानै ॥ अउरु कोई निंद करै हरि जन की प्रभु ता का कहिआ इकु तिलु नही मानै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चितवनी = सोच, भावनी। जानै = जानता है (एकवचन)। अउरु कोई = कोई और मनुष्य। कहिआ = कहा हुआ। इकु तिलु = रक्ती भर भी। मानै = मानता।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! हम जीवों की (हरेक) भावनी को परमात्मा (स्वयं) जानता है। अगर कोई और (निंदक मनुष्य) परमात्मा के भक्त की निंदा करता हो, परमात्मा उसका कहा हुआ (निंदा का वचन) रक्ती भर भी नहीं मानता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अउर सभ तिआगि सेवा करि अचुत जो सभ ते ऊच ठाकुरु भगवानै ॥ हरि सेवा ते कालु जोहि न साकै चरनी आइ पवै हरि जानै ॥१॥

मूलम्

अउर सभ तिआगि सेवा करि अचुत जो सभ ते ऊच ठाकुरु भगवानै ॥ हरि सेवा ते कालु जोहि न साकै चरनी आइ पवै हरि जानै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिआगि = त्याग के, छोड़ के। अचुत = (अ+च्युत) अविनाशी। सभ ते ऊच = सबसे ऊँचा। सेवा ते = सेवा भक्ति से। कालु = मौत, आत्मिक मौत। जोहि न सकै = देख नहीं सकती। हरि जानै चरनी = जन जन के चरणों पर।1।
अर्थ: हे भाई! और हरेक (उम्मीद) छोड़ के उस अविनाशी परमात्मा की भक्ति किया कर, जो सब से ऊँचा मालिक भगवान है। हे भाई! परमात्मा की सेवा-भक्ति की इनायत से आत्मिक मौत (भक्त की ओर) देख भी नहीं सकती, वह तो भक्त के चरणों में आ गिरती है (भक्त के अधीन हो जाती है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा कउ राखि लेइ मेरा सुआमी ता कउ सुमति देइ पै कानै ॥ ता कउ कोई अपरि न साकै जा की भगति मेरा प्रभु मानै ॥२॥

मूलम्

जा कउ राखि लेइ मेरा सुआमी ता कउ सुमति देइ पै कानै ॥ ता कउ कोई अपरि न साकै जा की भगति मेरा प्रभु मानै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कउ = को। राखि लेइ = रख लेता है। देइ = देता है। पै काने = कान में, बड़े ध्यान से। अपरि न साकै = बराबरी नहीं कर सकता। मानै = स्वीकार करता है।2।
अर्थ: हे भाई! प्यारा मालिक-प्रभु जिस मनुष्य की रक्षा करता है, उसको प्यार से ध्यान से श्रेष्ठ मति बख्शता है। हे भाई! परमात्मा जिस मनुष्य की भक्ति स्वीकार कर लेता है, कोई और मनुष्य उसकी बराबरी नहीं कर सकता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि के चोज विडान देखु जन जो खोटा खरा इक निमख पछानै ॥ ता ते जन कउ अनदु भइआ है रिद सुध मिले खोटे पछुतानै ॥३॥

मूलम्

हरि के चोज विडान देखु जन जो खोटा खरा इक निमख पछानै ॥ ता ते जन कउ अनदु भइआ है रिद सुध मिले खोटे पछुतानै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चोज = करिश्मे तमाशो। विडान = आश्चर्य। जन = हे जन! निमख = (निमेष) आँख झपकने जितना समय। ता ते = इसलिए। रिद सुध = शुद्ध हृदय वाले।3।
अर्थ: हे सज्जन! देख, उस परमात्मा के करिश्मे बड़े हैरान करने वाले हैं जो आँख झपकने जितने समय में ही खोटे-खरे मनुष्य को पहचान लेता है। शुद्ध हृदय वाले मनुष्य उसको मिल जाते हैं, खोटे मनुष्य पछताते ही रह जाते हैं। तभी भक्त के अंदर आनंद बना रहता है (क्योंकि भक्त को प्रभु अपने चरणों में जोड़े रखता है)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुम हरि दाते समरथ सुआमी इकु मागउ तुझ पासहु हरि दानै ॥ जन नानक कउ हरि क्रिपा करि दीजै सद बसहि रिदै मोहि हरि चरानै ॥४॥५॥

मूलम्

तुम हरि दाते समरथ सुआमी इकु मागउ तुझ पासहु हरि दानै ॥ जन नानक कउ हरि क्रिपा करि दीजै सद बसहि रिदै मोहि हरि चरानै ॥४॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि = हे हरि! समरथ = सब ताकतों के मालिक! मागउ = मैं माँगता हूँ। करि = कर के। दीजै = देह। सद = सदा। रिदै मोहि = मेरे हृदय में। चरानै = चरण।4।
अर्थ: हे हरि! तुम सभ दातें देने वाले सभ ताकतों के मालिक हो। हे हरि! मैं तुझसे एक ख़ैर माँगता हूँ। मेहर करके (अपने) दास नानक को (यह दान) दे कि, हे हरि! तेरे चरण मेरे हृदय में सदा बसते रहें।4।5।

[[1321]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलिआन महला ४ ॥ प्रभ कीजै क्रिपा निधान हम हरि गुन गावहगे ॥ हउ तुमरी करउ नित आस प्रभ मोहि कब गलि लावहिगे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कलिआन महला ४ ॥ प्रभ कीजै क्रिपा निधान हम हरि गुन गावहगे ॥ हउ तुमरी करउ नित आस प्रभ मोहि कब गलि लावहिगे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! कीजै क्रिपा = कृपा कर। क्रिपा निधान = हे कृपा के खजाने। हम = हम जीव। गुन गावहिगे = गुण गाएं, गुण गाते रहें। हउ = मैं। करउ = मैं करता हूँ। नित = सदा। मोहि = मुझे। गलि = गले से। लावहिगे = लाएंगे।1। रहाउ।
अर्थ: हे कृपा के खजाने प्रभु! मेहर कर, हम (जीव) तेरे गुण गाते रहें। हे प्रभु! मैं सदा तेरी (मेहर की ही) आस करता रहता हूँ कि प्रभु जी मुझे कब (अपने) गले से लगाएंगे।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम बारिक मुगध इआन पिता समझावहिगे ॥ सुतु खिनु खिनु भूलि बिगारि जगत पित भावहिगे ॥१॥

मूलम्

हम बारिक मुगध इआन पिता समझावहिगे ॥ सुतु खिनु खिनु भूलि बिगारि जगत पित भावहिगे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बारिक = बालक, बच्चे। मुगध = मूर्ख। इआन = अंजाने। सुत = पुत्र (एकवचन)। भूलि = भूलता है। बिगारि = बिगाड़ता है। भावहिगे = (बच्चे) प्यारे लगते हैं।1।
अर्थ: हे भाई! हम जीव मूर्ख अंजान बच्चे हैं, प्रभु पिता जी (हमें सदा) समझाते रहते हैं। पुत्र बार-बार हर वक्त भूलता है बिगड़ता है, पर जगत के पिता को (जीव बच्चे फिर भी) प्यारे (ही) लगते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो हरि सुआमी तुम देहु सोई हम पावहगे ॥ मोहि दूजी नाही ठउर जिसु पहि हम जावहगे ॥२॥

मूलम्

जो हरि सुआमी तुम देहु सोई हम पावहगे ॥ मोहि दूजी नाही ठउर जिसु पहि हम जावहगे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि सुआमी = हे हरि! हे स्वामी! हम पावहगे = हम जीव ले सकते हैं। मोहि = मुझे। ठउर = जगह, आसरा। पहि = पास।2।
अर्थ: हे हरि! हे स्वामी! जो कुछ तू (स्वयं) देता है, वही कुछ हम ले सकते हैं। (तेरे बिना) मुझे कोई और जगह नहीं सूझती, जिसके पास हम जीव जा सकें।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो हरि भावहि भगत तिना हरि भावहिगे ॥ जोती जोति मिलाइ जोति रलि जावहगे ॥३॥

मूलम्

जो हरि भावहि भगत तिना हरि भावहिगे ॥ जोती जोति मिलाइ जोति रलि जावहगे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जो भगत = जो भक्त (बहुवचन)। हरि भावहि = हरि को प्यारे लगते हैं। तिना = उनको। हरि भावहिगे = प्रभु जी प्यारे लगते हैं। जोती = प्रभु की ज्योति में। जोति = जिंद। मिलाइ = मिला के। रलि जावहगे = एक मेक हो जाते हैं।3।
अर्थ: हे भाई! जो भक्त प्रभु को प्यारे लगते हैं, उनको प्रभु जी प्यारे लगते हैं। (वह भक्त) प्रभु की ज्योति में अपनी जिंद मिला के प्रभु की ज्योति से एक-मेक हुए रहते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि आपे होइ क्रिपालु आपि लिव लावहिगे ॥ जनु नानकु सरनि दुआरि हरि लाज रखावहिगे ॥४॥६॥ छका १ ॥

मूलम्

हरि आपे होइ क्रिपालु आपि लिव लावहिगे ॥ जनु नानकु सरनि दुआरि हरि लाज रखावहिगे ॥४॥६॥ छका १ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। होइ = हो के। लिव लावहिगे = लगन पैदा करते हैं। दुआरि = (प्रभु के) दर पर। लाज = इज्जत।4।
अर्थ: हे भाई! प्रभु जी स्वयं ही दयालु हो के (जीवों के अंदर) स्वयं (ही अपना) प्यार पैदा करते हैं। दास नानक प्रभु की शरण पड़ा रहता है, प्रभु के दर पर (गिरा) रहता है। (प्रभु जी दर पर पड़े हुए की) खुद ही इज्जत रखते हैं।4।6। छका।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलिआनु भोपाली महला ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

कलिआनु भोपाली महला ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पारब्रहमु परमेसुरु सुआमी दूख निवारणु नाराइणे ॥ सगल भगत जाचहि सुख सागर भव निधि तरण हरि चिंतामणे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

पारब्रहमु परमेसुरु सुआमी दूख निवारणु नाराइणे ॥ सगल भगत जाचहि सुख सागर भव निधि तरण हरि चिंतामणे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परमेसरु = (परम+ईसुरु) सबसे ऊँचा मालिक। दुख निवारण = दुखों का नाश करने वाला। जाचहि = माँगते हैं (बहुवचन)। सुख सागर = हे सुखों के समुंदर! भवनिधि = संसार समुंदर। तरण = जहाज़। भवनिधि तरण = हे संसार समुंदर से पार लंघाने वाले जहाज़! चिंतामणे = हे हरेक जीव की मनोकामना पूरी करने वाले!।1। रहाउ।
अर्थ: हे नारायण! हे स्वामी! तू (सभ जीवों के) दुख दूर करने वाला पारब्रहम परमेश्वर है। हे हरि! हे सबकी मनोकामना पूरी करने वाले! हे सुखों के समुंदर! हे संसार-समुद्र के जहाज़! सारे ही भक्त (तेरे दर से दातें) माँगते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीन दइआल जगदीस दमोदर हरि अंतरजामी गोबिंदे ॥ ते निरभउ जिन स्रीरामु धिआइआ गुरमति मुरारि हरि मुकंदे ॥१॥

मूलम्

दीन दइआल जगदीस दमोदर हरि अंतरजामी गोबिंदे ॥ ते निरभउ जिन स्रीरामु धिआइआ गुरमति मुरारि हरि मुकंदे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जगदीस = हे जगत के ईश! दमोदर = (दाम+उदर। दाम = रस्सी। उदर = पेट, कमर, जिसके कमर पर तगाड़ी लिपटी हुई है) हे प्रभु! ते = वे (बहुवचन)। गुरमति = गुरु की मति पर चल के। मुरारि = (मुर+अरि। मुर दैत्य का वैरी) हे दैत्य दमन! मुकंदे = हे मुक्ति के दाते!।1।
अर्थ: हे दीनों पर दया करने वाले! हे जगत के ईश्वर! हे दामोदर! हे अंतजामी हरि! हे गोबिंद! हे मुरारी! हे मुक्ति दाते हरि! जिस मनुष्यों ने गुरु की मति ले के (तुझे) श्री राम को स्मरण किया, उनको कोई डर छू नहीं सकता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जगदीसुर चरन सरन जो आए ते जन भव निधि पारि परे ॥ भगत जना की पैज हरि राखै जन नानक आपि हरि क्रिपा करे ॥२॥१॥७॥

मूलम्

जगदीसुर चरन सरन जो आए ते जन भव निधि पारि परे ॥ भगत जना की पैज हरि राखै जन नानक आपि हरि क्रिपा करे ॥२॥१॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पैज = सत्कार, इज्जत।2।
अर्थ: हे दास नानक! (कह: हे भाई!) जो मनुष्य जगत के मालिक के चरणों की शरण में आते हैं, वे मनुष्य संसार-समुंदर से पार लांघ जाते हैं। प्रभु स्वयं मेहर करके अपने भगतों की इज्जत रखता है।2।1।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु कलिआनु महला ५ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु कलिआनु महला ५ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हमारै एह किरपा कीजै ॥ अलि मकरंद चरन कमल सिउ मनु फेरि फेरि रीझै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हमारै एह किरपा कीजै ॥ अलि मकरंद चरन कमल सिउ मनु फेरि फेरि रीझै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हमारै = हमारे ऊपर, मेरे ऊपर। कीजै = करो। अलि = भँवरा, भौरा। मकरंद = (Pollen dust) फूल की अंदर की धूल, फूल का रस। कमल = कमल फूल। सिउ = साथ। फेरि फेरि = बार बार। रीझै = लिपटा रहे।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! मेरे ऊपर मेहर कर कि (जैसे) भौरा फूल के रस से रीझा रहता है, (वैसे ही मेरा मन) (तेरे) सुंदर चरणों के साथ बार-बार लिपटा रहे।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आन जला सिउ काजु न कछूऐ हरि बूंद चात्रिक कउ दीजै ॥१॥

मूलम्

आन जला सिउ काजु न कछूऐ हरि बूंद चात्रिक कउ दीजै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आन = अन्य। जला सिउ = पानियों से। काजु = गर्ज, काम। कछूऐ = कोई भी। चात्रिक = पपीहा।1।
अर्थ: हे प्रभु! (जैसे) पपीहे को (वर्षा की बूँद के बिना) और पानियों से कोई गरज नहीं होती, वैसे ही मुझे पपीहे को (अपने नाम-अमृत की) बूँद दे।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु मिलबे नाही संतोखा पेखि दरसनु नानकु जीजै ॥२॥१॥

मूलम्

बिनु मिलबे नाही संतोखा पेखि दरसनु नानकु जीजै ॥२॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिन मिलबे = मिले बिना। संतोखा = शांति। पेखि = देख के। जीजै = जीवित रहे।2।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे मिलाप के बिना (मेरे अंदर) ठंढक नहीं पड़ती, (मेहर कर; तेरा दास) नानक (तेरे) दर्शन कर के आत्मिक जीवन हासिल करता रहे।2।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलिआन महला ५ ॥ जाचिकु नामु जाचै जाचै ॥ सरब धार सरब के नाइक सुख समूह के दाते ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कलिआन महला ५ ॥ जाचिकु नामु जाचै जाचै ॥ सरब धार सरब के नाइक सुख समूह के दाते ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जाचिकु = जाचक, मँगता। जाचै = माँगता है। जाचै जाचै = नित्य माँगता रहता है। सरब धार = हे सब जीवों के आसरे! नाइक = हे मालिक! समूह सुख = सारे सुख। दाते = हे देने वाले!।1। रहाउ।
अर्थ: हे सब जीवों के आसरे प्रभु! हे सभ जीवों के मालिक! हे सारे सुखों के देने वाले! (तेरे दर का) मँगता (तेरे दर से) नित्य माँगता रहता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

केती केती मांगनि मागै भावनीआ सो पाईऐ ॥१॥

मूलम्

केती केती मांगनि मागै भावनीआ सो पाईऐ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: केती केती = बेअंत दुनिया। मांगनि मागै = हरेक माँग माँगती रहती है। भावनीआ = मन की मुराद। पाईऐ = प्राप्त कर ली जाती है।1।
अर्थ: हे भाई! बेअंत लुकाई (प्रभु के दर से) हरेक माँग माँगती रहती है, जो भी मन की मुराद होती है वह हासिल कर ली जाती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सफल सफल सफल दरसु रे परसि परसि गुन गाईऐ ॥ नानक तत तत सिउ मिलीऐ हीरै हीरु बिधाईऐ ॥२॥२॥

मूलम्

सफल सफल सफल दरसु रे परसि परसि गुन गाईऐ ॥ नानक तत तत सिउ मिलीऐ हीरै हीरु बिधाईऐ ॥२॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सफल दरसु = वह जिसका दर्शन सारे फल देने वाला है। रे = हे भाई! परसि = छूह के। परसि परसि = नित्य छू के। गाईऐ = आओ गाते रहे। मिलिऐ = मिल जाता है। तत तत सिउ = (जैसे पानी आदि) तत्व (पानी) तत्व से। हीरै = हीरे से। हीर बिधाईऐ = हीरा भेद लिया जाता है।2।
अर्थ: हे भाई! प्रभु ऐसा है जिसका दर्शन सारे फल देने वाला है। आओ, उसके चरण सदा छू-छू के उसके गुण गाते रहें। हे नानक! (जैसे पानी आदि) तत्व (पानी) तत्व से मिल जाता है (वैसे ही गुण गाने की इनायत से) मन-हीरा प्रभु-हीरे से भेद लिया जाता है।2।2।

[[1322]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलिआन महला ५ ॥ मेरे लालन की सोभा ॥ सद नवतन मन रंगी सोभा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कलिआन महला ५ ॥ मेरे लालन की सोभा ॥ सद नवतन मन रंगी सोभा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लालन की = सुंदर लाल की, प्यारे की। सद = सदा। नवतन = नई। मन रंगी = मन को (प्रेम का) रंग देने वाली।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मेरे सुंदर प्रभु की शोभा-बड़ाई सदा ही नई (रहती है, आकर्षित करती रहती है, और) सदा ही मन को (प्यार का) रंग चढ़ाती रहती है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रहम महेस सिध मुनि इंद्रा भगति दानु जसु मंगी ॥१॥

मूलम्

ब्रहम महेस सिध मुनि इंद्रा भगति दानु जसु मंगी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: महेस = शिव। सिध = जोग साधना में माहिर हुए जोगी। जसु = यश, महिमा।1।
अर्थ: हे भाई! ब्रहमा, शिव, सिद्ध, मुनि, इंद्र (आदि देवते) - यह सारे (प्रभु के दर से उसकी) भक्ति का दान माँगते हें, उसकी महिमा की दाति माँगते रहते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जोग गिआन धिआन सेखनागै सगल जपहि तरंगी ॥ कहु नानक संतन बलिहारै जो प्रभ के सद संगी ॥२॥३॥

मूलम्

जोग गिआन धिआन सेखनागै सगल जपहि तरंगी ॥ कहु नानक संतन बलिहारै जो प्रभ के सद संगी ॥२॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेखनागी = शेश नाग। सगल = (यह) सारे। जपहि = जपते हैं (बहुवचन)। तरंगी = तरंगों वाले को, अनेक लहरों के मालिक हरि को। सद = सदा। संगी = साथी।2।
अर्थ: हे भाई! जोगी, ज्ञानी, ध्यानी, शेशनाग (आदि ये) सारे उस अनेक करिश्मों के मालिक-प्रभु का नाम जपते रहते हैं। हे नानक! कह: मैं उन संत जनों पर से कुर्बान जाता हूँ, जो परमात्मा के सदा साथी बने रहते हैं।2।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलिआन महला ५ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

कलिआन महला ५ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेरै मानि हरि हरि मानि ॥ नैन बैन स्रवन सुनीऐ अंग अंगे सुख प्रानि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

तेरै मानि हरि हरि मानि ॥ नैन बैन स्रवन सुनीऐ अंग अंगे सुख प्रानि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तेरै मानि = तेरे (दिए) मान से। मानि = मान से, प्यार की इनायत से। हरि = हे हरि! मानि = तेरे बख्शे प्रेम से। नैन = आँखों से (तेरा दर्शन करते हैं)। बैन = वचन से (तेरा यश गाया जाता है)। स्रवन सुनीऐ = कानों से (तेरी महिमा) सुनी जाती है। अंग अंगे = हरेक अंग में। प्रानि = (हरेक) सांस के साथ।1। रहाउ।
अर्थ: हे हरि! तेरे (बख्शे हुए) प्यार की इनायत से, हे हरि! तेरे दिए प्रेम से; आँखों से (तेरे दर्शन हर जगह कर लेते हैं) वचनों से (तेरी महिमा कर ली जाती है) कानों से (तेरी महिमा) सुन ली जाती है, हरेक अंग में हरेक साँस के साथ आनंद (प्राप्त होता है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत उत दह दिसि रविओ मेर तिनहि समानि ॥१॥

मूलम्

इत उत दह दिसि रविओ मेर तिनहि समानि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इत = यहाँ। उत = वहाँ। इत उत = यहाँ वहाँ, हर जगह। दह दिसि = दसों तरफ, सारे जगत में। रविओ = व्यापक (प्रतीत होता है)। मेर = सुमेर पर्वत। तिनहि = तृण में, तिनके में। समानि = एक जैसा।1।
अर्थ: हे भाई! (प्रभु से मिले प्यार की इनायत से वह प्रभु) हर जगह दसों दिशाओं में व्यापक दिख दे जाता है, सुमेर पर्वत और तीले में एक समान।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जत कता तत पेखीऐ हरि पुरख पति परधान ॥ साधसंगि भ्रम भै मिटे कथे नानक ब्रहम गिआन ॥२॥१॥४॥

मूलम्

जत कता तत पेखीऐ हरि पुरख पति परधान ॥ साधसंगि भ्रम भै मिटे कथे नानक ब्रहम गिआन ॥२॥१॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जत = जहाँ। कता = कहाँ। तत = तहाँ। जत कता तत = जहाँ कहाँ तहाँ, हर जगह। पेखीऐ = देख लिया जाता है। पुरख पति = पुरखों का पति। साध संगि = साधु-संगत। भै = सारे डर। कथे = कथि, कथन कर के, कह के। ब्रहम गिआन = परमात्मा से सांझ के वचन, परमात्मा के गुण।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे नानक! साधु-संगत में परमात्मा की महिमा करने से सारे भ्रम सारे डर मिट जाते हैं, वे प्रधान-पुरख वह सारे जीवों का मालिक हरि हर जगह बसता दिखाई देने लग जाता है।2।1।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलिआन महला ५ ॥ गुन नाद धुनि अनंद बेद ॥ कथत सुनत मुनि जना मिलि संत मंडली ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कलिआन महला ५ ॥ गुन नाद धुनि अनंद बेद ॥ कथत सुनत मुनि जना मिलि संत मंडली ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुन = (परमात्मा के) गुण (गाने)। नाद = (जोगियों के) नाद (बजाने हैं)। धुनि = तुकांत, धुन। धुनि आनंद = (गुण गाने से पैदा हुई) आनंद की धुन। कथत = (प्रभु के गुण) कहते हैं। मुनि जना = वह सेवक जिन्होंने अपने मन को विकारों से चुप करा लिया है। मिलि = मिल के। संत मंडली = साधु-संगत में।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा के) गुण (गाने, जोगियों के) नाद (बजाने हैं), (प्रभु के गुण गाने से पैदा हुई) आनंद की धुनि (ही) वेद हैं। हे भाई! वे सेवक जिन्होंने अपने मन को विकारों से चुप करा लिया होता है साधु-संगत में मिल के यही गुण गाते हैं और सुनते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गिआन धिआन मान दान मन रसिक रसन नामु जपत तह पाप खंडली ॥१॥

मूलम्

गिआन धिआन मान दान मन रसिक रसन नामु जपत तह पाप खंडली ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गिआन = आत्मिक जीवन की सूझ। धिआन = (प्रभु चरणों में जुड़ी) तवज्जो, ध्यान। मान = आदर, (नाम से) प्यार। दान = (नाम का और लोगों को) बाँटना। रसिक = रसिए।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: शब्द ‘रसिक’ और ‘रसकि’ में फर्क है।

दर्पण-भाषार्थ

रसिक = रसिए (विशेषण)। रसकि = रस से)। मन रसिक = रसिए मन। जपत = जपते हैं। तह = वहाँ, उस साधु-संगत में। खंडली = नाश हो जाते हैं।1।
अर्थ: हे भाई! (साधु-संगत में जहाँ) आत्मिक जीवन की सूझ प्राप्त होती है, जहाँ प्रभु-चरणों में तवज्जो जुड़ती है, जहाँ हरि-नाम के साथ प्यार बनता है, जहाँ हरि-नाम और लोगों को बाँटा जाता है, वहाँ रसिए मन (अपनी) जीभ से नाम जपते हैं, वहाँ सारे पाप नाश हो जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जोग जुगति गिआन भुगति सुरति सबद तत बेते जपु तपु अखंडली ॥ ओति पोति मिलि जोति नानक कछू दुखु न डंडली ॥२॥२॥५॥

मूलम्

जोग जुगति गिआन भुगति सुरति सबद तत बेते जपु तपु अखंडली ॥ ओति पोति मिलि जोति नानक कछू दुखु न डंडली ॥२॥२॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जोग = (प्रभु से) मिलाप। जोग जुगति = प्रभु से मिलाप का ढंग। जोग जुगति तत बेते = प्रभु के साथ मिलाप की जुगति के भेद जानने वाले। गिआन = आत्मिक जीवन की सूझ। भुगति = (आत्मिक) खुराक। गिआन भुगति = आत्मिक जीवन की सूझ-रूप आत्मिक खुराक। गिआन भुगति तत बेते = आत्मिक जीवन की सूझ-रूप आत्मिक खुराक के भेद को जानने वाले। सुरति सबद तत बेते = गुरु के शब्द की लगन के भेद को जानने वाले। अखंडली = एकसार, सदा। ओति = उना हुआ, उने हुए में। पोत = परोया हुआ, प्रोत, परोए हुए में। ओति पोति = उने हुए परोए हुए में, ताने पेटे की तरह। मिलि = मिल के। न डंडली = दण्ड नहीं देता।2।
अर्थ: हे नानक! प्रभु से मिलाप की जुगति के भेद को जानने वाले, आत्मिक जीवन की सूझ-रूप आत्मिक खुराक के भेद को जानने वाले, गुरु के शब्द की लगन के भेद को जानने वाले मनुष्य (साधु-संगत में टिक के यही नाम-स्मरण का) जप और तप सदा करते हैं, वह मनुष्य ईश्वरीय ज्योति से मिल के ताने-पेटे की तरह (उसके साथ) एक-रूप हो जाते हैं, (उनको) कोई भी दुख दुखी नहीं कर सकता।2।2।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलिआनु महला ५ ॥ कउनु बिधि ता की कहा करउ ॥ धरत धिआनु गिआनु ससत्रगिआ अजर पदु कैसे जरउ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कलिआनु महला ५ ॥ कउनु बिधि ता की कहा करउ ॥ धरत धिआनु गिआनु ससत्रगिआ अजर पदु कैसे जरउ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कउन बिधि = कौन सी विधि है? कौन सा तरीका है? ता की = उस (प्रभु के मिलाप) की। कहा करउ = मैं क्या कहूँ? धरत = धरते हैं। धिआनु = समाधि। धरत धिआनु = कई समाधि लगाए रहते हैं। ससत्रगिआ = शास्त्रज्ञ, शास्त्रों का ज्ञाता। गिआनु = शास्त्रों की चर्चा। अजर = ना सहा जा सकने वाला। पदु = दर्जा। अजर पदु = वह आत्मिक अवस्था जो अब सही नहीं जा सकती। जरउ = मैं सहूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (विकारों से मुक्ति परमात्मा के नाम-रस की इनायत से ही हो सकती है। सो,) उस (परमात्मा के मिलाप) का मैं कौन सा तरीका इस्तेमाल करूँ, मैं कौन सा उद्यम करूँ (अनेक ऐसे हैं जो) समाधियाँ लगाते हैं, (अनेक ऐसे हैं जो) शास्त्र-वेक्ता शास्त्रार्थ करते रहते हैं (पर, इन तरीकों से विकारों से मुक्ति नहीं मिलती। विकारों का दबाव पड़ा ही रहता है, और, यह) एक ऐसी (ढली हुई, क्षीण) आत्मिक अवस्था है जो (अब) सही नहीं जा सकती। मैं इसको सह नहीं सकता (मैं इसको अपने अंदर बने नहीं रहने दे सकता)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिसन महेस सिध मुनि इंद्रा कै दरि सरनि परउ ॥१॥

मूलम्

बिसन महेस सिध मुनि इंद्रा कै दरि सरनि परउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: महेस = शिव, महेश। सिध = सिद्ध, जोग साधना में माहिर जोगी। कै दरि = किस के दर पे? परउ = मैं पड़ूँ।1।
अर्थ: हे भाई! विष्णु, शिव, सिद्ध, मुनि, इन्द्र देवता (अनेक ही सुने हैं वर देने वाले। पर विकारों से मुक्ति हासिल करने के लिए इनमें से) मैं किस के दर पर जाऊँ? मैं किस की शरण पड़ूँ?।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काहू पहि राजु काहू पहि सुरगा कोटि मधे मुकति कहउ ॥ कहु नानक नाम रसु पाईऐ साधू चरन गहउ ॥२॥३॥६॥

मूलम्

काहू पहि राजु काहू पहि सुरगा कोटि मधे मुकति कहउ ॥ कहु नानक नाम रसु पाईऐ साधू चरन गहउ ॥२॥३॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काहू पहि = किसी के पास। कोटि मधे = करोड़ों में से (कोई विरला)। मुकति = विकारों से खलासी। कहउ = मैं कह सकता हूँ। नानक = हे नानक! पाईऐ = हासिल कर सकते हैं। साध = गुरु। गहउ = मैं पकड़ता हूँ।
अर्थ: हे भाई! किसी के पास राज (देने की ताकत सुनी जाती) है, किसी के पास स्वर्ग (देने की सामर्थ्य सुनी जा रही) है। पर, करोड़ों में से कोई विरला ही (ऐसा हो सकता है, जिसके पास जा के) मैं (यह) कहूँ (कि) विकारों से मुक्ति (मिल जाए)। हे नानक! कह: (मुक्ति हरि-नाम से ही मिलती है, और) नाम का स्वाद (तब ही) मिल सकता है (जब) मैं गुरु के चरण (जा) पकड़ूँ।2।3।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलिआन महला ५ ॥ प्रानपति दइआल पुरख प्रभ सखे ॥ गरभ जोनि कलि काल जाल दुख बिनासनु हरि रखे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कलिआन महला ५ ॥ प्रानपति दइआल पुरख प्रभ सखे ॥ गरभ जोनि कलि काल जाल दुख बिनासनु हरि रखे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रानपति = हे जिंद के मालिक! दइआल पुरख = हे दया के घर अकाल पुरख! सखे = हे मित्र! काल = मौत, आत्मिक मौत। काल जाल = आत्मिक मौत लाने वाले फंदे। रखे = रखवाला।1। रहाउ।
अर्थ: हे (जीवों की) जिंद के मालिक! हे दया के घर पुरख प्रभु! हे मित्र! हे हरि! तू ही गर्भ-जोनि का नाश करने वाला है (जूनियों के चक्करों में से निकालने वाला है), तू ही झगड़े-कष्ट नाश करने वाला है, तू ही आत्मिक मौत लाने वाला मोह के फंदे काटने वाला है, तू ही दुखों को नाश करने वाला है, तू ही रखवाला है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाम धारी सरनि तेरी ॥ प्रभ दइआल टेक मेरी ॥१॥

मूलम्

नाम धारी सरनि तेरी ॥ प्रभ दइआल टेक मेरी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धारी = धारण करने वाला। नाम धारी = तेरे नाम का धारनी, तेरे नाम को मन में बसाए रखने वाला। प्रभ = हे प्रभु! टेक = सहारा।1।
अर्थ: हे दयालु प्रभु! मैं तेरी शरण आया हूँ, (मेहर कर, मैं तेरा) नाम (अपने अंदर) बसाए रखूँ, मुझे एक तेरा ही सहारा है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनाथ दीन आसवंत ॥ नामु सुआमी मनहि मंत ॥२॥

मूलम्

अनाथ दीन आसवंत ॥ नामु सुआमी मनहि मंत ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनाथ = निमाणे। दीन = गरीब। आसवंत = (तेरे सहारे की) आस रखने वाला। सुआमी = हे स्वामी! मनहि = मन में। मंत = मंत्र, उपदेश।2।
अर्थ: हे स्वामी! निमाणे और गरीब (एक तेरी ही सहायता की) आस रखते हैं। (मेहर कर, तेरा) नाम-मंत्र (मेरे) मन में (टिका रहे)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुझ बिना प्रभ किछू न जानू ॥ सरब जुग महि तुम पछानू ॥३॥

मूलम्

तुझ बिना प्रभ किछू न जानू ॥ सरब जुग महि तुम पछानू ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! जानू = मैं नहीं जानता। पछानू = जान पहचान का, मित्र।3।
अर्थ: हे प्रभु! तेरी शरण पड़े रहने के बिना मैं और कुछ भी नहीं जानता। सारे जुगों में तू ही (हम जीवों का) मित्र है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि मनि बसे निसि बासरो ॥ गोबिंद नानक आसरो ॥४॥४॥७॥

मूलम्

हरि मनि बसे निसि बासरो ॥ गोबिंद नानक आसरो ॥४॥४॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। निसि = रात। बासरो = दिन।4।
अर्थ: हे हरि! दिन-रात (मेरे) मन में टिका रह। हे गोबिंद! तू ही नानक का आसरा है।4।4।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलिआन महला ५ ॥ मनि तनि जापीऐ भगवान ॥ गुर पूरे सुप्रसंन भए सदा सूख कलिआन ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कलिआन महला ५ ॥ मनि तनि जापीऐ भगवान ॥ गुर पूरे सुप्रसंन भए सदा सूख कलिआन ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन मे। तनि = तन में, हृदय में। जापीऐ = जपना चाहिए। सुप्रसंन = बहुत दयालु। कलिआन = सुख, आनंद।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मन में हृदय में (सदा) भगवान (का नाम) जपते रहना चाहिए। हे भाई! (जिस मनुष्य पर) पूरे सतिगुरु जी दयालु होते हैं (वह मनुष्य भगवान का नाम जपता है, जिसकी इनायत से उसके अंदर) सदा सुख-आनंद (बना रहता है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरब कारज सिधि भए गाइ गुन गुपाल ॥ मिलि साधसंगति प्रभू सिमरे नाठिआ दुख काल ॥१॥

मूलम्

सरब कारज सिधि भए गाइ गुन गुपाल ॥ मिलि साधसंगति प्रभू सिमरे नाठिआ दुख काल ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिधि = सफलता। गाइ = गा के। मिलि = मिल के। नाठिआ = भाग गए। दुख काल = मौत के दुख, आत्मिक मौत के दुख।1।
अर्थ: हे भाई! सृष्टि के पालनहार प्रभु के गुण गा के (मनुष्य को अपने) सारे कामों में सफलता हासिल हो जाती है। जिस मनुष्य ने साधु-संगत में मिल के प्रभु जी का नाम स्मरण किया उसकी आत्मिक मौत से पैदा होने वाले सारे दुख नाश हो जाते हैं।1।

[[1323]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि किरपा प्रभ मेरिआ करउ दिनु रैनि सेव ॥ नानक दास सरणागती हरि पुरख पूरन देव ॥२॥५॥८॥

मूलम्

करि किरपा प्रभ मेरिआ करउ दिनु रैनि सेव ॥ नानक दास सरणागती हरि पुरख पूरन देव ॥२॥५॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! करउ = करूँ, मैं करता रहूँ। रैनि = रात। सेव = सेवा भक्ति। सरणागती = शरण आया है। हरि = हे हरि! पूरन देव = हे सर्वगुण संपन्न देव!।2।
अर्थ: हे दास नानक! (कह:) हे मेरे प्रभु! हे हरि! हे पुरख! हे सर्व-गुण-संपन्न देव! मैं तेरी शरण आया हूँ; मेहर कर, दिन-रात मैं तेरी भक्ति करता रहूँ।2।5।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलिआनु महला ५ ॥ प्रभु मेरा अंतरजामी जाणु ॥ करि किरपा पूरन परमेसर निहचलु सचु सबदु नीसाणु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कलिआनु महला ५ ॥ प्रभु मेरा अंतरजामी जाणु ॥ करि किरपा पूरन परमेसर निहचलु सचु सबदु नीसाणु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंतरजामी = हरेक के दिल में पहुँच जाने वाला। जाणु = जानने वाला। परमेसर = हे परमेश्वर। सचु = सदा कायम रहने वाला। नीसाणु = परवाना, राहदारी।1। रहाउ।
अर्थ: हे सर्व-गुण-संपन्न परमेश्वर! तू मेरा प्रभु है, तू मेरे दिल की जानने वाला है। मेहर कर, मुझे सदा अटल कायम रहने वाला (अपनी महिमा का) शब्द (बख्श। तेरे चरणों में पहुँचने के लिए यह शब्द ही मेरे लिए) परवाना है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि बिनु आन न कोई समरथु तेरी आस तेरा मनि ताणु ॥ सरब घटा के दाते सुआमी देहि सु पहिरणु खाणु ॥१॥

मूलम्

हरि बिनु आन न कोई समरथु तेरी आस तेरा मनि ताणु ॥ सरब घटा के दाते सुआमी देहि सु पहिरणु खाणु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: समरथु = ताकत वाला। मनि = मन में। ताणु = सहारा। घट = शरीर। दाते = हे दातार! देहि = जो कुछ तू देता है।
अर्थ: हे सभ जीवों को दातें देने वाले स्वामी! खाने और पहनने को जो कुछ तू हमें देता है, वही हम बरतते हैं। तेरे बिना, हे हरि! कोई और (इतनी) समर्थता वाला नहीं है। (मुझे सदा) तेरी (सहायता की ही) आस (रहती है, मेरे) मन में तेरा ही सहारा रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुरति मति चतुराई सोभा रूपु रंगु धनु माणु ॥ सरब सूख आनंद नानक जपि राम नामु कलिआणु ॥२॥६॥९॥

मूलम्

सुरति मति चतुराई सोभा रूपु रंगु धनु माणु ॥ सरब सूख आनंद नानक जपि राम नामु कलिआणु ॥२॥६॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चतुराई = समझदारी। माणु = इज्जत। सरब = सारे। जपि = जपा कर। कलिआणु = सुख।2।
अर्थ: हे नानक! (सदा) परमात्मा का नाम जपा कर, (नाम जपने की इनायत से ही ऊँची) सोच (ऊँची) मति, (सदाचारी जीवन वाली) समझदारी (लोक-परलोक की) महिमा (बड़ाई), (सुंदर आत्मिक) रूप रंग, धन, इज्जत, सारे सुख, आनंद (ये सारी दातें प्राप्त होती हैं)।2।6।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलिआनु महला ५ ॥ हरि चरन सरन कलिआन करन ॥ प्रभ नामु पतित पावनो ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कलिआनु महला ५ ॥ हरि चरन सरन कलिआन करन ॥ प्रभ नामु पतित पावनो ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कलिआन = कल्याण, सुख, आत्मिक आनंद। कलिआन करन = आत्मिक आनंद पैदा करने वाली, कल्याणकारी। प्रभ नामु = परमात्मा का नाम। पतित = विकारों में गिरे हुए। पावन = पवित्र (करने वाला)। पतित पावनो = विकारियों को पवित्र करने वाला।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के चरणों की शरण (सारे) सुख पैदा करने वाली है। हे भाई! परमात्मा का नाम विकारियों को पवित्र बनाने वाला है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधसंगि जपि निसंग जमकालु तिसु न खावनो ॥१॥

मूलम्

साधसंगि जपि निसंग जमकालु तिसु न खावनो ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साध संगि = साध संग में। जपि = जपे, जो जपता है। निसंग = शर्म उतार के। जमकालु = मौत, आत्मिक मौत।1।
अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य) साधसंगति में श्रद्धा से नाम जपता है, उसको मौत का डर भय-भीत नहीं कर सकता (उसके आत्मिक जीवन को आत्मिक मौत खत्म नहीं कर सकती)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुकति जुगति अनिक सूख हरि भगति लवै न लावनो ॥ प्रभ दरस लुबध दास नानक बहुड़ि जोनि न धावनो ॥२॥७॥१०॥

मूलम्

मुकति जुगति अनिक सूख हरि भगति लवै न लावनो ॥ प्रभ दरस लुबध दास नानक बहुड़ि जोनि न धावनो ॥२॥७॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुकति जुगति अनिक = मुक्ति प्राप्त करने की अनेक जुगतियां। अनिक सूख = अनेक सुख। लवै न लावनो = बराबरी नहीं कर सकते। लुबध = लुब्ध, प्रेमी, तमन्ना रखने वाला। बहुड़ि = दोबारा। धावनो = भटकना।2।
अर्थ: हे दास नानक! (कह:) मुक्ति प्राप्त करने के लिए अनेक जुगतियां और अनेक सुख परमात्मा की भक्ति की बराबरी नहीं कर सकते। परमात्मा के दीदार का मतवाला मनुष्य दोबारा जूनियों के चक्करों में नहीं भटकता।2।7।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलिआन महला ४ असटपदीआ ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

कलिआन महला ४ असटपदीआ ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामा रम रामो सुनि मनु भीजै ॥ हरि हरि नामु अम्रितु रसु मीठा गुरमति सहजे पीजै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

रामा रम रामो सुनि मनु भीजै ॥ हरि हरि नामु अम्रितु रसु मीठा गुरमति सहजे पीजै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रम = रमा हुआ, सर्व व्यापक। सुनि = सुन के। भीजै = (प्रेम जल से) भीग जाता है। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। सहजे = सहजि, आत्मिक अडोलता में टिक के। पीजै = पीया जा सकता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सर्व-व्यापक परमात्मा (का नाम) सुन के (मनुष्य का) मन (प्रेम-जाल से) भीग जाता है। यह हरि-नाम आत्मिक जीवन देने वाला है और स्वादिष्ट है। यह हरि-नाम-जल गुरु की मति से आत्मिक अडोलता में (टिक के) पीया जा सकता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कासट महि जिउ है बैसंतरु मथि संजमि काढि कढीजै ॥ राम नामु है जोति सबाई ततु गुरमति काढि लईजै ॥१॥

मूलम्

कासट महि जिउ है बैसंतरु मथि संजमि काढि कढीजै ॥ राम नामु है जोति सबाई ततु गुरमति काढि लईजै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कासट = लकड़ी। महि = में। बैसंतरु = आग। मथि = मथ के। संजमि = संयम से, विउंत से। काढि कढीजै = तरीका खोज सकते हैं, पैदा कर लेते हैं। सबाई = सारी (सृष्टि में)। ततु = निचोड़, भेद, अस्लियत।1।
अर्थ: हे भाई! जैसे (हरेक) लकड़ी में आग (छुपी रहती) है, (पर जुगति से उद्यम करके प्रकट की जाती है), वैसे ही परमात्मा का नाम (ऐसा) है (कि इसकी) ज्योति सारी सृष्टि में (गुप्त) है, इस सच्चाई को गुरु की मति द्वारा ही समझा जा सकता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नउ दरवाज नवे दर फीके रसु अम्रितु दसवे चुईजै ॥ क्रिपा क्रिपा किरपा करि पिआरे गुर सबदी हरि रसु पीजै ॥२॥

मूलम्

नउ दरवाज नवे दर फीके रसु अम्रितु दसवे चुईजै ॥ क्रिपा क्रिपा किरपा करि पिआरे गुर सबदी हरि रसु पीजै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नवे = नौ ही। दसे = दसवें (दरवाजे) से। चुईजै = टपकाया जाता है, चूआ जाता है। पिआरे = हे प्यारे! सबदी = शब्द से। पीजै = पी सकते हैं।2।
अर्थ: हे भाई! (मनुष्य शरीर के) नौ दरवाजे हैं (जिनसे मनुष्य का संबन्ध बाहरी दुनिया से बना रहता है, पर) ये नौ दरवाजे ही (नाम-रस से) रूखे (बे-रसे बने) रहते हैं। आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम-रस दसवें दरवाजे (दिमाग) से ही (मनुष्य के अंदर प्रकट होता है, जैसे अर्क आदि) चूता है (रिसता है)। हे प्यारे प्रभु! (अपने जीवों पर) सदा ही मेहर कर, (अगर तू मेहर करे तो) गुरु के शब्द की इनायत से यह हरि-नाम-रस पीया जा सकता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काइआ नगरु नगरु है नीको विचि सउदा हरि रसु कीजै ॥ रतन लाल अमोल अमोलक सतिगुर सेवा लीजै ॥३॥

मूलम्

काइआ नगरु नगरु है नीको विचि सउदा हरि रसु कीजै ॥ रतन लाल अमोल अमोलक सतिगुर सेवा लीजै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काइआ = शरीर। नीको = अच्छा, सोहणा। विचि = (काया के) अंदर। कीजै = करना चाहिए। अमोल = जो किसी मूल्य से नहीं मिल सकता। लीजै = हासिल कर सकते हैं।3।
अर्थ: हे भाई! मनुष्य शरीर (मानो, एक) शहर है, इस (शरीर-शहर) में हरि-नाम-रस (विहाजने का) वणज करते रहना चाहिए। हे भाई! (ये हरि-नाम-रस मानो) अमूल्य रत्न-लाल है, (यह हरि-नाम-रस) गुरु की शरण पड़ने से ही हासिल किया जा सकता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु अगमु अगमु है ठाकुरु भरि सागर भगति करीजै ॥ क्रिपा क्रिपा करि दीन हम सारिंग इक बूंद नामु मुखि दीजै ॥४॥

मूलम्

सतिगुरु अगमु अगमु है ठाकुरु भरि सागर भगति करीजै ॥ क्रिपा क्रिपा करि दीन हम सारिंग इक बूंद नामु मुखि दीजै ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अगमु = अगम्य (पहुँच से परे)। भरि = भरा हुआ (अमूल्य रत्नों लालों से)। भरि सागर भगति = (अमूल्य लाल रत्नों से) भरे हुए समुंदर-प्रभु की भक्ति। करीजै = की जा सकती है। दीन = निमाणे। सारिंग = पपीहे। मुखि = (मेरे) मुँह में। दीजै = दे।4।
अर्थ: हे भाई! गुरु अगम्य (पहुँच से परे) परमात्मा (का रूप) है। (अमूल्य रत्नों-लालों से) भरे हुए समुंदर (प्रभु) की भक्ति (गुरु की शरण पड़ कर ही) की जा सकती है। हे प्रभु! हम जीव (तेरे दर के) निमाणे पपीहे हैं। मेहर कर मेहर कर (जैसे पपीहे को वर्षा की) एक बूँद (की प्यास रहती है, वैसे मुझे तेरे नाम-जल की प्यास है, मेरे) मुँह में (अपना) नाम (-जल) दे।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

लालनु लालु लालु है रंगनु मनु रंगन कउ गुर दीजै ॥ राम राम राम रंगि राते रस रसिक गटक नित पीजै ॥५॥

मूलम्

लालनु लालु लालु है रंगनु मनु रंगन कउ गुर दीजै ॥ राम राम राम रंगि राते रस रसिक गटक नित पीजै ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लालनु = सोहणा लाल, सुंदर हरि नाम। रंगनु = सुदर रंग। गुर = हे गुरु! दीजै = दे। रंगि = रंग में। राते = रंगे हुए हैं। रस रसिक = नाम के रसिए। गटक = गट गट कर के, स्वाद से। पीजै = पीना चाहिए।5।
अर्थ: हे भाई! सुंदर हरि (-नाम) बड़ा सुंदर रंग है। हे गुरु! (मुझे अपना) मन रंगने के लिए (यह हरि-नाम रंग) दे। हे भाई! (जिस मनुष्यों को यह नाम-रंग मिल जाता है, वह) सदा के लिए परमात्मा के (नाम-) रंग में रंगे रहते हैं, (वह मनुष्य नाम-) रस के रसिए (बन जाते हैं)। हे भाई! (यह नाम-रस) गट-गट कर के सदा पीते रहना चाहिए।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बसुधा सपत दीप है सागर कढि कंचनु काढि धरीजै ॥ मेरे ठाकुर के जन इनहु न बाछहि हरि मागहि हरि रसु दीजै ॥६॥

मूलम्

बसुधा सपत दीप है सागर कढि कंचनु काढि धरीजै ॥ मेरे ठाकुर के जन इनहु न बाछहि हरि मागहि हरि रसु दीजै ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बसुधा = धरती। सपत = सात। दीप = द्वीप, टापू, जजीरा। सागर = (सात) समुंदर। कंचनु = सोना। इनहु = इन कीमती पदार्थों को। बाछहि = चाहते हैं। मागहि = माँगते हैं। दीजै = दे।6।
अर्थ: हे भाई! (जितनी भी) सात टापूओं वाली और सात समुंद्रों वाली धरती है (अगर इसको) खोद के (इसमें से सारा) सोना निकाल के (बाहर) रख दिया जाए, (तो भी) मेरे मालिक-प्रभु के भक्त-जन (सोना आदि) इन (कीमती पदार्थों) की तमन्ना नहीं रखते, वे सदा परमात्मा (का नाम ही) माँगते रहते हैं। हे गुरु! (मुझे भी) परमात्मा के नाम का रस ही बख्श।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साकत नर प्रानी सद भूखे नित भूखन भूख करीजै ॥ धावतु धाइ धावहि प्रीति माइआ लख कोसन कउ बिथि दीजै ॥७॥

मूलम्

साकत नर प्रानी सद भूखे नित भूखन भूख करीजै ॥ धावतु धाइ धावहि प्रीति माइआ लख कोसन कउ बिथि दीजै ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साकत = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य। सद = सदा। भूखे = माया की लालच में फंसे हुए। भूखन भूख करीजै = (माया की) भूख की ही रट लगाई जाती है। धावतु = भटकते हुए। धाइ = भटक के। धावहि धाइ धावहि = भटकते हुए भटक के भटकते हैं, सदा भटकते फिरते हैं। लख कोसन कउ = लाखों कोसों को। बिथि दीजै = दूरी बना ली जाती है।7।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य सदा माया के लालच में फसे रहते हैं, (उनके अंदर) सदा (माया की) भूख (माया की) भूख की पुकार जारी रहती है। माया के आकर्षण के कारण वे सदा ही भटकते फिरते हैं। (माया एकत्र करने की खातिर अपने मन और परमात्मा के बीच) लाखों कोसों की दूरी को बना लिया जाता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि हरि हरि हरि जन ऊतम किआ उपमा तिन्ह दीजै ॥ राम नाम तुलि अउरु न उपमा जन नानक क्रिपा करीजै ॥८॥१॥

मूलम्

हरि हरि हरि हरि हरि जन ऊतम किआ उपमा तिन्ह दीजै ॥ राम नाम तुलि अउरु न उपमा जन नानक क्रिपा करीजै ॥८॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि जन = परमात्मा के भक्त। किआ उपमा = क्या बड़ाई? दीजै = दी जाए। तुलि = बराबर। अउर उपमा = कोई और बड़ाई। क्रिपा करीजै = कृपा करें।8।
अर्थ: हे भाई! सदा हरि का नाम जपने की इनायत से परमातमा के भक्त उच्च जीवन वाले बन जाते हैं, उनकी महिमा कथन नहीं की जा सकती। परमात्मा के नाम के बराबर और कोई पदार्थ है ही नहीं। हे प्रभु! (अपने) दास नानक पर मेहर कर (और अपना नाम बख्श)।8।1।

[[1324]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलिआन महला ४ ॥ राम गुरु पारसु परसु करीजै ॥ हम निरगुणी मनूर अति फीके मिलि सतिगुर पारसु कीजै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कलिआन महला ४ ॥ राम गुरु पारसु परसु करीजै ॥ हम निरगुणी मनूर अति फीके मिलि सतिगुर पारसु कीजै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राम = हे राम! हे हरि! पारसु = वह पत्थर जिसको छू के लोहा सोना बन जाता है ऐसा माना जाता है। परसु = (गुरु को) छू। करीजै = कर दे। हम = हम जीव। निरगुणी = गुण हीन। मनूर = जला हुआ लोहा। अति फीके = बहुत रूखे जीवन वाले। मिलि सतिगुर = गुरु को मिल के। कीजै = (यह मेहर) कर।1। रहाउ।
अर्थ: हे हरि! गुरु (ही असल) पारस है, (मेरा गुरु से) स्पर्श करा दे (अर्थात मुझे गुरु मिलवा दे)। हम जीव गुण-हीन हैं, जला हुआ लोहा हैं, बड़े रूखे जीवन वाले हैं। (यह मेहर) कर कि गुरु को मिल के पारस (बन जाएं)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुरग मुकति बैकुंठ सभि बांछहि निति आसा आस करीजै ॥ हरि दरसन के जन मुकति न मांगहि मिलि दरसन त्रिपति मनु धीजै ॥१॥

मूलम्

सुरग मुकति बैकुंठ सभि बांछहि निति आसा आस करीजै ॥ हरि दरसन के जन मुकति न मांगहि मिलि दरसन त्रिपति मनु धीजै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभि = सारे लोक। बांछहि = माँगते हैं। नित = नित्य, सदा। करीजै = की जा रही है। मिलि = (हरि को) मिल के। दरसन त्रिपति = हरि के दर्शन की तृप्ति के साथ। धीजै = धीरज में आ जाता है, शांत हो जाता है।1।
अर्थ: हे भाई! सारे लोग स्वर्ग मुक्ति बैकुंठ (ही) माँगते रहते हैं, सदा (स्वर्ग मुक्ति बैकुंठ की ही) आस की जा रही है। पर परमात्मा के दर्शनों के प्रेमी भक्त मुक्ति नहीं माँगते। (परमात्मा को) मिल के (परमात्मा के) दर्शनों की तृप्ति से (उनका) मन शांत बना रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माइआ मोहु सबलु है भारी मोहु कालख दाग लगीजै ॥ मेरे ठाकुर के जन अलिपत है मुकते जिउ मुरगाई पंकु न भीजै ॥२॥

मूलम्

माइआ मोहु सबलु है भारी मोहु कालख दाग लगीजै ॥ मेरे ठाकुर के जन अलिपत है मुकते जिउ मुरगाई पंकु न भीजै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबलु = बलवान। कालख दाग = विकारों की कालिख़ का दाग़। अलिपत = निर्लिप। मुकते = विकारों से बचे हुए। पंकु = पंख, खंभ।2।
अर्थ: हे भाई! (संसार में) माया का मोह बहुत बलवान है, (माया का) मोह (जीवों के मन में विकारों की) कालिख़ का दाग़ लगा देता है। परमात्मा के भक्त (माया के मोह से) निर्लिप रहते हें, विकारों से बचे रहते हैं, जैसे बटेर (मुर्गाई) के पंख (पानी में) भीगते नहीं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चंदन वासु भुइअंगम वेड़ी किव मिलीऐ चंदनु लीजै ॥ काढि खड़गु गुर गिआनु करारा बिखु छेदि छेदि रसु पीजै ॥३॥

मूलम्

चंदन वासु भुइअंगम वेड़ी किव मिलीऐ चंदनु लीजै ॥ काढि खड़गु गुर गिआनु करारा बिखु छेदि छेदि रसु पीजै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वासु = खुशबू। भुइअंगम = साँप। वेड़ी = घिरी हुई। किव = किस तरह। मिलीऐ = मिल सकते हैं। लीजै = लिया जा सकता है। खड़गु = तलवार। गुर गिआनु = गुरु का दिया हुआ ज्ञान। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। करारा = तगड़ा, तेज़धार। बिखु = जहर। छेदि = काट के। पीजै = पीया जा सकता है।3।
अर्थ: हे भाई! चंदन की खुशबू साँपों से घिरी रहती है। (चँदन को) कैसे मिला जा सकता है? चँदन को कैसे हासिल किया जा सकता है? (मनुष्य की जिंद विकारों में घिरी रहती है, प्रभु-मिलाप की सुगंधि मनुष्य को प्राप्त नहीं होती)। गुरु का बख्शा हुआ (आत्मिक जीवन की सूझ का) ज्ञान तेज़धार खड़ग (है, ये खड़ग) निकाल के (आत्मिक जीवन को मारने वाली माया के मोह का) जहर (जड़ों से) काट-काट के नाम-रस पीया जा सकता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आनि आनि समधा बहु कीनी पलु बैसंतर भसम करीजै ॥ महा उग्र पाप साकत नर कीने मिलि साधू लूकी दीजै ॥४॥

मूलम्

आनि आनि समधा बहु कीनी पलु बैसंतर भसम करीजै ॥ महा उग्र पाप साकत नर कीने मिलि साधू लूकी दीजै ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आनि = ला के। आनि आनि = ला ला के। समधा = लकड़ियों का ढेर। बैसंतर = आग। भसम = राख। करीजै = किया जा सकता है। उग्र = बज्र, बड़े। साकत = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य। मिलि साधू = गुरु को मिल के। लूकी = लूती, चिंगारी लगाना, चुगली, भड़काना। दीजै = दी जा सकती है।4।
अर्थ: हे भाई! (लकड़ियाँ) ला-ला के लकड़ियों का बड़ा ढेर इकट्ठा किया जाए (उसको) आग (की एक चिंगारी) पल भर में राख कर सकती है। परमातमा से टूटे हुए मनुष्य बड़े-बड़े बज्र पाप करते हैं, (उन पापों को जलाने के लिए) गुरु को मिल के (हरि-नाम की आग की) लूती लगाई जा सकती है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधू साध साध जन नीके जिन अंतरि नामु धरीजै ॥ परस निपरसु भए साधू जन जनु हरि भगवानु दिखीजै ॥५॥

मूलम्

साधू साध साध जन नीके जिन अंतरि नामु धरीजै ॥ परस निपरसु भए साधू जन जनु हरि भगवानु दिखीजै ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साधू = अपने मन को वश में रखने वाले मनुष्य। नीके = भले, अच्छे, नेक। जिन अंतरि = जिस के अंदर। परसनि = (हरि के नाम की) छोह से। परसु = पारसु। जनु = जानो, मानो (as if)। दिखीजै = (उनको) दिखाई दे गया है।5।
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों के हृदय में परमात्मा का नाम टिका रहता है, वे हैं साधु-जन वे हैं भले मनुष्य। (परमात्मा के नाम की) छोह से (वे मनुष्य) साधु-जन बने हैं, (उनको) मानो, (हर जगह) हरि-भगवान दिखाई दे गया है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साकत सूतु बहु गुरझी भरिआ किउ करि तानु तनीजै ॥ तंतु सूतु किछु निकसै नाही साकत संगु न कीजै ॥६॥

मूलम्

साकत सूतु बहु गुरझी भरिआ किउ करि तानु तनीजै ॥ तंतु सूतु किछु निकसै नाही साकत संगु न कीजै ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साकत सूतु = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य की जीवन डोर। गुरझी = उलझी हुई, गुंझलों से। किउकरि = कैसे? तानु = जीवन का ताना। तनीजै = ताना जा सकता है। तंतु = तंद। सूतु = धागा, डोर। निकसै = निकलता। संगु = साथ।6।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य की जीवन-डोर (विकारों की) अनेक गुंझलों से उलझी रहती है। (विकारों की गुंझलों से भरे हुए जीवन-सूत्र से पवित्र जीवन का) ताना-बाना नहीं ताना जा सकता, (क्योंकि उन गुँझलों में से एक भी सीधी) तंद नहीं निकलती, एक भी धागा नहीं निकलता। (इस वास्ते, हे भाई!) परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य का साथ नहीं करना चाहिए।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुर साधसंगति है नीकी मिलि संगति रामु रवीजै ॥ अंतरि रतन जवेहर माणक गुर किरपा ते लीजै ॥७॥

मूलम्

सतिगुर साधसंगति है नीकी मिलि संगति रामु रवीजै ॥ अंतरि रतन जवेहर माणक गुर किरपा ते लीजै ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुर साध संगति = गुरु की साधु-संगत। नीकी = अच्छी। मिलि = मिल के। रवीजै = स्मरण किया जा सकता है। अंतरि = (मनुष्य के) अंदर। माणक = मोती। ते = से। लीजै = लिया जा सकता है।7।
अर्थ: हे भाई! गुरु की साधु-संगत भली (सुहबत) है, साधु-संगत में मिल के परमात्मा का नाम जपा जा सकता है। (मनुष्य के) अंदर (गुप्त टिका हुआ हरि-नाम, जैसे) रत्न-जवाहरात-मोती हैं (यह हरि-नाम साधु-संगत में टिक के) गुरु की कृपा से लिया जा सकता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरा ठाकुरु वडा वडा है सुआमी हम किउ करि मिलह मिलीजै ॥ नानक मेलि मिलाए गुरु पूरा जन कउ पूरनु दीजै ॥८॥२॥

मूलम्

मेरा ठाकुरु वडा वडा है सुआमी हम किउ करि मिलह मिलीजै ॥ नानक मेलि मिलाए गुरु पूरा जन कउ पूरनु दीजै ॥८॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ठाकुरु = मालिक प्रभु। मिलह = हम मिल सकते हैं। मिलीजै = मिल सकता है। मेलि = (अपने शब्द में) मिला के। कउ = को। पूरनु = पूर्णता का दर्जा। दीजै = दे।8।
अर्थ: हे भाई! मेरा मालिक-प्रभु बहुत बड़ा है, हम जीव (अपने ही उद्यम से उसको) कैसे मिल सकते हैं? (इस तरह वह) नहीं मिल सकता। हे नानक! पूरा गुरु (ही अपने शब्द में) जोड़ के (परमात्मा से) मिलाता है। (सो, गुरु परमेश्वर के दर पर अरदास करते रहना चाहिए कि हे प्रभु! अपने) सेवक को पूर्णता का दर्जा बख्श।8।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलिआनु महला ४ ॥ रामा रम रामो रामु रवीजै ॥ साधू साध साध जन नीके मिलि साधू हरि रंगु कीजै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कलिआनु महला ४ ॥ रामा रम रामो रामु रवीजै ॥ साधू साध साध जन नीके मिलि साधू हरि रंगु कीजै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रम = सर्व व्यापक। रामो रामु = राम ही राम। रवीजै = स्मरणा चाहिए। नीके = नेक, अच्छे, सदाचारी जीवन वाले। मिलि = मिल के। हरि रंगु = हरि (के मिलाप) का आनंद।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सर्व-व्यापक राम (का नाम) सदा स्मरणा चाहिए। (नाम-जपने की इनायत से मनुष्य) ऊँचे जीवन वाले गुरमुख साधु बन जाते हैं। हे भाई! साधु-जनों को मिल के परमात्मा के मिलाप का आनंद लेना चाहिए।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीअ जंत सभु जगु है जेता मनु डोलत डोल करीजै ॥ क्रिपा क्रिपा करि साधु मिलावहु जगु थमन कउ थमु दीजै ॥१॥

मूलम्

जीअ जंत सभु जगु है जेता मनु डोलत डोल करीजै ॥ क्रिपा क्रिपा करि साधु मिलावहु जगु थमन कउ थमु दीजै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभु जगु = सारा जगत। जेता = जितना भी है। डोलत डोल करीजै = हर वक्त डोल रहा है। करि = कर के। साधु = गुरु। थंमन कउ = सहारा देने के लिए। दीजै = दे।1।
अर्थ: हे हरि! यह जितना भी सारा जगत है (इसके सारे) जीवों का मन (माया के असर तले) हर वक्त डावाँ-डोल होता रहता है। हे प्रभु! मेहर कर, मेहर कर, (जीवों को) गुरु से मिला (गुरु, जगत के लिए स्तंभ है), जगत को सहारा देने के लिए (यह) स्तंभ दे।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बसुधा तलै तलै सभ ऊपरि मिलि साधू चरन रुलीजै ॥ अति ऊतम अति ऊतम होवहु सभ सिसटि चरन तल दीजै ॥२॥

मूलम्

बसुधा तलै तलै सभ ऊपरि मिलि साधू चरन रुलीजै ॥ अति ऊतम अति ऊतम होवहु सभ सिसटि चरन तल दीजै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बसुधा = धरती। तलै तलै = हर वक्त पैरों तले। रुलीजै = रुलना चाहिए, पड़े रहना चाहिए। ऊतम = ऊँचे जीवन वाले। सभ सिसटि = सारी सृष्टि। दीजै = दी जा सकती है।2।
अर्थ: हे भाई! धरती सदा (जीवों के) पैरों के तले ही रहती है, (आखिर में) सबके ऊपर आ जाती है। हे भाई! गुरु को मिल के (सबके) पैरों तले टिके रहना चाहिए। (अगर इस जीवन-राह पर चलोगे तो) बड़े ही ऊँचे जीवन वाले बन जाओगे (विनम्रता की इनायत से) सारी धरती (अपने) पैरों तले दी जा सकती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि जोति भली सिव नीकी आनि पानी सकति भरीजै ॥ मैनदंत निकसे गुर बचनी सारु चबि चबि हरि रसु पीजै ॥३॥

मूलम्

गुरमुखि जोति भली सिव नीकी आनि पानी सकति भरीजै ॥ मैनदंत निकसे गुर बचनी सारु चबि चबि हरि रसु पीजै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिव जोति = परमात्मा की ज्योति। नीकी = अच्छी। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने से। आनि पानी = पानी ला के। सकति = माया। मैन दंत = मोम के दाँत, हृदय की कोमलता। सारु = लोहा। सारु चबि चबि = बली विकारों को वश में कर के। पीजै = पीया जा सकता है।3।
अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़ने से परमात्मा की भली सुंदर ज्योति (मनुष्य के अंदर जाग उठती है, तब) माया (भी उसके लिए) पानी भरती है (माया उसकी दासी बनती है)। गुरु के वचनों से उसके दिल में (ऐसी) कोमलता पैदा होती है कि बलवान विकारों को वश में करके परमात्मा का नाम-रस पीया जा सकता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम नाम अनुग्रहु बहु कीआ गुर साधू पुरख मिलीजै ॥ गुन राम नाम बिसथीरन कीए हरि सगल भवन जसु दीजै ॥४॥

मूलम्

राम नाम अनुग्रहु बहु कीआ गुर साधू पुरख मिलीजै ॥ गुन राम नाम बिसथीरन कीए हरि सगल भवन जसु दीजै ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनुग्रहु = कृपा, दान। मिलीजै = मिलना चाहिए। बिसथीरन कीए = बिखरा दिए। सगल भवन = सारे भवनों में, सारे जगत में। जसु = यश, महिमा। दीजै = बाँटा जाता है।4।
अर्थ: हे भाई! साधु गुरु पुरख को मिलना चाहिए, गुरु परमात्मा का नाम-दान देने की मेहर करता है। गुरु परमात्मा का नाम परमात्मा के गुण (सारे जगत में) बिखेरता है, (गुरु के द्वारा) परमात्मा की महिमा सारे भवनों में बाँटी जाती हैं।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधू साध साध मनि प्रीतम बिनु देखे रहि न सकीजै ॥ जिउ जल मीन जलं जल प्रीति है खिनु जल बिनु फूटि मरीजै ॥५॥

मूलम्

साधू साध साध मनि प्रीतम बिनु देखे रहि न सकीजै ॥ जिउ जल मीन जलं जल प्रीति है खिनु जल बिनु फूटि मरीजै ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साध मनि = संत जनों के मन में। रहि न सकीजै = रहा नहीं जा सकता। जल मीन = पानी की मछली। जलं जल प्रीति = हर वक्त पानी का प्यार। फूटि = फूट के।5।
अर्थ: हे भाई! संत जनों के मन में (सदा) प्रीतम प्रभु जी बसते हैं, (प्रभु के) दर्शन किए बिना (उनसे) रहा नहीं जा सकता; जैसे पानी में मछली का हर वक्त पानी से ही प्यार है, पानी के बिना एक छिन में ही वह तड़प-तड़प के मर जाती है।5।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

महा अभाग अभाग है जिन के तिन साधू धूरि न पीजै ॥ तिना तिसना जलत जलत नही बूझहि डंडु धरम राइ का दीजै ॥६॥

मूलम्

महा अभाग अभाग है जिन के तिन साधू धूरि न पीजै ॥ तिना तिसना जलत जलत नही बूझहि डंडु धरम राइ का दीजै ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अभाग = दुर्भाग्य। साधू धूरि = संत जनों के चरणों की धूल। नही बूझहि = बुझते नहीं, शांत नहीं होते। डंडु = सज़ा। दीजै = दी जाती है।6।
अर्थ: हे भाई! जिस लोगों के भाग्य बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण होते हैं, उनको संत-जनों के चरणों की चरण-धूल नसीब नहीं होती। उनके अंदर तृष्णा की आग लगी रहती है, (उस आग में) हर वक्त जलते हुए के अंदर ठंढ नहीं पड़ती, (यह उनको) धर्मराज की सजा मिलती है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभि तीरथ बरत जग्य पुंन कीए हिवै गालि गालि तनु छीजै ॥ अतुला तोलु राम नामु है गुरमति को पुजै न तोल तुलीजै ॥७॥

मूलम्

सभि तीरथ बरत जग्य पुंन कीए हिवै गालि गालि तनु छीजै ॥ अतुला तोलु राम नामु है गुरमति को पुजै न तोल तुलीजै ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभि = सारे। हिवै = बर्फ में। गालि = गला के। तनु छीजै = (अगर) शरीर नाश हो जाए। अतुला = ना तोला जा सकने वाला। को = कोई (भी उद्यम)। पुजै न = पहूँचता नहीं, बराबरी नहीं कर सकता। तुलीजै = अगर तोला जाए।7।
अर्थ: हे भाई! अगर सारे तीर्थों के स्नान, अनेक व्रत, यज्ञ और (इस तरह के) पुण्य-दान किए जाएं, (पहाड़ों की खुंदरों में) बर्फ में गला-गला के शरीर नाश किया जाए, (तो भी इन सारे साधनों में से) कोई भी साधन परमात्मा के नाम की बराबरी नहीं कर सकता। परमात्मा का नाम ऐसा है कि कोई भी तोल उसको तोल नहीं सकता, वह मिलता है गुरु की मति पर चलने से।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तव गुन ब्रहम ब्रहम तू जानहि जन नानक सरनि परीजै ॥ तू जल निधि मीन हम तेरे करि किरपा संगि रखीजै ॥८॥३॥

मूलम्

तव गुन ब्रहम ब्रहम तू जानहि जन नानक सरनि परीजै ॥ तू जल निधि मीन हम तेरे करि किरपा संगि रखीजै ॥८॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे दास नानक! (कह:) हे प्रभु! तेरे गुण तू (स्वयं ही) जानता है (मेहर कर, हम जीव तेरी ही) शरण पड़े रहें। तू (हमारा) समुंदर है, हम जीव तेरी मछलियाँ हैं, मेहर करके (हमें अपने) साथ ही रखे रख।8।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलिआन महला ४ ॥ रामा रम रामो पूज करीजै ॥ मनु तनु अरपि धरउ सभु आगै रसु गुरमति गिआनु द्रिड़ीजै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कलिआन महला ४ ॥ रामा रम रामो पूज करीजै ॥ मनु तनु अरपि धरउ सभु आगै रसु गुरमति गिआनु द्रिड़ीजै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रम = सर्व व्यापक। पूज = भक्ति। करीजै = करनी चाहिए। अरपि = भेटा कर के। धरउ = धरूँ, मैं धरता हूँ। सभु = सब कुछ। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। द्रिड़ीजै = हृदय में पक्का हो सके।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! सदा सर्व-व्यापक परमात्मा की भक्ति करनी चाहिए। अगर कोई मेरे हृदय में गुरमति के द्वारा परमात्मा के नाम का आनंद और आत्मिक जीवन की सूझ पक्की कर दे तो मैं अपना मन अपना तन सब कुछ उसके आगे भेटा रख दूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रहम नाम गुण साख तरोवर नित चुनि चुनि पूज करीजै ॥ आतम देउ देउ है आतमु रसि लागै पूज करीजै ॥१॥

मूलम्

ब्रहम नाम गुण साख तरोवर नित चुनि चुनि पूज करीजै ॥ आतम देउ देउ है आतमु रसि लागै पूज करीजै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ब्रहम नाम = परमात्मा का नाम। ब्रहम गुण = परमात्मा की महिमा। साख तरोवर = वृक्ष की शाखाएं। चुनि चुनि = (यही) फूल चुन चुन के। पूज करीजै = पूजा करनी चाहिए। आतम देउ = परमात्मा ही देवता है। रसि लागै = रसि लागि, (परमात्मा के ही नाम-) रस में लग के।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा ही (पूजनीय) देवता है, (परमात्मा के नाम-) रस में लग के परमात्मा की ही भक्ति करनी चाहिए। परमात्मा का नाम परमात्मा के गुण ही वृक्ष की शाखाएं हैं (जिनसे नाम और महिमा के फूल ही) चुन-चुन के परमात्मा-देव की पूजा करनी चाहिए।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिबेक बुधि सभ जग महि निरमल बिचरि बिचरि रसु पीजै ॥ गुर परसादि पदारथु पाइआ सतिगुर कउ इहु मनु दीजै ॥२॥

मूलम्

बिबेक बुधि सभ जग महि निरमल बिचरि बिचरि रसु पीजै ॥ गुर परसादि पदारथु पाइआ सतिगुर कउ इहु मनु दीजै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिबेक बुधि = अच्छे बुरे कर्म की परख कर सकने वाली अक्ल। बिचरि बिचरि = (इस बुद्धि से) विचार विचार के। पीजै = पीना चाहिए। परसादि = कृपा से। पदारथु = हरि नाम। कउ = को। दीजै = देना चाहिए।2।
अर्थ: हे भाई! (अन्य सभी चतुराईयों से) जगत में अच्छे-बुरे कर्म की परख कर सकने वाली बुद्धि (बिबेक) ही सबसे पवित्र है। (इसकी सहायता से परमात्मा के गुण मन में) बसा-बसा के (आत्मिक-जीवन देने वाला नाम-) रस पीना चाहिए। ये नाम-पदार्थ गुरु की कृपा से (ही) मिलता है, अपना ये मन गुरु के हवाले कर देना चाहिए।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरमोलकु अति हीरो नीको हीरै हीरु बिधीजै ॥ मनु मोती सालु है गुर सबदी जितु हीरा परखि लईजै ॥३॥

मूलम्

निरमोलकु अति हीरो नीको हीरै हीरु बिधीजै ॥ मनु मोती सालु है गुर सबदी जितु हीरा परखि लईजै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अति नीको = बहुत सुंदर। हीरो = हरि नाम हीरा। हीरै = (इस) हीरे से। हीरु = मन हीरा। बिधीजै = भेद लेना चाहिए, परो लेना चाहिए। सालु = सारु, श्रेष्ठ। सबदी = शब्द से। जितु = जिस (शब्द) की इनायत से। हीरा = नाम हीरा।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम हीरा बहुत कीमती है बहुत ही सुंदर है, इस नाम-हीरे से (अपने मन-) हीरे को सदा परो के रखना चाहिए। गुरु के शब्द से ये मन श्रेष्ठ मोती बन सकता है, क्योंकि शब्द की इनायत से नाम-हीरे की कदर-कीमत की समझ पड़ जाती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संगति संत संगि लगि ऊचे जिउ पीप पलास खाइ लीजै ॥ सभ नर महि प्रानी ऊतमु होवै राम नामै बासु बसीजै ॥४॥

मूलम्

संगति संत संगि लगि ऊचे जिउ पीप पलास खाइ लीजै ॥ सभ नर महि प्रानी ऊतमु होवै राम नामै बासु बसीजै ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संगि = साथ। लगि = लग के। पीप = पीपल। पलास = छिछर। राम नामै = परमात्मा के नाम में। बासु = सुगंधि।4।
अर्थ: हे भाई! संत-जनों की संगति में रह के संत-जनों के चरणों में लग के ऊँचे जीवन वाले बना जा सकता है। जैसे छिछरे को पीपल अपने में लीन कर (के अपने जैसा ही बना) लेता है, (इसी तरह मनुष्य में) परमात्मा के नाम की सुगंधि बस जाती है, वह मनुष्य सब प्राणियों में से ऊँचे जीवन वाला बन जाता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरमल निरमल करम बहु कीने नित साखा हरी जड़ीजै ॥ धरमु फुलु फलु गुरि गिआनु द्रिड़ाइआ बहकार बासु जगि दीजै ॥५॥

मूलम्

निरमल निरमल करम बहु कीने नित साखा हरी जड़ीजै ॥ धरमु फुलु फलु गुरि गिआनु द्रिड़ाइआ बहकार बासु जगि दीजै ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरमल = विकारों की मैल से बचाने वाले, पवित्र। साखा = शाखा। साखा हरी = हरी शाख। जड़ीजै = जड़ी जाती है, उगती है। गुरि = गुरु ने। द्रिढ़ाइआ = दिल में पक्का कर दिया। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। बहकार = महकार, सुगंधि। बासु = सुगंधि। जगि = जगत में। दीजै = दी जाती है।5।
अर्थ: हे भाई! (गुरमति की इनायत से जिस मनुष्य ने) विकारों की मैल से बचाने वाले काम नित्य करने शुरू कर दिए, (उसके जीवन-वृक्ष पर, मानो, यह) हरि शाखा सदा उगती रहती है, (जिसको) धर्म-रूप फूल लगता रहता है, और गुरु से मिली आत्मिक जीवन की सूझ (का) फल लगता है। (इस फूल की) महक सुगन्धि (सारे) जगत में बिखरती है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एक जोति एको मनि वसिआ सभ ब्रहम द्रिसटि इकु कीजै ॥ आतम रामु सभ एकै है पसरे सभ चरन तले सिरु दीजै ॥६॥

मूलम्

एक जोति एको मनि वसिआ सभ ब्रहम द्रिसटि इकु कीजै ॥ आतम रामु सभ एकै है पसरे सभ चरन तले सिरु दीजै ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: एको = एक (परमात्मा) ही। मनि = मन में। ब्रहम = परमात्मा। द्रिसटि = निगाह, नजर। आतम रामु = परमात्मा। पसरे = व्यापक। तले = नीचे।6।
अर्थ: हे भाई! (सारे जगत में) एक (परमात्मा) की ज्योति (ही बसती है), एक परमात्मा ही (सबके) मन में बसता है, सारी लुकाई में सिर्फ परमात्मा को देखने वाली निगाह ही बनानी चाहिए। सारी सृष्टि में एक परमात्मा ही पसारा पसार रहा है, (इसलिए) सबके चरणों तले (अपना) सिर रखना चाहिए।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाम बिना नकटे नर देखहु तिन घसि घसि नाक वढीजै ॥ साकत नर अहंकारी कहीअहि बिनु नावै ध्रिगु जीवीजै ॥७॥

मूलम्

नाम बिना नकटे नर देखहु तिन घसि घसि नाक वढीजै ॥ साकत नर अहंकारी कहीअहि बिनु नावै ध्रिगु जीवीजै ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नकटे = नाक कटे, आदर हीन। तिन नाक = उनका नाक। घसि घसि = बार बार घिस के। वढीजै = काटा जाता है। साकत = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य। कहीअहि = कहे जाते हैं। ध्रिगु = धिक्कार योग्य।7।
अर्थ: हे भाई! देखो, जो मनुष्य परमात्मा के नाम से वंचित रहते हैं वे निरादरी ही करवाते हैं, उनकी नाक सदा कटती ही रहती है। परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य अहंकारी ही कहे जाते हैं। नाम के बिना जीया हुआ जीवन धिक्कारयोग्य ही होता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जब लगु सासु सासु मन अंतरि ततु बेगल सरनि परीजै ॥ नानक क्रिपा क्रिपा करि धारहु मै साधू चरन पखीजै ॥८॥४॥

मूलम्

जब लगु सासु सासु मन अंतरि ततु बेगल सरनि परीजै ॥ नानक क्रिपा क्रिपा करि धारहु मै साधू चरन पखीजै ॥८॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सासु = साँस। सासु सासु = हरेक सांस। जब लगु = जब तक। ततु = तुरंत। बेगल = बे+गल, झिझक के बिना, श्रद्धा से। परीजै = पड़े रहना चाहिए। पखीजै = धोता रहूँ (पखालता रहूँ)।8।
अर्थ: हे भाई! जब तक मन में (भाव, शरीर में) एक साँस भी आ रहा है, तब तक पूरी श्रद्धा से परमात्मा के चरणों में पड़े रहना चाहिए। हे नानक! (कह: हे प्रभु! मेरे पर) मेहर कर, मेहर कर, मैं तेरे संत-जनों के चरण धोता रहूँ।8।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलिआन महला ४ ॥ रामा मै साधू चरन धुवीजै ॥ किलबिख दहन होहि खिन अंतरि मेरे ठाकुर किरपा कीजै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कलिआन महला ४ ॥ रामा मै साधू चरन धुवीजै ॥ किलबिख दहन होहि खिन अंतरि मेरे ठाकुर किरपा कीजै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रामा = हे राम! साधू = गुरु। धुवीजै = धोना, धोता रहूँ। किलबिख = पाप। दहन होहि = जल जाते हैं। ठाकुर = हे ठाकुर!।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे ठाकुर! हे मेरे राम! (मेरे ऊपर मेहर कर) मैं गुरु के चरण (नित्य) धोता रहूँ (गुरु की शरण पड़े रहने पर) एक छिन में सारे पाप जल जाते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मंगत जन दीन खरे दरि ठाढे अति तरसन कउ दानु दीजै ॥ त्राहि त्राहि सरनि प्रभ आए मो कउ गुरमति नामु द्रिड़ीजै ॥१॥

मूलम्

मंगत जन दीन खरे दरि ठाढे अति तरसन कउ दानु दीजै ॥ त्राहि त्राहि सरनि प्रभ आए मो कउ गुरमति नामु द्रिड़ीजै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दीन = निमाणे। खरे = खड़े हैं। दरि = (तेरे) दर पर। ठाढे = खड़े हुए। अति तरसन कउ = बहुत तरस रहा हूँ। दीजै = दे। त्राहि = बचा ले। प्रभ = हे प्रभु! मो कउ = मुझे। द्रिड़ीजै = हृदय में पक्का कर।1।
अर्थ: हे प्रभु! (तेरे दर के) निमाणे मँगते (तेरे) दर पर खड़े हुए हैं, बहुत तरस रहों को (यह) ख़ैर डाल। हे प्रभु! (इन पापों से) बचा ले, बचा ले, (हम तेरी) शरण आए हैं। हे प्रभु! गुरु की मति से (अपना) नाम मेरे अंदर पक्का कर।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काम करोधु नगर महि सबला नित उठि उठि जूझु करीजै ॥ अंगीकारु करहु रखि लेवहु गुर पूरा काढि कढीजै ॥२॥

मूलम्

काम करोधु नगर महि सबला नित उठि उठि जूझु करीजै ॥ अंगीकारु करहु रखि लेवहु गुर पूरा काढि कढीजै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नगर महि = शरीर नगर में। सबला = बलवान। उठि = उठ के। जूझु = युद्ध। करीजै = करना, मैं करता हूँ। अंगीकारु = पक्ष, मदद, सहायता। राखि लेवहु = बचा ले। काढि कढीजै = सदा के लिए निकाल दे।2।
अर्थ: हे प्रभु! (हम जीवों के शरीर-) नगर में काम-क्रोध (आदि हरेक विकार) बलवान हुआ रहता है, हमेशा उठ-उठ के (इनके साथ) युद्ध करना पड़ता है। हे प्रभु! सहायता कर, (इनसे) बचा ले। पूरा गुरु (मिला के इनके पँजे में से) निकाल ले।2।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

अंतरि अगनि सबल अति बिखिआ हिव सीतलु सबदु गुर दीजै ॥ तनि मनि सांति होइ अधिकाई रोगु काटै सूखि सवीजै ॥३॥

मूलम्

अंतरि अगनि सबल अति बिखिआ हिव सीतलु सबदु गुर दीजै ॥ तनि मनि सांति होइ अधिकाई रोगु काटै सूखि सवीजै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबल अति = बहुत बल वाली। बिखिआ अगनि = माया (की तृष्णा) की आग। हिव = बर्फ। सबदु गुर = गुरु का शब्द। तनि = तन में। मनि = मन में। अधिकाई = बहुत। सूखि = सुख में। सवीजै = सेवा की जा सके, लीनता हो जाए।3।
अर्थ: हे भाई! (जीवों के) अंदर माया (की तृष्णा) की आग बहुत भड़क रही है। बर्फ जैसे गुरु के शीतलता भरे शब्द दे, (ताकि) तन में मन में बहुत शांति पैदा हो जाए। (गुरु का शब्द जीवों के हरेक) रोग काट देता है, (गुरु के शब्द की इनायत से) आत्मिक आनंद में मगन रह सकते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिउ सूरजु किरणि रविआ सरब ठाई सभ घटि घटि रामु रवीजै ॥ साधू साध मिले रसु पावै ततु निज घरि बैठिआ पीजै ॥४॥

मूलम्

जिउ सूरजु किरणि रविआ सरब ठाई सभ घटि घटि रामु रवीजै ॥ साधू साध मिले रसु पावै ततु निज घरि बैठिआ पीजै ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रविआ = व्यापक है। सरब ठाई = सब जगह। घटि घटि = हरेक शरीर में। रवीजै = व्यापक है। रसु = आनंद, स्वाद। पावै = पाता है, माणता है। ततु = निचोड़। निज = अपना। घरि = घर में। निज घरि = अपने असल घर में, प्रभु चरणों में।4।
अर्थ: हे भाई! जैसे सूरज (अपनी) किरण के द्वारा सब जगह पहुँचा हुआ है, (वैसे ही) परमात्मा सारी लुकाई में हरेक शरीर में व्यापक है। जिस मनुष्य को संत जन मिल जाते हैं, वह (मिलाप के) स्वाद को भोगता है। हे भाई! (संत जनों की संगति से) प्रभु-चरणों में लीन हो के नाम-रस पीया जा सकता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जन कउ प्रीति लगी गुर सेती जिउ चकवी देखि सूरीजै ॥ निरखत निरखत रैनि सभ निरखी मुखु काढै अम्रितु पीजै ॥५॥

मूलम्

जन कउ प्रीति लगी गुर सेती जिउ चकवी देखि सूरीजै ॥ निरखत निरखत रैनि सभ निरखी मुखु काढै अम्रितु पीजै ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कउ = को। सेती = साथ। देखि = देख के, इन्तजार करके। सूरीजै = सूरज को। निरखत = देखते हुए। रैनि सभ = सारी रात। निरखी = देखती है, इन्तजार करती है। मुखु काढै = (जब सूर्य) मुँह दिखाता है। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल।5।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा के) भक्त को गुरु से (इस प्रकार) प्रीति बनी रहती है, जैसे सूरज (के उदय होने) का इन्तजार कर-कर के चकवी (विछोड़े की रात गुजारती है)। देखते-देखते (चकवी) सारी रात देखती रहती है, (जब सूरज) मुँह दिखाता है (तब चकवे का मिलाप हासिल करती है। इसी तरह जब गुरु दर्शन देता है, तब सेवक) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पी सकता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साकत सुआन कहीअहि बहु लोभी बहु दुरमति मैलु भरीजै ॥ आपन सुआइ करहि बहु बाता तिना का विसाहु किआ कीजै ॥६॥

मूलम्

साकत सुआन कहीअहि बहु लोभी बहु दुरमति मैलु भरीजै ॥ आपन सुआइ करहि बहु बाता तिना का विसाहु किआ कीजै ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साकत = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य। सुआन = कुत्ते। कहीअहि = कहे जाते हें। दुरमति = खोटी मति। सुआइ = स्वार्थ वश। करहि = करते हैं (बहुवचन)। विसाहु = ऐतबार। किआ कीजै = क्या किया जा सकता है? नहीं किया जा सकता।6।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य बहुत लोभी होते हैं, कुत्ते (के स्वभाव वाले) कहे जाते हैं, (उनके अंदर) दुर्मति की मैल (सदा) भरी रहती है। (साकत मनुष्य) अपने स्वार्थ के लिए बहुत सारी बातें करते हैं, पर उनका ऐतबार नहीं करना चाहिए।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधू साध सरनि मिलि संगति जितु हरि रसु काढि कढीजै ॥ परउपकार बोलहि बहु गुणीआ मुखि संत भगत हरि दीजै ॥७॥

मूलम्

साधू साध सरनि मिलि संगति जितु हरि रसु काढि कढीजै ॥ परउपकार बोलहि बहु गुणीआ मुखि संत भगत हरि दीजै ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिलि = मिल के। जितु = जिस (संगति) में। पर उपकार = दूसरों की भलाई। बोलहि मुखि = मुँह से बोलते हैं। हरि = हे हरि! दीजै = दे। संत भगत = संतों भगतों की संगति।7।
अर्थ: हे हरि! (मुझे अपने) संतजनों की भक्ति दे। संत जन (अपने) मुँह से दूसरों की भलाई के वचन बोलते रहते हैं, संत जन अनेक गुणों वाले होते हैं। हे भाई! संत जनों की संगति में मिल के परमात्मा का नाम रस प्राप्त किया जा सकता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तू अगम दइआल दइआ पति दाता सभ दइआ धारि रखि लीजै ॥ सरब जीअ जगजीवनु एको नानक प्रतिपाल करीजै ॥८॥५॥

मूलम्

तू अगम दइआल दइआ पति दाता सभ दइआ धारि रखि लीजै ॥ सरब जीअ जगजीवनु एको नानक प्रतिपाल करीजै ॥८॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दइआ पति = मेहर के मालिक, दयावान। दाता = दातें देने वाला। सभ = सारी लुकाई। जीअ = जीव। जग जीवनु = जगत का जीवन प्रभु। करीजै = कर।8।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे प्रभु! तू अगम्य (पहुँच से परे) है, दया का श्रोत है, दया का मालिक है सब जीवों को दातें देने वाला है। मेहर कर के सब जीवों की रक्षा कर। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) सारे जीव तेरे हैं, तू ही सारे जगत का सहारा है। (सबकी) पालना कर।8।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलिआनु महला ४ ॥ रामा हम दासन दास करीजै ॥ जब लगि सासु होइ मन अंतरि साधू धूरि पिवीजै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कलिआनु महला ४ ॥ रामा हम दासन दास करीजै ॥ जब लगि सासु होइ मन अंतरि साधू धूरि पिवीजै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रामा = हे राम! हम = हम (जीवों) को। करीजै = बनाए रख। जब लगि = जब तक। सासु = साँस। साधू धूरि = संतजनों की चरण धूल। पिवीजै = पीनी चाहिए।1। रहाउ।
अर्थ: हे राम! हमें (अपने) दासों का दास बनाए रख। हे भाई! जब तक शरीर में साँसें आ रही हैं, तब तक संतजनों की चरण-धूल पीते रहना चाहिए (निम्रता से संत जनों की संगति में रह के उनसे नाम-अमृत पीते रहना चाहिए)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संकरु नारदु सेखनाग मुनि धूरि साधू की लोचीजै ॥ भवन भवन पवितु होहि सभि जह साधू चरन धरीजै ॥१॥

मूलम्

संकरु नारदु सेखनाग मुनि धूरि साधू की लोचीजै ॥ भवन भवन पवितु होहि सभि जह साधू चरन धरीजै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संकरु = शिव। सेखनाग = शेषनाग। लोचीजै = तमन्ना रखनी चाहिए। होहि = हो जाते हैं (बहुवचन)। सभि = सारे। जह = जहाँ।1।
अर्थ: हे भाई! शिव, नारद, शेषनाग (आदि हरेक ऋषि-) मुनि संत जनों के चरणों की धूल की तमन्ना करता रहा है। हे भाई! जहाँ संत-जन चरण रखते हैं, वे सारे भवन सारी जगहें पवित्र हो जाती हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तजि लाज अहंकारु सभु तजीऐ मिलि साधू संगि रहीजै ॥ धरम राइ की कानि चुकावै बिखु डुबदा काढि कढीजै ॥२॥

मूलम्

तजि लाज अहंकारु सभु तजीऐ मिलि साधू संगि रहीजै ॥ धरम राइ की कानि चुकावै बिखु डुबदा काढि कढीजै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तजि = त्याग के। सभु = सारा। तजीऐ = त्याग देना चाहिए। संगि = संगति में। मिलि = मिल के। कानि = अधीनता, सहम। चुकावै = खत्म कर लेता है। बिखु = आत्मिक मौत लाने वाले जहरीले संसार समुंदर में।2।
अर्थ: हे भाई! लोक-सम्मान छोड़ के (अपने अंदर से किसी बड़प्पन का) सारा माण छोड़ देना चाहिए, और संत-जनों की संगति में मिल के रहना चाहिए। (जो मनुष्य संत जनों की संगति में रहता है, वह) धर्मराज का सहम खत्म कर लेता है। आत्मिक मौत लाने वाले जहरीले संसार-समुंदर में डूबते हुए को (संत-जन) निकाल लेते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरमि सूके बहु उभि सुक कहीअहि मिलि साधू संगि हरीजै ॥ ता ते बिलमु पलु ढिल न कीजै जाइ साधू चरनि लगीजै ॥३॥

मूलम्

भरमि सूके बहु उभि सुक कहीअहि मिलि साधू संगि हरीजै ॥ ता ते बिलमु पलु ढिल न कीजै जाइ साधू चरनि लगीजै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भरमि = भटकना के कारण। सूके = सूखे हुए आत्मिक जीवन वाले। उभि सुक = खड़े हुए सूखे वृक्ष। कहीअहि = कहे जाते हैं। हरीजै = हरे हो जाते हैं। ता ते = इस वास्ते। बिलमु = (विलम्ब) देर। न कीजै = नहीं करनी चाहिए। जाइ = जा के।3।
अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य माया की) भटकना में पड़ कर आत्मिक जीवन की तरावट समाप्त कर लेते हैं, वे मनुष्य उन वृक्षों जैसे कहे जाते हैं, जो खड़े-खड़े सूख जाते हैं (पर ऐसे सूखे जीवन वाले मनुष्य भी) संत-जनों की संगति में मिल के हरे हो जाते हैं। इसलिए (हे भाई!) एक पल भर भी देर नहीं करनी चाहिए। (जल्दी) जा के संत जनों के चरणों में लगना चाहिए।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम नाम कीरतन रतन वथु हरि साधू पासि रखीजै ॥ जो बचनु गुर सति सति करि मानै तिसु आगै काढि धरीजै ॥४॥

मूलम्

राम नाम कीरतन रतन वथु हरि साधू पासि रखीजै ॥ जो बचनु गुर सति सति करि मानै तिसु आगै काढि धरीजै ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रतन वथु = कीमती पदार्थ। रखीजै = रखा होता है। बचनु गुर = गुरु का वचन। सति करि = श्रद्धा से। माने = मानता है (एकवचन)। धरीजै = धरा जाता है, धर देता है।4।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम, परमात्मा की महिमा एक कीमती पदार्थ है। यह पदार्थ परमात्मा ने संत-जनों के पास रखा होता है। जो मनुष्य गुरु के उपदेश को पूरी श्रद्धा के साथ मानता है, (गुरु यह कीमती पदार्थ) उसके आगे निकाल के रख देता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संतहु सुनहु सुनहु जन भाई गुरि काढी बाह कुकीजै ॥ जे आतम कउ सुखु सुखु नित लोड़हु तां सतिगुर सरनि पवीजै ॥५॥

मूलम्

संतहु सुनहु सुनहु जन भाई गुरि काढी बाह कुकीजै ॥ जे आतम कउ सुखु सुखु नित लोड़हु तां सतिगुर सरनि पवीजै ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जन = हे जनो! हे भाई! , हे भाईयो! गुरि = गुरु ने। काढी = ऊँची की हुई है। कूकीजै = कूक रहा है। आतम कउ = जिंद के लिए। सुखु सुखु = हर वक्त का सुख। पवीजै = पड़ना चाहिए।5।
अर्थ: हे संत जनो! हे भाईयो! गुरु ने (अपनी) बाँह ऊँची की हुई है और आवाज मार रहा है (उसकी बात) ध्यान से सुनो। हे संत जनो! अगर तुम अपनी जिंद के लिए सदा का सुख चाहते हो, तो गुरु की शरण पड़े रहना चाहिए।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जे वड भागु होइ अति नीका तां गुरमति नामु द्रिड़ीजै ॥ सभु माइआ मोहु बिखमु जगु तरीऐ सहजे हरि रसु पीजै ॥६॥

मूलम्

जे वड भागु होइ अति नीका तां गुरमति नामु द्रिड़ीजै ॥ सभु माइआ मोहु बिखमु जगु तरीऐ सहजे हरि रसु पीजै ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वड भागु = बड़ी किस्मत। नीका = सुंदर। द्रिड़ीजै = हृदय में पक्का कर लेना चाहिए। बिखमु = मुश्किल। तरीऐ = तैरा जा सकता है। सहजे = आत्मिक अडोलता में। पीजै = पीया जा सकता है।6।
अर्थ: हे भाई! अगर किसी मनुष्य की बहुत बड़ी किस्मत हो, तो वह गुरु की मति ले के (अपने अंदर) परमात्मा का नाम दृढ़ करता है। हे भाई! माया का मोह- यह सारा बहुत ही मुश्किल संसार-समुंदर है (नाम की इनायत से यह) तैरा जा सकता है। (इस वास्ते) आत्मिक अडोलता में टिक के परमात्मा का नाम-रस पीना चाहिए।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माइआ माइआ के जो अधिकाई विचि माइआ पचै पचीजै ॥ अगिआनु अंधेरु महा पंथु बिखड़ा अहंकारि भारि लदि लीजै ॥७॥

मूलम्

माइआ माइआ के जो अधिकाई विचि माइआ पचै पचीजै ॥ अगिआनु अंधेरु महा पंथु बिखड़ा अहंकारि भारि लदि लीजै ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अधिकाई = बहुत (प्रेमी)। पचै पचीजै = हर वक्त जलता है। अगिआनु = अज्ञान, आत्मिक जीवन से बेसमझी। अंनेरु = अंधेरा। पंथु = (जिंदगी का) रास्ता। बिखड़ा = मुश्किल। अहंकार = अहंकार से। भारि = भार से। अहंकारि भारि = अहंकार (रूपी) भार से। लदि लीजै = लादा जाता है।7।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सिर्फ माया के ही बहुत प्रेमी हैं (वे सदा दुखी होते हैं। माया का प्रेमी मनुष्य तो) हर वक्त माया (की तृष्णा की आग) में जलता रहता है। (ऐसे मनुष्य के लिए) आत्मिक जीवन की ओर से बेसमझी एक घुप अंधेरा (बन जाता है, उस मनुष्य के लिए जिंदगी का) रास्ता मुश्किल हो जाता है (क्योंकि वह मनुष्य) अहंकार (-रूप) भार से लदा रहता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक राम रम रमु रम रम रामै ते गति कीजै ॥ सतिगुरु मिलै ता नामु द्रिड़ाए राम नामै रलै मिलीजै ॥८॥६॥ छका १ ॥

मूलम्

नानक राम रम रमु रम रम रामै ते गति कीजै ॥ सतिगुरु मिलै ता नामु द्रिड़ाए राम नामै रलै मिलीजै ॥८॥६॥ छका १ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रम = व्यापक। रमु = स्मरण कर। रामै ते = परमात्मा (के नाम) से ही। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। कीजै = बना ली जाती है। द्रिढ़ाए = हृदय में पक्का कर देता है। नामै = नाम में ही। रलै = लीन हो जाता है। मिलीजै = मिला जाता है।8। छका = छक्का, छह अष्टपदियों का जोड़।
अर्थ: हे नानक! सदा व्यापक राम का नाम स्मरण करता रह। व्यापक राम के नाम से ही उच्च आत्मिक अवस्था हासिल की जा सकती है। जब गुरु मिलता है वह (वह मनुष्य के हृदय में परमात्मा का) नाम दृढ़ करता है। (मनुष्य) परमात्मा के नाम में सदा के लिए लीन हो जाता है।8।6।